Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi Author(s): Amolakrushi Maharaj Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari Catalog link: https://jainqq.org/explore/600259/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋषिजी महाराज पंडित मुनि श्री अमोलक ऋषिजी हिन्दी भाषानुवाद साहितः gyanmandin kobar.org बालब्रह्मचारी विवाहप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र मासिद्ध कर्ता हाक्षिण हैदराबाद निवासी. WWWWWWWWWWWWWWWWWWWW राजाबहादुर लाल बEO लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रस प्रसादजी जोदरा . 07 जैन शास्त्रोद्धार मद्रालय सीकंदराबाद (दक्षिण Page #2 -------------------------------------------------------------------------- Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्थम्भ दानवीर अमूल्य शास्त्र दानदाता, 会圣经经 EO जैन प्रभावक धर्म धुरंधर 悉 BASHAD JWALAPR जैन शास्त्रोद्धार मुद्रालय, सिकंदराबाद, (दाक्षण.) 心帶禮烈雅思器將沙些理委举麼的。 DUN स्व. राजाबहादर लाला मुखदेव सहायजी, जौहरी जन्म सं०१९२०. स्वर्गस्य सं०१९७५. लाना पालाप्रसादजी, जौहरी. जन्म सं.१९५० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. Basa Sa sahasta सुख्याधिकारी Sasta sa saharashtra state tet उपकारी महास्ना aaa aaa परम पुज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के कविवरेन्द्र महा पुरुष श्री तिलोक ऋषिजी महाराज के पाटवीय शिष्य वर्थ, पूज्यपाद गुरुवर्य श्री रत्तऋषिजी महाराज ! आप श्री की आज्ञा से ही शास्त्रोद्धार का कार्य स्त्रीकार किया और आप के परमाशिर्वाद से पूर्ण करसका इस लिये इस कार्य के परमोपकारी महा परम पूज्य श्री कहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के शुध्वाचारी पूज्य श्री खुवा ऋषिजी महाराज के शिष्यवर्य स्व. तपस्त्रीजी श्री केवल ऋषिजी महाराज! आप श्रीने मुझे साथ ले महा परि म से हैद्राबाद जैसा बडा क्षेत्र साधुमार्गय धर्म में प्रसिद्ध किया व परमोपदेश से राजाबहादुर दानवीर लाला सुखदेव सहायजी आला प्रसादजी को धर्मप्रेमी बनाये. उनके प्रतापसे ही शास्त्रोद्धारादि महा कार्य हैद्राबाद में हुए. इस लिये इस कार्य के मुख्याधिकारी आपही हुए. जो जो भव्य जीवों इन शास्त्र द्वारा महालाभ प्राप्त करेंगे बे आप के कुन होंगे. शिशु शिशु अमोल ऋषि शु आप ही हैं, आप का उपकार केवल मेरे पर ही नहीं परन्तु जो जो भव्यों इन शास्त्रोंद्वारा लाभ प्राप्त करेंगे उन सबपर ही होगा. शशु दास अमोल ऋषि शु श शु Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | * आभारी-महात्मा R AMA I BNहिन्दी भाषानुवादक ___ कच्छ देश पावन कर्ता मोटी पक्ष के परम पूज्य श्री कर्मसिंहनी महाराज के शिष्यर्य महात्मा कविवर्य श्री नागचन्द्रजी महाराज! इस शास्त्रोद्धार कार्य में आद्योपान्त आप श्री प्राधिन शुद्ध शास्त्र, हुंडी,गुटका और समय पर भावश्यकीय शुभ सम्मति द्वारा मदत देते रहनेसेही मैं इस कार्य को पूर्ण कर सका. इस लिधे केवल मैं ही नहीं परन्तु जो जो भव्य इन शास्त्रोद्वारा ळाभ प्राप्त करेंगे ये सब ही आप के अभारी होंगे. 32339818 शुमचारी पूज्य श्री खूबा ऋषिजी महाराज के शिष्यर्य,आर्य मुनि श्री चना ऋषिजी महाराजके शिष्यवर्य बालब्रह्मचारी पण्डित मुनि श्रीअमोलक ऋषिजी महाराज आपने बडे साहस से शास्त्रोद्धार जैसे महा परिश्रम वाले कार्य का जिस उत्साहसे स्वीकार किया था उस ही उत्साह से तीन वर्ष जितने स्वरस समय में अहर्निश कार्य को अच्छा बनाने के शुभाशय से सदैव एक भक्त भोजन भौर दिन के सात घंटे लेखन में व्यतीत कर पूर्ण किया. और ऐसा सरल बनादिया कि कोई भी हिन्दी भाषज्ञ सहज में समज सके, ऐसे ज्ञानदान के महा उपकार तल दबे हुओ हम आप के बड़े अभारी हैं. संघकी तर्फ मे. REसमसाएर १४ आ पका अमाल मा * * मुखदेव सहाय ज्याला प्रसाद Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक सुनिमंडल अपनी उसी ऋद्धि का त्याग कर हैद्राबाद सीकाबादमें दीक्षा धारक बाल ब्रह्मयारी पण्डित gia श्रीमलक ऋषिजीचे शिष्यवर्य ज्ञानानंदी श्री देव ऋषिजी. वैय्याकृत्यी श्री राज ऋषिजी. तपस्वी श्री उदय ऋषिजी और विद्याविलासी श्री मोहन ऋषिजी इन चारों मुनियरोंने गुरु आज्ञाका बहुमान स्वीकार कर आहार पानी आदि सुखोपचार का संयोग मिला. दो महर का व्याख्यान, वार्तालाप कार्य दक्षता व समाधि भाव से साप दिया जिन से ही यह महा कार्य इतनी शीघ्रता से लेखक घूर्ण सके. इस लिये इन कार्य वक्त बुनिवरों का भी बडा उपकार है. देव सहाय ज्याला प्रसाद और भी महापदाना पंजाब देश पाचन करता पूज्य श्री सोहनलालजी, महात्मा श्री माधव मुनिबी, शतावधानी श्री रत्नचन्द्रजी, लपस्थीजी माणकचन्दनी, कवीवर श्री अभी ऋपिनी, सुबका श्री दौलत ऋषिजी. पं. श्री नथमलजी. पं. श्री जोरावर मळजी. कार्बवर श्री नानचन्द्रमी. प्रवर्तिनी सतीजी श्री पार्वतीजी. गुणज्ञसतीजी श्री रंभाजी धोराजी सर्वज्ञ भंडार, भीना सरवाळे कनीरामजी बहादरमलजी बाँटीया, Mast भंडार, कचेरा भंडार, इत्यादिक की तरफ से शाखों व सम्मति द्वारा इस कार्य को बहुत सहायता मिली है. इस लिये इस का भी बहुत उपकार मानते हैं. सुखदेव सहाय ज्वालामसाद Step Sp Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRI शास-प्रकाशक... आश्रयदाता दक्षिण हैद्राबाद निवासी जौहरी वर्ग में श्रेष्ठ दूरधर्मी दानवीर राजा बहादुर लालाजी साहेव श्री सुखदेव सहायजी ज्यालाप्रमादजी: ___ आपने साधु सेना के और ज्ञान दान जैसे महासाभके गोभी का जैन माधुपाीय धर्म के परम माननीय व परम आदरणीय बत्तीस शास्त्रों को हिन्दी भाषानुदसहित छपाने को रु.२००००, का पर्चकर अमूल्य देना स्वीकार किया और युरोप युद्धारंभ से सब वस्तु के भाव में वृद्धि होने से रु. ४०००० के खर्च में भी काम पूग होनेका संभव नहीं होते भी आपने उस ही उत्साह से कार्य को समाप्त कर सबको अमूल्य महालाभ दिया, यह आप की उदारता साधुमार्गीयों की मौरख दर्शक य परमादरणीय है ! दाबाद सिकन्द्राबाद जैन मंत्र झोवाला (काठीयावाड ) निवामी धर्म प्रेमी कार्यदक्ष कृतज्ञ मणिलाल शिवलाल शठ! इनाने जैन ट्रेनिंग कालेज रतलाम में संस्कृत प्राकृत व अंग्रेजी का अभ्यास कर तीन वर्ष उपदेशक रह अच्छी कौशल्यता प्राप्तकी.इन से शास्त्रोध्यार का कार्य अच्छा होगा ऐनी मूचना गुरुार्य श्रीरल ऋषिजी महाराज मे मिलने से इन को बोलाये, इनोंने अन्य प्रेस में शुद्ध अच्छा और शीत्र काम होता नहीं देख शास्त्रोध्यार प्रेस काया किया और मेल के कर्मचारियों को उत्साही कार्य दक्ष बना काम लिया.ही भाषानुवाद की प्रेसकोपी बनाइ, यद्यपि या भाइ पगार से रहे थे तथापि इनोंने इस कार्य की सेवा वेतन के प्रमाण मे अधिक की. इस लिये इनको भी धन्यवाद देते हैं. मालापमाद :: [ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iङ्ग विचाह ज्ञप्ति (भगवती) सूत्र कर पंचा श्री भगवती सूत्र की प्रस्तावना. श्लोक-सर्वज्ञ मीश्वर मनंत मसंग मग्रं, सर्वाय मस्यरनीस मनीहसत्यम् । शिवं शिवं शिवकर व्यपेतं, श्रीमाजिनं जितरिपुप्रयतप्रणामि ॥ १॥ ___ अर्थ-प्रथम इष्टार्थ की सिद्धि के लिये मंगलाचरण करते हैं. . तीनों लोक के ईश्वर, अंत रहित सुख के भोक्ता, कर्म काया के संग रहित, सर्व लोकाग्र में रहे, अथवा सब के अग्रेश्वर, कंदर्प रहित, किसी के स्वामित्व रहित, स्नेह रहित, सकलार्थ की सिद्धि कर सिद्ध हुए. कर्मों के उपद्रव रहित, नि स्थान में संस्थित, अन्य आत्माओं के कल्याणकारी, उपद्रव के हर्ता, अपरम्पार गुणों के धारक, अनि. न्द्रिय अतीव सुख में सदैव लीन, अष्टकर्म रूप महाशत्रुओं के पराभव करने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान को यथाविधी सविनय यथा युक्तनमस्कार करता हूं. देव देवं जिनं नत्वा, नत्वा च श्रुतदेवतम्। वार्तिकं पंचममंगस्य, वक्षे वृत्यानुसारता॥9॥ ___ अर्थात्-देवाधि देव श्री जिनेश्वर भगवान को और श्रुत देवता, श्रुत ज्ञान के दाता गुरु महाराज को नमस्कार कर के पंचमांगे श्री विवाह प्रज्ञप्ति ( भगवती) सूत्र का हिन्दी भाषानुवाद मेरी अल्पमत्यानुसार कहूंगा. प्रथम के चारो अंगों में चार अनुयोग का कथन भिन्न २ कहा और इस मूत्र में चारों अनुयोगों का कथन किया गया है इस का नाम शिवह प्रज्ञप्ति इस लिये प्रसिद्ध हुवा है। 488238 प्रस्तावना 480880 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कि इस में नाना प्रकार के जीवाजीवादि का स्वरूप और अतिशय कर प्रचुर पशार्थों का विषय २ तीर्थकरों ने गणधरों को कहीं, गणधरोंने आचार्यादिक को कही, आचार्यादिक ने शिष्यों को कही, यों पूर्व परंपरा से विविध महा पुरुषों से कहाती आइ सो विवाह प्रज्ञप्ति. ३ विविध प्रकार के विशिष्ट अर्थ का प्रवाह और नयों का प्रभाव जिस में कहा वह विवाह प्रज्ञप्ति, ४ विविध प्रकार के समासों का एक स्थान में समावेश होने से विवाह प्रज्ञप्ति. ५ जिस प्रकार गृहस्थ विवाह प्रसंग में विविध प्रकार की सामग्री मीलाता है उस प्रकार इस में भी विविध ज्ञानादि सामग्री का संयोग मीलाया गया है. इसलिये इसे विवाह मज्ञप्ति सूत्र कहा तथा इसे भगवती सूत्र भी कहते हैं, सो सर्व माननीय, सर्व पूज्यनीय सर्व विघ्न व दुःख की हर्ता, मंगल कार्का है. इस विवाह मइति ( भगवती ) सूत्र को हस्तिरत्न की उपमा दी है १ जिस प्रकार हस्ती ललित लीला करके लोगों के मन को प्रमुदित करता है वैसे ही इस सूत्र के पदादि का अभ्यास करने से और इस का सम्यक् प्रकार से प्रतिबोध होने से लोगों का मन प्रमुदित होता है, २ जिस प्रकार हस्ती गुल गुलाट शब्द करता है, जैसे ही इस सूत्र में उपसर्ग निपातादि अवयव के रूप सहित सघन, गहन, गंभीर, स्वाध्यायादि का शब्द होता है, जैसे हस्ती उत्तमोत्तम लक्षण मे युक्त होता है वैसे ( ही यह सूत्र भी लिंग, वचन विभक्ति आदे वचन शुद्धि की युक्ति कर शुभ लक्षणोपेत है, ४ जिल प्रकार चक्रवर्तीका हस्ती देवाधिष्ठित होता है वैसे ही यह सूत्र भी शासन देव अधिष्ठित है ५ जैसे हाथी सोने * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी - ज्वालाप्रसादजी * Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46- पंचमांग विवाह पण्णत्ती (भगवती सूत्र . चांदी परवाल वगैरह के भूषणों सहित भूषित होता है वैसे ही यह सूत्र भी उद्देशे, हेतु, कारन रूप भूषणों सेभूषित है. ६ जिस प्रकार हाथी सब में बडा जानवर है वैसे ही यह सूत्र भी ३६००० प्रश्नोत्तर से बहुत बडा है, ७ जैसे हाथी के चार पांव होते हैं वैसे ही इस सूत्र रूप हाथी के १ चरण करणानुयोग, २द्रनुयोग, ३ धर्मकथानुयोग और ४ गणितानुयोग यों चार अनुयोग रूप चार पांव है, ८ जैसे हाथी के दो आंखों होती है, वैसे ही इस सूत्र रूप हाथी के ज्ञान व चारित्र रूप दो आंखे हैं. ९ जैस हाथी के दो दंताशूल होते हैं, वैसे ही इस सूत्र रूप हांथी के द्रव्यास्तिक व पर्यायास्ति नय रूप दो दंताशूल हैं. १० जैसे हाथी के दो कुंभस्थल होते हैं वैसे ही इस सूत्र रूप हाथी के निश्चय व ( व्यवहार नय रूप दो कुंभस्थल हैं. ११ जैसे हाथी के सूंड होती है वैसे ही इस सूत्र रूप हाथी के प्रशस्त वचन की रचना रूप सूंडादंड है, १३ निगम वचन रूप छोटी, पुंछ है, १४ काल आदि पांच समवाय और आठ प्रवचन माता के रूप आवरणादि उपकरण है १५ उत्सर्ग व अपवाद मार्ग रूप दो घंटा है, १६ यशः रूप पडह का अवाज चारों दिशा में विस्तृत है, १७ सूत्र रूप हाथी के महावीर स्वामीजी रूप राजा हैं, १८ इस सूत्र रूप गज पर आरूढ होने वाला ३६३ पाखंडियों का पराभव करता है, १९ यह सूत्र रूप हाथी अनेक प्रश्नों के उच्चर रूप तथा पांच ज्ञान रूप शस्त्र सहित सज्ज है, १२० यह सूत्र रूप हाथी उपांग रूप चतुरंगिनी सेना सहित चतुर्गति का निकंदन करता है २१ चक्रवती के हाथी के चारों और १४ रत्न होते हैं वैसे ही इस सूत्र रूप हाथी के चउदह पूर्व के अंगोपांग रूप प्रस्तावना 49 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + रत्न हैं, विविध प्रकार के समास के समुह से मिथ्यात्व अज्ञान रूप शत्रुओं का दल बल को जीत ने वाला श्री महावीर महाराजा के बल से युक्त यह सूत्र रूप हाथी है. श्लोक-या षटा शत् सहस्त्रन्प्रति विधि, सजुषांविभ्रति प्रश्नवाचां। चलरिंशाच्छतेपु प्रथयति परितः श्रेणि मुद्देशकानाम् ॥ रङ्गाक्लङ्ग तरङ्गानय गमगहना दुर्विगाहा विवाह प्रज्ञप्ति । पंचमाङ्ग जयति भगवती सा विचिङ्गार्थ कोषः ॥ पांचवा विवाह प्रज्ञप्ति अपर नाम भगवती सूत्र है. सो महा सागर समान अत्यंत गहन, गंभीर गूढार्थ वाला है. इस में ४१ शतक १००० उद्देशे, और३६००० प्रश्न रूप हजारों तरंग उछलते हैं. इस समुद्र का गृह भेद रूय रत्नों विग्रह बृद्धि के धारक जनो को प्राप्त नहीं हो सकते हैं परंतु विद्वद्वरों ही प्राप्त कर सकते हैं. ऐसा यह भगवती सूत्र सदैव काल जयवंत रहो. इस भगवती सूत्र का अनुवाद मुख्याता में धोराजी सर्वज्ञ भंडार से प्राप्त हुई धनपन सिंह बाबु की छपाइ हुइ प्रतपर से और कच्छ देश पावन कर्ता आठ कोटी मोटी पक्षवाले महंत मुनि श्री नागचंद्रजी महाराज के तरफ से एक पंचपाटी टीका वाली प्रत तथा एक टबा बाली प्रत साथमें रख कर किया है. वैसे ही भीनासरवाले श्रीमान कनीरामजी बाहादरमलजी बांठिया की तरफ से कुछ हिन्दी अर्थवाली प्रत ओर एक मेरी पास की प्रतपर से सुधारा किया है. इस की शुद्धि करने में यथा शक्ति व यथामति प्रयास किया हैं तथापि अशुद्धि रहने का संभव है तो विद्दद्वर्य शुद्ध करके पठन करेंगे.' *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसदजा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह मज्ञप्ति (भगवती) सूत्र 400 विवाह प्रज्ञप्ति ( भगवती)मूत्र की विषयानुक्रमणिका. प्रथम शतक का प्रथमोद्देश १५ अब्रतिजीव देवता होवे १६ वाणव्यन्तर देवता के सुख १ नवकारयंत्र, नमो बंभीए लिवीए २ प्रश्नों के नाम प्रथम शतक का द्वितीयोदेश ....५७ ३ सूत्रांरंभ. नगगदि अधिकार .. ४ भगवंत महावीर स्वामी के गुण-नमोत्थुणं... १७जीच स्वतं कृत दुःख को वेदता है ...५७ गौतम स्वामीजी के गुणाणुवाद १८नरक के जीव सव समाहारी हैं क्या.? ५९ ६ संशयोपतत्तिं प्रश्न पृच्छा। १९नरक के जीव सब समकर्मी हैं क्या? ...६१ ७चलमाणे चल आदि ९ प्रश्नोत्तर ... २०नरक के जीव सब समोत्पत्ती है क्या ?...६२१ ८ नरकश्किार. आहार के ६३भांगे वगैरा...१६ २१नरक के जीव सब समलेशी हैं क्या ? ...६३ ९ असुरकुमारादि भुवनपति अधिकार ...२५ २२नरक के जीव सब सम वेदनावाले हैं क्या?.६४ 2. पृथ्वीकायादि स्थावरों का अधिकार. ...३१ ११बेन्द्रियादि शेष दंडक अधिकार २३नरक के जीव सब सम क्रियावाले है क्या?६५ १२ जीव आत्मारंभी आदि प्रश्नोत्तर २४नरक के जीव सबसम आयुष्य घाले क्या?.६६ ॐ१३ ज्ञान इस भव का के पर भव का २५नरक के प्रश्न जैसे चौवीसही दंडक पर प्रश्न.६७ १४ असंबुड संवुड अणगार | २६ लेश्या आश्रिय प्रश्नोत्तर. 20980-880विषयानुक्रम Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी | २७ संचिन काल आश्रिय प्रश्नोत्तर २८ असंयति आदि बारे प्रकार के जीवों देवलोक में उत्पन्न होने के प्रश्नोत्तर ८२ | २९ असज्ञी के आयुष्य कितने प्रकार के ? ...८४ ....८८ प्रथम शतक का तृतीयोदेश ३० कांक्षमोहनीय कर्म के प्रश्नोत्तर ३१ आराधक जीवों के लक्षण ...७८ ...८८ ...९१ ३२ पुनःकांक्षामोहनीय के प्रश्नोत्तर ... ९४ ३३ साधु के भी कंक्षामोहनी बंध होता है. १०२ प्रथम शतक का चौथा उद्देश....१०६ ३४ कर्म प्रकृति तथा मोहनीय कर्म हैं ३५ अपक्रमन के प्रश्नोत्तर ३६ कर्म भोगवे बिना मोक्ष नहीं ३७ पदलों आश्रिय प्रश्नोत्तर ३८ जीव के प्रश्नोत्तर . १०६ . १०९ .११० . ११३ . ११५ ३९ छद्मस्त को मोक्ष नहीं केवली को है ४० केवल ज्ञान से अधिक ज्ञान नहीं ... ११४ ... ११८ ... ११९ प्रथम शतक का पांचवा उद्देशा. ११९ ४१ नरक के नरकावासे की संख्या ४२ भुवनपति के भुवन की संख्या ४३ पृथ्वीकाय से ज्योतिषतक के वास की संख्या १२१ ४४ वैमानिक के विमानों की संख्या १२० ... १२२ ४५ नरक की स्थिती के स्थान कषाय के भांगे १२४ ४५ चारों कषाय के भांगे का यंत्र १३० ४६ नरककी — अवगाहना, शरीर, संघयन, संस्थान, लेश्या, दृष्टी, जोग उपयोग, इनसब के भांगे . १३३ ४७ नरक के जैसे चौबीस ही दंडक के भांगे १३२ प्रथम शतक का छट्ठा उद्देशा.... १४५ ४८ उदय अस्त सूर्य की दृष्टी विषय प्रभा. १४५ *प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 488 ४९ लोक अलोक द्वीप समुद्र की स्पर्शना. १४८६. गर्भ का जीव नरक में भी जावे ...१८२ ०५० जीव प्राणातिशतकी क्रिया करे ? ...१४९ ६२ गर्भ का जीव देवलोक में भी जावे ...१४ V५१ रोहा अनगार के प्रश्नोत्तर लोक अलोक, ६३ गर्भ वृद्धिका व सूती का कथन ...१८६ जीब कर्म भव्याभव्यक सिद्धासिद्ध, . प्रथम शतक का आठवा उद्देशा. १९० मूर्गा अंडादि पहिले पीछे कौन ? ...१४९ ६४ एकांत चाल मनुष्य किस का आयुष्य करे १९०१ गौतम स्वामी प्रश्नोत्तर लोक की स्थिति. १६० ६५एकात पंडित मनुष्य किस का आयुष्य करे. १९१३ लोक किस आधार से रहा दृष्टांत ...१६१ ६३वाल पंडित मनष्य किस का आयष्य करे१९२ ५४ जीब पुद्गल परस्पर मिले क्या. ? ...१६३ ६७ मृग बधक मनुष्य को कितनी क्रिया. १९४ ५५ सदैव सूक्ष्म पानी की बर्षाद ...१६५ ६८ आग्निकाय प्रज्वलित कर्ता को कितनी प्रथम शतकका सातवा उद्देश. १६६ क्रिया ... ... ...१९ ५६ नेरीया-देशसे-उत्पन्न आहार-उद्धर्त. अधा ६९ पुनः मृगमारने वाले की क्रिया ....२०० उत्पन्न के प्रश्नोत्तर ... ...१६६ ७० मृगबधक को पुरुषमारे दोनोंकी क्रिया. २०१ ५७ विग्रहगति के प्रश्नोत्तर ... ...१७२ ७१ पुरुषमारने वाले को कितनी क्रिया. २०३ ७२ दोनों समान मनुष्य में जय पराजय ...२० ५८ देव-मनुष्य के आहार की दुर्गछा करे व मनुष्य ...२ ३ ७३ सवीर्य अबीर्य का प्रश्नोत्तर तीर्यचका आयुष्य वेदे... ... ०/५९ ग उत्पत्ति आश्रिय प्रश्नोत्तरों प्रथम शतक का नववा उद्देशा. २१. १६. माता पिता के अंग व स्थिति. ७४ जीव गुरुलघु किस प्रकार होता है ...२१० 208 पंचांग-विवाह प्रज्ञप्ति (भगवती) सत्र विषयानुक्रमणिका 4 . ....१७४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ العلم माध ... لم ل ل ७५ आकाश का गुरुत्व लघुत्व ...२१२ । ८८ त्रस स्थावर जीव के श्वासोच्छवास ...२५017 चौवीस दंडक का गुरुत्व लघुत्व ८९ वायुकाय के वायु का ही श्वासोच्छवास. २२ १७७ षड्द्रव्य का गुरुत्व लघुत्व ...२१५ ९० मंडाइ (फ्रासुक भोजी) साधु १७८ लेश्या, दृष्टी, दर्शन, ज्ञान,सज्ञा,जोगादि २१८ खंधकसन्यासी का अधिकार.. ९१ सअन्त अनन्त जीव तथा सिद्ध ... १७९ अच्छे साधु के लक्षण ९२ बाल मरण पंडित मरण ८. एक सयय में दो आयुबन्ध ...२१९ ९३ भिक्षु की प्रतिमा व गुणरत्नतप ...२९८१ ८१ कालावी साधु के सामायिक के द्वितीय शतक का दूसरा उद्देशा ३२१ प्रश्नोत्तर. ...२२२ 4८२ सब अवति को एक सी क्रिया लगे. २३१ ९४ समुद्घात का अधिकार ...३२१ १८३ आधाकर्मी आहार कर्म बन्धक. ...२३२ द्वितीय शतक का तीसरा उद्देशा ३२२ १८४ मासुक आहार कर्म शिविल करता....२३४ | ९६ आठ पृथ्वी का कथन. १८५ अस्थिर पदार्थ का पलटा होता है. २३५ ।। द्वितीय शतक का चौथा उद्देशा ३२४ प्रथम शतक का दशवा उद्देशा २३८ ९७ इन्द्रियों का अधिकार . ८६ अन्यतीर्थिक कहे चलमाण अचलिए. २३८ द्वितीय शतक का पांचवा उद्देशा: १८७ एक जी एक समय में दो क्रिया करे. २४५ ९८ एक समय में दो वेद वेदे. २ द्वितीय शतक का प्रथमोद्देशा २४९ / ९९पानीकी तिर्यचकी, मनुष्य की गर्भस्थिति३३० । 1. अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी : *प्रकाशक राजाबहादुर काला सुखदवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी २४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 पंचमांग-विवाह प्रज्ञप्ति [ भगवती ] सूत्र A8+ १०. मनुष्य के बीज की स्थिति ...३३० । १०९ आस्तिकाया का अधिकार १०१ एक जीव के पिता पुत्र की संख्या ...३३२ ११० जीव के उत्थानादि गुन २मैथुन सेवन में महा हिंसा ...३३४ १.११ आकाश के प्रकार १.३ तुगीया नगरी के श्रावक का वर्णन ११२ आकास्तिकाय की स्पर्शना ... व स्थविरों से धर्म चर्चा, महावीर ३ तृतिय शतक का प्रथमोद्देश ३१४ स्वामी की सम्मती ११०४ दुहका उष्णपानी का प्रश्नोत्तर ...३६१ ११३. चमगेन्द्र की ऋद्धि ...३९४ ११४ चमरेन्द्र के सामानीक देव की ऋद्धि...३९९ द्वितीय शतक का छट्ठा उद्देशा. ३६४ ११५ चमरेन्द्र के त्रायशिक देव की ऋद्धि. ११०५ ओहारणी भाषा के प्रश्नोत्तर ...३६४ ११६ बरेन्द्र की ऋद्धि द्वितीय शतक का सातवा उद्देशा३६५ ११७ धरणेन्द्र की ऋद्धि १०६ देवताओं का कथन ...३६५ ११८ वाणव्यन्तर ज्योतिषी इन्द्रकी ऋद्धि...४१० द्वितीय शतक का आठवा उद्देशा ३६७ ११९ शक्रेन्द्र की ऋद्धि ११०७ असुरेन्द्र की सौधर्मा सभा ...३६७ १२० तिष्यगुप्त अनगार, समानिक देव हुओ.४१३१ १२१ इशान इन्द्र की ऋद्धि, द्वितीय शतक का नववा उद्देशा ३६८ १२२ कुरुदत्त अणगार-सामानिक देव ...४१८ १०८ समय क्षेत्र [ अढाइ द्वीप ] का ...३७४ १२३ सनत्कुमारादि सब इन्द्र की ऋद्धि...४२० * द्वितीय शतक का दशवा उद्देशा ३७५ । १२४ ईशानेन्द्र का पूर्वभव-तामली तापस. ४२५ 48848 विषाणुक्रमणिका Fast Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||१२५ सौधर्म ईशान देवता का विशेषत्व ...४५७ । ततिय शतक का चौथा उद्देश ५३१ १२६ सौधर्मेन्द्र इशानेन्द्र का मिलाप ...४५८ । १२७ उक्त दोनों इन्द्रों का झगडा, सनत्क । १३९ भावीतात्मा साधु के देवता के ज्ञान भांगे.५३१ १४० वायु काया का बैंक्रय का कथन. ५३४१ ___मारेन्द्र समजावे,सनत्कुमारेद्र का पूर्वभव ४६० १४१ बदल को विचित्र रूपमे परिणमना. ५३७ तृतिय शतक का दूसरा उद्देश ४६५ १४२ परभव में उत्पन्न होने की लेश्या. ५३८ ११२८ असुरकुमार का निवासस्थान ...४६५ । १४३ साधु के वैकय करने के प्रश्नोत्तर. ५४० १० ११२९ असुरकुमार का तीनों दिशा में गमन.४६७ तुतिय शतक का पंचमोद्देश. ५४४ १३. वैमानिक देव चोरी करते हैं ...४७१. १४४ पुनःसाधु के वैक्रय करने के प्रश्नोत्तर.५४४१ ११३१ अनुरकुमार का सौधर्म स्वर्ग में गमन. ४७४ ११३२ असुरकुमार का पूर्वभव तामलीतापस ४७७ तृतिय शतक का छट्टा उद्देश. ५५२ ११३३ सौधर्मेन्द्र असुरेन्द्र वज्र की गति ...५०३ १४५ विभंग ज्ञान का अवधि ज्ञान. ५ १४६ साधु के वैक्रय शक्ति का कथन. ५६०१ तुतिय शतक का तीसरा उद्देश ५१७ १३४ मंडीपुत्र साधु के क्रिया के प्रश्नोत्तर ५१७ तृतिय शतक का सातवा उद्देश. ५६१ ११३५ साधु को भी क्रिया लगती हैं ...५२१ १४७ चारों लोकपालों के विमानों का तथा १२६ सायोगी सक्रिय अन्तक्रिया नहीं करे. ५२१ । उन के बारेका मनुष्य लोकमे प्रभाव. ५६२ १३७ योगनिरुंधा अन्तक्रिया करे दृष्टान्त...५२४ तृतीय शतक का आठवा उद्देश.५८४ १३८ लवण समुद्र की भरती आने का प्रश्न.५२९ । १४८ देवताओंके मालिक दश देवता. ५८ १० नुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी *प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र 4 तृतीय शतक का दशवा उद्देश. ५९० ।। पांचवे शतक का दुसरा उद्देशा ६२.* 89/१४९ चोसट इन्द्रों की परिषद का ...५९० - १५८ वायुकाय आश्रिय प्रश्नोत्तर ...६२११ चतुर्थ शतक के चार उद्देशे ५९३ । १५९ धान्य धातू हड्डीचर्म कोयले राख गोचर ? १५० ईशानेन्द्र के चारों लोकपाल ...५९३ . इन के शरीर का प्रश्नोत्तर ...६ १ चतुर्थ शतक के चार उद्देशे ५९६ । १६० लवण समुद्र का प्रमाण चागें लोकपालकी राज्यधानी के ...५९६ पंचवे शतक का तीसरा उद्देशा ६३० है चतुर्थ शतक का नववा उद्देशा ५९७ १६. एक समय में दो भव का आयुष्यवेदे ६३० १५२ नेरीयों के उत्पन्न होने का ...५९७ १६२ जीव पर भव में आयुष्य सहित उत्पन्न होवे. | शतक का दशवा उद्देशा ५९८ पांचवा शतक का चौथा उद्देशा ६३६ ११५१ परस्पर लेश्या परिणमनेका ...५९८ | १६३ छद्मस्त सुने केवली शब्द जाने देख ६३६ पांचवा शतक का पहिला उद्देशा ६०१ १६४ छमस्त हसे केवली हसे नहीं ... १५४ जम्बुद्वीप में सूर्य क्राचारों दिशा में उदय ६०१ १६५ हंसने से कर्म बन्ध होता हैं ... ५५ दिन रात्रि का प्रमाण ....६०५ १६६ छद्मस्त निद्रा ले केवली नहीं है .. ११५६ जबूदीप के क्षत्रों में ऋतु आदि प्रमाण ६१० | १६६ निद्रालेने से कर्म बंध होता है ...६४३ १५७ लवण समुद्र, धातकी खंडद्दीप, कालोदी १६७ हरि गमेषी देव गर्भ का संहरण करे ६४४ समुद्र, पुष्करार्धद्वीप सूर्योदय का कथन६१६ । १६८ एवंतणकुमार साधु पातरी तिराई ...६४६/ <388888 विषयाणुक्रमण का 4882488 . +88 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६४९ १६९ महाशुक्र देव का मनोमय प्रश्न १७० देवता को असंयति कहना क्या ? ६२६ १७१ देवताओं की अर्धमागधी भाषा. १७२ केवली मोक्षगामी को जाने छद्मस्त सुनकर मोक्षगामी जाने. ६५७ ६.०८ १७३ चार प्रमाण, केवली चर्म कर्म जाने. ६५९ १७४ केवली के मनयोग को देवता जाने. ६६१ १७० अनुत्तर विमान के देव वहीं से प्रश्नकरे. ६६३ १७६ अनुशर विमान के देव क्षीणमोही नहीं६६५ १७७ केवली इन्द्रियों से जाने देखे नहीं. ६६५ १७८ केवली समयनन्तर क्षेत्र पलटते हैं १७९ चउदेपूर्व धारी अनेक रूप बलासके. ६६८. पांचवे शतक का पाचवा उद्देश ६६९ (१८० छद्मस्त मनुष्य सिद्ध नहीं होवे.. १८१ सब जीवों एवंभूत वेदना वेदते हैं. | १८२ भरत के वर्तमान कुलकरों पांचवे शतक छट्ठा उद्देश ६६९ ६७० ६७३ ६७३ १८३ अल्पायुष्य दीर्घायुष्य कैसे होवें ? ६७३ १८४ अशुभदीर्घायु शुभदीर्घायु कैसे होवे १३७५ १८५. चोरी में गयामाल गवेषने में क्रिया. ६७६ १८६ वस्तु वेंचने खरीदने वाले को क्रिया. १८७ अग्नि प्रज्वालने व बुझाने में ज्यादा पाप किसे ? ६७९ ६८० १८८ धनुष्य बान चलने में कितनी क्रिया. ६८२ १८९ चार सो पांच सो योजन में नेरीये भरे हैं. ६८५ १९० आधाकर्मी आदि सदोपस्थान भोगव ने का पाप. ६८७ १९१ आचार्य उपाध्याय सम्प्रदाय के सन्मान से मोक्षपावे. ६८९ १९२ आल (बज्जा) चडाने से वैसाही पावे ६९० पांचवा शतक का सातवा उद्देश ६९० १९३ प्रमाणु आदि पुद्गलों का कथन. १९४ प्रमाणु व स्कन्धों की परस्पर स्पर्शना ६९८ ६९१ * प्रकाशक - राजाबहादुर हाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . .. . ० पंचमांग विवाह ज्ञप्ति ( भगवनी) सूत्र १९४ प्रमाण व स्कन्धो की स्थिति. २०७ देवलोक कितने कहे हैं १९५ प्रमाणु स्कंधों का अंतर काल ७.४ पांचवा शतक का दशवा उद्देशा....७४३ १९६ प्रमाणु स्कंधों की अल्पा बहत्व २०८ चन्द्रमा देव का निवास स्थान ७४३ ११९७ चौबीस ही दंडक का आरंभ परिग्रह ७०७ ६छट्रे शतक का-प्रथमोद्देशा ....७४४ १९८ पांच प्रकार के हेतुओं २०१ महा वेदना महा निर्जरा आदि दृष्टांता७४४ है पांचवा शतक का-आठना उद्देशा ७९५ २१. करण का कथन १९९ नारदपुत्र निर्ग्रन्थ पुत्र साधु की पुद्गली २११ वेदना निर्जरा की चौभंगी चर्चा, ___ छ? शतक का दूसरा उद्देशा. ७५६ २०० जीवादि की हानी बुद्धी अवस्थितता ७२२ २०१ सोवचय सावचय के प्रश्नोत्तर ७२८ २१२ आहार आधिकार पांचवा शतकका नववा उद्देशा ....७३१ छठे शतक का-तीसरा उद्देशा. ७५७ २०२ राजगही पृथव्यादि किसे कहना? ७३१ २१३ वस्त्र का और कर्म का दृष्टांतिक संबंध ७५७ २०३ दिन का उद्योत रात्रि का अन्धकार ७३२ २१४ कर्म बंध के स्थिति आदि १६ द्वारों. ७६७* " २०४ चौवीस ही दंडक में उद्योत अंधकार ७३४ । छद्रे शतक का-चौथा उद्देशा. ७८० २०५ मनुष्य लोक सिवाय काल प्रमाण कहीं। २१५ जीवादि काल माश्रिय सप्रदेशी अप्रदेशी भी नहीं के भांगे १२०६ असंख्यात लोक अनंत अहोरात्र ७३७ २१६ जीवादि चौवीस दंडकपचक्खानी हैं क्या७९० <3gp> विषयानुक्रमणिका 4882 4. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रयोजक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी छट्ठे शतक का पांचवा उद्देशा. ७९२ २१७ तमस्काया का अधिकार १२१८ कृष्ण राजी का अधिकार | २१९ लोकांतिक देवता का अधिकार ७१२ ८०३ ८१० छट्ठे शतक का छट्टा उद्देशा ....८१५ २२० नरक देव के आवासा की संख्या (२२१ मरणांतिक समुद्घात का कथन ८१५ ८१६ छट्ठे शतक का सातवा उद्देशा....८२२ | २२२ धान्य बन्धन में सयोनिक कितना रहै. ८२२ | २२३ मूहूर्त के श्वाशोश्वादि काल प्रमाण ८२४ | २२४ संख्यात काले, पल्योपम, सागरोपम कालचक्रादि. | २२५ प्रथम आराका वर्णन · ८२४ ૮૪ छट्ठे शतक का आठवा उद्देशा.. ८३४ २२६ नरक में क्या क्या नहीं है। ८३५ २२७ छ प्रकार आयुर्वेध का कथन. ८४० २२८ लवणादि समुद्रों का पानी का स्वाद ८४३ २२९ द्वीपसमुद्रों के नाम ८४४ छडे शतक का - नववा उद्देशा ८४५ २३० एक कर्मका बन्धहेोत अन्यक्रममा बंधे ८४५ २३१ देवता बाहिर के पुद्गलो ग्रह वैक्रयकरे ८४६ २३२ देव के ग्रहे पुद्गल वर्णादि पने परिणमें ८४८ २३३ अविशुद्ध शुद्धलेश्या के भांगे ८४९ छट्ठे शतक का-दशवा उद्देशा २३४ सुख दुःख के पुद्गलों अदृश्य है २३५ जीव चेतन्य की ऐक्यता २३६ जीव प्राण की ८५१ ८५१ ८५४ ८५५ ८५६ पृथक्त्वता २३७ भव्याभव्य का गति सम्बन्ध २३८ जीव सुख दुःख दोनो वेदता है २३९ आहार ग्रहण करने का क्षेत्र ८५७ ८५८ २४० केवली इन्द्रियों कर जाने देखे नहीं ८५९ ७ सप्तम शतक का प्रथमोद्देशा ८ ३ १ २४३ अनाहारककी स्थिति अल्पाधिकआहार ८६१ * प्रकाशक- राजाबहादुर टाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - aaaaaaaaaaaa go 488 पंचमांग विवाह प्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र ign २४२ लोक का संस्थान ८६४ सप्तम शतक का-तीसरा उद्देशा ८९५ : १ ०७/२४३ श्रावकको सामायिक सम्परायक्रिया८६४ २५८ वनस्पति के न्यूनाधिक आहार काल २४४ पृथ्वीखोदते बस मरेको प्रत्या २५९ मूल दादी के पथक २ जीवों ख्यान खंडन नहीं होवे ...८६६ .२६० अनंत काय कंद मूल के नाम २४५ साधु को शुद्ध आहार देते सहायदान होवे८६७ २६.. लेश्यानुसार कर्म न्युनाधिक ८९९ २४. साधु को आहार देते मोक्ष प्राप्त करे. ८६७ २६२ वेदना निर्जरा की भिन्नता ९०१ २४७ अकर्मि जीव की गति के दृष्टांत ८६९ २६१ नेरीये के साता असाता दोनों हैं ९०५ २४८ दुःखी दुःख को स्पर्शता है क्या ? ८७३ १२४९ साधु अयत्ना से कार्य कर्ता संपराइ क्रिया८७४ सप्तम् शतक का-चौथा उद्दशा ९. १२५० इंगाल धूम्र दोषवाला आहार ८७६ २६४ संसारी जीवों छ प्रकार के १.२५६ क्षेत्र काल मार्ग प्रमाण अतिक्रन्त आहार ८७८ ___ सप्तम शतक का-पांचवा उद्देशा २५३शास्त्रातीत एषणी वेषणी समुदानी आहार८४१ २६५ खेचरकी तीन प्रकार की योनी ९०८ -- सातवे शतक का-दूसरा उद्देशा. ८८३ सप्तम् शतक का छठा उद्देशा ९१० २५४ सुप्रत्याख्यान दुपत्याख्यान ८८३ २६६ यहां आयुष्य बंधे वहां भोगवे ९१०१ १२५५ प्रत्यख्यान दो प्रकार के ८८७ २६७ यहां अल्पवेदना वहां महावेदना ९१११ १२५६ जीव प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी ? ८९३ २६७ अभोगनिवृति अनाभोगनिवृति आय ९१३१० ११२५७ जीव शाश्वता की अशाश्वता ?. ८९४ | २६८ अठारापापसे कर्कश वेदनी कर्म बन्धे ९१४/ विषयानुक्रमाणिका 48 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी +२६९ अठारापापके त्याग से अकर्कश वेदनी९.१४ । २८२ नेरीये के पापकर्म दुःख हेतृभूत ९४० २७० जीव दया से साता वेदनी कर्म बन्धे. ९१५ २८३ नर्क की दश प्रकार की क्षेत्र वेदना ९ १२७१ जीव को दुःख देने से दुःखपाव. ९१६ २८४ हस्ति कुंथुवे की सरीखी क्रिया ९४२ ११७२ छठे आराका वर्णन. सप्तम शतक का-नववा उद्देशा. ९४ सप्तम शतक का-सातवा उद्देशा. ९२८ २८५ साधु के वैक्रय करने का कथन ९४ २७३ संबृत साधु भी अनाउपयोगसे इया वही २८६ कोणिक चेडाका महा सिला कंटक सं.९४५ क्रियाकरे. २८७ कोणिक चेडा का रथकुशल संग्राम ९५४ ७४ काम भोग रूपी अरूपी-व भेदों. ९२९ २८८ शकेन्द्र कोणिक के पूर्व के मित्र ...९५ १२७५ चौबीस दंडक कामी भोगी का प्रश्न. ९३१ २८९ संग्राम में मरे वे देवता होवे वरूनाग. ९८ २७५ छद्मस्त देवता हो भोग भोगने समर्थ है ९३४ २७६ आवधी ज्ञानी,परम अवधी.केवल ज्ञानी९३५ सप्तम शतक का-दशवा उद्देशा. ९७ २७७ असज्ञी अकाम वेदना वेदते हैं ? ९३६ | २९० अन्य तीथिक की चर्चा आस्तिकाया ७२ २७८ सज्ञी अज्ञानता से निकरण वेदना वेदते ९३८ २९१ पापकर्म पुण्यकर्म परिणमने का दृष्टांत १८२ । सप्तम शतक का-आठवा उद्देशा. ९३९ २९३ अग्नि प्रजालने से बुझानेवाला अल्पकर्मी ९८५ २७९ छमस्त सिद्ध न होवे २९४ अचित्त पुद्गलों का प्रकाश तेजोलेश्वा ९८८ २८. हस्ति कुंथवे का सरीखा जीव ९४० अष्टम शतक का-प्रथमोहेशा. .९९० २८१ दश संज्ञा चौवीस दंडक पर ९४० । २९५ प्रयोगसा, मिसा, विशेष पुद्गलोंका कथन९९० प्रकाशक राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 280 48 पंचमांग पावव प्रज्ञप्ति ( भगवती) सूत्र आठवे शतक का-दूसरा उद्देशा. १०३१ । आठवे शतक का-पांचवा उद्देशा. १०८० १२९६ आशी (दाढ) विष का कथन ...१०३१ ३०८ सामायिक में चोरी के माल की चौकस १०८० १२९७ बिच्छू मेंडक सर्प मनुष्य का विष ...१०३२ ३०१ सामायिकवाले की स्त्री है ...१०८३ १२९८ कर्म के आशी विष का कथन ...१०३४ .३१० मत काल प्रतिक्रमण, बर्तमान संवर अना१२९९ दश बात छद्मस्त न जाने केवली जाने १०३८ गत प्रत्याख्यान इन के भेद ४९ भांगे ...१०८४ १३०० ज्ञान अज्ञान के भेदानुभेद ...१०३९ ३.११ गौशाल के श्रावकों के नाम, आचार१०९० १३०१ ज्ञान अज्ञान की लद्धि के द्वारों ...१०४४ ३०२ पांचों ज्ञान का विषय ...१०६४ आठवे शतक का-छट्ठा उद्देशा. १०९४ ३०३ पांचों ज्ञान की स्थिति व पर्यव ...१०६८ ३१२ साधुको शुद्धआहार देते एकांत निर्जरा१०९४ आठवा शतक का-तीसरा उद्देशा. १०७३ ३१३ साधु को अशुद्ध आहार देते अल्प पापी बह निर्जरा ... 5.३०४ वृक्षों के प्रकार ... ...१०७३ ३१४ असंयति को आहार देते एकांत पाप१०९५१ ३०५ शरीर के टुकडे के अंतर में प्रदेश १०७६ ३१५ आहार आदि जिस के लिये लाया ३०६ पृथ्वी का चरम अचरमपना ...१०७७ उसे ही साधु को देना ...१० ३१६ आलोचना अर्थि मर जावे तो आराधक ११०० आठवा शतक का-चौथा उद्देशा १०७९ ३२७दीपक जलते क्या जलता है ? ...११ । ३०७ कायिकादि पांचों क्रिया का ...१०७९ ३१७ शरीर से क्रिया का कथन ...११०९ 8. विषयानुक्रमाणका 20980282 Mr - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - आठवे शतक का-सातवा उद्देशा. १११२ १३१९ स्थविर अन्य तीर्थक की चर्चा...१११२ ३३१ सरीर बंध के दो प्रकार. ...११६६ ३३२ सरीर प्रयोग बंध के पांच प्रकार ११६८ १३२० पांच प्रकार का गतिमवाद ...११२३ ३३२ पांचों शरीर प्रयोग बंध किस २ आठवा शतक का-आठवा उद्देशा ११२॥ कर्मोदया से होवे देश बंध सर्व बंध गुरु के-गति के-समह के-सूत्र के भाव की स्थिति अल्पाबहुत्वे अन्तर. १९७० के प्रत्याख्यानीक ... ...११२८ ३३३ अठो कर्म बंध के कारण. .... ३२२ पांच प्रकार के व्यवहार. ...१९२८ ३३४ पांचों शरीर का परस्पर बन्ध. १२३७ ३२३ इर्या पथिक सम्परायिक बंध के भांगे११३२ आठवे शतक का-दशवा उदेशा. २४ वाईस परिषह किस कर्मोदयसे ...११४३ ३३५ ज्ञान क्रिया से आराधक की चौमंगी १२१२ ३२५ सूर्य दृष्टीगत आने के तपने के प्रश्नोसर ११४९ ३२६ आढाइ द्वीपके बाहिर भीतर के ३३६ तीन प्रकार की आराधनाका कथन. १२१६ ज्योतिषी का अधिकार , ...११५३ ३३७ पुद्गल परिणाम के पांच प्रकार. आठवे शतक का-नववा उद्देशा. ३३८ पुद्गलों के सम्बन्ध के प्रश्नोत्तर.. ३२७ प्रयोगवध विसेसबंध का कथन ११५५ ३३९ अठों कर्म के अविभाग परिछेद १ ३२८ अनादि सादी वीसेसा बंध. ...११५६ । ३४० अठों कर्मों का परस्पर सम्बन्ध. ... १२२८ ३२९ प्रयोग बन्धके तीन प्रकार. ...११६० । ३४१ जीव पुद्गल कि पदली? ...१२ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* ३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480P पंचमांग-विवाह प्रज्ञप्ति [भगवती ] सूत्र 4.38 } नववा शतक का प्रथमो उदेशा.... । नववा शतक का-तेतीसवा उद्देशा. 08३४२ जंबूद्वीप का वर्णन ....... १२३५ ३५१ ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी..१३३४ ___ नववे शतक का-दूसरा उद्देशा. ३५२ जामलीक्षवी कुमार का अधिकार १३५४ ३५३ जमालीजी की मातापितासे चर्चा ..१३६८ ३४२ अढाइ दीप के ज्योतिषी की संख्या १२३७ ३५४ जमालीजी का दीक्षा औत्सब ...१३९०१00 ___ नववे शतक का-तीसरा उद्देशा. ३५५ जमालीजी स्वच्छंदाचारी श्रद्धाभष्टबने१४२१ ३४३ दक्षिण के अठावीस अन्तर द्वीपों ...१२३९ ३५६ जमाली को गौतम स्वामीने हराये. १४३२१ नववा शतक का-इकतीसवा उद्देशा ३५७ जमाली क्लिविषी देव हु ...१४३८ ६.४४ असोचा केवली के श्रावकादि का कथन१२४३ . नववा शतक का-चौतीसवा उद्देशा ३४९० असोच्चा केवली कैसे होते हैं ...१२५५ ३५८ पुरुष की घोडे की घात का प्रश्नोत्तर ४४६ ३४६ सोचा केवली के श्रावकादि का ...१२६४ ३५९ ऋषि को मारने वाला अनंत जीवमारे १५५७ ३४७ सोचा के.वला कैसे होते हैं ...१२५५ । ३६० एक को मारता अनेक का वैरकरे. १४४८ २६१ पांचों स्थारों का परस्पर श्वाशोश्वास १४५० नववा शतक का-बावीसवा उद्देशा ३६१ श्वासोश्वास लेते कितनी क्रिया ...१४५० ३४८ गंमीया आणगारे भांगे ...१२१० - ३६२ वायु के धक्केवृक्ष पडे कितनी क्रिया १४५२ 0३४९ मांगे बनाने की विधी का यंत्र ...१३१६ १. दशवे शतक का-पहिला उद्देश १३५५ छत्तेनार की होते हैं कि अउत्ते....१३२६ । ३६३ दिशा किसे कहते हैं दिशा के नाम १४३३१ साचा केवल एक होते का कथन१२४, विषयाणुक्रमाणका *38*488 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 4३६४ दिशाओं में जीव प्रदेश का कथन १४५५ । दशवे शतक का छठा उद्देशा. ३६५ पांच शरीर का कथन ... ...१४५९ । ३६७ शक्रेन्द्र की सौर्मिक सभा .....१५०२ १ दशवे शतक का-दुसरा उद्देशा. ३६८ उत्तर दिशा के २८ अंतर द्वीपों...१५०५ स ३६६ संवृत्ति माधु रूप देखते क्रिया लगे १४६० ६७ योनि और वेदना के प्रश्नोचर ...१४६४ ११ एका दशम शतक का-पहिला उद्देशा ३६० आलोयना आराधना नहीं ...१४६६ ३६९ उत्पलादि कमल के जिवादि३२द्वारों१५०७ ३६१ आलोयने का इच्छक परे तो भी ३७० दुसरा-उद्देशा सालू कमल का ... आराधक ... ...१४६७ ३७१ तासरा-उदेशा पलासका ...१५२३, दशवे शतक का-तीसरा उद्देशा, ३७२ चौथा उद्देशा-कुंभीका ३७३ पांचवा उद्देशा पद्म के एक पत्ते में ३६२ आत्म ऋद्धि से देव गमन करे ...१४६९ एक जीवे ... ...१५२४ ३६३ अल्प ऋद्धि महा ऋद्धि देवों का विशेष१४७० ३७४ छठा उदेशा पद्मके एक पत्त में एक जीव१५२५ ३६४ अश्व चलने खूखू शब्द क्यों होवे ...१४७३ ३३५ भाषाओं का कथन ... . ...१४७४ ३७५ सातवा उद्देशा कर्णिकके एक पत्ते में जीव१५२८ दशवे शतक का चौथा उद्देशा.. ३७६ आठवा उद्देशा नलीन के पत्ते में जीव१५२६ श्री ३६५ त्रायत्रिसक देवों का कथन ...१४७६ २७७ नववा उद्देशा शिवराज ऋषिका. १५२७ । दशवे शतक का पांचवा उद्देशा. ३७८ दशवा उद्देशा लोकालोक के प्रमाण ३६६ अग्रमहेषीयों का कथन ...१४८६ .का चार प्रकार का लोक ...१५५६ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाम-दजी* Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग- विवाह प्रज्ञप्ति ( भगवती ) सूत्र 40 ९७३ ग्यारवा उद्देश सुदर्शन शेठ के काल के प्रमाण आश्रय प्रश्नोत्तर. १३८० सुदर्शन का पूर्व भव महाबलकुमार वस्तुकादयचा. दीक्षवगैरा. ३८१ वारवउदेशा आलंभिका नगरी के ... १५६२ १९८ ... १५९६ श्रावक की चर्चा. देवस्थिती आश्रिये १६३८ | ३८२ पुद्गल नामक परिवर्जक को ... १६४८ उद्देशा १२ द्वादश शतक का प्रथम ३८३ शंखजी पोखली जी श्रावक का. २८४ तीन प्रकार की जागरणा ३८५ परस्पर कुश से कर्म बन्ध १६५५ ... १६७१ . १६९३ द्वादश शतक का दूसरा उद्देशा ३८६ जयंती व ई के प्रश्नोत्तर; . १६७६ ३८७ जीव हलका भारी काय से होवे. १६७२ ३८८ संसारिक जीवों का अन्त नहीं होता है१६८२ ३८९ मूता जागता. लवन्तं निर्बल, दक्ष अदक्ष इन में कौन अच्छा कौनबुरा ? १६८४ ४९० षांचों इन्द्रिय के वश्य संसार द्वादशम शतक का तीसरा ३९१ साल नर्क के नाम गोत्र द्वादश शकत का चौथा भ्रमें १६८८ उद्देशा. ... १६९९ उद्देशा ३९२ प्रमाणु पुद्गल स्कन्धों का कथन ३९३ पुद्गल परावर्तन का कथन द्वादश शतक का पांचवा उद्देशा ३९४ क्रोधमान माया लोभके नामों ... १७२८ ३९५ रूपी अरूपी चौस्पर्थी अठस्पर्थी १७३० 'बारवा शतक का छट्ठा उद्देशा १६९० ... १७१७ ३९६ ग्रहण किस प्रकार होता है. ... १७३७ ३९७ राहु के प्रकार व ग्रहण अंतर १७४२ ३९८ चन्द्रशशी क्यों सूर्य अदित्यक्यों ? १७४४ ३९८ चन्द्र सूर्य की अग्रममेहषी व सुखोप भोग किस प्रकार के हैं. दृष्टांन्त. १७६५ ११ विषयाणुक्रमणिका १७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ * प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी द्वादश शतक का - सातवा उद्देशा. - ४०० असंख्यात योजन का लोक है ... १७५० (४०१ संपूर्ण लोक जीव ने स्पर्शा दृष्टांत. १७५१ (४०२ सब लोक में जीव जन्म मरण करे हैं १७५३ १४०३ सब लोक के जीवों के साथ सज्जन दुर्जन के सब प्रकार के संबंध जीवने किये १७५८ द्वादश शतक का आठवा उद्देशा. ४०४ देवता नाग में मणि में उत्पन्न हो पूजावे १७५९ (४०५ हिंसक जानवरों कुगति में जाते हैं १७६१ द्वादश शतक का - नववा उद्देशा (४०६ पांच देवों का थोकडा . १७६३. द्वादश शतक का दशबा उद्देशा. ४०७ आठ आत्माका परस्पर संबंध . १७७५ १४०८ आत्मा ज्ञान दर्शन है कि अन्य ज्ञान है १७८२ (४०९ आत्मा नरकादि दंडक हैं कि अन्य है १७८४ ४१० आत्मा बुद्गल स्कंध है कि अन्य है. १७८६ १२ त्रयोदश शतक का प्रथमोद्देशा. ४११ नरकावासे का प्रमाण जीवों की उत्पत्ति १७९६ ४१२ लेश्या स्थान पर वर्त नरक में जावे १८१० त्रयोदश शतक का दूसरा उद्देशा. ४१ ३ देवताओं के स्थान में उपजने निकलने १८१३ त्रयोदश शतक का तीसरा उद्देशा. ४१४ परिचारणा का संक्षेपित कथन १८२३ त्रयोदश शतक का चौथा उद्देशा. ४२५नीचे की नरक ऊपर की नरक विस्तरित १८२३ ४२६ तीनों लोक का मध्य विभाग ४२६ तीनों लोक का मध्य विभाग ४२७ दशों दिशा कि आदि कहां से ४२८ लोक किसे कहते हैं, पंचास्तिकाया ४२९ आस्तिकाया के परस्पर प्रदेशों ४३० लोक का संकोच विस्तार का कथन १८५४ ...१८२३ ... १८२९ १८३१ १८३३ १८३६ . * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी - ज्वालाप्रसादजी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ momnahar त्रयोदश शतक का-पाचवा उद्देशा... १४ चतुर्दश शतक का-प्रथमोद्देशा १४३१ तीन प्रकार के आहार का कथन १८५६ - ४३९ साधु धर्म देव स्थान को उल्लंघ परम १ तेरवे शतक का छट्ठा उद्देशा वास का आयुर्वन्ध करते मरेतो कहां जावे ...१९०७१ ४३२ गंगेया अनगार जैसे ही भांगे ...१८५७ ४४० जीव को परभवोत्पन्न की ग्रहण गती१९०९ ४३३ चमर चंचा राज्य धनि का ...१८५८ ४४१ अनन्तर परम्पर के प्रश्नोत्तर ...१९१२ ४३४ उदायन राजा का आधिकार ...१८६२ तेरबे शतक का-सातवा उद्देशा चउदवे शतक का-दूसरा उदेशा ४३५ भाषासम्बन्धीकायासम्बन्धीमश्नोत्तरी १.००४ ४४२ यक्ष उन्माद से मोहनी का १४३५ पांच प्रकार के मृत्यु का कथन ...१०९१ उन्माद जबर... ४४३ काल से और इन्द्र से बर्षा होती है.१९१० तेरवे शतक का-आठवा उद्देशा ४४४ असुर कुमार देव भी वृष्टी करते हैं. १९१९ - १४३७ कर्म प्रकृतियों का संक्षिप्त ...१८९७ ४४४ ईशान देवेन्द्रादि देव तमुकाय कैसे करे१९२० है तेरवे शतक का-नववा उद्देशा __चउदवे शतक का-तीसरा उद्देशा १४३८ आकाश में गमन करने वाले साधु १८९८ ४४५ साध के बीचमेंसे देवता नहीं जा सके १९२२ ३ तेवे शतक का-दशवा उद्देशा. ४४६ चौवीस दंडक में सत्कार सन्मान...११२३ {४३९ छमस्त के छ समुद्र थात ...१९०५ ' ४४७ देवता के बीच में से देव जास के ? १९३४ 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ती (भगवती) मूत्र 438 48824864 विषयानुक्रमणिका -488088 0 " Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिजी ... १९२६ ४४८ नरक में पुल परिणाम चउदवे शतक का चौथा उद्देशा. ४४९ पुगलों का परिणयन ४५० जीव के सुख दुःख का जोडा ४५१ प्रमाणु पुगल का चर्म अचर्म पना. १९२९ चउदवे शतक का पांचवा उद्देशा १९२७ . १९२८ ४५२ चोइस दंडक के जीव अग्नि के मध्य हो जा सके क्या ? १४५३ दश प्रकार के सुख दुःख चोइस दंडक पर ४५४ देवता बाहिर के पुलों ग्रहण कर क्रमण करे ....१९३६ चौबीसवा शतक का छट्ठा उद्देशा .... २९४० १९३५ ४५५ आहार परिमाणयोनि स्थिती काकथन १९३७ ४२६ शकेन्द्रादि इन्द्र भोग किस प्रकार भोगवे है .....१९३९ चउदवशतक का सातवा उद्देशा १९४९. ४०७ महावीर स्वामी गौतम स्वामी का प्रेम १९४३ ४८ द्रव्य क्षेत्र काल भाव की तुल्यता ... १९४४ ४५८ भक्त प्रत्याख्यानी आहार करे क्या १९.२० ४६० लब सत्तम देवता का अर्थ ४५१ अनुत्तरोपापति देव का अर्थ किस कर्म से हुआ ... १९५० ......१९५३ चउदवे शतक का आठवा उद्देशा ४९३ रत्नाप्रभा से ज्योनपी वैमानिक का अंतर '४९४ शालवृक्षमुज्य क्यों है ४९५ अमड शंन्यासी के ७०० शिष्यों ४९५ देवता अव्यावाघ कैंसे होते हैं ? ४९६ देवता की अचिन्त्य शक्ति. ४९७ जंभक देव का कृतव्य व प्रकार १९५४ १९५६ १९५९ १९६१ १९६१ १९६३ चउदवे शतक का नववा उद्देशा ४१८साधु कर्म लेग्या जाने रूपी कर्म लेश्या ! १९३५ *काशक - राजावाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग- विवाह प्रज्ञा प्ते ( भगवती ) सूत्र ४९९ सुख दुःख रूपं पुल २४ दंडकपर १९०६ ५०० देवता सहश्रोरूप से सह श्रीभाषा बोले १९८७ हे १९७८ ५० १ सूर्य क्या है सूर्य का प्रयोजन क्या ५०२ अधिक दीक्षित साधु अधिक तेजोलेशी १९५८ चउदवा शतक का दशवा उद्देशा ५०३ केवली सिद्ध को जाने छमस्त नहीं. १९६० ५०४ केवली हलन चलन करे सब जानेदेखे १९७९ पञ्चदश शतक का एक ही उद्देशा ५०५ हालाहला कुंभारी के स्थान में गोशालक १९७४ १८०३ दिशाचर (नैमितिक) गोशालक मिले. १९७६ ५०७ गोशालक जिन नाम धारन किया. १९७८ ५०८ गोशालक की मूल से उत्पत्ति ५०९ गोशालक भगवंत का मिलाप ५१० गोशालक ने की हुई बुद्धियो १९८१ १९८६ ..२००४ ६११ गौशालक को तेजोलेश्या निमित्त ज्ञान की प्राप्ति ५१३ गोशालकने अनंद साधु को कहा हुवा दृष्टांन्त ५१४ अर्हन्त को उपसर्ग नहीं होता है ५१५ गोशालक से बोलने की मना की २०४९ ५१६ गोशालक ने भगवान से अपने सात पडल कहे . २०२६ २०४६ २०५२ ...२०६७ ५१७ गोशालक का भगवंत से विवाद ५१८ सर्वानुभूती सुनक्षत्र साधु की घात २०७० ५१९ गोशालकने भगवंतपर तेजोलेश्याडाली २०७३ ५२० अपनी तेजोलेश्या से आपकी जलमरेगा२०७१ ५२१ अशक्त गोशालक साधुकी प्रेरना से भगे२०८१ ५२२ गोशालक की निटम्बना ८ चर्म प्ररूपे. २०८७ ५२३ गोशालक का अयंपुलक श्रावक २०९५ ५२४ गोशालक ने सम्यक्त्व प्राप्त की .२१०७ ५२५ रेवंती गाथा पत्नी से भगवंतका रोगगया २११४ २०२१ विषयाणुक्रमणिका २१. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी | ५२६ सर्वानुभूति सुनक्षत्र साधु की गति ५२७ गोशालक का पुण्यप्रभाव ५२८ सोमंगल अनगारने गोशालक जीव को जलाया . २१२९ ...२१३३ ...२१४४ ५२९ गोशालक का भव भ्रमण ...२१५३ ५३० गोशालक दृढ प्रतिज्ञा केवली हो मोक्ष गये .२१६६ षोडश शतक का प्रथमोद्देशा. ५३१ अग्नि काय वायु काय का सम्बन्ध २१७१ १५३१ भट्टी संडास आदि उपकरणों की क्रिया २१७२ ५३२ जीव अधिकारणी के अधिकरण २१७७ सोलवा शतक का दूसरा उद्देशा. १५३३ शारीरिक मानसिक दुःख ५३४ भगवंतने शक्रेन्द्र से पांच अवग्रह कहे इन्द्रने साधुओं को आज्ञा दी १५३५ शक्रेन्द्र समवादी है ५३८ ऊघडे ... २१८२ ...२१८७ ... २१८७ मुख से बोले सो सावध भाषा, २१८८ ५३९ जीव को चैतन्य कृत कर्म हैं। सोलवे शतक का तीसरा उद्देशा, ५४० कर्म प्रकृति स्वयं कृत वेदता है २१९१ ५४१ साधु की औषधोपचार में क्रिया नहीं २१९४ - २२ सोलवा शतक का चौथा उद्देशा. ५४२ चौथ भक्तादि तपश्चर्या का फल ५८२ तपश्चर्या से कर्म क्षपने के दृष्टांत २१८९ २१९६ २१९९ सोलवा शतक का पाचवा उद्देशा. ५८३ शक्रेन्द्र से ऊपर के देवों का तेज अधिक २२०२ ५८४ देवता को विशिष्ट ऋद्धि कैसे मिली २२१३ सोलवे शतक का छट्ठा उद्देशा. ५८५ पांच प्रकार से स्वप्न आवे वगैरा २२२० ५८६ पाप स्वप्न महास्वप्न तीर्थंकरादि के स्वप्न२२२१ ५८७ महावीर स्वामी के १० स्वप्न ५८८ मोक्ष प्राप्ति के १६ स्वप्न २२२४ २२३२ ५८९ सातवा उद्देशा दो प्रकार उपयोग २२४० *मकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचाङ्ग विवाह गति (भगवती) सूत्र 428+ और सोलवे शतक का-आठवा उद्देशा. ६.४ पंडित बालपांडत अपंडित २२६४४० ५९. लोक की दिशा में जीच प्रदेश २२४१६०५ अन्यपति व्रति अवति भादि जीव की ५९१ परमाणु एक समयमें लोकान्तकजावे २२४५ - भिन्नता २२६६ ५९२ वर्षाद वर्षते इस्तादि प्रसारते क्रिया २२४६ । ६०६ देवता अरूपी वैक्रेय नहीं कर सके २२६८ १५९३ नववा उद्देश-बलेन्द्र की सभा २२४८ सतरहवे शतक का-तीसरा उद्देशा. १५९४ दशवा उद्देश-अवधि ज्ञान . २२५०-६०७ सलेसी साधु हलन चलन नहीं करे २२७० ५९५ इग्यास्वा उ६श-द्वापकुमार का २२५१ ६०८ पान प्रकार का हलन चलन २२७. १५९६ बारवा उद्देश-उदधी कुमारका २२५२६०९ तीन प्रकार का चलन २ सतरहबे शतक का प्रथमोद्देशा... | ६१० पांचास कामों का मोक्ष पूल २ ५९७ उदायन भुतानन्द हाथी का कथन २२५४ । सतरहवे शतक का चौथा उद्देशा.. १८९८ ताडवृक्षचढ फल डालने की क्रिया २२५५ ६११ प्राणातिपातादि क्रिया स्पर्श कर करे२२७६ १५९९ ताड.फल पड़ने से कितनी क्रिया २२५६ ६१२ दुःख वेदना आत्म कृत पर कृत १६०० वृक्ष पटकते पुरुष को उसको क्रिया २२५७ उभय कृत .२२७८180 १६०१ शरीर इन्द्रिय जोगनिवृति की क्रिया २२६. ६१३ पांचवा उद्देश-ईशानेन्द्र की सभा २२८०१, १०२ छ भावों का संक्षिप्त कथन २२६२ ६१४ छठे सातवे उद्देशे में पृथ्वी काया का२२८४/4 है सतरहवे शतक का दूसरा उद्देशा... ६१६ आठवे नववे उद्देशे में अपकाया का २२८५ ६०. धर्माधि अधर्माथि २२६२, ६१६ दशवे ग्यारवे उद्देशे में वायु. काया का२२८७, 488 विषयाणुक्रमणिका 488887. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14६१ बारवे उद्देशे में एकेन्द्रिय का कथन २२८८ । अठारवे शतक का-चौथा उद्देशा ६१८ तेरवे उद्देशे में से नाग कुमार का २२९० ३१ अठारापाप अठाराधर्म, छ काय छ द्रव्य ६५९ चउदवे उद्देशे में सुवर्ण कुमार का २२१० - जीव पुदल शरीर इत्यादि जीव के भोग । १६२० पन्दरवे उदेशे में विद्युत्कुमार का २२९० में आते है क्या ? ६२१ सोलवे उद्देशे में वायुकुमार का २२९० ६३२ कृतयुग्मादि युग्मका कथन २३२५ १६२२ सत्तरवे उद्दश में अन्तिकुमारका २२९१ . अठारवे शतक का पांचवा उद्देशा 4 अष्टादश शतक का-प्रथमोदशा... ६२३ प्रथम अप्रथम का कथन. २२१२ ६३३ दो देव मुरूप कुरूप किस प्रकार २३२९ ६३४ दो नेरीये हलुकर्मीभारी कमी कैसे २२ ६२४ चरम अचरम का कथन २२९८ ६२५दूसराशतक-इ केन्द्रका पूर्व भवकार्तिक २३०४ ६३५ वर्तमान भवायुवेदेआगमिकबंधकररहे २३३३ १ अठारवा शतक का तीसरा उद्देशा ___ अठवा शतक का छट्ठा उद्देशा ६३६ गुड, भ्रमर, तोता में वर्णादि २६ काउलेड्या पृथ्वीकायादि पर मनुष्य होवे. ६३७ प्रमाणु स्कन्ध में वर्णादि २३३७ १६२७ चर्म निर्जरा के पुद्गल सर्वलोकस्पर्श २३२७ अठारवा शतक का सातवा उद्देशा । ६२८ द्रव्य बंध भाव वैध का कथन २३१९ । ६३८ केवलीदेवाधिष्टस भी सत्य भाषाबोले २३४० ६२९ पापकर्म किये व करेंगेजिसका विशेष २३२१ ६३९ उपाधी परिग्रह तीन प्रकार की २३४० ६३० नेरीये का आझर ग्रहण परिणमन २३२२ । ६४० सुप्रणिधान दु प्रणिधान प्रयाजेक बाल ब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी: कि रामाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28488 8. पंचमांग विवाह प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र 88 १६४१ मंडक श्रावकमे अन्यमति को हराया २३४४ । गुनीसवा शतक ६४२ देवता परस्पररूप वैक्रयकर संग्रामकरे २३५१ | ६५४ पहला-दूसरा उद्देशा-लेश्याधिकार २३८० ६४३ देवता संग्रामको काष्ठादि शास्त्रवन २३५२ । ६५५तीसरा उद्देशा-पृथ्वीकायादि के १२द्वार२३८१ ६४४ देवता रूचक द्वीपतक-परमादेसके २३५२ ६५६ पृथव्यादि पांचों सूक्ष्म बादर की : ६४५ देवता पुष्प अंशक्षय करने की तफावत् २३५३ - अल्पाबहुत । २३८७ ___ अठारवा शतक का आठवा उद्देशा. ६५७ पांचों स्थावरों में सूक्ष्म बादर . ६४६ साधु का अंडे कचरने में क्रिया २३०६ कौन २ हैं २३९२ १६४७ गौतम स्वामी अन्यतीर्थक की चर्चा.२३५७ ६.८ पृथ्वी के शरीर की सूक्ष्मता दृष्टान्त से २३९५ ६४८ छपस्त मनुष्य प्रमाणुआदि जानेदेखे २३६२ ६५९ पृथ्वी के संघटे से वेदना दृष्टांत से २३९६ अठारवा शतक का नववा उद्देशा. ६६० चौथा उद्देशा-आश्रव क्रिया निर्जरा ६४९ भविय द्रव्य नेगये आदि का कथन २३६४ वेदना के १६ भांगे २३९८१ ६६१ पांचना उद्देशा चरमउत्परम २४ दंडक२४०२/4 अठारवा शतक का दसवा उद्देशा. ६६२ छठा उद्देशा-द्वीप समुद्रों का प्रमाण १६५० भावितात्मा शास्त्र से छेदावे नहीं २३६७ संठाण १६५१ वायु परमाणु से परमाणु वायु से स्पर्श २३६७ 1. ६६३ सातवा उद्देशा-नरक देव के वास २४०४ १६५२ वायु मशक से स्पर्श उक्त प्रकार २३६८ - ६६४ आठवा उद्देशा-निवृत्ति के ८२ बोल २४०७ ०७ ६.६५३महावीर स्वामी सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नो २३६२ ६६५ नववा उद्देशा-करण के ५५ वोल २४१५ विषयानुक्रमणिका 18 + Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 वीसत्रा शतक का पहिला उद्देशा. । ६७५ भरतऐरावत महाविदेहमें धर्म का विशेष२४८२) ६६६ अस तिर्यंच के आहार शरीरादि का ६७६ भरत के २४ तीर्थकर व जिनान्तर २४८२ कथन २४२० ६७७ भरत में १ हजार वर्ष पूर्वका ज्ञान २४८३ बीसत्रा शतक का दूसरा उद्देशा. ६७८ भरत की अवसर्पिनी पूर्व धारा का ६७९ भरत में २२ हजार वर्षधर्म चलेगा २४८४ १६७ लोकालोक के आकाश में पंचास्तिकाय २४२५ ६८. तीर्थकर तीर्थकर तीर्थ सो तीर्थ १६६८ पंचास्ति के अभिवचन (नाम) २४२६ ६८१ धर्म के आराधक मोक्ष पाये ३ वीसवा शतक का तीसरा उद्देशा. ६९ अठारा पाप अठारा धर्म वगैरा जीव बीसवे शतक का नववा उद्देशा. में प्रमाण में २४३० ६८२ दो प्रकार के चारण मुनि २४८६ ७० चौथा उद्देशा पांचों इन्द्रिय उपचयका२४३२ । ६८३ विद्याचारण कैसे होवेवगति विषय २४८७ ६७१ पांचवा उद्देशा-पुद्गलों के मर्णादि के. ६८४ जंघाचारण कैसे होवे गति का विषय २४९० २४३२ वीसवे शतक का दशवा उद्देशा. २ छठा उद्देशा पांचों स्थावर स्वर्ग • ६८५ सोपकर्मायु निरोपकर्माय २४९२ स्थान में उत्पन्न २४७० ६८६ आत्मोपकर्ष परोपकर्म. २४९३ ६७३ सातवा उद्देशा-तीन बंध कर्मोपरि २४७६ । ६८७ आत्म ऋद्धि पर ऋद्धि २४९४/ बीसवे शतक का आठवा उद्देशा, ६८८ आत्म प्रयोग पर प्रयोग २४९५ |* ७४ कर्मभूमि अकर्मभूमि मनुष्यों का २४८० ६८९ कतिसंचया अकतिसंचया २४९६ * प्रयोजक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसादजी * भांगे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 Www 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ती (भगवती) सूत्र १६९. छक्क बारे चौरासी प्रमार्जित २४१९ । ७०० सोलवा उद्देश-बेन्द्रियकी उत्पत्तिका २६३० २१ एक्कीसवे शतक के सात वर्ग एकेक बर्ग के । ७.१ अठारवा उद्देश-तेन्द्रियकी उत्पत्तिका २६३१ दश २ उद्देशे धान्य का तण का कथन हैं २५११ ७०२ उन्नीसवा उद्देशा-चौरिन्द्रयकी उत्पति२६३२) १२२ बावीसवे शतक छ वर्ग एकेक वर्ग के दश ७०३ बीसवा उद्देश-पंचइन्द्रिय की उत्पत्ति २६३३) उद्देशे तालादि वृक्षों का बलीयों का कथन २५२१ ७०४ इक्कीसवा उद्देश-मनुष्योत्पत्ति का २६५६ २३ तेवीसवे शतक के छ वर्ग एकेक वर्ग के दश ७०५ बावीसवा उद्देशा-वाणव्यतर देवका २६७१ उद्देशसाधारण वनस्पति आलु आदिका कथन२५२७ ७०६ तेवीसवा उद्देशा-ज्योतिषी देवका २६७४ चउबीसवा शतक का प्रथमोद्देशा. ७०७ चौवीसचा उद्देशा-वैमानिक देवका ३६७९ ६९१ नरक में उत्पन्न होनेवाले जीवों का २५ पच्चीसवा शतक विविध वर्णन २५३१ १९९२दूसरे उद्देशे में असुरकुपार में उत्पन्नका२५७७ ७०८ प्रथम उद्देशा-१४ प्रकार जीवजघन्यो२६९२ ६९३ तीसरे उद्देशे में नाग कुमार का २५८९ ७०९ दूसरा उद्देशा-जीवअर्जीव द्रव्यका ६९४चौथे से इग्यारखे उद्देशेतक७ भुवनपति २५९५ उपभोग २७०० ६९५ बारवा उद्देश में पृथ्वी काया उत्पत्ति २५९५ ७१. तीसरा उहेशा-पांच संस्थानोका कथन ६९६ तेरवा उद्देशे में अपकाया उत्पत्तिका २६२८ आकाशप्रदेश श्रेणिका,द्वादशांगीका २७० ६९७ चउदवा उद्देशे में तेउकाया उत्पत्ति २६२८ ७११ चौथे उद्देशे मे.कृत्युग्मादिका कथन ६९८ पन्दरवा उद्देशे में वायुकाया उत्पत्ति२६२९ सेयनिरेय, प्रमाणुसंख्या, द्रव्यादि १६९९ सोलवा उद्देशा-वनस्पति उत्पत्तिका २६२९ अल्पाबहुत्व ago विषयानुक्रमाणका 48 + Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२६/ बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिाजी g+ ७१२ पांचवा उद्देशा कालप्रमाण निगोद दो प्रकार २७८७ १३ छठा उद्देशा-प्रकारनिग्नन्तक ३६द्वार २७९७ ७१४ सातवा उद्देशा ५समतिके ३६द्वार २८४६ १७१५ आटवा उद्देशा-नकोत्पत्ति गति गमण आदि २८९७ ७१६ नवसे बार उद्देशतक नरकेप्रयत्तीपाद २९०० छव्वीसवा शतक ७१७ प्रथमोद्देशा-पापकर्मबन्ध के १०द्वार २९०३ ७१.८ दूसराउद्देशा-अन्तरोत्तपनके ११द्वार२९०४ ७१९ तीसरा उद्देशा-अन्तरायगाढनर्कका २९१८ १७२० पांचवा उद्देशा परम्परावगाढ का २९१९ १७२१. छठा उद्देशा-अनन्तर आहार का २९१९ १७२२ सातवा उद्देशा-परम्पर आहार का २९२० १७२३ आठवा उद्देशा-अनन्तर पर्याप्त का २९२० ७२४ नववा उद्देशा-परम्पर पर्याप्त का २९२१ ७२५ दशवा उद्देशा-चरम नर्क का २९२१ । ७२६ इग्वारवा उद्देशा-अचरम नरक का २९२१ से २७ सत्तावीसवा शतक का इग्यारहवा उद्देशा पाषकरने के छब्धीसवे शतक जैसा कहना २८ अट्ठावीसवा इतक के ११ उद्देशा पाप कर्म । • समार्जन अगश्रय उक्तप्रकार .. २९२७ २९ गुनतीसवा शतक का ११ उद्देशा पाप कर्म से समकाल में बेदने के उक्तप्रकार २९६१ ३० तीसवा शतक का ११ उद्देशा क्रियावादी आदि चारों के समवसरणका २९३६१ ३१ एकतीसवा शतक के २८ उद्देशे में कुडाग , खडातक का विविध प्रकास्का कथन२९५५ ३२ बत्तीसवा शतक का २८ उद्देश में कुठाग कृतयुग्म नेरिय की उत्पत्ति २९७१ ३३ तेतीसबा शतक का प्रतिशतक १२ एकेक , शतकके इग्यार उद्देशे में एकेन्द्रियका २९७३ । प्रकाशक-राजाबाहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह प्रज्ञप्ति [ भगवती ] सूत्र २९८९ ३३ चौतीस शतक के प्रतिशतक २ एकेंक शतक के इग्यार २ उद्देश से एकेन्द्रिय के श्रेणि का कथन ३५ पैंतीस शतक के प्रतिशतक १२ एकेक शतक के इग्यारा २ उद्देश में महाकृत मादि का कथन ३०२८ ३६ छत्तीसवा शतक के प्रतिशतक १२ एकेक उद्देश में इग्यारा २ सब में बेंन्द्रिय के कृतयुग्मादि का कथन ३०५० एकेक ३८ अड़तीसवा शतक के प्रतिशतक १२ उद्देश इग्यारा सब में तेन्द्रिय के कृत्यु मादि का कथन ३०५४ . ३८ अडतीसवा शतक प्रतिशतक ११ एकेक उद्देश इग्यारा २ सब में चौरिन्द्रिय के मादि का कथन ३०५५ ३९. गुनचालीसवा शतक के प्रतिशतक १२ एके क उद्देश इग्यारा २ सव में असज्ञी पंचेंद्रिय के कृत्युग्मादि का ३०५६ ४० चालीसवा शतक के प्रतिशतक २१ एकेक उद्देश इग्यारा २ सज्ञीपचेन्द्रिय कृत्युगमादि का कथन ३०५७ ४१ एकतालीसवा शतक के १९६ उद्देशे जिस में राशीकृत्युग्म नेरिआदि चौवीसही दंडकपर कथन है भगवतीका उपसंहार ३०७० ३०८७ एक पुज्य श्री कानजी ऋषि महाराज का सम्प्रदाय के बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलकऋषिजी ने सीर्फ तीन वर्ष में ३२ ही शास्त्रो का हिंदी भाषानुवाद किया. उन ३२ ही शास्त्रों की १०००२००० प्रतों सीर्फ पांच ही वर्ष में छपवा कर दक्षिण हैद्राबाद निवासी राजा बहादुरलाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रासाद जीने सब को अमूल्य लाभ दिया है. 4. विषयानुक्रमणिका 44 २९ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र * ॥ पंचांग ।। 7 ॥ विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र ॥ 86033पहिला शतक का पहिला उद्देशा48805 * प्रथम शतकम् * शब्दार्थ . नमस्कार अ० अरहंत को ण. नमस्कार सि• सिद्धको ण• नमस्कार आ० आचार्य को ० , णमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए भावार्थ श्री अरहंत को नमस्कार होवो. कर, चरण व मस्तक का सुप्रणिधान सो नमस्कार कहा जाता है." X किस्रको नमस्कार करना ? श्री अरहंत को. अरहंत किस को कहते हैं ? देवताओं से विनिर्मित महा२७ प्रतिहार्य नामक पूजा से जो पूजित बने हुवे हैं, अथवा रहा-एकान्त देश व अन्त जिम को नहीं है, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ नमस्कार उ• उपाध्याय को ण नमस्कार लो लोकमें स० सर्व सा० साधुको ॥*॥ण नमस्कार बं ब्राह्मी । सव्वसाहणं ॥ * ॥ णमो बंभीए लिवीए ॥ * ॥ रायगिह, चलण, दुक्खे, कंखपअर्थात् जो सब भाव को जान व देख सकते हैं उन को अरहंत कहते हैं. ऐसे अरहंत भगवंत को नमस्कार होवो. इस का अरुहताणं व अरिहंताणं ऐसे दो पाठान्तर हैं. अष्टप्रकार के कर्मरूप शत्रुको हणनेवाले अरिहंत कहाते हैं. कर्मरूप बीज का क्षय होने से संसार में पुनःजन्म लेने का जिन को नहीं है इसलिये अरुहंत कहाते हैं; उनको नमस्कार होवो. सिद्ध भगवंत को नमस्कार होवो. वे कैसे हैं ? शुक्ल ध्यानरूप से अग्नि से अष्टप्रकार के कर्मों को दग्ध करके जो मोक्ष पहुंचे हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं; उन को नमस्कार होवो. जिन शासन के उपदेशक, ज्ञानादि पंचाचार पालनेवाले, गच्छ के नायक, अष्ट संपदा के धारक, ऐसे श्री आचार्यको नमस्कार होवो. अग्यारह अंग व बारह उपांग स्वयं पठन करे, अन्य को पठन करावे, और चरण सत्तरी व करण सत्तरी पच्चीस गुणों से युक्त होवे ऐसे उपाध्याय को नमस्कार होवो. ज्ञानादिक से मोक्ष मार्ग साधे वैसे सब साधु को नमस्कार होवो. यहांपर “सवसाहणं " पाठ में सव्य शब्दका प्रयोग करने से सामायिक विशेष, अप्रमत्तादिक, पुलाकादिक, जिन कल्पिक, परिलहार विशुद्ध कल्पिक, यथा लिंगादि कल्पिक प्रत्येक बुद्ध, स्वयंबुद्ध, व बुद्धबोधित प्रमुख गुणवंत साधु ओं को भी ग्रहण कीये हैं उक्त पंच परमेष्ट्री मोक्षमार्ग के साहायक व परम उपकारी हैं * ब्राह्मी लिपिक २० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ Joge को नमस्कार होवो अयान श्री कपभदव जीने ग्रावास में अपनी ज्येष्टा पुत्री ब्राह्मी की भठारह प्रकार पूल की लिपि बतलाई. उम लिपि से शास्त्र लिखे गये इस लिये उम का कथन करनेवाले श्रीपभदेव स्वामी को शाख के उपदेश देनेवाले श्री सुधर्मास्वामी नमस्कार करते हैं. इस तरह नमस्कार किये पीछे पांचवा अंग श्री व्याख्यापज्ञप्ति का आधिकार कहते हैं. इस में जीवाजीव की विविध प्रकार की प्ररूपना की है, गौतमादिक के विविध प्रकार के प्रश्नों व उनके उत्तर दिये हैं. इस में एक मरिखा संबंध होनेपरभी पुष्पावकीर्ण की तरह भिन्न २ प्रकार का अधिकार है. इस का अपर नाम भगवती है अर्थात भगवंत की वाणी सर्वमान्य होने से भगवती कहाती है. इस के १३८ शतक हैं, उनके उटेशे १०००० प्रमाण हैं.३६ हजार प्रश्न हैं। और पद २८८००० हैं. प्रथम शतक श्री भगवन्तने राजग्रही नगरी में कहा. इस के दश उद्देशे कहे हैं. प्रत्येक उद्देशे में भिन्न २ प्रश्न पूछे हैं सो बताते हैं. अब उद्देशके नाम बताते हैं. १ चलण-चलमाणे पंचमाङ्ग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र - gr* <.803>पहिला शतकका पहिला उद्देशा 985205 १ कितनक 'नमो बभीए लिवीए' इनका ब्राह्मी लिपि को नमस्कार होबो एसा अर्थ करके अक्षर स्थापना निक्षेप सिद्ध करते हैं, परंतु जैसे अनुयोग द्वार में पाथा का जान पुरुष पाथा कहाता है वैसे ही लिपिका शिखानेवाला पुरुप लिपिक कहा जा सकता है. इसलिये यहांपर मृत्रकारने अक्षर स्थापना रूप लिपि को नमस्कार नहीं करते हुवे लिपि बतानेवाले श्री ऋपभदेव स्वामी को नमस्कार किया है. और भी वीर निर्वाण पीछे ९८० वर्ष में पुस्तकारूद ज्ञान हुवा इस मे लिपि को नमस्कार करना नहीं ॐ संभवता है. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी लि. लिपिक को| ॥रा० राजगृह में च० चलन दु• दुःख क० कांक्षा प्रदोष प० प्रकृति पु. पृथ्वी जा.. जावन्त ० नारकी बाबाल गु गुरुक च० चलन।।*॥ण नमस्कार सु श्रुतको ते. उस का०काल ते०1 उस स० समय में रा० राजगृह णा० नाम न० नगर हो० था व वर्णन वाला त० उस रा० राजगृह ओसेय, पगइ, पुढवीओ, जावंते, नेरइए, बाले, गुरुएय, चलणाओ॥ ॥णमो सुअस्स॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था, वण्णओ तस्सणं रायगिहचलिए इत्यादि चलण विषय अर्थ का निर्णय रूप पहिला उद्देशा नव प्रश्न का जानना. २ दुःख-इस में जीव अपना कीया हुवा कर्म वेदता है इत्यादि प्रश्नकी पृच्छा है. ३ कांक्षा प्रदोष-इस में जीवने , कांक्षा मोहनीय कर्म किया? ऐसे प्रश्नोंकी पृच्छा है ४ प्रकृति-इस में कर्म की कितनी प्रकृतियों कही। इत्यादि प्रश्नकी पृच्छा है. पृथ्वी-इस में रत्नप्रभादि कीतनी पृथ्वी है इसका निर्णय किया है ६ जावंत इसमें जितना अंतर से सूर्य का उदय होता होवे उसका निर्णय किया है ७ नारकी-इस में नरक में नारकी उत्पन्न होते हैं या नारकी सिवाय अन्य जीव उत्पन्न होते है इसका निर्णय किया है ८ बाल-इसमें एकान्त वालका स्वरूप कहा है, ९ गुरुक-इसमें कोनसा जीव भारी होता है इसप्रश्न का निर्णय किया है १०१ चलणाओ-इसमें अन्य दर्शनियों का ऐसा कथन होवे कि चलमाणे अचलिए इत्यादि प्रश्न का निर्णय किया है। इस द्वादशांग रूप श्रुत सो अहंतू प्रवचन उसको नमस्कार होवो. इस तरह नमस्कार करके श्री *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुवासहायनी मालामसदनी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ न. नगर की ब० बाहिर उ० ईशान दि० दिशा में गु० गुणशिल णा० नामका चे० चैत्य हो० था त० वहां से श्रोणिक राजा चि. चेलणादेवी ॥ १ ॥ते. उस का. काल ते. उस स. समय में स. श्रमण भ० भगवान् म० महावीर आ० आदिकर ति० तीर्थकर स० स्वयं संबुद्ध पु. पुरुषोत्तम पु० पुरुपसिंह स्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिलीभाए गुणासलए णामं चेइए होत्था तत्थ- 06 व णं सेणिए राया, चिलणादेवी ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महा वीरे-आदिगरे, तित्थगरे,सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे पुरिससीहे, पुरिसवर पुंडरीए,पुरिसवरगंधहभावार्थ सुधर्मा स्वामी अपने पाटवीय शिष्य श्री जम्बूस्वामी को कहते हैं कि उसकाल उस समय में अर्थात् इस अवसर्पिणी काल के दुषम सुषम नामक चौथे आरेमें भगवन्तने इस कथाका उपदेश दिया तब राजगृह * } नामक नगर था. उसका वर्णन रायप्रसेणी सूत्र से जानना. उस राजगृही नगरी की ईशान के गुणशील नामक यक्ष का चैत्य ( विंब अथवा बिम्ब युक्त आयतन ) था. उस राजगृह में श्रेणिक राजा राज्य करता था, और उनको चेलणा नामक राणी थी. ॥१॥ उस काल उस समय में 90 श्रुत व चारित्र धर्म की आदि के करनेवाले, साधु साध्वी, श्रावक व श्राविका इन चार तीर्थ को। * यद्यपि वर्तमान काल में राजगृह नामक नगर है तथापि अतीत काल जैसा अब नहीं है. अनंत 14 वर्णादिक के पुद्गलो का क्षय हुवा है, इसलिये यहां भूतकाल का प्रयोग किया है. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (मगवती) सूत्र E*149 384 पहिला शतकका पहिला उद्देशा 88487 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पुरुषवर पुंडरीक पु० पुरुषवर गंधहस्ती लोलोकमें उत्तम लो० लोक के नाथ लो. लोक के हितकर्ता 45 लो• लोक में द्वीपसमान लो. लोकमें प० सर्यसमान अ० अभय देनेवाले च० चक्षुके देनेवाले म० मार्ग देनेवाले जी. जीव देनेवाले रक्षक यो० बोधि देनेवाले ध० धर्मके देनेवाले ध० ध० धर्मके उपदेशक ध० धर्मके नायक ध० धर्मके सारथि ध. धर्ममें व. प्रधान चा० चातुरंत चक्रवर्ती दी. द्वीप ता. त्राण ___ थी, लोगुत्तमे, लोगनाहे, लोगहिए लोगपदीवे, लोग पजोयगरे, अभयदए, चक्खु दए, मग्गदए, सरणदए, जीवदए, बोहिदए, धम्मदए, धम्मदसिए, धम्मनायगे, धम्म सारहिए, धम्मवर चाउरंत चक्कवटी, दीवो ताण सरणगइपइटे, अप्पडिहयवरणाण १ भावार्थ स्थापनेवाले, अन्यके उपदेश विना स्वतःही हेय ज्ञेय उपादेय पदार्थ स्वरूप को जाननेवाले, रूपादि अतिशय अथवा जात्यादिकके उच्चत्वसे पुरुषों में उत्तम, शौयगुणते पुरुषमें सिंह समान, सब अशुभ पाप रहित होनेसे पुरुषोंमें पुंडरीक कमल समान, पुरुषों में गंधहस्ती समान लोक में उत्तम, लोककेनाथ अर्थात् योग सो जिप्सको पहिले धर्म नहीं प्राप्त हुआहै उसको धर्म की प्राप्ति कराना और क्षेमसोधर्मकी प्राप्ति होनेपर मनको स्थिर रहनेदेना, इस तरह योग व क्षेम दोनों करनेवाले होनेसे लोकनाथ, पविध जीवनिकाय रूप लोक की रक्षा करने से हितकारी, संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवरूप लोकको द्वीपसमान, गणवरादिलोकको उद्योतके करनेवाले, अभय के दाता, श्रुतज्ञानरूप १ आसन्न सिद्धिक मोक्षगामी सव भव्य जीव. 4.9 अनुबादरालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ANO 6 भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8803 १२० सरण गः गति प० रहे हुवे अ• अप्रतिहत व प्रधान ना. ज्ञान दर्शन ध० धरने वाले वि० निवृत्त । छ० छमस्थपने से जि. जिते जा. जितानेवाले ति तीरे ता० तारक बुलबुद बो० बुझावे मु० मुक्त मो० मुक्तकरे म० सर्वज्ञ स० सर्वदर्शी सि. शिव अ० अचल अ० रोगरहित अ० अनंत अ० अक्षय अ०है। दंसणधरे, वियट छउमे जिणे, जावए, तिणे, तारए, बुढे, बोहिए, मुत्ते मायए, स व्वण्ण सव्वदरिसी सिव, मयल. मरुअ. मणंत. मक्खय. मव्वाबाह, मपणरावत्तियं, चक्षु के दातार, मोक्ष मार्ग के दातार, विविध प्रकार के उपद्रव से पीडित, जीव को रक्षा स्थान-मोक्ष में न देनेसे शरण देनेवाले, सम्यक्त्व चारित्र रूप बोधिके देनेवाले, श्रुत चारित्र रूप धर्म देनेवाले धर्म के उपदेशक, धर्म के भयक, धर्मरूप रथके सारथी, जैसे पृथिवी पे समस्त राजाओं में चक्रवर्ती प्रधान र है वैसेही धर्म कथन में भगवान् चक्रवर्ती चारों गतिके अंत करनेवाले, जैसे समुद्र में रहे हुवे जीवों को ब. द्वीप आधार भत है वैसेही संसार रूप समुद्र में रहे हुवे प्राणियों को आधार भूत, अप्रतिहत व श्रेष्ट ज्ञान दर्शन के धारक, छमस्थपना से निवर्तनेवाले, रागादि जीतनेवाले, अन्य को धर्मोपदेश कर के रागद्वेष जीतानेवाले, स्वयं संसार समुद्र से तीरनेवाले, अन्य को संसार समुद्र से तीरानेवाले, स्वयंतत्त्वको जाननेनाले, अन्य को तत्त्वका ज्ञान देनेवाले, स्वयं अष्टकर्म से मुक्त होनेवाले व अन्य को मुक्त करानेवाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी, सब उपद्रव रहित, अचल, रोगरहित, अनंत, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावर्त अनंत, अक्षय, अव्यावाध, अपुनरावर्त ऐसीसिद्ध है। पहिला शतक का पहिला उद्देशा8% 88 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७ शब्दार्थ * {अव्यावाध अ० पुनरागमन रहित सि० सिद्धगति ना० नाम ठा० स्थान को सं० प्राप्त करने की का { इच्छावाले जा० यावत् स० समवसरण प० परिषदा णि निर्गता ध० धर्म क० कहा प० परिषदा प्रति [गता || २ || ते उस का काल ते ० उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर के जे० ज्येष्ट अं० अंतेवासी इं० इन्द्रभूति ना० नाम का अ० अनगार गो० गौतम गोत्रीय स० सात हाथ के ऊंचे (स० समचतुस्र टान सं० सहित व वज्र ऋषभ नाराच संघयणी क० सुवर्ण पु० कसोटी णि० घसाहुवा सिद्धगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं । परिसाणिग्गया । धम्मोकहिओ, परिसा पडिगया ॥ २ ॥ तेणं कालेणं, तेणं समएणं; समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस संठाण संठिए, वज्जरिसह नाराय संघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्त गति को प्राप्त करने की इच्छावाले श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने राजग्रह नगर के गुणशील नामक { बगीचे में बारहे प्रकार की परिषदा की समक्ष धर्मोपदेश दिया. जीव है, अजीव है लोक है अलोक है { यावत् मोक्ष है. परिषदा के देव, देवी, मनुष्य वगैरह सब भगवंत को वांदकर स्वस्थान गये ||२|| उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत का जेष्ट अंतेवासी इन्द्रभूति नामक अणगार, गौतम गोत्रीय, सात हाथ १ चार देव, चार देवी व चतुर्विध संघ. भावार्थ 88 अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ पंचपाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र १५० पद्म गो० गौर उ० उग्रतप दि० दीप्ततप तप्तप्ततप मन्महातप घो० घोरतप उ० उदार घो० घोर घो० घोर गुण घो० घोरतपस्त्री घो० घोर ब्रह्मचारी उ० सुश्रुषा रहित सं० संक्षिप्त वि० बहुत ते तेजस लेश्या च० चौदहपुर्वी च० चारणा० ज्ञान के उ० धारक स० सर्व अक्षर स० सन्निपाति स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर से अ० दूर नहीं नजदीक नहीं उ० ऊर्ध्वजानु अ० अघोशिर झा० ध्यान कोठे में उ० तत्रे, तत्ततवे, महातवे, घोरतवे, उराले, घोरे, घोरगुणे, घोर तवस्सी घोर बंभचेरवासी, उच्छूढ सरीरे, संखित्तविउल तेउलेस्से, चउदसपुब्बी, चउणाणोवगए, सव्वक्खरसण्णिवाती, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदृरसामंते उड्डजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठो { की अवगाहनावाले, समचतुस्र संस्थान से संस्थित, वज्रऋषभ नाराच संघयण युक्त, कनकके बिन्दुसमान व पद्म कमल समान गौर वर्णवाले, उग्रतपस्वी, दीप्त तपवाले, आशंसादि दोष रहित, महत् तप करने वाले, घोर तप करनेवाले, प्रधान तपसे पार्श्वस्थादि जीव को भय उपजानेवाले, परीषद व इन्द्रियादि रिपु को नाश करने में घोर, अन्य जीव नहीं आचर सके वैसे घोरगुणों का धारन करनेवाले, घोर तपस्त्री, घोर ब्रह्मचारी, शरीर की शुश्रूषा का त्याग करनेवाले, अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तुदहन में समर्थ तेजोलेश्या को संकुचित करनेवाले, उत्पातादि चौदह पूर्व के धारक, केवल ज्ञान वर्जित चार ज्ञान के धारक व सब अक्षर के संयोगको जाननेवाले गौतम स्वामी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी से - पहिला शतकका पहिला उद्देशा - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेहुवे सं० संयम त तप से अ० आत्मा को भा. भावते वि. विचरते हैं. ॥३॥ त० तब गो० गौतम कोई शब्दार्थ जा० उत्पन्न है स ० श्रद्धा जा० उत्पन्न है सं० संशय जा० उत्पन्न है को० कुतुहल उ० उत्पन्न हुइ है। स० श्रद्धा उ० उत्पन्न संशय उ० उत्पन्न कुतुहल स. विशेष उत्पन्न है श्रद्धा सं० विशेष उत्पन्न है संशय सं० विशेष उत्पन्न है कुतुहल स० विशेष उत्पन्न हुइ है श्रद्धा सं० विशेष उत्पन्न हुवा है संशय सं० है वगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ३ ॥ तएणं से भगवं गोयमे जा। यसड्डे, जायसंसये, जायकोउहले; उप्पण्णसड्डे, उप्पण्णसंसए, उप्पण्णकोउहल्ले; सं जायसड्डे, संजाय संसये, संजाय कोउहल्ले, समुप्पन्नसड्डे, समुप्पन्नसंसये, समुप्पन्न । बहुत दूर नहीं वैसेही नजीक भी नहीं ऐसे ऊर्ध्वजानु न अधोशिर ( उत्कर आसन ) कर बैठेहवे धर्म ध्यान व शुक्लध्यान करते और संयम व तपसे आत्मा को भावते हुवे विचर रहें ॥ ३ ॥. उस समय श्री गौतम स्वामी को तत्त्वार्थ जानने की श्रद्धा उत्पन्न हुई। क्योंकी "चलमाणे चलिए" इस में वर्तमानकाल व अतीतकाल एक सरिखा कहा ऐसा वाक्य किस न्यायसे कहा? ऐसा संशय उत्पन्न हुवा, किस प्रकार से इस का अर्थ प्रकाशेंगे ऐसा कुतुहल उत्पन्न हुवा, तत्काल श्रद्धा उत्पन्न हुई, तत्काल संदेह उत्पन्न हुवा में तत्काल कुतुहल उत्पन्न हुवा, विशेष श्रद्धा हुई, विशेष संशय उत्पन्न हुवा, व विशेष कुतुहल उत्पन्न हुवा है जिस को ऐसे व समुत्पन्न श्रद्धा, समुत्पन्न संशय व समुत्पन्न कुतुहल वाले श्री गौतमस्वामी स्वस्थानक अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विशेष उत्पन्न हुवा है कुतुहल उ० स्थान से उ० उठे उ० स्थान मे उ उठकर जे. जहां स० श्रमण भ०१ भगवान् म. महावीर ते. तहां उ० आये उ० आकर स: श्रमण भ. भगवान म० महावीर को तिक तीनवक्त आ आदान प०प्रदक्षिणा क०की क०करके वं०वंदे न० नमस्कारकिये बं० बंदनकर ण. नमस्कार करण. नीचा आपनसे णा० रनहीं सुश्रवण करने की इच्छावाले ण नमस्कार करते अ० मन्मुख वि विनय से पं० हस्त जोडकर प० सेवा करते ए० ऐसा व• बोले ॥ ४ ॥ से वह णू निश्चय भं० भगवन् ? कोउहल्ले, । उट्ठाएउट्ठति, उट्ठाएउठेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेवउवागच्छइ; उवागच्छित्ता समणं. भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं, पयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासणे णातिदूरे, सुस्सूसमाणे णमंस माणे आभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी ॥ ४ ॥ से णूणंभावार्थ E से उपस्थित हुवे. उपस्थित होकर जहां श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी विराजते थे वहां आये. आकर श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीको तीन वार प्रदक्षिणा कर के वांदे नमस्कार किया. वंदणा नमस्कार कर के अतिदूर व अति नजीक भी नहीं वैसे भगवंत के वचन श्रवण करने की अत्यंत अभिलाषा रखते हुवे, ॐनमस्कार करते हुवे, भगवन्त सन्मुख मुख कर के विनय पूर्वक हस्तद्वय जोडकर सेवा करते हुवे ऐसा बोले गौतम स्वामीने ऐसा प्रश्नकिया॥४॥अहो भगवन् ! जो कर्म अपनी स्थितिते चलनेलगे, भोग सन्मुख हुवे पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 2280 880%> पहिला शतक का पहिला उद्देशा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा सूत्र | भावार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचरिमनि श्री अमोलक ऋषिजी च करने को च. चला उ. उदीरते को उ. उदीरा वे वेदते को वे चेदा ५० छोडते को ५० छोडा छि छेदते को छि छेदा भि भेदते को भि. भेदा द जलाते को द. जलाया मि० मरते को म. भंते !चलमाणे चालए?उदीरिजमाणे उदीरिए? वेदिजमाणे वेदिए? पहेजमाणे पहीणे! उनकों को क्या चलही कहना ? + २ जो कर्म उदय में नहीं आये हैं, बहुत आगापिक काल में उदय में आरेंगे उनको शुभ अध्यवसाय से आकर्ष कर उदय में लाये उसे उदीरणा कहते हैं. इस तरह प्रश्न समय में उदारणा करते को उदीरही क्या कहना! ३ कर्म उदय में आकर प्रथम समय में वेदते हो उन्हें क्या वेदेही कहना. ? ४ जो कर्म पुद्गल जीव के प्रदेश में अवलम्बन कर रहे थे वे पतन होने लगे उन्हे क्या । पनन हवा कहना ? . जो कर्म दीर्घकाल की स्थितिबाले थे उनका छेदन कर अल्प काल की स्थितिवाले । बनाय, इस तरह से प्रथम समय में छेदते को छेदा कहना ? ६ जो कर्म तीवरम देने वाले थे उनको मंद म देनेवाले बनाये इस तरह उसकों का प्रथम ममय भेदतेको भदे कहना.? ७ ध्यानरूप ज्वालामे कर्मरूप __+ श्री मुधर्मा स्वामी ने मृध की आदि में अन्य अनेक प्रश्नों को छोडकर "चलमाण चालिए" यह । प्रश्न क्यों ग्रहण किया? ममाधान-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों को मापने में उधमश्रपट कहा है. चागं में में साक्ष श्रेष्ठ है वह कश्रय में होता है और कर्य श्नय अनुक्रम में होता है इनालयं प्रधान तु की मिद्धि के लिये र प्रथम ही"चलपाणे चलिए इमप्रउसमे निश्चय किया कि जिनके कर्म अपने अनादि स्वभावको मिद्धिम चचित, हब उन को चले ही कहना मान प्राप्ति का प्रथम कार्य में यह दर्शाया है. * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुववनदायनी मालापमादजी * | Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ संग्रहते सः सर्व में अ० अचलित नो० नहीं च० चलित ने नारकी जी. जीव कि क्या च० चलित कर कर्म णि णिर्जरे अ० अचलित गोगौतम च० चलित ककर्म णिणि रेणो० नहीं अ० अचलित क कर्म णि मिर्जरे ५० बंध उ० उदय उ०अपवर्त सं० संक्रमन नि• निधत्त नि निकाच में अ० अचलित क० कर्म भ० होये च० चलित णि निर्जरा में ॥ १४ ॥ अ० अमुर कुमार की मं. भगवन् के० कितना का. उदीरति, अचलियं कम्मं उदीरति ? गोयमा णो चलियं कम्मं उदीरंति अचलियं कम्मं उदीरंति । एवं वेदति उयहति । संकामति । निहत्तंति । णिकायंति । सवेस अचलियं णो चलियं णेरइयाणं भंते जीवाओ किं चलियं कम्मं णिजरेंति अचलियं कम्मं णिज्जरेंति ? गोथमा ! चलियं कम्मं णिजरेंति, णो अचलियं कम्म णिजरेति ॥ गाहा ॥ बंधोदयवेदोवदृ संकमण णिहत्त णिकाएस । अचलियं कम्मंतुभवे, चलियं जीवाउ णिजरए ॥ १४ ॥ असुरकुमारणं भंते केवइयं कालं की उदीरणा करे या अचलित कर्म की उदीरणा करे ? अहो गौतम ! चलित कर्म की उदीरणा करे नहीं परंतु अचलित कर्म की उदीरणा करे. ऐसे ही ३ वेदना, ४ क्षीण करना ५ संक्रमाना ६ धारना ११७ निकाचना इन सब में चलित कर्म लेना नहीं परंतु अचलित कर्म लेना ८ अहो भगवन् नारकी जीव-100 प्रदेश मे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं या अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? अहो गौतम ! नारकी । 38:पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) 208848 पहिला शतक का पहिला उद्देशा 89> <2882 भावार्थ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी काल की ठि० स्थिति गो० गौतम ज० जघन्य द० दश वर्ष स० सहस्र उ० उत्कृष्ट सा० अधिक सा० सागरोपम || १५ || असुर कुमार के० कितनाकाल में आ० थोडा श्वासले पा० बहुत श्वास से ऊ० ऊंचा श्वासले णी० नीचाश्वासले गो० गौतम ज० जघन्य स० सात थो० स्तोक उ० उत्कृष्ट सा० अधिक प० पक्ष * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ठिई प० गोयमा जहणेणं दस वास सहस्साइं ठिई प० उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं ॥ १५ ॥ असुरकुमाराणं भंते केवइयं कालं आणमंतिरा, पाणमंति वा ऊससंतिवा, नीससंतिवा ॥ पुच्छा ॥ गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंतिवा पाणमंतिचा, ऊससंतिवा, नीससंतिवा ॥ १६ ॥ असुरचलित कर्म की निर्जरा करे अचलित कर्म की निर्जरा करे नहीं ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! असुर कुमार की कितने काल की स्थिति कही ? अहो गौतम ! असुरकुमार की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुच्छ अधिक कही [ उत्तर दिशाके बलेन्द्र आश्रित जानना ] || १५ || अहो भगवन् ! | असुरकुमारके देव कितने काल में श्वासोश्वास लेते हैं ? अहो गौतम ! असुर कुमार के देव जघन्य सात ( स्तोक में उत्कृष्ट एक पक्ष से कुच्छ अधिक में श्वासोश्वास लेवे ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार आहार के अर्थी हैं ? हां गौतम ! वे आहार के अर्थी हैं. अहो भगवन् ! कितने समय में उन को आ१ अमुरनिकाय में उत्पन्न होनेसे व कुमारकी तरह क्रीडा करनेसे असुरकुमार कहाये गये हैं: २६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 - शब्दार्थ ॥ १६ ॥ अ० असुरकुमार भ० भगवन् आ० आहार के अर्थी है. हां आ० आहार के अर्थी अ० असुर मार को भ. भगवन् के० कितना काल में आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होवे गो० गौतम अ०१ असुर कुमार को दु० दोपकार का आ० आहार आ० आभोगनिवर्तित अ० अनाभोगनिवर्तित त. तहां जे. जो अ० अनाभोग निवर्तित से वह अ० समय समय में अ० आंतरा रहित आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होवे त० तहां जे० जो आ० आभोग निवर्तित से वह ज० जघन्य च० चतुर्थभक्त है। सूत्र । कुमाराणं भंते आहारट्ठी ? हंता आहारट्ठी । असुर कुमाराणं भंते __ केवइय कालस्स आहारट्टे समुप्पजइ ? गोयमा ! असुर कुमाराणं दुविहे आहारे पण्णत्ते तंजहा आभोगनिव्वत्तिएय, अणाभोग णिव्वत्तिएय । तत्थणं जे से अणाभोगणिव्वत्तिए से अणुसमय अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ । तत्थणं जे से आभोगणिव्वत्तिए से जहण्णणं चउत्थ भत्तस्स उक्कोसेणं भावार्थ | हार की इच्छा उत्पन्न होती है ? अहो गौतम ! असुर कुमार को दो प्रकार का आहार कहा. १ आ-ge भोग निवर्तित सो जानते हुवे आहार लेवे और २ अनाभोग निवर्तित सो अनजान से करे. उस में जो अनाभोग निवर्तित आहार है उस की इच्छा प्रतिसमय विरह रहित नारकी को उत्पन्न होवे और आभोग शनिवर्तित जो आहार है उस की इच्छा जघन्य चतुर्थ भक्त (एक दिन ) में उत्पन्न होवे उत्कृष्ट एक हजार पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 2880% पहिला शतकका पहिला उद्दशा 8--22000 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्दाथा १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 89 30 उत्कृष्ट सा० सातिरेक वा० सहस्र वर्ष में आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होवे ॥ १७ अ० असुर कुमार किं. क्या आ० आहार आ० ग्रहण करते हैं गो. गौतम द० द्रव्य से अ. अनंत प० प्रदेश द० द्रव्य खे० क्षेत्र का० काल भा० भाव से प० पनवणा में से० शेष ज० जैसे णे नारकी को जा० यावत् ते० उनको पो० पुद्गल की कीसतरह भु. वारंवार प० परिणमते हैं गो० गौतम सो० श्रोतेन्द्रियपने सु०१ सुरूपपने सु० अच्छावर्णपने इ० इष्टपने इ० इच्छापने अ० अच्छी वांच्छापने उ० प्रधानपने णो नहीं अ० साइरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पजइ. ॥ १७ ॥ असुरकुमाराणं भंते किं आहार माहारेति ? गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई दवाई खेत्त काल भाव पण्णवागमेणं सेस जहा णेरइयाणं जाव तेणं तेसिं पोग्गला कीसत्ता भज्जो भजो परिणमंति ? गोयमा ! सोइंदियत्ताए, सुरूवत्ताए, सुवण्यत्ताए, इट्टत्ताए, इच्छियत्ताए, वर्ष से कुच्छ अधिक समय में उत्पन्न होवे ॥ १७॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार जाति के देवता क्या आहार करे ? अहो गौतम ! द्रव्य से अनंत प्रदेशी द्रव्य का आहार करे, क्षेत्र से, काल से. भाव से आहार करने की विधि जैसी पन्नवणा सूत्र में कही है वैमी यहां जानना और शेष सब अधिकार नारकी का कहा वैसे ही यहां कहना. और उनको पुतुल की तरह परिणमते हैं ? उन को पुल श्रोतन्द्रियपने. सुरूप, सर्वोत्कृष्ट वर्ण, इष्टपने, ईपिपतपने-पड़ऋतु में मखदायीपना से. वारंवार एमाही बना रहुं ऐसी * प्रकाशक-राजावहादुर लामा वनहाय ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8888 अधोपने सु० सुखपने णो० नहीं दु. दुःखपने भु० वारंवार प. परिणमते हैं ॥ १८ ॥ अ० अमुर कुमार भ० भगवन् पु. पूर्वाहारी पो० पुद्गल प० परिणमें अ. अमुरकुमार के अ: अभिलाप से ज. जैसे 100 नारकी जा. यावत् च० चलित क० कर्म णि निर्जरते हैं ॥ १९ ॥ ना. नागकुमार की भं० भगवन् के० कितना काल की ठि० स्थिति गो. गौतम ज० जघन्य द० दशवर्ष स० सहस्र उ० उत्कृष्ट दे देशऊण, अभिज्झियत्ताए, उद्वत्ताए णो अहत्ताए सुहत्ताए णोदुहत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ॥ १८ ॥ असुरकुमाराणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिणया ? असुर कमाराभिलावेणं जहा रइयाणं जाव चलियं कम्मं णिजरेति ॥ १९ ॥णाग कुमाराणं भंते केवइयं कालं ठिई प. ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई ॥ २० ॥ नागकुमाराणं भंते केवइय काल इच्छापने, ऊर्ध्वपने, अधोपने नहीं, व सुखपने वारंवार परिणमते हैं परंतु दुःखपने नहीं परिणमते हैं ॥१८॥ अहो भगवन् ! अमुरकुमार को पूर्व के ग्रहण किये हुवे पुद्गल परिणमें ? वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं वहां तक असुरकुमारका सब आधिकार नारकीका अधिकार जैसे कहना ॥१९॥ अहो भगवन् ! नागकुमार जाति के देवता की कितने काल की स्थिति कही? अहो गौतम! नाग कुमार जाति के कदेवता की जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश ऊना दो पल्योपम की स्थिति कही ॥ २० ॥ अहो भगवन! पहिला शतकका पहिला उद्देशा 88488 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा दो० दोपल्योपम की ॥२०॥ना नागकमार भं० भगवन् के० कितना काल में आ० थोडाश्वास ले पा०१ श्वास ले ऊ० ऊंचा श्वास ले नीचा श्वास ले गो० गौतम ज० जघन्य स० सात थोभ उ० उत्कृष्ट गु० मुहूर्त पृथक ॥ २१ ॥ ना० नागकुमार भं० भगवन् आ० आहारके अर्थी हं० हां आ• आहार के अर्थी णा० नागकुमार को भं० भगवन् के० कितना काल में आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होवे गो गौतम ना० नागकुमार दु० दोपकार का आहार आ. आहारे आआभोग निवर्तित अ० अनाभोग सूत्र स्स आणमंतिवा, पाणमंतिवा, ऊससंतिवा, णीससंतिवा ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहुत्त पुहुत्तस्स आणमंतिवा, पाणमंतिवा, ऊससंतिवा, नीससंतिवा. ॥ २१ ॥नागकुमाराणं भंते आहारट्टी ? हंता आहारट्ठी । णागकुमाराणं भंते केवइय कालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! णागकुमाराणं दुविहे आहारे पण्णणे तंजहा भावार्थ नागकुमार के देवता कितने काल में श्वासोश्वास लेते हैं ? अहो गौतम ! नाग कुमार देवता जघन्य सात स्तोक उत्कृष्ट मुहूर्त से पृथकूमें श्वासोश्वास लेते हैं ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! नागकुमार जाति के देवता क्या आहार के अर्थी हैं ? हो गौतम ! नागकुमार जाति के देवता आहार के अर्थी हैं. अहो भगवन् ! के उन को कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! आहार दो प्रकार का है. १ दो मुहूर्तसे नव मुहूर्ततक. इसको प्रत्येक मुहूर्तभी कहते हैं. 400 अनुवाइक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-रामावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - शब्दार्थनिवर्तित त० तहां जे० जो अनाभोग निवर्तित से उनको अ० समय समयमें अ०आंतरा रहित आ० आहार । की इच्छा स० उत्पन्न होवे त० तहां जे. जो आ० आभोग निवर्तित से उनको जनघन्य च० चतुर्थभक्त उ. उत्कृष्ट दि० दिवस पृथक् आ० आहार की स० इच्छा उत्पन्न होवे से शेष ज. जैसे अ० असुरकुमार जा. यावत् च० चलित क० कर्म णि निर्जरते हैं ॥ २२॥ ए. ऐसे मु०सुवर्ण कुमार को भी जा० यावतू थ० स्तनित कुमार को ॥२३॥ पु. पृथ्वी काया की मं० भगवन के० कितना काल की ठि० स्थिति गो०१ में आभोगाणव्वात्तिएय, अणाभोगनिव्वत्तिएय । तत्थणं जे से अणाभोग णिव्वत्तिए से अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ, तत्थणं जे से आभोग णिव्यत्तिए सेजहण्णेणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं दिवस पुहुत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, सेसं जहा असुरकुमारणं जाव चलियं कम्मं णिजरेंति ॥ २२ ॥ एवं सुवण्णकुमाराणवि जाव थणियकुमाराणंति ॥२३॥ पुढविकाइयाणं भंते केवइयंकालंठिई पण्णत्ता ? गोयमा! भाबाथे १ आरोग निवर्तित, २ अनाभोग निवर्तित. उस में अनाभोग निवर्तित आहार की निरंतर समय २ में अ-350 विच्छिन्नपन्ने इच्छा उत्पन्न होती रहती है और आभोग निवतित आहार की इच्छा जघन्य चतुर्थ भक्त । उत्कृष्ट दिन प्रथकू अर्थात् दो दिन से नव दिन तक शेष चलित कर्म निर्जरे वहां तकका अधिकार असुर/ota कुमार जैसे कहना ॥ २२ ॥ जैसे नागकुमार का कहा वैसे ही सुवर्णकुमार यावत् स्तनित कुमारकाई। पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र -2383 पहिला शतक का पहिला उद्देशा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी में गौतम ज० जघन्य अं० अन्तर्मुहुर्त उ० उत्कृष्ट वा० बावीसवर्ष स० सहस्र की. ॥ २४ ॥ पु. पृथ्वी * काया भं० भगवन के. कितना काल आ० थोडा श्वास ले पा बहुत श्वास ले ऊ ऊंचा श्वासले नी० नीचाई से श्वास ले गो. गौतम बे० बेमात्रा ॥ २५ ॥. पु. पृथ्वी काया आ० आहारार्थी हैं. हां गो०११ गौतम आ० आहार के अर्थी पु० पृथ्वी काया को केः कितना काल में आ० आहार की इच्छा स० जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई ॥ २४ ॥ पुढविकाइयाणं भंते केवइयकालस्स आणमंतिवा, पाणमंतिवा, ऊससंतिवा, नीससंतिवा ? गोयमा! बेमायाए आणमंतिवा पाणमंतिवा, ऊससंतिवा नीससंतिवा ॥ २५ ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! आहारट्ठी ? हंता गोयमा ! आहारट्ठी । पुढविकाइयाणं भंते केवइय कालस्स जानना ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वी काया की कितने काल की स्थिति कही ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष की ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया कितने काल में श्वासोश्वास लेते हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वी कायाके जीव वे मात्रा से श्वासोश्वास लेवे अ लेने की मर्यादा नहीं है ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वी कायिक जीवों क्या आहार के अर्थी हैं ? हां गौतम ! वे आहार के अर्थी हैं. अहो भगवन् ! उन को आहार की इच्छा कितने काल में उत्पन्न होती है है ? अहो गौतम ! उन को प्रति समय विरह रहित आहार की इच्छा उत्पन्न होती है. अहो भगवन ! पृथ्वी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भाव । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । ३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र उत्पन्न होवे गो० गौतम अ• समय समय में अ० अंतर रहित आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होवे पु. पृथ्वी काया भं० भगवन् किं. कौनसा आ० आहार आ० ग्रहण करे गो० गौतम द. द्रव्य से ज०१ जैसे मे० नारकी णि निर्व्याघात छ. छदिशि में वा. व्याघात आश्री सि० काचित् ति० तीनदिशा में सि० क्वचितू च० चारदिशा में सि० क्वचित् पं०. पांचदिशा में व. वर्ण से का० काला नी नीलाई आहारटे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ ॥ पुढविकाइयाणं भंते किमाहार माहारेति? गोयमा ! दव्वओ जहा णेरइयाणं. णिव्वाघाएणं छदिसिं वाघायंपडुच्च सियतिदिसिं सियचउदिसिं, सियपंचदिसिं, वण्णओ काल नील लोहिय हालिद्द सुकिलाणं, गंधओ सुब्भिगंध दुरभिगंधाई, रसओ तित्ताई कायिक जीव क्या आहार करते हैं ? द्रव्य से अनंत प्रदेशात्मक द्रव्य का आहार करे वगैरह सब अधिकार नारकी जैसे कहना. निर्व्याघात से छ दिशि का आहार लेवे पूर्वादिचार व ऊर्ध्व और अधो. व्याघात आश्रित अर्थात लोकान्त के उपर या नीचे व पूर्व दक्षिण में अलोक होवे वेस स्थान उत्पन्न होने वाले पृथ्वी कायिक जीव तीन दिशा का आहार लेवें. उपर नीचे अलोक होवे वैसे स्थान में उत्पन्न होनेवाले चार दिशाका आहार करें, और छ दिशामें से एक दिशा में ही मात्र अलोक होवे वैसेस्थान उत्पन्न होनेवाले पांच १ लोकान्त निष्कुट को व्याघात कहते हैं उसको छोडकर अन्यत्र उत्पन्न होनेवाले. 86-4300- पहिला शतक का पहिला उद्दशा-20-05 भावार्थ * Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दाथ लो. राता हा०पीला मु० शुक्ल गं० गंधसे सु० सुरभिगंध दु० दुरभिगंध र० रस से तितिक्तादि फा० स्पर्श से क. कर्कश आदि मे० शेष त० तैसे णा. जानना क. कीतना भाग आ० आहार करते हैं का? कीतना भाग फा० स्पर्शते हैं गो० गौतम अ० असंख्यात में भाग आ० आहार करते हैं अ० अनंत में भाग फा० स्पर्शते हैं जा० यावत् ते० उनको पो० पुद्गल की० कीस तरह भु० वारंवार प० परिणमते हैं। गो० गौतम फा० स्पर्शेन्द्रियपने बे० बेमात्रा भु० वारंवार प. परिणमते हैं शेष ज. जैसे णे नारकी जा ५, फासओ कक्खडाइं ८, ॥ सेसं तहेव णाणत्तं कइभागं आहारेंति, कइभागं फासेंति ? गोयमा ! असंखेजइ भागं आहारति अणंतभाग फासंति । जाव तेणं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ? गोयमा फासिदिय बेमायाए भुजो भुजो दिशा का आहार करे. वर्ण से काला, नीला, रक्त, पीला व शुक्ल पुद्गलोंका आहार करें, गंध से सुरभिगंध से भावार्थ व दुरभिगंध का आहार करें, रस से तिक्तादि पांचा रस का आहार करें और स्पर्श से कर्कशादि आठों स्पर्श का आहार करें. शेष जैसे नारकी का कहा वैसे ही कहना. परंतु इतना विशेष जानना कि कितना भाग का आहार करे व कितना भाग आस्वादे ? अहो गौतम ! असंख्यात भाग का आहार मेंकरे, व अनंत में भाग में आस्वादे. वे पुद्गल कैसे परिणमते हैं ? अहो गौतम ! वे पुदलों स्पर्शेन्द्रियपने परिणमे अथवा विषम मात्रा या विविध मात्रा से वारंवार परिणमे यावत चलित कर्म निर्जरे वहां तक का शेष 203 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थIयावत णो नहीं अ० अचलित क. कर्म णि निर्जरते हैं।॥२६॥ए ऐसे जा० यावत् २० वनस्पति काया को गुण विशेष ठि० स्थिति व. कहना जा० जो ज० जिनका उ. ऊश्वास बे० बेमात्रा ॥ २७॥ बे० बे. इन्द्रिय की ठि• स्थिति भा० कहना उ० उश्वास बे० बेमात्रा ॥ २८ ॥ बेलवे द्वीन्द्रिय को आ आहारकी पु० पृच्छा अ० अनाभोग निवर्तित त० तैसे त० तहां जे० जो आ० आभोगनिवर्तित अ० परिणमंति, सेसं जहा णेरइयाणं जाव णो अचलियं कम्मं णिजरेति ॥ २६॥ एवं जाव वणरसइ काइयाणं, णवरंठिती वण्णेतव्वा जा जस्स उस्सासो बेमायाए॥ २७॥ बेइंदियाणं ठिती भाणियव्वा, ऊसासो बेमायाए. ॥ २८ ॥ बेइंदियाणं आहारे पुच्छा, भावार्थ | सब अधिकार नारकी जैसे कहना ॥ २६ ॥ जैसे पृथ्वी कायिक जीवों का अधिकार कहा वैसे ही अपका यिक, तेउकायिक, वायुकायिक व वनस्पति कायिक जीवोंका जानना. इस में मान स्थिति भिन्नता बतलाइ है सो कहते हैं-सब की जघन्य अंत मुहूर्त की उत्कृष्ट अपूकायिक जीवों की सात हजार की, तेउकायिक जीवों की तीन अहो रात्रि, वायु कायिक जीवों की तीन हजार वर्ष की वनस्पति कायिक जीवों की दश हजार वर्ष की और श्वासोश्वास मर्यादा रहित ॥ २७॥ द्वीन्द्रिय की स्थिति बारह वर्ष की कही और श्वासोश्वास मर्यादा रहित जानना ॥२८॥ अहो भगवन् ! द्वीन्द्रिय कैसे आहार करते हैं ? अहो गौतम ! आहार के दो भेद आभोगनिवर्तित व अनाभोगनिवर्तित. उस में आभोग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सत्र 48+ 888 पहिला शतकका पहिला उद्देशा - पंचमाङ्ग विवाह । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्रीपालक असिनी असंख्यात समय अ अन्तर्मुहूर्त बे० चेमाचा आ० आहार की इच्छा स० उत्पन्न होने से शेष त तैसें जा यावत् अ० अनंत भाग आ- आखादे ॥ २१ ॥ ० इन्द्रिय भ० भगवन जे. जो पो० पुद्गल आ० आहारपने गि० ग्रहण करते हैं ते. वे कि क्या स सर्व आ. आहार करते हैं णो नहीं म. सर्व आ० आहार करते हैं गो. गौतम वे. वेइन्द्रिय को दोपकार का आ० आहार प. कहा तं. वह अणाभोगणिव्वत्तिः तहेव ॥ तत्थणं जेसे आभोगणिव्वत्तिए सेणं असंखेज समइए, अंतोमुहात्तिए बमायाए आहारटे समुप्पजइ. सेसं तहेव जाव अणंतभागं आसायंति ॥ २९ ॥ बेइंदियाणं भंते जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हति ते किं सव्वे आहारति, णो सव्वे आहारैति? गोयमा ! बेइंदियाणं दविहे आहारे पण्णत्ते तंजहा लोमाहारेय पक्खेवाहारेय । जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हति ते सव्वे अपरिसेसिए आहारैति. जे * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ निवर्तित आहार असंख्यात ममयिक अंतर्मुहर्त में मर्यादा रहित आहार करे. अन्य यावत अनंत भाग का आस्वादन करे वहांतक का मव अधिकार पहिले जैसे कहना ॥ २० ॥ अहो भगवन् : इन्द्रिय जितने पुद्गलों को आहार के लिये ग्रहण करते हैं उन सब का क्या वे आहार करते हैं या मब का आहार नहीं करते? अहो ग तय ! दहिन्द्रिय के आहार के दो भेद कहे हैं. १ रोम आहार सो ओघ से वर्षादि समय में जो पुद्गलों प्रवेश करे और २ प्रक्षेप आहार सो करल रूप. इम में जो पुद्गल रोम आहारपने Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ज० जैसे लो० रोम आहार प० कवल आहार जे. जो पो० पुद्गल लो० रोम आहारपने गि० ग्रहण करते 11 ते वे स० सर्व अ० निर्विशेष आ० आहारकरे जे० जो० पो० पुद्गल प० कवल आहारपने गि• ग्रहण करतेहैं पो० पुद्गल को अ० असंख्यात भाग को अ० आहारकरे अ० अनेक भाग स० सहस्र अ० नहीं भोगवे अ० नहीं स्पर्श वि० विध्वसंपाते हैं ए० इन पो० पुद्गल को अ० नहीं भोगवा न० नही स्पर्शा क० कौन से अ० थोडे ब० बहुत तु. सरिखे वि० विशेषाधिक गो० गौतम स०सर्व से थोडा पो पुद्गल अ० नहीं पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हंति तेसिणं पोग्गलाणं असंखेजइ भागं आहारैति. अणेगाइंचणं भागसहस्साई अणासाइजमाणाई अफासाइजमाणाई विद्वंसमावज्जइ ॥ एएसिणं भंते पोग्गलाणं अणासाइजमाणाणं अफासाइजमाणाणं य, कयरे २ हिंतो अप्पावा, बहुलावा, तुल्लावा, विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला ग्रहण करते हैं उन सबै पुद्गलों का आहार करते हैं. और जो पुद्गल प्रक्षेप आहारपने ग्रहण किये जाते भावार्थ हैं, उन का असंख्यात में भागमें आहार करते हैं, और अनेक सहस्र भाग नहीं आस्वादते व नहीं स्पर्शते । | उन का विध्वंस होता है. अहो भगवन् ! नहीं आस्वादन किये हुवे व नहीं स्पर्श हुवे पुद्गलों में से कोनसा अल्प व बहुत है ? अथवा तुल्य है या विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 388 <3 पहिला शतक का पहिला उद्देशा 8 888 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भोगवा अ० नही स्पर्शा अ० अनंतगुणा ॥ ३० ॥ बे० बेइन्द्रिय भ० भगवन् पो० पुद्गल आ° आहारपने गि० ग्रहण करते हैं ते. वे पो० पुद्गल की० कीसतरह भु० वारंवार प० परिणमते हैं गो० गौतम जि• जिव्हेन्द्रिय फा• स्पर्शेन्द्रियपने बे० बेमात्रा भु० वारंवार प० परिणमते हैं बे० बेइन्द्रिय भं• भगवन् । पु. पूर्वाहारी पो० पुगल ५० परिणमा त० तैसे जा. यावत् च० चलित कर्म णि निर्जरे ॥ ३१ ॥ ते तेइन्द्रिय च० चतुरेन्द्रिय णा विविध प्रकार की ठि० स्थिति जा. यावत् अ० अनेक भा० भाग सहस्र अ० अणासाइजमाण्ण, अफासाइज्जमाणा अणंतगणा ॥ ३० ॥ बेइंदियाणं भंते पोग्गला o आहारत्ताए गिण्हंति तेणं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! जिभिदिय फासिंदिय बेमायाए भुजो भुज्जो परिणमंति ॥ बेइंदियाणं भंते पुवाहारिया पोग्गला परिणया तहेव जाव चलियं कम्मं णिजरेंति ॥ ३१ ॥ तेइंदिय चउरिंदिभावार्थ थोडे आस्वाद नहीं कराये हुवे पुद्गल उस से अस्पर्शमान पुद्गल अनंत गुने कहे हैं ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! जो पुद्गल द्वीइन्द्रिय आहारपने ग्रहण करते हैं वे कैसे परिणमते हैं ? अहो गौतम ! वे आहार के पुद्गल १ वेइन्द्रिय को जिव्हेन्द्रियपने स्पर्शेन्द्रियपने व वमात्राले परिणमते हैं. अहो भगवन् ! बेइन्द्रिय को पहिले के आहारे में लहुवे पुद्गल परिणमते हैं यावत् चलित कर्म की निर्गरा करते हैं वगैरह सब अधिकार पहिले जैसे कहना * "॥ तेइन्द्रिय की स्थिति ४०. दिन की व चतुरेन्द्रिय की स्थिति ६ माम की अन्य सब अ का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथही मयत अनही बादलते अ० नही म्पर्शन विविध्वसपात । पा० पुट्ठल को अनही संघात्र अ नहीं बादलिय अनही स्पर्शहर गा: गौतम म० सर्व में थोडा पो० पुद्गल अ० नहीं सुंघेहवे अ. नही बादलिये नराने धनह। स्पर्शहवे अ. अनंतगुने ते. तेइन्द्रिय को घा० घ्राणेन्द्रिय जिक जिव्हान्द्रय फा० शान्द्रयपन ३० मात्रा भुं० वारंवार परिणमें च चतुरिन्द्रिय को च. चक्षु याणं णाणत्तं ठिईए जाव अणेगाई च णं भागसहस्साई अणाघाइजमाणाई, अणासाइजमाणाई, अफासाइजमाणाई विदंसमावज्जति. एएसिणं भंते पोग्गलाणं अणाघाइजमाणाणं, अणासाइजमाणाणं अफासाइज माणाणं य पच्छा ॥ गोयमा? सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइजमाणा, अणासाइजमाणा अणंतगुणा अफासाइजमा णा अणंतगुणा । तेइंदियाणं घाणेदिय जिभिदिय फासिंदिय बेमायत्ताए भुजो भुजो भावार्थ धिकार अनेक भाग सहस्र घ्राणेन्द्रिय से नहीं सुंघते, रसनेन्द्रिय मे नहीं आस्वादते व स्पर्शेन्द्रिय से नहीं स्पर्शते नष्ट होते हैं वहां तक पहिले जैसे कहना. उन में कोनसा अल्प व बहुत है ? तुल्य व विशेषाधिक है ! अहो गौतम ! सब से थोडे घाणेन्द्रियपने नहीं सुंघे हुवे पुद्गलों, इस से रसनेन्द्रियपने नहीं 10 आस्वादेहबे पुद्गलों अनंत गुने, इस मे सन्द्रिपने नहीं स्पर्श हुवे पुद्गलों अनंत गुने, तेइन्द्रिय को आहार के पुद्गल घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रियपने, व विविध प्रकार से परिणमते हैं वैसे ही चतुगेन्द्रय को । 4. 33 पंचयांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 3308 पहिला शतकका पहिला उद्देशा 2880888 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ इन्द्रिय घा० घ्राणेन्द्रिय जि० जिव्हेन्द्रिय फा० स्पर्शेन्द्रियपने भु० वारंवार प० परिणमें ॥ ३२॥ पं० पंचे न्द्रिय:ति तिर्यंच ठि० स्थिति भ. कहना ऊ उश्वास बे० बेमात्रा आ० आहार अ० अनाभोग निवर्तित पने अ० समय समय में अ० आंतरा रहित आ० आभोग निवर्तितपने ज जघन्य अ० अन्तर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट छ. छठ्ठ भक्त में से शेष ज. जैसे च. चतुरेन्द्रिय जा. यावत् च. चलित कर्म णि निर्जरे ॥ ३३ ॥ * 'परिणमंति चउरिदियाणं चक्टुंदिय घाणिदिय जिभिदिय फासिंदियत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ॥ ३२ ॥ पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं ठिई भणिऊण ऊसासोबेमायाए आहारो अणाभोगाणिव्वात्तए अणुसमइयं अविरहिओ आभोनिव्वत्तिओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स सेसं जहा चउरिदियाणं जाव चलियं कम्मं णिजरेति ॥३३॥ एवं मणुस्साणवि. गवरं आभोगणिव्वात्तए जहण्णेणं अंतो चाइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रियपने परिणमते हैं ॥ ३२ ॥ तिर्यंच पंचेन्द्रिय की स्थिति भावार्थ Eजघन्य अंतमुहूर्त की उत्कृष्ट तीन पल्योपम की. उन का श्वासोश्वास मर्यादा रहित जान्ना. उन को अनाभोग निवर्तित आहार प्रति समय विरह रहित होता है. और आभोग निवर्तित आहार जघन्य अंत र्मुहूर्त में उत्कृष्ट छह भक्त सो दो दिन में. (देवकुरु उत्तर कुरु के क्षेत्र के तिर्यंच आश्रित.) और चलित कर्म की निर्जरा करेंगे वहांतक का शेष सब अधिकार चतुरोन्द्रिय. जैसे कहना ॥ ३३॥ ऐसे ही 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । ऐसे म. मनुष्य को ण. विशेष आ० आभोग निवर्तितपने ज० जघन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट अ० अठम भक्त सो• श्रोतेन्द्रिय च०" चक्षुइन्द्रिय घा० घाणेन्द्रिय जि० जिव्हेन्द्रिय फा० स्पर्शेन्द्रियपने ४० बेबेयात्रा भ० वारंवार १० परिणमें से० शेष त० तैसे जा. यावत च० चलित कर्म णि निर्जरे॥३४ या वाणव्यंतर को ठि० स्थिति णा. नानाप्रकारकी. अ० निरवशेष ज. जैसे णा० नाग कमार को॥३ ए. ऐसा जो० ज्योतिषी को ण विशेष उ० उश्वास ज. जघन्य मु० मुहूर्त पृथक् उ० उत्कृष्ट मु० मुहूर्त है। ___ महत्तं, उक्कोसेणं अट्रमभत्तस्स सोइंदिय चक्खंदिय घाणिदिय जिभिदिय फासिदिय है बेमायाए भुजो भुजो परिणमंति सेसं तहेव जाव चलियं कम्मणिज्जरेंति ॥ ३४ ॥ है वाणमंतराणं टिईए णाणत्तं । अवसेसं जहा णाग कुमाराणं ॥३५॥ एवं जोइसियाणं । मनुष्य को जानना. परंतु आभोग नितित आहार की इच्छा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अठम भक्त सोई तीन दिन में होवे देव कुरु उत्तर कुरु क्षेत्र के मनुष्य आश्रित. दोनों को आहार के पुद्गल श्रोतेन्द्रिय चाइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रियपने व बे मात्रा से परिणमते हैं. अन्य चलित कर्म की निर्जरा करे वहांतक सब पहिले जैसे कहना ॥ ३४॥ वाणव्यंतर देवता की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट एक पल्योपम की अन्य सब नाग कुमार जैसे कहना. ॥ ३५ ॥ ज्योतिषी देवता 10 की स्थिति जघन्य एक पल्यापम का आठवा भाग उत्कृष्ट एक पल्योपम व एकलाख वर्ष आधिक जानना. और 33 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र -8882 पहिला शतक का पीहला उद्देशा894880 जावाथे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + शब्दार्थ पृथक् आ० आहार ज० अघन्य दि० दिवस पृथक् उ० उत्कृष्ट दिवस पृथक् ॥ ३६ ॥ ० वैमानिक को ठ० स्थिति भा० कहना उ० उश्वास अ० जघन्य मु० मुहूर्त पृथक् उ० उत्कृष्ट ते० तेत्तीस प० पक्ष आ. आहार ज. जघन्य दि० दिवस पृथक उ० उत्कृष्ट ते० तेत्तीसवर्ष स. सहस्र से० शेष तं०११ तसे जा० यावत् णि निर्जरे ए० ऐसे ठि० स्थिति आ• आहार भा० कहना ठि• स्थिति ज० जैसे ठि० वि णवरं उस्तासो जहण्येणं मुहुत्त पुहुत्तस्स, उक्कोसेणवि मुहुत्त पुहुत्तस्स आहारो जहण्णेणं दिवस पुहुत्तस्स उक्कोसेणवि दिवस पुहुत्तस्स सेसं तंचेव ॥ ३६ ॥ वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वाओहिया, उस्सासो जहण्णेणं मुहुत्त पुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं ॥ आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहण्णेणं दिवस पुहत्तस्स उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं, सेसं तंचेव जाव णिजरेति. एवं ठिती आहारो य भाणियव्वो. *उश्वास जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक मुहूर्त आहार की इच्छा जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक दिन में होवे ॥ ३६ ॥ वैमा- भावार्थ निक देवताओं की स्थिति जघन्य एक पल्योपमकी उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की श्वासोश्वास जघन्य प्रत्येक मुहर्त में लेवे उत्कृष्ट ३३ पक्ष में लेवे, आभोग निवर्तित आहार की इच्छा जघन्य प्रत्येक दिन में होवे. उत्कृष्ट तेत्तीस हजार वर्ष में होवे शेष चलित कर्म की निर्जरा करे वहांतक सब अधिकार पाहिले जैसे। | कहना. सब जीवों की स्थिति स्थिति पद से जानमा व आहार पन्नवणा मूत्रके पाहिले आहार उद्देशे में जैसा * अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4880- 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8-81 स्थितिपद में त० तैसे भा० कहना स० सर्व जी० जीव का आ० आहार ज० जैसे प० पन्नवणा में ५० प्रथम आ० आहार उद्देशे में त० तैसे भा० कहना ए. यहां से आ० लेकर णे. नारकी भं• भगवन आ० | आहार के अर्थी जा० यावत् दृ० दुःखपने भ० वारंवार परिणमें ॥ ३७॥ जी० जीव भं भगवन् किं. क्या आ० आत्मारंभी प० परारंभी उ० उभयारंभी अ० अनारंभी गो० गौतम अ० कितनेक जी. आ आत्मारंभी प० परारंभी उ० उभयारंभी णो० नहीं अ० अनारंभी अ. कितनेक जीव णो० नहीं है ठिती जहा ठितीपदे तहा भाणियव्वा. सव्व जीवाणं आहारोय जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए तहा भाणेयव्यो । एत्तो आढत्तो णेरइयाणं भंते आहारट्ठी जाव दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमंति ॥ ३७ ॥ जीवाणं भंते किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा? गोयमा!अत्थेगइया जीवा आयारंभावि,परारंभावि तदुभयारंभावि, जानना. इसी तरह चौविस दंडक का कहदेना अहो भगवन् ! नारकी को आहार की इच्छा होती है ? यावत दःखरूप वारंवार परिणमे. इस में पहिले नारकी की वक्तव्यता कही वह आरंभ पूर्वक होती है इस लिये आरंभका निरूपण करते हैं॥३७॥अहो भगवन् ! क्या जीव स्वतः घात करनेवाले हैं, व अन्य की पास घात करानेवाले हैं स्वतः घात करानेवाले व अन्य की पास करानेवाले हैं, या दोनों प्रकार की घात से रहित अनारंभी हैं ? अहो गौतम कितनेक जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी भी हैं, आत्मपगरंभी भी हैं परंतु अनारंभी है। ammammmmwww पहिला शतक का पहिला उद्देशा 438380 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आ०. आत्मारंभी णो० नहीं परारंभी मो० नहीं उ० उभयारंभी अ० अनारंभी से वह के० कीसतरह ए० ऐसा वु० कहा अ० कितनेक जी० जीव आ० आत्मारंभी ए० ऐसे प० पीछा कहना गो० गौतम जी० जीव दु० दोप्रकार के सं० संसारी अ० संसार को अप्राप्त त० तहां जे० जो अ० संसार को अप्राप्त ते ० वे सि० सिद्ध णो० नहीं आ० आत्मारंभी जा० यावत् अ० अनारंभी त० तहां जे० जो सं० संसारी ते० वे दु० {दोप्रकार के सं०संयति अ० असंयति तं तहां जे०जो सं० संयति ते०वे दुब्दोप्रकार के प० प्रमत्त संयति अ० णो अणारंभा ॥ अत्थेगइया जीवाणो आयारंभा, णो परारंभा, णो तदुभयारंभा, अणारंभा || सेकेणट्टेणं भंते एवं वुच्चइ ? अत्थेगइया जीवा आयारंभावि ! एवं पडि उच्चारेयव्वं ॥ गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - संसार समावण्णगाय, असंसार समावण्णंगाय ॥ तत्थणं जे ते असंसार समावण्णगाय, तेणं सिद्धा. सिद्धा णं णो नहीं है. कितनेक जीव आत्मारंभी नहीं है, परारंभी नहीं है, उभयारंभी भी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं. अहो भगवन् ! कितनेक जीव आत्मारंभी हैं, परारंभी है और उभयारंभी भी है परंतु अनारंभी नहीं है वैसे ही कितनेक जीव आत्मारंभी नहीं है, परारंभी नहीं है, आत्मपरारंभी दोनों { नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं ऐसा जो आपका कथन है वह किस तरह से हैं ? अहो गौतम ! जीव के दो भेद हैं ? संसार में रहनेवाले और २ संसार से मुक्त उस में जो संसार असमावन्न जीव हैं वे चार * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ४४ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र अप्रमत्त संथति त. तहां जे० जो अ० अप्रमत्त संयति ते. वे णो० नहीं आः आत्मारंभी णो० नहीं प० है । परारंभी जा० यावत् अ० अनारंभी त० तहां जे० जो ५० प्रमत्त संयति ते वे सु० शुभयोग ५० आ- | श्रित णो नहीं आ० आत्मारंभी जा. यावत् अ० अनारंभी अ० अशुभयोग प० आश्रित आ० आ-है। मारंभी जा० यावत् णों नहीं अ० अनारंभी त. तहां जे. जो० अ० असंयति ते• वे अ० अविरति आयारंभा जाव अणारंभा ॥ तत्थणं जे ते संसार समावण्णगा, तेदुविहा ५०, तं. संजयाय, असंजयाय । तत्थणं जे ते संजया, ते दुविहा प०, तं० पमत्त संजयाय, . अपमत्त संजयाय । तत्थणं जे ते अपमत्त संजया तेणं णो आयारंभा, णो परारंभा जाव अणारंभा । तत्थणं जे ते पमत्त संजया ते सुहंजोगं पडुच्च णो आयारंभा, गतिरूप संसार में अनंत वक्त परिभ्रमण करके समस्त कर्म क्षयरूप स्थानक सो मोक्ष को प्राप्त हुने उन को सिद्ध कहते हैं. वे सिद्ध आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी नहीं हैं. परंतु अनारंभी हैं. और जो संसार समावन्न जीव हैं वे दो प्रकार के कहे हैं संयति भो चारित्र सहित व असंयति सो चारित्र रहित.to उस में संयति के दो भेद १ प्रमत्त संयति २ अप्रमत्त संयति. जो सप्तम गुणस्थान वर्ती अपर संयति हैं वे आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं. और जो छठे गुणस्थानवर्ती , प्रमत्त संयति हैं वे शुभ योग आश्रित आत्मारंभी, परारंभी, व उभयारंभी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं, पहिला शतक कापहिला उद्देशा 8 8 .... ९.१० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 १५० आश्रित आ० आत्मारंभी जा० यावत् णो० नहीं अ० अनारंभी से० वह ते० इसलिये गो० गौतम ए०* ऐसे वु० कहा जाता है अ० कितनेक जीव जा० यावत् अ० अनारंभी ॥ ३८ ॥ ० नारकी भं० भगवन् किं. क्या आ० आत्मारंभी प० परारंभी त• उभयारंभी अ० अनारंभी गो गौतम गे० नारकी णो परारंभा, जाव अणारंभा । असुहं जोगं पडुच्च आयारंभावि जाव णो अणारंभा। तत्थणं जे ते असंजया ते अविरतिं पडुच्च आयारंभावि 'जाव णो अणारंभा. से ते. 4 णटेणं गोयमा एवं वुच्चइ, अत्थेगइया जीवा जाव अणारंभा ॥३८॥ णेरइयाणं १ भंते किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा ? गोयमा ! णेरइया आया.. और अशुभ योग आश्रित आत्मारंभी परारंभी व उभयारंभी हैं परंतु अनारंभी नहीं हैं. और जो असंसंयति हैं. वे अविरति की अपेक्षा से आत्मारंभी, परारंभी, व उभयारंभी हैं परंतु अनारंभी नहीं है. इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहा कि कितनेक जीव आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी हैं परंतु अनारंभी नहीं हैं. और आत्मारंभी. परारंभी व उभयारंभी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं ॥ ३८ ॥ अहो भगवन् ! नारकी आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी हैं या अनारंभी हैं ? अहो गौतम नारकी आत्मारंभी, परारंभी, व प्रत्युपेक्षणादि करणसो अशुभयोग-पुढबी आऊक्काए । तेऊवाऊ वणस्सइ तसाणं ॥पडिलेहण पमत्तो। छण्हं विराहणा होइ ॥१॥ प्रमादसे प्रतिलेखना करनेवाला छ ही कायाका घातक होनाहे. ऋषिजी 8 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ord आ० आत्मारंभी जा. यावत् णो नहीं अ० अनारंभी से वह के० कीसतरह भं० भवगन् ए. बु. कहा जाता है गो. गौतम अ० अविरति प० प्रसयिक से वह ते• इसलिये जा. यावत् णो नहीं है। अ० अनारंभी एक ऐसे जा. यावत् पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच म० मनुष्य ज. जैसे जी० जीव ण. विशेष सि. सिद्ध बि• रहित भा० कहना वा० वाणव्यंतर जाल्यावतू वे० वैमानिक ज० जैसे थे नारकी॥३९॥ 4 4843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww रंभावि जाव णो अणारंभा ॥ से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! आविरतिं पडुच्च. से तेण?णं जाव णो अणारंभा ॥ एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ॥ मणुस्सा जहा जीवा णवरं सिद्धविरहिता भाणेयव्वा ॥ वाणमंतरा जाव वेमाणिया जहा नेरइया उभयारंभी हैं परंतु अनारंभी नहीं हैं. अहो भगवन् ! वह कैमे ? नारकी आत्मारंभी हैं यावत् अनारंभी नहीं हैं. अहो गौतम नारकी के जीव अविरति होने से आत्मारंभी हैं यावत् अनारंभी नहीं हैं. जैसे नारकी का कहा वैसेही दश भुवनपति, पांच स्थावर व तीन विकलेन्द्रिय व तियेच पंचेन्द्रियतक जानना. और मनुष्य को सिद्ध भगवान छोडकर जैसे जीवको संयति, असंयति, प्रमत्त अप्रमत्त ऐसे चार भांगे कहें वैसे ही यहां भांगा अनुसार आत्मारंभी परारंभी, उभयारंभी व अनारंभी के भेद जानना. और जैसे नारकी को कहा। वैसे ही वाणन्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का जानना. ॥ ३९ ॥ अविरति व सलेशी की साधर्म्यतासे आगे पहिला शतक का पहिला उद्देशा वार्थ - 1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स० लेश्या सहित ज. जैसे ओ औधिक कि कृष्णलेश्या नीनीललेश्या काकापुत लेश्या जजैसे ओ. औधिक जीव ण विशेष प० प्रमत्त अ० अप्रमत्त भा० कहना ते तेजो लेश्या प० पद्मलेश्या सु० शुक्ल लेश्या ज. जैसे ओ० औधिक जीव ण विशेष सि० सिद्ध णा नहीं भा० कहना ॥४०॥ इ० यह भ० भविक भ. भगवन णा• ज्ञान ५० परभविक ज्ञान उ० उभय भविक गो गौतम इ. यह भ० भविक ज्ञान • अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 ॥ ३९ ॥ सलेस्सा जहा ओहिया किण्हलेसस्स नीललेसस्स, काउलेसस्स, जहा ओहिया जीवा । णबरं पमत्त अपमत्ताण भाणियब्वा । तेउलेसस्स पम्हलेसस्स सुक्कलेसस्स जहा ओहिया जीवा । णवरं सिद्धा ण भाणिया ॥ ४० ॥ इह भविए भंते णाणे, परभविए जाणे, तदुभय भवि एणाणे ? गोयमा ! इह भविए वि णाणे, परभवि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ लेश्या का प्रश्नकहते हैं. अहो भगवन् ! सलेशी जीव आरंभी हैं? अहो गौतम जैसे समुच्चय जीव का कहा. वैसा कहना. कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावालेको समस्त जीव जेसे कहना परंतु इसमें प्रमत्त व अप्रमत्तका कथन करना नहीं तेजु, पद्म, व शुक्ल लेश्या वाले औधिक जीव (सब जीव) जैसे कहना यहां पर सिद्ध को कहना नहीं क्योंकि सिद्ध अलेशी हैं ॥४०॥ अब आरंभ का हेतुभत ज्ञानका स्वरूप बताते हैं. अहो भगवन् । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * ra शब्दार्थ 4 १५०परभविक उ० उभय भविक ज्ञान दं दर्शन ए ऐसे॥४१॥ इ०यह भ भविक च० चारित्र प० परभविक । चारित्र उ० उयभावक चारित्र गो गौतम इ०यह भविक चारित्र णो नहीं प परभविक चारित्र णो नहीं उ. उभयभविक चारित्रए ऐसे त तपसंयम॥४२॥ अ० असंवृत अ° अनगार सि सिझे बुबुझे मु०मुक्त होवे प० । एवि णाणे, तदुभयभविएवि णाणेय दसणंपि एवामेव ॥४१॥ इह भविए भंते चरित्ते, परभविए भंते चरित्ते, तदुभय भविए चरित्ते ? गोयमा ! इह भविए चरित्ते, णो पर भविए चरित्ते, णो तदुभय भविए चरित्ते एवं तये, संजमे ॥ ४२ ॥ असंवुडेणं भंते अणगारे सिझति, बुज्झति, मुच्चति, परिणिव्वाति, सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति ? गोयमा ! इस भविक ज्ञान होता है, परभधिक ज्ञान होता है, अथवा दोनों प्रकार का ज्ञान होता है ? अहो । गौतम ! इस भविक, परभषिक व तदुभयभविक ज्ञान होता है ऐसे ही दर्शनका जानना. ॥ ४१ ॥a अहो भगवन्! इस भवका चारित्र, परभवका चारित्र, व दोनों भवका चारित्र? अहो गौतम! इस भव संबंधिही चारित्र है परंतु परभविक व उभय भविक चारित्र नहीं है ऐसेही तप व संयम का जानना.॥४२॥ अहो भगवन् 6 502 असंवृत्त आश्रवद्धार को नहीं रुंधने वाला अणगार क्या सिझे, बुझे, कर्म से मुक्त होवे निर्वाणको प्राप्त होवे । १ १ जो ज्ञान यहां पर शीखने में आया होवे और परभव में साथ न जावे. २ इस भवमे शीखने मे आया होवे और परभवमें साथ जावे ३ इस भवमे शीखने में आया होवे वह परभव में व परतरभव में अनुवर्तेसो पहिला शतक का 88-89 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ wwwmwww १.२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी 200 निर्वाणपामे स० सर्व दुःख का अं० अंत करे गो. गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से वह के० कैसे भ० भगवन् जा. यावत् अंत न नहीं क० करे गो० गौतम अ० असंवृत अनगार आ० आयुष्य व० वर्जकर स. सात कर्म प्रकृति सि० शिथिल 40 बंधन ब. बंधिहइ को ध० निकाचित बं० बंधनसे? १० बद्ध प० करे ह. इस्वकाल की ठि० स्थिनि को दी. दीर्घकाल की ठि० स्थिति ५० करे मं. मंद अनुभाग को ति० तीव्र अनुभाग ५० करे अ० अल्प प्रदेश को २० बहुत प्रदेश प. णोइणटे समढे ॥ से केणटेणं भंते जाव अंतं न करेति ? गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउय वजाओ सत्तकम्म पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणिय बंधण बढाओ पकरेइ; हस्सकालद्वितीयाओ दीहकालद्वितीयाओ पकरेइ; मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्प पदेसगाओ बहुपदेसगाओ पकरेइ, आउयंचणं कम्म व सब दुःखों का अंत करे ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसा नहीं होता है. पुन: गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि अहो भगवन् ! किस कारणसे असंतृत अणगार सिझ नहीं, बुझे नहीं यावत् । सब दुख का अंतकरे नहीं? अहो गौतम ! असंवत अणगार आयुष्ये कर्म छोडकर अन्य मात कर्म की प्रकृतियों का शिथिल बंधन हवा होवे तो उनका निकाचित बंध करता है, इस्त्र कालकी स्थिति वाले १ आयुष्य कर्मका बंध भव आश्रित एकही वक्तहोताहै. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - करे आ० आयुष्य क० कर्म सि. कदाचित् वं० बांधे सि. कदाचित् नो नहीं ब० बांधे अ० असाता। वे. वेदनीय क. कर्म को भु. वारंवार उ० इकठाकरे अ० अनादी अ० अनंत दी. दीर्वकाल चा० चातुरंत सं० संसार कतार में अ० परिभ्रमणकरे से उसको ते. इसलिये गो० गौतम अ० अ-है। संवृत अ० अनगार णो० नहीं लि. सिझे ॥ ४३ ॥ सं० संवृत अ० अनगार सि. सिझे हैं. हा सिय बंधइ सिय नो बंधइ, असाया वेयणिजं च णं कम्मं भुजो भुजो उवचिणइ, अणाइयं च णे अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसार कंतारं अणुपरियति । से तेणटेणं । गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिझइ ॥ ४३ ॥ संवुडेणं भंते अणगारे सिझइ ? हंता सिज्झइ जाव अंतं करेइ ॥ सेकेणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! संवुडेणं है कर्मों को दीर्घ काल की स्थितिवाले बनाता है मंद रस देनेवाले कर्मोंको तोवरस देनेवाला करता है, अ-31 ल्प प्रदेशात्मक कर्मों को बहुत प्रदेशात्मक कर्म करता है. आयुष्य कर्म का बंध किसि समय करता है किसिसमय नहीं करता है, असाता वेदनीय कर्म पुनःपुनः संचित करता है, और अनादि अनंत संसार कतार में परिभ्रमण करता है; इसलिये अहो गौतम ! असंवृत अनगार सिझे नहीं, यावत् संसार का अंतकरे नही. ॥ ४३ ॥ अहो भगवन्! आश्रवद्वार का रुंधन करनेवाला संवृत अणगार क्या सिझे यावत् अंतकरे ? हाई गौतम ! प्रवृत अणगार सिझे यावत अंत करे भगवन : किस कारन से संवृत्त अणगार सिझे यावत् अंत १.११.१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती:) 3*38 पहिला शतकका पहिला उद्देशा भावाथे| annnnnnwww 1 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १०० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww सि सिझे यावत् अं० अंतकरे से. वह के० कैसे भ० भगवन ए ऐसे यु. कहा जाता है पूर्ववत् । ॥ ४४ ॥ जी० जीव भ० भगवन् अ० असंयति अ० अविरति अ० अप्रतिहत ५० प्रत्याख्यान पा० अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्म पगडीओ धणिय बंधण बढाओ सिढिल बंधण बढाओ पकरेइ, दीहकालद्वितीयाओ हस्सकालद्वितीयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावा ओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपदेसगाओ अप्पपदेसगाओ पकरेइ, आउयंचणं कम्मं न बंधइ, असायावेयणिज्जं चणं कम्मंणो भुजो भजो उवचिणइ. अणादीयंचणं अणवदग्गं दीहमदं चाउरंत संसार कतारं वीईवयइ. से तेणष्ट्रेणं गोयमा ! एवं संवुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंतकरेइ ॥ ४४ ॥ जीवेणं भंतेअसंजए, अविरए, अप्पडिहय करे ? अहो गोतम ! संवृत्त अणगार आयुष्य छोडकर अन्य सात कर्म की प्रकृतियों का निकाचित बंधन किया होवे नो उन को शिथिलकरे, दीर्घ काल की स्थिति वाले कर्मों को इस काल की स्थिति वाले बनावे तीव्र रसवाले कर्मों को अल्प रसवाले बनावे, बहुत प्रदेशात्मक कर्मों को अल्प प्रदेशात्मक बनावे, आयुष्य कर्म का बंध करे नहीं, असाता वेदनीय कर्म को वारंवार संचित करे नहीं व अनादि अनंत संसार में में परिभ्रमण करे नहीं; इसलिये अहो गौतम ! संवृत अणगार सिझे यावत् दुःखों का अंतकरे ॥ ४४ ॥ अहो भगवन् ! असंयति, अविरति, व प्रत्याख्यान से पापकर्म नहीं तोडने वाला यहां से चवकर परलोक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालामतादजो * भावार्थ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1-98 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Bos पापकर्म इ० यहां से चु० चक्कर पे० पेरलाक में देव सि० होवे गो गौतम अकितनेक दे देवसि. होव अ. कितनेक णो नहीं दे० देव सि० होवे से वह के० कैसे भ० भगवन् जा. यावत इ. यहां चु० चवकर पे० परलोक में अ० कितनेक दे० देव सि० होवे अ० कितनेक णो नहीं दे. देव सि० होवे गो. गौतम जे० जो जी० जीव गा० ग्राम आ० आगर न. नगर नि० निगम रा० राज्यधानि खे. खेडं क० कव्वड मं० मंडप दो द्रोणमुख प० पट्टण आ० आश्रम स० सन्निवेश में अ० अकाम तृष्णा ___ पच्चक्खाय पावकम्मे; इतो चुते पेच्चा देवे सिया ? गोयमा ! अत्थेगइए देवे सिया । अत्थेगइए णो देवे सिया । सेकेणटेणं भंते जाव इतो चुते पेच्चा अत्थेगइए देवेसिया, अत्थेगइए णो देवे सिया? गोयमा! जे इमे जीवा गामागर नगर निगम रायहाणि खेड कव्वड मडंव दोणमुह पट्टणासम सन्निवेसेसु अकामतण्हाए, अकामछुहाए, में क्या देवता होवे ? अहो गौतम ! कितनेक देव होवे और कितनेक देव न हावे. अहो भगवन ? " कारण से कितनेक देव होवे और कितनेक देव नहोवे ! जो जीव ग्राम, आगर, नगर, निगम, राज्यधानी, कव्वड, मंडप द्रोणमुख, पट्टण. आश्रम, सन्निवेश में अकाम-विना इच्छा से, तृष्णा, क्षुधा, ब्रह्मचर्य, , आतप, दंश मशक, स्नान नहीं करना, स्वेद नहीं पुछना, शरीर का मेल दूर नहीं करना, मल, पंक व परिदाह से अल्प या बहुत समय तक आत्मा को क्लेश पहुंचावे और इस तरह आत्मा को कष्ट देते, 488089 पहिला शतक का पहिला Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अ० अकामक्षुधा अ० अकाम ब्रह्मचर्य अ० अकाम सी० शीत आ०आतप दं० दश म० मशक अ० स्नान राहत स० स्वेद ज० जल म० मल पं. कर्दम ५० परिदाह अ० थोडे भु० बहुत का. काल अ० आत्मा का प० कष्टदेवे १० कष्टदेकर का काल के अवसर में का० काल कि० करके अ० अन्यतर वा. वाण व्यतर दे० देवलोक में दे० देवपने उ० उत्पन्न भ० होवे के० कैसे भं० भगवन् वा० वाणव्यंतर दे० देवता अकाम बंभचेरवासेगं, अकामसीतातवदंसमसगं, अण्हाणगसेयजल्लमल पंकपरिदाहण अप्पतरोवा भुजतरोवा कालं अप्पाणं परिकलेसंति परिकलेसइत्ता; कालमासे कालंकिच्चा, अण्णयरसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति ॥ केरिसाणं भंते तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा प०? गोयमा! से जहा नामए इह मणुस्स लोगंमि असोगवणेइवा सत्तवण्णवणेइवा, चपयवणेइवा, च्यवणेइवा, तिलगवणेइवा, है भावार्थ काल के अवसर में काल करे तो वाणव्यंतर देवलोक में देवतापने उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! उन चाणव्यंतर देवता के देवलोक कैसे हैं ? अहो गौतम जैसे मनुष्य लोक में अशोकवन, सप्तपर्णवन, चंपकवन अ आम्रवन, तिलक वन, अलंबुक ( तुम्धी का) वन, न्यग्रोधवन, छत्राहवन, अशनवृक्षवन, शणवृक्ष के वन का अलसीका वन, कुसुभवन, सिद्धत्थ-श्वेतसरसवका वन, बंधजीव सो मध्यान्ह के कुसुमका वन वर्ग 18 सदैव कुसुमों से फुले हुवे, मंजरी, गुच्छ:, गुलम, बेल, पत्र, अन्य अनेक वृक्षोंकी श्रेणियों के समुह व 2.9 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ के दे० देवलोक ५० प्ररूपे गो० गौतम इ० यह म. मनुष्य लोकमें अ० अशोक वृक्षके वन स० सप्त । पर्णवन चं० चंपकवन चू, आम्रवन तितिलकवन ला० वृक्ष विशेष नि० वड के वन छ, छत्राहवन अ014 अशनवन स० शणकेवन अ० अलसीके वन कु० कुमुंभवन सि० सरसव के वन बं० वृक्ष विशेष नि.नित्य कु. कुसुम वाले मा० मंजरी ल० वेल थ० फूलजाति गु० लता गो० पत्रसमुह ज०समश्रेणी जु० युगल । नयेहुवे प० विशेष नमेहुवे मु० प्रगट पिं० लुम्ब मं० मांजर व• नवकुंपल ध० धारन करने वाले सि० शो लाउयवणेइवा,निग्गोहवणेइवा,छत्तोहवणेइवा असणवणेइवा,सणवणेइवा,अयसिवणेइवा, कुसुंभवणेइवा, सिद्धत्थवणेइवा, बंधुजीववणेइवा; निच्चं कुसुमिय माइयलवइयथवइय गुलु इय गोच्छिय जमालय जुवालय विणमिय पणमिय सुविभत्त पिंडिमंजरि वडिंगधरे, है सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ एवामेव तेसिं वाणमंतरायुगल वृक्ष के पुष्पों का भार से नमे हुवे, विशेष नमें हुवे, नविन कुंपल रूपी मुकुट को धारण करने वाले व बनलक्ष्मी से बहुत ही शोभनीक हैं वैभेही उन वाणव्यंतर देवता के देवलोक जानना. उस की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट एक पल्योपम की जानना. वे देवलोक बहुत वाणव्यंतर देव 12व देवियों से व्याप्त, क्रीडा में आसक्त होनेसे उपरा उपर आच्छादे हुवे, परस्पर बहुत दूर तक खेलनेसे पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488088>पहिला शतकका पहिला उद्देशा 80-8083809 भावार्थ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 89 भनिक अ० अतीव उ० सुंदर चि० हैं ए ऐसे ते. उन वा० वाणव्यंतर दे० देवके दे० देवलोक ज.. जघन्य द० दशवर्ष स० सहस्र ठि० स्थिति से उ० उत्कृष्ट प० पल्योपम ठि• स्थिति से व० बहुत वा० वाणव्यंतर दे० देव दे० देवीसे आ० व्याप्त वि० विस्तीर्ण उ० आच्छादित सं० संस्तर्णि फु० स्पर्श अ० रहे गा० गुप्त सि० लक्ष्मी से अ० अतीत २ उ• सुंदर शोभते चि० हैं ए. ऐसे गो० गौतम ते० उन वा० वाणव्यंतर दे० देवके दे० देवलोक प० प्ररूपे सो० वह ते० इसलिय गो० गौतम ए० ऐसा वु० कहा ___णं देवाणं देवलोया जहण्णेणं दस वास सहस्स ठिईएहिं, उक्कोसेणं पलिओवमट्टिईए हिं बहुहिं वाणमंतरहिं देवेहिय देवीहिय आतिण्णा, वितिण्णा, उवत्थडा सैथडा फु___डा, अवगाढगाढ सिरीए, अतीव अतीव उक्सोभमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥ ए. स __ रिसगाणं गोयमा ! तोप्तिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता से तेणट्रेणं गोयमा ! १ __ एवं वुच्चइ जीवे णं असंजए जाव देवोसया ॥ ४५ ॥ सेवं भंते ! भंते ति भगवं , संथारा जैसे विस्तीर्ण बने हुवे, आसन शयन रमण भाग से भोगवते व लक्ष्मी से अतीव सुशोभित रहे। हुवे हैं. अहो गौतम ! उन वाणव्यंतर के ऐसे देवलोक कहे हैं. और इसी कारण से कितनेक असंयति जीव देवतापने उत्पन्न होवे और कितनेक उत्पन्न नहोवे ॥ ४५ ॥ अहो भगवन् जैसे मैंने पृच्छा की वेसे ही आपने प्रतिपादन किया है. आप जैसा कहते है; वैसा ही है अन्यथा नहीं है. इस प्रकार भगवन्त के प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 शब्दार्थ जाता है जी० जीव अ० असयंति जा० यावत् दे० देव सि होवे॥४५॥से० ऐसेही भ० भगनन् गो० गौतम । 18 स० श्रमण भ० भगवनू म० महावीर को वं० वंदे ण. नमस्कार कया वं० वंदना करके सं० संयम से त० तपसे अ० आत्मा को भा० भावते हुवे वि. विचरते हैं. ॥१॥१॥* रा० राजगृह ण नगर स० समवसरण प० परिषदाणि निर्गता जा० यावत् ए. ऐमा व० कहा जी सूत्र गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता मंसित्ता संजमेणं तवसाअप्पा णं भावमाणे विहरइ इति पढमसए पढमोदेसो सम्मत्तो ॥ १ ॥१॥ रायगिहे णयरे, समोसरणं, परिसा णिग्गया जाव एवं वयासी. जीवेणं भंते सय वचनों को बहुत मान देकर गौतम स्वामीने श्री श्रमण भगवन्त महावीर को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर के संयम व तपसे आत्मा के स्वरूप को विचारते हुवे विचरने लगे यह पहिला शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुआ. ॥ १ ॥ १॥ + ___ गत उद्देशे में कर्म के चलनादि प्रश्नोत्तर कहे हैं वे कर्म दुःखरूप होते हैं इसलिये आगे दुःख का प्रश्न oo करते हैं. राजगृह नगर के गुणशील मक उद्यान में भगवन्त श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वांदने ।। को आई, वाणी सुनकर परिपदा पाछीगई. उस समय श्री गौतम स्वामीने भगवन्त को प्रश्न पुछा कि अहो भगवन् ! जीव अपना किया हुवा दुःख वेदता है ? अहो गौतम ! कितनेक स्तकृत कर्मवदे, कित पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती)मत्र-800 पहिला शतकका दूसरा उद्देशा विभाथ Anmomroomramnna 8 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जीव भ० भगवन् स० स्वकृत दु० दुःख वे० वेदता है गो गौतम अ० कितनेक वे० वेदे अ० कितनेक मणो नहीं वे. वेदे से वह के. कीसतरह भं० भगवन् ए. ऐसा बु. कहा जाता है अ० कितनेक वे० वेदे अ० कितनेक णो० नहीं वेदे गो० गौतम उ०. उदयमें आया वे. बेदे णो नहीं अ. कडं दुक्खं वेदेइ.? गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ । सेकेणतुणं भंते एवं वुच्चइ अत्थेगइयं वेदेइ अत्थेगइयं नोवेदेति ? गोयमा ! उदिण्णं वेदति णो अणदिण्णं वेदेति. सेतेणट्रेणं एवं वच्चइ गोयमा। अत्थगइयं वेदेड. अत्थेगडयं णोवदेड एवं चउबीसदंडएणं जाव वेमाणिए ॥ जीवाणं भंते संयं कई दुक्खं वेदेति ? गोयमा ! अत्थेगइया वेदेति, अत्थेगइया णो वेदेति. । से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! उदिण्णं वेदेति. णो अणुदिण्णं वेदेति ॥ एवं जाव वैमाणिया भावार्थ नेक स्वकृत कर्मवेदे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारन से कितनेक स्वकृत कर्मों वेदते हैं और कितनेक नहीं वेदते हैं. अहो गौतम ! उदय में आये हुवे कर्म वेदते हैं और उदय में नहीं आये हुवे कर्म नहीं वेदते हैं और इसी कारण से ऐसा कहा है कि कितनेक जीव स्वकृत दुःखवेदे और कितनेक जीव संकृत दुःख नहीं वेदे. ऐसे कही पृथक् २ चौविसही दंडक आश्रित जानना. उपर जैसे एक जीव आश्रित कहा है वैसेही अनेक जी आश्रित मानना. अहो भगवन जीव स्वकृत आयुष्य वेदे ? अहो गौतम ! कितनेक वेदे और कितनेक वे ॐ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदर सहायजी मालाप्रसादजी * Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 23 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र GYO { नहीं उदयमें आया वे० वेदे से० वह ते ० इसलिये ए० ऐसा वुः कहा जाता है ए० ऐसा च० चौबीस दं० दंडक को जा० यावत् वे० वैमानीक ज० जैसे दु० दुःख में दो० दोभेद त० तैसे आ० आयुष्य में ए० एकवचन पो० पृथक ए० एक वचन से जा० यावत् वे० वैमानिक पु० पृथक् तक ॥ १ ॥ णे० नारकी भ० भगवन् स० सर्व स० सरिखे आहारी स० सर्व स० सरिखे शरीरी स० सर्व स० सरिखे ऊश्वासनी जीवणं भंते सयं कडं आउयं वेदेति ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेति, अत्थेगइयं णो वेदेति ' जहा दुक्खेणं दो दंडगा तहा आउएणवि. एगत पोहत्तिया, एगत्तेणं, जाव - माणिया पुहुतेवि तहेव ॥ १ ॥ णेरइयाणं भंते सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सव्वे समस्सासणिस्सासा ? गोयमा गोइणट्टे समट्ठे ? सेकेणटुणं भंते एवं बुच्चइ णेरइया णो सव्वे समाहारा णो सव्वे समुस्सासणिस्सासा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्ण { नहीं. अहो भगवन् ! किसकारन से ? अदो गौतम ! उदय आयाहुवा वेदे और उदय में नहीं आया हुवा वेदे नहीं इस कारण से कितनेक जीव स्वकृत आयुष्य वेदे और कितनेक वेदे नहीं. ऐसे ही अनेक जीव आ श्रित जानना और चौविस ही दंडक आश्रित दोनों बोल उतारना ॥ १ ॥ आयुष्य आहार के बलसे ही टिकता है इसलिये आहार संबंधी प्रश्न करते हैं अहो भगवन् ! क्या सब नारकी सारखे आहार करने वाले हैं ? क्या सब सरिखे शरीर वाले हैं ? क्या सब सरीखे श्वासोश्वास लेने वाले हैं ? अहो गौतम ! यह 4833 पाईला शतक का दसरा उद्देशा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र | शब्दार्थ श्वासले गो० गौतम णो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ से वह के० कैसे भ० भगवन् ए० ऐसा बु० कहा * जाता है . नारकी णो नहीं स० सर्व स० समाहारी णो नहीं स० सर्व म. समशरीरी णो नहीं स. सर्व स. सरिखा उ० उश्वास णि निश्वासले गो० गौतम ण नारकी दु० दोप्रकार के ५० प्ररूपे म० महा शरीरी अ० अल्प शरीरी त० तहां जे. जो म० महा शरीरी ते वेब बहुत पो० पुद्गल आ० आहार त्तातंजहा महासरीराय अप्पसरीराय।तत्थणं जेते महासरीराते बहतराए पोग्गले आहारति, बहुतराए पोग्गले परिणामेति, बहुतराए पोग्गले ऊससंति, बहुतराए पोग्गले णीससंति, असिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेति,आभिक्खणं ऊससंति, आभिक्खणं णीससंति,॥ तत्थणं जेते अप्पसरीरा तेण अप्पतराए पोग्गले आहारैति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेति, भावार्थ अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन मसव नारकी सारखे आहार, शरीर, श्वासोश्वास वाले नहीं हैं ? अहो गौतम ! नारकी दोपकार के कहे हैं. १ बडे शरीर वाले और २ छोटे शरीर वाले. * जो बडे शरीर वाले हैं. वे बहुत दुःखी होते हुवे बहुत पुद्गलों का आहार करे, बहुत पुद्गलों परिणमावे बहुत पुद्गलों को उश्वास रूप से ग्रहण करे, बहुत पुद्गलों को निश्वासरूप से नीकाले और भी वारंवार है * नारकी की अवधारनीय अवगाहना जघन्य अंगुलका असंख्यात वा भाग उत्कृष्ट ५०० धनुष्य और 18 उत्तर वक्रय जघन्य अंगुल का अमंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण. अनुवादक-बालब्रह्मचरिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशके-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी * Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ करे व० बहुत पो० पुद्गलं ५० परिणमे ब• बहुत पो० पुद्गल ऊ० अश्वासे य० बहुत पो० पुद्गल का णी | निश्वास ले अ. वारंवार आ० आहारले अ० वारंवार परिणमे अ० वारंवार ऊ० ऊश्वासले अ000 वारंवार णी. निश्वासले त. तहां जे. जो० अ० अल्प शरीरी ते. बे अ० थोडा पो. पुद्गल आ० आहार करे अ. थोडा पो० पुद्गल परिणमें अ० थोडे पो. पुद्गल ऊ० उश्वासले अ. थोडे पो० पुद्गल ॐ नी० निश्वासले ॥२॥णे० नारकी भं० भगवन स० सर्व स० समक्रर्म वाले गो. गौतम णो० नहीं इ० अप्पतराए पोग्गले ऊससंति, अप्पतराए पोग्गले णीससंति । आहच्च आहारोति, आहञ्च परिणामेति, आहच्च ऊससंति, आहच्च णीससंति. से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ, णेरइया णो सव्वे समाहारा, जाव णो सव्वे समुस्सास णीसासा ॥ २ ॥णे रइयाणं भंते सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णोइणटे समढे, । सेकेणतुणं भंते एवं भावार्थ आहारकरे, वारंवार परिणमावे, वारंवार श्वासलेवे, वारंवार श्वास नीकाले, और जो छोटे शरीर वाले हैं वे अल्प पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्प पुद्गलों परिणमाते हैं, अल्प पुद्गलों का श्वासलेते हैं, अल्प पुद्गलों को श्वासरूप नीकालते हैं अथवा आंतरा सहित आहार करते हैं, परिणमते हैं, श्वास लेते हैं व ॐ श्वास नीकालते हैं. इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहा है कि सब नारकी एक सरिखे शरीर, आहार व 1 उश्वास, निवासवाले नहीं हैं ॥२॥ अहो भगवन् ! क्या सब नारकी सरीखे कर्म वाले हैं ? अहो । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 488948 पहिला शतक का दूसरा उद्देशा 98433 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यह अर्थ स० समर्थ से वह के कैसे भ० भगवन् ए. ऐसा कहा जाता है गो० गौतम णे० नारकी -दु० दोपकार के पु० पहिले के उत्पन्न प० पश्चात् उ० उत्पन्न त० तहां जे० जो पु० पूर्वोत्पन्न त त० तहां जे० जो पु० पूर्वोत्पन्न ते वे अ० अल्प कर्म वाले त० तहां ज० जो ५० पश्चात् उ० उत्पन्न ते वे म० महाकर्म वाले ॥ ३॥ ० 1. वुच्चइ? गोयमा ! णेरइया दुविहाप०तं. पुव्योववण्णगाय पच्छोववण्णगाय तत्थणं जे ते पुवोववण्णगा तेणं अप्पकम्मतरा तत्थणं जे ते पच्छोववण्णगा तेणं महाकम्मतराय सेतेणटेणं गोयमा एवं वुच्चइ ॥ ३ ॥ णेरइयाणं भंते सव्वे समवण्णगा? गोय- अ गौतम ? यह अर्थ योग्य नहीं हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो गौतम! नारकी के दो भेद १ पूर्वोत्पन्न-पहिले उत्पन्न हुवे २ पश्चादुत्पन्न-पीछे से उत्पन्न हुवे उस में जो पहिले उत्पन्न हुवे हैं वे अल्पकर्मवाले हैं क्योंकी उनों ने आयकर्य तथा अन्य कर्म भेदे हुवे हैं व जो पीछे उत्पन्न हुवे हैं वे बहुत कर्मवाले हैं क्योंकी उनों ने आयुष्य कर्म बहुत थोडा छेदा हुवा है * इमलिये सब नारकी सरीख कर्म वाले नहीं हैं. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्या सब नारकी सरीखे * यहां सरिखि स्थिति वाले नारकी को अंगीकार करके यह सूत्र कहा है; अन्यथा कोइ एक | सागरोपम की स्थिति वाला नारकी बहुत स्थिति भोगव कर शेष एक पल्योपम रहे पीछे दूसरा दश हजार 33 वर्ष की स्थिति वाला नारकी उत्पन्न होवे तो; क्या पहिले उत्पन्न हवा शेष पल्योप मके आयुष्य वाला नारकी { * *3 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87 भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Iste नारकी भ भगवन् स०. सर्व स० समवर्णवाले गो० गौतम णो• नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थन से वह के० कैसे गो० गौतम ने जो पु० पूर्वोत्पन्न ते वे वि० विशुद्ध वर्णवाले त० तैसेही से• वह ते इसलिये ॥ ४॥णे. नारकी भं० भगवन् स० सर्व स० सम लेश्यावाले गो० गौतम पो० नहीं इ०१०७ यह अर्थ स० समर्थ त० तहां जे० जो पु० पूर्वोत्पन्न ते वे वि० विशुद्ध लश्यावाले जे० जो ५० पीछे ? मा ! णोइणट्टे समटे । सेकेणटेणं तहचेव ? गोयमा ! जे ते पुब्बोक्वण्णगा तेणं से विसुद्ध वण्णतरागा तहेव । सेतेणट्रेणं गोयमा ॥४॥णेरइयाणं भंते सव्वे समलेस्सा ? गोयमा ! णोइणटे समटे । सेकेणटेणं जाव णो सव्वे समलेस्सा ? गोयमा ! हेरइया दुविहा पण्णत्ता तंजहा पुव्वोववण्णगाय, पच्छोक्वण्णगाय तत्थणं जे ते पुवोव वर्ण वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. क्या कारण से ? अहो गौतम ! नारकी के दो भेद पहिले भावार्थ उत्पन्न हुवे और पीछे उत्पन्न, जो पहिले उत्पन्न हुवे वे विशुद्ध वर्णवाले होते हैं, और पीछे जो उत्पन्न हुवे हैं वे विशुद्ध वर्ण वाले नहीं हैं; इसलिये अहो गौतम ! सब नारकी सम वर्ण वाले नहीं हैं ॥ ४ ॥ अहो । भगवन ! सब नारकी मरिखि लेश्या वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. क्या कारण है? अहो गौतम! नारकी के दो भेद ? पहिले उत्पन्न हुवे व २ पीछे उत्पन्न हुये. जो पहिले उत्पन्न हुवे हैं वे विशुद्ध है की आपेक्षा से दश हजार वर्ष की स्थिति वाला महाकर्मीहोसके ! अर्थात् नहीं होवे. 388 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) १०3-383पहिला शतकका दूसग उद्देशा 88883 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उत्पन्न हुवे ते वे अ० अविशुद्ध लेश्यावाले ॥५॥णे. नारकी भ• भगवन् स० सर्व म. समवेदनावाले गो० गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ णे० नारकी दु० दोपकार के स० संशी अ० असंझी वण्णगा तेणं विसुद्धलेसतरागा । तत्थणं जे ते पच्छोववण्णगा तेणं अविसुद्ध लेसतरागा । सेतेणट्रेणं गोयमा ! ॥ ५ ॥ जेरइयाणं भंते सव्वे समवेदणा? गोयमा ! णोइणटे समढे । सेकेण?णं भंते ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता तंजहा , सगिभूयाय, असण्णिभूयाय । तत्थणं जेते सण्णिभूया तेणंमहावेदणा, तत्थणं जे लेश्या वाले होते हैं; क्यों की उन को अल्प कर्म रहते हैं और जो पीछे उत्पन्न हुवे हैं वे अशुद्ध लेश्या वाले हैं क्यों कि उन को बहुत कर्म रहते हैं इसलिये अहो गौतम ! सब नारकी सरिखी लेश्या वाले नहीं हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! सब नारकी को सरिखी वेदना है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है हैं. किस कारण से ? अहो गौतम ! नारकी के दो भेद १ संज्ञाभूत सो समदृष्टि व असंज्ञीभूत सो मि-2 थ्यादृष्टि. उस में जो संज्ञी भूत समदृष्टि हैं वे बहुत वेदना वाले हैं क्यों कि सम्यग् ज्ञान से पूर्वकृत कर्म विपाक की स्मति होनेसे अती दःख होवे और पश्चाताप करे कि मैंने अरिहंत प्ररूपित धर्म पाला नहीं इस कारण से उन को मानसिक दुःख बहुत होवे. और जो असंज्ञीभूत-मिथ्यादृष्टि हैं वे अल्पवेदना वाले , हैं क्यों कि वे अपने कृतकर्म को नहीं जानते हैं इस से उन को मानसिक दुःख अल्प रहता है. कितनेक * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र जे. जो सं० संज्ञीतेचे मबहूतपेदना वाले जे. जो अ. असंज्ञी अ. थोडीवेदनावाले ॥६॥णे. नारकीभंभगवन् स० सर्व स० समक्रियावाले गो गौतम नो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थणे नारकी ति तीन प्रकार केस०१ सम्यक् दृष्टि मि० मिथ्यादृष्टि स० सममिथ्यादृष्टि ने जो स० समदृष्टि ते० उन को च० चारक्रिया प० प्ररूपी आ० ते असण्णिभूया तेणं अप्पवेयणतरागा से तेणटेणं गोयमा ॥ ६ ॥णेरइयाणं भंते सव्वे समाकरिया ? गोयमा ! णोइणटे सम? । सेकेणटेणं भंते ? गोयमा ! णेरइया है तिविहा प० तं० सम्मट्ठिीय, मिच्छाट्ठिीय, सम्ममिच्छट्ठिीय । तत्थणं जेते । सम्मदिट्ठी तेसिणं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ तं० आरंभिया, परिग्गहिया, ऐसा भी अर्थ करते हैं कि संज्ञी पंचेन्द्रिय नारकी में उत्पन्न होवे सो संज्ञीभूत वे बहुत वेदनावाले होवे क्योंकि अशुभ अध्यवसाय से बहुत अशुभ कर्म का बंध कीया और इस से नरक में उत्पन्न हुवे. अ असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम नरक में असंज्ञीपने उत्पन्न होवे वे अल्प वेदनावाले होवे क्यों कि उनको अति तीव्र अशुभ अध्यवसाय नहीं होते हैं. अथवा संज्ञीभूत सो पर्याप्ता बहुत वेदनावाले और असंज्ञीभूत सो अपर्याप्ता अल्पवेदना वाले, इसलिये अहो गौतम ! सब नारकी सरिखी वेदनावाले नहीं हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! सब नारकी सम क्रियावाले हैं ? अहो गौतम यह अर्थ योग्य नहीं है. क्यों कि नारकी के तीन भेद कहे हैं. १ समदृष्टी, २ मिथ्यादृष्टी ३ सममिथ्यादृष्टि. उस में जो समदृष्टी हैं उन को चार ४. ०४ पहिला शतक का दूसरा उद्देशा भावार्थ monwwwwwwwwwww Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ १०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * आरंभिक प० प० पारिग्रहिकी मा० मायाप्रत्ययिकी अ० अप्रत्याख्यानक्रिया मि० मिथ्यादृष्ठि को पं० पांच क्रिया आ० आरंभिकी जा० यावत् मि० मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी ए० ऐसे स० सममिथ्या दृष्टि को भी } ॥ ७ ॥ णे० नारकी मं० भगवन् स० सर्व स० सम आयुष्यवाले स० सम उत्पन्न गो० गौतम गो० नहीं मायावत्तिया, अपच्चक्खाणकिरिया । तत्थणं जे ते मिच्छद्दिट्ठी तेसिणं पंचकिरिया ओ कळंति तं • आरंभिया जाव मिच्छादंसणवत्तिया । एवंसम्म मिच्छद्दिीपि सेतेणट्टेणं गोयमा ॥७॥ णेरइयाणं भंते सव्वेसमाउया सव्वे समोववण्णगा ? गोयमा ! { क्रिया लगती हैं ? पृथिव्यादिक का आरंभसो आरंभिकी २ शरीरादिपर ममत्व सो पारिग्रहिकी ३ वपना व क्रोध, मान व माया युक्त स्वभावसो मायाप्रत्ययिकी और ४ निवृत्ति के अभाव से जो क्रिया (लगेसो अप्रत्याख्यान. मिथ्यादृष्टी नारकी को पांच क्रिया लगे. उक्त चार क्रियायों में मिथ्यादर्शन प्रत्यायक {क्रिया वढी. और ऐसे ही सम्मपिथ्यादृष्ट्री को जानना, इस कारण से अहो गौतम ! नारकी को सरिखि क्रिया नहीं हैं. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! सब नारकी सरीखे आयुष्य वाले हैं ? और सब सरीखे - एक साथ उत्पन्न होनेवाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. अहो भगवन् ! किस कारण से यह अर्थ योग्य नहीं हैं ? अहो गौतम ! नारकी के चार भेद कहे हैं. १ कितनेक सम आयुष्य वाले { हैं और एक साथ उत्पन्न होनेवाले हैं २ कितनेक सम आयुष्यवाले हैं विषम उत्पन्न होते हैं अर्थात् ६६ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 687 शब्दार्थ * ० यह अर्थ स० समर्थ णे. नारकी च० चार प्रकार के अ० कितनेक स० सम आयुष्यवाले स. समापन अ. कितने स. सम आयुष्यवाले वि. विषमो उत्पन्न अ कितनेक वि. विषम आयुष्यवाले स० समोत्पन्न अ० कितनेक वि. विषम आयुष्यवाले वि० विषमत्पन्न ।। ८॥ अ० असुरकुमार भगवन स० मर्च स० सम आहारी स० सर्व स.. सम शरीरी ज. जैसे णे नारकी त० तैसे भा० कह णोइणटे सम?। सेकेणट्रेणं भंते एवं बुच्चइ ? गोयमा! णेरइया चउब्धिहा प०२० अत्थे गझ्या समाउया समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा, अत्थेगइया । बिसमाउया समोववण्णगा. अत्थेगडया विसमाउया विसमोववण्णगा. सेतेणदेणं गोयमा ॥८॥ असुरकुमाराणं भंते सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा ? जहा णेरइया एक साथ नहीं उत्पन्न होते हैं कितनेक विषम आयुष्यवाले हैं और एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं। कितनेक a विषम आयुष्य वाले हैं और विषम उत्पन्न होने वाले हैं, इसलिये अहो गौतम ! सब नारकी एक सरिखे आयुष्य व एक साथ उत्पन्न होने वाले नहीं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार जाति के सब देवता क्या इसरिखे आहार वाले व सरिखे शरीर वाले हैं ? अहो गौतम जैसे नारकी का कहा वैसेही यहां कहना. विशेष इतनाही कि असुरकुमारको भवधारणीय शरीरकी अवगाहना जघन्य अंगुलका असंख्यात वे भाग उत्कृष्ट सात हाथकी और उत्तर वैकेय जयन्य अंगुलका असंख्यात वा भाग उत्कृष्ट एकलक्ष योजनकी.जो महाशरीर वाले होते पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4080% पहिला शतक का दूसरा उद्देशा. 8 0 208 %80 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8% भावार्थ ना ण विशेष ककर्म व०वर्ण ले लेश्या प०कहना पु पूर्वोत्पन्न म०बहुत कर्मवाले अ० अविशुद्धवर्ण वाले अ०. अविशुद्ध लेश्यावाले प०पीछे उत्पन्न हुवे प प्रशस्त से शेष तं० तैसे एक ऐसे जा० यावत् थ०स्थनित कुमार तहा भाणियब्वा, णवरं कम्म, वण्ण, लेस्साओ, परिवण्णेयवाओ पुव्योववण्णगा महाकम्मतरा, अविसुद्ध वण्णतरा, अविसुद्ध लेसतरा, पच्छोववण्णगा पसत्या से संतंचेव. एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ ९ ॥ पुढविकाइयाणं आहारकम्म वण्ण लेस्सा हैं वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, और जो छोटे शरीर वाले होते हैं वे अल्प पुद्गलों का आहार करते हैं. जघन्य चतुर्थभक्त उत्कृष्ट एक हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होवे. जघन्य सातस्तोक में उत्कृष्ट एकपक्ष में श्वासोश्वास लेते हैं, जो पहिले उत्पन्न हुवे हैं वे महाकर्मी, अविशुद्ध वर्ण वाले, अविशुद्धले श्या वाले हैं और जो पीछे उत्पन्न हुवे हैं वे अल्प कर्म वाले, विशुद्ध वर्ण व विशुद्ध लेश्या वाले हैं. क्यों की पहिले उत्पन्न हुवे देवताओ अतिलुब्धता से दीव्य सुखों को भोगवकर बहुत शुभ कर्म का क्षय करते हैं और अशुभ कर्म का संचय करते हैं इस से कितनेक तिर्यंच पृथ्वी पानी वनस्पति में उत्पन्न होते हैं. और पीछे से उत्पन्न होने वाले के पुण्य के दल रह जाने से विशुद्ध वर्ण लेश्या वाले होते हैं शेष सब , अधिकार नारकी जैसे कहना जैसे असुरकुमार का कहा वैसे ही स्तनित कुमार का जानना. ॥ ९ ॥ पृथ्वी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 873 ॥९॥ पु० पृथ्वी काया को आ० आहार क. कर्मव० वर्ण लेश्या ज. जैसे णे. नारकी पु०पृथ्वीकाया भं० भगवन् स० सर्व स० समवेदना वाले हैं. हा स० समवेदना वाले से वह के० कैसे गो० गौतम पु. 300 पृथ्वीकाया स० सर्व अ० असज्ञि अनि रविना वे. वेदते हैं पे. वह ते. इसलिये पु. पृथ्वीकाया भं. भगवन स सर्व स० समक्रियावाले. हं. हांस सबक्रिया वाले से वह के• कैमे पुल पुथ्वी काया गो009 | गौतम स० सर्व मा० मायी मि० मिथ्यादृष्टि णे निरंतर पं० पांचक्रिया क करते हैं आ• आगंभिकी की जहा जेरइयाणं, पुढविकाइयाणं भंते सव्वे समवेदणा? हंता समवेदणा से केणटेणं भंते सव्वे समवेयणा ? गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असण्णिभूया, अणिदाए वेदणं वेदेति सेतेण?णं । पुढविकाइयाणं भंते सव्वे समकिरिया ? हंता समकिरिया। सेकेण. टेणं भंते पुढविकाइया ? गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे माईमिच्छद्दिट्ठी ताणंणेयकाया को आहार, कर्म, वर्ण, व लेश्या नारकी जैसे कहना. अहो भगवन ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समवेदना वाले हैं? गौतम सब पृथ्वी कायिक जीव समवेदनावाले हैं. अहो भगवन !किम तरहसे वे सब समवेदना वेदते हैं ? अहो गौतम ! सब पृथ्वीकायिक असंही भूत होने से निर्धार विना वेदना वेदते हैं परंतु ये कर्म पहिले के उपार्जित हैं वैसा जाने नहीं इसलिय अहो गौतम ! सब पृथ्वी कायिकजीव समवेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! सब पृथ्वी कायिक जीव सरिखी क्रिया वाले हैं. ! हां गौतम वे सब सरिखी। पहिला शतक का दूसरा उद्दशा g ood Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जा. यावत् मिमिथ्या दर्शन प्रत्यायकी से वह ते. इसलिये पु० पृथ्वी काया स० समायुष्य वाले स. समवर्ण वाले जा जैसे णे नारकी त• तैसे भा० कहना ॥ १० ॥ ज० जैसे पु. पृथ्वी काया त• तैसे जा. यावत् च० चतुरेन्द्रिय ।। ११॥ पं० पंचेन्द्रिय तियेच ज० जैसे ण० नारकी णा० नानाप्रकार कि० क्रियामें पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच भं० भगवन् स० सर्व स. समक्रिया वाले गो गौतम णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से. वह के. केमेगो गौतम पं० पंचेन्द्रिय तिर्यच ति तीन प्रकार के स० समष्टि मि. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तियाणं पंचकिरियाओ कजति, तंजहा - आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया. सेतेणदेणं. पढविकाइया समाउया समोचवण्णगा? जहाणेरइया तहाभाणियवा॥१०॥ जहा पुढविकाइया तहा जाव चउरिदिया ॥ ११ ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया जहा णेरइया, णाणत्वं किरियासु ॥ पांचंदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते सव्वे समाकक्रिया वाले हैं. ? अहो भगवन् ! वह कैसे ? अहो गौतम ! मर पृथ्वीकायिक जीव मायावी व मिथ्या दृष्टी हैं, उनको अवश्यही आरंभिकी गायत् मिथ्या दर्शन प्रत्ययिकी पांच क्रियायों लगती हैं. इसी से पृथ्वी कायिक जीव समक्रिया वाले हैं. सब पृथ्वी कायिक जीव सरिखे आयुष्य वाले व साथ उत्पन्न होने वाले हैं? इसका सब अधिकार नारकी जो कहना।।१०॥ जैसे पृथ्वी कायाका अधिकार कहा वैसेही अप्काय तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का जानना. यहांपर वडा शरीर व * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सु वदेवतहायजी मालामसादजी * भावार्थ * Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ| मिथ्यादृष्टि स० सममिथ्यादृष्टि त तहां जे. जो स. समदृष्टि ते० वे दु० दोपकार के अ० असंयति सं० संयतासयति त० तहां जे. जो सं० संयतासयति ते. उनको ति० तीन कि० क्रिया तं. वह ज जैसे आ० आरंभिकी प०पारिग्रहिकी मा० मायाप्रत्ययिकी अ० असंयति को च० चार मिः Ro3:02 मना रिया ? गोयमा ! णोइणटे समढे । सेकेणट्रेणं भंते ? गोयमा ! पांचंदिय तिरिक्ख जोणिया, तिविहा प० तं० सम्माद्दट्ठी, मिच्छद्दिट्ठी ! सम्ममिच्छट्ठिी, तत्थणं जे ते सम्माट्ठी ते दुविहा प०तं. असंजयाय, संजयासंजयाय, तत्थणं जे ते संजयासंजया तेसिणं तिण्णि किरियाओ कजति, तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया. असंज 388 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र" भावाथ पहिला शतक का दूसरा उद्देशा छोटा शरीरको अपनी २ अवगाहना जैसे कहना. विकलेन्द्रियादिक को प्रक्षेप आहार होता है ॥ ११॥ तिर्यंच पंचेन्द्रिय नारकी जैसे कहना. परंतु क्रिया में जो भेद हैं सो बताते हैं. अहो भगवन् क्या सब तिर्यंच पंचन्द्रिय सरिखि क्रिया वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. किस कारन से ? तियच पंचेन्द्रिय के तीन भेद, सम्यक दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, व सममिथ्यादृष्टिः उस में जो समदृष्टि हैं उनके दो भेद असंयति व संयतासंयति उस में जो संयतासंयति हैं. उनको तीन क्रिया लगती हैं. १ आरंभिकी, २९७ पारिग्रहिकी व ३ मायाप्रत्यायिकी, असंयतिको चार, सममिथ्यादृष्टि व मिथ्यादृष्टी को पांच २ क्रियाओं कही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मिथ्याष्टिको पंपांच सासममिथ्यादृष्टि की पंपांच॥१०॥ म:मनुष्य ज जैसे णे नारकीणा नानाप्रकार म०महाशरीरी आ.कदाचित् आ-आहार करते हैं जे. जो अ० अल्प शरीरी ते वे अथोडे पो० पद्गल आ० आहार करते हैं अ० वारंवार आ० आहार करते हैं से० शेप ज. जैसे • नारकी जा. यावत् याणं चत्तारि,मिच्छट्ठिीणं पंच सम्ममिच्छट्ठिीणं पंच।। १२॥मणुस्सा जहाणेरइया,णाणत्तं जे महासरीरा ते आहच्च आहारति ४ बजे अप्पसरीरा ते अप्पतराए पोग्गले आहारति ४ । आभक्खणं आहारेति. सेमं जहा णेरइयाणं जाव वेदणा. मणुस्साणं भंते सव्वे १२॥ मनुष्य का अधिकार नारंकी जैसे कहना. विशेष इतना कि-क्या सब मनुष्य मारखे आहार करनेवाले हैं ? अहो गौतम ! मनुष्य के दो भेदः वडे शरीवाले व छोटे शरीग्वाले. उस में जो बडे शरीर वाले हैं वे बहूत पुगलों का आहार करते हैं, वहन पदर परिणमते हैं, मे ही श्वासोश्वास लेते हैं. यहां नरकमें वारंवार आहार करने का कहा है, परंतु देवकुरु उत्तरकुरु के युगलिये तीन दिन में आहार लेते हैं. छोटे शरीर वाले अल्प पुगलों का आहार करते हैं. उस के दो भेद संमृच्छिम व बालक वे दोनों वारंवार आहार करते हैं. के बाकी का मब अधिकार नारकी जैने कहना. अहो भगवन ! सब मनुष्य सरािखि क्रिया वाले हैं ! अहो न गौतम : यह अर्थ योग्य नहीं हैं. अहो भगवन : किम कारण मे यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो गौतम * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 89600 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मत्र वे दना म. मनुष्य में भगवन स सर्वस सनक्रिया वाले गो गौतम णो नहीं इ. यह अर्थ स० म व के कैलेनो गौतम म. मनुष्य ति तीन प्रकार के स० समष्टि मि. मिथ्यादृष्टि म० सममिथ्याष्टि ततहां जे. जो स. ममहाराष्ट्र ते: व नि. तीन प्रकार के मं० संयति अ. असं यति मं० संयतासंयति जे. जो सं• संयति ते वे दु० दोप्रकार के म० सराग मंगनि वी. वीतराग भयति त. तहां जे. जो वी० वीतराग संयति से० वे अ. अक्रिया वाले स० मराग संयति द. दो समकिरिया ? गोयमा! णोइणटेसमटे । सेकेण?ण भंते ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पपणत्ता तं० सम्माट्टी, मिच्छट्ठिी, सम्मामिच्छद्दिट्टी, लत्थणं ज ते सम्माहटी ते तिविहा प. तं. संजयाय असंजयाय संजया संजयाय । तत्थणजेते संजया ते दुविहा प० तं• सराग संजयाय वीयराग संजयाय, तत्थणं जे ते वीयराग संजया तेणं अकिरिया । तत्थणं जे ते सराग संजया ते दुविहा प. तं. पमत्त संजयाय, मनुष्य के तीन भेद कहे हैं सम्यकाष्टि, मिथ्याष्टि सममिथ्याष्टिः उस में जो सम्यगदृष्टि हैं। उनके तीन भेद कहे हैं संयति, असंयति व संयतासंयति; उसमें संयति के दो भेद सरागसंयति व 00 वीतराग संयति. उसमें जो वीतराग संयति हैं वे अभिर अर्थात उन को किसी भी सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है. जो सरागतयति हैं उनके दो भेद प्रमत्त संयति व अप्रमत्त संयति. अप्रमत्त संयति सातवे गुण स्थानवी हैं उनको एक मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगतीहै और छठे गण स्थानवर्ती प्रमत्त संयतिको आरंभिकी व rammarwarwwanimaan 386पहला शतक का दूसरा उद्दशा 88883 भावार्थ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्रकार के प०प्रमत्त अ. अप्रमत्त जे. जो अ० अप्रमत्त संयति ते. उनको ए० एक मा० मायाप्रत्ययिकी क्रिया जे. जो प० प्रमत्त संयति ते. उनको दो दोक्रिया आ० आरंभिकी मा० मायाप्रत्यायकी जे० जो सं. संयतासंयति ते. उनको आ० पहिली तिः तीन कि० क्रिया अ० असंयति को च० चारक्रियाई मि० मिथ्यादृष्टि को पं० पांचक्रिया स० सममिथ्यादृष्टि को पं. पांचक्रिया ॥ १३ ॥ वा. वाणव्यंतर, जोज्योतिषी वे वैमानिक ज. जैसे अ.अमुरकुमार न विशेष वेवेदना में णानानासकार मा०मायी मि०, अपमत्त संजयाय, ॥ तत्थणं जे ते अपमत्तसंजया तेसिणं एगा मायावत्तिया किरिया कजइ । तत्थणं जे ते पमत्तसंजया तेसिणं दो किरिया कजइ तं. आरंभियाय मायावत्तियाय. तत्थणं जे ते संजयासंजया तेसिणं आदिमाओ तिण्णि किरियाओ कजति । असंजयाणंचत्तरि किरियाओ कजंति मिच्छविट्ठीणं पंच सम्ममिच्छट्ठिीणं पंच ॥ १३ ॥ वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा अमायाप्रत्यायकी ऐसी दो क्रियाओं लगती हैं. जो संयतासयति-श्रावक हैं उन को आरंभिकी माया प्रत्ययिकी व परिग्रहिकी ऐसी तीन क्रियाओं लगती हैं. असंयति को चार क्रियाओं लगती हैं. उप तीन और चौथी अप्रत्याख्यान. मिथ्याष्ट्रि व सममिथ्याष्ट्रिको पांच क्रियाओं. उपर्युक्त क्रियाओंमें मि दर्शन प्रत्ययिकी क्रिया पांचवी बढी ॥ १३ ॥ वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक को असुरकुमार जैसे शरीर का अल्पपना व बहुतपना अपने २ शरीर की अवगाहना के अनुसार जानना. वेदना *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . भावार्थ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ wwwmommmwww पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र मिथ्या दृष्टि उ० उत्पन्न हेव अ० अल्प वेदना वाले अ० अमायी स. समदृष्टि उ० उत्पन्न हुवे म. बहत वेदना भा० कहना जो० ज्योतिषी ३० मानिक को ॥ १४ ॥१० मलेशी णे. नारकी स० सर्व स. समाहारी ओ० अधिक स० सलेशी सु. शुकशी ए. इन ति. तीन में ए. एक सरिखे क. कृष्णलेशी नी नीललेशी ए. एक सरिखे ण. विशेष वे० वेदना में मा० मायी मि० मिथ्यादृष्टि उ० उत्पन्न सुरकुमारा णवरं वेदणाए णाणत्तं । मायी मिच्छद्दिट्ठी उबवण्णगाय अप्पवेयणतरा, अमायी सम्मदिट्ठी उबवण्णगाय महावयणतरा भाणियव्वा ॥ जोइस वेमाणियाय ॥ १४ ॥ सलस्तान भी इसा सब्वे समाहारगा ओहियाणं, सलेस्साणं प्रकार की है सो बताते हैं. ज्योतिषी वैमानिक में मायी मिथ्यादृष्टि पने उत्पन्न हवे सो अल्पवेदनावाले हैं क्यों की उन को साता वेदनीय कर्ष अल्प रहता है. और अनायी सम्यदृष्टि बहुत वेदनावाले हैं क्यों की उनको साता वेदनीय कर्म विशेष रहता हे इतना ज्योतिपो व वैमानिक में असुरकुमार से विशेष है शेष सब असुरकुमार जैसे कहना ॥ १४ ॥ अहो भगवन ! लेश्या सहित नारकी क्या सरिखे आहार करनेवाले हैं ? अहो 60 गौतम : समुच्चय जीव, सलेशी व शुक्ल लेशी इन तीन का एक गमा जानना. कृष्ण व नील लेशीका एक गमा जानना,वेदना में इतना विशेषपना कि मायावी, मिथ्यादृष्टी को बहुत बेदना और अमायी सम्यग्दृष्टी को अल्पवेदना. मनुष्यपद में, क्रिया सूत्र में व औधिक (समुच्चय ) दंडक में सराग, वीतराग,,। 48पहिला शतक का दूसरा उद्देशा 940 भावार्थ १- Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पदार्थ अनुवादक-बालब्रह्मगरी मुनि श्री अमालक ऋषिजी हुवे अ० अमायी स० समदृष्टि उ० उत्पन्न हुचे भा० कहना म० मनुष्य कि० क्रिया में स० सरागी वी. वीतरागी अ० अप्रमत्त प० प्रमत्त भा० कहना का कापुतलेशी ए. ऐसे ण. विशेष • नारकी ज० नैसे ओ० औधिक दं० दंडक त० तैसे भा० कहना ते. तेजु लेशी प० पद्मलेशी ज. जिनको अ. है ज० जैसे ओ० औधिक तक तैसे मा० कहना ण. विशेष म० मनुष्य स० सरागी वी० वीतरागी भा० कहना दु० दुःख आ० आयुष्य उ. उदीरणा आ० आहार क० कर्म ५० वर्ण ले० लेश्या म. सुक्कलेस्साणं एएसिणं तिण्हं एकोगमो कण्हलेसणीललेस्साणंपि एगोगमो ॥ णवरं वेदणाए मायीमिच्छद्दिट्टीउववण्णगाय, अमायीसम्मविट्ठी उववण्णगाय भाणियन्वा मणुस्सा किरियासु सराग वीतराग अपमत्ता पमत्ताण भाणियव्वा ॥ काउलेस्साणवि एबमेवगमो णवरं णेरइए जहा ओहिए दंडए तहा भाणियव्वा, तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा जस्स आत्थि जहा ओहिओ तहा भाणियन्वा णवरं मणुस्सा सराग वीतरागा ण भाअपमत्त व प्रमत्त कहा है, परंतु कृष्ण नीललेश्यावाले मनुष्य में यह कहना नहीं; क्योंकि दोनों लेश्यावाले को संयग का अभाव होता है. कापुत लेख्या में पैसा जानना परंतु नारकी को औधिक दंडक जैसे कहना. तेजो लेश्या व पद्मलेश्या जिन को हैं; उन को आधिक दंडक जैसे कहना. मनुष्य सराग वीतराग कहे हुवे हैं वे यहांपर कहना नहीं; क्यों की तीनों लेश्यावालों को वीतरागाने का अभाव होता है. अब उद्देश के प्रारंभ से जो अधिकार आयासो गाथामे बतातेहैं. एक वचन व बहुवचन आश्रित क्या दुःख व आयुष्य प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी पालाप्रसादजी 2 मावार्थ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाघ समवेदना स० समक्रिया स० समायुष्य बो जानना ।। १५ ।। क० कितनी मं० भगवन् ले० लेश्या प० * प्ररूपी गो० गोतम छः छश्या प० प्ररूपी ल० लेश्या का बी० दूसरा उ० उद्देशा भा० कहना जा०३ भावार्थ १०१८३- पंचपाङ्ग विवाह पञ्णत्ति ( भगवती ) सूत्र यित्वा गाथा || दुक्खाउएउदिपणे आहारे कम्म वण्ण लेस्साय समवेयण समकिरिया समाउया चैव बोधव्या ॥ 9 ॥ १६ ॥ कइणं भंते लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा लेस्साणं बीओउ उदय में आया हुवा वेदे ? क्या सरिखे आहार, कर्म वर्ण लेश्या, वेदना, क्रिया व आयुष्यवाले हैं वगैरह सब पूर्वोक्त जैसे कहना. ॥१५॥ नारकी सलेशी हैं ऐना पहिले कहा इसलिये आगे लेश्याका स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! लेश्या के कितने भेद ? अहो गौतम ! लेश्या के छ भेद कहे हैं इन छही {लेश्श का वर्णन पन्नवणा सूत्र में लेश्यापद का दूसरा उद्देशा में जैसा कहा है वैसा जानना. अहो भगवन् ! {इन लेश्या में से कोनसी लेश्यावाला विशेष ऋद्धि का धारक व कौनसी लेश्यावाला अल्पऋद्धिका धारक होता है ? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्या से नील लेश्यावाला अधिक ऋद्धिका धारक होता है, नील लेश्या से कापोत लेश्यावाला अधिक ऋद्धिका धारक होता है, कापोत से तेजो लेश्यावाला अधिक ऋद्धि का धारक होता है, तेजोते पद्मलेश्यावाला अधिक ऋद्धिका धारक होता है, और पद्म से शुक्ल लेश्यावाला पहिला शतक का दूसरा उद्देशा ७७ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी शब्दार्थ यावत् इ० ऋद्धि ॥ १५ ॥ जॉ० जीव का ती० अतीत काल आ० कहा हुवा क० कितना सं० संसार से 45 सचिठण काल १० प्ररूपा गो० गौतमं च० चार प्रकार का सं० संसार संचिठन काल णे० नारकी सं० ससार संचिठन काल ति० तिर्य व संसार सं० संचिठन काल म० मनुष्य संसार सं० संचिठण काल दे०१ देवसंसार सं० संचिठण कालं णे नारकी सं० संसार संचिठण काल क० कितना प्रकार का गो० गौतम देसओ भाणेयब्बो जाव इड्डी ॥ १६ ॥ जीवस्सणं भंते तीयद्वाए आदिट्टस्स कइविहे संसार संचिट्ठण काले पण्णत्ते ? गोयमा! चउविहे संसार संचिट्ठण काले पण्णत्ते, तंजहा णेरइए संसार संचिट्ठण काले, तिरिक्ख जोणिय संसार संचिट्ठण काले, मणुस्स भावार्थ अधिक ऋद्धि का धारक होता है ॥ १६ ॥ मलेशी जीव संसार में रहते हैं इसलिये संसार में रहनेका प्रश्न ? र करते हैं. * अहो भगवन् ! नारकी आदि जीवों को अतीत काल में कितने प्रकार के संसार संचिठनकाल कहे हैं ? अहो गौतम ! उपधिभेद मे एक भव से भवान्तर में रहने की क्रिया का काल के चार भेद कहे हैं. १ नारकी के भव में जीव रहे सो नरक संसार संचिठनकाल २ तिर्यंच के भव में रहे सो तिर्यंच संसार कितक की ऐसी मान्यता होती है कि मष्य मरकर मनुष्य व पशु मरकर पशु ही होता है इसका निर्णय यहांपर किया गया है. | १ एक भवसे दूसरे भव में रहने की क्रिया का काल. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अनुवाइक-बालब्रह्मचारी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nirmwammmmmmmmmmmmmmmm भावा 48808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र ति तीन प्रकार का मु० शून्य काल अ० अशून्य काल मि. मिश्रकाल ति तिर्यंच का सं० संसार सं० १ संचिठण काल पु० पृच्छा गोः गौतम दु. दोप्रकार का अ० अशून्य काल मि० मिश्रकाल म० मनुष्य में संसार संचिट्ठण काले, देव संमार संचिटण काले।। णेरइय संसार संचिट्ठण कालेणं भंते । कइविहे प०? गोयमा! तिविहे प०० सुण्णकाले, असुण्णकाले, मिस्सकाले। तिरिक्ख है संचिठन काल ३ मनुष्य के भव में रहे सो मनुष्य संसार संचिठन काल ४ देवता के भव में रहे सो देव संसार संचिठन काल. अहो भगवन् ! नारकी संसार संचिठन काल के कितने भेद ? अहोई गौतम ! नारक संमार संचिठन काल के तीन भेद कहे हैं १ शून्यकाल २ अशून्यकाल और ३ मिश्रकाल * अहो भगवन् ! तिर्यंच संसार संचिठन कालके कितने भेद ? अहो गौतम ! दो भेद. अशून्यकाल * वर्तमान कालमें सातों नरकमें जो नारकी विद्यमानहैं उनमें से कोई उद्वर्तेनहीं, और उसमें कोई नविन उत्पन्न होवे नहीं, जितने हैं उतने ही रहे सो नरक गति आश्रित अशून्यकाल. जैसे कहा है आइट्ट समइहै याण नेरइयाणं न जाव एक्को वि उवदृइ अण्गोवा उववज्जइ सो अमुण्णोउ ॥१॥ उन सातों नरक के नारकी में से जो उद्वर्त वाले होवे उस में एक शेष रहे सोमिश्रकाल और सब उद्वर्ते सो शून्यकाल जैसे उबट्टे एक्कंमिवि तामीसो धरइ जाव एकोवि पिल्लेवरहि व्यहिं वट्टमाणेहिं मुण्णोउ ॥ १॥ यहांपर मिश्र नारक संसारावस्थान काल मूत्र वर्तमान भव आश्रित नहीं ग्रहण किया है परंतु वर्तमान काल के नारकी अन्य गति में है Annanowrommonoranwwwwwwwwwwwwww god><8808 पहिला शतकका दूसरा उद्दशा 8085205 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दे० देवता को ज. जैसे णे. नारकी ए. यह भ० भगवन् णे. नारकी का सं० संसार संचिठण काल * 19 }मु० शून्य अ० अशून्य मि. मिश्र क कौन क. किससे अ० अल्प ब० बहुत तुतुल्य वि. विशेषाधिक गो० गौतम स० सब से थोडा अ० अशून्य काल मी० मिश्रकाल अ. अनंत गुणा सु० शून्य काल अ०१३ अनंतगुणा ति तिर्यंच का स० सर्व से थोडा अ० अशून्य काल मी० मिश्रकाल अनंतगुणा म० मनुष्य जोणिय संसार संचिट्टण काल पुच्छा ? गोयमा ! दुविहे प० तं• असुण्णकालेय, मि स्सकालेय. मणुस्साणय देवाणय जहाणेरइयाणं । एयरसणं भंते जेरइय संसार संचिट्ठण १ कालस्स सुण्णकालस्स, असुण्णकालस्स मीसकालरस, कयरे कयरेहिंतो अप्पेवा, बहुएवा, तुल्लेवा, विसेसाहिएवा ? गोयमा ! सळत्थोवा असुण्णकाले, मीसकाले अणंतगुणे, व मिश्रकाल. मनुष्य व देवता में तीनों काल जानना. अहो भगवन् ! इस नरक संसार संचिठन काल के शून्य, अशुन्य व मिश्रकाल में से कोन किससे अल्प, बहुत तुल्य व विशेषाधिक है ? अहो गौतम सब से 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * जाकर पुनः नरक गति में उत्पन्न हो उन जीवों आत्रित लिया गया है. यदि उसी नरक भव आश्रित कहा जाये तो अल्प बहुत्व सूत्र में अशन्य कालकी अपेक्षा से मीश्र काल को अनंत गुना कहा है वह नहीं हो सकता है जैसे एयं पुण ते जीवे पडुच्च मुत्तं न तब्भवं चेव। जइ होजंत भवंतो अणंतकालो न संभवइ 8 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YO -'S १३० देव ज. जेसे नारकी भ० भगवन् णे. नारकी का सं० संसार संचिठण काल जा. यावत् । संसार संचिठण काल का जा. यावत् वि. विशेषाधिक गो० गौतम स० सर्व से थोडा मा मनुष्य संसार संचिठण काल णे. नारकी संसार संचिठण काल अ० असंख्यातगुणा दे० देव मंसार संचिठण काल अ० असंख्यात गुणा ति० तिर्यंच संसार संचिठण काल अ० अनंतगुणा ॥ १७ ॥ जी जीव भं. 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww सुसुण्णकाले अणंतगुणे, ॥ तिरिक्ख जोणियाणं सम्वत्थोवे असुण्णकाले, मीसकाले अणंतगुणे, ॥ मणुस्साणय, देवाणय जहा जेरइयाणं एयस्सणं भंते णेरइय संसार संचिट्ठण कालस्स जाव देव संसार संचिट्ठण कालस्स जाव विसेसाहिएवा गोयमा ? सव्वत्थोवे मणुस्स संसार संचिट्ठण काले, णेरइय संसार संचिट्ठण काले असंखजगुणे,देव थोडा अशून्यकाल है, क्योंकि उत्पाद व उतना काल का विरह बारह मुहूर्त का है, उस से मीश्रकाल अनंत गुना, और उस से शून्यकाल अनंत गुना कहा है. तिर्यंच में सब से थोडा अशून्यकाल उस से मीश्रकाल अनंत गुना. मनुष्य व देवता का नारकी जैसे कहना. अहो भगवन् :चारों संसारसंचिठन कालमें से कोन किस से अल्प, बहत, तुल्य व विशेषाधिक है अहो ? गौतम ! सब से थोडा मनुष्य संमार संचिठन काल. उस से नारकी संसार संचिठन काल असंख्यात गुना, उस से देव संसार संचिठन काल असंख्यात पहिला शतकका दूसरा उद्देशा 88882 भावाथे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - सूत्र ११ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋपिजी भगवन अं० अंतक्रिया क. करे गो० गौतम अ० कितनेक क० करे अ० कितनेक णो नहीं करे अ० अंतक्रिया पद णे० जानना ॥ १८ ॥ अ. अहो भं. भगवन् अ. असंयति ५० शीवद्रव्य देव अ० अविराधिक सं० मंयति वि. विराधिक संयति अ० अविराधिक संयतासंयति वि. विराधिक सं० संयता संयति अ० असंज्ञी ता० तापप कं० कंदर्पिक च० चरक परिव्राजक कि० अशुभ परिणाम वाले ति० संसार संचिट्ठण काले असंखज्जगुणे, तिरिक्ख जोणिय संसार संचिट्ठण काले अणंतगुणे ॥ १७ ॥ जीवेणं भंते अंत किरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थगइए करेजा, ई अत्थेगइए जो करेजा. अंतकिरिया पदं तव्वं ॥ १८ ॥ अहभंत असंजय भविय दव्य देवाणं, अविराहिय संजमाणं, विराहिय संजमार्ग, अविराहिय संजमासंजमाणं, विराहिय संजमासंजमाणं, असण्णीणं, तावसाणं, कंदप्पियाणं, चरगपरब्वायगाणं, गुना उस से तिर्यंच संसार संचिठन काल अनंत गुना ॥ १७॥ अहो भगवन् ! जीव अंतक्रिया करे ? अहो गौतम ! कितनेक जीव अनक्रिया करे और कितनेक अंतक्रिया करे नहीं इस का विशेष अधिकार पन्नवणा के वीस वे अंतक्रिया पद में जानना. ॥१८॥ अंतक्रियाके अभावसे कोई जीव देवलोक में उत्पन्न होवे इसलिये उस का विशप स्वरूप बताते हैं. अहो भगवन् ! चारित्र परिणाम से शून्य मिथ्यादृष्टि, ई * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । 980- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र-8880 तिर्यंच आ० आजीविक आ० आभियोगिक स०स्वलिंगी दं दर्शन से भ्रष्ट ए० इनकी दे० देवलोक में उ० उपजते क० कीसका क० कहां उ० उपपात प० प्ररूपा गो० गौतम अ० असंयति भविद्रव्यदेव ज० जघन्य भ० भवनपति में उ० उपरकी गे० ग्रैवेयक में अ० अविराधिक सं० संयति ज. जवन्य सो० सौधर्म देवलोक उ० उत्कृष्ट स० सर्वार्थसिद्ध विमान में वि० विराधिक संयति ज० जघन्य भवनपति में उ० उत सो० सौधर्म देवलोक अ० अविराधिक सं० संयतासंयति जे० जघन्य सो० सौधर्म देवलोक उ० उत्कृष्ट अ• अच्युत किन्विसियाणं, तिरिच्छियाणं, आजीवियाणं, आभिओगियाणं, सलिंगीदसणवावण्णगा णं, एएसिणं देवलोएसु उववजमाणाणं कस्स कहिं उववाए ५० ? गोयमा ! असंजय , भविय दव्व देवाणं जहणणं भवणवासीसु, उक्कोसणं उवरिम गेवेजएसु, अविरा हिय संजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसणं सव्वट्ठसिद्धे विमाणं, विराहिय मात्र क्रिया के करने वाले, प्रवा काल से निरतिचार पूर्वक पूर्ण चारित्र पालने वाले, अविराधिक संयमी १. इसका कितनेक भावि में होनेवाला देव मो भावद्रव्य देव,चरणपरिणाम शून्य सो असंयति, अमंयतिभवि द्रव्य देव अर्थात् असंयति सम्यकदृष्टी ऐसा अर्थ करते हैं परंतु यह अर्थ यहांपर योग्य नहीं है क्योंकि इन की उत्कृष्ट उपरकी अवेयक में उत्पत्ति बतलाइ है. और सम्यग् दृष्टि देश विरति की तो मात्र अच्युत देव लोक तकही ली है इसलिये यहां मिथ्यादृष्टी असंयति भव्य अभव्य जीव ग्रहण किये हैं. 3886032 पहिला शतकका दूसरा उद्देशा 8888+ भाव Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ m १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 देवलोक वि० विराधिक सं० संयतासंयति ज० जघन्य भवनपति उ० उत्कृष्ट जो. ज्योतिषी अ० असंही ज. जघन्य भ० भवनपति उ उत्कृष्ट वा. वाणव्यंतर अ० बाकी के स० सब ज० जघन्य भ० भवनपति में उत्कृष्ट ता० तापप्त जो० ज्योतिषी में कं० कंदर्पिक सो• सौधर्म देवलोक में च० चरक परिवाजिक बम ब्रह्मदेवलोक में कि० क्लिष्टपरिणामी लं० लंतक देवलोक में ति० तिर्यंच स० सहस्रार देवलोक में आ० आजी संजमाणं जहण्णणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं सोहम्मेकप्पे; अविराहिय संजमासंजमाणं जहण्णणं सोहम्मेकप्पे, उक्कोसेणं अच्चुएकप्पे, विराहिय संजमासंजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसणं जोइसिएसु, असण्णीणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु अवससा सव्वे जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वोच्छामि-तावसाणं । जोइसिएसु, कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे, चरग परिव्वायगाणं बंभलोए कप्पे, किन्विसिविराधिक संयमी, अपिराधिक संयमासयमी विराधिक संयमासंयमी, असंज्ञी, तापस, कंदर्ष कथा करने, वाले, त्रिदंडिये, कपिल मुनि के संतानिये, ज्ञानादिक के अवर्णवाद बोलने वाले, तिर्यंच, आजीविक धर्म वाले व्यवहार में चारित्रवंत होते हुवे मंत्र यंत्रादिक के करने वाले आभियोगिक, और साधु वेष होने पर सम्यक्ता से भ्रष्ट निन्हव देवलोक में उसन्न होते किस २ स्थान पर उत्पन्नहोवे ? अहो गौतम असंयति भवि द्रव्य देव जघन्य भवनपति में उत्कृष्ट उपर की ग्रैवेयक में. आविराधिक साधु जघन्य सौधर्म देवलोक में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ८५ शब्दार्थ | विकं अ० अच्युत देवलोक ऑ० आभियोगिक अ० अच्युतं देवलोक में स० सलिंगी दर्शन भ्रष्ट उ० उपर की गे० अवेयक में ॥ १९ ॥ कल कितने प्रकार का भं० भगवन् अ० असंज्ञी आ आयुष्य गो गौतम च० चार प्रकार का अ० असंही आयुष्य णेनारकी अ० असंही आयुष्य ति० तिर्यंच अ० असंज्ञा आयुष्य म० मनुष्य अ० अमंझी आयुष्य दे० देव असंज्ञी आयुष्य अ० असंज्ञी भं० भगवन् • याणं लंतगे कप्पे, तिरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं अच्चुएकप्पे, आभि ओगिया अच्चुए कप्पे, सलिंगीदसणवावण्णगा उवरिमगेविजएसु ॥ १९ ॥ कइविहेणं भंते असण्णियाउए, पण्णत्ते ? गोयमा ! चउन्विहे असणियाउए १० तं० णेरइय असण्णियाउए तिरिक्ख जोणिय असणियाउए, मणुस्स असण्णियाउए, दे. व असण्णियाउए ॥ असण्णीणं भंते ! जीवे किं णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्ख भावार्थ उत्कृष्ट मर्वार्थसिद्ध विमान में विराधिक, साधु जघन्य भवनपति में उत्कृष्ट सौधर्म देवलोक में अविराधिक श्रावक जघन्य सौधर्म देवलोक में, उत्कृष्ट अच्युत देवलोक में, विराधिक श्रावक जघन्य भवनपति, उत्कृष्ट ज्योतिषि में, असंज्ञी जघन्य भवभपति, उत्कृष्ट वाणव्यंतरमें शेष सब जघन्य भवनपति में उत्पन्न हावे और उत्कृष्ट तापस ज्योतिषी, कंदर्पकी कथा करनेवाले सौधमे देवलोकमें, चरक परिवाजिक ब्रह्मदेवलोक Lage में ज्ञानादि के अवर्णवाद बोलनेवाले लांतक देवलोकमें तिर्यंच सहस्रार देवलोकमें आजीविक मतानुसारी अच्युत देवलोक में आभियोंगिक अच्युत देवलोकौ और दर्शन से भ्रष्ट संलिंगी उपर की ग्रैबेयकमें उत्पर्य होते है। ॥ १९ ॥ अब अॅसडी की आयुष्य कहते हैं. अझे भगवन ! असंही परभव योग्य कितने प्रकार का आयुष्य 42-42 पंचांग विवाह षण्णत्ति ( भवगती) सूत्र पहिला शतकका दूसरा उद्देशा 988-87 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ जी० जीव णे. नारकी का आयुष्य प. बांधे ति तिर्यंच आयुष्य ५० बांधे म मनुष्य दे. देवका आयुप्य ५० बांधे गो० गौतम णे. नारकी का आ० आयुष्य प० बांधे ति. तिथंच म० मनुष्य दे० देव का आयुष्य प० बांधे णे० नारकी का आयुष्य प० बांधते ज० जघन्य द० दशवर्ष स० सहस्र उ० उत्कृष्ट ५० पल्योपम का अ० असंख्यातवा भाग ति० तिर्यंच का आयुष्य ज० जघन्य अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट १० जोणियाउयं पकरेइ, मणुस्स देवाउयं पकरेइ ? गोयमा ! णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्ख 'मणुस्स देवाउयं पकरेइ ॥ णेरइयाउयं पकरेमाणे जहणणं दसवाससहस्साइं, उक्को सेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पकरेइ, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखज्जइ भागं पकरेइ, मणुस्साउएवि . बांधे? अहो गोतम! असंज्ञी का आयुष्य चारप्रकारसे कहा असंही नरक का आयुष्य, असंज्ञी तिर्यंचका आयु ष्य, असंही मनुष्यका आयुष्य, असंज्ञी देवका आयुष्य. अहो भगवन् ! असंज्ञी क्या नारकी का आयुष्य बांधे तिर्यंचका आयुष्य बांधे, मनुष्यका आयुष्य बांधे, या देवका आयुष्य वांधे? अहो गोतम ! असंज्ञी नारकी,तिर्यंच मनुष्य व देवताका आयुष्य बांध. असंज्ञी नारकी का आयुष्य बांधता हुवा जघन्य दशहजार वर्ष (रत्नप्रभाकापहिला प्रतर आश्रित) उत्कृष्ट (रत्नप्रभाका चोथा प्रतर आश्रित) पल्योपमका असंख्यातवा भाग आयुष्य बांधे. मनुष्य व तिर्यंचका जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट युगलिये आश्रित] पल्योपमका असंख्यातवा भाग.. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4348 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगरती) सूत्र 83809 पल्यापम का अ० असंख्यातवा भाग म. मनुष्य एक ऐसे दे देवता का आयुष्य ज जैसे . नारकी का. आयुष्य भ० भगवन् णे. नारकी का ति तिर्यंच का म. मनुष्य का दे० देवका अ० असंज्ञी आयुष्य का क. कौन क. किम से जा. यावत् वि० विशेषाधिक गोगौतम स० सर्व से थोडा दे०देवका म. मनुष्यका मं० मंख्यातगुना ति तिर्यंच का अ० असंख्यातगुना णे- नारकी का अ० असंख्यात गुना से० वह ए. ऐसे भं० भगान् । १ ॥२॥ एवं चेव, देवाउए जहा णेरइयाउए ॥ एयरसणं भंते ! णेरइय असण्णि आउयस्स, तिरिक्ख जोणिय असण्णि आउयस्स, मणुस्स असणि आउयरस, देव असाण आउयस्स, कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिएवा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, मणुस्स असाणाआउए संखेजगुण, तिरिय असण्णिआउए असंखेजगुणे, णेरइय असण्णिआउए असंखेजगुणे । सेवं भंते भंतेत्ति।बिइओ उद्देसो सम्मत्तो॥१॥२॥ देवताका नारकी जैसे कहना. अहो भगवन् नारकी असंज्ञी आयुष्य यावत् देव असंज्ञी आयुष्य में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? अहो गौतम! सबने थोडा असंज्ञीका आयुष्य, उससे मनुष्य असंज्ञी का आयुष्य मंख्यात गुना, उससे तियद अज्ञीका आयुष्य असंख्यात गना, उतने नारकी अज्ञी आयुष्य असंख्यात गुना, है गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो भगवन जैरे मैने प्रश्न किया उनका उत्तर जो आप ने दिया वह वैसेही है, अन्यथा नहीं है. यह पहिला शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१॥२॥ 8809 पहिला शतक का दूसरा उद्देशा भावाथे 340880 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ है जी जीव भं० भगान कं० कांक्षा मोहनीय क. कर्म का करे इ० हा क० करे से वह भ० भगवन् । कि०क्या दे०देशने दे देश क०करे दे०दश से स०सर्व क०करे स०सर्व से दे०देश क करे स० सर्व से स० सर्व क०करे गो गौतम णो नहीं दे देशसे दे देश क करे णो नहीं दे०देशसे स०सर्व क करे णो नहीं स० जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कड़े ? हंता कडे. से भंते : किं देसेणं देसे ऋडे देसणं सव्वे कडे सव्वेणं देसे कड़े सव्वेणं सव्वे कडे ?गोयमा! णो देसेणंदेसेकडे णो भावार्थ द्वितीय उद्देशे में आयुष्य का स्वरूप कहा. वह मोहनीय कर्म से होवे इमलिये आगे मोहनीय कर्म का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव कांक्षा मोहनीय कर्म। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म ) करे ? हां गौतम! जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करे. अहो भगवन् ! जैसे? हस्तादि देश से किसी वस्तुका देश आच्छादे,२ हस्तादि देशसे समस्त वस्तु आच्छादे,३ समस्त शरीर से वस्तुका देश आच्छादे, ४ समस्त शरीर से समस्त वस्तु का आच्छादन करे; वैसे ही क्या जीव का देश कांक्षा मोहनीय का एक देश करे, जीव का एक देश सब Eकांक्षा मोहनीय कर्म करे. संपूर्ण जीव कांक्षा मोहनीय का एक देश करे, अथवा संपूर्ण जीव संपूर्ण कांक्षा मोहनीय कर्म करे? अहो गौतमः जीव का एक देश कांक्षा मोहनीय का एक देश नहीं करे, जीव का एक देश संपूर्ण कांक्षा माहनीय कर्म नहीं करे, संपूर्ण जीव कांक्षा मोहनीय का एक देश नहीं करे, परंतु संपूर्ण जीव १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * | Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सर्व से दे० देश क० करे स० सर्व से स० सर्व क० करे ॥ १ ॥ णे० नारकी भं० भगवन् कं० कांक्षा मोgo हनीय कर्म क करे ० हां कर करे जा० यावत् सः सर्व से स० सर्व क० करे ए० ऐसे जा० यावत् ०७ 9 वे० वैमानिक दं० दंडक भा० कहना || २ || जी० जीवने मं० भगवन् क० कांक्षा मोहनीय कर्म कर किया ० हा ० किया ० उन को मं० भगवन् किं० क्या दे० देश से दे० देश क० किया ए यह अ० देसेणं सव्वेकडे.णोसव्वेणं देसेकडे, सव्वेणं सव्वे कडे || १ ||णेरइयाणं भंते ! कंखा मोहणिजे कम्मेकडे? हंताकडे, जाव सव्वेणं सव्वेकडे । एवं जाव वैमाणियाणं दंडओ भाणियन्त्रो ॥ २ ॥ जीवाणं भंते! कंखा मोहणिजं कम्मं करिंसु ? हंताकरिंसु । तं भंते ! किं देसेणं देसं करिंसु ? एएणं अभिलावेणं दंडओ जाव वैमाणियाणं । एवंकरंति, एत्थवि दंडओ जात्र बेमाणियाणं । एवं करिस्संति, एत्थवि दंडओ जाव वैमाणियाणं ॥ एवं चिए, चिणिसु, चिति, चिणिस्संति । उवचिए, उवचिर्णिसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति संपूर्ण कांक्षा मोहनीय कर्म करे || १ || अहो भगवन् ! क्या नारकी कांक्षा (मिथ्यात्व) मोहनीय कर्म करें ? हां गौतम! नारकी कांक्षा मोहनीय कर्मकरे; यावत् सबसे सब कांक्षा मोहनीय कर्म करे वैसेही चौवीस दंडक का | जानना || २ || अहो भगवन् ! जीव ने क्या अतीत काल में कांक्षा मोहनीय कर्म किया ? हां गौतम किया. देश से देश यावत् सर्व से सर्व किया वगैरह वैमानिक तक जानना. और वैसे ही वर्तमान काल ) सूत्र भावार्थ 4 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4 २००२ पहिला शतक का तीसरा उद्देशा ८९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * अभिलाप से दं० दंडक जा. यावत् वे वैमानिक को ए. ऐसे क० करता है ए० इस का दं० दंडक मा० यावत् वे० वैमानिक ए. ऐसे क० करेंगे ए. यह दं० दंडक जा. यावत् वे०. वैमानिक ए. ऐसे में के. किरे चि. इकठे किरे उ. विशेष इकठे किरे उ. उदीरे वे वेदे नि. निर्जरे आ० आर्दके ति०१ तीनके च चारभेद तिः तीनभेद ५० पीछेके ति० तीन के॥३॥ जी० जीव भं० भगवन् कं. कांक्षा मो-है अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ४ उदीरेंसु, उदीरंति, उदीरिस्संति,वेदंसु, वेदति,वेदिस्संति । णिज्जरेंसु, णिज्जरेंति, णिजरिस्संति गाहा॥ कडे चिए य उवचिए,उदीरिया वेदियाय णिजिण्णाआदितिए चउभेया, तियभेया पच्छिमातिण्णि ॥ १ ॥ ३ ॥ जीवाणं भंते ! कंखा मोहणिजे कम्मं वेदेति ? हंता * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * आश्रित जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करता है, और भविष्यकाल आश्रित जीव कांक्षा मोहनीय कर्म करेगा, वगैरह चौवीस दंडक में जानना. ऐसे ही.चिय, उपचिय, का सामान्य, भूत भविष्य व वर्तमान काल आश्रित जानना. और उदीरणा, वेद व निर्जरा इन तीन बोल को भूत, भविष्य व वर्तमान काल Fआश्रित चौविस दंडक पर उतारना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वेदता है ? हां जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वंदता है. अहो भगवन ! किस तरह से जीव कांक्षा मोहनीय कर्मच विदता है ? अहो गौतम ! मिथ्यात्व की संगति से या परदर्शन के वचन श्रवण से श्री वीतराग प्ररूपित गौतम ! जीव कांक्षा मोहनीय क Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ * हनीय कर्म त्रे. वेदते हैं हं० हां वे वेदते हैं क. कैसे भं० भगवन् जी. जीव कं. कांक्षा मोहनीय कर्म of वे. वेदते हैं गो० गौतम ते.. उस २ का कारणले सं. शंकित कं. कांक्षा सहित वि० फल में संदेह सहित भे० भेदका प्रात का संक्लिष्ट परिणामी जी जीव के० कांक्षा मोहनीय कर्म वे. वेदे ॥ ४ ॥ तं. वहही स० सत्य णी. शंकारहित जं. जो जिजिनने प० प्ररूपा हं हां गो० गौतम त. वहही स० सत्य णी शंकारहित जं. जो जि० जिनने पप्ररूपा ॥५॥ से वह णू निश्चय भं भगवन् ए ऐसा वेति । कहणं भंते ! जीवा कंखा मोहणिजं कम्मं वेदेति ? गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिच्छिया, भेदसमावण्णगा, कलुससमावण्णगा, एवं खल जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदति ॥ ४ ॥ सेणणं भंते ! तमेवसच्चं, णीसंक, जं जिणेहिं पवेइयं? हंता गोयमा! तमेव सच्चं णीसंकंजं जिणेहिं प्रवेइयं भावार्थ पदार्थ में देश से या सर्व से शंका उत्पन होवे, अन्य दर्शन ग्रहण करने की इच्छा उत्पन्न होवे, कृत कार्य के फल में संदेह उत्पन्न होने, देवीभाव उत्पन्न होवे, अथवा मतिभ्रम होवे, इस तरह से जीव कांक्षा ge हनीय कर्म वेदता है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जो जिन भगवानने कहा है वह क्या निःशंक सत्य है ??x of गौतम ! जो जिन भगवान् ने कहा है वह ही निःशंक सत्य है ॥ ५॥ अहो भगवन् ! इस तरह मन में धारता हुवा, ऐसे करता हुवा, ऐसे रहता हुवा ऐसे ही प्राणातिपातादिक से आत्मा को संवरता हुवा पंचमांग विवाह पण्णत्ति । भगवती) सूत्र पहिला शतक का तीसरा उद्देशा * Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ भावार्थ 29 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी म मनमें अ० धारता ५० करता चि० रहता सं ० संवरता आ' आज्ञा आ०आराधक भ० होवे हं०हां गो. गौतम ए ऐसा म.मनमें अ० धारता जा यावत् भ०हो. ॥६॥ से वह भंभगान अ० अस्तिरूप पने प. ॥ ५॥ सेणणं भंते ! एवं मणे धारेमाणे एवं पकरेमाणे, एवं चिट्रेमाणे, एवं तंवरेमाणे, आणाए आराहए भवड? हंता गोयमा! एवं मणे धारमाणे जाव भवड ॥ ६ ॥ सेणणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, णत्थित्तं णत्थित्ते परिणमइ ? हंता गोयमा ! जाव परिणमइ ॥ जतंभंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं क्या आज्ञा का आराधक होता है ? हां गौतम ! ऐमा करने वाला आज्ञा का आराधक होवे ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! अस्तित्व अस्तिरूपंपने ( वस्तु का पर्यायान्तर होने पर जो मूल गुंण है वह होना ) परिणमे? जैसे अंगुली ऋजुता, वक्रता, धारन करे तो भी अंगुलीपने परिणमे और नास्तित्व सो नास्तिरूपपने परिणमे ? हां गौतम ! जो अस्ति रूप 'वस्तु है वह अस्तिपने परिणमती है, जैसे अंगुली को अंगुली ही कही जाति है और अछनी वस्तु नास्तित्व पने परिणमति है जैसे जो पट नहीं है वह कदापि पट नहीं है. अहो भगवन् ! क्या वह प्रयोग भो जीव का व्यापारसे या स्वभाव से परिणमे ? हां गौतम ! प्रयोग से भी परिणमें जैसे कुंभकार मृत्तिका का घर बनावे और स्वभाव से भी परिणमें जैसे आकाश में बदल होवे. अहो भगवन् ! जैसे आपके मत में प्रयोग या स्वाभाव से अस्तिपना अस्तिपने परिणमताहै * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * I Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - ४. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र : परिणमे ण नास्तित्व ण नास्तिरूप प. परिणमे है. हां गो० गौतम जा. यावत् प० परिणमे । जं. जो भं. भगवन अ. अस्तित्व अः अस्तिरूप पने प० परिणमे न० नास्तित्व न० नास्तिरूप पने १५० परिणने तं० उस कोकि क्या प० प्रयोगले वी. स्वभाव से गो० गौतम ५० प्रयोगसे वी० स्वभावसे ॥ ७॥ से० वह भं० भगवन् अ० अस्तित्व अ० अस्तिरूप पने ग० प्रकाशने योग्य ज. जैसे प०३० नत्थित्ते परिणमइतं किं पओगला वीससा? गोयमा ! पओगसावितं वीससावित।जहाते भंते! अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ, तहाते णत्थित्तं णत्थित्ते परिणमइ, जहातेनत्थित्तं नत्थित्ते परि णमइ,तहातेअत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ? हंता गोयमा !जहामे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ तहामे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ. जहामे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ तहामे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ ॥ ७ ॥ सेणूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गणिजं जहा वैसे ही क्या आपके मत में नास्तिपना नास्ति पने परिणमता है ? और जैसे नास्तिपना नास्तिपने ge परिणमता है, वैसे ही क्या अस्तिपना अस्तिपने परिणमना है ? हां मौतम ! जैसे हमारे मत में अस्तित्व । अस्तिपने परिणमता है वैसेही नास्तिपना नास्तिपने परिणमता है और जैसे नास्तिपना नास्तिपने परिणमता है ! वैसेही अस्तित्व अस्तिपने परिणमता है. ॥७॥ अहो भगवन् ! अस्तित्व अस्तिपने गमनीय, पहिला शतरु का तीसरा उद्देशाg भावार्थ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी परिणमे में दो दोभालापक त० ते ग. प्रकाशने में दो दो आ. बालाप भाः कहना ॥ ८ ॥ जी. जीर भं. भाप कं. कांक्षा मागीय कारबाही गो गौतन पं. बांधक कैसे भं भगवन है जी जीवकांक्षा मोहनीय कर्म बांधे गोल गोलप प. मनाद प्रत्यय जो जोगनिमित्त से वह परिणमइ दो आलावगा,तहागमणिजेगात्र दो आलावगा भाणियव्या,जाव तहामे अत्थितं अत्थिन्ते गणिजं जहा ते भंत! एत्थंगमणिजं तहाते इह गमणिजं जहाते इह गमणिज तहाते इत्थं गमणिजीता गोयमा!जहामे इत्यं गमणिज्जतहामे इगमणिज्ज॥८॥जीणं है भंते कंखा मोहाणिज कम्म बंधति ? हंता गोयमा ! बंधति । कहणं भंते ! जीवा कंखा अर्थात छती वस्तु छतेपने ही प्रकाशने योग्य है अन्य को जलाने योग्य है ? यहां पर भ परिणमते के दो आलापक को वैसे ही प्रकाशने के हमारे मतमें अस्तित्व अस्तिपने प्रकाशने योग्य है वहां तक दो आलापक कहना. और भी ओ भनाज: जैसे आप के मत में मेरे जैसे मुशिष्य को वस्तु प्ररूपी वैही कसा आपके मन में पावडी मृदयाक्षिक को प्ररूपी और जैस पाखंडी गृहस्थादिक को वस्तु प्रसपी वैभही क्या से जैन मशिष्यको वस्तु धरूपी गौतम जने मेरे मन में सुशिष्यादिक को वस्तु वरण प्ररूपानेही पावंती गृहस्थादिक को वस्तु स्वरूप प्ररूपा और मे पाखंडी को वस्तु स्वरूप प्रख्या वतीमाशेच्य को वस्तु स्वरूप प्रमा॥ ८ ॥ अहो भगवन : जीव कांक्षा प्रकाशक-राजावहादूर लाला मुखदवसहायजी ज्यालाममादजी* भावार्थ - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ICS Armaavanamarinaran भं. भगवन पवाद कि किससे प उत्पन हार गो गौरमजा: जोगने पर उत्पन्न होवे जो जोग कि किसमे प० उत्पन्नाचे गो गौतम बी०वीर्यमे प उत्पन्न व वी वीर्य कि किसम उम्पन्न होव गशरीर मे | मोहणिज कम्म बंधति ? गोयमा ! पमाद पच्चयं, जोगानिमित्तंच ॥ सेणं भंते ! पमाद किंपबहे ? गोयमा ! जोगप्पबहे । सेणं भंते ! जोए किंपवह ? गोयमा ! वीरियप्पवहे। F सेणं भंते : वीरिए किंयवहे ? गोयमा : सरीरबहे । सेणं भंते सरीरे किंपवहे : मोहनीय कर्म बांधता है ? हां गौतम ! जीव कांता मोहनीय कर्म बांधता है. ओ भगवन ! जीव कैसे कांक्षा ( मिथ्यात्व ) मोहनीय कर्म बांधता है ! अहो गौतम प्रसाद न्यायक व योग निमित्त मे. अहोई । भगवन् : प्रमाद किस कारन से प्रवर्ते अर्थात् कै उत्पन्न होवे ! अहो गौतम : मन प्रमुख योग के व्यापार में प्रमाद उत्पन्न होवे. अहो भगवन : योग कैले उत्पन्न होये! अहो गौतम बीयतिराय कर्म । के क्षयोपशम से उत्पन्न हुवा जो जीव परिणाम उनमे योग उत्पन्न होवे. अहो भगवन् : वीर्य कैसे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम : वीर्य के दो भेद सकरण वीर्य और अकरण वीर्य. उस में अलेशी केवली समस्त पदार्थ जानते व देखते को सही केवल ज्ञान केवल दर्शन प्रयुनते को जो अप्रतिवाती परिणाम विशेष भाव होवे उसे अकरण वीर्य कहते हैं उस का यहाँपर अधिकार नहीं है. परंतु ०७ यहाँ पर मन वचन करण साधन सलेशीजीव प्रदेवात्मक व्यापार मोमकरण वीर्य ग्रहण कीया है और भावार्थ A8- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 86023 पहिला शतक का तीसरा उद्देशा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र मुनि श्री अमोलक ऋपिनीअनुवादक-पालब्रह्मचारी भावार्थ प. उनहोवे सशरीर कि किससे प० उत्पन्न हावे जी जीवसे १० उत्पन्नाव एएमम होते अ० है उ० उत्थान के कर्म व बल वा वीर्य पु० पुरुपात्कार ५० पराक्रम 1 मे वह शनिश्चय भं० भगान् अ० मात्मा से उ. उदीरे ग. निन्दे सं० संवरे है. हा गोर गौतम आ० आन्या मते तेही कहना गोयमाः जीवप्पवहे एवंसइ अत्थि उट्ठाणइवा, कम्मेदवा, बलेश्यावीरिएडा पुरिसनार परकमेइवा ॥ ९ ॥ सेणूणं भंते , अप्पणाचेव उदीरेइ, अप्पणाचेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरइ? हंता गोयमा: अप्पणा चेव उच्चारेयव्यं । जंतंभंते । अप्पणा चेव उदीरेइ. वह शरीर के व्यापार से होता है. अहो भगवन् ! शरीर कैसे उत्पन्न होवे ! अहो गौतम जीव से उत्पन्न होवे+ यदि ऐसा होवे तो उद्यान-कार्य माधन के लिये खडे होला, कर्म-गपनादि कर्म करना, बलशरीर की सामर्थ्यता, वीर्य-उत्साह, पुरुषात्कार-पुरुपका अभियान, व पराक्रन-कार्य पूर्ण करना, इस में भी जीव की प्रधानता है. ॥२॥ अहो भगवन् ! कर्मबंधादिक में जीव की प्रधानता है तो क्या स्वयंही कर्म का की उदीरणा करे, स्वयही कृत कर्म की निन्दाकरे और स्वयंही संवर, अर्थात् कर्म करे नहीं? हां गोता स्वयंही कर्मकी उदीरणा कर यायतू स्वयं कर्म करे नहीं.अहो भगवन् जय जीव स्वयं उदीरता है,गहताहै,व संवरता है तो क्या है ___ + यपि शरीर में कर्म भी कारण है निष्केवल जीव ही कारण नहीं है, तथापि कर्म का कर्ता जीव होने से जीव से शरीर उत्पन्न होना कहा है. *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जं. जो भं. भगवन् आआत्पामे उ० उदरे गमक संवरे तं-उन कोकि क्या उरुउद आया उ. १७ उदीरे अ उदे नहीं आया अ. उदीरे उ उदे हैं आया उउदीगा योग्य उ उदारे उदयान्नर ५०पीछे काकीया कर्म० उदीर गो. गौतम णो नहीं उ उ आया उ उदीरे णो नहीं अाउदे नहीं आया अप्पणाचेत्र गरहइ, अप्पणाचेव संवरइ, तंकिं उदिण्णं उदीरेइ, अणुदिन्नं उदीरेइ अणुदिन्नं उदीरणा भवियं कम्म उदीरेइ, उदयाणंतरं पच्छाकडं कम्मं उदीरेइ ? गोयमा ! नो उदिण्णं उदीरेइ, णो अनुदिण्णं उदीरेइ, अनुदिण्णं उदीरणा भवियं कम्म उदीरेइ, नो उदयाणंतरं पच्छाकडं कम्मं उदीरेइ ॥ जंतंभंते : अणुदिन्नं उदीरणा भावार्थ उदय आया हुवा उदीरता है, उदय नहीं आया हुवा उदीरता है, उदय में नहीं आया है परंतु उदीरणा के योग्य जो उसे है उदीरता है, अथवा उदय के अनंतर समय में पश्चात् कृत कर्म को उदीरता है ? अहो गौतमः जो कर्म उदयमें आये हैं उनकी उदारणा करे नहीं क्यों की उदयों आये हुवे कर्मों की उदीरणा नहीं होती है, जो उदय में नहीं आये हैं उन की भी उदीर गा नही होती है क्यों की वे बहुत काल में उदय में }oo! आवेंगे इस लिये वर्तमान काल में उन की उदीरणा का अभाव है, जो उदय में नहीं आये हैं परंतु उ-17 दीरणा के योग्य हुवे हैं उन को उदीरते हैं और उदयांतर कृत कर्म को नहीं उदीरते हैं. अक्षो भगवन ! जो उदय में नहीं आये हैं और उदीरणा के योग्य बने हुवे उन को उदीरते हैं तो क्या 488 पंचमांग विवाह पप्णत्ति ( भगवती) सूत्र -2008 पहिला शतकका तीसरा उद्देशा804265 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कान्दाथ ran उ० उदीरे अ. उदे नहीं आया उजदीरणा योग्य क० कर्म उः उदीरे नोक नहीं उ. उदयान्तर १० पीछे क० कीया कर्म उ० उदीरे जं. जो भगवन अ. उदे नहीं आया उ. उदीरना योग्य क. कर्म उ० उदीरे त उन को उ० उत्थान क० कर्म ब० तलबी वीर्य पु. पुरुपात्कार पराक्रम में अ० उदे नहीं आया उ० उदीरणा योग्य उ० उदीर उ० अश्या है. उन को अ० अनुत्थान अ० अकर्म १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी भवियं कम्मं उदीरेइ तंकिं उठाणेणं, कम्मेणं, वलेणं, वीरिएणं, परिसक्कार परकमेणं अणुदिन्नं उदरिणा भवियं कम्मं उदीरति. उादह तं अणटाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं अवीरिएणं, अपरिसकार परकमेणं, अपादिण्णं उदीरणा भावयं कम्मं उदीरेड ? गोय. मा : तं उट्ठाणणवि, कम्मणवि, बलेणवि, वारिएणवि, पुरिसकार परकमेणवि, अणुदिन्नं उदीरणा भावियं कम्मं उदीरेइ नो, तं अणुटाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमाद जी * भावार्थ उत्थान, कर्म, बल, वीर्य. व पापात्कार पगमन उदीरता है? अथवा अस्थान, कन, बल, वीर्य, व पुरुषा कार पराक्रम विना उदीरता है ? अहो गोकर उन्धान भारत उगम में उदीरणा के योग्य अनुदित कर्म उदीरता है. परंतु उत्थानबारपाका मिना उठीगा के योग्य अनुदित कर्म को नहीं उदीरता है. हम लिये उन्धान, कर्म, वरीय पुस्ताकार पक्रय में अस्ति है जिम में उदीरणा योग्य * Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र अ० अबल अम्वीयरहित अपुरुषात्कार पराक्रम रहित ॥१०॥से वह भ भगवन अ० आत्मा सेउ उपशमोव ग०, निन्दे सं० संवरे हैं. हां ए यहां ततैने भा०कहना ण विशेष अ० उदे नहीं आया उ० उपशमावे से शेष २0१५० वर्जना ति• तोन जं० जो भं• भगवन् अ० उदे नहीं आया उ० उपशमाये तं० उन को किं० क्या अपुरिसक्कार परक्कमेणं अणुदिन्नं उदीरणा भावियं कम्मं उदीरंति. एवं सइ आत्थि उट्टाणेइवा, कम्मेइग, बलेइवा, वीरिएइवा, पुरिसक्कार परकमेइवा ॥ १० ॥ सेणणं भंते अप्पणाचेव उवसामेइ, अप्पणाचेव गरहइ, अप्पणाचेव संवरइ ? हंता गोयमा ! एत्थवि तहेव भाणियव्वं, णवरं अणुदिन्नं उवसामेइ, सेसा पडिसेहियव्वा तिष्णि ॥ जं तं भंते! अणुदिन्नं उवसामेइ तंकि उट्ठाणेणं जाव पुरिसक्कार परक्कमेइवा अनुदित कर्म को उदीरता है ॥ १० ॥ अव कांक्षा मोहनीय का उपशम कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या भावार्थ जीव स्वयं कांक्षा मोहनीय कर्म उपशमावे. गर्थे, व संवरे ! हां गौतम ! जीव स्वयं ही कांक्षा मोहनीय कर्म उपशमावे यावत् संवरे. यहांपर पूर्वोक्त उदीरणा जैसे कहना, परंतु यहां अनुदित कर्म का उपशम करते हैं और शेष तीन को छोडना. जो उदय में आया है वह अश्यही वेदाता है इस लिये अनुदितर कर्म का उपशम कहा है. अहो भगवन् ! जो अनुदित कर्म का उपशम करता है वह क्या उत्थान, कर्म यावत् पराक्रम से करता है या उत्थानादि विना उपशम करता है ? वगैरह अधिकार पहिले जैसे है। 8 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवत्ती ) सूत्र 83>> ***><23 पहिला शतक का तीसरा उद्देशा 800*8037 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ T सूत्र | १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी उ. उत्थान जा. यावत् पु० पुरुषात्कार पराक्रपसे ॥११॥ से• वह भ. भगवन् अ. श्राला से ० वेदे ग निन्दे ० हा गो० गौतम ए० यहां सं० सर्व प० परंपरा • विशेष उ० उदेआया वे दे णो नहीं अउदे नहीं आया वे वेदे ए. ऐसे जा. यावत् पु० पुरुषात्कार पराक्रम ॥ १२॥ से वह भं० भगवन् अ० आत्मा मे णि निर्जरे अ० आत्मा से ग० निन्दे हैं. हां गो० गौतम ए. यहां स० सर्व ५० परंपरा ण. विशेष उ० उदयान्तर ५० पीछे क० कीया क. कर्म नि० निर्मरे ए. ऐसे ॥ ११ ॥ सेणूणं भंते ! अप्पणा चेव 'वेदेइ, अप्पणा चेव गरहइ ? हंता गोयमा! है एत्थवि सव्वेवि परिवाडी, णवरं उदिण्णं वेदेइ, णो अणुदिन्नं वेदेइ. एवं जाव पुरिसकार परक्कमेइवा ॥ १२ ॥ सेणूणं भंते ! अप्पणा चेव णिजरेइ अप्पणा चेव गरहइ ? हंता गोयमा ! एत्थवि सव्वेवि परिवाडी, णवरं उदयाणंतरं पच्छा कडं कम्म कहना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! जो स्वयं वेदता है, स्यं गर्हता है ? हां गौतम : यहाँपर सब परि-al पाटो पहिले जैसे कहना. इस में उदय आये हुये कर्म वेदते हैं इतना ही विशेष हैं और पुरुषात्कार पराक्रमतक पहिले जैसे कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या स्वयं कर्म की निर्जरा करता है वो गहीं करता है ! हां गौतम ! यहॉपर उदयान्तर समय पश्चात् कृतकर्म निजैरे. इतना विशेष जानना . * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुवदेवमहायजी पालामतादजी भावार्थ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ जा. यावत् १० पराक्रम ॥ १३ ॥ णे० नारकी भ० भगवन् कं० कांक्षा मोहनीय क. कर्म वे० वेदे ज. जैसे ओ० औधिक जीव त० तैसे नेवारकी जा: यात . स्तरित कुमार ॥१४॥ पु० काया भं० भगवन् कं०. कांक्षा मोहीय क. कर्म ये वदे हैं. हां वे वेदे क० कैसे भ० भगवन् पु० पृथ्वीकाया के० कांक्षा मोहनीय कर्म चे० वदे गो० गौतम ते० उन जी जीवों को णो नहीं हैं ए. ऐसा णिजेग्इ एवं जाव परक्कमेइबा ॥ १३ ॥ णेरइयाणं भंते ! कंखा मोहाण कम्मं वेदं. ति ? जहा ओहिया जीवा तहा जेरइया जांब थाणिय कमारा ॥ १४ ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! कंखा मोहाणिज कम्गं वेदंति ! हंता वेदति । कहणं भंते ! पुढवि काइया कंखा मोहणिजं कामं वेदंति ? गोयमा ! तेसिणं जीवाणं णो एवं तत्काइवा, भावार्थ | शेष पुरुषात्कार पगक्रम तक का सब अधिकार पहिले जैते कहना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्या नार की कांक्षा मोहनीय कर्म वेदता है ? अहो गोतम ! जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही नारकी का जानना. और वैसे ही स्तनित कुमार तक का जानना ॥ १४ ॥ पंचेन्द्रिय को शकितादि दोष होवे इस से १० कांक्षा मोहनीय कर्मकी वेदनादि होवे परंतु एकेन्द्रियादिकको शंकितादि दोष नहीं होने से कांक्षा मोहनीय की वेदना होवे नहीं इस लिये एकेन्द्रिय को विशेषता से कांक्षा मोहनीय का स्वरूप बताते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वी काय कांक्षा मोहनीय क वे ? हां गोता! पृथ्वी कायिक जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वेदे. (भगवती) सूत्र ११३० विवाह पण्पत्ति 20040280 पहिला शतकका तीसरा उद्देशशा 80-8248 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १०२ अमोलक तक स० संज्ञा प० प्रज्ञामा मनवल वचन अ० अम्हे कंकांक्षा मोहनीय क० कर्म वे. बेदते हैं वे जानते। है पु. फीर तं. वहही स० सत्य नी. शंकारहित जं. जो जि० जिनने प० प्ररूपा से० शेष तं. इतस जा० यावतू पु० पुरुषाकार पाका ए. ऐसे जा. जावत् च चतुरेन्द्रिय ॥ १५ ॥ पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच जा. थावत् ० निक जजेते ओ० औधिक जीव ॥ १६ ॥ भं० भगवन् स. श्रमण नि०१ सण्णाइवा, पण्णाइवा, मणेइवा, वइइवा, अम्हेणं कंखा मोहणिजं कम्मं वेदेमो. वेदेति । पुणते सेणूणभंते ! तमेवसच्चं णीसंकंजंजिणेहिं पवेइयं सेसं तंचेव जाव परिसक्कार परक्कमेइवा एवं जाव चउगिंदियाणं ॥ १५ ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया जाव। वेमाणिया जहा ओहिया जीवा ॥ १६ ॥ अस्थिणं भंते ! समणा निग्गंथा कंखा अहो भगमन् ! वे कैसे कांक्षा मोहनीय कर्म वेदे ? अहो गौतम ! उन जीवोंको तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन, वचन व मैं कांक्षां मोहनीय कर्म वेदता हूं ऐसा ज्ञान नहीं हैं तथापि वे कांक्षा मोहनीय कर्म वंदे. इस कारन से ऐसे स्थान में माधु को ऐसा कहना कि जो जिन भगवानने प्ररूपा है यहही निःशंक सत्य है. शेष पुरुषात्कार पराक्रम तकका सब अधिकार पूर्ववत् जानना और ऐसे ही अप, तेउ, वागु, वनस्पति, इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तक कहना ॥ १५ ॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का औधिक (समुच्चय) जीव-जैसे कहना ॥ १६ ॥ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* १ 'अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री भावार्थ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सत्र १०३ भावार्थ 32 पंचयांग विवाह पण्यत्ति ( भगवती) निग्रंथ कं. कांक्षा मोहनीय कर्म वे • वेदे हैं. हां क• कैसे भ० भगवन् स० श्रमण नि० निग्रंथ कं० । कांक्षा मोहनीय कर्म वे वेदे गो० गौतम ते० उस का० कारन से ना० ज्ञानांतरसे दं. दर्शनांतर से च०१० मोहणिज्जं कंमं वेदति ? हंता अत्थि । कहणं भंते ? समणा निग्गंथा कंखामोहणि जं कम वेदति ? गोतमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं, नाणंतरहिं, दसणंतरे चरित्ततरेहिं । जीवोंको मिथ्यात्व मोहनीय कर्म वेदना कहा परंतु वह निग्रंथ को नहीं होता है क्यों कि जिनागम जाननेवाले को निर्मल बुद्धि रहती है, इस लिये निग्रंथ संबंधी पृच्छा करते हैं. अहो भगवन ! बाह्या- अ भ्यंतर परिग्रह रहित श्रमण तपस्वी कांक्षा मोहनीय कर्म वेदते हैं ? हां गौतम ! के वेदते हैं. अहो भग-2 वन् ! वे श्रमण निग्रंथ किस प्रकार से कांक्षा मोहनीय कर्म वेदते हैं ? अहो गौतम ! इस का कारण मैं 2 ता हूं. १ ज्ञानांतर से • एक ज्ञान से दूसरे ज्ञान में शंका उत्पन्न होवे जैसे अवधि ज्ञानवाला परमाणु वगैरह सकल रूपी द्रव्य अवधि ज्ञान से जाने और मनःपर्यव ज्ञानी अढाइद्वीप में रहे हुवे संझी के मन का भाव जाने. इप्स में मन द्रव्य रूपी होने से अवधि ज्ञानी अवधि ज्ञान से मन का भाव जाने जब मनः पर्यव) 60 ज्ञान में क्या विशेषता ? ऐसी शंका करे. २ दर्शनांतर से अर्थात् एक दर्शन से दूसरे दर्शन में शंकाई उत्पन्न होवे जैसे चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शन को भिन्न क्यों कहा ? अथवा सम्यक् दर्शन में शंका उत्पन्न होवे ३ चारित्रांतरसे - अर्थात् एक चारित्र से दूसरे चारित्र में शंका उत्पन्न होवे जैसे सामायिक चारित्र पहिला शतक का तीसरा उद्देशा 8 4980 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी, चारित्रांतरसे लिंक लिंगांतरसे प० प्रवचनांतरसे पा० प्रावचनांतरसे क० कल्पांतरसे म. मागीतरसे म० } लिंगतरेहि, पवयणंतरेहिं पाबयणंतरेहिं कप्पंतरेहिं, मग्गतरेहि, मयंतरेहि, भगतरेहि, में सब सावद्यका प्रत्याख्यान है और छेदोपस्थापनीय में पंचमहावत का आरोपण किया है. ४ लिंगांतर १०४ से- लिंग जो साधु का वेष उस में शंका उत्पन्न होवे जैसे बावीस तीर्थकर के साधु जैसे शुद्ध वस्त्र मीले वैसा ग्रहण करे और प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के साधु प्रमाण युक्त वस्त्र धारन करे. इस तरह जो भिन्नता हे वह क्यों होवे ऐसी शंका होवे ५ प्रवचनान्तर से - प्रवचन सो आगम इस में भिन्नता होने से शंका उत्पन्न होवे. जैसे बावीस तीर्थकर के साधुओं को चार महाव्रत और प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के माधुओं को पांच महाव्रत ऐमी भिन्नता ६ प्रावचनान्तर से - अर्थात् गीतार्थ के वचन में भिन्नता होने से- शंका करे । जैसे एक आचार्य थोडी क्रिया करते हैं. और दूसरे विशेष क्रिया करत होवे. ७ कल्पान्तर से - अर्थात् कल्प २ में भिन्नता देखकर शंका होवे जैते जिन कल्पी ननत्तपना वगैरा अतिकष्ट न करते हैं और स्थविर कल्पी वस्त्रादि सहित प्रवर्ते. ये दोनों किस प्रकार से कर्मक्षय करे वैसी शमा उत्पन्न होवे ८ मा-34 र्गान्तर से - अर्थात पूर्वापर समाचारी में भिन्नता होने से शंका उत्पन्न होवे १ मतांतर से - आचार्य के आभप्राय में भिन्नता होने मे शंका उत्पन्न होवे १० भंगान्तरले . अर्थात दीभंगी चौभंगी की विचारनाई उस में भिन्नता की समझ नहीं हाने से शंका उत्पन्न होवे ११ नयांतर से द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिक नय में । नित्यानिस वस्तु का स्वरूप जानकर शंका उत्पन होवे १२ नियमान्तर से - जब यावज्जीव पर्यंत सामा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रमादजी* Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ शब्दार्थ मतांतरसे भं० भंगोके अंतरंसे णः नयांतर से णि नियमांतरसे या प्रमाणांतरसे सं० शंकित कं. वांच्छा वाला वि० संदेह वाला कं० कांक्षा मोहीय कर्मवे. वेदे ॥ १७॥ भं. भगवन तं० वहही स० सत्य नी०१४ शंकाराहित जा. यावत् पु० पुरुषात्कार पराकर .. वह ए० एसेमं. भावन् ॥१॥३॥ * . णयंतरहिं. णियमंतरेहिं. पमाणंतरेहिं. संकिया कंखिया, वितिगिन्छिया. भेदसमावण्णा. कलुससमावण्णा, एवं खलु समणा निग्गंथा कंखा मोहणिजे कम्मं वेदंति ॥ १७ ॥ सेणूणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइय? हंता गोयमा तमेव सच्चं नीसंकं एवं जाव पुरिसक्कार परक्कमइवा ॥ सेवंभंते मते ! त्ति पढमसए तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ ३ ॥ x . + यिकादिक का प्रत्याख्यान है तो पहरसी वगैरह की क्या विशेषता है ऐसी शंका करे १३ प्रमाणान्तर सेप्रयक्ष प्रमाण व आगम प्रमाणमें भेद क्यों ? आगम प्रयाण मे मूर्य ८०० योजन ऊंचे उदित होता है और चक्ष दृष्टि से जमीन में से नीकलता हुवा दीखता है इम में शंका उत्पन्न होवे. इस तरह तेरह प्रकार की शंका उत्पन्न होवे. मिथ्या दर्शन की वांच्छा होवे, धर्म करणी में फटका मंदेड लावे, सस अल-ई इत्यका भेद करे, मतिर ह.ने से कानुयलामाले बने, इसी कारण से श्रमण निग्रंथ कांक्षा मोहनीय कर्म ईवेदत हैं॥ १७ ॥ अहो भावन ! जा जिन भगवान ने प्ररूपा है वह सस है ? हां गौतम ! जो जिनई on भगवानने प्ररूपा है वहरी नि:शंक सस है. एसे ही पुरुषात्कार पराक्रमतक कहना. श्री गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो भगवन ! जैसे आप प्ररूपते हैं वह सब सत्य है. यह पहिला शवकका तीसरा उद्देशा. 40988 पंचपाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8. पहिला शतकका तीसरा उ दशा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | क० कितनी मं० भगवन् क० कर्म प्रकृति प० मरूपी गो० गौतम अ० आठ कर्म प्रकृति १० मरूपी क० कर्म प्रकृतिका प० पहिला उद्देशा ने० जानना जा० यावत् अ० अनुभाग क० प्रकृति क० कैसे बं० बांधे क० कितने ठा० स्थानमें बं० वांधे प० प्रकृति क० कितनी वे अनुभाग क० कितना प्रकारका क० किसका ॥ १ ॥ जी० जीव मं० भगवन् मो० सूत्र भावार्थ ८३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी कितनी क० कर्म वेदे १० प्रकृति अ० मोहनीय कः कीये कतिणं भंते ! कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ, । कम्म पयडीए पढमोउदेसो नेयव्वो || जाव अणु भागो सम्मत्तो ॥ गाहा -कति पगडी कहिं बंधइ । कतिहि ठाणेहिं बंधए पगडी || कइ वेदेइ च पगडी । अणुभागो कतिविहो कस्स ॥ १ ॥ १ ॥ जीवणं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिष्णे * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * गत उद्देशे में कर्म की वेदना उदीरणा आदिका कथन किया है. अब इस उद्देशे में कर्म का स्वरूप } बताते हैं. अहो भगवन् ! कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! कर्म की मूल आठ प्रकृति कही. इन का विस्तार पूर्वक कथन पन्नाणा सूत्र के तेत्तीमत्रा पद के प्रथम उद्देशे में कहा है. उस में अनुभाग तक का जानना. उस का संक्षेप में अर्थ बतानेवाली संग्रह गाथा कहते हैं. १ कितनी कर्म प्रकृतियों २ प्रकृति कैसे बांधे ३ कितने स्थानक में प्रकृति बांचे, ४ कितनी प्रकृति वेदे और ५ कितने प्रकार का अनुभाग होवे ऐसे पांच द्वार कहे हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! मिध्यात्व मोहनीय से कराये हुवे १०६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 803 पंचमंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 42 कि० कर्म उ० उदय से के उअंगीकारकरे हं०हां गो० गौतम उ० अंगीकारकरे सेव्वह भगवन किं० क्या वी० १ वीर्यपने उ० अंगीकार करे अ० अवीर्यपने उ० अंगीकार करे गो० गौतम वी वीर्यपते उ० अंगीकार करे णों नहीं अ० अवीर्यपने उ० अंगीकार करे ज० यदि बी० वीर्यपते उ० अंगीकार करे कि क्या बा० (बॉल वीर्यपने उ० अंगीकार करे पं० पंडितवीर्य पजे उ० अंगीकार करे वा० बाल पंडित वीर्यपने उ० णं उबट्टाएजा ? हंता गोयमा ! उबट्टाएजा । से भंते! किं वीरियत्ताए उबट्टाएजा, अवीरित्ताए उबट्टाएजा ? गोयमा ! वीरयत्ताए उबट्टाएजा णो अवरियताए उट्ठाएजा ॥ जइ वीरियत्ताए उबट्टाएजा, किं बाल वीरियत्ताए उबट्टा एज्जा, पंडित वीरित्ताए उवट्टाएजा, बालपंडित वोरियत्ताए उबट्टाएजा ? गोयमा ! बाल वीकर्मों के उदय से क्या जीव परलोक क्रिया अंगीकार करे अर्थात् अन्य दर्शनी बने ? हां गौतम ! अन्य (दर्शनी बने. अहो भगवन् ! जीव वीर्य सहित अन्य दर्शन अंगीकार करे अथवा वीर्य रहित अंगीकार करे ? अहो गौतम ! जीव वीर्य से परलोग किया करकरे परंतु वीर्य रहितपने अंगीकार करे नहीं. अहो भगवन् ! यदि वीर्य से परलोक क्रिया अंगीकारकरे तो क्या बल वीर्य से, पंडित वीर्य से अथवा बालपंडित वीर्यं से परलोक क्रिया अंगीकार करे ? अहो गौतम ! मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टिपना से जीव को जो बाल वीर्य स्थिर रहता है उस से ही अन्य दर्शन अंगीकार करता है, पंडित पहिला शतक का चौथा उद्देशा 80 १०७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1 अंगाकारकरे गो गौतम वायालवीय पने उ अंगीकार करे णोनी पंपंडित वीयपन नोनहीं वा वाल- * पंडिन वीर्यको ॥२॥ जी. जी. भंभापा मो मोडनीय कर कीये क० कर्म के 7 उदयसे अ० अतिक्रमे १० हां अ. अतिक्रमे से वहभं भगा जा. यावत् वा. वाल पंडित बीय पने अ० अतिक्रमे बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाषेनी है Annnnnvironmentarnar रियत्ताए उबट्टाएजा णो पंडिय बीरियताए उबट्टाएजा, णो बाल पंडिय वरियत्ताए उवदाएजा ॥ २ ॥ जीवणं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिन्नणं अवक.मेजा? हंता अवकमेजा. से भंते ! जाय बालरंडिय वीरियत्ताए अवकमज्जा ? गोयमा ! बाल वीरियत्ताए अवकमेजा, नो पंडिय वीस्थित्ताए अवकामेजा. सिय बाल पंडिय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी बालापमादजी * भावार्य र वार्य व बाल पंडित वीर्य से अंगीकार नहीं करना है ॥ २ ॥ अव अपक्रयण सो पीछा पडना उस संबंध में प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन : जीव मोहीय कर्म के उत्य से अपकरता है, उपर के गुगस्थान पर है गया हवा पीछा पडता है ? हां गौतमः जीव मोरनीय कर्म के उदय मे उत्तम गुगस्थान से हीन गुगस्थान को जाता है. हो भगार! । वीर्य महिल जाता है या वीर्य सहित जाता है ? अहो गत! वीर्य में माहित जाता है. यदि वीर्य महित जाता है तो क्या बाल वीर्य मे. पं.डत वीर्य से या पाठ पंडित वीर्य से जाता है. ? अहो गौतम : बाल वीर्य मे अपक्रमे परंतु पंडित वीर्य मे अपक्रमे नहीं कदाचित बाल पंडित Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ R सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र सि. कदाचित् बाबालपंडित वीर्यपने अ० अतिक्रमे ॥ ३॥ ज. जैसे उ-उदयमें दो दोआलापक त. तैले उ० उपशांत में दो दोआलापक भा० का विश 3 अंगीकार करे पं० पंडित शर्यपने a: अतिक्रमे बाल बालपंडित वीर्यपने अ० अनिकषे ॥ ४ ॥ से वह भ. भगवन् किं. क्या आ० आ. वीरियत्ताए अवकमेजा, ॥ ३ ॥ जहा उदिनेणं दो आलावगा, तहा उबसतेणवि है दो आलावगा भाणियन्वा, णवरं उबहाएज्जा, पंडियबीरियत्ताए अवकामेजा, बाल है पंडियधीरियताए अक्कमेजा ॥४॥से भंते ! किं आयाए अवकामइ, अणायाए वीर्य से अपक्रमे अर्थात् बाल पंडित वीर्य से देशविरति (श्रावक) होता है. पाडान्तर ऐसा भी है। कि मात्र बालवीर्यपने मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदयो अपक्रने परंतु अन्य दो कीर्य सहित अपक्रने नहीं ॥ ३॥ जैसे उदय का दो आलाप का ही उपशान्तका दो आलापक जानना. इन में 7. विशेष इतना कि पहिला आलापक में क्रिया करते सर्वथा मोहनीय उपशान्त रहे इसलिये उपशान्त मोह अवस्था में पंडित वीर्य का भाव है और अन्य दो का अभाव है. दूसरा आलापक मे संयतपना से मोहनीय कर्म उपशमा और पाल पंडित वीर्य से पीछा पडकर देश विरति हुवा उनको मोहनीय कर्म के उपशम का सद्भाव है परंतु मिथ्यात्वी नहीं हुवा है क्यों कि मोह के उदय से ही मिथ्यात्वी होवे परंतु यहां पर मोह मिथ्यात्व के उपशम का अधिकार है ॥ ४ ॥ अब सामान्य से अपक्रम का अधिकार चलता है। 20880208 पहिला शतक का चौथा उद्दशा PAR Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी शब्दार्थ +त्मा से अ० अतिक्रमे ब० परात्मा से अतिक्रमे गो० गौतम आ० आत्मासे अ० अतिक्रमे णो० नहीं अ० परात्मासे अ० अविक्रमे मो० मोहनीय क. कर्म वे० वेदता से वह क० कैसे ए• यह भ० भगवन) = ए. ऐसे गो• गौतम पु० पहिले से वह ए. यह एक ऐसा रो० रूचे इ० पीछे से वह एयह ए. ऐसा को नहीं रो• चे ए. ऐसे ख. निश्चय ए. यह ॥५॥ से वह णू निश्चय भ• भगवन ने नार अबक्कमइ ? गोयमा ! आयाए अवक्कमइ, णो अणायाए अवक्कमइ । मोहणिजं कम्म वेदेमाणे । सेकहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! पुलिंब से एयं एवं रोयइ, इयाणिं से एयं [ एवं नो रोयइ, एवं खलु एयं एवं ॥ ५ ॥ सेणणं भंते ! नेरइयरसवा, 'तिरिक्ख जो- ail भाव अहो भगवनू ! जीव अपनी आत्मासे अपक्रमता है या अन्य की आत्मा से अपक्रमता है. अहो गौतम ! जीव मिथ्यात्व मोहनीय चारित्र मोहनीय वेदता हवा अपनी आत्मा से अपक्रमे परंतु अन्यकी आत्मा से अपक्रमे नहीं. अहो भगवन् ! मोहनीय कर्म वेदनेनाले को पहिले पंडितपने की रुचि थी और फीर : मिथ्यात्व की रुचि हुई वह कैसे ? अहो गौतम ! अपक्रमण से पहिले अपक्रमणकारी जीव इस जीवादि पदार्थ अथवा आहिंसादि वस्तु को जैमे जिनेश्वर भगवान्ने कहीं वैसे ही श्रद्धता था; अब मोहनीय कर्म के | उदय से जीवादि पदार्थ व अहिंसादिक वस्तु को जैसे तीर्थकरने कहीं वैसे श्रद्धे नहीं इसलिये निश्चय में उक्त प्रकार से मोहनीय कम वेदते हुवे जीव स्वात्मा से अपक्रम ॥५॥ मोहनीय कर्म के आधिकार से प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* अनुवादक-बाल 4 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ की ति तियच म० मनुष्य दे. देव जे. जो का किये पा• पापकर्म ण नहीं हैं त. उसका अ० विना भोगवा मो० मोक्ष . हां गो० गौतम ने नारकी ति० तिये व म. मनुष्य दे० देव को जा. यावतू } of २० मो० मोक्ष से० वह के० कैसे भ० भगवन ए० ऐसे बु० कहाजाता है ने० नारकी जा० यावतू मो० णियस्सवा, मणुस्सस्सवा, देवस्सवा जे कडे पावे कम्मे णत्थि तस्स अवेइयत्ता मो. खो ? हंता गोयमा ! णेरइयस्सवा, तिरिक्ख मणुस्स देवस्सवा जाव मोक्खो । सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, नेरइयस्सवा जाव मोक्खो ? एवं खलुमए गोयमा ! सामान्य कर्म की चिन्तवना कहते हैं अहो भगवन् ! नरक, तिर्यंच, मनुष्य, व देवताने अशुभाचरण से जो पापकर्म किये हैं उन को वेदे विना क्या वे मुक्त नहीं हो सकते हैं ? हां गौतम ! नारकी, तिर्यंच, 3 मनुष्य व देवताने जो पापकर्म किये हैं उन को विना वेदे वे मुक्त नहीं हो सकते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से मारकी तियेच, मनुष्य व देवता किये हुवे कर्मों से विना वेदे नहीं छूट सकते हैं ? अहो गौतम ! - कर्म के दो भेद मैंने कहे हैं. प्रदेश कर्म व अनुभाग कर्म. उस में से जो प्रदेश कर्म हैं वे निश्चय ही जैसे किये वैसे ही वेदते हैं, और अनुभाग कर्म को कितनेक वेदते हैं, और कितनेक नहीं वेदते हैं. जैसे मि-350 थ्यात्र क्षयोपशम काल में प्रदेश कर्म वेदे परंतु अनुभाग कर्म वेदे नहीं. कर्म वेदने के प्रकार अरिहंत 1 देवने ही जाने हैं, अरिहंसने उपदेशे हैं, उनोंने ही उन का चिन्तवन किया है, व द्रव्य क्षेत्र काल भा. 488- पहिला शतकका चौथा उद्देशा 48888 भाव 408-48 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भवगती ) सूत्र Ammam Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' शब्दार्थ 42 अनुवादक-लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मोक्ष ए. ऐसे म० मैंने दु० दोपकारे क० कर्म ५० प्ररूपेप०प्रदेश कर्म अ० अनुभाग कर्म त. तहां जं. जो प० प्रदेश कर्म तं० उस को गि. निश्चय वे० वेदे जं. जो अ. अनुपाग कर्म तं. उस को अ० कित. नेक वे० वेदे अ० कितनेक नो नहीं वे. वेदे णा० जाना अ• अरिहंतने सु० सूना अ• अरिहंतने वि० विशेषजाना अ० अरिहंतने इ० इस कर्म को अ० यह जीव उ० उदय आये वे० वेदना वे. वेदेगा अ० जैसे कर्म अ० बांधे हैं ज. जैसे तं• उनको भ० भगान्तने दि० देखे त० तैते ५० परिणमेंगे ते. इस है दुविहे कंम्मे पण्णत्त तंजहा, पएसकम्मेय, अणुभागकम्मेय । तत्थणं जं तं पएसकम्मं तं , नियमा वेदेइ, तत्थगंजं तं अगुभाग में तं अस्याइयं देइ अत्थे गइयं नो वेदेइ णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमयं अरहया, इमं कम्मं अयंजीवे अभोवगमियाए । वेयणाए वेयइस्सइ.इमंकम्मअयं जीवे उवक्कमियाए वेयणाए वेयइस्सइ, अहाकम्मंअहाणि । वादिक अनेक प्रकार से भिन्न प्रकार के विभाग करके जाते हैं, अरिहंत को ' यह कर्म है, यह जीव, है' ऐसा प्रसज्ञ है. प्रवर्ध्या काल से लेकर ब्रह्मचर्य भूमिशयन, केशलोचनादिक का अंगीकार से निवर्तना सो अभ्युपगमिकी वेदना उस को यह जीव वेदेगा. स्वयमेव उदय में आये हुवे अथवा उदीरणा से उदय में लाये हुवे कर्मों को वेदना सो औपक्रमिकी वेदना, उस को या जीव वेदेगा. जैसे कर्म बांधे हैं, कर्म के देश कालादि है और जैसे २ भगवन्तने कर्म देखे वैसे २ परिणमेंगे. इसलिये अहो । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालापसादजी * भावार्थ G Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा सूत्र भावार्थ लिये गो० गौतम ने० नारकी जा० यात मो० मोक्ष ॥ ६ ॥ एवं यह मं० भगवन् पो० पुद्गल ती० अ तीत काल में अः अनंत सा० शाश्वत स० काल भु० हुवा इ० ऐसे व० कहना ६० हां गो० गौतम ए० यह पो० पुद्गल ती० अतीत काल में अ० अनंत सा० शाश्वत स० काल भु० हुवा इ० ऐसा व० कहना ए० वह मं० भगवन् पो० पुद्गल प० वर्तमान काल में सा० शाश्वत स० काल भ० है इ० ऐसा व कहना गरणं, जहा जहा तं भगव्या दिहूं तहा तहा तंत्रिपरिणमिस्सतीति. सेतेणट्टेणं गोयमा ! नेरइयस्सवा जाब मोक्खा ॥ ६ ॥ एसणं भंते ! पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वंसिया ? हंता गोयमा ! एसणं पोग्गले तीतमर्णतं सासयं समयं भुवीति वतव्वं सिया । एसणं भंते ! पोग्गले पडुप्पण्णसासयं समयं भवतीति वत्तनं सिया ? हंता गोयमा ! तंत्र उच्चारयव्वं । एसणं भंते ! पोग्गले ईनारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देवता किये हुये कर्मों से मुक्त नहीं हो सकते हैं ॥ ६ ॥ उपर कर्म की चिन्त वना की वह कर्म पुल रूप हैं इस लिये परमाणु आदि पुल की चिन्तवना कहते हैं. अथवा परिणाम अधिकार से पुद्गल परिणाम कहते हैं. अहो भगवन् ! अतीत काल में सब पुद्गल अनंत, शाश्वत थे ऐसा कहना ? हां गौतम : परमाणु पुगल अतीत काल में सदा थे. ऐसा कदापि नहीं हुवा कि अतीत काल में शुन्य समय [काल ] हुवा. अहो भगवन् ! वर्तमान काल में सब पुगल क्या शाश्वत है ऐसा ' १० पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 403 4 पहिला शतक का चौथा उद्देशा ११३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भावार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी है. हां गो० गौतम त० तैसे 10 कहना १० यह भं भगवन् पो० पुगल अ अनागत में अ. अनंत मा० शाश्वत स. काल भ० होगा इ. ऐमा व० कहना हं० हां गो० गौतम तं० तैसे ही उ० कहना ए. ऐसे खं० स्कन्ध में ति तीन आ० आलापक ॥७॥ ए. एसे जी जीव में ति. तीन आ० आलापक भा० कहना ॥ ८॥छ. छद्म भं. भगवन् म. मनुष्य अ० अतीत काल में अ. अंन्त मा. शाश्वत अणागयमणतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! तंचेव उच्चारयव्वं ॥ एवं खंधेणवितिण्णि आलावगा ॥ ७ ॥ एवं जीवेगारी तिाण आलागा भाणियव्वा ॥ ८ ॥ छउमत्थेणं भंते ! मणसे ती मर्गत मंजमेणं, F कहना ? हां गौतम ! वर्तमान काल में सब पुद्गल शाश्वत है. अा भान् : अनागत काल में सब पुद्गल अनंतपना से शाश्वत रहेंगे? हां गौतम ! मन पुद्गल गाश्चत रहेंगे. (मण पदकका योग मीलने से स्कंध होता है उन पर भी तीन आलापक जानन ॥ ५॥ पदल का प्रतिपक्ष जीव है इस लिये जीव का प्रश्न करते हैं. अहो भगःन् ! अतीत काल में जीव था? अहो गौतम : जैम तीन काल के तीन आलापक पुद्र के कह बैनी भन, भविष्य व वर्तमान काल की अपेक्षा मे जीव के भी तीन आ-, लापक जानना ॥ ८ ॥ अब जीव के अधिकार में उद्देशा के अंत तक यथोत्तर प्रधान जीव की वक्तव्यलता कहते हैं. अहो भारन ! छद्मम्थ मनुष्य अतीत, अनंत व शाश्वत काल में संपूर्ण शुद्ध मंयम मे, १ १ इसमें केवळ ज्ञान व अवधिज्ञान ऐसे दानोंज्ञान रहितको लना क्योंकि अवधिज्ञानका अधिकार आगेआंवगा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4स काल के०संपूर्ण संयम से के०संपूर्ण संवर से के०संपूर्ण ब्रह्मचर्य से के०संपूर्ण प्रवचन माता से सि. सिझें । दु० बुझें जा० यावत् स० सर्व दु० दुःख का अं० अंतकिया गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स०समर्थ से वह के• कैसे भं० भगवन् ए. ऐसे वु० कहा जाता है जा. यावत् अं० अंत का किया गो०१४ गौतम जे० जो के० कोइ अं० अंत करने वाले अ० चरम शरीरी स० सर्व दु. दुःखों का अं० अंत क०१36 किया क० करते हैं क० करेंगे म० सब ते वे उ०. उत्पन्न ना० ज्ञान दर्शन वाले अ० अरिहंत जि० 2 जिन के० केवली भ० होकर त० पीछे सि० सिझते हैं बु० बुझते हैं मु० मुक्त होते हैं प० निर्वाणपाते केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलीहिं पवयणमायाहिं, सि. झिसु, बुझिन जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिंसु ? गोयमा ! नो इण? समटे । है सेकेण?णं भंते ! एवंवुच्चइ, तंचेव जाव अंतं करिसु ? गोयमा ! जेकेइ अंतकरावा अंतिम सरीरियावा, सव्व दुक्खाणमंतं करिसुवा, करािंतिवा, करिस्सतिवा, सव्वे भावार्थ केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्य से व केवल आठ प्रवचन माता से सिझें, बुझें. यावत् सब दुःखों का अंत किया ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से छमस्थ मनुष्य सिझें, बुझें नहीं यावत् सब दुःखों का अंत किया नहीं ? अहो गोतम ! संसार के अंत करनेवाले चरम शरीरी ने सब दुःखों का अंत किया, करते हैं, व करेंगे. वे सब केवलज्ञान, केवलदर्शन के 4848 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र ११ पहिला शतक का चौथा उद्देशा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी हे जा. यावत् स. सब दु. दुःखों का अं० अंत क० किया क करते हैं क करेंगे से वह ते. इम इलिय गो० गोतम जा० यावत् समबद० दुःखों का अं० अंतकिया प.वर्तमान में ए. ऐसे न० विशेष सिक सिझते हैं भा० कहना अ० अनागत में ए. ऐन विशेष सि. पिझेंगे भा० कहना ॥१॥ ज० जैसे छ० छद्मस्थ त तसे अ० अवधि ततैसे प. परमावधि ति० तीन २ आ. आलापक भा० कहना ॥ १०॥ के. केवला भं० भगवन् म. मनुष्य ती. अतीत काल में अ० अनंत सा० शाश्वत स० ते उप्पन्न नाणदंसणधरा अरहा जिणे केवली भवित्ता तओ पच्छा सिझंति, बझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिसुवा करितिवा करिस्संलिबा से तेणटेणं गोयमा ! जाव सब्ब दुक्खाणमतं करिंसु । पडुपन्नेवि एवं चेव, नवरं सिझंति भाणियव्वं. अणागएवि एवंचेव, नवरं सिज्झिस्संति भाणियव्वं ॥९॥ जहा छउमत्थो तहा आहोहिओवि, तहा परमोहिओवि तिन्नितिन्नि आलावगा भाणियव्या ॥ १० ॥ केवलीणं भंते ! मणूसे तीतमणतं सासयं समयं जाव अतं करेंसु ? हंता धारक जिन हुवे पीछे लिझते हैं, बुझते हैं व निर्माण को प्राप्त होते हैं यावत सब दुःखों का अंत किया, करते हैं व करेंगे. इसलिये अहो गौतम ! सब दुःखों का अंत किया वहां वर्तमान काल में मिझते हैं व भविष्य काल में निझो कहना शेष सब पहिले जैसे कहना ॥१॥ जो छमस्थ का कहा *वैने ही अवधि व परम अवधिज्ञानी का जानना ॥ १० ॥ अब केवल ज्ञानी की पृच्छा करते हैं. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहार भावार्थ ज्वालाप्रप्तादजी* Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | * {काल जा० यावत् अं०- अंत किया है० हां गो० गौतम जा० यावत् अं० अंतकिया ए० ये ति०तीन आ आलापक भा० कहना छ० छन्नस्थ को ज० जैसे ण० विशेष सि० सिझें सि० सिझते हैं सि सिझेंगे अतीत काल में अ० अनंत मा० शाश्वत स० काल १० वर्तमान सा० अनंत सा० शाश्वत स समय जे० जो के०कोई अं०अंत करने वाले गोयमा सिज्झिसु जाव अंतंकरिंसु एते तिन्नि आलावगा भाणियव्वा छउमत्थस्स जहा नवरं सिज्झंसु सिज्झंति,सिज्झिरसंति ॥ ११ ॥ सेणू गं भंते! तीतमनंतं सासयं समयं पडुप्पन्नंवा सासयसमयं अणागय मणतंत्रा सासयं समयं । जे केइ अंत करावा अंतिम सरीरियावा सव्व दुक्खाण ॥ ११ ॥ से० वह मं० भगवन् ती शाश्वत स० समय अ० अनागत अ० सूत्र भावार्थ 4343 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भगवन् ! केवली अतीत शाश्वत काल में सिझे, बुझे यावत् सब दुखों का अंत किया ? हां गौतम ! सिझे यावत् अंत किया. ऐते अतीत, अनागत व वर्तमान के तीन २ आलापक जानना जैसे छास्थ का कहा वैसे ही केवली का जानना मात्र विशेषता यह है कि अतीत काल में सिझें, वर्तमान में सिझते हैं। और आगामिक में सिझें ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! अतीत काल में अनंत शाश्वत समय में वर्तमान का भी शाश्वत समय में, अनागत काल के अनंत शाश्वत समय में जो कोई अंत करनेवाले अन्तिम शरीरीने सब दुःखों का अंत किया करते हैं व करेंगे वे क्या सब उत्पन्न केवल ज्ञान, केवल दर्शन के धारक अरिहंत केवली हुने पीछे सिझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं ? हां गौतम ! अतीत पहिला शतक का चौथा उद्देशा १.१७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अं० चरिम शरीरी स० सर्व दुःख का अं० अंतकिया क० करता है कर करेगा स० अर्व वे० वे ८० ( उत्पन्न ना० ज्ञान दं० दर्शन वाले अ० अरिहंत जिंο जिन के० केवली भं० होकर त० पीछे सि० सिझते जा० यावत् अं० अंत क० करेंगे इं० हां गो० गौतम ती० अतीत काल में अ अनंत सा शाश्वत {जा० यावत् अं० अंत करेंगे ॥ १२ ॥ से० वह भं० भगवन् उ० उत्पन्न ना० ज्ञान दर्शन वाले अ० अरिहंत जि० जिन के० केवली अ० चाहिए उतना व० कहना ० हां गो० गौतम उ० उत्पन्न दंसण धरा अरहा मंतं करिंसुवा, करिंतित्रा, करिस्संतिवा ॥ सव्वेते उप्पण्ण नाण जिणे केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिज्झंति जाव अंतं करिस्सतिवा ? हृता गोयमा ! तीत मणंतं सामयं जाव अंतंकरिस्संतिवा ॥ १२ ॥ सेणूणं भंते ! उप्पण्ण नाण सण धरे अरहा जिणे केवली अलमत्युत्ति वत्तव्यं सिया ? हंता गोयमा ! उप्पण्ण काल के अनंत शाश्वत समय में सिझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! ( उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अरिहंत जिन केवली ही संपूर्ण ज्ञानवाले हुवे! उन से अधिक ज्ञान प्राप्त करने को अन्य कोई भी समर्थ नहीं है ? हां गोतम ! उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक अरिहंत जिन केवली ही संपूर्ण ज्ञानवाले हैं अन्य कोई इस से अधिक ज्ञानी नहीं है. अहो भगवन् ! आपने कहा * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ११८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थना . ज्ञान दर्शन वाले अ० अरिहंत जि० जिन के० केवली अ० चाहिए उतना व० कहना से ऐसे ही 9 भं० भगवन्.॥१॥४॥ क० कितनी भं० भगवन् पु० पृथ्वी ५० प्ररूपी मो० गौतम स० सात पु० पृथ्वी ५० प्ररूपी र० रत्न प्रभा जा० यावत् त० तमतम इ० इस भं• भगवन् र० रत्नप्रभा पृथ्वी में क० कितने नि० नरकावास नाण दंसण धरे अरहा जिणे केवली अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया सेवं भंते भंतेत्ति पढमसए चउत्थोडेसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ ४ ॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ! गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहार यणप्पभा जाव तमतमा । इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कइ निरयावास वह वैसे ही है अन्यथा नहीं है. यह पहिला शतकका चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१॥४॥ x है पहिले उद्देशे के अंत में अरहंतादिक कहे वे पृथ्वी पर हुवे इस लिये इस उद्देशे में पृथ्वी संबंधी प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! कितनी पृथ्वी कहीं ? अहो गौतम ! पृथ्वी सात कहीं उन के नाम १ रत्नप्रभा इस में रत्नों की प्रभा २ शर्कर प्रभा इस में कंकरों की प्रभा ३ बालु प्रभा जिस में बालु की कान्ति ४ पंक प्रभा जिस में अशुचि रूप कर्दम की कान्ति ५ धूम प्रभा जिस में धूम्र सरिखी कान्ति १६ अंधकार की प्रभा सो तम प्रभा और ७ महा अंधकार की प्रभा. सो समवन प्रभा. अहो भगवन् ! 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र manawrwwwwwwwwwww 43 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सशत सहस्र गो० गौतम ती. तीस नरकाबास सः शत सहस्रति तीम प. पञ्चीस प.पंदरह ददश स० शत सहस्र ति० तीन ए. एक पं० पांचकर पं० पांच अ. अनतर न. नरक । भं० भगान् अ. असुर कुमार के आ. मानसशासचा० चौ अमुर कुमार के च० चौराती हो. है ना. नागकुमार के बा० बोहता मुक सुवर्ण कुमार के वा. वायु कुमार के छ• छभवे सयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! तीसं निरयावास सयसहस्सा प० ॥ गाहा-तिसाय पण्णवीसा, पन्नरस दसेवय सयसहस्सा ॥ तिण्णेगं पंचूर्ण, पंचेव अणुत्तरा निरया ॥१॥ केवइयाणं भंते : असरकमारावास सयसहस्सा प० ? एवं-चोसट्री असे. राणं, चउरासीईय होइ नागाणं । बायत्तरि सुवन्नाणं, वाउकुमाराण छण्णउई ॥१॥ पहिली नरक में कितने लाख नर कावास कहे हैं ? अहो गोतम ! इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में तीस लाख नरकाबास कहे हैं. दनरी शर्कर प्रना में पचीस लाख नरकाबास कहे हैं. तीसरी बालु प्रभा में पदरह लाख, चौथी पंकसभा में दश लाख, पांचवी धूमप्रभा में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख, और मातमी में पांव नरकावाल कहे हैं. सब मील कर चौरासी लाख नरकावास होते हैं. ॥१॥ अहो भगवन ! अमुर कुमार के कितने लाख भवन कहे हैं ? अहो गौतम : अमुर कुमार के चौसठ लाख भवन हैं उसमें से चौतीस लाख दक्षिण में व३० लाख उत्तर में हैं, नागकुमार के चौरासी लाख * मशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ do दी० द्वीप कुमार दि० दिशा कुमार उ० उधि कुमार वि० विद्युत्कुमार ६० स्वनित कुमार अ० अभि ० कुमार छ० छके जुल्दोनो तरफ छा० ४७ स ० शतपत्र || २ || के कितने मंत्र भगवन् पु० पृथ्वी काया आ०आ बाल स० शतसहस्र गो० गौतम अ असंख्यात आ० आवास स० शतनहरू जाः यावत् अ० असंख्यात दी दिसा उदहीणं, विज्जुकुमारिंद थणियमग्गीणं ॥ छण्हंपि जुवलयाणं, बावन्तरि मोसयसहस्सा || २ || केवइयाणं भंते पुढविकाइया वास सयसहस्सा प० गोयमा ! असंखेज बास सयसहस्सा १०, जात्र असंखेज्जा जोइसिय विमाणावास सयसहस्सा * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र भुवन कहे हैं उनमें से दक्षिण में चउम्मालीस लाख व उत्तरमें चालीस लाख, सुवर्ण कुमारके वोहत्तर लाख भुवन उस में से अडतीस लाख दक्षिण में व चौत्तीस लाख उत्तर में, वायु कुमार के छन्नु लाख भुवन उस में से पच्चास लाख दक्षिण में व ४६ लाख उत्तर में, द्वीप, उदधि, दिशा कुमार, विद्युत्कुमार, स्तनित कुमार व अग्निकुमार इन प्रत्येक को ७३ लाख भवन हैं उसमें से ४० लाख दक्षिण में व ३६ लाख उत्तर में हैं. असुरकुमारादि दशों भुवनपतिके सब मीलकर चार क्रोड छ लाख भवन दक्षिण दिशा में और तीन [क्रोड ६६ लाख भुवन उत्तर दिशा में हैं, सब मील कर सातक्रोड वहोतर लाख भुवन भुवनपति के कहे { हैं. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवको रहने के कितने स्थान कहे हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वी कायिक जीव के असंख्याते स्था कहे हैं, जैसे पृथ्वीकायिक जीव के असंख्यात स्थान कहे हैं वैसेही पहिला शतकका पांचवा उद्देशा + १२१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जो० ज्योतिषी वि० विमान वास स० शत सहस्त्र मो० सौधर्म में भं० भगवन् क० कितने वि० विमान वास स० शतसहस्र गो० गौतम ब० बत्तीस विमानवास सं० शतसहस्र ए० ऐसे ब० बत्तीस अ० भट्ठावीत बा० बारह अ० आठ च ० चार स० शतसहस्र प० पच्चास च० चालीस छ० छ स० सहस्र स० { सहस्रार में आ • आनत पा० प्राणत क० देवलोक च चार स० शत आ० आरण अ० अच्युत में ति० प० ॥ सोहम्मेणं भंते ! कइविमाणा वास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! - बत्तीसं विमाणावास सयसहस्सा प० | एवं ( गाथा ) बत्तीसट्ठावीसा, बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा ॥ पण्णा चत्तालीसाछच्चसहस्सा सहस्सारे || १|| आणय पाणयकप्पे, चारि सारणच्चुए तिण्णि | सत्त विमाण सयाई, चउसुवि एएसु कप्पे ॥ २ ॥ अपू, तेऊ, वायु, वनस्पतिकायिक जीव द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तिर्येच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर व ज्योतिषी के असंख्यात स्थान कहे हैं. अहो भगवन् : सौधर्म देवलोक में कितने वास कहे हैं ? अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक में बत्तीस लाख विमान वास कहे हैं. दूसरे ईशान देवलोक में अठ्ठावीस लाख विमान कहे हैं तीसरे सनत्कुमार में बारह लाख विमान कहे हैं, चौथे माहेन्द्र देवलोक में आठ लाख (पांचवे ब्रह्म देवलोक में चार लाख छड्डे लांतक में ५० हजार, सातवे महाशुक में ४० हजार, आठवे { सहसार में छ हजार नववे आणत दशत्रे प्राणत में इन दोनों देवलोक में चारमो अग्यारवे आरण चारबे * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १२२ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथनीन प० मात विपिमान म. शतच. चार क. देवलोक में ए. अग्यारह उ. उत्तर हे. नीचे की म. सात उ० उत्तर म० मध्यकी स० शत उ० उपर की पं० पांच अ० अनुत्तर विमान में ।। ३ ।। पु. पृथ्वी ठिस्थिति ओ. अबगाहना म० शरीर मं० मंघयण . मंठाण ले लेश्या दि० दृष्टि णा. ज्ञान जो जोग उ० उपयोग द० दश स्थान इ० इस भं० भगवन् र० रलप्रभा पु. पृथ्वी के ती | एकारसुत्तरहेटिमए सत्तु त्तरंच माझमए ॥ सयमेयं उबरिमए ॥ पंचेश्य अणुत्तर विमाणा ॥ ३ ॥ १ ॥ पुढवि लिइ ओगाहण सरीर संघयण मेव संठाणे ॥ लेस्सा दिट्ठी णाणे, जागुवओगे य दसठाणा ॥ १ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए । भावार्थ च्युत इन दोनों में तोमो. नवोयक की प्रथम त्रिक में १११, दूसरी त्रिक में १०७, तीसरी त्रिक में १०० और उपर पांव अनुत्तर विमान के पांच सब मालकर ८४२७०२३ विमान हुवे ॥ ३ ॥ अब आगे उद्देशा के लीये द्वार गाशो बनाते हैं. १ स्थिति २ अगाहना ३ शरीर ४ संघयण मंठान ६ लेश्या १७ दृष्टि ८ ज्ञान ९ जोग १० उपयोग, इस में प्रथम स्थिति द्वार कहते हैं अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में तीत लाव नरकापातमें से प्रत्येक नरकावास में नारकी के कितने स्थिति स्थान कहे हैं ? अहो गौतम ! प्रत्येक नरकावास में असंख्याते स्थिति स्थान कहे हैं क्यों की प्रथम पृथ्वी की अपक्षासे नारकी की जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति है. और एक २ समय बढाते उत्कृष्ट एक सागरोपम की 28°> पहिला शतकका पांचवा उद्देशा अ 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ तीस २० नरकावास स० शन सहस्र में ए० एकेक नि० नरकावास में ने० नारकी क० कितने ठि० स्थिति स्थान गो० गौतम अ० असंख्यात ठि० स्थिति स्थान प० प्ररूपे सं० वह ज० जघन्य ठि० स्थिति स० सप्रयाधिक ज० जघन्य स्थितेि दु० दोसमयाधिक जा० यावत् अ० असंख्यात समयाधिक ज० जघ{न्य स्थिति त० उसयोग्य उ० उत्कृष्ट ठि० स्थिति ॥४॥ ३० इस र रत्नमना पृथ्वी में ती० तीन निव्नरका तीसाए निरयावास सयसहस्से एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ठिइट्ठाणा प० ? गोपमा ! असंखेला ठिइट्ठाणा प० तं० जहाणिया ठिई समयाहिया, जाणिया ठिई दुसमयाहिया, जात्र असंखेज्ज समयाहिया जहण्णिया ठिई. तप्पाउकोसिया ठिई ॥ ४ ॥ इमसेनं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास स्थिति होती है. उस में असंख्यात समय होते हैं इसलिये असंख्यात स्थिति स्थान होवे. वैसेही प्रत्येक नरकावास की अपेक्षासे भी असंख्याते स्थिति स्थान होवे. जैसे रत्नप्रभा के पहिले पाथडे में जघन्य दश ( हजार वर्ष उत्कृष्ट १० हजार वर्ष की स्थिति है वह एक स्थिनि स्थान वह भी प्रत्येक नरक में भिन्न है. उस से एक समय अधिक सो दूसरा जघन्य स्थिति स्थान वह भी अनेक प्रकार का है. ऐसेही असंख्यात समय अधिक जघन्य स्थिति स्थान वह भी अनेक प्रकार का है. स्थिति स्थानक प्रत्येक नरक व प्रत्येक पाथडे में भिन्न है. ऐसेडी विवक्षित नरकास को योग्य उत्कृष्ट स्थिति स्थानक भी अनेक 408 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # १२४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ - पंच विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र वास स० शत सहस्र में ए० एकेक नि० नरका वास में ज जघन्य ठि० स्थिति वाले व वर्तते नं० सयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहण्णियाए ठिईए वहमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता ? गोयमा : सव्वेवि ताव होज्ज. कोहो उत्ता, अहवा कोहो उत्ता मांणोत्रउत्तेय | अहवा कोहोरउत्ताय, माणोवउत्ताय । अहवा कोहोत्रउत्ताय मायोवउत्तेय, / अहवा कोहोवउत्ताय मायोवउत्ताय । अहवा कोहो उत्ताय लोभोवउत्तेय, । अहवा कोहो उत्ताय, लोभोवउत्ताय । अहवा कोहोबउत्ताय माणोवउत्तेय, मायोवउत्तेयः । कोहो उत्ताय, { प्रकार की है. ॥ ४ ॥ अत्र इन स्थिति स्थान में क्रोधादि विषय का विभाग कर बताते हैं. अहो भगवन् ( रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासमें से प्रत्येक नरकावास में जघन्य स्थितिवाले नारकीरहे हैं। {उनमें से क्या क्रोधवाले ज्यादा हैं, ? मानवाले ज्यादा हैं ? मायावाले ज्यादा हैं ? अथवा लोभवाले ज्यादा? हैं ? अहो गौतम ! प्रत्येक नरक में जघन्य स्थिति वाले नारकी सदैव रहते हैं उस में क्रोध युक्त विशेष रहते हैं. इम • उन के २७ भांगे किये हैं. और एकादि से संख्यात समयाधिक जघन्य स्थितिवाले नारकी हैं वे क्वचित हैं और क्वचित नहीं भी हैं. इसलिये उसमें क्रोध सहित एक भी होवे अनेकभी होवे इससे ० पहिला शतकका पांचवा उद्देशा १२५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ~ ANNNNNNN 20 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी नारकी किं• क्या को• ऋधयुक्त मा० मानयुक्त मा० मायायुक्त लो० लोभयुक्त स० सर्व ता. तैसा माणोवउत्तय मायोवउत्ता । कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्तेय । कोहोव रत्ता, मागोवउत्ता, मायोवउत्ता॥ एवं कोहेणंमाणेण लोभेणं चत्तारिभंगा ॥ अहवा कोहोवउत्ता, माणोवउत्ते मायोवउत्ते. लोभोवउत्ते. । अहवा कोहोवउत्ता, माणोवउत्ते, मायोवउत्ते लोभोवउत्ता। अहवा कोहोवउत्ता, माणोवउत्ते, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ते. ____ अहवा कोहोवउत्ता माणोवउत्ते मायोवउत्ता लोभोवउत्ता । अहवा कोहोवउत्ता, माणो __ वउत्ता,मायोवउत्ते,लोभोवउत्ते. अहवाकोहोवउत्ता.माणोवउत्तामायोवउत्ते,लोभोवउत्ता इसमें अस्ती भांगे होते हैं. एकेन्टिय में चारों कपायवाले बहत हैं इस से इन में भांगा नहीं होता है. x भांगे के भेद कहते हैं १ क्रोधवाले बहुत २ क्रोधके बहुत मान के एक ३ क्रोध के बहुत मान के बहुत १४ क्रोध के बहुत माया के एक ५ क्रोध के बहुत माया के बहुत ६ क्रोध के बहुत लोभ के एक ७ क्रोध क बहुत लोभ के बहुत ( असंयोगी एक व द्वीतंयोगी ६ मील ७ हुवे) ८ क्रोधवंत बहुत मानवंत एक मायावत एक ९ क्रोधयंत बहुत मानवंत एक व मायावंत बहुत १० क्रोधवंत बहुत मानवंत बहुन व + जहां विरह है वहां असाभांगे और जहां विरह नहीं है वहां सत्ताइस भांगे होते हैं. यह विरह उत्पाद की अपेक्षा से नहीं ग्रहण किया है क्यों की वहांपर चौविस मुहूर्त का उत्पाद विरह कहा है और १ भांगे भी सत्तावीस ही कहे हैं * मकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* 1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ *हो. होये ए० ऐसे स० सत्तावीस भ० भांगा ने आनन॥६॥ ० इस र० रत्नप्रभा पु पृथ्वी में ती०तीस 2. अहवा कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ते. अहवा कोहोव- उत्ता माणावउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता, एवं सत्तावीसं भंगा नेयव्वा ॥ ५॥ मायावंत एक ११ क्रोधवंत बहुत मानांत बहुतं व मायावंत बहुन. १२ क्रोधवंत बहुत मानवेत एक व लोभवंत एक १३ क्रोधवंत बहुत मानवंत एक व लोभवंत बहत १४ क्रोधांत बहुत मानवंत बहुत व लोभ वंत एक १५ क्रोधवंत बहुत मानवंत बहुत व लोभवंत बहुत १६ क्रोधवंत बहुत मायावंत एक व लोभवंत में एक १७ क्रोधवंत बहुन मायावत एक व लोभवंत बहुत १८ क्रोधवंत बहुत मायावंत बहुत व लोमवंत एक १९ क्रोधवंत बहुत मायावंत बहुत व लोभवंत बहुत २० क्रोधवंत बहुत मानवंत एक, मायावंत एक व लोभवंत एक २१ क्रोधवंत बहुत मानवंत एक मायावंत एक व लोभवंत बहुत २२ क्रोधांत बहुत मानवंत . एक मायावंत बहुत व लोभवंत एक २३ क्रोधवंत बहत मानवंत बहत मायावंत एक व लोभवत एक २४ क्रोधवंत बहुत मानवंत बहुत मायावंत एक व लोभवंत एक २५ क्रोधवंत बहुत In मानवंत बहुत मायावंत एक व लोभवन बहुत २६ क्रोधवंत बढ़त मानवंत बहुत मायावंत बहुत ।। व लोभवंत एक २७ क्रोधवंत बहुत, मारवंत बहुत मायावंत बहुत व लोभवंत बहुत ये सब मीलकर 15२७ मांगे जघन्य स्थिति वाले नारकी में होते हैं. ॥५॥ अहो भगवन ! एक समय से अधिक समय है। पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( 41804 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा 8-4 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૮ शब्दार्थ) 4 नि. नरका वास स० शन सहस्र में ए. एकेक निम्नरका वास में स० समयाधिक ज० जघन्य ठि० स्थिति। में व० वर्तते ने नारकी किं. क्या को० क्रोधयुक्त मा० मानयुक्त मा० मायायुक्त लो• लोभयुक्त गो. इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावात सयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहण्णट्टिईए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता, माणावउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता ? गोयमा ! कोहोवउत्तेय, माणोवउत्तेय, मायो वउत्तेय,लोभोवउत्तेय । कोहोवउत्ताय, माणोवउत्ताय, मायोवउत्ताय,लोभोवउत्ताय॥अहवा भावाथ की जघन्य स्थितिवाले नारकी क्या क्रोधवाले ज्यादा है ?मानवालेज्यादे हैं मायावाले ज्यादा है! या लोभवाले ज्यादा है ? अहो गौतम : एक समय से अधिक समय की व संख्यात समय से अधिक समय की जघन्य स्थिति वाले नारकी होवे और नभी होवे इसलिये इस में अस्ती भांगे होते हैं. उस में असंयोगी आठ भांगे १ क्रोध का एक २ मान का एक ३ माया का एक ४ लोभ का एक ५ क्रोध का बहुत ६ मान बहुत ७ माया का बहुत व ८ लोभ का बहुत. द्वि संयोगी भांगे २४.१. क्रोधवंत एक मानवंत : २ क्रोधवंत एक मानवेत बहुत ३ क्रोधवंत बहुत मानवंत एक ४ क्रोधवंत बहुत मानवंत त ५ क्रोधवंत एक मायावंत एक ६ क्रोधवंत एक मायावंत बहुत ७ क्रोधवंत बहुत मायावंत एक ८ क्रोध 12वंत बहुत मायावंत बहुत?क्रोधवंतएक लोभवंतएक? ०क्रोधवंत एक लोभवंत बहुत ११क्रोधवंत बहुत लोभवंत । अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी पालाप्रसादजी * w Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सत्र ) सूत्र ( भगवती गौतम को क्रोधयुक्त मा. मानयुक्त मा० मायायुक्त लो० लोभयुक्त ए एमे अ. अस्मी भ० भांगा ने जानना २० ऐसे जा. यावत सं० संख्यान म. समयाधिक ठिक स्थिति वाले अ• असंख्यात स० समयाधिक स्थिति वाले तः उनयोग्य उ० उत्कृष्ट टि: स्थिति वाले म मत्तावीस भं० भांगे भा० कहना. ॥६॥ कोहोवउत्तय, मागोव उत्तेय, अहवाकोहोवउत्तेयमाणोवउत्ताय एवं असीइ भंगा नेयव्वा ।। ___ एवं जाव संखन समयाहिया ठिई, आपखेज समयाहिया ठिईए, तप्पाउग्गुकासियाए ठिईए सत्तावीसं भंगा भाणियब्वा॥६॥इमीसेणं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास एक१२ कधांत बदल लोभवंत बहुत ३ मानवंत एक मायावंतएक'मानवंत एक मायावंत बहुत १५मानवंत बहुत मायावंत एक १६ मानधन बहुत मायान बहुत १७ मानवंत एक लोभत एक १८ मानवंत एक लोभवंत बहुत १० मानवंत बहुन लोभात एक २० मानवंत बहुन न लोभ्वं बहुत ११ मायावंत एक लोभत एक २२ मायावंत एक लोभन बहुत २३ मायावंत बहुत लोभांत एक २४ मायावंत है वहत व लोभवंत वहुत. त्रिसंयोगी भांगे :२.१ कोयत, मानवंत, मायावंत एक, अनेक एमे मीलकर ३२१ भांगे होते हैं और चतःपयोगी के १६ भांगे होते हैं यो सब मील कर जघन्य स्थिति के नारकी में एक से अस्वी पर्यंत पांग होते हैं. और संख्यान समय में अधिक समय तक के जवन्य स्थिति वाले नारकी लगाहर उत्कृष्ट स्थिति वाले ना मचावीम भांगे होते हैं यह प्रथयार हुआ AR2015 पहिला शतक का पांचवा उद्दशा भावार्थ -2012 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी २७ भागेका यंत्र. अस्ती भमिका यत्र. त्रिसंयोगी भांग अयागो भांगा ८.मान लोभमाया लाभकाधमान लोभ.. असंयोगी क्रोध १२. चतु:संयोगी. क्रोध.१ युक्त बहुत. क्रोधमान.माया मान. .. माया. दिल ३ ३ क्रोधमान.माया लोभलोभ. | १ चार एकचार अनक [ मान. द्विर्मयोगी भांग २४ वियोगी भांगा ३२ क्राधमान.लाम काधमान का लाभ १ काध. मान. माया.. ३१. १ क्रोध्रयाया लोभ ३३ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी जालापसादजी * ३ पाया. هه س १ क्रोधमाया लोभ م क्रोधमायामानामाया هه م क्रोध. लोभ. م م س س م م ३ سه - Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مه س س ن م ہ ہ هم هر ننه سم مه م س م mmmmmmm م rammarrorar ہ س शब्दाथकोष.माया.लोभ.क्रोधमान माय लेश इ० इम मं० भगवन र रत्नप्रभा पु० पध्दी में स० तीस नि०११ ३ ३ १ नरका वास सशत सहस्र में ए० एकेक मि. नरकावास में ने ईमान. माया. लोभ. १ नारकी के के० कितने ओ० अवगाहना स्थान ५० प्ररूपे गो० गौतम अ० अभंख्यात ओ० अवगाहना स्थान ज. जघन्य ओ• अवगाहना अं० अंगुलका अ० असंख्यातवा भाग जघन्य ओ अवगाहना एक एक | प्रदेशाधिक ज० जघन्य ओ० अवगाहना दु०दोपदेशाधिक जघन्य ओ० सयसहस्सेमु एगमेगंसि निरयावाससि नेरइयाणं} केवइया ओगाहणट्ठाणा प. ? गोयमा ! असंखेज्जा ओ गाहणटुणा प० तं. जहणिया ओगाहणा अंगुलस्सी चतु:मयोगी १६. असंखेजइ भागं, जहणियाओगाहणा एगपदेसाहिया, जहणिया ओगाहणा क्रोधमान माय लेभ भावार्थ अन अगाहना द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास कहे हैं. उन प्रत्येक नरकावास में नारकी को कितने अवगाहना स्थान कहे ? अहो गौतम ! प्रत्येक नरकावास में नारकी के असंख्यात अवगाहना स्थान कहे हैं. जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवा भाग की सब नरक में है. ३ एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना स्थान, दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाइना morodarror.orrm| marar mom س س س س س س سرا - م س 4848 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - - س سے س س سه | - mmmmmonmannamnaam पहिला शतक का पांचवा उशा 8948 Mr.ru Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथें निक अनुवादक बालब्रह्मगरी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी अवगाहना जा. यावत् अ. असंख्यात प: प्रदेशाधिक जः जयन्य घाः अवगाहना त. तत्यायोग्य उ० उत्कृष्ट ओ० अवगाहना ॥ ७॥: इस भ भगवन र रत्नप्रभा पु. पृथ्वी के ती नीम नि. नरका वास. शत महस्र में ए. एकेक नि. नरका वास में ज. जघन्य ओ० अवगाहना २० वर्तते ने० नारकी कि क्या को क्रोधयुक्त अ. अम्मी में: भागे भा कहना जा. यावत सं. संन्यात प०प्रदेशाधिक ज. जयन्य ओ० अवगाहना अ. असंख्यात ५० प्रदेशाधिक ज. जयन्य ओ• अवगाहना वाले ५० दुपदसाहिया, जहणिया ओगाहणा जाव असंखेजपदेमाहिया, जहणिया ओगाहणा तपासमकोसिया उग्गाहणा ॥ ७ ॥ इमीपेणं भंते रयणप्पभाए ! पुढवीए तीसाए निरयावास सयमहस्पेस एगमगंमि निरयावासंसि जहणिया ओगाहणार वट्टमाणा नरइया किं कोहोर उत्ता? असीइभंगा भाणियव्या जाव संखेजपदमाहिया जहांण्ण या ओगाहणा, असंखेज पएसाहियाए जहणियाए आगाहणाए वट्टमाणाणं तप्पाउस्थान यावत् असंख्यात प्रदेश अधिक ॥ी अब अहो भाव : इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में तीस लाख नरकावास में से प्रत्येक नरकावास में रहनेवाले जघन्य अवगाहनावाले नारकी में क्या क्रोध ज्यादा है ! मानज्यादा माया पादा है ! या लोभ ज्यादा है! अहा गौतम ! उन की अस्मी भांगे पहिले जैन कहना मा मव अधिकार संख्यान प्रदेशाधिक जघन्य अवगारना नक जानना.. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वर्तते त. उसयोग्य उ० उत्कृष्ट ओ• अवगाहना ३० वर्तते ने० नारकी दो० दोनों में स० सचावीस 4 भांगा॥८॥ इ० इस भ० भगवन् २० रत्नप्रभा जा. यावत् ए०एकेक नि. नरकावास में ने नारकी को क. |७ कितने स० शरीर प० प्ररूपे गो. गौतम ति० सीन स० शरीर १० प्ररूपे वे वैक्रेय ते. तेजस क० का र्माण इ. इस भं० भगान जा. यावत् वे वैक्रेय म. शरीर में वर्तते ने नगरकी किं. क्या को० क्रोध संयुक्त स० सत्तावीस भं० मांगा ए० इस ग० गमेसे ति० तीन स०शरीर भा०कहना ॥१॥ इ०इस भं०भगवन् र गुकोसियाए ओगाहणाए वहमाणाणं नेरइयाणं दोसुवि सत्तावीसं भंगा ॥ ८ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए जाव एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं कइसरीरया प.? } गोयमा ! तिण्णिसरिया ५० तं. वेउविए तेयए कम्मए. इमीसेणं भंते ! जाव वेउब्वियसरीरे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता सत्तावीसं भंगा. एएणंगमेणं भावार्थ असंख्यात प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहनागले व उत्कृष्ट अवगाहनावाले नारकी को सत्ताइस मांगे जानना. ॥८॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा नामक पृथ्वी के प्रत्येक नरकावास में नारकी को कितने शरीर कहे हैं ? अहो गौतम ! तीन शरीर कहे हैं. १ वैक्रेय २ तेजस ३ कार्माण. अहो भगवन् ! वै-3 % ॐ क्रेय शरीरवाले नारकी क्या क्रोधवाले विशेष हैं यावत् लोभवाले विशेष हैं ? अहो गौतम ! इन में 3 सत्तावीस भांगे जानना. जैसे वैक्रेय का कहा वैसे ही शेष दो शरीर का कहना ॥९॥ अब चौथा । tag पंचांग विवाह पण्णत्ति । भगवती ) सूत्र - 863 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा 4-848 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 8 अनुवादक- लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १२० रत्नप्रभा जा० यावत् ने नारकी के सः शरिर किं० क्या सं० संघयणी गो० गौतम छः संवयण में से अॅ० असंधयणी ने० हड्डी रहित ने० मांग रहित ने० स्नायु रहित जे० जी पो० पुल अ० अनिष्ट ( अ = अकान्त अ० अमिय अ० अशुभ अ० अमनोज्ञ अअपना एवं उनको स० शरीर सं० संघयणपने प०परिणमते हैं इं० इस मं० भगवन् जा० यावत् छ० छसंघयण में से अ० असंघयणी व० वर्तते नेट नारकी तिण्णिसररिया भाणियव्वा ॥ ९ ॥ इमीसेणं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरिया किं संघयणा प० ? गोयमा । छण्हसंघयणाणं असंघयणी, नेवट्ठी, नेव छिरी, नेवण्हारुणि; जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता, अप्पिया, असुहा, अमणुण्णा, अमणामा, एएसिं सरीर संघायत्ताए परिणमति ॥ इमीसेणं भंते ! जाव छण्हं संघाण असंघणे वट्टमाणाणं नेरइया किं कोहोवउत्ता सत्तावीसं भंगा ॥ १० ॥ संघयणद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इस प्रभा नरक के प्रत्येक नरकावास में रहनेवाले नारकी के शरीर क्या संघयणी है ? अहो गौतम ! वज्रऋमनारान आदि छ संघयण में से किसी प्रकार का संघयण नारकी के शरीर को नहीं पाता है. क्यों की उन के शरीर में अस्थि नाडी व नसों वगैरह नहीं है. जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अशुभ, अमनोज्ञ व अपणाम अहो मगवन् ! उक्त असंघयणी नारकी क्या क्रोधी ज्यादा वे शरीर के घयणपते परिणमते हैं. लोभवन्त ज्यादा हैं ? अहो यावत् ** प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १३४ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | * {किं० क्या को० क्रोध युक्त म० मत्तावीस मं० भांगा ॥ १० ॥ इ० इप मं भगवन् जा०यावत् म०शरीर किं० क्या मं० मंठानत्राले प० प्ररूने गो० गातम दु० दो प्रकार के भ० भववारणीय उ० उत्तर वक्रेय त० तहां ० जे० जो भ० भवधारणीय ते० वे हुं हुंड़क संठानवाले त० तां जे० जो उ० उत्तर वैक्रेय ते ० वे हुँ० हुडक ठानाले इ० इस जा० यात्रत् हुँ० हुंडक मंठान में व वर्तते ने नारकी किं० क्या को० क्रोध युक्त ५० सत्तावीत मं० भांगा || ११ || इ० इस मं० भगवन र रमभा पु०पृथ्वी के ने० नारकी को क० सूत्र भावार्थ 88 पंचमांग विवाह पणति ( भगवती ) मूत्र इमीसेणं भंते ! जाव सरीरया किं संठिया, पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधाराणज्जाय, उत्तरवेउल्वियाय । तत्थणं ज ते भवधारणिजा, ते इंडसंठिया प्रण्णत्ता. तत्य जे ते उत्तर वेडव्विया तेविहुडसंठिया प० । इमीसणं जाव हुडसंठाणे माणा नेइया किं कोहावउत्ता ? जात्र सत्तावीसं भंगा ॥ ११ ॥ इमीसेणं गौतम ! यहां पर सत्तावीस भांगे ज्ञानना. ॥ १० ॥ पांच संस्थानद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इस रत्नम्भा नामक नरक के नरकावा में रहनेवाले वारकी क्या संस्थान वाले हैं। अहो गौतम ! नारकी को (दो प्रकार का शरीर कहा है. भवधारणीय व उत्तरप्रेय उन में जो भवधारणीय शरीर है वह इंडक संस्थान वाला है और जो उत्तर वैक्रेय शरीर बनाता है वह भी मुंडक संस्था मय ही बनता है. हुंडक संस्थानवाले नास्की में क्रोधादि चार कषाय के सत्तावीस भ्रांग पाते हैं ॥ ११ ॥ अव ब्रा लेश्याद्वार कहते हैं. भदो 40- 3 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा १३५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ Jo | कितनी ले० लेया गो० गौतम ए० एक का० कापोतलेश्या इ० इस भै० भगवन् र० रत्नप्रभा जा० यावत् का कापोत लेश्या में वर्तते समन्तात्री न भं० भांगा ॥ १२॥ इ० इस भं० भगवन् जा०यावत् किं० क्या स० समष्टि मि निथ्यादृष्टि स० समनिध्यादृष्टि गो० गौतमतिः तीन इ० इस जा० यावतु स० सम्यक् दर्शन में व० वर्तते ने० नारकी स० रुतावीस भांगा ए० ऐसे मि० मिथ्या दर्शन में स० सममि ०३ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कइलेस्माओ प० ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा प० । इमीसणं भंते ! रयणप्प गए जाव काउलेस्साए वहमाणा सत्तावीसं भंगा ॥ १२ ॥ इमसणं भंते ! जाव किं सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! तिष्णिवि ॥ इमीलेणं जाब सम्मदंसणे वट्टमाणा नेरइया स त्तावीस भंगा एवं मिच्छदंसणेवि सम्मामिच्छ दंसणे असीइ भंगा ॥ १३ ॥ कितनी लेश्याओं कहीं ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा कापुत लेश्यावाले नारकी को भी क्रोधादि कषाय के अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी में क्या नारकी सम सम, मिथ्या, व सममिथ्या ऐसे तीनों दृष्टि हैं. विध्या दृष्टिवाले नारकी में अस्ती भांग भगवन् ! रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में नारकी को पृथ्वी में नारकी को एक मात्र कापुन लेश्या कही. ( सत्तावीस भांग जानना || १२ || मातवा दृष्टिद्वार दृष्टि, मिथ्या दृष्टि या सममियादृष्टि हैं ? अहो गौतम ! समदृष्टि व मिथ्या दृष्टिले नारकी में सचावीत भांग व * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १.३६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दर्थ। थ्या दर्शन में अ. अम्मीभांगा ॥१३।। इ• इस जा यावत् । क्या ना ज्ञानी अ० अज्ञानी गो गौतम ना ज्ञानी अ० अज्ञानी ति तीन ना. ज्ञान नि० निश्चय तिः तीन अ० अज्ञान भ० भजना इ. इस भ30 ७ भगवन् जा० यावत् आ० मतिज्ञान में व० वर्तते गो० गौतम स० सत्तावीस भांगा ए० ऐसे ति० तीन ज्ञान ति० तीन अ० अज्ञान भा० कहना ॥ १४ ॥ इ० इस जा० यावत् किं. क्या म० मनजोगी व० इमीसेणं जाव किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! गाणीवि, अण्णाणीवि. तिण्णिणाणाई नियमा, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । इमीसेणं भंते ! जाव आभिणियोहियणाणे वट्टमाणे ? गोयमा ! सत्तावीसं भंगा ॥ एवं तिण्णि णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भाणियव्वाइं ॥१४॥ इमीसेणं जाव किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी ? भावार्थ जानना ॥ १३ ॥ आठवा ज्ञानद्वार. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा में नारकी क्या ज्ञानी है ? क्या अ ज्ञानी है ? अहो गौतम ! . रत्नप्रभा नामक नरक में नारकी को तीन ज्ञान की नियमा है और तीन अ-3, ज्ञान की भजना है. मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान, अबाधिज्ञान वैसे ही मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान व विभंग ज्ञान% 50 युक्त नारकी को सत्तावीस भांगे जानना. असंज्ञी की अपेक्षा से उत्पन्न होते समय अंतर्मुहूर्त पर्यंत दो अज्ञान की विवक्षा की जावे तो अस्मी भांगे पाते हैं. उस के अल्पपने के कारन से अवगाहग भी अल्प 10 रहती है ओर काल भी अल्प रहता है. ॥ १४ ॥ अथ नवा योगदार कहते हैं. अहो मगवनू ! रत्न-1 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती) सूत्र gical 8603> पहिला शतकका पांचवा उद्देशा 98880 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ शब्दाथ वचन जोगी का कायजोगी गोल गौतम तिः तीन इ. इस जा. यावत् म० मनजोग में व. वर्तते स०१ 4 सत्तावाम भांगा ए. ऐसे का० कायजोग में ॥ १५ ॥ इ० इम जा. यावत् ने० नारकी सा० साकार युक्त [ अ० अनाकार युक्त गो० गौतम सा साकारयुक्त गो गीतम सा० साकारयुक्त अ० अनाकारयुक्त इ० इस जा० यावत् सा० साकार युक्त में वर्तते स० सत्तावीन भांगा एक ऐसे अ० अनाकाग्युक्त में स० गोयमा ! तिण्णिवि ॥ इमीसेणं जाव मणजोए बंदृमाणा सत्तावीसं भंगा। एवं कायजोए ॥१५॥ इमीसणं जाव नेरइया किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोत्रउत्तावि अणागारोवउत्तावि ।। इमीसेणं जाव सागारोवउत्ते वट्टमाणा सत्तावीसं भंगा । एवं अणागारोवउत्तेवि सत्तावीसं भंगा ।।१६॥ एवं सत्तवि पुढवीओ नेयव्वाओ . प्रभा के नारकी क्या मनयोगी, वचनयोगी व काययोगी है ? अहो गौतम ! तीन योगवाले हैं. इन तीनों योगवाले नारकी को सत्तावीस भांगे जानना ॥ १५ ॥ अब दशवा उपयोगद्वार. अहो भगवन् ! रत्नप्रभा के नारकी क्या मौकार वउत्ता हैं या अनाकारोवउत्ता हैं ? अहो गौतम ! साकारवाले हैं और अनाकारवाले भी हैं. साकार उपयोग युक्त नारकी वैसे ही अनाकार उपयोग युक्त नारकी में क्रोधादि कषाय के मत्तावीस भांगे जानना ।। १६ ॥ जैते रत्नप्रभा पृथ्वी पर दशद्वार कहे हैं वैसे अन्य शर्करादि ने १ विशेषार्थग्राही ज्ञानोपयोग. २ सामान्यार्थग्राही दर्शनोपयोग. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाश Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पत्तावीस भं० भांगा ॥ १६ ॥ ए. ऐने स० सात पु. पृथ्वी ने० जानना णा. नाना प्रकार ले० लेश्या । में का. कापोत दो० दो में त० तीसरी में मी० मिशनी.नील च. चौथी में पं. पांचवी में मी० मिश्र 120 कृष्ण त० पीछे ५० परम कृष्ण ॥ १७॥ च. चौसठ भं० भगवन् अ० असुर कुमार आ० आवास १३९ २० शत सहस्र में ए० एकेक अ० असुर कुमारावास में अ० असुर कुमार की के० कितने ठि० स्थिति णाणत्तं लेस्सासु ॥ गाहा-काओयदोस तइयाइ मीसिया नीलिया चउत्थीए ॥पंचमियाए मीसा, कण्हा तओ परमकण्हा ॥ १ ॥ १७ ॥ चउसट्टीएणं भंते ! असुरकुमारावास सयसहस्सेसु एगमेगंसि अनुरकमारावासंसि असुरकुमाराणं केवइया ठि इट्ठाणा प०? गोयमा! असंखज्जा ठिइठाणा प० तंजहा जहण्णिया ठिई जहा नेरइया । पृथ्वी पर नानना. मात्र लेश्या में विशेषता है. रत्नप्रभा व शर्करप्रभा में कापोत लेश्या, तीमी बालु। भावार्थ प्रभा में कापोत व नील, चौथी पंक प्रभा में नील, पांववी में नील कृष्ण, और छठी में कृष्ण और सातवी में महाकृष्ण ॥ १७ ॥ अव असुरकुमार देव का अधिकार कहते हैं अहो भगवन् ! असुर कुमार के ogo १६४ लाख भवन कहे हैं उन प्रत्येक भवन में रहनेवाले असुर कुमार के कितने स्थिति स्थान कहे हैं ? 10 अहो गौतम ! अमुर कुमार के असंख्यात स्थिति स्थान कहे हैं. जघन्य स्थिति स्थानक वगैरह जैसे नार काकी का कहा वैसेही जानना. इतना विशेष की नरक में क्रोधादि चार कषाय के जो भांगे कहे हैं +88- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 2380% १४ पहिला शतक का पांचवा उद्देशा g wimmmmmmmmana ot Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82 स्थान ५० प्ररूपे गो० गौतम अ० अप्रख्यात ठि० स्थित स्थान ज. जघन्य ठिक स्थिति ज. जैसे ने. नारकी न० विशेष प. प्रतिलोभ भं० भांगा भा० कहना या सर्व ता० तैते हो. हुवे लो० लोभयुक्त मा० मानयुक्त ए. इस अ० गमे स ने जानना जा. यावत् २० स्तमित कुमार न० विशेष ना. नाना प्रकार ना० जानना ॥ १८ ॥ अ० असंख्यात पु० पृथ्वी कायारासस० शत सहस्र में ए. एकेक पु० पृथ्वीकाया पास में पुः पृथ्वी काया के के कितनं ठि० स्थिनि स्थान गो. गौतम अ. असंख्यात तहा, नवरं पडिलोमाभंगा भाणियव्वा, सवधि ताव होजा लोभोवउत्ताय माणोव उत्तेय, एएणं गमेणं नेयव्वं, जाव थाणिय कमारा नवरं नाणत्तं जाणियव्वं ॥ १८ ॥ असंखेजेसुणं भंते ! पुढवीकाइयावास सयसहस्सेसु एगमेगसि पुढविकाइयावाससि यहां पर उलटे कहना, क्योंकि देवता में लोभ की प्रबलता विशेष है. असंयोगी भांगा एक लोभवन्त वहृत द्विसंयोगी भांगे ६ लोभवन्त बहुत मायावन्त एक ऐसे करना. इसी तरह तवील भांगे जानना जैसे असुरकुमार का कहा वैसे ही स्तनित कुमार तक मब भुवरूपति का कहना. नरक व असुरकुमागाद भुवनपति में संघयण संस्थान लेश्या वगैरह में जो भिन्नता होगे सो विचार कर करता॥१८॥ अव स्थावर का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव के अख्यात वास में से एक२ आवास में रहनेवाले पृथ्वीकायिक जीव के कितने स्थिति स्थान कहे हैं ? जघन्य स्थिति स्थानक यावत् उत्कृष्ट * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ। सूत्र भावा १५ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ठि० स्थिति स्थान प० प्ररूपे ज० जघन्य ठि० स्थिति वाले जा० यात्रतू व उसयोग्य उ० उत्कृष्ट टि० स्थिति अ० अनंख्यात भं० भगवन् पुः पृथ्वी कायावास स० शत सहस्र में ए० एकेक पु० पृथ्वी काय {वास में ज०जयन्य ठि० स्थिति में व वर्तमान में पुत्र पृथ्वी काया किं० क्या को० क्रोधयुक्त मा० मानयुक्त मा० मायायुक्त लो० लोभयुक्त गो० गौतम को० क्रोधयुक्त मा० मा युक्त मा० मायायुक्त लो० लोभयुक्त पुढविकाइयाणं केवइयाठिइडाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असं खेज्जाठिइट्ठाणा १० | तं. जहाणियाठिई जाव तप्पाउग्गुक्कासियाठिई || असंखेजेसुणं भंते ? पुढविकाइयावास सय सहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि जहण्णाट्ठईए वट्टमाणा पुढविकाइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता ? गोयमा ! कोहोवउत्तावि, माणोवउत्तावि, मायोवउत्तावि, लोहोवउत्तावि एवं पुढविकाइयाणं { स्थिति स्थानक समयाधिक कहने से असंख्यणते होते हैं. अहो भगवन् ! एक २ स्थान में रहनेवाले पृथ्वी कायिक जीवों कोधवन्त ज्यादा है, मानवन्त ज्यादा है, मायावन्त, या लोभवाले ज्यादा हैं ? अहो गौतम ! क्रोधी भी बहुत है, मानी भी बहुत है. मायावी भी बहुत हैं व लोभी भी बहुत हैं. इस कारन से पृथ्वी { कायिक जीवों में भांग नहीं हैं. एक २ कषायवाले बहुत जीव पृथ्वी काया में रहे हुवे हैं इसलिये दशों द्वार आश्रित अभंग जानन्न. मात्र तेजोलेश्या संबंधी अस्सी भांगे जानना. पृथ्वीकाय में लेश्याद्वार 40354 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा १.४१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {ए० ऐसे पु० पृथ्वी काया स० सर्व ठा० स्थान में अ० अभंग न० विशेष ते तेजु लेश्या मैं अ० अस्मी भांगा आ० अकाय ते-तेजकाय वाव्वाय काया ससर्व ठा० स्थान अ० अभंग व वनस्पति काया ज जैसे पु०पृथ्वी काया ||१२||३० बेइन्द्रिय ते ० तइन्द्रिय च ० चतुरेन्द्रिय जेजित स्थान में ने ० नारकी को अ अस्मी भांगा ते० उस स्थान में अ अस्सी न० विशेष अ० ज्ञान स० सम्यक्त्व में आ मतिज्ञान सु० श्रुत सत्रवि ठाणे अभंगयं । नवरं तेउलेस्साए असीइभंगा ॥ एवं आउकाइयावि ॥ तेटकाइया, वाउकाइयाणं सव्वेसुवि ठाणेसु असंगयं । वणफइकाइया जहा पुढविकाइया ||१९|| बेइंदिय तादय चउरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइंचेत्र. णवरं अब्भहियासम्मत्ते ॥ आभिणेिोहियनाणे सुयनाणे एएहिं तेजोलेश्या ज्यादा कहा ऐसे ही अकाय का अधिकार जावना तेडकाय व वायुकाय में दशद्वार पर अभंग जानना क्यों कि इनमें काधादि कषायवाले कहत जीव हैं और देवता आकर उत्पन्न नहीं होते हैं. वायुकाय में शरीर चार कहना उहारिक, वैक्रेय, तेज व कार्माण, वास्पति काय का { पृथ्वी काय जैने कहा || १२ || जिस स्थान नरक में अस्सी भांग कहे हैं उस स्थान पर बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में भांग जादा नरक में एकादि ने संख्यात समय अधिक तक जवन्य *जो देवगति में से देवता पत्रकर पृथ्वीकार्य में एक या अनेक उत्पन्न होते हैं इससे उनको अस्तीभांगेपाते हैं. सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायजी जालाप्रसादजी * १.४२ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ज्ञान में अ० अस्सी भांगा जे० जिम स्थान में ने नारकी में सं० सत्तावीस भांगा ते उस स्थान में स० सर्व अ० अभंग पं० पंचेन्द्रिय ति० तिर्यंच ज. जैसे ने नारकी त० तैसे भा० कहना न० विशेष ज २७ जहाँ स: सत्तावीस भांगा त० तहां अ० अभंग का कहना ज. जहां अ० अस्सी त• तहां अ० अस्सी असीईभंगा. जेहिंठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसुठाणेसु सव्वेसु अभंगयं. पंचिंदियतिरिक्ख जोणिया जहा नेरइया तहा भाणियव्वा । णवरं जहिं सत्तावीसं भंगा तर्हि अभंगयं कायव्वं ; जत्थ असीइ तत्थ असीइं ॥ २० ॥ मणुस्सावि जेहिंठाणेहिं पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48894पहिला शतक का पांचवा उद्दशा -- mamiccasianded भावार्थ स्थिति में जघन्य अवगाहना में, संख्यात प्रदेश अधिक अवगाहना में, और मिश्र दृष्टि इन चार में अस्सी में भांगे कहे हैं वैसे ही मिश्र दृष्टि वर्जित विकलेन्द्रिय को भी अस्ती भांगे होवे. क्यों की उन में एक २kal क्रोधादिक का संभव है मिश्र दृष्टि एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नहीं होते है. ज्ञानद्वार में नरक में सत्तावीम भांगे कहे हैं वैसे यहां अस्ती भांगे जानना. क्यों की इन में सम्यक्त्व सास्वादानपने रहती है. वह सास्वादान अपर्याप्तावस्था में अल्प कालतक रहता है इस लिये उम में एकका भी संभव है; और इसी से । अस्मी भांगे होते हैं और इसी कारण म मतिज्ञान व श्रुत ज्ञान में भी. अस्सी भांगे जानना अन्य जहां का मारकी के सत्तावीस. भांगे हैं वहां विकलेन्द्रिय मं भांग का अभाव है. जैसे नारकी का कहा है। 60. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ १४. सूत्र भावार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्माचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजीक ॥ २० ॥ म. मनुष्य जे० जिस स्थान में ने नारकी को अ० अस्ती भांगा ते उस स्थान में म. मनुष्य को अ. अस्सी भांगा भा० कहना जे. जिम में स. सत्तावीस ते. उस में अ. अभंगक न. विशेष म. मनुष्य अ. अधिक ज. जघन्य ठि० स्थिति में आ. आहारक में अ० अस्मी भर भांगा ॥२१ ॥ नेरइयाणं असीइ भंगा तेहिंटाणेहि मणुस्सावि असीइभंगा भाणियब्वा । जेसु सत्तावीसा तेस् अभंगयं. णवरं मणस्साणं अब्भहियं जहणियट्रिईए आहारएय असीइ भंगा ॥ २१ ॥ वाणमंतर जोइस वेमागिया जहा भवणवासी । णवरं नाणतं वैसे ही तिर्यंच पंचेन्द्रिय का जानना. नरक में जहां सत्तावीन भांगे लिये हैं वहांपर नियंच पंचेन्द्रिय में अभंग जानना. और अम्मी भांगे के स्थान अम्दी ही लेना ॥..नारकी में जिम स्थान अस्सी भांगे कहे हैं वहांपर मनुष्य में भी अस्मी भांगे जानना. और जहां मनावीस भांगे हैं वहांपर मनुष्य में अभंग जानना मात्र मनुष्य की जयन्य स्थिति में अम्मी भांगे जानना और आहारक शरीर में भी अस्सी भांगे हात है. नरक में आहारक शरीर नहीं होने से मनुष्य में इतना अधिक है ॥१॥ वाणव्यंतर. ज्योतिषी और वैमानिक इन तीनोंका अधिकार भुवनपति जैन करना. जहां २ भुवनपति में अस्वी चमरस भांग कहे हैं वहां इन तीनों में अस्मी व सत्तावीस भांग जानना मब से पहिले लोभवाले बहुत कर... ज्योतिषी में पाप तेजोलेश्या पीर वैमानिक में पथक लेख्याभी कही है वैसे ही यहां * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी चालाप्रसादजी* Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ST १४ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूद्र वा वाणव्यंतर ओ० ज्योतिपी वैमानिक जाजम भा भवन पति नः विशेष ना. नाना प्रकार भाः ना जं. जो ज. जिसका जा. यावत् अ. अनुत्तर से वह ए. ऐसे भं० भगवन ॥ ॥ ५ ॥ जा जितना भं• भगवन् ?. आकाश का अं० अंतर से उ० उदित होता मू. सूर्य च० चक्षुस्पर्श को ह. शीघ्र आ. आता है अ. अस्त होता मू. मूर्य ता० उतना उ० आकाश का अंतर से च० चक्ष स्पर्श को ह. शीघ्र आ. आता हे है. हां गो. गौतम जा. जितना उ. आकाश के अंतर मे उ० भाणियव्यं जं जस्स, जाव अणुत्तरा सेवंभते भंतेत्ति पढमे सए पंचमो उद्देसो । सम्मत्तो ॥ १ ॥५॥ जावइयाउणं भंते ! उवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ, अत्थमं तेवियणं सरिए तावतियाओ चेव उवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ? गोयमा! । अनुत्तर विमानतक कहना, श्री गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो भगवन : जो आपने कहा है वह सब सत्य है. यह पहिला शतकका पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १॥५॥ है पांचवे उद्देशे के अंत में ज्योतिषी के विमान कहे. अब आगे उन की गति वगैरह का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन ! आकाश के अंतर में जितने दूर से उदित होता हुवा सूर्य दृष्टि में आता है, उतने ही दूर से *क्या अस्त होता हुवा सूर्य दृष्टि में आता है? हां गौतम ! मर्व आभ्यंतर मंडल में उदित होता हुवा सूर्य पहिला शतकका छठा उद्देशा 88 भावार्थ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) 3. {उदित होता नू॰ सूर्य च चक्षु फा० स्पर्श को ह० शीघ्र आ० आता है अ० अस्त होता जा यात्रन ह० शीघ्र आ० आता है ॥ १ ॥ जा० जितना मं० भगवन् खे० क्षेत्र को उ० उदित होता सू० सूर्य आ० तेजसे स० सब बाज ओ० प्रकाशे उ० उद्योत करे त० तपे प० प्रभासे अ० अस्त होता aro उतना खे० क्षेत्र को आ० आताप से स० सब बाजु ओ० प्रकाशे उ० उद्योत करे त० तपे प० प्रभासे जावइयाउण उवसंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हृव्वमागच्छइ, अत्थमंतेवि जाव हव्वमागच्छ ॥ १ ॥ जावइयाणं भंते ! खेत्तं उदयंतेसूरिए आयवेणं सव्व ओसमंता ओहासेइ, उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ, अत्थमंतेत्रियणं सूरिए तावइयंचेव खेतं आयवेणं सव्वओसमंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ ? हंता गोयमा ! १४७२६३ योजन और एक योजन के एकसठिये इक्कीस भाग दूर से दृष्टि में आता है, वैसे उतने ही दूर से अस्त होता हुवा सूर्य दीखता है || २ || अहो भगवन् ! प्राच्यादि छ दिशि व ईशानादि चार विदिशि इन दशों दिशिओं में उदित होता हुवा सूर्य अपने तेजसे जितने क्षेत्र में प्रकाशता है, विशेष प्रकाशता है, तपता है, और जाज्वल्यमान होता है वैसे ही क्या अस्त होता हुवा सूर्य उतने ही क्षेत्र में प्रकाशता है, विशेष { प्रकाशता है, तपता है, या जाज्वल्यमान होता है ? हां गौतम ! जितने क्षेत्र में सूर्यका उदय होता, प्रकाशता यावत् जाज्वल्यमान होता है उतने ही क्षेत्र में अस्त होता है, प्रकाशता है यावत् जाज्वल्यमान होता है. सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १४६ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -80 १४७ शव्द ६० हां गो गौतम जा जितना ख० क्षेत्र जा यावत् प. प्रकाश नं. उसको भ-भगवन कि क्या पु० स्पर्शाहवा ओ० प्रकाशे जा. यावत् छ, छदिशा में एक ऐसे उ उद्योन करे त तपे प. प्रकाशे जा यावत् निःनिश्चय छ. दिशा में से वह भ भगान १० सर्व मम सर्व फु० स्पर्शता का. काल म समय में जा जितना खे० क्षेत्र फ० स्पर्श ता० उतना पु० सर्ग व. कहना है हां गो. गौतम स. मब जा. यावत् क कह । ते० र को भं० भगन् कि क्या पु० स्पर्शा फु.० स्पर्श जा. यावत् __जावइयाणं खेन्तं जाव पभासेइ तं भंते किं पुटुं ओभालेइ, जाव छहिसिं एवं उजोवेड ___ तवेइ पभासइ जाव निम्मा छदिसिं से प्रणं भते सव्वंति सब्बावति फुसमाण काल समयसि जावइयं खत्तं फुसइ तावइयं फुसमाणे पुढेत्ति बत्तव्वं सिया ? हंतागोयमा! भावार्थ अहो भगान! क्या वह क्षेत्र को स्पर्श कर प्रकाशता है या विना स्पर्श प्रकाशता है ? ऐसे ही स्पर्शकर Fउद्योत करता है या विना स्पर्श उद्योत करता है ? स्पर्शकर तपता है या विना स्पर्श तपता है ? स्पर्शकर विशेष प्रकाशता है या विना स्पर्श विशेष प्रकाशता है ? अहो गौतम ! निश्चय ही छ दिशाओं में स्पर्श कर प्रकाशता है, उद्योत करता है यावत् तपता है. भगवन् ! सब दिशि विदिशिओं में सब आताप मे ईस्पर्शन काल में जित, क्षेत्र को स्पर्शता है उतने ही क्षेत्र को क्या स्पर्शा कहना? हां गौतम! स्पर्शा कहना. अहो भगवन ! वह स्पर्शकर म्पर्शता है या बिना स्पर्श स्पर्शता है ? अहो गौतम ! छ दिशि को पंचङ्ग विवाह पम्पत्ति ( भगवती) मूत्र 188980%> पहिला शतकका छछ। उद्देशा 94 - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र २०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - भावार्थ (नि० निश्चय छ० उदिशा में || २ || लो० लोक का अंत भं० भगवन् अ० अलोक का अंतको फु० स्पर्श ता है अ० अलोक का अंत लो० लोक का अंत को फु० स्पर्शता है हं०हां गो० गौतम लो० लोक का अंत अ० अलोक का अंतको फु०स्पर्शता है अ०अलोक का अंत लो० लोक का अंत को फु· स्पर्शता है ते० उस को भं० भगवन् किं क्या पु० स्पर्श फु स्पर्शता है अः अस्पर्श फु० स्पर्शता है जा० यावत् निः निश्चय छ० छादेशा में फु स्पर्शता है ॥ ३ ॥ दी द्वीप का अंत मं० भगवन् सा सागर का अंत सव्वंति जान बत्तव्वं सिया । तं ते! किं पुढं फुसइ जात्र नियमा छद्दिसिं ॥ २ ॥ लोयंते भंते ! अलोयतं फुसइ, अलोयतेवि लोयतं फुरुइ ? हंता गोयमा ! लोयंते अलोयतं फुसइ, अलोयतेवि लायंतं फुसइ ॥ तं भंते : किं पुठ्ठे फुसइ अपुटुं कुसई ? जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥ ३ ॥ दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ, साग अंत अक के स्पर्श कर स्पर्शता है ||२|| अहो भगवन् ! क्या लोक का अंत अलोक के अंत को स्पर्शता है. या अलोक का अंत लोक के अंत को स्पर्शता है ? हां गौतम ! लोक का अंत को स्पर्शता है व अलोक का अंत लक के अंत की स्पर्शता है. अहो भगवन ! वह क्या स्पर्शकर स्पर्शता है या विना स्पर्श पीता है ! गौतम ! निश्चय ही दिशा में स्पीकर स्पर्शता है परंतु विना स्पर्श नहीं (स्पर्शता है ॥ ३ ॥ असे भगवन ! द्वीप का अंत सागर-समुद्र के अंत को स्पर्शता है या सागर का अंत * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्याचामादजी १४८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अब्दार्थको फु० स्पर्शता है सा० सागर का अंत दी० द्वीप का अंत को फु० स्पर्शता है हैं. हां जा यावत् नि निश्चय छ० छदिशा में फु० स्पर्शता है ॥ ४ ॥ ए. ऐसे ए० इस अ० अभिलाप से उ००० पानी का अंत पो• नाव का अंत को छि छेद का अंत दू० कपड़े का अंत को छा० छाया का अंत आ आतप का अंत को जा. यावत् णि निश्चय. छ० छदिशा में फु० स्पर्शता हैं ॥५॥ अ० है भं० श्गवन जी जीव पा. प्राणातिपातिकी कि० क्रिया क. करता है हर हां अ० है सा. वह भं. 48408 पंचमाङ्ग विवाह पण्यत्ति (भगवती) रंतेवि दीवंतं फुसइ ? हंता जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥४॥ एवं एएणं अभिलावणं उदयंते पोययंत छिदंते दुससंतं छायंते आयवंतं, जाव णियमा छहिसिं फुसइ ॥५॥ आत्थिणं भंते जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता अस्थि । सा भंते ! किं द्वीप के अंत को स्पर्शता है ? हां गौतम ! द्वीप का अंत सागर के अंत को स्पर्शता है सागरका अंत दीप के अंत को स्पर्शता है यावत छ दिशि में स्पर्शकर स्पर्शता है द्वीप समुद्र एक हजार योजनके ऊंडे हैं इसी से छ दिशा ग्रहण की गइ है ॥ ४॥ ऐसे ही पानी व नाव, कपडा व उस का छिद्र, आतप व छाया का जानना उन के भी अंत परस्पर छ दिशाओं में निश्चय ही स्पर्शकर रहे हैं॥५॥50| स्पर्श के अधिकार से अठारह पाप स्थानक से उत्पन्न हुने जो कर्म उन का आधिकार कहते हैं. अहो । 2 पहिला शतक का छट्टा उद्देशा भावार्थ wwwwwwwwwwwwwww Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र शब्दार्थ भगवन् किं. क्या पु० स्पीक करते हैं अ० नहीं स्पर्शी क० करते हैं जा० यावत् नि निर्व्याघात छ. पछदिशा में वा० व्याघात प० प्रत्यय सि. कदाचित् ति तीन दिशा में सि० कचित् च. चार दिशा में सि० कदाचित् पं० पाच दिशा में सा० वह भं• भगवन् किं. क्या क. कीहुइ क० करता है अ० नहीं की क० करता है गो० गौतम क० कीहुइ क० करता है नो नहीं क० नहीं कीहुइ क० करता है सा० वह भं० भगवनू किं० क्या अ० स्वतःने क० कीहुइ क० करते हैं प० दूसरेने क० कीहुइ क० करते हैं पट्रा कज्जइ अपट्रा कज्जइ ? जाव णिव्वाघाएणं छहिसिं वाघायं पडच्च सियतिदिर्स सिय चउदिसिं सियपंचदिसि ॥ साभंते ! किं कडा कज्जइ अकडा कज्जइ ? गोयमा! कडा कज्जइ नो अकडा कज्जइ ॥ सा भंते ! किं अत्तकडा कजइ, परकडा कज्जइ भावार्थ भगवन् ! जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करता है ? हां गौतम ! जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करे. अहो भगवन् ! क्या उस क्रिया को स्पर्श मे करे या विना स्पर्श से करे ? अहो गौतम ! स्पर्श कर करे. निर्व्याघात आश्रित छ दिशा को स्पर्शकर करे अर्थाः जहां अलोक दूर है वैसे स्थान छ दिशा को स्प- शकर करे और व्याघात आश्रित लाक के अंत में होवे अर्थात् उपर नीचे के लोकांत में होवे तो वह पांच दिशा, मध्य के एक कोन में आया हो तो वह चार दिशा और उपर नीचे के लोकांत के कोन में आया होवेतो वह तीन दिशा को स्पर्शकर क्रिया करता है. अहो भगवन् ! क्या वह क्रिया की हुइ लगती अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी जालाप्रसादजी * Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ दोनोंन के कीडः क कमाना गोनम अ. बनाने का कोहः कः करता है, नोः नही दरने का कीड़ा का करना णा नही उ भयने कारकीह क: करने हैं माल वह भ भगवन कि क्या आ० अनुः मेक कीटका करना है अ. अनवकम मेक कीहा कर करते हैं गो " गौनग आ. अनुक्र कीटना करते हैं जो न अ अनमय में कार कोई काकी है विवाह पण्णनि ( भगवती १ तदुभयकडा कद ? गोयमा : अत्तकडा कजइ, णो परकडा कज्जइ, णो तदुभयकडा ट कजइ ॥ सा भने : किं आणविकडा कजाइ, अणाणुपुब्बिकडा कजइ । गोयमा : आणविका कजद, णो अणाणपुब्बिकडा का ॥ जायकर, नायब चाइ, जायक. पाहेला शतकका छठा उद्दशा भावाशे है या विना की हर लगती है ! अहो गौतम ! की इ क्रिया माती ...का हुइ नहीं बगती है. अहो भगवन ! यदि की हुइ क्रिया लगती है तो क्या स्वतःने को ब्रिया लगती है अन्य की हुइ क्रिया लगती है, या दोहोंने की हुइ क्रथा लगी हैं ओ गौतमः स भी हुइ क्रिया लगती है। परंतु अन्यने या उभयने की हुई क्रिया नहीं लगती है. अहो भगवन ! वह क्रिया अनुक्रमसे की हुइ.x * लगती है अर्थात् पहिले करना पीछे पाप लगता अथवा अनुक्रम में नहीं कराइ हुइ लगती है अर्थात् पहिले पाप लगना फीर क्रिया लगे! अहो गौतम : अनक्रम मे की हुई क्रिया लगती है परंतु अनुक्रम से। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी [जा० यावत् क० की जा० यावत् क० करते हैं जा० यावत् क० करेंगे स० सब सा० वह आ० अनुक्रम {से क० की णो नहीं अ० अननुक्रम से क० की व० कहना ॥ ६ ॥ अ० है ० भगवन् ने० नारकी पा० प्राणातिपातिकी क० करते हैं हैं ० हां अ० है सा० वह मं० भगवन् किं० क्या पु० स्पर्शी क० करते अ० नहीं स्पर्शी क० करते हैं जा० यावत् निः निश्चय छ० छदिशा में क० करे सा० वह मं० भगवन् किं० क्या क० कीहुइ क० करते हैं अ नहीं कीहुइ क० करते हैं तं० तैसे जा० यावत् नो० नहीं अ० जिस्सइ, सव्वा सा आणुपुव्विकडा, नो अणाणुपुत्रिकडा त्तिवत्तव्वंसिया ॥ ६ ॥ अस्थि भंते! णेरइयाणं पाणाइत्राय किरिया कज्जइ । हंता अत्थि । सामंते ! किंपुट्ठा कज्जइ अटु' कज्जइ जाव नियमा छद्दिसि कज्जइ ॥ साभंते । किं कडाकजइ अकड । कज्जइ? तंचेत्रजाव {नहीं की हुई क्रिया नहीं लगती है. जो अतीत काल में की, वर्तमान में करते हैं व आगामिक में करेंगे वह सब अनुक्रम से कराइहुइ हैं परंतु अनुक्रम बिना नहीं कराई हुई है ॥ ६ ॥ प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं ? हां गौतम ! वे प्राणातिपानिकी क्रिया अहो भगवन् ! क्या नारकी निश्चय से छ दिशिको स्पर्श [कर करते हैं. अहो भगवन् ! क्या वे की हुइ क्रिया करते हैं अथवा बिना की हुई क्रिया करते हैं ? अहो गौतम ! वे की हुई क्रिया करते हैं यावत् अनुक्रम से नहीं कराइ हुइ क्रिया नहीं करते हैं वगैरह सब अधिकार पूर्ववत जानना जैसे नारकी को प्राणातिपाति की क्रिया को स्वरूप कहा वैसे ही एके * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५२ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - १२३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र*382 अनुक्रम से क. की व.कहना ज. जैसे ने नारकीत तैसे एपकेन्द्रिय व० वर्जकर भा० कहना, जा. यावत् वे० वैमानिक ए. एकेन्द्रिय ज. जैसे जी० जीव त० तैसे भा० कहना ॥ ७॥ ज० जैसे पाप्राणातिपात में त-तैसे मु०मृपावादमें अ० अदत्तादानमें मे मैथ में प.परिग्रह में कोक्रोधमें जा. यावत् मि० मिथ्या दर्शन शल्य ए. ऐसे ए० ये अ० अठारह च० चौवीम दं० दंडक भा० कहना स० वह ए. ऐसे भ० भगवन् भ० भगवान गो० गौतम म०, श्रमण जा० यावत् वि० विचरते हैं ॥ ८॥ ते. णो अणाणुपुब्धि कडाति वत्तव्बंसिया । जहा नेरइया तहा एगिदियबज्जा भाणियव्वा जाव वेमाणिया ॥ एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियन्वा ॥ ७ ॥ जहापाणाइवाए तहामुमावाए, तहाअदिन्न, मेहुणे, परिग्गह, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले ॥ एवं एएणं अट्ठारस चउव्वीसं दंडगा भाणियव्वा ॥ सर्वभंते २ भगवं गोयमे समणं जाव इन्द्रिय वर्ज कर अन्य सब दंडक को कहना और एकेन्द्रिय को समुच्चय जीव जैसे कहना क्यों की उन को लोक के अंत तक जाने से व्याघात आश्रित तीन, चार, पांच दिशी को स्पर्श कर क्रिया लगती है।।७ जैसे प्राणातिपातिकी क्रिया कही वैम ही मपावाद, अदत्तादान, मैथुन परिग्रह क्रोध वगैरह अठारह क्रिया चौवीस दंडक पर उतारना. अहो भगान ! जै। आपने प्रतिपादन किया वह वैसा ही है अन्यथा नहीं है. ऐसा गौतम स्वामी कहकर तप, संयम से अपनी आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥८॥ यहां ** *पहिला शतक का छठा उद्देशा भाव Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उस काल ते. उस समय में स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर के अं० अंतेवासी रो० रोहा णा• * नाम के अ० अनगार प० प्रकृति का भ० भद्रिक प० प्रकृति का म० कोमल प० प्रकृति का वि० विनित ५० प्रकृति का उ० उपशांत प० प्रकृति प० थोडा को क्रोध मा० मान मा० माया लो० लोभ मि. मुद् म० मार्दव सं० युक्त अ० अलीन भ० भद्रिक वि. विनित मा श्रपण भ० भगवान भ. महावीर की अ० नजदीक उ० ऊर्ध्व जा० जानु अ नीचा सि.शिर से झा० ध्यान में रहे हवे सं० संयम से त० है विहरइ ॥ ८ ॥ तेणंकालेणं तेणंसमएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे णामं अणगारे, पगइभद्दए, पगइमउए, पगइविणीए, पगइउवसंते, पगइपयणु कोह माण माया लोभे मिउमद्दवसंपन्न अलीणे भदए विणीए समणस्स भगवओ. महावीरस्स अदूरसामंते उर्दू जाणु अहोसिरे झाणकाट्ठोवगएं, संजमेणं तवसाअप्पाणं पर गौतमने स्वामीने जो प्रश्न किये हैं उन में कर्म प्ररूपणा की है वह कर्म प्रवाह से शाश्वते हैं इस से पर गात शाश्वते जो लोकादिक के भाव हैं उम संबंध में रोहक नामक अणगार प्रश्न करते हैं. उम काल उस समय में श्री महावीर स्वामी के अन्तेवानी रोहक नामक अणगार थे. वे भद्रिक, विनीत, कोमल व उपशान्त प्रकृति-स्वभाववाले थे. उन के क्रोध, मान, माया व लोभ पतल होगये थे. मद्ता संपन्न थे, गुरुदत्त व्रत्ताराधक थे. ऐसे अनगार श्री श्रमण भगवन्तं की पास नीचा मस्तक से ध्यान करते हुवे व * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावाथ 48803 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तप से अ० आत्मा को भा० भावता वि० विचरते हैं ॥ ९ ॥ त तब से वह रो० रोहा अ० अनगार {जा० उत्पन्न श्रद्धा जा० यात्रत् प० पूजते ए० ऐसा व० बोले पु० पहिला भ० भगवन् लो० लोक प० पीछे अ० अलोक पु० पहिला अ० अलोक प० पीछे लो० लोक रो० रोहा लो० लोक अ० अलोक {५० पहिले प० पीछे भी दो दोनों सा० शाश्वत भाव अ० अननुक्रम से सा० वह रो० रोहा ॥१०॥ पु० पहिला भं० भगवन् जी० जीव प० पीछे अ० अजीव पु० पहिला अ० अजीव प० पीछे जी० जीव ज० भावेमाणे विहरइ ॥ ९ ॥ एणं से रोहे अणगारे जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे, एवं वयासी - पुव्विते ! लोए पच्छा अलोए, पुव्विअलोए पच्छालोए ? रोहा ! लोएय अलोएय पुव्विपेते, पच्छापेते दोवेए सासया भावा, अणाणुपुवीए सा रोहा ॥ १० ॥ पुवि भंते ! जीवा पच्छा अजीवा, पुत्रि अजीवा पच्छा जीवा ? जहेव लोएय संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे ॥ ९ ॥ उस समय संशय युक्त रोहक नामक अन {गार निर्णय करने के लिये श्री भगवन्त की समीप आये और तीन वार प्रदक्षिणा करके पूछने लगे कि अहो भगवन् ! लोक पाहिले व अलोक पीछे अथवा अलाक पहिले व लोक पीछे ? अहो रोहा ! लोक {व अलोक दोनों पहिले भी हैं और पीछे भी हैं क्यों कि इन दोनों के शाश्वते भाव हैं इस में पाहिले पीछे का क्रम नहीं है क्यों की दोनों समान है || १० || जैसे लोक अलोक का प्रश्नोत्तर कहा वैसे ही १९६०१ पहिला शतक का छट्टा उद्देशा १५६. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जैसे लो० लोक अ० अलोक त० तैसे जी० जीव अ० अजीव ए० ऐसे भ० भव सिद्धिया जीव अ० अभव । सिद्धिया जीव सि सिद्धि अ०असिद्धि सिसिद्ध असिद्ध॥११॥पु०पहिला भं भगवन् अं अंडा प०पीछे कु०मुरगी पु० पहिली कु. मुरगी ५० पीछे अं० अंडा रो०रोहा से वह अ० अंडा क० कहां से भ० भग-1 वन कु. मुरगी से सा. वह कु. मुरगी क० कहां से भं• भगवन् अं० अंडे से ए. ऐसे रो० रोहा से०१ वह अं० अंडा सा० वह कु• मुरगी पु० पहिले प० पीछे भी दु० दोनों सा शाश्वत भाव अ० अननुक्रम से अलोएय, तहेव जीवाय अजीवाय, । एवं भवसिद्धियाय, अभवसिद्धियाय । सिद्धी असिद्धी । सिद्धा असिद्धा ॥ ११ ॥ पुट्विं भंते ! अंडए पच्छाकुक्कुडी, पुचि कुक्कुडी पच्छा अंडए? रोहा! सेणं अंडए कओ? भयवं कुक्कुडीओ, साणं कुक्कुडी कओ? भंते ! अंडयाओ ? एवामेव रोहा ! सेयझंडए सायकुक्कुडी, पुद्धिपते पच्छापेते दुवे जीव अजीव, भव सिद्धिया अभव सिद्धिया, सिद्धि अभिद्धि, सिद्ध व असिद्ध का जानना ॥ ११ ॥ अब ३३ उक्त प्रश्नों की सिद्धि के लिये पुनः रोहक अनगार प्रश्न पुछते हैं. अहो भगवन ! पहिले अण्डा व पीछे मुर्गी या पहिले मुर्गी व पीछे अण्डा ? भगवन्तने पूछा कि अहो रोहा ! अण्डा कहां से हुवा ? भगवन ! * अण्डा मुर्गा से हुवा. रोहा ! मुर्गी किस से हुई ? भगवन् ? मुर्गी अण्डे से हुई. इसी तरह अहो रोहा ! वही अण्डा, वही मुर्गी पहिले भी थे, और पीछे भी वे दोनों हैं. वे दोनों शाश्वत व अनुक्रम 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी marwana Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थसा वह रो रोहा ॥ १२॥ पु० पाहिले भं भगवन् लो लोकान्त प० पीछे अ० अलोकान्त ५० पहिले अ० अलोकान्त प० पीछे लो० लोकान्त रो. रोहा लो. लोकान्त अ. अलोकान्त जा. यावत् ९७० अननुक्रम से ।।१३।। पु० पहिला भं. भगवन् लो. लोकान्त प० पीछे स. सातवा उ आकाशान्तर पु. पृच्छा रो० रोहा लो० लोकान्त सः सातवा उ आकाशान्तर पु० पहिला जा. यावत् अ अननुक्रम से सा. वह रो० रोहा ए. ऐसे लो० लोकान्त स. सातवा त० तनुवात घ. घनवात घ. घनोदधि मा सासया भावा, अणाणुपुबीए सा रोहा ॥ १२ ॥ पुचि भंते ! लोयंते, पच्छा अलो विअलोयंते पच्छा लोयंते ?, रोहा ! लोयंतेय अलोयंतेय जाव अणाणवीए सा रोहा ॥ १३ ॥ पवि भंते ? लोयंते पच्छा सत्तमे उवासंतरे पुच्छा, रोहा ! लोयंतेय सत्तमेय उवासंतरे पब्धि पेते जाव अणाणुपुबीए सा रोहा । एवं लो। भावार्थ रहित है ॥ १२ ॥ पुनः रोहक पृच्छा करते हैं कि अहो भगवन् ! पहिले लोक का अंत और पीछे है । E अलोक का अंत अथवा पहिले अलोक का अंत और पीछे लोक का अंत ! अहो रोहा! इन दोनों के अंत में पहिले पीछे कोई नहीं है दोनों बराबर शाषन यावत् अनुक्रम रहित हैं ॥ १३ ॥ अहो भगवन् । पहले लोकान्त और पीछे सातवी पृथ्वी का आकाशान्तर अथवा पहिले सातवी पृथ्वी का आ ॐकाशान्तर और पीछे लोकान्त ? अहो रोहा : दोनों पाहले भी हैं और दोनों पीछे भी हैं यावत् अनु-१ । 2981- पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र <38- पहिला शतकका छटा उद्देशा 988Tods Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र शब्दार्थ * सातवीं पु० पृथ्वी एक ऐस लो. लोकान्त में ए..एकेक से सं० नोडना इ० इन ठा० स्थान से तं० वह ज. जैसे उ.. आकाश का अंतर वा० सनुवात घ. घनोदधि पु. पृथ्वी दी०द्वीप सा० सागर वा क्षेत्र ने नारकी अ०.अस्तिकाय स० समय क० कर्म ले लेश्या दि० दृष्टि दं: दर्शन ना ज्ञान स० संघयण स. शरिर जोजोग उ० उपयोग द० द्रव्य प०प्रदेश प० पर्याय अकाल किं-क्या पु०पहिले लो लोकान्त पु० पहिले यंतेय सत्तमेय तणुवाए, एवं घणवाए, घणोदहि सत्तमा पुढवी । एवं लोयंते एकण संजोएयव्वे इमेहिं ठाणेहिं तंजहा-उवासं वाय घणउदहि, पुढवी दीवाय सागरा वासा । नेरझ्यादी आत्थिय, समय कम्माई लेस्साओ ॥ १ ॥ दिट्ठी दसणणाणा, सम । सरीराय जोग उवओगे; दव्य पएसा पजव, अढा किं पुचि लोयंते ॥ २ ॥ पुट्विं क्रम रहित हैं. ऐसे ही लोक का अंत व सातवी नरक का तनुवात, लोक का अंत व सातवी नरक का घनवात. जानना ऐसे ही बनोदधि वगैरह लोकान्त की साथ जोडना जिन के नाम कहते हैं. १ आकाशा तर २ तनुपात ३ घनवात ४ घनोदाध ५ सातवी पृथ्वी ६ जम्बूदीपादि असंख्याते द्वीप ७ लवण समु द्रादि असंख्याते समुद्र ८ भरत क्षेत्रादि वास ९ नारकी आदि चौवीस दंडक १० पंचास्ति काय ११. काल " विभाग १२ आठ कर्म १३ छ लेश्या १४ दृष्टि तीन १५ दर्शन चार १६ ज्ञान पांच १७ संघयण छ १८१ 13 शरीर पांच १०.योग तीन २० उपयोग दो २१ द्रव्य अनंत २२ प्रदेश अनंत २३ पर्याय अनंत २४१ *| 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ** * प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ न भ भगन् लो० लोकान्त ५० पाछे. म. मर्यकाल ज० जैसे लो• लोकान्त में सं० जोडे स० सर्वस्थान । ए. ये एक ऐसे अ० अलोकान्त में सं० जोडना जा० यावत् नः सर्वकाल पु० पहिला भं० भगवन् स० सातवा व तनुवात प० पाछे स. सातवा घ घत्वात त० तैसे न० जानना जा. यावत् स. सूत्र | भंते लोभंते पच्छा सव्वद्धा ? जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वेठाणा । एते एवं अलो यतेणवि संजोएयव्वा सव्वे ॥ पुद्धि भंते ! सत्तमे उवासंतरे, पच्छा सत्तेमे तणुवाए एवं सत्तमं उवासंतर सव्बेहिं समं संजोएयव्वे, जाव सव्वद्धाए । पुब्बिं भंते ! सत्त मेतणुवाए पच्छासत्तमे घणवाए, एवं पि तहेक्नेथल्यं, जाव सव्वहा । एवं उवरिलं भावार्थ अतीतादि काल इन सब सूत्रों को लोकान्त की साथ मीलाना. अब इम में पीछे का अद्धा समय काल की करते हैं. अहो भगवन ! क्या पहिले लोकान्त और पीछे सर्व अद्धा अथवा पहिले सर्व अद्धा E और पीछे लोकान्त ! जैसे पहिले आकाशान्तरादिक मब स्थानक लोकान्त की साथ जोडे वैसे ही यहां कहना. अहो भगवन् ! पहिले सातवा आकांशांतर और पीछे सातबा तनुवात अथवा पहिले सातवा तनुवात और पीछे सातवां आकाशंतर ? एसे सातवा उवासंतर की साथ सर्व अद्धा समय कालतक जोडना." सातवा वनुवात की साथ साता घरवात का वैसे ही जानना. और इसी तरह क्रम से एकेक की साथ मनीचे का.एकेक छोडत उपर का सर्व अक्षा कक सब मोडना अजीत अनागत. अद्धा समय काल की साथ विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 888 पहिला शतक का छठा उद्देशा888" Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ || १ अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सर्वकाल ए. ऐसे उ० उपर का ए० एकेक को सं० जोडना जो० नो हे निचे का तं० उन को 'छ. डना ने० जानना जा० यावत् अ. अतीत अ. अनागतकाल १०पीछे स० सर्वकाल जाया अ० अननुक्रम से सा.वह रो० रोहा से वह ए. ऐसे भ. भगवन् जा. यावत् वि० विचरते हैं॥१ भर भगवान् गो० गौतम स० श्रमण जा० यावत् एक ऐसा व० बोले का कितना प्रकार की भं० भगवन् एक्ककं संजोय, तेणं जो जो हेछिल्लो तं तं छडेतेणं नेयव्वं जाव अतीय अणागयद्धा, पच्छासबढा. जाव अणाणुपुबीए सा रोहा, सेवं भंते २ जाव विहरइ ॥ १४ ॥ ___ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं वयासी कइविहाणं भंते ! लोयट्ठिई पण्ण त्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा लोयट्टिई पण्णत्ता, तंजहा – आगासपइट्ठिए वाएं भी वैसे ही कहना. इस में कोई पहिले पीछे नहीं, सब अनुक्रम रहित बराबर हैं. सदा शाश्वत है.. फीर रोहक अनगार बोले की अहो भगवन् ! आपने जो कहा वह वैसे ही है यों कहकर तप संयम से आत्माको विचरने लगे ॥१४॥ श्री गौतम स्वामीने प्रश्न किया कि अहो. भगवन ! लोक । कितने प्रकार की है ? अहो गौतम ! लोक स्थिति आठ प्रकार की है. १ आकाश प्रतिष्ठित वायु अर्थात् आकाश के आधार से घनवात तनुज्ञात ऐसे दोनों वायु रहे हैं २ वायु के आधार से उदधि है ३ उद-3, घि प्रतिष्ठित पृथ्वी ४ पृथ्वी प्रतिष्टित बस स्थावर प्राणी ५ जीव के आधार से अजीव रह हैं ६ कर्म के आ rammmmmmmmmmmwarwanamurnmooman प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ J 80 सूत्र - पंचमांग विवाह पथ्णत्ति ( भगवती) मुत्र wwwwwwwwwwww लो० लोकस्थिति गो० गौतम अ० आठ प्रकार की लो० लोकस्थिनि आ० आकाश ५० प्रतिष्ठित धा० वायु वा० वायु प०प्रतिष्ठित पु० पृथ्वी पु० पृथ्वी प० प्रतिष्ठित त स था० स्थावर प्राणी अ० अजीव जी जीव प्रतिष्ठित जी जीव क० कर्म ५० प्रतिष्ठित अ० अजीव जी० जीव सं० संग्रहित जी. जीवर क० कर्म सं० संग्रहित ॥ १५ ॥ से वह के कैसे भ० भगवन् ए. ऐमा बु· कहा जाता है अ० आठ | प्रकार की जा० यावत् जी जीव क० कर्म सं० संग्रहित गो० गौतम से० वह ज० जैसे के० कोइ पुरुष वाय पइद्विइए उदही, उदहि पइट्ठिया पुढवी, पुढवी पइट्ठिया तसा, थावरा पाणा, अजविा जीव पइट्ठिया, जीवा कम्मपइट्टिया, अजीवा जीव संगहिया, जीवा कम्म संगहिया ॥ १५ ॥ सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, अट्टविहा जाव जीवा कम्म संगहिया ? गोयमा ! सेजहा नामए केइपुरिसे वत्थिमाडोवेइ २ ता उप्पि सिई धार से जीव है ७ जीवने अजीव ग्रहण किया, मन भाषा के पुद्गलों जीवने ग्रहण किये ८ कर्म स- 3 ग्रहीत संसारी जीव हैं. उदय में आये हुवे कर्मों के वश से जो प्रवर्तते हैं, जो जिस में रहते हैं, वे उस में प्रतिष्ठित हैं जैसे घटादि में रूप रहने से घटादि प्रतिष्ठित रूप कहाजाता है ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! किस कारन से आठ प्रकार की लोक स्थिति कही ? अहो गौतम : जैसे कोई पुरुष चमडे की मशक में}ga वायु भरे और फीर उस का उपर का मुख बंधे कर देवे मुब बांधकर उस मशकके मध्य भाग में | १ पहिला शतक का छठा उद्देशा भावार्थ oyoy 1 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी बांधे उ० उपर भाग में आ ० छोडे से वह रहे से० वह व० मशक को आ० भरकर उ० उपर सि० बंधन बं० बांधे म० मध्य में गं० गांठ बं० की गं० गांठ को मु० छोडे उ० उपर के दे० भाग का वा० नीकाले उ० उपला दे० } पानी གྲྭ° भरे उ० उपर का सि० बंधन बं० बांधे म० मध्य की गं० गांठ को मु० मो० गौतम आ० पानी वा० वायु की उ० उपर चि० रहे हं० हां चि० बंघइ २ त्ता, मज्झे गठिं बंधइ २ त्ता, उवरिलं गंठि मुयइ २ त्ता, उवरिल्लं देसं वामेइ २ त्ता, उवरिल्लं देस आउयायस्स पूरेइ २ त्ता, उप्पि सियं बंधइ २ ता मझिल्लं गठिं मुयइ ॥ सेणूणं गोयमा ! से आउयाए तरस वाउयायस्स उप्पि उबरिले चिट्ठ ? हंता चिइ । से तेणट्टेणं जाव जीवा कम्मसंगहिया ॥ से दुसरा बंध बांधे, मध्य में बंध बांधकर उपर का मुख खोलकर वायु नीकाल देवे और पानी भरे. फीर उस का मुख बांधकर बीच का बंध छोड देवे तो क्या गौतम ! उस मशक में रहे हुवे नीचे के { वायु से पानी रह सकता है ? हां भगवन् ! उपर के विभाग में वायु के आधार से पानी रह सकता हैं. तव भगवन्त ने कहा कि जैसे वायु के आधार से मशक में पानी रहा वैसे ही आकाश के आधार से वायु, वायु के आधार से पानी यावत् कर्म संग्रहीत जीव है. दूसरा दृष्टान्त जैसे कोई पुरुष वायु से { पूरिन चमड़े की मशक को कहि से बांधकर पुरुष प्रमाण से अधिक अगाध पानीवाले द्रह में प्रवेश प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेवसहाथजी ज्वालाप्रसादनी * १६२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 38 ङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र mmmmmmmmmmmwwinninrawinawwwwwwwwwwww ते तैसे जा० यावत् जी जीव क० कर्म संग्रहिन से० वह ज० जैसे के० कोइ पुरुष ब. मशक को आ० भरे क० कटि से बं०षांघेअ अगाध म तल अ०बहुत पु० पुरुषपमाण उ०पानी में ओ० प्रवेश करे से० ० वह णू निश्चय गो० गौतम से० वह पु० पुरुष त० उस आ० पानी की उ० उपर चि० रहे है. हां।। चि० रहे एक ऐसे अ० आठ प्रकार की लो लोकस्थिति प० प्ररूपी जा: यावत जी. जीव क. कर्म संग्रहित ॥ १६ ॥ अ० है भं० भगवन जी• जीव पो० पुद्गल अ० अन्योन्य व० बंधाये हुवे अ० अन्योन्य जहावा केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ २ त्ता कडीए बंधइ अत्थाह मतारम पोरिसियं उदगंसि ओग्गाहेजा ॥ सेणूणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ ॥ एवं वा अट्ठविहा लोयट्ठिई पण्णत्ता, जात्र जीवा कम्म संगहिया ।।१६॥ अस्थिणं भंते ! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्ण बद्धा, अण्णमण्ण करके आगे जावे तो क्या गौतम ! वह पुरुष पानी पर तीरता हुवा रहता है ? गौतम स्वामी कहते हैं कि वह पुरुष पानी पर ही तीरता हुवा रहता है. जैसे वह पानी पर ही तीरता हुवा रहता है वैसे ही अहो । गौतम'! 'आकाश प्रतिष्ठित बायु वगैरह आठ प्रकार की लोक स्थिति कही है ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! जीव व पुद्गल परस्पर क्या बंधे हुवे हैं ! परस्पर एक २ को स्पर्श हुवे हैं ? परस्पर चिकनाइ से लगे पहिला शतक का ग्रठा उद्दशा भावाथ 5 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६४ पु० स्पर्शाये अ० अन्योन्य ओ० अवगाहे हुवे अ० अन्योन्य सि. स्निग्ध प. बंधाये अ० अन्योन्य. घ. घडापने चि० रहते हैं हैं. हां अ० है से वह के० कैसे भ० भगवन् जा. यावत् चि० रहते हैं गो० गौतम से० वह ज जैसे ह. द्रह सिहोवे पु० पूर्ण प० प्रतिपूर्ण वो उछलता वो० विकसता स० सम घ० घडापने चि० रहे अ० अब के० कोइ पु० पुरुष तं• उस ह० द्रहमें ए० एक अ० बडा ना• नाव स० पुढा, अण्णमण्ण मोगाढा, अण्णमण्ण सिणेह पडिबढा, अण्णमण्ण घडत्ताए चिटुंति ? हंता अत्थि ॥ सेकेण?णं भंते ! जार चिटुंति ? गोयमा ! से जहा नामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलदृमाणे वोसट्टमाणे समभर घडताए चिट्ठइ ॥ अ-. हेणं केइपुरिसे तसि हरदसि एगं महं नावं सदासवं सच्छिदं ओग्गाहेजा, सेणणं गोयमा ! सानावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी २ पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलटमाणा हुवे हैं ? भगवन्त कहते हैं कि हां गौतम ! जीव पुद्गल परस्पर बन्धे हुने रहते हैं यावत् लोली भूत , रहते हैं. अहो भगवनू ! किस प्रकार से जीव अजीव दोनों बंधे हुवे हैं यावतू लोलीभूत हैं ? अहोई गौतम ! जैसे कोई द्रह पानी से परिपूर्ण होवे किंचिन्मात्र खाली न होवे, उस में पानी उछलता होके, और वहुत मुशोभित होवे, वैसे द्रह में कोई पुरुष एक बडी छिद्रवाली नाव सहित प्रवेश करे. अब अहो गौतम ! छिद्रों से आता हुवा पानी से भरकर वह नारा भरे हुवे घडे समान क्या नीचे बैठे ? हां * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दर्थ सूत्र भावार्थ 4388 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र - १३ सदा आश्रव स० शतच्छेद ओ० प्रवेशकरे गो० गौतम सा वह ना० वा० उछलता वो० वीकसता स०सम घ० घडापने चि० रहे ० हां चि० रहे से० वह ते० ऐसे गो० गौतम अ० है जी० जीव जा० यावत् चि० रहे ॥ १७ ॥ अ० है मं० भगवन् स० सदैव सु० सुक्ष्म सि० अप्काय प० गीरता है ० हां अ० ० से० वह मं० भगवन् किं० क्या उ० ऊर्ध्व प० गीरे अ० अधोप गीरे ति० तिर्यक् प ० गोरे गो० वो माणासभमर घडत्ताए चिट्ठइ? हंता चिटुइ । से तेणट्टेणं गोयमा ! अस्थिणं जीवाय जाव चिट्ठेति ॥ १७ ॥ अत्थिनं भंते सदासमियं सुहुम सिणेहकाये पवडइ ? हंता अत्थि । से भंते ! किंउड्डे पवडइ, अहेपवडइ, तिरिए पवडइ ? गोयमा उडेवि पवडई, अहेवि पडवइ, तिरिएवि पवडइ ॥ १८ ॥ जहा से बाद आउयाए अण्णमण्ण 1 ॥ भगवन् ! वह नावां पानी भराने से नीचे बैठे. (मीले हुवे, यात्रत् लोलीभूत बने हुवे हैं ।। १७ { सदैव सूक्ष्म अप्काय पडती है. अहो भगवन् {पडती है ! अहो गौतम ! ऊर्ध लोक में वाटलादि पर्वत पर विजय में पडती है और तिर्यक् लोक में भी पडती है ॥ १८ ॥ ! वर्षा होने से वह पानी तडागादि में एकत्रित होकर बहुत काल पर्यंत टिकता है वैसे ही क्या सूक्ष्म अप्काय ऐसे ही अहो गौतम ! जीव व पुद्गल परस्पर बंधे हुवे, अहो भगवन् ! सदैव सूक्ष्म पानी पडता है ? हां गौतम क्या वह उपर पड़ती है, नीचे पडती है, या तिर्यक पड़ती है, अधो लोक में अधोगामिनी अहो भगवन् ! जैसे बादर पानी की ६०१० पहिला शतक का छट्टा उद्देशा १६० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुनादक-पालग्रह्मचारीमुनि श्री.अमोलक ऋषिजी, गौवम उ. ऊर्ध्व प-गीरे अ अमे प० मोरे ति तिर्यक् पगारे॥१८॥ न जैसे से वह वा वादर आ. अपूकाय अ० अन्योन्य स० रहता चि. चिरकाल दी दीर्घकाल चि. स्टे तक तैसे से वह नो० नहीं 4 इ० यह अर्थ स० समर्थ से वह खि. शीघ वि. विध्वंस आ आता है से० ऐसे में भगवन्॥१॥६॥ १. ने नारकी भ० भगवन ने० नरकमें उ० उपजता किंक्या दे देशो दे०देश उ० उपजे दे०देश से स० सर्व उ० उपजे स० सर्व से दे० देश उ० उपजे स० सत्र से स०. सर्व उ. उपजे गो० गौतम नो० नहीं है समाउत्ते चिरंपि दीहकालं चिट्ठइ, तहाणं सेवि ? णोइणटे सम? । सेणं खिप्पामेव वि. समागच्छइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति पढमे सए छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥१॥६॥ नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे किं देसेणं देसं उववजइ, देसेणं सव्वं उवव जइ, सव्वेणं देसं उववज्जइ, सव्वेणं सब्ब उववजइ ? गोयमा ! नो देसेणं देसं उव भी बहुत काल तक टिकती है ? ओ गौतम : या अर्थ योग्य नहीं है क्यों की सूक्ष्म अफाय बहुत काल पर्यंत नहीं टिकती है. अल्प समय में नष्ट होती है. गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो भगवन ! आपका वचन सत्य है. अन्यथा नहीं है.. यह पहिले शतकका छठा उद्देशा पूर्ण हुवाः॥१॥६॥ छठे उद्देशे में विध्वंस की कथा कही अब सातवे उद्देशे में इमसे विपरीत उत्पन्न होने की वक्तव्यता करते प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ ... : Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | देश से दे० दश उ. उपज को नहीं दे देशमे म. सर्व : उपजे नो नहीं म. मंत्र में द देश उपने म मर्व में मःम ३. उपने नजरेने नारकी ए ऐसे जा. यावत ने वैमानका । सत्र भगवती) वजइ, नोदेसेण सव्वं उववजइ, णोसवेणं देख उवरजइ, सवेणं सव्वं उववजइ ।। जहा नेरइए, एवं जाव वैमाणिए ॥ 1 ॥ नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे भावार्थ है. अहो भगवन : नारकी म उतन होता * हवा जीव क्या अपने देश मे नारकी का देशपने उत्पन्न होता है। क्या अपना एक देश से तारकीका सगिपने उत्पन्न होता है ? क्या अपना सर्वांग से नारकी का एक दशपने उत्पन्न होता है? अथवा क्या अपना सांग मे नारकी का मागपने उत्पन्न होता है ? अहो गौतम : नारकी में उप माता जीव देश मे देश नहीं उत्पन्न होता है, देश से सर्व नहीं । उत्पन्न होता है, सर्व से देश नहीं उत्पत्र हो है, परंतु सर्व में मर्व उत्पन्न होता है अर्थात मंपूर्ण जीव नारकी के सशंगपने उत्पन्न होता है. जैसे नरकका कहा है वैसे ही अमुर कुमारादिक से वैमानिक तक के सब दंडक का कहना।।१॥ अहो भगवन् ! नारकी में उत्पन्न होता जीव क्या अपना देश से देश का पहिला शतक का मानका उद्देशा ___ * यहांपर उत्पन्न होताहुवा कहनस उत्पन्नहुवा ऐसाही जानना. क्योंकी नारकीके आयुप्यका उदय होनेमे अन्य यिंचादिकके आयुप्यका अभाहै : Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ धारी मनि श्री अमोलक अपिजी अनुवादक-बालब्रह्म ने नारकी भं. भगवन् ने० नरक में उ० उपजता कि० क्या दे दंश से दें. देश आ० आहारकरे। दः देश मे स. सर्व आ. आहार करे स० सर्व मे दे० देश आ० आहार करे स. सर्व से स० सर्व आ० आहार करे गो० गौतम नो० नहीं दे देश में दे० देश आ. प्राहार करे नो नहीं दे. देश में म. सर्व आ० आहारकरे स० मर्च से दे० देश आ० आहार करेस सपने म० मई आ० आहार करे किं देसेणं देसं आहारेइ, देसणं सवं आहारेइ, सव्वेणं देसं आहारेइ, सव्वेणं सव्वं आहोरइ ! गोयमा ! णो देसेणं देसं आहोरइ, णो देसणं सव्वं आहारेइ, सव्वेणं आहार करे! देश से सर्वका आहार करे ! मई से देश का आहार करे ? अथवा मर्च से सर्व का आहार करे ? अहो गौतम ! जीव एक देश में देश पुदगलों का आहार नहीं करता है, जीव एक देश से सब पुद्गलों का आहार नहीं करता है, परंतु उत्पन्न होने के दूसरे समय में ही सब प्रदेश में नरक के देश पुदलों का आहार करता है, और जीव के समस्त प्रदेश में समस्त पुगलों का आहार करता है. जैसे - ऊण किया हुवा तेल की कडाइ में पुरी को डालते पहिले पास के तेल को चूम लेती है फीर थोडा बहुत ग्रहण करती है और थोडा बहुत छोडती है. इस प्रकार उत्पन्न होने के समय में आहार के ग्रहण योग्य ल जितने पुदलों होवे उन सब को खींच लेता है फीर कितनेक पुढलो ग्रहण करता है और कितनेक छो ना है. इस तरह दो प्रकार में नरक के जीव आहार करते हैं. जैसे नरक का कहा मे ही अन्य पत्र *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी घालाप्रसादजी * भावार्थ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • शब्दार्थ ए. एम जा. यावत् वे वैमानिक ॥२॥ ने नारकी भै• भगवन ने नरकम वताक क्या दे देश में दे देश उ. नाज: जैसे उ० उपजने में तक तैसे उ० चवने में दं दंडक भाकहना ॥३॥ नारकी भ० भगवन ने: नरक में उ० चवता कि क्या दे देश मे दे देश भा० आहार करे तः बा देसं आहारेइ, सम्वर्ण वा सव्वं आहारेइ, एवं जाव वेमाणिए ॥ २ ॥ नरइएण भंते ! नेरइएहितो उन्धहमाणे, किं देसेणं देसं उबट्टइ? जहा उववजमाणे, तहेव उ. ध्वमाणेवि दंडगो भाणियन्वो ॥ ३ ॥ नेरइएणं भंते ! नेरइएहितो उन्बमाणे किं देसेणं देसं आहारेइ? तहेव जाव सव्वेणं वादेसं आहारेइ, सत्वेणं वा सब्बं आहारेइ॥ दिंडक का जानना. ॥२॥ो भगवन ! नारकी में से उर्तता हवा जीव क्या अपने देश से..का उद्वर्तना करे, देशले सर्व की उतना करे, सर्व से देश की उतना करे, या सर्व सं सर्व की उतना करे? अहो गौतम ! जैसे उत्पन्न आश्रित कहा वैसे ही उर्तन आश्रित जानना, इस में सर्व से सर्व उद्धर्तता है ॥ ३ ॥ अहो भगवन : नारकी में से उर्तता हुवा जीव क्या देश से देश पुद्गलों का आहार करे ? देश से सर्व पुद्गलों का आहार करे ? सर्व से देश का आहार करे ? अथवा सर्व से सर्व का आहार करे ? अहो गौतम ! सर्वसे देश का आहार करे व सर्व से सर्व का आहार करे, शेष सब पहिले उपजने के समय आहार का कहा वैसे भी यहां कहना. जैसे नरक का उद्वर्तन व आहार का कहा वेमे ही शेष सब भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती पहिया शतकका मानघा उद्देशा 882 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ -- - * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 तैसे जायावत् स० सर्व से स. सर्व जा. आहार करे ए. ऐसे जायावत् वे वैमानिक॥४॥ ने० नारकी भगवन ने नरक में उ० उत्पन्न हुवा किं० क्या दे० देश से दे० देश उ० उत्पन्न हुवा ए०यह त० तैसे जा. यावत् स. सर्व से स० सर्व उ० उत्पन्न हवा ज. जैसे उ० उपजता उ० चवता में च० चार दें दंडक त. तैसे उ० उत्पन्न हवा उ. चवा च. चार दं० दंडक भा. कहना स० सर्व से स० सर्व उ० उत्पन्न हुवा म० सर्व से दे. देश आ० आहार करे स० सर्व से स० सर्व आ० हारकरे ए. एवं जाव वेमाणिण ॥ ४ ॥ नेरइएणं भंते ! नेरइएसु उववण्णे किं. १ देसेणं देसं उववण्णे ? एसोवि तहेव जाव सव्वेणं सव्व उपवण्णे जह उववजमाणे उव्वमाणेय चत्तारि दंडगा तहा उववण्णे उव्वट्टणेवि चत्तारि दंडगा भाणियन्वा, सवेणं सव्वं उववण्णं सब्वेण वा देसं आहारेइ सव्वेणं सन्वं दंडक में जानना ॥ ४ ॥ अब उत्पन हुवा व उत्पन्न हुए का आहार संबंधी दो दंडक कहते हैं. अहो. भगवन् ! नारकी में उत्पन्न हुवा जीव क्या अपने देश से नारकी का देशपने उत्पन्न हुवा यावत् सर्व से सर्वपने उत्पन्न हुवा ? अहो गौतम ! इस का अधिकार उत्पन्न होते हुवे में जैसा कहा वैसा यहां पर कहना. उत्पम होते व उर्तते के चार दंडक जैसे कहा वैसे ही उत्पम हुवे व उद्धर्ते का आहार की साथ चार दंडक जानना. इम में सत्र से सब उत्पन्न हुवा, उसन्न हुए जीव सब से देश का आहार करे, सब । -- प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी घालाप्रसादजी* भावार्थ 1 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4983- पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती || २० नारकी में भगवन् ने० नरक असे सर्व उ० उपजे स० सर्व से प्रथम अ आठ दंडक त मे अ अ में अ० उ० दंडक भा० कहना णः विशेष जज दे० देश से दे देश उ० उपजे त० तहां अ० अर्ध से अ० अर्थ उ० उपजे भार कहना एक ऐसे ना० नानाप्रकार स० सर्व मो० सोलह आहारेइ, एएणं अभिलावेणं उबवण्णे उव्वद्वेवि नेयव्वं ॥ ५ ॥ नेरइणं भंते ! नेरइएस उववजमाणे किं अद्वेणं अहं उवबजइ, अहेणं सव्वं उववज्जइ, सव्वेणं अहं उजड़, सव्वेण सव्वं उववज्जइ ? जहापढमिल्लेणं अट्ठदंडगा तहा अणवि अटू दंडगा माणिव्वा णवरं जहिं दसेणं देस उववज्जइ तहिं अद्वेणं अहं उववजइतिसे सब का आहार करे || ५ || अहो भगवन् ! नरक में उत्पन्न होता जीव क्या अपना अर्ध से अर्ध नारकीपने उत्पन्न होता है, अर्थ से सर्व उत्पन्न होता है, सर्व से अर्थ उत्पन्न होता है, सर्व से सर्व उत्पन्न होता है ? अहां गौतम ! जैसे पहिले देश के आठ दंडक कडे बैसे ही यहां अर्ध के आठ दंडक जानना इतनी भिन्नता कि देश के स्थान में यहां पर अर्ध कहना. * ऐसे सब मीलकर सोलह दंडक हने ॥ ६ ॥ उत्पन्न * यहां कोई प्रश्न करे कि देश व अर्धमें क्या भिन्नता है ? देशके थोडे, बहुत ऐसे अनेक भेद होते हैं, और अर्धके दो विभागही होते हैं यह अ में अभिलाष से उ० उत्पन्न हवा उचवायें ने जानना || उपजता किं० क्या अ अर्थ मे अ अर्थ उ० उपजे अ अर्थ उपजे सर्व मे स सर्व उपजे ज जैसे प २००० पहिला शतकका सातवा उद्देशा 08 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ बालब्रह्मगरी मुनि श्री अमालक भी कहना ॥॥ जी जीव भ भगवन् कि क्या व विग्रहगति स० प्राप्त • अवि. ग्रहगति स० प्राप्त गो० गौतमः सि० कदाचित् वि. विग्रहगति स० प्राप्त सि० कदाचितू अ० अविग्रहगति । स० प्राप्त ए. ऐसे जा. यावत वे बैमानिक ॥ ७॥ ने नारकी भं० भगवन किं. क्या वि० विग्रह-: भाणियव्वं ॥ एवं णाणतं, एवं सव्येवि सोलसदंडगा भाणियव्या ॥ ६ ॥ जीवेणं भते किं विग्गहगइ समायण्णए, अबिग्गहगइ समावण्णए ? गोयमाः सियविग्गह गइ समावण्गए, सिय आविग्गहगइ समावण्णए एवं जाव वेमाणिए॥ जीवाणं भंते । किं विग्गहगइ समावण्णगा, अविग्गहगइ समावण्णगा ? गोयमा ! विग्गहगइ समा घण्णगावि, अविग्गहगइ समावण्णगावि ॥ ७ ॥ नेरइयाणं भंते ! किं विग्गहगइ व चवण प्रायःगति पूर्वक होता है. इसलिये आगे गति का वर्णन कहते हैं. अहो भगवन् ! गति करते जीव क्या विग्रह गति में जाता है या अविग्रह गति से जाता है ? अमओ गौतम ! किसी समय जीव विग्रह गति से जाना है और किमी समय जीव अविग्रह गाने से जाता है. ऐमा वैमानिक तक का जानना अब बहुत जीव आश्री प्रश्न करते हैं अहो भगवन् ! बहुत जोर ग्रिह गतिवाले हैं या अविग्रह गतिवाले है ? विग्रहगतिवाले भी है और अविग्रहगतिवाले भी हैं ॥ ७ ॥ हो भगवन् ! क्या नारकी विग्रह । *प्रकाशा-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी जालाप्रसादी * भावार्थ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1 284 १७३ विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र गति स प्राप्त अ अविग्रहगति स प्राप्त गो गोतम स० सर्व ता० तैसे ही होवे ए. ऐसे जी. जीव ए. एकेन्द्रिय व० वर्जकर ति तीन भांग ॥ ८ ॥ दे. देव भं० भगवन् प० महाक म०ज्योतिवंत म०बलवंत म० यशस्वी म० महामुखी म०महानुभाव अ. नजदीक च० चवता किं. थोडाकाल हि० लज्जा दु० दुर्ग-ope समावण्णगा अविग्गहगइ समावण्णगा ? गोयमा ! सव्वेवि तावहोजा. अविग्गहगइ । समावण्णगा, अहवा अविग्गहगइ समावण्णगाय; विग्गहगइ समावण्णगेय, अहवा अविग्गहगइ समावण्णगाय विग्गहगइ समावण्णगाय एवं जीव एगिदिय । वज्जो तिय भंगो ॥ ८ ॥ देवेणं भंते : महड्डिए, महज्जुइए, महब्बले, महाजसे, महेसक्खे, महाणुभावे, अविउकंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरवत्तियं. दुगं. गति करनेवाले. हैं या अविग्रह गति करनेवाले हैं ? अहो गौतम ! नारकी में अविग्रहगतिवाले विशेष होने से अविग्रहगति में बहुवचन लीया है. और विग्रह गतियाले थोडे होवे अथवा न होवे इसलिये एक वचन लिया है. इस के तीन भांगे होते हैं १ नारकी में सब जीव अविग्रहगति संयुक्त २ अविग्रहगतिवन्त बहुत व विग्रहगतिवन्त एक ३ अविग्रह गतिवन्न बहुत व विग्रहगतिवन्त बहुत. ऐसे ही एकेन्द्रिय के पांच 80 दंडक छोडकर अन्य सब दंडक में उक्त तीनों भांगे पाते हैं. एकेन्द्रिय में विग्रहगतिवन्त व अविग्रहगति ... वंत बहुत होने से भांगा नहीं होता है ।। ८ ॥ अहो भगवन ! महर्दिक, महाद्युतिवन्त, महाबलवन्त, महा । पहिला शतक का साना उद्देशा भावार्थ 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ परीषह आ० आहार नो० नहीं आ० आहार करे आ- आहारकरे आ. आहा आ. आहार करे ५० परिणमता ५०परिणमे १० क्षीण आ० आयुष्य वाला भ० होवे जजहां उ० उपजे इत० उस आ० आयुष्य प०अनुभवे तं. उस ति तिर्यंच आयुष्य म मनुष्य आयुष्य गो. गौतम दे म० महाद्धक जा. यावत् म० मनुष्य आ० आयुष्य ॥ ९ ॥ जी. जीव भं० भगवन् ग. गर्भ में व०१ १७४ छावत्तियं, परिसह वत्तियं, आहारं नो आहारेइ, अहेणं आहारेइ आहारेजमाणे आहारिए,परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहीणेय आउए भवइ, जत्थ उववजइ, तमाउयं पडिसंवेदेइ तिरिक्ख जोणियाउयंवा, मणुस्साउयंवा ? हंता गोयमा ! देवेणं महड्डिए जाव मणुस्साउयं वा ॥९॥ जीवेणं भंते ! गम्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ, भावार्थ सुखवाले, व महानुभाव देवों चयन होने का समय पास आया हुवा जानकर माता पिता का क्रीडा स्थान देख लज्जा आन से, शुक्र शोणित का आहार की दुर्गच्छा आने से व पुगल ग्रहणरूप अरति परिषह. से . किंचिकालतक आहार करे नहीं परंतु चचे पीछे क्षुधा वेदनीय के उदय से आहार करे. ऐमा आहार लाये हुवे, परिणमाये हुवे व प्रक्षीण आयुष्यवाले देव मनुष्य तिर्यंच का आयुष्य क्या वेदे ? हां गौतम ! . ऐसा महर्दिक देव मनुष्य तिर्यंच का आयुष्य वेदे ॥ ९ !! गर्भ में उत्पन्न होने के कारन से गर्भ की अव अनुवादक-बालब्रह्मचारी मानि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वा सामसादजी* - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - उपजता किं० क्या स• सइन्द्रियपने व० उपजता है अ० अनिन्द्रियपने व० उपजता है गो० गौतम सि.और कदाचित् स० सइन्द्रियपने 40 उपजता है सि. कदाचिन अ अनिद्रियपने उपजता है से वह के० कैसे गो. गौतम द० द्रव्येन्द्रिय प. प्रत्यय अ. अनिन्द्रिय व उपजे भा० भाव इन्द्रिय ५० प्रत्यय स० सइ। न्द्रिय व उपजे से० वह ते० इसलिये ॥ १० ॥ जी० जीव भं० भगवन् ग० गर्भ में व० उपजता किंools अणिदिए वक्कमइ ? गोयमा ! सिय सइंदिए वक्कमइ, सिय अणिदिए वक्कमइ । से . केणटेणं ? गोयमा ! दबिंदियाइं पडुच्च अणिदिए वक्कमइ, भाविंदियाइं पडुच्च सइंदिए वक्कमइ से तेणटेणं ॥ १० ॥ जीवेणं भंते ! गभं वक्कममाणे किं सरीरी बक्कमइ, स्थान का प्रश्न पूछते हैं अहो भगान!गर्भ में उत्पन्न होता हुवा जीव क्या इन्द्रिय सहित उत्पन्न होता है अथवा इन्द्रिय रहित उत्पन्न होता है ?अहो गौतम ! क्वचित् इन्द्रिय सहित उत्पन्न होता है और क्वचित् इन्द्रिय रहित भी उत्पन्न होता है. अहो भगवन् ! किस कारन से जीव क्यचित् सइन्द्रियपने उत्पन्न होता। इक्वचित् आनेन्द्रियपने होता है ? अहो गौतम ! द्रव्य इन्द्रिय आश्रित अनिन्द्रिय उत्पन्न होता है क्यों कि निवृत्स्युपकरण रूप, स्पर्शन, रस, घाण, चक्षुः व श्रोतेन्द्रिय पर्याप्त हुवे पीछे होती है और भावेन्द्रिय आश्रित सइन्द्रिय होता है क्यों की ज्ञानरूप इन्द्रिय जीव को सदा काल रहती हैं. इसलिये अहो गौतम ! वाचत् इन्द्रिय सहित उत्पन्न होता है और क्वचित् इन्द्रिय रहित उत्पन्न होता है. ॥ १० ॥ इन्द्रिय Hঘাথ पहिला शतक का सातवा उद्दशा-4.28 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १७६ १.१ अनुबादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी क्या स० सशरीरी ३० उपजे. अ० अशरीरी २० उपजे गो० गौतम सि कदाचित् सः सशरीरी व उपजे ? * सि. कदाचित् अ० अशरीरी व उपजे से वह के० कैसे गो० गौतम ओ० उदारीक वे वैक्रेय आ० आहारक प० प्रत्यय अ० अशरीरी ते. तेजस क० कार्माण प. प्रत्यय म० सशरीरी ५० उपजे से वह ते० इसलिये ॥ ११ ॥ जी जीव भं• भगवन् ग० गर्भ में व• उपजता ५० प्रथम कं• कौनसा आ० असरीरी वक्कमइ ? गोयमा ! सिय ससरीरी बक्कमइ, सिय असरीरी वक्कमइ । सेके. गट्टेणं ? गोयमा ! ओरालिय वेउब्विय आहारयाई पडुच्च असरीरी वक्कमइ ! तैया कम्माइं पडुच्च ससरीरी वक्कमइ, से तेण?णं गोयमा ॥ ११ ॥ जीवेणं भंते ! गम्भं शरीर को होती है इसलिये शरीर का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव शरीरी उत्पन्न होता है ! अथवा अशरीरी उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! जीव क्वचिन् शरीरी उत्पन्न होता है और काचित् अशरीरी उत्पन्न होता है. अहो भगवन् ! किस कारण से ? अहो गौतम ! उदारिक वैक्रेय व आहारको इन तीनों शरीर की अपेक्षा से अशरीरी क्यों की ये तीनों शरीर एक स्थान से चयकर अन्य स्थान में उत्पन्न हुवे पीछे जीव को पाते हैं. गमन करते पार्ग में इन तीनों शरीर का अभाव है. तेजस व कार्माणई शरीर की अपेक्षा से सशरीरी उत्पन्न होते हैं क्यों कि ये दोनों शरीर जीव को संसार अवस्था में सदैव रहते हैं इसलिये ऐसा कहा गया है कि कदाचित् शरीर सहित और कदाचित् शरीर रहित उत्पन्न होना। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहा रजी ज्यालाप्रसादजी * भावार्थ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आहार आर आहारको गो गौतम मा: पाता का औधिर पि पिनाका मः वार्य न: उमर.. Gre दोना में मिलाहना क मलिन कि किल्वीपम्प : प्रथम आः पादार मा. आहारकरे । जी जीव भ. भगवन् गः गर्भ में ग• गयावा कि क्या आ. पाहा आ. आहारको गा० गीतम नं: जो मा० माता ना नानाप्रकार २० रस वि-विक्रति आ. आहारकर नः उस का ए. एकदा दश ओर ओज आ• आहारकर ।। जी जीव का भं. भगाल ग. गर्भ य ग उत्पन्न हवा है उ है वकममाणे तपढमयाए कमाहाग्माहार ? गोयमा ! माउआय पिउ नवं तं तदभय संसिटुं कलुसं किब्धिसं, तप्पटमयाए आहारमाहारइ ॥ १२ ॥ जीवणं भंते ! गब्भगए समाणे किं आहारमाहारइ ? गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ रसविगई? आहारेइ तदेगदेसेणय ओय माहारेइ ॥ १३ ॥ जीवस्सणं भंते ! गम्भगयम्म है. ॥ ११ ॥ शरीर आहार से होता है इसलिये आहार का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता जीव पहिलाहि क्या आहार करता है ! अहो गौतम ! माता का ऋतुकाल संबंधी रुधिर ३ पिना का वीर्य यह दोनों परसर मिलने से किल्विप रूप बने हुवे पुद्गलों का आहार जीव प्रथम करता है । अहा भगवर : गर्भ में रहा हुवा जीव किन का आहार करना हे ! अहो गौतम ? गर्भवती स्त्री दुग्ध वृता-T दिक का जो आहार करती है और उस का जो रस होता है उस में से एक देश ( कुच्छ थोडा विभाग) पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) मृत्र - पहिला शना का सातवा उदशा g> भावार्थ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहाथ विडीनीत पा लपनीत खे: थूक मिश्लप्म वमन पि० पित्त गो० गौतम नो नहीं इ. यह अर्थ स. समर्थ से• वह के० कैसे गो. गौतम जी० जीव ग. गर्भ में ग• गयाहुवा जं. जो आ० आहार करता है सं० उसको चि० इकठा करता है ते. उसको सो० श्रोतेन्द्रियपने जा. यावत् फा० स्पर्शेन्द्रियपने अ०१ हहि अ० हड्डिकीजिंजी के केश मं०३मश्र रो रोम ननखपने से वह ते ०इसलिये ॥ १४ ॥ जी०जीव भं मत्र समाणस्स अत्थि उच्चारेइवा, पासवणेइवा, खेलेइवा, सिंघाणेइवा, वतइया, पित्तेइवा ? । गोयमा ! णोइण? समटे. ! से केणटेणं ? गोयमा ! जीवेणं गभगए समाणे ११ जमाहारेइ तं चिणाइ, तं सोइदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए, अट्ठि अट्रिमिंज केस मंसुरोम नहत्ताए से तेणटेणं ।। १४ ॥ जीवेणं भंते ! गब्भगए समाणे पभमुहेणं का ओज आहार करता है. ॥ १३ ॥ जहां आहार होता है वहां निहार होता है इसलिये निहार संबंधि भावाथे प्रश्न करते है. अहो भगवन् ! गर्भ में रहा हुचा जीव को वडीनीत, लघुनीन खेकार, श्लेष्म, वमन , व पित्त क्या होता है ? अंडी गौतम ! गर्भ में रहे हुवे जीव को यह नही होता है. अहो भगवन् ! ऐमा होने का क्या कारण है . अहो गीतम: गर्भ में रहा हुवा जीव जो आहार करता है वह सब आहार लश्रोत्रेन्द्रियादि पांचो इन्दियपने, हड्डी हड्डी की मिजी, केश, मश्र रोम व नखपने परिणमता है इसलिये उन जीवों को लघुनीत वहीनीत वगरह नहीं होते हैं ॥१४॥ अहो भगवन् ! गर्भ में रहा हवा जीव क्या marriamernama Po" अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-गाजावहादूर लाला मुखदेवमहायजी चालाप्रमादजी * Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह गति ( भगवती ) मूत्र भगवन गर गर्भ में उत्पन्न मु {इ० यह अर्थ स० समर्थ से मुखसे का कवल आ० आहार आ आहार करे गो० गौतम नो नहीं है. वह के० कैसे गो० गौतम जी जीव ग० गर्भ में उपजा स० सर्व तरफ से आ० आहारकरे प० परिणने उ० ऊश्वासले नि० निश्वासले अ० वारंवार आ आहारकरे पं० प रिणमे उ० ऊश्वासले नि० विश्वासले आ० कदाचित् आ० आहार करे प० परिणमे उ० ऊश्वासले (नि० निश्वासले मा माताका जीव र० नाभिनाल पु० पुत्रका जीव २० नाभिनाल मा० माता का कावलियं आहारं आहारितए ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । सेकेणट्टेणं ? गौयमाजीवेणं गब्भगए समाणे सव्वओ आहारेइ, सव्वओ परिणामेइ, सव्वओ उस्ससइ, सव्वओ निस्ससर अभिक्खण आहारेइ अभिक्खणं परिणामेइ अभिक्खणं उस्ससइ अभिक्खणं निरससइ, आहच्च आहारेइ आहच्च परिणामेइ, आहच्च उस्ससइ, आहच्च निस्ससइ, माउ जीव रसहरणी पुत्तजीव रसहरणी माउ जीव पडिबद्धा पुत्तजीव कवल का आहार कर सकता है ? अहो गौतम ! यह अर्थयोग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से ! अहां गौतम ! गर्भ में रहा हुवा जीव सब आत्मा से आहार करता है, परिणमाता है, उश्वास लेता है, नीश्वास लेता है, वारंवार आहार करता है, वारंवार परिणमाता है, वारंवार श्वासोश्वास लेता है, अथवा ? क्वचित् अहार करता है, परिणमाता है व श्वासोश्वास लेता है. गर्भवती स्त्री को नाभीस्थान में रसहरणी नामक एक नाडी नली रूप होती है. वह नाली गर्भस्थ जीव को स्पर्शकर रहती है. उस से वह जीव ० पहिला शतकका सातवा उद्देशा १७९ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारामुनि श्री अमोलक ऋषिजी में जीव ५० प्रतिवद्ध पुः पुत्रका जीव फु० स्पशी हुवा तः इसलिये आ० आहार कर प. परिणम व अथ. वा पु. पुत्रका जीव ५० प्रनिबद्ध मा०माता का जीव से फु० स्पर्शा हुवा तः इस लिये चिचिने उ० उपचेने से• वह ते. इमलिये जा: यावत् नो० नहीं मु, मुख से का. कवल आ. आहार आ. आहार करे ॥ १५॥ क. कितने भ० भगवन मा० माता के अंग गो० गौतम त तीन मा० माता के अंग प. प्ररूप में मास सो काधर म० मस्तक ॥ १६ ॥ क. कितने भं. भगवन पे० पिता के फुडा, तम्हा आहारइ, तम्हा परिणामेइ, अविरावियणं पुत्तजीव पडिबदा माउजीव फुडा तम्हा चिणाइ, तम्हा उवचिणाइ. से तेणटेणं जाव नो पभ मुहणं कावलियं, आहारं आहारित्तए ॥ १५ ॥ कइणं भंते ! माइअंगा पग्णत्ता ? गायमा ! तओ माइयगा पण्णता तंजहा मंससोणिए मत्थलंग ॥ १६ ॥ कणं भंते ! पेइयंग! प. आहार करता है और शरीर में परिणमाना है. दुमरी पुत्रजीवरमहरणा नाडी पुत्रक जीव की माय बंधी हुई व माता की साथ स्पर्शी हुई है. इस से गर्भस्थ जीव के शरीर की वृद्धि होती है. इसीसे अहो गौतम ! कवल आहार लेन को गर्भस्थ जीव नहीं ममर्थ होता है ॥१५॥ अहो भगवन ' माता के कितने अंग कह हैं ? अहो गौतम : माता के तीन अंग कहे हैं. माम. रुधिर व मस्तक की मीजी फे.फसा अथवा कलेजा मा भी अर्थ कितनेक करते हैं. ॥ १६ ॥ अहो भगवन : पिता के कितने अंग है अहो गौतम: * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी नालाप्रमादनी * भावार्थ - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अंग गो गौतप तक तीन पें पिता के अंग अष्टि अहडिकीमिंज के केश मं-मश्रु रो रोमन नख॥१॥ अ० माता पिता का भं भगवन् सशरीर के कितना का काल सं० रहे गो गौतम जा. जितना काकाल भ० भवधारणीय स० शरीर अनाश न पामे ए• इतना का. काल सं० रहे अ. अब स०ममय २ में वो. हीन होता च० चरिम का काल म समय में वो नाश भ० होघे ॥ १८ ॥ जी. जीव भं० भगवन * १८१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति भगवती पणत्ता ? गोयमा ! तओ पेइयंगा पण्णता तंजहा अहि, आहमिंजा, केसमंसुरोमनहे ॥ १७ ॥ अम्मा पेइएणं भंते ! सरीरए केवइयं कालं सचिट्ठइ ? गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिजे सरीरए अब्वावण्णे भवइ, एवतियं कालं संचिट्ठइ. अहेणं समए समए वोयसिजमाणे चरिम काल समयसि वोच्छिण्णे भवइ ॥ १८ ॥ जीवेणं पहिला शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ शरीर में पिता के तीन अंग होते हैं. १ अस्थि, २ अस्थि की माजी केश श्मश्रु रोम व नख. ॥१७॥ अहो गवन् ! माता व पिता के अंग जीव की साथ कितने काल तक सम्बन्ध रखते हैं. ? अहो गौतम : जहांलग मनुष्यादिक का भवधारणीय शरीर विनाश होवे नहीं वहां लग माता व पिता के अंग रहते हैं. अर्थात् शरीर का विनाश होनेपर इन अंगों का भी विनाश होता है. जिस समय से माता व पिता के * अंगों संबंधी आहार ग्रहण किया था उस समय से लगाकर प्रति समय क्षीण होते २ अन्तिम काल 488 -dig Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ग. गर्भ में ग० रहाहवा ने नरक में उ० उत्पन्न होरे गो० गौतम अ० कितनेक उ० उत्पन्न होवे अ० कितनेक नोर नहीं उ० उत्पन्न होवे से वह के० कैसे गो० गौतम स० संजीपंचेन्द्रिय स. सर्व प. प. प्तिसे प० पर्याप्त वी. वीर्यलब्धिसे वे० वैक्रेयलब्धिमे प. शत्रुसैन्य आ० आया हुवा सो सुनकर नि० अवधारकर प० प्रदेश नि. बहार निकाले वे वैक्रेय समुद्घात से स० ग्रहण करे स० ग्रहण करके सत्र 80 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ___ भंते गब्भगए समाणे नेरइएसु उवजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्थे__ गइए नो उववज्जेजा। सेकेणटेणं ? गोयमा ! सेणं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहि पजत्तीएहिं ___ पजत्तए वीरियलबीए, वेउन्धिय लडीए पराणियं आगयं सोचा निसम्म पएसे नि. * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ नष्ट होजाते हैं. ॥ १८ ॥ अब गर्भस्थ जीव कदाचित् गर्भ में ही काल अवस्था को प्राप्त होवे तो कहां पर उत्पन्न होता है उस संबंधी प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! गर्भस्थ जीव आयुष्य पूर्ण होने से कालकर क्या नरक में उत्पन्न होते हैं ! अहो गौतम ! कितनेक जीव नरक में उत्पन्न होते हैं और कितनेक नरक में नहीं उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! किस तरह से गर्भस्थ जीव नारकी में उत्पन्न होते हैं। अहो गौतम : कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव राणी की कुक्षि में उत्पन्न होवे अर्थात् गजपुत्र होवे. वहां उन को पूर्ण पर्याय बांधकर पर्याप्ता हुवे पीछे पूर्व करणी के प्रभाव से वीर्य लब्धि व वैकेय लब्धि की प्राप्ति होवे. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 31 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 88 चा. चतुरंगी से० मैन्य वि० विकु वि०विकुर्व कर चा० चतुरंगी से• सैन्य से ५०शचु शैन्य की स०साथ सं. संग्राम सं० संग्राम करे से वह जी. जीव अ० अर्थ का इच्छक र० राज्य का इच्छक भो० भोग की इच्छा वाला का० काम की इच्छा वाला अ०अर्थ की कांक्षा वाला र०राज्यकी कांक्षा वाला भोग भोगकी कांक्षा वाला का काम की कांक्षावाला अ०अर्थ पिपासु र राज्य पिपासु भो भोग पिपासु का काम पिपासु त.उसमें चित्त बाला म. मन वाला ले. लेश्या वाला अ० अध्यवसाय वाला तितीव्र आरंभ वाला अ० च्छुभइ,वेउन्विय समुग्धाएणं समोहणइ,समोहणइए चाउरंगिणीए सेणाए विउव्वइ, विउव्य । इत्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिंसंगामं संगामेइ, सेणं जीवे अत्थ कामए, रज्जकामए, भोग कामए, कामकामए, अत्थकंखिए, रजकंखिए, भोगकखिए, काम वह गर्भस्थ जीव ऐसी बात सुने की परचक्री की सेना आई है और अपन को दुःखी करेगी. ऐसी बात सुनकर, अवधारकर जीव के प्रदेश गर्भ की बाहिर नीकाले और वैक्रेय ममुद्घात से तथाविध पुद्गलों को ग्रहण कर हाथी, घोडे, रथ, पायदल वगैरह सेना की विकुवर्णा करे, विकुर्वणा करके परचक्री की सेना साथ संग्राम करे. ट्रव्य की अभिलाषावाला राज्यऋद्धि की अभिलाषावाला, गंधरम स्पर्शरूप भोग 26 की अभिलाषावाला, शब्द रूपादि कामकी अभिलाषावाला, धन की इच्छा से आसक्त बनाहुवा, राज्य, भोग, व काम की इच्छा से आसक्त बना हुवा. धन, राज्य, भोग व काम का पिपासु, [अतृप्त, तन्मय २०१8०342 पहिला शतक का सातवा उद्देशा 4248 भावार्थ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ १०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अर्धयुक्त अ रहावा करण भ० भावना मं० भावता ए० इन अं० अंतर में का काल कर करें ने० नरक में उ० उत्पन्न होवे से० यह ते? इस लिये गो० गौतम जा० यावत् अ० कितनेक नो० उ० उत्पन्न होवे ॥ १९ ॥ जी० जीव भ० भगवन् ग गर्भ में ग० रहाहुवा दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे गो० गौतम अ० कितनेक उ० उपलन होवे अ० कितनेक नो० नहीं उ० उत्पन्न होवे से० वह के० नहीं कंखिए, अत्थ पिवासिए, रज्जपिवासिए भोगपिवासिए काम तम्मणे, तल्लेस्ते, तदज्झसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते, तदभावणा भाविए एयंसिणं अतरंसि कालं करेजा नेरइएसु तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए नो उववजेज्जा ! १९ ॥ जीवेणं भंते ! समाणे देवलोगेसु उबवजेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उब पिवासिए, तच्चित्ते, तदप्पिय करणे उववजइ । से गब्भगए बनाहुत्रा, तीन अशुद्ध लेश्या से ध्यानयुक्त, काम भोगों की भावना भावता हुवा व करण करावण व अनु(मोदन रूप अध्यवसाय की प्रबलता करता हुवा वह जीव यदि उसी समय काल कर जावे अर्थात् आयुष्य पूर्ण कर के चत्रे तो वह नरक गतिम उत्पन्न होवे इसलिये अहो गौतम! कितनेक जीव नरक में उत्पन्न होते हैं। और कितनेक नहीं होते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! गर्भ में रहा हुवा जीव यादे आयुष्य पूर्ण कर जाये तो क्या देवलोक में उत्पन्न होता है ? अ गौतम ! कितनेक जीव देवलोक में उत्पन्न होते हैं और * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १८४ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 कैसे गो. गौतम स० संज्ञी पं० पंचेन्द्रिय स मर्व प० पर्याप्ति से १० पर्याप्त त. तथारूप सः श्रमण ईमा माहण की अं0 पाम ए. एक आ० आर्य ध• धर्म का सु० अच्छा वचन सो० सुनकर नि० अवधारकर त० पीछे भ होवे सं० वैराग्य से उ• उत्पन्न स० श्रद्धा ति० तीत्र ध० धर्मानुराग २० रक्त जी० जीव ध० धर्म का कामी पु. पन्य का कामी स. स्वर्ग का कामी मो. मोक्षका कामी ध. धर्म १८५ ) सूत्र womanा १ वजेजा, अत्थेगइए णो उववजेज्जा । सेकेणटेणं ? गोयमा ! सेणं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहिं पजत्तीहिं पजत्तए तहास्वरस समणस्सवा, माहणस्सवा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म तओ भवइ संवेगजायसढे तिव्वधम्माणुराग रत्ते, सेणं जीवे धम्मकामए, पुण्णकामए, सग्गकामए, मोक्खकामए; धम्मकंखिए, भावार्थ ईकितनेक जीव देवलोक में नहीं उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से कितनेक जीव देवलोक में है उत्पन्न होते हैं और कितनेक जीव देवलोक में नहीं उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! कोई जीव धर्मिष्ट { 0 स्त्री की कुक्षि में संज्ञी पंचेन्द्रियपने उत्पन्न हुवा. वहां पूर्ण पर्याय बांधकर पर्याप्त हुवे पीछे तथारूप श्रमण माहण की पास एकान्त आर्य धार्मिक वचन श्रवण कर, अवधारकर संवेग से धर्मादि में श्रद्धावन्त हुवा व 10 तीन धर्मानुराग से रक्त वनगया. फीर वह श्रुत चारित्र रूप धर्म का अभिलाषी बनाहुवा, पुण्य का पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती wamanaamannanor 3. पहिला शतक का सातवा उद्देशा 89480 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * का कांक्षी पु० पुन्य का कांक्षी स० स्वर्ग का कांक्षी मो० मोक्ष का कांक्षी ध० धर्म पि० पिपासु पु० पुन्य पिपासु स० स्वर्ग पिपासु मो० मोक्ष पिपासु त० उस में चित्त वाला म० मनवाला ले० लेश्या वाला अ० अध्यवसाय वाला अ० अर्थयुक्त अ० अर्पित करण बाला उ० उस भा० भावना से भा० भावता ए० इस अं० अंतर में का० काल क० करे दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे से० वह ते इस लिये गो० गौतम } ॥ २० ॥ जी० जीव मं० भगवन् ग० गर्भ में ग० गया हुवा उ० उलटा होवे पा० पसली जैसे अं० आम्र पुण्णकंखिए, सग्गकंखिए, मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए, पुण्णापवासिए, सग्गपितासिए, मोक्खपिवासिए, तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे तदज्झवसिए, तदट्टोवउत्ते, तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, एयंसिणं अंतरंरांस कालं करेजा देवलोएस उववज्जइ सेट्टेणं गोयमा ॥ २० ॥ जीवेणं भंते गब्भगए समाणे उत्ताणएवा, पासल्लाएवा कामी, स्वर्ग का कामी व मोक्ष का कामी; धर्म, पुण्य, स्वर्ग व मोक्षका कांक्षी; धर्म, पुण्य, स्वर्ग व मोक्ष का पिपासु, धर्मादिमें तथा प्रकारका चित्तवाला, तन्मय, तीनशुभ लेश्यावन्त, वैसेही अध्यवसाय युक्त, उस अर्थ { प्रयोजन युक्त, उसी अर्थ में आत्मा को अर्पण करनेवाला व वैसा भाव को चिन्तवनेवाला यदि उसी समय काल कर जावे तो देवलोक में देवतापने उत्पन्न होता है. इस कारन से अहो गौतम ! कितने क जीव देवलोक में उत्पन्न होते हैं और कितनेक जीव देवलोक में नहीं उत्पन्न होते हैं ॥ २० ॥ अब १८६ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | १० फल जैसे अ० होवे चि० खडारहे नि० बैठे तु० सोवे मा० माता सु० सोती होवे मु० सोवे जा० जगती । होवे जा० जगे सु० सुखी होती सु० सुखी होवे दु० दुःखी होती दु० दुःखी होवे हैं. हां गो० गौतम जी० जीव ग० गर्भ में ग० गया हुवा जा० यावत् दु० दुःखी होते दु० दुःस्वी भ० होवे ॥ २१ ॥ १०१ प्रसन्न का० अवसर में सी० मस्तक से पा० पावसे आ० आवे स० सीधा आ० आवे ति• तिर्छा आ० अंबखुजएवा, अच्छेजवा, चिटेजवा, निसीएजवा, तुयटेजवा; माऊए सुयमाणीए सुयइ, जागरमाणीए जागरइ, सुहियाए सुहिए भवइ, दुहियाए दुहिए भवइ ? हंता गोयमा ! जीवेणं गभगए समाणे जाव दुहियाए दुहिए भवइ ॥ २१ ॥ अहेणं पसवण काल समयंसि सीसेणवा, पाएहिंवा आगच्छइ, सममागच्छइ, तिरिय मागजीव किस प्रकार गर्भ में रहता है और गर्भ से नीकले पीछे करणी के फल किस तरह प्राप्त करता है वह बतलाते हैं. अहो भगवन् ! गर्भ में रहा हुवा जीव क्या उत्तान - छत्राकार रहता है, एक पसली की, तरह पड़ा रहता है, आम्र फल की तरह उत्कट आसनसे रहता है, ऊर्ध्व स्थान बैठा रहता है, खडा होता है, बैठाहोता है, शयन करता है, जब उस की माना शयन करती है तब सोता है, माता जगती है तब जागृत होता है,माता सुखी तो वह मुखी रहता है, और माता दुःखी रहनेपर क्य दुःखी रहता है? हां गौतम ! गर्भ में रहनेवाले जीव को उक्त सब क्रियाओं होती हैं. ॥ २१ ॥ अब जब प्रसवन काल | 4848 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 4882 Arwwwmnnnnnnnn 88.. पहिला शतकका सातवा उद्दशा 88 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૮ शब्दार्थे 4 आवे वि विनाश आ० पावे व० वर्ण व वध्य क० कर्म ब० बांधे हुवे पु. स्त” हुवे णि निकाचित * बांधे क. कीये ५० स्थापे अ० तीव्र स्थापे अ० सन्मुख आये उ० उदय आये णो नहीं उ. उपशांत हुवे दु० कुरूप दु० खराववर्ण वाला दु० दर्गंधी दु० खराबर स वाला दु० खराब स्पर्श वाला अ० अनिष्ट अ० अकान्त अ० अप्रिय अ० अशुभ अ० अमनोज्ञ अ० अमनाम ही० होनस्वर वाला दी० दीनस्वर च्छइ, विणिहाय मावजइ, वण्णवज्झाणिय से कम्माई बढाई, पुट्ठाई, णिहित्ताई, कडाइं. पट्टवियाई, आभिनिविट्ठाई, आभिसमण्णगयाइं उदिण्णाई, णोउवसंताई भवति, तओ भवइ, दुरूवे, दुवण्णे, दुग्गंधे, दुरसे, दुफासे, आणिढे, अकंते, अप्पिए, असुभे, अमणुण्णे, अमणामे, हीणरसरे, दीणरसरे आणि?स्सरे, अकंतरसरे आप्पयस्सरे,असुभस्सरे, भावार्थ प्राप्त होता है तब कितनेक जीव मस्तक से नीकलते हैं, और कितनेक पांव से नीकलते हैं, अथवा माता व जीव दोनों की घात न होवे वैसे नीकलते हैं, और अशुभ कर्मोदय से कदाचित तिर्छा होजाता है तो नीकलन वनकालने के अभाव से मत्य को प्राप्त होजाता. अब गर्मनीकले बाद जो होता है सो कहते हैं। जिनोंने पूर्व भव में पापाचरण व अयोग्य कर्तव्य से निकाचित कर्मों का बंध किया है वैसेही जिन को मनुष्य तिर्यंचादि गति, पंचेंद्रियादि जाति, सादि नामकर्म से व्यवस्थापित किये, तीन अनुभाव से स्थापित किये, 17 उदय सन्मुख हुवे, स्वतः की उदीरना से उदय में आये और उपशान्त न हुवे, उन को अशुभ वर्ण, गंध, अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *680* भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र अ० अनिष्टस्वर अ० अनादेय वचन वाला प० उत्पन्न भ० होवे व० वर्ण व० वध्य क० कर्म नो नहीं १० बंधेहुवे प० प्रशस्त ने जानना. जा० यावत् आ० आदेय वचन वाला प०. उत्पन्न भ० होवे से वह ए. ऐसे भं० भगवन्. ॥ १ ॥ ७ ॥ x अमणुण्णसरे, अमणामस्सरे, अणाएजवयणं, पञ्चायाएवि भवइ, वण्णवज्झाणिय, से कम्माइं नोबद्धाई पसत्थं णेयव्वं जाव आदेजवयणं पञ्चायाएवि भवइ ॥सेवं भंते भंतेत्ति पढमे सए सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ ७ ॥ * रस, स्पर्श होवे. उन को सब संयोग अनिष्ट, अकान्त, अमिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमणाम होवे. वैसे ही वह जीव हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अप्रियस्वर, अशुभस्वर, अमनोज्ञस्वर, अमनामस्वर व अनादेय वचनवाला होवे अर्थात् उन का वचन किसी को माननीय होवे नहीं. यह अशुभ कर्म का फलकहा और a. जिनोंने अशुभ कर्म नहीं किये हैं और धर्माचरण से शुभ कर्म की उपार्जना की है उन को शुभ फलका उदय होते वेशुभ वर्ण, गंध, रस व स्पर्शवन्त हावे. वैसे ही प्रियकारि, शुभ मनोज्ञ व सब मान्य करे ऐसे अच्छे संयोग मीले. सब में माननीय पूजनीय होवे और सब प्रकार के मुख भोगवे. यह सब पुण्य फल । जानना. अहो भगवन् ! आपने जो प्रतिपादन किया है वह सत्य है. यह पहिला शतक का सातवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १ ॥७॥ पहिला शतक का माता उद्देशा 9 388 80 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ए० एकान्त बा० अज्ञानी भं० भगवन् म० मनुष्य किं० क्या ने० नारकी का आ• आयुष्य ५० बांधे ति० निर्यंच का आ० आयुष्य प० बांधे म० मनुष्य का आ० आयुष्य प० बांधे दे० देव का आ० आयुष्य प० बांधे {ने० नारकी का आ० आयुष्य कि० करके ने० नरक में उ० उपजे ति० तिर्यच का आ० आयुष्य कि० { करके ति० तिर्यच में उ० उपजे म० मनुष्य का आ० आयुष्य कि० करके म० मनुष्य में उ० उपजे देव का आ० आयुष्य कि० करके दे० देवलोक में उ० उपजे गो० गौतम ए० एकान्त वा० अज्ञानी म० मनुष्य दे० सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गंत बाणं भंते! मणूसे किं नेरइयाउयं पकरेइ, तिरिआउयं पकरेइ, मणुआउयं पकरेइ, देवाउयं पकरेइ, नेरइयाउयं किच्चा नेरइएस उववज्जइ, तिरियाउयं किचातिरिए उववज्जइ, मणुयाउयं किच्चा मणुएस उववज्जइ, देवाउयं किच्चा देव सातवे उद्देशे में गर्भ की वक्तव्यतां कहीं. गर्भ आयुष्य से होता इसलिये आगे आयुष्य संबंधि प्रश्न { करते हैं. अहो भगवन् ! एकान्त बाल ( मिथ्यात्वी ) मनुष्य क्या नरक के आयुष्य का बंध करता है, मनुष्य के आयुष्य का बंध करता है, तिर्यंच के आयुष्य का बंध करता है, या देव के आयुष्य का बंध करता है ! और नरक के आयुष्य का बंध कर के क्या नरक में उत्पन्न होता है, तिर्यच के आयुष्य का (बंध कर के तिर्यच में उत्पन्न होता है, मनुष्य के आयुष्य का बंधकर के मनुष्य में उत्पन्न होता है या देव * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १९० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्र भावार्थ {० नारकी का आ० आयुष्य प० बांधे ति० तिर्यच म० मनुष्य दे० देव भा० आयुष्य प० बांधे ने० नारकी का आ० आयुष्य कि० करक ने नरक में उ० उत्पन्न होवे ति० निर्यच म० मनुष्य दे० देव आ० आयुष्य कि० करके दे देवलोक में उत्पन्न होवे || १ || ए० एकान्त पं० पंडित भं० भगवन् म० मनुष्य किं० क्या ने० नारकी का आ० आयुष्य प० बांधे जा० यावत् दे० देव का आ० आयुष्य कि० करके दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे गो० गौतम ए० एकान्त पं० पंडित म० मनुष्य आ आयुष्य लोएस उववज्जइ ? गोयमा ! एगंत बालेणं मणुस्से नेरइयाउयं पिपकरेइ, तिरिमणुदेवापि पकरेइ, । नेरइयाउयंपि किच्चा नेरइएस उववज्जइ, तिरिमणुदेवायं किदेव उवजइ ॥ १ ॥ एगंत पंडिएणं भंते! मणुस्से किं नेरइयाउयं पकरेइ, जाव देवायं किच्चा देवलोएसु उववज्जइ ? गोयमा ! एगंत पंडिएणं मस्से आउ के आयुष्य का बंध कर के देवलोक में उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! एकान्त बाल मनुष्य नारकी, तिर्यच मनुष्य व देवता के आयुष्य का बंध करता है वैसे ही नारकी, तिर्यच मनुष्य व देवता के आयुष्य बंध 1610 कर नारकी, तिर्यच, मनुष्य व देवता में उत्पन्न होता है. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! एकान्त पंडित मनुष्य क्या नरक, तिर्यच, मनुष्य व देवता के आयुष्य का बंध करता है ? और नरक का आयुष्य बांध कर नरकमें } उत्पन्न होता है यावत् देवता का आयुष्य वांधकर देवता में उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! एकान्त 48 पंचांग विवाह पण्णति ( भवगती ) सूत्र +++ पहिला शतक का आठवा उद्देशा 4 १९१ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ १९२ • अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सिः कदाचित प. बांधे मि. कदाचित् नो० नहीं १० बांधे ज० यदि प. वांधे नो नहीं णः नारकी का आ- आयध्य एक बानो नहीं तितियच का आ. आयुष्य प. बांये नो० नहीं म. मनुष्य का आ. आयच्य पवनदे० देवता का आ. आयप्य प. बांधे जो नहीं ने नारकी का आ० आयष्य कि० करके ने नरक में उ० उत्पना होवे जो नहीं लि. तिथंच नोनहीं म मनुष्य दे० देव का आ. आयप्य कि करके देदेवता उ. उत्पन्न होरे मे. वर के कैसे जा. यावत् द. देवका यंसिय पकरेइसियणोपकरेइ। जइ पकरइ णोणेरइया उयं पकग्इ णा तिरियाउयं पकरेइ णो मणयाउयं पकरइदेवाउयं पकरेइणो नेरइयाउयं किन्चाइएम उववजइ, णोतिरि नोमण देवाउयं किच्चा देवेस उवजय । संकपाटेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजइ ? गोयमः ! एगंत पांडयम्सणं मणस्सस्स केवलमेव दोगईओ पण्णायंति तंजहा-अंतपंडित मनष्य किसी ममय आयय का बंध करता है और किसी ममय आयप्य का धंध नहीं करता है. जव आयुष्य का पंधकरता है, नन नरक निर्यच व मनप्य का आयुप्य नहीं बांधता है और वहां नहीं उत्पन्न होता हे परंतु मात्र देवगति का आयुप्य बांधता है और यहां उत्पन्न होता है. अहो भगवन ! किस कारन मे एकान्न पंडित नरक निर्थ वन मनुष्य का आयज्य नहीं बांधता है यावत् देवता का आयुष्य बांधकर देवता में उत्पन्न होता है ? अहो गीतम एकान पंडित पाय को केवल दो गति कही. १ मव कमों का अंत करना मो अंतक्रिया और समस्त कर्म भय नहीं बोने मे व पुण्य की वृद्धि होने मे प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 08:03 पण्णत्ति (भगवसी) मूत्र आयुष्य कि० करके देदेवलोक में उ० उत्पन्न होवे गो: गौतम ए. एकान्त पं. पंडित म. मनुष्य को के. मात्र दो० दोगनि प० कही है अं० अंतक्रिया क. कल्पोत्पन्न से वह ते. इस लिये जा. यावत् दे देवता का आ० आयुष्य कि० करके दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे ॥२॥ बाबाल पंडित भं० भगवन् म. मनुष्य किं० क्या ने नारकी का आ. आयुष्य प. बांधे जा. यावत दे देवता का आ. आयुष्य कि० करके दे० देवता में उ० उत्पन्न होवे गो० गौतम णो नहीं ने नारकी का आ०, आयुष्य प० बांधे जा० यावत् दे० देवता का आ० आयुष्य कि० करके दे. देवता में उ० उत्पन्न किरिया चेव, कप्पोक्वत्तिया चेव; से तेणटेणं गोयमा ! जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजइ ॥ २ ॥ बाल पंडिएणं भंते ! मणसे किं नेरइयाउयं पकरेइ, जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा ! णो णेग्इयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ । सेकेण?णं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा ! बालवैमानिक दवलोकमें उत्पन्न होवे ऐसी दागति कही. इसलिये अहो गौतम ! एकान्त पंडित मनुष्य देवगति के आयुष्य का बंधकर देवगति में उत्पन्न होता है. ॥ २॥ अहो भगवन् ! बाल पंडित (श्रावक ) मनु क्या नारकी का आयुष्य यावत् देवता का आयुष्य बांधकर देवता में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! वाल पंडित मनुष्य नारकी का आयुष्य बांधे नहीं, तिर्यंच का आयुष्य बांधे नहीं, मनुष्य का आयुष्य पहिला शतक का आठया उद्देशा भावार्थ पंचमाङ्ग Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 65 अनुवादक वालह्मचारी मनि श्री अशोक ऋषिजी ईमे० वह के० कैसे जा० यावत् दे० देवता का आ० आयुष्य कि० करके दे देवता में उ० उत्पन्न होने गो- गौतम बा० श्रावक त० तथारूप स० श्रमण मा० माहण की अं० पास ए० एक आ० आर्य ध० धर्म का सु० सुवचन सो० सुनकर नि० अवधारकर दे० देशसे उविरमे दे० देशसे नो० नहीं उविरमे (दे० देश प० प्रत्याख्यान करे दे० देश नो० नहीं प० प्रत्याख्यान करे ते० इस लिये दे० देश विरति से दे० देश प्रत्याख्यान से नो० नहीं ने० नारकी का आ० आयुष्य प० बांधे जा० यावत् दे० देवता का आ० अयष्य कि० करके देव देवता में उ० उत्पन्न होवे || ३ || पु० पुरुष मं० भगवन् क० कच्छ द० पंडणं मणुस्से तहारूवरस समणस्सवा, माहणरसवा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुबयणं सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ; देतं पच्चक्खाइ, देसं णो पच्चक्रखाइ से तेण देसोवरमइ, देसपच्चक्खाणेणं णो णेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवे उपवज्जइ । से णट्टेणं जाव देवेसु उववज्जइ ॥ ३ ॥ पुरिसेणं भंते ! कच्छंसिबांधे नहीं परंतु देवता का आयुष्य बांधकर देवता में उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! किस कारन से वाल पंडित मनुष्य देवता का आयुष्य बांधकर देवता में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! बाल पंडित मनुष्य तथा रूप अन माह की पालने एकान्त आर्यधर्म श्रवणकर अवधारकर देश से निवर्ते, देश से निवर्ते नहीं, देश मे प्रत्याख्यान करे, देश से प्रत्याख्यान करे नहीं; इस तरह देश से निवर्तने से व प्रत्याख्यान करने से * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १९४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र -%%82 द्रह उ० पानी द. द्रव्य व वलय णू० गुप्तस्थान म० गहन वि० विपम प० पर्वत प० पर्वत वि. विषम स्थान व वन व वनविषम स्थान मि. मृगवृत्ति वाला मिः मृगकल्प वाला मि० मृगकेवध का अध्यवसायी मि• मृग व० वधकरने को गं० गया हुवा जि० ग त्ति ऐसा का० करके अ० अन्य कोई मि. मग २० मारने को कू० कूटपाश उ० बनावे तर भ० भान से० र पुरुष को क. कितनी कि०० क्रिया गो० गौतम सि. कदाचित् ति ती क्रिया पार किया पं० पांचक्रिया से० वह के० कैसे भं० वा दहंसिवा, उदगंसिवा, दपियंतिवा, बललिवा, नसिवा, गहणंसिवा, गहण विदुग्गंसिवा, पव्वयंसिवा, पव्यय विदुग्गंसिवा, वणसिवा, वणविदुग्गसिवा, मियवित्तीए मियसंकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंताए एमिएत्ति काओ, अण्णयरस्समियवहाए, कूडपासं उडाइ । तओणं भंते ! से पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, नारकी, तिर्यंच व मनुष्य का आयुष्य बांये नहीं परंतु देवता का आयुष्य बांधकर देवता में उत्पन्न होवे ॥ ३ ॥ आयुष्य बंध के कारन भूत क्रियाओं हैं इसलिये क्रिया के संबंध में प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ? कच्छ, द्रह, उदक, द्रव्य, वलय, नूम, गहन, गहनविर्ग, पर्वत, पर्वत विदुर्ग, वन व वनविदुर्ग में मृग की वृत्तिवाला, मृग के वध का अध्यवसा-ग्वाला, मृग को मारने के लिये एकाग्र चित्त करनेवाला १ १नदी का पानी व वृक्षादि से घेराया हुवा भूमिभाग २ तडागादि में कुंड ३ अल्पजल..४ तृणा *मुदाय ५ वर्तुलाकार नदी के जल की कुटिलगति वाला प्रदेश ६ गुफाआदिगुप्त स्थान. nomimirmannnnnnnnmmmmmmmmmmmmmnnarianindinmnmannior +1 5 . .. <
पहिला शतक का आठवा उद्देशा -380 भावार्थ .. Toyo? पापा नाना पटसातिपरापानी नानन Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ do अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी भगवन् ए० ऐसा बु० कहा जाता है मि० कदाचित् ति० तीनक्रिया सि० कदाचित् च० चारक्रिया पं० पांचक्रिया गो० गौतम जे जो भ० भव्य उ० बनाने से णो० नहीं बं० बंधन करने से जो नहीं मा० मारने से ता० तब से उस पु० पुरुष को का० कायिकी अ० अधिकरणी की पा० प्रद्वेषिकी ति० तीन कि० क्रिया प० स्पर्थी जे० जो भ० भव्य उ० बनाने से बं० बंधन करने से नो० नहीं म० सिय चउकिरिए, सियपंचाकरिए । से केणटुणं भंते ? एवं वुच्चइ सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए ? गोयमा ! जे भविए उडवणयाए णो बंधणयाए, मारण्याए, तावं चणं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए, पाउसियाए, तिहिं रियाहिं पुट्ठे । जे भविए उडवणयाएवि बंधणयाएवि, पोमारणयाए तावचणं कोई पुरुष मृग को मारने के लिये कूटपाश करे; तब अहो भगवन् ! उस मृगपाश करनेवाले पुरुष को कितनी क्रिया लगती हैं ? अहां गौतम ! उस मृगपाश बनानेवाले को तीन, चार व पांच क्रिया लगती हैं. अहो भगवन ! किस कारन से तीन चार व पांच क्रिया उस पुरुष को लगती हैं ? अहो गौतम ! जिस को जितने कालतक कूपाश करने का भाव है परंतु क्त करने का मारने का भाव नहीं है उस पुरुष को उतने कालतक तीन क्रियाओं लगती हैं. १ गमनादि रूप से कायिकी क्रिया, कूटपाशादिक को उत्पन्न करना मो अधिकरण की और मृग में दुष्ट भारताो विकी जिस पुरुष को * प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी १९६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ मारने से ता. तव मे उस पु० पुरुष को का० कायिकी अ० अधिकरण की प्रपिकी पर परितापनिकी च. चार कि० क्रिया पु० स्पर्शी जे. जो भ० भव्य उ० बनाने से वं० बंधन करने में मा० मारने से ता. वहांलग मे० उम पु० पुरुष को का० कायिकी जा. यावतू पा० प्राणातिपातिकी पं. पांच कि० क्रिया पु० स्पर्शी से. यह ते. उमलिये जा. यावत् पं० पांच कि क्रिया ॥४॥ ८० पुरुष का कच्छ जा. यावत व. वन वि० विषम त० तृण ऊ० ऊंचा करके अ. अनिकाय से पुरिसे काइयाए अहिगरणयाए, पाओसियाए, परियावाणियाए, चउहिं किरियाहिं ३ पट्टे । जे भविए उडवणयाएवि बंधणथाएवि, मारणयाएवि तावंचणसे पुरिसे काइ. है याए जाव पाणाइवाय किरियाए पंचहिं किरियाहिं पट्टे । से तेण?णं जाव पंचकिरिए ॥ ४ ॥ पुरिसेणं भंते ! कच्छंसिवा, जाव वणाविदुग्गसिवा, तणाई ऊसविय २ अजितने काल पर्यंत कूटपाश बनाने का व मृग बांधने का भाव है परंतु मारने का भाव नहीं है उस को उतने कालतक चार क्रिया लगती हैं. उक्त तीनों में उस मृग को परिताप दुःख दिया सो परितापनिकी क्रिया वढी. जिस कोई जितने कालतक कूटपाश बनाने का, बांधने का व मारने का भाव है उस को उतने कालतक पांच क्रिया ओं लगती हैं. कायिकी, अधिकरणकी, प्रवेषिकी, परितापनिकी व प्राणातिपातिकी. इसी कारन से अहो गौतम ! उक्त पुरुष को क्वचित् तीन, क्वचित् चार व क्वचित् पांच क्रियाओं लगती हैं ॥४॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) पहिला शतकका आठवा उद्देशा 9 भावार्थ 488 88 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1 नि• डाले ता० तब भ० भगवन से उस पु. पुरुष को क० कितनी कि० क्रिया सि० कदाचित् ति० म तीनक्रिया सि• कदाचित् च० चारक्रिया सि. कदाचित् पं० पांचक्रिया से० वह के० कैसे गो० गौतम । जजा भ० योग्य उ० ऊंचा करने से ति तीन उ. ऊंचा करने से नि० डालने से नो० नहीं द. जलाने से च० चार जे. जो० भ० योग्य उ० ऊंचा करने से नि० फेंकने से द० जलाने से से० उस "सत्र है, गणिकायसि निसिरइ तावंचणं भंते ! सेपुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! | सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । से केणटेणं ? गोयमा ! जे भवि ए उस्सवणयाए तिहिं, उस्सत्रणयाएवि निसिरणयाएवि नोदहणयाए चउहिं, जेभविए । भावार्थ अहो भगवन् ! कोई पुरुष कच्छ में यावत् वनदुर्ग में तृणका ढग करके उन में अग्निकाय का प्रक्षेप करे तो उन को कितनी क्रिया लगती हैं ? अहो गोतम ! उन को तीन, चार व पांच क्रियाओं लगती हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से उन को तीन, चार, व पांच क्रियाओं लगती हैं ? अहो गौतम ! जितना काल पर्यंत नृणका समुदाय एकत्रित करता है उतना कालतक उन को कायिकी. अधिकरणकी व प्रद्वे.षिकी ऐसी तीन क्रियाओं लगती हैं और तृण एकत्रित कर अशिमें जा पातु तक का यिकी, अधिकरण की, प्रदेषिकी. व परितापलिकी ऐनी चार किया लगती हैं, पारा एकत्रित * करके अग्नि में डालता है और उस में जलता है उसको कायिकी आदि पांचों क्रियाओं लगती हैं. -बालब्रह्मचारी मुनि श्री *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी* Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *803> Annnnnnnnn शब्दार्थ पु. पुरुप को का० कायिकी जा० यावत् पं० पांच कि० क्रिया पु० स्पर्शी से० वह ते इसलिये गो० गौतम ॥ ५ ॥ पु० पुरुष क. कच्छ जा० यावत् २० वन वि० विषम मि. मृगवृत्ति वाला मि० मृगसंकल्प वाला मि० मृग मारने का अध्यवसाय वाला मि. मृगवध केलिये गं० गया हुवा मि० मृग ति० ऐसे का० करके अ० किसी एक मि• मृग का व० वधकेलिये उ० वाण नि० निकाले त तब भं० भगवन् क०० उस्सवणयाएवि, निसिरणयाएवि, दहणयाएविं, तावंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे । से तेणटेणं गोयमा ! ॥ ५ ॥ पुरिसेणं कच्छंसिवा जाव वणविदुग्गंसिवा मियवित्तीए मियसंकप्पे. मिय पणिहाणे, मियवहाए गंताए, एमिएत्तिकाउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसु निसिरइ. ततोणं भंते ! सेपुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सियचउकिरिए, सियपंचकिरिए । सेकेणटेणं ? गोयमा ! भावार्थ . इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहागया है कि उक्त पुरुष को क्वचित् तीन, चार, व पांच क्रियाओं ईoe लगती हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! कच्छ यावत् वनदुर्ग में मृगकी वृत्तिवाला, मृगवध का संकल्पवाला, मृग-१ । वध का चिन्तवन करनेवाला, यह मृग है ऐसा कहकर मृग मारने के लिये निकलाहुवा किसी पुरुषने । किसी एक मृग को मारने के लिये बाण छोडा. उस समय अहो भगवन् ! उस पुरुष को कितनी क्रियाओं हिववपण्णात्ति ( भगवती). सूत्र पहिला शतकका आठवां उद्देशाgadies Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Himwanawrammar अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + Annanorammamromanmmmmmmmmmmmmmmmm कितनी कि० क्रिया गो० गौतम सि० कदाचित् तिः तीन क्रिया सि. कदाचित् च. चारक्रिया सि.. कदाचित् पं० पांचक्रिया जे० जो भ० योग्य नि निकालनेसे ति तीन जे० जो भ. योग्य नि. निकाल नेसे वि० विध्वंस करने से नो० नहीं मा० मारने से च. चार जे. जो भ० योग्य नि० निकालने से वि० विध्वंस करने से मा० मारने से से० उम पु० पुरुष को जा. यावत् पं० पांचक्रिया ॥६॥ पु० पुरुष भं० भगवन् क० कच्छ जा० यावत अ० किसी एक मि० मृग का ५० वयकेलिये आota है जे भविए निसिरणयाए तिहिं, जेभविए निसिरणयाएबि, विद्धंसणयाएवि, जोमारणयाए चउहिं, जे भविए निसिरणयाएवि. विद्धंसणयाएवि, मारणयाएवि, तावंचणं सेपुरिसे जाव पंचकिरियाहिं पुढे । से तेणटेणं गोयमा ! सियतिकिरिए, सिय चउकिरिए, सियपंच किरिए ॥ ६ ॥ पुरिसेणं भंते ! कच्छंसिबा जाव अन्नयरस्समियस्स वहाए कही? अहो गौतम ! क्वचित तीन क्रिया. क्वचित् चार क्रिया व क्वचित् पांच क्रिया कही हैं. अहो भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा ? अहो गौतम ! जो बाण छोडता है उस को कायिकादि तीन ईक्रिया. जहांलग जो वाण छोडकर उस मृग को दुःखी करता है वहांलग उस को चार क्रिया और जो पुरुष बाण छोडता है, मृग को दुःखी करता है, और मार डालता है वहांलग उस. पुरुष को पांच क्रियाओं लगती हैं इसलिये अहो गौतम ! उक्त पुरुष को क्वचित् तीन चार व पांच क्रिया ओं लगती हैं ॥६॥ * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी चालाप्रसादजी* भावार्थ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +-* } कानतक उ० बाण को आ०खींचकर चि०खडारहे अ० अन्य कोई पु०पुरुष म० पीछेसे आ० आकर स० अपने पा० हस्त से अ० असिसे सी० शीर्ष छिं० छेदे से ० वह उ० वाण ता० उस पु० पूर्वाकर्षण से तं० उस मि मृगको वि० विंधे से वह भ० भगवन् पु० पुरुष किं मि० मृग वैरसे पु० स्पर्शा पु० पुरुष वे० वैरसे पु० स्पर्शा गो० गौतम जे ० जो मि० मृगको मा० हने से० वह मित्र मृगौर से पु० स्पर्शा जे० जो पु० पुरुष को मा० हने से ० वह पु० पुरुष वैरसे पु० पर्शा से वह के० कैसे मं० भगवन् ए० ऐसा बु० कहा आयय कणाययं उसे आयामेत्ता चिट्टिज्जा. अन्नयरे पुरिसे मग्गओ आगम्म सयपाणिणा असिणा सीसं छिंदेज्जा, सेय उसू ताएचेव पव्यायामणयाए तंमियं विधेजा । से भंते ! पुरिसे किं मियवेरेण य पुढे पुरिसवेरेणं पुट्ठे ? गोयमा ! जमियं मारेइ, सेमिरेणं पुट्ठे, जे पुरिसं मारेइ से पुरिसवेरेणं पुट्ठे । सेकेणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ अहो भगवन् ! कच्छ यावत् वनदुर्ग में मृग का वध के लिये कोई पुरुष धनुष्य में वाण रखकर कान पर्यंत प्रत्यंचा खींच कर खडारहें; उतने में पीछे से अन्य कोई पुरुष आकर अपने हस्त में खङ्गलेकर उस मृग (वधक का मस्तक छेड़े. उस समय उस मृग को उदेशकर खींचा हुवा बाण उस पुरुष के हस्त में से छुटकर उसी मृग को भेदे. अब अहो भगवन् ! उस मस्तक छेदनेवाला पुरुष को क्या मृग का वैर हुआ अथवा पुरुष का वैर हुआ ? अहो गौतम ! जिसने पुरुष को मारा उस को पुरुष का वैर हुवा और जिसने * पहिला शतक का आठवा उद्देशा २०१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २०३ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जाता है जा. यावत् से वह पु. परुषवैर से पु० स्पर्शा से वह गो० गौतम का करते को क किया। सं. सांधते को सं० सांघा नि० खींचते को नि० खींचा नि० निकलते को नि० निकला व. कहना ० हां भं भगवन् क० करते को किया जा. यावत् नि० निकला जे जो मि० मृगको मा० हने से वह मि. मृगवैर से पु० स्पर्श जे. जो पु० पुरुष को मा हुने से वह पु० पुरुषवैर से पु० स्पर्श अं० १ जाव से पुरिसवेरेणं पुढे । सेणूणं गोयमा ! कज्जमाणे कडे, संधेजमाणे संधिए, निहै व्वत्तिज्जमाणे निव्वत्तिए, निसिरिजमाणे निसिट्रेत्ति वत्तव्यंसिया । हंता भगवं ! क जमाणे कडे जाव निसट्रेत्ति वत्तव्यंसिया । से तेणट्रेणं गोयमा ! जे मियंमारेइ से मियवरेणं पुढे, जे पुरिसं मारेइ से पुरिसवरेणं पुढे, अंतो छण्हं मासाणं मरइमृग को मारा उस को मृग का वैर हुआ. अहो भगवन् ! यह अर्थ किस तरहसे है ? अहो गौतम ! 'कजमाणे कडे ' करते हुवे को किया अर्थान धनुष्य वाण करने लगा मो किया, 'संधिजमाणे संधिए' धनुष्य बाण सांधनेलगा सो संधा, 'निव्यत्तिज माणे निव्यत्तिए' धनुष्य खींचने लगा सो खींचा व 'निसरिजमाणे : निसिढे ' धनुष्य में से बाण नीकलनेलगा सो नीकला ऐसा कहा जा सकता है. हां भगवन् ! करते को किया हुवा यावत् नीकलते को निकला हुवा कहा जा सकता है. इसी मे अहो गौतम ! जो मृग मारता है, वह मृग का वैर से स्पर्शाता है अर्थात् उस मृग मारनेवाले को मृग का वैर लगता है और पुरुष प्रकाशक-राजावहादुर लालासुखदेवमहायजी ज्यालाप्रसादजी* भावार्थ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथे अंदर में छ० छमास की म० मरे का० कायिकी जा. यावत् पं० पांचक्रिया पु० स्पर्श बा० बाहिर छ। छमास की म मरे च. चारक्रिया पु० स्पर्शे ॥ ७ ॥ पुं० पुरुष भं० भगवन् पु. पुरुष को स० भाला से सं. सांधे स. स्वतः के पा० हस्त से अ० असिसे सी० शीर्ष छि• छेदे त० तब से उस पु० पुरुष को क० कितनी कि क्रिया गो. गौतम जा० जब से वह पु० पुरुष तं० उस पु. पुरुष को सः . २०३ NA8 पंचमांग विराह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र ११ wwmmmmmmmmmmwwwnnnnx काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे : बाहिं छण्हं मासाणं मरइ, काइयाए जाव पारियावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे ॥ ७ ॥ पुरिसेणं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिसंधेजा सयपाणिणावा से असिणा सीसं छिदज्जा । तओणे भंते ! से पुरिसे कइकि 8083> पहिला शतकका आठवा उद्देशा>Res भावाये हमारवाले को पुरुष का घेर लगता है. व जग यदि छ मान की अंदर मरजावे तो घातक पुरुष को पांच क्रियाओं लगती हैं क्यों की छ मासतक मृग को प्रहार हेतुक मरण होता है. छ मास पीछे यदि वह मृग इमरजावे तो प्राणातिपातिकी क्रिया छोडकर अन्य चार क्रियाओं लगती हैं * ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! कोई पुरुष शक्ति [भाला] से, अथवा अपने हस्त में रहा हुवा खग से किसी पुरुष का शिरच्छेदन करे तब यहांपर व्यवहारकी अपेक्षासे प्राणातिपातिकी क्रिया मात्र व्यपदेश बतानेको कहीहै. अन्यथा जब प्रहारहेत्तुक मरण होवे उस समय उस वधकको कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी पांच क्रिया लगती हैं. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथशक्तिम स सांध स० स्वतः के पा० हस्त से अ. असिसे सी. शीर्ष छि• छंद ना० तब में उम पु. पुरुष को का० कायिकी जा. यावत् पा० प्राणातिपातिकी पं० पांच कि क्रिया पु० स्पर्श आ. नजदीक व. वध करने वाला अ० आकांक्षा रहित पु० पुरुषवर से प० स्पर्शा ॥ ८ दो दो भं०भगवन पु० पुरुष स० सरिखे स. सरिखी त्वचावाले स० सरिखी वयवाले स. सरिखे भर भंडोपकरणवाले अ० अन्योन्य स. साथ मं• संग्राम सं० करे त. तहां ए. एक पु० परुष ५० जीते ए. एक पुल पुरुप रिए ? गोयमा ! जावंचणं से परिसे तं परिसं सत्तीए समभिसंधेइ सयपाणिणावा से असिणा सीसं छिंदइ तावंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवाए पंचहिकिरियाहि । पुढे । आसण्ण बहएणय अणवकंखवत्तीएणं पुरिसरे रेणं पुंटे ॥ ॥ दो भंते ! . पुरिसा सरिसया. सरित्तया, सरिसव्वया, सरिसमंडभत्तोवगरणा अण्णमण्णणं सहि.. संगामं संगामेइ, तत्थणं एगे पुरिसे पराइणइ, एगे पुरिसे पराइजइ, से कहमेयं भंते! भावार्थअहो यगान् ! उम पुरुप को कितनी क्रियाओं लगती हैं. ? अहो गौतम : जितने कालनक यह पुरुप किसी अन्य पुरुष का शक्ति या वङ्गमे शीर्प का छदन करता है उतनाकाल तक उम पुरूप को कायिकीपादि। पांमाओं लगनी. आसम वधक पाप की निवृत्ति के लिये निरपेक्ष वृत्ति से वैर का बंधन करता है. ॥ ८ ॥ अहो भगवन ! शरीर के प्रमाण में व कुशलना में मरिग्वे. भगवी वयवाले. मगग्वे भंडार अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ११५० पराजयपामे से वह क० कैसे भं• भगवन ए. ऐसे गो० गौतम स० वीर्यवन्त प० जीते. अ० अवी ० यवन्त ५०पराजयपामे वीवीर्य व०वधयोग्य क० कर्म नो नहीं ब बंधे नो नहीं पु० स्पर्शे जा. यावत् नो० नहीं अ० सन्मुख हवे णो नहीं उ• उदयआये उ० उपशान्तपामे से वह प० जीतता है ज० जीस का वी० वीर्य व० वयोग्य क• कर्म ब० बंधे जा० यावत् उ० उदयआये नो० नहीं उ० उपशमें भ० हैं। एवं गोयमा ! सीरिए पराइणइ,अवीरिए पराइज्जइ । से केणटेणं जाव पराइज्जइ ? गोयमा ! जस्सणं वीरियवज्झाई कम्माइं गोबद्धाइं णो पुट्ठाई जाव नो अभिसमण्णागयाइं,, णो उदिण्णाइं वसंताई भवंति, सेणं पराइणइ. जस्सणं बीरियवज्झाई कम्माई बधाई भावार्थ करणवाले दो पुरुष परस्पर संग्राम करे; उस में से एक पुरुष का जय होवे और दूसरा पुरुष का पराजय होवे. अहो भगवन् ! इस तरह जय पराजय होनेका क्या कारन? अहो गौतम ।। वीर्यवंन पुरुष का जय हुवा और वीर्य रहित पुरुष का पराजय हुवा. अहो भगवन्त ! वीर्यवन्त पुरुष का जय और वीर्य रहित पुरुष का पराजय होने का क्या कारन ? अहो गौतम ! वार्य की बात करनेवाले कर्म पुगलों १० का बंध जिसने नहीं किया होवे, जिन को नहीं स्पर्श होवे, यावत् उदय में नहीं आये होवे वैसे ही उदी रणा से उदय में नहीं लाये होवे परंतु उपशान्त रहे हुवे होवे, उस को जय होता है और जिस पुरुषको वीर्य 1की घात करनेवाले कर्म पुद्गलों बंधे हुवे होवे यावत् उदीरणा से उत्थानादि ये होवे उस पुरुष का पराजय है। विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 488 पंचमाङ्ग पहिला शतक का आठवा उद्देशा १०१-१३ 48 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथे सुत्र नुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी से वह पु० पुरुष प० पराजित है से वह ते. इसलिये गोप मा कल कहा जाता है। स० वीर्यवन्त प० जीतता है अ० वीयरहित प. पराजय पामता है ॥२॥ जी०जीव भं० भगवन कि क्या स. सवीर्य अ० अवीर्य गो. गौतम स. सवीर्य अ अवीर्य से वह के. कैसे भं०भगवन् ए०ऐसा चु. कहा जाता है गो गौतम जी० जीव द० दोपकार के सं० संसार को प्राप्त अ. संमार से रहित त. तहां जे. जो अ० संसार रहित ते वे सि. सिद्ध मि० सिद्ध अ० अवीर्य त० तहां जे. जो सं० संसारो जाव उदिण्णाई नो उवसंताई भवति सेणं परिसे पराइजइ, से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सवीरिए पराइणइ, अबीरिए पराइज्जइ ॥ ९ ॥ जीराणं भंते किं सवारिया अवीरिया ? गोयमा ! सवीरियावि, अवीरियावि । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? . गोयमा : जीग दुविहा पण्णत्ता तंजहा संसारसमावण्णगाय असंसारसमावण्णगाय । होता है. इसलिये ऐसा कहागया है कि वीर्यवंत पुरुष का जय और वीर्य राहत पुरुप का पराजय होता है ॥ २ ॥ अव वीर्य का प्रश्न करते हैं. अहो अगवन् ? जीव क्या वीर्य सहित है या वीर्य रहित है ? अहो गौतम ? वीर्य सहित भी है और वीर्य रहित भी है. अहो भगवन ! जीव वीर्य सहित भी है और वीर्य रहित भी है यह किस तरह से ! अहो गौतम ? जीव के दो भेद कहे हैं. मंसार समाज पन्नक और असंसार समापन्नक. जो अमंमार ममापनक है वे सिद्ध कराने हैं. उन को करण वीर्य का * पकाशक-राजावहादरलाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रमादजी* भावार्थ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पण्णत्ति ( भगवती) पंचमांग विवाह ते वे दु. दोप्रकार के से: निश्चल आत्मा वाले अनिश्चल आत्या रहित त. तहां जे० नो से० शैलेशी युक्त ते येल लब्धिवीर्य से स० सवार्य करणार्थि से अ. अवीर्य त० तहां जे० जो अ०० अशैलशीयुक्त ते. वेल. लब्धिवीर्य से स. सवीर्य क. करणवीर्य मे स. सवीर्य अ. अवीर्य से. तत्थणं जे ते असंसार समावण्णगा तेणं सिद्धा, सिद्धाणं अवीरिया तत्थणं जे ते संसार समावण्णगा ते दविहा पण्णत्ता तंजहा सेलेसि पडिवण्णगाय, असेलेसि पडिवण्णगाय । तत्थणं जे ते सेलसि पडिवण्णगा तेणं लाईवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया । तत्थणं जे ते असेलेसि पडिवण्णगा, तेणं ल. द्विवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरियावि अवीरियावि. सेतेणट्रेणं गोयमा अभाव है इसलिये वे वीर्य रहित हैं और जो संसार समापनक हैं उन के दो भेद कहे हैं. शैलेशी प्रतिपन्न सो चउदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगी केवली के जीव और २ अशैलेशी सो प्रथम गुणस्थान से तेरहवे गुणस्थानवी जीव. उस में चउदहवे गुणस्थानवर्ती शौलेशी जीव लब्धि वीर्य की अपेक्षा से वीर्य सहित और करण वीर्य की अपेक्षा से वीर्य रहित हैं. प्रथम गुणस्थान से तेरहवे गुणस्थानवर्ती अशैलेशी प्रतिपन्न जीव लब्धि वीर्य से वीर्य सहित हैं और करण वीर्य से वीर्य सहित व वीर्य रहित हैं. इस कारन से अहो। १वीयाँतराय के क्षय से जो वीर्य होता है सो लब्धिवीर्य २ उत्थानादि क्रिया सो करण वीर्य. पहिला शतक का आठवा उद्देशा 8 भावार्थ 887 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वह ते. इसलिये गो० गौतम ए. ऐसा कुछ कहा जाता है. ॥ १८ ॥ ०. नारकी भं० भगवन् किं. क्या म. सवीर्य अ० अवीर्य गो. गौतम ने० नारकी ल. लब्धिवीर्य से स. सीर्य क० करणवीर्य से स० सीर्य अ० अवीर्य से वह के० कैसे गो० गौतम जे जिस रकी को अ है उ० उत्थान के कर्म ब. बल वी. वीर्य पु० परुषात्कार प०पराक्रम तेल्वे ने नारकी ल० लब्धिवीर्य से स० सवीर्य क० करणवीर्य से ससवीर्य जे०जो ने नारकी को न० नहीं है उ० ___ एव वुच्चइ जीवा दुविहा प० त० सीरियावि, अवीरियावि ॥ १० ॥ नेरइयाणं है भंते किं सवीरिया अवीरिया ? गोयमा नेरइया लाद्ववीरिएणं सीरिया, करणवीरिए. णं सवीरियाय अवीरियाय। सेकेणटेणं?गोयमा! जेसिणं नेरइयाणं आत्थि उट्ठाणे, कम्मे चले, वीरिए पुरिसकार परक्कमे तेणं नेरइया लाई वीरिएणवि सीरिया, करणवीरिएण। गौतम ! ऐसा कहा है कि जीव वीर्य सहित व वीर्य रहित हैं ॥ १० ॥ अहो भगवनू : क्या है नरक के जीव वीर्य सहित हैं या वीर्य रहित हैं ? अहो गौतम ! नरकके जीव लब्धि वीर्य से वीर्य सहित हैं और करण वीर्य से वीर्य महित व वीर्य रहित हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐमा कहागया है ! अहो गौतम ! जिन नारकियों को उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषात्कार व पराक्रम हैं वे नारकी लब्धि वीर्य से वीर्य सहित हैं और करण वीर्य से भी वीर्य सहित हैं. और जो नारकी उत्थानादि रहित हैं वे लब्धि *प्रकाशक-राजबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - । -- शब्दार्थ उत्थान जा. यावत् प० पराक्रम ते वे ने नारकील. लब्धिवीर्य से मर सवीर्य क. करणवीर्य से अ. अवीर्य से वह ते. इसलिये ज. जैस ने नारकी जा० यावत् प० पंचेन्द्रिय ति. तिथंच म मनुष्य ज. जैसे ओ० औधिक जीव न० विशेष सि.सिद्ध व० वर्जना भा० कहना वा० बाणव्यंतर जो. ज्यातिपी वे वैमानिक ज. जैसे ने नारकी से• वह ए. ऐसे भं भगवन् ॥ १ ॥८॥ वि सवीरिया । जेसिणं नेरइयाणं नत्थि उट्ठाणे जाव परकमे लेणं नेरइया लाईवी. रिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया । से तेणटेणं जहा नेरइया एवं जाव पंचिं. दिय तिरिक्ख जोणिया । मणूसा जहा ओहिया जीवा नवरं सिद्ध वजा भाणियब्वा । वाणमंतर जोइस वेमाणिया जहा नेरइया ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ पढमेसए अट्ठभो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ ८ ॥ * * भावार्थ वीर्य से वीर्य सहित हैं परंतु:करण वीर्य से वीर्य रहित हैं इस लिये अहो गौतम ! ऐसा कहागया कि नारकी के जीव वीर्य सहित व वीर्य रहित है. जैसा नारकी का कहा वैसे ही मनुष्य छोडकर अन्य 60 ईसब दंडक का कहना मनुष्य का समुच्चय जीव जैसे कहना परंतु समुच्चय जीव के दंडक में सिद्ध है यह यहां नहीं कहना अहो भगवन् ! आपने जो कहा व सत्य है यह पहिला शतकका आठवाई उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१॥८॥ 9-43 पंचमांग विवाह पण्णात्ति (भगवती) मूत्र - पहिला शतकका आठवा उद्देशा 986080 tho Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी क० कैसे भं० भगवन् जी० जीव ग. गुरुत्व को ह० शीघ्र आ० आते हैं गो० गौतम पा० प्राणातिपात से मु० मृषावाद से अ० अदत्तादान मे० मैथुन ५० परिग्रह को क्रोध मा० मान मा० माया लो०३ लोभ पे० राग दो० द्वेष क० कलह अ० कलंक चडाना पे० चुगली र० रति अ० अरति प० परपरिवादी | २१० मा० कपट मि. मिथ्यादर्शन शल्य ए० ऐसे ख० निश्चय जी० जीव ग. गुरुत्व को ह• शीघ्र आ• आते हैं ॥ १ ॥ भं० भगवन् जी० जीव ल. लघुत्व ह० शीघ्र आ० आते हैं गो० गौतम पा० प्राणातिपात कहणं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? गोयमा! पाणाइवाएणं, मसावाएणं, आदिन्न, मेहुण, परिग्गह, कोह, माण, माया, लोह, पेज, दोस, कलह, अब्भक्खाण, पेसन्न, रति, अरति. परपरिवाए, मायामोल, मिच्छादसणस्मल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हन्धमागच्छति ॥ १ ॥ कहण भंत ! जीवा लहुयत्तं हब्बमागच्छंति ? आठवे उद्देशे के अंत में वीर्य का वर्णन किया है, और जीव वीर्य से भारी होता है इसलिये आगे गुरुत्व का आधिकार चलता है. अहो भगवन् ! अधोगति गमनरूप गुरुत्व किस तरह से जीव प्राप्त करे? अहो गौतम ! १ प्राणातिपात-जीव का अतिपात से, २ मृषावाद-असत्य बोलने से ३ अदत्तादान-चौरी करने से ४ मैथुन से ५ परिग्रह ६ क्रोध ७ भान ८ माया ९ लोभ १० राग ११ द्वेष १२ कलह १३ ॥ अभ्याख्यान-कलंक चडाने से १४ पैशुन्य-चुगली करने से १५ रति अरति १६ परपरिवाद अन्य काई * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी * भावार्थ AAAA Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दर्थ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र 43 जा० यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के वे० निवर्तने से ए० ऐसे ख० निश्चय गो० गौतम जी० जीव ल० लघुत्व | को आ० आते हैं ॥ २ ॥ ए० ऐसे सं० संसार आ० बहुत क० करे प० थोडा क० करे दी० दीर्घ क० करे ह० छोटा क० करे अ० वारंवार भ्रमण करे वी० तीरे प० प्रशस्त च० चार अ० अप्रशस्त च० गोयमा ! पाणाइवायवेरमणणं जात्र मिच्छादंसणसल्ल वेरमणेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छति ॥ २ ॥ एवं संसार आउली करेंति, परिती करेंति, दीही करेंति, हस्सी करेंति, एवं अणुपरियहंति, एवं एवं अवर्णवाद बोलना १७ माया मृषा और १८ मिथ्यादर्शन शल्य- देवगुरु धर्म से भी मन का मिध्यात्व नाश नहीं होवे, इन अठारह कारनों से जीव अधोगति गमनरूप गुरुत्व धारण करता है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जीव लघुत्व कैसे धारण करता है ? अहो गौतम ! प्राणातिपात से निवर्तना यावत् मिथ्या {दर्शन शल्य से निवर्तना इन अठारह कारनों से जीव लघुत्व प्राप्त कर सकता है ॥ २ ॥ उक्त अठारह संसार परत करे, दीर्घ करे, ह्रस्व करे, संसार में इन आठ में से लघुत्व, परित्त, हस्वत्व व संसार का उल्लंघन ऐसे चार बोल प्रशस्त और गुरुत्व, संसार का प्रचूर करना, दीर्घ करना व संसार का उल्लंघन पाप स्थानों के आचारण से जीव संसार प्रचुर करे, वारंवार परिभ्रमण करे और संसार से उत्तीर्ण होवे. पहिला शतक का नववा उद्देशा २११ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - चार ॥ ३ ॥ स० सातवा उ० आकाशांतर किं. क्या ग. गुरु ल. लघु ग. गुरुलघु अ० अगुरुलघु गो० गौतम नो नहीं गुरु नो नहीं लघु नो० नहीं गुरुलघु अ० अगुरुलघु स. सातवा त० ननुवात कि क्या गो० गौतम नो० नहीं गुरु नो० नहीं लघु ग० गुरुलघु नो० नहीं अगुरुलघु ए. ऐसे म.सातवा घ. घनवात स० सातवा घ० घनोदधि स० सातवी पु. पृथ्वी उ० आकाशांतर स० सर्व ज. जैसे स० वीईवयंति,पसत्था चत्तारि अपसत्था चत्तारि॥३॥सत्तमेणं भंते: उवासंतरेकिंगरुए,लहए, गरुय लहुए, अगुरुय लहुए ? गोयमा ! नोगरुए, नोलहुए, नो गरुय लहुए, अगरुय लहुए सत्तमेणं भंते ! तणुवाए किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगरुयलहुए। गोयमा ! नोगरुए, नोलहुए, गरुय लहुए, नो अगरुय लहुए एवं सत्तमे नहीं करना ये चार बोल अप्रशस्त कहाये गये हैं ॥३॥ जीव के गुरुत्व लघुत्व से आकाशादिक का गुरुत्व लघुत्व कहते हैं. १ अहो भगवन् ! सातवी नरककी नीचेका आकाशान्तर क्या गुरुत्व, लघुत्व, गुरुलघुत्व, व अगुरुलघुत्ववाला है ? अहो गौतम ! सातवी नरक का आकाशान्तर गुरु, लघु व गुरुलघु नहीं है परंतु अगुरुलघु है. अहो भगवन् ! सातवीरक की नीचे का तनुवात क्या गुरु, लघु, गुरुलघम व अगुरुलघु है ? अहो गौतम ! सातवा तनुमात गुरु नहीं है, लघु नहीं है परंतु गुरु लघु है और अगुरु लघु नहीं है. ऐसे ही साता घनवात, सातवा घनोदधि, सातवी पृथ्वी व तव आकाशान्तर को सातवा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी पालाप्रसादजी* भावार्थ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सातवा उ० आकाशान्तर ज० जैसे त० तनुशत ए० ऐसे ग गुरुलघु ग० घनवात घ० घनोदार्थ पु० पृथ्वी दी० द्वीप स० सागर वा० क्षेत्र || ४ || ने० नारकी भं भगवन् किं० क्या ग० गुरु जा० यावत् अ० अगुरुलनु गो० गौतम नो० नहीं गुरु नो नहीं लघु गुरु गुरुलघु अ० अगुरुलघु से० वह के० घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी, उवासंतराई सब्वाई जहा सत्तमे उवासं तरे । जहा तणुवाए एवं गरुयलहुए घणवाय वणउदहि, पुढवी, दीवाय, सागरा, वासा, || ४ || नेरइयाणं भंते! किं गरुया जात्र अगरुलहुया ? गोयमा ! नो गुरुया, नोलहुया, गुरुयलहुयावि अगरुयलहुयावि । सेकेणट्टेणं ? गोयमा ! वैउन्विय आकाशान्तर जैसे कहना. अर्थात् जैसे सातवा आकाशान्तर गुरु, लघु, व गुरुलघु नहीं है परंतु अगुरुलघु {हैं वैसेही इस का जानना जैसे तनुवात का कहा वैमेही बनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर व भरतादि क्षेत्र का जानना अर्थात् जैसे तनुवात गुरुलघु है वैसे ही उक्त सब पदार्थों गुरुलघु हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या गुरु, लघु, गुरुलघु या अगुरुलघु हैं ? अहो गौतम ! गुरु भी नहीं हैं, लघु भी नहीं हैं, परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी गुरु व लघु नहीं हैं परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु हैं ? अदो गौतम ! बँक्रेय व तेजस शरीर की अपेक्षा से नारकी गुरुलघु हैं परंतु सूत्र भावार्थ ४ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 0808 हिरा शतक का वा उदेशा २१३ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शब्दार्थ है कैसे गो० गौतम वे वैक्रेय ते० तेजस प० प्रत्यय नो० नहीं गुरु नो० नहीं लघु ग० गुरुलघु नो० नहीं अ० अगुरुलघु जी जीव क० कर्म प० प्रत्ययिक नोनहीं गुरु नो नहीं लघु नो नहीं गु० गुरुलघु अ० अगुरुलय से वह ते० इसलिये जा. यावत् वे वैमानिक न० विशेष ना. नाना प्रकार जा० जानना दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तेयाइं पडुच्च नागरुया, नोलहुया, गरुयलहुया, नो अगुरुयलहुया । जीवंच कम्मंच पडुच्च नो गुरुया नो लहुया, नो गुरुयलहुया अगुरुयलहुया । सेतेण?णं, एवं जाव वेमाणिया । नवरं णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं ॥ ५ ॥ धम्मत्थिकाए जाव जीव * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ गुरु, लघु व अगुरुलघु नहीं हैं. और जीव व कर्म की ओक्षा से गुरु, लघु, व गुरुला नहीं है परंतु अगुरु लघु हैं. इससे नारकी गुरुलघु व अगुरुलघु हैं. नारकी जैसे शेष सब दंडक के जीवों का जानना. मात्र शरीर में भिन्नता रहती है अर्थात् जिनको जितने शरीर होवे उनको उतने शरीर की अपेक्षा ग्रहण, करनी असुर कुमारादिक को नारकी जैसे, पृथिव्यादिक में उदारिक तेजस व कार्माण ऐसे तीन शरीर है इसलिये यहांपर उदारिक व तेजसकी अपेक्षा ग्रहण करनी वायुकायमें वैक्रेय उदारिक व तेजसकी अपेक्षा ग्रहण करनी. ऐसे ही तिर्यंच पंचेन्द्रिय को जानना. मनुष्य को उदारिक वैक्रेय अहारक व तेजस की अपेक्षा से लेना ॥ ५॥ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति काय व जीवास्ति काय में मात्र जैथापद 1 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१५ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र rnwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwnnnnnnn ॥५॥ध धर्मास्तिकाय जा. यावत् जी० जीव च० चौधापद में ॥६॥ पो० पुद्गलास्ति काया भं० भगवन् कि क्या ग. गुरु ल० लघु म. गुरुलघु अ० अगुरुलघु गो. गौतम नो. नहीं गु. गुरु नो०१ नहीं ल०लघु गगुरुलघु अ०अगुरुलघु से वह के कैसे गो० गौतम गु० गुरुलघु दद्रव्य प० प्रत्यय नो• नहीं 20 गुरु नो० नहीं ल० लघु गु गुरु लघु नोनहीं अ० अगुरुलघु अ० अगुरु लघु द०द्रव्य ५०प्रत्यय नो०नहीं थिकाए चउत्थपएणं ॥ ६ ॥ पोग्गलत्थि काएणं भंते ! किं गरुए, लहुए,गरुयलहुए, अगुरुयलहुए ? गोयमा! नो गुरुए, नोलहुए, मुरुयलहुएवि, अगुरुयलहुएवि सेकेण?णं ? गोयमा ! गुरुयलहुय दवाइं पडच्च णो गरुए णो लहुए, गरुय लहुए, नो अगुरुयलहुए । अगुरुयलहुय दवाइं पडुच्च णो गुरुए, नोलहुए, नोगुरुयल ४१ पहिला शतक का नववा उद्देशा भावार्थ अगुरुलघु जानना. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! पुद्गलास्ति काय क्या गुरु, लव, गुरुलघु या अगुरुलघु है ? अहो गौतम ! पुद्गलास्ति काय गुरु नहीं है, लघु नहीं है परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु है ? अहो भगवन !yo किस तरह से पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है लघु नहीं है परंतु गुरुलघु व अगुरुलघु है ? अहो गौतम ! औदारिक, वैक्रेय, आहारक व तेजस इन गुरुलघु द्रव्य आश्रित पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, परंतु 10 गुरुलघुहै. व अगुरुलघु नहीं है और कार्माण,मन व भाषा इन तीन अगुरुलघु द्रव्यकी अपेक्षा से पुद्गलास्तिकाब गुरु हैं। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गु० गुरु नो० नहीं ल० लघु नो नहीं गु० गुरुलघु अ. अगुरुलघु ॥ ७॥ स समय क. कार्माण वर्गणा च० चौथा प० पद में।। ८॥ क० कृष्ण ले० लेश्या भं०भगवन् कि क्या ग• गुरु जा०यावत् अ० 2 अगुरुलघु गो० गौतम नो० नहीं गुरु नो० नहींलघु गु गुरु लघु अ० अगुरु लघु से वह के कैसे दद्रव्य लेश्या प० प्रत्यय त० तीसरापद भा० भाव लेश्या प० प्रत्यय च० चौथा पद ए० ऐसे जायावत् सु.शुक्ल हुए अगुरुयलहुए ॥७॥ समया कम्माणियचउत्थपएणं, ॥८॥ कण्हलेसाणं भंते ! किं । गरुया जाव अगुरुयलहुथा ? गोयमा ! नोगुरुया, नोलहुया, गरुयलहुयावि, अगुरुयलहुयावि । सेकेण?णं ? गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च तइयपएणं, भावलेरसंफ्डुच्च भावार्थक नहीं, लघु नहीं गुरुलघु नहीं परंतु अगुरुलघु है ॥ ७ ॥ काल-अमूर्त होने से और कर्मवर्गणा के पुद्गल ने अगुरु लघु होते हैं ॥ ८॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्या क्या गुरु, लघु यावत् अगुरु लघु है ? गौतम । कृष्णलेश्या गुरुनहीं, लघुनहीं, गुरुलघु, व अगुरु लघु है. अहो भगवन् किस कारन से कृष्ण लेश्या गुरु लघु . व अगुरुलघु है ? अहो गौतम ! द्रव्य लेश्या की अपेक्षा गुरुलघु है क्यों की द्रव्य लेश्या उदारिक शरीर से के वर्ण वाली है और उदारीक शरीर गुरुलघु है इसलिये कृष्ण लेश्या द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से गुरु लघु जानना और भाव लेश्या की अपेक्षा से अगुरुलघु जानना क्यों की भाव लेश्या. जो जीव परिणाम वह * अमूर्त होने से अगुरु लघु होते हैं इसलिये भाव लेश्या की अपेक्षा से कृष्ण लेश्या अगुरुलघु जानना जैसे रीमान श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अनुवादक-यालब्रह्म Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानना हे० शब्दार्थ | {लेश्या ॥ ९ ॥ दि० दृष्टि दं० दर्शन ना० ज्ञान अ० अज्ञान स० संज्ञा च० चौथे पद में ने नीचे के च० चार स० शरीर ना० जानना त० तीसरे पदमें क० कार्माण च० चौथा पद में म० मनजो- १ ग व० वचनजोग च० चौथा पद में का कायाजोग त० तीसरापद में सा० साकारोपयोग अ० अनाकारोपॐॐॐ योग च० चौथापद में स० सर्व द्रव्य स० सर्व प्रदेश स० सर्व पर्यत्र ज० जैसे पो० पुद्गलास्ति काय ती ० सूत्र भावार्थ 48807 पंचद्र हिववपण्णाति ( भगवती ) सूत्र उत्थपणं । एवं जाव सुक्कलेस्सा ॥ ९ ॥ दिट्ठी - दंसण - नाण - अन्नाण- सण्णाओ चउत्थपएणं णेयव्वाई, हेट्ठिल्ला चत्तारि सरीरा नायव्वा तइएणं पणं ॥ कम्मय चउत्थणं पणं ॥ मणजोगे, वइजोगे, चउत्थएणं पदेणं ॥ कायजोगो तइयएणं पणं ॥ सागारोवओगो, अणागारोवओगो चउत्थपदेणं ॥ सव्वदव्वा, सव्वपदेसा, कृष्ण लेश्याका कहा वैसे ही नील, कापुत, तेजो, पद्म व शुक्ल लेश्या का जानना ॥ ९ ॥ दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान व संज्ञा में अगुरुलघुत्व जानना. उदारिक, वैक्रेय, आहारक व तेजस शरीर में गुरु लघुत्व और कार्माण शरीर में अगुरु लघुत्व जानना. मनयोग वचन योग में अगुरु लघुत्व और काय योग में गुरुलघुत्व जानना साकारोपयुक्त व अनाकारोपयुक्त उपयोग में अगुरु लघुत्व. धर्मास्तिकायादि षडूद्रव्य, उन के सब प्रदेश, व सव पर्यवको पुत्रलास्तिकाय जैसे गुरुलघु व अगुरुलघु दोनों कहना. - पहिला शतक का नवत्रा उद्देशा 4 २१७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अतीतकाल अ० अनागते काल स० सर्वपना काल च० चौथा पद में ॥ १० ॥ से० वह मं० भगवन् ला० लघुता अ० अल्पइच्छा अ० मूर्च्छारहित अ० अगृद्धी अ० अप्रतिबन्ध स० श्रमण निः निग्रंथ को पत्रशस्त हूं ०हां गो० गौतम ला ० लघुता जा ० यावत् प ० प्रशस्त ॥ ११ ॥ भं० भगवन् अ० क्रोध रहित अ०मान रहित अ० मायारहित अग्लोभ रहित स० श्रमण नि० निर्ग्रथ को प० प्रशस्त हं० हां गो० गौतम अ० क्रोध रहित [जा यावत् प० प्रशस्त || १२ || भं० भगवन् कं० कांक्षा प० द्वेष खी क्षीण स० श्रमण निं० निग्रंथ अं० अंत सव्वपूज्जवा, जहा पोग्गलत्थिकाओ, तीता अणागयडा, सव्वा, चउत्थएणं पएणं ॥ १० ॥ सेणूणं भंते ! लाघत्रियं, अप्पिच्छा, अमुच्छा, अगेही, अपडिबढया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता गोयमा ! लाघवियं जाव पसत्थं ॥ ११ ॥ सेणूणं भंते अकोहत्तं अमाणत्तं अमायतं अलोभत्तं समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ? हंता ! अतीत काल, अनागतकाल व सत्र काल में चौथा अगुरुलघुत्व जानना || १० || अब गुरुलघुपने का अन्य प्रकार से प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ को लघुता, अल्प इच्छा, अमूर्च्छा, अगृ(द्धि, व अप्रतिबन्ध क्या प्रशस्त है ? हां गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थ को लघुता यावत् अप्रतिबन्ध प्रशस्त {है ॥ ११ ॥ अहो भगवन ! श्रमण निर्ग्रन्थ को क्रोध, मान, माया व लोभ रहितपना क्या श्रेष्ठ है ? डां गौतम ! क्रोध रहितपना यावत् लोभ रहितपना श्रमण निर्ग्रन्थ को श्रेष्ठ है ॥ १२ ॥ अहो भगवन् * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र करने वाले अं० चरिम शरीरी व बहुत मोहवाले पु० पाहले वि० विचरकर अ० अथ प० पीछे सं० संवृत का० कालकरे त० पीछे सि० सिझे बु० बुझे मु० मुक्त होत्रे जा० यावत् अं० अंतकरे हं० हां गो० गौतम कं० कांक्षा प० द्वेष खी क्षीण जा० यावत् अं० अंतकरे || १३ || अ० अन्य तीर्थिक मं० भगवन् ए० ऐसा आ कहते हैं भाव विशेष कहते हैं प० गोयमा ! अकोहत्तं जाव पसत्थं ॥ कहते हैं प० प्ररूपते हैं ए० एक जी० जीव ए० एक १२ ॥ सेणूणं भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे * पहिला शतकका नववा उद्देशा णिग्गंथे अंतकरे भवइ अंतिम सारीरिएवा, बहुमोहे विय णं पुचि विहरित्ता, अह पच्छा संबुडे कालं करेइ तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, जाव अंतं करेइ ? हंता गोयमा ! कंखापदोते खीणे जात्र अंतंकरेइ ॥ १३ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति, एवं खलु एगे जीवे एंगेणं सभएणं दो आ{कांक्षा- मिथ्यात्व - मोहनीय कर्मक्षय करनेवाला श्रमण क्या दुःख का अंत करनेवाला होवे ? अथवा चरिम शरीरी व पहिले मोह में रमण करके पुनः लघुभूत शुद्ध बना हुवा काल करे तो क्या सिझता, बुझता, मुक्त होता यावत् सब दुःखों का अंत करता है ? हां गौतम ! कांक्षा प्रद्वेष का क्षय करनेवाला, चरिम शरीरी व { मोहका क्षय करनेवाला संसार का अंत करे || ३ || अहो भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, बोलते हैं, {हेतु सहित कहते हैं, व प्ररूपते हैं कि एकही जीव एक समय में दो प्रकार के आयुष्य का बंध करता है. २१९ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स०समय में दो दो आ० आयुष्य प०बांधे इ०इस भवका आयुष्य प०परभवका आयुष्य नं जिस स०समयमें । इ.इस भ• भवका आ० अ युष्प प०बांधेतं उस स०समयमें प०परभवका आयुष्य प०बांधे जं०जिससमयमें प०१ परभवका आयुष्यपबांधेतं. उस समयमें इ०इसभवका आयुष्य प०बांधेइ०इस भ० भवका आ० आयुष्यप०बांधने उयाइं पगरेइ तंजहा-इहभावियाउयंच, परभवियाउयंच, । जं समयं इह भवियाउयं सूत्र पकरेइ तंसमयं परभवियाउयं पकरेइ, जंसमयं परभवियाउयं पकरेइ तंसमयं इह भवियाउयं पकरेइ; इह भवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाउयं पकरेइ, परभवियाउय स्स पकरणयाए इह भरियाउयं पकरेइ, एवं खलु एगे जीव एगे समएणं दो आउया| इंपकरेइ तंजहा इह भवियाउयंच, पर भवियाउयंच ॥ से कहमेयं भंते ! एवं ? भावार्थ : इस में विरोध नहीं आता है क्यों की जीव स्वपर्याय समूहात्मक है. जब वह आयुष्य का बंध करता है। तब दो भव का आयुष्य बांधता है. इस भव का आयुष्य व परभव का आयुष्य. जिस समय में इस भवका आयुष्य का बंध करता है उस समय में परभव के आयुष्य का बंध करता है; और जिस समय में , परभव के आयुष्य का बंध करता है उस समय में इस भव के आयुष्य का बंध करता. है इस भव के आयुष्य का बंध करते परभव के आयुष्य का बंध करता है और परभव के आयुष्य का बंध करते इस भव के आयुष्य का बंध करता है. इसी प्रकार एकही जीव एक ही समयमें दो भव के आयुष्य का बंध 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * choth wwwwwnnnnnnnnnn Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 48 से प० परभव का आयुष्य प-वांधे प०परभवका आयुष्य प०बांधने से इ० यह भवका आ०आयुष्य फ०बांधे ? ० ए० ऐसे ए० एक जीव ए. एक समय में दो० दो आयुष्य प० बांधे इ० इस भवका आ० आयुष्य ५० परभवका आयुष्य से वह क• कैसे ए० इस भं• भगवन् प० ऐसे गो० गौतम जं. जो अ० अन्यती गोयमा ! जण्णंते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव परभवियाउयंच, जे ते एव माहंसु मिच्छंते एव माहंसु ॥ अहं पुण गोयभा ! एव माइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेइ. तंजहा-इहभवियाउयंवा, परभवियाउयंवा. । जं समयं इह भावियाउयं पकरेइ जो तं समयं परभवियाउयं पकरेइ, जं समयं परभवियाउयं पकरेइ णो तं समयं इह भवियाउयं पकरेइ, इह भविया उयस्स पकरणयाए णो परभवियाउयं पकरेइ, परभवियाउयस्स पकरणयाए णो करता है तो अहो भगवन् ! यह किस तरह से है ? अहो गौतम ! अन्य तीर्थी जो ऐसा कहते हैं कि एक जीव एक समय में इस भव व परभव का आयुष्य बांधता है वगैरह जो कहते हैं सो मिथ्या है.00 परंतु अहो गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि एक जीव एक समय में इस भवका अथवा परभव का ऐसे दोनों में से एक भवका आयुष्य बांधता है. जिस समय में इस भवका आयुष्य बांधता है| उस समय में परभव का आयुष्य नहीं बांधता है और जिस समय में परभव का आयुष्य बांधता है उस । 408883 पहिला शतक का नववा उद्देशा 848862 भावार्थ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी *र्थिक ए. ऐसा आ० कहते हैं जा. यावत् प० परभवका आ० आयुष्य जे• जो ते वे ए. ऐसा आok कहते हैं मि० मिथ्या ते वे आ० कहते हैं अ० मैं पु. फीर गो० गौतम ए. ऐसा भा० कहता हूं जा. यावत् प० प्ररूपता हूं ए. एक जीव ए. एक समय में ए० एक आ• आयुष्य प० बांधे से वह | २२२ ए. ऐसे भं० भगवन् भ० भगवान गो. गौतम जा. यावत् वि. विचरते हैं ॥ १४ ॥ ते० उसकाल ते०१ इह भावयाउयं पकरेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेइ तंजहा इह भवियाउयंवा परभवियाउयंवा सेवं भंते भत्तेत्ति भगवं गोयम जात्र विहरइ ॥ १४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावञ्चिन्ने कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, थेरं भगवं एवं वयासी समय में इस भवका आयुष्य नहीं बांधता है. इस भव का आयुष्य बांधते परभव का आयुष्य नहीं बंधाता है. और परभव का आयुष्य बांधते इस भव का आयुष्य नहीं बंधाता है. इसी से एक जीव एक समय में इस भव का अथवा परभव का ऐसे एक भव का आयुष्य बांधता है. अहो भगवन् ? आपने कहा सो यथा तथ्य है ऐसा गौतम स्वामी कहकर विचरने लगे ॥१४॥ उस काल उस समय में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्य कालासवेसितपुत्र नामक अनगार जहां भगवंत श्री महावीर स्वामी के शिष्यथे वहां आये और स्थविर, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48808 शब्दार्थ में उस समय में पा० पार्श्वनाथ के अ० शिष्य का कालासवेसित पुत्र अ० अनगार जे. जहां थे० स्थविर भ० भगवन्त ते० तहां उ० आये उ आकर थे० स्थविर भ० भगवन्त को एक ऐसा व०कहा थे० स्थविर, सा० सामायिक ण, नहीं या० जानते हैं थे० स्थविर सा० सामायिक का अ० अर्थ ण. नहीं या० जानते हैं थे० स्थविर प० प्रत्याख्यान न० नहीं या० जानते हैं थे० स्थविर प. प्रत्याख्यान का अर्थ ण नहीं या जानते हैं थे स्थविर सं०संयम व संयम का अर्थ नः नहीं जानते हैं थे स्थविर सं० संवर ण थेरां सामाइयं ण याणंति, थे। सामाइयस्स अटुंणयाणंति, थेरा पच्चक्खाणं नयाणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अटुं णयाणंति, थेरा संयम णयाणंति, थेरा संजमस्स अटुं णयाणंति, थेरा संवरं णयाणंति, थेरा संवरस्स अटुं नयाणंति, थेरा विवेगं णयाणंति, थेरा विवेगस्स अटुं ण याणंति, थेरा विउस्सग्गं णयाणंति, थेरा विउस्सग्गस्स अटुं नया णति ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी, जाणामोणं भावार्थ | भगवन्त को ऐसा कहने लगे. अहो स्थविर ! तुम समताभाव रूप सामायिक नहीं जानते हो, कर्म का अनुपादान व निर्जरारूप सामायिक का प्रयोजन को नहीं जानते हो, पोरिशी वगैरह प्रत्याख्यान तुम। नहीं जानते हो, आश्रय द्वार निरोध रूप प्रत्याख्यानका प्रयोजन तुम नहीं जानते हो, पृथिव्यादि का संरक्षण 12 रूप संयम तुम नहीं जानते हो, अनाश्रवपना सो संयम का अर्थ तुम नहीं जानते हो, इन्द्रिय (भगवती) 28- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( पहिला शतकका नववा उद्देशा8080 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ नहीं या० जानते हैं सं० संवर का अ० अर्थ न नहीं या. नानते हैं थे० स्थविर वे. विवेक ण.. नहीं या० जानते हैं वि० विवेक का अर्थ वि० कायोत्सर्ग वि० कायोत्सर्ग का अर्थ न० नहीं या० जानते हैं त० तब ते वे थे० स्थविर का कालामवेसित पुत्र अ० अनगार को ए. ऐसा 4. कहे जा० जानता हूं अ० आर्य मा. सामायिक जा० जानता हूं अ० आर्य सा० सामायिक का अर्थ जा० अजो सामाइयं, जाणामोणं अज्जो सामाइयस्स अट्रं, जाव जाणामोणं अजो विउस्सग्ग स्स अटुं । तएणसे कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं वयासी, जइणं कई अजो तुन्भे जाणह सामाइयं, जाणह सामाइयस्स अटुं, जाव जाणह विउस्सग्गस्स ___ अटुं; के भे अजो सामाइए ? केभे सामाइयस्स अटे, जाव के भे विउसग्गस्स भावार्थ नोइन्द्रिय का निग्रह रूप संवर तुम नहीं जानते हो, अनाश्रवपना सो संवर का अर्थ तुम नहीं जानते हो, विशिष्ट बोध रूप विवेक तुम नहीं जानते हो, त्याग व त्यागादि जो विवेक उस का अर्थ तुम नहीं जानते. हो, त्यागरूप कायोत्सर्ग तय नहीं जानते हो, और कायोत्सर्ग का अर्थ तम नहीं जानते हो. तब श्री स्थ-: विर भगवंत उन कालासवेसित पुत्र अनगार को ऐसे बोले कि अहो आर्य ! मैं समपरिणाम रूप सामायिक जानना हूं. कर्भका अनुपादान व निर्जरा रुप सामायिक का अर्थ मैं जानता हूं यावत् कायो-al | Vत्सर्ग व कायोत्सर्ग का अर्थ मैं जानता हूं-तब कालासवेसित पुत्र नामक अनगार उन स्थविर भगवंत को दिक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी घालाप्रसादजी * ANNNNNN Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 88 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) यावत् जा० जानता हूं अ० आर्य वि० कायोत्सर्ग का अर्थ त० तब का कालासवेसित पुत्र अ० अन-१० | गार थे० स्थविर भ० भगवन्त को एक ऐसा व. कहा ज. यदि अ० आर्य तु. तुम ना जानते हो सा. सामायिक जा जानते हो सा० सामायिक का अर्थ जा. यावत् जा० जानते हो वि० कायोत्सर्ग २२५ का अर्थ के क्या अ० आर्य सा० सामायिक के क्या सा० सामायिक का अर्थ जा. यावत् के. क्या वि० कायोत्सर्ग का अर्थ त० तब थे० स्थविर भ० भगवन् का० कालासवेमित पुत्र अ० अनगार को __ अटे? तएणं ते थेरा भगवंतो कालासवसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-आयाणे अजो! सामाइए, आयाणे अजो सामाइयस्स अटे, जाव विउस्सग्गस्स अट्ठ॥ तएणं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते एवं वयासी-जइ भे अजो ! आया सामाइए आया सामाइयस्स अट्टे जाव आया विउस्सग्गस्स अट्टे, अवहटु कोह माणमाया लोभे, किमटुं अजो गरहह ? कालासा ! संजमट्टयाए । से भंते ! किं गरहासंजमे, अगऐसे बोले की यदि तुम सामायिक, सामायिकका अर्थ यावत् कायोत्सर्ग का अर्थ जानते हो तो अहो आर्य !ge सामायिक क्या है, सामायिक का अर्थ क्या है, भारत कायोत्सर्ग का अर्थ क्या है ? तब स्थविर भगवंत कालासोशित पुत्र नामक अनगार को ऐसे बोले की अहो आर्य ! हमारे मतमें सामायिक गुण प्रतिपन्न जीव को ही सामायिक कही है, आत्मा को ही सामायिक का अर्थ कहां है यावत् आत्मा का ही कायो पहिला शतकका नववा उद्देशा भावार्थ > | | Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ २२६ को शब्दार्थ ए. ऐसा व० कहा आ० आत्मा णे० हमारे में सा० सामायिक आ० आत्मा णे. हमारे में सा० सामा- . यिक का अर्य जा. यावत् वि. कायोत्सर्ग आ अर्थ त० तब से वह का: कालासरेसित पुत्र अ० अनगार थे० स्थविर भ. भगन्वत को एक ऐसा व० कहा अ० आर्य आ० आत्मा मा० सामायिक आ० आत्मा सा० सामायिक का अर्थ जा. याात् आ० आत्मा वि. कायोत्सर्ग का अर्थ अ० छोडकर रहासंजमे ? कालासा! गरहासंजमे नो अगरहा संजमे; गरहात्रियणं सव्वं दोसं प. विणेइ सव्वं बालियं परिणाए । एवं खु णे आया संजमे उवहिए भवइ, एवंखु णेआया संजमे उवचिए भवइ, एवंखु णेआया संजमे उवट्टिए भवइ । एत्थणं से कालासवेसियपुत्त अणगारे संबुद्धे थरे भगवंते बंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसइत्ता एवं वयासी-एएसिणं भंते ! पयाणं पुट्विं अण्णाणयाए, असवणयाए, अबोहियाए, भावार्थ त्सर्ग का अर्थ कहा है. तब वह कालामवेशित पुत्र नामक अनागर बोले की अहो आर्य ! यदि तुमारे मत में आत्मा सामायिक, आत्मा सामायिक का अर्थ यावत् आत्मा कायोत्सर्ग का अर्थ है तो क्रोध, मान, माया व लोभ का त्याग कर के उसकी निन्दा क्यों करते हो ? क्यों कि निन्दा, गर्दा यह प्रद्वेष का कारन है; और क्रोधादि त्यागने वाला सामायिक वृत्तिवाला निन्दा गही नहीं कर सकता है तब स्थविर 60 भगवंतने उत्तर दीया कि अहो कालासवाशत पुत्र ! अवद्य पापकी गहीं करते संयम होता है. तब पुनः वह कालासबोशित अनगार बोले कि अहो भगवन् ! क्या गर्दा संयम है या अगर्दा संयम 4.9 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + www * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ क्रोध मा० मान मा० माया लो० लोभ कि क्या अ० आर्य ग. गहते हो का. कालासवेसित सं० संयम केलिये से वह भ० भगवन् कि० क्या ग. गर्दा सं संयम अ० अगर्दा सं• संयम का. कालासोसित ग०. गर्दा सं० संयम नो० नहीं अ० अगर्दा सं० संयम ग० गर्दा स. मब दो दोष ५० क्षपावे स० सत्र बा० मिथ्यात्व प० जानकर ए. ऐसे आ० आत्मा स० संयम में उ• स्थिर भ० होवे उ० पुष्ट भ० होवे* उ० उपस्थित भ. हावे ए. यहां से वह का. कालासवेसित पुत्र अ० अनगार सं० स्वयं बुद्ध थे. अणभिगमेणं, अदिवाणं अस्सुयाणं असुयाणं, अविण्णायाणं अव्वोगडाणं अव्वोच्छिण्णाणं, आणिज्जूढाणं, अणवधारियाणं. एयम, णो सद्दहिए, णोपत्तिइए णोरोइए, इयाणिं भंते ! एएसिणं पयाण जाणणयाए. सवणयाए, बोहियाए, अभिगमेणं दिवाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं, वोगडाणं, वोच्छिण्णाणं, णिज्जढाणं उवधारियाणं; एयमटुं सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि, एवमेयं सेजहेयं तुब्भे वयह ॥ तएणते थेरा भगवंतो कालासवेसिय पुत्त अणगार एवं वयासी । भावार्थ अहो अनगार ! गर्दा संयम है परंतु अगर्दा संयम नहीं है. गर्दा से सब रागादि दोषों अथवा पूर्व कृत पाप क्षय होता है और सब मिथ्यात्व ज्ञान परिज्ञान से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञान से छटता है इस ! तरह से हमारे मत में आत्मा स्थिर व पुष्ट होता है. ऐसा सुनकर कालासवेशित पुत्र नामक अनगारन 15 स्थविर भगवन्त को वदना नमस्कार किया. वंदना नमस्कार करके कहने लगे कि अहो भगवन् ! मुझे, 80 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र पहिला शतक का नववा उद्देशा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ Po 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी स्थविर भ० भगवन्त को व वंदनकर न० नमस्कारकर ए. ऐसा व कहा ए. यह भ० भगवन् प०पद में पु० पुहिले अ० जाना नहीं अ० सुना नहीं अ० बोध नहीं अज्ञान नहीं अ० देखा नहीं अ० सुना नहीं अ० स्मरण नहीं किया अ. विज्ञान हुवा नहीं अ.गुरुगम नहीं हुवा अ० व्यवच्छेद नहीं हुवा अ० सुखाव बोध नहीं है अ० धारा नहीं ए. यह अर्थ णो० श्रद्धे नहीं नो० प्रतित कीये नहीं णो० रुचे नहीं इ. अब भं० भगवन सदहाहि अजो, पत्तियाहि अजो, रोएहि अजो, सेजहेयं अम्हे वयामो ॥ तएणं से कालासोसिय पुत्ते अणगारे थेरे भगवंतो वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसइत्ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुब्भे अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंच महब्बइयं सपडिवामणं धम्मं उवसंपजित्ताणं विहारत्तए ? । अहासुहं देवाणुप्पिया इन पदों का इस प्रकार के अर्थ का ज्ञान नहीं था, मैंने उम का स्वरूप नहीं पहिचानाथा, मैंने पहिले किसी की पास ऐसा श्रवण नहीं कियाथा. मुझे ऐसी प्रतीति नहीं हुईथी; मुझे ऐसा साक्षात्कार नहीं हुया था, मुझे ऐसा गुरुगम नहीं हुवा था, मेरा संदेह इस प्रकार किसीने नहीं मीटाया था, मुझे ऐसा सुखाव बोध नही हुआ था, मैंने इस प्रकार ऐमा धारण नहीं किया था, मैं इस प्रकार इसे नहीं श्रद्धता था, मुझे ऐमा रुचिकर नहीं हुआ था, अब अहो भगवन ! इन का अर्थ मैंने जाना है, ज्ञान से बोधित हुवा है, सम्यक्त्व से विस्तृत अर्थावबोधवाला हुआ है विशपकर धारन किया है, मर्वथा प्रकार से संदेह दर हुआ manawinAnamnamaAN * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ 488%> ए. यह प० पद जा० जाने त• सुने उ० अवधारे ए• यह अर्थ स• श्रद्धता हूं ५० प्रतीति करताहूं ए० ऐसे ज० जैसे तु• तुम व कहते हो त० तब थे० स्थविर भ० भगवान का कालासवेसित अ० अनगार को एक ऐसा व कहा स० श्रद्धा करो अ० आर्य प० प्रतीति करो रो० रुचिकरो ज. जैसे अ० मैं कहता हूं त० तब का कालासवेसित पुत्र अ० अनगार थे० स्थविर भ० भगवन्त को वं. वंदनकर न० नमस्कारकर इ० इच्छता हूं तु० तमारी अं० पास चा. चार महाव्रत ध० धर्म से पं० पांच म० महाव्रत सी प्रतिक्रमण सहित ध० धर्म उ• अंगीकार करके वि० विचरने को अ० यथासुख दे० देवानुप्रिय मा० नहीं ___ मा पडिबंध करेह, तएणं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसइत्ता चाउजामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंप जित्ताणं विहरइ ॥ तएणं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणिवासाणि सामण्ण परिभावार्थ यह अर्थ अच्छी तरह से मैंने स्वीकार किया है, अब मैं इन की श्रद्धा, प्रतीति व हार्च करता हूं आपने IF जो कहा है वैसाही भाव है. तब स्थविर भगवंत कालासवेशित पुत्र नामक अनगार को बोले की अहो} ge आर्य ! जो मैं कहताहूं उन वचनों की तुम श्रद्धा प्रतीति व रुचि करो. तब कालासवेशित पुत्र नामक अनगारर श्री स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार कर के बोले की अहो भगवन् ! मैं आपकी समीप चार महाव्रत रूप धर्म से प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत रूप धर्म अंगीकार करने को इच्छता हूं. तब स्थ-01 पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र पंचमाङ्ग विवाह पहिला शतक का नववा उद्देशा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ९० अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १० प्रतिबंध क० करो त त का कालाससित पुत्र अ अनगार थे० स्थविर भ० भगवान् को दं (वंदनकर न० नमस्कारकर चाट चार महावत घ० धर्म में पं० पांच महाव्रत स० प्रतिक्रमण सहित धर्म उ० अंगीकार कर वि० विचरता है का कालामंत्रसित पुत्र अ० अनगार ब० बहुत व० वर्ष सार साधु पर्याय पा० पाली पा० पालकर ज० जिसलिये की० करे न० नम्र भाव मुं० मुडभाव अम्लान करना नहीं अ० दंत प्रक्षालन नहीं अ० छत्र नहीं अ० उपानह रहित भू० भूमि शैय्या फ० पाटशैय्या क० काष्ट शैय्या के केशलोच बं० ब्रह्मचर्य प० परगृह प्रवेश ल० प्राप्त अ० अप्राप्त उ० ऊंच नीच गा० इन्द्रिय समुह बा० बावीस पः परिषह उ० उपसर्ग अ० महन त० इसलिये आ० आरायागं पाउणइ पाउणइत्ता, जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे, अन्हाणयं, अदंत ध्रुवणयं, अच्छन्तयं, अणोवाहणयं, भूमिसेज्जा फलहसेज्जा, कटुसेजा, केसलोओ, बंभ चेरवासो, परघरप्पवेसो, लढावलद्वी, उच्चावया गामकंटया, बावीसं परीस होव सग्गा विर भगवन्त बोले की ज्यों तुम्हारा आत्मा को सुख होवे वैसे करो ऐसा कार्य में प्रतिबंध [ विलंब ]} मत करो तब कालासवेशित पुत्र अनगारने स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार किया; वंदना नमस्कार करके चार महाव्रत रूप धर्म में से प्रतिक्रमण सहित पांच महात्रत रूप धर्म अंगीकार कर विचरने लगे. तब उन कालासवेशित पुत्र अनगारने बहुत कालतक साधु की पर्याय का पालन किया. और पालन करके जिस लिये नवपना, मुंड भाव, स्नान नहीं करना, दंत प्रक्षालन नहीं करना. छत्र व उपानद रहित * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 32 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ॐ आर आयकर च चरम उ० श्वासोश्वास मे सि० सिद्ध बु बुद्ध मुक्त पत्र परिनिवृत्त सम * दुःख मे प०मुक्त मं भगवन् निः ऐसा ॥ १० ॥ भ० भगवान् गो० गौतम स० भ्रमण भ० भगवान म० महावीर को बं० वंदना कर न० नमस्कार कर ए० ऐसा व वाले भं० भगवन् से० शेठ त० दरिद्री कि० रंक ख० क्षत्रिय स० सारखी अ अप्रत्याख्यान कि० क्रिया क० करे ६० हां० गो० गौतम अहियासिज्जइ; तम आहे आहेइत्ता चरमेहिं उस्सास नीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिल्युए सव्वदुक्खपहीणे संतति ॥ १५ ॥ भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी सेणूणं भंते ! सेट्ठिस्सय तणुयरस, सूत्र भावार्थ 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पना, भूमिशैय्या, काष्टशैय्या केशलोचन, ब्रह्मचर्य, परघर प्रवेश, प्राप्ति अप्राप्ति, ऊंच नीच इन्द्रियों के समूह और बावीस परिषद के उपसर्ग सहन करते थे; उसे आराधकर चरम श्वास नीश्वास में सिद्ध बुद्ध यावत् सब दुःखों से रहित हुवे. अहो भगवन् ! यह आपका वचन सत्य है ।। १५ ।। क्रिया रहित होने से सिद्ध होते हैं इसलिये क्रिया का प्रश्न करते हैं. गौतम स्वामीने महावीर भगवंत को वंदना नमस्कार करके ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! श्रेष्टि, दरिद्री, कृपण व क्षत्रिय को क्या एक सारखी अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है ? हां गौतम ! श्रेष्टि, दरिद्री, कृपण व क्षत्रिय को एक सरिखी अप्रत्याख्यान | क्रिया लगती है. अहो भगवन् ! सब को एक सरिखी क्रिया लगनेका क्या कारन ? अहो गौतम ! 898 पहिला शतकका नवत्रा उद्देशा 48 २.३१ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ! ९३ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * सें० शेठ का जा० यावंत अ० अप्रत्याख्यान क्रिया क० कर से० वह के० कैसे भं० भगवन् गो० गौतम) अ० आवरात प० प्रत्यय ते० इसलिये गो० गौतम ए० ऐसा बु० कहा जाता है से० शेठ त० दरिद्री { जा० यावत् क करे ॥ १६ ॥ अ० आधाकर्मी भुं० भोगवता स० श्रमण निः निर्बंध किं० क्या बं० बांधे (प० करे चि० चिने उ० उपचिने गो० गौतम आ० आवाकर्मी भुं० भोगवता आ० आयुष्य व ० वर्जकर स० सात {क० कर्म प्रकृति लि० सिविल ० ० बंधी हुई ६० दृढ बं बंधन ब० बंधी हुई प० करे जा० यावत् किवणस्सय, खत्तियस्सय समाचैव अपच्चक्खाण किरिया कज्जइ ? हंता गोयमा ! सेट्ठियरस जाव अपच्चक्खाण किरिया कज्जइ । से केणटुणं भंते ? गोयमा ! अविरई पडुच्च, से तेणट्टेणं गोपना ! एवं द्विसाय तणु जव कजइ ॥ १६ ॥ आहाकम्र्म्मणं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधइ. किंपकरेइ, किंचिणाइ, किंउवचिणाइ ? गोयमा ! आहाकम्मं भुंजमाणे आउययजाओ सत्तकम्म पगडीओ सिढिलबंधण अविरति प्रत्ययिक सब को एक सरिखी क्रिया लगती है. क्यों की इच्छा सब को एक मरिखी है; और उस की निवृत्ति किसी को नहीं हुई है इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि श्रेष्टी यावत् क्षत्रिय को एक सारखी अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है || १६ || अहो भगवन् ! आधाकर्मी आहार भोगने[ स्थिति की अपेक्षा से ] क्या चिने वाला साधु निग्रंथ क्या बांधे, [ प्रकृति की अपेक्षा से ] क्या करे, २३२ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 493 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र अ० परिभ्रमण से० वह के० कैसे जा० यावत् आ० आधाकर्मी भुं० भोगवता जा० यावत् अ० परिभ्रमण करे गो० गौतम आ० आधाकर्मी भुं० भोगवता आ० आत्मा से घ० धर्म अ० अतिक्रमे आआत्मा से ध० धर्म अ० अतिक्रमता पु० पृथ्वी कायाकी ण नहीं अ० अनुकंपाकरे जा० यावत् तत्रसकाया की ण०नहीं अ० बढाओ धणिय बंधण बद्धाओ पकरेइ, जाव अणु परियहइ । से क्रेणट्टेणं जाव आह कम्मणं भुंजमाणे जाव अणुपरियहइ ? गोयमा ! आहाकम्मंणं भुंजमाणे आयाए धम्मं अइक्कमइ आयाए अक्कममाणे पुढविकायं णावकखइ जाव तसकायं णावकखइ, जेसिंपियणं जीवाणं * पहिला शतक का नववा उद्देशा [[ अनुभाग की अपेक्षा से ] और प्रदेश बंध की अपेक्षा से क्या उपाचने ! अहो गौतम ! आधाकर्मी आहार भोगनेवाला श्रमण निग्रंथ आयुष्य कर्म वर्जकर अन्य सात कर्म प्रकृतियों यदि शिथिल बंधनवाली. होवे तो दृढ बंधनवाली बनावे, अल्प काल की स्थितिवाली को दीर्घ काल की स्थितिवाली बनावे, ( यावत् अनंत कालतक चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करे. अहो भगवन् ! किस कारन से आधा [कर्मी भोगवनेवाला साधु सात कर्म प्रकृतियों को दृढ बंधनवाली बनावे यावत् चतुर्गतिक (परिभ्रमण करें ? अहो गौतम ! आधाकर्मी आहार भोगनेवाला आत्मासे धर्म अतिक्रमता है, धर्म अतिक्रमते पृथ्वीकायादि षटूकाया की अनुकम्पा रहित होता है और जिन जीवों के संसार में आत्मा से शरीर का २३३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २३४ मुनि श्री अलक ऋपिजी दक-बालब्रह्मचारी अनुकंपाकरे जे० मिन जी जीव के श० शरीर का आहार आ. करे ते. उन जी0 जीवों की नहीं। अ० अनुकंपाकरे से वह ते. इसलिये गो० गौतम एक ऐसा वु. कहा जाता है आ० आषाकर्मी भुं० भोगवता आ० आयुष्य व० वर्जकर स० सात क. कर्म प्रकृति जा. यावत् अ० परिभ्रमण करे ॥ १७॥ फा प्रामुक ए० शुद्ध भं. भगवन भुं०भोगवता किं क्या बं० बांधे जा. यावत् उ० उपचिने गो० गौतम फा० प्रास्क भं० भोगवता आ. आयुष्य वर्ज कर स० सात क. कर्म प्रकृति ध० दृढ वं. बंधन व० बंधी हुइ सरीराइं आहारमाहारइ तावजाच नावकखइ, सतणण गोयमा ! एवं वुच्चइ, आहाकम्मण भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्म पगडीओ जाव अणुपरियदृइ॥१७॥फासुएसणिजं भंते ! भुंजमाणे किंबंधइ ? जाव उवचिणाइ ? गोयमा ! फासुएसणिज्जं भुंजमाणे आउय बजाओ सत्त कम्मपगडीओ धणिय बंधन बद्धाओ सिढिल बंधण बद्धा वह आहार करता है उन जीवों की भी अनुकम्पा रहित होता है. इस लिये भहो गौतप: आधाकर्मी आहार भोगनेवाला आयुष्य कर्म छोडकर अन्य मात कर्मों का दृढ बंधन करता है यावत् चतुतिक संसार में परिभ्रमण करता है ॥ १७ ॥ प्रासुक एपणिक वस्तु भोगनेवाला श्रमण निग्रंथ किस का बंध करे यावत् क्या उपचिने ? अहो गौतम ! प्रामुक एषणिक वस्तु भोगनेवाला श्रमण निग्रंथ आयुष्य का * प्रकाशक-राजावहादुर ला । मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ के सि शिथिल बं०बंधन व बंधीहुइ प० करे ज जैसे संसंवृति ण विशेष आ० आयुष्य क० कर्म सि० कदा-* चित् ६० बांधे सिं० कदाचित् नो० नहीं बं० बांधे से शेष त० तैसे जा. यावन् वी० तीरे से० वह के०14 कैसे जा० यावत् वी० तीरे गो० गौतम फा० प्रामुक ए० शुद्ध भुं० भोगवता स० श्रमण नि० निग्रंथ • आत्मा से ध० धर्म ना० अतिक्रमे नहीं आ० आत्मा से ध. धर्म अ. नहीं अ० अतिक्रमनेसे से पु. पृथ्वी काया की अ० अनुकंपाकरे जा. यावत् त• त्रसकाया की अ० अनुकंपाकरे जे• जिस जी की | ओ पकरेइ जहा से संवुडेणं णवरं आउयंचणं कम्म सि बंधइ सिय नो बंधइ सेसं * है तहेव जाव वीईवयइ । सेकेणटेणं जाव वीईवयइ ? गोयमा ! फासुएसाणजे भुंज- माणे समणे निग्गंथे आयाए धम्मं नाइक्कमइ, आयाए धम्मं अणइक्कममाणे पुढविकायं IF छोडकर अन्यसात कर्मों यदि दृढ बंधनवाले होवे तो शिथिल बंधनवाले बनावे और आयुष्य कर्म क्वचित् बांधे, क्वचित् वांधे नहीं. उस में यदि आयुष्य कर्म का बंध करे तो वैमानिक देवता होवे और आयुष्य का बंध नहीं करे तो मुक्तिगामी जीव होवे. अहो भगवन् ! ऐसा किस तरह से होता है ? अहो गौतम !!go प्रासुक एषणिक आहार भोगनेवाला आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता है इस तरह उल्लंघन नहीं करता। हुवा पृथ्वीकायादि षट्कायाकी अनुकम्पावाला होता है यावत् जिन जीवों के शरीर का आहार करता है, J उन जीवों की भी अनुकम्पावाला होता है. इस लिये अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि प्रासुक एषणिक 498 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 43 84.83 पहिला शतक का नववा उद्देशा 87088 भावार्थ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ elg शब्दार्थ | + जीव के स० शरीर का आ० आहार करे ते० उन जी० जीवों को अं० अनुक्रपाकरे से ० वह ते० इसलिये {जा० यावत् बी० तीरे ॥ १८ ॥ से० वह मं० भगवन् अ० अस्थिर पर परिवर्तन होवे नो० नहीं थि० स्थिर ५० परिवर्तन होवे अ० अस्थिर भ० भेदावे नो० नहीं थि० स्थिर भ० भेदावे सा० शाश्वत बा० सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अवकखइ जाव तसकायं अवकखइ, जेसिंपियणं जीवाणं सरीराई आहारइ तेवि जीवे अवकखइ, से तेणट्टेणं जाव वीईवयइ || १८ || सेणूणं भंते ! अथिरे पलोइ नोथिरे पलोहइ, अथिरे भज्जइ नो थिरे भज्जइ, सासए बालए बालियत्तं { आहार भोगनेवाला सात कर्मका शिथिल बंधन करता है और आयुष्य कर्म क्वचित बांधता है व क्वचित् नहीं बांधता है यावत संसार का व्यतिक्रम करता है ॥ १८ ॥ इस में संसार का उल्लंघन कहा वह संसार का { अस्थिरपना से हांवे इस लिये स्थिर अस्थिर का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ पटते हैं और पते है। अस्थिर का भेद होता है और स्थिर का नहीं होता है । हां गौतम ! } बालक शाश्वत, बालक पना अशाश्वत, पंडित शाश्वत व पंडितपना क्या अशाश्वत है ! अस्थिर द्रव्य जो लोहादि उनका परावर्तन होता है, ( आध्यात्म चिन्तन में ) अस्थिर कर्म जीव प्रदेश समय २ में चले. स्थिर सो पत्थारादि चले नहीं आध्यात्म चिन्ता में जीव का उपयोग स्थिर तृणादि } * प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २३६ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * बालक वा बालपना अ० अशाश्वत सा० शाश्वत पं० पंडित पं० पंडितपना अ अशाश्वत ६० हां गो० ॐ गौतम अ० अस्थिर प० परिवर्तन होवे जा० यावत् पं० पंडितपना अ० अशाश्वत स० वह ए० ऐसा ० मं० भगवन् जा० यावत् वि० विचरते हैं ॥ १ ॥ १ ॥ + x सूत्र भावार्थ | पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र असासयं सासए पंडिए पांडयत्तं असासयं ? हंता गोयमा ! अथिरे पलोहइ जाव पंडियत्तं अलासयं सेवं भंते संतेत्ति जाव विहरइ || पढमेसए नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ ९ ॥ ** ** * QQ पहिला शतक का नववा उद्देशा अस्थिर भेद्य स्वभाव वाले हैं आध्यात्म चिन्ता में अस्थिर कर्म भेदावे, लोहकी शलाका अभेद्य स्वभाव वाली है और शाश्वतपना से जीव के टुकडे होवे नहीं. व्यवहार से बालक शाश्वत है और निश्चय से जीव शाश्वत व्यवहार से बालक भाव अशाश्वत निश्चय से अत्यंत भाव अशाश्वत, निश्चय से पंडित तत्र { के जान- शाश्वत, व्यवहार से संयती जीव शाश्वत व्यवहार से पंडितपना अशाश्वत और निश्चय से संयत २० भाव अशाश्वत होवे. अहो भगवन् ! आपने कहा वह सब सत्य है अन्यथा नहीं है ऐसा कहकर वंदना नम( स्ककार कर श्री गौतम स्वामी संयम व तप से आत्मा को भागते हुये विचरने लगे. यह पहिला शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १ ॥ ९ ॥ 強 २३७ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २३८ सूत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी , अ० अन्यतीर्थिक भं० भगवन् ए. ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते हैं च० चलते को अ०. नहीं चला जा. यावत् नि निर्जरते को अ० नहीं निर्जरा दो० दो प० परमाणु पुद्गल ए० एकत्रित नई नहीं सा० मीले क. कैमे दो दो ५० परमाणु पुद्गल को न० नहीं है सि० स्निग्धपना त• इसलिये दो दो प० परमाणु पुद्गल ए. एकत्रित न० नहीं सा० मीले ति तीन ५० परमाणु पुद्गल ए० एकत्रित मा०मीले क० कैसे ति तीन प. परमाणु पुद्गल ए. एकत्रित मा० मीले ति तीन प० परमाणु पुद्गल अण्णउत्थियाणं भंते ! एव माइक्खंति जाव परूवंति एवं खलु चलमाणे अचलिए जाव निजरिजमाणे आनिजिण्णे दो परमाणु पोग्गला एगयओ न साहणंति, कम्हा दो, परमाणु पोग्गलाणं णत्थि सिणहकाए तम्हा दो परमाणु पोग्गला एगयओ न साहणंति ॥ तिण्णि परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा तिण्णि परमाणु पोग्गला एगयओ नववे उद्देशे में अस्थिर कर्म का विषय कहा. उम में कुतीर्थिक प्रवर्तते हैं मो आगे बतलाते हैं. कितनेक अन्य तीथिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जो कर्म जीव प्रदेश से चलने लगे उसे चले कहना नहीं यावत् निर्जरने लगे उसे निर्जरे कहना नहीं क्यों की वर्तमान काल को अतीत काल नहीं कह सकते हैं; परंतु जो संपूर्ण पुद्गल चलित हुवे होवे तब चले और निर्जरित हुवे होवे तव निर्मरे कहना, और वे ऐमा कहते हैं कि दो परमाणु पुद्गल एकत्रित्र स्कन्धपने मीले नहीं क्यों कि मीलने में जो स्निग्धपने का प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ * Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Do? शब्दार्थ को अ० है सि. स्निग्धपना त• इसलिये ति तीन प० परमाणु पुद्गल ए० एकत्रित मा. मीले ते. वे भि० भेदाते दु. दोपकार से ति तीन प्रकार से क. कर द० दोपकार से कि० करते ए. एक तरफ दि० देढ ५० परमाणु पुद्गल भ० होवे ए. एक तरफ दि देव प० परमाणु पुद्गल भ० होवे ति. तीन प्रकार से क०करते ति तीन ५०परमाणु पुद्गल ह होवे ए०ऐसे जा० यावत् च. चार पं० पांच ५०परमाणु पुद्गल ए एक बाजु से सा०मीले ए. एक बाजुमे मा० मीलकर दु दुःखपने क करे दु०दुःख सा० शाश्वत स० । साहणंति, तिण्णि परमाणु पोग्गलाणं अत्थि सिणेह काए, तम्हा तिण्णि परमाणु OF पोग्गला एगयओ साहणति, ते भित्रमाणा दुहावि तिहावि कजंति. दुहा किजमाणा है एगयओ दिवड्डे परमाणु पोग्गले भवइ, एगयओ दिवड्डे परमाणु षोग्गले भवइ, ___ तिहा कज्जमाणा तिणि परमाणु पोग्गला हवंति एवं जाव चत्तारि पंच परमाणु गुण है वह उन परमाणु पुद्गलों में नहीं है. परंतु तीन परमाणु पुद्गल मीलकर स्कंधरूप बनजाते हैं क्यों की इसमें स्निग्धता रही हुइ है. उस तीन परमाणु पुद्गल का स्कन्ध को भेदने में आवेतो इस के दो अथवा 0 तीन विभाग होसकते हैं. जब दो विभाग किया जाता है तब देव २ परमाणु का एक २ विभाग होता है, और जब तीन विभाग किया जाता है तब एक २परमाणु का तीन विभाग होता है. जैसे दो परमाण का स्कंध होता है वैसे ही तीन, चार पांच परमाणुओं का स्कंध बनता है वे स्कंध रूप बनकर - पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र arwarwww.marawwwwwwwwwwww 488948 पहिला शतक का दशवा उद्देशा 988 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सदाकाल उ० चयपामे अ० अपचयपामे प. पहिले भा० भाषा श. भाषा भा० बोलाती हइ भा० भाषा अ० अभाषा भा० भाषा समय वि० व्यतीत हुवा भा० बोली हुइ भा० भाषा अ. अभाषा भा० भाषा समय वि० व्यतीत हुवा भा० बोलीहुइ भा० भाषा किं. क्या भा० भाषक को भा० भाषा अ० अभाषक भा० भाषा णो नहीं सा वह भा० भाषक को भा० भाषा पु० पहिली कि० क्रिया दु. दुःख क० करते। कि क्रिया अ० अदःख कि क्रिया स० समय वी० व्यतीत हवे क० कीहुइ कि० किया दु० दुःख पोग्गला एगयओ साहणंति, एगयओ साहणित्ता दुक्खत्ताए कजंति, दुक्खेवियणं सेसासए सयासमियं उवचिजइयं अवचिजइयं, पाल्वं भासा भासा, भासिज्जमाणी भासाअभासा, भासासमयवितिकतंचणं भासिया भासा, जा सा पुव्वं भासा भासाभासि जमाणी भासा अभासा, भासा समयवितिकंतंचणं भासियाभासा सा किं भासओ दुःख रूप ( कर्म पने ) परिणमते हैं. कर्म अनादि होने से वह दुःख भी शाश्वत होता है. वह सदैव सम्यक् प्रकार से चय उपचय-हानि वृद्धि को प्राप्त होता रहता है. और भी वे अन्य तीर्थिक कहते हैं कि पहिले बोलाइ हुई प्रथम की भाषा को भाषा कहनाः परंतु वर्तमान में बोलाती हुई भाषा को भाषा कहना नहीं, भाषा का समय अतिक्रान्त हुवे पीछे भाषा को भाषा कहना. और जब बोलाइ हुई प्रथम , की भाषा को भाषा कहना, बोलाती हुई भाषा को अभाषा कहना, और भाषा समय व्यतीत हुए पीछे प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ मोबर प. पहिली कि मियादव क करते कि क्रिया अ० अदाख कि क्रियास समय बी० च्यतीतहये क कीहुए फिर किया दुदायक, करण दुक दाख अ अकरण द० दुःख णो नहीं मा वह क० करण दुदानका कहना अनहीं किया दादुःख अ० नहीं स्पर्शा नहीं करते पा० प्राण भ. भून भासा,अभासओ?भाला अभालओणं साभासा णो खलुसा भासओ भासा। पुदि किरिया दुक्खा,कजमाणी किरिया अदक्खा,किरिया समयवीतिकंतं चणंकडा किरिया दक्खा,जा सा पाव्वं किरिया दक्खा, कजमाणा किरिया अदक्खा किरिया समय बीइकंतंचणं कडा किरिया दुक्खा । सा किं करणओ दुक्खा अकरणओ दुक्खा ? अकरणओणं सा दुक्खा, णो खल सा करणओ दुक्खा, सेव वत्तव्यं सिया, आकिच्चं दुक्खं, अफसंभावार्थ बोलाइ जो भाषा उसे भापा कहना, तब क्या वह भाषा भापकको होती है या अभापक को होती है ? तब अन्यतीर्थिक ऐसा उत्तर देते हैं कि भापक को भापा नहीं; परंतु अभाषक को भाषा होती है। और भी अन्य तीर्थक ऐसा कहते हैं कि जहां तक कायिकादि क्रिया नहीं की जावे वहांतक ही वह ore क्रिया दुःख के हेतु भूत होती है, और क्रिया करने लगे तब वह दुःख के हेतु भूट नहीं होती है, क्रिया समय व्यतीत हुवे पीछे कराइ हुइ क्रिया दुःख के हेतु भूत है, और जो पहिले की क्रिया दुःख के हेतु भूत है, 100 कराती हुई क्रिया दुःख के हेत भन नहीं है और क्रिया समय व्यतीत हुए पीछे कराइ क्रिया दुःख के देत - पचंमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र Petd> पहिला शतकका दशवा उद्देशा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जी• जीवस० सत्व वे० वेदनावे. वेदते हैं व० कहना से वह क कैसे भं. ए. ऐसा गो० गौतम ज.. जो अ० अव्यतीर्थिक ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् वे वेदना वे० वेदते हैं व० कहना ते. वे ए. ऐसा आ० कहते हैं मि० मिथ्या ते वे ए. ऐसा आ० कहते हैं अ० मैं गो• गौतम ए. ऐसा आ०१ दुक्खं, अकजमाणकडं दुक्खं अकटु अकट्ट पाणभयजीवसत्ता वेदणं वेदंतित्ति है वत्तव्वं सिया ॥ से कहमेयं भंते एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइ क्खंति जाव वेदणं वेदति वत्तव्वंसिया,जे ते एवमाहंसुमिच्छंते एवं आहंसु. अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ४, एवं खलु चलमाणे चलिए जाव निजरिजमाणे णिजिण्णे दो परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा दो परमाणु पोग्गला एगयओ भूत है वह क्रिया क्या करण आश्री दुःख के हेतु भूत है या अकरण आश्री दुःख के हेतु भूत है ? वेड अकरण आश्री दुःख के हेतु भूत है परंतु करणं आश्री दुःख के हेतु भूत नहीं है. ऐसे ही नहीं किया है हुवा दुःख, नहीं स्पर्शा हुवा दुःख, व अक्रियमाण किया हुवा दुःख किये विना प्राण भूत, जीव व सत्व वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् : ऐसा जो अन्य तीथिक कहते हैं वह किस तरह से है ? अहो गौतम ! जो अन्य तीर्थिक उक्त बातों को कहते हैं वे मिथ्या बोलते हैं अर्थात् उन का कथन मिथ्या है. परंतु अहो गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि चलने लगे कर्म पुद्गलों को चले कहना, यावत् * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ago पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र VAANNovwwwAANA कहता हूँच चलते को च चला जायावत नि:निर्जरते को नि:निर्जरादोदाय परमाणु पुद्गल ए० एकत्रित साहणंति? दोण्हं परमाणु पोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए तम्हा दो परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति तेभिजमाणा दुहा कजंति, दुहा कजमणा एगयओवि परमाणु पोग्गले एगय ओ परमाणु पोग्गले भवइ, तिाण परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा तिणि परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति?तिण्हं परमाणु पोग्गलाणं अत्थि सिह काए तम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, ते भिजमाणा दहावि तिहावि कजं ति, दुहा कज्जमाणा एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दु पदेसिए खंधे भवइ, तिहा निर्भरने लगे को निर्जरे कहना. और भी दो परमाणु पुद्गल एकत्रित होकर स्कंध रूप वनजाते हैं क्यों की उस में स्नेह का गुण रहा हुवा है. एक परमाणु में शीत, उष्ण, स्निग्य व रुक्ष ऐमे चार स्पर्श में विरोधी दो स्पर्श पाते हैं. इसलिये दो परमाणु में स्निग्धता होने से एकत्रित मीलकर स्कन्ध रूप बन जाते हैं. वैसे ही दो परमाणु को पृथक् करने से उस के एक २ परमाणु के दो विभाग होसकते हैं, वैसे 30 ही तीन परमाणु मीलकर भी स्निग्धता के कारण से स्कन्ध होता है. उस का यदि भेद किया जाये तो दो व तीन होसकते हैं. दो में एक परमाणु का एक विभाग और द्विपदेशी स्कन्ध का दूसरा विभाग, तीन विभाग एक २ परमाणु प्रथक २ होजाने से होते हैं, ऐसे ही तीन चार पांच आदि परमाणु गशिका पहिला शतक का दशवा उद्देशा भावार्थ - M Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स सूत्र ह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋi अनुवादक-बालन सा० मीलते हैं क० कैसे दो दो ५० परमाणु पुद्गल ए० एकत्रित सा० मीलते हैं दो दो प० परमाणु . कजमाणा तिणि परमाणु पोग्गला भवंति एवं जाव चत्तारि पंचपरमाणु पोग्गला एगयओ साहणति साहणित्ता खंधत्ताए कजंति, खंधेवियणं से असासए सयासमियं उवाचच्चइय अवचिजइय ॥ पुस्विं भासा अभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासा समय वीतिकंतंचणं भासिया भासा अभासा. जासा पुस्विं भासा अभासा भासिजमाणी भासा भासा,भासा समय वीतिकंतंचणं भासिया भासा अभाप्ता। सा किं भास ओ भासा अभासओ भासा ? भासणं भासा सा, णो खलु सा अभासओ भासा । स्कन्ध जानना. वह स्कन्ध अशाश्वत, सर्वदा सम्यक प्रकार से चय उपचय (हानि वृद्धि ) को पाता है. अब तीसरा प्रश्न का उत्तर देते हैं. पहिले बोलाई हुई प्रथम की भाषा सो अभाषा होती है, बोलाती हुइ भाषा को ही भाषा कह सकते हैं. क्यों की उस समय शब्द अर्थ की उत्पत्ति होती है. भाषा समय : व्यतील हुवे पीछे भाषा भाषा होजाती है, अब जो पहिले बोलाइ हुइ भाषा भाषा नहीं है, बोलाती हुइ भाषा भाषा है व भाषा समय व्यतीत हुने पीछे भाषा को अभाषा कही जाती है ऐसा कहागया तो क्या वह भाषा भाषक को होती है या अभाषक को होती है ? वह भाषा भाषक को ही होती है परंतु अभाषक को नहीं होती है. आ चौथा प्रश्न का उत्तर देते हैं, पहिले की हुई क्रिया दुःख प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुबदा सहायजी पालाप्रसादजी, भावार्थ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ पुद्रल में अ ० है ० स्निग्धपना ॥ १ ॥ अ० अन्यतीर्थिक ए० ऐसा आ० कहते हैं जा ० यावत् ए० एक जी० जीव ए० एक स० समय में दो दो क्रिया प० करे इ० ईर्यापथिक सं० संपरायिकी जं० जिस स० समय में इ० ईर्यापथिक प० करे तं० उस स० समय में सं० संपरायिकी पर करे जं जिम स० समय में सं० संपरायिकी प० करे तं० उस स० समय में इ० ईग्रपथिक प० करें इं० ईर्यापथिक प० करते संभ संपरायिकी प० परे पुव्विं किरिया अदुक्खा जहा भासा तहा भाणियव्त्रा, किरियाव जाव करणओणं सादुक्खा नो खलुसा अकरणओ दुक्खा, सेवं वत्तव्यं सिया, किच्चं दुक्खं, फुलं दुक्ख, कज्जमाणकडं दुक्खं कट्टु कट्टु पाणभूयजीवसत्ता वेदणं वेदति त्ति वत्तव्वं सिया || १ || अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्वंति आव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तंजहा - इरियावहियंच, संपराइयंच, जं समयं इरियावहियं पकरेइ देनेवाली होती हैं शेष सब अधिकार भाषा जैसे कहना यावत् करण से दुःख परंतु अकरण से दुःख नहीं {है. किया हुवा दुःख है, स्पर्शा हुवा दुःख है. करने लगा किया वहीं दुःख करके प्राण भूत जीव व सत्व वेदना वेदते हैं यह चारों प्रश्नों का उत्तर हुवा || १ || अहो भगवन् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते हैं कि एक समय में ईर्यापथिक व सांपरायिक ऐसी दो क्रियाओं जीव करता है, जिस समय में जीव ईर्यापथिक क्रिया करता है उस समय में ही सांपरायिक क्रिया करता है और जिस समय में सांपरायिक पंच हिवत्रपण्णाति ( भगवती ) सूत्र 4 पहिला शतक का दशवा उद्देशा 490 २४५ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ। सूत्र 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी स०.संपरायिकी प० करते 30 ईर्यापथिक प. करे एक ऐसे ए० एक जीव ए०एक स. समय में दो कि क्रिया पं० करे तं० वह ज. जैसे इ० ईर्यापथिक सं० संपरायिकी. से. वह क० कैसे भं० भगवन् । गो० गौतम ज. जो अ० अन्यतीथिक एक ऐसा आ० कहते हैं जायावत् जे. जो ए. ऐसा आ०१३ कहते हैं मि. मिथ्या ते वे आ. कहते हैं अ० मैं पु० फीर गो० गौतम ए. ऐसा आ० करता हूं ए०१ तंसमयं संपराइयं पकरेइ, जंसमयं संपराइयं पकरेइ तंसमयं इरियावाहयं पकरेइ । इरियावहिय पकरणयाए संपराइयं पकरेइ, संपराइयंपकरणयाए इरियावहियं पकरेइ। एवं खलु एगे जीवे एगेण समएणं दो किरियाओ पकरेइ तंजहा-इरियावहियंच संपराइयच ॥ सेकहमेयं भंते एवं ? गोयमा ! जण्णंते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति तं चेव जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु ॥ अहं पुण गोयमा ! एव माइक्रिया करता है उस समय में ईर्यापथिक क्रिया करता है सांपरायिक करते क्रिया ईर्यापथिक क्रिया करता और ईर्यापथिक क्रिया करते सांपरायिक क्रिया करता है इस तरह ईर्यापथिक व साम्परायिक ऐसी नों क्रियाओं जीव एक समय में करता है तब अटो भगवन ! यह कथन किस प्रकार है ? अहो तम ! अन्य तीकि जो इस प्रकार कहते है वह मिथ्या है अर्थात् उसका कथन मिथ्या है. मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि एक समय में जीव एक ही क्रिया करता है क्यों कि ईर्यापथिक क्रिया * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ maaamwM Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488> विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र *38 भावार्थ एक जी. जीव ए. एक स. समय में ए. एक किक्रिया प०करे स०स्वसमय व० व्यक्तव्यता ने जानना जा. यावत् इ० ईर्यापधिक सं० संपरायिकी ॥२॥ नि० नरकगति में भं भगवन् के. कितना काल वि० विरह उ० उत्पन्न हाने का प० प्ररूपा ज. जघन्य ए. एक समय उ० उत्कृष्ट वा० बारह मु• मुहूर्त ए. __ क्खामि ४ । एवं खलु एगे जीवे एगसमए एक किरियं पकरेइ, ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं ॥ जाव इरियावहियं संपराइयंवा ॥ २ ॥ निरयगईणं भंते ! केवइयं कालं । विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणेणं एवं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुमात्र योग से होती है और सांपरायिक क्रिया योग व कषाय दोनों से होती है. जिस समय मांपरायिक क्रिया होती है उस समय ईर्यापथिक नहीं होती है, और जिस समय ईर्यापथिक होती है उस समय सांपरायिक नहीं होती है, वगैरह उक्त प्रकार से जिन शासन के कथनानुसार कहना. ॥ २ ॥ यहां ME क्रिया कही; क्रियावंत पुरुष की उत्पत्ति होती है इसलिये उत्पात विरहका प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन ! नरक में उत्पन्न होने का विरह कितना कहा ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह मुहूर्त. इस 60 की सब वक्तव्यता पन्नवणाजी सूत्र के छठे पद जैसे कहना. तियेच पंचेन्द्रिय, मनुष्य व देवता में उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का विरह. इस प्रकार चवन का विरह जानना. एक समय में जघन्य एक, दो, तीन का उत्पन्न होना व चवना होता है उत्कृष्ट एक समय में संख्याते असंख्याते जानना. यों सब पनवणा सूत्र में जानना. पहिला शतकका दशवा उद्देशा Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ do ऐसा व० चवने का प० पदं भा० कहना नि० निर्विशेष स० वह ए० ऐमा भं० भगवन् जा० यावत् वि० विचरते हैं. ॥ १ ॥ १० ॥ X X 49 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी त्ता, एवं वक्कंती पयं भाणियव्वं निरवसेसं । सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ पढमसए दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ १० ॥ पढमसयं सम्मतं ॥ १ ॥ ** अहो भगवन् ! जो आपने फरमाया वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं है. ऐसा कह कर तप व समय से आस्मा को भावते हुवे श्री गौतम स्वामी विचरने लगे. यह प्रथम शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुवा. और प्रथम शतक भी समाप्त हुवा || १ || १० ॥ १ ॥ + + * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * २४८ • Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयं शतकम् ॥ 3> २४९ *8808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 2280 उ. उश्वास खं० खदक पु० पृथ्वो इं० इंन्द्रिय अ० अन्यतीर्थिक भा० भाषा दे० देव च० चमर चंचा स० समय ख० क्षेत्र अ० अस्ति काय बी० दुसरे शतक में ॥ * ॥ ते. उस काल तं० उम समय में ऊसास खदए रिय । पुढावादय अण्णउत्थिभासाय । देवाय चमरचचा । समय खित्तत्थिकाय बीयसए ॥ १ ॥ * ॥ तेणं कालणं, तेणं समएणं, रायागहे नाम प्रथम शतक के अंतम जीवों का उत्पन्न होन का व चवन का विरह कहा. अब दूसरे शतक में उत्पन्न व चवन के मध्य का श्वासोश्वास का प्रश्न चलता है. इस शतक के सब मीलकर दश उद्दशे हैं. पहिले उद्देशे उश्वास व खंदक का अधिकार है, दूसरे में पृथिवी का अधिकारहै. तीसरे में इन्द्रिय का अधिकार है, चौथे में अन्य नीर्थियों का अधिकार है, पांचवे में भाषा का अधिकार है, छठे में देव का अधिकार, सातव में चमर चंचाका अधिकार, आठवे में समय क्षेत्र सो अढाइ द्वीप का अधिकार, नवरे में क्षेत्राधिकार oe और दशवे में अस्तिकाया का स्वरूप ॥*।। उस काल सो चौये आरे में उप समय सो महावीर स्वामी विचरने के समय में राजगृही नामक नगर अत्यंत सुशोभित था. उस का वर्णन उववाइ सूत्र में जैसा चंपा नगरी का वर्णन किया है वैसा जानना. राजगृही कं गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवन्त दुसरा शतकका पहिला उद्देशा भाव Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सूत्र शब्दाथ रा० राजगृह न नगर हो' था व वर्णनपुतना सामील पधारे पर परिषदा कि निर्गता था धर्म क. कहा ५० परिपदा प० प्रतिगता ॥ * ॥ ते. उसकाल ते. उस समय में जे० ज्यष्ट अं. अंतेवासी जा. यावत् प० पूजते प० ऐसा वबोले जे० जो वे० वेइन्द्रिय ते० तेइन्द्रिय चः चतुरेन्द्रिय पं. पंचेन्द्रिय जी. जीव ए० उनका आ. श्वास पा० विशेष श्वास उ. उश्वास नि० निश्वास जा. जानते हैं पा० देखते हैं जे. जो पु. पृथ्वी काया जा. यावत् २० वनस्पति काया ए. एकेन्द्रिय जीव नगरे होत्था, वण्णओ सामीसमोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडि गया ॥ * ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जेट्रे संतेवासी जाव पञ्जरासमाण एवं ___ वयासी जे इमे भंते : बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया जीवा एएसिणं आणा मंवा, पाणामंवा, उस्सासंवा, निस्तासंवा जाणामो, पासामो जे इमे पुढविकाइया भावार्थ महावीर स्वामी सव परिवार सहित पारे, यथोचित अनुज्ञा ग्रहण कर बगीचे में विराजित हुए, परिषदा वदंन को आई, और श्री भगवन्त पे धर्म मुनकर पीछीगइ ॥2॥ उस काल उस समय में भगवन्त श्री महावीर स्वामीके ज्येष्ट अंतेवामी श्री गौतम स्वामी सेवा पर्युपासना करते ऐना बोले कि अहो भगवन में बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय इन जीवों का श्वासोश्वाम मैं जानता हूं यावत देखता हूं असर्थात बस जीव का श्वासोश्वास मैं जानता हूं व देखता हूं, परंतु पृथ्वीकायादिक जीव की प्रागनादि। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लामा मुख देवसहाय नी मालापनादजी * Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ए० उनका आ० श्वास पा• विशेष श्वास उ० उश्वास नि० निश्वास ण नहीं जा जानते हैं ण नहीं 12 पादेखते हैं ए. वे भं• भगवन जी० जीव आ० श्वासलेते हैं पा० बहुत श्वासलेते हैं उ० उश्वासलेत. हैं निः निश्वासलेते है हं० हां गो गौतम ए. वे जी० जीव आ. श्वासलेत हैं पा० विशष श्वासलेते। हैं उ० उश्वासलेते हैं नि० निश्वासलेते हैं कि किसका ए• ये. जी. जीव आ. श्वासलेते हैं पाos विशेष श्वासलेते हैं उ० उश्वासलेते है नि० निश्वासलेते हैं गो० गौतम द० द्रव्य से अ० अनंत प० प्रदेश जाव वणप्फइकाइया, एगिदिया जीवा एएसिणं आणामवा, पाणामंवा, उस्सासं से वा, निस्सासंवा, ण जाणामो ण पासामो ॥ एएसिणं भंते ! जीवा आणमंतिवा पाणमंतिका उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा ? हंता गोयमा ! एएविणं जीवा आणमंतिवा। पाणमंतिवा उस्ससंतिवा निस्ससंतिवा । किण्णं भते ! एते जीवा आणमंतिवा पाणभावार्थ प्रमाण से प्रतीति है तथापि उन पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेउकायिक, वायुकायिक, व वनस्पति कायिक जीवों का श्वासोश्वास मैं नहीं जानसकता है नहीं देखसकता है. तो अहो भवगन ! क्या वे जीव श्वासोश्वास लेते हैं ? हां गौतम ! वे जीवों भी श्वासो श्वास लेते हैं. अहो भगवन् ! वे। किस प्रकार श्वासोश्वास लेते हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य से अनंत प्रदेशी अनंत पुद्गल का श्वासोश्वास लेते हैं क्षेत्र से असंख्यात प्रदेश को अवगाहकर रहनेवाले पुद्गलों का, कालमे एक समय यावतू असंख्यात है। 8 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र 4850888 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा848862 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी सूत्र भावार्थ 8 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - द्रव्य खि० क्षेत्र से अ० असंख्यान प० प्रदेश अ० अवगाही का० काल से अ० अन्य ठिन स्थिति वाले (भा० भावा से व० वर्णवाले गं० गंधवाले २० रसवाले फा० स्पर्श वाले आ०. श्वासलेते हैं पा० विशेष श्वासलेते हैं उ० उश्वासलेते हैं. निं० निश्वासलेते हैं जा० यदि भा० भाव से व० वर्ण वाले आ० श्वासलते हैं पा० विशेष श्वासलेते हैं ७० उश्वासलेते हैं नि० निश्वासलते हैं ना० तो किं० क्या ए० एक व० (वर्ण वाले आ० श्वासलेते हैं पा० विशेष श्वासलेते हैं उ० उश्वासलेते हैं नि० निश्वासलेते हैं आ० आहार मंतिवा उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा ? गोयमा ! दव्वओणं अनंत पएसियाई दव्वाई, खित्तअं असंखेज्ज एसोगाढाई, कालओ अण्णयरठिईयाई, भावओ, वण्णमंताइ. गंधमंताई, रसमलाई, फासमंताई आणमंतिवा, पाणमंतिवा, उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा. जाई भावओ वण्णमंताई आणमंतिवा पणमंतिवा उस्ससंतिवा निस्ससंतिवा, ताई किं एग वण्णाईआण मंतिवा, पाणमंतिवा उस्ससंतिवा निस्ससंतिवा, आहारगमो समय की स्थिति वाले पुद्गल और भाव से वर्णवाले, गंधवाले. रसवाले व स्पर्श वाले द्रव्य का श्वासोश्वास लेते हैं. अहो भगवन् ! जब भाव से वर्ण सहित पुगल श्वासोश्वासाने ग्रहण करते हैं तो क्या वह एक वर्ण वाले पुद्गल का श्वासोश्वास लेते हैं ? अहो गौतम ! इनका सब अधिकार पचवणा सूत्र के अट्ठावीस में पद में कहा हैं वैसा व्याघात आश्री तीन चार पांच व छ दिशा के पुद्गल ग्रहण करे वहांतक कहना. अहो भगवन् * मकाशक-राजाबहादुर लाला सुबनहायजी जालामनादजी २५२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Rice शब्दार्थ गमो ने जानना जा. यावत् पं० पाँचदिशि में कि कैसे भं भगवन् णे० नारकी आ. श्वासले पा० विशेष श्वासले उ० उश्वासले नि० निश्वासले तं तैसे जा. यावत् छ० छदिशा में आ० श्वासले पा० बहुत श्वासले उ० उश्वासले नि निश्वासले ए० एकेन्द्रिय जी० जीव वा० व्याघात नि० निर्व्याघात भा० कहना से० शेष नि० निश्चय छ० छदिशा में ॥ १ ॥ वा. वायुकाय भ• भगवन् वा. वायु आ० वासले पा० बहुत श्वासले उ० उश्वासले नि० निश्वासले हैं. हां गो० गौतम वा०वायुकाय जा यावत् नि० नेयव्वो जाव पंचदिसं ॥ किण्णं भंते ! णेरइया आणमंतिवा, पाणमंतिवा, उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा तं चेव जाब नियमा छदिसिं आणमंतिवा, पाणमंतिवा, उस्ससंति वा निस्ससंतिवा । जीवे एगिदिया वाघाया निव्वाघाया भाणियव्वा सेसा नियमा छदिसिं ॥१॥ वाउयाएणं भंते ! वाउयाए चेव आणमंतिवा, पाणमंतिवा, भावार्थ नरक के जीव कैसे पुद्गलों का श्वासोश्वास लेते हैं ? इस का सब अधिकार पहिले जैसे कहना यावत् निश्चय 30 ही छ दिशिका श्वासोश्वास लेते हैं. एकेन्द्रिय जीव में व्याघात निव्याघात कहना. अन्य किसी दंडक में कहना नहीं. क्योंकी वे छ दिशिका श्वासोश्वास लेते हैं. ॥१॥ अहो भगवन् ! क्या वायुकाय श्वासोश्वास 10ग्रहण करे ? हां गौतम ! वायुकाय श्वासोश्वास लेना है. अहो भगवन् ! क्या वायुकाय के जीव अनेका। विवाह पण्णनि ( भगवती) सूत्र दुनरा शतक का पहिला उद्देशा पंचमांग विवाह - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ नहीं शब्दार्थ * } निश्वासले वा वायुकाय वा० वायु कायमें अ० अनेक स० शतसहस्र बार उ० मरे उ० मरकर त तहां भुव वारंवार प० उत्पन्नहोवे हं० हां गो० गौतम जा० यावत् प० उत्पन्नहोवे से० वह भं० भगवन् किं० क्या पु० स्परी उ० मरे अ०नहीं स्पर्शी उ० मरे गो० गौतम पु० स्पर्शी उ० मरे नो० (अ० अस्पर्शी उ० मरे सें० वह मं० भगवन् किं० क्या स० सशरीरी नि० निकले अ० अशरीरी (नि० निकले गो० गौतम सि० कदाचित् स० सशरीरी नि० निकले सि० कदाचित् अ० अशरीरी उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा ? हंता गोयमा ! वाउयाएणं जाव निस्ससंति वा ॥ वाउयाएणं भंते ! वाउयाएचेत्र अणेगसयस हस्तखत्तो उदाइ उदाइत्ता, तत्थेव भुजो भुजो पच्चायाइ ? हंता गोयमा ! जाव पच्चायाइ से भंते! किपुट्ठे उदाइ अपुट्ठे उहाइ ? गोयमा ! पुढे उद्दाइ, नो अपुट्ठे उदाइ । से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! सियससरीरी निक्खमइ, सियअसरीरी निक्खमइ । से केणट्टेणं भंते ! लक्षवार मरकर वहांही वारंवार उत्पन्न होते हैं ? हां गौतम वायुकायके जीव अनेक बार मरकर वहांही वारंवार उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! वायुका के जी क्या स्पर्श कर मरते हैं या विना स्पर्शे मरते }हैं ? अहो गौतम ! सोपक्रम की अपेक्षा से स्पर्धा परे परंतु नहीं स्पर्शा हुवा मरे नहीं. अहो भगवन् ! क्या वे स्वकलेवर से शरीर सहित नीकलते हैं या शरीर रहित नीकलते हैं ? अहो गौतम! कथंचित शरीर सहित सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी जालाप्रसादजी * २५४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | निः निकले से वह के कम ए. ऐमा बु. कहा जाता है गो गैतम वा वायुकायाका च. चार स. शरीर प० प्ररूप उ. उदारिक वे वैक्रय ते. तेजन क. कार्माण उ. उदारिक वे वैकेय वि छोडकर ते. तेजस क कार्माण सहित नि निकले से वह ते. इमालये गो० गौतम एक ऐसा वु. कहाजाता है !॥ २ ॥ म०पासक भोजन करने वाला नि० निग्रंथ नो नहीं नि० कंधा हवा भ० भव नो0 विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - एवं वुच्चइ सियससरीरी निक्खमइ सियअसरीर निक्खमइ ? गोयमा ! वाउकायस्सणं चत्तारि नरीरथा प.तं. उरालिए, वेउविए, तेयए, कम्मए । उरालिय वेउवियाइं विप्पजहाय, तेय कम्मएहिं निक्खमइ. सेतेण?णं गायमा ! एवं वुच्चइ सियस सरीरी, जीपी निक्खमइ ॥ २ ॥ मडाईणं भंते नियंठे नो निरुद्ध भवे, नो नीकलते हैं और कथंचिन शारीर रहित नीकलते हैं. अहो भगवन ! वायुकाय के जीव किस तरह से कथंचित् मा शरी नीकलते हैं ? अहो गौतम : वायुकाय को उदारिक, वैकेय, oye तेजस और कार्माण एने पर शरीर होते हैं. उस में से उदारिक वैकेय को छोडकर नीकले इस लिये अशरीरी और तेजस, कार्माण शरीर सहित नीकले इसलिये सशरीरी, इसी से अहो गौतम : वायुकाय के जीव कथंचित् शरीर सहित नीकले और कथंचिन शरीर रहित नीकले ॥२॥ अहो भगवन ! दुसरा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + नहीं नि० पाहुना भ० भव विस्तार णो नहीं प० क्षय हुवा सं० संसार जो नहीं प. क्षयहुवा सं०1। संमार वे वेदनीय नो० नहीं वो तूटा सं० संसार नोक नहीं वो तूटा सं० संसार वे० वेदनीय नो. नहीं नि० पूर्णबुवा आ० अर्थ नो० नहीं पूर्णहुवा अ० अर्ष कार्य पु० फीर इ. यहां ह० शीघ्र आ० आये ६० हां गो गौतम ५० प्रासुक भोजी नि० निग्रंय जा. यावत् पु० फीर इ० यहां ह० शीघ्र मा० आवे से उनको भं० भगवन् कि क्या व. कहना गो० गौतम पा० माण भू. भूत नी. जीव निरुद्धभवपञ्चे, णो पहीण संसारे, णो पहीण संसार वेयणिज्जे, नो वोज्छिण्ण संसारे, णो वोच्छिण्ण संसार वेयणिजे; णो निट्टियटे, नोनिट्टिय? कराणज्जे, पुणरवि इच्छत्तं हव्यमागच्छइ? हंता गोयमा! मडाईणं नियंठे जाव पुणरवि इग्छत्तं हब्वमागच्छइ । सेणं भंते : किं वत्तव्वंसिया? गोयमा ! पाणेतिवत्तव्यं सिया, भृतेति वत्तव्यंसिया जीवेतिवत्तध्वंसिया, सत्तेति वत्तव्बंलिया, विन्नुयात्त वत्तव्वंसिया, वेदेति वत्तव्यं. मासुक भोजन करनेवाला परंतु भव व भव विस्तार का निलंघन नहीं करनेवाला, चतुर्गति गपन रूप सं. सार का क्षय नहीं करनेवाला, संसार में वेदनीय कर्म का क्षय नहीं करनेवाला, चतुर्गतिक गमनानुबंध व वेदनीय कर्म को नहीं तोडनेवाला, अपूर्ण प्रयोजनवाला और अपूर्ण प्रयोजन की करणीवाला निग्रंथ क्याई पुनः इस मनुष्यादि गति में आता है ? हां गौतम : मासुक भोजन करनेवाला परंतु भव व भव के 51 प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाराप्रसादजी * भावार्थ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ वेदक व० कहना पा० प्राण भू० भूत जी० जीव स० वि० विज्ञ वे वेदक (स० सत्र वि० विज्ञ वे व कहना से वह के कैसे पा० प्राण जा० यावत वे० वेदक व० कहना ज० जिसलिये आ० श्वास लेता ॐ है पा० विशेष श्वासलेता है उ० उश्वासलेता है नि० निश्वासलेता त इसलिये पा० प्राण व० कहना ०ज० जिसलिये भू० हुवा म० होता है भ० होगा त० इसलिये भू० भूत व कहना ज० जिसलिये जी० जीव जी० जीता है जी० जीवपना आ० आयुष्य क० कर्म उ अनुभवे स० इसलिये जी० जीव व० सिया. पाणे भूये जीवे सत्ते त्रिष्णूवेदेति वत्तन्वंसिया ॥ से केणट्टेणं पाणेति तव्यंसिया जाव वेदेतिवत्तव्वंसिया ? जम्हा आणमंतिचा पाणमंतिवा, उस्ससंतिवा, निस्ससंतिवा, तम्हा पाणेतिवत्तव्यंसिया । जम्हा भूए भवइ भविस्सइ, तम्हा भूएतिवत्तब्वंसिया, जम्हा जीवे जीवइ जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवइ तम्हा जीवेति वत्तव्यं( विस्तार का अंत नहीं करनेवाला यावत् अपूर्ण प्रयोजन की करणीवाला निर्ग्रय पुनः मनुष्यादि गति में आता है. अहो भगवन् ! जो ऐसा निग्रंय मनुष्यादि गति में आता है उन को क्या कहना ? अहो गौतम ! उन को प्राण, भूत, जीव, सत्व, विज्ञ व वेदक कहना. अहो भगवन् ! किस कारन से उन को प्राण, भूत यावत् वेदक कहना ! अहो गौतम ! वह श्वासोश्वास लेता है इस लिये प्राण कहाता है, वह अतीत काल में था, वर्तमान में है और आगामिक में होगा इस लिये भूत कहाता है, वह आत्मा जता २०३९० पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र - *9-408 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा २५७ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ २५० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी कहना ज. जिभलिये स० असक्त नु० शुभाशुभ क० कर्म से त• इसलिये स०सत्व व कहना ज. जिस-3 लिये ति० तिक्तक० कटक क० कषाय अं. अंबट म. मधुर र० रस जा० जाने तक इसलिये वि. विज्ञई व० कहना वे वेदता है सु-सुख दु० दुःख ० त०इसलिये के. वेदक २० कहना से० वह ते• इसलिये जा० यावत् पा० प्राण जा. यावत् वे वेद व० कहना ॥ ३ ॥ म० मृतभोजी नि० निग्रंथ नि० रुंधा भ० भव नि० रुंधा भ० भवविस्तार जा. यावत् नि० पूरा हुवा अ० अर्थ कार्य नो० नहीं पु० फीर इ. यहां सिया, जम्हा सत्ते सुहासुहेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्तेवि वत्तव्वं सिया, जम्हा तित्त, कटु, कसाय अंबिल महुरे रसे जाणइ, तम्हा विष्णुतत्ति वत्तव्वं सिया, वेदेइय सुहदुक्खं तम्हा वेदेतिवत्तव्वं सिया, से तेणटेणं जाव पाणेति वत्तव्वंसिया, जाव वेदेतिवत्तव्वांस या ॥ ३ ॥ मडाईणं भंते ! नियंठे निरुद्ध भवे निरुद्ध भवपवंचे जाव निट्ठियट्ठ . कअर्थात् प्राणों को धारन करता है और उपयोग लक्षणरूप जीवत्व वैसे ही आयुः कर्म को अनुभवता है इस लिये जीव कहाता है. वह शुभाशुभ कर्म में आसक्त अथवा समर्थ है इसलिये सत्व कहाता है, वह तिक्त, कटुक, कषाय, अम्बट व मधुर रस को जानता है इस लिये विज्ञ कहाता है और सुख दुःख को वेदनेशला होने से वेदक कहाता है. इस लिये अहो गौतम ! वह प्राण यावत् वेदक कहाता है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! मासुक भोजन करनेवाले वैसे ही भव व भव प्रपंच का निरूंधन करनेवाले यावत् निष्टि है. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Big ह० शीघ्र आ० आते हैं हं० हां गो. गौतम म० मृतभोजी नि. निग्रंथ जा. यावत् नो० नहीं पु. फीर इ. यहां ह० शीघ्र आ०. आते हैं से उनको भं० भगवन् कि क्या व. कहना सि० सिद्ध बु० बुद्ध मु. मुक्त पा० पारंगत प० परंपरा तग व. कहना सिसिद्ध मु. मुक्त प० परिनिवृत्त अंतकृत स० सर्व दुः दुःख से प० मुक्तहुवे व० कहना स. वह ए. ऐसा भं० भगवन् भ० भगवान् है रणजे णो पुणरवि इच्छत्तं हव्व मागच्छइ ? हंता गोयमा ! मडाईणं नियंठे जाव १ नो पुणरवि इत्थत्तं हव्वं आगच्छइ ॥ सेणं भंते ! किं वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! सि डेत्ति वत्तव्वं सिया, बुद्धेत्ति वत्तव्वं सिया, मुत्तेत्ति वत्तव्यं सिया, पारगएत्ति वत्तव्वं सि या, परंपरगएत्ति वत्तव्वं सिया, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिन्बुडे, अंतकडे सव्व दुक्खप्पतार्थ करणीकरनेवाले निग्रंथ क्या पुनः मनुष्यादि गति में नहीं आते हैं ? हां गौतम ! प्रासुक भोजन करनेवाले यावत् निष्टितार्थ करणीवाले पुनः मनुष्यादि गति में नहीं आते हैं, अहो भगवन् ! उन को क्या कहना ? अहो गौतम ! उन को सव कार्य की सिद्धि होने से सिद्ध कहना, चराचर पदार्थ go के ज्ञाता होने से बुद्ध कहना, समस्त कर्म से मुक्त होने से मुक्त कहना, संसार सागरको उत्तीर्ण होने से पारंगत कहना, मिथ्यात्वादि गुणस्थान अथवा मनुष्यादि गति को परंपरा से जानने से अर्थात् भव समुद्र * के पार पहुंचने से परम्परागत कहना, कषाय से निवर्तने से परिनिवृत, संसार का अंत करने से अंतकृत । 333 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा. भावाथे Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथ २६० गो. गौतम स. श्रमण भ० भगवान् म. महावीर को वं० वंदना कर न० नमस्कार कर सं० संयम त. तप से अ० आत्मा को भा० भावते हुवे वि. विचरते हैं ॥ ४ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर रा ० राजगृह न० नगर से गु० गुणशीलक चे० चैत्य से प० निकले ५० निकलकर ब• बाहिर ज. अन्यदेश में वि० विचरने लगे ॥ ६॥ ते० उसकाल ते. उस समय में क० कयंगला ना० नामकी न. नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त ती० उस क• कयंगला न० नगरी की ब. बाहिर उ० ईशान हीणेत्ति वत्तव्वं सिया. सेवं भंतेत्ति. भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसइत्ता, संजभेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ४ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे रायागहाओ नयराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणंसमएणं कयं गला णामं नयरीहोत्था,वण्णओतीसेणं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए भावार्थ और सब दुःख का क्षय करने से सर्व दुःख प्रहीन कहना. अही भगवन् ! आपने कहा सो सत्य है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ ४॥ उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में से नीकल कर अन्य देश 12 में विचरने लगे. ॥५॥ उसकाल उस समय में कयंगला नामक नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ सूत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* anawadhramananmmmmwww Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ शब्दार्थ दिशा में छ. छत्रपलाश चे० चैत्य हो० था व० वर्णन युक्त स० श्रमण भ० भगवान् म. महावीर उ०१ उत्पन्न णा ज्ञान दर्शन युक्त जा० यावत् स० समवसरण १० परिषदा नि० निर्गता ॥६॥ ती• उस क. करंगला न० नगरी की अ० नजदीक सा० सावत्थी ना० नामकी न० नगरी हो० थी व० व त० तहां सा० सावत्थी १० नगरी में ग. गर्दभाली का अं० अंतेवासी खं० खंदक ना० नामका क० कासायन गोत्रीय ५० परिव्राजक प० रहता है रि० ऋग्वेद ज० यजुर्वेद सा० सामवेद अ० अथर्ववेद इ०१ छत्तपलासए णामं चेइए होत्था, वण्णओ । तएणं समणे भगवं महावीरे उप्पन्नणाण दसणधरे जाव समोसरणं परिसा निग्गया ॥ ६ ॥ तीसेणं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थीणामं नयरीहोत्था. वण्णओ तत्थणं सावत्थीए णयरीए गद्दभालिस्स अंतेवासी खंदए नाम कच्चायणसगोत्ते परिवायगे परिवसइ रिउन्वेय, जजुब्वेय, साममें चंपा नगरी का वर्णन कहा है वैसा कहना. उस कयंगला नामक नगरी के बाहिर उत्तरपूर्व-ईशान कौन में छत्र पलाश नामक यक्षका दैत्य है, उस का भी वर्णन उववाइ से जानना. वहांपर केवल ज्ञान केवल दर्शन के धारक श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे. परिषदा वंदन करने को आइ. भगवन्त से। ० धर्मकथा सुनकर परिषदा पीछी गई. ॥ ६ ॥ उस कयंगला नगरी की पास एक सावत्थी नामकी नगरी थी. उम का वर्णन भी उववाइ में से जानना. उस सावत्थी नगरी में गर्दभाली नामक तापस का पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 8800 488183 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ शब्दार्थ 4 इतिहास पं० पांचवा निः निगण्टु संग्रह छ.. छठा च० चारवेद का सं० मांगोपांग स० रहस्य सहित मा स्मरण करनेवाला वा शुद्धकरनेवाला धा धारक पा०पारगामी स०छअंग स०कापिलीयशास्त्र वि पंडित सं० गणित शास्त्र. मि० अक्षररूप शास्त्र वा० शब्द छ० छंद नि० शब्दः उत्पति का जान जो० ज्योतिषी शास्त्र अ० अन्य काई ब० बहुत बैं० ब्राह्मण म० परिव्राजक में न० नय में मुक अच्छा निश्चयार्थ का जान हो० था ॥ ७ ॥ त० तहां सा. सावत्थी न० नगरी में पिं० पिंगलक नि० निग्रंथ वे० वैशालिक वेय, अहव्वणवेय, इतिहास पंचमाणं, निघंटुछट्ठाणं, चउण्हं वेयाणं संगोवंगाणं, सरहस्माणं सारए, वारए, धारए, पारए, सडंगवी, सद्वितंतविसारए,संखाणे, सिक्खाकप्पे, वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे, अण्णे गुय बहुसु बंभण्णएसु परिव्वायएसु नएस सुपरि निट्ठिएयावि होत्था. ॥ ७ ॥ तत्थणं सावत्थीए नयरीए पिंगलए नामंनियंढे वेसालिय भावार्थ शिष्य कात्यायन गोत्रीय खंदक नामक. परिव्राजक रहताथा. वह खंदक परिव्राजक ऋग्वेद, यजुर्वेद में सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास सो प्राचिनकाल के महापुरुषों की कथाओं, और निघन्दु सो अनेकार्थ वाची कोप ऐसे षड्शास्त्र के ज्ञाता थे. और चारों वेदों के छअंग और उस में कहे हुवे प्रबंध सो अंग, इनकी प्रयुक्ति, युक्तियों को वारंवार स्मरण करनेवाले, अशुद्ध पाठ का निषेध करनेवाले, हृदय में धारन करनेवाले |व पारगामी थे. वैसे ही छ अंग व कापीलिय शास्त्र के ज्ञाताथे. संख्या-गणितविद्या, शिक्षाकल्प, व्याकरण, 8.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६३ शब्दार्थ (सा. श्रवण करनेवाला अ० कोई वक्त जे. जहां खं० वंदक क कात्यायन गोत्री ते०तहां उ० आये आ० । आकर खं० खंदक क० कात्यायन गात्री को इ० यह अ० आक्षेप से पु० पूछे मा० मागध कि क्या स० अन्त वाला लो०लोक अ० अनंतलोक स०अंतसहित जी०जीव अ०अनंत जी जीव स०अन्त सहित सिद्धी अ० 300 अनंत सिद्धी स० अंत सहित सिद्ध अ० अनंत सि० सिद्ध के किस म० मरण से म० मरता जी० जीव व वृद्धिपामें हा० हानीपोंमें ए. इतना आ० कहो बु० बोलते एक ऐसा से वह खं० खंदक सावए परिवसइ ; तएणं से पिंगलए नाम नियंठे वेसालिय सावए अण्णया कयाई जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ २ त्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं इण मक्खवं पुच्छे, मागहा ! किं सअंतेलोए अणंतेलोए ? सअंतेजीवे, अणंते जीवे ? सअतासिद्धी, अणंतासिद्धी ? सअंतेसिद्धे, अणंतेसिद्धे ? केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे भावार्थ छद निमित्त सो शब्द उत्पत्ति का शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, व अनेक ब्राह्मण सन्यासी संबंधी नीति शास्त्र में निपुण थे ॥ ७ ॥ उस सावत्थी नगरी में श्री महावीर के वचन सुनने में रसिक पिंगलक नामक निग्रंथ रहता था. महावीर भगवन्त के वचन सुनने में रसिक ऐसे पिंगलक निर्ग्रन्थ एकदा कात्यायन गोत्रीय खंदक नामक परिव्राजक की पास आये, आकर के उन कों ऐसा प्रश्न पुछा कि अहो मागधै ! क्या १ मगध देश में उत्पन्न होनेवाले. 38०११ दूसरा शतक का पहिला उद्देशा - 4. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र marwari - -- Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी क० कात्यायन गोत्रीय पिं पिंगलक नि०निग्रंथ वे० वैशालिक सा० सुननेवाला इ०यह अ० आक्षेप से पु० पूछते सं० संकित कं० कांक्षित वि० संदेह वाला भे० भेदको प्राप्त क० कालुष्य को स० प्राप्त णो० नहीं सं० शक्तिमान है पिं० पिंगलक निः निद्र्य वे वैशालिक सान्सुननेवाला किं० किंचित् प० उत्तर अ० कहने को तु० तुष्णीक सं० रहे ते ० तब से वह पिं० पिंगलक नि० निग्रंथ वे० वैशालिक सा०सुननेवाला खं० खंदक क० कात्यायन गोत्री को दो० दोवार इ० यह अ० आक्षेप से पु० पूछे मा० मागध किं० वडवा, हायइवा, एतावताव आइखाहि, बुच्चमाणो एवं तएणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते, पिंगलएणं नियंठेणं वेसालीसावरणं इणमक्खेवं पुच्छिएसमाणे संकिए कंखिए, वितिििछए, भेदसमावण्णे, कलुससमावण्णे णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालियसावयस्स किंचिवि पमोक्ख मक्खाइओ तुसिणीए संचिट्ठइ. यह लोक अंत सहित या अंत रहित है ? २ जीव अंत सहित है या अंत रहित है ? सिद्ध शिला अंत सहित है या अंत रहित है ? सिद्ध अंत सहित या अंत रहित है ? अथवा किस मरण से जीव संसार की ( वृद्धि करता है व किस मरण से जीव संसार को क्षीण करता है ? इन प्रश्नों का उत्तर कहो अनंतर दुसरे प्रश्न पूछूंगा. इस तरह महावीर स्वामी के वचन सुनने को रसिक पिंगलक निर्ग्रन्थने इस तरह प्रश्न पुछने पर कात्यायन गौत्रीय स्कंदक परिव्राजक को इस का क्या उत्तर होगा ऐसी शंका, अन्य की पास अर्थ * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** २६४ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ क्या स० अंतसाहित लोक जा. यावत् के किस म मरण से म० मरता जी० जीव व० वृद्धिपामे हा०है | १ हानिपामे ए० इतना आ० कहो बु० बोलता त० तद ते० वह ख० खंदक क• कात्यायन गोत्रीय पिं० पिंगलक निग्रंथ वे वैशालिक सा० सुननेवाला दोदो त तीन वक्त इव्यह अ शंकित के० कांक्षित वि० संदेहवाला भे भेद को प्राप्त क० कालुप्य वाला नो० नहीं सं० शक्तिमान तएणं से पिंगलए नियंठे वेसालीसावए खंदयं कच्चायणसगोत्तं दोच्चंपि इणमक्खेवं पुच्छे मागहा! किं सतेलोए जाव केणवा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्डइवा, हायइवा, एतावंताव आइक्खाहि वुच्चमाणो एवं तएणं तेखंदए कच्चायणसगोत्तं पिंगलएणं नियंठेणं वेसालीसावएणं दोच्चंपि तच्चंपि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिंछिए, भावार्थ जानने की कांक्षा, अन्य को उत्तर देने में प्रतीति होवे वैसी वितिगिच्छा उत्पन्न हुई. वैसे ही मैंने इस का उत्तर नहीं जाना सो मतिभंग, भेद व मन में कालुष्यता हुई. वैसे ही वैसालिय श्रावक पिंगलक अनगार के एक ही प्रश्नों का उत्तर देने को असमर्थ हुवा. और मौन खडा रहा. तब उन वैसालिय) 1 श्रावक पिंगलक निग्रंथने पुनःयही प्रश्न पूछा की अहो मागध ! अंत सहित लोक है यावत किस मरण से संसार की वृद्धि होती है और किस मरणसे संसार का क्षय होता है ? इस तरह पिंगलक निर्मथने दो। पंचङ्ग हिववपण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 8989 2082%80- दूसरा शतक का पहिला उद्देशा -3-882 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी 4* है पिं० पिंगलक निःनिग्रंथ वे० वैशालिक सा० सुननेवाला को किं किंचित प० उत्तर करन को तु०१ -तुष्णीक सं० रहे ॥ ८॥त. तब सा० सावत्थी न० नगरी से सिं० सिंघाडे जैसे जा. यावत् प० रस्ते में म. महा पुरुषों सं० संमई ज. जन समुदाय प. परिषदा नि. गइ त० तब तक उस सं० खंदक है क०कात्यायन गोत्रीय बबत ज०मनुष्य की अं०पास स यह अर्थ सोसुनकर नि०अवधाकर इ०इसरूप अ० भेदसमावन्ने, कलुससमावन्ने नोसंवाएइ पिंगलरस नियंठस्स वेसालिय सावयस्स किंचिवि पमोक्खमक्खाइओ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ ८ ॥ तएणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु महयाजण सम्मदेइवा, जण बृहेइवा, निग्गइछइ तएणं तरस खंदयस्स कच्चायणसगोत्तरस बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म इमेएयारूवे अजथिए, चिंतिए, पच्छिए, मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु समणे भगवं महातीन बार वैसाही प्रश्न पूछा परंत कात्यायन गोत्रीय स्कंदक परित्राजक को शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, भेद व कालुप्यता प्राप्त होने से उनके प्रश का उत्तर नहीं दे सका और मौन रखजा रहा ॥ ८ ॥ उस समय श्रावस्ती नगरी के तीन रस्ते मीलने के स्थान, चौक यावत् वहत रस्ते मीलने के स्थान पर बहुत मनुष्यों के मवाना करने का नीकली. और परस्पर ऐसा बोलने लगे की श्री श्रमण भगवन्त महावीर कयलगा नगरी के छत्रपालाश नामक उद्यान में पधारे है. ऐसा बहुत मनुष्यों की पाससे श्रवण करके * * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ anmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwww Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 30 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र -*8808 आत्मविषय चि. स्मरणरूप प० प्रार्थनारूप म० मनोगत सं० संकल्प स० उत्पन्न हुवा ए. ऐन श्रमण अ. भगवन् म० महावीर क० कयंगला न० नगरी की ब० शहिर छ. छत्रपलास चे० चैत्य में सं० संप से त० तप से अ० आत्मा को भा० भावते वि० विचरते हैं तं. उनकीपास गं० जाऊं स० श्रण भ भगवान् म महावीर को पं० वंदनाकर न० नमस्कारकर स० सत्कारकर म० सन्मानदेकर वीरे कयंगलाए नयरीए बहिया छत्चपलासए चेइए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ तं गच्छामिणं समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि सेयं खलु । मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता सकारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं मंगलं देव यं चेइयं पज्जुवासेत्ता इमाइंचणं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाई वागरणाइं पुकात्यायन गोत्रीय स्कंदक परिव्राजक को ऐसा चिन्तवन व मनोगत संकल्प हुवा कि कयंगला नगरी के छन. पलाश उद्यान में संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे श्री श्रमण भगवंत महावीर विचरते हैं इसलिये उन की समीप मैं जाऊं और श्री श्रमण भगवन्त को वंदना नमस्कार करूं. श्री श्रमण भगवन्त महावीर को वंदना, नमस्कार, सत्कार व सन्मान कर वैसे ही कल्याणकारी, मंगलकारी, देव व साक्षात् महाशानके। *धारक ऐसे श्री श्रमण भगवंत की पर्युपासना करके जो मेरे मन में संदेह रहा डुवा है वैसे प्रश्नों पुछकर निर्णय करना मुझे श्रेय है. ऐसा विचार करके जहां परित्राजक संन्यासीओं का आश्रम था वहां आया वहां दूसरा शतकका पहिला उद्देशा89382 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २६८ कल्याण कारी म. मंगल कारी दे देव चे. ज्ञानरूप प० पूजते इ. उस एक ऐसा अ. अर्थ कर हेतु प० प्रश्न वा० व्याकरण पु० पूछना क• करके ए. ऐसा सं० आलोचकर जे०जहां प०परिव्राजक की १० वसति ते. तहां आ० आकर ति० त्रीदंड कुं० कमंडल के रुद्राक्ष माला क. मिट्टिका भाजन भि. आसन के. चीवरखंड छ० त्रिगडी अ० अंकुश प० तांबे की मुद्रिका ग० आभरण विशेष छ. छत्र वा. पगरखा पा० पावडी धा० शाटिका गे• ग्रहणकर प० परिव्राजक व. वसाते से प० निकलकर ह० हस्त में च्छित्तए त्तिकटु एवं संपेहेइ २ त्ता, जेणेव परिव्वायगा वसही तेणव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता तिदंडंच, कुडियंच, कंचणियंच, करोडियंच, भिसियंच, केसरियंच, छण्णालियंच, अंकुसयंच, पवित्तथंच, गणेत्तियंच, छत्तयंच, वाहणाउय पाउयाउय धाउरत्ताउयगेण्हइ गेण्हइत्ता परिव्वायगवसहीओ परिनिक्खमइ परिनिक्खमइत्ता, तिदंडं कुंडियं, कंचणियं, करोडियं, भिसियकेसारियछनालयअंकुसयपवित्तियगणेत्तिय हत्थगए, भावार्थ आकर १ त्रिदंड,२ कमंडल ३ रुद्राक्षमाला ४ मृत्तिका का भाजन ५ मृत्तिका का आमन विशेष ६ प्रमाने का कपडा ७ षड्नालिका-त्रिकाष्टिका ८ वृक्षपल्लव को छेदनेवाला अंकुश ९ ताम्बेकी मुद्रिका १० कालाचिका आभरण विशेष ११ शिरपर धारन करने का छत्र १२ पांव में पहिनने का उपानह १३१ | लकडी की चाखडी १४ गेरु से रंगे हुवे भगवे वस्त्र ऐसे भाव ग्रहण कर परिव्राजककी वसति में से नीकला, * १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी* Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में लेकर छ० छत्र वा० पगरखा सं० युक्त पा० धातुरक्त व वस्त्र प० पहनकर सा० सावत्थी न. नग की म० मध्य से नि• निकलकर जे. जहां क० कयंगला न० नगरी जे. जहां छ० छत्रपलास चे० चैत्य जे. जहां स० श्रमण भ. भगवान् म. महावीर ते. तहां पा निश्चय किया गजाने को ॥ ९॥ गो010 #गौतमादि स० श्रमण भ• भगवान् म० महावीर भ० भगवान् गो० गौतम को एक ऐसा व० वोले द०११ है छत्तोवाहण संजुत्ते, धाउरत्त वत्थ परिहिए, सावत्थीए नयरीए मझं मझेणं निग्गच्छइ । है निग्गच्छइत्ता जेणेव कयंगला नगरी, जेणेव छत्तपलासए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेच्छ गमणाए॥९॥ गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी दच्छिसिणं गोयमा पुव्वसंगइयोकं तं, कं भंते? खंदयं नाम । से काहेवा, किनीकलकर त्रिदंड, कमंडल, रुद्राक्षमाला, मृत्तिका का भाजन, मृत्तिका आसन विशेष, प्रमार्जन करने का कपडा, षड्नालिका, वृक्ष पल्लव को छेदनेवाला अंकुश, ताम्बेकी मुद्रिका व कालाचिका इत्यादि हस्त में धारन करके, शिरपर छत्र रखकर, पांव में उपानह रखकर, भगने वस्त्र पहिन कर, सावत्थी नगरी के ईमध्य में से नीकलकर जहां कयंगला नामक नगरी के छत्र पलाश उद्यान में श्रमण भगवन्त महावीर स्वा थे वहां आनेका अभिलाषी हुवा ॥ ९ ॥ उस समय श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने गौतम स्वामी को बोलाकर कहा कि अहो गौतम ! तूं तेरा पू संगतिबाला भित्र को देखेगा. तब गौतम स्वामी बोले की । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40888 88588% दूसरा शतकका पहिला उद्देशा8488 488 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० शब्दार्थ देखो गो० गौतम पु. पूर्व सं. मित्रको के किनको भ० भगवन् खं० खंदक को का० किसवक्त कि० किसतरह के० कितने वक्त में ए० ऐसा गो० गौतम ते. उस समय में सा० सावत्थी न० नगरी ग• गर्दभालि का अं० अंतेवासी खं० खंदक का० कात्यायन गोत्रीय प०परिव्राजक प० रहता है उ० उनको जा० यावत् म० मेरीपास पां० निश्चय किया ग० आने को से० वह अ० नजदीक ब० बहुत नजदीक अ० मार्ग में प० रहाहुवा अं• रस्ते में व० रहा है अ० आजही दि० देखेगा ॥ १० ॥ भ० भगवान् गो० हवा,केवच्चिरेणवा? एवं खलु गोयमा! तेणंकालेणं तेणंसमएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था, वण्णओ, तत्थणं सावत्थीए नगरीए गहभालिस्स अंतेवासी खंदए णामं कच्चायणसगोत्ते परिव्वायए परिवसइ तंचेव जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव पाहारेच्छ गमणाए सेअदूरामए बहुसंपत्ते, अडाणपडिवण्णे अंतरापहे वदृइ अजेवणं दिच्छसि गोयमा ! ॥१०॥भंतेत्ति भावार्थ पूर्व संगतिवाला कौनसा मित्रको मैं देखूगा ? तब श्री भगवन्त बोले की तू खंदक को देखेगा. तब गौतम स्वामी बोले की किस समय, किस प्रकार व कितनी देर में मीलेगा ? तब श्री भगवन्त बोले की उस all काल उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी में गर्दभाली परिव्राजकका शिष्य कात्यायन गोत्रीय खंदक " नामक परिव्राजक रहता है. उन को पिंगलक निग्रंथने प्रश्न किया. जिस का उत्तर नहीं दे सकने से अ. 15 मेरी पास आरहा है. वह अभी रस्ते के मध्य में है और उसे तू आज ही देखेगा ॥ १० ॥ श्री गौतम । १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 12 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्यालापतादजी * Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 शब्दार्थ गो० गौतम स० श्रमण भ० भगवान् म० महावीर को वं० वंदनाकर न० नमस्कार कर व० बोले ५० समर्थ भं० भगवन् खं० खंदक क. कात्यायन गोत्रीयदे धिशासी अं० पास मुं० मुंड भ० होकर 50 अ० अगारसे अ० अनगारको १० वाजत होनेको हं०हां प०प्रभु।। १.१॥जाजितना कालम श्रमण भ० भगवान् म. महावीर भ० भगराज गो. गौतम की पाय प. यह अर्थ प० करते. ता. उस वक्त में खं खंदक भगवं गोयमे मन नगर्व महामाइ नभसइ २ . एवं बयासी पल ! खंदए कच्चायणसगोते देवाणुप्पियाणं आतए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणनारियं पव्वइत्तए ? हंता पभ ! ॥ ११ ॥ जावंचणं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमद्रं परिकहेइ तावंचणं खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देसं हव्वमागए. तएभावार्थ | स्वामी महावीर भगवंत को वंदना नमस्कार करके ऐसा पूछने लगे की अहो भगवन् ! क्या कात्यायन भी गोत्रीय स्कंदक परिव्राजक आपकी पास दीक्षा ग्रहण कर मुंड होने को ममर्थ है ? हां गौतम! वह खंदक परिव्राजक दीक्षा लेने को समर्थ है ॥ ११॥ श्री महावीर भगवन्त गौतम स्वामी को ऐसा कह रहे थे इतने में काखायन गोत्रीय स्कंदक परिव्राजक उस बगीचे के एक देश में आ पहुंचे. उस समय श्री गौतम स्वामी कात्यायन गोत्रीय स्कंदक मुनिको पास आये जानकर उपस्थित हुने उपस्थित होकर * श्री गौतम स्वामी स्कंदक परिखाजक असंयतीको देखकर खडेहुवे जिसका कारन यह है कि वह आगे *संयती होवेगा व भगवंतका ज्ञान प्रगट करेगा. विवाह पण्णात्त (भगवती ) सूत्र पंचमाङ्ग रा शतक का पहिला उद्देशा 488 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ शब्दार्थAक० कात्यायन गोत्रीय तं० उनकी पास ह० शीघ्र आ० आया त० तब भ० भगवान गो० गौतम खं० ०७१ खंदक क०कात्यायन गोत्रीय अनजदीक आ० आयाहुवा जा जानकर खि०शीघ्र अ० उठकर खिशीघ्र प० सन्मुख जाकर जे. जहां खं० खंदक क कासायन गोत्रीय तेतहां उ०आकर खं० खंदक क. कात्यायन गोत्रीय को एक ऐसा व० बोले हे. अहो खं० खंदक सा स्वागतम स० सुस्वागतं अ० योग्य आगमन सा स्वागतम् अ० योग्य आगमन से वह तुम को खं० खंदक सा० सावत्थी न० नगरी में पिं० __णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं अदूरमागयं जाणेत्ता खिप्पामेव अब्भु तुइ २ त्ता, खिप्पामेव पच्चुगच्छइ पच्चुगच्छइत्ता जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता खंदयं कच्चायणसगोतं एवं वयासी हेखंदया ! सागयं खंदया ! सुसागयं खंदया ! अणुरागयं खंदया ! सागयमणुरा यं खंदया ! सेणूणं तुमं खंदया, सावत्थीए णयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसाभावार्थ स्कंदक परिव्राजक की सन्मुख गये, और सन्मुख जाकर स्कंदक परिव्राजक को ऐसा बोले अहो स्कंदकई तुह्मारा आगमन श्रेष्ट है, तुम्हारा आगमन अनुपम है, तुम्हारा आगमन शोभन व अनुपम है. अहो स्कंईदक! श्रावस्ती नगरी में श्री महावीर के वचन सुनने को रसिक पिंगलक नामक निग्रंथने क्या ऐसे प्रश्नों पूछे थे कि अंत सहित लोक है, या अंत रहित लोक है, यावत् किस मरण से संसार की वृद्धि व हीनता बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - wwwwwwwwwwwwwwww * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद जी * naaranamama Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 98. 4883 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पिंगलक नि० निग्रंथ वे० वैशालिक सा० श्रवण करनेवाला इ. इस अ० आक्षेप पु० पूछा मा० मागध कि० अ० अर्थ स. समर्थ हैहां अ० है त० तब से वह खं०खंदक क०कात्यायन गोत्रीय भ० भगवान् गो. गौतम को एक ऐसा व० कहा से वह के० कौन गो० गौतम त० तथारूप णा• ज्ञानी त• तपस्वी जे० जिससे त• तुमने ए० यह अर्थ म० मेरा र० रहस्य ६० शीघ्र अ. कहा ज० जिससे तु.११ | तुम जा जानते हो त० तब भ० भगवान् गो० गौतम खं• खंदक क० कात्यायन गोत्रीय को ए. ऐसाई वएणं इणमक्खेवं पुच्छिए मागहा ! किं सअंतेलोए, एवं तंचेव जेणेव इहं तेणेव हव्व मागए: सेणूणं खंदया : अटे समढे ? हंता अस्थि ॥ तएणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-से केसिणं गोयमा ! तहारूवे णाणीवा, तवस्सीवा, जेणं तव एसअटे मम ताव रहस्सकडे हल्वमक्खाए, जओणं तुमं जाणासि तएणं होती है ? उस का उत्तर नहीं आने से तुम महावीर भगवन्त की पास से सुनने को आये हो. अहोईल स्कंदक क्या यह सत्य है ? स्कंदकने उत्तर दिया की हां यह सत्य है. तब कात्यायन गोत्रीय स्कंदकने । पुछा कि अहो गौतम ! ऐसा कौन तथारूप ज्ञानी व तपस्त्री है कि जिनोंने मेरे मन का रहस्य तुम को कहा? अहो स्कंदक! मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धर्मगुरु श्री श्रमण भगवंत केवल ज्ञान केवल दर्शन दूसरा शतकका पहिला उद्दशा-4280 भाव को Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कई व. कहा खं खंदक म मेरे ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण भं० भगवान म. महावीर उ० उत्पन्न पास शानद दर्शन युक्त अ. अरिहंत जि० जिन के केवली ती० अतीत ५० वर्तमान अ० अनागत वि० बिलामक स र्वज्ञ स० सर्वद जे० जिनने म. मुझे ए. यह अर्थ त• तुमारा र० हृदय भाव ह० शीघ्र अ० कहा ज. जिससे अ० मैं जा० जानताहूं खं० खंदक ॥ १२ ॥ त० नब खं० खंदक क० कात्यायन गोत्रीय भं० भगवान् गो. गौतम को ए. ऐमा व० बोले ग० जावे गो. गौतम से भगवं गोयम खंदयं कच्चायणसगोतं एवं वयासी एवं खल खदया ! मम धम्मायरिए धम्मोवएसए, समणे भगवं महावीरे उप्पण्णणाणदसणधेर अरहा जिणे केवली, तीय पच्चुप्पण्ण भणागय वियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी, जेणं ममएसअढे तवताव । रहस्सकडे हव्यमक्खाए जओणं अहं जाणामि खंदया ? ॥ १२ ॥ तरणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी. गच्छामोणं गोयमा? तव धम्मायरियं भावार्थ धारक श्री महावीर स्वामी है. वे इन्द्रादिक के वंदनीक पूजनीक, रागादि शत्रु को जीतनेवाले. सब दोप रहित, व अतीत, अनागत व वर्तमान के ज्ञानी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी है. इनोंने मुझे यह अर्थ तुम्हारे आये पहिले बतलाया. उन के कथनसेही मैं यह जानता हूं ॥ १२ ॥ तब स्कंदक परिव्राजक बोले की अहो गौतम ! मैं तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्री श्रमण भगवंत महा 20 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Rai २७०
Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २७६ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * भावन्त का कल्याण कारी सि. श्रेयकारी ध० धन्य मं. मंगलकारी अ. अलंकार रहित वि. भावन्त षित ल. लक्षण वं. व्यंजन गगणयुक्त सि० श्री जैसे अ० अतीव उ. शोभते चि० रहते हैं॥ १४ ॥१ त० तहां से वह खं० खंदक क० कात्यायन गोत्रिय सश्रमण भ० भगवान् म. महावीर का वि. नित्य भोजी स० शरीर उ० उदार जा. यावत् अ० अतीव उ० शोभता पा० देखकर ह. आनंद तु० तुष्ट चि० चितमें आ० आनंद हुवा पी० प्रीति हुइ ५० उत्कृष्ट सा० अच्छा मन हुवा ह• हर्षयुक्त सियं लक्खण वंजण गुणोववेयं, सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठइ ॥१४॥ तएणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते सभणस्स भगवओ महावीरस्स वियदृभोइस्स सरीरयं उरालयं जाव अतीव अतीव उबसोभेमाणं पासइ पासइत्ता हट्टतुटुचित्तमाणंदिए पीइमाणे परमसोमणसिए हरिसवसविसप्पमाणहियए, जेणेव समणे भगवं महावीरे अतिशय शोभावन्त, श्रेयकारी, उपद्रवकारी, वस्त्राभरण रहित होनेपर शोभनिक व लक्षण व्यंजन युक्त था. ॥ १४ ॥ उस समय कात्यायन गोत्रीय स्कंदक परिव्राजक नित्यभोजी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का शरीर को अत्यंत शोभनिक यावत् लक्षण व्यंजन युक्त देखकर हृष्ट पुष्ट चित्तवाला हुआ, बहुत संतोषित, हुआ, आनंदित चित्तवाला हुआ, मन में प्रीति उत्पन्न हुई और परम उत्कृष्ट हर्ष उत्पन्न हुआ. इस तरह से * * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालामसादजी * भावार्थ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) दि• विस्तार हि हृदय वाला जे जहां सः श्रमण भ. भगवान महावीर ते. तहां उ० आकर म: श्रमण भ. भगवन्त महावीर को नि तीनवार आ० आदान प० पदाक्षिणा क० करके जा० यावत प. पृजनलगे ॥ ५ ॥नः श्रमण भ. भगवान महावीर व बदक क० कात्यायन गोत्रीय को एक ऐमा व. बाले त म को ख खंदक मासात्यी ण नगरी में पिपिंगलक निग्रंय वे० वैशालिक मा० मुनने वाला इ. इस अ. प्रश्न से मा० मागध कि क्या म. अंतमहित लोक अ० अनंत तेणेव उवागच्छदत्ता, तमणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ जाव पन्जवासइ ॥ १५ ॥ खंदयाइ समणे भगवं महावीर खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी सेणणंतमं खंदया ! सावत्थीए जयराए पिंगलएणं नियंठेणं बेसालिसावएणं इणमक्खेवं, मागहा ! किं सअंतेलोए, अणंतेलोए एवं तंचेव जाव जेणेव मम अंतिपित बनाहुआ जहां श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी थे वहां आये : आकर श्री श्रमण भगवंत महावार को तीन आदान व प्रदक्षिणा की, यावत् सेवाभक्ति की ॥ १० ॥ तब श्री श्रयण भगवंत महावीर स्वामीने कात्यायन गोत्रीय खंदक को पूछा कि अहो खंदक ! श्रावस्ती नगरी में महावीर के वचन सुनने का रसिक पिंगल निर्ग्रन्यने ऐसा पूछा कि अहो मागध : अंत महित लोक है या अंत रहित लोक है यावत का किम मरण से जीव संमार की वृद्धि व हानि करता है ? उम का जनर नहीं दे भकनमे न शीता मेरी दुसरा शतक का पहिला उद्देशा> Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | लोक जा० यावत् म० मेरी अं० पास ह० शीघ्र आ० आया से० वह खं० खंदक अ० अर्थ स० समर्थ ० हां अ० है खं० खंदक ए० ऐसा अ० आत्मविषय में चि० चितवन प० प्रार्थनारूप म० मनोगत सं० (संकल्प स० उत्पन्न हुवा किं० क्या स० अतसहित लोक अ० अनंतलोक त० उस का अ० यह अर्थ म० मैंने खं० खंदक चः चार प्रकार का प० प्ररूपा द० द्रव्य से खे० क्षेत्र से का० काल से भा० भाव से (द० द्रव्य से ए० एक लो० लोक स० अंतसहित खे क्षेत्र से लो० लोक अ० असंख्यात जो० योजन ए तेणेव हव्यमागए । सेणूणं खंदया ! अट्ठे समट्ठे ? हंता आत्थे ॥ जेत्रिय ते खंदया ! अयमेवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था, किं सअंतेलोए अणंतेलोए तस्सवियणं अयमट्ठे, एवं खलुमए खंदया ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते तंजहा - दव्वओ, खेत्ताओ, कालओ, भावओ. । दव्वओणं एगेलोए सअंते, ॥ { पास आया है तो क्या यह बात सत्य है? खंदक बोले हां यह सत्य है. अहो खंदक ! तेरे मन में ऐसा अध्यव साय, चिन्तन, मनन, व मनोगत संकल्प उत्पन्न हुवा कि क्या अंत सहित लोक है या अंत रहित लोक है. परंतु अहो स्कंदक ! मैं लोक को इस प्रकार प्ररूपता हूं. लोक के चार भेद कहे हैं द्रव्यसे, क्षेत्र से, ( कालसे व भाव से द्रव्य से पंचास्तिकायरूप एक, वह द्रव्य तत्र से अंत सहित है, क्षेत्र से सब लोक का मध्य मेरुपर्वत है उससे वह ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् दिशा की लम्बाइ व चौडाइ में असंख्यात योजन का सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७८ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8. पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र को कोडा कोडा आ० लंबा वि० चौडा अ० असंख्यात जो० योजन को क्रोडा कोड ५० परधि | में अ० है से० उस का अं: अंत का० काल से लो० लोक न० नहीं क० कदापि न० नहीं आ० हुवा न०० नहीं कदापि न० नहीं है न० नहीं कदापि न न होगा भु० हुवा भ० होता है भ० होगा धु.ध्रुव नि० नित्य सा० शाश्वत अ० अक्षय अ० अव्यय अ० अवस्थित णि नित्य ण नहीं है से उस का अं० अंत भा० भाव से लो० लोक अ० अनंत वर्ण प० पर्यव गं० गंध र० रम फा० स्पर्श अ. अनंत सं० खेत्तओणं लोए असंखजाओ जोयण कोडाकोडीओ आयांमविक्खमेणं, असंखजाओ। जोयण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ता, आत्थि पुणं सेअंते. ॥ कालओणं लोए न कयाइ न आसि,न कदाइ न भवइ,न कदाइन भविस्सइ, भुविसु य, भवतिय, भाविस्सइय धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अन्वए, अवट्ठिए, णिच्च, णत्थिपुणसे अंते, भावओणं लोए अणंतावण्ण पजवा, गंधरसफास. अणंता संट्ठाण पजवा, अणंता गुरुय लहुय } है और परिधि भी उस की असंख्यात योजन की है ताहपि वह लोक अंत सहित है. काल से पहिला लोक नहीं था वैसा नहीं, वर्तमान में नहीं है वैसा नहीं, भविष्य में नहीं होगा वैसा नहीं; परंतु अतीत काल में था, वर्तमान में है और भविष्य में होगा. और भी वह धृव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित व नित्य है. इसलिये कालसे लोक का अंत नहीं है. भाव से लोक के अनंत वर्ण पर्यव गंध, रस व स्पर्श है। *883> <दूसरा शतक का पहिला उद्देशा 880%82 भावार्थ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ AL 9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी संस्थान प०पर्यव अ०अनंत गु०गुरु लघुके प०पर्यय अनंत अ० अगुरुलघु पर्यवन नहीं है से उस का अं०* अंत ख. खंदक द. द्रव्य से लो० लोक अ० अंतसहित खे० क्षेत्र से लो० लोक स. अंतसहित का काल से लो० लोक अ० अनंत भा. भाव से लो० लोक अ० अनंत ॥ १६ ॥ ख. खंदक जाम यावत् स. अंतसहित जी जीव अ० अनंत जीव त° उस का अ० यह अर्थ जा० यावत् द. द्रव्य से ए. एक जीव स० अंतसहित खे० क्षेत्र से जी जीव अ० असंख्यात १० प्रदेशिक अ० असंख्यात प्रदेश पजवा, अणंता अगुरुयलहयपजवा, नात्थिपुणसे अते ॥ सेत्तं खंदया ! दव्वओ लोगेसअंते, खेत्तओलोए सअंते, कालओ लोए अणंते, भावओ लोए अणते. ॥ १६ ॥ जेविय ते खंदया ! जाव सअंतेजीवे अणंतेजीवे, तस्सवियणं अयमढे एवं खलु आव दव्वओणं एगेजीवे सअंते, खत्तओणं जीवे असंखेज पएसिए, असंखज एएसोगादे, अत्थिपुण से अंते, कालओणं जीवे नकदाइ न आसि णिच्चे पर्यव, अनंत संठान पर्यव, अनंत गुरु लघु पर्यव, व अंत अनुरुप पर्या हैं. इसलिये भावसे लोक अनंत है. इसतरह से अहो सकंदक ! द्रव्य लोक अंत सहित क्षेत्र भी अंत सहित, कालसे व भाव से लोक अनंत है ॥ १६ ॥ अहा कंदक ! जीव अंत महित है या अंत रहित है उस प्रश्न के उत्तर में जीव के चार भेद कहे है। हैं द्रव्य से, क्षेत्रसे, कालसे व भावसे, द्रव्य से एकही जीव है वह द्रव्य से अंत सहित है. क्षेत्रसे अपं *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अवगाहिक अ०है मे० उसका अं० अंत का काल से जी० जीव न० नहीं क कदापि नहीं हवा णि नित्य न नहीं हैं मे० उसका अं• अंत भा० भाव से जी. जीव अ० अनंत ना० ज्ञान पर्यव अ० अनंत द० दर्शन पर्यव अ० अनंत च०' चारित्र पर्यव अ. अनंत गु. गुरुलघु पर्यव अ० अनंत अ अगुरुलघु पर्यव न० नहीं है से उसका अं० अंत.द. द्रव्य से जी० जीव स . अंतसहित खे० क्षेत्र से स० अंतसहित का० काल से अ० अनंत भा० भाव से जी० जीव अ० अनंत ॥ १७ ॥ जे. जो खं० नत्थि पुणसे अंते, भावओणं जीवे अणंता णाणपजवा, अणंता दंसण पज्जवा, अणंता चरित्तपजवा, अणंता गुरुय लहुय पजवा, अणंता अगुरुय लहुय पज्जवा, नत्थि पुण से अते । सेत्तं दव्वओ जीवे सअंते, खेत्तओ जीवे सअते, कालओजीवे अणंते, भावओ जीवे अणंते ॥ १७ ॥ जेवियणं तेखंदया पुच्छा अंतासिद्धी, भावार्थ .Eख्यात प्रदेशात्मक है इसलिये अंत सहित है, कालसे जीव पहिले नहीं था वैसा नहीं, नहीं है वैसा नहीं 43 नहीं होगा वैसा नहीं, परंतु अतीत कालमें था, वर्तमान में है और आगामिकमें होगा, वैसे ही वह नित्य, शा-ge श्वत है, इसलिये काल से जीव अंत रहित है. भावसे जीव को अनंत ज्ञान पर्यव, अनंत दर्शन पर्यव, अनंत चारित्र पर्यव, अनंत गुरुलघु पर्यव है, इसलिये जीव अंत रहित है. इस तरह द्रव्यसे जीव अंत सहित है, क्षेत्र से जीव अंत सहित है, काल से व भाव से जीव अंत रहित है ॥ १७ ॥ अहो खंदक ! 4.98 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र दूसरा शतकका पहिला उद्देशा 8 000 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | * {खंदक पु० पृच्छा अं० अंत साहेत सि० सिद्धि अ० अनंत सिद्धि त० उनका अ० यह अ० अर्थ म० मैंने च० चार प्रकार की सि.सिद्धि प० प्ररूपी द० द्रव्य से ए० एकसिद्धि स० अतंसहित खे० क्षेत्र से प पैंतालीस जो० योजन स० लक्ष आ० लंबी वि० चौडी ए० एक जो० योजन क्रोड वा बीयालीस स० (लक्ष ती० तीस स० सहस्र दो० दो उ० इगुणपच्चास जो० योजन स० शत किं० किंचित् वि० विशेषाधिक प० परिधि में प० प्ररूपी अ० है से उसका अं० अंत का काल से सि० सिद्धि न०नहीं क० कदापि न० नहीं अणतासिद्धी, तस्सवियणं अयमट्ठे, मए चउव्विहासिद्धी पं० तं ० दव्वओ खेत्तओ, कालओ, भावओ. दव्वओणं एगासिद्धी, सअंता । खेत्तओणंसिद्धी पणयालीस जोयस सहरसाई आयाम विक्खभेणं, एगाजोयण कोडी बायालीसं सयसहस्साई तीसंच सहस्साइं दोण्णियअ उणापणे जोयणसए किंचिविससाहिए परिक्खवेणं पण्णत्ता, अस्थिपुण अंते, कालओणसिद्धी नकदाइनआसि ॥ भावओय जहा तुम को सिद्ध शिला अंत सहित है या अंत रहित है ऐसा प्रश्न पुछाया उस का भी यह त्रिद्धशिला चार प्रकार की कही है. द्रव्य से सिद्धशिला एक होने से अंत सहित है, क्षेत्र से सिद्धशिला ४५ लाख योजन की लम्बी व चौडी, वैसेही १४२३०२४९ से कुच्छ अधिक परिधि होने से अंत रहित है. काल से भूत भविष्य व वर्तमान ऐसे तीनों काल में शाश्वत होने सूत्र भावार्थ ون 08 अनुसंदक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ● *प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २८२ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आधी भा०भाव से ज० जैसे लो० लोक का त० तैसे भा० कहना त उस में द्रव्य से सि० सिद्धि स० अतसहित खे० क्षेत्र से स० अतसहित का ० काल से अ० अनंत भा०भाव से अ० अनंत ॥ १८ ॥ जे० जो खं० १५० (खंदक जा० यावत किं० क्या अ० अनंत सिद्ध जा० यावत् द० द्रव्य से ए० एकसिद्ध स० अंतसहित खे० क्षेत्र से सि० सिद्ध अ० असंख्यात प्रदेशात्मक अ० असंख्यात प० प्रदेशावगाहिक अ० है अं० तं लोयस्स तहा भाणियव्वा । तत्थ दव्वओ सिद्धी सअंता, खेत्तंओसिद्धी सअंता, कालओ सिद्धी अनंता भावओ सिद्धी अणंता॥ १८ ॥ जेवियतेखंद्या ! जाव किं अनंते सिद्धे तंचेच जाव दव्वओणं एगे सिद्धे सअंते,खेत्तओणं सिद्धे असंखेज पएसिए, असंखज्जपएसोगाढे, अस्थिपु अंते. कालओणं सिद्धे सादीए अपजवसिए नत्थिपुणसे अंते, भाव ( से अंतरहित है, और भाव से अंनत वर्ण, गंध रस व स्पर्श के पर्यत्र, अनंत संठानादिक अनंत | गुरुलघु व अनंत अगुरुलघु के पर्यव होने से अंत रहित है. इस तरह सिद्ध शिला द्रव्यत्र क्षेत्रसे अंत सहित है, और काल व भाव से अंत रहित है. ॥ १८ ॥ अहो खंदक सिद्ध अंत सहित हैं या अनंत है उस के प्रश्न के उत्तर में सिद्ध के पूर्वोक्त प्रकार के द्रव्यादिचार भेद कहे हैं. द्रव्य से सिद्ध एक होने से अंत सहित है, क्षेत्रसे असंख्यात प्रदेशात्म सिद्ध होने से भी अंत सहित काल से एक सिद्ध आश्री आदि सहित व अंत रहित है इसलिये अनंत और भाव से अनंत सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र दूसरा शतकका पहिला उद्देशा २८३ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ do 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उसका मैन का० काल से सिद्ध सा० सादी अ० अपर्यवसित न० नहीं है पु० फीर मे० उसका अं० अंत भा० भाव से सि० सिद्ध अ० अनंत ना० ज्ञान पर्यन दं० दर्शन पर्यत्र अ० अगुरुलघु पर्यव न० नहीं है से (अं० अंत ॥ १९ ॥ खं० खंदक ए० एतारूप अ० आत्मविषय चि०चितवन जा० यावत् सः उत्पन्न हुवा के० किस म० मरण जी० जीव व० वृद्धि पाये हा० हीनपावे त० उसका अ० यह अर्थ खं० खंदेकम ओणं सिद्धे अनंता णाणपजत्रा अणंता दंसणपजवा, अणंता अगुरुलहुय पज्जव्वा, नपुण से अंते ॥ सेतं दव्वओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अनंते, भावओ सिद्धे अनंते ॥ १९ ॥ जे विय ते खंदया ! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जाव समुप्पजित्था केणवा मरणेणं मरमाणे जीवे बड्ढइवा, हायइवा, । ज्ञानपर्यव, दर्शनपर्यक, व अनंत अगुरुलघु पर्यव होने से अंत रहित है. इस तरह सिद्ध द्रव्य ( क्षेत्र से अंत सहित व काल भाव से अंत रहित है ॥ ११ ॥ अहो खंदक ! तुम को ऐसा विचार हुवा कि किस मरण से जीव संसारकी वृद्धि या हानि कर सकता है ? अहो खंदक ! 'मरण दो प्रकार के कहे है बाल मरण व पंडित मरण. उस में से वाल मरण के बारह भेद कहे हैं ? धर्म से भ्रष्ट ( होकर या क्षुधा से चलवलाट करता मरन मरे मो वलय मरण २ इन्द्रियों के वश में पड़कर मरे सो सट्ट मरण ३ अंतःकरण में शल्य रखकर मरे सो अंतःशल्य मरण ४ मनुष्य मरकर मनुष्य होना व * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २८४ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावाथ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र दु० दोप्रकार के म० मरण वा वाद मरण १० पंडित मरण किं० कैसे बा० बाल मरण वा बाल मरण दु० बारह प्रकारका कारण इन्द्रिय मरण अंतः शल्यमरणतः तद्भवमरण गिः ० गिरिपडन त तरून ज० जल भवेश ज० अभिप्रवेश वि०वि भक्षण स० शस्त्र से मरना वे फांसी देकर गि० गृद्ध के पृष्ट में प्रवेश करना ० खंदक दुवारह प्रकारका वा बालमरण से म० मरता जी० तरसविणं अयमले एवं खलु खंदया ! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते तंजहा - बालमरणेय, पंडियमरणेय । से किं तं बालमरणे ? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते तंजहा वलयमरणे, वसहमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे, जलणपत्रे से विसभक्खणे, सत्थोवाडणे, बेहाणसे, गिपिट्ठे । इच्चेएणं खंदया ? दुबालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अनंतेहिं नेरइय भवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, तिर्यंच होना सो तद्भव मरण ५ पर्वत से पड़कर मरना सो गिरिपडण मरण ६ वृक्ष से गिरकर मरना सो तरुपडण मरण ७ पानी में प्रवेश कर मरे सो जलमवेश मरण ८ अग्नि में प्रवेश कर मरना सो जलन प्रवेश मरण ९ विप खाकर मरना सो विष भक्षण मरण १० शस्त्रतं छेदकर मरना ११ वृक्षकी शाखादिक से फांसो खाकर मरना सो वेहानस और १२ गृद्धप्रमुख के मृतक शरीर में प्रवेश कर मरना इस तरह वारह | प्रकार के व अन्य भी बाल मरण से जीव अनंत बार नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव का भव ग्रहण करता। 80 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा २८८ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ०३. अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ( जीव अ० अनंत ने० नारकी भत्रग्रहण से अ० आत्मा को सं० योजे ति० तिर्यच म० मनुष्य दे देव (अ० अनादि अ० अनंत दी० दीर्घकाल चा० चतुर्गति सं० संसार कं० कतार में अ० परिभ्रमण करे से० वह किं० कैसे पं० पंडित मरण पं० पंडित मरण दु०दोप्रकार का पा० पादोपगमन भ० भक्तप्रत्याख्यान पा० पादोपगमन दु० दोप्रकार नी० नीहारिम अ० अनीहारीम नि० निश्चय अ० प्रतिक्रमण रहित से० तिरिय मणुदेव अणाइयंचणं अणवदग्गं दीहढं, चाउरंत संसारकंतारं अणुपरियदृइ. सेतं बालमरणेणं मरमाणे वढ्ढइ । सेत्तं बालमरणे ॥ से किं तं पंडियमरणे ? पंडियमरणे ! दुविहे प ० ० ( ग्रंथ संख्या १००० 1) पाओवगमणेय भत्त पच्चक्खाणेय । से किं तं पाओगमणे ? पाओवगमणे ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- नीहारिमेय, अनीहाहै व अनादि अनंत चतुर्गतिक संसार में पर्यटन करता है. इसलिये बाल मरण से संसार की वृद्धि होती है. { पंडित मरण क्या है ? पंडित मरण के दो भेद कहे हैं. १ पादोपगमन अर्थात् वृक्ष की गिरी हुई शाखा की तरह अपने शरीर को स्थिर करे २ भक्त प्रत्याख्यान सो जीवन पर्यंत अशनादि चारों आहार का त्याग करे. उसमें से प्रथम पादोपगमन के दो भेद कहे हैं ? नीहारिम सो नगरमें मरे. उन के शरीर का ( निहारन ( संस्कार ) होवे और २ अनीहारिम. पर्वतादिक में करे. उन के शरीर का निहारन ( संस्कार ) होवे नहीं. पादोपगमन मरण मरने वाला प्रतिक्रमण नहीं करता है क्यों कि वह हलन चलनादि क्रिया * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्याला प्रसादजी * २८६ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २८७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <१880 वह पा० पादोपगमन भ० भक्त प्रत्याख्यान दु० दोप्रकार का नी नीहारिम अ० अनीहारिम नि निश्चय ० स० प्रतिक्रमण भ० भक्त प्रत्याख्यान खं० खंदक दु० दोप्रकार का पं० पंडित मरण से म० मरता जी जीव अ० अनंत ने नारकी भ० भव से अ० आत्मा को वि० पृथक्करे जा. यावत् वी० तीरे इ० इन। खं खंदक दु० दोप्रकार के म० मरण से म० माता, जीव व० वृद्धि पावे हा हानीपावे ॥ २० ॥ से. रिमेय. नियमा अपडिक्कमे. सेत्तं पाओवगमणे । से किं तं भत्तपच्चक्खाणे ? भत्तपचक्खाणे दुविहे प० तं० नीहारिमेय, अनीहारिमेय, नियमा सपडिक्कमे. सेत्तं भत्त पच्चक्खाणे इच्चतणं खदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइय भवग्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ जाव वीयर्यावयइ. सेतं मरमाणे हायइ. सेतं पंडियमरणे ॥ इच्चेएणं खदया ! दुविहेण मरणेणं मरमाणे जीवे वढुइ वा,हायइ वा॥२०॥ नहीं करता है. भक्त प्रत्याख्यान के दो भेद कहे हैं नीहारिम और अनीहारिम. यह प्रतिक्रमण करता है क्यों कि इन को हलन चलनादि क्रिया होती है. इस तरह अहो खंदक! दो प्रकार के पंडित मरण मरने वाला नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव के भव में अनंतवार उत्पन्न नहीं होता है यावत् संसार में परिभ्रमण नहीं करता है. इसतरह मरण मरने वाला संसार का क्षय करता है. अहो खंदक : ऐसे दो मरण मरनेसे जीव संसार की वृद्धि व हानि करता है. ॥ २० ॥ इस तरह उत्तर सुनकर कात्यायन गोत्रीय खंदक परिव्राजको Raghav दूसग शतक का पहिला उद्देशा 8888 भावार्थ 1 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वह ख० खंदक क कात्यायन गोत्रीय संयुद्ध म श्रमण भ भगवन्त म. महावीर को वं. वंदन कर न नमस्कारकर एक ऐसा व वाले इ० इच्छता हूं भं भगवर तु. तुमारी अं० पास के केवली ५० प्ररूपा धर्म को नि० धारने को अ० यथामुख दे. देवानुप्रिय मा० मत ५० प्रतिबंध करो त तब स. श्रमण भ० भगवन्त ५० महावीर वं वंद्रक क कात्यायन गोत्रीय ती उस म. वडीम० महान प.परिषदामें धधर्म प.कहा धधर्म कथा मा कहीर ॥ ततब से वह ख० खंदक क कात्यायन गोत्रीय सूत्र 19 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एत्थणं से खदए कच्चायण सगाते संबढे ! समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, नमसइत्ता एवं क्याली इच्छामिण न। नन्दा अनि केवली पन्नत्तं धम्म भिसामित्तए. अहासह देवाणपिया मापांडबध ॥ नारण समण भगव महावीर खदयम्स कमायण सगात्तस्स तीसेयमहद महालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ. धम्मकहा भाणियव्वा प्रति बोध पाये और श्री श्रमण भगवन का वंदना नमस्कार कर कहने लगे कि अहो भगवन! आप की E ममीप के पनी प्ररूपिन धर्म सुनने को मैं चाहता है. अहो देवानुधिय : जैसा तुम का सब हो वैमा में कगे, विलम्ब मत करो. उसमय श्री श्रममा भगवान महावीर स्वामी ने उन महती पम्पिदा में बंदक परिव्राजक को धर्म का नहीं. १॥ नम हर व कात्यायन गोचीर ग्वंटक ने महावीर स्वामी की * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुम्बदवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र वार्थ पंचमाङ्ग विवाह पष्णत्ति (भगवती) सूत्र (स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीरकी अं० पात घ० धर्म सो० सुनकर नि० अवारकर ह० हृष्ट तु०तुष्ट जा० यावत् ह० हर्षहुवा हि० हृदयमें उ० स्थान હે खडे हुवे उ० खडे होकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की ति० तीनवार आ० आदान प० प्रदक्षिणा की क० करके ए० ऐसा व बोले स० श्रद्धा हूं मं० भगवन् नि० निग्रंथ पा० प्रवचन को प० प्रतीत करता हूं रो० करता हूं ए० ऐसे ही मं० भगवन्तः तैसे मं भगवन् अ० सत्य अ० रुre करता हूं अ० उद्यम ॐॐॐ संदेहरहित इ० इच्छित प० तसे खंदए कच्चायणसगोन्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हयहियए उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेइत्ता एवंवयासी, सदहामिणं भंते! निग्गंथं पात्रयणं, पत्तियामिणं भंते निग्गंथं पावयणं रोएमिणं भंते ! निग्गंथं पात्रयणं, अब्भुट्ठेमिणं भंते! नि पात्रणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयंमंते ! असंदिमेयं भंते ! इच्छिय समीप धर्म सुनकर व अवधार कर अत्यंत हर्षित हुए और तत्काल उठकर श्रमण भगवतं महावीर को तीन आदान प्रदक्षिणा कर के ऐसा कहा कि अहो भगवन् ! निर्ग्रन्थ वचन को मैं श्रद्धता हूं, उन की रुचि कर ता हूं, उन मत्रचनों की मैं प्रतीति करता हूँ, उन प्रवचनों में मैं धनवन्त बना हुआ हूँ, अहो भगवन्! निय प्रवचन वैसे ही यथायोग्य है, संदेह रहित, इष्ट है. मतीमित है. ऐसा कहकर श्री महावीर स्वामी उ० दूसरा शतकका पहिला उद्देशा २८९ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 विशेष इच्छित से वह ज जैसे तु• तुम व कहते हो त्ति ऐसाकरके सश्रमण भ भगवन्त म०महावीरको वं वंदनाकर न० नमस्कार कर उ० ईशान कोन में अ० आकर ति० त्रिदंड कुं० कमंडल जा. यावत्-धा० धातु से रक्त वस्त्र ए. एकान्त में एकरखकर जे. जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते तहां आ० आकर स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ति तीन वार आ० आदान प० प्रदक्षिणा क० करके जा. यावत् न. नमस्कार कर आ० आदीप्त हुवे लो०लोक प०प्रदीप्त हेव ज जरा म०मरण से ज जैसे के० मेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियभेयं भंते ! से जहेयं तुज्झे वदहत्तिकटु, समणंभगवं महावीरं वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता, णमंसइत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं अवकमइ, अवकमइत्ता तिदंडंच कुंडियंच जाव धाउरत्ताउय एगंते एडे एडेइत्ता जेणेव समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आदाहिणपयाहिणकरेइ करइत्ता जाव नमसइत्ता एवं वयासी, को वंदना नमस्कार कर के ईशान कोन में गया. वहां जाकर त्रिदंड कमंडल यावत् गेरु से रंगे हुवे वस्त्रों को एकान्त में रखकर श्रमण भगवन्त महावीर की पास आया. वहां आकर महावीर भगवन्त तीन आदान प्रदक्षिणा की. प्रदक्षिणा कर यावत् नमस्कार कर ऐसा बोले की अहो भगवन् ! यह जीवलोक जरा व मरण से मलित बना हुवा है. जैसे कोई गृहपति अपने घर को आग्नि से प्रज्वलित mmmmmmmmwww *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ | Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 800 कोई गा गाथापति आ० गृह में जि० जलते जे० जो त० तहां मं० भंडोपकरण भ० होवे अ० अल्पभार मो० बहुमूल्यवाली तं० उस को ग० ग्रहणकर आ० आत्मा से ए० एकान्त अ० अतिक्रमे ए० यह नि० निकालते प० पीछे पु० पहिले हि० हितके लिये सु० सुख के लिये ख० क्षमाकेलिये नि० मुक्तिकेलिये अ० अनुगामिक भ० होगा ए० ऐमा दे० देवानुप्रिय म० मेरा आ० आत्मा ए० एकभंड इ० इष्ठ कं० कान्त पि० १०० प्रिय म मनोज्ञ म० मनाम धिः धैर्य त्रि विश्वास सं० स्वमत व बहुमत अ० अनुमत में आभरण क आलित्तेनं भंते ! लोए पलित्तेणं भंते ! लोए, आलित्तपलित्तेणं भंते ! लोए जराए मरणेणय से जहा नामए केइ गाहावई आगारंसि झियायमाणांस जे से तत्थ भंडे भव अप्पभारे मोल्लागुरुए तं गहाय आयाए एगंतमतं अवकमइ, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छापुराए हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ. एवामेव देवापिया ! मज्झवि आया एगे भंडे इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे धिजे विस्सासिए बना हुवा देखकर उस में जो अल्प भार व बहुत मूल्यवाली वस्तु होती हैं उन्हें नीकालता है, और | नीकाल कर एकान्त स्थान में रखता है. और ऐसा विचारता है कि इस अग्नि में से नीकाली हुई वस्तु पीछे से हित, सुख, कल्याण की कर्ता व दारिद्र्य को हरनेवाली होगी. इस प्रकार अहो देवानुप्रिय ! मुझे, | मेरा आत्मारूप एक बहु मूल्य पदार्थ इष्टकारी, प्रियकारी, मनोज्ञ, मन को गमता, धैर्यता, स्थिरता व दूसरा शतक का पहिला उद्देशा २९१ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 3अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी भाजन १० जैसे मा० मत सी• शीत उ. ऊष्ण खु० क्षुधा पि० तृपा चो० चोर बा० सर्प दं. कवा वात पि० पीत सं० श्लेष्म स० स० सन्निपात वि० विविध रो रोग आ. आ-१ संक प० परिषह उ० उपसर्ग फ० स्पर्श त्ति ऐसा क० करके नि: निकालते पपरलोक काहिक हितकेलिये सु० सुख केलिये ख० क्षमाकेलिये नि० मुक्तिके हेतु अ. अनुगामिक भ० होंगे से. उसको १० इच्छता हूं दे देवानुपिय स. स्वतः ५० प्रबजित मुं० अँडहोकर से शिक्षा ग्रहणकर सि. शिक्षा समए बहुमए अणुमए भंडकरंगसमाणे माणंसीयं, माणंउण्हं, माणवहा माणंपिवासा, माणंचोरा, मागंबाला, माणंदंसा, माणंममया माणवाइय-पित्तिय-संभिय-साणवाइय. विविहारोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कडु, एस नित्थारियसभाणे परलोयस्स हियाए,सुहाए,खमाए,निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ,तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया! सयमेव पन्चाधियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सय. विश्वास का कर्ता है. आत्मकृत कार्य के सम्मतपने से बहुमत व अनुमत है. आभरण के करंडिये समान है. इसे मैंने शीत, ऊष्ण, क्षुधा, तृपा चोर, मर्प, दंश, मशक, वात, पित्त, कफ, संनिपात आदि मा णान्तिक उपसर्ग व परिषद से बचाया , भादीप्त प्रदीप्त में मेरा आत्मा की मैं रक्षा करूंगा. यह मुझे इस लोक व परलोक में हित, सुख, कल्याण, क्षमा, निस्तार के कर्ता व अनुगामी होगा. वैसे ही मुक्ति है। *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी* भावार्थ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आ० आचार गो० गोचर वि० विनय वे० करता च. चरण क० करण जा० संयम यात्रा मा. मर्यादा: ध० धर्म आ० कहो त० तब.स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर खं० खंदक क० कात्यायन गोत्रीय को स० स्ववाने प. प्रवजा दी जा० यावत् ध० धर्म आ• कहा ए. ऐसा दे० देवानुपिय चि० खडा रहना गं० जाना ए०ऐसे नि बैठना तु सोना भुं भोजन करना भा०बोलना ए ऐसे उउठकर पाल्माण भूलभूत org मेवआयारगोयरं विणय वेणयिय चरणकरण जाया मायावत्तियं धम्ममाइक्वियं तएणं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पवावेइ, जाव धम्ममाइक्खाइ एवं देवाणुप्पिया ! चिट्ठियव्वं, गंतव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं, एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं, भूतेहिं, जीवहिं, सत्तेहिं भावार्थ 1. देनेवाला होगा. इसलिये अहो देवानुपिय ! मैं स्वयं मुंडित होने को, आचार क्रिया करने को, सूत्रार्थ 4. ग्रहण करने को, आचार, गोचर, विनय करने को, चरण, करण संयम की मर्यादा करने को और जैसे आप धर्म कहते हो वैसा अंगीकार करने को वांच्छता हूं. तब श्री श्रमण भगवन्तने दीक्षा दी यावत् सब जिन धर्म का स्वरूप कहा कि अहो देवानप्रिय खंदक ! युग प्रमाण भूमि देखकर चलना, ऐसे ही निर्गम 1 प्रवेश रूप स्थान देखकर खडे रहना, भुमि पुजकर बैठना, यत्नापूर्वक शयन करना, यत्नापूर्वक भोजन करना > पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र दूसरा शतक का पहिला उद्देशा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथाजी जीव स० सत्व सं० संयम से सं० यतना करना अ० इस अ० अर्थ केलिये णो नहीं किं० कि चित् प० प्रमाद करना ॥ २१ ॥ त० तब से वह खं० खंदक क. कात्यायन गोत्रीय स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर का एक ऐसा ध० धर्म उ० उपदेश स० सम्यक् सं० अंगीकार क्रिया त उस आ. आज्ञाको त० जैसे ग. जावे चि० रहे नि बैठे तु. सोवे भुं० भोजनकरे भा० बोले उ० खडाहोवे, पा० प्राणभू भूत जी० जीव स०सत्व सं०संयम मं० यत्नकरे अ०इस अ० अर्थ में णो० नहीं प० प्रमादकरे संजमेणं संजमियब्वं. अस्सिंचणं अटे णोकिंचि पमाइयव्वं. ॥ २१ ॥ तएणं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं संपडिवज्जइ,तमाणाए तहगच्छइ,तहचिट्ठइ,तहनिसीयइ,तहतुयदृइ, तह जइ तहभासइ,तहउट्ठा , एइ तहपाणेहि भएहिंजीवहिंसत्तहिं संजमेणं संजमेइ, आसिंचणंअटेणोपमायइ ॥ २२ ॥ भावार्थ व यत्नापूर्वक बोलना. ऐसे ही उद्यमवन्त बनकरके प्राणभूत जीव व सत्र से संयम पालना. इस में किंचिन्मात्र प्रमाद करना नहीं ॥ २१ ॥ तब कात्यायन गोत्रीय खंदकने श्रमण भगवान महावीर का ऐसा धार्मिक उपदेश सुनकर उसे सम्यक् प्रकारसे अंगीकार किया. और उनकी आज्ञामें यत्ना पूर्वक जाना, खडे है रहना, बैठना, सोना, भोजन करना, बोलना व सावध रहना ऐसे करने लगे. सावध होकर प्राणभूत जीवन | व सत्व की रक्षा कर संयम पालने लगे. इस में किंचिन्मात्र प्रमाद नहीं करने लगे ॥ २२ ॥ तब ईर्या स 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20% * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | २० | ॥ २२ ॥ से० वह खं० खंदक क० कात्यायन गोत्रीय अ० अनगार जा० हुवा इ० ईर्यासमिति भा० भाषासमिति ए० एषणा समिति आ० आदान भंड मात्रा निक्षेपन समिति उ० उच्चार प्रश्रवण खेलसिंघाण काय समिति म० मनगुप्ति व त्याग ल० लज्जा सहित ध० रहित अ प्रार्थना रहित अ सूत्र भावार्थ 886 पंचङ्ग हिववपण्णाति ( भगवती ) सूत्र ज० जल परिस्थापनिक समिति म० मनसमिति व० वचन समिति का वचनगुप्ति का कायगुप्ति गुरु गुप्त गु० गुप्तेन्द्रिय गु० गुप्त ब्रह्मचारी च ० धन खं० क्षमा ख० सहनकरे जि० जितेन्द्रिय सो० मैत्रीभाव अः निदान तणं से खंदए कच्चायणसगात्ते अणगारे जाए इरिया समिए, भासा समिए, एसणा समिए, आयाण भंडमत्त निक्खेवणा समिए, उच्चारपासवणखेल सिंघाणजल्ल पारिट्ठावणिया समिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुति मिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भंडमात्र निक्षेपना समिति, उच्चार प्रश्रवण खेलजल परिस्थापनीय समिति, मन समिति, वचन समिति, काय समिति, मन गुप्ति, वचन गुप्ति व काय गुप्तिवाले, गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जायुक्त, धर्मरूप धन का संग्रह करनेवाला, क्षान्ति क्षमा के धारक, जितेन्द्रिय, नियाना नहीं करनेवाले, उत्सुकपना रहित, संयम में लेश्यावन्त, श्रामण्य-साधुपना में रत व ( दमितेन्द्रिय कात्यायन गोत्रीय खंदक अनगार जिन प्रवचन को आगे करके विचरने लगे अर्थात् जैसे 4- दूसरा शतकका पहिला उद्देशा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी बाहिर लेश्या वाला नहीं सुअच्छी मनोवृत्ति र रमने वाला दं० दमितेन्द्रिय नि निग्रंथ पा०प्रवचन पु० आगे का० करके वि. विचरता है ॥ २३ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर क• कयंगला हैन नगरी के छ० छत्रपलाश चे० उद्यान से प० किलकर ब० वाहिर ज. अन्यदेश में वि० विचरने लगे ॥ २४ ॥ त० तब खं० खंदक अ० अनगार स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर के त. तथारूप थे० स्थविर की अं० पास सा. मामायिकादि ए. अग्यारह अं० अंग अ. शीखकर जे० जहां स० दिए गुत्तबंभचारी, चाई, लज्जू धन्ने खंतिक्खमे जिइंदिए, सोहिए, आणियाणे, अप्पुस्सुए . अचहिल्लस्से सुसमण्णरए, दंते इणमेवनिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ ॥ २३ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ णयराओ छत्त पलासयाओ चइया ओ पडिनिक्खमइ २ त्ता, बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥२४॥तएणं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ · महावीरस्स · तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई मार्ग का अज्ञ पुरुष मार्ग का जान पुरुप को आगे करके जाता है वैदी खाक अनगार निग्रंथ प्रवचन का आश्रय लेकर विचरने लगे ॥ २३ ॥ उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर कयंगला नगरी के छत्र पलाश नामक उद्यान से नीकलकर बाहिर विचरने लगे ॥ २४ ॥ रत समय में श्री खंदक अनगारने महावीर स्वामी के तथारूप स्थविर की पास से सामायिक आदि छ आवश्यक व आचारंगादि * wwwwwwwwwnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालापमाद जी * भावार्थ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. शब्दार्थ * श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते तहां उ० आये उ आकर स० श्रमण भ भगवन्त म० महावीर को 400 दनाकर न नमस्कार कर व बोले इ० इच्छता हूं भं० भगवन् तुतुपारी अआज्ञा होते मा०एकमास की भि. भिक्षु १० प्रतिमा उ० अंगीकार कर वि. विचरने को अ० यथामुखम् मा० मत प. प्रतिबंध करो त० तब खं० खंदक अ० अनगार सः श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर से अ• आज्ञामिलते ही एक्कारस अंगाई अहिजइ, आहिजइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ२त्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ नमसइत्ता एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुझेहि अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपाजित्ताणं विहरित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापाडबंध. तएणं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 4889 Aawanawwanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmnnn दूसरा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ अग्यारह अंग का अध्ययन किया. अध्ययन करके श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पास आये. आकर तीन वार प्रदक्षिणा करके वंदना नमस्कार किया. वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! आपकी आज्ञा होवे तो एक मास की भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करने को इच्छता अहो देवानुप्रिय ! नुम को जैसा सुख होवे वैसा करो. विलम्ब मत करो. इस तरह भगवन्त की आज्ञा मीलने से खंदक अनगार हृष्ट तुष्ट चित्तवाला बनकर भगवन्त को नमस्कार कर एक मास की भिक्षु प्रति A 1 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | M सत्र भावार्थ अनुवादक़- बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अ० {हृष्ट तु०तुष्ट जा०यावत् न० नमस्कारकर मा० एकमास की भि० भिक्षु प्रतिमा उ० अंगीकारकर वि०विचरने लगे || २५ || से० वह खं खंदक अ० अनगार मा० एकमास की भि० भिक्षु प्रतिमा अ० यथासूत्र यथाकल्प अ यथामार्ग अ० यथातथ्य अ० यथा सम्यक् का काया से फा० स्पर्शे पा० पाले सो० संभाग करे ती दोषटाले पू० पूर्ण करे कि कीर्तनकरे अ०पाले आ० आज्ञा से आ० आराधे स० सम्यक् का काया से फा० स्पर्शकर जा० यावत् आ आराधकर जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त अब्भणुण्णाए समाणे हट्ठतुट्ठ जाव नमंसित्ता मासियंभिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥२५॥ तणं से खंदए अणगारे मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं, अहासमं, सम्मं कारणं फासेइ, पालेइ, सोमेइ, तीरेइ, पूरेइ, किहेइ अणुपालेइ, आणाए आराहेइ; सम्मं कारण फासित्ता जाव आराहेत्ता, जेणेव मा अंगीकार कर विचरने लगे || २५ ॥ तत्र श्री खंदक अनगार जैसी सूत्र में एक मास की भिक्षु प्रतिमा की विधि कही है वैसी भिक्षु प्रतिमा को कल्प अनुसार, मार्ग अनुसार पालने लगे. वैसे ही क्षयोपशम) भाव से अतिक्रमे नहीं. सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शी, विधि से ग्रहण की, वारंवार उपयोग रखकर पाली, पूर्ण की, कीर्ति की अनुपालना की यावत् आज्ञा पूर्वक आराधी. सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर यावत् आज्ञासे आराध कर जहां श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी थे वहां आये, आकर श्रमण २९८ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थममहावीर ते. तहां उ. आये उ० आकर सः श्रमण भ. भगवन्त जा. यावत् न० नमस्कार कर ए. एला व० बोले इ० इन्नता हूं भं भगवन तु: तुमारी अ. आज्ञामिलते दो० दोमाम की भिooto भिक्ष प्रतिमा उ० अंगीकार कर वि विचरने को अ० यथासुखम् दे देवानुप्रिय मा० मत प. प्रतिबंधकरो एक ऐसे दो दोमाम की ति• तीनमास की च० चार मास की पं० पांच छ, छ स० सात is समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता, समणं भगवं जाव नमांस त्ता, एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुझहिं अब्भणुण्णाए समाणे दोमासयं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं बिहरित्तए. अहासुहं देवाणुप्पिया! मापडिरधं. तंचव एवं दोमासियं, तिमासियं, चाउम्मासियं, पंचछसत्त पढमं सत्तराइंदियं, दोच्चं सत्तराइंदिय, तच्चं भावार्थ भगवन्त को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन ! आपकी आज्ञा होवे तो दो मास की भिक्षु प्रतिमा अंगीकार कर विचरूं. अहो देवानुप्रिय : जैसे तुम को सुख होवे बैसे करो. विलम्ब मत करो. तब सहर्ष आज्ञा लेकर दो मास पर्यंत दो दात आहार की व दो दात पानी की ग्रहण की. वैसे ही Go तीसरी तीन मास की भिक्षु प्रतिमा में तीन दात आहारकी व तीन दात पानीकी ग्रहण की. चार मासकी चौथी भिक्ष प्रतिमा में चार दात आहार की व चार दात पानी की ग्रहण की वैसेही पांच छ व सात मास ॐकी भिक्षु प्रतिमाओं में पांच, छ व सात मास तक पांच छ व सात दात आहार की व मात दात पानी की 428 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 82803 389 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा 824882 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ११ अनुबादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 8% प.प्रथम स०सात रात्रिदिवप्तकी दोमरी ससात सत्रिदिवसकी त०तीसरी स०सातरात्रिदिवसकी अ० अहो । रात्रिकी ए० एक रा० रात्रि की त० तब से वह खं० खंदक अ० अनगार ए० एकरात्रि भिई भिक्ष प्रतिमा अ० यथासूत्र जा. यावत् आ० आराधकर जे. जहां स. श्रमण भ० गवन्त मई महावीर ते तहां उ० आकर अ० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीरको जा. यावत् न. नमस्कार करके एक ऐसा 40 वोले इ० इच्छता हूं भ० भगवन् तु तुमारी अ० आज्ञामिलते गु० गुणरत्न सं० संवत्सर है सत्तराइंदियं, अहोराइयं, एगराइयं. तएणं से खंदए अणगारे एगराइभिक्खु र पडिमं अहासत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छड २त्ता. समणं भगवं महावीरं जाव नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुज्झेहिं अब्भ____णुण्णाए समाणे गुणरयणं संवच्छर तनोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए. अहासुहं ग्रहण की. आठवी प्रतिमा में सातदिन तक चौविहार एकान्तर उपवास, * नववी प्रतिमा में सातदिन चौविहार एकान्तर उपवास, दशवी में सातदिन चौविहार एकान्तर उपवास. अग्यारहवी में छठ (बेला), और बारहवी में तीन उपवास का तेला करना व एक रात्रिका श्मशान में कायोत्मर्ग, इस तरह बारह प्रतिमा को सूत्रानुसार यावत् आज्ञानुसार आराधकर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कारकर कहने में लगे की अहो भगवन् ! आपकी आज्ञा होवे तो गुणरत्न की प्राप्ति कराने वाला गुणरत्न संवत्सर तप से _* आठवी में दंडादि नववी में लगडादि और दशवी में वीरासनादिक आसनों की भिन्नता है. maramwwwwwwwwwww *प्रकाश-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र त० तपकर्म उ० अंगीकार कर वि० विचरने को अ यथासुखम् दे० देवानुप्रिय मा० मत प० प्रतिवध करो ।। २५ ।। त० तत्र से वह खं० खंदक अ० अनगार भ० भगवन्त म महावीर से अ० आज्ञामिलते जा० यावत् न० नमस्कार करके गुरु गुणरत्न सं० संवत्सर त ० तपकर्म उ० अंगीकार करके त्रिविचरने लगे तं० वह ज० जैसे प० पहिला माम च० चतुर्थ भक्त से अ० अंतर रहित त० तपकर्म दि० दिवस टा०१७ स्थान उ० उत्कट आसन से सू० सूर्याभिमुख से आ० आतापना भू० भूमिमें आ० आतापनालेते र रात्रि में बी० वीरामन से अ० वस्त्र रहित दो० दुसरा मास में छ० छउ छ० छठ में अ० अंतर रहित दि देवाणुपिया ! मा पडिबंधं ॥ २५ ॥ तणं से खंदए अणगारे समणणं भगम्या महावीरेणं अन् मणुष्णाएसमाणे जाव नमसित्ता गुणरयणं संवच्छरं तवोकम उव संपज्जित्ताणं विहरइ तंजहा - पढमं मासं चउत्थं चउत्थेणं अनिक्खिणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए अबाउडेणय, दोच्चं मासं छट्ठछट्टेणं अनिक्खित्तेणं, अंगीकार कर विचरुं भगगन्तने फरमाया कि अहो देवानुप्रिय ! जसे तुमको सुख होवे वैसा करो विलम्ब मत करो ||२५|| तत्र खंदक अनगार श्रमण भगवन्त महावीरकी आज्ञालेकर व वंदना नमस्कारकर गुणरत्न नामक संवत्सर तप अंगीकार करके विचरने लगे. उसकी सो इस तरह है. पहिले महिने में एकान्तर उपवास रति वीरासणेणं दिखा श्री ठाणुक्कुडुए, सूराभिमुहे, A 40840888 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा 90-gog आयावेमा ३०१ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथे mmmmwwwwwww दिवस में उत्कट आसन मे सू सूर्याभिमुख आरे आताप भू० भूमि में आ• आतापनालेते र० रात्रि कोबी वीरासन से अ० वव रहित त० तीसरा मा. मास में अ० अष्ट अ० अष्ट से च० चौथा । मिद चार उपवास से पं० पांचवे मास में बा. पांच उपवास से छ. छठा मास में चो० छ उपबस से सा० सातवा मास में सो. सात उपवास से अ० आठवा मास में अ० आठ उपवास से न० नवमा मास में बी० नव उपवास से द० दसवा मास में बा० दशउपवास से ए. इग्यारह मास में च इग्यारह आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेणय, एवं तच मासं अट्ठमं अट्ठमेणं, चउत्थं मासं दसमंदसमेणं, पंचममासं बारसमं बारसमेणें छठें मास चोहसमं चोद्दसमेणं, सत्तमंमासं सोलसमं सोलसमेणं, अट्ठमंमासं अट्ठारसभं अट्ठारसमेणं, नवममासं बीसइमं बीसइमेणं, दसमंमासं बावीसइमं बावीसइमेणं, एकारसमंमासंचउवीसइमं चंउवीसइमेणं, बारसमं मासं छब्बीसइमं छब्बीसइमेणं,तेरसमं दारे महिने में दो दो उपवास का पारना, तीसरे महिने में तीन तीन उपवास, चौथे मास में चार चार उपवास, पांचवे में पांच पांच, छठे में छ छ उपवास, सातवे में सात सात उपवास, आठवे में आठ आठ उपवास, नववे में नव नव उपवाप्स, दशवे में दश दश उपवास, अग्यारहवे में अग्यारह २ बाहरवे में बारह २ , तेरवे में तेरह२, चौदवे में चौदहर, पंदरहवे में पंदरह २, और सोलहवे मास में सोलहर उपवासका पारणा mewwwmmmmm ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि, श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ wwwanmarwa Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 3 १४.४०% पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) भूत्र - Res उपधाम मेघावारवा मास में छ० वार उपवासे ते तेरह मास में अतेरह उपधाम मे चो चौदह मास बाद मामच पन्नरह उपवाम मो सोलह मान मच. मोलह उपनाम अनरंतर तालकटस सूर्य की मन्मग्य आ. आनापना भ० भूमि में आ आतापना लेते हुव र रात्रि में वीवारामन अ० नमन लव खंदक अ० अमगार गु० गणरत्नमं० संवत्सर त तप कर्म अ० जैसा सुना अ० कल्प अनुसार जा. यावन आ० आराध कर जे. जहां मा श्रमण भ० भगवन् म. महावीर ते. वहां उ० आय 3. आकर व मासं अट्ठावीसइमं अट्ठवीसइमेणं, चोदसममासं तीसइमं तीसइमेणं, पन्नर समं मास बत्तीसइमं बत्तीसइमेणं, सोलसमंमासं च उत्तीसइमं च उत्तीसइमेणं, अनिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं दिया टाणुक्कुडुए सृराभिमुहे, आयावणभूमीए आयोवमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडेणं, ॥ तएणसे खंदए .अणगारे गुणरयणं संवच्छरं तवोकम्मं अहा सुत्तं, अहाकप्पं, जाव आराहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ करे. इस तरह सोलह पाम तक आंतरा रहित तप करे. दिन को उत्कट आसन करे, सूर्य की आतापना लेवे और रात्रि में वीरासन से वस्त्र रहित रहे. इस तरह मूत्र व कल्प अनुसार गुणरत्न संवत्सर तप कर्म को आराधकर जहां श्रमण भगवन्त महावीर थे वहां आये, यहां आकर भगवन्त महावीर दसग श्तक का पहिला उद्देशा 8%82-83 भावार्थ | Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ / बहुते च० चार छ० छ अ० आठ द० दश दु० बारहे सा० अर्ध मास मा० मासखमण वि० विचित्र त तप कर्म से अ० आत्मा को भा विचारते वि० विचरते है. ॥२६॥ त ० तब खं खंदक ते ० उस उ० उदार वि विपुलं प० गुरु की आज्ञा से कराया हुवा ( प० प्रमाद रहित कराया ) प० मान पूर्वक रहा हुवा क० कल्याण कारी सिं० मोक्ष के हेतु भूत ध० धर्म धनवाला मं० मंगल सन् सुशोभित प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त उ० उत्तम उ० उदार म० बहुत प्रभाव वाला त० तर कर्म से सु० शुष्क लु० रुक्ष नि० मांस रहित अ० सूत्र भावार्थ १०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ᄋ वागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, बहूहिं चउत्थ छट्टूमदसम दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचितहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भात्रेमाणे विहर ॥ २६ ॥ तएणं सेखंदए अणगारे तेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेष्यंं पग्गाहिएणं कलाणेणं, सित्रेणं, धन्नेणं, मंगल्लेणं, सस्सिरीएणं, उदग्गेणं, उदत्तेणं, उत्तमेणं उदारणं, महाणुभागेणं, स्वामी को वंदना नमस्कार कर एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास यावत् पंदरह उपवास, मासे स्वमण ऐसे विविध प्रकार के तप करते हुवे खंदक अनार विवरने लगे ॥ २६ ॥ उन समय में खंदक अ गगार आशंसा रहिन सो उदार, प्रज्ञान, विपुल, गुरुकी आज्ञा से कराया हुचा, बहुत मान पूर्वक कराया हुवा, कल्याण* कारी, मंगलकारी, धर्मरू घन करनेवाला, सुशोभनिक, उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाला, उत्तम, उदार व * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ३०४ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णसि ( भवगती ) सूत्र अस्थि च० चमडा से अः बंधा हुवा कि० कडकडाटभूत कि० कृश घ० नाडीयों की सं० संतती जा० हुइ हो० थी ॥ २७ ॥ जी० जीव से म० जाता है चि० बैठता है भा० भाषा भा० बोलकर गि० ग्लानी पाता है भा० भाषा भा० बोलते गि० ग्लानि पाता है भा० भाषा भा० बोलूंगा गि० ग्लानि पाता है। (से० अथ ज० जैसे क० काष्टका स० गाडा प० पत्र का स० शकट प० पत्र ति० तील मं० भाजन का स० शकट ए० एरंड काष्ट का स० शकट ई० कोयला स० शकट उ० उष्ण दि० दिनको सु० तवोकम्मेणं, सुक्के, लक्खे निम्मंसे अट्ठचम्मावणढे किडिकिडियभूए, किसे, धमाणसंतए • जाए यांचि होत्था ॥ २७ ॥ जीवं जावेणं गच्छइ, जीवं जीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता विगिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ भासं भासिस्सामीति गिलाइ । से जहा नामए कटुसगडियाइवा, पत्त गडियाइवा, पत्ततिलभंडगसगडियाइवा, एरंडकटु सगडियाइवा, इंगालसगार्डियाइवा, उन्हे महानुभाग तप कर्म से शुष्क, रूक्ष, मांस बिना का अस्थि व चर्म से बंधाया हुवा, बैठते खडे होते कडकडाट होघे वैसे, कृश, नाडियों की कीलियोंवाला होगया ||२७|| उन का शरीर इतना दुर्बल होगया कि जीव मात्र जीवकी सहायता से जाता है. जीव जीव की सहायता से खड़ा रहता है, भाषा बोलकर ग्लानि होती, भाषा बोलते ग्लानि होती, और भाषा बोलने का विचार आते ग्लानि होती. जैसे कोई काष्ट से भरा हुवा गाब, पलाश पत्र से भरा हुवा गाडा, पत्र सहित तील का भरा हुवा गाडा, मृत्तिका के भाजन से भरा हुवा गाडा, एरंड की 840 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा ३०८ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ३०६ mM श्री अमोलक ऋषिजी १. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि मुकाया हुवा स० शब्द सहित ग जाता है स० शब्द सहित चि० खडा रहता है एक ऐसे खं० खंदक १० अनगार स शब्द सहित ग. जाता है स० शब्द सहित चि. बैठता. है उ० पुष्ट त तप से अ014 दुवेल मं० मांस सो० रुधिर से ह० अग्नि समान अ० भस्म में प.छुपाहवा ततपके ते. तेजसे त. तपतेज मा की सी० लक्ष्मी से अ० बहत उ० शोभते चि० रहता है। २८ ते. उसकाल ते. उस समय में रा० राजगृह न० नगर में स० समोसरण जा. यावत् प० परिषदा ५० पीछीगई ॥ २२ ॥ त० तब त• उस दिण्णा सुक्कासमाणी ससइंगच्छइ, ससइंचिट्ठइ, एवामेव खंदए अणगारे ससहंगच्छइ ससदंचिट्ठइ । उवाचिते तवेणं अवचिए मंससोणिएणं हुयासणेवि भासरासि पडिच्छण्णे, तवेणं तेएणं, तवतेय सिरीए अतीव उवसोभेमाणे२ चिट्ठइ ॥ २८ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायागहेनयरे समोपरणं जाव परिसा पडिगया॥२९॥ तएणं लकडी से भरा हुवा गाडा, और कोयले से भरा हुवा गाडा है. उस में रही हुई वस्तु सूर्य की ऊष्णता * से जब सुक जाती है और उस समय जब गाडा चलता है तब उस में जैसे कडकडाट शब्द नीकलता है। वैसा ही शब्द खंदक अनगार के रक्त मांस विना के शरीरमें से नीकलता है. खंदक अनगार के शरीर में रक्त मांस नहीं होने पर तपरूप तेज से उनका शरीर भस्म में ढकी हुई अग्नि समान तेजस्वी दीखता है ॥२८॥ उस काल उस समयमें श्री महावीर स्वामीराजगृह नगरमें पधारे और परिषदा वंदन करने को आई और धर्मोपदे । *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ + पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र खं० खंदक अ० अनगार को अ० अन्यदा क० कदापि पु० पूर्व रात्रिके का० काल में घ० धर्म जा० जागरणा जा० करते इ० यह ए० ऐसा अ० अध्यवसाय चि० चिन्तवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा ए० ऐसे ख० निश्चय अ० मैं इ० इस उ० उदार जा० यावत् कि० कृश घ० नाडियों की [सं० संतती जा० यावत् जी० जीव जी० जीव से ग० जाता हूँ चि० खडा रहता हूं जा० यावत् गि० हानि करता हूं जा० यात्रत ए० ऐसे अ० मैंभी स० शब्द सहित ग० जाता हूं चि० खडा रहता तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णया कयाइं पुव्वरतावर काल समयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूत्रे अन्भतिथए चिंतिए जात्र समुप्पज्जेत्था, एवं खलु अहं इमेणं एवारूवेणं उरालेणं जाव किसे धमाणसंतए जाव जीवं जीवेणं गच्छामि जर्वि जीवेणं चिट्ठामि, जाव गिलामि. एवामेव अहंपि ससद्दगच्छामि, ससद्दचिटामि तं अत्थि तामे उट्ठाणे सुनकर पीछी गइ ॥ २१ ॥ उस समय में एकदा मध्यरात्रि में धर्म जागरणा करते खंदक अनगार को ऐसा अध्यवसाय यावत् चितवन उत्पन्न हुवा कि ऐसा उदार व प्रधान तपकर्म से मैं कृश बन गया {मेरी सब नाड़ियों दीख रही है, शरीर से मुझे कुच्छ भी होता नहीं है, हलन चलनादि क्रियाओं जो } होती हैं वे सब जीव से होती है, यावत् भाषा बोलते भी मैं खेदित होता है, और काष्ट का गाडा याव ** दूसरा शतक का पहिला उद्देशा 309 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ० इसलिये अ० है ता. उतने म० मेरे उ. उत्थान क० कर्म ब० बल की• वीर्य पु० पुरुषात्कार ५०१ पराक्रम तं• इसलिये जा० जहांलग ता० वे मे मेरे अ० है उ० उत्थान क० कर्म ब० बल वी. वीर्य पु० पुरुषात्कार प० पराक्रम जा० जहांलग मे मेरे ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण भ० भग-१ वन्त म. महावीर जि० जिन मु० मुग्वार्थी वि. विचरते हैं ता वहांलग मे० मुझे से श्रेय क० कल पा० प्रकट प० प्रभात में र० रात्रि को कु• विकशित उ० उत्पल क० हरिण के नेत्र को० कोमल उ० खुले कम्मेबले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे तं जाव तामे आत्थ उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे जाव मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ ताव तामे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलं कोमलुमिलियंभि, अहपंडुरे पभाए रत्तासेरगप्पकासे,किंसुय सुयमुह गुंजत रागसरिसे, कोयले का गाडा चलते जैसा शब्द होवे वैसे ही मेरे चलने पर शब्द होता है. ताहपि मेरे में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम है. और जहां लग मेरे में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम है और जहां लग मेरे धर्माचार्य. धर्म गुरु, रागद्वेष के जीतनेवाले व मुखाश्री श्रमण भग-१ वन्त महावीर स्वामी विचर रहे हैं वहां लग विकशित कोमल कमल (हरिण के नेत्र) मे उन्मीलित, पांडुर क-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ wnawwwwwwwwwww Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488% शब्द हुवे अ० अनंतर पं० प.ण्डुर प० प्रभात में र० रक्त अ० अशोक प. प्रकाश किं० किंशुक मु० शुकमुख गुं• गुजार्ध रा० रंग स० सदृश क. कमल का आ० ग्रह (दृह) स. नलिनी खंड के. बोधक उ० ७/उदित होते मू० सूर्य स० सहस्र किरणों वाला दि. दिनकर ते० तेजस ज• ज्वलंत स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को अ० आज्ञा देते स० स्वयं ५० पांच म० महाव्रत की आ० आराधना कर स० साधु स० साध्वी से खा० क्षमा याचकर त० तथारूप थे० स्थविर का कृतयोगी की स० साथ वि० है कमालगर संडबोहए उट्ठियंमि सूरे सहस्सरस्सिामि दिणयरे तेयसा जलंते समणं ‘भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासेत्ता, समणेणं भगवया महावीरेणं ई अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंचमहब्बयाणि आराहेत्ता समणाय समणीओय खामेत्ता तहारूवेहि थेरेहिं कडाईहिं साई विपुलं पव्वयं सणियं २ दुरूहित्ता मेहघण संनिगासं, भावार्थ प्रभात में, रक्त वर्णवाले अशोककी प्रभा समान, किंशुक व शुक मुख व गुंजा के रंग समान, कमल का आगर सो द्रह में कमलों को विकशित करनेवाला व सहस्र किरणवाला दिनकरमणि सूर्य उदय होते 50 श्री श्रमण भगवन्त को वंदना नमस्कार कर श्रमण भगवन्त की आज्ञा से स्वयं पांच व्रत की आराधना करके, गौतम स्वामी प्रमुख सब साधु व चंदन बाला प्रमुख सब साध्वीयों की क्षमा याचकर, तथारूप कृतयोगी स्थविर को साथ लेकर, वडा पर्वत पे शनैः २ चडकर, मेघ समान श्याम व देवताओं का सनिपात पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र gagita दूसरा शतक का पहिला उद्देशा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र बडा प० पर्वत स शनैः दु० चढकर मे० मेघधन सं० समान देदेव सन्निपात पु. पृथ्वी शिलापट १० देख कर द०दर्भ का सं. संथारा मं० विछाकर द० दर्भके सं० संधारेपर रहाहुवा सं० संलेखना को झू. सेवा से झू० सेवित भ. भक्त पानका प० प्रत्याख्यान करने वाला पा० पादोपगमन का का० काल अ० नहीं। वांच्छता वि. विचरने को ते. ऐसा क० करना ॥ ३० ॥ ए. ऐसा सं० विचारता है से० विचारकर 4३१० क. कल ५० प्रगट प. प्रभात में र० रात्रि को जा. यावत् ज० चलंत जा. यावर् प० पर्युपासना की। ॥ ३१ ॥ खंदकादि त० तुम को णू शंकादी पु० पूर्वरात्रि में अ० अरक्त जा. यावत् जा० जाने देवसन्निवायं, पढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता, दब्भ संथारयं संथारत्ता, दब्भ संथारोवगयस्स सलेहणा झूसणा झूलियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्त पाओव.यस्त कालं अणवंकखमाणस्स विहरित्तए त्तिकटु ॥ ३० ॥ एवं संपेहेइ एवं संपेहेइत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणाए जाव जलंते जेणव समगे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासइ ॥ ३१ ॥ खंदयादि समणे · भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं वयासी सेणूणं होने से मुंदर ऐसी शिलापट को देखकर दर्भ का संथारा पिछाकर दर्भ संथारा में रहा हुवा संलेखना से अपनी आत्मा को कर्म से निर्मल बना कर व भक्त पान का प्रत्याख्यान कर काल को नहीं बांच्छता हवा विचरना मुझे श्रेय है ॥ ३० ॥ ऐना विचार करके प्रभात होते जहां श्रमण : भगवन्त महावीर स्वामी थे वहां आकर वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना की ॥ ३१!! श्रमण भगवंत महावीर खंदक अन manawwammmmmmmmmmm १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्रकाशक-राजाबहादुर लाल्य सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 498+ पंचमांग विवाह पण्यत्ति भगवती ) सूत्र ये ए० ऐसा अ० अध्यवसाय च० चितवन जाः यावत् सः उत्पन्न हुवा ए० ऐसे अ मैं इ० इस ए० ऐसा उ० उदार वि० विपुल जा० यावत् का० काल को अ० नहीं वांच्छते वि० विचरते को ति० ऐसा क० करके ए० ऐसा सं० विचारकरके क० कल प० प्रकट १० प्रभात में जा० यावत् ज० ज्वलंत जे० जहां म० मेरी अ० समीप ते० वहां ह० शीघ्र आ० आया हुवा है. से० अथ णू शकादर्शी खं० खंदक तत्र खंदया ! पुव्वरत्तावरतं जाव जागरमाणस्स इमेयारूये अन्भत्थिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहंइमेणं एयारूघेणं उरालेणं विउंलेणं तंचेत्र जाव कालं अणवकखमाणस्स विहरित तिकट्टु, एवं संपेहेइ २ त्ता, कल्लं पाउप्पभायाए जात्र जलते जेणेव ममअंतिए तंगेव हव्वमागए || सेणूणं खंदया ! अट्ठेसमट्टे ? हंताअत्थि. दूसरा शतकका पहिला उद्देशा गार को ऐसा बोले की अहो स्कंदक ! मध्य रात्रि में धर्म जागरणा करते तुम को ऐसा अध्यवसाय यावत् संकल्प हुवा कि मेरा शरीर क्षीण होगया है, यात्रत् मेरी सब नाडियों दीखती है, परंतु उत्थानादि { होने से प्रभात में मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक पास जाकर वंदना नमस्कार कर काल की वांच्छा नहीं { करता हुवा संलेखना करना मुझे श्रेय है. और ऐसा विचार करके सूर्य का उदय होते ही तुम मेरी। पास आये हो. अहो खंदक : क्या यह बात सत्य है ? हां, भगवन् ! यह बात सत्य है. अहो देवानु ३११ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ । ३१२ 48 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० अर्थ स. योग्य ह. हा अ० है अ० जला मुख दे० देवानुप्रिय मा० मत प० विलमः ॥३२॥ ततब खे० खंदक अ० अनगार स: श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर से अ० आज्ञापाया हुवा. ह. हृष्ट तुम तुष्ट जा. यावत् इ० आनंदित हृदयवाला उ० उपस्थित हुये उ• उपस्थित होकर स० श्रमण भ० भगवन्ती म. महावीर को ति तीनवार आ० आदान प० प्रदक्षिणा क० करना है जा. यावत् न. नमस्कार कर स० स्वयं पं० पांच म. महाव्रत आ० आराधकर स० साधु स. साधी से खा० क्षमायाची खा० अहासुहं देवाणुप्पिया, मा पडिबंधं ॥३२॥ तएणं से खंदए अणगारे समणणं भगवया है महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे हट्ठतुट्ठ जाव हयहियए उट्ठाए उढेइ २ त्ता समणं E भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, जाव नमसित्ता सयमेव पंच महब्बयाई आरुहेइ. आरुहेइत्ता समणाय समणीओय खामेइ खामेइत्ता तहारूवेहिं थेरोहिं कडाइहिं सदि विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहेइ दुरूहेइत्ता मिय ! जैसे तुम को सुख होवे वैसा करो. ऐसे कार्य में विलम्ब मत करो ॥३२॥ उस समय में खंदक अनगार श्री श्रमण भगवंत महावीर की आज्ञा मालने से हर्षित होकर उठे, उठकर श्रमण भगवन्त महावीर को तीन वार आदान मदाक्षिणा कर यावत् नमस्कार कर स्वयं पांच महाव्रत की आराधना कर व साधु साध्वियों की क्षमा मांगकर तथारूप स्थविर को साथ लेकर बड़े पर्वतपर शनैः चड़े.. वहां चड. कर मेघस-17 Arrammammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसाइजी भावाथे Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमा ११३ क्षमा याचकर त तयारूप थे० स्थविर क. कृतयोगी की स० साथ वि० महान् प० पर्वत स० शनैः । चढकर मै० मेघधन स० साक्ष दे० देव समिपात वाली पु. पृथ्वी शिला पटको ५० देखकर उ• ची-1 मीत पा० लघुनीत की भूमि प० देखकर द. दर्भ का सं० संथारा विणकर पु० पूर्वाभिमुख स० पर्यका । सनसे नि० बैठना के करतल ५० परिवाहित द० दश न. नख सि. शिर में आ०१७ भापर्व म०. मस्तक से ० अंजली • करके ए० ऐसा व० बोले न० नमस्कार होवो अ० अरि१ मेहषणसानिगासं देवसमियाय पुढविसिलापश्यं पडिलेहेछ पडिलेहेइत्ता उच्चार पासवण भूमि पडिलेहेइ पडिलेहेइत्ता. दम्भसंथारयं संथरह संथरइत्ता. पुरत्थाभिमुहे सपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहिवं दसनहं सिरसावन्तं मत्थए अंजालिं कटु एवं वयासी नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थुणं समणस्स मान श्याम व देव सानपात से राषिक पधी शिलापट देखकर, व वडीनीत लपुनीत की भूमी को देखकर, दर्भ का संवारा विछाकर, पर्यकासम से पूर्वाभिमुल पैकर, दोनों हस्त के दानों को एकत्रित कर, (दोनों हाथ जोडकर) मस्तकको भावर्तना देकर ऐसा बोले की मोसको पास होगये ऐसे अगित यसबने । नमस्कार पावत् मोतकी मासि करने के कापी श्री अमन भात पहारको नमस्कार झेको. मैं यहां रहा हुवा विषयानि दूसरा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थहंत भ० भगवन्त जा. यावत् सं० प्राप्त न० नमस्कार होवे स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को जा. यावत् सं• प्राप्त होने का का० कामी को वं वंदना करता हूं भ• भगवन्त को १० वहां रहे हुने ० यहां रहाहुवा पा० देखो मे० मुझे भ० भगवन्त त० वहां रहेहुवे इ. यहां रहाईवा ए० ऐसा बोले पु० पहिले म० मैंने स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० समीप स० सब पा० प्राणातिपात प० प्रत्याख्यान जा० जीवन पर्यंत मि० मिथ्यादर्शन शल्य प० प्रत्याख्यान इ० अभी स. श्रमण भ. भगवओ महावीरस्स जाब संपाविउकामस्स वंदामिणं भगवंतं तत्थगतं इहगओ पासउ मेसे भयवं तत्थगए इहगयंति तिकटु वंदइ णमंसद्ध वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी पुविपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए जाव मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए जावजीवोए इदाणंपि श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार करता हूं. क्यों कि वहां रहे हुवे भी भगवन्त मुझे यहां पर देख सकते में हैं. इस तरह वंदना नमस्कार कर के ऐसा बोले की मैंने जाव जीव तक भगवंत श्री महावीर स्वामी की कपास से पाणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान किया है और फीर भी मैं महावीर स्वा मा की पास प्राणातिपत यावत् मिथ्यादर्शन शल्यका प्रत्याख्यान करता हूँ. अशन, पान, खादिम व 49 अनुवादकन्यालब्रह्मचारी मानि श्री अमोलक ऋषिजी? र लाला सुखदेवमहायजी-मालाप्रसादजी, Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 भगवन्त म. महावीर की अं० समीप स० सब पा० प्राणातिपात का ५० प्रत्याख्यान करता हूं जा० । जीवन पर्यंत जा. यावत् मि० मिथ्या दर्शन शल्य का प० प्रत्याख्यान करता हूं स. सब अ० अशन पा०पान खा०खादिम सा स्वादिम च चार प्रकार का आ०आहार का प०प्रत्याख्यान करता हूं जं०जो इ०१ ३१५ यह स० शरीर इ० इंष्ट कं० कान्त पि० प्रिय जा. यावत् फु• स्पर्शा ति० ऐसा क. करके ए. इसे भी च० चडिम उ. उश्वास नि० निश्वास से वो० स्पजता हूं सं० संलेखना की झू० सेवासे झू. सेवित । भ० भक्त पा० पान ५० प्रत्याख्यान कराया हुवा पा० पादोपगम का० काल को अनहीं वांच्छता हुवाई यणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए, जाव मिच्छादसणसलं पञ्चक्खामि जावजीवाए, सव्वं असणपाणखाइमसाइमं चउन्विहंपि आहारं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए, जं पियं इमं सरीरं इ₹ कंतं पियं जाव फुसंतु त्तिकटु, एयंपिणं चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि त्तिकटु संलेहणा झूसणा झूसिए भत्तपाण पडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ भावार्थ स्वादिम ऐसे चारों आहार का मैं प्रत्याख्यान करता हूंइष्टकारी, कान्तकारी, और प्रियकारी ऐसा नो मेरा शरीर है उसे जीवन पर्यंत त्यजता हूं. और संलेखना से भक्तपान का प्रत्याख्यान करता 1 हुवा व काल को नहीं बांटता हुवा विचरता हूं ॥ ३३ ॥ उस समय में खंदक अनगारने श्री श्रमण पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4381 40840884 दूसरा शतक का पहिला उद्देशा 488 388 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाथा . विचरं ॥३॥ सतवं खदक म. अनगार सश्रमण भ० भगवन्त म. महावीर al Eततथाप ये स्थविर की ० पास सा० सामापिकादि ए० अम्बारा० अंग अ. अध्ययन करा ० बहुत प. पूर्ण दु० बारह वा. वर्ष सा. साधु की प० पर्याय पा० पालकर मा० मास की से. सलेखना से अ. आत्मा को मु० भूसकर स० साड भक्त अ. अनशम से छे. बेदकर आ. भाखोचते ५० प्रतिक्रमण करते स. समाधि प्राप्त आ• अनुक्रम से का. कालको पहुंचे ॥ ३४॥ त. तर थे. स्थविर भ० भगवन्स ख० खदक अ० अनगार को का• काल को माम मा जानकर प० परिनिषर्तिक । ॥३३॥ सएणं से वंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहासबाण थेगणं अंलिए सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई अहिग्झिता, बहु पद्धिपुण्णाई दुवालस वालाई सामण्ण परियागं पाउणित्ता मासिथाए संलेहणाए अत्ताणं मूसिता सष्टुिं भलाई अणसणाए छेदित्ता आलोइय पडिकते समाहिपते आणुपुब्बीए कालं गए ॥ ३४ ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो खंदर्य अणगारं कालगयं जाणित्ता, परिमिवावत्तियं कोडर भावार्थ IF भगवन्त महावीर स्वामी के तथाकप स्थविर की पास सामायिकादि छ आवश्यक व अग्यारह अंग का अध्ययन किया, और बारह वर्ष तक साधुपना पालकर एक मास की सैलेखना सहित भास्मा को जमकर साठ भक्त अनशन करके आलोचना भतिक्रमण करते हुवे अनुक्रम से समाधि सहित काल को मात दुवे । अनुवोद व पाला लचसि मुनि श्री अमोलक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायत्री मालापमादगी . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ (का० कायोत्सर्ग क० करे १० पात्र वी० उपकरन गि० ग्रहण करे वि० बडे प० पर्वत से सः शनैः २ १५० उतरकर जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तहां उ० आकर सः श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को बं० वंदना कर न० नमस्कार कर व बोले दे० देवानुप्रिय का अं अंतेवासी (खं० खंदक अ० अनगार प० प्रकृति मद्रक प० प्रकृति उ० उपशांत प० पतला को० क्रोध मामान मा० माया लो० लोभ मि० मृदु म० मार्दव सं० युक्त अ० अलीन. भ० भद्रक वि० विनीत से० वह दे देवानुप्रिय से सग्गं करेइ, पत्तचीवराणि गिण्हंति, विपुलाओ पन्चयाओ सणियं २ पश्चोरुहंति पच्चोरुहइत्ता जेणेवसमणे भगवं महावीरें तेणेव उवागच्छ उवागच्छन्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदिता नमसित्ता एवं बयासी एवं खलुदेवाप्पियाणं अंतेवासी खंदए णामं अणगारे पगइभदए पगइ उवसंते पगइ पयणु कोहमाण माया लोभे, मिउ मद्दव संपण्णे, अल्लीणे, भद्दए, विणीए सेणं देवानुप्पिएर्ह ॥ ३४ ॥ उस समय में उन की पास रहे हुवे स्थविर भगवन्त खंदक अनगार को कालं प्राप्त हुए जानकर निर्वाण संबंध कायोत्सर्ग करके व खंदक अनगार के पात्र वस्त्रादि लेकर उस पर्वत से उतरे. उतरकर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पास आये और भगवन्त को वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! आपका अंतेवासी भद्रिक प्रकृतिवाले, उपशान्त प्रकृतिवाले, स्वभाव से क्रोधादि को १ साधु निर्वाण हुवे पीछे कायोत्सर्ग करना सो सूत्र भावार्थ +6 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती सूत्र 434 दूसरा शतंकका पहिला उद्देशा +4 ०७ ३१७ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋर्षिजी - *अ० आज्ञा मिलते स. स्वतः पं० पांच महावत आ० आराधकर स० साधु स० साधियों को खा. क्षपाकर अ• हमारी स० साथ वि० बडा ५० पर्वत को नि. निरविशेष जा०. यावत् आ० अनुक्रम से का० काल को प्राप्त हुवे इ० यह आ० आचार भ० भंडोपकरण ॥ ३५ ॥ ५० भगवान गो० गौतम । श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को 40 वंदनाकर न. नमस्कार कर व. बोले दे० दे का अं० अंतेवासी ख० खंदक अ अनगार का काल के अवसर में का काल कर के क. कहां ग० अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महत्वयाणि आराहेत्ता समणाय समणीओय खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं तंव निरवसेसं जाव आणुपुव्वीए कालगए। इमेयसे आयारभंडए ॥ ३५ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदएणामं, अणगारे कालमासे कालंकिच्चा कहिं गए कहिं उववण्णे ? गोयमादि, पतला करनेवाले, मृदुता को धारन करनेवाले, अलीन, भद्रिक व विनीत खंदक अनगार आपकी आज्ञा । मीलने से पांच महाव्रत की आराधना कर और साधु साध्वी को खमाकर हमारी साथ पर्वत पर आये थे. | वहां मलेखनादि करके काल को प्राप्त हवे हैं. अहो भगवन ! इनके यह भंडोपकरण हैं ॥ ३५ ॥ उप्त समय में श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी.को वंदना नमस्कार करके वोले कि अहो प्रकाशक-राजावहादुरसाला-मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ गये क० कहाँ उ० उत्पन्न हुवे गो० गौतमादि स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर भ० भगवान् ज० गौतम को व● बोले गो० गौतम म० मेरा अ० अंतेवासी खं० खंदक अ० अनगार प० प्रकृति भद्रक जा० यावत् म मेरी अ० आज्ञामिलते स० स्वयं पं० पांच महाव्रत आर आराधकर स० सर्व अ० अब शेष ने० जानना जा० यावत् आ० आलोचकर प० प्रतिक्रमणकर स समाधि को प्राप्त का काल के अवसर में का० काल करके अ० अच्युत दे० ' देवलोक में दे देवने उ० उत्पन्न हुवे त० तहाँ अ० कितनेक दे० देवताकी बा० बावीस सा० सागरोपम की ठि स्थिति प० प्ररूपी खं० खंदक दे० देव समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी खंदए णामं अणगारे पगइभद्दए जाब सेणं मए अब्भणुणाए समाणे सयमेव पंचमहल्वयाई आराहेत्ता तंचैव सव्वं अवसेसयं नेयव्वं जाव आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवण्णे. तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं बावसिं सागरोवमाई देवानुप्रिय ! आपका अंतेवासी खंदक अनगार काल कर कहां गये, और कहां उत्पन्न हुवे ? अहो {गौतम ! मेरा अंतेवासी खंदक नामक अनगार मेरी आज्ञा से पांच महाव्रत की आराधना यावत् । ०७ संलेखनादि कर आलोचना प्रतिक्रम सहित काल करके अच्युत देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवे. वहां पर कितनेक देवताओं की बावीस सागरोपम की स्थिति कही. उस में खंदक देवता की भी बावीस सागरोपम की पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र दूसरा शतकका पहिला उद्देशा ३१५ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ की वा० बावीस सागरोपम की ठि० स्थिति ५० प्ररूपी ॥ ३६ ॥ • भगवन् व. खंदक दे० देवता में दे० देवलोक में से आ० आयुष्य क्षयसे भ० भवक्षय से अ० पीछे च० चवकर क. कहां ग. जागे क०कहाँ उ० उत्पन्नहोंगे गो गौतम म० महाविदेह में सिसिझेगा बुबुझेगा मुमुक्तहोगा निर्वाण पामेगा स सब दु० दुःखों का अ० अंतकरेगा ॥ २॥ ३॥ + + + ठिई पण्णत्ता. तत्थणं खंदयस्सवि देवस्स बावीसं सागरोक्माई ठिई पण्णत्ता ॥ ३६ ॥ सेणं भंते ! खंदए देवत्ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति, कहिं उववाजिहिति? गोयमा ! महाविदेहे सिज्झिहिति, बुझिहिति मुञ्चिहिति, परिनिव्वाहिति, सव्वदुक्खाण मंतं करिहिति,खंदओ सम्मत्तो ॥३७॥ विईय सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥१॥ भावार्थ स्थिति है ॥ ३६ ॥ वहां देवलोक में आयुष्य, मव व स्थिति का क्षय होने से चाकर खंदक अनगार कहाँ उत्पन्न होगे ? अहो गौतम ! वहां से चवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्तम कुल में जन्म लेकर वैराग्य को माप्त होकर सिझेंगे, बुझेंगे, मुक्त होवेंगे, निर्वाण को प्राप्त करेंगे यावत् सब दुख का अंत करेंगे यह खिंदक जीव का आधिकार समाप्त हुवा. यह दूसरा शतकका पहिला उद्देशा सम्पूर्ण हुवा ॥२॥१॥ 22 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालापसादजी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथक० कितनी भ० भगवन् स. समुद्घात प.मरूपी गो० गौतम स सात स० समुद्यात ५० रूपी सं०14 वह ज. जैसे वे वेदना समुद्घात ए. ऐसे स० समुद्घात प० पद० छनस्थ समुद्घात ब० वर्ज कर भा० कहना मा० यावत् वे वैमानिक क. कषाय समुद्वात अ० अल्पाबहुत ॥१॥ १. अनगार कइणं भंते ! समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा वयणा समुग्याए, एनं समग्वायपयं, छउमस्थिय समुग्धाय वजं भाणियन्वं, जाव वैमाणियाणं, कसाय समुग्धाया अप्पाबहुयं ॥ १ ॥ अणगारस्सणं भंते ! भाविपहिले उद्देशे के अंत में किस मरण से मरनेवाला जीव संसार की सादर हानि करता है ऐसा मरण । का अधिकार कहा. वह मरण मारणान्तिक समुद्घात से होता है इसलिये मरण समुद्घात का आधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! समुदघात कितने प्रकार की कही है? अहो गौतम ! ममुद्घात सात प्रकार की कही है. वेदना समुड्यात २ कपाय समुद्रात ३ मारणान्तिक समुद्घात ४ वैकेय समुद्रघात ५ तेजस समुद्घात ६ आहारक समुद्घात और केवली समुदयात. इन सातों समुद्घात में श.. रीर से जीव प्रदेश का निर्गम होता है. केवली समुद्घात करते आठ समय लगता है और अन्य समुद यात में अंतर्मुहर्न काल व्यतीत होना है. नरक व वायुकाय में चार समुदयात. चार स्थावर तीन विकले है। सन्द्रिय में तीन समुद्घात, देवता का तिर्वच पवेन्दिर में पांच समुद्रात, और मनुष्य व समुच्चय जीव में सात पंचमाङ्ग विवाह पण्णाति ( भगरती ) सत्र +3gt aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaam 488+4 दूसरा शतक का दूसरा उद्देशा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थको भ० भगवन् भा० भावितात्मा के केवली मुयात जा. यावत् सा० शाश्वत अ. अनागतकाल चि० रहे स. समुद्घात प० पद ने० जानना ॥ २॥२॥ क० कितनी भं० भगवन् पु० पृथ्वी प० प्ररूपी गो• गौतम जी० जीवाभिगम ने० नारकी को वि०१३ है यप्पणो केवली समुग्धाय जाव सासय मणागयढं चिटुंति, समुग्घायपयं णेयव्वं . ॥ २ ॥ विईयसए बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ २ ॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जीवाभिगमो नेरइयाणं जो भावार्थ समुद्घात. इस का सब अधिकार कषाय समुद्घात की अल्पाबहुत्व सा पनवणा सूत्र के समुद्घात पद . जैसे कहना ॥ १ ॥ भवितात्मा अनगार को केवली समुदयात यावत् शाश्वत अनागत काल तक रहे यह समुद्घात पद जैसे जानना.. यह दूसरा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ २॥२॥ * है गंत उद्देशे में ममुद्घात का कथन किया. जो जीव मारणान्तिक समुद्घीत करता है वह जीव मरकर: पृथ्वी में उत्पन्न होता है इसलिये पृथ्वी का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वी कितनी की अहो गौतम ! पृथ्वी सात कही. उन के नाम रत्नप्रभा यावत् तमतम प्रभा. इन पृथ्वीयों को अवगाह कर। कितने दर नरकावास रहे है ! रत्नप्रभा पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार योजन.का पृथ्वी पिंड है। । उस में उपर नीचे एक २ हजार छोडकर बीच में एक लाख अद्वत्तर हजार की पोलार है. उस में तीस अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहा जी मालमसादजी Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sss सदास रा उ० उद्देशा णे जानना पु० पृथ्वी अ० अवगाहकर कर नि० नरकावाम सं० संस्थान पा० जाडपना वि० चौडा प० परिधि व० वर्ण ग० गंध फा स्पर्श किं. क्या स० सर्व पा. प्राणी उ० उत्पन्न है बितीओ उद्देसी सो नेयवो ॥ गाहा ॥ पुढवी ओगहित्ता निरयासंठाणमेव बाहल्लं, विक्खंभ परिक्खेवो, वण्णो गंधोय' फासोय ॥ किं सव्वपाणा उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असति अदुवा अणंतखुत्तो पुढवी उद्देसो ॥ बीईयसए तइओ उद्देसो ई लाख नरकावास रहे हुने हैं. ऐसे ही सब सातों पृथ्वी का कथन करना. जो आवलिका (पंक्ति) बंध नरकावास हैं वे वर्तुलाकार, त्र्यंस, चउरंस हैं और दुसरं विविध प्रकार के हैं.. नरक का जाडपना तीन हजार योजनका है नीचे एक हजार योजन का धन है, बीच में एक हजार योजन का मुसिर है, और पर एक हजार योजन का संकुचित है. नरक का विष्कंभपना. संख्यात योजनवाले नरकावासकासंख्यात योजन का है, और परिधि भी संख्यात योजन की है. जो असंख्यात योजन के हैं उन का विस्तार 400 परिधि असंख्यात योजन की है. नरक के वर्ण, गंधरस व स्पर्श अनिष्ट है इस का सब अधिकार जीवाभिगम सूत्र के नरक नामक द्वितीय उद्देशे में कहा है वैसा जानना. रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख मरकावासे में क्या सक प्राणी उत्पन्न हुवे हैं ? हां गौतम ! उन नरकावासों में सब प्राणी एकबार नहीं परंतु अनेक वार पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती) mamiwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwimminar 4883 दूसग शतक का तीसरा उद्देशा mmmmmmmmmmmmit Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्राषिजी अमालक शब्दार्थ हुवे पु० पहिले है. हा गो० मौतम ब. अनेक वक्त अ सा अ० अनंत बक ॥ २॥३॥ क० बितनी भे• भगवन ई० इन्द्रिय ५० प्ररूपी गो गौतम ५० पांच ई० इन्द्रिय प० प्रस्पी १० पहिला सम्मत्तो ॥ २ ॥ ३ ॥ । कइणं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचइंदिया पण्णत्ता तंजहा-पढमिल्लो इंदिय उद्देसो यन्वो ॥ संठाणं बाहलं पोहत्तं जाव अलोगो इंदिय उद्देसो उत्पत्र हुवे हैं. यह दूसरा शतकका तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १ ॥ ३ ॥ . 5 तीसरे उद्देशे में नरक का अधिकार कहा. नारकी को इन्द्रियों होती हैं इसलिये आगे इन्द्रिय का अधिकार चलता है. अहो भगवन् !इन्द्रियों कितनी हैं ? अहो गौतम श्रोतेन्द्रिय, चाइन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय रसे न्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय ऐसी पांच इन्द्रियों हैं. श्रोतेन्द्रिय का संस्थान कदम्ब वृक्ष का फुल समान, चाइन्द्रिय का चंद्रप ममुरकी दाल समान, घाणेन्द्रिय का अतिमुक्तक चंद्राकार, रसनेन्द्रियं का सर्पलाके आकार और सन्द्रिय का माना प्रकार का संस्थान. श्रोत, चक्ष, प्राण इन तीनों का मापना अंगुल का असंख्यात वे भागका है, रसनेन्द्रिय का पृथक् [ प्रत्येक] अंगुल का जाडपना है, और सझेन्द्रिय का शरीर अमाप है. पांचों इन्द्रियों अनंत प्रदेश से उत्पन्न हुइ हैं. सब को असंख्यात प्रदेश की आगाहना है. 17 सबसे छोटी चाइन्द्रिय की अवगाहना, श्रोतेन्द्रिय की संख्यात मुनी, घ्राणेन्द्रिय की संख्यात गुनी, राजाबहादुर ल.ला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादगी * * अनुवादक-बालबार Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६० इन्द्रिय उ० उदेशा णे जानना सं० संस्थान चा० जाडपना पो० चौडा मायावत् अ अलोक॥२॥४॥4 ० अ० अन्यतीर्थक भं० भगवम् ए. ऐसा आ० कहते हैं प० विशेष कहते हैं ५० प्ररूपते हैं एक ऐसे 8 सूत्र बिईय सए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो॥ २ ॥ ४ ॥ * * . अण्णउस्थियाणं भंते! एवमाइक्खति,पन्नवेति फवेंति, एवं खलु नियंठे कालगए समाणे भावार्थ इरसनेन्द्रिय की संख्यात गुती व स्पर्शेन्द्रिय की असंख्यात गुनी. चक्षइन्द्रिय अस्पर्य पुद्गल ग्रहण करे शेष रों इन्द्रियों दर के पुद्गलों को स्पर्श कर ग्रहण करते हैं. श्रोतेन्द्रिय का विषय जघन्य अंगुल का असंBख्यात का भाग उत्कृष्ट श्रोतेन्द्रिय का बारह योजन का है, चक्षुइन्द्रिय का उत्कृष्ट साधिक नव योजन} a और शेष इन्द्रियों का नव योजन का विषय है. अगर समुद्घात गत पुद्गल छदस्थ जीव नहीं देख सकता है. इस विषय का विस्तार पन्नाणा के पंदरहवे पद से जानना. यावत् अहो भगवन् ! अलोक को कोनसी काय स्पर्श कर रही है? अहो गौतम : अलोक को धर्मास्तिकायादि एक भी काय स्पर्शकर नहीं रही है परंतु मात्र एक आकाशास्तिकाय स्पर्श कर रही है. यह दूसरे शतकका चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥२॥४॥ + 1. चतुर्य उद्देशे में इन्द्रियों का अधिकार कहा. इन्द्रियों विषयवाली होती है इसलिये परिचारणा का 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 488 दूसग शतक का पांचवा उद्देशा 8 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ - अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी [निय का०काल कियाहुवा देवदेव हुवे अ स्वतः से बह त तहां नो० नहीं अ० अन्य देव नो नहीं अ० अन्य (दे० देवकी दे० देवीको अ० वशकरके प० परिचारणा करे णो नहीं अ० अपनी दे० देवीको अ० वश कर के प० परिचारणाकरे अ० आत्माको वि० विकुर्वकर प० परिचारणा करे ए० एक जी० जीव ए० एक {स० समय में दो० दोवेद बे० वेदे तं० वह ज० जैसे इ० स्त्रीवेद पु० पुरुष वेद ए० ऐसे अ० अन्यतीर्थिक की व० वक्तव्यता ने० जानना जा० यावत् इ० स्त्रीवेद पु० पुरुषवेद से वह कं० कैसे ए० यह भं० भगदेवभूएणं अप्पाणेणं सेणं तत्थ जो अण्णदेवे नो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजंजिय अभिजुंजिय परियारेइ णो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउन्विय विउत्रिय परियारेइ; एगेवियणं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदइ तंजहा - इत्थित्रेयंच, पुरिसवेयंच ॥ एवं अण्णउत्थियअधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि साधु निग्रंथ यहां से काल कर देव होने पर आत्मा से अन्य देव या अन्य देव की देवियों को आलिंगन कर उन की साथ परिचारणा नहीं करते हैं. वैसे ही अपनी देवी की साथ भी परिचारणा नहीं करते हैं. परंतु स्वतः { के शरीर को वैक्रेय बनाकर उस की साथ परिचारणा करते हैं. इस तरह करने से एक ही जीव एक समय में स्त्री (वेद व पुरुष वेद ऐसे दो वेद वेदता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम : जो अन्य ...शक- राजाबहादुर लाला / सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) वन् ए. ऐसा गो० गौतम ज० जो अ० अन्य तीर्थिक ए. ऐसे आ० कहते हैं जा. यावत् इ० स्त्रीवेद पु० पुरुप वेद जे. जो एक ऐसे आ० कहते हैं मि. मिथ्या ते वे ए० ऐना आ० कहते हैं अ. मैं गो० गौतम ए. ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् प० प्ररूपता हूं नि० निग्रंथ का० काल को प्राप्तहुवे | अ. अन्यतर दे देवलोक में दे देवपने उ सन्न महावे म०महार्द्धक जायावत् म०महाशक्तिवंत दु०ऊंचे, 45 देवलोक में चि० लंबी स्थिति वाले त० तहां दे० देव भ० होवे म. महर्द्धिक जा० यावत् द. दशदिशा वत्तवया णेयवा जाव इत्थिनेयंच, पुरिसवेयंच ॥ से कहमेयं भंते एवं ? गो. यमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एव माइक्खंति जाव इत्थिवेयंच पुरिसवेयंच, जे ते एव माहंसु मिच्छा ते एवं मासु ॥ अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि __ जाव परूवेमि एवं खलु नियंठे कालगए समाणे अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उवभावार्थ तीर्थक एक समय में एक जीव दो वेद वेदने का बोलते हैं वे मिथ्या हैं अर्थातू उन का कथन असत्य है. क्योंकि देव को स्त्रीरूप करने पर भी पुरुषपना होने से पुरुष वेद का ही उदय होता है परंतु स्त्री वेद ।। का उदय नहीं होता है. अहो गौतम ! मेरा कथन ऐसा ही कि कोई निग्रंथ कालं करके किसी महर्दिक | यावत् महानुभाग बहुत स्थितिबाले उपर के देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवा. वहां पर वह देव महर्दिक, विवाह पण्णिात्त ( भगवती) सूत्र 4987 दसरा शाम पांचवा उद्देशा 810381 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | में उ० उद्योतकरनेवाला पः प्रकाश करनेवाला जा० यावत् प०प्रतिरूप से वह त० तहां अ० अन्यदेव अ० { अन्य देव की दे देवीको अ० वशकर प० परिचारणा करे अ० अपनी दे० देवीको अ० वशकर के १५० परिचारणा करे णो नहीं अ० आत्मा से अ० आत्मा को वि० विकुर्वेकर पं० परिचारणा करे ए० एक जी० जीव ए० एक स० समय में ए० एक वे० वेद वे० वेदे इ० स्त्रीवेद पु० पुरुष वेद जं० जिस समय में इ० स्त्रीवेद वे० वेदे णो० नहीं तं उस समय में पु० पुरुष वेद वे ० वंदे जं० जिससमय में पु० वत्तारो भवंति महिड्डिएसु जाव महाणुभागेमु दूरंगतीमु, खिरद्वितीसु सेणं तत्थ देवे भवइ महिड्डिए जाब दस दिसाओ उज्जीवेमाणे पभासेमाणे जाव पंडिरूवे सेणं तत्थ अदेवे अण्णा देशणं देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणिच्चि - याओ देवीओ अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणामेव अप्पाणं वेउवियं परियारेइ ! एगेत्रियणं जीवे एगेणं समएणं एवं वेदं वेदेइ तेजहा इत्थिवेदवा, ( यावत् दशों दिशि में प्रकाश करनेवाला, उद्योत करनेवाला यावत् प्रतिरूप हुवा. वह देवता अन्य देव को अथवा अन्य देवता की देवियोंको अपने वश में करके भांगता है या अपनी देवी को आलिंगन कर उस की साथ परिचारणा करता है; परंतु स्वयं स्वतः का शरीरको वैक्रेय बनाकर उस वैक्रेय बनाहुना शरीर से * परिचारणा नहीं करसकता है. इसलिये एक जीव एक समयमै ख्री वेद अथवा पुरुषवेद इन दोनों में से एक ही भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ** प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** ३२८ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पुरुष वेद णो० नहीं तं. उस समय में इ० स्त्रीवेद पुर वे. वेदे इ. स्त्रीवेद का उ० उदय से नो० नहीं पु० पुरुष वेद वे वेदे पुः पुरुष वेदका उ० उदय से नो० नहीं इ. स्त्रोवेद वे० वेदे ए. ऐसे ए० एक जीव ए. एक समय में ए. एक वेद वे वेदे इ० स्त्रीवेद पु० पुरुष वेद इ० स्त्री इ० स्त्रीवेद का उ० उदय से पु० पुरुष की प० प्रार्थना करे पु०. पुरुष पु० पुरुष वेदका उ० उदय से इ० स्त्रीकी ५० प्रार्थना करे दो दोनों अ० अन्योन्य प० प्रार्थना करे इ० स्त्री पु० पुरुष को पु० पुरुष पुरिसवेदंवा. जं समयं इत्थिवेदं वेदेइ णो तं संमयं पुरिसवेदं वेदेइ, जं समयं पुरिसवेदं वेदेइ णो तं समयं इत्थिवेदं वेएइ. इत्थिवेयस्स उदएणं ना पुरिसवेदं वेदेइ, पुरिसवे. दस्स उदएणं णो इत्थिवेद वेदेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं ___ वेदेइ. तंजहा-इत्थिवेदेवापुरिसवेदंबा. इत्थी इत्थिवेएणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसोपुरि सवेदेणं उदिण्णेणं इत्थि पत्थेइ; दो वेते अण्णमण्णं पत्येइ. तंजहा इत्थीवा पुरिसं, वेद वेदता है. जिस समय में स्त्री वेद वेदता है उस समय में पुरुष वेद नहीं वेदता है, और जिस समय में है भावार्थ पुरुष वेद वेदता है उस समय में स्त्रो वेद नहीं वेदता है. स्त्री वेद के उदय में पुरुष वैद नहीं और 1% पुरुष वेद के उदय में स्त्री वेद नहीं. इस तरह एक जीव एक समय में एक वेद. वेदता है. क्यों कि स्त्री वेद के उदय में पुरुष की वांच्छा होती है और पुरुष वेद के उदय में स्त्री की वांच्छा होती है. इस तरह पंचमांग विवाह पण्णत्ति । भगवती) *3:008 दूसरा सतक का पांचवा उद्देशा 8 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ श्री अमोलक ऋषिजी इ० स्त्री को॥१॥ उ०पानी का गगर्भ काकाल मे के कितना काल हो होवे गो• गौतम ज. जघन्य । ए. एक समय उ० उत्कृष्ट छ० छमास ॥ २॥ ति तिर्यंच का ग. गर्भ भं० भगवन् का. काल से के० कितनाकाल हो. होवे गो० गौतम ज. जघन्य अं. अंतमुहूर्त उ० उत्कृष्ट अ० आठ सं० संवत्सर ॥३॥म मनुष्यणी का ग. गर्भ भं. भगवन् का कालसे के. कितना काल हो. होवे गो० गौतम पुरिसोवा इत्थि ॥१॥ उदगगब्भेणं भंते ! उदग गब्भेति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नणं एक्कं समयं उक्कोस छम्मासा ॥ २ ॥ तिरिक्ख जोणिय ___ गम्भेणं भंते ! तिरिक्ख जोणिय गन्भेति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्न अंतो मुहुत्तं उक्कोसं अट्ठ संवच्छराइं ॥ ३ ॥ मणुस्सी गब्भेणं भंते ! मणुस्सी । *.भकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी anmom पुरुष स्त्री को व स्त्री पुरुष को वेद का उदय होने पर प्रार्थना करते हैं. इसलिये एक समय में एक जीव एक ही वेद वेदता है ॥१॥परिचारणा से गर्भ रहता है इसलिये गर्भ का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! पानी का गर्भ कितने कालतक रहता है ? अहो गौतम ! पानी का गर्भ जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ मास तक रहता है ॥२॥ अहो भगवन् ! तिर्यंच योनि में तिर्यंचका गर्भ किनने कालतक रहता है? अहो गौतम ! तिर्यंच का गर्भ जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट आठ संवत्सर तक रहता है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथ ज. जघन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट बा० बारह सं० संवत्सर ॥ ४॥ का. काय भव में रहा हुवा का कालमे के.कितना काल हो. होवे गो० गौतम ज. जघन्य अं अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट च० चौवीस सं• संवत्सर ॥ ५॥ मं० मनुष्य पं० पंचेन्द्रिय तिः तिर्यंच बी० बीज से भं० भगवन् जो० योनिमें 20 गम्भांते कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नं अंतो महत्तं उक्कोसं बारस . संवच्छराई ॥ ४ ॥ कायभवत्थेणं भते ! कायभवत्थेति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्ण मंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीस संबच्छराइं ॥ ५॥ मणुस्सपांचं दिय तिरिक्ख जोणिय बीएणं भंते ! जोणियब्भूए केवइयं कालं संचिट्ठइ ? जहन्नेणं मनुष्य का गर्भ कितने कालतक रहता है ? अहो गौतम ! मनुष्य का गर्भ जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बारह वर्ष ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! कायभवस्थ जीव कायभवस्थ में कितना कालतक रहे ? अहो गौतम ! कायभवस्थ जीव जघन्य अंतर्मुहर्त उत्कृष्ट चौवीस वर्ष. स्त्री के गर्भ में एक जीव बारह वर्ष रहकर काल कर जाये और पुनः वहांही उत्पन्न होकर बारह वर्ष रहे अथवा उस बारह वर्ष रहकर चबाहुवा जीव के शरीर में अन्य जीव आकर बारह वर्ष रहे ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य व संज्ञी पंचे १ जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो जन्म स कायभवः तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्वः। 10 अर्थात् माताके उदरमें रहवाडा निजदेहरूप भवमें रहनेवाला सो कायभवस्थ. ॥ 42-43 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र ११. ४१दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा880 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 रहा हुवा के०कितना काल सं०रहे गो गौतम ज० जघन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट वा बारह मुहूर्त॥६॥ए एक. जी०जीव भं०भगवन ए. एक भव में के किसनेका पु० पुत्र पने ४० शीघ्र आ आवे गोगौतम जमघन्य इ० एक दो० दो ति० तीन उ. उत्कृष्ट सः प्रत्येक सो जी० जीवों का० पु० पुत्रपने ४० शीघ्र ३३२ आ० आवे ॥ ७॥ ए. एक जी० जीव को भं. भगवन् ए. एक भव में के० कितने जीव पु० पुत्रपने ह० शीघ्र आ० आवे गो० गौतम ज. जघन्य इ. एक दो० दो ति तीन उ. उत्कृष्ट स. प्रत्येक लक्ष __ अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस मुहत्ता ॥ ६॥ एग जीवेणं भंते ! एग भवग्गहणेणं " केवइयाणं पुत्तत्ताए हबमागच्छइ ? गोयमा ! जहण्णणं इक्कस्सवा दोण्हस्सवा, ति___ण्हस्सवा उक्कोस सयपुहत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ ॥ ७॥ एग जीवरसणं भते एग भवग्गहणेणं केवइया जीवा. पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहन्लेणं भावार्थन्द्रिय तिर्यंच का बीजरूप वीर्य योनि में कितने कालतक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बारह मुहूर्त ॥६॥ अहो भगवन् ! एक जीव एक भव आश्रित कितने पिता का पुत्र होवे ? अहो गौतप ! जघन्य एक, दो, तीन का पुत्र होवे, उत्कृष्ट प्रत्येक (नव) सो पिताका पुत्र होवे. क्योंकि बारह मुहूर्त तक योनि सचित रहती है। उस से नत्र सो का बीज योनि में प्रविष्ट होने से उन सब का वह पुत्र कहाता है ॥ ७॥ अहो भगवन् ! एक भव में एक जीव को कितने जीव पुत्रपने उत्पन्न होवे ? अहो । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जी० जीव पु. अपने इ. शीघ्र आ० आने से वह के कैसे भं० भगवन ए. ऐसा बु. कहा जाता है जा० यावत् १. शीघ्र आ० आवे गा० गोतम इ. स्त्री पु० पुरुषका क० किये कर्म जी. योनि में मे० मेथुन सबाध सं० संयोगमें स० उत्पन्न होवे ते. वे दु०, दोनों सि० स्निग्धता चि. इकठी करे त० हा ज० जघन्य ए. एक दोदो ति तीन उ० उत्कृष्ट स० प्रत्येक लक्ष जी. जीव पु. पुत्रपने ह. है इक्कावा, दाश, तिण्णिवा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाण पुत्तत्ताए हव्वमाग च्छति ॥ सकेणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाब हव्यमागच्छइ ? गायमा ! इत्थीएय पुरिसस्सयम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नाम संजोए समुप्पजइ, ते दुहओसिणेहं चि णति, तत्थान जहन्नेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं सयसहस्स पुहत्तं जीवाणं भावार्थ गौतम ! अघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट प्रत्येक लाख [नव लाख ] जीव पुत्रपने उत्पन्न होवे. मत्स्यादिक E का एक संयोग मे माछली की योनि में नव लाख जीव गर्भपने उत्पन्न होवे और निष्पन्न भी होवे. मनुष्य को बहुत उत्पनवे परंतु बहत निष्पन्न नहीं होवे. अहो भगवन् ! एक भव में एक ही जीव को नव १० लाख जाव पुत्रपन किस तरह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम! नाम कर्म निवर्तित (मदनोद्दीपक व्यापारवाली) यानि पस्खा आर पुरुषका मैथुन संबंधी संयोग हुवा, उस समय उन दोनों का स्नेह एकत्रित हुवा. उस 1 में जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट नवलक्ष जीव पुत्रपने उत्पन्न होवे इसलिये अहो गौतम ! नवलाख जीव 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मत्र दूसरा शतक का पांचवा उद्देश MEEN Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + शीघ्र आ० आवे ॥८॥ मे० मैथुन भं० भगवन् से. सेवता के० कैसे अ० असंयम क. करे गो. गौतम से०वह ज जैसे के०कोइ पु०पुरुष रुरुइकी नालिका बू० वांस के बूरेकी नालिका में त तपा हुवा क० खिला से स० जलावे एक ऐसे गो० गौतम मे० मैथुन स. सेवता अ० असंयम क० करे स. वह ए० ऐसे में भगवन् त्ति ऐसे जा . यावत् वि० विचरने लगे ॥ ९ ॥ त तब स. श्रमण भ० भगवन्त म. पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति. से तेणटेणं जाव हव्वमागच्छइ ॥ ८ ॥ मेहुणणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसे असंजमे कज्जइ ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे रूयनालियंवा, बूरनालियंवा, तत्तेणं कणएणं समभिधंसेजा, एरिसएणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कजइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ ९ ॥ तएणं । एक जीव को पुत्रपने एक भव में उत्पन्न होते हैं. ॥८॥ अहो भगवन् ! पैथुन सेवने वाले को किम तरह असंयम होवे ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष रूह या मूके काष्ट के बूरे को नालीका में भरे, फीर आनि से तपाकर रक्त बनाया हुवा लोहे का दंड उस नाली में डाले, इस से उस में रही हुई रूइजैसे जलजाती है वैसे ही मैथुन करते योनि में रहे हुवे जीवों नष्ट होजाते हैं. और इस तरह जीव का नाश होने से असंयम होता है. अहो भगवन् ! आपके वचन यथातथ्य हैं ऐसा कहते श्री गौतम स्वामी विचर रहे हैं॥९॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वाराप्रसादजी भावार्थ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *36 ३३५ 87 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 महावीर रा० राजगृह न० नगरके गु० गुणशील.चे. उद्यान से प० निकलकर ब. बाहिर ज. अन्यदेश ? में वि० विचरनेलगे ॥१०॥ ते. उस काल ते. उस समय में तुं० तुंगीया न० नगरी हो० थी २०१ वर्णनयुक्त ॥११॥ ती. उस तु तुंगीया नगरीकी ब. बाहिर उ. ईशान कौन में पु. पुष्पवती चे० उद्यान हो० था त० तहां तु तुगीया न० नगरी में ब. बहुत स० श्रमणोपासक प०.रहते हैं अ० ऋद्धि-१३ ३ समण भगवं महावारे रायगिहाओ नयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनि है क्खमइ पडिनिक्खमइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ १० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नाम नयरी होत्था, वण्णओ, तीसणं तुंगियाए नयरीए बहिया । उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुप्फवइए नामं चेइए होत्था. वण्णओ ॥ ११ ॥ तत्यणं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति. अड्डा, दित्ता, विच्छिण्ण । श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में से नीकलकर अन्य देशमें विचरने लगे ॥ १० ॥ उस काल उस समय में तुंगेया नाम की नगरी थी. उस का? वर्णन उवाई सूत्र में चंपा नगरी का वर्णन जैसे कहना. उस तुगिया नगरी की ईशान कौन में पुष्प वती नामक उद्यान था. उस का वर्णन उपवाई में से जानना ॥ ११ ॥ उस तुंगीया नगरी में बहुत श्रमणोपासक (श्रावक) रहते थे. वे धन धान्य से परिपूर्ण, बलवंत, विस्तार युक्त बहुत भवन, शयन दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा-8-408 भावार्थ इतब Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ वाले दि० बलवन्त वि。 विस्तीर्ण वि० बहुन भ० भवनं स शयन आ० आसन जा० थान वा वाहन) युक्त व बहुत ध० धन ब० बहुत जा० सुवर्ण २० रूपा आ० आयोग पं० प्रयोग सं युक्त ि उच्छिष्ट वि० बहुत भ० आहारपानी ब० बहुत दा० दासी दा० दास गो० गौ म० महिषी ग बकरें प बहुत व० बहुत ज० मनुष्य से अर्थ अपराजित अ० जाने हुये जी० जीवाजीव उ० ओलखे पु० पुन्य पा० विपुल भवण सयणासण जाण वाहणाइण्णा, बहुधण बहुजायरूवरयया, आओगप ओगसंपत्ता विच्छड्डियावउल भक्त पाणा, बहुदासीदास गो महिसगवेलगप्पभूया, बहु जणस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा, उबलद्वपुण्णपात्रा, आसव संवर निज्जर किरियाहिगरण बंधपमोक्ख कुसला ॥ असहेज्ज देवासुर नाग सुवण्ण आसन, यान, सुवर्ण व वाहन से व्याप्त; वैसे बहुत धन सुवर्ण चांदी व आयोग प्रयोगसे संयुक्त थे जिनकी भोजन {शालामें इतना आहार निपजता था कि जिस को भोग कर पीछे जो बढना था उसमें से बहुत लोगोंकी आजीविका चलती थी, उन को बहुत दास दासी, गाय बैल, माहपी, गाडर वगैरह का संग्रह था. बहुत से लोगों की पास नहीं थी. यह द्रव्य ऋद्धि का कथन किया. अब भाव ऋद्धि का कथन चलता है. जीव अजीव को जानने वाले थे. उनकी पास इतनी ऋद्धिथी कि इतनी ऋद्धि १ लोगों को व्याज से देना २ व्यापार लगाना. 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ३३६ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्दार्थ आ. आश्रय सं० संवर:नि० निर्जरा कि क्रिया अ० अधिकरण 40 बंध प० मोक्ष कु. कुशल अ०१ सहे नहीं दे० देव अ० असुर ना० नाग सुः सुवर्ण ज० यक्ष र० राक्षस कि० किन्नर किं० किंपुरुष ग. गरुड ग. गंधर्व म० महोरगादि. दे० देवगण से नि० निग्रंथके पा० प्रवचन को अ अतिक्रमे नहीं नि. निग्रंथ पा. प्रवचन में नि० शंकारहित नि० कांक्षारहित वि० संदेहरहित ल० प्राप्त जक्ख रक्खस किण्णर किंपुरिस गरुल गंधव महोरगादीएहिं देवगणेहिं निग्गं- . ___थाओ पावयणाओ अणतिकमाणिज्जा ॥ निग्गंथे. पावयणे निस्संकिया, निक्कंखि या, निन्वितिगिच्छा, लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्ठा, ___ अट्रिमिंजपेम्माणुरायरत्ता ॥ अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेटे, भावार्थ TA }पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध व मोक्ष को जानने में बहुत कुशल थे. आपत्ति ल में देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व महोरगादिक की सहायता नहीं लेने वाले थे. स्वयं कृत कर्म भोगने की मनोवृत्तिवाले थे, वैसे ही उक्त देवों निग्रंथ के प्रवचन से चलित करने पर भी वे श्रमणोपासक चालत नहीं होते थे. वैसे ही वे जीवादि तत्व है या नहीं ऐसी शंका, कांक्षा व अन्य दर्शनी की वांच्छा रहित थे. वैसे ही शास्त्र के अर्थ को उन को हवा था. उनोंने अच्छी तरह सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया था. किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होने पर पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 4843. दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ अर्थ ग० ग्रहण किया है अर्थ पु० पूछा है अर्थ अ० जाना है अर्थ कि० विशेष जाना है अ० अर्थ अ० हड्डी मि० भिंज पे० प्रेमानुरक्त अ० यह आ आयुष्यमान नि० निद्र्य पा० प्रवचन. अ० अर्थ प० {परमार्थ से० शेष अ० अनर्थ उ० अच्छा फा० स्फटिक जैसे अ० खुला दु० द्वार चि० प्रसन्न ॐ अतः {पुर प० परगृह प० प्रवेश ब० बहुत सी० शीलव्रत गु० गुन वे० वेरमण ५० प्रत्याख्यान पो० पोषध पंप[वास से चा० चतुर्दशी अः अष्टमी को स० अमावास्या पु० पूर्णीमा को पं० प्रतिपूर्ण पी० पोषध सं० से अट्टे ॥ ऊसियफलिहा अवगुयदुवारा चियत्तंते उरपरघरप्पवेसा, बहूहि सीय गुण वेरमण पञ्चक्खाण पोसहोवबासेहिं चाउदसमुद्दि पुण्णमासिणीसु पंडिपुण्णं पोसहं सम्ममणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुएसणिजेणं असणपाण पूछकर निर्णय किया था, निर्णय वाले अर्थ को सम्यक् प्रकार से धार रखा था, निग्रंय प्रवचन में उन की हड्डी व हड्डी की मिंजिओ प्रेमानुराग से रक्त बनी हुई थी. जब किसी साथ वार्तालाप करने का प्रसंग {आता तब ऐसा ही कहते कि अहो आयुष्यमन्तो ! यह निग्रंथ के प्रवचन मोक्ष साधन का मार्ग है. वही अर्थ रूप है, परमार्थ रूप है, परमादरणीय है. इन सित्राय अन्य धन, पुत्रादि, वैसे ही कुवचनादि अनर्थ हैं, मोक्ष के बाधक हैं. उन श्रावकों के हृदय स्फटिक रत्न की समान निर्मल थे, उन के गृह के द्वार दान के लिये सदैव खुले रहते थे, प्रीति करनेवाले अंतःपुर व परगृह में प्रवेश करते अप्रतीति के पात्र नहीं अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी #कुश राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी ३३० Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {सम्यक् अ० पालते स० श्रमण निः निग्रंथ फा० प्रायुक ए० एषनिक अ० अशन पा० पानी खा० खादिम सा० स्वादिम व वस्त्र प० पात्र कं० कंबल पा० रजोहरण पी० आसन फ० पाट से० शैय्या सं० संथारा ओ० औषध भे० भेषज प० प्रतिलाभते अः यथा प० ग्रहण किये त० तप कर्म से आ आत्मा को भा० भावते वि० विचरते हैं ॥ १२ ॥ ते० उस काल ते० उस समय में पा० पार्श्वनाथ के शिष्य थे० स्थविर भ० भगवन्त जा० जातिसंपन्न कु· कुलसंपन्न व० बलसंपन्न रू० रूपसंपन्न वि० विनय संपन खाइम साइमेणं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुळणेणं, पीढफलग सेज्जा संथारएणं ओसहभेसजेणं पडिला भेमाणा अहापरिम्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ १२ ॥ तेणं कालेणं तेणंसमएणं पासावचिजा थेरा भगवंतो जाइ संपण्णा, कुल संपण्णा, बलसंपण्णा, रूवसंपण्णा, विणयसंपण्णा, जाणसंपण्णा होते थे. वे श्रावकों बहुत शीलवत, अनुव्रत, गुनव्रत, प्रत्याख्यान, पोषत्र उपवास वगैरह करते थे. चतुदेशी, अष्टमी, अमावास्या व पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पोषध सम्यक् प्रकार से करते थे. अशम, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, बाजोट, पटिया, शैय्या, संथारा, व औषधादि । श्रमण निद्र्य को मनिलाभते हुवे ( देते हुवे ) वैसे ही जैसा ग्रहण किया वैसा तप कर्म से आत्माको चिंतबते हुवे विचरते थे ॥ १२ ॥ उम काल उस समय में जाति संपन्न, कुल सम्पन्न, बल सम्पन्न, रूप सम्पन्नः । सूत्र 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भावार्थ | 4 दूसरा शतकका पांचवा उद्देशा ३३९ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋर्षनी शब्दाथाणा . ज्ञानवम्त ६० दर्शनषन्त प. चारित्रवन्त ल• लज्जा ला० लाघववन्त जो शरीर मा युक्त। ते तेजस्वी ५० वर्चस्वी ज० यशस्वी जि. जिता है क्रोध जि० जिता है मान मा० माया लो. कोम। नि. निद्रा ई० इन्द्रिय प० परिषह जी• जीवित आ० वच्छिा म मरण भ. भय सो. शोकसे वि० रहित ब० बहु श्रुत ब० बहुत परिवार वाले पं० पांच अ० अनगार स० शत स. साथ सं० रहेहुवे अ. दसणसंपण्णा, चरित्तसंपण्णा, लज्जा लाघव संपण्णा, ओयंसी तेयंसी, पचंसी जसंसी; . जियकोहा, जियमाणा, जियमाया, जियलोभा, जियानद्दा, जियइंदिया, जियपरीo सहा, जीवियासा मरण भय सोक विप्पमुका, बहुस्सुया, बहुपरिवारा, lal पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडा अहाणुपुल्विं चरमाणा, गामाणुगाम हैदूइजमाणा, सुहं सुहेणं विहरमाणा. जेणेव. तुंगियानयरी जेणेव पुष्फबईए भावार्थ विनय सम्पन्न, मतिज्ञानादि ज्ञान सहित, सम्यक्त्व सहित, सामायिकादि चारित्र सहित, लौकिक लोकोत्तर लज्जा महित, द्रव्य से उपधि व भाव से सर्व था लयतावाले, ओजस्वी, तेजस्वी, वचन की विशिष्टता युक्त सो वर्चस्त्री, यशस्वी, क्रोध, मान, माया व लोभ को जीतनेवाले, निद्रा, इन्द्रिय, परिषह को जीतनेवाले, जीवित, मरण, भय व शोक से मुक्त, बहुत श्रुत के धारक और चारों तीर्थरूप बहुत 15 परिवारवाले श्री पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्यानाशेष्य स्थविर भगवंत पांचसो साधु के परिवार सहित * प्रकाधक-समावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . शब्दाथा यथा आ० अनुक्रम से च विचरते गा० ग्रामानुपाम ६० जाते सु० सुखमे वि०विचरते जे. जहाँ तुं०१ तंगियानगरी जे. जहां पु. पुष्पवती चे. उद्यान ते. तहां उ० आकर अ० यथाप्रतिरूप उ० अनग्रह ओ० ग्रहण कर सं० संयम से त० तप से अ० आत्मा को भा०भावतेहुवे वि. विचरते हैं ॥१॥ ततब मुं०१४ #तुंगिया न० नगरी में सिं० सिंघाडे जैसे तिः तीनरस्ता च० चार रस्ता च० बहुत म. राजमार्ग में जा यावत् ए० एकदिशा तरफ णिक जाते हैं. १४ ॥ त० तब ते. घे स० श्रमणोपासक इ० इसक० कथा ल० माप्त होते ह० हृष्ट तु० तुष्ट जा. यावत् स० बोलाकर ए. ऐसे व० बोले दे. देवानुप्रिय पा. चेइए, तेणेव उवागच्छंति उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं. तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ १३ ॥ तएणं तुंगियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरच उम्मुहमहापहपहेतु जाव एगदिसाभिमुहा णिज्जायंति, ॥ १४ ॥ तएणं ते समणोवासया इमीसे कहाए लडट्ठा समाणा हट्ट तुट्ठा जाब सद्दावति यथाक्रम से ग्रामानुग्राम मुखपूर्वक विचरते तुगिया नगरी के पुष्पवती उद्यान में आये. वहां आकर यथा-30 IM योग्य अबह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे ॥ १३ ॥ तब सिंघाडे के आका-3Y वाले रस्ते में, तीन रस्ता मिले वैसे स्थान में, चौक, बहुत रस्ते मीले वैसे स्थान व राजमार्ग में उन स्थविर भगवन्त के दर्शन कालिये एक ही दिशा में बहुत लोक जा रहे थे ॥ १४ ॥ तब वे श्रमणोपासक ऐसा।। पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती) सूत्र 428 ४४०३-०४ दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पार्श्वनाथ के संतानिये थे० स्थविर भं. भगवन्त जा. जातिवत जा. यावत् अ० यथाप्रतिरूप उ० 14 अनुज्ञा ओ० लेकर सं० संयम से ततप से अ आत्मा को भा. भावते हुवे वि०विचरते हैं म० महाफल दे० देवानुपिय त थारूप थे० स्थविर भ. 'भगवन्त के ना० नाम गो० गोत्र को स० सुनने से किं० क्या अ० अभिगमन ६० वंदन ण. नमस्कार प० पूछना प. पूजते जा. यावत् ग० ग्रहण करते २० सहावित्ता एवं वयासी एवं खल देवाणुप्पिया। पासावच्चजा थेरा भगवंतो जाति 1 संपण्णा जाव अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणाके विहरंति. तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्त विसवणयाए किभंगपुण अभिगमण वंदण नमसण पडिपुच्छण पज्जुवास वार्तालाप सुनकर बहुत आनंदित हुए. और परस्पर ऐसा बोलनेलगे कि अहो देवानुप्रिय ! जातिसंपन्न यावत् भावार्थ यथाप्रतिरूप श्री पार्श्वनाथ स्वामी के शिष्यानुशिष्य श्री स्थविर भगवन्त पुष्पावती उद्यान में आज्ञा मांगकर संयम व तपसे आत्माको भावते हुवे विचर रहे हैं. ऐसे तथारूप स्थविर भगवन्त का नाम गोत्र सुनने से ही जमहा फल होता है तो फीर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा, पर्युपासना यावत् अर्थादिक का ग्रहण करने का तो कहना ही क्या? इसलिये अहो देवानुप्रिय! अपन वहां जावे और स्थविर भगवन्तको वंदना नम-ई | स्कार यावत् पर्युपासना करे. यही इस भव व परभव में अनुगामीक होगा. ऐसा परस्पर वार्तालाप अमोलक ऋषीजी अनुवादक-गालब्रह्मचारी मुनि श्री प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी* Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उनकी पास ग० जावे दे० देवानुप्रिय थे० स्थविर भ० भगवन्त को वं० वंदनकरे ण० नमस्कारकरे जा० यावत् १० पूजे इ० यह भव में प० परभव में जा० यावत् आ० आनुगामिक भ० होगा ति० ऐसा करके अ• अन्योन्यकी अंधान एव्यह अर्थ प० सुनकर जे० जहां स० अपने गे० गृह ते तहां उ० { आकर हा० स्नान कीया क०पीठी लगायी क० कोगले किये पा०तिलक कीया सु० शुद्ध पो० प्रवेश करने योग्य) मं० मांगलीक व वस्त्र प० पहिनकर अ० अल्प म० मूल्यवंत आ० आभरण अ० पहिनकर स०अपने गे०गृह नया जाव गहणयाए तं गच्छामोणं देवाणुपिया थ्रेरे भगवंते वंदामो णमं सामो जात्र पज्जुवासामो । एयण्णे इहभवे परभवे जाव आणुगामियत्ताए भबिस्सइ तिकडु ॥ अण्णमण्णस्स अतिए एयमहं पडिसुणंति पडिणित्ता जेणेव साई गेहाई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छइत्ता व्हाया कयंचलिकम्मा कयको उयमंगल पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्घाभरणालंकिय सरीरा भावार्थना सुनकर अपने गृह गये. वहां जाकर स्नान किया, पीटी प्रमुख का विलेपन किया, अंजली { भरकर पानी के कोगले किये, तिलक मसादिक किये, और राजसभा में प्रवेश करने योग्य शुद्ध वस्त्र ॐ पहिने. फीर अल्प भार व बहुत मूल्यवाले आभरणों से अलंकृत बनकर अपने २ गृह से नीकले, और पाँव से चलते हुवे तुंगिया नगरी के मध्य बजार से होकर जहां पुष्पवती नामक उद्यान था वहां आये. 40380 पंचङ्ग हिवचपण्णाति ( भगवती ) सूत्र +48 43+4 दूसरा शतकका पांचवा उद्देशा +4 ३४३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी (प० नीकलकर ए० इकठे मि० मिले पा० पांव से चलकर तुं० तुंगिया न० नगरी की म० मध्य से नि० नीकलकर जे० जहां पु० पुष्पवती चे उद्यान हो० था ते० तहां उ० आकर थे० स्थविर भ भगवन्त को पं० पांच प्रकार के अ० अभिगम से अ० जाते हैं तं वह ज जैसे स० सचित्त द० द्रव्य वि त्यजकर अ० अचित द० द्रव्य अ० रखकर ए० एक पटका उ० उत्तरासन क० करके च० चक्षुदर्शन से एहिं एहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमइत्ता एगयओ मेलायंति, पायविहार चाणं तुंगिया नयरी मज्झमज्झेणं निग्गच्छति निग्गच्छत्ता, जेणेत्र पुप्फबई ए नामं चेइए होत्या तेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता थेरे भगवंते पंचविणं अभि गणं अभिगच्छति तं जहा सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुप्फासे अंजलिपगहेणं, {स्थविर भगवंत की समीप आते ही? तांबूलादि सचित्त द्रव्य को अलग करना, २ वस्त्रादि अचित्त द्रव्य को अलग नहीं करना, ३ बीच में नहीं सीला हुवा ऐसा एक वस्त्र का उत्तरासन करना ४ चक्षु दृष्टि में आते ही दोनों हस्त की अंजली करना, और ५ अन्य सब छोडकर मन से साधु स्थविर भगवन्त की तरफ एकत्रता करना ऐसे पांच अभिगम किया. फीर उन स्थविर भगवन्त को तीन आदान प्रदक्षिणा करके तीन प्रकार से * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ३४४ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र अं.अंजलिप जोडकर ममनसे ए. स्थिर करके जे.जहांथे० स्थविर भ. भगवन्त ते तहां उ० आकरति०, तीनवार आदान प्रदक्षिणा क. करे जायावत् ति त्रिविधप० सेवनासे पासेवे॥१५॥त तबते वेथे०१० स्थविर भ भगवन्त स. श्रमणोपासक को ती. उस म. बडी प.परिषदा में चा० चार यायाम घ०धर्म कहे ज. जैसे के० केशीस्वामी जा. यावत् स० श्रावकपना आ० आज्ञा आ० आराहित भ० होवे जा यावत् ध० धर्म क० कहा ॥ १६॥ त तव ते वे स. श्रमणोपासक थे. स्थविर भ: भगवन्त की मणसा एगत्ती करणेणं, जेणेवथेरे भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणंवा करेंति जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति ॥ है ॥ १५ ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसेय महइ महालियाए है परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति जहा केसिसामिस्स जाव समणोवासइत्ताए, आणाए आराहए भवइ जाव धम्मो कहिओ ॥ १६ ॥ तएणं ते समणोवासया सेवा भक्ति की ॥ १५॥ तब उन स्थविर भगवन्तने श्रावकों को उस महती परिषदा, में चार याम 00 वाला धर्म कहा. जैसे रायप्रसेणी सूत्र में केशी अनगारने प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश कहा था वैसे यावन धर्म की सम्यक् प्रकार से आराधना करनेवाला श्रमणोपासक आराधक होता है वगैरह धर्मोपदेश कहा ॥ १६ ॥ तब उन स्थविर भगवन्त की पास धर्म सुनकर श्रमणोपासक हृष्ट तुष्ट चित्तवाले दुसग शतक का पांचवा उद्दशा8488 भावार्थ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पास ३० धर्म सो सुनकर नि० अवधारकर ह० हृष्ट तु० तुष्ट जा यावत् हि. आनंदपामे ति ) आ० आदान प० प्रदक्षिणा क करके ए. ऐसा 40 वोले सं. संयम से भं. भगवन् कि क्या । फल त० तप से भ० भगवन् किं क्याफल त० तब थे० स्थविर भ० भगवन्त है. उन स० श्रमणो पासक को ए० ऐसा व० बोले सं० संयम से अ० आर्य अ• अनावफल त० तप से वो० कर्म छेदना व थेराणं भगवंताणं अतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ट तुट्ठ जाव हियया,तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेंति करेइत्ता एवं वयासीसंजमेणं भंते किं फले तवेणंभंते किं फले तएणं थेरा __ भगवंतो ते समणोवासए एवं वायसी संजमेणं अजो अणण्हयफले,तवे वादाणफलोतएणं " प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालापसादजी . भावार्थ हुवे और स्थविर भगवंत को सीन आदान प्रदक्षिणा करके ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! तप व संयम का क्या फल ! तब श्रमणोपासक को स्थविर भगवंत ऐसा कहने लगे कि संयम से मात्रा का निरुधन होता है अर्थात् संयम पालने वाले को नविन कर्म का आगमन नहीं होता है. वैसे ही पूर्वकृत कर्मों को छेदन करना यह कपका फल है. तब श्रमणोपासक बोले कि अहो भगवन् ! यदि संयम का आश्रय निरोध रूप व तपका कर्मक्षयरूप फल है तो संयम व तपके आराधन करने वाले किस कारन से देव होते हैं ? तब उन स्थविर भगवंत की पास रहने वाले स्थविरों ने इस प्रश्न का उत्तर Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र का फल त तब ते० बे स० श्रमणोपासक थे० स्थविर भ० भगवन्त को ए० ऐसा व० बोले ज यदि भं० भगवन् सं० संयम से अ० अनाश्रवफल त० तप से वो० कर्म छेदना फल किं० क्या प० प्रत्येक [अ० आर्य दे० देव दे० देवलोक उ० उत्पन्न होवे त० तहां का कालिक पुत्र अ० अनगार थे० स्थविर ते उन स० श्रमणोपासक को ए० ऐसा व० बोले पु० पूर्व तप से अ० आर्य दे० देव दे० देवलोक { में उ० उत्पन्न होवे त० तहां म० महिल थे० स्थविर स० श्रमणोपासक को ए० ऐसा द० बोले पु० पूर्व ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी जइणं भंते! संजमे अणण्यफले तवे वोदाणफले किंपत्तियं भंते देवा देवलोएस उववज्जंति ? तत्थणं कालिय पुत्तेनाम अनगारे थेरे समणोवासए एवं वयासी पुव्वतवेणं अज्जो देवा देवलोएस उववज्जति ॥ तत्थणं महिलेनामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासी पुल्वसंजमेणं अज्जो देवा देव-लोएस उववर्जति ॥ तत्थर्ण आणंदरक्खिए नामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासी अलग २ दिया. उन में से कालिक पुत्र नामक अनगारने कहा कि अहो श्रमणोपासको ! * तप से देवता में देवपने उत्पन्न होते हैं २ मेहल नामक स्थविर बोले की पूर्व संयम- सराग संयम से * यहां पूर्व शब्द वीतराग अवस्था की अपेक्षा से लिया है. अर्थात् पूर्व तप सो सरागभाव से तप - करना. क्यों कि वीतराग अवस्था से सराग अवस्था पूर्व होती है इससे उसमें कराया हुवा तप सो पूर्वतप. 434984- दुसरा शतकका पांचा उद्देशा ३४७ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ nanninnr 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी संयम से आ० आनंद रक्षित थे० स्थविर व० बोले क० कर्म से का० काण्यप ये स्थविर व०बोले सं. गत से दे. देवलोक में उ० उपजते हैं पु० पूर्वतप से पु० पूर्वसंयम से क. कर्म से सं० संगत से अ. आर्य दे देव दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे स० सत्य ए. यह अर्थ भा० आत्मभाव व०. बक्तव्यता तब स० श्रमणोपासक थे० स्थविर भ० भगवन्त से ए. ऐसा वा० प्रश्नोत्तर वा० कहते ह. कम्मियाएं अज्जो : देवा देवलोएस उववज्जति ॥ तत्थणं कासवे नाम थेरे एवं वयासी संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उक्वजति ॥ पुत्व तवेणं, पुव्वंसजमेणं; १ । कम्मियाए, संगियाए, अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति. सच्चेणं एसअटे नो चेवणं आयभाव वत्तव्वयाए ॥ तएणं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाइं एयारवाई देवलोक में देवताओ होते हैं. ३ आनंदरक्षित नामक स्थविर बोले कि कर्म के विकार से देवलोक में उत्पन होते हैं क्योंकि समस्त कर्म का क्षय नहीं कि । है परंतु थोडे बहुत दोष रहेहुवे हैं. काश्यप, नामक स्थाविर बोले कि संगति से देवलोक में देव होते हैं अर्थात् . मनुष्यादि की संगति से सराग भाव रहने से या द्रव्यादि में सराग भाव रहने से तप संयम के आराधक देवलोक में देवता येते हैं. इस तरह पूर्व तप, पूर्व संयम, कर्म विकार व संगति से देवलोक में संयम व तप करनेवाले देव होते हैं ऐमा जो. 'कहा है वह सत्य है. : हमने हमारा अहंभाव से नहीं कहा है. तब स्थचिर । काशक-राजाबहादुर लाला.मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * - भावार्थ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दातु. तुष्ट थे० स्थविर भ० भगवन्त को 4 वंदनाकर प. नमस्कार कर ५० प्रश्न पु. पूछे अ० अर्थ14 उ० ग्रहण करे उ० स्थान से उ० उठकर ये० स्थविर भ० भगवन्त को ति०तीन वार जायावत् २० वंदना कर न. नमस्कार कर थे० स्थविर भ० भगवन्त की अं० पाप्त से पु. पुष्पक्ती चे उद्यान से प. नीकल जा. जिसदिशि से पार आये ता. उसदिशा में प. पीछे गये ॥ १६ ॥ ततक वे ये स्थविर भगवन्त अ० कोई वक्त तुं० तंगीना न० नगरी के पु० पुष्पवती चे उखान से प० नीकलकर वागरणाई वागरिया समाणा हट्टतुट्ठा थेरे भगवंते वदति णमंसंति वंदइत्ता नमसइत्ता पसिणाई पुच्छति अट्ठाई उवाहियंति, उट्ठाए उट्टेति थेरे भगवते तिक्खुत्तो जाव वंदति णमंसंति वंदित्ता नमसइत्ता थेराणं भगवंताणं अंतियांओ. पुप्फबईयाओ है वेश्याओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमइत्ता जामेवदिसं पाउन्भया तामेवदिसं पडिगया ॥१६॥ तएणं ते थेरा भगवंतो अण्णयाकयाई तुंगियाओ नयरीओ. पुष्फवईयाओ भावार्थ भगान्त से पूछेहुचे प्रश्नोंका उत्तर सुनकर हृष्ट, तुष्ट हुवे और स्थविर भगवंत को अन्य भी प्रश्न पूछे, उन के | अर्थ की धारणा की. फीर उठकर तिन वार आदान प्रदक्षिणा करके पुष्पवती उद्यान में से नकलकर जिसदिशा में से आये थे उसी दिशा में अपने २ स्थान पीछे गये. ॥ १६ ॥ स्थविर भग-1 चमाम विवाह पण्पत्ति ( ममवती ) मूत्र +8+ 4दुनरा.तक का पांचवा देशा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अमोलक ऋषिजी ३५० भी बाहिर ज. अन्यदेश में व विचरने लगे ॥ १७॥ते. उस काल ते उससमय में रा• राजगृह न० नगर जा. यावत् प० परिषदा प० पीछीगइ ते. उसकाल ते. उससमय में स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर का जे. ज्येष्ठ अं. अंतेवासी ई० इन्द्रभाति अ० अनगार जा० यावत् सं० संक्षिप्त वि. विपुल। इते तेजोलेश्या छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित त. तपकर्म से सं० संयम से तक तप से अ० आत्मा को भा० भावतेहुवे वि० विचरते थे ॥१८॥ त० तब भ० भगवान् गो० गौतम छ० छठ भक्त का पा० चेइयाओ पडिनिग्गच्छंति पडिनिग्गच्छइत्ता बहिया जणवय विहारं विहरति ॥ १७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे जाव परिसा पडिगया ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूइणामं अणगारे जाव संवित्तविउलतेउलेस्से छद्रं छट्रेणं आनक्खित्तेणं तवो कम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ १८ ॥ तएणं से भगवं गोयमे छ?- त वन्त भी तुंगिया नगरी के पुष्पवती उद्यान में से नाकलकर अन्य देशमें विहार करने लगे ॥ १७ ॥ उसमें काल उस समय में राजगृह नामक नगर था. वहाँ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी आये. परिषदा को भगवन्त ने धर्मोपदेश कहा. धर्मोपदेश सुनकर परिषदा पीछी गई. उस काल उस समय में श्री महावीर स्वामी के ज्येष्ट अंतेवासी विपुल तेजोलेश्याको संक्षिप्त करने वाले इन्द्रभूति नामक अनगार निरंतर छठ छठ (बेले बेले) का तप करते संयम व तप में मग्न होते विचरते थे ॥ १८॥ उप्त समय में छठ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसारनी * आमचारी भावार्थ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पारणा में ५० प्रथम पो० पोरसी में म०स्वाध्याय क करे वी० दूसरी पो पोरसी में झा० ध्यान करे त.4 Ior तीसरी पो० पोरसी में अ० धीमे स अ० अचपल अ० असंभ्रांत मु. मुखवस्त्रिका ५० देखकर भा०० भाजन व वस्त्र प० देखकर भा०भाजन को प० पुंजकर भा. भाजन उ० ग्रहणकर जे. जहां सश्रमण भ०१ ३५१ भगवन्त म. महावीर ते. तहां उ• आकर स० श्रमण भ. भगवन्त को 40वंदनकर ण. नमस्कार व० बोले इ० इच्छता हूं भं० भगवन् तु. तुमारी आ.. आज्ञा होवेतो छ. छठ भक्त पा० पारणा में रा. . खमणपारणयसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाए, तइयाए पोरिसीए अतुरिय मचवल मसंभंते, मुहपोत्तियं पडिलेहेइ पडिलेहेइत्ता, भायणाई है वत्वाइं पडिलेहेइपडिलेहेइत्ता भायणाई पमजइ पमज्जइत्ता, भायणाई उग्गाहेइ उग्गाहे इत्ताजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ,उबागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वं.. दहणमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासीइच्छामिणं भंते !तुझेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पारणे के दिन प्रथम प्रहर में भगवन्त गौतमने स्वाध्याय की, दुसरे प्रहर में ध्यान किया और तीसरे }og प्रहर में धैर्यता सहित व चपलता रहित मुख रत्रिका का प्रतिलेखन किया, भाजन वस्त्रकी प्रतिलेखना की. फीर भाजन को गोच्छेसे पुंजकर ग्रहण किये और श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पास आये महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले अहो भगवन् ! आपकी आज्ञा होवे तो इक्ष्वादि | 488 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 48 488042 इसग शतक का पांचवा उद्देशा भाव Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ शब्दार्थ राजगुहा नगरमें उ० ऊंच नी नीच म०मध्यम कु कुल के घ गृहों को भि० भिक्षा के लिये अ० विचरने को.. यथासुखं दे० देवानुपिय मा० मत् प० प्रतिबंध ॥ १९ ॥ त० तब भ० भगवान् गो. गौतम स० श्रमणे। भ० भावन्त म. महावीर से अ. आज्ञामिलते स• श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास से गु०॥ गुगशील चे. उद्यान से प. नीकलकर अ० धीमे से अ० अचपल अ० असंभ्रांत जु० धूसरा प्रमाण ५० मलोचना दि० दृष्टि से पु० आगे रि• जाते सो• शोधते जे. जहां रा ० राजा न. नगर ते. तहां उ० छ?क्खमण पारणयंसि रायगिहे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई, घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए: अहासुहं देवाणुप्पिया मापडिबंधं ॥ १९ ॥ तएणं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अज्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणासलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमइत्ता अतुरिय मचवलमसंभंते जुगमंतर पलोषणाए विट्ठीए पुररियं सोहेमाणे २ जेणेव भावार्थ ऊंच, वैश्यादि मध्यम व क्षुद्रा नीच कुल के गृहों में से छठ का पारणाके लिये भिक्षा लाने को मैं इच्छता है. अहो देवानुप्रिय ! जैसे को तुम सुव होवे वैमा करो विलम्मयत करो ॥ ११॥ इस तरह भगवन्त की आज्ञा मीलनेते गौतम स्वामी भगवन्त श्री महावीर सामी की पाससे गुणशील नामक उद्यान में 17 से नीकलकर शीघ्रता व मंदता रहित असंभ्रान्त बने हुवे युग प्रमाण आगे जमीन को दृष्टि से देखते राजगृही 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी wwwmmmmmmmmmwarmanainmanni प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + 48 बाप पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र जाकर रा. राजगृह न नगर में उ० ऊंच नी नीच म०मध्यम कु०कुल के घ० गृह स० समुद्रानकी भि० भिक्षा के लिये अ• विचरते हैं ॥२०॥ त तब भ भगवान गो गौतम रा०राजगृह न०नगर में जा०यावत ० अ० विचरते ५० बहुत ज० मनुष्यों के स० शब्द नि सुने ए० ऐसे म्ब० निश्चय दे, देवानुप्रिय तुं. तंगिया न० नगरी की व० बाहिर पु० पुष्पवनी चे० उद्यान में पा० पार्श्वनाथ के संतानिये थे. स्थविर भ० भगवन्त स० श्रपणोपासक इ. इसरूप से वा प्रश्न पु० पूछे सं० संयम से भ० भगवन् कि क्या रायागहे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, रायगिहे नयरे उच्चनीयमझिमाई कुलाई परघरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडइ ॥ २० ॥ तएणं से भगवं गोयमे रायगिहे नयरे जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगि__याए नयरीए बहिया पुप्पवईयाए चेइयाए पासावञ्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवास एहिं इमाइं एयारूवाई वागरणाइं पुच्छिया संजमेणं भंते ! किं फले, तवे किं फले? नगरी में गये. और वहां ऊंच नीच व मध्यम कुल के घरों में भिक्षाचरी की ॥ २० ॥ उस समय में 3e राजगृह नगर में गोचरी करते भगवन्त गौतम स्वामीने बहुत मनुष्यों से ऐसा मुना कि तुंगिया नगरी के बाहिर पुष्परती नामक उद्यान में श्री पार्श्वनाथ भगवन्त के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त को श्रमणोपासक (श्रावकों) ने ऐसा प्रश्न पूछा कि संयम का क्या फल व तप का क्या फल ? तब स्थविर भग-15। दसरा शतक का पांचवा उद्देशा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थ ३५५ फ० फल त तप से कि० क्या फल त० तब ते. वे थे० स्थविर भ. भगवन्त स० श्रमणोपासक को ए. ऐसा व० बोले सं० संयम से अ० आर्य अ० अनावफल त तप से वो० कर्म छेदन फल तं तैसे जा• यावत् पु० पूर्वतप से पु० पूर्व संयम से क० कर्म से सं० संग से अ. आर्य दे० देव दे० देवलोक, में उ० उत्पन्न होवे स० सत्य ए. यह अर्थ णो नहीं आ० आत्मभाव व. वक्तव्यता से वह क० कैसे ए. यह म० मानाजाये ए. ऐसे ॥ २१ ॥ त० तब भ० भगवान् गो० गौतम ३० इस क. तएणं ते थेरा भगवंतो समणोवासए एवं वयासी संजमेणं अजो अणण्हय फले, तवे - } वोदाणफले, तं चेव जाव पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, काम्मयाए, संगियाए अजो! देवा देवलोएसु उववज्जति सच्चेणं एसमटे णो चेवणं आयभाववत्तव्वयाए. से कहमेयं मन्ने एवं ? ॥ २१ ॥ तएणं भगवं गोयमे इमोसे कहाए लट्ठसमाणे जायसवे सत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ वन्तने उत्तर दिया कि संयम का आश्रव निरोध व तप का पूर्व कृतकों के क्षय का फल है. जब ऐसा है तो तपस्वी व संयमी देव क्यों होते हैं ! पूर्व सो सराग तप.से, पूर्व संयम से, कर्म विकार से व संगति से देवलोक में देव होते हैं यह सत्य है. यह अहंभावबुद्धि से नहीं कहते हैं परंतु परमार्थ से कहते हैं. ऐसा स्थविर का वचन कैसे माननीय होवे ?॥ २१॥ इस तरह नगर में वार्ता सुनकर श्रद्धा व कौतुक उत्पन्न * Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ Co mmmwww शब्दार्थ कथा का ल० प्राप्त होते अर्थ जा० श्रद्धा उत्पन्न हुइ जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा को० कुतुहल अ० यथा* अपर्याप्त स० भिक्षा गि ग्रहणकर राराजगृह न नगरसे प० नीकलकर अशीघ्रतारहित से जायावत् सो० शोधते जे० नहीं गु० गुणशील चे० उद्यान जे. जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते. तहां जाव समुप्पन्न कोउहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गिण्हइ गिण्हइत्ता रायागहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ अतुरिय जाव सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ एसण मणेसणं आलोएइ, भत्तपाणं पडिदंसेइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी एव खलु भंते ! अहं तुन्भेहिं अब्धYण्णाएं समाणे रायागहे नयरे उच्चनीय मज्झिमाणि कुलाण घरसमुदाणस्स भिक्खायारयाए अडमाणे भावार्थ होने पर यथापर्याप्त [ चाहिये उतना ] आहार ग्रहण करके शीघ्रता व मंदता रहित युगप्रमाण आगे भूमि देखने राजगृह नगर, की बाहिर गुणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवन्त महावीर की पास आये. वहां आकर महावीर स्वामी की पास गमन, आगमन में जो कोई जीव की विरापना हुई होवे उसकी निवृत्यर्थ कायोत्सर्ग करके जो आहार लाये थे उस के शुद्धाशुद्ध ऐसे दोनों को विचार कर भक्त पान बतलाया. बतलाकर श्री श्रमण भगवन्त महावीर को ऐसा कहा अहो भगवन् ! आपकी विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - *38948 दूसरा शतक का पांचवा उद्देशान । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शब्दार्थ उ० आकर स० श्रमण ५० भगवन्त म. महावीर की अनजदीक ग• गमनागमनका प० प्रतिक्रमणकर ए. शुद्धाशुद्ध आ० आलोचकर भ० भक्त पानी प० देखाडकर म० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले ए. ऐसे भं० भगवन् अ० मैं तु. तुमारी अ० आज्ञा मिलते रा. राज गृह न० नगर मे उ ऊंच नी० नीच म० मध्यम कुल के घ० गृह समुदाय में भि• भिक्षा कोलिये अ. बहुजणसदं निसामेइ एवं खलु देवाणुप्पिया तुंगियाए नयरीए बहिया पुप्फबईए चेइए पासावच्चिजा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं पुच्छिया, संजमेणं भंते ! किं फले ? तवे किं फले? तंचेव जाव सच्चेणं एसम? णो चेवणं आय भाववत्तब्वयाए ॥ तं पभूणं भंते ! ते थेरा भगवंतो तसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए उदाहु अप्पभू ? समियाणं भंते ! ते थेरा भगवंतो भावार्थ आज्ञा से राजगृह नगर में ऊंच नीच व मध्यम कुल में भिक्षा ग्रहण करने के लिये परिधरण करने बहुत. मनुष्यों से मैंने ऐसा सुना कि तुंगिया नगरी की बाहिर पुष्पवती उद्यान में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के स्थविर वन्त को श्रमणोपासकोंने ऐमा प्रश्न पछा कि संयम से क्या फल, तप से क्या फल ? वे स्थविर में भगवन्तने संयम का आश्रव निरोध व तप का पूर्व कृतकर्म क्षय का फल कहा.यावत् संगति से देवलोकमें 15 देवतापने उत्पन्न होते हैं यह सत्य है, और उसे हम हमारी बुद्धि से नहीं कहते हैं ऐसा कहा. तो अहो । वादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भगवन्त को श्रमणोपास Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ) सूत्र विवाह पण्णात ( भगवती विचरता ब० बहुत म० मनुष्यों का स. शब्द नि० मुने दे० देवानुप्रिय तु तुंगिया न० नगरी की 10 बाहिर पु० पुष्पवती चे० उद्यान में पा० पार्श्वनाथ के संतानिये थे० स्थविर भ० भगवन्त स० श्रमणोपासक ए. ऐसे वा० प्रश्न पु० पूछे सं० संयम से किं. क्या फ० फल त० तप से किं. क्या फ० फल तं तैसे जा० यावत् स० सत्य ए. यह अर्थ णो नहीं आ• आत्मभाव व. वक्तव्यता ५० तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरेत्तए उदाहु असमिया? आउजियाणं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाई बागरित्तए उदाहु अणाउजिया?पलिउजियाणं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए उदाहु अपलिउजिया? पुन्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, पव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो! देवा देवलोएस उववजति. भगवन् ! उन श्रावकोंने पूछे हुवे मश्नों का शास्त्र विधि से उत्तर देने को क्या वे समर्थ हैं या असमर्थ 50 हैं ? अथवा वे स्थविर भगान्त उन श्रावकों के प्रश्नों का उत्तर देने में सम्यक् प्रकार से अभ्यासवाले हैं। या अभ्यासवाले नहीं है ? अथवा उन श्रावकों के प्रश्नों कहने को वे स्थविर भगवन्त क्या ज्ञानवन्त हैं या महानवन्वनी ? अथवाउन के मुओं के उत्तर देने में वे स्थविर भगवन्त क्या परिज्ञानवाले हैं या परिज्ञान दूसरा शतकका पंचवा उद्देशा भावार्थ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भवार्थ +3 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ( समय मं० भगवन ते० वे थे० स्थावर भ० भगवन्तं ते० उन स० श्रमणोपासक के ए० ऐसे वा० प्रश्न ( वा० कहने को अ० नहीं समर्थ स० अभ्यास वाले उ० अथवा अ० अभ्यास रहित आ ज्ञानवंत अ० ज्ञानरहित पु० विज्ञानवंत अ० विज्ञानरहित पु° पूर्वतपसे अ० आर्य देव देव दे० देवलोक में उ० उत्पन्न { होवे पु० पूर्व संयम से क० कर्म से सं० संगसे दे० देव दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होवे स० सत्य ए० ( यह अर्थ णो० नहीं आ० आत्म भाव व० वक्तव्यता ॥ २२ ॥ प० समर्थ गो० गौतम ते ० वे ( स्थविर भ० भगवन्त ते० उन स० श्रमणोपासक को ए० ऐसे बा० प्रश्न को वा० कहने को पो० नहीं थे० सच्चेणं एसमट्ठे णोचेत्रणं आयभाववत्तन्वयाए ॥ २२ ॥ पणं गोयमा ! तेथे भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत अपभू तहचेत्र नेय, अवसेसियं जाव पभू समियं आउज्जिय पलिउज्जिय { वाले नहीं हैं ? ।। २२ ।। अहो गौतम ! उन श्रावकों के प्रश्नों का उत्तर देने को वे स्थविर भगवन्त {समर्थ, अभ्यासवाले, ज्ञानवन्त व परिज्ञानवन्त हैं परंतु असमर्थ, अनभ्यासवाले, अज्ञानवन्त व अपरिज्ञानवन्त नहीं हैं ॥ २३ ॥ अहो गौतम ! मैं भी ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि पूर्व - सराग तप से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं वैसे ही पूर्व संयम, कर्म विकार व संगति से देवता देवलोक में उत्पन्न होते हैं. प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी * ३५८ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दात तपसे अ० असमर्थ त तसे ने जानना अ० अवशेष जायावत् प० समर्थ सः सम्यक् अ० अभ्यास वाले 14 जा. यावत् स०सत्य ए. यह अर्थ णो नहीं आ० आत्मभाव व वक्तव्यता ॥ २३ ॥ अमैं गोगौतम ए. २०ऐसा आ० कहताहूं भा० बोलताहूं प० विशेष कहताई प० प्ररूपताहूं पु० पूर्व तक तप से पु० पूर्व संयम.० से दे० देव दे० देवलोकमें उ० उत्पन्न होवे क० कर्म मे सं० संगसे दे० देव दे० देवलोक में उ० उत्पन्न * होते हैं स० सत्य ए. यह अर्थ णो० नहीं आ० आत्मभाव व वक्तव्यता ॥ २४ ॥ त० तथारूप सच्चेणं एसमटे, णो चेवणं आयभाव वत्तन्वयाए ॥ २३ ॥ अहंपिणं गोयमा ! एव माइक्खामि, भासेमि, पनवेमि, फ्रूवेमि पुवतवेणं देवा देवलोएसु उववज्जति, ' पुवसंजमेणं देवा देवलोएसु उक्वजति, काम्मयाए देवा देवलोएसु उववजंति, सांगयाए देवा देवलोएसु उववजंति. पुवतवेणं, पुव्वसंजमेणं काम्मयाए, संगियाए अजो देवा देवलोएसु उववज्जति. सच्चेणं एसमटे णो चेवणं आयभाव वत्तन्वयाए यह अर्थ सत्य है आत्म कल्पित नहीं है ॥ २४ ॥ यह सुनकर गौतम स्वामी साधु की सेवा से क्या फल : होता है ऐसा प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! तथारूप श्रमण की सेवा करने वाले को क्याफल होवें ? अहो मौतम ! तथारूप श्रमण की सेवा करने से शास्त्र श्रवण का फल होवे. अहो भगवन् ! शास्त्र श्रवण से क्या फल होवे ? अहो गौतम ! शास्त्र श्रवण से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है. अहो भगवन : ज्ञान से पंचमांग विवाह पण्णत्ति (-भवगती ) सूत्र mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmrrian दूसरा शतकका पचिया उद्देशा*411 का Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ A 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवन् सश्रमण की फापर्युपासना करते कि क्या फ फल पु०पर्युपासना का गो०गौतम स० श्रवण फल सं० श्रवण से णा ज्ञानफल गा० ज्ञानसे कि क्याफल वि०विज्ञानफल वि. विज्ञानसे कि०क्याकल प० । प्रत्याख्यान फल प प्रत्याख्यानसे सं०संयमफल सं०संयम से अ० अनाश्रवफल अ० अनाश्रवसे ततप्रफल - ॥ २४ ॥ तहारूवेणं भंते ! समण वा पज्जुवासमाणस्स किं फला पज्जुवासणा? गोयमा ! सवणफल । से णं भंते ! सवणे किं फले ? गोयमा ! णाणफले। सेणं भंते ! णाणे किं फले ? गोयमा ! विण्णाणफले । से गं भंते ! विण्णाणे किं फले ? गोयमा ! पचखाण फले । सेणं भंते ! पच्चक्खाणे किं फले ? संजम फले । सेणं भंते ! संजमे किं फले ? अणण्हय फले । एवं अणण्हए तव फले । तवे वोदाण फले । वोदाणे अकिरिया फले। से णं भंते ! अकिरिया किं फले ? क्या फल ? अहो गौतम ! ज्ञान से हेय ज्ञेय उपादेय जानने रूप विज्ञान फल होवे. अहो भगवन् ! विज्ञान से क्या फल ! अही गौतम ! विज्ञान से पापकर्म के प्रत्याख्यान का फल होवे ? अहो भगवन् ! प्रत्याख्यान । से क्या.फल ? अहो गौतम ! पाप-का प्रत्याख्यान करने से मेयम का फल होता है. अहो भगवन् ! संयम से क्या फल होवे ? अहो गौतम । संयम से नविन कर्मों के आश्रय द्वारों का रंधन करने का फल होवे al और इस तरह लघु. कर्म होने से तपस्यावंत होवे. तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय होवे. और पूर्वकृत । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मायक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 480 वो० कर्म छेदनफल वो० कर्म छेदनसे अ०. अक्रिया फल भं० भगवन् अ० अक्रिया से किं० क्याफल मि०4 सिद्धि पर्यवसान फल प. मरूपा ॥ २५ ॥ अ० अन्यतीर्थिक भं० भगवन् ए. ऐसे आ० कहते हैं ५० मरूपते हैं रा० गजगृह न० नगरकी ब० बाहिर बे० बेभार ५० पर्वत की - अ० नीचे ए० तहां म० बडा ए. एकद्रह अ० पानीका अं० अनेक जो० योजन का आ० लम्बा वि० चौडा ना०. नानाप्रकार सिद्धिपजवसाण फला पण्णत्ता गोयमा ! ॥ गाथा ॥ सवणे णाणेय विण्णाणे, पञ्चक्खाणेय संजमे ॥ अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥१॥ २५ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एवं माइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवंति एवं खलु रायागहस्स नयरस्स बाहिया बेभारस्स पव्वयस्स अहे एत्थणं महं एगे हरए अप्पे पण्णत्ते अणेगाई कर्मों का क्षय होने से अक्रिया का फल होवे अर्थात योग निधन रूप फल होवे. अक्रिया से क्या फल? अहो गौतम ! अक्रिया से समस्त फल में सर्वोत्कृष्ट कर्मक्षयरूप मोक्षफल होवे. यों अनुक्रम से श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, पाश्रवनिरोध तप, निर्जरा, अक्रिया, व मुक्ति का फल होता है. ॥ २५ ॥ अब साधु सेवा नहीं करने से विपरीत भाषी होते हैं सो बताते हैं ? अहो भगवन् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते हैं यावतू प्ररूपते हैं कि राजगृह नगर की बाहिर वेभार नामक पर्वत है उस की नीचे एक महान द्रह अनेक योजने की लम्बाइ व चौडाइ वाला है. विविध प्रकार के वृक्ष, वे वनखंड 484881 दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा भावार्थ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - दु. वृक्ष केवनखंड से मं० शोभित दे. प्रदेश स० शोभायमान जा. यावत् प० प्रतिरूप त• तहां प० बहुत उ० विस्तीर्ण ब० बादल सं० सन्मुख होते हैं उ० उपजते हैं. वा. वर्पते हैं त. भरा हुवा म सदैव उ० उष्ण आ. पानी अ० झरना है से वह क कैसे भं० भगवन् गो० गौतम ज. जो अ० अन्य तीर्थिक ए. ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् ते वे एक ऐसा अ. कहते हैं मि० मिथ्या ते वे आ० कहते हैं अ० मैं पु०फीर ऐ०ऐसा आ०कहता हूं रा०राजगृह न० नगर की ब०बाहिर बेल्वेभार प०पर्वत जोयणाई आयाम विक्खंभेणं नाणादुम खंडमंडिउद्देसे.सस्सिरीए जाव पडिरूवे,तत्थणंबहवे उदारा बलाहया सेयति समुच्छियंति वासंति तव्वतिरित्तेवियणं सयासमिउं उसिणे आउकाए अभिनिस्सवइ, से कहमेयं भंते एवं ? गोयमा ! जणते अणउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जेते एव माइक्खंति मिच्छंते एवमाइक्खंति ॥ अहं पुण गोयमा ! एवंमाइक्खामि, भासामि, "पण्णवेमि, परूवेमि एवं खलु रायगिहस्स वगैरह से सुशोभित यावतू प्रतिरूप है. इस गृह में बहुत बद्दल उत्पन्न सन्मुख होते हैं, उत्पन्न होते हैं और वर्षते हैं. वह द्रह भरजाने से जो अधिक पानी नीकलता है वह पानी सदैव ऊष्ण योनिवाला रहता हैं अर्थात् जो पानी द्रह से बाहिर नीकलता है वह सदैव ऊष्ण रहता है. अहो भगवन ! यह किस तरह से है ? अहो गौतम ! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या ऐसा कहते हैं, अर्थात् उन का कथन m mmmmmmm * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ oon... manasamanarasam Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सत्र 400 अ० नजदीक ए. तहां म० महातपोपतीरमभव पाझरण प० प्ररूपा पं० पांच सो धनुष्य आ० लंबा वि० चौडा ना० नाना प्रकार दु० वृक्षवन खंड से मं० मंडित दे प्रदेश स० शोभायमान पा०प्रसन्न चित्त करने वाला द० देखने योग्य अ० अभिरूप प० प्रतिरूप त० तहां ब० बहुत उ० ऊष्ण जो० योनिवाले जी० जीव पो० पुद्गल उ० पानीपने व० उत्पन्न होते हैं वि • त्रिणसते हैं च० चत्रते हैं ॐ पुष्ट होते हैं त० भरा यरस बहिया बेभारपव्ययस्स अदूरसामंते एत्थणं महातको वतीरप्पभवे न मं पासवणे पण्णत्ते पंच धणुसयाई आयाम विक्खंभेणं नाणा दुमखंड मंडिउद्देसे, सस्सिरिए पासादीए दरिसणिज्जे, अभिरूवे पडिरूवे । तत्थणं बहवे उसिणजोणिया जीवाय पोग्गलाय उद्गत्ताए वक्कमंति विउक्कमति, चयंति उवचयति । तव्वतिरित्तवियणं सयासमियं उसिणे उसिणे आउआए अभिनिस्सवइ, एसणं गोयमा ! महातवोवतरिष्पभवे पासवणे, एसणं मिथ्या है. मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि राजगृह नगर की वाहिर बेभार पर्वत की पास अति ऊष्ण क्षेत्र है. उस की समीप एक महातपोपतीरप्रभव नामक ऊष्ण पानी का झरणा है. पांचसो धनुष्य का लम्बा व चौडा है. विविध प्रकार के वृक्ष, वनखंड से सुशोभित, प्रासादीक, दर्शनीय, अभिरूप यावत् प्रतिरूप है. उस में बहुत ऊष्ण योनिवाले जीव पानीपने उत्पन्न होते हैं. चरते हैं. उस में पानी भराये पीछे जो अधिक होता है वह ऊष्ण अपूकायपने झरता है. अहो गौतम ! यह महातपोपतीर 4840 दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा ३६३ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ हामा मदा उ. उग आ० अप्कायपने माता है गो० गीतम म. महातपापतीर प्रभव पा० झरण का अ० अर्थ ५० प्ररूपा से ऐसा में भगवन भ. भगवान गो गौतम स० श्रमण भगवान म. महावीर को वं दना करते हैं न नपस्कार करते हैं ॥ ॥ ॥ * मे वह भंग भगवन् म मानता है आ० अवधारणी भाषा भाः भाषापद भा० कहना ॥२॥६॥ गोयमा : महातवावतीरप्पभवस्स अट्रे पण्णत्ते ॥ मेने भंते भतेत्ति, भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदड़ जममइ ॥ बिईय सए पंचमो उदेसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ ५॥ सेणणं भंते ! मणामीति ओहारणी भासा भासापद भाणियव्यं ॥ विश्वसए उदमो सम्मत्ती ॥ २ ॥ ६॥ भावार्थ - प्रभव नामक झरणा न उस का अर्थ कहा, अहः भगान : आपका वचन मन्य है. एमा कहकर भगवन्त गौतपने श्रवण भगवन्न को वंदना नमस्कार किया. यह दमग शतकका पांचवा उद्देशा पूर्ण हवा ॥२॥ ___ गत दश में पियामापी को उमालय मापा का घरूप कहते हैं. अहा भगवन में समा मानना है कि अवधारिणी भाप इस भयानकप में श्री पनवणा मत्रका अग्यान्हया मापापद कहना. भाषाको दत्य क्षेत्र. काल व भार पसे अनेक, भेद में विचारना यह दसग शनकका या उद्देशा पूर्ण हवा !! अनवादक-बालब्रह्मचगिमुनि श्री अमोलक ऋपिजी 27 * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी * - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 शब्दार्थ - - 0977Tr www भावार्थ पंचङ्ग हिचवपण्णात्ति ( भगवती ) है क० कितने भं० भगवन् दे० देव ५० प्ररूपे गो. गौतम च. चार प्रकार के दे० देव ५० प्ररूपे भ० भुवनपति वा० वाणव्यंतर जो० ज्योतिषी वे० वैमानिक क. कहां भं० भगवन् भ० भुवनपति दे देव | के ठा० स्थान प० कहे गो० गौतम इ० इस र० रत्नप्रभा पु. पृथी की ज• जैसे ठा० स्थान पद में | कइविहाणं भंते ! देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा देवा पण्णत्ता तंजहा-भवणवइ, वाणमंतर, जोइस, वेमाणिया, । कहिणं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा 4 पण्णत्ता ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया । विशुद्ध भाषा बोलने से देव होवे इसलिये देवता का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! देवता के कितने भेद कहे हैं ? देवताओं के चार भेद कहे हैं. १ भुवनपति २ वाणव्यंतर ३ ज्योतिषी और ४ वैमानिक. अहो भगवन ! भवनपति देवों के स्थान कहां कहे हैं ? अहो गौतम! पनवणा के स्थान पद में इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार योजन का पृथ्वी पिंड कहा है. उसमें हजार उपर व नीचे छोड़ने से एक लाख अठत्तर हजार योजन की पोलार है. उस में बारह आंतरे व तेरह पाथडे हैं. इस के आंतरे में भवनपति देवता के सात क्रोड बहोत्तर लाख भुवन कहे हैं. भवनपति। देवलोक के असंख्यातवे भाग में उत्पन्न होते हैं. मारणान्तिक समुद्घातवी लोक के असंख्यातवे भाग में भवनपनि वर्तते हैं. स्वस्थान आश्री पात कोड वहात्तर लाख भवन कहे हैं. वे भी लोक के असंख्यात दूसरा शतकका सातवा उद्देशा 9 38 880 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *दे देव की व. वक्तव्यता सा वह भा० कहना नविशेष भ० भवन 40 प्ररूपे उ. उपपात से लो. लोक का अ० असंख्यात का भाग एक ऐसे स० सर्व भा० कहना जा. यावत सि सिद्धि स्थान स०१ संपूर्ण क० कल्प प० प्रतिस्थान ०जाडपना उ.ऊंचा सं० संस्थान जी जीवाभिगम में जा० यावत् अनुबादक-गालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी सा भाणियव्वा. नवरं भवणा पण्णत्ता, उववाएण लोयस्स असंखजइ भागे, एवं सव्वं भाणियव्वं, जाव सिद्धगंडिया सम्मत्ता ॥ कप्पाण पइट्ठाणं, बाहल्लुच्चत्तमेव संठाण जीवाभिगमे जाव वेमाणि उद्देसो भाणियब्वो ॥ बिईयसए सत्तमो *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भाग में वर्तते हैं, उत्तर दक्षिण में रहनेवाले सब भवनपति. वाणव्यंतर ज्योतिषी, ववैमानिकके स्थानक का वर्णन यावत् सिद्ध स्थान प्रतिपादक प्रकरणतक का सब वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानना. उस का किंचित् विस्तार यह है. १ कल्प में विमानों का आधार. सौधर्म ईशान देवलोक में विमानों घनोदाधिमतिष्ठित हे २ विमान का पिंड-सौधर्म ईशान देवलोक में २७०० योजन का पिण्ड है ३ ऊंचाइ-सौधर्म ईईशान देवलोक में पांचसो योजन के ऊंवे विमान कहे हैं. ४ संस्थान-सौधर्म ईशान देवलोक में आवालिका प्रविष्ट व्यंत, चउरंस व वर्तुलाकार विमानों हैं, और आवालिका बाहिर विविध प्रकार के संस्थान वाले हैं. इस सिवाय और भी विमानका आवालिका परिमाण, वर्ण, प्रभा, गंधादि जीवाभिगम सूत्रके वैमानिक । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ *36 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कहना ॥ २ ॥ ७ ॥ * * १वे० वैमानिक उ० उद्देशा भा० क० कहाँ भं० भगवन् अ० {जबूद्वीप के मं० मेरु की दा० असुरेन्द्र अ० असुर कुमार राजा की स० सुधर्मा सभा गो० गौतम जं० दक्षिण में ति० तिर्च्छा अ० असंख्यात दी० द्वीप समुद्र वि० उलंघ कर अ० अरुणवर द्वीप की बा० बाहिर की वे० वेदिका से अं० अरुणोदय स० समुद्र में बा० बीयालीस जो० योजन सहस्र ओ० अवगाह कर च० चमर का अ० असुरेन्द्र अः असुर राजा का ति० तिगिच्छ कूट उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ ७ ॥ * कहिणं भंते ! चमरस्त असुादिस्स असुरकुमार रण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबूदीवेद्दी मंदररस पव्वयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेज्ज दवि समुहं विश्वइत्ता अरुणवर दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयअताओ अरुणोदयं समुदं उदेशे से जानना. यह दूसरा शतक का सातवा उद्देशा पूर्ण हुआ || २ || ७ ॥ x सातवे उद्देशे में देवता का अधिकार कहा. इसलिये प्रथम भवनपति देवता संबंधी प्रश्न करतें अहो भगवन् ! असुरकुमार के राजा चमर नामक असुरेन्द्र की सुधर्मा सभा कहां है ? अ गौतम ! जंम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में तिच्र्च्छा असंख्याते द्वीप समुद्र उल्लंघ कर जावे तो वहां अरुण वर द्वीप आता है. उस की बाहिर की वेदिकासे बेतालीस हजार योजन अवगाह कर अरुणोदय समुद्र Me +8+4 दूसरा शतक का आठवा उदेशा ३६७ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी इक्कीस जो० योजन शत उ० ऊंडे गो० गौस्थूभ आवास पर्वत म० मध्य में भा० कहना मू० मूल ना० नाम का उ० उत्पात प० पर्वत पर प्ररूपा स० सत्तरह ए० उ० ऊंचपने च० चार ती० तीस जो० योजन शत को० कोश उ० का प० प्रमाण से ने० जानना न० विशेष उ? उपर प० प्रमाण {में द० दश वा बावीस जो० योजन स० शतं वि० चौडा म० मध्य में चं चार च० चौवीस जो० {योजन शत वि० चौडा उ० उपर स० सात ते० तेवीस जो० योजन शत वि० चौडा मृ० मूल में ति० बायालीसं जायण सहस्साई ओगाहित्ता एत्थणं चमरस्स अमुरिंदस्से असुररणो तिगिच्छिकुडे नामं उपाय पव्वए पण्णत्ते सत्तरस एकत्रीसे जोयणसए उट्टं उच्चत्ते-णं, चत्तारितीसे जोयणसए कोसच उब्वेहेणं, गोथूभस आत्मसपव्त्रयस्स पमाणेणं णेयव्त्रं, नवरं उबरिल्लं प्रमाण मज्झे भाणियन्त्र, मूले दस प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * बावीसे जोयणसए - {में जाये तो वहां चमर नामक असुरेन्द्र का तिगिच्छ कूट नामका उत्पात पर्वत कहा हैं. वह सत्तरह सो (इक्कीस ( १७२१ ) योजन का ऊंचा है और ४३० योजन और एक कोसका ऊंडा जमीन में है. जैसे लवण रामुद्र में नागराजा का गौस्थूभ नामक आवास पर्वत है वैसे ही यहां जानना. विशेष इतना कि गोस्थूभ नीचे १०२२ योजन का, मध्यमें ७२३ योजन व उपर ४२४ योजन का चौडा कहा है। { परंतु तिगिच्छकूट पर्वत नीचे १०२२ योजन, मध्यमें ४२४ और उपर ७२३ योजन का चौड़ा है ऐसा ३६८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तीन जो० योजन स० सहस्र दो दो छ० छत्तीस जो० योजनशत किं० किचित् वि. विशेषकम ५० 60 परिधि म० मध्य में ए. एक जो० योजन स० सहस्र ति तीन इ० इकतालीस जो० योजनशत किं० किंचित् वि० विशेषकम प० परिधि उ• उपर दो०दो जो० योजन स० सहस्र दो दो छ• छियासी जो०१० योजन शत किं किंचित् वि. विशेषाधिक प. परिधि जा० यावन् मू. मूल में वि० विस्तार मः मध्य । में सं० संक्षिप्त उ० उपर वि• विशाल म° मध्य में व प्रधान व० वज्र वि० आकार व० बडा य० मृदंग क्खंभेणं, मज्झे चत्तारि चउन्बीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उवरिं सत्ततेवीसे जो___यणसए विक्खंभेणं, मूले तिणि जोयण सहस्साई दोणिय छत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, मझे एगं जोयणसहस्सं तिण्णियइएयाले जोयणसए है किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, उवरिं दोण्णिय जोयण सहस्साइ दोणिय छलसीए है जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं जावमूले वित्थेड मझे संक्खित्ते जानना. उस की परिधि मूलमें ३२३६ योजन से कुच्छ कम, मध्य में १३४१ योजन से कुच्छ कम, और ge उपर २२८६ योजन से किंचित् विशेष जानना. मूलमें विस्तार वाला, मध्य में संकुचित और उपर फीर विस्तार वाला है. बीचमें श्रेष्टवज्रके आकार वाला है. महामुकुद. डमरु के आकार वाला सब चनमय शोभनिक यावत् प्रतिरूप है. उस पति को एक पत्रवेदिका और एक वनखंड है. वह है 138 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 888 *23*38दूसरा शतकका आठवा उद्देशा 8- Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३७० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सं० संस्थान से सं० संस्थित स. सर्व र० रत्नमय अ० स्वच्छ जा० यावत् प० प्रतिरूप से० . उस ए.. एक प० पद्मवर वे० वेदिका व. वनखंड स० सर्व बाजु सं० रहाहुवा प० पद्मवर वे बेदिका २० वनखंड का व० वर्णन ॥ १॥ त० उप्त नि० तिगिच्छ कूटके उ० उत्पात ५० पर्वत की उ० उपर ब. बहुत २० रमणिक भूक भूमि भाग प० प्ररूपा २० वर्णन युक्त तक उस . ब० बहुत म. मध्य दे० देश भाग में म. बडा ए. एक पा० प्रासाद ५० प्ररूपा अ० अढाइ सो योजन उ० ऊंचा उ० ऊंचपने ५० पच्चीम में उप्पि विसाले. मझे वरवइरविग्गहे, महामउंद संठाण संठिए सब्बरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे ॥ सेणं एगाए पउमवरवेइयाए वणखंडेणय सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते पउमवर वेइयाए वणखंडस्स य वण्णओ ॥ १ ॥ तस्सणं तिगिच्छिकूडस्स उप्पाय पव्वयस्स उप्पि बहसमरमाणिजे भमिभागे पण्णते, वन्नओ तस्सण बहुसमरमाणजस्त बहु मञ्झ देसभाए एत्थणं महं एगे पासायवार्डिसए पद्मवर वेदिका अर्थ योजन की ऊंची व पांचसो धनुष्य की चौडी कही है. सब रन्नमय है. वह वेदिका तिगिच्छ कूट पर्वत के उपर के तल को चारो तरफ पारीध समानघेर कर रही है. उस वेदिका के चारों तरफ चार वनखण्ड दोकोश से कम के चोडे कहे हैं. ॥ १॥ उस तिगिच्छकूट पर्वत पर एक बहुत रमणिक भामिभाग है जैत नगारे का उपर का तल बराबर रहता है वैसाही उस का भूमिभाग है. मध्य * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जो० योजन स० शत वि० चौडा पा० देखने योग्य व० वर्णन युक्त उ० उपर की भू० भूमि व० वर्णन यक्त अ आठ जो० योजन की म. मणिपीठिका च० चमर का सी-सिंहासन स० परिवार सहित भा. कहना ॥ २॥ तउस ति तिगिच्छ कूट की दा. दक्षिण में छ. छतो क्रोड ५० पंचावन मोड १५० पैंतीस लक्ष ५० पच्चास सहस्र जो योनन अ. अरुणोदय स० समुद्र में ति० तिर्छा वी० अतिक्रम से अ० अधो र० रत्नप्रभा पुः पृथ्वी में च० चालीस जो० योजन स० महस्र आ० अवगाहकर कर पण्णते, अड्डाइजाइं जोयण सयाई उड्डेउच्चत्तेणं, पणवीस जायण सयाई विक्खभणं पासायवन्नओ उल्लोय भूमिवन्नओ; अट्टजोयणाणि मणिपढिया चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं ॥ २ ॥ तस्सणं तिगिच्छि कूडस्स दाहिणणं छक्कोडिसए पणवण्णंच कोडीओ पणतीसंच सयसहस्साइं पण्णासंच सहस्साई जोयणाई अरु णोदए समुद्दे तिरिय वीतिवइत्ता. अहे रयणप्पभाए पुढवीए चत्तालीसं जोयण भावार्थ में सब प्रासादो में श्रेष्ट ऐसा एक प्रासाद है. वह २५० योजन का ऊंचा है १२५योजन का चौडा है, और बहुत ऊंचा है. उस प्रासाद के मध्य में आठ योजन की माणिपिठिका है. उसमें चमरेन्द्र का सिंहासन व अन्य । 3 देव देवियों के सिंहासन रहे हुवे हैं ॥२॥ उस तिगिच्छ कूट से दाक्षण दिशामें छसो पंचावन कोड: र तीस लाख पच्चास हजार (६५५,३५,५०,०००) योजन अरुणोदय समुद में तिर्छा जाते चालिस हजार 81 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 1880 388 दुसरा शतकका आठवा उद्देशा mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm wwwwwwwwwwwww Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ शब्दार्थ + त• तहां च० चमरकी अ० अमरेन्द्र अ० असुरराजा के च० चमरचंचा रा• राज्यधानी १७. पल्पी । ए. एक योजन स० लक्ष आ०- लम्बी वि० चौडी ज• जंबद्वीप प्रमाण दि. द्वीपार्घ जो० योजन शत उ० ऊंचापने मू० मूल में प० पन्नास जो० योजन वि० चौडी उ• उपर सं० साडीबारह जो० योजन । क० कोसीसा कांगडा अ० अर्द्ध जो० योजन आ० लंबे को० कोश वि० चौडा दो० देसऊणा अ. सहस्साइं उग्गाहित्ता तत्थण चमरस्स असुरिंदस्स. असुररण्णो चमरचंचानामं रायहाणी पण्णत्ता । एगं जोयण सय सहस्सं आयाम विक्खंभेणं, जंबूहीवप्पमाणा दीवड्ड जोयण सय उडूं उच्चत्तेणं मले पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं उचार अहतरस जायेणाई कविसीसगा अद्धजोयणं आयामेणं, कोसं विक्खंभेणं देसण अद्धजोयणं उड़े उच्चत्तेणं एग मेगाए याहाए पंच २ दार सया अढाइ जोयण सयाई उड्ढे उच्चत्तेणं भावार्थ . योजन रत्नप्रभा पृथ्वी को अवगाहकर चमर नामक असुरेन्द्र की चमरचंचा नामक राज्यधानी कही.. वह राज्यधानी जम्बूदीप प्रमाण एक लाख योजन की लम्बी चौडी कही. उस के कोट एक सो पञ्चास योजनके ऊंचे कहे,मूलमें पच्चास योजनकी चौडी कही उपर साडी बारह योजन की चौडी कही. उस उपर कोटके कांगरे आधे कोशके लम्बे, एक कोश के चौडे व कुच्छकम आधेकोशके ऊंचे कहे. उस कोट की एक २ वाजु पांचसो २ दरवजे हैं.. बेदार अढाइसो योजन के ऊंचे व एकसो पचहत्तर योजन बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ अर्धयोजन उ० उंचे उ० उंचपने ए० परस्पर का बाजु पं० पांच दा० द्वार स० शत अ० अढाइसोक जो० योजन उ० उंचे उ० उचपने ए० एक.प. पचहत्त जो० योजन वि० चौडे उ० उपर तक तलमें सो. सोलह जो० योजन स. सहस्र आ० लंबा वि० चौडा प. पञ्चास जो०योजन स०सहस्र पं० पांच स०सत्तानव जो० योजन शत किं• किंचित् वि०विशेष ऊन प० परिधि स० सर्व प्रमाण वे० वैमानिक का १५. प्रमाण का अ० अर्ध ने जानना ॥२॥८ . + . एग पणहत्तरी जोयणाई विक्खंभेणं, उवरियतलेणं सोलस जोयण सहस्साई आयाम विक्खंभेणं, पन्नासं जोयण सहरसाइं पंचयसत्ताणउय जोयणसए किंचिविसेसणे, परिक्खेवेणं सवप्पमाणं वेमाणियस्स प्रमाणस्स अद्धं नेयव्वं ॥ इइ बिईयसए ____ अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ ८ ॥ भावार्थ के चौडे कहे हैं. घरके पीठ सोलह हजार योजन के चौडे कहे हैं. उसकी परिधि५०५९७योजन में कुछ कम की जानना. सब प्रमाण सौधर्मादि वैमानिक से आधा जानना. यह दूसरे शतक का आठवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥२॥८॥ + + + + 23 गत उदेशे में देवता का अधिकार कहा अब मनुष्य का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! समय1 क्षेत्र क्यों कहता है ? अहो. गौतम ! अढाइ द्वीप व दो समुद्र को समय क्षेत्र कहते हैं. समय का अर्थ काल पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 48674 दुसग शतक का आठवा उद्देशा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ * रस 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कि० क्या इ० इसे भं० भगवनू स० समय क्षेत्र ५० कहना गो० गौतम अ० अढाइ दीद्वीप दो दी। समुद्र प० उपलक्षित स० समय क्षेत्र १० कहा है त० तहां अ. यह जं. जंबूद्वीप स० सर्व दी० द्वीप ।। समुद्र की स० मध्य में एक ऐसे जी०जीवाभिगम व वक्तव्यता ने जानना जा० यावत् अ०आभ्यंतर पु० पुष्कराध जो० ज्योतिषी वि० छोडकर ॥ २ ॥९॥ = = : किमिदं भंते ! समयक्खेत्तति पवुच्चइ ? गोयमा ! अड्डाइजा दीवा दोय समुद्दा एसणं ___ पवइए समयक्खेत्तेत्ति पवुच्चइ, तत्थणं अयं जंबूद्दीव दीवे सव्वद्दीव समुदाणं स ब्वाभितरे एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयव्वा, जाव आभितर पुक्खरद्धं जोइस विहणं ॥ इइ बिईयसए नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ ९ ॥ होता है अर्थात् जिस क्षेत्र में दिन, पक्ष, मास, वर्ष वगैरह काल उपलक्षित होवे सूर्य की गति से जाना जावे उसे समय क्षेत्र कहा है. अढाई द्वीप की बाहिर मर्यादि ज्योतिषी के विमानोंका हलन चलन नहीं होता है. अढाई द्वीप में सब द्वीप समुद्रों में छोटा प्रथप जम्बूद्वीप नामक द्वीप है वगैरह अढाड द्वीप की वक्तव्यता जैसी जीवाभिगम में कही है वैसी यहां पर कहना. मात्र ज्योतिषी की वक्तव्यता नहीं कहना. यह दूसरे शतकका नववा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ २॥ ९॥ + +.. अकाशक-राजाबहादुर लाला मुत्सदवसायमा ज्वालामसादजी भावार्थ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थक कितनी भं० भगवन् अ० अस्तिकाय गो० गौतम पं० पांच अ०' अस्तिकाय ध० धर्मास्तिकाय अ० अधर्मास्ति काय आ० आकाशास्ति काय जी० जीवास्ति काय पो० पुद्गलास्ति काय ॥ १ ॥ध. धर्माकइणं भंते ! आत्थिकाया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच आत्थिकाया पण्णत्ता तंजहा, धम्मत्थिकाए, अधम्मात्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए. पोग्गलत्थि काए भावार्थ 48408 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भवगती ) सूत्र गत उद्देशे में क्षेत्रका स्वरूप कहा है, उस में आस्तिकाय होने से अस्तिकाया का स्वरूप कहते हैं. में अहो भगवन् ! अस्तिकाय कितनी कही ? अहो गौतम ! अस्तिकाय पांच कही. अस्ति शब्द से प्रदेश में ग्रहण करना और कायशब्द से राशि अर्थात् प्रदेशों की राशि-समुदाय सो अस्तिकाय. अथवा अस्ति शब्द काल प्रय बाची अव्यय है इस से जो प्रदेश अतीत काल में थे, वर्तमान में हैं और आगामिक में होंगे सो अस्तिकाय. उस के नाम धर्मास्तिकाय * अधर्मास्ति काय, आकाशस्तिकाय, जीवास्ति काय * धर्मास्तिकाय पद मांगलीक होने से प्रथम ग्रहण किया है, तत्पश्चात् धर्मास्किाय का विपरीत % स्वभाव वाला अधर्मास्तिकाय, इन को आधार भूत आकाशास्तिकाय, अनंत अमूर्तत्व का साधर्म्य स्वभाव है। है होने से जीवास्ति काय, और उस का उपष्टंभ करने वाला पुल होने से पुद्गलास्ति काय ऐसा क्रम रक्खा गया है. 48848 दूसरा शतक का दशा उद्देशा 82463800 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ स्तिकाय भं• भगान् क० कितना व० वर्ण ग० गंध र० रस फा० स्पर्श गो० गौतम भ० भवर्ण अ०* अगंध अ० अरस अ० अस्पर्श अ० अरूपी अ. अजीव सा० शाश्वत अ० अवस्थित लो० लोक द्रव्य स० संक्षेप से पं० पांच प्रकार की द० द्रव्य से खे० क्षेत्र से का. काल से भा० भाव से गु० गुण से दन्द्रव्य से ए० एकद्रव्य खे०क्षेत्र से लो लोक प्रमाण का कालसे न नहीं क०कदापि न० नहीं आ०था न० ॥ १॥ धम्मत्थि काएणं भंते ! कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे ? गोयमा! अवण्णे, अगंधे. अरसे, अफासे, अरूबी, अजीवे, सासए, अवट्टिए, लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तंजहा दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ। दव्व ओणं धम्मत्थिकाए एगेदव्वे, खेत्तओ लोगप्पमाणमेसे, कालओ नकयाई, भावार्थ है और पुद्गलास्तिकाय ॥ १॥ अटो भगवन् ! धर्मास्तिकाया में कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श हैं. ? - अहो गौतम ! धर्मास्तिकाया में पांच वर्ण में से एक भी वर्ण नहीं है, दोगंध में से एक भी गंध नहीं है, 13 पांच रस में से एक भी रम नहीं है, आठ स्पर्श में से एक भी स्पर्श नहीं है. अरूपी, अजीव, शाश्वत अवस्थित व पंचारित कायिक लोक होने से उस का एक अशभृत द्रव्य है. उम के द्रव्य से, क्षेत्र से, काल 1 से, भाव से व गुग से ऐसे पांच भेद किये हैं. द्रव्य से धर्मास्तिकाय एक द्रव्य, क्षेत्र से धर्मास्तिकाय १ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालाप्रसादनी * Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र सूत्र * २० पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती भावार्थ । नहीं कः कदापि नः नहीं है जा० यावत् निः नित्य भा भाव से अ अ अ अ अ अरस अ० अस्पर्श गु० गुण से ग गमन गुण अ० अधर्मास्तिकाय ए ऐसे न० विशेष गुण से स्थानगुण आ आकाशास्तिकाय ए० ऐसे न० विशेष खे० क्षेत्र से लो० लोकानेक प्रमाण अ अनंत जा यावत् गुण में अ अवगाहना गुण जी० जीवास्तिकाय में मंगल कितना वर्ण गं० वं र० रम फर स्पर्श गो० गौतन अ० अवर्ण जा० यावत् अ० अरूपी जी० जीव सा न आसि न कवाइ नत्थि जाव निचे, भावओ अबन्ने अगंधे, अरसे, अकासे, गुणओ गणगुणे अहम्मत्थि काएवि एवं चेत्र नवरं गुणओ ठाणगुणे ॥ आगासत्थि काएवि एवं चैत्र नवरं खेत्तओगं आगासत्थिकाए, लोयालोयप्पमाणमेत्ते अणतेचेव, जाव गुणओ अवगाहगुणे ॥ जीवत्थिकारणं भंते ! कइवण्णे, कइगंधे, संपूर्ण लोक प्रमाण, काल से अतीत काल में नहीं था वैसा नहीं, वर्तमान में नहीं है वैसा नहीं, और अनागत में नहीं होगा वैसा नहीं परंतु अतीत काल में था, वर्तमान है और अनागत में होगा यावत् नित्य रहेगा. भाव से धर्मारिकाय में वर्ण, गंध, रस व स्पर्श नहीं होते हैं और गुण से धर्मास्तिकाया में गमन गुण जैसे मत्स्य को जल का आश्रय रहता है वैसे ही जीव पुगलको धर्मास्ति कायगीत कराताॐॐॐ अस्ति कायाका भी वैसे ही जानना मात्र स्थिर गुण ग्रहण करना. आकाशास्ति काय में भी धर्मास्ति । दूसरा शतक का दशा उद्देशा 399 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी शाश्वत अ० अवस्थित लो० लोक द्रव्य स० संक्षेप से पं० पांच प्रकार का द० द्रव्य से जा० यावत् } गु० गुण से द० द्रव्य से अ० अनंत जी० जीव द्रव्य खे० क्षेत्र से लो० लोक प्रमाण का कालसे न०नहीं क० कदापि न० नहीं आ था जा० यावत् नि० नित्य भा० भाव से अ० अवर्ण अ० अगंध अ० अरस अ० अस्पर्श गु० गुण से उ० उपयोग गुण पो० पुद्गलास्तिकाय मं० भगवन् क०कितने वर्ण क० कितने गंध र०रस फा०स्पर्शगो० गौतम पं० पांचवर्ण पंपांचरस दु० दोगंध अ० आठ स्पर्श रूरूपी अ० अजीव सा० कइरसे कइफासे ? गोयमा ! अवने जाव अरूवी, जीवे सासए, अवट्ठिए, लोगदव्वे, । से. समासओ पंचविहे प० तं दव्वओ जाव गुणओ. दव्वओणं जीवत्थिकाए अनंताइं जीवदव्वाई; खेत्तओ लोगप्पभाणमेत्ते, कालओ नकथाइ न आसि • जाव निच्चे. भावओ पुण अवन्ने, अगंधे, अरसे अफासे, गुणओ उवओग गुणे । पोग्गलात्थि काएणं भंते ! कंइवण्णे, कइगंधरसफासे ? गोयमा ! पचवन्ने पंचर से, दुगंधे, काय जैसा परंतु क्षेत्र से आकाशास्ति काय लोकालोक प्रमाण अनंत, और गुण से अवगाहन - अवकाश {देने वाला - गुण है. अहो भगवन् ! जीवास्ति काय में कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श हैं ? अहो गौतम ! जीवास्ति काय { में वर्ण, गंध, रस व स्पर्श नहीं है. वह अरूपी, जीव, शाश्वत, अवस्थित व लोक द्रव्य है. उसके पांच भेद { किये गये हैं द्रव्य से यात्रत् गुण से. द्रव्य से जीव द्रव्य अनंत, क्षेत्र से लोक प्रमाण, काल से अतीत में * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ३७८ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8 ३७९ शाश्वत अ० अवस्थित लो लोक द्रव्य स० संक्षेप से पं० पांच प्रकार का द० द्रव्य से अ० अनंत द्रव्य ख० क्षेत्र से लो० लोक प्रमाण मात्र का० काल से न नहीं क. कदापि व० व. आ० धा जा. यावत् नि० नित्य भा. भाव से व० वर्ण वाला गं० गंधवाला र. रसवाला फा० स्पर्श वाला गु० गुण से ग. __अट्टफासे, रूबी, अजीवे, सासए, अवट्रिए, लोगदव्वे. से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तंजहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ।दव्वओणंपोग्गलीत्थकाए अणंताई दवाइं, खत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते,कालओनकयाइ न आसि जाव निच्चे भावओवण्णमंते, 4848पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 821 भावार्थ नहीं था वैसा नहीं, वर्तमान में नहीं है वैसा नहीं है और अनागत में नहीं होगा वैसा नहीं परंतु अतीत काल में था, वर्तमान में है, और अनागत में होगा यावत नित्य है. भाव से वर्ण,गंध,रस, स्पर्श रहित अरूपी . है. गुण से उपयोग लक्षण वाला है. अहो भगवन् ! पुद्गलास्ति काय में कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श हैं? अहो गौतम ! पुद्गलास्ति कायमें पांचवर्ण, पांचरस, दो मंध, और आठ स्पर्श हैं. वह रूपी, अजीब, शाश्वत, अवस्थित यावत् लोक द्रव्य है. उस के द्रव्य से यावत् गुण से ऐसे पांच भेद किये हैं. द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनंत है, क्षेत्र से लोक प्रमाण है, काल से अतीत काल में नहीं था वैसा नहीं यावत् नित्य है भाव से वर्ण, गंध, रस स्पर्श सहित है, और गुण से ग्रहणगुण वाला है अर्थात् परस्पर मीलते परिणा दूसरा शतक का दशवा उद्देशा80898 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३८० 48. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ ग्रहणगुण ॥२॥ ए. एक भ० गवन् ध धर्मास्तिकाय का प०प्रदेश को ध धर्मास्तिकाय व कहना गो गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ ए. ऐमे दो० दो ति० तीन च० चार पंपांच छ० छ स० सात अ० आठ न० नव द० दश सं० संख्याते अ० असंख्याते भं भगवन् ध० धर्मास्तिकाय का १५०प्रदेश को ध०. धर्मास्तिकाय व० कहना गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ए एक प्रदेश गंध रस फासमंते, गुणओं गहणगुणे ॥ २ ॥ एगे भंते ! धम्मत्थिकाय प्पदेसे धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव् सिया ? गोयमा ! णो इणटे समटे. एवं दोन्निवि तिन्निवि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ,नव, दस, संखेज्जा, असंखेजा भंते ! धम्मत्यिकाय. प्पदेसा धम्मत्यिकाएत्ति वत्तव्बंसिया ? गोयमा ! णो इणढे समढे. एगपदेसूणे मते हैं ॥ २॥ अहो भगवन् ! धर्मास्ति काय के एक प्रदेश को क्या धर्मास्ति काय कहना ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाय के दो; तीन चार, पांच, छ. सात, आठ, नव, दश, संख्याते या असंख्याते प्रदेश को क्या धर्मास्तिकाय कहना, ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकीय, के समस्त प्रदेशों में से एक प्रदेश कम होवे तो क्या उसे धर्मास्तिकाया कहना ?: अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है। wwwwwwwwwwwwwwww प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी भावार्थ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ | 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 403 ऊणा को घ० धर्मास्तिकाय व० कहना णो० नहीं इ० यह अर्थ स समर्थ से बढ़ के० कैसे ए० ऐसा बु० कहा जाता है ए० एक ध० : धर्मास्तिकाया के प्रदेश को नो० नहीं ध० धर्मास्तिकाय व० कहना जा० यावत् ए० एक प्रदेश ऊणा घ० धर्मास्ति काया को नो० नहीं घ० धर्मास्तिकाय व० कहना गो० गौतम खं० खंडित च० चक्र स० संपूर्ण च० चक्र भ० भगवन् नो० नहीं खं० खंडित चक्र सं० संपूर्ण चक्र ए० ३ ari धम्मथिका धम्मत्थिकाएत्ति वत्तत्वं सिया ? णो इट्ठे समट्ठे से केणट्टेणं भंते! एवं gris एगे धम्मत्थिकायप्पदेसे नो धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्यं सिया जाव एगपदेसुत्रियणं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्यं सिया ॥ सेणूणं गोयमा ! खंडे चक्के सगले चक्के ? भगवं ! नो खंडे चक्के सगले चक्के । एवं छत्ते, चम्मे, दंडे, १०० - दुसरा शतकका दशना उद्देशा ( अहो भगवन् ! किस कारनसे धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं । [ कहना. ऐसे ही दो, तीन, चार, पांव, छ, सात, आठ, नत्र, दश, संख्यात, असंख्यात यावव एक प्रदेश कम को धर्मास्ति काय नहीं कह सकते है ? अहो गौतम ! चक्र के टुकडे को क्या चक्र कहना ? अहो भगवन् ! चक्र के टुकड़े को चक्र नहीं कहना परंतु पूर्ण चक्र को ही चक्र कहना और भी चमर के अमुक विभाग को क्या चमर कहना, छत्र के अमुक विभाग को क्या छत्र कहना, दंडके) ३८१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी इसलिये गो० गौतम धर्मास्ति काय व ऐसे छ० छत्र च० चमर दं० दंड दृ० वस्त्र आ० आयुध मो० मोदक से० वह ते ए० ऐसा कहा जाता है ए० एक ध० धर्मास्तिकाय प्रदेश नो० नहीं घ० [ कहना जा० यावत् ए० एक प्रदेश ऊणा {से वह किं० क्या खा० ख्याति केलिये भं० ध० धर्मास्ति काय को णो० नहीं ध० धर्मास्तिकाय व० कहना भगवन् घ० धर्मास्तिकाय व० कहना गो० गौतम अ० असंख्यात ०धर्मास्ति काय के प० प्रदेश तेव्वे स० सर्व क० कृत्स्न प० प्रतिपूर्ण नि० निरविशेष ए० एक ग० ग्रहण दूसे, आउहे, मोयए, सेतेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ एगे धम्मत्थि काय पदेसे णो धम्म त्थिकाएत्ति वत्तव्यं सिया जाव एगपदेसूणेवियण धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव् सिया । से किं खाइएणं भंते ! धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वंसिमा ? गोयया ! असंखेज्जा धम्मत्थि कायप्पएसा ते सव्वे कसिणा, पडिपुण्णा, निरवसेसा एकग्गहण गहिया एसणं टुकडे को दंड कहना, बस्त्र के टुकंडे को वस्त्र कहता, आयुध के टुकडे को आयुध कहना, या लड्डुके ( टुकडे को क्या लड्डु कहना ? अहो भगवन् ! ऐसा नहीं कहा जाता है. इसी तरह अहो गौतम ! धर्मास्ति (काय के एक प्रदेश यावत् एक प्रदेश कप को धर्मास्तिकाय नहीं कह सकते हैं * क्यों कि * यह वचन निश्चय नयकी अपेक्षासे ग्रहण किया है क्योंकि व्यवहार नयसे खण्डित घडेको घडा कहते हैं वैसेही धर्मास्तिकायके एक प्रदेश वगैरह को भी धर्मास्तिकाय कह सकत हैं: * प्रकाशक राजाहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ३८२ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३८३ सत्र ग० ग्रहित को गो० गौतम ध० धर्मास्ति काय व० कहना ए० ऐसे अ० अधर्मास्ति काय आ० आका शास्ति काय जी. जीवास्ति काय पो० पुद्गलास्ति ए० ऐसे ही न० विशेष ति तीन का प०प्रदेश अ०१० 0७ अनंत भा० कहना ॥ ३ ॥ नी० जीव भं भगवन् स. उत्थान सहित स० कर्म सहित स. बलसहित । वीर्यसहित म० पुरुषात्कार पराक्रम सहित आ० आत्म भाव से उ० देखाडे व. कहना हं० हां गो०१ गोयमा ! धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया एवं अहम्मत्थिकाएवि, आगासत्थिकाय, जीवत्थिकाय, पोग्गलत्थि काएवि एवं चेव नवरं तिण्हंपि पएसा अणता भाणियन्वा सेसं तंचेव ॥ ३ ॥ जीवेणं भंते ! सउट्ठाणे, सकम्मे, सबले, सवीरिए, सपुरि सक्कार परक्कमे, आयभावेणं जीवभाव उवदंसेईति वत्तव्यं सिया ? हेता गोयमा ! भावाथे तव अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाय किसको कहतेहैं ? असंख्यात प्रदेशात्मक धर्मास्ति काय है यह सब कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरविशेष और एकही शब्द कहनेमे सब आजावे वैसे होवे उसी ही धर्मास्तिकाया कहते हैं. ऐसही अधर्मास्तिकाय. आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय व पुद्गलास्ति कायका जानना. विशेष इतना कि आकाशास्तिकायादिक में प्रदेश अनंत होनेसे अनंत कहना. ॥ ३ ॥ उपयोग लक्षण वाला? जीवास्ति काय पहिले कहा. अब जीव के उत्थानादि गुणों बताते है. अहो भगवन् ! उत्थान, कर्म, पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र दूसरा शतक का दशवा उद्देशा 298 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपनी wwwwwmmmmm गौतम जी जीव स. उत्थान सहित जा. यावत् उ० देखाडे ५० कहना से वह के. कैसे जा यावत् व० कहना गो० गौतम जी जीव अनंत आ० मतिझान प० पर्यव ६० ऐसे मु० श्रुतज्ञान पर्यो । • अवधिज्ञान पर्यव म० मनःपर्यवज्ञान पर्यव के. केवलज्ञान के पर्यव म० मतिअज्ञान के पर्यव मु. धनअज्ञान के पर्यव वि विभंगज्ञान के पर्यच च चक्षुदर्शन के पर्यव अ० अचक्षुदर्शन के पर्यव ओ० अवदर्शन पर्यव के केवलदर्शन के पर्यव उ० उपयोग को गं० जावे उ० उपयोग लक्षण से से० वह ते. जीवेणं सउटाणे 'जाव उवदंसेईति वत्तव्वं सिया । सेकेणट्रेणं जाव वत्तव्वं सिया ? गोयमा! जीवेणं अनंता आभिाणबोहियनाणपजवाणं, एवं सुयनाणपजवाणं, ओहिनाण । पजवाणं, मणपज्जवनाणपजवाणं केवलणाणपजाणं, मइअन्नाणपज्जवाणं, सुयअन्नाण पजवाणं विभंगनाणपजवाणं, चक्खुदंसणपज्जवाणं, अचक्खुदंसणपजवाणं, ओहिदसण. वीर्य. परुषात्कार पराक्रम सहित जीव आत्मपरिणाम मे से क्या चैतन्यपना बताता है! अहो तम ? 'उत्थानादि सहित जीव आत्मभाव से चैतन्यपना बताता है. अहो भगवन् ! किस तरह उत्थानादि सहित जीव चैतन्यपना बताता है ! अहो गौतम ! जीव अनंत मतिज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, केवल ज्ञान, मति कज्ञान; श्रुत कज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवघि दर्शन व केवल दर्शन के पर्यायात्मक चैतना लक्षण को कहा जाता है अर्थात् आत्मभाव में वर्तता है । +काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488888 दूसरा शतक का दशवी उद्देशा {इसलिये ए० ऐसा बु० कहाजाता है गो० गौतम जी० जीव सं० उत्थानसहित जा० यावत् व कहना है ॥ ४ ॥ क० कितना प्रकारका मं० भगवन् आ० आकाश गो० गौतम दु० दोप्रकार का आ० आकाश लो० लोक आकाश अ० अलोक आकाश लो० लोकाकाश में किं० क्या जी० जीव जी० जीवदेश जी० जीवप्रदेश) अ० अजीव अ० अजीवदेश अ० अजीव प्रदेश गो० गौतम जी जी जी० जीवदेश जी० जीवप्रदेश अ० {अजीव अ० अजीवदेश अ० अजीव प्रदेश जे० जो जी०जीव ते ० वे नि०निश्चय ए० एकेन्द्रिय बे० बेइन्द्रिय पजवाणं, केवलदंसण पज्जत्राणं, उवओगं गच्छइ, "उचओग लक्खणेणं जीवे" सेतेणट्टेणं एवं बुवाई, गोमा ! जीवे सउट्ठाणे जाव वत्तव्वं सिया ॥ ४ ॥ कइ विहेणं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे प० तं० लोयागासेय, अलोयागाय । लोयागासेणं भंते ! किं जीवा, जीवदेसा, जीव एसा; अजीवा, अजीवदेसा, अजीव एसा ? गोयमा ! जीवावि, जीवदेसावि, जीव पदेसावि; अजीवावि, अजीवउपयोग लक्षण वाला जीव कहाता है इससे अहो गौतम : उत्थानादि सहित जीव आत्म[ भाव से चैतन्यपना बताता है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! आकाश के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! आकाश के दो भेद कहे हैं ? लोकाकाश और २ अलोकाकाश. अहो भगवन् ! लोकाकाश में क्या जीव, जीव के देश, जीव के प्रदेश, व अजीव, अजीव के देश या अजीव के प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! , ३८५ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1 42 अनुवादक- लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ते० तेइन्द्रिय च० चतुरेन्द्रिय पं० पंचेन्द्रिय अ० अनिन्द्रिय जे. जो जी० जीवदेश ते वे नि निश्चय ए. एकेन्द्रिय देश जा. यावत् अ० अनिन्द्रिय ५० प्रदेश जे. जो अ० अजीव ते वे दु० दो प्रकार के प० प्ररूपे रू० रूपी अ० अरूपी जे. जो रू० रूपी ते वे च० चार प्रकार के ख. स्कन्ध खं० स्कन्धदेश खं० स्कन्ध प्रदेश प० परमाणु पुगल जे. जो अ० अरूपी ते वे पं० पांच प्रकार के ध० धर्मास्तिकाय नो० नहीं ध० धर्मास्तिकाय का देश ध० धर्मास्तिकाय काय का प्रदेश अ० अधर्मास्ति काय नो० __ देसावि,अजीव पदेसावि । जे जीवा ते नियमा एगिदिया,बेइंदिया, तेइंदिया चउरिदिया, . पंचिंदिया, आणिंदिया. जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव आणिदियपदेसा ॥ जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा रुवीय, अरूवाय । जेरूवी ते चउविहा पण्णत्ता, तंजहा खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा; परमाणु पोग्गला । जे अरूवी ते लोकाकाश में जीव, जीव के देश, जीव के प्रदेश, अजीव, अजीव के देशव अजीव के प्रदेश हैं. जीव हैं वे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय हैं. जो जीव के देश हैं वे भी एकेन्द्रिय यावत् अनिन्द्रिय के देश हैं और वैसे ही प्रदेश हैं. अजीव के दो भेद १ कपी अजीव २ अरूपी अजीव. रूपी अजीव के चार भेद स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश व परमाणु पुगल. अरूपी अजीव के पांच भेद. १ धर्मास्तिकाय २ धर्मास्तिकाया का प्रदेश, ३ अधर्मास्तिकाय, ४ अधर्मास्तिकाया का प्रदेश प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथे Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा भावाथ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र--28 नहीं अ० अधर्मास्ति काय का देश अ० अधर्मास्ति काय का प्रदेश अकाल ॥५॥ अ० अलोकाकाश में भं० । भगवन् कि० क्या जी० जीव गो० गौतम नो नहीं जीव जा. यावत् नो० नहीं अजीव प्रदेश ए. एक पंचविहा पण्णंता तंजहा धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे,धम्मत्थिकायस्सपदेसा ३८७ है अधम्मत्थिकाए, नो अधम्मत्थिकायस्स देसे; अधम्मात्थकायरस पदेसा । अद्धासमए ॥ ५॥ अलोयाकासेणं भंते ! किं जीवा पुच्छा तहचेव, गोयमा ! नो जीवा जाव और ५ काल. * ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! अलोकाकाश में क्या जीव, जीव के देश व प्रदेश वगैरह हैं ? अहो गौतम ! अलोकाकाश में जीव, जीव के देश व प्रदेश यावत् अजीव के प्रदेश नहीं हैं परंतु अगुरुलघुभून । ____* अजीव अरूपिके सब मीलकर दश भेद किये हैं; उसमेंसे यहां पांचही ग्रहण किये हैं उसका सबब यह है कि यहां पर आकाश आश्रित पृच्छाहै इससे आकाशास्तिकायाका स्कंध, देश व प्रदेश यह तीन नहीं ग्रहण कियाँ मात्र धर्मास्तिकाया व अधर्मास्तिकायाकै स्कंधव प्रदेश ग्रहण कियेहैं. धर्मास्ति काय व अधर्मास्तिकायके देश नहीं ग्रहण करनेका सबब यह है कि जब संपूर्ण वस्तुको विवक्षा की जाती है तब धर्मास्तिकाय ऐसाही कहाजायगा और उसके अंशकी विवक्षा करे तब उसके प्रदेश ही ग्रहण किये जायेंगे. क्योंकि ये दोनों o आस्थित हैं इनकी हानि वृद्धि नहीं होतीहै इससे स्कंध व प्रदेश ग्रहण किये गये हैं और देशका प्रतिबंध कियाहै. 40340984 दूसरा शतकका दशवा उद्दशा 498 as Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी [अ० अजीव द० द्रव्य देश अ० अगुरुलघु अ० अनंत अ० अगुरुलघु गु० गुण से सं० युक्त स० सर्व आकाश अ० अनंत भाग ऊणा ॥ ६ ॥ घ० धर्मास्तिकाय मं० भगवन् के कितनी बडी गो० गौतम लो० लोक में लो० लोक मात्र लो० लोक प्रमाण लो० लोक को स्पर्शी लो० लोक को फु०स्पर्श कर चि० रही है ए ऐसे अ० अधर्मास्ति काय लो० लोकाकाश जी० जीवास्ति काय पो० पुद्गलास्तिकाय पं० नो अजीवप्पदेसा; एगे अजीवदव्वद से अगुरुयलहुए, अनंतेहिं, अगुरुय लहुयगुणेहिं संजुते, सव्वागासे अनंतभागुणे ॥ ६ ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए, लोयमेत्ते, लोयप्पमाणे, लोयफुडे, लोयंचेत्र फुसित्ताणं, चिट्ठइ ॥ एवं अहम्मत्थिकाए, लोयाकासे, जीवत्थिकाए, पोग्गलात्थिकाए पंचविएक्काभिलावा ॥७॥ अजीव द्रव्य का एक देश है. क्यों कि संपूर्ण लोकालोक का आकाश मीलकर एक स्कंध होता है और अलोक में मात्र एक अलोकाकाश ही है. इसलिये एक अजीव द्रव्य का देश गिना गया है. वह अनंत पर्यायरूप अगुरुलघु स्वभाव सहित है. लोकाकाश की अपेक्षा से अनंत भाग रूप है इस से सब आकाश के अनंतवे भाग कम बतलाया है ॥ ३ ॥ अव धर्मास्तिकायादि के प्रमाण का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितनी बडी है ? अहो गौतम ! धर्मास्तिकाय पंचास्तिकायमय लोक जैसी है, लोक मात्र है, लोक प्रदेश प्रमाण है, सब लोक के प्रदेश को स्पर्श कर रही है. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी * ३८८ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 200 पंचङ्ग हिववपण्णात्ति (भगवती) सूत्र nowmanorammar पांव का ए. एक अ० अभिलाप ॥ ७॥ अ० अधो लोक में भं भगवन ध० धर्मास्तिकाय कि कितनी । फु० स्पर्शी है साकुच्छ अधिक अ० अर्ध से फ. स्पर्श ति० ति लोक में अ० असंख्यातवे भा० भाग को फु० स्पर्श उ. ऊर्थ लोक में दे. देशऊणा अ० अर्ध फु० स्पर्शे ॥ ८॥र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी ५० धर्मास्तिकाय किं०. क्या सं• संख्यातवे भा० भाग फु• स्पर्श अ० असंख्यातो भाग फु. स्पर्श सं० ३८९ अहो लोएणं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसइ ? गोयमा ! सातिरगं अद्धं फुसइ॥ तिरिय लोएणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! असंखेजइ भागं फुसइ ॥ उड्डलोएणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा : देसणं अडं फुसइ ॥ ८ ॥ इमाणं भंते! रयणप्पभाणं पुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइ भागं फुसइ, असंखेजइ भागं फुसइ संखेजे भागं फुसइ, असंखेजे भागं फुसइ सव्वं फुसइ ? गोयमा ! णो व लोकाफाश का जान॥७॥ अहो भगान् ! अधोलोक में धर्मास्तिकाय कितनी स्पर्श कर रही है ?? अहो गौतम ! आधे से कुछ अधिक धर्मास्तिकाया का विभाग स्पर्श कर रहा है. क्यों कि सब मीलकर चौदह राजु का लोक है; उस में से अधोलोक सात राजु से कुछ अधिक है. अहो भगवन् ! तिच्छीलोकogo में कितनी धर्मास्तिकाय स्पर्श कर रही है ? अहो गौतम ! तिर्छा लोक में धर्मास्तिकाय असंख्यातवे भाग स्पर्श कर रही है क्यों कि १८०० योजन का तिर्छा लोक है. ऊर्भ लोक में धर्मास्तिकाय आधे से है कुछ कम स्पर्श कर रही है क्यों कि सात राजू से कुछ कम ऊर्ध लोक है ॥८॥ अहो भगवन् ! । दूसरा शतकका दसवा उद्देशा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३१d +8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संख्यात भाग फु० स्पो अ०असंख्यात भाग फु०स्पर्शस ० सर्व फु.स्पर्श गो गोतम नोश्नहीं सं०संख्यातवे भाग फु० स्पर्श अ० असंख्यातवे भागे फु० स्पर्श णो नहीं सं० संख्यात भाग फु० स्पर्श नो० नहीं ३० असंख्यात भाग फु० स्पर्श नो० नहीं स. सर्व फु० स्पर्श ॥ ९॥ इ. इस र० रत्नप्रभा पृथ्वी काई घ० घनोदधि ध० धर्मास्ति काया को किं. क्या सं० संख्यातवे भाग फु. स्पर्श गो० गौतम ज० जैसे है संखजइ भागं फुसइ, असंखेजइ भागं फुसइ, णो संखेजे भागे फुसइ, णो असंखे- १ जे भागं फुसइ, नो सव्वं फुसइ, ॥ ९॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए ब घणोदही धम्मत्थिंकायस्स किं संखजइ भागं फुसइ ? गोयमा ! जहा रयणप्पभाए रत्नप्रभा पृथ्वी को धर्मास्तिकाय क्या संख्यात वे भाग से स्पर्श कर रही है, असंख्यातवे भाग मे स्पर्श कर रही है, संख्यात भाग में या असंख्यात भाग में स्पर्शकर रही है या सब स्पर्शकर रही है ? अहो. गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी को धर्मास्तिकाय संख्यातवे भाग से स्पर्शकर नहीं रही है परंतु असंख्यातवे भाग 1 से स्पर्शकर रही है. क्यों कि रत्नप्रभा का पृथ्वी पिंड एक लाख अस्सी हजार योजन का है. संख्यात व असंख्यात भाग में अथवा सब स्पर्शकर नहीं रही है॥९॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी का घनोदाध कोई धर्मास्तिकाय क्या संख्यातवे भाग से स्पर्श कर रही है ? अहो गौतम ! जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी का कहा वैसे ही प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 480 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र २० रत्नप्रभा त० तैसे घ घनोदधि घ० घनवात त तनुवात ॥ १० ॥ इ० इस र० रत्नप्रभा का उ० आकाशांतर घ०धर्मास्तिकाया को किंक्या गो० गौतम सं० संख्यात वे भाग को फु० भाग को फुट स्पर्शे गो० गौतम सं० संख्यात वे भाग को फु· स्पर्शे नो० नहीं अ० को फु० स्पर्शे नो० नहीं संसंख्यात भाग को नो० नहीं अ असंख्यात भाग को नो० आकाशान्तर स० सर्व ज० जैसे र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी की व० वक्तव्यता भ० स्पर्शे अ० असंख्यात असंख्यात वे भाग नहीं स० सर्व को उ कही ए० ऐसे जा० तहा घणोदहिघणवायत्तणुत्रायावि ॥ १० ॥ इमीसेर्ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइ भागं फुसइ, असंखेज्जइ भागं फुसइ ? पुच्छा गोयमा संखेज्जइ भागं फुसइ, णो असंखेज्जइ भागं फुसइ, णो संखेज्जे, नो असंखेजे, नो सव्वं फुसइ. ॥ उवासंतराई सव्वाई जहा रयणप्पभाए पुढवीषु वत्तव्या भणिया जानना इसी तरह घनवात व तनुवात का जानना || १० || अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशान्तरको धर्मास्तिकाया क्या संख्यातवे भाग से स्पर्श कर रही है यावत् सब स्पर्श कर रही है ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशान्तर को धर्मास्तिकाय संख्यातवे भाग से स्पर्श कर रही है. जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी का आकाशान्तर कहा वैसे ही सातवी पृथ्वी तक के सत्र आकाशान्तर का जानना || ११|| ++ 4 दूसरा शतक का दशवा उद्देशा ३९१ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ४० अ० अधो स० सातमी नरक ॥ ११ ॥ जे. जंबदीपादि दी द्वीप ल० लवण समुद्रादि स० समुद्र एक ऐसे सो० सौधर्म देवलोक जा. यावत् इ० ईसत्पागभार पु० पृथ्वी ते वे अ० असंख्यातवे भा० भाग को फु. एवं जाव अहेसत्तमाए॥११॥ जंबूद्दीवाइया दीवा, लवणसमुद्दाइया समुद्दाएवं सोहम्मेकप्पे जाव इसिपब्भाए पुढवीए तेसव्वेवि असंखेजद्द भागं फुसइ । सेसा पडिसेहेयव्वा । एवं अधम्मात्थकाए एवं लोयागासेवि ॥ गाथा ॥ पुढवीउदहिघणतणू । क ३९२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जम्बूदीप आदि सब द्वीप, लवण समुद्रादि सब समुद्र, सौधर्मादि देवलोक से लेकर बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान, और ईषत्यागभार पृथ्वी इन सब को धर्मास्तिकाया का असंख्यातवा भाग स्पर्श कर रहा है परंतु संख्यातवा भाग व संख्यात व असंख्यात भाग में, वैसे ही सब धर्मास्तिकाय स्पर्श कर नहीं रही है. जैसे धर्मास्तिकाय की वक्तव्यता कही वैसे ही अधर्मास्तिकाया व लोकाकाश का जानना. सात पृथ्वी, सात घनोदधि, सात घनवात, सात तनुवात, बारह देवलोक, नव अवेयक, पांच अनुत्तर विमान, सिद्धशिला इन सब में जो आकाशान्तर है उन को धर्मास्तिकायादि संख्यातवे भाग में से स्पर्श कर रहे हैं. पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात व आकाश इन एकेक के सात २ सूत्र करने से १३५ हुए. बारह देवलोक के बारह, नव ग्रैधेयक के ३, पांच अनुत्तर विमान का १ और सिद्धशिलाकाई * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्यालाप्रसादजी * Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1 स्पर्शे से शेष ५० प्रतिषेध ए० ऐसे अ. अधर्मास्तिकाय ए. ऐसे लो० लोकाकाश ॥२॥ १० ॥ २॥ प्पागेवेजाणुत्तरासिद्धी संखजइ भागं अंतरेसु सेसा असंखेजा ॥ बिईयसयस्स दसमो - उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ १० ॥ विईयं सययं सम्मत्तं ॥ २ ॥ एक मीलकर ५२ हुवे. इन सब के आकाशान्तरको धर्मास्तिकायादिक संख्यातवे भाग से स्पर्शती है." शेष सब के आकाशान्तर को असंख्यातवे भाग से स्पर्शती है. यह दूसरे शतकका दशवा उद्देशा । हुवा ॥ २॥ १० ॥२॥ ११३ भावार्थ 843 पंचमाङ्ग विवाह पण्णाति ( भगवती ) सूत्र 488080 दूसरा शतकका दशवा उद्देशा 402 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्य ३९४ 2 अनुग्रदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ॥ तृतीय शतकम् ॥ के कैसी वि० विकुर्वणा च• चमर कि० क्रिया जा० यान स्थि: स्त्रीन. नगर पा. लोकपाल अभ अधिपति ई० इन्द्रिय प० परिषदा त तीसरा स० शतक में द० दशउद्देशा ॥१॥ते. उस काल ते.. उस समय में मो० मोया नामकी न० नगरी हो० थी व० वर्णनयुक्त ती० उत मो० माया नगरी व०बाहिर उ०ईशान कोन में नं० नंदन नाम का चेउद्यान हो था य०वर्णनयुक्त ते० उस काल ते० उस समय केरिस विउव्वणा, चमर, किरिय, जाणि,त्थि; नगर, पालाय। आहवइ, इंदिय,परिसा; तइयंमि सए दसुदेस॥ १॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नाम नयरीहोत्था,वण्णओ,तीसेणं मोयानयरीए बाहया उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए, नंदणे नामं चेइए होत्था, वण्णओ। तेणंकादुसरे शतकके अंतिम उद्देशे में अस्तिकायाका स्वरूप कहा. अब इस उद्देश में जीवास्तिकायका विचार कहते हैं. इस के दश उद्देशे बताते हैं.. जिन के नाम ? वैक्रेय करने की शक्ति व चमरेन्द्र आदि इन्द्रों का अधिकार २ चमर उत्पात अधिकार ३ कायिकादि क्रिया का अधिकार ४ वैकेय समुदात से देवता यान विकु सो साधु जाने ५ साधु बाहिर के पुद्गल ग्रहण कर स्त्री आदि के रूप विकुर्वे ६ साधु बाणारसी में समुद्घात करके राजगृह का रूप देखे ७ सोम आदि लोकपाल ८ असुरादि देव के कितने अधिपति १ इन्द्रिय का आधिकार १० चमर की परिषदा का अधिकार ॥ १॥ उस काल उस समय में मोया २ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी घालापसादजी * भावार्थ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन शब्दार्थ में सा. स्वामी स० समवसरण ५० परिषदा नि निर्गता ५० परिषदा ५० पीछीगई ॥२॥ ते• उस | काल ते. उस समय में स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर के दो दूसरे अं० अंतेवासी अ० अमिभूति अ० अनगार गो० गौतम गो० गोत्र से स० सात हाथ ऊंचे जा० यावत् प० पूजते ए. ऐसा व० बोले च. चमर भं० भगवन् 4. असुरेन्द्र अ० असुरराजा के० कितना म० महर्दिक म. महाद्यतिवन्त म०१० लेणं २ सामी समोसढे परिसा निग्गच्छइ, परिसा पडिगया ॥ २ ॥ तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी आरंगभूईणामं अणगारे, गोयम गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी चमेरेणं भंते ! असुरिंदे असुरराया के महिड्डीए,केमहज्जुईए,केमहाबले, के महायसे केमहासोक्खे, के महाणुभागे, भावार्थ नाम की नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ सूत्र में चंपा नाम की नगरी जैसे कहना. उस मोया नगरी की ईशान कौन में नंदन नामक उद्यान था. उस का वर्णन भी उववाइ जैसे जानना. उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरते उस नंदन उद्यान में पधारे. परिषदा धर्मोपदेश सुनने को आइog 50 और सुनकर पीछीगइ ॥१॥ उस काल उस समय में भगवंत के दूसरे शिष्य गौतम गोत्रीय सात हाथ की अवगाहनावाले आग्निभूति नामक अनगार श्री भगवन्त को वंदना नमस्कार यावर पर्युपासना करते पूछनेलगे कि अहो भगवन् ! चमर नामक अनुरका राजा असुरेन्द्र कितनी ऋद्धिवाला है, कितनी द्युतिवाला है, कितना 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8882 48488 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा -4882 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {बलवन्त म० महायशस्वी म० महानुभाग के कितना प० समर्थ त्रिविकुर्वणा करने को गो० गौतम च० चमर अ० असुरराजा म० महर्द्धिक जा यावत् म० महानुभाग से उन को त० तहां चो० चोत्तीस भ० भुवन स० लक्ष च० चौसठ सा०सामानिक स० सहस्र ता० तेत्तीस ता० त्रायत्रिंशक जा० यावत् वि० विचरते ए० ऐसे म० महर्द्धिक जा ० यावत् म महानुभाग || ३ || प० समर्थ वि० विकुर्वणा करने को से० (वह ज० जैसे जु० युवति को जु० युवान ह० हाथ गे० ग्रहण करे च० चक्र की ना० नाभी अ० आरा केवइयंचणं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! चमरेणं असुरराया माहड्डीए, जाव महाणुभागे सेणं तत्थ चोत्तीसाए भवणावास सय सहस्साणं चउसट्ठीए सामाणिय साहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं जाव विहरइ एवं महिदीए जाव महाणुभागे ॥ ३ ॥ एवइयं चणं पभू विकुव्वित्तए । से जहा नामए जुवतिं जवणे हत्थेणं हत्थं गेण्हेजा, चक्करबलवाला है, कितना सुखवाला है, कैसा महानुभागवाला है, और किस प्रकार कितने रूप करने को {समर्थ है ? अहो गौतम ! चमर नामक असुरेन्द्र महर्द्धिक यावत् महानुभागवाला है. उन को चौतीस लाख भुवन, चौसठ हजार सामानिक, और तेत्तीस त्रयत्रिंशक ऐसी ऋद्धि है ॥ ३ ॥ अत्र इन की वैक्रेय करने की शक्ति बताते हैं. जैसे काम से पीडित कोई युवान पुरुष अपने हस्त से युवति का हस्त पकडे, और जैसे चक्र की नाभि को आरे से पूरे अर्थात् चक्र की नाभि के छिद्र में आरा डाले ऐसे ही अहो गौतम ! भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ३९६ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HD ३९७ शब्दार्थ से उ० युक्त सि० होवे एक ऐसे गो० गौतम च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजा ० बैक्रय सही समुद्घात स. पूरे स० पूरकर सं० संख्यात जो योजन० ऊंचा दं. दंड को नि. निकाले तं. वह ज. नैसे र० रन जा. यावत् रि• रिष्ट अ० यथा बा० बादर पो० पुद्गल प० दूरकर अ० यथा सु०१ सूक्ष्म पो० पुगल ५० ग्रहणकरे दो दूनरी वक्त वे वैक्रेय स० समुद्घात से स. पूरे प० समर्थ मो० गौतम च. चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजा के केवल कल्प जे. जंबुद्धीप ब. बहुत अ० असुरकुमार दे० वानाभी अरगाउत्तासिया एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया वेउब्वियसमुग्धाएणं । समोहणइ समोहणइत्ता संखेजाणि जोयणाणि उड्डेदंडं निसिरइतंजहारयणाणं जाव रिट्ठाणं ____ अहा बायरे पोग्गले परिसाडेइ परिसाडेइत्ताअहासुहमे पोग्गले परियाइयइ, परियाइयइत्ता - दोच्चविवेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ,पभूणं गोयमा ! चमेरे असुरिंदे असुरराया केवलकप्पं भावार्थ नामक असुरेन्द्र वैकेय समुद्घात करे. वैक्रेय समुद्घात करके संख्यात योजन का ऊंचा दंड करे. बहुन दलवाला व शरीर जितना चौडा, जीव प्रदेश व कर्म पुद्गलों का समुह बनाये. उस में कर्केतनादि विविध 29 १ यद्यपि कर्केतनादिक रत्नके पुद्गल औदारिक शरीरमय हैं और वक्रय समुदूधात वैक्रेय पुद्गल ग्रहण करनेसे ई होती. परंतु यहॉपर रत्नसार पदार्थ होने से कतनादि जैसे पुदलों ऐसा अर्थ लेना. कितनेक ऐसाथी मकहते हैं कि उदारिक पने ग्रहण किये पुद्गल बक्रेय पने परिणमते है. पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भारती ) मूत्र mawammmmmmmmmmmmmmmmmm .तीसरा शतक का पहिला उद्देशान 8 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देव दे देवी से भा. व्याप्त वि० विशेष व्याप्त उ० आच्छादित सं• संथरित फु० प्रगट अ० मीले हुवेता 4. अवगाहे हुवे का करे अ० अथवा गो० गौतम प. समर्थ च०चमर अ० असुरेन्द्र अ०असुरराजा ति । तिळ अ० असंख्यात दी द्वीप स. समुद्र में ब. बहुत अ० असुर कुमार दे० देव दे. देवी से 'आ. व्याप्त वि० विशेष व्याप्त उ• आच्छादित सं० संथरित फु० प्रगट अ०मीले हुचे अ० अवगाहे हुवे जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारहिं देवेहिं देवीहिय आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थर्ड संथर्ड फुडं अरगाढावगाढं करेत्तए ॥ अदुत्तरंचणं गोयमा पभूणं चमरे असुरिंदे । असुरराया तिरियमसंखजे दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि देवीहिय आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथड़े फुडे अरगाढावगाढे करेत्तए; एसणं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो अयमेथारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए । णो चेवणं संपत्तीए भावार्थ प्रकार के पदल ग्रहण करे, उन ग्रह हुने पदलों में से निःसार बादर पदलों को दर करके यथायोग्य) 1 सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करे, और वांच्छितरूप बनाने के लिये दूसरी वक्त बैफ्रेय समुद्घात करे. अहो गौतम ! वह चमर नामक असुरेन्द्र अपने रूप से विकुर्वणा करके संपूर्ण जम्बूद्वीप भरे और बहुत असु कुमार के देवता, देवियों व तथा प्रकारके अन्य भी इच्छित रूप से एक लक्ष योजन का जम्बूद्वीप व्याप्त 1होवे, विशेष व्याप्त होवे, क्रीडा से आच्छादित, परस्पर संथरित, प्रगट, व परस्पर संश्लेषणा युक्त होवे. -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 पंचमाङ्ग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 40 क० करे ए० यह गो० गौतम च०चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुर राजा का ए० ऐसारूप वि०विषय वि० विषय मात्र बु० कहा गो० नहीं सं० संपत्ति वि० विकुर्वणा की वि० विकुर्वणा करे त्रिविकुर्वणा करेगा ॥ ४ ॥ ज० यदि मं० भगवन् च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजा ए० इतना म० महर्द्धिक जा०यावत् ए० ऐसे १० विकुव्विसुवा विकुव्वंतिवा, विकुव्विस्संतिवा ॥ ॥ जइणं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया ए महिड्डी जाव एवइयं चर्ण प्रभू विकुव्वित्तए चमरस्सणं भंते ! अमुरिंदर असुररण्णो सामाणियदेवा के माहिड्डीया जाव केवइयं चणं पभू विकुव्वित्तए ? गोयमा ! चमरस्त असुंररण्णो सामाणिय देवा महिड्डीया जाव महाणुभागा, तेणं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, जाव और भी अड़ो गौतम ! बहुत असुर के देव व देवियों से तिच्छे असंख्याते द्वीप समुद्र को आकीर्ण करने को यावत् परस्पर संश्लेषणा युक्त बनाने को चमर नामक असुरेन्द्र समर्थ है. परंतु इतना रूप बनाने की संपत्ति नहीं है. मात्र चमर नामक असुरेन्द्र की इतना वैक्रेय रूप बनाने की शक्ति है. इतने रूप उनोंने अतीत काल में नहीं किये हैं, वर्तमान में नहीं करते हैं और आगामिक में नहीं करेंगे ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जब चमर नामक असुरेन्द्र की इतनी ऋद्धि यावत् इतना वैक्रेय रूप करने की शक्ति है तो उनके सामानिक देवकी कितनी ऋद्धिब कितनी शक्ति है अर्थात् वे कितने वैक्रेय रूप करने को शक्तिवंत ++ तीसरा शतकका पहिला उद्देशा +4+ ३९९ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा समर्थ वि०विकुर्वणा करने को च० चमरेन्द्र का अ. असुरेन्द्र अ० असुर राजा का सा. सापानिक दे० देव के. कितना म० महर्दिक जा. यावत् के० कितना प. समर्थ वि० विकुणा करने को गो. गौतम च. चमर के अ० अमुर गजा के सा. सागानिक देव म० महर्दिक जा. यावत् म. महानुभाग सा. दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति, एवं महिड्डीया जाव एवइयंचणं पभू विकुवित्तए । से जहा नामए जुवइ जुवाणे हत्थेणं हत्थं गेण्हेजा, चक्करसवा नाभी अरया उत्तासिया एवामेव गोयमा ! चमरस्सवि असुरिंदरुस असुररण्णो एगमेगे सामाणिए देवे वेउब्विय समुग्धाएणं समोहणइ २ त्ता जाव दोच्चंपि वेउब्विय समुग्घा एणं समोहणइ पभूणं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो एगमगे सामाणिए भावार्थ अहो गौतम!चमर नामक असुरेन्द्र असुरराजा के सामानिकदेव चमरेन्द्र जैसे महाऋद्धिवंत यावत् महानुभाग वाले हैं. वे अपने २ भवन, सामानिक अग्रमहिषी वगैरह के दीव्य सुख भोगरते हुवे रहते हैं. और जिस प्रकार कामसे पीडित युवान पुरुष अपने हस्तसे युवती का हस्त ग्रहण करता है, अथवा जैसे चक्रकी मामी में आरा निविड रहता है, वैसे ही चमर नामक असुरेन्द्र के सामानिक देव वैक्रेय समुद्घात करे. उस में से लनिस्सार बादर पुगलों को छोडकर सूक्ष्म पुद्गलों ग्रहण कर इच्छित रूप बनाने को दूसरा वैक्रेय रूप बनावे. और अहो गौतम! वे एक २ सामानिक देव असुर कुमार के बहुत देवं देवियों के रूप बनाकर * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gr * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी. पालाप्रसादजी * Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 46- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र स्वतः के भ० भुवन सा० स्वतः के सा० सामानिकदेव सा स्वतः की अ० अग्रमहिषी जा० यावत् दि० दीव्य भो० भोग भोगवते वि० विचरते हैं ॥ ५ ॥ अ० असुरेन्द्र के ता० त्रायत्रिंशक देव ज० केवलकप्पं जंबूदी बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहिय आइण्णं वितिकिष्णं उवत्थड थडं फुडं अरगाढावगाढं करेंत्तए || अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवें तिरियमसंखेजे दीव समुद्दे बहूहिं असुर कुमारेहिं देवेहिं देवीहिय आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अरगाढावगाढे करेन्तए, एसणं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो एगमेगस्स सामाणि देवस् अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, णोचवणं संपत्तीए, विकुव्विसुवा, विकुल्विंतिवा, विकुव्विसंतिवा ॥ ५ ॥ जइणं भंते! चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो सामाणिय संपूर्ण जम्बूद्वीप को व्याप्त, विशेष व्याप्त, आच्छादित, यावत् प्रगट करने को शक्तिवंत हैं वैसे ही तिच्छे असंख्यात द्वीप समुद्र को व्याप्त यावत् प्रगट करने को शक्तिवंत हैं. अहो गौतम ! चमरेन्द्र के सामानिक का { मात्र यह विषय कहा परंतु उन को इतनी संपत्ति नहीं होने से उनोंने अतीत कालमें इतने वैक्रेय किया नहीं। (वर्तमानमें करते नहीं हैं. और आगामिकमें करेंगे भी नहीं ॥२॥ अहो भगवन्! चमरेन्द्र के सामानिक इतने महार्द्धक) * तीसरा शतक का पहिला उद्देशा - ४०१ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । जसे सा० सामानिक त तैसे में जानना लो. लोकपाल त० तैसे न० विशेष सं० संख्यात दी द्वीप स० समुद्र भा० कहना १० बहुत अ० असुर कुमार से आ० आकीर्ण जा. यावत् वि०विकुर्वणा करेगें ॥६॥ ज. यदि च० चमर के अ० असुरेन्द्र अ० अमुर राजाके लो० लोकपालदेव २० महर्दिक अ० अग्रमहिषी , देवाए महिढीया जाव एवइयंचणं पभू विकुन्वित्तए । चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स है असुररण्णो तावत्तीसया देवा केमहिढीया, वत्तीसया जहा सामाणिया तहा णेयव्वा॥ लोयपाला तहेव, नवरं संखेजा दीवसमुद्दा भाणियव्वा, बहुहिं असुरकुमारेहिं २ आइण्णे जाव विउव्विस्संतिवा॥ ६ ॥ जइणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो लोगपाला देवाए महिड्डीए जाब एवइयंचणं पभू विकुवित्तए, चमरस्सणं असुरिंदस्स यावत् महानुभागवाले वैसे ही इतने वैक्रेय करने की शक्तिवाले हैं तब चमरेन्द्र के प्रायत्रिंशक कितने महर्दिक यावत् कितने वैक्रेय करनेवाले हैं. अहो गौतम ! जैसे सामानिक का कहा वैसे ही प्रायशिक का जानना. और इसीतरह लोकपाल का जानना. मात्र इतना विशेष है की इसमें संख्याते द्वीप समुद्र लेना. वायत्रिंशक व लोकपाल संख्याते द्वीप समुद्र को असुर कुमार के देव व देवियों से व्याप्त करने को समर्थन हैं ॥ ६॥ अहो भगवन् ! जब चमर नामक असुरेन्द्र के लोकपाल इतने महर्द्धिक यावत् इतने वैक्रेय करने को शक्तिवंत हैं तब चमरेन्द्र की अग्रपहिषियों कितनी ऋदिवाली हैं और कितने रूप वैक्रेय बना प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी.* Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र - 48 पंचमांग विवाह देवी के कितनी म. महर्दिक ज जैसे लो० लोकपाल अ० अवशेष स. वह ए०ऐसे भ० भगवन् ॥ ७॥ भ० भगवान् दो० दुसरा गो० गौतम स० श्रमण भ० भगवन्त ममहावीर को वं. वंदना कर न.10 असुररण्णो भंते अग्गमहिसीओ देवीओ के महिढीयाओ जाव केवइथंचणं पभू विउवित्तए? गोयमा !चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओमहिढीयाओ जाव महाणुभागाओ, ताओणं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं च सामाणिय साहस्सीणं,साणं साणं महत्तरियाणं,साणं साणं परिसाणं जाव महिढीयाओ अण्णं जहा लोगपालाणं, अपरिसेसं ॥सेवं भंते २ ! त्ति ॥७॥ भगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसइत्ता जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूई अणगारे तेणेव उवागसकती हैं ? अहो गौतम ! चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों महा ऋद्धिवाली यावत् महानुभागवाली हैं. वे अपने २ भुवन, अपने २ सामानिक देव, अपनी २ महत्तरिक देवियों, अपनी २ परिषदा की ऋद्धिवाली हैं वगैरह लोकपाल जैसे सब अधिकार कहना. इतना सुनकर गौतम गोत्रीय दूसरे गणधर : अग्निभूति बोले कि अहो भगवन् ! जो आप कहते हैं वह सत्य है. जैमा आपका कथन है वैसा ही वस्तुस्वरूप है ॥७॥ इतना कहकर, श्रीश्रमण भगवंतको वंदना नमस्कार करके अग्निभूतिने तीसरे गणधर गौतम गोत्रीय श्री.बायुभूति की पास आकर कहा कि अहो गौतम: चमर नामक अमुरेन्द्र की ऋद्धि। *8048 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा 8th भावार्थ श्री Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + नमस्कारकर जे. जहां तक तीसरा गोल गौतम वा. वायुभूति अ. अनगार ते. तहां उ० आकर न०: तीसरा गो० गौतम वा० वायुभूति अ० अनगार को एक ऐसा व कहा एक ऐसे ख. निश्चय गोभी गौतम च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुर राजा म. महर्दिक तं० उमको एक ऐसे स० सर्व अ. विना पूछे वा० कथन ने० जानना अ० संपूर्ण जा. यावत् अ० अग्रमहिषी व वक्तव्यता स० संपूर्ण ॥८॥ इत. तब से वह त० तीसरा गो० गौतम वा वायुभूति अ० अनगार को दो० दूसरा गो. गौतम अ०१ अग्मिभूति अ०अनगार ए०ऐसे आ०कहतेको भा बोलते को प०विशेष कहतेको प० प्ररूपते को ए यह अर्थ च्छइ २ त्ता, तच्चं गोयम वायभई अणगार एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया ए महिट्ठीए तंव एवं सव्वं अपुटुं वागरणं नेयव्वं अपरिसेसं जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया सम्मत्ता ॥८॥ तएणं से तच्चे गोयमे वायुभूई अणगार दोच्चस्स गोयमस्स आग्गभूयस्स अणगारस्स एव माइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्ण वेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमद्रं नो सद्दहइ नो पत्तियइ, नो रोयइ; एयमटुं असद्दहयावत् वैक्रेय करनेकी इतनी शक्ति है. यावत् अग्रमहिषियोंतक का सब अधिकार ऐसा है. इस तरह जैसे भगवन्तने फरमाया था वैसा संपूर्ण अधिकार वायुभूति अनगारको कहा ॥ ८॥ इस तरह अग्निभूतिने जो कहा उस के अर्थ की श्रद्धा, प्रतीति व रुचि वायुभूति अनगार को हुई नहीं और श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं होने से . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्र शब्दार्थ नो० नहीं स० श्रद्धा नो० नहीं प० प्रतीत हुवा नो० नहीं रो० रुचा उ० स्थान से उ० उठकर जे. | माणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे उट्ठाए उटेइ उट्टेइत्ता, जेणेव समणे भगवं महा वीरे तेणेव जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मम दोच्चे गोयमे अग्गिभई अणगारे एवमाइक्खड भासद पण्णवड परूवइ परूबइत्ता, एवं खल गोयमा! असरराया ए महिदीए जाव महाणभागे. सेणं तत्थ चोत्तीसाए भवणावास सयसहस्साणं तंचेव सव्वं अपरिसेसं भाणियव्वं जाव अग्गमहिसीओ वत्तव्वया ___सम्मत्ता ॥ से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमादि समणे भगवं महावीरे तच्चं गोयमं वाउभूई अणगारं एवं वयासी-जण्णं गोयमा ! तव दोचे गोयमे आग्गिभूई अणगारे अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास गये. वहां जाकर वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना कर ऐना बोले ओ भगान् ! मुझे दूसर गोतम गोत्रीय अग्निभू ते नामक अनगार ऐसा कहो हैं. यावत् प्ररूपते हैं कि चमर नामक असुरेन्द्र महर्दिक यावत् महानुभागवाले हैं. चौत्तीस लाख भुवन के मालीक हैं वगेरह अग्रमहिषियों तक सब संपूर्ण अधिकार कहा और पूछा कि अहो भगवन् ! यह किम Vतरह है ? फीर श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने वायुभूति अनगार को ऐसा कहा कि अहो गौतम! तुम को सरे गौतम योषीय अमिभूति अनगारने ऐसा कहा कि चमरेन्द्र महर्द्धिक यावत् महानुभागवाले हैं यावत् । 42 पंचांग विवाह पण्णसि ( भवगती) सूत्र 3484.8 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा824310 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋपिजी 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि जहां म० श्रमण भ० भगवत म. महावीर ते० तहां जा० यावत् प० पूजते ९० ऐसा व० बोले ॥१॥ एवमाइक्खइ ४ । एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिंदे असुररायामाहड्डीए सोचेव सत्वं जाव अग्गमाहसीओ। सच्चेणं एसमटे, अहंपिणंगोयमा! एव माइक्खामि भासामि पण्णवेमि परूवेमि एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे अमुरराया माहट्ठीए सो चेव बितिओ गमो भाणियब्वो ! जाव अग्गमहिसीओ सच्चेणमेसअटे, सेवं भंते भंते! त्ति तच्चे गोयमे वायुभई अणगारे समणं भगवं वंदइ वंदइत्ता जेणेव दोच्चे गोयमे आग्गभृती अणगारे तेणेव, उवामन्छइ उवागच्छइत्ता दोच्चं गोयमं आग्गिभूइं अणगारं वंदइ नमसइ नमसइत्ता, एयमलृ सम्मं विणएणं भुजा भुजो खामेइ ॥ ९ ॥ तएणं अग्रमाहषियों नक का सब अधिकार ऐसा है. अहो गौतम ! यह अर्थ सत्य है. और मैं भी ऐसा ही कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं. और यह अर्थ भी सत्य है. अहो भगवन ! आपका वचन सत्य है ऐसा कहकर वायुभूति अनगार भगवन्त श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर अग्निभूति नामक दूसरे गणधर की पास आये आकर दूसरे गणधर श्री अग्निभूति को वंदना नमस्कार कर कहने लगे कि मैंने आप के वचन मुनकर श्रद्धे नहीं यावत् आप के वचन की प्रतीति की नहीं इसलिये मैं: आपकी पुनः पुनः क्षमा याचता हूँ॥९॥ फीर अग्निभूति अनगार की साथ वायुभूति अनगार श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी *काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4848 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र [ त०] तब से वह त० तीरा गो० गौतम वा० वायुभूति अ० अनगार दो० दुसरा गो० गौतम अ० अभिभूति अ० अनगार की स० साथ जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर जा० यावत् प० { पूजते ए० ऐसे व० बोले ज० यदि भं० भगवन् च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुर राजा म० महर्द्धिक ना०यावत् प० समर्थ वि०विकुर्वणा करने को वचलेन्द्र भं० भगवन् व वैरोचन व ० वैरोचनराजा के ० कितना म० महर्द्धिक ज० जैसे च० चमर का त० तैसे ब० बलेन्द्र का ने० जानना ० विशेष सा० अधिक के० से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अंग्गिभूइणा अणगारेण सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे जात्र पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइणं भंते चमरे असुरिंदे असुन या ए महिड्डीए जाव एवइयं च णं पभू विकुन्वित्तए । वलीणं भंते ! वइरोयनिंदे वइरोयणराया केमहिड्डीए जाब केवइयंचणं पभू विकुव्वित्तए ? गोयमा ! बलीणं वइरोयणिंदे वइरोयणराया महिड्डीए जहा चमरस्स तहा बेलिस्सा यन्त्रं { की पास गये और वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना कर ऐसा बोले. अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र इतना महर्दिक यावत् इतने वैक्रेयरूप करने को शक्तिवंत है तो बलि नामक वैरोचनेन्द्र कितना महर्द्धिक यावत् कितने वैक्रय करने को शक्तिवंत हैं ? अहो गौतन ! जैसा चमरेन्द्रका कहा वैसा ही बलि नामक वैरोचनेन्द्र का जानना. विशेष इतना कि यह देव देवियों से कुछ अधिक जम्बूद्वीप भरे, शेष सत्र पूर्वोक्त जैसे +8+42 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा +8+++ ४०७ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी केवल कल्प ज. जंबूद्वीप भा• कहना से० शेष तं तैसे णि निर्विशेष णे जानना णा. नाना प्रकार जा० जानना भ० भवन सा० सामानिक से स. वह ए. ऐसे भं. भगवन् त. तीसरे गो० गौतम वाota वायुभूति अ० अनगार वि. विचरते हैं ॥ १०॥ त तब दो० दूसरे गो. गौतम अ. अमिभूसि अ० अनगार स० श्रमण भ० भगवन्त को वं० वंदना कर ए० ऐसा व० बोले ज० यदि ब..बलि ५० णवरं साइरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं भाणियव्वं, सेसंतंचव णिरवसेसं णेयन्वं, णवरं । णाणत्तं जाणियव्वं, भवणेहिं, सामाणिएहिं सेवं भंते भंते! ति, तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे जाव विहरइ ॥ १० ॥ तएणं से दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ वंदइत्ता एवं वयासी, जइणं भंते ! बली वइरोयणिंदे वइरोजानना. बलि नामक वैरोचनेन्द्र को तीस लाख भुवन व साठ सहस्र सामानिक देवता जानना.. भगवन् ! जैसे आप कहते हैं वैसे ही हैं. इस तरह सुनकर वंदना नमस्कार करके श्री वायुभूति अनगार विचरने लगे ॥ १० ॥ पुनः अग्निभूति नामक अनगारने श्रमण भगवंत महावीर को वंदना नमस्कार करके ऐसा प्रश्न पूछा कि अहो भगवन ! बाल नामक वैरोचनेंद्र इतना महर्दिक यावत् इतने वैक्रेय रूप करने को समर्थ है तब अहो भगवन् ! धरणेन्द्र नामक नाग कुपारेन्द्र कितना महर्दिक यावत् कितने वैक्रय रूप, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ4. वैरोचनेन्द्र ३० वैरोचन :राजा म. महर्दिक प० समर्थ जा० यावत् वि० विकुर्वणा करने को ध० । धरणेन्द्र ना. नागकुमारेन्द्र ना० नागकुमार राजा के कितना म० महर्दिक जा. यावत् के० कितना प. समर्थ वि. विकुर्वणा करने को गा गौतम म० महर्दिक जा. यावत् त. तहां चो० चौंवालीस भ.. भुवन स० लाख छ० छ सा० सामानिक स• सहस्र ता० तेत्तीस ता. वायत्रिंशक च• चार लो• लो____यणराया ए महिड्डीए पभ जाव विउव्बित्तए धरणेणं भंते ! नागकुमारिंदे नाग कुमारराया केमाहड्डीए जाच केवइयं चणं पभ विउवित्तए ? गोयमा ! महिड्डीए जाव सेणं तत्थ चोयालीसाए भवणवाससयसहस्साणं छण्हं सामाणिय साहस्सीणं, ___ तावत्तीसाए ताबत्तीसगाणं चउपहं लोगपालाणं, छण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं; तिहं परिसाणं, सत्तण्हं आणियाणं, सत्तण्हं अणीयाहिबईणं, चउवीसाए आयरक्ख: करने को समर्थ है ? अहो गौतम ! धरण नामक नाम कुमारेन्द्र को ४४ लाख भुवन, छ हजार सामानिकदेव इतेत्तीस त्रायशिक, चार लोकपाल, परिवार सहित छ अग्रमाहषियों, तीन परिषदा, सात अनिक, सात अ.} १निक के अधिपति, चौवीस हजार आत्मरक्षक देव और अन्य भी अनेक प्रकार के देवों की ऋद्धि है. और जैसे काम पीडित पुरुष युक्ती का निरंतर हस्त ब्रहण कर रखता है या गाडे की नाभी में पारा रहता है वैसे ही नाम कुमार रत्नादक सार पदलों को ग्रहण कर दैत्रेय बनावे. उस में से बादर पुगसो । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र तीसरा शतक का पहिला उद्देशा म Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथ पजी सूत्र अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक कपाल छह अग्रमापी ग परिकार माहन नि: नीन प. पम्पिदा म मा आनक मा मान अनिक के अधिपति च चौवीस आ आन्नरक्षा दय मा. महम्र . अन्ग जा यावत् वि. विनाते है. ॥ " : पसे जा. यावत यः स्थनित कुमार ना वाणव्यंतर जो ज्यातिषी णः विशेष दा० देव साहमीण, अन्नसिंच जाव विहरत, एवइयंचणं पभ विउवित्तए । मे जह। नामए जुबइ जवाणे जाव पभ केवलकापं जंबृहीवं दीवं जाव तिरिय संखजे दीव समुहे बहि नाग कुमारीहिं जाव विउविस्मंतिया । सामाणिय तावत्तीस लोगपाल, ____ अग्गमहिसीओय तहेव जहा चमरम्म णवरं संखजे दीवसमुद्दे भाणियव्यं ॥ ११ ॥ ____ एवं जाव थाणियकुमारा ॥ वाणमंतर जोइसियावि, णवरं दाहिणिल्ले सव्वे आग्गिभूई को छोडकर दूसरी वक्त वैक्रेय वनावे और एक लाख योजन का जम्बूदीप यावत ति; संख्याते द्वीप समुद्र को देव देवियों के नविन प बनाकर भर देव. इनके सामानिक, त्रायत्रिंशक, लोकपाल व अग्रमाहषियों का चमरेन्द्र जैसे जानना. इस में संख्यात द्वीप समुद्र पर उतने वैक्रय रूप बनाने की शक्ति है वैमा कहना ।। ११ ॥ ऐसे ही शेष सब भुनपति वाणव्यंतर व ज्योतिषि का जानना. इस में इतना अधिक जानना कि उना दिशाके देवता मंबंधी प्रश्न वायुभूतिने पुछा है और दक्षिण दिशा मंबंधी मव प्रश्न प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ -4 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दक्षिण का स. सर्व अ० अग्रिभूति पु० पूछे उ० उत्तर का स• सर्व वा० वायुभूति पु० पूछे ॥१२ ॥ मं० 189भगवन् ति० ऐसे भ० भगवन्त भो० गौतम दो० दूसरा अ० आग्निभूति अ० अनगार स. श्रमण भ०/ भगवन्त को वंदना कर न. नमस्कारकर ए. ऐसे व० बोले ज. यदि भं. भगवन् जो. ज्योतिषी राजा म० महर्दिक जायावत् प० समर्थ वि० विकुणा करने को सशक्रेन्द्र भ० भगवन् दे० देवेन्द्र दे० देव राजा के.कितना ममहर्दिक जा. यावत् के० कितना प. समर्थ वि० विकर्वणा करने को पुच्छइ, उत्तरिल्ले सन्वे वायुभई पुच्छइ ॥१२॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे दोच्चे आग्गिभई अणगारे समणं भगवं वंदइ नमसइ नमसइत्ता, एवं वयासी जइ णं भंते ! जोइसिंदे है जोइसराया ए महिड्डीए जाव एवइयंचणं पभूविउवित्तए सक्केणं भंते ! देविंदे देवराया है के माहिड्डीए जाव केवइयं चणं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! सक्कणं देविंदे देवराया माहिढीए जाव महाणुभागे सेणं बत्तीसाए विमाणावास सय सहस्साणं, चउरासीए अमिभूतिने पूछा है॥१२॥ पुनः अभिभति नामक गणर प्रश्न करते हैं कि अंहो भगवन् : जब ज्योतिषीका इन्द्र इतनी ऋद्धिवाला यावत् इतना वैक्रेप कर सकता है तब शक्रेन्द्र कितनी ऋदिवाला यावतूर कितना वैकेप कर सके ? अहो मौतम ! शक्रेन्द्र को बत्तीस लाख विमान, चौरासी हजार सामानिक किस से चौगुमे आत्मरक्षक, और अन्य भी परिवार कहा है. वैक्रेप करने की शक्ति वगैरह चमरेन्द्र जैसा पंचङ्ग डिववपण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 488+ 488-तीसरा शतकका पहिला उद्देशा + Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 12 अनुवादक- ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 80% गो. गौतम स. शक्रेन्द्र दे० देवेन्द्र दे. देवराजाम महाक जा. यावत् म. महानुभाग ब. बत्तीस वि० विमान स• लक्ष च० चौरासी सा० सामानिक सा. सहस्र जा. यावत् च. चार च० चौरासीम आ० आत्मरक्षक सा० सहस्र अ अन्य जा. यावत् वि. विचरते हैं ॥१३॥ ज. यदि भं. भगवन् १ स शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा म. महाक जा. यावत् प० समर्थ वि. विकुर्वणा करने को दे देवानुपिय का अं० अंतेवासी ती. तिष्यक अ० अनगार प० प्रति भद्रिक जा. यावत् वि. विनीत छ । सामाणिय साहस्तीणं, जाव चउपहं चउरासीणं आयरक्खदेवं साहस्सीणं अण्णसिंच जाब विहरइ, ए महिढीए, जाव केवइयं चणं पभू विकुवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, णवरं दोकेवलकप्पे जंबूद्दीवे दीवे, अवसेसं तंचव एसणं गोय. मा ! सक्करस देविंदस्स देवरो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए णो चेवणं संपत्तीए, विकुविसुवा, विकुव्वइवा, विकुव्विस्संतित्रा, ॥ १३ ॥ जइणं. भंते ! कहना परंतु बहुत देव देवियों के रूप व अन्य अनेक प्रकार के रूप से दो जम्बूद्वीप संपूर्ण भर देवे इतनी शक्ति है परंतु संपत्ति नहीं है. ऐसा किसीने किया नहीं है, करते नहीं हैं और करेंगे भी नहीं ॥ १३ अहो भगवन् शक्रेन्द्र ऐसी ऋद्धिवाले यावत् इतना वैक्रेय रूप करने को शक्तिवंत. हैं तब आपका अंतेवासी प्रकृतिभद्रिक यावत् विनीत निष्यक नामक अनगार निरंतर छउ छठ के तप से आत्मा को भारते हुवे । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी घालाप्रसादनी भावार्थ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ | छट भक्त से अ० अंतर रहित त तप कर्म से अ० आत्मा को भा० भावने हुवे व बहुत १० प्रतिपूर्ण अ आठवर्ष सा० दीक्षा पर्याय पा० पालकर मा० मासकी सं० संलेखना से अ० आत्मा को झू० झूसकर स०साठ भक्त अ० अनशन छे छेदकर आं० आलोच कर १० प्रतिक्रमणकर स० समाधि प्राप्त (का० काल के अवसर में का० काल करके सो० सौधर्म देवलोक में स० अपने वि० विमान में उ० उपपात संक्के देविंदे देवराया ए महिंदीए जाव एवइयं चणं प्रभुविकुव्वित्त एवं खलु देवापुप्पियाणं अंतेवासी तीसएनामं अणगारे पगइभद्दए जात्र विणीए छटुं छट्टेणं आणि क्खित्तेणं तवो कम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई अट्ठ संवच्छराई सामपरियागं पाउणत्ता, मासियाए संलेहणाए अपाणं झूसित्ता, सठिभत्ताई अणसणाए छेदित्ताई अणसणाए छेदित्ता, आलोइय पडिते समाहिपत्ते कालमासे कापूर्ण आठ वर्ष तक साधु की पर्याय पालकर, एक मास की संलेखना से आत्मा को झोंस कर, साठ भक्त {अनशन करके, आलोचना प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त हुए; और काल के अवसर में काल करके सौ{ धर्म देवलोक में तिष्यक नामक विमान में उपपात सभा की देवशैय्या में देव दृष्य वस्त्र नीचे अंगुल के असंख्यातत्रे भाग प्रमाण की अवगाहना से शक्रेन्द्र देवेन्द्र के सामानिक देवतापने उत्पन्न हुए; वहां उत्पन्न { होकर आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति; श्वासोश्वास पर्याप्ति व भाषा मन पर्याप्ति ऐसी पांच 43+3 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सूत्र 49 तीसरा शतकका पहिला उद्देशा ४१३ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाधी " M 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी" सभा में है। सभा में दे० देवशय्या में दे० देवदष्य के अंतर में अं: अंगुल के अ० असंख्यातवे भा० भाग मात्र ओ ला अवगाहना.स. शक्रेन्द्र के दे० देवेन्द्र दे० देवराजा के सा० सामानिक दे० देवपने उ० उत्पन्न हुवा इत० तब ती० तिष्यकदेव अ० तुर्त का उ० उत्पन हवा पं० पांच प्रकार की प. प्राप्ति से प० प्रयोति भाव को ग० जावे आ० आहार पर्याप्ति स०. शरीर इं० इंन्द्रिय आ. श्वासोश्वास पर्याप्ति भा० भाषा . लंकिच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उक्वायसभाए देवसयाणिजसि देवसंतरिए अंगुलस्स असंखेज भागमेतीए ओगाहणाए, सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणिय देवत्ताए उचवण्णे ।तएणं तीसए देवे अहुणोव वण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पज्जुत्तीए पजत्ति भावं गच्छइ तंजहा आहारपजत्ती सरीर इंदिय आणापाणपज्जत्तीए, भासामणपजताए। तएणं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तभावं गयं समाणं सामाणिय परिसोव वण्णया देवया करयल परिग्गाहयं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वदावेइ वढावेदता एवं वयासी अहोणं देवाणुप्पिएहिं दिव्वं देविट्ठी, पर्याति से पर्याप्त बने. उन पर्याप्त बने हुवे देव को सामानिक परिषदावाले देवोंने हस्तद्वय जोकर दश नख एकत्रित करके मस्तक को आवर्तन करके "जय-विजय" शब्दों से वधाये. वधाकर ऐसा बोले अहो ! आप देवानुप्रिय को दीव्य देव ऋद्धि, देवद्युति, व देवानुभाव. प्राप्त हुवा है. जैसे आप को दीव्यदेव ऋद्धि, द्युति व महानुभाव है वैसे ही शक्रेन्द्र को है और जैसे शक्रेन्द्र को दीव्य देव ऋद्धि कांति * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी* भावार्थ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्दार्थ * मनःपर्याप्ति त• तब ती. तिष्यकदेव को पं० पांच प्रकार की प०पर्याप्ति के प०पर्याप्तिके भाव को, म गये हुचे सा० सामानिक प० परिषदा में उ० उत्पन्न हुवे दे० देव क० करतल ५० जोडकर द. दशनखति | शिर्षसे आ० आवर्तन म० मस्तक से अं० अंजली करके ज. जय वि. विजय से व० वधाकर एक ऐसार दिव्यादेवजुत्ती, दिव्वे देवाणुभावे, लढे पत्ते आभिसमण्णागए जारिसाणं देवाणुप्पि- १ एहिं दिव्वा देविड़ी, देवजुत्ती, दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते आभिसमण्णागए, तारिसियाणं सक्केणं देविदेणं देवरण्णो दिव्वादेविट्ठी जाव आभिसमण्णागया,जारिसिणं सक्केणं देविं देणं देवरण्णो दिव्वादेविढि जाव आभिसमण्णागया, तारीिसियाणं देवाणुप्पिएहिं दिव्वादेविठ्ठी जाव आभिसमण्णागया सेणं भंते तीसए देवे के महितीए आव केवइयं चणं पभू विकुम्वित्तए ? गोयमा ! महिलाए जाव महाणुभागे, सणं तत्य सयस्स विमाणस्स चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं चउण्हं. अगमहिसीणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिबईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेव साहस्सीणं, अण्णसिंच बहूणं वेमाणियाणं देवाणय जाव विहरई, ए महि वगैरह है वैसे ही आप को है. अहो भगवन् ! ऐसा तीसक नामक देवता कितनी ऋद्धिवाला यानत। कितने रूप वैकेय करने को समर्थ है! अहो गौतम! वह अपने विमान चार हजार सामानिक देवता, चार अग्रमाहषियों, तीन परिषदा, सात अनिक, सात अनिक के अधिपति, सोलह हजार मात्म- पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र-488+ mmammar तीसरा शतक का पहिला उद्देशा भावाथ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ व० बोले अ० अहो दे देवानुप्रिय दिदीव्य दे० देवऋद्धि दे० देवाति दि०दीव्य देवानुभाव ललब्ध ५०१ प्राप्त अ० सन्मुख हुवे ।। १४ ॥ ज० यदि भं० भगवन् ती तिष्यकदेव मा महर्द्धिक जा० यावत् म० १. ढीए जाव एवइयं चणं पभू विकुवित्तए, से जहानामए जुबइ जुवाणे हत्थे गेण्हेजा, जहेव सक्कस्स तहेव जाव एसणं गोयमा ! तीसयरस देवस्स अयमेयारूवे. है विसए विसयमेत्ते वुच्चइ, नो चेवणं संपत्तीए विकुर्दिवसुवा ३ ॥ १४ ॥ जइणं भंते तीसए देवे महिठ्ठीए जाव एवइयंचणं पभ विकवित्तए । सकरसणं भंते ! दोविंदस्स देवरण्णो अवसेसा सामाणिया देवा के महिढीया तहेव सब्बं जाव एसणं गोयमा ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो एगमेगस्स सामाणियस्त देवस्स: इमेयारूवे. रक्षक देव, और बहुत अन्य देवता का स्वामी है और वैज्रय करने की शक्ति शक्रेन्द्र जितनी है. यह मात्र विषय परंतु इतनी संपत्ति नहीं है ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! जब तिष्णक नामक देवता इतना मह- . इर्दिक यावत् इतने वैकेय रूपं करने को शक्तित्रत है. तब अन्य सामानिक देव कितने महर्दिक यावत् . कितने वैक्रेय रूप करने को समर्थ हैं ? अहो गौतम ! शकेन्द्र के एक २ सामानिक -देव तिष्यक देव जितनी ऋद्धिवाले हैं. और वैकेय का विषय तीष्यक देव जितना है परंतु इतनी संपत्ति नहीं है. इसने रूप अतीत काल में किये नहीं, वर्तमान में करते नहीं हैं और आगामिक में करेंगे नहीं. उन के त्रायात्रा प्रकाशेक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी * भावार्थ 1 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 988 4862 ४१७ शब्दार्थ समर्थ वि० विकुर्वणा करने को स० शक्र के अ० अशेष सा० सामानिक दे० देव के कितनें म. महर्दिक त तैसे स० सर्व जा० यावत् ए. यह गो० गौतम स० वह ए. ऐसे भं० भगवनू ति० ऐसे १. दो० दूसरे गो० गौतम जा० यावत् वि. विचरते हैं ॥ १५ ॥ भं० भगवान त० तीसरा गो० गौतम वा० वायुभूति अ० अनगार स० श्रमण भ० भगान्त जा. यावत् ए० ऐसा ब० बोले- ज० यदि भं भगवन् ॐ स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा जा. यावत् प० समर्थ वि. विकुर्वणा करनेको ई० ईशान दे० देवेन्द्र दे० विसए विसयमेत्ते बुइए णोचेवणं संपत्तीए विकुर्दिवसुवा ३ तावत्तीसया, लोगपाला, अग्गमहिसीणं, जहेव चमरस्स णवरं दो केवलकप्पे. जंबूद्दीवे दीवे अण्णं तंचेव ॥ सेवं भंते भंते त्ति दोच्चे गोयमे जाब विहरइ ॥ १५ ॥ भंते त्ति भगवं तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं आव एवं वयासी जइणं भंते ! सक्के देविंदे - देवराया जाव माहिट्ठीए एवइयं चणं पभ विकुवित्तए । ईसाणेणं भंते ! देविंदे देवशक, लोकपाल, अग्रमहिषी का अधिकार चपरन्द्र जैसे कहना. परंतु ये दो जम्बूदी। वैक्रय रूप से भरने को समर्थ हैं. अहो भागवन् ! आपके वचन वैसे ही हैं ऐसा कहकर अग्निभूति अनगार विचरने लमे ॥ १५ ॥ अव वायुभूति नामक अनगार श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे बोले कि 'अहो भगवन् ! जब शक्रेन्द्र इतनी ऋद्धिवाले हैं गावत् इतने रूप क्रेय कर सकते हैं तब ईशा २. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र तीसरा शतकका पहिला उद्देशा-400 भावाथे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी देवराजा के कितने म. महर्द्धिक ए. ऐसे ण. विशेष सामाधिक दो दो के मंपूर्ण जं जंबूदीप * अ० अवशेष त० तमे ॥ १६ ॥ ज. यदि भं० भगवन ई. ईशान दे देवेन्द्र म. महर्दिक ना. यावत प. समर्थ वि. विकर्वणा करने को दे देवानुप्रिय का अं अंतेवामी कु. कुरुदत्नपुत्र अ. अनगार प. प्रकृति भद्रिक जा. यावत वि. विनीत अ. अटभक्त मे अ० अंतर रहित पा पारणा में आ• आयंबिल ० परिग्रह त तप कर्म से उ० ऊर्थ बाहुप. करके मू. मूर्याभिमुख आ. आतापना भू: भूमि आ० राया के महिढीए एवं तहेव, णवरं साहिए दो केवल कप्पे जंबद्दीवेदीवे अवसेसं तहेव ॥ १६ ॥ जइणं भंते : ईसाणे देविंदे देवराया ए महिढीए जाव एवइयं चणं पभू विकुवित्तए एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नाम अणगारे पगइभदए जाव विणीए अट्ठमं अटुमेणं अणिक्खित्तेणं पारणए आयंबिल परिग्ग हिएणं नवो कम्मेणं उद्धं बाहाओ पगिझिय, २ सराभिमुहे आयावणभमीए आयावे. नेन्द्र कितनी ऋद्धिवाले हैं यावत कितने रूप वैक्रय करसकते हैं? अहो गौतम : जैसे शकेन्द्र का कहा वैसे ही ईशानेन्द्र का जानना. मात्र इसमें विशेष इतना है कि साधिकदो जम्बूद्वीप को वैक्रेय रूपसे भरे ॥१६॥ अहो भगवन् ! जब ईशानेन्द्र इतना महर्दिक यावत् इतने वैक्रय रूप करने को समर्थहैं तब आपका अंतेवासी (शिष्य) कुरुदत्त पुत्र नामका अनगार प्रकृति का भद्रिक यावत् विनीत अटम अउम के (तेले तेले) निरंतर * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 8 पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र www आतापनालेते ५० प्रतिपूर्ण छ, छमास की सा. साधु पर्याय पा० पालकर अ० अर्धमास की सं० सले}41 खना से अ० आत्मा को झू० झूसकर ती० तीसभक्त अ० अनसन छे० छेदकर आ० आलोचकर ५०% प्रतिक्रमण कर स० समाधि को प्राप्त का० काल के अवसर में का• काल करके ई. ईशान देवलोक में स० स्वतः के विपान में जा० उत्पन्न हुवे व० कहना स० सर्व अ० निर्विशेष कु० कुरुदत्तपुत्र ए. विशेष सा० अधिक दो दो के. संपूर्ण जं. जंबूदीप अ० अवशेष ॥ १७ ॥ ए. ऐसे सा० सामानिक है "माणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्ण परियागं पाउणित्ता, अद्वमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झसइत्ता, तीसं भत्ताइं अणसणाई छेदित्ता आलोइय पडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे सयंसि विमाणसि जाइसए वत्तव्वया, सव्वेवि अपरिसंसा कुरुदत्तपुत्तेवि, णवरं सातिरेगे दो केवल कप्पे जंबूद्दीवे दीवे, अवसेसं पारणे ओर पारणे के दिन आयंबिल ग्रहण करना ऐसे तपकर्म से अर्ब भुना रखकर, सूर्य की सन्मुख आतापना भूमि में आतापना लेते पूर्ण छ मासतक साधुना पालकर, पंदरह दिन का संथारा सहित तीस भक्त अनशन युक्त आलोचना प्रतिक्रमण करते हुवे काल कर गये. काल करके ईशान कल्प में अपने विमान में देवतापने उत्पन्न हुए, वहां से आगे सब अधिकार तिष्यक देवता जैसे कहना. इस में विशेषता इतनी कि कुरुदत्त देवता वैक्रेय रूप से साधिक दो जम्बूद्वीप को भरे ॥ १७ ॥ ऐसे ही अन्य सामानिक wwwwwwwwwwwwwwwwwww तीसरा शतकका पहिला उद्देशा8488 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 ता. पायनिक लो० लोकपाल अ अनमहिषी जायावत् वि०विकुर्वणा की ॥१८॥ ए०ऐसेस सनत्कुमार • विशेष च० चार के संपूर्ण जं जंबूदीप अ. अथवा ति. तिर्छा अ० असंख्यात ए. ऐसे सा० सामानिक ता. नाशिक लो. लोकपाल अंक अग्रमहिपी अ. असंख्यात दी.द्वीप समुद्र स० सर्व वि.विकुर्वे स० सनत्कुपार से उ० उपर के लो. लोकपाल तसर्व अ. असंख्यात दी. द्वीप समुद्र वि० विकुर्वे एक ऐसे मा० माहेन्द्र ण विशेष सा० अधिक च० चार के. संपूर्ण जं. जंबुदीप बं० तंचेव ॥ १७ ॥ एवं सामाणिय तावत्तीसग लोगपाल. अगमहिसीणं जाव एसणं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो, एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए बिसयमेत्ते बुइए । णो चेवणं संपत्तीए विकुब्धिमुना ।। १.८॥ एवं सणकुमारेवि र णवरं चत्तारि केवल कप्पे जंबद्दीवे दीवे अदुत्तरं चणं, तिरिय मसंखेजे ॥ एवं सामाभावार्थ णिय, तावत्तीसग लोगपाल, अग्गमहिसणं, असंखेजे दी। समुद्दे संब्वे विकुव्वंति बायत्रिंशक, लोकपाल, व अग्रवाहिपियों का जानना. और वैकेय का विषय भी उतना ही जानना. परंतु इतनी संपत्ति नहीं है ॥ १८ ॥ जैसे ईशानेन्द्र का कहा वैसे ही सनत्कुमारेन्द्र का जानना. विशेष इतना कि सनत्कुमार चार जम्बूद्वीप प्रमाण वैक्रेय रूप से भरने को समर्थ है.' असंख्यात द्वीप समुद्र भरने की शक्ति है परंतु सम्पत्ति नहीं है. इस में बारह लाख रिमान, बहत्तर हजार सामानिक, चौमुनें आत्मरक्षक, 49 अनुवादक-बालबाह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी punarenindianarmadammimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादमी Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 शब्दार्थ 4 अपदेशलोक . विशेष:अ० आठ ए ऐसे लं. लंतक ण. विशेष सा. अधिक अ० आठ के. संपूर्ण म० महाशुक्र सो० सोलह स. सहस्रार में सा• अधिक सो• सोलह ए० ऐसे पा. सणंकुमाराओ आरद्ध उवरिल्ला, लोगषाला सव्वेवि असंखेजे दीवसमुद्दे विकुव्वति । एवं माहिदेवि, णवर साइरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूहीवे दीवे एवं बंभलोएवि, णवरं अट्ठकप्पे ॥ एवं लंतएवि, णवरं साइरेगे अट्ठ केवलकप्पे महासुक्के सोलस व अन्यदेव हैं. + ऐसेही इनके सामानिक देवे, प्रायशिक, लोकपाल व अग्रमाहवियों असंख्यात द्वीप समुद्री वैक्रय रूप से भरने को समर्थ हैं. माहेन्द्र चार जम्बूद्वीप से कुछ विशेष वैफ्रेयरूप से भरने को समर्थ है, ! ब्रह्मेन्द्र आठ जम्बूद्वीप भरने को समर्थ है, लांतक साधिक आठ जम्बूद्वीप भरने को समर्थ है, महाशुक्र सोलह जम्बूदीप भरने को समर्थ है, सहस्त्रारेन्द्र साधिक सोलह जम्बूद्वीप मरने हैं. आणत प्राणत पत्तीस जम्बूद्वीप और आरण अच्युत साविक बत्तीस जम्पद्वीप भरने को समर्थ है. अन्य सब अधिकार पहिले जैसा है परंतु प्रथक २ ऋद्धि बताते हैं. सौधर्म देवलोक में बत्तीस लाख, ईशान देवलोक में अठाहै + सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोकसे आगे देविऑकि उत्पत्ति नही है. तथापि प्रथम देवलोककी अपरि ही देवी एकसमयाधिक पल्यापमं से दश पल्योपमकी स्थिति वाली बारह वे देवलोक के देवोंको। 14 उपयोग में भाती हैं इससे यहां उसका प्रतिषेध नहीं किया है. पंचाम विकाह पण्णत्ति ( ममवती) सूत्र तीसरा शतक का पहिला उद्देशा ARE Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ प्राणत ण० विशेष व० बत्तीस के० संपूर्ण ए० ऐसे अ० अच्युत में ण० विशेष सा० अधिक प० बत्तीस {के० संपूर्ण नं० जंबूद्वीप अ० निश्चय सं० वह ए० ऐसे भं० भगवान् त० तीसरे गो० गौतम बा० वायुभूति अ० अनगार स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वं० वंदनाकर न० नमस्कार कर वि० सूत्र भावार्थ ९३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी केवलं सहस्सारे साइरेगे सोलस एवं पाणएवि, णवरं बत्तीस केवलं एवं अच्चुएवि, णवरं साइरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबूदीचे दीवे, अण्णं तं चेत्र ॥ सेवं भंते भंते ! ति तच्चे गोयमे वाउभई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ जाव विहरइ प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * इस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख, माहेन्द्र में आठ लाख, ब्रह्मदेवलोक में चार लाख, लांतक में पच्चास {हजार, महाशुक्र में चालीस हजार सहस्रार में छ हजार, आणत प्राणत में चारसो, आरण अच्युत में तीनसो. अब सामानिक देव कहते हैं सौधर्मेन्द्र को चौरासी हजार, ईशानेन्द्र को अस्सी हजार, सनत्कुमारेन्द्र को बहत्तर हजार, माहेन्द्र को पीत्तर हजार, ब्रह्मेन्द्र को साठ हजार, लांतकेन्द्र को पच्चास हजार, महाशुक्रेन्द्रको चालिस हजार, महस्रारेन्द्र को तीस हजार, प्राणतेन्द्र को वीस हजार, और अच्युतेन्द्र को दश हजार सा{मानिक जानना. सामानिक देवता से आलरक्षक चौगुने जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं। ऐसा कहकर वायुभूति नामक अनगार श्रवण भगवंत महावीर सामी को वंदना नमस्कार कर विचरने જર Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ is ४२३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र विचरने लगे ॥ १९ ॥ त० तब त श्रमण भ• भगवन्त म. महावीर अ० कोई वक्त मो० मोया न० नगरी के नं० नंदन चे उद्यान से प० निकलकर ब० बाहिर ज० अन्य देश में वि० विचरने लगे॥२०॥ ते. उस काल ते. उस समय में रा. राजगृह न० नगर होच्या व० वर्णनवाला जा. यावत् प० परिषदा ५० पूजते ते. उस काल ते. उस समय में ई. ईशान दे० देवेन्द्र दे० देवराजा सू० मूल पा. हस्त में 20 व० वृषभ वा. वाहन वाले उ० उत्तरार्ध लोक के अ० अधिपति अ० अठावीस वि० विमान स० लक्ष के से १ ॥ १९ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई मोयाओ नगरीओ नंदणाओ. चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमइत्ता बहिया जणवय विहार विहरइ ॥२०॥.. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे होत्था वण्णओ जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ । तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी, वसहवाहणे, उत्तरड्डलगे ॥ १९ ॥ एकदा श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी मोया नामक नगरी के नंदन नामक उद्यान में से विचरने लगे ॥ २०॥ अब ईशानेन्द्र के पूर्व भव का तामली तापसका अधिकार कहते हैं. उस ge काल उस समय में राजगृह नामक नगर था. वहां श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे. परिषदा ॐ वंदन करने को आई. उस काल उस समय में हस्त में मूलका आयुध धारन करनेवाले, वृषभ का वाहन वाले, उत्तर के ऊर्ध्व दिशा के स्वामी, अठाइस. लाख विमान के अधिपति, रमरहित वस्त्र धारन करनेवाले 428-तीसग शतक का पहिला उद्देशा 8888 भावार्थ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि अ. अधिपति ज. रजरहित क श्रेष्ट व वस्त्र प. पहीनने वाले आ० रहाई मायाला २० मुकुट न. नवा हे सुवर्ण चा० सुंदर चि. चिस चं० चंचल कुं. कुंडल वि० अंकित होने गं. गंडस्थल जा. यावत् द. दशदिशा में उ० उद्योत करते प. प्रकाश करते ई० ईशान देवलोक ई. ईशान व. चर्दिशक वि. विमान च. जहां रायमसेणी में जा. यावत् दी. दिव्य दे० देव ऋद्धि जा. यावत् जा. जिस 11 दिशिने पा० आये ता. उसदिशि में प० गये ॥ २१ ॥ भ० भगवान् गो गौसम स. श्रमण लोगाहिवई, अट्ठावीस विमाण वास सयसहस्साहिबई, अरयंवरवत्यधरे, आलईय माल मउडे नवहेम चार चित्तचल चंचल कुंडल विलिाहिजमाणगडे आव दसदिसाओ उज्जोमाणे पभासेमाणे, ईसाणेकप्पे, ईसाणवडिसए विमाणे जहेव रायप्पसेणइजे जाव दिव्वं विढेि जाव आमेव दिप्ति पाउन्भूए तामेवदिसि पडिगए॥ २१ ॥ भंते ! भावाथे यथायोग्य स्थान पर माला, मुकुवाले, नविन सुवर्ण के मनोहर व चित्त समान चंचलकुंडल की रेसायुक्त गंडस्थल वाले यावत् दशोदिशि में उद्योत करनेवाले ईशानेन्द्र ईशान देवलोक के ईशान वार्डिशक नामक विमा Eन में रहतें हुवे वगैरह सब अधिकार रायमसेणि मूत्र में जैसे सूर्याभ देवता का कहा, वैसे ही यहां कहना. ऐमी सव ऋदि सहित भगवंत को वंदना नमस्कार करने को आये. मनोज दीव्य देव ऋद्धि, कान्ति,प्रभाव विगैरह गीतमादि साधुओं को बताकर पीछे गये ॥ २१ ॥ उस समय में गौतम स्वामीने श्री भगवन्त को 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी जालाप्रसादनी - Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ भगवन्त म० महावीर को बं० वंदनाकर व० बोले अ० अहो मुं० भगवन ई० ईशान दे० देवेन्द्र देव देवराजा म० महर्द्धिक ई० ईशान की मं० भगवन् सा० वह दि० दीव्य दे देवऋद्धि क० कहां ग० गइ क० कां अ० प्रवेश हुइ गो० गौतम स० शरीर में ग० गइ से० वह के० कैसे मं० भगवन् ए० ऐसा ० कहा जाता है स० शरीर में ग० गइ से० वह ज० जैसे कूः कूटागार सा० शाला सि० होवे दु० दोनो बाजु लि० लिप्त गुरु गुप्त गु० गुप्तद्वार णि० वायुविना की नि० वायुरहित गंभीर ती० उस कु० त्ति भगवं गोयमे समणं, भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ ता एवं बयासी अहोणं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया महिठ्ठीए, ईसाणस्सणं भंते ! सा दिव्या देवड्डी कहिं गते कहिं अणुपविट्टे ? गोयमा ! सरीरंगए ॥ से केणट्टेणं ते! एवं वृच्चइ सरीरंगए ? गोयमा ! से जहा नामए कूडागार साला सिया, दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुबारा णित्राया, बना नमस्कार कर ऐसा पूछा कि अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र देवताने जो ऐसी महा ऋद्धि बताई थी. वह ऋद्धि पीछी कहां गई ? असे गौतम ! शरीर में गइ. अहो भगवन् ! किम तरह से यह ऋद्धि शरीर में गई. 2. अहो भगवन् ! जैसे कोई कूटागारशाला होवे इस के दोनों पास लीपा हुवा होवे और उम्र के द्वार भी शुद्ध होते. वायु का संचार इस में नहीं हो सकता होवे. ऐसी कूटागार शाला की बाहिर बहुत जन25 समुदाय एकत्रित हुवा होके और मेघप्रमुख होता देखकर सब मनुष्यों उस कूथशाला में चले जाने से 443 पंचमांग विवाह प्रप्ति (भगवती सूत्र +++ तीसरा शतकका पहिला उद्देशा -4080 ४२५ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ शब्दा+कट * कूटागार जा. यावत् कू० कूटागार सा शाला दि० द्रष्टान्त भा कहना ॥ २२॥ ई० ईशान दे. देवेन्द्र दे. देवराजाको सा. वह दि० दीव्य दे० देवऋद्धि दे. देवधुति दे देवानुभाव कि० किससे ल. पलब्ध प० प्राप्त अ० सन्मुख हुइ के. कौन ए. यह आ० था पु० पूर्व भव में किं. कौनसा ना. नाम कि. कौनसा गो० गोत्र क० कौनसे गा० गाव में न० नगर जा. यावत् म. सनिवेश में कि० क्या १० देकर भो• भोगवकर कि• करके किं. क्या स० सगाचर क किस त० तथारूप स. श्रमण णिवाय गंभीरा, तीसेणं कूडागारं जाव कूडागार सालादिटुंतो भाणियव्यो ॥२२॥ ईसाणेणं भंते ! देविंदे देवरण्णो सादिव्या देविट्ठी, दिव्वादेवजुत्ती, दिव्वे देवाणुभावे किण्णा लडे. किण्णा पत्ते किण्णा अभिसमण्णागए, केवा एस आसि पुन्वभवे, किंणामएवा, किंगोत्तेवा, कयरांस गामंसिवा नयरंसिवाजाव सण्णिवेसंसिवा, किंवा दच्चा, किंवा भोच्चा, किंवा किच्चा, किंवा समायरिता, कस्सवा तहारूवस्स सम॑णस्सवा, माहणस्स वा। बाहिर कोई नहीं दीखते हैं. इसी दृष्टांत से अहो गौतम ! सब ऋद्धि ईशानेन्द्र के शरीरमें चली गइ॥२२॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र को ऐसी दीव्य देव ऋद्धि. देव कान्ति व ऐसा महानुभाव कैसे प्राप्त हुवा ? वे पूर्व भव में कौन थे, उन का पूर्व भव में नाम क्या था, गोत्र क्या था, किस ग्राम, नगर व सन्निवेश में रहते थे, इनोंने क्या दान दिया, क्या अंत प्रांतादि आहार भोगवा; क्या तप किया, क्या प्रति 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कमा० माहण की अंपास ए. एक आ० आर्य ध धर्म का मु० सुवचन सो० सुनकर नि. अवधारकर ज. जिससे ई० ईशान दे० देवेन्द्र दे देवराजा की सा वह दि० दाव्य दे देवऋद्धि जा० यावत् अ०० सन्मुख हुइ ॥ २३ ॥ गो० गौतम ते. उस समय में इ० इस जं. जंबृद्वीप में भा. भरत क्षेत्र में ताx ताम्रलिप्ती न० नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त त० तहां ना. ताम्रलिप्ती न० नगरी में ता० तामली ना नाम का मो. मौर्यपुत्र मा० गाथापति हो था अ० ऋद्धिवंत दि. दिप्त जा. यावत् ब० बहुत मनुष्यों 488 पंचमान विवाह पम्पति (भगवती) सूत्र 428 अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म जणं ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविट्ठी जाव अभिसमण्णागया ? ॥ २३ ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे दीये भारहे वासे तामलित्तीनामं णयरी होत्था, वण्णओ । तत्थणं तामलित्तीए नयरीए तोमलीनाम मोरिय तीसरा शतक का पहिला उद्देशा 988 भावार्थ mmmmmmmmmmmmmm लेखनादि समाचारी की, अथवा कौनसे तथारूप श्रमण माहण की पास एकान्त आर्य धर्म श्रवण कर अवधारकर ऐसी ईशानेन्द्र की दीव्य ऋद्धि द्युति वगैरह प्राप्त की?॥ २३ ॥ अहो गौतम ! उस काल है उस समय में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में ताम्रलिप्ती नामक नगरी थी. उस नगरी में मौर्य पुत्र वामली नामक गाथापति रहता था. वह गाथापति बहुत ऋद्धिवंत, दीप्त यावतू अन्य जनों में अपराभूत Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ + अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * से अ० अपराजित हो० था० ॥ २४ ॥ ० तब तक उस मो० मौर्यपुत्र ताः तामलि गा० गाथापति अ० (कोइ वक्त पु० पुर्वरात्रि अ० अपरात्रि का वक्त में कु० कुटुंब जा० चिंता जा० करते ए० इसरूप अ | आत्मचितवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा अ० है पु० पूर्व के पो० पुराणा सु० सुचरितरूप सु० { अच्छा पराक्रम रूप सु० शुभ क० कल्याणरूप क० किये के कर्म के क० कल्याण कारी फ० फल वि० विशेष जे० जिम से अ० मैं हि० चांदी से सु० सुवर्ण से ध० धन से घ० धान्य से पु० पुत्र से प० पशु पुते गाहावई होत्था, अड्डे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए यावि ' होत्या ॥ २४ ॥ तपूर्ण तरस मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावइस्स अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंसि, कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेएयारूवे अन्भतिथए जाव समुप्पण्णे, आत्थ तामे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुप्परिक्कंताणं सुभाणं, कल्लाणाणं, कडा कम्माणं, कल्लाणफलवित्तिविसेसो, जेणाहं हिरण्णेणं वड्डामि, सुवण्णेणं वड्डामि, धणेणं वड्डामि, धण्णेणं वद्दामि पुत्तेहिंच, पसूचि वट्ठामि विउल, धण, कणग था ॥ २४ ॥ एकदा तामली गाथापति को मध्यरात्रि में कुटुम्ब जागरणा जागते हुवे ऐसा अध्यवमाय हुवा कि मैंने गतकाल में पूर्व जन्म में दानादि सुकृत किये हैं, तपश्चराणादि किये हैं, इस से ऐसे शुभ { कल्याणकारी कर्म के अच्छे फल मुझे हो रहे हैं. और इस से मेरे हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य बढ रहे हैं?, ४२८ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *380 शब्दाबसे प वृद्धिपाता हूं वि०विपुल थ० धन क• कनक र० रन म० मणि मो• मौक्तिक सं० शंख सि. शिला प० प्रयाल र० रक्त र० रत्न सं० विद्यमान सा• अच्छा सा द्रव्य से अ० अतीव अ० वृद्धिपाता हूँ | जा. जहाँलग मे० मुझे मि० मित्र ना० ज्ञाति नि० स्वनाति सं० संबंधि प० परिवार आ० आदर करते। हैं १० अच्छा जाने स. सत्कारकरे स० सन्मानदेवे क० कल्याण कारी मं. मांगलीक दे० देव वि० विनय से चे० ज्ञानवन्त ५० पूजते हैं ता० वहांलग मे० मुझ से श्रेय क० काल पा. प्रभात में र. रजनी रयण, माण, मोत्तिय संख, सिलप्पवाल, रत्त, रयण, संतसारसावएजेणं. अईव अईव आभिवड्डामि. तं किणं अह पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं । एगंत सोक्खयं उवेहमाणे विहरामि तं जाव अहं हिरण्णेणं वढ्ढामि, जाव अईव २ आभिवड्यामि, जावं चमे मित्तनाइ नियग संबंधि परियणो आढाइ परियाणाइ, सक्कारेइ सम्माणेइ, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, निणएणं, चेइयं पज्जुवासेइ, ताव तामे सेयं कल्लं । भावार्थ वैसे ही पुष पशु वगैरह से मैं बढरहा हूं. और विपुल धन, कनक, रन्न, मणि, पौक्तिक, शंख, शिला, वगैरह श्रेष्ठ द्रव्य मुझे बहुत २ बहरहा है. इस से मैं पूर्व के संचित किये हुवे शुभ कर्मों को एकान्त क्षय । करता हुषा विचरता हूं. अब जहांलग मुझे मेरे मित्र, ज्ञातिः संबंधि परिजन आदर देते हैं, स्वामी तरीके पानते हैं, सतार करते हैं, सन्मान देते हैं, कल्याणकारी, मांगलीक, देवता समान पूजा करते हैं वहांलग तीसरा शतक का पहिला उद्देशा पंचांग विवाह - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ४३० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जा. यावत् ज०मूर्य उदित होते स०स्वयं दा०काष्ट के ५०पात्र क०करके वि० विपुल अ० अशन पा पान खा. खादिम सा० स्वादिम उ० नीपजाकर मि० मित्र णा ज्ञाति नि० स्वजन सं० संवधि प०परिवार को आ० आमंत्रणकर तै.. उन को अ० अशन पा० पान खा. खाइम सा० स्वादिम व० वस्त्र गं० गंध अ अलंकार से सं० सत्कारकर स. सन्मानदेकर तं• उन की पु० आगे जे. ज्येष्ठ पुत्र को कु० कुटुम्ब ठा० स्थापकर तं. उन को आ० पूछकर स० स्वयं दा० काष्ट के ५० पात्र ग० ग्रहणकर मुं• मुंड होकर पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, विउलं असणं, पाणं, खाइम, साइमं उबक्खडावेत्ता, मित्त,णाइ, नियग, सयण, संबंधि, परियणं आमंतेत्ता, तं मित्त, णाइ. नियग, सयण,संबंधि, परियणं विउलेणं असण पाणखाइमं साइमेणं वत्थगंध मल्लालंकारेणय सकारत्ता, सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तणाइ नियग संबंधि परियण स्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुटुंये ठावित्ता, तं मित्त,नाइ, नियग, संबंधि, परिषण, जेट्टपुत्तंच कलप्रभात में सूर्य का उदय होते स्वयं काष्टमय एक पात्र बनाकर, बहुत अशन, पान, खादिम स्वादिम बनाकर मित्र, ज्ञाति, सगे संबंधी को आमंत्रणा करके और उन मित्रादि वर्ग को अशन, पान, स्वादिम, स्वादिम वस्त्र, गंध, माला अलंकार वगैरह वस्तु से सत्कार करके उनकी सन्मुख ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्ब में स्थाप कर और उन मित्र ज्ञाति स्वजन तथा ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर पीछे स्वयमेव काष्ट मय पात्र को ग्रहग कर मुंड बनकर प्रणाम करने योग्य नाम की भवर्जा अंगीकार करना प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * mainam Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पा० प्रणाम प० प्रवर्नामें प० प्रवर्तनेको प० प्रवर्तग हुवा ए० इसरूप अ० अभिग्रह अ० ग्रहण करूंगा क० कल्पता है मे० मुझे जा० यावजीव छ० छठ भक्त से अ अंतर रहित त तप कर्म से उ० ऊर्ध बा०14 बाहु प० करके स० मर्याभिमुख आ० आतापनाभूमि में आ. आतापनालेता वि. विचरने को छ. छठ के पारणे में आ० आतापना भामि से उ० नकलकर स० स्वयं दा० काष्ट के प.पात्र ग ग्रहण कर ता. ताम्रलिप्ती न० नगरी में ऊंच नी नाच म० मध्यम कु० कुल के घ० गृह समुदाय में भि० भिक्षाचरी के आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता, पाणामाए पव्वजाए, पव्वइत्तए, पव्वइएवियणं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं आभिगिाहिस्सामि. कप्पइ मे जावजीवाए छटुं छटेणं अनिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं, उट्ठे बाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए, आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्सवियणं पारणयसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहित्ता, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामाल ? तीए णयरीए उच्चणीयमज्झिमाइ कुलाई घरसमुदाणस्स भिखायरियाए: अडेत्ता भावार्थ 60 मुझे श्रेय है. इस तरह प्रपा अंगीकार किये पीछे छठ २ का निरंतर तप करके ऊंचे बाहु से आ तापना भूमि में आतापना लेना मुझे श्रेय है. वैसे ही छठ भक्त के पारणे के दिन उस आतापना भूमि से नीकलकर काष्टमय पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरीमें उच्च, नीच, मध्यम कुलमें बहुत घरोंके समुदाय में फीरकर । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती) तीसरा शतक का पहिला उद्देशान48 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथे 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी लिये अ• विचरना सु० शुद्ध ओदन ५० ग्रहणकर ति तीन स० सात वक्त उ० पानी से प० बोकर का पीछे पा० आहार करने को शि. ऐसा क० करके सं० विचार करे ॥ २५ ॥ सं० विचारकर क० काला पा. प्रभात में जा. यावत् ज० सूर्य उदित होते स. स्वयं दा. काष्ट का प. पत्रिका कसके कि विपुल अ. अशन पा० पान खा. खादिम सा. स्वादिम उ० नीपजाकर पीछे हा० स्नान किया क० पीठोलगाइ क० कोगले किये पा. तीलमसादि किये मु. शुद्ध मं० मांगलीक १० वख ५० पहन सुद्धोदणं पडिग्गहेत्ता, तं तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता, तओपच्छा आहारं आहारित्तए त्तिकटु, एवं संपेहइ ॥ २५ ॥ संपेहेइत्ता कल्लं पाउप्पाभायाए जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं कारेइ कारेइत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाबेइ, उवक्खडावेइत्ता, तओ पच्छा व्हाएं कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगल पायच्छित्ते, सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए, अप्पमहग्याभरणालं-. घृत शाकादि रहित शुद्ध ओदन ग्रहण करके फोर उसे इक्कीस वक्त पानी से धोकर उस का आहार करना मुझे श्रेय है ॥ २५ ॥ इस प्रकार का विचार करके सूर्योदय होते काष्टमय पात्र बनवाया और अशन, पान, खादिम व स्वादिम ऐसे चारों आहार निपजाये. पीछे लान किया, पीठी प्रमुख का विलेपन किया, पानी के कोगले किये, तिलमहादि शुभ चिन्द किये और शुद्ध मंगलिक वख पहिने. समाजाबहादुर लाला मुखदेक्सहायजी ज्यानन्तानमा भावार्थ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ कर अ० अल्प म० मोघे अ० अलंकृतकर स० शरीर भो० भोजन वक्त में भो० भोजन का मंडप में) शुभासन पे ग० बैठे त० तब मि० मित्र णा० ज्ञाति नि० स्वजन सं० संबंधि प० परिवार स० ता कियसरीरे, भोयणनेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए. तएणं मित्तनाडु नियम सयण संबंधि परियणेणं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे बीसाएमाणे परिसाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ ॥ जेमिय भुतत्तरागए त्रियणं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभए तं मित्तं जाव परियणं विउलेणं. वत्थगंधमल्लालंकारेणय 'सक्कारेइ, सक्कारेइत्ता तस्सेवमित्तनाई जाब परियणस्स पुरओ जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेइ २ ततं मित्तनाई जा परियणं जेट्ठपुत्तं च आपुच्छइ २त्ता मुंडे भक्त्तिा, पाणामाए अल्पभार व बहुत मूल्यवाले आभूषणों से शरीर अलंकृत किया, भोजन तैयार होने पर स्वजन मित्रजन की साथ भोजन मंडप में प्रवेश कर शुमसिंहासनपे बैठकर मित्रादि सब की साथ विपुल निपजाये हुए अशनादि स्वयं आस्वाद व अन्य को परुसते विचर रहे हैं। इस प्रकार जीमकर उपर जो कुच्छ भोगवना था उसे भोगकर पानी के कुल्ले कर बुद्ध बने. फोर बहुत वस्त्र गंध व मालाअलंकार से आये हुए स्वजनादि का { सरकार सम्मान किया और सब स्वजन मित्र ज्ञाति प्रमुख की सन्मुख ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित {किया. फोर ज्ञाति स्वजन व ज्येष्ट पुत्र को पृडकर मुंड बनकर प्रणाम नाम की प्रवय अंगीकार क ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र तीसरा शतकका पहिला उद्देशा 48483 ४३३ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि० विपुल अ० असन पा० पान खा. खादिम सा० स्वादिम आ० आस्वादते वी० भोमवने प्र० परसते १५० जीमते वि०विचरतेहैं जे० जीमकर भु० जीमे पीछे आ आचमन किया चो० शुद्ध हुवे प०बहुत शुद्धहुने । पव्वजाए पव्वइएवियणं समाणे इमं एथारूवं अभिग्गहं आभिगिण्हइ, कप्पइ मे जाव- ४३४ ज्जीवाए छटुं छ?णं जाव आहारित्तए तिकटु इमं एयारूवं आभिग्गहं आभिगिण्हइ, आभिगिण्हइत्ता, जावज्जीवाए छटुं छटेणं अनिक्खित्तणं तबो कम्मेणं उड़े बाहाओ पणिज्झिय २ सूराभिमुहे आयावण भमीए आयावेमाणे विहरइ ॥ २६ ॥ छट्टस्स वियणं पारणयसि, आयावण भूमीए पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता, सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं गहाय, तामलित्तीए नयरीए उच्चनीय मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुयाणस्स भिक्खायरियाए अडइ, अडइत्ता सुद्धोयणं पडिग्गहेइ २ त्ता तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेइ, वार्थ ऐमा अभिग्रह किया कि मुझे निरंतर छठ छठ का तप करना कल्पता है. इसत्तरह अभिग्रह ग्रहण करके ऊंचे बाहु रखकर सूर्याभिमुख आतापना भूमि में आतापना लेते हुवे. विचरते हैं ॥ २६ ॥ छठ के पारणे के दिन आतापना भूमि से आकर स्वयमेव काष्ट पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नमरी में उच्च नीच व मध्यम कुल के घर समुदाय में भिक्षाचरी के लिये परिभ्रमण करते हैं और शुद्धोदन (पकेहुवे चांवल) लेकर इक्कीस वार) . 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - • प्रकायक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी जालामसादजी . Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शकर १॥ २६ ॥ २७ ॥ से वह के० कैसे भ० भगवन् ए. ऐसा यु. कहा जात है पा०प्रणाम प० प्रवा मो० गौतम पा० प्रणाम प्रवर्ध्या से प० दीक्षित हुवा जं. जिसको ज. जहां पा० देखे तं० उनको ई० इन्द्र खं० कार्तिकेय रु० महादेव ति० व्यंतर वे० वैश्रमण अ. चंडिका को कोटिक रा. राजा जा. यावत् स. सार्थवाह का काक सा० श्वान पा० चंडाल उ ऊंच को पा०देखे उ ऊंचको १० प्रणामकरे नी० नीच को पा० देखे नी नीचको प० प्रणामकरे जिसको ज. जैसे पा० देखे उ. उसको त. पक्खालेइत्ता तओ पच्छा आहारं आहारेइ ॥ २७ ॥. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पाणामाए पव्वजा? गोयमा ! पाणामाएणं पव्वज्जाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ तं है इंदवा, खंदवा, रुदेवा, सिवा, वेसमणवा, अजंवा, कोटकिरियंवा, रायंवा जाव है सत्थवाहंवा; काकंवा, साणवा, पाणंवा, उच्च पासइ, उच्चं पणामं करेइ, नीयं पासइ नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ. से तेण?णं जाव भावार्थ पानी से धोकर उस का आहार करते हैं ॥ २७ ॥ अहो गवन् ! तामली तापसकी प्रणाम प्रचा कैसे कही? अहो गौतम ! प्रणाम प्रवा अंगीकार करनेवाला इन्द्र, स्कंध, रुद्र, शिव, वैश्रमण, चंडिका, कोटिकादि, राजा को, शेठ को, सेनापति, सार्थवाह, काकपक्षी, धान, चांडाल को, ऊंचको देखकर ऊंचको प्रणाम करे, नीचको देखकर नीचको प्रणाम करे जिसे जहां देखे उसे वहां प्रणाम करे. इस से अहो गौतम ! 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 2428 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा 988 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्पजी तैसे प० प्रणामकरे मे० वह ते. इसलिये जा. यावत् प० प्रवा ॥ २८ ॥ त० तब से वह ता तामलि मो० मोर्यपुत्र से उस उ० उदार वि०विपुल पं० अनुज्ञा प० ग्रहीहुई बा• अज्ञान त तप कर्म से सुसुकाई भुक भुखा जा० यावन् ध० नाडी हड्डी ज• हुइ हो० था॥ २९ ॥ त० तब त. उस ता० तामली बा. अज्ञान ततपस्वी को अकोई वक्त पुरात्रिको अ० अनित्य जा जागरण जा जागते को ए.इसरूप अ. आत्मिक चिं. चितवन जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा अ० मैं इ० इस उ० उदार वि० विपुल जा. यावत् पव्वजा॥२८॥तएणं से तामली मोरिय पुत्ते तेणं उरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवो कम्मेणं सुक्के भुक्खे जार धमणिसंतए, जाएयात्रि होत्था ॥ २९ ॥ तएणं तरस तामलिस्स बाल तवस्सिस्स अण्णया कयाइं पुवरत्तावरत्तकाल समयंसि , सि आणिच्च जागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जांव समुप्पजित्था एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं विपुलेणं जाव उदत्तणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवो प्रणाम प्रवा कही है ॥ २८ ॥ तब वह तामली मौर्य पुत्र उदार, विपुल, गुरुकी आज्ञा से कराया हुवा, है बहुत मान पूर्वक कराया हुवा बाल तप कर्म से शुष्क यावत् रक्त मांस रहित नसोंवाला हवा ॥२१॥ एकदा मध्यरात्रि में उस तामली मौर्य पुत्र तपस्सी को अनित्य जागरणा जागते हुवे ऐमा अध्यवसाय चिन्तवन उत्पन हुवा कि ऐसे उदार, विपुल; उदात्त, उत्तर, व महानुभाग तप कर्म से शुष्क यावत् रक्त प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी * भावार्थ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4880 ४३७ पंचङ्ग डिववपण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र उ० उदात्त उ० उत्तम म० महानुभाग त तपकर्म से सु० मुका भु. भुखा जा. यावत् घ. हड्डी नाडी जा० हुई अ० है जा० जितना मे० मेरा उ. उत्थान के कर्म व बल वी० वीर्य पु० पुरुषात्कार १५० पराक्रम ता० तहां लग से मुझे से. श्रेय क. कल्याण जा. यावत् ज० सूर्य उदीर होते ता० ताम् इलिप्ती न० नगरी दि० देखकर भ० बोलाकर पा०परिचित गि गृहस्थ पु० पूर्व संगति १०पीछे के संगति प० दीक्षाके संगति को आ० पुछकर ता० तामूलिनी न० नगरी की म० मध्य से नि० निकलकर पा० है कम्मणं सुक्के भुक्खे जाव धमणिसंतए जाए, तं आत्थि जामे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ताव तामे सेयं कल्लं जाव जलंते तामलित्तीए णगरीए दिट्ठा भट्टेय पासंडत्येय, गिहत्थेय, पुन्वसंगतिएय, पच्छासंगतिएय, परियायसंगतिएय आपुच्छित्ता । तामलित्तीए णयरीए मज्झमझेणं निग्गच्छित्ता पाओगकुंडियमादीयं उवगरणं दारुमयंच मांस रहित नाडियोवाला हुवा हूं. अब जहां लग मेरे में उत्थान कर्म, क्ल, वीर्य व पुरुषात्कार पराक्रा है वहां लग सूर्योदय होते ताम्रलिप्ता नगरी में रहनेवाले कि जिन को देखने का बहुत प्रसंग पडा है, जो , पाखण्ड धर्म के आचरण करनेवाले हैं परंतु मेरे परिचय में आये हवे है, जो गहस्थ हैं. जो दर्शनाभिलाषी हैं, दीक्षा लीये पहिले जिन की संगति में रहा सो पूर्व संगतिबाले और दीक्षा लिये पीछे १ ० जिन की संगति में रहा सो पश्चात् संगति वाले और अन्य तापतादि कि जो मेरे परिचित हैं उन -तीसरा शतकका पहिला उद्देशा 98880 भाव म । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी भावार्थ 48 अनुवादक- बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पादुका कुं· कमंडल आ० वगैरह उ० उपकरण दा० काष्ट के प० पात्र ए० एकान्त में ए० रखकर [ता० ताम्रलिप्ती नगरी की उ० ईशान कोन में णि० प्रमाण मात्र भूमि आ० देखकर सं० संलेखना झू झूसणा झू० झूसकर भ० भक्त पा० पानी प० प्रत्याख्याकर पा० पादोपगमन का काल को अ० नहीं वांछता वि० विचरने को ति० ऐसा करके सं० संकल्पकर ॥ ३० ॥ क० काल जा० यावत् ज० सूर्य उदीत होते जा० यावत् आ० पूछकर ता तामली ए० एकान्त में ए० रखे जा० यावत् भ• भक्त डिग्गहयं गते एडेत्ता तामलित्तीए णगरीए उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए णियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणा झूसणा झूसियस्स भत्तपाण पंडिया इक्खियस्स पाओत्रगयरस कालं अणवकखमाणस्सं विहरित्तए, तिकट्टु एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता ॥ ३० ॥ कल्लं जाव जलते जाव आपुच्छइ, आपुच्छइत्ता तामली एगंते एडेइ, सब से मीलकर व उन को पूछकर ताम्रलिप्ती नगरी की मध्य में से नीकलकर मेरी पादुका, कमंडल, काष्टमय पात्र वगैरह सब को एकान्त में डालकर इस नगरी की ईशान कौन में मेरे शरीर प्रमाण क्षेत्र की मर्यादा करके शरीर दुर्बल होवे वैसी संलेखना झूसणा युक्त भक्त पानी का प्रत्याख्यान करके कालको नहीं वांच्छता हुवा विचरुंगा ॥ ३० ॥ ऐसा विचार कर सूर्योदय होते सब को पूछकर व भंडोपकरण एका प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ४३८ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पा० पानी के प० प्रत्याख्यान कर पा पादोपगमन से नि० रहा ॥३१॥ ते. उस काल ते. उस समय में बबलीचंचा रा०राज्यधानि अइन्द्र रहित अ० पुरोहित रहित होथी ॥३३॥त० तव ते उस बबली चंचाई रा० राज्यधानि में व० रहने वाले ब० बहुत अ० असुर कुमार दे० देव दे० देवी ता• तामली बा• वाल तपस्वी को ओ० अवधिज्ञान से आ० देखकर अ० अन्योन्य स० तेडाकर एक ऐसा व. बोले ए.ई ऐसे दे देवानुप्रिय ब० बलिचंचा रा० राज्यधानी अ• इन्द्रविना की अ० पुरोहित विना की अ० अहो है। जाव भत्तपाण पडियाइक्खिए, पाओवगमणं निवण्णे ॥ ३१ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचारायहाणी आणिंदा अपुरोहिया याविहोत्था ।। ३२ ॥ तएणं तेबलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय तामलिं बालतवरिंस ओ हिणा आहोयंति आहोयतित्ता अण्णमण्णं सदावेति, सद्दावेतित्ता, एवं वयासी एवं भावार्यन्तमें रखकर आहार पानीका प्रत्याख्यान कर काल को नहीं वांच्छता हुवा पादोपगमन संथारा ग्रहण किया। ॥३१॥ उस काल उस समय में बलीचंचा राज्यव्यानी में इन्द्र काल कर जाने से इन्द्र रहित बनी हुई है थी ॥ ३२ ॥ तब बलीचंचा राज्यधानी में रहनेवाले बहुत देव व देवियोंने तामली तापप्स को संलेखना। ते हुवे देखे. और परस्पर बोलने लगे कि अहो देवानापिय !बलीचंचा राज्यधानी इन्द्र रहित, पुरोहित रहित है. और हम इन्द्राधीन, इन्द्राधिष्टित व इन्द्र के आधीन कार्य करनेवाले हैं. और अहो देवानुप्रिय ! ता 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 438 882280तीसरा शतकका पहिला उद्देशा 80%82 कर Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थ । अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी manand दे० देवानुप्रिय ई० इन्द्राधीन ई० इन्द्राधिष्टित इं० इन्द्राधीन क० कार्य अ. इसलिये दे. देवानमिय ता. तामली बा• बालतपस्वी ता. ताम्रलिप्ता न० नगरी की ब. वाहिर उ० ईशान कोन में नि। प्रमाण मात्र भूमि आ० देखकर सं० संलेखना झू झूसकर भ. भक्त पा० पानी प० प्रत्याख्यान कर पा० पादो गम से णिक रहा तं० उन को से० श्रेय दे० देवानुप्रिय ता० तामलि बा बालतपस्वी को ब० वलिचंचा खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणी अजिंदा अपुरोहिया, अम्हेणं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्ठिया, इंदाहीण कजा, अयंचणं देवाणुप्पिया ! तामली बालतवस्सी तामलित्तीए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए नियत्तणियमंडलं आलिहित्ता संलेहणा झूसणा झासिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवण्णे ॥ त सयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तामाल बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाणीए मली तपस्त्रीने ताम्रलिप्ती नगरी की बाहिर ईशान कोनमें शरीर प्रमाण क्षेत्र मंडल आलेख कर संलेखना से झूसित भक्तपान का प्रत्याख्यान करके पादोगमन अनशन किया है. इसलिये तामली तपस्वी को बलिचंचा राज्यधानी में रहनेका संकल्प कराना श्रेष्ठ है ॥ ३३ ॥ परस्पर ऐसे वार्तालाप सुनकर बलिचंचा राज्यधानी की मध्य में से नीकलकर रुचकेन्द्र नाम का उत्पात पर्वत पर आये. वहां आकर वैकेय समुद घात प्रदेश बाहिर नीकालकर उत्तर वैकेय रूप बनाये. वैकेय रूप बनाकर उत्कृष्ट, आकुलतावाली, *प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* तावार्थ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 ४४१ 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 88 रा. राज्यधानी में ठिस्थिति ५० संकल्प प० करानेको ॥३३॥ अ. अन्योन्य की अं० पास ए. यह अर्थ प० मूनकर व० बलिचंचा रा० राज्यधानी की म० मध्य से नि० निकले जे. जहां रु० रुचकेन्द्र उ००० उत्पानपर्वत ते. तहां उ० आये वे० वैक्रेय स० समुद्घात स० नीकाले जा. यावत् उ० उत्तर वैक्रेय रू० रूप वि० विकुणाकर ता. उस उ० उत्कृष्ट तु वरासे चं. रौद्रगति से ज० अन्यगति से छे ० ०is ठिइप्पकप्पं पकरावेत्तए त्तिकटु,॥३३॥अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणंति पडिसुणंतित्ता बलिचंचाए रायहाणीएमझ मज्झेणं निग्गच्छंति २त्ताजणेव रुयइंद उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छंति, वेउन्विय समुग्याएणं समोहणंति २त्ता जाव उत्तर वेउव्वियाई रूवाइं विकुव्वंति, विकुव्वांतत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए, चवलाए, चंडाए, जयणाए, छेयाए, सीहाए, सिग्घाए, दिव्वाए, उडुयाए, देवगईए, तिरियं असंखेज्जाणं दीवसमुदाणं म झं मझेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे, जेणेव भारहेवासे, जेणेव तामलित्तीए णगरीए, चपलतावाली, क्रोध में आकर चले ऐभी रौद्र, अन्य गति का जय करे वैसी, निपुणतावाली, शीघ्रतावाली, दीव्य, और वस्त्रादिक के उठूनपने की देवगति से तिर्छा असंख्यात द्वीप समुद्र की मध्य मेंY होकर जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में ताम्रलिप्ती नापक नगरी में तामली मौर्य पुत्र की पास आये. वहां आकर तामली तपस्सी की उपर, व दिशी विदिशी में खड़े रहकर मनोज्ञ दीव्य देव ऋद्धि, मनोज्ञकान्ति, दीव्य तीसरा शतक का पहिला उद्देशा ! भावार्थ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ a aaaaaaaaamannamaina सत्र शब्दार्थ निपुनगति सी सिंहगति सि० शीघ्रगति से दि० दीव्यगति से उ० उद्धृत दे. देवगति से ति तिळ अ. असंख्यात दी. द्वीप स. समुद्र म. मध्य में जे. जहां भा. भरत क्षेत्र जे० जहाँ ना ताम्रलिप्ती न० नगरी जे. जहां ता० तामलि मो० मौर्यपुत्र ते. तहां उ. आकर ता० तामाल बा, वालतपस्वी की उ० उपर स० सबदिशा में स. प्रतिदिशा में ठि० रहकर दि० दीव्य दे. देवऋद्धि जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छंतित्ता तामालस्स बालतवसिस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसिं ठिच्चा, दिव्वं देविढेि, दिव्वं देवजुत्ति, दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसंति, उवदंसतित्ता, तामाल बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करंति वंदति नमसंति, नमसंतित्ता, एवं वयासी एवं खलु देवाप्पुप्पिया ? अम्हे बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया, बहवे असुर कुमारा देवाय देवीओय देवाणुप्पिया ! वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो । अम्हाणं देवाणुप्पिया ! भावार्थ महानुभाव और देवता के बत्तीस प्रकार के नाटक बतलाये. बतलाकर तामली तापस को तीन वार प्रद. क्षिणा करके वंदना नमस्कार किया. और ऐसा बोले कि अहो देवानुपिय! हम बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले देव व देवियों तुम को वांदते हैं यावत् तुम्हारी पर्युपासना करते हैं. अहो देवानुपिय हमारी बलिचंचा राज्यधानी इन्द्र.रहित व पुरोहित रहित है. और हम इन्द्राधीन, इन्द्राधिष्टित, व इन्द्राधीन कार्य करने 10अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी जालाप्रसादजी * aamanaanaaaaaaaaaaaaaaaa Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र दे० देवद्युति दे देवानुभाव दि० दीव्य व० बत्तीस प्रकार के न० नाटकविधि उ० बताकर ता० तामाले ( वा० बालतपस्वी को ति० तीनवार आदान पर प्रदक्षिणा क० करे ० वांदे न० नमस्कार कर ए० ऐसा व० बोले दे० देवानुप्रिय अ हम ब० बलिनंवा रा० राज्यधानी व० रहने वाले ब० बहुत अ० असुर { कुमार दे० देव दे० देवी बं० वंदन करते हैं न० नमस्कार करते हैं प० पर्युपासना करते हैं ॥ ३३ ॥ त० तब से वह ता० तामलि बालतपस्वी ते उन ब० बलिचंचा रा० राज्यधानी में व० रहने वाले ब० बलिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया, अम्हेणं देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिट्ठिया, इंदाहीणकज्जातं तुम्मेणं देवःणुप्पिया बलिचंचा रायहाणिं आढह, परियाह, सुमरह, अटुंबंधह, निहाणं पकरेह; ठिइप्पकप्पं पकरेह; तरणं तुज्झे कालमासे कालं किच्चा बलिचंचा रायहाणीए उववाजिस्सह, तरणं तुब्भे अम्हं इंदा भविस्सइ तण तुम् अम्हे हिंसद्धिं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहरिस्सह ॥ ३३ ॥ तएणं से ता{ वाले हैं. इसालेये अहो देवानुप्रिय ! तुम बलिवंचा राज्यधानी का आदर करो, अच्छी जानो, उस का मन में स्मरण करो, वहां उत्पन्न होने का निदान ( नियाणा ) करो और वहां रहने का संकल्प करो. इन से तुम यहां से काल के अवसर में काल कर के बलिचंचा राज्यधानी में उत्पन्न होवोगे और हमारी साथ दीव्य भोगोपभोग भोगते हुये विचरोगे ||३३|| इस तरह बलिचंचा राज्यधानी के रहने वाले बहुत अमुर तीसरा शतकका पहिला उद्देशा ४४३ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ बहुत अ० असुर कुमार के दे० देव देवी से एक ऐसे बु. कहते हुवे ए. इस अर्थ को नो० नहीं आ. आदरकर नो नहीं. अच्छा जाने तु तुष्णित सं० रहे ॥ ३४ ॥त. तब ते वे बं० बालचचा रा० राज्यधानि में व० रहते ब० बहुत अ० असुर कुमार दे. देव दे० देवी ता० तामलि मो० मोर्यपुत्र को दो दुसरीवक्त तक तीसरी वक्त ति तीनवक्त आ० आदान प. प्रदक्षिणा क० करके ॥ ३५॥ ता० तामलि • मली बालतकस्सी तेहिं बलिचंचारायराणि वत्थव्वेहिं बहुंहिं असुरकुमारेहिं देवहिय देवीहिय, एवं वुत्तेसमाणे, एयमटुं णो आढाइ, णो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्टइ ॥ ॥ ३४ ॥ तएणं ते बालचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय. तामलिं मोरियपुत्तं दोचंपि तच्चंपि तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहणं करेइ करेइत्ता, जाव अम्हं चण देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायाणी आणंदा जार ठिइप्पकप्पं पकरेह जाव दोच्चंपि ताप एवं वुत्तेसमाणे जाव तुसिणीए संचिट्ठइ॥३५॥तएणं ते बालचंचा- . भावार्थक कुमार देवत देवियोंने जो कहा उस का अज्ञान तास्या करने वाला तामली तापत ने आदर नहीं किया अच्छा नहीं जाना. परंतु मौन रहा ॥३४॥ पुनः वे असुर कुमार देवताओंने तीन वक्त पदक्षिणा कर दो तीन बार वैसा ही कहा कि अहो देवानुप्रिय हम इस बलि चंचा. राज्यघानी में रहने वाले देव हैं यावत् तुम वहाँ उत्पन्न होने का नियाना करो परंतु तामली तापप्त मौन खडा रहा. ॥ ३५ ॥ ३१ अनुवादक- लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी | Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4887 पंचमात विवाह पणत्ति (मगवती) सूत्र 4882 वा बालतपस्त्री से अ० अनादर कराये हुवे अ अच्छा नहीं जाने हुने जा जिस दि० दिशिसे पा० आये सा. उसदिशि में प० पीछेगये ॥ ३६ ॥ ते. उस काल ते. उस समय में ई. ईशान देवलोक अ० इन्द्र रहित अ० पुरोहित रहित हो • या ॥ ३७ ॥ त० तब से वह ता० तामली बा० बालतपस्वी ब० बहुत ५० प्रतिपूर्ण स० साठ सहस्रवर्ष प० पर्याय पा. पालकर दो दोमास की सं० संलेखना मे अ० आत्मा को यू० भूसकर स० वीससहित भ० भक्त शत अ० अनशन 'छे० छेदकर का. काल के अवसर में का० रायहाणि वत्थन्वया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय तामलिणा बालतवरिसणा अणाडाइजमाणा अपरियाइजमाणा जामेव दिसिं पाउब्भया तामेवदिसिंपडिगया॥३६॥तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अर्णिदे अपुरोहिए यावि होत्था; ॥३७॥ तएणं से तामली चालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई सटुिं वास सहस्साई परियागं पाउणित्ता दो मासियाए संले हणाए अत्ताणंझुसित्ता, रुबील भातसयं अगसणाए छेदित्ता, कालमास कालं किच्चा इस तरह बलिचंचा राज्यधानी में रहने वाले देवता देवियों का कहना तामली तापम ने सुना नहीं वैसे 9 ही अच्छा नाना नहीं इस से वे जहां से आये थे वहां पाछे गये ॥ ३६ ॥ उस काल उस समय में ईशान । नामक देवलोक में इन्द्र चवने से वह भी इन्द्र रहित पुरोहित रहित हुषा ।। ३७ ॥ तामली तापस साठ हजार पर्ष पर्यंत प्रवा पालकर, दो मास की संलेखना से आत्मा को असकर, एकसो बीस भक्त अनशन में 48 तीसरा तक का पहिला उद्देशा > BRON भावार्थ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ काल करके ई०. ईशान क• देवलोक में ई० ईशान बशिक विमान में उ० उपपात सभा में दे० देवशैय्या में * दे देवदृष्य वस्त्र के अं० अतर में अं अंगुलका अ० असंख्यातवा भाग भो० अवगाहना ई० ईशान दे०देवेन्द्र वि. E विरह काल में ई० ईशान देवेन्द्रपने उ• उत्पन्न हुवा ॥ ३८ ॥ त तब से वह ई० ईशान दे देवेन्द्र दे० देवराजा अ० तुर्त का उत्पन्न पं. पांच प्रकार की १० पर्याप्ति से प० पर्याप्त भाव को ग. जावे तं० वह ज जैसे भा० आहार पर्णप्ति जाल्यावत् भा भाषामन पर्याप्ति॥३१॥त तब बवलिचंचा रा० राज्यधानी ईसाणे कप्पे ईसाणवडिसए विमाणे उववाय सभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरियं अं. गुलस्स असंखेजइ भागमेतीए ओगाहणाए ईसाणे देविंदे विरहिय कालसमयसि ईसाण देविदत्ताए उववण्णे ॥ ३८ ॥ तएणं से ईसाणे देविंद देवराया अहुणो बवण्णे पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छइ तंजहा आहार पजत्तीए, जाव भासामन पज्जत्तीए ॥ ३९ ॥ तएणं बलिचंचा रायहाणि वत्थन्वया. बहवे असुरकुमारा देवाय भावार्थ करके काल के अवसर में काल कर ईशान देवलोक के ईशान बडिशक नायक विमान की उपपात सभा में देवशैय्या में देवदूष्य वस्त्र की नीचे अंगुल के असंख्यात भाग की अवगाहना से ईशान देवेन्द्र के विरह काल में ईशानेन्द्रपने उत्पन्न हुवे ॥ ३८ ॥ वह तत्काल का उत्पन्न हुवा ईशानेन्द्र आहार पर्याप्ति आदि 1 पांच प्रकार की पति से पर्याप्त हुवा ॥ ३९ ॥ उस समय में बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले बहुत 43 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिणी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ 4 में व० रहने वाले व बहुत अ अनुर कुमार दे० देव दे देवी ता तामलि बा० बालतपस्वी को का० । 14 काल को प्राप्त जा. जानकर ईशान देवलोक में दे० देवेन्द्रपने उ० उत्पन्न हुवा पा० देखकर आ०१ आसुरक्त कु. कुपित्त हुवे चं० रौद्ररूप वाले हुने मि० देदीप्यमान होते २० बलिचंचा रा० राज्यधामी के म०३४ मध्य से नि० नीकलकर ता० उस.. उत्कृष्टगति से जा. यावत् जे० जहां भा. भरत क्षेत्र जे. जहां ता• तामूलिप्ती न० नगरी जे० जहाँ ता० तामलि बार बालतपस्वी का स० शरीर ते० तहां उ० आकर देवीओय तामलिं बालतवरित कालगयं जाणित्ता ईसाणेय कप्पे देविंदत्ताए उववणं पासित्ता, आसुरुत्ता कुविका चंडिकिया, मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणीए मझं. मझेगं निगच्छंति, निगछतित्ता, ताए उक्विट्ठाए जाव जेणेव भारहेवासे जेणेव ता.. 3 मलित्ती णयरी, जेणेव तामलिस्स चाल तवसिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, उवाग1. देव देवियोंने तामली तपस्वी को काल प्राप्त हुना जानकर व ईशान देवलोक में इन्द्र बना हुवा देख कर क्रोध में आसुरक्त हुए, कोप में धमधमायमान हुए, अत्यंत द्वेष भाव प्रगट हुवा, और मीसमास दांत पीसने लगे. फीर बलिचंचा राज्यधानी में से नीकालकर उत्कृष्ट चंडा, चपला, शीघ्र, दीव्य देवगति से ताम्रलिपी नगरी के बाहिर तामली तापसका शरीर था वहां आये. और उस का बायां पांव रस्सी से बांधकर सीम पंचमांग विवाह पण्णनि (भगवती) सूत्र 48 तीसरा शतकका पहिला जशा भावार्थ 488 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वा. बाये पांच सुं. रस्सी से बाबा क. बांधकर ति तीनवार मु. मुख में उ. धुके उ. थुककर ता. सामूलिप्सी न. नगरी में सि. सिंघाडे जैसे तिबीनच. चार प. चच्चर च. चतुर्मुख म. बडा रस्तापर आ. इधर उधर क० करते म मोटे मोटे स० पद से उ० उघोषणा करते ए. ऐसा प० बोले से. वह के. कोन ता० तायली या बाल तपस्वी स स्वयं गलीया हुवा पा०प्रणाम प्रवासे प०दीक्षित के कोन से वह ई० ईशान देवलोक में ई. ईशान देवेन्द्र दे. देवराजा तिः ऐमा करके ता० तामली पा० बालतपस्वी का स. शीर की ही. हीलनाकरे निं० निदाकरे खि. विशेष निंदाकरे ग. गर्दा करे ध्छइत्ता, वामे पाए सुंवेणं बंघति बंधइत्ता, तिक्खुत्तो मुहे उडुइंति २ त्ता तामाल. तीए गयरीए सिंवाडग तिय चउक्क चञ्चर चउम्मुह महापह पहेसु आकविकदि। करेमाणा महया महया सदेणं उग्घोसेमाणा उग्योसेमाणा एवं वयासी सेकेणं भो तामला बालतबस्सी सयं गहियलिंगे पाणामाए पव्यजाए पन्वइए, के सणं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंद देवरायातिकटु, तामलिरस बालतयस्सिरस सरीरयं हीलेंति, निंदति वक्त उस के मुंह में धुके. थुककर उस नगरी के सिंघाडे के आकारवाले यावत् बहुत रस्तेवाले चौक में रस्मी से उस के शरीर को घसीटते जये, और उदयोषणा करने लगे कि अहो लोको ! स्वयं मनः भकल्पित प्रणाम प्रवर्ध्या अंगीकार करनेवाला एसा तामली तापम कोन? ईशान देवलोक में देवतापने 13 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थों, पंचमांग विवाह पएणचि ( भगवती) मूत्र अ०. अत्रज्ञाकरे त० तर्जनाकरे ता ताडनकरे पर कदर्थनाकरे प० दुःखदे आ. इधर उधर क० करे हॉ० हीलनाकर जा. यावत् आ० इधर उधर क० करके ए० एकान्त में ए० रखकर दा० जिसदिशि से पार आये ता. उसदिशि में प० पीछेगये ॥ ४० ॥त. तब ई. ईशान देवलोक में रहने वाले वे० वैमानिक देव दे० देवी ब. बलीचंचा रा० राज्यधानी में व० रहने वाले ब. बहुत अ० असुर कुमार दे० देवई ४४९ दे० देवी से ता० तामलि पा० बालतपस्वी का स० शरीर को ही हीलना करते नि• निंदाकरते जा० यावत् आ०इनर उधर की करते पार देखकर आ शीघ्र आसुरक्त जा यावत् मि० देदीप्यमान होते जे०जहां विसंति, गरहंति, अत्रमण्यति, तजिंति, तालेति, परिवहति, पबहंति, आकङ्क विकद्धि । करंति, हीलेता जाव आकडू विकड्मुिकरेत्ता, एगंते एडतिर ता, जामेवदिसि पाउम्भूया, - तामेवादसि पडिगया ॥ ४० ॥ तएणं ते ईसाण कम्पवासी बहः वेमाणिया देवाय... : देधीओय बलिचंचा रायहाणि वत्थव्वएहिं, बहूहि असुरकुमारेहि, देवेोहिय देवीहिय. तामालस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज़माणं, निंदिजमाणं, खिसिजमाणं जाव : उत्पन्न हुवा सो कौन ? इस तरह तामली तापस के शरीर की हिलना, निंदा तिरस्कार व गर्दा करनेलमे. अवगणना करने लगे, हस्तादि से ताडना करने लगे, और जात्यादिक की हिलना, विशेष हिलना करने का लगे, ऐसा करके उस के शरीर को एकान्त में डालकर: जहां से आये थे वहां पीछे चले गये ॥ ४० ॥ उस समय में ईशान देवलोक में रहनेवाले बहुत देव कै देवियोंने बलिया राज्यवानी में रहनेवाले देर देवी को । 4880सीसरा शतक का पहिला उद्देशा88 ma Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थ 41 अनुवादक-बालअपचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2 . ईशान देवेन्द्र दे० देवराजा जे. जहां उ० जाकर क० करकेतल प०इकठेकर ददशनख मि. शिर्ष से आ०. आवर्तन म..मस्तक से अं० अंजलि कारकै ज० जयविजय व० बधाकर एक ऐमा व. बोले दे देवानुपिय० बलिचंचा रा० राज्यधानी में व. रहने वाले ब. बहुत अ० असुर कुमार दे० देव दे० देवी दे. देवानुपिय का काल को प्राप्त जा. जानकर ई. ईशान देवलोक में इं० इंद्रपने उ० उत्पमई पा देखकर आ० शीघ्रअसुरक्त जा. यावत् ए० एकान्त में ए०रखकर जा० यावतू जा. जिसदिशि से 'आकड्ड विकड्ढेि कीरमाणं पासंति, पासइत्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छइत्ता, करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंक? जएणं विजएणं वहावेंति, वडावइत्ता एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय देवाणुप्पिए कालगए जाणेत्ता, ईसाणेयकप्पे इंदत्ताए उववण्णे पासेत्ता, आसुरुत्ता तामली तापस के शरीर की हीलना, निन्दा, खिसना करते और उन के शरीर को मार्ग में घसीटते हुवे देखा. इस से बहुत क्रोधित बनकर ईशानेन्द्र की पास आये और हस्तद्वय से मस्तक को आवर्तना करके जय विजय शब्द से वधाये. वधाकर ऐसा बोले कि अहो देवानुपिय ! आप को काल प्राप्त हुवे व ॐईशानेन्द्र बने हवे जानकर बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले देव देवियोंने आपका मृतक शरीर की हि प्राधा-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । पण्णत्ति ( भवगती ) मूत्र 488 पा० आये ता. उसदिशि में प० पीछेगये।। ४१॥त. तब से वह ई० ईशान दे देवेन्द्र दे. देवराजा ते. उन ई० ईशान देवलोक निवासी ब. बहुत वे० वैयानिक दे० देव दे० देवी अं० पास ए. यह अर्थ सो०मूनकर नि: अवधार कर आ० असुरक्त जा. यावत् मि० देदीप्यमान त० तहां स शैयापे ग० गये दुवे ति• त्रिवली भि० भृकुटी सा० चढाकर ब. बलिचंचा रा० राज्यधानी अ० अधो स. दिशा स. विदिशा को स० देखे ॥ ४२ ॥ त० तब सा वह ब० बलिचंचा रा० राज्धानी ई. ईशान दे० देवेन्द्र दे० जाव एगंते एडति एडंतित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेवदिसिं पडिगए ॥ ४ ॥ है तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया,तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाणय देवीहै णय अंतिए एयमढे सोच्चानिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिज्जवरगए । E तिवलीयं भिउडि निडाले साहटु बलिचंचा रायहाणि अहे सपक्खि सपडिदिसिं समET भिलोएइ॥४२॥ तएणं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणणं देविदेणं देवरण्णा अहे सपक्खि लना, निंदा की. फीर आप के शरीर को एकान्त में डालकर अपने २ स्थान पीछे गये ॥ ४१ ॥ कीर) ईशान देवलोक में रहनेवाले देव देवियों से ऐसा सुननेसे ईशानेन्द्रने क्रोधित बनकर वहां ईशान देवलोक में शैय्या पर बैठे हुए ललाट में भृकुटि चढाकर बलिचंचा राज्यधानी की नीच, उपर सब दिशा व विदि. शिओं में अवलोकन किया ॥ ४२ ॥ इस तरह बलिचंचा राज्यधानी की ऊपर, नीचे, दिशी विदिशिओं में 48तीसरा शतकका पहिला उद्देशान - । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देवराजा अ अ स० दिशा स० प्रतिदिशा को स० देखते तेउस दि० दिव्य प्रभाव से ई० गार सारखा.मुमुर्मुरभूत तवा बेलुकण ततप्त अमिसरिखी जा० उत्पन्न हुइ॥४ात-तब ते..वे बसलिम चंचा रा०. राज्यघानी में व० रहने वाले ब० बहुत अ० असुर कुमार दे० देव देवी तं• उस व० बलिचंबा रा० राज्यधानी को ई० अग्निभूत जा. यावत् म० समज्योति भूत पा: देखकर भी० डरेहुवे उ० कंपेहुवे ता० त्रासेहुवे उ० उद्वेग पायेहुवे सं० भयसे व्याप्त स० सबबाजु आ. दोडे प० विशेष दोहे अ० अन्योन्य ___ सपडिदिसिं समभिलोइयाममाणातेणं दिन्वप्पभावणं,इंगालभूया,मुम्मुरभूयाछारिभूया,तत्त I कवेल्लयभया, तत्तासमजोइया जाया याविहोत्था. ॥ ४३ ॥ तएणते बलिचंचा रायE: हाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय तं बलिचंचा रायहाणिं इंगालभूयं जाव समजोइभूयं पासंति पासतित्ता भीया उतत्था तसिया उन्विग्गा संजायभया सव्वओ समंता आधाबंति परिधावति परिधावतित्ता अण्णमण्णस्सकायं समतुरंगेमाणा चिटुंति । भावार्थ देखने से उन के दीव्य प्रभाव से वह राज्यधानी अग्नि के अंगार समान, सुर्मुरे समान, गख समान, तप्तरेती समान व अति उष्ण अनि समान हुई ॥ ४३ ॥ उस समय में बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले देवों नगरी को अंगारे समान यावत् आनि समान देखकर भयभीत हुवे,. कंपनेलगे, उद्वेग करने लगे. 16इस तरह भयभीत बने हुवे चारों तरफ दौडने लगे और एक २ की काया में प्रवेश करने लगे ॥४४॥ 43 अनुवादक-बालबाह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिधी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्यारामसादजी Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 488+- पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 40 } की का० काय को स० प्रश करते चिः रहते हैं ॥ ४४ ॥ त० तब ते०वे ब० बलियंचा रा० राज्य धानी में व० रहने वाले ब० बहुत अ० असुर कुमार दे० देव दे० देवी ई० ईशान दे० देवेन्द्र को १० कुपित हुये जा० जानकर ई० ईशान दे० देवेन्द्र दि० दीव्य दे० देवऋद्धि दे० देवस्तुति दे० देवानुभाग (ते. तेजोलेश्या अ० नहीं सहते हुये स० स स० सबदिशा में स० प्रतिदिशा में ठि० रहकर क करके तल (द० दशनख सि० शिर्ष से आ आवर्तन म० मस्तक से अं० अंजलि क० करके ज० जयतिजय से व० ॥ ४४ ॥ तएणं ते बलिचचा रायहाणि वत्थन्ग बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय ईसाणं देविंद देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदर देवरण्णो तंदिवं देवि दिव्वदेवजुन्तिं, दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सच्चे सपर्किख सपडि दिसिं ठिच्चा करयल परिग्गहिदं दसनहं सिरसा वत्तं मत्थए अंजलिकट्टु जएणं विजण एणं उस समय में बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले असुर कुमार जाति के बहुत देव देवियोंने ईशानेन्द्र को कुपित जानकर उन की ऐसी दीव्य देवर्द्धि, देवद्युति, देवमहानुभाग, और दीव्य तेजोलेश्या नहीं सहन { करने से सब दिशी विदिशी में रहकर हस्तद्वय के दश नखों को एकत्रित कर मस्तक से आवर्तना करके जय विजय शब्द से बनाये और ऐसा बोले- अहो देवानुमिय ! आपको स ३ तीसरा शतक का पहिला उद्देशा ४५३ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 4 बधाकर ए. ऐसा व बोले १० आहेदेदेवानुप्रिय दि० दीव्य दे० देवऋद्धि मा. यावत् सन्मुख हुइ दि० देखी दे० देवानुपिय की दि० दीव्य दे देवऋद्धि जा. यावत् ल० लब्ध पल्याप्त स० सन्मुखहुइ स्वा० स्खमाते हैं दे० देवानुपिय स. क्षमाकरो तु. तुम्हे ण नहीं भुवारंवार एक ऐसा क. करने को एक ऐसे स. सम्यक् वि. विनय से भुं० वारंवार खा०. स्वमाते हैं. ॥ ४५ ॥त. तब से. ई० ईशान दे. देवेन्द्र वे० उन व० बलिचचा रा. राज्यधानी में व० रहने वाले ब• बहुत अ० अमुर बद्धवंति वढावतित्ता एवं वयासी अहोणं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी जाव आभि समण्णागया तं दिवाणं देवाणुप्पियाणं दिव्वा देविड्डा जावलद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, खामेमोणं देवाणुप्पिया ? खमं तुमं देवाणुप्पिया ! खमंतुमरिहंतुणं देवाणुप्पिया । गाइभुजो भुजो एवं करणयाएत्तिकटु, एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामति । ॥ ४५ ॥ तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणि वत्थव्वेहिं बहहिं । ई यावत् सन्मुख ऋद्धि हमने देखी हुई है अहो देवानुप्रिय ! हम आपका अपराध खमाते हैं. तुम हमारा अपराध की क्षमा करो. अहो देवानुपिय ! तुम हमारा अपराध क्षमा करने योग्य हो. इम कार्य वारंवार नहीं करेंगे. इस तरह सपमापसे विनय नमूता सहित क्षमा मांगने लगे ॥४५॥ जब बलिचंचा राज्यधानी में रहनेवाले देवों इस तरह बहुत विनय व नमूता सहित समभाव से वारंवार खमामलगे तब काशक-राजाबहादुर लाला मुखदबसहायजी जालाप्रसादजी . भावार्थ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० शब्दार्थ कुमार दे देव देवी के ए. इस अर्थ म. सम्यक विविनय से भुं० वारंवार खा. खमाते तं. उस दि• दीव्य दे० देवऋद्धि जा. यावत् ते० तेनोलेश्या ५० साहरण करे॥४६॥ त उस दिन गो० गौतम हते. वेब बलिचंचा रा. राज्यधानी में व. रहने वाले ब. बहुत अ० असुर कुमार दे० देव देवी ई014 ईशान दे० देवेन्द्र को आ० आदरकरे जायावत् प०पर्युपासना करे ई० ईशान दे० देवेन्द्र की आ• आज्ञा २० उपपात २० वचन नि निर्देश में चि० रहे गो० गौतम ई० ईशान दे० देवेन्द्र दे० देवराजा की सा० असुरकुमारेहिं देवहिय देवीहिय एयमटुं सम्मं विणएणं भुलो भुजो खामिएसमाणे तं दिन्वं देविढेि जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ ॥४६॥ तप्पमिइचणं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्थन्वा बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओय ईसाणं देविंदं देवरायं आढ़ति जाव पज्जुवासंति ईसाणस्सयस्स देविंदरस देवरण्णो आणा उववाय वयण निदेसे चिटुंति ॥ एवंखलु गोयमा ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्डी जाव ईशानेन्द्रने अपनी दीव्य देवदि यावत् तेजोलेश्या पीछी ले ली ॥ ४६॥ उस दिन से बलिचंचा राज्यधानी ६० के असुर कुमार देव ईशानेन्द्रका आदर सत्कार करते हैं यावत् उन की पर्युपासना करते हैं. और, न की आशा, उपपात, वचन व निर्देश में रहते हैं. अहो गौतम ! ईशानेन्द्रने ऐसी दीव्य देवदि । - पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ mammmitramma :४५६ का अनुवादक यालाचारी नि श्री अमोलक ऋषिजी mammanmmmmmmmmmmmmmmmmmmm हे दि दीव्य दें देवऋदि ना पात् सम्मुख हुइ ॥ ४७ ॥६० ईसान भ० भगवन् ३० देने दकी के कितनी ठि• स्थिति गो. गौतम सा• अषिकदो दीमागगेपम की ठि• स्थिति ॥ ४८ ॥1 ० शान में अगवा दे देवेन्द्र दे. देवराजा ना उस दे० देवलोक से आ. आयुष्य क्षय से जा. यावत् क. कहां म. जावेंगे क. कहां उ० उपजेंगे गो० गौतम म० महाविदेह क्षेत्र में सि सिमेंगे जा० यावत् अं० अंतकरेंगे ॥ ४१ ॥ स० शक्रेन्द्र भं०. भगवन् दे० देवेन्द्र का वि० विमान से ई० ईशान का अभिसमण्णागए ॥ ४७॥ ईसाणरस भंते देविंदस्स देवरण्णा केवइयं कालं ठिई । • ? गोयमा ! -साइरेगाई दोसागरोवमाणि ठिई १० ॥४८॥ ईसाणेणं भंते ! देविंदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव: कहिं गच्छहिति. कहिं उववाजिहिति गोयमा ! महाविदेहे वासे सिग्झिहिति जाव अंतं काहिति ॥ ४९ ॥ सक्करसणं भंते! यावत् महानुभाव ऐसे माप्त कीण॥४७॥अहो भगवन् ! ईशानेन्द्रकी कितनी स्थिति कही? अहो गौतम! ईशानेन्द्र की दो सोगरोपमसे अधिक स्थिति कही ॥४८॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र आयुष्य का क्षय होने पर कहाँ उत्पन होगे? अहो गौतम ! ईशानेन्द्र महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सीझेंगे बुझेंगे यावत् मवई दाखों का अंत करेंगे।॥४१॥ अहो भगवन् ! शकेन्द्र के विमान से ईशानेन्द्र के विमान क्या ऊंचे व सायक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसायजी मालाणसादगी* भावार्थ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4वि विमान ई० घोडे उ० ऊंचे. ई. थोडे उ०. उन्नत ई ईशान दे देवेन्द्र के विमान से सशक्र दे देवेन्द्र के । वि०किमान ई० घोडे नी नीचे गिन्युन है. हांगो गौतम स. शक का स० सर्व ने जानना से Vवह के. कैसे मो. गौतम ज. जैसे क. हथेली सि. होवे दे देश से उ० ऊंची उ. उन्नत पी. नीची नि० न्यून से०. वह ते. इसलिये ॥५०॥ १० समर्थ भ० भगवन् स० शक्र दे. देवेन्द्र ई० ईशान दे०१४ देविंदस्स देवरण्णो विमाणहितो ईसाणस्से देविंदस्स देवरको त्रिमाणा ईसिं उच्चयरा ईसिं उण्णवराचेव ; ईसाणस्सवा दोविंदस्स देवरण्णो विमाणेहिंतो सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो विमाणा ईसि जाययराचेव, ईसिं निण्णयराचेव ? हंता गोयमा ! सकस तंचेव मन्त्र नेयम् । सेकेणष्टेणं ? गोयमा ! से जहा नामए करयले सिया देसे उच्चे, देसे उण्णए, देसे जीए, देसे णिण्णे से तेण?णं ॥ ५० ॥ पभृणं भंते ! सके । भाषार्थ | उमर (गुण में अधिक ) है ? अथवा ईशानेन्द्र के विमान से शवेन्द्र के विमान क्या नीचे या न्युन हैं ? १. हा गौतम ! फेन्द्र से ईशानेन्द्र के विमान ऊंचे व उजत हैं. अहो भगवन् । यह किस तरह है ? 66 अहो गौतय ! जैसे हस्त का सला क्वचित् देव से ऊंचा, क्वचित् देश से जमत, क्वचित् देश से नीचा मचिद देश से न्या होता है वैसे ही भरे मौतम ! शकेन्द्र देवेन्द्र के विमान हैं ॥५०॥ अहो । पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 488 1481 तीसरा शतक का पहिला उद्देशा Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४५८ शब्दार्थ देवेन्द्र की अं०. पास पर आने को हं० हा प... समर्थ से वह भगवन् कि० क्या आ० बोकाया, अ विना बोलाया गो०. गौतमः भा० बोलाया णो० नहीं अ० विना बोलाया ॥ ५३॥ १०. समर्थ ई० ईशान दे० देवेंद्र स० कक्र दे.२ देवराजा की अं• पाप्त पा० आने को है ० हां ५०. समर्थ से० बहू भं०, भगवत् देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो अंतियं पाउब्भवित्तए ? हंता पभू । से । भंते किं आढामाणे पभू अणाढामाणे पभू ? गोयमा ! आढामाणे पभ, णो अणाढा. माणे पभू ॥ ५१ ॥ पभूणं भंते ईसाणे देविंद देवराया सक्कस्स देवरण्णो- अंतियं पाउब्भवित्तए ? हंता पभू । से भंते ! किं आढामाणे पभू, अणाढामाणे पभू ? भगवन् ! शक्र देवेन्द्र ईशान देवेन्द्र की पास: प्रगट होने को क्या समर्थ है ? हां. गौतम. ! शक्रेन्द्र ईशानेन्द्र की पास आने को समर्थ है. तब अहो भगवन् ! क्या वह बोलाये हुवे. या विना बोलाये हुए आने को सर्थ है ? अहो मौतम ! ईशानेन्द्रकी पास शकेन्द्र बोलानेपर आने को ममर्थ है, परंतु विना बोलाये आन को समर्थ नहीं है ॥ ५१ ॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र की पास आने को समर्थ है ? हा ग्वाम ! ईशानेद्र शक्रेन्द्र की पास आने को समर्थ है. अहो भगान् ! यह क्या बोलाये हुए आने को समर्थ है या किना बोलाये हुए आने को समर्थ है ? अहो गौतम ! ओलाये हुए भी आने को समर्थ है.. 03 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी wammananAm प्रकाश राजाबहादुर लाला सुखंदैव सहायजी जालाप्रसादजी भावार्थ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4:400 क पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 488 कि क्या बोलाया अविना बोलाया-गो. गौतम आ. बोलाया अ० विना बोलाया ॥५२॥ ०५. समर्थ भं० भगवन् स. केंद्र दे०. देवेंद्र ई. ईशान दे वेद्र को स. सब दिशा स. विदिशामें स.. V देखने को 10 जैसे पा० आने में ततैसे दो दो या. आलापक ने जानना ॥५३॥प. समर्थ स. शक दे• देवेन्द्र ई ईशान दे देवेन्द्र की स• साथ आ० आलाप सं० संलाप क० करने को है. हा १५० समर्थ ॥५४॥ अ० है ० भगमम् ते. उन म. शक ईशान दे देवेन्द्र को कि० कार्य क.११ मोयमा ! आढामाणेवि पभू, अणाढामाणेवि पभू ॥ ५२ ॥ पभूणं भंते : सक्के देविंद्रे है देवराया ईसाणं देविंद देवरायं सपक्खि सपडिदिसिं समाभिलोएचए? जहा पाउभवणा लहा योवि आलावमा योमन्वा ॥ ५३ ॥ पक्षणं भंते! सके देविंदे देवराया ईसा येणं देविदेणं सर्हि भालावंचा संलावंवा करेत्तए । हला प्रभू, जहा पाउम्भवणा ॥ और बिना बोलाये हुए श्री माले को समर्थ है ।। ५.२ ॥ अहो भगवन ! केन्द्र ईशानेन्द्र की बाजु पर या की दिशी विदिशी में देखने को समर्थ है ? अहो गौतम ! जैसे आने के हो, आलापक कहे की देखने के दो मालाफक मस्सना ॥ ५३ ॥ अहो भगान् ! शवेन्द्र ईशानेन्द्र की साध आलाप माला करमे को क्या समर्थ है ? हो मौतम ! शकेन्द्र 'ईशानेन्द्ध की साथ आलाम सलाम करने को समझ मगरह पाने के दो आलाप जैसे कहना ॥ १४ ॥ अमो भगक्नु ! क्या जन शक ईशानेन्द्र देवों को माता तीसरा शतकका महिला उद्दमा भावार्थ mercianmargin Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALAcned सन्दा करने का है. हाल है से वह क• क्या प० करे गे गौतम से० वह स० शक्र दे० देवेन्द्र ई ईशान । ० देवेन्द्र की अं० पास पा. नावे ई० ईशान दे० देवेन्द्र स० शक्र दे० देवेन्द्र की अं० पास पा० नावे EH९ शक दे० देवेन्द्र दा० दक्षिणार्ध लोक के अ० अधिपति ई० ईशान दे० देवेन्द्र उ० उत्तरार्ध लोकके में श्रा अधिपति से वे अ. अन्योन्य के कि० कार्य क. करने योग्य प०करते हो वि.विचरते हैं॥५॥ई आत्थिणं भंते! तेसिं सक्रीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाइं ? हता अस्थि, । से कहमियाणि पकरेइ ? गोयमा ! ताहे चेवणं से सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरपणो अंतियं पाउन्भवह । ईसाणेवा देविंद देवराया सक्कस्स. दोषदरस देवरणो अंतियं पाउन्भवइ । इति भो सक्का देविंदा देवराया दाहिणडलो. गाहिबई । इति भो ईसाणां देविंदा देवराया उत्तरड्ड लोगाहिबई । इति भो इति भोत्ति, ते अण्णमण्णस्स किच्चाई करणिजाइं पञ्चणुष्भवमाणा विहरंलि ॥ ५५ ॥ भावार्थ योग्य कार्य हैं ? हां गौतम ! उन को कार्य हैं. अहो भगवन् ! ये कैसे करते हैं ? अहो. गौतम ! केन्द्र ईशानेन्द्र की पास प्रगट होवे. ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र की पाम प्रगट होचे. और भी शकेन्द्र दक्षिणार्थ क का अधिषति है और ईशानेन् उत्तराध लोक का अधिपति है.. इति भो इति भो ऐसे परस्पर 17 वार्तालाप करते परस्पर के कार्य करते हुवे विचरते हैं ॥ ५५ ॥ अहो भगवन ! शक्रेन्द्र व ईशानेन्द्र को अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी म.. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालापसादजी * Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ मग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र + अ० है ० भगवन ते उन स० शक्र ईशान दे देवेन्द्रको वि० विवाद स० उत्पन्न होता है है ० डॉ अच्छे से० वह क० क्या इ० उसवक्त प० करे गो० गौतम स० शक्र ईशान दे० देवेन्द्र म सनत्कुमार दे० देवेन्द्रको म० मनसे चिन्तवना क० करे त० तब से वह स० सनस्कुमार ते उन स० शक्र ईशान दे० देवेन्द्र से म० चितवन क० कराये खि शीघ्र स० शक्र ईशान दे० देवेन्द्र की अं० पास पा० जात्रे जं० जो से० वह व० कडे त० उन को आ० आज्ञा उ० उपपात व वचन नि० निर्देश में चि० रहे ॥ २० ॥ स० सनत्कु अत्थिणं भंते : तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं वित्रादा समुप्पजंति ? हंता आत्थि । से कहाभिदाणिं पकरेइ ? गोयमा ! ताहेचेवणं सक्कीसाणा देविंदा देवरायाणो सणकुमारं देविंद देवरायं मणसी करेइ, । तएणं से सणकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सक्कीसाणेहिं देविंदेहं देवराईहिं मणसी कए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउब्भवंति । जैसे वयइ तस्स आणाउववायवयणणिद्दे से चिट्ठति ॥५६॥सणंकुमाक्या विवाद उत्पन्न होता है ? हां गौतम ! उन को विवाद उत्पन्न होता है. अहो भगवन् ! विवाद {के अवसर में वे क्या करे ? अहो गौतम ! वे दोनों सनत्कुमारेन्द्रकी मन से चिन्तवना करे. इस तरह उनको चिन्तवना करते हुवे जानकर सनत्कुमारेन्द्र शीघ्र शक्रेन्द्र ईशानेन्द्र की पास आत्रे. और जो वह कहे वैसे उन की आज्ञा, उपपात, वचन व निर्देश में रहे ॥ ५६ ॥ अहो भगवन् ! सनत्कुमारेन्द्र क्या भवसिद्धिक है। 44- तीसरा शतकका पहिला उद्देशा ४३१ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330TFORM - शब्दाथे|4|मार ० भगवन कि क्या भ० भसिद्धिक अ० अभवसिद्धिक स० समदृष्टि मि. मिथ्या दृष्टि प० परत संसारी अ अत संसारी मु० मुलमबोधि दु० दुर्लभ बोधि आ० आराधिक वि० विराधिक च० चरम 4 . अचरम गो. गौतम स० सनत्कुमार दे. देवेन्द्र भ० भवसिद्धिक णो नहीं अ० अभवसिदिक ए. ऐसे स• समष्टि ५० परत मु० सुलभ बोधि औ• आराधिक च. चरम म०प्रशस्त ने जानना से वह के कैसे भे० भगवन् गो० गौतम स० सनत्कुमार दें० देवेन्द्र ब. बहुत स. साधु सं० साध्वी सा. __रेणं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए, सम्मविट्ठी, मिच्छदिट्टी - परित्तससारिए, अणंतसंसारिए, सुलहबोहिए, दुल्लमबोहिए, आराहए, विराहए, चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सर्णकुमारेणं देविंद देवराया भवसिद्धिए जो अभवसिद्धिए, एवं सम्ममिच्छ, परित्त अणंत, सुलहबोहिए दुल्लभबोहिए, आराहए विराहिए चरिमे पसत्थं नेयव्यं ॥ से केणट्टेणं औते ! गोयमा ! सणंकुमारे देविंदे देवराया बहूणं सम- . भावार्थ या अभयसिद्धिक है, सम्यग् दृष्टि में या मिथ्याहीष्ट है, परत संसारी हैं. या अनंत संसारी है, मुलभ में बोधी हैं या दुर्लभ बोधी है, आराधक है या विराधक है और चरिमै या अचरिम है ? अहो गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवं सिद्धिक, सम्यग् दृष्टि, परत संसास, सुलभ बोधी, अराधक व चरिम शगैरी हैं. अही भगवन् ! यह किस तरह है? अहो गौतम : सनत्कुमारेन्द्र बहुत साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका के अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषित माशंकभांजविहादुर लाली सुखदेवसहायजी जालापतादजी. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पंचांग हिवाच पम्पत्ति (भगवती) मूत्र Bre श्रावक सा० श्राविका का हि० हितका इच्छक सु. सुख का इच्छक प. पथ्य का इच्छक अं• अनुकंपा सहित निमोक्ष हि हित मुख नि० मोक्ष का इच्छक ते. इसलिये गो. गौतम स० सनत्कुमार भ० भवसिद्धिक जी. यावत् नो नहीं अ. अचरिम ॥ ६७॥स. सनत्कुमार भ० भगवन दे. देवेन्द्र की के० कितनी ठि० स्थिति ५० प्ररूपी स० सात सा. सागरोपम की ठि० स्थिति ॥ ५८ ॥ से बह भ०७ जाणं, बहूणं समणीणं, बहणं सावयाणं, बहुणं सावियाणं हियकामए, सुहकामए, पत्थकामए, आणुकंपिए, निस्सेयसिए, हिय, सुह, निस्सेसकामए, से तेण?णं गोयमा ! . सणकुमारेणं भवसिद्धिए जाव णो अचरिमे ॥ ५७ ॥ सणंकुमारस्स भंते ! देविंदस्स में देवरणों केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तसागरीवमाई ठिई पण्णत्ता ॥५८॥ सेणं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ज़ाव कहिं उववजिहिति? गोयमा ! हित के कामी, सुख के कानी, पथ्य के कामी, अनुकम्पावाले, मोक्षके वच्छिक वैसे ही हित, सुख, व मोक्ष के कामी है। इसलिये अहो गौतम ! वे पमहाष्टि यांवत् चरिम शरीरी है ॥५॥ अहो भगवन् सनत्कुमारेन्द्र की कितनी स्थिति कही? अहो गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र की स्थिति सात. सागरोपम की कही ॥५०॥ अहो भगवन् । यह सनत्कुमारे आयुष्य का क्षय हुवे पीछे वहां से कहा उत्पन्न होवेंगे? अहो गौतम।। महविदेह क्षेत्र में उत्पन्न झमे सिझेंगे, बुझेमे मारन संत्र दुखों का अंत करेंगे अब इस उद्देशे में भी अपि Anamnamawwwwwwwwwwwww सीसरा शवकका पहिला उद्देशा 9 भावार्थ 88 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ww शब्दार्थ भगवन् ता० उस दे० देवलोक से आ० आयुष्य क्षय से जा. यावत् कः कहाँ उ० उपजेगा गो० गौतम म० महाविदेह क्षेत्र में सि. सिझेगा जा. यावत् अं० अंतकरेगा स• यह ए. ऐसे में भगवन् त्तिः ऐसे ॥७॥१॥ . * महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंत करेहिइ सेवं भंते भंते त्ति ॥ गाहाओ छठुट्ठममासोअडअड, मासो वासाइं अद्ध छम्मासा, तीसग कुरुदत्ताणं, तव भत्त परित्त परियाओ ॥ १ ॥ उच्चत्त विमाणाणं पाउब्भव पेच्छणाय सलावे ॥ किञ्चवि वादुप्पत्ती, सणंकुमारेय भवियत्तं ॥२॥ मोया सम्मत्तो ॥ इति तइए सए पढमा उद्देसो E सम्मत्तो ॥ ३ ॥१॥.... * * * * भावार्थ कार कहा है उस का संक्षेप से गाथा द्वारा बतलाते हैं. तिष्यक अनगारन बेले २ पारणे किये, कुरुदत्त अनगारने तेले तेले पारने किये, तिष्यक अनगार का एक मासका संथारा और कुरुदत्त को १५ दिन का संथारा तिष्यक अनगार को आठ वर्ष की दीक्षा और कुरुदत्त को छ मास की दीक्षा. विमानों की ऊंचाई इन्द्रों का मीलना, इन्द्रों का अवलोकन, इन्द्रों का संभाषण, इन्द्रों का कार्य, इन्द्रों का विवाद, सनत्कुमारेन्द्र द्वारा समाधान और भव्य अभव्य का प्रश्न कहाः यह मोया नामक नगरी का 10 अधिकार समाप्त हुवा. यह तीसरे शतकका प्रथम उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥१॥ + . 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी Swimmindian .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालापसादनी Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + शब्दार्थ 14 ते उस काल ने उस समय में रा० राजगृह न० नगर हो० था जा० यावत् प०परिषदा १० पर्यंपा । 4सना करते ॥ * ॥ ते. उस काल ते० उम समय में २०. चवर अ• असुरेन्द्र च० चमर चंचा रा० राज्य धानी स० सभा सु० सुधर्मा के.च०चमर सी. सिंहासन च० चौप्तठ सा० सामानिक सासहस्र जाल्यावर न० नाव्यविधि उ. बताकर जा०जिसदिशि से पा० आया ता. उसदिशि में प० पीछागया ॥१॥ तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे नयरे होत्था, जाव परिसा पज्जुवासइ, ॥ * ॥ .तेणं कालेणं, तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमर चंचाए रायहाणीए सभाए. है सुहम्माए चमरंसि सीहासणसि चउप्तट्ठीए सामाणिय साहस्सोहिं जाव नदृविहं उव दंसेत्ता जामेवदिसिं पाउब्भए तामेवदिसि पडिगए ॥ १ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे भावार्थ प्रथम उद्देशे में देवता की विकर्षण का सारूप कहा. अब दूसरे उद्देशे में देव की शक्ति का प्रश्न पूछते हैं. उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था. उस के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे. परिषदा आकर सेवा भक्ति करने लगी.॥७॥ उस काल उस समय में | चमर नामक असुरेन्द्र असुरदेव के राजा चमर चंचा राज्यवानि में मुधर्मा सभा के चमर नामक सिंहासन पर चौसठ हजार सामानिक देव सहित बैठे हुए थे. श्री श्रमण भगवन्त को राजगृही नगरी के गुणशील, 1 नामक उद्यान में बैठे हवे अवधिज्ञान से देखकर सब परिवार सहित वंदन करने को आय, यावतीका पंचमांग विवाह पण्यत्तेि ( भगवती) सूत्र ++ 4 तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा +ER म Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कान शब्दार्थ १० भवान् बोर गौतम सा अमण भ. भगवस्त प. महावीर को 20 बंदनाकर न० नमस्कारकर ह त ऐसे ५० बोले अ० है भं भगवर ई.इस र० रत्नप्रभा पृथ्वी की अ० मीचे अ० असुर कुमार देष प.al रहते हैं मो. गौतम पो० नहीं इ. यह अर्थ स. समर्थ १० ऐसे मा० यावत् अ० नीचे स० मातबी पु. पृथ्वी की मो सौधर्म क. देवलोक की अ• नीचे जा. यावत् ई० ईपत्पागभार . पृथ्वी की। 40 असर कुमार दे. देव प० रहते हैं णो नहीं इ. यह अर्थ स समर्थ ॥२॥मेवे क. किस _समणं भगवं महावीरं वैदइ नमसइ नमसइत्ता, एवं वयासी आत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पमाए पुढबीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसाते, ? गोयमा ! णो इण? समट्टे. स एवं जाच अहे सत्समाए पढवीए, सोहम्मस्त कप्पस्स अहे. जाव आत्थणं भंते ! ईसिप्पभाए पुढवीए असुरकुमारा देवा परिवसंति ? जो इणष्टुं समटे ॥२॥ से कहिं भोवार्थ बत्तीस प्रकार के नाटक बताकर जहां से आये थे वहां पीछे गये ॥१॥ उस समय में भी गोतम स्वामीने श्रमण भगवंत श्रीमहावीर को वंदना नमस्कारकर ऐना प्रश्न किया कि अंहो भगवन् ! मसुर कुमार मासि के देव क्या रत्नप्रभा पृथ्वी की नीचे रहते हैं ? अहो मौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो ममवम् म ये दुतरी, तीमरी यावत् सातवी पृथ्वी की नीचे रहते हैं अथवा सोधर्म देवलोक यावत् ईषत् माधार पृथ्वी की मीचे रहते हैं ! अहो गौतम ? यह अर्थ योग्य नहीं है. ॥२॥ अब अहो का अमुवादक-बालप्रलयाने मुनि श्री अमोलक कापणी+ काधक-यजाबहादुर लाला सुखदेक्सहायनी वालाप्रसादजी. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. . . . तीसरा . शब्दार्थ स्थान में भगवन् अ० अमुर कुमार दे० देव प० रहते हैं गो० गौतम इ० इस ररत्नप्रभा पु०पृथवी का pot० अस्ती उ० उत्तर जो० योजन सं० लाख बा० जाइपने एक ऐसे अ. अमुर कुमारदेव ३० वक्त क्यता जा. यावत् दिदीच्य भो० भोग मुं. भोगते वि. विचरते हैं ॥३॥ अ०है भं० भगवन् । * अमुर कुमार दे देव अ० अधोगति में वि० विषय ६० हां अ० है. के. कितना भ० भगवन् अ. खाइणं भंते ! असुरकुमारा देका परिवसंत ? मोयमा ! इमीसे ग्यणपभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स, बाहल्लाए, एवं असुर देव क्तबयाए, जाब दिवाई मोग भोगाई भुंजमाणा विहरति ॥३॥ आस्थिणं भंते ! असुरकुमारणं देवाणं अहे गति भावार्थ भगवन् ! वे असुर कुमार कहां रहते हैं ? अहो गोत्रम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का एक लाख भस्सी. हजार केजन का पृथ्वी पिंड है. इस में एक हार उपर क एक हजार नीचे छोड़ कर एक लाख अह हत्तर हजार योजन की पोलार है. जिस में प्रथम नाक के बारह आंतरे व तेरह पाथडे हैं। उपर का एक व नीचे का एक से दो आंतरे छोडकर शेष दश आंतरे में ‘दश जातिके पति देव के सान कोड वहचर लाव विमान हैं. प्रथम अंतर में अमरकुमार जाति के देवता का के ६४०२०१० भवन हैं. वहां "अमुरकुमार देवता दाम ऋद्धि व उत्स, भोग भोगवते हुए विचरते ।। हैं. ॥ अहो भानन् : अमर कुमार, नकि के देनों को नीचे जाने की क्या शक्ति namammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm पंचमाङ्ग विबाह पण्णाति (भमवती) सूत्र | शतकका दूसरा उद्देश । wwwimmine Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ असुर कुमार दे० देवका अ० अधो गए नति में वि० विषय गो० गौतम ना पावत् अ० अधोस सातवी पु० पृथ्वी त० तीसरी पु० पृथ्वी को गये ग० जावेंगे ॥४॥ किं० क्या पः प्रयोजनसे मे० भगवन [अ० अमुर कुमार दे० देव त० तीसरी पु० पृथ्वी में ग० गये ग० जावेंगे गो० गौतम पु० पूर्व वैरी की है वे० वेदना उ० उदीरना करने को सु० पूर्वसंगति की वे० वेदना उ० उपश्रमाने को ॥ ५ ॥ अ० है सिए? हंता अत्थि केवयाणं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसर पण्णत्ते ? गोयमा ! जाव अहे सत्तमा पुढवीए, तच्चं पुण पुढविं गयाय गमिस्संतिय ॥ ४ ॥ किं पतियणं भंते ! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढत्रिं गयाय, गमिस्संतिय ? गोयमा ! पुख्ववेरियसवा, नेयणउदीरणाएं, पुत्रसंगइयस्स वेयण उवसामण्णयाए एवंखलु असुरकुमारा देवा तच पुढत्रिं गयाय गमिस्संतिय ॥ ५ ॥ अत्थणं भंते ! असुरकुमाराणं हां गौतम ! वे नीचे सातवी नरक तक जासकते हैं परंतु तीतरी पृथ्वी तक गये है और जायेंगे ||४|| | [ अहो भगवन् ! किस कारन से देवता नीचे तीसरी पृथ्वी तक गये हैं और जावेंगे ? अहो गौतम ! पूर्व { जन्म का बैरी नरक में उत्पन्न हुआ होवे तो उन की वेदना की उदीरणा करने केलिये अथवा पूर्व जन्म का मित्र नरक में उत्पन्न हुवा होने उन की वेदना उपशमाने के लिये असुरकुमार जाति के देव तीसरी नरक { तक गये हैं और जायेंगे || ६ || अहो भगवन ! असुरकुमार देव तिच्र्छा गमन कर सकते हैं ? हा गौतम ! - अनुवाद के अहह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ४६८ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - शब्दार्थ १० भगवन् अ० असुरकुमार दे० देवका ति तिर्यक गति में वि० विषय है. हां अ० है के० कितना | भगवन् अ० असुरकुमार बोका ति तिर्यक् गति में वि० विषय मो० गौतम जा. यावत् अ.. असंख्यातं दी दीपं स० समुद्र नं नंदीश्वर द्वीप को ग गये ग. जावेंगे कि क्या ५० कारन से भे0:11 भगवन अ० अमुर कुमार दे देत्र नं० नंदीश्वर द्वीप को ग० गय ग. जविंगे जे० जो अ० अरिहंत भ..] भगवन्त का ज० जन्म महोत्सव नि दीक्षा महोत्सवणा० ज्ञान उत्पात महोत्सव प० निर्वाण महोत्सव में देवाणं तिरियगति विसए पण्णत्ते ! हंता आत्थि। केवइयाणं भंते असुरकुमाराणं वेवाणं है तिरियगइविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव समुद्दा नंदिस्सरवरं पुण. में दीवं गयाय गमिरसंलिय । किं पत्तियणं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं दीवं गयाय, गमिस्सतिय? गोधमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो एएसिणं जमणमहेसुवा, निक्खमण महेसुवा, गाणुप्पायमहिमासुवा,.. परिनिव्वाण महिमासुवा, एवंखलु असुर भावा असुर्रकुमार देव तिच्छे जाते हैं. अहो भगवन् ! असुरकुमार देव ताळे कहांतक जाते हैं ? अहो गीतम! उन की जाने की शक्ति असंख्यात द्वीप समद्र तक की है परत आठवा. नंदीश्वर द्वीप तक 10गये हैं और जायेंगे. अहो भगवन् ! वे अमुर कुमार देव किस कारनमें नंदीश्वर द्वीप में गये और जावेंगे बडो गौतम ! भारत भमवंत के जन्म पहोलाब, बीक्षा महोत्सव, झान का. उत्पन होने * पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा wwwwwwwwwwwwwww Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ foo (०: अर कुमार देव नं० नंदीश्वर द्वीप को ग गये ग० जविं ॥ ६ ॥ अ० है मं० भगवन् सुकुमार देव देवका उ० ऊर्ध्वगति विषय ई० हां अ० है के० कितनी भ० भगत्रम् अ० असुर कुमार देवका उ० ऊर्ध्वगति विषय गो गौतम जा० यावत् अ० अच्युत देवलोक सो० सौधर्म देवलोक (१० गये ग० जावेंगे किं० किस प० प्रयोजन से भ० भगवन् अ० असुर कुमारदेव सो० सौधर्म देवलोक {को ग० गये ग० जायेंगे गो० मौसम ने उन दे० देवों का भ० भवमत्यय का वे वैरसे से ० वे देवदेव त्रि० कुमारा' देवा नंदिस्सरवरं दी गयाय गमिस्संतिय ॥ ६ ॥ सात्थिनं भंते! असुर कुमाराणं देवाणं उड्डगइत्रिलए ? हंता अस्थि । केवइयं चणं भंते ! असुरकुमाराणं देवानं उ गतिविसए ? गोयमा ! जाव अच्चुए कप्पे सोहम्मं पुण्यंकप्पं गयाय गमि सांतिय । किं पत्तियणं भंते ! अंसुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं मयाय गमिस्सलिय ? महोत्सव और निर्वाण का महोत्सव इन चार कारन से नंदीश्वर द्वीप को असुर कुमार देवता गतकाल में गये और भविष्य में जायेंगे || ६ || अहो भगवन् ! असुरकुमार देवों की उपर जाने की शक्ति का विषय है ? हा गौतम! असुर कुमार देवों को उपर जाने की शक्ति है. यही भगवन् ! वे ऊर्ध्व लोक में कहां लग जा सकते हैं ! अहो गौतम ! उन में अच्युत देवलोक तक जाने की शक्ति हैं किन्तु सौधर्म देवलोक तक गये हैं और जायेंगे. अहो भगवन् ! असुर कुमार देव किस कारन से ऋपिसी 48 अनुवादक - वालाचारी मुनि श्री * प्रकाशक सजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * सौधर्म देवलोक में) ४७० Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थों में विकुर्वणा करते ५० परिचारणा करते आ० आत्मरक्षकदेव को वि• बास उपजावे अ० यथा ल० लघु र० रत्न ग० ग्रहणकर आ. स्वतः ए. एकान्त में अ० जावे ॥ ७॥ अ.है भं. भगवन् ते. उन दें देवोको अ० यथा ल० लघु र० रत्न इं० हां अ० है से• वह क. क्या इ० इनको प० करे त. पीछे का काया को प० पीडा उपजावे ॥८॥५० समर्थ भं. भगवन् अ० असुर कुमार देव त. तो गोममा ! लेसिणं देवाणं भवपञ्चइय वेराणुबंधे तेणं देवा विकुन्नमाणा परियारेमाणांवा, है। आयरक्खे देवे विचासेंति, अहा लहुसगाई रयणाई गहाय आयाए एगंतमंतं अव कमति ॥७॥ आत्थिणं भंते ! तेसिं देवाणं अहा लहुसगाई रयणाई ? हंता. आत्थ। से कहमिदाणि पकरेइ, तओसे पच्छाकायं पव्वहंति ॥ ८ ॥ पभूणं भंते ! तेसिं. अ. गये और जानेंगे ? अहो मौसम ! भवप्रन्पयिक बैरसे वे देव विकुर्वणा करते हुए या अन्य देवी की साथ परिचारणा करने की बांच्छा करते हुए आत्म रक्षक देवको त्रास उत्पत्र करते हैं. अयवा बहुत रस्नों ग्रहण करके एकान्त में चलेजाते है ॥७॥ अहो भगवन् ! उन वैमानिक देवों को क्या यथा-1 य छोते रत्न है ? हां गौतय ! उन को छोटे रत्नों रहे हुने हैं. फीर उन रत्नों की चोरी करनेवाले को क्या करते हैं ? अहो मौतम ! उन लेनेवाले को रत्नका मालिक देवता प्रहार करता है जिस से उन को महावेदमा होसी वह जघन्य गर्मुहूर्त उत्कृष्ट छमास तक रहती है ॥ ८॥ अहो भगवन् ! अमुर कुमार का विवाह षण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र +सीसग शतक का दूसरा उद्देशा Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ૪૬ शब्दार्थ ग. गये हुवे वा० उन अ. असा की स• साथ दि० दीव्य मो• भौगोपभोग 8० भोगवते.वि. चिरने को जो नहीं इ० यह अर्थ स० ममर्थ तक तहां से प० नीकलकर इ० यहाँ आ० आकर ज. जो अ०१॥ दचियों आ० भादर करती हैं ५०. पारीचारणा इच्छे प० समर्थ ते०. वे अ अमर कुमार दे० देव ता. उन अ० देवियों की स० साथ दिदिव्य भा० भाग भुं० भोगते वि०विचरने को अथवा सा• वे अपने देवियों नो० नहीं भा• आदर करे मो. नहीं प. परिचारणा इच्छे णो नहीं प०, समर्थ ते वे अ० असुर सुरकुमारा देवा तत्थगया चव समाणा ताहिं अच्छराहिं सादि दिन्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहारत्तए प्रो इणद्वे सम? । तेणं तओ पडिनियत्तंति पड़िानयत्त । इत्ता इहमागच्छइ इहमागच्छइत्ता, जइणं ताओ अच्छराओ आढायति परियाणंति पभूण ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं भोग भोगाई । भुंजमाणा विहरित्तए ॥ अहणं ताओ अच्छराओ नो आढायंति नो परियाणंति णोणं है देव चैमानिक में रही हुई अप्सराओं की साथ भोग भोगवने को क्या समर्थ हैं ? अहो गौतम : यह अर्थ समर्थ नहीं है... अर्थात् वे वैमानिक देवलोक में वहां की अप्सराओं की साथ भोग भोगवने को समर्थ नहीं हैं. वे अमुर कुमार देव वहां से अप्सराओं को लेकर पीछे अपने विमान में आते हैं, विमान में आये 16 पीछे यदि वे अप्सराओं उन को आलिंगन करे या सामीपने जाने तो वे उन की साथ भोग भोगने को अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी मकासक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 18- पंचमांग विवाह पण्णाति ( भगवती ) देवियों की स० साथ दि० दीव्य भो० भोग भोगवते व विचरने को ए अमर कुमारदेव सो० सौधर्म देवलोक में ग० गये ग० जावेंगे ॥ ९ ॥ के० कितने { काल में अ० अमुर कुमार देव जं०ऊर्ध्व उकडे जा०यावत् सो० सौधर्म दे० देवलोक में ग० गये गं जावेंगे गो० गौतम अ० अनंत ओ० उत्सर्पिणी अ अर्पिणी स० समय व्यतीत हुने अ ० है ए० ऐसे लो• 1 कुमारदेव ता० उन अ ऐसे गो० गौतम अ० भूते, असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहरित्तए ॥ एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गयाय गमिस्संति ॥ ९॥ केत्रइयकालस्सणं भंते ! असुरकुमारा देवा उढुं उप्पयंति जात्र सोहम्मं कप्पं गयाय गमिस्संतिय ? गोयमा ! अनंताहिं ऊसप्पिणीहिं अनंताहिं अवसप्पिणीहिं समइकंताहिं । अत्थिणं एस भत्रे लोयत्थेग्यभए समुप्पज्जइ, जण्णं असुरकुमारा देवा समर्थ हैं परंतु यदि वे अप्सराओं उन को आदर करे नहीं या उन को स्वामीपने जाने नहीं तो उन की {साथ भोग भोगने को वे समर्थ नहीं हैं. अहो गौतम ! इस कारन से असुर कुमार देव सौधर्म देवलोक में {गये और जावेंगे ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! कितने काल में असुर कुमार देव ऊंचे जावे यावत् सौधर्म देवलोक में गये या जायेंगे ! अहो गौतम ! अनंत अवसर्पिणी उत्तर्पिणी व्यतीत हुए पीछे ऐसा होता * तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा ४७३ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ अशापाया आर्य भूत स० उत्तम हो ज० जिससे अ० असुर कुमारदेव उ• अर्ध्व जा. यावत् सो सौधर्म देवलोका १०॥ कि. किस नि. निश्राय से भं० भगवन अ० असुरकुमार देव उ अर्थ जायावत् सौ सौ देवलोक गो गौतम से० वह ज जैसे इ० यहां स०अनार्य व०बर के अनार्य के ट० टकण देशके अनार्य । भभूचुकदेश के ५० प्रश्नदेश के पु०भिल्लादि ए०एक म०बडा व बन गसहा दु०. दूर्ग द० गुफा वि० विषम प० पर्वतकी णी० निश्राय सु० अतिशय अर अश्ववल ह० हस्तियल मो० योधवल ध० घमुष्ययल उर्दू उप्पयंति जाव सोहम्मेकप्पे ॥ १० ॥ किं निस्साएणं भंते । असुरकुमारा देवा है उड्डे उप्पयंति जाव सोहम्मे कप्पे ? गोयमा ! से जहानामए इह सव्वराइबा, वन्वE राइवा, टंकणाइवा, भूच्याइवा, पण्हायाइवा, पुलिंदाइवा, एगं महं वर्णवा, गडेवा, १ दुग्गंवा, दरिंवा, विसमवा, पव्वयंवा, णीसाए सुमहल्लमवि, अस्सबलंवा, हत्थिबलंबा, जोहबलंवा धणुबलंवा, आगिलंति; एवामेव असुरकुमारा देव णण्णस्थ अरहंतेवा, भावार्थ Ft. और जब ऐसा होता है तब यहां मनष्य लोक में आश्चर्यरूप ( अच्छेरा) गिना जाता है॥१ हो भगवन् ! असुर कुमार देव किस की नेश्राय ( आश्रय ) लेकर उपर जाते हैं ? अहो गौतम ! जैसे जंगल के निवासी भील लोक, बर. देश के अनार्य लोक, टंकण देश के अनार्य लोक, भूच देश के अनार्य लोक, प्रश्न देश के अनार्य लोक, और भील वगैरह लोकों एक बडा बन, खड्डा, दुर्ग, गुफा, विषम-17 .48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलकर प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादजी Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ ** पंचमात्र विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र को आ० खेदित करे ए० ऐमे अ० असुरकुमार देव अ० अरिहंत अ० छद्मस्थ अरिहंत अ० अनगार भा० भवितात्मा की नि० नेश्राय उ० ऊर्ध्व जा० यावत् सौधर्म देवलोक || ११|| स० सत्र अ० असुर कुमार देव उ० ऊर्ध्व उ० ऊंडे जा० यावत् सो० सौधर्म देवलोक गो०गौतम नो०नहीं इ० यह अर्थ स• समर्थ म० महर्द्धिक अ० असुर कुमार देव उ० ऊर्ध्व उकडे जा० यावत् सो० सौधर्म देवलोक ||१२|| ए०यह मं० भगवन् अ० असुरेन्द्र अ० अरहंतचेइयाणिवा, अणगारे, भावियप्पणो निस्साए उ कप्पे ॥ ११ ॥ सब्वेत्रियणं भंते ! असुरकुमारा देवा उ उप्पयंति जात्र सोहम्मे उपयंति जाव सोहम्मे कप्पे ! गोयम' ! णोइणद्वे समट्टे । महिड्डियाणं, असुरकुमारा देवा उङ्कं उप्पयंति जाव सोहम्मे कप्पे ॥ ७२ ॥ एसवियणं भंते ! चमरं असुरिंदे असुरराया उड् उप स्थान व पर्वत के आश्रय से बहुत बडा अश्ववल, हस्ती बल, योध बल, और धनुष्य बल को पराजित कर { सकते हैं; ऐसे ही असुर कुमार देव अरिहंत भगवन्त, अरिहंत चैस सो द्रव्य अरिहंत उद्मस्थ, अनगार {और भवितात्मा का आश्रय लेकर ऊंचे सौधर्म देवलोक तक जाते हैं ॥। ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या सब असुर कुमार देव ऊंबे जाने की शक्तिवाले यावत् सौधर्म देवलोक में गये और जायेंगे ! अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. महर्जिन असुरकुमार देव मात्र सौधर्म देवलोक में मये और जावेंगे ॥ १२ ॥ तीस शतक का दूसरा उद्देशा - ४७५ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ असुर राजा उ० ऊर्ध्व जा. यावत् सो० सौधर्म देवलोक ॥ १२ ॥ अ० अहो भ० भगवन् च चमरा राजा की म० महाऋद्धिं म० महायुति जाव्यावत् के०कहां प० प्रवेश हुइ कूकूडागार शाला दि० दृष्टान्त । भा० कहना ॥ १४ ॥ च. चमर .. भगवन् अ० अमरेन्द्र अ० असुर राजा की सा. वह दीव्य दे. वद्धि कि किससे ल. लब्ध एक ऐसे गो. गौतम ते. उस काल से उस समय में इ० इस जं. जंबूद्वीप में भ० भरत क्षेत्र में कि विंध्याचल पर्वत की प० नजदीक बे० बेभेल स० सनिवेश हो• था । __ इयं पुल्वे जाव सोहम्मे कप्पे ? हंता गोयमा, !. एसवियणं चमरे असुरिंदे, असुरराया उड्डे उप्पइयं पुल्वे जाव सोहम्मे कप्पे ॥ १३ ॥ अहोणं भंते चमरे. असुरिंदे असुर. राया महिड्डीए महजुत्तीए जाव.कहिं पविट्ठा ? कूडागारसाला दिटुंतो भाणियव्वो॥१४॥ E, चमरेणं भंते ! असुरिंदेणं असुररण्णो सा.दिव्वा देवड्डी तंचव किण्णालडा ३,एवं खलु अहो भगवन् ! यह चमर नामक असुरेंद्र पहिले क्या सौधर्म देवलोक में मया ? हां गौतम ! यह चमर नामक असुरेंद्र पहिले सौधर्म देवलोक में गया ॥ १३॥ अहो भगवन् ! इस चमर नामक असुरेंद्र की महासद्धि महाद्युति वगैरह कहां चलीगई ? अहो गौतम ! कुटागार शाला जैसे पीछी शरीर में चलीग ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेंद्र असुरराजाको ऐसी दीव्य देवर्द्धि कैसे प्राप्त हुई य सन्मुख हुई ? अहो गौतम! उस काल उस समय में इस जम्बुद्वीप के भरत क्षेत्र में विन्ध्याचल 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm काशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायी चालाप्रसादजी. भावाथ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्र भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती ) सूत्र व वर्णन युक्त तः तहां वे बेमेल सन्निवेश में पू० पूरण गा० गाथापति प० रहता था अ० ऋद्धिवंत दि० दिप्त ज० जैसे ता० तामली की व० वक्त व्यता त तैसे ने० जानना ० विशेष च० चारपुड वाला गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं, इद्वेष जंबूद्दीवेदीवे भारहेवासे विज्झगिरिपायमूले. ..बेमेल नाम साण्णवेसे होत्था वण्णओ तत्थणं बेभेले सण्णिवेसे पूरणेनामं गाहाबई परि वसई, अड्डे दित्ते जहा तामलिस्स वतव्वषा तहा नेयव्वा णवरं चउप्पुड्यं दारुमयं पडिग्गहयं करेत्ता जाव विपुलं असणं पाणं, खाइमं साइमं, जाव सर्यमेव चउप्पुयं दारुमयं पडिग्गहयं गाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वज्जाएं पल्चइए, पव्वइएवियणं समाणे तंत्र जाव आयावण भूमीए पच्चारुहित्ता, सयमेव वउप्पुडयं दारुमयं पंडिकी मूल में बेमेल नामक सन्निवेश या. उस सन्निवेश में पूरण नामक गाथापति रहता था. वह गाथापति ऋद्धिवंत, दीप्त यावत् सब अधिकार तामली तापस जैसे कहना. अर्थात पूरण गाथापति को कुटुम्ब जा गरणा करते विचार हुवा कि मुझे पूर्व संचित पुण्य के उदय से कुटुम्ब आदि सब सुख की सामग्री मीली है इस से जहां लग मेरे पुण्य प्रबल हैं और शरीर में शक्ति है वहां लग प्रभात होते चार पुडवाला काष्टमय पात्र बनाकर अशनादि चारों आहार नीपजाकर, ज्ञाति स्वजनादि की साथ भोजन कर, सब को यथोचित् सत्कारादि कर, ज्येष्ठ पुत्र को गृह के कार्य पर रखकर सब को पूछकर मुंडित बनकर दान तीसरा शनकका दूतरा उद्देशा ४७७ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ शब्दार्थ 4१० प्रथम पु० युद्ध में प. टाले क. कल्पताह मे मुझे प०. मर्थित प० पथिक को द० देनेको अंक जो दो दमरे पु० पुड में प० डाले क० कल्पता है मे० मुझे का० काक सु. श्वान को द० देना जं जो ग्गहयं गहाय बेभेल सण्णिवेसे उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेत्ता जमे पढमे पुडए पडइ, कप्पइ मे तं पत्तिय पहियाणं दलइत्तए, अंमे दोच्चे पुडए पडइ, कप्पइ मे कागसुणयाणं दलायत्तए, अमें तच्चे पुडए पडइ कप्पइ मे तं मच्छ कच्छभाणं दलइत्तए, जं मे चउत्थे पुडए पडइ कप्पइमे तं अ. प्पणा आहारं आहरेत्तए सिकटु, एवं संपेहेइ संपेहइत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रवीए तं चेव निरवसेसं चउत्थे पुडए पडइ तं अप्पणा आहारं आहारेइ ॥ १५॥ तएणं नामक प्रवर्ध्या ग्रहण करना मुझे श्रेय हैं. दान प्रवा अंगीकार किये पीछे आतापना भमि से पीछे #आकर स्वयं ही चार पुडवाला काष्टमय पात्र लेकर बेभेल सनिवेश में ऊंच, नीच व मध्यम कुल के ग्रहों की भिक्षाचरी ग्रहण करूंगा. और चार पुडशले पात्र में से प्रथम पुड में जो भिक्षा हालेंगे. जसे में पथिक जनों को देऊंगा, दूसरे पुड में भीक्षा डालेंगे उसे मैं काग प्रमुख पक्षी व श्वान प्रमुख को डालूंमा, तीसरे पुड में जो भीक्षा डालेंगे उसे मत्स्व कच्छ वगैरह को डालूंगा और चौथे पुड में जो भीक्षा डालेंगे उस का मैं आझर करूंगा. ऐसा विचार करके प्रभात होने सब क्रिया की यावत् 4.१ अनुसादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसायमी ज्वालाप्रसादजी. भाव Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ सूत्र NAMAnmom तः तीसरा पु. पुडमें ५० गारे तं० उसको म० मच्छ क• कच्छ को द० देनेको जं० जो च० चौथा ! पु. पुढ में प. डाले कर करपे त उन को आ० आहार करने को ॥ १५ ॥ पूर्ववत् ॥१६॥ तक उस से परणे बाल तबस्सी तेणं उरालेणं विपुलेणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं, तं चेव जाव बेभेलसण्णिवेसस्स मज्झं मझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छइत्ता पाउय कुंडियमादीयं उवगरणं चउप्पुड्यंच दारुमयं पडिग्गहयं एगतमंते एडेइ एडेइत्ता, बेभेलस्स सन्निवेसस्स दाहिणपुरच्छिमे दिसीभागे अह नियत्तणियं मंडलं आलिहित्ता संलेह ३ णा असणा झसिए, भत्तपाण पडियाइक्खिए, पाओवगमणं निवन्ने, ॥ १६ ॥ भावार्थ चौथे पड में डालाहुवा आहार भागवता हुवा विचरने लगा !! १५ ॥ फीर उस उदार विस्तीर्ण आज्ञा युक्त ग्रहण किये हुवे वालतप कर्म से उस का शरीर रूक्ष रक्त मांस रहित हुवा. एकदा मध्य रात्रि में अनित्य जागरणा करते तामली वाल तपस्वी की तरह संथारा करने का विचार किया र सूर्योदय होते बभल सन्नीश के मध्य में से नीकलर कर मव की ममक्ष पादुका, कुन्डिका आदि) 50 उपकरण और चार पडवाला काष्टमय पात्र एकान्त में रखकर, वेभेल मनिवेश की अग्निकोंन में अर्ध। ननुपात्र मंडल को आलेखकर संलेखना तप से आत्मा को झूलकर और भक्त पान का प्रत्याख्यान 16कर पादोपगमन संथारा किया. ॥ १६ ॥ उस काल उस समय में छमस्थ अवस्था में अग्यारह 102202 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र *तासरा शतक का दूसरा उद्देशा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलंक ऋषिजी काल में उस समय में अं में गो० गौतम छ, छगस्थ अवस्था में ए० अपारह वर्षकी ५० दीक्षा से छ० छठ भक्तं अ० अंतर रहित व तपकर्म से सं संयम से . तप से अ आत्मा को मा०. मावा पु० अनुक्रम से चल चलता गा० ग्रामानुग्राम दू०जाला ने जहां सुसेसुमार पुरननगर जे जहाँ अ अशोक वनखंड उ. उद्यान.जे. जहां अ. अशोक वृक्ष जे. जहाँ पु. पृथ्वी शिलापट उ.. पाकर अ. अशोक वृक्ष की हे . नीचे पु० पृथ्वी शिलापट पे अ० अठम भक्त प० ग्रहणकर दी: दीपाव सा तेणं कालेणं, तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एकारसवासरियाएं छटुं छट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे, पुव्वाणपनि चरमाणे, गामाणुगामं दृइजमाणे, जेणेव सुंसुमार पुरे नगरे जेणेब असोयवणेसंडे उजाणे जेणेव असोयवरपायवे जेणव पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागच्छामि उबागवर्ष की साधु की पर्याय पालता हवा, निरंतर छठ के पारणे का तप कर्म व संयम में आत्मा को चिन्तवताई हुवा, पूर्वानुपूर्व चलता हुवा और ग्रामानुग्राम विचरता हुवा मैं सुंसुमारपुर नगर के अशोक वनखंड नामक उयान में अशोक वृक्ष की नीचे पृथ्वी शिलापट की पास आया. वहाँ आकर अशोक वृक्ष नीचे पृथ्वी शीला पटपर अम्म भक्त (तेला-) किया. दोनों पांव संहर कर (जिन मुद्रासे ) लम्बी बाहु करके एकही पुद्गल पर दृष्टिस्थापकर, अनिमेष दृष्टि रखकर थोडासा- मस्तक नमाकर यथास्थित मात्रों कोई ahmarakaraaaaawarsaween काजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय जी ज्वालापसाइजी भावार्य Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कटकर उलथा पाहत एक पुगर में नि:स्थापन की दिदृष्टि अनिमिषनेत्र र थोडी मी का. काया में अ• यथा प० स्थापित ग. मात्र सर्व इ० इन्द्रिय ग. गुप्त ए० एकरात्रि की म. महबतिमा उ० अंगीकार कर वि विचाताई ॥ १७॥ ते. उम काल ते० उम समय में च. चपर चंचा ग. राज्यधानी अ० इन्द्र गहत अ. पुरोहित रहित हाथी ॥१८॥त. तर मे वह पृ. र परण वा बालतपस्वी प० बहुत प० प्रतिपूर्ण द. बारह वा. वर्ष ५० पर्याय पा पालकर मा-मामकी सं, च्छइत्ता असोयवर पायवस्स हेढे पुढविसिला पट्टयसि अट्ठमभत्तं पगिण्हामि दोवि पाए साहट बग्घारियपाणी, एगपोग्गल निविटुदिट्ठी, अणमिसनयणे, ईसिं पब्भारगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, सबिदिएहिं गुत्तेहिं, एगराइयं महापडिमं उवसंपजित्ता विहरामि ॥ १७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया यावि होत्था, ॥ १८ ॥ तएणं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलहणाए अत्ताणं झूसेत्ता सर्द्धि भत्ताई भावार्थ स्थापकर सब इन्द्रियों को गोपकर एक रात्रि की महापडिमा अंगीकार करता हुवा विचरता था ॥ १७ ॥ उस काल उस समय में चमर चंचा राज्यधानी इन्द्र रहित पुरोहित रहित थी ॥१८॥ उस समय में वह 1 पूरण नामक बालतपस्वी बारह वर्ष पर्यंत दान प्रवर्ध्या पालकर एक माम की संलग्वना मे आत्मा को 8- पंचमाङ्ग विवाह पणति (भग ) मत्र -१ 28 तोमरा शतकका दूसरा उद्दशा g4 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NE अमोलक अपनी a tta सलेखना से १० आत्मा को यू० झंसकर स० सामंत - अनशन छेर छेदकर का काल के पास में का० काल करके च चमर चारा राज्यपानी में उप्रपात सभा में जा बाबत इनपने उ० उत्पन्न हुवा ॥ १९ ॥ त० तब से वह च० चमर अ असुरेंद्र अ० तुरत का अस्पन पं० पांच Ter प्रकार की पर पर्याप्ति से ५० पर्याप्त भाव को ग. जावे त० वह ज. जैसे आ० बाह्यर पर्याप्ति है। PE जा० यावद भाग भाषा मनप्राप्ति ॥ २० ॥ त० तब, च० चमर अ० असुरेंद्र पांच प्र० पर्याप्ति से प० पर्याशा भाव को ग. प्राप्त: उ०. ऊर्ध्व बी स्वभाव मे ओ० अवधि ज्ञान से आ० देखे जा० अणसणाए छेदेन्ता कालमासे कालंकिच्चा चमरचंचाए रापहाणीएं उबवायसभाए जाव इंदत्ताए उचवन्ने ॥ १९ ॥ तएणं से चमरे अमीरदे असुरराया अहुपोक्याने - पंचविहाए पजत्तीए पत्तिभावं गच्छइ तंजहा आहार पजचीए जाब भासामण पजत्तीए॥२०॥ तएणं से चमेरे असुरिंदे असुरराया. पंचबिहार पजत्तीए पजत्तिभावं भावार्थ झूसकर, साठ भक्त अनशन कर व काल के अवसर में काल करके चमर चंचा राज्यधानी में उपपात सभा में देव दृष्य बन की नीचे अपने उत्तम हवा ॥ १९ ॥ वहां चार नामा असुरेन्द्र आहारादि पांच प्रकार की पहिले पर्याप्त बा ॥ २० ॥ फीर पांच पर्याप्ति से पर्याय बना हुवा अमपि ज्ञान से देखते सौधर्म | अनुवादक-मानसाचारी Aarinamammmmmmmmm नाबहादुर लाला मुखदेवसंहापनी ज्वालाप्रसादजीं" Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाय | सूत्र भावार्थ समा यावदसी चौधर्म देवलोक प० देखे ॥ २१ ॥ त० तहां स० शक्र दे० देवेन्द्र म० मघव पा० पाऊ शासन स० शतक्रतु सब सहने वाला व० बज पा० इरुत में पु० पुरंदर जा० यावत् द० दशदिशा { में उ० उद्योत करते प० प्रकाश करते सो० सौधर्म देवलोक सो० सौधर्म व वर्डिशक विमान सु० सुधर्मा ) सभा में स शक्र के सी सिंहासनपे जा०यावत् दि०दीव्य भो भोग भुं० भोगते प्रा० देखे पा० देखकर ॥ २२ ॥ } ए० इसरूप अ० आत्मिक चिं० चिन्तवन पर स्मरण रूप म० मनोगत सं० संकल्प स० उत्पन्न हुवा बसाए ओहिणा आभोइए जात्र सोहम्मे कप्पे पासइय ॥ २१ ॥ तत्थ सकं देविंद देवरायें मघवं, पागसासणं, सयक्कउं, सहस्सक्खं, वज्जपाणि, पुरंदरं, जाव दसदिसाओ उज्जोवैमाणं, पभासेमाणं सोहम्मेकप्पे सोहम्म वर्डिसए त्रिमाणे सभाए सुहम्माए सर्कस सीहासणंसि जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ, {देवलोक देखने लगा ॥ २१ ॥ वहां पर मेघमाली को क्च में रखनेवाला, पाक नामक बलिष्ट रिपु को (पराजित करनेवाला, कार्तिक शेठ के भव में एक सो प्रतिमा का अभिग्रह करनेवाला, सहस्र नयनवाला, वज्र धारण करनेवाला, और असुर कुमार देव का विदारन करनेवाला ऐसा शकेन्द्र को उद्योत [करता व प्रकाशता दुवा सोधर्म देवलोक में सौधर्म बर्डिसम नामक विमान की सुधर्मा सभा में सिंहासन पर दीव्य भोग भोगरता हुआ देखा ॥ २३॥फीर ऐसा अध्यवसाय, चितवन, मनोगत संकल्प हुनरा कि अप्रार्थित की हस्त में 48+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णाचे ( भगवती ) सूत्र 48 तीसरा दूसरा देश 4 ૪૨ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 अनुवादक-वालह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी के० कोन ए० यह अ० अप्रार्थित की १० प्रार्थना करता है दु० दुष्ट अंत १० असनोड स०डरुण गांज्य हि० लज्जा सि० लक्ष्मी १० रहित ही ० हीन पु० पुन्य चतुर्दशी को जन्मा जे० जिससे म• मेरा इ० ग ए० ऐसे दि० दीव्य दे० देवऋद्धि जा० यावत् दे० देवानुभाव छ० लब्ध प० प्राप्त अ० सन्मुख हुवा ७० उपर अ० थोडा उ० उछरंग दि० दीव्य भो० भोग मुं० भोगते वि० विचरता है ए० ऐसा सं० विचार कर सा० सामानिक प० परिषदा में उ० उत्पन्न दे० देवोंको स० बोलाकर ए. ऐसा प० बोला के० कौन ए• यह दे० देवानुप्रिय अ० अप्रार्थित की प० प्रार्थना करता है जा यावत् भुं० भोगवना वि० ॥ २२ ॥ पासइन्ता इमेयारूवे अम्मत्थिए चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्प-' जित्था : केसणं एस अप्पत्थिय पत्थए दुरंतपंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए, हीणपुण्णचाउहले जेणं मम इमे एयारूवाएं दिव्वाए देवडीए जाब दिल्वे देवाणुभावे लढे, पत्ते, अभिसमण्णागए उपि अप्पुस्सुए दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ प्रार्थना करनेवाला [ मरण की वांच्छा करनेवाला ] अपनोज लक्षणत्राला, लज्जा, लक्ष्मी रहित, हीन पुण्य चतुर्दशी में उत्पन्न होनेवाला ऐसा यह कोन है, मुझे जो ऐसी दीव्य देवर्द्धि यावत् दीव्य महानुभाग प्राप्त हुवा | है उनकी उपर यह अल्प उत्सुक बनकर दीव्य भोग भोगवता हुआ विचरता है. ऐसा विचार करके सामानिक परिषदा के देवोंको बोलाये और पूछाकि मरण की वांच्छा करनेवाला यावत् भोग भोगता हुआ जो विचरता है ●प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी जलाप्रसादजी ४८४ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ| 4 }विचरता है ॥ ३३ ॥ सूत्र भावार्थ सबसे त ० तब से वे सा० सामानिक दे० देव च० चमर अ० असुरेंद्र को ए० ऐसे बु० बोलाते हुवे इ० हृष्ट तु० तुष्ट जा० यावत् ह आनंद पाने क० करके तले प० जोडकर द० दशनल सि० शिर्ष से आ० आवर्तन म० मस्तक से अं० अंजलि क० करके ज० जय वि० विजय से ब० बधाकर {ए ऐसे व० बोले एवं यह दे० देवानुप्रिय स० शक्र दे० देवेन्द्र जा० यावत् वि० विचरता है ।। २४ ॥ ई त० तब च० चमर अ० असुरेंद्र अ० असुर राजा से उन सा० सामानिक दे० देवों की अं० पास ए० एवं संपेहेइ २ ता सामाणिय परिसोत्रवण्णए देवे सदावेइ २ न्ता एवं वयासी केसणं एस देवाणुपिया ! अप्पत्थिय पत्थए जाव भुंजमाणे विहरइ ॥ २३ ॥ तरणंसे सामाणिय परिसोत्रवण्णगा देवा चमरणं असुरिंदेणं असुररण्णो एवं वुत्तासमाणा हट्ठतुट्ठ जाव हयहियया करयल परिग्गहिये दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिंकहु जएणं विजएणं बद्धाति एवं वयासी एसणं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव विहरइ ॥ २४॥ तएण से चमरे असुरिंदें असुरराया तेसिं सामाणिय परिसोत्रवण्णगाणं देवाणं अंतिए { यह कौन है ? ॥ २३ ॥ जब चमरेन्द्र ने सामानिक परिषदा के देवों को ऐसा कहा तब वे बहुत हट तुष्ट हुने और हस्त द्वय जोडकर मस्तकों से आवर्तना देकर जय विजय शब्द से बधाये और कहा. भो देवानुप्रिय ! यह शक्रेन्द्र ऐसा भोग भोगवता हुवा बिबरता है || २४| तब चमरेन्द्र जनः सीमोनिक 44- तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा + पंचमांग विवाह दण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ૪૯ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिली यह अय. सा. सुनकर नि अवधार कर आमासुरव ह संष्ट कु कुपित विशेष कुपित मि० देदीचा । रमान ते डन सा० सामानिकद देवको एक ऐसे 40 बोले अं अन्य सेवा स० शक्र दे०. देवेन्द्र । अन्य से वह च. चमर अ० असुरेंद्र अ० असुर राजा म. महर्दिक से वह स० शक्र दे० देवेन्द्र अल्पऋद्धि वाला से० बईच० चमर अ० असुरेन्द्र तं उस इ० इच्छता दे० देवानुपिय सं० शक देवेन्द्र को स० स्वयं अ. भष्ट करने को ति० ऐसा करके उ० अत्यंत कुपित जा हुवा हो. था ____ एयमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियः ।। परिसोववण्णए देवे एवं वयासी अण्णे खलु भो! से सक्के देविंदे देवराया अनेखलु भो! है से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिढीए खलु भो ! से सक्के देविद देवराया, अप्पिट्ठिए । खलुभो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया. तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! सकं देविदे. है देवरायं सयमेव अच्चासाहित्तए त्तिकटु, उसिणे उसिणभूए, जाएयावि होत्था ॥२५॥ पास से ऐसा वचन सुनकर हृदय में धारकर आमुरत्व को प्राप्त हुवा, (क्रोधित बना ) रुष्ट हुवा, कुपित हुवा, रौद्र बना, दांत पीसने लगा और सामानिक देव से कहने लगा, अहो शक्र नामक देवेन्द्र देवता का राजा दुसरा है और चमर नामक असुरेन्द्र भी दुसरा है: वह शक्रेन्द्र निश्चय ही महर्दिक है और चमरेंद्र है अल्प ऋद्धिवाला है. उस की शोभा से भ्रष्ट करने को मैं स्वयं वहाँ जाऊँ ऐसा करके कोपं संताप सेना कराजापहादुर लाला मुखदेवसहाथजी ज्वालामसाईगी. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ ॐॐॐ पंचमांग हिवात्र पण्णाति ( भगवती ) मृत्र ।। २५ ।। तः तब से वह च० चमर अः असुरेंद्र ओ = अवधिज्ञान को प० प्रयुंजकर म० मुझे आ देखकर ए इसरूप अत्यध्वनाय जाव्यात सश्रमण भगवन्त म० महावीर जं० जंबूदीप में भ० भरत क्षेत्र में संवारनगर में अ अशोक वनखंड उ० उद्यान में अ (अशोक वृक्ष की अ० नीचे पुत्र पृथ्वी शिलापटप ग्रहणकर ए० एक रात्रिकी म० महाप्रतिमा उ० अंगीकार कर वि० विचरते हैं । २६ ॥ तंव से श्रेय मे० मुझे स० श्रमण भ० तणं से चमरे अतुरिंद अतुरता ओहिं परंजइ, परंजइत्ता ममं ओहिणा आभोएइ आभोत्ता इमेयास्त्रे अम्भस्थिए जाव समुप्पजित्था एवंखलु समणे भगव महावीरे जंबूदीचे दीवे भारहेवासे सुंसुमारपुरे नगरे असोगवणसंडे उज्जाणे, असोगवरपास अहे पुढवि सिला पट्टयंसि, अट्टमभत्तं पगिव्हित्ता, एगराइयं महापडिमं उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ २६ ॥ तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं ऊष्ण हुवा || २५ | उस समय में चमरेन्द्रने अवधि ज्ञान प्रयुंजा और मुझे देखा. मुझे देखकर ऐसा अव्यवसाय यावत् चिन्तवन उत्पन्न हुवा कि श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सुंसुमारपुर नामक नगर के अशोक वन खंड उद्यान में अशोक वृक्ष की नीचे पृथ्वीशीला पटपर अठम भक्त का प्रत्याख्यान कर एक रात्रि की महा प्रतिमा अंगीकार करते हुवे विचरते हैं ॥ २६ ॥ इस से 4234 तीसरा शतकका दूसरा उदेशा '४८७ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा ग्रहणकर सभा जे० जहां चो० नफाल प० आयुधशाला ते ए० एक अ० अद्वितीय फ० परिघ २० रत्नमय म० | राज्यधानी की म० मध्य से निः नीकलकर जे० जहां ति शब्दार्थ भगवन्तमः महावीर की नी० नेश्राय से स शक्र दे० देवेन्द्र को म० स्वयं अ० भ्रष्ट करने को ति० ऐसा करके सं० विचारकर स० शैय्या से अ० उटकर दे० देवदृष्य प० पहिनकर जे० जहां स० तहां उ० आकर फ० परिव २० रत्न १० वडा अ० अमर्श व धरता च चमर चंचा रा० तिमिच्छ कूट उ० उत्पात प० पर्वत ते० तहां नीसाए सकं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए तिकट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता, साणिजाओ अभुट्ठेइ २ त्ता, देवदूतं परिहेइ, परिहेइत्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेव चाप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता फलिहरयणं परामुसइ, परामुसइत्ता एगे अबीए फलिहरयणमयाए महया अमरिसं वहनाणे चमरतंचाए रायहाणीए मज्झ मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छइत्ता, जेणेव तिगिच्छकूडे श्री श्रमण भगवंत महावीर की नेश्राय लेकर शक्र देवेन्द्र की आसातना करना मुझे श्रेय है ऐसा विचार कर अपने आसन से उठकर देव दृष्य वस्त्र पहिना और चउफाल नामक शस्त्र का भंडार था वहां आया. वहां आकर परिघ रत्न नामक आयुध को हस्त में धारन किया. परिघ रत्न को धारन करके अन्य किसी को साथ नहीं लेते हुवे अमर्षभाव धारण करके चमर चंचा राज्यधानी की बीच में होकर तिगिच्छकूट भावार्थ oo 88 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ४८८ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ पंचगंग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र <288 आकर वे वैक्रेय समुदयात स. नीकालकर जा. यावत् उ० उत्तर वैक्रेय रूप वि. विकुर्वणा कर ता. उस उ० उत्कृष्ट जे जहां पु० पृथी शिलापट जे. जहां म० मेरी पास ते. तहां उ. आकर म000 मुझे ति तीनवक्त आ० आदान प० प्रदक्षिणा क. कर जा. यावत् न० नमस्कार कर व. बोले इच्छताएं भ. भगवन् तु तुमारी नी० नेश्राय से म० शक्र दे. देवेन्द्र को स० स्वयं अ० भ्रष्ट करने को ति० पेमा करके ॥ २७ ॥ उ० ईशान कोन को अ० अतिक्रम वे० वैक्रय समुयात म० नीकालकर उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता वेउब्विय समुग्घाएणं समोहणइ, समोहणइत्ता जाव उत्तर वेउवियरूवं विकुम्बइ ताए उकिट्ठाए जाव जेणेव पुढवि सिलावटए जेणेव भम अंतिए तेणेव उवागच्छइ उबागच्छइत्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेइ जाव नमंसित्ता एवं बयासी इच्छामिणं भंते ! तुब्भं नीसाए सकं देविंदं देवरायं सयमेव अत्तासाइच्चए त्तिकटु ॥ २७ ॥ उत्तर पुरच्छिमंदिसी नामक उत्पात पर्वत पर आये. वहां आकर वैकेय समुद्घात यावत् उत्तर वैकेय रूप करके मेरी समीप आया. और मुझे तीन आदान प्रदाक्षणा यावत् नमस्कार करके ऐमा बोला कि अहो पूज्य ! तुमारी नेश्राय से मैं स्वयं शक्रेन्द्र की आमातना करने को इच्छता हूं ॥ २७ ॥ ऐसा कहकर ईशान कोन में गया वहां जाकर । तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा 182 भावार्थ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ Jo २०३ अनुवादक ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जाः यावत् दो० दूसरी वक्त दे० वैक्रेय मुद्यात स० नीकालकर ए एक म० वडा घो० घोर घ० चोराकार भी ० विकराल भा० भयंकर भ० भयानीत गं० गंभीर उ० उद्वेग उपजावे का कृष्ण मध्य रात्रि मा० उडद सं० सरिखा जो ० योजन स० लाख प० बडा शरीर को वि० विकुर्वणा कर अ० पछाडे व० कूदकर ग० गर्जना कर ह० हयस्वर क करके ह० हस्तिका शब्द क० करके २० रथका घन घन क० करके पा० पांच पछाड कर भू भूमि को च० द० देकर मी० सिंहनाद न० करके उ० उच्छा भागं अवकमइ अवकमइत्ता वेउन्विय समुग्धाएणं समोहणइ समोहणइत्ता जाव दोपि उव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ समोहणइत्ता, एगं महं घोरं, घोरागारं भीमं, भीमागारं भासुरं, भयाणीयं, गंभीरं उत्तासणयं कालड्डूरत्तंमासरासि संकासं जोयण सयसाहस्तीयं महाबोंदिं विउव्वइ, बिउव्वइत्ता अप्फोडेइ, अप्फोडेइत्ता वग्ग वग्गइत्ता गजइ, गजइत्ता हयहेसियं करेइ, करेइत्ता हत्थिगुलगुलाइयं करेइ, करेइत्ता वैक्रेय समुद्घात करके प्रदेश बाहिर नीकाले यावत् दूसरी वक्त वैक्रेय समुद्घात करके एक वडा, घोर, घोर आकारवाला, भीम, भीम आकारवाला, देदीप्यमान, भयलानेवाला, गंभीर, उद्वेग उत्पन्न करनेवाला. श्याम आधीरात्रि व उड़द समान एक लक्ष योजन का शरीर बनाया. शरीर बना करके दोनों हाथ की हथेलियों या दोनों भुजाओं को करस्फोट करता, हाथ से कूटता हुवा, जोर से बगासी खाता हुवा, घन * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ४१० Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१. शब्दार्थ ला उ० उछलकर प० पछोडा पछोडकर ति त्रिपद छि० छेदकर वा बायां हाथ को ऊ. ऊंचाकर सदा दक्षिण हाथ को प० नीचाकर अं० अंगुठा के नख ति० तिर्छ म० मुख वि. विटम्बनाकर म० बडे 2 बडे स० शब्द से क. कल कल अवाज क. करके ए. एक अ. अद्वितीय फ. परिघ र. रत्नमय उ० ऊर्ध्व वि० आकाश में उ० उछालता खो क्षोर पमाडता अ० अधोलोक को कं० कंपावता मे० पृथ्वी रहघण घणाइयं करेइ, करेइत्ता पायददरगं करेइ, करेइत्ता भूमिचवेडं दलयइ, दलयइत्ता सीहनादं नदइ, नदइत्ता उच्छोलेइ, उच्छोलेइत्ता पच्छोलेइ, पच्छोलेइत्ता तिवति छिंदइ. तिवतिं छिदइत्ता वामं भयं ऊसवेड. ऊसवेडत्ता दाहिणं हत्थपएसिणीए अंगुट्ठनहेणय, वितिरिच्छं मुहं विडंबइ, विडंबइत्ता महया महया सणं कलकलरवं भावार्थ गर्जारव समान शब्द करता हुवा, घोडे के हेसार समान हे कार करता हुवा, हाथी की समान गुलगुलाट करता हुवा, रथ की समान घणघणाट करता हुवा, भूमि पर पांव आस्फालता हुवा, हाथों के चपेटे भूमि पर मारता हुवा, सिंहममान नाद करता हुवा, मर्कट की तरह उछल उछल कर जाता हुवा, मल्ल की माफक रंगभूमि में त्रिपद छेद करता हवा, बाँयी भुजा को उपर ऊंची रखता हुवा, दक्षिण भुजा के पांव की on अंगुलीयों मरोडता हुवा, मुच्छों को वल घालता हुवा, अत्यंत जोर से कल कलाट करता हुआ, मात्र परिघ रत्न नामक आयुध को धारण करता हुआ, ऊर्ध्व आकांशमें ऊछाला खाता हुआ, क्षोभ उत्पन्न करता पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती 038 तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी ने शब्दार्थलोक मा० आकर्षण करता तिः ति लोक को फोः फोडता हुवा अं० आकाश तल को क. कीसी २७ स्थान ग गर्जना करता क. कीसी स्थान वि. विजली करता क. कीसी स्थान वा० वर्षा वर्षावता क० कीसी स्थान २० रजोवृष्टि करता क. कीनी स्थान त: अंधकार करता वा० वाणव्यंतर देवको वि० वासदेता जो० ज्योतिषी दर देवको दुदी विभाग करता आ आत्म रक्षक देवको प० पलायन कराता फ० परिघ र० रत्न अं. आकाश तक तल में वि० उछालता वि० शोभ मान ता० उम उ० उत्कृष्ट जा० करेइ, करेइत्ता, एगेअबिइए फलिहरयणमयाए उट्ठेविहासं उप्पईए, खोभते चेव, अहेलोयं कंपेमाणेवमेयाणितलं साकढ़तेव, तिरियलोथं फोडेमाणेव अंबरतलं कत्थइ गजइ. कत्थइ विजयायंते, कत्यइ वासं वासेमाणे, कत्थई रयुग्घायं परमाणे, कत्थइ तमुक्काय पकरेमाणे, वाणमंतर देव वित्तासेमाणे २. जोइसिए देवे दहा विभयमाणे २, आयरक्खदेवे विषलायमाणे, पलायमाणे, फलिहरयण अंबरतलंमि, वियदृमाणे वियदृमाणे. विउभाएमाणे आ. अधोलोक को प्रागतिक से ध्रजावता हा. तिछालोक का समाकर्षण से आकाश को फोडता সান্যা] हुआ, किमी स्थान गौरव शब्द करता हुआ. किमी स्थान बिजली चमकाना, किसी स्थान वर्षा वर्षाता, किसी स्थान धुलकी वृष्टि करता, किसी स्थान घारतमकाय करता, व्यंतर देवोंको वाम उत्पन्न कर भगाता हआ, ज्योतिषी देवों का विभाग करता हुआ, उन की बीच में होकर नीकलता हुआ. परिघ रत्न अनुवादक व रब्रह्मचांगमुनि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालापमादी * Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावदान नीली राज्यात वीडीययकीय मध्य उदंचना ने जहां मोमीधर्म देवलोक मागाधर्म बर्दिशक विमान : जा. सुधीसभा ते नांउ आकर एक पांव १० पमवर वेदिकापे का एः एक पांच मःममा सय मे क क परिघ रत्नमें म० बर्ड स शब्द से नि. तीन वक्त ई० कमाड को आताडकर ए. ऐलेव बोले क. कहां मा शक दे, देवेन्द्र क. कहां ता: उन के च० चौरामी मा नामानिक मा. सहस्त्र जा. यावन कः कहां च चार च० चौरामी आ. विउब्भाएमाणे, ताए उकिटाए जात्र तिरियसंखजाणं दीवसमदाणं मझमझेणं बीईवयमाणे २ जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणे व लोहम्मवडिसए विमाणे, जेणेव सभासुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता एगं पायं पउमवर वेइयाए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ, फलिहरथणेणं महया महया सद्देणं तिक्खुत्तो इंदकीलं आ उडेइ, आउंडेइत्ता एवणी ननियां भो । सके देविंद देवराया, कहिणं ताओ भावाथको आकाश में उछालता हुआ, और इस प्रकार अन्य जनक ५ ७.५५ प सदाव्य। गतिसे तिच्छी लोक के असंख्यात द्वीप समद्र के मध्य से नीकलता हुआ सौधर्म देवलोक में सौधर्म वार्ड 100 सग विमान में सुधर्मा सभा की पास आया. वहां आकर सुधर्मा सभा की बाहिर ५ मवर येदिका पर एक पांच 1 रखा और एक पांव सुधर्मा सभा में रखा. और पवित्र रत्न नामक आयुध से सुधर्मा सभा के द्वार को 809409 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 800तीसग शतक का दूसरा उदशा-82 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ४१४ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87 आत्मरक्षक देव सा० सहसक कहाँ ता. उन की अ अनेक अ० अप्परा को कोडी अ० आज ह. हनता हूं म०मन्थन करताहूं व०वधकरताह अ० आज ममुझे अ० अवश अअप्सरा व० वशसे उनमस्कार करो ति. ऐसा करके तं. उन को अ० अनिष्ट अ. अकान्त अ. अप्रिय अअशुभ अ० अमनोज्ञ अ० अमनाम फ कठोर गि० भाषा नि कही ॥२८॥ त० तब स०शक दे देवेन्द्र तं० उस अ० अनिष्ट जायावत चउरासीइ सामाणिय साहस्सीओ, जाव कहिणं ताओ चत्तारिचउरासीओ आयरक्ख देवसाहस्सीओ, कहिणं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? अज हणामि, अज्ज महेमि, ___ अजवहेमि, अजममं अवसाओ अच्छराओ वसमुत्रणमंतु त्तिकटु, तं आणिटुं, अकं__तं, आप्पियं, असुभं, अमणुण्णं, अमणाम, फरुसंगिरं निसिरइ ॥ २८ ॥ तएणं * प्रकाशक-राजबहादुर लाला सुखदवसहायनी ज्वालाप्रमादजी* भावार्थ मारा और बडे बडे शब्द मे बोली लगा अरे शक देवेन्द्र देवराजा कहां हैं? उसके चौरामी हजार मामानिक यावत् तीन लाख छत्तीन हजार आत्म रक्षक देव और अनेक कोट अप्परा का परिवार कहां है ? आज मैं उन को मानमत्र का मैं बध कालंगा, आज मैं दधिमत्रान मन्यन कांगा, आजदिन तक त मरे वश में नहीं था भादायों माहित शहर मझे नमस्कार कगे ऐमा अनिट्ट, अक्रान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमणाय गावत कठोर वचन निकालने लगा. ॥२८॥ उस समय में ऐसी अनिष्ट Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । सूत्र भावार्थ oye अ० अमनाम अ नहीं सती फ० कठोर गि० भाषा मो० रख जा० यावत् मि देदीप्यमान तिर तीनरेखा रूप भि० भृकुटी ( चमर अ० असुरेंद्र को एक ऐसा बोले च चमर अमुरेंद्र हो० हीन पु० पुन्य चतुर्दशीचा अ आज न० नहीं भ० त्ति ऐसा करके सी० सिंहासन बैठे हवे व पव्ग्रहकर ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र मृतकर निः अवधारकर आ० आसु कपाल में मा चढाकर च अातिका पत्र प्रार्थित जा० यात्रत ना० नहीं ते तुझे सुसुख अ० है उस को ज जलता फुफुट फुट शब्द से सके देविंदे देवराया तं आणि जाव अमणामं अस्सुवपुवं फरुवं गिर सोचा निसम्म आमुरुते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निलांडे साहद्दु चमरं असुरिंदं असुररायं एवं बयासी हं भो चमरा अमुरिंदा असुरराया अप्पत्थियपत्थिया जाव हीणपुण्णचाउदसा ! अज्ज न भवसि नाहि ते सहमत्थि त्तिक तत्थेव सीहासणवरगए वज्रं परासुलह परामुसइत्ता, तं जलंतं, फुडंतं तथतडत उक्कासहरसाई यावत् अमनोज्ञ, पहिले कदापि नहीं सुती वैसी कठोर भाषा सुनकर शकेन्द्र कोधित हुवा, और दांत पीसता हुवा भृकुटी चाकर चमर नामक असुरेन्द्र असुर राजा को ऐसा कहा अरे अमुरेन्द्र, असुर का ( राजा चमर ! तू अप्रावि की वाना करनेवाला यावत् हीन पुष्पचतुर्दशी में उत्पन्न होनेवाला है. आज तुझे सुख नहीं होगा. ऐसा कहकर सिंहासन पर बैठे हुवे शक्रदेवेन्द्र देवराजाने वज्ञ उठाया उठाकर ॐ तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा 20 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शम्दाथ करतात. ट ट अवाज करता उ० उल्का सहस्र मु. मूकता हुवा जा० ज्वाला सहस्र मु. मूकता ई. अंगारे स० शत सहस्त्र पविखरता फु० अग्नि कण जा ज्वाला मा० माल्य स० सहस्र च. चक्षु वि. विक्षेप दृष्टि का प० प्रतिघात प० करता० अग्नि व बहत ते. तेज दि० देदीप्यमान वे. वेगवन्त फु० फला हुवा किं० किंशुक समान मा महाभयंकर च० चमर अ० असुरेंद्र का ३० वध केलिये व. वजू नि नीकाला ॥ ५९॥ त तब च. चमर अः असुरेंद्र नं. उस ज. जलता जा. यावत् भ. भयंकर विणिं मुयमाणं २ जाला सहस्साई मयमाणं इंगाल सय सहस्साई पविक्खिरमाणं, पविक्खिरमाणं, फुलिंग जाला माला सहस्सेहिं चक्खु विक्खेवदिद्विषडिघायं वि पकरे माणे हुयबहुयतिरगतेयदिप्पंत, नइणवेगं, फुल्लींक सुयसमाणं महब्भयं भयंकर चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो वहाए वजं निसिरइ, ॥ २९ ॥ तएणं से चमरे असुरिंदे असुरराया तं जलं जाव भयंकर वजमभिमुहं आवयमाणं पासइ, पासइत्ता भावार्थ अग्नि समान जलता हुआ, फुर फट सन्द करदाया, और वात्रट करता हुवा सहस्र वित समान भलभलाट करता हुवा, ज्याला को छोडता हुवा, हजारों अंगार की वर्षा वर्षाता हुया. बहुत प्रकाश करता "हुना, आदिले आधिक तेजपारा, किंशुक कमा ममानफुटा हवा, ओर महाभय उत्पन्न करता हुवा ऐमा भयं कर बज चया अमरेन्द्र के वध के लिये छोटा !!२१॥ फीर ऐमा जलता हुवा यावत् महाभय करने अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहाय जी बालासमादी * Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 व० बजू अ० सन्मुख आ. आता पा. देखकर झि० चिन्तवनकर पि० इच्छकर त० तैसे सं० भगा हुवा PO म. मुकुट वि० विस्तार सा० आलंबन सहित ह. हस्त आ० आभरण उ. उर्ध्व पांच अ० नीचाशिर क० कक्षा ग० रहा हुवा से० स्वेद मु. मूकता ला• उस उ० उत्कृष्ट जा. यावत् ति० तिर्छा अ० असं-X ख्यात दी. द्वीप समुद्र म० मध्य से वी० अतिक्रमता जे. जहां जं. जंबुद्वीप जा. यावत् म. मेरी अं० झियाइ, पिहाइ, झियाइत्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्ग मउड विडए, सालं| बहत्याभरणे उद्वैपाए अहो सिरे कक्खागयसेयंपिव विणिं मुयमाणे मुयमाणे ताए उहै किटाए जाव तिरिय मसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझं मझेणं वीईवयमाणे २ जेणेव जं बूद्दीवे दीये जाव जेणेव असोगवर पायवे, जेणेव ममअंतिए तेणेव उवागच्छइ उवावाला वज़ को सामने आता हुवा देखकर यह चमरेन्द्र यह क्या होगा ऐसा चिन्तवन करने लगा, यह मुझे होवे ऐसी इच्छा करने लगा, अपने स्थान जाने को वांच्छने लगा, और वजू का आताप नहीं सहन होने से चक्षु बंध करता हुवा व्याकुल होने लगा. इस तरह चिन्तवन करके पीछा फीरा, सिर का मुकुट नीचे पडने लगा, आभरणों हस्त से पकडे, अधो गमन होने से ऊंचे पांव नीचा सिर हुवा और जैसे मनुष्य के शरीर में से स्वेद छटता है वैसे ही चमरेन्द्र के शरीर में से स्वेद रूप पुगल टपकनेलगा. फार देव की दीव्य गति से यावत् असंख्यात दीप समुद्र की मध्य में होकर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सुंसुमार नगर के पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 40889 भावार्थ तीसरा शतक का दूसरा उद्देशा8080 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी > पास उ आकर भी डरा हुवा भाभय से गघर स्वर भाभगवत् ससरण मे० मुझेत्तिएमो बू० कहता म. मेरे दो० दोनों पा पांव के अं० अंतर में वे० त्वरासे स. पहा ॥ ३० ॥ त० तब त उस स० शक्र दे० देवेन्द्र को ए. इसरूप अ० अध्यसाय जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा णो नहीं ख. निश्चय प० शक्ति वत च० चमर अ. असुरेंद्र णो नहीं सु. समर्थ च. चमर अमुरेंट नो० नहीं वि. विषय च. चमर अ० असुरेंद्र का आ० स्वत की णि. नेश्राय से उ० अर्ध्व उ० उडकर जा. यावत् मो० सौधर्म देव गच्छइत्ता, भीए भयगग्गरसरे भगवं सरणं मेत्ति व्यमाणे ममं दोण्हवि पायाणं अंतरंसि झत्तिवेगेणं समोवडिए ॥ ३० ॥ तएणं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरणो इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था णो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया णोखलु समत्थे चमरे असुरिंदे अमुगराया, णो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो अपणो णिस्साए उट्ठ उप्पइत्ता जाव सोहम्मेकप्पे. णण्णत्थ अरिहंतेवा, अशोक याण्ड के अशोक वृक्ष नीचे पृथली शिला पट्टपर जहां मैं ध्यानस्थ था वहां वह चमरेन्द्र आया. , आकरवं. डरता हुवा भय घर मे अहो मापन : आपका मुझे शरणो ने बोलना हुवा मेरे दोनों पांवों की बीच में शीध्र वेग मे गिरपडा ॥ ३० ॥ फीर शन्द्र को एमा अध्यवमाय यावत् चिन्नयन हुवा कि स्वयं चमरेद्र यहां आने को ममर्थ नहीं है वैसे ही यकिनी की नाप विना ऊंच मौधर्म देवलोक में * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी * भावा Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * लोक ण नहीं अ. अन्यथा अ० अरिहंत अझस्थ अग्नि अ० अनगार भामविनामा णिश्राय में उ० कर्य उ: उडे जायात मी माधवनांक : करमा महा दायत नथारूप अ. अरिहन भ. भगवन्त अ० अनगाकी अ. आशातनाकरे।।३५॥ तिः ऐसा करके ओर अवधिज्ञान को प्रयुंजकर यमुढो ओ अवधि ज्ञान में आदेखकर हाहाहा अः अहो दहणाया अौं अनि एसा करके ना उस उ• उष्टजा यावत दिदीव्य देदेकानिक यन्त्र की वी ने अपीछे जाना निलनिछी अ० 2०२ - पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र -- 980 अरिहंतचेइबाणिवा, अणगारेवा भावियप्पाणो णिस्माए उई उप्पइत्ता जाव सोहम्म कप्पे तं महादक्खं खलु तहारूवाणं अरहताणं भावंताणं अणगाराणय अच्चासायणयाए ॥ ३१ ॥ त्तिकटु, ओहिं पउंजइ, पउंजइत्ता ममं ओहिणा आभोएइ२ ता, हाहा अहो हतो अहंमसि तिकटु ताए उकिट्टाए जाव दिव्याए देव गईए वजस्स तीसरा शतक का दूसरा उद्दशा 8 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ जी gop> अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक असंख्यात दी द्वीप समुद्र म० मध्य से जा यावत् जे: जहां अशोक पा० वृक्ष ममेरी अंक पास ने तहां उ० आकर म. मुझेच. चार अंगुल अ. अप्राप्त च. वत्र प. महरन करे म० मष्टिकेदात से के ----- ॥त. तब मे वह म. शक दे० देवेन्द्र व. चत्र को प० महरन कर ५० मुशात तानवक्त पा० आदानप० प्रदक्षिणा का करके नः नमस्कार कर ए० पेमा व बाल मं० भगवन अमैं तु. तुमारी नी. नेश्राय मे च चमर अ. अमरेंद्र स० स्वयं अ० भ्रष्ट करने को न वीहिं अणगच्छमाणे तिरिय ममखजाणं दीवसमदाणं मम्झं मांझणं जाव जेणव असोगवरपायवे जेणेव मंम अंतिए तेणेव उवागच्छः उवागच्छइत्ता, ममंचणं चउरंगुलमसंपत्तं वजं पडिसाग्इ अगियाइमे गोयमा ! मुविवाएणं के सग्गे वीइत्था ॥ ३२ ॥ तएणं से सके देविंदे देवगया वजं पडिसाहरित्ता, ममं तिक्वत्तो आया हिणं पयाहिणं करेट करइत्ता वदा नमैमा नमंसात्ता एवं बयासी एवं खलभते ! रस्ते को अनमरता हुवा अमंग्यान द्वीप ममुद्र उल्लंय कर जम्नदीप के भरन क्षेत्र में संप्रमार नामक गर के अशोक वनखण्ट के अशोक वृक्ष नीचे मग ममीप आया. और मेरे में चार अंगल दर रहने पत्र पीछा खींच लिया. वज़ खीचने के लिये जो मुष्टिबंध की. उस के वाय में मेरे के गाय चले ॥३॥ वज वींचे पीछे मुड्ने नीन आदान प्रदक्षिणाकर वंदना नमस्कार कर ऐमा वोल: अहो भगवन : आप * प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वारापनाद जी * भावार्थ - Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय 80 सत्र पवमांग विवाह प्रणनि ( भवगनी ) सत्र न कु. कपिन होने का नामर म ममन्द्र काव: वर केलिये व वन नि नीकाला त• तब म: मुझेप इस गमाग जायावन म उत्पन्न हया कामहैं। ५० ममर्थ च चमर अ अमरेंद्र नने जा: याचन और अवधि ज्ञान को ५० प्रयंजता दे देशप्रिय को और अवधिज्ञान मे आदेखे जा यावन में जहां दे दचान भय ने तहां आया ददेवानुप्रिय को च. चार अंगुल अ. अप्रासका ग्रहण करता हूं व. बज को प० ग्रग काले कालय आ• आया इ. यहां अहं तुझ नीमाए चमरणं अमुग्दिणं असुररणो सयमेव अच्चामाइए, तएणं मए कुविएणं समागणं चमरस्व असुरिंदरस असुररणो वहाए बजे निर्मिद्र, तएणं ममं इमेयारूवे यन्थिए जाव समुप्पजेत्था, णो खलु पभ चमरे असुरिंदे असुरराया तहेव जाव ओहिं पउन्नामि, देवाणुाप्पिए ओहिणा आभोएमि, हाहा जाब जेणेव देवाणप्पिए तेणेव उवागच्छा मि देवाणुप्पियाणं च उग्गुलमसंपत्तं वज पडिसाहरामि. वजं पडिसाहरणट्ठयाएणं इह मागए, का शरण लेकरके चमरेन्द्र ने मेरी आमातना की इस से बहुत कोधिन होकार ने अनुरेन्द्र का वध के लिये बच फेंका. फीर मुझे ऐसा अध्यवसाय यावत् चिन्तवन हुवा कि चमर अमुरेन्द्र अर्य सौधर्म देवलोक में आने को समर्थ नहीं है, अरिहंत यावन् अनगार का शरण लिये विना नहीं आसकता है. इस से मैंने अवधि ज्ञान प्रयुंजा और अवधि ज्ञान से आप को देखे. फोर खेद करता हुवा आषकी ममीप आया नीसग शतक का दूसरा उद्देशा भावार्थ - Per Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कहा मु० मुक्त अ०है भो भो च० चमर अ. अमरेंद्र स: श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर के प०१०१० प्रभाव से न० नहीं ते. तुझे इ. अब म० मुझ से भ० भय अ० है. त्ति. ऐसा करके ज• जिस दिशि स पा० आये ता० उपदिशा में प. पीछे गये ॥३३॥ भ. भगवान् गो. गौतम स० श्रमण म० भगवन्त । म. महावीर को न० नमस्कार कर व० बोले दे. देव भं• भगवन्त म० महाऋद्धि म० महाद्युति जा. यावत् म० महानुभाग पु० पहिले पो० पुद्गल खि० फेंक कर ५० समर्थ तं० उसको अ० पीछे जाकर गे० असुरिंदं असुररायं एवं वयासी-मुक्कोसि णं भो चमरा असुरिंदा असुरराया । समणस्स भगवओ महावीरस्स पभावणं, नाहिं तेदाणिं ममाओ भयमत्थि त्तिकटु, जामेव दिसिं .. पाउब्भए तामेव दिसिं पडिगए । ३३ ॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ नमसइत्ता, एवं वयासी देवेणं भंते ? महिट्ठीए महज्जुईए ' जाय महाणुभागे पुयामेव पोग्गलं खिवित्ता पभ तमेव अणुपरियटित्ताणं गेण्हित्तए अरे असुरेन्द्र अमुरका राजा चमर ! श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के प्रभाव मे मेरी तर्फ से 90 तुझे भय नहीं है ऐसा करके जहां से आया था वहां पीछा गया ॥ ३३ ॥ यहां पर प्रस्तरादि। [ पत्थर ] पुद्गल फेंके पीछे मनुष्य पीछा लेने को ममर्थ नहीं होता है तो देव क्या समर्थ होवे. शक्रने 15 वज्र फेंका और पीछा बज ले लिया इमलिये उस का यहां पर प्रश्न करते हैं. श्री गौतम स्वामी महाकीर है। 4808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) मूत्र 888%> 3 तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा8088 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ग्रहण करने को है . हां प० समर्थ से० वह के० कैसे जा. यावत् गे० ग्रहण करने को गो गौतम पो : पुद्गल खि० फेंका हुवा पु० पहिले सि० शीघ्र सी० शीघ्रगति भ० होकर त० पीछे मं० मंदगीत भ० होती है दे. देव म० महदिक पु० पहिले प० पीछे सी० शीघ्र गति तु. त्वरागति से वह ते• इसलिये जा. यावत् प० समर्थ गे० ग्रहण करने को ॥ ३४ ॥ ज० यदि भं० भगवन् दे. देव म० महर्दिक जा० • हंता पभू । से केणटेणं भंते ! जाव गेण्हित्तए ? गोयमा ! पोग्गलेणं खिवित्ते । समाणे पुवामेव सिग्घगई भवित्ता, तओ पच्छा मंदगई भवइ, देवेणं महिड्डीए पुट्विंपि पच्छावि सीहे सीहगई चेव, तुरिए तुरियगई चेच, से तेण?णं जाव पभू गेण्हि त्तए ॥ ३४ ॥ जइणं भंते देवे महिड्डीए जाव अणुपरियटित्ताणं गेण्हित्तए, कम्हाणं स्वामी को वंदना नमस्कार करके एसा बोले कि अहो भगवन् ! महर्दिक महा द्युतिवंत यावत् महा नुभागवाले देव पहिले पुद्गल फेंक कर उस की पीछे जाकर पीछा लेने को क्या समर्थ हैं ? हां गौतम !. वे समर्थ हैं. अहो भगवन् : किस तरह पीछे जाकर पुद्गल पीछे लेने को समर्थ हैं ? अहो गौतम ! फेंके हुवे पुद्गलोंकी पहिले शीघ्रगति होती है और फीर मंदगति होजाती है. और महद्धिक देव की पहिले " और पीछे शीघू होवे तो शीघ्र और त्वरित होवे तो त्वरित ऐसी एकसरीखी गति. होती है. इस से मह दिक देव फेंके हुवे पुद्गलों को ग्रहण करने को समर्थ हैं ॥ ३४ ॥ जब महर्दिक देव फेंके हुरे पुद्गलों को अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावत् अ० पीछे जाकर गे० ग्रहण करने को क कैसे स० शक्र दे. देवेंद्र च० चमर अः असुरेंद्र को नो० नहीं सं० समर्थ हुवा सा० हस्त से गे० ग्रहण करने को गोः गौतम अ० असुर कुमार दे देवका अ०* अधो ग० मति का विषय सि० शीघ्र तु० त्वरित उ० ऊर्च गगति विषय अ० अल्प मं० मंद वे वैमानिक दे० देवका उ० ऊर्य ग० गति विषय मी० शीघ्र तु० त्वरित अ० अधो मति विषय अ०.अल्प मं० मंद मा० जितना खि• क्षेत्र स० शक्र दे० देवेन्द्र उ० ऊर्य उ० जावे ए. एक स० समय में तं• उप्त को १. भंते ! सक्केणं देविदेणं देवरण्णा चमरे असुरिंदे असुरराया नो खलु संचाएइ ।। ___ साहत्थि गेण्हित्तए ? गोयमा ! असरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए सिग्घे सिग्घे चेव, तुरिए तुरिए चेव. उड़ गतिविसए अप्पे अप्पे चेव, मंदे मंदे चेव ॥ वेमाणियामं देवाणं उढुंगति विसए सीहे सीहे चव, तुरिए तुरिए चेव, अहे गति विसए अप्पे अप्पे चेब, मंदे मंदे चेव, ॥ जावइयं खित्तं सके देविंदे देवराया उर्दु उप्पयइ एक्केणं समएणं, भावार्थ पीछे जाकर ले सकते हैं तो चमरेन्द्र को अपने हाथ में पकडने को शक्रेन्द्र क्यों समर्थ नहीं हुवा ? अहो गौतम ! असुर कुमार देवों को नीचे जाने का विषय शीघू २ त्वरित २ होता है अर्थात वे नीचे बहुत ॐ शीघू जासकते हैं और ऊंचे अल्प व मंद जासकते हैं. वैमानिक देव ऊंचे शीघ्र व त्वरित जासकते हैं। और नीचे अल्प व मैद जासकते हैं. एक समय में केन्द्र उंचे जितने क्षेत्र में जाता है उतने क्षेत्र में 71 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वि० वन दो दो से नं. जिस को व० वज़ दो० दो से ते० उसको च०चमर ति तीन से स०सर्व से थोडा स. शक्र दे० देवेन्द्र का उ० अर्ध लोक कं० कंड अ० अधोलोक क०कंड सं संख्यात गुणा जा०जितना खि० क्षेत्र च० चमर अ० अधो उ० जावे ए० एक समय में तं. उस को सशक दो० दो से १० वजू तिथ्वीन से ससर्वसे थोडा च चमर अ.असुरेंद्र का अ० अधोलोक कं० कंड उ ऊर्ध्व लोक का कंड सं० तं वजे दोहिं, तं चमरे तिहिं ॥ सव्वत्थोवे सकारस देविंदस्स देवरण्णो उड्डलोयकंडए अहेलोय कंडए संखेजगुणे जावइयंखेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे उवयइ । एक्केणं समएणं, तं सक्के दोहिं, तं वजे तिहिं, ॥ सव्वत्थोवे चमरस्स असुरिंदस्स ! असुररण्णो अहेलोयकंडए, उड्डलोयकंडए संखेजगुणे, एवं खलु गोयमा ! सक्केणं दो समय में जाता है और चमरेन्द्र तीन समय में जाता है, शक्र देवेन्द्रको उपर जाने में सब से थोडा काल लगता है जप्त से अधो लोक में आने में संख्यात गुना ( द्विगुना.) काल लगता है. * एक समय में असुरेंद्र जितना नीचे उतरता है उतना शकेंद्र दो समय में उतरता है और वज़ तीन समय में उतरता है * यहां पर द्विगुना काल लेनेका मतलब यह है कि शकेंद्रको ऊंचा जानेका व चमरेंद्र को नीचा आने से जई का काल में दोनों बराबर हैं. एक समय में चमरेंद्र जितना नीचे जाता है उतनाही क्षेत्र नीचे आने में २१ शकेंद्र को दो समय लगते हैं. 202 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ शब्दार्थ संख्यात गुणा ए० ऐसे ॥ ३५ ॥ स० शक्र दे० देवेंद्र का उ० अर्ध अ० अधो नि० तिर्छा ग. गति । ०/विषय क कितना क किससे अ० अल्प व०बहुत तुतुल्य वि विशेषाधिक गो गौतम सासर्व से थोडा खे०१० क्षेत्र स० शक्र दे० देवेन्द्र अ० अधो उ० जावे एक एक समय में ति• तिर्छा सं० संख्यातवा भागमें ग०१४ देविदेणं देवरण्णो चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाएइ साहत्थिं गेण्हित्तए ॥ ३५॥ सक्कस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उड़े अहेतिरियंच गइविसयवस्स कयरे कयरे. हिंतो अप्पेवा बहुएवा तुल्लेवा विसेसाहिएवा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तं सक्के दे. विदे देवराया अहे उवयइ, एक्केणं समएणं तिरियं संखेजेभागे गच्छइ, उर्दु संखेचमर अमुरेंद्र को नीचे आने में सब से थोडा काल लगता है उस से ऊर्ध्व जाने में संख्यात गुना काल लगता है. इस से अहो गौतम ! शकेन्द्र असुरेन्द्र को हाथ से पकडने को समर्थ नहीं है ॥ ३५ ॥ अब व शकेंद्र, चमरेंद्र व वज्र इन की गति का अल्पाबहुत्व करते हैं. अहो भगवन् ! शक्र देवेंद्र का ऊर्च, अधो व तिर्यक् गति विषय में से कौन किस से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है! अहो गौतम ! सब से थोडा क्षेत्र शक देवेंद्र नीचे उतरता है, इस से संख्यात भाग अधिक तिछी दिशा के क्षेत्रका आक्र-1 ofमण करता है उस से फर्व दिशा का क्षेत्र संख्यात भाग अधिक जाता है. जैसे शक्र नामक देवेन्द्र एक समय में एक योजन नीचे आवे, उस के दो भाग करके उस में का एक भाग उक्त योजन में मीलाने से पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भग तो) सूत्र 8888 तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा भावार्थ - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ : जावे उ० ऊर्ध्व सं० संख्यातवा भाग में ग० जावे ॥ ३६ ॥ च० चमर अ० असुरेंद्र उ० ऊर्ध्व अ० १. सूत्र | जेभागे गच्छइ ॥ ३६ ॥ चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो उड़ अहे ति भावार्थदेह योजन होवे इसलिये तीन संख्यात भाग तिच्छी लोक में जावे. तिच्छी लोक में योजन का आधा विभाग रहा था वह आधा विभाग उक्त देढ योजन में मीलाने से पूरे चार भाग संख्यात गुने हो ॥ ३६ ॥ अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र का ऊर्ध्व अधो व तिर्यक गति का विषय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! एक समय में चपर अमुरेन्द्र सब से थोडा ऊर्ध्व लोक में जाता है इस से तिर्छा लोक में संख्यात गुणा अधिक क्षेत्र जाता है और उस से अधो लोक में संख्यात भाग अधिक जाता है. एक समय ऊर्च गति के विषय में उस के मंदपने की कल्पना मे बीन में + यहां कोई प्रश्न करे कि सूत्र में संख्यात भाग मात्र ही ग्रहण किया है और यह नियमित भाग 1 १ कैसे बना सकते हो? जितना क्षेत्र चमरेंद्र नीची दिशामें एक समय में जाता है उतना क्षेत्र जाने को शक है देवेन्द्र को दो समय लगता है वैसे ही शक्नेन्द्र का ऊर्ध्व गमन काल और चमरेन्द्र का अधो गमन काल तुल्य है इस से निश्चय होता है कि दो समय में जितना क्षेत्र शक्रेन्द्र नीचे आबा है उतना क्षेत्र उपर एक समय में जाता है. इस से अधो क्षेत्र दुगुना कहा. और बीच का तीछा क्षेत्र देव गुना कहा. वैसे ही चूर्णिकाकार भी कहते हैं कि एगे समएणं तिरियं दिवढे गच्छइ उद्धं दो जोयणाणिं सक्कोत्ति ॥ . अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादगी* nnnnnnnnnn namaskar Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2007 ५०९ भावार्थ पंचमांग हिवाव पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र अधो ति तिर्छा ग०. गति विषय का कितना का किस से अ० अल्प व० बहुत तु. तुल्य वि. विशेषाधिक गो. गौतम स० सर्व से थोडा खे० क्षेत्र च० चमर अ० असुरेंद्र उ० ऊर्च उ. जावे ए० एक समय में ति० तिर्छा सं० संख्यातवा भाग में अ० अधो सं० संख्यातवा भाग में स० शक्र दे० देवेन्द्र १०० रियंच गइविसयस्स कयरे कयरेहितो अप्पेवा, बहुएवा तुल्लेवा, विसेसाहिएवा ? है गोयमा ! सव्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया उड्डे उप्पयइ एकेणं समएणं, तिरियं संखेजेभागे गच्छइ, अहे संखेजे भागे गच्छइ । सक्के देविंद देवराया उट्ठे भाग ऊना तीन गाउं, इस प्रकार एकेक गाउ के तीन भाग करने से एक योजन के बारह और दो योजना के चौवीस भाग होते हैं इस से यहां विचारते हैं तीन भाग कम तीन गा तब आठ भाग रहे इतना एक समय में ऊंचे जावे, उस से तिर्छा उक्त आठ भाग से दुगुने करे इतना क्षेत्र अधिक जावे इतना तिर्छा गति का विषय शीघ्र कहा है. उक्त दो विभाग कम छ गाऊ है उस में एक विभाग कम तीन गाऊ मीलाने से अर्थात् दो योजन पूर्ण होवे उतना अधिक अधो लोक में जावे. अहो भगवन् ! वज़ काoge ऊर्ध, अधो व तिर्यक् गति में ज्यादा, कमी, बराबर किस प्रकार कहा है ? अहो गौतम ! जैसे शकेन्द्र है। का कहा वैसे ही वज़ का जानना. वज़ सब से थोडा अधो गति में जावे, क्यों कि अधो गति में जाने में उन की गति की मंदता है. तिछा विशेषाधिक जावे और ऊर्च गति में विशेषाधिक जावे. यहां 2208:00 तीसरा शतक का दूसरा उद्दशा-483 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र | भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ० उ० जावे ए० एक स० समय में तं० उस को व० वज्र दो० दो से च० चमर ति तीन से न० विशेष वि० विशेषाधिक का कहना ॥ ३७ ॥ स० शक्र दे० देवेंद्र का उ० नीचे आनेका उ० उपर { जाने का का० काल क० कितना क० किससे अ० अल्प गो० गौतम स० सर्व थोडा स० शक्र दे देवेंद्र उपes एक्hi समएणं तं वज्जे दोहिं, तं चमरे तिहिं, वजं जहा सक्करस तहेव, नवरं विसेसाहियं कायव्वं ॥ ३७ ॥ सक्करसणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उवयणकालस्सय उप्पयणकालस्सय कयरे कयरेहिंतो अप्पेवा बहुएवा तुल्लेवा विसेसाहिएवा ? कल्पना से तीसरा भाग कम एक योजन अधोलोक में जावे. उक्त आठ भाग में से एक गाऊ का तीन भाग करे ऐसे दो भाग अधिक तिच्छलोक में जाने से विशेषाधिक, ऊर्ध्व गति में एक योजन पूर्ण जावे इस से विशेषाधिक. यहां कोई प्रश्न करे कि सामान्य से विशेषाधिकपना कहा है तब उस के नियमित भाग कैसे हो सकते हैं ? एक समय में जितना क्षेत्र चमरेन्द्र अधो गति में उल्लंघता है उतना क्षेत्र शक्रेन्द्र दो समय में उल्लंघता है और वज्र तीन समय में उल्लंघता है. इस तरह शक्रेन्द्र की अधोगति की अपेक्षा से वज्र के तीन भांग कम अधोगति हुई. शक्र का नीचे जानेका काल और वज्र का ऊंचा जाने का काल बराबर है इस से जाना जाता है कि जितने समय में शक्रेन्द्र नीचे जाता है उतने समय में वज्र ऊंचे { जाता है. ऊर्ध्व व अधोगति के बीच में तिच्छी गति है. इन दोनों के बीच में तिच्छगति रही हुई है. इन दोनों के बीच में एक गाऊ के तीन भाग करे ऐसे दश भागवाला तिच्छगिति का प्रमाण कहा ||३७|| | * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ५१० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाद का उ० ऊर्ध्व उ० चडने का काल उ० उतरने का काल सं० संख्यात गुणा च० चमर का ज० जैसे ०७ स० शक्र का ण० विशेष स० सर्व से थोडा उ० उतरने का काल उ० उपर जाने का सं० संख्यात ७० गणा व० वज्र की पु० पृच्छा गो० गौतम स० सर्व से थोडा उ० उपर जाने का उ० नीचे आने का वि० विशेषाधिक ॥ ३८ ॥ ए इस व० वज्र का व वज्र के अधिपति का चश् चमर अ० असुरेंद्र का उ० e सूत्र भावार्थ 43 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 400 40 तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा ८०३ गोयमा ! सव्वत्थोवे सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो उङ्कं उप्पयण काले, उवयणकाले संखेज्जगुणे ॥ चमरस्सवि जहा सक्करस णवरं सव्वत्थोवे उवयणकाले, उप्पयणकाले संजगुगे || वजस्त पुच्छा गोयमा ! सव्वत्थोवे उप्पयणकाले, उवयणकाले विसेसाहिए, ॥ ३८ ॥ एयस्सणं भंते ! वजस्स वज्जाहिवइस्स, चमरस्स्य, असुरिंदरस | अब काल की अल्पाबद्दुत्व करते हैं. अहो भगवन् ! शकेंद्र को नीचे उतरने स्वामी शक्र वज्र चमर के काल में, उंचे चडने के काल में कोनसा अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? अहो गोतम ! शकेंद्र को ऊंचे जाने में सब से थोडा काल लगता है, क्यों की शक की ऊर्ध्व गति शीघ्र है. इस से नीचे उतरने का काल ) संख्यात गुना. चमरेंद्र को सब से थोडा नीचे उतरने का काल और उस से उपर जाने का काल संख्यात गुना. वज्र को सब से थोडा काल ऊंचे जाने में लगता है उस से नीचे आने में विशेषाधिक काल लगता है ॥ ३८ ॥ अब ८ ऊर्ध्व |२४ १२ तिच्छी १८ १० १६ अधो १२ ८ २४ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ५१२ 402 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी नीचे आने का उ० उपर जाने का का कितना क. किस से अ० अल्प ॥ ३९ ॥ त तब च. चमर. अ० असुरेंद्र व वजू का भ० भय से वि० मुक्त स० शक्र दे० देवेंद्र से ब० बहुत अ० अपमान से अ० अपमानित हुवा च० चमर चंचा रा० रज्यधानी की स० मुधर्मा सभा में च० चमर सी० सिंहासनपे उ. असुररण्णो उवयणकालरसय, उप्पयणकालस्सय, कयरे कयरहितो अप्पेवा ४, ? गोयमा ! सक्कस्सय उप्पयणकाले चमरस्सय उवयणकाले एसणं दोण्हवि तुल्ले, सव्वत्थोवे सक्कस्सय उवयण काले, वजस्सय उप्पयणकाले एसणं दोण्हवि तुल्ले संखेजगुणे, चमरस्सय उप्पयणकाले वजस्सय उवयणकाले एसणं दोण्हवि तुल्ले विसेसाहिए ॥ ३९ ॥ तएणं से चमरे असुरिंदे असुरराया वजभयविप्पमुक्के सकेणं देविदेणं देवरण्णो महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहाणीए सभाए तीनों की परस्पर अल्पाबहुत्व करते हैं अहो भगवन् ! वज, वजाधिपति जो शक और चमर इन तीनों को उपर, नीचे जाने का काल में अल्प, बहुत्व तुल्यं या विशेषाधिक यह किस प्रकार है ? अहो गौतम ! शक्र, को उपर जाने का काल और चमर को नीचे जानेका काल परस्पर तुल्य व सब से थोडा, इस से नीचे उतरने का और वजू का उपर जाने का काल परस्पर तुल्य और संख्यात गुना इस से चमर का, उपर जाने का और वजू का नीचे आने का काल परस्पर तुल्य और विशेषाधिक ॥ ३९॥ अब चमर ** प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwara Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880 शब्दार्थहणाया म० मनसंकल्प चिं० चिंताशोक सा• सागर में सं० प्रविष्ट क० करतल में प० रहा हुवा मु०१। मुख अ० आर्तध्यान उ० ध्याते भू० भमि में दि०दृष्टि झि० ध्यानकरे ॥४०॥ त० तब तं० उन च• चमर अ० असुरेंद्र को सासामानिक देव ओव्हणाया म०मनसंकल्प जायावत् झि०ध्यानकरते पा०देखकर क. ५१३ करतल जा० यावत् व० बोले कि० क्या दे० देवानुप्रिय उ० हणाया म० मनसंकल्प जा० यावत् शि० सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि उवहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविढे करयल पल्हत्थमुहे अदृज्झाणोवगए, भूमिगयदिट्ठीए झियाइ ॥ ४० ॥ तएणं तं चमरं असुरिंदं असुररायं सामाणियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव झियाइमाणं पासइ पासइत्ता करयल जाव एवं वयासी किण्हं देवाणुप्पिया उवहयमणसं. कप्पा जाव झियायह ॥ ४१ ॥ तएणं से चमरे असुरिंदे असुरराया ते सामाणियअसुरेंद्र वजू भयसे मुक्त हुवा, और शकेंद्र देवेंद्र से अपमान कराया हुवा, चमर चंचा राज्यधानी में सुधर्मा सभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठा हुवा व मन का अभिमान हणाने से शोक सागर में डुबा हुवा age गंडस्थलपर हथेली रखकर व भूमि पर दृष्टि रखकर आर्तध्यान करने लगा ॥४०॥ तब चमर असुरेंद्र की परिषदा के सामानिक देवोंते चपरेन्द्रको ऐमा आर्तध्यान करता हुवा देखकर पूछा कि अहो देवानुप्रिय !* आप क्यों एसा आतध्यान करते हो? ॥४१॥उस समय में चमर नामक अमरेंद्रने उन सामानिक परिपदा के पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <१.१> Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ २० अनुवादक लिब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ध्याते हो ॥ ४१ ॥ पूर्ववत् ॥ ४२ ॥ किं० किस प० प्रयोजन से भ० भगवन् अ० असुर कुमार देव उ० पारसोवण देवे एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया मए समणं भगवं महावीरं नीसाए स देविंदे देवराया सयमेव अच्चासाइए. तएणं तेणं परिकुविएणं समाणेणं ममं वहाए वजे निसिट्टे, तं भद्दणं भवतु देवाणुप्पिया समणस्स भगवओ महावीरस्स जस्संमि पभावेण अकिट्ठे अव्वाहए अपरिताविए इह मागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेब अज्ज उवसंपजित्ताणं विहरामि तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पज्जुवासामो तिक्कद्दु चउसट्ठीए सामाणिय साहस्सीहिं जाव सव्धिड्डीए जाव जेणेव असोगवर पायवे जेणेव मम अंतिए तेलेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता. देवों को ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय ! मैंने श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की नेश्राय से शक्र देवेद्र को भ्रष्ट करने की इच्छा की इससे उसने क्रोधित होकर मेरा वध करने को वज्र छोडा. अहो देवानुप्रिय ! उन महा वीर स्वामी का कल्याण होवो कि जिनके प्रभाव से मैं क्रिष्टता, बाधा, परितापना रहित यहांपर आया हुवा हूं, यहांपर समोमर्या हूं यावत् यहां पर प्रशान्त बना हुवा विचरता हूं. इस से अपन श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी पास जावे और उन को वंदना नमस्कार करे यावत् उनकी पर्युपासना करे. इस से चौसठ हजार सामानिक यावत् सब ऋद्धि सहित सुंसुमार नगर के अशोक वन खंड में अ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी जालाप्रसादजी # ५१४ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *30> है ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं फ्याहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु भंते ! भए तुभं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासाइए जाव तं भदणं भवतु देवाणुप्पियाणं जस्समि पभावेण आकिटे जाव विहरामि. तं खामेमि णं देवाणुप्पिया जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ अवकमइत्ता जाव वत्तीसइबद्धं नट्टविहिं उवदसेइ उबदंसेइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णो सा दिव्वा देविट्ठी लढा पत्ता अभिसमण्णागया, ठिई सागरोवम, महाविदेहे वासे लिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ॥४२॥ किं पत्तियणं भंते ! भावार्थ - शोक वृक्ष की नीचे पृथ्वी शीला पटपर मेरी पास आया और मुझे वंदना नमस्कार कर ऐसा कहा अहो, भगवन् ! आपकी नेश्राय से मैं शक्र देवेन्द्र की आमासना करने को गया यावत् आपका कल्याण होवो कि आप के प्रभाव से मैं बाधा पीडा रहित फोरता हूं. इस से अहो देवानुप्रिय ! आप की मैं क्षमा org चाहता हूं यावत् ईशान कौन में गया और बत्तीस प्रकार के नाटक बताकर जिस दिशा से आया था उनी दिशा में गया. इस तरह अहो गौतम : चमर असुरेन्द्र को ऐसी दीव्य देवद्धि प्राप्त हुई है. स्थिति म की है और महा विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होवेगा यावत सब दुखों का अंत करेगा॥४२॥ पण्णत्ति ( भंगवती ) सूत्र तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा* Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 88 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्पजी ऊर्ध्व उ० जाये जा. यावत सो० धर्म देवले. गो. गौतम दे देव अ० तुरत का उत्पन्न च० नमर अमरकुमारा देवा उढ़ उप्पयंति जाव लोहम्मे कप्पे ? गोयमा ! तेसिणं देवाणं अहणोववण्णगाण वा, चरिम सवाणवा इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जइ अहो णं अम्हेहिं दिव्वा दविट्ठीलडा पना अभिसमण्णागया जारिसियाणं अम्हहिं दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागया तारिलिपाणं सकेणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्या देविट्टी जाव अभिसमण्णागया जारिसियाणं सकेणं देविदेणं जाव अभिसमण्णागया तारिसियाणं अम्हेहिंवि जाव अभिसमण्णागया तं गच्छामोणं सक्करस दविंदस्स देवरणो अतियं पाउब्भशमो पासामो ताव सकस देविंदरस देवरण्णो दिव्वं देबिड्डी जाव अभिसमण्णा गयं पासतु ताव अम्हहिवि सझे दविंद देवराया दिव्यं देविट्टि जाव अभिसमण्णागयं आगे भव प्रत्यायिक वैर मे मौन देवलोक में जाने का कहा अब दसरा कारन मे मोधर्म देवलोक में जाते हैं मो बताते हैं. अमो भगवन : किम कारन से असर कमार देव मौधर्म देवलोक में गये और जावेंगे ? अहो गौतम : तुर्त के जन्मे हुवे को अपना चरण काल पान आया हुवा होवे वैसे को ऐमा अध्यवमाय हाये कि मुझे ऐसी दीव्य देवदि यात प्राप्त हुई है मनख हुई है. जैसी ऋद्धि मझ है वैसी ही ऋद्धि शक्र देवेन्द्र को है और जैनी ऋद्धि हाक देवेन्द्र को है वैसी ही ऋद्धि मुझे है इम से शकेन्द्र की * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्यालाममादजी * भावार्थ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2:03. सन शब्दार्थश्व में इ. इसरूप अ. अध्यासाय जा. यावत सः उत्पन्न होवे पूर्ववत ॥३॥२॥ ते० उम काल ते. उस समय में रा० राजगृह नः नगर हो था जा. यावत् १० परिपदा पपीली गई। Vते. उस काल ते० उस सयम में जा. यावत् अं० अंतेवासी मं० मंडित पुत्र अ. अनगार प. प्रकृति ते जाणामो ताव सकारस देविंदरस देवरपणो दिव्वं देविढेि जाव अभिरसमण्णागयं जाणओ ताव अम्हेवि सके देविंदे देवराया दिव्वं देविढि अभिसमण्णागयं ॥ एवं खलु गोयमा ! असुरकमारा देवा उट्ठ उप्पयंति, जाव सोहम्मे कप्पे सेतं भंते त्ति, चमरो सम्मत्तो । तइयसए बीओ उहेसो सम्मत्त ॥ ३ ॥ २ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, जाव परिसा पडिगया ॥ * ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव अंतेवासी मंडिय पुत्ते णामं अणगारे, पगइभदए जान भावार्थ पास जाऊ, प्रगट होऊं, और उन की ऋद्धि देखू. पहिले शक देवेन्द्र को प्राप्त हुई ऋद्धि देखो. पहिले शक देवेन्द्र को दीव्य ऋद्धि प्राप्त हुई ऐसा मानते हैं. इस कारन से असुर कुमार देव ऊंचे सौधर्म , yel देवलोक में गये और जावेंगे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चमरेन्द्र का आधिकार संपूर्ण हुवा यह तीसरा शतकका दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा।॥ ३ ॥२॥ + + 11 उस काल उस समय में राजगह नामक नगर था. उस की ईशान कौन में मुणशील नामक उद्यान पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सत्र 2 तीसरा शतक का तीसरा उद्देशा 8.3><3280 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ १० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भद्रिक जा० यावत् प० पर्युपासना करते ए० ऐसे व० बोले क० कितनी मं० भगवन् कि० क्रिया ५० प्ररूपी मं० मंडितपुत्र पं० पांच क्रिया प० प्ररूपी का कायिकी अ० अधिकरणि की पा० प्रद्वेषिकी पा० पारितापनिकी पा० प्राणातिपात क्रिया || १ || का० कायिकी भं० भगवन् कि० क्रिया क० कितने पज्जुवासमाणे एवं वयासी कइणं भंते किरियाओ पण्णत्ताओ ? मंडियपुत्ता ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ तंजहा काइया, अहिगरणिया, पाओसिया, पारियावणिया, पाणाइवायकिरिया || १ || काइयाणं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? मंडियपुत्ता ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * था. वहां श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को आई, धर्मोपदेश सुनकर पीछी ( गई. उम समय में प्रकृति भद्रिक यात्र विनीत श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का मंडितपुत्र नामक शिष्य पर्युपासना | करते ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! क्रियाओं कितनी कही हैं ? अहो मंडित पुत्र ! कर्म के हेतु रूप क्रिया के (पांच भेद कहे हैं. १ शरीर से होवे सो कायिकी क्रिया २ खड्ग शस्त्रादि अधिकरण से होवे सो अ [धिकरणिकी ३ मत्सरभाव से होवे सो प्रद्वेषिकी ४ अन्य को परितापना ( दुःख ) देने से होवे सो परि{ तापनिकी और ५ प्राणों की बात करने से होवे सो प्राणातिपातिकी क्रिया ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! कायिकी क्रिया के कितने भेद कहे हैं ? कायिकी क्रिया के दो भेद १ अनुपरत कार्यि की क्रिया-प्रत्याख्यान कर के ५१८ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 388- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मत्र 40880% प्रकार की मं० मंडितपुत्र दु० दोप्रकार की अ० अनुपरत कायक्रिया दु० दुप्रयुक्त कायक्रिया ॥ १ ॥ अ० अधिकरणकी भं० भगवन कि० क्रिया क० कितने प्रकार की मं० मंडित पुत्र द० दोप्रकार की सं. संयोजन अधिकरण क्रिया नि० निवर्तन अधिकरण क्रिया ॥ ३ ॥ प्रवपिकी भ० भगवन् कि० क्रिया का कितने प्रकार की मं मंडितपुत्र दु० दोपकार की जी. जीव प्रपिकी अ० अजीव प्रदूषिकी दविहा पण्णत्ता, तंजहा अणुवरयकाय किरियाय, दुप्पउत्तकाय किरियाय ॥ २ ॥ अहिगराणियाणं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा संजोयणाहिगरण किरियाय, निव्वत्तणाहिगरण किरियाय ॥ ३ ॥ पाओसियाणं भंते ! किरिया कइविहा प• ? मंडियपुत्ता : दुविहा प• तंजहा जीय पाओ सियाय अजीव पाओसियाय ॥ ४ ॥ पारियावणियाणं भंते ! किरिया कइ.. पाप से निवर्तना नहीं सो और दुप्रयुक्त सो दुष्ट प्रयोग के सद्भाव से ॥२॥ अहो भगवन् ! अ. धिकरणिकी क्रिया के कितने भेद कहे हैं! अहो मंडित पुत्र ! हल घर वगैरह में जो कोई यंत्रादि न होवे उस का संयोग मीलाने से जो क्रिया लगे सो संजोयणाधिकरण क्रिया और खङ्गादि नविन उत्पन्न करना सो निवर्तनाधिकरण क्रिया ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! प्रवेषिकी क्रिया के कितने भेद कहे हैं ? अहो मंडितपुत्र ! जीव पर मत्सर भावरखे सो जीव प्रद्वेषिकी और अजीव पर मत्सर भाव रखे सो अजीव ११0><2 तीसरा शतक का तीसरा उद्देशा भावार्थ 90%80 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी माने श्री अमोलक ऋषिजी ॥ ४ ॥ पा० पारितापनिकी दु० दोप्रकार की स० अपने दस्त से प० दुसरे के हस्त से ॥ ५ ॥ ० प्रणातिपातिकी क्रिया दु० दोमकार की स० स्वहस्त प्राणातिपात क्रिया १० परहस्त प्राणातिपात क्रिया) ॥ ६ ॥ पु० पहिली भं० भगवन् किं० क्रिया प० पीछे वे० वेदना पु० पहिली वे० वेदना प० पीछे ( कि० क्रिया मं० मंडित पुत्र पु० पहिली क्रिया प० पीछे मं० वेदना णो० नहीं पु० पहिली वेदना प० पीछे बिहा प० ? मंडियपुत्ता ! दुबिहा प० तंजहा सहस्थ पारियात्रणियाय, परहत्थ पारियावणियाय ॥ ५ ॥ पाणाइवाय किरियाणं भंते ! पुच्छा मंडियपुत्ता ! दुविहा प० तं जहा सहत्थ पाणाइवायाकिरिया परहत्थ पाणाइवाय किरियाय ॥ ६ ॥ पुत्रि भंते! किरिया पच्छा वेयणा पुत्रि वेयणा पच्छा किरिया ? मंडियपुत्ता ! { प्रद्वेषिकी ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! परितापनिकी क्रिया के कितने भेद ? अहो मण्डित पुत्र ! परितापाने की क्रिया के दो भेद १ स्वस्त से स्वतः को तथा अन्य को परितापना उत्पन्न करे और २ पर हस्त से { स्वतः को तथा अन्य को परितापना उत्पन्न करे || ५ || अहो भगवन् ! प्राणातिपात्रिकी क्रिया के कितने (भेद ? प्राणातिपातिकी क्रिया के दो भेद? स्वहस्त से स्वतः की तथा अन्य की बात करे सो और २ पर ( हस्त से स्वतः की तथा अन्य की घात करे ॥ ६ ॥ क्रिया मे वेदना होती है इस से ( पूछते हैं. अहो भगवन् ! पहिले क्रिया और पीछ वेदना होती है अथवा पहिले वेदना का प्रश्न होती है ओर वेदना * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* ५२० Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कि० क्रिया ॥ ७ ॥ अ० है भं भगवन् म० श्रमण नि० निथ को कि क्रिया क० करे हं० हां अ० १ है क. कैसे भं. भगवन् स. श्रमण नि. निग्रंथ कि क्रिया क. करे मं० मंडितपुत्र म. प्रमाद है प्रत्यायक जो० योग निमित्त ॥ ८ ॥ जी जीव भं० भगवन् स. सदैव ए. कम्पे वे० विशष कम्पे च. चले फं० थोडापे घ• सबदिशा में चले खु. क्षोभपामें उ० उदीरे तं० उस उस भाव को ५० परिण पुदि किरिया पच्छा वेयणा णो पुचि वेयणा पच्छाकिरिया ॥७॥ अत्थिणं भंते समणाणं । १ निग्गंथाणं किरिया कजइ ? हंता अत्थि. कहिणं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया क जइ ? मंडियपुत्ता ! पमाय पच्चया, जोग निमित्तंच. एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ ॥८॥जीवेणं भंते सयासमियं एयइ,वेयइ,चलइ,फंदइ, घट्टइ,खुब्भेइ, उदीरेइ, तंतं पीछे क्रिया होती है ? अहो मण्डितपुत्र ! पहिले कर्मबंध के कारण भूत क्रिया होती है फीर उन का भावार्थ उदय होने से वेदना होती है. इस से पहिले क्रिया और पीछे वेदना होती है; परंतु पहिले वेदना और पीछे क्रिया नहीं है ॥ ७॥ अहो भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ क्या क्रिया करते हैं ? हां मण्डित पुत्र : श्रमण निर्ग्रन्थ क्रिया करते हैं. अहो भगवन् ! श्रमण निग्रन्थ कैसे क्रिया करते हैं ? अहो मण्डित पुत्र! प्रमाद प्रत्ययिक और योग निमित्त श्रमण निग्रंथ क्रिया करते हैं ॥ ८॥ अहो भगवन् ! सबोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त क्या चले, विशेष चले, एक स्थान से अन्य स्थान जावे, स्पर्श करे, क्षुब्ध होवे 488 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र तीसरा शतकका तीसरा उद्देशा8058880 monion. | । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी में है. हां मं० मंडितपुत्र जी. जीव स० सदैव ए. कंपे जा. यावत् १० परिणमे ॥९॥ जा० जितना भ० भगवन् जी०जीव सासदैव जायावत् प०परिणमता ता० उतना त उस जीव की अं• अंत में अं०१ अक्रिया भ० होवे णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से. वह के० कैसे भं• भगवन् मं० मंडितपुत्र जा० जितना से वह जी० जीव स० सदैव जा० यावत् प० परिणमे ता० उतना से वह जी० जीव आ. आरंभ करे सा० सारंभ करे स. समारंभ करे आ० आरंभ में व. वर्ते सा. सारंभ में व. वर्ते भावं परिणमइ ? हंता मंडियपत्ता ! जीवेणं सयासमियं एयइ जाव तंतं भावं परिणमइ ॥ ९ ॥ जावंचणं भंते ! से जीवे सयासमियं जाव परिणमइ तावंचणं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ ? णोइणटे सम? ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ, जावंचणं से जावे सयासमियं जाव अंते अंतकिरिया न भवइ ? मंडियपुत्ता ! जावं चणं से जीवे सयासमियं जाव परिणमइ तावंचणं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समाउदीरे वगैरह पूर्वोक्त भावों में परिण? हां मण्डित पुत्र ! सयोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त चलता है, यावत् पूर्वोक्त भावों में परिणमता है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जहां लग सयोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त चलता है यावत् पूर्वोक्त भावों में परिणमता है वहां लग क्या उन को अंत क्रिया होती है ! यह अर्थ न योग्य नहीं है. किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो मण्डित पुत्र ! जहां लग सयोगी जीव * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब 22: . पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती स० समारंभ में वक्त आ० आरंभ करता मार मारंभ करता स० समारंभ करता था. आरंभ में मा० सारंभ में स. समारंभ में व. वर्तता व वहत पा. प्राण भूः भूत जी, जीव स सत्व क दुःख देने से सो० शोचकराने से जू० जूरणा कराने से ति० आक्रंद कराने से पि० मारने से प. परितापना उपजाने से व० वर्ते से वह ते. इसलिये मं० मंडित पुत्र ॥१ ॥ से. वह ज. जैसे के० कोई ७ रंभइ ; आरंभे वट्टइ, सारं भेवटइ, समारंभेवटइ; आरंभमाणे, सारंभमाणे, समारंभमाणे, आरंभेघटमाणे, सारंभेवमाणे, सामारंभेवमाणे, बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं दुक्खावणताए, सोयावणताए, जूरावणताए, तिप्पावणताए, पिटावणताए, परियावणताए वट्टइ से तेणट्टेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुच्चइ, जावंचणं से जीवे सयासमियं एयइ जाव परिणमइ, तावंचणं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवइ ॥ १० ॥ सदैव चलता है यावत् उन पूर्वोक्त भावों में परिणमता है वहां लग वह जीवों का आरंभ, सारंभ व समारंभ करता है, आरंभ, सारंभ व समारंभ में वर्तता है. इस तरह आरंभ, सारंभ व समारंभ करता हुवाई यावत् उन में प्रवर्तता हुवा प्राण, भूत, जीव व सत्वोंको दुःख, शोक, झुरणा, वेदना, पिटना व परितापना करने में प्रवर्तता है. इस से अहो मण्डित पुत्र : ऐसा कहा गया है कि सयोगी जीव जहां लग चलता है। यावत् उन पूर्वोक्त भावों में परिणमता है वहांलग उन को अंत क्रिया नहीं होती है ॥ १० ॥ अहो । 00 तासग शतक का तीसरा उद्दशा 088080/ भावार्थ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुरुष सु० सुका तु० तृण कापूला जा. अग्नि में प० डाले हैं. वह मं० मंडितपुत्र सु०० शुष्क त तृणका पुला आ० अग्नि में प० डालते खि. शीघू म० जल जावे हं० हां म. जल जाब ज. जैसे के० कोई पुरुष त० तप्त अ० लोहेके गोलपे उ० पानी का विंदु १० डाले से वह मं० मंडितपुत्र उ० पानी का विन्दु त. जीवेणं भंते! सयासमियं णो एयइ जाव णो तंतं भावं परिणमइ ? हंता मंडियपुत्ता ! जीवेणं सयासमियं जाव णो परिणमइ जावंचणं भंते ! से जीवे नो एयइ जाव नो तंतं भावं परिणमइ, तावंचणं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ ? हंता जाव भवइ ॥ से केणट्रेणं जाव भवइ ? मंडियपुत्ता ! जावंचणं च से जीवे सयासमियं णोएयइ जाव परिणमइ, तावंचणं से जीवे णो आरंभइ, णोसारंभइ, णोसमारंभइ, णो आरंभेवटइ, णो सारंभेवटइ णो समारंभेवदृइ, अणारंभमाणे, असारंभमाणे, भगवन् : अयोगी जीव सदैव प्रमाण युक्त क्या नहीं चलते हैं यावत् उक्त भावों में नहीं परिणमते हैं ? हां मण्डित पुत्र ! वे अयोगी जीर नहीं चलते हैं यावत् पूर्वोक्त मावों में नहीं परिणमते हैं. अहो भगवन् ! जहांलग वे जीवों नहीं चलते हैं यावत नहीं परिणमते हैं वहांलग उन को क्या अंत क्रिया होती है ? हां मण्डित पुत्र ! उन का अंत क्रिया होती है. किस तरह उन को अंत क्रिया होती है ? अहो मण्डित पुत्र ! जहांलग वे जीव चलते नहीं हैं यावत् नहीं परिणमते हैं वहांलग वे आरंभ, सारंभ . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तप्त अलोहे के कडे पे पडाला हुवा खि० शीघ्र वि. नाशपावे हं० हां विविनाश पावे ज• जैसे हः द्रह पु० पूर्ण पु० पूर्ण प्रमाण वो० उछलता वो० उल्लास पामता स० भरा हुवा चि० होवे अ. अब के० कोई पुरुष तं० उम ह. द्रह में ए० एक वडा ना० नाव स० शतछिट्वाली ओ० रखे मं० मंडितपुत्र सा० ३०० असमारंभमाणे; आरंभ अवट्टमाणे, सारंभे अवमाणे, समारंभे अबमाणे बहणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खावणत्ताए, जाव अपरियावणत्ताए वदृइ, से जहा नामए केइपुरिसे सुक्कतणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेजा, सेणूणं मंडियपुत्ता! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसा विजइ ? हंता मसमसा विजइ ॥ सेजहा नामए केइपुरिसे तत्तंसि अयकवल्लसि उदयविंदु पक्खिवेजा ? सेनणं मंडियपुत्ता ! से उदयबिन्दु तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव भावार्थव समारंभ नहीं करते हैं यावत् उन में नहीं परिणमते हैं. इस तरह आरंभ, सारंभ व समारंभ नहीं करने वाला यावत् उस में नहीं प्रवर्तनेवाला पाण, भूत, जीव व सत्तों का दुःख यावत् परितापना नहीं करता है. ogo परंतु योग निरूंधन रूप शुक्ल ध्यान से सकल कर्म धंस रूप अंत क्रिया करता है. उस के उपर तीन दृष्टांत कहते हैं. १ जैसे सूका हुवा घास अग्नि में डालने से क्या भस्म होता है ? हां भगवन् ! वह भस्म होता है, अहो मण्डित पुत्र ! तप्त लोहे पर पानी का विन्दु पडने से क्या वह शीघ्र नष्ट होता है ? हां भग (भगवती) सूत्र २ विवाह पण्णत्ति ४२११ तीसरा शतक का तीसरा उद्देशा g><-80 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ वह नाव उ० उम आ० आश्रय द्वार से आ. भरी हुई पु० पूर्ण वो उछलती वो० उल्लास पामती स..। भरी हुइ चि० रहे हैं. हां चि० रहे के० कोई पुरुष ता• इस नाव को स० सब बाजु आ० आश्रय द्वार पि० ढांक कर ना० नाव का उ० बरतन से उ० पानी उ० नीकाले सा० वह ना. नाव तं० उस उ०१ सत्र विद्धंसमागच्छइ ? हंता विद्वसमागच्छइ ॥ से जहा नामए हरएसिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे । वोलटमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठइ, अहेणं केइपुरिसे तंसि हरयंसि एगंमहं णाथं सयायंसयच्छिदं उग्गहेजा ? सेनणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तिहिं आसवदारेहि आपूरमाणी आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा बोसवमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ ॥ अहेणं केइपुरिसे तीसे नाबाए सव्वओ समंता आसवदाराई पिहेइ २ त्ता नावा उस्सिचणएणं उदयं रस्सिचेन्जा ? सेणणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उ8 उदाइ ? हेता उदाइ, एवामेव मंडिय पुत्ता! भावार्थ वन् ! वह बिन्दु शीघ्र. नष्ट होता है. और जैते बहुत परिपूर्ण घट समान एक द्रह है. पानी । बाहिर नीकल रहा है ऐलावह भराहवा है. अब कोई पुरुप छितवाली नावा इस मे डाले तो छिद्र से नावा में पानी आते २ क्या वह नावा पानी के तल में जाकर बैठती है ? हां वह नावा छिद्रों से पानी भर जाने 12 से तलेपर जाकर बैठती है. यदि कोई पुरुष उस के छिद्रों बंधकर के उस में रहा हुवा पानी नीकालकर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र पानी में उ० नीकालते खिः शीघ्र उ० उपर उ० आवे है ० हां उ० आये ए० ऐसे मं० मंडितपुत्र अ० अत्मा से संवृत अ० अनगार इ० ईर्ष्या समिति वाले जा० यावत् गुप्तब्रह्मचारी आ०उपयोग पूर्वक ग० जाते चिः खडा रहते नि० बैठते तु० सोते व० वस्त्र प० पात्र कं० कंवल पा० रजोहरण मे० ग्रहण करते नि० रखते जा० यावत् च चक्षु पक्ष निः निपात वे बेमात्रा सु० सूक्ष्म इ० ईर्ष्या पथिक [क्रिया क० करे सा० वह प० प्रथम समय में व० बंधी पु० स्पर्शी वि० दूसरा समय वे० वेदी त० अवत्ता संवुडस् अणगारस्स इरियासमियरस जाव बंभगुत्तयारिस्स आउत्तं गच्छ - माणस्स, चिट्ठमाणस्स निसियमाणस्स, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुंछणं गेण्हमाणस्स निक्खेवमाणस्स जाव चक्खु म्ह निवायमवि बेमाया सुमा इरियावहिया किरिया कजइ, सा पढमसमय बद्धा पुट्ठा, बितिय समय वेइया, तइय समय निज्जरिया, सा बढा पुट्ठा उदीरिया वेदिया निजिण्णा सेयकाले अकम्मं( साफ करतो क्या वह नावा शीघ्र पानीपर आती है ? हां भगवन्! खाली नावा पानीपर आती है. वैसेही अहो मंडित पुत्र ! आत्मा को संवरने वाले, ईर्ष्यासमिति यावत् गुप्त ब्रह्मचर्य पालने वाले, यत्ना पूर्वक चलने वाले, खडे रहने वाले, बैठने वाले, सोने वाले, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण करने वालेड, रखने ईवाले अनगार को उन्मेष निमेष मात्र ईर्ष्या पथिक क्रिया लगती है. उसक्रिया का प्रथम समयमें बंध होता *ॐ> <९३ तीसरा शतक का तीसरा उद्देशा ८२७ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ५२८ ARO अनुरादक-बालब्रहाचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी तीसरा समय निः निर्जरीमाः वह व बंधी पुः स्पर्शी उः उदीरी वेदी नि. निरी में आगापिक काट में अ० अकर्म भ० होवे से वह ते. इनलिये ॥११॥१० प्रमत्त मंयति भं भगवन् १० प्रपत्त संया में वर्तता म० सर्व प०प्रमत्त अ० काल से के. कितना हो० होवे मं० मंडितपुत्र ए एकई जीव प० आश्री ज. जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट दे० देशउजा पु. पूर्वक्रोड णा० विविध जीव प० आश्री स. सर्व काल ॥ १२ ॥ अ. अप्रमत्त मयान भं भगवन् अ० अप्रमत्त सः संयम में व० । वावि भवइ । से तेणटेणं मंडियपुत्ता : एवं बुच्चइ जावं चणं से जीवे सयासमियं, नो एयइ जाव अंते अंतकिरिया ॥११॥ पमत्त संजयस्सणं भंते ! पमत्तसंजमे वहमाणस्म सवारियणं पमत्तहाकाल। केवचिरं होइ? मंडिया ! एगं जीवं पञ्च जह णणं एक सनयं, उकोसणं देसृणा पुब्धकोडी ॥ णाणाजीव पटन सत्वदा ॥ १२॥ दमो समय वंदना होती है और तीसरे समय में नीर्जग होती है. इस तरह वच, स्पर्श, उदारणा, वदना, व निना होने में अनागत काल में कर्म रहिन जीव होता है. इस ने अहा पंडित पुत्र ! अयोगी जीव नहीं चलता है यायन उनको अंतक्रिया होती है ना कहा है ॥१७॥ अहो भगवन् : प्रमत्त यत गुण समान में रहने वाला काम भयतीकी सब काल, आश्रित कितनी स्थिति है. ' अह मंडित पुत्र ! एक जीव में आश्रित जयन्य एक समय उन देशऊणी कोडर्ण और बढ़त जीव आश्रीमदा काल देते क्यों कि उनका विरह नहीं होता है वे महा विद क्षेत्र में सब रहते हैं. ॥ १२॥ हो भगवन अनमत संगम * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवायजी मालाममानी * भावार्थ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दावला अ. अपयन काल के कितना भी हार मं मंडित ए. एक जीन प: आश्री जनधन्य अ ye अंतर्मन र कर पूर्व काड दे० देशकणा णा विविध जीव १० पाश्री म मर्व काल ॥३॥ भः भगवान मानिनपत्र - अनगार श्रमण भ भगवान म महावीर को न नमस्कार कर ममयम न तप में अः अान्या को भा. भावन हव वि० विचरते हैं ॥५५॥ भं भगवान गो. गौतम म अप्पमत्त संजयरमण भंते ! अप्पमत्त संजमे वट्टमाणम्स सध्यात्रियणं अप्पमत्तढाकालओ केवचिरं होइ ? गंडिया ! एग जीवं पडच्च जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडीदे सणा णाणाजीचे पडुच्च सव्वद ॥ १३ ॥ सेवं भंते, भंतेत्ति भयवं मंडियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, नमसइत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ १४ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंमें रहनेवाला अप्रमत्त संयति सब काल आश्री कितने काल तक रहता है ? अहो मण्डितपुत्र ! एक जीर आश्री जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊना पर्व कोड; क्यों कि अप्रमत्त अवस्था में रहनेवाला जीव है अंतर्मुहूर्त से पहिले काल नहीं करता है और आठ वर्ष कम कोड पूर्व सो केवल ज्ञान आश्री जानना. यहूत जीव आश्री निरंतर सब काल जानना. क्योंकि अप्रमत्त संयति सदैव पाते हैं ॥ १३ ॥ अहो । ॐ भगवन् ! आप के वचन तथ्य हैं ऐमा कहकर श्री श्रमण भगान्त महावीर को वंदना नमस्कार कर मण्डित पंचांग हिवार पण्णात्ति ( भगवती) मूत्र तीसरा शनक का तीसरा उद्दशा भावाथ २. 38, Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * श्रमण भगवंत म. महावीर को न० नमस्कार कर ए. ऐसा 4. बोले क. कैसे भं० भगवन् ल. लवण ममुद्र चा० चतुर्दशी उ० अमावास्या पु० पूर्णिमा को अ अपेक्षा से व. वृद्धिपामे हा. हानिपा मे ज० जैसे जी. जीवा भिगम में ल• लवण समुद्र की व. वक्तव्यता ने० जानना जा. यावत् लो०१ सइ, नमसइत्ता एवं वयासी-कम्हाणं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दसटुमुद्दिट्ट पुण्णमासिणीसु अइरेगं वइवा हायइवा ? जहा जीवाभिगमे लवण समुद्द वत्तव्यया नेय व्वा ॥ जाव लोयटिइ । लोयाणुभावे ॥१४॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ किपत्र संयम व तप से आत्मा को भावते हवे विचरने लगे ॥१४॥ भगवान गौतम श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! अन्य तिथी की अपेक्षामे चतुर्दशी अमावास्या व गमाको लवण मद में पानी क्यों अधिक बढ़ता है व क्षीण होता है ? अहो गौतम : लवण समुद्र की चारों दिशी में चार महा पानाल कलश एकर लक्ष योजन के ऊंडे कहे हैं. उनको तीन २१ कार है उन चारों कलश की बीच में एक २ हजार योजन के छोटे कलश की ९ लडों कही है. उन का भी तीन २ काण्ड हैं. उन के नीचे के काण्ड में वायु है, घोच के काण्ड में वाय और हवा है व उपर काण्ड में पानी है. नीचे के काण्ड का वायु गुंजायमान होने में सोलह हजार योजन की दगमाले पर दो कोश पानी चढता है इम से इन तिथियों में पानी प्रसरता है वगैरह आधिकार जीवाभिगम मूत्र से * प्रकाशक-सजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी बालाप्रसादजी भावार्थ | * Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ लोकस्थिति ला लोकानमार ॥ ३ ॥३॥ ___ अ. अनगार भं० भगवन भा० भावितान्मा दे देव को व वैक्रय म समुदयान में स. नीकालता जा० यानरूप से जा. जाते को जानाने पा- देखे गोः गौतम अकितनक दे दवको पा देखे नो. नहीं जा० यान को पा० देखे अकितनक गे नहीं दे देवको नो० नहीं जा. यान को पा० देखे रिया सम्मत्ता ॥ नइयसयस तईओ उद्देसो सम्मत्ती ॥ ३ ॥ ३ ॥ * ॥ है अणगारेणं भंने भावियप्पा देवं वउविय समुग्घाएणं समोहय जाणवणं जाय माणं जाणइ पासइ ? गोयमा ! अत्थगइए देवं पासइ नो जाणं पासइ, अत्थेगइएणं जाणं पासइ नो देवं पासइ, अत्थेगइए देवपि जाणंपि पासइ, अत्थेजानना. अहो भगवन् ! आप जो कहते हैं वह सत्य है ऐसा कहकर गौतम स्वामी विचरने लगे. या CE क्रिया का अधिकार संपूर्ण हुवा यह तीसरे शतकका तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥३॥ * , ३ तीसरे उद्देशे में क्रिया का अधिकार कहा. वह ज्ञानवंत को प्रत्यक्ष होती है मो बताते हैं. श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि अहो भगवन् ! वैकेय समुद्घात से उसर वैकेय करके विमानादि रूप बना कर जाते हुवे देव को भावितात्मा अनगार क्या ज्ञान से जानते हैं और दर्शन से देखते हैं ? यहां पर ७ अवधिज्ञान की विचित्रता से चौभंगी जानना. १ कितनेक देव को देखते हैं परंतु विमान को नहीं ॐ देखते हैं कितनेक विमान को देखते हैं परंतु देव को नहीं देखते हैं ३ कितनेक देव व विमान दोनों पंचमांग विवाह पग्णत्ति ( भगवती) सूत्र <3 <33- तीसरा शतकका चौथा उद्देशा 9821 भावार्थ अहो भगवन् ! वैक्रेय समुद्घ जानते हैं और दर्शन से देखत विमान को नहीं Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्षजी+ ॥१॥ अ अनगार भ० भगवन् भा० भावितारमा दे. देवी को वि• वैक्रेय स. समुद्घात से स. किया हुवा/यानरूप से जा. जाती जा जान पा० देखे गो. गौतम ए. ऐसे ही ॥ २॥ पूर्ववत् ॥३॥ अ. भिनगार भ० भगवन् भा. भावितात्मा रु. वृक्ष की अं० अंतर पा० देखे वा बाहिर पा० देखे गइए नो देवं पासइ नो जाण पासइ ॥ १॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा देवि है विउव्विय समुग्घाएणं समोहिय जाणरूवेणं जायमाणिं जाणइ पासइ ? गोयमा ! , एवं चेव ॥ २ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा देवं सदेवीयं विउविय समुग्धाएणं, समोहय जाणहवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? गोयमा : अत्थगइए देव सदेवीयं पासइ, नो जाणं पासइ, एएणं अभिलावेणं चत्तारिभंगा ॥ ३ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स कि अंतो पासइ बाहिं पासइ बउभंगो, ।। एवं किं मूलं पासइ, को देखते हैं और ४ कितनेक देव व विमान दोनों को नहीं देखते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! पैक्रेय सयुद्घात से उत्तर वैकेय करके यानरूप जाती हुई देवी को क्या भावितात्मा भनगार ज्ञान से जानते हैं। व दर्शन से देखते हैं ? अहो गोतम ! देव जैने यहां पर चौभंगी जानना ॥ २॥ अहो भगवन् ! वैक्रेय समुद्घात से उसर वैकेय करके यान रूप से देवी सहित जाते हुवे देव को भावितात्मा भनगार क्या ज्ञान से जानता है व दर्शन से देवता है ? अहो गौतम ! देव जैसे इस के भी चार भांगे जानना ॥ ३ ॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थच चारभांगे ए. ऐसे कि० क्या मृ० मूल को पा० देखे के० कंदको पा० देखे च० चार मांगे मृ० मूल को पा० देखे वं. स्कन्ध को पा० देखे च० चारभांगे ए. ऐसे मू० मूल से वी० बीज को सं० जोडना १६० कंद से स० सम्यक् सं० जोडना जा० यावत् बी० बीज को ए. ऐसे पु० पुष्प से बी० बीज को सं016 कंदं पासइ चउभंगो, मलं पासइ खंधं पासइ चउभंगो, एवं मृलेणं बीजं संजोए यव्वं एवं कंदणीव समं संजोएयव्वं जाव बीयं! एवं जाव पुष्फेण समं बीयं संजोएयव्वं । अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार अवधिज्ञानादि लब्धि ने क्या वृक्षको अंदरसे देखे या वाहिरसे ? अहो गोतम ! अबधि ज्ञान की विचित्रता से इसके चार भांगे होते हैं. १ कितनेक वृक्ष को अंदर से देखते हैं और बाहिर से नहीं देखते हैं कितनेक बाहिर से देखे परंतु अंदर से नहीं देखे ३ कितनेक अंदर से व बाहिर से देखे और ४ कितनेक, अंदर से व बाहिर से नहीं देखे. ऐसे ही मूल और कंद के चार LE भांगे, मूल और स्कंध के चार भांगे, मूल और बीज के चार भांगे जानना. तैसे ही कंद और खंध, कंद और बीज, ऐसे ही पुष्प और बीज का जानना. ॥ ४॥ १ मूल २ कन्द ३ स्कन्ध ४ स्वचा/ 4 शाखा प्रबाल ७ पत्र ८ पुष्प ९ फल और १० वीज. यह दश प्रकार की वनस्पति कही है. इन ०७ की द्विसंयोगी ४५ चौभंगी होती हैं १ मूल और कंद २ मूल स्कंध ३ मूल त्वचा ४ मूल शाखा ५ मूल | प्रवाल ६ मूल पत्र ७ मूल पुष्प ८ मूल फल और ९ मूल बीज ये नव भांगे मूल के साथ वैसे ही कंद के पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 2880-82 वीसरा शतकका चौथा उद्देशा 4.84280 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जोडना ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ॥ ५॥१० मार्थ भ० भगवन् वा० वायुकाय ए. एक म० बडा इ० स्त्रीरूप पुः। पु० पुरुषरूप ह. हस्तीरूप जाव्यानरूप जुघूतरा गि० अबाडी थि ऊंटकी पिल्लिका सी०शिक्षिका संरथरूप वि.विकुर्वणा करने को गो गौतम नो नहीं इ०यहअर्थ स०समर्थ वा वायुकाय वि०विकुर्वणा करते ए०एक ॥ ४ ॥ अणगारेणं भंते भावियप्पा रुक्खस्स किं फलं पासइ बीयं पासइ चउभंगो ॥ ५ ॥ * ॥ पभूणं भंते ! वाउकाएणं एगं महं इत्थिरूवंवा, पुरिसरूवंवा, हत्थि रूवंवा जाणरूपंवा, एवं जुग्ग गिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणियरूवंवा विउवित्तए ? ५३४ w सूत्र प्रचरिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी " * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ ८ भांगे, स्कंध के ७, त्वचा के , शाखाके ५, प्रवालके ४, पत्रके ३, पुष्पके २ और फलका १यों सब मील कर ४५ चौभंगी होती हैं इस में से फल की ४५ वी चौभंगी बताते हैं. अहां भगवन् ! भावितात्मा अनगार क्या अवधि ज्ञान से फल को देख या बीज को देखे ? अहो गौतम ! कितनेक फल को देखे : परंतु बीज को देखे नहीं २ कितनेक बीज को देखे परंतु फल को देखे नहीं ३ कितनेक फल और बीज दोनों को देखे और ४ कितनेक फल और वीज दोनों को देख नहीं ॥५॥ अहो भगवन् ! क्या वायुकाय वक्रेय समुद्घात करके स्त्री का, पुरुषका, हस्ती का, विमान का, धुसरे का, हस्ती की अंबाडीका ऊंट की पिल्लिका का, शिबिका का, बैलगाडी इत्यादिकका रूप बनाने को समर्थ है ? अहो गौतम : यह अर्थ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4808- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र म० बडा प० पताका का सं० संस्थानरूप वि० विकुर्वणा करे || ६ || प० समर्थ मं भगवन् वा० वायु काय ए० एक म० बडा प० पताका रूप की वि०विकुर्वणा कर अ० अनेक जो० योजन ग० जाने को ६० हां प० समर्थ से० वह किं० क्या आ० आत्म ऋद्धि से ग० जावे प० दूसरे की ऋद्धि से ग० जावे गो० गौतम आ० आत्म ऋद्धि से णो० नहीं प० दूसरे की ऋद्धि से ग० जावे ज० जैसे आ० आत्म ऋद्धि से गोयमा ! णो इट्टे समट्ठे । बाउकाएणं विकुव्यमाणा एंगं महं पडागा संठियंरूवं वि कुव्व ॥ ६ ॥ पणं भंते ! बाउकाए एगं महं पंडागासंठियं रूवं विउन्वित्ता अणेगाई जोयणाई गमित्त ? हंता पभू । से भंते ! किं आयढीए गच्छइ परिड्डीए गच्छ ? गोयमा ! आयड्डीए गच्छइ णो परिड्डीए गच्छइ । जहा आयड्डीए एवं चेत्र { योग्य नहीं है. वायुकाय वैक्रेय समुद्वात से मात्र पताका का संस्थानवाला रूप बनाती है ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! वायुकाय वैक्रेय समुद्वात से पताका रूप मंठाण का वैक्रेय बना करके क्या अनेक योजन तक जासकती है ? हां गौतम ! वायुकाय पताका का रूप बनाकर अनेक योजन तक जासकती है. अहो { भगवन् ! वह क्या स्वतः की ऋद्धि से जाती है या अन्य की ऋद्धि से जाती है ? अहो गौतम ! स्वतः की ऋद्धि से जा सकती है परंतु अन्य की ऋद्धिं से नहीं जासकती है. ऐसे ही स्वतः के कर्म से जाती परंतु अन्य के कर्म से नहीं जाती है, स्वतः के प्रयोग से जा सकती है परंतु अन्य के प्रयोग से नहीं तीसरा शतकका चौथा उद्देशा ५३५ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दिक-बाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी > ए. ऐसे आ० आत्म कम से आ. आत्म प्रयोग से भा. कहना ॥ ७॥ स. वह किं. क्या उ.. ऊर्श्व पताका जैसे ग० जावे ५० नीचीपताका जैसे ग. जावे गो. गौतम ऊ० ऊर्ध्व पताका जैसे ग. जावे प. नाचीपताका जैसे ग. जावे से वह भं• भगवन् किं. क्या ए. एक दिशा में १० पताका जैसे ग. जावे दु. दोनों दिशामें प० पताका जैसे ग. जावे गो० गौतम ए? एकदिशा में प० पताका जैसे ग. जावे नो नहीं दु० दोनों दिशा में प० पताका जैसे ग. जावे मे० वह भं० भगवन् कि० क्या आयकम्मणावि, आयप्पयोगेवि भाणियव्वं ॥ ७ ॥ से भंत! किं ऊसिओदयं गच्छइ, पतोदयं गच्छइ ? गोयमा ! ऊसिओदयंपि गच्छइ पयोदयंपि गच्छइ, ॥ से भंते ! किं एगओ पडागं गच्छइ, दहओ पडागं गच्छइ ? गोयमा ! एगओ पडागं गच्छइ. नो दुहओ पडागं गच्छइ. ॥ से भंते ! किंवाउकाए पडागा ? गोयमा ! वाउकाएणं जासकती है. ॥ ७॥ अहो भगवन् ! क्या वह वायकाय ऊंची पताका के आकार से जाती है या नीची पताका के आकार से जाती है ? अहो गौतम ! ऊंची पताका के आकार से भी जाती है और नीची पताका के आकार में भी जाती है. अहो भगवन् ! क्या यह एक पताका या दो पताका से जाती है ? अहो गौतम : एक पताका का रूप बनाकर जाती है परंतु दो पनाका का रूप बनाकर नहीं जानी है. अहो भगवन् ! उसे क्या वायुकाय कहना या पताका कहना ? अहो गौतम : * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी घालापसादजी * भावार्थ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ सत्र पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगत) मूत्र 2.883 वा. वायुकाय प० पताका गो० गौतम वा. वायुकाय से वह नो० नही मा. वह प. पताका ॥८॥14 पं० समर्थ ब० मेघ ए. एक म० बडा इ० स्त्रीरूप जा. यावत् सं० स्थरूप प. परिणमाने को से नो खलु सा पडागा ॥ ८ ॥ पभूणं भंते ! बलाहगे एगंमहं इत्थिरूवंवा जाव संदमाणियरूवंवा परिणामेत्तए ? हंता पभु ॥ १३ ॥ पभणं भंते ! वलाहए एगं महं इत्थिरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए ? हता पभ । से भंते ! किं आयड्डीए गच्छइ परिड्डीए गच्छइ ? णो आयड्डीए गच्छइ, परिड्डीए गच्छइ. एवं णो आयकम्मुणा, परकम्मुण्णानो आयप्पओगेणं,परप्पओगेणं,ऊसितोदयंवा गच्छइ,पयोदयवां गच्छइ, । से भंते किं बलाहए इत्थी ? गोयमा ! बलाहएणं से णो खलु सा इत्थी। एवं । उसे वायुकाया कहना परंतु पताका नहीं कहना. ॥ ८॥ अहो गोतम ! क्या मेघ एक बड़ा स्त्री का रूप यावत् शिविका का रूप परिणमाने में समर्थ है ? अथवा अनेक योजन तक जाने को समर्थ है ? हां भगवन् ! वह स्वी यावत् शिविकाकारूप बनाने का समर्थ है. वह क्या स्वतः की ऋद्धि से या अन्य का ऋद्धि से जासकते हैं ? अहो गौतम ! बह मेघ अजीव होने से स्वतः की शक्ति से नहीं जासकते हैं। परंतु अन्य की शक्ति मे जासकते हैं. वैसे ही स्वतः के कर्म से नहीं जासकते है परंतु अन्य के कर्मों से जा सकते हैं, स्वतः के प्रयोग से नहीं जासकते हैं परंतु अन्य के प्रयोग से जाते हैं. अहो भगवन ! तीसरा शतकका चौथा उद्देशा वाभार्थ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द है. हां १० समर्थ ॥ १ ॥ जी. जीव भ. भान् जे. जो ने. नरक में उ० उत्पन्न होवे से वह भं० भगवन् कि० किम ले लेश्या से उ० उत्पन्न होवे गो. गौतम जं. जिस ले. लेण्या अनुवादक- लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी > पुरिसे, आसे, हत्थी । पभणं भंते बलाहए एरां महं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए, जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्यं । नवरं एगओ चक्कवालंपि, दुहओ चकवालंपि भाणियब्वं ॥ जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियाणंतहेव ॥ ९ ॥ __जीवेणं भंते जेभविए नेरइएसु उक्वजित्तए, सेणं भंते ! किं लेस्सेसु उववजइ ? गोजब मेघ सो आदि का रूप बना सकता है तब क्या उमे स्त्री वगरह कहना. अहो गौतम : उमे मेघही कहना परंतु स्त्री पुरुष वगैरह नहीं कहना. अहो भगवन ! वे वहल विमान का रूप बनाकर अनेक योजन तक क्या जा सकते हैं? हां गौतम : वे जा सकते हैं वगैरह जैमा स्त्री का अधिकार कहा वैसे ही है यहां कहना. विशेष उपर जो यान का रूप बनाकर विमान की गति का कथन किया मो एक चक्र में भी जामकत हैं, और दो चक्र से भी जासकते हैं. इमी प्रकार धनरा, अंबाडी, थिल्ली शिविका, व मंदमनी वगैरह का कथन जानना. ॥ ॥ गमन के शिकार मे गति गमनका प्रश्न करते हैं. अहो भगवन ' जो जीव नारकी में उत्पन्न होने वाला है वह कृष्ण लश्यादि लेश्या में से कौनमी लेण्या महित उत्पन्न प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदर सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ के द० द्रव्य को ५० ग्रहणकर. का• काल करे त० उस लेश्या में उ• उत्पन्न होवे तं० वह । ज. जैसे क० कृष्ण लेश्या नी० नीललेश्या का० कापोत लेश्या ए० ऐमे ज० जिसको जा. जो लेश्या सा. वह भा० कहना जा. यावत् जी० जीव भं० भगान् जे. जो भ. ज्योतिषी में उ० उत्पन्न होने की। यमा ! जं लेसाई दवाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ. तंजहा कण्हलेसे. सुवा, नीललेसेसुवा, काउलेसेसुवा, एवं जस्स जा लेसा सा तस्स भाणियव्वा, जाव जीवेणं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववाजित्तए पुच्छा ? गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववजइ, तंजहा तेउलेस्सेसु । जीवेणं भंते ! जे भविए वेमागिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! किं लेरसेसु उववजइ ? गोयमा ! जल्लेभावार्थ होता है ? अहो गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्य एकत्रित कर काल करता है उसी लेश्या में उत्पन्न होता है. नरक में तीन लेश्या सहित जीव जाता है. कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या. यावत् कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्यावाले दश प्रकार के भवनपति में उत्पन्न होते हैं. इनही चार लेश्या- 60 वाले पृथ्वी. पानी व वनस्पति में उत्पन्न होते हैं. कृष्ण, नील और कापुतवाले तेउ वायु और विकलेन्द्रिय or में उत्पन्न होते हैं. कृष्ण, नील, कापोब, तेजो, पद्म, और शुक्ल लेश्यावाले मनुष्य तीर्यच में उत्पन्न होते हैं. 360 पहिली चार लेश्यावाले वाणव्यंतर में, मात्र एक नेनो लेश्यावाले ज्योतिषी और प्रथम द्वितीय देवलोक में है। पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती) सत्र 480 48 तीसरा शतक का चौथा उद्देशा .... . Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. म. भव्य पु० पृच्छा गो० गौतम ज. जिस ले० लेश्या द० द्रव्य भाव से ५० ग्रहणकर का० काल करे: त उस ले० लेश्या में उ० उत्पन्न होवे ते • तेजो लेश्या ।। १० । पूर्ववत् ॥ ११ ॥ अ० अनगार भं० भगवन् भा० भावितात्मा बा० बाह्य पो० पुद्गल अविना ग्रहण करे प० समर्थ बे० बेभार प० पर्वत को साइं दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेस उववजइ, तंजहा तेउ लेसंसुवा, पम्हलेसेसुवा, सुक्कलेसेसुवा ॥ १०-११ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू बेभार पव्वयं उल्लंघेत्तएवा, पल्लंघेत्तएवा ? गोयमा ! णो इण? समटे । अणगारेणं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभ वेभारपब्वयं उत्पन्न होते हैं. पद्म लेश्यावाले तीसरे, चौथे, पांचो देवलोक में, शुक्ल लेश्यावाले छठे देवलोक से सर्वार्थ सिद्ध तक में उत्पन्न होते हैं. अर्थात् वैमानिक देवों में तेजो, पम और शुक्ल लेश्याही है ॥ १०-११॥ शुभ लेश्यावाले साधु लब्धिवंत होते हैं इस मे लब्धि आश्री प्रश्न पुछते हैं. अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहिर के वैक्रय शरीर के पदल ग्रहण किये विना राजगृही नगरी की पास का वेभार पर्वत क्या उल्लंघने को समर्थ होते हैं ! अहो गौतम वे बाहिर के वैक्रेय पुद्गल ग्रहण किये बिना वेभार पर्वत उल्लंघने को समर्थ नहीं होसकते हैं. अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहिर के वैकेय पुद्गल ग्रहण * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ है उ० उल्लंघन करने को पं० विशेष उल्लंघन करने को गों. गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ म० समर्थ ॥१२॥ 100 अ० अनगार भं० भगवन् भा० भावितात्मा वा बाह्य पो• पुद्गल अ० विना ग्रहण कर ना० यावत् इ० % | इतने रा० राजगृह न० नगर में रू. रूप वि० विकुणा कर वे बेभार पर्वत की अं० अंदर अ० प्रवेश ५४१ कर प० समर्थ म० सम को वि० विषभ क० करों को वि० विषम को सः समक० करने को गो. गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स समर्थ ए. ऐसे वि० दूसरा आ आलापक ण. विशेष प० ग्रहणकर उल्लंघेत्तएवा पलंघेत्तएवा ? हंता पभ ॥ १२ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा बाहिरएपोग्गले अपरियाइला जाव इयाइं रायगिहे नयरे रूवाइं एवइयाई विउवित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समंवा विसमंवा करेत्तए विसमंवा समं करे त्तए ? गोयमा ! नो इणटे सम? ॥ एवं चेव बितीओवि आलावगो णवरं परियाइकर क्या वेभार पर्वत उल्लंघ सकते हैं?हां गौतम! वे भाविलात्मा अनगार बाहिर के पुद्गलग्रहण कर वेभार पर्वत का उल्लंघन कर सकते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! भावितात्मा लब्धिवंत साधु बाहिर के वैक्रेय पुद्गल 01 ग्रहण किये विना राजगृही नगरी में जितने मनुष्य पशु हैं उतने रूप बनाकर बेभार पर्वत में प्रवेश करse | | सम को विषम व विषम को सम करने क्या समर्थ है ? अहो गौतम !. यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् लब्धिवन्त साधु बाहिर के वैक्रेय पुद्गल ग्रहण किये बिना उक्त कार्य करने को समर्थ नहीं होते हैं. परंतु पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तीसरा शतक का चौथा उद्दशा - भाव - Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ शब्दार्थ4140 समर्थ ॥१३॥से वह भं. भगवन किं. क्या मा० मायी वि. विकुर्वणा करे अ. अमायी वि० विकुर्वणा करे गो० गौतम मा० मायी वि. विकुर्वणा करे नो० नहीं अ० अमायी वि. विकुनैणा करे से वह के० कैसे गो० गौतम मा० मायी प० स्निग्ध पा. पानी भो० भोजन भो. भोगवकर वा० से वमनकरे त. उन को ते. उस प. स्निग्ध पा० पानी भो० भोजन से अ० अस्थि अ० अस्थिमिज व. पुष्ट ता पभू ॥ १३ ॥ से भंते ! किं माई विकुव्वइ अमाई विकुव्वइ ? गोयमा ! माई विकुम्वइ, णो अमाई विकुब्वइ । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नो अमाई विकुबई ? गोयमा ! माईणं पणीयं षाणभोयणं भोच्चा भोच्चा बामेइ, तस्सणं तेणं पणीएणं पाण भोयणेणं अट्ठि अट्ठिमिजा बहुली भवंति, पयणुए मंससोणिए भवइ, जेवियसे अहाबायरा पोग्गला तेवियसे परिणमंति ॥ सोइंदियत्ताए जाव फाभावार्थ बाहिर के वैक्रेय पुद्गल ग्रहण कर राजगृही में रहेहुवे मनुष्य व पशु जितने रूप बनाफर बंभार पर्वत में प्रवेश करके समकवि भूपि भार विषम की पम भूमि कर सकते हैं ॥ १३ ॥ अब वैकेय रूप कौन बनाने हैं सो कहते हैं. अहो भगवन् ! उक्त प्रकार के रूप क्या मायावी बनाते हैं या अमायी-माया कपट रहित पुरुष बनाते हैं ! अहो गौतम ! उक्त प्रकार के रूप मायी प्रमादी साधु करते हैं परंतु अमायी नहीं करते हैं. अहो भगवन् : किम कारन से मायी विकर्षणा करता है और अमायी नहीं करता है ? १अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी ga * प्रकाशक-राजाचहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी* Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थभ होबे ५० पतला में मास सो. रुधिर भ० होवे जे० जो अ० यथा वा० पादर पो० पुद्गल ते. वे प. परिण मे सोः श्रोतेन्द्रियपने जा० यावत् फा० स्पर्शेन्द्रियपने अ० अस्थि अ० अस्थिमिंज के०६ | केश मं० दाढी रो• रोम न० नखपने मु० शुक्रपने सो० रुधिरपने अ० अमायी लू० रूक्ष पा० पानी। सिंदियत्ताए, अटुिअट्रिमिंजकेसमंसुरोमनहत्ताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए। अमाईणं लूहं पाण भोयणं भोचा भोच्चाणोवामइ, तस्सणं तेणं लूहेणं पाण भोयणेणं अट्ठि अट्टिमिजा पयणु । भवंति, बहले मंस सोणिए जेवियसे अहाबादरा पोग्गला तेवियसे परिणमंति, तंजहा उच्चारत्ताए,जाव सोणियत्ताए से तेण?णं जाव नो अमाई विकुव्वइ ॥माईणं तस्स ठाणस्स अहो गौतम ! जो मायावी साधु होते हैं वे स्निग्ध सरस आहार पानी का भोजन करते हैं. बलवृद्धि के लिये वमन विरेचनादिक क्रियाओं करते हैं. ऐसे स्निग्ध पान भोजन से उन की हड्डीव हड्डीकी मिजी बढती । .: है मांस शोणित पतले होते हैं यथावादर पुद्गल श्रोतेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय, अस्थी, अस्थि की मिंजी, केश, श्मश्रु, रोम, नख, शुक्र व रुधिरपने परिणमते हैं और इस से वैक्रय रूप बना सकते हैं. जो अमायी होते हैं वे रूक्ष निरस आहार करते हैं और वमन विरेचनादि क्रियाओं नहीं करते हैं. उन कोई रूक्ष आहार से हड्डी और हड्डी की मीजी पतली होती है. मांस व लोही सघन होता है. उन को पानी व * आहार रूप से ग्रहण किये हुवे पुल बडीनीत, लघुनीत, श्लेष्म, खेकार, वमन, पित्त, यावत् रुधिरपने 48-48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र * 48848 तीसरा शतक का चौथा भावार्थ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भा० भोजन भो• भोगव कर णो० नहीं वा० वममकरे त० उन को ते. उस रू० रूक्ष पा. पानी भो० भोजन से • अस्थि अ०. अस्थिमिंज प० पतली भ० होती है ॥ ३ ॥ ४ ॥ अ. अनगार मं० भगवन् भा० भावितात्मा वा वाह्य पो० पुद्गल अ० विना ग्रहण किये ५० ममर्थ ए. अगालोइय पडिकते कालं करेइ, नत्थितस्स आराहणा अमाईणं तस्स ठाणस्स. आले.इप पडिकंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति तईयसए चउल्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ४॥ x x . + अणगारेणं भंते ! भावियअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं इत्थिरूपरिणमते हैं इस तरह शक्ति कम होने से अमायीं वैक्रेयादि लब्धि नहीं करते हैं. अब मायी और अमायी को फल बताते हैं. मायावी प्रमादी वैक्रेय करनेमें लब्धि फोडने से अथवा सरस आहारादि के दोष लगने से आलोचना प्रतिक्रमण कर नहीं तो वह जिनाज्ञा का आराधक नहीं होसकता है. और जो अमायी अप्रमादी होसे हैं वे निर्दो। आहार भोगवने से व वैक्रेयादि नहीं करने से अल्प दोषी होते हैं. जो कुच्छ छद्मस्थपना से दोप लगता है उस की शुरु की समक्ष आलोचना करने से जिनाज्ञा का आराधक ल होता है. अहो भगवन् ! आपके वचन तथ्य हैं. आप जैसे कहते हैं वैसे ही हैं. यह तीसरा शतकका चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥ ४॥ री मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्याला प्रसादजी * भावार्थ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Pags पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र -१03808 एक म० बडा इ० स्त्रीरूप जा० यावत् सं• पालखी रूप वि. विकुर्वणा करने को गो• गौतम नो नहीं । इ. यह अर्थ स० समर्थ ॥ १ ॥ अ० अनगार भं० भगवन् भ० भावितात्मा के० कितना प. समर्थ वि० विकुणा करने को गोगौतम ज जैसे जुः यवतीको जु०युवान ह० हस्त से ह० हस्त में गे ग्रहण करे च०चक्र ।। वंधा जार संदामणियरूवं वा विकुवित्तए ? गोयमा ! णो इण? समटे । अणगारेणं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थिरूवं वा जाव संदामणियरूवं वा विकुवित्तए ? हंता पभू ॥ १ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू इत्थिरूवाई विउवित्तए ? गोयमा से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेणं अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहिरके वैक्रेय पुद्गल ग्रहण किये विना क्या एक महा स्त्री का रूप यावत् पालखी का रूप बनाने को समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वे वैसा वैकेय रूप नहीं बनासकते हैं. तब अहो भगवन् ! क्या वह वाहिर के वैक्रेय पुद्गल ग्रहण कर एक महा स्त्रीका रूप यावत् पालखी का रूप बनाने को ममर्थ है, हां गौतम! वह महा स्त्रीका रूए यावत् पालखी बनाने समर्थ है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! भावितात्मा साधु स्त्री के कितने रूप बनासकते हैं ? अहो गौतम ! जैसे 26/ काम पीडित पुरुष अपने हस्त से स्त्री का हस्त मजबुत पकडता है अथवा जैसे गाड़ी के चक्र की नाभी है। तीसरा शतक का पांचवा उद्देशा-4220 भावाथ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ४.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 45 की ना० नाभी अ. आरासे उ० युक्त सि. होवे एक ऐसे अ० अनगार भा० भावितात्मा वि० चक्रेय म. समुद्घात स० नीकाले जा. यावत् प० समर्थ गो० मौतम अ० अनगार भा० भावितात्मा के० संपूर्ण जं. जम्बुद्वीप को ब० बहत इ० स्त्रीरूप से आ० आकीर्ण वि. विकीर्ण जा. यावत् ए० यह गो० गौनम अ० अनगार भा० भावितात्मा का अ०यह ए०ऐसा वि० विषय वि० विषय मात्र बु. कहा नो.नहीं सं० संपत्ति वि० विकुर्वणा की ए. ऐसे ५० परिपाटी ने० जानना जा. यावत् सं० पालखीरूप ॥२॥ ज० हत्यसि गेण्हेजा, चक्करसवा नाभी अरगाउत्ता सिया एवामेव अणगारेवि भावियप्पा विउव्विय समुग्घाएणं समोहणइ जाव पभूणं ? गोयमा ! अणगारेणं भावियप्पा केवलकप्पं जंबृद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आयन्नं वितिकिण्णं जाव एसणं गोयमा : अणगारस्स भावियप्पणो अयमेवारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए नोचेवणं संपत्तीए, वि. कुव्सुिवा ३, एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संदमाणिया ॥ २ ॥ सेजहा नामए केइपुमें आरे को भीडते हैं वैसे ही लब्धिवंत साधु वैक्रेय समयात करके एक लक्ष योजनका जम्बूद्वीप स्त्रीके है रूप से भरने को समर्थ है. अहो गौतम ! भावितात्मा अनगार को वैक्रेय करने का यह विषय कहा है। परंतु इतने रूप किसीने गत काल में किये नहीं है, वर्तमान में नहीं करते हैं, और आगामिक में करेंगे नहीं. जैसे स्त्री रूप का कहा वैसे ही पुरुष वगैरह का अनुक्रम से पालखी तक का कहना ॥२॥ जैसे * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 19 मेले के कोई पुरुष अ० खङ्ग च० चर्मका पा० पात्र ग• ग्रहण कर ग जावे ए० ऐसे अ० अनगार भा० भावितात्मा अ० म्यान पा० पात्र ह. हस्त में लेकर अ० आत्मा से उ० अर्ध्व वे० आकाश में उ० जावे हं० हां उ० जावे ॥ ३ ॥ अ० अनगार भ० भगवन् भा० भावितात्मा ए० एकदिशि में ५० रिसे असिचम्मपायं गहाय गच्छेज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा असिचम्मपायं हत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उर्दू वेहासं उप्पएजा ? हंता उप्पइजा । अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू असिचम्महत्थकिच्चगयाई रूवाइं विउवित्तए ? गोयमा ! से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विउन्विं. सुवा ३ ॥३॥ से जहा नामए केइपुरिसे एगओ पडागं काउं गच्छेज्जा एवामेव अ. भावार्थ खड्ग का म्यान हस्त में लेकर कोई पुरुष जावे वैसे ही क्या गगनगामिनी विद्या से भावितात्मा साधु खड्ग चर्म पत्र [म्यान ] हस्त में लेकर आकाश में जावे ? हां गौतम ! वैसे आकाश में जावे. अहो भगवन् ! हस्त में म्यान होवे वैसे कितने रूप वह भावितात्मा अनगार बनावे ? अहो गौतम ! जैसे काम पडित युवान पुरुष युवती को अपने हस्त से पकडता है यावत् एक लक्ष योजन का जम्बूद्वीप भरे. यह मात्र वैक्रेय का विषय है परंतु इतना रूप किसीने किया नहीं, करते नहीं, और करेंगे नहीं ॥३॥ अहो भगवन ! 4. पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 8-81 48048 तीसरा शतकका पांचवा उद्देशा 84.88 Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ 48 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पताका जैसे ह० हस्त में लेकर अ० स्वतः से उ० ऊर्य वे० आकाश में उ० ऊडे अ० अनगार भा० भावितात्मा ए० एकदिशा में ज० यज्ञोपवित कि० लेकर अ० स्वतः से उ० ऊर्ध्व वे० आकाश में उ० णगारे भाविअप्पा एगओ पडागाहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उढेवेहासं उप्पएज्जा ? हंता गोयमा ! अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू एगओ पडागा हत्थकिच्चगयाई रुवाई विउवित्तए, एवं जाव विकुर्दिवसुवा ३ । एवं दुहओ पडागंपि । से जहानामए केइपुरिसे एगओ जणोवइ काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारेवि भावियप्पा एगओ जनोवइयं किच्चगएणं अप्पाणेण उर्दू वेहासं उप्पाएज्जा? हंता उप्पाएजा । अणगारेणं भंते ! भाविअप्पा केवइयाई पभ एगओ जणोवइयं किच्च गयाइं रूवाइं विउवित्तए तं चेव जाव विकुब्बिसुवा ३, । एवं दुहओ जणोवइयंपि जैसे कोई पुरुष एकदिशी में पताका करके जावे वैसे ही कोई भावितात्मा अनगार वैक्रेय रूप से एकदिशा में की पताका हस्त में रखकर क्या जाने को समर्थ है ? हां गौतम ! वह जासकते हैं वगैरह सब पहिले जैसे कहना. ऐसे ही दो पताका का अधिकार जानना. अहो भगवन् ! जैसे कोई एक तरफ यज्ञोपवित धारन कर जावे वैसे ही क्या भावितात्मा साधु एकदिशा की उपवित का रूप धारन कर आकाश में जावे ? हां न गौतम : जासकते है अहो भगवन् ! ऐसे कितने रूप बना सकते हैं! अहो गौतम ! जैसे म्यान का अधि प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालवतादजी * भावार्थ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | न सूत्र भावार्थ ॐ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र ऊडे ॥ ४ ॥ से० वह ज जैसे के कोई पुरुष ए० एकदिशा में १० लांठी का करके चि० खडारहे। ॥ ५ ॥ अ० अनगार भं० भगवन् वा बाह्य पो० पुद्गल अ० विना ग्रहण किये प० समर्थ ए० एक म ॥ ४ ॥ से जहा नामए केपुरिसे एगओ पल्हत्थियं काउं चिट्ठेजा, एवामेव अणगारे भावियप्पा तंत्र जांच विकुव्विसुवा ३ । एवं दुहओ पल्हत्थियंपि । से जहा नामए केइ पुरिसे एगओ पलियंकं काठं चिट्टिज्जा तं चैव विकुव्विसुवा ३ । एवं दुहओ पलिपि || ५ || अणगारेणं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू एवं महं आसरूवंवा, हत्थिरूवंवा, सीहरूवं वा बग्घ वग्ग-दीविय -अच्छ-तरच्छ- परासरकार कहा वैसे ही यहां जानना ऐने ही दो उपवितों का जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ पल्हांटी से खड़ा रहता है, ऐसे ही क्या भावितात्मा अनगार आकाश में गमन कर सकते हैं ? हां गौतम ! वे आकाश में गमन कर सकते हैं यावत् एक लक्ष योजन जम्बूद्वीप भर सकते हैं. ऐसे दो पल्हांडी से भी आकाश में जा सकते हैं. ऐसे ही एक पर्यकासन और दो तरफ पर्यकासन मे आकाश में जा सकते हैं यावत् एक लक्ष योजन का जम्बूद्रीप भर सकते है. परंतु इतना किसीने किया नहीं, करते नहीं व करेंगे नहीं. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! लब्धिवंत भावितात्मा अनगार बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये बिना क्या अश्व का रूम, हस्ती का रूप सिंह का रूप, व्याघ्र का रूप, चित्ता का 20 तीसरा शतक का पांचवा उद्देशा - ५४९ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० शब्दार्थ घडा आ० अश्वप ह० हस्ति सी० सिंहरूप व व्याघ्र व चित्ता दी० दीपडा अ० छ । तरख प० । अष्टापद अ० वैक्रेय करने को णो नहीं इ. यह अर्थ स० समर्थ ॥६॥ अ० अगार भं० भगवन् भा० भावितात्मा ए० एक म० बडा आ० अश्वरूप अ० वैक्रेयकर अ० अनेक जो. योनन ग. जाने को हं० रूवंवा अभिजंजित्तए ? णो इणट्टे समटे ॥ अणगारेणं एवं बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ॥ ६ ॥ अणगारेणं भंते ! भाविअप्पा एगं महं आसरूवंवा अभिउंजित्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए ? हंता पभू । से भंते ! कि आयड्डीए गच्छइ परिड्डीए गच्छइ ? गोयमा ! आयबीए गच्छइ णो परिड्डीए एवं आयकम्मुणा परकम्मण्णा, आयप्पयोगेणं परप्पयोगेणं, उस्सिओदयंवा गच्छइ, पयोदयंवा गच्छइ । सेणं भंते ! किं अणगारे आसे ? गोयमा: अणगारेणंसे नो खलु से आसे एवंजाव परासरस्वं वासेभंत किं माई विकुन्वइ, अमाई विकुम्वइ ? गोयमा ! मायी विकुन्वइ, नो अमायीविकुन्बइ। भावार्थ रूप,दीवडीका रूप, रीछ का रूप,तरखका रूप, अष्टापदका रूप और अन्य भी ऐसे रूप क्या बना सकते हैं ? अहो गौतम : यह अर्थ योग्य नहीं है,अर्थात् बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये विना वैसे रूप नहीं बना सकते हैं. 1 परंतु बाहिर के पुद्गल ग्रहण कर ऐसे रूप बनासकते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार एक षडा अश्वका रूप बनाकर अनेक योजन तक जाने को क्या समर्थ है ? हां गौनम ! 15 अश्वका रूप बनाकर अनेक योजन तक जाने को समर्थ है. अहो भगवन् ! क्या वह आत्म ऋदि से जाता ऋषिजी + ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक शर्मा . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवता ) सूत्र ? हां प० समर्थ से वह मं० भगवन् किं० क्या आ० आत्म ऋद्धि से प० दूसरे की ऋद्धि से ग० जावे माईणं भंते ! तस्सठाणस्स अणालोइय पडिकंते कालं करेइ कहिं उववज्जइ गोयमा ! अण्णयरेसु अभियोगेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ अमाईणं तस्स ठाणस्स आलोइय पंडिते कालं करेइ कहिं उववज्जइ, गोयमा ! अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु देवलोएस देवत्ताए उववज्जइ सेवंभंते भंतेत्ति ॥ गाहा - इत्थी, असी, या अन्य की ऋद्धि से जाता है ? अहो गौतम ! आत्म ऋद्धि से जाता है परंतु अन्य की - ऋद्धि से नहीं जाता है. आत्म कर्म से जाता है परंतु अन्य के कर्म से नहीं जाता है, आत्म प्रयोग से जाता है परंतु अन्य के { प्रयोग से नहीं जाता है, ऊर्ध पताका के आकार से जाता है परंतु अधो पताका के आकार से नहीं जाता है. अहो भगवन् ! क्या वह अनगार अश्व कहाता ? अहो गौतम ! अनगार अश्व नहीं कहाता है परंतु अगार कहता है. ऐसे ही अष्टापद तक जानना. अहो भगवन् ! उक्त प्रकार के रूप क्या मायावी बनाते हैं या अमायावी - अप्रमादी बनाते हैं ? अहो गौतम! बैते रूप मायावी साधु बनाते हैं परंतु अमायावी नहीं बनाते हैं वगैरह सच चौथे उद्देशे जैसे जानना. अहो भगवन्! मयावी उसकी आलोचना प्रतिक्रमण वगैरह किये विना वहांपर काल कर ( जावं तो कहां जावे ? अहो गौतम ! वैसे प्रथम देवलोक से बारहवे देवलोक तक में इन्द्रादि देवों के कपने उत्पन्न होते हैं अहो भगवन् ! अमायावी आलोचना प्रतिक्रमण वगैरह करके कहां उत्पन्न होवे ? थहो गोतम ! वे सेवकपने नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु सामानिक देव व अहमेंद्र देवपने सर्वार्थ सिद्ध विमान तक 4084848 तीसरा शतक का पांचवा उद्देश ५५१ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गो० गौतम आः आत्म ऋद्धि नो नहीं प० दूसरे को ऋद्धि से पूर्ववत् ॥ ३ ॥५॥ x - अ० अनगार भं० भगवन् मा• मायी मि० मिथ्या दृष्टि वीः वीर्य लब्धि से वि• विभंग ज्ञान लब्धि से का ० वाणारसी न० नगरी में स० विकुर्वणा कर रा० राजगृह न• नगर में रू० रूप ना० जाने पा० पडागा, जण्णोवइएय होइ बोधव्वे । पल्हत्थिय पलियंके, अभियोगविकुव्वणा मायी तइयसए पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ५ ॥ * ॥ अणगारेणं भंते भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलहीए वेउव्यियलडीए विभंगउत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! आपने कहा सो सत्य है. अब इस में उद्देशा का स्वरूप गाथा द्वाग संक्षेप से कहते हैं. स्त्रीरूप का, खड्ग म्यान का, पताका का, उपवित का, पल्हांठी का, पर्यंकासन का, और मायी आभियोगिक देव-सेवकपने उत्पन्न होते हैं वैसा कहा. यह तीसरा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हा॥ ३ ॥५॥ + + ___ अब इस छठे उद्देशे में भी वैक्रेय संबंधी प्रश्न करते हैं. अहो भगान् : मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार वीर्य लब्धि व विभंग ज्ञान लब्धि से बाणारसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या राजगृही नगरी में मनुष्य पशु वगैरह के रूप माने देखे ! हां गौतम ! विभंग ज्ञान से जाने और अवधि दर्शन से देखे. 19 अहो भगवन् ! क्या वे यथातथ्य भाव जाने, देखे या अन्यथा भाव जाने देखे ? अहो गौतम ! यथा * 208 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी g *प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देखे हैं: हां जा जाने पा० देखे से वह किं. क्या त० तथा भाव जा. जाने पा० देखे अ. अन्यथा भा. भाव को जा० जाने पा० देखे गो गौतय णो नहीं तः तथाभाव को जा जाने पा: देखे अ० अन्यथा भाव को जा जाने पा. देखे से वह के कैसे ए. एसा बु. कहा जाता है जो नहीं त तथा भाव को जा जान पादेले अ० अन्यथा भाव को जा० जाने पा० देख गो. गौतम त उसको ए. ऐसा भ० होवे अ मैं रा० राजगृहनगर की स० विकर्षणा कर वा० वाणारसी न० नगरी में रू० नाणलहीए वाणारसिं नगरिं समोहए समोहणित्ता रायगिहे नयरे रुवाइं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहा भावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ अण्णहा भावं जाणइ पासइ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ णो तहाभावं जाणइ पासइ अण्णहा भावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भनइ एवं खल अहं रायगिहे नयरे समोहए समोह तथ्य जाने नहीं व देखे नहीं परंतु अन्यथा भाव जाने व देखे. अहो भगवन् ! किस तरह वह यथातथ्य भाव भावार्थ जाने, देखे नहीं; परंतु अन्यथा भाव जाने, देखे ? अहो गौतम ! उन को ऐसा हावे कि अहो । अभने राजगड नगरी का वैकेय किया और बाणारसी नगरी में रहे हुने मनुष्य पशु वगैरह के रूप देख १२७ रहा हूं. इस तरह उन अन्य दर्शनियों को दृष्टि की विपरीनता से मति की विपरीतता होती है. जैसे । 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) -08-28तीसरा शतकका छठा उद्दशा g>45 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी है रूप जा० जानता हूं पा. देखता हूं से उस से उप्त दं०दर्शन में वि० विपरीतता भ होवे ते०इस लिये जा. यावत् पा० देखे ॥ १ ॥ पूर्ववत् ॥ २ ॥ अ० अणगार भं० भगवनू मा० मायी मि० मिथ्यादृष्टि वी० णित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणामि पासामि, से से दसणे विवच्चासे भवइ, से है। तेणटेणं जाव पासइ ॥१॥अणगारेणंभंते ! भावियप्पामायी मिच्छादिट्रीजाव रायगिहे नयरे । समोहए समोहएत्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ । म तंचेव जाव तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए समोहणिचा रायगिहे नयरे रूवाई जाणामि पासामि । से से दंसणे विवच्चासे भवइ से तेणटेणं जाव अण्णहाभावं जाणइ पासइ ॥ २ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा मायी किसी दिशी मूढ पुरुष पूर्वादि दिशा नहीं जानसकता है। वैसे ही वह भी नहीं जान सकता है. इसलिये अहो गौतम : वैसा अनगार यथातथ्य भाव नहीं, जानसकता है परंतु अन्यथा भाव जान सकता है। ॥2॥ अहो भगवन् ! मायी मिथ्या दृष्टि भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि, वैक्रेय लब्धि व विभंग ज्ञान लब्धि से राजगृह नगर का वैक्रेय करके क्या वाणारसी में मनुष्यादि के रूप जान व देख सकता है ! हां गौतम ! वह राजगृहीकी विणा करके बाणारसीमें मनुष्यादिक के रूप जान व देख सकता है वगैरह सब अधिकार पहिले जैसे कहना. और उसे भी ऐसा विचार होवे कि मैंने बाणारसी का रूप प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ wwwwwwwwwwwwwwwwww Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र बाभार्थ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगत) सूत्र वालब्धि से वि० वैक्रेय लब्धिसे वि० विभंगज्ञान लब्धिले बा० वाणारसी नगरी रा० राजगृह न० नगर की अं० बीच में ए० एक म० वडा ज० देशसमुह स० विकुर्वणा कर वा० वाणारसी नगरी रा० राजगृह न० नगर की अं०बीच में ए० एक मव्वडा ज०देश समुह जा० जाने पा० देखे हं०हां जा० जाने पा० देखे त मिच्छदिट्ठी वीरिय लडीए विउव्जियलद्धीए विभंग णाणलडीए बाणारसिं नगरिं रायगिहंच नगरं अंतराय एवं महं जणवयवग्गं समोहए समोहएत्ता वाणारासें नगरिं रायगिहं तंच अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ । से भंते! किं तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभाव जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो तहाभावं बनाया और राजगृही में मनुष्यादि के रूप जान व देख सकता हूँ. इस तरह दृष्टि की विपरीतता से मति की विपरीतता होती है. इस से वह यथार्थ भाव नहीं जान सकता है व देख सकता है परंतु अन्यथा भाव जान सकता है व देख सकता है || २ || अहो भगवन् ! मायी, मिध्यादृष्टि भावितात्मा अनगार वीर्य लब्धि, वैक्रेय लब्धि व विभंग ज्ञान लब्धि से राजगृही व बाणारसी नगरी के बीच में एक वडाजनपद की विकुर्वणा करके क्या इन दोनों नगरी के बीच के जनपद को जान व देख सकता है ? हां गौतम ! ऐसा मायावी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार जान व देख सकता है. अहो भगवन् ! क्या वह तथा भाव जाने या अन्यथा भाव जाने ! अहो गौतम ! वह तथा भाव जाने परंतु अन्यथा भाव जाने नहीं. 4248 तीसरा शतकका छठ्ठा उदेशा oye Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्षजी उस को ए. ऐसा भ० होवे ए. यह वा० घाणारसी न० नगरी ए. यह रा. राजगृह न० नगर ए.. यह अं० बीच में ज० देश नो० नहीं ए. यह मु० मुझे वी० वीर्य लब्धि वे० वैक्रेय लब्धि वि. विभंग ज्ञान लब्धि इ० ऋद्धि जु० द्युति ज० यश ब० बल वी० वीर्य पु० पुरुषात्कार पराक्रम ल० लब्ध प. जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ॥ से केणटेणं भंते आव पासइ ? गोयमा ! तरस खलु एवं भवइ एस खलु वाणारसीए नयरीए एस खलु रायगिहे नयरे, एस खलु अंतरा एगं महं जणवयवग्गं, नो खलु एस महं वीरियलही वेउन्विय. लही, विभंगनाणलही, इट्ठी, जुत्ती, जसे, बले, वीरिए. पुरिसक्कारपरक्कमे लडे पत्ते अअहो भगवन् ! वह किस कारन से तथा भाव जाने व देखे अन्यथा भाष जाने नहीं देखे नहीं ? अहो गौतम ! उसे ऐमा विचार हो कि यह बाणारसी नगरी है, यह राजगृही नगरी है. यह इन दोनों की बीच का प्रदेश है. परंतु वह ऐसा नहीं जान सकता है कि यह मुझे वीर्य लब्धि, वैकेय लब्धि, ज्ञान लब्धि, ऋद्धि, द्युति, कान्ति, यश, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम से मीला है, प्राप्त हुवा है यावत् सन्मुख हुवा है. इस तरह उसे दर्शन की विपरीतता से मति की विपरीतता होती है अर्थात् ये मेरे बनाये हुवे नहीं है परंतु स्वाभाविक है यो विभंग ज्ञान से विपरीत मानता है. इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहा है। कि यथार्थ भाव नहीं जान व देख सकता है परंतु अन्यथा भाव जान व देख सकता है ॥ ३ ॥ अमायी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादगी* भावार्थ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ शब्दार्थ पान अ० सन्मुख हुवे म उस मे० उमदं दर्शन की वि० विपरीतता भ-हाव मे वह तेलिये जायावत पा देखे ॥ ३ ॥ अः अनगार भं भगवन अ० अमाथी म. सम्यक दृष्टि बी० वीर्य लब्धि में वक्रय भिसमण्णागए से से सण विवच्चा से भवइ से तेणट्रेणं जाव पासइ ॥ ३ ॥ अ. णगारणं भंते ! भावियप्पा अमायी सम्मादिट्टी नीरियलहीए, बेउब्विय लडीए, ओहि नाणलडीए गयमिहे नयरे समाहए समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रुवाई जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ । से भंते ! किं तहाभा जाणइ पासइ अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तहा भावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं रायगिहे भावार्थसम्यग् दृष्टि अनगार वीर्य लब्धि, वैक्रेय लब्धि व अवधि ज्ञान की लब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा कर बाणारसी नगरी में रहे हुवे मनुष्य पशु वगैरह को क्या जान व देख सके ? हां गौतम : वे जान व देख सके. अहो गौतम : वे यथातथ्य भाव जाने व देखे या अन्यथा भाव जाने व देखे ? अहो or गौतम : वे यथातथ्य भाव जाने देख परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारण से वे १ यथातथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं ? अहो गौतम : उन को ऐसा विचार होरे कि मैं राजगृही नगरी की विकर्वणा करके बाणाग्मी नगरी में मनुष्यादिक के रूप देखता हूं इस ago पंचमांग दिवाव पण्णात्ति ( भगवती तीसरा शतक का छट्टा उद्देशा Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SET ५५८ शब्दार्थ : ल० लब्धि से ओ० अवधि ज्ञान लब्धि से रा० राजगृह नगर में स० विकुर्वणा कर वा० वाणारसी न० नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि पासामि, से से दंसणे अविवच्चा से भवइ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ ॥ बीओवि आलावगो एवं चेव, णवरं वाणारसीए नयरीए समोहणा वेयव्वा ॥ रायगिहे नयरे रूवाइं जाणइ पासइ ॥ ४ ॥ अणगारेणं भंते भावियप्पा अमायी सम्मदिट्ठी बीरिय लडीए वेउव्विय ललडीए ओहिनाणलडीए रायगिहं वाणारसिं नगरिंच अंतरा एग महं जणवयवगं समोहए समोहएत्ता रायागहं नगरं वाणारसिं च नगरिं तंच अंतरा एगं महं जणवयव ग्गं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ से भंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ 'भावार्थ तरह उन को दर्शन के समपने से मति की विपरीतता नहीं होती है इसलिये अहो गौतम ! वे यथातथ्य भाव जाने देख परंतु अन्यथा भाव जाने व देखे नहीं. इसी तरह दमरा आलापक जानना. परंतु इस में राजगृही का वैकेय करके बाणारसी में मनुष्यादि के रूप देखने के स्थान वाणारसी का वैकेय करके राज में मनुष्यादिक के रूप देखे ॥ ४ ।। अमायी सम्यग् दृष्टि भावितात्मा अनगार वीर्य लब्धि, वैक्रेय लब्धि, व अबधि ज्ञान की लब्धि से राजगृह नगर व बाणारसी के मध्य का एक बड़ा जनपद देश की विकुर्वणा करके उन दोनों की बीच का जनपद को क्या जाने व देखे ? हां गौतम ! वे जाने देख. अहो भगवन् ! ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी चालाप्रसादजी * Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago ५५९ शब्दार्थ नगरी में रू० रूप जा० जाने पा० देखे हैं. हां जा जाने पा० देखे ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ अ० अण अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तहाभाव जाणइ पासइ, नो अण्णहा भावं जाणइ पासइ । सेकेणट्रेणं ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ नो खलु एस रायगिहे, णो खलु एस बाणारसी नगरी णो खलु एस अंतरा एगे. जणवयवग्गे, एस खलु ममं __वीरिय लडी वेउव्विय लडी, ओहिनाण लडी, इट्ठी, जुत्ती, जसे बले वीरिए पुरि__ सक्कारपरक्कमे लढे पत्तेअभिसमण्णागए, सेसे दंसणे अविवच्चासे भवइ,से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ, तहा भाव जाणइ पासइ, नो अण्हाभावं जाणइ पासइ ॥ ५ ॥ अणभावार्थ क्या वे यथातथ्य भाव जाने देखे या अन्यथा भाव जाने देखे ? अहो गौतम : वे यथाई तथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने व देखे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारन से वे यथातथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं ? अहो गौतम ! उन को ऐसा विचार होवे कि यह राजगृह नगर नहीं है, यह बाणारसी नगरी नहीं है यह उन के बीचका जनपद नहीं है, परंतु यह वीर्य लब्धि, वैकेय लब्धि, अवधि ज्ञान की लब्धि, ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम मुझे प्राप्त हुवा है. इस तरह दर्शन के समपरिणाम से मति सम होती है. इसलिये अहो गौतम! ऐसा कहा गया है कि वे यथातथ्य भाव जाने व देख परंतु अन्यथा भाव जाने देख नहीं ॥ ५ ॥ अहो पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र <283 Pat पंचमाङ्ग विवाह तीसरा शतक का छठा उद्देशा । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ५६० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गार भं० भगवन् भा० भवितात्मा वा बाह्य पो० पुद्गल अ. विना ग्रहणकिये प० ममर्थ ए० एक म०* वडा गा० ग्रामरूप न. नगर रूप जा. यावत् सः सन्निवेश वि०विकुर्वणा करने को गो० गौतम णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ए. ऐसे वि० दसरा आ० आलापक न. विशेष बा. बाब पो. पुरलभ प० ग्रहण कर प० समर्थ ॥ ६॥ पूर्ववत् ॥ ७॥च० चमर भं० भगवनू अ० असुरेन्द्र को क• कितने गारेणं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं गामरूवंवा, नगररूवंबा, जाव सण्णिवेसरूवंवा विकुवित्तए ? गोयमा ! णोइणट्टेसमटे, एवं विती ओवि आलावओ । नवरं बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता, पभू ॥६॥ अणगारेणं भंते ! . केइवयाई पभू गामरूवाइं, विकुवित्तए ? गोयमा ! से जहा नामए जुबई जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेजा, तं चेव जाब विकुन्वितिवा ३, ॥ एवं जाव सण्णिवेसरूबंवा । भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहिर के वैक्रेय पुद्गल ग्रहण किये विना क्या ग्राम, नगर यावत् सनिवेश के रूप बनामकते हैं ? अहो गौतम ! वे बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये विना ऐसे रूप नहीं बना सकते हैं. परंतु बाहिर के पुद्गल ग्रहण कर ऐसे रूप बना सकते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! वे भावितात्मा अनगार कितने वैक्रेय रूप बना सकते हैं ? अहो गौतम ! जैसे काम पीडित तरुण पुरुष तरुणी स्त्री को अपने हस्त से पकडता है ऐसे ही के अनगार एक लक्ष योजन का जम्बूद्वीप का ग्राम नगर यावत् सन्निवेश है। wwwwwwwwwwwwwwwwwwww * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ 1 - Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ nirmanoranAAAAKAA पचंमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 4882 आ० आत्मरक्षक देव सा. सहस्र गो० गौतम च. चार च. चौसठ आ० आत्मरक्षक देव साल ए. इस आ० आत्म रक्षक का ब वर्णन स० सर्व इं० इन्द्रका ज. जिस को ज. जितने आ० अत्मरक्षक ईते. उतने भा० कहना ॥३॥६॥ = रा० राजगृह न० नगर में जा. यावत् प० पर्युपासना करते ए. ऐसा व० बोले स० शक्र दे० देवेन्द्र ॥ ७ ॥ चमरस्सणं भंते ! असुरिंदरस अमुररण्णो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? __ गोयमा : चत्तारि चउसट्ठीओ आयरक्खदेव साहस्सीओ पण्णत्ताओ ॥ एएणं आय रक्खवण्णओ ॥ एवं सब्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियन्वा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ तईय सए छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ६ ॥ * रायगिहे नयरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी सकस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो के रूप से भर देवे. यह मात्र विषय है. इतने रूप किसीने किये नहीं, करते नहीं व करेंगे नहीं ! ७ ॥ अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र को कितने हजार आत्मरक्षक रेंद्र को दो लाख छप्पन्न हजार आत्म रक्षक देव कहे हैं. ऐसे ही सब भुवनपति यावत् अच्युतेंद्र तक के 30 इभिन्न २ आत्म रक्षक देव जानना. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं ऐसा कहकर तप व मंयम से आत्मा को भावते हुवे श्री गौतम स्वामी विचरने लगे. यह तीसरा शतकका छडा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥३॥६॥ तीसरा शतकका सातका उद्देशा8880 भावार्थ 48 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थको क० कितने लो० लोकपाल गो० गौतन च. चार लोकपाल प० प्रो सो सोम ज. यम व० वरुण ७० वैश्रमण ॥ १ ॥ ए० इन भं भगवनू च० चार लो० लोकपाल के क० कितने विमान प० प्ररूपे । गो गौतमच. चार वि. विमान प० प्ररूपे सं० संध्यप्रभ व० वरशिष्ट स० स्वयंजल व वल ५६२ कइलोगपाला पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता तंजहा-सोमे, जने, वरुण, वेसमणे ॥ १ ॥ एएसिणं भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कइविमाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि विमाणा ५० तंजहा-संझप्पभे, वरसिट्टे, सयंजले, वग्गू ॥ २ ॥ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी यालाप्रसादजी* भावार्थ है छठे उद्देशे के अंत में आत्मरक्षक देव का वर्णन कहा. आगे उद्देशे में लोकपालोंका वर्णन कहते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में भगवंत पधारें परिषदा वंदन करने को आइ और धर्मोप देश सुनकर पाछी गई. उस समय में श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न करनेलगे कि अहो भगवन् ! शक्र देवेंद्र को कितने लोकपाल कहे हैं ?अहो गौतम : शऋदेवेंद्र को चार लोक पाल कहे हैं. उन के नाम मोम, यम, वरुण और वैश्रमण. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! उन चार लोकपालों के कितने विमान कहे हैं अहो गौतम ! उन के चार विमान कहे हैं ? मोम का संध्यमभ २ यम का वरशि कष्ट ३ वरुण का स्वयंजल और ४ वैश्रमण का वल्गु ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! शक्रदेवेंद्र देवराजा । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र क० कहां मं० भगवन् स शक्र दे० देवेन्द्र के सो० सोम म० महाराजा का सं० संध्यrभ म० महाविमान (गो० गौतम जं० जंबूद्वीप के मं० मेरु पर्वत की दा दक्षिण में इ० इस र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी के ब० बहुत स० समरमणीय भूमिभाग से उ० ऊर्ध्व चं० चंद्र सू० सूर्य ग० ग्रह ग० समुह न० नक्षत्र ता० तारे ब० बहुत जो० योजन जा० यावत् पं० पांच अ० अवतंसक अ० अशोक अवतंसक स०सप्तपर्ण अवतंसक) चं० चंपक अवतंसक चू० च्युत अवतंसक म० मध्य में सो० मौधर्म अवतंसक त० उस सो० सौधर्म अत्रकहिणं भंते ! सक्करस देविंदरस देवरण्णो सोमस्स महारण्णो संझप्प णामं महाविमाणे प० ? गोयमा ! जंबूदीवेदीचे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उट्टं चंदिमसूरिमगहगणनक्खत्ततारा रुघाणं बहूई जोयणाई जाव पंच वर्डसया प० तंजहा - असोयवडंसए, सत्तिरण वर्ड.सए, चंपयवडंसए, चूयवडंसए, मज्झे सोहम्म वर्डसए ॥ तस्सणं सोहम्म वर्डसस्स का सोम नामक लोकपाल का संध्यप्रभ नामक विमान किस स्थान पर है ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण दिशामें रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत मध्य भाग से बहुत योजन ऊंबे चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारे रहे हुवे हैं. वहां से सो, हजार, क्रोड व क्रोड क्रोड योजन उपर ऊंचे सौधर्म देवलोक रहा हुवा है. वह पूर्व पश्चिम लम्बा व उत्तर दक्षिण चौडा, अर्धचंद्रमां के आकार वाला महातेजवाला देदीप्यमान असंख्यात ॐ तीसरा शतकका सातत्रा उद्देशा ५६३ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ शब्दार्थ तसक म० महाविमान की पुः पूर्व में सो. सौधर्म देवलोक में अ० असंख्यात योजन वी. अतिक्रमकर ए• तहां स० शक्र दे० देवेन्द्र का सो० सोम म महाराजा का मं० संध्यप्रभ म. महाविमान अ० अर्ध ते तेरह जो० योजन स० लाख आ० लंबा वि० चौडा उ० गुनचालीस जो० योजन ल० लाख बा० बावन स० सहस्र अ० आठ अ० उडतालीम जो० योजन स० शत किं० किंचित् वि. विशेषाधिक ___ महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं सोहम्मकप्पे असंखेज्जाई जोयणाई वीईवइत्ता एत्थणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो संझप्पभेनामं महाविमाणे प० अद्धतेरस जोयण सय सहस्साई आयाम धिक्खंभेणं उयालीसं जोयणसयसहस्साई बाव- 6 ण्णचसहस्साई अट्ट अडयाले जोयणसए किंचित्रिसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ भावार्थ योजन का लम्बा चौडा व असंख्यात योजन की परिधि वाला है. उस में बशीस लाख विमान हैं वे सब रत्नपय निर्मल यावत् दर्शनीय हैं. उस के बहुत मध्य भाग में सब विमानों में मुकुट समान श्रेष्ट पांच महा। विमान हैं. जिन के नाम. १ अशोकावतंसक २ सप्तपर्णावतंसक ३ चम्पकावतंसक ४ चूतावतंसक और ५ मध्य में सौधर्मावतंसक विमान हैं. उस सौधर्मावतंसक विपान से पूर्व में असंख्यात योजन जावे तो वहां शक्र देवेंद्र का सोम नामक लोकपाल का स्वयंप्रभ नामक विमान कहा है. वह. साढेवारह लाख योजन 10 का लम्बा चौडा है. उस की परिधि ३१५२८४८ योजन से कुछ अधिक की है. इस का सब वर्णन अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी मकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवसहायजीपालाप्रसादजी Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ है प पा जैसे भवः विमान की व AG सूत्र भावार्थ ॐ पंचमांग विवाह पणचि ( भगवती सूत्र कहना का विविध जा० यान अभिषेक न० विशेष मोसोमदेव || ३ || = संध्यप्रभ म महाविमान की अ नीचे स० दिशा म विदिशा में अ असंख्यात जो योजन लाख भगाकर मः शक देव देवेन्द्र का सोमव महाराजा की मोमोमा रा० राज्यवानी एक जो योजन म लाख आर लंबी वि० पौडी नं संबद्रीप प्रमाण वे वैमानिक के प्रमाण मे अ अर्थ न जानना जा जहेब सुरियास विमाणस्स वत्तच्या सा अपरिसंसा भाणियव्वा जाव अभियो । नवरं सोमं देवे ॥ ३ ॥ संझप्पभसणं महाविमाणस्स अहे सपक्व पडिदिसिं असंखजाई जोयण सय सहरसाई उगाहित्ता एत्थणं सवरस देविंदस्म देवरण्णो सोमरसमहारण्णी सोमानामं रायहाणी पण्णत्ता, एवं जोयणसयसहस्से आयामविक्खभेणं जंबूदीव (सूर्याभ देवता के विमान का अधिकार में जैसा कहा है वैसे ही कहना मात्र यहां सोम देव कहना ॥ ३ ॥ इस संध्यप्रभ विमान से असंख्यात योजन नीचे अवगाहकर चारों विदिशि में जाये तो वहां शक्र देवेंद्र के सोम महाराजा की सोमा नामक राज्यधानी कही हैं. एक लक्ष योजन की लम्बी व चौडी है. इस में प्रासाद द्वारादिक के सब प्रमाण सौधर्म देवलोक के प्रासादिक से आया है. अर्थात् १५० योजन का कोट है, १२५० योजन का मासाद ऊंचा है, चारों तरफ चार प्रासाद १२० योजन के हैं, इस के परिवारवाले १६ । नीमग शतक का सातवा उद्देशा Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ शब्दार्थ यावत् उ० चौकी पीठ सो० सोलह जो० यो नम स. सहस्र भा० लंबे वि० चौडे प.31 पञ्चास स०सहस्र योजन पं० पांच स• सत्तानव जो० योजन स० शत किं. किंचित् वि. विशेषकमा प. परिधि पा. प्रासाद की च० चार प० परिपाटी ने० जानना से० शेष न० नहीं है ॥४॥ स० शक्र : दे देवेन्द्र के सो० सोम म० महाराजा के इ० ये दे. देव आ० आज्ञा उ० उपपात व० वचन नि निर्देश में चि० रहे सो• सोमनिकाय पो० सोमदेव निकाय वि. विद्युत्कुमार वि. विद्युत्कुमारी अ. अग्निकुमार प्पमाणा बेमाणियाणं पमाणस्स अई नेयत्वं जाव उवगारियलेणं सोलस जोयण सहस्साई आयाम विक्खंभेणं पण्णासं जोयण सहस्साई पंचय सताणउए जोयणसए किं चिविसेसणे परिक्खेवेणंप पासायाणंचत्तारि परिवाडीओनेयवाओ सेसानत्थिासकरसणं देविंदस्स देवरण्णोसोमरस महारण्णो इमे देवा आणाउववाय वयण निदेसे चिटुंति तंजहा सोमकाइबाइवा, सोमदेवयकाइयाइवा, विज्जुकुमारा, विज्जुकुमारीओ, अग्गिकुमारा, भावार्थ विमान ६२॥ योजन के हैं और परिवारवाले ६४ विमान ३१॥ योजन के हैं. यावत् वे सोलह हजार योनन के लम्बे चौडे कहे हैं ५०५१७ योजन से कुछ अधिक की परिधि कही है. इस में सौधर्म सभा, उत्पत्ति स्थान, व्यवसाय सभा वगैरह नहीं है ॥ ४॥ शक्र देवेन्द्र के सोम महाराजा की आज्ञा, उपपात 19व निर्देश में सोम महाराजा की जाति के देव, सोम देव की जाति के देव, विद्युत् कुनार, अग्नि कुमार व *। 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - *प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* . Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 40- पंचमांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती ) सूत्र 40 अ० अग्निकुमारी बा० वायुकुमार वा० वायुकुमारी चं० चंद्र सू० सूर्य ग० ॠ न० नक्षत्र ता० तारा जे० जो अ० अन्य त० तथा मकार स० सर्व ते ० वे उ० उन के सेवक त० उन के साहायक त० उन की भार्या जैसे स० शक्र दे० देवेन्द्र के सो० सोम म० महाराजा के आ० आज्ञा उ० उपपात ६० वचन (नि० निर्देश में चि० रहे ॥ ५ ॥ जं० जम्बूद्वीप में मं० मेरु की दा० दक्षिण में जा० जो इ० ये स० १२७ उत्पन्न होते हैं तं० वह ज० जैसे ग० ग्रहदंड ग० ग्रहमुशल ग० ग्रह, गर्जना ग० ग्रहयुद्ध न० ग्रह श्रृंगाअग्गिकुमारीओ, वायुकुमारा, वायुकुमारीओ चंदा, सूरा, गहा, नक्खत्ता, तारारूबा, यावणे तहष्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया ॥ सक्करस देविंदस्स देवरणो सोमरस महारण्णो आणा उववाय वयणनिसे चिट्ठति ॥ ५ ॥ जंबूदीवे वे मंदरस्त व्यस्त दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पज्जंति तं गहदंडाइवा, महमुस ऐसे अन्य भी देव रहते हैं. वे वायुकुमार जाति के देव देवियों और चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तारे व सोम महाराजा की भक्ति करते हैं, उन के पक्ष में रहते हैं, उन से बताया हुवा कार्य पूर्ण करते हैं. इस तरह वे उन की आज्ञा में प्रवर्तते हैं ॥ ५ ॥ जम्बूद्वीप के मेरु से दक्षिण में जब श्रेणी बन्ध मंगलादि तीन चार ग्रह का दंडाकार होवे, मूशल जैसे उपर नीचे दंड की तरह तीच्छे श्रेणीबंध ग्रह होवे, तीसरा शतक का सातवा उद्देशा ५६७ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋपिजी टक ग० ग्रहा का अ० बद्दल होवे अ० बद्दल के वृक्ष होवे सं० संध्या होवे गं० गंधर्व नगर होवे उ० उल्का पात होवे दि० दिशा में दाह होवे ग० गर्जना वि。विजली होवे पं० धूलकी बु० वर्षा होवे जुटबाल चंद्र ज० व्यंतर से अभिध धूसर मं० महिका र दिशाका रजस्वलपना चं चंद्रका ग्रहण सू० सूर्य का उ० उपराग { बं० चंद्र परिवेष सू० सूर्यपरित्रेष प०प्रतिचंद्र प• प्रतिसूर्य ई० इंद्र धनुष्य उ० बहुत इंद्रधनुष्य के खण्ड क ० कपिहसन लाइवा, गहगजियाइवा, एवं गहजुदाइवा, गहसिंघाडगाइवा, गहावसच्चाइबा, अभ क्वाइवा, अग्भाइवा, संझाइवा, गंधव्यनगराइबा, उक्कापायाइवा, दिसादाहाइवा, गजियाइवा, विजुयाइवा, पंसुकुट्टीइवा, जवजमखालित्तय धमियमहिम रउग्घाय, चरागाड्या, सूरोवरागाइवा, बंद परिवेसाइवा, सूरपरिवेसाइवा, पडिचंदावा, पडिराइवा, इंदधणूबा उदगमच्छक इहसियअमोह पाईणबायाइवा, पडण ग्रह चलने से मेघ समान गर्जना होवे, एक नक्षत्र में दक्षिण उत्तर श्रेणि के ग्रह का रहना सो ग्रह युद्ध होवे, (शृंगाटक के आकार से ग्रह होने, ग्रह पीछे जावे, बद्दल होवे, वृक्षाकार बद्दल होवे, संध्या फूले, आकाश { में व्यंतर के बनाये हुवे नगर होवे, उद्योत सहित ताराओं का पडना ऐसा उल्कापात होत्रे, दिशाओं में रक्तपीत समान रंगवाला दाह वे. संघादिक की गर्जना होवे विद्युतका उद्योत होत्रे,रजोवृष्टि होवे, प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया के दिन भी चंद्र रहे वहां लग संध्या फूली हुई रहे, व्यंतरोंने किया हुवा अनि आकाशमें रहे, धूंअर पडे, * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ५६८ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 8 भावार्थ शब्दार्थों के अ० अमोध पा० पूर्वको वायु १० पश्चिम का वायु जा. यावत् सं० संवर्तक वायु गा० ग्राम में दा अनि । जा. यावत् सं० सनिवेश में दा. अग्नि पा० प्राणक्षय ज० जनक्षय ध० धनक्षय कु० कुलक्षय व० व्यसन भूत अ० अनार्य जे० जो अ अन्य त० तथा प्रकार स० शक्र दे देवेन्द्र का सो० सोम म०महाराजा का जाव संवयवायाइवा, गामदाहाइवा, जाव सन्निवसदाहाइवा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणब्भूया. अणारिया जेयावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्कस्स। देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो अण्णाया, अहिट्ठा, असुया, अमुया, अवि. श्वेत वर्ण से धूअर पडे, दिशा का रजस्वलपना होवे, चंद्र ग्रहण होवे, सूर्य ग्रहण होवे, चंद्र की चारों बाजुई थी में कुंडाला, मूर्य की चारों बाजु में कुंडाला, दो चंद्र देखने में आवे, दो मूर्य देखने में आवे, इन्द्र धनुष्य , होवे, इन्द्र धनुष्य के खंड होवे, बद्दल रहित आकाश में कपिहसन,समान विद्युत् होवे, सूर्य के उदय व अस्त समय में किरणों के विकार से रक्त कृष्णवर्ण वाले गाडे की धूरीके आकारवाला दंड होव, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण की वायु संवर्तक होवे, ग्राम दाह यावत् सन्निवेश दाह वगैरह लक्षण होवे तब प्राणियों का, बल का, मनुष्य का, धन का, कुल का क्षय होवे, आपत्ति में पडे, अनार्य लोगों का आग-3 मन होवे वगैरह अनेक प्रकार के उपद्रव होवे. उक्त बातों शक्र देवेन्द्र के मोम महाराजा से अजान*पने से नहीं हैं, विना देखी, विना सुनी, स्मरण विना की, या अधि ज्ञान से नहीं देखी वैसी नहीं हैं. 494 पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भवगती) सूत्र तीसरा शतक का सातवा उद्देशा 8 43201 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. अ. अजान अ० अदृष्ट अ० नहीं सना अ० महीं स्मरा अ. नहीं जाना ॥ ६॥ ते० उन सो• मोम निकाय म० शक्र दे० देवेन्द्र के सो० सोम म. महाराजा को इ० यह अ० अपत्यदेव अ० जानेहुवे हो. थे १३० अंगारक वि० बैताल लो. लोहिताक्षस. शनैश्चर चं० चन्द्र स० सर्य मु० शुक्र बु० बुध व बृहस्पति रा. राह स० शक दे० देवेन्द्र के सो० मोम म० महाराज की स० तीनभाग प० पल्यापम का ठि० स्थिति अ० अपसदेव की ए. एक प. पल्योपम की ठि० स्थिति म० महद्धिक जा० यावत् म०महानुभाग __ण्णाया ॥ ६ ॥ तेसिंवा सोमकाइयाणं सक्कस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे अहावच्चादेवा अभिण्णाया होत्था तंजहा-इंगालए, वियालए, लोहियक्खे, सणिचरे, चंदे, सूरे, सुक्के, बुहे, बहसई, राह ॥ सक्करसणं देविंदस्स देवरण्णो सोमरस महारण्णो सहभागं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता ॥ अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं अर्थात् सोम महाराजा उक्त मव बातों को जानते हैं यावत् देखते हैं ॥ ६ ॥ उन शक्र देवेन्द्र के सोम महाराजा को पुत्रवतू आज्ञा पालनेवाले मंगल, केतु, लोहिताक्ष, शनैश्चर, चंद्र, सूर्य, शुक्र ब्रहस्पति, वराह नामक देव हैं. उन की स्थिति एक पल्योपम व एक पल्योपम के तीन भाग में का एक भाग अधिक का कही. और उन के अपत्य स्थान जो देव हैं उन की एक पल्योपम की स्थिति कही. + अहो गीतम ! * यद्यपि चंद्र की एक लक्ष वर्ष अधिक व मर्य की एक महत वर्ष अधिक की स्थिति कही है. परंतु यहां पर अधिकता की विवक्षा नहीं की गई है. panaananamannarai * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मो० सोम महाराजा ॥ ७॥ क. कहां ज० जप म. महाराजा का व घरशिष्ठ म. महाविमान प. प्ररूपा गो. गौतम सो सौधर्म अवतंसक म. महाविमान की दा दक्षिण में सो० सौधर्म देवलोक की 100 अ० असंख्यात जो० योजन वी० व्यतिक्रान्त हवे ए० तहां सशक्र के जयमका ववरशिष्ठ वि० विमान । F५० प्ररूपा अ० अर्ध ते० नेरह जो० योजन स० लाख ज. जैसे सो० सोम का वि० विमान त० तैसे ॐ एगं पलिओवमाठिई पण्णत्ता. ए महिढाए जाव ए महाणुभागे सोमे महाराया ॥ ७ ॥ कहिणं भंते सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसिडेणामं महाविमाणे । पण्णत्ते ? गोयमा ! सोहम्मवडंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाइ जीयण सहस्साई वीईवइत्ता एत्थणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसिटेनामं विमाणे पण्णत्ते. अडतेरस्स जोयण सयसहस्साई जहा सोमस्स भावार्थ पूर्व दिशा के लोकपाल सोम की यह ऋद्धि और यह विवक्षा की है ॥ ७ अहो भगवनू ! शक्र देवेन्द्र | के यम महाराजा का वरशिष्ठ नामक महा विमान कहां कहा है ? अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक में । सौधर्मावतंसक नामक महा विमान से दक्षिण में असंख्यात योजन नावे तब वहां यम महाराजा का 177वरशिष्ट नामक विमान कहा है. वह साढे बारह योजन का लम्बा चौडा वगैरह सोम महाराजा का 4818 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र ** तीसरा शतकका सातवा उद्दशा got - Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ { जा० यावत् अ० अभिषेक रा० राज्यधानी त० तैसे जा० यावत् पा० प्रासादपंक्ति ॥ ८ ॥ स शक्र के ज० यम के ई०ये देवदेव आ० आज्ञा उ० उपपात जा०यावत् चि०रहे ज०यम के परिवार ज०यम के सामानिक के परिवार अ० असुर कुमार अ० असुर कुमारी कं० कंदर्प नि० नरक रक्षक अ० अभियोग जे. जो अ० अन्य त० तथा प्रकार स० सर्व ते ० वे ॥ ९ ॥ जं० जंबूद्रीप के मं० मेरु की दा० दक्षिण में विमाणं तहा जाव अभिसेओ रायहाणी तहेव जाव पासायांतीओ ॥ ८ ॥ सक्करसणं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा आणा. उववाय जाव चिट्ठति, तंजहा- जमकाइयाइवा, जमदवयकाइयाइवा, पेयकाइयाइवा, देवकाइयाइवा, असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा निरयपाला, अभियोगा, यावणे तहप्पगारा, सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया, सक्करस देविंदरस देवरण्णो जमस्स महारण्णो ॥ ९ ॥ जंबूद्दीवेदीवे मंदररस पव्वयस्स दाहिणेणं जाई विमान जैसे कहना ॥ ८ ॥ यम कायिक, यमदेव कायिक, प्रेत कायिक, प्रेतदेव कायिक, असुर कुमार, असुर कुमार की देवियों, कंदर्प, नरकपाल, अभियोगिक-सेवक और भी ऐसे अन्य देव यम महाराजा की {आज्ञा, निर्देश व उपपात में रहते हैं, वैसे ही वे उन का पक्ष धारन करते हैं, और उन की भार्या की { समान सेवा करते हैं ॥ ९ ॥ जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण में विघ्न, एक राजकुमारादिकृत उपद्रव, 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी · प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ५७२ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र - इ. इसे स० उत्पन्न करते हैं हिं० विघ्नहोवे ड. राजकुमार कृत उपद्रव क० कलह बो० महानि होवे । खा० मत्सर होवे म० महायुद्ध होवे म० महासंग्राम होवे म० बडे नि०पडे ए. ऐसे म० महान पुरुषका नि०० पडे म० बहुतरूधिर नि० पडे दु. दूर्भूत कु० कुलरोग होवे गा. ग्रामरोग होवे मं० मंडलरोग न नगर रोग सी. शीर्ष अ. अक्षि क. कर्ण न नख दांत वेदना ई० इंदना खं० स्कन्धनक० कुमारग्रह म यक्षग्रह भू० भूतग्रह ए० ज्वरविशेष बे०दो दिनांतर ते• तीन दिनांतर चा० चार दिनांतर उ० उद्वेग इमाई समुप्पाजंति, तंजहा डिव्वाइवा, डमराइवा, कलहाइवा, बोलाइवा, खाराइवा, महाजुहाइवा, महासंगामाइवा, महासत्थ निवडणाइवा, एवं महापुरिस निवणवा, महारुहिर निवडणाइवा, दुभयाइवा, कुलरोगाइवा, गामरोगाश्या, मंडलरोगाश्वा, नगररोगा-सीस-अच्छि-कण्ण-नह-दंत-वेयणा, इंदग्गहा, खंदग्गहाइवा, कुमार गह, ज. क्खग्गह, भृयग्गह, एगाहियाइवा, बेहिय, तेहिय चाउत्थयाइवा, उब्वेगाइवा, काक्लेश वृद्धि करनेवाले शब्दोचार, परस्पर कुरंप, महायुद्ध, महा संग्राम,महा शस्त्रका निपात, महा पुरुष का काल होना, महा रुधिर का पडना, सर्प वृश्चिकादिक की उत्पत्ति, कुल में क्षय रूप रोग, ग्राम में क्षय रूप रोग. बहुत ग्राम के मनुष्यों में क्षय रूप रोग, नगर जन में क्षय रूप रोग, मस्तक, आंख, कर्ण, नख व दांत की वेदना, इन्द्र ग्रहादिके उपद्रव, स्कंध देवादि के उपद्रव, कुमार ग्रह, यक्ष ग्रह, भूतग्रह के उपद्रव, एकान्तर । तीसरा शतक का सातवा उद्देशा 80% 488 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का काम खा० स्वासी सा० श्चात ज० घर दा दाह क. कच्छ को कोड अ. अजीर्ण पं० पांडरोग अ० हासरोग भ. भगंदर हि. हृदयशूल म०मस्तकशूल नो योनिश्ल पा० पसली शाल कु० कुक्षिशूल गा० ग्राममरकी न. नगर खे. खेड क. कर्बट दो. द्रोणपुष म० मडंप प. पाटप आ. आश्रम सं० संवाह स० सन्निवेश मरकी पा० प्राणक्षय ध० धमक्षय ज. जनक्षय कु. कुलक्षय व. वसनभूब अ.. ५७४ 42 अन्यादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी साइवा, खासाइवा, जराइवा, साहाइवा, कच्छ कोहाइवा, अजीरया, पंडुरोगा ; अरसाइवा, भगंदलाइवा, हियय सूलाइवा मत्थय सृलाइवा, जोणिसूल, पारस ल, कुच्छिसल, गाममारीइवा, नगर खेड-कन्वड-दोणमह-मडंव-पट्टण-आसमसंबाह-सण्णिवे. स मारीइवा, पाणक्खय, धणक्खय-जमक्खय-कुलक्खय-वसणभूयमणारिया जेयाव प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रमादनी * भावार्थ ज्वर, दो दिनांतर ज्वर, तीन दिनांतर पर, चार दिनांतर घर, इष्ट के वियोग से उद्ग, श्वाम, खांसी घर, दाह, कच्छ, कोड, अजीर्ण, पांडुरोग, हरम ( मसा) भगंदर, हुदव भूल, मस्तक शूल, योनि शृल, F फ्मली शूल, कुक्षि शृल, ग्राम की मारी. नगर. खेड, कवड, द्रोण मुख, मंडप, पट्टण, आश्रम, संवाद व "मनिवेश में मरकी. प्राणियों का क्षय, धन का क्षय, मनुष्यों का क्षय, ग्रहों का क्षय, वस्त्राभपणोंका क्षय.. ॐ व अनार्य म्लेच्छ लोगों का आगमन होवे वैसे ही अन्य भी एमे उपद्रव होवे. उक्त बातों यम महाराजा से Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमान विवाह पणचि (भगवता) सूत्र 4280 अनार्य ॥ १० ॥ इ. ये दे० देव अ० यथा अपत्य अ० जाने हो थे अं• अंब अंबरिष सा. श्याम स. सबल का रुद्र वे० वैरुद्र का काल म० महाकाल अ. असिपत्र ध० धनुष्य कुं. कुंभ बा. वालुक वे. वैतरणी ख० खर स्वर म. महाघोप प. पन्नरह आ० कहे ज० यम म. महाराजा की स० तीन भाग ५. पल्योपम की ठि• स्थिति अ० यथाअपस की ए. एक प० फ्ल्योपम की म० महर्द्धिक जा० यावत् ण्णे तहप्पगारा न ते सक्कस्स देविंदरस देवरण्णो जमस्स महारणो अण्णाया ॥१०॥ तेसिंवा जमकाइयाणं देवाणं सक्कस्स जमस्स इमेदेवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तंजहा-अबे, अंबरिसे चेव; सामे, सबलत्तियावरे ; रुदे, वरुद्दे, कालेथ ; महाकाले त्तियावरे (1) असिपत्ते, धणकुंभे वालुया; वेयरणीतिय; खरस्सरे, महाघोसे, एमेपण्णर साहिया। सक्कस्सणं देविस्स देवरगणो जम्मस्स महारणो सति भागं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता । अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिई पन्नत्ता । ए माहड्डीए जाव गुप्त नहीं होती है इन को जानते हैं, देखते हैं, व स्मरण करते हैं ॥ १० ॥ अम्ब, अम्बरिश, साम, सबल, रुद्र, वैरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुष्य, कुंभ, वालुक, वैतरणी, खरस्वर और महायोप ये पंदरह। परमाधर्मा यम महाराजा को अपत्यवत् विनयवंत रहते हैं. यम महाराजा की एक पल्योपम और एक पल्यापम के तीसरे भाग अधिक की स्थिति कही है. उन के पुत्र स्थान कार्य करनेवाले देव की एक 48488 तीसरा शतक का स तवा उद्देशा 8-800 भावार्थ 1 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. - शब्दार्थ न. यम.म० महाराजा ॥११॥क कहां भं० भगवन व० वरुण म. महाराजा का स० स्वयं जेल म०. महाविमान गो० गौतम त उस सो• सौधर्म अवतंसक म. महाविमान की प० पश्चिम में सो० सौधर्म देवलोक में अ. असंख्यात जा. यावत् ज० जैसे सो० सोम का त० तैसे वि. विमान राज्यधानी भा० कहना जा. यावत् पा० प्रासाद अवतंसक ण. विशेष ना. नाम ना. नाना प्रकार ॥ १२ ॥ व० वरुण के जा. यावत चि० रहते हैं व० वरुण का परिवार व० वरुण के• सामानिक का परिवार मा० नाग जमे महाराया महाराया ॥११॥ कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारन्नो, सयंजले नामं महाविमाणे पन्नते ? गोयमा ! तस्सणं सोहम्मवडं सयस्स महाविमाणस्स पञ्चत्थिमेणं सोहम्मेकप्पे असंखेज्जाइं, जहा सोमस्स तहा विमाण रायहाणीओ भाणियव्या जाव पासाय वडंसया. णवरं नाम नाणत्तं ॥ १२ ॥ सकस्सणं वरुणरसणं जाव चिटुंति तंजहा-वरुणकाइयाइवा, वरुणदेवकाइयाइवा, पल्योपम की स्थिति कही है. इस तरह अहो गौतम ! यह महर्दिक यावत् महाराजा है.॥११॥ अहो भगवन्! शक्र देवेन्द्र के वरुण नामक महाराजा का सतंमला नामक महाविमान कहां है ? अहो गौतम ! सौधर्मावतं सक विमान की पश्चिम में असंख्यात योजन जावे वहां वरुण महाराजा की सतजला नामक राज्यधानी कही * उसका वर्णन सोममहाराजा जैसे करना॥१२॥वरुण कायिक,वरूणदेव कायिक,नागकुमार,नागकुमारियों, उदधि । १४ अनुवादक-चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ शब्दार्थ कुमार ना० नाग कुमारी उ उदधिकुमार उ० उदधिकुमारी य० स्थनित कुमार थ० स्थनित कुमारी जे० जो अ० अन्य त० तथारूप स० सर्व ते वे उ• उन के वक जा० यावत् चि० रहते हैं ॥ १३ ॥ जं० ४ जंबूद्वीप के मं• मेरु की दा दक्षिण में जा जो इ० ये स० उत्पन्न होवे अ. अतिवृष्टि मं० मंदवृष्टि सु०१४ सुवृष्टि दु० खराव वृष्टि उ० पानीका उद्भेद उ० तलावादि भरावे उ० थोडा पानी वहे उ॰ बहुत पानी 45वहे १० प्रवाहचले गा ग्राम में पानीचले जा० यावत् स: सन्निवेश में पानी चले पा० माणक्षय. जा० नागकुमारा, नागकुमारीओ, उदहिकुमारा, उदहिकमारीओ, थपियकुमारा, थणि. यकुमारीओ, जेयावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया. जाव चिटुंति ॥ १३ ॥ जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणेणं जाइं इमाई समुप्पज्जति, तंजहा-अइवासाइवा, मंदवासाइवा, सुवुट्ठीइवा, दुवट्ठीइवा, उदुठभेयाइवा, उदप्पीलाइवा, उदवाहा इवा, पवाहाइवा, गामवाहाइवा, जाव सन्निवेसवाहाइवा, पाणक्खया जाव तेसिं वा, भावार्थ कुमार, उदधि कुमारियों, स्यनित कुमार व स्थनित कुमारियों यावत् उनका भार्यासमान कार्य करते हैं ॥१३॥ जम्बूद्वीपके मेरुकी दक्षिणमें अतिवृष्टि, मंदवृष्टि, सुवृष्टि,दुवृष्टि,पर्वतकेतट व नदियोंमें पानीका चलना,तलावादिक ।। भर कर पानी का चलना, थोडा पानी चलना, बहुत पानी चलना, ग्राम यावत् सन्निवेश वह जावे इत-3 ना पानी चलना वगैरह होवे. इस से माणियों का क्षय यावत धन वगैरह का क्षय होवे. यह सब वरुप | 387 पंचमांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती ) सूत्र २०१80% तीसरा शतक का सातवा उद्देशा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ 42 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 812 यावत् से. उन व• वरुण के. जा. यावत् अ० यथा अपत्य क० कर्कोटक क० कर्दम अं• अंजन सं०. शंखपाल पुं० पुंडू ५० पलाश मो० मोज ज. जय द० दधिमुख अ० अयंपुल का० कातरिक व० वरुण की दे० देशऊणे दो• दोपल्योपम की ठि० स्थिति अ० अपत्य देव की ए० एक पल्योपम की म० महर्द्धिक ५० कहे व० वरुण म० महाराजा ॥ १४ ॥ क० कहां भं० भगवन् स० शक्र के वे० वैश्रमण वरुणकाइयाणं देवाणं सक्कस्सणं वरुणस्स जाव अहावच्चाभिण्णाया होत्था, तंजहाकक्कोडए, कद्दमए, अंजणे, संखवालए, पुंडे, पलासे, मोये, जये, दहिमुहे, अयंपुले, कायरिए ॥ सक्कस्सणं वरुणस्स देसूणाइं दो पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, अहावच्चा भिण्णायाणं देवाणं एगंपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, ए महिड्डीए जाव वरुणे महाराया ॥ १४ ॥ कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो वग्गूनामं महाराजा जानते हैं यावत् याद करते हैं. वरुण महाराजा को कर्कोटक, कर्दमक, अंजन, शंखपाल, all पुंड, पलाश, मोय,जय, दधिमुख, अयंपुल कातरिक नामक देवों पुत्रवत् विनयवाले आदेशमें प्रवर्तनेवाले होते हैं. इन की देशऊने दो पल्पोपम की स्थिति कही है, और अपत्य समान देवकी एक पल्योपम की स्थिति कही. अहो गौतम ! वरुण राजा की ऐसी ऋद्धि कही है ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र का वैश्र * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी चालापसादजी* भावार्थ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *के. वल्मु ना० नाम का म० महाविमान गो० गौतम त० उस सो० सौधर्मावतंसक म० महाविमान की उ०141 उत्तर में ज० जैसे सो० सोम वि० विमान की रा राज्यधानी की ब० वक्तव्यता ने० जानना जा० यात वा० प्रासादावतंसक ॥ १५॥ स० शक्र के वे० वैश्रमण को इ० ये दे० देव आ० आज्ञा उ० उपपात व० पचन नि० निर्देश में चि० रहते हैं वे० वैश्रमण कायिक वे वैश्रमण देव कायिक सु० सुवर्ण कुमार सु० सुवर्ण कुमारिका दी० द्वीपकुमार दी. द्वीप कुमारी का दि० दिशाकुमार दि० दिशा कुमारी का वा० महाविमाणे पं० ? गोयमा ! तस्सणं सोहम्मवडंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा सोमस्स विमाणस्स रायहाणियवत्तव्वया तहा नेयव्वा जाव पासायवडंसया ॥१५॥ सकस्सणं वेसमणस्स इमे देवा आणाउववायवयणनिदेसे चिटुंति, तंजहा-वेसमण काइयाइवा, वेसमणदेवकाइयाइवा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा, मण पहाराजा का वल्गु नामक महा विमान कहां है ? अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक A महाविमान की उत्तर में असंख्यात योजन जावे वहां वल्गु नाम का महा विमान आता है. ॐ सब वर्णन सोम महाराजा की राज्यधानी जैसे कहना ॥ १५ ॥ वैश्रमण कायिक, वैश्रमण देवकायिक, 13 सुवर्ण कुमार, द्वीप कुमार, दिशा कुमार व वाणय्यंतर देव व उन की देवियों वैश्रमण महाराजा की पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 388 43800-80 तीसरा शतकका सातवा उद्देशा 48488 oyo Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +2 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * वागव्यतर वा० वाण व्यंतरी जे. जो अ० अन्य त० तैसे स० सब ए. ये त. उस की भक्तिवाले जा०है यावत् चि० रहते हैं ॥ १६ ॥ ज० जम्बद्वीप के मं. मेरु की दा. दक्षिण में जा० जो इ० ये स० उत्पन्न होते हैं तं. वह ज० जैसे अ० लोहे की खान त० चांदीकी खान तं० तांबेकी खान एक ऐसे सी० सीसे की खान दि० चांदीकी खान सु० सुवर्ण की खान र० रत्नकी खान व० वज्र रत्न की खान व० द्रव्य वृष्टि हि० चांदी सु० सुवर्ण की वर्षा र० रत्न व० वन आ० आभरण प० पत्र पु० पुष्प फ० फल बी० बीज म० माला व० वर्ण चु० चूर्ण ग. गंध व. वस्त्र की वा० वर्षा हि हिरण्य की बु. वृष्टि सु० सुवर्ण दीवकुमारीओ; दिसाकमारा, दिसाकमारीओ, वाणमंतरा, वाणमंतरीओ, जेयावण्णे तहप्पगारा सव्वेते तब्भत्तिया जाव धिटुंति ॥१६॥ जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुप्पजति. तंजहा-अयागराइवा, तउयागराइवा, तंबागरांइवा, एवं सीसागराइवा, हिरण्ण सुवण्ण रयण वइरागराइवा, वसुहाराइवा, हिरण्णवासाइवा, मुवण्णवासाइवा, रयण-वइर-आभरण-पत्त-पुप्फ-फल-बीय-मल्ल-वण्ण-चुण्ण-गंध-वत्थआज्ञा, निर्देश व उपपात में रहते हैं उन की सेवा भक्ति करते हैं यावत् उनका भार्या समान कार्य करते हैं। ॥ १६ ॥ जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण में लोहे की खान, ताम्बे की खान, सीसे की खान, हिरण्य [चांदी] की खान, सुवर्ण की खान, रस्न, वज्र, आभरण, पत्र, पुष्प, फल, बीज, माल्य, वर्ण, चूर्ण, काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Tamannaanawaranan -TV: Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.2 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 380 की र० रत्न व० वज्र आ० आभरण ५० पत्र पु० पुष्प फ० फल बी० बीज म० माल्य व० वर्ण गं गंध व० वस्त्र भा० भाजन की बु० वृष्टि खी० क्षीर की वु० वृष्टि सु० सुकाल दु. दुष्काल अ० अल्पर्ध्य म014 महर्घ्य सु० सुभिक्ष दु. दुर्भिक्ष क० क्रय वि० विक्रय स० सनिधि सं० संचय नि० निधि नि० निधान चि० बहुत काल के पो० जीर्ण ५० रहित सा. स्वामीवाले ५० सेवक रहित प० मार्ग रहित ग० गोत्रा वासाइवा, हिरण्णवुट्ठीइवा, सुवण्ण-रयश-बइर-आभरण-पत्त-पुप्फ फल-बीय-मल्लवण्ण-गंध-वत्थ भायण-बुट्ठीइवा, खीरबुट्ठीइवा-सुयालाइवा, दुक्कालाइवा, अप्पुग्धाइवा, महग्घाइवा, सुभिक्खाइवा दुब्भिक्खाइवा, कयविक्कयाइवा, सन्निहीइवा, सन्निचयाइवा, निहीइवा; निहाणाइवा, चिरपोराणाई, पहीणसामियाइवा, पहीणसेउयाइवा, पहीणहै मग्गाणिवा, पहीण गोत्तागाराइवा, उच्छिण्ण सामियाइवा, उच्छिण्णसेउयाइवा, उच्छिन्नगोत्तागाराइवा, सिंघाडग-तिग - चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु, नगरगंध व वस्त्र की वर्षा, हिरण्य, सुवर्ण, रत्न, वज्र, आमरण, यावत् वस्त्र भाजन की वृष्टि, क्षीर की वृष्टि, go सुकाल, दुष्काल, अल्प मूल्य, बहु मूल्य, सुभिक्ष, दुभिक्ष, क्रयविक्रय, संचय, संग्रह, निधि, निधान, बहुत काल का संचित कियाहुवा द्रव्य, स्वामी रहित बना हुवा द्रव्य, सेवक रहित बना हुवा द्रव्य, नष्ट मार्ग, नष्ट गोत्राकार, विच्छिन्न स्वामी, विच्छिन्न सेवक, विच्छिन्न गोत्राकार वैसे ही शृंगाटक के आकार में, तीसरा शतक का सातवा उद्देशा 8 भावार्थ 4880% 48 .. Iy Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गार रहित उ० विछिन्न स्वामी वाले सिं० शंगाटक ति० तीन च० चौक च० चच्चर च० चउमुख म० महापथ प० पथ में न० नगर की मोरी में सु० श्मशान में गि० पर्वत के० गुफा सं० शान्ति स्थान से शौलोपस्थान भ० भवन गृहमें स० रखा हुवा चि० रहता है ण नहीं ता० उसे स. शक्र दे० देवेंद्र दे HE देवराजा का वे० वैश्रमण म. महाराजा अ० अज्ञात अ० अश्रुत अ० अजान अ. अविज्ञात ॥ १७ ॥ ते० उन बे० वैश्रमण कायिक दे देवों को स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा वे० वैश्रमण को इ० ये निद्धमणेसुवा, सुसाण गिरि कंदर संति सेलोवट्ठाण भवणगिहेसु सण्णिक्खित्ताई चिटुंति, ण ताई सक्कस्स दविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारण्णो अण्णाया अदिट्ठा, अस्सुया, अम्मुया, अविण्णाया, ॥ १७ ॥ तेसिंवा वेसमणकाइयाणं देवाणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, भावा. तीन रस्ते मीले वहां, चौक, चचर, चउमुख, महापथ, राजमार्ग, नगर की नालियों में, श्मशान, गिरि, गुफा, शान्तिगृह, शैलोपस्थान, व भवनगृहमें रखाहुवा द्रव्य वगैरह होते हैं वे शक्र देवेन्द्रके वैश्रमण महा राजा से अज्ञात, अदृष्ट, अशृत, अविज्ञात नहीं हैं. वे सब बातों जानते हैं ॥ १७ ॥ पूर्णभद्र, माणभद्र, 10 शालिभद्र, सुवर्णभद्र, शक्ररक्ष, पूर्णरक्ष, सर्वाण, सर्वर्यश, सर्व कार्य समिद्ध, अमोध अशान्त वगैरह। मुनि श्री अमोलक ऋापनी +8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी -* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8 शब्दार्थ दे०देव अयथाअपत्य. अ.अभिज्ञात हो० हैं पु०पूर्णभद्र मा० माणिभद्र साशालिभद्र सु०सुमन भद्र च० चक्र । रक्ष पु० पूर्णरक्ष स० सर्वाण स० सर्व यश स० सर्व कामसिद्ध अ० अमोघ अ० अशान्त सशक्र दे. देवेन्द्र IV. देवराजा की वे वैश्रमण म० महाराजा की दो टोपल्योपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी अ० यथा । अपत्य अ० अभिज्ञात दे देवों की ए० एक प० पल्योपम की ठि० स्थिति प०प्ररूपी ए० यह म०महर्दिक जा० यावत् वे वैश्रमण म. महाराजा से० ऐसे ही भ० भगवन् ॥ ३ ॥ ७॥ = तंजहा-पुण्णभद्दे, माणिभदे, सालिभद्दे, सुमणभद्दे, चक्करक्खे, पुण्णरक्खे, सव्वाणे, सव्वजसे, सव्वकाम समिडे, अमोहे, असंते, ॥ सक्कस्सणं देविंदस्स देवरणो वे. समणस्स महारण्णो दो पलिओवमाइं ठिई प० ॥ अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता ए महिड्डीए जाव वेसमणे महाराया. सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तइयरूर सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ७ ॥ * भावार्थ वैश्रमण महाराजा को अपत्यवत् विनय करनेवाले देवों हैं. उन की दो पल्योपम की स्थिति कही है और अपत्य देवों की एक पल्योपम की स्थिति कही है. अहो गौतम ! यह वैश्रमण की ऋद्धि यावत् महानु-37 भाग का वर्णन कहा ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! आप जैसे फरमाते हो वैसे ही हैं. यह तीसरा शतकका सातवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥७॥ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 488 तीसरा शतकका सातवा उद्देशा 88 488 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी , रा० राजगृह न० नगर जा० यावत् प० पर्युपासना करते ए० ऐसे व० बोले अ० असुर कुमार भं० . भगवन् दे० देव को क० कितने दे० देव आः आधिपत्य जा. यावत् चि० रहते हैं गो० गौतम द० दश दे देव आ० आधिपत्य जा० यावत् वि. विचरते हैं तं० वह न० यथा च० चमर अ० असुरेन्द्र सो०११ सोम ज० यम व० वरुण वे० वैश्रमण व० बलि व० वैरोचनेन्द्र व० वैरोचन राजा ॥१॥ ना. नाग रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी- असुरकुमाराणं भंते देवाणं कइदेवा आहेवच्चं जाव चिटुंति ? गोयमा ! दसदेवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तंजहाचमरे असुरिंदे असुरराया सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे ॥ बली वइरोयाणंदे वइरोयणराया, सोमे, जमे वरुणे, वेसमणे ॥ १ ॥ नागकुमाराणं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! सातवे उद्देशे में लोकपालों की वक्तव्यता कही. अब इस उद्देशे में देवताओं के स्वामी का कथन करते है राजगृही नगरी में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे. परिषदा वंदन करने को आई, धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस समयमें श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी है ऐसा प्रश्न पूछने लगे कि अहो भगवन् ! असुरकुमार जाति के देवों को कितने देव स्वामीपने रहते हैं ? तम ! असुर कुमार जाति के देवों को दश देव स्वामीपने रहते हैं. दक्षिण दिशा के चमर नामक अमुर का राजा असुरेन्द्र और सोम, यम, वरुण व वैश्रमण यह चार उन के लोकपाल. उत्तर दिशा के, * प्रकाशक-राजाचहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रपादजी * भावाथ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य कुमार की पु० पृच्छा गो० गौतम द० दश दे० देव आ० आधिपत्य जा० यावत् वि. विचरते हैं ध० 188 धरण ना० नागकुमारेन्द्र ना० नाग कुमार राजा का कालवाल को० कोलवाल सं० शंखवाल से० शेलवाल भू० भूतानेन्द्र ज. जैसे ना० नागकुमारेन्द्र की ए० इस व० वक्तव्यता से ए० यह ए. ऐसे इ० इनका ने० जानना ॥ २ ॥ मु० सुवर्ण कुमार का वे० वेणुदेव वे० वणुदाल चि० चित्र वि० विचित्र दसदेवा आहेवच्चं जाब विहरंति तंजहा-धरणे, नागकुमारिंदे, नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले ॥ भूयाणिंदे नागकुमारिंदे नागकुमारराया कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले ॥ जहा नागकुमारिंदाणं एयाए वत्तव्वयाए, एतं एवं इमाणं नेयव्वं ॥ २ ॥ सुवण्णकुमाराणं वेणुदेवे, वेणुदाली, चिते, विचित्ते । बलि नायक वैरोचनेन्द्र और उन के सोम, यम, वरुण व श्रमण नामक लोकपाल यह दश हुए ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! नाग कुमार देव के कितने अधिपति देव कह हैं? अहो गौतम ! दश आधिपति देव कहे हैं. दक्षिण दिशा के धरण नामक नाग कुमारेन्द्र और उन के कालवाल, कोलवाल, संखवाल व से-है otoलवाल यह चार लोकपाल; और उत्तर दिशा के भूतानेन्द्र व उन के कालवालादि चार लोकपाल मीलकर दश हुए ॥ २ ॥ सुवर्ण कुमार को दश देव अधिपतिपना करनेवाले हैं. वेणुदेव और वेणुदाल ये दोनों पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगते) सूत्र 4884 3*3:0% तीसरा शतकका आठवा उद्देशान - Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी चि० चित्रपक्ष वि० विचित्राक्ष वि० विद्युत्कुमार को ह० हरिकंत ह० हरिसिंह प० प्रभ सु० सुप्रभ प० प्रभकान्त सु० सुप्रभकान्त ॥ ४ ॥ अ० अग्निकुमार को अ० अग्निसिंह अ० अग्निमानव ते ० तेउ ते० तेउ (सिंह ते ० तेउकान्त ने० तेउप्रभ || ५ || दी ० द्वीप कुमार को पु० पूर्ण व० वसिष्ठ रू० रूप रू० रूपांश रू० रूपसिंह रू० रूपप्रभ || ६ || उ० उदधिकुमार को ज० जलकान्त ज० जलप्रभ ज० जल ज० जल चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे ॥ ३ ॥ विज्जुकुमाराणं- हरिकंते, हरिस्सहे. पभे, सुप्पभे, भकंते, सुप्पभते ॥ ४ ॥ अग्गिकुमाराणं- अग्गिसीहे, अग्गिमाणवे, तेउ, तेउसीहे, तेउकंते, तेउप्पभे ॥ ५ ॥ दीवकुमाराणं पुण्ण वसिट्ठ रूय, रूयंस, रूयसीह, रूयप्पभा ॥ ६ ॥ उदहिकुमाराणं जलकंत, जलप्पभ, जल, जलरूय, जलकंत, इन्द्र और प्रत्येक के चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष व विचित्र पक्ष ये चार लोकपाल कहे हैं ॥ ३ ॥ विद्युत् कुमार को दश देव अधिपतिपना करनेवाले हैं. हरिकंत हरिसिंह ये दो इन्द्र और प्रत्येक की प्रभ, सुप्रभ, प्रभकान्त, सुप्रभकान्त ये चार २ लोकपाल मीलकर दश हुए ॥ ४ ॥ अग्निकुमार को अग्निसिंह व अने मानव ये दो इन्द्र और उन के तेज, तेजसिंह, तेज कान्त व ते प्रभ ऐसे चार २ लोकपाल कहे हैं ॥ ५ ॥ द्वीप कुमार को पूर्ण व वशिष्ट ऐसे दो इन्द्र और उन के रूप, रूपॉश, रूपसिंह व रूपपथ ऐसे चार २ * लोकपाल || ६ || उदधि कुमार के जलकान्त और जलप्रभ ऐसे दो इन्द्र उन के जल, जलरूप, जलकांत व * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ५८६ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ब्दार्थ 28 8 पंचमांग वाह पण्णत्ति (भगवनी) रूप ज. जलकान्त ज० जलप्रभ ॥ ७ ॥ दि० दिशांकुमार को अ० अमितगति अ० अमितवाहन तु०११ त्वरितगति खि० क्षिप्रगति मी० सिंहगति सी० सिंह विक्रमगति ॥८॥ वा. वायुकुमार को बे० लंब 40 प्रभंजन का काल म० महाकाल अं० अंजन रि०रिष्ठ ॥ ९ ॥ थ० स्थनिन कुमार को घो० घो म० महाघोष आ० आवर्त वि. व्यावर्त नं नंदियावर्त म० महानंदियावर्त ऐ. ऐसे भा० कहना ज० अ० असुरकुमार को ॥ १० ॥ पि० पिशाच की पु० पृच्छा गो• गौतम दो० दो दे० देव आ० आधि जलप्पभा ॥ ७ ॥ दिसाकुमाराणं अमियगई, अमियवाहणे, तुरियगई, खिप्पगई, सीहगई, सीहविक्कमगई ॥ ८ ॥ वाउकुमाराणं बेलंब, पभंजण, काल, महाकाल, अंजण, रिट्ठा, ॥ ९ ॥ थणियकुमाराणं घोस, महाघोस, आवत्त, वियावत्त, नंदि यावत्त, महानंदियावत्ता एवं भाणियब्वं ॥ जहा असुरकुमाराणं ॥ १० ॥ सोमेय. जलप्रभ एसे चार २ लोकपाल कहे हैं. ॥७॥ दिशा कुमार को अमितगति अमितमाहन ऐसे दो इन्द्र उन के इसरित गति, क्षिप्रगति, सिंहगति व सिंह विक्रमगति ऐसे चार २ लोकपाल हैं ॥८॥ वायकुमार को वेलम्ब व अभंजन एसे दो इन्द्र और उन के काल, महाकाल, अंजन व रिष्ट ऐसे चार २ लोकपाल ॥९॥स्थनित कुमार के घोष व महाघोष ऐसे दो इन्द्र और आवर्त, वियावर्त, नंदियावर्त व महानंदियावर्त ऐसे चार २ लोकपाल इस तरह भुवनपति के२०इन्द्र व८०लोकपाल मालकर १०० हुए. ॥१०॥ सोम नामक लोकपाल का नाम कहते तीसरा शतकका आठवा उद्देशा भावार्थ 48 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ शब्दार्थ पत्य जा० यावत् वि० विचरते हैं का काल म० महाकाल मु० सुरूा ५० प्रतिरूप पु० पूर्णभद्र अ०. ०७ देवपत्ति मा० माणिभद्र मी० भीम त० तैसे म० महाभीम किं० किन्नर किं० किपुरुष स. सत्पुरुष म02 महापुरुष अ. अतिकाय म० महाकाय गी० गीतरति गी० गीतयश ऐ० ऐसे वा० वाणव्यंतर ॥ १२ ॥ कालवाले, चित्त, पभ, तेओ, तहरुवचेव, जल, तहतुरियगतिया काल, आवत्त पढमाओ ॥ ११ ॥ पिसायकुमाराणं पुच्छा ? गोयमा ! दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तंजहा-कालेय, महाकाले , सुरूव, पडिरूव ; पुण्णभद्देय, अमरवइ, माणिभदे, भीमेय तहा महाभीमे ॥१॥ किंनर किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महा पुरिसे । अइकाय महाकाए-गीयरई चेवगीयजसे एए वाणमंतराणं ॥१२॥ जोइसियाणं देभावार्थ १ सोम, २ कालबाल ३ चित्र ४ प्रभ, ५ तेउ, ६ रूप ७ जल ८ त्वरितगति ९ काल व १० आवर्त ॥११॥ अब व्यंतर जाति के देवता का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! पिशाच जाति के देव को कितने - देव अधिपति हैं ! अहा गौतम : दो देव अधिपति हैं काल व महाकाल. ऐसे ही भूत के दो देव रूप, प्रतिरूप, यक्ष के दो देव पूर्णभद्र, मान भद्र, राक्षस के दो देव भीम, महाभीम, किन्नरजाति के दो देव " किन्नर, किंपुरुष, किं पुरुष के दो देव सत्पुरुष महापुरुष; महोरग के दो देव अतिकाय, महाकाय%3; * गंधर्व के दो देव १ गीतरति २ गीतयश यह आठ व्यंतर जाति के देव कह; और अन्यभी आठ व्यंतर अनुवादक-बालब्रह्मचारामुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? *.प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.3 पंचमांग विवाह पम्पत्ति (भगवती) मूत्र जो ज्योतिषियों के दो दो दे देव ० चंद्र सू० सूर्य ॥ १३ ॥ सो• सौधर्म ई० ईशान में क.. कितने दे. देव आ० आधिपत्य वि. विचरते हैं गो० गौतम द० दशदेव वि० विचरते हैं स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा सो० सोम ज० यम ब० वरुण वे० वैश्रमण ई० ईशान ए. यह व० बक्तव्यता स० १ वाणं दो देवा आहेवचं जाब विहरति. तंजहा. चंदे, सृरेय ॥ १३ ॥ सोहम्भीसाणे सुणं भंते ! कप्पेसु कहदेवा आहेवचं जाव विहरंति ? गोयमा ! दसदेवा जाव । विहरंति, तनहा-सके देविंदे देवराथा, सोमे, जमे, वरुणे वेसमणे ; ईसाणे देविंदे देवराया सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे ॥१४॥ एसा वत्तन्वया सव्वेसुवि कप्पेसु एएचेव । जाति के देव काते हैं. आणपनी, पाणपत्री, इसीवाय, भुइवाय, कन्दिय, महाकन्दिय, कोहंग व पयंग 1 देव. इन आठों को दो २ देव अधिपतिपना करते हैं. उन के नाम सन्निहित, सामानिक, घाइ, बधाइ, इसी, इसीवाल, ईश्वर, महेपर, सुबत्य, विशाल, हास, हासरति, सेय, महासेय, पयग, पयगवति. यों सोलह वाणव्यंतर के ३२ देव होते हैं ॥ १२॥ ज्योतिषी देव को दो देव अधिपतिपना करते हैं. चन्द्र व सूर्य ॥ १३ ॥ सौर्य ईशान देवलोक में दश देव अधिपतिपना करते हैं. शक्र देवेन्द्र, ईशान देवेन्द्र है। और उन के सोम, यम, वरुण व पैश्रमण नामक चार २ लोकपाल ॥ १४ ॥ तीसरे चौथे देवलोक में दश देव अधिपति हैं. सनत्कमारेन्द्र व माहेन्द्र और उन के सोमादि चार २ लोकपाल. ऐसे ही पांचवे छठे तीसरा शतक का आठवा उद्देशा भावार्थ 3 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सब में क० देवलोक में ए० यही भा० कहना जे० जो ई० इन्द्र ते ० वे भाव कहना ॥ ३ ॥ ८ ॥ रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐसा ६० बोले क० कितने भ० भगवन् ई० इन्द्रिय विषय प० कहे गो० गौतम पं० पांच प्रकार के ई० इंन्द्रिय विषय प० कहे सं० वह ज० जैसे सो० श्रोतेन्द्रिय विषय जी० भाणियन्वा ॥ जे य इंदा ते भाणियन्वा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तईयसए अमोसो सम्मत्तो ॥ ३॥ ८ ॥ * * ** रायगिहे जाव एवं वयासी कइविणं भंते! इंदिय विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे इंद्रियविष पण्णत्ते, तंजहा- सोइंदिय विसए, जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ { सातवे आठवे, नववे दशवे, अग्यारहवे, बारहवे तक का जानना. } हैं. यह तीसरा शतकका आठवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥ ८ ॥ ÷ राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में भगवंत पधारे. परिषदा वंदने को आई धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर को भगवंत गौतम स्वामीने प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! इन्द्रिय के विषय कितने प्रकार के हैं ? अहो गौतम ! इन्द्रिय के विषय १. श्रोतेन्द्रिय का विषय, चक्षुइन्द्रिय का विषय, घ्राणेन्द्रिय का विषय, रसनेन्द्रिय का पांच प्रकार के हैं. विषय, व स्पर्शेन्द्रिय का विषय. अहो भगवन् ! श्रोतेन्द्रिय का विषय कितने प्रकार का कहा है. अहो गौतम ! श्रोतेन्द्रिय अहो भगवन् ! आप के वचन तथ्य ÷ * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ५९० Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8 ५९१ भाव 42-42 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र जीवाभिगम में जो० ज्योतिषि का उ० उद्देशा ने० जानना अ० अपरिशेष ॥ ३ ॥९॥ * रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐसे ब० बोले च० चमर का भं० भगवन् अ० असुरेन्द्र अ. असुर | नेयम्वो अपरिसेसो । सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तईयसए नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥३॥९॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-समिया, चंडा, जाया.. का विषय दो प्रकार का कहा है. सुशब्द व दुशब्द, ऐसे ही पांचो इन्द्रियों के विषय जानना. इस का विस्तार पूर्वक कथन जीवाभिगम सूत्र के ज्योतिषी उद्देशे में से जानना. अहो भनवन् ! आप के वचन यथातथ्य हैं. यह तीसरा शतकका नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥९॥ E राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदने । को आई धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस समय में गौतम स्वामीने वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न पूछा कि अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र को कितनी परिषदा कही हैं ? अहो मौतम ! उन को समि-31 या, चंडा व जाया ऐसी तीन परिषदा कहीं हैं. समिया आभ्यंतर परिषदा है, इन के देव बोलाये आते हैं.13 - विना बोलाये नहीं आते हैं. चंडाबीचकी परिषदा है, इन के देव बोलाये, विना बोलाये आते हैं. नाया वाहिरकी परि *86020 तीसरा शतक का दशवा उद्देशा Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 22 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋपिनी राजा की क० कितनी प. परिषदा ५० कही गो० गौतम त तीन ५० परिषदा प० कही २० वह ज०. जैसे स. समिता ५० चंडा जा• जाया ए. ऐसे ज० जैसे अ० अनुक्रम से जा. यावत् अ० अच्युत । कल्प ॥ ३ ॥१०॥३॥ एवं जहाणुपुवीए जाव अच्चुओ कप्पो । सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तईय सए दसमो है उहेसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥१०॥ तईयं सयं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ * * पदा है. इन के देव विना बोलाये कार्य करने के अवसर पर हाजर रहते हैं. समिया के चौवीस हजार, चंदा के अठावीस हजार व जाया के ३२ हनार देव कहे हैं. ऐसे ही तीन प्रकार की देवी की परिषदा कही है. उस में समिया की ३५० चैहा की ३०० और जाया की २५० देवियों कही हैं. आभ्यंतर परिषदा की देवियों का अढाइ पल्योपम का, मध्य परिषदा की देविषयों का दो पल्योपम का और बास परिषदा की देवियों का ॥ पक्ष्यापम का आयष्य जानना. असे असुरेन्द्र की तीन परिषदा* कही वैसे ही घलेन्द्र की तीन परिषदा जानना. ऐसे ही अच्युतेन्द्रतक के चौसठ इन्द्र की तीन २ परिषदाषों का अधिकार जानना. उन का आयुष्य वगैरह सब अधिकार जीवाभिगम सूत्र से जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. ऐसा कहकर तप व संयम से आत्मा को भावते हुए विचरने लगे. यह तीसरा शतकका दशवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥ १० ॥ तीसरा शतकका भावार्थ संपूर्ण हुवा ॥ ३ ॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ .. * चतुर्थ शतकम्. * maamana च० चमर वि० विमान से च० चार हो. होते हैं रा० राज्यधानी में ने नारकी ले लेश्या से ६० दश उ० उद्देशा च० चौथे शतक में ॥ १ ॥ रा० राजगृह न० मगर में जा. यावत् ए. ऐसा व. बोले 1 . ईशान दे० देवेन्द्र दे. देवराजा को क.कितने लो० लोकपाल गो० गौतम च. चार लो. तं बह ज जैसे सो० मोम ज० यम २० वरुण ३० वैश्रमण ए० इन भं० भगवन् लो०लोकपालोंका क. चत्तारि विमाणेहि, चत्तारिय हौति रायहाणीहिं । नेरइए लेस्साहिय, दस उद्देसा चउत्थसए॥ ॥ रायगिहे गगरे जाव एवं वयासी- ईसाणस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरणो कइलोगमला पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तंजहाभावार्थ : तीसरे शतक में देवता का अधिकार कहा है. इस में भी देवता का अधिकार कहते हैं. इस शतक के दश उद्देशे कहे हैं. पहिले चार उद्देशे में ईशानेन्द्र के चार लोकपालों के चार विमानोंका कथन है. पांचवे, छट्टे, सातवे व आठवे में उन की चार राज्यधानियों का कथन है. नववे में नरक के जीवों का और दशवे 17 में लेश्या का वर्णन है. ॥ १॥ राजगृह नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर ... स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को आई धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस समय में श्री श्रमण भगवंत का 48 पंचमांग विवाह पण्णति ( 883 चौथा शतकका पहिला उद्देशा 8948 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कितने वि० विमान प० प्ररूपे गो० गौतम च० चार वि० विमान ५० प्ररूपे सु० सुमन स० सर्वतोभद्र । व० वल्गु सु० सुवल्गु ॥ २॥ क० कहां ई. ईशान के सो० सोम म० महाराजा का सु. सुमन म० महाविमान ५० प्ररूपा गो० गौतम जं. जम्बूद्वीप में मं० मे प० पर्वत की उ० उत्तर से इ० इस र. रत्न प्रभा पु. पृथ्वी से जा० यावत् ई० ईशान क. देवलोक में त० वहां पं० पांच ब० अवतंसक अं० अंका सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे ॥ एएसिणं भंते ! लोगपालाणं कइ विमाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता तंजहा-सुमणे, सव्वओभदे, वग्गू, सुवग्गू ॥२॥ कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सुमणेनामं महाविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे नामं कप्पे पण्णत्ते ? तत्थणं जाव पंचवडंसया प० तं, अंभावार्थ महावीर स्वामी को श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न पुछा कि अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र को कितने लोकपाल कहे हैं ? अहो गौतम ! सोम, यम, वरुण व वैश्रमण ऐसे चार लोकपाल कहे हैं. अहो भगवन् ! उन के } | Eविमान कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! उन के चार विमान कहे हैं. सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु " ॥२॥ अहो भगवन् ! ईशान देवेन्द्र का सोम नामक महा विमान कहां है ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप के | मेरु पर्वत की उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी से अनेक सो योजन उपर चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारे रहे श्री अमोलक ऋषिजी ने -बालब्रह्मचारीमुनि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ २००० पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र वतंसक फ० स्फटिकावतंसक २० रत्नावतंसक जा० जातिरूपावतंसक म०मध्य में ई० ईशनावतंसक म० महाविमान पु० पूर्व में ति० तीच्छे अं० असंख्यात जो० योजन वी० व्यतिक्रान्त होते ए० यहां ई० ईशान दे० देवेन्द्र दे० देवराजा का सो० सोम म० महाराजा का सु० सुमन म० महाविमान अ० अर्ध तेरह जो० { योजन ज० जैसे स० शुक्र की व वक्तव्यता त तीसरे स० शतक में त० तैसे ई० ईशान की भी जा० १०० कवर्डस, फलिह वर्डसए, रयण वडंसए, जाइरून वर्डसए, मज्झे तत्थ ईसाण वर्डस || तत्थणं ईसाणं वडंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरिय मसंखेज्जाई जोयणाई वा एत्थणं ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सुमणे नामं महात्रिमाणे पण्णत्ते अद्धतेरस जोयण जहा सक्कस्स वत्तव्वया, तईयसए, तहा दुवे हैं. उन से क्रोडा क्रोड योजन ऊंचे ईशान नामक दूसरा महा विमान रहा हुवा है. उस में पांच अब(तंसक (मुकुट समान) विमान हैं. १ अंकावतंसक, २ स्फटिकावतंसक ३ रत्नावतंसक ४ नातिरूपावतंसक और मध्य में ईशानावतंसक उन ईशानावतंसक से पूर्व में असंख्यात योजन तीर्च्छा जावे वहां ईशानेन्द्र के सोम महाराजा का सुमन नामक महा विमान कहा है. वह साढ़े बारह योजन का लम्बा चौडा यावत् सब वक्तव्यता शक्रेन्द्र के सोम महाराजा जैसे कहना. जैसे ईशानेन्द्र के सोम महाराजा की वक्तव्यता कही वैसे ही यम का स्फटिकावतंसक, वरुण का रत्नावतंसक, व वैश्रमण का जातरूपावतंसक का जानना - { 44 चौथा शतक का पहिया उद्देशा ५९५ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8+ aaaaaaaaaaaaaamanxnnnn यावत् अ० अर्थनीय स. संपूर्ण च० चार लो० लोकपालों का वि० विमान २ का उ. उद्देशा च० चार वि० विमान के चा० चार उ० उद्देशे अ० अपरिशेष न विशेष ठि० स्थिति में णा० नाना प्रकार आ० आदि दु० दो ति० तीन भाग ऊ० कम ५० पल्योपम ध० वैश्रमण की हो. है दो दो स• तीन भाग व० वरुण ५० पल्यापम अ. अपसवत् दे० देवोंकी ॥४॥४॥ ईसाणस्सवि जाव अच्चणिया सम्मत्ता चउण्हविलो गपालाणं विमाणे २ उद्देसओ. चउसुवि विमाणेमु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा णवरं ठिईए नाणत्तं, आइ दुय ति भागूणा पलिया धणयस्स होति दो चेव ॥ दोसइ भागा वरुणे पलिय महावच्च देवाणं ॥ १ ॥ चउत्थसए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ ४ ॥ * . * रायहाणिसुवि चत्तारि उद्देसया भाणियव्वा । जाव वरुणे महाराया ॥ चउत्थसए मात्र स्थिति में भिन्नता है. सोमवयम महाराजा की स्थिति त्रीभाग कम दो पल्योपम, वैश्रमण की दो पल्योपम की, और वरुण की स्थिति त्रीभाग अधिक दो पल्योपम जानना. इन के अपत्य देवों की एक पल्योपम की स्थिति जानना. यह चौथे शतक के चार उद्देशे पूर्ण हुने ॥ ४ ॥ ४ ॥ राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार कर श्री मौतम प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालाप्रसादजी भावार्थ 1 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48+ रा० राज्यधानी में च० बार उ० उद्देशा भा० कहना जा० यावत् व० वरुण म० महाराजा ||२४||८|| ने० नारकी ने० नारकी में उ० उत्पन्न होते हैं अ० नारकी से, अन्य प० पनत्रणा में ले लेश्या पद अटुमो उसो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ ८ ॥ X X X मेरइएणं भंत ! नेरइएस उववज्जइ, अनेरइएणं भंते! नेरइएस उवत्रजइ ? पण्णवण एवि लेस्साए तईओ उद्देसओ भाणियन्त्रो जावं नाणाइं चउत्थसए नवमो {स्वाभी पूछने लगे कि अहो भगवन ! ईशानेन्द्र के सोम महाराजा की सोमा नामक राज्यवानी कहां है ? { अहो गौतम ! सुमन नामक महा विमान की नीचे वगैरह सब वर्णन शक्रेन्द्र के सोम महाराजा जैसे जानना. यों चारों राज्यधानी अपने २ विमान नीचे तीच्छे लोक में रही हुई हैं. यों चारों राज्यधानी के चार उदेशे भिन्नर कहना. यह चौथा शतकका पांचवा, छठा, सातवा, व आठवा ऐसे चार उद्देशे पूर्ण हुए ॥ ४॥ ८ ॥ शरीर करनेवाले होते हैं. वैसे ही नरक के जीव भी वैक्रेय शरीर करनेवाले होते हैं. इसलिये आगे नरक का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! नरक के { आयुष्यका बंध करनेवाले नरक में उत्पन्न होते हैं या अन्य जीव नरक में उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम जिनोंने नरक के आयुष्य का बंध किया है वेही नरक में उत्पन्न होते हैं; परंतु अन्य जीव नरक में नहीं {उत्पन्न होते हैं. जो नरक में उत्पन्न हुवे हैं उन को आयुष्य बंध से छोडाने को कोई भी समर्थ नहीं है। उक्त उद्देशे में देवता का अधिकार कहा. देव वैक्रेय 44843 चौथा शतक का नववा उद्देशा Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५९८ शब्दार्थ का त लीसरा उ० उद्देशा भा० कहना जा० यावत् ना० ज्ञान ॥४॥९॥ से० अथ क• कृष्ण लेश्या वाला नी• नील सेश्या को प. प्राप्त कर के त० तद्रूर ता• तवर्णपने सूत्र | उद्देसो सम्मत्तो ॥ ४ ॥ ९॥ * * से नणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए एवं चउत्थो यावत् कृष्ण लेश्यावाले जीव नीची दो नरक में उत्पन्न होते हैं वगैरह सत्र अधिकार पनरणा सूत्र जैसे भावार्थ कहना. यह चौथा शतक का नवा उद्देशा पूर्ण हुना ॥ ४ ॥९॥ * E उस उद्देशे में लेडयाका अधिकार कहते हैं, अहा भगवन ! कष्ण लेश्याबाला नील लेण्या के दव्य ग्रहण कर यदि काल करेतो क्या वह नील लेश्या में उत्पन्न होता है ? हां मौतम ! जिस लेशा के पुद्गल परिणमा कर काल करता है उसी लेश्या में उत्पन्न होता है. अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाला नील लेश्या पने वारंवार परिणमता है तो किस प्रकार वह परिणमता है ? अहो गौतम ! जैसे दूध तकर (छाछ ) रूप परिणमता है, अथा शुद्ध श्वेत वस्त्र को जैसे रंग चढावे वैसे रूपपने परिणमता है . इसी प्रकार कृष्ण जलेश्या बोला नीललेश्या पने परिणमता है, मील कापोत पने, कापोत तेजोपने, तेजो पनपने, व पद्म शुक्ल लेश्या पने परिणमे. अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्या का वर्ण कैसा है ? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्या का वर्ण मेघ की घटा समान श्याम, नील लेश्या का तोते के रंग समान, कापोत लेश्या का कबुतर जैसा, 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी • प्रकाशक-राज्यबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 4. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 480 * ऐसे चर चौथा उ० प णा में ले० लेश्या पद में ने० नानना जा० यावत् परिणाम व० वर्ण र० रस गं० गंध सु द अ० अप्रशस्त सं० संक्लिष्ट उ० ऊष्ण ग० गनिपरिणाम प० प्रदेश ओ० अब उद्देसओ पण्णवणाए चेव लेस्सापदे नेयम्बो । जाव परिणाम वण्ण रसगंध सुद्ध अपसत्थ संकिलिड्डुण्हा, गइ परिणाम पएसोगाहण वग्गणाट्ठाण मप्पबहुं । सेवं भंते । तेजो लेश्या का उदित होता मूर्य जैसा, पद्म लेश्या का हलदी जैसा व शुक्ल लेश्या का चन्द्र जैसा श्वेत वर्ण है. अब छ लेश्या के रम कहते हैं. कृष्ण लेश्या का निम्ब वृक्ष जैसाकटु, नील लेश्या का नागर जैसा कटु, कापोत लेश्या का कच्चे बोर जैसा कपायला तेजो लेश्या का आम्र फल जैसा ग्वटमिठ पद्म लेश्या का खार क जैसा मधुर और शुक्ल लेश्या का खांड सक्कर जैसा मिष्ट. अब गंध कहते हैं. कृष्ण, नील व कापोत लेश्या के पुद्गलों की मृतक देहकी गंध समान गंध, और तेजो, पन व शुक्ल की कुसुम समान. पहिली तीन लेश्या अशुभं है और पीछे की तीन लेश्या शुभ है. पहिले की तीन लेश्या संक्लिष्ट हैं और पीछे की तीन लेश्या संक्लिष्ट नहीं हैं. पहिले की तीन लेश्या शीत व रूक्ष हैं, और पीछे की तीन लेश्या ऊष्ण व स्निग्ध हैं. पहिली तीन लेश्या दुर्गात में लेजानेवाली हैं, और पीछे की तीन लेश्या सुगति में लेजाने वाली है. जघन्य, उत्कृष्ट व मध्यम तथा उत्पातांदि भेद से परिणाम विचारना. सब लेश्या के अनंत प्रदेश ३. प्रत्येक प्रदेश असंख्यात प्रदेशावगाढ है. कृष्ण लेश्या योग्य पुद्गल वर्गणा अनंत हैं वह उदारिक चौथा शतक का दशवा उद्देशा Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी + गाहन्त वः वर्गणा ठा० स्थान अ० अल्पा बहुव ॥ ४ ॥ १० ॥ ४ ॥ भंतेति ॥ उत्यस दसमो उद्देसो ॥ ४ ॥ हैं. इसा १ ॥ चउत्थं सर्प सम्पर्क ॥ ४ ॥ (जैसे जानमा तारतम्यता की विचित्रता से अध्यवसाय निबन्ध कृष्णादि द्रव्य समुह {लिये अध्यवसाय स्थानक असंख्यात हैं. अल्पाबहुत्व सब से थोडा जघन्य कापोत लेत्रमा के इन्सर्ग) {स्थान, उससे जघन्य नील लेश्या के द्रव्पार्य स्थान असंख्यात मुने, उस से अन्य कृष्ण लेया के द्रव्यायें स्थान अख्यात गुने, उस से जघन्य तेजोलेश्या के द्रव्यार्थ स्थान असंख्य जुनेो उस से अयम्य पत्र कालेश्या के द्रव्यार्थ स्थान असंख्यात गुने उस से शुक्ल लेखा के जघन्य पार्क स्थान, असंख्यात गुने. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह कथा शतक का दशवा उद्देशा पूर्ण हुवा, यह चौथा शतक समाप्त हुआ ।। ४ । १० ॥ ४ ॥ & S सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर बाला सुखदेवसहायत्री ज्वालाप्रसादजी * ६०० Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ ॥ पंचम शतकम् ॥ चं० वंश २० सूर्य अ० वायु गं० निः निर्ग्रन्थ रा० राजगृह चं० चपा चं० काल ते ० उस स० समय में चं० चपा ना० नाम की न० पाए, रवि, अनिल, गंठिय सद्दे, छउ, माउ चंदमय दस पंचमम्मि सए ||१|| तेणं कालेणं dora || तीसे पाए नयरीए पुण्णभद्दे नामं चौथे शतक के अंत में लेश्या कही. वह लेश्या लेश्याषन्त ग्रन्थि स० शब्द छ० छन्नस्थ आ० आयुष्य ए० कंपना चंद्र द० दश पं० पाचवे स० शतक में ॥ १ ॥ ते ० उस का० नगरी हो० थी व० वर्णन योग्य ती० उस चं०) एयणं, नियंठे ॥ रायगिहं चंपा तेणं समएणं चंपानामं नयरी होत्था, चेइए होत्था, चण्णओ सामीसपुरुषों को आयुष्य का बंध करती है. { आयुष्य का बंध को क्षय करनेवाला काल है इसलिये पांचवे शतक में काल की वक्तव्यता करेंगे. इस पांचवे शतक के दश उदेशे कहे हैं. प्रथम उद्देशे में चंपा नगरी में सूर्य संबंधि प्रश्न पूछे हैं, दूसरे में वायु संबंधी प्रश्न पूछे हैं, तीसरे में जालग्रन्थिका निर्णय किया है, चौथे में शब्द का निर्णय, पांचने में छद्मस्थ की वक्तव्यता, छठे में आयुष्य के बंध का अधिकार, सातवे में पुद्गल चलने का अधिकार, आठवे में निग्रन्थ पुत्र के प्रश्नोत्तर, नववे में राजगृह नगर का अधिकार व दशवे में चंपा में चंद्रमा संबंध प्रश्न ॥१॥ } ॐ उस काल उस समय में चंपा नामकी नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ सूत्र से जानना. उस चंपा नगरी 44- पंचमाङ्ग विवाह पष्णात्ते ( भगवती ) सूत्र 4 do OYO - पांचवा शतकका पहिला उद्देशा ६०१ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थं । सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्षजी - ०७ स्वामी पु० पधारे जा० यावत् प० परिषदा श्रमण भगवन्त म महावीर के जे० ज्येष्ट चंपा न ० नगरी से पू० पूर्णभद्र चे० उद्यान हो० या सा० प० पीछीगइ ॥ २ ॥ ते० उस काल ते० उस समय में स० अं• शिष्य इं· इन्द्रभूति अ० अनगार गो० गौतम गो० गौत्र से जा० यावत् ए० ऐसे व० बोले जं० जम्बूद्वीप में भं० भगवन् दी ० द्वीप में सू० सूर्य उ० ईशान कौन में उ० उदित होकर पा० अग्नि कौन में आ० जाता है पा० अग्नि कौन में उ० उदित होकर दा० नैऋत्य कौन में आ जाता है दा० नैऋत्य कौन में उ० मोसढे, जाव परिसा पडिगया ॥ २ ॥ तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूईणामे अणगारे गोयम गोत्तेणं जाव एवंत्रयासीजंबुद्दीवेण भंते ! दीवे सूरिया उईणपाईण मुग्गच्छ पाईणदाहिण मागच्छं । { की ईशान कौन में पूर्णभद्र यक्ष का उद्यान था, उस का वर्णन उववाइ सूत्र से जानना. वहां पर तप { संयम से आत्मा को भावते हुवे श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को आई. धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई || २ || उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी के ज्येष्ट | (अंतेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगारने ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य उत्तर पूर्व- ईशान-कौन में उदित होकर पूर्वदक्षिण अनि कौन में क्या अस्त होता है ? अनि कोन में उदित { होकर दक्षिणपश्चिम-नैऋत्य कौन में क्या अस्त होता है ? नैऋत्य कौन में उदित होकर पश्चिमउत्तर * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६०२ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 438 अदित होकर ५० वायव्य कौन में आ० जाता है ५० वायव्य कौम में उ० उदित होकर उ० ईशान} * कौन में आ जाता है है. हां गो० गौतम जं० जम्बूद्वीप में मू० सूर्य उ० ईशान कौन में उ. उदित 4 होकर ना० यावत् उ० ईशान कौन में आ० जाता है ॥ ३ ॥ ज० जब भ० भगवन जं. जम्बूद्वीप में पाईणदाहिण मुग्गच्छ दाहिणपडीण मागच्छंति, दाहिण पडीण मुग्गच्छ पडीणउदीण मागच्छंति, पडीणउदीण मुग्गच्छ उदीचिपाईण मागच्छंति ? हंता गोयमा! जंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया उदीचिपाईण मुग्गच्छ जाव उदीचि पाईण मागच्छंति ॥३॥ जयाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्डे दिवसे भवइ, तयाणं बापम्प कौन में अस्त होता है ? और वायव्य कौन में उदित होकर क्या ईशान कौन में अस्त होता है ? हां गौतम ! जम्बूद्वीप में सूर्य ईशान कौन में उदित होकर अग्नि कौन में अस्त होता है. यावत् वायव्य कौन में उदित होकर ईशान कौन में अस्त होता है * ॥ ३ ॥ यद्यपि सूर्य का सब दिशि में गमन है तथापि प्रकाशके भेद से रात्रि दिन के विभाग किये हैं. अहो भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मेरु से दक्षिण * यहां पर सूर्य का उदय व अस्त देखनेवाले लोकों की विवक्षा से लिया है. अदृश्य सूर्य दीखने में आवे है जब उदय कहाजाता है, और दृश्य सूर्य अदृश्य होवे तब अस्त कहा जाता है. परंतु वास्तविक रीति से सूर्य का 4 उदय अस्त नहीं है. 49480 पांचवा शतक का पहिला उद्देशा 9881 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ #० रू पर्वत के दा० दक्षिणार्ध में दि० दिन भ० होता है त० तब उ० उत्तरार्ध में दि० दिन भ.. होता है. ज. जब उ० उत्तराध में दि• दिन भ० होता है त० तब जं• जम्बूद्वीप के मं० मेरु पर्वत की उत्तरड्डेवि दिवसे भवइ जयाणं उत्तरड्डेवि दिवसे भवइ तयाणं जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स । पव्वयस्स पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवइ जाव राई भवइ ॥ जयाणं भंत ! जंमंदरस्स पबयरस पुरच्छिमेणं दिवसे भवइ, तयाणं पच्चच्छिमेणवि दिवसे भवइ, जयाणं पञ्चच्छिमेणं दिवसे दिन होता है तब मेरु से उत्तर में भी दिन होता है ; और जब उत्तर दिशा में दिन होता है तब या मेरु पर्वत की पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है ? हां गौतम ! मेरु पर्वत की उत्तर दिशा में जब दिन होता है तब पूर्व पश्चिम दिशा में रात्रि होती है. जम्बूद्वीप में दो चंद्र दो मूर्य फीरते हैं. अब जम्बूद्वीप के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम ऐमे चार विभाग करना. जब उत्तर दक्षिण में दोनों सूर्य रहने से दिन होता है तब पूर्व पश्चिम में दोनों सूर्य के अभावसे रात्रि होती है. मेरु पर्वत की पास ९४००१ योजन व एक योजन के दश भाग में का नव भाग इतने क्षेत्र में दिन रहता है और, लवण समुद्र की वाम ९४८६८ और एक योजन के दश भाग में का चार भाग दिन रहता है. मेरु पर्वत की पास ६३२४ योजन और दश के छ भाग रात्रिक्षेत्र होता है और लवण समुद्र की पास ६३२४५ योजन * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादगी * अनुवादक-बालब्रह्मचा Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ | पचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र १ पु. पूर्व में १० पश्चिम रा ० रात्रि भ० होती है ० हॉ० गो• गौतम ज० जब जं० जम्बूद्वीप में दा० दक्षिणार्ध में दि० दिन भ० होता है जा. यावत् रा० रात्रि भ० होती है ॥ ४ ॥ ज० जब भ भगवन् • जम्बूद्वीप में दा० दक्षिणार्ध में उ० उत्कृष्ट अ० अठारह मु० मुहूर्त का दि दिन भ० होता है त तब उ० उत्तर में उ० उत्कृष्ट अ० अठारह मु० मुहूर्त का दि० दिन भ० होता है ज. जब __ भवइ, तयाणं जंबुद्दीवेदीवे मंदरस्स उत्तरदाहिणेणं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबूमंदरस्स पुरच्छिमेणं दिवसे जाव राई भवइ ॥ ४ ॥ जयाणं भंते ! जंबूदीवेदीवे दाहिणड्डे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तयाणं उत्तर जाव उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ ॥ जयाणं उत्तरले उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते व दश भाग में का छ भाग रात्रि क्षेत्र हो. यह दिन के ताप क्षेत्र व रात्रि क्षेत्र की स्थापना कही. जब दिन छोटा होवे तब रात्रिक्षेत्र जितना तापक्षेत्र व तापक्षेत्र जितना रात्रिक्षेत्र नानना. जब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की पूर्व में दिन होता है तब पश्चिम में भी दिन होता है और जब पूर्व पश्चिम में दिन होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के उत्तर व दक्षिण में रात्रि होती है ? हां गौतम ! जब जम्बूद्वीप के पूर्व पश्चिम में दिन होता है तब उत्तर दक्षिण में रात्रि होती है ॥४॥ अहो भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के द-31 क्षिण विभाग में अठारह मुहूर्तका दिन होता है तब उत्तर विभाग में भी अठारह मुहूर्नका दिन होता है। 8.- पांचवा शतकका पहिला उद्देशा 434880 भावा ato Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 उ० उत्तरार्ध में उ० उत्कृष्ट अ० अठारह मु० मुहूर्त का दि० दिन भ होता है त० तब जं० जम्बूद्वीप के मं० मेरु पर्वत की पु० पूर्व में प० पश्चिम में ज० जघन्य दु. द्वादश मु० मुहूर्त की रा० रात्रि भ० होती है हं० हां गो० गौतम ज० जब जा० यावत् दु० द्वादश मुहूर्त की रा० रात्रि भ० होती है ॥५॥ दिवसे भवइ, तयाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं जहणिया दुवालस मुहुत्ता राई भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबू जाव दुवालस मुहुत्ता राई भवइ ॥ ५ ॥ जयाणं भंते ! जंबू मंदरस्स पुरच्छिम उक्कोसए अट्ठारस जाव और जब उत्तर दिशा में अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब क्या पूर्व पश्चिम दिशा में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? हां गौतम ! जब जम्बूद्वीप के उत्तर व दक्षिण विभाग में अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब पूर्व, पश्चिम दिशा में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है = ॥ ५ ॥ अहाँ भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के ___- सूर्य के सब १८४ मांडले हैं इस में से ६५ मांडले जगति सहित जम्बूद्वीप में हैं और ११९ मांडले लवण , समुद्र में हैं. जब सब आभ्यंतर मांडले में सूर्य आता है तब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है. और जब सब है बाहिर मांडले पर सूर्य चलता है तब बारह मुहर्तका दिन होता है, वहां से सूर्य पलटता है तब दूसरे मांडले से प्रत्येक । मांडले पर एक मुहूर्त के एकसठीये दो भाग दिन बढता है. ऐसे १८२ वे मांडले पर छ मुहूर्त दिन बढकर १८ मुहूर्त का दिन होता है. 4.9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमे.लक ऋषिजी. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 । । 4 .. . शब्दार्थ ज. जब भं० भगवन् ज० जम्बू के मेरु पर्वत की पु० पूर्व में अ० अठाश जाध्यावत त० तब भ० भगवन् जं. जम्बुद्वीप के उ० उत्तर में दु० बारह मु० मुहूर्त की रा० रात्रि भरोती है. हां मो० गतम जा. यावत् भ० होती है ॥ ॥ज. जब भ० भगवन जं. जम्बदीमाक्षिणार्ध में अ० अठा गह मु० महतर दि० दिन भ० होता है त० तब उ० उत्तगः अ. अठारह मु० मुहूतातर द दिन भ० होवे पु० पूर्व १० पश्चिम में सा० अधिक दुक वारस मु० मुहर्त रा० रात्रि भ० हाती है ०१ ४ तयाणे भंते ! जंबू उत्तरं दुवालस जाव राई भवइ ? हंता गोयमा ! जाव भवई है ॥ ६ ॥ जयाणं भंते ! जंबू दाहिणड्डे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तयाणं उत्तरड्डे अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जयाणं उत्तरड्ढे अट्ठारस मुहुचाणतरे दिवसे भवइ, तयाणं जंबू मंदर पुरच्छिम पच्चच्छिमेणं साइरेगा दुवालस मुहुत्ता भावार्थ मेरु मे पूर्व दिशा में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब क्या उत्तर दक्षिण में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? हां गौतम ! जब पूर्व पश्चिम में अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब उत्तर दक्षिण में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है. ॥६॥ अहो भगवन् ! जब जम्ब के मेरु की दक्षिण में अठारह मुहूते की अंतर ॐ में दिनहोताहै तब उत्तर में भी इतनाही दिन होता है. जब उत्तर में अठारह मुहूर्त के अंतर में दिन है सब 1 पूर्व पश्चिम में बारह महूर्त से अधिक की रात्रि होती है ? हां गौतम ! जम्बूद्वीप के भेरू से. उत्तर दक्षिण पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) 740पांचवा शतकका पहिला उद्दशा * 4.११ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कहां गो० गौतम ज० जब ज० जम्बूद्वीप जा० जावत् रा० रात्रि भ० होती है ॥ ७ ॥ पूर्ववत् ।। ८ । ए०. ऐसे इ० इस क० क्रम से उ० कहना स० सत्तरह मु० मुहूर्त का दि० दिन ते० तेरह मु० मुहूर्त की रा० रात्रि भ० होती है स० सत्तरह मु० मुहूर्तान्तर दि. दिवस सा०अधिक ते० तेरह मु० मुहूर्त की रा० राई भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबू जाव राई भवइ ॥ ७ ॥ जयाणं भंते ! ६०८ जंबू मंदरस्स पुरच्छिमेणं अट्ठारस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तयाणं पञ्चच्छिमेणं अट्ठारस मुहुनाणंतरे दिवसे भवइ, जयाणं पच्चच्छिमेणं अट्ठारस मुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ तयाणं जंबूमंदरउत्तर दाहिणेणं साइरेगा दुवालस मुहत्ता राई भवइ ?हंता गोयमा! जाव भवइ ॥८॥ एवं एएणं कमेणं उच्चारेयव्वं सत्तरस महत्ते दिवसे, तेरस मुहत्ता राई भवइ ।। सत्तरस मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, साइरेगतेरसमुहुत्ता राई । सोलसमुहुत्ते दिवसे । चोदस महत्ता राई. सोलस महत्ताणंतरे दिवसे, साइरेग चोदस महत्ताराई ॥ पण्णभावार्थ में जब अठारह मुहूर्त से कम का दिन होता है तब पूर्व पश्चिम में बारह मुहूर्त से अधिक रात्रि होती है. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! जब जम्बू मंदर की पूर्व पश्चिम में अठारह मुहूर्त के अंतर का दिन होता है तब क्या उत्तर दक्षिणमें बारह मुहूर्त से अधिक रात्रि होती है ? हां गौतम ! जब जम्बू मंदर के पूर्व पश्चिम में अठारह मुहूर्त के अंतर का दिन होता है तब वारह मुहूर्त से अधिक की रात्रि होती है. ॥ ८ ॥ ऐसे ही अनुक्रम से सत्तरह मुहूर्त का दिन तेरह मुहूर्त की रात्रि, सत्तरह मुहूर्त से कुछ कम दिन व तेरह मुहूर्न । लिब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी जालाप्रसादजी * Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** शब्दार्थ रात्रि स० सोलह मु० मुहूर्त का दि० दिन चो० चौदह मुहूर्त की रा० रात्रि सो० सोलह मु० मुहूर्नान्तर रसमुहुत्ते दिवसे, पण्णरस मुहुत्ताराई पण्णरस मुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेग पण्णरस मुहूत्ता राई चोदसमुहुत्ते दिवसे सोलस मुहुत्ताराई। चोदसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा सोलस मुहुत्ता राई॥तेरस मुहुत्ते दिवसे सत्तरस मुहुत्ता राई ।तेरस मुहुत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगा सत्तरस मुहुत्ता राई ।। जयाणं जंबू दाहिणड्डेजहण्णए दुवालस मुहुत्ते दिवसे भवइ तयाणं उत्तर द्वेवि। जयाणं उत्तरद्वे तयाणं जंबूद्दीवेदीवे मंदरस्स पुरच्छिम पञ्चच्छिमेणं उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई ? हंता गोयमा ! एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव राई भवइ ॥९॥ जयाणं भंते ! जंबू मंदर पुरच्छिमेणं जहण्णए दुवालस मुहुत्ते दिवसे भवति तयाणं भावार्थ से अधिक रात्रि, सोलह मुहूर्त का दिन चौदह मुहूर्त की रात्रि सोलह मुहूर्त से कुच्छ कम दिन; चौदह a. महत से अधिक रात्रिः पनरह महतका दिन, पन्नाह मुहर्तकी रात्रि, पनरह महत में कुछ कम दिन व पनरह मुहूर्न से अधिक रात्रि चौदह मुहूर्त का दिन सोलह मुहून की रात्रि, चौदह मुहूर्त से कम दिन सोलह }og मुहूर्न से अधिक रात्रि तेरह मुहूर्नका दिन सत्तरह मुहूर्नकी रात्रि.तेरह मुहूर्त से कम दिन व सत्तरह मुहूर्त से अधिक। alo रात्रि और बारह मुहूर्त का दिन व अठारह मुहूर्तकी रात्रि जानना. ॥ ९॥ अहो भगवन् ! जब जम्बू मंदर की पूर्व में जघन्य बारह मुहूर्त का दिन है तब क्या उत्तर दक्षिण में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती विवाह पण्णत्ति (भग तो) मूत्र 4088+ naanaanaanwarwww पांचवा शतकका पहिला उद्दशा : Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुसदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक दिवस सा० कुछ अधिक चो० चौदह मुहूर्त रा० रात्रि ५० पन्नरह शेष पूर्ववत् ॥ ९ ॥ १० ॥ ज० जब ज० जम्बूद्वीप के दा० दक्षिणार्ध में पा० वर्षा का प० प्रथम स० समय १० होता है त. तब उ० उत्तराध में भी वा० वर्षा का प०प्रथम समय प०होता है ज जब उ० उत्तरार्ध में वा० वर्षा का ५० प्रथम स० समय प० होता है त० तब जं० जम्बूद्वीप में मं० मेरु की पु० पूर्व में प० पश्चिम में अ. अनंतर पु० आमामिक स० समय में बा० वर्षा का ५० प्रथम स० समय प० होता है ई. हां गो. गौतम ज० जब पञ्चत्थिमेण वि जयाणं पञ्चत्थिमेण वि तयाणं जंबू मंदर उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई ? हंता गोयमा ! जाव राई भवइ ॥ १० ॥ जयाणं भंते ! जंबूद्दीवेदीवे दाहिणद्वे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तयाणं उत्तरद्वेवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जयाणं उत्तरद्वे वासाणं पढमे समये पडिवज्जइ तयाणं जंबूद्दीवेद्दीवे मंदर पुरच्छिमे पञ्चच्छिमेणं अणंतर है ? हां गौतम ! जब जम्बू मंदर की पूर्व पश्चिम में बारह मुहून का दिन होता है तब दक्षिण में अठारह * मुहून की रात्रि होती है ॥ १० ॥ अहो भगवत् ! जस जम्बूद्वीप के मेरु की दक्षिण में वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है तब उत्तर में वर्षा ऋतु का प्रथम समय होता है. जब उत्तर में वर्षाऋतु का प्रथम समय होता है तब क्या जम्बू मंदर की पूर्व पश्चिम में अनंतर आगामिक काल का वर्षाऋतु का प्रथम समय होता है ? हां गौतम ! जब उत्तर दक्षिण में वर्षा wwwwwwwwwwwwwwwww * मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी* Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *जजम्बूद्वीप के दा० दक्षिण में वा० वर्षा का ५० प्रथम स. समय प० होता है त० तैसे ही जा० यावत् ०५० होता है. ॥ ११ ॥ ज० जब भ० भगवन् ज० जम्बूद्वीप के मं मेरु की पु० पूर्व में वा. वर्षा का प. प्रथम स० समय ५० होता है त० तब प. पश्चिम में वा० वर्षा का प० प्रथम स०११ समय में प० होता है. ज. जब ५० पश्चिम में वा० वर्षा का ५० प्रथम स० समय प० होता है त० तब जा. यावत् म मेरु पर्वत की उ० उत्तर दा० दक्षिण में अ० अनंतर ५० पश्चात् कृत स. समय में पुरक्खकडं समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबू दाहिणड्डे वासाणं पढमसमए पडिवजइ, तहचेव जाव पडिवजइ ॥ ११ ॥ जयाणं भंते ! जंबूद्दीवेदीवे मंदरस्स पुरच्छिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवजइ, तयाणं पञ्चच्छिमेणंवि वासाणं पढमे समए पडिवजइ, जयाणं पच्चच्छिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवजइ, तयाणं जाव मंदरस्स पन्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणंतर पच्छाकड ऋतु का प्रथम समय होता है तब पूर्व पश्चिम में अनंतर आगापिक वर्षाऋतु का प्रथम ई ya समय होता है. ॥ ११ ॥ जब जम्बूद्वीप के मेरु पर्वन की पूर्व व पश्चिम दिशा में वर्षा का प्रथम समय होता है तब क्या उत्तर व दक्षिण दिशा में अनंतर अतीत काल में वर्षा का प्रथम समय होता है ? हां गौतम ! जब पूर्व पश्चिम में वर्षा का प्रथम समय होता है तब उत्तर व दक्षिण में 488 पंचमांग विवाह षण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 438 ११.48 पांचवा शतक का पहिला उद्देशा 4882 - Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाबजी ज्वालाप्रसादजी * ईवा वर्षा का प० प्रथम स० समय प० हुवा भ० होता है. ई० हां गो० गौतम ज० जब जं० जम्बू मंत्र मेरु पु० पूर्व में ए० ऐमे उ० कहना जा ० यावत् प० हुवा भ० होवे ए० ऐसे ज० जैसे स० समय से अ० {अभिलाप भा० कहा व० वर्षा का तः तैसे आ० आवलिका से भा० कहना आ० श्वासोश्वास थो० थोव ल० लव सु० मुहूर्त अ० अहोरात्र प० पक्ष मा० मास उ० ऋतु से ए० इन स० सब से ज० जैसे (स० समय का अ० अभिलाप त० तैसे भा० कहना ।। १२ ।। ज० जब हे ० हेमंत का प० प्रथम स० समय समयंसि वासाणं पढमे समए पडिवण्णे भवइ ? हंता गोयमा ! जयाणं जंबूमंदर पुरच्छिमेणं एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव पाडवण्णे भवइ, एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं तहा अवलियाएव भाणियव्त्रो, आणा पाणूणवि, थोत्रेणवि, लवेवि, मुहुत्तेवि, अहोरतेणवि, पक्खेणवि, मासेणवि, उऊणावि । एएसिं सव्वेसिं ..जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियव्वो ॥ १२ ॥ जयाणं भंते ! जंबूदीवेदीवे अनंतर अतीत काल में वर्षा का प्रथम समय होता है. अर्थात् प्रथम दक्षिण उत्तर विभाग में वर्षा काल: होता है फीर पूर्व पश्चिम में होता है. ऐसे ही जैसे समय का कहा वैसे ही आवलिका," श्वासोश्वास, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्रि, पक्ष, मास व ऋतुका जानना || १२ || अहो भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के ६१२ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ प० होता है ज. जैसे ना० वर्ष का अ० अभिलाप त तेसे हे. हेमंत का गि० ग्रीष्म का भी भा० कहना जा० यावत् उ० ऋतु ए० ऐसे ए०उन ति० तीन १० पद की साथ तीतीस आ० आलापक भा० गुण कहना ॥१३॥ ज०जब दा दक्षिण में प०प्रथम अ० अयन प० होती है त०तब उ०उत्तरार्ध में प०प्रथम अ अयन प० होती है ज• जैसे स० समय का अ० अभिलाप त० तैसे अ० अयन से भा० कहना जा० 06हेमंताणं पढमे समए पडिवजइ, जहेव वासाणं अभिलायो तहेव हेमंताणवि गिम्हाणवि भाणियब्वो जाव उऊ ॥ एवं एए तिण्णिवि पएसिं तीसं आलावगा भाणियन्वा ॥ १३ ॥ जयाणं भंते ! जंबू दाहिणड्डे पढभे अयणे पडिवज्जइ, तयाणं उत्तरद्वैवि पडमे अयणे पड़िवजइ, जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेणवि भावार्थ मेरु पर्वत की उत्तर, दक्षिण में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है तब क्या पूर्व पश्चिम में अनंतर अ नागत काल में हेमन्त का प्रथम समय होता है ? अहो गौतम ! जैसे वर्षा ऋतु का कहा, वैसे ही हेमन्त ऋतु का जानना. और ऐसे ही ग्रीष्म ऋतु का जानना. इस तरह तीन ऋतु की साथ ममयादिक के & तीस आलापक हुए ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! जब दक्षिण व उत्तर विभाग में अयन होती है तब क्या 5 पूर्व पश्चिम में अनंतर आगामिक अयन होती है ? हां गौतम ! इस का सब कथन समय जैसे' कहना - पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) मूत्र पांचवा शतक का पहिला Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ शब्दार्थ 4 यावत् अ०. अनंतर प० पश्चात् क० कृत स० समय में प० प्रथम अ० अयन प० प्रतिपन्न भ० होती है.. ज. जैसा अ० अयन का अ० अभिलाप त० तैसे सं० संवत्सर से भा० कहना जु: युग वा० शतवर्षी वा० सहस्र वर्ष से वा० वर्ष लक्ष पु० पूर्वाग से पु० पूर्व से तु० त्रुटितांग तु० तुटित ए० ऐसे पु० पूर्व दु० तुटित अ०अडड अ०अवव हू० हूहूय उ० उप्पल प०पद्म ननलिन अ० अथिनिउर अ०अउय न०नउय ५० पउय चू०चूलिका सी०शीर्षप्रहेलिका प०पल्योपम सा० सागरोपम भा कहना ॥ १४ ॥ न० जब जं०जम्बू-1 भाणियव्वो, जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवइ. ॥ जहा अयणेणं अभिलावा तहा संवच्छरेणवि भाणियव्यो । जुएणवि, वाससएणवि, वाससहस्सेणवि, वाससयसहस्सेणवि, पुवंगेणवि, पुव्वणवि, तुडियंगेणवि, तुडिएणवि, एवं पुव्वे, २ तुडिए २, अडडे २, अववे २, हुहूय २ उप्पले २, पउमे २, नलिणे २, अत्थिणेउरे २, अउए २,णउए २,पउए २,चूलिए २,सीसपहेलिया पलि ओवमेणवि, सागरेणवि, भाणियब्वो ॥ १४ ॥ जयाणं भंते ! जंबूद्दीवेदीवे दाहिणद्वे जैसे अपन का कहा वैसे ही दो अयन का संवत्सर, पांच संवत्सर का युग, सो वर्ष, सहस्र वर्ष, लक्षवर्ष, चौरासी लक्ष वर्ष का एक पूर्वांग, चौरासी पूर्वीग का पूर्व, वही दूहूय २ उप्पल ३ पद्म २ नलिण २ अत्यिणेउर २ अउय २ नउय २ पउय२ चूलिए, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम व सागगेपम का जानना ॥१४॥ जब जम्बूद्वीप के 68 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ! P - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 द्वीप के दा० दक्षिण में प० प्रथम ओ० अक्सर्पिणी प० है त० सब उ० उत्तर में भी प० प्रथम ओ• अवसर्पिणी ५० होती है ज० जब उ० पुत्तर में प० प्रथम ओ० अवसर्पिणी जं० जम्बूद्वीप के म मेरु पर्वत की पु० पूर्व में प० पश्चिम में भी ने नहीं अ० है ओ० अवपिणा उ० उत्सर्पिणी अ० अवस्थित तक वहां का० काल प० प्ररूपा स० श्रमण आ० आयुष्मन् हं. हां गो० गौतम तं० वैसे ही उ० कहना २७| जा० यावत् स० श्रमण आ० आयुष्मन् ज० जैसे ओ• अवसर्पिणी आ० आलापक भा० कहना ए० ऐसे में पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तयाणं उत्तरद्वैवि पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ; जयाणं भंते ! उत्तरढे पडिवजइ तयाणं जंबूद्दीवेदीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं पच्चच्छिमेणवि नेवत्थि ओसप्पिणी उस्सप्पिणी अवट्रिएणं तत्थकाले पण्णत्ते समणा उसो ? हंता गोयमा ? तंचेच उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो जहा ओसप्पिणीए दक्षिण विभाग में अवसर्पिणी होती है तब उत्तरविभाग में भी अवसर्पिणी होती है और जब उत्तर विभाग में अवसर्पिणी है लब क्या पूर्व पश्चिम विभाग में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी नहीं है ? क्या वहां अवस्थित है। काल होता है ? हां गौतम ! जब उत्तर दक्षिण विभाग में अवसर्पिणी होती है तब पूर्व पश्चिम विभाग में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कुच्छ नहीं होती है परंतु वहां पर अवस्थित काल होता है. ऐसे उत्सर्पिणी का पांचवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ उ० उत्तरी भाग कहना ॥ १५ ॥ ल० लवण स० समुद्र में सू० सूर्य उ० ईशान कौन में उ० उदित है होकर ज० जैसी ज० जम्बूद्वीप की व वक्तव्यता भा० कही स० वैसी ही स० सब अ० विशेषता रहित (ल० लवण समुद्र की भा० कहना न० विशेष अ० अभिलाप इ० यह जा० जानना ज० जब ल० लवण समुद्र में दा० दक्षिण में दि० दिन भर होता है तं० वैसे ही जा० यावत् त० तव ल० लवण समुद्र की पु० पूर्व पश्चिम में रा० रात्रि मं० होती है ए० इस अ० अभिलाप से ने० जानना जा० यावत् ज० जब भ० भगवन् लः लवण समुद्र में दा० दक्षिण में प० प्रथम ओ० अवसर्पिणी प० होती है त० आलावओ भाणियव्वो । एवं उस्सप्पिणीएवि भाणियत्वो ॥ १५ ॥ लवणेणं भंते ! समुद्दे मूरिया उदीचिपाईण मुग्गच्छ जच्चैव जंबूद्दीवरस वत्तव्वया भाणिया, सच्चैव सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुद्दस्सवि भाणियव्वा णवरं अभिलावो इमो जाणियव्वो जयाणं भंते ? लवणसमुद्दे दाहिणढे दिवसे भवइ तंचेव जाव तयाणं लवण समुद्दे पुरच्छिम पच्चच्छिमेणं राई भवइ || एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाव जयाणं भंते ? { जानना || १५ || अहो भगवन् ! लवण समुद्र में सूर्य ईशान कौन में उदित { अस्त होता है ? हां गौतम ! इस का सत्र वर्णन जम्बूद्रीप जैसे जानना होकर अग्नि कौन में क्या यावत् लवण समुद्र में दक्षिण भाग में दिन होता है तब पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है मात् लवण समुद्र के दक्षिण भाग में प्रथम अ १०१ अनुवादक - चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * ६१६ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तव उ० उत्तरार्ध में ५० प्रथम ओ० अवमर्पिणी ज० जब उ० उत्तरार्ध में ओ० अवसर्पिणी पं० है त० तब ल० लवण समुद्र में पु० पूर्व प० पश्चिम में ने नहीं है ओ० अवसर्पिणी उ० उत्सर्पिणी स० श्रमण आ० आयुष्मम् हैं. हां गो गौतम ना. यावत् स० श्रमण आ० आयुष्मन् ॥ १६॥ था० धातकी । रखंड में भ० भगवन् दी द्वीप में सू० सूर्य उ० ईशान कौन में उ. उदित होकर ज. जैसे जं. जम्बू द्वीप की व० वक्तव्यता स. मय धा० धातकी खंडकी भा० कहना ण विशेष इ० इस आ० अभिलाप से स० सब आ० आलापक भा० कहना ॥ १७ ॥ ज० जब भ० भगवन् धा० धातकी खंड दी० द्वीप लवण समुद्दे दाहिणद्वे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तयाणं उत्तरद्वे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, जयाणं उत्तरढे पढमाओसप्पिणी पडिवज्जइ तयाणं लवण समुद्दे पुरच्छिम पञ्चच्छिमेणं नेवत्थि ओसप्पिणी उस्सप्पिणी समणाउसो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो॥१६॥ धायइखंडेणं भंते ! दीवे सरिया उदीधिपाईण मुग्गच्छ जहेव जंबूद्दीवस्स छत्तव्वया, सव्वेव धायइखंडस्सवि भाणियव्वा, णवरं इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा ॥१७॥जयाणं भंते ! धायइखंडेदीवे दाहिणद्वेदिवसे भवइ, तयाणं उत्तरद्वेवि भावार्थ वसर्पिणी है तब पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कुच्छ नहीं है, वगैरह अधिकार जानना. ॥ १६॥ अहो भगवन् ! धातकीखंड में सूर्य ईशान कौन में उदित होकर अग्नि कौन में क्या अस्त होता है ? ०७ हां मौतम ! इस का सब अधिकार जम्बूदीप जैसे कहना ॥ १७ ॥ जब धातकी खंड के दक्षिण विभाग पंचमांग विवाह पण्णति (भमवती) मूत्र 80%80 पांचवा शतकका पहिला उद्देशा84880 49 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ में दा. दक्षिण में दि० दिन भ० होता है त० तब उ० उत्तर में भी दिदिन भ० होता है ज. जब उ० + उसर में भी त० तब धा० धातकी खंड दी० द्वीपमें मं० मेरु प० पर्वतोंकी पु० पूर्व ५०पश्चिम में रा० रात्रि भ० होती है हं० हां गो० गौतम जा. यावत् रा. रात्रि भ० होती है ॥ १८ ॥ पूर्ववत् ॥ १९ ॥ ऐ० जयाणं उत्तरड्डेवि तयाणं धायइखंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरच्छिम पञ्चच्छिमेणं राई भवइ ? हंता गोयमा! जाव राई भवइ ॥ १८ ॥ जयाणं भंते ! धायइ खंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरच्छिमणं दिवसे भवइ, तयाणं पञ्चच्छिमेणवि, जयाणं पच्चच्छिमेगवि तयाणं धायइ खंडे मंदराणं पव्वयाणं उत्तर दाहिणेणं राई भवइ ? हंता गोयमा ! जाव भवइ ॥ १९ ॥ एवं एएणं आभिलावेणं नेयव् जाव जयाणं भंते ! दाहिणड्डे पढमा ओसप्पिणी तयाणं उत्तरद्वे, जयाणं उत्तरद्वे तयाणं धायइ भावार्थ में दिन होता है तब उत्तर विभाग में दिन होता है और जब उत्तर विभाग में दिन होता है तब पूर्व पश्चिम विभाग में रात्रि होती है ॥ १८ ॥ जब पूर्व पश्चिम विभाग में दिन होता है तब उत्तर दक्षिण भाग में रात्रि होती है ।। १९ ॥ इसी तरह अवसर्पिणी उत्सर्पिणी तक जानना. जब धातकी खंड के उत्तर दक्षिण विभाग में अवसर्पिणी होती है तब पूर्व पश्चिम विभाग में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कुच्छ 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१९ शब्दार्थ इस अ० अभिलाप से ने० जानना. शेष पूर्ववत् ॥ २० ॥ ज० जैसे ल० लवण समुद्र की व० वक्तव्यता त० तैसे का० कालोदधि की भा० कहना न विशेष का० कालोदाधि ना० नाम भा० कहना. ॥ २१ ॥ अ० आभ्यंतर पु० पुष्कराध में भं० भगवन् सू सूर्य उ० ईशान कौन में उ० उदित होकर ज. जैसे.. धा. धातकी खंड की व वक्तव्यता त० तैसे अ० आभ्यंतर पु० पुष्कराध की भा० कहना १० विशेष अ. अभिलाप जा० जानना जा. यावत् त० तब अ. आभ्यंतर पु० पुष्करार्ध मं० मेरु की पु० पूर्व में प० पश्चिम से णे० नहीं है ओ० अवसर्पिणी णे० नहीं है उ० उत्सर्पिणी, अ० अवस्थित त० वहां का मंदराणं पव्वयाणं पुरच्छिम पच्चच्छिमेणं नेवत्थि ओसाप्पणी जाव समणाउसो ? हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ॥ २० ॥ जहा लवणसमुद्द वत्तव्वया तहा कालोदहिस्सवि भाणियव्वा, णवरं कालोदहिस्स नामं भाणियव्वं ॥ २१ ॥ आभितर पुक्खरड्डेणं भंते ! सूरिया उदीचि पाईण मुग्गच्छ जहेव धायइ खंडस्स वत्तव्वया तहेव आभिंतर पुक्खरढुस्सवि भाणियव्वा । णवरं आभिलावो जाणियव्यो, जाव तया णं आभिंतर पुक्खरड्डे मंदराणं पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं, णेवत्थि ओसप्पिणी, णेव२०१ नहीं होते हैं ॥ २० ॥ जैसे लवण समुद्र की वक्तव्यता कही वैसे ही कालोदधि समुद्र की बक्तव्यता जानना. इस में कालोदधि नाम कहना ॥ २१ ॥ आभ्यंतर पुष्कराध द्वीप का धात की खंड जैसे सब 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र -RE 84 पवित्रा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी काल ५० कहा स० श्रमण आ० आयुष्मन् से० वैसे ही मं भगवन् पं० पांचवा स० शतक का प प्रथम उ० उद्देशा सं०. संपूर्ण ॥ ५ ॥ १ ॥ ÷ रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐसा व० बोले अ० है मं० भगवन् ई० अल्प पु० सस्नेह वा० वायु प० पथ्य वायु मं० मंदवायु म० महावायु वा० चलता है ० हां अ० है || १ || अ० है त्थि उस्सप्पिणी, अवट्ठिएणं तत्थकाले पण्णत्ते समणाउसो ! सेवं भंते भंतेति ॥ पंचमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ १ ॥ · ÷ राग गरे जाव एवं बयासी-अत्थिणं भंते ! ईसिं पुरेवाया, पत्थावाया, मंदावाया महावाया वायंति ? हंता अस्थि ॥ १ ॥ अस्थि भंते ! पुरिच्छिमेणं ईसिं पुरेवाया आलापक कहना. यावत् पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पश्चिम विभाग में अवसर्पिणी उत्सर्पिणी कुछ नहीं है: परंतु अवस्थित काल रहा हुवा है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतकका पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ १ ॥ + ÷ प्रथम उद्देशे में दिशि में दिवसादिक के विभाग कहे. अब इस में वायु के भेद कहते हैं. राजगृही { नगरी में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी ऐसा पूछने लगे कि अहो भगवन् ! अल्प स्नेह सहित वायु, वनस्पत्यादिकको पथ्यकारी वायु, मंद वायु व महा वायु * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ६२० Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १० भगवन् पु० पूर्व में ए. ऐसे ५० पश्चिम में दा. दक्षिण में उ० उत्तर में उ० ईशान में | दा० अग्नि दा० नैऋत्य उ० वायव्य ॥ २॥ ज० जब भ० भगवन् पु० पूर्व में ई० थोडा पु० सस्नेह वायु ५० पथ्य वायु मे० पदमा का महायात्रु बा चला है त० तब ५० पश्चिम में हं० हां गो० गौतम ऐ०१ 20 पत्थावाया, मंदावाया, महावाया वायंति ? हंता अत्थि ॥ एवं पञ्चच्छिमेणं, दाहिणणं उत्तरेणं, उत्तरपुरच्छिमेणं, दाहिणपुरच्छिमेणं, दाहिपच्चच्छिमेणं, उत्तरपञ्चच्छिमेणं ॥२॥ जयाणं भंते ! पुरच्छिमेणं ईसिं पुरेवाया, पत्थावाया, मंदावाया, महावायावायंति;तयाणं पच्चच्छिमेणवि ईसिं पुरेवाया, जयाणं पञ्चच्छिमेणं ईसिं पुरेवाया, तयाणं पुरच्छिमे णवि ? हंता गोयमा ! जयाणं पुरच्छिमेणं तयाणं पञ्चच्छिमेणवि ईसि । जयाणं पच्चभावार्थ क्या चलते हैं ! हां गौतम ! उक्त प्रकार के वायु चलते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या पूर्व दिशा में अल्प स्नेहवाला वायु, पथ्यकारी वायु, मंद वायु व महा वायु चलते हैं ? हा गौतम ! पूर्व दिशा में उक्त । प्रकार के वायु चलते हैं. ऐसे ही पश्चिम, उत्तर. दक्षिण, ईशान, अग्नि, नैऋत्य व वायव्य कौन में भी ऐसे चार प्रकार के वायु चलते हैं ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! जब पूर्व दिशि में स्नेहमय, पथ्य, मंद व महा वायु चलते हैं तब पश्चिम दिशा में क्या सहमयादि वायु चलते हैं ? हां गौतम ! जब पूर्व में उक्त प्रकार के वायु चलते हैं तब पश्चिम में भी वैसे वायु चलते हैं. और जब पश्चिम में वैसे वायु चलते । - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) 432833 पांचवा शतक का दूसरा उद्देशा 80p Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ शब्दार्थ ऐसे दि० दिशि वि० विदिशि में ॥ ३ ॥ अ० है भ० भगवन् दी द्वीप प्रत्यायक ई० अल्प हं • हां अ० है अ० है भं० भगवन् सा० समुद्र संबंधी ई० अल्प है. हां अ० है जं. जब भ० भगक्न् दि० द्वीप प्रत्ययिक ई० अल्प पु० स्नेहमय वायु त• तब सा० समुद्र का ई० अल्प पु० स्नेहमय या वायु णो० नहीं च्छिमेणवि ईसि तयाणं पुरच्छिमेणवि ईसि ॥ एवं दिसासु, विदिसासु, ॥ ३ ॥ अत्थिणं भंते दीवच्चया ईसिं ? हंता अत्थि ॥ अत्थिणं भंते सामुद्दिया ईसिं ? हंता । 4. अत्थि ॥ जयाणं भंते ! दिविच्चया ईसिं पुरेवाया, तयाणं सामुद्दिया - वि ईसिं पुरेवाया, जयाणं सामुद्दियाईसिं तयाणं दीविच्चया ईसिं ? णोइणटे सभावार्थ हैं तब पूर्व में भी वैसे ही वायु चलते हैं, यों चारों दिशि विदिशि का जानना ॥ ३॥ अहो भगवन् ! द्वीप संबंधी स्नेहमय वायु क्या होता है ? हां गौतम ! द्वीपसंबंधी स्नेहमय वायु होता है. वैसे ही समुद्र संबंधी भी स्नेहमय वायु होता है. अहो भगवन् ! जब द्वीपसंबंधी स्नेहमय, पथ्य वायु, मंद वायु, व महा वायु चलते हैं. तब क्या लवण समुद्र संबंधी उक्त प्रकार के वायु चलते हैं ? अथवा जब समु वायु चलते हैं तब क्या द्वीप के वायु चलते हैं ? अहो गौबम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! यह अर्थ किस कारन मे योग्य नहीं है ? अहो गौतम ! उक्त द्वीप व समुद्र ऐसे दोनों प्रकार के वायु में - 19 परस्पर विपरीतपना है अर्थात् ऐसा उन वायुओं का स्वभाव ही रहा हुवा है. अथवा लवण समुद्र में सोलह 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी 40 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ शब्दार्थ इ० यह अ० अर्थ म० योग्य से० अब के० कैसे भ० भगवन् ए. ऐसे वु० कहा जाता है गो. गौतम है। ते उन वा० वायु को अ०परस्पर वि० विपरीतता से उस से ल० लवण समुद्र में वे० शिखा ना० उल्लंघे नहीं से• अब ते. इसलिये जा. यावत् वा० वायु वा. वाते हैं ॥ ४॥ अ० है भ० भगवन् ई० अल्प पु० स्नेहयम वायु प० पंथ्य वायु मं० मंदवायु म० महावायु वा० चलता है इं० हां अ०है क० कब __ मढे । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जयाणं दीविञ्चया ईसिं णो णतया सामुद्दिया ईसिं जयाणं सामुद्दिया ईसिं णो णतया दीविच्चया ईसिं ? गोयमा ! तेसिणं वायाणं अण्णमण्ण विवच्चासेणं लवणसमुद्देवलं नाइक्कमइ, से तेणटेणं जाव वाया वायंति ॥ ४ ॥ अत्थिणं भंते ! ईसिं पुरेवाया पच्छावाया, मंदावाया, महाबाया, वायंति ? हंता अत्थि । कयाणं भंते ईसिं जाव वाया वायंति ? गोयमा ! जयाणं वाउयाए अहारियं भावार्थ E हजार योजन की पानी की वेल रही हुई है, उसे लोक के स्वभाव से वायु नहीं उल्लंघ सकता है. इस से अहो मौतम ! जब द्वीप के वायु चलते हैं तब लवण समुद्र के वायु नहीं चलते हैं और जब लवण समुद्र 90 के वायु चलते हैं तब द्वीप के वायु नहीं चलते हैं ॥ ४॥ अहो भगवन ! स्नेहमय वायु, पथ्य वायु, मंद वायु व महावायु चलते हैं ? हां गौतम ! चलते हैं. अहो भगवन् ! वे वायु कब चलते हैं ? अहो ॐ 12 गौतम ! जब यथारीति से वह वायुकाय जावे या उसका गमन होवे तव वायुकाय चले. अहो भगवन् ! क्या है। 48808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र 328 *38*23 पांचवा शतक का दूसरा उद्देशा -> < Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी भगवर ई० अल्प जा० यावत् वा वायु वा वाता है गो० गौतम ज. जब वा० वायु अ०: यथेच्छ रि० जाता है न तब ई० अल्प जा. यावत् वा० चलता है. ॥ ५ ॥ वा० कायु काय उ० उत्तर क्रेय वा वायु कुमार वा० वायु कुमारी अ० स्वतः के प० अन्य के उ० दोनों के अ० लिये वा• वायु काया की उ० उदीरणा करे त० तब ई० अल्प पु स्नेहवाला वायु ॥ ६॥ वा. वायु काय वा० वायु रियंति तयाणं ईसिं जाव वायंति ॥ अत्थिणं भंते ईसिं ? हंता अस्थि! कयाणं भंते! ईसिं जाव वायंति ? गोयमा ! जयाणं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, तयाणं ईसिं । ॥ ५ ॥ अत्थिणं भंते ! ईसिं ? हंता अत्थि । कयाणं भंते ! ईसिं पुरेवाया पुच्छा? गोयमा ! जयाणं वाउकुमारा, वाउकुमारीओ वा, अप्पणो परस्स वा तदुभयस्स म वा अट्ठाए नाउकायं उदीरति, तयाणं ईसिं पुरेवाया ॥ ६ ॥ वाउयाएणं. १ स्नेहमयादि वायु चलते हैं ? हां गौतम ! स्नेहमयादि वायु चलते हैं. अहो भगवन् ! वे वायु कब है चलते हैं ? अहो गौतम ! वायुकाय का शरीर उदारिक है, उत्तरवैक्रय करके शरीराश्रितक्रिया से उनका जब गमन होवे तब के चले ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! क्या स्नेहमयादि चार प्रकार के वायु हैं ? हां गौतम ! अहो भगवन् ! वे स्नेहमयादि वायु कब चलते हैं ? अहो गौतम ! जब वायुकुमार देव स्वतः के लिये, अन्य के लिये अथवा दोनों के लिये वायुकाय नीकालते हैं तब वायुकाय प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ 1 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 ६२५ सूत्र शब्दार्थ का आ० ऊंचाश्वासलेना पा० नीचाश्वासलेना ज० जैसे खं० स्कंदक त० तैसे च० चार आ० आलापक ० ने मानना अ० अनेक म० लक्ष पु० स्पाहुआ उ० घातकर स० शरीर सहित नि० नीकले ॥ ७ ॥ उ० चांवल कु. कुलथ मु० मदिग ए० ये कि कौन से स० शरीर वाले ५० कहना गो० गौतम उ०४ चावल कु. कुलथ सु० मदिरा जे० जो घ० घन द० द्रव्य ए. ये पु० पहिले के भा० भाव प• कहा हुवा १० आश्रित व वनस्पति जी० जीव स० शरीर त० उस प० पश्चात् स० शस्त्र से अ० अतिक्रमे भंते ! वाउयं चेव आणमंतिवा, पाणमंतिवा, जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा नेयव्वा अणेगसयसहस्सपुढे उद्दाय ससरीरी निक्खमइ ॥ ७ ॥ अह भंते ! उदण्णे, कुम्मासे, सुरा, एएणं किं सरीराति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! उदण्णे, है कुम्मासे, सुरा य जे घणे दक्वे, एएणं पुत्वभाव पण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीव सरीरा भाषार्थ चलती है ॥ ६॥ अहो भगवन् ! वायकाय वायकाय का क्या श्वासोश्वास लेती है ? अहो गौतम ! स्कन्दक के अधिकारमें वायुकाय वायुकायाका श्वासोश्वास लेती है. अनेक लक्षवारमरकर वायुकायके जीव वायुकायमें उत्पन्न होते हैं. वायुकाय शस्त्रादिक के स्पर्श से मरती है, वैक्रेय व उदारिक शरीर की अपेक्षा से वायुकाय के नीव ॐ शरीर छोडकर जाते हैं, तेजस कार्माण की अपेक्षा से शरीर सहित जाते हैं ऐसे चार आलापक जानना॥७॥ अब अहो भगवन् ! ओदन, (चांवल ) कुलथ व सूरा इन तीनों को कोनसा शरीर कहा है ? अहो । > पंचम्मंग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र पांचवा शतक का दुसरा उद्देशा 84.80 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ mmmm १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी हुवे श० शस्त्र से १० परिणमेहुवे अ. अग्नि से झा० जले हुवे अ० अग्नि से झु• शोषन हुवे अ. अ.* से प० परिणमित अ. अग्नि जी जीव स० शरीर व वक्तव्यता सि० होवे मु० मदिरा ए. यह जे. जो द० प्रवाही ए. वह पु० पूर्वभाक ५० आश्रित ५० कहा हुवा आ० अप्काय जी० जीव स. शरीर तः उस की ५० पीछे स० शस्त्र अ० अतिक्रमे जा. यावत् अ० अग्नि जी. जीव स. शरीर ॥ ८॥ अ० अथ भं० भगवन् अ०लोहा तं ताम्बा त तरुआ सा० सीसा उ०पत्थर का तओ पच्छा सत्थातीया. सत्थ परिणामिया. अगणिज्झामिया. अगणिज्झासया अगणि सेविया अगणिपरिणामिया, अगणिजविसरीरातिवा वत्तव्बसिया । सुरा एय जे दवे एएणं पुव्वभाव पण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरातिवत्तव्वं सिया. ॥६॥ अहणं भंते ! अये तंबे तउए सीसए उवले गौतम ! द्रव्य के दो भेद घनद्रव्य व द्रव (मवाही.) द्रव्य. जो ओदन व कुल घनद्रव्य हैं वे पूर्व पर्याय आश्री वनस्पतिकायिक हैं; फीर शस्त्र से अतिक्रमाये हुवे, शस्त्र से परिणमाये हुवे, अग्नि से धमित, अनि झूसित, व आग्नि से परिणमित उक्त पदार्थों अग्नि के शरीरवाले कहाते हैं. और सूरा (शराब) प्रवाही द्रव्य होने से पूर्व पर्याय आश्री अप्कायिक कहाता है. फीर शस्त्र यावत् अग्नि परिणमने पर अग्नि कायिक कहाता है ।। ८ ॥ अहो भगवन् ! लोहा, ताम्बा, तरुआ, सीसा, पाषाण, दग्ध कसोटा वगैरह कौन *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880% शब्दार्थ कसोटा ए. ये किं. कोन से स० शरीर वाले गो० गौतम पु० पृथ्वी स० शरीर वाले त. उस पी १० पीछे अ० अग्नि जी० जीव स० शरीर वाले ॥९॥ अ० अथ भं० भगवन् अ० अस्थी अ० जलीहुई । अस्थी च० चर्म च० जला हुवा चर्म रो० रोम रो० जला हुवा रोम सिं० शृंग सिं०जला हुवा शृंग खु०खुर ०१० खु० जलाहुवा खुर न० नख न० जला हुवा नख ए० ये किं० कोन से श० शरीर वाले व० वक्तव्यता सि. है गो. गौतम अ० अस्थी च० चर्म रो० रोम सिं० शृंग, खु० खुर न० नख ए० ये त• म प्राण जी. जीवं प्रा० शरीर वाले अ० जलीहुइ हड्डी च० जला चर्म रो० जला रोम सिं० जलाशंग खु० जला कसट्ठिया एएणं किं सरीराइ वत्तव्वंसिया ? गोयमा! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले कसट्ठिया एएणं, पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च पुढवी जीव सरीरा, तओ पच्छा सत्थाईया जाव अगाण जीव सरीराइ वत्तव्वंसिया ॥ ९ ॥ अह भंते ! अट्ठी, अटिज्झामे चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे, रोमझामे सिंगे, सिंगज्झामे, खुरे, खुरज्झामे, नहे, नहझामे एएणं किं सरीराइ वत्तव्यं सिया ? गोयमा ! अट्ठी चम्मे रोमे सिंगे 50 भावार्थ से शरीरवाले हैं ? अहो गौतम ! पूर्व पर्याय आश्रित पृथ्वी शरीरवाले हैं और शस्त्र यावत् अग्नि परि-1 णमने से अग्नि शरीरी है ॥ ९॥ अहो भगवन ! हड्डी, जली हुई हड्डी, चर्प, जलाहुवा चर्म, ऐसे ही 17 विना जलाहुवा व जलाहुवा रोम, शृंग, खुर, व नख को कौनसा शरीर कहा है ? अहो गौतम ! अस्थी, - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( मगवती) मूत्र 2034-380पांचवा शतक का दुसरा उद्देशा -- Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व. वक्तव्यता एकेन्द्रिय जार १० पछि स शब्दाथ खर ण जलाहुवा नख ए० ये पु० पाहिले के भाव प. कहा हुवा प० आश्रित त त्रस पा० प्राण जीव स० शरीर त उस प० पीछे म० शस्त्र से अ० अतिक्रमे जा० जावत् अ० अग्नि जीव व. वक्तव्यता मि० होवे ॥ १० ॥ अ० अथ भ० भगवन् इ० अंगार छा० भस्म बु. भूमा गो० छाने ए. ये किं० कौन मे स० शरीर वाले व० वक्तव्यता सि. होवे गो० गौतम इं० अंगारे छा० भस्म बु. भूसा गो०१ छाने पु. पूर्व भाव प० कहा हुवा ए• ये ए० एकेन्द्रिय जीव म. शरीर प. प्रयोग परिणमित जा. यावत् पं० पंचेन्द्रिय स. शरीर प० प्रयोग प. परिणमित त. उस ५० पीछे स० शस्त्र अ० अतिक्रमे खुरे नहे एएणं तसपाणजीवसरीरा । अटुिझामे, चम्मझामे, रोमझामे, सिंगखुर णहज्झामे एएणं पुव्वभाव पण्णवणं पडुच्च सस पाण ‘जीव सरीरा तओ पच्छा सस्थाईया जाव अगणिजीवत्ति बत्तव्यं सिया ॥ १० ॥ अह भंते ! इंगाले, छारिए, घुसे, गोमए एएणं किं सरीराइ वत्तव्यं सिधा ? गोयमा ! इंगाले, छारिए, बुसे, गोमए एएणं पुथ्वभाव पण्णवणं एए एगिंदियजीवसरीरप्पयोग परिणामियाचि जाव पंचिंदिय जीव सरीरप्पयोग परिणामियावि, तओ पच्छा सत्थाईया भावार्थ चर्म, रोम, शृंग, खुर व नख त्रस प्रागी जीव के शरीर कहाते हैं और जली हुई अस्थी, चर्म, रोम वगैरह पूर्व भव आश्री श्रम प्राणी जीव के शरीर कहाते हैं. फीर शस्त्र यावत् अग्नि परिणमने पर अग्नि 15जीव शरीर कहाते हैं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! अंगारे, राख, भूसा व गौवर को कोनसा शरीर कहा ? * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक *भकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1880 शब्दार्थ जा. यावत् अ० अग्नि जी. जीव स० शरीर व वक्तव्यता सि. होवे ॥ ११ ॥ ल लवण भ० भगवन् । | एस. समुद्र में के. कितना च० चक्रवाल वि. विष्कंभपना प० प्ररूपा ए. ऐसे ने० जानना. जा० यावत् लो० लोकस्थिति लो० लोकानुभाव ॥ १२ ॥ से ऐसे ही भ० भगवन् भ० भगवान जा. यावत् वि० विचरते हैं पं० पांचवे स० शतक में वी० दूसरा उ० उद्देशा स• समाप्त ॥ ५ ॥२॥ ६२१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) जाव अगणि जीव सरीराइ वत्तव्यंसिया ॥ ११ ॥ लवणेणं भंते ! समुद्दे केव. इयं चकवाल विक्खंभेणं पण्णत्ते एवं नेयव्यं जाव लोगट्रिई, लोयाणुभावे ॥१२॥ सेवं भंते भंतेत्ति भगवं जाव विहरइ ॥ पंचमसए बीईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥५॥२॥ पांचवा शतकका दूसरा उद्देशा go अहो गौतम ! पू पर्याय आश्रित एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय का शरीर कहा है. फीर शस्त्र यावत् आग्नि , भावार्थ परिणम ने से अग्नि जीव शरीर कहाते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! लवण समुद्र की परिधि कितनी कही? अहो गौतम ! लवण समुद्र दो लाख योजन का लम्बा चौडा है और १५८११.३५ योजन से कुच्छ | अधिक की उमकी परिधि कही है वगैरह जीवाभिगम सूत्र से अनुभाव तक कहना. अहो भगवन् ! आप के ॐ वचन सत्य हैं ऐसा कहकर तप संयम से आत्मा को भावते हुए श्री गौतम स्वामी विचरने लगे. यह ७ | पांचवा शतकका दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ २ ॥ 3800 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी । अ० अन्यतीर्थिक भं० भगवन ए. ऐसा आ० कहते हैं ५० प्ररूपते हैं से० अब ज जैसे जा० जाल ग्रंथका आ० अनुक्रम से ग० गुंथीहुई प० परंपरा से गं० गुंथीहुई अ० परस्पर गं० गुंथीहुई अ० परस्पर गु० विस्तार युक्त अ० परस्पर भा० वजनदार अ० परस्पर गुरु विस्तीर्ण सं० वजनदार अ० परस्पर घ०१ रचीहुई चि० हैं एक ऐसे ही ब० बहुत जी०जीवों के व०बहुत आ०आजाति स०सहस्र ब० बहुत आ० आ अण्णउत्थियाणं भंते ! एव माइक्खंति भासेति पण्णवेति, एवं परूवति, से जहा नामए जाल गंठियाइवा आणुपुद्विगंठियाअणंतरगंठिया, परंपरगंठिया, अण्णमण्णगठिया, अण्णमण्ण गुरुयत्ताए, अण्णमण्णभारियत्ताए,अण्णमण्णगुरुसंभारियत्ताए,अण्णमण्णघडत्ताए चिटुंति एवामेव बहूणं जीवाणं बहसु आजाइसहस्सेसु, बहूई आउयसहस्साई आणुपुट्विं गंठियाइं जाव चिटुंति । एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पडिसंवेदेइभावार्थ दुसरे उद्देशे में समुद्रादिक का सत्यज्ञान ज्ञानियोंने कहा, अब आगे मिथ्यात्वीयोंका असत्यज्ञान कहते हैं. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न पुछने लगे कि अहो न् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जैसे मत्स्य पकडने की जाली अनुक्रम गुंथी हुई, परंपरा ( एक ग्रन्थी अनंतर दूसरी ग्रन्थी) से गुन्थी हुई. परस्पर गुन्थी हुई, परस्पर वीस्तीर्ण | ४ परस्पर वजनवाली और वीस्तीर्ण व वजनवाली होती है वैसे ही बहुत देवतादि जन्म में अनेक जीवों के * अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पर्चमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 2281 *युष्य स० सहस्र आ० अनुक्रम से गं० गुंथा हुवा जा. यावत् चि० है ए० एक ही जी० जीव ए० एक* स० समय में दो० दो आ० आयुष्य प. वेदते हैं तं• वह ज० यथा इ० इस भवका प० परभवका जं. जिस स समय में इ० इस भवका प० वेदता है तं. उस स० समय में १० परभव का ५० वेदता है। तंजहा इह भवियाउयं च, परभवियाउयंच, जंसमयं इह भवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, जाव से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया तं चेव जाव परभवियाउयंच जे ते एव माहंसु तंमिच्छा. अहं पुण गोयमा ! एवं माइक्खामि जाव अण्णमण्ण घडत्ताए चिटुंति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजाइसहस्सेहि. बहूहिं आउयसहस्साइं आणुपुर्दिवगंठिहजारों आयुष्य अनुक्रम से गुन्थे हुवे, बांधे हुवे, यावत् परस्पर वीस्तीर्ण व भारवाले रहते हैं. और इस से} = एक जीव एक समय में इस भव संबंधी व परभव संबंधी ऐसे दो आयुष्य वेदता है. जिस समय में इस भव संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में वह जीव परभव संबंधी आयुष्य वेदता है. और जिम समय में है। परभव संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में इस भव संबंधी आयुष्य वेदता है. अहो भगवन् ! यह तरह है ? अहो गौतम ! अन्य तीर्थिक यावत् परभव मंबंधी आयुष्य वेदते हैं यहांतक काई १ यहां कर्म पुदल की अपेक्षा से भारपना ग्रहण कियागया है. 488 पांचवा शतकका तीसरा उद्देशा 984280 भावार्थ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ सूत्र भावार्थ 402 अनुवादक ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जा० यावत् से० वह क० कैसे भं० भगवन् ए० ऐसे गो० गौतम ज० जो ते० वे अ० अन्यतीर्थिक तं० वैसे ही जा० यावत् प० परभव का आ० आयुष्य जे० जो ते० वे ए० ऐसा आ० कहते हैं तं० वह मि० मिथ्या अ पु० फीर गो० गौतम ए० ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् अ० परस्पर घ० बनाने को याई जाव चिट्ठेति ॥ एगे वियणं जीवे एंगणं समएणं एवं आउयं परिसंवेदेइ तं जहा इह भवियाउयंत्रा, परभवियाउयंत्रा जं समयं इह भवियाउयं पडिसंवेदेइ नो तं समयं परभवियाउयं पडिसेवदेइ, जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदइ, इह भवियाउस्स पडिसंवेदणयाए णो परभवियाउयस्स पडिसंवेदणा, परभावयाउयस्स पडिसंवेदणयाए णो इहभवियाउयस्स पाडसंवेदना एवं जो कथन करते हैं वह सब मिथ्या है, परंतु मैं ऐसा कहता हूँ कि ग्रन्थिजाल समान बहुत देवादिक जन्म में एक जीव के बहुत हजार आयुष्य अनुक्रम से गुन्थाये हुवे रहते हैं और एक जीव एक समय में {इस भत्र संबंधी अथवा परभव संबंधी ऐसा एक ही आयुष्य वेद सकता है. अर्थात् जिस समय में इस भव संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में परभव संबंधी आयुष्य नहीं वेदता है और जिस समय में परभव {संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में इस भत्र संबंधी आयुष्य नहीं वेदता है. क्योंकि इस भाव के आयुप्य की वेदना होते परभव के आयुष्य की वेदना नहीं होती है, और परभव के आयुष्य की वेदना के * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी आलाप्रसादजी ६३२ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2008 शब्दार्थ चि० हैं. ए. ऐसे ही ए०: एक ही जी० जीव का ब० बहुत आ० आजाति स० सहस्र ब. बहुत है। yo आ० आयुष्य स० सहस्र आ० अनुक्रम से गं० ग्रथित चि० है शेष पूर्ववत् ॥ १ ॥ जी. जीव भं0001 भगवन् भ० योग्य ने नारकी में उ० उपजने को से वह किं० क्या सा० आयुष्य सहित सं० जाना है. नि० आयष्य रहित सं० जाता है. गो. गौतम सा० आयुष्य सहित सं० जाता है भो नहीं नि० आयुष्य रहित सं॰ जाता है. से उसने भ०भगवन् आ आयुष्य क कहा क०किया स० संचित किया गो० गौतम पु० पहिले भ० भव में क) किया पु. पहिले भव में सं० संचित किया ए. ऐसे जा __ खलु एगे जावे एगणं समएणं एग आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा इहभवियाउयवा, पर भवियाउयंवा ॥ १॥ जीवेणं भंते ! जे भावए नेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते किं साउए संकमइ निराउए संकमइ ? गोयमा सा उए संकमइ नो निरा उए संकमइ ॥ सेणं भंते ! आउए कहिं कडे कहिं समाइण्णे ? गोयमा ! पुरिमे भावार्थ समय में इस भव के आयुष्य की वेदना नहीं होती है. इसलिये जीव एक समयमें इस भव का अथवा परभव ४४ का ऐसा एक ही आयुष्य वेदता है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जो जीव यहां से नरक में जाता है वह यहांपर नरक के आयुष्य का बंध करके जाता है या विना बंध किये हुए जाता है ? अहो गौतम ! 15 नारकी में उत्पन्न होनेवाला नेरया यहांपर नरक का आयुष्य बांधकर जाता है विना वांधे नहीं जा पंचमान विवाह पण्णात्त ( भगवती.) सत्र पांचवा शतकका तीसरा उद्देशा gogias Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावत् वे वैमानिक का दं० दंडक ॥ २ ॥ से० अब णू० शंकादर्शी भ० भगवन् जे. जो जं० जिस भ.* ०७१ योग्य जो० योनि उ० उत्पन्न होने को से० वह त• उस आ० आयुष्य ५० करता है तं. वह ज जैसे ने नारकी का आ० आयुष्य जा० यावत् दे० देवताका आ० आयुष्य हं० हां गो० गौतम जे० जो जंभ ६३४ जिस भ० योग्य जो योनि उ० उत्पन्न होने को से० वह त० उस आ० आयुष्य ५० करता है तं०१ वह ज जैसे ने नारकी का आ० आयुष्य दे० देवता का आ० आयुष्य ना० नारकी का आ०आयुष्य भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे । एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ ॥२॥ से गूणं भंते! जे जं भविए जोणिं उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ तंजहा नरइयाउयंवा, जाव दे. वाउयंवा ? हंता गोयमा ! जे जं भविए जोणि उबवजित्तए से तमाउयं पकरेइ, . तंजहा नेरइयाउयंवा जाव देवाउयंवा । ने इयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ तंजहा मकता है. अहो भगवन् ! उस जीवने ऐसा आयुष्य कहां उपार्जित किया ? अहो गौतम ! जीवने , भावार्थ ऐसा आयुष्य पूर्वभव में उपार्जित किया. जैसे नारकीका कहा वैसे ही वैमानिक तक के चौविसही दंडक का जानना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! नरक यावत् देवयोनि में से जीव जिम योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है उसी योनि के आयुष्य का बंध क्या वह करता है ? हां गौतम ! जिस योनि में उत्पन्न । होने योग्य होता है उसी योनि के आयुष्य का बंध करता है. नारकी के आयुष्य का बंध करनेवालाई अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh marwww * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ) भावार्थ १० करते स० सात प्रकार का प० करता है तं० वह ज० जैसे र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी के ने० नारकी ovo का आ० आयुष्य जा० यावत् अ० अधो स० सातवी पु० पृथ्वी के ने० नारकी का आ० आयुष्य ति० तिर्यच जो० योनिका आ० आयुष्य प० करते पं० पांच प्रकार का प० करते हैं तं वह ज०जैसे ए० एके-१० (न्द्रिय ति० तिर्यच योनिका आ० आगुष्य में भेद स० सब भा० कहना म० मनुष्य का आ० आयुष्य दु० दोप्रकार का दे० देवका आ० आयुष्य च चार प्रकार का प० करते हैं. ५ ॥ ३ ॥ 4 पंचमाङ्ग विवाह दण्णत्ति (भगवती) सूत्र रयणप्पभापुढवी नेरइयाउयंवा जाव अहे सत्तमा पुढवी नेरइयाउयंश, ॥ तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेइ तंजहा एगिंदिय तिरिक्ख जोणियाउयंत्रा भेदो सव्वो भाणियव्वो । मणुस्साउयं दुविहं पकरेइ देवाउयं चउन्विहं पकरे || सेवं भंते भंतेत्ति ॥ पंचमसए तईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ३ ॥ * * पांचवा शतकका तीसरा उद्देशा ( सात प्रकार के आयुष्य का बंध करता है, रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी का आयुष्य यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी के नारकी का आयुष्य. तिर्यंच योनि के आयुष्य का बंध करनेवाला एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि ऐसे पांच प्रकारके आयुष्यका बंध करता है. कर्मभूमि व अकर्म भूमि ऐसे दो प्रकार के आयुष्य का (बंध मनुष्य करता है. और भुवनवति, वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक ऐसे चार प्रकार के आयुष्य का बंध देवों करते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतकका तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ ३ ॥ ६३५ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी छ० छद्मस्थ भं० भगवन् म० मनुष्य आः संयोग वाले सं० शब्द सु०सुनते हैं सं० शंख का शब्द सिं० शृंगका शब्द सं० छोटे शंख का शब्द ख० खरमुखी पो० बडे बांके प० पीपी का स० शब्द प० छोटा ढोल १० बडा ढोल मं० वांकीया हो० होरंभक स० शब्द भे० भेरी झ झालर दुं दुंदुभीका स० शब्द त० तत त्रिः वितत घ० घन झू झसिर ० हां गो० गौतम छ० छद्मस्थ म० मनुष्य आ० संबंध वाले (स० शब्द सु० सुनते है तं० वह ज० जैसे सं० शंख शब्द जा० यावत् झू झूषिर शब्द ता० उनको छउमत्थेणं भंते ! मणूसे आउडिज्जमाणाई सद्दाई सुइ, तंजहा संख सद्दाणिवा, सिंगसहाणिवा, संखिय खरमुहिय, पोया, परिपिरिया सद्दाणिवा पणव, पडह, भंभा, होरंभ-सद्दाणिवा, भेरि- झलुरि- दुंदभि - सद्दाणिवा, तयाणि वितयाणिवा, घणाणिवा, झूसिराणिवा ? हंता गोयमा ! छउमत्थेणं मणूसे आउडिजमाणाई सद्दाई सुणेइ तीमरे उद्देशे में छद्मस्थ अन्यतीर्थीक वक्तव्यता कही. चौथे उद्देशे में छद्मस्थ केवली की वक्तव्यता करते हैं. अहो भगवन् ! छद्मस्य मनुष्य क्या हस्त मुख दंडादि से संयोजित शंख का शब्द, रंगका ( शब्द, छोटे शंख का शब्द, खरमुखी (बांके ) का शब्द, बडे बांके का शब्द, पींपी का शब्द, छोटे पडह ( का शब्द, ढोल का शब्द, ढक्का का शब्द, होरंभ का शब्द, भेरी का शब्द, झालर का शब्द, दुंदुभी का शब्द, विणादितत का शब्द, सतारादि वितत का शब्द, कांस्य तालादिक घन का शब्द, और वांसली | * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादगी * ६३६ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 3gp> भ० भमवम् कि० क्या पु० स्पर्श हुवे सु० सुनते हैं अ० नहीं स्पर्श हुवे सु० सुनते हैं नो गौतम पु०/4 स्पर्श हुए सु० सुनते हैं जो नहीं अ० नहीं स्पर्श हुवे सु० सुनते हैं जा. यावत् नि निश्चय ही छ०१० छदिशी सु. सुनते हैं त० तैते भं० भगवन् छ• छद्मस्थ म० मनुष्य किं० क्या आः इन्द्रिय विषयक स. शब्द सु० सुनते हैं पा• इन्द्रिय विषय से दूर के स० शब्द सु० सुनते हैं गो० गौतम आ० इन्द्रिय __ तंजहा-संखसद्दाणिवा जाव झुसिराणिवा ॥ ताई भंते ! किं पुढाई सुणेइ, अपुट्ठाई । सुणेइ ? गोयमा ! पुट्ठाइं सुणेइ, णो अपुट्ठाई सुणेइ ; जाव नियमा छदिसिं सुणेइ॥ तहाण भंते ! छउमत्थे मणूसे किं आरगयाइं सहाई सुणेइ, पारगयाइं सद्दाई। प्रमुख का मुपिर शब्द सुन सकते हैं ? हां गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य हस्त मुख दंडादि से संयोजित शंख के शब्द, यावत् मुषिर के शब्द सुन सकते हैं. अहो भगवन् ! कान को स्पर्शाये हुवे शब्दों सुने जाते हैं या विना स्पर्शाये हुए शब्दों सो जाते हैं ? अहो गौतम ! स्पर्शाये हुवे शब्दों मुन सकते हैं परंतु नहीं स्पर्शाये हुए शब्दों नहीं सुन सकते हैं यावत प्रथम शतक में जैसे आहार का आधिकार कहा वैसे ही यावत् छ दिशी के शब्दों सुन सकते हैं वहांतक कहना. अहो भगवन ! छमस्थ मनुष्य क्या श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आये हुए शब्दों सुन सकते हैं या श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में नहीं आये हुए शब्दों सुन सकते हैं ? अहो. गौतम ! छमस्थ मनुष्य श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आये हुवे शब्दों सुन सकते हैं परंतु विषय के वाहिर है। पांचवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ 488 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विषयिक स० शब्द सु० सुनते हैं णो० नहीं पा० इन्द्रिय विषय से दूरके स० शब्द सु० सुनते हैं ॥ १ ॥ ज० जैसे मं० भगवन् छ० छद्मस्य म० मनुष्य त० तैसे के० केवली गो० गौतम आ० इन्द्रिय विषयिक पा० इन्द्रिय विषय से दूरके म० सब दू० दूर मू० पास अ० पासनहि ऐसे स० शब्द जा० जानते हैं। [पा देखते हैं से० अथ के० कैसे तं० वैसे के० केवली आ० इन्द्रिय विषयिक पा० इन्द्रिय विषय से बाहिर के जा० यावत् पा० देखते हैं गो० गौतम के० केवली पु० पूर्व में मि० मर्यादा जा० जानते सुणेइ ? गोयमा ! आरगयाई सहाई सुणेइ, णो पारगयाई सदाई सुणेइ ॥ १ ॥ जहाणं भंते ! छउमत्थे मणूसे आरगयाइं सद्दाई सुणेइ णो पारगयाई सदाई सुइ तहाणं केवली कि आरगयाइं सद्दाई सुणेइ पारगयाइं सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! केवलीणं आरगयंवा पारगयंवा सव्वदूर मूलमणतियं सदं जाणइ पासइ ॥ से केणट्टेणं तंव केवलीणं आरगयंवा पारगयंवा जाव पासइ ? मोयमा ! केवली पुरच्छिमेणं के शब्दा नहीं सुन सकते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जब छन्नस्थ विषय के अंदर के शब्दों सुन सकते हैं। परंतु विषय की बाहिर के शब्दों नहीं सुन सकते हैं तब क्या केवली श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में रहे हुए शब्दों सुन सकते हैं या विषय से बाहिर के शब्दों सुन सकते हैं ? अहो गौतम ! केवली श्रोत्रेन्द्रिय विषय के अंदर के व बाहिर के सर्वथा दूर के पास के, व बीच के ऐसे सब शब्द जानते व देखते हैं. ● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाजसादजी * ६३८ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | अ० अमर्यादा जा० जानते हैं ऐ० ऐसे दा० दक्षिण में प० पश्चिम में उ० उत्तर उ० ऊर्ध्व अ० { नीचे मि० मर्यादित जा० जानते हैं अ० अमर्यादित जा० जानते हैं स० सब जा० जानते हैं के० केवली स० [सब पा० देखते हैं कं० केवली स० सर्वथा स० सब काल स० सब भाव अ० अनंत णा० ज्ञान के० केवली को अ० अनंत दं० दर्शन नि० प्रगट झा० ज्ञान ते० इसलिये ० यावत् पा० देखते हैं ||२||१० मियंपि जाणइ, अभियंपि जाणइ, एवं दाहिणेणं, पश्ञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं, उड्डूं, अहे मियंपि जाणइ, अमियंपि जाणइ, सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली, सव्वओ सव्वकालं, सव्वभावे, अणंते णाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स, निबुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स, सेतेणट्टेणं जाव पासइ ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! किस तरह केवली दूरके व नजीक, विषयवाले व विषय विनाके सब शब्दों जान व देखसकते {हैं ? अहो गौतम ! केवली पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में प्रमाण सहित गर्भज मनुष्य जीवादि } वस्तु जानते हैं और प्रमाण रहित अनंत असंख्यात वनस्पति जीव तथा पृथ्वीजीवादि वस्तु जानते हैं. Go इस तरह केवली सब जानते हैं व देखते हैं, केवली अतीत, अनागतादि सब काल, उदय उपशमादि सब { भाव व उत्पाद व्यय श्रौव्यादि सब भाव को केवल ज्ञान से जानते हैं व केवल दर्शन से देखते हैं. क्योंकि | केवल ज्ञानी को निरावरण शुद्ध निर्मल अनंत केवल ज्ञान व अनंत केवल दर्शन है. इसलिये केवली सूत्र भावार्थ 4843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पांचवा शतकका चौथा उद्देशा -4 ६३९ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ छ० छ अस्थ म० मनुष्य ह. हसे उ० उत्सुक होये ६० हां ह० हसे उ० उत्सुक होवे ज. जैसे छ० छमस्थ म. मनुष्य त० तैसे के ० केवली णो नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य से० यह के० किसलिये गो० गौतम ज. निसलिये जी. जीव च. चारिप मो० मोहनीय क० कर्म के उ. उदय मे ह. हसते हैं उ० उत्सुक होते हैं से वह के. केवली को न नहीं है ते. इसलिये जा० यावत् नो० नहीं त० तैसे के. केवली . छउमत्थेणं भंते! मणसे हसेजवा, उस्सुयाएजवा? हंता हसेजवा उस्सुयाएजवा जहाणं भंते ! छउमत्थे मणूसे हसे नवा उस्सुआएजधा, तहाणं केवलीवि हसेजवा, उस्सु. याएज्जया ? गोयमा ! जो इण? सम8 । से केण?णं, जाव नोणं तहा केवली । हसेजवा उस्सुआएजवा ? गोयमा ! जणं जीवा परित्तमोहणिनकम्मरस उदएणं हसंतिया उस्सुयायंतिया , सेणं केवलिस्स नस्थि, से तेणटेणं जाव नोणं तहा केवली दूर के, नजीक के सब शब्दों जान क. देख सकते हैं.॥ २ ॥ अहो भगान् ! छमस्थ मनुष्य क्या हसते हैं। व उत्सुक होते हैं ? हां गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य हसते हैं व उत्सुक होते हैं. अहो भगवन् ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य हसते हैं व उत्सुक होते हैं वैसे ही क्या केवली हसते हैं व उत्सुक होते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से केवली नहीं हसते हैं यावत् उत्सुक नहीं होते हैं ? *बो गौतम ! चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जीव हसते हैं व उत्सुक होते हैं वह केवली को नहीं है। * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gk *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-र्थे| सूत्र भावार्थ | पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ह० हसे उ० उत्सुक होवे || ३ || जी० जीव मं० भगवन ह० हसते हुवे उ० उत्सुक होते हुवे क० कितनी क० कर्म प्रकृतियों बं० बांधे गो० गौतम स० सात प्रकार का बं० बंध अ० आठ प्रकार का बं० बंध ॥ ४ ॥ ० नारकी मं० भगवन् ह० हसते हुए उ० उत्सुक होते हुवे क० कितनी क० कर्म प्रकृतियों बं हसेज्जवाउस्सुया एज्जवा ॥ ३॥ जीवेणं भंते ! हसमाणेवा उस्तुयमाणेवा कइकम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा सत्तविहबंधवा, अटुविह बंघएवा ॥ ४ ॥ णेरइएणं भंते ! हसमाणे उस्सुयमाणे कतिकम्म पगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविह पंधरवा, अविह बंधवा. एवं जाव वैमाणिए ॥ ५ ॥ जीवाणं भंते ! हसमाणावा, उस्सुयात्रा कति कम्म पगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधगावा, अट्ठविह इसलिये केवली हसते नहीं है व उत्सुक नहीं होते हैं || ३ || अहो भगवन् ! जीव हसताहुवा व उत्सुक होता हुआ कितने कर्म बांधे ? अहो गौतम ! जिन को आयुष्य कर्म का बंध नहीं होवे उस को सात कर्म प्रकृतियों और जिस को आयुष्य कर्म का बंध होवे उस को आठ कर्म प्रकृतियों का बंध होता है। ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! नारकी इस तरह इसता हुवा व उत्सुक होता हुवा कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध करे ?१ अहो गौतम ! सात कर्म प्रकृतियों का अथवा आठ कर्न प्रकृतियों का बंध करे. ऐसे ही वैनानिकतक के पांचवा शतक का चौथा उद्देशा -- ६४१ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी { बांधते हैं गो० गौतम स० सात प्रकार से आ० आठ प्रकार से बं० बांधते हैं ए० ऐसे जा० यावत् वे ० वैमानिक ॥ ५ ॥ जी० जीव मं० भगवन् ह० हसते हुवें पूर्ववत् ॥ ६ ॥ छ० छद्मस्थ मं० भगवन् नि 1 बंधगात्रा, ॥ णेरइयाणं भंते ! हसमाणा उस्सुयमाणा कतिकम्मप्पगडीओ बंधंति ? गोमा ! सव्वेव ताव होज सत्ताविह बंधगा, अहवा सत्तविह बंधगावि, अट्ठविह बंधगाव, अहवा सत्तविह बंधगाय अट्ठविह बंधगाय, एवं पोहत्तिएहिं जीवेगिंदिय वज्जो तियभंगो, ॥ ६ ॥ छउमत्थेणं भंते ! मणूसे निदाएजवा, पयलाएज्जवा ? हंता आश्रित पृच्छा करते हैं. अहो भगवन् ! बहुत जीव अहो गौतम ! आयुष्य रहित सात का बंध करे व बहुत नारकी हसते उत्सुक होते कितनी कर्म प्रकृतिविना सात का भी बंध करते हैं और आयुष्य ( सहित आठ का बंध करते हैं. वैसे ही यहां कहना १ सब सात का बंध करनेवाले होते हैं २ सात का बंध करनेवाले अथवा आठका बंध करनेवाले ३ सात और आठ का बंध करनेवाले. ऐसे तीन भांगे एकेन्द्रिय { के पांच दंडक छोडकर शेष १९ दंडक में पाते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! छद्मस्थ जीव सुख से शयन चौविस दंडक का जानना ॥ ८ ॥ हसते व उत्सुक होते कितनी प्रकृतियों आयुष्य सहित आठ का बंध करे. यों का बंध करे ? अहो गौतम ! अब बहुत जीव का बंध करे ? अहो भगवन् ! सब जीव आयुष्य * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६४२ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 शब्दार्थ निद्रालेये ५० प्रचलालेवे है. हां नि० निद्रालेवे प० प्रचलालेवे ज० जैसे ह० हसे त० सैसे ण• विशेष द० } * दर्शनावरणीय क• कर्म का उ• उदय से नि०निद्रालेवे प० प्रचलालेवे से वह के• केवली को न नहीं है। 4 अ० अनंत ।। ७॥ जी जीव भं भगवन् नि निद्रालेते ५० प्रचलालेते का कितनी क. कर्म प्रकृतियों F१० बांधता है गो० गौतम स० सात प्रकार का अ० आठ प्रकार का बं. बंथ ऐ. ऐसे जा. यावत् वे०१७ निदाएजवा पयलाएजवा, जहा हसेज्जा तहा. णवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएण, निदायइवा, पयलाइवा ॥ सेणं केवलिस्स नत्थि अणंतं चेव ॥७॥ जीवेणं भंते ! निदायमाणेवा पयलायमाणेवा कतिकम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविह बंधएवा अट्टविहबंधएवा, एवं जाव वेमाणिए ॥ पोहत्तिएसु जीवेगिदिभावार्थ किया जावे वैसी निद्रा या चलते, बैठते जो निद्रा आवे वैसी निद्रा क्या लेते हैं ? हां गौतम ! छद्मस्थ उक्त प्रकार की निद्रा लेते हैं वगैरह सब वर्णन छमस्थ जीव को हसने का आलापक कहा वैसे ही जानना परंतु यहां पर दर्शनावरणीय कर्म के उदय से निद्रा आती है वह कर्म केवली को नहीं होने से केवली निद्रा । लेते हैं ॥ ७॥ अहो भगवन् ! जीव निद्रा, व प्रचला करते कितनी प्रकृतियों का बंध करते अहो गौतम! जीव निद्रा व मचला करते सात अथवा आठ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है. ऐसे ही चौविस 8. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 40 48488 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ६४४ 403 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुलि श्री अमोलक ऋषिजी। वैमानिक में पो० बहुत जी जीव ए. एकेन्द्रियवर्जित ति तीन भं० भांगे ॥ ८॥ १० इन्द्रका भं० भगवन् ह० हरिणगमेषी. स० शक्र का दू० दूत इ० स्त्री का ग• गर्भ सा० साहरते हुवे कि० क्या ग. गर्भ से ग० गर्भ में सा० लेजाता है ग० गर्भ से जो० योनिमें सा० लेजाता है जो० योनिसे ग० गर्भ में सा० लेजाता है जो योनिसे जो योनि में सा• लेजाता है गो० गौतम नो० नहीं ग• गर्भ से ग० __ यवज्जो तिय भंगो ॥ ८ ॥ हरीणं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कदूए इत्थीगभं साहर माणे किं गब्भाओ गभं साहरइ, गब्भाओ जोणिं साहरइ, जोणीओ गब्भं साहरइ, जोणीओ जोणिं साहरइ ? गोयमा ! नो गन्भाओ गम्भं साहरइ, नो गब्भाओ जोणिं दंडक का जानना. वहुत जीव आश्रित एकेन्द्रिय छोडकर शेष के तीन भांगे जानना || ८ ॥ अवस्थापिनी निद्रा में गर्भ का साहरण होता है, इसलिये गर्भ साहरण का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्रका दूत [पादात्यानिकका अधिपति हरिणगमेषी स्त्रीगर्भका साहरण करते क्या जीय सहित पुद्गल पिंड रूपी गर्भ को १ एक गर्भाशय से दूसरे गर्भ में रखता है ? २ गर्भाशय से योनि में रखता है ? ३ योनि से लेकर गर्भ में रखता है ? अथवा ४ योनि से लेकर योनि में रखता है ? अहो गौतम ! शक्र देवेन्द्र का दूत हरिणगमेषी गर्भ को ? गर्भाशय से नीकालकर गर्भाशय में नहीं रखता है, २ गर्भाशय से लेकर योनिद्वार में नहीं रखता है, और ३ योनि से लेकर योनि में नहीं रखता है परंतु ४ योनि से नीका * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालामसादजी * भावार्थ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ | पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 4884 गर्भ में सा० लेजाता है नो नहीं ग० गर्भ से जोः योनि में सा० लेजाता है नो० नहीं जो० योनि से जो योनि में सालेजाता है प० स्पर्श कर अमुख पूर्वक जो योनि से गगर्भ में सालेजाता है ॥२॥ १० ॥ समर्थ भं० भगवन् ४० हरिणगमेषी स. शक्र का दू० दून इ० स्त्री का ग० गर्भ न० नखान से रो ६४९ रोपकूप से मा० रखने को नी नीकालने को हं० हां प० समर्थ नो० नहीं त० उसको ग• गर्भ की किं० ? as | कुच्छ भी आ० आवाधा वि. दुःख उ० उत्पात छ० चर्मछेद पु० पुनः क० करे ए० यह सु० सूक्ष्म की साहरइ, नो जोणीओ जोणिं साहरइ, परामुसिय २ अब्बाबाहेणं अव्वाबाहं जोणीओ गम्भं साहरइ ॥ ९ ॥ पभूणं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कस्सणं दूए इत्थीए गर्भ नहसिरंसिवा रोमकुवंसिवा, साहरित्तएवा, नीहरित्तएवा ? हंबा पभू । णो चेवणं तस्स गब्भस्स किंचि आबाहवा, विबाहंवा, उप्पाएज्ज, छविच्छेदं पुण करेजा, ए सुलेकर गर्भाशय में रखता है. और गर्भ साहरण करते गर्भ को किसी प्रकार की बाधा पीडा नहीं होती है ॥९॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र का दूत हरिणगमेषी नखान से या रोम कूप से स्त्री का गर्भ रखने को अथवा बाहिर नीकालने को क्या सी है ? हां गौतम ! वह हारे गगमेषी देवता गर्भ को नखान स रखने । को व नीकालने को समर्थ है तापि उस गर्भ को किसी प्रकारकी बाधा, पीडा उत्पात व चर्म का छेद नहीं है 50 हाता है. गर्भ साहरण करने का इतना सूक्ष्मपना रहा हुवा है. देव शक्ति से गर्भ नीकालते व रखते हैं। * पांचवा शतक का चौथा उद्दशा * भावार्थ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी {सा० रखना नी० नीकालना ॥ १० ॥ ते० उस का० काल ते म० महावीर का अं० शिष्य अ० अतिमुक्तक ना० नाम के कु यावत् वि० विनीत त० तब से वह अ० अतिमुक्त कु· कुमार उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवंत छोटे स० साधु प० प्रकृति भद्रिक जा० स० श्रमण अ० एकदा म० बहुत वु० वृष्टि में नि० पडती हुई क० कक्षा में प० पात्र २० रजोहरण आ लेकर ब० बाहिर [सं० नीकला वि० ( स्थंडिलकेलिये त० तब से उस स० अतिमुक्त कु० कुमार श्रमणने बा० प्रवाह को प वहता हुत्रा हुमं चणं साहरिजवा, नीहरिज्जवा ॥ १० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्तेनामं कुमारसमणे पगइभदए जाब विणीए तएण से अइमुत्ते णामं कुमारसमणे अण्णयाकयाई महावुट्टिकायंसि निवयमाणसि कक्खषडिग्गहरयहरण. मायाए बहिया संपट्टिए विहाराए तएणंसे अइमुत्ते कुमार समणे वाहयं वहयमाणं पासइ २ त्ता, मट्टियपालिं बंधइ २ णावियामे २ नाविओवि { जाना नहीं जाता है ॥ १० ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के भद्रिक यावत् विनीत प्रकृतिवान् अतिमुक्त (अइमते) कुमार श्रमणे एकदा महावृष्टि हुए बीछे रजोहरण व पात्र लेकर १ आठ वर्ष पहिले दीक्षा ग्रहण नहीं करते हैं, परंतु अतिमुक्त कुमारने छ वर्ष में ही दीक्षा ग्रहण की थी जिससे कुमार श्रमण नाम रखा था. * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ६४६ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ पा० देखकर म0 मृत्तिका कोपा पाल बं बांधकर ना० नाव मे मेरी ना. नाविक समान णा नावा* का अ० वह प० पात्र उ. पानी में प० वहाते हवे अ० क्रीडा करते हैं तं. उसे थे स्थविरोंने अदेखा जे. जहां स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ते वहां उ० आये ऐ० ऐसा व० बोले ए. ऐसे ख.x निश्चय दे० देवानुपिय का अंशिष्य अ० अतिमक्त णा नामके ककमार श्रमण से वह भं० भगवन ॐ क०कितने भ० भवग्रहण में सि० सिझेंगे बु० बुझेंगे जा यावत् अं०. अंतकरेंगे अ० आर्य स० श्रमण भं०ी . भगवन् म० महावीर ते० उन थे० स्थविर को ए० एसे ब० बोले ए० ऐसे अ० आर्य ममेरा अंशिष्य वणावमयं पडिग्गहयं उदगंसि पवाहमाणे अभिरमइ तंच थेरा अदक्खु जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी, अइमुचेनामं कुमारसमणे । सेणं भंते ! अइमुत्ते कुमारसमणे काहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति? अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी एवं खलु अजो ! ममं अंतेवासी. अइमुत्तेणामं कुमारसमणे पगइभद्दए जाव विणीए, भावार्थ 0 वाहिर भूमिका को गये. वहांपर उन अतिमुक्त कुमार श्रमणने पानी का प्रवाह वहता हुवा देखकर मृत्तिका से पाल बांधकर पानी को रोका. इस तरह पानी को रोककर 'यह मेरी नाव है यह मेरी नाव है.' सा संकल्प किया. जैसे माविक नाव को चालता है वैसे ही आतिमुक्त कुमार श्रमण नाव रूप पात्र को 488 पंचमांग विवाह षण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र *38*3-48 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा ka Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ शब्दार्थ 4 अ० अतिमुक्त कु. कुमारश्रमण ५० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि० विनीत से० वह अ० अतिमुक्त. कु० कुमार स० श्रमण ए० इस भ० भव में सि० सिझेंगे जा. यावत् अं० अतं करेंगे ते. इसलिये मा० } मत तु• तुम अ० अतिमुक्त कु• कुमार श्रमण की ही. हीलना करो नि० निंदाकरो खिं० खिंसना करो ग गर्दाकरो अ० निरस्कार करो तु• तुम अ० अतिमुक्त कु. कुमार श्रमण को अ० ग्लानि रहित सं० अंगीकार करो उ० ग्रहण करो भ० भक्त पा० पान वि० विनय से वे वैय्यावृत्य क० करो अ० अतिमुक्त कु० कुमार श्रमण अं० अंत करने वाले अं० अंतिम शरीरी त० तब थे० स्थविर भ० भगवंत स० सेणं अइमुत्ते कुमारसमणे एमेणंचेव भवम्गहणेणं, सिज्झिहिइ जाव अंतं करेहिइ ॥ तंमाणं अजा ! तुब्भे अइमुत्तं कुमारसमणंहीलह,निंदह,खिंसह,गरहह अवमण्णह, तुब्भेणं देवाणुप्पिया अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हह अगिलाए भत्तेणं, पाणेणं विणएणं,क्यावडियं करेह.अइमुत्तेणं कुमारसमणे अंतकरे चेव, अंतिमभावार्थ पानी में बहता हुवा रखकर खेलने लगे. इस तरह करते हुवे अतिमुक्त कुमार को स्थविरने देखे और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आकर ऐसे बोले कि अहो भगवन् ! आपका अतिमुक्त नामक शिष्य कितने भव में सिझेंगे बुझेंगे यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी । बोले कि अहो आर्यों मेरा शिष्य आतिमुक्त नामक कुमार साधु इसी भव में सिझेंगे यावत् सब दुःखों का अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालामसाइजा* Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434.38 ( भगवती ) सूत्र शब्दार्थ श्रमण भ० भगवंत म०:महावीर से ए० ऐसा बु· कहाये हुवे स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को १०० वंदना करते हैं अ० अतिमुक्त कु० कुमार श्रमण को अ० ग्लानिरहित सं० अंगीकार करते हैं जा. यावत् वे० वैयावृत्य क० करते हैं ॥ ११ ॥ ते. उस का०काल ते. उस स० समय में म० महाशक्र क. देवलोक से म० महास्वर्ग वि० विमान से दो० दो दे. देव म० महदिक जा. यावत् म०y सारीरिए चेव, ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तासमाणा समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति जाव वेयावडियं करंति ॥ ११ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्काओ कप्पाओ महासग्गाओ विमाणाओ दो देवा महिड्डिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ भावार्थ अंत करेंगे. इसलिये अहो आर्यों ! तुम उन की हीलना, निंदा, खिंसना, गर्दा व तिरस्कार मत करो परंतु अग्लानपने उन को अंगीकार करो, उपष्टंभ करो और भक्त, पान व विनय से उन की वैयावृत्य करो. क्योंके अतिमुक्त कुमारश्रमण अंत करनेवाले चरिम शरीरी हैं. जब श्री श्रमण भगवंत महावीर og स्वामीने ऐसा कहा तब वे स्थविर भगवंत श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार कर आतिमुक्त कुमार श्रमण ?x 56 को अमलानपने अंगीकार करनेलगे यावत् भक्त पान व विनय से उन की वैय्यावृत्य करनेलगे ॥ ११ ॥ उस माल उस समयमें महाशुक्र देवलोकमेंसे महर्दिक यावत् महानुभागवाले दो देव श्रीश्रमण भगवंत महावीर विवाह पण्णत्ति पांचवा शतक का चौथा उद्देशा 8-488+ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी महानुभाग काले स. श्रमण भ० भगवंत म० महावीर की अं० समीप पा० आये त० तब ते० वे दे० देव । श्रमण भ० भगवत म० महावीर को म. मन से वं. वंदना करते हैं न नमस्कार करते हैं स्कार करके इ० यह एक ऐसा वा० प्रश्न पु० पछते हैं क० कितने दे०देवानुप्रिय के अं० शिष्य स० सोम सिलसिझेंगे जा. यावत् अं० अंत क. करेंगे त तब स०श्रमण भ०भगवन्त म० महावीर ते० उन दे. देवों इसे म० मन से पु० पुछाये हुवे ते. उन दे० देवोंको म० मनसे ही इ० यह एक ऐसा म मेरे स० अं० शिष्य स० सो० सि. सिझेंगे जा० यावत् अं• अंत करेंगे त० तब ते वे दे० देवों स० श्रमण महावीरस्स अंतियं पाउब्भूया ॥ तएणं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणसाचेव वंदति नमसंति नमसंतित्ता, मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति-कइणं देवाणुप्पियाणं अंतेवासिसयाई, सिज्झिहिंति जाव अंतं करोहिंति ? ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहिं मणसा पुढे, तेसिं देवाणं मणसाचेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ - एवं खलु देवाणुप्पिया ममं सत्त अंतेवासिसयाइं सिज्झिहिंति भी स्वामीकी पास आयें और उनोंने श्रमण भगवंत महावीर स्वामीको मन से ही वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न पूछा कि अहो देवानुप्रिय ! आप के कितने सो शिष्य सिझेंगे, बुझेंग यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे? उन मन से पूछे हुवे प्रश्नोंका महावीर सामीने. मन से ही उत्तर दिया कि मेरे सात सो शिष्य सिझेंगे, बुझेंगें । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * : Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8882 भगवंत म. महावीर से म० मन में पु० पुछा हुवा म० मन से ही इ० यह ए. ऐसा वा०प्रश्न वा कहाहुवा ह० हृष्ठ जा० यावत् हि० हृदय स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को पं० वंदना करते हैं न० नमस्कार करते हैं म० मन से ही सु० शुश्रुषा करते ण नमस्कार करते अ० सन्मुख जा. यावत् प० पर्युपासना करते हैं ॥ १२ ॥ ते. उस काल ते० उस समय में स० श्रमण भ० भगवंत का जे० ज्येष्ट अं० शिष्य इं० इन्द्रभूति अ० अनगार जा० यावत् अ० पास उ० ऊर्ध जा० जंघा जा. यावत् वि०विचरते जाव अंतं करोहिंति ॥ तएणं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेण मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरियासमाणा, हट्ठट्ठ जाव हियया समणं भगवं महावीरं बंदंति णमंसंति, मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति ॥ १२ ॥ तेणं कालेणं तेणं सभएणं समणरस भगव ओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी, इंदभूईणामं अणगारे जाव अदूरसामंते उढं जाणू यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे. इस तरह मन से पूछे हुवे प्रश्नों का मन से ही उत्तर सुनकर उक्त देवों हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवे, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार किया और मन से ही शुश्रुषा व नमस्कार करते हुवे सन्मुख यावत् पर्युपासना करने लगे ॥१२॥ उस काल उस समयमें श्री श्रमण भगवंत के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार पास में ऊर्ध जानु व अधोशिर करके ध्यान करते हुवे विचरते है। 4.१४-80*> पांचवा शतकका चौथा उद्देशा 4842 भावार्थ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी हैं त० तब तक उन भ. भगवंत गो० गौतम को झा० ध्यान में व० रहते हुवे इ० यह ए. ऐसा अ. अध्यवसाय जा. यावत् स० उत्पन्न हुआ ए. ऐसे ख० निश्चय दो० दो दे. देव म. महद्धिक जा. यावत् प०महानुभाग वाले स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर की अं० पास आये तं० इसलिये नो. नहीं अ० में ते. उन दे० देवोंको जा० जानता हूं क० कितने क. देवलोक में से स० स्वर्ग में से वि० विमान में से क. किस अ. अर्थ केलिये इ० यहा ह. शीघ्र आ० आये तं, इसलिये ग. जाऊं भ. जाव विहरइ तएणं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेया रूवं अब्भस्थिए जाव समुप्पजिस्था एवं खलु दो देवा महिड्डिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया. तं नो खलु अहं ते देवा जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओवा विमाणाओवा कस्सवा अस्थस्स अट्ठाए इहं हन्व मागया तं गच्छामिणं समणं भगवं महावीरं जाव पज्जुवासामि. इमाइं चणं एयारूवाइं भावार्थ थे. उस समय में भगवान गौतम को ध्यान करते हुवे ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि श्री श्रमण भग-3 वन्त महावीर स्वामी की पाम दो महदिक यावत् महानुभाग देव आये हुवे हैं.. परंतु वे देवों कौन से देव लोक के विमान में से किमलिये आये हवे हैं सो मैं नहीं जानता हूं; इसलिये में श्री श्रमण भगवन्त की | ७ पास जाऊं और पर्युपासना करके उक्त प्रश्नों पूडूं. ऐसा विचार करकेश्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीकी पास अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्था भगवन्त म० महावीर की जा० यावत् प० पर्युपासना करूं इ० ये ए० ऐसे वा० प्रश्न पु० पूछू ति ऐसा करके ए० ऐसा सं० विचार करके उ० उपस्थित होकर जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ( जा० यावत् प० पर्युपामना करते हैं. गो० गौतम स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर ए०ऐसे ब०बोले से अथ णू० शंकादर्शी त० तुझे गो० गौतम झा० ध्यान में व० रहते इः यह ए० ऐसा अ० अध्यवसाय जा० यावत् ने० जहां म० मेरी अं० समीप ते ० वहां ह० शीघ्र आ० आया से० अथ णू० शंकादर्शी अ वागरणाई पुच्छरसामित्तिकद्दु । एवं संपेहेइ २ ता उट्ठाए उट्ठेइ २ त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासइ । गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी सेणूणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेत्र हल्वमागए, से णूणं गोयमा ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अत्थि तं गच्छाहिणं गोयमा ! एए वेत्र देवा इमाई एयारूबाई वागरणाई वागरेर्हिति । तएणं ( गौतम स्वामी आये. श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने कहा कि अहो गौतम ! तुझे ध्यान करते हुवे ऐसा अध्यवसाय यावत् संकल्प हुवा कि ये महर्द्धिक देवों कहां से व किसलिये मेरी पास आये हुवे हैं ? और इसका नि{र्णय करने को तू मेरी पास आया हुवा है यह क्या सत्य है ? हां भगवन् ! यह सत्य है. तब है? गौतम ! तू इन देवों की पास जा और तुझे ये देवों उक्त प्रश्नों का उत्तर देवेंगे. इस तरह भगवन्त की सूत्र भावार्थ 486+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र - 44 पांचवा शतकका चौथा उद्देशा +4 ६५३ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ+अर्थ स० योग्य ह० हां अ० है ० इसलिये ग० जा गो० गौतम ए० ये ( वा० प्रश्नों वा कहेंगे त तब भ० भगवान गो० गौतम स० श्रमण भ० आज्ञा होते स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वं० वंदना की ण० वे दे० देव ते० तहां पा० नीकला ग० जाने को त० तब ते० वे दे० सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी दे० देव इ० इन ए० ऐसे भगवन्त म० महावीरें की अ नमस्कार किया जे० जहां ते० देव भ० भगवन्त गो० गौतम को ए० आते हुवे पा० देखा ह० दृष्ट तुष्ट जा० यावत् हि० हृदय खि० शीघ्र अ० उपस्थित भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णेसमाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, जेणेव ते देवा तेणेव पाहारेत्थगमणाए ॥ तपुणं ते देवा भगवं गोमं एजमाणं पासइ हट्ट तुट्ठ जाव हियया खिप्पामेव अब्भुट्ठेति २ त्ता, खिप्पामेव पच्चुवगच्छंति, जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति २ जाव णमंसित्ता एवं वयासी भंते ! अम्हे महासुक्काओ कप्पाओ महासग्गाओ विमाणाओ दो देवा महि ( आज्ञा मीलने पर भगवान् गौतम स्वामी उक्त दोनों देवों की पास जाने को नीकले. उस समय में उक्त देवों भगवन्त श्री गौतम स्वामी को आते हुये देखकर हृष्ठ तुष्ट यावत् आनंदित होते हुए शीघ्र उपस्थित दुबे और भगवन्त श्री गौतम स्वामी की पास गये. उन को नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो पूज्य ! हम * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * - ६५४ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ६५५ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) - हुवे खि० शीघ्र प० सामने गये जे. जहां भ० भगवन्त गो० गौतम ने वहां उ० आये जा. जावत् प० । नमस्कार कर ए. ऐसे व० बोले ए० ऐसा ख० निश्चय भं० भगवन् अं० हम म० महाशुक्र म० महास्वर्ग वि० विमान से दो० दो देव म०महर्द्धिक जायावत पा० आये त० तब अ० हम स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को वं. चांदे न० नमस्कार किया म० मन से ए. ऐमा वा प्रश्न पु० पूछे क• कितने भं० भगवन दे देवानुप्रिय के अं०शिष्यसि. सिझेंगे जा० यावत् अं अंतकरेंगे त०तब स० श्रमण भ भगवन्दी ड्ढीया जाव पाउब्भया । तएणं अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो २ . मणसा चेव इमाइं एयारूवाइं वागरणाई पुच्छामो-कइणं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासि सयाई सिज्झिहिति, जाव अंतं करोहिंति ! तएणं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे अम्हं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्तअंतेवासिसयाइं जाव अंतं करेहिति, तएणं अम्हे समजेणं भगवया महामहर्द्धिक यावत् महानुभाग दो देव महाशुक्र देवलोक में महा स्वर्ग विमान से आये हुवे हैं. और हमने श्री श्रमण भगवंत महावीर को मन से ऐसा प्रश्न पूछा कि आप के कितने मो शिष्य सिझेंगे, बुझेंगे। यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे. इस तरह मन से पूछाये हुवे प्रश्नों का श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने मन से ही ऐसा उत्तर दिया कि अहो देवानुप्रिय ! मेरे सातसो शिष्य सिझेंगे, बुझेंगे यावत् । 808 पांचवा शतकका चौथा उद्देशा maana 8 60 98. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *म० महावीर से पु० पुछाये हुवे अ० हम को म० मनसे ही इ० यह ए० ऐसा बा० प्रश्न वा० कहा ऐ० ऐसे दे० देवानुप्रिय शेष पूर्ववत् ति० ऐसा क० करके भ० भगवन्त गो० गौतम को वं० वंदना की ण० नमस्कार किया जा जिस दि० दिशी से पा० आये ता० उसी दि० दिशी में ५० पीछे गये ॥ १३ ॥ भ० भगवन् गो० गौतमने स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ए० ऐसा व० कहा दे० देव मं० भगवन् सं० संयति ति० ऐसी व० वक्तव्यता ति० होवे. गो० गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य वीरेणं मणसा पुट्टेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरियासमाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो नम॑सामो जात्र पज्जुवासामो तिकट्टु भगवं गोयमं वंद मंस जावदिसि पाउ भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥ १३ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं एवं वयासी- देवाणं भंते ! संजयाइ वत्तव्वंसिया ? गोयमा ! सब दुःखों का अंत करेंगे. इस तरह मन से पूछे हुवे प्रश्नों का उत्तर मनद्वारा मीलने से हमने श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया. इतना कहकर वे देवों श्री गौतम स्वामी को वंदना नमस्कार { करके जहां से आये थे वहां पीछे गये || १३ || भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीर बोले कि अहो भगवन् ! क्या ' देव संयति हैं ' ऐसी वक्तव्यता होवे ? अहो गौतम ! { नहीं है. क्योंकि देवों को संयति कहने से अभ्याख्यान ( असत्य आल ) होता है. तब स्वामी को ऐसे यह अर्थ योग्य क्या भगवन् ! सूत्र भावार्थ २०२ अनुवादक - लह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी जालाप्रसादजी *# ६५६ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 4 अ० अभ्याख्यान ए०. यह दे० देवों को भं० भगवन् अ० असंयति व. वक्तव्यता सि० होवे गो गौतम । णो नहीं इ० यह अ० अर्थ स० योग्य णि निष्ठुर व० वचन ए० यह दे० देवोंको दे० देवोंको भं०१० भगवन् सं० संयतासंयति व० वक्तव्यता सि० होवे गो• गौतम णो नहीं इ० यह अ० अर्थ स० योग्य । अ० असद्भूत ए० यह दे० देवोंको से० अब किं. क्या खा० कहावे दे देव गो० गौतम दे देव नो0 नोसंयति व० वक्तव्यता सि० होवे ॥ १४ ॥ दे० देव भं० भगवन् क. कौनसी भा० भाषा से भा० णो इणटे समढे, अब्भक्खाणमेयं देवाणं ॥ देवाणं भंते ! असंजयाइ वत्तव्वंसिया ? गोयमा ! णोइणटे समटे, णिहरवयण मेयं देवाणं ॥ देवाणं भंते ! संजयासंजयाइ वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! जो इणटे समढे असन्भूयमेयं देवाणं॥से किं खाइण्णं भंते ! देवाइ वत्तव्वंसिया ? गोयमा ! देवाणं नो संजयाइ वत्तव्वंसिया ॥ १४ ॥ देवाणं देवों को असंयति कहना ? यह अर्थ योग्य नहीं हैं क्यों कि ऐसा कहने से देवों को निष्ठुर (कठोर ) वचन लगता है. क्या भगवन् ! देवों को संयतासंयति कहना ? यह अर्थ भी योग्य नहीं है क्यों कि देवों को यह असद्भूत (अछता भाव ) होवे. तब अहो भगवन् ! देवों को क्या कहना ? अहो गौतम !* 'देव नोसंयति हैं ' ऐसा कहना ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! देव कितनी भाषा बोलते हैं और कौनसी भाषा पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 4088t nuarunamoonawanww पांचवा शतकका चौथा उद्देशा ** 48 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 08 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी बोले क० कौनसी भा० भाषा भा० बोलाती हुई वि० विशिष्ठ होवे गो० गौतम दे० देव अ० अर्ध मागची भा० भाषा भा० बोले स० वही अ० अर्थ मागवी भा० भाषा भा० बोलाती हुई वि० विशिष्ट होवे ॥ १५ ॥ के० केवली भ० भगवन् अं० अंतकरने वाले अ० अंतिम शरीर वाले को जा० जानते हैं पा० देखते हैं ० हां गो० गौतम जा० जानते है पा० देखते हैं ज जैसे भ० भगवन के० कंवली अं० भंते ! कराए भासा भासंति, कयरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सइ ? गोपमा ! देवाणं अब मागाए भासाए भासंति, सावियणं अर्द्धमागहा भासा भासिजमाणी विसिस्सइ | केवलीणं भंते ! अंतकरंवा अंतिमसारीरियंवा जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! जाणति पासति ॥१५॥ जहाणं भंते केवली अंतकरंवा अंतिमसारीरियंत्रा जाणइ पाणइ, तहाणं छउमत्थेवि अंतकरंवा अंतिमसारीरियंवा जाणइ पासइ ? बोलने से विशिष्टता पाते हैं ? अहां गौतम ! देवों अर्धमागध भाषा बोलते हैं और अर्धमागध भाषा बोलते हुवे विशिष्ठता पाते हैं || १५ || अहो भगवन् ! केवली अंतकरनेवाले अथवा अंतिम शरीरवाले है को जाने देखे ? हां गौतम ! केवली अंतकरनेवाले व अंतिम शरीवाले को जाने देखे. { जैसे केवली अंत करनेवाले व अंतिम शरीरी को जानते देखते हैं वैसे ही { जानते देखते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं. छद्मस्थ सुनकरके व प्रमाण से जानते अहो भगवन् ! क्या छद्मस्थ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६५८ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -सूत्र 888 ragnmmmmmmmmmmmmmmmmmm 80 पंचगंग विवाह पण्णा अंतकरने वाले अं: अंतिम शरीर वाले को जा० जानते हैं पा०देखते हैं त० तैसे छ ० छद्मस्थ भी अं० अंत | करने वाले अं० अंतिम शरीर वाले को जा० जानते हैं पा० देखते हैं गो० गौतम णो नहीं इ. यह ॐ. अर्थ स० समर्थ सो० सुनकर प० प्रमाण मे से० अथ किं. क्या तं. वह मो० सुनकर के. केवल के. केवली के शारक के केवली मा० श्राविका का उ० सेवा करने वाला के० केवली की उ० सेवा करने वाली के त० स्वयं बुद्ध त० स्वयं बुद्ध के सा० श्रावक मा. श्राविका उ० सेवा करने वाला उ a गोयमा ! णोइणटे समटे सोच्चा जाणई पासइ, पमाणओवा ॥ से किंतं सोचा? सोचाणं ! केबलिस्सवा, केवलिसावयस्सवा, केवलिसावियाएवा, केवलिउवासग्गस्सवा, केबलिउवालियाएवा, तप्पक्खियस्सवा, तप्पक्खियसावयस्सवा, तप्पक्खियसावि? याएवा, तप्पक्खियउवासगस्सवा, तप्पक्खिय उवासियाएवा, सेतं सोचा ॥ से किंतं देखते हैं. सुनने का क्या अर्थ है ? कवली, केवली के श्रावक, श्राविका, सेवा करनेवाले, सेवा करनेवाली, स्वयंबुद्ध, स्वयंबुद्ध के श्रावक, श्राविका, सेवा करनेवाले व सेवा करनेवालियों के मुख से श्रवण, oxo करके छद्मस्थ मनुष्य अंत करनेवाले व अंतिम शरीरी को जानते व देखते हैं. अब प्रमाण का क्या अर्थ ? प्रमाण के चार भेद कहे हैं. १ चक्षु वगैरह इन्द्रियों से जाना जावे सो प्रत्यक्ष २ चिन्ह संबंध स्मरण से जो जाना जावे सो अनुमान; जैसे धूम्र से अग्नि का जानना. ३ उपमा से जाना जावे सो उपमा प्रमाण जैसे पांचवा शतक का चौथा उद्देशा शा : Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालबाह्मचरिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सेवा करने वाली के से० अथ कि० क्या प० प्रमाण च० चार प्रकार के ५० प्रत्यक्ष अ० अनुमान ओ० उपमा आ० आगम ज० जैसे अ० अनुयोग द्वार में त० तैसे णे० जानना ५० प्रमाण ते० उस से प० आगे णो० नहीं अ० आत्मागम णो नहीं अ० अनंतरागम ५० परंपरागम ॥ १६ ॥ के० केवली भं० भगवन च० छेल्ला कर्म च० चरिम निर्जरा जा० जाने पा० देखे हं० हां गो० गौतम जा० जाने पा० देखे __ पमाणे ? पमाणे चउबिहे पण्णते तंजहा-पञ्चक्खे, अणुमाणे, ओवमे; आगमे, जहा अणुओगद्दारे तहा णेयलं पमाणं जाव तेण परं णो अत्तागमे, णो अनंतरागमे, परंपरागमे ॥ १६ ॥ केवलीणं भंते ! चरिमकम्मेवा, चरिमणिज्जरंवा जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! जाणइ पासइ ॥ जहाणं भंते ! केवली चरिम कम्मवां चरिमणिगाय जैसा गवये, ४ गुरु की परंपरा से आप्त वचनों को मुनकर जानना सो आगम प्रमाण. इस का विशेष विवरण अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है. आत्मागम अर्थ से वीतराग को आत्मागम, गणधरों को अनंतरागम ओर शिष्यों को परंपरागम. सूत्र से गणधरों को आत्मागम, शिष्यों को अनंतरागम व प्रशिष्यों को परंपरागम जानना ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! क्या केवली चरिम कर्म व चरिम निर्जरा को जानते हैं व १वन का पशु विशेष, इसे रोझ भी कहते हैं. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी * भाव Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ज० जैसे मं० भगवन् के केवली च० चरिम कर्म ज० जैसे अं० अंत करने वाले आ० आलापक त तैसे च० चरिम कर्म से अ० अपरिशेष णे० जानना ॥ १७ ॥ के० केवली भं० भगवन् प० प्रकृष्ट म० मन व० वचन धा० धारण करे ६० हां धा० धारन करे ज० जो भं० भगवन् के केवल ज्ञानी प० प्रकृष्ट म० मन व० वचन धा० धारणकर तं० उसे वे० वैमानिक देव जा० जानते हैं पा० देखते हैं गो० गौतम अ० जवा जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! जाणइ पासइ । जहाणं भंते ! केवली चरिमकम्मंत्रा जहाणं अंतकरेणं आलावगो, तहा चरिम कम्मेणवि अपरिसेसिओ व्व ॥ १७ ॥ केवलीणं भंते ! पणीयं मणंवा, वईवा धारेज्जा ? हंता धारेज्जा ॥ भंते! केवल पणीयं मणंवा वइंवा धारेज्जा, तं णं वेमाणिया देवा जाणंति देखते हैं ? हां गौतम ! केवल चरम कर्म व चरिम निर्जराको जानते व देखते हैं. जैसे केवली चरिम कर्म व निर्जरा को जानते हैं वैसे ही क्या छद्मस्थ जानते हैं व देखते हैं ? अहो गौतम ! इस का सब अधिकार उपर के अंतकरे आलापक जैने कहना ||१७|| अहो भगवन्! क्या केवली श्रेष्ठ मन वचन धारे-उन का { व्यापार करे ? हां गौतम ! केवली श्रेष्ठ मन वचन का व्यापार करे. अहो भगवन् ! जो मन वचन ॐ केवली धारण करते हैं उन को वैमानिक देव क्या जानते व देखते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक वैमा{निक देव जानते हैं व देखते हैं और कितनेक नहीं जानते हैं व नहीं देखते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से भावार्थ 4 पंचमग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 38- 48 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा 80-8 ६६१ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) भावार्थ कितनेक do मिथ्यादृष्टि जा० जानते हैं पा• देखते हैं से० अथ के० कैसे जा० यावत् ण०नहीं जा० जानते हैं गो० गौतम) वे० वैमानिक दे० देव दु० दोप्रकार के प० कहे मा० मायावी मि० मिध्यादृष्टि उ० उत्पन्न हुवे अ० ( अमायावी स० सम्यग् दृष्टि उ० उत्पन्न हुए त० उन में जे ० जो ते० वे मा० मायावी मि० उ० उत्पन्न होने वाले ते० वे न० नहीं जा० जानते हैं न० नहीं पा० देखते हैं ऐ० ऐसे अ० अनंतर पासंति ? गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति पासंति, अत्थेगइया णजाणंति णपासंति ॥ से केणट्टेणं जाव णपासंति? गोयमा ! वेमाणिया देवा दुविहा प०तं॰ मायिमिच्छादिट्ठिउववण्णगाय, अमाथिसम्मादिविवण्णगाय । तत्थणं जे ते माइमिच्छदिट्टिउवकितनेक जानते, देखते हैं और कितनेक नहीं जानते हैं व नहीं देखते हैं ? अहो गौतम ! वैमानिक देव दो ( प्रकार के कहे हैं. १ मायी मिध्यादृष्टि उत्पन्न हुने और २ अमायी सम्यग् दृष्टि उत्पन्न हुवे उन में से {मायी मिध्यादृष्टि नहीं जान सकते व नहीं देख सकते हैं परंतु अमायी सम्यग् दृष्टि जान व देख सकते हैं. अमायी सम्यग्दृष्टि के दो भेद अनंतर उत्पन्न होनेवाले और परंपरा उत्पन्न होनेवाले उस में से अनंतर ( उत्पन्न होनेवाले नहीं जान सकते हैं परंतु परंपरा उत्पन्न होनेवाले जान सकते हैं. परंपरा उत्पन्न होने { वाले के दो भेद पर्याप्त व अपर्याप्त उत में अपर्याप्त नहीं जान सकते हैं परंतु पर्याप्त जान सकते हैं. पर्याप्त दो भेद उपयोग युक्त व उपयोग रहित उस में उपयोगवाले जान सकते हैं परंतु उपयोग विना के नहीं 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ६६२ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १०प० परंपर प० पर्याप्त अ० अपर्याप्त उ० उपयोगयुक्त उ० उपयोग रहित त उन में जे० जो उ० उपयोग वाले | |ore जा० जानते पा० देखते हैं से० अथ ते• इसलिये तं• वैसे ही ॥ १८ ॥ ५० समर्थ भ० भगवर अ०१० अनुत्तरोपपातिक दे० देव त• वहां रहे हुवे इ० यहां रहे हुवे के केवली की स० साथ आ. अलाप। सं० संलाप क० करने को है ० हां प० समर्थ के० कैसे जा० यावत् प० समर्थ अ० अनुत्तरोपपातिक वण्णगा ते न जाणंति न पासंति । एवं अणंतर, परंपर, पजत्त, अपज्जत्ताय, उवउत्ता अणुवउत्ता, ॥ तत्थणं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति, से तेण?णं तंचव ॥१८॥ पभूणं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा. इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावंवा संलावंवा करेत्तए ? हंता पभू । से केणटेणं जाव पभूणं अनुत्तरोवधाइयादेवा जाव करेत्तए ? गोषमा ! जणं अणुत्तरोवधाइया देवा तत्थगया जान सकते हैं अर्थात् उपयोगवन्त अमायी सम्यग्दृष्टि परंपरा उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त देव जान सकते हैं व देख} 50 सकते हैं. इसलिये ऐसा कहा गया है॥१८॥अहो भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकदेव वहां रहे हुवे ही यहां मनुष्य लोक में रहे हुवे केवली की साथ आलाप संलाप करने को क्या समर्थ हैं ? हां गौतम ! वे देवों यहां पर 1 केवली की साथ आलाप संलाप करने को समर्थ हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से वे समर्थ हैं ? अहो पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ११ पांचवा शतक का चौथा उद्देशा >> भावार्थ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी । दे० देव जा. यावत् क० करने को गो० गौतम ज• जो अ० अनुत्तरोपपातिक दे देव तक वहां रहे हुवे अ० अर्थ हे • हेतु प० प्रश्न का कारन वा० व्याकरण पु० पुछते हैं त• उसे इ० यहां रहे हुए के० केवली अ० अर्थ जा. यावत् वा० कहते हैं ते. इसलिये ज० यदि भं० भगवन् गो० गौतम ते. उन दे० देवों को अ० अनंत म० मनोद्रव्य व० वर्गणा ल० लब्ध प० प्राप्त अ० सन्मुखहुई ते. इसलिये के० चेव समाणा अटुंवा, हेउवा, पसिणंवा कारणंवा, वागरणंवा पुच्छंति, तणं इहगए __ केवली अटुंवा जाव वागरणंवा. वागरेइ से तेणटेणं । जइणं भंते ! इहगए केवली अटुंवा जाव वागरेइ तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा जाणंति पासंति ? हंता गोयमा ! जाणंति, पासंति । से केणद्वेणं जाव पासंति ? गोयमा ! ' तसिणं देवाणं अणंताओ मणीदव्व वग्गणाओ लढाओ पत्ताओ अमिसमण्णागयाओ। गौतम ! * अनुत्तरकल्पवासी देव. वहां रहे हुवे जो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारन, व्याकरण वगैरह पूछते हैं." उन का उत्तर केवली यहां रहे हुवे देते हैं इसलिये वे देवता समर्थ हैं. अहो भगवन् ! यहां रहे हुवे केवली जो अर्थ, हेतु वगैरह कहते हैं उन को अनुत्तर कल्पवासी देव क्या वहां रहे हुवे जान व देख सकते हैं ? हां गौतम ! वे जान व देख सकते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से वे जान व देख सकते हैं ? * बारहवा अच्युत देवलोक से उपरके देवलोक के देवताओं का मनुष्य लोक में आगमन नहीं ह्येता है. . * प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी * भावार्थ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | केवली जा० यावत् पा= देखते हैं ॥ १९ ॥ अ० अनुत्तरोपपातिक भ० भगवन दे० देव किं० क्या उ०१ उदित मोहवाले उ० उपशान्त मोहवाले खी० क्षीणमोहवाले गो० गोनम नो० नहीं उ० उदितमोहवाले (उ० उपशांत मोहवाले णो० नहीं खी० क्षीणमोह वाले ॥ २० ॥ के० केवली भं० भगवन् आ० भवंति से तेणट्टेणं जण्णं इहगए केवली जाव पासइ ॥ १९ ॥ अणुत्तरोक्वाइयाणं भंते! देवा किं उदिष्णमोहा, उवसंतमोहा, खीणमोहा ? गोयमा नो उदिष्णमोहा, उबसंतमोहा, णो खीणमोहा ॥ २० ॥ केवलीणं भंते ! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? ( अहो गौतम ! उन को अनंत मनोद्रव्य वर्गणा विशेषपनासे प्राप्त हुई है, सामान्यपना से प्राप्त हुई है, व सन्मुख हुई है. इसलिये अहो गौतम ! यहांपर कंवली जो अर्थ, हेतु कहते हैं उन को अनुत्तर कल्पवासी देव वहां रहे हुवे जान सकते हैं व देख सकते हैं * ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! अनुत्तर कल्पवासी देव [ क्या उदित [ उदय हुवा ] मोहवाले हैं, उपशान्त मोहवाले हैं, या क्षीण मोहवाले हैं ? अहो गौतम ! वे उदित मोहवाले नहीं हैं वैसे ही क्षीण मोहवाले नहीं है परंतु उपशांत मोहवाले हैं ॥ २० ॥ अहो * अनुत्तर कल्पवासी देवों का अवधिज्ञान संभिन्नलोकनाडीविषयवाला है. जो अवधिज्ञान लोक नाडी ग्राहक होता - है वह मनोद्रव्य वर्गणा का ग्राहक भी होता है. और भी मात्र लोक का संख्यात भागवाला अवधिज्ञान होता है वह भी ॐ मनोद्रव्यग्राही होता है, तो लोक नाडी विषयवाला अवधिज्ञान क्यों मनोद्रव्यग्राही न होवे ? अर्थात् मनोद्रव्य वर्गणा ग्राही होवे सूत्र भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 40 403 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा - 808 fe ६६५ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र १ इन्द्रिय से जाजाने पा० देखे णो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ के० किसलिये जा० यावत् शेष पूर्ववत् । ॥ २१ ॥ के. केवली भं० भगवन् अ० इस स० समय में जे० जिन आ० आकाश प० प्रदेश में ह• हस्त पा० पांव वा० बाहु उ० जंघा उ० अवगाह कर चि० रहते हैं प० समर्थ के. केवली से० आगामिक भी ___णो इणटे समटे । से केणटेणं जाव केवलीणं आयाणेहिं न जाणइ न पासइ ? गोयमा ! केवलीणं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ, अमियंपि जाणइ, जाव निव्वुड़े दंसणे केवलिस्स से तेण?णं ॥ २१ ॥ केवलीणं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु आगासपए सेसु हत्थंवा, पार्थवा, बाहवा, ऊरुवा उग्गाहित्ताणं चिट्ठइ, पभूणं केवली सेयकालंसिवि भगवन् ! क्या केवली आदान (ग्रहण करने योग्य सो इन्द्रियों ) से जानते हैं देखते हैं ? अहो गौतम ! भावार्थ यह अर्थ योग्य नहीं है. किस कारन से केवली इन्द्रियों से नहीं जानते हैं, नहीं देखते हैं ? अहो गौतम !! केवली पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधो वगैरह दिशा में मर्यादा सहित जानते हैं और मर्यादा रहित भी जानते हैं, सब काल, सब भाव जानते देखते हैं. यावत् केवली को प्रगट ज्ञान दर्शन रहाहुवा है इसलिये वे केवली इन्द्रियों से नहीं जानते व नहीं देखते हैं॥२१॥ अहो भगवन् ! इस समय में केवली जिन | आकाश प्रदेश में अपने हस्त, पांव, बाहु व जंघा अवगाहकर रहे हुवे हैं. उन ही आकाश प्रदेश में अना 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ काल में ए० इन ही अ० आकाश प्रदेश में ह० हस्त जा. यावत् उ० अवगाहकर चि० रहने को गो० । गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य के० कैसे भ० भगवन् जा. यावत् के. केवली अ० इस स०१० ममय में जे.जिन आ० आकाश प्रदेश में जा० यावत चि. रहते हैं जो नहीं प. समर्थ के. केवली से. आगामिक काल में ए. इनही में ह० हस्त जा. यावत् चि० रहने को गो० गौतम के० केवली को al Eवी. वीर्य के स० योग सहित स० विद्यमान द• द्रव्य च० अस्थिर उ० उपकरण ( अंगोपांग ) भ० एसु चेव आगासपएसेसु हत्थंवा जाव उग्गाहित्ताणं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! णोइणद्वे समढे । से केण?णं भंते ! जाव केवलीणं अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु जाव चिट्ठइ, णो णं पभू केवली सेयकालांसवि एसुचेव हत्थंवा चाव चिट्ठित्तए ? गोयमा ! केवलिस्सणं वीरियस्स सजोगसद्दव्वयाए चलाइं उवगरणाई भवंति, च लोवगरणट्टयाएणं केवली अस्सि समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थंवा जाव गत काल में हस्त, पांव, बाह व जंघा अवगाह कर रहने को क्या समर्थ हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से केवली इस वर्तमान समय में जिन प्रदेशों में हस्तादि अवगाहकर रहे हुवे हैं उन प्रदेशों में ही आगामिक काल में नहीं रह सकते हैं ? अहो गौतम ! केवली को वीर्यातराय के क्षय से मन वचन व काया का व्यापार सहित विद्यमान जीव द्रव्य के भाव से थास्थिर अंगोपांग ago% पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48805 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | do 2 | होते हैं च० अस्थिर उ० उपकरण के लिये के० केवली अ० इस स० समय में जे० जिन आ आकाश | प्रदेश में शेष पूर्ववत् ॥ २२ ॥ प० समर्थ मं० भगवन् चो० चौदहपूर्वी घ घट से घ० घट सहस्र पवस्त्र से १० वस्त्र सहस्र क० कट (छादडी से ) क० कट सहस्र र० रथ से र० रथ सहस्र छ० छत्र से छ० छत्र सहस्र दं० दंड से दं० दंड सहस्र अ० करके उ० बताने को हं० हां प० समर्थ के कैसे चो० चौदह पूर्वी जा० भू केली सेयकाला विएसुचेत्र, जाब चिट्ठित्तए से तेणद्वेणं जाव वुच्चइ केवलीणं अस्सि समयंसि जाब चिट्ठित्त ॥ २२ ॥ भूणं भंते ! चोदसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, पडाओ पडसहस्सं, कडाओ कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं, अभिनिव्वट्टेत्ता उवसेत्तए ? हंता पभू । से केणट्टेणं पभू चोद्दसपुब्बी जाव उवदंसेत्तए ? गोयमा ! चोइस पुव्विस्सणं अ चिट्ठ, होते हैं. इस तरह अस्थिर अंगोपांग होने से केवली वर्तमान समय में जिन प्रदेशों में हस्तादि अवगाहकर } रहते हैं उन प्रदेशों में अनागत काल में नहीं रहते हैं || २२ || अब श्रुत केरली आश्री प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! चौदह पूर्वधारी श्रुत केवली क्या लब्धि के प्रभाव से एक घडे की नेश्राय से सहस्र घडे, एक वस्त्र से सहस्र वस्त्र, एक कट (छादडी ) से सहस्र कट, एक रथ से सहस्र रथ, एक छत्र से सहस्र छत्र व एक दंड से सहस्र दंड बनाकर बताने को क्या समर्थ हैं ? हां गौतम ! चौदह पूर्वधारी समर्थ हैं. मं भावार्थ 803 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६६८ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * | शब्दार्थ यावत् उ० बताने को गो० गौतम चो० चौदहपूर्वी को अ० अनंत द्रव्य उ० उत्कारिका भे भेद स मि० तोडे हुवे ल० लब्धं-प. प्राप्त अ० सन्मुख हुए भ० होते हैं ते. इसलिये जा यावत् उ० बताने को से० बैसे ही भं भगवन् पं० पांचवा स० शतक का च० चौथा उ० उद्देशा स० समाप्त ॥५॥४॥ १ छ. छद्मस्थ भं० भगवन् म. मनुष्य ती० अतीत अ० अनंत सा० शाश्वत स. समय के संपूर्ण सं० णंताई दव्वाइं उक्कारिया भेएणं भिजमाणाइं लढाई पत्ताई अभिसमण्णागयाइं भवंति, से तेणटेणं जाव उवदंसित्तए ॥२४॥ सवं भंते भंतेत्ति ॥ पंचम सयस्स चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ४॥ * * * छउमत्थेणं भंते ! मणूसे तीय मणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं जहा पढमसए भावार्थ अहो भगवन् ! किस तरह चौदह पूर्वधारी एक घडे से महल घडे यावत् एक दंड से सहस्र दंड बनाकर बताने को समर्थ हैं ? अहो गौतम ! भेद पांच प्रकार के कहे हुवे हैं १ खंडादि भेद सो अनेक टुकडे हुवे लोष्टादि २ प्रतर भेद सो पड नीकले अभ्रपटल ३ चूर्ण भेद तिलादि चूर्णवत् ४ अनुतटिका भेद अवटतट का भेद समान और ५ उत्कारिका भेद एरण्ड बीज समान. जो चौदह पूर्वधारी ह.त हैं उन को 50 अनंत द्रव्य उत्कारिक भेद से भेदाये हुवे प्राप्त होते हैं। इस से वे अनेक रूप बनाकर बता सकते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह पांचवा शतक का चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥४॥ 10 चतुर्थ उद्देशे में चौदह पूर्वधारी का महानुभाव कहा. उस से छद्मस्थ जीव सीझे ऐसी किसी को शंका 4843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र www * पांचवा शतकका पांचवा उद्देशा 3><382 awaima Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संयम से ज० जस प० प्रथम श० शतक में च० चतुर्थ उ० उद्देशे में आ० आलापक तः तैसे ने० जानना जा० यावत् ॥ १ ॥ अ० अन्यतीर्थिक मं भगवन् ए० ऐसा आ कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते { हैं स० सब पा० प्राणी स० सब भू० भूत स० सब जी० जीव स० सब स० सत्य ए० ऐसी वे० वेदना * प्रकाशक - राज बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * चउत्थ उसे आलावा तहा नेयव्त्रा जाव अलमत्थुत्ति वत्तव्वंसिया ॥ १ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खति जाव परूर्वेति सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा सव्वेसत्ता, एवंभूयं वेयणं वेदंति से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्ण ते अण्णउत्थिया एव माइक्खंति जाव वेदंति, जे ते एव माहंसु मिच्छाते एव माहंसु ॥ अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जात्र परूवेमि, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेणं वेदांति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता अणेवंभूयं वेयणं वेदंति ॥ होवे इस की निवृत्ति के लिये पांचवा उदेशा कहते हैं. अहो भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य मात्र संयम से क्या सिझते हैं, वुझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं ? अहो गौतम ! प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशे में {जैसा कहा वैसेही यहां जानना. अर्थात् छद्मस्थ मनुष्य नहीं सिझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत नहीं करते हैं। परंतु ज्ञान दर्शन के धारक केवली ही सिझते हैं. क्यों कि उस से विशेष कुच्छ नहीं है. ॥ १ ॥ अहो ६७० Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र - वेदते हैं से० अथ क० कैसा ए. यह भं० भगवन् ए. ऐसे गो० गौतम ने जो ते० वे अ० अन्य तीथिक ए. ऐमा आ० कहते हैं जा० यावत् वे वेदते हैं जे० जो ते. वे एक ऐसा आ० कहते हैं मि० मिथ्या ते० वे ए० ऐसा आ• कहते हैं अ० मैं पु० पुनः गो० गौतम ए. ऐसा आ• कहता हूँ } one से केणटेणं ! अत्थेगइया तंचेव उच्चारेयव्वं ? गोयमा ! जेण पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेति तेणं पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेयणं वेदंति, जेणं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेयणं वेदंति, तेणं पाणा भूया जीवा सत्ता अणेबंभूयं वेयणं वेदंति से तेणटेणं तहेव ॥२॥ नेरइयाणं भंते ! किं एवं भयं वेयणं वेदेति अणेवंभूयं वेयणं वेदति ? गोयमा ! नेरइयाणं भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि सब प्राण भूत जीव व सत्व ऐवंभूतं वेदना वेदते हैं तो यह किस तरह है ? अहो गौतम ! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या हैं अर्थात् उन का कथन मिथ्या है. मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपना हूं कि कितनेक प्राण भूत सत्व व जीव एवंभूत ? वेदना वेदते हैं और कितनेक प्राण भूत जीव व सत्व अनेवभूत वेदना वेदता हैं. अहो भगवन् ! ! १ जिसरीति से कर्म करना उसी रीति से उसको भोगना सो. Ammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmom 8428 पांचवा शतक का पांचवा उद्देशा भावा mam Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी 89 जा. यावत् प० प्ररूपता. हूं जे० जो पा० प्राणी भू० भूत जी० जीव स. सत्व ज. जैसे क० किया हुवा क० कर्म त० तैसी वे०वेदना वे० वेदते हैं तेने पा०प्राण ए०एवंभूत वेम्वेदना वेव्वेदते हैं शेष सब पूर्ववत् ॥२॥ पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ज० जम्बूद्वीप में भा० भरत क्षेत्र में इ० इस उ• अवसर्पिणी के स० अवसर में एवंभूयंवि चेयणं वेदंति, अणेवंभूयंवि वेयणं वेदंति ॥ से केणटेणं तंचेव ? गोयमा! जेणं नेरइयाणं जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति तेणं नेरइया एवंभूयं वेयणं वेदेति जेणं नेरइया जहा कडा कम्मा णो तहा वेयणं वेदेति तेणं नेरइया अणेवं भूयं वेयणं वेदेति । से तेणटेणं जाव वेमाणिया, संसारमंडलं नेयव्वं ॥ ३ ॥ यह किस तरह ? अहो गौतम ! प्राण भूतादि जिसरीति से कर्मों किये वैसी वेदना वेदते हैं वे प्राण भूतादि एवंभूत वेदना वेदते हैं और जो प्राण भूत जिसरीति से कर्मों किये वैसी वेदना नहीं वेदते हैं। वे अनेवंभूत घेदना वेदते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी एवंभूत वेदना वेदते हैं ? अहो गौतम ! नारकी एवंभूत अनेवेभूत ऐमी दोनोंप्रकार की वेदना वेदते हैं. अहा भगवन् ! यह किस तरह ? अहो नौतम ! जो नारकी जैसे कर्म किये बैसी वेदना बेदते हैं वे एवंभूत वेदता वेदते हैं और जो नारकी जैसे कर्म किये वैसी वेदना नहीं वेदते हैं वे अनेभूत वेदना वेदते हैं. इस तरह वैमानिक तक जानना. यह संसारचक्र में परिभ्रमण करनेवाले जीवों की वक्तव्यता कही. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जम्बूदीप के भरत क्षेत्र * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ | 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 436+ OYO क० कितने कुं० कुलकर हो० थे गो० गौतम स० सात ए० ऐसे तीर्थकर मा० माता पिं० पिता प० प्रथम सि० शिष्या च० चक्रवर्ती मा० मता इ० स्त्री रत्न ब० बलदेव वा० वासुदेव मा० माता पि० पिता ए० इन के १० प्रतिशत्रु ज० जैसे स० समवायांग में ना० नाम की प० परिपाटी ने० जानना ॥ ५ ॥ ५॥ क० कैसे मं० भगवन् जी० जीव अ० अल्प आ० आयुष्यपने का क० कर्म १० करते हैं गो० जंबुद्दीवेणं भंते ! इह भारहेवासे इमीसे उसप्पिणीए समाए कइ कुलगरा होत्था ? गोयमा ! सत्त, एवं तित्थयरा मायरो पियरो पढमा सिस्सिणीओ, चक्कवही, मायरो, पियरो इत्थिरयणं, बलदेववासुदेवा, वासुदेव मायरो पियरो एएसें पडिसत्तू जहा समवाए नाम परिवाडी तहा यव्वा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ || पंचम सयस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ५ ॥ * कहणं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरंति ? गोयमा ! पाणे अइवाइत्ता, { में इस अवसर्पिणी में कितने कुलकर होते हैं ? अहो गौतमः ! सात कुलकर होते हैं. ऐसे ही तीर्थकर द उनके माता, पिता प्रथम शिष्य व शिष्या चक्रवर्ती, व उनके माता, पिता, स्त्री रत्न बलदेव वासुदेव व उन के माता, पिता व प्रतिशत्रु [ प्रतिवासुदेव ] का अधिकार जैसे समवायांग सूत्र में कहा है वैसे ही यहां जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥५॥५॥ पांचवे उद्देशे के अंत में उत्तम पुरुषों के नामों कहे हैं. अब उत्तमता व अधमता किस तरह से प्राप्त * * पांचवा शतकका छठा उद्देशा 48488 ६७३ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + गौतम पा० प्राणियों का अ० अतिपात करके मु० मृषा व० बोल करके त० तथारूप स० श्रमण मा० { माहण को अ० अफ्रामुक अ० अनेषणिक अ० अन्न पा० पानी खा० खादिम सा० स्वादिम से प० देकर ए० ऐसे जी० जीव अ० अल्प आ० आयुष्यपने का क० कर्म प० करते हैं ॥ १ ॥ क० केसे मं० { भगवन् जी०जीव दी० दीर्घ आ० आयुष्यपने का क०कर्म प० करते हैं गो० गौतम नो नहीं पा० प्राणियों का अ० { अतिपात करने से नो० नहीं मु०मृषा व बोलने से त० तथारूप स० श्रमण मा० ब्राह्मण को फा० फ्राक ए० एषणिक अ० अन्न पा० पानी खा० खादिम सा स्वादिम प० देने से ए० ऐसे ख० निश्चय जी० जीव संवत्ता, तहारूवं समणंवा माहणंवा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असण पाण खाइम साइमेणं पडिला भेत्ता एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरंति ॥ १ ॥ कहणं भंते ! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरंति ? गोयमा ! नो पाणे अइवाइत्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणंवा माहणंवा फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं { होती है सो बताते हैं. अहो भगवन् ! किस तरह से जीव अल्पायुष्य का कर्म करते हैं ? अहो गौतम ! प्राणियों का वध करने से, मृषा बोलने से, व तथारूप श्रमण माहण को अफ्रासुक अनेषणिक आहार, (पानी, खादिम व स्वादिम देने से जीव अल्प आयुष्य बांधते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जीव कैसे दीर्घ आयुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! प्राणियों का वध नहीं करने मृषा नहीं बोलने से व तथाभूत सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्षजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ६७४ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दी. दीर्घायुष्य का क० कर्म प० करते हैं ॥२॥ क० केस भ० भगवन् जी० जीव अ० अशुभ दी । दीर्घायुष्य का क० कर्म प० करते हैं गो० गौतम पा० प्राणियों की अ० हिंसा करने से मू. मृषा व०१० १० बोलने से त० तथारूप स० श्रमण मा० ब्राह्मण की ही० हीलना करने से नि० नीदने से खिळखिसना करने से ग. गर्दा करने से अ० तीरस्कार करने से अ० अन्यतर अ० अमनोज्ञ अ० अप्रीति का कारन है से अ० अशन पा० पान खा. खादिम सा. स्वादिम प० देकर एक ऐसे ख. निश्चय जी. जीव जा०१७ यावत् प० करते हैं ॥ ३॥ क कैसे भ० भगवन् जी० जीव सु• शुभ दी• दीर्घ आयुष्य का क० कर्म पडिलाभेत्ता एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरंति ॥ २ ॥ कहणं भंते ! जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरंति ? गोयमा ! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता तहारूवं समणंवा माहणंवा हीलित्ता, निंदित्ता, खिंसित्ता, गरहित्ता, अवमाण्णत्ता, अण्णयरेणं अमणुण्णेणं, अप्पीइ कारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता, एवं खलु जीवा जाव पकरंति ॥ ३ ॥ कहणं भंते ! जीवा सुभ दीहाउयत्ताए कम्म भावार्थ श्रमण माहण को मासुक एषणिक अशनादिक देने से जीव दीर्घ आयुष्य बांधते हैं ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! 3gp जीव कैसे अशुभ दीर्घायुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! प्राणियों का वध करने से, मृषा बोलने से, व । ॐ तथारूप श्रमण माहण की हीलना, निंदा, खिसना, गर्दा व तिरस्कार करने से, वैसे ही अन्य अमनोज्ञ * अप्रीति कारक अशनादि देने से जीव अशुभ दीर्घायुष्य बांधते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जीव कैसे शुभका 428 पंचमांग विवाह पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र 398 पांचवा शतक का छठा उद्देशा Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ५० करते हैं पूर्ववत् ॥ ४ ॥ गा० गाथापति का मं० भगवन् मं० किरियाना वि० विक्रय करने वाला का के० कोई ४० किरियाना अ० लेजाये त० उस भं० भगवन् मं० किरियाना की अ० गवेषणा करने वाले ( को किं० क्या आ● आरंभिकी क्रिया क०करता है प०परिग्रहिकी मा० माया प्रत्ययिकी अ० प्रत्याख्यान मि० मिथ्या दर्शन प्रत्ययिकी गो० गौतम आ० आरंभिकी कि० क्रिया प० परिग्रहिकी मा० माया प्रत्ययिकी पॅकरंति ? गोयमा ! नो पाणे अइवाएता, नो मुखं वइत्ता. तहारूवं समगंवा, माह वा, वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता, अण्णयरेणं मणुण्णेणं पीइकारएणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभित्ता एवं खलु जीवा जाव पकरंति ॥ ४ ॥ गाहावइस्सणं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेजा तस्सणं भंते! भंडं अणुगवेसमाणस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चक्खाणीया मिच्छादीर्घायुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! प्राणातिपात नहीं करने से, मृषा नहीं बोलने से, तथारूप श्रमण माहण को वंदना नमस्कार करनेसे व अन्य मनोज्ञ प्रीति उत्पन्न करनेवाले अशनादि देने से जीव शुभ दीर्घायुष्य बांधते हैं ॥ ४ ॥ शुभाशुभ कर्मों की उपार्जना क्रिया से होती है इसलिये क्रिया का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! किरियाने का व्यापार करनेवाला गाथापति के किरियाने की कोई चौरी करे. और चौरी में गया हुवा किरियाने की वह गाथापति गवेषणा करे. अब उस समय में उस गवेषणा करने * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६७६ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pat ६७७ शब्दार्थ अ० अप्रत्याख्यान मि० मिथ्यादर्शन कि० क्रिया सि० क्वचित् क० करें सि० क्वचित् नो० नहीं क0141 करे अ० अथ से उन को भ० किरियाणा अ० प्राप्त होवे त० उस ५० पीछे स० सब ता. वे प० पतली १ होती हैं ॥५॥ गा. गृहपतिका भं० किरियाना वि० बेचने वाला का क० मोललेनेवाला भं० किरिहै दंसणवत्तिया ? गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अप्पच्चक्खाणकिरिया कज्जइ, मिच्छादसणकिरिया सिय कन्जइ सिय नो कन्जइ ॥ अह से भंडे अभिसमण्णागए भवइ, तओसे पच्छा सव्वाओ ताओ पयणुईभवंति है ॥ ५॥ गाहावइस्सणं भंते ! भंडं विक्किण्णमाणस्स कइए भंडं साइजेजा, भंडेयसे वाला गाथापति को क्या आरंभिकी क्रिया लगती है, परिग्रहिकी क्रिया लगती है, मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है, अप्रत्याख्यान प्रसयिकी क्रिया लगती है या मिथ्यादर्शनमत्ययिकी क्रिया लगती है ? अहो गौतम ! इस तरह किरियाने की गवेषणा करनेवाले गाथापति को आरंभिकी, परिग्रहिकी, अप्रत्याख्यान प्रत्ययिकी व माया प्रत्ययिकी क्रिया लगती है; और मिथ्यादर्शन क्रिया क्वचित् लगती | व क्वचित नहीं लगती है. और जब वह किरियाना गवेषणा करते हवे प्राप्त हो जाये तो उक्त सब क्रियाओं पतली हो जाती हैं क्योंकि गवेषणा करनेमें वह उद्यमी बना हुवा था सो उद्यम हीन हो गया ॥५॥ किरियाने का व्यापार करनेवाले की पास से ग्राहक किरियाना अंगीकार करे परंतु उसने पण्णत्ति (भगवती) पांचवा शतकका छटा उद्देशा भावाथ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ शब्दार्थ याना सा० ग्रहण करे भ० किरियाना भी से उस को अ० नहीं आया हुआ सि. होवे गा० गाथापति. का भं० भगवन् ता० उस भं० किरियाने से किं. क्या आ० आरंभिकी कि० क्रिया क० करता है जा. यावत् मि० मिथ्या दर्शन कि० क्रिया क० करता है क० मोललेने वाले को ता० उस भई किरियाने से आ० आरंभिकी कि० क्रिया जा० यावत मि० मिथ्या दर्शन कि० क्रिया गो० गा० गाथापति को ता. उस भै० किरियाने से आ० आरंभिकी कि० क्रिया क० करता । यावत् अ० अप्रत्याख्यान कि० क्रिया क० करते हैं मि० मिथ्या दर्शनं सि० क्वचित् क० अणुवणीए सिया गाहावइस्सणं भंते! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ जाव । मिच्छादसणकिरिया कज्जइ ? कइयस्सवा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ, जाब मिच्छादसण किरिया कज्जइ ? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कजइ जाव अप्पच्चक्खाण किरिया कज्जइ, मिच्छादसण किरिया भावार्थ किरियाना दीया नहीं है, तो अहो भगवन् ! उस गाथापति को उस किरियाने से क्या आरंभिकी भी यावत् गिथ्यादर्शन क्रिया लगे? और ग्राहक को क्या उस किरियाने से आरंभिकी यावत् मिथ्यादर्शन क्रिया लगे ? अहो गौतम ! गाथापति को उस किराने से आरंभिकी यावत् अप्रत्याख्यान प्रत्ययिकी रक्रिया लगती है और मिथ्यादर्शन क्रिया कवचित् लगती है व क्वचित् नहीं लगती है. खरीदनेवाला ग्रा २ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4%86 | ६७९ शब्दार्थी करते हैं सि० क्वचित् नो० नहीं क० करते हैं क० मोललेने वाले को ता० वे स० सब प० पतली होती हैं । ॥ ६॥ गा० गाथापति भ० भगवन् भं० किरियाना वि० खरीदने वाले को जा. यावत् भं० किरियाना से उस की पास उ० लाये क० खरीदने वाले को शेष पूर्ववत् मि० मिथ्या दर्शन कि० क्रिया की भ० सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ कइयस्सणं ताओ सव्वाओ पयणुईभवति ॥ ६ ॥ गाहावइस्सणं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स जाव भंडे से उवणीए सिया, कइयस्सणं भंते ! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ, गाहावइस्सवा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया ? गोयमा ! कइयस्स ताओ भंडाओ हेटिलाओ चत्तारि किरियाओ कजंति, मिच्छादसणकिरिया भयणाए ॥ गाहावइस्सणं तओ सव्वाओ हक को उक्त सब क्रियाओं पतली होती हैं ॥ ६॥ किरियाना बेचनेवाला गाथापति के पास से ग्राहक ने किराना खरीदा और ग्रहण भी कर लीया तब अहो भगवन् ! उस ग्राहक को क्य आरंभिकी आदि | क्रियाओं लगती हैं ? और गाशपति को भी क्या आरंभिकी आदि क्रियाओं लगती हैं अहो गौतम! उस किराने से ग्राहक को आरंभिकी, परिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी व अप्रत्याख्यान क्रियाओं लगती हैं. मिथ्या 1 दर्शन क्रिया क्वचित् लगती है व क्वचित् नहीं लगती है. और गाथापति को उक्त सा क्रियाओं पतली है। पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 888 पंचमान विवाह -पाचवा शतकका छठा उद्दशा Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ || सूत्र 43 अनुवादकालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी | भजना ॥ ७ ॥ गा० गाथापति को भं० भगवन् भं० किरियाणा जा० यावत् ध० घन अ० नहीं दीया सि० होवे ए इस को ज० जैसे मं० किरियाना उ० दीया हुवा तः तैसे णे० जानना च० चतुर्थ आ० आलापक ६० धन से० उसकी पास उ० लाया हुवा सि० होवे ज० जैसे प० प्रथम आ० आलापक मं० किरियाना अ० नहीं लाया हुवा सि० होवे त० तैसे ने० जानना प० प्रथम च० चतुर्थ का ए० एक ग० (गमा बि० द्वितीय त० तृतीय का ए० एक ॥ ८ ॥ अ० अग्निको भं० भगवन् अ० तत्काल उ० ॥ ७ ॥ गाहावइस्सणं भंते ! भंडं जात्र धणेय से अणुवणीए सिया, एपि जहा भंडे उवणीए तहाणेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणेयसे उवणीए सिया जहा पढमो आलावगो भंडेयसे अणुवणीए सिया तहा नेयव्वो पढमं चउत्थाणं एक्को - गमो, बितीय तईयाणं एक्को ॥ ८ ॥ अगणिकाएणं भंते ! अहुणोज्जलिए समा पणुईभवं होती हैं ॥ ७ ॥ गाथापतिने किरियाना बेचदिया परंतु ग्राहकने जहांलग उस के पैसे (धन) नहीं दिया भावार्थ है, वहां उस गाथापति को धन व किरियाना ऐसे दोनों क्रिया कम लगती हैं और ग्राहक को {विशेष क्रिया लगती है. जब किरानेका धन उस गाथापति को ग्राहक दे देता हैं तब उसको धन की {क्रिया विशेष लगती है और ग्राहक को धन की क्रिया पतली होती है. यों इस क्रिया प्रथम व चतुर्थ आलापक का सरिखा अर्थ होता है वैसे ही दूसरा व तीसरा आलापक का {अर्थ होता है || ८ || अब अग्नि को प्रज्वालेने के संबंध में प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! अधिकार में एक सारखा कोई पुरुष * प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ६८० Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उज्वालते म० महाकर्मवाले म० महाक्रिया वाले म० महा आश्रव वाले म० महावेदना वाले भ० होवे | अ० नीचे स० समय २ में वो विखरते हुवे वो नष्ट करते च० छेल्ले स० समय में ई० अग्निभूत मु०१० V मुर्मुरा समान छा० भस्मीभूत त• उस पीछे अ० अल्पकर्म वाले कि० क्रिया आ० आश्रव अ० अल्प ० वेदना वाले भ० होता है हं० हां गो० गौतम अ० अग्निकाय अ० तत्काल का उ० उज्वल होती तं• महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महस्सवतराए चेव, महावेयणतराएचेव भवइ । अहेणं समए २. वोक्कसिजमाणे वोच्छिज्जमाणे चरिमकालसमयसि इंगालभूए मुम्मुरभूए, छारियभूए, तओपच्छा अप्पकम्मतराएचेव किरिया आसव अप्पवेयणतरा ए चेव भवइ ? हंता गोयमा ! अगणिकाएणं अहुणोजलिए समाणे तं चेव ॥ ९॥ अग्नि को तत्काल प्रज्वलित करे तो क्या वह बहुत कर्मवाला, महा क्रियावाला, महा आश्रववाला व महा भावार्थ वेदनावाला होवे ? और फीर नीचे समय २ में अग्नि को विखेरदेते व बुझा देते अंगारे समान, मुर्मुरे समान, व भस्म समान जब वह आग्न होती है तब क्यावह अल्प कर्म, अल्प क्रिया, अल्प आश्रव व वेदनावाला होवे ? हां गौतम ! तुर्न अग्नि प्रबलित करनेवाला महाकर्मी यावत् महावेदनावाला होवे और अनि विखेरकर अंगारे यावत् भस्म समान करनेवाला अल्प कर्मवाला यावत् अल्प वेदनावाला होवे॥९॥ अब 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 488 annnnwwwwwwwwwwwwwwwwww पांचवा शतकका छठा उद्देशा 8*884 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAVANAVANAVA शब्दार्थ वैसे ही ॥ ९॥ पु० पुरुष भं० भगवन् ध० धनुष्य ५० ग्रहण करता है उ० बाण प० ग्रहण * करता है ठ० स्थान ठा. वैठे आ० खींचा हुया क. कर्ण पर्यंत उ० वाण क० कर उ० ऊर्ध्व वे० आकाश में उ० छोडे त तब से वह उ० वाण ७० ऊर्थ वे० आकाश में उ० छोडा हुवा जा० जो त० तहां पा० प्राण भू० भन जी० जीव स० सत्व अ० हणावे व० वर्तुलाकार करे ले० मीले सं० परस्पर गात्रों को एकत्रित करे सं० थोडा स्पर्श करे ५० दुःखदेवे कि० किलामना उत्पन्न करे ठा० में स्थान से सं० जावे जी० जीवित से व• पृथक् करे त तब भ० भगवन से उस पु० पुरुष को क०कितनी पुरिसेणं भंते ! धणुं परामुसइ २ उसु परामुसइ २ ठाणं ठाइ २ आययकण्णाययं ___ उसुं करेइ २ उ8 वेहासं उसु उब्विहइ, तएणं से उसू उर्दु वेहासं उविहिए समाणे जाई तत्थ पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणइ वत्तेइ लेस्सेइ संघाएइ संघट्टेइ परितावेइ किलामेइ ठाणाओ ठाणं सकामइ जीवियाओ ववरोवेइ तएणं भंते ! सेपुरिसे कइ किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसइ २ जाव उव्विहइ ताई चणं । भावार्थ धनुष्य आश्री क्रिया का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! कोई पुरुष धनुष्य पर वाण रखकर आसन सहित कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींचकर ऊंचे आकाश में वाण छोडे, फीर आकाश में वाण छोडते हुए प्राण भूत, जीव व सत्वोंको हणे, वर्तुलाकार बनावे, स्पर्श करे, संघटना करे, परिताप उत्पन्न करे, दुःख । अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कि० क्रिया गो० गौतम जा जितने में से वह पु० पुरुष ध धनुष्य ५० ग्रहण करता है जा० यावत् ० उ०बाण उ०छोडता है ताउतने में से उस पु० पुरुष को का• कायिकी जायावत् पा. प्राणातिपाति की 4 इकि० क्रिया पं०पांच कि० क्रिया से पु० स्पर्शाया जे. जिन मी०जीवों के स० शरीर से ध० धनुष्य नि.१४० बनाया ते० वेभी जी० जीव का० कायिकी जा० यावत् पं० पांच कि० क्रिया से पु० स्पर्शाये ए. ऐसे। ध० धनुष्यपीठिका पं० पांच क्रियाओं से जी० जीव्हा पं० पांच पहा. तांत पं० पांच से उ० बाण पं० से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे ॥ जेसिं । पियणं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए तेवियणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, एवं धणुपिटे पंचहि. किरियाहिं, जीवा पंचहिं, हारु पंचहिं, उसू पंचहिं सरे पत्ताणे फले ण्हारु पंचहिं, अहेणं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए, भारियत्ताए गुरुयसं भावार्थ उत्पन्न करे, एक स्थान से अन्य स्थान चलावे व जीवित से पृथक करे. उस समयमें उस बाण छोडनेवाले पुरुष को अहो भगवन् ! कितनी क्रियाओं कही ? अहो गौतम ! जहांलग उस पुरुषने धनुष्य उठाया यावत् 0 बाण छोडा वहांलग उस को पांच क्रियाओं हावे. कायिकी, अधिकरणकी, प्रवेषिकी, परितापनिकी, of व प्राणातिपातिकी. और जिन जीवों के शरीर से धनुष्य बना हुवा है; उन जीवों को भी कायिकादि पांच क्रियाओं लगती है. ऐसे ही जिन जीवों से धनुष्य्पीठिका, जिव्हा, तांता, वाण, पांखों. व आगे । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <802802 38-40288 पांचवा शतक का छटा उद्देशा Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पांच से स० शर प० पत्र फ. फल ण्टा तांत अ० सब से वह उ० बाण अ. अपनी गु० गुरुतासे, भा० वजनपने गु० गुरुतासे बजनपने अ० नीचे वी• स्वभाव से ५० पीछा आता जा. जो त० वहां पा० माणी जा० यावत् जी० जीव से क० पृथक करे ता० उतने में से० उस पु० पुरुष को क० कितनी कि० क्रिया गो• गौतम जा० जितने में से० वह उ० बाण अ० अपनी गु. गुरुतासे जा. यावत् २० पृथक करता है ता० उतने में से० उस पु० पुरुष को का० कायिकी जा० यावत् च० चार कि० क्रिया से पु. स्पर्शाया जे० जिन जी० जीवों के स० शरीरं धु०. धनुष्य नि० बना ते वे जी० जीव चा० चार कि० भारियत्ताए अहे वीससाए पच्चोवयमाणे जाइं तत्थपाणाइं जाव जीवियाओ ववरोवेइ, तावं च णं से पुरिसे कइ किरिए ? गोयमा ! जावंचणं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए जाव ववरोवेइ तावंचणं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे, जर्सि पिणं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए ते जीवा चउहि किरियाहिं, धणुपिटे चउहि, लगा हुवा लोहे का भाला बना हुवा है उन सब को पांच क्रियाओं लगती हैं. अब अपने गुरुत्वपना से, वजनपना से, गुरुत्व व वजन पनासे स्वाभाविक वह बाप नीचे आता है. इस तरह नीचे आते हुए प्राण, भूतादि याद हणावे तो उस बाण छोडेनेवाले पुरुष को अहो भगवन् ! कितनी क्रिया लगे ? अहो गौतम ! उस पुरुष को चार क्रिया लगे. और निन जीवों के शरीर से वह धनुष्य, धनुष्य पाटिका । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथा Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ०७ शब्दार्थ क्रिया से पु० स्पर्शाये ध० धनुष्य पीठिका च० चर जी० जीव्हा च० चार हातांत च० चार उ० बाणा पं० पांच स० शर प० पत्र फ० फल हातांत जे० जो जी०जीव अ०नीचे प० आते हुवे उ०मार्ग में चि०० रहते हैं ते० वे भी जी० नीव का कायिकी जा० यावत् पं० पांच कि क्रिया से पु० स्पर्शाये हुवे ॥१०॥ १० अन्वतीथिंक मं. भगवन एक ऐसा आ. कहते जा. यावत प० प्ररूपते हैं से० अथ ज जैसे जी युवति को जु० युवान ह० हस्त को गे० ग्रहण करते हैं च० चक्र की ना० नाभी अ० आरा से उ० की. जीवा चउहिं. ण्डारूचउहि उस पंचहिं. सरे पत्ताणे फलेण्डारु पंचहिं जेबियसे जीवा अहे पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे चिटुंति तेवियणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढा, ॥ १० ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति से जहा नामए 2 जुधई जुवाणे हत्थेणं हत्थं गेण्हेजा चक्करसवा नाभी अरगाउत्तासिषा एवामेव भावार्थ जीव्हा, व तांता बना हुवा है उन जीवों को चार क्रियाओं लगती हैं. और बाण, पांखो, भाला वगै रह को पांच क्रियाओं लगती हैं. बाण को आते हुए मार्ग में जो जीवों रहे हुवे हैं उन को भी कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं ॥ १० ॥ यह सम्यक् प्ररूपना कहीं अब मिथ्यामरूपक खाते हैं. अहो भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जैसे युवान पुरुष युवति को इस्तसे । हस्त में पकडता है, अथवा गाडी के चक्र की नाभि में आरा सघन होता है वैसेही चार सो पांच सो।। विवाह पण्पत्ति ( भवग 48 पांचवा शतक का छठा उद्देशा * Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {भरी हुई ए० ऐसे ही च० चार पं० पांच जो० योजन स० सो ब० बहुत स०आकीर्ण म० मनुष्य लोक म० { मनुष्य से क० कैसे ए० यह भ० भगवन् गो० गौतम ज० जो ते ० वे अ० अन्यतीर्थिक जा० यावत् म० { मनुष्य से ने० जो ते० वे ए० ऐसा आ० कहते हैं मि० मिथ्या अ० मैं पु० पुनः गो० गौतम ए० ( ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् ए० ऐसे ही च० चार पं० पांच जो० योजन स० सो ब० बहुत स० चत्तारि पंच जोयण सयाई, बहु समाइण्णे मणुयलोए मणुस्संहिं ॥ से कह मेयं भावार्थ 409 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया जाव मणुस्सेहिं जे ते एव माहंसु मिअच्छा । अहंपुण गोयमा ! एंव माइक्खामि जाव एवामेव चत्तारिपंच जोयण सयाई (योजनका मनुष्यलोक मनुष्यों से भरदेते हैं तो यह किसतरह है ? अहो गौतम ! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं वे मिथ्या वैसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं. मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि जैसे काम पीडित युवान युवती को पकड़ता है. अथवा चक्र की नाभी में जैसे आरा सघन होता है वैसे ही { नरक में किसी स्थान चार सो किसी स्थान पांच सो योजन तक नारकी भरे हुवे रहते हैं. अहो भगवन् ! (नारकी वैक्रेय करते हुवे क्या एक रूप वैक्रेय करते हैं या अनेक रूप वैक्रेय करते हैं ? अहो गौतम ! { एक रूप भी वैक्रेय करते हैं अनेक रूप भी वैक्रेय करते हैं. एक रूप अनेक रूप वैक्रेय का शस्त्र जो पुद्गल है उस रूप का भी वैक्रेय करते हैं. संख्यात रूप बैक्रेय करते हैं परंतु करते हुए मारने असंख्यात रूप * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ६८६ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | आकर्णि ने० नरक ने० नारकी मं० भगवन् किं०क्या ए० एक प० समर्थ वि०वैक्रेय करने को पु० अनेक ) ॐ० ज० जैसे जी० जीवाभिगम में आ० आलापक त० तैसे णे० जानना. जा० यात्रत् दु० खरावरीति से सहन करे ॥ ११ ॥ आ० आधाकर्म अ० अनवद्य म० मन प० स्थापने वाला भ० होवे से० उसको त० उस ठा० स्थान की आ० आलोचना प० प्रतिक्रमण करते का काल क० करें अ० है त० उसको आ० आराधना ए० इस ग० गम से ने० जानना की० मोललिया हुवा क० बनाया हुवा उ० स्थपाया हुवा २० बहुसमाइणे नेरयलो नेरइएहिं ॥ नेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्विन्तए, पुहत्तं भू विउव्वित्तए, जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयव्त्रो, जाव दुरहियासे ॥ ११ ॥ आहाकम्मं अणवजेत्ति मणंपहारेत्ता भवइ; सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कते कालं करे, नत्थि तस्स आराहणा; सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडि{ वैक्रेय नहीं करते हैं. ऐसे ही बहुत शरीर वैक्रेय करते हैं, महा उज्वल प्रज्वल वेदना वेदते हुए विचरते हैं. { इस का विस्तार पूर्वक विवेचन जीवाभिगम सूत्र से जानना ॥ ११ ॥ कोई साधु भिक्षा की आलस्यवाला व रसमृद्धि बनकर आधाकर्मादि दोष युक्त आहार को निरवद्य मान कर भोगवे और उस की आलोचना प्रतिक्रमण किये विना यदि वह काल कर जावे तो वह आराधक नहीं होता है और { आलोचनादि करके काल करे तो आराधक होता है. ऐसे ही मोल लिया हुवा, बनाया हुवा, स्थापकर गवेषणा में सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 40 40 पांचवा शतक का छठ्ठा उद्देशा ६८७ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र शब्दाचा रचित के० अरण्य भ०. भक्त दु. दुर्भिक्ष भ० भक्त का बद्दल का भ० भक्त मि० रोगीका भ० भक्त से० शैय्यान्तरपिंड: राराज्यांपंड अ०आपाकर्म आ० अनवद्य प०बहुत न०ममुष्प की म०पीच में भा कहकर स० स्वयमेव १० भोगवकर भ- होवे से० उसको त० उसके ठा. स्थान की अ० है त० उस को आ० आराधना ए• यह त० तैसे आ० यावत् रा• रानपिंड आ० आषाकर्म अ० अनवध अ० परस्पर को : कंते. कालं करेइ अत्थितस्स आराहणा ॥ एएणं गमेणं नेयच्वं कीयकडं ठवियं, रझ्यं, कंतारभत्तं, दुब्भिक्खभत्त, पद्दलियाभत्तं, गिलाण भत्तं, सेजायरपिंडं, रायपिंडं, आहाकम्मं अणवजेत्ति बहुजणमझे भासित्ता, सयमेव परि जित्ता भवइ, सेणं तस्स ठाणस्स जाव अत्थि तस्स आराहणा ॥ एयंपि तहचेव जाव रायपिंडं ॥ माहाकम्म भावार्थ रखा हुवा, तैयार किया हुवा, अरण्य में जाते हुवे लोगों के लिये बनाया हुवा, दुष्काल में दीन पुरुषों के 3 के लिये बनाया हुवा, बद्दल के लिये बनाया हुवा, रोगियों के लिये बनाया हुवा, शैय्यांतरपिंड व राज पिंड . ऐमे दोष युक्त आहार को बहुत मनुष्य की बीच में यह अनबध है ऐसा कहकर स्वयं ही ऐमा , आहार भोगवे. फीर उस की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल करे तो वह विराधक होता है। और आलोचनादि करके काल करे तो आराधक होता है. आधाकर्मादि दोष युक्त आहार को यह +पाहार निरपद्य है ऐसा कहकर परस्पर साधुओं को देवे, वैसे ही आधाकर्मादि. दोष युक्त आहार को +8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोजक *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Re0% पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 828 अ० देकर भ. होवे त० उस को ए० यह त० तैसे जा. यावत् रा. राजपिंड आ० आधाकर्म । अ० अनवध ब० बहुत ज० मनुष्य की म० बीच में ५० कहने वाला भ० होने से उस को त. उस की अ०है आ. आराधना जा. यावत् रा० राजपिड ॥ १२॥ आ० आचाये उ. उपाध्याय ० भगवन् स० अपने ग० गण को अ० अग्लानपने सं० ग्रहण करने अ० अग्लानपने उ० उपग्रहण करते क० कितने भ० भव में सि० सीझे जा० यावत् अं० अंतकरे गो० गौतम अ० कित अणवज्जेत्ति अण्णमण्णस्स अणुपदावेइत्ता भवइ, सेणं तस्स एवं तहचेव जाव रायपिंडं, आहाकम्मं णं अणवज्जेत्ति, बहुजणमझे पभावइत्ता भवइ, सेणं तस्स जाव अस्थि आराहणा जाव रायपिंडं ॥ १२ ॥ आयरिय उवज्झाएणं भंते ! सवि सयंसि गणं । अगिलाए संगिण्हमाणे, अगिलाए उवगिण्हमाणे, कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेणं सभा में निरवद्य आहार है ऐसा कहे. इस तरह विपरीत प्ररूपना से ज्ञानादिक की विराधना होती है.og ऐसा करनेवाला यदि आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो आराधक होता है और आलोचना किये विना काल करे तो विराधक होता है, ॥ १२॥ अहो भगवन् ! आचार्य उपाध्याय अपने गणको अग्लानपने अंगीकार करते, आदरदेते कितने भव में सीझे, बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? m पांचवा शतकका छठा उद्देशा84889 - - भावार्थ manawmammy Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * नेक ते उसी भ० भवग्रहण में सि० सीझे अ० कितनेक दो० दूसरे भ० भव में सिं० सीझे त० तीसर पु० फीर भ० भवग्रहण ना० अतिक्रमे नहीं ॥ १३ ॥ जे० जो मं० मगवन् प० अन्य को अ० असत्य अ० अद्भूत अ० अभ्याख्यान से अ० आल चढाता है त० उस को क० कैसा क० कर्म क० करते हैं। गो० गौतम जे० जो प० अन्य को अ० असत्य अ० असद्भूत अ० अभ्याख्यान से अ० आल चढाता है। त० उस को त० तैसा क० कर्म क० करते हैं ज० जहां अ० आते हैं त० वहां प० अनुभवते हैं त० भवग्गहणेणं सिज्झइ, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ १३ ॥ जेणं भंते ! परं अलिएणं असणं अभक्खाणेणंअब्भक्खाइ तस्सणं कहप्पगारा कम्मा कति ? गोयमा ! जेणं परं अलिएणं असंतएणं अब्भक्खाणं अब्भक्खाइ, तस्सणं गाराचे कम्मा कति । जत्थेवणं अभिसमागच्छइ तत्थेवणं पडिसंवेदेइ तओ अहो गौतम ! कितनेक उसी भव में सीझे, कितनेक दूसरे भव में सीझे, परंतु तीसरा भव नहीं उल्लंघ { अर्थात् तीसरे भव में निश्चयही सीझते हैं ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! जो कोई अन्य महात्मा पुरुषको द्वेषबुद्धि असद्भूत, असत्य कलंक चढांव तो उन को कैसे कर्मों का बंध होवे ? अहो गौतम ! जो पुरुष जैसा कलंक अन्य को चढाता है उस को वैसे ही कर्मों का बंध होता है. और जहां वह कर्म किया होगा वहांही उदय में अवेगा और वहां ही वेदेगा. अहो भगवन् ! अपके वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतक का छठ्ठा तहप्प ' ६९० Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 480 उस प० पीछे वे० वेदते हैं ॥ ५ ॥ ६ ॥ + प० परमाणु पो० पुद्गल ए० चलता है वे० विशेष चलता है जा० यावत् तं० उस २ भा० भाव में प० परिणमता है गो० गौतम सि० क्वचित् ए० चलता है वे० विशेष चलता है तं० उस २ भा० भाव ६९ से पच्छा वेदेइ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ पंचमसयस्स छट्टो उद्देसो सम्मतो ॥५॥६॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते ! एयइ वेयइ जाव तंतं भावं परिणमइ ? गोयमा ! सिय इ वेइ जाव परिणमइ, सिय णो एयइ जाव णो परिणमइ, दुपदेसिएणं भंते ! खंधे एइ जात्र परिणमइ ? गोयमा ! सिय एयइ जाव परिणमइ सिय नो एयइ जाव नो परिणमइ, सिय देसेएयइ देसे गोएयइ ! तिपएसिएणं भंते ! खंधे एयइ ? उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ ६ ॥ 柒 छठे उद्देशे के अंत में निर्जरा का कथन किया वह निर्जरा कर्मों को * * पांचवा शतक का सातवा उद्देशा चलाती है इसलिये पुद्गलों का प्रश्न पूछते हैं. {हैं, विशेष चलते हैं अहो भगवन् ! पूरण गलन स्वभाव वाले निखयत्र रूप परमाणु पुद्गल क्या चलते यावत् उन २ भावों में परिणमते हैं ? अहो गौतम ! क्वचित् चलते हैं यावत् । क्वचित् उन २ भावों में परिणमते हैं और क्वचित् नहीं चलते हैं यावत् उन २ भावों में नहीं परिणमते हैं. अहो भगवन् ! क्या द्वि प्रदेशात्मक स्कंध चलता है यावत् जन २ भावों में परिणमता है ? अहो गौतम । द्वि Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भावार्थ को प० परिणमता है सि०क्वचित् णो नहीं ए०चलता है ा यावत् नोनहीं तं० उस २ भा भाव में प.. परिणमता है सि० क्वचित् दे देश से ए. चलता है जा. यावत् प० परिणमता है दु० द्विप्रदेशी गोयमा ! सिय एयइ, सिय नो एयइ, सिय देसे एयइ नो देसे एयइ, सिय देसे है एयइ नो देसा एयंति, सिय देसा एयति नो देसे एयइ, । चउप्पएसिएणं भंते ! खंधे। एयइ ? गोयमा ! सिय एयइ, सिय नो एयइ, सिय देसे एयइ णो देसे एयइ, सिय देसे एयइ णो देसा एयंति. सिय देता एयंति नो देसे एयइ, सिय देसा एयंति नो प्रदेशी स्कंध क्वचित् चलता है, यावत् क्वचित् उन २ भावोंमें परिणमता है, वैसे ही क्वचित् नहीं चलता है यावत् उन २ भावों में नहीं परिणमता है, और क्वचित् देश से चलता है व देश से नहीं चलता है. अहो भगवन् ! तीन प्रदेशात्मक स्कंध क्या चलता है यावत् उन २ भावों में परिणमता है ? अहो गौतम! तीन प्रदेशात्मक स्कंध में पांच विकल्प कहे हुए हैं ? क्योचत् चले २ क्वचित् नचले ३ क्वचित् देश से चले व नचले ४ क्वचित् देश से एक चले दो नहीं चले और ५ क्वचित् देश से दो चले एक नहीं चले. अहो भगवन् ! चार प्रदेशात्मक स्कंध क्या चले ? अहो गौतम ! चार प्रदेशात्मक स्कंध में छ विकल्प होते हैं. १ क्वचित् कंपे २ क्वचित् नहीं कंपे ३ क्वचित् देश से कंपे व कंपे नहीं ४ क्वचित् एक देश से चले बहुत देश से चले नहीं ५ क्वचित् बहुत देश से चले एक देश से चले नहीं और ६ क्वचित् बहुत प्रकाशक-राजीबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * । Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स्कंध घ. चार प्रदेशी स्कंध ज० जैसे च० चार प्रदेशीकंध त० से पं० पांच प्रदेशी जा• यावत् त ? तैसे अ० अनंत प्रदेशी ॥ १ ॥ ५० परमाणु पो० पुद्गल भं०भगवन् अ० असिधारा ख० क्षुर की धारा उ.34 अवगाहे हं०हां उ० अवगाहे से. अथ त वहां छि छेदावे भि० भेदावे गोल गौतम णो नहीं इ० अ. अर्थ स० समर्थ नो नहीं त० तहां स० शस्त्र क० जावे ए. ऐसे जा० यावत् अ० असंख्यात प्रदेशात्मक अ० अनंत प्रदेश वाला भ० भगवन् खं० स्कंध अ० खड्ग की धारा खु० क्षुकी धारा को उ० देसा एयंति, ॥ जहा चउप्पदेसिओ तहा पंचप्पदेसिओ जाव तहा अणंत पएसिओ ॥ १ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! असिधारंवा खुरधारंवा, उग्गाहेजा ? हंता उग्गाहेजा ॥ सेणं तत्थ छिज्जेजवा भिज्जेजवा ? गोयमा ! णो इण? समढे। नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, एवं जाव असंखेजपएसिओ ॥ अणंत पएसिएणं भंते ! भावार्थ देश से चले व बहुत देश से चले नहीं. जैसे चार प्रदेशात्मक स्कंध का कहा वैसे ही पांच, छ, सात, आठ नव, दश. संख्यात असंख्यात व अनंत प्रदेशात्मक स्कंध का जानना॥१॥ अहो भगवन् ! क्या परमाणुपुद्गल org खड्ग की धारा व क्षुर ( उस्तरे ) की धारा को अगाहे अर्थात् उस को लगे? हां गौतम ! परमाण a पुद्गल खड्ग की धारा व क्षुरकी धारा नीचे आसकने हैं. अहो भगवन् ! क्या वह परमाणु पुद्गल छेदाता 1% भेदाता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्योंकि उसमें शस्त्र संक्रमण नहीं कर सकता है । पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4888 48488 पांचवा सतक का सातवा उद्देशा828ko Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ शब्दार्थ के अवगाहे ह० हां उ० अवगाहे से० अथ त० तहां छि० छेदावे भि० भेदावे गो० गौतम अ० कितनेक : छि० छेदावे भि० भेदावे अ० कितनेक नो० नहीं छि• छेदावे नो० नहीं भि० भेझवे एक ऐसे अ० अगि काय की म० मध्य में त. तहां झि० जले भा• कहना. ए० ऐसे पु० पुष्कल संवर्तक म. महामेघ की म० मध्य में त० वहां उ० द्रवित होना ए० ऐसे गं० गंगा में महानदी का प० प्रतिश्रोत इ० शीघ्र आ० खंधे असिधारंवा खुरधारंवा. उग्गाहेजा ? हता उग्गाहेजा । सेणं तत्थ छिजेजवा ? गोयमा!अत्थेगइए छिज्जेजवा भिज्जेजवा, अत्यंगइएनोछिज्जेजवानोभिजेजवा भिजेजवा।। एवं अगणिकायस्स मज्झं मझेणं तहिं णवरं झियाएज भाणियन्वं एवं पुक्खलसंवदृस्स, महामेहस्स मझं मझेणं तहिं उज्जोसिया, एवं गंगाए महाणईए पडिसायं हव्वमाभावार्थ जैसे एक परमाणु शस्त्र से छिन्न अभिन्न है वैसे ही द्वीप्रदेशी स्कंध यावत् संख्यात, असंख्यात प्रदेशी स्कंध भी अछिन्न अभिन्न होते हैं. और अनंत प्रदेशात्मक स्कंध क्वचित् छेदाते भेदाते हैं और क्वचित् छेदाते भेदाते नहीं हैं. जैसे शस्त्र से छेदाते भेदाते का आलापक कहा वैसे ही आनिकाय में जलनेका जानना. अर्थात् कितनेक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अग्निकाय में जलते हैं व कितनेक नहीं जलते हैं ऐसे ही पुष्कलावर्त महामेघ में कितनेक अनंत प्रदेशी स्कंध भीजते हैं और कितनेक नहीं भीजते । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शब्दार्थ आवे त० तहां वि विनाश आ. प्राप्त होवे उ. पानी का आ आवर्त उ०पानी का वि०बिंदु उ० अवगाह । कर से० अथ त० तहां प० नष्टहावे ॥२॥५० परमाण पो० पदल किं. क्या स० अर्ध सहित स०१00 १ मध्य सहित स० प्रदेश सहित उ० अथवा भ० अर्ध रहित अ० मध्य रहित अ. प्रदेश रहित गो० गौतम १९५ अ. अर्ध रहित अ० मध्य रहित अ० प्रदेश रहित नो नहीं अ० अर्ध सहित नो० नहीं स०मध्य सहित नोक नहीं स. प्रदेश सहित दु. द्विप्रदेशी स्कंध किं० क्या गो० गौतम अ० अर्ध सहित अ० मध्य रहित गच्छेज्जा, तहिं विणिहाय मावज्जेजा, उदगावत्तवा, उदगंबिंदुवा उग्गाहेजा, सेणं तत्थ परियावज्जेज्जा, ॥ २ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! किं सअड्डे समझ सपएसे उदाहु अणड्डे, अमझे, अपएसे ? गोयमा ! अणड्डे अमझे अपएसे, नोसअड्डे, नो समझे नो सपएसे । दुपएसिएणं भंते ! खंधे किं सअड्डे, समझे, सपएसे उदाहु में भावार्थ हैं. ऐसे ही गंगा महानदी के प्रवाह में कितनेक अनंत प्रदेशी स्कंध नष्ट होते हैं कितनेक नष्ट नहीं होते हैं.' हकितनेक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध पानी के आवर्त को या पानी के बिन्दु को अवगाह कर रहेते हैं? है॥२॥ अहो भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल अर्ध, मध्य व प्रदेश सहित है अथवा अर्ध, प्रदेश व मध्य रहित । है ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल अर्थ, मध्य व प्रदेश रहित है. अर्ध, मध्य व प्रदेश सहित नहीं है. क्यों की परमाणु पुद्गल अत्यंत ही मूक्ष्म है और उम्र का विभाग नहीं होसकता है. अहो भगवन् ! द्वि g- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पांचवा शतकका सातवा उद्देशा24 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ bro १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिनी - स० प्रदेश सहित को नहीं अ० अर्ध रहित णो नहीं स० मध्य सहित नो नहीं अ० प्रदेश रहित । ति० तीन प्रदेश की पु० पृच्छा खं० स्कंध गो० गौतम १० अर्थ रहित स० मध्य सहित स० प्रदेश सहि नो० नहीं अ० अर्थ सहित नो० नहीं अ० मध्य रहित नो नहीं अ० प्रदेश रहित जैसे दु० द्विप्रदेशी ० तैसे जे. जो स० सप ते वे भा० कहना जे० जो वि० विषम ते वे ज. जैसे ति तीन प्रदेशा त्मक त० तैसे भा० कहना सं० संख्यातपदेशात्मक भं० भगवन् ख• स्कंध किं० क्या स० अर्ध अणड्डे अमझे अपएसे ? गोयमा ! सअड्डे अमझे, सपएसे, नो अणड्डे, नो समझे, नो अपएसिए । तिपएसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा । गोयमा ! अण्ड्डे समझे सप, एसे नो सअड्डे नो अमज्ञ नो अपएसे जहा दुपएसिओ तहा जेसमा ते भाणियव्या. . जे विसमा ते जहा तिपएसिओ, तहा भणियचो. ॥ * ॥ संखेजपएसिएणं भंते ! } प्रदेशी स्कंध क्या अर्थ, मध्य व प्रदेश सहित है या अर्ध मध्य व प्रदेश रहित है ? अहो गौतम ! द्वि प्रदेशी स्कंध दो परमाणु का बनाहुआ होने से अर्थ सहित है, मध्य रहित है, व प्रदेश सहित है. अहो भगवन् ! तीन प्रदेशी स्कंध क्या अर्ध मध्य व प्रदेश सहित है अथवा अर्थ, मध्य व प्रदेश रहित है ? अहो गौतम ! तीन प्रदेशी स्कंध में तीन प्रदेश होने से अर्ध नहीं हैं परंतु मध्य व प्रदेश रहे हुवे हैं. इसी , तरह आगे २-४-६-८ वगैरह जो सम राशि है उस को द्वि प्रदेशी स्कंध जैसे कहना और ३-५-७-९7 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 40989- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र <8883 सहित पु० पृच्छा गो• गौतम सि० क्वचित् स. अर्ध सहित अ० मध्य रहित स० प्रदेश सहित सि० क्वचित् अ० अर्ध रहित स० मध्य सहित स० प्रदेश सहित ज० जैसे सं• संख्यात प्रदेशात्मक त० तैसे अ० असंख्यात प्रदेशात्मक अ० अनंत प्रदेशात्मक ॥ ३ ॥ ५ परमाणु पो पुद्गल भ० भगवन् प० परमाणु पुद्गल फु० स्पर्श हुवे किं० क्या दे देश से दे० देश को फु० स्पर्शता है दे. देश से दे० खंधे किं सअढे पुच्छा ? गोयमा ! सिय सअढे अमझे, सपएसे, सिय अणद्वे समझे, सपएसे, जहा संखेजपएसिओ, तहा असंखेज पएसिओवि, अणंत । पएसिओवि ॥ ३ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! परमाणु पुग्गलं फुस- माणे किं देसेणं देसं फुसइ, देसेणं देसे फुसइ, देसेणं सव्वंफुसइ, देसेहिं देसं वगैरह जो विषम राशि है उस का तीन प्रदेशी स्कंध जैसे जानना. अहो भगवन् ! संख्यात प्रदेशी स्कंध क्या अर्ध मध्य व प्रदेश सहित हैं ? अहो गौतम ! संख्यात प्रदेशी स्कंध क्वचित् अर्ध सहित मध्य रहित व प्रदेश सहित है और क्वचित् अर्ध रहित, मध्य सहित व प्रदेश सहित है; क्योंकि इस में सम विषम दोनों राशि होती हैं. संख्यात प्रदेशी स्कंध जैसे असंख्यात प्रदेशी स्कंध व अनंत प्रदेशी स्कंध का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल परमाणु पुद्गल का स्पर्श करते क्या १ अपने एक देश से दूसरे के एक देश को स्पर्श २ अपने एक देश से दूसरे के अनेक देशों को स्पर्श ३ अपने एक *888 पांचवा शतकका सातवा उद्देशा 88 भावार्थ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देशा स्पर्शता है दे० देश से स० सब को फु० स्पर्शता है दे० देशोंसे स० सब से गो० गौतमनो० नहीं दे० देश से दे० देशको फु० स्पर्शे ५० परमाणु पो० पुद्गल दु० द्विप्रदेशी को फु० स्पर्शते स ०. सात नं० नत्र के फु० स्पर्शे प० परमाणु पो० पुद्गल ति० तीन प्रदेश को फु० स्पर्शते नि० अन्त्य ति० तीन से फु० स्पर्शे ज० जैसे प० परमाणु पो० पुद्गल ति० तीन प्रदेश को फु० स्पर्शा हुआ ए० ऐसे फु० फुसइ, देसेहिं देसे फुसइ, देसेहिं सव्वं फुसइ, सव्वेणं देतं फुसइ, सव्वेणं देसे फुसइ, सव्येणं सव्वं फुसइ ? गोयमा ! नो देसेणं देतं फुसइ, णो देसेणं देसे फुसइ, णो देसेणं सव्वं फुसइ, नो देसेहिं देतं फुसइ, नो देसेहिं देसे फुसइ, नो देसेहिं सव्वं फुसइ, नो सव्वेणं देसं फुसइ, णो सव्वेणं देसे फुसइ, सव्वेणं सव्वं फुसइ । परमाणु पोग्गले दुपएसियं कुसमाणे सत्त नवमेहिं फुसइ, परमाणुपोग्गले तिपएसियं फुलमाणे देश से दूसरे के सर्वाग को स्पर्शे ४ अपने अनेक देश से दूसरे के एक देश को स्पर्शे ५ अपने देश से दूसरे के अनेक देशों को स्पर्शे ६ अपने अनेक देश से दूसरे के सर्वांग को स्पर्शे ७ अपने सर्वांग ईसे दूसरे के एक देश को स्पर्शे ८ अपने सर्वांग से दूसरे के अनेक देशों को स्पर्शे और ९ अपने सर्वांग से दूसरे के क्या सर्वांग को स्पर्शे ? अहो गौतम ! इन भांग में से मात्र नावां सर्वांग से सर्वांग को स्पर्शे * यही भांगा मील सकता है. परमाणु पुद्गल परमाणु पुद्गल को स्पर्शने में शेष आठ भांगे नहीं हैं. परमाण अनेक सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * ६९८ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | | स्पर्शवे जा० यावत् अ० अनंत प्रदेश दु० द्विपदेशात्मक भं० भगवन् खं० स्कंध प० परमाणु पुद्रल फु० स्पर्शता हुधा पु० पृच्छा त० तीसरा न० नववा से फु० स्पर्शे दु० द्विपदेशात्मक दु० दो प्रदेशी फु० स्पर्शते प० प्रथम त० तीसरा स० सातवा न० नववे से फु० स्पर्शे दु० दो प्रदेशी ति०तीन प्रदेश को फु० स्पर्शते आ० आदि के प० पीछे के ती。 तीन से भ० मध्य के ती तीन प० प्रतिषेध करना दु० णिप्पच्छिमएहिं तिहिं फुसइ; जहा परमाणुपोग्गले तिपएसियं फुसाविओ एवं फुसावेयव्बो, जाव अनंत पएसओ । दुपएसिएणं भंते ! खंधे परमाणु पोग्गलं फुरमाणे पुच्छातइय नवमेहिं फुसइ, दुपएसिओ दुपएसियं कुसमाणो पढमतइय सत्तमनवमेहिं फुसइ, दुपएसओ तिपएसियं फुसमाणो आदिल्लएहिं य पच्छिल्लएहिं (पुद्गल द्वि प्रदेशी स्कंध को स्पर्शते सर्व से एक देश को व सर्व से सर्व को स्पर्शे ऐसे सातवे व नववे दो भांगे पाते हैं. परमाणु पुद्गल तीन प्रदेशी स्कंध को स्पर्शते पीछे के तीन भांगे पाते हैं १ यदि वह तीन ( प्रदेशात्मक स्कंध तीन प्रदेश में रहा हुवा होवे उस स्कंध के एक प्रदेश को वह परमाणु सर्वाग से { स्पर्शता है २ यदि उस त्रिप्रदेशी स्कंध के दो परमाणु एक प्रदेश पर रहा हुवा होवे तो सर्वांग से अनेक ०७ देशों को स्पर्शे ३ यदि उक्त तीन प्रदेशी स्कंध परमाणु की सूक्ष्मता से एकही परमाणु पर रहे तव सर्वाग से सर्वांग को स्पर्शे ऐसे अंत्यके तीन भांगे पाते हैं. जैसे तीन प्रदेश को परमाणु पुगल स्पर्शता है वैसे ही चार सूत्र भावार्थ 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती सूत्र 48 पांचवा शतकका सातवा उद्देशा ६९९ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० प्रदेश को परमाणु (द्विपदेशात्मक ज० जैसे तिं० तीन प्रदेश फु स्पर्शाया हुवा ए० ऐसे फु० स्पर्शना जा० यावत् अनंत प्रदेशात्मक ति० तीन प्रदेशात्मक भ० भगवन् खं० स्कंध प० परमाणु पो० पुगल फु० स्परीते हुवे १. पु० पृच्छा त० तीसरा छ० छठ्ठा न० नववे से फु० स्पर्शता है ति० तीन प्रदेशात्मक दु० फु० स्पर्शते प० प्रथम त० तीसरा च० चौथा छ० छट्टा स० सातवा न० नववे से फु० स्पर्शता है ि तिहिं फुसइ, मज्झिमएहिं तिहिंवा पाडसेहेयव्यं. दुपएसिओ जहा तिपएसियं फुसाविओ. एवं स जाव अनंत एसियं तिपएसिएणं भंते ! खंधे पोग्गलं फुरमाणे पुच्छा तइयछणवमेहिं फुसइ || तिपएसओ दुपएसिथं फुस - माणो पढमरणं तइयएणं चउत्थछटुसत्तमनवमेहिं फुसइ ॥ तिपएसिओ तिपए( पांच यावत् संख्यात, असंख्यात व अनंत प्रदेश तक जानना. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल को स्पर्शते द्वि प्रदेशी स्कंध में कितने भांगे पावे ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल को स्पर्शते हुवे द्विप्रदेशी स्कंध में तीसरा व नववा भांगा पावे अर्थात् अपने देश से परमाणु पुद्गल के सर्वांग को स्पर्शे अथवा अपने सर्वांग से उस के सर्वांग को स्पर्शे द्वि प्रदेशी द्वि प्रदेशी को स्पर्शते हुए पहिला, तीसरा, सातवां व नववा भांगा को स्पर्शे, तीन प्रदेशी को स्पर्शते हुए पहिले के तीन व पीछे के तीन ऐसे भांगे को स्पर्शे. और इसी तरह चार, पांच यावत् संख्यात, असंख्यात व अनंत प्रदेशी को स्पर्शते हुवे द्विप्रदेशी स्कंधमें उक्त छ मांगे पावे * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७०० Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी तीन प्रदेशात्मक ति० तीन प्रदेश को फु० स्पर्शते स० सब ठा० स्थान में फु० स्पर्शते ज० जैसे ति तीन भूप्रदेशात्मक को फु० स्पर्शा हुवा ए० ऐसे ति० तीन प्रदेशात्मक जा० यावत् अ० अनंत प्रदेशात्मक की साथ सं० जोडना ज जैसे ति तीन प्रदेशात्मक ए. ऐसे जा० यावत् अ० अनंत प्रदेशात्मक भा० कहना !॥ ४ ॥१० परमाणु पो० पुद्गल भ० भगवन् का० काल से के० कितना हो. होता है गो० गौतम ज० सियं फुसमाणो सव्वेसुवि ठाणेसु फुसइ । जहा तिपएसिओ तिपएसियं फुसाविओ, एवं तिपएसिओ जाव अणंतपएसिएणं संजोएयव्वो, जहा तिपएसिओ एवं जाव । अणंतपएसिओ भाणियन्वो ॥ ४ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! कालओ केवचिरंहोइ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं, एवं जाव अणंत पएसि तीन प्रदेशी स्कंध परमाणु पुद्गल को स्पर्शते हुवे तीसरा, छट्ठा व नक्वां भांगा को स्पर्श. तीन प्रदेशी स्कंध । भावार्थ द्वि प्रदेशी स्कंध को स्पर्शते हुए पहिला, तीसरा, चौथा, छट्ठा, सातवां व नववां को स्पर्शे और तीन प्रदेशी तीन प्रदेशी को स्पर्शते हुवे सब भांगे को स्पर्श. जैसे तीन प्रदेशी का कहा वैसे ही चार, पांच 4 यावत् संख्यात असंख्यात व अनंत प्रदेशी का जानना. और जैसे तीन प्रदेशी स्कंध से परमाणु पुद्गल 25 यावत् अनंत प्रदेशी के भांगे कहे वैसे ही चार, पांच यावत् अनंत प्रदेशी की साथ जानना ॥ ४ ॥ अहो 3. भगवन् ! परमाणु पुद्गल परमाणु पुद्गलपने कितने काल तक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय है। 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जघन्य ए० एक स० समय उ० उत्कृष्ट अ० असंख्यात ए० ऐसे जा० यावत् अ अनंत प्रदशात्मक ए० १० प्रदेशावगाही मं० भगवन् पो० पुद्गल से० कंपन सहित त० उस ठा० स्थान में अ अन्य ठा० ( स्थान में का० काल से के० कितना हो० होता है गो० गौतम ज० जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट आ० आवलिका का अ० असंख्यातवा भा० भाग ए ऐसे जा० यावत् अ० असंख्यात प्रदेशावगाढ ओ ।। एगपएसोगाढेणं भंते ! पोग्गले सेए तम्मिवा ठाणे अण्णम्मिवा ठाणे कालओ केवचिरं * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी होइ ? गोयमा ! जहणं एवं समयं उक्कोसे आवलियाए असंखेज्जइ भागं, एवं जाव असंखेज्ज पएसोगाढे ॥ एग पएसोगाढेणं भंते ! पोग्गले निरेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं एवं जाव असंखेज एसो उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहे तत्पश्चात् वह एक रूप में नहीं रह सकता है. वैसे ही द्वि प्रदेशी स्कंध तीन प्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी स्कंध जघन्य एक समय तक रहता है उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है. अहो भगवन् ! एक प्रदेशांवगाढ एक आकाश प्रदेश पर रहा हुवा ) पुद्गल कंपन सहित अधिकृत स्थान में अथवा अन्य स्थान में कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! जंघन्य एक समय तक { रहे उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातत्रे भाग तक रहे. जैसे एक प्रदेशावगाढ पुगल का कहा वैसे ही असंख्यात प्रदेशावगाढ पुगलतक का जानना. आकाश के अनंत प्रदेश नहीं होने से अनंत प्रदेशावगाढ पुगल | ७०२ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ नि० कंपन रहित ज० जघन्य ए० एक स० समय उ० उत्कृष्ट अ० असंख्यात काल एक एक गु० गुन काला भ० भगवन् पो० पुद्गल का काल से के० कितना भ० होवे गो० गौतम ज० जघन्य ए० एक स० समय उ० उत्कृष्ट अ० असंख्यात काल ए० ऐसे व० वर्ण गगंध र० रस फा० स्पर्श जा. यावत् गाढे एग गुणकालएणं भंते ! पोग्गले कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! है जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं एवं जाव अणंत गुणकालए; एवं वण्ण गंधरस फास जाव अणंत लुक्खे, एवं सुहुम परिणए पोग्गले, एवं बादर परिणए पोग्गले सद्दपरिणएणं भंते ! पोग्गले कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! भावार्थ की व्याख्या नहीं होती है. एक आकाश प्रदेश पर रहनेवाला परमाणु पुद्गल कम्पन रहित जघन्य एक में समय उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है ऐसे ही असंख्यात प्रदेशावगाढ परमाणु पुद्गल का जानना.. अहो भगवन् ! एक गुन काला पुद्गल जघन्य कितना कालतक रहता है ? अहो गौतम ! एक गुन काला पुद्गल जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात कालतक रहता है जैसे एक गुन काला का कहा वैसे ही अनंत गुन काला तक जानना. और ऐसे ही शेष चार वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श में अनंत प्रदेशी रूक्ष पुद्गल तक का जानना. ऐसे ही मूक्ष्म परिणत पुद्गल व बादर परिणत पुद्गल का जानना. 15 अहो भगवन् ! शब्द से परिणमे हुए पुद्गलों कितने काल तक शब्दपने रहते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य 28 पंचमांग विवाह पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र 4:488 पांचवा शतक का सातवा उद्दशा -११ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 81 अ० अन्त लु० रूक्ष ए. ऐसे बा० बादर परिणत पो० पुट्ठल स० शब्द प० परिणत भं० भगवन् पो. पुद्गल का काल. से क० कितना हो. होवे शेष पूर्ववत् ॥ ५ ॥ ५० परमाणु पो० पुद्गल का भं• भगवन् । अं० आंतरा का• काल से के० कितना हो० होवे गो. गौतम ज० जघन्य ए० एक स० समय उ० भ७०४ उत्कृष्ट अ० असंख्यात काल दु० द्विप्रदेशी भ० भगवन् खं० स्कंध का एक ऐसे जा. यावत् १० अनंत जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं, असद्दपरिणए जहा एक गुणकालए ॥ ५ ॥ परमाणु पोग्गलस्सणं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणेणं एगंसमयं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं ॥ दुपएसियरसणं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं उक्कोसेणं एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग तक रहते हैं अशब्दपरिणत पुगलोंको एक गुन काला जैसे कहना।।५॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल का अंतर कितनेकाल का कहा? अहो गौतम! जघन्य एक समय का उत्कृष्ट असंख्यात काल का. द्विप्रदेशी स्कंध यावत् अनंत प्रदेशी स्कंध का जघन्य एक १ एक परमाणु पुद्गल जितने समय में अन्य पुद्गलों की साथ भीलकर फीर उस से विच्छिन्न बनकर एक ही परमाणु पुद्गल बन जावे उतने समय को अंतर कहते हैं. *प्रकाशक-राजीवहादुर लाला मुखदेवसहायनी चालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ प्रदेशी ।। ६ ॥ ए. एक पं. प्रदेशावगाढ भं० भमवन पु० पुद्गल का से० कंपन सहित अं• आंतरा का० १० काल से के० कितना हो. होवे गो० गौतम ज० जघन्य ए. एक समय उ० उत्कृष्ट अ० असंख्यात काल अणंतकालं. एवं जाब अणंतपएसिओ ॥ ६ ॥ एगपएसोगाढस्सणं भंते ! पोगालस्स सेयस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेजंकालं ॥ एवं जाव असंखेजपएसोगाढे एग पएसोगाढस्सणं भंते ! निरेयस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइ भागं एवं जाव असंखेजपएसोगाढे ॥ वण्ण गंध रस फास सुहुमपरिणयाणं, एएसिं जंचव अंतरंपि भाणियत्वं ॥ सद्द परिणयस्सणं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरंहोइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं समय उत्कृष्ट अनंत काल का अंतर पडता है. ॥ ६॥ अहो भगवन् ! एक प्रदेशावगाही चलित पुद्गलों भावार्थ का कितना अंतर कहा? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात. कालका. और ऐसे ही अर ख्यात प्रदेशात्मक का जानना. एक प्रदेशावगाही स्थिर पुद्गलों का अहो भगवन् ! कितना अंतर ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यात वां भाग का जानना. ऐसे ही असंख्यात 4880पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40888 388 88 पांचवा शतक का सातवा उद्देशा 88 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {शेष पूर्ववत् ॥ ७ ॥ ए० कंपने वाले द० द्रव्य स्थान का आ० आयुष्य खे० क्षेत्र स्थान आयुष्य ओ० अवगाहना स्थान आयुष्य भा० भाव स्थान आयुष्य में से क० कौन जा० यावत् वि० विशेषाधिक गो० असंखेज्जकालं असद्दपरिणयस्सणं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरंहोइ ? गोयमा ! जहणेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइ भागं ॥ ७ ॥ एयस्स भंते ! दव्वट्ठाणाउयस्स, खेत्तट्ठाणांउयरस, ओगाहणट्ठाणाउयस्स, भावट्ठाणा | प्रदेशावगाही स्थिर पुद्गल तक का जानना. ऐसे ही वर्ण, गंध, रस स्पर्श व सूक्ष्म परिणत पुद्गलों का जानना. शब्द परिणत का अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल का और अशब्द परिणत पुद्गलों का जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यात वा भाग का जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! देव्य (स्थान की स्थिति, क्षेत्र स्थान की स्थिति अवगाहना स्थान की स्थिति, व भाव स्थान की स्थिति में से सूत्र भावाथ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋानी १ द्रव्य सो पुद्गल द्रव्य, स्थान सो भेद और आयु सो स्थिति अर्थात् पुल परमाणु द्विप्रदेशी स्कंधादिक की स्थिति अथवा द्रव्यका उसी भव में अवस्थान रूप रहना सो द्रव्यस्थान आयुष्य. २ क्षेत्रस्थान आयुष्य एक आकाश प्रदेश में जितने कालतक पुद्गल अवस्थित पने रहे सो क्षेत्रस्थान आयुष्य. ३ जितने आकाश प्रदेश में पुद्गल अवगाहे उतने ही पुद्गल अन्य स्थान अवगाहे इस की स्थिति सो अवगाहन स्थान आयुष्य और ४ भाव सो कालादि के भेद की स्थिति. * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७०६ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2800 १०७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) गौतम स० सब से थो० थोडे खे० क्षेत्र स्थान का आयुष्य ओ० अवगाहना स्थान का आयुष्य अ०१ असंख्यात गुना द. द्रव्य स्थान असंख्यात गुना भा. भाव स्थान असंख्यात गुने ॥ ८॥ ने० नारका कि क्या सा० आरंभ सहित स० परिग्रह सहित उ. अथवा अ० अनारंभी अ० अपरिग्रही गा० गौतम । ने नारकी मा० सारंभी स० सपरिग्रही नो० नहीं अ० अनारंभी अ० अपरिग्रही से० अथ के • कैसे गो००७ उयस्स कयरे २ जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तट्ठाणाउए, ओगाहणट्ठाणाउए असंखेजगुणे, दव्वट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे, भावट्ठाणाउए असंखेजगुणे ॥ खेत्तोगाहणदव्वे भावट्ठाणाउयंच अप्पबहुं-खेत्ते सव्वत्थोवे सेसाढाणा असंखेज्जगुणा ॥ ८ ॥ नेरइयाणं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा, उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा ! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा ॥ सेकेण?णं जाव कौन किस से अल्प, बहुत व विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडा क्षेत्र स्थान का आयुष्य, उस से अवगाहना स्थान का आयुष्य असंख्यात गुना, उस से द्रव्य स्थान का आयुष्य असंख्यात गुना और उस से भाव स्थान का आयुष्य असंख्यात गुना. ॥ ८॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी सारंभी सपरिग्रही हैं ? अथवा अनारंभी अपरिग्रही हैं ? अहो गौतम ! नारकी सारंभी व सपरिग्रही हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी सारंभी पपरिग्रही हैं ? अहो गौतम ! नारकी पृथ्वी काया का यावत् त्रस काया है। 488 पांचवा शतकका सातवा उद्देशा 89488 भावार्थ wwwwwwwwwwww 408808 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गौतम ने० मारकी पु० पृथ्वी काया का सं० आरंभ करते हैं जा० यावत् त० सूत्र भावार्थ २०३ अनुवादक ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी स काया का स० आरंभ करते हैं सर शरीर परिग्रही भ० होते हैं क० कर्न प० परिग्रह वाले भ० होते हैं (स० सचित अ० अचित्त भी० मीश्र द० द्रव्य प० परिग्रहीत भ० होते हैं ते० इसलिये ॥ ९ ॥ अ० अमुरकुमार भं० भगवन् भ० भवन के प० परिग्रहवाले दे देव दे० देवियों म० मनुष्य म० अपरिग्गा ? गोयमा ! नेरइयाणं पुढविकायं समारभंति, जाव तसकार्य समारभंति, सरीरा परिग्गहिया भवति, कम्मा परिग्गहिया भवंति सचित्ताचित्तमीसयाइं दव्वाई परिग्ग हियाइं भवंति । सेतेणं तं चैव || ९ || असुरकुमाराणं भंते! कि सारंभा पुच्छा ? गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा नो अणारंभा अपरिग्गहा, से केणट्टेणं ? गोयमा ! असुरकुमाराणं पुढविकायं समारभंति जाव तसकायं समारभंति ॥ सरीरा परिग्गहिया भवति, कम्मा परिग्गहिया भवंति भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा - देवीओ ( का आरंभ करते हैं. नारकी को शरीर, कर्म, सचित्त, अचित्त व मीश्र द्रव्य का परिग्रह होता है इसलिये वे सारंभी व सपरिग्रही हैं ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार जाति के देव क्या सारंभी सपरिग्रही हैं ? अहो गौतम ! असुरकुमार सारंभी सपरिग्रही हैं क्योंकी असुरकुमार पृथ्वीकाय यावत् सकाया का आरंभ करते हैं और उन को शरीर कर्म, भवन, देव, देवियों, मनुष्य, मनुष्यणियों, * प्रकाशक-राजात्रहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ** ७०८ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | मनुष्यणी ति० तिर्यय ति० तियंचणियों प० परिग्रहीत भ होते हैं ए० ऐसे आ० आसन स० शयन मं० भांडे म० पात्र उ० उपकरण प० परिग्रहीत ए० ऐसे जा० यावत् थ० स्थनित कुमार ॥ १० ॥ ए० एकेन्द्रिय ज० जैसे ने० नारकी ॥ ११ ॥ बे० द्विइन्द्रिय मं० भगवन् वा ० बाह्य मं० भंड म० पात्र उ० सूत्र भावार्थ 4888 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र आसण मणूस - मणस्त्रीओ - तिरिक्खजोगिया - तिरिक्खजोणिणीओ - परिग्गहियाओ भवंति ॥ सयण भंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्ताचित्तमीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति से तेणट्टेणं तहेव, एवं जाव थणियकुमारा ॥ १० ॥ एमिंदिया जहा नेरइया ॥ ११ ॥ बेइंदियाणं भंते! किं सारंभा सपरि हातचे जाव सरीरा परिग्गहिया भवंति बाहिरिया भंडमत्तावगरणापरिग्गहिया सिर्यच, तिर्यचणियों का परिग्रह होता है, वैसे ही आसन, शयन, भंड, पात्र, उपकरण, सचित्त { अचित्त व मीश्र द्रव्य का परिग्रह होता है इसलिये वेसारंभी व सपरिग्रही कहलाते हैं. ॥ १० ॥ एके{न्द्रिय का अधिकार नारकी जैसे कहना ॥ ११ ॥ द्वीन्द्रिय सइिन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय को शरीर, कर्म व बाह्य भंड, पात्र उपकरण वैसे ही सचित्त अचित्त व मीश्र द्रव्यका परिग्रह होता है इसलिये वे सारंभी व सपरिग्रही कहते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! क्या तिर्यंच पंचेंद्रिय सारंभी सपरिग्रही हैं ? अहो गौतम पांचवा शतक का सातवा उद्देशा ७०९ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० शब्दार्थ * उपकरण ५०.परिग्रहीत भ० होते हैं ए. ऐसे जा. यावत् च० चतुरेन्द्रिय ॥ १२ ॥ पं० पंचेन्द्रिय नि० तिर्यंच तं० वैसे जा. यावत् क० कर्म परिग्रहीत टं० छेदेहुए पर्वत कू० शिखर से मुं० मुण्ड पर्वत सि० सि. शिखर वाले पर्वत ५० किंचित् नमे हुवे ज. जल थ० स्थल वि० बिल गु० गुफा ले. उत्कीर्ण पर्वती गृह उ० पानी नीचे पड़ने का स्थान नि झरने के स्थान चि० कीचड मीश्रित जल स्थान ५० आनंद भवंति. सचित्ताचित्त जाव भांति, एवं जाव चउरिंदिया ॥ १२ ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! तंचेव जाव कम्मापरिग्गहिया भवंति, टंका-कूडा-सेलासिहरी-पब्भारा-परिग्गहिया भवंति, जल-थल-बिल-गुह-लेणा-परिग्गहिया भवंति, उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल-चिप्पिणा-परिग्गहिया भवंति, अगड-तडाग-दह-नदीओ वावी-पुक्खरिणी-दीहिया-गुंजालिया-सरा-सरपंतियाओ सरसरंपंतियाओ, बिलपंतियाभावार्थ तिर्यंच पंचेन्द्रिय पृथ्वीकाय यावत् स काया का आरंभ करते हैं. उन को शरीर, कर्म का परिग्रह रहाहुवा है. टंक, कूट, सेले, शिखर व किंचित नमे हुवे शिखर का परिग्रह रहा हुवा है. जलस्थान, स्थलस्थान, बिल, गुफा व आश्रय स्थान का परिग्रह रहा हुवा है. पर्वत के झरणे. निर्झरणे, कीचड, प्रल्हादक स्थान व क्यारे का परिग्रह रहा हुवा है. कूने, तालाव, नदी, वापि, पुष्करणी, दीर्घिका, चक्राकार वापि, बडे १ छिन्नटंकाः टांके २ शिखणि हस्त्यादि बंधनस्थानानिवा ३ मुण्ड पर्वत. बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ** Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ र कारी स्थान चि० क्यारे के आकार वाले स्थान अ० कूप त• तलाव द० ट्रह न• नदी वा० वावि पु० पुष्करणी दी. लम्बी वावि गुं० चक्राकार वापि स० सरोवर स० सरोवर की पं० पंक्ति स० छोटे तलावों की पंक्ति बि• बिल पंक्ति आ० खेलने का बगीचा उ० उद्यान का० बन ५० वन व० वनखंड ओ, परिग्गहियाओ भवंति, आरामुजाण-काणणा-वणा-वणखंडा वणराईओ-परिग्गहियाओ भवंति ॥ देवउल-सभ-पव्व-थभ-खाइय. परिखाओ-परिग्गहियाओ भवंति, पागार डालग-चरिय-दार-गोपुर-परिग्गहिया भवंति, पासाय-घर-सरण-लेण-आवण-पारिग्गहि. या भवंति, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहा-परिग्गहिया भवंति, तालाव, तालाब की पंक्ति, छोटे तालाव, छोटे तालाब की पंक्ति, बिलों की पंक्ति, आमि, उद्यान, कानन , वन, वनखंड, वनराजी, देवालय, सभा स्थान, पर्वत, स्तूप, खाई, परिखा, कोट, कोट की उपर के अटारी, चरिको, द्वार, गोपुर, प्रासाद, गृह, तृणका गृह, आश्रय स्थान, दुकान. शृंगाटकके आकार का मार्ग, ४ जिस में दंपत्यादि क्रीडा करते हैं उसे आराम कहते हैं. ५३ उत्सवों के प्रसंग में बहुत जनों A को भोग्य पुष्पवाले वृक्षों जिस में रहे हुवे होवे ६ नगर की पास का वन. ७ नगर से बहुत दूर का वन ८ एक जाति के वृक्ष समुहवाला स्थान ९ वृक्ष की पंक्ति १० ऊंचे नीचे सब स्थान सरिखी ११ गृह के कोट में हस्ती । । प्रमुख को जाने का द्वार. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 328 <382 पांचवा शतक का सातवा उद्देशा Nagin भावाथे Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * do व० वृक्ष की पंक्ति दे० देवालय स० सभा प० पर्वत थू० स्तूभ खा० खाइ प० उपर नीचे सम आकार) { वाली खाई पा० प्राकार अ० अटारी च० चरिका दा० द्वार गो० गोपुर पा० महेल घ० गृह स० शरण (ले० स्थानक आ० दुकानों सि० श्रृंगाटक स्थान ति० तीन रस्ता मीले च० चौक च० चचर च० चतुर्म (ख म० राजमार्ग प० मार्ग स० शकट र० रथ जा० यान ज० घोंसरुं गि० अंबाडी थि० ऊंटका पलाण सी० पालखी सं० छोटी गाडी लो० तवा क० कडाई क० कुङछी भ० भवन शेष पूर्ववत् ॥ १३ ॥ ज० सगड - रह जाण - जुग्ग- गिल्लि - थिल्लि - सीय- संदमाणियाओ-परिंग्गहियाओ भवति, लोहीलोहक डाह - कडुच्छुया - परिग्गहिया भवंति भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा - देवीओमणुस्सा- मणुस्सीओ-तिरिक्खजोणिया - तिरिक्ख जोणिणीओ-आसण-सयण खंभ- भंडसचित्ता-चित्त-मीसयाइं दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति से तेणद्वेणं ॥ १३ ॥ जहा तीन रस्ते मीले वैसा मार्ग, चौक, चच्चर, चार मुखवाला मार्ग, राज्यमार्ग, शकट, रथ, विमान, धूसरा, अंबाडी, उटका पलाण, पालखी, छोटीगाडी, तवा, छोटीकडाइ, कुडछी, भुवन, देव, देवी, मनुष्य, मनुष्यणी, तिर्यच, तिर्यचणी, आसन, शयन, स्थंभ, भंड, सचित्त, अचित्त, व मीश्र द्रव्यका परिग्रह रहा हूवा है इसीसे तिर्यच सपरिग्रही व सारंभी कहाते हैं || १३ | ऐसे ही मनुष्य का जानना ॥ १४ ॥ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७१२ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8380 शब्दार्थ जैसे ति तिर्यंच त० तेसै म० मनुष्य भा० कहना ॥ १४ ॥ वा० वाणव्यंतर जो० ज्योतिषी वे० वैमा निक ज० जैसे भ० भवनवासी त० तैसे ने० जानना ॥ १५ ॥ पं० पांच हे० हेतु प० कहा तं० वह ज. तिरिक्ख जोणिया तहा मणुस्सावि भाणियव्या ॥ १४ ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयव्वा ॥ १५ ॥ पंचहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-हेउं जाणइ, हेउं पासइ, हेउं बुज्झइ, हेउं अभिसमागच्छइ, हेउं छउमत्थमरणं मरइ पंचहेऊ पण्णत्ता तंजहा हेउणा जाणइ जाव हेउणा छउमत्थमरणं मरइ । पंचहेऊ 'पण्णत्ता, तंजहा-हेउं न जाणइ जाव हेडं अण्णाण मरणं मरइ, पंचहेऊ पण्णत्ता, भावार्थ, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, व वैमानिक को भवनपति जैसे कहना. ॥ १५ ॥ जो परिग्रही होते हैं वे छद्मस्थ होते हैं और छद्मस्थ हेतुसे जानते हैं इसलिये आगे हेतुका प्रश्न पुछते हैं. हेतु पांच प्रकार के कहे हैं. १ हेतु जानते हैं अर्थात् साध्य निश्चयार्थ के लिये जानते हैं २ सामान्यता से जानते हैं३ सम्यक् प्रकारसे श्रद्धते ४० हैं४ हेतु में प्रवर्ते और५ हेतु छद्मस्थ मरण मरे. और पांच प्रकार के हेतु कहे हैं. हेतु से जाने यावत् । *हेतु से छमस्थ मरण मरे. पांच हेतु-हेतु को जाने नहीं यावत् हेतु अज्ञान मरण मरे. पांच हेतुकहे-हेतुसे जाने नहीं यावर हेतु से अज्ञान मरण मरे. पांच अहेतु कहे हैं अहेतु जाने यावत् अहेतु केवली मरण मरे. पण्णत्ति ( भगवती) पांचवा शतक का सातवा उद्देशा 8-48 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ७१४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी यथा हे० हेतु जा० जानता है पा० देखता है हे• हेतु बु० समझे हे० हेतु अ• विशेष जाने हे हेतु छ०१ - छद्मस्थ मरण म० मरे शेषपूर्ववत् से० वैसे भ० भगवन् पं० पांचवा स० शतक का स० सातवा उ० उद्देशा स० समाप्त ॥५॥७॥ * . तंजहा-हेउणा न जाणइ, जाव हेउणा अण्णाण मरणं मरइ । पंचअहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-अहेउं जाणइ जाव अहेउं केवलिमरणं मरइ पंचअहेऊ पण्णत्ता, तंजहा. अहेउणा जाणइ जाव अहेउणा केवलि मरणं मरइ पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहाअहेउं न जाणइ, जाव अहेउं छउमत्थ मरणं मरइ ॥ पंचअहेऊ पण्णत्ता, तंजहाअहेउणा नजाणइ जाव अहेउणा छउमत्थ मरणं मरइ ॥ सेवं भंते भंतत्ति ॥ पंचम सयस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ७॥ x x औरभी पांच अहेतु कहे हैं अहेतु से जाने यावत् अहेतु से केवली मरण मरे. पांच अहेतु कहे हैं अहेतु जाने । नहीं यावत् छद्मस्थ मरण परे और भी पांच अहेतु कहे हैं अहेतु से जाने नहीं यावत् अहेतु से छद्मस्थ मरण मरे. विशेषार्थ बहुश्रतवन्तगम्य. अहो भगवन् ! आप के वचन तथ्य हैं. यह पांचवा शतक का सातवा * उद्देशा पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ ७॥ x * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७१५ 1848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र >> । ते. उस का० काल ते० उस स समय में जा. यावत् प० परिषदा ५० पीछीगइ ते० उस का० काल | ते. उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर के अं० शिष्य ना० नारद पुत्र ना० नामक अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि. विचरते थे ॥ १ ॥ ते० उस का० काल ते. उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर के अं० शिष्य नि० निग्रन्थिपुत्र अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक जा० यावत् वि० विचरते थे ॥ २॥ त० तब नि० निर्ग्रन्थी पुत्र अ० अनगार जे० जहां ना० तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी णारयपुत्ते णामं अणगारे पगइभदए जाव विहरइ । ॥ १॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी। नियंठिपुत्ते णामं अणगारे पगइभदए जाव विहरइ ॥२॥ तएणं नियंठिपुत्ते सातवे उद्देशे में पुद्गलों की स्थिति का कथन किया. आठवे उद्देशे में उस का ही विस्तार पूर्वक विवेचन कहते हैं. उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को आई 30 9 धर्मोपदेश सुनकर पांछीगइ. उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर का शिष्य प्रकृति भद्रिक नारद पुत्र नामक अनगार संयम व तप से अत्मा को भावते हुए विचरते थे. ॥१॥ उस काल उसकी समय में श्री महावीर के शिष्य प्रकृति भद्रिक निग्रंथीपुत्र नामक अनगार संयम व तप से आत्मा को भावते है। 8 पांचवा शतकका आठवा उद्देशा8800 भावार्थ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथे * नारद पुत्र ते. तहां उ० आये उ० आकर ना० नारद पुत्र अ० अनगार को एक ऐसा व. कहा स सब पो० पुद्गल अ• आर्य, किं० क्या स० अर्ध सहित स० मध्य सहित स० प्रदेश सहित उ० अथवा । अणगारे जेणेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, नारयपुत्तं ७१६ अणगारं एवं वयासी-सव्वे पोग्गलत्ति अजो किं सअड्डा समझा सपएसा उदाहु अणड्डा अमज्झा अपएसा ? अजोत्ति नारयपुत्ते अणगारे नियंठि पुत्तं अणगारं एवं वयासी सव्वे पोग्गला मे अजो सअट्टा समझा ‘सपएसा, नो अणड्डा अमज्झा अपएसा । तएणं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं क्यासी जइण ते अजो ! सव्वे पोग्गला संअड्डा समज्झा, सपएसा, नो अणड्डा अमज्झा अपएसा; किं दव्वादेसेणंअजो! सव्व पोग्गला सअड्डा तहेव चेव, कालादेसेणं तंचेव, भावादेसेणं भावार्थ हुए विचरते थे ॥२॥ उस समय में निर्ग्रन्थी पुत्र अनगार नारदपत्र अनगार की पास आकर ऐमा बोले की अहो आर्य ! सब पुद्गलों क्या अर्ध, मध्य व प्रदेश सहित हैं अथवा अथवा अर्ध, मध्य व प्रदेश में रहित हैं ? नारद पुत्र अनगार निर्ग्रन्थी पुत्र अनगार को ऐसा बोले कि अहो आर्य ! सब पुद्गल मेरे अभिप्राय ने से अर्ध, मध्य व प्रदेश सहित हैं. उस समय में निर्ग्रन्थी पुत्र अनगारने नारद पुत्र को कहा कि अहो । आर्य ! जब तुम्हारे आभप्राय से सब पुद्गल अर्ध, मध्य व प्रदेश सहित हैं तब क्या वे द्रव्यादेश से अर्थ मध्य व प्रदेश सहित हैं, क्षेत्रादेशसे, काला देश से या भावादेश से हैं ? तब नारद पुत्रने उत्तर दिया है। 23 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gop * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अ० अर्थ सहित अ० मध्य रहित अ० प्रदेश रहित अ० आर्य ना० नारद पुत्र अनगार निः निर्ग्रन्थी अजो तंचेव ॥ तणं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी-दव्यादेसेणवि मे अज्जो सव्त्र पोग्गला सअड्डा समज्झा सपएसा, जो अणढ्ढा अमज्झा अपएसा, खेत्ताएसेणवि, काला एसेणवि भावासेण ॥ तएणं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी जइणं अज्जो दवाएसेणं सव्व पोग्गला सअड्डा, समज्झा, सएसा, णो अणड्डा अमज्झा, अपएसा. एवं ते परमाणु पोग्गलेवि सअड्डे समज्झे सपएसे णो अणड्ढे अमज्झे अपएसे जइणं अजो खेत्ताएसेणवि सव्ब पोग्गाला सअड्डा समज्झा सपएसा जाव एवं ते एग पएसेगाढेवि पोग्गले सअड्ढे, समज्झे, सपएसे ॥ जइणं अजो काला सेणं सव्व पोग्गला अड्ढा कि अहो आर्य ! द्रव्यादेश से, क्षेत्रा देश से, कालादेश से व भावादेश से सब पुद्गल अर्थ, मध्य व प्रदेश { सहित हैं. फार निर्ग्रन्थी पुत्र अनगारने नारद पुत्र अनगार को ऐसा कहा कि अहो आर्य ! जब द्रव्या देश से सत्र पुगल अर्थ, मध्य व प्रदेश वाले हैं तब परमाणु पुद्गल भी अर्थ, मध्य व प्रदेश वाले होवे, जब क्षेत्रा देश से सब पुद्गल अर्थ मध्य व प्रदेश वाले हैं तब एक प्रदेशावगाडी पुद्गल अर्ध, मध्य व प्रदेश } सहित होवे. जब कालादेश से सब पुद्गल अर्ध, मध्य वं प्रदेश वाले हैं तब एक समय की स्थिति वाले olo पांचवा शतक का आठवा उद्देशा ७१७ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशक राजाबहादुर लार ७१८ शब्दार्थ पुत्र अ० अनगार को ए. ऐसा व० बोले स० सब पो• पुद्गल मे० मरे मत में अ• आर्य स० अर्ध * समझासपएसा,एवं तेएग समय ठिईएविपोग्गले सअट्ठे समझे सपएसे तंचेवाजइणं अजो भावाएसेणं सव्व पोग्गला सअड्डेइ एवं एक गुणकालएविपोग्गले सअढे समझे सपएसे तंचेव॥अहते एवं नभवंति तो ज वयसि दवाएसेणंवि सव्व पोगला सअट्ठा समझा सपएसा नोअणढा अमज्झा अपएसा एवं खेत्ताएसेणवि, कालाएसेणवि, भावाएसेणवि तण्णं मिच्छा ॥ तएणंसे नारयपुत्ते अणगारे लियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी नो खलु एवं देवाणुप्पिया एयमटुं जाणामो पासामो ॥ जइणं देवाणुप्पिया नो गिला यंति परिकहित्तए तंइच्छामिणं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म जाणित्त-. पुद्गल भी अर्थ, मध्य व प्रदेश वाले होवे और जब भावादेशले सब पुद्गल अर्ध, मध्य व प्रदेश वाले हैं. तब एक गुन काला पुद्गल भी अर्ध, मध्य व प्रदश वाला होते. परंतु ऐमा नहीं है. इसलिये द्रव्यादेश से क्षेत्रादेश से, कालादेश से व भावा देशसे सब पुद्गल अर्ध, मध्य व प्रदेश वाले हैं ऐसा जो तुम कहते हो क वह मिथ्या है. तब नारद पुत्र अनगार निर्ग्रन्थी पुत्र अनगार को ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! मैं - इसका अर्थ नहीं जानता हूं. इसलिये यदि आपको कहने में किसी प्रकारका खेद न होवे तो मैं आपकी पास १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ ahi सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सहित स० मध्य सहित स० प्रदेश सहित ज० यदि दे० देनानुप्रिय न० नहीं गि० खेदिन होवे प० कहने । 1 ए ॥ ३ ॥ तएणं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी दव्वा | । एसेणवि अजो ! सव्व पोग्गला सपएसावि अपएसावि अणंता, खेत्ताएसेणवि एवं चेव, * ७१९ कालाएसेणवि. भावाएसेणवि एवं चेव । जे दवओ अपएसे, से खेत्तओ नियमा अपभावार्थ से इस का अर्थ सुनने को इच्छता हूं ॥ ३ ॥ तव निर्ग्रन्थी पुत्र अनगारने नारदपुत्र को ऐसा कहा कि अहो आर्य! द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावादेश से सब पुद्गलों प्रदेश सहित भी हैं व प्रदेश रहित से हैं क्योंकि इसमें द्विप्रदेशात्पकादि स्कंध व परमाणु पुद्गल रहे हुवे हैं और वे अनंत हैं. क्षेत्रादेश से आकाश के द्विपदेशी स्कंध को अवगाहकर रहनेवाले पुद्गल सप्रदेशी हैं और एक आकाश प्रदेशावगाही पुद्गल में 5 अप्रदेशी हैं. काल से दो तीन वगैरह समय की स्थितिवाले पुद्गल सप्रदेशी हैं और एक समय की स्थिति गैरह गनकाले दव्य सप्रदेशी हैं और एक गुनकाला द्रव्य अप्रदेशी है, जो द्रव्य से अप्रदेशी होते हैं वे क्षेत्र से निश्चयही अप्रदेशी होते हैं क्यों की द्रव्य से अप्रदेशी bo , परमाणु पुद्गल एक प्रदेशावगाही होता है. काल से क्वचित् सप्रदशी होता है, क्वचित् अप्रदेशी होता है, यदि वह परमाणु एक समय की स्थितिवाला होवे तो अप्रदेशी और अनेक समय की स्थिति वाला होवे | तो सप्रदेशी. भाव से भी क्वचित् सप्रदेशी व क्वचित् अप्रदेशी हैं क्यों कि जो एक गुनकालादि है वह विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ४.49 पांचवा शतक का आठवा उद्देशा 988-89 ल अप्रा . भा . दा Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० शब्दार्थ 4 को तं० इसलिये इ० इच्छता हूं दे० देषामुप्रिय की भं० पास ए• यह सो० सुनकर के नि• अबधारकर एसे; कालओ सिय सपएसे सिय अपएसे, भावओ सिय सपएसे सिय अपएसे ॥ जेखेत्तओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे सिय अपएसे, कालओ भयणाए, भाव ओ भयणाए, जहा खेत्तओ एवं कालओ, भावओ, ॥ जे दव्वओ सपएसे से खत्तओ सिय सपएसे सिय अपएसे, एवं कालओ भावओघि, ॥ जे खेत्तओ सपएसे से भावार्थ अप्रदेशी और अनेक गुनकालादि है वह सप्रदेशी है. जो क्षेत्रसे अपदेशी है-एक आकाशप्रदेशावगाही है वह द्रव्यसे क्वचित् सप्रदेशी व काचित् अप्रदेशी है; क्योंकि एक परमाणु भी एक आकाशप्रदेशाव ग्राही होता है और अनेक परमाणु भी एक आकाश प्रदेशावग्राही होता है. वैसे ही क्षेत्र से अप्रदेशी पुद्गलों की काल से व भाव से अमदेशी की भजना रहती है, क्यों कि एक आकाश प्रदेशावनाही पुद्गल एक समय ब अनेक समय की स्थिति वाला हो वैसे ही एक गुनकाला व अनेक गुनकाला भी होवे.. जैसे क्षेत्र का आलापक कहा वैसे ही काल व भावका जानना. जो द्रव्य से सपदेशी है वह क्षेत्र से क्वचित् एसप्रदेशी व अप्रदेशी होता है क्योंकि द्विपदेशात्मकादि स्कंध एक प्रदेश व अनेक प्रदेशावगाही हो। सकते हैं वैसे ही वे काल व भाव से भी क्वचित् सप्रदेशी व क्वचित् अप्रदेशी हैं. जो क्षेत्र से सप्रदेशी * हैं वे द्रव्य से नियमा सप्रदेशी होते हैं क्योंकि अनेक प्रदेशावग्राही अनेक पुद्गलों होते हैं. काल १.२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र है दवओ नियमा सपएसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए, जहा दव्यओ तहा कालओ, भावओवि॥४॥एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं दव्वादेसेणं खेत्तादेसेणं,कालादेसेणं, भावादेसेणं सपएसाणं अपएसाणय कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? नारयपुत्ता! सव्वत्थोवा पोग्गला भावादेसेणं अपएसा, कालादेसेणं अपएसा, असंखज्जगुणा दब्धादसेणं अपएसा असंखेजगुणा, खेत्तादेसेणं अपएसा असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंखजगुणा, दव्वादेसेणं सपएसा विससाहिया, कालादेसेणं सपएव भाव में भजना होती है अर्थात् क्वचित् सप्रदेशी है व क्वचित् अप्रदेशी है. जैसे द्रव्य का आलाEपक कहा पैसे ही काल व भाव का जानना. अर्थात् जो काल से सप्रदेशी है यह द्रव्य क्षेत्र व भाव से समदेशी अप्रदेशी है और जो भाव से सप्रदेशी है वह द्रव्य क्षेत्र व काल से सप्रदेशी अप्रदेशी दोनों है॥४॥ अो पूज्य ! इन द्रव्यादेश, क्षेत्रादेश, कालादेश व भावादेश से सप्रदेश व अप्रदेश में कौन किस से}ogo Fअल्प, बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो नारद पुत्र ! सब से थोडे भावादेश से अप्रदेशी, कालादेशसेX अप्रदेशी असंख्यात गुने, द्रव्यादेश से अप्रदेशी असंख्यात गुने, क्षेत्रादेश से अप्रदेशी असंख्यात गुने, क्षेत्रादेश से सप्रदेशी असंख्यात गुने, द्रव्यादेश से सप्रदेशी विशेषाधिक, कालादेशसे सप्रदेशी विशेषाधिक, सूत्र Bag [ङ्ग विवाह षण्णात्ति ( भगवती) Naggi2-पांचवा शतकका आठवा उद्देशा 82387 Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 42 अनुवादक - लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जा० जानने को शेष पूर्ववत् ॥ ३ ॥ पूर्ववत् ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ त० तब से उस ना० नारद पुत्र ने नि० निर्ग्रन्थी पुत्र अ० अनगार को वं० वंदना की न० नमस्कार किया ए० यह अ० अर्थ स० सम्यक् वि० विनय से भु० वारंवार खा० खमाया सं० संयम से जा० यावत् वि० विचरता है ॥ ६ ॥ भगवन् भ० भगवान गो० गौतम स० श्रमण जा० यावत् ए० ऐसा व० बोले जी० जीवों किं० क्या व० बढते हैं हा० हीण होते हैं अ० बराबर हैं गो० गौतम जी० जीव नो० नहीं व बढते हैं नो० नहीं भं० सा विसेसाहिया, भावादेसेणं सपएसा विसेसाहिया ॥ ५ ॥ पुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं बंदइ नमसइ सम्मं विणणं भुजो भजो खामेइ खामेइत्ता, संजमेणं जाव विहरइ ॥ ६ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं वयासी जीवाणं भंते! किं वठ्ठेति हायंति तणं से नारयनमंइसइत्ता एमटुं भावादेशसे सप्रदेशी विशेषाधिक, ॥ ६ ॥ उस नारदपुत्र अनगारने निग्रन्थी पुत्र अनगार को वंदना नमस्कार किया और सम्यक् प्रकारसे अर्थकी धारणा की पश्चात् विनय पूर्वक वारंवार खमाकर संयम व तप से अत्माको भावते हुए विचरने लगे || ६ || उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को भगवान गौतमने ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! जीव क्या बढते हैं. हीन होते हैं या अवस्थित रहते * प्रकाशक- राजाबहादुर लाल सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७२२ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विवाह पणत्ति (भगवती) मूत्र 888 हा. हीन होते हैं अ० बराबर रहते हैं ॥ ७ ॥ ने० नारकी किं. क्या व० बढते हैं जा. यावत् वे० वैमानिक ।। ८॥ सि सिद्धों की पु. पृच्छा गो० गौतम सि. सिद्ध व० बढते हैं नो० नहीं हा. हीन होते हैं अ० अवस्थित ॥ ९ ॥ जी० जीव के० कितना काल अ० अवस्थित स० सब काल ॥ १० ॥ अवाट्रिया ? गोयमा ! जीवा नो वडंति, नो हायंति अवट्ठिया ॥ ७॥ नेरइयाणं भंते ! किं वद्वंति हायंति अवट्ठिया ? गोयमा ! नेरइया वढंतिवि, हायंतिवि, अबट्रियावि, ॥ जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया ॥ ८ ॥ सिद्धाणं भंते ! पुच्छा गोयमा ! सिद्धा वटुंति, नोहायंति, अवट्ठियावि ॥ ९ ॥ जीवाणं भंते ! केवइयंकालं अवट्ठियावि ? सव्वद्धं ॥ १० ॥ नेरइयाणं भंते ! केवइयं काल है ! अहो गौतम ! जीव नहीं बढते हैं, हीन नहीं होते हैं परंतु अवस्थित रहते हैं ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी बढते हैं, हीन होते हैं या अवस्थित रहते हैं ? अहो गौतम ! नारकी बढते हैं, हीन होते हैं। और अवस्थित भी रहते हैं. नारकी जैसे चौवीसही दंडकका जानना. ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या 0 सिद्ध बढते हैं, हीन होते हैं या अवस्थित रहते हैं ? अहो गौतम ! सिद्ध बढते हैं, परंतु हीन नही होने हैं। और अवस्थित भी रहते हैं ॥९॥ अहो भगवन् ! जीव कितना कालतक अवस्थित रहते हैं? अहो गौतम १०७ जीव सब काल अवस्थित ही रहते हैं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! नारकी कितने काल तक बढते रहते हैं ?% 20040280 पांचवा शतक का आठवा उद्देशा६१.२१कर भावार्थ 3 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ शब्दाथ ने नारकी के० कितना काल व० बढते हैं गो० गौतम ज. जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट आ.* आवलिका के अ० असंख्यात भाग ए० ऐसे हा० हीन होते हैं ० नारकी के० कितने काल अ० अवपर स्थित गो. गौतम ज. जघन्य ए• पक स० समय उ० उत्कृष्ट च० चौवीस मुहूर्त ए. ऐसे स० सातों पु० पृथ्वी में र० रत्नप्रभा में अ० अडतालीस मु० मुहूर्त स० शर्कर प्रभा च. चौदह रा० रात्रिदिन वा. वालु प्रभा मे मा० मास पं० पंकप्रभा में दो० दोमास धू० धूम्रप्रभा में च. चार माम तक तमप्रभा वाडूंत ? गोयमा ! जहण्णं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंनेजइभागं, एवं १ हायंतिवा । नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं अवट्ठिया ? गोयमा ! जहण्णं एग समयं । उक्कोसेणं चउघीसं मुहुत्ता, एवं सत्तसु विपुढविसु वाटुंति हायतिभाणियब्बं णवरं अवविएसु इमं णाणत्तं तं०रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीस मुहुत्ता सक्करप्पभाए चउद्दस राइंदि. अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यात वा भागवक नारकी बढते रहते हैं.. उतने ही कालतक हीन होते रहते हैं. अहो भगवन् ! नारकी कितने काल तक अपस्थित रहते हैं ? अहो । गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट चौवीस मुहूर्त. सातों नारकी में वृद्धि व हीन होने का उक्त कथनानुसार जानना परंतु अवस्थित में रत्न प्रभा पृथ्वी में नारकी ४८ मुहूर्ततक अवस्थित रहचे हैं, शर्करप्रभा में चौदह रात्रिंदिन, बालुपभा में एक मास, पंकप्रभा में दोमास, धूम्रप्रभा में चार मास, तमप्रभाग आठ मास * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादभा* भावाथे 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *883> शब्दार्थ में अ० आठमास तक तमतमा में व० बारह मास ॥ ११ ॥ अ० असुर कुमार व० बढ़ते हैं हा० हीन होते हैं ज• जैसे ने० नारकी अ० अवस्थित ज• जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट १० अडतालीस १७ मु० मुहूर्त ए. ऐसे द° दश प्रकार के भी ॥१२॥ पूर्ववत् ॥ १३ ॥ ३० द्विइन्द्रिय ब० बढते हैं. हा० हीन ७२५ होते हैं. त• तैसे अ० अवस्थित ज जघन्य ए० एक समय उ. उत्कृष्ट दो दो अं० अंतर्मुहूर्त ए. ऐसे याइं वालुयप्पभाए मासं, पंकप्पभाए दोमासा, धूमप्पभाए चत्तारिमासा तमाए अट्टमासा तमतमाए बारसमासा ॥ ११ ॥ असुरकुमारावि बढुति हायंति जहा नेरइया, अवट्ठिया जहण्णं एगं समयं उक्कोसं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, एवं दसविहावि ॥ १२ ॥ एगिदिया वट्ठतिवि, हायंतिवि, अवट्ठियावि एएहितिहिंवि जहण्णेणं एक समयं उक्कोसं आवलियाए असंखेज भागं ॥ १३ ॥ बेइंदिया वडंति हायंति तहेव । अवट्ठिया भावार्थ तक, तमतमाप्रभा में बारह मास तक नारकी अवस्थित रहते हैं. ॥ ११ ॥ असुरकुमार में वृद्धि होना व हहीन होना नारकी जैसे जानना. परंतु उनका जघन्य एकसमय उत्कृष्ट४९ मुहूर्त तक अवस्थित काल जानना. १० ऐसे ही दश प्रकार के भुवनपतिका जानना. ॥ १२ ॥ एकेन्द्रिय का वृद्धि, हीन व अवस्थित रहने का काल जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग का है ॥ १३.॥ बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतरेन्द्रिय का वृद्धि होना व हीन होना पहिले जैसे कहना और अवस्थित काल जघन्य एक समय उत्कएका gr पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 839803> पांचवा शतकका आठवा उद्देशा 838028 - Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - व० जा० यावत् च० चतुरेंन्द्रिय अ० अवशेष स० सब व० बढते हैं हा० हीन होते हैं. त० तैसे अ० अवस्थित का ना० भिन्नता इ० यह स० संमूच्छिम ति० तिर्येच पंचेन्द्रिय दो० दो अ० अंतर्मुहूर्त ग० गर्भ उत्पन्न के च० चौवीस मु० मुहूर्त सं० संमूच्छिम म० मनुष्य का अ० अडतालीस मु० मुहूर्त ग० गर्भज म० मनुष्य का च० चौवीस मु० मुहूर्त वा वाणव्यंतर जो० ज्योतिषी सो० सौधर्म ई० ईशान में अ० अडतालीस मु० मुहूर्त स० सनत्कुमार में अ० अठारह रा० रात्रिदिन च० चालीस मु० मुहूर्त मा० माहेजहणं एवं समयं उक्कोसं दोअंतोमुहुत्ता एवं जाव चउरिदिया, अवसेसा सव्वे, व ंति हायंति तहचेव अट्ठियाणं नाणत्तं इमं तं जहा संमुच्छिम पंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता, गब्भवक्कतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, संमुच्छिम मणुस्साणं अटुचत्तालीसं मुहुत्ता, गन्भवक्वतिय मणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता, वाणमंतरजोइस सोहम्मीसाणेसु अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, सणकुमारे अट्ठारस राईदियाई चत्तालीसय मुदो अंतर्मुहूर्त. संमूर्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय का चौवीस मुहूर्त, संमूर्छिम मनुष्य का ४८ मुहूर्त, गर्भज मनुष्य का चौवीस मुहूर्त, वाणव्यंत ज्योतिष सौधर्म व ईशान देवलोक में ४८ मुहूर्त, सनत्कुमार में अढार रात्रि (दिन, व चालिस मुहूर्त, माहेन्द्र में २४ रात्रि दिन १० • मुहूर्त, ब्रह्मदेवलोक में ४५ दिन, लंतक में १० दिन महाशुक्र में १३० दिन सहसार में २०० आणत प्राणत में संख्यात रात्रिदिन आरण अच्युत में संख्यात वर्ष * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७२६ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दाथ न्द्र में चो० चौवीस रा० रात्रिदिन वीबीस मु० मुहूर्त बं० ब्रह्मदवेलोक में च० चालीस ले०लांतक में न० । ० नेऊ म० महाशुक्र में स. साठ रा० रात्रिदिन स० सो स० सहस्रार में दो० दोसो रानिदिन आ०० आणत पा० प्राणत में मं० संख्यात मास आ. आरण अ० अच्युत में सं० संख्यात वा० वर्ष ए. ऐ F°गे अवेयक बिमान के दे० देवों का वि० विजय वे वैजयंत ज. जयंत अ० अपराजित का अ० असं-3 ख्यात वां० वर्ष स० सहस्र स० सर्वार्थ सिद्ध में प० पल्योपम का सं०. संख्यात भाग शेष पूर्ववत् ॥ १४ ॥ हुत्ता, माहिदे चउव्वीसं राइंदियाइं वीसय मुहुत्ता, बंभलोए पंच चत्तालीस राइंदियाई, लंतए नउयराइंदियाइं, महासुक्के सर्ट्सि राइंदियसयं, सहस्सारे दो राइंदियसयाइं, आणयपाणयाणं संखेजामासा, आरणच्चुयाइं संखज्जाई वासाइं एवं गेवेज देवाणं, विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं असंखेजाइं वास सहस्साइं, सव्वट्ठसिद्धेय पलिओवमस्स संखेजभागो एवं भाणियव्वं, वढंति हार्यति, जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं अवट्ठियाणं जं भणियं ॥ १४ ॥ प्तिद्धाणं भंते ! केवभावार्थ नव ग्रैवेयक में संख्यात वर्ष,विजय वैजयंत जयंत व अपराजित में असंख्यात वर्षसहस्र और सर्वार्थसिद्ध में पल्योपम ।। का संख्यात वे भाग तक अवस्थित काल रहता है. उन सब कावृद्धि होना व हीन हानेका काल जघन्य एक समय 1 उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यात वे भाग का है ॥ १४॥ सिद्ध भगवंत जघन्य एक समय उत्कृष्ट आठ सम ago पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती.) सूत्र 8888 पांचवा शतक का आठवा उद्देशा - 4 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ | 8 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाषजी पूववत् ॥ १५ ॥ जी० जीव भ० भगवन किं० क्या सो० वृद्धिहा सा०ने वोल हीन होने वाले सो० वृद्धि व हीन होने वाले ले वृद्धि व हीन नहीं होने वाले ए० एकेन्द्रिय त० तीसरे प० पद में से० * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * इयं कालं व ंति ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ठसमया, केवइयं कालं अवट्टिया ? गोयमा ! जहण्णं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा ॥ १५ ॥ जीवाणं भंते ! किं सोवचया, सावचया, सोवचयसाक्चया, निरुत्रचय निरवच्या ? गोयमा ! जीवा नो सोचचया, नो सावच्या, नो सोवचयसावच्या, निरुवचय निरवचया ॥ एगिं दिया तइय पदे, सेसा जीवा चउहिं पएहिं भाणियव्वा || १६ || सिद्धाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! सिद्धा सोबचया, नोसावचया, नो सोवचयसावचया, निरुवचय {हैं. उनका अवस्थितकाल जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ मासका है ॥ १५ ॥ अहो भगवन्! क्या जीव सोवचय-नविन उत्पन्न {होकर बढने वाले सावचय-कालकर हीन होनेवाले, सोवचयसाचचय य कुछ बढ़नेवाले कुच्छ हीन होनेवाले और क्या निरुवचय निरवचय हीन व बढनेवाले नहीं हैं? अहो गौतम ! समुच्चय जीव निरुवचयनिरवचयवाले हैं अर्थात इस में कोई नविन जीव उत्पन्न नहीं होता है वैसे ही कोई जीव उस में से विनाश नहीं पाता है. इस में कऐन्द्रिय { में सोवचय सावचय का भांगा पाता है और शेष सब दंडक में चारोंही भांगे पाते हैं. ॥ १६ ॥ सिद्ध भगवंत में नविन उत्पन्न होकर वृद्धि होवे वैसा सोवचय और बढे नहीं व हीन नहीं होवे वैसा निरुवच | ७२८ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 40883- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र निरवचया ॥ १७ ॥ जीवाणं भंते ! केचइयं कालं निरुवचयनिरबच्या ? गोयमा ! सव्वष्ट्रं ॥ नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइ भागं । केवइयं कालं सावचया ? एवं चेत्र || केवइयं कालं सोवचयसावच्या ? एवं चेव ॥ केवइयं कालं निरुचचय निरवचवा ? गोयमा ! जहण्णं एवं समयं उक्कोसं बारस मुहुत्ता, एगिंदिया सव्वे सोवचया, साघचया; सव्वद्धं ॥ सेसा सव्वे सोवचयावि, सोवचयसावचयावि निरवजय ऐसे दो भांगे पाते हैं ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! जीव कितने कालतक निरुवचय निरवचय रहते {हैं ? अहो गौतम ! जीव सब काल निरुवचय निरवचय रहते है. अहो भगवन् ! नारकी कितने काल तक { सोवचय रहते हैं ? अहो गौतम ! नारकी जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यात वा भाग तक सोवचय रहते हैं. अहो भगवन् ! नारकी कितने काल तक सावचय, व सोवचयसावयय रहते { हैं ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यात वा भाग तक रहते हैं. मारकी निरुवचय निरवचय जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक रहते हैं. सब एकेन्द्रिय सदैव सोवचय मावचय रहते हैं. शेष सब पृथक् २ जीवों का सोवचय, सावचय, व मोत्रचय सावचय का काल जघन्य 4 पांचवा शतकका आठवा उद्देशा १० ७२९ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी ब्रह्मचारीमुनि १० अनुवादक-बाला शेष जी० मीब च. चार प० पद से भा० कहना. ॥ १६॥ पर्ववर ॥ १७॥ पर्ववत ।। १८॥ सि. सिद्ध भं० भगवन् के० कितना काल सो० वढनेवाले गो• गौतम ज• जघन्य ए. एक स० समय उ० उत्कृष्ट अं० आठ स० समय के० कितनाकालतक नि० वरावर ज जघन्य ए. एक समय उ० उत्कृष्ट छ०१, छमास से वैसे भ० भगवन् ॥५॥८॥ * * * जहण्णं एवं समयं उक्कोसं आवलियाए असंखेजइ भागं . अवट्टिएहिं वकंतिय कालो भाणियन्वो ॥ १८ ॥ सिद्धाणं भंते ! केवइयं कालं सोवचया ? गोयमा ! जहणं एकं समयं उक्कोसं अट्ठसमया. केवइयं निरुवचयनिरवचया ? जहणं एकं समयं उक्कोसं छम्मासा सेवं भंते भंतेत्ति ॥ पंचम सयस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मप्तो ॥५॥८॥ एक समय उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यात वा भागतक जानना. निरुवचय निरवचय का पनवणासूत्र मै विरहद्वार जैसे जानना ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! सिद्ध किनने कालतक सोवचन रहते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आठ समय. और उन का निरुवचय काल जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ मास का है. अहो भगवन् आपके वचन सत्य हैं. यह पांचवा शबक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ५ ॥८॥ x * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ * Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ है ते. उस का काल बे० उस १० समय में ना० यावत् एक ऐसा व० बोले कि० क्या इ० यह भगवान् न० नगर म० राजगृह ति . ऐसा ५० कहाता है किं० क्या पु० पृथ्वी न० नगर रा० रामगृह १५० कहाता है आ० अप जा. यावत् व० वनस्पति ज. जैसे ए० इस का अ० अनुदेशसे पं० पंचेन्द्रिय ति० तिर्यंच की व० वक्तव्यता तक तैसे भा० कहना जा. यावत् स. सचित्त अ० अचित्त मी० मीश्र तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-किमिदं भंते ! णयरं रायगिहंति पकुचड़ किं पुढवी णयर रायगिहंति पयुच्चइ, आऊ नगरं रायानहति पवुच्चइ,जाव वणस्सइ जहा एयणुदेसए पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं वत्तव्वया तहा भाणियव्वा जाव सचित्ताचित्तमीसयाई, दव्वाइं नगरं रायगिहंति पबुच्चइ ? गोयमा ! पुढवौवि नगरं राय आठवे उद्देशे में जीवों की उत्पत्ति व वृद्धि के प्रश्नोत्तर कहें. वे ग्रामदिक में होते हैं इसलिये, भावार्थ : अथवा भगवंत श्री महावीर स्वामी राजगृही नगरी में वारंवार पधारे इसलिये राजगृही नगरीका प्रश्न पूछते हैं. उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को भगवान् गौतम स्वामी पूछनेलगे। o कि अहो भगवन् ! इस नगरी को राजगृही क्यों कहना ? क्या पृथ्वी, अप, तेउ, वाउ, वनस्पति, यावत् सविच अचित्त भीश्र द्रव्य वगैरह जो सातवे उद्देशे में कहे हैं उन सब पदार्थ को क्या राजगृही है। पंचमान विवाह पणचि ( भमवती ) 8380P> पांचवा शतकका नवां रदेशा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ शब्दार्थ द. द्रव्य न० नगर रा० राजगृह त्ति ऐसा प० कहाता है गो० गौतम पु. पृथ्वी न० नगर स० राज.* २७ गृह जा. यावत् स० सचित्त अ० अचित्त मी० मीश्र द० द्रव्य न० नगर रा० राजगृह से• अथ के कैसे गो० गौतम पु० पृथ्वी जी. जीववाली अ. अजीववाली न० नगर रा० राजगृह प० कहालाई म है जा० यावत् स ० सचित्त अ० अचित्त मी० मीश्र द्रव्य जी० जीव अ० अजीव वाले न० नगर रा० . राजगृह प० कहाता है ते० इसलिये २० वैसा ॥ १ ॥ से० अथ णू० शंकादर्शी भ० भगवन् दि० दिन । गिहंति पवुच्चइ जाव सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायागहंति पवुच्चइ । से है १ . केणटेणं ? गोयमा ! पुढवी जीवाइय, अजीवाइय, नगरं रायगिहति पवुच्चइ जाव। सचित्ता चित्त मीसयाई दवाइं जीवाइय अजीवाइय,नगरं रायगिहंति पवुच्चइ सेतेण द्वेणं तचेव ॥ १ ॥ सेणूणं भंते ! दिवा उज्जोए राइ अंधयारे ? हंता गोयमा ! कहना ? अहो गौतम ! पृथ्वी राजगृही कहाती है यावत् सचित्त अचित्त घ मीश्र द्रव्य अजगृही कहाते, भावार्थ हैं. अहो भगवन् ! कैसे पृथ्वी राजगृही कहानी है, यावत् सवित्त, अचित्त व मिश्र द्रव्य राजगृही कहाते हैं. अहो गौतम ! पृथ्वी, पानी आदि स्थावर पशु मनुष्यादि सब जीव, गृह भवन शयनासनादि सब वस्तु के संयोग से ही जीव अजीव का जहां संग्रह होता है वह नगर कहाता है. और वैसा संयोग राजगृही 14 नगरी में होने से उनको राजगृही कहा है ॥१॥ अहो भगवन् ! क्या दिन को उद्योत व रात्रि को अंधकार दक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थको उ० उद्योत रा० रात्रि को अं अंधकार हं० हां गो० गौतम जा. यावत् अं० अंधकार से वह के० । कैसे गो० गौतम दि० दिन को स० शुभ पो• पुद्गल सु०शुभ पुद्गल १० परिणम रा० रात्रि को अ० अशुभ | पो. पुद्गल अ० अशुभ पो० पुद्गल प. परिणम ते० इसलिये ॥२॥ ने नारकी किं. क्या उ० उद्योत}00 ले अं० अंधकार वाले गो० गौतम ने नारकी नोक नहीं उ० उद्योतवाले अं० अंधकार वाले के कैसे गो० गौतम ने नारकी में अ० अशुभ पो० पुद्गल अ० अशुभ पो० पुद्गल प० परिणम जाव अंधयारे, से केण्टेणं ? गोयमा ! दिवा सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे, रातिं असुभापोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं ॥ २ ॥ नेरइयाणं भंते ! किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! नेरइयाणं मो उज्जोए अंधयारे॥से केणटेणं? Rago पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 88883. पांचवा शतक का नववा उद्देशा8ARP भावाथ होता है ? हां गौतम ! दिन को उद्योत व रात्रि को अंधकार होता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! दिन को सूर्य के किरण रूप शुभ पुद्गल परिणमते हैं जिस से उद्योत होता है और रात्रि को अशुभ पुद्गल परिणमते हैं जिस से अंधकार होता है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी को उद्योत या अंधकार है ? अहो गौतम ! नारकी को उद्योत नहीं है परंतु अंधकार है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! नारकी में सूर्य के अभाव से अशुभ पुद्गलों हैं और अशुभ पुद्गल का, Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थं । सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी [ते० इसलिये || ३ ॥ अ० असुरकुमार भं० भगवन् किं० क्या उ० उद्योत करने वाले अं० अंधकार ( वाले गो० गौतम अ० असुरकुमार उ० उद्योत वाले नो० नहीं अं० अंधकार वाले के० कैसे गो० गौतम अ० असुर कुमार को सु० शुभ पो० पुद्गल सु० शुभ पुद्गल परिणम जा यावत् थ० स्थनित कुमार को || ४ || पु० पृथ्वी काया को जा० यावत् ते ० तेइन्द्रिय ज० जैसे ने० नारकी च० चतुरेन्द्रिय भं० भगवन् गोयमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणट्टेणं ॥ ३ ॥ असुरकुमाराणं भंते! किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए नो अंधारे ॥ से केणं ? गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल परिणामे से तेणट्टेणं जाव एवं बुच्चइ, जाव थणियाणं ॥ ४ ॥ पुढवीकाइया जाव इंदिया जहा नेरइया । चउरिंदियाणं भंते ! किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! उज्जोएवि {परिणम है; इस से अंधकार होता है || ३ || अहो भगवन् ! अमुरकुमार को क्या उद्योत होता है अथवा अंधकार होता है ? अहो गौतम ! असुरकुमार को उद्योत होता है परंतु अंधकार नहीं होता है. क्योंकि असुरकुमार को शुभ पुद्गलों होते हैं और वे शुभपने परिणमते हैं. ऐसे ही नागकुमार यावत् {स्थनित कुमारतक जानना ॥ ४ ॥ पृथ्वीकायादि पांच स्थावर वेइन्द्रिय व तेइन्द्रिय का नारकी जैसे ( कहना. अहो भगवन् ! चतुरेन्द्रिय को क्या उद्योत अथवा अंधकार होता है ? अहो गौतम ! चतुरे * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७३४ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दात कि क्या उ० उद्योत वाले अं• अंधकारवाले गो० गौतम उ० उद्योत वाले अं० अंधकार वाले भी गो० गौतम च० चतुरेन्द्रिय को सु० शुभाशुभ पो० पुद्गल परिणम ए० ऐसे जा० यावत् म. मनुष्य को वा० वाणव्यंतर जो• ज्योतिषी वे. वैमानिक ज० जैसे अ० असुरकुमार ॥ ४ ॥ अ. है भ० भगवन् । ने नारकी त० वहां रहे हवे एक ऐसे प० जाननेवाले तं. वह ज० यथा स० समय आ० आवलिका जा. यावत् ओ० अवसर्पिणी गो गोतम णो० नहीं इ० यह अ० अर्थ स० समर्थ के० कैसे जा० अंधयारेवि । से केणद्वेणं ? गोयमा ! चउरिंदियाणं सुभासुभा पोग्गला सुभासुभे पोग्गलपरिणामे से तेणटेणं ॥ एवं जाव मणुस्साणं, वाणमंतर जोइस वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ ५ ॥ अत्थिणं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायए तं० समयाइवा,आवलियाइवा, जाव ओसप्पिणीइवा उस्सप्पिणीइवा? गोयमा ! णो इणटे सम टे।सेकेणट्रेणंजाव समयातिवाआवलियार्तिवा ओसप्पिणीतिवा उस्सप्पिणीइवा ? गोयमा! भावार्थ इन्द्रिय को उद्योत व अंधकार दोनों होते हैं. क्योंकि उन को शुभाशुभ पुद्गल व शुभाशुभ पुद्गल परिणम go | होता है. ऐसे ही सिर्यच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का जानना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक को असुर कुमार जैसे कहना ॥ ५ ॥ उद्योत सूर्य की कारणों से होता है. और सूर्य से काल मान भी होता है... इसलिये काल आश्री प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! नारकी नरक लोक में रहे हुवे क्या समय, आ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र <284 • पांचवा शतक का नववा उद्देशा Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 203 अनुवादक-बालब्रह्मचारी यावत् स० समय आ० आवलिका ओ० अवसर्पिणी गो० गातैम इ० यहां ते० उनका मा० मान इ० यहां ते. उनका प. प्रमाण इ. यहां ते. उनको ए. ऐसा प० जाना जावे ते वह स० मय जा. यावत् १० उत्सपिंगी ए. ऐसे जा० यावत् पं०पंचेन्द्रिय तितिर्यंच ॥६॥ अ०है भ०भगवन् । म० मनुष्य को इ० यहां रहे हुवे ए. ऐसा ५० जाना जाता है स० समय जा. यावत् उ० उत्सर्पिणी इह तेसिं माणं, इह तेसिं पमाणं, इह तेसिं एवं पण्णायते. तं समयाइवा जाव। उस्साप्पिणीइवा, से तेणं जाव नो एवं पण्णायए समयाइवा जाव उस्सप्पिणीइवा, एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पण्णायइ तं समयाइवा, जाव उसाप्पणीइबा? हंता अत्थि ॥ से केण?णं ? घलिका, दिन, रात्रि, मास, वर्ष यावत् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी जान सकते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से यह अर्थ समर्थ नहीं है ? अहो गौतम ! सूर्य का चलना मनुष्य लोक में होता है नरकादि स्थानों में नहीं होता है. इसलिये वे समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी उत्सर्पिणी नहीं जान सकते हैं. जैसे नारकी का कहा वैसे ही पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय व तिर्यंच पंचेन्द्रिय का जानना ॥६॥ अहो भगवन् ! क्या मनुष्य समय, आवलिका यावत् उत्सर्पिणी जानने को समर्थ हैं हां गौतम ! मनुष्य समयादि जान सकते हैं. अहो भगवन् ! वे कैसे जान सकते हैं ! अहो *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ सूत्र भावार्थ ' ६० हां अ० है के० कैसे गो० गौतम इ० यहां ते० उन को मा० मान इ० यहां ते० उन को प०प्रमाण (इ० यहां ते उन को ए ऐसा प० जाना जाने स० समय जा० यावत् उ० उत्सर्पिणी ते० इसलिये वा० वाणव्यंतर जो० ज्योतिषी वे० वैमानिक को ज जैसे ने० नारकी को ॥ ७ ॥ ते उस काल ते० उस स० समय में पापाश्वनार्थ के अ० अपत्य ( संतानीये थे० स्थविर भ० भगवन्त जे० जहां स०१ श्रमण भ० भगवंत मः महावीर ते० वहां उ० आकर के स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर की अ गोयमा ! इह तेसिं माणं इह चेत्र तेसिं पमाणं इह तेसिं एवं पण्णायइ, तंजहासमयाइवा जाव उस्सप्पिणीइवा, से तेणट्टेणं । वाणमंतर जोइस वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं ॥ ७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज़ा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, समणस्स भगवओ महावीररस अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी सेणूणं भंते ! असंखेजेलोए अनंता राईदिया गौतम ! मनुष्य लोक में सूर्य का चलना होता है जिस से समय, आवलिका श्वासोश्वास यावत् अवसर्पिणी {उत्सर्पिणी जान सकते हैं. दाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे जानना || ७ | उस काल उस * समय में श्री पार्श्वनाथ स्वामी के संतानिये श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आये और सामनेखडे रहकर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! क्या असंख्यात मदेशात्मक लोक में अनंत रात्रिदिन 28 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पांचवा शतक का नवत्रा उद्देशा 8808 ७३७ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७ - शब्दार्थ पास ठि० उपस्थित होकर ए० ऐसा व० बौले से० अथ णू० शंकादर्शी अ० असंख्यात लो० लोक अ० अनंत रा० रात्रिदिन उ० उत्पन्न हुए उ० उत्पन्न होते हैं उ० उत्पन्न होवेंगे वि० नष्ट हुवे वि० नष्ट होते हैं वि० नष्ट होवेंगे १० परित्ता रा० रात्रिदिन ३० उत्पन्न हुवे हं० हां अ० आर्य अ० असंख्यात {लो० लोक में अ० अनंत रा० रात्रिदिन तं० वैसे ही के० कैसे जा० यावत् वि० विनाश हुवे से० अथ णू० शंकादर्शी भो० अहो अ० आर्य पा० पार्श्वनाथ अ० अरिहंत पु० पुरुषादाणि ने सा० शाश्वत लो उप्पज्जिंसुवा उप्पजंतिवा, उप्पज्जिस्संतिवा, विगच्छिंसुवा, विगच्छितिवा, विगच्छिस्संतिवा, परित्ता राईदिया उप्पजिंसुवा ३, ? हंता अजो ! असंखेजेलोए अनंता राइंदिया तं चैव । से केणट्टेणं जाव विगच्छिस्संतिवा ? सेणूणं भो अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं सासएलोए बुइए, अणादीए, अणवदग्गे परित्ते, परिवुडे, ट्ठा विच्छिणे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइर हुवे, होते हैं या होवेंगे अथवा नष्ट हुवे, नष्ट होते हैं व नष्ट होवेंगे ? परित्ता रात्रिदिन उत्पन्न हुवे, होते हैं व होवेंगे, या नष्ट हुवे, होते हैं या होवेंगे ? हां आर्य ! असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंत रात्रि दिन उत्पन्न हुवे होते हैं व होवेंगे, वैसे ही नष्ट हुवे, होते हैं व होवेंगे. परित्ता रात्रिदिन उत्पन्न हुवे, होते हैं व होवेंगे वैसे ही नष्ट हुए, होते हैं व होवेंगे. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो सूत्र भावार्थ 9 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला' सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७३८ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २8 *38 Rep पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगव लोक बु० कहा अ० अनादि अ० अनंत ५० परिमित सं० घेराया हवा हे० नीचे वि० वितणि म० मध्य ० में सं० संकुचित उ० उपर वि० विशाल अ० नीचे ५० पल्यंकाकार म. मध्य में व. श्रेष्ट ब० वज्र वि० शरीर वाला उ० उपर उ० ऊंचा मु० मृदंगाकार ते. उस सा० शाश्वत अ० अंनतजीव घ० घन ७३९ उ० उत्पन्न होकर नी० नष्ट होते हैं प० परिते जी० जीव घः घन उ० उत्पन्न होकर नी० नष्ट होते १७ हैं से वह भू० भूत उ० उत्पन्न वि० विनाश प. परिणम अ० अजीव से लो• देखते हैं ५० विशेष विग्गहिए, उप्पिं उड्डमुइंगाकार संठिए, तेसिं चणं सासयंसि लोयंसि अणादीयंसि, अणवदग्गांस, परित्तसि, परिवुडसि, हेट्रा विच्छिन्नंसि, मझेसंखित्तंसि, उप्पिंविसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि मज्झे वरवइरविग्गाहियास, उप्पिं उड्डमुइंगाकार संठियंसि, अणंता जीवघणा उप्पजित्ता २, निलीयंति परित्ता जीवघणा उप्पजिआर्य ! पुरुषादाणी श्री पार्श्वनाथ अरिहंतने शाश्वत, अनादि, अनंत, प्रदेश में परिमित, व अलोक से घेराया हुवा ऐसा लोक कहा है. वह नीचे विस्तारवाला, मध्य में संकुचित, व उपर विशाल है. वैसे ही नीचे पल्यंकासन के संठाणवाला, मध्य में वज्र के संठाणवाला, व उपर खडी मृदंग के आकारवाला है. ऐसा शाश्वत अनादि, अनंत, परिमित, परिवृत्त यावत् उपर खडी मृदंग के आकारवाला लोक में अनंत जीवों उत्पन्न होकर मरते हैं. जिप्ससे अनंत रात्रि होती हैं और परिते जीव उत्पन्न होकर मरते हैं जिस से । पांचवा शतक का नववा उद्देशा NRN Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० शब्दार्थ देखते हैं. जो० जो लो० दीखता है से वह लो० लोक हं० हा भ० भगवन ते० इस से अ० आर्य ए०११ ऐसा वु० कहा है अ० असंख्यात तं० वैसे ही ॥ ८ ॥ त० उसदिन से ते वे पा० पार्श्वनाथ के अ० अपत्य थे० स्थविर भ० भगवंत स० श्रमण भ• भगवंत म० महावीर को प० जानते हैं स० सर्वज्ञ स० सर्वदर्शी त० तब ते वे थे० स्थविर भ० भगवंत सः श्रमण भ० भगवंत म महावीर को बं० वंदनाः करके न० नमस्कार करके एक ऐसा व० बोले ३० इच्छता हूं भ० भगवन् तु. तुम्हारी अं० समीप चा० ___त्ता २, निलीयंति ॥ से भूए उप्पन्नेविगए परिणएं अजीवेहिं लोकइ पलोकइ । जे लोकइ सेलोए, हंता भगवं से तेणटेणं अज्जो एवं वुच्चइ असंखेजे तंचेव ॥८॥तप्पभिई चणं ते पासावच्चेजा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीर पञ्चभिजाणंति सव्वण्णुं सव्वदरिसिं ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ नमसइत्ता भावार्थ परिता (प्रयेक ) गात्रे होती हैं. जहां बहुत जीव उत्पन्न होवे व नष्ट होवे और इस तरह उत्पन्न व विनाश का स्वभाव होवे वह लोक कहाता है. अजीव पदलादिक से जो उत्पन्न विनाश व परिणम के स्वभाववाला दीखने में आवे सो लोक कहाता है. इस से अहो आर्य ! असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंत रात्रि " दिन व परिता रात्रि दिन उत्पन्न हुवे, होते हैं व होवेंगे ॥ ८ ॥ उस दिन से पार्श्वनाथ स्वामी के संतानी ये स्थविर भगवन्त श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को सर्वज्ञ सर्वदशी जानने लगे. फीर वे स्थविर । अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gro * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० मत प० थशब्द| चार जा० याम रूप ध० धर्म से पं० पांच म० महाव्रत स० प्रतिक्रमण सहित ध० धर्म उ० अंगीकार कर वि० विचरने को यथासुख दे० देवानुप्रिय मा० विलंब त० तब ते० वे पा० पार्श्वपत्य थे० स्थविर भ० भगवंत जा० यावत् च० छेला उ० उश्वास नि० निश्वास मे सि० सिद्ध हुवे जा० यावत् स० सब दुः दुःखों से प० रहित हुवे अ० कितनेक दे० | देवलोक में उ० उत्पन्न ॥ ९ ॥ क० कितनेक मं० भगवन् दे० देवलोक प० प्ररूपे गो० गौतम च० चार एवं वयासी-इच्छामिणं भंते! तुझं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिकमं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंधं तरणं तेपासावचा थेरा भगवंतो जाव चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा जाव सव्वदुक्खपहणा. अत्थेगइया देवलोसु उववन्ना ॥ ९ ॥ कइविहाणं भंते ! देवलोगा भगवन्त श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा कहने लगे कि अहो भगवन् आप की पास से चार याम रूप धर्म से पांच महाव्रत रूप धर्म अंगीकार करने को इच्छते हैं. अहो देबानुप्रिय ! तुम को जैसे सुख होवे वैसे करो, विलम्ब मत करो. फीर वे पार्श्वनाथ स्वामी के संतानिये { स्थविर भगवन्त चरिम उश्वास निश्वास में सिद्ध हुवे, यावत् सब दुःखों से रहित हुने और कितनेक देवलोक में उत्पन्न हुवे ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहें ? अहो गौतम ! चार सूत्र भावार्थ 438 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पांचवा शतकका नववा उद्देशा 03-808808 ७५१ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७४२ श्री अमोलक प्रकार के दे० देवलोक भ० भवनवासी वा० वाणव्यंतर जो० ज्योतिषि वे० वैमानिक भे० भेदसे भ० भवन * वासी द० दश प्रकार के वा वाणव्यंतर अ० आठ प्रकार के जो ज्योतिषी पं० पांच प्रकार के वे० वैमानिक दु० दो प्रकार के गा गाथा कि० क्या इ.यह रा० राजगृह उ० उद्योत अं० अंधकार स समय पा० पार्श्वनाथ के अं• शिष्य की पु० पूच्छा रा० रात्रिदिन दे. देवलोक से० वैसे ही भ० भगवन् प० पांचवा स० शप्तक का न० नववा उ० उद्देशा स० संपूर्ण ॥ ५॥९॥ x x पण्मत्ता ? गोयमा ! चउन्विहा देवलोगा पं० तं• भवणवासी, वाणमंतरा; जोइसिया, वेमाणियाभेएणं, भवणवासी देसविहा, वाणमंतरा अट्टविहा, जोइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा ॥ गाहा- किंमियं रायगिहतिय, उज्जोय अंधयार समएय । पासंतिवासिपुच्छा राइंदिय देवलोगाय ॥ १ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ पंचम सयरस नवमो उद्देसो सम्मत्तो ।। ५ ॥ ९॥ * * प्रकार के देवलोक कहे हैं भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी व वैमानिक. उस में से भवनपति के दशक भेद, वाणव्यन्तर के आठ भेद, ज्योतिषी के पांच भेद, व वैमानिक के दो भेद. अब इस उद्देशे का सारांश कहते हैं ? राजगृही नगरी किस को कहना, उद्योत व अंधकार, समय, पार्श्वनाथ स्वामी के संतानीये का रात्रि दिन संबंधि प्रश्न, व देवलोक. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥५॥९॥ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि * प्रकाशक-राजावादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page शब्दार्थ र ते० उस काल ते० उस समय में चं० चपा न० नगरी ज० जैसे ५० पहिला उ० उद्देशा त० तैसे ने० जानना ए. यह भी न० विशेष चं० चंद्रमा भा० कहना पं० पांचवा स० शतक का द० दशवा उ० उद्देशा स. संपूर्ण ॥ ५ ॥ १० ॥ पं० पांचवा स० शतक स० संपूर्ण ॥५॥ । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी, जहा पढमिल्लो उद्वेसओ तहा नयन्वो एसोवि नवरं चंदिमा भाणियव्वो पंचमसयस्स दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥५॥ १० ॥ नववे उद्देशे के अंत में देवता का आधिकार कहा. दशवे में मात्र चंद्र का प्रश्न पूछते हैं. उस काल उस समय में चंपा नाम की नगरी थी उस की ईशान कौन में पूर्ण भद्र बगीचे में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे. और श्री गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न पूछने लगे कि अहो भगवन् ! चंद्रमा देव कहां रहता है ? अहो गौतम ! समभूमि से आठसो योजन ऊंच चंद्र का विमान है. शेष सब अधिकार प्रथम शतक का पहिला उद्देशा जैसे कहना. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं. पांचवा शतक का दशवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५॥ १० ॥ पांचवा शतक समाप्त ॥ ५ ॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 28805 8 पांचया शतक का दशवा उद्देशा 188 488 VBO ~ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काउद ७४४ ११ अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * * षष्ठ शतकम्. * वे. वेदना आ० आहार म० महाश्रव स० प्रदेश सहित त० तमस्काय भ० भव्य सा० धान्य पु० पृथ्वी का कर्म अ अन्यतीर्थिक द० दश छ० छटे स० शतक में ॥१॥से० अथ णशंकादर्शी भं० भगवन् ज० जो म० महावेदना वाले से वह म० महानिर्जरा वाले जे. जो म० महानिर्जरा वाले से बैं वेयण आहार महस्सवेय, सपएस तमुयए भविए ॥ साली पुढवी कम्म, अण्णउत्थि दस छट्ठगंमिसए ॥ १ ॥ सेणूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिजरे, जे महानिजरे से महावेयणे, महावेयणस्सय अप्पवेयणस्सय से सेए जे पसत्थनिजराए ? । छ8 शतक में दश उद्देशे कहे हैं. १ पहिले उद्देशे में महावेदना महा निर्जरा का अधिकार, २ दूसरे के उद्देशे में आहार का अधिकार, ३ तीसरे उद्देशे में महाआश्रव का अधिकार, ४ चौथे उद्देशे में जीव सपदेशी है या अप्रदेशी है इस के प्रश्नोत्तर, ५ पांचवे में तमस्काय का अधिकार ६ छटे में नरक में उत्पन्न होनेयोग्य का अधिकार. ७ सातवे में धान्य का विचार. ८ आठवे में रत्नप्रभादि पृथ्वी का 3 अधिकार ९ नववे में कर्मबन्ध का अधिकार व १० दशवे में अन्यतीर्थियों का अधिकार. इस तरह छठे शतक में दश उद्देशे कहे हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जो महा वेदनावाला होता है वह क्या महा निर्जरावाला होता है ? और जो महानिर्जरावाला होता है वह क्या महा वेदनाकाला होता है ? महा प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ वह म. महावेदना वाले म महावेदनावंत अ० अल्पं वेदनावंत में से बह से श्रेय जे. जो ५० प्रशस्तनिर्गवाले हैं. हां गो० गौतम जे० जो म. महावेदना वाले ए. ऐसे ॥ २ ॥ छ० छही स० 300 सातवी भ० भगवन् पु. पृथ्वी में ने० नारकी म० महावेदना वाले हैं. हां म० महावेदना वाले ते. वे भ० भगवन् स० श्रमण नि. निर्ग्रन्थ से म० महानिर्जरा वाले गो० गौतम णो० नहीं इ० यह अ० अर्थ स० समर्थ से वह के• कैसे अ० कहा जावे अ० अर्थ से भ० भगवन् ए. ऐसा बु० कहाता हंता गोयमा ! जे महावेयणे एवं चेव ॥ २ ॥ छ? सत्तमासुणं भंते ! पुढवीसु नेरइया महावेयणा ? हंता महावेयणा, तेणं भंते ! समणेहितो निग्गंथेहितो महानिजरतरागा ? गोयमा ! णो इणटे समटे । से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं युच्चइ जे महावेयणे जाव पसत्थ निजराए ?गोयमा ! से जहा नामए दुवे वत्था सिया एगेवत्थे कदम रागरत्ते, एगेवत्थे खंजण रागरत्ते. एएसिणं गोयमा! दोण्हं वत्थाणं कयरे भावार्थ IF वेदना व अल्प वेदनावाले में जो प्रशस्त निर्जरावाला है वह क्या श्रेय-प्रधान है ? हां गौतम ! जो | महावेदनावाला होता है वह महा निर्जरावाला होता है और जो महा निर्जरावाला होता है वह महा। 18 वेदनावाला हो है, वैसे ही महावेदना व अल्प वेदनावन्त में जो प्रशस्त निर्जरावाला होता है वह श्रेष्ठ है ॥ २॥ बहो भगान : क्या छठी सातवी पृथ्वी-नरक. में नारकी महा वेदनावाले हैं ? हां, पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र छठा शतकका पहिला उद्देशा 380 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा० जो म० महावेदनावाले जा. यावत् प० प्रशस्त निर्जरा वाले से० अथ ज० जैसे दु• दो व० वस्त्र ०सि० होवे ए. ऐक व० वस्त्र क० कीचड के रा. रंगसे र० रक्त ए० एक व० वस्त्र खं० गाडेका खंजन के रा. रंगसे २० रक्त ए० इन दोदोनों व वन में क. कौनसा व. वस्त्र द० कठिनतासे धोयाईन जावे दु० कठिनता से रंग नीकाला जावे द० बहत पराक्रम क. कौनसा व. वस्त्र मु० सरलता से व वत्थे दुधोयतराए चेव दुवामतराए चेव, दुपरिकम्मतराए चेव, कयरे वा वत्थे ई सुधोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, सुपरिकम्मतराए चेव, जेवा से वत्थे कहमरागरते जेवा से वत्थे खंजणरागरत्ते, भगवं ! तत्थणं जे से कद्दम राग रत्ते सेणं वत्थे दुधोयतराए चेव, दुवामतराए चेव दुपरिकम्मतगए चेव, एवा गौतम ! वे महा वेदनावाले हैं. अहो भगवन् ! तब क्या वे श्रमण निम्रन्थ से महा निर्जरावाले हैं ? भावार्थ अर्थात् वे महा निर्जरा करते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् छठी सातवी नरक में नारकी महा वेदना भोगते हुवे महा निर्जरा नहीं करते हैं. तब अहो भगवन् ! यह किस अपेक्षासे कहा है कि जो महा वेदनावाला होता है वह महा निर्जरावाला होता है यावत् जिन को प्रशस्त निर्जरा होती है वह श्रेय है ? अहो गौतम ! जैसे एक कर्दम (कीचड) से भरा हुवा और दूसरा दीपक की कालिमा समान काला गाडे के खंजन से भरा हुवा ऐसे दो वस्त्र होवे. अब अहो गौतम ! उक्त दोनों 42 अनुवादक-बालअामचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ धोयाजावे सु० सरलतासेरंगनीकाला जावे सु. पराक्रम वाले जे. जो से उस को व० वस्त्र क० कर्दम | के रा. रंग से र० रंगाया हुवा ज० जो से वह व० वस्त्र खं० खंजन के रा० रंग से र० रंगाया हुआ भ० भगवन् त उस में जे. जोक. कर्दम राम से र० रक्त ए. ऐसे गो० गौतम ने नारकी को पा०१७ पापकर्म गा• दृढ क० किये हुवे चि० चिकनें किये हुए सि० निधत्त किये हुए खि० निकाचित किये हुए है। सं० दृढ ते वे वे वेदना वे० वेदते हुए णो नहीं म० महानिर्जरा नो० नहीं म० भहा पर्यवसान वाले मेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाई, चिक्कणी कयाई, सिढिलीकयाई, खिलीकयाइं भवंति, संपगाढंपियणं ते वेयणं वेएमाणा णो महानिजरा, नो . महापजवसाणा भवंति, ॥ से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणिं आउडेमाणे महया महया , सहेणं महया र घोसेणं, महया२ परंपराधाएणं णो संचाएइ तीसेअहिगरणीए अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए ॥ एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माइं गाढीकयाई । वस्त्रों में से कौनसा वस्त्र कठिनता से धोया जाता है, कौनसा वस्त्र का रंग कठिनता से नीकाला जाता है, और कौनसा वखं धोने में पराक्रम करना पडता है ? ऐसे ही कौनसा वस्त्र सरलता पूर्वक धोया जाता है, 16 रंग निकाला जाता है व कौनसा वस्त्र धोने में पराक्रम नहीं करना पड़ता है ? अहो भगवन् ! नो बन ६... कर्दम से भरा हुवा है वह कठिनता से शुद्ध हो सकता है. ऐसे ही अहो गौतम! नरक के जीवों को पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 38:00 छठा शतकका पहिला उद्देशाg428 mmmmmmmmmmmmmm - Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ १३ अनुवादकं बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भ० होते हैं से० अथ ज० जैसे के० कोई पु० पुरुष अ० एरण को आ० कुडते हुवे म० बडे पडे स० | शब्द से घो० घोष से प० परंपरा घा० घात से णो० नहीं स० समर्थ ती० उस अ० ऐरण के अ० यथा बादर पो० पुद्गल प० नीकालने को ए० ऐसे ही गो० ! गौतम ने० नारकी को पा० पापकर्म गा० दृढ किये हुये जा० यावत् नो० नहीं म० महापर्यत्रसान वाले भ० होते हैं भ० भगवन् त वहा जे० जो व जावं नो महापजवसाणाई भवंति भगवं तत्थ जे से वत्थे खंजणरागरते सेणं वत्थे सुधोयतराए चेव, सुवामतराए चेव सुपरिकम्मतराए चैत्र, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहा बायराई कम्माई, सिढिली कयाई, निट्टियाई कडाई विष्परिणामियाई खिप्पामेव वित्थाई भवति ॥ जावइयं तावइयं विणं ते वेयणं वेएमाणा पाप कर्म बहुत दृढ बन्धनवाले होते हैं, बहुत चीकने होते हैं, निचत्त होते हैं, निकाचित होते हैं. इस से (नारकी उक्त कर्मों भोगवे विना नहीं छूटते हैं. इस तरह महावेदना वेदते हुवे नारकी महा निर्जरा) { नहीं कर सकते हैं वैसे ही उन का महा पर्यवसान-निर्वाण नहीं होता है. जैसे पुरुष एरण पर लोहा {रखकर बडे २ शब्दों से व घोष से एक पीछे एक बडे बडे घाव मारते हुवे उस के बाहर पुगलों दूर करने को समर्थ नहीं होता है वैसे ही नारकी पूर्वकृत पाप कर्मों को दूर करने को व निर्वाण प्राप्त करने को समर्थ नहीं होते है. और जैसे खंजन से भरा हुआ क्स्त्र मरलता पूर्वक स्वच्छ व शुद्ध होता है वैसे # प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ७४८ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी वख खं० खंजन राग से र० रक्त से वह व० वस्त्र सु० सरालता से धोया जावे मु० अच्छी तरह रंग 1 नीकाला जावे सु० अच्छा पराक्रम वाले ए० ऐसे ही गो गौतम स० श्रमण निः निर्ग्रन्थ को अ० यथा बादर क० कर्म सि० शिथिल किये हुए नि० निष्टितार्य क० किये हुवे वि० परिणमेहुए खि० भीघ्र विविधंस भ० होते हैं जा. जहांलग ता० वहांलग ते वे वे. वेदना वे• वेदते हुवे म. महा निर्जरा म० महापर्यवसान भ० होते हैं से० अथ ज० जैसे के० कोई पु० पुरुष सु० मूका त. तृण ह० हस्त में जा० अग्नि में ५० डाले से. अथ णू शंकादी गो० गौतम से• वह मु. है महानिजरा महापज्जवसाणा भवंति, से जहा नामए केइ पुरिसे सुकं तणहत्थयं । E. जायतेयंसि पक्खियेजा .सेनूणं गोयमा से सुके तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसा विजइ ? हंता मसवसाविजइ, एवामेव गोयमा समणाणं निगंथाणं अहाबायराइं कम्माइं जाव महापज्जवसाणाई भवंति, ॥ से जहा नामए ही अहो गौतम ! श्रमण निग्रंथ ने बादर कर्म पुद्गलों को मंदविपाकवाले बनाये, रस रहित किये, और भाषार्थीव नष्ट होवे वैसे बनाये. जहांलग उन को वे कर्मों उदय में रहते हैं वहांलग भी उन्हे वेदते हुवे हा निर्जरा व महा पर्यवमान करते हैं. जैसे शुष्क तृण आग्नि में डालते ही जल जाता है वैसे ही श्रमण निम्रन्थ पादर कर्म पुद्गलों का विनाश करते हैं. और जैसे तप्त लोहे की सलाका पर पानी का बिन्दू 4280- पंचमांग विवाह पण्पत्ति (भगवती) 48 888 छठा शतकका पहिला उद्देशा 482 | mmmmm Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ || - अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + भावार्थ । शुष्क त० तृण ह० हस्त जा० अनि में प० डालते हुए खि० शीघ्र भ० भस्म को आ० प्राप्त होता है हैं ० हां भ० भस्म को आ० प्राप्त होता है ए० ऐसे ही गो० गौतम स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थ अ० यथा बादर क० कर्म जा० यावत् म० महापर्यवसान वाले भ० होते हैं से० अथ ज० जैसे के० कोई पु० पुरुष त ० तप्त * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * प्राप्त होता है ए० ऐसे अ० लोहे में उ० पानी का बि० बिन्दु ना० यावत् ई० हां विध्वंस को आ गो० गौतम स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थ जा० यावत् म० महापर्यवसान वाले भ० होते हैं से० अथ ते ० { इसलिये जे० जो म० महावेदना वाले से० वह म० महानिर्जरा वाले जा० यावत् नि० निर्जरा वाले ॥ ३ ॥ क० कितने प्रकार क भं० भगवन् क० करण प० प्ररूपे गो० गौतम च० चार प्रकार के क० करण प० कंइरिसे तत्तंसि अथकवल्वंसि उदगबिंदु जाव हंता विद्धंसमा गच्छइ, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं जाव महापज्जवसाणा भवति ॥ से तेणट्टेणं जे महावेयणे से महानिज्जरे जाव निज्जराए ॥ ३ ॥ कइविणं भंते! करणे पणते ? गोयमा ! पडने से शीघ्र नष्ट होता है वैसे ही श्रमण निर्ग्रन्थ के बादर कर्म पुगलों नष्ट होजाते हैं. इसी कारन से कहा है कि जो महा वेदनावाले होते हैं वे महा निर्जरावाले होते हैं और जो महा निर्जरावाले होते हैं। वे महा वेदनावाले होत हैं. और महा वेदना व अल्प वेद वाले में जो प्रशस्त निर्जरावाला है वह श्रेष्ट - { प्रधान होता है || ३ || वेदना करण से होती है इसलिये करण का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ៖ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 W बाब्दार्थ प्ररूपे तं० वह ज० यथा म० मन करण व० वचन करण का काया करण क. कर्म करण ने नारकी को भं भगवन् क. कितने प्रकार के क. करण प० प्ररूपे म मनकरण जा० यावत् क० ण एक ऐसे पं० पंचेन्द्रिय स. सब में च. चार प्रकार के क. करण १० प्ररूपे ए. एकेन्द्रिय दु० दोप्रकार के का० काय करण क० कर्म क. करण वि० विकलेन्द्रिय को व० वचन करण का०ॐ चउविहे करणे पण्णत्ते, तंजहा मणकरणे, वइ करणे, काय करणे, कम्म करणे, नेरइयाणं भंते ! कइविहे करणे ५० तं. मणकरणे जाव कम्मकरणे, एवं पंचिंदियाणं सव्वेसिं चउन्विहे करणे पण्णत्ते, एगिदियाणं दुविहे काय करणेय कम्म करणेय, भावार्थ करण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! करण के चार भेद कहे हैं मन करण, से वचन करण, काया करण व कर्म करण. अहो भगवन् ! नारकी को कितने करण । हैं ? अहो गौतम ! नारकी को चार करण कहे हैं. १ मन करण, वचन करण, काया करण, , व कर्म करण. उसी प्रकार जितने पंचेन्द्रिय जीव हैं उन सब को चार करण होते हैं एकेन्द्रिय को काय करण व कर्म करण ऐसे दो करण होते हैं, और तीन विकलेन्द्रिय को काय, वचन व कर्म 00 ऐसे तीन करण होते हैं ॥४॥ अहो भगवन् क्या नारकी करण से असाता वेदनीय वेदते हैं या अकरण से असाता वेदनीय वेदते हैं. अहो गौतम ! नारकी करण से असाता वेदनीय वेदते हैं परंतु अकरण से पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र छठा शतकका पहिला उद्देशा Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक mmmmmm काय करण क० कर्म करण ॥४॥ ने नारकी भं० भगवन् कि क्या क. करण से अ. असाता वे. वेदना वेष्वेदते। अ० अकरण से अ० अमाता वेदना वे वेदते हैं के कैसे गो. गौतम ने०१ नारकी को च० चार प्रकार के क. करण म० मन करण व वचन करण का काया करण क. कर्म करण इ० इन च०चार प्रकार के अ० अशुभ करण से ने० नारकी क. करण से अ० असाता वे वेदना वे. वेदते हैं जो नहीं अ० अकरण से ते. इसलिये ॥५॥ अ० असरकुमार कि क्या क. विगलिंदियाणं वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे, ॥ ४ ॥ नेरइयाणं भंते ! किं करणी असायं वेयणं वेदंति, अकरणओ असायं वेयणं वेदति ? गोयमा ! नेरइयाणं करणओ असायं वेयणं वेदति णो अकरणओ असायं वेयणं वेदति ॥ से केणट्रेणं ? गोयमा ! नेरइयाणं चउविहे करणे प० तंजहा-मण करणे, वइकरणे, काय करणे कम्म करणे, इञ्चेतेण चउविहेणं असुभेणं करणेणं नेरइया करणओ असायं वेयणं वेदति णो अकरणओ से तेणट्रेणं ॥ ५॥ असुरकुमाराणं किं करणओ अकरणओ ? गोयमा ! असाता वेदना नहीं वेदते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी करण से असाता वेदना वेदते हैं. परंतु अकरण से नहीं वेदते हैं ? अहो गौतम ! नारकी को मन, वचन, काय व कर्म ऐसे करण रहे हुवे हैं. इन चार अशुभ करण से नारकी असाता वेदना वेदते हैं॥५॥ अहो भगवन् : क्या असुर * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी * भावार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्म Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ शब्दार्थ करण से अ० अकरण से गो. गौतम क • करण से णो० नहीं अ० अकरण से के० कैसे गो० गौतम अ० असुरकुमार को च० चार प्रकार के क० करण इ० इन सु. शुभ करण से अ. असुरकुमार क०० करण से सा० माता वै० वेदना वेव्वेदते हैं नो नहीं अ० अकरण से ए० ऐसे थ० स्थनित कुमार पु०१४ पृथ्वीकायिक क. करण से बे० वेमात्रा ( मर्यादा रहित ) वे. वेदना वे. वेदते हैं नो० नहीं अ.}oi अकरण से उ० उदारिक शरीर वाले स० सब सु० शुभ अ० अशुभ से वे बेमात्रा से दे. देवा सु० शुभ करणओ जो अकरणओ। से केणटेणं ? गोयमा ! असुरकुमाराणं चउब्धिहे करणे पण्णत्ते, तंजहा-मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे, इच्चेतेणं सुभेणंकरणेणं असुरकुमारा करणओ सायं वेयणं वेदंति, नो अकरणओं एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइयाणं एवामेव · पुच्छा णवरं एचएणं सुभासुभेणं : करणेणं पुढविकाइया करणओ वेमायाए वेयणं वेदंति, नो अकरणओ ॥ उरालिय सरीरा कुमार करण मे या अकरण से वेदना वेदते हैं ? अहो गौतम ! असुरकुमार को मन, वचन, काया व कर्म यों चार शुभ करण रहे हुवे हैं इन चारों ही शुभ करण से असुर कुमार साता वेदनीय कर्म वेदते हैं.१४ 63 ऐसे ही स्थनित कुमार का जानना, पृथ्वीकायिक करण से बेमात्रा वेदना वेदते हैं सब उदारिक शरीर वाले जीव शुभाशुभ करण से मर्यादा रहित वेदना वेदते हैं, और देवों शुभ करण से साता वेदनीय > पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 48 8028छहा शतक का पहिला उद्देशा g mmmmmmmmmm भावार्थ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि करण से सा० साता वे वेदना वे० वेदते हैं ॥ ६॥ जी. जीव किं. क्या म० महावेदना वाले म.* महानिर्जरा वाले म० महावेदना बाले अ० अल्प निर्जरा वाले अ० अल्प वेदना वाले म० महानिर्जरा वाले अ० अल्प वेदना वाले अ. अल्प निर्जरावाले गोगौतम अ० कितनेक जी० जीव म० महावेदनावाले ० महानिर्जग वाले के कैसे ५० प्रतिमा ५० प्रतिपन्न ( सहित ) अ० अनगार म० महावेदनावाले ७५४ सव्वे सुभासुभेणं वेमायाए, ॥ देवा सुभेणं सायवेयणं वेदति, ॥ ६ ॥ जीवाणं भंते किं महावेयणा महानिजरा, महावेयणा अप्पनिजरा, अप्पवेयणा महानिजरा, अअप्पवेयणाअप्पनिजरा? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा महावेयणा महानिज्जरा, अत्थेगइया जीवा महावेयणा अप्पनिजरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेयणा महानिजरा, अत्थेगइया जीवा अप्पवेयणा अप्पनिजरा ॥ से केणट्रेणं ? गोयमा ! पडिमापाडवण्णए अणकर्म वेदते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! क्या जो जीव महा वेदनावाला होता है वह महा निर्जरावाला होता है, महा वेदनावाला अल्प निर्जरावाला होता है, अल्प निर्जरावाला महा वेदनावाला होता है, या अल्प वेदनागला अल्प निर्जरावाला होता है ? अहो गौतम ! कितनेक जीव महा वेदनावाले व महा निर्जरावाले हैं, कितनेक महा वेदनावाले व अल्प निर्जरावाले हैं, कितनेक अल्प वेदनावाले व महान निर्जरावाले हैं, और कितनेक अल्प वेदनावाले व अल्प निर्जरावाले हैं. अह) भगवन ! यह किस तरह * प्रकाशक-राजीबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालाप्रसाद भावार्थ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * म. महानिर्जरा वाले छ• छठ्ठी स० सातमी पु० पृथ्वी में ने० नारकी म० महावेदनावाले अ० । अल्प निर्जरा वाले से शैलेशी ५० प्रतिपन्न अ० अनगार अ० अल्प वेदनावाले म० महानिर्जरा वाले अ० अनुत्तरोपपातिक दे देव अ० अल्प वे० वेदना वाले अ० अल्प निर्जरा वाले से०१७ | वैसे ही भ० भगवन् म. महावेदना व० वन क० कीचड ख० खंजन अ० एरण त० तृण ह. हस्त क. . गारे महावेयणे महानिज, छट्ठसत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेयणा अप्पनिजरा, } सेलेसि पडिवण्णए अणगारे अप्पवेयणेरे महानिजरे, अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेयणा अप्पनिजरा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ महावेयणायवत्थे, कद्दम खंजण ॥ कएय अहिकरणी, तणहत्थयकवल्ले, करण महावेयणा जीवा ॥ सेवं भंते , भावार्थ 1 हैं ? अझे गौतम ! प्रतिमा अंगीकार करनेवाले अनगार महा वेदनावाले व महा निर्जरावाले होते हैं, क्योंकि बारह प्रकार की प्रतिमा अंगीकार करते अनेक प्रकार के कष्ट उपसर्ग होते हैं. २ छठी सातवी नरक के नारकी महा वेदनावाले व अल्प निर्जरावाले हैं ३ शैलेशी प्रतिपन्न चौदहवे गुण स्थान में रहनेवाले अनगार अल्प वेदनावाले व महा निर्जरावाले हैं और ४ सर्वार्थ सिद्ध विमान के देवता अल्प वेदना व अल्प निर्जरावाले हैं. इस उद्देशे का सारांश. महा वेदना का अधिकार, कर्दम व खंजनवाले दो वस्त्रका 15 द्रष्टांत, लोहार की ऐरण, तृण व तत लोहेका दृष्टांत, चार करण का अधिकार, वेदना निर्जराकी चौभंगी. (भगवती) विवाह पण्णत्ति पंचमाङ्ग 48488% छठा शतक का पहिला उद्देशा •* Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ लोहे क० स्वीला क करण म० महावेदना जी जीव छ, छट्ठा स० शतकका प०प्रथम उउद्देशा॥६॥२॥ १. रा. राजगृह न० नगर जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले आ० आहार उ० उद्देशा जो० ५०. पनवणा में स० सब नि० निरवशेष ने जानना. छ. छट्ठा सशतक का वि० दूसरा उ० उद्देशा स०समास॥६॥२ ७५६ भंतेत्ति ॥ छ? सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ १॥ . रायगिहं णगरं जाव एवं वयासी-आहारुद्देसो जो पण्णवणाए सव्वो निरवसेसो नेयन्यो । सेवं भंते भंतेत्ति ॥ छट्ठसयस्स बिइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ २ ॥ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ६॥ १ ॥ प्रथम उद्देशे में वेदना का अधिकार कहा. वह वेदना आहारवन्त जीव को होती है इसलिये आगे आहार का अधिकार कहते हैं. राजगृही नगरी में गुण शील नामक उद्यान में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को भगवान गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! नरक के जीवोंको क्या सचित्त, अचित्त, या मीश्र का आहार है ? अहो गौतम ! नरक के जीवों सचित्त आचित्त का आहार करते हैं परंतु मीश्र का आहार नहीं करते हैं. इत्यादि आहार संबंधी सब वर्णन पनवणा सूत्र जैसे जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥६॥२॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 8 सू शब्दार्थ है व० बहुत क० कर्म व० वस्त्र पो० पुद्गल ५० प्रयोगसे वी० स्वभाव से सा० अदिसहित क० कर्म स्थिति इ० स्त्री सं० संयति स० सम्यक् दृष्टि स० संज्ञी भ० भव्य दं० दर्शन ५० प्रर्याप्त भा० भाषक अ० अपरत ना ज्ञान जो० योग उ० उपयोग आ० आहारक सू० सूक्ष्म च० चरिम बं० बंध अ० अल्पाबहुत्व से० अथ णू . शंकादी भं• भगवन् म० महाकवाले म महा आश्रव वाले म० महाक्रिया वाले त० महा बहुकम्म वत्थ पोग्गल पयोगसा वीससाय सादीए ॥ कम्मटिइत्थि संजय, सम्मदि ट्ठीय सन्नीय ॥ १ ॥ भविए दसण पज्जत्त, भास अपरित्त नाण जोगेय ॥ उवओगा है हारग सुहम चरिमबंधेय अप्पबहुं ॥ २ ॥ से गुणं भंते ! महाकम्मस्स, महासवस्स। महाकिरियस्स, महावेयणस्स, सव्वओ पोग्गला बझीत, सव्वओ पोग्गला चिजंति, भावार्थ है दूसरे उद्देशे में आहार का अधिकार कहा. आहारिक जीव सकर्मी होते हैं इसलिये कर्मबंध का सम्बन्ध कहते हैं. जैसे आदि में स्वभाव से व प्रयोग से पुद्गलों एकत्रित होकर वस्त्र बनता है वैसे ही महाकर्म से पुद्गल का बंध करे, कर्म की स्थिति, स्त्री पुरुष कर्म का बंध करे, संयति, दृष्टिद्वार, संज्ञी, भवि, age दर्शन, पर्याप्त, भाषक परत, ज्ञान, जोग, उपयोग, आहारक, मूक्ष्म, चरिम, बंध व अल्पाक्दुत्व. अहो.. भगवन् ! स्थिति आदि की अपेक्षा से महाकर्मी, मिथ्यात्वादिक की अपेक्षा से महा आश्रवी, कायिकादि क्रिया से महा क्रियाबंत, और साता असाता रूप वेदना से महा वेदनावंत जीव को सब दिशी के ( भवगती ) सूत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( ** छठा शतक का तीसरा उद्देशा - Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय ७५८ 4.8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वदना वाले स० सब से पो पुद्गल ब. बंधाते हैं म० मब पो० पुद्गल चि० चयहोते हैं उ० उपचय होते हैं स० सदा स० निरंतर त० उस का आ० आत्मा दु. दुष्टरुपपने दु० दुष्ट वर्णपने दु० दुष्ट गंधी पने दु. दुष्ट रसपने दु० दुष्ट स्पर्श पने अ० अनिष्ट अ० अकांत अ. अप्रिय, अ० अशुभ अ० अमनोज अ० अमणाम अ० नहीं इच्छने योग्यपने अ० नहीं चिंतवने योग्य अ० जघन्यपने नो नहीं उ० मुख्यपने दु. दुःखपने नो• नहीं मु० सुखपने भु. वारंवार प० परिणमते हैं ई० हां गो. गौतम म० महाकर्म सव्वओ पोग्गला उवचिजंति, सयासमियं पोग्गला बझंति, सयासमियं पोग्गला चिजंति, सयासमियं पोग्गला उवचिजंति, सयासमियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए दुरसत्ताए, दुफासत्ताए, अणि?त्ताए, अकंत-अप्पिय-असुभ अमणुण्ण-अमणामत्ताए-अणिच्छियत्ताए, अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए, नोउद्वृत्ताए, अथवा जीव के सब प्रदेश आश्रित पुद्गलों का क्या बंध, चय, व उपचय होता है ? अथवा सदैव निरन्तर उन पुदलों का बंध, चय व उपचय होता है और जिन को कर्म का बंध, चय व उपचय होता है। उनका आत्मा बाह्यात्मा ] क्या दष्ट वर्ण, गंध, रस. व स्पर्शपने. अनिष्ट अकांत. अप्रिय, अमनोन व अ-4 मनामपने, अथवा नहीं इच्छने योग्य, नहीं चितवने योग्यपने, जघन्यपने, मुख्यपने, व दुःखपने, वारंवार परिणमता है ? हां गौतम ! सब वैसे ही होता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह ! अहो गौतम ! . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ammam भावार्थ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वाले को सं० वैसे ही से० अथ के० कैसे गो० गौतम ज० जैसे व० वस्त्र अ० नहीं भोगवा हुवा धो० । Pos धोया हुवा त० तंतुमें रहा. हुवा आ० अनुक्रम से प. भोगवते हुवे स० चारों तरफ से पो० पुद्गल ब०१० Vवधाते हैं स० चारों तरफ से पो० पुद्गल चि० चयहोते हैं उ० उपचय होते हैं जा. यावत् १० परिणमते हैं ते० इसलिये ॥ १ ॥ से० अथ भ० भगवन् अ० अल्प आश्रा वाले को अ० अल्प कर्म वाले को की ७५९ सूत्र दुक्खत्ताए नो सुहत्ताए, भुजो भुजो परिणमंति ? हंता गोयमा ! महाकम्मरस तंचव सेकेणटेणं ? गोयमा ! से जहा नामए वत्थस्स अहतस्सवा, धोयस्सवा, तंतुगया । स्सवा आणुपुबीए परि जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बझंति, सव्वओ पोग्गला चिजंति, जाव परिणमंति सेतेण?णं ॥ १ ॥ सेणूणं भंते ! अप्पासवस्स अप्प कम्मस्स, अप्पकिरियस्स, अप्पवेयणस्स, सव्वओ पोग्गला भिजंति,सव्वओ पोग्गला । जैसे उपयोग में नहीं लाया हुवा, धोया हुवा अथवा तुरीवेमादिक ( साल) से मात्र निकाला हुवा ऐसा वन को भोगते हुवे उस में मलिन पुगलों का बंध, चय; व उपचय होता है और वह वस्त्र भी खराब) 0 वर्णपने.याक्त वारंवार परिणमता है. वैसे ही महाकर्म, महाआश्रयवाले को संचित किये हुवे पुद्गलों दुष्ट ०७वर्णपने यावर वारंवार परिणमते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! अल्प कर्मवाले, अल्प आश्रववाले, अल्प क्रियावाले व अल्प वेदमावाले पुरुष को सब दिशि के पुद्गलों क्या भेदाते हैं. छेदस्ते हैं, विध्वंस होते हैं । 298 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 छठा शतक का तीसरा उद्देशा +8+ भावार्थ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० अता क्रिया गले को अ. अल्प वेदना वाले को स० सब से पो० पुद्गल भि. भेदाते हैं छि०१: छेदाते हैं वि० विनाश पाते है ५० वारंवार विना पाते हैं स० सदैव त० उप्त का आ० आत्मा मु. रूपपने ५० प्रशस्त ने० जानना जा. यावत् स० सखपने भ० वारंवार प० परिणमते है ई. हां गो. गौतम जा० यावत् प० परिणमते हैं के कैसे गो गौतम व० वस्त्र ज• मेला ५० कीचड वाला, म० कठिन मेलवाला र०रजयुक्त आ० अनुक्रपसे प०पराक्र करते मु०सद पा०पानीसे घो घोते स०सब पो० पुद्गल छिज्जनि,सव्वओ पोग्गला विडंसंति सयओ पोग्गला परिवद्धसंति, सयासमियं पोग्गला भिजति,छिजंति,विडंसंति,परिवद्धसंति,सयासमियंचणं तस्स आयारूवताए पसत्थं नेयव्वं जाव सुहत्ताए, नोदुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ ? हंता गोयमा ! जाव पारणमइ। से केण?णं? गोयमा! से जहा नामए वत्थस्स जल्लियस्सबा, पंकियस्सवा, मइलियस्सवा, रतिल्लियस्सवा आणुपुव्वीए पारकमिजमाणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्यमाणस्स सव्वओ पोग्गला या पारीवधसं होते हैं ? अथवा सदैव निरंतर प्रवल भेदाते हैं यावत् विशेष नष्ट होते हैं. उस का आत्मा अच्छे रूप, वर्ण, गंध, रस व स्पर्शपने यावत् सुखपने वारंवार क्या परिणमता है ? हां गौतम ! ऐमा होता है. अहो भगवन् ! यह किल तरह ? अहो गौतम ! जैसे मैल, कीचड व रज से भरा हुवाई वस्त्र को शुद्ध पानी से धोने से सब मलिन पगलों नष्ट हो जाते हैं वैसे ही अल्प कर्म, आश्रव, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 4 Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थभि० भेदाते हैं जा० यावत् प० परिणमते है ते• इसलिये ॥ २ ॥ ३० वस्त्र के भ० भगवन् ? 4 80/पो० पुद्गलों का उ० : उपचय किं. क्या ५० प्रयोग से पी. सभाव से गो० गौतम ११५० प्रयोग से भी वी० स्वभाव से भी ज• जैसे त० तैसे क० कर्मों का उ० उपचय किं. क्या । ५० प्रयोग से वी० स्वभाव से गो० गौतम प० प्रयोग से नो० नहीं वी० स्वभाव से के० कैसे गो० गौतम / भिजति जाव परिणमंति. से तेणटेणं ॥ २ ॥ वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोवचये किं ३ पयोगसा वीससा ? गोयमा ! पयोगसावि, वीससावि, जहाणं भंते ! वत्थस्सणं पोग्गलोवचये पयोगसावि, वीससावि, तहाणं जीवाणं कम्मोवचए, किं पयोगप्ता, वीससा ? गोयमा ! पयोगसा नो वीससा । से केणट्टेणं ? गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा मणप्पओगे, वइप्पओगे, कायप्पओगे, इच्चेतेणं तिविहेणं पयोक्रिया व वेदनावाले को कर्म पुद्गल छेदाते भेदाते हैं और उन का आत्मा सुखपने परिणमता है ॥२॥ अहो भगवन् ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय क्या स्वभाव से होता है या प्रयोग से होता है ? अहोई गौतम ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय स्वभाव से होता है परंतु प्रयोग से नहीं होता है. अहो भगवन् ! जैसे वस्त्र के पुद्गलों का उपचय प्रयोग व स्वभाव दोनों से होता है वैसे ही क्या जीव के कर्मों का उप-है चय स्वभाव से होता है या प्रयोग से होता है ? अहो गौतम ! जीवों को कर्मों का उपचय स्वभाव से ...4.११.१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8220 छठा शतक का तीसरा उद्देशा 884884 भावार्थ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ शब्दार्थ जी० जीवों को ति तीन प० प्रयोग प० प्रयोग से जी० जीव क० कर्मोपचय ५० प्रयोग से नो० नहीं + वी० स्वभाव मे ए० ऐसे स• सब पं० पंचेन्द्रिय को ति. तीन ५० प्रयोग भा० कहा पु० पृथ्वीकाय ए० एक पं० प्रयोग से ए० ऐसे जा० जावत् व० वनस्पति का० काया वि. विकलेन्द्रिय दु० दोमकार क प० प्रयोग प० कहे व० वचन प्रयोग का काय प्रयोग ए. ऐसे ज० जिन को जो जो प० प्रयोग 1 गेणं जीवाणं कम्मोवचये पयोगसा नो वीससा, एवंसव्वेसि पंचिंदियाणं तिविहे पयोगे भाणियव्वे, ॥ पुढविकाइयाणं एग विहपओगेणं, एवं जाव वणस्सइ काइया, ॥ विगलिंदियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा-वइप्पयोगेय, कायप्पओगेय, इच्चेतेणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोवचये पयोगसा नोवीससा से एणं अटेणं जाव नो वीससा ॥ भावार्थ नहीं होता है परंतु प्रयोग से होता है. अहो भगवन् ! किस प्रकार जीवों को प्रयोग से कर्म पुद्गलों का उपचय होता है ? अहो गौतम ! जीवों को तीन प्रकार का प्रयोग कहा. १ मन प्रयोग, २ वचन प्रयोग व ३ काय प्रयोग. इन तीन प्रयोग से जीव कर्मों का उपचय करते हैं परंतु स्वभाव से नहीं करते हैं. ऐसे ही सब पंचेन्द्रिय का जानना. पृथ्वीकायिकादिक पांच स्थावर को मात्र एक काय प्रयोग है और विकलेन्द्रिय को काया व वचन ऐसे दो प्रयोग हैं. इसलिये पांच स्थावर एक काया का प्रयोग कर से व विकलेन्द्रिय काया व वचन ऐसे दोनों के प्रयोग से कर्म का उपचय करते हैं, इस तरह निम को 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* - Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६३ शब्दार्थ जा० यावत् वे० वैमानिक ॥ ३ ॥ व० वस्त्र के० भ० भगवन् पो० पुगलोपचय में किं० क्या सा० आदि स० मान्त सा० सादि अ० अनंत अ० अनादि स० सांत अ. अनादि अ० अनंत ज० जैसे भं० एवं जस्स जोप्पओगो जाव वेमाणियाणं ॥ ३ ॥ वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोवचए किं सादीए सपज्जवसिए, सादीए अपज्जवसिए, अणदीए, सपज्जवसिए, अणादीए अपजवसिए ? गोयमा ! वत्थस्सणं पोग्गलोवचए सादीए सपजवसिए, नोसादिए अपजवसिए, नो अणादीए सपजवासिए नोअणादीए अपजवसिए ॥ जहाणं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिए, नोसादीए अपजवसिए णो अणादीए सपज्जवसिए नोअणादीए अपज्जवसिए, तहाणं जीवाणं कम्मावेचए पुच्छा, गोयमा ! भावार्थ जो प्रयोग होवे वैसा वैमानिक तक जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वस्त्र का पुद्गलोपचय क्या आदि अंत-है. वाला है, आदि अंत रहित है, अनादि सान्त है व अनादि अनंत है ? अहो भगवन् ! वस्त्र के पुद्गलों का उपचय आदि सान्त है. इस में शेष तीन भांगे नहीं मिल सकते हैं. अहो भगवन् ! जैसे वस्त्र 50 का पुद्गलोपचय सादि सान्त, परंतु सादि अनंत, अनादि सान्त व अनादि अनंत नहीं है वैसे ही क्या कर्म का उपचय सादि सान्त यावत् अनादि अनंत है ? अहो गौतम ! कितनेक जीवों का कर्मोपचय सादिसान्त है, कितनेक को अनादि सांत है और कितनेक को अनादि अनंत है परंतु सादि अनंत नहीं है। 948 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 छठा शतकका तीसरा उद्देशा +4882 Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७६४ १. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 भगवन् व० वस्त्र का पो० पुद्गलोपचय सा० सादि स० सान्त त० तैसे नी. जीवों को क० कर्पोपचय * में पु० पृच्छा गो० गौतम अ० कितनेक जी० जीवों को क. कोपचय सा० सादी स० सान्त अ०१ कितनेक अ० अनादि स० सान्त अ० कितनेक अ० अनादि अ० अनंत नो नहीं सा० सादि अ० १. अनंत के कैसे गो० गौतम इ० ईर्यापथिक बं. बंध के क. कर्मोपचय सा. सादि स. सान्त भ० भवसिद्धिक क० कर्मोपचय अ० अनादि:स० सान्त अ० अभवसिद्धिये का क० कर्मोपचय अ० अनादि __ अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए, सादीए समजवसिए, अत्थेगइए अणादीए सपजवसिए अत्थेगइए अणादीए अपज्जवासए, नोचेवणं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपजवसिए से केणद्वेणं ? गोयमा ! इरियावहियाबंधस्स कम्मोवचए सादीए सपज्जवसिए, भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए सपजवसिए, अभवासिद्धियस्स कम्मोवचए है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! र्यापथिक बंध का कर्मोपचय सादिपान्त है. क्योंकि उपशान्त व क्षीण मोहनीय गुणस्थानवी जीव ऐसा कर्मबंध करते हैं कि जो पहिले समय में बांधते हैं, दूसरे समय में वेदते हैं और सरे समय में वेदते हैं और तीसरे समय में निर्जरते हैं. भवसिद्धिक जीवों को अनादिसान्त हैं क्योंकि उन के कर्मों की आदि नहीं है परंतु वे कर्मों का क्षय, करके मोक्ष में जावेंगे इसलिये सान्त है। अभवसिद्धिको कर्मोपचय अनादि अनंत है. क्योंकि उन को कर्मों की आदि नहीं होती है वैसे ही * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाश . . ** | ह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र अ० अनंत ते• इसलिये ॥ ४ ॥ व० वस्त्र भं० भगवन् किं. क्या सा० सादि स० सांत च० चार भांगे । ०गो० गौतम व वख सा० सादि स० सांत अ० शेष ती. तीन का ५० प्रतिषध ज. जैसे मं० भगवन् सा: सादि १० सांत त तैसे जी जीव किं. क्या मा० मादि स सान्त च. चार भांगे पु०१० पृच्छा गो० गौतम सा० सादि सा० सान्त च०. चारों भा० कहना के० कैमे गो० गौतम ने 6 अणादीए अपज्जवसिए से तेण?णं ॥ ४ ॥ वत्थेणं भंतें ! किं सादीए सपज्जवसिए चउभंगो ? गोयमा ! वत्थे सादीए सपजवसिए अवसेसा तिण्णिवि पडिसेहेयव्वा जहाणं भंते ! वत्थे सादीए सपजवासए नो सादीए अपज्जवसिए, नो अणादीए सपज वसिए, णो अणादीए अपजवसिए ॥ तहा जीवा किं सादीया सपजवसिया चउभंगो, मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं इसलिये ऐसा कहायया है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या वस्त्र सादिसान्त, दि अनंत. अनादिक्षान्त व अनादि अनंत? अहो गौतम ! वस्त्र में सादिसान्त भांगा मिलता है. शेष तीन भांगे नहीं मीलते हैं. अहो भगवन् ! जैसे वस्त्र सादिसान्त है वैसे ही जीव क्या सादिसान्त,90 सादि अनंत, अनादिसान्त, व अनादि अनंत है ? अहो गौतम ! जीव में चारों भांगे पाते हैं. अहो । भगवन् ! यह किस तरह ! अहो गौतम ! नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव इन चारों गति आश्रित सादिसान्त हैं क्योंकि उक्त चारों गति में जीव उत्पन्न होते है सो आदि और चवते हैं सो अंत, सिद्ध छठा शतक का तीसरा उद्देशा भावार्थ 9802 Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ शब्दार्थ नारकी ति० तिर्यंच म. मनुष्य दे० देव ग. गति आ• आगति ५० संबंधी सा. सादि स० * सान्त सि० सिद्धगीत १० आश्रित सा० सादि अ० अनंत भ० भवसिद्धिक ल. लब्धि ५० आश्रित अ. अनादि स० सान्त अ० अभवसिद्धिक सं० संसार १० आश्रित अ० अनादि अ० अनंत ते इसलिये ॥५॥ क० कितनी भं० भगवन् क० कर्म प्रकृति प० कही गो० गौतम अ० आट क० कर्म प० प्रकृतियों प० कहीं णा० ज्ञाना बरणीय दं० दर्शना वरणीय जा. यावत् अं० अंतराय ना पुच्छा ? गोयमा ! सादया सपज्जवसिया चत्तारि वि भाणियव्वा ॥ से केण?णं ? गोथमा ! नेरइय तिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवा गइरागइं पडुच्च सादीया सपज्जवE. सिया ॥ सिद्धगतिं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लडिं पडुच्च अणादिया सपजवसिया, अभवसिद्धिया संसारपडुच्च अणादीया अपजवसिया से तेणट्रेणं ॥५॥ भावार्थ गति आश्रित सादि अनंत है क्योंकि सिद्धगति में उत्पन्न होने का है परंतु चवने का नहीं है. भवसिदिकी लन्धि आश्री अनादि सान्त है क्योंकि जीव को स्वभाव से भवसिद्धिकी लब्धि होती है परंतु जब सिद्ध होते हैं उस समय में लब्धि का क्षय होता है और अभवसिद्धिक संसार आश्री अनादि अनंत है. इसलिये जीव में चार भांगे ग्रहण किये हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! कर्म प्रकृतियों कितने प्रकार की कही हैं अहो गौतम ! १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नाम, अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ON त्र *शाना वरणीय क० कर्म की के० कितना का काल की बं० बंधस्थिति गो० गौवय ज० स्मन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट ती० तीस सागरोपम को० कोडी ति० तीन वा. वर्ष स० सहस्र अ० अबाधा अ० अबाधा उ० कम क० कर्म स्थिति क० कर्म निषेक ए. ऐसे दं० दर्शनावरणीय वे० वेदनीय का। कइणं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठकम्मपगडीओ पण्णत्ताओ तंजहा णाणावरणिज, दारिसणावराणजं, जाव अंतरायं ॥ नाणावराणजस्सणं भंते ! कम्मस्स केनइयं कालं बंधट्टिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं तीसं सागरोवम कोडाकोडीओ, तिण्णियवाससहस्साइं अबाहा, अबाहूणिया, कम्मट्टिई कम्मनिसेओ ॥ एवं दरिसणावराणिज्जपि ॥ वेयणिजं जहणं दो समया उभावार्थ ७ गोत्र व ८ अंतराय ऐसे आठ कर्मप्रकृतियों कही हैं. अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म की कितने ब. काल की बंधस्थिति कही है ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय की जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीस क्रोडाक्रोड सागरोपम की स्थिति व सीन हजार वर्ष का अबाधा काल कहा है, इम अबाधा काल से कर्म स्थिति व कर्म निषेक कम होता है. ऐसे ही दर्शनावरणीय कर्म का जानना. वेदनीय की स्थिति जपन्य अंतर्मु । १ कर्म बंध हुए पीछे उदय में आवे उस के बीच का अंतर को अबाधा काल कहते हैं. २ उदय आये पीछे १ समय २ में हीन रस होवे. 20280 पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र १.११ 48848 छठा शतकका तीसरा उद्देशा 448 Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ७६८ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिनी ज० जघन्य दो० दोसमय उ० उत्कृष्ट ज० जैसे ना० ज्ञानावरणीय मो० मोहनीय ज० जघन्य अं• अंत * मुहूर्त उ० उत्कृष्ट स. सीत्तर सा० सागरोपम को० क्रोडा क्रोड स० सात वा० वर्ष स० सहस्र जा. यावत् आ• आयुष्य ज जघन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट ते० तेत्तीस सा० सागरोपम पु० पूर्व क्रोड ती. तीन भा० भागम० मध्य अ० अधिक क० कर्म स्थिति क० कर्म ना नाम गो० गोत्र ज. जघन्य असे आठ मुहूर्त उ० उत्कृष्ट वी० बीस सा० सागरोपम को क्रोडा क्रोड दो० दो वा० वर्ष स० सहस्र . कोसं जहा नाणावरणिजं ॥ मोहणिजं जहष्णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसं सत्तरि सागरोवम कोडाकोडीओ, सत्तयवास सहस्साणि जाव निसेओ॥ आउगं जहणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाणि, पुवकोडि तिभागमज्झाहियाणि कम्मा?ई कम्मनिसेओ ॥ नाम गोयाणं जहष्णं अट्ठमुहुत्ता उक्कोसं वीसं सागरोवम कोडाकोडीओ, दोणिय वास सहस्साणि, अबाहा, अबाहूणिया, कम्मट्टिई कम्मनिसेओ ॥ अंतउत्कृष्ट तीस कोडाक्रोड सागरोपम. अबाधा काल तीन हजार वर्ष का. मोहनीय कर्म की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट ७० क्रोडाक्रोड सागरोपम अबाधा काल ७ हजार वर्ष. आयुष्य की जघन्य अंत मुहूर्त उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम व क्रोड पूर्व का तीसरा भाग अधिक नाम क गोत्र की जघन्य आठ मुहूर्त उत्कृष्ठ बीस क्रोडाकोड सागरोपम. अबाधा काल दो हजार वर्ष का. अंतराय की जघन्य अंतर्मुहूर्त * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मार लाप्रसादजी * भावार्थ * Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 E शब्दार्थ १० अ. अबधा अ० अबाधा से उ• कम क० कर्म स्थिति क० कर्भ निषेक अं० अंतराय का ज जैसे ना० १to ज्ञानाबरणीय ॥ ६ ॥ ना. ज्ञानावरणीय भं० भगवन् क०कर्म कि० क्या इ०स्त्री बांधती है पु० पुरुष बं०14 बांधता है न० नपुंसक ५० बांधता है नो नहीं स्त्री नो० नहीं पुरुष नो० नहीं नपुंसक बं० बांधता है | • बांधती है पु० पुरुष भी बं० बांधता है, न नपंसक भी बं० बांधता है नो०१२ स्वी नो० नहीं पुरुष नो० नहीं नपंसक बं० बांधता है एक ऐसे आ० आयष्य व. छोडकर स० सात राइयं जहा नाणावरणिज ॥ ६ ॥ नाणावरणिजं गं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, नपुंसओ बंधइ, नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ बंधइ ? गोयमा ! इत्थीवि बंधइ, पुरिसोवि बंधइ, नपुंसओवि बंधइ, नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ ॥ एवं आउगवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ॥ आउगं भंते ! कम्मं किं इत्थी वंधइ, पुरिसो बंधइ, पुच्छा ? गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय } भावार्थ, उत्कृष्ट तीस क्रोडाक्रोड सागरोपम की. अबाधा काल तीन हजार वर्ष का ॥६॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या स्त्री बांधती है, पुरुष बांधता है, नपुंसक बांधता है या इन तीनों वेद रहित । 23 अवेदी बांधता है ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध स्त्री पुरुष व नपुंसक तीनों ही करते हैं. नववे । दश गुणस्थान में रहनेवाले अवेदी ज्ञानावरणीय का बंध करते हैं अग्यारहवे, बारहवे तेरहवे व चौदहवे। 48- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) शतक का तीसरा उद्देशा Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थक कर्म प्रकृतियों ॥७॥मा०शानावरणीय किं. क्या स. संयति बं० बांधता है अ० असंयति बं०१* ०७बांधता है ए० ऐसे सं० संयतासंयति बं० बांधता है नो० नहीं संयती नो० नहीं असंयती नो० नहीं संयता संयती बं० धना है ए० ऐसे आ. आयुष्य वर्जित स० सात आ० आयुष्य है ० नीचे के ति. नो बंधइ, एवं तिन्निवि भाणियव्वा ॥ नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ न बंधइ ॥ ७ ॥णाणावरणिज णं भंते ! कम्मं किं संजए बंधइ, असंजए बंधइ, एवं संजयासंजए बंधइ, नो संजए नो असंजए नो संजयासंजए बंधइ ? गोयमा ! संजए सियबंधइ सियनोबंधइ, असंजए बंधइ, संजयासंजएवि बंधइ नो संजए नो असंजए नो संजयासंजए न बंधइ । एवं आउगवज्जाओ सत्तवि, आउगे हे भावार्थ गुणस्थानवाले अवेदी ज्ञानावरणीय का बंध नहीं करते हैं. ऐसे आयुष्य कर्म छोडकर शेष सब कर्मों का अवेदी सवेदी आश्री जानना. आयुष्य कर्म का बंध तीनों वेदवाले क्वचित् करते हैं व क्वचित् नहीं करते हैं. अवेदी आयुष्य का बंध नहीं करते हैं ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्या संयति करते हैं, असंयति करते हैं, संयतासंयति करते है, व नो संयति नो असंयति नो संयता"संयति ( सिद्ध ) करते हैं ? अहो गौतम ! संयति ज्ञानावरणीय कर्म का बंध क्वचित्र 1 करते हैं व क्वचित् नहीं करते है. असंयति व संयतासंथति ज्ञानावरणीय का बंध निश्चयही करते हैं. अनुवादक-बालब्रह्मचरिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ पण्णत्ति (भगवती) सूत्र तीन भ. भजना उ० उपर का न नहा बं० दांधता है ॥ ८॥ ना० ज्ञानावरणीय किं. क्या स. सम्यगू दृष्टि बं० बांधता है मि० मिथ्यादृष्टि बं० बांधता है स० सम्यग्मिथ्या दृष्टि बं० बांधता डिल्ला तिण्णि भयणाए उबरिलो न बंधइ ॥ ८ ॥ नाणावराणिजं भंते ! कम्मं किं सम्मादट्ठी बंधइ, मिच्छदिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ ?गोयमा! सम्मादट्ठी सियबंधइ सिय नोबंधइ, मिच्छादिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ । एवं आउगवज्जा ओ सत्तवि, आउएहडिल्ला दो भयणाए सम्मामिच्छदिट्ठी नबंधइ ॥ ९ ॥ नाणावरणं परंतु सिद्ध नहीं करते हैं. ऐसे ही आयुष्य छोडकर शेष सात कर्मों का जानना. संयति, असंयति व संयतासंयति आयुष्य का बंध क्वचित् करते हैं व क्वचित नहीं करते हैं. सिद्ध आयुष्य कर्म का बंध नहीं करते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या समदृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं, मिथ्यादृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं, या सममिथ्यादृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो गौतम ! समदृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं. मिथ्यादृष्टि व सममिथ्यादृष्टि ज्ञानापरणीय * कर्म बांधते हैं. ऐसे ही आयुष्य छोडकर शेष सात का जानना. समदृष्टि व मिथ्यादृष्टि आयुष्य कर्म क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं. सममिध्यादृष्टि आयुष्य कर्म नहीं बांधते हैं ॥९॥ ज्ञाना-14। 48800388 छट्टा शतकका तीसरा उद्देशा भावार्थ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 8 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी * प्रकाशक - राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी 7: १९ ॥ ना० ज्ञानावरणीय किं० क्या स० संज्ञी अ० असंज्ञी नो० नहीं संज्ञी न ० नहीं असंज्ञी वं० बांधता है। ॥ १० ॥ ० ज्ञानावरणीय किं० क्या भ० भवसिद्धिक अ० अभवसिद्धिक नो० नहीं भवसिद्धिक नो० किं सन्नी बंध असनी बंधइ नो सन्नी नो असन्नी बंबइ ? गोपमा ! सन्नी सिय बंध सिय नबंध, असन्नी बंधइ, नो नी नो अग्नी न बंधइ एवं वेयाणिज्जाउगवज्जाओ छकम्मप्पगडीओ । वेयाणजं हेट्ठिला दो बंधेइ, उवरिल्ला भयणाए || आउगं हेट्ठिल्ला दोभयणाए उवरिल्लो न बंधइ ॥ १० ॥ नाणावरणिज्जं करमं किं भवसिद्धिए बधइ अभवसिद्धिए, नो भबसिद्धिए नो अभवसिद्धिए बंधइ ? गोयना ! भवसिद्धिए भयवरगीय कर्म क्या संज्ञी बांधते हैं, असंज्ञी बांधते हैं या नोसज्ञी नोअसंज्ञी बांधते हैं ? अहो गौतम ! संज्ञी ज्ञानावरणीय कर्म क्वचित् बांधते हैं व क्वचित नहीं बांधते हैं, असंज्ञी बांधते हैं, परंतु नो संज्ञी नो असंज्ञी नहीं बांधते हैं. ऐसे ही वेदनीय व आयुष्य कर्म छोडकर शेष सब कर्मों का जानना. वेदनीय कर्प संज्ञी असंज्ञी बांधते हैं परंतु नो संज्ञो नोअसंज्ञी क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं. आयुष्य कर्म संज्ञी अज्ञी क्वचित् बांधते हैं व काचित् नहीं बांधते हैं परंतु तो संज्ञी नो असंज्ञी आयुष्य कर्म नहीं बांधते {हैं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! क्या भवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं, अभवसिद्धिक बांधते हैं, या naren नो असिद्धिक बांधते हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिये ज्ञानावरणीय कर्म काचित् ७७२ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथी भाव पंचमांग विवाह पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र नहीं अभवसिद्धिक ॥ ११ ॥ ना० ज्ञानावरणीय किं० क्या च० चक्षुदर्शनीय अ० अचक्षुदर्शनीय आ० अवधिदर्शनीय के० केवलदर्शनीय ॥ १२ ॥ ना० ज्ञानावरणीय किं. क्या ५० प्रर्याप्त अ० अपर्याप्त नो. णाए अभवसिद्धिए बंधइ नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए न बंधइ एवं आउगवजा । सत्तवि, आउगं हेट्रिल्लादो भयणाए, उवरिलो न बंधइ॥११॥नाणावरणं किं चक्खदंसणी बंधइअचक्खुदसणी बंधइओहिदसणी बंधइ केवलदसणी बंधइ ? गोयमा ! हेटिल्ला तिण्णि भयणाए उवरिले ण बंधइ॥ एवं वेयाणजवजाओ सत्तवि, वेयाणजं हट्ठिला तिण्णि बंधइ । बांधते हैं, और क्वचित नहीं भी बांधते हैं अभवसिद्धिये ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं नो भवसिद्धिये । नो अभवसिद्धिये ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते हैं. ऐसे ही आयुष्य छोडकर शेष सब कर्मों का जानना आयष्य कर्म भवसिद्धिक व अभवसिद्धिक क्वचित बांधते हैं व क्वचित नहीं बांधते हैं. परंत नो भवसि-1द्धिक नो अभवसिद्धिक आयुष्य कर्म नहीं बांधते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या ज्ञानाररणीय कर्म चक्ष दर्शनी, अचक्षु दर्शनी, अवधि दर्शनी, या केवल दर्शनी बांधते हैं ? अहो गौतम ! चक्षु, अचक्षु so व अवधिदर्शनी में भजना. और केवल ज्ञानी नहीं बांधते हैं ऐसे ही वेदनीय कर्म छोडकर सातों को का जानना. वेदनीय कर्म चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शनी बांधते हैं. परंतु केवल दर्शनी नहीं । बांधते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या पर्याप्त जीव बांधते हैं अपर्याप्त बांधते हैं. छठा शतक का तीसरा उद्देशा 28 Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ७७४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी नहीं पर्याप्त नो नहीं अपर्याप्त ॥१३॥ ना ज्ञानावरणीय कि०क्या भा० भाषक अ०अभाषक गो गौतम दो० ॥ केवलदसणी भयणाए॥१२॥नाणावराणिज कम्मं किं पजत्तओ बंधइ अपजत्तंओ बंधइनो पजत्तओ नो अपजत्तओ बंधइ ?गोयना ! पजत्तएभयणाए, अपज्जत्तए बंधइ, नो पजत्तए नो अपजत्तए नबंधइ ॥एवं आउगवजाओ, आउगंहेट्ठिला दोभयणाए, उवरिले ण बंधइ । ॥ १३ ॥ नाणाबरणं किं भासए बंधइ अभासए ? गोयमा ! दोवि भयणाए ॥ एवं वेयाणजवज्जाओ सत्त, वेयाणजं भासए बंधइ, अभासए भयणाए ॥ १४ ॥ नाणावरणं किं परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ नो परित्ते नो अपरित्ते बंधइ ? गोयमा ! या नो पर्याप्त नो अपर्याप्त बांधते हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म पर्याप्त जीव क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते , अपर्याप्त बांधते हैं, नो पर्याप्त नो अपर्याप्त नहीं बांधते हैं. ऐसे ही आयुष्य कर्म छोडकर शेष स तो कर्मों का जानना. आयुष्य कर्म पर्याप्त अपर्याप्त बांधते भी हैं और नहीं भी बांधते हैं. नो पर्याप्त नो अपर्याप्त जीव आयुष्य कर्म नहीं बाधते हैं ॥१३॥ अहो भगवन ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या भाषक बांधते हैं व अभाषक बांधते हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म भाषक व अभाषक दोनों क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं ऐसे ही वेदनीय कर्म छोडकर शेष सब कर्मों का जानना. वेदनीय कर्म भाषक बांधते हैं परंतु अभाषक क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं ॥ १४ ॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ७७५ विवाह पग्णत्ति ( भगवती ) सूत्र . दोनोंमें भ० भजना ॥१४॥ ना० ज्ञानावरणीय किं० क्या प० परित अ० अपरित बं० बांधता हैं ॥ १५ ॥ ज्ञानावरणीय किं० क्या आ० मतिज्ञानी मु० श्रुतज्ञानी ओ० अवधिज्ञानी म० मनःपर्यव ज्ञानी के० परित्ते भयणाए, अपरित्ते बंधइ, नो परित्ते नो अपरित्ते न बंधइ एवं आउगवजाआ सत्तकम्मपगडीओ आउए परित्तोवि अपरित्तोवि भयणाए, नो परित्तो नो अपरित्तो नबंधइ ॥ १५ ॥ नाणावरणं किं आभिणिबोहियनाणी बंधइ, सुयनाणी बंधइ, ओहिनाणी, मणपज्जवनाणी, केवलनाणी ? हेटिल्ला चत्तारि भयणाए केवलनाणी न बंधइ, एवं वेयणिज्जवजाओ सत्तवि, वेयणिजं हेटिल्ला चत्तारि बंधइ । अहो भग न् ! परित्त [ अल्प संसारी ] अपरित्त [अनंत संसारी ] नो परित्त नो अपरित्त (सिद्ध ) इनमें तीन में से कौन ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो भगवन् ! परित्त ज्ञानावरणीय कर्म क्वचित् बांधते हैं , व क्वचित् नहीं बांधत हैं, अपरित्त वांधते हैं, और नो परित्त नो अपरित्त नहीं बांधते हैं. ऐसे ही आयुष्य छोडकर सात कम प्रकृातयों का जानना. आयुष्य कर्म की परित व अपरित में भजना है. नो-30 परत नो अपरित आयुष्य कर्म नहीं बांधते हैं ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! क्या मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधि । ज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी व केवलज्ञानी ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो गौतम ! चार ज्ञान वाले क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं. केवल ज्ञानी नहीं बांधते हैं. ऐसे वेदनीय छोडकर सातों । 1-8898.छट्ठा शतकका तीसरा उद्देशा भावार्थ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ शब्दार्थ न केवल ज्ञानी हे नीचे के च० चार में भ० भजना के० केवली न० नहीं ६० बांधते हैं ॥ १६ ॥ म० मति अज्ञानी सु० श्रुत अज्ञानी वि० विभंगज्ञानी ॥ १७ ॥ म० मन योगी २० वचन योगी का. काय केवलनाणी भयणाए ॥ १६ ॥ नाणावरणं किं मति अण्णाणी बंधइ सुयअण्णाणी विभंगनाणी ? गोयमा ! आउगवजाओ सत्तवि बंधइ, आउगं भयणाए ॥ १७ ॥ णाणावरणं किं मणजोगी. बंधइ, वइजोगी बंधइ, कायजोगी, अजोगी बंधइ ? गोयमा ! हेटिला तिणिभयणाए, अजोगी नबंधइ । एवं वेयणिजवजाओ वेयणिज्ज हेट्ठिल्ला बंधति, अजोगी नबंधइ ॥ १८ ॥ नाणावरणं किं सागारोवउत्ते बंधइ अना भावार्थ कर्मों का जानना. चारों ज्ञान वाले वेदनीय कर्म बांधते हैं परंतु केवलज्ञानवाले वेदनीय कर्म क्वचित् बांधते हैं व क्वचित् नहीं बांधते हैं ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! क्या मति अज्ञानी श्रुत अज्ञानी व विभंग ज्ञानी ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो गौतम ! आयुष्य कर्म छोडकर सातों कर्म तीनों अज्ञान वाले वांधते हैं आयुष्य कर्य की उन में भजना रहती है ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! क्या मनयोगी, वचन योगी, काया योगी व अयोगी ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो गौतमः! तीन योग वालों में भजना है और अयोगी नहीं बांधते हैं. ऐसे ही वेदनीय छोडकर शेष सब का जानना. तीन योग वाले वेदनीय बांधते हैं और अयोगी नहीं बांधते हैं ॥ १८ ॥ अहो 1.9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * । । Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७७ शब्दार्थ योगी ॥ १८ ॥ सा० साकारोपयुक्त अ० अनाकारोपयुक्त ॥ १९ ॥ आ• आहारक अ० अनाहारक सूत्र | गारोवउत्ते बंधइ ? गोयमा ! अट्टसुवि भयणाए॥१९॥ नाणावरणं किं आहारएबंधइ अणाहारए बंधइ?गोयमा! दोविभयणाए।एवं वेयणिज्जाउगवजाणं छण्ह, वेयणिजं आहारए बंधइ, अणाहारए भयणाए, आउए आहारए भयणाए, आणाहारए न बंधइ॥ २० ॥ नाणावरणं किं सुहुने बंधइ, बादरे बंधइ, नो सुहुमे नो बादरे बंधइ ? गोयमा ! सुहुमे बंधइ, बादरे भयणाए, नो सुहुमे नो बादरे नबंधइ, एवं आउगवजाओ सत्तवि भावार्थ भगवन् ! साकारोपयुक्त या अनाकारोपयुक्त क्या ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं ? अहो गौतम ! आठों हकर्मों में उन की भजना रहती है ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय क्या आहारिक बांधते हैं या ब, अनाहारिक बांधते हैं ? अहो गौतम ! दोनों में भजना है. ऐसे हो वेदनीय व आयुष्य छोडकर शेष सब का जानना. आहारक वेदनीय बांधते हैं और अनाहारक में भजना है. आयुष्य की आहारक में भजना और अनाहारक नहीं शंधता है ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! क्या सूक्ष्म जीवों ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं, बादर जीवों वांधते हैं या नो सूक्ष्म नो बादर जीवों बांधते है ? अहो गौतम ! सूक्ष्म जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं बादर में भजना है, और नो मूक्ष्म नो बादर नहीं बांधते हैं. ऐसे ही आयुष्य सिवा सब है। ( भगवती ) सूत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति १०: 08छठा शतकका तीसरा उद्देशा Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी २० ॥ सु० सूक्ष्म वा • बादर नो० नहीं सूक्ष्म नो० नहीं बादर ॥ २१ ॥ च० चरिम अ० अचरिम | ॥ २२ ॥ ए० इन मं० भगवन् जी० जीवों में इ० स्त्री वेदी पु० पुरुष वेदी न० नपुंसकवेदी अ० आउ सुहुने बादरे भयणाए, नो सुहुमे नो बादरे नबंधइ ॥ २१ ॥ नाणावरणं किं चरिमे बंधइ, अचरिमे बंधइ ? गोयमा ! अट्ठवि भयणा ॥ २२ ॥ एएसिणं भंते! जीवाणं इत्थवेयगाणं, पुरिसवेयगाणं, नपुंसगवेयगाणं, अवेयगाणय कयरे कयरे ( कर्मों ? का जानना. आयुष्य की दो में भजना और नो सूक्ष्म नों बादर नहीं बांधते हैं ॥ २१ ॥ अहो | भगवन् ! ज्ञानावरणीय क्या चरिम बांधते हैं या अचरिम बांधते हैं ? अहो गौतम ! आठों कर्मों की भजना है || २२ ॥ अहो भगवन् ! स्त्री वेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी व अवेदी में कौन किस से यावत् विशेषाधिक है अहो गौतम ! सत्र से थोडे पुरुष वेदी, इस से स्त्री वेदी संख्यात गुने उस से अवेदी अनंत गुने उस से नपुंसक वेदी अनंत गुने ( २ ) सव से थोडे संयति संयतासंयाते संख्यातगुने नो संयति नो असंयति नो संयतासंयति अनंत गुने व असंयति अनंतगुने (३) सब से थोडे समदृष्टि मिश्र दृष्टि अनंत गुने व मिथ्या दृष्टि अनंत गुने (४) सत्र से थाडे संज्ञी, नो संज्ञी नो असंज्ञी अनंत {गुने, असंज्ञी अनंत गुने (५) सब से थोडे अभवि, नो भवि नो अभाव अनंत गुने, भवी अनंत गुने (६) * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७७८ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अवेदी क० कौन जा. यावत् वि. विशेषाधिक गो. गौतम स० सब से थोडे पु० पुरुषवेदी इ० स्त्रीवेदी | सं० संख्यात गुने अ० अवेदी अ० अनंत गुने न० नपुंसक वेदी अ० अनंत गुने ए० इन स० सब ५० पदकी अ. अल्पाबहुत्व उ० कहना जा० यावत् स० सब से० थोडे अ० अंचरिम च० चरिम अ०१० १ जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुरिस वेयगा, इत्थीवेयगा संखेज्जगुम णा, अवेयगा अणंतगुणा, नपुंसग वेयगा अणंतगुणा ॥ एएसिं सव्वेसिं पयाणं अप्पबहुगाई उच्चारियव्वाइं जाव सवत्थोवा जीवा अचरिमा चरिमा अणंतगुणा ॥ भावार्थ सब से थोडे अवधि दर्शनी, चक्षुदर्शनी असंख्यात गुने, केवल दर्शनी अनंत गुने, अचक्षु दर्शनी अनंत गुने । (७) सब से थोडे पर्याप्त, नो पर्याप्त नो अपर्याप्त अनंत गुने अपर्याप्त अनंत गुने (८) सब से थोडे भाषक, अभाषक अनंत गुने (९) सब से थोडे परित, नो परित नो अपरित अनंत गुने, अपरित अनंत गुने E (१०) सब से थोडे मनःपर्यव ज्ञानी, अवधि ज्ञानी असंख्यात गुने, :मति श्रुति परस्पर तुल्य व विशेषाधिक केवल ज्ञानी अनंत गुने (११) सब से थोडे विभंग ज्ञानी, मति श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य अनंत गुने 00 (१२) सब से थोडे मन योगी, वचन योगी असंख्यात गुने, अयोगी अनंत गुने, काया योगी अनंत गुने । (१३) सब से थोडे साकारोपयुक्त, अनाकारोपयुक्त विशेषाधिक (१४) सब से थोडे आहारक अ- नाहारक असंख्यात गुने [१५] सब से थोडे नो सूक्ष्म नो बादर, बादर अनंत गुने, सूक्ष्म असंख्यात गुने, पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8882 छठा शतकका तीसरा उद्देशा 8%>< Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनंत गुने से० वैसे ही मं० भगवन् छ० छठा स० शतक का त० तीसरा उ ० उद्देशा || ६ || ३ | ato सेवं भंते भंतेति ॥ छट्टु सयरस तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ३ ॥ जीवणं भंते ! काला देसेणं किं सपएसे अपएसे ? गोयमा ! नियमा सपएसे ॥ १ ॥ नेरइएणं भंते ? कालादेसेणं किं सपएसे अपएसे ? गोयमा ! सिय सपएसे सिय अपसे, एवं जाव सिद्धे ॥ २ ॥ जीवाणं भंते कालादेसेणं सपएसा अपएसा ? गोयमा ! (१६) सब से थोडे अचरम, चरम जीव अनंत गुने. अहो भगवन आप के वचन सत्य हैं यह छठा शतक का तीसरा उद्देशा पूर्ण हुआ. ॥ ६ ॥ ३ ॥ X X X + तीसरे उद्देश में जीव का अधिकार कहा आगे भी इन का ही विशेष अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! एक जीव काल आश्री समदेशी है या अप्रदेशी है ? अहो गौतम ! एक जीव काल आश्री सप्रदे देशी है, परंतु अप्रदेशी नहीं है क्यों की जीव की स्थिति अनादि अनंत है ॥ १ ॥ { नरक का जीव काल आश्री सप्रदेशी है या अप्रदेशी है ? अहो गौतम ! नरक का क्वचित् समदेशी व अप्रदेशी है. क्योंकि जिन को उत्पन्न हुए एक समय हुवा है वह अप्रदेशी है। और विशेष समय हुवा है वह सप्रदेशी है ऐसे ही सिद्ध तक सब जीव का जानना ॥ २ ॥ वन् ! बहुत जीव क्या काला देशसे सप्रदेशी हैं या अप्रदेशी हैं ? अहो गौतम ! जीव कालादेश से अहो भग 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अहो भगवन् जीव कालादेश से *_प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्याला ताजे ७८० Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमा सपएसा॥३॥ नेरइयाणं भंते! कालादेसेणं किं सपएसा अवएसा?गोयमा! सव्वेवि ताव होज सपएसा, अहवा सपएसाय अपएसेय, अहवा सपएसाय अपएसाय एवं जाव थणियकुमारा ॥ ४ ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! किं सपएसा अपएसा ? गोयमा! सपएसावि अपएसावि, एवं जाव वणप्फइकाइया, सेसा जहा नेरइया तहा सिद्धा . भावार्थ सप्रदेशी ही हैं क्यों कि सब जीव अनादि हैं ॥३॥ अहो भगवन् ! नरक के बहुत जीव काल आश्री सप्रदेशी हैं या अप्रदेशी हैं ? अहो गौतम ! १ सब जीव सप्रदेशी हैं क्योंकि उत्पात विरह काल पहिले असंख्याते उत्पन्न हुए यह प्रथम भंग. २ पहिले बहुत नारकी उत्पन्न हुवे हैं जिस में एक और उत्पन्न होवे. वह प्रथन समय में उत्पन्न होने से अप्रदेशी है और पहिले उत्पन्न हुए नारकी को उत्पन्न हुए बहुत समय होजाने से सप्रदेशी हैं, इस से बहुत सप्रदेशी व एक अप्रदेशी यह दूसरा भांगा ३ पहिले बहुत जीव उत्पन्न हुए थे जिस में बहुत जीव नविन आकर उत्पन्न हुए इस से बहुत सप्रदेशी व बहुत अप्रदेशी भांगा मीलता है. यों असरकमारादि दश दंडक में तीनों भांगे पाते हैं॥४॥ पचीकायिकादि पांचों }os स्थावर में सप्रदेशी अप्रदेशी दोनों रहें हुचे हैं क्योंकि इस में विरह काल नहीं है. शेष तीन विकले-14 न्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक व सिद्धतक का अधिकार जैसे नरक के सजीवों में तीन भांगे कहे वैसे ही कहना. क्यों कि इस में विरह काल रहा है ॥५॥ अहो भगवन् ! क्या।। विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48862 3 छठा शतक का चौथा उद्देशा Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 3 ॥५॥ आहारगाणं जीवेगिदियवज्जो तिय भंगो, अणाहारगाणं जीवेगिदियवजा छन्भंगा . एवं भाणियन्वा, सपएसावा, अपएसावा अहवा सपएसेय अपएसेय, अहवा सपएसेय । आहारक जीव सप्रदेशी है या अप्रदेशी है ? अहो गौतम ! आहारक जीव क्वचित् सप्रदेशी है व क्वचित् अप्रदेशी है. क्योंकि विग्रहगति या केवली समुद्घात में जीव अनाहारक बनकर जब आहारक होता है तब पहिले समय में अप्रदेशी होता है और दूसरे समय से सप्रदेशी होता है. यह एकवचन सब सादि भाव में कहना. अनादि भाव में नियमा सप्रदेशी रहते हैं. अहो भगवन् ! बहुत आहारक । सप्रदेशी हैं या अप्रदेशी हैं ? अहो गौतम ! बहुत आहारक जीव सप्रदेशी भी हैं और अप्रदेशी भी हैं क्योंकि बहुत जीव आहारकपने बहुत काल से रहे हुवे हैं इसलिये सप्रदेशी और विग्रह गति अनंतर बहुत जीवों को आहारक बनने में एक समय हुवाहै इसलिये अप्रदेशी जानना. जीवपद व एकेन्द्रिय पद छोडकर आहारक जीवों में तीन भांगे पाते हैं. सिद्ध अनाहारक होने से नहीं ग्रहण किये हैं." विग्रहगति प्रतिपन्न व केवली समुद्धातवाले को दो भांगे पाते हैं सप्रदेशी भी होवे और अप्रदेशी भी होवे. अनाहारकके जीवपद व एकेन्द्रियपद में सप्रदेशी अप्रदेशी का एक ही भांगा पाता है इसलिये इसे छोडकर शेष सब अनाहारक में छ भांगे पाते हैं. इस में दो भांगे बहुवचन आश्रित व चार भांगे एक वचन व बहुवचन के संयोग से होते हैं. १ बहुत सप्रदेशी २ बहुत अप्रदेशी ३ एक सप्रदेशी एक अप्रदेशी ४ | प्रकाशक राजाबहादुर लाला-सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ अपएसाय,अहवा सपएसाय अपएसेय अहवा सपएसाय अपएसाय॥सिद्धहिं तियभंगो। भव है सिद्धीय अभवसिद्धीय जहा ओहिया नो भवसिद्धीय नो अभवासद्धीय जीवसिद्धेहिं तिय । भंगो,॥ सन्नीहिं जीवादिओतियभंगो,असन्नीएहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरइयदेव मणु ७८३ भामार्थ समदेशी एक अप्रदेशी बहुत ५ सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी एक ६ सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी बहुत यह छ भांगे जानना. सिद्ध पद में तीन भांगे जानना. भव्यजीव व अभव्य जीव को औधिक जीव की तरह जानना. इन का एक जीव आश्री व अनेक जीव आश्री ऐसे दो दंडक करना. एक जीव आश्री भव्य अभव्य दोनों नियमा सप्रदेशी होवे, और नरकादि दंडक में सप्रदेशी अप्रदेशी दोनों होवे. बहुत भव्य अभव्य जीव सप्रदेशी होवे इसलिये नरकादिक में तीन भांगे होवे. १ बहुत सप्रदेशी २ बहुत सप्रदेशी एक अप्रदेशी ३ बहुत सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी, एकेन्द्रिय में बहुत सप्रदेशी व बहुत अप्रदेशी का भांगा 4 पाता है. सिद्ध भव्य अभव्य नहीं होते हैं, परंतु नोभव्य नोअभव्य होते हैं. इस के बहुत जीव व एक 3 जीव आश्री दो दंडक करना. यह विशेषण मात्र समुच्चय जीवपद व सिद्ध पद ऐसे दो पद में पाता है.g इन में तीन भांगे पाते हैं. संज्ञी के एक जीव व अनेक जीव आश्री दो दंडक हैं उस में अनेक जीव आश्री दंडक के जीवादि पद में तीन भांगे पाते हैं १ संझी जीव कालादेशसे सप्रदेशी है/ क्यों की बहुत काल के उत्पन्न हुए होते हैं २ बहुत सप्रदेशी एक अपदेशी उत्पात विरहा-१, ङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र १०383 14 छठा शतकका चौथा उद्देशा६१३१४ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 408 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एहिं छन्भंगो, नोसन्नि नोअसन्निजीवे मणुयसिद्धेहिं तियभंगो ॥ सलेले जहा ओहिया, कण्हलेस्सा नीललेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ णवरं जस्स अस्थियाओ । नंतर एक की उत्पत्ति का समय और पहिले के उत्पन्न हुए सो ३ बहुत सप्रदेशी बहुत अप्र(देशी. ऐसे ही एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय व सिद्ध छोड़कर सब पद में कहना, क्योंकि उक्त तीनों पद वाले संझी नहीं हैं. असंज्ञी का बहुत जीव आश्रित पृथिव्यादि में बहुत समदेशी बहुत अप्रदेशी एक ही भांगा पाता है. और इस सिवा अन्य सब में तीन भांगे पाते हैं. नरक, भूत्रनपति व वाणव्यंतर में असंज्ञी के संज्ञी होते हैं, इसलिये भूतकाल की अपेक्षा मे संज्ञी को भी असंज्ञी कहे हुवे है. नरकादिकमें असंज्ञीपना क्वचित् होता इस अपेक्षा पूर्वोक्त छ भांगे पाते हैं. ज्योतिषी, वैमानिक व सिद्ध असंज्ञी नहीं होने से ग्रहण नहीं किये गये हैं. नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव के दोनों दंडक में जीव, मनुष्य व सिद्ध ऐसे तीन पद होते हैं. इन तीन पद में बहुत जीव आश्री तीन २ भांगे पाते हैं. सलेशी के जीव ऐसे दो दंडक जानना. दोनों में जीव तथा नरकादिक का औधिक दंडक जैसे | सलेशीपना में जीवपने की अनादि है. सिद्ध अलेशी होने से नहीं ग्रहण किये हैं. कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले के दोनों दंडक आहारक जैसे कहना. नारकी में जिस लेश्या का प्रश्न होवे उसी लेश्या कहना. ज्योतिषी वैमानिक में कृष्णादि लेश्या नहीं होती है. तेजोलेश्या एक जीव व बहुत जानना क्योंकि - प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 826: ७८४ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेउलेस्साए जीवादियओ तियभंगो णवरं पुढविकाइएसु आउवणप्फईसु छन्भंगो, भावार्थ 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र <2882 के दूसरे दंडक में जीवादि पद में तीन भांगे पाते हैं. पृथ्वी, अप, व वनस्पति में पूर्वोक्त छ भांगे कहना l ७८५ नरक, तेउ, वायु, विकलेन्द्रिय व सिद्ध में तेजोलेश्या नहीं होती है इसलिये उन को यहां ग्रहण करना नहीं. पद्म व शुक्ल लेश्या में जीव, तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य व वैमानिक यह चार पद ही पाते हैं इन में पूर्वोक्त तीन भांगे होते हैं. अलेशी के दोनों दंडक में जीव, मनुष्य व सिद्ध ये तीन ही पद पाते हैं. जीव व सिद्ध पद में तीन भांगे व मनुष्य पद में छ भांगे पाते हैं. समदृष्टी के एक जीव बहुत जीव ऐसे दो दंडक. इस के दूसरे दंडक जीवादि में तीन भांगे. विकलेन्द्रिय में छ भांगे क्यों कि विकलेन्द्रिय में साश्चादान सम्यगर दृष्टिवाले कोई पहिले उत्पन्न होते हैं इसलिये सप्रदेश, अप्रदेशपने एकत्व बहुत का संभव होता है. एकेन्द्रिय में समदृष्टी नहीं होने से नहीं लिये गये हैं. मिथ्यादृष्टि के दूसरे दंडक के जीव पद में तीन भांग एकंन्द्रिय में एक भांगा. मिश्रदृष्टी में सब दंडक में छ भांगे. इस में एकेन्द्रिय व सिद्ध नहीं हैं. संयति के दूसरे दंडक में जीवादि पद में तीन भांगे. इस में जीव व मनुष्य ऐसे दो ही पद ग्रहण करना. असंयति के दूसरे दंडक में जीवादि पद में तीन मांगे हैं, एकेन्द्रिय में एक भांगा. संयतासयति के दूसरे दंडक में जीवादि में तीन भांगे, इस में जीव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य यह तीन रद कहना. नोसंयति, नोअसंयति नासंस्तारयति में दूसरे दंडक में जीव व सिद्ध ऐसे दो पद होते हैं. उन में तीन भांगे पाते हैं. सकषायी । 4888 छठा शतकका चौथा - - Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पहले से सुक्कलेस्सोए जवाइओ तियभंगो, अलेस्सहिं जीवे सिद्धेहिं तियभंगों, मणुसु छब्भंगा, ॥ सम्मदिट्ठीहिं जीवादिय तिओ भंगो, विगलिदिएमु छन्भंगा, मिच्छदिट्ठीहिं एगिदियवज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छादिट्ठीहिं छन्भंगा, संजएहिं जीवादिओ तियभंगो, असंजएहिं एर्गिदियवज्जो तियभंगो, संजया संजएहिं तियभंगो, जीवादिओ नोसंजय नोअसंजय नोसंजया संजय जीव सिद्धेहिं तियभंगो ॥ सकसाईहिं{जीव सदैव बहुत अवस्थित रहते हैं इसलिये एक भांगा. परंतु उपशम श्रेणी से भ्रष्ट होते अकषायी बन कर पुनः सकषायी बनते हैं इस से दूसरा भांगा, और उपश्रेणी से बहुत जीव पडके सकषायपने को प्राप्त होते हैं इसलिये तीसरा भांगा. नरकादिक में पूर्वोक्त तीन भांगे. एकेन्द्रिय में एक भांगा. क्रोध कषाय { के दूसरे दंडक में जीवपद व एकेन्द्रियादि पदमें एक भांगा, शेषमें तीन भांगे देव पदमें छ भांगे पावे, मान कषायी व माया कषायी में जीव पद व एकेन्द्रिय पद में एक भांगा. नारकी व में छ भांगे और शेष पद में तीन भांगे. लोभ कषायी क्रोध कषायी जैसे कहना. इसमें नरक में छ भांगे जानना. अकपायी के दूसरे दंडक के जीव, मनुष्य व सिद्ध में तीन भांगे पाते हैं औधिक मतिज्ञान व श्रुतज्ञान के दूसरे दंडक में नीवादि पद में तीन भांगे, विकलेन्द्रिय में छ भांगे. अवधिज्ञान का भी ऐसे ही जानना. परंतु * यहां कोई प्रश्न करे कि सब पद जैसे क्रोध कपायी जीव में तीन भांगे क्यों न होवे ? मान माया व लोभ से निवर्तकर क्रोध कषाय को प्राप्त होने वाले जीव अनेक हैं इस से तीन भांगे न होवे. * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७८६ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 60-6 जीवादिओ तियभंगो, एगिंदिएस अभंगकं, कोहकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, देवेहिं छब्भंगो, माणकसाई माइकसाई जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरइय देवेहिं छब्भंगा, लोभकसाईहिं जीवेगिंदयवज्जो तियभंगो, नेरइएसु छब्भंगा अक्साई जीवम एहिं सिद्धेहिं तियभंगो ओहियणाणे आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे जीवादिओ तियभंगो, विगलिदिएहिं छन्भंगा, ओहिणाणे मणपजवणाणे केवलणा जीवादियओ तियभंगो ओहिए अण्णाणे मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे एगिंदियवज्जो तियभंगो, विभंगणाणे जीवादिओ तियभंगो ॥ सजोई जहा ओहिओ मणजोगि वइजोगि, कायजोगि, जीवादिओ तियभंगो, णवरं कायजोगी एगिंदिया तेसु अभंगकं, इस में विकलेन्द्रिय नहीं कहना. मनःपर्यव ज्ञान के दुसरे दंडक में जीव व मनुष्य में तीन भांगे केवलज्ञान में {जीव, मनुष्य व सिद्ध पदमें तीन भांगे जानना. समुच्चय अज्ञान, मति अज्ञान व श्रुत अज्ञानमें जीवादि पदमें तीन भांगे, पृथिव्यादिक में एक भांगा विभंगज्ञान को अवधि ज्ञान जैसे कहना. सजोगीमें औधिक जीवादिक का कहा वैसे जानना. मनयोगी संज्ञी, वचन योगी एकेन्द्रिय वर्ज कर सब, और काययोगी में सब जीव इन में तीन भांगे पावे. परंतु काययोगी में दूसरे दंडक में एकेन्द्रिय को एक मांगा पावे. अयोगी अलेशी { जैसे कहना. साकारोपयोग व अनाकारोपयोग के दुसरे दंडक में नरकादिक में तीन भांगे. जीत्र पद व १०५ छठा शतक का चौथा उद्देशा ७८७ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृत्र | अजोगी जहा अलेस्सा|सागारोवउत्ते अणागारोवउत्तेहिं जीवांगीदयवजो. तियभंगो सवेयगा जहा सकसाई, इत्थीवेयग पुरिसवेयग नपुंसगेवेयगेसु जीवादिओ तियभंगो णवरं नपुंसगवेदे एगिदिएसु अभंगय, अवेयगा जहा अकसाई ससरीरी जहा ओहि- ७८८ भावार्थ पृथिव्यादि पद में एक ही भांगा कहा. यह एक उपयोग से दुसरे उपयोग में जाना इस आश्री लीया गया है.. सिद्ध को सदाही उपयोग रहा हवा है तथापि साकार अनाकार उपयोग की वारंवार प्राप्ति हे सप्रदेशीपना व एकवार प्राप्ति होने से अप्रदेशी पना जानना. ऐसे बहुत जीव वारंवार पाकारोपयोग को प्राप्त हुवे सो सप्रदेशी एक भांगा, एक ही वक्त साकारोपयोग को प्राप्त हुए सो अप्रेदशी दूसरा भांगा, और वहीं साकारोपयोग एक वार व अनेक वार प्राप्त किया सो तीसरा भांगा, ऐसे ही अनाकारोपयोग का जानना. सवेदी जीव सकषायी जैसे कहना. स्त्री, वेदी परुषवेदी व नपंसक वेदी में जीवादि पद में तीन भांगे, मात्र नपुंसक वेद में एकेन्द्रिय में एक भांगा पावे, पुरुष वेदी व स्त्री वेदी मात्र देव, मनुष्य व तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कहना. नपुंसक वेद में दो दंडक वर्जकर कहना. अवेदी अकषायी जैसे कहना. इस में जीव मनुष्य व सिद्ध ऐसे तीन पद कहना. सशरीरी के दोनों दंडक में जीव सप्रदेशी कहना क्यों की जीवों को शरीर अनादि हैं. नरकादिक में तीन भांगे, एकेन्द्रिय में सप्रदेशी अपदेशी ऐसा एक भांगा, उदारिक * शशि के जीव पद व एकेन्द्रिय पद में तीसरा भांगा और शेष में तीन भांगे होवे. उदारिक शरीर नरक व है। मनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ba छठा शतक 2 ओ ओरालिय वेउब्विय सरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो आहारगसरीरे जीव मणु एमु छब्भंगा, तेयग कम्मगाई जहा ओहिया, असरीरेहिं जीव सिद्धेहिं तियभंगो, ॥ आहार पज्जत्तीए सरीर पजत्तीए इंदियपजत्तीए आणापाण पजत्तीए जीवेगिदियवजो ७८९ तियभंगो, भासामणपजत्ती जहासन्नी आहारअपज्जत्ती . जहा अणाहारगा, सरीर # देवलोक में नहीं है इसलिये यह भांगा नहीं लीया गया है. वैक्रेय शरीर पृथ्वी, अप, तेउ, वनस्पति व विकलेन्द्रिय में नहीं है. चायुकाय में एक भांगा, और शेष में तीन भांगे. आहारक शरीर जीव व मनुष्य अ इन दोनों पद में होवे. आहारक जीव के अल्पपना से इन में छ भांगे मीले. तेजस कार्माण में जीवादिक भावार्थ पद औधिक जैसे कहना. अर्थात् जीवपद में सपदेशी और नारकादि पद में तीन भांगे जानना. एके न्द्रिय में एक तीसरा भांगा. अशरीरी के दूसरे दंडक में जीव व सिद्ध में तीन भांगे. आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, व श्वासोश्वास पर्याप्तिाले जीवों के दूसरे दंडक में जीव व एकेन्द्रिय में एक ही भांगा और शेष नरकादि में तीन भांगे. भाषामन पर्याप्ति संज्ञी जैसे जानना. अर्थात् सबई ४० 60 पद में तीन भांगे कहना. आहार अपर्याप्तिवन्त बहुत जीव विग्रहगति संपन्न होते हैं इसलिये एक भांगा | और अन्य सब स्थान छ भांगे. शरीर अपर्याप्ति, इन्द्रिय अपर्याप्ति, श्वासोश्वास अपर्याप्तिवाले के दूसरे दंडक ७ में जीव व एकेन्द्रिय छोडकर शेष में तीन भांगे. जीव व एकेन्द्रिय में एक भांगा. तरक. देव व 424 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मत्र Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 अपजत्तीए, इंदिय अपज्जत्तीए, आणापाण अपजत्तीए जीवे एगिदियवज्जो तियभंगो नेरइयदेवमणुएहिं छब्भंगा, भासामणअपजत्तीए जीवादिओ तियभंगो, णेरइयदेवमणुएहिं छब्भंगा । सपएसाहारग भविय, सण्णिलेलादिट्टि संजयकसाए ॥ नाणे जोगुवयोगे वेएयसरीर पज्जत्ती॥२॥६॥जीवाणं भंते! किं पच्चक्खाणी अपच्चक्खाणी पच्चक्खाणा पच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणीवि, अपच्चक्खाणीवि, पच्चक्खाणा पच्चक्खाणीवि सव्व जीवाणं एवं पुच्छा ? गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी जाव चरिंदिय सेसा दो पडिसेहेयव्वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणीवि, मनुष्य में छ भांगे. भाषामन की अपर्याप्ति में जीवादि पद में तीन भांगे, नारकी, देव व मनुष्य में छ भांगे. सिद्ध भगवन्त पर्याप्तअपर्याप्त में दोनों नहीं है. अब इनसब का संग्रह गाथा में कहते हैं. २ सप्रदेशी, २ आहारक,३ भव्य ४ संज्ञी, ५ लेश्या, ६ दृष्टि, ७ संयति, ८ कषाय, ९ ज्ञान, १० योग, १२ उपयोग, १२ वेद, १३ शरीर, १४ पर्याप्तिअपर्याप्ति ॥ ६!! अहो भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यानी (मर्व विरति) अप्रत्याख्यानी (अविरति) व प्रत्याख्यानापत्याख्यानी (देश विरति) हैं ? अहो गौतम ! जीव सर्व विरति, अविरति व देश विरति हैं. अहो भगवन् ! नरकादि चौवीस दंडक के जीव प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी व प्रत्याख्याना प्रत्याख्यानी हैं ? अहो गौतम ! नारकी, दशभुवनपति पांच * प्रकाशक-रामावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र पच्चक्खाणापच्चक्वाणीवि, मणयातिण्णिवि, सेसाजहा नेरइया ॥ ७ ॥ जीवाणं भंते ! किं पञ्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाणं जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति ? गोयमा ! जे पंचिंदिया तेतिण्णिवि जाणंति अवसेसा न पच्चक्खाणं जाणंति ॥८॥ जीवाणं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति अपच्चक्खाणं कुव्वंति पच्चक्खाणापच्चक्खाणं कव्वंति ? जहा ओहिया तहा कव्वणा ॥ ९॥ जीवाणं भंते ! किं पच्चक्खाणनिवत्तियाउया, अपच्चक्खाण णिवत्तियाउया पच्चक्खाणापच्चक्खाण णिवत्तियाउया ? गोयमा ! जीवाय वेमाणियाय पच्चक्खाण निवत्तियाउया तिण्णिवि, एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक अपत्याख्यानी हैं. तिर्यंच पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यानी व प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं मनुष्य में तीनों भांगे पाते हैं ॥ ७॥ अहो भगवन् ! क्या a जीव प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, व प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान जानते हैं ? अहो गौतम ! जो पंचेन्द्रिय हैं वे तीनों जानते हैं और शेष जीवों प्रत्याख्यान नहीं जानते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीवga प्रत्याख्यानादि करते हैं ? अहो गौतम ! जैसे औधिक सूत्र कहा वैसे कहना. अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच, व मनुष्य छोडकर सब अप्रत्याख्यानी हैं. मनुष्य तीनों करते हैं और तिर्यंच पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानापत्याख्यान करते हैं ॥९॥ अहो भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यान से, अत्याख्यान से या 2143 छठा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ . . Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ +9 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी किं० क्या इ०यह भं०भगवन् त० तमस्काय प०कहाती है किं० क्या पु० पृथ्वी त० तमस्काय आ० अप् त० तमस्काय गो० गौतम नो० नहीं पु० पृथ्वी त ० तमस्काय प० कहाती है आ० अप् त तमस्काय से० अथ के ० अवसेसा अपञ्चक्खाणनिवत्तियाउया ॥ १० ॥ गाहा-पच्चक्खाणं जाणइ, कुव्वंति तेणेव आउनिव्वत्ती ॥ सपएसुद्देसंमिय, एमेए दंडगा चउरो ॥ भंतेति ॥ छट्ठ सयस्स चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ४ ॥ किमियं भंते ! तमुकाएति पवृच्चइ, किं पुढवी तमुकाएत्ति, पवुच्चइ, आउतमुकाएत्ति पgs, ? गोयमा ! नो पुढवि तमुकाएत्ति पवच्च३, आउतमुकाएत्ति पवुच्चइ, से १ ॥ सेवंभंते X X { प्रत्याख्याना प्रत्याख्यान से आयुष्य का बंध करते हैं ? अहो गौतम ! जीव प्रत्याख्यानादि तीनों प्रकार { से वैमानिक का आयुबंध करते हैं शेष अप्रत्याख्यान से आयुर्वेध करते हैं ॥ ८ ॥ प्रत्याख्यानी { हैं, प्रत्याख्यान जानते हैं, प्रत्याख्यान करते हैं, व प्रत्याख्यान से आयुर्वेध करते हैं यह चार दंडक (उक्त प्रदेशात्मक उद्देशे में विशेष कहे हैं. यह छठ्ठा शतक का चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ६ ॥ ४ ॥ चौथे उद्देशे में जींव के समदेशपने का कथना किया. पाचवे उद्देशे में तमस्कायं का स्वरूप कहते हैं. तमिस्र पुलों की राशि सो तमस्काय. अहो भगवन् ! क्या पृथ्वी को तमस्काय कहते हैं, या पानीको * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ७९२ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ सत्र पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8-8+ भावार्थ | कसे गो गौतम पु० पृथ्वीकायिक अ० कितनेक सु० शुभ देश को पत्रकाशित करते हैं. अ० कितनेक दे देश को नो० नहीं प० प्रकाशित करते हैं ते. इसलिये ॥ १॥ स० तमस्काय भ० भगवन क० कहां स. उत्पम हुई क० कहां सं० रही गो० गौतम जं० जम्बूद्वीप की ब० बाहिर ति तीर्छ अ014 केणटेणं ? गोयमा ! पुढविकाएणं अत्थगइए सुभे देसं पकासेइ अत्थेगइए देसं नो । पकासेइ से तेणटेणं ॥१॥ तमुकाएणं भंते ! कहिं समुट्ठिए कहिं संनिट्टिए ? गोयमा! जबुहीवस्स २ बहिया तिरिय मसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता, अरुणवरस्स तमस्काय कहते हैं ? अहो गौतम ! जो तमस्काय है वह पृथ्वी का परिणाम नहीं है परंतु पानी का परिणाम है इसलिये पृथ्वी को तमस्काय कहना नहीं, परंतु पानी को तमस्काय कहना. अहो भगवन् ! किस कारण से पृथ्वी को तमस्काय नहीं कहना परंतु पानी को तमस्काय कहना ? अहो गौतम ! पृथ्वीकाया के मणि आदि कितनेक स्कंध भास्वरपना से विवक्षित क्षेत्र में प्रकाश करते हैं, और कितनेक पृथ्वीकाधिक देशपृथ्वीकायांतर प्रकाशने योग्य होने पर भी अभास्त्ररपना से प्रकाश नहीं करते हैं." अफ्काय में अप्रकाशकपना रहा हुषा है वैसे ही तमस्काय में भी अप्रकाशकपना रहा हुवा है. इस से | अप्काय परिणामवाली तमस्काय रही हुई है ॥ १॥ अहो भगवन् ! तमस्काय कहां से उत्पन्न हुई है व कहां रही हुई है ? अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप से बाहिर असंख्यात ड्रीप समुद्ध उलंय कर जावे व 80% छठा शतकका पांचवा उद्देशा 42 8 Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {असंख्यात दी० द्वीप समुद्र वी०व्यक्तिकान्त करते अ० अरुणवर द्वीपकी वा० बाहिर की वे ० वेदिका से अ० { अरुणोदय स० समुद्र को बा० बीयालीस जो० योजन सहस्र उ० अवगाहकर उ० उपर के ज० जल के अंत से ए० एक प्रदेश की से० श्रेणीसे त。 वहां त० तमस्काय सर्व उत्पन्न हुई स० सत्तरह इ० इक्कीस जो० योजन सहस्र उ० ऊर्ध्व उ० जाकर त० उस प० पीछे ति० तीच्छ प० विस्तृत होती हुई सो० { सौधर्म ई० ईशान स० सनत्कुमार म० माहेन्द्र च० चारों क० कल्प को आ० ढककर उ० ऊर्ध्व । दीवस बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीस जोयण सहस्साि उग्गाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एग पदेसियाए सेढीए तत्थणं तमुकाए समुट्ठिए सत्तर एक्कवीसे जोयणसए उट्टं उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे २ अरुणवरद्वीप आता है, उस अरुणवरद्वीप की बाहिर की वेदिका से ४२ हजार योजन दूर अरुणवर { समुद्र में जावे वहां पानी के उपर अंतिम विभाग की एक प्रदेश की + श्रेणी में से तमस्काय नीकली हुई है वहां से १७२१ योजन ऊंची जाकर तीच्छी विस्तृत होती हुई सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार व माहेन्द्र इन सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक - लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ÷ यहां प्रदेश शब्द से आकाश का मात्र एक प्रदेश ग्रहण करना नहीं, क्योंकि एक प्रदेश में अकाय नहीं ठहर सकती है. षरंतु जैसे एक प्रदेश में साधु समोसरे अर्थात् थोडे क्षेत्र में रहे, वैसे ही यहांपर एक प्रदेश का कथन किया है. अर्थात् थोडा क्षेत्र जानना. * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७९४ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 42 पंचमाङ्ग विवाह पण्णारी ( भगवती ) सूत्र 4 जा० यावत् बं० ब्रह्म क० देवलोक में रि० रिष्ट विमान प० प्रस्तर को सं० प्राप्त ए० यहां त० तमस्काय सं० रही हुई है. ॥ २ ॥ त तमस्काय मं० भगवन् किं० क्या सं० संस्थित अ० नीचे म० ( सरावले के मू० मूलस सं० संस्थित उ० ऊपर कु० कूर्कट का पं० पिंजरे से मं० संस्थित ॥ ३ ॥ ततम स्काय मं० भगवन् के० कितनी वि० चौडाई से के० कितनी प० परिधि से प० मरूपी गो० गौतम दू०१७ सोहम्मीसाणसणं कुमारमहिंदे चत्तारिवि कप्पे आवरेत्ताणं उद्धुं पियणं जाव बंभलोए कप्पे रिट्ठविमाणपत्थ संपणे एत्थणं तमुकाए संनिट्ठिए ॥ २ ॥ तमुकाएणं भंते! किं संठिए ? गोयमा ! अहेमलगमूलसंठिए, उप्पि कुक्कुडगपंजरग संठिए पण्णत्ते ॥ ३ ॥ तमुकाएणं भंते ! केवइयं विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पणते ? गोयमा दुविहे पण्णत्ते तंजहा - खखेज्जवित्थडेय, असंखेज्जवित्थडेय । तत्थणं चारों देवलोक को घेर कर पांचवे ब्रह्मदवलोक में रिष्ट नामक तीसरी प्रतर में उस के विमानतक गइ हुई है. और वहां परही तमस्काय स्थिर रही हुई है || २ || अहो भगवन् ! तमस्काय का कौनसा संस्थान है? अहो गौतम ! नीचे सरावले के संपुट का आकारवाली है और उपर मूर्गे के पिंजर का आकारवाली ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! तमस्काय चोडाइ में कितनी है, व परिधि में कितनी है ? अहो गौतम ! तम 44 छठ्ठा शतकका पांचवा उद्देशा +4 ७९५ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दार्थ Anandane 42 अमुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी दोपकार की प० प्ररूपी २० वह ज. यथा सं० संख्यात विस्तार काली . असंख्यात विस्तार वाली तः उस में जे० जो सं० संख्यात विस्तार वाली से वह सं० संख्यात जो० योजन स. सहस्त्र वि० चौडाइ से अ० असंख्यात जो० योजन सहस्र ५० परिधि से त. उस में जे० जो अ० असंख्यात वि०विस्तार वाली अ. असंख्यात जो० योजन स. सहस्त्र वि० चौडाइ में अ. असंख्यात जो० योजन सहस्र प. परिधि में ॥४॥त. तमस्काय भं. भगवन् के० कितनी मा बडी अ० इस जं०जम्बूदी जे से सखेजवित्थडे सेणं संखजाइ जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखजाई जो. यणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते तत्थणं जे से असंखजवित्थडे सेणं असंखेजाइं जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं असंखजाई जोयण सहस्साई परिक्खेवणं प०॥४॥ तमुकाएणं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयणं जंबूद्दीने हीवे सव्व दीव स्काय का विस्तार दो प्रकार का है। संख्यात योजन का विस्तार व २असंख्यात योजन का विस्तार. जहां संख्यात योजन का विस्तार है वहां उस की चौडाइ संख्यात सहस्र योजन की है और परिधि असंख्यात सहस्रयोजन की है. जहां असंख्यात योजन का विस्तार है वहां असंख्यात योजन महस्र की चौडाइ है: असंख्यात योजन सहस्त्र की परिधि है॥४॥ अहो भगवन् ! तमस्काय कितनी बडी कही? अहो गौतम प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ। स० सब दी० द्वाप स. समुद्र की स० सत्र आभ्यतर जा. यावत् १० परिधि में १० कहा दे० देश ७०म० महार्दिक जा. यावत् म. महानुभाग इ० अभी ति० पेसा क० करके के० में पूर्ण ज. जम्बूद्वीप ती. तीन अ० चपुष्टिका नि० कीहुई ति० एक्कीसवार अ० परिभ्रमण करके ह• शीघ्र आ० आत्रे से उस दे० देवता की उ० उत्कृष्ट तु० त्वरित जा. यावत् दे. देवगति से वी० जातेहुए जा० यावत् ए. एक अ.दिन दु० दो दिन ति तीन दिन उ० उत्कृष्ट छ छमास वी० जावे अ.कितनेक ततमस्काय वि. समुद्दाणं सव्वन्भंतराए जाव परिक्खेवणं पण्णत्ते, देवेणं महिठ्ठीए जाव महाणुभावे इणामेव २ त्तिकटु केवलकप्पं जबुद्दीवं दीवं तीहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखत्तो अणुपरियाहत्ताणं हब्वमागच्छेजा, सेणं देवत्ताए उकिट्टाए, तुरियाए जाय देवगईए बीईवयमाणे जाव एकाहंवा दुयाहं तियाहंवा उक्कोसेणं छम्मासे वीईवएजा अत्थेगइए तमु. भावार्य द्वीप समुद्र में यह जम्बूदीप बहुत छोटा, व आभ्यंतर है इस की पगिध तीन लाख सोलह हजार दोसो अठाइस योजन से कुछ कम की है. इस को कोई महर्दिक यावत् महानुभाग देव तीन चपटी बजावे इतने काल में इलावीस वक्त फीरे ऐसी उत्कृष्ट, त्वरित यावत देवगति से एक दिन, दो दिन, तीन दिन याक्त छ मास पर्यंत फीरे तब संख्यात योजन के विस्तारवाली तमस्काय को उत्तीर्ण होजाते हैं परंतु असंख्यात पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती) 384हा शतक का पवित्रा उद्देशा- 8 82 - Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ७९८ शब्दार्थ उल्लंघे अ० कितनेक नो० नहीं वा० उल्लंथे ए. यह म० ऊचाइ गो• गातम त० तमस्काय प० प्ररूपी PF ॥५॥ अ० है भं० भगवन त० तमस्काय गे० गृह गे• दुकान नो० नहीं इ० यह अ० अर्थ स. योग्य 14 अ. है भं० भगवन् त० तमस्काय गा० ग्राम जा० यावत् सं० सन्निवेश नो० नहीं इ० यह अर्थ स०१ सपर्थ ॥ ६॥ अ० है भ० भगवन् त० तमस्काय उ० प्रधान व० मेघ से० झरे स० उत्पन्न होवे वा० वर्षा वा० वर्षावे हं० हां अ० है तं० उसे भ० भगवन किं० क्या दे देव प० करते है अ० असुर प०१ कायं वीईवएजा अत्थेगइएतमुकायं नो वीइवएज्जा, ए महालएणं गोयमा! तमुकाएपण्णत्ते ॥५॥अत्थिणं भंते! तमुकाए गेहाइवा गेहवणाइवा? णोइणट्टे समढे॥अत्थिणं मंते! तमुकाए गामाइवा जाव सन्निवेसाइवा ? णो इणटे समटे ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! तमुकाए उराला वलाहया सेसंयंति समुच्छंति वासं वासंति ? हंता अत्थि, तं भंते ! किं देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, नागो पकरेइ ? गोयमा ! देवोवि पकरेइ असुरोवि पकरेइ, JE योजनवाली तमस्काय को उत्तीर्ण नहीं हो सकते हैं. अहो गौतम ! तमस्काय इतनी बडी कही है ॥ ५॥ अहो भगवन् ! क्या तमस्काय में गृह, दुकान, ग्राम, या नगर के आकार हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ ६॥ अहो भगवन ! तमस्काय में बहुत बडे मेघ स्नेह उत्पन्न करते हैं, पुद्गलों 10 उत्पन्न होते हैं. और वर्षा वर्षती है ? हां गौतम ! याक्त् वर्षा वर्षती है. अहो भगवन् ! क्य * अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र करते हैं ना० नाग प० करते हैं गो० गौतम दे० देव करते हैं अ० असुर करते हैं ना० नाग करते ॥ ७ ॥ अ० है मं० भगवन् त० तमस्काय में बा० बादर थ० स्थनित स० शब्द वा० बादर वि० विद्युत् ६० हां अ० है ॥ ८ ॥ अ० है ० भगवन् त० तमस्काय बा० बादर पु० पृथ्वी काय बा० बादर अ० अग्निकाय गो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ न० नहीं अ० अन्य वि० विग्रहगति ॥ ९ ॥ अ० है ० भगवन् त० तमस्काय चं० चंद्रमा सू० सूर्य ग० ग्रह ग० समुह ण० नक्षत्र ता० नागोवि परेइ ॥ ७ ॥ अस्थि भंते ! तमुकाए बादरे थणियस बादरविज्जुयाए ? हंता अत्थि, तं भते ! किं देवो पकरेइ ? तिणिवि पकरे इ ॥ अत्थिणं भते ! तमुका बादरे पुढवीका बादरे अगणिकाए ? णोइणट्ठे समट्ठे || णण्णत्थ विग्गहगइसमावब्णाएणं ॥९॥ अत्थिणं भंते! तमुकाए चंदिम सूरिय गहगणनक्खत्त तारा व नाग करते हैं. ? अहो गौतम ! देव, असुर व नाग तीनों ही तमस्काय में क्या बादर शब्द व वादर विद्युत होते हैं ? हां गौतम ! शब्द होते हैं, अहो भगवन् ! उसे क्या देव, असुर व नाग के देवों करते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! तमस्काय में बादर) अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् उस में बादर वह वर्षा देव करते हैं, असुर करते हैं वर्षा करते हैं || ७ || अहो भगवन् बादर विद्युत् व वादर ! तमस्काय करते हैं ? अहो गौतम ! तीनों जाति (पथ्वीकाय व बादर ते काय क्या है ? छठ्ठा शतकका पांचवा उद्देशा ७९९ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र तारारूप नो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ५० चारो तरफ अ० है भ० भगवन् त० तपस्काय में चं० चंद्रकी भा० कान्ति सू० सूर्य की भा० कान्ति णो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ दु० दुषनीक पु० पुनः सा. वह ॥ १० ॥ तक तमस्काय भ० भगवन् के० कैसा 40 वर्ण से गो० गौतम का० काली का० काली कान्ति गं० गंभीर लो० रोमहर्ष की उत्पति भी० रौद्र उ० त्रास उत्पन्न करने वाली प० परम कि. रूवा ? णो इणटे समटे पलियस्सओ पुण अस्थि । अत्थिणं भंते ! तमुकाए चंदाभाइवा, सूराभाइवा ? णोइण? समटे का दूसणिया पुण सा ॥ १०॥ तमुकाएणं भेते ! केरिसए वण्णेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! कालो, कालोभासे, गंभरिलोमहपृथ्वीकाय व चादर अनिकाय नहीं है. मात्र बादर पृथ्वीकाय के जीव आयुष्य पूर्ण होने पर तमस्काय में से जाते हैं. बादर अनिकाय मात्र मनुष्य लोक में है ॥ ९॥ अहो भगवन् ! समस्काय में चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारे रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अर्थात् तमस्काय में ज्योतिष. चक्र नहीं है परंतु उस की आसपास रहा हुवा है. अहो भगवन् ! तमस्काय में क्या चंद्र व सूर्य की 13 प्रभा है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्योंकि अढाइद्वीप की बाहिर चंद्र सूर्य स्थिर है। और उन पुद्गलों को चंद्र सूर्य की प्रभा दूषित होती है ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! तमस्काय का वर्ण कौनसा कहा ? अहो गौतम ! तमस्काय का वर्ण काला, काली प्रभावाला, गंभीररोमकम्पहर्षउत्पन्न का 48 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी बालाप्रसादजी भावार्थ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ कृष्ण व वर्ण से प० प्ररूना दे० देव अ० कितनेक जे० जो त० उसको प० पहिले प० देखकर ख० क्षुब्ध होत्रे अ० अथ अ० प्राप्त होने त० उस की १० पीछे सी० शीघ्र तु० त्वरित खि० शीघ्र ही बी० { व्यतिक्रान्त करे ।। ११ ।। त० तमस्काय के मं० भगवन् क० कितने ना० नाम प० कहे गो० गौतम १ ते ० तेरह ना० नाम प० कहे तं० वह ज० यथा त० तम त० तमस्काय अं० अंधकार म० महांधकार लो०) लोकांधकार लो० लोक तमिस्र दे० देवांधकार दे० देवतमिस्र दे० देवअरण्य वे० देवव्युह दे० देवफलिह दे० रिसजणणे, भीभे, उत्तासणए, परमकिण्हे वण्णेणं पण्णत्ते । देवेविणं अत्थेगइए जेणं तप्पढभयाए पासित्ताणं खब्भाएजा, अहेणं अभिसमागच्छेजा, तओ पच्छा सहिं २ तुरियं २ खिप्पामेत्र बीईएजा ॥ ११ ॥ तमुकायरसणं भंते! कइ नामधेजा पण्णत्ता ? गोयमा ! तेरस णामधेजा पण्णत्ता, तंजहा तमेइवा, तमुकाएइवा, अंधकारइवा, महंधकारइवा, लोगंधकारेइवा, लोगतमिसेइवा, देबंधकारेइवा, देवतमिसेइवा, देवरण्णेकरनेवाला, भयंकर, त्रास उत्पन्न करे वैसा व परम कृष्ण कहा है. कितनेक देव भी उस को पहिले देखकर क्षुभित होते हैं. फीर तस्काय में प्रवेश करके शीघ्र त्वरित गति से उसे उल्लंध जाते हैं। ॐ ३ ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! तमस्काय के कितने नाम कहे हैं ? तमस्काय के तेरह नाम अहो गौतम ! ( कहे हैं. १ तम २ तमस्काय ३ अंधकार ४ महा अंधकार ५ लोकांधकार ६ लोक तमिस्र ६ देवांधकार 4983 पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती ) 4 4340 छठ्ठा शतक का पांचवा उद्देशा -* ८०१ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी देवप्रतिक्षोभ अ० अरु गोदय स० समुद्र ॥ १२॥ त तमस्काय भ० भगवन् किं. क्या पु० पृथ्वीपरि-* णाम जी० जीव परिणाम आ० अप्परिणाम पो० गुगल परिणाम गो० गौतम नो० नहीं पु० पृथ्वी परिणाम आ० अप्परिणाम जी० जीव परिणाम पो० पुद्गल परिणाम ॥ १६ ॥ त० तमस्काय भ० भगवन् ! स० सब पा. प्राण भू० भून जो० जोर स० मत्त्व पु० पृथ्वी कायपने जा. यावत् त० त्रसकाय पने .. इवा, देववूहेइवा, देवफालिहेइवा, देवपडिक्खोभेइवा, अरुणोदएइवा, समुद्दे ॥ १२॥ तमुकाएणं भंते ! किं पुढधि परिणामे, जीव परिणामे, आउपरिणामे पोग्गल परिणामे ? गोयमा ! नो पुढवि परिणामे आउपरिणामेवि, जीव परिणाभेवि, पोग्गल परिणामेवि, ॥ १३ ॥ तमुकाएणं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। ८ देवतमिस्र ९ देव अरण्य १० देव व्यूह ११ देव फलसा १२ देव प्रतिक्षोभ व १३ अरुणोदय ॥ १२ ॥१॥ अहो भगवन् ! तमस्काय क्या पृथ्वीपरिणामवाली, पानी परिणामवाली, जीव परिणामवाली व पुद्गल परिणामवाली है ? अहो गौतम ! तमस्काय पृथ्वी परिणामवाली नहीं है अपितु पानी, जीव व पुद्गल परिणामवाली है ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! तमस्काय में पृथ्वीकाय यावत् त्रसकायपने सब प्राण भूत जीव व सत्व पहिले क्या उत्पन्न हुए! हां गौतम ! सब प्राण, भूत, जीव व सत्व अनेक बार व wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww प्रकाशक-राजावहादर लाला मुखदंवसहायजी ज्वालामसाइजा. भावार्थ el Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उ• उत्पन्न पूर्व हं हां गो० गौतम . अनेक बार अ० अथवा अ. अनंतयार णो नहीं बावादर ५० पृथ्वी कायपने बा० बादर अग्निकायपने ॥ १४ ॥क० कितमी भं० भगवन् क. कृष्णराजियों प०१00| 0७ प्ररूपी गो गौतम अ० आठ क० कृष्णराजियों ५० प्ररूपी क कहां भ० भगवन ए. यह अ० आठ क. कृष्णराजियों प० प्ररूपी गो गोतम उ ऊपर स. सनत्कुमार मा० माहेन्द्र क. देवलोक में हि० नीचे बं० ब्रह्मलोक क० देवलोक में रि० रिष्ट वि० विमान ५० प्रस्तर ए. यहां अ० अखाडा के सं० णो चेवणं बादर पुढविकाइयत्ताए, बादर अगणिकाइयत्ताए ॥ १४ ॥ कइणं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कण्हराईओ पण्णत्ताओ कहिणं भंते ! एया अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! उप्पिं सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हिट्टि बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणे पत्थडे एत्थणे अक्खाडग समचउरंस संठाण संठियाओ अट्टराईओ पण्णत्ताओ, तंजहा पुरच्छिमेणं दो, पच्चत्थिमणं दो, दाहिणणं दो, उत्तरेणं दो, पुरच्छिमभंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं अनंत वार उत्पन्न हुए, परंतु बादर पृथ्वोकाय व बादर अनिकायपने नहीं उत्पन्न हुए, क्योंकि उन की उत्पत्ति का वहां अभाव है ॥ १४ ॥ तमस्काय के समान रंगवाली कृष्णराजी है इस से कृष्णराजी का प्रश्न फूछते हैं. अहो भगवन् ! कृष्णरानी कितनी कही? अहो गौतम ! कृष्णराजी आठ कहीं अहो भगवन् ! 488 पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भागाती) मूत्र 889 छठा शतकका पांचवा उद्देशा 988 Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ शब्दाथ कसप चतुत्र सं० मंठाण से सं० रही हुई अ० आठ रा० राजियों ५० प्ररूपी पु० पूर्व में दो दो प०पश्चिम में दो० दो दा दक्षिण में दो दो उ. उत्तर में दो० दो पू० पूर्व की अ. आभ्यंतर क. कृष्णराजी : दा० दक्षिण की वा० बाहिर की क० कृष्णराजी को पु० स्पर्शी हुई दा० दक्षिण की अ० आभ्यंतर क. कृष्णराजी ५० पश्चिम की वा० बाह्य कः कृष्णराजियों छ० छकौने वाली दो दो पु० पूर्व प• पश्चिम कण्हराइं पुट्ठा, दाहिणभंतरा कण्हराई पच्चाच्छम बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा पञ्चत्थिमन्भं तरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्टा, उत्तरभंतरा कण्हराई पुराच्छमबाहिरं __ कण्हराई पुट्ठा, दो पुरच्छिम पञ्चाच्छिमाओ बाहिराओ कण्हराईओ छलंसाओ, दो। उत्तरदाहिणबाहिराओ कण्हराईओ तंसाओ, दो पुराच्छमपञ्चच्छिमाओ अब्भंतरा ओ कण्हराईओ चउरंसाओ, दो उत्तर दाहिणाओ अभंताराओ कण्हराईओ चउरं भावार्थE कृष्णराजी कहां कही ? अहो गौतम ! सनत्कुमार माहेन्द्र देवलोक की उपर व ब्रह्मदेवलोक की नीचे . रिष्ट विमान प्रस्तर में अखाडे के समान समचउरंस संठाणो रही हुई हैं. पूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण में दो. उचर में दो. पूर्व की आभ्यंतर कृष्णराजी दक्षिण की बाह्य कृष्णराजी को स्पर्शकर रही हुई है, दक्षिण की आभ्यंतर कृष्णराजी पश्चिम की बाह्य कृष्णराजी को स्पर्शकर रही. है पश्चिम की आभ्यंतर कृष्णराजी उत्तर की वाघ कृष्णराजी को स्पर्शकर रही है और उत्तर की आभ्यंतर कृष्णराजी पूर्व की 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwww शब्दार्थ 43 उनर द० दक्षिण की बा० बाहिर की क० कृष्णराजी तं० तीनकौने वाली दो० दो पु. पूर्व 341 ० १५० पश्चिम की अ० 'आभ्यंतर क० कृष्णराजी च० चौरस ॥ १५ ॥क० कृष्णराजियों भं. भगवन् 180 के० कितनी आ० लम्बाइ में के कितनी वि० चौडाइ में के० कितनी प० परिधि में गो० गौतम, अ. असंख्यात जो० योजन सहस्र आ० लम्बाइ में सं० संख्यात जो० योजन सहस्र वि० चौडाइ में भं० अंसख्यात जो योजनसहस्र प० परिधिमें प० कही ॥१६॥ क• कृष्णराजियों में भगवन् के० कितनी साओ, ॥ पुवावरा छलंसा, तंसापुण दाहणुत्तराबज्झा ॥ अवसेसा चउरंसा, सव्वाविय कण्हराईओ ॥ १ ॥ १५ ॥ कण्हराईओणं भंते ! केवइयं आयामेणं केवइयं विक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयण सहस्साई आयामेणं, संखेज्जाइं जोयण सहस्साई विक्खंभेणं,असंखजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ ॥१६॥ कण्हर्राईओणं भंते ! के महालियाओ पण्णत्ताओ ? भावार्थ. बाह्य कृष्णराजी को स्पर्शकर रही है. पूर्व पश्चिम की बाह्य दो कृष्णराजीयों छ कौनेवाली हैं, उत्तर दक्षिण की बाहिर की दो कृष्णराजीयों त्रिकोनाकार हैं, पूर्व पश्चिम की आभ्यंतर दो कृष्णराजीयों चौरस हैं,00 70 वैसेही उत्तर दक्षिण की दोनों आभ्यंतर कृष्णराजीयों चौरस हैं॥१५॥ अहो भगवन् ! कृष्णराजीयों लम्बाई चौडाई व परिधि में कितनी कहींहैं? अहो गौतम कृष्णराजीयों असंख्यात योजनकी लम्बी, संख्यात योजन सहस्र की चौडी, व असंख्यात योजन सहस्र की परिधिवाली हैं ॥६॥ अहो भगवन् ! कृष्णराजीयों ~ 48-49 पंचमांग विवाह पण्पत्ति ( भवगती) सूत्र छठा शतक का पांचवा उद्देशा 8-SP Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थ * म. वडी प० कही गो० गौतम अ० यह जं० जम्बूद्वीप जा. यावत् अ० आठ मास वी० व्यतीत होवे अ० कितनीक क. कृष्णराजियों वी० उल्लंघाचे अ० कितनीक क. कृष्णराजियों णो नहीं वी० उल्लंघावे ए०१ यह म० घडी गो० गौतम क० कृष्णराजियों प० प्ररूपी ॥ १७ ॥ अ० है भं० भगवन् क० कृष्णराजियों में गे गृह गे० दुकानों णो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ अ है भं० भगवन् क • कृष्णराजियों में गा० LEग्राम जा. यावत स० सन्निवेश णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ॥ १८ ॥ अ० है भं० भगवन् क ब गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे जाव अट्ठमासं वीईवएज्जा, अत्थगइए कण्हराई वीई वएज्जा अत्थेगइए कण्हराई णो वीईवएजा, ए महालियाओ गोयमा ! कण्हराईओ ___पण्णत्ताओ ॥ १७ ॥ अत्थिणं भंते ! कण्हराईसु गेहाइवा गेहवणाइवा ? णोइणटे समट्टे ॥ आत्थिणं भंते ! कण्हराईसु गामाइवा जाव साण्णवेसाइवा ? णोइणटेसमटे कितनी बडी कही हैं ? अहो गौतम ! कोई देव तीन चप्पटिका में इस जम्बूद्वीप की आसपास इक्कीस वक्त परिभ्रमण करे ऐसी शीघ्र दीव्य देवगति से कृष्णराजि में आठ मास तक चले तब कितनीक कृष्णराजि को अतिक्रमे और कितनीक कृष्णराजियों को अतिक्रमे नहीं. अहो गौतम ! इतनी बडी कृष्णराजिर कहीं हैं ॥१७॥ अहो भगवन् ! इन कृष्णराजियों में गृह, दुकानों, ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? अहो गौतम? कइन में गृह यावर सन्निवेश नहीं हैं ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! कृष्णराजियों में क्या बडे २ मेघ वगैरह हैं ? 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > 1 कृष्णराजियों में उ० बादर व० मेघ सं० संस्वेद हं. हां ० है तं० उसे भ० भगवन किं. देव गो०१ To गौतम देव प० करते हैं नो० नहीं अ० असुर नो० नहीं ना० नाग अ० है ० भगवन् क. कृष्णरा जियों में ब० बादर थ० गर्नना ज० जैसे उ० बडे त• तैसे ॥ ११ ।। अ० है भं० भगवन् क० कृष्ण राजियों में बा० धादर आ० अप्काय वा० बादर अ० अग्निकाय बा० बादर व० वनस्पतिकाय णो०१६ | ॥१८॥ आत्थिणं भंते ! कण्हराईसु उरालाललाहया संसेयंति ३ ? हंता अस्थि ॥ तं भंते ! किं देवो ३ ? गोयमा ! देवो पकरेइ नो असुरो नो नाओ । अत्थिणं भंते ! कण्हराईसु बादरे थाणियसद्दे २ ? जहा उराला तहा ॥१९॥ आत्थिणं भंते ! कण्ह राईसु बायरे आउकाए बायरे अगणिकाए,बायरेवणप्फइकाए ? णोइणढे सम?॥णण्णभावार्थ हां गौतम ! बडे २ मेघ रहे हुवे हैं. अहो भगवन् ! उन्हे क्या देव करते हैं, असुर करते हैं या नाग करते हैं ? अहो गौतम ! उन मेघको देव बनाते हैं परंतु असुर व नाग नहीं बनाते हैं. अहो भगवन् ! कृष्णराजियों में क्या बादर गर्जना व बादर विद्युत् है ? हां गौतम ! उस में बादर गर्जना व बादर ॐ विद्युत् है, और उन्हे देव बनाते हैं. परंतु असुर व नाग जाति के देव नहीं बनाते हैं. क्योंकि उन का वहां गमन नहीं है ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में बादर अप्काय, अग्निकाय व वनस्पति 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 882 छा शतक का पांचवा उद्देशा 988 Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवदिक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी { नहीं इ० यह अर्थ त० समर्थ ण० नहीं अ० अन्यत्र वि० विग्रहगति स० समापन ॥ २० ॥ अ० है भं० { भगवन् चं० चंद्र सू० सूर्य जो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ अ० है मं० भगवन् क० कृष्णराजियों में (च० चंद्र की कान्ति नो० नहीं इ० यह अर्थ स०योग्य ॥ २१ ॥ क० कृष्णराजियों का भं० भगवन् के ० { कैसा व० वर्ण प० कहा का काला जा० यावत् खिं० शीघ्र वी० व्यतिक्रान्त होवे ||२२|| क० कृष्णराजियों त्थं विग्गहगइसमावण्णएणं ॥ २० ॥ अत्थिणं भंते ! चंदिम सूरिम ? णो इणट्ठेसम || अथ कहराईसु चंदाभाइ २ वा ? गोइणट्ठे समट्ठे ॥ २१ ॥ कण्हराईणं भंते ! केसियाओ वण्णेणं पण्णत्ताओ ? गोयमा ! कालाओ जाव विपामेव बीईएजा ॥ २२ ॥ कण्हराईणं भंते ! कइनामधज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ काय है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, परंतु विग्रहगतिवाले जीव क्वचित् उत्पन्न होते हैं। || २० || अहो भगवन् ! क्या वहां चंद्र सूर्य अथवा चंद्र सूर्य की कान्ति है ? यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वहां नहीं है || २१ || अहो भगवन् ! कृष्णराजियों का वर्ण कैसा है ? अहो गौतम ! कृष्णराजियों का वर्ण काला, काली कान्तिवाला यावत् देवता भी उसे देखकर क्षुब्ध होते हैं और शी {ही उते उल्लंघ जाते हैं ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! कृष्णराजियों के कितने नाम कहे हैं ? अहो गौतम ! प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी वामसादजी ८०८ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 889 शब्दार्थ के क० कितने ना० नाम गो० गौतम अ० आठ क. कृष्णराजी मे० मेघराजी म० मया मा० माघवती G/RT० वातफलिह वा० वातपरिक्षोभ दे. देवफलिह दे० देवपरिक्षोभ ॥ २३ ॥ क. कृष्णराजियों का भ., भगवन कि क्या पु० पृथ्वी परिणाम आ० अप् जी. जीव पो० पुद्गल परिणाम गो० गौतम पु० पृथ्वी परिणाम नो नहीं आ० अप् परिणाम जी० जीव परिणाम पो० पुगल परिणाम ॥ २४ ॥ क. कृष्ण राजी में भं भगवन् स. सब पा० प्राण भू० भूत जी. जीव स• सत्व उ० उत्पन्न पु० पूर्व हं० हा गोई नामधेजा पण्णत्ता तंजहा कण्हराईइवा, मेहराईइवा, मघाइवा, माघबईइवा, वायफलिहा इवा, वायफलिक्खोभाइवा, देबफलिहाइवा, देवफालिक्खोभाइवा ॥२३॥ कण्हराईओणं । भंते ! किं पुढवि परिणामाओ, आउ जीव पोग्गल परिणामाओ ? गोयमा ! पुढवि परिणामाओवि, नो आउपरिणामाओ जीव परिणामाओवि, पोग्गलपरिणामाओवि॥२४॥कण्हरा ईसुणंभंते! सब्वे पाणा भूया जीवा सत्ता उबवण्ण पुल्या? हंता गोयमा! असई अदुवाअणंतकृष्णराजियों के आठ नाम कहे हैं ? कृष्णराजि, मेघराजि, मघा, माधवती, वातफलिह, वातपरिक्षोभ, ई० देवफलिह, देवपरिक्षोभ ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! क्या कृष्णराजियों पृथ्वी परिणामवाली है, या अX जीव व पुद्गल परिणामवाली हैं ? अहो भगवन् ! कृष्णराजियों पृथ्वी परिणामवाली हैं वैसेही जीव व पुद्गल परिणामवाली हैं परंतु अपू परिणामवाली नहीं हैं ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! कृष्णराजि में सब प्राण भूत, 48408 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 18074 छठा शतक का पांचवा उद्देशा 83400 भावारी Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - *गौतम अ० अमेकवार अ० अथवा अ० अनैतवार नो० नहीं बा० बादर आ. अप्कायपने बा० बादर अग्निकायपने बा० बादर वायकायपने ॥ २५॥ इ० इन अ० आठ क. कृष्णराजियों में अ० आठ उ० आंतरे में अ० आठ लो. लोकान्तिक वि० विमान प० कहे अ० अर्ची अ० आँचमाली व० वैरोचन प०११ प्रभंकर चं० चद्राभ मू० सूर्याभ सु० शुक्राम सु० सुप्रतिष्ठाभ म. मध्य में रि०रिष्टाभ ॥ २६ ॥ क. कहां अ० अर्ची वि० विमान प० प्ररूपा गो. गौतम उ० ईशान में एक ऐसे ही प०परिपाटी से ने० जानना क्खुत्तो नो चेवणं बायर आउकाइयत्ताए, बादर अगणिकाइयत्ताएवा, बादरवप्फइ काइयत्ताएवा ॥ २५ ॥ एयासिणं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु उवासंतरेसु अट्ठलोगंतिय विमाणा पण्णत्ता, तंजहा अच्ची, अच्चीमाली, वइरोयणे, पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, सुक्काभे, सुपइट्ठाभे, मझे रिट्ठाभे ॥ २६ ॥ कहिणं भंते ! अचिविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! उत्तरपुरच्छिमेणं ॥ कहिणं भंते ! अच्चिमाली विमाणे पण्णत्ते ? गोयमा! . जीव व सत्व क्या पहिले उत्पन्न हुए ? हां गौतम ! पहिले अनेक बार व अनंत वार उत्पन्न हुवे परंतु बादर अपकाय, आग्नकाय व वनस्पति कायपने उत्पन्न नहीं हुवे हैं ॥ २५॥ इन आठ कृष्णराजियों के आठ आंतरे कहे हैं. उन आठ आंतरे में लोकान्तिक देव के आठ विमान कहे हैं:-अर्ची, अर्थी , वैरोचन, प्रभंकर, चंद्राभ, मूर्याभ, शुक्राभ, सुप्रतिष्ठाभ और मध्य में रिष्टाभ ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | क० कहां भं० भगवन् रि० रिष्ट विमान ५० कहा गो० गौतम ब. बहुत मध्य के दे० देशमें | ! ॥ २७ ॥ ए० इन अ० आठ लो० लोकान्तिक वि० विमान में अ० आठ लो० लोकान्तिक दे. देव प.00 | रहते हैं सा०सारस्वत आ० आदित्य ववन्हि व वरुण गगर्दतोय त० तुषित अ० अव्यावाध अ० आगच । रि० रिष्ट ॥ २८ ॥ क. कहां भ० भगवन् सा० सारस्वत दे० देव ५० रहते हैं गो गौतम अ० अचि ०७| है पुरच्छिमेणं एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव कहिणं भंते ! रिदृविमाणे पण्णत्ते? गोयमा ! बहुमज्झ देसभागे॥ २७ ॥ एएसुणं अट्ठसु लोगंतिय विमाणेसु अट्ठविहा लोगतिया देवा परिवसंति तंजहा-सारस्सय माइचा, वण्ही वरुणाय गहतोयाय ॥ तुसिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठाय ॥ १ ॥ २८ ॥ कहिणं भंते ! सारस्सया देवा परिवसंति ? भावार्थ अर्थी विमान कहां कहा है ? अहो गौतम ! अर्थी विमान ईशान कौन में कहा है. अम्माली पूर्व में, 3 | वैरोचन अग्निकौन में, प्रभंकर दक्षिण में, चंद्राभ नैऋसकौन में, सूर्याभ पश्चिम में, शुक्राभ वायव्य में,सुमतिष्ठाभ उत्तर में और मध्य में रिष्ठाभ ॥ २७ ॥ इन आठ लोकान्तिक विमान में आठ प्रकार के लोकाॐन्तिक देव रहते हैं. १ सारस्वत, २ आदित्य ३ वन्हि ४ वरुण, ५ गर्दतोय ६ तुषित ७ अव्याबाट ११८ अगिच्च और ९ रिष्ठ ॥ २८ ॥ अर्ची विमान में सारस्वत देव रहते हैं, अर्चिमाली में आदित्य, वैरोचन है। पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 288003 छठा शतकका पांचवा उद्देशा 8 Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ८१२ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी. वि० विमान में प० रहते हैं क. कहां आ. अदित्य देव प० रहते हैं अ० अचिमाली विमान में एक ऐसे ने० जानना ज० यथानुपूर्वि जा. यावत् क० कहां भ० भगवन् रि० रिष्टदेव ५० रहते हैं गो. गौतम • रिष्ट विमान में ॥ २९ ॥ सा० सारस्वत आ० आदित्य को भं० भगवन् दे देवों को क० कितने देव क० कितने दे० देवशत प० कहे गो० गौतम स० सात दे० देव स० सात देवशत प. परिवार व० वन्हि व वरुण दे देवों को चो० चौदह दे० देव चो० चौदहदेवमहस्र ग• गर्दतोय तु तुषित को स. गोयमा ! अचिंमि विमाणे परिवसंति ॥ कहिणं आइच्चा देवा परिवसंति ? गोयमा ! अच्चिमालिंमि विमाणे, एवं नेयव्वं जहाणुपुवीए जाव कहिणं भंते ! रिट्ठा देवा परिवसंति ? गोयमा ! रिट्रॅमि विमाणे ॥ २९ ॥ सारस्सय माइच्चाणं भंते ! देवाणं कइदेवा कइदेवसया पण्णता ? गोयमा सत्तदेवा सत्तदेवसया परिवारो पण्णत्ता ॥ वहिवरुणाणं चोद्दसदेवा चोदसदेव सहस्सा पण्णत्ता ॥ गद्दतोय तुसियाणं देवाणं सत्तदेवा सत्तदेवसहस्सा प० ॥ अवसेसाणं नवदेवा, नवदेवसया पण्णत्ता ॥ पढ़म में वन्हि, प्रभंकर में वरुण, चंद्राम में गर्दतोय, सूर्याभ में तुषित, शुक्राभ में अव्यावाध, सुप्रतिष्टाभ में अगिच्च, और रिष्टाभ में रिष्ट नामक लोकान्तिक देव रहते हैं ॥ २९ ॥ सारस्वत आदित्य इन दोनों देवों को सात देव आधिपति हैं और एक २ को एकसो २ का परिवार रहा हुवा है इस से सातसो देव का परिवार है. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4343 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सातदेव सा० सातदेव सहस्र अ० शेष न० नवदेव न० नवदेवशत प० प्रथम जु० दो में स० सात प० सो बी० दूसरे में चो० चौदह स० सहस्र तं० तीसरे में स० सात स० सहस्र न० नव स० सो से० शेष में ॥ ३० ॥ लो० लोकान्तिक मं भगवन् वि० विमान किं० क्या प० प्रतिष्ठित ए० ऐसे ही ने० जानना (वि० विमानों का प० आधार वा० जाडाइ उ० ऊंचाइ सं संठाण बं० ब्रह्मलोक की व० वक्तव्यता ज० जैसे जी० जीवाभिगम में दे० देव उ० उद्देशे में जा० यावत् हं० हां अ० अनेकवार अ० अथवा जुगलंमि सत्तओ सयाणि, बीयम्मि चोहससहस्सा ॥ तइए सत्तसहस्सा, नवचेव सयाणि सेसेसु ॥ १ ॥ ३० ॥ लोगंतिय विमाणाणं भंते! किंपइट्टिया पण्णत्ता ? गोयमा ! वाउपइट्टिया । एवं नेयव्त्रं विमाणाणं पट्ठाणं बाहुल्लुच्चत्तमेव संठाणं, बंभलोय वक्तव्या नेयव्वा, जहा जीवाभिगंम देवदेसए जाव ? हंता गोयमा असई वन्हि वरुण को चौदह देव हैं, एक को एक २ हजार का परिवार होने से चौदह हजार देव का परिवार रहा हुवा है. गर्दतीय और तुषित को सात देव और सात हजार देव का परिवार, अव्यावाध, अरि च्च वरिष्ट को नव देव नवसों देवों का परिवार है ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! लोकान्तिक विमान किस आधार से रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! लोकान्तिक विमान वायु प्रतिष्ठित हैं. लोकान्तिक विमान अत्यु-१७ त्तम श्रेष्ठ हैं विमान में रक्त, पीत व शुक्ल ऐसे तीन वर्ण हैं सात सो योजन के ऊंचे कहे हैं, पच्चीस सो 4480 छठा शतक का पंचचा उद्देशा ८१३ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी (अ० अनंतत्रार नो० नहीं दे० { ॥ ३१ ॥ लो० लोकान्तिक दे० देवपने लो० लोकान्तिक वि० विमान में लो० लोकान्तिक देवों की मं० भगवन् के० कितनी ठि० स्थिति प० प्ररूपी गो० गौतम अ० आठ सागरोपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी ||३२|| लो० लोकान्तिक वि विमानों से भ० भगवन् के कितना अ० अव्यावाध से लो० लोकान्त १० प्ररूपा गो० गौतम अः असंख्यात जो योजन स० सहस्र अ० अव्यावाघ से लो० लोकान्त प० प्ररूपा से० वैसे ही मं० भगवन् अदुवा अणतक्ख तो नो चेवणं देवत्ताए लोगंतिय विमाणेसु लोगतिया ॥ ३१ ॥ लोगतिय देवाणं भते ! केवइयं कालंठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! अटूसागरोत्रमाई ठिई पण्णत्ता, ॥ ३२ ॥ लोगंतिय विमाणेहिंतो णं भंते ! केवइयं अबाहाए लोगते पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखज्जाई जोयण सहस्रसाई, अबाहाए लोगते पण्णत्ते सेवं {योजन का तला कहा है, यावत् लोकान्तिक विमान में पृथ्वीकायादिपने अनेक वार व अनंत वार उत्पन्न हुए परंतु लौकान्तिक देवपने नहीं उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! लोकान्तिक देवों की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! लोकान्तिक देवों की आठ सागरोपम की स्थिति कही ॥ ३२ ॥ अहो ( भगवन् ! लोकान्तिक विमानों से कितना दूर लोकान्त रहा है ? अहो गौतम ! अव्याबाध पने असंख्यात योजन दूर लोकान्त रहा हुवा है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्यं हैं. यह छठा शतक का * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * ८१४ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१५ * (भगवती) सूत्र 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( छ. छठा स० शतक का ५० पांचवा उ० उद्देशा स० समाप्त ॥६॥५॥ का कितनी भं० भगवन् पु०' पृथ्वी प० प्ररूपी गो० गौतम स० सात पु० पृथ्वीयों प. प्ररूपी Vतं. वह ज० यथा २० रत्नप्रभा जा० यावत् त. तमतमप्रभा र० रत्नप्रभा के आ० आवास भा०कहना जा. यावत् अ० नीचे स० सातवी ए. ऐसे जे. जो० ज० जितने आ० आवास ते. वे भा० कहना ___ भंते भंतेत्ति ॥ छट्ठसए पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ५॥ * * कइणं भते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव तमतमा, रयणप्पभादीणं आवासा भाणियव्वा जाव अहे सत्त माए एवं जे जत्तिया आवासा ते भाणियन्वा जाव कइणं भंते ! अणुत्तर विमाणा है पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥६॥७॥ + पांचवे उद्देशे में विमानादिकों की वक्तव्यता कही, और इस में भी इस का आधिकार कहते हैं. है भगवन् ! पृथ्वी कितनी कहीं ? अहो गौतम ! पृथ्वी सात कही. उन के नाम १ रत्नप्रभा २ शर्कर 90 प्रभा ३ बालु प्रभा ४ पंकप्रभा ५ धूम्रप्रभा ६ तमप्रभा और ७ तमतपप्रभा,रत्न प्रभा में ३० लाख आवास, शर्कर प्रश में २५ लाख, बालुप्रभा में १५ लाख, पंकप्रभा में १० लाख, धूम्रप्रभा में तीन लाख, तमप्रभा में पांच कमएक लाख, और तमतमप्रभा में मात्र पांच आवास कहे हैं. ऐसेही अनुत्तर विमान तक जानना. अनुत्तर, छठा शतकका छठा उद्देशा - भामार्थ 8 1 Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ शब्दार्थ 4जा. यावत् क० कितने भं• भगवन् अ० अनुत्तर विमान प० कहे गो गौतम ५० पांच अ० अनुत्तर विमान 40 कहे तं. वह ज० यथा वि. विजय जा० यावत् स० सर्वार्थसिद्ध ॥१॥ जी0 जीव भं० भगवन् मा० पारणान्तिक स० समुद्घात से स. मरकर जे. जो भ०' योग्य इ० इस २० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी में ती०तीस नि. नरकावास में स० लक्ष अ० अन्यतर नि. नरकावास में नेनारकीपने उ उत्पन्न होने को से० अथ भ. भगवन् त वहां आ० आहारकरे ५० परिणमावे स० शरीर बं० बांधे गो० पण्णत्ता? गोयमा! पंच अणुत्तर विमाणा पण्णत्ता,तंजहा विजए जाव सव्वट्ठसिद्धे ॥१॥ जीवेणं भंते ! मारणंतिय समुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे भावए इमीसे रयणप्पभाए पुढवाए तीसाए निरयावास सयसहस्सेमु अन्नयरंसि निरयावासांस नेर- . इयत्ताए उववजित्तए, सेणं भंते ! तत्थगए चेव आहारज्जवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए तत्थगएचेव आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा भावार्थ विमान की पृच्छा करते हैं. अहो भगवन् ! अनुत्तर विमान कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! अनुत्तर वि मान पांच कहे हैं उन के नाम ? विजय २ वैजयंत ३ जयंत ४ अपराजित ५ सर्वार्थ सिद्ध ॥ १॥ अहो भगवन ! मारगान्तिक समुद्धातसे मरकरके जो जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तास लाख नरकावामे में * से किसी नरकावास में नारकीपने उत्पन्न होने योग्य होवे, वह जीव क्या वहां गया हुवा वहां के पुद्गलों का १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Tags पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8%80 गौतम अं० किननेक त० वहां रहे हुवे आ० आहारकरे ५० परिणमावे स० शरीर बं० बांधे अ० कितनेक त० वहां से प० पीछा फीरकर इ० यहां आ० आवे आ० आकर दो० दूसरीवार मा० मारणान्तिक स० १०० समुद्धात स. करे स० करके इ० इस र रत्नप्रभा पु०पृथ्वीके ती तीस नि० नरकावास सलक्ष अ० अन्य ने नारकीपमे उ० उत्पन्न होने को तः उस प० पीछे आ० आहारकरे ५० परिणमारे स० शरीर, बांधे ए ऐसे जा. यावत् अ० नीचे स० सातवी पु० पृथ्वी ॥ २ ॥ जी० जीव भ० भगवन् मा० __ बंधेज्जा, अत्थेगइए तत्थपडिनियत्तइ तओ पडिनियतित्ता इह मागच्छइ मागच्छइत्ता दोच्चपि मारणंतिय समुग्घाएणं समोहणइ समोहणइत्ता इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास सय सहस्ससु अण्णयरंसि निरयावासांसि जेरइयत्ताए उवरजित्तए॥ तओ पच्छा आहारेजवा परिणामेजवा सरीरं वा बंधेजा, एवं जाव अहे सत्तमा आहार करता है, उन को खल रसपने परिणमाता है व शरीर उत्पन्न करता है ? अहो गौतम ! कितनेक जीव वहां रहे हुवे आहार करते हैं, उसे खल रसपने परिणमाते हैं, व शरीर बांधते हैं. और कितनेक जीव उस नरकावास से अथवा मारणान्तिक समुद्धान से पीछे फीरते हैं और जहां अपने शरीर हैं वहां आते हैं. आकर दूसरी घक्त मारणान्तिक समुद्धात से मरकर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नाकावासे में से किसी नरकावास में उत्पन्न होते हैं, फीर आहार करते हैं, खल रसपने परिणमाते है। छठा शतकका छठा उद्दशा भावार्थ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मारणान्तिक से स० मरकर जे० जो भ० योग्य च० चौसठ अ० असुरकुमार वास स० लक्ष अ० अन्वंतर [अ० अमुरकुमार वास में अ० असुरकुमार पने उ उत्पन्न होने को ज० जैसे ने० नारकी त० तैसे भा० कहना जा० यावत् थ० स्थनित कुमार || ३ || जी० जीव मं० भगवन् मा० मारणान्तिक स० करके जे० जो भ० योग्य अ० असंख्यात पु० पृथ्वी कायिक वा० वर्ष स० लक्ष अ० अन्यतर पु० पृथ्वीकायिक वा वास में पु० पृथ्वी कायपने उ० उत्पन्न होने को से० अथ मं० भगवन् मं० मेरु प० पर्वत पुढवी ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावास सय सहस्सेसु अण्णयरांस असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उववजित्तए जहा नेरइया तहा भाणियव्वा जाव थणियकुमारा ॥ ३ ॥ जीवे भंते ! मारणंतिय समुग्धाएणं समोहए २ जे भविए असंखजेसु पुढविकाइया वास सयसहस्सेसु अन्नयसि पुढविकाइयावासंसि पुढवि काइयत्ताए उववजित्तए सेणं और शरीर बांधते हैं, ऐसे ही सातवी पृथ्वीतक का जानना || २ || असुरकुमार यावत् स्थानित कुमार में उत्पन्न होकर आहार करने का, रस परिणमाने का व शरीर बांधने का नारकी जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! मारणान्तिक समुद्रात से मरकर जो जीब पृथ्वीकायिक के असंख्यात स्थान में से किसी स्थान में उत्पन्न होने योग्य होता है वह मेरु पर्वत की पूर्व दिशा में कितना दूर जाता है. और किस स्थान प्राप्त * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८१८ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 शब्दार्थ की पु० पूर्व में के० कितना ग० जावे के कहां पा० प्राप्त होवे गो० गौतम लो० लोकान्त में ग. जावे लो०१41 ७ लोकान्त में पा. प्राप्त होवे अ० अंगुल का अ० असंख्यात भा. भागमात्र सं० संख्यात भा० भागमात्र वा० बालाग्र वा० प्रत्येक बालाग्र ए० ऐसे लि० लीख जू० यूका ज. यव अं० अंगूल जा० यावत् जो०११ भंते ! मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं केवइयं गच्छज्जा केवइयं पाउणेज्जा ? गोयमा ! लोयंतं गच्छज्जा लोयंतं पाउणेजा ॥ सेणं भंते ! तत्थगए चेव आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए तत्थगएचेव आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा, अत्थेगइए तओ पडिनियत्तइ २ त्त इह मागच्छइ मागच्छइत्ता दोचंपि मारणंतिय समुग्घाएणं समोहणइ मंदरस्स पव्वयस्स पुराच्छमेणं अंगुलस्स असंखज्जभागमेत्तंवा, संखेजइ भागमेत्तंवा बालग्गंवा होता है ? अहो गौतम ! वह जीव मारणान्तिक समुद्धात करके लोकान्ततक जाता है और लोकान्त तक स्थिर होता है. अहो भगवन् ! क्या वे जीव वहां ही आहार करते हैं, परिणमाते हैं व शरीर बांधते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक वहां ही आहार करते हैं, परिणमाते हैं व शरीर बांधते हैं और कितनेक वहां से पीछे अपने शरीर में आते हैं, और पुनः मारणान्तिक समुद्धात से मरकर मेरु पर्वत की पूर्व में अंगुल के असंख्यात भागमात्र, संख्यात भागमात्र, बालाग्र, प्रत्येक बालाग्र, ऐसेही लिंख, बूका, पंचमाङ्ग विवाह पण्णाति (भगवती ) सूत्र छठा शतकको छठा उद्देशा 988 भावा * Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ योजन क्रोड जो० योजन क्रोडा क्रोड सं० संख्यात अ० असंख्यात जो० योजन सहस्र में लो० लो-। कान्त में ए० एक प्रदेशात्मक से० श्रेणीको मो० अवगाहकर अ० असंख्यात पु० पृथ्वी कायिक बा• वास स० लक्ष अ० अन्यतर पु. पृथ्वी काया के वा० वास में पु० पृथ्वी कायापने उ० उत्पन्न होवे त० उस ८२० बालग्गपुहत्तवा, एवं लिक्ख,जयं, जव, अंगुल, जाव जोयणकोडिंवा जोयण कोडा भी कोडिंवा, संखेजेसुवा असंखेजेसुवा, जोयणसहस्सेसु लोगतेवा एगपदेसियं सेढिं मोत्तूण असंखजेसु पुढविकाइया वास सयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढवि काइयावासंसि पढविकाइयत्ताए उववजेत्ता तओ पच्छा आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भाणओ, एवं दाहिणणं पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं उड्डे अहे जहा पुढविकाइया तहा एगिदियाणं सव्यसि एक्के. भावार्थ यव, अंगूल यावत् क्रोडाक्रोड योजन, संख्यात, असंख्यात योजन सहस्र व लोकान्त तक जाकर अंगुल के असंख्यातवे भाग नितने क्षत्र में एक प्रदेशात्मक श्रेणी को अवगाह करके पृथ्वीकाय के असंख्यात सहस्र वास में से किसी वास में उत्पन्न हए पीछे आहार करते हैं, खलरसपने परिणमाते हैं व शरोर बांधते हैं. है यद्यपि असंख्यात आकाश प्रदेश अवगाहन स्वभावबाला जीव है तथापि एक प्रदेश की श्रेणीवर्ती असंख्यात प्रदेश 6 की अवगाहना से भी जाने का स्वभाव होने से एक प्रदेश श्रेणी अवगाह कर जाने का कहा, १५ अनुवाद क ल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <3 शब्दार्थ पीछे आ० आहारकरे १० परिणमावे स. शरीर बं० बांधे ज: जैसे पु० पूर्व में म मेरु प० पर्वत का आ० आलापक भ० कहा ए० ऐसे दा० दक्षिण का प० पश्चिम का उ० उत्तर का उ० ऊर्थ अ० अधो ज. १९ जैसे पु० पृथ्वीकायिक त० तैसे ए० एकेन्द्रिय स० सब ए. एक का छ• छ आ० आलापक भा० कहना . कस्स छ आलानया भाणियव्वा ॥ ४ ॥ जीवेणं भंते ! मारणंतिय समुग्धाएणं समोहए २ जे भविए असंखेजेसु बेइंदियावास सय सहस्सेसु अण्णयरंसि बेइंदिया वासंसि बेइंदियत्ताए उववाजित्तए, सेणं भंते ! तत्थगएचव जहा नेरइया एवं जाव १ अणुत्तरोववाइया ॥ जीवेणं भंते ! मारणंतिय समुग्धाएणं समोहए २ जेभविए पंच अणुत्तरेसु महइ महालएसु महाविमाणेसु अण्णयरंसि अणुत्तरविमाणसि अणुत्तरोषवाइय ___ देवत्ताए उववाजत्तए सेणं भते! तत्थगए चेव जाव आहारेजवा परिणामेजवा सरीरंवा बंधेजा जैसे पूर्व दिशा का कहा वैसे ही दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध व अधो का जानना. पृथ्वीकाय के छ आलापक जैसे अप्, तेउ, वायु, व वनस्पति का जानना ॥ ४ ॥ तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, १० चाणव्यंतर ज्योतिषी, व वैमानिक का नारकी जैसे जानना. अहो भगवन्! जीव मारणान्तिक समुद्धात करके जो। पांच अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने योग्य होता है वह वहां उत्पन्न होकर क्या आहार करते हैं, खल203 र सपने परिणमाते हैं व शरीर बांधते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक जीव वहां आहार ग्रहण करते हैं पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र wwwmummmmmmmmmmmmmam छठा शतक का छठा उद्देशा भावाथ 8 Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी [ ॥ ४ ॥ पूर्ववत् से० वैसे ॐ० भगवन् छ० छठा स० शतक में छ० छठा उ० उद्देशा ॥ ६ ॥ ६ ॥ अ० अथ मं० भगवन् सा० शाल वी० त्रीहि गो० गेहुं ज० यत्र ज० जवार ए० इन ध० धान्य को को० कोठे में गुप्त प० बांस के टोपले में गुप्त मं० तृण के माले में उ० उपलिप्त लि० लिप्त पिढका हुवा मु० मुद्रित हुआ लं० लक्षित किया की के० कितना काल जो० योनि सं० रहती है गो० गौतम ज० जघन्य अं० अंत मुहूर्त उ० उत्कृष्ट ति० तीन सं० सवत्सर ते० उस पीछे जो० योनि प० म्लान होवे ते ० उस सेवं भते भत्ति पुढवि उद्देसओ सम्मत्तो ॥ छट्ठसए छट्टो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६॥६॥ अह भंते ! सालीणं, वीहीणं, गोधूमाणं, जवाणं, जवजवाणं, एएसिणं धण्णाणं कोट्ठा उत्ताणं, पल्ला उत्ताणं, मंच उत्ताणं, मालाउत्ताणं, उलित्ताणं, लित्ताणं, पिहियाणं मुद्दियाणं, लछियाणं केवइयं कालं जोणी संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहणणं अतोमुहुत्तं * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * खल रस पने परिणमाते हैं व शरीर बांधते हैं और कितनेक वहां से पीछे स्वशरीर में आकर दूसरी वक्त मारणा न्तिक समुद्धात करके वहां उत्पन्न होते हैं और फीर आहारादि करते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ६ ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! शाल, व्रीहि, गेहुं, यत्र व जवार इन धान्य को कोठा, पाला, मांचा, व माले में रखकर ८२२ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पीछे जो० योनि वि० विध्वंम होवे ते० उस पीछे वी० बीज अ० अवीज भ० होवे ते. उस पीछे जो० । योनि का वी० विच्छेदपना प० प्ररूपा स० श्रमण ॥१॥ अ० अथ भ० भगवन् क० चने म० ममुर ति: तिल मु. मूंग मा० उडद नि० बाल कु० कुलथी आ. चवले सं० तुवर प. काले चने इ०इन ध० धान्या । को ज० जैसे सा० शाली का त० तैसे ए० ऐसे न० विशेष पं० पांच सं० संवत्सर से० शेष तं० वैसे 4 उक्कोस तिण्णि संवच्छराइं, तेणपरं जोणी प्रमिलायइ तेण परं जोणी विहंसइ, तेणं है परं बीए अबीए भवइ, तेण परं जोणी वोच्छेदे पन्नत्ते. समणाउसो ! ॥ १ ॥ अह है भंते ! कलाव, मसूर, तिल, मुग्ग, मास, निप्फाव, कुलत्थ, आलिसंदग, संताणं है . पलिमंथगाईणं, एएसिणं धण्णाणं जहा सालीणं तहा एयाणिवि णवरं पंच संव च्छराई सेसं तंचेव ॥ २ ॥ अह भंते ! अयास कुसंभग, कोदव, कगु, वरग,रालग, चारों तरफ से लीपे, अच्छी तरह ढके, मुद्रित करे, व रेखादिक के लक्षण करे तब उस की योनि । कितने काल तक रहती है, ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन वर्ष तक रहे. फीर योनि म्लान होती है, विध्वंस होती है और बीज अबीज होजाता है, और योनि का विच्छेद होजाता है। * ॥ १॥ अहो भगवन् ! चने, मसुर तिल, मुंग, उडद, वाल, कुलथी, चवले, तुवर व कालेचने इन धान्यों को कोठे आदि में भरकर अच्छी तरह से लीपे यावत मदित करे तब कितना काल तक रहे । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगाती ) सूत्र 1880 -g4छठा शतक का सातवां उद्देशा www भावार्थ 428 98 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmm शब्दार्थ ॥२॥ अ० अथ भं० भगवन् यः अतसी (भगी) कु० कुसम्भो को कोदरे के० कांग व० बंटी रा० राल को० कोद्रव विशेष स० शन स०सात समंवत्सर से०शेष तं वै ॥३॥ ए०एक मु०मुहूर्त का के० कितने उ० उश्वास काल वि० कहा गो गौतम अ०असंख्यात स० समय का स० बंद का स० मीलने का स० संयोग सा. वह ए० एक आ० आवलिका ५० कहाती है सं० संख्यात आ० अवलिका उ० उश्वास ८२४ कोदूसग, सण, सरिसव, मूलगबीयमाईणं एएसिणं धन्नाणं एयाणिवि तहेव, णवरं सत्त संवच्छराई सेसं तचेव ॥ ३ ॥ एगमेगस्सणं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया ऊसासहा वियाहिया ? गोयमा ! असंखेजाणं समयाणं समुदय समइ समागमेणं साएगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखेजा आवलिया ऊसासो, संखेजा आवलिया निस्सासो, हदुस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्ठस्स जंतुणो, एगे ऊसास नीसासे एसपाणुत्ति वुच्चई (१) सत्तपाणणि से थोवे, सत्त थोवाइं सेलवे ॥ भावार्थ अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पांच वर्षतक रहे॥२॥ अलसी, कुटुंभ, कोदरे, कांग, बंटी, राल, कोद्रव विशेष, शण, सरसव, मूले का वीज वगैरह धान्य को कोठे आदि में रख कर लीपे यावत् रेखा से मुद्रित E करे तब सात वर्ष तक उन धान्यों की योनि रहती है ॥३॥ अब स्थिति का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन्! एक मुहूर्त के कितने श्वासोश्वास कहें ? अहो गौतम ! असंख्यात समय के समुदाय की एक आवलिका होती 1 है, संख्यात आवलिकाका एक उश्वास,संख्यात आवलिका का एक नश्वास हृष्ट,तुष्ट, जरा व रोग से अपराभूत है। 02 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी annawww wwwmmmmmmmmmmmmm * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी घालापसादजी & Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a शब्दार्थ १० सं० संख्यात आ० आवलिका नि० निश्वास ह० हृष्ट अ० . जरा रहित नि० क्लिष्टता रहित जं. जीवों | ayo का एक एक उ उश्वास निश्वास पा० प्राण वु० कहाता है स० सात पा० पाण का० ए० एक थो0oyo स्तोक स• सात स्तोक से वह ल० लव ल. लवका स० सत्तहत्तर ए. यह मु० मुहूर्त ति० तीन स० सहस्र स० सातसो ते. तहसर उ० उश्वास ए. यह मु० मुहूर्त दि० देखागया स० सब अ० अनंत णा ज्ञानियों से ए० इन मु० मुहूर्त के प० प्रमाण से ती० तीस मु० मुहूर्त अ. अहो रात्रि ५० पन्नरह लवाणं सत्तहत्तरिए, एसमुहुत्ते वियाहिए (२) तिाण सहस्सा सत्तसयाई, तेह है त्तरं च ऊसासा ॥ एस मुहुत्तो दिट्ठो, सब्देहिं अणंत नाणीहिं (३) एएणं मुहुत्त पमाणेणं, तीसमहुत्ता अहोरत्ता, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दोपक्खा मासो, दोमासा उऊ, तिण्णि उऊ अयणे, दो अयणे संवच्छरे, पंच संवच्छरिय जुगे, वीसं जुगाई ऐसा जीव का एक श्वासोश्वास को पाणु नामक काल कहते हैं, सातपाणु का एक थोत्र, सात थोय की एक लव, ७७ लव का एक मुहूर्त. अर्थात् ३७७३ श्वासोश्वास का एक मुहूर्न अनंन ज्ञानियोंने कहा है ॥ ३ ॥ इस मुहूर्त के प्रमाण से तीम मुहूर्त की एक अहोरात्रि, पनरह अहोरात्रि का एक पक्ष, दो पक्ष : bio का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु की एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर, पांच संव सर का एक युग, वीस युग का सो वर्ष, दश सो वर्ष का एक हजार वर्ष, सो हजार वर्ष का एक लक्ष +8 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8888 ><3 छठा शतकका सातवा उद्देशा Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अमोलक ऋषिजी 42 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अ० अहोरात्रि प० पक्ष दो० दो ५० पक्ष मा० मास दो दो मास उ० ऋतु ति० तीन उ० ऋतु अ०१ अयन दो० अयन सं० सवत्सर पं० पांच स०संवत्सर जु• युग वी० वीसयुग वा०वर्षशत द दश वा० वर्ष शत वा० वर्ष सहस्र स० सो वा० वर्ष सहस्र का वा० वर्ष लक्ष च० चौरासी व० वर्षलक्ष ए. एक ५ पूर्वांगच चौरासी पु० पूर्वाग लक्ष ए०एक पु०पूर्व ए ऐसे तु तृटित अ०अडड अ अपप हू हूहूय उ उत्पल ५०पन वाससयं, दसवाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्सं, चउरासीइं वास सयसहस्साणि से एगे पुव्वंगे, चउरासीति पुब्बंग सय सहस्साई सेएग पुवे; एवं तुडिए २, अडडे २, अपपे २, हूहुए २, उप्पले २, पउमे २, नलिणे२ वर्ष, चौरासी लक्ष वर्ष का एक पूर्वाग, चौरासी लक्ष पूर्वागका एक पूर्व, चौरामी लाख पूर्व का एक तृटितांग चौरासी लक्ष तृटितांग का एक तृटित, चौरासी लाख तृटितका एक अडडांग, चौरासी लक्ष अडडांगका एक अडड, चौरासी लक्ष अडडका अपपांग, चौरासी लक्ष अपपांग का एक अपप, चौरासी लक्ष अपप का एक हूहूनांग, चौरासी लक्ष द्हूतांग का एक हूहूत, चौरासी लक्ष दूहून का एक उत्पलांग, चौरासी लक्ष उत्पलांग का एक उत्पल, चौरासी लक्ष उत्पल का एक पद्मांग, चौरासी लक्ष पद्मांग का एक पद्म, चौरासी लक्ष पत्र का एक नलिणांग, चौरासी लक्ष नलिणांग का एक नलिण, चौरासी लक्ष नलिन का एक अ. च्छिनिउरांग, चौरासी लक्ष अच्छिनिउरांग का एक अच्छिनिउर, चौरासी लक्ष अच्छिनिउर का एक *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी* Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 की ५० पल्योपम (भग शब्दार्थ न. नलिन अ० अच्छिणिऊर अ० अडय ए० एडय न० नउय चू, चूलिका सी० शीर्षप्रहेलिका ए० यह अ० गणित का वि० विषय ते० उस पीछे उ० उपमा ॥ ४ से० अथ किं० क्या उ० उपमा दु. दोपकार की प. पल्योपम सा. सागरोपम से से. अथ किं. क्या ५० पल्योपम सशस्त्र से ति. तीक्ष्ण छ । छेदने को भे० भेदने को जं० जिसे न० नहीं कि० खरेख़र स० शक्य तं० उसे ५० परमाणु सि० केवली विव० कहते हैं आ० आदि ५० प्रमाण का अ० अनंत ५० परमाणु पुद्गलों के स० समुदाय का स० आच्छणिऊरे २, अडए २, एडए २, नउएय २, चूलिय २, सीसपहेलिय २, एयावयावगणियस्स विसए, तेणंपरं उवमिए ॥ ४ ॥ से किं तं उवमिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा--पलिओवमेय, सागरोवमेय ॥ से किं तं पलिओवमे ? सत्थेणं सुतिक्खणवि छेत्तुं भेत्तुं च ज न किरसक्का ॥ तं परमाणुं सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं ॥ ॥ अणताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय समिति समागमेणं साएगा उसण्ह णिभावार्थ, अडयांग ऐसे ही चौरासी लक्ष गुने करते अड्य, एडयांग, एडय, नउयांग, नउय, चूलियांग, चूलिय, ! सीसपहेलियांग, सीसपहेलिय. वहांतक गणित का विषय है, इस से आगे मात्र उपमा है ॥ ४ ॥ उपमा दो प्रकार की पल्योपम व सागरोपम. उस में से पल्योपम की उपमा बतलाते हैं. तीक्ष्ण शस्त्रसे भी जो भेदावे . नहीं, छेदावे नहीं उस परमाणुको केवली भगवन्त आदि प्रमाण कहते हैं. अर्थात् प्रमाणों की आदि परमाणु से है. 488 छठा शतकका सातवा उद्देशा 4880 पंचमाङ्ग विवाह Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अमोलक मीलने के स. समागम से सा. वह ए. एक उ० ओसन्न सनिय स० शीत सन्निया उ० ऊर्ध्वरेणु त० त्रसरेणु र० रथरेणु बा० बालाग्र लि० लीख जू० यूका ज. यवमध्य अं० अंगूल अ० आठ उ० ओसन्न । सन्निया का ए० एक म. शीतसन्निया अ० आठ शीतसन्निया का ए. एक उ० ऊर्ध्वरेणु दे० देवकुरु उ० उत्तरकुरु के म. मनुष्यों का बा० बालाग्र ए. ऐसे ह० हरिवास र० रम्यक हे ० हेमवय । याइवा, सण्हसाहियाइवा उढरेणूइवा, तसरेणूइवा, रहरेणूइवा, बालग्गाइवा, लिक्खा इवा, जूयाइवा, जवमझेइवा, अंगुलेइवा, अट्ठ उसण्हसाण्हयाओ साएगा सण्हसहिया अट्ठसण्हसण्हयाओ सा एगा उढरेणू,अट्ठ उड्डरेणूओसाएगा तसरेणू अट्ठ तसरेणूओसाएगा रहरेणू, अट्टरहरेणूओ से एगे देवकुरु उत्तरकुरुगाणं मसाणं वालग्गे,एवं हरिवासरम्मग, वह परमाणु सूक्ष्म शस्त्र से भी भेदा नहीं जाता है. ऐसे अनंत परमाणुओं का एक उसनसन्निया होता है, आठ उसन्न सन्निया का एक शीतसेणीया होवें, आठ शतसेणीयाका का एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेण का एक त्रसरेणु (पूर्वादिवायु से प्रेरित) आठ त्रसरेणु का एक स्थरेणु, आठ रथरेण का देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्रोत्पन्न मनुष्य का एक बालग्र, देवकुरु उत्तरकुरुक्षेत्र के मनुष्य के आठ बालाग्र जितना एक हरिवर्ष रम्यवर्ष मनुष्य का बालाग्र, इरिवर्ष रम्यकवर्ष मनुष्य के आठ बालाग्र जितना वय एरणवय मनुष्य का एक बालाय, हेमवय एरणवय मनुष्य के आठ बालाग्र जितना पूर्व पश्चिम 23 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि * प्रकाशक-सजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादी * भावार्थ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 488 शब्दार्थ ए. एरणक्य पु० पूर्व विदेह अ० पश्चिम विदेह म मनुष्यों के अ० आठ बा० बालाग्र ए. एक लि. लीख अ० आठ लि० लीख की ए० एक जू० यूका अ० आठ जू० यूका का ए• एक ज. यवमध्य अ. आठ ज. यवमध्य का ए. एक अं० अंगूल प्रमाण इ० इन अ० अंगुल प्रमाण से छ० छ अंगूल का पा० पांव बा. बारह अं० अंगूल की वि० वेंत च० चौवीस अं० अंगूल की र० हाथ अ०अडतालीस • अंगूल की कु कुक्षि छ० छन्नु अं० अंगुल के ए० एक दं० दंड ध० धनुष्य जु० धोसरं ना०१६ हेमवएरन्नवयाणं, पुवविदेहाणं मणूसाणं अट्ठ बालग्गा साएगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठजूयाओ साएगा जवमझे अट्ठ जवमझाओ से एगे अंगुले एएणं अंगुलप्पमाणेणं, छअंगुलाणि पादो, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीस अंगुलाई रयणी अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छण्णउइ अंगुलाणि से एगे दंडेइवा धणूइवा जुएइवा नालियाइवा, अक्खेइवा, मुसलेइवा एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं, भावार्थ महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य का बालाग्र, पूर्वपश्चिम महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य के आठ. बालाग्र जितनी एक लिख, आठलिख जितनी एक यू का, आठ यूका जितना एक यवमध्य, आठ यवमध्य जितना एक अंगूल, 28छ अंगूल का एक पांव, बारह अंगूल की एकवेंत, चौवीस अंगृल का एक हाथ, अडतालीस अंगुल की एक कुच्छी [ कुक्षि ] छिन्नु अंगुलके धनप्य, दंड, गाडी का धूसरा, लष्टि, गाडे के चक्र का आरा व का पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र छा शतक का सातवा उद्देशा १.११ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ नालिका अ० अक्ष मु० मूशल इ० इन ध०धनुष्य प्रमाण से दोदो ध०धनुष्य स० हजार गागाउ च० चार गा० गाउका जो० योजन ए. ऐसा जो० योजन प्रमाण से जे. जो प० पाला जो० योजन का आ०१ लम्बा वि० चौडा जो० योजन उ० ऊर्ध्व उ० ऊंचा तं. उसे तिगुने स० विशेष ५० परिधि से से० उसे ए. एकदिन के बे० दोदिन के ते. तीनदिन के उ० उत्कृष्ट स. सात प. बडे का सं० कर्ण पर्यंत भरा चत्तारि गाउयाइं जोयणं, एएणं जोयणप्पमाणेणं, जे पलेजोयणे आयाम विक्खंभेणं जोयणं उठें उच्चत्तेणं तं तिउणं सविसेसं परिरएणं, सेणं एगाहिय बेहिय तेहिय उक्कोस सत्तरत्तप्परूढाणं संमटे संनिवेए भरिए बालग्ग कोडीणं, तेणं बालग्गे नो अग्गी डहेजा, नो वाऊ हरेज्जा, नो कुच्छज्जा, नो परिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए भावार्थ है मूशल होते हैं. इस धनुष्य प्रमाण से दो हजार धनुष्य का एक गाउ, चार गाउ का एक योजन. इस योजन प्रमाण से एक योजन का लम्बा, चौडा, तीगुनी से विशेष परिधिवाला, और एक योजन का उंडा ऐसा एक पाला में देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र में एक दिन, दो दिन यावत् सात दिन के उत्पन्न हुए युगलिये के बच्चों का बालाग्र के असंख्यात खंड करके भरे. और उस में इतना ठोसकर भ कि जिस से उन बालानों को अग्नि जला मके नहीं, वायु उडा सके नहीं, सडे नहीं, गले नहीं, विध 15 होवे नहीं, दुर्गंध उत्पन्न होवे नहीं. फीर उस पाले में सो सो वर्ष में एक २ बाल्यय नीकाले इस तरह सो अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ हुवा सं० खंड से भरा हुवा भ० भरा हुवा वा० बालाप को क्रोड ते. उन बा० बालाग्र को नो० नहीं अ. अग्नि ड० जलावे नो० नहीं वा० वायु अ० लेजावे नो० नहीं कु० खण्ड होवे नो० नहीं प० विध्वंस Vहोवे नो० नहीं पू० पूतिभाव को हं० शीघ्र आ• आवे त• पीछे वा० वर्षशत ए० एक २ बा० बालाग्र अ. लेकर के जा० जितने का काल में से वह प० पाला खी०क्षीण नी० रज रहित निःनिर्मल नि०१७ निष्ठित, अ० अपहृत वि० विशुद्ध भ० होवे से वह ५०० हव्यमागच्छेजा; लोग वाससए २ एगमा वालग्गं अनहाय जावइएणं कालेणं सेपल्ले खीणे नीरये निम्मले निट्ठिए, निलेवे, अवहडे, विसुद्धे भवइ, से तं पलिओवमे गाहा-एएसिणं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया ॥ तं सागरोवमस्स,एक्कस्स । भवे परीमाणं ॥१॥ एएण सागरोवमपमाणेणं चत्तारिसागरोवमकोडाकोडीओ. कालो सुसमसुसमा ॥ तिाण सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा, दो सागभावार्थ सो वर्ष में एक २ वालाग्र नीकालते जितने समय में वह पाला संपूर्ण खाली, रज रहित, निर्मल, निर्लेप १०० होजाता है उतने कालको एक पल्योपम कहते हैं. ऐसे दश क्रोडाक्रोड पल्योपम का एक सागरोपम: होता है, ऐसे चार क्रोडाक्रोड सागरोपम का एक सुषमासुषम आरा होता है, तीन क्रोडाक्रोड सागरो1 पम का सुषम नामक दूसरा आरा होता है, सुषमदुषम नामक दो कोडाक्रोड सागरोपम का तीसर। आरा । nanomnrn 9- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) १ छठा शतकका सातवा उद्देशा१8०१४ Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाब्दार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - क्रोड १० होवे द. दशाने तं. वह पा. सागरोपम का ए. एक भ० होवे प. परिमाण ए. इन सा० सागरोपम का प० प्रमाण से च० चार सा. सागरोपम क्रोडा क्रोड का का० काल मु. मुषम सुषमा ति. तीन सा० सागरोपम को कोडा कोडी का० काल सु. सुषम दो दो सागरोपम को० क्रोडा कोड काल सु० सुषम दुषम ए० एक सा० सागरोपम को क्रोडा क्रोड में बा० बीयालीस वा० वर्ष सहस्र उ०१ कम का० काल दु० दुषम सुषमा ए० इक्कीस वा० वर्ष सहस्र का काल दु० दुषम ए• इक्कीस वा० वर्ष रोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुसमा, एगा सागरोवमकोडाकोडीओ बायालीसए वाससहस्सेहिं जाणिया कालो दुसम सुसमा, एकवीसं वाससहस्साई कालो दुसमा, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुसमदुसमा, पुणरवि उस्सप्पिणीए एकवीसं वास सहस्साई कालो दुसमदुसमा, एकवीसं वास सहस्साई कालो दुसमा जाव चत्वारि होता है, एक क्रोडाफोड सागरोपम में बीयालीस हजार वर्ष कम का चौथा दुषम सुषम, इक्कीस हजार वर्ष का दुषम और इक्कीस हजार वर्ष का दुषम दुषम नामक छठा आरा होता है. ऐसे ही उत्सर्पिणी काल के छ आरे इक्कीस हजार वर्ष का दुषमादुषम, इक्कीस हजार वर्ष का दूसरा दुषम, बीयालीस हजार वर्ष कम एक क्रोडाकोड मागरोपम का दुषम गुपम नामक तीसरा, दो क्रोडाक्रोड सागरोपम का सफर दुषम. तीन क्रोडाक्रोड सागरोपम का सुषम और चार फ्रोडाक्रोड सागरोपम का सुषममुषम. इस *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सहस्र का काल दु० दुषम दुषम पु० पुनरपि उ० उत्सर्पिणी का द० दश सा० सागरो पम को० क्रोडा क्रोड का का० काल उ० उत्सर्पिणी वी० बीस सा० सगारोपम को० क्रोडा क्रोड (का० काल ओ० अवसर्पिणी उ० उत्सर्पिणी ॥ ५ ॥ जं० जम्बूद्वीप में भं० भगवन् दी० द्वीप में इ० इस ओ : अवसर्पिणी में सु० सुषम सुषम स० समय में उ० उत्तमता प० प्राप्त भ० भरत वा० वर्ष के ० कैसा सूत्र भावार्थ । 483 पंचांग विवाद पण्णत्त ( भगवती ) सूत्र आ० आकार भाव प० प्रत्यवतार हो० था गो० गौतम व० बहुत स० सममणीय भू० भूमिभाग हो० था सागरोवम कोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा; दस सागरोवम कोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी, दस सागरोत्रम कोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी, वीसं सागरोवम कोडाकोडीओ कालोओसप्पिणीय उस्सप्पिणीय ॥ ५ ॥ जंबूद्दीवेणं भंते ! वे इसे उसप्पिणी सुसमसुसमाए समाए उत्तिमट्ठपत्ताए भरहस्स वासरसकेरिस आगारभाव पडोयारे होत्या ? गोयमा बहुसमरमणिजे भूमिभागे होत्था, से तरह दश क्रोडाक्रोड मागरोपम की अवसर्पिणी, दश क्रोडाक्रोड सागरोपम की उत्सर्पिणी. बीस क्रोडाक्रोड सागरोपम का एक काल चक्र. यह पल्य व सागर की उपमा का प्रमाण जानना ॥ ५ ॥ अहो भग वन् ! इस जम्बूद्वीप में प्रथम सुषमसुषम नामक समय में उत्कृष्ट आयुष्यादि प्राप्त होते भरतक्षेत्र का कैमा आकार भाव प्रत्यवतार था ? अहो गौतम ! जैसे मादल के उपर का चर्म बहुत सम होता है - छठा शतक का सातवा उद्देशा ८३३ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथस० अथ ज. जैसे अ० मादल ए. ऐसे उ. उत्तरकर व वक्तव्यता ने जानना जा. यावत् आ०१ आस्वादे ती० उस स० समय भा० भरत वर्ष में त० वहां २ दे० देशविभाग में ब. बहुत उ० उदार को० कोद्रव जा० यावत् कु० कुश विकुश वि० विशुद्ध रु० वृक्षमूल जा० यावत् छ. छप्रकार के म० मनुष्य अ० अनुसक्तवंत तं. वह ज. यथा ५० पद्मगंधवाले मि० मृगगंध वाले अ० अममत्वी ते० तेजस्वी सं० समर्थ स० शनैः चलने वाले से वैसे भ० भगवन छ. छठा स० शतक का स० सातवा जहानामए आलिंगपुक्खरेइवा, एवं उत्तरकुरुवत्तव्वया नेयव्वा जाव आसयंति, सयंति ॥ तीसेणं समाए भारहवासे तत्थ २ देसे २ तहिं बहवे उद्दाला कोदाला जाव कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव छाव्वहा मणुस्सा अणुसाजज्झत्था तंजहा पम्हगंधा, मियगंधा, अममा, तेयली, सहा, सणिचारी सेवं भंते भंतेत्ति ॥ छट्ठसए भावार्थ वैसे ही भरतक्षेत्र का भूमिभाग था. उस स्थान में अनेक प्रकार के शाल क्रोद्रव के वृक्ष थे. उन के मूल कुश विकुशादि रहित थे और मूल स्कंध, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प व फलादि से अत्यंत सुशोभित थे. उस में छ प्रकार के मनुष्य उत्पन्न हुवे. पद्म कमल जैसी गंधवाले, भृगमद जैसी गंधवाले, समकार रहित, तेजस्वी, समर्थ और मंदचालबाले. इस आरे का शेष वर्णन देवकुरु उत्तरकुरु जैसे जानना और अन्य आरों का विवरण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति से जानना. अहो भगवन् ! .आपके वचन सत्य हैं ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * anamand Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उ० उद्देशा स० समाप्तं ॥ ६॥७॥ है क. कितनी भ० भगवन् पु० पृथ्वी ५० प्ररूपी गो० गौतम अ० आठ पु. पृथ्वीयों प० कहीं र० रत्न प्रभा जा० यावत् ई० ईपत् प्रागभार ॥ १ ॥ अ० है ० भगवन् इ० इस रं० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी की अ० नीचे गे० गृह गे• दुकानों गो. गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ ॥ २ ॥ अ० है भं०१७ सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ७ ॥ * . कइणं भंते पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहारयणप्पभा जाव ईसिप्पभारा ॥ १ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहाइवा, गेहावणाइवा ? गोयमा ! णोइणद्वे समढे ॥ २ ॥ अत्थिणं भंते ! भावार्थ छठा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ६ ॥ ७॥ में सातवे उद्देशे में भरतक्षेत्र का वर्णन कहा. आठवे उद्देशे में पृथ्वी का वर्णन करते हैं. अहो भगवन् ! | पृथ्वी कितनी कही ? अहो गौतम ! आठ पृथ्वीयों कहीं. रत्नप्रभा, शर्करप्रभा यावत् तमतमाप्रभा व ईषत्माग्भार ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की नीचे क्या गृह व दुकानों हैं ? अहो | | गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ २॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की नीचे ग्राम यावत । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र AAAAAAmarwa *380%8 छठा शतकका आठवा उद्देशा 8888 Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शव्दाथ ८३६ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवन् इ० इस र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी की अ० नीचे गा गृह स० सन्निवेश नो० नहीं इ० यह अ० अर्थ स० समर्थ ॥३॥ अ० है भ० भगवन् इ० इस र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी की अ० नीचे उ० उदार व० बद्दल सं० स्नेह उत्पन्न होवे स० पुद्गल होवे वा० वर्षा वा० वर्षे हं हां अ०है ति० तीनों प० करे, दे० देव प० करे अ० असुर ना० नाग कुमार ॥ ४ ॥ अ० हैं भं० भगवन् इ. इस र० रत्नप्रभा पु०१ पृथ्वीकी अ०नीचे बा०बादर थस्थनित शब्द हं हां अ०है ति तीनों प० करे ॥ ५ ॥ अ० है भं० भगवन् इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गामाइवा, जाव सण्णिवेसाइवा ? नो इणद्वे समटे ॥ ३ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीस रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाहया संसेयंति समुच्छंति, वासं वासंति ? हंता अत्थि तिण्णिवि पकरेंति देवावि पकरेइ असुरोवि, नागोवि, ॥ ४ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बादरे थणियसद्दे ? हंता अत्थि तिण्णिवि पकरेंति ॥ ५ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणसन्निवेश क्या हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की नीचे बडे बद्दल उत्पन्न होते हैं व वर्षा वर्षाते हैं ? हां गौतम अहो भगवन् ! वहां क्या देव, असुर व नाग वर्षाते हैं ? हां गौतय ! तीनों वर्षा वर्षाते हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी नीचे क्या बादर स्थनित शब्द है ? हां गौतम ! इस रन्नप्रभा पृथ्वी नीचे बादर स्थनित शब्द है और उसे असुर, नाग व देव ऐसे तीनों जातिवाले करते हैं ॥ ५॥ अहो भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी* भावार्थ | Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 इ० इस र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी में या० बादर अ० अग्निकाय गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० है । समर्थ ण नहीं अ० अन्यत्र वि० विग्रहगति स० प्राप्त ॥ ६॥ अ० है भं. भगवन् इ० इस र० रत्नप्रभा • पृथ्वी में चं चंद्रमा जा. यावत् ता. तारारूप नो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ ॥ ७॥ अ. है ८३७ भ० भगवन् इ० इस र. रत्नप्रभा में च. चंद्रकाति नो० नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ ॥ ८॥ ए. ऐसे दो दूसरी पु० पृथ्वी में भा० कहना ए• ऐमे त० तीसरी में भा० कहना ण विशेष दे० देव ५० करे प्पभाए पुढवीए बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! णो इणटे समढे णण्णत्थ विग्गह गइसमावण्णएणं ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए चदिम जाव तारारूवा ? नो इण? समटे ॥ ७ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए चंदाभाइवा २ ? णो इणढे समट्टे ॥८॥ एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियन्वं ॥ एवं तच्चाभावार्थ में क्या बादर अग्निकाय है ? अहो गौतम ! वहां वादर अग्निकाय नहीं है. परंतु क्वचित् विग्रहगतिवाले बादर अग्निकाय के जीव वहां जाते हैं ॥ ६॥ अहो भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी में चंद्र, सूर्य 5 यावत् तारे रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥ ७॥ क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी में * चंद्र मूर्य की कान्ति है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥ ८ ॥ जैसे पहिली पृथ्वी का कहा 1 वैसे ही दूसरी व तीसरी का जानना. परंतु दूसरी व तीसरी में देव व असुर ही मेघ व स्थनित शब्द।। 1843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० असुर ५० करे नो० नहीं ना० नाग ५० करे च० चौथी में ण विशेष दे. देव ए. एक प. करे: नो० नहीं अं• असुर नो० नहीं ना नाग ए. ऐसे हे नीचे दे० देव ए. एक प० करे ॥ ९॥ त. तमस्काय क. कल्प प० पांच अ० अग्नि पु. पृथ्वी अ० अग्नि पु० पृथ्वी में आ० अप्काय ते. तेउव० एवि भाणियव्वं, णवरं देवोवि पकरेइ, असुरोवि पकरेइ नो नाओ पकरेइ ॥ चउत्थीएविणवरं देवो एक्को पकरेइ, नो असुरो नो नाओ एवं हेट्टिलासु देवो एक्को पकरेइ ॥९॥ अत्थिणं भंते ! सोहम्मीसाणेणं कप्पाणं अहे गेहाइवा, गेहावणाइवा ? नो इणटे, समटे । अत्थिणं भंते ! उराला बलाहया ? हंता अत्थि; देवो पकरेइ, असुरोविपकरेइ । ___ नो नाओ ॥ एवं थणियसदेवि । अत्थिणं भते! बादरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए ? करते हैं परंतु नाग नहीं करते हैं. चौथी, पांचवीं, छठी, सातवी में मात्र देव करते हैं ॥९॥ अहो भगवन् ! क्या सौधर्म ईशान देवलोक की नोचे गृह व दुकानों हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! क्या सौधर्म ईशान देवलोक नीचे वडे मेघ होते हैं व वर्षा वर्षाते हैं ? अहो गौतम ! वहां मेघ होते हैं व वर्षा वर्षती है. उन मेघ को देव व असुर करते हैं परंतु नाग नहीं करते हैं. क्योंकि नाग का उन देवलोकं नीचे गमन नहीं है. वैसे ही बादर स्थनित शब्द मी देव व असुर करते हैं. सौधर्म ईशान देवलोक की नीचे क्या बादर पृथ्वी काय व बादर अग्निकाय है ? अहो गौतम !, • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र ७ भावार्थ २०१९०९ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र वनस्पति क० कल्प उ० उपरके क० कृष्णराजी में ॥ १० ॥ क० कितने प्रकार का भं० भगवन् आ० इट्ठे समट्ठे, णण्णत्थ विग्गहगइ समावण्णएणं । अत्थिणं भंते ! चंदिम जा तारारूवा ? गायमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । अत्थिणं भंते ! गामाइवा जाव सन्निवेसाइवा ? गोयमा ! णो इण्टु समट्ठे ॥ अत्थिणं भंते ! चंदा भाइत्रा ? गोयमा ! नोई समट्टे एवं सणकुमारमा हिंदेसु णवरं देवो एगो पकरेइ ॥ एवं बभलोएत्रि एवं बंभलोगस्स उवारे सव्वहिं देवो पकरेइ पुच्छियव्वोय, बायरे आउकाए, बारे अगणिकाए, बायरे वणस्सइकाए, अण्णं तं चेव गाहा-तमुकाय कप्पपणए, वहां बादर पृथ्वीकाय व बादर अग्निकाय नहीं है परंतु विग्रहगति आश्री वहां जीव मीलते हैं. अहो ( भगवन् ! क्या वहां चंद्र यावत् तारे रहे हुवे है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन्! ( क्या वहां ग्राम यावत् संन्निवेश हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! क्या सौधर्म { ईशान देवलोक में चंद्रकी कान्ति व सूर्य की कान्ति है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. जैसे सौधर्म ईशान का कहा वैसे ही सनत्कुमार माहेंद्र का जानना. इस में मात्र देवही उपर जासकते हैं। { परंतु असुर व नाग नहीं जासकते हैं, इसलिये मात्र देवही पानी की दृष्टि व शब्द करते हैं. इसी प्रकार ब्रह्म देवलोक से अच्युत देवलोकतक का जानना. बारह देवलोक में मात्र देव दी हैं उपर के देवों वक्रेय नहीं करते हैं इसलिये वहां वैसा शब्द व मेघ नहीं है, पांचवा ब्रह्म देवलोक से उपर के सब विमानों छठा शतक का आठवा उद्देशा 888 ८३९ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ८४० भावार्थ 49 अनुसादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी आयुष्य बंध १० प्ररूपा गो० गौतम छ० छ प्रकार का आ० आयुष्यबंध जा० जातिनाम निधत्त आ. आयुष्यबंध ग• गतिनाम निधत्त आ० आयुष्यबंध. ठि० स्थिनिनाम निधरा आ० आयुष्यबंध ओ० अवगाहन नाम निधत्त आ० आयुष्यबंध प० प्रदेश नाम निधत्त आ० आष्ययुबंध अ० अनुभाग नाम अगणी पुढवीय अगणि पुढवीसु ॥ आउतेउ वणस्सइ, कप्पुवरंमि कण्हराईसु । ॥ १०॥ कइविहेणं भंते ! आउयबंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे आउयबंधे पण्णत्ते, तंजहा--जाइनाम निहत्ताउए, मतिनाम निहत्ताउए, ठिइनाम निहत्ताउए । में बादर अप्काय, बादर आग्निकाय व बादर वनस्पतिकाय, नहीं है. यह विशेषता है. नवौवेयक से ईषत् मारभार पृथ्वीतक वर्णन नहीं लिया है, परंतु इस का निषेध जानना.. तमस्काय वैसेही सौधर्मादि पांच देवलोक में अग्निकाय व पृथ्वीकाय का प्रश्न, सातों पृथ्वीयों में आनिकाय का प्रश्न, और उपर के देवलोक में अप्काय, तेउकाय व वनस्पतिकाय' का प्रश्न कहाँ है. ॥ १.० ॥ पृथिव्यादि जीव आयुष्य सहित होते है हैं इसलिये आयुष्य का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! आयुष्य का बंध कितने प्रकार का कहा ? अहो गौतम ! आयुष्य का बंध छ प्रकार का कहा है. एकेन्द्रियादि पांच प्रकार के जातिरूप. नामकर्म की उत्तर प्रकृति विशेष अथवा जीव परिणामकी साथ प्रतिसमय कर्म पुद्गलका अनुभव के लिये जो आयुष्य बांधनेमें * आवे सो जाति नाम निधत्त आयुष्य २ नरकादिगति का आयुष्यबंध करे सो गति नाम निधच आयुष्य ३ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * MORA Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र निघत आ० आयुष्यबंध ॥ ११॥ पूर्ववत् ॥ २१-१२ ।। ल० लवण स. समुद्र कि क्या उ० ऊंचापानी ओगाहणा नामनिहत्ताउए, पएसनामनिहत्ताउए, अणुभागनामानिहत्ताउए, दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ ११॥ जीवेणं भंते ! किं जाइनामनिहत्ता जाव अनुभाग नामनिहत्ता ? गोयमा ! जाइ नामनिहत्तावि जाव अणुभागनामनिहत्तावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं । जीवाणं भंते ! किं जाइनाम निहत्ताउया जाव अणुभागनाम निहत्ताउया ? गोयमा ! जाइनामनिहत्ताउयावि जाव अणुभागनामनिहत्ताएक भव में रहने का काल का बंध सो स्थितिनामनिधत आयुष्य बंध ४ औदारिकादि शरीर प्रमाण का बंध सो अवगाहना नाम निघत आयुष्य बंध ५ आयुष्य कर्म के तथाविध प्रणित जो प्रदेश का बंध सो प्रदेश नाम निधत्त आयुष्य बंध, और ६ आयुष्य द्रव्य का विपाक सो अनुभाग नाम निधत आयुष्य ब. बंध. यह छमकार का आयुर्वेध चौवीस ही दंडक में पाता है. ॥ ११॥ अहो भगवन् ! एक जीवने एके-41 न्द्रियादि जातिका बंध किया उसे जाति नाम निधत्त क्या कहना ? अहो गौतम ! जिसने जातिनाम का बंध ! किया उसे जातिनामनिधस कहना. जातिनामनिधत्त जैसे गति, मिति, अवगाहना, प्रदेश व अनुभाग के छ दंडक जानना. अहो भगवन् ! अनेक जीवोंने जिस प्रकार एकेन्द्रियादि जाति | नाम का बंध किया उसे क्या जाति नाम निधत्त आयुष्य कहना ? अहो गौतम! अनेक जीवोंने जाति । छठा शतकका आठवा उद्देशा Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ उयावि ॥ दंडओ जाव वेमाणियाण एवं एए दुवालस दंडगा भाणियव्वा ॥ ११ ॥ जीवाणं भते ! किं जाइ नाम निहत्ता, जाइनामनिहत्ताउया, जाइनामनिउत्ता, जाइनामनिउत्ताउया, जाइगोयनिहत्ता, जाइगोयनिहत्ताउया, जाइगोयनिउत्ता; जाइगोयनिउन्ताउया, जाइनामगोय निहत्ता, जाइनामगोयनिहत्ताउया जाइ. नामगोयनिउत्ता, जाइ नामगोय निउत्ताउया जाव अणुभाग नामगोय निउत्ताउया ? नाम का बंध किया उन्हे भी जाति नाम निधत कहना, अनेक जीवों के जाति नाम निधत्त समान गति स्थिति, अवगाहना, प्रदेश व अनुभाग का जानना. इस तरह एक जीव व अनेक जीव के बारह दंडक , चौवीस ही दंहक पर उतारना ॥११॥१. एक जीव सामान्य जातिका आयुष्य बंध करे २ वहुन जीवसामान्य जाति का आयुष्य बंध करे ३ एक जीव उत्तम जाति का आयुष्य बंध करे ४ बहुत जीव उत्तम जाति का आयुष्य बंध करे, ५ एक जीव जाति की साथ नीच गोत्र का आयुर्बध करे ६ बहुत जीव जाति की साथ * नीच गोत्र के आयुष्य का बंध करे ७ एक जीव जाति की साथ उच्च गोत्र के आयुष्य का बंध करे ८ बहुत जीव जाति की साथ उच्च गोत्र के आयुष्य का बंध करे ९ एक जीव जाति की साथ नीच नाम व गोत्र के आयुष्य का बंध करे १० बहुत जीव जाति की साथ नीच नाम व गोत्र के आयुष्य का वध कर 18११ एक जीव जाति की साथ उच्च नाम व गोत्र के आयुष्य का बंध करे १२ बहुत जीव जाति की साथ, अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिनी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला, प० प्रस्तरोदक वाला खु० क्षुब्धजल वाला अ० अक्षब्ध जल वाला गो. गौतम ल० लवण समुद्र । उ० ऊंचापामी वाला प० प्रस्तर उदक वाला खु. क्षुब्ध जल वाला नोनी अ. अक्षर जल वाला ७ए. यहां आ० लेकर ज. जैसे जी. जीवाभिगम में जा. यावत से वह ते. इसलिये गो गौतम बा... | बाहिर के दी० द्वीप समुद्र पु० पूर्ण पु० पूर्ण प्रमाण वो० उच्छलते वो० उल्लासपामते स. समान ५० पडे गोयमा ! जाइनामगोयनिउत्ताउयावि जाक अणुभागनामगोयनिउत्ताउयावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ १२ ॥ लवणेणं भंते ! समुद्दे किं उस्सिओदए, पत्थडोदए, खुभियजले, अक्खुभिय जले ? गोयमा ! लवणेणं समुद्दे उस्सिओदए नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले, एत्तो आढत्तं जहा जीवाभिगमे, जाव से केणटेणं ? गोयमा ! बाहिरयाणं दीवसमुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा, वोलटमाणा, वोसभावार्थ उच्च नाम व गोत्र के आयुष्य का बंध करे. यह बारह दंडक जाति आश्रित हुए. वैसे ही अनुभागतक छ बोल का जानना. इस तरह १२+६ ७२ दंडक होते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! लवण समुद्र में क्या पानी की वृद्धि होती है, या पानी बराबर रहता है अथवा लवणसमुद्र क्षुब्ध रहता है या शान्त ॐ रहता है ? अहो भगवन् ! लषण समुद्र में पानी उपर चडता है क्योंकि सोलह हजार योजन का 16 ऊंचा पानी का दगमाल है, इसलिये सम पानी नहीं. पैसे ही उसका जल क्षुब्ध ह परतु शान सम पानी नहीं. पैसे ही उत का जल क्षुब्ध है परंतु शान्त नहीं है. (भगवती) मूत्र 898 विवाह पण्णति armanannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnwaran 43043 छटा शतकका आठवा उद्दशा -2017 Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ शब्दार्थ : चि० रहते हैं . संठान से ए. एक प्रकार का विः स्वरूप वि. विस्तार से अ० अनेकविध वि. | स्वरूप दु० दुगुने दु० दुगुने प्रमाण के जा. यावत् अ० इस ति तिर्यक् लोकमें अ० असंख्यात दी० द्वीप समुद्र स० स्वयंभू रमण समुद्र पछेल्ला प० प्ररूपा स. आयुष्यमान् श्रमण ॥ १३ ॥ दी. द्वीप स. समुद्र के भ० भगवन् के० कितने ना० नाम प० प्ररूपे गो० गौतम जा. जितने लो० लोक में सु. दृमाणा, समभरघडत्ताए चिटुंति, संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थारओ अणेगविहिविहाणा दुगुणा दुगुणप्पमाणाओ, जाव अस्सि तिरियलोए असंखेज दीवसमुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ॥ १३ ॥ दीवसमुद्दाणं भंते ! केवइया. नामधेजेहिं पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइया लोए सुभा नामा, सुभारूवा, सुभागंधा, भावार्थ वगैरह मब अधिकार जीवाभिगम सूत्र जैसे जानना यावत् बाहिर के द्वीप समुद्र किनारे तक पानी से पूर्ण भरे हुवे हैं, उबरा हुवा पानी है, चारों तरफ विखरता है, एरा हुवा घडा समान रहा है, चूड़ी के आकारवाला है, चौडाइमें एक २ एक मे दुगने हैं, इस तरह ताछे लोकमें द्वीप समुद्र रहे हुवे हैं. उस में छेल्ला समुद्र स्वयंभूरमण है ।। १३ ॥ अहो भगवन् ! द्वीप समुद्र के कितने नाम हैं ? अहो गौतम ! इस लोक में जितने शुभ नाम के, शुभ रूप के, शुभ गंध के, शुभ रस के, व शुभ स्पर्श के पदार्थों हैं. उतने नाम के सब द्वीप समुद्र हैं. और एक २ नाम के अनेक द्वीप समुद्र हैं. पाहिले एल्योपम 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायगी ज्वालाप्रसादजी * Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४५ ~NovvA शब्दार्था शुभनाम सु० शुभरूप मु० शुभगंध सु० शुभरस सु० शुभस्पर्श ए० इतने दी द्वीप स• समुद्र ना• नाम y०प० प्ररूपे एक ऐसे ने० जानना मु० शमनाम उ० उद्धार १० परिणाम स० सर्व जीवों का से. ऐसे भ०० भगवन् छ० छठा शतक का अ० आठवा उ. उद्देशा स० समाप्त ॥ ६॥८॥ = मी० जीव भ. भगवन् ना० ज्ञानावरणीय क० कर्म बं० बांधते क० कितनी क० कर्मप्रकृति ब. सुभारसा, सुभाफासा, एवइयाणं दीव समुहा नामधेन्जेहिं पण्णत्ता, एवं नेयव्वा सुभानामा उद्धारो परिणामो सव्व जीवाणं सेवं भंते भंतेत्ति, ॥ छट्ठसयस्स , अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ८ ॥ + जीवेणं भंते ! नाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा! , का स्वरूप बतानेवाला पालामें बालाग्र भरनेका जो दृष्टांत कहा उस पालें में से समय २ में एक २ खण्ड नीकालते उद्धापल्य होवे ऐसे दश क्रोडाक्रोड कुवा खाली होवे सव उद्धा सागरोपम होवे, ऐसे अढाइ सागरोपम के जितने समय होते हैं उतने ही द्वीप समुद्र होते हैं. इन में सब जीव अनेक वक्त उत्पन्न हुवा. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का अठवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥६॥ गत उद्देशे के अन्त में उत्पन्न होने का कहा. उत्पन्न होना कर्म से होता है इसलिये कर्मबन्ध का अअधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुवा कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र छठा शतक का नवा उद्देशा 8 v M भावाथे 8 8 + Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि बांधे गो० गौतम स० सात बं० बांधे अ० आठ बं० बांधे बं० बंध उ० उद्देशा ने जानना ॥ १॥ दे० देव भ० भगवन् म. महर्दिक जा. यावत् म० महानुभाव बा० बाह्य पो० पुद्गल अ० बिनाग्रहण किये ५० समर्थ ए. एक वर्ण ए. एक रूप वि० विकुर्वणा करने को गो. गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य ॥ २ ॥ दे० देव भ० भगवन् बा० बाह्य पो• पुद्गल प० ग्रहण कर म० समर्थ है. हां प० समर्थ । ___ सत्तविह बंधएवा, अट्टविह बंधएवा, छव्विह बंधएवा, बंधुद्देसो पण्णवणाए नेयव्यो । ॥ १ ॥ देवेणं भंते! महिड्डीए जाव महाणुभाए बाहिरए पोग्गले, अपरियाइत्ता पभू एगवणं, एगरूवं विउवित्तए ? गोयमा ! नो इणढे समढे ॥ २ ॥ देवेणं भंते ! करता है ? अहो गौतम ! जीव सात प्रकार की व आठ प्रकार की कर्ममकृतियों का बंध करता है. जब आयुष्य कर्म का बंध नहीं करता है तब सात, आयुष्य कर्म का वध करता है तब आठ, और दशवे गुण स्थान में मोहनीय और आयुष्य दोनों कों का बंध नहीं करता है तब छ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है. इस का विशेष अधिकार पनवणा सूत्र के चौवीसवे पद में कहा है ॥ १॥ अहो भगवन् ! महा ऋद्धिवंत यावत् महानुभाग देव वाहिर के पुद्गलों ग्रहण किये बिना क्या एक वर्ण एकरूप (एक सरीखा आकारवाला शरीरादि ) बनाने को क्या समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थयोग्य नहीं है. अर्थात् देव इस तरह वैक्रेय बनाने को समर्थ नहीं है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! क्या महर्दिक यावत् महानु । *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवतीं ) सूत्र से० वह मं० भगवन् किं० क्या इ० यहां रहेहुवे पो० पुद्गल १० ग्रहण कर वि० विकुर्वणाकरे त० तहां ( रहेहुवे पो० पुद्गल प० ग्रहणकर वि० त्रिकुणाकरे अ० अन्यत्र रहेहुवे पो० पुगल प० ग्रहणकर वि० विकुर्वणाकरे गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ म योग्य || ३ || दे० देव मं० भगवन् म० महर्द्धिक बाहिरए पुग्गले परियाइत्ता पभू ? हंता पभू । णं भंते! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ अण्णत्थगए पोग्गले परिया इत्ता विउव्वइ ? गोयमा ! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता, विउव्वाइ, एवं एएणं गमेणं एगवण्णं, एगरूवं, जाव अणेगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो ॥ ३ ॥ भाग देव बाहिर के पुगलों ग्रहण कर के वैक्रेय बनाने को समर्थ है ? हां गौतम ! देव वाहिर के पुहलों ग्रहण कर के वैक्रेय करने को समर्थ है. अहो भगवन् ! क्या वह यहां मनुष्य क्षेत्र गत पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रेय करे, अथवा वह रहे हुवे पुगलों को ग्रहण कर वैक्रय करे, अथवा { अन्यत्र के पुद्गल ग्रहण करे वैक्रेय करे ? अहो गौतम ! देवलोक में रहेहुवे पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रेय बनाता है परंतु मनुष्य क्षेत्र अथवा अन्यस्थान के पुद्गल ग्रहण कर वैक्रेय नहीं बनाता है. (इस प्रकार से एकवर्ण, एक रूप व अनेक वर्ण अनेक रूप ऐसे चार भांगे जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् *++ छठ्ठा शतकका नववा उद्देशा ८४७ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४८ शब्दार्थ जा० यावत् म० महानुभाग वा बाह्य पो० पुद्गल अ० विनाग्रहण किये प० समर्थ का० काले पो• पुद्गले देवेणं भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभागे, बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालगं पोग्गलं नीलयपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए, नीलं पोग्गलंवा कालए पोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? गोयमा ! नो इण? समठे, परियाइत्ता पभू ॥ सेणं भंते ! किं इहगए । पोग्गले तंचेव नवरं परिणामेडत्ति भाणियत्वं । एवं कालगपोग्गलंलोहिय पोग्गलत्ताए एवं कालएणं जाव सुकिल्लं, एवं नीलएणं जाव सुक्किलं । एवं लोहिएणं जाव सुकिलं. एवं हालिद्दएणं जाव सुकिलं एवं एयाए परिवाडीए गंधरसफास भावामहद्धिक यावत् महानुभाग देव बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये बिना काले पुद्गलों को नीले पुद्गलों में व नीले पुद्गलों को काले में परिणमाने को क्या समर्थ हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. परंतु बाहिर के पुद्गलों ग्रहण करके काले का नीले में व नीले का काले में परिणमाको को समर्थ है और वह वहां । के ही पुद्गलों ग्रहण कर परिणमाते हैं. जैसे काला नीला का कहा वैसे ही काला व लाल, काला व पाला, और काला व शुक्ल पुदल परिणमाने का जानना. ऐसे ही दो गंध, पांचरस, व आठ स्पर्शका जानना. १ काला नीला, २ काला लाल ३ काला पीला ४ काला श्वत ५ नीला लाल, ६ नीला पीला ७ नीला श्वेत, ८ लाल पीला ९ लाल श्वेत और १० पीला श्वेत यह दश भांगे हुए. ऐसे ही गंध वारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी १ १.१ अनुवादक-बालब्रह्म *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श सूत्र भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णांत ( भगवती ) सूत्र को नी० नीले पो० पुगलपने प० परिणमें ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ पूर्ववत् ॥ ६ ॥ ९ ॥ कक्खड फास पोगलं, मउअ फास पोग्गलत्ताए एवं दो दो गरुअ लहुअ सीय उसिण णिडलुक्वण्णाई, सव्वत्थ परिणामेइ आलावगा य दो दो पोग्गले अपरियाइत्ता परियाइत्ता॥४॥ अविसुद्धले सेणं भंते! देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धले सं देवं देवं अण्णतरं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो णट्ठे समट्टे ॥ एवं अविसुद्ध लेस्से असमोहणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं अविसुद्धले से समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्ध पांचरस के व आठ स्पर्श के दो २ भांगे ग्रहण करना. कर्कशको कोमलपने परिणमावे व कोमलको कर्कशपने परिणमावं गुरु को लघुपने परिणमावे लघुको गुरुपने परिणमात्रे शीत को ऊष्ण व ऊष्ण को शीतपने परिणमावे, स्निग्ध को रूक्षपने व रूक्ष को स्मिगधपने परिणमावे. बाहिर के {पुद्गलों ग्रहण किये बिना नहीं परिणमा सकता है, परंतु बाहिर के पुद्गलो ग्रहण कर परिणमा सकता है यह सब परिणमानेका अधिकार कहा ॥ ४ ॥ यह देवशक्ति कही अब देवशक्तिकी भिन्नता बतलाते हैं. ११ अविशुद्धलेशी देव, अमसवहतात्मदेव, और विशुद्धलेशी देवादिक इन तीन पद के १२ विकल्प कहते अहं भगवन् ! विभंगज्ञान वाले देव उपयोग रहित आत्मासे विभंग ज्ञानवंत देवता देवी व अन्य किसी को क्या ज्ञान से जान सकते हैं व दर्शन से देखसकते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. ऐसे 4480 छठ्ठा शतक का नवत्रा उद्देशा ८४९ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषीजी भावार्थ | लेसं देवं, अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, अविसुद्धलेसे समोहया स मोहएणं अविसुद्धलेसंदेवं,अविसुद्धलेसे देवे समोहया समोहएणं विसुद्धलेसं देवं विसुद्धलेहै सेदेवे असमोहएणंअधिसुद्धलेसं देवं त्रिसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं, विसुद्ध लेसेणं भंते ! देवे समोहएणं अविसुद्ध लेसं देवं जाणइपासइ ? हंता जाणइ पासइ, एवं विसुद्ध समो हए विसुद्धलेसं देवं,विसुद्ध समोहयासमोहएणं अविसुद्धलेसं देवं,विसुद्ध समोहयासमोहएणं, ही २ विभंगज्ञानवंत देव उपयोग रहित आत्मा से अवधि ज्ञानवंत देव, देवी या अन्य को नहीं जान व देख सकते हैं. विभंग ज्ञानवंत देव उपयोग सहित आत्मासे विभंग ज्ञानी देव, देवी व अन्य किसी को नहीं जान सकता है ४ विभंग ज्ञानी उपयोग सहित अवधिज्ञानी देवादि को नहीं जान सकता है, ५ विभंगज्ञानी देव उपयोग सहित व रहित आत्मा से विभंगज्ञानवंत देव देवी या अन्य किसी को नहीं जान सके ६ विभंग ज्ञानी उपयोग सहित या रहित आत्मा से अवधिज्ञानवंत देव देवी को नहीं जान व देख सकते हैं, यह छ भांगें मिथ्यादृष्टि देव के जानना*७ अवधिज्ञानी देव उपयोग रहित आत्मा से विभंग ज्ञानवंत देव देवी या अन्य किसी को नहीं जान सके व नहीं देख सके, ८ अवधिज्ञानी देव उपयोग रहित ___ * इस में से तीन भांगे उपयोग रहित वाले हैं. उपयोग रहित जीव कदापि नहीं जानसकता व देख सकता है. परंतु से उपयोग सहित मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व व अज्ञान के प्रभाव से यथार्थ वस्तु स्वरूप नहीं जान सकता हैं इसलिये छ भांगे नहीं है १ जानने व नहीं देखने के कहे है. * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालामसादजी . 42 अनुवादक Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ | 403 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अ० अन्यतीर्थिक भै० भगवन् ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते हैं जा० जितने रा० राजगृह न० नगर में जी० जीव ए इतने जी० जीव को नो० नहीं च० शक्तिवन्त के कोइ सु० विसुद्धले देवं, एवं हैट्ठिलएहिं अट्ठहिं नजागइ नपासइ, उवरिल्लएहिं चउहिं जाणइपास, ॥ सेवं भंते भंते ति ॥ छट्टए नवमो उदेसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ९ ॥ * अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खति जाब परूवंति जावइया रायगिहे पणगरे जीवा एवइयाणं जीवाणं नो चक्किया केइ सुहंवा दुहंवा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निप्पाव आत्मा से अवधिज्ञानी को नहीं जान सके व देख सके, ९ अवधिज्ञानी उपयोग सहित आत्मा से विभंग (ज्ञानी देव, देवी या अन्य को जान सके व देख सके, १० विभंग ज्ञानी उपयोग सहित आत्मा से अवधि ( ज्ञानी देव, देवी या अन्य किसी को जान व देख सके, ११ अवधि ज्ञानी उपयोग सहित व रहित आत्मा से विभंग ज्ञानी को जान व देख सके और १२ अवधि ज्ञानी उपयोग सहित व रहित आत्मा से अवधि (ज्ञानीको जान व देखसके यह छ भांगे समदृष्टि आश्री कहे हैं. इनमें से आठ भांगेवाले नहीं जान व नहीं देख सकते हैं. अहो मगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुआ. ॥६॥९॥ * नवत्रे उद्देशे में अज्ञानिया को जानने का अभाव कहा. अब दशवे उद्देशे में इसकाही स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि राजगृही नगरी में जितने जीव हैं उन को छठ्ठा शतकका दशना उद्देशा ८५१ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुख दु० दुःख जा. यावत् को० गुठली मात्र नि. वाल मात्र क० कलम मा० मात्रभी मा० उडद मा० मात्रभी मु० मुंगमात्र जू० यूकामात्र लिलिखमात्र अ० निकालकर उ० बताने को से० वह क. कैसे भं० भगवन् ए० ऐसा गो० गौतम ज० जो ते वे अ० अन्यर्थिक ए. ऐसा आ० कहते हैं जा यावत् मि० मिथ्या ते के ए. ऐसा आ० कहते हैं अ० मैं पु फीर गो० गौतम ए. ऐसा आ० कहता हूं जा. यावत् प० प्ररूपता हूं सः सर्व लोक में स० सर्व जीव नो० नहीं च० शक्तिवंत के० कोई सु० मायमवि, कलममायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमवि, जूयमायमवि, लिक्खमायमवि, अभिनिव्वदृत्ता उवदंसित्तए से कहमेयं भंते! एवं? गोयमा ! जण्णं ते. अण्णउत्थिया एवं माइक्खंति जाव मिच्छं ते एव माहंसु । अहं पुण मोयमा ! एक माइक्खामि जाव परूवेमि सब्बलोए वियणं सव्वजीवाणं नो चकिया केइ सुहंवा तं चेत्र जाक भावार्थ कोई भी जीव बेर जितना, वाल जितना, मुंग, उडद, लींख वयूका जितनाभी सुख दुःख नीकालकर बतासकता नहीं है. अहो भगवन् ! उन का यह कथन किस तरह है ? अहो मौतम ! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं वे मिथ्या ऐसा कहते हैं. मैं ऐसा कहता हूं यावत् मरूपता हूं कि संपूर्ण लोकमें किसी जीव को बेरकी गुठली जितना यावत् यूका जितना मुख दुःख नीकाल कर बताने को कोई 15 समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! यह जम्बूद्वीप एक लक्ष. योजन. का 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक : *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द । ती) मूत्र 488 ४५३ दार्थक सुख दु० दुःख जा. यावत् उ० बताये से वह के० कैसे गो० गौतम अ० वह जं. जंबूद्वीप जा. यावत् वि० विशेषाधिक प० परिधि ५० प्ररूपी दे० देव म० महर्दिक जा० यावत् म० महानुभाग ए० एक म०% वडा स० विलेपन सहित ग• गंधका मु० डबा ग० लेकर तं० उसको अ. उघाडकर जा. यावत् इ०१ ऐसा क० करके के. संपूर्ण जं० जंबूद्वीप को ति० तीन अ० चिपटी से ति• इक्कीसवार अ० पर्यटणा करके ह. शीघ्र आ. आवे से वह नू निश्चय गो० गौतम से. वह के० केवलकल जं. जम्बूद्वीप ति. उस घा० घाणेन्द्रिय के पो० पुद्गल फु० स्पर्श है. हां फु० स्पर्श च. शक्तिवन्त गो गौतम के० कोई उवदंसित्तए ॥ से केणटेणं ? गोयमा ! अयणं जंबूद्दीवेदीवे जाव विसेसाहिए परिहै खेवेणं पण्णत्ते, देवेणं महिट्ठीए जाव महाणुभागे एग महं सबिलेवणगंधसमुग्गमं । गहाय तं अवदालेइ अवदालेत्ता जाव इणामेवत्ति कह केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखत्तो अणुपरियहित्ताणं हवमागच्छेजा ॥ सेणूणं ___गोयमा! से केवलकप्पे जंबूद्दीवेदीवे तिहिं घाणपोग्गलेहि फुडे, हंता फुडे । चक्कियाणं गोलम्मा चौडा है उस की परिधि ३१६ २२७ योजन से कच्छ विशेषकी है ऐसा जम्बूद्वीप को कोई महादक यावत् महानुभाग देव विलेपन वाला किसी सुगंधी पात्र को खुल्ले मुखसे हस्त में लेकर तीन चपटिका में इक्कीस वक्त संपूर्ण जम्बूद्वीप की आवर्तना करे. तब अहो गौतम ! क्या वह गंध संपूर्ण 48 छठा शतकका दशवा उद्देशा * * पंचमांग get Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *ते. उस घाघ्राणेन्द्रिय योग्य पो० पुद्गल को को. गुठलीमात्र जा. यावत् उ० बताने को गो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ से वह ते० इसलिये जा. यावत् उ० बताने को ॥१॥जी० जीव भं० भगवन् .. ० चैतन्य जी० चैतन्य जी० जीव गो० गौतम जी. जीव जा. यावत् नि. निश्चय जी० चैतन्य जी चैतन्य नि० निश्चय जी० जीव ॥ २॥ जी० जीव भं० भगवन ने० नारकी ने० नार है यमा ! केइ तसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्रिमायमवि जाव उवदंसित्तए ! णो इण. | टे समटे ॥ सेतेणट्रेणं जाव उवदसित्तए ॥१॥ जीवेणं भंते ! जीवे जीवे जीवे? गो- . । यमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीववि नियमा जीवे ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! नेरइए । भावार्थ जम्बूद्वीप मे विस्तृत होती है ? हां भावन् ! वह गंध संपूर्ण जम्बूद्वीप में विस्तृत होती है. तब अहो गौतम! उस गंघमें से वेरकी गुटली प्रमाण यावत् यूका प्रमाण पुद्गलोंको पृथक कर बतानेको क्या समर्थ है? अहो भगवन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वैसे बताने को समर्थ नहीं है. इसी तरह जीव सुख दुःख स्पर्शता है परंतु पृथक् करके बताने को समर्थ नहीं होता है ॥१॥ सुख दुःख का भोक्ता जीव होने से जीव संबंधी प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! जो जीव है वह क्या चैतन्य है और जो चैतन्य है सो जीब है ? अहो गौतम! चैतन्य व जीव परस्पर अविनाभूत है, अर्थात् जीव विना चैतन्य नहीं व चैतन्य विना जीव नहीं, इसलिये चैतन्य है वह जीव है और जीव है वह चैतन्य है॥२॥अहो भगवन् ! क्या जीव है सो नारकी है व 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमालक ऋषिजी .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १११ की जी जीव गो० गौतम ॥ ३ ॥ पूर्ववत् ॥ ४-५-६ ॥ अ० अन्यतीथिक भ० भगवन् ए. ऐसा आ भा नेरइए जीवे ? गोयमा नेरइए ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय नेरइए सिग गले. । रइए । जीवेणं भंते ! असुरकुमारे २ जीवे ? गोयमा ! असुरकुन्नर नाव का जीवे जीवे पुण सिय असुरकुमारे सिय णो असुरकुमारे, एवं दंडओ भाणियव्यो वेमाणियाणं ॥ ३ ॥ जीवइ भंते ! जीवे जीवे जीवइ ? गोयमा जीवइ ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय जीवइ सिय नो जीवइ ॥४॥ जीवइ भंते ! नेरइए २ जीवइ ? नारकी है सो जीव है ? अहो गौतम ! नारकी नियमा जीव होती है और जीव नरक में उत्पन्न होता है है तब नारकी होता है और अन्य स्थान उत्पन्न होता है तब नारकी नहीं होता है, इसलिये क्वचित् । नारकी होता है और क्वचित् नारकी नहीं होता है. अहो भगवन् ! क्या जीव असुरकुमार है या असुर कुमार जीव है ? अहो गौतम ! असुरकुमार नियमा जीव है और जीव क्वचिन् असुरकुमार है हैं व क्वचित् नहीं है. ऐसे ही चौवीस दंडक का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! प्राण धारण करता है | वह जीव है अथवा जीव है वह प्राण धारण करता है ? अहो गौतम ! जो प्राण धारण करता है वह नियमा जीव है, क्योंकि एकेन्द्रियादि प्राण धारण करनेवाला जीव होता है और जो जीव है वह प्राण धारणकरता भी है और नहीं भी करता है क्योंकि जीव संसार अवस्थामें प्राण धारण करता है परंतु सिद्धा-२४ AAAAAAAAmwarPAAN पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4624 छठा शतक का दशवा उद्दशा 80P भावार्थ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | * { कहते हैं जा • यावत् १० प्ररूपते हैं स० सर्व पा० प्राण भू० भूत जी० जीव स० सत्य ए० एकान्त दु० (दुःख वं० वेदना वे० वेदते हैं से ० वह क० कैसा मं० भगवन् ए० ऐसा गो० गौतम ज० जो ते० वे अ० अन्य तीर्थिक जा० यावत् मि० मिथ्या ए० ऐसा आ० कहते हैं अ० मैं पु० फीर गो० गौतम ए० ऐसा सूत्र भावार्थ | 49 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोमा ! नेता नियमा जीवइ जीवइ पुण सिय नेरइए सिय अनेरइए एवं दंडओ नेयव्वो जव मणियाणं || ५ || भवसिद्धिएणं भंते ! नेरइए नेरइए भवसिद्धिए ? गोथमा ! वस्था में प्राण धारण नहीं करता है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जो प्राण धारण करता है वह क्या नारकी है अथवा जो नारकी है वह प्राण धारण करता है ? अक्षे गौतम ! जो नारकी है वह निश्चय ही प्राण धारण करता है और जो प्राण धारण करता 'वह क्वचित् नारकी है और क्वचित नारकी नहीं है. ऐसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! जो भव्य होते हैं वे क्या नारकी होते हैं। अथवा जो नारकी होते क्या. भव्य होते हैं ? अहो गौतम ! जो भव्य होते हैं वे नारकी होते हैं। {व नहीं भी होते हैं और जो नारकी होते हैं वे भी क्वचित् भव्य होते हैं और क्वचित् अभव्य होते हैं. ऐसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना || ६ || अहो भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् मरूपते हैं कि सब प्राणभूत जीव व संस्व एकान्त दुःख वेदते हैं तो यह किस तरह है ? जो अन्यतीर्थिक ऐसा करते हैं वे मिथ्या ऐसा कहते हैं अर्थात् उन का कथन मिथ्या है, वे अहो गौतम ! | परंतु मैं ऐसा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # ८५६ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4948 पंचांग विवाह पष्णत्ति ( भवगती ) सूत्र (आ कहता हूं जा० यावत् ५० प्ररूपता अ० कितनेक पा० प्राण भू० भूत जी० जीव स० सत्व ए० एकान्त दुः दुःख वे० वेदना वे वेदते हैं आ० अथवा सा० साता अ० कितनेक ए० एकान्त सा० भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए, नेरइए सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिए ॥ एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ ६ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते । एवं माइक्रांति जाव परूवंति एवं खलु सव्वपाणा भूया जीवा संत्ता एगंत दुखं वेयण वेयंति से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण ते अण्णउत्थिया जात्र मिच्छंते, एव माहंसु । अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जाव परूवेोमे अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एतदुक्खं वेणं वेयंति । आहच सायं वेयणं वैयंति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि कितनेक प्राण भूत जीव व सख एकान्त दुःखवाली वेदना वेदते हैं और कदाचित् साता वेदना भी वेदते हैं, कितनेक प्राणादि एकान्त साता वेदना वेदते हैं और कदाचित असा - ता वेदना भी वेदते हैं. और कितनेक प्राण भूत, जीव व सख मर्यादा रहित वेदना वेदते हैं तो क्वचित् साता असाता दोनों वेदते हैं. अहो भगवन् ! यह किस तरह ? अहो गौतम ! नारकी एकान्त दुःख मय वेदना वेदते हैं परंतु क्वचित् यम के वियोग से अथवा तीर्थकरादिक के जन्म में साता वेदना वेदते हैं. ऐसे ही भुवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक ये चारों प्रकार के देव एकान्त साता वेदना वेदते हैं, ** छठा शतकका दशवा उद्देशा ८५७ Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी साता वे वेदना वे० वेदते हैं आ० अथवा अ० असाता दे. वेदना के वेदे ॥ ७ ॥ ने नारकी भ.. भगवन् जे. जो पो० पुद्गल अ० आत्मा से आ० ग्रहणकर आ० आहार करते हैं ते० वे किं. क्या आ० सत्ता एगंतसायं वेयणं वेयंति आहच्च असायं वेयणं वेयंति ॥ अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता बेमायाए वेयणं वेयंति, आहच्च सायमसायं ॥ से केणट्रेणं ? गोयमा ! नरइयाणं एगत दुक्खं वेयणं वेयंति, आहच्च सायं।भवणवइ, वाणमंतर, जोइस,वेमाणिया एगत सार्यवेयति,आहच्च असायं। पुढविकाइया जाव मणुस्सा बेमायाए वेयणंवेयंति,आहच्च सायम सायं से तेणटेणं ॥७॥ नेरइयाण भंते ! जे पोग्गला अत्तमायाए आहारंति ते किं. आयसरीरखेतोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति अणंतर खेतोगाढे पोग्गले परंतु चवण काल में अथवा वज्र प्रहारादि से असाता वेदना वेदते हैं. पृथ्वीकायादि से मनुष्य पर्यंत जीव को मर्यादा रहित वेदना है तथापि क्वचितू साता व क्वचित् असाता ऐसे दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं ॥ ७॥ साता असाता वेदना आहार के पुद्गलों से होती है इसलिये आहार संबंधी प्रश्न करते | हैं अहो भगवन् ! नरक का जीव आहार करने योग्य पुद्गलों को आत्मा से आहारपने ग्रहण करता है वह क्या स्वशरीर क्षेत्र अवगाहित पुद्गलों का आहार करता है, अनंतर क्षेत्र अवगाहित पुद्गलों का आहार करता है अथवा परंपरक्षेत्र अवगाहित पुठूलों का आहार करता है ? अझे गौतम ! नारकी स्वशरीर ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 990 ८५९ शब्दार्थ आत्मा स० शरीर खे० क्षेत्र औ• अवगाहित पो• पुद्गल अ० आत्मा से आ० ग्रहणकर आ• आहार Too करे अ० अंतर रहित खेल क्षेत्र ओ० अवगाह्य पो० पदल अ. आत्मा से आ० ग्रहणकर १० परंपर Vखे० क्षेत्र ओ० अवगाहित पो० पुद्गल अ. आत्मा से अ० ग्रहण कर आ० आहार करते हैं ॥ ८॥ के०१. केवळी भं० भगवन् आ० इन्द्रिय से जा० जाने पा० देखे गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य अत्तमायाए आहारंति, परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति ? गोयमा ! आय सरीर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति नो अणंतर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति, नो परंपर खेत्तोगाढे । जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ ॥ ८ ॥ केवलीणं भंते! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणढे समढे । से केण?णं ? गोयमा ! केवलीणं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ, अमियंपि जाणइ. जाव निव्वुडे सणे केवलिस्स से तेण?णं ॥ जीवाणय सुहं दुक्खं, जीवे भावार्थ क्षेत्रावगाहित आहार करने योग्य पुद्गलों का आहार करता है परंतु "अनंतर व परंपर क्षेत्रावगाहित पुद्गलों का आहार नहीं करता है. नारकी जैसे वैमानिक तक सब दंडक का जानना ॥८॥ अहो भगवन् ! क्या केवली इन्द्रियों से जानते हैं व देखते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्यों कि केवली पूर्व में में मर्यादित व अमर्यादित जानते हैं व देखते हैं यावत् उन का ज्ञान आवरण रहित निर्मल रहा हुआ है। 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र छठा शतकका दशवा उद्देशा - Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 से० वह के० कैसे गो गौतम के केवली पु० पूर्वे मि० मर्यादायुक्त अ० मर्यादा रहित जा० जाने जा. यावत् णि निराबरण दं० दर्शन के० केवली को ते० इसलिये ॥ ६ ॥ सूत्र । __ जीवइ तहेव भवियाय । एगंत दुक्ख वेयण, अत्तमायाय केवली ॥ सेवं भंते भंतेत्ति॥ 3 छ?सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ६ ॥ १० ॥ छट्ठसयं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ भावार्थ इसलिये केवली इन्द्रियों से नहीं जानते हैं, व नहीं देखते हैं इस उद्देशे का सारांश कहते हैं. जीव का सुख, दुःख, चैतन्य, प्राण, भव्य, एकान्त दुःख, आहार व केवली. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य । हैं. यह छठा शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुआ ॥६॥१०॥ और छठा शतक भी समाप्त हुआ ॥ ६॥ * 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी * Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ॥ सप्तम शतकम् ॥ अ० असंवृत अ० अन्यतीर्थिक ८० दश स० सातवे स० आ० आहार ०ि विरति था० स्थावर जी० जीव प० पक्षी आ० आयुष्य अ अनगार छ छद्मस्थ शतक में ते० उस काल ते उस समय ( में जा० यावत् ए० ऐसा व० बोले जी० जीव भ० भगवन् कं० किंस स० समय में अ० अनाहारिक आहार विरति थावर, जीव पक्खीय आउ अणगारे ॥ छउमत्थासंवुड अण्णउत्थि दस सत्तमंमि सए तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी जीवेणं छठे उदेशे में जीवादि पदार्थ की व्यक्तव्यता कही सातवेंमें भी उसका विशेष स्वरूप कहते हैं सातवे शतक में दश उद्देशे कहे हैं जिनके नाम १ आहारक व अनाहारक विचार २ प्रत्याख्यान विचार, ३ वनस्पति वि चार, ४ संसारी जीव का, ५ पक्षी की योनिका, ६ आयुष्य का ७ अनगार का ८ छद्मस्थ मनुष्य का ९ असंवरी अनगार का और १० अन्य तीर्थिक का विचार उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर (स्वामी से श्री गौतम स्वामीने प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! परभव जाता हुवा जीव किस समय में { अनाहारक होता है ? अहो गौतप ! जीव काचित् प्रथम समय में आहारक होता है और क्वचित् अनाहारक होता है. जब जीव ऋजुगातसे उत्पात्ते स्थान में जाता है तब परभव के आयुष्य वाला 48484 सातवा शतक का पहिला उद्देशा 0808502 ८६). Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ ॐ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *-- जीव समय भ० होवे गो० गौतम प० प्रथम स० समय में सि० कदाचित् आ० आहारिक सि० कदाचित् अ० अनाहा(रिक बि० दूसरे स० समय में सि० कदाचित् आ० आहारिक सिं० कदाचित् अ० अनाहारिक त भंते ! कं समय मणाहारए भवइ ? गोयमा ! पढमे समये सिय आहारए सिय अणाहारए, चितिए समये सिय आहारए सिय अनाहारए, तइए समए सिय आहारए प्रथम समय में आहारक होता है और जब विग्रहगति से जाता है तत्र प्रथम समय में अनाहारक { होता है. क्योंकि उत्पत्ति स्थान को प्राप्त नहीं होने से वहां आहार योग्य पुगलों का अभाव है. दूसरे में जीव क्वचित् आहारक व क्वचित् अनाहारक होता है. जब एक वक्र गति से उत्पन्न होता है तब प्रथम समय में अनाहारक व दूसरे समय में आहारक होता है और जब दो वक्रगति से उत्पन्न होता है तब { प्रथम व दूसरे समय में अनाहारक व तीसरे समय में आहारक होता है. इस से दूसरे समय में जीव (क्वचित आहारक व क्वचित् अनाहारक होता है. तीसरे समय में भी जीव आहारक व अनाहारक होता है. जब दो वक्र से जीव उत्पन्न होता है तब तीसरे समय में आहारक होता है और तीन वर्क से जब १ त्रस नाडी से बाहिर अधोलोक की विदिशी में रहा हुवा कोई जीव चवकर ऊर्ध्व लोक में उत्पन्न होने वाला होवे तो वह जीव एक समय में विषम श्रेणि से समश्रेणि पर जावे दूसरे समय में बस नाडी में प्रवेश करे तीसरे एय में ऊर्ध्व लोक में गमन करे और चतुर्थ समय में त्रस नाडी बाहिर नीकल कर उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होकर आहार करता है. ( * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८६२ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tage शब्दार्थ तीसरे स० समय में सि० कदाचित् आ० आहारिक सि. कदाचित् अ० अनाहारिक च० चौथे स०समय में नि० निश्चय आ० आहारिक ए. ऐसे दे० दंडक जी० जीव ए. एकेन्द्रिय च० चौथे स. समय में से० शेष त तीपरे स० समय में ॥॥ जी जीव भ० भगवन् कं. किस स समय में स० सर्व मे थोडा आ० आहारिक भा होवे गो० गौतम ५० प्रथम समय में उ० उत्पन्न होते च० चरिम समय में भ. भवस्थ ए. यहां जी जीव स० सर्व से अ० अल्प आ० आहारिक भ० होवे दं० दंडक भा० सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए, एवं दंडओ जीवाय एगिदियाय चउत्थे समए, सेसा तइए समए ॥१॥ जीवेणं भंते ! के समयं सवप्पाहारए भवइ ? गोयमा ! पढम समयोववण्णए वा चरिम समय भवत्थे वा, एत्थणं जीवे भावार्थ उत्पन्न होता है तब तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है, और चतुर्थ समय में जीव निश्चय ही आहारक बनता है. ऐसेही सब दंडक वाले जीव तीन समय में आहाराक निश्चय ही होवे मात्र समुच्चय जीव व एकेन्द्रिय चतुर्थ समय में आहारक होवे ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! किस समय में जीव अल्प आहार करने 0 1603नाला होता है ? अहो गौतम! उत्पत्ति होने के प्रथम समय में शरीर छोटा होने से जीव अल्पाहारी होता है। और शरीर छोडने के अन्तिम समय में प्रदेशों का संहारन होने से शरीर छोटा होता है इसलिये अल्पाहारी, होता है. · इन दोनों समय में जीव अल्प आहारी रहता है. ऐसे ही वैमानिक तक पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र ka सातवा शतक का पहिला उद्देशा 8 th Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थकहना जा. यावत् वे० वैमानिक ॥ २॥ कि किस सं० संस्थान से मैं भगवन् लो. लोके ५० प्ररूपा : 19गो गौतम मु० मुप्रतिष्ठक सं० संस्थित लो० लोक हे अधो वि०विस्तीर्ण जायावत् उ० उपर उ० ऊर्ध्व मु० मृदंगाकार सं० संस्थित तं० उस सा० शाश्वत लो० लोक में हे० नीचे वि. विस्तीर्ण जा. यावत उ० उपर उ० ऊर्ध्व मु० मृदंगाकार सं० संस्थान उ० उत्पन्न ना• ज्ञान दं० दर्शनधरणहार अ० अर्हन् जि. जिन के० केवली जी० जीव जा० जाने पा० देखे त० पीछे सि० मीझे जा० यावत् अं० सव्वप्पाहारए भवइ, दंडओ भाणियन्वो जाव वैमाणियाणं ॥ २ ॥ किं संठिएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए हेट्ठा विच्छिण्णे जाव उप्पि उड्डमुइंगागारसंठिए, तंसि चणं सास्यसि लोगसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्ड मुइंगाकार संठियंसि उप्पण्ण नाण दंसण धरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ पासइ, तओ पच्छा सिझइ जाव अंतं करेइ ॥ ३ ॥ समणोकासगस्सणं भावार्थ चौविस दंडक का जानना, ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! कैसा संस्थान ( आकार ) वाला लोक कहा ? अहो गौतम ! शरावले के आकाग्वाला लोक कहा है. नीचे विशाल, मध्य में संकुचित । व उपर विशाल ऊर्धमृदंग के आकारवाला लोक कहा है. ऐसा लोकमें केवलज्ञान केवल दर्शन के धारक आरिहंत जिन केवलौ जीवों को जानते हैं व देखते हैं और पीछे सीझते हैं, वुझते हैं यावत् . १० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालाप्रसादनी * Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १० अंतकरे ॥ ३ ॥ स० श्रमणोपासक को भं० भगवन् सा• सामायिक का कियेहुवे स० श्रमणोपाश्रय में ० अ० रहेहुवे त° उस को भ० भगवन् किं. क्या इ० ईर्यापथिक् क्रिया क० करे सं० सांपयिक क्रिया क० करे गो० गौतम नो० नहीं इ० ईर्यापथिक क० करे सं० सांपरायिक क० करे से० वह के० कैसे ८६५ जा. यावत् सं० सांपरायिक गो० गौनम स० श्रमणोपासक सा० सामायिक क० करे हुवे स० श्रमणों कपाश्रय में अ० रहेहुवे आआत्मा अ.अधिकरणि की भ० होवे आ आस्मा अ० अधिकरण व प्रत्ययिक भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अत्थमाणस्स, तस्सणं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो ईरियावहिया किरिया कजइ से संपराइया किरिया कज्जइ ॥ से केणटेणं जाव संपराइया ? गोयमा ! समणोवास.. यस्सणं सामाइयकडस्स समणोवस्सए अत्थमाणस्स आया अहिगरणी भवइ, आअंत करते हैं. ॥ ३॥ अहो भगवन् ! साधु के संसर्ग में रहनेवाला सामायिक व्रत सहित श्रमणो. पासक को क्या ई-पथिक क्रिया लगती है या सांपरायिक क्रिया लगती है ? अहों गौतम ! उपाश्रय में}ge बैठा हुआ सामायिक व्रत युक्त श्रावक को ईर्यापथिक क्रिया नहीं लगती है परंतु सांपरायिक क्रिया है लगती है. अहो भगवन् ! किस कारन से सामायिक व्रत युक्त श्रमणोपासक को सांपरायिक क्रिया | लगती है ? अहो गौतम ! सामायिक व्रत युक्त श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरण की होती है. इस तरह । पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 338. anamannamonommnnanoon 3387> सातवा शतक का पहिला उद्देशा 480 Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ त० उस को नो नहीं इ० ईर्यापरिक क्रिया क. करे सं. सांपयिक क्रिया क. करे ॥ ४ ॥ स./ श्रमणोपासक को भे० भगवन् पु. पहिले त त्रस प्राण का स० समारंभ का ५० प्रत्याख्यान भ० होने पृथ्वी का स० समारंभ में अ० अप्रत्याख्यान भ० होने से वह पु० पृथ्वी को ख० खौदर हुवा अ० किसी त. सप्राणी को वि० हणे से उन को भ० भगवन् तं. उस व्रत में अ० मतिः नो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य नो० नहीं त• उन का अ० अतिपात में आ० वर्तता है।५॥पूर्ववत्॥६॥ याहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो ईरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ से तेणट्रेणं॥४॥ समणोवासगस्सणं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चक्खाए भवइ, 1 पुढवि समारंभे अपच्चक्खाए भवइ सेय पुढविं खणमाणे अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, सेणं भंते !तं बर्य अइचरइ ? णोइण? समढे॥ नो खलु से तस्स अइवायाए आउदृइ॥५॥ अधिकरणिकी क्रिया प्रत्यायकी सांपरायिक क्रिया. उस को लगती है परंतु ईर्यापथिक क्रिया नहीं, लगती है. ॥४॥ अहो भगवन् ! श्रावक को प्रसप्राण के समारंभ का प्रत्याख्यान पहिले से ही है परंतु पृथ्वीकायादिक के समारंभ का प्रत्याख्यान नहीं है. यदि पृथ्वीकाय खोदते हुवे श्रावक किसी त्रसप्राणी की हिंसा करे तो क्या वह व्रतभंग करता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. 14 अर्थात् श्रावक के व्रतका भंग नहीं होता है. क्यों कि उस को प्रसवध का संकल्प नहीं था ॥५॥ श्रावक अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी 8 बकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maramanan शब्दार्थईस० श्रमणोपासक भ० भगवन् त० तथारूप स० श्रमण मा० माहण फा० फाशुक ए० शुद्ध अॅ० अंशन है। पा० पान खा. खादिम सा० स्वादिम प० देता किं० क्या ल० प्राप्त करे गो० गौतम स० श्रमणोपासक त तथारूप स. श्रमण को जा. यावत् प० देता त० तथारूप स- श्रमण मा० माहण को स० समाधि or ८६७ समणोवासयस्सणं भंते ! पुवामेव वणप्फइ समारंभे पञ्चक्खाए सेय पुढवि खणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेजा, सेणं भंते ! वयं अतिचरति ? णो इण? समढे, नो खलु से तस्स अइवायाए आउदृइ ॥ ६ ॥ समणोवासएणं भंते ! तहारूवं समणंवा माहणंवा फासुएसणिजेणं असणपाण खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लभइ ? गोयमा समणोवासएणं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स वनस्पति काया का समारंभ करने का प्रत्याख्यान पहिले से ही है परंतु पृथ्वीकाय के सभारंभ का प्रत्याख्यान नहीं हैं. अब पृथ्वीकायको खोदते हुवे वृक्षका मूल छेदानावे तो क्या उनको व्रतभंग होवे?अहो गौतम! यह अर्थ योग्य नहीं है. क्योंकी वनस्पति की हिंसामें उनका संकल्प नहीं है.॥६॥अहो भगवन्! श्रमणोपासक तथारूप श्रमणको फामुक एषणिक आहार, पान, खादिम व स्वादिम देते हुवे क्या प्राप्त करे ? अहो गौतम ! श्रमणो. पासक तथारूप श्रमण माहण को अशनादि देते हुवे को समाधि ( मुख ) उत्पन्न करे. और इस तरह है। 48 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती.) सूत्र 28488 साता शतकका पहिला उद्देशा Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ <१०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उ० उपजावे स० समाधि करने से ता० उतही स० समाधि को प० प्राप्तकरे भ० भगवन् त० तथारूप स० श्रमण को जा०यावत् प० देता किं० क्या च दु दु:त्याग च० त्यजे दु० दुष्कर क० करे दु० दुर्लभ ल० प्राप्त करे वो० (सि० सीझे जा० यावत् अ० अंत क० करे ॥ ८ ॥ अ० है भं० भगवन् अ० अकर्मवाले को ग० गति ॥ ७ ॥ स० श्रमणोपासक त्यजे जी० जीवित च० त्यजे बोधि बु० जाने त० पीछे समणस्सवा' माहणरसवा, समाहिं उप्पाएइ, समाहि कारएणं तामेव समाहिं पडिलभइ ॥ ७ ॥ समणोत्रासएणं भंते ! तहारूवं समणंवा जाव पडिलाभेमाणे किं चयइ ? गोमा ! जीवियं चयइ, दुच्चयं चयइ, दुक्करं करेइ, दुलहं लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंत करेइ ||८|| अत्थिणं भंते ! अकम्पस्स गई पण्णायइ उन को समाधि उत्पन्न करता हुवा स्वयंही वैसाही समाधि प्राप्त कर सकता है. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! | तथारूप श्रमण साहण को अशनादि देते हुवे किस का त्याग करे ? अहो गौतम ! कर्म की दीर्घस्थितिरूप जीवित व कर्म द्रव्य का संचय का त्याग करे. कठिनतासे करने योग्य ऐसा जो अपूर्व करण उस से ग्रान्येनद करे, अनिवृत्ति करण की प्राप्ति दुर्लभ है उसे प्राप्त करे, सम्यक्त्वरूप बोधि को जाने, 'फोर सीझे बुझे व सब दुःखों का अंत करें ८ ॥ सब दुःख का अंत करने वाला मुक्ति में जाता ॥ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८६८ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५० जानते हैं हं० हां अ० है क कैसे भं• भगवन् अ. अर्भवाले की ग० गति प० जानी जाती है । 1. गौतम नि० संगरहित निः रंगरहित ग० गतिस्वभाव से बं० बंधन छेदन से नि० इंधन सहित पु०१० ॐ पूर्वप्रयोग से अ. अकर्म की ग० गति प० जानी जाती है क कैसे भ भगवन् निसंगरहित नि० रंगरहित ग. गतिस्वभाव से अ. अकर्म की ग. गति १० जानी जाती है गो० गौतम से वह जे. जैसे के. कोई पुरुष मु० शुष्क तुं० तुंबा नि० छिद्ररहित नि० आघात रहित. आ० अनुक्रम से ५० संस्कार कराया हंता अत्थि ॥ कहणं भंते ! अकम्मस्स गई पण्णायइ ? गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए, गइपरिणामेणं, बंधणच्छेयणयाए, निरिंधणयाए, पुवप्पयोगेण, अक} म्मस्स, गई पण्णायइ ॥ कहणं भंते ! निस्संगयाए निरंगणयाए, गइपरिणामेण, अकम्मस्स गई पण्णायइ ? गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिदं निरुवहयं आणुपुवीए परिकम्ममाणे २ दब्भेहिय, कुसेहिय, वेढेइ, अट्ठहिं मट्टिया भावार्थ इमलिये मुक्ति का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! कर्म रहित जीव की क्या गति है ? हां गौतम ! कर्म रहित जीव की गति है. अहो भगवन् ! कर्म रहित जीव की कैसे गति होती है ? अहो गौतम ! संग नहीं होने से, मोह नहीं होने से, गति पारणाम से, बंध का छेद करने से, एरंड बीज समान कर्म इंधन रहित 19 होने से व पूर्व प्रयोग ऐसे छ कारनों से कर्म रहित जीव की गति है. अहो भगवन् ! संम, मोह नहीं है 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 898 > सातत्रा शतकका पहिला उद्दशा Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० शब्दार्थ हुवा द० दर्भ से कु० कुश से वे वेष्टित करे अ० आठ म. मृत्तिका के ले लेप से लिंक लिंपे उ.. ऊष्णता द० देवे भू० वारंवार सु० मुका हुवा अ० अगाध अ० दुष्तर पो० पुरुष प्रमाण उ० पानी में प० डाले से• अथ नू० शंकादर्शी मो० गौतम से वह तु० तुम्बा ते उन अ० आठ म० मृत्तिका के है लेपकी गु० गुरुता से भा० भार से स०पानी के त तलको आ० अतिक्रमकर ध० पृथ्वी के त० तल में प० लेवेहिं लिंपइ, उहं दलयइ भूइं भूई सुक्कं समाणं अत्थाहमतारम पोरुसियांसि उदगांसि पक्खिवेजा ॥ से मूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अटण्हं । मटिया लेवाणं गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुयसंभारियत्ताए सलिल तल मइवइत्ता अहे धरणितल पइट्ठाणे भवइ ? हंता भवइ, अहेणं से तुंबे होने से व गति परिणाम से, कर्म रहित जीव की कैसे गति होती है ? अहो गौतम ! किसी प्रकार का भावार्थ आघात व छिद्र रहित सुका हुवा तुम्बे को अनुक्रम से संस्कार करता हुवा कोई पुरुष दर्भ से अथवा कुश से वेष्टित करे और आठ मृत्तिका के लेप से लीपे, एक २ मृत्तिका का लेप करके आताप (सूर्य के ताप) में सुकावे. इस तरह पूर्ण सूके पीछे पुरुष प्रमाण से अधिक, नहीं तीर सके ऐतला व अगाध जल में उस तुम्बे को डाले. अब अहो गौतम ! वह तुम्बा आठ मृत्तिका के लेपों के भार से व उस की 12 गुरुता से क्या पानी की नीचे जाकर बैठता है ? हां भगवन् ! वह तुम्बा इस तरह लेप कराया हुवाई - 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ? * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** - Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. शब्दार्थ पीतष्ठान भ० होता है . है० हां भ० होता है ए० ऐसे ख. निश्चय गो० गौतम नि० संगरहित नि० मोहन रहित ग० गति परिणाम से अ० कर्म रहित की ग० गति प० जानी जाती है. क० कैसे भ० भगवन् ! Vवं. बंध छेद से अ० कर्म रहित की गः गति ५० प्ररूपी से० अथ ज० जैसे क ० कल की फली, मु.। मुंगकी फली, मा० उडिद की फली सिं० सेवले की फली ए. एरंड के बोंदे उ० ऊष्णता में दि० र हुचे सु. शुष्क होते फु० फूटकर ए. एकान्त स्थान में ग० जाते हैं ए. ऐसे गो० गौतम क • कैसे भं० । तेसिं अटूण्हं मट्टियालेवाणं परिक्खएणं धराणितल मइवइत्ता उप्पि सलिलपइट्ठाणे । भवइ ? हंता भवइ, एवंखलु गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गतिपरिणामेणं अकम्मस्स गई पण्णायइ कहणं भंते ! बंधणच्छेयणयाए अकम्मस्स गई षण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए कलसिंबलियाइवा, मुग्गसिंबलियाइवा, माससिंबलियाइवा, भावार्थ भारी होने से समुद्र में पानी की नीचे बैठता है. अब उप्त तुम्बे के आठ लेयों पानी के प्रयोग से गला जावे और उस से नीकल जावे तो क्या वह उपर आता है ? हां भगवन् ! तुम्बा पानी की उपर | जाता है. वैसे ही संग नहीं होने से मोह नहीं होने से व गति परिणाम से कर्म रहित जीव की ग कही है. अहो भगवन् ! बंध का छेद करने से कर्म रहित जीव की कैसे गति होती है ? अहो गौतम ! | कल नामक धान्य की फली, मुंग की फली, उडिद की फली, सेवले की फली व एरंड के पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 488 सातवा शक का पाहला उद्देशा 8 8 Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ १० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवन् नि० इन्धन रहित से अ० कर्म रहित की गति गो० गौतम ज० जैसे घू० धूम्र इ० इन्धन से वि० छूटा हुवा उ० ऊर्ध्व वी० स्वभाव से नि० निर्व्याघात से ग० गति भ० होती है ए० ऐसे गो० गौतम क० कैसे भं भगवन् पु० पूर्व प्रयोग से अ० अकर्म की ग गति गो० गौतम ज० जैसे कं० वाण की को० धनुष्य से वि० छुटा हुवा ल० लक्ष्याभिमुख नि० निर्व्याघात से ग० गति प० होती है ए० ऐसे पु० पूर्ण सिंबलिसिंबलियाइवा, एरंडमिंजियाइवा, उण्हेदिण्णा सुक्कासमाणी फुडित्ताणं एगंतमंतंगच्छइ ॥ एवं खलु गोयमा ! कहणं भंते ! निरिंधणयाए अकम्मस्सगई? गोयमा ! से जहानामए धूमस्स इंधण विप्पमुकस्स उडूंवीससाए निव्वाघाएणं गई पवत्तइ ॥ एवं खलु गोयमा ! कहणं भंते ! पुत्रप्पओगेणं अकम्मस्स गईपण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुहं निव्वाघाएणं गई पवत्तइ ॥ को धूप में रखकर सुकाने में आवे तब उनफलीयों का मुख सुकते ही फटकर उस में से दाने बाहिर नीकलते { हैं ऐसे ही कर्मबंध का छेद होते ही जीव मुक्त होता है. अहां भगवन् ! कर्मरूप इन्धन नहीं होने से कर्म (रात जीव की कैसे गति होती है ? अहो गौतम ! जैसे इन्धन से नीकलता हुवा धूम्र स्वभाव से ही निर्व्याघातपने ऊंचे जाता है ऐसे ही अहो गौतम ! कर्मरूप इन्धन नहीं होने से अकर्म जीव की गाते होती है. अहो भगवन् ! पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की कैसे गति होती है ? अहो गौतम ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८७२ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ प्रयोग से अ० कर्म रहित की ग० गति प० होती है एक ऐसे गो० गौतम नि० संगरहित नि० रंग रहित जायावत् पु० पूर्व प्रयोग से अ० अकर्म की गगति होती है॥२॥दु दुःखी भं भगवन् दु० दुःखसे फु०स्पर्श अ० अदुःखी दु०दुःखले फु० स्पर्श गोगौतम दु०दुःख से फु० म्पर्शे नो० नहीं अ० अदुःखी दु० दुःख ८७३ सत्र एवं खलु गोयमा । पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पवत्तइ ॥ एवं खलु गोयमा ! निसंगयाए निरंगणयाए जाव पुचप्पओगेणं, अकम्मस्स गई पवत्तइ ॥९॥ दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दुक्खी दुक्खण फुडे नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ॥ दुक्खी भंते ! नरइए दुखेणं फुडे अदुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दक्खी नेरइए दक्खणं फडे नो अदक्खी नेरइए दुक्खणं फुडे एवं दंडओ जाव वैमाणियाणं, एवं पंच दंडगा नेयव्वा ॥ दुक्खी भावार्थ जैसे धनुष्य पर से नीकला हुवा बाण की निर्व्याघातपने लक्ष्य की तरफ गति होती है वैसे ही पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति होती है. इसी कारन से अहो गौतम ! संग, मोह नहीं होने से यावत प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति होती है ॥ ९ ॥ जो कर्म रहित नहीं होता है वह दुःख से स्पर्शता है . इमलिये दुःख का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! क्या दुःखी (कर्म सहित ) जीव दुःख (कर्म से) ॐ स्पर्शता है अथवा अदुःखी [ कर्म रहित ] जीव दुःख से स्पर्शता है ? अहो गौतम ! दुःखी जीव ही 20 3. दुःख से स्पर्शता है परंतु अदुःखी जीव दुःख से नहीं स्पर्शता है. अहो भगवन् ! दुःखी नारकी दुःख से है। विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र -<38** 8080सातवा शतकका पहिला उद्देशा 88488 Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ | 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी फु० स्पर्शे ॥ १० ॥ अ० अनगार भं० भगवन् अ० उपयोग रहित ग० जावा चि० खड़ा रहता णि० बैठता अ० उपयोग रहित व वस्त्र प० पात्र कं० कंवल पा० रजाहेरण गे० लेता नि० मूकता त० उस को मं० भगवन् किं क्या ई० ईर्यापथिक क्रिया क० करे सं० सॉपरायिक क्रिया क० करे गो० गौतम दुक्खणं. फुडे, दुक्खी दुक्खं परियाइयइ, दुक्खी दुक्खं उदीरेइ, दुक्खी दुक्खं वेएइ, दुक्खी दुक्खं निज्जरेइ ॥ १० ॥ अणगाररसणं भंते ! अणाउन्तं गच्छमाणस्सवा चिट्ठमाणरसवा णिसीयमाणस्सवा, अणाउत्तं वत्थपरिग्गहं कंबलं पायपुंच्छणं गेहमाणस्वा, निक्खिमाणरसवा, तस्सणं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइ - स्पर्शता है अथवा अदुःखी नारकी दुःख से स्पर्शता है ? अहो गौतम ! दुःखी नारकी दुःख से स्पर्शस { है परंतु अदुःखी नारकी दुःख से नहीं स्पर्शता है. जैसे नारकी का कहा वैसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. जैसे कर्म सहित जीव कर्म से स्पर्शता है ऐसा जो कहा वैसे ही कर्म सहित कर्म का निधत्ताद बंध करता है, कर्म को उदीरता है, कर्म को वेदता है, और कर्म को निर्जरता है. ऐसे पांच दंडक चौबीस ही दंडक पर उतारना ॥ १० ॥ दुःख क्रिया से होता है इसलिये क्रिया का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! विना उपयोग से चलनेवाले, खडे रहनेवाले, शयन करनेवाले व वस्त्र पात्र कम्बल रजोहरणादि ग्रहण करने वाले अनगार को क्या सांपरायिक क्रिया लगती है या ईर्यापथिक क्रिया लगती है ? अहो गौतम ! म * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८७४ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * नो० नहीं ई० ईर्यापथिक क० करे सं० सांपरायिक क. करे से० वह के० कैसे गो० गौतम ज०जीन के कोक्रोध मा० मान मा० माया लो० लोभ बो क्षीण हुवे भ० हैं त. उन को ई० ईर्यापथिक क. करे ज० जिस को क्रोध मा. मान मा० माया लो लोभ अ. क्षीण नहीं होवे भ० हैं त. उस को सं०१२ सांपरायिक क. करे अ० यथा मूत्र रि० चलतेको ई० ईर्यापथिक उ० विपरीत रि०चलते को सं० सांपरा-७ याकिरिया कजइ ? गोयमा ! नो ईरियावहिया किरिया कजइ संपराइया किरिया कज्जइ ॥ से केणटेणं ? गोयमा ! जस्सणं कोहमाणमायालोमा वोच्छिण्णा भवंति तस्सणं ईरियारहिया किरिया कज्जइ, जस्सणं कोहमाणमायालाभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्सणं संपराइया किरिया कज्जइ, अहासुत्तं रियमाणस्स ईरियावहिया किरिया कजइ, भावार्थ को सांपरायिक क्रिया लगती है परंतु ईर्यापथिक क्रिया नहीं लगती है. अहो भगवन् ! किस कारन से उन को ईर्यापथिक क्रिया नहीं लगती है व सांपरायिक क्रिया लगती है ? अहो गौतम ! जिन को क्रोध मान, माया, व लोभ का क्षय होवे उन को ईर्यापथिक क्रिया लगती है क्यों कि अकषायी होने से उनको उक्त क्रिया कर्मबंध के कारणभून नहीं होती है. और जिन को क्रोध, मान माया व लोभ का उदय होता है। रहे उन को सांपरायिक क्रिया लगती है. सूत्रानुसार चलने से ईर्यापथिक क्रिया लगवी है और सूत्र ते पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 88 सातवा शतकका पहिला उद्दशा- 880 ! Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 49 अनुवादक-बासब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 80 यिक क० करे से वह उ० विपरीत रि० चलता है से वह ते० इसलिये ॥ ११॥ अ० अथ भं०* भगवन् स० इंगाल सहित स० धूम्नसहित सं० संजोयना दो० दोष दु. दुष्ट पा• पानी भो० भोजन का के• क्या अ० अर्थ प० प्ररूपा गो० गौतम जे०जो नि० माधु नि०माध्वी फा० फासुक ए• शुद्ध अ०११ अशन पा-पान १० लेकर सं० मूच्छित गि• गृद्ध ग. स्नेहयुक्त. १० एकाग्रता से आहार करे। उस्सुत्तं रियमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, सेण उस्मुत्तमेव रियइ सतेणटेणं ॥ ११॥ अह भंते ! सइंगालस्स. संधूमस्स संजोयणादोसदुद्रुस्स पाण , भोयणस्स के अटे पण्णत्ते ? गोयमा ! जेणं निग्गंथेवा निग्गंथीवा फासुएसणिज्ज असणपाणखाइमसाइमं पडिग्माहेत्ता संमुच्छिए गिद्धे गढिए अझोववण्णए आहार , आहारेइ- एसणं गोयमा ! संइंगाले पाणभोयणे । जेणं निग्गंथेवा निग्गंथीवा फासुविरुद्ध चलने से सांपरायिक क्रिया लगती है. और विना उपयोग से चलनेवाला यावत् विना उपयोग से वस्त्रपात्रादि रखने वाला उत्सूत्रानुसार चलता है इसलिये उनको सांपरायिक किया. लगती है परंतु ईयर्याप- थिक क्रिया नहीं लगती है ॥ ११॥ अहो भगवन् ! इंगालदोष, धूम्रदोष व संजोयनादोष वाला आहार किस को कहते हैं ? अहो गौतम ! जो साधु माध्वी फासुक एषणिक अशनादि ग्रहण करके उन में गृद्ध, मूच्छित, व लोलीभूत बनता हुआ आहार करे उस को इंगालदोष लगता है, जो साधु साध्वी फासुक. mannaamaamaniaadimanwww * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > ८७७ शब्दार्थ | १० उस को स० इंगाल सहित पा० पान भो० भोजन जे० जो निः साधु नि० साची फा० फासक ए० शुद्ध अ० अशन पा० पान खा. खादिम सा० स्वादिम प० लेकर म० बडा अ० प्रीति रहित को क्रोध कि०किलामना क०करता आ० आहार आ० आहारकर ए. यह गो० गौतम स० धूम्रसहित पा०पान। भोक भोजन जे. जो नि० साधु नि. साध्वी जाः यावत् प० लेकर गु० गुण उ० उत्पादकहेतु अ. अन्य द्रव्य स. साथ सं० मीलाकर आ० आहार करे ए. यह गो. गौतम सं० संयोजना दो दोष द. दुष्ट पा० पान भो० भोजन ॥ १२ ॥ वी. इंगाल रहित वी० धम्ररहित मं० संयोजना एसाणिज्जं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिग्ग हेत्ता महया अप्पत्तिय कोह किलामं करेमाणे आहार माहारेइ, एसणं गोयमा ! सधूमे पाणभोयणे । जेणं निग्गंथवा जाव पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहउँ अण्णदव्वेणं साई संजोएत्ता आहार माहारेइ, एसणं गोयमा संजोयणा दोस? पाणभोयणे ॥ एएणं गोयमा ! सइंगालस्स सधृमस्स संजोयणा दोसदुट्ठस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते ॥१२॥ अह भंते ! वीइंगालस्स वीयधूमभावार्थ एषणिक आहारादिक ग्रहण करके अप्रीति, क्रोध व किलामना करते आहार करे तो उस को धूम्रदोष ? ४० लगता है, जो साधु साधी फासुक व एषणिक अशनादि ग्रहण करके स्वादिष्टपना का गुण बनाने के लिये उस में अन्य द्रव्य मीला कर आहार करे उस को संजोयना दोष लगता है. अहो गौतम ! यह इंगाल, धूम्र, .७ 12व संजोयना दोष का अधिकार कहा ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! इंगाल, धूम्र व संजोयना दोप रहित आहार है। पंचमान विवाह पण्णति (भगाती): सातवा शतक का पहिला उद्देशाने Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + शब्दाथ दो० दोष वि० रहित ॥ १३ ॥ अ. अथ भं० भगवन् खे० क्षेत्र का० काल म• मार्ग ५० प्रमाण अ. स्स संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाणभोयणस्स के अट्रे पण्णत्ते ? गोयमा ! जेणं निग्गंथे वा जाव पडिग्गहेत्ता असमुच्छिए जाव आहारेइ, एसणं गोयमा ! वीइंगाले पाणभोयणे ॥ जेणं निग्गंथैवा जाव पडिग्गहेत्ता नो महया अप्पत्तियं जाव आहारेइ, एसणं गोयमा! वीयधूमे पाणभोयणे ॥ जेणं निग्गंथेवा जाव पडिग्गहेत्ता जहा लहं तहा आहार माहारेइ, एसणं गोयमा ! संजोयणा दोसविप्पमुक्के पाणभोयणे ॥ एसणं गोयमा ! वीइंगालस्स वीयधूमस्स संजोयणादोसविप्पमुक्करस पाणभोयण स्स अट्ठे पण्णत्ते ॥ १३ ॥ अह भंते ! खेत्ताइक्वंतरस, कालाइकंतरस, मग्गाइक्काभावार्थ | किसको कहना ? अहो गोतम ! जो साधु साध्वी फासक एषणिक आहारादिक ग्रहण करके मूर्छा गृद्धि व लोलुपता रहित भोगवे उनको ईंगालदोष नहीं लगता है, जो साधु साध्वी फामुक व एषणिकं आहार, ग्रहण करके अप्रीति क्रोध व किलामना नहीं करते हुवे भोगवे तो उनको धूम्रदोष नहीं लगता है, जो साधु साध्वी फासुक एषणिक आहारादिक ग्रहण करके जैसा पीले वैसाही आहार करे उनको संजोयना दोष नहीं लगता है. अहो गौतम : इंगाल, धूम व संजोयना दोष रहित आहार का यह- अर्थ प्ररूपा ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्षेत्रातिक्रांत, मार्गातिक्रान्त कालातिक्रान्त व प्रमाणातिक्रान्त आहार पानी किस को कहते हैं 4अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wwwwwwwwwwwne शब्दार्थ अतिक्रान्त पा० पान भो० भोजन का के० कैसा अ० अर्थ गो० गौतम जे. जो नि० साधु फा० फ्रासुक ए० शुद्ध अ० अशन अ० उदित होते पहिले मू० सूर्य प० लेकर उ० उदित हुवे पीछे आ०१४ आहार करे ख० क्षेत्र अतिक्रान्त जे. जो नि० साधु जा० यावत् सा स्वादिम प. प्रथम पो. पौरुषी । तस्स, पमाणाइक्वंतस्स, पाणभोयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! जेणं निग्गंथेवा १७ फासुएसणिजं असणं पाणं खाइमं साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गहित्ता उग्गए सरिए आहार . माहारेइ, एसणं गोथमा ! खेत्ताइकते पाण भोयणे ॥ जेणं निग्गंथेवा जाव साइमं । पढमाए पोरिसीए पडिग्गहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवायणावित्ता आहार माहारेइ एसणं गोयमा ! कालाइक्कंते पाण भोयणे ॥ जेणं निग्गंथे जाब साइमं पडिग्गहित्ता परंअ. इजोयणमेराए वीइकमावइत्ता आहार माहारेइ, एसणं गोयमा ! मग्गाइकते पाण भोयणे ॥ जेणं निग्गंथे वा फासुएसणिजेणं जाव साइमं पडिग्गहित्ता परं बत्तीसाए कु. भावार्थ हैं ? अहो गौतम ! जो साधु साध्वी सूर्योदय पहिले फ्रामुक एषणिक अशनादिक ग्रहण करके सूर्योदय पीछे आहार करते हैं, उसे क्षेत्रातिक्रान्त पान भोजन कहते हैं. जो साधु साध्वी प्रथम पौरुषी में फ्रासुक व एषणिक अशनादि ग्रहण करके छेल्ली पौरुषी में आहार करे तो उसे कालातिक्रान्त पान भो1 जन कहते हैं. जो साधु साध्वी फ्रासुक एपणिक आहारादि ग्रहग करके उत्कृष्ट दो कोश से अधिक पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र मातवां शतकका पहिला उद्देशाdoot - Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ में प० लेकर प० पीछे की पो० पौरुषी उ० प्राप्त होकर आ० आहार करे ए० को का कालातिक्रांत जे० जो नि० साधु जा० यावत् सा० स्वादिम १० लेकर प० पीछे अ० अर्ध योजन मे० मर्यादा वी० व्यतीत हुवे आ० आहार करे ए० उत को म० मार्ग अतिक्रान्त जे० जो नि० साधु फा० फ्र सुक ए० क्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ताणं करलाणं आहार माहारेइ, एसणं गोयमा ! पमाणाइवांते पाणभोय || अटुकुक्कुडि अडंगप्पमाणमेत्ते कवले आहार माहारेमाणे अप्पाहारे । दुबालस कुक्कुडिअडगप्पमाणमेत्ते कवले आहार माहारेमाणे अवडोमोयरिया । सोलस कुक्कुड अंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहार माहारेमागे दुभागपत्ते ॥ उब्वसं कुक्कुडि अडगप्पमाणे जाव आहारमाणे ओमोदरिया । बत्तीसं कुक्कुडि अंडगप्पमाणमेचे कवले आहार माहारेमाणे पमाणपत्ते एक्को एक्केणवि घासेण ऊणगं आहार माहारेमाणे समणे निग्गंथे नोपकामरसभोइत्ति वत्तन्वंसिया ॥ एतणं गोयमा ! { जाकर आहार करे तो उसे मार्गातिकान्त पान भोजन कहते हैं. जो साधु साधी फाक व एषणिक अशनादि ग्रहण करके मूर्गी के अण्डे प्रमाण बतीस कवल से अधिक का आहार करे तो उसे प्रमाणाति{ कान्त पान भोजन कहते हैं. जो आठ कवल का आहार करता है उसे अल्पाहारी कहना, बारह कवलका आहार करनेवाला कुछ कम अर्थ अवमोदरीवाला कहाता है, सोलह कवल का आहार करनेवाले को अर्ध 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *- प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८८० Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 400 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र शुद्ध जा० यावत् सा० स्वादिम प० लेकर प० पीछे कु० मुर्गी के अं० अंडे प० प्रमाण मात्र क० कवल) आ आहारकरे ॥ १४ ॥ अ० अथ मं० भगवन् स० शस्त्र अ० अतीत हुवा स० शस्त्र प० परिणमा ए० शुद्ध वे० विशेष शुद्ध स० भिक्षाचरी पा० पान भो० भोजन का के० कौनसा अ० अर्थ गो० गौतम जे० जोन० साधु नि० साधी नि० त्यजा हुवा स० शस्त्र मु० मूशल व० त्यजी हैं मा० माला व० चंदन खेत्ताइक्वंतरस, कालाइकांतस्स, मग्गाइकंतस्स, पमाणाइकंतस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पण्णत्ते ॥ १४ ॥ अह भंते ! सत्थातीयस्स, सत्थ परिणामियरस एसियस्स वेसियस समुदाणियस्स पाणभोयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? गोयमा ! जेणं निगंथेवा निग्गंथीवा निक्खित्त सत्थ मुसले क्वगयमाला वण्णगविलेवणे बवगय चुय चइय चत्तदेहं, जीवविप्पजढं, अकय मकारिय मसंकप्पियमणाहूय मकीयकड मणुट्टिं नवऊनांदरी तप होता है, चौवीस कवल का आहार करनेवाले को अमोद तप होता है और बत्तीस कवल का आहार करनेवाले को पूर्ण आहार किया कहाजाता है. और कोई साधु एक भी कवल का आहार कम करे तो वह काम, रसभोगीं नहीं कहाजाता है. अहो गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त, व प्रभाणातिक्रान्त पान भोजन का अर्थ कहा ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! शस्त्रातीत १७ शस्त्रपरिणमित एवणीय, वेषणीय, व सामुदानिक पान भोजन का क्या अर्थ होता है ? अहो गौतम ! सातवा शतकका पहिला उद्देशा ८८१. Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वि० विलेपन व त्यजा है चु० पृथक्कीया च० नीकाला च० त्यक्त दे० शरीर को जी अचित्त अनहीं. 9 किया अ० नहीं करवाया अ० संकल्प नहीं किया अ० मोललाया नहीं अ० अनुद्देशिक न० नंवकोटि ५० शुद्ध द० दश दोष वि० रहित उ० उद्गमन उ० उत्पाद ए० एषणिक ५० शुद्ध वी० अंगार रहित ८८२ वी० धूम्र रहित सं० संयोजनादोष वि. रहित अ० असुरसुर अ० अचवचव अ० त्वरारहित अ० विलम्ब कोडीपरिसुद्धं दसदोसविप्पमुक्कं उग्गमउप्पायणेसणासुपरिसुद्धं वीइंगालं वीइधूम संजोयणादोसविप्पमुकं असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडिं अक्खोवं. जणवणाणुलेवणुभूयं, संजमजायामायावत्तियं संजमभारवहणट्टयाए बिलमिव पण्ण गभूएणं अप्पाणेणं आहार माहारेइ, एसणं गोयमा ! सत्थातीयस्स, सत्थ परिणामि मुशलादि शस्त्र रहित, कुसुम की माला व चंदनादि विलेपन के सागी जो साधु साध्वी जिस में से जीवों भावार्थ चवगये होवे ऐसा, जीव रहित, आचित्त, साधु के लिये नहीं किया हुवा, नहीं कराया हुवा, संकल्प रहित, न नहीं लाया हवा, मोल नहीं लीया हवा, नहीं बनाया हवा, अनुदिष्ठ, नव कोटि से शुद्ध, दशा दोष रहित, उद्गम, उत्पात व अनेषणिक दोषों से रहित, इंगाल, धूमू व संजोयना दोष रहित, भोजन करते शुरू शब्द नहीं होवे वैसा, चपचपाट नहीं होवे वैसा शीघ्रता व मंदता रहित, भूमि पर कण नहीं डालते हवे, गाडी के अक्ष का अंजन समान लेप रहित, संयम यात्रा मात्रा की वृत्ति संहित, संयम का शर नि-17 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भावार्थ | {रहित अ० डाले नहीं अ० गाडी की धूरी अ० अनुलेप अ० अनुभूत सं० संयमयात्रा मा०मात्रा सं० संयम भा० भार वहन के लिये वि० बिल में प० सर्प जैसे अ० आत्मा से आ० आहारकरे ए० उमको गो० गौतम ॥७७॥१॥ से० वह भं० भगवन् स० सर्व प्राण स० सर्व भूत स० सर्व जीव स०सर्व सत्व से प-प्रत्याख्यान व० {बोलते को सु० सुप्रत्याख्यान भ० होवे दु० दु:प्रत्याख्यान भ० होवे गो० गौतम ज० जिसको स० सर्व यस जाव पाणभोयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ तंचेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति | सत्तमे स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥ १ ॥ ÷ X + 44-4 सातवा शतक का दूसरा उद्देशा सेणू भंते ! सव्वपाणेहिं, सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं, पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ तहा दुपच्चक्खायं ? गोयमा ! सव्व पाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं वहकर के लिये सर्प बिल में प्रवेश करे उस समान आहार करे, तब उसे शस्त्रातीत, शस्त्र परिणमित यावत्) { मामुदानिक आहार कहते है. अहो गौतम ! शस्त्रातीत यावत् सामुदानिक आहार का यह अर्थ कहा. यह सातवा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ७ ॥ १ ॥ प्रथम उद्देशे में निर्दोष आहार की वक्तव्यता कहीं वह प्रत्याख्यान पूर्वक होती है इसलिये प्रत्याख्यान } re का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! सब प्राण, भूत, जीव व सत्व में प्रत्याख्यान है ऐसा कहनेवाले को सुप्रत्याख्यान होवे या दु:प्रत्याख्यान होवे ? अहो गौतम ! सब प्राण, भूत, जीव व सत्व में प्रत्याख्यान * ८८३ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ८८४ श्री अमोलक ऋषिजी | 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्राण से जा. यावत् स० सर्व सत्व से प० प्रत्याख्यान १० बोलते को नो० नहीं अ० ज्ञान भ० है इ०ये जीव अ० अजीव त० त्रस था० स्थावर त० उस को स० सर्व प्राण जा० यावत् स० सर्व सत्व से प. पच्चक्खायमिति बदमाणस्स, सिय सुपच्चक्खायं भवइ, सियदुपच्चक्खायं भवइ, ॥ सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सव्व पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं जाव सियदुपच्चक्खायं भवइ ? गोयमा ! जस्सणं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स नो एवं अभिसमण्णागयं भवइ, इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा. इमे थावरा तस्सणं सव्वपाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पच्चक्खाय मिति वदमाणस्स नो सुपच्चक्खायं दपच्चक्खायं भवइ एवं खल से दपच्चक्खाई, सव्व पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खाय मिति वदमाणे णो सच्चं भासं भासइ मोसंभासं भासइ एवं खलुसे मुसाबाई सव्वाणहिं है ऐसा कहनेवाले को क्वचित् सुप्रत्याख्यान होता है व क्वचित् दुःप्रत्याख्यान होता है. अहो भगवन् ! किस कारन से क्वचित् सुप्रत्याख्यान व क्वचित् दुःप्रत्याख्यान होता है ? अहो गौतम ! सब प्राण, भूत, जीव व सत्व में प्रत्याख्यान है ऐसा बोलने वाले में से जिस को ऐसा ज्ञान नहीं है कि ये जीव हैं ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं उस को सब प्राण, भूत, जीव व सत्व में प्रत्याख्यान है ऐसा बोलते हुवे सुप्रत्याख्यान नहीं होता है परंतु दुःमत्याख्यान होता है. इस तरह वह दुष्पत्याख्यानी सब प्राण भूत * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्यालाप्रसादजी * भावार्थ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्र ८८५ शब्दाथ प्रत्याख्यान व. बोलते को नो० नहीं मु० मुप्रत्याख्यान दु० दुःप्रत्याख्यान भ. होवे मे० वह दु-दाम-3 त्याख्यानी स. सर्वप्राण में जा. यावत् स० सर्व सत्व में प० प्रत्याख्यान व० बोलता नो० नहीं स० जाव सव्वसत्तेहि तिविहं तिविहेणं असंजय अविरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबालेयावि भवइ ॥ जस्सणं सव्व पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खाय मिति वदमाणस्स एवं अभिसमण्णागय भवइ, इमें जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्सणं सव्व पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खाय मिति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ना दुपच्चक्खायं भवइ, एवं खलु से सुपच्चक्खाई सब पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं वयमाणे सच्चं भासं भासद नो मोसं भासइ, एवं खलु से भावार्थ जीव व सत्व में प्रत्याख्यान है वैसा बोलता हुवा सत्य नहीं बोलता है पतु मृषा बोलता है. इस तरह 4, मपा बोलने वाला सब प्राणादि में तीन करन तीन योग मे असंयति, अविरति व प्रत्याख्यान रहित पाप कर्मवाला सक्रिय, असंवरी, एकान्त दंडीव एकान्त वाल होता है. सब प्राण भूत, जीव व सत्व से प्रत्याख्यान है, 5 एसा बोलते हुए जिस को ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, ऐसा ज्ञान है, उस का सबई । प्राणादि में प्रत्याख्यान है ऐसा कहते हुवे सुप्रत्याख्यान है परंतु दुःप्रत्याख्यान नहीं है. और ऐसा सुप्रप त्याख्यानी सब प्राणादि में प्रत्याख्यान है ऐसा बोलता हुवा सत्य भाषा बोलता है परंतु मृषा भाषा नहीं है। (भगवती) मूत्र विवाह पण्णनि wwwnnnnwwwwwanmernamamaar **सातवा शतक का दूसरा उद्देशा 8 080P Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी सत्य भाषा भा० बोले मो० मृषा भाषा भा० बोले से वह मो० मृपावादी स० सर्व प्राण जा. यावत् . स. सर्व संत्व से ति तीन करण ति तीनयोग से अ.असंयति अ० अविरति प.प्रतिहत प०प्रत्याख्यान पा० पापकर्म स० क्रिया सहित अ० असंवृत ए० एकांत दंड ए० एकांत वाल भ० होवे ॥ १ ॥ क. कितने प्रकार का भ• भगवत् प० प्रत्याख्यान प. प्ररूपा गो० गौतम दु. दोप्रकार का मू० मूलगुण सच्चवाई, सव्व पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंत पंडिए यावि भवइ । सेतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव सिय दुपच्चक्खायं भवइ ॥ १ ॥ कइविहेणं भंते ! , पच्चक्खाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पच्चक्खाणे प० तं. मूलगुण पच्चक्खाणेय, बोलता है. ऐसा सत्य बोलनेवाला प्राणादि में तीन करन तीन योग से संयति, विरति, प्रत्याख्यान से पाप कर्म का नाश करनेवाला, अक्रिग्न, संवृत व एकान्त पंडित होता है. इस कारन से अहो गौतम ! ऐसा कहागया है कि सब प्राण, भूत, जीव व सत्व में प्रत्याख्यान हैं ऐसा बालनेवाले को क्वचित् ।। सुप्रत्याख्यान व क्वचित् दुष्पत्याख्यान है ॥ १॥ अहो भगवन् ! प्रत्याख्यान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! प्रत्याख्यान के दो भेद कहे हैं १ मूलगुण प्रत्याख्यान व उत्तर गुण प्रत्याख्यान. अहो भगवत् ! मूलगुण प्रत्याख्यान के कितने भेद कहे हैं ? १ सब मूलगुण प्रत्याख्यान व २ देश मूलगुन प्र प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 शब्दार्थ प्रत्याख्यान उ० उत्तरगुण प्रत्याख्यान मू: मूलगुण प्रत्याख्यान दु०' दोपकार का स० सर्व मूलगुण प्रत्या ०ख्यान दे० देशमूलगुण प्रत्याख्यान स. सर्व मूलगुण प्रत्याख्यान पं० पांच प्रकार का स० सर्व प्राणाति पात से वे० निवर्तना जा० यावत् स० सर्व ५० परिग्रह से वे० निवर्तना उ० उत्तरगुण प्रत्याख्यान दु० उत्तरगुण पच्चक्खाणेय ॥ मूलगुण पच्चक्खाणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे प० तंजहा सव्वमूलगुण पच्चक्खाणेय देसमूलगुणपच्चक्खाणेय ॥ सव्वमूलगुण पच्चक्खाणणं भंते ! कइविहे प. ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, जाव सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं ॥ देसमूलगुण पच्च क्खाणेणं भंते कइविहे ५० ? गोयमा ! पंचविहे ५० तजहा थूलाओ पाणाइवायात्याख्यान ऐसेदो भेद हैं. जो भगवन् ! सब मूलगुन प्रत्याख्यान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! सब मूलगुण प्रत्याख्यान के पांच भेद कहे हैं ? सर्वथा प्राणातिपात से निवर्तना २ सर्वथा मृषावाद से निवर्तना, १३ सर्वथा अदत्तादान से निवर्तना ४ सर्वथा भैथुन भे निवर्तना और ५ सर्वथा परिग्रह से निवर्तना. देश मूलगुन प्रत्याख्यान के पांच भेद. स्थल प्राणातिपात से निवर्तना यावत् स्थूल परिग्रह से निवर्तना. अटो भगवन् ! उत्तरगुन प्रत्याख्यान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उत्तरगुन प्रत्याख्यान के दो भद सब उत्तरगुन प्रत्याख्यान व देश उत्तरगुन प्रत्याख्यान. अहो भगवन् ! सब उत्तरगुन प्रत्याख्यान के 43208 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 488 48 सातवा शतक का दूसरा उद्देशा Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिजी ८८८ शब्दार्थ * दोपकार का स सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान दे० देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान स० सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान द० दश प्रकार का अ० अनागत अ० अतिक्रान्त को कोटि सहित नि० नियंत्रित सा० सागार अ० ओ वेरमणं; जाव थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं ।। उत्तरगुण पच्चक्खाणेणं भंते! कइविहे. पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे प० तं०. सव्वुत्तरगुणपञ्चक्खाणेय, देसुत्तरगुण पच्चक्खाणेय । सव्वुत्तरगुण. पच्चक्खाणेणं भंते ! कइविहे५०. ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं० अणागय मइक्वंतं, कोडीसहियं नियंठियंचेव । सागारमणागारं परिमाण कडं निरवसेसं (१) संकेयं चेव अडा. ए पच्चक्खाणं भवे दसहा ॥ देसुत्तरगुण पच्चक्खा णेणं भंते ! कइविहे. प. ? गोयमा ! सत्तविहे प० तंजहा-दिसिव्वयं, उवभोग कितने भेद ? अहो गौतम ! सब उत्तरगुनप्रत्याख्यान के दश. भेद कहें. हैं, १ जिस दिन तप, करना होवे भावार्थ उस दिन आचार्यादिक की वैय्यावृत्य करना होगा इससे पहिले तप करलेवे सो अनागत, २ वैय्यावृत्यादि कारन से पीछे तप करे सो अतिक्रान्त ३. प्रारंभ में व अंत में एक सारखा तप करे अर्थात् जिस क्रम से तप का प्रारंभ करे उसी क्रम में पूर्ण करे ४ नियंत्रित तप सो अमुक दिन में निश्चय ही त्रप करना ५ सागारिक आगार सहित तप करे ६ अनागारिक तप सोम *किसी प्रकार का आगार रहित तप ७ परिमाण कृत तप सोअमुकदिन तक इस प्रमाण का तप करना सो ८ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋ प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ८८९ ५चमाङ्ग विवाह पण्णात्ति (भगवती) सत्र 48 परिभोग परिमाणं, अणत्थदंडवैरमणं, सामाइयं, देसावगासियं, पोसहोववासो अतिहिसंविभागो ॥ अपच्छिम मारणंतिय संलेहणाझूसणाराहणता ॥२॥ जीवाणं भंते ! कि मूलगुणपञ्चक्खाणी उत्तरगुणपञ्चक्खाणी अपञ्चक्खाणी ? मोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी अपञ्चक्खाणीवि ॥ नेरइयाणं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी पुच्छा ? गोयमा ! नेरइया नो मूलगुणपच्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपच्चक्वाणी अपचक्खाणी ॥ एवं जाव चउरिंदिया । पंचिंदिय तिरिक्ख ' जोणिया मणुस्साय जहा जीवा, वाणमंतरजोइसि य वेमाणिया जहा नेरइया । एएसिणं भंते ! जीवाणं मूलगुणपच्चक्खाणीणं उत्तरगुणपञ्चक्खाणीणं, अपच्चक्खानिर्विशेष तप सो सर्वथामकार से अशनादिक का त्याग करना ९ संकेत तप सो गठि मुष्ठि आदि और 4 १०अद्धा तप सो पौरुषि आदि कतिप करना. यह सर्वउत्तरगुनप्रत्याख्यान हवा, अब देशउत्तरगुन प्रत्याख्यान के सात भेद बताते हैं. १ दिशिव्रत २ उपभोगपरिमाणवत ३ अनर्थदंडविरमण ४ सामायिक ५ देशावgo गाशिक : पौषधोपवाम और ७ अतिथिसंविभागवत. अंतसमय में मारणान्तिक संलेहना की सेवा *आराधना करना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव मूलगुनप्रत्याख्यानी हैं, उत्तरगुनप्रत्याख्याना हैं, या अप्रत्याख्यानी हैं ? अहो गौतम ! जीव मूलगुन प्रत्याख्यानी, उत्तरगुन प्रत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी . सातवा शतक का दूसरा उद्देशा भावार्थ - 4.१ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी णीय कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मूलगुण पच्चक्खाणी उत्तरगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगणा, अपच्चखाणी अनंतगुणा ॥ एएसि भंते ! पंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? गोयमा सव्वत्थोवा जीवा पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया मूलगुण पच्चक्खाणी, उत्तरगुण पञ्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ एएसिणं भते ! मणुस्साणं मूलगुणपच्चक्खाणीणं पुच्छा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी संखजगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा ॥ जीवाणं भंते ! सव्व्वमूलगुणपच्चक्खाणी देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा सन्त्रमूलगुणपच्चक्खाणी देस अहो भगवन् ! क्या नारकी मूलगुन प्रत्याख्यानी, उत्तरगुन प्रत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी हैं ? अहो गौतम ! नारकी मूल व उत्तर गुन प्रत्याख्याती नहीं हैं परंतु अप्रत्याख्यानी हैं. ऐसे ही दश भुवनपति, पांच स्थावर व तीन विकलेन्द्रिय, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना तिर्यच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का समुच्चय जीव जैसे कहना. अहो भगवन् ! इन मूलगुन, उत्तरगुन प्रत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी में कौन किस से संख्यात गुने असंख्यातगुने यावत् विशेषधिक हैं ? अहो गौतम ! सत्र से थोडे मूलगुन प्रत्याख्यानी, उस से उत्तरगुन प्रसाख्यानी असंख्यातगुने उस से अप्रत्याख्यानी अनंत गुने. पंचेन्द्रिय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ८९० Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 28 मूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणीवि ॥ नेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नेरइया नो सव्व मूलगुण पच्चक्खाणी, नो देसमूलगुणपञ्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी ॥ एवं जाव चउरिदिया ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी देसमूलगुणपच्चक्खाणीवि, अपच्चक्खाणीवि ॥ मणुस्सा जहा जीवा ॥ वाणमंतर जोइसियवेमाणिया जहा नेरइया । एएसिणं भंते जीवाणं सव्व मूलगुण पञ्चक्खाणीणं, देस मूलगुण पञ्चक्खाणीणं अपच्च 488 सातवा शतकका दूसरा उद्देशा मावार्थ तिर्यंच में मूलगुन प्रसाख्यानी, उत्तर गुन प्रत्याख्यानी व अप्रत्यख्यानी में से कौन किस से यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे मूलगुन प्रत्याख्यानी तिर्यंच, उस से उत्तरगुनप्रत्याख्यानी तिर्वच असंख्यात गुने, उस से अप्रत्याख्यानी अनंत गुने. मनुष्य में सब से थोडे मूलगुन प्रत्याख्यानी, उत्तरगुनमत्याख्यानी संख्यात गुने और अप्रत्याख्यानी असंख्यात गुने. अहो भगवन् ! क्या जीव सब मूलगुनमत्याख्यानी हैं, देशमूलगुनप्रत्याख्यानी हैं या अप्रत्याख्यानी हैं ? अहो गौतम ! समञ्चय जीव सब मूल गुन प्रत्याख्यानी, देशमूलगुनप्रत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी हैं. नारकी सब मूलगुन व *देश मूल गुन प्रत्याख्यानी नहीं हैं परंतु अप्रत्याख्यानी हैं. ऐसे ही दश भुवनपति, पांच स्थावर तीन aag Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाणीणय कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थावा जीवा सव्वमूल गुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुण पच्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपच्चक्खाणी अणंलगुणा ॥ एवं अप्पाबहुगाणि तिण्णिवि, जहा पढमिल्लए दंडए, णवरं सव्वत्थोवा पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया देसमलगणपञ्चक्खाणी. अपच्चक्रवाणी असंखजगणा ॥ जीवाणं भंते ! किं सव्वुत्तरगुणपञ्चक्खाणी, देस्सुत्तरगुणपच्चक्खाणी अपच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा सव्युत्तरगुणपच्चक्खाणी तिण्णिवि ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया मणुस्सा एवंचव सेसा अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं भावार्थ विकलेन्द्रिय, वाणव्यंसर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना. तिच पंचन्द्रिय देशमूलगुनप्रत्याख्यानी व अपल्याख्यानी हैं परंतु सबमूलगुनप्रत्याख्यानी नहीं है. और मनुष्य तीनों हैं. अब इन तीन बोल की जीव में अस्पाबहुत्व कहते हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे सबमूलगुन प्रत्याख्यानी उस से, देश मूल गुन प्रत्याख्यानी असंख्यात गुने, उस से अप्रत्याख्यानी अनंत गुने. वगैरह उक्त कथनानुसार जानना. मात्र तिर्यंच पंचेन्द्रिय में सब से थोडे देश मूल गुन प्रत्याख्यानी उस से अप्रत्याख्यानी असंख्यात गुने. अहो भगवन् ! क्या जीव सब उत्तरगुन प्रत्याख्यानी हैं, देश उत्तरगुन प्रत्याख्यानो हैं, व अ* प्रत्यानी है ? अहो गौतम : जीव में तीनों भांगे पाते हैं. ऐसे ही मनुष्य व वियंच पंचेन्द्रिय का जानना. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणीणं अप्पबहुगाणि, तिण्णीवि जहा पढमे दंडए जाव मणुस्साणं॥३॥ जीवाणं भंते! किं संजया, असंजया, संजयासंजया ? गोयमा ! जीवा संजयावि, अंसंजयावि, संजयासंजयावि॥ एवं जाव जहेव पण्णवणाए तहेव भाणिय जाव केमाणिया अप्पाबहुगं तहेव तिण्णिवि भाणियव्वं ॥४॥ जीवाणं भंते ! किं पच्च खाणी अपच्चक्खाणी पच्चक्खाणापच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी एंव तिण्णिवि एवं मणुस्सावि ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आदिल्लविरहिया; सब्वे अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं पच्चक्खाणणं जाव विसे शेष सब दंडकवाले अप्रत्याख्यानी हैं. इस की अल्पाबहुत मूलगुन प्रत्याख्यानी, उत्तरगुनप्रत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी की अल्पाबहुत्व जैसे जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव संयति, असंयति अथवा संयतासंयति हैं ? अर्थी गौतम ! जीव संयति, असंयति व संयतामयति तीनों हैं. सब से थोडे संयति, असंयति असंख्यात गुने व संयतासंयति अनंत गुने ॥४॥ अहो भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी व प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं? अहो गौतम ! जीव तीनों प्रकार के हैं. ऐसे ही मनष्य में जानना. तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रत्याख्यानामत्याख्यानी व अप्रत्याख्यानी होते हैं और शेष सब दंडकवाले अपत्याख्यानी हैं. समुच्चय जीव की अल्पावहुत्व कहते हैं. सब से थोडे प्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानामत्या 488086.17 सातवा शतकका दूसरा उद्देशाgop428 भावार्थ Joyo Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहियावा?गोयमा सव्वत्थोवा पच्चक्खाणी पच्चक्खाणापच्चक्खाणी असंखेजगुणा अपच्च. क्खाणी अणंतगुणा ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया सव्वत्थोवा पच्चक्खाणापच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी असंखेजगुणा मणुस्सा सव्वत्थोवा पच्चक्खाणी पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी संखेजगुणा अपच्चक्खाणी असंखेजगणा ॥ ५ ॥ जीवाणं भंत ! कि सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवा सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया, भाव ट्ठयाए असासया से तेणटेणं गोयमा एवं वुच्चए जाव सिय सासया सिय असासया भावार्थ ख्यानी असंख्यात गुने व अप्रत्याख्यानी अनंत गुने, तिर्यंच पंचेन्द्रिय में सब से थोडे प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी असंख्यात गुने.. मनुष्य में सब से थोडे प्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी संख्यात गुने अप्रत्याख्यानी असंख्यात गुने ॥ ५॥ अहो भगवन् ! क्या जीव शाश्वत है या अशाश्वत है अहो गौतम ! जीव क्वचित् शाश्वत व क्वचित् अशाश्वत है. अहो भगवन् ! किस कारन से जीवन Eक्वचित् शाश्वत व क्वचित् अशाश्वत है ? अहो गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है और नरकादि पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है. इस से जीव शाश्वत व अशाश्वत कहा गया है. अहो भगवन् ! क्या नारकी शाश्वतं है या अशाश्वत है ? अहो गौतम ! क्वचित् शाश्वत व क्वचितू अशाश्वत. ट्रव्य की 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - MAHAAAA *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अनागार प० परिमाण क० किया नि० निर्विशेष || २ || पूर्ववत् ॥ ३ ॥ पूर्ववत् ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ||७||२|| ० वनस्पति काया भ० भगवन् किं० किस का० समय में स० सर्व से अल्पाहारी स० सर्व से बहुत आहारी गो० गौतम पा० प्राहृद् व० वर्षाऋतु में व वनस्पतिकाया स० सर्व से बहुत आहारी त० पीछे नेरइयाणं भंते ! किं सासया असासया एवं जहा जीवा तहा णेरइयावि. जाव मणिया जाव सिय असासया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तमसयस्स बीओ उद्देसो सम्मत्तो ७ ! २ ॥ X X + वर्णरसइकाइयाणं भंते ! कं कालं सव्वष्पहारगा वा, सव्वमहारगावा भवंति ? गोयमा ! पाउसवरिसारत्तेसुणं एत्थणं वणस्सइकाइया सव्यमहाहारगा भवंति, अपेक्षा से शाश्वत व भाव की अपेक्षा से अशाश्वत है. ऐसे ही वैमानिक तक चौविस ही दंडक का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सातवा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ७ ॥ २ ॥ द्वितीय उद्देशे में जीव के शाश्वत व अशाश्वतपने का कथन किया. अब वनस्पति का अधिकार कहते अहो भगवन् ! किस समय में वनस्पति अधिक आहार करे और किस समय में अल्प आहार ? अहो गौतम ! मावृद व वर्षाऋतु में वनस्पतिकायिक जीवों अधिक आहार करनेवाले होवे. फीर 44- सातत्रा शतकका तीसरा उद्देशा 90-4 ८९५ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी स० शरद ऋतु में त० पीछे हे० हेमन्त में त० पीछे व० वसन्त में त० पीछे गि० ग्रीष्म में व० वनस्प काया स० सर्व से अल्पाहारी भा होती हैं ॥१॥ ज० यदि भ० भगवन गि० ग्रीष्म ऋतु में वनस्पति काया स० सर्व मे अल्पाहारी भ० होती है क० कैसे भ० भगवन् गि० ग्रीष्म में ब. बहुत ३० वनस्पति काया प० पत्र पु० पुष्प फ फल से ह. हरितरंग से रे० देदीनप्त सि वनलक्ष्मी से अ० अतीव उ• मुशोभत उ० रहती है गो० गौतम गि० ग्रीष्म में ब० बहुत उ० ऊष्णयोनिवाले जी जीव तयाणतरंचणं सरए, तयाणतरं च णं हेमंते, तयाणंतरं च णं वसंते, तयाणतरं च णं गिम्हासुणं, वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवति ॥ १॥ जइणं भंते ! गिम्हासु वणस्सइ काइया सव्वप्पहारगा भवंति कम्हाणं भंते ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगारेरिजमाणा सिरीए अतीव २ उवसोभेमाणा उचिटुंति ? गोयमा ! गिम्हासुणं बहवे ऊसिणजोणिया जीवाय पोग्गलाय वणस्सइ अनुक्रम से शरद, हेमन्त, सन्त व ग्रीष्मऋतु में अल्प आहार करनेवाले होवे ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! जब वनस्पतिकायिक जीवों ग्रीष्मऋतु अल्प आहार करनेवाले हैं तब किस कारनसे ग्रष्मिऋतु में वनस्पतिकायिक जीव । पत्रान्त, पुष्पवन्त, नीले वर्ग से देदीप्यमान और वनस्पति की. श्री से बहुत सुशोभित होवे ? अहोई , गौतम ! ग्रीष्मऋतु में कृष्ण योनिवाले बहुत जीव र पुद्गल वनस्पतिकायपने उत्पन्न होते हैं, व चवते हैं." * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालामतादजी * NAADARSindi भावार्थ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पो० पुद्गल व वनस्पतिकायापने व० जाते हैं वि०विशेष जाते हैं च० चेवते हैं उ० उत्पन्न होते हैं ए ऐसे 12 गो० गौतम गि० ग्रीष्म में व० बहुत व० वनस्पतिकाया ५० पत्र से पु० पुष्प से जा० यावत चि० रहती है ॥२॥ से वह मू० मूल मू०मूलजीव से फु० स्पर्श के० स्कन्द के० स्कन्द जीव से फु० स्पर्श बी० बीज बी०१० काइयत्ताए वक्कमति विउक्कमति चयंति उववजति । एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु , बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया जान चिटुंति ॥ २ ॥ से गुणं भंते ! , मूला मूलजीवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा, जाव . बीया बीयजीवफुडा ? हता गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवफुडा ॥ जइण भंते ! मूला मूल जीव फुडा जाव बीया बीय जीव फुडा; कम्हाणं भंते ! वणस्सइकाइया आभावार्थ इसलिये अंहो गौतम ! ग्रीष्मऋतु में बहुत वनस्पतिकायिक जीव पत्रबाले पुष्पवाले यावत् सुशोभित रहते ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! क्या वनस्पति के मूलको मूल में रहे हुवे जीव स्पर्श हुवे हैं, कंद को कंद में रहे हुवे जीव स्पर्श हुवे हैं, यावत् वीज को बीज में रहे हुवे जीव स्पर्श हुवे हैं ? हां गौतम ! मूल को मूल के जीव स्पर्शे हुवे हैं यावत् वीज को बीज के जीव स्पर्श हुवे हैं. अहो भगवन् : जब मूल को मूल के । जीव स्पर्श कर रहे हुवे हैं यावत् वीज को बीज के जीव स्पर्श कर रहे हुवे हैं तब वनस्पतिकायिक जीव कैसे आहार करते हैं ? व आहार किये हुवे पुद्गलों को कैसे परिणमाते हैं ! अहो गौतम ! मूल को 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 208030% साबवा शतक का तीसरा उद्देशा Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय वीजजीव से फु० स्पर्श है. हां ॥ ३ ॥ अ० अथ भ० भगवन् आ. आलू मू० मूली सिं० अदरख हि०१* हरी हलदी सि० विदारीकंद सि. सिरिकंद कि० किष्टकंद निः निरिकाकंद छी० क्षीरकंद क कृष्णकंदी हारंति परिणामंति ? गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा, पुढवी जीव पडिबद्धा तम्हा | आहारंति, तम्हा परिणामंति, कंदा कंद जीव फुडा मूल जीव पडिवडा तम्हा आहारं ति, तम्हा परिणामति एवं जाव बीया बयिजीवफुडा फलजीवपडिबढा तम्हा आहारंति तम्हा परिणामंति ॥ ३ ॥ अह भंते ! आलुए, मलए, सिंगबेरे, हिरिली सिरिली, सिसिरली, किटिया, निरिथा, छीरविरालिया, कण्हकंदे, वजकंद, सूरणभावार्थ मूल के जीव स्पर्श हुवे हैं परंतु पृथिवी जीव से प्रतिबद्ध है इसलिये मूल के जीव पृथ्वीकाया का आहार करते हैं और उसे परिणमाते हैं. उस आहार में कुछ विभाग कंदके जीव आकर्षते हैं, कुछ है स्कंधके जीव आकर्षते हैं,उस में शाखा के जीव, शाखामें सेप्रतिशाखाके जीव,प्रतिशाखामें सेपत्र,पत्रमेंसे पुष्प पुष्प में से फल व फलमें से बीजं के जीव आकर्षते हैं और शरीर में परिणमाते हैं. इस प्रकार वनस्पति-11 कायिक जीवों का आहार परिणमता है. ॥ ३ ॥ अब अहो भगवन् ! आलु, मूला अदरख, हरी हलदी, विदारीकंद, सिरिकंद, किष्टकंद, निरिकाकंद, क्षीरविरालिका, कृष्णकंद, वज्रकंद, सूरण 10 कंद खेलुड, अर्दमूर्छा पिण्डहरिद्रा लौहाणी, हथिहूमिभाग, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सादंडी, 49 अनुबादव-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी प्रकाशक-गमाहादूर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादजी Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 49 भावार्थ. {ववज्रकंद सू० सूरणकंद खे• खेलूडकैद अ अर्द्धमूर्च्छा पिंहलदीपिंड लो० लोहानीकंद ह० हुथहूमीभाग वि० विभागकंद अ० अश्वकणाकंद सी० सिंहकरणी सा० साडी मु० मुमुंडी जे० जो अ० अन्य त० तैसे स० सर्व अ० अनंत जीव वि० विविध प्रकार के हैं ० हां गो० गौतम ॥ ४ ॥ भ० भगवन् क० कृष्णलेशी ने० नारकी कंदे खेल्लूडे, अहमुच्छा पिंडहलिदा लोहाणी हूथिहूविभागा अस्सकण्णी, सीहकण्णी, सादंडी, मुसुंडी, जेयात्रणे तहप्पगारा सव्वे ते अनंत जीवा विविहसत्ता ? हंता गोयमा ! आलू मूलए जाव अनंत जीवा विविहंसत्ता ॥ ॥ सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ? हंता सिय ॥ सेकेणणं भंते ! एवं वृच्चइ कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए, नीललेसे नेरइए ! ४ ॥ {मुलंडी, और अन्य भी इस प्रकार की कंद वनस्पति में वनस्पति समान वर्णवाले अनंत जीव विविध प्रकार की कर्म की सत्ता से क्या उत्पन्न होते हैं ? हां गौतम आलू मूले आदि केंद वनस्पति में वनस्पतिकाय के वर्णवाले अनंत जीव उत्पन्न होते हैं ॥ जीव लेश्या से उत्पन्न होते हैं इसलिये {लेश्या का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या क्वचित् कृष्ण लेश्यावाले नारकी अल्प कर्मवाले व (नीललेश्यावाले नारकी महा कर्मवाले होते हैं ? हां गौतम ! कृष्ण लेश्यावाले नारकी क्वचित् अल्प ॐ कर्मवाले व नीललेश्यावाले नारकी क्वचित् महा कर्मवाले होते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से कृष्ण १०३८० सातवा शतकका तीसरा उद्देशा e ८९९ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अल्पकर्मी नी० नीललेशी ने० नारकी म० बहुतकर्मी है० हां के० कैसे क०. कृष्णलेशी ने• नारकी नील नील लेशी ने नारकी म० महाकर्मी गो गौतम ठि० स्थिति प० प्रत्ययिक से वह भं०भगवन् जा. जो वे • वेदना सा. वह नि० निर्जरा जा० जो निः निर्जरा सा वह वे वेदना नो• नहीं इ० यह अर्थ महाकम्मतराए, ? गोयमा ! ठिइं पडुच्च, से तेणट्रेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए चेव ॥ सिय भंते ! नीललेस्से नेरइए अप्पकम्मतराए काउलेस्से महाकम्मतराए ? हंता सिय । से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए काउलेस्से महाकम्मतराए ? गोयमा ! ठिइं पडुच्च से तेण?णं जावः महाकम्मतराए ॥ एवं असुस्कुमारेवि,णवरं तेउलेसा अब्भहिया जाव वेमाणिया जस्स जइ लेसाओतस्स तत्तिया लेश्यावाले नारकी अल्पकर्मवाले व नील लेश्यावाले नास्की महा कर्मवाले. होते हैं ?. अहो गौतम !. स्थिति । आश्री ऐमा कहा गया है. जैसे सातवी नारकी का नेस्या कृष्णलेशी है, उसने बहुत स्थिति का क्षय किया और अल्प स्थिति रही, उस अपेक्षा से. पांचवी नरक में तत्काल का उत्पन्न हुवा नील लेश्यावाला नारकी महा कर्मवाला होता है. अहो भगवन् ! क्या नील लेश्यावाले नास्की. अल्प कर्मवाले व कापुत "लेश्यावाले नारकी महा कर्मवाले. क्वचित् होते हैं ? हां गौतम ! ऐसा होता है.. अहो भगवन् ! किसa, कारन से नील लेश्यावाला माकी व काएत लेश्यावाला अल्पकी होता है. ? अहो गौतम.!. स्थिति है। २१ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायंजी ज्वालाप्रसादजी * Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4008- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 20 म० योग्य ॥ ६ ॥ पूर्ववत् ॥ पूर्ववत् ॥ ८ ॥ पूर्ववत् ॥ ९ ॥ पूर्ववत् ॥ ७ ॥ ३ ॥ भाणियव्वाओ जोइसियरस न भण्णइ जाब सिय भंते ! पम्हलेस्से वैमाणिए अप्पकम्मतराए चैव मुक्कलेस्से वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता सिया !! से केणद्वेणं ? सेसं जहा नेरइयस्स जाव महाकम्मतराए ||५|| सेणूणं भंते ! जर वेयणा सा निज्जरा जा नजरा सा वेणा ? ोइणट्टे समट्ठे । से केणट्टेणं भंते एवं चुच्चइ जावेयणा नसा निज्जरा, जानिज्जरा न सा वेयणा ? गोयमा ! कम्म वेयणानो कम्मनिजरा, सेतेणटुणं { प्रत्ययिक ऐसा होता है, अर्थात् जैसे कृष्ण नील में सातवी पांचवी नरक का कहा वैसे ही यहां तीसरी व पांचवी पृथ्वी का जानना. जैसे अल्प कर्मवाले व महा कर्मवाले नारकी का कहा वैसे ही असुर कुमार का जानना. परंतु इस में नेजोलेश्या का प्रश्न अधिक जानना. वाणव्यंतर में चारों लेश्या का प्रश्न {जानना. ज्योतिषी में मात्र एकही लेश्या है इस से इस का दंडक नहीं कहना. शेष वैमानिक तक सब दंडक का जानना. जैमानिक की पृच्छा करते हैं. अहो भगवन् ! पद्म लेश्यावाले अल्प कर्मी व शुक्ल {लेश्यावाले महा कर्नी क्या क्वचित् होते हैं ? हां गौतम : स्थिति की अपेक्षा से ऐसा होता है ॥ ५ ॥ (शुभाशुभ लेश्यावन्त जीव साता असाता वेदना भोगव कर निर्जरा करते हैं इसलिये वेदना व निर्जरा का {प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! जो वेदना है वह क्या निर्जरा है और जो निर्जरा है वह क्या बेदना है। सातवां शतकका तीसरा उद्देशा ९०९ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! जाव न सा वेयणा ॥ नेरइयाणं भंते ! जा वेयणा सा निजरा, जा निजरा सावेयणा ? गोयमा ! णोइणट्टेसमटे । सेकणटेणं एवं वुच्चइ नेरइयाणं जावेयणा नसानिजरा, जानिजरा नसावेयणा ? गोयमा ! नेरइयाणं कम्मवेयणा णोकम्मनिज्जरा, सेतेणटेणं गोयमा ! जाव न सा वेयणा । एवं जाव वेमाणियाणं ॥६॥ से शृणं भंते ! जं वेदंसु तं निजरिंसु जं निजरिंसु तं वेदंसु ?णो इणटे सम?॥से केणटेणं भंते ! एवं भावार्थ अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ ही है. अहो गवन् ! किस कारन से जो वेदना है वह निर्जग नहीं है। 3 व जो निर्जरा है वह वेदना नहीं है ? अहो गौतम ! उदित कर्मों को वेदना कहते हैं. और कर्मों का अभाव को निर्जरा कहते हैं. इस से वेदना सो निर्जरा नहीं और निर्जरा सो वेदना नहीं है. अहो ।' भगवन् ! नारकी को क्या जो वेदना है वह निर्जरा है और जो निर्जरा है वह वेदना है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. क्योंकि नारकी को उदय आया हुवा कर्म सो वेदना है और कर्म का अभाव सो निर्जरा है. इसलिये ऐसा कहा गया है कि जो वेदना है वह निर्जरा नहीं है व निर्जरा है वह वेदना नहीं है. ऐसे ही वैमानिक तक जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! जिसे वेदा उसे क्या निर्जरा कहना |ल अथवा जिसे निर्जरा उसे वेदा कहना? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो गौतम ! जीवने कर्म वेदे व नोकर्म निजैरे. इस से वेदे को निर्जरे 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी82 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र बुच्च जंवेदं नातं निज्जरंसु, जैनिज्जरिंसु नोतं वेदसु ? गोयमा ! कम्मवेदसु नोकम्मनिरंसु सेते द्वेणं गोयमा ! जाव नोतं वेदंसु ॥ नेरइयाणं भंते! जंवेदसु तनिज्ज रिंसु ? एवं नेरइयावि, एवं जाव वेमाणिया | सेनूणं भंते ! जंवदंति तंनिज्जरंति जंनिज्जरंति तंवेदति ? णो इट्ठे समट्ठे । से केणट्टेणं एवं बुच्चइ जाव नो तंवेदंति ? गोयमा ! कम्मवेदति नो कम्म निज्जरंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव नो तवेदंति, एवं नेरइयाद जाव वेमाणिया ॥ ७ ॥ सेनूणं भंते ! जंवेदिस्संति तंनिज्जरिस्संति, जंनिज्ज - रिस्संति, तंवेदिस्संति ? णो इणट्टे समट्ठे । से केणद्वेणं जाव णो तंवेदिस्संति ? गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति नो कम्मं निज्जरिस्संति, से तेणट्टेणं जाव नो तवेदिस्संति, एवं नेरइयावि जात्र वेमाणिया ॥ ८ ॥ सेणूणं भंते ! जे वेदणासमए से निज्जरासमए, ( कहना नहीं व निर्जरे को वेदे कहना नहीं. ऐसे ही नारकी आदि चौवीस ही दंडक में जानना. अहो भगवन् ! जिसको वेदता है उसे क्या निर्जरता है अथवा जिसको निर्जरता है उसे क्या वेदता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्योंकि कर्म को वेदता है और नो कर्म को निर्जरता है. ऐसे ही चौवीस दंडक में जानना || ७ || अहो भगवन् ! जिस को वेदेगा उसे क्या निर्जरेगा अथवा जिस को निर्जरेगा उसे क्या वेदेगा ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्योंकि कर्म को वेदेगा व नो 44 सातवा शतक का तीसरा उद्देशा ९०३ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जे निजरासमए, से वेदणासभए ? णो इणटे समटे । से केणटेणं भंते । एवं वुच्चइ जे वेदणा समए नसेनिजरा समए, जे निजरा समए नसेवेदणा समए ? गोयमा ! जं समयं वेदंति नो तंसमयं निजरंति, जंसमयं निजरंति नो तं समयं वेदंति, अण्णमि समए वेदंति अण्णंनि समए निजरंति, अण्णे से वेदना समए अण्णे से निजरासमए, से तेणट्रेणं जाव न से वेदणा समए ॥ नेरइयाणं भंते ! जे वेदना समए से निजरासमए, जे निजरा समए से वेदणा समए ? णो इणटे समटे । से केणणं भंते । एवं वुच्चइ, नेरइयाणं जे वेदणा समए न से निजरा समए जे निजरासमए न से वेदणा समए ? गोयमा ! नेरइयाणं जं समयं वेदेति नो तं समयं निजरेंति जसमथं निजरेंति नो तंसमयं वेदेति, अणंमि समए वेदंति अण्णंमिसमए कर्म को निर्जरेगा. ऐसे ही चौवीस दंडक का जानना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! जो वेदना समय है वही निर्जरा समय है अथवा जो निर्जरा समय है वहीं वेदना समय है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से जो वेदना समय है वह निर्जरा समय नहीं है व जो निर्जरा है वह वेदना समय नहीं है ? अहो गौतम ! जिस समय में जीव कर्म वेदते हैं उस समय में मिर्जरते नहीं है और जिस समय में निर्जरवे हैं उस समय में वेदते नहीं हैं. वेदना व निर्जरा का समय पृथक् ही है। * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 भावार्थ 28 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र निजरेंति, अण्णे से वेदणा समए अण्णे से निजरासमए से तेणट्रेणं जाब न से वेदणा समए । एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ९॥ नेरइयाणं भंते ! किंसासया असासया गोयमा ! सिय सासया सिय असासया । सेकेणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइया सिय सासया सिय असासया ? गोयमा! अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए सासया वोच्छित्तिनयट्ठयाए असासया से तेणटेणं जाव सिय असासया एवं जाव वेमाणिपा सिय सासया सिष असासया सेवं भंते भंतेत्ति ॥ इतिसत्तम सयस तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥७॥३॥ होता है. इसी कारन से जिम समय में जीव कर्म वेदते हैं उस समय में निर्जरते नहीं हैं व जिस समय में निर्जरते हैं उत समय में वेदते नहीं हैं. ऐसे ही नारकी आदि सब दंडक का जानना ॥९॥ अहो भगवन ! क्या नारकी शाश्वत हैं या अशाश्वत है ? अहो गौतम ! नारकी क्वचित् शाश्वत व क्वनि अशाश्वत हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी क्वचित् शाश्वत व क्वचित् अशाश्वत है ? अहो गौतम ! नारकी का कदापि विच्छेद नहीं होनेवाला है इस अपेक्षा से शाश्वत है और वहां उत्पन्न हु नारकी आयुष्य क्षय से काल करके अन्य स्थान जाते हैं उस अपेक्षा से अशाश्वत है. इस कारन से नारकी शाश्वत व अशाश्वत दोनों रहे हुवे हैं ऐसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य है. यह सातवा शतक का तीसरा उद्देशा समाप्त हुवा ॥७॥३॥ 880सातवा शतकका तासरा उद्देशा 988 Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथे १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रा. राजगृह न० नगर में जा० यावत् एक ऐसा व० बोले क. कितने प्रकार के सं० संसारी जी० जीव गो० गौतम छ० छप्रकार के सं० संसारी जी. जीव पु० पृथ्वी काया ज• जैसे जी० जीवाभिगम रायागहे नयरे जाव एवं वयासी-कतिविहाणं भंते ! संसार समावण्णगा जीवा । पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तंजहा पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव समत्त किरियंवा मिच्छत्त किरियंवा जीवा छव्विहा । तृतीय उद्देशे में संसारी जीव का शाश्वतपना आदि का स्वरूप कहा. अब चतुर्थ उद्देशे में उस का ही भेद से स्वरूप कहते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे परिषदा वैदने को आइ व धर्मोपदेश सुनकर पीछी गइ. उस समय में श्री गौतम स्वामीने वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! संसार समापन्न जीव कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! संसारी जीव छ प्रकार के कहे हैं. १ पृथ्वी, २ पानी, ३ आमि, ४ वायु, ५ वनस्पति व ६ त्रस. इन का विशेष वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानना. और भी जीव के छ भेद कहे हैं. उस में से पृथ्वीकाय के छ भेद १ सण्हा, २ शुद्धा, ३ बालुका, ४ मनःशिला, ५ शर्करा, ६ खर. इन.की भव स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष. कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट असंख्यात काल. निलेपन *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में जा० यावत् स. सम्यक्त्वक्रिया मि० मिथ्यात्वक्रिया जी० जीव छ० छप्रकार के पु० पृथ्वी जी जीवन ठि• स्थिति भ० भव स्थिति का० काय नि० निर्लेपन अ० अनगार किं० क्रिया ॥ ७ ॥ ४ ॥ * पुढवी जीवाणठिई, भवदिई, काए निल्लेवण, अणगारे किरिया, समत्तमिच्छत्ते सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तम सए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥४॥ * *38* पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) 98028सातवा शतक का चौथा उद्दशा किंचित् पृथ्वी काया जीवों में से एक २ जीव नीकालते असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी व्यतीत होजावे. । पृथ्वीकाय का अधिकार कहा. वैसा ही षडूजीवानिकाय यावत् चौवीस ही दंडक का जानना. ऐसे ही अविशुद्धलेशी अनगार वैकेय करके अविशुद्धलेशी देव देवी को व अविशुद्धलेशी अनगार को क्या जाने देखे ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. और भी अहो भगवन् ! एक जीव को एक समय म सम्यक्त्व व मिथ्यात्व ऐसी दोनों प्रकार की क्रिया लगती है ऐसा जो अन्यतीर्थिक कहते हैं वह किस तरह है ? अहो गौतम ! उन का ऐसा कथन मिथ्या है. परंतु मैं ऐसा कहता हूं याव प्ररूपता हूं कि एक समय में जीव सम्यक्स्व अथवा मिथ्यास्त्र ऐसी एक ही प्रकार की क्रिया को स्पर्शता है. इस का विस्तार पूर्वक कथन जीवाभिगम सूत्र से जानना. अहो भगवन् ! आपके बचन तथ्य यह सातवा शतक का चौथा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ ७॥ ४ ॥ -- - Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * प्रकाशक-राजाबहादुर ९०६ H १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 89 रा राजगृह जायावत् ए०ऐसा व०बोले ख०खेचर पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच की भं० भगवन् क कितने प्रकार की योनि सं० संग्रह गो० गौतम ति० तीन प्रकार की जो० योनि० संग्रह अं० अंडज पो० पोतज सं० संमूच्छिम ए. ऐसे जा० यावत् जी० जीवाभिगम में जा० यावत् नो० नहीं ते० वे वि० विमान में वी. रायगिहे जाव एवं वयासी-खहयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते ! कइविहे जोणी संगह पण्णत्ते ? गोयमा! तिविहे जोणी संगहे पण्णत्ते, तंजहा-अंडया, पोयया संमुच्छिमा, एवं जहा जीवाभिगमे,, जाव नो चेवणं ते विमाणे वीईवज्जाए, महा चतुर्थ उद्देशे में संसारी जीव का कथन किया. संसारी जीव योनि से उत्पन्न होते हैं इसलिये योनिका प्रश्न करते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को श्री गौतम स्वामो वंदना नमस्कार कर ऐसा कहने लगे कि अहो भगवन् ! खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की कितने प्रकार की यानि कही : अहो गौतम : खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की तीन प्रकार की योनि कही. १ अण्डज- 31 अण्ड रू. उत्पन्न होवे सा २ पोतज थेला से उत्पन्न होवे सो और २ समूच्छिम स्त्री पुरुष के संयोगः विना उत्पन्न होवे सो. इस में से अण्डज, पोतज के तीन २ भेद कहे . स्त्री, पुरुष व नपुंसक और संमूछिम में मात्र एक नपुंसक वेद पात है. यह योनिसंग्रहका प्रथम व.ल का कथन हुवा. खेचर में छ लेश्या हैं, दृष्टि की तीन हैं तीन ज्ञान की भजना है, तीन अज्ञान की भनना है, तीन योग, उपयोग दो, चारों गतिवाले भावार्थ imahrab Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8. सत्र | जावे म० बडे मो० गौतम से० चे वि० विमान ५० प्ररूरे जो मोनितं० संग्रह ले लेश्या दी दृष्टि का ज्ञान जो योग उ० उपयोग उ उपपात ठि• स्थिति स०समुद्धात च० चयन जानाति कु० कुल वि०प्रकार॥७॥५॥ लयागं । गोयमा ! ते विमाणा पण्णत्ता-जोणी संगहलेस्सा, दीट्ठी नाणेय जोग उवओगे ॥ उववायट्टिइ समुग्घाय चवण जाइ कुल विहीओ, ॥ ५ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तम सयस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥ ५ ॥ भावार्थ का उपपात है, जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवे भाग की स्थिति है, आहारक व केवली समुद्धात छोडकर पांच समुद्धात हैं, चव करके चारों गति में जाते हैं, जाति चार लाख की. कुल बारह लक्ष क्रोड, वगैरह विस्तार पूर्वक कथन जीवाभिगम सूत्रानुसार जानना. यावत् विजयादि पांच अनुत्तर E विमान को कोई महर्द्धिक यावत् महानुभाव देव आवर्तना देवे तो क्या उन का अंत कर सके ? अहो गौतम ! तीन चपटिका में इक्की वक्त संपूर्ण जम्नदीप को आवर्तना देनेवाला कोई महद्धिक यावत् 50 महानुभाग देव छ मास पर्यंत परिभ्रमण करे तो भी पांचों विमानों कोआवर्तना देसके नहीं. सर्वार्थसिद्ध विमान जम्बूद्वीप प्रमाण एक लक्ष योजन का लम्बा चौडा कहा है. वगेरह सब कथन जीवाभिगम सूत्रसे जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह सातवा शजक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुआ ॥७॥५॥ * 4११ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र सातवा शतकका पांचवा उद्देशा* Prics . Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रा० राजगृह जा. यावत् एक ऐसा व. बोले जी. जीव भं. भगवन् जे. जो भ. भव्य ने में उ० उपजने से वह भ० भगवन् किं. क्या इ. यहां से ने० नरक का आ० आयुष्य ५० बांधे उ० उपजता ने नरके का आ० आयुष्य प. बांधे उ० उत्पन्न हुवा ने नरक का आ० आयुष्य ५० बांधे गो० गौतम इ. यहां से ने नरक का आ० आयुष्य प. बांघे नो० नहीं उ० उपजता ने का आ• आयुष्य प० बांधे नो• नहीं उ० उत्पन्न हुवा ने० नरक का आ० आयुष्य १० बांधे ए. ऐसे रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवेणं भंते !जे भविए नेरइएसु उववजित्तए सेणं भ! किं इहगएनेरइयाउयं पकरेइ,उववज्वमाणे नेरइयाउयपकरेइ,उववण्णे नेरइयाउयंपकरेइ ?गोयमा! इयगए नेरइयाउयं पकरेइ नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने नेरइयाउयं । पांचवे उद्देशे में योनि संग्रह का अधिकार कहा हैं. योनि संग्रह आयुष्यवंत जीप को होवे इसलिये आयुष्य का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! जो जीव नरक में उत्पन्न होने योग्य होता है वह क्या यहां रहे हुवे नारकी का आयुष्य वांधता है, उपजता हुआ नारकी का आयुष्य बांधता है अथवा से उत्पन्न हुए पीछे नारकी का आयुष्य बांधता है ? अहो गौतम ! जो जीव नारकी में उत्पन्न होने योग्य होता है वह यहां मनुष्य तिर्यंच में रहा हुआ नारकी का आयुष्य वांधता है परंतु उत्पन्न होते याने त्पन्न हवे पीछे नारकी का आयुष्य नहीं बांधता है ऐसे ही अमुरकुमारादि दश भुवनपति यावत् वैमानिक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 428 अ० असुरकुमार जा. यावत् वे वैमानिक ॥ १ ॥ पूर्ववत् ॥ २-३-४-५ ॥ जी. जीव भं० भगवन् । पकरेइ एवं असुरकुमारेसुवि, एवं जाव वेमाणिएसु ॥ १ ॥ जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइ. एस उववजित्तए से भंते ! किं इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? गोयमा ! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्नेवि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, एवं जाव वेमाणएसु ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइएसु उव वजित्तए सेणं भंते ! किं इहगए महावेयणे, उववजमाणे महावेयणे, उववन्ने महावेयणे? तक का सब अधिकार जानना ॥ १॥ अहो भगवन् ! जो नरक में नारकी पने उत्पन्न होने योग्य होता है? वह क्या यहां रहाहुवा नारकी का आयुष्य वेदता है, वहां उत्पन्न होते नारकी का आयुष्य वेदता है या उत्पन्न हुवे पीछे नारकी का आयुष्य वेदता है ? अहो गौतम ! नारकी में उत्पन्न होने वाला यहां मनुष्य तिर्यच में रहा हुवा नारकी का आयुष्य नहीं वेदता है परंतु वहां उत्पन्न होते वेदता है व उत्पन्न हुए । पीछे नारकी का आयुष्य वेदता है. ऐसे ही वैमानिक तक चौवीस ही दंडकका जानना ॥२॥ अहोई । भगवन् ! नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव क्या यहांपरही महा वेदना वंत होवे, उत्पन्न होता हुआ महा बदनावंत होवे अथवा उत्पन्न हुए पीछे महा वेदनावंत होवे ? अहो गौतम ! कितनेक. यहां रहेहुवे वेद-41 8 da><38 सातवा शतक का छठा उद्देशा 9884 भावार्थ 8 Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! इहगए सिय महावेयणे, सिय अप्पवेयणे, उववजमाणे सिय महावैथणे सिय अप्पवेयणे अहेणं उववन्ने भवइ तओ पच्छाः एगंतदुक्खं वेयणं वेएइ, आहच्चसायं॥३॥ जीवणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववाजित्तए पुच्छा । गोयमा ! इहगए सिय महावयणे सिय अप्पवेयणे, उववज्जमाणे सिय महावयणे, सिय अप्पवेयणे; अहेणं उववन्ने भवइ तओपच्छा एगंत सायं वेयणं वेएइ, आहच्च असायं ॥ एवं जाव थाणिय कुमारेसु ॥ ४ ॥ जीवेणं भंते ! जे भविए पुदवि काइएसु उववजित्तए पुच्छा। नीय कर्मका उदय से महा वेदनावंत होते हैं कितनेक. अल्प वेदना वाले. भी होते हैं कितनेक उत्पन्न होते कर्मका बाहुल्यतासे महा वेदना वाले होते हैं और कितनेक अल्प वेदना वाले होते हैं. और नारकी में भावार्थ उत्पन्न हुवे पीछे एकान्त दुःख होता है परंतु क्वचित् परमाधकिा वियोग होने से अथवा तीर्थंकरों का जन्मादि कल्याणक होने से साता वेदना होती है ॥ ३ ॥ अहा भगवन् ! जो जीव असुरकुमार में उत्पन्न होने वाला है वह क्या यहां रहा हुवा महाक्दना वाला होता है उत्पन्न होते महावेदना वाला होता है या उत्पन्न हुए पीछे महावेदना वाला होता है. ? अहो गौतमः ! अमुरकुमार में उत्पन्न होने वाला यहां रहाहुवा महावेदना वाला होता है और क्वचित् अल्प वेदना वाला भी होता है उत्पन्न होते भी महावेदना व अल्प वंदना वाला होता है परंतु उत्पन्न हुवे पीछे एकान्त साता वेदना वेदने वाला होता है परंतु क्वचित बज्र, | प्रहारादिक की वेदना वेदता है. एसेही स्थनितकुमार तक का जानना॥४॥ पृथ्वीकायिक जीव यहां रहेहुवे १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी मालामतादजी * Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. शब्दार्थ कि क्या आ० आभोगनिवर्तित आयुष्य वाले अ०अनाभोगनिवर्तित आयुष्य वाले गो० गौतम नो नहीं । आ० आभोगनिवर्तित आयुष्य वाले अ० अनाभोगनिवर्तित आयुष्य वाले ए० ऐसे ने नारकी जा० यावत् वे० पैमानिक ॥ ६ ॥ भं० भगवन् जी० जीव क० कर्कश वे० घेदनीय कर्म क• करे ६० हां अ० है क० गोयमा ! इहगए सिए महावेयणे सियअप्पवेयणे, एवं उववज्जमाणेवि, अहेणं उववन्ने भवइ तओपच्छा बेमायाए. वेएइ ॥ एवं जाव मणुस्सेस ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु ॥ ५ ॥ जीवाणं भंते ! किं आभोगनिव्वत्तियाउया अणाभोगनिव्वत्तियाउया ? गोयमा ! नो आभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिव्व त्तियाउया, एवं नेरइयावि एवं जाव वेमाणिया ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! जीवाणं भावार्थ- काचित् महावेदनाबाले व क्वचित् अल्प वेदनावाले होते हैं. ऐसे ही उपजते हुवेका जानना. उत्पन्न हुवे पीछे मर्यादा | रहित वेदना वेदते हैं. ऐसे ही शेष चार स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का जानना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का असुरकुमार जैसे कहना ॥५॥ अहो भगवन् ! क्या जीव जान-100 ता हुवा आयुष्य का बंध करे या नहीं जानता हुवा आयुष्य का बंध करे ? अहो गौतम ! जीव जानता हुवा आयुष्य का बंध करे नहीं परंतु नहीं जानता हुवा आयुष्य का बंध करे. ऐसे ही वाणव्यंतर तकos चौवीस ही दंडक का जानना ।। ६ ।। अहो भगवन् ! क्या जीव कर्कश वेदनीय [रौद्र दुःखवाले ] कर्म हैं। विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र सातवा शतकका छठा उद्देशा Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १.१ अनुबादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी कैसे गो० गौतम पा० प्राणापात से जा० यात् मि० मिथ्या दर्शन शल्य से ॥ ७ ॥ पूर्ववत् ।। ८ ॥ ककसवेयणिज्जा कमा कति ? हंता अत्थि ॥ कहण्णं भंते! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्माकजंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं ककसवयणिज्जा कम्माकजति ॥ अत्थिणं भंते ! नेरइयाणं ककसवेयाणिज्जा कम्मा कजति ? गोयमा ! एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ७ ॥ अत्थिणं भंते ! जीवाणं अककसवेयणिज्जा कम्मा कति? हंता अस्थि । कहाण्णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेय. णिजा कम्मा कजंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं, कोहविवेगणं जाव मिच्छादसणसलविवेगेणं ॥ एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अककरते हैं ? हां गौतम ! जीव कर्कश वेदनीय कर्म करते हैं. अहो भगवन् ! जीव कैसे कर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ? अहो गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य करने से जीव कर्कश वेदनीय कर्म करते हैं. ऐसे ही नारकी आदि चौवीस ही दंडक का जानना ॥ ७॥ अहो भगवन् ! क्या जीव अकर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ? हां गौतम ! अहो भगवन् ! जीव कैसे अकर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ? अहो गौतम ! प्राणातिपात से निवर्तने से यावत् परिग्रह से निवर्तने से, वैसे ही क्रोध यावत् मिथ्या दर्शन शल्य का त्याग करने से जीव अकर्कश वेदनीय कर्म करते हैं. अहो भगवन् ! क्या 61 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी & भावार्थ and Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र भ०भगवन् जी० जीव सा० साता वेदनीय क० कर्म क० करे हैं. हां क० कैसे गो गौतम पा० प्राण की अनुकंपा से भू० भूत की अनुकंपा से जी० जीव की अनुकंपा से स० सत्व की अनुकंपा से ब० बहुत क्कसवेयाणिज्जा कम्मा कजति ॥ अत्थिणं भंते ! नेरइयाणं अककसवेयाणिजा कम्माकजंति ? णो इणटे समटे, एवं आव वेमाणियाणं ॥ गवरं मणुस्साणं जं जीवाणं॥८॥ अत्थिणं भंते ! जीवाणं सायावेयणिजा कम्मा कति? हंता अस्थि ॥ कहण्णं भंते ! सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणु कंपयाए, सत्ताणुकंपयाए, बहूर्ण पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरियावणयाए, एवं खलु गोयमा ! नारकी अकर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं. मात्र मनुष्य अकर्कश वेदनीय कर्म करते हैं शेष सब दंडकवाले कर्कश वेदनीय कर्म करते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव साता वेदनीय कर्म करे ? हां गौतम ! जीव साता वेदनीय कर्म करे. अहो भगवन् ! जीव कैसे साता वेदनीय कर्म करे ! अहो गौतम :. प्राण, भूत, जीव व सत्व की अनुकंपा करने से वैसे ही बहुत प्राण, भूत, जीव व सत्व को दुःख नहीं देने से, दैन्यपना उत्पन्न नहीं करने से, शोक उत्पन्न नहीं करने से, शोक से अश्रु आदि नहीं गिराने से, यष्टयादि से ताडन नहीं करने से, व परिताप नहीं उपजाने से जीव 888800 सातवा शतकका छठा उद्देशा भावार्थ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पा. प्राण जा. यावत् स० सत्व को अ० दुःख नहीं देने से अ० शोच नहीं उपजाने से अ० झूरणा नहीं देने से अ० ताडन नहीं करने से अ० नहीं पीटने से अ० परितापना नहीं उपजानेसे ॥९॥ पूर्ववत् ॥१०॥ जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजति ॥ एवं नेरइयाणवि, जाव वेमाणियाणं ॥ ९ ॥ आत्थिणं भंते जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? हंता अत्थि ॥ कहणं भंते ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरितावणयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए जाव परियावणगए, एवं खलु गोयमा! जीवाणं असाया वेयणिज्जाकम्मा कजंति ॥ एवं नेरइयाणवि, जाव वेमाणियाणं साता वेदनीय कर्म करता है. ऐसे ही नारकी से वैमानिक पर्यंत चौवोस ही दंडक का जानना ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव असाला वेदनीय कर्म करें? हां गौतम ! जीव असाता वेदनीय कर्म करे.. अहो भगवन् ! जीव असाता वेदनीय कर्म कैसे करे ? अहो गौतम ! अन्य को दुःख देने से, दैन्यपना करने से, शोक उत्पन्न करने से, शोक से अश्रु आदि गिराने से, ताडनादि करने से. व परिताप उत्पन्न करने से वैसे ही बहुत प्राण, भून, जीव व सत्वों को दुःख देने से यावत् परितापता उत्पन्न करने से जीव असाता वेदनीय कर्म करता है. ऐसे ही नारकी आदि चौवीसही दंडक का जानना ॥ १०॥ अहो भगवन् ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र-80 जं जंबद्वीप में भ० भगवन् इ० इस उ० अवसर्पिणी में दु० दुषमादुषम स० काल में उ० उत्कृष्ट का काष्टा को पा० प्राप्त भ० भरत क्षेत्र का के० कैसा आ० आकार भाव ५० प्रत्यवतार भ. होगा गोर । गौतम का० काल भ. होगा हा हाहाभूत भं० भांभाभूत को० कोलाहल भूत स० समय के अ० अनुभाव । से ख० कठोर फ. परुप धु० धूलि म० मैल दु० दुःसह वा० व्याकुल भ० भयंकर वा० वायु सं० संवृतवायु वा० चलेगा इ० यहां अ० वारंवार धू० धूम्र से दि० दिशा स० सब बाजु र रजयुक्त रे० धूलि क० मलिन तक अंधकार प० समुह नि प्रकाश रहित स० समय लु० रुक्षपना से अ. ॥ १० ॥ जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे इमीसे उसप्पिणीए दुसमदुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भारहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! कालो भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए। समयाणुभावेणयणं खरफरुसधुलिमइला, दुविसहा, वाउला, भयकरावाया, संवगाय वाहिति, इह अभिक्खं २ धूमाहितिय दिसासव्वओ समंता रउस्सला, रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा जम्मूदीप में इस अवसर्पिणी का परमकाष्टावाला छठा दुषमा दुषम नामक समय में भरत क्षेत्र का कैसा आ-30 कारभाव प्रत्यवतार होगा? अहो गौतम ! उस समय में ऐसा काल होगा कि दुःख से लोकों हाहाकार ७ करेंगे, भों भों ऐसा आत व कोलाहल शब्द करेंगे. ऐसे काल के प्रभाव से असंत कठोर स्पर्शवाला व मलिन धूल का पत्रन चलेगा, वह बहुत दुःसह व भय उत्पन्न करनेवाला होगा और ऐसा वर्तुलाकार वात । घा शतक का छठा उद्देशा भावार्थ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ९१८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * अधिक चं० चंद्र सी० शीत मो• मुकेगा अ० अधिक सू. मूर्य त० तपेगा अ० अथवा अ० वारंवार २० बहुत अ० अरम मे०मेघ वि०विरसमेघखा०क्षारमेघ खे० करीषमेघ अ० अग्निमेघ वि०विद्युन्मेघ वि-विषमेघ अ० अशनिमेय अ० नहीं पीने योग्य पानी वा०व्याधि रो०रोग वे वेदना उ०उदीरणा प० परिणाम स० पानी स० अमनोज्ञपानी चं० प्रचंड अ० वायु प० प्रहर ति० तिक्ष्ण धा० धार नि० निपात ५० प्रचुर व० वर्षा समयलुक्खताएणं । अहियं चंदा सीयं मोच्छंति, अहियं सूरिया तवइस्संति, अदुस्तरंचणं अभिक्खं बहवे अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, असणिमेहा, अपिवणिजोदगा, अयावणिजोदगा वाहिरोगवेयणोदीरणापरिणामसलिला, अमणुण्णपाणियगा, चंडानिलपहयतिक्खधारानिवाय पउरं वासं वासिहिंति, ॥ जेणं भारहे वासे गामागर नगर खेड कव्वड मडंव दोणचलेगा कि जिस से धूली आदि एकत्रित होवेंगे. इस समय में वारंवार धूल उडने से दशोंदिशाओं रजसहित मलिन होवेंगी. धूलि से मलिन अंधकार समुह होने से प्रकाश का आविर्भाव बहुत कठिनता से होगा. समय की रुक्षता से चंद्र में अधिक शीत होगा, और सूर्य भी अधिक तपेगा. और भी उस क्षेत्र में वारं"वार बहुत अग्स मेघ, विरस मेघ, क्षार मेघ, करीष मेघ, आग्नि मेघ, विद्युन्मेष, विष मेघ, अशनि [वज्र ] मेघ, अपेय पानीवाला, व्याधि, रोग, वेदना व उदीरणारूप परिणाम समान पानीवाला व अमनोज्ञ पानीवाला * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ । Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20238 शब्दार्थ व वगे जे० जिस से भा० भरत क्षेत्र में गा० ग्राम आ० आगार न० नगर खे० खेड क. कर्वट म०३ मडंय दो० द्रोण मुख प० पट्टन आ० आश्रम ग० गत ज० मनुष्य च० चार पगवाले ग० गौ ए. अज* २२ ख० खेचर प० पक्षिसमुदाय गा० ग्राम अ० अरण्य में प० फोरने वाले त. स प्राणी ब• बहुत प्रकार के रु. वृक्ष गु० गुच्छ गु० गुल्म ल• लता व० बल्लि ति० तृण प. पवंग ह. हरित ओ० औषधि प०१४ प्रवाल अं• अंकुर त० तृण व वनस्पति काया को वि. नाशकरेंगे प० पर्वत गि० गिरि डों० डुंगर उ. मुह पट्टणासमगयजणवयं, चउप्पयगवेलए खहयरे पक्खिसंघे, गामारण्णप्पयारनिरए, तसेयपाणे, बहुप्पगार रुक्ख गुच्छ गुम्मलयवल्लितण पव्वगहरियोसहिपवालं कुरमाइए, तणवणरसइ काइए विडसेहिंति, पव्वयगिरि डोंगरुत्थल भट्ठिमाईएय, वेयड्ढगिरिवजे विराबहिति, सलिल बिलगढ़ दुग्ग विसम णिण्णुण्णयाइंच गंगासिं धूवज्जाइं समीकरेहिति ॥ तीसेणं भंते ! समाए भरहवासस्सभूमीए केरिसए आगार भावाथ मेघ प्रचंड वायु से हणाती व तीक्ष्ण वेग से पतन होवे वैसी वर्षा करेंगे. उस से भरत क्षेत्र में ग्राम, नगर, आगर, खेड, कर्वट, मडंब, पाटण, द्रोणमुख व आश्रममें रहेहुवे मनुष्य, चतुष्पद, गाय, अजा, पक्षियों के समूह और ग्राम व अरण्य में रहनेवाले बहुत सप्राणियों बहुत प्रकार के आम्र, अशोकादि वृक्ष, चंपकादिलता, 10 नागरवेलादि वेल, सेलडी प्रमुख दूर्वादि, शल्यादि धान्य, प्रवाल पल्ला अंकूर, व तृण वगैरह वनस्पतियों पंचमांग विवाह एण्णत्ति ( भावती ) मूत्र ०४ सातवा शतकका छठा उद्दशा Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ( उत्स्थल भ० रेतीकस्थल आदि वे० वैताढ्य गि गिरि ब० वर्जकर वि。समहोगा स०सलिल वि० बिल ग० (खड्डे दु० दुर्ग वि० विषम नि० ऊंचानीचा गं० गंगा सिं० सिंधु व० वर्जकर स० समहोगा ती० उस भं० भगवन् स० काल में भा० भरत क्षेत्र की भू० भूमि का के० कैसा आ० आकारभाव १० प्रत्यक्ष भ० होगा गो० गौतम भू० भूमि भ० होगी इं० इंगाल भूत मू० मुर्मुर भूत छा० क्षार भूत त० तप्स कवेलू भावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! भूमी भविस्सइ, इंगालभूया, मुम्मुरभूया, छारियभूया, तत्तकवेलयभूया, तत्तसमजोइभूया, धूलिबहुला, रेणुबहुला, पंकबहुला, पणग बहुला, चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दोणिक्क मायावि भविस्सइ ॥ तीसणं भंते ! समाए भार हेवासे मणुयाणं केरिसए आगार भाव पडोयारे भवि - सइ ? गोयमा ! मणुया भविस्संति, दुरुवा, दुवण्णा, दुग्गंधा, दुरसा दुप्फासा, का विध्वंन करेंगे. वैताढ्य पर्वत छोड़कर सब पर्वत, गिरि, डुंगर, स्थल, रेती के स्थान और पर्वत की पास की भूमी वगैरह सब का नाश होगा. और गंगा व सिंधू ये दो नदियों छोड़कर अन्य सब नदी, नाले बराबर होजायेंगे. अहो भगवन् ! उस समय में भरत क्षेत्र की भूमि कैसी होगी ? अहो गौतम ! उस समय में भरत क्षेत्र की भूमि अग्निभूत, मुर्मुर भूत, भस्मभूत, नपेहुवे कवेलू समान, तप्त अनि समान, बहुत धूल, बहुत रेणु बहुत पंक, बहुत फुलन, व बहुत चलाने ( कर्दम ) वाली होगी. प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९२० Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 42 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र १६०१२१ सातवा शतक का छठा उद्देशा जैसी त० तप्त समज्योति भूत धू० बहुत धूलिवाली रे० बहुत रेतीवाली पं० पंक प० नीलण च० कर्दम) ध० धरणि गो० गोचर स० सत्व दु० दुर्निष्क्रमण भ० होगा दु० कुरुप दु० दुष्टवर्ण वाले दु० दुर्गंधी दु० खराब रसवाले दु० खराब स्पर्श वाले अ० अनिष्ट अ० अकांत जा० यावत् अ० अमणाम ही० स्वर वाले दी दीनस्वर वाले जा० यावत् अ० अमणामस्वर वाले अ० अनादेय वचनवाले (नि० मिर्लज्ज कू० कूड क० कपट क० कलह व० वध व बन्ध वे० वैर में नि० आसक्त म० मर्यादा अ अट्ठा अकंता जाव अमणामा, हीणसरा दीणसरा, अणिदुसरा, जाव अमणामसरा अणाजवयणपच्चाया निलज्जा, कूड कवड कलह वहबंधवेर निरया, मज्जायातिकमप्पहाणा, अक्कज्जनिच्चुज्जुत्ता, गुरुनियोगविणय रहियाय, विकलरूबा, परूढनह केस मंसुरोमा, कालाखरफरुसज्झामवण्णा, फुट्टसिरा कावेलपलियकेसा बहुपहारुसंविद्ध दुदंसणिज्जरुवा, संकुडिय बलितरंग परिवेढियंगमंगा, जरा परिणयव्वथेरेगनरा पृथ्वी पर चलनेवाले जीवों को उस पर चलते हुवे बहुत दुःख होगा. अहो भगवन् ! उस समय में भरत क्षेत्र के मनुष्य का कैसा आकार भाव होगा ! अहो गौतम ! उस समय में भरत क्षेत्र के मनुष्य ) हीन स्वर, दीन स्वर, खराब वर्ण, गंध, रस, व स्पर्शवाले, अनिष्ट, अक्रान्त अप्रिय, अमनोज्ञ, अमणाम, अनिष्ट स्वर यावत् अमणाम स्वरवाले, अनादेय वचनवाले, निर्लज्ज, कूड, कपट, कलह, वध, बंध व वैर में } * ९२१ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ १० अनुवादक बालब्रह्मचारि।मुनि श्री अमोलक ऋषिजी { अतिक्रमण में प० प्रधान अ० अकार्य में नि०. नित्य उ० उद्यत गु० गुरु में वि० विनय र० रहित वि० विकलरूप प० बढेहुवे न० नख के० केश मं० दाढी रो०रोम का० कालेवर्ण वाले खअतीव फ० परुष झा० अनुज्लवर्णवाले फु० खल्लेशिर वाले क० कपिल १० पलित केशवाले व० बहुत पहा • स्नायु, स० नीकले हुवे दु० दु:ख से देखने योग्य रू० रूपवाले सं० मंकुचित व० बलि त० तरंग १० परिवेष्ठित अं० अंग पविरल परिसडिय दंतसेढी उभडघडमुहा, विसमनयणा, बँकनासा, वकवलिविगय भेसणमुहा, कच्छुकसिराभिभूया, खरतिक्ख नह कंडूइय विकयतणू, दद्दुकिडिभसिंभफुडिय फरुसच्छ विचित्तलंगा, टोलगति विसम संधि बंण उक्कुडुयाय विभत्त दुव्वा कुसंघयण कुप्पमाण कुसंठिया कुरुवा कुट्ठाणासण कुसेज कुभोइणो, असुइणो अणेगवाहिपरिपीलियंगमंगा, खलंतविग्भलगई, निरुच्छाह सत्त परिवज्जिय विगय चिट्ठआसक्त, मर्यादा उल्लंघनेवाले अकार्य करनेवाले, गुरु आदि पूज्य जनों का विनय रहित, विकलरूपवाले, बढे हुवे नख, केश, श्मश्रु रोमवाले, काले वर्णवाले, अतीव कठोर अनुज्वल वर्णवाले, बिखरे हुवे बालवाले, पलित केशवाले, बहुत नसों व नाडीयों दीखने मे दुर्दर्शनीय, संकुचित. अनेक प्रकार के लक्षणों से परिवेष्टित अंगवाले, वृद्ध समान स्थविर, दंत नहीं होने से अथवा किसी दंत के गिरने से विकराल घट के मुख समान, विषम नेत्रवाले, व वक्र नासिकावाले होंगे. उन के शरीर के अवयंत्र वक्र भयंकर पामखसर * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी बालाप्रसादजी * ✓ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथै वाले ज० जरा प० परिणत जैसे थे० स्थविरनर ५० विरल १० टूटी दं० दंतश्रेणी उ० भयंकर ब. घट । के मुख जैसे वि० ० विषम नयन वाले वै० वक्रनाशिका वाले व० वक्र वि.विकृत भे० बीभत्स मु०० मुखवाले क. रोगयुक्त सि० शिर अ० अभिमुख ख० कठीन ति तीक्ष्ण न० नख के० कुचरा हुवा वि० विकराल त शरीर ददर दर कि०किटिभ सिक्षुद्रकृष्ट भविषय फुस्फुटित क०कठिन छ० चमडी वि० विचित्र अंग टोखरावगति वि०विषम सन्थि बं०बंधन उ० उक्कडु वि०विभक्त दु०दुर्वल कुखराब संघयण कु० नट्टतेया, अभिक्खणं सीय उण्ह खरफरुस वायविज्झडिय मलिण पंसुरय गुडियंगमंगा बहु कोहमाणमाया बहुलोभा, असुभदुक्ख भोगी उस्सण्णं, थम्मसण्ण सम्मत्तपरिभट्ठा ॥ उक्कोसेणं स्यणिप्पमाणमेत्ता, सोलस वीसइवास. परमाउसो पुत्तनत्तु परि यार पणय बहुला गंगासिंधूओ महानदीओ वेयड्ढंच पव्वयं निस्साए बावत्तरि नियोदा भावार्थ गेग से व्याप्त होगा अति तीक्ष्ण नख होने से सदैव विलूरते रहेंगे. वे ऊंट की तरह वक्र चाल चलनेवाले होंगे विषम शरीर की संधिबंध के धारन करनेवाले, ऊंची, नीची विषम हड्डियों, पसलियों युक्त दुर्बल शरी-1 * वाले, खराब शरीर के संघयनवाले, खराब प्रमाणवाले, खराब संस्थानवाले, व कुरूप होंगे खराब स्थान में बैठनेवाले, शयन करनेवाले, खराव भोजन करनेवाले, अशूचि से परिपूर्ण व अनेक प्रकार की व्याधि से पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सत्र 28 vwwwwwwwwww 2-8888 सातवा शतकका छठा उद्देशा 8948 Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 88 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी खराब प्रमाण कु० खराब संस्थान कु० कुरूप कु० खराब स्थान आ० आसन कु० खराब शैय्या कु· खराब (भोजन अ० अशुचि अ० अनेक व्याधि प० पीडित अं० अंगोपांग ख० स्खलित वि० विभंगगति निο निरुत्साह स० सत्व प० रहित वि० विगत चि० चेष्टा न० नष्टतेज अ० वारंवार सी०शीत उ० ऊष्ण ख० (कठीन फ० परुष वा० वायु वि० अतीव्याप्त म० मलीन पं० धुल र० रज गु०भरे हुवे अं० अंगोपांग ब० बहुत को० क्रोध मा० मान मा माया लो० लोभ अ० अशुभ दु० दुःख भो० भोगी उ० उत्सन्न ध० बीयं बीयामेत्ता बिलवासिणो भविस्संति | तेणं भंते मणुया किमाहार माहारेर्हिति गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगासिंधूओ महानदीओ रहपहवित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिंति, सेवियणं जले बहुमच्छकच्छ भाइण्णे नो चेवणं आयबहुले भविस्सइ, तरणं ते मणुया सूरुग्गमणमुहुत्तं सिय सूरत्थमणमुहुत्तं सिय बिलेहिंतो निद्धाहिंति, बिलेहिंतो निदाइत्ता, मच्छकच्छ भथलाई गाहेहिंति गाहित्ता ( पीडित होंगे. वे आकूल व्याकूल होकर चलनेवाले, उत्साह व सत्व से वर्जित, शुभ चेष्टा राहत, तर्ज {रहित, वारंवार शीत, ताप, तीक्ष्ण वायु मैल, धूल से पीडित होवेंगे. बहुत क्रोध, मान, माया व लोभ के { धारक अशुभ दुःख भोगनेवाले, शुद्ध सम्यक्त्व व धर्म से भ्रष्ट, उत्कृष्ट एक हाथ शरीर की अवगाहना * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * वाले, जघन्य सोलह उत्कृष्ट वीस वर्ष तक के आयुष्यवाले, पुत्र पौत्र आदिका बहुत परिवारवाले बहुत मम- * ९२४ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ संझा स० सम्यक्त्व १० भ्रष्ट उ. उस्कृष्ट २० हस्त प० प्रमाण मात्र मो० सोलहवी. वीश वर्ष ५० उत्कृष्ट आ• आयुष्य पु. पुत्र न. पौत्र दौहित्र प० परिवार प० प्रणय २० बहुत गं० गंगा सिं० सिंधु म.ool 8 महानदी के० वैतान्य प० पर्वत नि० आश्रित बा. बहत्तर निः कुटुम्ब बी० बीन बी. बीजमान कि. ] बिल में रहने वाले भा होंमे ते के भ० भगवन् म. मनुष्य किं. कैसा आ० आहार करेंगे गो० गौतम ते उस काल उ० उस समय में ग• गंगा सि. सिंधुनदी र० रयके रस्ते का वि• विस्तार अ.अक्षखासे 1. प्रमाण मात्र ज. पानी वो वहेगा से उस ज. जल में ब. बहुत म. मच्छ क. कच्छ भा. भरे सीयायवतत्तएहि, कच्छमच्छएहिं एकवीसं वाससहस्साई वित्तिकप्पेमामा विहरिस्संति ॥ तेणंभंते! मणूसा निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा,निपञ्चक्खाणपोसहोववासाउस्सण्णं मंसाहारा, भावार्थ खकले गंगा सिंधु नदी के ७२ बिलमें बीमभूत विलमें रहने वाले मनुष्यों होयेंगे. अहो भमवन् ! उस समय के मनुष्य कैसा आहार करेंगे ? अहो गौतम ! उस समय में गंमा सिंधु नदी का विस्तार स्थके मार्ग नितना होगा, और अक्ष प्रमाण पानी रहेगा. उस जल में बहुत मत्स्य, कच्छ, वगैरह रहेंगे और १ गंगा नदी गंगा प्रपात कुंडमें से नीकल कर उत्तरार्ध में गइ है यहां एक २ किनारे पर ९ बिल हैं यों दोनों १ किनारे पर १८ बिल हैं और वहां से वेताढ्य पर्वत को भेद कर दक्षिणार्ध में गई है वहां पर दोनों किनारे पर १८ बिल हैं ऐसे ३६ हुचे, वैसे ही सिंधु नदी के ३६ मीलकर ७२ बिल हुवें. '248 पंचांग विवाह पण्णनि (भगवती.) मूत्र *38**> 403 सातवां शतकका छठा उद्देशा + + Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 802 हुवे नो० नहीं आ० पानी व० बहुत भ० होगा त० तब ते० वे म. मनुष्य सू० सूर्य उ० उद्गमन मु. मुहूर्त सू० सूर्यास्त मु० मुहूर्त वि. विलसे नि० नीकलेंगे नि नीकलकर म० मच्छ क० कच्छ भ० स्थल में गारखेंगे सी शीत त ताप से त० तप्त क०कच्छ मच्छ से ए०इक्कीस वर्ष स०सहस्र वि. वृत्तिकरते वि० विचरेंगे ते वे भ० भगवन् म मनुष्य नि०निःशील निःनिर्गुण नि०मर्यादा रहित निष्प्रत्याख्यान रहित पो०१ पौषध उ० उपवास उ०प्रायः मं० मांसाहारी म० मच्छाहारी खो० क्षुद्राहारी कु० कुणपाहारी का कालके अवसर मच्छाहारा, खोदाहारा, कुणिमाहारा, कालमासे कालंकिच्चा कहिं गच्छिहिति, कहिं उब अ वजिहिंति ? गोयमा ! उस्सण्णं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववाजिहिंति, ॥ तेणं भंते । सीहा बग्घा वग्गदीविया अच्छा तरच्छापरस्सरा निस्सीला तहेव जाव कहिं उववजिहिपानी बहुत थोडा रहेगा. उस समय में उक्त बील में रहने वाले मनुष्यों सूर्योदय पहिले एक मुहूर्त व सूर्या स्त पीछे एक मुहूर्त में बाहिर नीकलेंगे. और मत्स्यादि नदी में से नकाल कर रेती में डाल देवेंगे वे शीत व ऊष्णतासे निर्जीव हो जायेंगे और उस से अपनी आजीविका करेंगे. ऐसा दुःख इक्कीस हजार वर्षतक रहेगा. अहो भगवम् ! उक्त शील, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान व पौषधोपवास रहित, वैसे ही मांस के आहार करनेवाले, मत्स्य के आहार करनेवाले, क्षुद्र व मृतक का आहार करने वाले मनुष्य काल करके , कहां जावेंगे व कहां उत्पन्न होवेंगे ? अहो गौतम ! वे प्रायः नरक व तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होवेंगे. अहो । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ - Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3gp में का काल करके क० कहां ग० जावेंगे उ० उपजेंगे गो० तौतम प्रायः न नरक ति नियंच जो योनि में } * उ० उपजेंगे ते० वे सी० सिंह व० व्याघ्र व० वर्गजाति केपंशु दी० द्वीपि का अ० अरींछ त० तरक्ष प० oye V जरख नि० निःशील क. कहां उ० उपजेंगे गो० गौतम न० नरक ति० तिर्यंच योनि में उ० उपजेंगे ते वे दं० ढंक क० काक पि० पिलक म. मयूर नि० निःशील जा. यावत् न. नरक नितियचयोनि में उ० उपजेंगे मे० वह ए० ऐसे भ० भगवन् ॥ ७ ॥ ६ ॥ 838 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ति ? गोयमा ! उस्सण्णं नरगतिरिक्ख जोणिएसु उववजिहिति ॥ तेणं भो ! ढंका कंका पिलका मदुगा सिही निस्सीला तहेव जाव उस्सण्णं नरग तिरिक्ख जोणिएसु उववजिहिंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तम सयस्स छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥७॥६॥ 2034 सातवा शतक का छठा उद्देशा 8-8om भावार्थ भगवन् ! उस समय के सिंह, व्याघ्र, दीपिका, चित्ता, रीछ व जरख वगैरह जानवरों वहां से काल हैं करके कहां उत्पन्न होवेंगे? अहो गौतम ! उक्त चतुष्पद जानवरों नरक व तिर्यंच में उत्पन्न होवेंगे. अहो भगवन् ! उस समय में ढंक, कंक पीलक, जलकाक मयूरादि पक्षियों कहां उत्पन्न होवेंगे ? अहो । गौतम ! उक्त पक्षियों काल के अवसर में काल करके नरक तिर्यंच में उत्पन्न होवेंगे. अहो भगवन् ! आपके वचन सल्य हैं. यह सातवा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ७॥ ६॥ x Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ऋषिजी ९२८ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक सै० संवृत भ० भगवन् अ० अनगार आ० उपयोग से ग जाते चि० खडे रहते नि० कैते ३० वस्त्र: ५० पात्र के० कंबल पा रजोहरण ग• लेते नि० रखते किं. क्या ई० ईपिथिक कि० क्रिया क करे संवुडणं भंते ! अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं । निसीयमाणस्स आउ वत्थ पडिग्गहं कंबलं पायपुच्छण गेण्हमाणस्सवा, निक्खिन माणस्सवातस्सणं भंते! कि ईरियावहिया किरिया कजइ संपराइया किरिया कजइ?गोयमा! संयुडस्सणं अणगारस्स आव तस्सणं ईरियावाहिया किरिया कनइ, नोसंपराइया किरिया कजइ ॥ सेकेणद्वेणं भंते ! एवं ग्रुच्चइ संवुडस्सणं जाव नो संपराइया किरिमा कजइ ? _ छे उद्देशे के अंत में नरक में असंवरी की उत्पत्ति का कहा. अब उस से विपरीत संवृत अनगार का मो होता है सो कहते हैं, अहो भगवन् ! इन्द्रियों को संयम में रखनेवाले अनगार को उपयोग सहित, जाते, बैठते, सोते, व वस्त्र, पात्र कंबल रजोहरणादि लेते व रखते क्या ईपिथिक क्रिया लगे या सांपरायिक क्रिया लग ? अहो गोलन सडत अनगार को उपयोग सहित, बैठते, उठते, सोते, व वखात्रादि व लेते रखते ईयापिथक क्रिया लगती है परंतु सपिरायिक क्रिया नहीं लगती है. अहो भमवन् ! संवृत अनगार को किस कारन से ईर्यापथिक क्रिया लगती है व सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ? अहो गौतम ! जिन , को क्रोध, मान माया,व लोभ,नष्ट हुवे हैं उन को ईर्यापथिक क्रिया लगती है. उस क्रिया को ये प्रथम समय * .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखद तावजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२९ wwwnnnnnnnnnnn शब्दार्थ सं. सांफ्रायिक कि क्रिया क० करे गो गौतम से० संवृत अ० अनगार जा० यावत् ई. र्या Loo पथिक कि क्रियाकरे नो० नहीं सं० सांपरायिक क. करे से० वह के. कैसे भ० भगवन् ए० ऐसा ७०० गोयमा ! जस्सणं कोह माण माया लोभा वोच्छिण्णा भबंति तस्सणं ईरियावहिया किरिया कजइ, तहेव जाव उस्सुत्तरीयमाणस्स संपराइया किरिया कजइ । सेणं अहासत्तमेव रियइ से तेणट्रेणं गोयमा ! जाव नो संपराइया किरिया कजइ ॥१॥ रूवी भते ! कामा अरूवी कामा ? गोयमा ! रूबीकामा समणाउसो नो अरूवीकामा ॥ सचित्ता भंते ! कामा अचित्ता कामा? गोयमा! सचित्तावि कामा अचित्तावि कामा ॥ जीवा भंते ! कामा अजीवा कामा ? गोयमा ! जीवावि कामा अजीवामें वांधते है. दूसरे समय में वेदते हैं व तीसरे समय में निर्जरते हैं. जिन को क्रोधादि नष्ट नहीं हुवे हैं . उन को सांपरायिक क्रिया लगती है यावत् सूत्रानुसार चलनेवाले को ईपिथिक क्रिया लगती है व उत्सूत्रानुसार चलनेवाले को सांपरायिक क्रिया लगती है. संवृत अनमार उपयोम सहित बैठते, 'उठते, 20 | वत्र पात्रादि रखते सूत्रानुसार चलनेवाले होते हैं और इसी से उन को ईर्यापथिक क्रिया लगती है पर मांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ॥ १॥ संवृत अनगार कामभोग के त्यागी होते हैं इसलिये कामभोग का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! काम क्या रूपी है या असली है ? अहो गौतम ! श्रमण ! आयुष्मन् ! पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती)मत्र सातवा शतकका सातवा उद्देशा भावार्थ n nnnnnnnwww Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ कहा जाता है गो गौतम जजिस को का०क्रोधे मा०मान मा०माया लो लोभ वोक्षीण हुचे होवे त० उस को ई०ईर्यापथिक कि क्रिया क०करे त तैसे जायावत् उ० उत्सूत्र री०चलेत को सं०मांपरायिक कि क्रियाई विकामा ॥ जीवाणं भंते ! कामा अजीवाणं कामा ? गोयमा ! जीवाणं कामा नो अजीवाणं कामा ॥ कइविहेणं भंते ! कामा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा षण्णत्ता तजहां-सदाय,रूवाय.॥ २ ॥ रूवी भंते!भोगा अरूबीभोगा ? गोयमा ! रुवीभोगा नो अरूवी भोगा॥सचित्ता भंते ! भोगा, आचत्ता भोगा? गोयमा! सचित्तावि भोगा आचित्तावि भोगा॥जीवा भंते ! भोगा अजीवाभोगा ? गोयमा! जीवावि भोगा अजीवा विभोगा ॥ जीवाणं भंते ! भोगा अजीवाणं भोगा ? गोयमा ! जीवाणं भोगा नो काम रूंपी हैं अरूपी नहीं है. क्योंकि पुद्गल धर्मपना से उन में मूर्नता रही हुई है. अहो भगवन् ! क्या काम सचित्त हैं या अचित्त हैं.? अहो गौतम ! मन माहित प्राणी के रूप देखने की अपेक्षा से काम सचित्त हैं, और शब्द द्रव्य की अपेक्षा से अथवा असंज्ञी जीव के शरीर के रूप की अपेक्षासे काम १ काम्यन्ते अभिलष्यन्त एव न तु विशिष्टशरीरस्पर्शद्वारणो पयुज्यन्ते एते कामाः अर्थात् मात्र यांच्छना करना परंतु शरीर से स्पर्श नहीं करना सो काम. २ रूपं मूर्तता तदस्ति येषां ते रूपिण स्तद्विपरीतास्त्व रूपिणः अर्थात् जिस को मूर्तता रही हुई है वह रूपी हैं और उस से विपरीत मूर्तता रहित अरूपी है. * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ र | Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कि० करे अ० यथा मूत्र रि० चलता है ते० इसलिये गो० गौतम जा. यावत् नो० नहीं सं० सांपरायिक क्रिया क° करे ॥ १ ॥२॥ ३ ॥ ४ ॥ ५ ॥ छ० छद्मस्थ भं० भगवन् म० मनुष्य जे० जो भ० भव्य अजीवाणं भोगा ॥ कइविहाणं भंते भोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तंजहा-गंधा, रसा, फासा ॥ ३ ॥ कइविहाणं भंते ! कामभोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पण्णत्ता तंजहा सदा रूवा, गंधा, रसा, फासा ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते ! किं कामी भोगी ? गोयमा ! जीवा कामीवि भोगीवि से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ जीवा कामीवि भोगीवि ? गोयमा ! सोइंदिय भावाथ अचित्त भी हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव काम है या अजीव काम है ? अहो गौतम ! शरीर व रूपकी अपेक्षा से जीव काम हैं और शब्द की अपेक्षा से अजीव भी काम हैं. अहो भगवन ! क्या जीवों को काम होवे या अजीवों को काम होवे ? अहो गौतम! जीवों को काम होवे परंतु अजीवों को काम नहीं होवे ? अहो भगवन् ! काम के कितने भेद ? अहो गौतम काम के दो भेद शब्द व रूप ॥२॥ अहो भगवन् ! क्या भोग रूपी हैं या अरूपी हैं? अहो गौतम ! भोग रूपी हैं परंतु अरूपी नहीं हैं. अहो भगवन् ! क्या भोग सचित्त हैं या आचित्त हैं ? अहो गौतम ! भोग सचित्त भी है और अचित्त 1 भी है. संज्ञी जीव व शरीर संबंधी भोम सचित्त व असंज्ञी के अचित्त. अहो गवन् ! क्या जीव भोग हैं पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र -8283 १४-888 सातवा शतक का सातवा उद्देशा । Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ चक्टुंदियाइं पडुच्च कामी, घाणिदियजिभिदिय फासिंदियाई · पडुच्च भोगी। से तेणटेणं गोयमा ! जाव भोगीवि ॥ नेरइयाणं भंते किं कामी भोगी ? एवं चेव जाव थणियकुमारा ॥ पुढवी काइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी भोगी । से केणट्रेणं भंते ! जाव भोगी ? फासिंदियं पडुच्च से तेण?णं जाव भोगी ॥ एवं जाव वणस्सइकाइया ॥ बेइंदिया एवंचेव णवरं जिभिदिय फासिंदियाई पडुच्च ॥ तेइंदियावि एवंचव गवरं घाणिदिय जिभावार्थ या अजीव भोग हैं ? अहो गौतम ! जीव भी भोग हैं व अनीव भी भोग हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव को भोग हैं या अजीव को भोग हैं ? अहो गौतम ! जीव को भोग हैं परंतु अजीव को भोग नहीं हैं. अहो भगवन् ! भोग के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! भोग के तीन भेद कहे हैं गंध, रस व स्पर्श ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! काम भोग के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! काम भोग के पांच भेद कहे हैं. शब्द, रूप, गंध, रस व स्पर्श ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीव कामी हैं या भोगी हैं ? अहो गौतम ! जीव कामी भी है व भोगी भी है. अहो भगवन् ! किम कारन से जीव कामी भी है व भोगी भी है ? अहो गौतम ! श्रोतेन्द्रिय व चक्षुइन्द्रिय प्रत्ययिक जीव कामी है व घाणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय 10व स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यायिक जीव भोगी है. इसलिये जीवों कामी व भोगी दोनों कहाये गये हैं. अहो भगवम् ! । मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 19 अनुवादक-बालब्रह्मचार प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एणत्ति (भगवती) मूत्र QR पंचमांग विवाह प भावाथे भिदिय फासिंदियाई पडुच्च, चउरिदियाणं पुच्छा । गोयमा ! चउरिंदिया काभीवि भोगीवि ॥ से केणटेणं जाव भोगीवि ? गोयमा ! वक्तुंदियं पडुच्च कामी, घाणिदिय जिभिदिय फासिंदियाइं पडुच्च भोगी से तेणटेणं जाव भोगीवि ॥ अवसेसा जहा जीवा, जाव वेमाणिया । एएसिणं भंते ! जीवाणं कामभोगीण नो कामीणं नो भोगीणं भोगीणय कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा काम भोगी, नो कामी नोभोगी अणंत गुणा, भोगी अणंतगुणा ॥ ५ ॥ छउमत्थेणं क्या नारकी कामी हैं या भोगी हैं ? अहो गौतम ! नारकी कामी व भोगी दोनों हैं. ऐसे ही स्थनित 4 कमार तक जानना. पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर कामी नहीं हैं परंतु भोगी हैं क्योंकि जन को मात्र स्पर्शेन्द्रिय रही हुइ है. और स्पर्शेन्द्रिय प्रत्ययिक भोगी कहाते हैं. बेइन्द्रिय-जिव्हेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यायिक भोगी हैं. तीइन्द्रिय घाणेन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय प्रत्ययिक भोगी हैं. चतुरेन्द्रिय च इन्द्रिय प्रत्यायिक काभी हैं व घाण, जिव्हा, व स्पर्श इन इन्द्रियों प्रत्ययिक भोगी हैं और शेष मनुष्य, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक कामी व भोगी दोनों रहे हुवे हैं. अहो भगवन् ! इन कामभोगी, नो कामी नो भोगी व भोगी नीवों में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे जीव कामभोगी उस से नो कामी नो मोगी अनंत गुमे उस से भोगी। सातवा शवकका सातवा उद्देशा * <3 .. Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 408 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० अन्यतर देवदेवलोक में दे० देवषने उ० उत्पन्न होने का से० वह भ० भगवन् स्त्री० क्षीण भोगी णो० नहीं प० समर्थ उ० उत्थान क० कर्म ब०बल वी० वीर्य पु० पुरुषात्कार पराक्रम से वि० विपुल भो० भोगोप ( भोग भुं० भोगवते वि० विचरने को से० वह मं० भगवन् ए० यह अर्थ ए० ऐसे व० कहते हो गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ से ० वह के० कैसे भ० भगवन् गो० गौतम प० समर्थ से० वह उ० भंते! मणू जे भविए अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववजित्तए सेणूणं भंते ! सेखीणभोगी णो पभू उट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं बिउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए सेणूणं भंते ! एयमट्ठे एवं वयह ? गोयमा ! बो इणट्ठे समट्टे | से केणद्वेणं मतं ! एवं बुच्चइ ? गोयमा पभूणं से उट्ठाणेण वि {गुने ||५|| अहो भगवन् ! जो कोई छद्मस्थ मनुष्य किसी देवलोक में देवतापने उत्पन्न होने योग्य होता है। वह क्षीण भोगी बना हुवा उत्थान, कर्म, वल, वीर्य व पुरुषात्कार पराक्रम से विपुल भोग भोगने को समर्थ { नहीं होता है. क्या इस अर्थ को आप ऐसे ही कहते हो ? + अ गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो गौत्तम ! वह क्षीण भोगी अहो भगवन् ! * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * + यहां पर प्रश्नकर्त्ता का यह अभिप्राय है कि जो भोग भोगने को समर्थ नहीं हैं. वह अभोगी होता है और अभोगी भोगत्यागी नहीं हो सकता है. भोगकात्याग किये बिना निर्जराभी कैसे हो सके ? ९३४ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उत्थान क० कर्म ब० क्लीं० वीर्य पु० पुरुषात्कार पराक्रम से अ० अन्यतर वि० विपुल भो० भोगोप भोग भुं० भोगवता विविचरने को त०इसलिये भो० भोगी भो० भोग प०त्यजता म० महानिर्जरा ममहा प० पर्यवसान भ होवे ॥ ६ ॥ आ० अवधिज्ञानी मं० भगवन् म० मनुष्य जे० जो भ० भव्य अ० अन्यतर दे देवलोक में ए० ऐसे ज० जैसे छ० छमस्थ जा० यावत् प० पर्यवसान भ० होवे प० परम अवधि कम्मेणवि, बलेत्रि, वीरिएणवि, पुरिसक्कारपरक्कमेणवि अण्णयराई विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी भोगे परिचयमाणे निज्जरे महापज्जवसाणे भइ ॥ ६ ॥ आहोहिएणं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु एवं चेव जहा छउमत्थे जाव महा पज्जवसाणे भवइ ॥ परमाहोहिएणं भंते ! मणू जे भविए तेणं चैव भवग्गहणणं सिज्झित्तए जाव अंतं करितए सेणूणं { पुरुष उत्थान कर्म, बल, वीर्य व पुरुषात्कार पराक्रम से विपुल भोगों भोगवते हुवे विचरने को समर्थ है. इसी से भोगी पुरुष भोगों को सजता हुआ निर्जरा व महापर्यवसान करता है ॥ ६ ॥ (जैसे देवलोकमें उत्पन्न होने योग्य क्षीण भोगी भोग त्यजता हुवा निर्जरा व महा पर्यवसान करता है। वैसे ही नियत क्षेत्र वाला अवधिज्ञानी का जानना परम अवधि ज्ञानी मनुष्य उसी भव में सिद्ध होते • यावत् सब दुःख का अंत करते हैं वे क्षीण भोगी बने हुए उत्थानादि से अन्यतर भोगों को भोगते सूत्र भावार्थ ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती सूत्र सातवा शतक का सातवा उद्देशा ९३५ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ज्ञानी मं० भगवन् म० मनुष्य जे० जो भः भव्य भ० भवग्रहण से सि० सिझते को जा० यावत् अं०अंत करने को ॥ ७ ॥ जे० जो अ० असंजी पा० प्राणी पु० पृथ्वीकाया जा० यावत् व० वनस्पति काया छ० छठा ए० कोई त म ए० ये अं० अंध मू० मूढ. त० अंधकार में रहे हुवे त० तम प० पडल भंते! से खीणभोगी सेसं जह छउमत्थस्स ॥ केवलीणं भंते! मणूसे जे भविए लेणं चैव भवग्गहणेणं एवं जहा परमाहोहिए जाव महापजवसाणे भवइ ॥ ७ ॥ जे इमे भंते ! असण्णिणो. पाणा पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा एगइया तसा, एएणं अंधा मूढा लमप्पविट्टा, तम पडल मोहजाल पलिच्छण्णा, अक्रामनि करणं वेणं वेदतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! जे इमे असणिजो पाणा पुढवि और इस तरह भोगों को त्यजते हुवे महा निर्जरा व महा पर्यवसान करते हैं. परम अवधि ज्ञानी जैसे केवल ज्ञानी का जानना ||७|| अहो भगवन् ! जो असंज्ञी पृथ्वीकायिक यावद, वनस्पति कायिक और अन्य कोई त्रत पाणी अंध, मूढ़, अंधकार में प्रविष्ट, ज्ञानावरणीय के पडल रूप मोहजाल से ढके हुबे हैं वे अकामनि करण वेदना वेदते हैं ऐसा क्या कहना ? हां गौतम ! अंध, मूढ, अंधकार में प्रविष्ट व ज्ञानावरणीय के पटल रूप मोहजाल से आच्छादित असंज्ञी पृथ्वी कायिक यात्रत् कोई त्रस प्राणी अकामनिकरण * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी ९३६ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ मो० मोह जा. आल १० आच्छादित अ० अकामनिकरण वे वेदना वे० वैदे ॥ ८॥ ० है ०, भगवन् प० समर्थ अ० अकामनिकरन वे वेदना वे० वेदे है० हां ० है क. कैसे भ० भगवन् ५० Y समर्थ अ० अकाम निकरण वे वेदना वे. वेदे गो० गौतम जे. जो नोक नहीं प० ममर्थ वि० विना प. काइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा जाव. वेयणं वेदंतीति वत्तव्वंसिया ॥ ८ ॥ अस्थिणं भंते ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेइ ? हंता अत्थि । कहण्णं भंते ! पभू वि अकाम निकरणं वेयणं वेदेइ ? गोयमा । जेणं नो पभू विणा पदीवेणं अंधका रांसि रूवाइं पासित्तए जेणं णो पभूपुरओ रूवाइं अणिज्झाइत्ताणं पासित्तए, जेणं नो पभू मग्गओ रूवाइं अणवयक्खित्ताणं पासित्तए, जेणं णो पभू पासओ रूबाइं अणुलोए भावार्थ वेदना वेदते हैं ॥ ८ ॥ अब बंजी का कहते हैं. अहो भगवन् ! संत्री जीव यथाविध रूपादि ज्ञान में 4. समर्थ हैं तथापि क्या वे अकाम निकरण वेदना वेदते हैं ? हां भगवन् ! संजी जीव समर्थ होने पर E'अकाम निकरण वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! वे कैसे अकामनिकरण वेदना वेदते हैं ! अहो 90 गौतम ! जैसे संझी माणी संजीपना से हेयोपादेय रूप जानने को समर्थ हैं ताहंपि: अंधकार में दीपक विना रूप देखने को समर्थ नहीं है, दीपक होने पर भी आगे चक्षु का उपयोग किये बिना रूप देखने को समर्थ नहीं है, चक्षु का उपयोग होने पर चक्षु से विलोकन किये विना देखने को समर्थ नहीं है। विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 43892 सातवा शतकका सातवा उद्देशा marwa Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋाजी शब्दार्थ दीपक अं० अंधकार में रू० रूप पा० देखने को जे० जो णो ना ५० समर्थ पु० आगे रू० रूप अ. देखेविना पा० देखने को म० मार्गमें रू० रूप अ० गवेषणा कियेविना अ० अवलोकन कियेविना ॥९॥ अ० है। भ० भगवन् प० समर्थ प्र० प्रकामनिकरन वं. वेदना वे. वेदे हं० हां क० कैसे जा० यावत् . ९३० त्ताणं पासित्तए, जेणं नो पभू उढे रूवाई अणुलोयत्ताणं पासित्तए जेणं नो पभू अहे रूवाई अणुलोयत्ताणं पासित्तए एसणं गोयमा ! पभू अकामनिकरणं वेदणं वेदेइ ॥ ९ ॥ अत्थिणं भंते ! पभूवि पकामनिकरणं वेयणं वेदेइ ? हंता । कहण्णं जाव | वेदणं वेदेइ, ? जेणं नो पभू समुदस्स पारं गमेत्तए, जेणं नो पभू समुदस्स पारगयाई रूवाइं पासित्तए जेणं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जेणं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई भावार्थ सपास के रूप को अवलोकन करनेपर भी ऊर्थ में रूपों को अवलोकन किये बिना देखनेको समर्थ नहीं हैं, और अधो में रूप को अवलोकन किये विना देखने को समर्थ नहीं है. अहो गौतम ! इसी तरह संज्ञी नीव - अकाम निकरण वेदना वेदते हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! रूप के दर्शन में संज्ञीपना से समर्थ होने पर भी संज्ञी जीव प्रकाम निकरण वेदना (बढती हुई अभिलाषा के कारणभूत वेदना) वेदते हैं ? हां गौतम ! वे प्रकाम निकरण वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! वे प्रकामनिकरण वेदना कैसे वेदते हैं ? अहो, गौतम ! जैसे कोई समुद्र को पार पहुंचने को समर्थ नहीं हैं, जैसे समुद्र की पारंगये हुवे रूपों को देखने को • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 08: पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 43 वेदना वे० वेदे नो० नहीं प० समर्थ स०समुद्र की पा० पार ग० जाने को नो० नहीं १० समर्थ स० समुद्र पा० पारगये रू० रूप पा० देखने को ॥ ७ ॥ ७ ॥ * छ० छद्मस्थ भ० भगवन् म० मनुष्य ती० अतीत अ० अनंत सा० शाश्वत स० समय के० केवल सं० संयम से ए० ऐसे ज० जैसे प० प्रथम शतक में च० चौथे उ० उद्देशे में त० तैसे भा० कहना जा० पासित्तए । एसणं गोयमा ! पभूवि पकामाणिकरणं बेदणं वेदेइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति इति सत्तम सए सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥ ७ ॥ + + छउमत्थेणं भंते ! मणूसे तीयमणंत सासयं समयं केवलेणं संजमेणं एवं जहा पढमसए समर्थ नहीं है, देवलोक में जाने को समर्थ नहीं है व देवलोक के रूपों देखने को समर्थ नहीं है. ऐसे ही अहो गौतम ! संज्ञी जीव रूपादि देखने को समर्थ होने पर भी अज्ञानता के कारन से प्रकाम निकरण (वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सातवा शतक का सातवा उद्देशा पूर्ण हुवा || ७|७|| सातवे उद्देशे में छद्मस्थ को वेदना कही. यहांपर छद्मस्थ वक्तव्यता कहते हैं. अहो भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य अतीत अनादि अनंत परिणाम मे शाश्वत समय में संपूर्ण संयम व ब्रह्मचर्य से क्या सिझे, बुझे यावद सब दुःखों का अंत करे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. इस का सत्र कथन प्रथम शतक के सातवा शतकका आठवा उद्देशा Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी यावत् १० परिपूर्ण अ० होवो ॥१॥ से. अथ भं भगवन् ह० हस्ति का कुं० कुथु का स० सारखा जी० जीव हं ० हां गो• गौतम ६० हस्ति कुं० कुंथु का एक ऐसे ज० जैसे रा० रायप्रसेणी में जा. जावत् खु० क्षुद्र म० महान से वह ते० इमलिये गो० गौतम जा० यावत् स. सरिखा ॥ २ ॥ नेनारकी भ० भगवन् पा० पापकर्म जेल जा कर किये क० करते हैं का करेंगे स. सर्व ते वे दु. दुःख जे. जो नि० निर्जरे से वह सु० सुख हं० हो गो गौतम ने० नारकी पा० पापकर्म जा. यावत् सु० सुख चउत्थे उद्देसए तहा माणियव्वं ॥ जाव अलमत्थु ॥ १॥ से णूणं भंते ! हथिस्सय कुंथुस्सय समे चैव जीवे ?हता गोयमा ! हत्थिस्सय कुंथुस्सय एवं जहा रायप्पसेणइ. है जे, जाव खुड्डियंवा महालियंवा सेतेणटेणं गोयमा ! जाव सभे चेव ॥२॥ नेरइयाण , भंते! पावे कम्मे जेय कडे जेय कजइ जेय कजिस्सइ सन्चे सेदुक्खे जे निजिण्णे से सुहे? चतुर्य उद्देशे असे कहना ॥ १॥ अव जीव का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या हस्ती का व कुंथु का जीव समान है ? हां गौतम ! हस्ती व कुंय का जीव समान है. इस का वर्णन रायप्रसेणी सूत्रों से जानना ॥ २॥ अहो भगवन् ! नरक के जीवोंने जो पापकर्म किये हैं, करते हैं, व करेंगे उन सब को क्या दुःख के हेतुभूत जानना, और जिन पापकर्मोकी निर्जग की, करते हैं व करेंगे उन को क्या से सुख के हेतुभूत जानना ? हां गौतम ! नारकीने जो पाप कर्मों किये, करते हैं व करेंगे वे सब * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी. भावार्थ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाए ऐसे जा० यावत् वे० वैमानिक ॥ ३ ॥ क० कितनी भ० भगवन् स० संज्ञा द० दशसंज्ञा आ• आहार । संज्ञा भ० भयसंज्ञा मे० मैथुन संज्ञा प० परिग्रहसंज्ञा को क्रोध संज्ञा मा० मानसंज्ञा मा० मायासंज्ञा लो०१० ७ लोभसंज्ञा लो० लोक संज्ञा ओ. ओघसंज्ञा ए० ऐसे जा० यावत् वे० वैमानिक ॥ ४ ॥ ने० नारकी है हंता गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे एवं जाव वैमाणियाणं ॥ ३ ॥ कइणं भंते ! सण्णाओ प. ? दस सण्णाओ प० तंजहा-आहारसण्णा, भयसण्णा मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ४ ॥ नेरइया दसविहं वेदणिजं पञ्चणुब्भव । भावार्थ दुःख के हेतुभूत जानना. और जो निर्जरे, निर्जरते हैं व निर्जरेंगे वे सब सुख के हेनुभूत जानना. ऐसे ही चौवीस दंडक का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! संज्ञा के कितने मेद कहे हैं ? अहो गौतम ! संज्ञा के E दश भेद कहे हैं. १ आहार संज्ञा २ भय संज्ञा ३ मैथुन संज्ञा ४ परिग्रह मंझा ५ क्रोध संज्ञा ६ मान संज्ञा १७ माया संज्ञा ८ लोभ संज्ञा ९ लोके संज्ञा व १० ओधे संज्ञा. उक्त दश प्रकार की संज्ञा नारकी आ १ १-२ मतिज्ञानावरणाय कर्म का क्षयोपशम से शब्दार्थ विषयवाली विशेषावबोध क्रिया जानी नावे सो लोक संज्ञा और सामान्यावबोध क्रिया जानी जावे सो ओघ संज्ञा. कितनेक दर्शनोपयोग को ओघ संज्ञा ब ज्ञानोपयोग को १ लोक संज्ञा कहते हैं. और कितनेक सामान्य प्रवृत्ति सो ओघ संज्ञा व लोक दृष्टि सो लोक संज्ञा. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती 48 सातवा शतक का आठवा उद्देशा 18494 Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ ८०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी (द० दश प्रकार की वे० वेदना प० अनुभवते वि० विचरते हैं सी० शीत उ० ऊष्ण खु० क्षुधा पि० तृषा कं० खुजली पे० परवशपना ज०ज्वर दा दाह भ०भय सो०शोक ॥ ५ ॥ से०वह भं० भगवन् ह० हस्ति कुं० कुंथुको स० सरिखी अ० अप्रत्याख्यान क्रिया क० करे हं० हां गो० गौतम ६० हस्ति कुं० कुंथु जा० यावत् क० करे से० वह के० कैसे ए० ऐसा बु कहा जाता है जा० यावत् क० करे गो० गौतम अ० अविरति प० प्रत्ययिक से वह ते० इसलिये जा० यावत् क० करे ॥ ६ ॥ अ० आधाकर्मी आहार मं० माणा विहरंति, तं सीयं, उसिणं, खुहं, पिवासं, कंडु, पेरज्झं, जरं, दाहं, भयं, सोगं ॥ ५ ॥ से णूणं भंते ! हात्थस्सय कंथुस्सय समाचेव अप्पच्चक्खाण किरिया कज्जइ ? हंता गोयमा ! हात्थस्स कुंथुस्त य जाव कज्जइ ॥ से केणट्टेणं एवं बुच्चाइ जावकज्जइ ? गोयमा ! अविरइं पडुच्च से तेणट्टेणं जाव कज्जइ ॥ ६ ॥ अहाकचौवीस दंडक में पाती हैं ॥ ४ ॥ नारकी दश प्रकार की वेदना अनुभवते हुवे त्रिचरते हैं जिन के नाम. १ शीत २ ऊष्ण ३ क्षुधा ४ पिपासा ५ खुजली ६ परवशता ७ ज्वर ८ दाह ९ भय व अहो भगवन् ! हस्ती व कुंथुको क्या एक सरीखी अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है ? हां गौतम! हस्ती व कुंथु को अप्रत्याख्यान क्रिया एक सारखी लगती है. अहो भगवन् ! किस कारन से हस्ती व कुंथु को एक सारखी अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है ? अहो गौतम ! अविरति आश्रित हस्तीव कुंथु को एक सारखी अप्रत्याख्यान क्रिया) १० शोक ॥ ५ ॥ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९४२ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * 28 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 338 भगवन् भुं• भोगवता किं. क्या बं० बांधे ५० करे चि० इकठाकरे उ० उपचिने ए० ऐसे ज जैसे ५० ०प्रथम स० शतक के न. नववे उ० उद्देशे में त० तैसे भा० कहना जा. यावत् सा. शाश्वत पं० पडित पं० पंडितपना अ० अशाश्वत से वह एक ऐसे भ० भगवन् ॥ ७॥८॥ अ० असंवृत भ• भगवन् अ० अनगार बा० बाह्य पो० पुद्गल अ० विनाग्रहण किये ५० समर्थ ए.१ म्माणं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उवचिणाइ, एवं जहा पढमे सए नवमे उद्देसए तहा भाणियव्वं जाव सासए पंडिए पंडियत्तं असासयं । सेव भंते ! भंतेत्ति ॥ इइ सत्तमसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥७॥८॥* असंवुडेणं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं, एगरूवं लगती है॥६॥ अहो भगवन् ! आधाकर्मी आहार भोगनेवाला क्या बांधे, क्या करे, क्या संचय करे ? इस का सब अधिकार प्रथम शतक का नववा उद्देशा जैसे जानना. यावत् पंडित शाश्वत है परंतु पंहितपना अशाश्वत है वहां तक कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सातवा शतक का आठवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥७॥८॥ + ___ आठवे उद्देशे में आधाकर्मी आहार का कथन किया. आधाकर्मी आहार असंवृति साधु भोगते हैं. सातवा शतकका नावा उद्देशा भावार्थ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४४ शब्दार्थ एकरूप वि० विकुर्वना करने को गो गौतम नो नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य अ० असंत भंभगवन् । 00 अ. अनगार बा. बाह्य पो० पुद्गल प० ग्रहणकर प० समर्थ ए. एकवर्ण ए० एकरूप जायावत् हं. हां विउवित्तए ? गोयमा ! नो इणटेसमटे | असंवुडेणं भंते !अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं जाव हंता पभू॥ से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुच्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ? गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, नो अण्णत्थगए पोग्गले जाव विउव्वइ, एवं एग वणं अणेगरूवं चउभंगो, जहा छट्ठसए नवमे उद्देसए तहा इहावि भाणियन्वं, नवरं इसलिये इस का आधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! असंवृति साधु बाह्य पुद्गल ग्रहण किये बिना क्या भावार्थ एक वर्ण एक रूप की विकुवर्णा करने को समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! असंवृत्ति अनगार बाह्य पुद्गल ग्रहण करके वैक्रेय बनाने को क्या समर्थ हैं ? हां गौतम ! असंवृत्ति अनगार वाह्य पुद्गलों ग्रहण करके वैक्रेय करने को समर्थ हैं. अहो भगवन् ! क्या वे जहां वैक्रेय करे वहां के पुद्गल, वैक्रेय करके जहां जावेंगे वहां के पुद्गल अथवा अन्य स्थान के पुद्गल ग्रहण करके 1 विक्रेय करते हैं ? अहो गौतम ! जहां वैक्रेय करे वहां के ही पुद्गल ग्रहण करके वैक्रय करते हैं परंतु mawwwinnawwwmnama 42 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 3. शब्दार्थ १५० समर्थ ॥ १ ॥णा जाना अ० अरिहंत से मु० सूना अ० अरिहंत से वि. विशेष जाना अ० अरिहंत । अणगारे इहगए य पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ, सेसं त चेव जाव लुक्ख. पोग्गलं णिद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? हंता पभू ॥ से भंते ! किं इहगए पोग्गले परि- ९४५ याइत्ता जाव नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउन्वइ ॥१॥ णाय मेयं अरहया, भावार्थ अन्य स्थान के पुद्गलों ग्रहण कर वैक्रेय नहीं करते हैं. ऐसे ही एक वर्ण अनेक रूप, अनेक वर्ण एक रूप आदिकी चौभंगी छठे शतक के नववे उद्देशे जमे जानना. मात्र यहां के पुद्गल ग्रहण कर वैक्रय करे इतना कहना शेष रूक्ष पुद्गल स्निग्ध पुद्गलपने यहां के पुद्गल ग्रहण करके परिणमे वहांतक सब अधिकारी जानना. ॥१॥ राजगृही नगरी के श्रेणिक राजाको चेलणा राज्ञी के कूणिक, हल्ल, व विहल्ल ऐसे तीन पुत्र थे कूणिक अन्य माताओंसे उत्पन्न हुए अग्यारह पुत्रों की साहायतासे अपने पिता श्रेणिक को पिंजरे में डालकर स्वयं राज्याख्द हुवा. ओर अग्यारह पुत्रों को परस्पर अपनार विभाग देदिया. फीर वह नग्रही से चंपा नगरी में आकर रहने लगा, उन के हल्ल व विहल्ल नायक दोनों भ्राताओं संचानक नामक गंधहस्ती पर आरूढहोकर दीव्य कुंडलादि व दीव्य वस्त्रोसे विभूषत बनकर हारसहित क्रीडा करते थे. कूणिक की राज्ञी पद्मावतीने ऐसा सुनकर मत्सरपनासे से उक्त इस्ती व हारलेने केलिये कूणिक राजा को प्रेरणा की. कूणिकने अपने लघु भ्रातासे उसकी याचना की. वे भयभीत बनकर अपना हस्ती व परिवा पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सातवा शतक का ननवा उद्दशा 1 8 82 Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा :सहित अपने मातामह चेटक नामक राजा की पास वैशाली नगरी में चलेगये. कूणिकने दूत भेजकर कहलाया कि मेरे दोनों भ्राताओं को भेजो. यदि भेजना न होवे तो युद्ध के लिये सज्जहोवो. चेटकने कह लाया कि जैसे अन्य दश भाइयों को राज्य का विभाग करके दिया है वैसे ही इन को दो और तुम हाथी हार ले लो. कूणिकने यह बात मान्य की नहीं और अग्यारह भाइयों की तेत्तीस सहस्र अश्व, तत्तीस सहस्र गज, तेचीस सहस्र रथ व तेत्तीस क्रोड पायदल की सेना लेकर चेटक राजाकी सामने युद्ध " करने को आया. चेटक राजा, मल्लदेश के नवराजा व लेच्छदेश के नवराजा यों गुन्नीस कराजाओं सत्तावन २ सहस्र गज, अश्व, रथ व सत्तावन क्रोड पायदल साहत रणक्षेत्र में युद्ध के लिये आये. कणिक राजा का सैन्यने गरुड व्यूह और चेटक राजका सैन्यने सागर व्यूह बनाया.' राजा व्रतवाला होने से दिनमें मात्र एक ही बाण मारताथा, परंतु उन का बाण अमोघ था. प्रथम दिन में काल नामक दंडनायक को अपने बाण के प्रहार से मारडाला और उस से कणिक का सैन्य में नाश E भाग हुई. इस तरह दश दिन में चेटकने उन के काल आदि दश भाईयों को मारडाले, अग्यारहवे दिन चेटक राजा पर विजय करने के लिये कूणिकने अष्टम भक्त तप अंगीकार किया इस से शक्रेन्द्र व चमरेन्द्र दोनों इन्द्रों उन की पास आये. उन में से शक्र बोला कि अहो कृणिक ! चेटक राजा श्रावक है इससे मैं उन को नहीं मार सकता हूं. परंतु तुम्हारा रक्षण करूंगा. ऐसा कहकर उन की रक्षा के लिये बज्र जैसा एक अभेद्य कवच बनाया. और चमरने महाशिलाकण्टक व रथमूशल ऐसे दो संग्राम का १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक मुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी * Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भावार्थ शब्दार्थ सेम. महाशिला कंटक सं० संग्राम में भगवन् सं. संग्राम में २० वर्तमान के. कौन ज. जिता के कौन प० पराजित हुवा गो गौतम व० इन्द्राणी वि० विदेहपुत्र ज जयपाया न० नवमल्लकी ननवलेच्छकी का० काशी के को कोशलदेश के अ० अठारह ग.. प्रधान राजाओं प० पराजित हुवे ॥२॥ त० | ९४७ | तब से वह को० कूणिक राजा म० महाशिला कंटक संग्राम उ० प्रारंभ हुवा जा० जानकर को , सुय मेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, महासिलाकंटए संगामे ॥ महासिलाकंटएणं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जयित्था के पराजथित्था ? गोयमा ! वजीविदेहपुत्ते जयित्था नवमलइ नवलेच्छङ् कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो पराजयित्था ॥ २ ॥ तएणं से कोणिए राया महासिलाकंटकं संगाम उवट्ठियं जाणित्ता, कोडुंबिय वैक्रेय किया. इस का विशेष अधिकार निरयावलिका में है. महाशिला कंटक संग्राम अरिहंतने जाना हैं # अरिहंतने मुना है व विशेष प्रकार से जाना है. अहो भगवन् ! महाशिला कंटक संग्राम में किस का जय हुआ व किसका पराजय हुआ ? अहो गौतम : महाशिला संग्राम में कूणिक राजा का जय हुवा और 3 काशी व कोशल देशके नवमल्लकी नवलेच्छकी राजाओं का पराजय हुवा ॥ २ ॥ अब उन के युद्ध का , वर्णन करते हैं. जब · चमरेन्द्रने महाशिलाकण्टक नामक संग्राम की विकुर्वणा की तब कूणिक राजाने । > पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगक्ती ) सूत्र 8-28सातवा शतकका नववा उद्देशा 988 Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ www मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - अनुवादक-बालब्रह्मचारी कौटुम्बिक को स. बोलाकर ए. ऐसा व० बोले खि० शीघ्र दे देवानुप्रिय उ० उदायी ह० हस्ति को प०१ सजकरों इ० अश्व ग० गज र० रथ जो जोध क- युक्त चा० चतुरंगिनी में सेना स० सजकरो मा० यावत् म० मेरी आ• आज्ञा खि० शीघ्र ५० पछिी दो त० तब से० के को० कौटुम्बिक पुरुष । को कूणिक र० राजासे एक ऐसा वु० बोला हुवा ह० हृष्ट तुष्ट जा. यावत् अं० अंजलि जोडकर एक से मा० स्वामिन त तैसे ही आं० आज्ञा से वि० विन्य से व० वचन प० मनकर खि० शघि छ०३ पुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेह हयगयरहजोहकलियं चाउरांगाणं सेणं सण्णाहेह २ जाव मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह । तएणं से कोडुबिय पुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुट्टा जाव अंजलिंकहु एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति पडिसुणइत्ता, खिप्पामेव छेयायरिओवए समइकप्पणावि कप्पेहिं सुनिउ अपने कोम्बिक [ आदेशकारी ] पुरुषों को चोलाये. बोलाकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! मेरा | उदायी नामक हस्तीराज को सज करो और साथ ही अश्व, गज, रथ, योध युक्त चतुरंगिनी सेना भी-11 सज करो. ऐसा कार्य करके शीघ्र मुझे मेरी आज्ञा पीछी सुपर्द करो. ऐसी कूणिक महाराजा से आज्ञा सुनकर चे आदेशकारी पुरुषों दृष्ट तुष्ट हुवे यावत् हस्तद्वय जोडकर बोले कि अहो स्वामिन् : ' तथा इति । *प्रकाशझ-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी बालापप्तादजी* भावार्थ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48-48 पंचांग विवाह पण्णन्ति ( भवगती) निपुण आ. आचार्य उ० उपदेश म० मतिकल्पना विक विकल्प से मु. अच्छे निपुण से ए. ऐसे ज. जैसे उ० उवाई में भी भयंकर सं० संग्राम योग्य अ० अयोध्य उ० उदायी ह० हस्ती को म० सज्ज किया ह.अश्व ग० गज र रथ जा०यावत् स०सज्ज कर जे०जहां कूकूणिकराजा ते. तहां उ० आकर क० ९४९ करतल प० जोडकर जा. यावत् कू० कूणिक र० राजा को तक उनकी आ. आज्ञा प० पीछी देदी॥३॥ त० तब से वह कू० कूणिकराजा जे० जहां म० स्नान स्थान त० तहां उ० आकर म० स्नान स्थान में णेहिं एवं जहा उववाइए, जाव भीमं संगामियं अओझं उदाई हत्थिराय पडिकप्पति, हयगयरह जाव सण्णाहेइत्ता जेणव कृणिए राया, तेणेव उवागच्छंति २त्ता करयलपरिग्गहियं जाव कणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पञ्चप्पिणति ॥ ३ ॥ तएणं से कूणिए राया जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, मजणघरं अणुपइस तरह विनय पूर्वक आज्ञा धारन करके शीघ्रही आचार्य के उपदेश से, अथवा अपनी पतिकल्पनावाले निपुण आदेशकारी पुरुषोंने रौद्र, संग्राम योग्य व अयोध्य ( उसके समान कोई युद्ध करने वाला | नहीं वैसा ) उदाइ नामक प्रधान हस्ती को सज्ज किया और अश्व गज रथ वगैरह चतुरंगणी सेना भी। तैयार की. इस तरह कार्य करके आदेशकारी पुरुषों काणक राजा की पास आये और हस्तद्वय जोड कर } उन को आजा पाछी दे दी ॥ ३ ॥ फीर कणिक राजा स्नान के स्थान ( मजन गृह ) में गये. वहां स्नान +1 ४१. सातवा शतक का नववा उद्देशा भावार्थ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथे 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अप्रवेशकर हास्नानकिया ककोगले किये कासगंधिका विलेपन किया पा०तीलमसक किये स०सर्व अ० अलंकार से वि० विभूषित सं० संनद्धब० बद्ध व० वर्भित क. कवच उ. अच्छाकिया स० धनुदंड १० बांधा गे० ग्रीवा का वि० विमल व प्रधान ब. बद्ध चि० चिन्टका पाटा ग० लीया आ० आयुध पहरण स कोरंटक के म० माला सहित छ० छत्र ध० धारण कर च. चार चा० चामर बा० बाल से वी० वीजाता अंग मं० मंगल ज. जय स० शब्द क. लोकों से कराया ए. ऐसे ज. जैसे उ० उववाई में जा विसइ अणुपविसइत्ता, पहाया कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वा लंकार विभूसिए संनद्धबद्धवम्मिय कवये उप्पीलियसरासण पट्टीए पिणिड गेविज्ज विमलवरबद्धचिंधपट्टे, गहियाउहप्पहरणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामर बालवीइयंगे मंगल जय २ सद्दकया लोए एवं जहा उववाइए जाव किया, पानी के कोगले किये, सुगंधि द्रब्यका विलेपन किया, तिल मसादिक किये, सर्वालंकार से विभूपित बने, कवच को शरीर पर धारन किया, बाणयुक्त धनुष्य करके, अपने शरीर को बरावर किया, ग्रीवाके आभरण का बंध किया, विमल व प्रधान राज्यचिन्हपट्ट धारन किया, व अन्य को हणनेवाले आयुधों हस्त में धारन किये. फीर कारंटक वृक्ष के कुसुमों की मालावाला छत्र शीरपर धारण करते हुवे चार चामरों से विजाते हुवे और देखते 'जय जय' शब्द होते हुए यावत् : उववाइ सूत्रानुसार सब * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ यावन् उ० जाकर उ० उदायी ह हस्तिपे दु० आरूढहुवे ॥ ४ ॥ त० तब से वह कू. कणिकराजा । जा. यावत् से श्वत चा चामरसे उ० ऊंचाकराया ह० अश्व ग० गज र० रथ प० प्रधान जो योध} | 09कयुक्त चा चतुरंगिनी से सेना स०साथ प० परिवृत म०बडे भ० भट च० विस्तार विवृदसे प० परिव्रत । जे. जहां म० महाशिला कंटक सं० संग्राम ते० तहां उ० आकर म. महाशिला कंटक सं० संग्राम उ० आया पु० आगे से वह स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा ए० एक म. बडा अ० अभेध क. उवागच्छित्ता उदाइं हरिथरायं दुरूढे ॥ ४ ॥ तएणं से कृणिए राया जाव सेयवरचामराहिं उडुब्वमाणीहिं २ हयगथरह पवर जोह कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं परिवुडे महयाभडचडगांवंद परिक्खित्ते जेणेव महासिला कंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, महासिलाकंटगं संगाम उयाए । पुरओय से सक्के देविंदे देवराया एगं महं अभेजकवयं वइरपडिरूंवगं विउव्वित्ताणं चिट्ठइ ॥ एवं खलु भावार्थ प्रकार की शोभा करते हुए उदाइ नामक हस्तीराज पर कूणिकराजा आरूढ हुवे ॥४॥ हारों से आच्छादित वक्षःस्थ90लवाले कूणिक राजा श्वेत चामरों से वीजाते हुवे अश्व, गज, रथ व पादात्य की चतुरंगिणी सेना से परिवृत व बडे २ भट सुभटों से रक्षित महाशीला कंटक संग्राम में. आये. उस समय में शक्र देवेन्द्र एक बडा अभेद्य वज्र प्रतिरूपक कवच की विकुर्वणा करके खडे रहे. उस समय में देवेन्द्र सो शक्र व मनुष्येन्द्र है। 4848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 सात शतकका नववा उद्देशा 8 Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - कं० कवच व० वज्रमय वि० विकुर्वकर चि० रहे ए० ऐसे दो दोइन्द्र सं० संग्राम करते हैं दे० देवेन्द्र म० { मनुजेन्द्र ए० एक ६० हस्ती से प० समर्थ कू० कूणिक राजा प० पराजय करने को त० तत्र से० वह कू० कूणिक रा ० राजा म० महाशिला कंटक सं० संग्राम करते नं० नवल्लकी न० नवलेच्छकी का० काशी को० कोशल के अ० अठारह ग० प्रधान रा० राजा को ह० हने म० बडे प० प्रधान वी० वीर घा० घात कीये १० गीराइ चि० चिन्ह प० पतका कि० कष्ट से पा० प्राण ग० गए दि० दिशाओं में दो इंदा संगामं संगामंति तंजहा देविंदेय मणुइदेय, एगहत्थिणाविणं पभू कूणिए राया पराजयत् ॥ एवं से कूणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे नवमलई नवलेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो हयमहियपवरवीरघाइयावि पडियचिधयपडागे किच्छप्पाणगए, दिसो दिसिं पडिसेहित्था, ॥ ५ ॥ सेकेट्टे सो कूणिक राजा ऐसे दो इन्द्रों संग्राम करने लगे. कूणिक राजा मात्र एक हस्ती से ही अन्य को पराजित करने को समर्थ है. अब कूणिक राजाने उस महाशिला कंटक संग्राम में युद्ध करते हुवे काशी व कोशल देश के नत्र मल्लकी व नव लेच्छ की राजा को हणे, उन के शूरवीर सुभटों की घात की, और चिन्ह, ध्वजाव चक्रादि युक्त पताका का नाश किया. और वे दुःखी होते हुये चारों तरफ भगने लगे ॥ ५ ॥ अहो भग * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९५२ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १० भगाये ॥५॥ से० वह के • कैसे भ० भगवन् एक ऐसा बु० कहा जाता है म. महाशिला कंटक संग्राम गो० गौतम म ० महाशिला कंटक सं० मंग्राम में व० रहे हुवे जे. जो आ० अश्व ह. हस्ती जो० | योध सा० सारथि त० तृण से क० काष्ट से प०पत्र से स कंकर से अ० हणाते हैं समर्व तेब्वे जा जाने म. महाशिला से है० मैं अ० हनाया से० वह ते. इसलिये गो गौतम म. महाशिला कंटक सं० संग्राम ॐ ॥ ६ ॥ म. महाशिला कंटक संग्राममें भ०भगवन् ववर्तते क कितने ज०मनुष्य स० लक्ष व० हनाये गो. भंते ! एवं वुच्चइ महासिलाकंटए संगामे ? गोयमा ! महासिलाकंटएणं संगामे - वट्टमाणे जे तत्थ आसेवा, हत्यीवा, जोहेवा, सारहीवा, तणेणवा, कटेणया, पत्तेणवा, सकराएवा, अभिहम्मति सव्वे से जाणइ महासिलाए हंअभिहए, से तेणटेणं गोयमा ! महासिलाकंटए संगामे ॥ ६ ॥ महासिलाकंटएणं भंते ! संगामे वट्टमाणे कइजण सयसाहस्सीओ बहियाओ ? गोयमा ! चउरासीइ जणसयसाहस्सीओ वहियाओ॥ भावार्थ वन् ! महाशिलाकंटक संग्राम क्यों कहा गया ? अहो गौतम ! महाशिला कंटक संग्राम में रहनेवाले अश्व, गज, योधा व सारथी तृण, काष्ट, पत्र व कंकर से हणाते हुवे ऐसा जाने कि एक बडी शिला से हणाये होवे. इस से अहो गौतम ! इसका नाम महाशिला कंटक संग्राम रखा गया है ।। ६ ॥ अहो भगवन् ! 1- महाशिला कंटक संग्राम में कितने लक्ष मनुष्य मारे गये ? अहो गौतम ! उस संग्राम में चौरासी लक्षा पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4.88 62400 सातवां शतकका नववा उद्देशा 8 4980 Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गौतम च० चौरासी ज• मनुष्य स लक्ष व हनाये ते वे भ० भगवन् म० मनुष्य नि० निःशील जा०३: यावत् नि प्रत्याख्यान रहित पो० पोषध उ० उपवाम सं० रुष्ट प० कुपित स० समर में व. हनाये अ. अनुपांत का काल के अवसर में का० काल कर के कर कहां ग० गये उ० उत्पन्न हुने गो० गौतम उ० प्राय: न० नरक तिकतिर्यंच जो० योनि में उ० उत्पन्न हवे ॥ ७॥ ण विशेष भू० भूतानेन्द्र ह. हस्तिराजा जा० यावत् र० रथमुशल सं० संग्राम को उ० आये पु० आगे स० शक्र दे० देवेन्द्र एक ऐसे 12 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमोलक ऋषिजी 202 तेणं भंते ! मणुया निस्सीला जाव निपच्चक्खाण पोसहोववासा संरुट्ठा परिकुविया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालंकिच्चा कहिं गया कहिं उबवण्णा ? गोयमा ! उस्सण्णं नरगतिरिक्ख जोणिएसुउववण्णा ॥ ७ ॥ णाय मेयं अरहथा, सुयमेयं अरहया, विण्णाय मेयं अरहया रहमुसलेणं संगामे । रहमुसलेणं भंते! संगामे वदृमाणे मनुष्य मारे गये. अहो भगवन् ! शील रहित यावत् प्रत्याख्यान, पौषधोपवास रहित, व कृद्ध, संग्राम में हणाये हुवे काल के अवसर में काल करके कहां गये व कहां उत्पन्न हुवे? अहो गौतम ! प्रायः काल करके नरक व तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुवे ॥७॥ यह महाशिला कंटक संग्राम का कथन किया अब रथ मुशल संग्राम का कथन करते हैं. रथमुशलसंग्राम अरिहंतने जाना है, सना है व विशेष प्रकार से .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शब्दार्थ ! | सूत्र | पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 888 न० तैसे जा. यावत् चि० रहे म० पीछे से वह च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजा ए० एक म० बडा आ० लोहेका कि• कठिन १० प्रतिरूपक वि० विकुर्वकर चि० रहे ए. ऐसे त० तीन इं० इन्द्र सं० संग्नाम करते हैं दे देवेन्द्र म० मनुष्येन्द्र अ० असुरेन्द्र ए० एक ह० हस्ति से प० समर्थ कू० कूणिकराजा के जयित्था के पराजयित्था ? गोयमा ! वज्जीविदेहपुत्ते चमरेय असुरिंदे असुरकु. मारराया जयित्था नवमलई नवलेच्छई परांजइत्था ॥तएणं से कूणिए राया रहमुसलं संगाम उवट्टियं सेसं जहा महासिलाकंटए, णवरं भूयाणंदे हत्थिराया जाव रहमुसलं संगामं उयाए पुरओयसे सक्के देविंदे देवराया एवं तहेव जाव चिटुंति, मग्गओयसे चमरे असुरिंदे असुरराया एगं महं आयसं किढिण पडिरूवगं विउव्वित्ताणं चिट्ठइ, __ एवं खलु तओ इंदा संगाम संगामंति, तंजहा-देविंदे मणुयदे असुरिंदे । एग हत्थिणा जाना है. अहो भगवन् ! रथमुशलसंग्राम में कौन जीते व कौन पराजित हुवे ? अहो गौतम ! रथ भी मुशल संग्राम में कूणिकराजा ब चमरेन्द्रका जय हुवा और नवमल्लकी नवलेच्छकी ऐसे अठारह राजाओं का पराजय हुवा. इस का सव अधिकार महाशिलाकंटकसंग्राम जैसे जानना. इस में भूतानेन्द्र नामक हस्ती राज पर आरूढ होकर कूणिक राजा संग्राम में आये. पहिले ही शक्र देवेन्द्र अभेद्य कवच, की विकुर्वणा करके खडे रहे. और चमर नामक असुरेन्द्र तापसको जैसा वांस का भाजन होता है वैसा का सातवा शतक का नववा उद्देशा भावाथे Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ज. जितने को त तैसे जा० यावत् दि. दिशाओं में प० भगाये ॥ ८॥ से अथ के० कैसे भ० भगवन् । ए. ऐसा कुछ कहा जाता है र० रथमुशल संग्राम गो. गौतम र० रथमुशल संग्राम में व० रहा हुवा ए०१३ एकरथ अ० अश्व रहित अ० सारथि रहित अ०स्वारी रहित स० मुशल साहित म० बडा ज० जनक्षय ज. जनवध ज० जन प० संहार ज० मनुष्य सं० संवर्तक जैसे रु० रुधिर क. कर्दम क० करते स. सब __ विणं पभू कूणिए राया जइत्तए तहेव जाव दिसोदिसिं पडिसेहित्था ॥ ८ ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ रहमुसले संगामे ? गोयमा ! रहमुसलेणं संगामे वमाणे एगे रहे अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवद्दकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वओ समंता परिधावित्था ॥ से लोहे का भाजन की विकुर्वणा करके उपस्थित रहे. इस युद्ध में शक्रेन्द्र असुरेन्द्र व मनुष्येन्द्र ऐसे तीन । इन्द्रों एक ही हस्ती पर आरूढ होकर युद्ध करने को आये इस से कूणिक राजा मात्र एक हस्ती से ही उन का पराजय कर सकते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! रथ मुशल संग्राम किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! रथ मूशल संग्राम में एक रथ होता है जिस को अश्व नहीं होते हैं, सारथी भी नहीं होता है और उस में कोई बैठनेवाला भी नहीं होता है, मात्र चारों तरफ मूशल. होता है. वैसा रथ बहुत मनुष्यों का क्षय वध मर्दन, व रुधिर का कीचड करता हुवा चागेतरफ फीरता है, इस कारन से रथ मुशल khawarentinrrowrimire प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी घालाप्रसादजी* भावार्थ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तरफ प्र० फीरता से वह ते० इसलिये ॥ ९ ॥ २० रथमुशल सं० संग्राम में व वर्तते क० कितने मनुष्य स० लक्ष व० हणांये गो० गौतम छ० छन्नु ज० मनुष्य स० लक्ष व० हणाए ते० वे भं० भगवन् (नि० निःशील जा० यावत् उ० उत्पन्न हुने त ० तहां द० दश सहस्र ए० एक म० मच्छी की कु० कुक्षि { में उ० उत्पन्न हुवे ए० एक दे० देवलोक में उ० उत्पन्न हुत्रा ए० एक सु० सुकुल में उ० उत्पन्न { हुवा अ० अवशेष उ० प्रायः न० नरक ति० तिर्यच जो० योनि में उ० उत्पन्न हुये ॥ १९ ॥ क० क्यों ते जाव रहमुसले संगामे ॥ ९ ॥ रहमुसलेणं संगामे वट्टमाणा कइ जण सयसाहसीओ वहियाओ ? गोयमा ! छण्णउई जणसय साहस्सीओ वहियाओ ॥ ते भंते ! मया निस्सीला जाव उबवण्णा ? गोयमा ! तत्थणं दससाहरसीओ गए मच्छिया कुचिंसि उववण्णाओ, एगे देवलोगेसु उववण्णे, एगे सुकुले पचाया अवसेसा उसण्णा नरगतिरिक्खजोणिएस उबवण्णा ॥ १० ॥ म्ह { संग्राम कहा गया है ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! रथ मुशल संग्राम में कितने लक्ष मनुष्य हणाये ? अहो गौतम ! रथ मुशल संग्राम में छन्नु लक्ष मनुष्य हणाये. अहो भगवन् ! उस संग्राम में हणाये हुवे शीलाचार रहित यावत् कहां उत्पन्न हुए ? अहो गौतम उन में से दश सहस्र मनुष्य एक मच्छी की { कुक्षि में उत्पन्न हुए, एक देवलोक में, एक मनुष्य गति उत्तम कुल में और शेष प्रायः नरक व तिर्यंच में ! में सत्र भावार्थ ०३ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40 सातवा शतक का नववा उद्देशा १५७ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ सं० शक्र दे० देवेन्द्र च० चमर अ० असुर राजा कू० कूणिक को सा० साहाय द० दी गो० गौतम स० शक्र दे० देवेन्द्र पु० पूर्वसंगति से अ० अमुर अ० असुरराजा प० पर्याय संगति से ए० ऐसे गो० गौतम ) ॥ ११ ॥ ब० बहुत म० मनुष्य मं० भगवन् अ० अन्योन्य ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् प० भंते ! सक्के देविंदे देवराया चमरे अरिंदे असुरराया कूणियस्स रण्णो साहेज्जं दलयित्था ? गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया पुव्वसंगइए, चमरे असुरिंदे असुरराया परियायसंगइए ॥ एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया चमरे असुरिंदे असुरराया कूणियस्स रणो साहेज दलयित्था ॥ ११ ॥ बहुजणेर्ण भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेई, एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णतरेसु उच्चावएम संगामेसु अभिमु उत्पन्न हुए || १० || अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र व चमर असुरेन्द्रने किस कारन से कूणिक राजा को ( साहायता दी ? अहो गौतम ! शक्रेन्द्र का जीव पूर्व जन्म में कार्तिक शेठ था. उस समय कूणिक राजा का जीव उनका मित्र था. चमरेन्द्रका जीव पूर्व जन्म में पूरण नामक तापस था. तापस था. दोनों तापसों को परस्पर मित्रता थी. पूर्व जन्म की प्रीति के दोनों इन्द्रोंने साहायता दी || ११ || अहो भगवन् ! बहुत मनुष्य हैं कि बहुत मनुष्य किसी ऊच्च नीच संग्राम में सन्मुख होते हणावे तो वे वहां काल के और कूणिक का जीव भी संबंध से कूणिक राजा को परस्पर ऐसा कहते हैं * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी * यावत् प्ररूपते अवसर में काल ९५८ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमाङ्ग विवाह पाणत्ति (भगवती ) सूत्र 280 प्ररूपते हैं ब० बहुत अ अन्यतर उ० मोटा सं० संग्राम में अ० सन्मुख प० हणाते का काल के अवसर 4 में का० काल करके अ० किसी दे० देवलोक में दे० देवण्ने उ. उत्पन्न होवे से यह क० कैसे गो०१० गौतम अमैं आरकहताहूं जायावत् प०प्ररूपता है ए०ऐसे खखलु गो० गौतम ते० उसकालते. उस समय वि०विशाला न नगरी हो० थी ववर्णन युक्त त० तहां वे विशाला न० नगरी में व वरुण ना नाम का ना० नाग का न. पौत्र व रहता है अ ऋद्धिवाला जा. यावत् अ. अपराभूत स० श्रमणापासक अ. पहयासमाणा कालमासे कालंकिच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जेणं से बहुजनो अण्णामपणस्स एवं आइक्खंति जाव उववत्तारा भवंति जे ते एव माहंसु मिच्छंते एवमाहेसु अहंपुण गोयमा! एव माइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणंसमएणं वेसालीनाम नगरी होत्था ।वण्णओ तत्थणं वेसालीए नगरीए वरुणे नामं नागनत्तुए परिवसइ, अड्डे जाव कर के किसी देवलोका उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! जोई ऐसा कहते हैं उन का कथन मिथ्या है. परंतु मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि उस काल उस समय में विशाला नामक नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ सूत्र जैसा करना. उस विशाला नगरी में वरुण नामक नागका पौत्र रहता था. वह बहुत ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत था. वह जीव अजीव का सातवा शतक का नया उद्देशा 9884 भावार्थ ( Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( रा ० राजा की आज्ञा आज्ञा शब्दार्थ है | जाना जी० जीवाजीव जा० यावत् प० देता हुवा छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित त तप कर्म से अ० ( आत्मा को भा० भावता हुआ वि०विचरता है त० तब से वह व ं वरुण ना० नाग का पौत्र अ० एकदा ग० ज्ञाति की आज्ञा से ब० बलात्कार से २० रथमुशल संग्राम में आ० कराया हुवा छ० छट से अ० अठम अ० बढाकर कु· कौटुम्बिक को स० बोलाकर ए० ऐसा वृ०बोले खि० शीघ्र भो० अहो दे० देवानुभिय चा० चारघंटवाला अ० अश्वरथ जु० युक्त उ० तैयार करो ह० अश्व ग अपरिभूए, समणांवासए अभिगय जीवाजीने जाव पडिला भेमाणे छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ तरणं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाई रायाभियोगेणं, गणाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, रहमुसले संगामे आणसमाणे छत्तिए अट्टमभत्तं अणुवड्डेइ अणुवड्डेइत्ता कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ सावेत्ता एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव जाननेवाला श्रमणोपासक यात्रत अतिथि को अशनादि देता हुवा छछट का निरंतर तप करके आत्मा को भावता हुआ विचरता था. उस समय में नाग नप्तृक वरुण को राजा की आज्ञासे, गणकी (आज्ञासे व वलात्कार से रथमुशल संग्राम में जाने का हुआ.. इस तरह आज्ञा होने से छष्ट भक्त तप का अष्टम भक्त तप किया और अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बोला कर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! चार घण्ट वाला सूत्र भावार्थ १० अनुवादकं बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९६० Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र *80 गज र रथ ५० प्रधान जा. यावत स०सजकरी म मेरी ए. यह आ० आज्ञा दीहुई पिं० पीछी दो त० * तब ते० वे को कौटुम्बिक पुरुष जा. यावत् प० मुनकर खि० शीघ्र स० छत्र सहित स० धजा सहित उ० सजकरते हैं ज० जहां व० वरुण ना. नाग का पौत्र जा. यावत् पि पिछीदते हैं ।। १२ ।। त० तब से वह व० वरुण ना० नाग का पौत्र जे० जहां म० स्नान गृह ते० तहां उ० आकर ज. जैसे कू० उववावेह, हयगयरहपवर जाव सण्णाहेत्ता मम मेय माणत्तियं पिच्चप्पिणह ॥ तएणं ते कोडुबिय पुरिसा. जाव पडिसुणेत्ता, खिप्पामेव सछत्तं सज्झयं उवट्ठति हयगयरह जाव सण्णाति, जेणेव वरुणे नागनत्तए जाब पिच्चप्पिणंति ॥ १२ ॥ तएणं से वरुणे नागनत्तुए जेणव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, जहा कूणिओ जाव अश्वयुक्तरथ तैयार करके लावो, वैसे ही हाथी, घोडे, रथ व पायदल की चतुरंगिनी सेना सज्ज करो इतना कार्य करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. उक्त कौटुम्यिक पुरुषों विनय पूर्वक आज्ञा प्रमाण करके ope शीघ्र ही छत्र व धजा सहित रथ वहां लाये और अश्वमजादि चतुरंगिनी सेना तैयार करके वरुण नामक नागनपतृक की पास आकर आज्ञा पीछी दे दी ॥ १२ ॥ तत्र वरुण नामक नागनतृक अपने मजनगृह में आये. वहां स्नान किया, सुगंधि द्रव्य का विलेपन किया, कोगले किये, तील मसादिक किये की <3 <300 सीतवा शतक का नववा उद्देशा भावार्थ 88 9882 Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ सूत्र र अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी णिक पा. तिलमसादि कियेत सब से वह वरुण ररथमशल सं०संग्राम में उ० आते हवे एपेमा। अ. अभिग्रह अ० ग्रहण किया क. कल्पता है मे मुझे र० रथमुशल मंग्राम में सं० संग्राम करते जे०१ जो पु० पहिला पहने तं० उसको पहनने को अ० अवशेष नोक नहीं क. कल्पे ए. ऐसा अ०१ अभिग्रह अ० ग्रहणकर सं० संग्राम करता ए. एक पुरुष स. सरिखा सं० सरिखीत्वचा वाला समरिखी ९६२ पायच्छित्ते सन्त्रालंकार विभूसिए सण्णद्धबद्ध सकोरिंदमल्लदामं जाव धरिजमाणेणं अणेगगणनायग जाव दूयसंधिवालसहिं संपरिवुडे मजणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता चाउग्धंटं आसरहं दुरूहइ दुरूहइत्ता, हयगयरह जाव संपरिवुडे महण भइचडग जाव परिक्खित्ते, जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता रहमुसलं संगामं उयाए तएणं से वरुणे नागनत्तए रहमुसलं संगामं उयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ कप्पइ मे रहमुसलं संगामं संगामवगैरह सब कूणिक राजाने जैसा किया वैसा करके सब अलंकार से विभूषित हुवे शरीर पर कवच धारन भी किया और कोरंटक वृक्ष के पुष्पों की माला युक्त छत्र धारण करते हुवे, अनेक गणों के नायक यावत् टूनसंधिपाल सहित मज्जनगृहसे बाहिर नीकले. बाहिर नाकलकरके उपस्थानशाला (दीवानखाना ) में घंट वाला रथकी पास आये और उस में बैठे. रथ में बैठकर अश्वगजादि चतुरंगिनी सेना से परिवृत यावत् ।। mmmmwwwwwwwwwwwwwwww * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी Annow भावार्थ womwwwmamm Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ वय वाला स० सरिखा भ० भंड म०पात्र उ० उपकरण र. रथ प०अतिरथ में ह० शीघ्र आ० आया त.* तब से वह पु पुरुष व वरुण को ए ऐलाव०बोला प०मार भो भो व०वरुण ना० नागनप्तृकत०तव व वरुण तं. उस पु० पुरुष को व. बोला मो० नहीं मे० मुझे क. कल्पे दे. देवामुमिय अ० नहीं मारने वाले को प० हनने को सु० तुमही पु० पहिले प० मारो त० तब से वह पु० पुरुष व वरुण ए. ऐसा बु. माणस्स जे पुब्बि पहणइ तं पडिहणित्तए अवसेसे नो कप्पइत्ति, अयमेयारूवं अभि. ग्गहं अभिगिण्हइत्ता रहमुसलं संगामेइ। तएणं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरित्तए सरिन्वए सरिसभंडमत्तोव. गरणरहेणं पडिरहं हवमागए।तएणं से पुरिसे वरुणंनागनत्तुयं एवं वयासी-पहण भो वरुणा नागनत्तुया ! तएणं वरुणे नागनत्तुए तंपुरिसं एवं वयासी-नो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया! पुब्बिं अहयस्स पहणित्तए तुमं चेव पुब्बिं पहणाहि । तएणं से पुरिसे बडे २ सुभट से रक्षित होने हुने स्थमुशल संग्राम में आये रथमुशल संग्राम में आये पीछे उस वरुण नामक नाग नप्तृकने ऐसा अभिग्रह लिया कि जो मेरे शरीर पर पहिले प्रहार करेगा उस पर मैं प्रहार: 3 करूंगा. अन्य किसी पर प्रहार नहीं करूंगा. ऐसा अभिग्रह करके वह रथमुशल संग्राम में युद्ध करने लगा. इस तरह युद्ध करता हुवा वरुण नाग कुमार की सन्मुख कोई समान वय व बचावाला पुरुष 488+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 888 4888 सातवा शतकका नववा उद्देशा 988 Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा पनि श्री अमोलक ऋषीजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी बोलता आ आसरक्त जा. यावत मि० धगधगायमान हुवा १० धनुष्य प. ग्रहणकर 10 बाण को प० ग्रहणकर ठा० स्थान ठि० स्थापकर आ० कर्णतक ३० बाण को क० करके व वरुण को गा० गाढा प्रहार क करे त० तब से वह व वरुण ते • उस पु० पुरुष से गा० गाढमहार क. कराया हुवा आ म आसुरक्त जा. यावत् मि० देदीप्यमान हुवा ते उस पु० पुरुष को ए०एकप्रहार कू० कूटमें आ०मारकर जी. वरुणेणं एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसिमाणे धणुं परामुसइ परामुसइत्ता, उसे परामुसइ परामुसइत्ता ठाणं ठाइ ठिच्चा आययकण्णाययं उसुकरेइ उसुकरेइत्ता वरुणं नागनत्तुयं गाढप्पहारी करेइ, । तएणं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरि. से गाढप्पहारीकएसामणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसिमाणे धणुं परामुसइ परा मुसइत्ता आययकण्णाययं उसु करेइ उमुं करेइत्ता, तंपुरिसं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीविसमान भंड पात्र व उपकरण युक्त रथ सहित आया. और वरुण नाग नतृक को ऐसा कहा कि अहो! वरुण नागनतृक ! तू मेरे पर प्रहार कर. उस समय में वरुणने उस पुरुष को कहा कि जिनने पहिले मेरे पर प्रहार नहीं किया है उसे मारनेका मुझे नहीं कल्पता है. तुम ही पहिले मेरे पर प्रहार करो. जब वरुणने उस पुरुष को एमा कहा सब उसने आसुरत्व यावत् क्रोधित. वनकरके धगधगायमान होता हुवा धनुष्य उठाया और उस में वाण रखकर अपना स्थान किया. फिर कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींच प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी मालाप्रसादजी* भावार्थ , Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जीवित से व० दूर किया॥१३॥त०तब से वह व०वरुण ते० उस पु० पुरुष से गा गाढा प्रहार क. कराया अशक्तिीवकल अल्बलरहित अवीर्यरहित अ० पुरुषात्कार पराक्रमरहित अ० नहीं धारण करसके ति०ऐसा कर। के तु० अश्व नि ग्रहणकर के र० रथको प० पीछा फीराया र० रथमुशल संग्राम से १० नीकलकर ए०१७... ९६५ एकान्त में अ० जाकर तु० अश्व को नि० ग्रहण कर र० रथको ठ० स्थापकर र० रथसे ५० उतरकर • याओ ववरोवेइ ॥ १३ ॥ तएणं से वरुणे मागनत्तए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारिकए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार परक्कमे अधारणिज मितिकटु, तुरए निगिण्हइ निगिण्हइत्ता, रहं परावत्तेइ रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता एगंतमंतं अबक्कमइ २ त्तातुरए निगिण्हइ निगिण्हइ ता रहं ठवेइ ठवेइत्ता रहाओ पच्चोरु हइ पच्चोरुहइत्ता, रहाओतुरए मोएइ मोएइत्ता तुरए विसजेइ विसज्जेइत्ता, दब्भसं भावार्थ कर नागनप्तृक को तीक्ष्णं प्रहार किया. इस तरह उप्त पुरुष से तीक्ष्ण प्रहार कराया हुवा वरुण नाग नप्लकने क्राधित बन कर धगधगायमान होता हुवा धनुष्य में धाण रखकर, कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींचकर एक ही प्रहार से उस पुरुष को जीवित से पृथक् किया ॥ १३ ॥ अब उस पुरुष से हणाने से वरुण नाग * नप्तृक शक्ति, बल, वीर्य व पुरुषात्कार पराक्रम रहित हुना और अपने शरीर को धारन करने में अशक्त जानकर अश्व की लगाम ग्रहण की. रथ को पीछा फिराकर स्थमुशल संग्राम में से निकलकर Hg पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती १४. सातवा शतकका नववा उद्देशा 930 Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ गां र० रथसे सु० अश्व मो० छोडकर तु० अश्वको वि。 नीकालकर द०दर्भका सं० संथारा सं०करके द० दर्भ संथारे पर दु० बैठकर पु० पूर्व तरफ प० पर्यकासन नि० बैठा क० करतल जा० यावत् क० करके {ए० ऐसा व० बोला न० नमस्कार अ० अरिहंत भ० भगवन्तको जा० यावत् सं० प्राप्तको न० नमस्कार स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को आ० आदि क०करने वाले जा०यावत् संप्राप्त करने के का०कामीको थारगं संथारइ २ ता, दव्भसंथारगं दुरूहइ २ प्ता, पुरत्थाभिमुहे सपलियंक निसणे करयल जाव कट्टु एवं वयासी- नमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं जाव नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स जाव संपाविउकामस्स, मम धम्मायरियस धम्मो एसयस्स वंदामिणं भगवं तत्थगयं इहगए पासउ मे भगव तत्थगए जाव वंदइ नमंसइ वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- पुविपिणं मए समणस्स एकान्त में गया. वहां रथ से नीचे उतरकर अश्व छोड दीये. फीर दर्भ का संथारा बनाकर उस पर पूर्वाभिमुख करके पर्यकासन से बैठा और हस्तद्वय जोड़कर मस्तक को आवर्तना देता हुवा ऐसा बोला) कि आरिहंत भगवन्त यावत् मुक्तिको प्राप्त ऐसेको नमस्कार होवो. धर्मकी आदि करनेवाले यावत् मोक्ष प्राप्त करने की इच्छावाले मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्री श्रमण भगवन्त महावीर को नमस्कार होवो. वहां रहे {हुवे आपको मैं वंदना नमस्कार करता हूं. इस तरह वंदना नमस्कार करके ऐसा बोला कि मैंने पहिले श्री अनुवादक बालकाचा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर का सुदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९६६ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ - 380% पंचमांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती) मूत्र म मेरे ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक को वं. वंदना करताहूं भ० भगवन्त को त० तहां रहे हुवे को इ० यहां रहा हुवा पा० देखो मे• मुझे भ० भगवन्त त० तहां रहे हुवे जा० यावत् वं० वंदनाकर न नमस्कार कर एक ऐसा व• बोला पु. पहिले म० मैंने स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं०१४ पास थू० स्थूल पा० प्राणातिपात का प्र० प्रसाख्यान किया जा० जीवन पर्यंत ए. ऐसे जा यावत थ.. भगवओ महावीरस्स अंतियं थूल पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए एवं जाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावजीवाए, इयाणिपिणं अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावजीवाए एवं जहा खंदओ जाव एयंपिणं चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि त्तिक? सण्णाहपर्ट मुयइ मुयइत्ता सल्लुद्धरणं करेइ करेइत्ता आलोइय पडिक्कंते समाहिपत्ते आणुपुन्वीए कालगए ॥ १४ ॥ तएणं श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से यावज्जीव स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किये हैं. और अभी भी उन महावीर स्वामी की पास यावज्जीवपर्यंत सब माणातिपात का प्रत्या- ool ख्यान करता हूं, यावत् जैसे स्कंदक का आधिकार कहा वैसे चरिम उश्वास नीश्वास तक मेरी काया को त्यजता हूं. ऐसा करके कवच को छोडकर षाण का जो शल्य शरीर में था उसे नकिाला. और अनुक्रम से काल धर्म को प्राप्त हुवा ॥ १४ ॥ उस समय में वरुण नामक नागनतृक का एक बालमित्र रथ है। 2088043 सातवा शतक का नववा उद्देशा - भावार्थ 1 Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ स्थल ५० परिग्रह का प० प्रसाख्यान किया जा० जीवन पर्यंत एं. ऐसे इ० अभी अं० मैं त उन भ० ०७ भगवन्त म० महावीर की अं० पास स०सर्व पा०प्राणातिपातका ५० प्रयाख्यान करताहूं जो जीवन पर्यंत ए. ऐसे ज• जैसे खं स्कंदक जा. यावत् च चरिम ऊ ऊश्वास नी निश्वास से वो० वासराता हूं ति ऐसा करके म० कवचको मु० दूरकरके सशल्योद्धरण क०करके आ आलोचना करके प०अतिक्रमण कर तस्स नागनत्तयस्स एगे पिय बालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं - गाढप्पहारीकएसमाणे अत्थामे जाव अधारणिज्जमितिकटु वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खममाणं पासइ पासइत्ता, तुरए निगिण्हइ निगिण्हइत्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसज्जेइ पद्धसंथारगं दुरूहइ दुरूहइत्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कटु एवं वयासी जाइण्णं मम पियवालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयम्स सी लाई वयाइं गुणाई वेरमणाई पच्चक्खाणपोसहोववासाइं ताइण्णं ममंपि भवन्तु । भावार्थ मुशल संग्राम में युद्ध करता हुवा शक्ति रहित यावत् शरीर को धारन करने में अशक्त हुवा ऐसा जानकर रथ मुशल संग्राम में से पीछे जाते हुवे वरुण नाग नतृक को देखा. उस समय वह भी अश्व की लगाम ग्रहण कर रथ मुशल संग्राम में से पीछा नीकलकर एकान्त स्थान में गया. वहां रथ से नीचे उतरकर घोडे को छोड़ दीये और कपड़े का संथारा वीछाकर पूर्वाभिमुखसे वैठा. और हस्तद्वयं जोडकर १ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सः समाधि प्राप्त आ० अनुक्रन मे का मृत्युको प्राप्तहुवे || १४ || पूर्ववत् ॥ १५ ॥ त० तव व० वरुण को का० काल को प्राप्त जा० जानकर अ० समीपवर्ती वा० वाणव्यंतर दे० देव दि० दीव्य सु० सुरभि ) गं० गंध का उ० पानी वा० वर्षा ० वर्षाई द० दशके अर्ध व वर्ण वाले कुः कुसुम नि० डाले दि दीव्य गी० गीत गं० गंधर्व नि० शब्द क० किया हो० था त० तब व० वरुण का तं० उस दि० दीव्य (दे० देवऋद्धि दे० देवति दे० देवानुभाग सु० सुनकर पा० देखकर व० बहुत मनुष्य अ० अन्यान्य तिक सण्णापहं मुयइ मुयइत्ता सल्लुद्धरणं करेइ करेइत्ता आणुपुत्रीए कालगए ॥ १५ ॥ तणं वरुणं नागनत्तुयं कालगयं जाणित्ता अहासंणिहिएहिं वाणमंतर देवहिं दिव्वे सुरभिगंधादगवासे वुट्ठे दसद्धयवण्णे कुसुमे निवाइए, दिव्वेयगीयगंधव्वनिनादेकएयावि होत्था, ॥ तरणं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं दिव्वं देविडूिं दिव् ऐसा कहा कि मेरे प्रिय बाल मित्र वरुण नागनप्तृक को जो शीलव्रत, गुणत्रत, वेरमण, प्रत्याख्यान पोषघोपवास हैं वे मुझे भी होवो ऐसा करके उसने भी कवच नीकालकर वाण नीकाला फीर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुवा || १५ || फीर समीपवर्ती वाणव्यंतरोंने वरुण नागनप्तृक को कालधर्म प्राप्त हुवा जानकर दीव्य सुगंधित पानी की वर्षा की, पांच वर्णवाले पुष्पों की वर्षा की, वैसे ही दीव्य गीत गंधर्व की ध्वनि की. उस समय में वरुण नाग नप्तृक को दीव्य देवद्धिं, दीव्य देव श्रुति व दीव्य देवानुभाग 400 सातवा शतकका नववा उद्देशा ९६९ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ए० ऐसा आ कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते हैं ए० ऐसे दे० देवानुप्रिय ब० बहुत म० मनुष्य जा० यावत् उ० उत्पन्न भ० होते हैं ॥ १६ ॥ व० वरुण भं० भगवन् ना० नागनप्तृ का० काल के अवसर में का० काल करके कर कहां ग० गया क० कहां उ० उत्पन्न हुवा गो० गौतम सो० सौधर्म दे {देवलोक में अ० अरुणाभ वि० विमान में दे० देवपने उ० उत्पन्न हुवा त० तहां अ० कितनेक दे० देवकी च० चार प० पल्योपम की ठि० स्थिति त० तहां व० वरुणदेवकी च० चार प० पल्योपम की ठि ( स्थिति से वह मं० भगवन् व० वरुण देव ता० उस दे० देवलोक से आः आयष्य क्षयसे भ० भव ठि० देवजुत्तिं दिव्यं देवाणुभागं सुणित्ताय पासित्ताय बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाब परूवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवति । ॥ १६ ॥ वरुणेणं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिंगए कहिं उववण्णे ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उबवण्णे तत्थणं अत्थेगइयाणं देवानं चत्तारि पलिओमाणि ठिई प० ॥ तत्थणं वरुणस्सवि देवस्स चत्तारि लिओ माई ठिई पण्णत्ता ॥ सेणं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं, { प्राप्त हुवा सुनकरके बहुत मनुष्य परस्पर ऐसा कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! युद्धमें सन्मुख युद्ध करनेवाले बहुत मनुष्य देव में उत्पन्न होनेवाले होते हैं || १६ || अहो भगवन् ! वरुण नागनप्तृक काल के अवसर में काल करके कहां गया व कहां उत्पन्न हुवा ? अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक में अरुणाभ विमान में * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ९७० Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स्थिति क्षयसे जा. यावन् म. महाविदेह क्षेत्र में सि• सिझेगा जा० यावत् अं० अंत करेगा ॥ १७ ॥ व० 70 वरुण का भं०भगवन् पि. प्रियबाल मित्र का काल के अवसर में का०काल करके क-कहां ग० गया क. कहां उ० उत्पन्न हुवा गो० गौतम सु• मुकुलमें १० उत्पन्न हुवा त तहां से अ० पीछे उ० चक्कर क० कहां ग. जावेगा गो० गोलम म. महाविदेह क्षेत्र में सि. सिझगा जा. यावत् अंतकरेगा व. वह ९७१ विराह पण्णति ( भगवती) सूत्र Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gi ऐसे में भगवन् ॥ ७ ॥९॥ * * * * ते. उस काल ते. उस समय में रा० राजगृह न० नगर हो० था व० वर्णनयुक्त गु० गुणशील. चें चैत्यमें व० वर्णनयुक्त जा० यावत् पृः पृथिवी शीलापट्टक त० उस गु० गुणशील चे० चैत्यकी अ ननदीक व० बहुत अ० अन्यतीर्थिक प० रहते हैं का० कालोदायी से शैलोदायी से० सेवालोदायी । उ० उदक ना' नामोदक क० नमुदक अ० अर्णपालक से शैलपालक सं० शंखपालक सु• मुहस्ती भंत त्ति ॥ सत्तम सयस्स नवमो उद्देसो समत्तो॥ ७ ॥ ९॥ x x तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था वण्णओ,गुणसिलए चेइए वण्णओ, जाव पुढवि सिलापट्टओ, तस्सणं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति,तंजहा कालोदाई, सेलोदाई,सेवालो दाई उदए,नामुदए,नमुदए, अंत करेगा. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह सातवा शक्क का नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१९॥ है नववे उद्देशे में परमत निराकरण का कहा. अब इस उद्देशे में भी इस का स्वरूप कहते हैं. उस काल , उस समय में राजगृह नामक नगर था. उस का वर्णन उववाइ सूत्र से जानना. उस के गुणशील नामक * उद्यान में पृथ्वीशीलापट्टक था. उस गुणशीलउद्यान की पास कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदक, Amawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ गा० गाथपति ॥ १ ॥ तक तब ते ० उन अ० अन्यतीर्थिक अ० एकदा ए० एक स० सहित स० {आयेहुवे को स० बैठेदुवे को सं० आसनपे बैठेहुवे को ए० ऐसा मि० परस्पर क० कथासमुल्लाप स० उत्पन्न हुदा ए० ऐसे स० श्रमण ना० ज्ञात पुत्र पं० पांच अ० अस्तिकाय प० प्ररूपते हैं ध० धर्मास्ति काय जा० यावत् आ० भाकाशास्तिकाय त० तहां स श्रमण ना० ज्ञातपुत्र च० चार अ० आस्ति अण्णवालए, सेलवालए. संखवालए, सुहत्थी, गाह्रावई, ॥ १ ॥ तरणं तसें अण्णउत्थियाणं अण्णयाकयाई एमयओ सहियाणं समुत्रागयाणं सष्णिविद्वाणं संनिसण्णाणं अयमेवारूचे मिहोकहास मुलाचे समुप्पजित्था, एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अथिका पण धम्मत्थिकार्य जाव आगासत्थिकायं, तत्थणं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिका अजीवकाए पण्णवेइ तंजहा - धम्मत्थिकार्य, अहम्मत्थिकार्य, आगासत्थिकार्य, पोग्गलात्थकायं, एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरुविनामोदक, नमुदक, अर्णपालक, शैलपालक, शंखपालक सुहस्ती व गाथापति नाम के अन्यतीर्थियों रहते थे. { ॥ १ ॥ उस समय में एकदा वे सव अन्यतीर्थिक एकत्रित मीलकर एक स्थान पर बैठे थे. वहां परस्पर ऐसा वार्तालाप करने लगे कि भ्रमण ज्ञात पुत्र ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवा - } (स्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय ऐसी पांच अस्तिकाय प्ररूपी है. उस में से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सातवा शतक का दशवा उद्देशा ९७३ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | ९७४ 2 अनुवादक-वालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी काय अ. अजीवकायप० प्ररूपते हैं. ध धर्मास्तिकाय आ. आकाशास्तिकाय पो० पुद्गला काय ए० एक स. श्रमण ना० ज्ञात पुत्र जी. जीवास्तिकाय को अ० अपि काया को जीव काय प० प्ररूपते हैं से. वह क. कैसे म० माने ॥२॥ ते० उस काल ते. उस समय में स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर जा. यावत् गु० गुणशील चैत्यमें स० पधारे जा. यावत् १०१ परिषदा प० पीछीगइ ॥ ३ ॥ ते. उस काल में स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर का जे. ज्येष्ठ कायं जीवकायं पण्णवेइ, तत्थणं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए पण्ण. वेइ, तंजहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं, एगचणं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकायं रूविकायं अजीवकायं षण्णवेइ से कहमेयंमन्ने एवं ॥ २ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे जाव परिसा पडिगया. ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ काशास्तिकाय व पुद्गलास्तिकाय ऐसी चार अस्तिकाय अजीवकाय कही है, और अरूपी जीवास्तिकाय को जीवकाय कही है. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय व जीवास्तिकाय ऐसी चार काय अरूपी और पुद्गलास्तिकाय रूपी कहो. यह अस्तिकाय कैसे मानी जावे ? ॥२॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में पधारे. परिषदा प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी ज्वालामसादजी * mmar भावार्थ , । Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4843पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 8000 अ० अंतेवासी ई. इंद्रभूति अ० अनगार गो० गौतम गौत्रीय ए० ऐसे में जैसे वि० दूसरे सं० शतक में नि. निग्रंथ उद्देशा जा०. यावत् भि. भिक्षाचरीके लिये अ० फीरते अ. रथापर्याप्त भ० भक्तपान १० लेकर रा.राजगृह से जा यावत् अवरारहित अ० चपलतारहित व जावे ॥४ात. तब तेव्वे अ अन्यती र्थिक भ० भगवन्त गो गौतम को अ• नजदीक से वी० जाते पा० देखकर अ० अन्योन्य को स० महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयम गोत्तेणं एवं जहा बिति ए सए नियंठुद्देसए जार भिक्खायरियाए अडमाणे अहापजत्तं भत्तपाणं पडिग्गहइ २ त्ता रायगिहाओ जाव अतुरिय मचवलं जाव चरियं सोहेमाणे २ तोसे अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीईवयइ ॥ ४ ॥ तएणं से अण्णउत्थिया भगवं गोयम अदूरसा. मंतेणं वीईवयमाणं पासंति पासइत्ता, अण्णमण्णं सद्दावेति सदावेइत्ता एवं वयासी. वंदन करनेको आई धर्मोपदेश सनकर पछिी गइ ॥३॥ उप्त समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार जैसे दूसरे शतक में निर्ग्रन्थ उद्देशे में कहा वैसे ही भगवंत की आज्ञा लेकर राजगृह नगर में पधारे. वहां भिक्षाचरी के लिये फीरते हुए यथापर्याप्त भक्तपान लेकर रामसह नगरसे शीघता व मंदता रहित र्यासमितिकी गवेषणा करतेहुवे उन अन्यतीर्थियोंकी पाससे चले जाई 88. 80सातवां शतकका दशवा उद्देशा8%8800 भावार्थ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *बोलाकर ए० ऐ ० बोले ए. ऐसे ख. निश्चय दे० देवानुपिय अ० अपनी इ० यह ककथा अप्रगट हुइ नहीं गो. गौतम अ० नजदीक वी. जाते है त० उनको दे० देवानुप्रिय गो गौतम को ए. यह अर्थ पु० पुछने को त्ति ऐसा करके अ० अन्योन्य की अं० पास से ए. यह अर्थ प.मूनकर जे. जहां भ. भगवन्त गो० गौतम ते. तहां उ० आकर एक ऐसा व० बोले गो० गौतम त० तेरा ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण ना० ज्ञातपुत्र पं० पंचास्तिकाया प० प्ररूपते हैं ध० धर्मास्तिकाया जा० एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहाअविप्पकडा अयंचणं गोयमे अदूरसा तेणं वीईवयइ तसेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं गोयमं एयमटुं पुच्छित्तए त्तिकटुअण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुंपार्डसुणंति २ जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति २ त्ता भगवं गोयम एवं वयासी एवं खलु गायमा! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे नायपुत्ते पंचअत्थिकाए पण्णवइ । तंजहा- धम्मत्थिकायं जाव आगासत्थिकायं तंचव जाब रूविकायं, अजीवकायं रहेथे ॥ १४ ॥ उस समय में भगवन्त गौतम को अपनी तरफ आते हुए देख कर वे अन्यतीथिकोंने एक है एक को बोलाये, बोलाकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! हम को यह वात पूर्ण प्रकट नहीं हुई है अर्थात में इस का निर्णय बराबर नहीं हुआ है इस से यदि इस का निर्णय करना होने तो यह गौतम नजदीक में 12 आते हैं. उन को इप्सका अर्थ पुछना अपनको श्रेय है. ऐसा परस्पर कह कर वे अन्यतीर्थिक गौतम * १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालाप्रसादमी * भावाथ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 भवगती ) शब्दार्थ यावत् आ० आकाशास्तिकाय तं तैसे जा. यावत् रू. रूपीकाया को अ० अजीवकाया ५० प्ररूपते । ago हैं से० वह क० कैसे गो० गौतम त० तब से वे भ० भगवन्त गो० गौतम ते उन अ० अन्यतीर्थिक को एक ऐसा व० बोले नो० नहीं दे देवानप्रिय अ० अम्तिभाव को न० नास्ति त्ति ऐसा व कहते 00 हैं न० नास्तिभाव को अं० अस्ति ति ऐसा व० कहते हैं अ० हम दे० देवानुप्रिया स० सर्व अ०१७ पण्णवेइ, से कहमेयं गोयमा ! एवं ? तएणं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थियं ___ एवं वयासी नो खलु देवाणुप्पिया अत्थिभावं नत्थित्ति वयामो, नत्थिभावं अत्थिात्त. वयामो, अम्हेणं देवाणुप्पिया! सव्वं अत्थित्तिभावं अत्थिवयामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थित्तिवयामा, तं चेयसा खलु तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयमढे सयमेव पच्चुवेक्खह त्तिक? ॥ ते अण्णउत्थिया एवं वयासी जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भावार्थ स्वामी की पास आये और बोले कि अहो गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय प्ररूपते हैं उन में चार अजीवकाय व एक जीवकाय वैसे ही चार अरूपीकाय व एक रूपी १० काय प्ररूपते हैं तो यह किस तरह है ? उस समय में भगवान् गौतमने उन अन्यतीर्थियों को ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! सब अस्तिभाव को हम अस्ति कहते हैं और सब नास्तिभाव को हम नास्ति कहते हैं. अहो देवानुप्रिय ! इस अर्थ को तुम स्वयं ज्ञान से विचारो. ऐसा करके उन अन्यतीर्थिकों को सातवा शतकका दशवा उद्देशा पंचमांग विवाह पण्ण - Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अस्तिभाव को अ० अस्ति भाव व० कहते हैं स० सर्व न० नास्तिभाव को न० नास्ति ति० ऐसा १० कहते हैं तं० उस को चे० ज्ञान से तु० तुम दे० देवानुप्रिय ए० यह अर्थ स० स्वयं प० विचारो सि० ऐसा करके || ७ || पूर्ववत् || ६ || त० तब से वह का० कालोदायी स० श्रमण भ० भगवन्त म भगवं महावीरे एवं जहा नियंठुद्देसए आव भत्तपाणं पडिदंसेइ २ त्ता, समणं भगव महावीरं वंदइ नमसइ नच्चासपणे जाव पज्जुवासेइ ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएर्ण समणे भगवं महावीरे महा कहा पडिवण्णे यावि होत्था, कालोदाईय तं देस हव्वमा गए कालोदाइत्ति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं वयासी-से नूणं ते कालोदाई अण्ण या कयाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं तहेव जाव सेकहमेयं मण्णे एवं से नूणं { एसा कहा कि गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी हैं वगैरह जैसा दूसरे शतक में निग्रंथ उद्देशे में वर्णन हैं वैसा यहां जानना, और श्री गौतम स्वामीने श्रमण भगवन्त महावीर को भक्तपान बताकर के वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना की ॥ ५ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी परिषदा में धर्मोपदेश करते हुवे प्रवर्तते थे. वहां कालोदाई भी आया. उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी कालोदायी को एसा बोले कि अहो कालोदायी ! एकदा तुम सब मीलकर परस्पर ऐसा वार्तालाप करते थे कि श्रमण ज्ञात पुत्रने पंचास्तिकाय प्ररूपी है : यावत् यह कि तरह है * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ९७८ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ महावीर को एक ऐसा व० बोला ए० इन मं० भगवन् ध० धर्मास्तिकाया में अ० अधर्मास्ति काया में आ० आकाशास्तिकाया में अ० अरूपी अ० अजीव काया में च. समर्थ को० कोई आ. बैठने को चि० | Vखडा रहने को नि० विशेष बैठने को स. सोनेकोजायावत तु. निदालने को नो० नहीं इ०यह अर्थ स०१४ कालोदाई अटे समटे ? हंता अत्थि तं सच्चेणं एसमटे कालोदाई अहं पंच अस्थिकाए पण्णवेमि तंजहाधम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं,सत्थणं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए अजीवत्ताए पण्णवेमि तहेवजाव एगचणं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकायं पण्णवेमि ॥ ६ ॥ तएणं से कालोदाई समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एएसिणं भंते ! धम्मत्थिकायंसि अधम्मत्थिकायांस आगासत्थिकायंसि अरूबी अजीवकायं सि चक्किया केइ आसइत्तएवा, चिट्ठित्तएवा, निसीइत्तएवा, सइत्तएवा, जाव तुयभावार्थ ऐसा संशय उत्पन्न हुवा. अहो कालोदायिन् : क्या यह अर्थ योग्य है ? हां भगवन् ! यह अर्थ योग्य है है. अहो कालोदायिन् ! यह अर्थ सत्य है. मैं पंचास्तिकाय प्ररूपता हूं. उन में से चार अजीव व एक जीव वैसे ही चार रूपी व एक अरूपी काय मरूपता हूं॥६॥ तव कालोदायी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बोले कि अहो भगवन् ! अरूपी अजीव काय जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, व आका1 शास्तिकाय हैं उन में कोई बैठने को, खड़े रहने को, सोने को व निद्रा लेने को क्या समर्थ है ? ग विवाह पण्यत्ति ( भगवती ) सूत्र 488.748 सातवा शतक का दशवा उद्देशा 85- 80 Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ समर्थ का० कालोदायिन् ए० इन पो० पुद्गलास्तिकाया में रू० रूपीकायामें अ० अजीव काया में च० समर्थ ।। ole के० कोई आ० बैठने को जा० यावत् तु० निद्रालेने को ॥ ७ ॥ ए० इन पो० पुद्गलास्तिकाया में रू० रूपीकाया में अ० अजीव काया में जी जीव पा० पाप क० कर्म पा० पापफल वि० विपाक सं० संयुक्त ककरे नो नहीं ए. यह अर्थ स०समर्थ का० कालोदायी जी जीवास्तिकाया अ० अरूपी काया में जी० जीव पा० पापकर्म पा० पापफल वि० विपाक सं० संयुक्त क० करे हं० हां क० करे ॥ ८ ॥ ए० हित्तएवा ? नो इणटे सम। कालोदाई ! एएसिणं पोग्गलत्थिकायांस रूवीकायांस अजीवकायसि चक्किया केइ आसइत्तएवा जाव तुयत्तिएवा ॥ ७ ॥ एएसिणं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि ख्वीकार्यसि अजीवकायंसि जीवाणं पावाणं कम्माणं पावफलविवाग संजुत्ता कजंति? णो इणटेसमटे । कालोदाइ ! एयंसिणं जीवत्थिकायसि अरूवीकार्यसि जीवाणं पावा कम्मा पावफल विवाग संजुत्ता कजंति ? हंता कजंति ॥ ९ ॥ भावार्थ अहो कालोदायिन् ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं अर्थात् अरूपी अजीव काय में बैठने को यावत् निद्रा लेने को कोई समर्थ नहीं हैं. परंतु रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाव में क्रियाओं करने को समर्थ हैं ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! इस रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाय में क्या जीवों पापकर्म के फल विपाक से संयुक्त होते हैं ? अहो । कालोदायिन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है. परंतु अरूपी जीवास्तिकायमें जीवों पापकर्म के फल विपाक से संयुक्त ० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यहां से वह का० कालोदायी में बोधपामा स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ५० वंदना कर । इन नमस्कारकर ए. ऐसा व० बोला इ० इच्छता हूं भं भगवन् तु. तुमारी अं० पास ध० धर्म नि०yo सुनने को एक ऐसे ज० जैसे खं० स्कन्दक त० तैसे प. प्रवजित हवा ए. अग्यारह अं०अंग जा. यावत् वि. विचरता है ॥ ९॥ पूर्ववत् ॥१०॥ ११॥ त तब से वह का० कालोदायी अ० अनगार अ. ___ एत्थणं से कालोदाई संबुद्धे, समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ नमसइत्ता एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुझं अतियं धम्म निसामेत्तए एवं जहा खंदए तहेव पव्वइए तहेब एक्कारस अंगाणि जाव विहरइ, ॥९॥तएणं समणेभगवं महावीरे अण्णयाक__याइं रायागहाओणयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिस्खमइ २ त्ता, बहिया जणवय विहार विहरइ ॥ १० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामनगरे गुणसिलए नामं भावार्थ होते हैं अर्थात् अरूपी जीव ही पापकर्म के फल भोगता है ॥ ८ ॥ इतना सुनकर कालोदायी प्रति-a बोध पाये. और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे कहने लगे कि अहो भगवन् ! मैं आपकी पास धर्म श्रवण करने को इच्छता हूं. वगैरह जैसे स्कंदक के अध्ययन में कहा वैसे ही यहां 60 जानना. यावत् कालोदायी प्रवजित हुवे और अग्यारह अंग का अध्ययन करके विचरने लगे ॥ ९॥ फीर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी एकदा उस गुणशील नामक उद्यान में से नीकलकर देशान्तर में विचरने लगे ॥ १० ॥ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर में गुणशील नामक उद्यान था. उस में (भगवती) मूत्र 8 विवाह पण्णत्ति सातवा शतकका दशत्रा उद्देशा है - Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एकदा जे. जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते. तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को न० नमस्कार कर एक ऐसा व बोला अ है भं. भगवन् जी. जीव पा० पापकर्म पा० पापफल वि. विपाक सं० संयुक्त क. करे है. हां अ० है क. केसै भ० भगवन् जी. जीव पा० पापकर्म पा० पापफल वि० विपाक सं• संयुक्त का करे का० कालोदायी से० वह ज. जैसे के० कोई पु० पुरुष म. मनोज्ञ था० स्थाली पा. पाक सु० शुद्ध अ० अठारह वं. व्यंजनयुक्त वि० चेइए होत्था, तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णयाकयाइं जाव समोसढे जाव पडिगया ॥ ११ ॥ तएणं से कालोदाई अणगारे अण्णया कयाई जेणेव समणे । भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ२ । त्ता एवं वयासी- अत्थिणं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलीस्वाग संजुत्ता कजं ति ? हंता अत्थि ॥ कहण्णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग संजुत्ता श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी एकदा पधार, पौरपदा वंदन को आई. धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई ॥११॥ उस समय में कालोदायी अनगार श्री श्रपण भान हर सामी की पास आकर वंदना नमस्कार कर ऐसा कहने लगे कि अहो भगवन् ! क्या जीवों पाप का संयुक्त हैं ? हा कालो-१. दायिन् ! ऐसा ही है. अहो भगवन् ! जीव कैसे पापकर्म के फल विपाक से संयुक्त हैं? अहो कालोदायिन् ! * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथा Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | (भगवती ) सूत्र - विवाह पण्णत्ति विषामेश्रित भोजन भुं० भोगवे तक उस भो० भोजन का आ० आपात भ० भद्रक भ० होवे त० पीछे} | प. परिणमता दु० खराब रूपपने दु० दुर्गंधपने ज. जैसे म० महाआश्रव में जा० यावत् भु० वारंवार प. परिणम ए. ऐसे ही का० कालोदायी जी• जीव पा० प्राणातिपात से जा. यावत् मि० मिथ्यादर्शन कजंति ? कालोदाई ! से जहा नामए केइपुरिसे मणुण्ण थालीपाम सुद्धं अट्ठारस वंजणाउलं विसमिस्सं भोयणं भुंजेजा, तस्स भोयणस्स आवाए भद्दए तओपच्छा परिणममाणे २ दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए जाव भुजोर परिणमइ एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्सणं आवाए भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणे २ दुरूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमइएवं भुजो भुजो जैसे मनोज्ञ मनोहर पात्र में बनाया हुवा, अठारह प्रकार के व्यंजनादि युक्त परंतु विषमिश्रित पाक का कोई पुरुष भोजन करे तो भोजन करते समय उस पुरुष को वह पाक मधुर रसादि वाला होने से स्वादिष्ट लगता है. परंतु जब वह विष मिश्रित आहार शरीर में परिणमता है तब दुष्ट वर्णपने दुर्गंधपने परिणमता है, यावत् जैसे छठे शतक के तीसरे उद्देशे में कहा वैसे वारंवार परिणमता है ऐसे ही अहो कालोदायिन् !RY नीवों को प्राणातिपात यावत् मिथ्या दर्शनशल्य पहिले भाद्रिक होते है परंतु पीछे परिणमते हुए दुष्ट वर्णपने गंपने वारंवार परिणमते हैं. ऐसे ही अहो कालोदायी ! जीव वारंवार पाप कर्म के फल 28828 साता शतक का दशवा उद्देशा भावार्थ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ शल्य से ॥ १२ ॥ पूर्ववत् ॥ १३ ॥ दो० दो भं० भगवन् पु. पुरुष स० सरिखे जा० यावत् स०सारखे कालोदाई जीवाणं पावा कम्मा जाव कजति ॥ १२ ॥ अत्थिणं भंते ! जीवाणं कल्लाणकम्मा कल्लाणफल विवाग संजुत्ता कति ? हंता अत्थि ॥ कहणं भंते ! जीवाणं कल्लाण कम्मा जाव कजंति ? कालोदाई ! से जहा नामए केइ पुरिसे मणुण्णं थाली पागमुद्धं अट्ठारस वंजणाउलं ओसहमिस्सं भोयणं भुजेज्जा, तस्सणं भोयणस्स: आवाए नो भद्दए भवइ तओपच्छा परिणममाणे २ सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइ वायवेरमणे जाव परिग्मह वेरमणे कोहविवेगे जावः मिच्छादसणसल्ल विवेगे, विपाक करते हैं. ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या कल्याण कारी कर्म करते हैं ? हां कालोदायिन् ! जीव कल्याण कारी कर्म करते हैं. अहो भगवन् ! जीव कल्याण कारी कर्म कैसे करते हैं ? कालोदायिन्! जैसे कोइ पुरुष औषधि मिश्रित, अठारह प्रकारके व्यंजन यक्त व मनोज पात्र में पकाया हवा भोजन करे। Bउम औषधि मिश्रित भोजन भोगते हुवे प्रथम कटुक व अमनोज्ञ दीखता है परंतु शरीर में परिणमते हुवे सुरूप, मुगंध, सुवर्ण यावत् सुख रूप होता है इसी तरह प्राणातिपात से यावत् परिग्रह से निवर्तम 1 ते व क्रोध मान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग करते हुवे जीव को प्रथम दुःख होता है परंतु परिणमते ऋपिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखंदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ शुभ भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र मं० भांडे मा० पात्र उ० उपकरण वाला अ० अन्योन्य स० साथ अः अग्रिकाया का स० आरंभ करते त० तहां ए० एक पु० पुरुष अ० अग्निकाया को उ० प्रज्वलित करता है ए० एक पु० पुरुष अ० तरसणं आवाएं नो भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणे २ सुरुवत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुजो भुज्जो परिणमइ, एवं खलु कालोदाई जीवाणं कलाणा कम्मा जात्र कज्जंति ॥ १३॥ दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमंत्तोवगरणा अण्णमण्णणं सद्धिं अगणिकार्य समारंभति तत्थणं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ एगे पुरिसे अगणिकार्य निव्वाas एएसिणं भंते ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराएमहाकरियतरा चैव महासवतराएचेव महात्रेयणतराएचेव कयरेवा पुरिसे अप्पकम्म पीछे सुरूप यावत् सुख उत्पन्न करता है. अहो कालोदायिन् ! ऐसे जीव कल्याणकारी पापकर्म करते {हैं. ॥ १३ ॥ अढो भगवन् ! समान वय भंडोपकरण वाले दो पुरुषों परस्पर अनिकाय का समारंभ करे उन में एक पुरुष अग्निकाया को प्रज्वलित करे व दूसरा पुरुष अधिकाया को बुझावे. अब अहो भगवन्! अग्नि प्रदीप्त करने वाला व अ बुझाने वाला इन दो पुरुषों में से कौन महाकर्म, महाक्रिया, महा आश्रय व महा वेदना वाला होवे और कौन अल्प कर्म, अल्प क्रिया, अल्प आश्रव व अल्प वेदना वाला ** सातवा शतकका दशवा उद्देशा +8+ ९८५ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र मात्रार्थ 43 अनुवादक- बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अधिकाया को ने० बुझाता है ए इन मं० भगवन् दो० दोनों पु० पुरुषों में से क० कौनमा पु० पुरुष म० महाकर्म वाला म० महाक्रियावाला म० महाआश्रव वाला म० महावेदना वाला क० कौनसा पु० पुरुष तराएचैव जात्र अप्पत्रेयणतराएचेव जेवा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ जेवा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? कालोदाई : तत्थणं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ सेणं पुरिसे महाकम्मतराएचेत्र जाव महावेयणतराएचेत्र, तत्थणं जे से पुरिसे अगणिकार्य निव्वाइ, सेणे पुरिसे अप्पकम्मतराएचेय जात्र अप्पवेयणतराचेव ॥ सेकेणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ तत्थणं जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराएचेत्र ? कालोदाई ! तत्थणं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ सेणं पुरिसे बहुतरायं पुढविकार्य समारंभइ, बहुतरायं आउकार्य समारंभइ, अप्पतरायं तेउकायं समारंभइ, बहुतरायं होवे ? अहो कालोदायिन् ! जो पुरुष अधिकाया को प्रज्वलित करता है वह पुरुष महा कर्म वाला यावत् महा वेदना वाला होता है ओर जो अभि बुझाता है वह अल्प कर्म वाला यावत् अल्प वेदना वाला होता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो कालोदायिन् ! जो पुरुष अग्नि प्रज्वलित करता है वह बहूत पृथ्वीकायिक, अपकायिक, अल्प तेजकायिक, बहुत वायुकायिक, बहुत वनस्पतिकायिक व स कायिक * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ९८६ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । सूत्र भावार्थ 49- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्त (भगवती) सूत्र ० भगवन् अ० अचिश: कौनसे मं० भगवन् अ० अल्प कर्म वाला जा० यावत् अ० अल्पवेदना वाला पूर्ववत् ॥ १४ ॥ अ० है पो० पुद्गल भ० प्रकाशे उ० उद्योतकरे त० तपे प० प्रभाकरे ६० हां अ० है क० अ० अचिश पो० पुद्गल ओ० प्रकाशे का० कालोदायिन कु कुछ अ० अनगार की ते० तेजोलेश्या वाकायं समारंभइ, बहुतरायं वणस्सइकायं समारंभइ, बहुतरायं तसकायं समारंभइ, तत्थणं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ सेणं पुरिसे अप्पतरायं पुढविकार्य समारंभइ, अप्पतरायं आउकार्य समारंभइ, बहुतरायं तेउकायं समारंभइ, अप्पतरायं वाकायं समारंभइ, अप्पतरायं वणस्सइकार्य समारंभ इ. अप्पतरायं तसकायं समारंभइ, सेतेणें कालोदाई ! जाव अप्पवेयणातराएव ॥ १४ ॥ अस्थि भंते ! जीवों का समारंभ करता है और जो अनिकाय को बुझाता है वहपुरुष अल्प पृथ्वीकायिक अल्प अप्कायिक { बहुत तेङकायिक, अल्प वायु, वनस्पति व त्रस कायिक जीवों का आरंभ करता है. इसी से अहो कालो{दायिन् ! ऐसा कहा गया है किं अग्नि प्रदीप्त करनेवाला महाकर्मवाला यावत् महा वेदनावाला व अनि { बुझानेवाला अल्प कर्मवाला यावत् अल्प वेदनावाला होता है ||४|| अहो भगवन् ! जैसे सचित्त अशिकाय { प्रकाश करती है वैसे ही क्या अचित्त अशिकायके पुद्गलों प्रकाश करे, उद्यात करे, तपे ? हां कालोदायिन् 1 ॐ सातवा शतकका दशवा उद्देशा ९८७ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८८ शब्दार्थ नि० नीकली हुइ दु० दूरगइ दू. दूरपडे देनजदीक गगइहुइ दे०नजदीक नि०पडे ज०जहां सा०वह नि० ___ अचित्तावि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेति, तवेंति, पभासंति ? हंता अत्थि ॥ कयरेणं भंते ! अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव. पभासंति ?कालोदाई! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसड्ढासमाणी दूरगंता दूरं निवतइ, देसंगता देसं निवतइ, जहिं २ चणं सा निवतइ तहिं २ चणं ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति ॥ एएणं कालो दाई ! ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति॥तएणं से कालोदाई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ बहूहिं चउत्थ छट्ठम जाव अप्पाणं भावेमाणे अचित्त पुद्गलों भी प्रकाश करे, उद्योत करे व तपे. अहो भगवन् ! कौनसे अचित्त पुद्गलों प्रकाश करे. यावत् तपे ? अहो कालोदायिन् ! क्रुद्ध अनगार से तेजो लेश्या नीकलकर दूर गई हुइ दर गीरती है। और पास में गई हुई पास गीरती है. वह तेजो लेश्या जहां गीरती है वहां ही उन के अचित्त पुद्गल, प्रकाश करते हैं यावत् तपते हैं. अहो कालोदायिन् ! इस तरह तेजो लेश्या के अचित्त पुद्गलों प्रकाश करते है. फीर कालोदायी श्रमण भगरन्त महावीर को वंदना नमस्कार कर चतुर्थ, षष्ट अष्टम भक्त ऐसे तप *करते हुवे संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. जैसे प्रथम शतक में कालासवेशित पुत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालापसादजी * भावार्थ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सत्र . भावार्थ | पंचांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र गीरती है त० तहां ते० : वे अ ० अचिंत पो० पुद्गल ओ० प्रकाशे जा० यावत् प० प्रभाकरे पूर्ववत् ॥७॥ १० ॥ जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सेवं भंते भंतेति ॥ इति सत्तमसए दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥ १० ॥ सम्मत्तं च सत्तमस्यं ॥ ७ ॥ ÷ सब दुःखों से रहित हुवे वैसे यहां पर भी जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन तथ्य हैं यह सातवा ( शतक का दशवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ७ ॥ १० ॥ सातवा शतक समाप्त हुवा ॥ ७ ॥ ÷ सातवा शतक का दशवा उद्देशा ९८९ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | * अष्टम शतकम् * पो० पुद्गल आ० आशीविष रु० वृक्ष कि० क्रिया आ० आजीविक फा० फासुक अ० अदत्त प. प्रत्यनीक, बं० बंध आ० आराधना द० दश अ० आठवा स० शतक में ॥ १॥ रा० राजगृह जा. यावत् ए. एसा व० बाले क० कितनेप्रकारके भं० भग न् पो० पुद्गल गो० गौतम ति० तीनप्रकार के पो० पुद्गल पोग्गल आसीविस रुक्ख किरिय आजीव फासुक मदत्ते ॥ पडिणीय बंध आराहणाय, दस अट्ठमंमि सए ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहाणं भंते ! पोग्गला __ पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पोग्गला प.तं. पओग परिणया, मीसपरिणया, वीससा सातवे शतक में पुद्गल का स्वरूप बतलाया. आठवे में भी इस का विशेष स्वरूप कहते हैं. इस शतक में दश उद्देशे कहे हैं. जिनके नाम. १ पुद्गल स्वरूप २ आशीविष ३ वृक्ष के जीव का कथन ४ क्रिया काई कथन ५ आजीविक विचार ६ सुक दान ७'अदत्तादान ८ प्रत्यनीक का ९ बंध और १० आराधना चार ॥१॥ राजगृह नगर के गणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर पधारे. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे? अहो गौतम : पुद्गल तीन प्रकार के कहे हैं. १ जीव के व्यापार से शरीरादिक के भाव परिणमे सो प्रयोग परिणत २ प्रयोग व स्वभाव दोनों से परिणमे सो मीश्र परिणत और है ४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि भावार्थ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . wwwwwwwwwwwwmar Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ९९१ शब्दार्थी ३५० प्रयोग परिणत मी० मीश्रपरिणत वी० स्वभाव परिणत ॥ २॥ सरल शब्दार्थ परिणयाय ॥ २॥ पओग परिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? गोथमा ! पंचविहा प० तंजहा-एगिदिय पओग परिणया, बइदिय पओग परिणया, जाव ६० पंचिंदिय पओग परिणयाय । एगिदिय पओग परिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता तंजहा-पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया जाव वणसइकाइय एगिंदिय पओग परिणया । पुढविकाइय एगिंदिय पओग परिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुहुम पुढत्रिकाइय एगिदिय पओग परिणयाय, बादर पुढवि काइय भावार्थ १३ स्वभाव से परिणमे सो वीस्रसा परिणत ॥ २॥ अहो भगवन् ! प्रयोग परिणत पुद्गल कितने प्रकार के F कहें ? अहो गौतम ! प्रयोग परिणत पुद्गल पांच प्रकार के कहे हैं. एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत यावत् । पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल के कितने भेद ? अहो गौतम ! Fore एकेन्द्रिय पुद्गल परिणत के पांच भेद पृथ्वीकायिक प्रयोग परिणत यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत. अहो भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल कितने प्रकार के ? अहो 17 गौतम ! दो प्रकार के सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत व बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय का पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 428 पंचमांग विवाह आठवा शतकका पहिला उद्देशा. . Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृन / - - अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी एगिदिय पओग परिणयाय । आउ काइय एगिदिय पओग परिणयावि एवं चैव ॥ एवं दुयओ भेओ जाव वणस्सइ काइय एगिदिय पओग परिणया ॥ बेइंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा, गोयमा ! अणेगविहा पण्णत्ता, एवं तेइंदिय पओग परिणया, चरिंदिय पओग परिणयावि, ॥ पंचिंदिय पओग परिणयाणं भंते! पुच्छा, गोयमा ! चउविहा पण्णत्ता, तंजहा-नेरइय पंचिंदिय पओग परिणया, तिरिक्ख पंचिंदिय पओग परिणया, एवं मणुस्सदेव पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ नेरइय पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा? गोयमा! सत्तविहा पण्णत्तातंजहा-रयणप्पभा पुढवि नेरइय पंचिंदिय पओग परिणयाय जाव अहे सत्तम पुढवि नेरइय पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! तिविहा प० तं. प्रयोग परिणत. ऐसे ही अप्काय, तेउकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय के दो २ भेद जानना. अहो, भगवन् ! द्वीन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल कितने प्रकार के ? अहो गौतम ! अनेक प्रकार के ऐसे ही तीइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का जानना. पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल के चार भेद नारकी पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत, तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत, मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत व देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. उन में से नारकी पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के सात भेद रत्नमभापृथ्वी के नारकी पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत . * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ * Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र जलचर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पओग परिणया, थलचर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पओग परिणया, खहयर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पओग परिणयाय ॥ जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुबिहा प० तं ० - सम्मुच्छिम जलचर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पअंग परिणयाय, गब्भवक्कंतिय जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय पओग परिणयाय । थलयर तिरिक्ख पंचिदिय पओग परिणयाणं, पुच्छा ? गोयमा ! दुबिहा प० तं चउप्पय थलयर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय पओग परिणयाय, परिसप्पथलयर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय पओग परिणयाय ॥ चउप्पय थलयर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा सम्मुच्छिम चउप्पय थलयर तिरिक्ख यावत् तमतम पृथ्वी के नारकी प्रयोग परिणत पुद्गल तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गल के तीन भेद ९ जलचर तिर्येच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत २ स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत व ३ खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के दो भेद संमूच्छिम व उत्पन्न होनेवाले जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. स्थलचर तिर्यंच प्रयोग परिणत पुद्गल के चतुष्पद व परिसर्प तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत उन में से चतुष्पद के दो भेद संमूच्छिम व गर्भज गर्भ में भेद. ० आठवा शतकका पहिला उद्देशा ९१३ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि : जोणिय पंचिदिय पओग परिणया,गब्भवतिय चउप्पय थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाय, एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--उरपरिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाय, भुयपरिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ उरपरिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणया दविहा ५० तं० सम्मुच्छिम उरपरिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणया, गन्भवक्कंतिय उरपरिसप्प थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ एवं भयपरिसप्पथलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि ॥ एवं खहयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय प्रओग परिणयावि ॥ मणुस्स पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा सम्मुच्छिम मणुस्स पंचिंदिय पओग चतुष्पद स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. परिस नियंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के दो भेद. उरपरिसर्प अजगरादि व सुजारि नकुलादि. उर परेसर्प व भुन परिसर्प स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के संमछिन व नर्भज ऐसे दो २ भेद होते हैं. ऐसे ही खेचर का जानना. मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के दो भेद समूच्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत व गर्भज मनुष्य पंचेद्रिय प्रयोग * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादनी, भावार्थ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 पंचमाङ्ग विवाद पण्णत्ते ( भगवती ) सूत्र 4848 आठवा शतक का पहिला उद्देशा परिणया गब्भवतिय मणुस्स पंचिंदिय पओग परिणया ॥ देव पंचिदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! चउन्विहा पण्णत्ता, तंजहाभवणवासीदेव पंचिदिय पओग परिणया एवं जाव वेमाणिय देव पंचिंदिय पओगपरिणा ॥ भवणवासी देवपंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा - असुरकुमार देव पंचिंदिय पओग परिणया, जाव थणियकुमार देव पंचिदिय पओगपरिणया | एवं एएणं अभिलावेणं अट्ठविहा वाणमंतरदेव पंचिंदिय पओगपरिणया, पिसाय देव पंचिदिय पओगपरिणया जाब गंधव्वदेव पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ जोइसियदेव पंचिदिय पओगपरिणया पंचविहा प० तंजहा - चंदविमाण जोइसिय देव पंचिदिय पयोग परिणया जाव ताराविमाण जोइसिय देव पंचिदिय पयोग परिणया ॥ वेमाणिय देव पंचिंदिय पयोग परिणया दुविहा पण्णत्ता, परिणत. देवपंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के चार भेद भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक देव पंचेहेन्द्रिय प्रयोग परिणत भवनवासी देव दश प्रकार के १ असुरकुमार, २ नाग कुमार ३ सुवर्ण कुमार ४ विद्युत्कुमार ५ अग्नि कुमार ६ द्वीपकमार ७ उदधिकुमार ८ दिशा कुमार ९ पवन कुमार व १० स्थनित १०७ { कुमार देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत ऐसे ही वाणव्यंतर के आठ भेद १ पिशाच २ भूत ३ यक्ष ४ राक्षम ९९५ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी ga तंजहा-कप्पोववण्णग वेमाणिय देव पंचिंदिय पयोग परिणया, कप्पातीय वैमाणिय देव पंचिं__ दियपयोग परिणया । कप्पोववण्णगवेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया दुवालसविहा पण्णत्ता,तंजहा-सोहम्म कप्पोववण्णगवेमाणिय देव पंचिंदिय पओगपरिणया एवंजावअच्चु यकप्पो ववण्णग वैमाणिय देव पंचिंदिय पओगपरिणया॥कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया दुविहा प० तं. गेवेजग कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओगपरिणया, अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वैमाणिय देव पंचिीदय पयोग परिणया । गेवेज्जग कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पयोग परिणया णवविहा पण्णत्ता तंजहा- हेट्ठिम गेवेजग कप्पातीय वैमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया जाव उवरिम गेवेजग ५ किन्नर ६ किं पुरुष ७ महोरगव ८ गांधर्व, ज्योतिषी के पांच भेद चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र व तारे. वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के दो भेद १ कल्पोत्पन्न व २ कल्पातीत. कल्पोत्पन्न वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के बारह भेद कहे हैं. १ सौधर्म, २ ईशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र ५ ब्रह्मलोक ६ लंतक १७ महाशुक्र ८ सहस्रार ९ आणत १० प्राणत ११ आरण व १२ अच्युत. कल्पातीत के दो भेद अवेयक व अनुत्तरोपपातिक विमान ! इनमें से अवेयक के नव भेद हेडिम अवेयक कल्पातीत वैमानिक देव .. *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * भावार्थ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ९९७ कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया ।अणुत्तरोक्वाइय कप्पातीय वेमाणि य देव पंचिंदिय पयोग परिणयाणं भंते पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ?गोयमा ! पंचविहा प० तं. विजय अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया जाव सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोषवाइय कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ ३ ॥ सुहुम पुढवि काइय एगिदिय पओग परिणयाणं भंते ! पोग्गला कइ विहा पण्णत्ता ? दुबिहा पण्णत्ता तंजहा ( केइ अपज्जत्तगं पढमं भणंति, पच्छा पज्जत्तगं) पजत्त सुहम पुढवि काइय एगिदिय पओग परिणया अपजत्त सुहुम पुढवि काइय एगिदिय पओग परिणया । बादर पुढवि काइय एगिदिय पओग परिणयाकि एवं चेव, एवं जाव वणस्सइ काइय एगिदिय पओग परिणया ॥ एकेका दुविहा पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत यावत् उवरिम ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत. अनुत्त रोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत के पांच भेद विजय, वैजयंत जयंत, अपराजित ॐव सर्वार्थसिद्ध कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वी का 1यिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत पुद्गलों के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उस के दो भेद पर्याप्त व पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwan आठना शतकका पहिला उद्देशा*480 | 1 Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी सुहुमाय,बादराय,पजत्तगाय,अपज्जत्तगाय भाणियव्वा ।बेइंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- पजत्तग बेइंदिय पओग परिणया, अपजत्तग बेइंदिय पओग परिणयाय, एवं तेइंदिय पओग परिणयावि, एवं चरिंदिय पओग परिणयावि ॥ रयणप्पभा पुढवि गेरइय पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तग रयणप्पभा पुढवि णेरइय पंचिंदिय पओग परिणया, अपजत्तग रयणप्पभा पुढवि णेरइय पंचिंदिय पओग परिणया, एवं जाव अहे सत्तम पुढवि णेरइय पंचिंदिय पओग परिणया ॥ सम्मुच्छिम जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिं दिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-पजत्तग सम्मुच्छिम जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओगपरिणया,अपज्जत्तग सम्मुच्छिम जलयर तिरिक्ख । अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत. ऐसे ही सूक्ष्म अप्काय, तेउकाय, बाउकार व वनस्पति के दो २ भेद जानना. पांचो स्थावर के दो २ भेद सूक्ष्म व बादर उन के भी दो २ भेद पर्याप्त व अपर्याप्त. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय के दो दो भेद पर्याप्त व अपर्याप्त. रत्नममा यावत् तम-13 तमा पृथ्वी के दो भेद. पर्याप्त व अपर्याप्त रत्नप्रभा यावत् तमतमा पृथ्वी नारकी पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत.* * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी * भावार्थ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयाय एवं गब्भवतिय जलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि । संमुच्छिम चउप्पय थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि, एवं चेव ॥ एवं गन्भवतिय चउप्पय थलयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि। एवं जाव सम्मुच्छिम खहयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि गब्भवतिय खहयर तिरिक्ख जोणिय पंचिंदिय पओग परिणयावि एवं॥ एकके पजत्तगाय, अपज्जत्तगाय भाणियव्वा॥ सम्मुच्छिम मणुस्स पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तग सम्मुच्छिम मणुस्स पचिंदिय पओग परिणया अप्पज्जत्तग सम्मुच्छिम पंचिंदिय पओग परिणयोय • गन्भवतिय मणुस्स पंचिंदिय पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा पजत्तग गम्भवक्कंतिय मणुस्स पंचिंदिय पओग परिणया अपजत्सग गम्भव___ कंतिय मणुस्स पचिंदिय पओग परिणयाय ॥ असुर कुमार भवणवासीदेव पंचिंदिय ऐसे ही संमच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, गर्भजजलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, संमूञ्छिम चतुष्पद स्थलचर, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, गर्भज चतुष्पद स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय, संमूछिम उर परिसर्प, गर्भज उर परिसर्प, आठवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ 988-800 Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र १००० 02 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . पओग परिणयाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पजत्तग असुर कुमार देव पंचिंदिय पओग परिणया, अपजत्तग असुर कुमारदेव पंचिंदिय पयोग परिणयाय एवं जाव पजत्तग थणिय कुमारदेव पंचिंदिय पयोग परिणया, अपज्जत्तण थणिय कुमारदेव पंचिंदिय पआग परिणयाय, ॥ एवं एएणं अभिलावेणं दुपएणं, भेएणं पिसायाय जाव गंधव्वदेव पंचिंदिय पओग परिणयाय॥ एवं पनत्तापजत्तग चंदविमान जोइसियदेव पंचिंदिय पओग. परिणया जाव पजत्ता पज्जत्तग ताराविमानदेव पंचिंदिय पयोग परिणयाय ॥ पज्जत्तग सोहम्म कप्पोववण्णगदेव पंचिंदिय पओग परिणया, अपज्जत्तग सोहम्म कप्पोववण्णगदेव पंचिंदिय पओग परिणया ॥ एवं जाव पज्जत्ता पज्जत्तग अच्चुअकप्पोवरणगदेव पंचिंदिय पओग परिणयावि ॥ पज्जत्तगा पजत्तग हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेजग कप्पातीयदेव पंचिंदिय पओग परिणया जाव. पज्जत्ता पजत्तग समूच्छिम भुजपरिसर्प, गर्भज भुन परिर्प, संपूच्छिा खेचर द गर्भज खंजर तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सबके एक एक के पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसे दो २ भेद जानना. संपूच्छिप मनुष्य व गर्भज मनुष्य के पर्याप्त व अप ऐसे दो भेद जानना. दश भुवनपति, आउ वाणव्यंतर, पांच ज्योतिषी, बारह प्रकार के कल्पोत्पन्न । * प्रकाशक राजाबहादुर मला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 *8602 उवरिमउवरिम गेवेजग कप्पातीयदेव पंचिंदिय पओग परिणयावि ॥ एवं चेव पजत्ता पजत्तग विजय अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणियदेव पंचिंदिय पओग परिणया जाव पजत्ता पजत्तग सव्वट्ठ सिद्धाणुत्तरोववाइय कप्पातीय वैमाणियदेव पंचिंदिय पओग परिणयाय ॥ ४ ॥ जे अपज्जत्तग सुहुम पुढवि काइय एगिदियपओग परिगया ते ओरालियतेयाकम्मा सरीरप्पओग परिणया, जे पजत्त सुहुम पुढविकाइय एगिंदियप्पओग परिणया. ते ओरालिय तेया कम्मा सरीरप्पओग परिणया, एवं जाव पजत्तग चउरिदियप्पओग परिणया ॥ णवरं जे पजत्तग बादर वाउ काइय एगिदियप्पओग परिणया, ते ओरालिय वेउव्विय तेया कम्मा सरीरप्पओग परिणया सेसं तचेव । जे अपज्जत्तग रयणप्पभा पुढवि नेरइय पंचिंदिय पयोग परिणया ते भावार्थ वैमानिक व अवेयक व अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव में सर्वार्थसिद्ध पर्यंत सब के पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसे दो २ भेद जानना ॥ ४ ॥ अब तीसरा दंडक शरीर आश्रित कहते हैं. जो अपर्याप्त सूक्ष्म । पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं. वे उदारिक, तेजस व कार्माण शरीर प्रयोग परिणत हैं. और 17पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत भी उदारिक, तेजस व कार्माण शरीर प्रयोग परिणत हैं. 1. - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र आठया शतकका पहिला उद्देशा-48:07 Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उब्विय तेया कम्मा सरीर प्पओग परिणया एवं पज्जत्तम रयणप्पभा पुढवि नेरइय पंचिदिय पओग परिणयावि, एवं जाव अहे जे पजत्ता पजत्तग सत्तमा पुढवि नेरइय पंचिदियप्पओग परिणया ते वेउल्लिय तेयाकम्मा सरीर प्पओग परिणया । जे अपज्जत्तग सम्मुच्छिम जलयर पंचिदियप्पओग परिणया, ते ओरालिय तेयाकम्मा सरीरप्पओग परिणमा, एवं जे पज्जतग सम्मुच्छिम जलयर पंचिंदियप्पओग परिणया, ते ओरालिय तेयाकम्म सरीरप्पओग परिणया । एवं चैव अपज़त्तग गब्भवक्कंतिय जलयर पांचदियप्पओग परिणयावि पज्जत्तग गब्भवक्कंतियावि एवं चेव नवरं सररिगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं । एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया तहा चउप्पय उरपरिसप्प भुयपरिसप्प खहयरेसवि चत्तारि आलावगा भाणि - ऐसे ही अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत यावत् पर्याप्त चतुरेन्द्रिय प्रयोग परिणत वाले उदारिक, तेजस व कार्माण शरीर प्रयोग परिणत परंतु जो पर्याप्त बाद वायुकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं वे उदारिक, वैक्रेय, तेजस व कार्माण इन चार शरीर प्रयोग परिणत हैं, इतना विशेष जानना. सातों नरक के नारकी के पर्याप्त अपर्याप्त में वैक्रेय तेजस व कार्माण ये तीन शरीर कहना अप * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १००२ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.9 442 १०.३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र यव्वा ॥ जे सम्मुच्छिम मणुस्स पंचिंदियप्पओग परिणया, ते ओरालय तेया कम्म सरीरप्पओग परिणया, एवं गब्भवक्कंतियावि अपज्जत्तगा ॥ पज्जत्तगावि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंचभाणियव्वाणि ॥जे अपजत्ता असुर कुमार भवणवासीदेव पंचिंदिय पओग परिणया जहा णेरइय पंचिंदिय पओग परिणयावि, तहेव एवं पजत्तावि, एवं दुपएणं भेएणं जाव थणिय कुमार भवणवासीदेव पंचिंदिय पओग परिणया ॥ एवं पिसायदेव पंचिंदिय पओग परिणया जाव गंधव्वदेव पंचिंदिय पओग परिणया । चंदविमान जोइसिय देव पंचिंदियपओगपरिणयाजावताराविमाण जोइसिय देव पंचिंदिय पओग परिणया, एवं सोहम्मकप्पोववण्णग वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया जाव मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत, पर्याप्त संमूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय प्रयोग परिणत, व अपर्याप्त गर्भन नलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में तीन शरीर व पर्याप्त गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उदा-og रिक, वैक्रेय तेजस व कार्माण ऐसे चार शरीर जानना. जैसे जलचर के चार आलापक कहें वैसे ही चतु-XI पद उरपरिसर्प. भुजपरिसर्प, खेचर में चार २ आलापक जानना. संमूछिम मनुष्य में व अपर्याप्त गर्भज मनुष्य में उदारिक, तेजस व कार्माण ऐसे तीन शरीर और पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय में । आठवा शतकका पाइला उद्देशाgi.p - भावार्थ 100 Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी अच्चुअकप्पोबवण्णग वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया ॥ एवं हेडिमगेवेज्जग - कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया जाव उवरिम गेवेजग कप्पातीय वेमाणिय देव पचिंदिय पओग परिणया ॥ एवं विजय अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया जाव सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय . वेमाणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया, एकेके दुयभेया भाणियव्वा ॥ जाव जेयपजत्ता सब्बट्टसिद्ध अणुत्तरोरवाइय कप्पातीय माणिय देव पंचिंदिय पओग परिणया ते वेउब्धिय तेया कम्मासरीर पओग परिणया दंडओ ॥ ५ ॥ जे अपजत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया ते फासिंदिय पओग परिणया । जे पजत्ता । उदारिक, वैक्रेय, आहारक, तेनस व कार्माण ऐसे पांचों शरीर जानना. भुवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक में सर्वार्थ सिद्ध पर्यंत पर्याप्त व अपर्याप्त में वैकेय तेजस व कार्माण एसे तीन शरीर पाते हैं. यह शरीर का तीसरा दंडक हुवा ॥ ५ ॥ अब इन्द्रियों आश्रित चतुर्थ दंडक कहते हैं. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत है वे स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. ऐसे ही पर्याप्त मूक्ष्म पृथ्वीकाय, अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय का जानना, पृथ्वीकाय में जैसे चार भांगे कहे, *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * भावार्थ । Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 सुहुम पुढवि काइय एगिदिय पओग परिणया एवं चेव जे अपजत्ता बादर पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया एवं चेव, एवं पजत्तगावि, एवं चउक्कभेएणं जाव वणस्सइ काइय एगिदिय पओग परिणया । जे अपजत्ता बेइंदिय पओग परिणया ते जिभिदिय फासिदिय पओग परिणया, जे पजत्ता बेइंदिय पओगपरिणया। एवं चेव एवं जाव चउरिंदिय पओग परिणया नवरं एककं इंदियं वड्डेयव्वं ॥ जे अपजत्ता रयणप्पभा पुढवि नेरइय पंचिंदिय पओग परिणया ते साइंदिय चक्खिदिय घाणिंदिय जिभिदिय फासिदिय पओग परिण या ॥ एवं पज्जत्तगावि एवं सव्वे भाणियन्वा ॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय पओग परिणया। मणुस्स पंचिंदिय पओग . वैसे ही अप्काय, तेउकाय वाउकाय व वनस्पतिकाय में जानना. पर्याप्त व अपर्याप्त बेइन्द्रिय रसनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. पर्याप्त व अपर्याप्त तेइन्द्रिय घाण, रसना व स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. ० पर्याप्त व अपर्याप्त चतुरेन्द्रिय चक्षु, घ्राण, रसना व स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. सातों नरक के नारकी, | संमच्छिम व गर्भज जलचर, चतुष्पद स्थलचर, उरपरिसर्प व भुजपरिसर्प स्थलचर, खेचर व मनुष्य के पर्याप्त व अपर्याप्त वैसे ही दश भुवनपति, आठ वाणव्यंतर, पांच ज्योतिषी, वैमानिक में सर्वार्थ सिद्ध तक। ११403 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र १ आठवां शतकका पहिला उद्देशा gost भावार्थ Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुाने श्री अमोलक ऋषिजी परिणया । देव पचिदिय पओग परिणया, जाव सव्वसिद्ध अणुत्तरोक्वाइय कप्पातीय वैमाणि देव पंचिंदिय पओग परिणया ॥ ६ ॥ जे अपज्जत्ता सुहुम पुढवि काइय एगिंदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया, ते फासिंदिय पओग परिणया, जेपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिंदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया एवं चेव । अपज्जत्त बादर पुढविकाइय एगिंदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया एवं चेव । एवं पज्जत्तगावि, एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जइ इंदियाणि सरीराणिग ताणि भाणियव्वाणि, जाव जे अपजत्ता सन्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइय {के पर्याप्त व अपर्याप्त में पांच इन्द्रियों परिणत हैं ॥ ६ ॥ औदारिकादि शरीर में इन्द्रियादि भेद से पांचवा {दंडक कहते हैं. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक, तेजस, कार्माण शरीर प्रयोग {परिणत हैं वे स्वर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं. जो पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय उदारिक, तेजम, कार्माण { शरीर प्रयोग परिणत हैं वे भी स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. ऐसे ही अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय व पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकादि शरीर स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं. इस प्रकार उक्त कथनानुसार जिस स्थान जितने शरीर व जीतनी २ इन्द्रियों होवें वैसे कहना, यावत् अनुत्तर विमान में * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १००१ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पत्र + कप्पातीय बेमाणिय देव पंचिंदिय वेउव्विय तेयाकम्मा सरीरपओगपरिणया ते सोइंदिय चक्खिदिय घाणिदिय जिभिदिय फासिदिय पओग परिणया ॥ ७ ॥ जे अपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया तेवण्णओ कालवण्ण परिणया, णीलवण्णपरिणया, लोहियवण्ण परिणया, हालिदवण्णपरिणया, सुकिल्लवण्ण परिणया ___वि ॥ गंधओ-सुब्भि गंधपरिणया, दुभि गंधपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि; कडुयरस परिणयावि, कसायरसपरिणयावि अंबिलरस परिणपावि महुररसपरिणयावि ॥ फासओ कक्खड फासपरिणयावि, जाव लुक्ख फासपरिणयावि ॥ सठाणओ परिमंभावार्थ । सर्वार्थ सिद्ध कल्पातीत वैमानिक पंचेन्द्रिय देव वैक्रेय तेजस व कार्माण शरीरवाले हैं वे श्रोतेन्द्रिय,चक्षुइन्द्रिय गेन्द्रिय, जिव्हन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं. यह पांचवा दंडक हुवा ॥ ७॥ अब वर्ण, गंध रस. स्पर्श व संठाण का दंडक कहते हैं. जो अपर्याप्त मूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं वे वर्ण से श्याम, नील, रक्त, पीत व श्वेत वर्ण प्रयोग परिणत हैं, गंध से सुरभिगंध दुर्गंधप्रयोग परिणत हैं, रस से तिक्त, कटुक, कषाय, अंबिल व मधुररस परिणत हैं, स्पर्श से कर्कश, कोमल, शीत, ऊष्ण, गुरु, 1 लघु स्निग्ध व रूक्ष परिणत हैं और संस्थान से परिमंडल, वर्तुल, त्र्यंत, चौरंस व लम्बगोल परिणत हैं. १३४ पण्णत्ति (भगवती) सूत्र पंचभाङ्ग विवाह आठवा शतक का पहिला उद्देशा 6 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००८ १.१ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक अपिजी डल संठाणपरिणयावि, व-तंस-चउरंस-आयत संठाण परिणयावि ॥ जेपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय पओग परिणया एवं चेव जहाणुपुब्बीए णेयव्वं, जाव जे पज्जत्तासम्बट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय बेमाणिय. देव पंचिंदिय पओग परिणया तेवण्णओ, कालवण्ण परिणयावि जाव आयतसंठाण परिणयावि ॥ ८ ॥ जे अपज्जत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणयावि, जाव आयतसंठाण परिणयावि, जे पजत्ता सुहुम पुढविकाइय एगिदिय ओरालिय तेयाकम्मा सरीर पओग परिणया. एवं चेव ॥ जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक एकेन्द्रिय का कथन किया वैसे ही पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक यावत् अनुक्रम से सर्वार्थ सिद्ध तक कहना. पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वर्ण से श्याम परिणत यावत् संस्थानसे लम्बगोल परिणत है. ॥ ८ ॥ अब उदारिक शरीर आश्रित वर्णादिक का कथन करनेका सातवा दंडक कहते हैं. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक तेजस कार्माण शरीर प्रयोग परिणत हैं वे वर्णसे श्यामवर्ण यावत् संस्थानसे लम्बगोल, संस्थान वाले हैं. ऐसे ही पर्याप्त सूक्ष्म पुथ्वी कायिक एकेन्द्रिय उदारिक तेजस व कार्माण शरीर प्रयोग * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3%88% एवं जहाणुपुब्बीए जस्स जइसरीराणि जात्र जे पजत्ता सव्व? सिद्ध अणुत्तरोववाइप कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय वेउन्विय तेयाकम्मा सरीरपओग परिणया तेवण्णओ कालवण्णपरिणयावि जाव आयत संठाण परिणयावि ॥१॥ जे अपजत्ता सुहुम पुढवि काइय एगिदिय फासिंदिय पओग परिणया ते वण्णओ काल वण्ण परिणया जाव आयत संठाणपरिणयावि॥ जे पज्जत्ता सुहम पुढवि काइय एगिदिय फासिंदिय पओग परिणया एवं चत्र, एवं जहाणुपुवीए जस्स जइ इंदियाणि तस्स तत्तियाणि भाणियव्वाणि जाव जे पजत्ता सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय सोइंदिय जाव फासिंदिय पओग परिणया तेवण्णओ काल वण्ण परिणयावि जाव आयत संठाण परिणयावि ॥ १० ॥ जे अपज्जत्ता सुहुम पुढवि काइय एगिदिय भावार्थ जानना. ऐसे ही अनुक्रम से जिनके जितने शरीर हैं उन को उतने शरीर ग्रहण कर जो सर्वार्थसिद्ध विमान org क्रेय तेजस कार्माण शरीर परिणत हैं वे श्यामवर्ण यावत् लम्बगोल संस्थान परिणत है. ॥९॥ 3जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक एकेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं वे वर्णसे श्यामवर्ण यावत् संस्थान से लम्बगोल संस्थान परिणत हैं. ऐसे ही अनुक्रम से सर्वार्थ सिद्ध विमान पर्यंत जिन को जितनी पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगः ती) मूत्र A8 आठवा शतकका पहिला उद्देशा - Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 800 ओरालिय तेया कम्मा सरीर फासिदिय पओग परिणया ते वण्णओ काल वण्ण परिणया जाव आयत संठाण परिणया । जे पज्जत्ता सुहुम पुढवि काइय एगिदिय ओरलिय तेया कम्मा सरीर फासिंदिय पओग परिणया एवं चेव, एवं जहाणुपुबीए जस्स जइसरीराणि इंदियाणि य तस्स तत्तियाणि भाणियव्वाणि जाव जे पजत्ता सव्व ट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणिय देव पंचिंदिय वेउन्वियतेया कम्मा सरीर सोइंदिय जाव फासिंदिय पओग परिणया ते वण्णओ काल वण्ण परिणया जाव आ यत संठाण परिणयावि एए णव दंडगा ॥ ११ ॥ मीसा परिणयाणं भंते ! पोग्गला इन्द्रियों होवे उतनी लेकर वर्णादि पच्चीस बोल ग्रहण करना ॥ १० ॥ जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक, वैक्रेय, तेजस व कार्माण शरीर स्पर्शेन्द्रिय परिणत हैं वे श्याम वर्ण यावत् लम्बगोल संस्थान परिणत हैं. ऐसे ही सर्वार्थ सिद्ध विमान तक जिन को जितनी इन्द्रियों व शरीर हैं उन को उतनी इन्द्रियों व शरीर कहना. जो सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय, वैक्रय, तेजस कार्माण श्रोतेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय परिणत हैं वे वर्ण से श्याम वर्ण परिणत यावत् संस्थान से मालम्बगोल संस्थान परिणत हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! मीश्र परिणत पुद्गल के कितने भेद कहे हैं । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- एगिंदिय मीसा परिणया जाव पंचिदिय मीसा परिणया, एगिंदिय मीसा परिणयाणं भंते! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? एवं जहा पओग परिणएहिं नव दंडगा भणिया, एवं मीसा परिणएर्हिवि नव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं, निरवसेसं, नवरं अभिलावो मीसा परिणया भाणियव्वो, सेसं तं चैव जाव जे पज्जत्ता सव्व सिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव आयत संठाण परिणया ॥ १२ ॥ वीससा परिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? गोमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तेजहा वण्ण परिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फास परिणया, संठाण परिणया, जे वण्ण परिणया ते पंचविहा प० तं कालवण्ण परि अहो गौतम ! मीश्र परिणत पुद्गल के पांच भेद कहे हैं. एकेन्द्रिय मीश्र परिणत पुद्गल यावत् पंचेन्द्रिय { मीश्र परिणत पुद्गल जैसे प्रयोग परिणत के नव दंडक कहे वैसे ही मीश्र परिणत के नत्र दंडक जानना. इस में प्रयोग परिणत के स्थान मीश्र परिणत कहता ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! स्वभाव परिणत पुद्गल के ॐ कितने भेद हैं ? अहो गौतम ! स्वभाव परिणत पुद्गल के पांच भेद कहे हैं. वर्ण परिणत, गंध परिणत | रस परिणत, स्पर्श परिणत, व संस्थान परिणत. इन में वर्ण परिणत के पांच भेद श्याम वर्ण परिणत २०००- पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4000 4. आठवा शतकका पहिला उद्देशा १०११ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - या जाव सुक्किलवण परिणया, गंधपरिणया ते दुबिहा पण्णत्ता, तं० सुगंध परिणया, दुग्गंध परिणयावि, एवं जहा पण्णवणापए तहेव निरवसेसं जाव संठाणओ आयत संठाण परिणया से वण्णओ, कालवण्ण परिणयावि जाव लुक्ख फास परि या ॥ १३ ॥ एगे भंते ! दव्ये किं पयोग परिणए, मीसापरिणए, वीससा परिणए ? गोयमा ! ओग परिणएवा, मीसा परिणएवा, वीससा परिणएवा ॥ जइ पओग परिणए किं मणपओग परिणए, वइपओग परिणए, कायपओग परिणए ? गोयमा ! मणप्पओग परिणएवा, वयपओग परिणएवा, कायप्पओग परि यावत् शुक्ल वर्ण परिणत. गंध परिणत के दो भेद सुरभिगंध व दुरभिगंध परिणत. रस परिणत पांच प्रकार के तिक्त परिणत यावत् मधुर रस परिणत. स्पर्श परिणत के आठ भेद कर्कश स्पर्श परिणत ( यावत् रूक्ष स्पर्श परिणत. संठाण के पांच भेद समचतुस्वसंस्थान परिणत यावत् आयत संस्थान परिणत ( वगैरह सब अधिकार लम्बगोल संस्थान परिणत, वर्ण से श्याम वर्ण यावत् रूक्ष स्पर्श परिणततक पनवणा सूत्रानुसार जानना || १३ || अब एक पुद्गल द्रव्य परिणत आश्री प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या एक द्रव्य प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत व स्वभाव परिणत है ? अहो गौतम ! एक पुल प्रयोग * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १०१२ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती ) सत्र 40880 onrmananwww णएवा ॥ जइमणप्पओग परिणए किं सच्चमणप्पओग परिणए, मोसमणप्पओग परिणए सच्चामोसमणप्पओग परिणए,असच्चामोसमणप्पओग परिणए ?गोयमा ! सच्चमणप्पओग परिणएवा,मोसमणप्पओग परिणएवा,सच्चामोसमण पओग परिणएवा,॥ असच्चामोसमण पआग परिणएवा जइसच्चमणप्पओग परिणए किं आरंभ सच्चमणप्पओग परिणए,अणारंभ सच्चमणप्पओग परिणए,सारंभ सच्चमणप्पओग परिणए,असारंभ सच्चमणप्पओग परिणए, समारंभ सच्चमण पओग परिणए, असमारंभ सच्चमणप्पओग परिणए, ? गोयमा ! आरंभ सच्चमणप्पओग परिणएवा जाव असमारंभ सच्चमणप्पओग परिणएवा ॥ जइ परिणत, मीश्र परिणत व वीससा परिणत है. अहो भगवन् ! जो प्रयोग परिणत है वह क्या मन प्रयोग परिणत है, वचन प्रयोग परिणत है व काय प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! मन, बचन व काय ऐसे तीनों प्रयोग परिणत हैं. अहो भगवन् ! यदि एक पुद्गल द्रव्य मन प्रयोग परिणत है तो क्या वह सत्य मन, असत्य मन, सत्यासत्य मन व व्यवहार मन प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! सत्य, असत्य, सत्यासत्य व व्यवहार मन प्रयोग परिणत है. यदि सत्य मन प्रयोग परिणत है तो क्या वह आरंभ सत्य मन प्रयोग परिणत, अनारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत, सारंभ सत्य मन प्रयोग परिगत असारंभ सस मन 82420 आठवा शतक का पाहला उद्दशा भावार्थ । Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 27 मोसमणप्पओग परिणए किं आरंभ मोसमणप्पओग परिणएवा, एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेणंवि, एवं सच्चामोसेणंवि एवं असच्चामोसमणप्पओगेवि ॥ जइ वइप्पओग परिणए किं सच्चवइप्पओग परिणए, मोसवइप्पओग परिणए एवं जहामणप्पओग परिणए तहा वइप्पओग परिणएवि, जाव असमारंभ वइप्पओग परिणएवा ॥ जइ कायप्पओग परिणए किं ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणए, ओरालिय मीसा सरीर कायप्पओग परिणए, वेउब्विय सरीर कायप्पओग परिणए, वेउब्वियमासा सरीर कायप्पओग परिणए, आहारग सरीर कायप्पओग परिणए, आहारगमीसा प्रयोग परिणत, समारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत व असमारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! आरंभ अनारंभ, सारंभ, असारंभ, समारंभ, असमारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत है. जैसे सत्य मन प्रयोग परिणत का कहा वैसे ही मृषा मन प्रयोग परिणत, मीश्र मन प्रयोग परिणत व व्यवहार मन प्रयोग परि णत का जानना. जैसे मन प्रयोग परिणत का कहा वैसे ही वचन प्रयोग परिणत का असमारंभ वचन प्रयोग परिणत तक का जानना. यदि काय प्रयोगपने परिणमे तो क्या उदारिक शरीर काय प्रयोगपने परिणमे, उदारिक मीश्र शरीर काय प्रयोगपने परिणमे, वैक्रेय शरीर काय प्रयोगपने परिणमे, वैक्रेय मीश्र * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन सरीर कायप्पओग परिणए, कम्मा सरीर कायप्पओग परिणए ? गोयमा ! ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणएवा जाव कम्मा सरीर पओग परिणएवा, ॥ जइ ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणए किं एगिदिय ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणए एवं जाव पंचिंदिय ओरालिय जाव परिणए ? गोयमा ! एगिदिय ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणएवा, वेइंदिय जाव परिणएवा, जाव पंचिंदिय जाव परिणएवा ॥ जइ एगिदिय ओरालय सरीर काय प्पओग परिणए किं पुढविकाइय एगिदिय जाव परिणएवा जाव वणस्सइ काइय एगिदिय ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणए ? गोयमा ! पुढ विकाइय एगिदिय जाव वणस्सइकाइय एगिदिय जाव परिणएवा । जइ पुढवि काइय भावार्थ शरीर काय प्रयोगपने परिणमे,आहारक शरीर काय प्रयोगपने परिणमे,आहारक मीश्र शरीर काय प्रयोगपने 11 परिणमे, अथवा कार्माण शरीर काय प्रयोगए परिणमे ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर काय प्रयोगपने यावत् कार्माण शरीर काय प्रयोगपने परिणमे. यदि उदारिक शरीर काय प्रयोगपने परिणमे तो क्या | al० एकेन्द्रिय यावत् पेचेन्द्रिय उदारिक शरीर काय प्रयोग परिणत होवे ? अहो गौतम! एकेन्द्रिय यावत् । पंचेन्द्रिय उदारिक शरीर काय प्रयोग परिणत हैं. यदि एकेन्द्रिय काय प्रयोग परिणत हैं तो क्या पृथ्वी 980- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 800 4.28-80% आठवा शतकका पहिला उद्देशा884882 - Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 9 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गिदिय ओरालिय सरीर जाव परिणए, किं सुहुम पुढवि काइय जाव परिणए, बादर ढकाइ एगंदि जाव परिणए ? गोयमा ! सुहुम पुढवि काइय एगिंदिय जात्र परिणवा, बादर पुढ काइय जाव परिणएवा || जइ सुहुम पुढवि काइय जाव परिणए किं पत्त हुम पुढवि काइय जात्र परिणए || अपज्जत सुहुम पुढवि काइय जाव परिणए गोयमा ! पज्जत्ता सुहुम पुढवि काइय जाव परिणएवा, अपजत्ता सुहुम पुढवि काइय जाव परिणए एवं बादरावि एवं जाव बणस्सइ काइयाणं, चउक्कभेदो, इंदिय इंदिय चउरिंदियाणं दुयओ भेदो, पज्जत्तगा अपज्जत्तगाय जइ पंचिंदिय ओरालिय कायप्पओग परिणए किं तिरिक्ख जोणिय पंचिदिय ओरालिय सरीर कायिक यावत् वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! पृथ्वीका - { {यिक यात्रत् वनस्पतिकायिक उदारिक शरीर प्रयोग परिणत है. यदि पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग परिणत है तो क्या सूक्ष्म अथवा बादर प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! दोनों परिणत है. यदि सूक्ष्म परिणत है तो क्या पर्याप्त या अपर्याप्त प्रयोग परिणत है ? पर्याप्त प्रयोग परिणत व अपर्याप्त प्रयोग परिणत है. ऐसे ही बादर पृथ्वीकायां का जानना. ऐसे ही वन सूक्ष्म व बादर अहो गौतम ! * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १०१६ Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PER A8 १०१७ कायप्पओग परिणए, मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए? गोयमा! तिरिक्ख जोणिय जाव परिणए मणुस्स पंचिंदियजाव परिणए।जइ तिरिक्ख जोणिय जाव परिणए किं जलचर तिरिक्ख जोणिय जाव परिणए, थलचर खहयर जाव परिणए ? एवं चउक्कभेदो जाव खहयराणं||जइ मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए किं सम्मच्छिममणुस्स पंचिंदिय जाव परिणए गब्भवतिय मणुस्स जाव परिणए ? गोयमा ! दोसुवि ॥ जइगब्भवतिय मणुस्स जाव परिणए किं पजत्तग गन्भवतिय जाव परिणए अपजत्तग गम्भवकंतिय जाव मा ! पज्जत्तग गब्भवतिय जाव परिणएवा, अपज्जत्तग गब्भवकंतिय जाव परिणएवा ॥ १४ ॥ जइ ओरालियमीसा सरीर कायप्पओग परिणए किं एगिभावार्थ: स्पतिकाय तक में चार २ भेद जानना. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे दो २ भेद जानना, यदि पंचेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग परिणत है तो क्या तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य उदारिक शरीर काय प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य दोनों प्रयोग परिणत है । है. तिर्यंच पंचेन्द्रिय में क्या जलचर, स्थलचर व खेचर परिणत है ? अहो गौतम ! उन सब में संमूछि व गर्भज पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे चार २ भेद जानना. मनुष्य में भी संमूच्छिम, गर्भज के पर्याप्त व अपर्याप्त है। पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती).सूत्र 4234 साना सवक का पहिला 8 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी दिय ओरालिय मीसा सरीर कायप्पओग परिणए, बेइंदिय जाव परिणए जाव पांचदिय ओरालिय जाब परिणए ? गोयमा ! एगिंदिय ओरालिय जाव परिणए, एवं जहा ओरालिय सरीर कायप्पओग परिणएणं आलावगो भणिओ, तहा ओरालिय मीसा सरीर कायप्पओग परिणएवि, आलावगो भाणियव्यो || नवरं बादर वाउकाइय गष्भवक्कतिय पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय गव्भवतिय मणुस्साणय एएसिं पज्जत्तापजत्तगाणं सेसाणं अपजतगाणं ॥ १५ ॥ जइ वेउव्विय सरीर कायप्पओग परिणए किं एगिंदिय उब्विय सरीर जाव परिणए पंचिंदिय वेउब्विय सरीर जाव परिणए ? ऐसे चार भेद जानना || १४ || यदि उदारिक मीश्र शरीर काय प्रयोग परिणत है तो क्या एकेन्द्रिय उदारिक यावत् पंचेन्द्रिय उदारिक मीश्र शरीर काय प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! जैसे उदारिक शरीर का कहा वैसे ही उदारिक मीश्र शरीर काय प्रयोग का जानना. मात्र बादर वायु काय और गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय व गर्भज मनुष्य के पर्याप्त अपर्याप्त दोनों में जानना और शेष सब अपर्याप्त में उदारिक मीश्र शरीर जानना ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! यदि वैक्रेय शरीर काय प्रयोग परिणत है तो क्या एकेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय वैक्रेय शरीर परिणत हैं ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय परिणत है. यदि एके * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १०१८ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8288 गोयमा ! एगैदियं जाव परिणएवा पांचंदिय जाव परिणएवा ॥ जइ एगदिय जाव परिणए किं वाउकाइय एगिदिय जाव परिणए अहवा अवाउ काइय एगिदिय: जाव परिणए ? गोयमा ! वाउकाइय एगिदिय जाव परिणए, १०१९ नो अबाउ काइय जावः परिणए, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणा संठाण वेउब्विय सरीरं भणियं तहा इह भणियव्वं जाव पज्जत्ता सव्व सिद्ध अणुत्तरोवाइय कप्पातीय वैमाणियदेव पंचिंदिय वेउब्धिय सरीर काय प्पओग परिणएवा, अपजत्ता सव्व? सिद्ध अणुत्तरोक्वाइय जाव परिणए ॥ १६ ॥ जइ वेउब्विय मीसा सरीर कायप्पओग परिणए किं एगिदिय मीसा सरीर जाव भावार्थ केन्द्रिय प्रयोग परिणत है तो क्या वायु काय परिणत है या वायुकाय सिवाय अन्य काय प्रयोग परिणत है ?m अहो गौतम ! वायुकाय एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत है. इसी आलापकसे पन्नवणा सूत्रके इक्कीसवे पदमें अवगाहना, संस्थान कहा वैसे ही यहां कहना. यावत् पर्याप्त अपर्याप्त सिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत * वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रेय शरीर प्रयोग परिणत है. ॥ १६ ॥ जैसे वैक्रेय शरीर का कहा वैसे ही है। वैकेय मीश्र शरीर का जानना. परंतु इस में देव नारकी के अपर्याप्ता में वैक्रेय मीश्र शरीर हैं और पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 128 आठवा शतकका पहिला उद्देशा 981980 Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी परिणए जाव पंचिदियं मीसा सरीर जाव परिणए, एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउन्त्रिय मीसगंपि ॥ णवरं देव नेरइयाणं अपज्जत्तगाणं सेसाणं पजत्तगाणं तहेव जाव नो पजत्ता सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोक्वाइथ जाव परिणए, अपजत्ता सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोवाइयदेव पंचिदिय उत्रिय मीसा सरीर कायप्पओग परिणए ॥ १७ ॥ जइ आहारग सरीर कायप्पओग पारणए किं मणुस्साहारंग सरीर कायप्पआग परिणए, अमणुस्साहारग जाव परिणए, एवं जहा ओगाहण संठाणे जाव इड्डिपत्त पमत्त संजय सम्मदिट्ठि पज्जत्ता संखेज्जवासाउय जाव परिणए, नो अणिड्डिपत्ता जाव परिणए जइ आहारग मीसा सरीर कायप्पओग परिणए किं मणुस्स आहारंग मीसा सरीर जाव परिणए ? एवं जहा आहारगं तहेव मीसगंपि निरवसेसं भाणियव्वं ॥ १८ ॥ { अन्य सब के पर्याप्ता में वैक्रेय मीश्र शरीर है. ॥ १७ ॥ यदि आहारक शरीर काय प्रयोग परिणत है तो क्या मनुष्य आहारक शरीर काय प्रयोग परिणत है, या मनुष्य सिवाय अन्य आहारक शरीर काय मयोग परिणत है ? अहो गौतम ! यह शरीर संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले पर्याप्त सम्यग्रदृष्टि, प्रमत संयति और ऋद्धिवंत पुरुष को होता है. इनगुनोंसे विपरीत गुणों वाले को नहीं होता है. आहारक शरीर जैसे * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १०२० Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र जइ कम्मा सरीर कायप्पओग परिणए किं एगिदिय कम्मा सरीर कायप्पओग प० जाव पंचिंदिय कम्मा सरीर जाव परिणए ? गोयमा ! एगिदिय कम्मा सरीर जाव परिणए एवं जहा ओगाहण संठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इहवि जाव पजत्ता सबट्ठसिद्ध अणुत्तरोंववाइय जाव देव पंचिंदिय कम्मा सरीर कायप्पओग परिणएवा, अपजत्ता सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव परिणएवा ॥ १९ ॥ जइ मीसापरिणए किं मणमीसा परिणए, वयमीसा परिणए, कायमीसा परिणए? गोयमा! मणमीसा परिणएवा,वयमीसा परिणएवा कायमसिा परिणएवा।। जइ मणमीसा परिणएवा किं सच्चमणमीसा परिणए मोसमणमीसा परिणएवा जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणएवि भाणियव्वं निरवसेसं जाव पज्जत्तासव्वसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव देव पंचिंदिय कम्मासरीरमीसा आहारक जानना. ॥ १८ ॥ यदि कार्माण शरीर काय प्रयोग परिणत है तो एकेन्द्रिय कार्माण शरीर काय प्रयोग परिणत है यावत् पंचेन्द्रिय कार्माण शरीर काय प्रयोग परिणत है. ऐभे ही अवगाहना, संस्थान वगैरह सबका जानना ॥ ११ ॥ अब मीश्र पुद्गल का कथन करते हैं. यदि मीश्र परिणत पुद्गल हैं। यो कथा मन वचा व काय मीश्र पारणा है ? अहो गौतम ! जैसे प्रयोग परिणत का कहा वैसे ही निर-01 48808. आठवां शतकका पहिला उद्देशा 9430 भावार्थ 4.98 Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२२ १. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी परिणएवा, अपजत्ता सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय जाव कम्म सरीर मीसापरिणएवा ॥ २०॥ जइ वीससा परिणए किं वण्ण परिणए, गधपरिणए, रसपरिणए, फासपरिणए, संठाणपरिणए ? गोयमा ! वण्णपरि गएवा जाव सठाणपारणएवा ॥ जइ वण्णपरिणए कि कालवण्णपरिणए नीलवण्ण जाव सुकिल्लवण्णपरिणए ? गोयमा ! कालवण्णपरिणएवा जाव सुकिल्लवण्णपरिणएवा । जइ गंधपरिणए किं सुब्भिगंध परिणए दुब्भिगंध परिणए ? गोयमा ! सुब्भिगंधपरिणएवा, दुब्भिगंधपरिणएवा ॥ जइ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए पुच्छा ? गोयमा ! तित्तरस परिणए जाव महुररस परिणएवा ॥ जइ फासपरिणए कि कक्खड फासपरिणए जाव लुक्खफास परिणए ? गोयमा ! कक्खड फासपरिणएवा जाव लुक्खफास परिणएवा, ॥ जइ संठाणपरि णए पुच्छा ? गोयमा ! परिमंडल संठाण परिणए जाव आययसंठाण परिणएवा ॥ विशेष मीश्र परिणत का जानना ॥ २० ॥ यादि वीससा [ स्वभाव ] परिणत है तो क्या वर्ण, गंध, रस, स्पर्श व संठाण परिणत है? अहो गौतम! वर्ण परिणत यावत संठाण परिणत है. वर्ण में पांचों वणे परिणत, गंध में दोनों गंध, रस में पांचों रस, स्पर्श में आठों स्पर्श और संठाण में पांचों संठाण परिणत प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 488 ॥ २१ ॥ दो भंते ! दव्वा किं पओग परिणया, मीसापरिणया, वीससा परिणया ? गोयमा ! पओगपरिणयावा, मीसापरिणयावा, वीससा परिणयावा अहवा एगे पओग परिणए, एगे मीसापरिणए, अहवा एगे पओगपरिणए एगे वीससा परिणए, अहवा एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए ॥ जइ पओग परिणया किं मणपओग परिणया, वयप्पओग परिणया, कायप्पओग परिणया ? गोयमा ! मणप्पओग परिणयावा, वयप्पओगपरिणयावा, कायपओगपरिणयावा ॥ अहवा एगे मणप्पओगपरिणए एगे वयप्पओगपरिणए, अहवा एगे मणप्पओगपरिणए, एगे कायप्पओगपरिणए, अहवा- एगे वयप्पओगपरिणए, एगे कायप्पओगपरिणए ॥ जइ मणप्पओगपरिणया पुद्गलों का जानना ॥ २१॥ यह सब एक द्रव्य आश्रित अधिकार कहा. अब दो द्रव्य आश्रित प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या दो द्रव्य प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत व वीस्रता परिणत हैं ? अहो म! दो द्रव्य प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत व वीस्रता परिणत है. अथवा एक प्रयोग परिणत मीश्र परिणत, एक प्रयोग परिणत एक वीस्रमा परिणत अथवा एक मीश्र परिणत एक वीवसा परिणत है यदि प्रयोग परिणत है तब क्या मन, वचन व काय प्रयोग परिणत है ? गौतम ! मन प्रयोग, वचन आठना शतकका पहिला उद्देशा १६ Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी किं सच्चमण पओगपारणयी, ' किं असच्चमण पओगपरिणया, कि सच्चामोसमणप्पओगपरिणया, किं असच्चामोसमणपओगपरिणया ? गोयमा ! सच्चमणप्पओगपरिणयावा, जाव असञ्चामोसमणप्पओगपरिणयावा; अहवा एगे सच्चमणप्पओगपरिणए, एगे मोसमणप्पओगपरिणए, अहवा- एगे सच्चमणपओगपरिणए, एगे सच्चामोसमणप्प ओगपरिणए, अहवेगेसच्चमणप्पओगपरिणए, एगे असच्चामोसमणप्पओगपरिणए, अहवेगे मोसमणप्पओगपरिणए, एगेसच्चामोसमणप्पओग परिणए, अहवेगे मोसमणप्पओग परिणए, एगे असच्चामोसमणप्पओग परिणए, अहवेगे सच्चा मोसमणप्पओगपरिणए, एगेअसच्चामोसमणप्पओग परिणए; ॥ २२ ॥ जइ सच्च. प्रयोगव काय प्रयोग परिणत है. अथवा एक मन प्रयोग, एक वचन प्रयोग व एक मन प्रयोग एक काय प्रयोग व एक वचन प्रयोग एक काय प्रयोग परिणत है. यदि मन प्रयोग परिणत है तो क्या सत्य मन, असत्य मन, मीश्र मन व व्यवहार मन प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! सत्य मन प्रयोग परिणत यावत् व्यत्र हार मन प्रयोग परिणत है. अथरा एक सत्य मन, एक असत्य मन, एक सत्य मन एक सत्यमृषा, एक * सत्य मन, एक व्यवहार मन, एक असत्य मन, एक मीश्र मन, एक असत्य मन एक व्यवहार मन, अथवा * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुवदेवमहायजी पालापमादजी * भावार्थ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र णप्पओगपरिणयायः किं आरंभसच्चमणप्पओगपरिणया जाच असमारंभ सच्चमणप्पओग परिणया ? गोयमा ! आरंभसच्चमणप्पआग परिणयावा, जाव असमारंभ सच्चमणप्प ओगपरिणयावा, अहवेगे आरंभ सच्चमणप्पओगपरिणए, एगे अणारंभ सच्चमणप्पओगपरिणएवा; ॥ एवं एएणं गमएणं दुयसंजोगो नेयव्यो, सव्वे संजोगा जत्थजत्तिया उटुंति ते भाणियब्वा जाव सव्वट्ठसिद्धगति ॥ जइ मीसापरिणया किं भणमीसापरिणया ? एवं मीसापरिणयावि॥जइ वीससा परिणया किं वण्णपरिणया गंधपरिणया? एवं वीससा परिणयावि जाव अहवा एगे चउरंस संठाण परिणए, एगे आयय एक मीश्र मन व एक व्यवहार मन प्रयोग परिणत है ॥ २२ ।। यदि सत्य मन प्रयोग परिणत है तो आरंभ सत्य मन प्रयोग परिणत है यावत् असमारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत है? अहो गौतम! आरंभ सत्य मन प्रयोग परिणत यावत् असमारंभ सत्य मा प्रयोग परिणत है. अथवा एक आरंभ सत्य मन प्रयोग परिणत और एक अनारंभ सत्य मन प्रयोग परिणत ऐसे ही द्वी संयोगी भांगे जानना. इस तरह जिन को जितने संयोगी भांग होवे उतने कहना. मीश्र परिणत का प्रयोग परिणत जैसे कहना. यदि बीस्रसा परिणत है तो क्या वर्ण परिणत है या गंध परिणत है ! इन में उसी तरह भांग कहन यावत् एक चौरंस आठवा शतकका पहिला उद्देशा-Pr भावार्थ । Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२३ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संठाण परिणएवा ॥ २३ ॥ तिण्णि भंते ! व्वा किं पओग परिणया मीसापरिणया, वीससापरिणया ? गोयमा ! पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससा परिणया, अहवा. एगे पओग परिणए; दोमीसा परिणया, अहवेगे पओगपरिणए दोवीससा परिणया, अहवा- दोपओग परिणया एगे मीसापरिणए, अहवा- दोपओग परिणया, एगे वीससापरिणए, अहवा- एगे मीसापरिणए दो वीससा परिणया, अहवा- दोमीसापरिणया एगे वीससापरिणए अहवा- एगे पओग परिणए, एगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए ॥ २४ ॥ जइ पओगपरिणया कि मणप्पओगपरिणया, वयप्पओगपरिणया, कायप्प * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी बालाप्रसादजी * भावार्थ संस्थान परिणत एक आयत संस्थान परिणत जानना ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! क्या तीन पुद्गल प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत व वीससा परिणत हैं ? अहो गौतम ! प्रयोग, मीश्र व वीस्रमा तीनों परिणत हैं अथवा एक प्रयोग परिणत दो मीश्र परिणत, एक प्रयोग परिणत दोवीस्रसा परिणत, दोप्रयोग परिणत, एक मीश्रपरिणत, दो प्रयोग परिणत एक वीस्रमा परिणत, एक मीश्रदो वीरसा परिणत दो मीश्र एक वीससा और एकप्रयोग एक मीश्रव एक वीस्रमा परिणत है।॥२४॥यदि प्रयोग परिणत है तो क्या मन प्रयोग परिणत वचन प्रयोग परिणत व कायप्रयोग परिणत हैं ? अहो गौतम! इस में एक संयोगी द्वी, तीन संयोगी भांगे कहना. यदि मन प्रयोग Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - १०२७ 48403 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र ओगपरिणया ? गोयमा ! मणप्पओगपरिणयावि, एवं एका संजोगो, दुयसंजोगो, तिय संजोगोय भाणियन्वो ॥ जइ मणप्पओग परिणया किं सच्चमणप्पओगपरिणया ? गोयमा ! सच्चमणप्पओगपरिणया जाव असच्चामोसमणप्पओगपरिणयावा, अहवा- एगे सच्चमणप्पओगपरिणए दो मोसमणप्पओगपरिणया; एवं दुयसंजोगो तियसंजोगोय भाणियव्यो, एत्थवि तहेव जाव अहवा एगे तंस संठाण परिणए, एगे चउरससंठाण परिणए, एगे आययसंठाण परिणएवा ॥ २५ ॥ चत्तारि भंते ! दव्वावि पओगपरिणया ? गोयमा ! पओगपरिणयावा, मीसापरिणयावा, वीससा परिणयावा अहवा एगे पओग परिणए तिाणवि मीसा परिणया, अहवा एगे पओग परिणए, तिाण परिणत है तो क्या सत्यमन प्रयोग यावत् व्यवहार मन प्रयोग परिणत है ? अहो गौतम ! सत्यपन प्रयोग यावत् व्यवहारमन प्रयोग परिणत अथवा एक सत्यमन प्रयोग परिणत दो असत्यमन प्रयोग परिणत ऐसे ही द्वी संयोगी तीन संयोगी एक चौरस संठाण एक लम्बगोल संस्थान परिणत तक जानना. ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! क्या चार द्रव्य प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत व वीस्रसा परिणत हैं ? अहो गौतम ! तीनों परिणत हैं. अथवा एक प्रयोग परिणत तीन मीश्र परिणत, एक प्रयोग परिणत आठवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ. Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 वीससा परिणया अहवा दोपओग परिणया, दोमीसा परिणया, अहवा दो पओग परिणया दो वीससा परिणया,अहवा तिाण पओग परिणया एगेमीसापरिणए, अहवा तिाण पओग परिणया, एगे वीससा परिणए, अहवा एगे मीसा परिणए तिण्णि वीससा परिणया, अहवा दोमीसा परिणया दो वीससा परिणया, अहवा तिणि मी सा परिणया, एगे वीससा परिणए; अहवा-एगे 'पआग परिणए एगेमीसा परिणए, तीन वीस्रसा परिणत, दो प्रयोग परिणत, दो मीश्र परिणत दो प्रयोग परिणत, दो वीसला परिणत, तीन मा प्रयोग परिणत, एक मीश्र परिणत, तीन प्रयोग परिणत एक वीस्रसा परिणत, एक मीश्र परिणत तीन वीस सा परिणत, दो मीश्र परिणत दो वीरसा परिणत, तीन मीश्र परिणत एक वीरता परिणत, एक प्रयोग परिणत, एक मीश्र परिणत दो बीससा परिणत, एक प्रयोग परिणत दा मीश्र परिणत एक वीस्रमा परिणत अथवा दो प्रयोग परिणत एक मीश्र परिणत एक वीस्रसा परिणत है. यदि प्रयोग परिणत है तो क्या मन प्रयोग परिणत इस क्रम मे पांच,छ, सात,यावत् दश, संख्यात,असंख्यात व अनंत द्रव्य तक दो तीन चार, पांच यावत् दश, बारह संयोग वगैरह जिन को जितने हात्रे उतने कहना. इस का आलापक इस रह, अहो भगवन् ! क्या पांच द्रव्य प्रयोग परिणत, मीश्र परिणत या वीरसा परिणत है ? 3 गौतम ! पांच द्रव्य प्रयोग, मीश्र व बीस्रमा परिणत है अथवा एक प्रयोग परिणत चार मीस परिणत प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्यालाप्रसादनी * Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 360 दोवीससा परिणया; अहवाएगे पओग परिणए, दो मीसा परिणया, एगे वीससा परिणए अहवा दो पओग परिणया, एगे मीसा परिणए, एगेचीससा परिणए ॥ जइ पओग परिणए किं मणप्पओगपरिणए, एवं एएणं कमेणं पंचछसत्त जाव दस संखज असंखेज अणंता दव्या भाणियन्वाःदुयासंजोएणं,तियासंजोएणं, जाव दससंजोएणं; बारस भावार्थ वगैरह इस का द्वी संयोगी बारह विकल्प होते हैं. १ एक प्रयोग परिणत चार मीश्र परिणत २ दो प्रयोग परिणत तीन मीश्र परिणत ३ तीन प्रयोग परिणत तीन मीश्रपरिणत ४ चार प्रयोग परिणत एक मीश्र परिणत ऐसे ही चार भांगे प्रयोग व वीससा के होते हैं और मीश्र व वीस्रता के भी चार भांगे होते हैं. तीन संयोगी छ भांग १ तीन प्रयोग परिणत एक मीश्र व एक वीस्रता परिणत २ एक प्रयोग तीन मीश्र व एक वीस्रसा परिणत १३ एक प्रयोग एक मीश्र व तीन वीस्रप्ता परिणत ४ दो प्रयोग दो मीश्र एक वीस्रमा परिणत ५ दो प्रयोग एक मीश्र दो वत्रिमा परिणत और ६ एक प्रयाग दो मीश्रदा वीसना परिणत हैं. यहां यावत् शब्द से चतुष्कादि संयोग कहे हुवे हैं यहां पांच द्रव्य की अपेक्षा से सत्य मन प्रयोगादि चार में द्वी,त्री,चतुष्क, संयोगी भांग होते हैं, द्वी संयोगी चौवीस भांगे होते हैं. चार पद के छ दी संयोगी और एक २ में अनुक्रम से चार २ 1 विकल्प इस से चौवीस हुवे. त्रीसंयोगी चौबीस, चतुष्क संयोगी चार भांगे. एकेन्द्रियादि पांच पद में, -43 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती)सूत्र आठवा शतकका पहिला उद्देशा Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी संजोएणं,उवउंजिऊणं जत्थ जइया संजोगातेसव्वे भाणियव्वा एएपुण जहानवमसए पवेसणए भणिहामि तहा उवजंजिऊण भाणियव्वा,जाव असंखजाअणता एवं चेव.णवरं एकपदं अब्भहियं जावअहवाअणंता परिमंडल संठाण परिणया जाव अणंता आययसंठाण परिणया, एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं पओग परिणयाणं मीसापरिणयाणं, वीससा परिणयाणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला पयोग द्वि, त्रि, चतुष्क पांच भांगे होते हैं. इन में द्वि संयोगी चालीस भांगे होते हैं. त्रीसंयोगी साठ होते हैं चार संयोगी वीस और पांच संयोगी एक भांगा होता है. ऐसे पटकाया का कहना इस में छ संयोगी में आरंभ अनारंभ के छ बोल कहना, सप्त संयोगी में उदारिकादिकाय प्रयोग कहना. आठ संयोग में ध्यंतरादिक के भेद कहना नव संयोगी में नव ग्रैवेयक, दश संयोगी में दश भुवनपति, वारह संयोगी में कल्पोत्पन्न देव वगैरह नववे शतक के तेतीसवे उद्देशे में गंगेय अनगार के भांगे किये उसी अनुसार जानना असंख्यात नरकादिक के स्थान है वहां असंख्यात कहना अंतिम आयत परिमंडल संस्थान परिणत कहना. अब इस की अल्पाबहुत्व करते हैं अहो भगवन् प्रयोग मीश्र व वीसमा परिणत इन तीनों में, कौन से पुद्गल कम ज्यादा यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम । सब से थोडे प्रयोग परिणत कायादि * रूप पना से जीव पुद्गल संबंध कालका लोक पना होने से, इस से मात्र परिणत अनंत गुने कायादि प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायनी मालाप्रसाद जी * Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र * १ क० कितनेप्रकारका भ० भगवन् आ० अशिाविष ५० प्ररूपा गो० गौतम दु० दोपकारका आ० आशीविष ५० प्ररूपा तं० वह ज० जैसे जा० जाति आशीविष क० कर्मआशीविष ॥ १ ॥ जा० जातिआ परिणया, मीसा परिणथा अणंतगुणा, वीससा परिणया अणंतगुणा ॥ सेवं भंते 4 भंतोत्त ॥ अट्टम सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ १ ॥ * कइविहाणं भंते ! असीविसा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, प्रयोग परिणत से प्रयोगकृत आकार परिणमने से, इस से वीनसा परिणत अनंत गुने परमाणु है खंडादि जीव ग्रहण योग्य के अनंतपना से. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह आठवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ८॥७॥ है प्रथम उद्देशे में पुद्गल परिणाम कहा दूसरे उद्देशे में उसका ही स्वरूप आशीविष द्वार से कहते अहो भगवन् ! आशीविष (दाढका विष) के कितने भेद कहे हैं ? अहो गोतम! आशीविषके दो भेद कहे हैं ! १ जाति आशीविष सो जिनको जन्म से दाढ में विष होवे मो जाति अशिविष और जिनको कर्म से-क्रियासे अश्वा शापादिक उपधात से आशीविष होवे सो कर्म आशीविष. यह आशीविष पर्याप्त पंन्द्रिय तियेच व मनुष्य में ही होता है, यह आशीविष तपश्चरणादि अनुष्टान से उत्पन्न होता है, शाप देने से जब वह नष्ट होता है तब आशीविष लब्धि स्वभाव । 354 आठवा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ||शीविष क० कितने प्रकारका गो० गौतम च चारप्रकारका वि。 वृश्चिक जा० जाति आशीविषमं { मंडुक जाति आशीविष उ० सर्पजाति आशीविष म० मनुष्य जा० जाति आशीविष ॥ २ ॥बि० वृश्चिक जा० जाति आशीविषका मं० भगवन् के० कितना वि० विषय प० प्ररूपा गो० गौतम प० समर्थ वि० वृश्चिक जा० जाति आशीविष अ० अर्धभरत ५० प्रमाणमात्र बों० शरीर वि० विष वि० सूत्र भावाथ 408 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तंजहा - जाइ आसविसाय, कम्म आसविसाय, ॥ १ ॥ जाइ आसीविसाणं भंते! कइविहा पत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा - विच्छुयजाइ आसाविसे, मंडुक्कजाइ आसीविसे उरगजाइ आसीविसे मणुस्सजाइ आतीविसे, ॥ २ ॥ विच्छ्याइ आसीविसस्सणं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! पभूणं विच्छ्रय जाइ आसीवसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं विसपरिगयं || से सहस्त्रार देवलोक में देवतापने अहो भगवन् ! जाति आशीविष के १ उत्पन्न होवे और वहां अपर्याप्तावस्था में आशीविष होवे ॥ १ कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! जाति आशीविष के चार (भेद कहे हैं ? हृच्छिक जाति आशीविष २ मेंडक जाति आशीविष३ सर्प जाति आशीविष व ४मनुष्य जाति आशीविष || २ || अहो भगवन् ! वृश्चिक जाति आशीविष का कितना विषय कहां ? अहो गौतम ! अर्ध प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * १०३२ Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - परिगत वि. विस्तृत करना ५० करने को ए० इतना वि. विषय नो. नहीं सं० संपत्ति से क० कीया 41 मक० करते हैं क० करेंगे मं० मंडुक जा० जाति आशीविष पु० पृच्छा गो० गौतम ५० समर्थ मं० मंदुक जाः जाति आशीविष भ० भरत प० प्रभाणमात्र बो० शरीर वि. विषसे वि. विषपरिगत से• शेष त० तैसे जा. यावत् क करेंगे ए ऐसे उमजा जाति आयोतिष व विशेष जं: जंबूढीप प० प्रमाणमात्र बों० शरीर वि. विषले वि० विपरिगत से० शेष तं• तैसे जा० यावत् क० करेंगे म० मनुष्य विसहमाणं पकरेत्तए,एवइए विसए नो चेवणं संपत्तीए, करिमुवा, करंतिवा करिस्सांतवा,। मंडुक्कजाइ आसीविसपुच्छा? गोयमा! पभूणं मंडुक्कजाइ आसीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं, सेसं तंचेव जाव करिस्सातवा ॥ एवं उरगजाइ आसीविसस्सवि णवर जंबुद्दीवप्पमाणमेत्ते बोदिं विसेणं विसपरिगयं, सेसं तंचेव जाव करिस्संभावार्थ भरत क्षेत्र प्रमाण (साधिक २६३ योजन) वाला शरीर को अपने विष से विषमय बनाने को वृच्छिक जाति आशीविष समर्थ है परंतु इतना किसीने किया नहीं, करते नहीं व करेंगे भी नहीं. अहो भगवन् । मेंडक जाति आशीविष का कितना विषय कहा है ? अहो गौतम ! मेंडक जाति आशीविष भरत क्षेत्र प्रमाण (साधिक ५२६ योजन) वाला शरीरको अपने विषसे विषमय बनाने को समर्थ है. यह पात्र विषया परंतु ऐसा किसीने किया नहीं, करते नहीं च करेंगे नहीं. सर्प जाति आशीविष नमूद्वीप प्रमाणवाला है। पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र भाठया शतकका दूसरा उद्देशा Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | AAAAY 48 अनुवादक-चालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जा० जाति आशीविष ए. ऐसे न० विशेष स० समय खेल क्षेत्र १० प्रमाणमात्र बों. शरीर वि० । विषसे पि० विषपरिगत से शेष तं- तैसे जा. यावत् का करेंगे ॥ ३ ॥ सरल शब्दार्थ ॥४॥ तिवा ॥ मणुस्सजाइ आसीविसस्सवि एवंचेव, नवरं समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तंचेव जाव करिस्संतिवा ॥३॥जइ कम्मआसीविसे किं नेरइय कम्म आसीविसे, तिरिक्ख जोणिय कम्म आसीविसे, मणुस्स कम्म आसीविसे, देवकम्मआसीविसे ? गोयमा ! नो नेरइयकम्म आसाविसे, तिरिक्ख जोणिय कम्म आसीविसे, मणुस्स कम्म आसाविसे, देव कम्मआसीविसे ॥ जइ तिरिक्ख । जोणिय कम्म आसीविसे,किं एगिंदिय तिरिक्ख जोणिय कम्मासीविसे, जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय कम्मासीविते ? गोयमा ! नो एगिदिय तिरिक्ख जोणिय कम्म शरीर को अपने विष से विषमय बनाने को समर्थ है,, और मनुष्य जाति आशीविष समय क्षेत्र (अढाई. द्वीप) प्रमाणवाला शरीर को विष से विषय बनाने को समर्थ है परंतु ऐसा किसीने किया नहीं, करते नहीं व करेंगे नहीं ॥ ३ ॥ यदि कर्म आशीविष है तो क्या नारकी कर्म आशीविष, तिर्यंच कर्म आशीविष, मनुष्य कर्म आशीविष व देव कर्म आशीविष है ? अहो गौतम ! नारकी कर्म आशीविष नहीं है परंतु तिर्यंच, मनुष्य व देव कर्म आशीविष है. यदि तिर्यंच कर्म आशीविष है तब क्या एकेन्द्रिय कर्माशीविष * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ 1 Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ +8 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र आसीविसे, जाव नो चउरिंदिय तिरिक्ख जोणिय कम्मासीविसे, पर्चिदिय तिरिक्ख जोणिय कम्मासीविसे ॥ जइ पंचिदिय जाव कम्मासीविसे किं सम्मुच्छिम पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय कम्म आसीविसे, गव्भवतिय पंचेंदिय तिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे? एवं जहा वेउब्विय सरीरस्स भेओ जाव पंजत्तासंखेजवासारय गन्भवतिय कम्म भूमिय पंचिदिय तिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे, नो अपज्जत्तअसंखेजवालाउय जाव कम्मासीवसे || जइ मणुस्स कम्मासीविसे किं सम्मुच्छिम मणुस्स कम्मासीविसे, गन्भवतिय मणुस्स कम्मासीविसे ? गोयया ! नो संमुच्छिम मणुस्स कम्मासीविसे गन्भवतिय मणुस्सा कम्मासीविसे एवं जहा वेउव्विय सरीरं जाव पज्जत्ता संखेजवासाय कम्म भूमिय गन्भवक्कंतिय मणुस्स कम्मासीविसे नो अपज्जन्त्ता पंचेन्द्रिय कर्माशीविष हैं ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय यावत् चतुरेन्द्रिय तिर्यंच आशीविष नहीं परंतु पंचेन्द्रिय तिर्यंच कर्म आशीविष है. यदि पंचेन्द्रिय कर्माशीविष है तो क्या संमूच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय कर्माशीविष है या गर्भज निर्यच पंचेन्द्रिय कर्माशीविष हैं ? अहो गौतम ! संमूच्छिम तिर्यच {पंचेन्द्रिय कर्माशीविष नहीं है परंतु गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय कर्माशीविष है. गर्भअ तिर्यंच में भी संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले हैं परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्याले नहीं है. और संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले यात्रत् - आठवा शतक का दूसरा उद्देशा १०३५ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३६ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जाव क-मासीविसे । जइ देव कम्मासीविसे किं भवणवासी देव कम्मासी... विसे जाव वेमाणिय देव कम्मासीविसे ? गोयमा ! भवणवासी देव । कम्मासीविसे वि, वाणमंतर देव जोइसिय वेमाणिय देव कम्मासीविसेवि ॥ जइ भवणवासी देव कम्मासीविसे किं असुर कुमार भवणासी देव कम्मासीविसे जाव थणिय कुमार जाव कम्मासीविसे ? गोयमा ! असुर कुमार भवणवासी देव कम्मासीविसे जावथणिय कुमार जाव कम्मासीविसे, जइ असुर कुमार जाव कम्मासीविसे किं पजत्ता असुर कुमार भवणवासी देव कम्मासीविसे किं अपजस्ता असुर कुमार तिर्यंच पंचेन्द्रिय में भी पर्याप्त कर्म आशीविष है परंतु अपर्याप्त आशीविष नहीं है. भहो भगवन् ! यदि मनुप्य कर्म आशीविष है तो क्या संमूच्छिम या गर्भज मनुष्य कर्माशीविष है ? अहो गौतम ! वैकेय शरीर. जैसे संख्यान वर्ष के आयुष्यवाले कभनि में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त मनुष्य कर्म आशीविष है। अपर्याप्त नहीं है. यदि देव कर्माशीविष है तो क्या भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक देव कर्म आशीविष है? अहो गीतम! भवनपति, बाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक देव कर्म आशीविष है. यदि भवनवासी देव आशीविष है तो क्या असुर कुमार देव आशीविष है यावत् स्थनित कुमार देव आशी . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 48488 पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती ) सूत्र जाव कम्मासीविसे ? गोयमा ! नो यजत्ता असुर कुमार जाव कम्मासीविसे अपजत्ता असुर कुमार भरण पाती जाव कम्मासीविसे, एवं थणियकुमाराणं ॥' जइ वाणमंतर देव कम्मासीविसे किं पिसाय वाणमंतर देव कम्मासीविसे, एवं सव्वेसि अपजत्तगाणं जोइसियाणं सव्वेसि अपजत्तगाणं ॥ जइ वेमाणिय देव कम्मासीविसे किं कप्पोववण्णग वेमाणिय देव कम्मासीविसे, कप्पातीय वेमागिय देव कम्मासीविसे ? गोयमा ! कप्पोक्वण्णग वेमाणिय देव कम्मासीविसे, नो कप्पातीय वेमाणिय देव कम्मासीविसे ॥ जइ कप्पाववण्णग वेमाणिय देव कम्मासीविसे, किं सोहम्मकप्योववण्णग जाव कम्मासीविसे, जाव अच्चुयकप्पोवग जाव कम्मासीविसे ? विष है ? अहो गौतम ! असुर कुमार यावत् स्थनित कुमार देव आशीविष है. यदि अमुर कुमार कर्म आशीविष है तो क्या अपर्याप्त या पर्याप्त कर्म आशीविष है ? अहो गौतम ! अपर्याप्त कर्म आशीविष हैं. परंतु पर्याप्त कर्म आशीविष नहीं है. ऐसे ही स्थनित कुमार का जानना, ऐसे ही पिशाचादि वाणव्यंतर अपर्याप्त अकर्माशीविष जानना. वैमानिक देव में कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कर्माशीविष हैं परंतु कल्पानीत पानिक देव कर्माशीविष नहीं है. यदि कल्पोपन वैमानिक देव कर्माशीविष है तो क्या सौधर्म है। आठया शतकका दूसरा उद्देशा ! भावाथ * Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 408 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी गोमा ! सोहम्म कप्पोवग वैमाणिय देव कम्मासीविसेवि जाव सहस्सार कप्पोवग मणिय देव कम्मासीविसेवि, नो आणय कप्पोवरा वैमाणिय देव कम्मासीविसे. जाव नो अच्चुयकप्पोवग वेमाणिय देव कम्मासीविसे ॥ जइ सोहम्म कप्पव मणि देव कम्मासीविसे किं पज्जत्ता सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासीविसे अपज्जत्ता सोहम्म जाव कम्मासीविसे ? गोयमा ! नो पज्जन्त्ता सोहम्म कप्पोवग बेमाणिय देव कम्मासीविसे, अपजत्ता सोहम्म कप्पोवग वेमाणिय देव कम्मासीसे । एवं जाव नो पत्ता सहस्सार कप्पोवग वेमाणिय देव कम्मासीविसे, अपजत्ता सहस्सार कप्पोवग जाव कम्मासीविसे ॥ ४ ॥ दसट्टाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न जाणइ | कल्पोत्पन्न यावत् अच्युत कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कर्माशीविष है ? अहो गौतम ! सौधर्म यावत् सहार { कल्पोत्पन्न कर्माशीविष है परंतु आणत, प्राणत, आरण व अच्युत कल्पोत्पन्न कर्माशीविष नहीं है. यदि सौधर्म कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कर्म आशीविष है तो क्या पर्याप्त है या अपर्याप्त है ? अहो गौतम ( अपर्याप्त सौधर्म कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कर्म आशीविष है परंतु पर्याप्त नहीं है. ऐसे ही सहस्रार तक में अपर्याप्त कल्पोत्पन्न वैमानिक देव कर्म आशीषिका जानना ॥४॥ छद्मस्थ सर्व भावसे दश स्थान को नहीं १०३८ Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) द० दशस्यान छ० छद्यस्य स सर्व भाव से न नहीं जा० जाने न नहीं पा० देखे ध० धर्मास्तिकाय अ० अधर्मास्तिकाय आ० आकाशास्तिकाय जी० जीव अ० सिद्ध ५० पग्माणु पुद्गल स० शब्द गं० गंध वा० वायु अः यह जि० जिन भ० होगा न नहीं भ० होगा अ० यह स० सर्व दुःखों का अं० १०३९ अंत क० करेगा नो नहीं क• करेगा ए. इनको उ० उत्पन्नज्ञान दं० दर्शन के धारक अ० अर्शन जि. जिन के • केवली म सर्वभाव से जा० जाने प० देखे ध० धर्मास्तिकाय जा० यावत् क० करेगा न नहीं क० करेगा ॥ ५॥ क० कितना प्रकारका भ० भगवन् ना० ज्ञान प० प्ररूपा गो० गौतम नपासइ,तंजहा-धम्मात्थिकायं, अधम्मात्थिकायं आगासस्थिकायं, जीवं असरीरपडिबडं, परमाणुपोग्गलं,सहं,गंधे,वातं, अयं जिणे भावस्सइ नवा भविस्सइ, अयं सव्व दुक्खाणं अंतं करिस्सइ नो वा करिस्सइ ॥ एयाणिचेव उप्पण्ण णाणदसणधरे अरहा जिणे । केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ तं० धम्मत्थिकायं जाव करिस्सइ नवा करिस्सइ । ॥ ५ ॥ कइ विहेणं भंते ! णाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे नाणे पण्णत्ते जान सकते व देख सकते हैं. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव. परमाणु पुद्गल, शब्द, गंध; वात, यह जिन होगा या नहीं सो और यह सब दुःखों का अंत करेगा या नहीं. उक्त दश स्थानको ज्ञान दर्शनके धारक अरिहंत जिन केवली सर्व भाव से जान सकते व देख सकते हैं ॥५॥ है। 4.28.आठवा शतकका दूसरा उद्देशा 8 भावार्थ 488 4th Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | पं० पांचप्रकारका आ० मति ज्ञान सु० श्रुतज्ञान ओ० अवधि ज्ञान म० मनःपर्यव ज्ञान के० केवल ज्ञान से० वह केसे आ० मतिज्ञान च० चारप्रकारका उ० अवग्रह ई० ईहा अ० अवाय धा० धारणा ए ऐसे रा० रायप्रसेणी में जो० जो ना० ज्ञान के भे० भेद त० तैसे इव्यहां भा० कहना जा० यावत् के० केवलज्ञान ॥ ६ ॥ अ० अज्ञान मं० भगवन् कः कितनाप्रकारका गो० गौतम ति० तीन तंजा - आभिणित्रोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे, केवलनाणे || से किं तं आभिणिबोहिय नाणे ? आभिणिबोहियनाणे चउव्विहे प० तंजहाउग्गहे. ईहा, अवाय, धारणा एवं जहा रायप्पसेणीए, जो नाणाणं भेओ तहेव इह भाणियव्वो, जाव से त्तं केवल नाणे ॥ ६ ॥ अण्णाणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? अहो भगवन् ! ज्ञान के कितने भेद कहे ? अहो गौतम ! ज्ञान के पांच भेद कहे हैं. १ मति ज्ञान १२ श्रुत ज्ञान, ३ अवधि ज्ञान, ४ मनःपर्यंत्र ज्ञान और ८ केवल ज्ञान आभिनिवोधिक (मति ) ज्ञान क्या { है ? मति ज्ञान के चार भेद कहे हैं ? अवग्रह सो सामान्यपना से वस्तु को ग्रहण करना २ ईहा सो ( ग्रहण किये हुवे को विचारना ३ अवाय सो ग्रहण किये हुवे को निश्चित करना और ४ धारमा उक्त ग्रहण किये हुवे को घार कर रखना. इन में अवग्रह के दो भेद अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रह इत्यादि पांचों ज्ञान का कथन रायप्रसेणी सूत्र से जानना || ६ || अहो भगवन् ! अज्ञानके कितने भेद कहे हैं ? अहो 6 भावार्थ els 49 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १०४० Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ 1 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 प्रकारका म० मतिअज्ञान मु० श्रुतअज्ञान वि० विभंगज्ञान म० मतिअज्ञान च० चार प्रकारका उ० अवग्रह जा. यावत् धा० धारणा उ० अवग्रह दु० दोपकारका अ० अर्थावग्रह वं० व्यंजनावग्रह ए. ऐसे ७ ज. जैसे आ० मतिज्ञान में त० तैसे ण विशेष ए० एकायिक व०वर्जना जा०यावत् ना० नाइन्द्रिय धारणा से वह किं० कैसे सु० श्रुतअज्ञान जं. जो०३०इस अ. अज्ञान ने मि० मिथ्यादष्टि ज. जसे नं० नंदी जा० यावत् च० चार वे० वेद सं० सांगोपांग से वह कि० केसे वि० विभंगज्ञान अ० अनेकप्रकार का गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते तंजहा मइ अण्णाणे सुयअण्णाणे, विभंगनाणे ॥ से किं तं मइ अण्णाणे ? मइ अण्णाणे चउन्विहे १० तंजहा उग्गहे जाव धारणा ॥ से किं तं उग्गहे ?, उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा. अत्थोग्गहेय वंजणोग्गहेय, है एवं जहेव आभिणिबोहिय नाणं तहेव, णवर एगट्टियवजं जाव नोइंदिय धारणा ॥ सेत्तं धारणा ॥ सेत्तमइ अण्णाणे ॥ सेकिंत सुयअण्णाणे ? सुयअण्णाणे जं इमं गौतम ! अज्ञानके तीन भेद कहे हैं १ मति अज्ञान २ श्रुत अज्ञान व ३ विभंग ज्ञान. मति अज्ञान क्या है ? मति अज्ञान के चार भेद कहे हैं अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा. उन में से अवग्रह के दो भेद अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रह. पांचोइन्द्रियों वमन से अर्थ का ग्रहण होना सो अर्थावग्रह और जैसे प्रदीप से वस्तु प्रगट की जावे वैसे प्रगट करना सो व्यंजनावग्रह. यह मन व चक्षु सिक्य चारों इन्द्रियों से AAmAAAA. आठवा शतकका दूसरा उद्देशा 80403:00 । 488 Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४२ गा. ग्रामसंस्थित न० नगरसस्थित जां० यावत् स. सन्निवेश मंस्थित दी. द्वीपसंस्थित स० समुद्र * 29संस्थित वा० क्षेत्रसस्थित वा० वर्षधरसंस्थित ५० पर्वतसंस्थित रु० वृक्षसंस्थित यू. स्तूपसंस्थित ह० अश्वतस्थित गगजसंस्थित न० नरसंस्थित कि किनर संस्थित कि० किंपुरुषसंस्थित म० महोरगसंस्थित गं• गांधबंसीस्थत उ० वृषभसंस्थित ५० पशु ५० पमय वि. विग व० वानर णा. नानासंस्थान अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठिएहिं जहा नदिए जाव चत्तारिय वेदा संगोवंगा सेत्तं सुय. अण्णांणे ॥ सेकिंतं विभंगनाणे ? अगेगविहे प० तंजहा गामसंठिए, नगरसंठिए, जाव सन्निवेस संठिए; दीवसंठिए, समुदसंठिए, वाससंठिए वासहर संठिए, पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभसंठिए, हयसंठिए,गयसंठिए,नरसंठिए,किं नरसंठिए,किं पुरिस संठिए, महारेम संठिए, गंधव्व संठिए, उसभ संठिए, पसुपसयविहगवानरणाणा संठाण संठिए भावार्थ होता है क्यों कि मन व चक्षु दोनों ही दूर रहे हुवे पदार्थ को प्रकाशने हैं इस से अर्थावग्रह के छ भेद और व्यंजनावग्रह के चार भेद कहे हैं. श्रुत अज्ञान किस को कहते हैं ? जो मिथ्यादृष्टि से रामायण, महाभारत इत्यादि श्रवण करे, विचारे, निसब करे व धारण कर अथवा ऋग्, यजुः साम व अण वेद इन चार वेद और शिक्षादि छ उपांग उस की व्याख्या और स्वच्छंदपना से बनाये हुए शिल्पनिमित्तादिक सो श्रुत अज्ञान. विभंग ज्ञान किस को कहते हैं ? विभंग ज्ञान के अनेक भेद कहे हैं. ग्राम के अनुसदक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी, Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 संस्थित ॥ ७ ॥ सरल शब्दार्थ . पण्णत्ते ॥७॥ जीवाणं भंते ! किं णाणी किं अण्णाणी ? गोयमा ! जीवा णाणीवि, अण्णाणीवि,जेणाणी ते अत्थेगइया दुण्णाणी,अत्यंगइया तिण्णाणी, अत्थेगइया चउनाणी अत्थेगइया एगणाणी॥ जेदुयणाणीते आभिणिबोहियणाणीय, मुयणाणीय । जे तिण्णाणी न ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी,ओहिणाणी, अहवा आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी मणपज्जवणाणी, जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी,सुयणाणी,ओहिणाणी मणपज्ज वणाणी; जे एगनाणी ते नियमा केवलणाणी ॥जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, भावार्थ अत्थगइया तिअण्णाणी। जे दुअण्णाणी, तेमइअण्णाणीय सुयअण्णाणीय। जेतिअण्णाणी संस्थान से, नगर के संस्थान से. यावत् सनिवेशके संस्थान से ऐसे ही द्वीप, समुद्र.वर्ष,वर्षधर,पर्वत,वृक्ष,स्तूप, हय, गज, मनुष्य, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गांधर्व, वृषभ, पशु, पसय, पक्षी, वानर व विविध प्रकार के संस्थान से संस्थित है ॥ ७ ॥ अहो भगान् ! क्या जीच ज्ञानी है या अज्ञानी है ? अहो गौतम : जीव ज्ञानी व अज्ञानी दोनों है. उन मे से किननेक मति व श्रुति ऐसे दो ज्ञान वाले, कितनेक मति । न वाल, कितनेक माते श्रुति अवधिव मनापर्यव पेसे चार प्रान वाले और कितनेक एक केवल ज्ञान वाले हैं. जो अज्ञानी हैं वे कितनेक मति अज्ञानी व श्रुत अज्ञानी ऐसे - पंचमाजविवाह पण्णात्ति (भगवती ) मत्र 4 २०84880+ आठवा शतक का दूसरा उद्देशा g ast Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी + २०४४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ते मइअण्णाणी, सुय अण्णाणी, विभंगणाणी॥ ८ ॥ नेरइयाणं भंते ! कि गाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणावि अण्णाणीवि; जेणाणी ते नियमा तिण्णाणी, तंजहा आभिणिारोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, अत्थेगइया तिअण्णाणी. एवं तिाण अण्णाणाई भयणाए ॥ असुरकुमाराणं भंते ! किं णाणी अण्णाणी? जहेव नेरइया तहेव तिण्णि णाणाणि नियमा, तिाण अण्णाणाणि भयणा ए, एवं जाव थाणियकुमारा ॥पुढविकाइयाणं भंते! किं णाणी अण्णाणी? गोयमा !नो णाणी दो अज्ञानवाले और किननक मति, श्रुत व विभंग ऐसे तीन अज्ञान वाले हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी ज्ञानी या अज्ञानी हैं ? अहो गौतम [ नारकी ज्ञानी व अज्ञानी दोनों हैं जो. ज्ञानी हैं वे निश्चय ही मति श्रुत व ओध ऐसे तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे कितनेक मति व श्रुत ऐसे दो अज्ञान वाले हैं और कितनेक मति श्रुत अज्ञान व विभंग ज्ञान ऐमें तीन अज्ञान वाले हैं ऐसे ही असुरकुमारादि दश भग्नपति में तीन ज्ञान की नियमा व तीन अज्ञान की भजमा हैं पृथ्वीकायिकादि । पांच स्थावर में ज्ञान नहीं है मात्र मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान की नियमा है बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय ज्ञानी व अज्ञानी है. जो ज्ञानी हैं वे निश्चयही मति व श्रुत झान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे निश्चयही मति व श्रुत अज्ञान वाले हैं. तियेच पंचेन्द्रिय मानी व अज्ञानी प्रकाइक-राजाबहादुर लाला दसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॐ - man अण्णाणी नियमा दुअण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणीय एवं जाव वणस्सइ काइया बेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणीवि अण्णाणीवि, जे णाणी ते नियमा दुणाणी तं० आभिणिबोहियणाणीय मुयणाणीय एवं, जे अण्णाणी ते णियमा दुअण्णाणीतं. मतिअण्णाणीय सुयअण्णाणीय एवं तेइंदिय चउरिंदियावि । पचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणीवि अण्णाणीवि, जे णाणी ते अत्थेगइया दुणाणी अत्थेगइया तिण्णाणी एवं तिणि णाणाणि, तिणि अण्णाणाणि भयणाए ॥ मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंचणाणाई तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए ॥ वाणमंतरा जहा नेरइया, जोइसिय वेमाणियाणं तिण्णिणाणाइं तिण्णि अण्णाणाइं नियमा॥ सिद्धाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णाणी, नो अण्णाणी, नियमा एगणाणी-केवलणाणी भावार्थ है. ज्ञानी में तीन ज्ञान की भजना व अज्ञानी में तीन अज्ञान की भजना है. मनुष्य में पांच ज्ञान व तीन 50 अज्ञान की भजना है. दाणव्यंतर में तीन ज्ञान की नियमा है. और तीन अज्ञान की भजना है. ज्योतिषी व वैमानिक में तीन ज्ञान व तीन अज्ञान की नियमा है, अहो भगवन् ! सिद्ध क्या ज्ञानी है या अबानी हैं ? अहो गौतम ! सिद्ध ज्ञानी है परंतु अज्ञानी नहीं है. सिद्ध में मात्र एक केवल ज्ञान है ॥ ९॥ 44 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र आउआ शतकका दूसरा उद्देशा8948 Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ ! ॥ ९ ॥ निरयगइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणीवि, अण्णाणीवि, तिणिण णाणाई नियमा तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ॥ तिरिय गइयाणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? दो णाणाई दो अण्णाणाइं नियमा, मणुस्स गइयाणं भंते! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? तिण्णि णाणाई भयणाए दो अण्णा इं नियमा देवगतिया जहा निरयगतिया । सिद्धगइयाणं भंते ! जहा सिद्धा ॥ १० ॥ सइंदियाणं भंते! जीवा किं नाणी अण्णाणी ? गोयमा ! चत्तारि नाणाइं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए || एगिंदियाणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? जहा पुढ• नरक गतिवाले क्या ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानी व अज्ञानी दोनों हैं. उन में तीन ज्ञान की नियमा व तीन अज्ञान की भजना तिर्यच गतिवाले जीव में दो ज्ञान दो अज्ञान की नियमा. मनुष्य गतिवाले जीव में तीन ज्ञान की भजना व दो अज्ञान की नियमा देवगति में तीन ज्ञान की नियमा व तीन अज्ञान की भजना है. विद्धगति में केवल ज्ञान की नियमा है ॥ तीसरा इन्द्रिय द्वार कहते हैं. जो इन्द्रेय सहित जीव है १० ॥ उन में चार ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है केवल ज्ञान अनेन्द्रिय को होता है इसलिये यहां नहीं लीया गया है. एकेन्द्रिय * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 १०४७ भावार्थ .98 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 488 विकाइया, बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदियाणं दो णाणाइ दो अण्णाणाइ नियमा। पंचिंदिया जहा सइंदिया । अणिंदियाणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? जहासिद्धा॥११॥ सकाइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! पंच णाणाइं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । पुढविकाइया जाव वणस्सइ काइया नो णाणी, अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी तं. मइअण्णाणी सुयअण्णाणी ॥ तसकाइया जहा सकाइया, अकाइयाणं भंते ! जीवा किण्णाणी ? जहा सिहा ॥ १२ ॥ सुहुमाणं भंते ! को दो अज्ञान की नियमा है क्यों कि वहां मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय को दो ज्ञान दो अज्ञान की नियमा है. क्योंकि उन को अपर्याप्तावस्था में शाश्वादान सम्यक्त होता है." इस से दो ज्ञान होवे परंतु पर्याप्त हुवे पीछे सम्यक्त्व का नाश होता है इस से दो अज्ञान रहता है. पंचे-38 केन्द्रिय में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. और अनिन्द्रिय में केवल ज्ञान की नियमा ॥ ११॥ अब कायद्वार कहते हैं. सकायिक जीव में पांच ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है क्योंकि केवल ज्ञानी भी सकायिक होते हैं, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेउकायिक, वायुकायिक, व वनस्पतिकायिक में दो अज्ञान की नियमा है. इन में ज्ञान नहीं होता है. उसकायिक में पांच ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है. अकायिक में केवल ज्ञान की नियमा है ॥ १२ ॥ अव सूक्ष्म द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या है। आठवा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ । 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जीवा किणाणी अण्णाणी ? गोवमा ! जहा पुढविकाइया । बादराणं भंते ! जीवा किणाणी अण्णाणी ? जहा सकाइया, नो मुहुमा नो बादराणं भंते! जीवा ? जहा सिद्धा ॥ १३ ॥ पज्जत्ताणं भंते! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा सकाइया । पज्जत्ताणं भंते! नेरइया किण्णाणी ? तिष्णि नाणा तिष्णि अण्णाणा नियमा, जहा नेरइया एवं जात्र थणिय कुमारा । पुढविकाइया जहा एगिदिया, एवं जाव चरिंदिया || पज्जत्ताणं भंते ! पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया किण्णाणी अण्णाणी ? तिष्णि णाणा तिणि अण्णाणा भयणाएं, मणुस्सा जहा सकाइया, वाणमंतर जोइ सिय वेमाणिया जहा नेरइया || अपज्जत्तगाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? {सूक्ष्म जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? अहो गौतम ! सूक्ष्म जीव में मात्र पृथ्वीकायिक जैसे दो अज्ञान {हैं. बादर जीवों में पांच ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है. को सूक्ष्म तो बादर में केवल ज्ञान की नियमा है ॥ १३ ॥ अब पर्याप्त द्वार कहते हैं. अहो भगवन् पर्याप्त जीव क्या ज्ञानी हैं या अज्ञानी है ? अहो गौतम ! पर्याप्त जीव ज्ञानी भी हैं व अज्ञानी भी हैं. उन में पांच ज्ञान व तीन { अज्ञान की भजना है, पर्याप्त नारकी में तीन ज्ञान व तीन अज्ञान की नियमा है. असंज्ञी अपर्याप्ताव * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १०४८ Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86032 ( भगवती ) सूत्र गोपमा ! तिण्णि णाणा तिण्णि अण्णाणा भयणाए । अपज्जत्तगाणं भंते ! नेरइया किण्णाणी अण्णाणी ? तिणि णाणा नियमा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए, एवं जाव थाणियकुमारा, पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिदिया ॥ बेइंदि. याणं पुच्छा ? दो णाणा दो अण्णाणा नियमा, एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं ॥ अपजत्तगाणं भंते ! मणुस्सा किण्णाणी अण्णाणी ? तिणि नाणाई भयणाए दो अण्णाणाइं नियमा || चाणमंतरा जहा नेरइया, अपज्जत्तगा जोइसिय भावार्थस्था में उत्पन्न होते हैं जब विभंग ज्ञान का अभाव होता है. और विभंग ज्ञान उत्पन्न हुए पीछे पर्याप्त होजाते हैं इस से तीन अज्ञान की नियमा कही. असुरकुमारादि दश भुवनपति भी नारकी जैसे कहना. १५ पर्याप्त पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय में भी दो अज्ञान की नियमा. विकलेन्द्रिय के पर्याप्ता में सम्यक्त्व नहीं होता है. पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तीन ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है पर्याप्त मनुष्य में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी, व वैमानिक में तीन ज्ञान तीन अज्ञान की नियमा कहना. अपर्याप्त जीव में तीन ज्ञान नीन अज्ञान की भजना.. अपर्याप्त नारकी में तीन ज्ञान की नियमा तीन अज्ञान की भजना. ऐसे ही स्थनित कुमारतक कहना. पृथ्वीकायिक यावत् . वनस्पतिकायिक के अपर्याप्त में दो अज्ञान की नियमा. वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में दो ज्ञान, आठवा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - वेमाणियाणं तिण्णि नाणा तिणि अण्णाणा नियमा । नोपज्जत्तगनोअपजत्तगाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा सिहा ॥ १४ ॥ निरय भवत्थाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा निरयगइया ॥ तिरिय भवत्थाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? तिण्णि णाणा तिण्णि अण्णाणा भयणाए । मणुस्स भवत्था जहा सकाइया ॥ देव भवत्थाणं भंते ! जहा निरयभवत्था. अभवत्था ? जहा सिद्धा ॥ १५ !। भवसिद्धियाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? जहा सकाइया, दो अज्ञान की नियमा. तिर्यंच पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त में भी दो ज्ञान दो अज्ञान की नियमा. मनुष्य के अपर्याप्ता में तीन ज्ञान की भजना तीर्थंकरों को तीन ज्ञान होवे इस अपेक्षा से, और दो अज्ञान की नियमा याणव्यंतर के अपर्याप्त में असंज्ञी उत्पन्न होने से तीन ज्ञान की नियमा, तीन अज्ञान की भजना. ज्योतिषी वैमानिक के अपर्याप्ता में तीन ज्ञान तीनं अज्ञान की नियमा है. नो पर्याप्त नो अपर्याप्त में केवल ज्ञान की नियमा है ॥ १४ ॥ नरक भवस्थ में तीन ज्ञान की नियमा तीन अज्ञान की भजना. तिर्यंच भवस्थ में तीन ज्ञान तीन अज्ञानकी भजना. मनुष्य भवस्थ में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. देव भवस्थ में तीन ज्ञान की नियमा तीन अज्ञान की भजना. अभवस्थ में केवल ज्ञान की नियमा ॥ १.५ ॥ अब मध्यद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! भवसिद्धिक क्या ज्ञानी है या अज्ञानी है ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक ज्ञानी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवप्सहाय जी ज्वालाप्रसादजी * Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णत्ति (भगवती ) मूत्र oggods अभवसिद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! नो नाणी अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । नो भवसिद्धिया नो अभवसिद्धियाणं जीवा जहा सिद्धा॥१६॥सण्णीणं पुच्छा? जहा सइंदिया, अण्णी जहा बेइंदिया, नो सण्णी नो असण्णी जहा सिद्धा ॥१७॥ कइविहाणं भंते ! लद्धी १० गोयमा ! दसविहा लडी ५० तंजहा-नाणलडी, दसणलद्धी, चरित्तलद्धी, चरित्ताचरित्तलद्धी, दाणलही, लाभलडी, भोगलही, उवभोगलद्धी, वीरियलडी, इंदियलडी ॥ णाणलहीणं भंते ! कतिविहा प. ? व अज्ञानी दोनों हैं. भवसिद्धिक में पांच ज्ञान की भजना है और जहांलग सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई है वहांलग तीन अज्ञान की भजता है. अश्वसिद्धिक में ज्ञान नहीं हैं परंतु तीन अज्ञान की भजना है. नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धि कमें केवल ज्ञानकी नियमाई ॥१६॥अब संज्ञी द्वार कहते हैं. संझी में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. असंज्ञी में पर्याप्त अवस्था में दो अज्ञान की नियमा और अपर्याप्त अवस्था में दो ज्ञान की नियमा है. नो संझी नो असंज्ञी में कवल ज्ञान की नियमा है ॥ १७॥ अहो भगवन् ! लब्धि कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम! कर्म क्षय से आत्मा को ज्ञानादि गुण की प्राप्ति सो लब्धि. उन दश भेद कहे हैं. १ ज्ञान लब्धि २ रुचिरूप आत्मपरिणाम से दर्शन सामान्यावबोध की प्राप्ति सो दर्श लिब्धि, ३ चारित्र लब्धि ४ चारित्राचारित्र लब्धि ५ दान लब्धि ६ लाभ लब्धि ७ भोग लब्धि ८ उप *32*2 आठवा शतक का दूसरा उद्देशा भावार्थ । Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५२ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोयमा ! पंचविहा प० त० आभिणिबोहियाणाणलही जाव केवलनाणलही ॥ . अन्नाणलहीणं भंते ! कइविहा प० ? गोयमा ! तिविहा प० तं० मइअण्णाणलडी सुयअण्णाणलद्धी, विभंग णाणलही। दसणलहीणं भंते ! कतिविहा प. ? गोयमा ! तिविहा प० तं० सम्मदंसणलडी, मिच्छादंसणलद्धी सम्मामिच्छा दसणलखी। चरित्तलहीणं भंते ! कइविहा प. ? गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा सामाइय चरित्तलद्धी, छेदोवढावणियलद्धी, परिहारविसुद्धि चरित्तलडी, सुहुमसंपराय चरित्तलडी, अहक्खायलद्धी । चरित्ताचरित्तलहीणं भंते ! कइविहा प० गायमा ! भोग लब्धि ९ वीर्य लब्धि व १० इन्द्रिय लब्धि. ज्ञान लब्धि के पांच भेद मतिज्ञान लब्धि यावत् केवल ज्ञान लब्धि. अज्ञान लब्धि के तीन भेद मति अज्ञान लब्धि यावत् विभंग ज्ञान लब्धि. दर्शन लब्धि के तीन भेद समदर्शन लब्धि, मिथ्या दर्शन लब्धि व समापिथ्या दर्शन लब्धि. चारित्र लब्धि के पांच भेद , सामायिक चारित्र लब्धि जो सावध विरतिरूप. इस के दो भेद १. इतर सो अल्प काल रहे. यह भरत इरवत क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के समय में आरोपित होता है. २ यावज्जीव का सो शेष वाइस तीर्थंकर के समय में व महाविदेह क्षेत्र में होता है. २ पूर्व संयम का व्यवच्छेद कर जिस की * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी गालाप्रसादजी * Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880% विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोयमा नो णाणी अण्णाणी, अत्थेगइया टुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ॥ आभिणिबोहिय नाणलद्धियाणं भंते ! जोगाके णाणी अण्णाणी, ? गोयमा! णाणी णो अण्णाणी, अत्थेगतिया दोणाणी तिणाणी चत्तारि णाणाइं भयणाई तस्सअलखियाणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणीवि अण्णाणीवि, जे पण ते भावार्थ उपभोग लब्धि का जानना. वीर्य लब्धि के तीन भेद कहे हैं. १ चारित्र मोहनीय के उदय से अथवा वीर्यातराय के क्षय से असंयमयोग में प्रवृत्ति करना सो बाल वीर्य. २ संयम योग में प्रवृत्ति करना सो पंडित वीर्य और संयमासंयम योग में प्रवृत्ति करना सो बाल पंडित वीर्य. इन्द्रिय लब्धि के पांच भंद श्रोत्रे.. न्द्रिय लब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रिय लब्धि. अहो भगवन् ! क्या ज्ञान लब्धिवाले ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं अहो गौतम ! ज्ञान लब्धिवाले ज्ञानी हैं परंतु अज्ञानी नहीं हैं. जो ज्ञानी हैं वे कितनेक मति व श्रुत ऐसे दो ज्ञानवाले हैं, कितनेक मति शुत व अवधि व मति श्रुत व मनःपर्यव ऐसे तीन ज्ञानवाले हैं कितनेक केवल ज्ञान वर्जकर चार ज्ञानवाले हैं और कितनेक मात्र एक केवल ज्ञानवाले हैं ऐसे पांच ज्ञान की भजना है. जहां ज्ञान की प्राप्ति नहीं हैं ऐसे जीवों ज्ञान के अलब्धिक कहाते हैं ज्ञान के अलब्धिक कितनेक जीवों लमति व श्रत अज्ञानवाले हैं और कितनेक मति श्रत अज्ञान व विभंग ज्ञान ऐसे तीन अज्ञानवाले हैं इससे ज्ञान के असब्धिक में तीन अज्ञान की भजना है. अहो भगवन् ! आभिनिवोधिक ज्ञानवाले क्या 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजावहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र नियमा एगणाणी: केवलणाणी, जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णा भयणा । एवं सुयगागलद्धियावि ॥ तस्म अलाय वि जहा आभिणिबोहियासलडिया || ओहिणाणलडियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी, अत्गइया तिणाणी अत्थेगइया चरणाणी; जे तिष्णाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुवणाणी, ओहिणाणी जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपजवाणी । तस्स अलडियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणीचि अण्णाणीवि, ओहिणाणवजाइं चत्तारि णाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । मणपज्जवणाणलद्धियाणं या अज्ञानी है ? अहो गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञानवाले ज्ञानी हैं परंतु अज्ञानी नहीं हैं. इन में कितनेक जीव मति श्रुत दो ज्ञान कितनेक तीन और कितोक चार ज्ञानवाले होते हैं इसलिये इस में चार ज्ञान की भजना कही हैं. केवल ज्ञान की प्राप्ति में अन्य ज्ञानों का आविर्भाव नहीं होता है इसलिये केवल ज्ञान नहीं ग्रहण किया है. इस के अलब्धिक में केवल ज्ञान की नियमा है केवल ज्ञान सिवाय अन्य ज्ञानों की उपस्थिति में मतिज्ञान निश्चय ही होता है और तीन अज्ञान की भजना है. जैसे मति ज्ञान का कहा वैसे डी श्रुत ज्ञान के लब्धिक व अलब्धिक में कहना. अवधि ज्ञान की लब्धि में चार ज्ञान की भजना है उस की अलब्धि में अवधि ज्ञान छोडकर शेष चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है. मनःपर्यव ज्ञान की १००% आठवां शतकका दूसरा उद्देशा +8+ १०५५ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छा ? गोयमा ! णाणी नो अण्णाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी अत्थेगइया चउंणाणी जे तिणाणी ते आभिणिचोहियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी, जे चउणाणी ते आभिणिबाहियणाणी, सुयणाणी, ओहिनाणी, मणपज्जवणाणी । तस्स अलडियाणं पुच्छा ? गोयमा ? णाणीवि, अण्णाणीवि मणपजवणाणवज्जाइं चत्तारि नाणाई तिणि अण्णाणाई भयणाए । केवलणाणलद्धियाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणा नो अण्णाणी. नियमा एग णाणी केवलणाणी तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! णाणीवि अण्णाणीवि, केवलणाणवजाइं भावार्थ लब्धिवाले पति, श्रुत, अवधेि अथवा मतिश्रुत मनःपर्यव ऐसे तीन ज्ञान अथवा मति श्रुत अवधि व मनःपर्यव | ऐसे चार ज्ञानवाल हैं इस के अलब्धिक जीवों में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना है केवल ज्ञान लब्धिक जीवों में मात्र केवल ज्ञान की नियमा है उस के अलब्धिक में केवलज्ञान छोडकर चार ज्ञान व तीन । अज्ञानकी भजना है. अज्ञान लब्धि वाले जीवों में ज्ञान नहीं हैं परंतु अज्ञान है इन में तीन अज्ञान की भजना है इस के अलब्धिक में पांच ज्ञान की भजना है जैसे अज्ञान की लब्धि अलब्धि कही वैसे ही मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान की लब्धि अलब्धि जानना. विभंग ज्ञानकी लब्धि के जीवों में तीन अज्ञान, 4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448: चत्तारि णाणाइं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ॥ अण्णाणलाढयाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ? नो णाणी, अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए ॥ तस्स अलाहियाणं भंते ! गोयमा ! णाणी नो अण्णाणी पंचणाणाई भयणाए जहा अण्णाणस्सलद्धिया अलडिया भणिया, एवं मइअण्णाणस्स, सुयअण्णाणस्सय लदिया अलडिया भाणियव्वा ॥ विभंगणाणलद्धियाणं तिणि अण्णाणाई नियमा ॥ तस्स अलद्धियाणं पंचणाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा । दसणलद्धियाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! नाणीवि अण्णाणीवि, पंचणाणाई तिण्णि अण्णा णाई भयणाए ॥ तस्स अलद्धियाणं भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! भावार्थ की नियमा उस के अलब्धिक जीवों में पांच ज्ञान की भजना दो अज्ञानकी नियमा दर्शन लब्धिवाले जीवों ज्ञानी अज्ञानी दोनों हैं इन में पांच ज्ञान व तीन अज्ञान की भजना है दर्शन की अलब्धि का अभाव है सम्यग् दर्शन की लब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान की भजना इस के अलब्धिये में तीन * अज्ञान की भजना है. पिथ्या दर्शन के लद्धिये में तीन अज्ञान की भजना है उस के अलद्धिये में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना है. मिथ्यादृष्टि जैसे समयिथ्यादृष्टि का जानना. चारित्रलब्धिक नीवों में 1 43-23 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र आठवा शतक का दूसरा उद्दशा Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 45 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिनी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी तस्स अलद्धिया नत्थि || सम्मदंसण लडियाणं पंचनाणाई भयणाए, तस्स अलडि. या तिणि अण्णाणाइं भयणाए, मिच्छादंसणलद्धियाणं भंते! पुच्छा ? गोयमा ! णो णाणी अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए, तस्त अलद्धियाणं भंते! किण्णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणीचि अण्णाणीवि, पंच नाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयपाए | सम्मामिच्छादंसणलडिया अलद्धियाय जहा मिच्छादसण लडिया अलद्वियाय तहेव भाणियव्वा । चरित्तलद्धियाणं भंते! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णाणी णो अण्णाणी, पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं मणपज्जव पांच ज्ञान की भजना है. उस के अलब्धिक में मनः पर्यव ज्ञान छोडकर चार ज्ञान की भजना, ( केवलज्ञान सिद्ध भगवंत आश्री लिया गया है. ) तीन अज्ञान की भजना मामायिक चारित्र लब्धिक में चार ज्ञान की भजना उस के अलब्धिक में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना सामायिक चारित्र जैसे छेदोपस्था(पनीय, परिहार विशुद्ध, सूक्ष्म पराय व यथाख्यात का जानना. मात्र यथाख्यात के लद्धिये में पांच ज्ञान कहना. चारित्राचारित्र के लद्धिये में तीन ज्ञान की भजना. क्योंकि चारित्राचारित्र्वाले श्रावक होते हैं? और श्रावक में क्वचित् तीन ज्ञान मीलते हैं. इस के अलद्धिये में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना है. १२५८ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५९ पंचमान विवाह पण्णात्त (भमवती) सूत्र 488 नाणवजाइं चत्तारि नाणाइं तिण्णि अग्णाणाई भयणाए । सामाइय चरित्तलडियाणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? गोयमा ! चत्तारि नागाइं भयगाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई तिण्णिय अण्णाणाई भयणाए, एवं जहा सामाइय चरित्त. लद्धिया अलद्धियाय भणिया एवं जाव अहक्खाय चरितलद्धिया अलाइयाय भाणि. यव्वा, नवरं अहक्खाय चरित्तलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, चरित्ताचरित्तलद्धियाणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी नो अण्णाणी, अत्यंग इया दुनाणी, अत्थेगइया तिण्णाणी, जे दुनाणी, ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणीय जे तिण्णाणी ते आभिणिबाहिय नाणी सुयनाणी ओहिनाणीय । तस्स अलद्धियाणं दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि व वीर्यलब्धि में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. उस के अलद्धिये में केवल ज्ञान की नियमा. बालवीर्यलब्धि असंयति ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को हो से उस में तीन ज्ञान तीन अज्ञान की भजना, इस के अलद्धिये में पांचों ज्ञान की भजना. पंडित वीर्य के लद्धिया में पांच ज्ञान की भजना उस के अलद्धिया में मनःपर्यव ज्ञान सिवाय चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. बाल पंडित वीर्य में लीन ज्ञान की भजना इस के अलडिया में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. आठवा शतकका दूसरा उद्देशा भाव Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुवादक-बालब्रह्मचार। मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 80% पंचनाणाई तिणि अण्णणाई भयणाए ।दाणलडियाणं पंचनाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । तस्स अलाद्धयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नाणी नो अण्णाणी, नियमा एगनाणी-केवल नाणी ॥ एवं जाव वीरियलडिया अल.द्धिया भाणियव्वा शलवी रिय लद्धियाणं तिण्णि नाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंचनाणाई भयणाए । पंडिय वीरिय लद्धियाणं पंचनाणाई भयणाए, तरस अलद्रियाणं मणभजवनाणवज्जाई नाणाई अण्णाणाइं तिष्णिय भयगाए ॥ बालपंडिय वरिय लधियाणं तिणि नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धियाणं पंचनाणाइं तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । इंदिय लद्धियाणं भंते ! जीवा किग्गाणी अण्गाणी? गोयमा ! चत्तारि नाणाइंतिगिय अगागाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! नाणी नो अण्णाण नियमा एगनाणी-केवल णाणी ॥ सोइंदिय लद्धियाणं जहा इंदिय लदिया तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा! इन्द्रिय के लद्धिया में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजनाइसके अलद्धिया में केवल ज्ञान की नियमा. क्योंकि अनन्द्रिय केवल ज्ञानी ही होते हैं. श्रोत्रेन्द्रिय के लद्धिया में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना उम के अलद्धिया में कितनेक को दो ज्ञान व कितनक को एक ज्ञान होता है. मति श्रुति ऐसे दो ज्ञानवाले विकले * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालामतादजी * भावार्थ Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगती) सूत्र नाणीव अण्णाणीव, जे नाणी ते अत्थेगइया दुनाणी अत्थेगइया एगनाणी, जे दुनाणी ते आभिणिबोहिय नाणी भुयनाणी, जे एगनाणी ते केवलनाणी, जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी तं मति अण्णाणी सुयअण्णाणी ॥ चक्खिदिय घादिडिया अद्वियाणं जहेब सोईदियलद्धिया अलडिया । जिब्भिदिय लद्धिया चत्तारि नाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए || तस्स अलद्धियाणं पुच्छा ? गोयमा ! नाणीवि, अण्णाणीवि, जे नाणी ते नियमा एगनाणी - केवलणाणी, जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी तंजहा मइ अण्णाणी सुयअण्णाणीया ||१. सिंदिय लडियाय अलद्धियाय जहा इंदिल दिया अलड़िया ॥ १८ ॥ सागारोवउत्ताणं भंते! जीवा किंणाणी अण्णाजी {न्द्रिय होते है और एक केवलज्ञानवाले अनेन्द्रिय होते हैं वहां श्रोत्रेन्द्रिय नहीं होने से उस के अलद्धिये गिने गये हैं और दो अज्ञान की नियमा विकलेन्द्रिय आश्री. चक्षुइन्द्रिय व घ्राणेन्द्रिय का भी ऐते ही जानना. रसनेन्द्रिय के लडिया में चारज्ञान तीन अज्ञान की भजना उस के अलद्धिये में एक केवलज्ञान व दो अज्ञान की नियमा है. स्पर्शेन्द्रिय के लडिये में चार ज्ञान तीन अज्ञान की द्विये में केवलज्ञान की नियमा है ॥ १८ ॥ साकारोपयुक्त में पांच ज्ञान तीन भजना है, उस के अल अज्ञान की भजना मति आठवा शतकका दूसरा उद्देशा 42 १०६१ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmm १०६३ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + AAAAwwwwwwwwwwwwwwww पंचनाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए, आभिणिबोहियणाण सागारोवउत्ताणं भंते ! चत्तारि नाणाई भयणाए । एवं सुयनाण सागारोवउत्तावि, ओहिनाण सागारोवउत्ता जहा ओहिनाण लद्धिया । मणपजवनाण सागारोवउत्ता जहा मणपज्जवनाण लद्धिया ॥ केवलणाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया।। मइअण्णाण सागारोवउत्ताणं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए, एवं सुयअण्णाणसागरोवउत्तावि, विभंगनाणसागरोवउत्ताणं तिणि अण्णाणाई नियमा । अणागारोवउत्ताण भंते ! जीवा किण्णाणी अण्णाणी ? पंचणाणाई तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । एवं चक्खुदंसण अचखुदसण अणागारोवउत्तावि, नवरं चत्तारि नाणाइं तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । ओहिदसण अणागारोवउत्ताणं पुच्छा ? गोयमा ! नाणीवि, अण्णाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगइया तिनाणी, अत्थेगइया चउनाणी, जे तिनाणी ते आभिणियोहियनाणी, सुयनाणी, इज्ञान श्रतज्ञान अवधि व मनापर्यव ज्ञान में चार ज्ञान की भजना. केवलज्ञान साकारोपयुक्त में केवल ज्ञान की नियमा. मतिअज्ञान श्रतअज्ञान के साकारोपयुक्त में तीन अज्ञान की भजना विभंग ज्ञान के साकारोपयुक्त में तीन अज्ञान की नियमा. अनाकारोपयुक्त में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. चक्षु *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - +:08* ओहिनाणी; जे चउनाणी ते आभिणिबोहियणाणी जाव मणपज्जवणाणी, जे अण्णाणी ते नियमा तिअ अण्णाणी तंजहा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी, विभंगनाणी, केवलदसण अणागारोवउत्ता जहा केवलणाण लधिया ॥ १९ ॥ सजोगीणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? जहा सकाइया, एवं मणजोगी वयजोगीवि, कायजोगीवि, अजोगी जहा सिद्धा ॥ २० ॥ सलेस्साणं भंते ! जीवा किं गाणी ? जहा सकाइया । किण्हलेस्साणं भंते ! जहा सकाइया सइंदिया, एवं जाब पम्हलेस्सा, सुक्कलेसग जहा सलेस्सा ॥ अलेस्सा जहा सिद्धा ॥ २१ ॥ सकसाइयाणं भंते ! जहा सइंदिया एवं जाव लोह कसाइयाणं । अकसाइयाणं भंते ! किंणाणी अण्णाणी ? भावार्थE अचक्षु दर्शन अनाकारोपयुक्त में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. अवधिदर्शन अनाकारोपयुक्त में चार ज्ञान की भजना तीन अज्ञान की नियमा केवलदर्शन में केवल ज्ञान की नियमा ॥ १९ ॥ सजोगी मन जोगी वचन जोगी व कायजोगी में सकायिक की तरह पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. अजोग 26 में केवल ज्ञान की नियमा ॥ २० ॥ सलेशी में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना कृष्ण, नील, कापोत, तेजो व पद्मलेशीवाले में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना शुक्ललेशी में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र आठवा शतक का दूसरा उद्देशा | Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .०६४ पंचणाणाइं भयणाए ॥ २२ ॥ सवेदगाणं भंते ! जहा सइंदिया । एवं इत्थिवेदगावि एवं पुरिसवेदगावि नपुंसगवेदगावि, अवेदगा जहा अकसाइया ॥ २३ ॥ आहारगाणं भंते ! जहा सकसाइया, णवरं केवलनाणंवि ॥ अणाहारगाणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? मणपज्जवनाणवजाइं णाणाइं, अण्णाणाइं तिण्णि भयणाए ॥ २४ ॥ आभिणिबोहियनाणस्सणं भंते ! केवइए विसए ५० ? गोयमा ! से समासओ चउबिहे प० तंजहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, दवओणं आभिणिबोहियनाणी. आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, खत्तओणं आभिणि भावार्थ अलेशी में केवल ज्ञान की नियमा ॥ २१ ॥ सकपायी, क्रोध, मान, माया व लोभ कषायी में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना अकषायी में पांच ज्ञान की भजना ॥ २२ ॥ सवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुपवेदी व नपुंसकवेदी में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. अवेदी में पांच ज्ञान की भजना सवेदीपना नववे गुणस्थान पर्यंत पाता है ॥ २३ ॥ आहारक में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना अनाहारक में मनापर्यव ज्ञान कछोड़कर शर ज्ञान तीन अज्ञान की भजना ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! आभिनियोधिक ज्ञान का विषय कितना कहा है ? अहो गौतम! आभिनियोधिक ज्ञान के चार भेद द्रव्य से, क्षेत्र से, काल मेव * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * बोहियनाणी, आएरेसणं सव्वखत्तं जाणइ पासइ, एवं कालओ भावओधि ॥ ३४ ॥ सुयनाणस्सणं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउविहे पप्णते, तंजहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ ॥ दन्वअणं मुयनाणी उवउत्ते सव्व दवाइं जाणइ पासइ,एवं खेत्तओवि,कालओवि भावओणं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे . जाणइ पासइ ॥ ओहिनाणस्सणं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समा सओ चउबिहे पण्णत्ते तंजहा-दव्वओ, खत्तओ, कालओ, भावओ ॥ दव्यओ भाव से. द्रव्य से मति ज्ञानी आदेश से सब द्रव्य जाने देखे, क्षेत्र से सब क्षेत्र जान देखे. एमे ही काल व भाव का जानना. श्रुत ज्ञान के चार भेद कहे हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव. श्रुत ज्ञानी उपयोग सहित अभिधान थकी अभिधेय प्रति समर्थ होवे इसलिये विशेष कहा सर्व द्रव्य धर्मास्तिकायादि प्रति जाने. श्रुत ज्ञानी वैसे स्वरूप देखे. जो दश पूर्व के धारक श्रत केवली है व दश पूर्व से कम भजनाई से देखे. ऐसे ही क्षेत्रादिक की वक्तव्यता कहना. भाव से श्रुत ज्ञानी उपयोग युक्त जानकर सब जाने देखे. अवधि ज्ञानी के चार भेद द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव. द्रव्य से अवधि ज्ञानी रूपी पदार्थ जाने १ जो ज्ञान का सामान्य विशेष प्रकार है उस में समुच्चय से जाने देखे परंतु भेदानुभेद सहित जाने देखे नहीं. भावार्थ 480 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र आठवा शतकका दूसरा उद्दशा gm Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1% अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ओहिनाणी रूविदव्वाइं जाणइ पासइ; जहा नंदीए जाव भावओ ॥ मणपज्जवनाण स्सण भंते ! केवइए विसए प. ? गोयमा ! से समासओ चउविहे प० तंजहा दव्वओ खत्तओ कालओ, भावओ, दव्वओणं उजुमई अणते अणंतपएसिए जहा नंदीए, जाव भावओ ॥ केवल नाणसणं भंते ! केवइए विसए ५० ? गोयमा ! से समासओ चउविहे प० तंजहा दव्वओ, खत्तओ, कालओ, भावओ ॥ दवओ केवलनाणी सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, एवं जाव भावओ ॥ मइ अण्णाणस्सणं भंते ! केवइए विसए ५० ? गोयमा ! चउविहे प० तंजहा दवओ जाव देखे, क्षेत्र से जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग जाने देखे, उत्कृष्ट संपूर्ण लोक व अलोक में लोक जितने असंख्यात खंड होवे तो जाने देख. काल से जघन्य आवलिका का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट असंख्याती अवसर्पिणी उत्सर्पिणी. भाव से अनंताभाव जाने देखे. इत्यादि सब नंदोस्त्रानुसार जानना. मनःपर्यव ज्ञान के चार भेद द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव. द्रव्य से संज्ञी के मन के भाव जाने दख, क्षेत्र में दो भेद ऋजुमति और विपुलमति. ऋजुमति अढाइ अंगूल कम अढाई द्वीप जाने दखे, विपुलमति संपूर्ण अढाइ द्वीप जाने देखे, काल से पल्योपम के असंख्यातवे भाग से अतीत अनागत काल की बात जाने देखे, भाव से केवल ज्ञान के अनंतवे भाग जाने देखे. केवल ज्ञान के द्रव्यादि चार भेद. केवलज्ञानी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी * भावार्थ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६७ पंचमांग विवाह पप्णत्ति ( भगवती) सूत्र भावओ । दव्वओणं मइअण्णाणी मइ अण्णाण परिगयाई दव्वाइं जाणइ पासइ ॥ एवं जाव भावओ मइअण्णाणी मइअण्णाण परिगए भावे जाणइ पासइ सुयअण्णाणस्सणं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउबिहे प० तंजहा–दव्यओ जाव भावओ । दवओणं सुयअण्णाणी सुयअण्णाण परिगयाइं दव्वाई आघवेइ, पण्णवेइ, परूबेइ, एवं खेत्तओ, कालओ, भावओण सुय अण्णाणी सुय अण्णाण परिगए भावे आघवेइ तचेव ॥ विभंगनाणरसणं भंते ! केवइए विसए प.? गोयमा! से समासओ चउविहे प० तं० दवओ ४ । दव्वओणं विभंगनाणी विभंगनाण परिगगई दवाइं जाणइ पासइ, एवं जाव भावओणं. विभंगनाणी विभंगनाण परिगए सब द्रव्य, क्षेत्र काल भाव जाने देखे. मति अज्ञान के द्रव्यादि चार भेद जानना. मति अज्ञानी मति अज्ञान के विषयवाले द्रव्य जाने देखे ऐसे है। क्षेत्र, काल. व भाव का जानना. श्रुत अज्ञान के द्रव्यादि चार भेद. श्रुत अज्ञानी द्रव्य, क्षेत्र काल व भाव से श्रुत अज्ञान के विषयवाले सब द्रव्य कहे, प्ररूपे. विभंग as ज्ञान का कितना विषय कहा है ? अहो गौतम ! विभंग ज्ञान के चार भेद द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से व भाव से द्रव्य से विभंग ज्ञानी विभंग ज्ञान परिगत द्रव्य को जाने देखे ऐसे ही क्षेत्र, काल व भाव का 388.9 आठवा शतकका दूसरा उद्देशा HP TH Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक- बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी भावे जाइपास, ॥ २५ ॥ नागीणं भंते ! नाणीत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! नाणीदुविहे प० तं साइएवाअपज्जवसिए, साइएवासरज्जवसिए ॥ तत्थणं जे से साइएसपज्जवलिए से जहणेणं अंतीमुहुत्तं, उक्कोसेणं छासट्टिसागरोजानना || २५ || अहो भगवन् ! ज्ञानी जीव ज्ञानीपने कितना कालतक रहे ? अहो गौतम ! ज्ञानी के ( दो भेद आदि सहित अंत रहित और आदि व अंत सहित इन में से दूसरा भांगावाला ज्ञानी ज्ञानी - { पने जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक ६६ सागरोपम रहे. अनुत्तर विमान के दो भव करने से अथवा अच्युत विमान में तीन भव करने से उक्त काल पूर्ण होता है अधिक में मनुष्य भव की स्थिति आजाती है. पांच ज्ञान तीन अज्ञान इन आठों का अवस्थित काल अहो भगवन् ! कितना है ? अहो गौतम ! मति (श्रुति दोनों ज्ञान का जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट ६६ सागरोपम अवधि ज्ञान की जघन्य एक समय उत्कृष्ट | (६६ सागरोपम मन:पर्यय ज्ञान की स्थिति जघन्य एक समय उत्कुष्ट देश ऊना क्रोड पूर्व केवल ज्ञान आदि सहित व अंत रहित है, मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान की स्थिति के तीन भेद अनादि अनंत अभव्य आश्री अनादि सान्त व सादि सान्त, सादि सान्त की जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊना अर्ध पुद्गल * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादगी * १. जब विभंग ज्ञानी सम्यक् प्रतिपन्न होता है तब एक समय में विभंग ज्ञानी का अवधि ज्ञानी बनकर शीघ्र ही दूसरे समय में पडबाइ होता है. इस से एक समय लीया गया है. १०६८ Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. १०६९ वमाइं साइरगाई। आभिणिबोहियनाणीणं भंते ! एवं नाणी आभिणिबोहिय नाणी जाव केवलनाणी, अण्णाणी मइअण्णाणी सुय अण्णाणी विभंगनाणी; एएसिणं अटण्हवि संचिटणा जहा कायद्विइए अंतरं सव्वं जहा जीवाभिगमे अप्पाबहुगाणि, तिष्णि जहा बहुव त्तव्वयाए ॥ २६ ॥ केवइयाणं भंते ! आभिणिबोहियनाणपजवा ५० ? गोयमा ! भावार्थ परावर्त. विभंग ज्ञान की स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम व देश ऊना क्रोड पूर्व अधिक इस का सब वर्णन जीवाभिगम मूत्र से जानना. इस का अंतर मति, श्रुत, अवधि व मनापर्यव ज्ञान का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट देश ऊना अर्ध पुद्गल परावर्त. केवल ज्ञान का अंतर नहीं. मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान का जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट साधिक ६६ सागरोपम. विभंग ज्ञान का जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंत काल. अल्पाबहुत्व सबसे थोडे मनःपर्यव ज्ञानी क्योंकि यह ज्ञान अप्रमत्तसंयति को होता है इस से अवधि ज्ञानी असंख्यातगुने देव नरक आश्री इस से मति श्रत ज्ञानी परस्पर तल्य विशेषाधिक विकलेन्द्रिय हैं आश्री इस से केवल ज्ञानी अनंतगुने सिद्ध आश्री अज्ञान में सब से थोडे विभंग ज्ञानी इस से मति श्रुत अज्ञानी परस्रप तुल्प अनंतगुने. आगे ज्ञान अज्ञानकी अल्पाबहुत्व. सब से थोडे मन:पर्यव ज्ञानी इस से अवधिज्ञानी असंख्यातगुने इस से मति श्रुत ज्ञानी परस्पर तुल्य विशेषाधिक इस से विभंग ज्ञानी असंख्यातगुने इस मे केवल ज्ञानी अनंनगुने और इस से मति अज्ञानी व श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य अनंतगुने ॥ २६ ॥ अव पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 408203 3 आठमा शतक का दूसरा उद्देशा | 4 । Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ <-८०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अनंता आभिणिबोहियनाणपजवा पण्णत्ता ॥ केवइयाणं भंते सुयनाणपज्जवा प० एवं चैत्र, एवं जाव केवलनाणस्स ॥ एवं मइ अण्णाणस्स, सुयअण्णाणस्सय । केवइ याणं भंते! विभंगनाणपजवा प० ? गोयमा ! अनंता विभंगनाण पज्जवा प० ॥ एएसिणं भंते ! आभिणिबोहियनाण पंजवाणं, सुयणाण पज्जवाणं, ओहिनाण पंजवाणं मणपजवणाणपज्जाणं, केवलणाण पजवाण य कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणनाण पजवा, ओहिनाण पजवा अनंतगुणा, सुयनाण पर्यव द्वार कहते हैं. मति ज्ञान के पर्यव अनंतगुने पर्यव के दो भेद. १ स्वपर्यव २ परपर्यव. क्षयोपशम की विचित्रता से अवग्रहादि मति विशेष सो स्वपर्यव. जैसे एक अवग्रह से अन्य अवग्रहादि अनंत भाग वृद्धि से विशुद्धि तथा अन्य असंख्यात भाग वृद्धि अपर असंख्यात भाग वृद्धि, वृद्धि तदन्य असंख्यात गुन वृद्धि, यों संख्याते के संख्यात भेदपना से असंख्याते के से अनंत के अनंत भेदपना से अथवा ज्ञेय के अनंतपना से प्रतिज्ञेय को भेदने से अन्य संख्यात गुन असंख्यात भेदपना अथवा मति ज्ञान के अविभाग पाले छेदकर वृद्धि से छेदते हुए अनंत खण्ड होते हैं इसलिये इस के अनंत पर्यव कहे हैं और { जो पदार्थ मति ज्ञान परिछिन्न घटादि वस्तु के व्यतिरेक जो पटादि पदार्थ पर्याय सो पर पर्याय. वे स्वपर्याय से अनंतगुने हैं. ऐसे ही श्रुत ज्ञान के अनंत पर्यत्र कहे हैं. १ पर्याय जो श्रुत ज्ञान के स्वगत प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहामजी ज्वालाप्रसादजी * 0606 Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १०११ भावार्थ PHg पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र < do पजबा अणंतगुणा, आभिणिबोहिय नाण पजवा अणंतगुणा, केवलनाण पज्जया अणंतगुणा ॥ एएसिणं भंते ! मइ अण्णाण पजवाणं, सुयअण्णाण पजवाणं, विभंग नाण पजवाणय कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा विभंग नाण पजवा, सुयअण्णाण पजवा अणतगुणा, मइ अण्णाण पजवा अणंगुणा ॥ एएसिणं भंते! आभिाणबोहिय नाण पजवाणं जाव केवलणाण पजवाणं, मइ अण्णाण पजवाणं सुयअण्णाण पजवाणं विभंग नाण पजवाणय कयरे २ जाव विसेसाहियारा ? गोयमा अक्षर श्रुतादि भेद से अनंत हैं. क्षयोपशम वैचित्र्य विषय की अनंतता से श्रुतानुसारी बोध के अनंतपना से. अथवा अविभाग खंड के अनंतपना से. अथवा श्रुत ग्रन्थानुसारी ज्ञान सो श्रुत ज्ञान अक्षरात्म अक्षर सो अकारादि. एक अक्षर के उदात्त, अनुदात्त व स्वरिन तथा सानुनासिक अननुनामिक, अल्प प्रयत्न महा प्रयत्नादि भेदों से संयुक्त असंयुक्त भेद से अकरादि नाम के अनंतपना से अनंत कहे हैं. यो श्रुत ज्ञान के अनंत पर्यव कहे हैं. अवधि ज्ञान के पर्यव अनंत कहे हैं. अवधि ज्ञान के भेद भवप्रत्यय ४० व क्षयोपशम से नरक, तियेच, देव मनुष्य रूप के स्वामी भेद से असंख्यात तद्विषयभूत क्षेत्र काल भेद ७ अनंत भेद तद्विषय द्रव्य पर्याय से अथवा अविभाग खंड से अनंत मनःपर्यव व केवल ज्ञान के स्वपर्याय के स्वाम्यादि भेद से परिच्छेद की अपेक्षा से स्वगत विशेष अनंता अनंत द्रव्य पर्याय. ऐसे ही मति, आठवा शतक का दूसरा उद्दशा 80-8.20 Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सत्वा मणनाण पज्जवा विभंगनाण पज्जवा अणंतगुणा, ओहिनाण पज्जवा अणंतगुणा सुयअण्णाण पज्जा अनंत गुणा सुयनाण पज्जवा विसेसाहिया, मइ अण्णाण पज्जवा अनंतगुणा, आभिणिबोहिय नाणपज्जवा विसेसाहिया, केवलणाण पज्जवा अनंतगुणा, श्रुत अज्ञान व विभंग ज्ञान के पर्यव अनंत हैं ऐसा जानना. अब इन की अल्पाबहुत्व. सब से थोडे मनःपर्यव ज्ञान के पर्यव क्योंकि मनोद्रव्य मात्र विषयभूत है इस से अवधिज्ञान के पर्यव अनंतगुने इस से { श्रुत ज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने इस से आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने इस से केवल ज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने तीन अज्ञान आश्री सब से थोडे विभंग ज्ञान के पर्यत्र इस से श्रुत अज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने इस से मति अज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने. अब इन आठों की अल्पाबहुत्व. सब से थांडे मनःपर्यत्र ज्ञान के पत्र इस से विभंग ज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने इस से अवधि ज्ञान के पर्यत्र अनंतगुने, इस से श्रुत अज्ञान के (पर्यव अनंतगुने त अज्ञान श्रुत ज्ञानी के औघ से स्वमूर्त अमूर्त सब पर्याय का ज्ञान के पर्यव विशेषाधिक कितनेक श्रुत ज्ञानी के पर्यत्र अविषयकृत पर्याय को विषयपना से, इस से श्रुत प्रगट करे इसलिये, इस से मति अज्ञान के पर्यव अनंतगुने श्रुत ज्ञान से कही हुई वस्तु में मवर्ते इसलिये, इस से आभिनिवोधिक ज्ञानके पर्यव विशेषाधिक किसीने मति अज्ञान विषय किया नहीं ऐसे जो भाव उस का विषय के कारन से इस से * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १०७२ Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ का कितने प्रकार के भं० भगवन् रु. वृक्ष प० प्ररूपे गो. गौतम तिः तीन प्रकार के सं० संख्यात जी० जीव वाले अ० असंख्यात जी० जीव वाले अ० अनंत जी० जीव वाले से वह सं० संख्यात जी० Y जीव वाले गो० गौतम सं० मख्यात जी• जीव वाले अ.अनेक प्रकार के ल०वह कि० कौन से ता ताल. त. तमाल त तकलि तें० तेतलि ज. जैने ५० पनवणा में जा. यावत् ना० नालीएरी जे. जो अ.अन्य ७ | त० तथा प्रकार के मे० वह सं० संख्यात जी जीव वाले से वह कि कौन मे अ० असंख्यात जी. सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठम सयस्स बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ २ ॥ कइविहाणं मंते ! रुक्खा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा रुक्खा प० तं० संखेजजीविया, असंखज जीविया, अनंत जीविया ॥ से किंतं संग्वेज जीविया ? गोयमा ! संखेज जीविया अणेगविहा ५०० ताले तमाले तत्काल तेताले जहा पण्णवणाए,जाव नालि. भावार्थ E केवल ज्ञान के पर्यव अनंतगुने सर्व भाव समस्त द्रव्य पर्याय जो जाने. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह आठवा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ८ ॥२॥ 902 गत उद्देशे के अंत में ज्ञान पर्याय पलटने का कहा. जैसे ज्ञान की पर्याय पलटती है वैसे ही वृक्षादि । ११ पुद्गलों की पर्याय पलटती है इसलिये वृक्षादिक का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! वृक्ष के किनने भेद । कहे हैं ? अहो गौतम ! वृक्ष के तीन भेद कह हैं, १ संख्यात जीववाले २ असंख्यात जीववाले व ३ अनंत 48-49 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र Barta आठवा शतक का तीसरा उद्देशा hogin Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवांदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जीव वाले अ० असंख्यात जी जीव वाले दु० दोप्रकार के ए. एक गुठली वाले ब० बहुगुठली वाले से वह किं कौन से एक एक गुठली वाले अ० अनेक प्रकार के तं० वह ज. जैसे नि. निम्ब अं. आम्र जं. जामुन ज. जैसे प. पनवणा में जा. यावत् फ. फल व. बहु जीव वाले से वह ब० बहु वीज वाले से वह अ० असंख्यात जी• जीव वाले से वह कि कौन से अ० अनंत जी जीव वाले एरी जेथावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं संखजजीविया ॥ सेकिंतं असंखेज जीविया ? . असंखेज जीविया दुविहा पण्णत्ता तं०एगट्ठिया, बहुट्ठियाय । से किंतं एगट्ठिया? एगट्ठिया अणेगविहा प०, तंजहा निबंबजंबु एवं जहा पण्णवणापए जाव फला. बहु बीयगा, सेत्तं बहुबीयगा, सेत्तं असंखेज जीविया ॥ से किंतं अणेतजीविया ? जीववाले. अहो भगवन् ! संख्यात जीववाले वृक्ष किस को कहते हैं ? संख्यात जीववाले वृक्ष के अनेक भेद कहे हैं. उन के नाम तालवृक्ष तमालवृक्ष, तक्कलीवृक्ष, तेतलीवृक्ष, लेपवृश. पालवृक्ष. कल्याणवृक्ष, शालवृक्ष, केतकी वृक्ष, कदली वृक्ष, चर्भ वृक्ष, भुयवृक्ष, गरुलवृक्ष, लवंग वृक्ष, पुंगी फल, खजुर, नालियेर, और इस प्रकार के अन्य वृक्ष के नाम भी पनवणा सूत्र से जानना. ये संख्यात जीववाले वृक्ष कहे. अब असंख्यात जीवबाले वृक्ष के दो भेद १ जित फल में एक गुठली होवे वैसे एक गुठलीवाले और १२ जिप्त फल में बहुत गुठली होवे वैसे वहुत गुठलीवाले. अहो भगवन् ! एक गुठलीवाले वृक्ष के कितने * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ अ० अनंत जी०जीव वाले अ० अनेक प्रकार के तं० वह न० जैसे आ० आलु मू० मूली सिं०अदरख २० ऐसे ज० जैसे स० सातवे स० शतक में जा० यावत् सी० शीतोष्ण मु० मुसुंढी जे. जो अ० अन्य त० ७ तथा प्रकार के सेः वह अ० अनंत जीव वाले ॥ १॥ अ० अथ भं० भगवन् कुं० कूर्म कु. कूर्म पंक्ति गोलसर्प गोलसर्प पंक्ति गो गो गो गौपंक्ति म मनुष्यम० मनुष्य पंक्ति म०महिष १० महिषपक्ति ए०इन भं०७ अणंतजीविया अणेगावहा पण्णत्ता तंजहां-आलुए, मूलुए, सिंगबरे, एवं जहा सत्तमसए जाव सीउण्हे मुसुंढी जेयावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं अणंतजीविया ॥ १ ॥ अह भंते ! कुंमे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणा, गोणावलिया, मणुस्से, भाव भेद ? अहो गौतम ! एक गुठलीवाले वृक्ष के अनेक भेद जो निंब, आम्र, जाम्बु, कसुंबा, शाल, अकोल, पील, सालू, मीलत, मालु, वावल, पलाम, करंजी, इत्यादि नाम पनवणा सूत्र में कहे हैं. अहो.. भगान् ! बहुत बीजवाले के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! बहुत बीजबाले के अनेक भेद कहे हैं. जसे आर्थिक. तिदुक, कविट, अबाडा, मातुलिंग, विल, आंवले, फनस, दाडिम, आशोढ, वड वगैरह नाम है 50 पन्नवणा सूत्र से जानना. अहो भगवन् ! अनंत जीववाले वृक्ष के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम !! अनेक भेद कहे हैं. जैसे आलू, मूला, अदरख, मुमुंढी, वगैरह सातवे शतक में कहे वैसे जानना ॥१॥ 10 अहो भगवन् ! काछवे, काछवे की पंक्ति, गोधा (सर्प की जाती) गोधा की पंक्ति, बैल, बैल की पंक्ति पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) मूत्र आठा शतकका तीसरा उद्देशा Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवन् दु. द्विधा ति त्रिधा सं० संख्यातवार छि० छेदा जे. जो अं० अंतर से वे ते० उन से जी. जीव प्रदेश से फु० स्पर्श हं० हां फु० स्पर्शे ॥२॥ पु. पुरुष भं० भगवन् अं० अंतर ह. हस्त से पा० पांव से अं० अंगुलि से स० शलाका से क काष्ट से क. छोटा काष्ट से आ० थोडा स्पर्श सं० बहुत स्पर्शे आ. एक वक्त स्पर्श वि० बहुत वक्त स्पर्शे अ० अन्यतर तितिक्ष्ण स० शस्त्र जात मे आ० छेदता वि० विशेष छेदता अ० अग्निकाया से स० जलाता ते. उन जी० जीव प्रदेश किं० किंचित् आ० आबाघ वि० मणुस्सावलिया महिसे,महिसावलिया,एएसिणं भंते! दुहावा तिहावा संखेजहावा छिण्णाणं जे अंतरा तेविणं तेहिं जीव पएसेहिं फुडा? हंता फुडा॥२॥ पुरिसेणं भंते!अंतराहत्थेणवा, पाएणग, अंगुलियाएवा, सलागाएणवा,क?णवा,कलिंबणवा,आमुसमाणेवा, संमुसमाणे, वा आलिहमाणेवा, विलिहमाणेवा अण्णयरेणवा तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिदमाणे वा, विच्छिदमाणेवा, अगणिकाएणं समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा मनुष्य मनुष्य की पंक्ति, महिष व महिष की पंक्ति, इनजीवों के दोखंड, तीन, यावत् संख्यात खंडकरे उनी खंड के बीच में क्या जीव अथवा अजीव के प्रदेश स्पर्श हवे हैं ? हां गौतम ! स्पर्श हुवे हैं ॥२॥ अहो? भगवन् ! क्या पुरुष किसी हस्त, पांव, अंगूलि, सलाका, कष्ट, व काष्ट के टुकडे से थोडा स्पर्शता हुवा बहुत स्पर्शता हुवा, थोडा खीचता हुवा, बहुत खींचता हुवा, किसी तीक्ष्ण शस्त्र से एकवार या वारंवार *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 १०७७ 498 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 व्याबाध उ० उत्पन्न करे छ० चर्मछेद क० करे णो नहीं इ० यह अर्थ सः योग्य णो० नहीं त० तहां ०स० शस्त्र क० संक्रमे ॥ ३ ॥ क० कितनी भं० भगवन् पु० पृथ्वी प० प्ररूपी गो० गौतम अ० आठ पु० १. पृथ्वी प० प्ररूपा तं० वह ज० जैसे र० रत्नप्रभा जा० यावत् अ० अधो स० सातवी ई० ईषत् प्रा० विवाहंवा उप्पायइ छविच्छंदवा करेइ ? णो इणटे समटे नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ ३ ॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा, ईसिंपब्भारा ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पभा छेदन भेदन करता हुवा व अग्निकाय से जलाता हवा उन जीव प्रदेशों को क्या पीडा, दुःख उत्पन्न कर सकता है या चर्म छेद कर सकता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अर्थात् प्रदेशों में शस्त्र अतिक्रमता नहीं है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीओं कितनी कही है ? अहो गौतम ! आठ पृथ्वीयों कही हैं रत्नप्रभा यावत् ईषत् माग्भार पृथ्वी. अहो भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या चरिम है या अचरिम है? अहो गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी चरिम भी नहीं है व अचरिम भी नहीं हैं - रत्नप्रभा पृथ्वी की बीच में कोई अन्य पृथ्वी होती तो इस का चरिमपने का संभव था यह नहीं हो * यहां चरिम अचरिम सापेक्ष्य वचन हैं. जो अन्तिम वस्तु होती है उसे चरिम कहते हैं जैसे पूर्व शरीर की अपेक्षा से चरिम शरीरी और अन्तिम नहीं सो अचरिम इस से रत्नप्रभा पृथ्वी का चरिम व अचरिम दोनों नहीं हैं. " आठवा शतक का तीसरा उद्देशा 8-4030 Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १०७८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ माग्भार इ० यह भ० भगवन् र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी किं. क्या च० चरिम अ० अचरिम च० चरिमपद * नि० निर्विशेष भा• कहना जा० यावत् वे० वैमानिक फा० स्पर्श च चरिम किं. क्या च० चरिम अ० पुढवी किं चरिमा अचरिमा ? चरिम पदं निरवसेस भाणियव्वं, जाव वेमाणियाणं भंते ! फास चरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमावि अचरिमावि, चरिम नहीं है. यदि रत्नप्रभा की बाहिर अन्य पृथ्वी होती तो इस का अचरिम का संभव था परंतु यह नहीं होने से अचरिम भी नहीं है. इन दोनों का अभाव से चरिम व अचरिम नहीं है. अथवा चरिम व अ अचरिम दोनों कहना. रत्नप्रभा पृथ्वी के अंत में रहे हुवे तदध्यासित क्षेत्र खंड तथाविध परमाणुयुक्त होने से चरिमाणी कहना. और बीच में बडे रत्नप्रभा आक्रान्त क्षेत्र खंड वे भी तथाविध परमाण युक्तहोने से अचरिम कहना. इस तरह उभय समुदायरूप यह रत्नप्रभा पृथ्वी है. इस के अभाव प्रदेश में चरिमान्त प्रदेश अचरिमान्त प्रदेश कहना. बाह्य खण्ड प्रदेश से चरिमान्त और मध्यखण्ड प्रदेश से अचरिमान्त इस तरह एकान्त दुनय वर्जना. रत्नप्रभा पृथ्वी जैसे शर्कर प्रभा यावत् वैमानिक देवतक का कथन करना. अहो भगवन् !' क्या वैमानिक देव स्पर्श चरिम मे क्या चरिम है या अचरिम है ? अहो गौतम ! चरिम भी है व अचरिम भी है. वैमानिक भव संभव स्पर्शन न होवे अर्थात् वहां उत्पन्न न होवे वह वैमानिक स्पर्श चरिम से चरिम है और जो स्पर्शन करे वह अचरिम है. इस का विशेष विवेचन * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 40 अचरिम गो० गौतम च० चरिम अ० अवरिम से वह ए० ऐसे ॥ ८ ॥ ३ ॥ रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐना ब बोले क० कितनी मं० भगवत् कि० क्रिया प० प्ररूपीं गो० गौतम पं० पांच क्रिया प० प्ररूपी का कायिकी अ० अधिकरणिकी ए० ऐसे कि० क्रियापद नि० सेवं भंते भंतेति ॥ अट्टमसए तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ ३ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी कइणं भंते! किरिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचकिरिया प० तंजहा काइया अहिगरणिया एवं किरिया पदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव माया{ पनत्रणा सूत्र से जानना अहो भगवन् ! आपके वचन तथ्य हैं. यह आठवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ ३ ॥ = = तीसरे उद्देशे में चरम अचरम का कहा अब क्रिया का अधिकार कहते हैं राजगृह नगर के गुण शील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! क्रिया के कितने भेद हैं ? अहो गौतम ! क्रिया पांच प्रकार की कही है. कायिकी, अधिकरणिकी, प्रद्वेषिकी, परितापनिकी व प्राणातिपातिकी इनका विवेचन पद्मपणा सूत्र के बावीस वे क्रिया पद में विस्तार पूर्वक है इस का अंतिम सूत्र यह है अहो भगवन् ! आरंभिकी, परिग्रहिंकी, मायाप्रत्ययिकी, अमत्याख्यान व मिथ्यादर्शनशल्य इन पांचों क्रियाओं में कम ज्यादा यावत * आठवां शतकका चौथा उद्देशा 48 १०७९. Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ निर्विशेष भा० कहना जा. यावत् मा०माया प्रत्ययिकी वि०विशेषाधिक से वह ए०ऐसे भं भगवन।।८॥४॥ रा० राजगृह न. नगर में जा. यावत् ए. ऐसा क. बोले आ० आजीविक भं० भगवन् थे० स्थविर भ० भगवन्त को ए. ऐसा व० बोले स० श्रमणोपासक के भं० भगवन् सा० सामायिक क की हुई वत्तियाओ विसेसाहियाओ।सेवं भंते भंतेत्ति॥अट्ठमसए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥८॥४॥ रायगिहे नयरे जाव एवं वयासी आजीवियाणं भंते ! थेरे भगवंते एवं वयाटी समणोवासगस्सणं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवासए अत्थमाणस केइ भंडं ___ अवहरे ना सेणं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ, परायगं भावार्थविशेषाधिक कौनसी क्रिया वाले हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे मिथ्यादर्शभिकी क्रियावाले इस से अप्रत्याख्यान प्रत्यायकी क्रिया वाले विशेषाधिक, इस से परिग्रहीकी क्रिया वाले विशेषाधिक इस आरंभिकी क्रिया वाले विशेषाधिक इस से माया प्रत्यापकी क्रिया वाले विशेषाधिक. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह आठवा शतक का चौथा उद्देशा समाप्त हुआ ॥ ८॥ ४॥ * क्रिया अधिकार से पांचवे उद्देशे में परिग्रह क्रिया का स्वरूप कहते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके श्री.गौतम स्वामी प्रश्न पूछने लगे कि अहो भगवन् ! आजीविक ( गोशालक ) के शिष्योंने स्थविर भगवंत को ऐसा प्रश्न किया कि 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८१. शब्दार्थ स. श्रमणके उपाश्रय में अ० बैठे हुवे के के० कोई भं० भंडोपकरण अ० लेवे मे वह भगवन् त. उम भं० भंडोपकरण को अ० गवेषता कि क्या स० अपने भं० भंडोपकरण अ० गवेषे १० दूसरे के G० भंडोपकरण अ० गयेषे गो० गौतम स० अपने मं० भंडोपकरण अ० गवेषे नो० नहीं प० दूसरे के भ० भंडोपकरण अ० गवेषे न० उस को भं० भगवन ते • उस सी० शीलवत गु० गुणविरमण ५० प्रत्याख्यान पो० पोषध उपवास से से० वह भं० भंडोपकरण अ० अभंड भ• होवे हं० हां भ० होवे से वह भंडं अणुगवेसइ ? गोयमा ! सयं भंडं अणुगवेसइ, नों परायगं भंडं अणुगवेसइ ।। तस्सणं भंते ! तेहिं सीलव्वय गुण वेरमण पच्चक्खाण पोसहोववासेहिं से भंड़े अभंडे भवइ ? हंता भवई । सेकेणं खाइणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुग श्रमण के उपाश्रय में सामायिक व्रत अंगीकार करके बैठा हुवा श्रावक के भंडोपकरण कोई पुरुष लेजावे. भावार्थ फीर सामायिक पूर्ण हुघे पीछे उस भंडोपकरण को गवेषते हुए क्या वह अपने भंडोपकरण की गवेषणा करता है या अन्य के भंडापकरण की गवेषणा करता है ? : अहो गौतम ! वह सामायिक व्रतवाला + यहांपर प्रश्न कर्ता का यह अभिप्राय है कि सामायिक में भंडोपकरण के प्रत्याख्यान होने से सामायिक व्रतवाले के भंडोपकरण नहीं हो सकते हैं परंतु ममत्व भावका हेद नहीं होने से सामाईक एर्ण हुए प.हे अनुमण करना १ ऐसा कहा; सामायिक व्रत में गवेषणा अयुक्त है; 480 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति (भगवती ) सत्र आठया शतकका पांचवा उद्देशा : Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - olo के किस अ० अर्थ से भं० भगवन् ए० ऐसा वु० कहाजाता है स० स्वयं भं० भंड की अ० गेवषणा करे नो० नहीं प० दूसरे के भं० भंड की अ० गवेषना करे गो० गौतम त० उस को ए० ऐसा भ० होवे [णो० नहीं मे० मेरे हि० चांदी सु० सुवर्ण कं० कांस्य दू० दृष्य वि० विपुल घ० धन क० कनक र० रत्न म० मणि मो० मौक्तिक सं० शंख सि० शिला ५० प्रवाल २० रक्त रत्न वगैरह सं० प्रधान सा० धन म० ममत्व भाव पु० फीर अ० अपरिज्ञात भ० होने से वह ते० इसलिये गो० गौतम ए० वेसइ, नो परायगं भंड अणुगवेसइ ? गोयना ! तस्तणं एवं भवइ णोमेहिरण्णे णोमे सुवणे, गोमे कंसे, नोमे दूसे विउलधण-कणग-रयण-मणि- मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल- रत्तअपना भंडोपकरण की गवेषणा करता है परंतु अन्य के भंडोपकरण की गवेषणा नहीं करता है. अहो भगवन् ! उस श्रावक को क्षयोपशम से ग्रह हुवे शीलव्रत से अनुव्रत, गुणव्रत, रागादिक से विरति, नवकारसी पौरुषी व पौषधोपवास से क्या भंड अभंड होते हैं ? हां गौतम ! उस के भंड अभंड होते हैं. अहो भगवन् ! जब उप श्रावक को भंड अभंड होते हैं, तब ऐसा किस कारन से कहाजाता है कि वह अपनी वस्तु की गवेषणा करता है परंतु अन्य की वस्तु की गवेषणा नहीं करता है ? अहो गौतम ! उस श्रावक को सामायिक में ऐसे परिणाम वस्त्र, विपुल धन, कनक, विद्रुम, शीलास्फटिक और प्रधानं द्रव्य मेरे नहीं है. फीर हैं कि चांदी, सुवर्ण, कांस्य, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शील, मवाल, * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १०८२ Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्दा - सूत्र ऐसा वु. कहा जाता है. स. अपने भ० भंड की अ० गवेषना करे नो० नहीं प० दूसरे के भं० भंड की अ० गवेषणा करे ॥ १ सरल शब्दार्थ ॥ २-३-४ ॥ आ० आजीवक स० समय का अ० यह अर्थ १० रयणमादिए संतसार सावएजे ममत्तभावे पुणसेअपारणाए भवइ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुगवेसइणोपरागयंभंडं अनुगवेसइ॥१॥समणोवासगस्सणं भंते! सामाइयकडस्स समणोवासए अत्थमाणस्स केइ जायं चरेजा, सेणं भंते ! किं जायं चरइ, अजायं चरइ ? गोयमा ! जायं चरइ नो आजायं चरइ ॥ तस्सणं भंते ! तेहिं सीलब्धय गुण वेरमण पञ्चक्खाण पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ ? सामायिक व्रत पूर्ण हुए पीछे ममत्व भाव से अपरिजात धनता है इसलिये अहो गौतम ! ऐमा कहा गया है। कि स्वकीय भंड की अनुगवेषणा करता है परंतु परकीय भंड की अनुगवेषणा नहीं करता है ॥१॥ अहो भगवन् ! श्रमण उपाश्रय में सामायिक व्रत से बैठा हुवा श्रमणोपासक की स्त्री को कोई जार पुरुष सेवे तो क्या वह जाया [स्त्री ] को सेवता है या अजाया को सेवता है ? अहो गौतम ! जाया os सेवता है परंतु अजाया नहीं सेवता है. अहो भगवन् ! उस को शील व्रत गुणवत, विरमणव्रत और मसाख्यान पौषधोपवास से क्या जाया अजाया होती है? हां गौतम! उस को जाया अजाया होती है.. अहो भगान् ! जब ऐसा है तो किस कारन से ऐसा कहा जाता है कि जाया सेवता है परंतु अजाया । 48 पंचमांग विवाह पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र 4284 आठवा शतकका पांचवा उद्देशा84881 भावार्थ Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी नभइ ॥ सेकेणं खाइणं अद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जायं चरइ नो अजायं चरइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ नो मे माया, जो मे पिया, णो मे भाया, जो मे भइनी, भजा, नो मे पुत्ता नो मे धूया, नो मे सुण्हा, पेजबंधणे पुण से अवोच्छिण्णे भवइ से ते द्वेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ ॥ २ ॥ समणोवासगस्तणं भंते ! वामेव थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, सेणं भंते ! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे किं करेइ ? गोयमा ! तीयं पडिक्कमइ, पडुपण्णं संवरेइ, अणागयं पच्चक्खाइ ॥ तीयं नहीं सेवता है ? अहो गौतम ! सामायिक व्रत में उस को ऐसा विचार होता है कि माता, पिता, भ्राता, (भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री व पुत्रवधू ये मेरे नहीं हैं परंतु सामायिक व्रत पूर्ण हुए पीछे राग बंधन से निवृत्ति नहीं होती है इसलिये ऐसा कहाजाता है कि जाया का सेवन करता है. परंतु अजायाका सेवन नहीं करता है ||२|| अहो भगवन् ! श्रमणोपासके को पहिले स्थूल प्राणातिपात का अप्रत्याख्यान होता है. फीर प्रत्याख्यान करते हुवे क्या करता है? अहो गौतम ! अतीतकाल को प्रतिक्रमता है, वर्तमान काल को {संगरता है और अनागतकाल का प्रत्याख्यान करता है. अहो भगवन्! अतीत कालको प्रतिक्रमता हुवा क्या तीन करन तीनयोग से प्रतिक्रमता है, तीन करन दोयोग से, तीन करन एकयोग से, दो करन तीनयोग से, करन दो योग से, दो करन एक योग से, एक करन तीन योग से, एक करन दो योग से व एक * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी १०८४ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4082 पडिक्कममाणे किं तिविहं तिविहेणं पडिक्कमइ, तिविहं दुविहेणं पडिक्कमइ, तिविहं एगविहेणं पडिक्कमइ, दुविहं तिविहेणं पडिक्कमइ, दुविहं दुविहेणं पडिक्कमइ, दुविहं एगविहेणं पडिक्कमइ, एगविहं तिविहेणं पडिक्कमइ, एगविहं दुविहेणं पडिक्कमइ, १०८५ एगविहं एगविहेणं पडिक्कमइ ? गोयमा ! तिविहं तिविहेणं पडिक्कमइ, तिविहंवा दुविहेणं पडिकमइ तंचेव जाव एगविहं एगविहेणं पडिक्कमइ ॥ तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे नकरेइ नकारवेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा तिविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे नकरेइ, नकारवेइ, करंतं नाणुजाणइ, मणसा वायसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ करंतं नाणुजाणइ, मणसा कायसा । अहवा नकरेइ, नकारवेइ, करन एक योग से प्रतिक्रमता है ? अहो गौतम ! मन, वचन व काया इन तीन योग से व करे नहीं, करावे नहीं करते को अनुमोदे नहीं ऐसे तीन करन से प्रतिक्रमता है, वैसे ही तीन करन दो योग से प्रतिक्र-390 मता है यावत् करना नहीं मन से ऐसे एक करन एक योग से प्रतिक्रमता है. तीन करन तीन योग से मतिक्रमता हुवा १ करे नहीं, करावे नहीं, करते को अनुमोदे नहीं, मन, वचन व काया से तीन करन दो योग से प्रतिक्रयता हुवा २ करे नहीं, करावे नहीं, करते को अनुमोदे नहीं मन व वचन से ३ करे नहीं, 30-%8 आठवा शतकका पांचवा उद्देशा भावाथे 380 Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पचारामुनि श्री अमोलक ऋपिजी अनुवादक-बालब्रह्म करतं नाणुजाणइ, वयसा, कायसा, ॥ तिविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे नकरेइ नकारवेइ करंतं नाणुजाणइ मणसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ करतं नाणुजाणइ. वायसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ करतं नाणुजाणइ, कायसा ॥ दुविहं तिविहेणं १०८६ पडिक्कममाणे नकरेइ, नकारवेइ, मणसा वयसा कायसा। अहवा नकरेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा, अहवा नकारवेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा ॥ दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे-नकरेइ नकारवेइ, मणसा वयसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ, मणसा कायसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ वयसा कायसा । करावे नहीं, करते को अनुमोदे नहीं, मन मे काया से, ४ करे नहीं, करावे नहीं. करते को अनुमोदे नहीं, वचन से कागसे तीन करन एक योगसे प्रतिक्रमता हुवा ५ कर नहीं, करावे नहीं, करतेको अनुमोदे नहीं मन से, ६ करे नहीं, करावे नहीं, करते' को अनुमोदे नहीं वचन से ७ करें नहीं, करावे नहीं, करते। को अनुमोदे नहीं काया से. दो करन तीन योग से प्रतिक्रमता हुवा करे नहीं, करावे नहीं मन वचन व काया से ९ करे नहीं. करते को अनुमोदे नहीं मन वचन व काया से १० करावे नहीं करते को अनुमोदे नहीं. मन वचन व काया से. दो करन दो योग से प्रतिक्रमता हुवा ११ करे नहीं करावे नहीं मन से वचन से १२ करे नहीं करावे नहीं मन से काया से १३ करे नहीं करावे नहीं वचन से काया से १४ करे *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी घालाप्रसादजी * Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र -228 पंचमाङ्ग अहवा नकरेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा । अहवा नकरेइ करतंनाणुजाणइ मणसा कायसा । अहवा नकरेइ करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा, । अहवा नकारवेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा । अहवा नकारवेइ करतं नाणुजाणइ मणसा कायसा । अहवा नकारवेइ करतंनाणुजाणइ वयसा कायसा ॥ दुविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे नकरेइ नकारवेइ, मणसा ! अहवा नकरेइ नकारवेइ वयसा । अहवा नकरेइ नकारवेइ कायसा । अहवानकरेइ करतं नाणुजाणइ मणसा । अहवा नकरेइ करतं नाणुजाणइ वयसा । अहवा नकरेइ करतं नाणुजाणइ कायसा । अहवा न कारवेइ करंतं नाणुजाणइ मणसा । अहवा नकारवेइ करतं नाणुजाणइ वयसा नहीं अनुमोदे नहीं मन से वचन से १५ करे नहीं अनुमोदे नहीं मन से काया से १६ करे नहीं अनुमोदे नहीं वचन से काया से १७ करावे नहीं, अनुमोदे नहीं मन से वचन से १८ करावे नहीं अनुमोदे नहीं, मन से काया से १९ करावे नहीं अनुमोदे नहीं वचन से काया से. दो करन एक योग से प्रतिक्रमता हुवाई ॐ २० करे नहीं करावे नहीं मन से २१ करे नहीं करावे नहीं वचन से २२ करे नहीं करावे नहीं काया से २३ करे नहीं अनुमोदे नहीं मन से २४ करे नहीं अनुमोदे नहीं वचन से २५ करे नहीं अनुमादे 8833आठवा शतकका पांचवा उद्देशा g>ator भावार्थ 288 Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी 80 अहवा नकारवेइ करतं नाणुजाणइ कायसा ॥ एगविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे नकरेइ मणसा वयसा कायसा । अहवा नकारवेइ मणसा वयसा कायसा । अहवा करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा ॥ एगविहं दुविहेणं पडिकममाणे नकरेइ मणसा वयसा, । अहवा नकरेइ मणसा कायसा । अहवा नकरेइ वयसा कायसा । अहवानकारवेइमणसा वयसा । अहवा नकारवेइ मणसा कायसा। अहवानकारवेइ वयसा कायसा अहवा करंतनाणुजाणइ मणसा वयसा, अहवा करतं नाणुजाणइ मणसा कायसा, अहवा करतं नाणुजाणइ वयसा कायसा, ॥ एगविहं एगविहेणं पडिकममाणे न करेइ मणसा, अहवा न करेइ वयप्ता, अहवा ण करेइ कायसा । अहवा न कारवेइ नहीं काया से २६ करावे नहीं अनुमोदे नहीं मन से २७ करावे नहीं अनुमोदे नहीं वचन से २८ करावे. नहीं अनुमोदे नहीं काया से. एक करन तीन योग से प्रतिक्रमता हुवा २९ करे नहीं मन से वचन से व काया से ३० करावे नहीं मन से वचन से व काया मे ३१ अनुमोदे नहीं मन से वचन से व काया से |ल एक करन दो योग से प्रतिक्रमता हवा ३२ करे नहीं मन से वचन से ३३ करे नहीं मन से काया से १३४ करे नहीं वचन से काया से ३५ कराये नहीं मन से वचन से ३६ करावे नहीं मन से काया से ३७ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र O पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र मणसा, अहवा न कारवेइ वयसा, अहवा न कारवेइ कायसा, । अहवा करंतं नाणुजाणइ मणसा, करतं नाणुजाणइ वयसा, करंतं नाणुजाणइ कायसा ॥ पडुप्पण्णं संवरेमाणे किं तिविहेणं संवरेइ ? एवं जहा पडिक्कमणणं एगूणवण्णं भंगा भणिया, संवरमाणे वि एगूणवण्णं भंगा भाणियन्वा ॥ अणागयं पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिथिहेणं पञ्चक्खाइ, एवं तंचव भंगा एगूणवणं भाणियव्वा जाव. अहवा करंतं नाणु जाणइ कायसा ॥ ३ ॥ समणोवासगस्सणं भंते ! पुवामेव थूलए मुसावाए पच्चक्खाए भवइ सेणं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे एवं जहा पाणाइवायरस सीयालं भंग सयं भणियं तहा मुसारायस्सवि भाणियव्वं ॥ एवं अदिण्णादाणस्सवि, एवं करावे नहीं वचन से काया से ३८ अनमोदे नहीं मन से वचन मे ३१ अनुमोदे नहीं मन से काया से १४० अनुमोदे नहीं वचन से काया से. एक करन एक योग से प्रतिक्रमता हुवा ४१ करे नहीं मन से ४२ करे नहीं वचन से ४३ करे नहीं काया से ४४ करावे नहीं मन से ४५ करावे नहीं वचन से ४६ कगवे नहीं काया से ४७ अनुमोदे नहीं मन से ४८ अनुमोदे नहीं वचन से और ४९ अनुमादे नहीं काया से. अतीत काल के प्रतिक्रमण करने के जैसे ४१ भांगे कहे वैसे ही वर्तमान काल के संबर के Rodri आठवा शतकका पांचवा उद्देशा भावार्थ 80 Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी प्ररूपा अ० अशुद्ध ५० भोगनेवाला स. सर्व स. सत . हननेवाला छ० छेदनेवाला भे• भेदनेवाला लुं० छेदकर वि. विशेष छेदकर उ० उपद्रव कर आ० आहार आ० आहार करे त. तहां इ० यह द्वादश आ०आजीविक उ० उपासक १० हैं तं वह ज जैसे ता०ताल ता०ताल प्रलम्ब उ० उविह सं० संविहम अ० अविविध उ० उदक ना. नामदक न. नमक अ० अनुपालकमं० शंखपालक अ० अयंपल का - थूलगस्स मेहुणस्सवि,परिग्गहस्स जाव करतं नाणुजाणइ कायसा|एएखलु एरिसगासमणो वासगा भवंति नो खलु एरिसगा आजीनियो वासगाभवंति ॥ ४ ॥ आजीवियसमय . स्सणं अयम? पण्णत्ते अक्खीणपडिभोइणो, सव्वसत्ता से हंता, छेत्ता भेत्ता,लुपित्ता विलुपित्ता, उद्दवइत्ता आहार माहारेति ॥ तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा ४१. और अनागत काल के प्रत्याख्यान के ४०. सब मीलकर १४७ भांगे होते हैं. स्थूल प्राणातिपात के जैसे १४७ भांगे कहे वैसे ही स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान स्थल स्यूल परिग्रह १.४७ भांगे जानना. इस अनुसार जो व्रत पालनेवाले होते हैं वे ही श्रावक कहे जाते हैं. जैसे अमणोपासक के लक्षण कहे वैसे ही लक्षणवाले आजीविक पंथ के अंपणोपामक नहीं होते हैं ॥३-४ ॥ गोशालक के सिद्धांत का ऐसा अर्थ कहा किवि पुष्य तय नहीं हुआ है ऐसा अफामुक भोगनेवाले असंयति सब सत्वों को मारकर, छेदकर, भेदकर, अंगोपांगादि छीनकर उपद्रव उपाकर प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालाप्रसादजी * भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्म 4 Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र {कातरिक इ० ये दु० द्वादश आ० आजीविक उ० उपासक अ० अर्हन् दे० देवता अ० माता पिताकी सु० सुश्रूषा करनेवाले पं० पांच फल १० निवर्ते उ० गुलर ० वड बो० बोर स० अंजीर वृक्ष पि० पलिंख वृक्ष पं० पंडाल ल० लहसण कं० कंदमूल वि० रहित अ० खसी करे नहीं अ० छेदे नहीं गो० वृषभ त० इस प्राण वि० वर्जित वि० वित्त से वि० वृत्ति क० करते वि० विचरते हैं ए० ये ता० तावत् ए० ऐसा भवंति तं जहा-ताले, तालपलंबे, उन्विहे, संविहे, अवविहे, उदए, नामुदए नमुदए, अणुवालए, संखवालए, अयंपुले, कायरिए, इचए दुबालस आजीवियोवासगा अरहंतदेवयागा, अम्मा पिउ सुस्सूसगा; पंचफलपडिक्कता तं० उउंबरेहिं, 4949> आठवा शतक का पांचवा उद्देशा 80 डेहिं बोरे हिं, सतरेहिं, पिलक्खुहिं, १लंडूल्हसुण कंदमूलविवज्जगा; अणिलंछिएहिं, अणक आहार करे और इसी प्रकार का उपदेश करते हैं, जैसे आनंदादि श्रावक हैं वैसे ही गौशालक के बारह श्रावक कहे हैं जिन के नाम. १ ताल २ तालमलब ३ उबिह ४ संविह ५ अविविध ६ उदक ७ नामुदक ८ नमुदक ९ अनुशलक १० शंखपालक ११ अयंपुल व १२ कातरिक. उक्त श्रावकों गोशालक को ही अरिहंत देव करके मानते हैं मातपिता की सुश्रुषा करते हैं, गूलर, वड, बोर, अंजीर व पिलंखु {इन पांच प्रकार के फल का भक्षण नहीं करते हैं, पिंडाल, ल्हसन आदि कंदमूल का भक्षण नहीं करते हैं। बैलों को निलंछन (खसी ) नहीं कराते हैं, वैसे ही बैलों के नाक कान का छेद नहीं कराते हैं और १०९१ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ३० इच्छते हैं कि क्या पु० फीर जे जो इ० ये स० श्रमणोपासक भ० होते हैं ते० उन को णो नहीं क० कल्पता है इ. यह प. पनरह क. कर्मादान स० स्वयं क० करना का कराना क० करते अ० अन्य को स० अच्छा जानना तं. वह ज. जैसे इं० अंगार कर्म व० वन कर्म सा० शकट कर्म भा० भिण्णेहिं, गोणेहि, तसपाण विवजिएहिं, वित्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति. एएवि ताव एवं इच्छंति किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति. तेसिं णो कप्पंति इमाइं पण्णरसकम्मादाणाई सयंकरेत्तएवा, कारवेत्तएवा, करंतवा अण्णं समणुजाणेत्तए । जिन में बस प्राणी की हिंसा होवे वैसा व्यापार नहीं करते हैं. इस प्रकार आजीविक पंथवाले आचार पालते हुवे विचरते हैं. उक्त आजीविकमतानसाग ऐमा धर्म पालने को इच्छते हैं तो फीर जो श्रावक हैं उन का तो कहना ही क्या. उन को पन्नरह कर्मादान करने का, अन्य से कराने का व करते को अनुमोदने को नहीं कल्पता है १ अंगार कर्म-अनिविषय व्यापार करना, ईटपाकादि करना सो अंगार कर्म २ वनादि कटवाकर अश्वा बीज रोपणादि व्यापार करना सो वन कर्म ३. शकटादि वाहन बनाकर बेचना से साही कर्म ४ वृषभ, ऊंट, अश्वादि भाडे देना सो भाडी कर्म ५ हल कोदालादिक से भूमि फोडाना सो फोडी कर्भ६ हस्ती आदि के दांत का व्यापार करना सो दंतवाणिज्य कर्म ७ लाख चपडी आदिक व्यापार करना सो लाख वाणिज्य कर्म ८ गो महिष स्त्री प्रमुख केशवाले जीवों का व्यापार सो केशवाणिज्य * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8+4 १०२३ शब्दार्थ भाडी कर्म फास्फोट कर्म दं० दंत वाणिज्य ल. लावाणिज्य के. केशवाणिज्य र रसपाणिज्य वि. विषवाणिज्य जं० यंत्रपीलन कर्म नि० निलंछण कर्म द० दव अ. अनि दा. देना स० सरोवर V१६० द्रह त० तलाव ५० परिशोषण अ० असति का पो० पोपण इ० ये R० श्रमणोपासक सु० शुक्ल सु०, शुक्ल अ० अभिजाति से भ० भविक भ० होकर का० काल के अवसर में का० काल करके अ० अन्यतर तंजहा इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्ये, लक्खवाणिजे, केसवाणिजे, रसवाणिजे, विसवाणिजे, जंतपीलणकम्मे, निलंगणकम्मे, दवग्गिदावणिया, सरदहतलावारिसोसणया, असईपोसणया, इथेए समणो वासगा. सुक्कामुक्काभिजाइया भविया भवित्ता कालमासे कालंकिचा अण्णयरेसु १९ मचादि रस का विक्रय सो रसवाणिज्य कर्म १० सोमलादि विष का विक्रय सो विषवाणिज्य कर्म F११ यंत्र से कपास, इस तिलादि का पीलना सो यंत्रपीलन कर्म १२ वृषभ, अध पुरुष वगैरह को लेछन रहित करना सो निर्लछन कर्म १३ दव की बुद्धि से बन में आग लगाना १४ सरोवर दह नालाब वगैरह का पानी मुकाना और १० दासी के पोपण से व्यभिचार करा के अथवा कुकूट मामार्रादि शिकारी प्राणियों को पोष कर व्यापार करे सो असतिजन पोषणता. उक्त पंदरह कर्मादान के त्याग करनेवाले श्रमणोपासक शकलाभिजात भविक बनकर कालके अवसर में काल करके किसी पंचांग विवाह पत्ति (भगवती)मत्र 488 commmmmmmmmmm आठवा शतक का पांचवा उद्देशा Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ! दे० देवलोक में दे० देवपने उ० उत्पन्न भ० होता है ॥५॥क० कितने प्रकार के दे० देवलोक प० अरूप:। गो० गौतम च० चार प्रकार के दे देवलोक ५० प्ररूपे भ० भवनवासी जा० यावत् वे• वैमानिक देव • वह ए. ऐसे भ० भगवन ॥ ८ ॥५॥ स. श्रमणोपासक भं० भगवन् त० तथा रुप स० श्रमण मा० माहण को फा० फासुक ए. एपनीक अ० अशन पा० पान खा. खादिम सा स्वादिम प० देता हुवा किं. क्या के करे गो गौतम ए. देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ ५॥ कइविहाणं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउन्विहा देवलोगा पण्णत्ता तंजहा-भवणवासी जाव वेमाणिया देवा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठमसए पंचमो उद्देसा सम्मत्तो ॥ ८ ॥ ५ ॥ x x . समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणंवा माहणंवा फामुएसणिज्जेणं असण. पाण खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणस किं कजइ ? गोयमा ! एंगतसो से निजरा देवतापने उत्पन्न होते हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! देवलोक कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे हैं भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमा िक. अहो भगवन् ! आफ्के वचन सत्य हैं. यह आठवा शतक का पांचवा उद्दशा पूर्ण हुवा ॥ ८ ॥५॥ . पांच उद्देशे में श्रमणोपासक की करणी कही. छठे उद्देशे में श्रमणोपासक का दानादि अधिकार प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथ। 80% 48 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र एकान्त नि. निजरी क०करे न० नहीं है सें. उन को पा० पाप कर्म क० करे ॥१॥ स श्रमणोपासक मं. भगवन् त०तथारूप सश्रमण मा०माहण को अ०अफासुक अ०अशुद्ध अ०अशन पा०पान खाखादिम 0 सा० स्वादिम १० देता किं. क्या क. करे गो. गौतम ब. बहुत से वह नि. निर्जरा क. करे अ० अल्प से वह पा. पापकर्म का करे ॥ २ ॥ स० श्रमणोपासक भ० भगवन् त. तथारूप अ. असंयति कजइ, नत्थिय से पावे कम्मे कज्जइ ॥ १ ॥ समणोवासगरसणं भंते ! तहारूवं समणंवा माहणंवा अफासुएणं अणेसणिजेणं असण पाण खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा ! बहुतरिया से निजरा कज्जइ अप्पतराए से पावे कम्मे कजइ ॥ २ ॥ समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं असंजय, अविरय, अपकहते हैं. अहो भगवन् ! तथारूप श्रमण माहण को फासुक एषणिक अशन, पान, खादिम, व स्वादिम देनेवाले श्रावक को क्या फल होवे ? अहो गौतम ! वह एकान्त निर्जरा करता है. किंचिन्मात्र पापकर्म नहीं करता है ॥१॥ अहो भगवन् ! तथारूप श्रमण माहण को अफासुक अनेषणिक अशन, पान, ई खादिम स्वादिम देनेवाले श्रावक को क्या फल होता है ? अहो गौतम ! उन को पाप कर्म की अपेक्षासे बहत निर्जरा होती है और निर्जरा की अपेक्षा से अल्प पाप कर्म+लगता है॥२॥ अहो भगवन् ! असंयनि, ___ + किसी रोगादि कारन से संयमी को संयम का उपष्टंभ के लिये सचित्त सदोष आहार देते हैं इस से संयमी आठवां शतकका छठा उद्देशा84862 Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाल ४० 28 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक पिजी अ० अंविरति अ. रहितप.अस्याख्यान पा० पापकर्षको फा. फामुक अ० अफामुक ए.सुद्ध अशुद्ध अ. अशन पा० पान जा. यावत् कि० क्या क० करे ए० एकान्त मे• वह पा० पापकर्म क.. करे न० नहीं है से. उन को का० किंचित् नि० निर्जरा क० करे ॥ ३ ॥ नि० निम्रय गा गाथापतिकुल डिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे फासुएणवा अफासुरणवा एसणिजेणवा अणेसणिज्जेणवा असण पाण जाव किं कजइ ? गोयमा ! गंतसो से पावे कम्मे कजइ, नरिथसे काइ निजरा कज्जइ ॥३॥ निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पावर्ट केइ अविरते, व प्रत्याख्यान से पाप कर्म को नहीं रोकनेवाले को फासुक व अफासुक अशन, पान, खादिम . व स्वादिम देनेवाले श्रावकको क्या फल होवे ? अहो गौतम ! उन को एकान्त पाप कर्म होवे किंचिन्माष निर्जरा नहीं होवे * ॥३॥ गृहस्य के घर आहारादि ग्रहण करने के लिये गये हुए साधु की कोई संयय में स्थिर रहकर तप संयम की वृद्धि करसकते हैं. दाता को तप संयम की वृद्धिके कारनभूत होने से बहुततर निर्जरा होती है और जो जोवघातादि पाप होता है उस से निणरा की अपेक्षा से अल्प पाप कर्म लगता है. प्रथम अशुद्ध आहार देनेवाला अल्प आयुष्य बांधता है ऐसा जो कथन है वह निष्कारण रागादि की अपेक्षा से जाना जाता है तत्व केवली गम्य ॥ * यहांपर तीनों मूत्र में मोक्ष के लिये दियाहुवा दान ग्रहण करना, परंतु अनुकम्पा दान ग्रहण करना नहीं क्योंकि भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय जी चालामसादनी. Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 448 पंचांग विवाह पण्णाने ( भगवती ) मूत्र ++ पिं० भोजन के लिये अ० प्रवेश किया के कोई दो दो पिं० पिंडसे उ० आमंत्रण करे ए० एक आ० आयुष्मन् अ० आप भुंः भोगवना ए० एक थे० स्थविर को द० देना से० वह तं० जन को १० लेकर थे० स्थविर की अ० गवेषणा करनी सि० होवे ज० जहां अ० गवेषणा करते थे स्थावर को [पा० देखें त० तहां अ० देवे नो० नहीं अ० गवेषणा करते पा० देखें तं० उस नो० नहीं अ आप भुं० भोगवे नो० नहीं अ० दूसरे को दा० देना ए० एकान्त अ० निर्जन अ० अचित्त व बहुत कामुक दोहिं पिंडे उबनिमंतेजा, एगं आउसो अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि, सेय तं पडिगाहेज्जा थेराय से अणुगवेसियन्वा सिया जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासेजा तत्थेव अणुप्पदायव्वे, सिया नो चेवणं अणुगवेसमाणे येरे पासेज्जा तं णो अपणा भुंजेजा, नो अण्णसिं दावए एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिले गृहस्थ पिंड के दो विभाग करके आमंत्रे और कहे कि अहो आयुष्मन् ! इन में से एक पिण्ड तुम भोग{बना और दूसरा पिण्ड स्थविरों को देना. इस तरह का आहार ग्रहण किये पीछे साधु को स्थविरों की इस में निर्भरा की अपेक्षा नहीं रहती है, और भी कहा है ' मोक्खत्थं वं दाणं तंपइ एसो विही अनुकम्पादाणं पुण निहिं न कयांवि पंडिसिद्धति ' ॥ १ ॥ मात्र मोक्षार्थ दान के लिये यह अनुकम्पा दोन का प्रतिषेध किसी स्थान जिन भगतने नहीं किया है ॥ समक्खाओ || कही है. 43+4 आठ शतकका छठा उद्देशा +8 १०९७ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १० स्थण्डिल में प० देखकर ५० पूंजकर प० परठवे ॥४॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ नि० निग्रंथ को गा• गाथापति पडिलेहित्ता परिमजित्ता परिवियव्वे सिया ॥ ४ ॥ निग्गंथंचणं गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पविटुं केइ तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एर्ग आउसो अप्पणा मुं. जाहि, दो थेराणं दलयाहि, सेय तं पडिगाहेजा थेराय अणुगवेसमाणे सेसं तंचेव जाव परिट्ठवियब्वे सिया ॥ एवं जाव दसहिं पिंडेहिं उवनिमतेजा, णवरं एगं आउसो गवेषणा करनी और जहां स्थविर देखने में आवे वहां ही उस विभागवाला आहार दे देना. कदाचित अ भावार्थ गवेषणा करते हुए स्थविर देखने में आवे नहीं तो वह आहार स्वयं भोगना नहीं वैसे ही अन्य को ना नहीं परंतु एकान्त निर्जन स्थान में जाकर अचित्त फ्रासुक स्थंडिल देखकर व पूंजकर वहां परिठाना. ॥ गृहस्थ के घर आहार लेने के लिये गये हुवे माधु को कोई गृहस्थ विभाग किये हुवे तीन पिण्ड देवे और कहे कि अहो आयुष्मन ! इस.में से एक तुम, भोगना और दो स्थविरों को दे देना. साधु के उस आहार लेकर जहां स्थविर होवे वहां जाना और वह आहार उनको देदेना गवेषणा करते हुए कदाचित् न मीले तो वह आहार साधुको स्वयं भोगना नहीं वैने ही अन्यको देना भी नहीं परंतु एकान्तमें निर्जीव स्थान देखकर परिठाना. ऐसे ही चार पांच यावत् दश पिण्ड विभाग कर देवे जिस में से एक लेनेवाले माध को भोगनेका और नव स्थविरोंको देने का कहे, तो उक्त आहार लेकर जहां स्थविर होवे वहां साधु को जाना व देदेना. गवेषणा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहा जी ज्वालाप्रसादजी* Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कुल को जा० यावत् के० : कोई दो दो प० पात्र से उ० आमंत्रणकरे ए० एक आ० आयुष्मन् अ० तुम प० लेना ए० एक थे० तं० उस को नो० नहीं अ० स्थविर को द० देना से० वह तं ० आप प० भांगवे नो० नहीं ॐ उसको प० लेकर त० तैमे जा० यावत् दूसरे को दा० देवे से० वह तं० १०९९ उस को जा० यावत् प० परठवे ए० ऐसे जा० यावत् द० दश प० वस्त्र से ए० ऐसे ज जैसे १० पात्र . अप्पणा भुंजाहि नव थेराणं दलयाहि सेसं तं चेत्र जाव परिट्ठत्रियव्वे सिया ॥ ५ ॥ निग्गंथं चणं गाहावइ कुलंजाब के दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा एवं आउसो अप्पा पडिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि सेय संपडिगाहेज्जा, तहेव जाव तं नो अपणा परिभुंजेजा, नो अण्णेसिं दावए, सेसं तं चेत्र जाव परिट्ठवियन्वे सिया एवं जात्र दसहिं पडिग्गहेहिं, एवं जहा पडिग्गह वत्तव्वया भणिया, एवं गोच्छगर यहरण, करते हुवे कदाचित् स्थविर न मीले तो व आहार स्वयं भोगना नहीं वैसे ही अन्य को देना नहीं परंतु एकांत में निर्जन स्थान में परठाना ॥ ५॥ गृहस्थ के वहां पात्र निमित्त गये हुवे साधु को कोई दो पात्र की निमंत्रणा करे और कहे कि अहो आयुष्मन् ! इत में से एक मात्र तुम रखना और दूसरा पात्र स्थावर [ को देना फीर उस पात्र को लेकर जहां स्थावर होवे वहां साधु को जाना. गवेषणा करते हुवे कदाचित स्थावर नहीं मीले तो व पात्र स्वतः को रखना नहीं वैसे ही अन्य को देना नहीं परंतु एकान्त में जाकर 40848403 आठवा शतक का छठा उद्देशा Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 414. वक्तव्यता भ० कही ए. ऐसे गो• गोच्छक र० रजोहरण चो० चौलपट्टग के. कंबल ल...| यष्ठि संथारा की ववक्तव्यता भा कहनाजा यावत् द० दश सं.मंथारासे आमंत्रणकरे जाण्या परठवे ॥ ६ ॥ नि. निग्रंथ गा• गाथापति कुलको पिं० पिंड के लिये ५० प्रवेश किया अ० कोई चोलपट्टग, कंबल, लट्ठी, संथारग वत्तव्वया भाणियव्वा जाव दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेजा, जाव परिदृवियचे सिया ॥ ६ ॥ निग्गंथेणय गाहावइकुलं पिंडवाय है पडियाए पविटेणं अण्णयरे अकिञ्चट्ठाणे पाडसेविए, तस्सणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विउटामि विसोहामि, भावार्थ परिठान्न. जैसे दो पात्र का कहा वैसे ही तीन चार यावत् दश पात्र का जानना. और जैसे पात्र का वैसे ही गोच्छक, रजोहरण, चोलपट्टग, कंबल, यष्टि, व संथाराकी वक्तव्यता दश तक कहना ॥३॥ गृहस्थ के वहां आहार लेने का कहा. अब गृहस्थ के वहां दोष लगे उस संबंध में कहते हैं. किसी गृहस्थ के वहां आहारादि के लिये कोई साधु गया और वहां किमी प्रकार का अकृत्य स्थान का सेवन किया. 11 फीर उस गीतार्थ को ऐसा विचार होवे कि इस पापस्थान की यहां ही आलोचना, प्रतिक्रमण, निंदा व गर्दा करूं, उस से निवर्तुं शुद्ध बनूं, ऐसा कार्य नहीं करने के लिये उद्यमी बनूं और यथोचित प्रायश्चित्त 1 सपकर्म अंगीकार करू. फीर स्थविरों की पास जाकर आलोचना करूंगा यावत् प्रायश्चित्त व तपकर्मा +3 अनुवादक-बालग्रामवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 ܕܕܕ 48-49 पंचांग विवाह पण्णचि ( भवगती ) मूत्र 48+ म. अकृत्य ठा• स्थान प० सेवा हुवा त• उस को ए० ऐपा भ० होवे १० यहां ता० तावत् अ० में । ११. इस डा० स्थान को आ० आलोऊप० प्रतिक्रमणकरूं निनिदाकरूं ग. गर्दाकरूं वि. छेदं । विशुद्धक नहीं करने को अ० उपस्थितहोऊं अ० यथा योग्य पा० प्रायश्चित्त त तपकर्म प. अंगी अकरणयाए अब्भुट्ठमि अहारिहं पायच्छित्तं तवाकम्मं पडिवजामि, तओ पच्छा है थेराणं अंतियं आलोएस्सानि जाव तवोकम्म पडिवजिस्सामि सेय संपट्टिए असंपत्ते थेराय पुवामेव अमुहा सिया सणं भंते ! किं आराहए विराहए ? गोयमा ! आ राहए नो विराहए ॥ सेय संपढ़िए असंपत्ते अप्पणाय पुवामेव अमुहे सिया सेणं भंते ! अंगीकार करूंगा ऐमा विचार करकं स्थविर की पाम आलोचना करने को नीकले परंतु स्थविर मीले नहीं या वातादि रोग से मूञ्छित होने से बोल सके नहीं इस कारन से आलोचना करने का परिणाम होने पर भी वह आलोचना कर सके नहीं तो क्या भगवन् ! उस आराधिक कहना या विराधिक कहना? अहो गौतम ! उसे आराधिक कहना परंतु विराधिक कहना नहीं. दोष युक्त माधु पहिले दोष के स्थान po स्वयमेव आलोचनादि करके फोर स्थविर की पास आलोचना करने के लिये निकला परंतु स्थविर मीले नहीं और स्वयं वातादि रोग से मूञ्छित बनकर बोलने में असमर्थ होवे और आलोचनादि करने का परिणाम होने पर भी आलोचना कर सके नहीं तो क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो । आठवा शतक का का उद्देशा 9882 1 Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ejo शब्दार्थ | *कार करूं त० पीछे थे० स्थविर की अं० पास आ० आलोचना करूंगा जा यावत् त० तपकर्म प० अंगीकार करूंगा से वह सं० निकलाहुवा अ० अप्राप्त पुं०पहिले अ० अमुख मि० हांवे से० वह भ० भगवन् किं० क्या आ० आराधक वि० विराधक गो० गौतम आ० आराधक नो० नहीं वि० विराधक किं आहए विराहए ? गोयमा ! आराहए नो विराहए ॥ सेय संपट्ठिए असंपत्ते थेराय काल करेजा सेणं भंते! किं आराहए विराहए ? गोयमा ! आराहए णो विराहए ॥ सेय संपट्टिए असंपत्तेय अप्पणाय पुव्वामेव कालं करेजा सेणं भंते ! किं आहए विराहए ? गोयमा ! आराहए नो विराहए ॥ सेय संपट्टिए संपत्ते थेराय ( गौतम ! उसे आराधक कहना परंतु विराधक नहीं कहना. ३ ऐसा दोषवाला साधु स्थविर की पास आलोचना करने का नीकला परंतु स्थविर मीले नहीं व काल कर जावे और आलोचना कर सके नहीं { तो अहो भगवन् ! क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहां गौतम ! आराधक कहना विराधक कहना { नहीं ४ दोषयुक्त साधु आलोचना करनेके लिये नीकला परंतु स्थविर मील सके नहीं और वह स्वयं {कालकर जावे तो उसे आलोचना करनेका परिणाम होने मे आराधक कहना परंतु विराधक कहना नहीं. उक्त {चार आलापक स्थविर को अप्राप्त आश्री कहे. अब स्थावर को प्राप्त आश्री चार आलापक कहते हैं. दोष युक्त साधु आलोचना करनेको निकला स्थविर को प्राप्तहुआ परंतु स्थावर वातादि कारन से मूर्छित सूत्र भावार्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ११०२ Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2086 । ११०३ momenwwwwwwwwwwwwwwww 48 पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4gh से० वह सं० मंस्थित अ असंप्राप्त अ० आत्मा से अ० अमुख सि० होवे से उस को भ० भगवन् कि क्या आ. आराश्क वि०विराधक गो० गौतम आ० आराधक नो० नहीं वि० विराधक से उम को सं० संप्रस्थित अ. असंप्राप्त थे० स्थविर का काल करके से वह भ० भगवन् कि अमुहा सिया सेणं भंते ! किं आराहए विराहए ?गोयमा ! आराहए णो विराहए ॥ सेय संपट्रिए संपत्ते अप्पणाय एवं संपत्तेणवि चत्तारि आलावगा भाणियब्बा, जहेव असंपत्तेणं निग्गंथणय बहिया वियारभूमिवा विहारभूभिवा निक्खतेणं अण्णयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्सणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एवं एत्थवि तेचेव अट्ठ होने से बोल सके नहीं इससे वह साधु आलोचना करसके नहीं, तब अहो भगवन् ! क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो गौतम ! उसे आराधक कहना परंतु विराधक नहीं कहना. ऐसेही स्थविर मालपर वातादि दोष से स्वयं मूर्छित होकर बोल सके नहीं, आचार्य कालकरजावे अथवा स्वयं काल कर जाये और आलोचना करने का परिणाम होने पर आलोचना करके नहीं तो भी वह अराधक, होता है परंतु विराधक नहीं होता है. इस तरह प्राप्त अमाप्त के आठ आलापक जानना. गृहस्थ के गृह आहार लेते दोष लगे उसके आठ आलापक कहे वैसे ही स्वाध्याय भूमि व स्थंडिल भूमि में गये हुवे आठवा शतक का छठा उद्देशा 8 भावाथे namam 433 Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११:४ शब्दार्थ । आलावगा भाणियन्या जात्र नो विराहए ॥७॥ निगथेणय गामाणुगामं दृइज्जमाणेणं अण्णयरे अकिञ्चटाणे पडिसेविए तस्सणं एवं भवइ इहेब ताव एत्थवि ते चेव अटु आलावगा भाणियन्वा जाव नो विराहए ॥८॥ निग्गंथीएय गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पविटाए अण्णयरे. अकिञ्चट्टाणे पडिसेविए, तीसेणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवो. कम्म पडिवज्जामि, तओपच्छा वित्तिणीए अंतिए आलोएस्सामि जाव पाडिवानिस्सामि साय संपट्टिया असंपत्ता पवित्तिणीय अमुहा सिया साणं भंते ! किं आराहिया विराभावार्थ निर्ग्रन्थ को दोष लगे तो आलोचना के आठ आलापक जानना ॥ ७ ॥ ग्रामानुग्राम जाते किसी साधु को दोष लगे तो पहिले उन को ऐसा विचार होचे कि मैं इस दोष को यहांपर आलोवू यावत् प्रायश्चित्त कर के तप कर्म अंगीकार करूं फीर स्थविर की पास जाकर इस की आलोचना करूंगा यावत् तप कर्म अंगीकार करूंगा वगैरह उपर्युक्त जैसे प्राप्त अप्राप्त के पाठ आलापक जानना. ॥८॥ जैसे साधु आश्री २४ आलापक को वैत हो २४ आलारक साधी 'आश्री बताते गहस्थ के गृह में आहारादि के लिये गई। हुई साधी को किसी प्रकार का दोष लगे फीर उस को ऐसा विचार होवे कि : पहिले मैं यहां पर इस संस्थान की आलोचना करूं यावत् तपकर्म अंगीकार कर फीर प्रवर्तिनी ( मुख्य साध्वी ) की पास इस की 48 अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायमी आलाप्रतादजी * । Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *88083 शब्दार्थ आ० आराधक वि० विसंधक गो० गौतम आ० आराधक नो नहीं वि. विराधक ॥७॥पूर्ववत्॥८-१॥ हिया ? गोयमा ! आराहिया णो विराहिया, साय संपाट्ठिया जहा निगंथरस तिाणगमा भणिया, एवं निग्गंधीएवि तिण्णि आलायगा भाणियन्वा, जाव आराहिया नो विराहिया ॥ ९ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ आराहए नो विराहए ? गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एगमहं उण्णालोमंबा, गयलोमंवा, आलोचना यावत् तपकर्भ अंगीकार करूंगी ऐसा विचार करके नीकली हुई साध्वी प्रवर्तिनी को असंप्राप्त होरे और वह वातादि कारन से मूञ्छित होने से बोलसके नहीं इस से आलोचना करने का परिणाम होने पर आलोचना करसके नहीं तो क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो गौतम ! उस साम्बी को आराधक कहना परंतु विराधक नहीं कहना ऐसे ही प्रर्वतिनी को असंप्राप्त), होचे और स्वयं मूच्छित होवे, प्रवर्तिनी काल करे अथवा स्वयं काल कर जावे ऐसे चार भांगे. जैसे अप्राप्त भांगे वैसे ही प्राप्त के भी चार भांगे मीलकर आठ भांगे कहना, आठ भांगे पिण्ड ग्रहण करने के, आठ भांगे स्वाध्यायभूमि व स्थंडिलभूमि में जाने के, वैसे ही आठ भांगे ग्रामानुग्राम विहार करने के जानना. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ऐसा विचार करनेवाले आहाधक हैं परंतु विराधक नहीं है ऐसा किस 1०तरह जानना ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष बकरे के रोम (बाल) गज के बाल, शणलोम. कापूस । विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8%8A भावार्थ आठवा शतकका छठा उद्देशा 333 Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ शब्दार्थ से वह के० कैसे भ० भगवन् ए. ऐसा बु० कहा जाता है आ० आराधक नो० नहीं वि. विराधक गो• गौतम से० वह ज जैसे के० कोई पु० पुरुष ए० एक म० बडा उ० बकरेके वाल ग० गज के बाल स. सनके बाल क० कापूम के बाल त० तृणके अग्र भाग को दु० द्विधा ति० त्रिधा सं० संख्यात छिन छेदकर अ० अग्निकाया में प० डाले से वह गों० गौतम छि० छेदाता छि० छेदा ५० डालता ५० E डाला द० जलाता द० जलाया ३० कहना हं० हां भ० भगवन् छि• छेदाता छि० छेदाया जा० यावत् हैद० जलाया व कहना से० वह ज. जैसे के कोई पुरुष व वस्त्र अ० नया धो० धोया हुवा तं० उत्तीबर्णमात्र मं० मजोठरंगके दो० पात्र में प० डाले से वह गो० गौतम उ० उखेलता उ० उखेला ५०डालता | सणलोमंबा, कप्पासलोमंवा, तणसयंवा, दहावा तिहावा संखेजहावा छिदित्ता अग णिकायसि पक्खिवेजा सेणणं गोयमा ! छिज्जमाणे छिन्ने, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, है, दज्झमाणे दड्डेत्ति वत्तव्वंसिया ? हंता भगवं ! छिजमाणे छिण्णे जाव दड्डेत्ति वत्तव्वं सिया, ॥ से जहा नामए केइपुरिसे वत्थं अहतं धोयंवा तंतुग्गयंवा मंजिट्ठदोणीए । भावार्थलोम, व तृणाग्र के दो,तीन यावत् संख्यात टुकडे करके अनिमें डाले तब अहो गौतम! उसे छेदते हुए छेदा, डालते हुवे डाला, व जलते हुवे जला क्या कहना ? हां भगवन् ! छेदते हुए छेदा, डालते हुवे डाला व जलते हुवे जला कहना. दूसरा दृष्टांत जैसे कोई पुरुष किसी नविन वस्त्र को, धोया हुवा वस्त्र को, अथवा ** अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ११०७ विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र ५० डाला र. रंगता र रंगा व. कहना है. हां भ० भगवन् उ० उकेलते को उ० उकेला जा. यावत् ०र० रंगा व० कहना मे वह ते. इसलिये गो० गौतम एक ऐसा वु० कहा जाता है आ० अराधक नो० नहीं वि० विराधक ॥ १० ॥ ५० प्रदीप भ० भगवन् झि• जलता किं. क्या प० प्रदीप शिः जले ल० शिखा झि० जले ब. बत्ती झि० जले ते. तेल्ल झि० जले प. प्रदीप का चं. ढक्कन झि० जले जो० अग्नि झि० जले गो० गौतम नो० नहीं प० प्रदीप झि• जले जा. यावत् नो नहीं प. प्रदीप का ढक्कन झि. पक्खिवेज्जा, सेणणं गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते रजमाणे रत्तेत्ति वत्तव्यं सिया ? हंता भगवं ! उक्खित्तमाणे उक्खित्ते जाव रत्तत्ति वत्तव्वं सिया, सेतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ आराहए नो विराहए ॥ १० ॥ पईवस्सणं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाइ, लट्ठीझियाइ वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, पदीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ ? गोयमा । नो पदीवेझियाइ जाव विना रंगे हुवे वस्त्र को मजीठके रंगवाले भाजनमें डाले तब अहो गौतम ! उस वस्त्र को क्या उखेलते उखेला डालते डाला रंगते रंगा कहना ? हां भगवन् ! उस वस्त्र को उखेलता उखेला यावत् रंगते रंगा कहना. एसे ही अहो गौतम ! आलोचना प्रायश्चित्तादि करने के लिये उपस्थित बने हुवे को आराधक कहना परंतु विराधक कहना नहीं ॥ १० ॥ जो आराधक होता है वह दीपक की तरह दीपता है इस से दीपक का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन ! जलताहुवा दीपक का क्या दीपक जलता है, 360200 आठवा शतकका छठा उद्देशा 9 भावार्थ 880 Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी में जले जो० आग्न शिः जले ॥ ११॥ अ० ग्रह भं• भगवन् झि० जलता कि० क्या अ० गृह झिः जले कु० भीत्ति झि• जले क तट्टी झिः जले धा० स्थंभ झिजले ब० मोभ झि० जले २० वंश झिजले म० निवा झि० जले व रमी झि० जले छि० किलिंज झि जले छा० छादन झि० जले जो० अग्नि झि० गो० गौतम नो० नहीं अ० गृह झि• जले नो० नहीं कुछ भीत्ति झि० जले जा० यावत् छा छादन । नो पदीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ ॥ ११ ॥ अगारस्सणं भंते । झियायमाणस्स किं अगारे झियाइ, कुड्डाझियाइ, कडणाझियाइ, धारणाझियाइ, बलहरणेझियाइ, वंसाझियाइ, मल्लाझियाइ बग्गाझियाइ छित्तराझियाइ, छाझियाइ, जाईज्झियाइ ? गोयमा ! नो अगारे झियाइ, नो कुड्डाझियाइ जाव नो छाणाझियाइ, * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदर सहायजी ज्वालाप्रसादजी * दीपक की शिखा जलती है, बत्ती जलती है, तेल जलता है, दीपक का ढक्कन जलता है, अथवा दीपक भावार्थ की ज्योति जलती है ? अहो गौतम ! दीपक नहीं जलता है यावत् दीपक का ढक्कन भी नहीं जलता है परंतु दीपक की ज्योति ( आग्नि) जलती है ॥ ११ ॥ अहो. भगवन् ! अग्नि से जलता हुवा गृह क्या 60गृह जलता है, पर जलता है, भित्ति जरती है, तही जलती है, स्थंभ नलता हैं, उपर की कडीयों 17 जलती हैं, वंशादि आच्छादन जलता है अथवा आग्नि जलती है ऐसा कहना ? अहो गौतम ! गृह नहीं Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *8:2 ११.०९ 3 शब्दार्थ झि० जले जो० आग्नि झि० जले ॥ १२ ॥ सरल शब्दार्थ * जोईझियाइ !! १२ ॥ जीवेणं भंते । ओरालिय संरीराओ कइकिरिए ? गोयमा । सिय तिकिरिए, सियचउकिरिए, सियपंचकिरिए , सियअकिरिए ॥ नेरइएणं भंते ! ओरालियसरीराओ कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सियचउकिरिए, सियपंचकिरिए ॥ असुरकुमारेणं भंते ! ओरालिय सरीराओ कइकिरिए एवं चेव जाव वेमाणिए, णवरं मणुस्से जहा जीवे। जीवेणं भंते ! ओरालिय सरीरेहिंतो कइकिरिए ? गोयमा ! सियतिकिरिए, जाव सियअकिरिए ॥ नेरइएणं भंते ! ओरालिय सरीरेहितो भावाथ जलता है यावत् वंशादि आच्छादन नहीं जलता है परंतु आग्नि जलती है॥ १२ ॥ प्रज्वलन क्रिया परशरी- 4 राश्रय है इस से परशरीर सो उदारिकादि आश्री जीव का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! एक जीव उदा- ब. रिक शरीर से कितनी क्रियाओं करे ? अहो गौतम ! क्यचित् तीन क्रियाओं, काचित् चार क्रियाओं क्वचित् पांच क्रियाओं करे और क्वचित् क्रिया रहित भी होवे. अहो भगवन् ! नारकी को परकीय उदा-500 रिक शरीर से कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम ! नारकी को परकीय उदारिक शरीर से क्वचित् । तीन क्वचिन् चार व काचित पांच क्रियाओं लगे. ऐसे ही मनुष्य छोडकर सब दंडक का जानना, मनुष्य 17 में क्वचित तीन, काचित् चार, क्वचित् पांव क्रियाओं लगे और काचित् अक्रिय भी होवे ॥ १३ ॥१॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र आठवा. शतकका छठा उद्देशा 9 880 Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी भावार्थ कइकिरिए ? एवं एसो जहा पढमो दंडओ तहा इमोवि अपरिसेसो भाणियव्यो जाव वेमाणिए णवरं मणुस्से जहा जीवे ॥ १३ ॥ जीवाणं भंते ! ओरालिय सरीराओ कइ किरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया ॥ नेरइयाणं भंते ! ओरालिय सरीराओ कइकिरिया एवं एसोवि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियव्वो जाव वेमाणिया णवरं मणुस्सा जहा जीवा ॥१४॥जीवाणं भंते ! ओरालिय सरीरेहितो कइ किरिया? गोयमा!तिकिरियावि,चउ पंचकिरियावि अकिरियावि॥नेरइयाणं भंते!ओराअहो भगवन ! एक जीव को बहुत उदारिक शरीर से कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम ! क्वचित् तीन, क्वचित् चार व क्वचित् पांच क्रियाओं लगे और क्वचित् अक्रिय भी होवे. नारकीको तीन, चार व पांच क्रियाओं लगे ऐसे ही मनुष्य वर्जकर सब दंडक का जानना. मनुष्य में समुच्चय जीव जे कहना ॥ १३ ॥ अहो भगवन ! बहुत जीवों को उदारिक शरीर से कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम क्वचित् तीन, चार व पांच क्रियाओं लगे. और अक्रिय भी होवे. अहो भगवन् ! नारकी को कितनी क्रिया लगे? अहो गौतम ! जैसे प्रथम दंडक में कहा वैसे ही यहां जानना ॥ १४ ॥ अहो भगवन बहुत जीवों को बहुत उदारिक शरीर से कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम ! तीन, चार व पांच क्रियाओ लगे व आक्रिय होवे. अहो भगवन् ! उदारिक शरीर से नारकी को कितनी क्रियाओं लगे ? * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी* . Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र लिय सरीरेहिंतो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरियावि, चउकिरियावि, पंचकिरियावि. है एवं जाव वेमाणिया णवरं मणुस्सा जहा जीवा ॥ १५ ॥ जीवेणं भंते ! वेउब्विय सरीराओ कइ किरिए ? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय अकिरिए ॥ नेरइएणं भंते ! वेउब्विय सरीराओ कइकिरिए ? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए,एवं जाव वेमाणिए,णवरं मणुस्से जहा जीवे,एवं जहा ओरालिय सरीरेणं चत्तारि दंडगा तहा भाणियव्वा॥णवरं पंचम किरिया न भण्णइ सेसं तंचव एवं जहावेउब्वियं अहो गौतम ! उदारिक शरीर से नारकी को तीन चार व पांच क्रियाओं लगे ऐसे ही वैमानिकतक जानना. मनुष्य का समुच्चय जीव जैसे कहना ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! जीव को वैक्रेय शरीर से कितनी क्रियाओं है लगे? अहो गौतम ! क्वचित् तीन क्वचित् चार क्रियाओं लंग और क्वचित् आक्रिय भी होवे. इस में पांच क्रियाओं नहीं लगती हैं क्योंकि वैक्रेय शरीर का घात नहीं होता है. नरक, देव व उत्तम पुरुष नोपकर्म आयुष्य बांधते हैं और वे आयुष्य पूर्ण हुए विना किसी से नहीं मारे जा सकते हैं. अहो.. भगवन् ! नारकी को वैकेय शरीर से कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम ! क्वचित् तीन क्वचित् चार क्रियाओं लगती हैं. नारकी जैसे मनुष्य छोडकर वैमानिक तक सब दंडक का जानना. जैसे उदारिक शरीर के चार दंडक कहे वैसे ही वैक्रेय शरीर के एक जीव एक वैक्रेय शरीर, एक जीव बहुत है। anamaramananmmmmmmmm भावार्थ *3886-.आठवा शतकका छठा उद्देशा 9881 1 Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुनि श्री अमोलक ऋपिजी. ते. उस काल ते. उस समय में रा० राजगृह न नगर य० वर्णन युक्त गु० गुणशिल चे० चैत्य व० वर्णन युक्त जा. यावत् पु० पृथ्वीशिलापट्ट त० उस गु० गुणशिल चे० चैत्य की अ० नजदीक अ० तहा आहारगंपितेयगंपि कम्मगंपि भाणियव्वं एकेके चत्तारि दंडगा भाणियव्वा जाव वेमाणि याणं भंते ! कम्मगसरीरेहिंतो कइकिरिया ? गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्ठम सयस्स छट्ठो उद्देसो सम्मत्ते। ॥ ८ ॥ ६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे वण्णओ गुणसिलए चेइए वण्णओ,जाव पुढवी सिलावट्टओ तस्सणं गुणसिलयस्सणं चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति वैक्रेय शरीर, बहुत जीव एक चक्रेय शरीर और बहुत जीव बहुत वैक्रेय शरीर ऐसे दंडक जानना. ऐसे ही आहारक तेजस व कार्माण का जानना. उदारिक शरीर सिवा अन्य चार शरीरों की घात नहीं हो सकबी है इससे इन में क्वचित् तीन व क्वचित् चार क्रियाओं लगती हैं. अहो भगवन् ! आपके बचन सत्य, हैं. यह आठवा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ८॥ ६॥ .. . है छठे उद्दश में क्रिया का स्वरूप कहा. इस में भी प्रवेषिकी क्रिया के कारन भूत अन्यतीर्थको का विवाद कहते हैं. उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था. उस का वर्णन उववाइ मूत्र से जानना. की ईशान कोन में गुणशील नामक उद्यान यावत् पृथ्वीशिलापट था. उस गुगशील * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ,१११ अन्यतीथिक ५० रहते हैं ॥१॥ ते० उस काल ते. उस समय में स० श्रवण भ० भगान्त २० महावीर आ. आदी के करने वाले जा. यावत् म पधारे जा. यावत् परिषदा ५० पीछी गई ॥२॥ते. उतई २७ काल ते० उस समय में स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर के व. बहुत अं० अंतेवासी थे० स्थविर भ. भगवन्त जा० जातिसंपन्न कु० कुलसंपन्न ज. जैले वि. दसरा शतक में जा. यावत् जी०जीवित की आ. आशा म० मरण भ० भय वि० रहित स श्रमण भ• भगन्यत म. महावीर की अ० नजदीक उ० ऊर्श्वनानु अ० अधोशीर्ष झा० ध्यान ध्याते सं० संयम से त० तप से अ आत्मा को भा भावते जा यावत् ॥ १॥ तेणं कालेणं तेणं समएण समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया ॥ २ ॥ तेणं कालेणं, तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीररस बहवे अंतेवासीथेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा जहा बिइयसए जाव जीवि यासा मरणभय विप्पमुक्का, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्डेजाणू अहोसिरा भावार्थ उद्यान की नजदीक बहुत अन्यतीथिक रहते थे ॥ १॥ उस काल उस समय में धर्म की आदि के 50 करनेवाले श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदने को आई, और धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई ॥२॥ Gउन काल उस समय में जाति संपन्न, कल संपन्न वगैरह जो दूसरे शतक में कहा वैसे ही जीवित की आशा व मरण भय से रहित ऐसे महावीर स्वामी के अंतेवासी बहुत स्थविर भगांत महावीर स्वामी की 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 888 > आठवा शतकका सातवा उद्दशा Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुवदेवऩहायजी ज्वालाप्रसादजी * ति० {वि० विचरते हैं ॥ ३ ॥ त० तत्र ते० वे अ० अन्यतीर्थिक, जे० जहां थे० स्थविर भ० भगवन्त ते० [तहां उ० आकर ते ० उन थे० स्थावर भ० भगवन्त को ए० ऐसा व० बोले तु० तुम अ० आर्य त्रिविध ति० त्रिवि से अ० असंयति अ० अविरति अ०रहित ज० जैसे स० सातवा शतक में वि० दुसर झाणा वगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा जाव विहरति ॥ ३ ॥ तणं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी तुज्झेणं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजय, अविरय, अप्पार्डहय जहा सत्तमसए चिइओ उद्देसओ जाव एगंतबालायावि भवह || तरणं थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केणं कारणेणं अजो अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय पास ध्यानासन से ध्यान करके संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे || ३ || उस समय में वे अन्य तीर्थिकों उन स्थावर भगवंत की पास जाकर ऐसा बोले कि अहो आर्यो ! तुम तीन करन तीन योग से अविरति, असंयाते व प्रत्याख्यान से पाप कर्म का नाश नहीं करनेवाले हो वगैरह सातवा शतक का दूसरा उद्देशा जैसे कहना यावत् तुम एकान्त बाल हो. फीर स्थविरोंने पूछा कि अहो आर्यो ! हम किस कारन से तीन करन तीन योग से अविरति असंयति यावत् एकान्तं बाल हैं ? फीर अन्यतीर्थिक बोलने लगे कि अहो आर्यो ! तुम अदत्त ग्रहण करते हो, अदत्त भोगते हो और अदत्त का? १११४ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र उ० उद्देशा में जा. यावतं. ए० एकान्त वा० बाल भ० हो त० तब ते० व थे० स्थविर भ०भगवन्त ते० उन अ० अन्यतीर्थिक को ए० ऐमा व. बोले के किस का. कारन से अ० आर्य अ. हम ति०१ आविरय जाव एगंत बालायावि भवामो ? तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे। भगवंते एवं वयासी तुझेणं अजो! अदिण्णं गिण्हह, अदिण्णं भुंजह.अदिण्णं साइजह तएणं ते तुझे अदिण्णं गिण्हमाणा अदिण्णं भुंजमाणा अदिन्नं सातिजमाणा तिविहेणं तिविहेणं असंजय अविरय जाव एगंत बालायावि भवह।तएणं ते थेराभगवंतोते अन्न. उत्थिए एवं व्यासी केणं कारणेणं अजो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो अदिन्नं भुंजामो अदिन्नं सातीजामो तरणं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं आस्वाद करते हो, इस तरह अदत्त ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते हुवे तीन करन तीन योग से असंयति, अविरति यावत् एकान्त बाल होते हो. तब स्थविर भगवंत बोले कि अहो आर्यो! हम किस तरह दातार का विना दिया ग्रहण करते हैं. भोगते हैं व आस्वादते हैं कि जिस से अदत्त ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते तीन करन तीन योगसे असंयति यावत् एकान्त बाल होते हैं ? तब अन्यतीर्थिक बोले कि ॐ अहो आर्यो ! देनेलगा सो अदत्त कहा जाता है क्योंकि देनेलगा यह वर्तमान काल और दीया यह अतीत काल है. वर्तमान काल और अतीत काल में अंत्यंत भिन्नपना लिया गया है इस से देने लगा -200402108 आठवा शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ ?* । Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १११६ शब्दार्थ त्रिविध ति त्रिविध से अः असंयत अ० अविरत जा. यावत् ए० एकान्त बा० बाल भ०होवे त० तब ते० वे अ० अन्यनीर्थिक ते. उन थे० स्थविर भ० भगवन्त को ए. ऐसा ब० बोले तु० तुम अ० तिविहेणं असंजय जाव एगंत बालायावि भवामो ॥ तएणं तेअण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वपासी-तुझेणं अजो ! दिण्णमाणे अदिण्णे, पडिग्गाहिजमाणे अपडिग्गहिए, निसिरिजमाणे आणसिटे तुझणं अनो! दिण्णमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थणं अंतरा केइ अवहरिज्जा गाहावइस्तणं तं भंते ! णो खलु तं तुज्झे, तएणं तुझे है अदिण्णं गिण्हह जाव अदिणं साइजह, तएणं तुझे अदिष्णं गिण्हमाणा जाव एगंत बालायावि भवह ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो सो दीया नहीं कहा जावे. लेने लगा लो लीया नहीं कहा जाये, और पात्र में डालने लगा सो डाला नहीं कहा जाये, और भी अहो आर्य ! तुम को गृहस्थ आहारादि देनेलगा परंतु पात्र में गया नहीं इतने में कोई पुरुष उस आहार को ले जावे तो वह आहार गृहस्थ का गया परंतु तुम्हारा नहीं गया. इस से तुम ! अदत्त ग्रहण करने वाले याश्च अदस का आसादन करने वाले हो. और इस तरह अदत्त ग्रहण करते हैं " यावत् अदच का आस्वादन करते तुम असंयति अविरति यावत् एकान्त बाल होते हो. फीर स्थविर ॐ भगवन्त उन अन्य तार्थिकों को ऐसा बोले कि अहो आर्यो! हम अदत्त नहीं ग्रहण करते हैं अदत्त नहीं 43 अनुवादक-बालेब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रगाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** १११७ शब्दार्थ आर्य अ० अदत्त गि० लेतेहो भुं० भोगवते हो अ० अदत्त सा० आस्वादतेहो त० तब तु० तुम अ० अदत्त खलु अजो अम्हे अदिण्णं गिण्हामो अदिण्णं भुंजामो अदिण्णं साइजामो; अम्हेणं अजो ! दिण्णं गिण्हामो दिण्णं भुजामो दिण्णं साइजामो तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हमाणा दिण्णं भुंजमाणा दिण्णं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय विरय पडिहय जहा सत्तमसए जाव एगत पंडियायावि भवामो ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते __एवं वयासी-केणं कारणेणं अज्जा ! तुझे दिण्णं गिण्हह जाव दिण्णं साइज्जह, तएणं तुझे दिण्णं गिण्हमाणा जाव दिण्णं साइंजमाणौ एगंत पंडियायावि भवह ? भाव भोगते हैं, व अदत्त का आस्वाद नहीं करते हैं. परंतु दीया हुआ ग्रहण करते हैं, भोगते हैं व आस्वादते हैं इस तरह दिया हुआ ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते तीन करत तीन योग से संयति, विरति, प्रत्या-a. ख्यान से पापकर्म को नाश करने वाले यावत् एकान्त पंडित होते हैं. अन्यतीर्थिक बोले कि अहो आर्यो ! किस तरह तुम दिया हुआ ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते हो और जिस से संयति - विरति, प्रत्याख्यान से पापकर्म छेदन करने वाले यावत् एकान्त पंडित होते हो फीर स्थविर भगवंतने कहा कि अहो आर्य ! देते हुवे को दिया कहते हैं क्यों कि क्रिया काल व निष्ठाकाल का अभेद पना रहा हुवाई है, इस से देते हुवे को दिया, लेते हुवे लीया पात्र में डालते हुवे डाला ही कहते हैं. और भी पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र *38* आठवा शतक का सातवा उद्देशा-486 Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२८ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 89 203 अनुवादक-बालब्रह्मचारी गि० लेते अ० अदत्त भुं• भोगवते अ० अदत्त सा आस्वादने ति त्रिविध ति० त्रिविध से अ० असंयत अ० तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवंवयासी-अम्हेणं अजो! दिजमाणे दिण्णे, पडिग्गाहजमाणे पडिग्गहिए, निसिरिजमाणे निसिट्रे. अम्हेणं अज्जो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थणं अंतरा केइ अवहरेज्जा अम्हेणं तं नो खलु गाहावइस्स तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हामो, दिण्णं भुंजामो, दिण्णं साइजामो, तएणं अम्हे दिण्णं गिण्हमाणा जाव दिण्णं साइजमाणा सिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंत पंडियायावि भवामो॥ तुझेणं अजो! अप्पणाचेव तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंत बालायावि अहो आर्य ! हम को कोई पुरुष आहारादि देने लगा और पात्र में नहीं पड़ा इतने में कोई उस आहार को लेजावे तो वह आहार हमारा गया परंतु गृहस्थ का नहीं गया इस से हम दिया हुवा ग्रहण करते हैं, भोगते हैं और इस तरह दिया हुवा ग्रहण करते, भोगते व आस्वादते तीन करन व तीन योग से संयति विरति यावत् एकान्त पंडित होते हैं. परंतु तुम ही तीन करन तीन योग से असंयति, अविरति यावत् एकान्त बाल होते हो. तब वे अन्यतीथिकने स्थविर भगवंत को कहा कि किस तरह हम असंयति अविरति यावत् एकान्त बाल होते हैं ? स्थविर भगवंतने उत्तर दिया कि तुम अदत्त ग्रहण करते हो यावत् इस तरह ग्रहण करते हुवे एकान्त बाल होते हो. फोर अन्यतीथिंकने स्थविर भगवंतने कहा कि किस तरह हम * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द | अविरत मा० यावत् ए० एकान्त वा० अज्ञान भ० होते हो ॥४॥ त० तब ते वे अ. अन्यतीर्थिक थे भवह ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया तेथेरे भगवंते एवं वयासी केणं कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं जाव एगंत बालायावि भवामो ? तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी तुज्झेणं अजो! अदिण्णं गिण्हह ३ तएणं तुझे आदण्णं गेण्हमाणा जाव एगंत बालायावि भवह ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी केणं कारणणं अजो ! अम्हे अदिण्णं गिण्हामो जाव एगंतबालायावि भवामो ? तएणं ते थेरा भगवंतोते अण्णउत्थिए एवं वयासी तुज्झेणं अज्जो दिजमाणे अदिण्णे तं चेव जाव गाहा वइरसणं तं नो खलु तं तएणं तुझे अदिण्णं गिण्हह तंचेव जाव एगंत बालायावि अदत्त ग्रहण करते हैं यावत् एकान्त बाल हैं ? स्थविर भगवंतने उत्तर दिया कि अहो आर्यो ! तुम्हारे ही अभिप्राय से देने लगे को नहीं दिया कहते हो लेने लगे को नहीं लीया व पात्र में डालने लगे को नहीं डाला कहते हो और भी कोई आहारादि डालने लगा और पात्र में डालते पहिले कोई पुरुष उस आहार को लेजावे तो गृहस्थ का आहार गया परंतु साधु का नहीं गया ऐसा तुम कहते हो इस से तुम अदत्त ग्रहण करते हो, भोगते हो व आस्वादते हो और इस तरह ग्रहण करते यावत् आस्वादते असंयति अविरति 12 यावत् एकान्त बाल होते हो ॥ ४ ॥ अन्यतीर्थिक पुनः प्रश्न करते हैं कि आर्यो ! तुम तीन करन तीन पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र aanaamannamwww भावारी आठना शतकका सातवा उद्देशा *84980 Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ स्थविर भ० भगवन्त को एक ऐसा व० बोले तु० तुम अ आर्य ति• त्रिविध तित्रिविध मे जा० यावत् *ए. एकान्त बा• अज्ञान भ० होते हो त० तब ते० वे अ० अन्यतीर्थिक ते• उन थे० स्थविर भ०भगवन्त को ए० ऐसा व० बोले तु• तुम अ० आर्य री• गात करते पु० पृथ्वी को पे० आक्रमतेहो अ० हणतेहो भवह ॥ ४ ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी-तुज्झेणं अज्जो तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंत बालायावि भवह ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केणं कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंत बालायावि भवामो ? तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवंवयासी तुझेणं अज्जो ! रीयं यिमाणा पुढविं पेञ्चेह अभिहणह, वत्तेह, लेसेह, संघाएह, संघट्टेह, परितावेह, किलामेह, उवद्दवेह ॥ तएणं तुझे पुढविं पेच्चमाणा अभिहणमाणा जाव उबद्दवेमाणा भावार्थ योगसे असंयति अविरति यावत् एकान्त बाल हो क्योंकि तुमचलते हुवे पृथ्वीकाया को हणते हो, मारते हो. मसलते हो, संघटन करते हो, परितापना उत्पन्न करते हो, किलामना देते हो व उद्वेग उत्पन्न करते हो. ऐमा अन्यतीर्थिक का कथन सुनकर स्थविर भगवंत बोले कि अहो आर्यो ! हम चलते हुवे पृथ्वी को अतिक्रमते नहीं हैं. यावत् उद्वेग नहीं उपजाते हैं क्योंकि शारीरिक उच्चारादि के लिये, ग्लांनी की वैया 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ११२१ शब्दार्थ १० पांव से घसते हो ले० मीलातेहो सं० इकठी करते हो सं० संघटन करते हो प० परिताप उपजातेहो ? कि० किलामना उपजातेहो उ उद्वेग उपजाते हो त० तब तु० तुम पुः पृथ्वी को पे० आक्रमते अ०हणते 10 तिविहं तिविहेणं. असंजय अविरय जाव एगंत बालायावि भवह ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं बयासी-नो खल अजो ! अम्हे रीयं रयिमाणा पढविं पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवहवेमो. अम्हेणं अजो! रीयं रीयमाणा कायंवा जोगवा रीयंवा पडुच्च देसंदेसेणं वयामो, पदेसं पदेसेणं वयामो तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पदेसं पदेसेणं वयमाणा नो पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवहवेमो, तएणं अम्हे पुढवि अपेच्चमाणा अणभिहणमाणा जाव अणोद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंत पंडियायावि भवामो । तुज्झेणं अज्जो ! अप्पणाचेत्र तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगत बालायावि भवह ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासीभावार्थ वृत्यादि निमित्त अथवा अप्कायादि जीव संरक्षण रूप संयम के लिये ईर्यासमिति सहित सचेतन देश छोडकर अचेतन में जाते हैं और प्तचेतन प्रदेश से अचेतन प्रदेश में जाते हैं. इस लिये अहो आर्यो ! *हम संयति यावत् एकान्त पंडित हैं. परंतु अहो आर्यो ! तुम स्वयं तीन करन तीन योग से असंयति , of अविरति यावत् एकान्त बाल हो. तब अन्यतीथिकने कहा कि अहो आर्यो ! हम किस तरह तीन करन पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 2008 wwwmorrowww आठवा शतक का सातवा उद्देशा - Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जा० यावत् उ० उद्वेग उपजाते ति० त्रिविध ति० त्रिविध से अ० असंयत अ० अविरत जा० यावत् ए० एकान्त बा० बाल भ० होते हो ॥ ५ ॥ त० तब ते ० वे अ० अन्यतीर्थिक थे० स्थविर भ० भगवन्त को ए० ऐसा व० बोले तु० तुम अ० आर्य ग० जाते अ० नहीं गये वी० व्यतिक्रमते अ० नहीं व्यतिक्रमा रा० राजगृह न० नगर को सं० प्राप्त करने की का० इच्छा वाले अ० नहीं प्राप्त हुवे त० तब ते० वे थे० केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं एगंत बालायाचि भवामो? तएणं ते थेरा भगवंतो उत्थि एवं वयासी तुज्झेणं अज्जो ! रीयं रीयमाणा पुढविं पेवेह जाव उवदवेह तणं तुझे पुढविं पेच्चैमाणा जाव उवदवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंत बालायावि भवह ॥ ५ ॥ तरणं ते अण्णउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी तुज्झेणं अजो ! गममाणे अगए वीइक्कमिजमाणे अवीइकंते रायगिहं नगरं संपाविकामे असं पत्ते, तणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी - नो खलु अजो ! अम्हे तीन योग से असंयति अविरति यावत् एकान्त वाल हैं स्थविरोंने उत्तर दिया कि अहो आर्यो ! तुम्हारे ही अभिप्राय से तुम पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हो यावत् उद्वेग उपजाते हो ॥ ५ ॥ पुनः अन्यतीर्थिक तीसरा प्रश्न करते हैं. अहो आर्यो ! जाते हुए नहीं गये, व्यतिक्रमते हुवे नहीं व्यतिक्रमे. और राजगृह नगर को प्राप्त होने की इच्छावाले प्राप्त नहीं हुवे ऐसा तुम मानते हो तब स्थविर भगवन्तने प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ११२२ Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 382 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र स्थविर भ० भगवन्त ते० उन अ० अन्यतीथिंक को ऐ० ऐसा व० बोले नो० नहीं अ० आर्य अ० हम । ग. जाने अ० गये नहीं वि० व्यतिक्रमते अ० व्यतीक्रमा नहीं रा० राजगृह को जा. यावत् अ० अप्राप्त 0 अ०हम अ०आर्य ग० जाते ग० गये वी०व्यतिक्रमते वी०व्यतिक्रमा रा०राजगृह न० नगर को सं० प्राप्त की का०इच्छावाले संभात हुवे.तु तुम अ० स्वयं गजाते अ० गये नहीं वी० व्यतीक्रमते अ० व्यतीक्रमा नहीं राराजगृह न० नगर को जा. यावत् अ० प्राप्त हुवे नहीं त० तच ते वे थे० स्थविर भ भगवन्त अ.अन्य गममाणे अगए, बीइक्कमिजमाणे अवीइक्कंते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते ॥ अम्हेणं अजो ! गममाणे गए, वीइक्कमिजमाणे वीइक्वांते, रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते ॥ तुज्झेणं अप्पणा चेव गममाणे अगए, वीइक्वमिज्जमाणे अवीइक्वंते, रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते तएणं ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं पडिहणंति, एवं पडि हणेत्ता गइप्पवायनामं अज्झयणं पण्णवइंसु ॥ ६ ॥ कइविहेणं भंते ! गइप्पाए उत्तर दिया कि अहो आर्यो! हम जाते को गया, व्यतिक्रमते को व्यतिक्रमा व राजगृह नगर को प्राप्त होने की इच्छावाले को प्राप्त हुवा कहते हैं.परंतु तुमही जाते हुवे को नहीं गये,व्यतिक्रमते हुवे को नहीं व्यतिक्रमे व राजगृह जाने की इच्छावाले को राजगृह अमाप्त कहते हो. फीर स्थविर भगवन्तने अन्यतीर्थिकों का gopsck आठवा शतक का सातवा उद्देशा 98817 Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थिक को एक ऐसा प० प्रतिपादन करे ५० प्रतिपादन करके ग० गति प्रवाद अ० अध्ययन प० प्ररूपा ॥ ६॥क० कितने प्रकार का भं० भगरन् ग० गति प्रवाद प० प्ररूपा गोः गौतम पं० पांच प्रकार का ग० गति प्रवाद १० प्रयोगगति तः ततगति बं० बंधन छेदगति उ उपपातगति वि० विहायोगति ए. यहां से आ० आरंभकर ५० प्रयोगपद नि० निर्विशेष भा० कहना जा. यावत् वि. विहायागति ११२४ Eo है, पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते तंजहा-पओगगई, ततगई, बंधणच्छे यणगई, उववायगई, विहायगई एत्तो आरब्भ पओगपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी इस तरह पराजय करके गति प्रवाद नामक अध्ययन कहा ॥६॥ अहो भगवन् ! कितने प्रकार केस गति प्रवाद कहें ? अहो गौतम ! गति प्रवाद के पांच भेद कहे हैं. प्रयोगगति सो मन वचन व काया के योगों की प्रवृत्तिरततगतिमो ग्रामादि जाने की प्रवृत्ति अथवा अवधिभूत ग्रामादिक में से नगर में जाने की प्रवृत्ति ३ कर्मबंध छेदने से अथवा शरीर बंध छेदने से जीव की गति होवे सो बंधन छेद गति४अपने भव में आयुष्य क्षय कर अन्य स्थान उत्पन्न होने को गमन करना सो उपपात गति ५ मनुष्य पशु खेचरादि की शुभाशुभ गमन करने की प्रवृत्ति सो विहायो गति. इन पांचों गति का विस्तार पूर्वक कथन पन्नवणा सूत्र के सोलहवे पद से जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह: आठवां शतक का सातवा उद्देशा Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | स० वह ए० ऐसे भ० भगवन् ॥ ८॥७॥ रा० राजगृह न: नगर में जा. यावत् ए. ऐमा व• वोले गु० गुरु भं० भगवन् प० प्रत्यय क०० कितने प. प्रत्यनीक प० प्ररूपे गो. गौतम त तीन प० प्ररूपे तं. वह ज. जैसे आ० आचार्य प्रत्यनीक उ• उपाध्याय प्रत्यनीक थे० स्थविर प्रत्यनीक ॥ १ ॥ ग० गति भं० भगवन् प० प्रत्यय क०कितने सेत्तं विहायगई । सेवं भंते भंते त्ति ॥अट्ठमसयस्स सत्तमोउद्देसो सम्मत्तो॥ ८॥ ७॥ - रायगिहे नयरे जाव एवं वयासी गुरूणं भंते ! पडुच्च कइपडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा आयरिय पडिणीए, उवज्झाय पडिणीए, थेरपडिणीए, ॥ १ ॥ गईणं भंते ! पडुच्च कइपडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पूर्ण हुवा ॥ ८॥७॥ है सातवे उद्देश में स्थविरों के प्रत्यनीक अभ्यदर्शनियों का कथन कहा. अब गुड प्रमुख के प्रत्यनीक कहते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नम-3 स्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! उपदेश देनेवाले ऐसे गुरु के कितने प्रत्यनीक (प्रतिकूल निंदक) कहें ? अहो गातम ! तीन प्रत्यनीक कहें. १ अर्थ व्याख्यान के करनेवाले आचार्य का प्रत्यनीक २ सूत्र देनेवाले उपाध्याय का प्रत्यीक और ३ श्रुत, पर्याय व षय से स्थविर का प्रत पंचमांग विवाह पण्णति ( 80 आठवां शतकका आठवा उद्देशा 808 VN Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ५० प्रत्यनीक प० प्ररूपे गो० गौतम त० तीन प० प्रत्यनीक इ० यह लोक प्रत्यनीक प० परलोक प्रत्य| नीक दु० दोनों लोक प्रत्यनीक ॥ २॥ स० समूा भं• भगवन् प० प्रत्यय क० कितने प० प्रत्यनीक गो. गौतम त तीन प० प्रत्यनीक कु० कुल प्रत्यनीक ग. गण प्रत्यनीक सं० संघप्रत्यनीक ॥३॥ अ० अनुकंपा भं०भगवन् प०प्रत्यय क०कितने प• प्रत्यनीक गो गौतम त० तीन त तपस्वी प्रत्यनीक गिग्लान पडिणीया पतं०इह लोगपडिणीए परलोग पडिणीए दुहलोग पडिणीए॥२॥समूहण्णं भंते! पडुच्च कइ पडिणीयाप० ?गोयमा! तओ पडिणीया प०तं. कुलपडिणीए, गणपडिणीए. संघपडिणीए,॥३॥अणुकंपं भंते! पडुच्च कइ पडिणीया पुच्छा ?गोयमा! तओपडिणीया भावार्थ नीक ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! गति आश्री कितने प्रत्यनीक कहें ? अहो गौतम ! गति आश्री तीन प्रत्यनीक कहे. १ यह लोक प्रत्यनीक सो मनुष्य , लक्षण पर्याय का प्रत्यनीक पंचाग्नि साधक तपस्वी जैसे इन्द्रियार्थ के प्रतिकुलपना से, २ परलोक प्रत्यनीक सो इन्द्रियार्थ में तत्पर रहकर परलोक का भय, जाने नहीं ३ उभय लोक प्रत्यनीक चौरी प्रमुख से इस लोक व परलोक ऐसे दोनों लोक का मुख को नाश करे ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! समूह समवाय आश्री कितने प्रत्यनीक कहे ? अहो गौतम ! समूह से आश्री तीन प्रत्यनीक कहे १ चंद्रादिक कुलं का प्रत्यनीक २ कोटिकादि गण का प्रत्यनीक और ३ संघ का * प्रत्वनीक ॥ ३ ॥ अहो भगवन् अनुकंपा निमित्त कितने प्रत्यनीक कहे हैं ? अहो गौतम ! तीन प्रकार के चारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी चालापतादजी * 4.8 अनुवादक-बाल Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ es प्रत्यनीक से शिष्य प्रत्यनीक ॥ ४ ॥ सु० सूत्र मं भगवन् पं० प्रत्यय पुः पुच्छा गो० गौतम त० तीन (प्रत्यनीक सु० सूत्र प्रत्यनीक अ० अर्थ प्रत्यनीक उ० उभय प्रत्यनीक ॥ ५ ॥ भा० भाव भ० भगवन् प० प्रत्यय पु० पुच्छा गो० गौतम त० तीन प्रत्यनीक णा० ज्ञान प्रत्यनीक दं० दर्शन प्रत्यनीक च० चारित्र प्रत्यनीक || ६ || क० कितने प्रकार का भं० भगवन् व० व्यवहार प० प्ररूपा गो० गौतम पं० पांच प० तं० तबस्सि पडिणीए, गिलाण पडिणीए, सेह पडिणीए ॥ ४ ॥ सुअण्णं भंते ! पडुच्च पुच्छा ? गोयभा ! तओ पडिणीए प० तं सुत्तपाडणीए, अत्थपडिणी, तदुभय पडणी ॥ ५ ॥ भावण्णं भंते ! पडुच्च पुच्छा ? गोयमा ! तओ पडिणीया पतं०- णाणपडिणीए, दंसण पडिणीए चरित पडिणी ॥ ६ ॥ कइविणं भंते! ववहारे पण्णत्ते प्रत्यनीक कहे हैं ? तपस्वी आदि की वैयावृत्य करे नहीं सो तपस्वी प्रत्यनीक २ ग्लान आदि को औषधादि देवे नहीं सो ग्लान प्रत्यनीक और ३ नविन दीक्षित की वैयावृत्य करे नहीं सो शिष्य प्रत्यनीक ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! सूत्र आश्री कितने प्रत्यनीक कहे हैं ? अहो गौतम ! सूत्र आश्री तीन प्रत्यनीक कहे हैं ? सूत्र प्रत्यनीक २ अर्थ प्रत्यनीकं व ३ सूत्र अर्थ दोनों प्रत्यनीक ||५|| अहो भगवन् भाव आश्री कितने प्रत्यनीक ? अहो गौतम ! भाव आश्री तीन प्रत्यनीक १ ज्ञान के अवर्णवाद बोले सो ज्ञान प्रत्यनीक २ दर्शन के अवर्णवाद बोले सो दर्शन प्रत्यनीक और ३ चारित्र के अवर्णवाद बोले सो चारित्र 4 पंचमांग विवाह पण्णसि ( भगवती ) मूत्र * ११२७ आठवा शतक का आठवा उद्देशा 8-495 Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ प्रकार का प० प्ररूपा आ० आगम मु० श्रुत आ० आज्ञा धा० धारणा जी० जीत ज० जैसे से वह त. तहां आ० आगम सि होवे आ० आगम से व० व्यवहार प० रखे णो० नहीं से वह त० तहां आ० आगम सि० होवे ज जैसे त. तहां सु० श्रुत सेव० व्यवहार प० रखे पो० नहीं से वह त. तहां ११२८ ० श्रुत सि. होवे ज जैसे त. तहां आ० आज्ञा सि० होवे आ० आज्ञा से क. व्यवहार प० । मो० नहीं त . तहां आ० आज्ञा सि. होवे ज० जैसे त० तहां धा० धारणा मि० होवे धा० धारणा से ___ गोयमा! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तंजहा-आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए ॥ जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेजा ॥ णोय से तत्थ आगमे सिया __ जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेजा ॥णोय से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्य आणा सिया आणाए ववहारं पट्टवेज्जा णोय से तत्थ आणासिया जहा से तत्थ प्रत्यनीक ॥ ६॥ जो प्रत्यनीकपना का त्याग करते हैं वे शुद्ध व्यवहार पाल सकते हैं. अहो भगवन् ! व्यवहार के कितने भेद कहे हैं ? अहा गौतम ! व्यवहार के पांच भेद कहे हैं. १ जिस से पदार्थ जाना जावे सो आगम व्यवहार २ सना जावे सो श्रृत ३ आदेश कर देवे सो आज्ञा ४ धारण कर रखे सो धारलणा और आचार (परंपराकी रीति ) सो जीत व्यवहार. इन में से केवलज्ञानी, मनःपर्यव ज्ञानी, चउदहन पूर्वधर व दशपूर्वधर इन का व्यवहार सो आगम व्यवहार, इस में प्रथम आलोचनादि केवल 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहाय जी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धब्दार्थ १०व० व्यवहार प० रखे जो नहीं त• तहां धा धारणा सि होवे ज० जैसे त. तहां जी जीत मे व०व्यव धारणा सिया धारणाए बवहारं पटवेजा, णोय से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहार पट्टवेजा, इच्चेएहि पंचाहिँ ववहारं पट्टवेज्जा,तंजहाआगमेणं, ज्ञानी की पास करना, केवलज्ञानी की अविद्यमान अवस्था में मनःपर्यव ज्ञानी की पास आलोचनादि भावार्थ करना, मनःपर्यव ज्ञानी के अभाव में अबाधिज्ञानी, अवधिज्ञानी के अभाव में चौदह पूर्वधर व चौदह पूर्वधर के अभाव में दश पूर्वधर की पास आलोचना करना जब कोई केवलज्ञानी की पास आलोचना ग्रहण करने को जावे तो वे उसे कहे कि तुम तुमारा सब अतिचार कहो. इतना कहनेपरभी यदि वह 2 माया से अपना आतिचार गोपवे तो उसे पायीच्छत्त देवे नहीं, परंतु कोई आलोचना करते भूल जावे और माया से अपना दोष गोपवे नहीं ऐसा पुरुष को केवलज्ञानी उनका अतिचार कहे और प्रायच्छित्त देवे. जैसे केवलज्ञानी जानते हैं वैसे ही उपयोग से अवधि, मनःपर्यव ज्ञानी चौदह पूर्वधर दश पूर्वधर जानते हैं. वेभी माया से गोपनेवाले का दोष प्रगट करे नहीं परंतु भूलजाने से माया रहित जानने से उन को उन का अतिचार प्रगट करे. लज्जा से क्वचित् पाप को छिपावे तो मिष्ट वचन से उन को * समजावे कि अहो मुने ! अंतःकरण में रहा हुचा शल्य भवोभव में महा दुःख रूप फल के दाता है.. तुम को धन्य है कि उस शल्य का उद्धार के लिये तुम रुज्ज हुवे हो, ऐसा अवसर पुनः प्राप्त होना कठिन १.१-१२ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 40393> आठवा शतकका आठवा उद्देशा 988 Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३० शब्दार्थ 4 हार ५० रखे से वह कि० क्या भा० कहा भ० भगवन् आ० आगमबलिक स० श्रमण णि• निग्रंथ *। सत्र सुएणं, आणाए, धारणाए, जीएणं ॥ जहा २ से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा २ ववहारं पट्टवेजा ॥ से किमाहु भंते ! आगमबलिया समणा निग्गंथा इस तरह समझाने पर अपना सब अतिचार कहे तो प्रायच्छित्त देवे. ऐसा प्रायश्चित्त सहर्ष ग्रहण करे तो अल्प काल में निर्वाण प्राप्त करे. अब श्रुत व्यवहार कहते हैं. अग्यारह अंग व नव पूर्व का जिनको ज्ञान होवे वे श्रुत व्यवहारी कहाते हैं. वे आलोचना करनेवाले का अभिप्राय जानने के लिये उस के मुख से तीन वार दोष कहने का कहे. यदि तीनों वार एक सरिखा प्रकाश करे तो उसे शुद्ध समझ परंतु इस में भिन्नता मालूम पडे तो असत्य समझ कर उस को पहिले मृषावाद का प्रायश्चित्त देना फीर भालोचना का प्रायश्चित्त कहना. ३ आज्ञा व्यवहार. सूत्रार्थ के सेवन से महा गीतार्थ बने हुवे दो आचार्य जंघाबल की क्षीणता से विहार कर सके नहीं और अलग २ देशान्तर में रहे हुवे होवे, परस्पर एक दूसरे को मील सके नहीं. उस समय में उन में से कोई एक प्रायश्चित्त लेने को वांच्छे. और गीतार्थ शिष्य न होवे तो धारणा कुशल अगीतार्थ को अथवा शिष्य को सिद्धांत की भाषा से गूढार्थ अतिचार आसेवन का पद कहकर भेजे. वह आचार्य भी उस की पास से अपराध सुन करके द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव वैसे ही संहनन, धृति, बलादिक का विचार कर स्वयं वहां जावे अथवा किसी गीतार्थ शिष्य को अमोलक ऋषीजी मुनि श्री भावार्थ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) 선의 भावार्थ | पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र इ० इन पं० पांच प्रकार से व० व्यवहार ज० जसे ज० जहां त० तैसे त० तहां अ० अनिश्रित उ० उपाइच्चेयं पंचविहं बवहारं जहा २ जहिं २ तहा २ तहिं २ अणिस्सिओसियं सम्मं कहकर भेजे. और वह भी होने नहीं तो आनेवालेको ही अतिचारकी विशुद्धि कहकर भेज देवे. यह आज्ञा व्यवहार [ कहा जाता है ४ अब धारणा व्यवहार कहते हैं. कोई गीतार्थ आचार्य किसी शिष्य को किसी अपराध (के लिये द्रव्यादि देखकर विशुद्धि करे, वह शिष्य गुरुने दी हुई शिक्षा मन में रखकर किसी अन्य की वैसा ही { अपराध के लिये विशुद्धि करें. इस तरह विशुद्धि करना सो धारणा व्यवहार है. अथवा किसी वैयावृत्य करनेवाला शिष्य सब छेद श्रुत देने योग्य नहीं है ऐसे शिष्य को आचार्य कृपा से कितनेक प्रायश्चित्त के पद कहे उसे धारकर वह अन्य को आलोचना देवे तो उसे भी धारणा व्यवहार कहते हैं. ५ अब जीत व्यवहार कहते हैं पहिले साधु जिस अपराध की विशुद्धि के लिये बहुत तप करते थे वैसा ही अपराध की विशुद्धि के लिये सांप्रत काल में द्रव्य, क्षेत्र, कालव भाव विचार कर योग्य तपका प्रायश्चित्त देवे उस समय को जीत गीतार्थ व्यवहार कहते हैं, आचार्यने गच्छ में सूत्र से न्यून, अधिक प्रवतया और अन्य अनेक गीतार्थने उसे मान्य किया तो उसे रूढ जीत व्यवहार कहते हैं. इन पांच में से किसी एक व्यवहारवालेको गीतार्थ कहते हैं और उन की पास प्रायश्चित्तं लेना परंतु अगीतार्थ की पास प्रायश्चित्त लेना नहीं. अब आगमादि व्यवहार में उत्सर्ग अपराध संघयन, धृति व बल देखकर अथवा जिस प्रायश्चित्त को आठवा शतकका आठवा उद्देशा ११३१ Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्रित स० सम्यक् व० प्रवर्तता स० श्रमण नि. निग्रंथ अ० आज्ञा से आ० आराधक भ होवे ॥ ७॥क० कितने प्रकार का भ० भगवन् बं० बंध प० प्ररूपा गो० गौतम दु० दोप्रकार का बं० बंध प्ररूपा ई० ईर्यापथिक बंध सं० सांपरायिक बंध ॥ ८॥ ई० ईर्यापथिक भ० भगवन् क० कर्म किं० क्या ने नारकी ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आगाए आराहए भवइ ॥ ७ ॥ कइविहेणं भंते ! बंधे । पण्णत्ते ? गोयमा ! दुबिहे बंधे पण्णत्ते तंजहा इरियावहियबंधेय संपराइय बंधेय ॥ ८ ॥ इरियावहियाणं भंते ! कम्मं किं णेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ भावार्थ कहते हैं. जिस समय आगम व्यवहारवाले केवलज्ञानी आदि प्रवर्तते होवे उस ममय उस ही आगम व्यवहार से प्रायश्चित्तादि देवे. अर्थान् उस की स्थापना करे, परंतु शेष चार व्यवहार से प्रवर्ते नहीं. आगम व्यवहार न होवे और श्रुत व्यवहार हो तो श्रुत व्यवहार की स्थापना करे, श्रुत व्यवहार के अभाव में आज्ञा व्यवहार, आज्ञा व्यवहार के अभाव में धारणा व्यवहार और धारणा व्यवहार के अभाव K में जीत व्यवहार की स्थापना करे. इस तरह आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, व जीत इन पांचों व्यवहार में से जिस स्थान जिस की योग्यता होवे उसको स्थापना कर उस अनुसार प्रवर्ते. किसी प्रकार की आशंसा राग, द्वेष व नेश्राय रहित पक्षपात छोडकर समभाव से सम्यक् प्रकार से प्रवर्तते हुए माधु जिन भगवन्तकी आज्ञा के आराधक होते हैं ॥ ७ ॥ अहो भावन् ! बंध के कितने भेद कदे हैं ? अहो गौतम ! अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालायसादनी * - Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सत्र 84080 ११.३३ व बांधे ति० तिर्यंच पुरुष पांघे ति० तिर्यच स्त्री पं० बांध म० मनुष्य बं० बांधे म० मनुष्यणी बांध दे०१७ बंधइ, तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मणुस्सोबंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ, ? गोयमा ! णो णेरइओ बंधइ णोतिरिक्खजोणिओ बंधइ, जो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, णो देवो बंधइ, णो देवी बंधइ, पुवपडिवण्णए पडुच्च मणुस्साय मणुस्सीओय बंधंति. पडिव. जमाणए पडुच्च मणुस्सोवा बंधइ, मणुस्सी वा बंधइ. मणुस्साय वा बंधंतिमणुस्सीओय वा बंधंति, अहवामणुस्सोय मणुस्सीय बंधइ. अहवा मणुस्सोय मणुस्सीओय बंधति, अहवा मणुस्साय मणुस्सीयबंधइ, अहवा मणुस्साय मणुस्सीओयं बंधति ॥ तं भंते ! किं इस्थिबंध के दो भेद कहे हैं. ईर्यापथिक व सांपरायिक ॥ ८॥ अहो भगवन् ! ईर्यापथिक कर्म क्या नारकी बांधते हैं, तिर्यंच बांधते हैं, तिर्यंचणी बांधती हैं, मनुष्य बांधते हैं, मनुष्यणी बांधती हैं, देव बांधते हैं व देवी बांधती हैं ? अहो गौतम ! नारकी, तिर्यंच, तिर्यंचणी, देव व देवी को ईर्यापथिक बंध नहीं होता है मात्र मनुष्य व मनुष्यणी को ईर्यापथिक क्रिया का बंध होता है. क्यों कि उपशान्त मोह, क्षीण मोह व सयोगी केवली इन तीनों को ईर्यापथिक क्रिया का बंध होता है. पहिले का ईर्यापाथिक बंध अंगी-1 कार करनेवाले द्वितीयादिक समयवर्वी होते हैं. उस में सदैव स्त्री व पुरुष बहुत रहते हैं इस से पूर्व प्रतिपन्न आश्री बहुत मनुष्य व वहुत मनुष्यणी कही. वर्तमान समय आश्री ईर्यापथिक प्रथम समयवर्ती 389 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र आठवा शतक का आठवा उद्देशा भावार्थ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 भावार्थ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी बंधइ, पुरिसो बंधइ, णपंसगो बंधइ, इत्थीओ बंधति, पुरिसा बंधीत,णपुंसगा बंधति, णोइथिणोपुरिसोणोणपुंसगो बंधइ ? गोयमा ! णो इत्थी बंधइ, णो पुरिसो बंधइ जाव णो णपुंसगा बंधति ॥ पुवपडिवण्णए पडुच्च अवगयवेदा बंधति, पडिवजमाणए पडुच्च अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा था बंधति,॥ जइ भंते! अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा वा बंधंति, तं भंते ! किं इत्थिपच्छाकडो बंधइ, पुरिसपच्छाकडो बंधइ, णपुसगपच्छाकडोबंधइ, इत्थिपच्छाकडाबंधति, पुरिसपच्छाकडा बंधंति, णपुसगपच्छाकेवली एक स्त्री व एक पुरुष है. इस के विरह का संभव होने से असंयोगी चार व द्विसंयोगी चार ऐसे आठ विकल्प होते हैं. १ एक मनुष्य बांधे २ एक मनुष्यणी बांधे ३ बहुत मनुष्य बांधे, और ४ बहुत मनुष्यणी बांधे. द्वीसंयोगी चार भांगे ? एक मनुष्य एक मनुष्यणी २ एक मनुष्य बहुत मनुष्यणी ३ बहुत मनुष्य व एक मनुष्यणी और ४ बहुत मनुष्य बहुत मनुष्यणी. अब वेद की अपेक्षा से करते हैं अहो भगवन् ! ईर्यापथिक क्रिया का बंध क्या एक स्त्री करे, एक पुरुष करे, एक नपुंसक करे. बहुत स्त्री, करे, बहुत पुरुष करे, बहुत नपुंसक करे अथवा नो स्त्री नो पुरुष नो नपुंसक बंध करे ? अ गौतम ! ईर्यापथिक क्रिया का बंध स्त्री करे नहीं यावत् बहुत नपुंसक करे नहीं. पूर्व प्रतिपन्न आश्री विगत वेद वाले बांधते हैं. और वर्तमान काल आश्री विगतवेदवाला बांधता है अथवा विगतवेद वाले बांधते * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 1 Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कडा बंधंति ॥ उदांहु इत्थिपच्छा कडोय पुरिसपच्छाकडोय बंधइ, उदाहु इत्थिपच्छाकडोय पुरिसपच्छाकडाय बंधति, उदाहु इत्थिपच्छाकडाय पुरिसपच्छाकडोय बंधइ, उदाहु इत्थिपच्छाकडा, पुरिसपच्छाकडाय बंधंति, उदाहु इत्थिपच्छाकडोय णपुंसगपच्छाकडे य बंधइ, उदाहु पुरिसपच्छाकडोय णपुंसगपच्छाकडोयबंधइ, उदाहु इत्थिपच्छाकडोय पुरिसपच्छाकडोय पुंसगदच्छाकडोय बंधइ ॥ एवं एए छब्बीसं भंगा जाब उदाहु {हैं. अहो भगवन् ! जब विगतवेद वाला बांधता है अथवा विगतवेदवाले बांधते हैं तब क्या स्त्रीपना पुरुषपना पश्चात्कृत बांधता है, नपुंसकपना पश्चात्कृत बांधता है, पश्चात्कृत बाधता अथवा बहुत स्त्रीपना पश्चात्कृत, बहुत पुरुषपना पश्चात्कृत बांधता है यह एक संयोगी छ भांगे हुवे. द्विसंयोगी वारह भांगे होते हैं १ एक स्त्री पश्चात् कृत एक पुरुष पश्चात् कृत २ एक स्त्री पश्चात् कृत बहुत पुरुष पश्चात् (कृत ३ बहुत स्त्री पश्चात् कृत एक पुरुष पश्चात् कृन ४ बहुत स्त्री पश्चात् कृत बहुत पुरुष पश्चात् कृत यह चार भांगे स्त्री पुरुष के कहे ५ एक स्त्री पश्चात्कृत एक नपुंसक पश्चात् कृत ६ एक स्त्री पश्चात् कृत बहुत नपुंसक पश्चात् कृत ७ बहुत स्त्री पश्चात् कृत व एक नपुंसक पश्चात् कृत ८ बहुत स्त्री पश्चात् कृत बहुत नपुंसक पश्चात् कृत ( यह चार भांगे स्त्री व नपुंसक के ) ९ एक पुरुष पश्चात् कृत एक नपुंसक पश्चात् कृत १० एक पुरुष पश्चात् कृत बहुत नपुंसक पश्चात् कृत ३ बहुत पुरुष पश्चात् कृत २०३२ आठवा शतकका आठवा उद्देशा 080 olg ११३५ Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३६ भावार्थ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी इत्थीपच्छाकडाय, पुरिसपच्छाकडाय, णपुंसगपच्छाकडाय बंधति ? गोयमा ! इत्थीपच्छाकडोवि बंधइ, पुरिसपच्छाकडोवि बंधइ, णपुंसगपच्छाकडोवि बंधइ, इत्थीपच्छाकडा वि बंधति, पुरिसपच्छाकडावि बंधति, णपुंसगपच्छाकडावि बंधति, अहवा इत्थीपच्छाकडोय पुरिसपच्छाकडोयबंधइ, १२ एवं एए छब्बीसं भंगा भाणियव्वा जाव अहवा इत्थीपच्छाकडाय पुरिसपच्छाकडाय णपुंसगपच्छाकडाय बंधति ॥ तं भंते ! किं एक नपुंसक पश्चात् कृत और '४ बहुत पुरुष पश्चात् कृत बहुत नपुंसक पश्चात् कृत. अब तीन संयोगी १८ भांगे होते हैं सो कहते हैं ? एक स्त्री एक पुरुष एक नपुंसक २ एक स्त्री एक पुरुष बहुत नपुं ३ एक स्त्री बहुत पुरुष एक नपुंसक ४ बहुत स्त्री एक पुरुष एक नपुंसक ५ बहुत स्त्री बहुत पुरुष एक नपुंसक १६ बहुत स्त्री एक पुरुष बहुत नपुंसक ७ एक स्त्री बहुत पुरुष बहुत नपुंसक और बहुत स्त्री,बहुत पुरुष व बहुत नपुंसक ऐसे २६ भांगे से क्या बांधे ? अहो गौतम ! एक स्त्री पश्चात् कृत, एक पुरुष पश्चात् कृत व एक नपुंसक पश्चात् कृत बांधता है ऐसे ही २६ भांगे से जानना यावत् बहुत स्त्री, बहुत पुरुष बहुत नपुंसक पश्चात् कृत बांधते हैं. इर्यापथिक क्रिया का तीन काल आश्री आठ विकल्प का प्रश्न करते हैं ? गत काल में बंधा वर्तमान में बंधता है और अनागत में बंधेगा २ गत काल में बंधा, वर्तमान में बंधता है व अनागत में नहीं बंधेगा ३ गत काल में बंधा वर्तमान में नहीं बंधता हैं, व अनामत में बंधेमा ४ गतकाल में बंधा प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र wwwwwwwwwww १३७ भावार्थ 380 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती) सत्र * बंधी बंधइ बंधिस्सइ, बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, बंधी न है बंधइ न बंधिस्सइ, न बंधी बंधइ बंधिस्सइ, न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, न बंधी नबंधइ बंधिस्सइं, नबंधी नबंधइ नबंधिस्सइ ? गोयमा ! भवागरिसं फ्डुच्च अत्थ गइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अस्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ एवं तंचेर सव्वं वर्तमान में नहीं बंधता है व अनागत नहीं बंधेगा ५ गतकाल में नहीं बंधा, वर्तमान में बंधता है अनागत में वंधेगा६ गतकाल में नहीं बंधा वर्तमानमें बंधता है व अनागत में नहीं बंधेगा७ गतकाल मे नहीं बंधा वर्तमान में नहीं बंधता हैं व अनागत में बंधेगा और क्या ८ गत काल में नहीं बंधा, वर्तमान में नहीं बंधता है व अनागत में नहीं बंधेमा ? अहो गौतम ! भवाकर्ष आश्री कितनेकने प भव में उपशान्त मोहपना से र्यापथिक क्रिया का बंधकिया, वर्तमान में बंध करते हैं और अनागत में बंध करेंगे २ किननेकने गत काल में उपशान्त मोहकी अवस्था में ईर्यापथिक क्रियाका बंधकिया, वर्तमान में क्षीणमोही होने से बंध करसे हैं और अनागत में शैलेशापना प्राप्त होने से अबंध होगा ३ कोई प्रथम उपशांत मोही होने से ईर्यापथिक का बंध करता है, परंतु पीछा गिरने से बंध नहीं करता है और पुनः जब उपशान्त मोह होगा करेगा ४ किसीने क्षपक श्रेणिपर चडकर बंध किया वर्तमान में शैलेशीपना को प्राप्त होने से बंध करता है और अनागत में बंध नहीं करेगा ५ उपशान्त मोह नहीं होने से किसी जीव ने आगे 88880% आठवा शतकका आठवा उद्दशा g romrnmmmmmmmmm ig Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३८ श्री अमोलक ऋषिजी ! भावार्थ नाव अत्थेगइए न बंधी न बंधइ नबंधिस्सइ ॥ गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ एवं जाव अत्थेगइए नबंधी बंधइ बंधिस्सइ, णो चेवणं नबंधी बंधइ न बंधिस्सइ,अत्थेगइए नबंधी नबंधड् बंधिस्सइ, अत्थेगइएन बंधी नबंधइ नबंधि स्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बंधइ, साइयं अपज्जवत्तियं बंधइ,अणाइयं नहीं किया वर्तमान में उपशान्त मोह होने से बांधता है, और अनागत में भी बंध करेगा ६ क्षीण मोह नहीं होने से गतकाल में बंध नहीं किया, वर्तमान में क्षीण मोह होने से बांधता है और अनागत में शैलेशी अ कपना को प्राप्त होने से बंध नहीं करेगा ७ किसी भव्य जीव ने गतकाल में बंध नहीं कीया, वर्षमान में . नहीं बंधता है अनागत में क्षपक होगा नव बंध करेगा ८ अभव्य जीव ने गतकाल में नहीं बंधा वर्तमान में नहीं बंधता है व अनागत में बंधेगाभी नहीं क्योंकी यह प्रथप गुणस्थान नहीं छोडता है. अब एक भव आश्री ईपिथिक कर्म पुद्गल का ग्रहण रूप आकर्ष सो ग्रहणाकर्ष उस आश्री किसी दीर्घ आयुष्य वाले केवलज्ञानी ने मतकाल में ईर्यापथिक क्रिया का बंध किया, वर्तमान में करते हैं और अनामत में करेंगे २ केवल ज्ञानी ने गत काल में ईर्यापरि क्रिया का बंध किया. वर्तमान में करते हैं, और अनागत में शैलेशीपना से नहीं करेगा. ३ कोई जीव उपशम श्रेणी पर चडकर पीछा पडा उसने गतकाल में बंध किया, वर्तमान में नहीं वंधता है और * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 8. सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ? गोषमा ! साइयं सपजवासियं बंधइ, णो साइयं अपज्जवसियं बंधइ, णो अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ, णो अणाइयं अपजवसियं बंधइ ॥ तं भंते । किं देसेणं देसं बंधइ, देसेणं सव्वं बंधइ, सव्वेणं |११३९ भावार्थ अनागन में उपशम श्रेणी पर चडकर बंध करेगा. ४ किसी केवलज्ञानीने अतीत में बंध किया, वर्तमान में शैलेशीपने को प्राप्त होने से नहीं बंधता है और अनागत में नहीं बंधेगा ५किसीने पहिले श्रेणी पर नहीं चढने से बंध नहीं किया, वर्तमान में बंध करता है और अनागत में बंध करेगा ६ छठा भांगा शून्य है क्यों कि वर्तमान में बंध करनेवाला अनागत में बंध करता ही है, चरम शरीरी भव्य जीवने गत कालमें है। बंध नहीं किया वर्तमान में बंध नहीं करता है परंतु अनागत में सयोगी अवस्था में बंध करेगा ८ आठवा है भांगा अभव्य आश्री जानना. इन आठमें से? प्रथम भांगे में उपशान्त मोह,२दूसरे में क्षीण मोह, ३तीसरे में उपशान्त मोह४चौथे में शैलेशीगत५पांचवे में उपशांत मोह ६ छठे में क्षीण मोह७ सातवे में भव्य जीव और ८ आठवे में अभव्य जीव ग्रहणाकर्ष आश्री में भी इतना ही कहना परंतु अर्थ में विशेषता प्रथम भांगे में है। पूउपशान्त मोह व क्षीण मोह, दूसरे में केवली, तीसरे में उपशान्त मोह, चौथे में शैलेशीगत, पांचवे में उप-33 ॐ शांत मोह, अथवा क्षीण मोह, छठा शून्य, सातवे में भव्य, भावी मोह, उपशम अथवा क्षीण मोह और * आठने में अभव्य. अहो भगवन् ! यह ईर्यापथिक कर्मबंध? आदि अंत साहित, २ आदि सहित अंत रहित 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 888 आठवा शतकका आठया उद्देशा 9 88 Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४० क-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. wwwwwwwwwwwwwwww भावार्थ देसं बंधइ, सब्वेणं सव्वं बंधइ ? गोयमा ! णो देसेणं देसं बंधइ, णो देसेणं सव्वं बंधइ, णो सव्वेणं देसं बंधइ, सवेणं सव्वं बंधइ ।। ९ ॥ संपराइयाणं भंते ! किं णेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, जाव देवी बंधइ ? गोयमा ! णेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, तिरिक्खजोणिणीवि बंधइ, मणुस्सोवि बंधइ, है मणुस्सीवि बंधइ, देवोवि बंधइ देवीवि बंधइ ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, तहेव जाव णो इत्थी णो पुरिसो णो णपुंसओ बंधइ ? गोयमा ! इत्थीवि १३ आदि रहित व अंत सहित या ४ आदि व अंत रहित है ? अहो गौतम ! आदि सहित व अंत सहित यह प्रथम भांगा पाता है शेष तीन भांगे नहीं पाते हैं. अहो भगवन् ! यह ईर्यापथिक बंध कर्म के देशांश व जीव के देशांश से होता है, २जीव के देशांश व कर्म के सर्वाश से होता है, ३ जीव के सर्वांश व कर्म के देशांश से होता हैं, या ४ जीव के सर्वाश व कर्म के सर्वाश से होता है ? अहो गौतम ! पहिले तीन भांगे नहीं पाते हैं मात्र जीव के सर्वाश व कर्म के सर्वाश से ईर्यापथिक बंध होता है. यह ईर्यापथिक बंध का अधिकार कहा. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! सांपरायिक क्रिया क्ण नारकी बांधते हैं. ईतिर्यच वांधते हैं. तीर्यचणी बांधती हैं मनुष्य बांधते हैं मनुष्यणी बांधती हैं, देव वांधते हैं या देवी वांधती हैं ? अहो गौतम ! सातों ही सांपरायिक कर्मबंध करते हैं अर्थात् जितने सकषायी हैं वे सब सांपरायिक * प्रगाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 480 भावार्थ बंधइ पुरिसोवि बंधइ, जाव णपुंसगावि बंधंति अहवे एय अवगय वेदो बंधइ, अहवे एय अवगयवेपाय बंधंति ॥ जइ भंते ! अवगय वेदोय, अवगय वेदाय बंधति, तं भंते ! किं इत्थी पच्छा कडो बंधइ, पुरिस पच्छाकडो बंधइ, एवं जहेव इरियावहिया बंधगस्स तहेव गिरवसेस जाब अहवा इत्थी पच्छाकडाय, पुरिस पच्छाकडाय, णपुंसग पच्छा कडाय बंधति ॥ तं भंते ! किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ, क्रिया का बंध करते हैं. अहो भगवन् ! सांपरायिक क्रिया का बंध एक स्त्री, एक पुरुष, एक नपुंसक से अथवा बहुत स्त्री, बहुत पुरुष व बहुत नपुंसक को होता है ? अथवा अवेदी को होता है ? अहो गौतम ! सातों ही सांपरायिक क्रिया का बंध करते हैं, क्योंकि वेदोदय नववे गुणस्थान पर्यंत होता है और कषाय दशवे गुणस्थान तक होती है। इस से सब को सांपरायिक का बंध होता है. अहो भगवन् ! यदि अवेदी को मांपरायिक क्रिया का बंध होता है तब क्या स्त्री पश्चात् कृत, पुरुष पश्चात् कृत व नपुंसक पश्चात् कृत यो २६ भांगे यावत् बहुत स्त्री पश्चात् कृत, बहुत पुरुष पश्चात् कृत बहुत नपुंसक पश्चात् कृत तक जानना. अबु सांपरायिक क्रिया का बंध तीन काल आश्री कहते हैं. अहो भगवन् ! सांपरा-1 यिक बंध १ गत काल में किया, वर्तमान में करे, व अनागत में करेंगे २ गत काल में किया, वर्तमान में करते हैं व अनागत में नहीं करेंगे, ३ गत काल में किया, वर्तमान में नहीं करे व अनागत में करेंगे ४ गत है। wwwmarwanam 48488 आठवा शतक का आठवा उद्देशा 824th . Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 40% बंधी बंधइ न बांधस्सइ, बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? ... गोयमा ! अत्यंगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ,' अत्थेगइए बंधी नबंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी नबंधइ नबंधिस्सइ, ॥ तं ते! किं साइयं सपजवसियं बंधइ, पुच्छा ?तहेव गोयमा ! साइयंवा सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयंवा सपज्जवसिवं बंधइ अणाइयंवा अपज्जवसियं बंधइ, णो चेवणं साइयं काल में किया वर्तमान में करे नहीं व अनागत में नहीं करेंगे ? अहो गौतम ! जिन संसारी जीवोंने ब यथाख्यात नहीं प्राप्त किया उनोंने गत काल में बंध किया, वर्तमान में बंधते हैं व अनागत में बंधेगे. २ जिन का आगामिक काल में मोह क्षय होगा उनोंने गत काल में बंध किया, वर्तमान में करते हैं व आगामिक में नहीं करेंगे ३ कितनेक उपशम श्रेणीवालेने गत काल में बंध किया, वर्तमान में नहीं करते हैं। व आगामिक में पढवाइ बनकर बंध करेंगे। कितनेक केवल ज्ञानीने गत काल में बंध किया, वर्तमान में नहीं करते हैं और अनागत में नहीं करेंगे * अहो भगवन् ! क्या सांपरायिक बंध सादि अंत है, सादि अनंत है, अनादि सांत हैं, या अनादि अनंत है ? अहो गौतम ! उपशांत मोह से पडकर सांपरायिक * सांपरायिक बंध में मात्र चार भांगे ही पाते हैं क्यों कि यह बंध अनादि है, पहिले सब जीवों को हुबा है इस से गत काल में नहीं बंधने के चार भांगे कम हो गये... * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ {देव बांधे दे० देवी बं० बांधे सरल शब्दार्थ ॥१-१०-११॥ क० कितने भ० भगवन् प० परिषद प मरूपे गो० गौतम वा० बाइस प० परिषद प० प्ररूपे दि० क्षुधा परिषह पि० तृषा परिषह जा० यावत् अपज्जवसिय बंधइ ॥ तं भंते ! किं देसेणं देसं बंधइ, एवं जहेव इरियावहिय बंधगस्स जाव सव्वेणं सव्वं बंधइ॥ १० ॥ कइणं भंते! कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अटुकम्म पगडीओ, पण्णत्ताओ, तंजहा - णाणावरणिजं जाव अंतराइयं ॥ ११ ॥ कइणं भंते ! परीसहा पं० ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तजहा -दिगिंच्छा परीसहे, पिवासापरीस हे बंध कर पुनः उपशांत मोह व क्षीण मोहवाला होवे इस अपेक्षा से सादि सांत है, अनादि काल से सांपरा{यिक बंध किया, आगे क्षीण कषायी होने से बंध नहीं करेंगे इस से अनादि सांत है, अभव्य जीव (आश्री अनादि अनंत है, ऐसे तीन भांगे पाते हैं परंतु सादि अनंत भांगा नहीं मीलता है. अहो भगवन् ! (सांपरायिक क्रिया का बंध आत्मा के देश से व कर्म के देश से होता है, आत्मा के देश से व कर्म के सर्वाशि मे होता है, आत्मा के सर्वाशि से व कर्म के देश से होता है अथवा कर्म के सर्वाशि से व आत्मा के सर्वांश होता है ? अहो गौतम ! प्रथम के तीन भांगे शून्य हैं मात्र चौथा भांगा पाता है || १० || अब कर्म आश्री प्रश्न करते हैं ? अहो भगवन् ! कर्म प्रकृतियों कितनी कहीं ? अहो गौतम ! आठ कर्म ( प्रकृतियों कहीं ? ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गौत्र व अंतराय ॥ १२ ॥ ! <१० 4 आठना शतकका आठवा उद्देशा ११ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ११४३ Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दं० दर्शन परिषह ॥१२॥ ए. ये भं० भगवन् वा वाइस परिषह का कितना क० कर्म प्रकृति में स. समवर्तने हैं गो. गौतम च० चार क० कर्म प्रकृति में स० समवर्तते हैं णा. ज्ञानावरणीय वे०वेदनीय मो० मोहनी अं० अंतराय णा ज्ञानावरणीय में भ० भगवन् क० कितने १० परिषह स. समवर्तते हैं गो. मौतम दो० दो परिपह स० समवर्तते हैं प० प्रज्ञा परिषह अ० अज्ञान परिषह वेवेदनीय में ए• अग्या__ जाव दंसण परोसहे ॥ १२ ॥ एएणं भंते ! बावीसं परीसहा कइ कम्मपगडीसु समायरंति ? गोयमा ! चउमु कम्म पगडीसु समोयरंति, तंजहा-णाणावरणिजे, वेयणिज्जे, मोहणिजे अंतराइए ॥ णाणावरीणजेणं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति तंजहा-पण्णा परीसहे अण्णाण परीसहे ॥ वेयणिजेणं भंते ! कइ परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एक्कारस परीप्तहा समोयरंत्ति अहो भगवन् ! परिषह कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! परिषह बाइस कहे हैं. उन के नाम. १ क्षुधा परिषह २ पिपासा परिषह ३ शीत ४ ऊष्ण ५ दंश मशक , अचेल ७ अरति ८ स्त्री ९चर्या १० निविद्या, ११ शैय्या १२ आक्रोश १३ वध १४ याचना १५ अलाभ १६ रोग १७ तृणस्पर्श १८ जलमेल ११९ सत्कार पुरस्कार २० प्रज्ञा २१ अज्ञान और २२ दर्शन परिषह ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! उक्त बाइम रिपट कितनी कर्म प्रकृतियों से उदय में आते हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानानरणीय, वेदनीय, मोहनीय व • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d | सत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 880 रह प० परिषद स० समवर्तते हैं पं० पांच आ. अनुक्रम से च. चर्या से० शैय्या क. वध रो रोग त० तृण स्पर्श ज० जलमेल ए० अग्यारह वे वेदनीय में दं० दर्शन मोहनीय में ए. एक दं० दर्शन परिषह च० चारित्र मोहनीय में क० कितने परिषह स० समवर्तते हैं गो. गौतम स० सात परिषह अ. अरति अ० अचेल इ. स्त्री नि० निषिद्या जा० याचना अ० आक्रोश स० सत्कार पुरस्कार अं० अंतराय पंचेव आणुपुव्वी चरिया, सेजा,वहेय, रोगेय, तणफास, जल्लमेवय, एक्कारसवेयाणिजमि (१) सण मोहणिजेणं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एगे दसण परीसहे समोयरइ ।। चरित्त मोहणिजेणं भंते ! कइ परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! सत्तपरीसहा समोयरंति, तंजहा-अरई अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा अंतराय ऐसी चार कर्म. प्रकृतियों मे २२ परिषह उदय में आते हैं. अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय के कितने परिषह हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय के दो परिषद हैं. १ प्रज्ञा व २ अज्ञान. अहो भगवन् ! वेदनीय कर्म से कितने परिसह का उदय होता है ? अहो गौतम ! अग्यारह परिषहों का उदय होता ११ क्षुधा १ तृषा ३ शीत ४ ऊष्ण ५ दंश मशक ६ चर्या ७ शैय्या ८ वध ९ रोग १० तृणस्पर्श व १११ जलमेल. अहो भगवन् ! दर्शन मोहनीय कर्म के कितने परिषह होते हैं ? अहो गौतम ! दर मोहनीय का मात्र एक दर्शन परिषह. और चारित्र मोहनीय के सात परिषह १ अरति २ अचेल ३ आठवा शतकका आठवा उद्देशा भावार्थ कोन Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४६ अक्कोसे ॥ सक्कारपुरकारे, चरित्तमोहमि सत्तेते (१) अंतराइएणं भंते । कम्मे कइपरीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एगे अलाभ परीसहे समोयरइ ॥ १३ ॥ सत्तविह बंधगस्सणं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेएइ. जं सययं सीय परीसहं वेएइ नो तं समयं उसिण परीसहं वेएइ, जं समयं उसिण परीसहं वेएइ नो तं समयं सीय परीसहं वेएइ, जं समयं चरिया परिसहं वेएइ, नो तं समयं निसीहिया परीसहं वेएइ, जं समयं निसीहिया परीसहं वेएइ नो तं समयं चरिया परीसहं वेएइ, ॥ अट्टविह बंधगस्सणं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तंजहा-छुहा परीसहे, पिवासा परीसहे भावार्थ ४ निषिद्या ५ याचना ६ आक्रोश व ७ सत्कार पुरस्कार. अहो भगवन् ! अंतराय के कितने परिषह ? अहो गौतम ! अंतराय कर्म का मात्र एक अलाभ परिषह है ॥ १३ ॥ सात प्रकार के बंध करनेवाले को कितने परिषह कहे हैं ? अहो गौतम ! बाइस परिषह कहे हैं. उन में से बीस परिषह वेदाते हैं. जिस के समय में शीत वेदता है उस समय में ऊष्ण नहीं वेदता है और जिस समय में ऊष्ण वेदता है उस समय में शीत नहीं वेदता है. जिस समय में चर्या वेदता है उस समय में निपिद्या नहीं वेदता है और जिस १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 ११४७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र सीय परीसहे जाव अलाभ परीसहे ॥ एवं अट्ठविह बंधगस्सवि ॥ छन्विह बंधगस्सणं भंते ! सराग छउमत्थस्स कइ परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! चोदस परीसहा पण्णत्ता बारस पुणवेएइ, जं समयं सीय. परीसहं वेएइ नो तं समयं उसिण परीसहं वेएइ, जं समयं उसिण परीसहं वेएइ नो तं समयं सीय परीसहं वेएइ जं समयं चरिया परीसहं वेएइ नो तं समयं सेजा परीसहं वेएइ, जं समयं सेज्जा परीसहं चेव वेएइ नो तं समयं चरिया परीसहं वेएइ, ॥ एक्कविह बंधगस्सणं भंते ! वीय राग छउमत्थस्स कइपरीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! एवं जहेव छान्वह बंधगस्स । समय में निषिद्या वेदता है उस समय में चर्या नहीं वेदता है * अहो भगवन् ! आठों कर्मों का बंध करनेवाले को बावीस परिषह होते हैं जिन में से मात्र बीस परिषद वेदते हैं. आयुष्य व मोहनीय छोडकर है * निषिद्या परिषह की समान शैय्या परिषह भी चर्या परिषह से विरुद्ध है तो उसे भी यहां ग्रहण कर १९ परिषह है वेदने का कहना चाहिये, परंतु प्रामादि में जो गमन कर रहा है वह उत्सुकता के परिणाम से विश्राम भोजन शैय्या में ई प्रवर्तता है इस से शैय्या परिषह का निषेध नहीं ग्रहण किया है. अब आगे छ कर्म का बंध करनेवालेको निषद्या परिषह ॐ का उदय नहीं है इस से वहां शय्या परिषह का निषेध ग्रहण किया है. 42 आठवा शतक का आठवा उद्देशा 888 भावार्थ Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एगविह बंधगस्सणं भंते ! सजोगिभवत्थ केबलिस्स कइपरीसहा प० ? गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता? नवपुण वेएइ सेसं जहा छव्विह बंधगस्स ॥ अबंधगस्तणं भंते ! अजोगिभवत्थ केवलिस्स कइपरीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता नवपुण वेएइ ॥ जंसययं सीय परीसहं वेएइ नो तं समयं उसि परीसहं वेएइ, जंसमयं उसिण परीसहं वेएइ नो तं समयं सीय परीसहं वेएइ, जं समयं चरिया परीसहं नो तं समयं सेज्जापरीसहं, जं समयं सेज्जापरीसहं नो छ प्रकार के कर्मों का बंध करनेवाले सराग छद्मस्थ को अहो भगवन् ! कितने परिषह कहे हैं ? अहो गौतम ! चौदह परिषद कड़े हैं जिन में से बारह वेदते हैं. क्यों कि शीत के समय में ऊष्ण व ऊष्ण { समय में शीत नहीं वेदते हैं और चर्या के समय शैय्या व शैय्या के समय चर्या नहीं वेदते हैं. एक प्रकार के ( कर्मबंध करनेवाले वीतराग छद्मस्थ को कितने परिषह कहे हैं ? अहो गौतम ! चौदह परिषह होते हैं. { परंतु १२ वेदते हैं. तेरवे गुणस्थानवर्ती सजोगी भवस्थ को होते हैं उन में से नव वेदते हैं. अहो भगवन् ! अयोगी भवस्थ केवली को कितने परिषह कहे हैं ? अहो गौतम ! अग्यारह अग्यारह परिषद परिषद कहे हैं जिन में से नव वेदते हैं. शीत के समय ऊष्ण नहीं वेदते हैं और ऊष्ण के समय शीत * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १९४८ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में ए. एक अ. अलाभ परिषद स० समवर्तता है ॥ १३ ॥ सस्ल शब्दार्थ ॥ १४ ॥ जं. जंबूद्वीप में भं० भगवन् दी. द्वीप में मू० सूर्य उ० उदय होने का मू. मुहूर्त में दृ० दर से मू० नजदीक दी. दीखे, म. मध्यान्ह मु. मुहूर्त में मू० नजदीक दू० दूर से दी दीखे अ० अस्त होने का मु० मुहूर्त में दू० ११४९ मू• मूल से दी. दीखे हैं. हां गो गौतम जं. जंबूद्वीप में मू० मूर्य उ० उदय होने का मु. मुहूर्त में दू० दूर से जा० यावत् अ० अस्त होने का मु• मुहूर्त में दू० दूर से मू• नजदीक से दी दीखे ॥१५॥ __ तं समयं चरिया परीसहं येएइ ॥ १४ ॥ जंबूद्दीवणं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमण मुहत्तंसि दूरेय मूलेय दीसंति, मझंतिय मुहुत्तंसि मूलेय दृरेय दीसंति अत्थमण मुहुत्तंसि दूरेय मूलेय दीसंति ? हंता गोयमा ! जंबूद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसि दूरेय तंत्र जाव अत्थमण मुहुत्तंसि दूरेय मूलेय दीसंति ॥ १५ ॥ नहीं वेदते हैं चर्या के समय शैय्या नहीं वेदते हैं और शैय्या के समय चर्या नहीं वेदते हैं. ॥ १४ ॥ है अहा भगवन् ! इस जम्बूद्वीप में जा सूर्योदय होता है तब दूर होता हुआ भी नजदीक दीखता है, मध्यान्ह में नजदीक होता दूर दीखता है. व संध्या को दूर होता नजदीक दीखता है ? हां गौतम ! | जम्बूद्वीप में उदय काल में सूर्य दूर होते नजदीक दीखता है, मध्यान्ह में नजदीक होते दूर दीखता है. और अस्त काल में दूर होते नजदीक दीखता है. ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! क्या उदय काल में, मध्यान - पंचभाग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 428 4948 आठवां शतकका आठवा उद्देशा360 Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र शब्दार्थ ज. जंबूद्वीप में सू० सूर्य उ० उदय होने के मु० मुहूर्त में म० मध्यान्ह मु० मुहूर्त में अ० अस्त होने के मु० मुहूर्त में सः सर्वत्र स० सरिखा उ० ऊंचे से हैं. हां गो. गौतम जं. जंबूद्वीप में सू. सूर्य उ०उदय है जंबूद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसिय मज्झतिय मुहुत्तंसिय अत्थमणमुहुत्तंसियं सम्वत्थसमा उच्चत्तणं ? हंता गोयमा ! जंबूद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमण जाव उच्चत्तेणं॥ १६ ॥ जइणं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसिय मज्झंतिय मुहत्तंसि अत्थमण मुहुत्तंसिय, मूले जाव उच्चत्तेणं सेकेणं खाइणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरेय भावार्थ काल में व अस्त काल में सूर्य सरिखी ऊंचाइ से हैं ? हां गौतम ! जम्बूद्वीप में उद्गमन काल में, मध्यान्ह काल में व अस्त काल में सूर्य सरिखी ऊंचाइ से हैं. ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! उदय काल मध्यान्ह काल व अस्त काल में जब सूर्य सरिखे यावत् उचाइ में हैं तो किस कारन से ऐसा कहा गया है कि उदय होते दर होने पर नजदीक दीखता है, मध्यान्द में नजदीक होने पर दूर दीखता है व अस्त होते दूर होने पर नजदिक दीखता है ? अहो गौतम ! तेज के प्रतिघात से दूर होते हुवे पास दीखता है अर्थात् उदय काल में सूर्य सरलता पूर्वक देख सकते हैं इसलिये दूर होते हुवे नजदीक दीखने , 12 में आता है, और तेज के प्रबलपना से पास होते हुवे दूर दीखने में आता है क्यों की मध्यान्ह में सूर्य है। १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शदार्थ | सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 400 { होने का जा० यावत् उ० ऊंचे से ॥ १६ ॥ सरल शब्दार्थ || १७-१९ ॥ जं० जंबूद्वीप में मं० भगवम् सू० मूलेय दीसंति जात्र अत्थमण मुहुत्तांस दूरेय मुलेय दीसंति ? गोयमा ! लेस्सापडिघाएणं उग्गभण मुहुत्तंसिय दूरेय मूलेय दीसंति, लेस्साभितावेणं मज्झतिय मुहुत्तंसि, मूलेय दूरेय दीसंति, लेस्सापडिघाएणं अत्थमण मुहुत्तंसि दूरेय मूलेय दीसंति, सेतेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जंबूद्दीवेणं दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसि दूरेय मुलेय दीसंत जाव अत्थमण जाव दीसंति ॥ १७ ॥ जंबूद्दीत्रेणं भंते! सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छंति, अणागयं खेत्तं गच्छति ? गोयमा ! नो तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छति, ना अणागयं खेत्तं गच्छति ॥ १८ ॥ जंबूद्दीवेणं भंते! {का तेज बहुत प्रबल रहता है. और तेज के प्रतिघात से अस्त होता सूर्य दूर होने पर भी पास दीखता है इस से अहो गौतम ! उदय काल में उगता हुवा सूर्य दूर होने पर पास दीखता है यावत् अस्त काल भी सूर्य पास दीखता है ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्या सूर्य अतीत क्षेत्र को जाते हैं, (वर्तमान क्षेत्र को जाते हैं या अनागत क्षेत्र को जाते हैं ? अहो गौतम ! सूर्य अतीत क्षेत्र को नहीं जाते हैं क्यों की उस क्षेत्र को वे उल्लंघगये हुवे हैं, वर्तमान क्षेत्रको जाते हैं. और अनागत क्षेत्र को नहीं जाते हैं { ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य क्या अतीत क्षेत्र में प्रकाशते हैं वर्तमान क्षेत्र में प्रकाशते आठवा शतक का आठवा उद्देशा 6888+ ११५१ Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी gi मूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुप्पण्णं खेत्तं अणागयं खेत्तं ओभासंति ? गोयमा ! नो तीयं खेतं, पडुप्पण्णं खेत्तं ओभासंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासंति ॥ तं भंते ! किं पुटुं ओभासंति, किं अपुटुं ओभासंति ? गोयमा ! पुटुं ओभासंति नो अपुटुं ओभासंति जाव नियमा छदिसि ॥ जंबूद्दीवेणं भंते ! सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोवेति एवं चेव जाव नियमा छद्दिसिं ॥ एवं तति, एवं भासेति जाव नियमा छदिसि ॥ जंबूद्दीवेणं भंते ! सूरिया किं तीये खेत्ते किरिया कजइ, पडुप्पण्णे खेत्ते . किरिया कज्जइ, अणागए खेत्ते किरिया कजइ ? गोयमा ! नो तीये खेत्ते किरिया कजइ, पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया कजइ, नो अणागए खत्ते किरिया कजइ, । हैं व अनागत क्षेत्र में प्रकाशते हैं ? अहो गौतम ! अतीत व अनागत क्षेत्र को नहीं प्रकाशने हैं मात्र वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशते हैं. अहो भगवन् ! उसे क्या स्पर्शते हुए प्रकाशते हैं या विना स्पर्शते हुए प्रकाशते हैं ? अहो गौतम ! स्पर्शते हुए प्रकाशते हैं परंतु विना स्पर्शते हुए नहीं प्रकाशते हैं यावत् छदिशि को प्रकाशते हैं ऐसे ही सूर्य जम्बूद्वीप में उद्योत करते हैं. तपते हैं, यावत् भास करते हैं..अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्या सूर्य अतीत क्षेत्रमें अवभासनादि क्रिया करते हैं वर्तमान क्षेत्र में क्रिया करते हैं या अनागत क्षेत्रमें करते हैं। " *यकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ र सूर्य के० कितना खे०क्षेत्र उ० ऊर्थ ३० तपे के कितना अ० अधो त तपे के कितना खे०क्षेत्र ति तिच्छी of त० तपे गो० गौतम ए० एक जो० योजन स० शत उ० ऊर्ध्व त० तपे अ० अठारह जो० योजन स. | शत अ० अधो त० तपे से० सेतालीस जो० योजन स० सहस्र दो० दो ते० तेसठ जो० योजन स० | शंत ए० इक्कीस स० माठभाग जो० योजन के ति तिछी त० तपे ॥ २० ॥ अं० अंदर भं० भगवन् 14 से भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्टा कज्जइ ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ नो अपुट्ठा कज्जइ, जाव नियमा छदिसिं ॥१९॥ जंबूद्दीवेणं भंते ! सरिवा केवइयं खेत्तं उड्डे तवेत, केवइयं अहे तवेति, केवइवं खेत्तं तिरियं तāति ? गोयमा ! एगं जोयण सयं उठें तति, अट्ठारस जोयण सयाइं अहे तवेंति, सीयालीसं जोयण सहस्साई दोणियतेक्तु । जोयणसए एकवीसंच सद्विभाए जोयणस्स तिरियं तवेति ॥ २० ॥ अंतोणं भंते ! भावार्थ : अहो गोतम ! अतीत क्षेत्रमें अबभासनादि क्रिया नहीं करते हैं वर्तमान में करते हैं, और अनागत में नहीं करते हैं अहो भगवन् ! क्या वह स्पर्शी हुइ करते हैं या विना स्पर्शी हुइ करते हैं ? अहो गोतम ! स्पर्शी हुइog क्रिया करे परंतु विना स्पर्शी हुइ क्रिया करे नहीं यावत् छदिशी में क्रिया करे ॥ १९ ॥ अहो भगवन् : जम्बूद्वीप में ऊंचे कितना क्षेत्र तपे, नीचे कितना क्षेत्र तपे व ति कितना क्षेत्र तपे ? अहो गौतमः, ऊंचे 18 ११०० योजन तपे, नीचे १८०० योजन तक तपे, और तीर्छा ४७२६३योजन और एक योजन का ६०१ । 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4 आठवा शतकका आठवा उद्देशा8024 . ... Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द ११५४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - मा० मानुषोत्तर प० पर्वत जे० जो चं० चंद्र मू० सूर्य ग. ग्रहण नक्षत्र ता० तारा ते० वे भं• भगवन् । दे०देव किं. क्या उ. ऊर्ध्व उ. उत्पन्न होनेवालेज जेसै जी० जीवाभिगम में त० तैसे निनिर्विशेष जा०, यावत् उ० उत्कृष्ट छ० छमास ॥ २१ ॥ ब० बाहिर भं० भगवन् मा० मानुषोत्तर प० पर्वत की ज० जैसे जी० जीवाभिगम में जा. यावत् ई० इंद्रस्थान भं० भगवन के० कितना काकाल वि. विरह उ० उपपात माणुसुत्तर पव्वयस्स जे चंदिय सूरिय गहणखत्त तारारूवा तेणं भंते ! देवा किं उड्डविवण्णगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा ॥२१॥ बहियाणं भंते ! माणुसुत्तर पव्वयस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदट्ठाणेणं भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासाका २१ भाग सूर्य तपे ॥ २० ॥ अब सूर्य की अपेक्षासे ज्योतिषी का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत में जो चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र व तारे रहे हुवे हैं वे क्या उर्धमें उत्पन्न होने वाले हैं वगैरह प्रश्न जीवाभिगम मूत्रमे जानना. अहो गौतम ! ज्योतिषी देव उर्ध्व में उत्पन्न होने वाले नहीं हैं कल्पोत्पन्न नहीं हैं परंतु विमानोत्पन्न हैं और चलने में आनंद मानते हैं यावतू इन्द्रस्थान का विरह उत्कृष्ट छमास का है। ॥ २१॥ अहो भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत के बाहिर रहे हुवे चंद्र सूर्य, ग्रह नक्षत्र व तारें क्या उर्व उत्पन्न हैं ! अहो गौतम ! उर्व उत्पन्न नहीं हैं कल्पोत्पन्न नहीं है, परंतु विमानोत्पन्न हैं यावत् इन में इन्द्रोप *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में गो० गौतम ज० जघन्य ए० एक स० समय उ० उत्कृष्ट छ० छमास पे० वह ए ऐसे भ० भगवन् ॥८॥८॥ है क० कितने प्रकार के भ० भगवन् बं० बंध प० प्ररूपे गो० गौतम दु० दोपकार के बं० बंध ५० प्ररूपे प०प्रयोग बंध वी०विस्रसाबंध॥१॥ वी०वित्रसाबंध भ० भगवन् क कितने प्रकारका गोगौतम दु०दो प्रकार १. सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्टमसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ ८॥ * कइविहेणं भंते ! बंधे १० ? गोयमा ! दुविहे बंधे ५० त० पओगबंधेय, वीससा बंधेय ॥ १ ॥ वीससा बंधेणं भंते ! कइविहे ५० ? गोयमा ! दुविहे ५० तंजहा 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र - आठवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ त्ति स्थान में जघन्य एक समय उत्कृष्ट छमास तक का विरह पडता है, वगैरह ज्योतिषी का विस्तार पूर्वक कथन जीवभिगम मूत्र से जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह आठवा शतक का आठवा . उद्देशा पूर्ण हुवा ॥८॥८॥ ३ आठवे उद्देशे के अंत में ज्योतिषी की वक्तव्यता कही. यह पदलपर्याय है इसलिये इस उद्देशे में पुद्गल का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! बंध के कितने भेद कहे ? अहो गौतम ! बंध के दो भेद कहे. १ जीव के प्रयोग से जो बंध होवे सो प्रयोग बंध और २ स्वभाव से होवे सो विस्रसा बंध ॥१॥ अहो भगवन् ! विलसा बंध कितने प्रकार का कहा ? अहो गौतम ! विस्रसा बंध दो प्रकार का कहा.। Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी का सा० सादि विस्रता अ०. अनादि विस्रसा ॥ २॥ अ० अनादि विस्रसा भ० भगवन् क० कितने र का गो० गौतम ति० तीन प्रकार का ध० धर्मास्तिकाय अ० अन्योन्य अ. अनादि विस्रसाबंध अ० अधर्मास्तिकाय अ०अन्योन्य अ० अनादि वी विस्त्रसाबंध आ०आकाशास्तिकाय अ० अन्योन्य अ. अनादि वीविस्रसाधधधर्मास्तिकाय अ०अन्योन्य अ० अनादि वी विस्रता बंबंध भगवन् किं०क्या दे०देशबंधे . साइय वीससा बंधेय, अणाइय वीससा बंधेय ॥ २ ॥ अणाइय वीससा बंधेणं भंते ! कइविहे ५० ? गोयमा ! तिविहे ५० तंजहा धम्मत्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधे, अधम्मत्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधे, आगासात्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधे । धम्मत्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधेणं भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे, नो सव्वबंथे एवं अधम्मत्थिकाय " आदि सहित विस्रसा बंध और २ अनादि सहित विस्रसा बंध ॥२॥ अहो भगवन् ! अनादि विससा बंध के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अनादि विस्रमा के तीन भेद कह हैं. १ धर्मास्तिकाया के प्रदेशों का जो परस्पर बंध है. सो धर्मास्तिकाय अनादि विस्रमा बंध २ अधर्मास्तिकाया के प्रदेशों को जो परस्पर बंध हैं सो अधर्मास्तिकाय अनादि विस्रमा बंध, और ३ और आकाशास्तिकाया के * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी बालापतादजी * भावार्थ Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 843 ११५७ शब्दार्थ * सर्व बंधे गो० गौतम दे० देशबंधे नो० नहीं स० सर्व बंधे ए० ऐसे अ० अधर्मास्तिकाय अ. अन्योन्य 10 अ० अनादि वी० विस्रमाबंध ए०ऐसे आ आकाशास्तिकाय अ०अन्योन्य अ०अनादि वी विस्रसाबंध ध० Yधर्मास्तिकाय अ० अन्योन्य अ• अनादि वी० विस्रसाबंध भं• भगवन् का० काल से के• कितना काल होवे गो गौतम स०सर्व काल ए०ऐसे अ० अधर्मास्तिकाय ए ऐसे आ० आकाशास्तिकाय ॥३॥ सा० सादि अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधेवि, आगासत्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधेवि ॥ धम्मत्थिकाय अण्णमण्ण अणाइय वीससा बंधेणं भंते ! कालओ केवचिरंहोइ ? गोयमा ! सव्वद्धं, एवं अधम्मत्थिकायं, एवं आगासत्थिकायं ॥ ६ ॥ साइय विवाह पण्णत्ति (भगवत) सूत्र 4 आठवा शतक का नववा उद्दशा भावार्थप्रदेशों का जो परस्पर बंध है सो आकाशास्तिकाय विस्रसा बंध. अहो भगवन् : धर्मास्तिकाया के प्रदेशों का जो अनादि बंध है वह क्या देश बंध है या सर्व बंध है ? अहो गौतम ! देश बंध है परंतु सर्व बंध नहीं है क्योंकि एक २ प्रदेश को स्पर्श कर रहे हैं. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय के प्रदेशों का बंध का जानना. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाय का परस्पर विरसा बंध की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! सदैव रहते हैं ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय का जानना ॥ ३ १ कड़ी से कडी लगकर बंध होवे वैसा बंध सो देश बंध.२ खीरनीर समान बंध सो सर्व बंध, क र Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ११५८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विस्रसाबंध भ० भगवन् क. कितने प्रकार का प० प्ररूपा गो० गौतम ति० तीन प्रकार का बं० बंधण प्रत्यय भा० भाजन प्रत्यय प० परिणाम प्रत्यय से. वह कि कैसा बं. बंधन प्रत्यय बं० बंधन प्रत्यय जजो प० परमाणु पुद्गल द० द्विप्रदेशी तिः विप्रदेशी जा० यावत् द० दशमदेशी सं० संख्यात प्रदे अ० असंख्यात प्रदेशी अ० अनंत प्रदेशी खं० स्कन्ध वे० विमात्रा नि० स्निग्धपने वे० विमात्रा लु. रूक्षपने वे० विमात्रा निस्निग्धरूक्षपने एक ऐसे बं बंधन प्रत्यय बं० बंध स० उत्पन्न होता है । वीससा बंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे प० तंजहा बंधणपच्चइए, भायणपच्चइए, परिणामपच्चइए, ॥ से किं तं बंधणपच्चइए ? बंधणपञ्चइए जण्णं परमाणुपोग्गला दुपएसिया, तिपएसिया, जाव दसपएसिया, संखेजपएसिया, असंखेजपएसिया अणंतपएसियाणं खंधाणं वेमाय निद्वयाए, वेमाय लुक्खयाए, वेमाय निद्धलु क्खयाए, एवं बंधण पच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंअहो भगवन् ! मादि विरसा बंध के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! सादि विलसा बंध के तीन भेद कहे हैं. १ बंधन प्रत्ययिक सो अन्य से बंधन किया जावे २ भाजन प्रत्ययिक सो पात्र से बंधन होवे और ३ परिणाम प्रत्ययिक सो रूपान्तर होने से बंध होवे. अब अहो भगवन् ! बंधन प्रत्यायिक का क्या अर्थ है? अहो गौतम! परमाण पगल, द्विपदेशात्मक, तीन प्रदेशात्मक यावत् दश, संख्यात, असं * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Har 460 सूत्र 8 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) ए. एक समय उ० उत्कृष्ट अ० असंख्यात काल से वह किं कौनसा भा० भाजन १० प्रत्यय भा० भाजन प्रत्यय ज• जो जु० जीर्ण सु० मुरा जु० जीर्ण गु० गुड जु० जीर्ण तं० तांदुल भा० भाजन २०प० प्रत्यय बं० वंध स० उत्पन्न होता है ज० जघन्य अं० अंत मुहूर्त उ० उत्कृष्ट सं० संख्यात काल से है खेजं कालं सेत्तं बंधणपच्चइए ॥ सेकिंतं भायण पच्चइए ? भायण पच्चइए जण्णं जुण्णसुरा, जुण्णगुला, जुण्ण तंदुलाणं, भायण पच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखजं कालं सेत्तं भायण पच्चइए ॥ से किं तं परिणाम पच्चइए ? ख्यात व अनंत प्रदेशात्मक स्कंध का विमात्र स्निग्धता, विमात्र रूक्षता, व विमात्र स्निग्ध रूक्षता रूप बंधन में प्रत्ययिक जो बंध होता है वह जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है, और उसे बंधन प्रत्ययिक कहते हैं. अब भाजन प्रत्ययिक बंध कहते हैं. जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड, व जीर्ण तांदूल का भाजन प्रत्यायिक का बंध होता है. वह जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है. अब परिणाम प्रत्ययिक बंध कहते हैं. पुद्गल का रूपांतर होना जैसे संध्याकाल का रंग, बद्दल का परिणाम वृक्ष का परि-17 १. विषम मात्रा स्निग्ध को रूक्ष की विषम मात्रा, रूक्ष को स्निग्ध की विषम मात्रा, सम मात्रा से बंध नहीं होता है है परंतु विषम मात्रा से बंध होता है. आठवा शतकका नववा उद्देशा84880 Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww. ११६० शब्दार्थ क वह किं. कौनसा प० परिणाम प्रत्यय अ० संध्याकाल अ० बद्दल रु० वृक्ष ज० जैसे त० तीसरा शतक में जा० यावत अ० अमोथ प० परिणाम प. प्रत्यय बं बंध स० उत्पन्न होता है ज० जघन्य ए. एक समय छ• छमास ॥४॥से वह किं० कौनसा प० प्रयोग बंध ति० तीन प्रकार का तं. वह ज. जैसे अ. अनादि अ. अपर्यवासित सा० सादि अ. अपर्यवसित सा. सादि म० सपर्यवसित त० तहां जे. जो पारणाम पच्चइए जण्णं अब्भाणं, अब्भरुक्खाणं, जहा तइयमए जाव अमोहाणं परिणाम पञ्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं छम्मासा सेत्तं परिणाम पच्चइए ॥ सेत्तं साइए वीससा बंधे ॥ ४ ॥ से किं तं पओगबंधे ? पओग बंधे तिविहे पण्णत्ते तंजहा अणाइएवा अपज्जवसिए, साइएवा अपज्जवसिए भावार्थ णाम वगैरह जैसे तीसरे शतक में कहा तैसे ही यहां जानना. यह परिणाम प्रत्ययिक बंध कहा जाता है। इम की स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट छमास की होती है. यह तीसरा परिणाम प्रत्यायिक बंध हुवा. यह सादि विलसा बंध की व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! प्रयोग बंध किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! प्रयोग बंध के तीन भेद कहे हैं १ अनादि अपर्यवासित, सादि, अपर्यवसित, व सादि सपर्यवसित. जीव के असंख्यात प्रदेश की मध्य में जो आठ रुचक प्रदेश हैं उस में अनादि अनंत का भांगा मीलता है क्योंकि जब केवलज्ञानी समुद्धात करते हैं तब असंख्यात प्रदेशों का विस्तार बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 0 *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 388 अनादि अ. अपर्यवसित से वह अ० आठ जी जीव मध्य प्रदेश का त. तहां ति० बीन अनादि अ० अपर्यवसित से० शेष सा० सादि त. तहां जे. जो सा. सादि अ० अपर्यवमित से० । २७ सि. सिद्ध को त. तहां जे. जो सा० सादि स. सपर्यवसित से वह च. चार प्रकार का आ० आला पन बंध अ० अल्लिकापन स. शरीर बंध स० शरीर प्रयोग बंध से वह कि कौनसा आ. साइएवा सपज्जवसिए ॥ तत्थणं जे से अगाइए अपजवासए सेणं अट्ठण्हं जीव मझं पएसाणं तत्थविणं तिण्हं २ अणाइए अपज्जवसिए सेसाणं साइए तत्थणं । जे से साइए अपजवसिए, सेणं सिद्धाणं; तत्थणं जे से साइए सपज्जवसिए सेणं से चउविहे ५० तं० आलावण बंधे, आल्लियावण बंधे, सरीर बंधे, सरोरप्पओगबंधे, ॥ होता है परंतु आठ रुचक प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है. और भी अन्य जीव प्रदेशों का विपरिवर्त-17 मानपना से अनादि अपर्यवसित बंध नहीं होता है. इस के ऊपर दूसरे चार यों आठ प्रदेश का वंध कहा. अब एक आत्मप्रदेश की साथ जितने प्रदेश का परस्पर बंध होवे सो बतात हैं. उक्त आठ जीव प्रदेशों की मध्य में तीन २ का एक २ की साथ अनादि अपर्यवमित बंध है मो बतावे' से रहे हुवे आठ प्रदेशों में से उपरितन प्रतर का कोई विवक्षित प्रदेश को पार्ववर्ती दो व अधोवर्ती एक 1 ऐसे तीन का संबंध होता है. परंतु उपरितन एक प्रदेश का अधस्तन तीन प्रदेश की साथ संबंध नहीं । 488- पंचममाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र आठवा शतकका नववा उद्देशा 4808 भावार्थ Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ ११६२ भावार्थ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी आलापन बंध ज. जैसे त० तृण का० भारा क० काष्ट का भारा प० पत्र का भारा ५० पलाल का भारा वे. लता का भारा ३० वेत्रलता का भारा व. वल्कल र० चर्यमय र० रज्जु व. वल्ली कु. कुश द०दर्भ आ० आदिमें आ० आलापन बंध स० उत्पन्न होवे ज. जघन्य अं० अंतर्महत उ० उत्कृष्ट सं से किं तं आलवण बंधे? आलावण बंधे! जण्णं तणभाराणवा, कट्ठ भाराणवा, पत्तभाराणवा पलालभाराणवा वेल्लभाराणवा, वेत्तलया, वागवरत्त रज्जुवाल्ल कुस दब्भमाइएराहे आलावण बंधे समुप्पजइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज कालं सेत्तं आलारण बंधे ॥५॥ होता है. मध्यम अष्ट प्रदेश से अन्य को सादि विपरिवर्तमान से पहिले भांग में उदाहरण बतलाया. दूसरा अनादि सान्तपना का जो भांगा है यह यहां नहीं पाता है अनादि संबंध जीव के आठ प्रदेश के अविपरिवर्तमानपना से बंध का सपर्यवसित नहीं होता है. तीसरा आदि सहित व अंत रहित भांगा सिद्ध भगवंत आश्री पाता है क्योंकि शैलेषी अवस्था में जब सिद्ध घन प्रदेशों की स्थापना करते हैं वे प्रदेशों में अनंत काल में भी वैसे ही बने रहते हैं. और चौथा भांगा आदि अंत सहित कहते हैं. उस के चार भेद ? आलापन बंध २ अल्लिकापन बंध ३ शरीर बंध व ४ शरीर प्रयोग बंध. उन में से आलापन बंध का क्या अर्थ कहा है ? अहो गौतम! वल्कल, रस्मी, चर्म की नाडी, सन की रस्सी, कुश ब मूल आदि से तृण का भारा, काष्ट का भारा, पत्र का भारा, पालाल का भारा व वेल का भार का बंधन * प्रगाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सख्यात काल ॥५॥ से वह किं कौनसा अ० अल्लिकापन बंध च० चार प्रकार का ले० श्लेषणाबंध उ० उच्चयबंध स० समुच्चयबंध सा संहननबंध से वह किं. कौनसा ले० श्लेषणाबंध ज. जैसे कु भित्ति V}कु० भूमिका खं० स्थंभ पा. प्रासाद क० काष्ट च० चर्म घ० घट प० पट क० कट छु० चना चि० कर्दम 380 १७६३ सि० श्लेष ल० लाख म०मधु आ०आदि ले० श्लेषणा बं बंध स० उत्पन्न होने जजघन्य अं० अंत मुहूर्त है। १० उत्कृष्ट स० संख्यात काल ॥६॥से०वह किं०कौनसा उ• उच्चयबंध न जैसे त० तृणराशी क० काष्टराशी से किं तं अल्लियावण बंधे ! आल्लियावण बंधे चउविहे पण्णत्ते तंजहा लेसणाबंधे उच्चय बंधे, समुच्चय बंधे, साहणणा बंधे ॥ से किं तं लेसणा बंधे ? जणं कुड्डाणं, कुटिमाणं, खंभाणं, पासायाणं, कट्ठाणं, चम्माणं, घडाणं, पडाणं, कडाणं, छुहाचिक्खिल्ल सिलेस लक्खमहु सित्थमाइएहिं, लेसणएहिं बंधे समुप्पजइ, जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजं कालं सेत्तं लेसणाबंधे ॥ ६ ॥ से किं तं उच्चय बंधे ? वह जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहे. अहो गौतम ! इसे आलापन बंध कहते हैं ॥ ५ ॥og अहो गौतम ! अल्लिकापन बंध किसे कहते हैं ? आल्लकापन बंध के चार भेद कहे हैं. ? १ श्लेष ११२ उच्चय बंध ३ समुच्चय बंध और ४ संहनन बंध उस में श्लेषणा बंध का क्या अर्थ है ? चूना, कर्दम, सरेस 1 लाख, मोम. राल व गुडादि से भित्ति, चबुतरा, प्रासाद, काष्ट, चर्म, घट, व कट का जो बंधन होता पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4248 पंचमांग विवाह आठवा शतकका नववा उद्देशा 89480 Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी शब्दार्थ प०पत्रराशि तु तुषराशि भुभश्मराशि गो गोवरकी राशि अ कचरेकी राशि उ० उच्चय बं०बंध स उत्पन्न होवे जघन्य अं अंत मुहूर्त उ उत्कृष्ट सं० संख्यात काल॥णा से वहकि कौनसा स०समुच्चय बं०बंध ज०जैसे अ० कुवा त. तडाग न नदी द० द्रह वा० वापी पु० . पुष्करणी दी • दीर्घिका गुं• गुंजाली स० से सरोवर स० सरोवर पंक्ति बि: विलपंक्ति दे० देवकुल शभा ५० पर्वत थू० स्तूप खा० खाई ५० परिका उच्चयबंधे जण्णं तणरासीणवा, कट्टरासीणवा,पत्तरासीणवा, तुसरासीणवा, भुसरासीणवा, गोमयरासीणवा,अवगररासीणवा, उच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ,जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखजं कालं सेत्तं उच्चयबंधे ॥७॥से किं तं समुच्चय बंधे?समुच्चयबंधे जण्णं अगड, तडाग, नदी, दह, वावी, पुक्खरिणी, दीहियाणं, गुंजालियाणं सराणं,सरपंतियाणं,बिलपंतियाणं, भावार्थ है उसे श्लेषणा बध कहते हैं. इस की स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल की हैं. ॥६॥ अब उच्चय बंध किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! तृणका राशि, काष्ट का राशि, पत्र का सारी, तुष. (फोतरे ) का राशि, भूसे का राशि, कचवर का राशि कर रखाहो उस का जो संबंध रहे सो उच्चय बंध. यह जघन्य अंत मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है. ॥ ७ ॥ अब समुच्चय बंध किसे कहते Joye हैं ? अहो गौतम ! कूप, ताला व नदी, द्रह, वावडी, पुष्करणी दीर्घिका, गुंजाली पाल बंध तलाव, तलाव की पंक्तियों, बिलों की पंक्तियों, देवालय, राजादिक की सभा स्तूप, खाइ, प्राकार, कोट, अटाली, लब्रह्मचरािमुनि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालापसादनी * wwww Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पा. प्राकार अ. अटारी च० कंगूरे दा० द्वार गो० दरवज्जा सो• तोरण पा० प्रासाद घ० घर स० शरण ले० लयन आ० दुकान सिं० सिंघाडे ति० तीक च० चौक च. चच्चर च चतुर्मुख म० वडेरस्ते आ० आदिई छु. चुना नि० कर्दम मि० शिला स० समुच्चय बं० बंध म० उत्पन्न होवे ज० जघन्य अं० अंत मुहूर्त उ०१४ ११६५ उत्कृष्ट सं० संख्यात काल ॥ ८ !! से• वह कि० कौनसा मा० साहननबंध दु०दोप्रकार का दे०देशसाहनन 10स. सर्व साहनन से वह कि० कौनसा दे. देश साहननबंध ज. जैसे स० शकट र० रथ जा० चाहन देवकुलसभापव्वयथूभखाइयाणं, परिहाणं पागारट्टालगचरियदारगोपुरतोरणाणं, पासायघरसरणलेणआवणाणं, सिंघाडगतिगचउकाचच्चरचउम्मुहमहापहमाईणं, छुहाचिक्विलसिलासमुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ. जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं सेत्तं समुच्चयबंधे ॥ ८ ॥ सेकिंतं साहणणाबंधे ? साहणणाबंधे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा देस साहणणाबंधेय, सव्वसाहणणाबंधेय ॥ से किं तं देससाहभावार्थ कंगूरा, द्वार, नगर के द्वार, तोरण, गृह, शरण, लेण, इद श्रेणि, सिंघाडे के आकार के स्थान, त्रिक चौक, बहुत मार्गवाला स्थान, चतुर्मुख व राजमार्ग सो समुच्चय बंध कहा जाता है. इस की स्थिति जघन्य है। अंतर्महूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल की है. ॥ ८॥ अब साहनन बंध किसे कहते हैं. ? अहो गौतम ! साहनन ०७ बंध के दो भेद-देश साहनन व सर्व साहनन. उन में से देश साहनन किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 40888 आठवा शतक का नववा उद्देशा 488 Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जु० जुग्य गु. गिाले थि० थिल्लि सी० शिविका सं० जम्मान लो मण्डक लो० लोह भाजन क० कुडच्छी आ. आसन स० शयन खं० स्थम्भ भं. भांडे म. पात्र उ० उपकरण आ० आदि दे० देश साहनन बंध स. उत्पन्न होवे ज० जघन्य अं० अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट सं० संख्यात काल से वह कि कौनसा स० सर्व साहनन बंध से वह खी०क्षीर उ० उदक आ० आदि ॥ ९ ॥ से वह किं. कौनसा स. शरीर णणा बंधे ? देस साहणणाबंधे जणं सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिलिसीयसंद माणियलोहीलोहकडाहकडुच्छुयआसणसयणखभभंडमत्तोबगरणमाईणं, देससाहणणा है बंधे, एवं चेव समुप्पजइ, जहण्णेणं अंतोमुहुन्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं ॥ सेतं देस साहणणाबंधे ॥ से किं तं सव्वसाहणणाबंधे ? सव्वसाहणणाबंधे सेणं खीरोदगमाईणं, सेत्तं सवसाहणणाबंधे ॥ ९ ॥ से तं अल्लियावणबंधे ॥ से किं तं गाडे, रथ, विमान, जुग्य, हाथी की अंबाडी, ऊंट की दिल्ली, शिविका, संदमनी, लोही, लोहे की. कुडछी, कडे, चैठने के आसन, सोने की शैय्या, स्तंभ, पर्वत और उपकरण आदि का जो बंध उसे देश साहनन बंध कहते हैं. उस की जघन्य अंतर्मुहून उत्कृष्ट संख्यात काल की स्थिति कही. | बंध किसे कहतेअहो मोतम ! दय में पानी समान सब सत्र में मील जावे उसे सर्वत्र साहनन बंध कहते हैं ॥ ९ ॥ यह अल्लिकापन बंध हुवा. अब शरीर वंध किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! wammmmmmmmmmmmmmmmmm * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ *बंध दु० दोमकार का पु० पूर्व प्रयोग प्रत्यय ५० प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्यय से• वह किं. कौनसा पु० पूर्व प्रयोग प्रत्यय ज० जैसे ने नारकी सं० संसारीम. सर्व जीव त० लहां ने उसका कारस समद्धात करले जी० जीव प्रदेश बं बंध में स० उत्पन्न होय . वह किं. कानसा १. प्रत्युत्पन्न प्रयाग प्रत्यय .. सरीरबंधे ? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते तंजहा पुवप्पओगपच्चइए, पडुप्पण्णप्पओग पञ्चइएथ ॥ से किं तं पुचप्पओगपच्चइए ? पुयाओगपच्चइए जणं नरइयाणं संसारत्थाणं सव्वजीवाणं, तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहणमाणाणं जीवप्पएसाणं । बंधे समुप्पज्जइ सेत्तं पुचप्पओगपच्चइए ॥ से किं तं पडुप्पण्णप्पओग पञ्चइए?पडुप्पशरीर बंध के दो भेद कहे हैं ? पूर्व प्रयोग प्रत्यायिक सो गत काल में जीव के व्यापार से वेदना कपायादि सेवन करने का कारन, और २ पूर्व काल में अनुभवे नहीं होवे, वर्तमान में ही जिस का संबंध बना हुवा होवे वहां विघरे हुए प्रदेशों का संहरन करना जैसे केवल ज्ञानी समुद्धात से विखरे हुवे प्रदेशों को पांचवे समय में साहरन कर लेते हैं वह प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक शरीर बंध कहा जाता है. अब अहो। भगवन् ! इन दोनों में से पूर्व प्रयोग परिणत किस को कहते हैं ? अहो गौतम ! नरकादि सब संस जीव को समुद्घात करण क्षेत्र का बाहुल्य कहा, इस समुद्धात में तहां २ क्षेत्र में शरीर के बाहिर जीव के प्रदेश प्रक्षेप कर संकुचित करे, उपशर्जनी कृत तैजसादि शरीर प्रदेश से जीव प्रदेश की रचना विशेष, विवाह पण्पत्ति ( भवगती ) सूत्र Arramananmmmmmmmmmmmmon भावार्थ 14 आठना शतकका नववा उद्देशा 8420 Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ज० जैसे के० केवल ज्ञानी अ० अनगार के० केवली समुद्धात स० समुद्धात किये हुवे को त० उस स० | समुद्रातसे प०निवर्तते अं०बीच में मं०दंडमें व वर्तते ते ० तेजस क० कार्माण बं० बंध में उ० उत्पन्न होवे किं० ( किस का कारन ता० तब से वे प० प्रदेश ए० एकत्रित भ० होते हैं ॥ १० ॥ से० वह किं० कौनसा ण्णप्पओग पच्चइए जण्णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्धाएणं समोहयस्स तओ समुग्धायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरामंथे वट्टमाणस्स, तेयाकम्माणं बंधे समुपज, किं कारणं ताहे से पएसा एगन्तीगया भवंति सेत्तं पडुप्पण्णप्पओग पच्चइए ॥ सेत्तं सरीरबंधे || १० || से किं तं सरीरप्पओग बंधे ? सरीरप्पओगबंधे पंचविहे ( होवे, यह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक. अब प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्याधिक शरीर बंध किसे कहना ? अहो गौतम ! दंड, ( कपाट, मंथन व अंतरकरण लक्षण से केवली समुद्धात करनेवाले और उस समुद्धात से निवर्तनेवाले केवल ज्ञानी को पंचमादि समय रहे हुवे तंजस और कार्माण का जो बंध होता है उसे प्रत्युत्पन्न प्रत्ययिक शरीर बंध कहते हैं. यद्यपि षष्ठादि समय में तेजसादि शरीर संघात होता है, परंतु समय में ही यह होता है शेष में भूत पूर्वपना से होवे. अव किस कारन से ( केवलि समुद्धात से निवर्तत केवली के प्रदेश. जीव प्रदेश एकलपना को प्राप्त होवे ण का बंध हुवा अभूत पूर्वपना से पंचम ऐसा होवे सो बताते हैं. और इन से तेजस कार्मा यह प्रत्युन्न प्रयोग प्रत्यायेक शरीर बंध कहीं. यह शरीरखं हुवा ॥ १० ॥ अव * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ११६८ Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ११४९ 48-49 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र स. शरीर प्रयोग बंध पं० पांच प्रकार का तं० वह ज० जैसे ओ• उदारिक शरीर प्रयोगवंध वे० वैकेयी शरीर प्रयोग बंध आ० आहारक शरीर प्रयोग बंध ते. तेजस शरीरं प्रयोगबंध क. कार्माग शरीर प्रयोग बंध ओ० उदारिक स. शरीर प्रयोगबंध क० कितने प्रकार का ए० एकेन्द्रिय ओ० उदारिक स० शरीर प० तंजहा ओरलियसरीरप्पयोगबंधे, वेउव्वियसरीरप्पओगबंधे, आहारग सरीरप्प ओगबंधे तेयासरीरप्पओगबंधे, कम्मासरीरप्पओग बंधे. ॥ ओरालियसरीरप्पओगबंधेणं भंते! कइविहे प० ? गोयमा ! पंचविहे प० तं० एगिंदियओरालियसरीरप्प. ओगबंधे जाव पंचिंदिय ओरालिय सरीरप्पओग बंधे ।। एगिंदिय ओरलिय सरीरप्प आग बंधेणं भंते ! कइविहे ५० ? गोयमा ! पंचविहे प० तं. पुढविकाइय एगिदिय ओरालिय सरीर प्पओगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहां ओगाहण शरीर प्रयोग बंध किसे कहते हैं? अहो गौतम ! वीर्यातराय क्षयोपशमादि जनित व्यापार से उदारिकादिक प्रयोग का वंध अथवा पुद्गलापादान शरीर रूप प्रयोग का जो बंध उसे शरीर प्रयोग बंध कहते हैं. इस के पांच भेद कहे हैं-उदारिक शरीर प्रयोग बंध, वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध, आहारक शरीर प्रयोग बंध, तेजस शरीर प्रयोग बंध और कार्माण शरीर प्रयोग बंध. उदारिक शरीर प्रयोग बंध के कितने भेद ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर प्रयोग बंध के पांच भेद. एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्र 4.3 आठवा शतक का नववा उद्देशा 888 भावार्थ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७० १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रयोग ॥ ११॥ ओ. उदारिक शरीर प्रयोगबंध भं० भगवन् क. किस क० कर्म के उ. उदय से गो. गौतम वी० वीर्य स० सजोग स० सद् द्रव्य से प० प्रमाद ५० प्रत्यय क. कर्म जो० जोग भ० भव में । संठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्तागब्भवकातय मणुस्स पंचिंदिय ओरालिय सरीरप्पओगबंधेय, अपजत्तागन्भवतियमणुस्स जाव बंधेय ॥ ११ ॥ ओरालिय सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! वीरियसजोग सद्दव्वयाए पमाद पच्चया कम्मंच जोगंच भवंच आउयंच पडुच्च ओरालिय सरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं 'ओरालियसरीरप्पओगबंधे ॥ एगिदिय ओरालिय सरीरप्पओग बंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? एवं चेव ॥ पुढवि वंध यावत् पंचेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध के कितने भेद ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध के पांच भेद पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध. इस तरह इसी आलापक से अवगाहना, संस्थान, यावत् पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय, व अपर्याप्त गर्भज मनुष्य का बंध उद्देशे में कहा वैसे ही यहां जानना ॥ ११॥ अहो भगवन् ! उदारिक शरीर प्रयोग बंध किस का उदय से होता है ? अहो गौतम ! (मन प्रमुख सहित जो शक्तियाग प्रवर्ते सो सयोग, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ | सूत्र १७ ( भगवती ) मूत्र पंचमांग विवाह पण्णति आ. आयुष्य प० प्रत्ययः ओ० उदारिक स शरीर प्रयोग ना० नाम के उ० उदय से ओ० उदारिक सः शरीर प्रयोग बंध ॥ १२ ॥ म० मनुष्य पं० पंचेन्द्रिय ओ० उदारिक शरीर प्रयोगबंध भं० भगवन् ! काइय एगिंदिय ओरालिय सरीरप्पओगबंधेवि एवं चेव एवं जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया, एवं तेइंदिया, एवं चउरिंदिया, ॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय ओरालिय सरीरप्पओग बंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? एवंचेव ॥ मणुस्स पंचिंदिय ओरालिय सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! वीरिय सजोग सद्दव्वयाए पमाद पच्चया जाव आउयं पडुच्च मणुस्स पंचंदिय ओरालिय सरीरप्पओग नामाए कम्मरस उदएणं ॥ १२ ॥ ओरालिय सरीरप्पओग नीव को तथाविध पुद्गल होवे सो सद्रव्य ) वीर्य, सयोग, सद्र्व्य, प्रमाद, कर्म, योग, भव व आयुष्य आश्री उदारिक शरीर प्रयोग नाम कर्म के उदय से उदारिक शरीर प्रयोग बंध होता है. अहो भगवन् !pp एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से है ? अहो गौतम ! जैसे पहिले कहा वैसे ही ॐ जानना यावत् पृथ्वीकायिक, अप् , तेऊ, वायु, व वनस्पतिकायिक उदारिक शरीर प्रयोग बंध ऐसे ही द्वीन्द्रिय, तीइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, व मनुष्य का जानना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! उदारिक है। आठवा शतक का नववा उद्देशा 9887 भावार्थ Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा ११७२ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी * किं. क्या दे देश से बंध स० सर्व से बंध गो० गौतम दे० देश से बंध स० सर्व मे बंध ॥ १३ ॥ ओ०। उदारिक शरीर प्रयोग बंध भं० भगवन् का० काल से के० कितना हो० होवे गो० गौतम स० सर्व बंध ए० एक समय दे० देश बंध ज. जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट ति० तीन पल्योपम स० समय ऊन बंधेणं भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधेवि, सव्वबंधेवि॥ एगिदिय ओरालिय सरीरप्पओग बंधेणं भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे एवं चेव एवं पुढवि काइया, एवं जाव मणुस्सपंचिंदियओरालिय सरीरप्पओग बंधेणं भंते ! किं देसबंधे र सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधेवि सव्वबंधेवि ॥ १३ ॥ ओरालिय सरीरप्पओग बंधेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधेवि एवं समयं देसबंधेवि जहण्णणं एकंसमयं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओनमाइं समय ऊणाई ॥ एगिदिय ओरालिय शरीर प्रयोग क्या देश बंध है या सर्व बंध है ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर प्रयोग देश बंध भी है. और सर्व बंध भी है. ऐसे ही एकेन्द्रिय का पृथ्वींकाया का यावत् मनुष्यपंचेन्द्रिय उदा प्रयोग बंध का जानना ॥ १३॥ अहो भगवन् ! उदारिक शरीर प्रयोग बंध की स्थिति कितनी कही ? अहो गौतम ! सर्व बंध की एक समय की और देश बंध की जघन्य एक समय उत्कृष्ट एक समय कम तीन पल्योपम की. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध की कितनी स्थिति कही ? * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * भावार्थ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ए० एकेन्द्रिय ओ उदारिक स शरीर प्रयोगबंध मं० भगवन् का० काल से के० कितना हो० होवे गो० गौतम स० सर्व बंध ए० एक समय दे० देशबंध ज० जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट वा० बावीस वर्ष स० सहस्र स समयऊन पु० पृथ्वीकाया ए० एकेन्द्रिय की पु० पृच्छा गो० गौतम स० सर्वबंध ए एक समय दे० देशबंध ज० जघन्य खुः क्षुद्रक भ० भवग्रहण ति तीन समय कम उ० उत्कृष्ट चा० बावीस वर्ष स० सहस्र स० समय ऊन ए० ऐसे स० सर्व बंध. ए० एक समग्र दे० देशबंध जे० जिस में न० नहीं सरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं बाबीसं वाससहस्साई समयऊणाई, पुढवी काइएदियपुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधे एक्कंसमयं, देसबंधे जहणणेणं खुड्डाग भग्गणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं बाबीसं वाससहस्साइं समय ऊणाई, एवं सव्वेसिं अहो गौतम ! सर्व बंध की एक समय की. देश बंध की जघन्य एक समय उत्कृष्ट एक समय कप बावीस हजार वर्ष पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय की स्थिति सर्व बंध आश्री एक समय, देश बंध आश्री जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकमंत्र उत्कृष्ट एक समय कम बावीस हजार वर्ष. इसी प्रकार सब का सर्व बंध एक १ क्षुल्लक भत्र सब से अल्प काल का २५६ आवलिका का निगोद का होता है. बीच में उस भव करके फीर तीन यसम में विग्रह गति करके तीसरे समय में सर्व बंध रहे. शेप में देश बंध रहे. आठवा शतक का नवा उद्देशा १.१७३ Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी है ० क्रेय शरीर ते० उस में ज० जघन्य ख० क्षुद्रक भ० भव ग्रहण ति० तीन समय कम उ० उत्कृष्ट * जा. जो ज. जिसकी उ० उत्कृष्ट ठि० स्थिति सा. वह म० समयऊणा का० करना जे० जिस में 903 है वे वैकेय शरीर ते० उस में दे० देश बंध ज० जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट जा० जो ज. जिसकी ठि० स्थिति सा. वह स० समय ऊणा का कहना जा० यावत् म. मनुष्य दे० देश बंध जा ___ सव्वबंधो एक समय, देसबंधो जसि नत्धि वेउव्वियसरीरं, तेसिं जहण्णेणं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसणं जा जस्स उक्कोसिया ठिई, सा समयऊणा कायव्या जेसिं पुण अस्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं देसबंधे जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयऊणा कायव्वा जाव मणुस्साणं, देसबंध जहण्णेणं एवं समयं भी समय और देश बंध अप्, तेउ, वनस्पति, वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में जघन्य तीन समय कम क्षुद्रक भव उत्कृष्ट अप् का एक समय कम सात हजार, तेउका एक समय कम तीन अहोरात्रि, वनस्पतिका एक समय कम दश हजार वर्ष, वेइन्द्रिय का वारह वर्ष, तेइन्द्रिय का ४९ अहोरात्रि और चतुरोन्द्रिय का एक समय कम छमास जानना. और वायुकाय में जघन्य एक समय उत्कृष्ट एक समय कम तीन हजार वर्ष. तिर्यंच पंचन्द्रिय में जघन्य एक समय उत्कृष्ट एक समय कम तीन पल्योपम का जानना. मनुष्य का जवन्य एक समय उत्कृष्ट एक समय कम तीन हजार वर्ष. जिन को वैक्रेय शरीर नहीं है उन को जघन्य तीन 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवस हायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 478 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट ति तीन पल्योपम सा समय ऊणा ॥ १४ ॥ ओ० उदारिक शरीर प्रयोग बं० बंध का अं०आंतरा भं० भगवन् का काल से के० कितना हो० होबे गो० गौतम स सर्व बंध उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई समय ऊणाइं ॥ १४ ॥ ओरालिय सरीरप्पओग १९७५ बंधतरेणं भंते ! कालआ केचिरं होई ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेण तेत्तीस सागरोवमाइं ठिई पुव्वकोडिसमया समय कम क्षुद्रक भव ग्रहण करना और उत्कृष्ट स्थिति में एक समय कम जिनको जितनी स्थिति होवे उतनी जानना. जिनको वैकेय शरीर है उन को देशबंध जघन्य एक समय उत्कृष्ट जिन को जितनी स्थिति है उन में एक समय कम करना ॥ १४ ॥ अब आंतरा कहते हैं. अहो भगवन् ! उदारिक शरीर प्रयोग बंध का आंतरा कितने काल का कहा ? अहो गौतम ! म बंध का आंतरा जघन्य तीन समय कम . क्षुद्रक भव (तीन समय तक विग्रह गति करके उदारिक शरीर में जब आता है तब दो समय तक अनाहारक रहकर तीसरे समय में सर्द बंधक क्षुल्लक भव में रहकर वहां से फीर मरकर उदारिक शरीर में उत्पन्न हुवा इस आश्री) उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम और एक समय अधिक क्रोड पूर्व का अंतर होता है. " (कोई जीव मनुष्य गति में विग्रह गति से आया वहां प्रथम समय में ही सर्व बंधक होकर और पूर्व क्रोड का आयुष्य भोगव कर सातवी नरक में उत्पन्न होकर तीन समय की विग्रह गति से उदारिक शरीरी। 838 आठवां शतकका नववा उद्देशा 8888 Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ १९ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी का आंतरा ज० जघन्य खु० शुद्रक भव भव ग्रहण ति० तीन समय ऊणा उ० उत्कृष्ट ते ० तेत्तीस सागरो (पम ठि० स्थिति पर पूर्वकोड स० समयाधिक दे० देशबंध का अंतरा ज० जघन्य ए० एक समय उ० हियाई, देसबंधंतरं जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरेश्वमाई तिसमयाहियाई एगिंदिय ओरालिय पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समयाहियाई, देसबंधंतरं जहणेणं एक्कंसमयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ पुढवीकाइयएगिंदिय पुच्छा ? सव्वबंधंतरं जब एगिंदियरस तव भाणियव्वं, देसबंधंतरं जहणणं एक्कंसमयं उक्कोसेणं तिष्णि होवे वहां विग्रह का दो समय अनाहारक होकर तीसरे समय में सर्व बंधक होवे उस में एक समय पूर्व (क्रोड सर्व बंध समय स्थान में मीलावे तव पूर्व क्रोड पर एक समय अधिक होवे इस से सर्व बंध का इतना ( अंतर कहा ) देश बंध का अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेत्तीस सागरोपम. [ देश बंधक मरकर सर्वार्थ सिद्ध में तेत्तीस सागरोपम के आयुष्य से उत्पन्न हुवा, वहां से चवते तीन समय विग्रह गति से उदारिक शरीरी हुवा वहां दूसरे समय में अनाहारक सर्व वैधक हुवा फीर देश बंध किया इस से { इतना अंतर कहा. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय उदारिक शरीर के बंधका कितना अंतर कहा ? अहो मौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्य तीन समय कम क्षक भव ( तीन समय की विग्रह गति से पृथिव्यादि में उत्पन्न * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्यालामसादजी * ११७६ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 99 शब्दार्थ उत्कृष्ट ते तेत्तीस सागरोपम ति० तीन समयाधिक ए० एकेन्द्रिय ओ० उदारिक पु० पृच्छा गो० गौतम । समया, जहापुढवी काइयाणं, एवं जाव चउरिंदियाणं वाउकायवजाणं णवरं सव्व। बंधंतरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयाहिया कायव्वा, वाउकाइयाणं सव बंधतरं जहण्णेणं खड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साइं समया भावार्थ हुवा वहां दूसरे समय में अनाहारक तीसरे समय में सर्व बंधक. फीर वहां क्षुल्लक भव ग्रहण तीन समय तक रहकर अक्ग्रिह गति से जब उत्पन्न होता है तब सर्व बंधक होता है ) उत्कृष्ट समयाधिक बावीस हजार वर्ष. [ अविग्रह गति से पृथ्वीकाय उत्पन्न होता हवा प्रथम समय में सर्व बंधक होता है तब आहारक : का एक समय का बावीस हजार वर्ष में समावेश हा गया और शेष एक समय अधिक जानना. यह एके-4 न्द्रिय के सर्व वंध का अंतर कहा. अब देश बंध का अंतर कहते हैं एकेन्द्रिय का देश बंध का अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. देश बंधक जीव परकर अविग्रह गति से सर्व बंधक होवे और एक के समय में फीर देश बंधक होवे. उत्कृष्ट इस प्रकार होते हैं. वायुकाय उदारिक शरीर का देश बंधक 90 वैक्रेय में गया वहां अंतर्मुहूर्त रहकर पुनःसर्व बंधक होकर देश बंधक हुवा. पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय का? सर्व बंध का अंतर एकेन्द्रिय जैसे कहना और देश बंधक जघन्य एक समय (पृथ्वी का देश बंधक मरकर * अविग्रह गति से पृथ्वीकाया में उत्पन्न होवे वहां एक समय सर्व बंधक रहकर फीर देश बंधक होवे यो । 45 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) 3 आठवा शतकका नवधा उद्दशा Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० सर्व बंध का अंतरा ज० जघन्य खु क्षुद्रक भ० भव ग्रहण में ति० तीन समय कम उ० उत्कृष्ट ( वा० बावीस वर्ष स० सहस्र स० समयाधिक दे० देशबंध का आंतरा ज० जघन्य ए० एक समय उ० हियाई, देसबंधंतरं जहण्णेणं एक्वं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय ओरालिय पुच्छा ? गोयमा सव्व बंधंतरं जहणेणं खुड्डाग भवग्गणं तिसमयऊणं पुव्वकोडी समयाहिया, देसबंधंतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिंदिय * प्रगाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * [एक समय जघन्य अंतर हुवा ] उत्कृष्ट तीन समय ( पृथ्वीकाय के देश बंधक मरकर तीन समय विग्रह | गति से उत्पन्न होने वहां दो समय अनाहारक व तीसरे समय में सर्व बंधक होकर फीर देश बंधक होवे | इस से तीन समय का अंतर होता है) जैसे पृथ्वीकाया का अंतर कहा वैसे ही अप्काय, तेडकाय, वन(स्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय वगैरह सबका कहना. विशेषमें उत्कृष्ट जिनकी जितनी स्थिति होवे ) {उन को उतनी कहना अर्थात् अप्कायाकी सर्व बंधंका अंतर जघन्य तिनसमय कम क्षुल्लकभव उत्कृष्ट समयाधिक सात हजार वर्ष, देश बंधंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन समय वगैरह सब का जानना. अब वायु काय का कहते हैं वायुकाय का सर्वबंध का अंतर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकभव उत्कृष्ट समयाधिक तीन { हजार वर्ष और देश बंध अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर मुहूर्त (वायुकाय उदारिक शरीर के देश बंध से मुहूर्त तक वैक्रेय अंतर कर फीर उदारिक सर्वबंध समयान्तर उदारिक देश बंध जब करे तब ११७८ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उत्कृष्ट अं अंतर्मुहूर्त पुःवृथ्वी कायएकेन्द्रिय पु०पृच्छा स०सर्व बंधका आंतरा ज जैसे ए एफेन्द्रिय त० तिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्साणवि, निरवसेसं भाणियध्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ १५ ॥ जीवस्सणं भंते ? एगिदियत्ते नो एगिंदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिदिय ओरालिय सरीरप्पओगबंधतरं कालओ केवचिर होइ ? गोयमा ! सव्वबंधतरं जह 884098 है भावार्थ 48- पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र यथोक्त अंतर होता है. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनि का सर्व बंध का अंतर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भवन उत्कृष्ट समयाधिक पूर्व क्रोड. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अविग्रह गति में उत्पन्न हुवा तब प्रथम समय सर्व वक हुवा एक समय न्यून पूर्व क्रोड. जीव विग्रह गति तीन समय तक करके वहां उत्पन्न हुवा. वहां दो समय अनाहारक व तीसरे समय में सर्व बंधक होवे. अनाहारक के दो समय में से एक समय का पूर्व क्रोड में समावेश हुवा तब पूर्व क्रोड पूर्ण हुवा और जो एक समय शेष रहा सो अधिक जानना. जैसे एकेन्द्रिय का देश बंधंका अंतर कहा वैसे ही पंचेन्द्रिय का देश बंधका अंतर जानना. और जैसे तिर्यंच पंचे न्द्रिय का कहा वैसे ही मनुष्य का जानना॥१५॥ अहो भगवन् ! जीव एकेन्द्रियपना से बेइन्द्रियादिमें उत्पन्न । होकर पुनः एकेन्द्रिय होवे तब एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग परिणत के सर्व बंध व देश बंध का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! सर्व बंध अंतर जघन्य तीन समय न्यून दो क्षुल्लक भव [ एकेन्द्रिय आठवा शतकका नववा उद्दशा gnd, wammmmmmumod Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तेसै भा० कहना ॥ १५-३६ ॥ क कर्म शरीर प्रयोगबंध भ० भगवन क० कितने प्रकार का प. मरूपा ण्णेणं दोखुड्डाई भवग्गहणाइं तिसमयऊणाई, उक्कोसणं दोसागरोवमसहस्साई संखेजबासमज्झहियाई, देसबंधंतरं जहणणं खुलागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दासागरावमसहरसाई संखेजवासमा झहियाइं ॥ १६ ॥ जीवरसणं भंते! पुढवी तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न हुवा वहां दो समय अनाहारक होकर तीसरे समय में सर्व बंध करे भावार्थ फीर उस क्षुल्लक भव तक जीता रहकर वहां से चवे और द्विइन्द्रियादिक में क्षुल्लकभव तक जीता रहकर मर गया और अविग्रह गति से पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हुवा. इस तरह सर्व बंधक व सर्व बंधक का अंतर तीन समय कम दो क्षुल्लक भव हुवा ] उत्कृष्ट संख्यात वर्ष आधिक दो हजार सागरोपम [ अविग्नह से एकेन्द्रिय में उत्पन्न हुवा वहां प्रथम समय सर्व बंधक होकर बावीस हजार वर्ष रहकर मृत्यु पाकर त्रसकाय में उत्पन्न होवे संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम रहे और वहां से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होवे यों दोनों सर्व बंधक का अंतर कहा] देश वंधंका अंतर जघन्य दोसमय अधिक क्षुल्लक भव ग्रहण (एकेन्द्रिय देश बंधक मरकर द्विइन्द्रियादिक में क्षुल्लकभव जीता रहे फीर एकेन्द्रिय अविग्रह आकर प्रथम. सर्व वंध होकर दूसरे से 12 समय में देश वंध होवे ) उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम होता है ॥ १६ ॥ अहो * 02 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी * Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - काइयत्ते नो पुढवीकाइयत्ते पुणरवि पुढवीकाइयत्ते पुढवीकाइय एगिदिय ओरालिय सरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दोखुड्डाग भवग्गहणाई, एवं चेव उक्कोसेणं अणतंकालं अणंताओ उसप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओणं अणंतालोगा असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा तेणं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो देसबंधंतरं जहण्णेणं खंडागं भवग्गहणं समयाहियं, भावार्थ -भगवन् ! पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय उदारिक शरीर प्रयोग बंध का काल से कितना अंतर होता है ? अहो गौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट अनंत काल यावत् आवलिका का असंख्यातवा भाग (अनंत काल के समय में अवसर्पिणी के समय से ग्रहण करते अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी होवे. ) क्षेत्र से अनंत लोक प्रमाण [ काल के समय में लोकाकाश के प्रदेश हरन करते अनंत लोक होवे उस में पुद्गलपरावर्तन होते हैं सो कहते हैं दश क्रोडाक्रोड पल्योपम का एक सागरोपम, दश क्रोडाक्रोड सागरोपम की एक अवसर्पिणी दश क्रोडाकोड सागरोपम की एक उत्सर्पिणी ऐसी अनंत अवसर्पिणी उत्तपिणी का एक पुद्गल परावर्तन होता है. यह असंख्यात समय की आवलिका का असंख्यातवा भाग जानना. देश बंधका अंतर जघन्य समयाधिक एक क्षुल्लक भव ग्रहण 10[ पृथ्वी काय देश बंध से मृत्यु पाकर फोर अविग्रह गति से मृत्यु पाकर पृथीकाया में उत्पन्न होवे ११ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) रत्र आठवा शतकका नवधा उद्दशा ' Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૮૨ भावार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी : उक्कोसेणं अणंतंकालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो, जहा पुढविकाइयाणं, एवं वणस्सइकाइयवजाणं जाव मणुस्साणं वणस्सइकाइयाणं दोखुडाइं एवंचव उक्कोसेणं असंखेजं कालं असंखेज्जाओ ओसप्पिणी उसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरंपि, उक्कोसेणं पुढविकालो ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं ओरालिय सरीर देसबंधगाणय सव्वबंधगाणय अबंधगाणय कयरे २ जाव विसेसाहिया वहां सर्व बंध समयांतर देश वंध रहा सर्व बंध समयाधिक क्षुल्लक भव ग्रहण यह देश वंध देश बंधका परस्पर अंतर जानना ] उत्कृष्ट अनंत काल यावत् आवलिकां का असंख्यात वा उक्त अनुसार जानना. जैसे पृथ्वी काया का कहा वैसे ही वनस्पति काय छोड कर अन्य सब मनुष्य पर्यंत कहना. वनस्पति काया का सर्वबंध का अंतर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लक भव (वनस्पतिकायिक तीन समय विग्रह से उत्पन्न होवे विग्रह के दो समय अनाहारक तीसरे समय सर्व बंधक हो कर क्षुल्लक जीव को फीर पृथिव्यादिक में क्षुल्लक भव रहकर फीर विग्रह वनस्पति काय में उत्पन्न हो। कर प्रथम समय सर्व बंधक रहे ऐसे सर्व बंधक और सर्व बंधका तीन समय कम दो क्षुल्लक भव ब्रहण अंतर होता है.) और उत्कृष्ट में असंख्यात काल. यह पृथिव्यादि. की कायस्थिति काल जानना. असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल से क्षेत्र से असंख्यात लोक जैसे पृथ्वीकाया का देश .भकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती सूत्र वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओरालिय सरीरस्स सव्वबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेज्जगुणा ॥ १७ ॥ बेउल्विय सरीरप्पओगबंधणं भंते ! कइविहे प० ? गोयमा ! दुवि प० तं ० एगिंदिय वेउव्विय सरीरप्पओगबंधेय, पंचिदिय वेउव्विय सरीरप्पओगबंधेय, जइ एगिंदिय वेउन्त्रिय सरीरप्पओगबंधे किं वाउकाइयएगिंदियवेउच्चिय सरीरप्पओगबंधे, अवाउकाइयएगिंदिय वेउव्वियसरीरप्पओगबंधय । एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहण संठाणे वेडव्विय सरीर बंधका अंतर कहा यों वनस्पति का भी समयाधिक क्षुल्लक भव ग्रहण जानना. वनस्पतिकाय का उत्कृष्ट देश { बंधका अंतर पृथ्वीकाय जैसे जानना. अब इनकी अल्पात्रहुत्व कहते हैं. अहो भगवन् ! उदारिक शरीर के देश बंधक सर्व बंधक व अबंधक में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं. ? अहो गौतम ! सब से थोडे जीव उदारिक शरीर के सर्व बंधक उत्पत्ति के प्रथम समय में पावे. उस से अबंधक विशेषाधिक गति में तथा सिद्धपने में पात्रे उस से देशबंधक असंख्यात गुने क्योंकि उस का काल असंख्यात गुना है ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध के कितने भेद कहे ? अहो गौतम ! वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध के दो भेद कहे हैं. एकेन्द्रिय वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध व पंचेन्द्रिय बैक्रेय शरीर प्रयोग बंध. यदि एकेन्द्रिय विक्रेद शरीर प्रयोग बंध है तो क्या वायुकाय एकेन्द्रिय वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध है या अायुकाय 44+ आठवा शतक का नववा उद्देशा -400. ११८३ Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 0 अनुवादक भेओ तहा भाणियव्यो जाव पजत्तासव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणियदेवपंचिंदियवेठब्धियसरीरप्पओगबंधेय, अपजत्ता सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोवयाइय जाव प्पओग बंधेय ॥ १८॥ वेठब्विय सरीरप्पओगबंधणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! बीरिय सजोग सहव्वयाए जाव आउयंवा लाईवा पडुच्च वेउब्धिय सरीर प्पओग नामाए कम्मस्स उदएणं वेउब्विय सरीर प्पओग बंधे ॥ वाउकाइयएगिदिय वेउव्विय सरीर प्पआग बंधेणं पुच्छा ? गोयमा ! वीरियसजोगसद्दव्वयाए एवंचव जाव लडिं. पडुच्च, जाव वाउकाइयएगिदिय सरीरप्पओगचंधे ॥ रयणप्पभापुढवि नेरइय पंचिंदिय वेडाव्वय सरीर प्पओग क्रेय शरीर प्रयोग बंध है ? अहो ,गौतम ! वायुकाय वैक्रेय शरीर प्रयोगबंध है परंतु अवायुकाय. नहीं है. इमी आलापक से जैसे अवगाहन, संस्थान चक्रेय शरीर का भेद कहा वैते ही पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंवेन्द्रिय वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध. अपर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक यावत् प्रयोग वधतक जानना॥१८॥अहो भगवन् ! चक्रेय शरीर प्रयोगबंध कौनमा कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम ! वीर्य सयोग व सद्रव्य यावत आयष्य लब्धि आश्री वैक्रेय शरीर प्रयोग नगमक कर्म के उदय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ *२००३ पंचमाङ्ग विवाह पण्णा ( भगवती ) सूत्र बंधणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! वीरिय सजोग सद्दव्वयाए जात्र आउंवा पडुच्च रयणप्पभा पुढवि जाव बंधे, जाव अहे सत्तमाए ॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय उचियं सरीर पुच्छा ? गोयमा ! वीरिय सजोग सद्दव्ययाए जब जहा वाकाइयाणं || मस्स पंचिंदिय वेडव्विय सरीर प्पओगं पुच्छा ? एवं चेत्र || असुर कुमार भणवासिदेव पंचिंदिय उब्विय जात्र बंधे ॥ जहा रयणप्पभा पुढवि णेरइया एवं जात्र थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्म कप्पोवगया वेमाणिया, एवं जाव अच्चुय गेवेज्जग कप्पातीय बेमाणिया शेयव्वा ॥ अणुत्तरो ववाइय कप्पातीय वैमाणिया एवं चेत्र ॥ १९ ॥ वेडाव्ीय सरीर प्पओग बंधेणं से वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध होता है. वीर्य सयोग सद् द्रव्य यावत् वायु काय एकेन्द्रिय शरीर प्रयोग बंध होता है. अहो भंगवन् शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गोतम ! ( रत्नप्रभा पृथ्वी का बंध होता है. ऐसे ही सातवी पृथ्वी तक जानना तिर्यव पंचेन्द्रिय का वायु काय जैसे [ कहना. मनुष्य, पंवेन्द्रिय का भी ऐसे ही जानता. असुर कुमारं यावत् स्वनित कुमार, वाण अंतर, ज्योतिषी आयुष्य लब्धि प्रत्ययिक नाम कर्म के उदय से रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी पंचेन्द्रिय वैक्रेय ! वीर्य सयोग यावत् आयुष्य प्रत्ययिक २७ * आठवा शतकका नववा उद्देशा ११८५ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंते ? किं देस बंधेसव्व बंधे ? गोयमा! देस बंधेविसव्व बंधेवि। वाउकाइयएगिदिय एवं चेव । रपणप्यभा पुढवि नेरइया एवं जाव अणुत्तरोववाइया ॥२०॥ वेउब्विय सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्व बंधे जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया, देसबंध जहण्णण एकं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो वमाइ, समयूणाई ॥ वाउकाइय एगिंदिय वेडाव्वय पुच्छा ? गोयमा ! सन्वबंधे व वैमानिक का रत्नप्रभा जैसे जानना. ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! वैक्रय शरीर प्रयोग बंध क्या देशबंध या सर्व बंध. अहो गौतम ! देशबंध है और सर्व वंध भी है एकन्द्रिय वायु काय का ऐसे ही जानना. ऐसे ही रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी यावत् अनुत्तरोपपातिक वैमानिक देवका जानना॥२०॥अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर के बंध की कितनी स्थिति कही ?. अहो गौतम ! सर्व बंध जघन्य एक समय उत्कृष्ट दो समय (वै शरीर में उत्पन्न होता है अथवा लब्धि से करता है उस वक्त जघन्य एक समय पर्वबंध होता है उत्कृा दो समय सो उदारिक शरीर से वैक्रेय पना अंगीकार करता हुआ सर्व बंध होकर मृत्यु पाकर नारकी अथवा देवता में जब उत्पन्न होता है तब प्रथम समय में वैक्रेय का मर्व बंध कहना. इस तरह वैक्रेय शरीर का सर्व बंध उत्कृष्ट दो समयका जानना.) देशबंध जघन्य एक समय (उदारिक शरीर वैकेयपना अंगीकार 17 करता प्रथम समय में सर्व बंधक होकर दूसरे समय में मृत्यु पाता है इस आश्री) उत्कृष्ट एक समय कम २ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी है। प्रकाशक-राजाचहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 पंचांग विवाह पणति ( भगवती ) सूत्र +8+ एवं समयं, देसबंधे जहण्णेमं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । रयणप्पभा पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधे एकं समयं देसबंधे जहणणं दसवाससहरसाई, तितमय ऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं समयूणं, एवं जाव असत्तमाए णवरं देसबंधे जस्स जा जहण्णिया टिई सा तिसमयऊणा कायव्वा जाव उक्कोसा समयऊणा ॥ पांचदिय तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणय जहा वाउकाइयाण, असुरकुमार नागकुमार (सेतीस सागरोपम ( देव नारकी में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होता हुआ प्रथम समय सर्व बंधक फीर देश बंधक इस से समय कम हुआ ) वायुकाय का सर्व बंध एक समय और देशबंध जघन्य एक समय क्यों कि उदारिक शरीर से वायुकाय वैक्रेय शरीर को प्राप्त करे तव प्रथम समयमें सर्व बंध होता है और दूसरे समय में देशबंध होता है देशबंध होकर काल करे तो जघन्य एक समय की स्थिति कही. उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त अर्थात् जब अंतर्मुहूर्त तक वैक्रेय शरीर रहे तो उत्कृष्ट देश बंध की स्थिति. पीछे निश्चय हो उदारिक शरीर प्राप्त करता है. रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी का सर्व बंध एक समय का और देश बंध जघन्य तीन समय कम दश हजार वर्ष क्यों की जघन्य स्थिति से उत्पन्न होनेवाला नारकी विग्रहगति से दूसरे समय में अनाहारक व तीसरे समय में सर्व बंधक होता है इस से तीन समय कम किये, उत्कृष्ट एक समय कम सागरोपम क्यों कि उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकी प्रथम समय में सर्व बंधक होते हैं. ऐसे 4 आठवा शतकका नववा उदेशा 808482 ११८७ Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जाव अणुत्तरोववाइयाणं, जहा नेरइयाणं, णवरं जस्स जा ठिई सा भाणियव्वा जात्र अणुत्तरोववाइयाणं, सव्वबंधे एकसमयं, देसबंधे जहणेणं एक्कतीससागरोत्रमाईं तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोदमाई समयऊणाई ॥ २१ ॥ वेउब्वियसरीरप्पओग बंधंतरेणं भंते ! कालओ केवाचरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं अनंताओ जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो, एवं हो सातवी तमतमा पृथ्वी तक का जानना. विशेष में जिनको जितनी जघन्य स्थिति होवे उन में तीन समय कम कहना और उत्कृष्ट स्थितिवाले में एक समय कम कहना. पंचेन्द्रिय तिर्यच व मनुष्य का वायुकाय जैसे कहना. असुरकुमार, नागकुमार यावत् अनुत्तरोपपातिकका नारकी जैसे कहना, उन में जिन को जितनी स्थिति हांवे उन को उतनी कहना. अनुत्तरोपपातिकका सर्व बंध एक समय का देश बंध जघन्य तीन समयकम एकतीस सागरोपम उत्कृष्ट एक सेमयकम तेतीस सांगरोपम का जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर प्रयोग बंधका अंतर कितने कालका कहा. अहो गौतम ! सर्व बंधका अंतर जघन्य ( एक समय उत्कृष्ट अनंत काल, अनंत अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी यावत् आवलिकाका असंख्यातवा भाग, क्यों? कि कोई जीव उदारिक शरीर में से वैक्रेय शरीरी हुवा और पहिले समय में सर्वबंध होवे फीर दूसरे समय देशबंध होकर कालकर जावे और वहां से देव नारकी में वैक्रेय शरीर में सर्व बंध होवे इस अपेक्षा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी * ११८८ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 देसर्वधतरपि ॥ वाउकाइय वेउव्वियसरीर पुष्छा ? गोयमा ! सन्वबंधतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं । एवं देसबंधंतरपि । तिरिक्खजोणिय पंचिंदिय वेउन्विय सरीरप्पओग बंधंतरं पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जह ११८९ से एक समय का और कोई जीव उदारिक शरीरी में से बैक्रेय शरीरी हुवा, प्रथम समय में सर्व बंध हुवा है भावार्थ फीर देश बंध करके वहां से चवकर वनस्पत्यादिक उदारिक शरीर में रहे फीर वैकेय शरीर में उत्पन्न होवे इस अपेक्षा मे अनंत काल कहा. ऐसे ही देश वंधका अंतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंत काल जानना. वायुकायिक वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध में से सर्वबंध का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवे भाग. क्यों कि वायुकायिक उदारिक शरीरी जीव वैक्रेय शरीर को प्राप्त हुवा वहां से पहिले समय में सर्व बंध होकर काल कर गया और पुनः वहां ही उत्पन्न हुवा परंतु जहां लग अपर्याप्ता- a. वस्था पूर्ण नहीं हुई है वहां लग वैक्रेय शरीर प्राप्त नहीं कर सकता और पर्याप्त हुवे पीछे पहिले समय में सर्व बंध हुवा इस से अपर्याप्त अवस्था का अंतर्मुहूर्त काल का अंतरा हुवा. उत्कृष्ट में वायुकायिक उदारिक शरीरी वैक्रेय को प्राप्त हुवा वहां पाहिले समय में सर्व बंधक हुवा फीर देश बंधक होकर काल कर गया 25 फीर उदारिक शरीरी वायु में रहकर पल्पोपम के असंख्यातवे भाग में अवस्य वैक्रेय करे ऐसे ही देश मुबंध का अंतर मानना. तिथंच पंचेन्द्रिय बैक्रेय शरीर प्रयोग बंध में से सर्व बंध का अंतर जघन्य पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4.80 socid आठवा शतक का Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडिपुहुत्तं । एवं देसबंधतरपि । एवं मणुयस्सवि ॥ २२ ॥ जीवस्सणं भंते ! वाउकाइयत्ते नो वाउकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइय एगिदिय वेउव्विय पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक पूर्व क्रोड. कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रेय शरीर को प्राप्त हुवा, वहां प्रथम समय में से सर्व बंधक हुवा फीर अंतर्मुहूर्त तक देश बंधक हुवा. उस में उदारिक का सर्व बंधक होकर एक समयतक देश बंधक हुवा और फीर वैक्रेय करने का विचार होगया और वैक्रेय करता प्रथम समय में सर्व बंधक ब्र हुवा. और उत्कृष्ट में तिर्यंच वैक्रेय को प्राप्त हुवा प्रथम समय में सर्व बंधक हुवा फीर देश बंधक हुवा तिर्यंच की स्थिति पूर्व क्रोड की होने से पूर्व क्रोड तक रहकर काल कर वहां ही उत्पन्न हुवा ऐसा सात आठ भव कर वहां ही उत्पन्न होकर फीर वैकेय करे तो प्रथम समय में सर्व बंधक होवे. ऐसे ही देश बंधक का अंतर जानना. जैसे तिर्यंच का कहा, वैसे ही मनुष्य का जानना ॥ २२ ॥ अहो भगान् ! जीव वायुकाया को प्राप्त हुवा और वहां से नो वायुकाया (पृथिव्यादि ) में उत्पन्न हुवा और वहां से फीर वायु काया में उत्पन्न हुवा ऐसा वायुकाय एकेन्द्रिय वैक्रेय शरीर बंध का कितने काल का अंतर कहा ? अब गौतमः सर्वधका अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंत काल. कोई जीव वायुकाय वैक्रेय शरीरको प्राप्त हुवा और प्रथम समय में सर्व बंधक होकर काल कर गया वहां से पृथिव्यादि में उत्पन्न हुवा और क्षुल्लक भवा • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ igit उक्कोसेणं अणंतकालं वणस्सइकालो । एवं देसबंधंतरंपि ॥ २३ ॥ जीवस्सणं भंते! रयणप्पभा पुढवि नेरइयत्ते नो रयणप्पभा पुढवि पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधतरं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं वणस्सइकालो, देसबं- ११९१ धंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतकालं, वणस्सइकालो, एवं जाव अहे सत्तमाए;णवरं जा जस्स ठिई जहणिया सासवबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तंमब्भहिया रहकर फीर वायुकाय में उत्पन्न हुवा वहां भी क्षुल्लक भव रहकर वैक्रेयपने को प्राप्त हुवा इस से जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट वायुकाय वनस्पतिकायादि में उत्पन्न होने से अनंत कालतक वहां रहे और पीछे वायु-१ काया में उत्पन्न होवे वहां वैक्रेय शरीर प्राप्त करते प्रथम समय में सर्व बंध होवे वैसे ही देश बंधका अंतर जानना ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी को प्राप्त होकर कोई जीव रत्नप्रभा सिवाय अन्य स्थान उत्पन्न हुवा और वहां से पीछा रत्नप्रभा में आया तो वहां का वैक्रेय शरीर प्रयोग बंध का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक दश हजार वर्ष, उत्कृष्ट वनस्पति काल सो अनंत काल.00 रत्नप्रभा में उत्पन्न होते प्रथम समय में सर्व बंधक होकर दश हजार वर्ष की स्थिति होने से फीर देश बंधक होवे और दश हजार वर्ष पीछे काल कर वहां से गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होवे. वहां अंत1+ मुहूर्त रहकर फीर रत्नप्रभा पृथ्वी में सर्व बंधक होवे. इस में तीन - समय की विग्रह गति से नारकी में है। भावाथ 24.28.2 आठवां शतकका नववा उद्देशा पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११२ *. कायवा सेसं तं चेव ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय मणुस्साणय जहा वाउकाइयाणं; असुरकुमार नागकुमार जाव सहस्सार देवाणं एएसिं जहा रयणप्पभा पुढवि ' नेरइयाणं,नवरं सव्वबंधंतरं जस्स जा ठिई जहनिया सा अंतोमुहुत्तमम्भहिया कायव्वा सेसं तं चेव ॥२४॥ जीवस्सणं भंते आणयदेवत्ते नो आणय देवत्ते पुच्छा ? गोयमा! जीव उत्पन्न होते हैं इम से दो समय कम ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अंतर्मुहूर्त के अनेक भेद होते हैं. और उत्कृष्ट का पहिले जैसे कहना. देश बंधका अंतर का जघन्य अंतर्मुहूर्त रत्नम देश बंधवाला नारकी चवकर तिर्यंच में अंतर्मुहून तक रहकर फीर रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे वहां दूसरे, समय में देश बंधक होवे और उत्कृष्ट अनंत काल बनस्पति काल जैसे. ऐसे ही सातत्री पृथ्वी तक का जानना. उस में जिन को जितनी स्थिति होवे उस से एक अंतर्मुहूर्त अधिक जघन्य सर्व बंध का काल जानमा, शेष पहिले जैसे कहना.,तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का वायुकाय जैसे कहना. असुरकुमार नागकुमार यावत् महसारदेवलोकतक में रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी जैसे जानना. सर्व का अंतर में जघन्य जितनी स्थिति होवे उस से एक अंतर्मुहूर्न अधिक जा ॥ २४ ॥ आणत देवलोक में सर्वबंध का अंतर जघन्य प्रत्येक वर्ष अधिक अठ - सागरोपम क्योंकि इन में से चवकर प्रत्येक वर्ष पर्यंत मनुष्य में रहे सिवाय फीर वहां उत्पन्न नहीं होसकता 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीपनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ११९३ सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारससागरोबमाई, वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइ कालो एवं जाव अच्चुए नवरं जस्स जा ठिई सा सव्वबंधंतरं जहन्नेणं वास पुहत्तमभहिया कायव्वा, सेसंतंचेव । गेविज कप्पातीय पुच्छा ? गोयमा ! सब्बबंधंतरं जहन्नेणं बाबीसं सागरोत्रमाइं वास पहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं. कालं वणस्सइकालो, देसंबंधतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो ॥ जीवस्सणं भंते ! अणुत्तरोववाइय पुच्छा ? गोयमा ! सबबंधंतरं जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाइं, वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसणं संखज्जाइं सागरोबमाई, देसबंध. तरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोबमाइं ॥ २५ ॥ एतेसिणं भंते ! भावार्थ हैं है. उत्कृष्ट वनस्पति काल का अनंत काल. देशबंध का अंतर जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट अनंत काल ऐसे ही अच्या तक जानना. उन में जिनको जितनी स्थिति होये उन को उतनी लेकर प्रत्येक वर्ष अधिक जा ना. ग्रैवेयकमें सर्वबंधका अंतर जघन्य प्रत्येक वर्ष अधिक बावीस सागरोपम उत्कृष्ट अनंत काल. देशबंधका जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट अनंत काल. अनुत्तरोपपतिक का सर्वबंध का अंतर जघन्य प्रत्येक वर्ष अधिक 2018 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 988 .१ आना शतकका नवचा उद्देशा*34000 Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 जीवाणं वेउब्वियसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाणय कयरे २ हितो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधगा, देसबंधगा असंखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा ॥ २६ ॥ आहारग सरीरप्पओगबंधेणं भंते कडविहे प.? गोयमा ! एगागारे प०॥जाद एगागारे पण्णत्ते किं मणस्साहा. रग सरीरप्पओगबंधे, अमणुस्साहारग सरीरप्पओगबंधे ? गोयमा ! मणुस्साहारग सरीर प्पओग बधे, णो अमणुस्साहारग सरीर प्पओग बंधे, एवं एएणं आभलावेणं जहा ओगाहण संठाणे जाव इड्डिपत्त पमत्त संजय सम्माद्दट्टि पजत्त संखेज वासाएकतीस सागरोपम उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम. देशबंधका अंतर जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट संख्यात सागरोपमा १॥ २८ ॥ अहो भगवन ! इन देश बंधक सर्वबंधक अवंधक में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषा}धिक है ? अहो गौतम ! सर्व से थोडे वैक्रेय शरीर सर्व बंधक इस से देशबंधक असंख्यात गने उस अबंधक अनंत गुने ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! आहारक शरीर प्रयोग के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! आहारक शरीर प्रयोग एकाकार ही है. यदि आहारक शरीर प्रयोग एकाकार है तो क्या मनुष्य आहारक शरीर एकाकार है या अमनुष्य [ मनुष्य सिवाय ] आहारक शरीर एकाकार है ? अहो गौतम प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4923 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8888 . उय कम्मभूमिग़ब्भ वतिय मणुस्साहारग सरीर प्पओग बंधे, नो आणड्डि पत्त पमत्त जाव आहारक सरीर प्पओग बंधे ॥ २७ ॥ आहारग सरीर प्पओग बंधेणं भंते कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! वीरिय सजोग सहव्वयाए जाव लद्धिंवा पडुच्च आहारग सरीर प्पओग नामाए कम्मस्स उदएणं आहारग सरीर प्पओग बंधे ॥२८॥ आहारग सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! किं देसबंधे सव्यबंधे ? गोयमा ! देस बंधेवि, सव बंधेवि ॥ आहारग सरीर प्पओग बंधणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधे एक समयं, देस बंधे जहण्णेणं अंतो मुहत्तं, उक्कोसेणरि अंतो मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है परंतु अमनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है. ऐसे ही अवगाहन, संठाण, यावत् ऋद्धिवाले प्रपत्त संयति सम्यग् दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले कर्म भामि ग मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है. परंतु ऋद्धिविना के यावत् आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है.॥२७॥ अहो भगवन् ! आहारक शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम ! वीर्य सयोग तद् द्रव्य यावत् लब्धि आश्री आहारक शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से आहारक शरीर प्रयोगबंध होता है ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! क्या आहार शरीर प्रयोग बंध देशबंध या सर्वबंध है ? अहो गौतम ! देशबंध 488888 आठवा शतक का नववा उद्देशा 84 भावार्थ km Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी मुहुत्तं ॥ २९ ॥ आहारग सरीर प्पओग बंधंतरेणं 'भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयना ! सव्व बंधंतरं जहण्णेणं अतो मुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतंकालं अणंताओ ओसप्पिणी उस्सपिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा अवटुं पोग्गलपरियढें देसूणं, एवं देसबंधंतरंपि ॥ ३० ॥ एएलिणं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाणय कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीररस सव्वबंधगा. देसबंधगा संखेजगुणा, अबंधगा अणंतगुणा ॥ ३१ ॥ तेयासरीरप्पओग बंधेणं भंते । कइविहे और सर्वबंध दोनों है. अहो भगवन् ! आहारक शरीर प्रयोग बंध की कितने काल की स्थिति कही ? अहो गौतम : सर्वबंध की एक समय देशबंध की जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहून ॥ २९ ॥ अहो भगवन् । उसका अंतर कितने काल का कहा ? अहो गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट अनंत काल Eअनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, क्षेत्र से अनंत लोक अर्थ पुदल पाव जानना. ऐसे ही दशवध : जानना. ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! इन आहारक शरीर के देशबंधक, सर्वबंधक व अंबंधक में कौन किससे अल्प, बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम : सत्र से थोडे आहारक शरीर के सर्वबंधक जीव *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ - Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 3gp wwwwwwww पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र १. ? गोयमा ! पंचविहे प० तंजहा एगिदिय तेयासरीरप्पओगवंधेय, बेइंदिय तेयासरीरप्पओगबंधेय, जाव पंचिंदिय तेयासरीरप्पओगबंधेय॥ एगिंदिय तेयासरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कइविहे ५० ? एवं एएणं अभिलावणं भेदो जहा ओगाहण संठाण जाव पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध अनुत्तरोववाइय कप्पातीय वेमाणिय देवपंचिंदिय तेया सरीरप्पओगबंधेय अपज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध अनुत्तरोववाइय जाव बंधेय ॥ ३२ ॥ तेया सरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं ? गोयमा ! वीरिय सजोग सद्दव्ययाए जाव आउयंवा पडुच्च तेया सरीर प्पओगणामाए इस से देशबंधक संख्यातगुने और इस से अबंधक अनंत गुने ॥ ३१॥ अहो भगवन् ! तेजस शरीर प्रयोग बंध के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! तेजस शरीर प्रयोग बंध के पांच भेद कहे हैं. एकेन्द्रिय तेजस शरीर प्रयोग बंध यावत् पंचेन्द्रिय तेजस शरीर प्रयोग बंध. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय तेजस शरीर प्रयोग बंध के कितने भेद कहें हैं ? अहो भगवन् ! पुथ्वी कायादि पांच भेद. और इसी अभिलाप से अवगाहन, संस्थान यावत् पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय तेजस: प्रयोग बंध व अपर्याप्त अनुत्तरोपपातिक यावत् प्रयोग बंध ॥ ३२॥ अहो भगवन् ! तेजस शरीर प्रयोग बंध . आठवा शतक का नववा उद्देशा 843 पंचमांग Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मरस उदएणं तेया सरीर प्पओग बंधे ॥ ३३ ॥ तेया सरीर प्पओगे बंधेणं भंते! . . किं देस बंधे सव्व बंधे? गोयमा! देसबंधे नो सव्वबंधे॥ तेया सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! दुविहे प.तं.अणाइएवा अपजवसिए, अनाइए वा सपजवसिए।॥३४॥तेयासरीर प्पओग बंधंतरणं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अणाईयस्स अपजवसियस्स नत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवासयस्स नत्थि अंतर ॥ ३५॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं तेया सरीरस्स देसबंधगाणं, अबंधगाणय कयरे २ हितो जाव विससाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा तेया सरीरस्स अबंधगा, देसबंधगा a 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 25 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम ! वीर्य सयोग, सद् द्रव्य, यावत् आयुष्य प्रस्ययिक तेजम शरीर माम कर्म के उदय से तेजस शरीर प्रयोगबंध होता है ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! क्या वह देशबंध है या सर्वबंध है ? अहो गौतम ! देशबंध है परंतु सर्वबंध नहीं हैं. अहो भगवन् ! तेजस शरीर प्रयोग बंध की कितनी स्थिति कहीं ? अहो गौतम ! उस के दो भेद अनादि अर्यवासित, अनादि सपर्यवसित. ॥ ३४ ॥ अहो भगवन् ! इस का अंतर कितने काल का कहा ? अहो गौतम ! दोनों भेद में से किसी का अंतर नहीं है. ॥ ३५॥ अहो भगवन ! तेजस शरीर देशबंधक व अबंधक में से कौन किस से अल्प Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थक ५० प्ररूपा गो० गौतम अ० आठ प्रकार का ना० ज्ञानावरणीय जा. यावत् अं. अंतराय कर्म शरीर प्रयोग बंध ना० ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध भं० भगवन् क. किसक कर्म के उ. • उदय से गो० गौतम ना० ज्ञान प्रत्यनीक से ना ज्ञान निन्हवता से ना ज्ञान अंतराय से ना० ज्ञान की · अ.. अति असातना से ना. ज्ञान के वि० विसंवादन योग से ना० ज्ञानावरणीय क० कर्म शरीर ५० प्रयोग अणंतगुणा ॥ ३६ ॥ कम्मासरीरप्पओग बंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! । कट्टविहे पण्णत्ते तंजहा नाणावरणिज कम्मासरीरप्पओगबंधे जाव अंतराइयकम्मा । सरीरप्पओगबंधे ॥ नाणावरणिज्जकम्मा सरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उद- १ एणं ? गोयमा ! नाणपडिणीययाए, नाण निण्हवणयाए, नाणंतराएणं, नाणप्पदोसेणं, णाणच्चासायएणं, नाण विसंवादणाजोगेणं, नाणावरणिज कम्मासरीरप्पओगनामाए भावार्थ बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सर्व से थोडे अबंधक इस से देशबंधक अनंत गुने. ॥ ३६॥ अहो भगवन् ! कार्माण शरीर प्रयोग बंधके कितने भेद कहे हैं ?अहो गौतम! आठ भेद कहे हैं. ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कार्याण शरीर प्रयोग बंध अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्माण शरीर प्रयोग किम कर्म के उदय से होवे ? अहो गौनम ! श्रुतादि ज्ञान अथवा अभेद से ज्ञानवंत की प्रतिकूलता सो ज्ञान प्रत्यनीकता, से, ज्ञान अथवा ज्ञान दाता गुरु की निंदा सो ज्ञान निन्हवता, से ज्ञान ग्रहण करनेवाले को विघ्न करना पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 4280 egga आठवा शतक का नववा उद्देशा Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी { नाम क० कर्म के उ० उदय से ना० ज्ञानावरणीय क० कर्म शरीर प्रयोग बंध ॥ ३७ ॥ द०दर्शनावरणीय क० कर्म शरीर प्रयोग बंध मं० भगवन् क० किस क० कर्म से उ० उदय से गो० गौतम दं० दर्शन प्रत्यनीक ए० ऐसे ज जैसे ना० ज्ञानावरणीय न० विशेष दं० दर्शन ना० नाम घे० रखना जा० यावत् । दं० दर्शन वि० विसंवादन जो ० योग से दं० दर्शनावरणीय क० कर्म शरीर प्रयोग नाम क० कर्म के उ० उदय से जा० यावत् १० प्रयोग बंध ॥ ३८ ॥ सा० शाता वेदनीय कव्कर्म शरीर प्रयोग बंध मं भगवन् कम्मस्स उदएणं नाणावरणिजकम्मा सरीरप्पओगबंधे ॥ ३७ ॥ दरिसणा वरणिजकम्मा सरीरप्पओगबंधेणं भते ? कस्स कम्मस्स उदरणं ? गोयमा ! दंसण पडिणीययाए एवं जहा नाणावरणिज्जं नवरं दंसण नाम घेयव्वं, जाव दंसण विसंवायणा जोगेणं दंसणावरणिज्जकम्मा सरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं जात्र प्पओगबंधे सो ज्ञानांतराय से ज्ञान अथवा ज्ञानी का प्रद्वेष करे, ज्ञान अथा ज्ञानी की हीलना करे और ज्ञान (का व्यभिचार बतलावे इन छ कारन से ज्ञानावरणीय कार्याण शरीर नाम कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कार्याण { शरीर प्रयोग बंध होता है || ३७ ॥ अहो भगवन् ! दर्शनावरणीय कार्माण शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम दर्शन ( चक्षुदर्शनादि ) अथवा दर्शनी की प्रतिकूलता से, दर्शन अथवा दर्शनीकी निन्दा करने से, दर्शन में अंतराय देनेसे, दर्शन का मद्वेष करने से, दर्शन की असातना करने से, प्रकाशक - राजाबहादर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी १२०० Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8: शब्दार्थक किस क० कर्म के उ०. उदय से गो० गौतम पा० प्राण की अनुकंपासे भू. भूत की अनुकंपासे ए.14 ऐसे न जैसे स० सातवा शतक में दु० दुःसम उ० उद्देशे में जा० यावत् अ०दुःख नहीं देने से सा०साता Y ० वेदनीय क० कर्म शरीर प प्रयोग ना नामक कर्म के उ०उदय से सा०सातावेदनीय जाव्यावत् . १२०१ Esबंध अ. असाता वेदनीय पु०पृच्छा गो• गौतम अन्यकोदुःखदेने से प० दूसरे को शोक उपजाने से ज०6 जैसे स० सातवा शतक में दु० दुःसम उ० उद्देशा में जा. यावत् ५० परितापना उपजाने से अ० असाता है ॥ ३८ ॥ सायावेयणिज्जकम्मा सरीरप्पओगबंधेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! पाणाणुकंपयाए. भूयाणुकंपयाएछ, एवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसएजाव अपरियावणयाए । सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पओगनामाए कम्मरस उदएणं साया वेयणिज जात्र बंधे ॥ असायावेयणिज्ज पुच्छा ? गोयमा ! पर दुक्खणयाए, पर भावार्थ और दर्शन का व्यभिचार बताने से. इन छ कारन से दर्शनावरणीय कार्माण शरीर प्रयोग नाम कर्म के उदय ।। से दर्शनावरणीय कार्माण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ३८॥ अहो भगवन् ! साता वेदनीय कार्माण । शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम ! प्राणों की अनुकंपा करने से, भूतों की * अनुकंपा करने से यावत् परितापना नहीं उपजाने से साता वेदनीय कार्माण शरीर नाम कर्म का उदय से 18 साता वेदनीय कार्माण शरीर प्रयोग बंध होता है. और अन्य को दुःख देने से, शोक उपजाने से यावतपरि- 488- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 43 आठवा शतकका नववा उद्देशा - Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १२० 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी वेदनीय क. कर्म जा० यावत् प० प्रयोगबंध ॥ ३१ ॥ मो० मोहनीय क. कर्म सशरीर पु० पृच्छा गो० ॥ गौतम ति तीव्र क्रोध से ति तीव्रमान से ति तीवमाया से तितीव लोभ से ति०. तीव्र दर्शन मोहनीय से ति तीव्र चारित्र मोहनीय क० कर्म स० शरीर प्रयोग जा. यावत् १० प्रयोग बंध ॥ ४० ॥ नेई नरकायुष्य क० कर्म शरीर प्रयोग बंध भ० भगवन् पु० पुच्छा गो. गौतम म. महा आरंभ से म. महा सोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा उद्देसए जाव परितावणयाए, असायावेयाणिज कम्मा जाव प्पओग बंधे ॥ ३९ ॥ मोहणिजकम्मा सरीर पुच्छा ! गोयमा ! तिबकोहयाए, तिव्वमाणयाए, तिव्वमाययाए, तिब्बलोहयाए, तिव्वदंसणमोहणिजयाए, तिब्वचरित्तमोहणिज्जयाए । मोहणिजकम्मासरीरप्पओग जाव प्पआगेबध ॥ ४० ॥ णेरइयाउयकम्मासरीरप्पओगबंधणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! महारंभयाए, महातापना देने से अमाता वेदनीय नाम कर्म से असाता वेदनीय कार्माण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥३९॥ अब मोहनीय कर्म की पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! तीन क्रोध, तीव्र मान, तीव्र माया, तीव्र लोभ, तीव मिथ्यात्व मोहनीय सेव तीव्र कषाय लक्षण चारित्र मोहनीय से मोहनीय कार्माण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से मोहनीय कर्माण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ४० ॥ नारकी के आयष्य कार्माण शरि प्रयोग बंध की पृच्छा. अहो गौतम ! अपरिमित कृष्यादि आरंभ से, अपरिमित परिग्रह से, पंचेन्द्रिय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 8 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र परिग्रह से पं० पंचेन्द्रिय वध से कुछ मांसाहार से णे० नरकायुष्य क० कर्म शरीर प०प्रयोग नाम क कर्म के उ० उदय से ने० नरकायुष्य क० कर्म शरीर जा० यावत् प० प्रयोगबंध ति० तिर्यच आ आयुष्य क० कर्म शरीर पु० पृच्छा गो० गौतम मा० मायाले निः निविडमाया अ० असत्य वचन कु० कुडतोल कु० कुडमाप से ति० तिर्यंच योनि आयुष्य कर्म जा० यावत् प० प्रयोग बंध म० मनुष्य आयुष्य } कर्म शरीर पु० पृच्छा गो० गौतम प० प्रकृति भद्रिक प० प्रकृति विनीत सा० अनुकंपा अ० मात्सर्यता परिग्गाहियाए, पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं, णेरइयाउयकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं णेरइयाउय कम्मासरीरजावप्पओगबंधे ॥ तिरिक्खजोणियाउय कम्मासरीरपुच्छा ? गोयमा ! माइलयाए, नियडिलयाए अलियवयणेणं कूडतुलकूडमा णेणं तिरिक्खजोणियाउय कम्माजावप्पओगबंधे || मणुस्सा उयकम्मा सरीरपुच्छा ? ( वध से और मांसादिक के भोजन करने से नारकी के आयुष्य कार्माण शरीर प्रयोग बंध होता है. तियंच योनि के आयुष्य कार्माण शरीर प्रयोगबंध की पृच्छा. अहो गौतम! अन्य को ठगने की बुद्धि से माया करने से निविड माया करने से, असत्य वचन बोलने से और खोटे तोले खोटे माप करने से तिर्यंच योनिक आयुष्य नाम कर्म के उदय से तिर्यच योनिक आयुष्य कार्माण शरीर (पृच्छा. अहो गौतम ! भद्रिक प्रकृति से, विनित प्रकृति से प्रयोग बंध होता है. मनुष्य के आयुष्य की अनुत्कर्षपना से और मात्तर्यता रहितपना से * आठवा शतकका नववा उद्देशा 4090 १२०३ Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ th अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी रहित म० मनुष्य आयुष्य क० कर्म जा. यावत् प० प्रयोग बंध दे देव आयुष्य क. कर्म शरीर पु०* पृच्छा गो० गौतम स० सराग संयम सं० संयमासंयम बा० अज्ञान त० तप कर्म से अ० अकाम निर्जरा १०देव आयुष्य क. कर्म शरीर जा. यावत् प० प्रयोग बंध ॥ ४१॥ सु. शुभनाम कर्म स० शरीर पु. पृच्छा गो. गौतम का काया का• सरल भा०भाव का सरल भा० भाषाका सरल अविषवाद रहित गोयमा ! पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुक्कोसणयाए, अमच्छरियत्ताए मणुस्सा. उयकम्मा जावप्पओगबंधे ॥ देवाउयकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिजराए देवाउयकम्मासरीर जावप्पओगबंधे ॥ ४१ ॥ सुभनामकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा । काउज्जुययाए, भावुज्जुययाए, भासुज्जुययाए, अविसंवादणाजोगेणं, सुभणामकम्मासरीरजाव प्पओगबंधे, यावत् मनुष्यके आयुष्य कार्मण शरीर प्रयोग बंध होता है. देवायुष्य कार्माण शरीरकी पृच्छा, अहो गौतमः . सराग संयम से, संयमासंयम से, अज्ञान तप कर्म करने से, व अकाम निर्जरा से यावत् देवायुष्य कार्मण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥४१॥ अहो भगवन् ! शुभ नाम कार्मण शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? अहो गौतम ! काया की ऋजुता से, भाव (मन) की ऋजता से, भाषाकी ऋजुता से, जैसा कहे वैसा पीलने से यावत् शुभ नाम कार्मण शरीर प्रयोग बंध होता है. अशुभ नाम कर्म की पृच्छा. काया की * भगाशक-राजाबहादूर लालामुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ wwwwww *18- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती । मूत्र मु० शुभनाम कर्म शरीर जा० यावन् ५० प्रयोग बंध अ०अशुभनाम कर्म स० शरीर का काया का वक्र जा. यावत् वि० विषवाद जोग सहित अ० अशुभ नाम कर्म शरीर जा० यावत् १० प्रयोग बंध ॥ ४२ ॥4 उ. उच्चगोत्रक कर्म शरीर पु० पृच्छा गो० गौतम जा० जातिमद रहित कु० कुलमद रहित बबलमद रहित रू० रूपमद रहित त. तप मद रहित ला. लाभ मद रहित सु० श्रुत मद रहित इ० ऐश्वर्य मद रहित उ० उच्चगोत्र कर्म शरीर जा. यावत् प० प्रयोग बंध णी. नीचगोत्र कर्म शरीर पु० पृच्छा गो० 1 असुभनामकम्मा सरीरपुच्छा ? गोयमा ! कायअणजुययाए, जाव विसंवादणा जोगेणं असुभणाम कम्मा सरीर जाव प्पओग बंधे ॥ ४२ ॥ उच्चागोय कम्मा सरीर पुच्छा ? गोयमा ! जाति अमदेणं, कुल अमदेणं, बल अमदेणं, रूव अमदेणं, तब अमदेणं, लाभ अमदेणं, सुअअमदेणं इस्सरिय अमदेणं उच्चागोय कम्मा सरीर जाव प्पओग बंधे ॥ णीयागोय कम्मा सरीर पुच्छा ? गोयमा ! जातिमदेणं, कुल मदेणं, बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोय कम्मा सरीर जाव प्पओग। वक्रता से, मन की वक्रता से, भाषा की वक्रता से व जैसा कहे वैसा नहीं पालने से यावत् अशुभ नाम । ७ कार्मण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ४२ ॥ उच्च गोत्र की पृच्छा. जाति का मद नहीं करने से, कुल, बल , रूप, तप, लाभ, श्रुत और ऐश्वर्यका मद नहीं करने से यावत् उच्च गोत्र कार्मण शरीर प्रयोग बंध है। 29408:0% आठवा शतक का नववा उद्देशा wwwwwwwwwwnnnnnnnwwwwww भावार्थ Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -: गौतम जा. जाति मद से क० कलमद से ब० बलमद से जा. यावत् इ० ऐश्वर्यमद से णी० नीच गोत्र कर्म शरीर जा० यावत् प० प्रयोग बंध ॥ ४३ ॥ अं० अंतराय कर्म शरीर पु० पृच्छा गो• गौतम दा० दानांतराय से ला०लाभांतराय से भो०भोगांतराय से उ. उपभोगांतराय से वी० वीतराय से अं०अंतराय कर्म शरीर प० प्रयोग नाम क० कर्म के उ. उदय मे अं० अंतराय कर्म स० शरीर प्रयोग बंध ॥ ४४ ॥ सरल शब्दार्थ ॥ -(०)- -.)बंधे ॥४३॥ अंतराइय कम्मा सरीर पुच्छा ? गोयमा ! दाणंतराएणं, लाभंतराएणं, है भोगतराएणं उवभागंतराएणं,वीरियंतराएण अंतराइय कम्मा सरीर प्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं, अंतराइय कम्मा सरीर प्पओगबंधे॥४४॥णाणावरणिज्ज कम्मासरीरप्पओगबंधणं भंते ! किं देसबंधे सव्व बंधे ? गोयमा देसबंधे नो सव्वबंधे ॥ एवं जाव अंतराइय।। होता है. और जाति यावत् ऐश्वर्यका पद करने से नीच गोत्र कार्यण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ४३ ॥ अंतराय कर्म की पृच्छा. अहो गौतम : दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीतिराय से अंतगय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से अंतराय कार्मण शरीर प्रयोग बंध होता है ॥ ४४ ॥ अहो भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग देश बंध है . या सर्व बंध है ? अहो गौतम ! देश बंध है परंतु सर्व बंध नहीं है ऐसे ही अंतराय तक सब कर्मों का जानना. अहो भगवन ! * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * N AANA भावार्थ Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2018 88% पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 8.9%80% णाणावरणिज्ज कम्मा सरीर प्पओग बंधेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! दुविहे ५० तं• अणाइयं एवं जहेव तेयगस्य संचिटणा तहेव एवं जाव अंतराइय कम्मरस ॥ णाणावरणिज्ज कम्मा सरीर प्पओग बंधंतरेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अणाझ्यस्स एवं ,जहा तेयग सरीरस्स अंतरं तहेब जाव अंतराइयस्स । एएसिणं भंते ! जीवाणं णाणावरणिजस्स कम्मरस देसधगाणं अबंधगाणय कयरे २ जाव अप्पाबहुगं जहा तेयगस्स एवं आउयवज्जं जाव अंतराइयं ॥ आउयस्स पुच्छा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आउयकम्मरस देसबं धगा, अबंधगा, संखजगुणा ॥ ४५ ॥ जस्सणं भंते ! ओरालिय सरीरस्स सव्वबंधे ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग बंध की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! इस के दो भेद अनादि अपर्यवसित अनादि सपर्यवसित. ऐसे ही अंतराय कर्म तक जानना. अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय का-go मण शरीर प्रयोग बंध का अंतर कितने काल का कहा? अहो गौतम ! जैसे तेजस शरीर का अंतर of कहा वैसे ही यहां जानना. ऐसे ही अंतराय पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! इन ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग के देश बंधक व अबंधक में कौन किस से अल्प, बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! आठवा शतकका नववा उद्दशा Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी सेणं भंते!वेउब्विय सरीरस्सा बंधए? अबंधए गोयया!णो बंधए अबंधए । आहारगसरीर स्स किं बंधए अबंधए ? गोयमा ! णो बंधए अबंधए । तेया सरीरस्स किं बंधए अबंधए ? गोयमा ! बंधए णो अबंधए ॥ जइ बंधए किं देसबंधए सव्वबंधए ? गोयमा ! देसबंधए जोसव्वबंधए ॥ कम्मासरीरस्स किं बंधए अबंधए जहेव तेयगस्स जाव देसबंधए, णो सबबंधए॥ जस्सणं भंते ! ओरालियसरीरस्स देसबंधेसेणं भंते ! वेउव्विय सरीरस्स किं बंधए अबंधए ? गोयमा ! णो बंधए अबंधए, एवं जहेव सव्वजैसे तेजस का कहा वैसे ही यहां आयुष्य वर्जकर अंतराय तक जानना. आयुष्य में सब से थोडे आयुष्य , कर्म के देश बंधक इस से अबंधक संख्यात गुने ॥ ४५ ॥ अहो भगवन् ! जो उदारिक शरी सर्व बंध होता है वह क्या वैक्रेय शरीर का बंधक होता है ? अहो गौतम ! नहीं होता है ! क्योंकि एक समय में सर्व बंधक उदारिक में वैकेय नहीं होवे. अझे भगवन् ! क्या आहाररीक शरीर का बंधक होता है ? अहो गौतम ! नहीं होता है. तब क्या तेजस शरीर का बंधक होता है ? हां गौतम : 3 होता है परंतु अबंधक नहीं होता है. जब तेजस शरीर का बंधक होता है तो क्या देश बंधक होता है या सर्व बंधक होता है ? अहो गौतम ! देश बंधक होता है परंतु सर्व बंधक नहीं होता है. क्योंकि इस में सर्व बंधक का अभाव है. कार्मण शरीर का तेजस शरीर जैसे कहना. अहो भगवन् ! जिसका प्रवाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. ४ 880 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र बंधेणं भाणथं तहेव देसबंधेणवि भाणियब्वं जाव कम्मगस्स ॥ ४६॥ जस्सणं भंते ! वेउबियसरीरस्स सम्बंबंध सेणं भंते!ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए? गोयमा!णोबंधए अधए आहारग सरीरस्स एवं चेव तेयगस्स कम्मगस्सय जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियव्वं, जाव दसबंधे नो सव्वबंधे। जस्सणं भंते ! वेउब्धिय सरीरस्स देसबधे सणं भंते!ओराालय सरीरस्स किं बंधए अबंधए ?गोयमा ! णो बधए अबंधए,एवं जहेव सव्व बंधेणं भणिय तहेव देसबंधेणवि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स ॥ ४७ ॥ जस्सणं भंते ! आहारगसरीरस्स सव्वबंधे सणं भंते ! ओरालिय सरीरस्स किं बंधए अबंधए ?गोयमा! णो बंधए अबंधए, एव वेउब्वियस्सवि,तेयग कम्माणं जहेव ओरालिएणं उदारिक शरीर का देश बंध होता है उस का क्या वैक्रेय शरीर का बंध होता है ? अहो गौतम ! वह बंध वगैरह सत्र सर्वबंधक जैसे कहना. ॥ ४६॥ अहो भगवन् ! जो वैक्रेय शरीर का सर्वबंधक होता है वह क्या उदारिक शरीर का बंधक होता है या अबंधक होता है ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर का बंध क नही होता है ऐसे ही आहारक शरीर का जानना. तेजम कार्माण का उदारिक जैसे जानना. अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर का देशबंधक जो होता है वह उदारिक का क्या बंधक होता है ? अहो गोतम ! जैसे सर्वबंधक का कहा वैसेही देशबंधक का जानना.॥४७॥ अहो भगवन् ! नित को आहारक शरीर का संबंध होता है उसको क्या उदारिक शरीर का धंध होता है ? अहो गौतम ! वह उदारिक शरीर का बंधक नहीं है। % आठवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ 98280 488 Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाथे ** अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी समं भाणयं तहेव भाणियव्वं ॥ जस्सणं भंते ! आहारग सरीरस्स देसबंधे सेणं भंते ! ओरालिय सरीरस्त एवं जहा आहारग सररिस्त सव्व बंधेणं भाणियं जाव कम्मगस्स ॥४८॥ जस्सण भंते ! तयासरीरस्स देसबंधे सेण मते ओरालिय सरीरस्स किं बंधए अबंधए ? गोयमा! बधएवा अबंधएवा,। जइ बंधए किं देस बंधए सव्व बंधए? गोयमा! देस बंधएवा सव्व बंधएवा, उब्बिय सरीरस्स किंबंधए एवं चेव, एवं आहारगस्सवि कम्मग सरीरस्स किं बंधए अबधए? गोयमा !बंधएणोअबंधए।जइबंधए होता है परंतु अबंधक होता है. ऐसे ही वैक्रेय शरीर का जानना. तेजस कार्माण का उदारिक जैसे जानना. जैसे सर्वबंध का कहा वैसे ही देशबंध का जानना. ॥ ४८ ॥ अहो भगवन् ! जिस को तेजस शरीर का देशबंध होता है वह क्या उदारिक शरीर का बंधक होता है या अबंधक होता है? अहो गौतम बंधक व अबंधक दोनों होता है. अब बंधक होता है तो क्या देशबंधक होता है या सर्वबंधक होता है। अहो गौतम ! देशबंधक भी होता है और सर्वधक भी होता है. बैक्रेय शरीर का उदारिक जैसे जानना. आहारक शरीर का भी वैसे ही जानना. कार्माण शरीर का क्या बंधक होता है, या अबंधक होता है ? अहो गौतम ! बंधक होता है परंतु अबंधक नहीं होता है. यदि बंधक होता है तो क्या देशबंधक होता है या सर्व बंधक होता है ? अहो गौतम ! देश बंधक होता है परंतु सर्व बंधक नहीं होता है ।। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी जालाप्रसादजी * Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र किं दंसबंधए सव्वबधए ? गोयमा ! देसबंधए, णो सव्वबंधए ॥ ४९ ॥ जस्सणं भंते ! कम्मासरीरस्स देसबंध सेणं भंते ! ओरालिय सरीरस्स जहा तेयगस्स वत्तव्यया भणिया तहां कम्मगस्सवि भाणियव्वा, जाव तेयासरीरस्स जाव देसबंधए णो सव्बंध || ५० || एएसिणं भंते ! सव्वजीवाणं ओरालिय वेउन्त्रिय आहारग तया कम्मा सरीरगाणं, देशबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाणय कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा आहारंग सरीरस्स सव्वबंधगा, तस्सचेव अहो भगवन् ! जिस को कार्माण शरीर का देश बंध होता है उस को क्या उदारिक शरीर का बंधक होता {है ? अहो गौतम ! जैने तेजस शरीर का कहा, वैसे ही उदारिक, वैक्रेय, आहारक की साथ जानना और तेजस की साथ का भी बंध वैसे ही कहना ॥ ५० ॥ अहो भगवन् ! इन उदारिक, वैक्रेय, आहारक, तेजस व कार्मण शरीरवाले सब जीवों का सर्व बंधक, देश बंधक व अबंधक में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! १ सब से थोडे आहारक के सर्व बंधक क्यों कि चौदह पूर्व ज्ञान के धारक प्रयोजन होने पर आहारक शरीर करते हैं उस में भी सर्व बंध समय मात्र रहता है २ इस से आहारक के देश बंधक संख्यात गुने देश बंधका काल अधिक होने से ३ इस से वैक्रेय शरीर के सर्व बंधक असंख्यात गुने ४ इस वैक्रेय शरीरी देश बंधक असंख्यात गुने इस से तेजस कार्मण के अबंधक पर * आठवा शतकका नववा उद्देशा १२११ Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१२ भावार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + देसबंधगा संखजगुणा,वेउब्विय सरीरस्स सव्वबंधगाअसंखेज्जगुणा,तस्सचेव देस बंधगा असंखजगुणा, तेया कम्मगाणं दोण्हवि तुल्ला अबंधगा अणतगुणा, ओरालिय सरीरस्स सबबंधगा अणंतगुणा, तस्सचेव अबंधगा विसेसाहिया, तस्सचेव देसबंधगा असंखजगुणा, तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसेसाहिया, वेउब्धिय सरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया, आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्टम सयरस नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ ९॥ रायगिहे जाव एवं वयासी अण्णउत्थियाणं भंते ! एव माइक्खंति जाव परूवेति स्पर तूल्य अनंत गुने सिद्ध आश्री, इस से उदारिक शरीर के सर्व बंधक अनंत गुने वनस्पति आश्री, इस से उदारिक शरीरी के अबंधक विशेषाधिक, इस से उदारिक शरीरी के देश बंधक असंख्यात गुने, इस से तेजस कार्माण के देश बंधक विशेषाधिक, इस से वैक्रेय शरीरी के अबंधक विशेषाधिक, इस से आहारक शरीरी के अबंधक विशेषाधिक ॥५१॥ अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह आठवा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ८ ॥ ९ ॥ नववे उद्देशे में बंध का अधिकार कहा यह श्रुत व शील से होता है' इस से आगे श्रुत व शील का कथन करते हैं. राजगृह नगरी में गुण शील नामक उद्यान में भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे यावत् प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी भालाप्रसादनी * Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द - * 36 | रा. राजगृह में जा यावत् ए. ऐसा व बोले अ० अन्यतीर्थिक भं भगवन् ए. ऐसे आ. कहते हैं। जायावत् प० प्ररूपते हैं ए० ऐसे खनिश्चय सी० शील से० श्रेय मु श्रुत से श्रय सी०शील से श्रेय से वह क० कैसे ए० यह भं० भगवन् ए. ऐसे गो० गौतम ज. जो ते वे अ० अन्यतीर्थिक ए. ऐसा Ee आ० कहते हैं जा० यावत् जे. जो ते० वे ए. ऐसा आ० कहते हैं मि० मिथ्या ते वे ए. ऐसा १० E एवं खलु सीलं सेयं, सुयंसेयं सुयं सील सेयं, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णंते अण्णउत्थिया एव माइक्खंति जाव जे ते एव माहंसु मिच्छा ते एव माहंसु अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जाव परूवेमि, एवं खलु मए चत्तारि पुरिस । गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन ! अन्यतीथिक ऐमा कहते यावत् प्ररूपते । हैं कि ज्ञान से कुच्छ प्रयोजन नहीं है केवल क्रिया से ही मुक्ति मीलती है 'जहा खरो चंदण भारवाही। भारस्स भागी न हु चंदणस्स ॥ एवं खु नाणी चरणेणही णो । णाणस्त भागी न हु सुग्गईए' ॥१॥ अर्थात् जैसे चंदन का भार वहन करनेवाला रासभ को चंदन भाग्भत होता परंत उस चंदन के गनों की प्राप्ति उस को नहीं होती है ऐसे ही चारित्र से हीन पुरुष केवल ज्ञान का भार वहन करनेवाला होता है । परंतु सुगति नहीं प्राप्त कर सकता है. इस से मुक्ति में साधनभूत मात्र शील है वही श्रेय व श्लाघनीय है. ३०० और कितनेक ऐसा भी कहते हैं कि श्रुत श्रेय है क्योंकि ज्ञान से वांच्छितार्थ की सिद्धि होती है परंतु विवाह पण्यत्ति ( भवाती ) सूत्र आठवां शतकका दशवा उद्देशा 89480 Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १२१४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आ. कहते हैं अ० मैं पु० फीर गो० गातम ऐ० ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् प० प्ररूपता हूं. प. ऐसा खः खलु म. मैंने च० चार पु० पुरुष जात प० प्ररूपी सी० शील संपन ए. एक नो० नहीं सु० श्रुतसंपन्न सु. श्रुतसंपन्न ए. एक नो० नहीं सी० शीलसंपन्न ए. एक सी० सीलसंपनी सु० श्रुतसंपन्न ए० एक नो० नहीं सी० शीलसंपन्न नो० नहीं सु० श्रुतसंपन्न त• तहां जे० जो ५० प्रथम जाया पण्णत्ता, तंजहा सील संपण्णे नामं एगे नो सुयसंपण्णे, सुयसंपण्णे नामं एगे नो सीलसंपण्णे, एगे सीलसंपण्णेवि, सुयसंपण्णेवि, एगे नो सीलसंपण्णे नो सुय । , संपण्णे ॥.१ तत्थणं जे से पढमे पुरिस जाए सेणं पुरिसे सीलवं असुयवं उवरए क्रिया से कुच्छ नहीं होता है ज्ञान रहित क्रिया निष्फल है. पढमं नाणं तओ दया । एवं चिट्ठइ सव्व संजए ॥ अण्णाणी किं काही । किं वा नाही य छेय पावगं ॥१॥ अर्थात् प्रथम ज्ञान होता है तब दया का पालन कर सकता है, अज्ञानी जाने विना कुछ नहीं कर सकता है इस से श्रुत ज्ञान ही श्रेय अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! जो अन्य तीथिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या ऐसा कहते हैं. अहो गौतम ! इस कथन को मैं इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि श्रुत युक्त शील श्रेय है अर्थात् ज्ञान सहित क्रिया वांच्छितार्थ हो सकती है. यथा सयोग सिद्धीए फलं वयंति । नहु एक चक्केग रहो पया: ॥ अंधोय पंगूयवणे समिच्चा । ते संपत्ता नगरं पविकृति ॥ १ ॥ जैसे एक चक्र से रथ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र Agr> पु० पुरुष जात सी० शीलबन्त अ० श्रुतयन्त नहीं उ० उपरत अ० अविज्ञात धर्म गो० गौतम म० मैंने पु. परुष दे. देशाराधक प० प्ररुपात. तहां जे. जो दो० दूसरा पु० पुरुष जात से वह पु० पुरुष अ० अशीलवन्त सु० श्रुतवन्त अ० अनुपरत वि विज्ञात धर्म गो गौतम म. मैंने पु० पुरुष दे० देशविराधक प. प्ररूपात. तहां जे. जो त. तीसरा पु० पुरुष जात मे. वह सी० शीलवन्त सु. श्रुतवन्त उ० उपरत ___ अविण्णायधम्मे एसणं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते ॥-२ तत्थणं जे से दोच्चे पुरिसजाए सेणं पुरिसे असीलवं सुतवं अणुवरए विण्णाय धम्मे एसणं गोयमा ! । ___मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते ॥ ३ तत्थणं जे से तच्चे पुरिसजाए सेणं पुरिसे नहीं चलता है और जैसे अंध और पंगु पुरुष अलग २ रहने से इच्छित स्थान पर नहीं पहुंच सकते हैं ऐसे ही मात्र ज्ञान से अथवा मात्र क्रिया से मोक्षार्थ सिद्ध नहीं हो सकता है, परंतु ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्षार्थ सिद्ध होता है. इस विषय में चार प्रकार के पुरुष कहते हैं. १ कोई पुरुष शील संपन्न है परंतु ज्ञान संपन्न नहीं है २ कोई शील संपन्न नहीं है परंतु ज्ञान संपन्न है ३ कोई शील संपन्न भी है और ज्ञान संपन्न भी है और ४ कोई शील संपन्न भी नहीं है व ज्ञान संपन्न भी नहीं है. उन में से प्रथम भांगावालाई पुरुष अपनी बुद्धि से पाप से निवर्ता परंतु ज्ञान के अभाव से धर्म जान सका नहीं इस से वह पुरुष क्रिया में तत्पर होने से देश आराधक कहा जाता है.. उस में जो दूसरा पुरुष शीलवंत नहीं आठवा शतक का दशवा उद्दशा " भावार्थ 48 Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि पिक विज्ञात धर्म गो० गौतम म• मैंने पु. पुरुष स. सर्व आराधक प० प्ररूपा त. तहां जे. जो च.. चौथा पु० पुरुष जात से वह पु० पुरुष अ० अशीलवन्त अ. अश्रुतवन्त अ० अनुपरत अ० अविज्ञात धर्म गो० गौतम म० मैंने पु. पुरुष स० सर्व विराधक प० प्ररूपा ॥१॥ क. कितनेक प्रकार की भं. भगवन् आ० आराधना ५० प्ररूपी गो० गौतम ति० तीन प्रकार की आ० आराधना ५० प्ररूपी तं. वह सीलवं सुतव उवरए विण्णायधम्मे एसणं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते ४ तत्थणं जे से चउत्थे पुरिसजाए सेणं पुरिसे असीलवं असुतवं अणुवरए अविण्णाय धम्मे एसणं गोयमा! मए पुरिसे सव्वीवराहए पण्णत्ते॥१॥कइविहाणं भंते! आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा आराहणा षण्णत्ता, तंजहा नाणाराहणा, ज्ञानवत है वह पाप से निवर्ता नहीं परंतु धर्म का स्वरूप उनोंने जाना है इस से वह ज्ञानादि त्रय रूप में चारित्र रूप देश विराधक हुवा. जो तीसरा भांगावाला क्रियावंत व ज्ञानवंत है वह पाप से निवर्ता है, और उसने श्रुत धर्म भी जाना है. अहो गौतम ! वह पुरुष माराधक होता है और जो चौथा भांगावाला क्रिया व ज्ञान रहित है वह पुरुष पाप से निवर्ता नहीं है और उनोंने धर्म का स्वरूप जाना नहीं है. अहो गौतम ! ऐसा पुरुष सर्व विराधक होता है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! आराधना कितने प्रकार की होती है ? अहो गोतम ! आराधना तीन प्रकार की कही. १ मतिज्ञानादि पांचों ज्ञान को * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ भयवती) मृत्र 880 शब्दार्थ ज. जैसे ना. ज्ञान आराधना दं दर्शन आराधना च० चारित्र आराधना ना. ज्ञान आराधना भी भगवन् क० कितने प्रकार की गो० गौतम ति० तीन प्रकार की दं दर्शन आराधनाए ऐसे ही नितीन प्रकार की ए. ऐसेच. चारित्र आराधना ॥ २॥ सरल शब्दार्थ ॥ . दसणाराहणा, चरित्ताराहणा ॥ २ ॥ नाणाराहणाणं 'भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता तंजहा उक्कोसिया, .मज्झिमा, जहण्णा ॥ दसणाराहणाणं काल अविनयादि दोप रहित पालना सो मति ज्ञान आराधना २ शंका कांक्षादि दोष रहित सम्यक्त्व Kालना सो दर्शन आराधना और ३ सामायिकादि चारित्र निरतिचार पूर्वक पालना सो चारित्र आरा हा॥२॥ अहो भगवन् ! ज्ञान आराधना के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम ! ज्ञान आराधना के उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य ऐसे तीन भेद. कहे हैं. उन में उत्कृष्ट ज्ञान आराधनावाला अवधि मनःपर्यव .E व केवल ज्ञान वाला होवे अथवा द्वादशांग को जाननेवाला व ज्ञान में सदैव उद्यमी होवे २ मध्यम ज्ञान आराधनावाला एकादश अंग के पाठी, विशेष उद्यमी नहीं वैसे ही विशेष प्रमादी भी नहीं ३ जघन्य ज्ञान आराधनावाला आठ प्रवचन माताके पाठी यह मति श्रुत ज्ञान की शुद्धता युक्त होता है. ऐसे ही दर्शन सम्यक्त्व आसपना के तीन भेद उत्कृष्ट सो क्षायिक प्तम्यक्त्व के धारक, शंकादि किंचिन्मात्र दोष रहित, १२ मध्यम सो क्षयोपशमादि सम्यक्त्व युक्त मध्यस्थ परिणामी, और ३ जघन्य सो देवादि तीनों तत्वों का।। 88.2 आठमा शतक का दशाव दशा-438 ११ पंचमांग विवाह Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भावार्थ 49 अनुवादक - बालब्रह्मची श्री अमोलक ऋषिजी भंते! कइविहा ? एवं चेव तिविहावि ॥ एवं चरिताराहणावि ॥ ३ ॥ ज भंते उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा ? गोयमा ! जस्स उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स दंसणाराहणा उक्कोसा वा, अजहण्णमणुक्कोसावा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा जहण्णावा अजहन्नमणुक्कोसावा । जस्सणं भंते! उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा, जस्स उक्कोसिया चरिताराहणा तस्सुकोसिया पराधक शंकादि दोष युक्त. ऐसे ही चारित्र आराधक के भी तीन भेद होते हैं ? उत्कृष्ट चारित्र आराधनावाला यथाख्यात चारित्रीय हो२ मध्यम चारित्राराधक सामायिकादि में मध्यस्थ परिणामी होवे और ३ जघन्य चारित्राराधक सामायिकादि चारित्र शिथिलता पूर्वक पाले || ३ || अहो भगवन् ! जिस को उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है उस को क्या उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है अथवा जिस को उत्कृष्ट दर्शन आराधना होता है उस को क्या उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है ? अहो गौतम ! जिस को उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है उस को उत्कृष्ट दर्शन आराधना और मध्यम दर्शन आराधना होती है. और जिस को उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है उस को जघन्य, उत्कृष्ट व मध्यम ज्ञान आराधना होती १ है. अहो भगवन् ! जिस को उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती हैं उस को क्या चारित्र आराधना * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १२१८ Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P3 RE १२१९ नाणाराहणा ? जहा उक्कोसिया नाणाराहणाय दसणाराहणाय भणिया तहा उक्कोसिया नाणाराहणाय चरित्ताराहणाय भाणियव्वा ॥ जस्सणं भंते ! उक्कोसियां दसणाराहणा तस्सकोसिया चरित्ताराहणा, जस्सुक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्सुक्कोसिया दंसणाराहणा? गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसावा, जहण्णावा, अजहण्णमणुक्कोसावा, जस्सपुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स दसणाराहणा नियम उक्कोसा ॥ उक्कोसियाणं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? गोयमा । अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतंकरेइ, होती है और जिस को उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती है उस को क्या ज्ञान आराधना होती है ? भावार्थ अहो गौतम ! जैसे उत्कृष्ट ज्ञान आराधना व दर्शन आराधना कही वैसे ही यहां कहना अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान आराधना में उत्कृष्ट चारित्र आराधना व मध्यम चारित्र आराधना होती है और उत्कृष्ट चारित्र आराधना में उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य ज्ञान आराधना होती है. अहो भगवन् ! जिस को उत्कृष्ट दर्शन 20 आराधना होती है उस को क्या उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती है और जिस को उत्कृष्ट चारित्र आ-3 राधना है उस को क्या उत्कृष्ट दर्शन आराधना है ? अहो गौतम ! जिम को उत्कृष्ट दर्शन आराधना पंचभाग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40887 4 आउना शतकका दशवा उद्देशा 988 Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ० 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमोलक ऋषिजी अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ, अत्थेगइए कप्पोवएसुवा कप्पातीतएसुवा उववज्जइ ॥ उक्कोसियाणं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहिं एवं चेव ॥ उक्कोसियाणं भंते ! चरित्तारायणं आराहेत्ता एवं चेव, णवरं अत्थेगइए कप्पातीतएसु उववज्जइ ॥ मज्झिमिएणं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ? गोयमा अत्यंगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतंकरेइ, तच्चंपुण भवग्गहणं णाइक्कमइ ॥ मज्झिमियंणं भंते ! दसणाराहणं आराहेत्ता एवं चेर हे उस को उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य चारित्र आराधना होती है और जिस को उत्कृष्ट चारित्र आराधना है उस को निश्चय ही उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है. अहो भगवन् ! उत्कृष्ट ज्ञान आराधनावाला कितने भव में सीझे बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? अहो गौतम ! कितनेक उसी भव में सीझे कितनेक दूसरे भव में सीझे यावत् अंतकरे और कितनेक कल्प में अथवा कल्पातीत में उत्पन्न होवे. अहो १ गवन् ! उत्कृष्ट दर्शन आराधना वाला कितने भव में सीझे ! अहो गौतम ! उत्कृष्ट ज्ञान आराधना जैसे कहना. अहो भगवन् ! उत्कृष्ट चारित्र आराधना वाला कितने भव में सीझे यावत् अंत करे ? अहो गौतम ! * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र.28 भावार्थ मज्झिमियं चरित्ताराहणंपि ॥ जहाण्णयंणं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ? गोयमा ! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणणं सिझइ जाव अंत करेइ, सत्तट्ट भवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ ॥ एवं दसणाराहणंपि, एवं चरित्ताराहणंपि ॥ ४ ॥ कइबिहेणं भंते ! पोग्गल परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा । पंचविहे पोग्गल परिणामे पण्णत्ते, तंजहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे संटाण परिणामे ॥ वण्णपरिणामेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! क अनुसार जानना. परंतु यह आराधना वाला कल्पातीत में ही उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! मध्यमई ज्ञान आराधना वाला कितने भव में सीझे? अहो गौतम ! मध्यम ज्ञान आराधना काठा दूसरे भव में सी यावत् अंत करे परंतु तीसरा भव को अतिक्रमे नहीं. एस ही मध्यम दर्शन आराधना व मध्यम चारित्र आराधना का जानना. अहो भगवन् ! जघन्य ज्ञान आराधना वाला कितने भव में सीझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? अहो गौतम ! कितनेक तीसरे भव में सीझे यावत् अंत करे परंतु सात आठ भव अति-800 क्रो नहीं ऐसे ही दर्शन आराधना व चारित्र आराधना का जानना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! कितने प्रकार का पुद्गल परिणाम कहा ? अहो गौतम ! पांच प्रकार का पुदल परिणाम कहा १ वर्ण परिणाम, २ गंध परिणाम, ३ रस परिणाम, ४ स्पर्श परिणाम, ५ संस्थान परिणाम. अहो भगवन् ! 24. आठवा शतक का दशवा उद्देशा. 2000 Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२२१ AN 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा काल वण्णपरिणामे जाव सुकिल्ल वण्णपरिणामे ॥ एवं एएणं अभिलावणं गंधपरिणामे दुविहे, रस परिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अट्टविहे, संठाण परिणामेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे तंजहा परिमंडल संठाण परिणामे, जाव आयय संठाण परिणाम॥५१ एगे भंते! पोग्गलात्थकायप्पएसे किं दव्वं, दव्वदेसं, दवाई. दव्वदेसा उदाह दव्वंच दव्वदेसेय उदाह दव्वंच दव्यदेसाय उदाहु दव्वाइंच दव्वदेसेय, उदाहु दव्वाइंच दबदसाय ? गोयमा ! सिय दव्वं सिय दव्वदेसे नो दव्वाइं नो दव्वदेसा नो दव्वंच दबदेसेय नो दव्वंच दबदेसाय नो दबाई च दव्वदेसेय नो दवाई च दव्व देसाय ॥ दो भंते ! पोग्गलात्थकायप्पएसा किं दव्वं परिणाम के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! वर्ण परिणाम के पांच भेद कहे हैं. कृष्ण वर्ण परिणाम यावत् शुक्ल वर्ण परिणाम. ऐसे ही सुरभिगंध व दुरभिगंध ऐसे दो भेद गंध परिणाम के, तिक्तादि पांच भेद रस परिणाम के, लघु आदि आठ भेद स्पर्श परिणाम के, और परिमंडलादि पांच भेद संस्थान णाम के जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! एक पुद्गल प्रदेश को क्या द्रव्य कहना, द्रव्य देश कहना, बहुत द्रव्यों कहना, अथवा बहुत द्रव्य के देशों कहना, अथवा द्रव्य और द्रव्य का देश कहना, एक द्रव्य बहुत द्रव्यों का देशों कहना, बहुत द्रव्य व एक द्रव्य का देश कहना, अथवा बहुत द्रव्य व बहुत द्रव्य के प्रकाशक-रामाहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ wwwimmmmmmmmm Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२२३ । दव्वदेसे पुच्छा ? गायमा ! सियदव्वं, सियदव्वदेसे, सियदव्वाइ सिय दबदेसा, ! सिय दव्वंच दव्वदेसेय, नो दव्वंच दबदेसाय, सेसा पडिसेहेयव्वा, ॥ तिण्ण भंते ! पोग्गलत्थि कायप्पएसा किं दव्वं दब्वदेसे, पुच्छा ? गोयमा ! सियदव्, सियदव्वदेसे एवं सत्तभंगा भाणियव्वा जाव सियदव्वाइंच. दव्वदेसय · नो दव्वाइंच दव्वदेसाय भावार्थ देशों कहना ? अहो गौतम ! पुद्गलास्तिकाय प्रदेश को कचित् द्रव्य कहना व काचित् द्रव्य देश भी कहना. परंतु शेष : भांगे नहीं कहना. क्यों कि परमाणु एक होता है वहां बहुत्व व द्विसंयोगी का अभाव होता है. अहो भगवन् ! पुद्गलास्ति काय दो प्रदेशी की उक्त आठ भांगे से पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! देश स्कंधरूप परिणमने से क्वचित् द्रव्य, क्वचित् द्रव्य देश ( वे दोनों अणु स्कंध भाव को प्राप्त हावे और द्रव्यान्तार को उपगत होवे तब वह द्रव्य देश)३ क्वचित् द्रव्यों भी हैं जब दोनों परमा भिन्न २ रहे, ४ क्वचित् द्रव्य देशों ( जब वे दो अणु स्कंधको प्राप्त नहीं हुए द्रव्यांतर से संबंध को उपगत हुए तब ५ द्रव्य और द्रव्य देश हैं (जब उन में से एक मात्र द्रव्यपने रहा और दूसरा द्रव्यांनर की माथ) इसंबंधी हुआ तब द्रव्य और द्रव्य देश कहना ) यों दो प्रदेशी में पांच विकल्प पाते हैं शेष तीन विकल्प ॐका निषेध करना. अहो भगवन् ! पुद्गलास्ति काय के तीन प्रदेश क्या द्रव्य है यावत् आठों प्रश्न कहना? अहो गौतम ! जब तीनों प्रदेश स्कंध पने परिणमे तव द्रव्य है २ जब त्रिप्रदेशात्मक स्कंधपने परिणमा - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48 आठवां शतक का दशवा उद्देशा Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२४ • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला भावार्थ 403 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + चत्तारि भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा कि दव्वं पुच्छा ? गोयमा ! सियदल्वं सिय. दव्वदेसे अट्ठवि भंगा भाणियन्वा, जाव सियदव्वाइंच दव्व देसाय जहा चत्तारि भणिया, एवं पंच छ सत्त जाव संखेजा असंखजा ॥ अणंता भंते ! । हुआ द्रव्यांतर संबंध उपगत होवे तब द्रव्य देश है ३ जैव तीनों पृथक होकर रहे अथवा एक अणु अग दो प्रदेशात्मक स्कंध अलग ऐसे रहे तब द्रव्यों है, जर तीनों ही स्कंधपने को अनागत अथवा दो द्वयण भून एकका केवलद्रव्यांतर की साथ संबंध तब द्रव्य देशों है २ नव दो परमाणु द्वयणुकपने परिणमे और एक द्रव्यांतर साथ संबंधी अथवा एक केवलही रहा अथवा दोनों द्रव्यपने परिणमे द्रव्यांतर साथ संबंधी होवे तब द्रव्य और द्रव्य देश है ६ जब एक द्रव्यरहा और दोनों द्रव्य साथ संबंधी हुए तब द्रव्य देशों हैं ७ जब वे दोनों द्रव्यका भा कर रहे एक द्रव्यांतर साथ संबंध कर रहा तब द्रव्यों द्रव्यदेश कहना यो तीन प्रदेशी परमाणु में सात विकला होते हैं और आठवा विकल्प नहीं पाता है. अहो भगवन् ! चार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों क्या द्रव्य हैं वगैरह आठों प्रश्न करना. अहो गौतम ! चारों प्रदेशों में चार होने से दो दो अलग होकर दोनों तरफ बहुवचन मीलने से आठों ही विकल्प पाते हैं जिन में सात विकल्प जैसे तीन परमाणु के कहे वैसेही होते हैं और आठवा दोका एक स्कंध और दो दूमरास्कंध होनेसो बहुत द्रव्य बहुत प्रदेशों होते हैं जैसे चार प्रदेशों में आठ विकल्प कहे वैसे ही पांच छ सात Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२५ पोग्गलात्थिकायप्पएसा किं दन्वं एवंचेव जाव सियदव्वाइं च दन्वदेसाय॥६॥केवइयाणं भंते ! लोयागासप्पएसा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा लोयागासप्पएसा पण्णत्ता ॥ एग मेगस्सणं भंते ! जीवरस केवइया जीव प्पएसा पण्णता ? गोयमा ! जावइया लोया गासप्पएसा एगमंगस्सणं जीवस्स एवइया जीवप्पएप्ता प० ॥७॥ कहाविहाणं भंते ! कम्म पगडीओप.?गोयमा!अट्रकम्म पगडीओप.तं नाणावरणिजं जाव अंतराइया नेरइयाणं ब भंते ! कइ कम्म पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ट ॥ एवं सव्व जीवाणं अटकम्म पगडीओ ठावेयवाओ जाववेमाणियाणं॥८॥नाणावरणिजस्सणं भंते! कम्मरस केवइया भावार्थ यावत् संख्यात असंख्यात व अनंत प्रदेश में आठ विकल्प कहना ॥ ॥ प्रदेश लोकाकाश अवगाही होने से लोकाकाश का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! लोकाकाश के कितने प्रदेश कहे हैं ? अहो गौतम !! असंख्यात प्रदेशात्मक लोक होने से लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश कहे हैं. अहो भगवन् ! जीव के कितने प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! लोकाकाश जितने जीव के प्रदेश हैं क्योंकि जब केवली समुदात होती है तब एक जीव के प्रदेश समस्त लोकव्यापी होते हैं ॥ ७॥ जीव के प्रदेश कर्म प्रकृति युक्त है। कर्म का प्रश्न का - ! कर्म प्रकृतियों कितनी कही ? अहो गौतम ! कर्म की। ॐ आठ प्रकृतियों कही. ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय. अहो भगवन् ! नारकी को कितनी कर्म प्रकृतियों हैं? *अहो गौतम ! नारकी को आठ कर्म प्रकृतियों हैं. ऐसे ही सब जीवों को आठ कर्म प्रकृतियों कही हैं ॥८॥१॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 2348337 आठया शतकका दशत्रा उद्देशा w Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अविभागपलिच्छेदा प० ? गोयमा ! अणता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ॥ नेरइ याणं भंते ! नाणावरणिजस्स कम्मरस केवइया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ॥ एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं पुच्छा गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवंसव्व जीराणं एवं जहा नाणावर - णिजस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्ठण्हवि कम्मपगडीणं भाणियव्वा जाव माणियाणं अंतराइयस्स ॥ ९ ॥ एगभेगस्सणं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवप्पए से नाणावर णिज्जस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभाग पलिच्छेदेहिं आवेदिय परिवेढिए ? अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेद है ? अहो गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद है. अहो भगवन् ! नारकी को ज्ञानावरणीय कर्म का कितना अविभाग परिच्छेद कहे ? अहो गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद कहे. ऐसे ही वैमानिक तक चौविस ही दंडक को ज्ञानावरणीय के अनंत अविभाग परिच्छेद कहे हैं. जैसे ज्ञानावरणीय का कहा वैसे ही आठों कर्म प्रकृतियों का चौवीस ही दंडक आश्री अनंत अविभाग परिच्छेद जानना || ९ || अहो भगवन् ! एक २ जीव के एक प्रदेश को ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदोंने ढका है विशेष ढका है ? अ गौतम ! क्वचित् ढका हुवा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 गोयमा ! सिय आवढियपरिवेढिए सिय णोआवेढिय परिवेढिए ॥जइ आवेढियपरिवेढिए नियमा अणतेहिं ॥ एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवप्पएसे नाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय परिवढिए ? गोयमा ? नियम अणतेहिं, जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स, णवरं मणूसस्स जहा जीवस्स ॥ एगमेगस्सणं भंते ! जीवस्स एगोंगे जीवप्पएसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्म. स्स केवइएहिं एवं जहेव नाणावरणिजस्स, तहेव दंडगो भाणियन्वो जाव वेमाणियस्स एवं जाव अंतराइयस्स भाणियव्वं नवरं वेयणिजस्स आउयस्स, नामस्स, गोयस्स, भावार्थ भी है विशेष ढका हुवा भी है और क्वचित् नहीं ढका हुवा, विशेष ढका हुवा है. जब ढका हुवा है या विशेष ढका हुवा है तब निश्चय ही एक २ जीव का एक २ प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अनंत अविभाग परिच्छेदों से ढका हुवा है. अहो भगवन् ! एक २ नारकी के एक २ जीव प्रदेश कितने अविभाग परिइच्छेद से ढका हुवा है ? अहो गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद से ढका हुवा है. जैसे नारकी का कहा 3. वैसे ही, मनुष्य छोडकर वैमानिक तक जानना. मनुष्य का समुच्चय जीव जैसे कहना. जैसे ज्ञानावरणीय के अविभाग परिच्छेद से जीव का एक प्रदेश को ढकने का कहा वैसे ही दर्शनावरणीय यावत् अंतराय पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 42843 आठवा शतकका दशवा उद्देशा848 498 Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोयमा एएस चउण्हवि कम्माणं मणू सरस जहा नेरइयस्स तहा भाणियां से संतंचेव ॥ १० ॥ जस्सणं भंते! नाणावरणिजं, तस्स दंसणावरणिजं, जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावर - णिजं ? गोयमा जस्स नाणावरणिजं तस्स दंसणावणिज्जं नियमं अत्थि, जस्स दंसणावरणिजंतरसवि नाणावणिजं नियमं अस्थि ॥ जस्तणं भंते! नाणावरणिजं तस्स वेयणिज्जं जस्स वेणिज्जं तस्स नाणावरणिजं ? गोयमा जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिजं नियमं अस्थि, जस्स पुणत्रेयणिजं तस्ल नाणावरणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि ॥ जस्स पुण भंते ! तक जानना. परंतु वेदनीय. आयुष्य, नाम व गौत्र इन चार कर्मों का मनुष्य आश्री नारकी जैसे जानना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जिम को ज्ञानावरणीय है उस को क्या दर्शनावरणीय है और जिस को दर्शनावरणीय है उस को क्या ज्ञानावरणीय है ? अहो गौतम ! जिस को ज्ञानावरणीय होता है उस को दर्शनावरणीय अवश्य होता है ओर जिस को दर्शनावरणीय होता है उस को ज्ञानावरणीय अवश्य ही होता अहां भगवन् ! जिस को ज्ञानावरणीय है उत को क्या वेदनीय है अथवा जिस को वंदनीय है उस को क्या ज्ञानावरणीय है ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीयवाले को वेदनीय कर्म निश्चय होता है परंतु वेदनीय कर्मवाले को ज्ञानावरणीय होता भी है और नहीं भी होता है केवल आश्री. अहो भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीयवाले को मोहनीय व मोहनीयवाले को ज्ञानावरणीय होता है ? अहो गौतम ! ज्ञाना * प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी सादी १२२८ Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्त (भगत नाणावरणिजं तस्स मोहणिज्जं जरस मोहणिज्जं तस्स नाणावर णिज्जं ? गोयमा ! जस्स नाणावणिजं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तरस नाणावरणिजं नियमं अस्थि ॥ जस्सणं भंते ! नाणावरणिजं तस्स आउयं एवं जहा वेयणिजेण समं भणियं तहा आउएणवि समं भाणियव्वं ॥ एवं नामेणवि एवं गोएणवि समं, अंतराइएणं जहा दंसणावरणिजेण समं तहेव नियमं परोप्परं भाणियव्वाणि ॥ ११ ॥ जस्सणं भंते ! दंसणावरणिजं तस्स वेयणिजं, जस्स वेयणिज्जं तस्स दंसणावरणिजं ? जहा नाणावर णिज्जं उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहिं समं भणियं, तहा दंसणावरणिजंवि वरणीयवाले को मोहनीय होता भी है और नहीं भी होता है क्यों कि बारहवे गुणस्थान में प्रथम समय में मोहनीय का क्षय करता है और छेले समय में ज्ञानावरणीय का क्षय करता है. ओर मोहनीय कर्मवाले { को ज्ञानावरणीय अवश्य ही होता है. ज्ञानावरणीयवालेको आयुष्य व आयुष्यवालेको ज्ञानावरणीय वेदनीय जैसे जानना. ऐसे ही नाम व गोत्र का जानना, और अंतराय कर्म का दर्शनावरणीय कर्म जैसे कहना. अर्थात् दोनों परस्पर अवश्य होते हैं ॥। ११ ॥ अहो भगवन् ! जिस को दर्शनावरणीय उस को क्या ( वेदनीय और जिस को वेदनीय उस को क्या दर्शनावरणीय होता है ! अहो गौतम ! * आठवा शतकका दशचा उद्देशा १२२९. Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी उवरिमेहिं छहिं कम्मेहिं समं भाणियव्वं, जाव अंतराइएणं ॥ १२ ॥ जस्सणं भंते ! वेणिज्जं तस्स मोहणिज्जं, जस्स मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं ? गोयमा ! जस्स वेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थिसिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिजं नियमं अत्थि ॥ जस्सणं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं, एवं एयाणि परोप्परं नियमं जहा आउएण समं, एवं नामणवि, गोएणवि समं भाणियव्वं ॥ जस्सणं भंते ! वेयणिज्ज तस्स अंतराइयं, पुच्छा ? गोयमा ! जस्स वेयणिनं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्थि जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेयणिज्जं नियमं अस्थि ॥ १३ ॥ जस्सणं भंते ! मोह * प्रगाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * जैसे ज्ञानावरणीय की साथ सात कर्मों का कहा वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म की साथ छ कर्मों का जानना || १२ || अहो भगवन् ! जिस को वेदनीय है उस को क्या मोहनीय कर्म है और जिस को मोहनीय है उस को क्या वेदनीय कर्म है ? अहां गौतम ! वेदनीय कर्मवाले को मोहनीय कर्म काचित् { होता है और काचित् नहीं होता है केवली अश्री और मोहनीय कर्मवाले को वेदनीय कर्म अवश्य होता ई है. अहो भगवन् ! वेदनीयवाले को आयुष्य व आयुष्यवाले को वंदनीय होता है ! अहां गौतम ! दोनों की परस्पर नियमा है. ऐसे ही नाम व गांव की साथ कहना. अहो भगवन् ! वेदनीय कर्मवाले की अंतराय १२३० Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PLE १२३१ भावाथ 48 पंचमांग विशाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र १ णिज्जं तस्स आउयं, जस्स आउयं तस्स मोहणिजं ? गोयमा ! जस्स मोहणिजं तस्स आउयं नियमं अत्थि, जरस आउयं तस्ल मोहणिजं सिय अस्थि सिय नत्थि ॥ एवं नामंगोयं अंतराइयंच भाणियब्वं ॥१४॥ जस्स पुण भंते आउयं तस्स नाम पुच्छा ? गोयमा ! दोवि परोप्परं नियम, एवं गोत्तेणवि समं भाणियव्वं ॥ जरसणं भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं पुच्छा ? गोयमा जस्स आउयं तस्स अंतराइयं लिय अत्थि सिय नत्थि; जरस पुण अंतराइयं तस्स आउयं नियमं अत्थि ॥ १५ ॥ जस्सणं भंते ! नामं तस्स व अंतरायवाले को वेदनीय होता है ? अहो गौतम ! वेदनीयवालेको अंतराय क्वचित् होता है और क्वचित नहीं भी होता है. और अंतरायवाले को वेदनीय अवश्य होता है ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! मोहनीयवाले को आयुष्य व आयुष्यवाले को मोहनीय क्या होता है ? अहो गौतम ! मोहनीयवाले को आयुष्य अवश्य होता है और आयुष्यवाले को मोहनीय क्वचित् होता है और क्वचित् नहीं भी होता ऐसे हो नाम, गोत्र व अंतराय का जानना ॥१४॥ अहो भगवन् ! आयुष्य कर्मवालेको नाम कर्म व नाम कर्मवाले को आयुष्य कर्म क्या होता है ? अहो गोतम ! दोनों परस्पर सहचारी होने से अवश्य होते हैं ऐसे ही जानना. और आयष्य कर्मवाले को अंतराय क्वचित होता है और बारहवे गुणस्थान पर क्षय होता है है तब आयुष्य कर्मवाले को नहीं भी होता है. परंतु अंतराय कर्म की साथ आयुष्प कर्म अवश्य रहता है । 2022 आठवा शतकका दशवा उद्देशा84980 Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुनि श्री अमालक त्रपिजी - गोयं, जस्स गोयं तस्स नाम ? गोयमा ! जस्स नामं तस्स नियमा गोयं, जस्स गोयं तस्स नियमा नामं ॥ जस्सणं भंते ! नामं तस्स अंतराइयं पुच्छा ? गोयमा ! जस्स नाम तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नाम नियमं अत्थि ॥ १६ ॥ जस्सणं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं पुच्छा ? गोयमा ! जस्स गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमअत्थि ॥ १७ ॥ जीवणं भंते ! पोग्गली पोग्गले? गोयमा! जीवे पोग्गलीवि, पोग्ग लेवि सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीथे पोग्गलीवि पोग्गलेवि ? गोयमा ! से जहा ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! नाम कर्मवाले को गोत्र कर्म और गोत्र कर्म वाले को क्या नाम कर्म होता है ? अहो गौतम ! दोनों परस्पर अवश्य होते क्वचित् नहीं भी होता है परंतु अंतराय कर्म वाले की साथ नाम कर्म अवश्य रहता है. ॥ १६ ॥ अहो ! जिस को गोत्र कर्म होता है उस को क्या अंतराय कर्म होता है अथवा जिस को अंतराय कर्म : उस को क्या गोत्र कर्म होता है ? अहो गौतम ! गोत्र कर्म वाले को अंतराय कर्म क्वचित । और काचित् नहीं भी होता है और अंतराय का वाले को गोत्र कर्म अवश्य रहता है. ॥ प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( भगवती ) सूत्र नामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी, एवामेव गोयमा ! जीवेवि सोइंदिय चक्विंदिय घाणिदिय जिभिदिय फासिंदियाई पडुच्च पोग्गली । जीवं पडुच्च पोग्गले ॥ से तेण?णं गोयमा । एवं वुच्चइ जीवे पोग्गलीवि. पोग्गलेवि ॥ नेरइएणं भंते ! किं पोग्गली. पोग्गले ? एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, नवरं जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ भाणियव्वाइं॥ सिद्धेणं भंने! किं पोग्गली पोग्गले? 408420 आठवा शतक का दशमा उद्देशा भावार्थ कर्म पुद्गल रूप होने से पुद्गल आश्री प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव पुद्गली या पुद्गल है ? अहो गौतम ! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है. अहो भगवन् ! किम कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जैसे छत्र का धारन करने वाला छत्री कहाता है, दंड का धारन करने वाला दंडी कहता है, घडे को धारण करने वाला घडी कहाता है. पटी से युक्त पटी कहा जाता है, कर को धारन करने वाला करी कडाना है वैने ही जीव श्रोत्र, घ्राण, रसना, व स्पर्शेन्द्रिय रूप पुद्गल को धारन करने वाला होने से पुद्गली कहाता है, और जीव आश्री पुद्गल कहाजाता है. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा 3 कहा गया है. अहो भगवन् ! नारकी पुद्गली कहाने हैं या पुद्गल कहाते हैं ? अहो गौतम ! उक्त कथना नुसार वैमानिक तक जानना. परंतु जिन मे जितनी इन्द्रियों होवे उतनी ग्रहण करना. अहो भगवन् ! क्या Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३४ गोयमा ! नो पोग्गली पोग्गले । से केगटेणं ? गोयमा ! जीवं पडुच्च से तेण टेणं एवं वुच्चइ सिद्धे णो पोग्गली पोग्गले ॥ सेवं भंते ! भंते ! त्ति ॥ है इति दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १०॥ सम्मत्तं अट्ठमं सयं ॥ ८ ॥ + सिद्ध पुद्गली है या पुद्गल है ? अहो गौतम ! सिद्ध पुद्गली नहीं है परंतु पुद्गल है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐमा कहा गया है ? अहो गौतम ! जीव प्रत्यायक ऐना कहा गया है कि जीव पुद्गली नहीं है" परंतु पुद्गल है. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह आठवा शतक का दशवा उदेशा पूर्ण हुआ। ८॥१०॥ आया शतक समाप्त हुआ॥ ८॥ भावार्थ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी वालाप्रसादजी * Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द ॥ नवम शतकम् ॥ * जं. जम्बूद्रीप जो० ज्योतिषी अं० अंतरद्वीप अ० अश्रुत गं० गांगेय कुं० कुंडग्राम प० पुरुष न०१, नववा शतक में चो० चौतीस ॥१॥ ते. उस काल ते. उस सपय में मि०मिथिला न० नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त म० माणिभद्र चे० चैत्य व० वर्णन युक्त सा• स्वामी म० पधारे ५० परिषदा नि० पीछीगइ 4 जंबूद्दीवे, जोइस, अंतरदीवे, असोच्च, गंगेय, कुंडग्गामे, पुरिसे नवमंमि सयंमि चोत्तीसा ॥ १ ॥ तेणं कालणं, तेणं समएणं मिहिला नाभं नयरी होत्था वन्नओ, माणिभद्दे चेइए वन्नओ, सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव भगवं गोयमे पज्जु आठवे शतक में सिद्ध भगवंतों को निष्पुद्गली कहें और पुद्गल पिण्डमय यह जगत है, जिम का मध्य स्थान जम्बूदीप है, इसलिये जम्बूद्वीप का कथन नववे शतक के प्रारंभ में करते हैं. इस नववे शतक के सब कर ३४ उद्देशे कहे हैं. १ प्रथम उद्देशे में जम्बूद्वीप का कथन किया है, २ दूसरे में ज्योतिषियों का कथन, ३ तीसरे उद्दशे से तीसवे उद्देशे तक दक्षिण दिशा के २८ अंतरद्वीप, का ३१ एकतीसवे में अमोच्चा केवलिका३२ बतीसवा गांगेय अनगार का३३ तेत्तीसवेमें ब्राह्मण कुंडग्राम नगरका वर्णन, और चौत्तीसवे में ० पुरुष की घात के विषय में यह चौतीस उद्देशे नववे शतक में कहे हैं. उन में से प्रथम उदेशा का स्वरूप कहते हैं. उस काल उस समय में मिथिला नायक नगरी थी. उस का वर्णन उववाद सूत्र से जानना. वहां माणिभद्र चैत्य था. उस में श्री महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को आइ और धर्मोपदेश सुन भावार्थ 4248 पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) नववा शतकका महिला उद्देशान280 Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. +मा० यावत् भ० भगवन्त गो. गौतम ५० पूजते ए. ऐसा व० बोले क. कहां ज० जंबूद्वीप किं० किस * सं० संठान वाला भ० भगवन् ज० जंबूद्रीप ए. ऐसे जं. जंबूद्वीप ५० पनति भा० कहना जा० यावत् । ए. ऐसे स० पूर्वापर सहित जं० जंबूद्वीप में चो चौदह स० नदियों स० लाख छ० छप्पन स. सहस्र भाग - वासमाणे एवं वयासी कहिणं जंबूद्दीवे दीवे, किं संठिएणं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे? एवं जबूद्दीव पन्नत्ती भाणियब्वा, जाव एवामेव सपुत्वावरेणं, जबूद्दीवे दीवे चोदस सलिला सयसहस्सा लप्पन्नंच सहस्सा भवंतीति अक्खायं सेवं भंते ! भंतेत्ति। कर पीछीगई यावत् भगवंत गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुवे ऐसा पूछने लगे कि अहो भगवन् ! जम्बदीप कहां और इन का आकार कैसा है ? ओ गौतम ! जम्बूद्वीप सब द्वीपों में आभ्यंतर व सबसे छोटा एक लक्ष योजन का लम्बा चौडा चंद्रमा ममान गोलाकार यावन् १४५६००० नदियों इस में रही हुई हैं. गंगा, सिंधु. रक्ता व रक्तवती ये चार चौदह २ हनार के परिवार से हैं. रोहिता, रोहितांसा, सुवर्ण कुला और रूप्यकुला यह चार नदियों अठाइस २ हजार के परिवार से है हरिकांता, नरकांता नारीकांता ये चार नदियों५६ हजार २ नदियों के परिवार से हैं, और सीता से नदियों ५३२००० नदियों के परिवार स हैं यों सब मालकर १४५६००. नदियों जम्बूद्वीप में हैं. इस का विस्तार पूर्वक कथन जम्बूदीप प्रज्ञप्ति में से जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह * प्रकाशक-राजांचहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * mmmmmmmmmm Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३७ शब्दार्थ 14 होती हैं इ० इति अ० कडा से• वह ए. ऐसे भं० भगवन् ॥ ९॥ १॥ .. . ०, रा. राजगृह जा. यावत् ए. ऐना व० बोले जं. जंबूद्वीप में भं० भगवन् के० कितने चं० चंद्र ५० प्रकाशे प० प्रकाशते हैं प० प्रकाशेंगे ए० ऐमे ज० जैसे जी• जीवाभिगम में जा• यावत् न० नव सशत इति नवमसए पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ १॥ * * रायगिहे जाव एवं वयासी जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे केवइया चंदा पभासिंसुवा पभासंति वा पभासिस्संतिवा, एवं जहा जीवाभिगमे जाव नवय सया पन्नासा तारागणकोडि tag पंचभाग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 +4.0 नवना शतकका दूसरा भावार्थ नववा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुआ ॥२॥२॥ - - - -- । प्रथम उद्देशे में जम्बूद्वीप की वक्तव्यता कही. उस में ज्योतिषी प्रकाश करते हैं इस से ज्योतिषी का कथन करते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रयण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे है यावत् भगवान गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुवे प्रश्न पुछने लगे कि अहो भगवन् ! इस जम्बूद्वीप में ही कितने चंद्रने प्रकाश किया कितने चंद्र प्रकाश करते हैं, और कितने प्रकाश करेंगे ? अहो गौतम १०० 3. जम्बूद्वीप में दो चंद्रने गतकाल में प्रकाश किया, वर्तमान में करते हैं और अनागत में करेंगे वैसे ही दो सूर्य तपे, वर्तमान में तपते हैं और आगे तपेंगे. १७६ ग्रह चार चले, चलते हैं व चलेंगे, एक लाख से तीस द्देश 84.88 Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ । 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प० पच्चास ता० तारागण को० क्रोडा कांडी सो० प्रकाशें सो० प्रकाशते हैं सो० प्रकाशेंगे ॥ १ ॥ ० लवण समुद्र में भं० भगवन् के कितने चं० चंद्र पर प्रकारों ए० ऐसे ज० जैसे जी० जीवाभिगममें जा० यावत् ता० तारा ॥ २ ॥ धा० धातकीखंड में का० कालोदधि में पु० पुष्करवर में अ० आभ्यंतर पु० पु० पुष्करार्ध में म० मनुष्य क्षेत्र में ए० इन स० सर्व में ज० जैसे जी० जीवाभिगम में जा० यावत् ए० एक स० चंद्र परिवार ता० तारागण को ० क्रोडाक्रोडी ॥ ३ ॥ पु० पुष्करार्ध में भ० भगवन् कोडीणं सोभिसु सोभिति सोभिस्संति ॥ ॥ लवणं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा भासिसुवा ३ एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ ॥ २ ॥ धायइखंडे, कालो, पुक्खरवरे, अब्भितरपुक्खरद्धे मणुस्सखेत्ते एएमु सव्वेसु जहा जीवाभिगमे जाव एससी परिवारो तारागण कोडि कोडिणं ॥ ३ ॥ पुक्खरणं भंते ! समुद्दे के हजार नवसो पचास क्रोडा क्रोड तारे गव काल में शोभे, वर्तमान में शोभते हैं और अनागत में शोभेगे. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! लवण समुद्र में कितने चंद्रने प्रकाश किया, प्रकाशते हैं यावत् प्रकाशेंगे ? अहो गौतम ! चार चंद्रने गत काल में प्रकाश किया, वर्तमान में करते हैं और अनागत में करेंगे. चार सूर्य तपे, तपते हैं व तयेंगे. इन का परिवार उपर से दुगुना यहां लेना ॥ २ ॥ धातकी खंड में बारह चंद्रमाने (प्रकाश किया, करते हैं और करेंगे. बारह सूर्य तर्फे, तपते हैं और तपेंगे. कालोदधि में ४२ चंद्रने प्रकाश * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १२३८ Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 382 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र * स० समुद्र में के कितने चं चंद्र ५० प्रकाशे एक ऐसे स० सर्व दी. द्वीप समुद्र में जो. ज्योतिषी का भा० कहना जा. यावत् स० स्वयंभू रमण समुद्र जायावत् सो०प्रकाशे से०वह ए ऐसे भं-भगवन्॥१२ रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐमा व० बोले क० कहां भं० भगान् दा० दक्षिण के ए० एक रुक वइया चंदा पभासिं गुवा ३, ॥ एवं सव्वेसु दीवसमुद्देसु जोइसियाणं भाणियव्यं जाव सयंभुरमणे जाव सोभं सोभिंसुवा ३ ॥ सेवं भंतेत्ति ॥ नवमसए बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ २ ॥ + रायगिहे जाव एवं वयासी कहिं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगूरुय मणुस्साणं, एगूरुयहीवे किया, करते हैं व करेंगे. ४२ सूर्य तपे, तपते हैं व तपेंगे. अर्ध पुष्करद्वीप में ७२ चंद्रने प्रकाश किया, करते हैं व करेंगे. ७२ सूर्य तपे, तपते हैं व तपेंगे. यों मनुष्य क्षेत्र सो अढाइद्वीप में १३२ चंद्रमाने , प्रकाश किया, करते हैं व करेंगे. १३२ सूर्य तपे, तपते हैं व तपेंगे. इन का मब परिवार अलग २ जानना. पुष्कराई समुद्र में संख्याते चंद्रमा प्रकाश करते हैं और संख्याते सूर्य तपते हैं. वगैरह ज्योतिषी का सब कथन जीवाभिगम सूत्र से जान लेना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह नववा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १ ॥२॥ . दूसरे उद्देशे में द्वीप समुद्र की वक्तव्यता कही. तीसरे उद्देशे में अन्य प्रकार के द्वीपों का वर्णन करते है। 4883 नवां शतकका ३-३० उद्देशा 84 भावार्थ 488 Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ म मनुष्य के ए०एक रुक दी द्वीप प० प्ररूपा गो मौतम जम्बूद्वीप में मं. मेरु पर्वत की दा दक्षिण में चु. चुलहिमवन्त बा० वर्षधर प० पर्वत की उ० ईशान कोन के च. चरमान्त से ल० लवण समुद्र की उ० ईशान कोन में ति तीन जो• योजनशत उ० अवगाहकर ५० तहां दा दक्षिण के ए० एकरुक मनुष्य के ए. एक रुक द्वीप ५० प्ररूपा ति तीन जो० योजन सशत आ० लंबा चौडा नमव एगुण । नाम दिवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबूद्दीवेदीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवं तस्स वासहर पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई उत्तरपुरच्छिमेणं E तिण्णि जोयण सयाइं उग्गाहित्ता एत्थणं दाहिणिलाणं एगूरुय मणुस्साणं एगूरुय दीने है नाम दीवे प० ॥ तिाण जायणसयाइं आयामविक्खंभेणं नवएगूणवन्ने जोयणसए भावार्थ .. राजग्रही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम सामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! दक्षिण दिशा के एकरुक मनुष्यों का एकरूक नामक द्वाप कहां है ? अहो गोतम ! इस जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत की दक्षिण में भरत क्षेत्र की मर्यादा करनेवाला, चुलहिमवंत नामक पर्वत है उन की ईशान कौन में से लवण समुद्र में तीनमो योजन जावे वहां दक्षिण दिशा के एक रुक मनुष्यों का एक रुक नामक द्वीप रहा हुवा है. यह नोन सो योजन का लम्बा चौडा व नवसांगुनपञ्चाम योजन की परिधि वाला है. इस द्वीप में एक पमवर वेदिका व एक वनखंड चारों तरफ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी - Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ ( पच्चास जो० योजन स० शत किं किंचित् विशेषाधिक प० परिधि प० प्ररूपी से० ए० एक प० एक एक व वनखंड से सः सर्व बाजु स० घेराया दो० दोनों का प० प्रमाण व० वर्णन युक्त ए० ऐसे ए० इस क० क्रम मे ज० जैसे जी० जीवाभिगम में जा० यावत्तः शुद्धदेत द्वीप जा० किंचिविसे साहिए परिक्खेवेणं प० ॥ सेणं एगए पउमवरवेइयाए एगेणय वणखंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते दोपहवि पमाणं वण्णओय ॥ एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जात्र सुद्धदंतं दीवं जाव देवलोग परिग्गहाणं ते मणुया ॥ प० ॥ समणारहे हुवे हैं. उस द्वीप में रहनेवाले मनुष्योंका आठ सो धनुष्य का देहमान है, पल्योपम के असंख्यातवे भाग का आयुष्य है, चतुर्थ भक्त आहार की इच्छा उत्पन्न होती है. पृथ्वीरस, फल, व पुष्प का आहार {करते हैं. पृथ्वी रस सक्कर जैसा मधुर है, वृक्षों के गृह में रहते हैं युगल युगलणी का आयुष्य जब छ मास का रहता है तत्र युगलणी को एक युगल ( पुत्र पुत्रा ) होता है. उन की ८१ दिनतक प्रतिपालना करते {हैं. उश्वासादि से मृत्यु पाकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं वगैरह एक रुक द्वीप का वर्णन जीवाभिगम सूत्र से विस्तार पूर्वक जानना || ९ || ३ || अहो भगवन् ! दक्षिण दिशा का अवभासिक द्वीप कहां है ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप के चुल हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण व पूर्व चरिमांत से लवण समुद्र तीन सो योजन अवगाह कर जाने वहां दक्षिण दिशा का अवभासिक मनुष्य का अवभासिक नामक 44 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती मृत - नवत्रा शतक का ३-३० उद्देशा १२४१. Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ शब्दार्थ 4 यावत् दे० देवलोक प० परिग्रह ते वे म० मनुष्य प. परूपे स.'आयुष्यवन्त श्रमण ए. ऐसे अ०१ अठाइस अं० अंतर द्रोप स० स्वकीय से आ०, लंबे वि० चौडे भा० कहना न० विशेष दी० द्वीप का उ० सूत्र उसो एवं अट्ठावीसवि अंतरद्दीवा. सएणं २ आयाम विक्खंभेणं भाणियन्वा नवरं दीवे २ उद्देसो ॥ एवं सब्वेवि एए अट्ठावीसं उद्देसगा ॥ सेवं भंते ! *अंतरद्वीप कहा है. इस का सब अधिकार एक रुक द्वीप जैसे कहना ॥९॥ ४॥ यों ही वैषाणिक द्वीप का कहना परंतु इनना विशेष दक्षिण पश्चिम चरिमान्त कहना ॥९॥ ५॥ उत्तर पश्चिम के चरिमांत से लांगुलिक द्वीप ॥ ९॥६॥ (यह प्रथम चौक हुवा) ऐसे ही उत्तर पूर्व के चरिमांत से लवण समुद्र में चार सो योजन अवगाह कर जावे वहां चार सो योजन का लम्बा चौडा हय कर्ण द्वीप कहा है। ॥९॥ ७॥ दक्षिण पूर्व चरिमांत से लवण समुद्र में जावे वहां चार सो योजन का गज कर्ण द्वीप ॥२८॥ दक्षिण पश्चिम चरिमांत से गो कण द्वीप ॥९॥९॥ उत्तर पश्चिम चरिमांत से शष्कुल द्वीप ॥९॥१०॥ सरा चौक हवा) ऐसे ही आदर्श मुख द्वीप ॥९॥ ११॥ मेंढ मख द्वीप ॥२॥ १२॥ अयो मुख द्वीप॥२॥१३॥ गो मुख द्वीप॥१॥२४॥ (यह तीसरा चौक हुवा) उक्त चारों लवण समुद्र में पांच सो योजन जावे तब पांच सो योजन के लम्बे चौडे आवे) अश्वमुख द्वीप ॥२॥१८॥ हस्ती मुख द्वीप ॥९॥ १६ ॥ सिंह ने रमुख द्वीप ॥ १ ॥ १७॥ व्याघ्र मुख द्वीप ॥९॥ १८ ॥ (यह चौथा चौक हुवा, लवण समुद्र में छ सा 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2. • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ उद्देशा ए. ऐसे स० सर्व अ० अठाइस उ० उद्देशा स. वह ए० ऐसे भं० भगवन् ॥१॥३०॥ -::- १ 11 रा० राजगृह में जा० यावत् ए. ऐमा व० बोले अ० अश्रुत भं० भगवन् के० केवली श्रावक के व नंतत्ति ॥ नवम सयस तीसइमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९॥ ३-३० ॥ .: रायगिहे जाव एवं बयासी असाच्चाणं भंते ! केवलिस्सवा केवलिसावगस्सवा, भावार्थ योजन जावे वहां छ सो योजन के लम्बे चौडे आवे) अश्वकर्ण द्वीप ॥९॥ १९ ॥ हस्तीकर्ण द्वीप ॥९॥ २० ॥ कर्ण द्वाप ॥ १॥ २१ ॥ कर्ण प्रावरणद्वीप ॥९॥ २२ ॥ ( यह पांचना चौक हुवा लवण से समुद्र में सात सो योजन जावे वहां सात सो योजन के लम्बे चौडे ये द्वीप रहे हुवे हैं ) उल्कामुख ॥१॥२३॥ मेघ मुख द्वीप ॥ ९॥ २४ ॥ विद्युत् मुख द्वीप ॥ ९॥ २५ ॥ विद्यु दंत द्वीप ॥ ९ ॥ २६ ॥ (यह छठा चौक हुवा. लवण समुद्र में आठमो योजन जावे वहां आठसो योजन के लम्बे चौडे उक्त द्वीपों रहे हुवे हैं) घनदंत द्वीप ॥ १ ॥ २७॥ यष्टिदंत द्वीप ॥ १ ॥ २८ ॥ गूढ दंत द्वीप ॥९॥ २१॥ और शुद्ध दंत द्वीप ॥ ९ ॥ ३० ॥ यह सातवा चौक हुवा. लवण समुद्र में नव सो योजन जावे तब नवसो योजन के लम्बे चौडे उक्त द्वीप आते हैं. इन की लम्बाइ चौडाइ छोडकर शेष वर्णन एक रुक द्वीप जैसे जानना. अहो, भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह तीसरे उद्देशे से तीसवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ ९॥ ३-३०॥-0:-* गत उद्देशों में जो व्याख्या कही उसे केवल ज्ञानी जानते हैं. केवल ज्ञानी दो प्रकार के होते हैं. विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र नववा शतक का एक तीसवा उद्देशा242 Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४४ शब्दार्थ 4 केवली प्राविका के० केवली उपासक के केवली उपासीका त तत्पाक्षिक श्रावक श्राविका त० ताक्षिक उपासक त• तत्पाक्षिक उपासीका के० केवली ५० प्ररूपा ध० धर्म ल० प्राप्त होवे स सूनने को गो० गौतम अ. अश्रत केवली जा. यावत् त. तत्पाक्षिक उपासीका अ० कितनेक के. केवली ५० प्ररूपा धई धर्म को नो० नहीं ल. प्राप्त करे स० मनने को से. वह के. कैसे भं० भगवन् ए. एसा कु. कहा जाता है अ० अश्रुत जा. यावत् नो० नहीं ल० प्राप्त करे स. सूनने को गो० गौतम ज० जिसको ना० ज्ञाना केवलिसावियाएवा,केवलिउवासगस्सवा केवलिउवासियाएवा,तप्पक्खियस्सवा,तप्पक्खिय सावगस्सवा,तप्पक्खिय सावियाएवा,तप्पक्खिय उवारूगस्सवा,तप्पक्खिय उवासियाएवा, केवलि पण्णत्तं. धम्म लभेज सवणयाए ? गोयमा ! असोचाणं केवालस्सवा जाव . तप्पक्खिय उवासियाएवा, अत्थेगइए केवाले पण्णतं धम्मं लभेज सवणयाए, अत्थे. गइए केवलि पन्नत्तं धम्म नो लभेज सवणयाए से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ, भावार्थ जिनोंने धर्म प्रतिपादक प्राकृत वचन का श्रवण किये बिना ही केवल ज्ञानकी प्राप्ति की उन्हे असोचा केव-17 कहते हैं और सुनने से केवल ज्ञानादिक की प्राप्ति हुइ उसे मोच्चाफेवली कहते हैं. इस तरह दोनों केवलीका। वर्णन इस उद्देशे में कहते हैं. राजगृह नगरके गुणशील नामक उद्यानमें श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कारकर श्रीगौतमस्वामी पूछनेलगे कि अहो भगवन्! असोचा केवली, असोचा केवली के श्रावक, अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RCH शब्दार्थ वरणीय क. कर्म का खः क्षयोपशम क० कीया भ० होवे से वह अ० अश्रुत केवली जा० यावत् त. सत्पाक्षिक उपासीकाके के. केवली १० प्ररूपा ध० धर्म को ल० प्राप्तकरे स०सूनने को जजिम को ना. ज्ञानावरणीय क. कर्म ख० क्षयोपशम नो० नहीं क. कीया भ० होवे से वह अ. अश्रुत के. केवली जा. यावत् त. तत्पाक्षिक उपासिकाके के केवली १० प्ररूपा ध० धर्म को नो० नहीं ल• प्राप्त करे स०, असोच्चाणं जाव नो लभेज सवणयाए ? गोयमा ! जस्संणं नाणावरणिजाणं कम्माणं __ खओवसमे कडे भवइ, सेणं असोचा केवलिस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलि पण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाएः जस्सणं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नोकडे भवइ सेणं असेोच्चा केवलिस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलिपन्नत्तं भावार्थ श्राविका , उपासक, उपानिका, केवली के पक्षवाले सो स्वयंबुद्ध के श्रावक, श्राविका, उपासक व उपासिका के वचन सुनकर क्या केवलि प्ररूपित धर्म सुननेकालाभ मील सकता है! अहो गौतम ! कितनेक को केवली प्ररूपित धर्म श्रवण करने का लाभ भील सकता है और कितनेक को नहीं भी मील सकता है. अहो 50 भगवन् ! किम कारन से केवली प्ररूपित धर्म कितनेक श्रवण करने हैं और कितनेक नहीं श्रवण करते हैं ? अहो गोतम ! जिनोंने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया होवे वे असोचा केवली यावत् स्वयं बद्ध * के उपासक के वचन श्राणकर धर्म श्रवण करने का लाभ प्राप्तकर सकते हैं. और जिनोंने क्षय नहीं है पंचमांग विवाह पण्णनि (भगवती) सूत्र 480 नववा शतकका एकतीसवा उद्देशा Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १२४६ अनुव दर-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सूनने को से० वह ते. इसलिये गो० गौतम ६० ऐसा बु० कहां जाता है तं० उस को जा. गावत् ०१ नहीं लंक प्राप्त करे स० सूनने को ॥ १ ॥ सरल शब्दार्थ ॥ - - धम्मं नो लभेज सवणयाए ॥ से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ, तंचेव जाव नोलभेज सवणयाए ॥ १ ॥ असोचाण भंते ! केवलिस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलं बोहिं बुझेजा ? गोयमा ! असोच्चाणं केवलिस्सवा जाव अत्धेगइए केवलं बोहिं बुझेजा, अत्थेगइए केवलं बोहि नो बुझज्जा॥ से केणटेणं भंते ! जाव नो बुझेजा ? गोयमा ! जस्सणं दरिसणावरगिजाणं कम्माणं खआवसम कडे सेणं असोचा केवलिस्सवा जाव केवलं बोहिं बुझेजा, जस्सणं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे किया होवे उनको ऐसा लाभ नहीं मील सकता है. इस कारन से अहो गौतम ! ऐमा कहा है कि कितनेक को लाभ प्राप्त होता है और कितनेक को लाभ नहीं प्राप्त होता है. ॥ १॥ अहो भगवन् ! असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिकाओं के वचन सुनकर कोई शुद्ध सम्यक्त्व अनुभवे ? अहो ग कितनेक असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिकाओं के वचन सुनकर शुद्ध सम्यक्त्व अनुभव और कितनेक अनुभवे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारन से कितनेक अनुभवे और कितनेक अनुभवे नहीं ? अहो गौतम ! ज़िनोंने दर्शनावरणीय का क्षयोपशम किया है उनको शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी पालाप्रसादी * भावार्थ Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સૂત્ર भावार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र नो कडे भवइ सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जात्र केवलं बोहिं नो बुज्झेजा ॥ सेते द्वेणं जब नो बुझेजा || २ || असोच्चाणं भंते ! केवलिस्सा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएजा ? गोयमा ! असेोच्चाणं केलिस्सा जाव उवासियाएवा अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, अत्थेगइए केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएजा, । से केणट्टेणं जाव नो पव्वज्जा ? गोयमा ! जस्सणं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओव समे कडे भवइ, सेणं असोच्चा केवलिसवा जात्र केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ और जिनोंने दर्शनावरणीय का क्षयोपशम नहीं किया है उन को शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती | है || २ || अहो भगवन् ! अमोच्चा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिकाओं के वचन सुनकर शुद्ध द्रव्य भाव से मुंडित होकर गृहस्थावास का त्यागकर के क्या साधुपना प्राप्त कर सकते हैं कितनेक साधुपना प्राप्त कर सकते हैं. और कितनेक साधुपना नहीं प्राप्तकर सकते हैं. किस कारन से कितनेक साधुपना प्राप्तकर सकते हैं और कितनेक नहीं प्राप्त कर सकते हैं ? अहो गौतम ! जिन को धर्मतिराय कर्म का क्षयोपशम हुआ होवे वे असोच्चा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपा ? अहो गौतम ! अहो भगवन नवत्रा शतक का एकनीसा उद्देशा १२४७ Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अणगारियं पचएजा, जस्सणं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जाव मुंडे भवित्ता जाव नो पव्वएजा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो पव्वएजा ॥ ३ ॥ असोच्चाणं भंते ! केवलिस्स जाव उवासियाएवा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा ? गोयमा! असोचाणं केवलिस्सवा जाव उवासि. याए अत्थेगइए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगइए नो आवसेज्जा ॥ सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नो आवसेज्जा ? गोयमा ! जस्सणं चरित्तावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ सेणं असोचा केवलिस्सवा जाव केवलं बंभचेरसिका के वचन सुनकर साधुपना प्राप्त कर सकते हैं और जिन को धर्मातराय का क्षयोपशम नहीं हुआ है वे नहीं प्राप्त कर सकते हैं. इस कारन से अहो गौतम! ऐमा कहा गया है कि कित पना प्राप्त कर सकते हैं और कितनेक नहीं प्राप्त कर सकते हैं. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! असोचा केवली यावत् स्वयं बद्ध की उपासिका के वचन सुनकर शुद्ध ब्रह्मचर्यपना पाल सकते हैं. ? अहो गौतम ! कितनेक पाल सकते हैं और कितनेक नहीं पाल सकते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम जिनोंने चारित्रावरणीय (स्त्री पुरुष व नपुंसक का वेदोदय) का क्षयोपम किया *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ । Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 वासं आवसेज्जा, जस्सणं चरित्तावरणिजाणं कम्माणं. . स्खओवसमे नोकडे. भवह. सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जाव नो आवसेजा, सेतेणटेणं जाब नो आवसेजा ॥४॥ असोचाणं भंते ! केवालस्सवा जाव केवलेणं संजमेण संजमेजा ? गोयमा ! असो. च्वाणं केवलिस्सवी जाव उवासियाएवा अत्यगइए केवलेणं संजमेणं संजमेजा,अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा।से केण?णं भंते! जाव नो संजमेजा ?गोयमा! जस्सणं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, सेणं असोच्चा केवलिस्सवा, जाब . केवलेणं संजमेणं संजमेजा,जस्सणं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमें नो कडे भवइ वार्थEहै वे असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिका के वचन सुनकर शुद्ध ब्रह्मचर्य पाल सकते हैं और जिनोंने चारित्रावरणीय का क्षयोपशम नहीं किया होवे वे शुद्ध ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकते हैं. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! असोच्चा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की श्राविका के वचन सुनकर क्या कोई शुद्ध संयम अंगीकार कर सकते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक शुद्ध संयम अंगीकार करसकते हैं और कितनेक शुद्ध संयम अंगीकार नहीं करसकते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है। अहो गौतम ! पत्ता कवरणीय (चारित्र विशेष वीर्यातराय ) का क्षयोपशम जिन को हुआ.होवे वे असोचा केवली यावत स्वयं पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र पंचमांग विवाह wwwanmawanwwwwwwwwwwwwwww नया शतकका एकतीसा उद्देशा | mmmmmar -48 Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२५० 41 अनुवाद, चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ममीनी सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जाव नो संजमेजा, सेतेणटेणं गोयमा! जाव अत्थेगइए नो संजमेजा ॥ ५ ॥ असोचाणं भंते ! केवलिस्सवा जाव उवासियाएवा केवलेणं संव. रेणं संवरेजा ? गोयमा ! असोच्चाणं केवलिस्सवा जाव अत्थेगइए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगइए केवलणं जाव नो संवरेजा ॥ सेकेणटेणं जाव नो संवरेजा ? गोयमा ! जस्सणं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ सेणं असोच्चाकेवलिस्सवा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेजा, जस्सणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओयसमे नोकडे भवइ सेणं असोच्चाकेवलिस्सवा जाब नो संवरेच्चा, से बुद्ध की उपालिका के वचन सुनकर शुद्ध संयम अंगीकार करसकते हैं और जिनोंने यत्नावरणीय का क्षयोपशम नहीं किया है वे शुद्ध संयम अंगीकार नहीं करमकते हैं. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा कहा है कि कितनेक शुद्ध भयम अंगीकार करसकते हैं और कितनेक नहीं करसकते हैं. ॥ ॥ अहोई भगवन् ! असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उअनिका के पवन सुनकर क्या कोई शुद्ध संघर पाल सकते हैं? ओगौतम! किक शटवर दमन और कितनेक नी पाल सकते हैं. भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जिन को अध्यवसायावरणीय कर्म का * पनाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 09- १२५ <१ ११ पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 380 तेण?णं जाव नो संवरेजा ॥ ६ ॥ असोचाणं भंते ! केवलिस्तवा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा ? गोयमा ! असोच्चाणं केवलिस्सवा जाव उवासियाएवा अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्याडेजा, अथेगइए केवलं आभिणि बोहियनाणं नो उप्पाडेजा ॥ सेकणटेणं जाव नो उत्पाडेज्जा ? गोयमा ! जस्सणं आभणिबोहियनाणावराणजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जाव केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्सणं आभिणियोहियनाणा वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ सेणं असोच्चाकेवलिस्सवा जाव केवलं क्षयोपशम हुवा होवे वे शुद्ध संवर पाल सकते " और जिन को नहीं हुवा होब वे नहीं पाल सकते हैं. इस से अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कितनेक शुद्ध संवर पाल सकते हैं और कितनेक नहीं पाल सकते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! असाच्चा केली यावत् स्वयं बुद्ध की उपालिका के वचन श्रवण कर क्या मति ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक कर मकते हैं और कितनेक नहीं भी कर सकते हैं. अहो भगवन् ! किन कारन से ऐना कहा गया है ? अहो गौतम ! आभिनियोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशन करनेवाले मति ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं और शयोपशम नहीं करने. नववा शतक का एकनीसवा उद्दशा भावार्थ Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेजा, सतेणट्टेणं जाव उप्पाडेजा ॥ ७ ॥ असोचाणं भंते! केवलिस्सा जाय केवलं सुयनाणं उप्पाडेजा ? एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स बत्तव्त्रया भणिया तहा सुयनाणस्सवि भाणियव्वा, नवरं सुयनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमो भाणियव्वा, एवं चेत्र केवलं ओहिनाणं भाणियव्वं, नवरं ओहिनाणावर णिजाणं खओवसमो भाणियव्वो, एवं केवलं मणपजवनाणं उप्पाडेजा, नवरं मणपजवनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमं भाणियव्वं ॥ ८ ॥ असोचाणं भंते ! केवलिस्सा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलनाणं उप्पाडेजा, एवं व वाले प्राप्ति नहीं कर सकते हैं. इस से ऐसा कहा गया है कि कितनेक मतिज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। और कितने नहीं कर सकते हैं || 9 || असोच्चा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपानिका के वचन सुनकर क्या श्रुतज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ? अहो गौतम ! जैसे मति ज्ञान का कहा वैसे ही यहां जानना. मात्र श्रुत ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम कहना. ऐसे ही अवधि ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से अवधि ज्ञान प्राप्त करे. मनःपर्यत्र ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से मनःपत्र ज्ञान प्राप्त कर सके इतनी भिन्नता निवाय शेष सब {मति ज्ञान जैसे कहना || ८ || अहो भगवन् ! असोचा केवळी यावत् स्वयंबुद्ध की उपासिका के वचन * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * १२५२ Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4082086 १२५३ पंचमान विधाह पण्णति (भगवत ) मन्त्र नवरं केवल नाणावरणिजाणं कम्माणं खए भाणियव्ये, सेसं तं चैव, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा ॥ ९॥ असोच्चाणं भंते ! केवालस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा, केवलिपन्नतं धम्म लभेज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, मुंडे भवित्ता अगाराआ अणगारियं पन्चएजा, केवलं बंभचेरंवासं आवसना, केवलेणं संजमणं संजमेंजा, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, केवलं आभिणि बोहियनाणं उप्पाडेजा जाव केवलं मणपजवनाणं उप्पाडेजा, जाव केवलनाणं उप्पाडेजा ? गोयमा ! असोचाणं केलिस्सवा जाव उवासियाएवा, अत्थेगइए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेन सवणयाए, अत्थेगइए केवलिपन्नतं धम्मं नोलभेज सवणयाए, साकर क्या केवल ज्ञान को प्राप्त कर सके ? अहो गौतम ! कितनेक केरल ज्ञानावरणीय के क्षय से केवल ज्ञान प्राप्त कर सके और कितनेक काल ज्ञानावरणीय का क्षय नहीं होने से प्राप्त नहीं कर सके ॥ १॥ अब उपर कहे हुए सब बोल समुच्चय कहते हैं. अहो भगवन् ! अमोच्चा केवली यावत् स्वयंबद्ध की उपा-100 निका के वचन सुनकर क्या केवली पणित धर्म श्रवण कर सके, शुद्ध सम्यक्त्व पाल सके, गृहवास छोड-17 कर मुंडित बन सक, गद्ध संपूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सके, शुद्ध संयम पाल सके, शद्ध संवर कर मके, मति नवा शतकका एकनीमचा उद्देशा 4.38 भावार्थ Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५४ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - आगइए केवलं बोहि बुझेजा, अत्थेन इाए केवलं बोहि नो बुज्झेजा, अत्थेगइए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पंवएज्जा, अत्थेगइए जाव नो पव्वएज्जा, अत्थेगइए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगइए केवलं जाब नो आवसेजा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा, एवं संवरेणवि । अत्यंगइए केवलं अििणबोहियनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए जाव नो उप्पाडेजा, एवं जाव मणपज्जवनाण, अत्यगइए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थंगइए कंवलनाणं नो उप्पाडेजा ॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ असोच्चाणं तंचेव जाव अत्थेगइए कवलनाणं नो उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसम नो कडं भवइ, जस्सणं दसणावरणिजाणं कम्माणं खआवसमे नो कडे की प्राप्त कर सके, श्रुत ज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यव ज्ञान व केवल ज्ञान की प्राप्ति कर सके ? अहो गौम ! असोचा केवली यावत् उपासिका के वचन श्राण कर कितनक धर्म श्रवण कर सके यावत् केवल ज्ञान की प्राप्ति कर सके और कितनेक धर्म श्रवण यावत् केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सके. अहो भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जिन को ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * भावाथा 160 Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५६ 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र भवइ, जस्सणं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नोकडे भवइ, एवं चरित्ताबर. णिजाणं, जपणावरणिजाणं, अज्झवसाणावरणिजाणं, आभिणिोहिय नाणावरणिजाणं, जाव मणपजवनाणावरणिजाणं, कम्माणं खओवसमे ना कडे भवइ, जस्सणं केवल नाणावरगिजाणं जाव खए नो कडे भवइ सेणं असोच्चा केवलिस्सवा जाव केवालपन्नतं धम्मं नो लभेज सवणयाए ॥ केवलं बोहिं नो बुझेजा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा ॥ जस्सणं नाणावरणिजाणं खओवसमे कडे भवइ, जस्सणं दरिसणा वरणिजाणं खओवसमे कडे भवइ, जस्सणं धम्मतराइयाणं एवं जाव जस्सणं केवल नाणावरणिजाणं कम्माणं खए कडे भवइ,सेणं असोचा केवलिस्सवा जाव केरलिपन्नत्तं धम्म लभेज सवणयाए,केवलं बाहिं बुज्झज्जा,केवलनाणं उप्पाडेजा।।१०॥ तस्सणं भंते! धर्मातराच, चारित्रवरणीय, यत्नावरणीय, अध्यवसायावरणीय, मति ज्ञानावरणीय, श्रुत ज्ञानावरणीय, अवधि ज्ञानावरणीय व मन:पर्यव ज्ञानगवरणीय का क्षयोपशम व केवल ज्ञानावरणीय का क्षय नहीं हुवा, होव वे अतांचा केवला के यावत् सयं बुद्ध की उपालिका के वचन श्रवण कर धर्म श्रवण यावत् केवल ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते हैं और जिन को ज्ञानावरणीय यावत् मनःपर्यव ज्ञानावरणीय का क्षयोपशमवई 980- नववा शतकका एकनीसचा उद्देशा 90% भावार्थ Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०% अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी छटुंछट्टेणं अनिखित्तणं तवो कम्मेणं उड्डे बाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आयावण भूमीए, आयावमाणस्स पगइभद्दयाए, पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोहमाण माया लोभगए, मिउमद्दवसंपन्नयाए. अल्लीणमाए, भद्दयाए, विणीययाए अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं २ अलीणयाए, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गण गवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुपज्जइ सेणं तेणं विभंगनाण समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई जाणइ पासइ, सेणं तेणं केवल ज्ञानावरणीय का क्षय हुवा है वे केवली प्रणिन धर्म यावत् केवल ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ॥१०॥ कोई बाल तपस्वी निरंतर छठ छठ के उपवास करता होवे, दिन में सूर्य की सन्मुख दोनों हाथ ऊंचे रखकर मर्य के ताप की आतापना करता हो, वह स्वभाव से भद्रिक, उप्रशांत कषायवाला, क्रोध, मान, माया व लोभ को पतला करनेवाला, कोमल स्वभावी, निरभिमानी हो, भोगोपभोग में लीन न होवे, प्रकृति का नम्र होवे, इस तरह बाह्याभ्यांतर तप करते किसी वक्त तप करते शुभ अध्यवसाय परिणामों की निर्मलता से लेश्या की विशद्धि मे विभंग ज्ञान को आवरण करनेवाले कर्मों का क्षयोपशम होवे. फीर * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५७ विभंगनाणेणं समुप्पन्ने गं जीवेवि जाणइ अजीवेवि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलस्समाणेवि जाणइ, विसुज्झमाणेवि जाणइ सेणं पुत्वामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, समणधम्म रोएइ २, चरित्तं पडिवजइ २, लिंगं पडिवजइ, ॥ तस्सणं तेहि मिच्छत्त. पज्जवेहि, परिहायमाणेहिं २, सम्मइंसण पज्जवेहि वड्डमाणहिं २, से विभंगे अन्नाणे सम्मत्त परिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ ॥ ११ ॥ सेणं भंते ! कइसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! तिस विसुद्ध लेस्सासु होजा, तं. तेउलेस्साए पम्हलेस्साए, भावार्थ अर्थ चेष्टा के ज्ञान सन्मख होकर विचार करता हुवा, धर्म ज्ञान का पक्ष रहिन निर्णय करता हुवा इस तरह से धर्मालोचना करता हुवा विभंग ज्ञान की प्राप्ति हावे. वह बाल तपस्वी उत विभंग ज्ञान में जघन्य अंगूल का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन जाने देखे. ऐसा विभंग ज्ञानी जीव व अजीव को जाने. पाखंडियों के व्रत आरंभ व परिग्रह युक्त जाने, संक्लेशमान होता हुवा जाने, अल्प विशद्धमानपा मे अल्प विशुदमान भी जाने. जब सम्यक्त भाव को प्राप्त होवे तब सम्यक्त्व प्रतिपन्न होवे सम्यक्ती बना हुवा सत्य साधु धर्म की श्रद्धना करे, साधु के चिन्ह धारन कर उस के शेष रहे हवे मिथ्यात्व के पर्याय समय २ कमी होते होवे सम्यक्त के पर्याय बढते रहे. जब वह विभंग ज्ञानी सम्यक्त्वी होता है तब 10 उस का विभंग ज्ञान अवधि ज्ञान के रूप में होता है ॥ ११ ॥ अब इन में लेश्या के बोलों का निरूपन है। पंचांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 18नामा शतका एकतीस Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५८ अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी सुक्कलेस्साए ॥ सेणं भंते ! कइसु नाणेसु होजा, गोयमा ! तिसु आभिणियोहिय । है नाण सुयनाण, ओहिनाणमु होजा, सेणं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगीहोज्जा ? गोयमा ! सजागी होजा, नो अजोगी होजा, जइ सजोगी होजा किं मणजोगी होजा, वइजोगी, कायजोगीवा होजा ? गोयमा ! मणजोगी होजा, वइजोगी होज्जा, कायजोगीवा होजा । सेणं भंते ! किं सागारोवउसे हाजा, अणागारोवउत्ते होजा ? गोयमा ! सागरोवउत्तेवा होजा, अणागारावउत्तेवा होज्जा ॥ है सेण भंत कयरमि संघयणे होजा ? गोयमा ! वइरोसभ नारायण संघयणे होजा ॥ सेणं भंते !कयरंमि संठाणे होजा? गोयमा! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होजा ॥ सेणं करते हैं. अहो भगवन् ! विभंग ज्ञानी मे अवधि ज्ञानी बनकर चारित्र अंगीकार करनेवाला कितनी लेश्यायों से संयुक्त होता है ? अहो गीतम ! तेजो, पन व शुक्ल ऐसी तीन लेश्यायों सहित हावे. अहो । भगवन् ! वह कितने ज्ञान में होवे ? अहो गौतम ! यह मति, श्रुत व अवधि ऐसे तीन ज्ञान में होवे. अहोस भगवन् ! क्या वह सयोगी हो या अयोगी होवे ? अहा गौतम ! मयोगी होव परंतु अयोगी होवे नहीं. अहो भगवन् ! यदि सयोगी होवे हो क्या मन योगी वचन योगी या काय योगी होवे ? अहो गौतम ! मतयोगी, वचन योगी व काय योगी होवे. अहो भगवन् ! क्या वह साकारोपयुक्त होवे या अनाकारोपी , प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी घालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमार्क विवाह पण्णा ( भगवती ) सूत्र भंते! कयरंमि उच्चत्ते होजा ? गो० ! जहन्नेणं सत्तरयणीए उक्कोसेणं पंचधणुसइए होज्जा | सेणं भंते ! कयरंमि आउए होजा ? गोयमा ! जहन्नणं साइरेगट्ठबासाउर उक्कोसणं पुव्त्रको डिआउए होजा ॥ ऐणं भंते ! किं सवेदए होजा, अवेदर होजा ? गोधमा ! संवेद होना, नो अवदर होज्जा ॥ जइ संवेदर होजा किं इत्थवेदएहोजा, पुरिसवेद होज्जा. पुरिसनपुंसगवेदए होजा, नपुंसंगवेदए होज्जा ? गोयमा ! नो इत्थवेदए होज्जा, पुरिसवेदएहोज्जा, नो नपुंसगवेदए हांजा, पुरिसनपुंसगवेदएवा होजा ॥ सेणं युक्त होवे ? अहो गौतम ! साकारोयुक्त व अनाकारोपयुक्त होवे. अहो भगवन् ! उस को कौनसा संघन होवे ? अहो गौतम ! उस को वज्रऋषभ नाराचसंघयन होते. अहो भगवन् ! उस को कौनसा संस्थान होवे ? अहां गौतम ! छ संस्थान में से कोई भी एक संस्थान होवे. अहो भगवन् ! उस की ऊंचाई कितनी होवे ? अहो गौतम ! जघन्य सात हाथ उत्कृष्ट पांच सो धनुष्य. अहो भगवन् ! उस का कितना आयुष्य कहां ? अहो गौतम ! जघन्य आठ वर्ष से अधिक उत्कृष्ट पूर्व कांड. अहो भगवन् ! क्या वह { सवेदी या अवेदी होता है ? अहो गौतम ! वह सवेदी होता है परंतु अवेदी नहीं होता है. यदि संबंदी होता है तो क्या स्त्री वेदी, पुरुष बंदी, पुरुष नपुंसक वेदी या नपुंसक वेदी होता है ? अहो गौतम ! पुरुष {वेदी को व पुरुष नपुंसक वेदी को होवे परंतु स्त्री वेदी व नपुंसक वेदी को होवे नहीं. अहो भगवन् ! क्या 4942 ननत्र शतक का एकतीपत्रा उद्देशा 80-8 १२५९ Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋषिजी + NAAAAnamnnow भावार्थ - भंते ! किं सकसाई होज्जा अकसाई होज्जा ? गोयमा ! सकसाई होजा; नो अकसाई होजा, जइ सकसाई होज्जा, सेणं भंते ! क्सु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु संजलण कोह माण माया लोभेसु होजा ॥ तस्सणं भंते ! केवइया अझवसाणा ५०? गोयमा ! असंखेजा अज्झवसाणा प० ॥ तेणं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा ! पसत्था नो अप्पसत्था ॥ सेणं भंते ! तेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वड्डमा हिं अणंतेहिं नेरइय भवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ अणंतेहिं तिरिक्ख जोणिय वह सकषायी होता है या अपायी होता है ? अहो गौतम ! सकषायी होता है परंतु अपायी नहीं होता है. अहो भगवन्! जब सकषायी. होता है तब कितनी कषायों में होता है ? अहो गौतम मज्वलन क्रोध, मान, माया, व लोभ में होवे. अहो भगवन् ! उस को कितने अध्यवसाय कहे हैं ? अहो गौतम ! उस को असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं. अहो भगवन् ! क्या वे प्रशस्थ हैं या अप्रशस्थ हैं ? अहो गौतम वे प्रशस्थ हैं परंतु अप्रशस्थ नहीं हैं. अहो भगवन् ! उन प्रशस्त अध्यवसायों से अनागत काल के नारकी के भव से आत्मा को अलग कर, अनंत तियेच के भव से आत्मा को अलग करे, अनंत मनुष्य के भव से अलग करे, अनंत देव भव से आत्मा को अगल करे, यों चारों गति का संधन करे, नरक सिर्यच मनुय व देवता इस नामकी चारों नाम कर्म की मूल व उत्तर प्रकृतियों और इस समान अल्प प्रकृनियों को प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादभी* 40 अनुवादक-बालब्रह्मच Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w wwwwwwwwwwwwwwwww 20- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र ९. जाव विसंजोएइ अगंतेहि मणुस्स भवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ अणंतेहिं देव भवग्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ जाओविय से इमाओ नेरइय तिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवगइ नामाओ चत्तारि उत्तरप्पगडीओ तासिं च णं उवग्गहिए अणताणुबंधी कोह,माण,माया,लोभं खवेइ २त्ता अपच्चक्खाण कसाए कोह,माण, माया, लोभे खोइ २त्ता पञ्चक्खाणावरणे कोह,माण, माया, लोभे खवेइ २ त्ता,संजलणे कोहमाण माया लोभे खवेइ २ ता पंचविहं नाणावरणिजं, नवविहं दरिसणावरणिजं, पंचविहं अंतराइयं ताल मच्छा कडं चणं मोहणिजं कटु कम्मरय विकिरणकरं अपुव्वकरणं उपष्टंभ दाता होवे, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, व लोभ, अप्रत्याख्यानी शोध, मान, माया, व लोभ प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माय व लोभ व संजलन क्रोध, मान, माया व लोभ इन. सोलह प्रकृतियों का क्षय करे वैसे ही मति ज्ञानावरणीयादि पांच, चक्षु दर्शनावरणीयादि नव, दानांतरायादि पांच, यो तीन कर्म की १९ प्रकृतियों का क्षय करे, जैसे ताड वृक्ष के मस्तक का छेदन होने से उस वृक्षका नाश होता है वैसे ही मोहनीय कर्म का नाश होने से छेदाया हुवा मस्तकवाला ताल समान मोहनीय का नाश कर कर्मरूप रजका विक्षेप करण कर के विखरने वाला होवे. ऐसा अपूर्व करण कि जो पहिले कदापि प्राप्त 30नववा शतक का एक सबा उद्देशा भावार्थ wwwwwwwwwwwwwwww Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ArmmarAANA भावार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ पविट्ठस्स अणते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पष्टिप्पुण्णे केवलवर नाण दसणे समुप्पजइ ॥ सेणं भंते ! केवलि पण्णत्तं धम्मं आघवेज वा पन्नवेजवा, परूवे. ज्जवा ? णो इण? समटे, नणत्थ एगणाएणवा, एगवागरणेणवा ॥ सेणं भंते ! पव्वा. , वेजवा, मुंडावेजवा,? णो इणट्रे समटे, उवदेसं पुण करेजा ॥ सेणं भंते! किं सिज्झइ जाव अंतकरेइ ? हंता सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ॥ सेणं भंते ! किं उड्ढे होज्जा, अहे होजा, तिरियं होजा ? गोयमा ! उ वा होज्जा, अहेवा होज्जा, तिरियंवा होजा, उड्ढे नहीं हुआ ऐमा अध्यवसाय विशष में प्रवेश करे. अनंत विषय वाला, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, संपूर्ण, अखंडित व (ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय का क्षय होने से ) प्रधान केवल ज्ञान, केवल दर्शन वह प्राप्त करे. फोर क्या वह केवलि प्ररूपित धर्म को शिष्य को सन्मुख ग्रहण करने केलिये क्या प्रकाशे, प्ररूपे, कहे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अर्थात् प्रकाशे, प्ररूपे व कहे भी नहीं. मात्र एक दृष्टांत तथाविध आचारपना के एक प्रश्नोत्तर सिवाय कुछ नहीं बोल सकते हैं. अहो भगवन्!रजोहरादि द्रव्य लिंग रखकर क्या दीक्षा देवे, शिर लोचनादि कर के मुंडित करे ? अहो गोतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. " अर्थात् किसी को दीक्षा देवे नहीं व मुण्डित करे नहीं. मात्र इतना उपदेश करे कि अमुक की पास जाकर दीक्षा ले लो. अहो भगवन् ! क्या वह सीझे, बुझ यावत् सब दुःखों का अंत करे? अहो गौतम ! वे सी प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - JD भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सत्र होजमाणे सहावइ, वियडावइ, गंधावइ, मालवंत परियाएसु वटवेयड्ड पब्बएसु होजा, साहरणं पडुच्च, सोमणसवणेवा, पंडगवणेवा होजा, अहे होजमाणे गड्डएवा दरीएवा होजा, साहरणं पडुच्च पायालेवा भवणेवा होजा, तिरियं होजमाणे पण्णरससु कम्म १२६३ भूमीसु होजा, साहरणं पडुच्च अढाइजदीव समुद्दतदेकंदेसभाए होजा ॥ तेणं भंते ! . है एगसमएणं केवइया होज्जा ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कोवा, दोवा, तिण्णिवा उक्कोसणं दस से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ असोचाणं केवलिस्सवा जाव अत्थेगइए बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे. अहो भगवन् ! क्या वे ऊर्ध में होवे अधो में होवे या तिर्यक् में होवे? अहो गौतम ! ऊर्थ, अधोव तिर्यक तीनों दिशी में होते हैं. ऊर्ध में शब्दापाति, विकटपाति, गंधाई पाति, माल्यवंत, वगैरह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अभिप्राय से हेमवंत, हरिवर्ष, रम्यक् वर्ष, एरणवय आकाश . में गमन करने की लब्धि से जाते हुवे केवल ज्ञान होवे देवता के साहरन आश्री मेरुपर्वत के सोमनस वन व पंडक वन में होवे. अधोदिशी में अधोगामिनी विजय, खड्डा पर्वत की खाई और साहरन आश्री महा पाताल कलश व भवनपति के भवन में होवे. तीछे क्षेत्र आश्री पनरह कर्म भूमि के क्षेत्र में, साहरन आश्री जम्बूद्वीप, धातकी खंड, अर्ध पुष्कर ऐसे अढाइ द्वीप, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र यों दो समुद्र इन के एक देश विभाग में होवे. भहो भमनन् ! ऐसे सिद्ध एक समय में कितने होवे ? अहो गौतम । 43438:ना शतकका एकतीसचा उद्देशा -4098 Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुर द :-बालब्रह्मवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी केवलि पण्ण तं धम् लभेज सवणयाए, अत्थेगइए केवलि जाव नो लभेज सवणयाए जाव अत्थेगइए केवलनाणं उप्पाडेजा, अत्थेगइए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ॥ ११ ॥ सोच्चाणं भंते ! केवलिस्सवा जाव तप्पक्खिय उवासियाएवा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज सवणयाए ? गोयमा ! सोच्चाणं केवलिस्रावा जाव अत्यंगइए केवलि पण्णत्तं धम्मं एवं जाचेव असोच्चाए वत्तव्वया साचेव सोच्चाएवि भाणियव्वा, नवरं अभिलावो सोच्चत्ति मेसं तंचव, हिरवसेसं जाव जस्सणं मणपजव णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्सणं केवल णाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट दश होवे. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा कहा गया है कि असोचा केवली यावत् स्वयं बुद्ध की उपासिका के वचन स्रवण कर धर्म श्रवण करने का व केवल ज्ञानकी प्राप्ति का लाभ कितनेक को होवे और कितनेक को नहीं होवे. यह अमोचा केवली की वक्तव्यता कही ॥११॥ अब सांच्चा केवली का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! सोचा केरली के यावत् उन के पक्षवाले श्रावक श्राविका, उपासिका के वचन सुनकर केवली प्ररूपित धर्म मुन सके यावत् केवल ज्ञान प्राप्त कर सके ? अहो गौतम ! जैसे असोच्चा केवली की वक्तव्यता कही वैसे ही सोच्चा कवली की कहना परंतु विशेषता है। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादनी , भावार्थ * Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६५ भवइ, सेणं सोचा केवलिस्सवा जाव उवासियाएवा, केवलि पन्नत्तं धम्मं लभेज सवणयाए केवलंबोहिं बुझजा जाव केवलणाणं उप्पाडेजा,तस्सणं अट्ठमं अट्ठमणं अणिक्खित्तेणं तवो कम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ,सेणं तेणं ओहिणाणेणं समुप्पण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भाग, उक्कोसेणं असंखेजाइं अलोए लोअप्पमाण मेत्ताई खंडाइं जाणइ पासइ ॥ सेणं भंते ! कइसु लेस्सामु होजा ? गोयमा। छसु लेस्सासु होज्जा, तंजहा-कण्हलेस्साए जाव भावार्थ यह है कि यह अष्टम भक्त तप कर्म निरंतर करते, हुए आत्मा को भावते हुए, भद्रिक प्रकृत्यादिक गुणों से युक्त साधु होते हुए सूत्र अर्थ के सन्मुख हुवा, ज्ञानचेष्टा, अमोहा, धर्म ध्यान के दूसरे पक्ष को अवलंबन करते, अबधि ज्ञान की प्राप्ति करे, उस में वह जघन्य अंगूर का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट संपूर्ण लोक व लोक जितने वडे अलोक में असंख्यात खंडवे होवे तो जाने देखे. अहो भगवन् ! यह ज्ञान कितनी लेण्या में होवे ? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या इन छही लेश्याओं में होवे. अहो भगवन् ! यह कितने ज्ञान में होवे ? अहो गौतम ! मति श्रुत व अवधि से तीन ज्ञान में अथवा मति, श्रत अवधि व मनःपर्यव ऐसे चार ज्ञान युक्त होते. अहो भगवन् ! यह सयोगी होवे या अयोगी होवे ? अहो गौतम ! 1- यह सयोगी होते परंतु अयोगी नहीं होवे. ऐसे ही अमोच्चा केवली की तरह उपयोग, संघयन,, संठाण, 44पंचमांग विवाह पप्णत्ति (भगवती मूत्र नववा शतकका एकतीसवा उद्दशा | । Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६६ 48 अनुवादव. गालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gk सुक्कलेस्साए ॥ सेणं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसुवा चउसुवा हौजा तिसु होजमाणे तिसु आभिणिबोहियणाण सुअणाण ओहिणाणेसु होज्जा, चउसु होजमाणे आभिणिबोहियणाण सुअणाण ओहिणाण मणपज्जवणाणसु होजा ॥ सेणं भंते ! किं सजोगी होज्जा अजोगी होज्जा ? एवं जोगोवओगो संघयण संठाणं उच्चत्तं आउयंच एयाणि सव्वाणि जहा असोचाए तहेव भाणियब्वाणि ॥ सेणं भंते ! किं सवेदए पुच्छा ? गोयमा ! सवेदएवा होज्जा, अवेदएवा होजा जइ अवेदए होजा किं उवसंतवेदए होजा खीणवेदए होजा? गो !नो उवसंतवेदए होजा खीणवेदए होजाजइ उच्चत्व, आयुष्य, कहना. अहो भगवन् : क्या वे सवेदी हैं या अवेदी हैं ? अहो गौतम ! सवेदी होवे अथवा अवेदी भी होवे ? यदि अवेदी होवे तो क्या उपशांत वेदी होवे या क्षीण वेदी होवे ? अहो गौतम ! उपशांत वेदी होवे नहीं परंतु क्षीण वेदी होवे. यदि सवेदी होवे नो स्त्री वेदी,पुरुष वेदी व पुरुष नपुंसक वेदी की होवे. अहो भगवन् ! क्या वे सरुषायी होवे या अकषायी होवे ? अहो गौतम ! वे सकषायी होवे और अकषायी भी होवे. यदि अकषायी तो क्षीण कषायी होने परंतु उपशांत कषायी होवे नहीं और सकषायी होवे तो एक, दो, तीन व चार पायी होवे. एक में संज्वलनका लोभ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ माया Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 सवेदए होजा किं इत्थी वेदए होज्जा पुच्छा ? गोयमा ! इत्थी वेदएवा होज्जा, पुरिसवेदएवा होजा, पुरिसणपुष्पग वेदएवा होज्जा॥सेणं भंते सकसाई होजा अकसाई होजा ? गोयमा ! सकसाई वा होज्जा अकसाई वा होजा, । जइ अकसाई १२६७ होज्जा, किं उवसंत कसाई होजा, खीणकसाई होजा ? गोयमा! णो उवसंत कसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा, जइ सकसाई होज्जा, ॥ सेणं भंते ! कइसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसुवा तिसुबा दोसुवा, एकमिवा होज्जा, चउमु होज्जमाणे चउसु संजलण कोह माण माया लोभेसु होज्जा, तिसु होज्जमाणे भावार्थ तीन में मान माया व लोभ और चार में क्रोध, मान, माया व लोभ. अहो भगवन् : इन को कितने अध्यवसाय कहे हैं ? अहो गौतम : असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं. शेष केवल ज्ञान उत्पन्न होवे वहां ब. तक असोच्चा केवली जैसे कहना. अहो भगान् ! वे क्या केवली प्रणित धर्म कहे, प्ररूपे ? डा गौतम ! १० वे केवली प्ररूपित धर्म कहे व प्ररूपे. अहो भगवन् ! क्या वे दीक्षा देवे व मुण्डित करे ? हां गौतम ! दीक्षा देवे व मुण्डित करे. अहो भगवन् ! क्या वे सीझे, बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? हां oo गौतम ! वे सीझे, बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे. अहो भगवन् ! क्या उन के शिष्य भी सीझत हैं पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4880 नववा शतक का एकतीसवा उद्देशा उद्दशा 88 Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मवारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी - तिसु संजलण माण माया लोभेसु होज्जा, दोसु होजमाणे दोसु संजलण माया लोभेसु होज्जा, एगंभि होज्जमाणे एगमि संजलण लोभे होज्जा ॥ तस्सणं भंते ! केवइया अझवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा एवं जहा असोच्चाए तहेव जाव केवल णाणं समुप्पजइ॥सेणं भंते केवलि पण्णत्तं धम्मं आघवेज्जवा,पण्णवेजवा परूवेजवा?हता गोयमा ! आघवेज्जवा, पण्णवेजवा, परवेज्जवा ॥ सेणं भंते ! पवावेज्जवा मुंडावेज्जवा ? हंता ! पवावेज्जवा, मुंडावेज्जवा ॥ सेणं भंते ! सिज्झइ बुज्झइ जाव अंतकरेइ ? हंता जाव अंतकरेइ॥ तस्सणं भंते! सिरसावि सिझंति जाव अंतकरेंति ? हंता सिझंति जाव अंतंकरेंति ॥ तम्सणं भंते ! पसिस्सावि सिझंति ? एवंचव जाव। बुझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं ? हां गौतम ! उन के शिष्यों भी सीझते हैं बुझते हैं यावत् , सब दुःखों का अंत करते हैं अहो भगवन् ! क्या उन के प्रशिष्य सीझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं ? हां गौतम ! उन के प्रशिष्यों भी सीझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं. अहो भग वन् ! क्या वे ऊर्थ में होवे, अधो में होवे व तिर्यक् में होवे ? अहो गौतम ! जैसे असोच्चा कंवली का * कहा वैसे ही जानना. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने होते हैं ? अहो गौतम : जघन्य एक, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ! सूत्र भावार्थ १०३८- पंचमाङ्ग विवाह पण्णसि ( भगवती ) सूत्र ते उस काल ते उत समय में वा वाणिज्य ग्राम ण० नगर हो० था व० वर्णन युक्त दू० दूतिपलाश अंतंकरेति ॥ सेणं भंते ! किं उढुं होज्जा अहेवा जहा अस्गेच्चाए जात्र तदेकदेसभाए होज्जा, ॥ सेणं भंते ! एगसमएण केवइया होज्जा ? गोयमा ! जहणणेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेनं अट्ठसयं से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सोच्चाणं केवलि रसवा जान केवल उवासियाएवा जाव अत्थेगइया केवलणाणं उप्पाडेज्जा अत्थे गइया केवलणाणं णो उप्पाडेज्जा | सेवं भंते भंतेत्ति | नवम सबस्स एकतीस इमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ ३१ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे *** णामं णयरे होत्या वण्णओ दूइपलासे चेइए, * दो. तीन उत्कृष्ट १०८ होते हैं. अहो गौतम ! इसे कारन से ऐसा कहा { यावत् उपासिका के वचन सुनकर केवली प्ररूपित धर्म यावत् केवल ज्ञान कितनेक को नहीं प्राप्त होता है. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. ० गया है कि सोच्चा केवली कितनेक को प्राप्त होना है और यह नववा शतक का एकतीसवा ॐ ( उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ९ ॥ ३१ ॥ ० . एकतीस उद्दशेने केली के वचन श्रवण करनेसे ज्ञानादि गुनकी प्राप्ति होती है ऐसा कहा वह केवलज्ञान नवनः शतकका बत्तीसवा उद्देश ० Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ चे० चैत्य सा० स्वामी स. पधारे ५० परिषदा णि नीकली ध० धर्म क० कहा ५० परिगदा प० पीछी है। गइ ते. उस काल ते. उस सपय में पा. पार्श्वनाथ के शिष्य ग. गांगेय अ. अनगार जे०, जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते. तहां उ० आये उ. आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अ० नजदीक ठि० खडा रहा कर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को एक ऐसा व. बोले सं०१ १२७० 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सामी ममोसड्, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया,॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिजा गंगेयं णामं अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा गच्छइ उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा, समणं भगवं महावीरं एवं वयासी संतरं भंते ! णरइया उववजंति, निरंतरं णेरइया उववजंति ? गंगेया : संतरंपि णेरइया उववज्जंति निरंतरंपि णेरइया उववज्जंति, ॥ संतरं भंते ! कितना गहन है यह बताने के लिये बत्तीसवे उद्देशे में गांगेय अनगार के प्रश्न कहते हैं. उस काल उम समय में वाणिज्य ग्राम नामक नगर था. उस के दूतिपलाश नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर - स्वामी पधारे. परिषदा वंदने को आई. धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस काल उस समय में पार्श्वनाथ सामी के अपत्य श्री गांगेय अनगार जहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी थे वहां आये और पाप्त उपस्थित प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालापसादजी * भावार्थ 1 Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र 48862 आंतरा सहित भं० भगवन् ने० नारकी उ० उत्पन्न होवे नि० निरंतर ने नारकी उ० उत्पन्न होवे गं०११ गांगेय सं० आंतरा महित ने नारकी उ० उत्पन्न हो नि निरंतर ने० नारकी उ० उत्पन्न होवे सं०१४ आंतरा सहित भं• भगवन् अ. असुर कुमार उ० उत्पन्न होवे नि० निरंतर अ० असुर कुमार उ०१ उत्पन्न होवे गं. गांगेय सं० आंतरा सहित उ० उत्पन्न होवे नि. निरंतर उ. उत्पन्न होवे ए. ऐसे जा० यावत् थ० स्थनित कुमार सं० आंतरा सहित भं भगवन् पु० पृथ्वी काया उ० उत्पन्न होवे नि० निरंतर असुर कुमारा उवदज्जंति, निरंतरं असुर कुमारा उववज्जंति ? गंगेया ! संतरपि अमुर कुमारा उववज्जंति, निरंतरंपि असुर कुमारा उववज्जंति, एवं जाव थणिय __कुमारा ॥ संतरं भंते ! पुढवी काइया उववज्जति निरंतर पुढवी काइया उववज्जंति? गंगेया ! णो संतरं पुढवी काइया उववज्जंति, निरंतरं पुढवी काइया उववज्जंति होकर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! क्या नारकी समयादि अंतर सहित उत्पन्न होते हैं या निरंतर उत्पन्न होते हैं. अहो गांगेय ! अंतर सहित उत्पन्न होते हैं और निरंतर भी उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! असुर कुमार क्या अंनर सहित उत्पन्न होते हैं या अंतर रहित उत्पन्न होते हैं ! अहो गांगेय! अंतर सहित भी। उत्पन्न होते हैं और निरंतर भी उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही नागकुमार यावत् स्थनित कुमार का जानना. 3 अहो भगवन् ! क्या पृथ्वी कायिक जीव अंतर सहित उत्पन्न होते हैं. या निरंतर उत्पन्न होते हैं ? अहो । namammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmnnnnnnnmamannamommam भावार्थ 4 Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पु० पृथ्वी काया उ० उत्पन्न होवे गं० गांगेय नो० नहीं सं० आंतरा सहित पु० पृथ्वीकाया उ० उत्पन्न होवे नि० निरंतर उ० उत्पन्न होवे जा०यावत् वनस्पति काया बे० बेइन्द्रिय जायावत् वे वैमानिक ज० जैसे ने नारकी ॥१॥सं० आंतरा सहित भं. भगवन ने नारकी उ० उद्वर्ते नि निरंतर भ० भगवन नारकी उ० उद्रत गं० गांगेय सं• अंतर सहित ने नारकी उ० उद्वर्ते नि० निरंतर ने० नारकी उ० उद्वर्ते ए. ऐसे जा० यावत् २० स्थानित कुमार सं० अंतर महित भं• भगवन् पु० पृथ्वी काया उ. एवं जाव वणस्सइ काइया ॥ बेइंदिया जाव वेमाणिया एते जहा नेरइया ॥ १ ॥ संतरं भंते ! णेरइया उव्वदंति, निरंतरं भंते ! णेरइया उव्वटंति ? गंगेया ! संतरंपि रइया उव्वटंति, निरंतरपि गेरइया उब्वटंति । एवं जाव थणिय कुमारा ॥ संतर भंते ! पुढवीकाइया उव्वदंति पुच्छा ? गंगेया णो संतरं पुढवीकाइया उव्वदंति गांगेय ! अंतर सहित नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु निरंतर उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही अप्काय यावत् वनस्पति काय का जानना. बेइन्द्रिय से वैमानिक तक का नारकी जैसे कहना ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अंतर सहित उतते हैं (मरते हैं) या निरंतर उद्वर्तते हैं ? अहो गांगेय : अंतर सहित उर्तते , |" हैं और निरंतर भी उद्वर्तते हैं. ऐसे ही स्थनित कुमार तक अंतर सहित व निरंतर उदर्तते हैं. अहो । भगवन् ! क्या पृथ्वी कायिक जीव अंतर सहित उद्वर्तते हैं या निरंतर उद्वर्तते हैं ? अहो गांगेय ! निरंतर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिती + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावाथ Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७३ शब्दार्थ 14 उद्वनें पु० पृच्छा गो० गौतम गो. नहीं सं० अंतर सहित पु. पृथ्वी काया उः उद्वते नि निरंतर पु० ११ पृथ्वी काया उ० उद्वते ए. ऐसे जा. यावत् २० वनस्पतिकाय णो नहीं सं० अंतर सहित उ० उद्वर्ते नि० निरंतर उ० उदर्ने सं० अंतर सहित भ० भगवन् बे० बेइन्द्रिय उ० उतें नि० निरंतर वे० बेइन्द्रिय उ० उद्रत गं० गांगेय सं० अंतर सहित बे० वेइन्द्रिय उ० उद्धर्ने नि० निरंतर बे० बेइन्द्रिय उ० उद्वर्ते ए० विऐसे ना० यावत् पा. वाणव्यंतर सं० अंतर सहित भ० भगवन् जो० ज्योतिषण च० चवे पु० पृच्छा गं० गांगेय सं० अंतर सहित च० चवे नि० निरंतर च० चो मा० यावत् वे. वैमानिक ॥ २॥ क० कितने __निरंतरं पुढवीकाइया उबटुंति एवं जाव वणस्सइ काइया णो संतरं उब्वटंति निरंतर । उवटंति ॥ संतरं भंते ! बेईविया उव्वदंति निरंतरं बेइंदिया उव्वदंति ? गंगेया ! संतरपि बेइंदिया उन्वटंति, निरंतरंपि बेइंदिया उज्वटंति. एवं जाव वाणमंतरा ॥ संतरं भंते ! जोइसिया चयंति पुच्छा ? गंगेया ! संतरंपि जोइसिया चयंति, निरंतरंपि जोइसिया चयति ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ २॥ कइविहेणं भंते ! पवेसणए भावार्थ, उद्धर्तते हैं ऐसे ही वनस्पति काया तक जानना. वेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, यावत् वाणन्यंतर अंतर सहित उद्वर्तते । हैं और निरंतर भी उद्वर्तते हैं. अहो भगवन् ! क्या ज्योतिषी अंतर सहित चवते हैं या निरंतर चवते है ? अहो गांगेय ज्योतिषी अंतर सहित चवते हैं और निरंतर भी चवते हैं. ऐसे ही वैमानिक का जानना पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मुत्र १ 484830 नववा शतक का बत्तीमवा उद्देशा 4.28 Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ <०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 प्रकार के भं भगवन् प० प्रवेशन १० प्ररूपा गं० गांगेय च. चार प्रकार के तं. वह ज० जैसे ने. नारकी प्रवेशन ति तिर्यंच योनि प्रवेशन म० मनुष्य प्रवेशन दे देव प्रवेशन ने० नारकी प्रवेशन भं० भगवन् क० कितने प्रकार का प० प्ररूपा गं गांगेय स० सात प्रकार का तं० वह ज. जैसे र० रत्नप्रभा पृथ्वी ने० नारकी प्रवेशन जा. यावत् अ० अधो स० सातवी पृथ्वी ने नारकी प्रवेशन||सरल शब्दार्थ पण्णत्ते ? गंगेया ! चउविहे पवेसणए पण्णत्ते, तंजहा णेरइयपवेसणए, तिरिक्ख जोणिय पवेसणए, मणुस्स पवेसणए, देवपर्वसणए । णेरइयपवेसणएणं भंते ! कइ विहे पण्णत्ते ? गंगेया ! सत्तविहे पण्णत्ते तंजहा रयणप्पभापुढवीणेरइय पवेसणए है ___जाव अहे सत्तमा पुढवी जेरइय पवेसणए॥३॥एगेणं भंते ! णेरइए नेरइय पवेसणएणं .. ॥२॥ जीव मरकर गति में प्रवेश करते हैं इसलिये गति प्रवेशन रूप कहते हैं. अहो भगवन् ! प्रवेशन (एक गति में से दूमरी गति में जाना ) के कितने भेद कहे ? अहो गांगेय ! चार प्रकार के प्रवेशन कहे हैं नारकी प्रवेशनक, तिर्यंच प्रवेशनक, मनुष्य प्रवेशनक, और देव प्रवेशनक. अहो भगवन् !, नारकी प्रवेशनक के कितने भेद कहे हैं ? अहो गांगेय ! नारकी प्रवेशनक के सात भेद हैं ? रत्नप्रभाई नरक प्रवेशनक, शर्करप्रभा नरक प्रवेशनक यावत् नीचे सातवी तमतमप्रभानरक प्रवेशनक ॥ ३॥ अहोई त्र भगवन् ! एक नारकी नरक प्रवेशन से प्रवेशन में उत्पन्न होता हुआ तो क्या वह रत्नप्रभा नरक प्रवेशन होवे, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. होजा, अहया एगे सक्करप्पभाए एगे धालुयप्पभाए जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा ॥ एवं एक्केका पुढवी छडेयन्वा जाव अहवा एगतमाए एगेअहे सत्तमाए होजा॥५॥ तिणि भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए होजा जाव अहे सत्तमाए होजा? गंगेया रयणप्पभाए वा होजा जाव अहवा अहे सत्तमाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए वालुप्रभा में ८ एक शर्करप्रभा में एक पंकप्रभा में ९एक सर्करप्रभा में एक धूम्रप्रभा में १० एक शर्कर प्रभा में एक तम प्रभा में ११ एक शर्कर प्रभा में एक तम तम प्रभा में १२ एक बालु प्रश में एक पंक प्रभा में 7. F१३ एक बालु प्रभा में एक धूम्रप्रभा में १४ एक बाल प्रभा में एक तम प्रभा में १५ एक बाल प्रभा में से एक तम तम प्रभा में १६ एक पंक प्रभा में एक धूमप्रभा में १७ एक पंक प्रभा में एक तम प्रभा में ११८ एक पंक प्रभा में एक तम तम प्रभा में १९ एक धूम प्रभा में एक तम प्रभा में २० एक धूम प्रभा एक तम तम प्रभा में और २१ एक सम प्रभा में एक तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे. इस तरह दो जीव अट्ठाइस भांग कहे ॥५॥ अहो भगवन् ! सीन जीव नरक प्रवेशन से प्रवेशन करते हुवे क्या रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् नीचे सासवी नरक में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! यहाँ असंयोगी सात भांगे द्विसंयोगी ४२ भांगे भौर तीन सयोगी ३५ मांगे मील कर ८४ भांगे होते हैं. असंयोगी सात भांगे.. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gi> 1. दो सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए ! दो अहे सत्तमाए होजा . अहवा दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा, जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा, जाव अहंवा एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा, अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा, जाव अहवा दो सकरप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, एवं जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया भणिया तहा सव्वपुढवीणं भाणियव्वा जाव अहवा दो तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे तीनों ही रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् सातवी तमतम में उत्पन्न होवे. यों असंयोगी सात भांगे हुवे. द्विसंयोगी ४२ भांगे बतलाते हैं. १ एक रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे दो शर्कर प्रभा में उत्पन्न होवे, २ एक रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे दो बालुपमा ३ एक रत्न प्रभा दो पंक प्रभा ४ एक रत्न प्रभा दो धृम प्रभा १५ एक रत्न प्रभा दो तम प्रभा ६ एक रत्न प्रभा दो तम तम प्रभा. अथवा ७ दो रत्न प्रभा में एक शर्करं प्रभा में ८ दो रत्न प्रभा में एक बालु प्रभा में ९ एक पंक प्रभा में १० एक धूमू प्रभा में ११ एक है। तम प्रभा में और १२ एक तम तम प्रभा में यों रत्न प्रभा की साथ द्वीसंयोगी बारह भांगे हुवे यों एक पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4.98 नवा शक का बत्तीसवा उद्देशा 488 * Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७८ भावार्थ ० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयागप्पभाए,एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे नालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होजा; एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे पंकप्पभाए शर्कर प्रभा दो बालु प्रभा एक शर्कर प्रभा दो पंक प्रभा में यावत् एक शर्कर प्रभा दो तमतम प्रभा यों पांच भांगे और दो शर्कर प्रभा एक बालु प्रभा यावत् दो शर्कर प्रभा में एक तम तम प्रभा में ऐसे शर्कर प्रभा की साथ द्विसंयोगी दश हुए. एक बालु प्रभा में दो पंक प्रभा में यावत् एक वालु प्रभा में दो तमतम प्रभा में यों चार और दो बालु प्रभा एक पंक प्रभा यावत् दो बालु प्रभा एक तम तम प्रभा यों बालु प्रमा आश्री द्विसंयोगी आठ भांगे हुए. एक पंक प्रभा दो धूम्र प्रभा यावत् एक पंक प्रभा दो तम तम प्रभा यों तीन भांगे और दो पंक प्रभा एक धूम्र प्रभा यावत् दो पंक प्रभा एक तम तम प्रभा यों पंक प्रभा आश्री के द्विसंयोगी ६ भांगे हुए. एक धूम्र प्रभा दो तम प्रभा एक धूम्र प्रभा एक तम प्रभा दो धूम्र प्रभा एक तम तम प्रभा यों धूम्र प्रभा के चार भांगे और एक तम प्रभा दो तम * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 १२७१ एगे अहै सत्तमाए होज्जा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए; एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा; एवं १५ ॥ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होजा, . अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयाए, एगे धूमप्पभाए होजा, ॥ जाव एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, ॥ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए भावार्थतम प्रभा और दो तम प्रभा एक तम तम प्रभा यों तम प्रभा आश्री दो भांगे यों ४२ भांगे होते हैं. अब तीन संयोगी भांगे बतलाते हैं. १ एक रत्न प्रभा, एक शर्कर प्रभा व एक बालु प्रभा में उत्पन्न होवे २ एक रत्न प्रभा एक शर्कर प्रभा एक पंक प्रभा में ३ एक रत्न प्रभा एक शर्कर प्रभा एक धूम् प्रभा में ४एक रत्न प्रभा एक शर्कर प्रभा एक तम प्रभा में ५ एक रत्न प्रभा एक शर्कर प्रभा व एक तम तम प्रभा में उत्पन्न होवे यों पांच भांगे अथवा एक रत्न प्रभा एक बालु प्रभा एक पंक प्रभा में एक रत्नप्रभा एक वालु प्रभा एक धूमू प्रभा यों तम तम प्रभा तक चार भांगे होवे, अथवा एक रत्न प्रभा एक पंक प्रभा एक धूम प्रभा यों तमतम प्रभा तक तीन भांगे होवे अथवा एक रत्न प्रभा एक धूम प्रभा एक तपप्रभा एक रत्न प्रभा एक धूम् प्रभा एक तम तम प्रभा यों दो भांगे अथवा एक रत्न प्रभा एक तम पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्रीि ( भगवती ) सूत्र 3g- नववा शतकका बत्तीसत्रा उद्देशा 9888 Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 8+ होजा जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए,एगे पंकप्पभाए,एगे अहे सत्तमाए होजा॥ अहवा। एगेसक्कप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा,अहवा एगे सकरप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, ॥ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा॥अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धमप्पभाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए होज्जा, अहा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा ॥ अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्यभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे अहे सत्समाए प्रभा व एक तमतमपमा यो रत्नप्रभा आश्री तीन संयोगी १५ भांगे हुवे. अब १ एकशर्करमा एकशलुपमा एकपंकसभा,एकशर्करमभा एकबालुप्रभा एकधूमप्रभा, एकशर्करप्रभा एकबालुपमा एकतमपूमा एकशर्करा एकबालुपमा एकतमतमप्रभा यों चारभांगे. अथवा एकशर्करप्रभा एकपंकप्रभा एकधूमप्रभा यावत् एकशर्करप्रभा एकपंकप्रभा, व तमतमप्रभा यों तीन भांगे एकशर्करप्रभा एकधूमप्रभा एकतमप्रभा एकर्करप्रभा एकधूमप्रभा व एकतमतमप्रभा यों दो भांगे एकशर्करप्रभा तमप्रभा एकतमतमप्रभा यो सर्कर प्रभा. आश्री तीन संयोगी दश रु भांगे हुवे. अश्वा एक बालुप्रभा एक पंकप्रभा एक धूमप्रभा एक बालुपमा एक पंकप्रभा एक तमप्रभा एक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ mmmmmmmmmmmmnna Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र होजा || अहवा एगे वालुवाए, एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा, एवं ६ ॥ अहवा एगे पंकाए, एगे धूमाए, एगे तमाए होज्जा अहवा एगे पंकाए, एगे धूमाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा, अहवा एंगे पंकप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, एवं ३ ॥ अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा ॥ ३५ ॥ ८४ ॥ ६ ॥ चत्तारि भंते ! णेरड्या णेरइय पवेसणएणं पत्रेसमाणा किं रयणप्पभाए होजा पुच्छा ? गंगेया ! रयणप्पभाएवा होज्जा, जाव अहे सत्तमाए होजा बालुप्रभा एक पंकप्रभा एक तम तम प्रभा यों तीन भांगे एक बालुप्रभा एक धूम प्रभा एक तम प्रभा, अथवा एक बालुप्रभा एक धूम्रप्रभा व एक तम तम प्रभा यों दो भांगे अथवा एक बालुप्रभा एक तमप्रभा { एक तम तम प्रभा यो बालुप्रभा आश्री तीन संयोगी भांगे हुवे अथवा एक पंकप्रभा एक व धूम्र प्रभा एकतम प्रभा एक पंकप्रभा एक धूम्रप्रभा एक तम तम प्रभा, एक पंकप्रभा एक तमप्रभा एक तमतम प्रभा यों पंक्रप्रभा आश्री तीन संयोगी तीन भांगे और एक धूम्रप्रभा एक तम प्रभा एक तम तम प्रभा यो सब मीलकर तीन संयोगी १५+१०+६+३+१ यों सब मीलकर तीन संयोगी ३५ भांगे हुवे और तीन नारकी आश्री एक संयोगी ७ द्विसंयोगी ४२ और तीन संयोगी ३५ ऐसे ८४ हुवे ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! चार नारकी नरक {गति में प्रवेशन करते हुवे क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे यात्रत् नीचे सातत्री तम तम प्रभा में उत्पन्न होवे ? | - नवत्रा शतकका बत्तीसचा उद्देशा १२८१ Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहवा एगे रयणप्पभाए तिणि सक्करप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, तिण्णि वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव एगे रयणप्पभाए तिण्णि अहे सत्तमाए होज्जा ६ ॥ अहवा दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा एवं जाव दो रयप्पणभाए दो अहे . सत्तमाए होजा, ६ ॥ अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा तिण्णि रयणप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ६॥ १८ ॥ अहवा एगे सकरप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जहेव रयणप्पभाए उबग्मिाहिं समं अहो गांगेय ! चारों जीव रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे यावत् सातवी तम तम प्रभा में उत्पन्न हो यो असंयोगी सात भांगे होवे. अब द्वियोगी ६३ भांगे कहते हैं. १ एक रत्नप्रभा में तीन शर्कर प्रभा में. २ एक रत्नप्रभा में तीन बालु प्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में तीन तमतम प्रभा में यों ६ भांगे. दो रत्नप्रभा में दोशर्करप्रभा में यावत् दो रत्नप्रभा में दोतमतमप्रभा में यों भांगे और तीन रत्नप्रभा में एक शर्करप्रभा में यावत् तीन रत्नप्रभा में एक तम तमप्रभा में यों ६ सब मीलकर रत्नप्रभा आश्री द्विसंयोगी१८३ भांगे हुवे. अथवा एक शर्कर प्रभा में तीन बालु प्रभा में इस तरह जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के भांगे कहे वैसे लही शर्कर प्रभा के भांगे कहना इस तरह ५+५+५ यों १५ भांगे शर्कर प्रभा के हुवे. यों बालुप्रभा के 9 भांगे, १२ पंकप्रभा के? भांगे, धूम्रप्रभा के भांगे, तमप्रभा के तीन भांगे यो सब मलिकर १८+१+१२+ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * भावा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुरदेवसहावजी मालाप्रसादजी * Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८३ भावार्थ 428 पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र Bigg संचारियं तहा सक्करप्पभाएवि उवरिमाहिं समं संचारेयव्वं, एवं एकोकाए समं संचारेयव्वं जाव अहवा तिण्णि तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा ६३ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए, दो वालुयप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए, दो पंकप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा ५ ॥ अहवा एगे रंयणप्पभाए दो सक्करप्प भाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभातए, दो सक्करप्पभाए १९+६+३=६३ मांगे कहना. अब तीन संयोगी? ०५ भांगे बताते हैं. एक रत्नप्रभा में एक शर्करप्रभा में दो बालु प्रभा में, एक रत्नप्रभा में, एक शर्कर प्रभा में, दो पंकप्रभा में ऐसे ही यावत् एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में दो तम तम प्रभा में ऐसे पांच भांगे; अथवा एक रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एक - बालुप्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एक तम तम प्रभा में यों पांच भांगे अथवा दो रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में यावत् दो रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक तम तम प्रभा में यों पांच भांगे. यों रत्नप्रभा के शर्कर प्रभा की साथ १५ भांगे हुए. अब रत्नप्रभा का बालु प्रभा की साथ १२ भांगे बताते हैं. एक रत्नप्रभा एक बालु प्रभा दो पंकप्रभा यावत् एक रत्नप्रभा में एक बालू प्रभा में दो तम तम प्रभा में यों चार भांगे ऐसे ही एक रत्नप्रभा में एक पंकप्रभा में 8%803 नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा है. <3 Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह एगे अहे सत्तमाए होज्जा ५ ॥ अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पाए, एगे वालु. यप्पभाए होज्जा १॥ एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए १५ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा, जाव अहवा एगेरयणप्पभाए, एगेवालुयप्पभाए, दो अहेसत्तमाए होज्जा, एवं एएणं गमएणं जहा तिण्हं तियसंजोगे तहा भाणियन्वो जाव अहवा दो धूमप्पभाए, एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा १०५ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए एगेवालुभावार्थ में यावतू एक रत्नप्रभा में दो बालुप्रभा में एक तमतम प्रभा में यों चार भांगे और दो रत्नप्रभा में एक बालु प्रभा में एक पंकप्रभा में यावत् दो रत्नप्रभा में एक बालु प्रभा में एक तपतम प्रभा में यों बारह भांगे हुए. ऐसे ही रत्नप्रभा पंकमभा से ९ भांगे, रत्नप्रभा धूम्रप्रभा से ६, और रत्नप्रभा तबप्रभा से तीन भांगे यों रत्नप्रभा में सब मीलकर ४५ भांगे होते हैं. शर्कर प्रभा के बालुप्रभा की साथ १२ भांगे, शर्करप्रभा, का पंकप्रभा की साथ ९ भांगे, शर्कर प्रभा के धूम्र प्रभा की साथ ६ भांगे शर्कर प्रभा के तम प्रभा की साथ ३ भांगे यों शर्कर प्रभा के ३० भांगे होते हैं. बालु प्रभा पंकममा के ९ भांगे, बालुप्रभा धूम्र लप्रभा के ६ भांगे, बालुप्रभा तमप्रभा के तीन भांगे यों बालुप्रभा के १८ भांगे पंकप्रभा के धूम्रप्रभा की साथ ६ भांगे. पंकप्रभा के तमप्रभा की साथ ३ भांगे यों मव भांगे. और एक धूम्र प्रभा दो तम प्रभा एक 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी * Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.38 2008- पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र यप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालु- .. यप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा पगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे वालयप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, ४ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए; एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा ६ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे तम प्रभा, एक धूम्र प्रभा एक तम प्रभा दो तम तम प्रभा और दो धूम्र प्रभा एक तमप्रभा एक तम तम प्रभा यों तीन. सब मीलकर सातों नरक के तीन संयोगी १०५ भांगे हुए. अब चतुष्क संयोगी ३५ भांगे कहते हैं. १ एक रत्नप्रभा में, एक शर्कर प्रभा में एक बालप्रभा में एक पंकसभा में २ एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक धूम्र प्रभा में ३ एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक तम प्रभा में ४ एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक तमतम प्रभा में ५ एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक पंकप्रभामें एक धूमप्रभा ६ एक रत्नप्रभामें एक शर्कर प्रभामें एक पंकप्रभा में का शतक का बत्तीसजा उद्देशा भावार्थ wwwww । Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावार्थ सक्करप्पभाए, एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा २ । अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा २ ॥ एवं १० ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजाः अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकाए एगे तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयाए, एगे पंकाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ३ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयाए. एगे धूमाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एक तम प्रभा में ७ एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक पंकप्रभा में एक तमतम प्रभा में ८ एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक धूम प्रभा में एक तम प्रभा में ९ एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक धूम् प्रभा में एक तम तम प्रभा में १० एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम प्रभा में ११ एक रत्नप्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में एक धूमप्रभा में १२ एक रत्नप्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा एक तम प्रभा १३ एक रत्नप्रभा में एक बालु प्रभा में एक पंकप्रभा में एक तमतम प्रभा में १४ एक रत्नप्रभा में एक बालु प्रभा में एक धूम्रप्रभा में एक तम प्रभा में १५ एक रत्नप्रभा में एक वालुमभा में एक धूम्प्रभा में एक तम तम प्रभा में १६. एक रत्नप्रभा में एक बालुप्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम प्रभा में १७ एक रत्नप्रभा में एक पंकमभा में एक धूमप्रभा में एक तम प्रभा में १.८ एक रत्न काशक-राजाबहादुर लाला सुरूदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगे वालुयाए, एगे धूमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, २ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा १ ॥ १६ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमाए, एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्प- १२८७ भाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे पंकाए, एगे तमाए एगे अहसत्तमाए होज्जा १, ॥ १९ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा, एवं २० ॥ अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा १ ॥ एवं भावार्थ:प्रभा में एक पंकप्रभा में एक धूमप्रभा में एक तम तम प्रभा में १९ एक रत्नप्रभा में एक पंकप्रभा में एक तमम प्रभा में एक तम तम प्रभा में २० एक रत्नप्रभा में एक धमप्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम प्रभा में योंरत्नप्रभा में सब मीलकर २० भांगे हुए. अब शर्कर प्रभा के दश भांगे कहते हैं. १ एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में एक धूम्रप्रभा में २ एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में एक तमप्रभा में ३ एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में एक तमतम प्रभा में ४ एक शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में एक धूमप्रभा में एक तम प्रभा में ५ एक शर्कर प्रभा में एक वालुप्रभा में एक धूमप्रभा में एक तम तम प्रभा में ६ एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम 48808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 8%80% ११ नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा g ig... Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८८ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ संचारियाओ तहा सकरप्पभाएवि उबरिमाओ उच्चारेयवाओ जाव अहवा, एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए, एगे अहे सत्तमःए होजा १० ॥ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धृमप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा २ ॥ अहना एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए, : एगे अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे प्रभा में ७ एकशर्कर प्रभा में एक पंकप्रभा में एक धूमप्रभा में एकतमप्रभा में ८ एक शर्करप्रभा में एक पंकप्रभा में एक धूम्रप्रभा में एक तम तम प्रभा में ९ एक शर्कर प्रभा में एक पंकप्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम प्रभा में १० एक शर्कर प्रभा में एक धूम्रप्रभा में एक तम प्रभा में एक तम तम प्रभा में यों शर्कर प्रभा के दश भांगे हुए. अब बालु प्रभा के चार भांगे कहते हैं १ एक वालु प्रभा में एक पंक प्रभा में एक धूम्रप्रभा में एक तम प्रभा में २ एक बालुप्रभा एक पंक प्रभा एक धूमप्रभा एक तमतम प्रभा ३ एक बालुप्रभा एक पंक प्रभा एक तम प्रभा एक तमतम प्रभा ४ एक बालुप्रभा एक धूम्रप्रभा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पप्णत्ति (भवगती) AAAAAnamniwwwmommanmanner '' अहे सत्तमाए होजा, ॥ ३५ ॥ २१० ॥७॥ पंच भंते ! गैरइया गैरइय पवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए पुच्छा ? गंगेया ! रयणप्पभाएवा होजा जाव अहे सत्तमाएवा होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए होजा, चत्तारि सकरप्पभाए जाव अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होज्जा ६ ॥ अहवा दो रयणप्पभाए, तिण्णि सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए, तिणि अहे सत्तमाए एक तम प्रभा एक तमतम प्रभा यों चार भांगे और एक पंक प्रभा एक धूम्र प्रभा एक तम प्रभा एक तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे. यों चार संयोगी ३५ भांगे होते. असंयोगी ७ द्विसंयोगी ६३ तीन संयोगी १०५ और चतुष्क संयोगी ३५ ऐसे सब मीलकर चार नारकी प्रवेशनमे नरक में उत्पन्न होने के २१० भांगे हुवे . ॥ ७॥ अहो भगवन् ! पांच जीव नरक में प्रवेशन करते हुवे क्या रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे शर्कर प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! पांचों जीव रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे | यावत् पांचों जीव सातवी तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे. इस तरह असंयोगी सात भांगे हुवे, द्विसंयोगी ८४ ७. एक रत्नप्रभा में चार शर्कर प्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में चार तमतम प्रभा में यों ६ भांगे. दो रत्न-100 प्रभा में तीन शर्कर प्रभा में यावत् दो रत्नप्रभा में तीन तमतमप्रभा यो ६ मांगे. तीन रत्नप्रभामें दो शर्कर । 48488नयां शतकका बचीस भावार्थ Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी got होज्जा, अहवा तिण्णि रयणप्पभाए दोणि सक्करप्पभाए होजा, एवं जाव , अहवा तिण्णि रयणप्पभाए दोण्णि अहे सत्तमाए होज्जा ६ ॥ अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा चत्तारि रयणप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ६ ॥ २४ ॥ अहवा एगे सकरप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होजा, एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिम पुढवीओ संचारियाओ तहा सक्करप्पभाएवि समं उच्चारे. यव्वाओ, जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए,एगे अहे सत्तमाए होजा २० ॥ एवं एकेक्काए समं उच्चारेयवाओ, जाव अहवा चत्तारि तमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा प्रभा में यावत् तीन रत्नप्रभा में दो तमतम प्रभा में यों ६ भांगे चार रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में यावत् चार रत्नप्रभा में एक तमतमप्रभा में यों ६ भोंगे रत्नप्रभा के सत्र मीलकर २४ भांगे. एकशर्करप्रभा में, चार बालुपभा में यावत् एक शर्करप्रभा में चार तमतमप्रभा में यों पांच भांगे, ऐसे दो तीन के पांच भांगे, तीन दो के पांच भांगे और चार एक के पांच भांगे मीलकर शर्करप्रभा के २० भांगे. बालुप्रभा में एकपंक प्रभा में चार यावत् एक बालुप्रभा में चार तमतम प्रभा में यों चार भांगे. ऐसे ही दो तीन के चार, तीन दोस के चार, चार एक के चार भांगे यो १६ बालुमभा के हुवे. पंकप्रभा में एक धूम्रप्रभा में चार पंकप्रभा में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स ८४ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए, तिण्णि वालयप्पभाए होजा, एवं आव एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, तिण्णि अहे सत्तमाए होज्जा ५ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए. दो सवारप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा ५ ॥ अहवा दो रयण प्पभाए एगे सकरप्पभाए, दो वालुथप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणभावार्थ एक तम प्रभा में गर एक पंक प्रभा में चार तमतम प्रभा में यों तीन, ऐसे ही दो, तीन तीन दो व चार एक ऐसे १२ भांग होते हैं. और धूपभा में चार तम प्रभा में एक धूमपभामें चार तमतम प्रभा में एक यों तीन दो, दो तीन व एक चार के ६ भांगे जानना. और तम प्रभा में चार तमतम प्रभा में एक तम प्रभा में तीन बमतम प्रभा में दो तम प्रभा मे दो तमतप प्रभा में तीन और तम प्रभा मे चार व तमतम प्रभा में एक यो सब मीलकर ८४ भांगे हुए. इस के भांगे नीकालने की रीति. सातो नरक के द्विसंयोगी आश्री, २१ पद होते हैं उन मे १४,२३, ३२, ४१ ऐसे विकल्प होते हैं इन २१ पद व ४ विकल्प का गुनाकार 50 करने से ८४ भांगे होते हैं. इनके तीन संयोगी२१० भांगे होते हैं सातो नरक के तीन संयोगी आश्री ३५पद १ और विकल्प ६ होते हैं ११३, १२२, २१२, १३१, २२१ और ३११, इन ३५ पद व ६ विकल्प का गुनाकार करने से २१० भांगे हे वे. चतुष्क संयोगी सात नरक के ३५ पद और चारसंयोगी जीव 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48808 नववा शतक का बत | उद्देशा Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२९२ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 +8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी प्पभाए एगे सक्करप्यभाए दो अहे सत्तमाए होजा ५॥ अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा २० अहवा दो रयणप्पभाए, दो सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए होजा, एवं जाव दो रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा २५ ॥ अहवा तिण्णि रयणप्पभाए; एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा तिण्णि रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ३० ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, तिण्णि के चार विकल्प १११२ ११२१ १२११ २१११ यो ३५ पद व चार विकल्पका गुनाकार करने से १४०१ भांग होवे. और पांच संयोगी २१ भांगे पांच संयोगी नरक के २१ पद और एक विकल्प इस तरह पांच जीवों के ४६२ भांगे हुवे. अब इसका विस्तार करते हैं. तीन संयोगी २१० कहते हैं. एक रत्नप्रभा में है। एक शर्कर प्रभा में तीन वालुप्रभा में ऐसे ही यावत् एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में तीन तम तम प्रभा में *यों पांच हुवे अथवा एक रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में दो वालुप्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में दो तमतम प्रभा में यों पांच अथवा दो रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में दो बालुपमा में दो रत्नप्रभा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 802 408208 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8888 पंकप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तिय संजोगो भणिओ, तहा पंचण्हवि तियसंजोगो भाणियब्वो । णवरं तत्थ एगो संचारिज्जइ, इमाइं दोण्णि, सेसं तंचेव, जाव अहवा तिणि धूमप्पभाए, एगे तमप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होजा २१० ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए, दो पंकप्पभाए होज्जा, एवं जाव, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालय प्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे रयणाए एगे सकराए दो वालुयाए एगे पंकाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणाए एगे सक्कराए दो वालुयाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ४ ॥ अहवा एगे रयणाए, दो सक्कराए, एो वालुयाए, एगे एक शर्कर प्रभा में दो तम तम प्रभा में यों पांच हुए अथवा एक रत्नप्रभा में तीन शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में यावत् एक रत्नप्रभामे तीन शर्कर प्रभामें एक सातवी तमतम प्रभामें यों पांच सब २० हुए. अथवा दोन रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एक बालुपमा में यावत् दो रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एक तम तम प्रभा में यों पांच अथवा तीन रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में यावत् तीन रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक लम तम प्रभा में यों तीस भांगे हुए. एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में तीन पंकप्रभा में नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा भावार्थ Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सत्र AAN १२९४ भावार्थ *०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पंकाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणाए दो सकाराए, एगे वालुयाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा ४ । अहवा दो रयणाए, एगे सकराए, एगे वालुयाए एगे षंकाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणाए, एगे सकराए एगे वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा ४ ॥ अहवा एगे रयणाए एगे सक्कराए, एगे पकाए, दो धूमाए होज्जा, एवं __ जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो भणिओ, तहा पंचण्हवि चउक्क संजोगो भाणियव्यो, इस तरह जैसे चार जीवों के तीन संयोगी भांगे कहे पैसे ही पांच जीवों के तीन संयोगी भांगे जानना. इतना विशेष कि उस में एक की साथ संचारना थी यहां दो की साथ संचारना होवे इस तरह २१.० भांगे। होवे इसका अंतिम भांगा तीन जीव धूम्रप्रभा एक जीव तम प्रभामें एक जीव तम तम प्रभामे उत्पन्न होवे. अब चतुष्क संयोगी १४० भांगे कहते हैं. एक रत्नप्रभा में, एक शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में दो पंकप्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक वालुपभा में दो तम तम प्रभा में यों चार भांगे.. अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में दो बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में यावत् एक रत्नप्रभा में एक शर्कर प्रभा में दो बालुपमा में एक तम तम प्रभा में यों चार. अथवा एक रत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एक बालुप्रभा में एक पंकप्रभा में यावत् एकरत्नप्रभा में दो शर्कर प्रभा में एकबालुप्रभा में एक तमतम प्रभा में यों चार भांगे. अथवा दो रत्नप्रभा में एक शर्करप्रभा में एक बालुप्रभा मे एक पंक प्रभा में यावत् दो रत्न * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - IN 428 १२९५ 888 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भमवती.) सत्र जबरं अब्भहियं एगो संचारियबो, एवं जाव अहवा दो पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा १४० अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्प भाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, . एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा; अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, एगेवालुयप्पभा एगे धूमप्पभाए एगेतमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमाए, एगेअहे सत्तमाए होजा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए; एगे वालुयप्पभाए, पगे तमाए, है प्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में एक तमतम प्रभा में यों चार भांगे. अथवा एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक पंक प्रभा में दो धूम्र प्रभा में यावत् चार जीवों का जैसे चतुष्क संयोगी भांगे कहे वैसे ही कहना परंतु यहां तक की साथ दो संचारना ऐसे १४० भांगे होवे इस का अंतिम भांगा दो जीव पंक प्रभा में एक नीव धूम्र प्रभा में एक जीव तम प्रभा में एक जीप तमतम प्रभा में, अब पांच संयोगी २१ rammamanna नववा शतकका बत्तीसवा उद्देशा 14 । Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + एगे अहे सत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए एगेसकरप्पभाए एगे. पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होना अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, भांगे होते हैं. १ एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में एक बालु प्रभा में, एक पंक प्रभा में एक धूम्रप्रभा में २ एक र० एक श• एक वा एक पं० एक त में एक र०एक श०एक बा० एक पं०एक तमतम प्रभा में ४ एक र० एक श० एक बा० एक धू० एक त० में ५ एक २० एक श.एक बा०एक धू० एक तमतमप्रभा में६एक र०एक श०एक बा० एक त० एक तमतमप्रभा में एक र० एक श०एक पं०एक धू० एकत्र त०८ एक र० एक श०एक पं०एक धू० एक तमतमप्रभा ९ एक एक र० एक श० एक पं० तमतमप्रभा में | * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९७ पंचमांग विवाह पण्णात्ति (भगवती) सूत्र 48:00 एगे अहे सत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए एंगे वालथप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगें तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा; अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा १५ ॥ अहवा. एगे सक्करप्पभाए, एगे वालयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा । अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा एगे सकरप्प. भाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्प्रभाए, एगेतमाए एगे अहे सत्तमाए होजा । अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए १० एक र० एक श० एक धू० एक त० एक तमतम प्रभा ११. एक र० एक बा० एक पं० एक धू०एक त० १२ एक र०एक बा०एक पं०एक धू०एक तमतम प्रभा१३ एक र०एक बा एक पं०एकत. एक तमतम ॐ प्रभा १४ एकर० एक वा एक धू०एक त एक तमतम प्रभा १५ एक र०एक पं०एक धू०एक त० एक तमतम प्रभा १६ एक श० एक बा० एक पं० एक धू० एक त० १७ एक श०, एक बा० एक पं० एक धू० > नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा 4. भावार्थ Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - होजा । अहवा एंगे सकरप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, पगे धूमप्पभाए, रंगे अहे .. सत्तमाए होजा, अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, ॥८॥छन्भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए, पुच्छा ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा, जाव. अहे सत्तमाएवा हाजा ॥ अहवा एगे स्थणप्पभाए, पंच सक्करप्पभाए वा होजा, अहवा एगे रयणप्प भाए, पंच बालुयप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए पंच अहे सत्तमाए होजा ६ ॥ अहवा दो रयणप्पभाए, चत्तारि सक्कर पभाए होजा, एक तमतम प्रभा १८ एक श० एक पा० एक पं० एक त० एक तमतम प्रभा १९ एक श० एक बा० एक धू० एक त० एक तमतम प्रभा २० एक श० एक पं० एक धू० एक त० एक तमतम प्रभा और २१, एक बा० एक पं० एक धू० एक त. एक तमतम प्रभा ॥ ८॥ अहो भमवन् ! छ नारकी नरक में 3 प्रवेश करते हुने क्या र में उत्पन्न होने यावत् तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! र०में यावत् मातवी तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे. यों असंयोगी सात भांगे हुवे. अब द्विसंयोगी १०५ भांगे होते हैं जिस में सात नरक के द्विसंयोगी २१ पद और १५-२४-३३-४२-५१ यों पांच विकल्प. इन दोनों का * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * STATIST Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 ०१ mmmmmmmmmmmmmmmmmm १२१९ भावार्य 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488+ एवं जाब अहवा दो रयणप्पभाए, चत्तारि अहे सत्तमाए होजा ६ । अहवा तिण्णि रयणपभाए, तिण्णि सकरप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं दुय संजोगो तहा छण्हंवि भाणियब्वो, णवरं एको अन्भहिओ संचारयव्वो, जाव अहवा पंच तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा, १०५ ॥ अहवा एने स्यणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए है । चत्तारि चालुयप्पभाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, चत्तारि गुनाकार करने से द्विसंयोगी १०५ भांगे हुवे. सात नरक के तीन संयोगी ३५ पद होते हैं और छ । जीवों के तीन संयोगी दश विकल्प होते हैं ११४, १२३, २१३, १३२, २२२, ३१२, १४१, २३१, ११२१, ४११. इस तरह तीन संयोगी ३५० भांगे होते हैं. सात नरक के चार संयोगी ३५ पद होते हैं, और छ जीव के चार संयोगी दश विकल्प होवे. १९१३, ११२२, १२१२, २११२, ११३१, १२२११ १२१२१, १३११. २२११, ३१११ इस तरह पद व विकल्प का गुनाकार करने से ३५० भांगे होते हैं. ' सात नरक के पांच संयोगी २१ पद होते हैं और छ जीव के पांच संयोगी पांच विकल्प होते हैं ११११२ १११२१, ११२११, १२१११, २११११ इस तरह पद व विकल्प का गुनाकार हो से १०५ भांगे होते हैं... और छ के योग से सात भांगे होने यो सब मिलकर ९२४ जीव के भी होते हैं. उले में असंयोगी सात पहिले कहे वैसे ही, द्विसंयोगी १०५ भांगे एक र० में पांच श० में एक र० में पांच बा• में यावत् एक नवां शतकका बत्तीसवा उद्देशा Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - तारि पंक पाए है. ज्जा, एवं जात्र अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए, अहे सन्तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पमाए, दो सक्करष्पभाए, तिष्णि वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं जहा पंचन्हं तिय संजोगो भणिओ तहा छण्हवि भाणियव्वो, वरं एक्को अब्भहिओ उच्चारेयव्वो सेसं तंचेव ३५० ॥ चउक्क संजोगोवि तहेत्र ३५० ॥ पंच संजोगोवि तहेव णवरं एको अब्भहिओ संचारयव्वो जात्र पच्छि• २० में पांच तमतम प्रभा में यों ६ भांगे अथवा दो ० चार तमतम प्रभा में यों ६ भांगे. तीन र० में तीन श० में प्रभा में इसी क्रम से जैसे पांच जीवों के दो संयोगी कहे अधिक कहना यावत् १०५ वां भांगा पांच तः अब तीन संयोगी ३५० भांगे कहते हैं. तीन तमतम में चार श० में यादव दो र० में यावत् तीन २० में वैसे ही जानना. में एक समतम प्रभा में एक श० में भार वा० विशेष में एक उत्पन्न होवे. में यावत् एक एक र० में र० में एक श० में चार तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे यों पांच भांगे हावे. अथवा एक २० में दो शर्कर प्रभा में तीन बा० में यावत् एक र० में दो श० में तीन तमतम में इस तरह जैसे पांच जीव आश्री भांगे कहे वैने छ जीव के तीन संयोगी भांगे कहना विशेष में एक बढाना यों ३५० भांगे तीन संयोगी होवे. ऐसे ही चतुष्क संयोगी १०५ भांगे वैसे ही कहना यावत् दो बा० एक पं० एक धू० एक * प्रकाशक- राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १.३०० Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * * ०१ भावार्थ 18 पंचांग विवाह पप्णत्ति (गवत ) रत्र मो भंगो अहवा दो वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए. एगे धृमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहे सत्तमाए होज्जा ॥१०५॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगेसकरप्पभाए एगेवालयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगेतमाए होजाअहवा एगेरयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे बालयप्पभए, एगे पंकप्पभाए, एगेधमप्पभाए एगेअहे सत्तमाए होजा, अहवा एगरयणप्पभाए जाएगेपंकप्पभाए एगे तमाए एगेअहेसत्तमाए होजाअहवा एगे रयणप्प भाएजाव एगे वालयसभाए एगे धूमप्प नाए, एगेतमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहे सत्तमाए होजा अहवा एग रयणप्पभाए एग वालयप्पभाए जाव एगे अह सत्तमाए हाजा अहवा एग त. एक तातम अब छ संयोगी ५ भांगें कहते हैं. १ एक र० एक श० एक बा एक पं. एक धू० एक त० २एक र० एक श. एक बा० एक पं० एक धू० एक तम तम ३ एकर एक श० एक बा० एक पं. एक त एक तम सम प्रभा ४ एकर० एक श. एक वा एक धू० एक त० एक तमतम प्रभा ५ एक १२० एक श. एक पं० एक धू. एकतएक तम तम प्रभा ६ एक र० एक वा एक पं० एक धू. एक त. एक तमतमममा और एक श. एक बा० एक पं० एक धू० त० एक तमतमप्रभा यों असंयोगी ७भांगे द्विमयेगिा १०५, तीन संयोगी ३५०, चतुष्क संयोगी ३५०. पांच संयोगी १.०५, और छ संयोगी ७ भांग, नवधा शतक का वत्तालका उद्देशा Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी + सकरप्पभाए, एगें वालुयप्पभाए, जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा ९२४ ॥९॥ सत्त भंते ! णेरइयाणेरड्य पवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा गंगेया? रयणप्पभाएवा होज्जा जाव अहे सत्तमाए होज्जा ७ ॥ अहवा एगेरयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए होज्जा; एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयसंजोगो तहा सत्तण्हंवि भाणियव्वं, णवर एगो अब्भहिओ संचारिजइ. मीलकर ९२४ भांगे होते हैं. ॥९॥ अहो भगवन् ! सात जीव नरक गति में प्रवेशन करते हुवे क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे यावत् तम तम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! सातों जीवों का असंयोगी सात भांगे, द्विसंयोगी सात नरक के २१ पद और सात जीव के विकल्प १६, २५, ३४,४३, ५२.३ ६१ पों दोनों का गुनाकार करने से १२६ भांगे होते है. तीन संयोगी सात जीव के १५ विकल्प ११०, १२४, २१४, १३३, २२३, ३१३, १४२, २३२, ३२२, ४१२, १५१, २४१, ३३१, ४२१, ५१११ और सात नरक के तीन संयोगी ३५ पद होते हैं. इन दोनों का गुनाकार करने से ५२५ भांगे होवे. सात नरक के चार संयोगी ३५ पद होते हैं और सात जीवों के चतुष्क संयोगी २० विकल्प होते हैं इस तरह दोनों का गुनाकार करने से ७०० भांगे जानना. सात जीव के पांच संयोगी १५ विकल्प होते हैं और पांच मंयोगी सात नरक के २१ पद होते हैं इस तरह दोनों के गुनाकार करने से पांच संयोगी ३१५१ भांगे. होते हैं सात जीव के छ संयोगी ६ विकल्प होते हैं. और सात नारकी के छ संयोगी ७१ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णनि (भगवती) मूत्र सेसं तंचेव १२६ ॥ तिय संजोगो ५२५ ॥ चउक्कसंजोगो ७०० ॥ पंचसंजोगो ३१५ ॥ छक्कसंजोगोय छण्हं जहा तहा सत्तण्हंवि भाणियव्वं, णवर एकेको अब्भहिओ, संचारेयव्वो, जाव छक्कसंजोगा, अहवा दो सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहे सत्तमाए होजा, ४२ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एमे सक्करप्पभाए जाव एगे अहे सत्तमाए होजा १७१६ ॥ १० ॥ अट्ठ भंते !, रइया गेरइय पद होते हैं इस तरह दोनों का गुनाकार करने से ४२ भांगे होते हैं और सात संयोगी एक भांगा होता भी है यों सब मीलकर १७१६ भांगे सात जीव आश्री होते हैं. अब उप्त का विवरण करते हैं. सातों ही रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे यावत् स्वातों ही सातवी तम तम प्रभा में उत्पन्न होवे. अथवा एक रत्नप्रभा में छ शर्कर प्रभा में ऐसे ही इस क्रम से जैसे छ जीव के द्विसंयोगी भांगे कहे वैसे कहना परंतु इसमें एक अधिक कहना यों १२६ भांगे होते हैं. तीन संयोगी ५२५ होते हैं. चतुष्क संयोगी ७०० भांगे पांच संयोगी ३१५१ छ संयोगी ४२ भांगे जैसे छ जीव आश्री कई वैसे ही सात जीव आश्री जानना. विशेष में एक २ अधिक बहाना. इसका अंतिम भांगा दो शर्कर प्रभा में, एक बालुमभामें, एक पंकमभामें, एक धूम्रप्रभा में एक तमप्रभा १ और एक तम तम प्रभा में और सात संयोगी एक भांगा होता यो सात जीव भाश्री सब मीलकर .११७१६ भांगे हुए ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! आठ नारकी नरक गति में प्रवेशन से प्रवेश करते हुए क्या 48नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा . Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पवेसण एणं पत्रेसमाणा किं रयणप्पभाए होजा ? गंगेया ! रयणप्पभाएवा होज्जा, जाव अहे सत्तमाएवा होजा ७ । एगे रयणप्पभाए सत्त सक्करप्पभाए होजा, एवं दुयसंजोगो १४७ ॥ तियसंजोगो ७३५ चउक्कजोगो १२२५ ॥ पंच संजोगो ७३५ ॥ जाव छक्कसंजोगोय जहा सत्तहिं भणियं तहा अट्टहावि भाणि - यव्वं, णवरं एक्केको अब्भहिओ, सेसं तंचेव जाव छक्कसंजोगस्स अहवा तिण सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा ॥ १४७ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए जाव दो तमाए, एगे अहे सत्तमाए होजा । एवं संचारेयव्वं, जाव अहवा दो रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, जात्र एगे अहे सत्तमाए होजा ७ ॥ ( रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे यावत् मातवी तम तम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! आठों नारकी रत्नप्रभा { में यावत् तम तम प्रभा में उत्पन्न होत्रे यो असंयोगी सात भांगे हुए. एक रत्नप्रभा में सात शर्कर प्रभा { में ऐसे द्विसंयोगी १४७ भांगे होवे क्यों कि सात नरक के द्विसंयोगी २१ पद होते हैं और आठ जीवों के (द्वियोगी सात विकल्प होते हैं इस से १४७ भांगे होवे तीन संयोगी के ७३५ भांगे होवे क्योंकी पद ३५ { हैं और विकल्प २१ होते हैं इस से ७३५ भांगे होते हैं. चतुष्क संयोगी १२२५, पांचसंयोगी ७३२ छ संयोगी १४७ सात संयोगी ६ यों सब मीलकर ३००३ भांगे सात संयोगी के जैसे कहे वैसे कहना ॥ ११ ॥ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १.३०४ Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 887 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र ३०.३ ॥११॥णव भंते ! रइया णेरइय पवेसणएणं पवेसमाणा किं रयण. प्पभाए होजा पुच्छा ? गंगेया ! णव रयणप्पभाएवा होजा जाव अहे सत्तमाएवा होजा ७ । अहवा एगे रयणप्पभाए अट्ट सक्करप्पभाए होज्जा, एवं दुयसंजोगो जाव सत्तग संजोगोय जहा अट्टण्हं भणियं तहा णवण्हंपि भाणियव्वं, णवरं एक्कक्को अन्भहिओ संचारयव्वो सेसं तचव पच्छिमो आलावमो अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, एगे वालयप्पभाए जाव एगे अहं सत्तमाए होंजा ५०.५ ॥ १२ ॥ दस भंते! णेरड्या नरइय. पवेसणएणं पसमाणारियणप्पभाए होजा पच्छा? गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे सत्तमाएवा होजा ७ ॥ अहंवा एगे रयणप्पभाए नव अहो भगवन् ! नत्र नारकी प्रवेशन से उत्पन्न होते क्या र०में उत्पन्न होवे यावत् तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! असंयोगी मात मांगे नवर० में यावत् नव तमतम प्रश में उत्पन्न होवे. अथवा एक र० में आठ श में यों द्विसंयोगी १६८ भांगे, तीन संयोगी २८०, चतुष्क संयोगी:१९६० पांच संयोगी १४७० छ संयोगी ३१२ और सात संयोगी २८ भांगे यों सब मीलकर ५००५ भांगे होते हैं. इस का कथन आठ जीवों की प्रवेशना जैसे कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! दश जीव उत्पन्न होते क्या २० में उत्पन्न होवे यावत् तमत्तम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! दश जीव साथही र० में उत्पन्न होवे यावत 90 नववा शतकका बत्तीमत्रा उद्दशा भावार्थ क 488 Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक कापजी + सरप्पभाएवा होजा, एवं दुयसंजोगो जात्र सत्तसंजोगो जहा णत्रण्हं णवरं एकेको अब्भहिओ संचारेयत्रो सेसं तंचेव पच्छिमो आलावगी अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एमे सकरप्पभाए, जब एगे अहे सत्तमाए होजा, ८४ ॥ ८००८ ॥ १३ ॥ संखेज्जा भंते! णेरड्या णेरइय पवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा ? गंगेया ! स्यणप्पभाएवा होज्जा, जाव अहवा अहे सत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए, एवं जाव, अहवा एगे रयणप्पभाए संखज्जा आहेसत्तमाए होजा || अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होजा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा अहे सत्ताए होजा अहवा तिििण रयणप्पभाए होजा, संखेज्जा सक्करप्पभाए होजा एवं तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे यों असंयोगी ७ भांगे हावे. द्विसंयोगी १८९ भांगे, तीन संयोगी १२६० चतुष्क संयोगी २९४० पांच संयोगी २६४० छ संयोगी ८८२ और सात संयोगी ८४ यो सब मीलकर ८००८ भांगे होते हैं ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! संख्याते नारकी प्रवेशन से नरक में उत्पन्न होते क्या र० में यावत् । तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! संख्याते नारकी र० में यावत् तमतम प्रभामें उत्पन्न होवे. यह अ संयोगी ७ भांगे हुवे, द्विसंयोगी २३१ तीन संयोगी ७३५ चार संयोगी १०८५ पांच संयोगी ८६१ छ संयोगी ३५७ और सात संयोगी ६१ पद होवे सब मिलकर ३३३७ भांगे होते हैं: एकर में संख्यात श० में यावत् एक र० में * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १३०६ Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > एएणं कमेणं एकेको संचारयन्वो जाव अहवा दस रयणप्पभाए, संखेजा सकरप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा ६ ॥ अहवा संखजा रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए होजा। जाव अहबा संखेजा रयणप्पभाए संखजा " हे सत्तमाए होजा ६॥ अहवा .एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा । एवं जहा रयणप्पभा उवरिम पुढवीहिं समं चरिया एवं सक्कर प्पभावि, उवरिमपुढवीहिं संचारेयब्बा, एवं एकका पुढवी उवरिम पुढवीहिं समं भावार्थ संख्यात सातवी तम तम प्रभामें यों ६ दो रत्न प्रभाग संख्यात शर्कर प्रभामें यावत् दो रत्नप्रभा में है संख्याते तमतम प्रभामें, तीन रत्न प्रभा में संख्याते शर्कर प्रभा में यावत् तीन रत्न प्रभा में संख्याते तमतमई प्रभा में यों एक बोलकी वृद्धि करते हुए कहना. यावत् दश रत्न प्रभा में संख्यात शर्करं प्रभा में यावत् दश रत्न प्रभा में संख्यात सातवी तमतम पृथ्वी में अथवा संख्यात रत्न प्रभा में संख्यात शर्कर प्रभा में यावत् संख्यात रल प्रभा में संख्यात तमतम प्रभा में अथवा एक रत्न प्रभा में संख्यात बालु प्रभा में यों जैसे रत्न प्रभा का कथन किया वैसे ही उपरकी सब गिनती करना. यों सब मीलकर 15 १२३१ द्वि संयोगी भांगे हुवे. अब तीन संयोगी कहते हैं एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा में संख्यात पंचमांग विवाह पगति (भगवती) सूत्र 488+ AnmnmAniwww नववा शतकका बत्तीसवा उद्देशा Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है १३०८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मानि श्री. अमोलक ऋषिजी. nownwww संचारेयव्याजाव अहवा संखेज्जातमाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होजा२३१॥अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए संखमा पंकप्पभाए जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए, संखज्जा अहे सत्तमाए होजा. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा! जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखजा अहे सत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए तिाण सक्करप्पभाए, संखेजा वालुयप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारयव्वो, सक्करप्पभाए जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेजा वालु प्रभा में यावत् एक रत्न प्रभा में, एक शर्कर प्रभा में संख्यात तमतम प्रभा में यों पांच भांगे अथवा एक रत्न प्रभा में दो शर्कर प्रभा में संख्यात बालु प्रभा में यावत् एक रन प्रभा में दो शर्कर प्रभा में संख्यात तमतम प्रभा में अथवा एक रत्न प्रभा में तीन शर्कर प्रभा में संख्यात वालु प्रभा में यावत एक रन प्रभा में तीन शर्कर प्रभामें संख्यात तमतमप्रभा में यों इस क्रमसे एक २ भांगा कहना अथवा एक रत्नप्रभा संख्यात शर्कर प्रभा संख्यात बालुप्रभा यावत् एक रत्नप्रभा मख्यात शर्कर प्रभा संख्यात तमतम प्रभा अथवा दो रत्नप्रभा संख्यात शर्कर प्रभा संख्यात वालु प्रभा यावत् दो रत्नप्रभा संख्यात शर्कर प्रभ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र सक्करपभाए संखेज्जा वालयप्पभाए होज्जा, जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा, अहवा दो रयणप्पभाए संखज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाष होजा जाव अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा । अहवाणि रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए, संखेज्जा वालुभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एक्केको रयणप्पभाए संचारेयव्यो जाव अहवा संखेजा रयणप्पभाए. संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा, जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए, संखेज्जा अहे सत्तमाए होजां ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, संखेजा पंकप्पभाए होज्जा, जात्र एगे रयणप्पभाए, एगे वायप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा । अहवा एगे रयणप्पभाए { संख्यात तमतम प्रभा. यों इस क्रम से एक २ बढाते संख्यात रत्न प्रभा, संख्यात (शर्कर प्रभा संख्यात तमतम प्रभा तक होवे. अथवा एक रत्न प्रभा में एक शर्कर प्रभा संख्यात पंक प्रभा में यावत् एक रत्न प्रभा में एक बालु प्रभा में संख्यात तमतम मभा में अथवा एक रत्न प्रभा में दो बालु गंभों में संख्यात पंक प्रभा में यों इस क्रम से तीन संयोग चतुष्क 8वां शतकका बत्तीसवा उद्देशा १३.९ Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tra दो वालुयप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होज्जा ॥ एवं एएणं कमेणं तिय संजोयो, चउक.... संजोगो जाव सत्त संजोगो जहा दसण्हं तहेव भाणियन्वो पच्छिमगो आलावगो सत्त संजोगस्स अहवा संखेजा रयणप्पभाए संखजा सक्करप्पभाए जाव संखेजा अहे सत्तमाए होज्जा ६१ ॥ ३३३७ ॥ १४ ॥ असंखेज्जा भंते । णेरइया गेरइय पवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा ? गंगेया ! रयणप्पभाएवा होजा जाव अहे सत्तमाए वा होजा ७ ॥ अहवा एगे रयणप्पभाए असंखज्जा सकरप्पभाए होजा, एवं दुयसं. जोगो, जाव सत्तगसंजोगोय जहा संखजाणं भणिओ तहा असंखेजाणवि भाणियन्नो भावार्थ भयोगी यावत् मात भयोगी भांगे जैसे दश के कहे वैसे ही कहना. अंतिम पालापक. संख्यात रत्न प्रभा में संख्यात शर्कर प्रभा में यावत् संख्यात तमतम प्रभा में यों संख्यात जीव आश्री सब मिलकर ३३३७ भांगे । होते हैं ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! असंख्यात जीव प्रवेशन मे नरक में उत्पन्न होते क्या रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् तमतम प्रभा में उत्पन होवे ? अहो गांगेय ! रत्न प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् तमतम । लमभा में उत्पन्न होवे. यों एक संयोगी भांगे होते. दियोगी २५२ तीन संयोगी ८०५ चार संयोगी १११९० पांच संयोगी ९४५ छ संयोगी ३९२ और सात संयोगी ६७ यो ३६५८ होते हैं. असंख्यात. 47 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी wwwwwwwww • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवरं असंखजाओ अब्भहिओ भाणियन्वो, सेसं तंचेव ॥ जाव सत्तग संजोगस्स पाच्छमओ आलाबगो, अहवा असखजा रयणप्पभाए असंखजा सक्करप्पभाए जाव असंखेजा अहे सत्तमाए होजा, ६,७ ॥ ३६५८ ॥१५॥ उक्कोसणं भंते ! णेरइया णेरइय पवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा? गंगया!सव्ववि ताव रयणप्पभाए होजा,अहवारयणप्पभाए, सक्करप्पभाएय होजा । अहवा रयणप्पभायए वालुयप्पभायए होजा, जाव अहवा रयणप्पभाएय अहे सत्तमाएय होजा ६ ॥ अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभा एय वालुयप्पभाएय होजा, एवं जाव अहवा रयणप्पभाएय, सक्करभावार्थ रत्न प्रमा में उत्पन्न होवे यावत् असंख्यात सातवी तमतम प्रभा में उत्पन्न होवे. यों असंयोगी सात से भांगे. अथवा एक रत्नप्रभा में असंख्यात शर्कर प्रभा में वगैरह संख्यात संयोगी का कहा वैसे ही. असंख्यात संयोगी का जानना. विशेष में संख्यान के स्थान असंख्यात कहना. इस का अंतिम भांगा असं ख्यात रत्न प्रभा में असंख्यात शर्कर प्रभा में यावत् असंख्यात तपतम प्रभा में जानना. यों सब मीलकर, 3 १३६९८ भांगे होते हैं ॥ १५ ॥ अब प्रकारान्तर से नारकी प्रवेशन कहते हैं. अहो भगवन् ! नरक में उत्कृष्ट प्रवेशन करते हुए किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! सब जीव स्ल प्रभा में उत्पन होये ७० विवाह पण्णनि (भगवती ) सूत्र 298 428 नववा शतक का बचीसवा उद्देशा पंचांग Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी प्पभाएय अहे सत्तमाएय होज्जा ५ । अहवा रयणप्पभाएय वालुयप्पभाएय, पंकप्प- : * भाएय १ । जाव अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए, अहे सत्तमाए. होजा, अहवा रयणप्प भाएय पंकप्पभाएय धूमाएय होजा, १॥एवं रयणप्पमं अमुयं तेसु जहा तिह, तिय संजोगो भणिआ तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयणप्पभाएय तमाएय अहे सत्तमाएय होजा १५ ॥ अहवा रयणप्पभाए सकरप्पभाएय, वालुयप्पभाएय, पंकप्पभाएय, होजा, अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय वालुयप्पभाएय, धूमप्पमाएय होज्जा. जाव अहवा रयणप्पभाएय, सकरप्पभाएय, वालुयप्पभाएय, अहे सत्तमाएय होजा॥ अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय, पंकप्पभाएय, धूमप्पभाएय होज्जा एवं रयणअथवा रत्न प्रभा शर्कर प्रभा में उत्पन्न होवे यावत् रत्न प्रभा तमलम प्रभा में उत्पन्न होवे यो द्विसंयोगी - १६ भांगे अथवा. रत्न प्रभा में शर्कर प्रभा में बालु प्रभा में यावत् रत्न सभा में शर्कर प्रभा में तमतम प्रभा में अथवा रत्न प्रभा में बाल प्रभा में पंक प्रभा में यावत् र प्रभा में वालु प्रभा में तमतम प्रभा में अथवा रतन प्रभा में पक प्रभा में, भूत्र प्रश में यों रत्न प्रभा पृथी की साथ सब तीन संयोगी भांगे कहना यावत् रल प्रभा में तम प्रभा में तपतम प्रभा में कहना. यों १५ भांगे हुए. अब चतुष्क संयोगी भांगे कहते हैं * प्रकाशकाजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ds पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती । पूव A प्पभं अमुयं तेसु जहा चउण्हं चउकसंजोगो तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयण. प्पभाएय, धूमप्पभाएय तमाएय, अहे सत्तमाएय होजा २० । अहवा रयणप्पभाएय, सकरप्पभाएय, बालुयप्पभाएय, पंकप्पभाएय, धूमप्पभाएय होज्जा ॥ अहवा रयणप्पभा एय जाव पंकप्पभाएय, तमाएय होजा ॥ अहवा रयणप्पभाए, जाव पंकप्पभाएय अहे सत्तमाएय होजा ३ ॥ अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय वालुयप्पभाएय, धूमप्पभाएय, तमाएय होजा, एवं रयणप्पभं अमयं तेमु जहा पंचण्हं पंचसंजोगो तहा भाणियव्यं जाव अहवा रयणप्पभाएय पंकप्पभाए. धूमप्पभाएय, तमाएय अहे सत्तमाएय होजा १५ ॥ अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय वालुयप्पभाएय, रत्नप्रभा में, शर्करप्रभा में वालुप्रभा में पंकप्रभामें उत्पन्न होवे अथवा रत्नप्रभा में शर्करप्रभा में बालसभा में धूम्र प्रभा में यावत् रत्न प्रभा में शर्कर प्रभा में बालु प्रभा में तमतम प्रभा में अथवा रत्न प्रभा शर्कर प्रभा पंक प्रभा धूम्र प्रभा यों चार संयोगी सब भांगे यावत् रत्न प्रभा धूम्र प्रभा, तम प्रभा व तमतम प्रभातक कहना. अब पांच संयोगी रत्न प्रभा, शर्कर प्रभा, बालु प्रभा पंक प्रभा धूम्र प्रभा, यों सब यावत् रत्न प्रभा पंक प्रभा धूम ममा तम ममा तमतम प्रभा, यों पांच संयोगी १५ भांगे होते हैं. अब छ संयोगी १ रत्न " ०१:०४> नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा 9887 भावाथ 8 Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाचहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* पंकप्प पंकप्पभाएय, धूमप्पभाएय, तमाएय होजा, अहवा रयणप्पभाएय जाव धूमध्पभाएय अहे समाएय होज्जा | अहवा रयणप्पभाएय, सक्करप्पभाएय, वालुयप्पभाएय, भाएय, तमाएय, अहे सत्तमाएय होजा । अहवा रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय, वालुयप्पभाएय, धूमप्पभाएय, तमाएय अहे सत्तमाएय, होज्जा, अहवा रयणप्पभाएय, सक्करप्पभाएय पंकप्पभाएय धूमप्पभाएय तमाएय अहे सत्तमाएय होजा अहवारयणप्पभाएय वालुयप्पभाएय, जाव अहे सत्तमाएय होज्जा ६ | अहवा रयणप्पभाएय, सक्करप्पभाएय, जाव अहे सत्तमाए होजा १६४ ॥ १६ ॥ एयरसणं भंते ! रयणप्पभा पुढवि इय पवेसणगस्स, सकरप्पभा पुढवि नेरइय पवेसणगस्स, जाव अहे सत्तमा पुढवि (प्रभा, शर्कर प्रभा बालु प्रभा पंक प्रभा धूम्र प्रभा तमं प्रभा अथवा २ रत्न प्रभा पंक प्रभा, धूम्र प्रभा तमनम प्रभा ३ रत्न प्रभा शर्कर प्रभा बाल प्रभा पंक प्रभा १४ रत्न प्रभा शर्कर प्रभा बालु प्रभा धूम्र प्रभा तम प्रभा तमतम प्रभा ५ रत्न प्रभा धूम्रप्रभा तमप्रभा तमतमप्रभाव रत्नप्रभा बालुप्रभा पंकप्रभा धूम्रप्रभा नमप्रभा तमतमप्रभा यों उत्कृष्ट पद के ६४ भांगे होते हैं ।। १.६ ॥ अहो भगवन्! इन रत्नप्रभा, शर्करप्रभा वालुप्रभा आदि सातों नरक के प्रवेशन में किसकी शर्कर प्रभा बालु प्रभा । तम प्रभा तमतम प्रभा शर्कर प्रभा पंक प्रभा १३१४ Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 १११पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र की। सात नारकी प्रवेशन से सात नरक में उत्पन्न होवे जिस के भांगे निकालने की रीति ॥ ___ पद. विकल्प. । भांग. १७४-७+-७ असंयोगी | असंयोगी विकल्प १. ७४१७ असंयोगी १७४६%D४२+२=२१ द्विपयोगी -१६१६ द्विसंयोगी २१x६=१२६ द्विसंयोगी 100 २१४५%D१०५+३=३५ तीनसं०६४५=३०+२= १५ तीन सं०३५४१५:५२५ तीन सयोगी ३५४४=१४+४=३५ चारसं०१०x४६०३-२० चार सं० | ३०४२०-७०० चार संयोगी १३५४३%D१०५+५=२१पांचसं० २०४३-२०१४-१५ पांच मं० २१४१५=३१५ पांच संयोगी २१४२-४२+8= ७छयोगी १५४२=३०५-६ छ सं० x६=४२ छ योगी ७.१%D9+७=१ सातमयोगी 8x१-६६=१ सात संयोगी १४१%D१मात योगी २२७ ____ १७१६ पद और विकल्प का गुनाकार करने से भांगे होते हैं. पद का कोठा. अयोगी ७. द्विसंयोगी २१२३२७३७ तीर सं. ३५.१३६ १४६ १६७२३७२५६३४६/३६७५६७ १५ २४३४४५२२ २६.३.१४७, ३४२४५२५७३४७४५६ १-२-३ ४-५-६-७ १६ २५३५४६/६७१२४ १२७१३७.१५६२३५२४६२६७३५६४५७ |१७ २६३६/४७/१२८/१३४१४५१५७२३६२४७३४५/३५७४६७ 48848नववा शतकका बसीसवा उद्देशा-4200 १४ Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - चार संयोगी:५.१४२६२३६७ ४५६७ २ ३४५७२४५६७ । सात संयोगी १. १२३४ १२५७२४५७२४५६ पांच मं. २१.२३४६७३४५६७ १२३४५६७ ३५१२६७२४६७२४१७१२३४५१२४५७२३५६७ ३६१३४५१०६७२४६७१२३४६१२४६७ छ मंयोगी ७. ३७/१३४६२३४५२५६७१२३४७१३४५६५२३४५६१२४५६७ २४५/१३४७२३४६३४५६१२३५६१३४५७१२३४५७/१३४५६७ २४३१३५६२३४७३४५७१२३५७ १३४६७१२३४६७२३४५६७ २४७ १३५७२३५६ ३४६७१२३६७१४५६७१२३५६७ १२८६१३६७२३५७३५६७/२४५६२३४५६ विकल्प का कोठा. असंयोगी एक विकल्प द्विमं. ६.तीन सं० १५.१.४२१५१ ५११. सात नारकी १६/४७/१५/१३३२३२२४१. चार मं. २०.१२२२३११२/१३२२/२३११ स्थान २५५२१२४ २२३३२२३३११११४ उत्पन्न होने मे. ४ | १६२१४ ३१३४१२४२१११ २११३१३१२१.२३१३१२१४११॥ सात सं. १. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ११ पांच सं. ११२१२ १२११२ २१११२/ १११३१/-- ११२२१ 626 २११२१ १२२११ २२१११ ३११११. 2 Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28t णेरइय पवेसणगस्स. कयरे कयेर जाव विसेसाहिएवा ? गंगेया ! सव्वत्थोवे अहे सत्तमा पुढवि णेरइय पवेसणए, तमा पुढवि णेरइय पवेसणए असंखेज्जगुणे । पडिलोमग जाव रयणप्पभा पुढवि णेरइय पवेसणए असंखज्जगुणे ॥ १७ ॥ तिरिक्ख जोणिय पवेसणएण भंते ! कइविहे. पण्णत्ते ? गंगेया ! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा--एगिदिय ___तिरिक्ख जोणिय पवेसणए जाव पचिंदिय तिरिक्ख जोणिय पर्वसणए । एगे भंते ! तिरिक्ख जोणिए तिरिक्ख जोणिय पवेसणएणं पवेसमाणे किं एगिदिएसु होजा जाव पांचंदिएसु होजा ? गंगेया ! एगिदिएसुवा होजा जाव पंचिंदिएसु वा होज्जा ५॥ भावार्थ प्रवेशना अल्प बहुत्व यावत् विशेषाधिक है ? अहो गांगेय ! सर से थोडी सातवी नरक की प्रवेशना E क्योंकि वहां थोडे जीव उत्पन्न होते हैं, इस से छठी नरक की प्रवेशना असंख्यात गुनी इस से पांचवी नरक की प्रवेशना असंख्यात गती इस से चौथी नरक की प्रबंशना असंख्यात गुनी इम से तीसरी नरक की प्रवेशना असंख्यात गुनी इस से दूसरी नरक की प्रवेशना असंख्यात गुनी इस से पहिली नरक की। ॐ प्रवेशना असंख्यात गुनी. यह नरक प्रवेशना का अधिकार संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! तिर्यच 1 योनि के प्रवेशन कितने कहे हैं ? अहो गांगेय ! तियेच योनि के प्रवेशन पांच प्रकार के कहे हैं एकेंद्रिय । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) स्व नववा शतक का वत्तीमवा उद्दशा Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + भावार्थ दो भंते! तिरिक्ख जोणिय पुच्छा ?गंगेया!एगिदिएसुवा होज्जा जाव पंचिंदिएसुवा होज्जा ५ । अहवा एगे एगिदिसु, एगे बेइंदिएसु होजा । एवं जहा णेरइय श्वे तणए तहा तिरिक्खजोणिय पवेसणएविभाणियव्योजाव असखजा।१८।उक्कोसा भंते!तिारक्खजोणिय पुच्छा ? गंगेया ! सव्येवि ताव एगिदिएसु होजा । अहवा एगिदिए य घेइंदिएमय होजा । एवं जहा णेरइया संचारिया तहा तिरिक्ख जोणियावि संचारेयव्वा, एगिदिया अमुयतेसु दुयसंजोगो, तियसंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगोय भाणियव्यो जाव तिथंच योनि प्रवेशनक यावत् पंचेन्द्रिय निर्यच योनिक प्रवेश क. अहो भगवन् ! एक जीव तिर्यंच योनि में उत्पम होता क्य एफेन्द्रिय में उत्पन्न होवे यावत् पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने ? अहो गांगेय ! एकेन्द्रिय में यावत् पंचेन्द्रियमें उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! दो जीव तिर्यंच योनि में उत्पन्न होने क्या एकेन्द्रिय में उत्पन्न होवे यावत् पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! एफेन्द्रिय में उत्पन्न हावे यावत् पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होवे. अथवा एक एकेन्द्रिय में एक द्विइन्द्रिय में वगैरह मव भांगे नारको जैरे असंख्शात बोल तक कहना. विशेष में नरक में उत्पन्न होने के सात स्थान हैं और तिर्यंच में उत्पन्न होने के पांच स्थान हैं. नरक में असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं. तिथंच में एकेन्द्रियमें अनंत व द्विइन्द्रियादिमें असंख्यात जीव उत्पन्न होते ॥१८॥ अहो भगवन् ! उत्कृष्ट नीव तिर्यंच योनि में कैसे उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! सब जीव एके-ई . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ते ( भगवती सूत्र 44-4 नवत्रा शतक का बत्तीसत्रा उद्देशा - "अहवा एगिदिए बेइदिएमुय जाव पंचिंदिएसुय होजा ॥ १९ ॥ एयरसणं भंते ! एगिंदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणगस्स जाव पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गंगेया ! सव्वत्थावे पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणए, चउरौिंदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणए विसेसाहिए, तेइदियं तिरिक्खजोणिय पवेसणएं विसेसाहिए बेइंदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणए विसेसाहिए, एागेंदिय तिरिक्ख जोणिय पवेसणए विसेसाहिए ॥ २० ॥ मणुस्स पवेसणएणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! दुविहे पण्णत्ते तंजा समुच्छिम मणुस्स पवेसणएय, गम्भवक्कंतिय मणुस्स पत्रेणएय | एगे भंते ! न्द्रियमें उत्पन्न होवे अथवा एकेन्द्रिय द्विइन्द्रियमें उत्पन्न होत्रे वगैरह जैसे नरकका कहा वैसे ही कहना. एकेन्द्रिय ( यावत् तिर्यंच पंचेन्द्रिय में द्विसंयोगी, तीन संयोगी चतुष्क संयोगी व पंच संयोगी तक भांगे कहना ||१२|| अहो! भगवन् ! इन एकेन्द्रिय तिर्यच योनिक यावत् पंचेन्द्रिय तिर्येव योनिक प्रवेशन में से कौन किस से अल्प बहुत्व यावत् विशेषाधिक है ? अहो गांगेय ! सत्र मे थोडे पंचेन्द्रिय तिच इस से चतुरेन्द्रिय विशेषाधिक इस से नेइन्द्रिय विशेषाधिक इस से द्विइन्द्रिय विशेषाधिक इस से एकेन्द्रिय तिर्यंच योनिक प्रवेशन विशेषाधिक || २० || अहो भगवन् ! मनुष्य प्रवेशन के कितने भेद कहे ? अहो गांगेय ! मनुष्य मवे १३१९ Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ 48 अनुवादक - बालह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पण पर्वसमाणे किं समुच्छिममणुस्तेतुलु होजा गन्भवतिय मणुस्सेस होज्जा ? गंगेया ! समुच्छिम मणुस्संसुवा होजा, गब्भवक्कतिय मणुस्सेसुवा होजा, दो भंते! मणुस्सा पुच्छा ? गंगेया ! समुच्छिम मणुस्ससुवा होजा गन्भवकंतिय मणुस्सेसुवा होजा अहवा एगे समुच्छिम मणुस्तेस होजा, एगे गन्भवकंतिय मणुस्सेसु होजा । एवं एएणं कर्मणं जहा नेरइय पर्वसणए तहा मस्त पवेसणएव भाणियव्वे, एवं जात्र दस ॥ संखेज्जाई भंते ! मणुस्स पुच्छा ? गंगेया ! समुच्छिम मणुस्लेसुवा होजा गन्भवतिय मणुस्सुवा होजा, अहवा एगे समुच्छिम मणुस्सेसु संखेजा भवति मस्से हाजा, अहवा दो समुच्छिम मणुस्तेसु संखेजा गन्भवक्कं`शन के दो भेद कहे हैं ? संमूच्छिम मनुष्य प्रवेश २ गर्भज मनुष्य प्रवेशन: अहो भगवन् ! एक मनुष्य प्रवे(शत ने मनुष्य में उत्पन्न होने तो क्या संमूच्छिन में उत्पन्न होवे या गर्भज में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! संमूच्छिम में उत्पन्न होवे गर्भज में भी उत्पन्न होवे अथवा एक संमूच्छिम में एक गर्भज में इसी क्रम से जैसे नारकी का कहा वैसे ही वात तक करना. अहो भगवन् ! संख्यात मनुष्य वशन से क्या संमूड में उत्पन्न होते हैं. या गर्भज में उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! उन मनुष्य में होवे अथवा गर्भज मनुष्य में होते हैं अथवा एक समूच्छिम में संख्यात गर्भज में अथवा दो संमूच्छिममें संख्यात गर्भजमें यावत् प्रकाशक- सजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १३२० Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विवाह षण्णत्ति (भगवती) सूत्र तिय मणुस्सेसु होजा,एवं एक्ककं उसारिएसु जाव अहवा संखेजा समुच्छिम मणुस्सेसु गम्भ वक्कंतिय मणुस्सेसु होज्जा ११ ॥ असंखेजाई भंते ! मणुस्सा पुच्छा ? गंगेया ! सव्वेवि ताव समुच्छिम मणुस्सेसु होजा, अहवा असंखेज्जा समुच्छिम मणुस्सेसु, एगे गब्भवतिय मणुस्सेसु होज्जा, अहवा असंखेज्जा समुच्छिम मणुस्सेसु, दो गब्भवक तिय मणुस्सेसु एवं जाव असंखेजा समुच्छिम मणुस्सेसु, संखेजा गब्भवकंतिय मणु। स्सेसय होज्जा ११ ॥२१॥ उक्कोसा भंते ! मणुस्सा पुच्छा ? गंगेया! सब्वेवि ताव समुच्छिम मणुस्सेसु होज्जा,अहवा समुच्छिम मणुस्सेसुय गब्भवतिय मणुस्सेमुय होज्जा ॥ २२ ॥ एयरसणंभंते!समुच्छिम मणुस्स पवेसणगस्स गन्भवतिय मणुस्स पवेसणगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ?गंगेया ! सम्वत्थोवे गब्भवतिय मणुस्स पवेसणए संख्यात गर्भज में दो संग्राम में यावत् संख्यात संमूच्छिममें संख्यात गर्भन में वहां तक कहना. असंख्यात मनुष्य की पृच्छा. अहो गांगय ! सब संमूच्छिम में होवे अथवा असंख्यात संमूछिम में एक गर्भज में अथवा असंख्यात संमाछममें दो गर्भनमें यावत् अथवा असंख्यात संमच्छिममें संख्यात गर्भनमें उत्पन्न होवे गर्भजी ॐ मनुष्य में असंख्यात जीव उत्पन्न नहीं होते हैं इस से संख्यात ग्रहण किये हैं. ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! उत्कृष्ट मनुष्य किस तरह उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! सब संमूच्छिम में अथवा संमूच्छिम मनुष्य में । > नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा 48 नावार्थ Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी वार्थ समुच्छिम मणुस्स पवेसणए असंखेजगुणे ॥ २३ ॥ देव पवेसणएणं भंते ! कइविहे पणचे ? गंगेया ! चउव्विहे पणते तं जहा भवणवासि देव पवेसणए जाव वैमाणिय देव पवेसणए एगे भंते ! देवे देव पवेसणएण पवेसमाणे किं भवणवासीसु होजा वाणमंतरेसु होजा,जोइसिएसु होजा वेमाणिएसु होजा ?गंगेया! भवणवासीसुवा होज्जा वाणमंतरमुवाहोज्जा जोइसिएसुवा होज्जा, वैमाणिएसुवा होज्जा, ४ ॥ दो भंते ! देवा देव पवेसणएणं पुच्छा ? गंगेया ! भवणवासीसुवा होजा, वाणमंतरेसुवा होजा , गर्भज मनुष्य में उत्पन्न होवे ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! इन संमूञ्छिम व गर्भज मनुष्य में से कौन किस से अधिक यावत् विशेषाधिक है ! अहो गांगेय ! सब से थोडे गर्भज मनुष्य प्रवेशन इस से संमूच्छिम मनुष्य असंख्यात गुने ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! देव प्रवेशन के कितने भेद कहे ? अहो गांगेय ! देव प्रवेशन के चार भेद कहे. भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक. अहो भगवन् ! एक देव । देव प्रवेशन से क्या भव वासी में उत्पन्न होवे, वाणव्यंतर में उत्पन्न होवे, ज्योतिषी में उत्पन्न होवे व वैमा लनिक में उत्पन्न होवे ? अहो गांगेय ! भावासी में उत्पन्न होवे वाणव्यंतर में उत्पन्न होवे, ज्योतिषी में उत्पन्न होवे व वैमानिक में उत्पन्न होवे ऐसे चार भांग जानना. अहो भगवन् ! दो देव देव प्रवेशन से क्या भवनपति में उत्पन्न होवे यावत् वैमानिक में उत्पन्न होने ? अहो गांगेय ! दो देव भवनपति में, * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 48 अनुवादक-बालब्रह्म Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *88 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 1884 जोइसिएसुवा होजा, बेमाणिएसुवा होज्जा, अहवा पंगै भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होजा, एवं जहा तिरिक्ख जोणिय पवेसणए तहेव देव पवेसणएवि भाणियब्वे जाव असंखेजाइं ॥ २४ ॥ उक्कोसा भंते ! पुच्छा ? गंगेया ! सव्वेवि ताव जोइसिएसु होजा, अहवा जोइसिएसुय भवणवासीय होजी, अहवा जोइसिय वाणमंतरसुय होजा, अहवा जोइसिय वेमाणिएसुय होज्जा अहवा जोइसिएसुय भवणवासीय वाणमंतरेसुय होज्जा, अहवा जोइसिएसुय भवणवासिएसुय वेमाणिएसुय होजा, अहवा जोइसिएसुय वाणमंतरेसुय वेमाणिएसुय होजा, अहवा जोइसिएसुय भवणवासीय वाणमंतरेसुय, वेमाणिएसुय होजा ॥२५॥ एयस्सणं भंते ! भवणवासि देव पवेसणवाणव्यंतर में, ज्योतिषी में व वैमानिक में उत्पन्न होवे अथवा एक भवनपति में एक बाणभ्यंतर में ऐसे ही जैसे तिर्यंच का प्रवेशन कहा वैसे ही देव प्रवेशन कहना यावत् असंख्यात तक कहना ॥ २४ ॥ अब उत्कृष्ट देव प्रवेशन आश्री कहते हैं. अहो गांगेय ! सब जीव ज्योतिषी में उत्पन्न होवे (देवगति में 3% ज्योतिषीगामी अधिक उत्पन्न होने के कारन ज्योतिषी का पद प्रथम ग्रहण किया है. ) अथवा ज्योतिषी, भवनपति अथवा मोतिषी वाणव्यंतर अथवा ज्योतिषी वैमानिक यह द्विसंयोगी भांगे कहे. अब तीन । नववा शतकका पत्नीसवा उद्देशा 408 488 Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ गस्स वाणमंतरदेव पवेसणगस्स जीइसियदेव पवेसणगरस, वैमाणियदेव पवेसणगरस, कयरे २ जाव विसाहियावा ? गंगेया ! सव्वत्थोवे वैमाणिय देवपवेसणए, भवण वासिदेव पवेसणए असंखेजगुणे, वाणमंतरदेव पवेसणए असंखेज्जगुणे, जोइसियदेव पत्रेण संखज्जगुणे ॥ २६ ॥ एयरसणं भंते ! णेरइय पवेसणगस्स, तिरिक्ख जोणिय पवेसणगर मणुस्स पवेसणगस्स, देव पवेसणगस्स कथरे कयरे जाव विसेलाहियावा ? गंगेया ! सव्वत्योत्रे मणुस्स पबेसणए, णेरइय पत्रेसणए असंखेज्जगुणे, देव पवेसणए असंखेजगुणे, तिरिक्ख जोणिय पत्रेसणए असंखेज्जगुणे ॥ २७ ॥ संयोगी भांगे कहते हैं ज्योतिषी, भवनपति घाणव्यंतर ज्योतिषी भवनपति वैमानिक, ज्योतिषी वाणव्यंतर वैमानिक अथवा ज्योतिषी भवनपति वाणव्यंतर वैमानिक में उत्पन्न होवे || २५ || अहो भगवन् ! इन भवनपति वाणव्यंतर ज्योतिनी व वैमानिक देव प्रवेशन में से कौन किन से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गांगेय ! सब मे थोडे वैमानिक देव इस से भवनपति देव असंख्यात गुने, इस मे वाणव्यंतर देव असंख्यात गुने इस से ज्योतिषी देव संख्यात गुने || २६ || अहो भगवन् ! नरक निर्येच मनुष्य व देव प्रदेशन में से कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गांगेय ! सब से थोडे मनुष्य 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायती ज्वालाप्रसादजी * १३२४ Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र संतरं भंते ! रइया उववजंति निरंतरं णेरइया उवचनंति. संतरं असुरकुमारा उववज्जति निरंतरं अनुरकुमारा उववज्जंति जाव संतरं वैमाणिया उवत्रजंति, निरंतरं वेमाणिया उववज्जंति ॥ संतरं णेरड्या उव्वहंति, निरंतरं णेरइया उव्वहति, जाव संतरं वाणमंतरा उच्चहंति, निरंतर वाणमंतरा उन्नति, संतरं जोइसिया चयंति, निरंतरं जोइसिया चयंति, संतरं वेमाणिया चयंति, निरंतरं माणिया चयंति ? गंगेया ! संतरंपि णेरड्या उववज्जति, निरंतरंषि नेरइया उववज्जति जाव संतरंपि थाजयकुमारा उववज्र्जति, निरंतरपि थणियकुमारा उववज्जंति, णो संतरं पुढची काइया उववज्जंति निरंतरं पुढवीकाइया उववजंति, एवं जाव वणप्रवेशन, इस से नारकी प्रवेशन असंख्यात गो, इस से देव प्रवेशन असंख्यात गुने, इस से तिर्यच प्रवेशन असंख्यात गुने || २७ || अब नरकादि में उत्पाद उद्वर्तन मांतर निरंतर का निरूपन करते हैं. अहो भगवन् ! अंतर सहित नारकी उत्पन्न होते हैं या निरंतर नारकी उत्पन्न होते हैं अंतर सहित असुर कुमार उत्पन्न होते हैं या निरंतर असुर कुमार उत्पन्न होते हैं यावत् अंतर सहित वैमानिक उत्पन्न होते हैं या निरंतर वैमानिक उत्पन्न होते हैं ? अंतर साहेब नारकी उद्वर्तते है या निरंतर उगते हैं यावत् अंतर 4+4 नववा शतकका बत्तीमा उद्देशा १६२५ Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ स्सइकाइया सेसा जहा णेरइया जाव संतरपि बेमाणिया उवक्जंति, निरंतरंपि वेमाणिया उववज्जति ॥ संतरपि नेरइया उन्वटंति निरंतरंपि नेरइया उव्वटंति एवं जाव थणिय कमारा णो संतरं पढविकाइया उवटंति निरंतरं पढवी काइया उव्वदंति. एवं जात्र वणस्सइ काइया, सेसा जहा जेरइया, णवरं जोइसिया वेमाणिया चयंति अभिलायो जाव संतरंपि वेमाणिया चयंति निरंतरंपि वेमाणिया चयंति ॥ २८ ॥ सओ भंते! णेरइया उववजंति, असतो भंते ! जेरइया उववजंति? गंगेया ! सओ णेरइया उववजंति णो असतो जेरइया उववजंति, एवं जाव वेमाणिया ॥ सओ भंते! णेरइया सहित वाणव्यंतर उद्वर्तते हैं या निरंतर उर्तते हैं अंतर सहित ज्योतिषी चवते हैं या निरंतर चवते व अंतर सहित वैमानिक चवते हैं या निरंतर वैमानिक चवते हैं ? अहो गांगेय ! अंतर सहित नारकी. उत्पन्न होते हैं और निरंतर उत्पन्न होते हैं यावत् अंतर सहित स्थनित कुमार उत्पन्न होते हैं निरंतर स्थनित कुमार उत्पन्न होते हैं पृथ्वीकाय सांतर उत्पन्न नहीं होते हैं परंतु निरंतर उत्पन्न होते हैं यावत् वनस्पति काय निरंतर हैं यावत् अंतर सहित वैमानिक उत्पन्न होते हैं व निरंतर उत्पन्न होते हैं. अंतर सहित नारकी उद्धर्तते हैं निरंतर नारकी उद्वर्तते हैं ऐसे ही स्थनित कुमार तक कहना. और पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * वार्य। Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ १३२७ भावार्थ 42 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 4.98 उव्वदृति असओ णेरइया उव्वटंति ? गंगेया ! सओ णेरइया उव्वटंति णो असओ णेरइया उन्वति एवं जाव वेमाणिया, णवरं जोइसिय वेमाणिएसु चयंति भाणियन्वं सओ भंते ! णेरइया उववजंति असओ णेरइया उववज्जति सओ असुरकुमारा उववनंति एवं जाव सओ वेमाणिया उववजंति, असओ वेमाणिया उववजंति, है सओ णेरइया उव्वटुंति, असओ गेरइया उव्वटंति, सओ असुरकुमारा उव्वति जाव सओ वेमाणिया चयंति असओ बेमाणिया चयति ? गगेया ! निरंतर उद्वर्तते हैं शेष सब अंतर सहित उद्वर्तते हैं और निरंतर उद्वर्तते हैं. मात्र ज्योतिषी व वैमानिक में सांतर व निरंतर चवने का आलापक कहा ॥ २८ ॥ अहो. भगवन् ! क्या छता नारर्क उत्पन्न होवे या अंछता नारकी उत्पन्न होवे ? अहो गागेय ! छता नारकी उत्पन्न होवे परंतु अछता नारकी उत्पन्न होवे नहीं. अहो भगवन् ! छता नारकी उर्तते हैं अछता नारकी उर्तते हैं ? अहो गांगय ! छता नारकी उद्वर्तते हैं अछता नारकी नहीं उर्तते हैं. ऐसे ही यावत् वैमानिक छता १ संतो विद्यमाना द्रव्यार्थतया नहि सर्वथैव सत्किचिदुत्पद्यते अर्थात् द्रार्थपने विद्यमान होवे किचिन्मात्र भी अवि१ द्यमानता न होवे अथवा पर्याय, भाव नारकी की अपेक्षा से द्रव्यसे नारकी उत्पन्न होवे अथवा नरक के आयुष्य से है भाव नारकी उत्पन्न होवे सो छता २ खरश्रृंगवत् जो भाव सो अछता. नववा शतकका बत्तीसवा उद्देशा 98800 Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्र भावार्थ +9 अनुवादक - बालह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *-- सओ रइया उववजंति, णो असओ णेरइया उवत्रजंति, सओ असुर कुमारा उवजंति, णो असओ असुर कुमारा उववजंति, जाव सओ वेमाणिया उववजंति णो असओ वेमाणिया उववजंति, सओ णेरइया उन्हंति णो असओ रइया उव्वहंति जाव सओ माणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ सओ फेरइया उववजंति, णो असओ णरइया उववज्जंति, जाव सओ वैमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ? से णूणंभो गंगेया ? पासेणं अरहा पुरिसादाणिवैमानिक चलते हैं परंतु अछता वैमानिक नहीं चश्ते अहां भगवन् ! क्या छता नारकी उत्पन्न होते { अछता नारकी उत्पन्न होते हैं छता अमुर कुमार उत्पन्न होते हैं अछता अमुर कुमार उत्पन्न होते हैं यावत् {छता वैमानिक उत्पन्न होते हैं अछता वैमानिक उत्पन्न होते हैं अथवा छता नारकी उद्वर्तते हैं अछता { नारकी उद्वर्तने हैं यावत् छता वैमानिक चवते हैं अछता वैमानिक चलते हैं ? अहो गांगेय ! छता नारकी उत्पन्न होते हैं परंतु अछता नारकी नहीं उत्पन्न होने हैं यावत् छता वैमानिक उत्पन्न होते हैं परंतु { अछता वैमानिक नहीं उत्पन्न होते हैं और छता नारकी उद्वर्तते हैं ( यावत् छता वैमानिक चवते हैं परंतु अछता वैमानिक नहीं चवते हैं. परंतु अछता नारकी नहीं उद्वर्तते हैं, अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि छता नारकी उत्पन्न होते हैं परंतु अछता नारकी नहीं उत्पन्न होते हैं यावत् छता वैमा ● प्रकाशक- राजादहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी १३२८ Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एणं सासएलोए वुइए अगाइए अणवदग्गे जहा पंचमेसए जाव जे लोकइ से लोए, से तेणट्रेणं गंगेया! एवं वुच्चइ जाव सोवेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ॥२९॥ सयं भंते! एय एव जाणाह उदाहु अतयं,अतोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा, सओ णेरइया उववजंति णो असओ जरइया उववजति जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयति ? गंगेया ! सयं एते एवं जाणामि णो असयं असोच्चा एते एवं जाणामि, णो सोच्चा सओ गेरइया उववजति णो असओ णेरइया उववजंति निक चवते हैं और अछता वैमानिक नहीं चवते हैं ? अहो गांगेय ! पुरुपादाणीय श्री पार्श्वनाथ स्वामीने से शाश्वत अनादि अनंत लोक कहा है वगैरह जैसे पांचवे शतक में यावत् जो देखा जाता है मो लोक है. आ गांगेय ! इसे ऐसा कहा गया है कि छता नारकी उत्पन्न होते हैं यावत छना वैमानिक चवते अछता वैमानिक नहीं चवते हैं. ॥ २२ ।। इस प्रकार गांगेय अनगार भगवंत को अतिशय ज्ञान संपदावंत जानकर विकल्प कहता हुवा करने लगा कि अहो भावन् ! छता नारकी उत्पन्न होते हैं : यावत् छता वैमानिक चवते हैं परंतु अछता वैमानिक नहीं चाते हैं यह आप स्वयं जानते हैं, परकीय की पाम से जानने हैं, अथवा विनामुना जानते हैं या मुनकर जानते हैं ? अहो गांगेय ! मैं स्वयं ऐसा जानता हूं, परंतु अन्य की पास से ऐसा नहीं जाना है, विना मुनाही ऐसा जानता हूं. अहो भगवन् ! 80 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 49030 नववा शतक का बत्तीमचा उद्दशा %80 भावार्थ Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३० भावार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमोलक ऋषिनी जाव सओ वेमाणिया चयंति णो असओ वेमाणिया चयंति ॥ से केणट्रेणं भंते ! एनं वुच्चइ तंत्र जाव णो असओ वेमाणिया चयंति ? गंगेया ! केवलीणं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ अमियंपि जाणइ, दाहिणणं एवं जहासदुद्देसए जाव णिबुडेणाण केवलि स्स से तेणटेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ तंचव जाव णो असओ वमाणिया चयति॥३०॥ संयं भंते णेरइया णेरइएसु उववजंति असयं णेरइयाणेरइएसु उववजंति?गंगेया! सयं णेरइया णेरइएसु उववजति णो असयं णेरइया रइएसु उववज्जति, ॥ से केणटेणं यह किस तरह ऐमा कहा जाता हैं यावत् अछता वैमानिक नहीं चलते हैं ? अहो गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्व में रहे हुवे पदार्थों को मर्यादा से जानते हैं अथवा अमर्यादा से जानते हैं ऐसे ही दक्षिण पश्चिम उत्तर ऊंची नीची इन सब दिशाओं में रहे हुवे मर्यादित पदार्थ को जानते हैं, अमर्यादित पदार्थ को जानते हैं। यावत् केवल ज्ञानी निरावरण ज्ञान के धारक हैं. इस कारन से अहो गांगेय ! ऐसा कहा कि नरक यावत् असत्य उत्पन्न नहीं होते हैं व असत्य नहीं चवते हैं ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी स्वयं नरक में उत्पन्न होते हैं या अस्वयं ( अन्य के वशसे ) नरक में उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! नारकी स्वयं उत्पन्न होते हैं परंतु अन्य की प्रेरणा से नहीं उत्पन्न होते हैं. अहो भागवन् ! किस कारनसे नारकी स्वयं उत्पन्न होते हैं परंतु अन्य की प्रेरणा से नहीं उत्पन होते हैं ? अहो गांगेय ! कर्म के * भकाशक-राजावहादर लाला सुखदवस हायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 88 १३३१ भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववजंति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्म गुरुयत्ताए कम्म भारियाए, कम्मगुरुयसंभारियत्ताए असुभाणं कम्माणं उदएणं असुभाणं कम्माणं विवागेणं, असुभाणं कम्माणं फल विवागणं सयं णेरइया णेरइएसु उववजंति से तेण?णं गंगेया ! जाव उववर्जति, ॥३१॥ सय भंते! असुरकुमारा पुच्छा ? गगयो! सयं असुरकुमारा उववज्जति णो असयं असुर कुमारा उववजंति ॥ से केणटेणं चित्र जाव उववजंति?गंगेया! कम्मोदएणं कम्मोवरमेणं कम्मवियइए कम्मविसोहीए कम्मवि सुडीए सुभाणं कम्माणं उदएणं सुभाणं कम्माणविवागेणं सुभाणं कम्माणं फलविवागणं उदय से, कर्म की गुरुता से, कर्म के वजन से, कर्म की गुरुता व वजन से, अशुभ कर्म के उदय से, अशुभ कर्म के विपाक से, और अशुभ कर्म के फल विपाक से नारको स्वयं नरक में उत्पन्न होते। गांगेय ! इसी से ऐसा कहा है कि नारकी स्वयं उत्पन्न होते हैं ॥ ३१॥ अहो भगवन् ! क्या अमुर कुमार स्वयं भुवनपति में उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! असुर कुमार स्वयं उत्पम होते हैं परंतु अस्वयं नहीं उत्पन्न होने हैं. अहो भगवन् ! किस कारन स असुर कुमार स्वयं उत्पन्न होते हैं ? अहो गांगेय ! 16 कर्मोदय से, कर्मोपशम से, अशुभ कर्म की विशुदि से, कर्म प्रदेश की विशुदि से, शुभ कर्म के उदय से, - पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र नवना शतकका बत्तीसवा उद्देशा 9848 भावार्थ Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ammovarana १३३२ M ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी 22 सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए जाव उववजांति णो असयं असुरकुमारा जाव उववजंति, से सेणटेणं जाव उववजंति ॥ एवं जाव थणिय कुमारा ॥ ३२ ॥ सयं भंते ! पुढवीकाइया पुच्छा ? गंगया ! सयं पुढवी काइया उववजति णो असयं जाव उववजति ॥ से केणटेणं जाव उववज्जति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुयसंभारियत्ताए सभासुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभा सुभाणं कम्माणं विवागणं मुभामुभाणं कम्माणं फलविवागणं मयं पुढवी काइया जाव उववजंति, णो असयं पुढवी काइया जाव उववजंति सेतेणटेणं जाव उववजंति शुभ कर्म के विपाक से व शुभ कर्म के फर विपाक से असरकुमार स्वयं असुर कुमारपने में उत्पन्न होते हैं. परंतु परवशपनासे नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही स्थनित. कुमार तक जानना ॥ ३२ ॥ पृथ्वीकाय मयं पृथीकाय में उत्पन्न होवे इनकी पृच्छा करत हैं ?अहो गांगेय! पृथ्वीकाय स्वयं पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं परंतु परवशपना से नहीं उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐमा कहते हो ? अहो गांगेय ! * कर्मोदय से, कर्मों की गुरुता से, कर्मों के वजन से, कर्मों की गुरुता से व वजन से. शुभाशुभ कर्मों के उदय से, शुभाशुर कर्मों के विपाक से व शुभाशुभ कर्मों के फल विषाकं से पृथ्वीकाय स्वयं उत्पन्न होते *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * CO एवं जाव मणूसा वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा से तेणद्वेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ सयं वेमाणिया जाव उववजति णो असयं वेमाणिया जाव उववजंति ॥ ३३ ॥ तप्पभिइंचणं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सव्वष्णू सव्व दरिसी । तएणं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो है आदाहिणं पयाहिणं करेइ वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी इच्छामिणं भंते ! तुब्भे अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहन्वयं एवं जहा कालासवेसिय का पुत्ते अणगारे तहेव भाणियध्वं जाव सव्व दुक्खप्पहीणे ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति भावार्थ | हैं परंतु परवशपना से नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही मनुष्य तक कहना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमा निक का असुर कुमार जैसे कहना. यावत् वैमानिक स्वयं उत्पन्न होते हैं परंतु परवशफ्ना से नहीं उत्पन्न होते हैं ॥ ३३ ॥ उस दिन से गांगेय अनगार महावीर स्वामी को सर्वज्ञ सर्वद जानने लगे. फीर गांगेय अनगार श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को तीनवार आदान प्रदाक्षणा कर वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! मैं आपकी समीप चार याम रूप धर्म से पांच महाव्रत रूप धर्म अंगीकार करने को इच्छता हूं वगैरह जैसे कालामबोशित पुत्र का कहा वैसे है। यहां जानना. यावत् गांगेय अन्गार सब है। पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र * < 48नयां शतकका बत्तसिवा उद्देशा848 Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मावाथ 49 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी **** ० उस काल ते ० उस समय में मा० माहणकुंड ग्राम न० नगर हो० था व० वर्णन युक्त व० बहुशाल {चे० चैत्य व वर्णन युक्त त० तहां मा० माहणकुंडग्राम नग्नगर में उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण प० रहता था अ० ऋद्धिवंत दि० दीप्त वि० वित्तवान् जा० यावत् अ० अपरिभूत रि० ऋग्देव ज० यजुर्वेद सा० ( सामदेव अ० अथर्वणवेद ज० जैसे खं० स्कंदक जा०यावत् अ० अन्य ब० बहुत बं० ब्राह्मण के न० नय में गंगेयो सम्मत्तो ॥ नवमसयस्स बत्तीसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ ३२ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे णामं नयरे होत्था वण्णओ बहुसालए चे वणओ, तत्थणं माहणकुंडग्गामे णयरे उसभदत्ते णामं माहणे परिवसइ, अड्ढे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए, रिउब्धेय जउव्वेय सामत्रेय अथव्वणवेय जहा खंदओ दुःख से रहित हुए. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह नववा शतक का बत्तीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ९ ॥ ३२ ॥ + + बत्तीसवे उद्देशे में जिन मार्ग के आराधक गांगेय ( मार्ग के विराधक जमाली अनगार का कथन करते हैं. अनगार का वर्णन कहा. तेत्तीसवे उद्देशे में जिन उस काल उस समय में ब्राह्मण कुंड नामका नगर वर्णन योग्य था. उस की ईशान कौन में बहुशाल नामक उद्यान वर्णन योग्य था. उस ब्राह्मण कुंड नगर { में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता था. वह ऋद्धिवंत, दीप्तिवंत यावत् अपराभूत था. ऋग्वेद, यजुर्वेद, * प्रकाशक - राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १३३४ Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 सु. प्रवीण स०श्रमणोपासक अ० जानेहवे जी० जीवाजीव उ० प्राप्त पु० पुण्य पा० पाप जा. यावत् अ०१, आत्मा को भा० भावता वि० विचरता था ॥ १ ॥ त उस उ०ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण को दे. देवनंदा मा० ब्राह्मणी हो० थी सु० सुकुमार पा० हाथ पांव जा. यावत् पि. प्रियदर्शन वाली सु० सुरूपा स० श्रमणोपासिका अ० जाने जी0 जीव अजीव ५० प्राप्त पुल पुण्यपाष जा. यावत् वि. विचरती थी ॥२॥ ते. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 40887 जाव अण्णसुय बहुसुय बंभण्णएसय नएमु .मुपरिनिट्ठिए, समणोवासए, अभिगय जीराजीवे उवलद्ध पुण्णपावे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥१॥ तस्सणं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा णामं माहणी होत्था, सुकुमाल पाणिपाया नाव पिव दसणा मुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धः पुण्णपावा जाब सामवेद व अथर्वणवेद का जाननेवाला था. जैसे स्कंदक का अधिकार कहा वैसे यहां कहना यावत् अन्य अनेक ब्राह्मण के नय भार्ग, न्याय मार्ग का जाननेवाला श्रमणोपासक था. जीवाजीवका स्वरूप जाननेवाला, पुण्य पाप का फल को देखनेवाला यावत् स्वतः की आत्मा को भावता हुवा विचरता था ॥१॥ उस ऋषभदत्त ब्राह्मण को देवानंदा नामकी भार्या थी. वह सुकोमल हस्त पांववाली यावत् प्रियदर्शन मुरूपा, श्रमणोपासिकाथी. वह जीवाजीव का स्वरूप जानती थी, पुण्य पाप का स्वरूप माप्त करती हुई यावत् नवधा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा भावार्थ 1. 8 Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी उस काल ते. उस समय में मा० स्वामी स० पधारे ५० परिषदा ५० पर्युपासना करे ॥ ३ ॥ तः तव से वह उ० ऋषभदत्त मा ब्राह्मण इ० इस क० कथाको ल० प्राप्त होते ह० हृष्ट जा. यावत् हि० संतुष्ट जे. जहां दे० देवानंदा मा०ब्राह्मणी ते. तहां उ० आवे उ० आकर दे. देवानंदा मा० ब्राह्मणी को ए. ऐसा व० बोल दे० देवानुप्रिया स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर आ० आदिके करने वाले जा यावत् स० सर्वज्ञ स• सर्वदर्शी आ. आकाशगत च० चक्र से जा. यावत् सु० मुख से वि० विचरते द० बहुशाल चे० चैत्य में अ० यथा प्रतिरूप उ. अवग्रह जा. यावत् वि. विचरते हैं त उस को म. महाफल विहरइ ॥ २ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा पज्जुवासइ ॥ ३ ॥ तएणं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लहढे समाणे हट्टे जाव हियए, जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ उवागछइत्ता, देवाणंदा माहाणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव मुहंसुहेणं विहरमाणे, बहुसालए चइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरइ विचरती थी ॥ २॥ उस काल उस सपय में स्वामी पधारे परिषदा वंदने को आइ ॥ ३ ॥ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे हैं ऐसी वार्ता सूनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा ओर अपनी भार्या देवानंदा की पास जाकर ऐमा बोला कि अहो देवानुप्रिये ! श्रम * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहावजी जालाप्रसादजी * भावार्थ - Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३३७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती दे० देवानुपिय त तथारूप अ० अरहंत भ० भगवन्त का ना नाम गोत्र म० श्रवण से कि क्या पु०१, फीर अ. अभिगमन वं. वंदन न० नमस्कार प. पुच्छा प० पर्युपासना से ए० एक आ० आर्य ध.* धर्म का सु० मुवचन स सुनने से कि क्या वि• विपुल अ• अर्थ का ग• ग्रहण करने से तं० उन कोई ग. जावे दे. देवानुप्रिय स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को वं. वांदे न० नमस्कार करे जा० तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए किमंगषुण अभिगमण बंदण णमंसण पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए, एगस्सवि आरियस्स धाम्मयस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंगपुण विपुलरस अट्ठस्स गहणयाए, तं गच्छामोणं देवाणुप्पिए समण भगवं महावीर वंदामो णमसामो जाव 423 नववा शतक का तत्तीसवा उद्देशा भगवन्त महावीर आदि के करनेवाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी आकाशगत चक्र से यावत् सुखपूर्वक विचरते हुवे बहुशाला उद्यान में यथोक्त आज्ञा याचकर विचरते हैं. ऐसे तथारूप अरिहंत भगवंत के मात्र नाम गोत्र श्रवण करने से ही महा फल होता है तो फीर उन को आभिगमन, वंदन नमस्कार यावत् पर्युपासना ७ करने का कहना ही क्या ? एक आर्य धर्म श्रवण करने का महा फल होता है तो फीर विपुल अर्थ ग्रहण करने का कहना ही क्या है इसलिये अपन श्रमण भगवंत. महावीर स्वामी की पास जावे और 98 1 Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावत् १०. पर्युपासना करे इ. इस भ० भव में ५० परभव में हि० हित मु. सुख ख० क्षमा अ० अनुगामिक भ० होगा ॥ ४॥ त तब सा० वह दे. देवानंदा ब्राह्मणी उ० ऋषभदत्त मा. ब्राह्मण से बु० बोलाइ ह० हृष्ट जा. यावत् हि. आनंदित हइ क. करतल जा. यावत् क० करके उ० ऋषभदत्त में ब्राह्मण का ए. यह अर्थ वि० विनय से प० सुने ॥५॥ त० तब से वह उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण को कौटुम्बिक पु. पुरुष को स० बोलाकर एक ऐसा व० बोले खि० शीघ्र दे० देवानुपिय ल. लघुकर्ण १३३८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। पज्जुवासामो,एयं णो इह भवे परभवेय हियाए सुहाए खमाए आणुगामियत्ताए भविस्सा । तएणं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तेणं माहणेणं एवं बुत्तासमाणी हट्ठ जाव हियया करयल जाव कटु, उसभदत्तस्स माहणस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ ॥ ५ ॥ तएणं से उसभदत्ते भाहणे कोडंबिय पुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव भो उन को बंदन, नमस्कार यावत् पर्युपासना करे. यह इस भव व परभव को सुख, हित, कल्याण व अनगामी होगा ॥ ४ ॥ ऋषभदत्त से ऐसी बात सुनकर वह देवानंदा हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुई. और हस्तद्वय जोडकर ऋषभदत्त ब्राह्मण से इस अर्थ को सुना ॥ ५॥ फीर ऋषभदत्त ब्राह्मणने कौटुम्धिक पुरुष को बोलाये और ऐसा कहा कि अहो देवानमिय! शीघ्र क्रिया में दक्ष, प्रशस्त योगवन्त, समान खुर व * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 जु० युक्त जो० योगवन्त ए० मम खु. खुर वा० पूंछ स० सम लि. लखित सिं० श्रृंग #० जाम्बूनदमय क० कलापयुक्त ५० परिविशिष्ट र० रजतमय घं० घंटा सु० सूत्र र० रज्जु प. प्रधान कं. कंचन ण. नाथ ५० प्रगह अ० अवग्रहीत पी. नीलोत्पल क• कृत भा० शेखर प० प्रवर गो. बेल जु० युवान णा० नानामणिमय घ. घण्टिका जा. जाल ५० परिगत सु. सुजात जु० युग्म जु• युक्त र० रज्जु जु० युग १० प्रशस्त सु० सविरचित नि० निर्मित प० प्रधान ल• लक्षणोपगत ध. धार्मिक जा. यान १० देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइय समखुर वालिहाणं समालहियसिंगेहिं, जंबूण यामय कलावजुत्त परिविसिटेहिं रययामयघंट सुत्तरज्जुपवर कंचणणत्थ पग्गहोग्गहै हियएहिं णीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोण जुवाणएहिं णाणामाणमयघंटिया जाल परिगत सुजातजुग्ग जुत्त रज्जुय जय पसत्थ सुविरचिय निम्मिय पवर लक्षणोववेयं । भावार्थ पुंछवाले, मम शृंगवाले, सुवर्णमय कण्ठाभरणवाले, वेगादि गुनों से युक्त, रूप्यमय घण्टावाले, मूत्रमय रज्ज (रस्सी) की प्रधान सुवर्ण विज्ञान मांडत नथवाले, नील वर्णवाले कमल से बनाये हुवे शिखरवाले और श्रेष्ठ ऐसे दो तरुण वृषभ से जोता हवा नाना प्रकार की मणि रत्नमय घण्टिका की प्रधान जालवाला.. प्रशस्त काष्टमय झुंसरवाला, और जोन पाटा व सुग्य सहित ऐसा धार्मिक रथ तैयार करो और मुझे मेरी १ धर्म कार्य के लिये जाने का रथ. 88* पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र <282 Pagp><नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा 9887 Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ रतल अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी 82 प्रधान जुयुक्त उतैयार करो ममेरी आ आज्ञा ५० पीछी दो ॥६॥ ततब से वे को कौटुम्बिक पुरुष उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण से ए. ऐसा वु. बोलाते हैं. हृष्ट जायावत् हि. आनंदित हुवे क. जा० यावत् ए. ऐसा क. बोले तक तथा आ० आज्ञा वि. विनय से व० वचन जा. यावत् प० सूनकर खि० शीघू ल० लघु कर्ण ज० युक्त जा. जावत् ध धार्मिक जा० यान प० प्रधान जु० युक्त उ० तैयार कर जा. यावत् त. उन की आ० आज्ञा ५० पीछीदेवे ॥ ७ ॥ त० तब से वह उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण ण्डा० स्नान कीया जा० यावत् अ० अल्प म. मेहेंगे आ० आभरण ण. अलंकृत किया स० शरीर धम्मियं, जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह ममएय माणत्तियं पच्चपिणह ॥ ६ ॥ तएणं से कोडंवियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्तासमाणा हट्ट जाव हियया करयल जाव एवं सामी तहत्ताणाए विणएणं वयणं जाव पडिसणेत्ता खिप्पामेव लहुकरण जुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवटुवेत्ता जाव तमाणत्तियं पच्चाप्पणंति॥७॥ तएणं से उसभदत्ते माहणे हाए जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे सयाओ आज्ञा पीछी दो ॥ ६ ॥ ऋषभदत्त ब्राह्मण की ऐसी आज्ञा सुनकर कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट तुष्ट यावत् आ-1 नंदित हुवे. और हस्तद्वय जोड़कर तथा इति ऐसा विनय पूर्वक वचन सुनकर शीघ्रही शीघकार्य करनेवाले यावत प्रवर धार्मिक रथ तैयार करके उन की आज्ञा पीछी दे दी ॥ ७॥ फीर ऋषभदत्त ब्राह्मणने, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 शब्दाथ स. सता के गि० गृह मे: प. नीकलकर जे. जहां बा. बाहिर की उ० उपस्थान शाला जे. जहां ध. धार्मिक जा० यान प० प्रधान ते. तहां उ० जाकर ध. धार्मिक जा. यान प. प्रधान दू० चढा ॥ ८॥ त० तव सा. वह दे० देवानंदा मा० ब्राह्मणी अं• अंदर अं० अंत:पुरमें ण्डा० स्नान किया क. बलि कर्म किया क० कोगले किय पा० तिल मसादि किये २० प्रधान पा० पाद प. प्राप्त ने० नुपूर म० मणि old मेखला हा हार र रचित उ० उचित का कडे ख. अंगली ए. एकावली कं० कंठसत्र उ. उरस्थ गिहाओ पडिणिक्खभइ पडिणिक्खमइत्ता, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, धम्मियं जाणप्पवरं दुरुढे ॥८॥ तएणं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल पायच्छित्ता किंते वरपादपत्तनेउरमाणमेहलाहाररइय उचिय कडय खड्गएगावलीस्नान किया यावर अल्प वजन व बहु मूल्यवाले आभरण शरीर पर धारण करके अपने ग्रह से नीकला. और बाहिर दीवानखाने में जहां प्रवर धार्मिक रथ था वहां आया और उस रथ में बैठा ॥ ८॥ उस 5 समय में देवानंदा ब्राह्मणीने स्नान किया, पानी के कोगले किये, तिलममादि किये पांवों में नुपूर व मणि १७की मेखला धारन की. हारों से वक्षस्थल, मुद्रिका मे अंगुलियों, कडे से भुजा, एकावलिमणिमय कटिसूत्र 1* से कटि वगैरह अनेक प्रकार की मणियों से जडित अनेक प्रकार के आभूषण धारन किये. चिनांशुक नामक पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थ be बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गे ग्रैवेयक सो० कठीसूत्र णा विविध य० मणि र रत्न भू० भूषण विः विराजित अं० अंग ची. चीनसंशुक व वस्त्र प० प्रधान प० परिहित दु० दुकूल सु० सुकुमार उ० उत्तरीय स० सर्व उ० ऋतुके सु. सुरभि कु. कुसुम से ध० वेष्टित सि० बाल व. प्रधान चं० चंदन वं. बंदित व. प्रधान आ० आभूषण भू० भूपित अंग का कृष्णागर धूपसे धू धूपित सि श्री समान वे वेषवाली जा. यावत् अ. अल्प म० महेंगे आ० आमरण अ० अलंकृत शरीर व बहु ख० वांकी नंघावाली चि० चिलात देश की कंटसुत्त उरत्थ गेवेज सोणिसुत्तग णाणामणिरयण भूसण विराइयंगी, चीणंसु अवस्थ पवरपरिहिया दुगुल्ल सुकुमाल उत्तरिजा सव्वोउय सुरभि कुसुमधरियसिरया, वर चंदणवंदिया वराभूसणभूसियगी, कालागरुधूवधूविया सिरिसमाणवेसा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहूहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं, वडहियाहिं, श्रेष्ट वस्त्र का निवमन बनाया, दुकूल वृक्ष के बने हुवे सुकोमल दुकूल वस्त्र का ओढना ओढा, सब ऋतु के बने हवे सुगंधित पुष्पों से मस्तक के बाल वेष्टित किये, श्रेष्ट चंदन ललाट में लगाया, श्रेष्ठ आभरणों से अंग को विभूषित किया, कृष्णागर धूप से भूपिन भी नवला मान किया, अल्प भार व बहु मूल्य वाले ल आभरण शरीर पर धारन किये, बहु वक्र जघा वाली पिलात देश की छोटे शरीर वाली दासियों, ऊर्ध काष्ट समान हृदय वाली, वर्वर देश की दासियों, वसिय देशकी, ऋषिगणदेश की, खारुगणिका देशकी माशा-राजावहाहर लाला मुखदव सहायजी घालापलदजी* भावार्थ Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 पं मांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र ( वा० छोटे शरीर वाली व वडवादेश की व०रदेश की च० चउसिक इ० ऋषिगणिक की खावखारुगणिका | की जो० योनिक देश की १० पल्हवित की ल्हा० ल्हासिक की ल० लकुसितदेश की आ० आरवदेश की (द० मिलशकी सिं०सिंहलदेश की पु० पुलिन्द्र देश की पु० पुकलंद देशकी व० बहल देश की मु० मुरंडदेश ( की स० शत्ररदेश की पा० पारसदेश की णा० विविध दे० देशकी वि०विदेशकी प० परिपिंडित स० स्वदेश ने० नेपथ्य ग० गृहीत वे० वेषसे ई० इंगित चिं० चिंतित प० प्रार्थित वि० विज्ञान कु० कुशल वि० वव्चरियाहिं चउसियाहिं, इसिगणियाहिं, खारुगणियाहिं, जोणियाहिं, पल्हवियाहिं, ल्हासियाहिं, लउसियाहिं, आरवीहिं, दमिलाहिं, सिंघलीहिं, पुलिंदीहिं, पुक्कलीहिं, वहिलीहिं, मुरंडीहिं, सवरीहिं पारसीहिं, णाणादेसीविदेसपरिपिंडिया हिं सदेसनेत्रत्थगहिय वेसाहिं, इंगिय चिंतिय पच्छिय वियाणियाहिं, कुसलाहिं, विणीयाहिं, योनिका देशकी, पल्हविवदेश की, ल्हातिका देशकी, लकुमित, देश की, आरवदेकी, द्रामिलदेशकी, सिंहलदेश की, पुलिन्द्र देश की, पुष्कळ देश की, बहल देश की, मुरण्डी देश की, शबरं देश की, पारस देश की {इत्यादि अनेक देश व देशान्तर में उत्पन्न हुई, व अपने २ देश के वर्ष में सज्ज बनी हुइ इंगित चिंतित नेत्रादि की चेष्टा से मनोगत भाव जानने वाली कार्य को शीघ्र दक्षता पूर्वक करने वाली विचक्षण, विनीत ॐॐॐ वनम्र स्वभाव वाली दासियों के परिवार से परवरी हुई व कृत्रिम नपुंसक व कचुकी के परिवार युक्त 8 नवत्रा शतक का तेत्तीमवा उद्देशा १३४३ Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी विनय वाली से चे० दासी च : समुह १० वर्षधर थे स्थविर के० कंचकीय म° महत्तरिक वि० वृंदसे प० * घेराइ जा०. यावत् अं• अंतःपुरसे णि• नीकलकर जे. जहां बा० बाहिर उ० उपस्थान शाला जे. जहां थ. धार्मिक जा० यान प्रधान ते० तहां उ० आकर जा. यावत् ध० धार्मिक जा० यान १० प्रवर दु० चही ॥२॥ त० तब से वह उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मग दे० देवानंदा मा० ब्राह्मणी स० साथ ध० धार्मिक जा. यानप्रबर दु० चढा हुवा णि निजके प० परिवार से सं० घेराया हुवा मा० माहण कुडग्राम । चेडियाचकवालवरिसधरथेर कंचुइज्ज महत्तरगविंद परिक्खिसा, जाव अंतेउराओ णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण साला जेणेव धाम्मए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छ३ २ त्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा ॥ ९ ॥ तएणं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदा माहणीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढेमाणे णियगपरियालअन्तःपुरसे नीकलती हुइ बाहिरकी उपस्थान शाला [ दिवानखाना में ] धार्मिक प्रधान रथ की पास आइ, और उस में बैठो. ॥ ९ ॥ देवानंदा की साथ ऋषभदत्त ब्राह्मण आरूढ हुए पीछे अपने परिवार से परवरे हुवे ब्राह्मणकुंड नगर की मध्यबीच में होकर बहुशाल नामक चैत्य में आये. वहां तीर्थंकर के छत्रादि अतिशय देखकर धार्मिक प्रवर रथ को रोका और उस में नीचे उतरे. फीर सचित्त ठव्य पुष्प ताम्बुलादि अलग रखना यों जैसे दुसरे शतक में कहा वैसे ही पांय अभिगमन से भगवन्त की सन्मुख गये यावत् * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ न० नगरकी म० मध्यसे नि० नीकलकर ने जहां व० बहुशाल चे० चैत्य ते. तहां उ० आकर छ०१ छत्रादि ति तीर्थकर के अतीशय पा० देखकर ध. धार्मिक जा० यान प्रवर को उ० स्थापकर घ० Vधार्मीक जा. यान प्रवर से ५० उतर कर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को पं० पांच प्रकार के 1,.. अ. अभिगम से अ० सन्मुख जावे तं० वह स० मचित्त द० द्रव्य वि० त्यजना ए. ऐसे ज० जैसे वि०१७ दूसरे शतक में जा. यावत् ति तीन योगसे प० पर्यपासनास प. पूजे॥१०॥ त० तब सा. वह दे. देवानंदा मा० ब्राह्मणी ५० धार्मिक जाल. यान प्रवरमे १० उतर कर ब. बहुत खु. कुन्ज संपरिवुडे माहणकुंडग्गामं णयरं मझमझणं णिग्गच्छइ २ ता जेणेन बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ २ ता छत्ताइए तित्थकराइसए पासइ २ ता, धम्मियं जाणप्पवरं उवेइ २ त्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं आभिगमेणं आभिसमागच्छइ, तंजहा सचित्ताणं दव्वाण विउ सरणयाए एवं जहा बिइए सए जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ ॥ १० ॥ तएणं सा देवाणंदा माहणी धाम्मयाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ २ त्ता बहूहिं .. भावार्थ ७ वचन व काया से मेवा भक्ति करने लगे ॥ १० ॥ और देवानंदा ब्राह्मणी उस धार्मिक रथ से नीचे उतर कर बहुत कुन्न यावत् महत्वरिका दासियों से परवरी हुई पांच अभिगम से श्री श्रमण भगवंत . पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मुत्र 2008 wwwwwwwwwwww नमा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 93438 w wwwwwwww 4 Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ.जा जा. यावत् म० महत्तरीक से प० घेराइ हुइ स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को पं० पांच प्रकार के अ० अभिगम से अ० जावे तं० वह स. सचित्त द. द्रव्य वि० त्यजकर अ. अचित्त द्रव्य अ० रख कर वि०विनय. से न० नमे हवेगा० गात्र लष्टि च. चक्षस्पर्श से अं० अंजलि जोडकर म०मनसे ए०एकत्व भा० भाव क० करने से जे. जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को ति० तीनवार आ० आदान प०प्रदक्षिणा क. कर के वै. वंदन कर खुजाहिं जाव महत्तरग परिस्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं आभिगमेणं आभिगच्छइ,तंजहा सचित्ताण दव्वाणं विउसरणयाए,अचित्ताणं दव्वाणं अविभोयणयाए, विणओणयाए गायलट्ठीए, चक्खुप्फासे, अंजालपग्गहेणं मणसोएगत्तीभावकरणेणं जेणेव समण भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं पयाहिणं करेइ २ त्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता उसभभावार्थ महावीर स्वामी की सन्मुख गई. उन पांच आभिगम के नाम. १ सचित्त द्रव्यों का त्याग करना. २ अचित्त द्रव्यों वस्त्रादि का त्याग नहीं करना ३ विनय से गात्रों को नम्र बनाना ४ चक्षुस्पर्श होते हस्तद्वप जोडकना और ५ मन से एकत्व भाव करना. ऐसे पांच अभिगमले श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पाम, जाकर तीनवार आदान प्रदक्षिणा की और वंदना नमस्कार करके ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे किया है। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ14 न० नमस्कार कर उ० ऋषभदत्त मा. ब्राह्मण को पु० आगे क. कर के ठि० खडीरह कर स. परिवार है। १० सहित सु० सेवा करती ण. नमस्कार करती अ. अभिमुख वि० विनय से पं० हस्त जोडकर प० पर्य पसनाकरे ॥ ११ ॥ त० तब सा. वह दे० देवानंदा मा० ब्राह्मणी आ० आयाहुवा प० प्रस्रव १० आनं-139 दित लो० लोचन वाली सं० संवृत ब. बलयोंसे बा०बाहुवाली कं० कंचुकी प० फेंकाइहुइ धा०धारासे ह. हणाया क. कदम्ब पुष्प जैसे स० उलसित हुवे रो रोमांचवालीस श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को अ० अनिमिष दि० दृष्टि से दे० देखती चि० खडी रही ॥ १२ ॥ भ० भगवान् गो० गौतम स० दत्तं माहणं पुरओ कटु ठियाचेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासइ ॥ ११ ॥ तएणं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया पप्फुयलोयणा संवरियवलियवाहा, कंचुयपरिक्खित्तिया धाराहतकलंबपुप्फगंपि वसमुस्ससियरोमकूवा, समण भगवं महावीरं आणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी २ चिट्ठइ ॥ १२ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता स्वयं पीछे परिवार सहित सुश्रूषा व नमस्कार करती हुई विनय से हस्तद्वय जोडकर सन्मुख उपस्थित 3 रहकर पर्युपासना करने लगी ॥ ११ ॥ तब देवाांदा ब्राह्मणी को स्नेह भाव की वृद्धि होने से स्तन में 1 पयः आया, नेत्र प्रफुल्लित होकर पानी से भरे गय अधिक हर्ष होने से शरीर स्थूल होगया हाथ के बलये 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 48 नववा शतकका तेनीसवा उद्देशा 98 भावार्थ - - Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ३४८ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी श्रमण भ• भगवन्त म० महावीर को 4. वंदनकर न० नमस्कार कर ए० ऐसा व० बोले ए० यह दे.* देवानंदा मा ब्राह्मणी आ० आया हुवा प. प्रस्रव वाली तं• तैसे जा यावत् रो• रोमांच दे० देवानुप्रिय को ० अनिमिष दि० दृष्टि से दे० देखती चि० खडीरही ।। १३ ॥ गो० गौतमादि स० श्रमण भ० भगवन्तम म. महावीर गो. गौतम को ए. ऐसा क. बोले ए. ऐसे ख. खलु गो. गौतम दे. देवानंदा मा०४ ब्राह्मणी म मेरी अ० माता अ० मैं दे० देवानंदा का अ० आत्मज त०तब सा०वह दे० देवानंदा ते. उस नमंसित्ता एवं वयासी किं णं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया तंचेव । जाव रोमकूवा, देवाणुप्पिए अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी २ चिट्ठइ ? ॥ १३ ॥ गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! , देवाणंदा माहणी मम अम्मगा अहं णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए,तएणं सा देवाणंदा (कंकण ) तंग होगये, कंचुकी की कसो टूट गइ, मेघधारा से हणाया हुवा कदम वृक्ष समान गेम होगये । और श्रमण भगवंत महावीर को मेषोन्मेष देखने लगी ॥ १२ ॥ तव श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! किस कारन से देवानंदा ब्राह्मणी को स्तन में पयः आया यावत् रोम खडे होगये और आप को मेषोन्मेप देखने लगी? ॥ १३ ॥ तब श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐला बोले कि हो गौतम! देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता है और मैं * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पु० पूर्व पुत्र सि• स्नेह का अ० अनुराग से आआया हुवा १०प्रस्रव वाली जा. यावत् स उलसित रोक रोमांच वाली म० मुझे अ० अनिमीष ददृष्टि से दे० देखती चि० खडी रही है ॥१४॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण दे. देवानंदा मा० ब्राह्मणी को ती. उस म०बडी परिषदा इ. ऋषिपरिषदा में जा. यावत् प० परिषदा ५० पीछीगई ॥ १५ ॥ त० तब वह उ० ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अं० पास से ध० धर्म सो० श्रवणकर माहणी तेणं पुव्वपुत्तसिणेहाणुरागणं आगयपण्हया जाव समुस्ससियरोमकूवा ममं अणमिसाए दिट्ठीए देहमाणी २ चिट्ठइ ॥ १४ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसेयं महइ महालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया ॥ १५ ॥ तएणं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा णिसम्म हट्ठ तुटे उट्ठाए उठेइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं । उन का आत्मज (पुत्र ) हूं. इससे पूर्व पुत्र का स्नेहानुराग से देवानंदा ब्राह्मणी को स्तन में पयः आया यावत् रोम खडे हुवे और मुझे मेषोन्मेष देखने लगी ॥ १४ ॥ फीर श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ऋषभदत्त ब्राह्मण व देवानंदा ब्राह्मणी को उस बड़ी परिषदा में धर्म कथा सुनाइ यावत् परिषदा पीछी है गई ॥ १५ ॥ फीर ऋषभदत्त ब्राह्मण श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से धर्म श्रवण कर हृष्ट । wwwinAmAnnnnnnnnnnnnnn 542 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा6448 भावार्थ 488 Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १३५० * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी णि अवधारकर ह. हृष्ट तुतुष्ट उ० स्थान से उ० उठकर म० श्रमण भ. भगवन्त म०महावीर को ति. तीन वक्त जा. यावत् ण. नमस्कार कर एक ऐसा व० बोला ए. यह एक ऐसे त० तथैव भं० भगवन् । ज• जैसे खं० स्कंदक जा. यावत् से० वह ज० जैसे तु० तुम व० कहतेहो उ० उत्तर पूर्व दि० दिशा में अ० जाकर स० स्वयं आ०आभरण म०माला अ०अलंकार उ० उतारकर स०स्वयं पं०पंचमुष्टि लो०लोच क० करके जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते. तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ति० तीनवक्त आ० आदान प० प्रदक्षिणा जा. यावत् १० नमस्कार कर ए. ऐसा तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव से जहेयं तुम्भे वदह त्तिकटु उत्तर पुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ २त्ता सयमेव आभरण मल्लालंकारं उमुयइ २ त्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ २ ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो तुष्ट यावत् संतुष्ट हुवा और अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को तीनवक्त आदान प्रदक्षिणा यावत् नमस्कार करके ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! यह वही है यह तथ्य है जैसे स्कंदकने कहा वैसेही यावत् तुम कहते हो वैसेही है ऐमा कहकर ईशान कौन में गया और सब आभरण अलंकार, माला वगैरह उतारकर स्वतःने पंच मुष्टि लोच किया, और फीर श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की पास .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी ज्वालाप्रसादजी. Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र १०१ व बोला अ. अलिप्त भ० भगवन् लो० लोक ५० प्रलिप्त भं० भगवन् लो० लोक ज० जरा म.. मरण से ए०ऐसे ए. इस कक्रम से जो खंस्कंदक त तैमे प. प्रत्रजित जा. यावत् सा. सामा300 यिकादि ए० अग्यारह अं० अंग अ० सीखे जा. यावत् ब. बहुत च० चतुर्थ छ० छठ अ० अठम दर दशम जा० यावत् वि० विविध तक तप कर्म में अ. आत्मा को भा० भावत ब. बहुत व० वर्ष सा० साधु पर्याय पा० पालकर मा० मासकी सं० संलेखना से अ० आत्मा को अ० असकर स० साठ भ० भक्त अ० आदाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं वयासी अलित्तेणं भंते ! लोए पलित्तेणं भंते ! लोए जराए मरणेणय एवं एएणं कमेणं जहा खंद) तहेव पव्वइए जाव सामाइय माइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, जाव बहूहिं चउत्थ छट्ठट्ठम दसम जाव विचित्तेहिं तवो कम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्ण परियागं पाउणइ २ त्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसइ, मासि० २ त्ता सर्टि भत्ताई अणसणाई जाकर तीन आदान प्रदक्षिणा यावत् नमस्कार करके ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! यह लोक अलिप्त प्रलिप्त है जरामरण वगैरह ऐसे क्रम से जैसे स्कंदकने प्रबर्ध्या अंगीकार की वैसे ही प्रवा अंगीकार की यावत् सामाधिकादि अग्यारह अंग का अध्ययन करके बहुत चतुर्थ छठ अठम दशम यावत् विचित्र प्रकार के तप कर्म से आत्मा को भावते हुए बहुत वर्ष साधु की पर्याय पालकर मासिक संलेखना से आत्मा को 4004028 नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा80p Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५२ शब्दार्थ + अनशन छे० छेदकर ज० जिस केलिये की० कीया न० नग्नभाव जा० यावत् तः उस अर्थ को आ० आराधकर जा० यावत् स० सर्व दुःख ५० दूरकीये ॥ १६॥ त० तब मा. वह दे० देवानंदा मा०ब्राह्मणी स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अं० पास ध. धर्म सो० मूनकर नि० अवधारकर ह० हृष्ट स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर को ति० तीनवक्त आ० आदान ५० प्रदक्षिणा जा. यावत् ण. नमस्कार कर एक ऐसे ए. यह भ० भगवन् त० तथैव ए. ऐसे ज० जैसे उ० ऋषभदत्त त० तैसे जा यावत् ध० धर्म आ० कहे ॥ १७ ॥ त तब स० श्रमण भ० भगवन्त महावीर दे देवानंदा मा०ब्राह्मणी छदेइ २ त्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव तमटुं आराहेत्ता जाव सव्वदुक्ख. प्पहीणे ॥ १६ ॥ तएणं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठ तुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं वयासी एवमेयं भंते ! तहमेय भंते ! एवं जहा उसभदत्तो तहेव जाव धम्ममाइक्खइ ॥ १७ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे देवाणंदा माहणिं भावार्थ खूनी और साठ भक्त अनशन करके जिस कार्य के लिये नग्नभाव किया था उस का आराधन करके यावत् सर्व दुःख रहित हुए ॥ १६ ॥ फीर श्रपण भगवंत महावीर की पाम धर्म श्रवण कर देवानंदा ब्राह्मणी हृष्ट तुष्ट बनी हुई श्रमण भगवंत महावीर स्वापी को तनिवक्त आदान प्रदक्षिणा यावत् नमस्कार 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ | 488+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र को स० स्वयं प० दीक्षा देकर स० स्वयं अ० आर्यावंदना को सी० शीष्यपना से द० देवे ॥ १८ ॥ त० तब सा० वह अ० आर्या चं० चंदना दे० देवानंदा मा० ब्राह्मणी को स० स्वयं से सिखावे ए० ऐसे ज० जैसे उ० ऋषभदत्त त० तैले अ०आर्या चंदना से ए० इसरूप ध० धर्म का उ० उपदेश स०सम्यक् प० { अंगीकार करे त० उन की आ० आज्ञा को ग० जावे जा० यावत् सं० संयम से सं० प्रवर्ते ॥ ११ ॥ सयमेव पवावेइ पव्वावेइत्ता सयमेव अज्जचंदणाए अज्जाएं सीसिणित्ताए दलयति ॥ १८ ॥ तणं सा अज्जचंदणा अज्जा देवाणंदा माहणिं सयमेव मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, एवं जहा उसभदत्तो तहेत्र अज चंदणाए अजाए इमं एयाणुरूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं पडिवज्जइ, तमाणाए, तहगच्छइ, जाव संजमेणं संजमेइ ॥ १९ ॥ तणं करके ऐसा बोली की अहो भगवन् ! || १७ || फीर देवानंदा ब्राह्मणी को बाला की शिष्या बनाई ॥ १८ ॥ यह वही है यह तथ्य है वगैरह ऋषभदत्त ब्राह्मण जैसे कहना श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने दीक्षा दी और आर्या चंदन आर्या चंदनवाला ने देवानंदा ब्राह्मणी को मुंडित की और अपनी शिष्या बनाइ वगैरह ऋषभदच ब्राह्मण जैसे आर्या चंदनबाला से धार्मिक उपदेश सम्यक् प्रकार से अंगीकार किया. और उन की आज्ञा में यावत् संयन व तप से आत्मा को भारती हुई विचरने लगी १०१ - नवत्रा शतक का तेत्तीसका उद्देशा १३५३ Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालबाह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + त० तब सा० वह दे० देवानंदा आ० आर्या अ. आर्या चंदना की अं०. पास सा० सामायिकादि ए० । अग्यारह अं अंग असिखे से शेष तं० तैसे जा. यावत् स सर्व दुःख से ५० मुक्तहई ॥२०॥ तक उस मा० ब्राह्मण कुंड न० नगर की प. पश्चिम में ख० क्षत्रियकुंड ग्राम न. नगर हो. था। वर्णनयुक्त तः उस ख. क्षत्रिय कुंडग्राम में न • जमाली ख० क्षत्रिय कुमार प० रहता है अ० ऋद्धिवंत दि० दिप्त जा. यावत् अ० अपरिभूत उ० उपर पा प्रासाद की रहे हुवे फु० फुटता मु० मृदंग के मस्तक से सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ, सेसं 'तंचेव जाव सव्व दुक्खप्पहीणा ॥२०॥ तस्सणं माहण कुंडग्गामस्स णयरस्स पच्चच्छिमेणं एत्थणं खत्तियकुंडग्गामे णाम णयरे होत्था वण्णओ ॥ तत्थणं खत्तियकुंडग्गामे णयरे जमाली णाम खत्तियकुमारे परिवसइ, अड्डे दित्ते जाव अपरि भए उप्पिं पासायवरगए फुटमाणेहिं मुयंगमत्थएहिं बत्तीसइव हिं नाडएहिं ॥ १९ ॥ देवानंदा आर्याने आर्या चंदन बाला की पास से अग्यारह अंग का अध्ययन करके यावत् सब दःख से रहित हई ॥ २० ॥ उम ब्राह्मण कुंड नगर की पश्चिम दिशा में क्षत्रिय कुंड नामक नगर था, उसमें क्षत्रिय कुंड नगर में जमाली नामक क्षत्रिय कुमार रहता था. वह ऋद्धिवंत दीप्तिवंत यावत् अपराभूत था. अपने महेल के ऊपर की भूमिका में बैठे हुए अतिवेग से आस्फालन करने से फुटते हुवे मादल के मस्तक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावार्थ Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ब. बक्षीस विध ना० नाटक से णा नानाविध व. प्रधान त० तरुणी से सं० घेराये हुवे उ० नृत्य करते है । ० उ० गुणग्राम करते उ० लालित्य करते पा० प्रावृट् वा वर्षा काल स. शरद् हे। हेमन्त स० शिशिर व011 Vवसन्त गि० ग्रीष्म प० पर्यंत छ. छ उ० ऋतु ज. जैसे वि० वैभव मा० अनुभवते का० काल को #वितावे इ० इष्ट स० शब्द फ० स्पर्श र० रस रू० रूप गं० गंध पं० पांच प्रकार के का० काम भोग ५० अनुभवते वि. विचरते हैं ॥ २१ ॥ त० तब ख० क्षत्रियकुंड ग्राम में सिं० सिंघाडे जैसे ति. तीन च० णाणाविह वरतरुणी संपउत्तेहिं उवणचिजमाणे, उवणचिजमाणे, उवगिजमाणे उवगिजमाणे, उवलालिजमाणे उवलालिजमाणे, पाउसवासारत्त सरद हेमंत ससिर । बसंतगिम्हपजंते छप्पिउऊ जहा विभवेणं माणमाणे कालं गालेमाणे इतु सद्दे फरिस रसरूव गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगेपच्चणुब्भवमाणे विहरइ ॥२१॥तएणं खत्तियकुं डग्गामे णयरे सिंघाडग तिगचउक्क चच्चर जाव बहुजण सद्देइवा जहा उववाइए जाव एवं . भावार्थ वाले, विविध देश की प्रधान तरुणियों से बत्तीस प्रकार के नाटकों मे नृत्य कराते हुवे गीत कराते हुवे, अतिरसभर नृत्य गायन कराते हवे, प्रावट, [वर्षा] शरद, हेमन्त, शिशिर, वसंत, व ग्रीष्म इन छ ऋत के | यथायोग्य काल व्यतिक्रमते हुए, इष्ट, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध ऐसे पांच प्रकार के मनुष्य संबंधी कामभोग भोगवते हुवे विचरते थे ॥२१॥ उस समय में क्षत्रिय कुंड नगर में शृंगोटक, त्रिक, चौक, चञ्चरई , - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48 नवधा शतकका तेत्तीमत्रा उद्देशा 4882 Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी चार च• चच्चर जा. यावत् २० बहुत ज० मनुष्य स० शब्द ज० जैसे उ० उववाइ में जा. यावत् ए. ऐमे ५० करे प० प्ररूपे ए० ऐमे दे० देवानुप्रिय स० श्रमण भ० भगवन्त म महावीर आ०आदि के करने पाले जा. यावत् स० सर्व दर्शी मा० माहणकंड ग्राम न० नगर की ब. बाहिर ब. बहशाल चे० चैत्य में • यथा प्रतिरूप जा. यावत् वि० विचरते हैं तं० उनको म० महाफल दे० देवानुप्रिय त० तथारूप अ०१ अरिहंत भै भगवन्त को ज. जसे उ० उबवाइ में जा० यावत् ए. एक तरफ ख. क्षत्रिय कुंडग्राम न० नगर की म० मध्य से ग० जाकर जे. जहां मा० माहणकुंड ग्राम १० नगर जे. जहां ब• बहुशाल पण्णवेइ एवं परूवेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडि: रूवं जाव विहरइ, तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिया ! तहा रूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जावएगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं गयरं मझं मझेणं णिगच्छइ २ त्ता, जेणेव माहणकुंडग्गामे णयर जेणेव बहुसालए इए एवं जहा उक्वाइए जाव तिविहाए यावत् बहुत मनुष्यों एकत्रित होकर ऐसा वार्तालाप करने लगे कि आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ब्राह्मण कंड नगर की बाहिर बहशाल चैत्य में यथोक्त आज्ञा ग्रहण कर विचरतेहैं. इस लिये अहो देवानुप्रिय ! तथारूप श्रमण भगवंत का नाम गोत्र श्रवण करने से महाफल होता है यावत् उन के मुखारविंद से विपुल अर्थ ग्रहण करने का तो कहना ही क्या ? ऐसा सुनकर बहुत मनुष्य * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ चे० चैत्य ए. ऐसे ज० जैसे उ० उववाद में जा. यावत् ति तीन विधसे १० पर्युपासना से ५० पूजन है ॥ २२ ॥ त• तब तक उन ज० जमाली ख क्षत्रिय कुमारको तं० उस में बडे ज०. मनुष्य के शब्द जा. यावत् म० सन्निपात स० सूनते पा० देखते अ० इसरूप अ० अध्यवसाय जा० यावत् स० उत्पन हुवा किं. क्या अ० अध ख० क्षत्रिय कुंड ग्राम में इं० इन्द्रमहोत्सव खं. स्कन्दमहोत्सव मु. मुकंदमहोत्सव सणा० नागमहोत्सव ज० यक्षमहोत्सव भू. भूतमहोत्सव कू• कृपमहोत्सव त० तडागमहोत्सव न० नदीमहोत्सव पज्जुवासणाए पज्जुवासइ ॥ २२ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्त तं महया जण सदंवा आव साण्णवायंवा सुणमाणस्वा पासमाणस्सा अयमयारूवे । अज्झथिए जाव समुप्पजित्था किंणं अज खत्तियकुंडग्गामे गयरे इंदमहेइवा, खंदमहेइवा, मुगुंदमहेइवा, णागमहेइवा, जक्खमहेइवा, भूयमहेइवा, कूवमहेइवा, तडा ___ गमहेइवा,नईमहेइवा,दहमहेइवा, पव्वयमहेइवा रुक्खमहेइवा, चेइयमहेइवा, थूवमहईवा, भावार्थ क्षत्रिय कुंड ग्राम नगर में से एकदिशी तरफ ब्राह्मण कुंड ग्राम नगर में बहुशाल चैत्य में जाने लगे यावत् तीन 20 योग की विशुद्धता पूर्वक भगवंत की भक्ति करने लगे ॥ २२ ॥ उस समय में गांव में ऐसा बडा जनशब्द यावत् सन्निपात सुनकर व देखकर जमाली क्षत्रिय कुमार को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि क्या आज 1 क्षत्रिय कुंड नगर में इन्द्र महोत्सव, स्कंद महोत्सव मुकुंद महोत्सव, नाग महोत्सव, यक्ष महोत्सव, भूतमहोत्सव, ...। पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भिवगती.) सूत्र 38:05 नवमां शतकका तेत्तीसवा उद्देशा wrimmmmmmm Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी मा० उ० ८० द्र महोत्सव ५० पर्वत महोत्सव रु० वृक्षमहोत्सव चे० चैत्य महोत्सव थू० स्तूप महोत्सव ज० जिस से ए० ये बहुत उ० उग्रवंशी भो० भोगवंशी रा० राजवंशी इ० इक्ष्वाकुवंशी णा० ज्ञातवंशी को० कौरववंशी ख० क्षत्रिय ख० क्षत्रियपुत्र भ० भट भ० भटपुत्र से० सेनापति १० प्रशस्तार ले० लेच्छकी ब्राह्मण इ० धनपति ज० जैसे उ० उबवाड में स० सार्थवाह प० प्रभृति व्हा० स्नान कीया ज० जैसे उपवाई में जा० यात् णि० जात हैं ए० एसा सं० देखकर कं० कंचुकी पुरुष को स० बोलाकर ए० ऐसा जंणं एए बहवे उग्गा भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरवा, स्वत्तिया, खातेयपुत्ता, भडा, भडपुत्ता, सेणावती, पसत्थारो, लेच्छई, माहणा, इब्भा, जहा उबवाइए, सत्थवाहप्पभितयो व्हाया कयबलिकम्मा जहा उववाइए, जाय णिग्गच्छति, एवं संपेइ संपइत्ता एवं कंचुइज्ज पुरिसे सहावेइ सहावेइत्ता एवं वयासी किंणं कूप महोत्सव, तलाव महोत्सव, नदी महोत्सव, द्र महोत्सव, पर्वत महोत्सव, वृक्ष महोत्सव, चैत्य महोत्सव, व स्तूप महोत्सव है कि जिस से बहुत उग्र, भोग, राज, इक्ष्वाकु, ज्ञात व कौरव वंशवाले क्षत्रिय, क्षत्रिय पुत्र, भट, भटपुत्र, सेनापति, प्रशस्तार लेच्छकी ब्राह्मण व धनपति वगैरह स्नान, बली कर्म वगैरह करके एक दिशी में जा रहे हैं. इस का विशेष वर्णन उबवाइ सूत्र से जानना. ऐसा विचार करके कंचुकी पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुमिय ! क्या आज क्षत्रिय कुंड ग्राम नगर में इन्द्र महोत्सव यावत् * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी १३५० Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2017 शब्दार्थ १५० षोले कि० क्या दे० देवानुपिय अ० अथ ख• क्षत्रिय कुंडग्राम न० नगर में ई० इन्द्रमहोत्सव जा० 1 यावत् णिक जाते हैं त० तब से वे कं० कंचुकीपुरुष ज.जमाली ख० क्षत्रियपुत्र से एक ऐसा वु० बोलाये Vवे. हृष्ट तु० तुष्ट स० श्रमण भ० भगवन्त म०महावीर का आ०आगमन गगृहीत णिनिश्चय किया क० करतल ज० जमालीको ज० जय वि• विजय से व० वधाकर एक ऐसा व० बोले णो० नहीं दे०१% देवानुपिय अ० अद्य ख० क्षत्रिय कुंडग्राम में ई० इन्द्रमहोत्सव जा. यावत् णि जाते हैं ए. ऐसे दे० देवाणुप्पिया! अज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइवा, जाव णिग्गच्छंति ? तएणं । से कंचुइज पुरिसे जमालिणामेणं खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुडे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहिय विणिच्छए करयल जमालिं खत्तिय कुमारं जएणं विजएणं वडावेइ वद्धावेइत्ता एवं वयासी णो खलु देवाणुप्पिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइवा जाव णिग्गच्छात, एवं खलु देवाणुप्पिया ! भावार्थ धनपति वगैरह स्नान, बलीकर्म वगैरह करके जाते हैं ? कंचुकि पुरुषों ने जमाली की पास से ऐसी न सुनकर बहुत हर्षित हुए यावत् अन्य से पूछकर उनोंने श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का आगमन जाना और वहां ही सब लोक जाते हैं ऐसा निश्चय किया फोर हस्तद्वय जोडकर जमाली क्षत्रिय कुमारको जय हो विजय हो यों पधारकर कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! क्षत्रिय कुंड ग्राम नगर में इन्द्र महोत्सवादि 1848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 138383नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 488 mmanmammam । Y Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देवानुपिय स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर जा. यावत् स० सर्वज्ञ स० सर्वदर्शी मा० माहण कुंडग्राम * की ब० बाहीर व० बहुशाल चे० चैत्य में अ० यथारूप उ० उग्रह जा. यावत् वि. विचरते हैं ते. इससे से ए. ये व बहुत उ० उग्रवंशी भो भोगवंशी जायावत् अ० कितनेक वं०वंदन करनेको जायावत् नि० जाते हैं ॥ २३ ॥ त० तब ज० जमाली ख. क्षत्रिय कुमार के. कंचुकी पुरुष की अं० पास से ए. यह अर्थ सो० मूनकर णि अवधारकर ह० हृष्ट तुष्ट को. कौटुम्बिक पु० पुरुष को स० बोलाकर ए. ऐसा समणे भगवं महावीरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी भाहण कुंडग्गामस्स णयरस्स बहिया बहुसालए चइए अहारूवं उग्गहं जाव विहरइ, तेशं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं जाव णिग्गच्छति ॥ २३ ॥ तएणं जमाली खत्तिय कुमारे कंचुइज पुरिसस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुढे कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ सहावेइत्ता, एवं वयासी खिप्पामेब भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं भावाथ कुछ भी नहीं है परंतु आदेकर यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ब्राह्मण कुंड ग्राम नगरके बाहिर बहुशाल चैस में यथारूप अवग्रह याचकर विचर रहे हैं. उन के दर्शन के लिये उग्रपुत्र यावत् कितनेक वंदना नमस्कार यारत् उपदेश सुननेको जारहे हैं।॥२३॥तब जमाली क्षत्रिय कुमारने कंचुकि पुरुषकी पास से ऐसा 18 अर्थ सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और कौटुम्बिक पुरुष को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवा 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी AMAnnnnnnnnnnnnnce * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती । मत्र Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ wmwwwmainm उपस्थान शाला जे० जहाँ पा. चारचंट वाला आ० अश्वस्थ ते०-तहां ७० आकर चा चारघंट वाला आ.. अश्वरथप दु० चढकर स. कोरंटकके म. पुष्प की माला युक्त छ.छत्र ध० धराता हुवा म० बडे भ० भट च. सुभट ५० चाकर के वि. वृंद से प० घेराये हुवे ख. क्षत्रिय कुंडग्राम न० नगर की म० मध्य से नीकलकर जे. जहां मा. माहणकुंड ग्राम नगर जे. जहाँ ५० बहुशाल चे. चैत्य ते. तहां कर तु० अश्वको णि ग्रहणकर र० रथ से प. उतरकर पु० पुष्प तं० तांबूल आ• आयुधादि उपानहादि वि० त्यजकर ए. एक सा. दूपटा उ० उत्तरासंग क० करके आ० अत्यंत चो• शुद्ध प० परम रिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, चाउग्घंट आसरहं दुरूहइ दुरूहइत्ता, सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगर । पहकरविंद पंरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं णयरं मझं मझेणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव माहण कुंडग्गामे गयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, जैसे परिषदा का वर्णन उत्रवाइ मूत्र में किया वैसे ही यहां कहना यावत् चंदनसे गावों का विलेपन इकिया, सर्वालंकार से विभूषित बने और मज्जन गृह से नीकले और उपस्थान शाला में चार घंटवाला अश्वरथ की पास आकर उस में बैठे, और कोरंटक वृक्ष के पुष्पों की माला युक्त छत्र शिरपर धारनकर बहुत मुभट, नोकर, चाकर वगैरह परिवार से परवरे हुए क्षत्रियकुंह नगर की बीच में होकर ब्राह्मण कुंड है। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ 1 Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 * १३६३ शब्दार्थ १० सू शुचीभून अं० अंजलि म. जोडकर ह. हस्त जे. जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते. तहां उ० पाकर म० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर को नि० तीन वक्त जा. यावत् ति० तीन योग से प० पर्युपासना करे ॥ २५ ॥ त० तब स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमारको त उस म. बडी इ. ऋषि जा. यावत् ध धर्म कथा जा० यावत् प० परिषदा ५० पीछीगई. तुरिए णिगिण्हेइ णिगिण्हेइत्ता रहं ठवेइ २त्ता,रहाओ पच्चोरुहइ२त्ता, पुप्फतंबूलाउहमाइय वाणहाउय विसज्जेइ २ त्ता एग साडियं उत्तरासंगं करेइ करेइत्ता, आयंते चोख परम सूइन्भूए अंजलि मउलिय हत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ ॥ २५ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे जमालिस खत्तिय कुमारस्स तीसेय महइ महालियाए इसि भावार्थ नगर की बाहिर पहुशाल चैस में आकर अश्व को खडा किया. वहां रथ से नीचे उतर कर पुष्प ताम्बूल पगरखी आयुध वगैरह अलग किये और वस्त्र का उत्तरासंग करके आचमन कर परम शूचीभूत बनकर दोनों हस्त जोडकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आये. वहां श्रमण भगवंत महावीर स्वा तीन योग से विधि पूर्वक वंदना नमस्कार सेवा करने लगे ॥ २५ ॥ उम समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने जमाली क्षत्रियकुमार को उस बडी परिषदा में धर्म कथा सुनाइ यावत् धर्म कथा सुनकर पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा. .. 488 . Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 402 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ २६ ॥ त तब जा जमाली खः क्षत्रिय कुमार स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास से ध० धर्म सो० मूनकर णि० अवधारकर ह० हृष्ट तु. तुष्ट जा. यावत् हि० खुशहुवा उ० स्थान से उ० बठकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ति० तीन वक्त जा. यावत् ण. नमस्कार कर ए० ऐसा व. बोले स० सर्दताहं भं. भगवन् णि. निर्गथ का पा० प्रचवन को प० प्रतित करताहूं णि निग्रंथ के पा. प्रवचन को रो० प्रसंद करताहूं णि णिग्रंथ के पा० प्रवचन को अ० उद्यमवन्त होता हूं नि०॥ निग्रंथ के पा० प्रवचन को ए० ऐसे ही नि० निग्रंथ के पा० प्रवचन त० तथैव भं. भगवन् णि० निग्रंथ जाव धम्मकहा जाव परिसा पडिगया ॥ २६ ॥ तएणं जमाली खत्तिय कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुढे जाव हियए। उठाए उद्वेइ उद्धेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं वयासी सदहामिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, पतियामिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, रोएमिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्टेमिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, एवमयं भंते ! परिषदा पीछी गई ॥ २६ ॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास धर्म श्रवण कर जमाली क्षत्रिय कुमार हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को तीन आदान प्रदक्षिणा यावत् नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो भगवन ! निग्रंथ प्रवचन की श्रद्धा, प्रतीति व रुचि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *Pop> १३६५ शब्दार्थ के पा. प्रवचम अ० यथा तथ्य भं० भगवन् अ. संदेह रहित जा. यावत् सेवा ज. जैसे तु. तुम १०व० कहतेहो जं. जो ण. विशेष दे० देवानुपिय अ. मातापिता को आ० पूछताहूं त० पीछे दे० देवा नुपिय की अंक पाप्त मुं० मुंडहोकर १० अगार से अ० अनगार को प० अंगीकार करताहू अ यथासू-17 खम् दे० देवानप्रिय मा० मत प० प्रतिबंध ॥ २७ ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रियपत्र स016 श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर से ए. ऐमा वु० बोलाते ह० हृष्ट तु. तुष्ट स० श्रमण भ० भगवन्त म. णिग्गंथं पावयणं, तहमेयं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, अवितहमेयं भंते ! असंदिरमेयं भंते ! जाव से जहयं तुब्भे वदह ज णवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि तएणं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि, ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया मापडिबंधं ॥ २७ ॥ तएणं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं है . भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुढे जाव समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव करता हूं. निग्रंथ प्रवचन के लिये मैं उपस्थिव हुआ हूं यह वही निग्रंथ के प्रवचन हैं. निग्रंथ के प्रवचन तथ्य हैं, यथातथ्य है, शंका रहित हैं यावत् जैसे आप कहते हो वैसे ही निग्रंय के प्रवचन हैं. इस से मैं मात पिना की आज्ञा लेकर आप की पास मुंड होकर गृहवास स अनगारपना अंगीकार करूंगा. अहो देवाॐ नुप्रिय ! जैसे तुम को सुख होवे वैसा करो. विलम्ब मत करो ॥ २७ ॥ फीर भगवंत श्री महावीर 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4.80p नवपा शतक का तेत्तीसवा उद्देशाo gin भावार्थ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थ ३६६ अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ महावीर को ति तीन वक्त जा. यावत् ण• नमस्कार कर चा० चार घंटवाला आ० अश्वस्य को दु० चढकर स० श्रमण भ० भगवन्न म. महावीर की अं० पाम से ब०बहुशाल चे चैत्य से प० नीकलकर स. कोरंटक कम० पुष्पको माला वाला जा० यावत् ध० धारण करते म० महान् भ० श्ट च. सुभट जा. यावत् १०घेराये हुवे जे. जहां ख. क्षत्रिय कुंडग्राम नगर ते० सहां उ. आकर ख० क्षत्रिय कुंडग्राम ण नगर की म०मध्य से जे. जहां स० स्वतःके गे गृह जे० जहां बाहिर की उ० उपस्थान शाला ते णमंसित्ता, तमेव चाउग्धंट आसरहं दुरूहइ २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सकारटमलदाभेणं जाव धरिजमाणेणं महया भड चडगर जाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तिय कुंडग्गामे णयरे तेणेव उवागच्छइ २ ता खत्तियकुंडग्गामं णयरं मझं मझणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तुरिए णिगिण्हइ २ सा. स्वामी के ऐसे वचन श्रवण कर जमाली क्षत्रिय कुमार हृष्ट तुष्ट यावत् अती व आनंदीत हुए और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को तीन आदान प्रदक्षिणा व नमस्कार करके चार घंटवाला रथरे आरूढ हुवं. और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की पास से बहुशाल चैत्य से नीकलकर कोरंटक वृक्ष के पुष्पों की माला युक्त छत्र धारन करके यावत् बडे भट नोकर वगैरह से परवरे हुवे क्षत्रिय कुंड नगर तरफ जाने को * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ namanna Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4:- पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तहाँ उ० आकर तु० अश्व णि० ग्रहणकर २० रथ को ठा० स्थापकर र० रथ से प० उतरकर | जे० जहां अ० आभ्यंतर उ० उपस्थान शाला जे० जहां अ० मातापिता ते० तहां उ० आकर अ० १०७ मातापिता को ज० जय वि० विजय से व० बनाकर ए० ऐसा व बोले ए० ऐसे अ० मातापिता म० मैंने स० श्रमण भ० भगवन्न म० महावीर की अं० पास से ध० धर्म नि० सूना से० वह ध० धर्म इ ( इच्छित १० प्रतिच्छित अ रूवा ॥ २७ ॥ त० तत्र तं उन जः जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को ए० रहूं ठावेइ ठावेइत्ता, रहाओ पच्चोरुहइ २ ता जेणेव अभितरिया उबट्ठाण साला जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ २ चा अम्मापियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ वेता एवं वयासी एवं खलु अम्मताओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं निसंते, सेविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ॥ २७ ॥ तणं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी धण्णेसिणं तुम्मं जाया ! कयत्थेनीकले. और उस की बीच में होकर स्वगृह में उपस्थानशाला में आकर अश्व को रोके और स्वयं रथ से नीचे उतरे. वहां से आभ्यंतर उपस्थानशाला में माता पिता की जय विजय शब्द से वधाये और ऐसा बोले कि अहो मातपिता मैंने श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की पास से धर्म श्रवण किया है। और उस धर्म की इच्छा यात्रत् रुचि की है ॥ २७ ॥ तत्र माता पिता बोले कि अहो पुत्र तुझे धन्य 4 नववा शतक का तेत्तीसका उद्देशा १३६७ Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ do शब्दार्थ | * ऐसा व० बोले घ० धन्य तु० तू जा० पुत्र क० कृतार्थ तु० तू जा० पुत्र क० कृत पुन्य तु० तू जा० पुत्र क० कृतं लक्षण तु० तू जा० पुत्र जे० जिस से तु० तू स० श्रमण भ भगवन्त म० महावीर की अं० पास से घ० धर्म निः सूना से० वह ध धर्म इ० इच्छा प० विशेष इच्छा अ० रूचा ॥ २८ ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र अ० माता पिता को दो दोवक्त ए० ऐसा व बोला- ए० ऐसा ख० निश्चय म० मैंने अ० माता पिता स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास से ध० सिणं तुम्मं जाया ! कयपुण्णेसिणं तुम्मं जाया ! कयलक्खणे सिणं तुम्मं जाया ! जेणं तुम्मे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं निसंते सेविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ॥ २८ ॥ एणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मादियरो दोचंपि एवं वयासी एवं खलु मए अम्मताओ ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं निसंते जाव अभिरुइए, तएणं अहं अम्मताओ संसार भयओविग्गे भीए जम्म सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी तू कृत पुण्यवाला है, मैंने देह के लक्षण सार्थक किये हैं. क्योंकि तैने श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के वचन सुने हैं यावत् उन की इच्छा व अभिरुचि की है ॥ २८ ॥ फीर जमाली ने पुनः ऐसा कहा कि अहो मातापिता ! मैंने श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के वचन सुने हैं उनकी इच्छा इस से मैं संतार भय से उद्विग्न बना हुआ हूं और जन्म जरा मरण से डरता हूं. इस से व अभिरुची हुई है. अहो मात पिता * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १३६८ Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4HC १३६९ शब्दार्थ धर्म नि० सूना जा. यावत् अ० रुचा त० तब अ. मैं अ० माता पिता सं: संसार भ० भय से उ उद्विग्न । भी० डरा हुवा ज० जन्म ज. जरा म० मरण से तं० उन को इ० इच्छता हूं अ० माता पिता तु. तुमारी अ. आज्ञा मिलते स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास से मुं० मुंड भ० होकर अ० अगार से अ० अनगारपना १० अंगीकार करने को ॥ २९ ॥ त तब सा. वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र की मा० माता तं० उस. अ. अनिष्ट अ० अकांत अ० अप्रिय अ० अमनोज्ञ अ० अमणाम अ० नहीं सुनी पु. पूर्व गि० वचन सो० सुनकर णि० अवधारकर से० स्वेद आ० आया रो० रोमकूपमें से प० जरा मरणेणं, तं इच्छामिणं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्मणुण्णाए समाणे समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भावत्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ॥ २९ ॥ तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया तं आणिटुं अकंतं आप्पियं अमणुण्णं अमणामं अस्सुयपुत्वं गिरं सोचा निसम्म सेयागयरोमकूवपगलंतविगलिनगत्ता भावार्थ , आपकी आज्ञा लेकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मुंड होकर दीक्षा अंगीकार करने को इच्छ ता हूं ॥ २९ ॥ उस समय जमाली क्षत्रिय कुमार की माता ऐसे अनिष्टकारी, अकांतकारी, अप्रियकारी,* अमनोज्ञ, अमनाम व पहिले नहीं सुने हुवे ऐसे वचन सूनकर अवधारकर स्वेद युक्त रोमकूम से शिथिल गात्र बाली हुई. शोक के भार से गात्रों कषित हुए. शक्कि रहित निर्बल हुइ, दयामय शरीर हुआ, हस्त तल में 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १३७० 28 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g झरता वि०शिथिल ग गात्र सो० शोक से प०कंपित अं०प्रत्येक अंगवाली नि०निस्तेज दीदीन वि०विमनस : वदनवाली क-करतलमें म० मसलीहुई क• कमलमाला त० तत्क्षण ओ० ग्लान दु० दुर्बल स० शरीर ला. लावण्य सु० शून्य नि० कान्ति रहित ग० गइहुइ सि• शोभावाली प० शिथिल भू० भूषण प० पड़ेहुवे खु० गयेहुवे सं० भग्न ध० धवल व० वलय ५० उतरा हुवा उ० उत्तरीय वस्त्र मु० मूर्छा के अ० वशसे न० नष्ट चे० चित्त में गु० गुरुता सु सुकुमार वि०विकीर्ण के केश ह० हस्तवाली प० फरसी से निक छदायी चं० चंपकलता जैसी नि० निवर्ता म० वडा इं० इंद्र स्थंभ वि० मुक्त सं० सांधे बं० बंधन को ___ सोगभरपवेवियंगमंगी नित्तया दीणविमणवयणा करयलमलियव्वकमलमाला, तक्खण ओलुग्ग दुब्बलसरीरलायण्णसुण्णनिच्छायगइसिरीया, पसिढिल भसण पडियखुणियसंचुणियधवलवलया पब्भट्ठउत्तरिज्जा, मुच्छावसणडचेतगरुई, सुकुमालविकिण्णकेसहत्था . परसुनियतव्यचंपगलया . निव्वत्तमहव्वइंदलट्ठी मसलीहुई कमल पुष्पों की माला समान शरीर कुमलागया, लावण्य रहित बनगई, अंगके आभूषणों ढीले पडकर जमीन पर पडने लगे, कितनेक बलयादिक नाजुक आभूषणों का चूर्ण होगया, मस्तक उमर का ओढना दूर होगया, शोकाकूल से शुद्धि रहित होगई, मूछित बनकर परशु से छेदाइहुइ चंपकलताकी तरह निश्चेष्ट बनी, शिर के वाल खलकर विखर गये, महोत्सव की सपाप्ति हुए पीछे जैनें इन्द्र महोत्सव का स्थंभ • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2017 48 1848 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भूमितलपे ध० घसती होवे स० सर्वाग से सं० सोतीपडी ॥ २९ ॥ त० तब सा० वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की मा० माता स० व्याकुलता से तु० त्वरित कं० कांचन भिं० पात्र के मु० मुख से वि• नीकाली हुई सी० शीतल वि. विमल ज० जलधारा मे प० सिंचाइहुइ नि० स्वस्थ किये गा० गात्र १३७१ उ० ग्रहण करने योग्य ता०ताल के पत्र का वीविजने से ज० उत्पन्न हवा वा वात से स० उद सहित अं• अंतःपुर के प०परिवार से आ आश्वासन करती रो०रोती कं० आक्रंद करती सो० शोककरती _ विमुक्कसंधिबंधणा कोटिमतलंसिधसत्ति सव्वंगेहिं संनिवडिया ॥ २९ ॥ तएणं सा । __ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचभिंगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारपरिसिंचमाणनिव्वावियगायलट्ठी उक्खेवयतालियंट वीयण गजणियवाएणं सप्फुसिएणं अंतेउरपरियणेणं आसासियासमाणी रोयमाणी फीका होता है वैसे फीकी होगई, सघन बंधन शिथिल होगये, और मणि जडित भूमि पर गीरपडी ॥२९॥ उस समय में व्याकूलता को दूर करनेवाली दासियोंने सुवर्ण पात्र के मुख से नीकला हुवा शीतल जल की धार से उन के गात्रों का सिंचन किया, मुष्टि में ग्रहण योग्य वंश पत्रादिमय ताल नामक वृक्ष के पत्र का पंखा अथवा वैसा आकारवाला चर्म का पंखा से वायु किया, और सब परिवार ने आश्वासन युक्त वचनों में सुनाये. इस तरह शुद्धि में आई. फीर टूटेहुवे हार के मोतियों की माला की तरह अश्रु वर्षाती हुई, व रुदन है। 8नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 980* भावा Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १३५२ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .. वि० विलाप करती ज०. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को एक ऐसा व० बाली तु० तू सि० है जा. पुत्र to मुझे ए. एक पुपुत्र इ० इष्ट क० कांत पि० प्रिय म० मनोज्ञ म० मनाम सं० संभालने योग्य वे विश्वास योग्य सं० सन्मत ५० बहुमत अ० अनुमत मं०आभूषणके क० करंडीया समान ररत्न समान जी० जीवितको उ० उत्सव हि० हृदयको आ० आनंद का उ०गूलर पुष्प जैसे द० दर्लभ सासुनने को किं०१ किंपुनः पा० देखने से तं० उस को णो० नहीं जा० पुत्र अ० मैं इ० इच्छती हूं तु० तेरा वि० वियोग कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं क्यासी तुम्मं सि णं जाया अम्मं एगे पुत्ते इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेजे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे, रयणब्भूए, जीवियउस्सविए हिययणंदजणणे उंबर पुप्फंपिव दुल्लहे सवणयाए किमंगपुण पासवणयाए, तं णो खलुजाया ! अम्हे. करती हुई, असंत शोक से परिपूर्ण, व आर्तकारी दीन वचनों से जमाली क्षत्रिय कुमारको ऐसा बोली अहोई , पुत्र ! इष्टकारी, कान्तकारी, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, स्थिरता का स्थानक, विश्वास का स्थानक, सम्मत.. बहुमत [ बहुत कार्य में माननीय ] अनुमत ( क्वचित् किसी कार्य में व्यावात करे तो भी पीछे माननेवाला) आभरण के करण्डिये समान, चिन्तापणी रत्नभूत, जीवितव्य के उत्साह का करनेवाला, हृदय को आनंद करनेवाला, मन को समृद्धि का करनेवाला और गुलर पुष्प की तरह दुर्लभ ऐसा एक ही तेरा पुत्र नाम * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ३७३ पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र तं० इसलिये अ. रहे ता० उतना जा • पुत्र जा यावत् अ० हम जी जावे त उस प० पीछे अ० हम का० १ । काल को प्राप्त होते प• वृद्ध होकर व० वृद्धि कर कु० कुलवंश का तं० तंतुकार्य नि० आकांक्षा रहित स० श्रपण भ० भगवंत म. महावीर की अं० पास मुं० मुंड होकर अ० अगार से अ० अन्गार पना प० । अंगीकार करना ॥ ३० ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अ० मातापिता को ए००० ऐसा व० बोला त• तथाविध सं० बह अ० मातापिता जं. जो तु० तुम म० मुझे ए० ऐना च० बोलते इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, ती पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवओ वड्डियकुलवंसतंतुकजंमि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥ ३.० ॥ तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी तहाविणं तं अम्मताओ ! जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह तुम्मंसिणं जाया ! सुनने का है तो फीर उन को देखने का कहना ही क्या ? इस से अहो पुत्र ! हम क्षण मात्र भी तेरा ge वियोग नहीं इच्छते हैं. इस से अहो पुत्र ! जब लग हम जीवे वहां लग तुम गृहवास में रहो. और जब। हम काल कर जाये तब अनेक पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि करके आकांक्षा रहित बनकर श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मुंड होकर गृहवास से दीक्षा अंगीकार करो ॥ ३० ॥ फीर जमाली क्षत्रिय 882 नवधा शतक का तेत्तीवा उद्देशा wwmommmmm 408 Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७४ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी ! हो तु• तुम सि• हो जा० पुत्र अ० मैं ए० एक पु० पुत्र इ० इष्ट कं. कांत जा. यावत् १० अंगीकार करना ए. एसे अ० मातापिता मा० मनुष्य भव में अ. अनेक जा० जन्म ज. जरा म मरण रो० रोग सा० शारीरिक मा० मानसिक १० काम दु० दुःख वे. वेदना ३० व्यसन उ० उपद्रव अ० अभिभूत अ० अनित्य अ० अशाश्वत सं० संध्या का रा० रंग स० सरिखे ज० जल बु० बुबुद् समान कु० कुशाग्र ज० जलविन्दु स० समान सु. स्वप्न दं० दर्शन जैसे वि० विद्युत चं० चंचल अ० अम्म एगे पुत्ते इंद्र कंते तं चेव जाव पव्वदाहीस, एवं खलु अम्मताओ ! माणुस्सए भवे. अणेगजाइजरामरणरोगसाररिमाणसपकामदुक्खवेयणवसणसओवद्द. वाभिभूए अधुवे आणितिए असासए संझभरागसरिसे जलवुवुदसमाणे कुसग्ग । जलबिंदुसाण्णभे सुविणगदसणोवमे विज्जुया चंचले आणिच्चे सडणपडणविधंसण कुमार मातपिता को ऐमा बोले कि अहो मातपिता ! जो तुम कहते हो कि तुम को इष्टकारी कंतकारी यावत् गुलर पुष्प की समान दुर्लभ एक पुत्र का नाम श्रवण करने का है तो फीर देखने का कहना ही क्या और भी तुम काल कर गये पीछे पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि करके आकांक्षा रहित श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना; ऐसा जो नुम कहते हो वह सत्य है. अन्यथा नहीं है. परंतु अहो मातपिता ! यह मनुष्य भत्र अनेक जन्म जरा मरण रूप शरीर संबंधी मन संबंधी दुःखों अथवा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * পাথ Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? ३७५ शब्दार्थ अनित्य स. सडन प० पहन वि० विध्वंसन धर्म पु० पहिले प० पीछे अ० अवश्य वि० छोडना भ० होगा । से वह के० कौन जा० जानता है अ० मातपिता के. कौन पु० पहिला ग० जाना के• कौन ५० पीछ? ग० जाना तं० इमलिये इ. इच्छता हूं अ० मातपिता तु० तुमारी अ० आज्ञा मिलते स. श्रमण भ०१ भगवन्त म० महावीर की जा० यावत् प० प्रवर्जा लेने को ॥ ३१ ॥ त० तब तं० उन ज. जमाली ख. विक्षत्रिय कुमार को अ० मातापिता ए. ऐसा व० बोले इ० यह तं० तेरा जा० पुत्र स. शरीर ५० उत्तम धम्मे पुबिवा पच्छावा अवस्सं विप्पजहियव्वे भविस्सइ,से केसणं जाणइ अम्मताओ ! के पुट्विं गमणयाए के पच्छा गमणयाए तं इच्छामिणं अम्मताओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए ॥ ३१ ॥ तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी इमंचणं तं जाया ! सरीरगं पविसिटरूव भावार्थ x वेदना, व्यसन व राजादिक के उपद्रव से पराभव पाया हुवा है. अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, संध्या का रंग समान, जल का परपोटा समान, कुशाग्रपे जल विन्दु समान, स्वप्न दर्शन समान, चंचल विद्युत समान, अनित्य व सडन पडन व विध्वंसन स्वभाववाला है इसलिये पहिले अथवा पीछे इस को जरूर ही छोडना* होगा. अहो मातपिता ! यह कौन जान सकता है कि पहिले कौन जायगा और पीछे कौन जायगा. इसलिये आप की आज्ञा लेकर मैं श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करने को है " विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 380 नववा शतकका तेत्तीसचा उद्देशा ६ Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ । 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी रू० रूप ल० लक्षण बं०: व्यंजन गु० गुण युक्त उ० उत्तम ब० बल वी० वीर्य स० सत्र जु० युक्त वि० (विज्ञान वि० विचक्षण सो० सौभाग्य गुरु गुण स० उत्पन्न अ० कुलीन म० महान् क्षमावाला वि० विविध ( वा० व्याधि रो० रोग र० रहित नि० वायु विकार रहित उ० उदात्त ल० मनोहर पं० पंचेन्द्रिय प० प्रसय १० प्रथम जो० यौवनपना अ० अनेक उ० उत्तम गुण से जु० युक्त तं उस को अ० भोगव जा यावत् जा० पुत्र नि० अपना म० शरीर रू० रूप मो० सौभाग्य जो० यौवनगुण त० पीछे अ० भोगवकर लक्खण बंजण गुणावत्रेयं उत्तमबल वीरियसत्त जुत्तं विष्णाण वियक्खणस सोभग्गगुणसमुस्सिय अभिजाय महक्खमं विविह बाहिरोगरहिये निरुवहय उदत्तलट्ठ पंचिंदिय पडुपढम जोव्वणत्थ अणगउत्तमगुणेहिं जुत्तं तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! नियग सरीर रूव सोहग्ग जोव्वण गुणे तओ पच्छा अणुभूय नियग सरीर रूव सोहग्ग जोव्वणगुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवओ, वड्डिय कुलवंसतं तु कज्जइच्छता हूं ॥ ३१ ॥ फीर मातापिता कहने लगे कि अहो पुत्र ! तेरा शरीर प्रकर्षरूप व श्री वत्सादि लक्षणवाला है, मसादि व्यंजन युक्त है, उत्तम बल वीर्य सत्र युक्त है, ७२ कला में विचक्षण है, सौभाग्य गुणों का धारक है, क्षमावंत, कुलिन पुरुषों में समर्थ पूजनीय, अनेक प्रकार के आधि व्याधि { से रहित है, वायु विकार रहित है, उत्तम वर्णादि गुणों से मनोहर पंचेन्द्रिय के विषय में विचक्षण, यौव{नावस्था का धारक है और भी अन्य अनेक गुणों से युक्त है इस से अहो पुत्र ! जहांलग अपने शरीर * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुवदेव नहायजी ज्यालामवादी * १३१६ Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १.३७७ शब्दार्थ नि० अपना स० शरीर क० रूप सो० सौभाग्य जो० यौवनगुण अ० हम का काल को प्राप्त होते प० । वृद्ध होते व वय व० वृद्धि कर कु० कुलवंश तं० तंतु कार्य नि० आकांक्षा रहित स० श्रमण भः भगव-14 पन्त म० महावीर की अं० पास मुं० मुंड होकर अ० अगार से अ० अनगार को १० अंगीकार करना १॥ ३२ ॥ त. तब से वह ज. जमाली ख. क्षत्रिय पत्र अ० माता पिता को एक ऐसा वा बोल त. तथाविध अ० मातपिता जं० जो तु• तुम म • मुझे एक ऐसा व• कहते हो ते तेरा जा• पुत्र स० शरीर जा. यावत् १० अंगीकार करना एक ऐसे अ० मातापिता मा० मनुष्य का म० शरीर दु० दुःख का घर निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥ ३२ ॥ तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी है तहाविणं तं अम्मयाओ ! जण्णं तुब्भे मम एवं वदह इमं चणं ते जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविह के सौभाग्य यौवन गुणों रहे हुवे हैं वहां लग इस का अनुभव कर पीछे अपने शरीर के सौभाग्य यौवन गुणों को भोगवकर और हम काल कर जावे तब तू पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि करके आकांक्षा रहित श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना ॥ ३२॥ फोर जमाली क्षत्रिय कुमार माता पिता को ऐसा बोले कि अहो मातपिता ! तुम जो कहते हो कि यह शरीर उत्कर्ष रूप यावत् । पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 2.8 wwwmornww नववा शतकका तत्तीमवा उद्देशान भावार्थ Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वि० विविध वा व्याधिःम० शत का भं० स्थान अ० अस्थि क० काष्ट उ० रहा हुवा छि० नाडी व्हा. ७ स्नायु जा० जाल उ० वीटाहुवा. स० विशेष वीटाहुवा म० मृत्तिका के भं० वरतन जैसे दु. दुर्बल अ. अशुचि सं० संक्लिष्ट अ० निवृत्ति रहित स० सर्व काल में सं० कृत्य करण ज० जरा कु. मांम ज० जर्जरीत घ० घर स० सडन प० पडन वि० विध्वंसन धर्म पु० पहिला प० पीछे अ० अवश्य वि. छोडना भ० होगा से वह के० कौन जा० जानता है अ० मातपिता के० कौन पु० पहिला . इस लिये जा वाहिसयसंनिकेयं अद्वियकटुट्टिछिराण्हारुजालउवणद्धसपिणद्धं मटियभंडंव दुब्बलं असुइ संकिलिटुं आणिद्वविय सव्वकाल संटुप्पय जरा कुणिम जजरघरंव सडण पडण विद्धसण धम्मं पुचिवा पच्छावा अवस्सं विप्पजहियव्वं भविस्सइ, से केसणं जाणइ । पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि हुए पीछे दीक्षा अंगीकार करना यह सत्य है अन्यथा नहीं है परंतु अहो मातपिता ! मनुष्य का शरीर दुःख का गृह है, मेंकडों व्याधि का स्थानक, काष्ट पिंजर की तरह अनेक हड्डीयों की संधीवाला पिंजर है, नाडी व स्नायुजाल से वेष्टित है मिट्टी के भाजन समान शीघ्र फूट जानेवाला है, अशुचिका भंडार है, क्लिष्टता उत्पन्न करनेवाला है, सब प्रकार के अनिष्ट, मल, मूत्र स्वेद, श्लेष्म, कर्ण मेल आदि फूटे घडे की तरह झरते हैं मृत्यु की गंध सहित है जरा जीर्ण बनाती है, मडे समाने है, रोगादि से सडना, छेदनादि से पडना, विनाश पाने का ही इसका धर्म है. इस से पहिले या पीछे अवश्य * प्रकाशक-रामाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ * Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७९ शब्दार्थ यावत् प० अंगीकार करने को ॥ ३३ ॥ त० तब जा जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र को अ० मात पिता ए०३. ऐसा व० बोले इ० ये ते तेरे जा०पुत्र वि बडेकुलकी बा०वालिका स० सरिखी त्वचावाली स०सरिखीवय-30 वाली स० सरिखा ला० लावण्य रू० रूप जो यौवन गु० गुण युक्त स० सरिखा कु० कुल में से आ300 लाइहुइ क० कला कु कुशल स० सर्व काल ला. लालित मु० सुख वाली म० मार्दव गुण जु० युक्त नि० १ .: निपुन वि० विनय उ० उपचार पं० पंडित वि• विचक्षण मं० मंजुल मि० मीत म० मधुर भ० बोलना ह. अम्मयाओ! के पुट्विं तं चेव जाव पव्वइत्तए॥३३॥ तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मा पियरो एवं वयासी इमाओय ते जाया ! विउल कुल बालियाओ सरिसयाओ सरित्तयाओस. रिव्वयाओ सरिस लावण्णरूव जोव्वणगुणोववेयाओ सरिसएहितो कुलेहितो आणिएलियाओ कलाकुसल सव्वकाल लालिय सुहोचियाओ मद्दवगुणजुत्त निउणविणओ वयार पंडिय वियक्खणाओ, मंजुल मियमहुर भाणयावेहसियविप्पेक्खियगइ । छोडना पडेगा. अब अहो मातपिता : यह किसको मालूम है कि पहिले कौन छोडेगा और पीछे कौन है छोडेगा इस लिये मैं श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पांस दीक्षा अंगीकार करूंगा ॥ ३३ ॥ फीर भी जमाली क्षत्रिय कुमार को मातपिता ऐसे कहने लगे कि अहो पुत्र ! बडे कुल में उत्पन्न हुई ऐसी 17 तेरी स्त्रियों हैं. वे तेरे सरीखी समानवय, त्वचा, लावण्य, व यौवन गुनवाली हैं, अपने बराबर कुल में से | पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 93800 Rago नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा 488 भावार्थ Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी + हसना वि० देखना ग० गति वि०विलास चि० चेष्टा वि० बुद्धिमान् अऋद्धिवंत कु०कुल सी०शीलवन्त वि० । विशुद्ध कुल वं• वंश सं० संतान तं• तंतु वि० वृद्धि करने में प० गर्भ व० वयभाविनी म०मनको अनुकूल हि० हृदय इच्छने वाली अ० आठ गु० गुण से व० वल्लभ उ ऊत्तम नि० नित्य भा० भावानुरक्त १३८० स० माग मुं० सुंदरी भा०. स्त्रियों को भुं० भोगव जा. यावत् ए० इन की स० साथ वि. विपुल मा० मनुष्य का का० काम भोगा त० पीछे भु० भुक्त भोगी वि. विषय वो० क्षीण होते को. कुतूहल विलास चिट्ठियविसारयाओ, अविकलकुल सील सालियाओ विसुद्धकुलवंससंताण तंतुविवद्धणप्पगब्भवय भाविणीओ मणाणुकुलहियइच्छियाओ अट्ठ तुज्झ गुण वल्ल हाओ उत्तमाओ णिच्चं भावाणुरत्त सव्वंगसुंदरीओ भारियाओ तं भुंजाहि, ताव जाव जाया ! एयाहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे तओ पच्छा भुत्तभोगी विसय इन को लाये हैं, ६४ कला में कुशल हैं. विचक्षण हैं, सकल कला कौशल्य में किसी से छलित होवे वैसी नहीं है, सतीत्व के गुण युक्त हैं, आज दिन तक किसीने इन का मन दुखाया नहीं हैं, सब ऋतु में सब प्रकार से भोगने योग्य हैं, मार्दवादि गुण युक्त व विवेक संपन्न हैं सर्व प्रकार के उपचारोंमें कुशल, अत्यंत विशारद, सुकोमल बोलने वाली, मित वचन बोलनेवाली, हास्यविलास व नेत्रचेष्टा में कुशल वगैरह सर्वगुणोपेत हैं. ऋद्धिसे परिपूर्ण, कुल से सुशोभित, विशुद्ध संतान की वृद्धि करने वाली, मन को अनु- है। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अ० हम का० काल को प्राप्त होते जा० यावत् प० प्रबजित होना ॥ ३४ ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अ० माता पिता को ए. ऐसा व० बोले त. तथाविध अ० मातापिता जं. जो तु• तुम म० मुझे ९० ऐना व कहते हो इ० ये ते० तेरे जा० पुत्र वि० विपुल कु० कुल जा. यावत् ५० दीक्षा लेना अ० मातापिता मा० मनुष्य के का० कामभोग अ अशुचि अ.अशाश्वत वं. वमनद्वारवाले पि. पित्ताश्रय खे० श्लेष्माश्रय सु० शुक्राश्रव सो० शोणिताश्रय उ० उच्चार पा० प्रश्रवण खे० श्लेष्म वोच्छिण्णकोउहल्ले अम्हेहिं कालगएहिं जाव पव्वइहिसि ॥ ३४ ॥.तएणं से जमा. ली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी तहाविणं तं अम्मयाओ ! जण्णं तुब्भेमम एवं वदह इमाओय ते जाया! विउल कुल जाव पव्वइहिसि; एवं खलु अम्मया ओ ! माणुस्सया कामभोगा असुई असासया वंतासवा, पित्तासग, खेलासवा, भावार्थ कूल, हृदय को इच्छित, तेरे गुणकी वल्लभ और उत्तम भावानुरक्तसे सर्वांगसुंदरवाली ऐसी आउ भार्याओं हैं. इसलिये उन की साथ जहां ठग विपुल काम भोग होवे वहांलग भोगवो. पीछे भुक्तभोगी बनकर और 1 शब्दादिकामभोगों में क्षीणता हुवे पीछे हम काल कर जावे यावत् पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि करके Tतम दीक्षा लेना ॥ ३४ ॥ जमाली क्षत्रियकमारने मातापिता को ऐसा कहा कि अहो माता पिता! जो तुम मुझे कहते हो कि बडे कुलवाली स्त्रियों यावत् दीक्षा लेना यह संस है अन्यथा नहीं है। परंतु अहो माता Nagaपंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 4082233नयां शतकका तेत्तीसवा उद्देशा8488 Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 4 सिं० सिंघाण वं० वमन पू० पूय सु. शुक्र सो० शोणित से उ० उत्पन्न हुधा अ० अमनोज्ञ दु. दुप मु० मूत्र पु० पूतिक पु०विष्टा से पु० पूर्ण मि० मृतगंध उ० उश्वास अ.अशुभ नि निश्वास उ० उद्वेगवाला वी० बीभत्स अ० अल्प काल के ल० लघुस्वभाववाले क. कलमल अ० अवस्था दु० दुःख ब० बहुजनको १ सा० साधारण प० क्लेश कि० संपूर्ण दुःख वाला अ० अज्ञानजन से० सेवते स० सदैव सा० साधु से ग० । निंदनीय अ० अनंत संसार व वधारनेवाला क० कटुक फ० फल विपाकनाला चु० तृणपूलीवत् अ० नहीं । सुक्कासवा, सोणियासवा, उच्चारपासवणखेलसिंधाणवंतपूयसुक्कसोणियसमुब्भवा, अमणुष्णदुरूवमुत्तपूइयपूरीसपुण्णा मियगंधुस्सास असुभनिस्सास उव्वेयणगा, वीभत्था, अप्पकालिया, लहूसगा, कलमलाहियासदुक्खबह जणसाहारणा, परिकिले सकिच्छदुक्खसब्भा, अबुहजणसेविया सदा साहुगरहणिज्जा, अणंतसंप्तारवडणा, भावार्थ | पिता ! मनुष्य के कापभोग अशुचितारे, अशाश्वत, वमन, पित्त, श्लेष्म, शुक्र, व रुधिर के आश्रित हैं.. लघुनीत, बडीनीत, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, पूति, शुक्र व रुधिर से उत्पन्न होते हैं. अमनोज व दूरूप मूत्र व पुरुषविष्टा से परिपूर्ण है, मृतक शरीर की गंध समान हैं, अशुभ उश्वास अशुभ निश्वास से उद्वेग उत्पन्न करनेवाले हैं, अल्प काल में नष्ट होनेवाले हैं, भोगों की लघुता करनेवाले हैं शरीर के all व वाहिर नीकले हुवे द्रव्यों दृष्टिगोचर होने से ग्लानि करनेवाले हैं, परक्लेश के कारण भूत, वहुत कठिनता से अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी gr *.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * < Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८३ शब्दार्थ ४० मूकाता दु. दुःख बंधनवाला सिसिद्धिगमन में वि० विघ्नरूप से वह के० कौन जा० जानता है के कौन पु० पहिला ग जानेका के० कौन प० पीछे तं० इसलिये इ. इच्छता हूं अ० माता पिता जा0 of यावत् प० प्रवा लेने को ॥ ३५ ॥ त० तब तं० उन ज० जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र को अ० मातापिता ए. ऐसा व० बोले इ० ये ते० तेरे जा• पुत्र अ० दादा ५० पडदादा पि. पिता के ५० पडदादा से से है कडुयफलविवागा चुडुलिव्य अमुच्चमाण दुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविग्घा, से केसणं जाणइ अम्मयाओ ! के पुब्बिं गमणयाए के पच्छा, तं इच्छामिणं अम्मया.. ओ ! जाव पव्वइत्तए ॥ ३५ ॥ तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमेय ते जाया ! अजयजयपिउपज्जयागएय बहुहिरण्णेय, सुवण्णेय, कंसेय । प्राप्त होसके वैसे, मूर्ख मनुष्यों को सेवने योग्य, साधु पुरुषों से सदैव निंदित, अनंत संसार की वृद्धि करने वाले, खराब फल के दाता, जलने घास के पूले समान, आत्मगुन को भस्म करनेवाले, और सिद्धि "यक्तिगमन में विघ्न कर्ता हैं. अब अहो मात पिता ! यह कौन जानते हैं कि पाहिले कौन जावेंगे। व पीछ कौन जावेंगे ! इससे मैं आप की आज्ञा मे प्रवर्ध्या अंगीकार करने को इच्छता हूं ॥ ३५ ॥ फीर जमाली क्षत्रिय कुमार को उन के मात पिता कहने लगे कि अहो पुत्र ! तेरे दांदा, पडदादा पिता के पडदादा से आया हुवा यह हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, बुख, विपुल धन, कनक यावत् प्रधान वित्त वगैरह।" * नववा शतक का तेत्तीसरा उद्देशा १४४ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति भावार्थ Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.टदार्थ औ० आयाहुवा ब० बहु हिरण्य सु० सुवर्ण के० कांस्य दू० वस्त्र वि० बहुत घ० घन क० कनक जा० यावत् है सा० प्रधान सा० द्रव्य अ० अलम् जा. यावत् आ० सात कु• कुलवंशी से ५० बहुत दा० देकर भो भोगवकर प०भागकर तं उसे अ• अनुभव ता तावत् जा०पुत्र वि०विपुल मा०मनुष्य के इऋद्धि स. सत्कार स० समदय तक पीछे अ. भोगवकर क. कल्याण व० वृद्धि क० कुलवंश जा. यावत |१३८४ प० दीक्षालेना ॥ ३६॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अ० मात पिता को l सूत्र | दूसेय, विउल धणकणग जाव संतसारसावएजे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुल ___ वंसाओ पकामं दाउ पकामभोत्तुं परिभाएत्तुं तं अणहोहि ताव जाया । विपुले माणु. स्सए इड्डि सक्कार समुदए तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे वड्डिय कुलवंस जाव पब्वइ. हिसि ॥ ३६ ॥ तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी तहा- . भावार्थ सातवा कुल तक पहुंचे इमलिये उत्कृष्ट दानादि में व्यय करो, भोगकर के गोत्रियों को बांट देवो इस तरह लक्ष्मीका लाभ लेकर विस्तीर्ण मनुष्य संबंधी कामभोग भोगवो, ऋद्धि सत्कार सन्मान के उदय को प्राप्त होवो. इस तरह कल्याण मंगल को प्राप्त होकर हमारा काल हुचे पीछे पुत्रपौत्रादिक की वृद्धि करके श्रमण भगवंत महावीर की पास दीक्षा धारन करो ॥ ३६ ॥ तव जमाली क्षत्रिय कुमार मातापिता को ऐमा बोले कि अहो मातपिता ! तुम कहते हो कि दादा, पडदादा व बाप के पडदादा का धन भोगव कर 42 अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी म * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी * Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2012 १३८५ 8- पंचमाङ्ग विकार पण्णात (भगवती सत्र ए० ऐमा व० बोला त० तथाविध अ० माता पिता जं. जो तु० तुम व० कहते हो इ० यह ते तेरे जा पुत्र अ० दादा प० पडदादा जा. यावत् प० दीक्षा अंगीकार करना अ०माता पिता हि० हिरण्य मु०सुवर्ण जा. यावत् सा० द्रव्य अ० आग्नि आधिन चौ० चौर आधिन रा० राज आधिन म० मृत्य आधिन दा० । पत्रादि आधिन अ. अग्नि सामान्य जा. यावत् दा० पुत्रादि सामान्य अ. अध्रव अ. अनित्य अ० अशाश्वत पुः पहिला ५० पीछे अ० अवश्य वि० छोडना भ० होगा से० वह के० कौन जा. जानता है विणं अम्मयाओ ! जणं तुझे मम एवं बदह इमंच ते जाया ! अजय पजय जाव पव्यइहिसि, एवं खलु अम्मयाओ हिरण्णेय सुवण्णेय जाव सावएजे अग्गिसाहिए, चोरसाहिए, रायसाहिए, मच्चुसाहिए, दाइयसाहिए; आग्गिसामण्णे जाव दाइयसामण्णे, अधवे, आणितिए, असासए, पुल्विंवा पच्छावा अवस्सं विप्पजाहयव्यं भावस्सइ, नवना शतकका तेत्तोमवा उद्देशा 9880 भाव फीर दीक्षा लेना परंतु अहो माता पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण, यावत् प्रधान द्रव्य आग्नि आधिन, चौर के आधिन, राजा के आधिन, मृत्याधिन व पुत्राधिन है वैसे ही अग्नि सामान्य यावत् पुत्र सामान्य व अध अनित्य व अशाश्वत है. उसे पहिले व पीछे अवश्य छोडने का है परंतु यह नहीं जान सकते हैं कि कौन पहिले जावेगा और कौन पीछे जावेगा इस से अहो मातपिता ! आपकी आज्ञा से मैं श्रमण भगवंत । Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ त० तैसे जा. यावत् प० प्रवा अंगीकार करूं ॥ ३७ ॥ त० तब तं० उस ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को अ० माता पिता ज. जब नो० नहीं सं० समर्थ हवे वि. विषयानुकूल से ब. बहुत आ० रवचन से प० प्रज्ञा से वि० बद्धि से स० संबोधन से आ० वचन से स बोधन से वि. विज्ञान से त.* तस वि०विषय १० प्रतिकूल से सं० संयम भ० भय उ० उद्गन प०प्रज्ञासे १० कहते ए ऐमा व० बोले ५० एस ख० खलु जा० पुत्र णि निग्रंथ पा० वचन स० मत्य अ० प्रधान के० केवल ज. जैसे आ० आवर से केसणं जाणइ तं चेव जाव पव्वइत्तए ॥ ३७ ॥ तएणं तं जमालिं खत्तिय कुमार अम्मयाओ जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमेहिं बहूहिं आघवणाहिय पण्णवणाहिय, विण्णवणाहिय सण्णवणाहिय, आघवेत्तएवा, सणिवेत्तएवा, विष्णवेत्तएवा, तहेव विसयपडिकूलाहिं संजमभयउव्वेयणकरीहिं, पण्णवणाहिं पण्णवे माणा एवं वयासी एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले भावार्थ महावीर स्वामी की पास दीक्षा ग्रहण करूंगा ॥ ३७ ॥ नव माता पिता जमालीकुमार को विषयानुकूल त वचनों, विशेष वचनों, प्रेमयुक्त वचनों, प्रार्थनावाले वचनों और संबोधनवाले वचनों कहकर यावत् है संबोधन कर चलाने को समर्थ हुवे नहीं तव संयम में भय उत्पन्न करनेवाले विषय प्रतिकूल वचनों से कहने लगे कि अहो पुत्र ! निग्रंथ के प्रवचन सत्य, अनुत्तर, केवल, आवश्यक सूत्र में कहे वैसे यावत् । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gi * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवस हायजी ज्वालाप्रसादजी * - - - - Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८७ शब्दार्थ कश्यक में जा. यावत् स० सर्व दु० दुःख का अं० अंत करे ए. एकान्त दृष्टिवाला खु० घर जैसे ए. एकांत . धारवाला लो लोहमय जजव चा चावना वा०रेत का कवल जैसे निक निस्तार गंगंगा म०-वडी नदी का १५० प्रतिश्रोत में जाना म० महा ममद्र जैसे भु. भुजासे द. दुस्तर तितिक्ष्णखङ्ग क. चलना गु० महा-3T शिला को लं• उठाना अ० असिधारा जसे व० व्रत च. आचरना णो० नहीं क. कल्पता है जा० पुत्र ___ जहा आवस्सए जाव सव्व दुक्खाणमंतं करेइ, अहीव एगंतदिट्ठिए, खरोइव एगंत । धाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वालुया कवलेइव निस्सारे, गंगावा महानदी पडिसोत गमणयाए, महासमुद्दोव्व भुयाहि दुत्तरो, तिक्खं कमियव्यं, गुरुयं लंवेयव्वं, आसिधारागं वय चरियव्वं, णो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं णिग्गंथाणं आहाकभावार्थ सब दुःखों के अंत करनेवाले हैं परंतु जैसे भक्ष ग्राण करनेमें सर्प एकान्त दृष्टिवाला होता है वैसे ही उन के में वचन हैं. क्षुर की धार समान तीक्ष्ण, लोहमय व चावने जैसे, बालु के कवल जैसे निस्तार, और गंगा . महा नदी के प्रातेश्रोत को जाने जैसे दुर्गमन हैं, महा समुद्र भुना से तीरने जैसे दुसाध्य हैं, तीक्ष्ण = खड्ग धार पर चलने जैसे विषम हैं, महाशीला को हाथ में उठाकर रखने जैसे दुर्धर हैं, तरवार की धारा 3 जैसे नियमित सेवन करना दुष्कर हैं. क्यों किं श्रमण निग्रंथोंको आधाकर्मी, उद्देशिक, मीश्र, उज्झ यर [साधु आये जान अधिक बनावे ] पूतिकर्म, मोललीया हुवा, उधार लीया, निर्बल की पास से छीना हुवा, पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <2280 2020 नववा शतक का तेत्तीसवा 20 Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - १६८८ अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी स० श्रमण नि निथ को आ० आधा की उ० उद्देशिक मि० मिश्रजात उ० अधिक बनाया हुवा पु०१ : पूतिकर्म की० मोललिया हुवा पा० उधारलाया अ०मांगकरलाया अ अनिष्ट दोष अ०सन्मुख लायाहुवा कं० अटविमें भिक्षु निमित्तका दुन्दुभिक्ष का गि०ग्लानी का व० वर्षा का पा० अतिथि भोजन से शय्यान्तर रा० रामपिंड मू० मूल भोजन के० कंद भोजन फ० फल भोगन वी० बीज भोजन ह. हरित भोजन भु० व खाने को पा० पीने को जा• पुत्र सु० सुख योग्य णो नहीं दु० दुःख योग्य न० नहीं अ० अलम् सी० म्मिएइवा, उद्दोसिएइवा,मिस्सजाएइवा, उज्झोयरिएइवा,पूइएइवा, कीएइएवा, पामिच्चेइवा, अच्छेजेइवा आणिसिट्टेइवा,अभिहडेइवा,कंतारभत्तेइवा, दुभिक्खभत्तेइवा, गिलाणभत्ते___ इवा, वदलियाभत्तेइवा, पाहणभत्तेइवा, सेजायरापिंडेइवा, रायपिंडेइवा, मूलभायणइवा, कंदभायणेइवा,फलभोयणेइवा,बीयभोयणेइवा,हरियभोयणेइवा भुत्तएवा,पायएवा,तुम्मंसि चणं जाया ! सुहसमुचिए, णो चेवणं दुहसमुचिए नालंसीयं नालं उण्हं, नालंखुहा, मालिककी आज्ञा बिना उठाया हुवा, साधुकी सन्मुख लाया हुवा. अटविमें जानेवाले के लिये स्थापन किया हुवा, दुर्भिक्ष में भिक्षुकों को देने के लिये नीकाला हुवा, रोगी को पथ्य के लिये बनाया हुवा, वर्षा नहीं पडने के कारन से बनाया हुवा, पाहुणे के निमित्त बनाकर पाहुणे नहीं जीमे पहिले दिया हुया, शय्यांतर पिंड, राजपिंड, और मूल, कंद, पुष्प, बीज, व हरीकाय इनपांचोंको भोगवना ऐसे दोष रहित आहार पानी - प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ 10 1 Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ शीत उस शीत उ०७० क्षुधा ऊष्ण पि. तृपा चो० चौर वा० सर्प दं० दंश म० मशक वा व्याधि पि.पित्त सिं० श्लेष्म । स. सन्निपात वि० विविध रो० रोग प० परीषह उ० उपसर्ग उ. उदय आये अॅ सहन करने को तं० ] इसलिये णो नहीं जा० पुत्र अ०. हम इ० इच्छत हैं तु० तेरा ख० क्षणमी वि० वियोग तं० इमलिये अ० A rm भोगव ना० तावत् जा. पुत्र जा. यावत् अ. हम जी0 जीते हैं त० पीछे अ० हम का० काल को प्राप्त होने जा० यावत् प प्रवया अंगीकार करना ॥३८॥ ततब से वह ज० जपाली क्षत्रिय कुमार अ. ___ नालंपिवासा नालंचोरा, नालंबाला, नालंदसा, नालंमसगा; नालं वाइयपित्तियागभिय है सण्णिवाइय विविहे रोगायंके परीसहोवसग्गे उदिण्णे अहियासेत्तए तं णोखलु जाया! है अम्हे इच्छामो तुझं खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव अम्हे जीवामो तओ पन्छ। अम्हेहिं कालगएहिं जाव पवइहिसि ॥ ३८ ॥ तएणं से भावार्थ मीलना बहुत कठिन है. अहो पुत्र ! तू असंत सुकोमल है किसी प्रकार के दुःख सहन करने योग्य नहीं है, शीत, ऊष्ण, क्षुधा, तृषा, वैसे ही चारों के, सर्व प्रमुख के, दंश मशक के और वात पित्त, श्लेष्म, सनिपाचदि रोगों के परिषह व उपसर्ग सहन करने को समर्थ नहीं है. इस से अओ पुत्र ! हम of क्षणमात्र भी तेरा वियोग नहीं इच्छते हैं और जहां लग हम जोते रहे वहां लग तू रहे. हमारा काल हुए पीछे पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि करके तू दीक्षा लेना ॥ ३८ ॥ उस वक्त जमाली क्षत्रिय कुमारने मातपिता पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र88-800 *38** नववा शतक का तेत्तीमवा उद्देशा 1880 Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवाय अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्रा अमोलक ऋपिजी मातापिता को एक ऐसा व बोले त. तथाविध अ० मातापिता ज. जो तुः तुम ए ऐमा २० कहतेहो. णि निग्रंथ पा. प्रवचन स० सत्य अ० प्रधान के केवल जा. यावत् प० प्रवा अंगीकार करना ए. ऐसे ख० निश्चय अ० मातापिता णिः निग्रंथ पा. प्रवचन की० कृपण का• कायर का० कापुरुष को इ.इस लोक १० प्रतिधप-परलोक प० पराङ्गमु व वि० विषयतृष्णावाले को दु. दुस्तर पा• पापर मनुष्य को धी० धार पुरुष को णि निश्चित को व व्यवनित को को नहीं ए. यहां कि० किंचिदपि दु० दुष्कर जमाली खत्तियकुमार अम्मापियरो एवं व्यासी तहाविणं तं अम्मयाओ जणं तुम्भे ममं एवं वदह एवं खलु जाया ! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तंचेव , जाव पव्वइहिसि ॥ एवं खल अम्मयाओ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबंधाणं, परलोग परम्मुहाणं. विसयतिसियाणं दुरणुचरे, पामयजणस्स धीरस्स णिच्छियस्स ववसियस्स णो खलु एत्थ किंचिवि दुक्करं करणको ऐमा कहा कि अहो मातपिता ! निग्रंथ के प्रवचन सत्य, अनुत्तर, परिपूर्ण यावत् सब दुःखों के अंत भी करनेवाले हैं परंतु संयम मार्ग बहुत कठिन है इसलिये तुम काल कर गये पीछे मैं दीक्षा अंगीकार करूं ऐसा जो आप कहते हैं वह सत्य हैं परंतु अहो मातपिता ! निग्रंथ प्रवचन क्लीव, कायर, बीकण पुरुष को इसलाक के प्रतिबंधक को, परलोक से परांगमुखवाले को, विषय तृष्णावाले को व पामर मनुष्यों को दुरन- २ प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावात Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ igita ॐ0 /. 7 4./ शब्दार्थ *क करने को तं• इस लिये इ० इच्छताहूं अ० मातापिता तु. तुमारी अ० आज्ञा मिलते स० श्रमण भ... भावन्त म० महावीरकी जा. यावत् प० प्रवा लेनेको ॥ ३९ ॥ त० तब तं० उन ज. जमाली ख. । क्षत्रिय कुमार को अमातापिता जाजा नो० नहीं सं० चलायमान करसके वि०विपयादि अनुकुल शब्द से विविषय प. प्रतिकुलने क. बहत आ० कथन से १० प्रज्ञा से जा. यावत विज्ञानसे ता० तदा अ. इच्छा रहित नि० निष्क्रमण अ० मान कियः॥४०॥ ततब तक उन ज० जमाली ख०क्षत्रियकुमार का पिता याए, तंइच्छामिणं अम्मयाओ! तभेहिं अब्भणण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पन्वइत्तए ? ॥३९॥ तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहिय विसय पडिकूलाहिय, बहूहिं आघवणाहिय, पण्णवणाहिय ४ आघवेत्तएवा, जाव विण्णवेत्तएवा ताहे अकामाइं चेव निकमणं अणुमाणत्या ॥ ४० ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिया कोडंचिय चर हैं परंतु धीर पुरुष को, कार्य में निश्चित पुरुष को व व्यवलित को कुच्छ भी दुष्कर नहीं है इसलिये भावार्थ अहो मातपिता ! मैं आप की आज्ञा से श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेने को इच्छ-31 otoता हूं ॥ ३१ ॥ जा जमाली के मातपिता जनाली को विषयानुक्ल व विषय के प्रतिकूल वचनों कहकर समजाने को समर्थ हुवे नहीं तब दीक्षा दीलाना मान्य किया ॥ ४० ॥ तत्र जमाली के पिताने कौटुम्बिक, पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र नववा शतक का तेत्तीसचा उद्देशा Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न शब्दार्थ को • कौटुम्धिक पुरुषों को स० बोलाकर ए० ऐसा व० बोले दे० देवानुप्रिय ख० क्षत्रिय कुंड ग्राम न०* र को स० आभ्यंतर बा. बाह्य आ. छंटकाव म. संमार्जन उ. लिंपनादि ज. जैसे उ. उववाइ में जा. यावत् प० पीछी देते हैं ॥४१॥ त० तब से उन ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का पि० पिता दो. दुसरीवक्त कौ० कौटुम्विक पुरुप को स० बोलाकर १० ऐसा व. बोले खिम शीघ्र दे० देवानुप्रिय ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का म० वडा द्रव्यवाला म. बहुमूल्य म० बहुत योग्य वि० बडा णि निष्क्रमण अ० अभिषक उ स्थापना करो ॥ ४२ ॥ त० तब ते. वे को. पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खात्तयकुंडग्गामं नयरं साभंतर बाहिरियं आसियसम्मजिओवलित्त जहा उववाइए जाव पच्चाप्पणंति ॥ ४१ ॥ तएणं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चंपि कोडुंबिय पुरिसे सहावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुल णिक्खमणाभिसेयं उवट्ठावेह ॥४२॥ तंएणं ते कोडंबिय भावार्थ पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! क्षत्रिय कुंड नगर की बाहिर व अंदर सब स्थान स्वच्छ कराकर, सुगंधि जल छांटकर गोमयादि का लेपन कर जैसे उववाइमें कहा वैसे तैयारी करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो ॥ ४१ ॥ फीर दुमरी वक्त भी जमाली क्षत्रिय कुमारके पिताने कौटुम्बिक 1ों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! जमाली कुमार के लिये बहुत द्रव्य लगे वैसा, 43 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ka शब्दार्थ टुम्बिक पुरुष स० तैसे जा. यावत् प० पीछी देते हैं त० तब तं० उन ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार १०१ को अ० मातापिता सी. सिंहासनपे पु० पूर्व तरफ नि० बेठाकर अ० आठ स० शत सो० सुवर्णके कर कलश ए. ऐसे ज० जैसे रा० रायपश्नीय में जा० यावत् अ० आठ स० शत भो० मृत्तिका क० कलश म. सर्व ऋद्धिसे जा० यावत् म• बडेशब्दसे म• बडा नि निष्क्रमण अ० अभिषेकसे अ० सिंचकर क० पुरिसा तहेव जाव पञ्चप्पिणंति, तएणं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो सीहासणवरांस पुरत्थाभिमुहं निसीयावेइ, निसीयावेत्ता, अट्टसएणं सोवणियाणं कलसाणं, एवं जहा रायप्पसेणीए जाव अट्ठसयाणं भोमेजाणं कलसाणं सविड्डीए जाव महया खेणं महया २ निक्खमणाभिसेगेणं आभिसिंचते २ ता करयल जाव जएणं विज. भाव विस्तीर्ण दीक्षा का उत्सव व अभिषेक सज्ज करो. और ऐसा कार्य करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो ॥ ४२ ॥ कौटुम्बिक पुरुषोंने ऐसा कार्य करके उन को उन की आज्ञा पीछी दे दी. उसी समय उन जमाली क्षत्रिय कुमार के मातपिताने जमाली कुमार को पूर्वाभिमुख से सिंहासन पर बैठाये, एकसोआठ सवर्ण के कलश, एकसो आठ चांदिके कलश, वगैरह रायमसेणी सब में कहे मुजब यावत् एकसो पाठ 1 मृत्तिकाके कलश में शुद्ध पानी भरकर अभिषेक किया. और हस्त जोडकर यावत् जय हो विजय हो ऐसे 843 पंचम्पंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 4.88 Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी करतल ज० जय वि० विजय से व० बधाकर ए० ऐसा व० बोले भ० कहे जा० पुत्र किं० क्या दे० देवे किं० क्या प० विशेषदेवे कि० किससे ते तेरा अ० अर्थ ॥ ४३ ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अ० माता पिता को ए ऐसा व० दोला इ० इच्छताहूं अ० मात पिता कु० कृषिक की दुकान से २० रजो, रण प० पात्र आ० लाटे को का० नापित को स बोलाने को ॥ ४४ ॥ त तब से ० एणं वद्धावे २ ता एवं क्यासी भण जाया ! किं देमो किं पयच्छामो किंणा वा ते अट्ठो ? ॥ ४३ ॥ एणं से जमाली खाचियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासीइच्छामिणं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणंच पडिग्गहंच मणिउं कासवांच सद्दाविउं ॥ ४४ ॥ तएणं से जमालिस्त खत्तिय कुमारस्स विद्या कोडुंबिय पुरिसे शब्दों से वधाये. वधाकर ऐसा बोले कि अहो पुत्र ! हम तुझे क्या देवे ? तुझे किस वस्तु से मतलब है { सो कहे ? ॥ ४३ ॥ तत्र जमाली क्षत्रिय कुमार वोले कि अहो मात पिता ! कृत्रिके की दुकान से रजोहरण व पात्र लाने का वनपिन बोलने का मैं इच्छता हूं ॥ ४४ ॥ फीर जमाली के पिताने कौटुम्बिक पुरुषों १ समस्त स्वर्ग मृत्यु व पाताल इन तीनों लोक में मीलती हुई वस्तु देवाधिष्ठित से जिस की दुक कृत्रिक दायक कहते हैं. * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १३९४ Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उन ज. जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र के पि० पिताने को कौटुंबिक पुरुष को म० बोलाये ए. ऐसा व० बोले . खि० शीघ्र भो० भो दे० देवानुप्रिय सि. श्रीधर से ति० तीन स० लाख ग० लेकर दो दो ल० लाख से कु०कुत्रिक की दुकान से र रजोहरण ९०पात्र आ०लायो स० लाखसका नापित को स०बोलावो ॥४॥ ततब से०वह को कौटुम्बिक पुरुष जजमाली ख० क्षत्रिय कुमार के पि० पिता से बु० वोलाया हुआ हर हृष्ट तुष्ट क० करतल जा. यावत् प० सूनकर खि० शीघ्र मि० श्रीघर मे ति तीन स० लाख त• तैसे जा० यावत् का. नापित को स० बोलाया ॥ ४६ ॥ त० तब मे० वह का० नापित ज. जमाली ख०, सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ तिण्णि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियारणाआ रयहरणंच पडिग्गहंच आणेह सयसहस्सेणं कासगं सहावेह ॥ ४५ ॥ तएणं से कोडुबियपुरिसे जमालिस्स खत्तियकुमारस्सपिउणा एवं वुत्तेसमाणे हट्टतुटुकरयल जाव पडिसुणेत्ता, खिप्पामेव सिरिघराओ तिण्णि सय सहस्साइं तहेव जाव कासवगं सहावेइ ॥ ४६॥ भावार्थको बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! लक्ष्मीभंडार में से तीन लक्ष सौनये लेकर दोलक्ष सोनये ७ के कृत्रिक की दुकान से रजोहरण पात्रादि लावो और एक लाख सोनये में से नापित बोलाओं ॥ ४५ ॥ कौटुबिक पुरुषों जमाली-क्षत्रिय कुमार के पिता की पास ने ऐसी बात सुनकर हृष्ट तुष्ट यावतू आनंदित है । पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र १ anamannamonwwwwwwwnni ___eagk नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा 42 Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ क्षत्रिय कुमार के पि० पिता से की. कौटुंबिक पुरुष से स. बोलाया ह. दृष्ट तु. तुष्ट हा० स्नान किया क० बलीकर्म कीया जा. यावत् स. शरीर जे. जहां ज० जमाली स्व. क्षत्रिय कुमार का पि. पिता ते तहाँ उ० आकर क० करतल ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार के पि० पिता को ज. जय वि. विजय से क० बजकर ए० एसा व० बोला सं• बतावो तु• तुम दे देवानुपिय अं० जो म. मेरे क० करने लायक ॥ ४७ ॥ त तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का पि० पिता तं० उस । तएणं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबिय पुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हट्टे तुटे पहाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिया तेणव उवागच्छइ २त्ता करयल जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं बद्धावेइरत्ता , ___ एवं वयासी संदिस्सह तुम्मं देवाणुप्पिया! जं मए करणिज्ज॥४७॥ तएणं से जमालिस्स भावार्थ हुवे और भंडार में से तीन लक्ष सोनये लेकर यावत् एक लक्ष सोनये से नापित बोलाया ॥ ४६ ॥ जमाली क्षत्रिय कुमार के पिताने भेजे हुवे कौटुम्बिक पुरुषों से ऐसी बात सुनकर नपित बहुत हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा. स्नान किया, कोगला किया यावत् वस्त्राभरण से शरीर विभूषित किया. फीर जमाली क्षत्रिय ल कुमार के पिता को पास आकर 'जय हो विजय हो' ऐसे शब्दों बोलकर बोला; कि अहो देवानुप्रिय ! *मने जो करने योग्य कार्य होवे सो वतलावो ॥४७॥ तब जमाली के पिता उस काश्यप [नपित ] को 48 अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ॐ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र | का० नापित को ए० ऐसा व० बोले तु० तुम दे० देवानुप्रिय ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार के ब० बहुत ज० यत्ना से च० चार अंगुल व० वर्जकर नि० दीक्षायोग अ० अंग्र केश क० कापो ॥ ४८ ॥ त० तब 4 नववा शतक का तेत्तीसका उद्देशा - से० वह का० नापित ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार के पि० पिता से ए० ऐसा बु० बोलाया ह० दृष्ट | ३ १३१७ तुष्ट क० करतल जा० यावत् ए०. ऐसा व बोला सा० स्वामिन् त० तथा इति आ० आज्ञा वि० विनय से १० वचन प० सुनकर सु० सुगंध गं० गंधादक से ह० हस्त पांव प० धोकर सु० शुद्ध अ० आठ खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवर्ग एवं वयासी तुम्मं देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तणं चउरंगुलवजे निक्खमणप्पओगे अग्गकेसे कप्पेह तएण से कासवए जमालिस खात्तयकुमाररस पिउणा एवं वृत्तेसमाणे हट्ट तुट्ठे करयल जाब एवं सामी ! तहत्ति आपाए विणणं वयणं पडिसुणेइ २ त्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपाए पक्खालेइ, २ त्ता सुद्धाए अटुपडलाए पोत्तिए मुहं बंधइ २ ता { बोले कि अहो देवानुप्रिय ! बहुत यत्ना पूर्वक चार अंगूल प्रमाण स्थान छोड़कर दीक्षा योग्य अग्रकेश काप ॥ ४८ ॥ वह नापित भी जमाली के पिता के वचनों सुनकर बहुत हर्षित हुवा और हस्तद्वय { जोडकर बोला कि ' तथा इति' इस तरह करके विनय से वचनों सुनकर सुगंधित पानी से हस्त पान का प्रक्षालन किया, और आठ पडलवाली मुख वस्त्रिका मुखपे वांत्री, और बहुत यत्ना पूर्वक } Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwww शब्दार्थ पडका पो० वस्त्र मु० मुख को बं० वांधकर ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को प० बहुत ज० यत्ना. से च० चार अगुल व० वर्जकर नि० निष्क्रमण योग्य अ० अग्रकेश क. कापे ॥ ४९ ॥ त० तब से. वह ज० जमालि ख० क्षत्रिय कमार की मा० माता है. हंश समान ५० श्वेत वस्त्र में अ० अग्रकेश प० १३०.८ लेकर सु० सुरभि गं गंधोदक से १० धोकर अ० मुख्य व प्रधान ग० गंध म. पुष्प से अं०१ पूजकर सु. शुद्ध व वस्त्र से बं० बांधे र० रत्त क० करंड में प० डालकर हा हार वा० वारिधारा जमालिस खात्तय कुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे निक्खमणप्पओगे अग्गकेसे कप्पेइ ॥ ४९ ॥ तएणं से जमालस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ २ त्ता, सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ २ त्ता अग्गेहिं , वरेहिं गंधेहि मल्लेहिं अंचेइ २ त्ता, सुद्धणं वत्थेणं बंधेइ २ त्ता रयणकरंडगंसि पक्खिवइ २ ता, हारवारिधारसिंदुवारछिण्णमुत्तावलिप्पगासाइं सुतविओगदूसहाई जमाली क्षत्रिय कुमार का लोच करने के लिये चार अंगूल प्रमाण केश छोडकर दीक्षा योग्य बालों काटे ॥४१॥ तब जमाली क्षत्रिय कमार की माताने हन समान श्वेत वस्त्र में कटे हवे बाल धारन किये. सुगंधित पानी से धोये, श्रेष्ट गंधमाला से पूजन किया, निर्मल वस्त्र में वांधे, रत्नों के कर 1 डिये में स्थापन किये. और छदाया हार, पानी की धारा, निगुण्डी जात के 'पुष्पों व मोतियों की * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी है। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ~ भावार्थ wamw Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48 ॐ नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 4000 सिं० निर्गुण्डी के पुष्प छि छेदेहुवे सु० मोती की मात्रा प० सरीखी सु० पुत्रवियोग दू० दु:सह अं० अश्रु वि० गिराती ए० ऐसा व० बोली ए०यह अहमको ज० जपाली ख० क्षत्रिय कुमार को ब० बहुत ( ति० तिथि में प० पर्व में उ० उत्सव में ज० पूजा में छ० महोत्सव में अ० पीछे दः दर्शन भ० होगा ऊ० ऊसीसे के मू० मूल में ठ० रखे ॥ ५० ॥ त तब तु० उन ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार के अ० | माता पिता दो दो वक्त उ० उत्तरदिशि में सी० सिंहासन र० बनाकर ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अंहिं विणिम्मुयमाणी २ एवं वयासी एसणं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहू तिहीसुय पव्वणीसुय उस्सवेसुय जण्णे सुय छण्णेसुय अपच्छिमे दरिसणे भविस्संती तिक ऊसीसमूले वेइ ॥ ५० ॥ तणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो दोच्चंपि उत्तरात्रक्कमणं सीहासणं रयावेति २ ता जमालिं खत्तियकुमारं माला समान पुत्र त्रियोग से दुःसह अश्रु वर्षाती हुई ऐसा कहने लगी कि इन जमाली के वस्तु रूप केशाग्रका हम को उत्तम तीथियों में, दीपावली प्रमुख मंगल पर्व में, नागादि देव की पूजा में व इन्द्रोत्सवादि लक्षण में अंतिम दर्शन होगा यों कहकर अपने उसीसे नीचे उस रखे ॥ ५० ॥ फीर जमाली के | माता पिताने उत्तर दिशा की तरफ सिंहासन बनाकर उसपे जमाली कुमार को बैठा कर पुनःसोने रूपे के कलश से स्नान कराया. पांख जैसे कोपल, सुगंधि व कषाय रंगवाला वस्त्र से गात्र पंडा सर्वोचम ॐ १३९९ Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m शब्दार्थको से० श्वेत पी० पीले क० कलशों से हा मान कराकर ५० पद्मवत् सु· सुवाले मु० सुरभि गं गंध * का०लाल वस्त्र से गा. गांव लू० पूछकर स० श्रेष्ठ गो० गोशीर्ष चंदन में गा० गात्रों को अ० लेपकर णा० नाशिका णि निश्वास वो० बाह्य च० चक्षु को आनंद दायक व० वर्ण फ० स्पर्श सं० युक्त ह० अश्वकी म ला. लाली से से पे० मृदु अ० अतिशय ३० श्वेत क० कनक ख० मंडित अं० अंदर का कार्य म० बहुन ? महेंगा ई० हंशसरिखे प० सफेद वस्त्र प० पहिनाकर हा० हार ५० पहिनाकर ए. ऐसा ज. जैसे मू० सूर्याभ के अं० अलंकार त० तैसे चि० चित्र र० रत्न सं० जडित मु० मुकुट पि० पहिनाकर किं० क्या सेयपीएहिं कलसेहिं व्हावेति २त्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिएणं गंधकासाइएणं गायाई लूहति २ ता, सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपंति २ ता णासाणिस्साहै सवाझं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलकणगखचितंतकम्मं । महरिहं हंसलक्खणपडसाडगं परिहिइ २ त्ता, हारं पिणडेति २ त्ता अद्धहारं पिणāति, २ त्ता, एवं जहा सरियाभस्स अलंकारो तहेव, चित्तरयणसंकडुक्कडं । भावार्थ गोशीर्ष चंदन से गात्र में विलेपन किया, नाक के श्वासोश्वास से उडे ऐसे, आंखोंको आनंददायक, घोडा की लालसे सुकोमल, अतिशय श्वेत, सुवर्ण मण्डित पल्लववाले, हंश से अधिक उज्वल ऐसे वस्त्र पहिनाये. पहिना कर आठारासरा पूर्ण हार, नवप्सरा आधा हार, वगैरह जैसे रायप्रसेणी सूत्र में सूर्याभदेवता । अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 11व० बहुत से गं० गुंथीहुई वे० वेष्टित पू० पूरीहुई सं• परस्पर मीलीहुइ च. चार प्रकार की म० माला से , क०कल्पवृक्ष समान अ० अलंकृत वि० विभूषित क किये॥५१॥ त० तब से उन ज• जमाली ख०क्षत्रिय कुमार का पि० पिता को० कौटुम्बिक पु० पुरुष को स० बोलाकर ए० ऐसा व० बोला खि शीघ्र भो भो दे० देवानुप्रिय अ० अनेक खं० स्थंभ शत से सरखीहुई ली० लीलासे ठिरही हुई सा० पुतलिये ज० जै रा० रायप्रश्नीय में वि० विमान बर्णन जा जावत् म मणि र० रत्न धं० घंटिका जा० जाल प० सहित मउडं पिणडेति किं बहुणा गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमेणं चउठिरहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसियं करेइ ॥ ५१ ॥ तएणं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्सपिया कोडुबिय पुरिसे सद्दांवेइ २ ता, एवं वयासी खिप्पामेव भी देवाणुपिया ! अणेगखंभसयसण्णिविटुं लीलट्ठियसालिभंजियागं जहा रायप्पसेणइजे विमाणव ण्णओ जाव माणरघणघंटियाजालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं भावार्थ के शृंगार का वर्णन किया वैसे है। यहां सब कहना. अनेक प्रकार के रत्नजडित मुकुट धारन किये, पुष्पों - की माला परस्पर गुन्था हुई, वंश शलाका में परोई हुई, परस्पर संयुक्त करके बनाइ हुई व चोली की समान है ॐगुंथी हुई ऐसी गर मालाओं से कल्पवृक्ष समान सुशोभित किये और अलंकारों से विभूषित किये।।५।। फीर जमाली के पिता कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवासुप्रिय ! अनेक स्थंभ से वनी पंचांग विवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र 48862 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 98817 Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०२ शब्दार्थ, पु० पुरुष स. सहस्र से वा० लेने योग्य सी० शिविका उ० तैयार करो उ० तैयार करके म० मेरी आ०. आज्ञा प० पीछीदो त० तब से वे को कौटुम्बिक पुरुष ना० यावत् प० पीछीदेवे ॥५२॥ त. तब से वह ख० क्षत्रिय कुमार के केश अलंकार से व० वस्त्र अलंकार से म. माला अलंकार से आ० आभरण अलंकार से च० चार प्रकार के अ० अलंकार से अ० अलंकृत हुवा प० पूर्ण अलंकार वाला हुवा सी. सिंहासन से अ• उठकर सी० शिविका को अ० प्रदक्षिणा करता मी० शिक्षिका में दु० चढकर उवट्ठवेह उवट्ठइवेत्ता, मम एय माणत्तियं पञ्चप्पिणह · तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति ॥ ५२ ॥ तएणं से खत्तियकुमारे केसालंकारेणं, वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं, आभरणालंकारेणं, चउविहेणं अलंकारेणं अलंकारिएसमाणे पाडे. पुण्णालंकारे सीहासणाओ अभुटेइ २त्ता सीयं अणुप्पदाहिणी करेमाणे सीयं दुरूहइ हुई, अनेक क्रीडा करनेवाली पुतलियों से मंडित, जैसे रायप्रसेणी सूत्र में विमान का वर्णन कहा वैसे ही यावत् मणिरतों की घंटिकाओं की जालि से वेष्टित एक हजार पुरुष उठा मके ऐसी पालखी तैयार कर लावो और मुझे मरी आज्ञा पीछी देदो. कौदाम्बिक पुरुषोंने अ'ज्ञा अनुतारकार्य करके उनको उनकी आज्ञा पीछी दे दी ॥५२॥ फीर क्षात्रय कुगर केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार व आभरणालंकार इन चार अलंकार से अलंकृत बनकर सिंहासन से उपस्थित हुए और शिविका को प्रदक्षिणा देकर उस में 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी फ-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०३ शब्दार्थ सी. सिंहासनपे पु० पूर्वतरफ स० बैठा ॥ ५३॥ त० तब तक उन ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की .. |१०मा० माताने हा० स्नान किया जा० यावत् सःशरीर हं हंस जैसा १० वस्त्र ग० ग्रहण कर मी शिविका 20 को अ० प्रदक्षिणा करती सी० शिविका दु० चढकर ज जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की दा० दक्षिण : बाजु भ० भद्रासनसे स. बैठी ॥ ५४ ॥ त० तब उ० उस ज जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की अ० अम्बा धा धात्री हा स्नान किया जा यावत् सशरीरवाली र रजोहरण पपात्र ग लेकर सी पालखीको २ ता सीहासणवरंति पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे ॥ ५३ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ण्हाया जाव सरीरा हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणी करेमाणी सीयं दुरूहइ २ त्ता, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणेणं पासेणं भद्दासणवरंसि सणिसण्णा ॥ ५४ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तिय कुमाररस अम्मध तो व्हाया जाव सरीरा रयहरणं पडिग्गहंच गहाय सीयं अणुप्पभावार्थ आरूढ होकर पूर्वाभिमुख से बैठे ॥ ५३ ॥ जमाली की माता भी स्नान करके यावत् सर्वालंकार से विभू ७षित बनकर हंस समान श्वेत वस्त्र महित शिविका को प्रदक्षिणा कर, उस में अरूढ होकर जमाली क्षत्रिय 1 कुमार की दक्षिण बाजुपर भद्रासन से बैठी ॥ ५४॥ फीर जमाली की धायमाता स्नान करके यावत् सर्वा पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4११ नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा8948 498 Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ14. प्रदक्षिणा करती सी० शिविकापे दु० चढकर ज० जमाली ख. क्षत्रिय कुमार की वा० बायीं बाजु * भ० भद्रासनसे स० बैठी ॥ १५ ॥ त० तब तक उन ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की पि० पीछे ए. एक व० श्रेष्ठ तरुणी सिं० भंगार आ० गृह चा• अच्छा वेशनाली सं० संगत जा. यावत् रू०रूप जो० यौवन वि० विशाल क. नेत्रवाली मुं० सुंदर ५० स्तन हि० सुवर्ण र० चांदी कु० कुमुदवृक्ष इ० इन्दु समान स० कोरंटक मा० माला ५० श्वेत आ० आतपत्र ग० ग्रहण कर स० लीला सहित ध० धारन करती दाहिणी करेमाणी सीयं दुरूहइ २ ता, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि सण्णिसण्णा ॥ ५५ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिटुओ एगावरतरुणी सिंगारागारचारवेसा संगय जात्र रूवजोव्वण विसाल कलिया, सुंदरथणहिमरयय कुमुदकुंदेंदुप्पगासं सकोरंटमल्लुदामं धवलं आयवत्तं 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ लंकार धारन कर रजोहरण, पात्र लेकर शिविका को प्रदक्षिणा करके शिविका में आरूढ होकर वायें तरफ भद्रासन से बैठी ॥ ५५ ॥ फीर जमाली क्षत्रिय कुमार की पृष्ट भाग में एक उत्तम तरुणी शृंगार रस के गृह समान अच्छे वेष धारन करनेवाली विचक्षण रूप यौवन व विशाल नेत्र की धारक, सुंदर, स्तन युक्त, सोनेरी रुपेरी कमल, चंद्र विकासी कमल, कुमुद कुसूम व चंद्र समान तेजस्वी, कोरंट वृक्ष की माला युक्त है। Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2800 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र चि० खडीरही ।। ५६ ॥ त० तब तक उन ज० जमाली ख. क्षत्रिय कुमार की उ० दोनों बाजु दु. दो व० बरतरुणी सिं० शृंगार के गृह चा० मनोहर जा० यावत् क० नेत्रवाली ना० विविध म. मणि कoore कनक र० रत्न वि० विमल म० वहुत मूल्य त• तपनीय ज० उज्वल वि० विचित्र दं. दंड से चि० देदी-X घमाम सं० शंख अं० अंक कु० कुन्ददकरज अ० अमृत मथित फे० फेन पुं-पुंज स०सरिखे छ० सफेद चा. चामर ग० ग्रहण कर स० लीला सहित वी. वीजती वि० खडीरही ॥ ५७ ॥ त० तब तक उन ज० गहाय सलीलं उवधरेमाणी२चिट्ठइ॥५६॥तएणं जमालिस्स उभओ पासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागार चारु जाव कलियाओ णाणामाणकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जल विचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखककुंददगरयमियमाहयफेणपुंजसण्णिगासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलीलं वीयमाणीओ वीयमाणीओ चिटुंति ॥ ५७ ॥ तस्स जमाश्वेत आर्तपत्र धारन कर लीला सहित शांत रही हुई है ॥ ५६ ॥ जमाली की दोनों बाजु श्रृंगार के घर यावत् कलित दो तरुणियों अनेक प्रकार के मणि, कनक, रत्नमय, निर्मल, बहुमूल्यवान, तपनीय, उज्वलकान्तिवाले, विचित्र दंड युक्त. दोष रहित, शंख, पानी का परपोटा, अमृत व मन्थन किया हुवा पानी का फेन पुज समान चामर को धारन कर लीला सहित वीजती हुई बैठी है ॥ ५७ ॥ उस जमाली क्षत्रिय की । नववा शतक का तेत्तीसत्रा उद्देशा geet Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - जमाली ख० क्षत्रिय पुत्र की ७० ईशान कौन में ए० एक प० वरतरुणी सिं० श्रृंगाराका जा. यावत् । • कलित र० रजनमय वि. विमल स० पानी मे पूर्ण म. मत्तगज म० बडामुख की आ० आकृति समान मि० पात्र को ग० ग्रहण कर चि. खडीरही ॥५८ ॥ त० तब तक उन ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की दा० अग्निकौन में ए० एक व० वरतरुणी सिं० श्रृंगाराकार जा. यावत् क • कलित चि० चित्र क० कनक दंडवाला ता० वींजना ग० ग्रहणकर चि. खडीरही ॥५९॥ त० तब तक उन ज. जमाली ख० लिस्स खात्तियकुमारस्स उत्तर पुरच्छिमेणं एगावरतरुणी सिंगारागार जाव कालिया सेतं रययामयं विमलसालिलपुण्णं मत्तगय महामुहाकिइसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ ॥५८॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एगावर तरुणी सिंगारागार जाव कालया वित्त कणगदंडं तालपटं गहायचिटुइ॥५९॥तएणं तस्स जमा लिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबिय पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी खिप्पाईशान कौन में श्रृंगार का गृह यावत् कलित एक श्रेष्ट तरुणी रत्नमय, बहुत पानी से परिपूर्ण व मत्तवाला हस्ती के मुख समान आकारवाला एक कलश लेकर बैठी ॥ ५८ ॥ जमाली क्षत्रिय कुमार की अग्नि कौन में श्रृंगार का घर यावत् कलित एक तरुणी विचित्र प्रकार का सोने का दंडवाला पंखा लेकर बैठी ॥ ५९ ॥ फोर जमाली कुमार के पिताने कहा कि अहो देवानुप्रिय ! सरिखी वय, त्वचा, लावण्य, रूप, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी * वार्थ Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०७ शब्दार्थ क्षत्रिय कुमार का पि• पिता को कौटुम्बिक पु०पुरुष को वोलाकर ए०ऐसा व०वोला खि०शीघू दे० देवा नुपिय स० सरिखे स० सरिखी त्वचा वाले स० सरिखीवय वाले म सरिखा ला० लावण्य रू० रूप जो १७ यौवन गु० गुणयुक्त ए. एक आभरण व० वस्त्र प्र. ग्रहेहुवे नि० सहचारी को कौटुम्बिक व० वरतरुण स. महस्र स० बोलावो तक तब ते वे को० कौटुम्बिक पुरुष जा. यावत् प० सूनकर खि० शीघू स. TE सरिखे जा. यावत् स० बोलाये ॥ ६० ॥ त तब ते वे को. कौटुम्बिक पुरुष ज० जमाली ख क्षत्रिय में कुमार के पि० पिता से वु० बोलाये हुवे हा हृष्ट तु. तुष्ट हा० स्नान किया का बलीकर्म कीया क० मेव भो देवाणुप्पिया सरिसयं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयं ____एगाभरणवसणगहिय निजोयं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सहावेह तएणं ते कोडुबिय ६ पुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं जात्र सदाति ॥ ६ ॥ तएणं ते कोडंबिय पुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुपिय पुरिसेहिं सहाविया समाणा हट्ट तुट्ठा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगल पायच्छित्ता एगाभरण भावार्थ यौवन व एक सरीखे आभरणवाले एक हजार पुरुषोंको बोलावो. तब कौटुम्विक पुरुष ऐसे बचन सुनकर शीघ्र सरीखी पयवाले यावत् बोलाये ॥ ६ ॥ वे पुरुषों उन कौटुम्भिक पुरुषों का वचन सुनकर हृष्ट तुष्ट यारत् आनंदित हुए, लान किया, कोगले किये, तिलमसादिक किये, और एक आभरण व वस्त्र धारन - 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 8804 23 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा8-48001 Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थकोगले किये पा. तिलमतादि किया जा. यावत् ए० एक आभरण २० वस्त्र ग. ग्रहे हुवे नि महचारी -जे. जहां ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का पि.पिता ते. तहां उ० आकर क० करतल जा० यावत् है व वधाकर एक ऐसा व० बोले सं० बतायो दे. देवानुप्रिय जं. जो अ• हम से क० करने योग्य ॥६१॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुपार का पि. पिता. तं० उन को कौटुम्बिक व वरतरुण स. सहस्र को ए. ऐसा व० बोला तु तुम दे० देवानुप्रिय हा० स्नान किये जा. यावन् ग० ग्रहित णि सहचारी ज• जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की सी० शिविका प० उठावो त० तब ते० वे को बसणगहिय निजोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ २ प्ता करयल जाव बहावेइ २ त्ता एवं वयासी संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहिं कराणजं ॥ ६१ ॥ तएणं से जमालिस खात्तयकुमारस्स पिया तं कोडुबियं वरतरुणसहस्संपि एवं वयासी तुज्झेणं देवाणुप्पिया ! हाया कय जाव गहियाण जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहेह तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा जमाकर जमाली क्षत्रिय कुमार के पिता की पास गये. 'जय हो विजय हो' ऐसे शब्दों से बंधाये और बोले कि अहो देवानुमिय ! हमारे योग्य जो काम होवे सो हम को बतलावो ॥ ६१ ॥ तत्र जमाली, * कुमारके पिता बोल कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने लान किया है यावत् तुम शिविका उठाने योग्य हो ? नुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी से * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 0880% १४०९ त्र 8- पंचमांगवियाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कौटुम्बिक पुरुष ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की सी० शिविका १० उठाइ ॥ ६२॥ त तव त० उन ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को वा० शिविका को दु० चढेहवे को प० प्रथम समय में इ० यह अ. आठ में मंगल अ० यथानुपूर्वी संः चलनेलगे तं० वह सो० स्वस्तिक सि० श्रीवत्स जा. यावत् द० दर्पण त० पीछे पु० पूर्ण क• कलश भिं० पात्र ज जैसे उ• उववाइ में जा. यावत् ग• गगनतल अ. लीपती अ० यथानुपूर्वी सं० चलता ए. ऐसे ज० जैसे उ• उववाइ में त• तैसे भा० कहना जा० लिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति ॥ ६२ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पुरिस सहस्सवाहिणीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठिया तंजहा सोत्थिय सिरिवत्थ जाव दप्पणं; तदाणं तरंचणं पुण्णकलस भिंगार जहा उववाइए आव गयणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्ठिया एवं जहा उववाइए, तहेव भाणियव्वं जाव आलोयंच इम से तुम जमाली कुमार की शिविका उठावो. एसा वचन सुनकर उनोंने शिविका उठाई ॥ ६२ ॥ पालखी में बैठे हुने जमाली क्षत्रिय कुमार की आगे आठ २ मंगलीक अनुक्रम से चले. उन के नाम. ।। ११ स्वस्तिक २ श्री वस्त ३ नंदावर्त ४ वर्धमान ५ भद्रासन ६ कलश ७ मत्स्य ८ दर्पण. इस की पीछे पूर्ण कलश शृंगार वगैरह जैसे उबवाइ सूत्र में वर्णन किया वैसे यहां जानना. यावत् गगनतलको स्पर्श करती है। *3303:0नवां शतकका तेत्तीसवा उद्देशा%8880% भावार्थ Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ140 १४१० * यावत् अ० अवलोकन करते ज० जय २० शब्द ५० बोलते अ• यथानुपूर्वी सं० चलनेलगे ॥ ६३ ॥ त० पछि ब० बहुत उ० उग्र भो भोग ज. जैसे उ० उववाइ में जा. यावत् म० महान् पुरुष व०वृन्द मे १५० घराय हुवे ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार की पु० आगे म० मार्ग में पा. बाजु में अ० यथानुपूर्वी स° चलनलग ॥६४॥ त तब ज. जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का पि पिता हा० स्नान किया जा यावत् वि० विभाषित ह. हस्तिपे बैठे हवे स. कोरंटक की म. माला का छ० छत्र ध० धरता से० श्वेत करमाणा जय २ सदंवा पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुवीए संघट्टिया ॥ ६३ ॥ तयाणतरंचणं बहवे उग्गा भोगा जहा उववाइए जाव महा पुरिस वग्गुरापरिक्खित्ता । जमालिस्ट्स खत्तियकुमारस्स पुग्ओ मग्गओय पासओय अहाणुपुव्वीए संपट्टिया ॥६॥ तएणं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया व्हाया कय जाब विभासिए हत्थिखं है धवरगए सकोरंटमल्लुदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचमाराहि, उडुबमाणाहिं २ भावार्थ हुई विजय पताका आगे रखी वगैरह जैसे उववाइ में यावत् देखते हुवे नेय जय शब्द करते हुवे अनुक्रम सहित और सब व्यवस्था करने में आई ॥ ६३ ॥ तदनंतर बहुत उग्र कुल के उत्पन्न, भोग कुल के उत्पन्न यावत् जैसे उववाद में कहा वैसे यावत् महा पुरुषों के वृंद भागे, पीछे दोनों बाजु यों चारों तरफ चले.. 1 ॥ ६४ ॥ फीर जमाली कुमार के पिताने स्नान किया यावत् विभूषित होकर - हस्ती के स्कंध पर बैठे. 103 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी, wwwwwwwwwwwwwwwwwwww प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शब्दार्थ + १३० श्रेष्ट चा० चामर से उ० वाजाते ह० अश्व ग. गज प. प्रधान जो० योध क० सहित चा० चतुरं नी से० सेना स० साथ सं० घेराया हुवा म० बडे भ० भट च. चाकर जा. यावत् प. घेरा ज. जमाली ख. क्षत्रिय कुमार की पि० पीछे अ० जाव ॥६५॥त. तब तक उस ज. जमाली स्व० क्षत्रिय कुमार की पु० आगे आ० अश्व अ० अश्वार उ० दोनों बाजु णा० इस्ति ६० हस्तिपे बैठे हुवे पि० पीछे र० रथ र० रथसमुदाय ॥ ६६ ॥ त तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार अ० हयगयरहपवर जोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए साई संपरिवुडे महया भड चडगर जाव परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिटुओ२ अणुगच्छइ ॥६५॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा आसवरा उभओ पासिं णागा णागवरा पिट्टओ रहा रहसंगेली ॥ ६६ ॥ तएणं से जमाली भावार्थ कोरंटक वृक्ष के पुष्पों की माला का छत्र धारन किया, दोनों बाजु श्वेत चामर विजाने लगे. हाथी. घोडे, रथ, पायदल, योधे, सुभट वगैरह की चतुरंगीनी सेना युक्त महा मुभटों, चेटकों के साथ परवरे हुए 22 जमाली क्षत्रिय कुमार की पीछे जाते हैं ॥६५ ॥ जमाली कुमार की आगे बडे घोडे व घोडेस्वार दोनों बाजु हाथी, व हाथीस्वार. पीछे रथ व रथ समुदाय रहा हुवा है ।। ६६ ॥ जमाली कुमार की आगे कोई 418 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र नवना शतकका तेत्तीसवा उद्देशा १.१५.१० Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । सन्मुख लीया हुवा भिं० गार प० लीया हुवा ता. वीजना ऊं• ऊंचा किया से० श्वेत छत्र प० वींजाता * से० श्वेत चामर बाल वीवींजना से स० सर्व ऋद्धिसे जा. यावत् णा वादिंत्र र० शब्द से ॥ ६७ ॥ त० बहुत ल० यष्ठिवाले कुं. भाला वाले जा. यावत् पु० पुस्तक वाले जा० यावत् वी० वीणा वाले त०१ पीछे अ० आठ स० शत ग. गज तु० अश्व अ० आठ सं० शत र रथ त० पीछ ल लकुड अ० असि को० खग ह० हस्त में ३० बहुत पा० पदात्य पु० आगे • चलनेलगे त० पीछे ब. बहुत रा० राजेश्वर खत्तियकुमारे अभुग्गभिंगारे परिग्गाहियतालियंटे ऊसाविय सेयछत्ते, पवीइयसेय चामरवाल वीयणीए, सव्विड्डीए जाव णाइयरवेणं ॥ ६७ ॥ तयाणेतरंचणं बहवे लट्ठिग्गहा कुंतग्गहा जाब पुत्थियग्गहा जाव बीणग्गहा; तयाणं तरंचणं अटुसयं गयाणं अट्ठसयं तुरियाणं अट्ठसयं रहाणं।तदाणंतरंचणं लउड आसिकोतहत्थाणं बहणं पायत्ताणीणं पुरओ संपा?या ॥ तयाणंतरंचणं बहवे राईसर तलवर जाव सत्थवाहप्पभियओ पुरओ *गार उठाकर चलते हैं, कोई तालत विजणा लेकर चलते हैं कोई छत्र ऊंचाकर चलते हैं यो सब ऋद्धिगुक्त यावत् वादित्रों के घोष करते हुवे जाते हैं ॥ ६७ ॥ तदनन्तर बहुत लाष्टि लेकर चलनेवाले बहुत भालां लेकर चलनेवाले पुस्तकों लेकर चलनेवाले यावत् वीणावाले आगे रहत हैं. तदनन्तर एक सो आठ हाथी, एक सो आठ घोडे, एक सो आठ रथ, एक सो आठ लकुटधारी, एक सो आठ खड्गधारी, एक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायजी पालाप्रसादजी * भावाथ Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 28- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र त० तलवर जा. यावत् स सार्थवाह प० प्रमुख पु० आगे सं० चलनेलगे ख० क्षत्रिय कुंडग्राम ण महा मा० माहण कुंडग्राम नगर जे. जहां ब. बहशाल चे. चैत्य जे. जहां is इस श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर ते. तहां प० संकल्प कीया ग. जाने को ॥१८॥ त० तब ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार ख० क्षत्रिय कुंडग्राम न० नगर की म० मध्य से णि० जाते सिं• सिंघाडग ति० तीन च० चार जा. यावत् प० रस्त में ३० बहुत अ० अर्थ. का इच्छने वाला ज. जसे उ०१ उववाह में जा. यावत् अ० अभिनंदते अ० वृद्धि होवो एक ऐसा व कहते ज० जय ज. जय न० आनंद संपट्टिया ॥ खत्तियकुंडग्गामे यरे मझमझेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ ६८ ॥ तएणं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं णयरं मझम झणं णिग्गच्छमाणस्त सिंघाडगतिग चउक्क जाव पहेसु बहवे अत्थच्छिया जहा उववाइए जाव आभिणंदताय अभित्थुणंताय एवं वयासी जय जयणंदा धम्मेणं जय जयणंदा तवेणं, जय सोआठ भालाधारी, और बहुत पांव से चलनेवाले मनुष्यों आगे चलते हैं. तदनंतर राजेश्वर तलवर यावत् सार्थवाह प्रमुख चलते हैं इस तरह क्षत्रियकुंड ग्राम की मध्य में होकर ब्राह्मण कुंड नगर की बाहिर बहुशाल चैत्य में महावीर सामी की तरफ जाने को नीकले ॥ ६८ ॥ इस तरह जमाली कुमार क्षत्रिय " 28 नववा शतक का तत्तासका उद्दशा Pet भावार्थ Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४१४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पामो ध० धर्म से त० तप से भ० भद्र होवो ते० तेरा अ० अभग्न णा० ज्ञान दं० दर्शन च० चारित्र उ०* उत्तम मे अ० अजित जि० जयपामो इं. इन्द्रियों को जि. जिता पा० पालो स. श्रमण ध० धर्म जि० जित वि० विघ्न सा० वश दे० देव सिं• सिद्धि मार्ग में नि० क्षयकरो रा० राग दो द्वेष म० मैल तक तप से घि० धृति ध० धनिक ब. बद्ध क० कक्षा म० मर्दनकरो अ० आठ कर्म शत्रु झा० ध्यान से उ. उत्तम सु० शुक्ल से अ० अप्रमत्त ह. ग्रहण कर आ० आराधना ५० पताका धी० धीर ते. त्रैलोक्य २० रंग म० मध्य में पा० प्राप्त करो वि० तिमिर रहित अ० अनुत्तर के० केवल ज्ञान ग. जावो मा० जयणंदा भदंतेअभग्गेहिं णाणदसणचरित्तमुत्तमहिं आजियाइं जियाहि इंदियाई जितं पालेहि समणधम्मं जियविग्घोवियवसाहिय देव सिडिमझे, निहणाहि राग दोस मल्ले तवेणं धिइधणियबद्धकच्छे महाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणणं उत्तमेणं सुक्केणं कुंड नगर की मध्य में होकर नीकलते श्रृंगाटक त्रिक चौक यावत् राजमार्ग में उन को अभिनंदन देने के लिये बोले कि धर्म से जय जय आनंद वर्तो' 'तप से जय जय आनंद व?' अभग्न ज्ञान दर्शन चारित्र से जय जय आनंद होवो. 'अजेय इन्द्रियों को जीतो' 'जीता हुवा श्रमण धर्मका पालन करो' सब प्रकार के विघ्नों को जीतो, देव अथवा सिद्धि में निवास करो, तप से राग द्वेष रूपी मेल दूर करो, धृति से रूप धन के लिये कांक्षा करो, उत्तम शुक्ल ध्यान से अप्रमत्तपने अष्ट कर्मों का मर्दन करो, और आरा-10 ammammomman * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र APPS मोक्ष १० उत्कृष्ट पद निनिनवरने उ० उपदेशा सिसिद्धिमार्ग को अ अकुटिल है. हणनेवाले प० परीपहर च० शैन्य अ० जीतकर गा० इन्द्रिय कंटक उ० उपवर्ग ध० धर्म में ते• तुम को अ० विघ्न रहित अ०१० होवो ति० ऐसा करके अ० अभिनंदते हैं अ० स्तवते हैं ॥ ६१ ॥ त० तब से० यह ज० अमाली ख.. क्षत्रिय कुमार ण नयनमाला स. सहस्र से पे० देखाते ए. ऐसा ज० जैसे उ० उववाइ में कू. कूणिक जा. यावत् णि जाकर जे. जहां मा० माहण कुंडग्राम, नगर जे० जहां ब० बहुशाल चे० चैत्य त० __ अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागंच धीरं तेलोकरंगमज्झे पावय वितिमिर मणुत्तरंच केवलणाणं गच्छय मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिटेण सिद्धिमग्गेण अकुडिलेण हता परीसहचमू आभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं धम्मे ते अविग्घमत्थुत्तिकटु अभिणंदंतिय अभित्थुणंतिय॥६९॥ तएणं से जमाली खात्तयकुमारे गयणमालासहस्सेहिं पेच्छिजमाणे एवं जहा उववाइए, कणिओ जाव जिग्गच्छइ २ त्ता, जेणेव माहणकुंडग्गामे धन पताका ग्रहण करो. अहो धीर पुरुष ! तीन लोक की मध्य में तिमिर रहित अनुत्तर केवल ज्ञान को प्राप्त करो, मोक्ष रूप परम पद को प्राप्त करो. जिनवरोपदिष्ट अकुटिल सिद्धि मार्ग से परिषह रूप सेनाका नाश करके इन्द्रिय प्रतिकूल उपसगों का नाश धर्म में अविघ्नकारक होगा; ऐसा करके अभिनंदन करनेलगे स्तुति करने लगे ॥ ६१ ॥ हजारों मनुष्यों से देखाते हुवे वगैरह उबवाइ सूत्र में जैसा कुणिक का वर्णन 8428 नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा भावार्थ 4. Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४१६ 402 अनुवादक-बालब्रह्मचारी हाने श्रा अमोलक ऋषिजी 80 तहां उ० जाकर छ० छत्रादि ति तीर्थंकर का अ० अतिशय पा० देखकर पु० पुरुष स० सहस्त्र वा० वाहीणी सी० शिविका ठ० स्थापकर पु० पुरुष स०सहस्र वा वाहिणी सी० शिविका से प० उतरे ॥७॥ त० तब तं० उन ज जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को अ० माता पिता पु० आगे का० करके जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म महावीर ते० तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को ति० तीन वक्त जा. यावत् ण नमस्कार कर ए. ऐसा व० बोला ए०. ऐसे ख० निश्चय भं० भगवन् ___णयेर जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता छत्ताईए तित्थगराइसए __पासइ २ त्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ २ त्ता पुरिस सहस्सवाहिणीओ ___ सीयाओ पच्चोरुहइ ॥ ७० ॥ तएण तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं महावीर कहा वैसे ही जमाली कुमार ब्राह्मण कुंड नगर के बहुशाल चैत्य में गये. और भगवंत के अतिशय छत्रादि देखते ही सहस्र पुरुषवाहिनी शिविका में से नीचे उतरे ॥ ७० ॥ माता पिता जमाली कुमार को आगे करके भगवान महावीर स्वामी की पास गये. और तीन वार आदान प्रदक्षिणा व नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहा भगवन् ! यह जमाली क्षत्रिय कुमार हम को एक इष्ट कान्त प्रिय यावत् देखने को दुर्लभ ऐसा पुत्र है. यह चंद्रविकासी उत्पल कमल सूर्य विकासी पन कमल यावत् सहस्र पत्र जैसे पंक में प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4:- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4 ज० जमाली ख० क्षत्रियं कुमार अ० हम को ए० एक पु० पुत्र इ० इष्ट के कति जा० यावत् किं० क्या पा० देखनेसे से० वह ज० जैसे उ० उत्पल प० पद्म जा०यावत् स० सहस्र पत्र पं० पंक "जा० उत्पन्न हुबा जजल में सं० वृद्धि पाया गो० नहीं अ० लीप्त होवे पं० पंकरजसे णो० नहीं अ० लीस होवे ज० { जलरज से ए० ऐसे ही ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार का काम से जा० उत्पन्न हुवा भो० भोगने सं० वृद्धिपाया णो० नहीं अ० लीप्त होवे का? काम रज में णो० नहीं अ० लीप्त होवे भो० भोगरज में गो० नहीं अ० लीप्त होवे मि० मित्र णा० ज्ञाति णि० निजके स० स्वजन सं० संबंधी प० परिजन से दे० तिक्खुतो जाव णमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु भंते । जमाली खत्तियकुमार अम्हं एगे पुट्ठे कंते जात्र किमंगपुणे पासणयाए से जहाँ नाभए उप्पलेइवा पउमेदवा आव सहरसपत्तइवा पंके जाएं जले संबुड्ढे गोवलिप्पइ पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव जमालीवित्तियकुमारे कामेहिं जाए भोगेहिं संबुड्ढे गोवलिप्पइ कामरएणं पोलिप्पड़, भोगरएणं, णोवलिप्पइ मित्तणाइ णियग सयण संबंधि परिजणेणं उत्पन्न होता है जल में वृद्धिपाता है, परंतु उस से लिप्त नहीं होकर वृद्धिपाता है ऐसे ही यह जमाली कुमार कामते व जन्मा भोग से वृद्धिपाया है परंतु कामभोग में लिप्त नहीं हुआ है वैसे ही मित्र ज्ञाति स्वजन संबंधिं व परिजन से लिप्त नहीं बना हुआ है. अहो देवशनुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न बना हुआ 8 नवत्रा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा 34403 १४१७ Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देवानुत्रिय सं० संसार म० भय उ० उद्विग्न भी० डराहुवा ज० जन्म ज० जरा म० मरण से इ० इच्छता {है दे० देवानुप्रिय की अं० पास मुं० मुंड भ० होकर अ० अगार से अ० अनगार को प० प्रवर्ज्या अंगीकार करने को तं इसलिये दे० देवानुप्रिय को अ० हम सी शिष्य भिक्षा द० देते हैं पर लो (दे० देवानुप्रिय सी. शीष्यभिक्षा अ० यथासुखम् दे देवानुप्रिय मा० मत प० प्रतिबंध ॥ ७१ ॥ त० तत्र { से ० वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार सश्रमण भ० भगवन्त म० महावीर से ए० ऐसा वु० बोलाये हुवे एसणं देवाणुप्पिया! संसार भयउव्विग्गे भीए जम्मजरा मरणेणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । तं एसणं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्खं दलयामो पाडच्छंतुणं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं ! अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंधं ॥ ७१ ॥ तएणं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे तुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता उत्तर { जम्प जरा मरण से डरा हुआ है इस से आप की पास मुंडित बनकर गृहवास से दीक्षा अंगीकार करने को चाहता है. हम आप को यह शिष्य भिक्षादेते हैं.. अहो देवानुप्रिय ! तुमको जैसे सुख होवे वैसे करो विलम्ब मतकरो ऐसा भगवंत बोले ॥ ७१ ॥ जत्र श्रमण भगवंत श्रीमहावीर स्वामीने ऐसा कहावत्र जमाली क्षत्रिय कुमार दृष्ट यावत् आनंदित हुए और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके ईशान कौन सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाबजी ज्वालामसादगी * १४१८ Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 १९ शब्दार्थ * ष्ट तु० तुष्टः स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को ति० तीनवक ना० यावत् १० नमस्कार कर ईशान कौन में अ० जाकर स० स्वयं आ० आभरण म० माला अ. अलंकार उ० उतारे सा. वह ज. जमाली ख. क्षत्रिय कुमार की मा० माता है. इस लक्षण वाला प० वख मे आ० आम-10 रण म० माला अ० अलंकार ५० ग्रहण कर हा० हार वा० वारि घा० धार जा. यावत् वि० छोडती ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार को एक ऐसा व० बोली घ० घटाना चाहिए पु० पुत्र ज० यत्न करना चाहिये पुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ २ त्ता सयमेव आभरणमल्लालंकार उमुयति तएणं सा जमालरस खत्तियकुमारस्स माता हंसलक्खणणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकार पडिच्छइ २ त्ता हारवारिधार जाब विणिम्मुयमाणी २ जमाल खत्तियकुमारं एवं वयासी-घडियन्वं जाया! जड्यन्वं जाया!परक्कामयव्वं जाया!अस्सिचणं अटे णो पमादेभावार्थ में मये और वहां सपमेव आभरण माला अलंकार नीकालने लगे. उस समय जमाली कुमार की माता। हंस समान श्वेत वस्त्र में आभरण अलंकार लेनी दुइ व तूटाहुवा हार में से जैसे मोनी पडे वैसे. अश्रु । वर्षाती हुई अमाली क्षत्रिय कुमार को ऐसा बोली अहो पुत्र ! जिन संयम योगों की प्राप्ति नहीं हुई है, 36 उसे प्राप्त करना, जिन संवम योगों कि प्राप्ति हुई है उन में यत्न करना; और संयम के फल को सिद्ध करने के लिये पराक्रम करना. इस कार्य में प्रमाद मत करना ऐसा कहकर जमाली क्षत्रिय कुमार के माता पिता पंचमान विवाह पत्ति (भगवती) सूत्र 4884 नववा शतकका तेत्तीमया उद्देशा 48882 488 Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ X जा० पुत्र प० पराक्रम करना चाहिये ना पुत्र अ० इस अ० अर्थ में गो० नहीं प०यमाद करना चाहिए (तिः ऐसा करके ज० अमाली ख० क्षत्रिय कुमार के अ० माता पिता स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वं० वंदनकर ण० नमस्कार कर जा० जिम दि० दिशि से पा० आये ता० उसदिशि में प० पीछेगये ६॥ ७२ ॥ त० तब से वह ज० जमाली ख० क्षत्रिय कुमार स० स्वयं पं० पंचमुष्टि लो० लोच क० करके जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त प० महावीर ते० तहां उ० जाकर ज जैसे उ० ऋषभदत्त त० तैसे प० प्रवजित हुए १०. विशेष पं० पांच पु० पुरुष स० शत स० साथ त ? तेतै जा ० यावत् सा तवत्तिक, जमालिस खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति जामवदिखि पाउन्भूया तामेवदिसिं पडिगया ॥ ७२ ॥ तणं जमाली वत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ करेइ ता 1 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वइओ वरं पंचहि पुरिस सएहिं सद्धिं तहेव जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइश्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके जिस दिशि में से आये थे उस दिशी में ( पीछे गये ॥ ७२ ॥ पीछे जमाली कुमारने स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया और महावीर स्वामी की पास { जाकर जैसे ऋषभदत्त ने दीक्षा अंगीकार की उस विधि से दीक्षा अंगीकार की. विशेष में नमाली कुमारने 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी माने श्री अमोलक ऋषिजी * ★ प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी १४२० Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२१ शब्दार्थ *सामायिकादि ए० अग्यारह अं० अंग अ० पढकर व० बहुत च० चतुर्थ छ० छठ अ० अठम जा. यावत् । Pos मा० मास अ० अर्धमासक्षमण वि० विचित्र त तप कर्म से अ० आत्मा को भा० भावते वि० विचरने 56 Vलगे ॥ ७३ ॥ त० तब जा जमाली अ० अनगार अ० एकदा जे० जहां स० श्रमण ५० भगवन्त म०३ महावीर ते. तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वं. बंदनकर न० नमस्कार कर ए. ऐसा व० बोला इ. इच्छताएं भं भगवन तु• तुमारी अ० आज्ञामिलते पं० पांच अ० अनगार स० शत स० साथ ब० बाहिर ज० अन्यदेश में वि० विहार ति• विचरने को त० तब स० श्रमण भ० भगवंत २ त्ता, बहूहिं चउत्थ छट्टट्ठम जाव मासद्धमासक्खमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ७३ ॥ तएणं से जमाली अणगारे अण्णयाकयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ २ ता एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुझेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवय विहार विहरित्तए ? . तएणं समणे भगवं ५०० पुरुषों सहित दीक्षा ली. और सामायिकादि अग्यारह अंग का अध्ययन कर बहुत चतुर्थ, छठ, 26 अष्टम यावत् मास अर्धमास खमण वगैरह विचित्र प्रकार की तपस्या करके आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे॥ ७॥ ॥ फोर जमाली अनगार एकदा श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास. आये और श्रमण पंचभाङ्ग विवाह पप्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 49 नववा शतक का तत्तसिवा उद्दशा4. .. Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२३ शब्दार्थम० महावीर ज. जमाली अ० भनगार का ए० यह अर्थ जो नहीं ०आदर करे णो नही ५० अच्छा जाने तु० मौन चि० रहे त० तब से वह ज. जमाली अ० अनमार स० श्रमण भ भगवन्त म० महावीर को दो० दूसरी वक्त तक तीसरी वक्त एक ऐसा व० बोला इ० इच्छताहू भं० भगवन् तु. तुमारी अ० होते पं० पांच अ० अनगार शत स० साथ जा. यावत् वि०विचरने को त. तब स० श्रमण भ०१ भगवन्त म० महाशर ज जमाली अ० अनगार को दो० दूसरी वक्त त• तीसरी वक्त ए. इस अर्थ को महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं जो आढाइ णो परिजाणइ तुसिणीए चिट्ठइ॥ तएणं से जमाली अणगारे समणे भगवं महावीरे दोचंपि तच्चंपि एवं वयासी इच्छायिणं भंते ! तुझेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं जाब विहरित्तए ? तएणं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोचंपि तच्चंपि एयमढे णो आढाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ तएणं से जमाली अणगारे समणं भावार्थ | भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! आप की आज्ञा होवे च सो अनगारों सहित बाहिर जनपद विहार विचरने को में वांच्छता हूँ. श्रमण भगवंतने इस बात का आदर किया नहीं वैसे ही अच्छी जाना नहीं परंतु मौन रहे. फीर जमाली अनगारने दुसरी वक्त भी ऐसा कहा कि अहो भगवन् ! आप की आज्ञा से पांच सो अनगार सहित जनपद में विहार करने को में श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शब्दार्थ णो० नहीं आ० आदर करे जा. यावत् तु० मौन चि० रहे त. तब से वह ज० जमाली अ• अन र स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीरको वं. वंदनकर न. नमस्कार कर स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर की अंक पास से ब. बहशाल चे० चैत्य से १० नीकलकर पं० पांच अ० अनगार स० शत स०है साथ ब. बाहिर ज. अन्यदेश में वि० विहार वि०विचरनेलगे ॥७॥ ते. उस काल ते. उस समय में सा० श्रावस्ती न० नगरी हो० थी को० कोष्टक चेः चैत्य व वर्णन युक्त जा. यावत् व० वनखंड ते उस काल ते. उस समय में चं० चंपा न० नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त पु. पूर्णभद्र चे० चैत्य ५० वर्णन टभगवं महावीरं बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिहै याओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ २ ता पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं । ई बहिया जणवयविहारं विहग्इ ॥ ७४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णाम णयरी होत्था वण्णओ कोटुए चेइए वण्णओ जाव वणसंडस्स तेणं कालेणं तेणं समएणं भावार्थ इच्छता हूं. श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने दो वार तीनवार भी इस अर्थ का आदर किया नहीं यावत् मौन रहे. इस से श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को जमाली वंदना नमस्कार करके बहुशाल चैत्य में से नीकलकर पांच सो अनगार की साथ जनपद विहार विचरने लगे ॥ ७४ ॥ उस काल उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी. वह वर्णन योग्य थी उसमें कोष्टक नामक उद्यान यावत् वनखंड था. उम है । पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र व wwwwwwwwwwwwwanmannr नववा शतकका तेत्तीमत्रा उद्देशान Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थयुक्त जा. यावत् पु० पृथ्वी शिला पट्टक ॥ ७५ ॥ त. तर से वह ज० जमाली अ० अनगार अ.. कदाचित् पं०पांच अअनगार सशत स.साथ सं० रहे हुवे पु. अनुक्रम से चविहार करते गा ग्रामानु ग्राम दु० जाते जे० जहां सा० श्रावस्ती न० नगरी जे० जहां को० कोष्टक चे चैत्य ते. तहां उ आकर अ० यथा प्रतिरूप उ० आज्ञा ओ० ग्रहण कर सं० संयम से त० तप से अ० आत्मा को भा. भावते वि.० विचरते हैं ॥ ७६ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर अ० एकदा पु० अनुक्रम से च० चंपा णामं णयरी होत्था वण्णओ पुण्णभद्दे चेइए वण्णओ जाव पुढवी सिलापट्टओ ॥ ७५ ॥ तएणं से जमाली अणगारे अण्णयाकयाई पचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिखुडे पुन्वाणुपुत्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ २ त्ता संजभेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ७६ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे भावार्थ काल उस समय में चंपा नामक नगरी थी पूर्णभद्र चैत्य था यावत् पृथ्वी शिलापट्ट था ॥ ७५ ॥ उस काल उस समय में एकदा जमाली अनगार पांचसो अनगार सहित परवरे हुवे पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुलग्राम विहार करते हुवे श्रावस्ती नगरी के कोष्टक चैत्य में यथामतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ।। ७६ ॥ और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी पूर्वानी 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g+ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पंचमांग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 4280 चलते मा० यावर मु० मुख से वि० विचरते जे० जहां चं. चंपा न० नगरी जे. जहां पु० पूर्णभद्र चे० चैत्य ते. तहां उ• आकर अ० यथा प्रतिरूप उ० आज्ञा उ० ग्रहणकर सं० संयम से त० तप से अ० आत्मा को भा० भावते वि० विचरनेलगे ।। ७७ ॥ त० तब तक उन ज. जमाली अ० अनगार को ते उम अ० अरस वि० चिरस अ० अन्त प० प्रान्त लु० रूक्ष तु. तुच्छ का. काल व्यतीत हुआ सी0 शीत पा० पान भो० भोजन से अ० एकदा म० शरीर में वि. विपुल रो० रोग पा० उत्पन्न हुवा उ० अण्णयाकयाइं पुवाणुपुट्विं चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे वा जेणेव चंपा. णयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ २ ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हइ २ ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ७७ ॥ तएणं तस्स । - जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहिय, विरसेहिय, अंबेहिय, पंतेहिय, लूहेहिय, तुच्छे-.. हिय, कालाइक्वंतहिय, पमाणाइकंतेहिय, सीएहिं पाणभोअणेहिं अण्णयाकयाई विचरते चंपा नगरी के पूर्ण भद्र चैस में यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावत हुवे विचरने लग ॥ ७७ ।। उस समय उन अरस, विरस, अंत प्रांत, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रांत, प्रमाणाति, क्रांत, व शीत पान भोजन से जमाली अनगार के शरीर में विपुल रोग उत्पन्न हुचा. उज्जल, अतिप्रचल प्रकर्ष, कटुक, चंड, दुःखदायी, विषम, सीब, व नहीं सहन हो सके वैसा पित्तज्जर शरीर में उत्पमहवा और 30 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 982 भाघार्थ 4 Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उज्वल ति. त्रितुल ५० प्रगाढ क० कर्कश क० कटुक चं० चंड दु० दुःख दु विषम ति तीव्र दु. दुःसह. पि० पित्त ज. ज्वर ५० हुआ स० शरीर में दा० दाह उ० उत्पन्न हुवा वि० विचरनेलगे ॥ ७८ ॥ त. तब से वह ज. जमाली अ० अनगार वेदना से अ० पगभव दुवा स० श्रमण नि० निथ को स. बोलाकर एक ऐसा व वोला तु० तुम दे देवानुप्रिय म मेरी से० शय्या सं. बीछावो । ७१ ॥ त. तब से वे स० श्रमण नि० निथ ज. जमाली अ० अनगार का ए० यह अर्थ वि. विनय से प०१ - है सूनकर जा जमाली अ० अनगार की से० शय्या सं० वीछावे ॥ ८० ॥ त० तब से वह ज• जमाली सरीरगंसि विउलरोमातके पाउन्भृए, उज्जले तिउले पगाढे ककसे कडुए चंडे दुक्ख । दुग्गे तिब्वे दुरहियासे पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवुक्कतिएयावि विहरइ ॥ ७८ ॥ तएणंसे जमाली अणगारे वेदणाए अभिभूए समाणे समणे निग्गंथे सदावइ २त्ता. एवं वयासी तुझणं देवाणुप्पिया ! ममं सेज्जासंथारयं संथरह ॥ ७९ ॥ तएणं तेसमणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेति २ त्ता जमालिस्स अणगारस्स सेजासंथारगं संथरेंति ॥ ८. ॥ तएणं से जमाली अणगारे बलियतरं भावार्थ दाह उत्पन्न होने लगी ।। ७८ ॥ वेदना से पीडिन होने से जमाली कुमारने श्रमण नियों को बोलाये 1 और कहा कि अहो देवानुमिय ! मेरा संथारा विछावो ॥ ७९ ॥ उस समय में श्रमण निग्रंथ जमाली, 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamanner शब्दार्थ+अ० अनगार ब. बहुत वे. वेदना से अ० पराभव होते दो दूसरी वक स० श्रमण निग्रंथ को स०१ . बोलाकर ए. ऐसा 40 वोले म मेरा दे देवानुप्रिय से० शय्या कि क्या क०की क०करते हो त तब स012 श्रमण नि. निग्रंथ तं. उस ज. जमाली अ० अनगार को एक ऐसा व० बोले णो नहीं देदेवानुप्रिय से शय्या क. की क० करते हैं ॥८॥त. नब तक उस ज जमाली अ० अनगार को अ. ऐसा अ० चितवन जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ए० ऐमा आ० वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चंपि समणे णिग्गंथे सदावेइ२त्ता एवं वयासीममंणं देवाणुप्पिया , सेज्जासंथारए किं कडे कजइ?तएणं समणा णिग्गंथा तंजमालिं अणगारं एवं वयासीणो खलु दवाणुप्पियाणं सेज्जासंथारए कडे,कजइ॥८१॥तएणं तस्स जमालिस्सअणगारस्स अयमे यारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पजित्था, जंणं समणे भगवं महावीरे एवं माइक्खइ । भावार्थ E अनगार का ऐसा अर्थ विनय पूर्वक सुनकर जमाळी अनगार का संथारा बिछाने लगे ॥ ८० ॥ जमाली, अनगारने बहुत वेदना से पीडित होने से दुमरी, नीसरीवार श्रमण निग्रंथ को बोला कर कहा कि अहो, देषानुप्रिय ! क्या मेरा मंथारा किया या करते हैं ! तब श्रमण निग्रंथ जमाली अनगार को ऐसा बोले ॐ कि अहो देवानुभिय ! आप का शैय्यासंथारा किया नहीं करते हैं ॥ ८१॥ ता जमाली अनगारको मा अध्यवसाय उत्पन हुना कि जो श्रमग भगवंत महावीर स्वामी ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि ' 48 पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) मूब 488+ morwwwww नवना शतक का तेत्तीसवा Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२८ शब्दार्थ कहते हैं जा. यावत् ए. ऐसा ५० प्ररूपते हैं च• चलते को च० चला उ. उदीरते को १० उदीरा* जा. यावत णि निर्जरते को णि निर्जरात वह मि० मिथ्या इ० यह प. प्रत्यक्ष दी० दीखता है। से० शय्या क० करते अ० नहीं की सं० बीछाते अ. नहीं बिछाया त• इसलिये च० चलते अ. नहीं चला जा' यावत् णि निर्जरते अ० नहीं निर्जरा एक ऐसा सं० विचारकर स० श्रमण नि० निग्रंथ को स० बोलाकर ए० एमा २० बोले दे० देवानुप्रिय स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ए. ऐसा आ० जाब एवं परूवेइ, एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव अ णिजरिज्जमाणे णिजिण्णे तण्णं मिच्छा, इमंचणं पच्चक्ख मेव दीसइ, सेजासंथारए है कजमाणे अकडे. संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हाणं सज्जा संथारए कजमाणे अकडे संथरिजमाणे अथरिए, तम्हा चलमाणेवि अचलिए जाव णिज्जरिज्जमाणेवि अणि जिण्णे एवं संपेहइ २ ता; समणे णिग्गंथे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी जंणं देवाभावार्थ चलते हुवे चला उदीरते हुवे उदीरा यावत् निर्जरते हुवे निर्जरा पर मिथ्या है. क्यों कि यह प्रयक्ष दीख रहा है कि शैय्या संथाग करत हुवे नहीं किया संघरते हुवे नहीं. संथारा. जिस से सथारा करते हुवे में नहीं किया संथरत हुवे नहीं संथरा. इसलिये चले हुवे नहीं चल यावत् निर्जरे हुवे नहीं निर्जरे ऐसा रविचार कर श्रमण निग्रंथ को चोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! जो श्रमण भगवंत महावीर 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 पंचमांगविवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 498 कहते हैं जा. यावत् प० प्रभाते हैं च० चलते च० चला तं० तैसे स० सर्व जा० यावत् णि निर्जरते अ. अनिर्जरा ॥ ८२ ॥ त० तब तक उस ज. जमाली अ० अनगार को ए० ऐमा आ० कहते जा. यावत् प० प्ररूपते को अ० कितनेक स० श्रमण णि• निथ ए० इस अर्थ स० श्रद्ध प० प्रतीतकरे रो०० रुचे अ० कितनक स० श्रमण निः निग्रंथ ९० इस अर्थ को जो० नहीं स. श्रद्धे णो० नहीं। ५० प्रतीत करे णो नहीं गे० रुचे ॥ ८३ ॥ त० तहां जे. जो स० श्रमण नि० निग्रंथ ज० जमाली अ. णुप्पिया समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परूवेइ. एवं खलु चलमाणे चलिए तंचेव सव्वं जाब णिजरिजमाणे आणिजिण्णे ॥ ८२ ॥तएणं तस्स जमालिस्स अणगारस एव माइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स अत्थेगइया समणा णिग्गंथा एयमटुं सद्दहति पत्तियंति रोयंति, अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमटुं णो सहहति णो पात्तेयंति णो रोयंति ॥८६॥ तत्थणं जेते समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि चलते हुवे चले यावत् निर्जरते हुवे निर्जरे, यह मिथ्या है; परंतु चलतेहुवे 90 नहीं चले यावत् निर्जरत हुवे नहीं निर्जरे ऐमा कहना ॥ ८२ ॥ उस समय में ऐसे कहने हुवे यावत् प्ररूपते । हुवे जमाली अन गार के वचन की कितनेक श्रमण निग्रंथने श्रद्धा प्रतीति व रुचि की और कितनेक श्रमण २० निग्रंथने श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं की ॥ ८३ ॥ उन में से जिन श्रमण निग्रंथने जमाली अनगार के ऐसे १५ 22 438 नवां शतकका तेत्तीसवा उद्देशा भावार्थ Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अनगार का ए० इस अर्थ को स० श्रद्धते हैं प० प्रतीत करते है रो० रुचते हैं ते० वे ज० जमाली अ अनवार को उ० प्राप्त होकर वि० विचरते हैं त० तहां जे० जो स० श्रमण नि० निग्रंथ ज० जमाली अ० | अनगार का ए० यह अर्थ णो० नहीं श्रद्धे णो० नहीं प० प्रतीत करे णो नहीं रो० रुचे ते० वे ज० जमाली अ० अनगार की अं० पास से को० कोष्टक चे० चैस से प० नीकलकर पु० अनुक्रम से चन्चलते गा० ग्रामानुग्राम दू० व्यतिक्रमते जे० जहां चं० चंपा न० नगरी जे० जहां पु० पूर्णभद्र चे० चैत्य जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते तहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर एयमट्ठे सद्दति पत्तियंति रोयंति तेणं जमालिंचेव अणगारं उवसंपजित्ताणं विहरति तत्थणं जे ते समणाणिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं णो सद्दहंति, णो पत्तियंति, णो रोयंति, तेणं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओं कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंत २ ता पुव्वाणुपुविं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जकाणे जेणेव चंपाणयरीए जेणेव पुण्णभद्दए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंत २ त्ता सम वचनों की श्रद्धा प्रतीति व रुवि की वे उन की साथ रहने हुवे विचरने लगे और जिनोंने रुचि नहीं की वे श्रमण निग्रंथ जमाली अनगार की पास कोष्टक चैत्य में से नीकलकर पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते हुवे चंपा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी की पास आये, और वंदना * प्रकाशक- राजवहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी १४३० Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ को ति० तीन वक्त आ० हस्तजोड ५० प्रदक्षिणाकर बं० बंदनकर ण नमस्कार कर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को उ० पाप्त होकर वि० विचरते हैं ॥ ८४ ॥ त• तब से वह ज० जमाली अ.20 अनगार अ० एकदा ता उस रो० रोग से वि• रहित होते ह. हृष्ट तु० तुष्ट जा• हुवा अ. रोग रहित व० वलीष्ट स० शरीर वाला सा श्रावस्ती ण नगरी से को० कोष्टक चे० चैत्य से ५० नीकलकर पु० अनुक्रम से च० चलता गा० ग्रामाणुग्राम दू. व्यतीक्रमते जे. जहां चं० चंपा न० नगरी जे० जहाँ पु० भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदति णमसंति वंदित्ता णमंसित्ता · समणं भगवं महावीरं उवसंगजित्ताणं विहरंति ॥ ८४ ॥ तएणं से जमाली अणगारे अण्णयाकयाई ताओ रोगातंकाओ विष्पमुक्के हट्ट तुट्टे जाए अरोए वलियसरीरे सावत्थीओ णयरीओ कोट्टयाओ चंइयाओं पडिणिक्खमइ २ त्ता पुन्वाणुपुचि चर माणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, जेणेव चंपाणयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भावार्थ नमस्कार कर श्रमण भगवंत महावीर की साथ विचरने लगे ॥ ८४ ॥ जब जमाली उस रोग से मुक्त है। हुवा, हृष्ट तुष्ट आरोग्य व बलिष्ट शरीरवाला हुवा तब वह श्रावस्ती नगरी के कोष्टक उद्यान में से नीकलकर of पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते चंपा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की 1 पास आया, और श्रमण भगवंत की पास खडा रहकर ऐसा बोला कि जैसे आपके अंतवासी बहुत श्रमण, पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 3287 नवना शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 982030 488 Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शब्दार्थ पूर्णभद्र, चे. चैत्य जे० जहां म० श्रण भ० भगवन्त म० महातीर ते तदा उ आकर स० श्रमण भगवन्त म. महावीर की अ० नजदीक ठि० रहकर स: अषण भ. भगवन्त म. महावीर को ए. ऐम व. बाला ज. जैसे दे० देवानु प्रिय के ब. बहुत अं. अंतेवासी स. श्रमण नि. निय छ० छद्मस्थ भ. होकर छ० छमस्थ अ. अवक्ररण से अ० अवक्रमे णो नहीं अ० मैं त तैसा छ. छद्मस्थ भ. होकर छ० छमस्थ अ० अपक्रम से अ० अपक्रमा अ० मैं उ० उत्पन्न णा. ज्ञान दं० दर्शन घ० धारक अ० में अरहत जि.जिन के. केवली भ. होकर के. केवली अपक्रमण से अ० नीकला ॥ ८५ ॥ त० तब भ० भगवन्त गो० गौतम ज. जमाली अ. अनगार को ए० ऐसा व० बोले णो० नहीं ज० जगाली के. भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिवा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी जहाणं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवता, णो खलु अहं तहाचेव छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवकंते, अहं णं उप्पण्णणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता, केवली अवक्कमणणं अवकते ॥ ८५ ॥ तएणं भगवं भावार्थ निर्ग्रन्थ छप्रस्थ होकर छअस्य अपक्रम से अवक्रम करने वाले हैं वैसा मैं नहीं हूं, परंतु मैं उत्पन्न झान - "" दर्शन का धारक अरिहंत जिन केवली हूं ॥ ८५ ॥ उस वक्त भगवंत गौतम स्वामी जमाली अनगार को 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुवदेवसहायनी बालाप्रसादजी* Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - पंचमाङ्ग विवाह पणारी (भगवती स्त्र 4.87 केवली के णा० शान दं० दर्शन से० पर्वत से ५० स्थंभ से यू० स्तूप से आढकावे नि० विशेषढकावे ज. यदे तु० तुम ज० जम्गली उ० उत्पन्न णा ज्ञान दं दर्शन ध० धारक अ० अर्हन जि० जिन के० ० केवली भ० होकर के० केवली अ० अपक्रमण से अ०नीकले त तब इ०इन दो दो वा प्रश्न वा कहो सा०१७ शाश्वत लो० लोक ज० जमाली अ० अशाश्वत लो० लोक ज. जमाली सा० शाश्वत जी. जीव ज.. जमाली अ० अशाश्वत जी जीव ज. जपाली ।। ८६ ॥ ततब से० वाज. जमाली अ० अनगार भ. गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी णो खलु जमाली! केवलिस्स गाणेवा सणवा सेलंसिवा, थंभंसिवा, थूभंसिवा, आवारज्जइवा, णिवारइजइवा, जइणं तुम्मं जमाली ! उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलीअवक्कमणेणं अवकंते ताणं इमाइं दो वागरणाइं वागरेहि, सासए लोए जमाली ! असाप्सएलोए जमाली ? सासए जीवे जमाली ! असासए जीवे जमाली ? ॥ ८६ ॥ तएणं से जमाली ऐसा बोले कि अहो जमाली ! केवली के ज्ञान दर्शन पे पर्वत, स्तंभ व स्तूप का आवरण नहीं होता है. यदि तू केवली होतो दो प्रश्न का उत्तर कहे. अहो जमालिन् ! लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ? अथवा जीव शाश्वत है या अशाश्वत है ? ॥ ८६ ॥ ऐसा भगवंत गौतम स्वामी का वचन सुनकर जमाली । नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा भावार्थ Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ । अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # नहीं भगवन्त गो० गौतम से ए० ऐसा दु० बोलाते सं० शंकित कं० कांक्षित जा० यावत् क० कालुष्य वाला {जा० हुवा णो० नहीं सं समर्थ होवे भ० भगवन्त गो० गौतम के किं० किंचित् पा० उत्तर आ० कहने को तु० मौन सं० रहे ॥ ८७ ॥ जं० जमाली स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ज० जमाली अ० अनगार ए० ऐसा व बोले अ० है ज० जमाली म० मेरे ब० बहुत अ० अंतेवासी सैं० श्रमण नि० (निग्रंथ छ० छद्मस्थ जे० जो १० समर्थ ए० इस वा० प्रश्न को वा० कहने को ज० जैसे अ० मैं णो ए० इस प्रकार की भा० भाषा भा० कहने को ज० जैसे तु० तुम ॥ ८८ ॥ सा० शाश्वन लो० लोक अणगारे भगत्रया गोयमेणं एवं वृत्तेसमाणे संकिए कंखिए जाव कलुससमाव या होत्या, णो संचाएइ भगवओ गोयमस्स किंचिवि पामोक्ख माइक्खित्तए तुसिणीए संचि ॥ ८७ ॥ जमाली ! समणे भगवं महावीरे जमालि अणगारं एवं वयासी अत्थिणं जमाली ! भ्रमं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था जेणं पभू एवं वागणं वारित जाणं अहं । जो चेवणं एतप्पगारं भासं मात्तिए जहाणं तुमं शंका कांक्षा यावत् कालुष्यवाला हुवा और भगवंत गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हुआ || ८७ || श्रमण भगवंत महावीर स्वामी जमाली अनगार को ऐसा बोले कि अहो जमालिनू ! मेरे बहुत शिष्य कि जो छद्मस्थ हैं वे भी ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में मेरे जैसे समर्थ हैं. परंतु जैसा तू बोलता | १४३५ Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि शब्दार्थ ज० जमाली जो ण नहीं क०कदापि ण नहीं आ हुआ ण नहीं क कदापि ण नहीं भ होता है ण. 2010 aye नहीं क. कदापि भ० होगा भु० था भ० है भ० होगा धु० धृर णि नित्य मा० शाश्वत अ० Yअक्षय अ० अव्यय अ० अवस्थित णिनित्य अ० अशाश्वत लो लोक ज० जमाली ओ० उत्सर्पिणी भ० है सा० शाश्वत जी० जीव ज. जमाली ण नहीं कः कदापि ण नहीं आ० था जा. यावत् णि नित्य अ० अशाश्वत जी० जीव ज० जमाली णे नारकी भ० होकर ति० लियच भ० होबे ति०, ॥ ८८ ॥ सासए लोए जमाली ! ज णं णकदापि णास णकदापि भवइ णकदापि णभविस्सइ, भुवि च भवइ भविस्सतिय धुवे णितिए सासए अक्खए अन्वए अवट्ठिए णिच्चे ॥ असासए लोए जमाली ! जं ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्साप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ ॥ सासए जीवे जमाली ! जं णकदापि णासि जाव णिच्चे; असासए जीरे जमाली ! जं जं रइए भवित्ता, तिरिक्ख जोणिए भावार्थ है वैसा मैं नहीं बोलता हूं ॥ ८८ ॥ अहो जमालिन् ! यह लोक शाश्वत है, क्यों की यह कदापि नहीं था । वैसा नहीं, नहीं होता है वैसा नहीं, नहीं होगा वैसा नहीं, गतकाल में था, वर्तमान में है, व अनागत में |oto होगा; इस से यह ध्रुव नित्य शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित व निस है. और भी यह लोक अशाश्वत है। 1 क्योंकि भरत इरवत आश्री अवसर्पिणी होकर उत्सर्पिणी होती है और उत्सपिणी होकर अवसर्पिणी ag पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र * नववा शतक का तेत्तीसचा उद्देशा Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३६ शब्दार्थ4 तिर्यंच भ० होकर म. मनुष्य भ० होवे म. मनुष्य भ० होकर दे. दव भ० होवे ॥ ८१॥ त० तब मे० वह ज० जमाली अ० अनगार स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ए. ऐमा आ० कहते हुने जा. यावत् प० प्ररूपते ए. यह अर्थ णो नहीं स० श्रद्ध णो० नहीं प० प्रतीत करे णो० नहीं रो० रुचे ए० इस अर्थ को अ० नहीं श्रद्धते अ० नहीं प्रतीत करते अ० नहीं रुचते दो० दूसरी वक्त स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अं० पामसे आ० आत्मासे अ० अपक्रमकर दो० दूमरी वक्त आ० भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवई, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ ॥ ८९ ॥ तएणं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एव माइक्खमाणस्स ___ जाव एनं परूवमाणस्स एयमटुं णो मद्दहइ, णो पत्तियइ, णो गेयइ, एयमटुं अम दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, दोच्चंपि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आताए अवक्कमइ, दोचंपि आताए अवक्कमित्ता बहूहिं असम्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभावार्थ होती है. अहो जमालिन् जीव शाश्वत है क्योंकि यह जीव कदापि नहीं हुआ यावत् नित्य है। और जीव अशाश्वत है क्यों कि जवि नारकी बनकर तिर्यंच होता है, तिर्यंच बनकर मनुष्य होता है, मनुष्य बनकर देव होता है ॥ ८९ ॥ इस तरह कहते हुवे यावत् प्ररूपते हुवे श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के वचन की श्रद्धा प्रतीति व रुचि जमाली अनगारने की नहीं. और इस तरह श्रद्धा प्रतीति व 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्रा अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ! * {आत्मासे अ० अपक्रमकर ब० बहुत अ० अमत्भाव उ० उद्भावना से मिमिथ्यात्व अ० अभिनिवेश से अ० ( स्वतः का प० अन्यको उ० दोनों को बु० विरुद्ध ग्रहण करता वु० शंकाशील करता व बहुत वा० वर्ष (सा० श्रामण्य १० पर्याय पा० पालकर अ० अर्धमामकी सं० संलेखणा मे अ० आत्मा को झू० झूसकर ती तीस भ० भक्त अ० अनशन छे छेड़कर त० उस ठा० स्थान को अ० विना आलोचना किये प० प्रतिक्रमण किये का० कालके अवसर में का० काल कर के लं० लंतक कल्प में ० ते ० तेरह सा० मागरोपम भिणिवेसेहिय अप्पाणंच परंच तदुभयंच बुग्गाहेमाणे, वुप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्ण, परियागं पाउणइ २ त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ २ ता तीसं भत्ताई अणसणाई छेदेइ २ ता तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालमा से कालं किच्चा लंतएकप्पे तेरससागरोवमाई ठिइए देवकिव्विसिएस देवेसु देवकिवि{रुचि नहीं करते दूसरी वक्त भी महावीर स्वामी की पास से नीकल गया. नीकलकर बहुत अशुभ अध्य{वसाय से व विपरीत अर्थ प्रगट करने से आभिनिवेशिक मिथ्यात्वके उदय से अपनी आत्माको, अन्य की आत्मा को व उभय की आत्मा को विपरीत श्रद्धा कराता हुआ बहुत वर्ष माधु पर्याय पालता अर्ध मासकी संलेखना से आत्मा को झोंसकर तीस भक्त अनशन छेदकर उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण नहीं कर काल के अवसर में कालकर लंतक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति से किल्विषी में किलिपी सूत्र भावार्थ पंचांग विवाहपत्ति ( भगवती ) मूत्र 4 नवत्रा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा १.४३७ Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशक .४३८ शब्दार्थको ठि० स्थितिवाला दे० देव किल्विपि दे देव में दे० देव किस्विपिपने उ० उत्पन्न हुवा ॥९० ॥ त० तब भ० भगवन्त गो गौतम ज० जमाली अ० अनगार को का० काल प्राप्त जा. जानकर जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते नहां उ• आकर म. श्रमण भ. भगवन्त म. महा को वं० वंदन कर ज० नमस्कार कर ए. एसा व• बोले दे. देवानुप्रिय का अं० अंतेवासी कु• कुशीष्य हज जमाली अ० अनगार का काल के अवसर में का• काल करके क० कहां ग० गया क. कहां उ०१२ उत्पन्न हुआ गो० गौतमादि म० मंरा अं० अंतेवासी कुछ कुशीष्य ज जमाली अ० अनगार म० मुझे ए०१४ सियत्ताए उववण्णे ॥ ९० ॥ तएणं भगवं गोयमे जमाले अणगारं कालगयं जा- अ णित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं .. वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता, एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुासस्से जमाली णाम अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिंगए कहिं उववण्णे? |गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! मम अतेवासी देवपने उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥ उस समय भगवान् गौतम जमाली अनगार को काल किया हुवा जानकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आये. और वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! आपका कुशिष्य जमाली अनगार कालकर कहां गया कहां उत्पन्न हुवा ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामी :48 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ (ऐसा आ कहते को ए० यह अर्थ णो० नहीं स० श्रद्धे ए यह अर्थ अ० नहीं श्रद्धता दो० दूसरी वक्त (म० मेरी अं० पास से आ० आत्मा से अ० अपक्रमण कर ब० बहुत अ० अशुभभावना उ० उद्भवने से [ जा० यावत् दे० देव किल्विषपने उ० उत्पन्न हुवा ॥ ११ ॥ क० कितने प्रकार के भं० भगवन् दे० देवकिल्बिष गो० गौतम ति तीन प्रकार के ति०तीन पल्योपमकी टि० स्थितिवाले ति तीन सागरोपमकी 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र कुसिस्से जमाली णामं अणगारे सेणं तदा ममं एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमटुं णो सद्दहइ ३ एयमट्टं असद्दहमाणे दोच्चंपि मम अंतियाओ आताए अवक्कमइ २ त्ता बहूहिं असम्भावुनावणार्हि तंचेच जाव देवकिव्विसियत्ताए उबवण्णे ॥ ९१ ॥ कइविहाणं भंते! देव किव्विसिया प० ? गोयमा ! तिविहा देवकिव्विसिया पण्णत्ता तंजहा तिपलिओचमट्टिईया, तिसा - {ने उत्तर दिया कि अहो गौतम ! मेरा अंतेवासी कुशिष्य जमाली नामक अनगार मेरे वचनों को नहीं श्रद्धता यावत् नहीं रुचि करता दूसरी बार भी मेरी पास से चला गया, और अशुभ अध्यवसाय से ( स्वत: को व अन्य को मिथ्यात्व में डालता हुवा यावत् काल के अवसर में काल करके किल्विषी में किल्विषी देवपने उत्पन्न हुवा है ॥ ९१ ॥ अहा भगवन् ! किल्विषी देव के कितने भेद कहे हैं ? अहो [गौतम ! किल्विषी देव के तीन भेद कहे हैं. तीन पल्योपम की स्थितिवाले, तीन सागरोपम की स्थिति 4 नववा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 48 १४३९ Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 41ठि० स्थितिवाले से० तेरह सागरोपमकी ठि० स्थितिवाले ॥२२॥ क० कहां भं० भगवन् ति तीन पल्यो- * पम की ठि० स्थिनिवाले दे देवकिल्लिषि ५० रहते हैं गो गौतम उ० उपर जो ज्योतिषी हे० नीचे सधर्म ईशान क० देवलोक की ति० तीन पल्योपम की ठि० स्थितिवाले दे० देवकिल्विषि १० रहते हैं। कहां भं भगवन् ति तीन सा. सागरापम की ठि. स्थितिवाले दे० देवकिल्लिपि प० रहते हैं गो० गौतम उ० उपर मो० सौधर्म ईशान क० देवलोक को हे० नीच स० सनत्कुमार मा० माहेन्द्र देवलोक की ति० गरोवमट्टिईया, तेरस सागरोवमट्टिईया ॥ ९२ ॥ कहिणं भंते ! तिपलिओवमदिईया देवकिन्विसिया परिवसंति ? गोयमा । उप्पिं जोइसियाणं हिदिँ सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु एत्थणं तिपलिओवमट्रिईया देवकिन्विसिया परिवसंति । कहिणं भंते ! तिसागरोवमट्टिईया देवकिब्विासिया परिवसंति ? गोयमा ! उप्पिसोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हिट्टि सणंकुमारमाहिदेसु एत्थणं तिसागरोवमट्टिईया देवकिदिवसिया परिवसंति भावार्थ वाले व तेरह सागरोपमकी स्थितिवाले॥१२॥हो भगवन् ! तीन पल्यापम की स्थितिवाले देव कहां रहते हैं? अहो गौतम! ज्योतिषी देवलोककी उपर और सौधर्म ईशान देवलोककी नीचे तीन पल्योपमकी स्थितिवाले किलिषी देव रहते हैं. अहो भगवन् ! तीन सागरोपमकी स्थितिवाले किल्विषी देव कहां रहते हैं? अहो गौतम * मौधर्म ईशान देवलोक की उपर व सनत्कुमार माहेन्द्र देवलोक की नीचे तीन सागरोपम की स्थितिवाले बालग्रमचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी आयजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ शब्दार्थ तीन सा० सागरोफ्म की ठिः स्थितिवाले दे० देवकिल्पिी प० रहते हैं क कहां भं भगवन् ते तेरह । oreसा सागरोपम की ठि० स्थितिगले दे० देवकिलिकपी १० रहने उपर बं• ब्रह्मदेवलोक की दि. भी लेनक क लर की है और मा मागगपम स्थितिवाले दे० देवकिल्विषी ५० रहते हैं ।। ९३ ॥ दे देवकिल्विषी भं भगवन् के० किस क कर्म के उदय से दे० देवकिल्विषीपने । उ. उत्तन भ० होते हैं गो. गौतम जे. जो आ० आचार्य प्रत्यनीक उ० उपाध्याय प्रत्यनीक कु• कुल प्रत्यनीक ग० गण प्रत्यनीक सं० संघ प्रत्यनीक आ० आचार्य उ० उपाध्याय के - अ० अपयश बोलने कहिण्णं भंते! तेरस सागरोवमट्टिईया देवकिब्बिंसिया परिवसति ?गोयमा! उप्पिंबंभलोगस्स कप्पस्स, हिडिं लंतए कप्पे एत्थणं तेरस सागरोक्मट्टिईया देवकिन्विसिया परिवसंति ॥ ९३ ॥ देवकिदिवसियाणं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिदिवसियत्ताए उवउत्तारो भवंति ? गोयमा ! जे इमे आयस्यि पडिणीया, उवज्झाय पड़िणीया, :. कुल पडिणीया, गण पडिणीया संघ पडिणीया; आयरिय उवज्झायाणं : अयसकरा: भावार्थ किल्विषी देंव रहते हैं. अहो भगवन् ! तेरह सांगरोपम की स्थितिवाले किल्विषी देवं कहां रहते हैं ?3 * अहो गौतम ! ब्रह्मलोक की उपर व लंतक देवलोक की नीचे तेरह सागरोपम की स्थितिवाले किलिषी देव 1% रहते हैं ॥ ९३ ॥ अहो भगवन् ! किल्विषी में कैसे कर्म करनेवाले किल्विषी देवपने उत्पन्न होवे ? महा पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 20 नववा शतक का तत्तासवा उद्देशा 4.880 Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी gov 4वाले अ• अवर्णवाद बोलने वाले अ. अपकीन करने वाले ५० बहुत अ० असद्भाव उ. उद्भव से मि० मिथ्याभिनिवेशिक से अ. आत्मा को बु. विरुद्ध ग्रहण करता वु. दुर्विदग्ध करता ब. बहुत वर्ष सा०१ श्रामण्य ५० पर्याय ५० पालकर त० उस अ० अर्थ को अ० विना आ० आलोचकर पम्मतिक्रमणकर का०,१४४२ काल के अबसर में का. काल करके अ० अन्यतर दे. देवकिलिपी दे० देव में दे देवकिल्विषीपने उ. उत्पन्न भ० होत हैं ति. नीनं पल्योपम की ठि स्थिति में ति० तीन सा० सागरोपम की ठि० स्थिति में ते. अबण्णकरा, अकित्तिकरा,बहिं असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहिय अप्पाणंवा परंवा तदुभयंचा वुग्गाहमाणा, वुष्पाएमाणा बहूहि वासाइं सामण्ण परियागं पाउणंति २ त्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्वंता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवकिन्चिसिएसु देवेसु देवकिन्विसियत्ताए उवउत्तारो भवति तंजहा तिपलिओवमट्टिगोतर! जो आचार्य का प्रतीक, उपाध्याय का प्रतीक, कुल प्रसतीक, गण प्रखनीक, संघ प्रत्यनीक, भावार्य उपाध्याय का अपयश करनेवाला, निंदा करनेवाला, अपकीर्ति करनेवाला व अशुभ साय स आभिनिवेशिक मिथ्यात से स्वतः को, अन्य को व उभय को मिथ्या उपदेश करनेवाला जो होता व बहुत वर्ष साधु की पर्याय पालकर उस स्थान की मालोचना प्रतिक्रमण विना किये काल के अवसर प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 शब्दार्थ 4 तेरह सा० सागरोपम की ठि० स्थिति में ॥९४ ॥३० देव कि० किल्विषी भ० भगवन् ता. उस दे । देवलोक से आ० आयुष्यक्षय से भ० भवक्षय से ठि० स्थितिक्षय से च० चवकर के० कहाँ ग० जाते हैं | एक कहां १० उत्पन्न होते हैं गो० गौतम जा. यावत् च० चार पं० पांच • नारकी ति० तिर्यंच म० मनुष्य दे० देव भ० भवग्रहण सं० संसार अ० भ्रमण कर त० पीछे सि० मिझते हैं बु० बुझते हैं जा यावत् अं• अंत क० करते हैं अ० कितनेक अ० अनादि अ० अनंत दी. दीर्घ काल चा० चातुरंत है ईएसुधा, तिसागरोवमट्टिईएसुवा, तेरस सागरोवमट्टिईएसुवा ॥ ९४ ॥ देवकिन्धिः सियाणं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणे ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति कहिं उवयजंति ? गोयमा! जाव चत्तारि पंच णेरइय तिरिक्खजोगिय मणुस्स देव भवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता, तओ पच्छा सिझंति बुझंति आव अंतं करेंति ॥ अत्थेगइया अणाइयं अणवदग्गं दीहमद्धं भावार्थ में काल कर तीन पल्योपम, तीन सागरोपम व तेरह सांगरोपम की स्थितिवाले किल्विषी देव मे उत्पन्न होते हैं॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! उम किलिपी देवलोक में से किलिषी देवों आयुष्य, स्थिति व भव क्षय होने से कहां उत्पन्न होते हैं ! अहो गौतम ! वहां से चार पांच नारकी, तिर्यंच मनुष्य व देव भव करके पीछे सझते हैं बुझते हैं यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं, और किसनेक अनादि अनंत चतुर्गति । पंचांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 84.नववा शतक का तेत्तीमवा उद्देशा200 Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ +2 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी [सं० संसार कं० कंतार अ० भ्रमण करते हैं ॥ ९५ ॥ ज० जमाली भं० भगवन् अ० अनगार अ० अरस आहारी वि० विरस आहारी अं० अंत आहारी पं० प्रांत आहारी ल० रूक्ष आहरी तु० तुच्छआहारी अ० {अरम जीवी जा यावत् तु० तुच्छ जीवी उ० उपशांत जीवी प० प्रशांत जीवी वि० विविक्तजीवी हं० हां गो० गौतम ज० जमाली अ० अनगार अ० अरस आहारी जा० यात्रत् विविक्त जीवी ॥ ९६ ॥ ज० यदि १० भगवन् ज० जमाली अ० अनगार अ० अरस आहारी जा० यावत् वि० विविक्तजीवी क० कैसे भं० चाउरंत संसार कंतारं अणुपरियहंति॥ ९५॥ जमालीणं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लहाहारे तुच्छाहारे, अरस जीवी जाव तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंती M विवित्तजीवी? हंता गोयमा ! जमालीणं अणगारे अरसाहारे जाव विवित्तजीवी ॥ ९६ ॥ जइ भंते! जमाली अणगारे अरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हाणं भंतेजमाली अनगारे कालमासे कालंकिच्चा लतएकप्पे तेरससागरोवमट्टिईएस देवकिव्विसिएसु देवसु देवत्ताए उबवण्णे ? संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥ ९५ ॥ अहो भगवन् ! क्या जमाली अनगार अरस, विरस, अंत, प्रान्त, रूक्ष, तुच्छ आहार करनेवाला व अरम से उपजाविका करनेवाला यावत् तुच्छ से उपजीविका करनेवाला उपशांत जीवी, प्रशांत जीवी, व विविक्त जीवी था ? हां गौतम ! जमाली अनगार अरस आहार करनेवाला यावत् विविक्त जीवी था ॥ ९ ॥ जब जमाली अनगार अरस आहारी यावत् विविक्त जीवी था * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १४४४ Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४५ शब्दाथ भगवन् ज० जमाली अ० अनगार का० काल के अवसर में का० काल करके लं० लंतक दे देवलोक में । ते० तेरह सा मागरोपम की ठि० स्थिति में दे देवकिल्विषी में दे देवकिल्विषीपने उ० उत्पन्न पहुवा गो गौतम ज० जमाली अ० अनगार आ० आचार्य प्रत्यीक उ० उपाध्याय प्रत्यनीक आ०१00 आचार्य उ० उपाध्याय के अ० अपयश करने से अ० अवर्णवाद बोलने से अ अपकीर्ति करने से ब बहुत वर्ष सा० श्रामण्य ५० पर्याय पा. पालकर अ० अर्धमांस की सं० संलेखना से ती. तीस भक्त अ से अनशन छे० छेदकर त० उस अ० अर्थ को अ० विना आलोचकर प० प्रतिक्रमणकर का० काल के गोथमा ! जमालीणं अणगारे आयरियपडिणीए उवज्झाय पडिणीए आयरिय उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए जाव वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामण्ण परियागं पाउणइ २ त्ता अद्धमासियाए सलेहणांए तीसं भत्ताई अणसणाई छेदेइ २ त्ता तस्स पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सत्र 20982 30 नवधा शतकका तेत्तीसवा उद्देशा 988 तो अहो भगवन् ! कैसे किल्विषी देवपने उत्पन्न हुवा ? अहो गौतम ! जमाली अनगार आचार्य का प्रसनीक उपाध्याय प्रत्यनीक आचार्य उपाध्याय के अपयश करनेवाला निंदा करनेवाला, यावत् 3 लोकों को मिथ्या उपदेश देनेवाला था. इस से बहुत वर्ष तक साधु की पर्याय पालकर उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किये विन कालके अक्सरमें काल कर लंतक देवलोकमें तेरह सागरोपमकी स्थितिसे ।। 48 Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भामर में का० कालकर के ल० लंतक दे. देवलोक में जा. यावत् उ० उत्पन्न हुवा ॥ ९७ ॥ ज० जमाली भ० भगवन् दे० देवलोक से आ० आयुष्यक्षय से जा. यावत् क० कहां उ० उत्पन्न होगा गो० गौतम च० चार पं० पांच ति० तिर्यंच म० मनुष्य दे० देव भ० भवग्रहण सं० संसार अ० भ्रमणकर तक पीछे सि० सिझेगा जा० यावत् अं० अंत करेगा स. वह ए ऐसे भं० भगवन् ॥१॥३३॥ ठागस्स अणालोइयपडिक्ते कालमासे कालं किच्चा लंलए कप्पे जाव उववण्णे॥९॥ जमालीण भंते देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजहिति? गोयमा! चत्तारिपंच तिरिक्ख जोणिय मणुस्स देव भवग्गहणाई संसारं अणुपरियहित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जमाली सम्मत्तो ॥ नवमसयस्स तेत्तीसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ ३३ ॥ भावार्थ किल्विषी देवपने उत्पन्न हवा ॥९७ ॥ अहो भगवन् ! जमाली वहां से आयष्य, स्थिति व भव क्षय होने से कहां जावगा व कहां उत्पन्न होवेगा? अहो गौतम ! तिर्यंच मनुष्य व देव के चार पांच भव करके पीछे सीझेगा, बुझेगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह जमाली 15 का अधिकार पूर्ण हुवा, यह नववा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥९॥३३॥ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8+ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी * Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 43 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र ते काणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी पुरिसेणं भंते! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ णो पुरिसं हणइ ? गोयमा ! पुरिसंविहणइ णो पुरिसं पिहणइ ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं वृच्चइ पुरिमंपि हणइ णो पुरिसंपि हणइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ, एवं खल अहं एग पुरिसं हणामि, सेणं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगा जीवा हणंति से तेणट्टणं जात्र णो पुरिसंपि हणइ || १ || पुरिसेणं भंते ! आसं हणमाणे किं आसं हणइ असे हणइ ? गोयमा ! आसंपि हृणइ णो आसेवि हणइ ॥ से केणट्टेणं अट्ठो उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था. उस के गुणशील नामक चैत्य में श्री श्रमण भगवंत { महावीर को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! पुरुष पुरुष की घात करता हुवा क्या पुरुष को हणता है या नो पुरुष को हणता है ? अहो गौतम ! पुरुष को हणता पुरुषको {हणता है और नो पुरुष ( पुरुष सित्रा अन्य ) को भी हणता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह ? अहो गौतम ! उस को ऐसा विचार होवे कि मैं एक पुरुष को मारता हूं इस तरह वह एक पुरुष को हणता {हुवा इस के शरीर आश्रित अनेक कृमि आदि जीवोंकी घात करता है. इससे ऐसा कहा गया है कि पुरुषको {हणता है और न पुरुष को भी हणता है ॥ १ ॥ अहो भगवन्! पुरुष अश्व की घात करता क्या अश्व को हणता {है या नो अश्व को हणता है ? अहो गौतम ! अश्व को हणता है और नो अश्व को भी हणता है. अहे 488+ 48 नववा शतकका चौतीसवा उद्देशा १४४७ Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४८ अमोलक ऋापजी तहेव ॥ एवं हत्थि, सीहं नग्धं जाव चिल्ललगं ॥ २ ॥ पुरिसेणं भंते । अण्णतरं तसपाणं हर्णमाणे किं अण्णतरं तसपाणं हणइ णोअण्णतरे तसे पाणे हणइ ? गोयमा! अण्णतरंपि तसपाणं हणइ, गोअण्णतरेवि तसपाणे हणइ, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अण्णतरंपि तसं पाणं हणइ, णो अण्णतरेवि तसेपाणेहणइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं अण्णतरं तसं पाणं हणामि, सेणं एगं अण्णतरं तसं पाणं हणमाणे अगेगे जीवे हणइ से तेणटेणं गायमा ! तंत्र ॥ एए सव्वेवि एक्कगमा ॥ ३ ॥ पुरिसेणं भंते इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ णोइसिं हणइ ? गोयमा! इसिपि भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जैसे पुरुष का कहा वैसे ही अश्व का जानना. ऐसे ही हस्ती, सिंह. व्याघ्र यावत् चित्ता तक कहना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष किसी त्रस गी को मारता या क्या किसी ब्रा प्राणी को मारता है या इस सिवा अन्य को मारता है? अहो - गौतम ! वत प्राणी को मारता है व त्रस प्राणि सिवा अन्य को भी मारता है. अहां भगवन ! ऐसा किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! उस का ऐसा अभिप्राय हावे कि मैं एक त्रस प्राणि कोई मारता हूं इस से उस के आश्रित अनेक त्रस प्राणि को मारता है इसलिये ऐसा कहा गया है. यो सब ॐ जीवों की घात आश्री एक गम्मा कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष ऋषि की घात करता हुवा क्या * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्म Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ हणइ णो इसिपि हणइ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव णो इसिपि हणइ ? गोयया! तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं एग इसि हणीीम सेणं एगं इसिं हणमाणे अणंता जीवा हणइ से तेण?णं निक्लेवओ ॥ ४ ॥ पुरिसेणं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिस वरेणं पुढे णो पुरिसवरेणं पुढे ? गोयमा ! णियमणं ताव पुरिसवेरेणं पुट्टे, अहवा पुरिसवेरणय णो पुरिसवेरेणय पुढे, 'अहवा पुरिसवेरेणय णो पुरिसवेरोहिय पुट्टे, एवं आसं, एवं जाव चिलुलगं जाव अहवा चिल्ललगं वरेणय णो भावार्थ ऋषि हणता है या नो ऋषि हणता. है ? अहो गौतम : ऋषि हणता है और नो ऋषि भी हणता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह ? अहो गौतम ! उस को ऐमा विचार होवे कि मैं एक , ऋषि मारता हूं उस ऋषि को मारता हुवा उस के आश्री अनंत जीवों की घात करता है. क्योंकि ऋषि अनंत जीवों के पालक होते हैं अनेक जीवों को उपदेश देकर अनंत जीवों की दया करानेवाले होते हैं और यदि मुक्ति में नहीं जावेतो वह मरकर अविरति होता है वहां अनंत जीव की घात होते. इससे ऋषिका घातक अनंत जीवों का घातक होना है ॥ ४ ॥ अहो गवन् ! पुरुष की घात करनेवाला पुरुष क्या * पुरुष वैर से स्पर्शमा नो पुरुष वैर से स्पर्शा? अहो गौतम ! पुरुष की घात की इस से पुरुष वैर से 1 निश्चयही स्पर्शा पातु यदि एक अन्य जीव की साथ में घात हुई होवे तो एक नो पुरुष वैर से स्पर्शा और है " 4242 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र नवधा शतकका चौतीमचा उद्दशा Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + चिल्ललग वेरेहिय पुढे ॥ पुरिसेणं भंते ! इसि हणमाणे किं इसिवरेणं पट्रे णो इसिवेरेणं पटै ? गोयमा ! णियम इसिवरेणय णो इसिवेरेहिय पुटे ॥ ६ ॥ पुढवीकाइयाणं भंते ! पुढवीकाइयं चेव आणमंतिवा पाणमंतिवा, ऊससंतिवा, . नीससंतिवा ? हंता गोयमा ! पुढवीकाइया पुढवीकाइयं चेव आणमंतिवा जाव नीससंतिवा ॥ पुढवीकाइयाणे भंते ! आउकाइयं आणमंतिवा जाव नीससंतिवा ? हंता गोयमा ! पुढवीकाइयाणं आउकाइयं आणमंतिवा जाव नोससं तिवा ॥ एवं तेऊकाइयवाउकाइयं, एवं वणस्सइकाइयं ॥ ७ ॥ आउकाइबहुत अन्य जीवों की घात हुई होवे तो बहुत नो पुरुष वैर से स्पर्शा यों तीन भांगे पाते हैं. ऐसे ही इस आश्री हस्ती यावत् चित्ता तक कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष ऋषि की घात करना हुवा क्या ऋषि के वैर स्पर्शा या नो ऋषि के वैर से स्पर्शा? अहो गौतम ? ऋषि के वैर से स्पर्शा और अन्य। अनंत जीवों को मारने से अनंत नो ऋषि वैर से स्पर्शा यों दो भांगे पाते हैं ॥ ६ ॥ मृत्यु श्वासोश्वाम पर है इसलिये श्वासोश्वास का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या पृथ्वी काया का श्वासोश्वास लेते हैं ? हां गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाया का श्वासोश्वाम लेते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वी कायिक क्या अप्काया का श्वासोश्वास लेते हैं ? हां गौतम ! पृथ्वी कायिक अप्काया का श्वासो * प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ 4.अनुवादक-बालब्रह्म Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 ) सूत्र : याणं भंते ! पुढवी काइयं आणमंतिवा पाणमंतिवा, एवं चैव, आउकाइयं चेव आणमंतिवा, एवं चेव ॥ एवं तेऊ वाउ वणस्सइ काइयं ॥ तेऊकाइयाणं भंते ! पुढवी काइयं आणमंतिवा जाव वणस्सइ काइयाणं भंते ! वणस्सइ काइयं चेव आणमंतिवा तहेव ॥ ८ ॥ पुढवी काइएणं भंते ! पुढवी काइयं चेव आणममाणेवा, पाणममाणेवा ऊससमाणेवा, नीससमाणेवा कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सियपंचकिरिए।पुढवी काइएणं भंते! आउकाइयं आणममाणेवा एवंचेव एवं जाव वणस्सइ काइएणवि ॥ एवं आउकाइएणवि सब्वे भाणियन्वा , एवं तेऊ काइएणवि, श्वास लेते हैं. ऐसे ही पृथ्वी काया तेउकायिक वायुकाया, व वनस्पति काया का वासोश्वास लेते हैं ॥७॥ अहो भगवन् ! क्या अप्कायिक जीव पृथ्वी काय का श्वासोश्वास लेते हैं ? हां गौतम ! अप्कायिक जीव में पृथ्वोकाया का वामोश्वास लेते हैं. ऐसे ही अकायिक अप्काय, तेउकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाय का श्वासोश्वान लेते हैं. ऐसे ही तेउकाय, वायुकारिक, वनस्पतिकायका जानना।।८॥ अहो भगवन्! पृथ्वीकाया है पृथ्वीकायाका श्वानाधान लेते कितनी क्रियाओं करे ?अहो गौतम! पृथ्वीकाय पृथ्वीकायाक श्वासाश्वासलते ही सामान्य पंडा स्पा करते विशष पीडा करते तीन चार व वध करते पांचक्रिया करते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वीकायिक अप्काया का वासोचास लेते कितनी क्रिया करे ? अहो गौतम ! क्वचित् तीन, क्वचित् चार । नवधा शतक का चौती भावार्थ 428 पंचभाग विवाह पण्णत्ति ( भगवती www ॥ उद्देशा 48 Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनुवादक-बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी go एवं दाउ का एणवि, एवं वणस्सइ काइएणवि, जाव वणस्सइ काइएणं भंते ! वणस्सइ काइयं च आणममाणेवा पुच्छा ? गोपमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, ॥ ९ ॥ वाउ काइएणं भंते ! रुक्खस्स मूलं पवालेमाणेवा, पवाडे. माणेवा, कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सियचउकिरिए, सियपंचकिरिए ॥ एवं कंदं एवं जाव बीयं पवालेमाणेवा पुच्छा ? गोयमा ! सियतिकिरिए सियचउ किरिए, सिथपंचकिरिए ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ नवम संयस्स चउत्तीसइमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ९ ॥ ३४ ॥ नवमं सयं सम्मत्तं ॥९॥ व क्वचित् पांच यों तेउ, वायु, व वनस्पति की साथ जानना जैसे पृथ्वी काय आश्री क्रियाओं कही वैसे ही अप् , तेऊ, वायु व वनस्पति आश्री क्रियाओं का जानना ॥९॥ अहो भगवन् ! वायु काय वृक्षके मूल गिराते हुो कितनी क्रियाओं करे ?अहो गौतम! क्वचित् तीन क्वचित् चार क्वचित् पांच ऐसे ही कंद यावत् धींज को गिराते हुवे काचित् तीन क्वचित् चार व क्वचित् पांच क्रियाओं करे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह नववा शतक का चौतीसका उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १ ॥ ३४ ॥ यह नववा शतक हुवा ॥९॥ * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480% शब्दाथे पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र : ॥दशम शतकम् ॥ दि० दिशा संः संवृत अ० अनगार आ० आत्म ऋद्धि सा०श्याम हस्ती दे देवी ससभा उ० उत्तर अ० अंतरद्वीप द० दश में स० शतक में चो० चौतीस रा० राजगृह जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले 40 १४५३ कि क्या भ० भगवन् पा० पूर्व दिशा ५० कहाती है गो० गौतम जी० जीव अ० अजीव किं. कैसे भ० भगवन् प० पश्चिम १० कहाती है गो गौतम एक ऐसे दा० दक्षिण ९० ऐसे उ° उत्तर ए. ऐसे दिसि संवुड मणगारे, आइड्डी सामहत्थि देवि सभा; उत्तरअंतरदीवा, दसमंमि सयंमि चोत्तीसो! रायगिहे जाव एवं वयासी किमियं भंते ! पाईणेत्ति पवुच्चइ ! गोयमा । जीवा चेव, अजीवा चेव ॥ किमियं भंते ! पडीणोत्त पवुच्चइ ? गोयमा ! । नववे शाक में क्रिया का अधिकार कहा, अब इस शतक के पहिले उद्देशे में दिशि का कथन करते हैं. इस शतक में चौतीस उद्देशे कहे हैं. १ प्रथम उद्देश में दिशाओं का कथन किया है २ दूसरे में संवृत.. अनगारका३ तीसरे में आत्तऋद्धिमे देवकावासांतर अतिक्रमनका ४ चौथे में श्यामहस्ती साधु के प्रश्नोत्तर५ } 3 पांवो में चमरेन्द्र की अग्र महिषियों का कथन ६ छ8 में सुधर्मा सभा का वर्णन और सात से ३४ तक उत्तर दिशा के तर द्वीपका कथन है. इनमें से अब प्रथम उद्देशा कहते हैं. राजगृह नगर के गुण शील | नामक उद्यान में भावां महावीर स्वामी को भगवान् गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर प्रश्न पूछने | लगे कि हो भगवन् ! पूर्व दिशा किसे कहना ? अहो गौतम ! जीव व अजीव रूप पूर्व दिशा है ऐसे ही 387 १०४ दशा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४५४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87 उ०. ऊर्ध्व १०. ऐसे अ. अधो ॥ १॥ क० कितनी भ० भगवन् दि० दिशा ५० प्ररूपी मो० ॥ गौतम द० दश दिशा प० प्ररूपी तं० वह ज जैसे पु० पूर्व पु० अनि दा दक्षिण ९ नैऋत्य प प०. पश्चिम ५० वायव्य उ० उत्तर उ. ईशान उ ऊर्ध अ० अधो॥२॥ ए. इन भ० भगवन् द० दश दिशा के क• कितने ना० नाम ५० प्ररूप गो० गौतम द० दश नाम प० प्ररूपे इ० इन्द्रा अ० अग्नेयी एवं चेव ॥ एवंच दाहिणा ॥ एवंच उदीणा ॥ एवं उड्डा ॥ एवं अहोवि ॥१॥ कइणं भंते ! दिसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा पुरच्छिमा, पुरच्छिम दाहिणा, दाहिणा, दाहिण पच्चच्छिमा, पञ्चच्छिमा,पञ्चच्छिमुत्तरा,उत्तरा उत्तर पुरच्छिमा, उड्डा, अहो ॥२॥ एयंसिणं भंत ! दसण्हं दिसाणं कइ नामधेजा पण्णता? गोयमा ! दस नाम धेजा पण्णत्ता, तंजहा (गाथा) इंदा अग्गेयीय जमा य नेरई। पश्चिम; दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व व अधो का जानना. ॥2॥ अहो भगवन् ! दिशाओं कितनी कही ?" अहो गौतम ! दिशाओं दश कही उन के नाम पूर्व, पूर्व दक्षिण, [अग्नि दक्षिण, दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) पश्चिन, पाश्चम उत्तर (वायव्य ) उत्तर, उत्तर पूर्व (ईशान ) ऊर्ध्व व अधो ॥२॥ अहो भगवन् ! इन दश। दिशाओंके कितन नाम कहे हैं ? अहा गौतम! इ. दश दिशाओंके दश नाम कहे हैं. १ इन्द्रा २ अग्नेयी ३१ यया ४ नैऋती ५ वारुणी ६ वायव्या ७ सोमा ८ ऐशानीक ९ विमला और १० तमा इन में से चार प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4.88 ज०यमा ने नैऋती वा वारुणी वा०वायव्या सो सोमा ई० ईशानिका वि०विमला तम्तमा।३||सरल शब्दार्थ चारुणीय वायव्वा ॥ सोमा ईसाणीया, विमलाय तमाय बोधव्वा ॥ १ ॥ ३ ॥ इंदाणं भंते ! दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएसा; अजीवा, अजोवदेसा, अजीवप्पएसा? गोयमा । जीवावि तं चेव जाव अजीवप्पएसावि ॥ जे जीवा ते नियम एगिदिया, बेइंदिया, जाव पंचिंदिया, अणिदिया ॥ जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा जाव अणिंदियदेसा ॥ जे जीवप्पएसा ते णियमं एगिदियप्पएसा जाव अणिदियप्पएसा ॥ जे अजीवा ते दविहा पण्णत्ता, तंजहा रूबी अजीवा, अरूबी अजीवाय । जे रुवी से दिशा गाडा के ऊंध के आकारवाली हैं चार विदिशाओं मोतियों की लड के आकारवाली हैं और ऊंची नीची रुचक के आकारवाली हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! इन्द्रादिशा में क्या जीव हैं, जीव देश हैं जीव प्रदेश हैं? अथवा अजीव हैं. अजीव देश हैं व अजीव प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! इन्द्रादिशा में जीव है यावत् अनीव प्रदेश हैं. क्योंकि दिशाओं में जीव व अजीव का अस्तिपना रहता है जिस से जीव यावत् 200 अजीव के प्रदेश होते हैं. अब जो जीव होते हैं वे निश्चय ही एकेन्द्रिय बेइन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय व अने-37 न्द्रिय होते हैं जो जीव देश हैं. वे निश्चय ही एकेन्द्रिय यावत् अनेन्द्रिय के जीव देश हैं और जो प्रदेश हैं 3 वे निश्चय ही एकेन्द्रिय यावर अनेन्द्रिय के प्रदेश हैं. और जो अजीव होते हैं उस के दो भेद, रूपी 486248 दशा शतकका पहिला उद्देशा84881 भावार्थ Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.9 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 809 अजीवा से चउन्विहा पण्णत्ता, तंजहा खंधा खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला॥ जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता,तंजहा नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थि यस्म पएसा नो अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पएसा ॥ नो आगासस्थिकाए आगासत्थिकायरस देसे, आगासत्थिकायस्स पएसा, अहासमए ॥ ४ ॥ अग्गेयीणं भंते ! दिसा किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा पुच्छा? गायमा ! णो जीवा, जीवदेसावि, जीवप्पएसावि, अजीवावि, अजीवदेसावि, अजीव प्पएसावि ॥ जे जीवदेसा ते णियमा एगिदियदेसा, अहवा एगिदिय देसाय बेइंदियस्स अजीव व अरूपी अजीच. उस में रूपी अजीव के चार भेद स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश व परमाणु पुद्गल. और अरूपी अजीव काय के सात भेद. संपूर्ण धर्मास्तिकायाका स्कंध पूर्व दिशा में नहीं है क्योंकि यह सर्व लोक व्यापी है इन से यह पूर्व दिशा में नहीं है परंतु धर्मास्तिकाय का देश विभाग व प्रदेश विभाग यह दोनों ही पूर्व दिशा में हैं. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय का स्कंध नहीं है. परंतु देश व. प्रदेश है, ऐसे ही आकाशास्तिकाय का स्कंध नहीं है परंतु देश व प्रदेश है और काल में सात बोल हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या अग्नेयी दिशा में जीव, जीव देश यावत् अजीव प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! अग्नेयी एक प्रदेशी होने से इसमें संपूर्ण जीव का समावेश नहीं होता है इस से वहां जीव नहीं है परंतु जीव देश व प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्त ( भगवती ) सून 809603 देसे || अहवा एगंदिय देसाय बेइदियरस देसा || अहवा एगिंदिय देसाय, चेइंदि याणयदेसा || अहवा एगिदियदेसा, तेइदियस्स देसे एवं चेत्र तिय भंगो भाणियन्वो ॥ एवं जाव अणिदियाणं, तियभंगो ॥ जे जीवप्पएसा ते नियमा एगिंदियप्पएसा, अहवा एगिंदियप्पएसाय, बेईदियरस पएसा || अहवा एर्गिदियप्पएसाय, बेइंदियाणय पसा, एवं आदिल्ल विरहिओ जाव अनिंदियाणं ॥ जे अजीवा ते दुबिहा पण्णत्ता, जीव प्रदेश हैं और अजीव, अजीव देश व अजीव प्रदेश है. उन में जो जीव देश है वे निश्चय एकेन्द्रिय { जीव देश है क्यों कि एकेन्द्रिय सर्व लोक व्यापी होने से अग्नयी दिशा में इन के देश रहते हैं यह असंयोगी एक भांगा, द्विसंयोगी तीन भांगे एकेन्द्रिय सब लोक व्यापी होने से एकेन्द्रिय देश में बहुवचन होता {है और बेइन्द्रिय देश व्यापी होने से अल्पपना से किसी स्थान एक देश का भी संभव होता है इस से एकेन्द्रिय के बहुत देश व बेइन्द्रिय का एक देश २ एकेन्द्रिय के बहुत देश व बेइन्द्रिय के { भांगा जब द्वयादिक देश से स्पर्शे तब पावे, ३ अथवा बहुत एकेन्द्रिय के बहुत देश व बहुत बेइन्द्रिय के बहुत देश. यों द्विसंयोगी तीन भांगे हुवे. ऐसे ही एकेन्द्रिय तेइन्द्रिय से तीन भांगे कहना. ऐसे ही एके(न्द्रिय चतुरेन्द्रिय, एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व एकेन्द्रिय अनेन्द्रिय के द्विसंयोगी तीन २ भांगे जानना. यह देश के ५ भांगे कहे. ऐसे ही प्रदेश के भांगे कहना. परंतु बेइन्द्रियादिक में प्रदेशपना में बहुवचन बहुत देश, यह २००४ दशवां शतकका पहिला उद्देशा १४५७ Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५८ भावार्थ १.3 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी + तंजहा-रूवी अजीवाय अरूबी अजीबाय । जे रूबी अजीवा ते चउन्विहा पण्णत्ता, तंजहा खंधा, खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला ॥ जे अरूवी अजविा ते सत्त विहा पण्णप्ता, तंजहा नोधम्मस्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसा । एवं अधम्मत्थिकायस्सवि, जाव आगासत्थिकायस्स पएसा ॥ अद्धासमए, विदिसासु नत्थि, जीवा देसे भंगो होइ सव्वत्थ ॥५॥ जमाणं भंते ! दिसा किं जीवा ? जहा कहना. क्यों कि लोककी व्यापकावस्था वैसी है, और अनेन्द्रिय छोडकर जीवका जहां देश वहां असंख्यात प्रदेश हात हैं और समुद्घात के समय अनेन्द्रिय के भी एक क्षेत्र प्रदेश में एक वचन ही कहना. और अग्नयी में असंख्यात अवगाहन प्रदेश रहे हुवे हैं इस से प्रथम भांगा छोडकर शेष दो २ भांगे पाते हैं.. बहुत एकेन्द्रिय के प्रदेश व एक बेइन्द्रिय का प्रदेश अथवा बहुत एकेन्द्रिय के प्रदेश बहुत बेइन्द्रिय के प्रदेश. ऐसे ही एकेन्द्रिय तेइन्द्रिय, एकेन्द्रिय चतुरेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय, व एकेन्द्रिय अनेन्द्रिय ऐसे में दश भांगे होते हैं यो जीव के २५ भांगे होते हैं. अब अजीब के दो भेद रूपी अजीत व अरूपी अजीव उनमें रूपी अजीव के चार भेद स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश व परमाणु पुद्गल. और अरूपी अजीवके सात भेद उन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय का स्कंध नहीं पाता है परंतु इन तीनों के देश, प्रदेश ऐमे छ पाते हैं. और सातवा काल विदिशा में नहीं है और जीव देशमें भागा सर्वच होता है. AnimM प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वामसादजी. Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 48 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) भावार्थ | इंदा तहेव णिरवसेसं ॥ णेरइया जहा अग्गेयी, वारुणी जहा इंदा, वायव्या जहा अग्गेयी, सोमा जहा इंदा, ईसाणी जहा अग्गेयी, विमलाए जीवा जहा अग्गेयी, अजीवा जहा इंदा, एवं तमाएवि णवरं अरूवी छव्विहा अद्धा समओ न भण्णइ ॥ ६ ॥ कइणं भंते सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचसरीरा पण्णत्ता तंजहा - ओरालिए ॥५॥ जमा, वारुणी, व सोमा, इन्द्रा जैसे कहना और नैऋती, वायव्या, व ईशानिका, अग्नेयी जैसे कहना. त्रिमला में जीव अग्नेयी जैसे और अजीव इन्द्रा जैने. ऐसे ही तथा का जानना. परंतु काल नहीं ग्रहण करना ÷ ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! शरीर के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! शरीर के पांच भेद { कहे हैं. १ उदारिक २ वैक्रेय ३ आहारक ४ तेजस व ५ कार्माण. उदारिक शरीर की अवगाहना जवन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट हजार योजन की वैक्रेय की जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग { उत्कृष्ट एक लक्ष योजन की आहारक की जघन्य मुंडा हाथ उत्कृष्ट एक हाथ तेजस कार्माण की जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट सब लोक प्रमाण, उदारिक मे ६ संस्थान वैक्रेय में समचौरस व ÷ विमला दिशा में सिद्ध आश्री अनेन्द्रिय के प्रदेश हैं और तमा दिशा में केवली समुद्घात से अनेन्द्रिय के प्रदेश लिये हैं. तमा दिशा में सूर्य का प्रकाश नहीं होने से काल नहीं लिया गया है परंतु विमला दिशा में सूर्य का प्रकाश नहीं होने पर भी सूर्य के किरणों का मेरु पर्वत के स्फटिक काण्ड में संक्रमण होता है इस से काल लिया गया है. * दशत्रा शतक का पहिला उद्देशा १४५९ Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ रा० राजगृह जा. यावत् ए० ऐसा २० बोले सं० संवत भं• भगवन् अ० अनगार वी० संयोम में जाव कम्मए ॥ ७ ॥ ओरालिय सरीरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? एवं ओगाहण संठाणं गिरवसेस. भाणियव्वं जाब अप्पाबहुगंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति । दसम सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ १ ॥ + + रायगिहे जाव एवं वयासी संवुडस्सणं भंते! अणगारस्स वीइपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाई हुंडक ऐभे दो संस्थान आहारक में समचतुत्र संस्थान, और तेजस कार्माण में छ संस्थान. उदारिक में वैक्रेय आहारक की भजना, तेजस कार्माण की नियमा, वैक्रेय में उदारिक की भजना आहारक नहीं है व तेजस कार्माण की नियमा. आहारक में चक्रेय नहीं उदारिक तेजस व कार्माण की नियमा. तेजप्स में कार्माण की नियमा शेष तीनों की भजना, कार्माण में तेजस की नियमा और तीनों की मज . सब से थोडे आहारक शरीरी इस से चक्रेय शरीरी असंख्यातनु ने उस से उदारिक शरीरी अनंतगुने उस से तेजस कार्माण परस्पर तुल्य विशेषाधिक, अहो भगवन् ! आप के वचन सस हैं. यह दशा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १० ॥१॥ १ प्रथम उद्देशे के अंत में शरीर का अधिकार कहा. • शरीर के योग से क्रिया होती है इसलिये क्रिया का 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजांवहादुर लाला सुखदेवसहाय जी घालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ** पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ठि रहकर पु० पहिले के रू० रूप नि० ध्याते म० पीछे के रू० रूप अ० देखते पा० बाजु के रू० रूप अ० अवलोकते उ० ऊर्ध्व रू० रूप उ० विलोकन करते अ अ रू० रूप आ० आलोचते तस को भं० भगवन् किं० क्या इ० ईर्यापथिक क्रिया क० करें सं० सपरायिक क्रिया क० करे गो० गौतम सं० संवृत अ० अनगार वी० संयोग रस्ते में ठि० रहकर त उसको णो० नहीं इ०र्यापथिक क्रिया क० करे मं० सांपरायिक क्रिया क० करे से वह के कैसे भगव ए० ऐना बु कहा जाता है सं० निज्झायमाणस्स, मग्गओ रूवाइं अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाइं अवलोए माणस्स, उड्डुं रुवाई उलोएमाणस्स अहे रुवाई आलोएमाणस्सण तस्सणं भंते ! किं इरिया बहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! संवुडस्स अणगारस्स बीइपथे ठिच्चा जाव तरसणं णो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ प्रश्न पूछते हैं. राजगृह नगरके गुणशील नायक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! आश्रवद्वार को संवरनेवाला व कषायवन्त अन[गार कषाय के उदय से मार्ग में रहा हुवा आगे के रूप का ध्यानकरता है, पीछे के रूप की वांच्छा करता {है, दोनों बाजु व उपर के रूपोंका अवलोकन करता है, उन को क्या कर्मबंध नहीं होनेवाली ईर्यापथिक (क्रिया लगती है अथवा कर्म बंध होनेवाली सांपराधिक क्रिया लगती है ? अहो गौतम ! कषायवन्त १० १४६१ दशवा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४१२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनिश्रा अमोलक ऋषिजी संवत जा. यावत् सं. मांपरायिक क्रिया क. करे गो० गौतम ज. जिस के को क्रोध मा० मान मा० * माया लो० लोभ ज जैसे म० सातवा शतक में प० पहिला उद्देशा में जा० यावत् उ० उत्सूत्र से री०३ जावे से वह ते. इसलिये जा० यावत् सं० सांपरायिक क्रिया क• करे ॥ १ ॥ सं० संवृत अ० अनगार ० संयोग रहित में ठि० रहकर पु० आगे के रू० रूप निः देखते जा० यावत् त० उस को से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ संवुडस्स जाव संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्सणं कोह माण माया लोभा एवं जहा सत्तमसए पढमुंहेसए जाव सेणं उर: त्तमेव । रीयई से तेणटेणं जाव संपराइया किरिया कजइ ॥ १ ॥ संवुडस्सणं भंते ! अण गारस्स अवीइपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाई निझायमाणस्स जाव तस्सणं भंते ! किं अनगार कषाय के उदय से मार्ग में रहे हुवे रूपको अबलोकता सांपरायिक क्रिया करता है परंतु ईर्यापथिक क्रिया नहीं करता है. अहो भगवन्! यह किम तरह है ? अहो गौतम ! जिस को क्रोध, मान, माया व लाम होते हैं उन को सांपरायिक क्रिया लगती है और जिस को क्रोधादि नहीं है उन को ईपिथिक क्रिया लगती है यावत् उत्सूत्र से चलता है इसलिये सांपरायिक क्रिया लगती है इम का विस्तार पूर्वक कथन सातवे शतक के प्रथम उद्देशे में कहा है ॥१॥ अहो भगवन् ! कषाय रहित आगेके रूप देखनेवाले यावत् ऊंचे के रूप देखनेवाले संवृत अनगार को क्या ईर्यापथिक क्रिया लगती है या सांपरायिक क्रिया लगती प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६३ शब्दार्थ भं० भगवन् किं. क्या इ० ईर्यापथिक कि० क्रिया का करे पु० पृच्छा गो. गौतम संसंवृत अ०अनगार जा. यावत् इ० ईर्यापथिक कि० क्रिया क० करे णो नहीं सां० सांपरायिक कि क्रिया मे• वह के.ols V कैसे भं० भगवन् ज० जैसे म. सातवा उद्देशा में जा. यावत् अ० यथासूत्र री चाले से वह ते० इस लिये णो नहीं सां० सांपरायिक कि० क्रिया करे ॥२॥क कितने प्रकार की भ० भगवन् जो योनि है इरियावहिया किरिया कजइ पुच्छा ?गोयमा!संवुड जाव तस्सणं इरियावाहिया किरिया है कज्जइ; णो संपराइया किरिया कज्जइ ॥ से केण?णं भंते ! जहा सत्तमसए सत्तमु ' देसए जाव सेणं अहासुत्तमेव रीयइ से तेण?ण जाव णो संपराइया किरिया कजइ १ है ? अहो गौतम ! उन को ईर्यापथिक क्रिया लगती है परंतु सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है, अहो । भगवन् ! किस कारन से ईर्यापथिक क्रिया लगती है परंतु सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ? अहो! गौतय ! इस का विस्तार पूर्वक विवेचन सातवे शतक के सातवे उद्दशे में कहा है यावत् कषाय रहित संवृत अनगार सूत्रानुसार विचरते हैं इसलिये सांपरायिक क्रिया नहीं लगती है ॥२॥ अहो भगवन् ! योनि के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! योनि के तीन भेद कहे हैं. शीत, ऊष्ण, व शीतोष्ण. 63 पहिली नरक से तीसरी नरक तक शीत योनि, चौथी पांचवी में शीत व ऊष्ण छठी सातवी में ऊष्ण, चार स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, असंही तिर्यंच पंचेन्द्रिय व असंज्ञी मनुष्य में तीनों प्रकारकी तेउकायमें ऊष्ण' *- पंचमा विवाह पण्णात (भगवती ) सत्र 4088 १४ दशा शतक का दूसरा उद्दशा 88 भावार्थ Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ/० १५० प्ररूपी गौ गौतम ति तीन प्रकार की जो योनि-पप्ररूपी सी० शीत उ ऊष्ण सी. शीतोष्ण ए... ऐस जो योनिपद नि:निरविशेष भा०कहना॥३॥क कितने प्रकार की मं० भगवन् वे०वेदना प गो० गौतम तिः तीन प्रकार की सी० शीत उ ऊष्ण सी० शीतोष्ण ए ऐसे वे०वेदना पद भा०कहना णे. ॥२॥ कइविहाणं भंते ! जोणी षण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं । जहा सीया उसिणा, सीओसिणा, एवं जोणीपदं णिरवसेसं भाणियव्वं ॥ ३ ॥ कइ विहाणं भंते वेयणा पण्णत्ता ?गोयमा! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तंजहा सीया उसिणा भावार्थ योनि और मंज्ञी मनुष्य, संज्ञी तिर्यंच व देव में शीतोष्ण योनि कही. और भी तीन प्रकार की सचित्त. अचित्त व मीश्र, नारकी देवता में अचित्त, पांव स्थावर तीन विकलेन्द्रिय असंज्ञी मनुष्य व असंज्ञी तिर्यंवमें तीनों प्रकार की संज्ञी तिर्य व व संज्ञी मनुष्य में मीश्र योनि. और भी तीन प्रकार की योनि कही. संवृता, विवृता, व संवृतश्वृिता, नरक, देव पांच स्थावर में संवृता, तीन विकलेन्द्रिय, असंज्ञो मनुष्य व तिर्यच में विवृता और संज्ञी मनुष्य व तिर्यंच में संवृतविवृता. और भी तीन प्रकार की कुमुदा, शंवा व वंसोपत्ता. कुमुदा तीकरों आदि उत्तम पुरुषों की माता को, शंखा श्री देवी को और वंशीपत्ता गर्भन को. इत्यादि योनियों का कथन सब पनवणा के नववेपद में विस्तार से कहा है ॥३॥ योनिवाले जीव वेदना पाते हैं इसलिये वेदना का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही? बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थनारकी भ. भगवन् दुः दुःख वे वेदना वे० वेदे सु० सुख वे. वेदना वेदे अ. अदुःख अ० अमुख वे० है. वेदना व० वेदे गो० गौतम दु० दुःख वे० वेदना वे० वेदे सु० मुख वे० वेदना वे. वेदे अ० अदुःख V ० असुख वे० वेदना वे० वेदे ॥ ४ ॥ मा० मास की भ० प्रतिमा ५० युक्त अ० अनगार नि० नित्य 5 सीओसिणा॥ एवं वेयणा पदं भाणियव्वं जाव णेरइयाणं भंते ! किं दुक्खं वेयणं वेदेति, सहं व वेयणं वेदेति अदुक्खमसुहं वेयणं वेदति ? गोयमा ! दुक्खंपि वेयणं वेदेति सुहंपि वेयणं वेदेति अदुक्खमसुहंपि वयणं वेदेति ॥४॥ मासियंणं भंते ! भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स भावार्थ अहो गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही. शीत, ऊष्ण व शीतोष्ण. शीत योनिवाले नेरिये के ऊप्ण म की वेदना है और ऊष्ण योनिताले को शीत की वेदना है. ऐसे ही चौवीस दंडक में जानना. और भी चार प्रकार की वेदना कही द्रव्य से पद्गल संबंधी, क्षेत्र से नरकादि क्षेत्र संबंधी, कालसे शीतोष्णादि काल संबंधी और भाव से क्रोध शोकादि संबंधी यों चारों प्रकार की वेदना होती हैं. और भी तीन प्रकारकी वेदना कही शारीरिक, मानसिक, शारीरिक व मानसिक. और भी तीन प्रकार की वेदना साता असाता दोनों के मध्य की. और भी दो प्रकार की वेदना कही. १ अभ्युगम की सो स्वय उादर कर वेदे और औपक्रमिक मो उदय आई हुइ वेदे. और भी दो प्रकार की वेदना निन्दा सो चिच से विपरीत 3 और अनिन्दा, संज्ञावन्त, संझी को दोनों, असंही को अनिन्दा. इस का कथन पनवणाजी के ३५ वे सपद में विस्तार पूर्वक कहा है. यावत् अहो भगवन् ! नरक के जीव मुख की वेदना वेदते हैं या दुःखकी ! पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती)स दशवा शतक का दूमरा उद्देशा 808 Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4वो० घोसराइ काया वाला चि. त्यजादेह एक ऐसे मा० पास की भि. भिक्षुप्रतिमा णि निर्षिशेषा भा० कहना ज० जैसे द० दशा श्रुतस्कंध में जा. यावत् अ० आराधिक भ० होवे ॥५॥भि• भिक्षु अ० अन्यतर अ० अकृत्य ठा० स्थान प० सेवनकर त० उस ठा स्थान को अ० विना आलोचकर प० । प्रतिक्रमण कर का० काल क० करे ण नहीं त० उस को आ० आराधना से वह त० उस ठा० स्थानमा को आ० आलोचकर प० प्रतिक्रमण कर का• काल क० करे अ० है त० उस को आ० आराधना भि० अणगाररस निच्चं गोसटकाए चियत्तदेहे एवं मासिया भिक्खुपडिमा णिरवसेसा भाणियव्वा जहा दसा जाव आराहिया भवइ ॥ ५ ॥ भिक्खूय अण्णयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिकंते कालं करेइ णस्थि तस्स आराहणा, सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिकते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा ॥ भिक्खू अण्णयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्सणं एवं भवइ पच्छाविणं अहं चरिम काल में भावाथे घेदना वेदते हैं ? अहो गौतम ! सुखरूप वेदना कहते हैं और दुःखरूप वेदना वेदते हैं ॥ ४ ॥ तप से वेदना का क्षय होता है इसलिये तप का कथन करत हैं. अहो भगवन् ! स्नानादि परिक्रम से वोसराई हुइ कायावाले व देश ममत्व के त्यागी माशु को क्या एक माम की भिक्ष प्रतिमा होती है ? अहो । | गौतम ! इन बारह भिक्षु प्रतिमा का आकार दशाश्रुत स्कंध म कहा वैसे कहना यावत् आज्ञा का आरा 42 अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र kagit भिक्षु अ० अन्यतर अ० अकृत्य स्थान . सेवन कर त० उस को ए. ऐसा भ. होवे । ५० पीछे अ० मैं व० चरिम का काल समय में ए. इस ठा० स्थान को आ• आलोचना करूंगा जा० १ यावत् प० प्रतिक्रमण करूंगा त उस ठा० स्थान अ० अनालोचकर ५० प्रतिक्रमण कर जा. यावत् १० ण नहीं है त उसको आ. आराधना त उनठा स्थान को आ० आलोचकर प० प्रतिक्रमण क का० काल क० करे अ० है त. उ. का आ० आराधना ॥ ६ ॥ भि० भिक्षु अ० अन्यतर अ० अकृत्य समयंसि एयस्स ठाणस्स आलोइस्सामि जाव पडिक्कमिस्सामि, सेणं तस्स ठाणस्स . अणालोइय पडिक्ते जाव णत्थि तरस आराहणा ॥ सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिकंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा ॥ ६ ॥ भिक्खूय अण्णतरं अकिच्चट्ठाणं धक होवे वहां तक कहना ॥ ५ ॥ माधु की प्रतिमा के कथन से साधु के प्रायश्चित्त का प्रश्न पूछते हैं. यदि कोई साधु आचरने योग्य नहीं ऐमा स्थान का सेवन करे और उस की आलोचना निदा किये विना काल कर जावे तो उस को उस स्थान की आराधना नहीं होती है. और आलोचना प्रतिक्रमण कर काल कर जाये तो उस को उस स्थान की आराधना होती है. अर्थात् वह आराधक होता है. किसी साधु को अकृस स्थान का सेवन करके ऐसा होवे कि अंत समय में मैं आलोचना करूंगा. परंतु आलोचना किये विना काल कर नावे तो वह आराधक नहीं होता है और आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करें । दशवा शतकका दूसरा उद्देशा ... भावार्थ Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अवसर में का० अ० आणपत्रिक स्थान प० सेवकर त० उस को ए० ऐसा भ० होवे स० श्रमणोपासक का काल के काल करके अ० अन्यतर दे० देवलोक में दे० देवपने उ० उत्पन्न भ० होत्रे किं० क्या (दे० देवको णो० नहीं ल० प्राप्त करूंगा ति० ऐसा करके उ० उस ठा० स्थान को अ० विना आलोचकर (१० प्रतिक्रमण कर का० काल करे न० नहीं है त० उस को आ० अराधना त० उस ठा०स्थान को आ आलोचकर प० प्रतिक्रमण कर का० काल करे अ० है त० उस को आ० आराधना से० वह ए० ऐसे पडिसेवित्ता तरसणं एवं भवइ जइ ताव समणोगसयावि कालमासे कालं किच्चा अण्णरे देवा देवत्ताए उबवत्तागे भवंति किं मंगपुण अणवण्णिय देवत्तणंपि णो लभिस्सामित्ति कट्टु, सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तरस आराहणा || सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कते कालं करेइ, अस्थि तस्स तो आराधक होता है. किसी साधु को अकृत्य स्थान का सेवन किये पीछे ऐसा होवे कि श्रावक भी आयुष्य पूर्ण कर देवता होते हैं तो क्या मैं इन पापों का छिपाने से आणपनिक देवता भी नहीं होलूंगा. अपितु अवश्य{मेत्र होलूंगा. इस तरह आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना कॉल कर जाये तो जिनाशा का आराधक नहीं होता है और आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो जिनांज्ञा का आराधक होता है. अहो भगवन् ! ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १४६८ Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३२ गवती) मूत्र ₹801 भ० भगवन् ॥ १ ॥२॥ 1राराजगृढ में जा० यावत् ए. ऐसा व बोले आ आत्मऋद्धिवाला भ० भगवन् दे देव च० चार 1 0 पांच दे० देव वा. वासान्तर को वीः व्यतिक्रमता प० पर ऋद्धि से हैं. हां गो० गौतम ऋद्धि मे त० तैसे जा. यावत् अ० असुर कुमार . विशेष अ० असुर कुमार वा वासांतर से० शेष ० तेते ए. ऐसे ए० इस क• क्रमसे जा० यावत् २० स्थनित कुमार ए. ऐसे वा० वाणव्यन्तर जो० आराहणा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति || दसम सयरस बिईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥२॥ रायगिहे जाव एवं वयासी आइवीएणं भंते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई वीइक्कते तेणपरं परिडीए ? हंता गोयमा ! आइवीएणं तंचव जाव एवं असुरकु मारेवि, णवरं असुरकुमारावासंतराइं, सेसं तंचेव ॥ एवं एएणं कमेणं जाव थणिय भावार्थ आप के वचन सस हैं. यह दशा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १० ॥ २ ॥ दूरे उद्देशे के अंत में देवपना कहा. आगे देव स्वरूप कहते हैं. राजगृह नगरी के गुण शील उद्यान में oes श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! आत्म ऋदिं से देवता चार पांच देवों के आवास उल्लंघकर आगे अन्य की ऋद्धि से क्या जावे ? हां गौनम ! आत्म ऋदि से देव चार पांच देवताके आवास उलंघ सके पीछे अन्य की ऋद्धि से जावे ऐसे ही । - पंचमाम विवाह पाणति दशवा शतक का तीसरा उद्देशा 9 . Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४७० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ज्यातिषा वे० वैमानिक जा० यावत् प० पर ऋद्धि में ॥ १ ॥ अ० अल्प ऋद्धिवाला भं० भगवन् दे देव* म० महर्दिक दे०देव की म०मध्य से वी०व्यतिक्रमे गो०गौतम णा नहीं इ०यह अर्थ स योग्य स.सपद्धिक कुमारेवि, एवं वाणमंतर जोइसिए वेमाणिए जाव परंपरिढीए ॥ १ ॥ अप्पिढीएणं भंते ! देवे से महिट्ठियस्स देवस्स मझं मझेणं वीईवएजा ? गोयमा ! णो इणद्वे मम॥ समिडीएणं भंते! देवे समिड्डियरस देवस्स मज्झं मझेणं वीईवएज्जा ? है णोइणटे समतु, पमत्तं पुण वीईव एज्जा । सेणं भंते ! किं विमोहित्ता पभू अविमोहित्ता पभू ? गोयमा ! विमाहित्ता पभू, णो अविमोहित्ता पभू ॥ सेतं भंते ! किं पुब्बि विमोहित्ता पच्छा वीईवएज्जा, पुद्धि वीईवएत्ता पच्छा विमोहिज्जा ? गोयमा ! पुटिव असुर कुमार यावत् स्थनित कुमार पाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना ॥ १॥ अहो भगवन् ! अल्प ऋद्धिवाला देव महर्द्धिक देव की मध्य में होकर क्या जा सकता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ - समर्थ नहीं है अर्थात् नहीं जा सकता है. अहो भगवन् ! समऋद्धिवाला देव क्या समऋद्धिवाले देव की बीच में होकर जा सकता है ! अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् नहीं जा सकता है। अवस्था में जा सकता है. अहो भगवन ! क्या वह अंधकार आदि से विमोह विभ्रम उपजाकर जा सकता है या विमोह उपजावे विना जा सकता है ? अहो गौतम ! विमोह उपजाकर जा सकता है * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 088 03:02 १४७१ पण्णसि ( भगवती ) सूत्र ० भगवन दे देव स० समद्धिक दे० देव की म० मध्य से वी० व्यतीक्रमे णो नहीं इ. यह अर्थ . स. समर्थ प० प्रमादसें-वी. व्यतिक्रपे भं भगवन् किं. क्या वि० मोह में प० समर्थ अ० विना मोह से विमोहित्ता पच्छा वीईबएन्जा, णो पुब्बि बीईवयित्ता पच्छा विमोहिज्जा ॥ २ ॥ महिट्ठीएणं भंते ! देवे अप्पिढियस्स देवस्स मज्झं मझेण वीईवएजा ? हंता बीई. वएज्जा ॥ से भंते ! किं. विमोहित्ता अविमोहित्ता पभ ? गोयमा ! विमोहित्ता पभू अविमोहित्ता पभू ॥ से भंते ! किं पुब्धि विमोहित्ता पच्छा वाईवएज्जा, पुद्धि वीईवइत्ता पच्छा विमोहेजा ? गोयमा ! पुर्दिबवा विमोहित्ता पच्छा वीईवएजा, पुविवा वीईवइत्ता पच्छा विमोहेजा ॥ ३ ॥ अप्पिट्ठीएणं भंते । असुरकुमार महिड्डियस्स परंतु विमोह उपनाये विना नहीं जा सकता है. अहो भगवन् ! देवता पहिले विमाह उपजाकर क्या जाता विमोह उपजाता है? अहो गौतम! पाहल विमोह उत्पन्न करता है और पीछे जाता है। परंतु जाकर विमोह नहीं उपजा सकता है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! महर्दिक देव अल्प ऋद्धिवाले देव की वीच में होकर क्या जा सकता है ? हां गौतम ! जा सकता है. अहो भगवन ! क्या वह विभ्रम उत्पन्न कर जा सकता है या विभ्रम उत्पन्न किये बिना सकता है? अहो गो .म. विभ्रम उत्पन्न किये बिना भी जा सकता है. यदि विभ्रम उत्पन्न कर जा सकता है तो क्या पहिले विभ्रम उत्पन्न कर प.छे जा सकता है दशधा शतक का तीसरा उद्देशा वाथे Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प.समर्थ ग० गातम वि० मोह से प० समर्थ भं० भगवन् कि क्या पु• पाहेले वि. मोह प्राप्तकर प० पीछे वी व्यतिक्रमे ५० पहिले वी० व्यतिक्रमे ५० पीछे वि० मोह प्राप्तकर गो गौतम पु. पहिले वि० मोहपामे अमुरकुमारस्स मझं मज्झेणं वाईवएज्जा ? णो इणढे समटे, एवं असुरकुमारेणवि तिणि आलावगा भाणियव्वा, जहा ओहिएणं देवेणं भाणिया, एवं जाव थणिय कुमारेणं, वाणमंतरजोइसिवेमाणिएणं एवंचव ॥ ४ ॥ अप्पिड्डीएणं भंते ! देवे भहिद्वियाए देवीए मझं मझेणं वीईवएज्जा ? जो इण? समढें ॥ समिड्डिएणं भंते ! देवे समिड्डियाए देवी मझंए मञ्झेणं एवं तहेव देवेणय देवीएय दंडओ भाणियन्यो जाव वैमाणिए आप्पिढियाण भंते ! देवी महिड्डियस्स देवस्स मज्झ मझेणं एवं एसोवि तइओ ____दंडओ भाणियव्यो, जाव महिड्डिया वेमाणिणी, अप्पिद्वियरस वेमाणियस्स मज्झं मझेणं या पाहिले जाकर पीछे विभ्रम उत्पन्न करता है ? अहो गौतम ! पहिले विभ्रम उत्पन्न कर जा सकता है। और गये पीछे भी विभ्रम उत्पन्न कर सकता है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्या अल्प ऋद्धिवाला असुर कुमार महद्धिक असुर कुमार की बीच में ना सकता है ? अहो गौतम ! जैसे समुच्चय देव के तीन आलापक कहे वैसे ही अमुर कुमार का जानना. ऐसे ही स्थनित कुमार, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! अल्प ऋद्रियाला देव महद्धिक देवी की बीच में होकर जा सकता है ? - अहो गौतम ! नहीं जा सकता है. अहो भगवन् ! समऋद्धिवाला देव समऋद्धिवाली देवी बीच में होकर * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी घालाप्रसादजी* भावार्थ + Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ०३. पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती सूत्र 40960 ११० पीछे बी० व्यतिक्रमे णो० नहीं पु० पहिले वी० व्यतिक्रमे प० पीछे वि० मोहपामे ॥ २६ ॥ आ एजा ? हंता वीईएजा ||५|| अप्पिढियाएणं भंते! देवीमहिट्टियाए देवीए मज्झं मज्झेणं वीजा ? णो इट्टे समट्टे || एवं समिड्डिया देवी समिइयाए देवीए तहेव, महिढिया देवी अपिढियाए देवीए तहे ॥ एवं एक्केके तिििण तिणि आलारगा भाणि - यव्वा, जाव महिड्डियांणं भंते ! वेमाणिणी अप्पियाए वैमाणिणीए मज्झं मज्झेणं बीईएजा ? हंता बीईवएजा ॥ तं भंते ! किं विमोहेत्ता पभू ? तहेव पुविवा वीवत्ता पच्छा विमोहेज्जा, एए चत्तारि दंडगा || ६ || आसरसणं भंते ! धावमा जा सकता है ? अहो गौतम ! जैसे देव के तीन दंडक कहे वैसे ही देव का व देवी की बीच में जाने का तीन दंडक कहना. ऐसे ही असुर कुमार यावत् स्थानित कुमार, वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! अल्प ऋद्धिवाली देवी क्या महर्द्धिक देवी की बीच में होकर जा सकती है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं ऐसे ही समऋदिवाली देवी का समऋद्धिवाली देवी की साथ जानना. महर्द्धिक देवी का अल्प ऋदिवाली देवी का ऐसे एक में तीन २ आलापक कहना यात् महद्धिक वैमानिक देवी क्या अल्प ऋद्धिवाली वैमानिक देवी की बीच में होकर जा सकती है ? हां गौतम ! जा सके. अहो भगवन् ! क्या विभ्रम उपजाकर जा सकती है या विभ्रम उपजाये विना जा सकती है। ++ दशवा शतकका तीसरा उद्देशा १४७३ Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ १०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अश्व मं० भगवन् घा० दौड़ता किं० कैसे खुद खुखु क० करे गो० गौतम आ० अश्व घा० दौडता हि० ? ( हृदय ज० उदर की अं अंतर में क० कर्कट वा वायु म० उत्पन्न होवे जे० जिस से आ० अश्व धा० ( दौडता खु० खुखु कः करे ॥ ७ ॥ अ० अथ मं० भगवन् आ० आश्रय लेंगे स० सोवेंगे चिः खडे रहेंगे। नि० बैठेंगे तु० आराम करेंगे आ० आमंत्रणा आ० आज्ञापनी जा० याचनी पु० पुछनी प० प्रज्ञापनी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * स किं खक्खुत्ति करेइ ? गोयमा ! आसरसणं धावमाणस्स हिययस्सय जगयस्सय अंतरा एत्थ कक्कड नाम वाए समुच्छिए जेणं आसस्स धात्रमाणस्स खुखुत्ति करे इ ॥ ७ ॥ अह मंते ! आसइस्सामो, सहस्सामो, चिट्ठिस्लामो निसीइस्लामो तुयहिसामो, " आमंतिणि आणवणी, जायणी तह पुच्छणीय, पण्णवणी पच्चक्खाणी भासा (ऐसे चार दंडक कहना ॥ ६ ॥ गति के प्रसंग से अश्व की गति का कथन करते हैं. अहो भगवन् शीघ्र दौडते दुबे अश्व के पेट में 'खुखु ' ऐसा शब्द क्यों होता है ? अहो गौतम ! जब अश्व दौडता है तब उस हृदय व वाम कुक्षि इन दोनों की बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होता है जिस से खु खु शब्द होता है। ३ ॥ ५ ॥ शब्द के अनुसार से भाषा का प्रश्न पूछते हैं. अहो भगवन् ! कोई कहे कि आश्रय ग्रहण योग्य | वस्तु का हम आश्रय ग्रहण करेंगे, शयन करेंगे, खडे करेंगे, बैठेंगे व रहेंगे ओर भी १ आमंत्रण करने को भाषा जैसे भो देवदत्त ! २ किसी कार्य में अन्य को प्रेरणा करना कि यह कार्य करा सो आज्ञापनी १.४७४ Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4483 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सत्र भा० भाषा इ० इच्छानुकूल अ० अनभिगृहित मा० भाषा अ० अभिगृहित बो० जानना सं० संशयकारी यो० संस्कारी अः असंस्कारी प० प्रज्ञापिनी एवं यह भा० भाषा न नहीं ए० यह भा० भाषा मो० मृषा ० हां गो० गौतम आ० आश्रय लेंगे तं तैसे जा० यावत् न० नहीं ए० यह भा० भाषा मो० मृषा वह ए० ऐसे भं० भगवन् ॥ १० ॥ ३ ॥ भासा इच्छालोमाय ॥ १ ॥ अणभिग्गहियाभासा, भासाय अभिग्गहमि बोधव्वा ॥ संसकरणी भासा वोयडमव्वोयडाचेव ॥ २ ॥ " पण्णत्रणीणं एसा भासा न एसामोसा ? हंता गोयमा ! आसइस्लामो तं चैव जाव न एसा भासा मोसा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति | दसम सयस्स तईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ ३ ॥ * ० ० १३ याचना करने की भाषा सो याचनी ४ किसी को पूछना सो पृछनी ५ किसी वस्तु का समझाना सो { प्रज्ञापिनी ६ प्रत्याख्यान करवाना सो प्रसाख्यायिनी ७ बोलनेवाले की इच्छानुसार बोलना ८ जिस का अर्थ समझ में नहीं आवे वैसा बोलना डित्थडवित्थवत् ९ समझ में आवे वैसा बोलना घटादिवत् १० जो शब्द बोलने से अनेक अर्थ होवे वैसी भाषा बोलना ११ प्रगट भाषा लोक प्रसिद्ध १२ गंभीर भाषा वगैरह ) १८ प्रकारको भाषा भाषा नहीं होती है ? अहो गौतम ! उक्त अठारह प्रकारकी भाषा मृषा भाषा हीं होती अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह दशवा शतक का तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा।।। १०१ शां 4- दशवा शतकका तीसरा उद्देशा १४७५ Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 40 अनुवादक - बालब्रहचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी ० उस काल ते उस समय में वा वाणिज्य न० नगर हो० था व० वर्णन युक्त दू० दूतिपलाश, चे० चैत्य सा० स्वामी स० पधारे जा० यावत् प० परिषदा प० पीछी गइ ते० उस काल ते० उस समय में मं० भगवंत म० महावीर का जे० ज्येष्ठ अं० अंतेवासी ई० इन्द्रभूति अ० अनगार जा० यावत् उ० ऊर्ध्व [जा० जानु वि० त्रिचरते हैं ॥ ९ ॥ ते० उस काल ते ० उस समय में सः श्रमण भ० भगवन्त म० महा तेणं कालणं तेणं समएणं वाणिषगामे णामं णयेर होत्या, वण्णओ ॥ दूइपलासए चेइए सामी समोसड्डे, जाव परिसा पडिगया || तेणं काळेणं तेणं समएणं समणस्स भग वओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी, इंदभूई णामं अणगारे जाब उड्डुं जाणू जाव विहरइ ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी तीसरे उद्देशे में देवता की वक्तव्यता कही. इस चौथं उद्देशे में भी इस का स्वरूप कहते हैं. उस काल उस समय में वाणिज्य नामक नगर था उम्र की ईशान कौन में दूतिपलाश नामक उद्यान था. वह भी (वर्णन योग्य था. वहां श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे परिषदा वंदने का आइ. धर्मोपदेश { सुनकर पीछी गई. उत काळ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्र{भूति नामक अनगार यावत् ऊर्ध्व जानू व अधोशिर से धर्मध्यान करते हुवे विचरते थे || १ | उस काल ! * प्रकाशक : राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १४१६ Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४99 शब्दार्थ | १०वीर का अं० अंतेवासी मा. श्यामहस्ती अ० अनगार प० प्रकृति भ० भद्रिक ज० जैसे रो रोहा ना० यावत् उ० अर्ध जा० जानु वि० विचरना है ॥ २ ॥ त० तब से वह सा० श्याम हस्ती अ० अनगार) 0 जा जान स० श्रद्धा जा. यावत् उ० उत्थानसे उ० उठकर जे. जहां भ० भगवन्त गो० गौतम ते तहां उ० आकर भ० भगवन्त गो० गौतम को ति० तीन वक्त ना० यावत् प० पूजते एक ऐसा व० बोले 33 अ. है भं० भगवन् च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असरकुमार ता० त्रायस्त्रिंशक देव ए ऐमे सा. श्याम से णामं अणगारे पगइभदए जहा रोहे जाव उर्दु जाणू जाव विहरइ ॥ २ ॥ तएणं से सामहत्थी अणगारे जायसड्डे जाव उट्टाए उट्टेइत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ २ ता, भगवं गोयमं तिक्खस्तो जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी आथिणं भंते ! चमरस्स असुरिंदरस असुर कुमाररण्णो ताय त्तीसगा देवा ? हंता आथि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चमरस्स असुरिंभावार्थ उस समय में महावीर स्वामीके अंतेवामी प्रकृति भद्रिक प्रकृति दिनीत यावत् रोहा जैसे सब अधिकार}gg अनुसार श्यामहस्ती नामक अनगार ऊर्ध्न जानु व अधो शिरसे धर्म ध्यान करते हुने विचरते थे ॥२॥ उस | समय में श्यामहस्ती अनगार को प्रश्न पुछने की श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् अपने स्थानसे उपस्थित हुए और गौतम स्वामीकी पाम आये. आकर भगवान गौतपको तीन आदान प्रदक्षिणा देकर ऐसा प्रश्न कियाकि अहो । हर पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र १ दशा शतक का चौथा उद्देशा gin Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + हस्ती ते० उस काल ते. उस समय इ. इस जेजंबूद्वीप भा० भरत क्षेत्र में का० काकन्दी गः नगर हो थी व. वर्णन युक्त त• तहां का० काकन्दी न० नगरी ता० तेतीस स. सहायक गा० गाथापति म० श्रमणोपासक प० रहते हैं अ० ऋद्धिवन्त जा. यावत् अ. अपरिभूत अ० जाने जी जीवामीव उ०१ उपलब्ध पु. पुन्यपाप व० वर्णन युक्त जा० यारत् वि. विचरते हैं ॥२॥त. तब ते वे ता० तेनीस स० दस्स असुररणो तायत्तीसगादेवा? ॥ एवं खल सामहत्थी तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे दीवे भारहे वासे कायंदी णाम णयरी होत्था वण्णओ तत्थणंकायंदीए .. नयरीए तायत्तसिं सहाया गाहावई. समोवासगा परिवसंति, अट्ठा जाव अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा उबलद्धपुण्णपावा वण्णओ जाव विहरंति ॥२॥ तएणं ते तयातीसं भावार्थ भगवन्! चमर नामक अमुरेन्द्र असुर राजाको कया त्रायत्रिंशक देव हैं! हां प्रायत्रिंशक देव हैं. अहो भगवन् ! किस , कारनले ऐना कहागया है, अहो श्यामहस्तिन् ! उस काल उस समय इस जम्बूद्रपिक भरतक्षेत्र में काकैदी नामक नगरी थी. उस काकंदी नामक नगरीमें तेतीस महायके करने वाले कुटुम्बके नायक श्रमणोपामक रहते थे. वे महाऋद्धिांत यावत् अपरिभूत थे. जीया जीवादि नवतत्व जाकार थे, और पुण्यपापका स्वरूपको पहिचानने वाले यावतू विचरतेथे ॥ २ ॥ अब वे तेतीस त्रायधिशक सहायकारी गाथापति 12 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी चालाप्रसादजी * Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 १४७९ शब्दार्थ सहायक गा० गाथापति म श्रमणोपासक पु. पहिले उ० उग्र उ० उग्रविहारी सं ० संविग्न सं० संविन विहारी भ० होकर न० पीछे पा० पार्श्वस्थ था पार्थस्थ विहारी ओशिथिल आ शिथिलाचारी कु• कुशील कु० ॥ ४. कुशीलाचारी अ० स्वच्छंदी अ० स्वच्छंदाचारी ब० बहुत वा० वर्ष स० श्रमणोपासक प० पर्याय पा• पालकर। स. उस म० स्थानको अ० विनाआलोचकर प० प्रतिक्ररणकर का० कालके अवसर में का० कालकरकेच सहाया गाहावई समणोवासगा पुदि उग्गा उग्गविहारी, संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता, तओ पच्छा पासत्था पासत्थविहारी, ओसण्णा ओखण्णविहारी, कुसीला, कुसील विहारी, अहाच्छंदा अहाच्छंदविहारी, बहूई वासाई समणीवासग परियागं पारणंति २ त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसंति २ ता तीसं भत्ताईअणसणाए छेदेति २ त्ता, तस्सठाणस्स अणालोइय पडिकंता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो भावार्थ श्रावक पहिले उग्र, उग्र विहारी, संविम, प्रविन विहारी हो पीछे पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ विहारी,प्रमादी प्रमाद विहारी, कुशील, कुशील बिहारी सच्छंदी स.च्छंदा । ब और बहुत वर्ष श्रणो सक पर्याय पालकर 150 पारह दिनकी संलेखनासे आत्माको झू कर तीस भक्त अनशनका छ किया. इतना अनशन किये पीछे की उस स्थानकी आलोचना निंदा किये बिना कारके उसमें कालकर के अमर नामक असुरेन्द्रक त्राय-31 मांगविवाह पण्णचि (भगवती)-सूत्र दशना शतकका चाचा उद्देशा Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Fó सू भावार्थ 2 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी चमर अ असुरेन्द्र अ० असुरराजा के ताः प्रायखिंदक दे० देवपने उ उत्पन्न हुवे || ३ || मं भगवन् का० काकँदक ता० तेत्तीस सर सहायक स० श्रमणोपासक च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुर राजा के ता० प्रायशिकपने उ० उत्पन्न हुवे व तहां भ० भगवन् गो० गौतम सा० श्यामहस्ती अ अनगारने ए० ऐसा वुः बोलते स० शंकित कं० कांक्षित वि० वितिगिच्छावाला २० स्थानसे उ० उठकर (सा० श्यामहस्ती अ० अनगार स० साथ जे० जहां स० भ्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तहां उ० तायत सगा देवताए उबवण्णा ॥ ३ ॥ जप्पभिचणं भंते ! कायदगा तायत्तीसं सहाया समणोवासगा चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो तायत्तीसगदेवत्ताए उबवण्णा; तप्पभिइंचणं भंते ! एवं वुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णी तायत्ती लगादेवा २ ? तत्थणं भगवं गोयमे सामहात्थणा अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे संकिए कखिए विति उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठेहता सामहरिथणा अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे (त्रिंशक देवतापने उत्पन्न हुए || ३ || अहो भगवन् ! जबसे वे तेत्तीस श्रावकों चमर नामक असुरेन्द्र के त्रायत्रिशक पने उत्पन्न हुए उमदिन से वे चमरेन्द्र के त्रयत्रिंशक कहान है. फीर श्याम हस्तीने पूछा कि क्या पहिले त्रयत्रिंशक नहीं थे ? ऐसा पुछने पर गौतम स्वामी को शंका कांक्षा व विचिकित्सा उत्पन्न हुई और अपने स्थानके उठकर श्यामहस्ती आचार्य की साथ श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पासगये और महावीर * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजार्लज्वाप्रसवदज १.४८० Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ( आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वं० वंदन ण० नमस्कारकर ए० ऐसा व० बोले अ० ० भगवन् च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजाके ता० त्रायास्त्रिंशक देव हं हां अ० है से वह के० कैसे मं० भगवन् ए० ऐसा बु० कहा जाता है ए० एतेही स० सर्व भाव कहना जा० यावत् ए ऐसा बु० कहाता है च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजाके ता० त्रयस्त्रिंशक दे० देव णो० नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ ए० ऐने गो० गौतम च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरकुमारराजाके ता० त्रायत्रिंशक देव भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ ता समण भगवं महावीर वंदइ णमंसइ २ ता एवं वयासी अत्थिणं भंते ! चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो तायत्तिसगा देवा ? हंता अस्थि से केrणं भंते ! एवं बुच्चइ एवं तंचैव सव्व भाणियव्वं जाव तप्पभिइंचणं एवं बुच्चइ ॥ चमरस्स असुरिंदरस असुररण्णो तायत्तीसगा देवा ? णो इण्ट्ठे समट्ठे, एवं खलु गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदरस असुर कुमाररण्णो तायत्तीसगाणं स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र को क्या त्रायविंशक हैं ? गौतम' वगैरह सब पूर्वोक्त यावत् उसदिन से त्रायत्रिंशक कराते हैं ! अहो भगवन् ! चमरेन्द्र को क्या पहिले कि देव नहीं थे ? असे गौतम! यह अयोग्य नहीं है क्योंकी चमरेन्द्र के नाम शाश्वत कह 4- दशवां शतकका चौथा उद्देशा १४८१ Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४८२ 4. अनुबादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपीजी.. के सा० शाश्वतनाम ५० प्ररूपे न० नहीं क. कदापि ना० नहीं थे न० नहीं कदापि न० नहीं है जा० यावत् णि नित्य अ० अविछिन्न अ० अन्य च० चवत हैं अ० अन्य उ० उपजते हैं ॥ ४ ॥ सरल शब्दार्थ देवाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते, जं नकदायि नासी नकदायि न भवइ जाव णिच्चे अव्वोच्छित्ति णयट्टयाए अण्णे चयंति अण्ण उववजति ॥ ४ ॥ आत्थिणं भंते ! बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो तायत्तीसगा देवा ? हंता आत्थि से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ बलिस्स बरोयणिंदस्स जाव तायत्तीसगा देवा? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहेवासे विभेलेणामे सण्णिवेसे होत्था वण्णओ तत्थणं विभेले साणिवेसे जहा चमरस्स जाव उववण्णा ॥ तप्पभिइचणं भंते ! ते विभेलंगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा बलिस्स वइरोयाणदस्स सेसं हुवे हैं. जो पहिले कदापि नहीं थे पैसा नहीं, ह है वैमा नहीं, वैसेही नहीं होगा वैसा नहीं यावत् नित्य अविच्छिन्न हैं प्रथम के चवते हैं व दूसरे उत्पन्न होते हैं ? ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! बलिनामक वैरोचनेन्द्र को क्या वात्रिंशक हैं? अहो गीतम! उत्त काल उस समय में इस अनूद्वीप के भरतक्षेत्रमें विभेल नामक मभिवेश था. बहुत वर्णन योग्य था जैसे चमरेन्द्रक त्रायत्रिशक का अधिकार कहा वैसेही उस विभेलमें आधिकार कहना. उस विभेल सन्निवेश के तेतीस त्रायशिक गाथापति श्रमणापामा उलिनामक वैरोचनेन्द्रके त्रायत्रिंशकपने उत्पन्न हुवे यावत् नित्य व पहिले के चलते हैं तब उनक स्थान दुसार उत्पन्न होते हैं वहां तक *काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १४८३ (भगवती) सूत्र angr> पंचमांग बिवाह पण्णत्ति तंचव, जाब णिच्चे अव्वोच्छिष्णिणयट्टयाए अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति ॥ ५ ॥ अत्थिणं भंते ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो तायत्तीसगा देवा ? हंता आथि ॥ से केणटेणं जाव तायत्तीसगा देवा ? गोयमा ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो तायत्तीसगाणं सासए नामधेजे पण्णत्ते, जं नकदायि नासी जाव अण्णे चयंति अण्णे उववज्जति ॥ एवं भूयाणंदस्सवि, एवं जाव महाघो. सस्सवि ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते ! सक्कस्स दविंदस्स देवरण्णो पुच्छा ? हंता आत्थि ॥ से केणटेणं भंते ! जाव तायत्तीसगा देवा ? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं सब कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! क्या धरणेन्द्रको त्रायत्रिंशक हैं ? हां गौतम ! धरणेन्द्रको प्रायत्रिंशक देव 4 रहते हैं. अहो भगवन् ! यह किस कारनसे कहते हो ? अहो गौतम! धरणेन्द्र के वात्रिंशक के नाम शाश्वत हैं. पहिले नहीं थे बैसा नहीं, नहीं है वैसा नहीं, नहीं होगा वैसा नहीं यावत् पहिले के चरते हैं और नये उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही भूतानेन्द्र यावत् महाघोष के जानना ॥६॥ अहो भगवन् ! शकेन्द्रको क्या वायत्रंशक हैं? हाँ गौतम! है. अहो गवन् ! किस कारनसे ऐसा कहा गया है? अहो गौतम! उम काल उस समयमें इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें वालाक नामक सभिवेशं था. उसमें तेत्तीस गायापति श्रमणोषा १-दशा शतक का चौथा उद्दशा 4.28 भावार्थ mainnn Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८४ अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + समएणं इहेव जंबूद्दीवे दी। भारहे वासे वालाए णामं सण्णिवेसे होत्था वण्णा ॥ तत्थणं वालाए सण्णिवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा जहा चमरस्स जाव विहरंति ॥ तएणं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा पुबिपि पच्छावि उग्गा उग्गविहारी, संविग्गा, संविग्गविहारी, बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति २त्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेतिर ता, आलोइय पडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववण्णा ॥ ७ ॥ जप्पभिइंचणं भंते! ते वालाए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाब अण्णे उववज्जति ॥ ८ ॥ अत्थिणं भंते ! ईसाणस्स ३ एवं जहा भक चमरेन्द्र के समान अधिकार वाले विचरते थे, वे तेत्तीस गाथपति श्रवणोपासक पहिले उग्र, उग्र विहारी संविग्न, संविन विहारी बनकर बहुत वर्ष पर्यंत श्रमणोपासकपना पाले बाद एक मास संलेषणा से [ को झोंस कर साठ भक्त अनशन छेद कर आलोचन प्रतिक्रमण करके काल के अवसर में काल करके शक्रेन्द्र देव के त्रायत्रिंशकपने उत्पन्न हुवे ॥ ७ ॥ जिस दिन से उस बालाक सनिवेश के गाथापति श्रमणोपासक यावत् पहिले के चवते हैं अन्य उत्पन्न होते हैं ॥ ८॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र के वाय * प्रकाशक राजीबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 शब्दाथ ते. उसकाल ते. उससमयमें रा• राजगृह १० नगरमें गु० गुणशील चे० उद्यान में जा. यावत् ५० परिषदा ५० पीछीगई ते. उसकाल ते• उससमय में स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर के ३० बहुत सकस्स णवरं चंपाए णयरीए जाव उववण्णा जप्पभिई चणं भंते ! ते चंपिच्चा तायत्तीसं सहाया सेसं तंचेव जाव अण्ण उववजंति ॥ ९ ॥ आत्थणं भंते ! सणंकुमारस्स देविंदस्स देवरण्णो पुच्छा ? हंता आधि ॥ से केण?णं जहा धरणस्स तहेव ॥ एवं जाव पाणयस्स ॥ एवं अच्चुयस्स जाव अण्णे उववजति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ o दसमसयस्स चउत्थओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ ४ ॥ *" तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं णयरे गुणसिलए चेइए जाव परिसापडिगया भावार्थ त्रिंशक क्या है ? अहो गौतम ! जैसे शक्रेन्द्र का कहा वैने ही. ईशानेन्द्र का जानना. मात्र इस में चंपा नगरी का अधिकार लेना. यावत् पहिले चवते हैं और अन्य उत्पन्न होते हैं ॥ ९ ॥ सनत्कुमार देवेन्द्र की पृच्छा. इस का अधिकार धरणेन्द्र जैसे कहना. ऐने ही यावत् माणत व अच्युत तक कहना. अहो भगवन् ! . आप के वचन सत्य हैं. यह दशवा शतक का चतुर्थ उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १० ॥ ४ ॥ . 80 चौथे उद्देशे में देव की वक्तव्यता कही अब पांचवे उद्देशे में देवियों का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! of राजगृही नंगरी के गुणशील नामक उछान में श्रमणः भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन करने को । ङ्ग विवाहे. पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र 480 80 दशवा शतक का पांचवा रद्दशा 0880 maanwrraman Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ० अंतेवामी थे० स्थविर भ० भगवन्त ना. नाति सं० संपन्न ज. जैसे अ० आठवाशतक में म०१ : सातवा उ० उद्दशे में जा. यावत् वि० विचरते हैं ॥१॥त. तब से वे थे० स्थविर भ० भगवन्त जा. उत्पन्न हुइ स० श्रद्धा जा० उत्पन्न हुवा संशय ज. जैसे गो० गौतमस्वामी जा. यावत् प० पूजते ए० ऐसे व० बोल च० चमर ० भगवन् अ० असुरेन्द्र अं. असुरराजाको क. कितनी अ. अमहिषी १० प्ररुपी अ० आर्य पं० पांच अ० अग्रमहिषी प० प्ररूपी का० काली रा० रात्रि २० रजनी वि. विद्युत् तेणं कालेणं तेणं समएणं समणरस भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइ संपण्णा जहा अटुमे सए सत्तमुद्देसए जाब विहरति ॥ १ ॥ . तएणं से थेरा भगवंतो जाय सढा जाय संसया जहा गोयमसामी जाव पज्जुवा समाणा एवं वयासी-चमरस्सणं भंते ! अमुरिंदरस असुरकुमाररण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अजो ! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-काली, रायी, आई, धर्मोपदेश सुनकर पीछी गई. उस काल उस समय में श्रमण भगवंत की पास रहनेवाले बहुन स्थविर भगवंत जाति संपन्न कुल संपन्न वगैरह आठवे शतक के सातवे उद्देशे में स्थविरों के गुणों का कथन है कहा वैसे गुणों के धारक यावत् तप संयम से आत्मा को भावत हुवे विचरते थे ॥ १॥ उन स्थविर भगवंतों को श्रद्धा यावत् संशय उत्पन्न हवा. इस से श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायनी चाराप्रसादजी, भावार्थ Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४८७ शब्दार्थ मे० मेधा त० तहां ए०एकेक दे देवीको अ० आठ आठ दे० देवीमहल प० परीवार प० प्ररूपा प० समर्थ । ता० उन ए० एफेंक दे देवीकी अ० अन्य अ० आठ दे० देवीमहल प० परिवार को विः विकुर्वणाकर नको ए ऐ ही स० पूर्वापरसे च० चाली सः सहस्र तु० त्रुटित ॥ २॥ १० समर्थ भं• भगवन् । च० घमर अ० असुरेन्द्र अ० असुरराजा च० चमरचंचा रा० राजधानी स. सभा सु० मुधर्मा च० चमर ३० सिं० सिंहासनपे तु. त्रुटिन स• साथ दि० दीव्य भी० भोगोपभोग भा० भोगता वि० विचरने को रयणी, विजू मेहा । तत्थणं एग मेगाए देवीए अट्ठा देवि सहस्स परिवारो पण्णत्तो ॥ पभू णं ताओ एगमेगाए देवीए अण्णाइं अट्ठ देवी सहस्साइं परियार विउवित्तए एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवी सहस्सा, सेत्तं तुडिए ॥ २ ॥ पभूणं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि तुडिएणं साहि दिव्याई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? भावार्थ कर पर्युपासना करते हुवे ऐसा बोल कि हो भगवन् ! चयर नामक असुरेन्द्र असुरराजा को कितनी अंग्रमहिषीयों कहीं ? अहो आर्यों ! चमरेन्द्र को पांच अग्रमहिषियों कहीं. १ काली २ रात्रि ३ रजनी 3 १४ विद्युत् व ५ मेघा. उन में एक २ अग्रमहिषियों को आठ २ हजार देवियों का परिवार हैं और एक १२ देवी आठ २ हजार रूप भोग भोगने के लिये बैक्रेय करने को समर्थ हैं. इसी तरह चालीस हजार 4880 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र.89803 vrrrramananAmaranawrwwwwwwwwwwwwwwwww दशा शतकका पांचवा उद्देशा Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४८८ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी पाने श्रा अमोलक ऋपिनी जो नहीं इ० यहअर्थ स० योग्य से वह के० कैसे भ० भगवन् ए. ऐसा बु· कहा जाता है जो * नहीं प० समर्थ च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० अमुरराजा च० चमरचेचा रा. राजधानी जा. यावत् । वि० विचरनेको अ• आर्य च • चपर अ० अमुरेन्द्र अ० असुरराजा च० चमरचंचा रा० राजधांनी समभा स सधर्मा में मा०माणवक चे० चैत्य खसंभ कवनय गोगोला व वर्तलाकार ब० बहत जि. णो इणटे समढे ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ णो पभू चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए ? अजो चमरस्सणं असुरिंदस्स असुर १ कुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चइए खंभे वइरामए गोलवट समुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति ॥... ॥ जाओणं परिवारवाली देवियों आठ २ हजार रूप वैक्रेय कर सकते हैं. इन सब की एक त्रुटित नामक संख्या होती है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! चमर अपुरेन्द्र चमर चंचा राज्यधानी की सुधर्मा सभा में चमर सिंहासनपे त्रुटित वर्गवाली देवियों की साथ दीव्य भोग भोगता दुवा विचरने को क्या समर्थ है ? अहो आर्यों !! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है ? अहो आर्यों ! चमरेन्द्र की चमर चंचा गज्यधानी की सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यमें वज्ररत्नमय मणिस्थंभ में मोल वर्तुलाकार डब्बे में जिन दाढों प्रमुख रस्त्री हैं. वे असुरकुमार राजा को व उस के अन्य बहुत देवी देवताओं को अर्चनीय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * 1 Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४८९ 48 पंचमान विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4088 +जिनके अस्थि स० निक्षिप्त चि० हैं जा. जो च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० असुर राजा के अः अन्य के ब० बहुत अ. असुरकुमार दे० देव के दे० देवी के अ० अर्चनेयोग्य 40 वांदने योग्य ण. नमस्कार करने योग्य पू० पूजने योग्य स० सत्कार करने योग्य स० सन्मान करने योग्य क. कल्याणकारी मं० मंगलकारी चे. ज्ञानवंत १० पूजने योग्य भ० हैं ते. उनके प० प्रणिधान में णो० नहीं ५० समर्थ से वह ते इसलिये अ० आर्य ए. ऐसा बु० कहा जाता है णो० नहीं प० समर्थ च० चमर अ० असुरेन्द्र अ० चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अण्णेसिंच बहूर्ण असुरकुमाराणं देवाणय देवीणय अच्चणिजाओ वंदणिज्जाओ णमंसाणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ भवति ॥ तेसिं पणिहाणे णो पभू से तेणटेणं अजो ! एवं वुच्चइ णो पभू चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए जाब विहरित्तए ॥ पभूणं अज्जो चमरे अमुरिंदे असुरराया । वंदनीय, पूजनीय, नमस्कार योग्य, सत्कर्म योग्य, सन्मान योग्य, कल्याणकारी मंगलकारी देव समान आत्मा समान व पर्युपासनीय होते हैं. उनको मनमें श्रेष्ट जानने से अहो आर्यो ! चमरेन्द्र चमरचंचा ७ राज्यधानी में सुधर्मा सभा में चमर नामक सिंहासन पर त्रुटित संख्याषाली देवियों की साथ भोग भोगने को समर्थ नहीं है परंतु चमरेन्द्र चमरचंचा राज्यधानी की सुधर्मा सभामें चमर सिंहासन पर आरूढ होकर' दशा शतक का पांचवा उद्देशा भावार्थ Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी असुर राजा च० चमर चंचा रा०राजधानीकी स० सभा सु० सुधर्मा च० चमर सी० सिंहासन में च० चौसठ (सा० सामानिक बा० सहस्र ता० त्रायस्त्रिशक अ० अन्य ब० बहुत अ० असुरकुमार देव देव दे० देवी से [सं० घेराये हुवे जा० यावत् भुं० भोगवते वि० विचरने को के० केवल प० परिचारणा करने को णो० { नहीं मे० मैथुन सेवनेको || ३ || सरल शब्दार्थ ॥ * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठी सामाणिय साहस्सीहिं तायतीसाए जाव अण्णोर्हच बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिय देवीहिय सद्धिं संपरिवुडे महयाहय जाव भुंजमाणे विहरितए || केवलं परियांरिडीए णो चेवणं मेहुणवन्ति ॥ ३ ॥ चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुर कुमाररण्णो सोमस् महारण कई अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ चौसठ हजार सामानिक देव, तेतीस त्रायात्रिंशक, यावत् अन्य बहुत असुर कुमार के देव व देवियों की साथ {परवराहुवा उस अनेक प्रकार के वादिचों के महा नाद से अनेक प्रकार के नाटक देखता हुवा विचरने को {समर्थ है. मात्र स्त्री के स्पर्श व शब्द रूप परिचारणा में समर्थ हैं परंतु मैथुन सेवन में समर्थ नहीं है ॥३॥ अहो ( भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र के सोम महाराजा को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! चार अग्रमहिषियों कहीं. १ कनका, २ कनकलता, ३ चित्रगुप्ता व ४ वसुंधरा उन में एक२. देवी को एक२ हजार १४९० Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 488 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 188 तंजहा • कणया, कणगलया, चित्तगुत्ता, वसुंधरा, तत्थणं एगमेगाए देवीए एगमेगं देविसहस्सं परिवारो पण्णत्तो ॥ पभूणं ताओ एगमेगादेवी अण्णं एगमेगं देवि । सहस्स परियारं विउवित्तए, एवामेव सपुत्वावरणं चत्तारि देविसहस्सा, सेतं तुडिए॥ पभूणं भंते ! चमरस्स अमरिंदस्स असुर कुमाररण्णो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्भाए सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं अवसेसं जहा चमरस्स, णवरं परियारो जहा सूरियाभस्स ; सेसं तंचेव जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं चमरस्टणं भंते ! जाव रण्णो यमस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ एवं चेव ॥ णवरं है जमाए रायहाणीए सेसं जहा सोमस्स, एवं वरुणस्सवि, णवरं वरुणाए रायहाणीए का परिवार है और एक २ देवी एक हजार रूप वैक्रय कर सकती है इस तरह सब की गिन्ती करते त्रुटित संख्या होती है. अहो भगवन् ! सोम महाराजा सोमा राज्यधानी में सुधर्मा सभा में सोम सिंहासन पर बूटित रूप भोग भोगवने के लिये क्या करने को समर्थ है? अहो आर्यो! जैसे चमरेन्द्र का कहा। वैसे ही यहां जानना. विशेष में परिवार रायप्रसेणी सूत्र में सूर्याभ देवता का जैसा अधिकार है वैसा जानना. यावत् मैथुन सेवन करने को समर्थ नहीं है. ऐसे ही यम, वरुण व वैश्रमण का जानना. परंतु 3 दशवा शतक का पांचवा उद्देशा 988 भावाथे Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं वेसमणस्स वि, नवरं वेसमणाए रायहाणीए सेसं तं चेत्र जात्र मेहुणवत्तियं ॥ ४ ॥ बलिस्सणं भंते ! वइरोयदिस्स पुच्छा, अज्जो पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ तंजहा - सुभा, णिसुंभा, रंभा, निरंभा, मदणा ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ सेसं जहा चमरस्स; णवरं बलिचंचाए रायहाणीए परिवारो जहा मोयोद्देसए, सेसं तंचेव जाव मेहुणवत्तियं ॥ ५ ॥ बलिस्सणं भंते ! वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ प० तंजहा- मीणगा, सुभद्दा, विज्जुया, {इन में यम, वरुण व वैश्रमण राज्यधानी कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन ! बली नामक वैरोचनेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! बली नामक वैरोचनेन्द्र को पांच अग्रमहिषियों कही जिन के नाम. शुभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा व मदना. इन में एक २ को आठ २ हजार देवियों का परिवार, आठ २ {हजार वैक्रय करे वगैरह चमरेन्द्र जैसे कहना. यहां बलि चंचा राज्यधानी की सुधर्मा सभा में बलि चंचा सिंहासन कहना. परिवार जैसे तीसरे शतक में मोया उद्देशे में कहा वैसे कहना. यावत् भोग भोगवने को समर्थ नहीं है ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! बलि नामक वैरोचनेन्द्र के सोम महाराजा को कितनी अग्रमहिषियों कडी ? अहो आर्यो ! बली नामक वैरोचनेन्द्र के सोम महाराजा को चार अग्रमहिषियों कहीं. जिन के [नाम. मेनका, सुभद्रा, विद्युत् और असनी. इन का सब अधिकार चमरेन्द्र के लोकपाल जैसे कहना और * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १४९२ Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१६ 19448 . पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र * असणी ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए सेसं जहा चमरस्स ॥ एवं जाव वेसमणस्स ॥ ६ ॥ धरणस्सणं भंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो कइ अग्गमहिसीओ प० अजो ! छ प० तंजहा-अला, सक्का, सतेरा, सोदामिणी, इंदा, घणविज्जुया !॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए छ छ देविसहस्सा परिवारो पण्णत्तो ॥ पभूणं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई छछ देविसहस्साई परियारं विउवित्तए एवामेव सपुवा वरेणं छत्तीसं देविसहस्साइं से तं तुडिए ॥ पभूणं भंते ! धरणे सेसं तंचेव ॥ णवरं धरणाए रायहाणीए धरणंसि सीहासणंसि सओ परिवारो सेसं तंचेर ॥ ७ ॥ धरणजैसे सोमका कहा वैसे ही शेष तीन लोकपालों का कहना ॥६॥ अहो भगवन् ! धरण नामक नाग कुमारेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! छ अग्रमहिपियों कही हैं. १ अला, २ शक्रा, ३ शतेरा, ४ सौदामिनी, ५ इन्द्रा, और ६ घन विद्युता. उन में से एक २ देवी को छ २ हजार का बार है. और एक देवी छ २ हजार वैकेय करती है. इस तरह सब मंख्या एक त्रुटित होती है. अहो भगवन् ! धरणेन्द्र धरणा राज्यधानी की मुधर्मा सभा में धरण सिंहासन पर बैठे हुवे क्या त्रुटित संख्यावाली देवियों साथ वैक्रेय रूप करने को समर्थ हैं ? अहो आर्यों ! जैसे चमरेन्द्र कहा वैसे ही यहां जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! धरणेन्द्र के कालवाल लोकपाल को कितनी अग्रमहिषियों कहीं 420403 दशवा. शतकका पांचवा उद्देशा 9888 भावार्थ । Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९४ 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh स्सणं भंते! णागकुमारिंदस्स कालवालस्स लोगवालस्स महारण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-असोगा, विमला, सुप्षभा, सुदंसणा, ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं, सेसाणं तिहिवि ॥ ९ ॥ भूयाणंदस्सणं भंते ! पुच्छा ? अज्जो ! छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रूया, रूअंसा सुरूवा, रूयगावई, रूपकांता, रूयप्पभा ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा धरणस्स ॥१०॥ भूयाणंदस्सणं भंते ! णागकुमारस्स चित्तस्स पुच्छा ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- सुनंदा, अहो आर्यो ! चार अग्रमहिषियों कही. जिन के नाम अशोका, विमला, सुप्रभा, व सुदर्शना. उस का सब वर्णन चमरेन्द्र के सोम लोकपाल जैसे कहना और, एसे ही शेष तीन का जानना ॥९॥ अहो । भगवन ! भतानेन्ट को कितनी अग्रमहिषियों कहीं? अहो आर्यो ! छ अग्रमाहिषियों कहीं. जिन के नाम. १ रूपा २ रूपांशा ३ सुरूपा ४ रूपकावती ५ रूपकान्ता ६ और रूपप्रभा. इन का सब अधिकार, धरणेन्द्र जैसे कहना ॥ १० ॥ भूतानेन्द्र के चित्र नामक लोकपाल को चार अग्रमहिपियों कही. सुनंदा, * सुभद्रा, सुजाता व सुमना. इन का सत्र अधिकार चमरेन्द्र के लोकपाल जैसे कहना, और शेष तीन लोक *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी, मावाथे Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48: १४९५ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सुभद्दा, सुजाया, सुमणा ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा चमर लोगपालाणं, एवं सेसाणवि, तिण्हिवि लोगपालाणं, तहा दाहिणिला इंदा, तेसिं जहा धरणस्स ॥ लोगणलाणवि तेसिं जहा धरणलोगपालाणं ॥ उत्तरिंदाणं जहा भूयाणंदस्स, लोगपालाणवि, तेसिं जहा भयाणंदस्स लोगपालाणं णवरं इंदाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणिय सरिसणामगाणि, परिवारो जहा मोओदेसए ॥ लोगपालाणं सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणिय, सरिसणामगाणि, परिवारो जहा चमरलोगपालाणं ॥११॥ . कालस्सणं भंते ! पिसायइंदस्स पिसायरण्णो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अजो! पाल का भी वैसे ही कहना. जितने दक्षिण दिशा के इन्द्र हैं उन का अधिकार धरणेन्द्र जैसे कहना, और दक्षिण दिशा के लोकपाल का अधिकार धरणेन्द्र के लोकपाल के अधिकार जैसे कहना. उत्तर दिशा के इन्द्र का अधिकार भूतानेन्द्र जैसे कहना. और उन के लोकपालों का अधिकार भूतानेन्द्र के लोकपालों जैसे कहना विशेष इतना कि राज्यधानीयों व सिंहासनों के नाम इन्द्र जैसे कहना और परिवार तीसरे शतक में जैसे मोया उद्देशे में कहा वैसे कहना. लोकपाल की राज्यधानीयों व सिंहासनों के नाम लोकपाल जैसे जानना. और परिवार चमरेन्द्र के लोकपाल जैसे जानना ॥ ११॥ अहो भगवन् !* काल नामक पिशाचेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! चार अग्रमहिषियों कहीं.१ । दशवा शतकका पांचवा उद्देशा 8 Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र / चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- कमला, कमलप्पभा, उप्पला, सुदंसा ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए एगमेगं देविसहस्सं सेसं जहा चमर लोगपालाणं परिवारो तहेव, णवरं कालाए रायहाणीए, कालंसि सीहासणंसि सेसं तंचेव॥ एवं महाकालस्सवि ॥ १२ ॥ सुरुवस्संणं भंते! भूतिदस्स भूयरण्णो पुच्छा,अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ, पतंजहा रूयबई, बहुरूवा, सुरूवा, सुभगा॥तत्थणं एगमेगा सेसं जहा कालस्स ॥ एवं पडिरूवस्संवि ॥ १३ ॥ पुण्णभदस्सणं भंते ! जखिदस्स पुच्छा ? अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा पुण्णा, बहुपुत्तिया, उत्तमा, तारया ॥ तत्थणं एगमेगाए सेसं जहा कालस्स ॥ एवं माणिभद्दस्सवि ॥ १४ ॥ भीमस्सणं भावार्थ * कमला, कमलप्रमा, उत्पला व सुदर्शना. एक २ देवी का एक २ हजार का परिवार है वगैरह चमरेन्द्र के. लोकपाल जैसे कहना. विशेषता में काल राज्यधानी व काल सिंहासन जानना. जैसे कालका कहा वैसे ही महा काल का जानना ॥ १२ ॥ सुरूप नामक भूतानेन्द्र को चार अग्रमहिषियों कहीं जिन के नाम. रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा व सुभगा. उन का आधिकार काल जैसे कहना. जैसे सुरूप का कहा वैसे ही प्रतिरूप का जानना ॥ १३ ॥ पूर्ण भद्र नामक यक्षेन्द्र का चार अग्रमहिषियों कहीं. जिन के नाम. पूर्णा, अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋविना * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहावजी ज्वालाप्रसादजी * * Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१७ भंते ! रक्खासदस्स पुच्छा ? अजो ! चत्तारि अग्गमाहसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा पउमा, पउमावई, कणगा, रयणप्पभा, तत्थणं एगमेगा देवी सेसं जहा कालस्स ॥ एवं महाभीमस्सवि ॥ १५ ॥ किण्णरस्सणं भंते ! पुच्छा ? अजो ! चत्तारि अग्ग महिसीओ, प० तंजहा वडिंसा, केतुमई, रइसेणा, रइप्पिया ॥ तत्थणं सेसं तंचेव ॥ एवं किंपुरिसस्सवि ॥ १६ ॥ सुप्पुरिसस्सणं पुच्छा ? अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा रोहिणी. णवमिया, हिरी, पुष्फबई ॥ तत्थणं एगमेगा देवी सेसं तंचेव ॥ एवं महापुरिसस्सवि ॥ १७ ॥ अइकायस्सणं पुच्छा ? अजो ! भावार्थबहुपुत्रिका, उत्तमा व तारका. इन का सब अधिकार कालेन्द्र जैसे कहना. ऐसे ही मणिभद्र का जानना ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! भीम नामक राक्षतेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं? अहो आर्यों ! चार अग्राहिषियों कहीं. १ पद्मा २ पद्मावती ३ कनका व ४ रत्नप्रभा. इन का अधिकार काल जैसे कहना। ऐने ही महाभाम का जानना ॥ १५ ॥ किन्नर को चार अग्रमहिषियों कहीं जिन के नाम. अवतंसा, केतुमती, रतिसेना और रतिप्रिया. शेष सब अधिकार पूर्वोक्त जैसे कहना ऐसे ही किंपुरुष का जानना ॥ १६ ॥ सत्पुरुष को चार अग्रमहिषियों कहीं रोहिणी, नवमिका ही व पुष्पवती शेष आधिकार पूर्वोक्त जैसे पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र *884 Pob दशा शतक का पांचवा उद्देशा 480 । Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ९०९ अनुवादक - बालब्रहचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी चत्तारि अग्गमहिसीओ १०० भुयगा, भुयगवई, महाकच्छा, फुडा तत्थणं सेसं तंचेव ॥ एवं महाकालस्सवि ॥ १८ ॥ गीयरइस्सणं भंते ! पुच्छा ? अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ प० तं सुघोसा, विमला, सुरसुरा, सरिस्सई, ॥ तत्थणं सेसं तंचेव ॥ एवं गीयजसस्सवि सव्वेसिं एएसिं जहा कालस्स णवरं सरिसनामगाओ, रायहाणीओ, सीहासणाणिय सेसं तंत्र ॥ १९ ॥ चंदरसणं भंते! जोइसिंदस्स जोइरिणो पुच्छा ? अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ प० तं ० चंदप्पभा, जोइसिणाभा, अच्चिमाली पभंकरा ॥ एवं जहा जीवाभिगमे जोइसिय उद्देसए, तहेव सूरस्सवि सूरप्पभा, ( कहना. ऐसे ही महा पुरुष का जानना || १७ || अतिकाय को चार अग्रमहिषियों कहीं. भुजगा, भुजगावती, महा कच्छा व स्फुटा शेष सब अधिकार पूर्वोक्त जैसे ऐसे ही महा काय का जानना ॥ १८ ॥ गीतरति को चार अग्रमहिषियों सुघोषा विमला, सुस्वरा व सरस्वती शेष सब पूर्वोक्त जैसे कहना. ऐसे ही | गीतयशका कहना. सब का अधिकार काल जैसे कहना. मात्र इन्द्र के नाम जैसे राज्यधानी व सिंहासन { कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! चंद्र नामक ज्योतिषीन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! (चार अग्रपदिषियों कही जिन के नाम चंद्रप्रभा, ज्योतिषीप्रभा, अर्चिमाली व प्रभंकरा. ऐसे जैसे जीवाभिगम में ज्योतिषी उद्देशा कहा वैसे कहना. वैसे ही सूर्य का कहना परंतु इन की अग्रमहिषियों के नाम *प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* १४२८ Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beta पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र आइच्चा, अच्चिमाली, पभंकरा ॥ सेसं तहेव जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं ॥२०॥ इंगालस्सणं भंते ! महागहस्स कति अग्गमहिसीओ पुच्छा ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ तं० विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिता ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए सेसं तंचेव ॥ जहा चंदस्स णवरं इंगालवडिसए विमाणे, इंगालगंसि सिंहासणसि सेसं तंचेव ॥ एवं वियालस्सवि ॥ अट्रासीएवि ॥ महागहाणं वत्तव्वया गिरवसेसा भाणियव्वा जाव भावके उस्स, णवरं वडिंसगा सीहासणाणिय सरिसणामगाणि ॥ सेसं तंचेव ॥ २१ ॥ सक्कस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो कादशवा शतकका पांचवा उद्देशा 428989 भावार्थ सूरप्रभा, आदित्या, अर्चिमाली व प्रभंकरा जानना. शेष सत्र अधिकार पूर्वोक्त जैसे कहना यावत् मैथुन a. सेवन करने को वैक्रेय नहीं कर सकते हैं ॥ २० ॥ अहाँ भगवन् ! इंगाल नामक महा ग्रह को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यो ! चार अग्रमहिषियों कहीं जिन के नाम विजया, वैजयंती, जयंती व अपराजिता शेष सब अधिकार चंद्र जैसे कहना. मात्र इस में इंगाल वडिंसग विमान व इंगाल सिंहामन का कहना. ऐसे ही अठासी ग्रह का कहना. मात्र अवतंसक व सिंहासन जिन के जो नाम है वैसा । कहना ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कही ? अहो आर्यों! शक्रेन्द्र को है। 488 Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी.. पुच्छा ? अज्जो अट्ट अग्गमहिमीओ पण्णत्ताओ तं. पउमा. सिवा सेवा, अंजू. अमला, अच्छरा, नवमिया, रोहिणी ॥ तत्थणं एगमेगाए देवीए सोलस २ देवी सहस्सपरिवारो पण्णत्तो ॥ पभूणं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई सोलस २ देविसहस्साइं परिवार विउवित्तए, एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देवि सयसहस्सं परिवारो विउवित्तए, सेतंतुडिए ॥ पभूणं भंते ? सक्के देविंद देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवार्डसए विमाणे सभाए मुहम्माए सक्कंसि सीहासणांस तुडिएणं सहिं सेसं जहा चमरस्स णवरं परिवारो जहा मोओसिए ॥ सक्करसणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णा सोमस्स महारणो कति अग्गमहिसीओ पुच्छा ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिआठ अग्रमहिषियों कही. १. पद्या, २ सिवा, ३ सेवा, ४ अंजू, ५ अमला, ६ अप्सरा ७ नवमिका ८ व रोहिणी. एक देवी को सोलह २ हजार देवियों का परिवार रहा हुवा है और एक देवी सोलह हजार क्रेय रूप कर सकती है इससे १२८ हजार देवियों परिवारवाली होती है, इससे त्रुटित संज्ञा होती है. अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराजा सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में शक्र सिंहासन पर से त्रुटित संख्याकाली देवियों की साथ भोग भोगने के लिये क्या इतने रूप कर सकते हैं ! अहो प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ - Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +18 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्रीि (भगवती ) सूत्र Pain सीओ पण्णत्ताओ तं. रोहिणी, मदणा, चित्ता, सोमा, ॥ तत्थणं एग सेसं जहा चमरलोगपालाणं, णवरं सयंप्पभे विमाणे, सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि सेसं तंचेव ॥ एवं जाव बेसमणस्स, णवरं विमाणाई जहा तइयसए ॥ २२ ॥ ईसाणसणं भंते ! पुच्छा ? अजो ! अट्ट अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा कण्हा, कण्हराती, रामा, रामरक्खिया, वसू, वसुगुत्ता, वसुमित्ता, वसुंधरा ॥ तत्थणं एगमेगाए सेसं जहा सक्कस्स ॥ ईसाणस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ पुच्छा ? अजो! चचारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ आर्यो ! जैसे चमरका कहा वैसे ही जानना. अहो भगवन् ! शकेन्द्र के सोम महाराजा को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो आर्यों ! चार अग्रमहिषियों कहीं. जिन के नाम रोहिणी, मदना, चित्रा, व सोमा शेष सब अधिकार चमरेन्द्र के लोकपाल जैसे कहना. मात्र यहां स्वयंभ विमान में सोम सिंहासन से कहना वैसेही यम वरूण व वैश्रमण का जानना परिवारादिक का आपकार तीसरा शतक जैसे कहना ॥२२॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं? अहो आर्यों ! आठ अग्र महिषियों कहीं. ११ कृष्णा २कृष्णराती ३ रामा ४ रामरक्षिता ५ वमु ६ वसुगुप्ता ७ वसुमित्रा और ८ वसुंधरा इस के 48208:00 दशा शतक का पांचवा उद्देशा - -- Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५०२ क. कहां भ० भगवन् स• शक्र दे. देवेन्द्र की स० सभा सु० सुधर्मा ५० प्ररूपी गो० गौतम जं. जंबूद्वीप में मं० मेरु प० पर्वत की दा० दक्षिण में इ० इस ररत्नप्रभा पु० पृथ्वीकी ए० ऐसे ज० जैसे रा० तं. पुढवी, राई, रयणी, विज्जू, ॥ तत्थणं सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं ॥ एवं जाव वरुणस्स णवरं विमाणा जहा चउत्थसए सेसं. तंचेव जाव णोचेवणं मेहुणवत्तियं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाब विहरइ ॥ दसम सयस्स पंचमओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ ५॥ * * * कहिणं भंते ! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा! क जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयरस दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढनीए एवं जहा भावार्थ परिवार आदिका सब अधिकार शक्रेन्द्र जैसे कहना. ईशानेन्द्र के सोम महाराजाको कितनी अग्र महिषियों कहीं ? अहो आर्यों ! चार अग्रमहिषियों कहीं पृथ्वी, रति, रजनी, व विद्युत् शेष सब शक्रेन्द्र के लोक पाल जैसे कहना. ऐमेही वरुण तक चारों लोकपालों का कहना. और विमान चौथा.शतक जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह दशवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १० ॥५॥ 3 पांचवे उद्देशे में देवियों की वक्तव्यता कही आगे देव संबंधी मुधर्मा सभा का कथन करते हैं. अहो | भगवन् ! शक्र देवेन्द्र की सुधर्मा सभा कहां है ? अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण ८१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्रा अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र यावत् म० रायप्रश्रेनीय में जा० यावत् पं० पांच व० वर्डिशक प० प्ररूपे अ० अशोक वशिक जा० (सो० सौधर्म वर्डिशक म० महाविमान अ० अर्ध ते तेरह स० शतसहस्र आ० लंबे दि० चौडे ए० ऐसे ज० जैसे सू० सूर्याभ त० तैसे उ० उपपात स शक्रका अ० अभिशेक त० तैसे ज० जैसे मू० सूर्याभ रायप्पसेइणिज्झे जात्र पंच वडिंसगा पण्णत्ता, तंजहा- असोय वडिंसए जाव मज्झे सोहम्म डिसए महात्रिमाणे अद्धतेरस जोअणसय सहस्साई आयाम विक्खंभेणं एवं जहा सूरिया तत्र उववाओ, सक्करस्य अभिसेओ तहेव जहा सूरियाभस्स; 44 दशवा शतक का छठा उद्देशा इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपर सूर्य चंद्र, ग्रह नक्षत्र व तारे को उल्लंघकर आगे जावे वहां सौधर्म देवलोक कहा है. वहां पांच विमान कहे हैं. उनके नाम १ अशोकावतंसक २ सप्तवर्णावतंसक ३ चंपकावतंसक ४ चतावतंसक ५ और ५ बीचमें सौधर्मावतंसक है. यह साढ़े बारह लक्ष योजन का लम्बा चौडा है. } उसमें उत्पात सभा है. उत्पात सभा में उत्पात शैय्या है. उस काल उस समय में शक्र देवेन्द्र देवराजा उत्पन्न होकर आहार पर्याय, शरीर पर्याय, इन्द्रिय पर्याय श्वासोश्वास पर्याय व भाषामन पर्याय इन पांच पर्यायों बांधकर बैठेहुए फीर वहां से अभिषेक सभा में गये. वहां पूर्वाभिमुखहो सिंहासन पर बैठे और } त्रायत्रिशक, सामानिक व आभियोगिक देवताओं को बोलाकर कहने लगे कि शक्र देवेन्द्रका अभिषेक करो इत्यादि सब वर्णन रायप्रसेणो सूत्रमें सूर्याभ देव जैसे कहना वैसे ही अलंकार सभामें आकर अनेक उत्तम १५०३ Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ || सूत्रे भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी का अ० अलंकार अ० अर्चनिक त० तैसे जा० यावत् आ० आत्मरक्षक देव दो दोसागरोपम ठि स्थिति स० शक्र भं० भगवन् दे० देवेन्द्र दे० देव राजा के म० पहा सुखी गो० गौतम म० महर्दिक जा० यावत् म० कितना म० महर्द्धिक ज० यावत् के० कितना महासुखी त तहां ब० बत्तीस विमान अलंकार अच्चणिया तहेव || जावं आयरक्खदेवन्ति दोसागरोवमाई ठिई ॥ सक्केणं भंते ? देविंदे देयराया के महिठ्ठीए जाव के महेसक्खे ? गोयमा ! महिठ्ठीए जात्र महेसक्खे सेणं तत्थ बत्तीसार विमाणावास सयसहस्साणं जाव विहरइ || महिढीए मुल्य वाले व कम वजन वाले वस्त्राभूषणों से शरीर अलंकृत किया. वहांतक सत्र अधिकार कहना जिन प्रतिवा की अर्चना की फीर सौधर्म सभा में आये शक सिंहासन पर पूर्वाभिमुखने बैठे ईशान कौन में चौरासी हजार सामानिक देव बैठे पूर्व में अग्र महिषियों अग्नि कौन में आभ्यंतर परिषदा के बारह हजार देव दक्षिण में मध्यम परिषदा के चौदह हजार देव, नैऋत्य कौन में बाहिर की परिषदा के सोलह हजार देव पश्चिय में मात अनिक के अधिपति और शक्रेन्द्र की चारों दिशा में चौरासी हजार सामानिक देव व चौरासी हजार २ आत्म रक्षक देव बैठे, शकेन्द्र की दो सागरोपम की स्थिति कही है अहो भगवन् शकेन्द्र कैमी ऋद्धिवाले होते है ? अहो गौतम ! शक्र देवेन्द्र बहुत ऋद्धिवंत, बहुत द्युतिवंत, महा भाग्यवंत महा यशवंत, महा बलवंत, महा एश्वर्यवंत है. बत्तीस लाख विमान के मालक है. चौरासी हजार नामा ! * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जालज्याप्रसवदज १५०४ Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ wwwwwwwmananm आ० आवास स० शत सहस्र जा० यावत् वि. विचरते हैं म० महर्दिक जा० यावत् म. महा सुखी स० शक्र दे. देवेन्द्र से वह ए. ऐसे भ० भगवन् ॥ १० ॥ ६॥ + + क• कहां भ० भगवन् उ० उत्तर के ए० एकरूक म० मनुष्य के ए० एकरूकद्वीप प० प्ररूपा ए. ऐसे जाव महेसक्खे, सक्के देविंदे देवराया ॥ सेवं भंते, भंतेत्ति ॥ दसम सयस्स छ8ो । उद्देसो सम्मत्तो ॥ १०॥ ६॥ x x x कहिण्णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगुरुय मणुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पण्णते? एवं सूत्र 488 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती : 433 दशवा शतक का छठा उद्देशा 438 भावार्थ निक देव हैं, तेतीस त्रायत्रिंशक देव हैं आठ अग्र महिषियों यावत् बहुत देव देवियों का पालन करते हुवे । विचरते हैं, इस प्रकार महा ऋद्धिवंत यावत् महा ऐश्वर्यवंत शक्र देवेन्द्र देव राजा रहा हुवा है. अहो । भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह दशमा शतक का छठा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ १० ॥ ६॥ १ छढे उद्देशे में देव सभा का कथन किया. जुगलिये देवलोक में उत्पन्न होते हैं इसलिये यगलियों . का वर्णन करते हैं. अहो भगवन् ! उचर दिशा के एक रूक मनुष्यों का एक रूक द्वीप कहां है ? अहो, गौतम ! इन अठाइम अंतर द्वीप का वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानना. यावत् अठावीसवा शुद्धदंत, द्वीप तक का अधिकार पहिले चुल्लहिमवंत पर्वत के अठावीस उद्देशे कहे वैसे ही यहां शिखरी पर्वत के ?' Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०६ शब्दार्थ *ज जैसे जी जीवाभिगम में त० तैसे नि० निर्विशेष जा. यावत् सु० शुद्धदंतद्वीप ए. ये अ० अट्ठा वीस उ० उद्देशा भा० कहना से वह ए. ऐसे भं० भगवन् जा० यावत् वि० विचरते हैं ॥ १०॥७-३४॥ जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव सुद्धदंत दीवोत्ति ॥ एए अट्ठावीसं उद्देसगा ___ भाणियव्वा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ दसम सयस्सय चउत्तीसइमो । उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ ३४ ॥ दसमं सयं सम्मत्तं ॥ १० ॥ कह देना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर तप संयम से आत्मा को भावते हुवे श्री गौतम स्वामी विचरने लगे. यह दशवा शतक का सातवा उद्देशा से चौतीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा.. ॥ १० ॥ ७-३४ ॥ यह दशवा शतक समाप्त हुवा ॥ १०॥ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Aawww Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 Page शब्दार्थ १५८७ ॥ एकादशशतकम् ॥ उ० उत्पल ता० सालूक ५० पलास कुं० कुंभी ना० नाडीक ५० पद्म क० कर्णिका न० नलीन सि. शिव लो० लोक का काल अ० आलभिका द० दश दो दो ए. अग्यारवे में ते. उस काल ते. उस* समय में रा० राजगृह जा० यावत् ए० ऐमा व० बोले उ० उत्पल भं भगवन् ए० एक ५० पत्र में किं. उप्पल सालु पलासे, कुंभी नालीय; पउम कण्णीय, नलिण सिवलोग काला लभीय दसदोय एकारे तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी । र दशवे शतक के अंत में अंतरद्वीपों का वर्णन कहा. उन अंतरद्वीपों में वनस्पति की अधिकता है इस भावार्थ लिये इस अग्यारवे शतक में वनस्पति आश्री प्रश्नोत्तर कहते हैं. इस शतक में बारह उद्देशे कहे हैं. उन के नाम १. पहिले उद्देशे में उत्पल की व्याख्या २दूमरे में उत्पल के कंद का निरूपन, ३ पलासका ४ कुंभी वनस्पति का नाली के आकार की वनस्पतिका, ६ पद्म कमलका ७ कर्णिका का ८ नलिनी काई ९ शिवराजर्षि का १० लोक आधिकार ११ काल अधिकार १२ आलभिका का यह अग्यारवे शतक के बारह उद्देशे कहे हैं प्रथम उत्पल कमल नामक उद्देशे के ३२ द्वार कहे हैं. १ उत्पन्न द्वार २ परि-१०० Doमाण ३ अवहिरीया ४ ऊंचता ५ बंध ६ वेदना ७ उदय ८ उदीरणा ९ लेश्या १० दृष्टि ११ ज्ञान 10११२ योग १३ उपयोग १४ वर्णादि १५ उश्वास नीश्वास १६ आहार १७ व्रती १८ क्रिया १९ बंध । पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 2 अग्यारवा शतकका पहिला उद्देशा *34800 Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमालक ऋषिजी . सूत्र क्य ए० एक जीव अ० अनेक जी० जीव गो० गौतम ए० एक जी. जीव णो नहीं अ० अनेक जी.. जीव ते० उस सिवा जे० जो अ० अन्य जी० जीव उ० उत्पन्न होते हैं ते० वे णो नहीं ए० एक जी० जीव अ० अनेक जीव ॥ १॥ सरल शब्दार्थ ॥ उप्पलेणं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ! गोयमा ? एगजीवे जो अणेगजीवे; तेणपरं जे अण्णे जीवा उववज्जति, तेणं णो एगजीवा अणेगजीवा ॥ १ ॥ तेणं भंते जीवा कओहिंतो उववजंति, किं णेरइएहितो उववजंति, तिरिक्खमणुदेवेहितो भावार्थ | १२० संज्ञा २१ कषाय २२ वेद २३ वेद बंध २४ संज्ञी असंज्ञी २५ इन्द्रिय २६ अनुबंध २७ संवेग). २८ आहार २९ स्थिति द्वार ३० समुद्धात ३१ वेदना और ३२ उत्पात. उस काल उस समय में राज नगरी के गणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार कर श्री मौतम स्वामी पूछने लगे कि, अहो भगवन् ! उत्पल कमल के एक पत्र में एक जीव है या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! उत्पल कमल के एक पत्र में मूल एक ही जीव है परंतु अनेक जीव नहीं हैं और उस उपरांत उस जीव के अवयव रूप अन्य अनेक जीव उत्पन्न होते हैं उस आश्री अनेक जीव हैं परंतु एक जीव नहीं हैं ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! उत्पल कमल में नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव इन चारों गतिवाले में से कौनसी गतिताले जीव आकर उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! नरक के जीव उत्पल कमल में • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ age wvvvie ww पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र उववजति ? गोयमा! णो णेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति, मणुस्सदेवेहितो वि उववजंति, एवं उववाओ भाणियब्बो, जहा वकंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणोत्ति ॥ २ ॥ तेणं भंते! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति? गोयमा! जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिाण्णवा, उक्कोसेणं संखेजावा, असंखे जावा उक्वजति ॥ ३ ॥ तेणं भंते ! जर्जावा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवइयकाले अवहीरंति ? गोयमा! तेणं असंखेजा समए २ अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरति णो चेवणं अवहिरिया सिया ॥ ४ ॥ नहीं उत्पन्न होते हैं बाकी तीनों गनिवाले उत्पन्न होते हैं. इस का विशेष खुलासा पन्नवणा सूत्र के छठे पद में वनस्पतिकाय में उत्पन्न होने का जो कथन कहा है वैसे ही यहां भी कहना यावत् दूमरे ईशान देवलोक मे चक्कर देवता उत्पल कमल में उत्पन्न होते हैं ॥ २॥ अहो भगवन् ! एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते. हैं ? अहो गौतम : एक समय में जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों नीकलते हुवे कितने समय में सब जीवों नीकल सके ? अहो गौतम ! एक २ समय में असंख्यात २ जीवों नीकलते असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी व्यतीत है। 43-23 अग्यारवा शतकका पहिला उद्देशान भावार्थ 488 Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाये 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82 तेणं भंते! जीवा के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोअणसहस्सं ॥ ५ ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा? गोयमा! णो अबंधगा बंधएवा बंधगावा एवं जाव अंतराइयस्स, णवरं आउयस्स पुच्छा ? गोयमा ! बंधएवा, अबंध. एवा, बंधगावा. अबंधगावा. अहवा बंधएय अबंधएय, अहवा बंधएय अबंधगाय, हो जावे तो भी सब जीव नहीं नीकल सकते हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! उक्त जीवों कितनी अवगाहनावाले होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन अधिक ॥५॥ अहो भगवन् ! वे जीवों ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं या नहीं ? अहो गौतम ! अबंधक नहीं है परंतु बंधक हैं, एक जीव आश्री एक वचन और बहुत जीव आश्री बहुवचन ऐसे दो भांगे पाते हैं। है इसी प्रकार आयुष्य कर्म छोडकर आठवे अंतराय कर्म तक कहना. आयुष्य कर्म को एक भव में एक ही वक्त बांधते हैं इसलिये अबंध अवस्था भी पाती है इसलिये आयुष्य में बंध काल में बंधक और अबंध काल में अबंधक भी है बहुत जीव आश्री आयुष्य काल में बहुत जीव बंधक है और अबंधक काल में बहुत जीव अबंधक भी हैं. यों चार भांगे हुवे. ५ एक जीव बंधक एक जीव अबंधक एक जीव बंधक बहुत जीव अबंधक, बहुत जीव बंधक एक जीव बंधक अथवा बहुत जीव बंधक बहुत जीव अबंधक, * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अहवा बंधगाय अबंधगेय, अहवा बंधगाय अबंधगाय एए अट्ठ भंगा ॥ ६ ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिज़स्स कम्मस्स किं वेदगा अवेदगा ? गोयमा ! णो अवेदगा वेदएवा वेदगावा, एवं जात्र अंतराइयस्स ॥ ७ ॥ तेणं भंते! जीवा किं सायावेदगा असायावेदगा ? गोयमा ! सायात्रेदएवा असातावेदएवा अट्ठ भंगा ॥ ८ ॥ तेणं भंते! जीवा णाणावरजिस कम्मस्स किं उदई अणुदई ? गोयमा ! णो अणुदई उदईवा उदइणोवा अग्यारखा शतकका पहिला उद्देशा -40 एवं जाव अंतराइयस्स ॥ ९ ॥ तेनं भंते जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं उदी ऐमे आठ भांगे जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे ज्ञानावरणीय कर्म के वेदक हैं या { अवेदक हैं ? अहो गौतम ! एक जीव आश्री वेदक है और बहुत जीव आश्री वेदक हैं। ऐसे दो भांगे जानना. ऐसे ही अंतराय तक का जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीव) सुख वेदनेवाले हैं या दुःख वेदनेवाले हैं ? अहो गौतम ! साता वेदनेवाले व असाता वेदनेवाले वगैरह आयुष्य बंध के आठ भांगे जैसे यहां आठ भांगे कहना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्या उन जीवों को { ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है या उदय नहीं होता है ? अहो गौतम ! उन को अनुदय नहीं है। परंतु उदय आश्री एक वचन व द्विवचन ऐसे दो भांगे होते हैं. ऐसे ही अंतराय कर्म तक जानना ॥ ९ ॥ ३० अहो भगवन् ! उन जीवों को क्या उदीरणा होती है या उदीरणा नहीं होती है ? अहो गौतम ! उदी १५११ Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रंगा अणुदीरगा ? गोयमा ! यस ॥ अणुदीरगा उदीरएवा, उदीरगावा एवं जाव अंतराइवरं वेणिज्जाउएस अट्ठभंगा ॥ १० ॥ तेणं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा ? गोयमा ! कण्हलस्सेवा, नीललेस्सेवा, काउले:स्सेवा, तेउलेस्सेवा; कण्हलेस्सावा, नीललेस्सावा, काउलेस्सावा, तेउलेस्सावा, अहवा कण्हलरसेय, नीललेस्सेय एवं एएदुया संयोग तियासंजोग चउक्क संजोगेणय; असीि भंगा भवति ॥ ११ ॥ णं भंते! जीवा किं सम्माद्दट्ठी, मिच्छाद्दिट्ठी, सम्ममिच्छा हिट्ठी ? गोयमा ! णां सम्माद्दट्ठी णां सम्मामिच्छाद्दिट्ठी, मिच्छादिट्ठीवा मिच्छादिट्टिणेोवा रणा होती है. पर अनुदीरणा नहीं होती है. और उदीरणा आश्री एक वचन व द्विवचन के दो भांगे कहना. ऐसे ही अंतराय कर्म का कहना. और वेदनीय में आठ भांगे कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीव कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्या वाले व तेजोलेश्यावाले हैं ? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्यावाला, नील लेश्यावाला, कापोत लेश्यावाला, व तेजो लेश्यावाला अथवा कृष्णलेश्यावाले, नील लश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, व तेजोलेश्यावाले यों एक वचन, अनेक वचन के असंयोगी आठ भांगे हुवे. ऐसे ही एक कृष्ण लेश्यात्राला एक नील लेश्यावाला ऐसे द्विसंयोगी २४ भांगे, तीन संयोगी ३२ भांगे चतुष्क संयोगी १६ यों सत्र मीलकर ८० भांगे होते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! दृष्टी हैं, मिथ्या दृष्टी हैं या सम मिथ्या दृष्टि हैं ? अहो गौतम ! सम द्दष्टि नहीं है, क्या जीव सममिथ्यादष्टी हैं व * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५१२ Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E भावार्थ ॥ १२ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं नाभी अण्णाणी ? गोयया ! णो णाणी अण्णाणी, अण्णाणिणोवा ॥ १३ ॥ तेणं भंते जीवा किं मणजोगी, वइजोगी, काय जोगी ? गोयमा ! णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगीवा, कायजोगिणोवा ॥ १४ ॥ तेणं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्तेवा अणगारोवउत्तेवा अट्ठ भंगा ॥ १५ ॥ तेणं भंते! जीवाणं सररिगा कइ - वण्णा कइगंघा कइरसा, कइफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा {सम मिथ्या दृष्टि नहीं है उस में भी मिथ्या दृष्टि के एक वचन बहुवचन आश्री दो भांगे जानना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीवों ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? अहां गौतम ! ज्ञानी नहीं हैं परंतु अज्ञानी हैं। {उन में एक वचन द्विवचन आश्री अज्ञानी के दो भेद होते हैं ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे मनयोगी वचन योगी व काय योगी हैं ? अहो गौतम ! मन योगी व वचन योगी नहीं हैं परंतु काय योगी है. उस के एक वचन द्विवचन ऐने दो भांगे होते हैं । १४ || अहो भगवन् ! क्या वे जीव साकारोपयुक्त है या अनाकारोपयुक्त है ? अहो गौतम ! साकारोपयुक्त व अनाकारोपयुक्त है ऐसे ही उस के भाठ भांगे जानना || १५ || अहो भगवन् ! उन जीवों के शरीर कितने वर्णवाले, कितनी गंधवाले, कितने रसवाले व कितने स्पर्शत्राले प्ररूपे हैं ? अहो गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध पांच रस व आठ स्पर्शवाले हैं ** पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4090403 अग्यारवा शतकका पहिला उद्देशा 43+ १५१३ Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१४ 12. अट्ठफासा पण्णता, तेपुण अप्पणा अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पण्णत्ता ॥१६॥ तेणं भंते! जीवा किं उस्सासा निस्सासा णो उस्सासणिस्सासा? गोयमा ! उस्सा. सएवा णिस्सासएवा णो उस्स्गस णिस्सासएवा, उस्सासगावा णिस्सासगावा णो उस्सास णिस्सासगावा अहवा उस्सासएय णिस्सासएय ४ ॥ अहवा उस्सासएय णो उस्सास णिस्सासएय ४ । अहवा णिस्सासएय णो उस्सास णिस्सासएय ४॥ अहवा उस्सासएय णिस्सासएय णो उस्सास णिस्सासएय अट्ट भंगा ॥ एए छब्बीसं भंगा भवति ॥ १७ ॥ तेणं भंते! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! णो अणाहारगा आहारएवा, अणाहारएवा अट्ट भंगा ॥ १८ ॥ तेणं भंते जीवा किं विरया परंतु आत्म स्वरूप से वर्ण रहित, गंध रहित, रस रहित, व स्पर्श रहित प्ररूपे हैं ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे उश्वास, नीश्वासवाले हैं या उश्वास नीश्वास वाले नहीं है ? अहो गौतम ! एक श्वासवाला, एक 'उश्वासवाला, और एक उश्वास नीश्वासवाला नहीं यह तीन एक वचन और तीन अनेक वचन यों एक संयोगी छ भांगे द्विसंयोगी १२ भांगे और तीन संयोगी आठ भांगे यों सब मीलकर २६ भांगे होते हैं *॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीवों आहारक हैं या अनाहारक हैं ? अहो गौतम ! अनाहारक नहीं बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ अनवादका Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8800 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र अविरया विरयाविरया ? गोयमा ! णो विरया णो विरयाविरया, अविरएवा, अ-.. विरयावा ॥ १९ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा! णो अकिरिया सकिरिएवा सकिरियावा ॥ २० ॥ तेणं भंते ! जीवा, किं सत्तविहबंधगावा अट्ठविह बंधगावा? गोयमा! सत्तविह बंधएवा; अट्टविह बंधएवा, अट्ट भंगा ॥ २१ ॥ तेणं भंते! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता, मेहुणसण्णो वउत्ता, परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! आहारसण्णोवउत्तेवा असीति भंगा ॥२२॥ है परंतु आहारक है उन में आठ भांगे पाते हैं ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीव विरती, अविरती है या विरताविरती है ? अहो गौतम ! विरती नहीं है विरताविरती नहीं है परंतु अविरती हैं इस में दो भांगे पाते हैं ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीव संक्रिय हैं या अक्रिय हैं ? अहो गौतम ! वे जीवों , अक्रिय नहीं है परंतु सक्रिय में एक वचन द्विवचन के दो भांगे होते हैं ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! क्या वे. जीव सात प्रकार के बंधवाले हैं या आठ प्रकार के बंधवाले हैं ? अहो गौतम ! सात प्रकार के बंधवाले* 66 व आठ प्रकार के बंधवाले यो आठ भांगे जानना. ॥२१॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीवों आहार संज्ञा वाले % हैं, भय संज्ञा वाले हैं, मैथुन संज्ञावाले हैं व परिग्रह संज्ञावाले हैं ? अहो गौतम ! उन जीवों में चारों संज्ञा । - अभ्यारवा शतक का पहिला उद्देशा 4.80 Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१६ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी g तेणं भंते ! जीवा किं कोहकसाई, माणकसाई, मायाकसाई, लोभकसाई ? गोयमा ! कोह कसाईवा असीतिभंगा ॥ २३ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदगा, पुरिस. वेदगा, णपुंसगवेदगा? गोयमा ! णो इत्थीवेदगा, जो पुरिसवेदगा, णपुसगवेदगेवा णपुंसगवेदगावा ॥ २४ ॥ तेणं भंते जीवा किं इत्थीवेद बंधगा, पुरिसवेद बंधगा, णपुंसगवेद बंधगा ? गोयमा! इत्थीवेद बंधएवा, पुरिसवेद बंधएवा, णपुंसगवेद धंधएवा छब्बीसं भंगा ॥ २५ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सण्णी असण्णी ? गोयमा ! के ८० भाग पाने हैं. ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे जीवों क्रोध कषायी, मान कषायी, माग कषायी विलोम कषायी है. ? अहो गोतम ! इन चारों कषायों के ८० भांगे होते हैं. ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! *क्या वे स्त्री वेदी, पुरुष वेदी व नपुंसक. वंदी हैं ? अहो गौतम ! पुरुष वेदी नहीं है. स्त्री वेदी नहीं हैं. परंतु नपुंसक वेदी हैं. उन कं एक वचन व द्विवचन ऐने दो भांगे होते हैं ॥ २४ ॥ अहो भगान् ! क्या वे स्त्री वेद बंधवाले हैं। पुरुष वेद बंधवाले हैं या नपुंसक वेद बंधवाले हैं. ? अहो गौतम ! पुरुष वेद बंध वाले, स्त्री वेद बंधवाले व नपुंसक वेद बंधवाले हैं. उन के ऐने २६ भांगे होते हैं. ॥ २५ ॥ भो भगवन् } क्या ये संज्ञो हैं या असंज्ञी है ? अहो गोतम ! वे संज्ञो नहीं हैं परन्तु असंज्ञी हैं. इसके एक वचन बहु • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 42 पण्णत्ति (भगत मूत्र णो सण्णी असण्णीवा असणिण्णोवा ॥ २६ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सइंदिया अणिदिया? गोयमा! णो अणिंदिया, सइंदिएवा सइंदियावा ॥२७॥ तेणं भंते! उप्पल जीवे तिकालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखजं कालं ॥ २८ ॥ सेणं भंते ! उप्पल जीवे पुढवी जीवे पुणरवि उप्पल जीवे तिकालओ केवतियं कालं सेवेज्जा केवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाइं भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं असंखेनं कालं एवतियं कालं सेवेज्जा एवतियं वचन के दो भांगे होते हैं ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! क्या वे सइन्द्रिय हैं या अनिद्रिय है ! अहो गौतम ! अनिन्द्रिय नहीं है परंतु सइन्द्रिय आश्री एक वचन व वहुवचन के दो भांगे होते हैं ॥ २७ ॥ अहो भगवन्! उत्पल के जीव कितने काल तक रहते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहे ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों पृथ्वी कायपने उत्पन्न होकर पुनः उत्पल जीवपने कितने काल में उत्पन्न होवे और कितने काल तक गति आगति करे ? अहो गौतम ! भव ग्रहण आश्री जघन्य दो भव (एक पृथ्वी काया का दूमरा उत्सल का) उत्कृष्ट असंख्यात भव तक गमनागमन करे. काला अग्यारवा शतक का पहिला उद्दशा भावार्थ Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कालं गइरागतिं करेजा ||२९|| सेणं भंते ! उप्पल जीवे आउजीवे एवंचेव एवं जहा पुढवी जीवे भणिते तहा जाव वाउजीवे भाणियव्वे ॥ सेणं भंते उप्पलजीवे ते वणस्सइ ते पुरवि उप्पल जीवेति केवइथं कालं सेवेज्जा केवइयं कालं गइरागतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अनंताई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णणं दो अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं तरुकालो एवतियं कालं सेवेजा एवइयं कालं गइरागति करेजा ॥ २० ॥ सेणं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियबेदिजीवे पुरवि उप्पलजीवति केवइयं कालं सेवेजा, केवइयं कालं गइरादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट असंख्यात काल तक गमनागमन करे || २१ || अहो भगवन् ! उत्पल के जीव अप्काय में जाकर पुनः उत्पल में उत्पन्न होवे तो कितने काल में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! {जैसे पृथ्वीकाय जीव का कहा वैसे ही कहना वेसेही तेउ वायु काय का भी कहना अहो भगवन् ! उत्पलके { जीव वनस्पति में उत्पन्न होकर पुनः उत्पल में कितने काल से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट अनंत भव कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ठ अनंत काल तक सेवे और अनंत काल तक गमनागमन करे || ३० ॥ अहो भगवन् ! उत्पल के जीव बेइन्द्रिय में उत्पन्न होकर पुन: * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५१८ Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 409 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र गतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं संखेज्जाई भवग्गहणाई; कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं संखेज्जं कालं एवइयं कालं सेवेज्जा एवइयं कालं गइरागतिं करेज्जा ॥ एवं तेइंदिय जीवेवि एवं चउरिंदियजीवेवि ॥ ३१ ॥ सेणं भंते! उप्पलजीवे पंचिदिय तिरिक्ख जोणिय जीवेति पुच्छा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणं दो अंतमुत्ता उसे पुव्वकोडिपुहुत्तं एवइयं कालं सेवेज्जा एवइयं कालं गइरागतिंकरेजा || एवं मणुस्सेणवि समं जाव एवइयं कालं गइरागर्ति करेजा ॥ ३२॥ ( बेइन्द्रिय में उत्पन्न होवे तो कितना काल तक में उत्पन्न होवें और उन में गमनागमन करे ? अहो गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव ग्रहण उत्कृष्ट संख्यात भव ग्रहण, कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल ऐसे ही तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का जानना ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ( पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होकर पीछे उत्पल में कितने काल में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! दो भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक पूर्व क्रोड. का जानना इतना काल तक सेवन कर इतना काल तक गमनागमन करे || ३२ ॥ ! उत्पल का जीव भवादेश से जघन्य ऐसे ही मनुष्य अहो भगवन् ! वे 44 अग्याखा शतकका पहिला उद्देशा १५१९ Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 87 तेणं भंते! जीवा किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! दव्वओ अणंत पएसियाई दवाई एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं आहारे तहेव जाव सव्वप्पणयाए आहार माहारेति, णवरं णियमं छाहीसं सेसं तंचेव ॥ ३३ ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं दसवास सहस्साइं ॥ ३४ ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं कइसमुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा वेयणासमुग्याए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्घाए ॥ ३५ ॥ तेणं भंते ! जीवा मारणतिय समुग्घाएणं किं संमोहया मरंति असंमोहया मरंति ? गोयमा ! जीवों किस का आहार करते हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य स अनंत प्रदेशात्मक द्रव्य का ऐही आहार, उद्देशा कहना. यावत् सर्व आत्म प्रदेश से आहार के पुद्गल ग्रहण करे विशेष में नियमा छ दिशी के पुद्गलों का आहार कर ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों की स्थिति कितनी कही ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की ॥ ३४ ॥ अहो भगवन् ! उन जीवों को कितनी समुद्धातों कहीं ? अहो गौतम ! वेदना, कषाय व मारणांतिक ऐसी तीन समुद्धात कहीं हैं ॥ ३५ ॥ अहो भगवन् ! मारणांतिक समुद्धात से क्या वे समोहया मरते हैं अथवा असमोहया मरते हैं ? अहो गौतम ! समोहया *प्रकाशक-राजाबहादर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ 1 Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 संमोहयावि मरति असंमोहयावि मरंति ॥ ३६॥ तेणं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति किं णेरइएसु उववज्जति, तिरिक्ख जोणिएसु उत्रवजंति, एवं जहा वकंतीए उव्वदृणाए वणस्सइ काइयाणं तहा भाणियव्वा ॥३७॥ अह भंते? सव्वे पाणा सव्वे भया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता उप्पल मूलत्ताए, उप्पल कंदत्ताए उप्पल णालत्ताए उप्पल पत्तत्ताए उप्पल केसरत्ताए उप्पल कण्णियत्ताए उप्पल थिभगत्ताए उववण्ण पुन्वा ? हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंत खुत्तो सेवं भंते भंतेत्ति ॥ उप्पल उद्देसओ ॥ एगारससथस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥११॥१॥ परते हैं और असमोहया भी मरते हैं ॥ ३६ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों वहां भे मरकर कहां जाते हैं कहां है उत्पन्न होते हैं ? क्या नरक में जाते हैं, तिर्यंच में जाते हैं, मनुष्य में जाते हैं, व देव में जाते हैं ? अहो गौतम ! वे जीवों नरक में नहीं जाते है परंतु तिर्यंच, मनुष्य व देवलोक में ईशान देवलोक तक जाते हैं. विशेष खुलासा पनवणा के छठे पद में से जानना ॥ ३७॥ अहो भगवन् ! सब प्राण, भूत, जीव व मत्व क्या उत्पल के मूलप ने, नालपने, पत्राने, केसरपने, कणिकापने, फलपने व बीजपने क्या पहिले उत्पन्न हुए? to हां गौतम ! वे जीवों एकवार नहीं परंतु अनंनवार उत्पन्न हवे. अहो भागवन् ! आप के वचन सत्य हैं। यह अग्यारवा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ११ ॥ १॥ . . भावाथे अग्यारवा शतक का पहिला उद्देशा 4880 Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५२२ १. सा० शालुक मं• भगवन् ए. एक पत्र में किं. क्या ए० एक जीव अ० अनेक जीव गो० गौतम ए. एक जीव ए. ऐसे उ० उत्पल उ० उद्देशा की व वक्रव्यता भा० कहना जा० पावत् अ० अनंत वक्त रण. विशेष स• शरीर ओ० अवगाहना ज• जयन्य अ० अंगुल का अ० असंख्यातवा भाग उ० उत्कृष्ट ध० धनुष्य पु० पृथक् से० शेष तं० तैसे से० वह ए. एसे भं भगवन् ॥ ११ ॥ २ ॥ सालुएणं भंते ! एगपत्तए किं एग जीवे अणेग जीवे ? गोयमा ! एग जीवे, एवं उप्पल उद्देसग वत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अणंत खुत्ता, णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, सेसं तंचव सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगारस सयस्सय बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ २ ॥ भावार्थ है प्रथम उद्देशे में उत्पल कमल का वर्णन किया. अब दूसरे उद्देश में सालु नामक कमल का वर्णन कहते है हैं. अहो भगवन् ! साल के एक पत्र में एक जीव या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! जैसे प्रथम उद्देशे में , कहा वैसे ही यहां पर अनंत वार उत्पन्न होते हैं वहां तक कहना परंतु शरीर अवगाहना जघन्य अंत मुहून उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य की जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारवा शतक का दूमरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ११ ॥ २॥ अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र १११ ५० पलास भं भगवन् ए० एक पत्र में कि० क्या ए० एक जीव ए. ऐसे उ० उत्पल उ० उद्देशा? ।। की व० वक्तव्यता अ. अवशेष भा० कहना ण. विशेष स० शरीर ओ० अवगाहना ज० जघन्य अ०१ अंगल का अ० असंख्यातवा भाग उ० उत्कृष्ट गा० गाऊ पु. पृथक दे. देव ए• इस में न० नहीं उ०११ ११.१५२३ उपजते हैं ले० लेण्या में भ० भगवन् जी० जीव किं० क्या क० कृष्ण लेश्यी नी. नील लेश्यी का कापोत लेश्यी गो• गौतम क० कृष्ण लेश्यी नी० नील लेश्यी का० कापोत लेश्यी छ० छवीप्त ५० भांगा पलासेणं भंते ! एगपत्तए किं एग जीवे, एवं उप्पल उद्देसग वत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं गाउय पुहुत्तं, देवा एएसु न उववजति, लेसासु-तणं भंते ! जीवा किं कण्ह लेस्सा, नील लेस्सा, काउलेस्सा ? गोयमा ! कण्ह लेस्सेवा, नील लेस्सेवा, काउ लेस्सेवा ___ अब तीसरे उद्देशे में पलाम्र पत्र का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! पलास पत्र में एक जीव उत्पन्न । होता है या अनेक जीव उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! उत्पल जैसे कहना परंतु शरीर अवगाहना जघन्य है अंगुल का असंख्यात वा भाग उत्कृष्ट प्रत्येक गाउ. इस में देव उत्पन्न नहीं होते हैं. और कृष्ण, नील व कापात ऐसी तीन लेश्या के २६ भांगे कहना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारवाई: । अग्यारवा शतकका तीसरा उद्देशा. भावार्थ 4 Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " से शेष तं० तैसे ॥ ११ ॥ ३ ॥ x कुं. कुंभी भं• भगवन् ए० एक पत्र में कि क्या ए. एक जीव अ. अनेक जीव ज. जैसे प. पलास उ० उद्देशा त० नैसे भा० कहना ण. विशेष ठि० स्थिति ज. जघन्य अं• अंत मुहूर्न उ. उत्कृष्ट वर्ष पृथक् स० वह ए० ऐते भं० भगवन् ॥ ११॥ ४॥ ना० नोडीक भं० भगवन् ए. एक पत्र में कि० क्या ए. एक जीव अ० अनेक जीव ए. ऐसे कुं० छब्बीसं भंगा, सेसं तंचेव॥ सेवं भंते २त्ति। एगारस सयस्सय तइओ उद्देसो॥११॥३॥ कुंभिएणं भंते ! एगपत्तए किं एग जीवे अणेग जीवे एवं जहा पलासुद्देसए तहा.. भाणियव्वे, णवरं ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं. उक्कोसेणं वासपुहुत्तं सेसं तंचेव ॥ सवं भंते २ त्ति ॥ एगारस सयस्सय चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥४॥ नालिएणं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे, एवं कुंभिउद्देसग वत्तव्वया णिर शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ ३ ॥ १ अहो भगवन् ! क्या कुंभिके एक में एक जीव उत्पन्न होता है या अनेक जीव उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! पलास जैसे कहना परंतु स्थिति जघन्य अंत मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारवा शतक का चौथा उद्देशा समाप्त हुआ ॥ ११ ॥ ४॥ . * है अहो भगवन् ! क्या नाडी के एक पत्र में एक जीव है या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! कुंभि ।। *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्दार्थ+कुंभी उ० उद्देशा की २० वक्तभ्यता णि निर्विशेष भा० कहना से वह ए. ऐसे भ० भगवन् ॥११॥५॥ है प० पथ भं० भगवन् ए० एक पत्र में कि क्या एक एक जीव अ० अनेक जीव ए. ऐसे उ० उत्पल go उ० उद्देशा की व० वक्तव्यता णि निर्विशेष भा० कहना से• वह ए. ऐसे भं० भगवन् ॥११॥६॥ १५२५ 3 क. कणिका भं० भगवन् ए० एक पत्र में कि० क्या ए. एक जीव अ० अनेक जीव ए. ऐसे उ• as उत्पल उ० उद्दशा की व० वक्तव्यता णि निर्विशेष भा० कहना ॥ ११॥७॥ ४ वसेसा भाणियन्वा ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ ॥ एगारस सयस्सय पंचमो उद्देसो ॥११॥५॥ पउमेणं भंते! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे एवं उप्पलहेसगवत्तव्वया णिरवसे. सा भाणियव्या ॥ सेवं भंते २ ति ॥ एगारस सयस्सय छ8ो उद्देसो सम्मत्तो 842 अग्यारवा शतक का छठा उद्देशा 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवग कण्णिएणं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे एवं चेव गिरवसेसं भाणियध्वं ॥ ? सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगारस सयस्सय सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ ७ ॥ - जैसे सब कहना ॥ ११ ॥ ५ ॥ -- म अहो भगवन् ! क्या पय कमल के पत्र में एक जीव है या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! उत्पल जैसे Joसबकथन कहना ॥११॥६॥ - अहो भगवर ! कणिका में एक जीव है या अनेक जीव हैं ?अहो गौतम! ऐसे ही सब कहना॥११॥७॥ Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२६ शब्दार्थ है न नलीन भं० भगवन् ए. एक पत्र में कि० क्या ए. एक जीव अ० अनके जीव ए० ऐसे गि० निर्विशेष जा० यावत् अ० अनंत वक्त सा. शालुक में ध० धनुष्य पु. पृथक् हो. होवे ५० पलास में गा० गाऊ पु० पृथक् जो० योजन स० सहस्राधिक अ० अवशेष छ• छकी कुं० कुंभी नी• नाडीक में वा० वर्ष पु० पृथक ठि० स्थिति घोः जानना द० दशवर्ष स० सहस्र अ० अवशेष छ० छकी कुं॰ कुंभी ना० नलिएणं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे एवंचेव णिरवसेसं जाव अणंत खुत्तो ॥ (गाथा) सालुमि धणु पुहुत्तं होइ पलासेय गाउय पुहुत्तं ॥ जोअण सहस्समहियं अवसेसाणं तु छण्हपि ॥ १ ॥ कुंभिए नालीए वासपुहुत्तं ठिईओ बोधव्वा ॥ दसवास सहस्ताई, अवसेसाणं तु छण्हंवि ॥ २ ॥ कुंभिए नालियाए, होति पलासेय तिष्णिलेसाओ, चत्तारिउ लेस्साओ, अवसेसाणं तु पंचण्हं ॥ २ ॥ सेवं भंते भंते ति॥ ___ अहो भगवन् ! नलिनी के एक पत्र में क्या एक जीव है या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! जैसेभावार्थ पहिले का कहा वैसे ही जानना. अब गाथा से विशेषता बतलाते हैं साल में प्रत्येक धनुष्य और पलास में 1 प्रत्येक गाउ और शेष छ की साधिक योजन सहस्र अवगाहना कही. कुंभी और नाली में प्रत्येक वर्ष की स्थिति और शेष की दश हजार वर्ष की स्थिति. कुंभि, नाली व पलास में तीन लेश्याओं शेष पांच में , *चार लेण्याओं कही. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य है यह अग्यारवा शतक आठवा उद्देशा समाप्त बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 innnnnnnnnnnnnnnnnn *.प्रकाशकः राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी * Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १४ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 8980 नाडीक हों० होती है १०पलास में ति०तीन ले० लेश्या च०चार ले. लेश्या अ० अवशेष पं०पांचमें॥११॥८ ते. उस काल ते. उस समय में ह० हस्तिनापुर ण. नगर हो० था व० वर्णन युक्त ॥१॥ तक उस ह० हस्तिनापुर न. नगर की ब. बाहिर उ० उत्तर पु० पूर्व दि० दिशा में स. सहस्राम्रवन उ0120 उद्यान हो था स० सर्व उ० ऋतु के पु०पुष्प फ• फल स० समृद्धिवाला र० रम्य णं. नंदनवन स जैसा मु. सुख दायक सी० शीतल छा० छायावाला म• मनोरम स० स्वादिष्ट फल अ० कंटक रहित पा० एगारस सयस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ ८॥ + + तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे णामं यरे होत्या वण्णओ, तस्सणं हत्थिणापुरस्स णयरस्स बहिया उत्तर पुरत्थिमे दिसीभागे एत्थणं सहस्संबवणे नाम उजाणे होत्था. सब्बोउयपुप्फफल समिद्धे रम्मे गंदणवण सण्णिगासे सुहसीयलच्छाये मणोरमे सादुहुआ ॥ ११॥८॥ . . | आठवे उद्देशे तक में उत्पलादि वनस्पति का अधिकार कहा. इसे सर्वज्ञ जानते हैं अन्य नहीं जानते हैं 390 इससे शिव राजर्षि का अधिकार कहते हैं. उस काल उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था. उस हस्तिनापुर नगर की बाहिर ईशान कौन में सहस्राम्नबन नामक उद्यान था. वह उद्यान सब ऋतु के पुष्प, फलादि से समृद्धिवंत व चित्तको रमणीय था. नंदनवन समान सुखदायी व शीतल छाया वाला था अग्यारवा शतकका नबवा उद्दशा 8800-600 भावार्थ Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + देखने योग्य जा' यावत् १० प्रतिरूप ॥ २ ॥ त० तहां ह० हस्तिनापुर न० नगर में सि० शिव रा०राजा हो० था म० महा हि० हिमवंत व० वर्णन युक्त || ३ || उ० उन सि० शिव रा० राजा को धा धारणी (दे० देवी हो० थी सु० सुकुमार व वर्णन युक्त ॥ ४ ॥ उ० उन सि० शिव रा० राजा का पु० पुत्र धा० घारणीका अ० आत्मज सि० शिव भद्र कु० कुमार हो० था सु० सुकुमार ज० जैसे सू० सूर्यकान्त [जा० यावत् प० अनुभवते वि विचरता है ॥ ५ ॥ तत उन सि० शिव रा० राजा को अ० फले अकंटए पासादीए जाव पडिरूवे ॥ २ ॥ तत्थणं हत्थिणापुरे णयरे सिवेमं या होत्या; महयाहिमवंत वण्णओ ॥ ३ ॥ तस्सणं सिवस्स रण्णो धारणी णामं देवी होत्था, सुकुमाल वण्णओ ॥ ४ ॥ तस्सणं सिवस्स रण्णो पुत्ते धारणीए अत्तए भिद्दे णामं कुमार होत्था, सुकुमाल जहा सूरियकंते जात्र पश्चवेक्खमाणे २ विहरइ ॥ ५ ॥ एणं तस्स सिवरस रण्णो अण्णयाकयाइं पुव्वरत्तावरन्त काल उसमें मिठे फल वाले वृक्षों थे और कंटकादि दुःखदायी वस्तुओं से रहित यावत् प्रतिरूप था ॥ २ ॥ उस हस्तिनापुर में शिव नामक राजा था वह महा हिमवंत पर्वत की तरह बडा यावत् वर्णन योग्य था. ॥ ३ ॥ उस शिव राजा को सुकुमार व वर्णन योग्य धारणी नामक देवी थी ॥ ४ ॥ उम शिव कुमार { को धारणी राणी से उत्पन्न हुआ शिवभद्र नामक कुमार था. उस का वर्णन राय प्रवेणी में जैसे सूर्यकांत सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + # प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५२८ Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 एकदा पु० पूर्व र० रात्रि का काल में र० राज्यधुरा चि चितवते अ० इसरूप अ० चितवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा अ० है मे० मेरे पु. पहिले के पो० पुराणे ज• जैसे ता तामली तापस जा यावत् है | पु• पुत्र से प० पशु से र० राज्य से र० रथ से व० बल से वा० वाहन से को० कोश को कोठार से पु० पुरसे अं० अंतःपुर से व• वृद्धिपाता हूं वि० विपुल घ० धन क कनक र० रत्न जा. यावत् सं० सत् सा० वस्तु से अ० अतीव अ० वृद्धिपाता हूं अ० मैं पु० पहिले के पो० पुराने जा० यावत् ए० एकान्त समयंसि रज्जधुरंचिंतेमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, आत्थि तामे पुरा पोराणाणं जहा तामलिस जाब पुत्तेहिं बड्ढामि, पसूहि बढाम, रज्जेणं वढामि, एवं-रहणं-बलेणं-वाहणेणं-कोसेणं-कोट्ठागारेणं-पुरेणं-अंतेउरेणं बड्डामि ॥ विपुलधण कणग रयण जाव संतसारसावदेजेणं अतीव २ आभिवढामि, तं किंणं अहं पुरा पोराणाणं जाव एगतसोक्खं उव्वेहमाणे विहरामि तं जाव ताव अहं हिरण्णेणं लुमार का कहा वैतेही जानना यावत् मुख भोगता हुवा विचर रहा है ॥ ५ ॥ एकदा शिव राजा को पूर्व | रात्रि में राज्य धूराकी चिंता करते हुवे ऐसा अंध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि मेरे पूर्वकृत दान, पुण्य व तपई प्रभावसे यह ऋद्धि प्राप्त हुई है. जिस प्रकार तामली तापस का अधिकार कहा ऐसे ही इसका कहना यावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य ऋद्धि स्थादि वाहनों, सेना, धनभंडार, कोष्टागार, ग्राम, नगर व अंतःपुर से । अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ namoonamnnnn. Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * सा० मुख उ० भोगवता वि० विचरताहूं तं० इसलिये जा. यावत् अ मैं हि हिरण्य से व. वृद्धिपाताई जायावत् अ बहुत वृद्धिपाताई मे मेरे सा० सामन्त रा० राजा वि० वश व० हैं ता० तावत् मे मुझे स. श्रय के. काल पा. प्रभात में जा. यावत् ज० सूर्य स० बहत लो० लोहेके पात्र क. कडाह क. कडुछा ता० तापम के भ० भांडे घ. बनवाकर सि. शिवभद्र कु० कुमार को र० राज्य पर ठा० स्थापकर ते. उस स० वहत लो. लोहे के पात्र क. कडाह क. कडुछी ता० तापस के भं० भांडे वड्ढामि ॥ तं चेन जाव आभिवामि ॥ जाव चमे सामंत रायाणो विवसे वहति ताव तामे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंतं सुबहुं लोहीलोहकडाह कडुच्छुयं तंपिय । तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठावेत्ता तं सुबहुं लोहीलोहकडाह कडुच्छुयं तंपिय तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूल वाणपत्था तावसा भवंति तंजहा वृद्धि पाता हूं बहुत धन, धान्य, कनक रत्न यावत् प्रधान द्रव्य से बहुत वृद्धि पाता हूं. इसका क्या कारन .. है ? मैने जो पुर्व भवमें जो कुछ दान तप किया था उसका मुखरूप फल भोगता हुवा विचर रहा हूं. इसलिये जहां लग मेरे धन धान्य वृद्धि पाते हैं यावत् सामंत राजा वगैरह मेरे वश में वर्तते हैं वहांलग प्रभात होते यावत् ज्वलंत सूर्य उदित होते तापस योग्य उपकरण,लोहेका तवा, कुडछी वगैरह उपकरणों बनवाकर शिवभद्र कुमार को राज्यासन पर बैठाकर उस उपकरणों, लोही व कुडछी ग्रहण कर गंगा नदी के किनारे। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 2280 ग० ग्रहणकर जे. जो इ.. ये गं० गंगाकूल के पा० वानप्रस्थ ता० तापस भ होते हैं तं० वह ज० जैसे हो. अग्निहोत्री पो० वस्त्रधारी ज. जैसे उ. उववाद में का० भमिपे सोने वाले ज० यज्ञ करने वाले स० श्राद्ध करने वाले था कमण्डलधारी हुं० कुंडिक आश्रम वाले दं० फल भोगी उ० एक वक्त स्नान करने वाले सं० निमजन करने वाले णि स्नान करने वाले सं० मिट्टिका लेपकर स्नान करने वाले उ० नाभिके उपर खाज खनने वाले अन्नाभी के नीचे खाज खनने वाले दक्षिण तटप बैठने वाले उ उत्तर तटपे बैठने होत्तिया, पोत्तिया,जहा उबवाइए कोत्तिया, जण्णई,सण्णई,थालई, हुंवउट्ठा दंतुक्कलिया, उम्मज्जगा,समज्जगा,णिम्मजगा,संपक्खाला,उड्डकडूयगा अहोकंडूयगा दक्खिण कुलगा । उत्तरकूलगा सखधमगा कूलधमगा,मिगलुद्दया,हात्थतावसा, जलाभिसेय, कढिणगत्ता, अंबुवासिणो, वाउवासिणो, जलवासिणे, वेलवासिणो, अंबुभक्खिणो, वाउभक्खिणो, पर रहने वाले तापसों में जाना मुझे श्रेय है. वे तापम कैसे हैं १ अग्निहोत्र करने वाले, २ वस्त्र रखने वाले १३ भूमि शयन करने वाले, ४ यज्ञ करने वाले, ५ श्रद्धावंत, ६ अपने उपकरण सदैव साथ रखने वाले कमंडलधारी ८ फलाहारी ९ एकवार पानी में प्रवेशकर तत्काल नीकलने वाले १० वारंवार पानी में प्रवेश वश करनेवाले १२ नाभी के उपर के अंग में खुजाले नहीं १२३ नाभी के नीचे का भाग खजाले नहीं १४ गंगा के दक्षिण भाग में रहनेवाले १५ गंगा की उत्तर 4 अग्यारना शतकका नववा उद्देशा 18238 भावार्थ Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थकाले सं० शंख बजाने कू० नदी नटपे शंख बजाने वाले मि० मृगका मांस खानेवाले ह• हस्ति तापस: ज. जल अ० अभिषेक से क० कठीन गात्र वाले अं० जलवासी वा० वायु वासी अं० जलभक्षी वा० वायुभक्षी से सेवालभक्षी मू. मूलाहारी प. पत्राहारी त० सचाहारी पु०१३ |१५३२ पुष्पाहारी फ० फलाहारी बी० बीजाहारी ५० समस्त कं० कंद मू० मूल त० त्वचा प० पत्र पं० पकेहुवे | सेवालभक्खिणो, मूलाहारा, कंदाहारा, पत्ताहारा, तयाहारा, पुप्फाहारा, फलाहारा, बीयाहारांपडिसडिय कंदमूलतयपत्त पंडुत्त पुप्फफलाहारा उदंडगा रुक्खमूलिया मंडविया, बिलवासिणो, वकवासिणो दिसापोक्खिणो, आतावणेहि, पंचम्गितावेहि, इंगालसोल्लि दिशा में रहनेवाले १६ शंख बजाकर भोजन करनेवाले, १८ मृग का ही मांस खानेवाले १९ एक हस्ती मारकर बहुत दिन तक खानेवाले २० पानी के स्नान से शरीर को कठिन करनेवाले २१ पानी में सदैव रहनेवाले २२ वायु में सदैव रहनेवाले. २३ पानी की अंदर डूबकर सदैव रहनेवाले २४ पानी के प्रवाह . की साथ चलनेवाले (पाठांतर में वस्त्र के मकान सो तंबू आदि में रहनेवाले) २५ मात्र पानी के आधारसे रहनेवाले २६ वायु का भक्षण करनेवाले २७ पानी की सेवाल खाकर सदैव रहनेवाले २८ वनस्पति का मूल खाकर रहनेवाले २१. वनस्पति का कंद खाकर रहनेवाले ३० पत्र खाकर रहनेवाले ३१ वृक्ष की त्वचा खाकर रहनेवाले ३२ पुष्प खाकर रहनेवाले ३३ फल खाकर रहनेवाले ३४ वीज खा कर रहनेवाले .41 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालापसादजी * भावार्थ Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ14140 * 14 पु० पुष्प फ० फलाहारी उ० ऊर्ध्व दंडी रु० वृक्षके मूल में बैठने वाले मं० मंडली वाले वि० बिलवासी 4 वल्कल पहिननेवाले दिदिशा में जल सींचकर आहार ग्रहण करनेवाले आ आतापना से पं०पंचअग्निताप से Vई० अग्नि सरिखा कं० कंदुसरिखा क• काष्ट सरिया जा० यावत् अ० आत्मा को क० करते वि. विचरते है त० तहां जे. जो दि० दिशोको जल सिंचकर ग्रहन करने वाले ता० तापस ते. उन की अं. पाम, 4 मुं० मुंड भ० होकर दिः दिशा प्रोक्ष्यक ता. तापसपने प० प्रवा अंगीकार करने को ५० प्रवा यंपिव, कंदुसोल्लियपिव, कटुसोलियंपिव, जाव अप्पाणं करेमाणा विहरंति ॥ तत्थणं जेते दिसापोक्खिय तावसातेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइत्तए । पन्वइएवियणं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गाहं अभिगिण्हेस्सामि ॥ कप्पइ मे जाब भावार्थ । ३५ किसीने डाल दिया अथवा बिगडगया हुवा कंद मूलादि खानेवाले, ३६ ऊंचा दंड रखकर सदैव रहने वाले ३७ वृक्ष की नीचे सदैव रहनेवाले ३८ मर्यादा बांधकर सदैव रहनेवाले ३१ बिलों में निवास करनेवाले ४० वल्कल पहिननेवाले ४१ चारों दिशा को पोषनेवाले ४२ सूर्य व अग्नि का ताप सहन करनेवाले १.४३ पंचाग्नि तपनेवाले ४४ आग्नि के ताप से तपकर कोयला जैसा शरीर करनेवाले ४५ अग्नि से हंडे समान *शरीर पचाने वाले, ४६ तपश्चर्या से शरीर शुष्क करके काष्ट भूत करने वाले वगैरह अनेक प्रकार के कष्टों } * सहन करने वाले तापस विचरते हैं ! इन में से दिशापोषी तापस की पास मंडित बनकर तापस पनाई | 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णारी (भगवत अग्गरवा शतक का नया उद्देशा है Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 08 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी लेकर ए० इसरूप अ० अभिग्रह अ० ग्रहण करूंगा क० कल्पता है मे मुझे जा० जीवन पर्यंत छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित दि० दिशा चक्र वाल त तप कर्म से उऊर्ध्व बाहु प० रखकर जा० यावत् वि० विचरने को ति० ऐसा करके सं० विचार करे || ६ || क० काल जा० यावत् ज० सूर्य सु० बहुत लो० लोहे के पात्र जा० यावत् ६० बनवाकर को कौटुम्बिक पु० पुरुष को स० बोलाकर ए० ऐसा व बोले (खि० शीघ्र दे० देवानुप्रिय ह० हस्तिनापुर ण० नगर को स० आभ्यंतर बा० बाह्य आ० सिंचकर जा जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालएणं तवोकम्मेणं उद्धुं बाहाओ पगि झिय २ जाव विहरित्तए तिकटु एवं संपेहेइ २ ता ॥ ६ ॥ कलं जाव जलंते बहुं लोहीलोह जाव घडावेत्ता कोडुबिय पुरिसे सदावेइ २त्ता एवं बयासी खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! हत्थणाउरं यरं सभितर बाहिरियं आसिय जाव तमाणत्तियं अंगीकार करना मुझे श्रेय है. और भी प्रवर्ज्या लिये पीछे ऐसा अभिग्रह करना कि मुझे जीवन पर्यंत छठ भक्त निरंतर तप करना श्रेय है और पारने के दिन पूर्वादि दिशाओं की पूजा करके पारना करना और जहां लग पारणा का काल प्राप्त नहोवे वहां लग आतापना के स्थान दोनों हाथ ऊंचा रखकर आतापना लेता हुआ विचरना || ६ || ऐसा विचार करते जब प्रातःकाल हुबा तब लोहे का तवा कुडच्छा वगैरह बनाकर कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम नगर को * प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५३४ Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र यावत् त उनकी आ० आज्ञा प० पीछीदेते हैं तो तब से वह सि शिव रा. राजा दो० दूसरी वक्त । को कौटुबिक पुरुष को स० बोलाकर एक ऐमा व बोले खि० शीघ्र दे० देवानुप्रिय सि० शिव भद्र कुमार का म० बडा वि० विपुल रा. राज्याभिषेक उ० करो त० तब ते० वे को कौटुम्बिक पुरुष त..* १५३५ तैसे जा० यावत् उ० करते हैं ॥ ७ ॥ त तब से वह सि• शिव रा० राजा अ० अनेक ग० गण ना. नायक दं० दंडनायक जा. यावत् सं० सन्धिपाल स० साथ सं० घेरायाहुवा सि० शिवभद्र कुमार को पच्चुप्पिणंति तएणं से सिवराया दोच्चंषि कोडंघिय पुरिसे सद्दावेइ २ त्ता, एवं क्यासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं २ विउलं रायाभिसेयं में उवट्ठवेह तएणं ते कोडुंबिय पुरिमा तहेब जाव उवट्ठति ॥ ७ ॥ तएणं से सिवे. राया अणेग गणनायग, दंडनायग, जाव संधिवाल सर्हि संपरिवुडे सिवभद्दकुमारं अंदर व बाहिर स्वच्छ करके शणगारो और ऐसी सब प्रकार की सामग्री करके मुझ मेरी आज्ञा पीस दो. फीर दुसरी वक्त कौटुम्बिक पुरुषों को वोलाकर कहा कि शिवभद्र कुमार केलिये बहुत द्रव्य का खर्चा , करके बडा राज्याभिषेक करो. ऐसा वचन सुनकर वे कौटुम्बिक पुरुषोंने आज्ञानुसार सब तैयारी करदी ॥ ७ ॥ तब अनेक गण नायक दंड नायक यावत् संधिपाल से परवरा हुवा शिवराजाने शिवभद्र कुमार को सिंहासनपर पूर्वाभिमुख से बैठाया और १०८ सुवर्ण यावत् १०८ मृत्तिका के कलश इत्यादि ।' | अग्यारवा शतक का नवाबदशा 48 Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३६ शब्दार्थ 4 सी० सिंहासनपे पु० पूर्वाभिमूख से णि बैठाकर अ• आठ स. शत सो० सुवर्ण के क० कलश जा०: यावत् अ० आठ सशत भो० मिट्टिके का कलश से स० सर्वऋद्धि से जा. यावत् र० शब्द से म० बडा रा० राज्याभिषेक अ० सिंचनकर ५० पाम सु. सुकोमल सु० सुराम गंध वाला का• वस्त्रसे गा. गान ल० पूंछकर सः सरस गो० चंदनमे ज. जैसे ज• जमाली का अलंकार जा. यावत् क० कल्पवृक्ष जैसे अ० अलंकृत वि. विभूषित क० करके क० करतल जा. यावत् क० करके मि० शिवभद्र __सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं णिसीयाति २ ता, अट्टसएण सोवाणियाणं कलसाणं जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सन्धिड्डीए जाव रवेणं महया रायाभिसेएणं आभिसिंचंतिरत्ता, पम्हलसुकुमालाए सुरभिगंधकासाईएगायाइं लहेइ २त्ता, सरसेणं गोसीसणं जहेव जमालिस्स अलंकारो जाव कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसियं करेंति २ ता, भावार्थ सब प्रकार की ऋद्धि से यावन् वादियो व बंदीजनों का विजय ध्वनि से बहुत बडा राज्याभिषेक से अभि सिंचन किया. अभिसिंचन करके पक्ष्मल [ पशम ] जैसे सुकोमल सुगंधित कषाय वाला बत्र से गात्रों को पूंछे फीर अच्छे गोशीर्ष चंदन से गात्रों को लेपन किया. जैसे जमाली का राज्याभिषेकका अधिकार है वैसे ही यहां कहना यावन् सब वस्त्रालंकार से अलंकृत कर कल्पवृक्ष समान सुशोभित किया. और सब हाथ जोडकर शिवभद्र कुमार को जय विजय शब्द से वधाये, बहुत इष्टकारी मियकारी शब्दों से संतुष्ट किया है 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखद आयजी ज्वालाप्रसादजी Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 पंच गङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र Pat कुमार को ज. जय वि. विजय में व० वधावे ता. उन ई० इष्ट के. कांत पि. प्रिय ए० ऐसे ज० जैसे, उ० उक्वाइ में कू० कूणिक का जा० यावत् १० उत्कृष्ट आयुष्य पा० पालो इ० इष्ट जन सं० परवरे हुवे ह० हस्तिनापुर न० नगर अ० अन्य १० बहुत गा० ग्राम आ० आगार जा. यावत् वि. विचरो त्ति ऐसा करके ज० जय जय स० शब्द ५० प्रयंजे ॥ ८ ॥ त० तब से वह सि. शिवभद्र कुमार रा० राजा जा० हुबा म० महा हि हिमवन्त व० वर्णन युक्त जा० यावत् वि० विचरता है ॥ ९ ॥ करयल जाव कटु सिवभई कुमारं जएणं विजएणं वडावेति २ त्ता, ताहिं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं एवं जहा उववाइए कुणियरस जाव परमाउयं पालयाहिं इ8 जण संपरिवुडे,हत्थिणापुरस्स णयरस्स अण्णेसिंच बहूणं मामागर जाव विहराहि त्तिकटु जयजयसदं पउंजंति ॥ ८ ॥ तएणं से सिबभद्दे कमारे राया जाए महयाहिमवंत वण्णओ जाव विहरइ ॥ ९ ॥ तएणं से सिवे राया अण्णयाकयाइं सोहणंसि तिहिकरण दिवयों जैसे उबवाइ सूत्र में कूणिक राजा का कथन है उस प्रकार ही यहां सब कहना. यावत् परम उत्कृष्ट पालना. इष्टजनों की साथ परवरे हुए हस्तीनापुर नगर का व अन्य अनेक ग्राम व नगरों का राज्य करते. ॐ हुवे यावत् विचरना ॥ ८ ॥ फीर वह शिवभद्र कुमार राजा यावत् महाहिमवंत पर्वत समान यावत् विचरने* लगा ॥९॥ फीर शिव राजाने उत्तम तिथि, करण, दिन, नक्षत्र व मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खादिम | अग्यारवा शतक का नववा उद्दशा 48 भावार्थ Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + त० तब से वह वि० शिवराजा अ० एकदा सो० शुभ ति० तिथि क० करन दि० दिवस {ण० नक्षत्र मु० मुहूर्त में वि० विपुल अ० असन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम उ० बनवाकर मि० मित्र णा० ज्ञाति णि० संबंधी जा० यावत् प० परिवार को रा० राजाओं को ख० क्षत्रियों को आ० आमंत्रणकर त० पीछे पहा० स्नान किया जा० यावत् भो० भोजन मं० मंडप में सु० शुभासनपे व० बैठे हुवे तं० उन मि० मित्र णा० ज्ञाति णि० संबंधी जा० यावत् प० परिजन रा० राजाओं ख० क्षत्रियों स० साथ वि० विपुल अ० असन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम ए० ऐसे ज० जैसे ता० तामली सणक्खत्त मुहुत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उक्क्खडावैति उवक्खडावेंतित्ता मित्तणाइणियग जात्र परियणं रायाणो खत्तिएय आमंतेइ २ त्ता तओ पच्छा हाए जाव सरीरे भोअणमंडवंसि सुहासण वरगए तं मित्तणाइ णियग सयण जात्र परिजणेणं राईहिं खत्तिएहिय सार्द्धं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं एवं जहा ताली जा सकाइ सम्माणेइ २ ता तं मित्तणाइ णियग जाव परिजणं रायाणो व स्वादिम बनवाया विपुल अशनादि बनवाकर मित्रज्ञाति स्वजन यावत् परिजन, राजा व क्षत्रियों को आमंत्रण देकर के बोलाये. फीर स्नान किया यात्रत् वस्त्रालंकार से विभूषित बनकर भोजनगृह के मंडप में ॐ सुभासन पर बैठे. वहां मित्र ज्ञाति स्वजन यावत् परिजन से राजा व क्षत्रियों की साथ बहुत अशन, सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १५३८ Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 43- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र { जा० यावत् सं० सत्कार कर स० सन्मानकर तं० उन मि० मित्र णा० ज्ञाति णि० संबंधी जा० यावत् १५० परिजन रा० राजाओं ख० क्षत्रियों सि० शिवभद्र रा० राजा को आ० पूछकर सु० बहुत लो० लोह के पात्र क० कडाइ क० कडुछी जा० यावत् भ० भांडे ग० ग्रहणकर जे० जो गं० गंगाकूल वा० वान { प्रस्थ ता० तापस भ० होते हैं जा० यावत् ते० उन की अं० पास मुं० मुंडहोकर दि० दिशा पोषक ता० | सापसपने ५० प्रवर्जीत हुवा प प्रवजित होकर ए० इसरूप अ० अभिग्रह गि० ग्रहणकरे क० कल्पता है मे० मुझे जा० जीवन पर्यंत छ० छठ जा० यावत् अ० अभिग्रह अ० ग्रहणकर प० प्रथम छ० छटक्षमण खत्तिएय सिवभदंश्च रायाणं आपुच्छइ २त्ता सुबहु लोही लोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडं हाय जे इमे गंगाकूल वाणप्पत्था तावसा भवंति तं चैव जात्र तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खिय तावसत्ताए पव्वइए, पव्वइए वियणं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं गिoes कप्पइ मे जावजीवाए छटुं तंचेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ २त्ता पान, खादिम व स्वादिम यों चारों प्रकार का आहार वगैरह जैसे तामली तापस का अधिकार है वैसे { कहना यावत् सत्कार सन्मान करके मित्र ज्ञाति स्वजन यावत् परिजन राजा, क्षत्रियों व शिवभद्र कुमार को पुछकर लोहे की कडाइ व कुडछी आदि भंडोपकरण लेकर जो गंगा नदी के किनारे तापस रहते थे उन { में से दीक्षा पोषक तापस की पास दीक्षा अंगीकार की. फीर ऐसा अभिग्रह किया और मथमही बेलेर का 4003 अग्यारवा शतक का नववा उद्देशां 49 . १५३९ Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५४० +3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उ० अंगीकार कर वि. विचरता है ॥ १० ॥ त तब से वह सि• शिवराजर्षि ५० प्रथम छ छठक्षमण पा० पारणे में आ० आतापन भू० भूभि से प० उतरकर वा० वल्कल ५० वस्त्र नि० पहीनकर जे. जहां म० अपना उ० आश्रम ते तहां उ० आकर कि० कावड गि० ग्रहणकर पु० पूर्व दिशा में पो० जलसिंचे पूर्वदिशा में सो० सोम म. महाराजा प. मोक्षमार्ग में प० प्रवृत्त के अ. अभिरक्षक सि० शिवराजर्षि का अरक्षण करो जाल जो त तहां कं० कंद मूल मूल त• त्वचा प० पत्र पु० पुष्प फ फल बी०वीज पढभं छट्टक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ १७ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी पढम छट्ठक्खमण पारणगंसि आयावण भूमीए पच्चोरुहइ २ त्ता वालगवत्थ नियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ २ ता किढिणसंकाइयं गिण्हइ २त्ता पुरच्छिमं दिसिं पोक्खेइ पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खओ सिवं रायरिसिं अभि २ जाणिय, तत्थ कंदाणिय मूलाणिय तयाणिय, पत्ताणिय पुप्फाणिय तप अंगीकार कर विचरने लगे ॥ १० ॥ जब प्रथम बेले का पारणा पाया तब आतापना भूमि से नीकल कर वल्कल धारण किये. और अपनी पर्णकटि में आये. और काष्ट का वंशमय तापस का अन्य भाजन (कावड ) लेकर पूर्व दिशा में पानी के छोटे डाले. फोर पर्व दिशा के सोम महाराजा परलोक साधने के मार्ग में प्रवजित बना हुवा शिवराजा को उन के फल फुल लेते हुवे विघ्न दूर करो, और कंद, मूल, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ mammnamanna Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ | 8 सत्र पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र ह. हरीत ता. उन की अ० आज्ञा दो त्ति ऐसा करके पु० पूर्व दिशा में प० जाकर जा. जो त० तहां, क० कंद जा० यावत् ह० हरित ता० उन को गे ग्रहगकरे कि० कावड में भ० भरकर द० दर्भ कु. कुश म. समिध प० तोडे हवे पत्र गे० ग्रहणकरे जे० जहां स० अपना उ० आश्रम ते. तहां उ० आकर कि० कावड ठ० स्थापन कर वे० वेदिका को व. पूजकर उ० लेपन सं. संमार्जन क० करके द० दर्भ क कलश ह. हस्त में लेकर जे. जहां गं. गंगा म० महानदी ते० तहां उ० आकर मं० गंगा फलाणिय बीयाणिय हरियाणिय ताणि अणुजाणउ तिकटु, पुरच्छिमं दिसिं पसरइ २ त्ता जाणिय तत्थ कंदाणिय जाब हरियाणिय ताइं गण्हइ किढिणसंकाइयं भरेइ, किढि २ त्ता दन्भेय कुसेय समिहाउय पत्तामोडंच गिण्हेइ, जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ २ ता, किढिणसंकाइयं ठवेइ, किढि २ ता, वेदि वढेइ २ ता, उवले. वणसंमजणं करेइ २ त्ता, दब्भकलसहत्थगए जेणेब गंगा महाणदी तेणेव उवाछाल, पत्र, फूल, फल, बीज व हरित वगैरह वस्तु ग्रहण करने की आज्ञा दो. ऐमा कहकर पूर्व दिशा कीom तरफ चले और कंद मूल आदि ग्रहण करके कावड में डाले. फीर दर्भ कुश, समिध व तरुण शाखा के पत्र ग्रहण किये पीछे अपनी पर्णकटि में आये. वहां कावड नीचे रखी और रेती की बनायी हड वेदिका को साफ की गोबरादि से उस में विलेपन किया. फीर वहां से दर्भ व कलश हस्त में रखकर अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ , Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थIAS १५४२ उ० उतरकर ज. जल स्नानकरे की. क्रीडा क. करे ज० जलाभिषेक क. करे अ० यत चा० शुद्ध प० परम सु० शुचीभूत दे० दैव पि. पितक क. कृतकार्य द० दर्भ का कलश । ह० हस्त में व० रहा हुवा गं. गंगा म०महानदी से १० नीकलकर जे. जहां स० अपना उ० आश्रम ते. तहा उ• आकर द० दर्भ कु. कश बा. वाल से वे. वेदिका र० रचकर स• काष्ट से अ° अराण म० मन्थनकरे अ० अग्नि पा० पाडे अ० अग्नि को सं० धूम्रवान् करे स० समिध क. काष्ट १०१ गच्छइ २ त्ता, गंगा महाणदि उग्गाहेइ २ त्ता जल मजणं करेइ २ सा कीडं करेइ २त्ता जलाभिसेयं करेइ २ त्ता, आयंते चोक्खे परमसुइ भूते देवय पित्तिय कयकजे १ दब्भ सगब्भ कलस हत्थगए गंगाओ महाणदीओ पच्चुत्तरइ गंगाओ महाणदीओ पच्चुत्तरइत्ता जेणेव सए उहए. तेणेव उवागच्छइ २ त्ता दब्भेहिय कुसेहिय वालुया एय वेइं रयेइ २ ता, सरएणं अरणिं महेइ २ त्ता अग्गि पाडेइ २ त्ता, अग्गिसंधुक्केइ भावार्थ गंगा महा नदी की तरफ गये वहां उस में जाकर स्नान किया जलक्रीडा की और जलका अभिषेक किया. E फोर अपनेको स्वच्छ व परम शुचिभूत मानते हुवे देवोंको व पितृओं को पानी की अंजलीरूप दान देते हुवे कलश में दर्भ युक्त पानी हस्त में ग्रहण करके गंगा नदी से नीकल कर अपनी पर्णकूटि में आये. वहां 15दर्भ से, कुश से व बालु से वेदिका बनाकर काष्ट की साथ अरणी घसकर अग्नि तैयार की. संधूक से धमकर १२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ डाले अ० अग्नि उ० उज्वलीतकर अ० अग्नि की दा० दक्षिण बाजु स० सात अंग स० स्थापे तं• वह } 0 | ज० जैसे स० सकथा व. वल्कल ठा० स्थान से० शय्या भांड क. कमण्डल द. दन्तदारु त० तथा | V अ० आपको म० मध से घ० घत से तं तंदल से अ० अग्नि कोह हवनकर च. चोखा सा. कर ब० बली व० अग्निको क० देकर अ० अतिथि पू० पूजा क. करके त० पीछे आ० आप आ०१ आहारकरे त• तब से वह सि० शिवराजर्षि दो० दुसरी वक्त छ० छठक्षमण उ० अंगीकारकर वि. २त्ता समिहाय कट्टाई पक्खिवेइ २ त्ता अग्गि उज्जालेइ २ त्ता अग्गिस्स दाहिण १ पासे सत्तंगाई समादहे तंजहा सकहं वक्कलं ठाणं सेजाभंडं कमंडलु, दंडदारूं तहप्पाणं आहेताई समादहे ॥ १ ॥ महुणाय घएणय, तंदुलेहिय अग्गि हुणइ; हुणइ २ । त्ता चरुं साहेइ साहेइत्ता, बलिं वइसदेवं करेइ २ त्ता, अतिहिपूयं करेइ २ त्ता, तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ तएणं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्टक्खमणं उवसं भावाथ यूं किया और अग्नि में काष्ट डालकर प्रज्वलित की. अग्नि की दक्षिण की तरफ सात रकम की स्था हैपना की १ कथा [गोदडी] २ वल्कल के वस्त्र ३ पात्र ४ शैय्या ५ पानी का पात्र ६ काष्टमय दंड ७७ आप स्वयं फीर मधु, घृत व तंदुल अग्नि में डाले क्षीरादिक बलि के लिये बनाये. अग्नि का पूजन, किया, आये हुने अतिथी माहूणे की पूजा करके फीर शिवराजर्षिने पारणा किया. पारणा करके पुनः। Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५४४ 48 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gr विचरे ॥ ११ ॥ त० तब से वह सि• शिव रा० राजर्षि दो० दूमरी वक्त छ. छठक्षमण में आ०. न भ० भमिसे प० उतरकर वा. वल्कल वस्त्र ए. ऐसेज जैसे प० प्रथम पा० पारणा में ण विशेष दा० दक्षिण दिशा में पो० प्रवृत होवे दा• दक्षिण दिशा में ज० यम म० महाराजा १० प्रस्तार से० शेष तं० तैसे जा० यावत् आ० आहारकरे ॥ १२ ॥ त० तब सि० शिवराजर्षि त० तीसरा छ. छठक्षमण उ० अंगीकारकर वि० विचरे ण. विशेष प० पश्चिम दिशा में पो० प्रवृत्त होवे प० पश्चिम दिशा पजित्ताणं विहरइ ॥ ११ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी दोच्चं छटुक्खमण पारणगांस आयावण भूमीओ पच्चोरुहइ २ त्ता वागल एवं जहा पढमपारणगं, णवरं पाहिणदिसिं पोक्खेइ २ ता दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणं सेसं तंचेव जाव आहारमाहारेइ ॥ १२ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी तर्च छट्ठक्खमणं उबसंपजित्ताणं विहरइ ॥ तएणं से सिवे सेसं तंचेव, णवरं पञ्चत्थिमं दिसि पोक्खेइ पञ्चत्थिमाए दूपरा वेला कर दिया ॥ ११ ॥ फोर दूसरे बेले के पारणे में आतापना भूमि में से आकर जिस विधि से पहिला बेला का पारणा किया उसी विधि से दूसरे बेले का पारणा किया, परंतु इस में दक्षिण दिशा लेना और दक्षिण दिशा का यम महाराजा ग्रहण करना ॥ १२ ॥ फीर तीसरा बेला किया उस में पूर्वोक्त * प्रकाशक-राजाजहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 ] १५४५ 19 में व० वरुण म ० महाराजा प० मोक्षमार्ग में प० प्रवृत से० शेष तं० तैसे जा. यावत् आ० आहारकरे १०॥ १३ ॥ त० तब से वह सि. शिवराजर्षि च० चौथा छ. छठक्षमण उ० अंगीकारकर वि. विचरे त० तब से वह सि० शिवराजर्षि च० चौथा छ. छठक्षमण णा विशेष उ० उत्तर दिदिशाको पो० प्रवृत होवे उ• उत्तर दिशा के वे० वैश्रमण म० महाराज प. मोक्षमार्ग में प० प्रवृत के अ० रक्षक से० शेष जा. यावत् त• पीछे था. आप आ० आहारकरे ॥ १४ ॥ त० तब उ० उस मि० शिवराजर्षि को छ० दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तंचे जाव आहारमाहारेइ ॥ १३ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी चउत्थ छ? क्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ। तएणं से सिवे रायरिसी चउत्थ छ? क्खमण एवंचेव, णवरं उत्तरं दिसिं पोक्खेइ, उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खओ सेसं तंचेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ॥१४॥ तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं विधि जानना. इस में पश्चिम दिशा व पश्चिम दिशा का वरुण महाराजा जानना ॥ १३ ॥ फीर चौथा बेला किया उस में भी पारणा पूर्वोक्त विधि से किया परंतु उत्तर दिशा व उत्तर दिशा के अधिपति वैश्रमण महाराजा ग्रहण करना ॥१४॥ इस तरह शिव राजर्षि को निरंतर छठ छठ का तप करते यावत् आ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा 988 488 Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र. 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ. छठ छठ के अ० अंतर राहत दि० दिशा च० चक्रवाल जा० यावत् आ०आतापनालेते प० प्रकृति भद्रक { जा० यावत् वि० विनीत अ० एकदा त तपावरणीय क० कर्म के ख० क्षयोपममसे ई० ईहापोह म० मार्ग गवेषण क० करते वि० विभंग अ० अज्ञान स० उत्पन्न हुवा ते० उस वि० विभंग अज्ञान से स० उत्पन्न हुवा पा० देखे अ० इसलोक में सः सातद्वीप स० सात समुद्र ते ० उससिवा न नहीं जा० जाने न० नहीं पा० देखे त तब त० उस सि० शिवराजर्षि ए० इसरूप अ० चितवना जा० यावत् स० उत्पन्न {हुवा अ० है म० मुझे अ० अतिशेष णा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हुवा अ० इस लोक में स० सात दिसाचकवाले जाव आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए जाव विणीययाए अण्णयाकयाई तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे णामं अण्णाणे समुपण्णे | सेणं तेणं विभंग अण्णाणेणं समुप्पण्णेणं पासइ, अस्सि लोए मत्तदीवा सत्तसमुदा तेणं परं न जाणइ न पासइ ॥ तएणं तस्स सिवरसरायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपजित्था, अत्थिणं ममं अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पण्णे, (तापना लेते हुवे प्रकृति भद्रिक यावत् विनितपना से अज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से ईहा पोह करते (हुवे विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न हुवा. इस से वह राजर्षि सात द्वीप व सात समुद्र देखने लगा. उस से आगे कुछ जानने व देखने लगा नहीं. फीर उस शिव राजर्षि को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि मुझे * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १४४३ Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५४७ शब्दार्थ द्वीप स. सात समुद्र ते उससिवा वो० विच्छेदगये दी द्वीप स० समुद्र ए. ऐसा सं० विचारकर आ० । आतापन भूमिसे प. उसरकर वा० वल्कल व० वस्त्र नि० पहीने हुवे जे. जहां स० अपना उ० आश्रम ते. तहां उ० आकर स बहुत लो० लोहके पात्र क० कडाइ क कड़छी जा: यावत् भं. भांडे कि० कावड गे० ग्रहणकर जे० जहां ह० हस्तिनापुर न० नगर जे. जहां ता० तापस का. आश्रम ते० तहां उ० आकर भं० भांडे नि निक्षेप क० करके ह• हस्तिनापुर ण. नगर सिं० सिंघाडग जा. यावत् प० रस्ते में व. बहुत मनुष्य को ए. ऐसा आ. कहे जा. यावत् प० प्ररूपे अ०है दे० देवानुप्रिय म० एवं खलु अस्सि लोए सत्तद्दीवा सत्तसमुद्दा, तेणं परं वोच्छिण्णा दीवाय समुदाय एवं संपेहेइ २ त्ता, आयावण भूमीओ पच्चोरुहइ २ त्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छ३ २ त्ता सुबहुं लोहो लोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडगं किदिण संकाइयं गेण्हइ २ त्ता जगेव हथिणापुरे णयरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, भंडगणिक्खेवं करेइ करेइत्ता, हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडगतिग जाव पहेमु ०७ अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है इस से मैं जान सकता हूं कि इस लोक में सात द्वीप व सात समुद्र हैं. आगे कोई द्वीप व समुद्र नहीं है. ऐसा विचार करके आतपना भूमि में से वल्कल के वस्त्र पहिन कर स्वत:की पर्णकूटी में आया. वहां से लोहे की कडाइ कुडछी यावत् भंडोपकरण व कावड वगैरह लेकर का पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा 988 1 . Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४८ शब्दार्थ 141मुझे अः अतिशेष णा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हुवा ए. ऐसे अ० इस लोक में जा. यावत् दी० दाप स० समुद्र ॥ ॥ १५ ॥ सरल शब्दार्थ बहुजणस्स एव माक्खइ जाव एवं परूबेइ, अत्थिणं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे णाण दंसणे समुप्पण्णे एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवाय समुदाय ॥ १५ ॥ तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सौच्चा णिसम्म हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग तिग जाव पहेमु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु देवा. णुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ, अत्थिणं देवाणुप्पिया! मम अतिसेसे छ हस्तिनापुर नगर में तापसों के आवास में आया. वहां अपने भंडोपकरण रखकर हस्तिनापुर नगर में भावार्थ श्रृंगाटक यावत् बहुत मार्गवाले स्थान में बहुत मनुष्यों को ऐसा कहा यावत् प्ररूपा अहो देवानुप्रिय ! मुझे तशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हवा है इस से मैं कहता हूं कि इस लोक में सात द्वीप व सात समद्र हैं ॥१५॥ उस शिवरानर्षि की पास से ऐसा सुनकर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटक आकारवाले मार्ग में यावत् पथ में बहुत लोक परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! शिवराजर्षि ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं। | अहो देवानुप्रिय ! मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है उस से सात द्वीप समुद्र में देख सकता हूं. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - * प्रकाशक-राजांबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्यालाप्रसादजी * Phone Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * gets पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र णाणदंसणे समुप्पण्णे जाव तेणपरं वोच्छिण्णा दीवाय समुदाय ॥ से कहमेयं मन्ने एवं ॥ १६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा जाव पडिगया ॥ १७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी जहा बिइयसए नियंठद्देसए जाब अडमाणे बहुजणसदं णिसामेइ, बहुजणे अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जाव एवं परूवेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेइ अत्थिणं देवाणुप्पिया! तंचेव जाव वोच्छिण्णा दीवाय समुदाय ॥ से कहमेयं मण्ण) एवं ? ॥ तएणं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म इस से आगे द्वीप समुद्र नहीं है तो यह किस नरड है ॥ १६ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदना करने को आई यावत् धर्मोपदेश सुनकर पीछी गइ ॥ १७ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर का ज्येष्ट शिष्य जैसे द्वितीय शतक में कहा वैसे भिक्षा के लिये फीरते हुवे बहुत मनुष्यों की पास से ऐसा सुना की बहुन मनुष्य परस्पर ऐसा कहते हैं कि शिवराजर्षि कहते हैं कि मुझे उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है इस से में सात द्वीप व सात समुद्र है ऐसा कहता हूं लो यह किस तरह हैं ऐसा बहुत मनुष्यों की पास से भुनकर दूसरे शतक में निग्रंथ अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 जायसवे जहाणियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिण्णा दीवाय समुद्दाय ॥ सेकहमेयं भंते एवं ? ॥ गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी जण्णं गोयमा! ते बहुजणा अण्णमण्णस्स एवमाइक्खंति, तंचेव जाव सव्वं भाणियव्वं जाव भंडगणिक्खेवं करेइ, हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग तंचेव जाव वोच्छिण्णा दीवाय समु'दाय तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म तंचेव तेणपरं बोच्छिण्णा दीवाय समुदाय तंणं मिच्छा, ॥ अहं पुण गोयमा! एव माइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु जंबूद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ. एगविहिविहाणा उद्देशे में जैसे भिक्षा का अधिकार कहा वैसे ही करते हुवे श्री श्रमण भगवंत की पास आकर वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! जो शिवराजर्षि कहते हैं. यह किस तरह है ? श्रमण भगवंत महावीरने गौतम को ऐसा कहा कि अहो गौतम ! जो बहुत लोक परस्पर ऐसा कहते हैं कि शिवराजर्षि , कहता है कि, मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है इससे मैं जान सकताहूं कि सात द्वीप व सात समुद्रसे आगे कुच्छ नहीं है वगरह जो कथन है वह मिथ्या है. अहो गौतम ! मैं इस प्रकार कहता है यावतीन मरूपता हूं कि जम्बूदीप आदि द्वीप, और लवण समुद्र आदि समुद्र संस्थान से सब एक सरिखे वर्तुला-13 *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ | Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 वित्थारओ अणेग विहिविहाणा, एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमण समुह पज. वसाणा, अस्सिं तिरियलोए असंखेजा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो! ॥ १८ ॥ अत्यण भंते ! जंबूद्दीवे दीवे दव्वाइं सवण्णाइंपि; अवणाइपि सगंधाइंपि अगंधाइंपि, सरसाइंपि अरसाइंपि, सफासाइंपि अफासाइंपि; अण्णमण्ण बढाई अण्णमण्ण पुढाई जाव घडत्ताए चिटुंति ? हंता अत्थि॥ अत्थिणं भंते ! लवणसमुद्दे दव्वाइं सवण्णाइंपि एवंचेव, एवं धायई खंडेदीवे एवंचेव ॥ एवं जाव सयंभूरमणे समुदे जाव हंता । अत्थि ॥ तएणं सा महइ महालिया महव्व परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रकार हैं और विस्तार में एक २ से दुगुने हैं इस का विशेष कथन जीवाभिगम सूत्र से जानना यावत् । अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र है इस प्रकार. तिळे लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं ॥ १८ ॥ विभंग अज्ञान से रूषी पदार्थ दीखते हैं इसलिये गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्या द्रव्य सवर्ण हैं या अवर्ण हैं गंधवाले हैं या गंध रहित हैं, रसवाले हैं या रस रहित हैं स्पर्शवाले हैं या स्पर्श रहित हैं, परस्पर बंधे हुए या परस्पर स्पर्श हुवे यावत् परस्पर घटपना से रहे हुवे हैं ? हां गौतम ! १०७ ॐ वैसे ही सब रहे हुवे हैं. अहो भगवन् ! लवण समुद्र में क्या द्रव्य सवर्णवाले या वर्ण रहित वगैरह पूर्वोक्त 1 जैसे कहना. ऐसे ही घातकी खंड यावत् स्वयंभूरमण ममुद्र तक. कहना. फोर वहां जो बडी परिषदा 488 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 8.8% 4.3 अग्यारवा शत्रकका नववा उद्देशा 2848862 Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अंतिए एमट्ठे सोच्चाणिसम्म हट्टतुट्ठा ॥ तएणं समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता जामेवदिसि पाउन्भूया तामेवादसिं पडिगया ॥ १९ ॥ तएणं हत्थि - णापुरे यरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जात्र परूवेइ जणं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जात्र परूचेइ अत्थिणं देवापिया ! ममं अतिसेसे णाण दंसणे जाव समुदाय, तं णो इणट्टे समट्ठे. समणे भगवं महावीरे एव माइक्खड़ जाव परूवेइ एवं खलु एयस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं धर्मोपदेश सुनने को आई थी वह महावीर स्वामी की पास से ऐसा अर्थ सुनकर हृष्ठ तुष्ट यावत् आनंदित हुइ और महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर वह जहां से आयी थी वहां पीछी गई ॥ १९ ॥ फीर | हस्तिापुर नगर के श्रृंगारक का आकारवाले यावत् बहु रस्ते मीले वैसे स्थान में बहुत लोकों परस्पर ऐसा वार्तालाप करने लगे कि जो शिवराजा कहता है कि मुझे संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हुवा है इस से मैं जान सकता {हूं कि सात द्वीप व सात समुद्र हैं आगे कुच्छ भी नहीं है ऐसा जो उन का कथन है यह योग्य नहीं है। क्यों कि श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं शिवराजर्षि को बेले २ पारणा करते हुवे विभंग अज्ञान प्राप्त हुवा है जिस से उसने सात द्वीप व सात समुद्र देखे हैं और इससे हस्तिनापुर नगर में आकर ऐसा कहा कि सात द्वीप व सात समुद्र हैं आगे कुच्छ भी नहीं है और उस की पास से 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५५ Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3> १५५३ तंचव जाव भंडणिक्खेवं करेइ २ त्ता, हथिणापुरे णयरे सिंघाडग जाव समुदाय ॥ सूत्र तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म जाव समुदाय, तंणं मिच्छा, सभणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ एवं खलु जंबूद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा तंचेव जाव असंखजा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो ! ॥ २० ॥ तएणं से सिवे रायरिसी बहु जणस्स अंतियं एयमद्रं सोचा णिसम्म संकिए कंखिए वितिगिछिए भेद समावण्णे कलुस समावण्णे जाएयावि होत्था तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव कलुससमावण्णस्स विभंगे अण्णाणे खिप्पामेव परिवडिए २१॥तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्त अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पजित्था एवंखलु समणे भणवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं भावार्थ श्रवण कर जो ऐमा कहते हैं उन का भी कथन मिथ्या है. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐमा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवण समुद्र आदि समुद्र वलयाकार एक एक से ४० वेष्टित रहे हुवे हैं और विस्तार में दुगुने हैं ॥ २० ॥ उस समय में लोगों की पात से ऐसा श्रवण कर ॐ शिवराजार्ष को शंका कांक्षा व कालुष्यता उत्पन्न हुई इ% से वह विभंग अज्ञान से पतित हुवा ॥ २१ ॥ फोर शिवराजर्षि को ऐसा अध्यवसाय हुवा कि धर्म की आदि के कग्नेवाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर > पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र *240988 अग्यारवा शतकका नववा उद्देशा88 Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - • अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जाव सहसंबवणे उज्जाणे अहपडिरूवंजाव विहरइ,तं महप्फलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स जहा उववाइए जाव गहणयाए, तं गच्छामिणं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवासामि, एयं णे इहभवेय परभवेय जाव भविस्सइ तिकटु, एवं संपेहेइ २ त्ता, जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ २ ता तावसावसहे अणुप्पविसइ २ त्ता सुबहुं लोही लोहकडाह जाब किढिण संकाइगंच गेण्हइ २ त्ता तावसाबसहाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता पडियविभंगे हत्थिणापुरं णयरं मझं मज्झेणं णिग्गच्छइ२त्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाने जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सहसाम्रवन में आकाशगत चक्र से यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर विचर हैं इस से तथारूप अरित भारत के दर्शन का महा फल होता है वगैरह सब अधिकार उववाइ जैसे, कहना यावत् उन की पास से ग्रहण करने का तो कहना ही क्या. इस से श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास जाऊं और उन को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना करूं इस भव व पर भव म यह ऐसा विचार करके तापस के आवास में गया और वहां से लोहे की कडाइ, कुडच्छी व कावड वगै लेकर हस्तिनापुर की बीच में होता हुवा सहस्राम्रवन उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी पास गया *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाममादजी* भावार्थ Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 40880% २ त्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो बंदइ णमंसइ णच्चासणे णाइदूरे जाव पंजलिउडे पज्जुवासइ ॥ २२ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिरस तीसेय महति महालियाए जाव आणाए आराहए भवइ ॥ २२ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीररस अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म जहा खंदओ जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ २ त्ता, सुबहुं लोही लोह जाव किढिण संकाइगं च एगंते एडेइ २ त्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ २ त्ता समणं भगवं महावीर एवं जहेव उसभदत्तो तहेब पव्वइओ तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेव सव्वं जाव सव्व दुक्खप्पहीणे ॥ २३ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ और हस्त जोड कर पर्युपासना करता हुवा खडा रहा ॥ २२ ॥ फीर श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उस महती परिषदा में शिवराजर्षि को आज्ञा का आराधक होता है वहां तक धर्म कथा सुनाइ ॥ २२ ॥ शिवराजर्षि भी श्रयण भगवंत महावीर स्वामी की पास धर्म श्रवण कर स्कंदक अनगार जैसे ईशान गया. वहां लोहे की कडाइ कावड वगैरह एकान्त में डालकर स्वयमेव पंच मुष्टि लोच किया और ऋषभ दत्त जैसे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास प्रव्रज्या अंगीकार की. और अग्यारह अंग का अध्ययन करके यावत् सब दुःख से रहित हुवा ॥ २३ ॥ अहो पूज्य ! ऐमा कहकर श्री श्रमण भगवंत महावीर ।' 22 अग्यारवा शतक का नववा उद्देशा भावार्थ 98 Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५६ शब्दार्थ है रा० राजगृह में जा० यावत् ए० ऐमा व बोले क० कितना प्रकार का भ० भगवन् लो• लोक ५०* णमंसइ णमंसइत्ता एवं वयासी जीवाणं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि संवयणे सिझंति ? गोयमा ! वइरोसभणारायणे संघयणे सिझंति ॥ एवं जहेव उववाइ तहेव संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयंच परिवसणा ॥ एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्वा जाव अव्वाबाहं सोक्खं अणुहंती सासयं सिद्धा ॥ सेवं भंते भंते त्ति ॥ सियो सम्मत्तो ॥ एगारस यस्सय नवमो उंदसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ ९॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहेणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा । चउव्विहे भावास्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी बोले कि अहो भगवन् ! सिद्ध होनेवाले जीवों को कितने संघयण कहे हैं ? अहो गौतम ! जीव वऋषभनाराच संघयण में सीझते हैं जैसे उववाइ में कहा वैने ही संघयन संठान, उच्चत्व, आयुष्य व परिवसन वगैरह कहना. सिद्ध भगवन्त जन्म जरा मृत्यु - व बंधन मुक्त हैं अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव लेते हैं वगैरह सब कथन उववाइ जैसे कहना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह अग्यारवा शतक का नवधा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ११ ॥ १॥ है नववे उद्देशे के अंत में सिद्ध लोकान्त में रहते हैं ऐसा कथन किया. वह लोक किस संस्थान वाला है। उस का स्वरूप बताते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी 12 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी: * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी घालाप्रसादजी * Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 1388 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती) प्ररूपा गोः गौतम च० चार प्रकार का लो० लोक ५० प्ररूपा तं० वह ज. जैसे द. द्रव्यलोक ख० । क्षेत्रलोक का० काल लोक भा० भावलोक ॥ १ ॥ खे० क्षेत्र लोक भं० भगवन का कितने प्रकार का गो० गौतम ति० तीन प्रकार का तं० वह ज० जैसे अ० अधोलोक ति० तिर्यक् लोक उ० ऊर्थ लोक ॥ २॥ सरल शब्दार्थ लोए पण्णत्ते, तंजहा-दव्वलोए, खेत्तलोए, काल लोए, भावलोए, ॥१॥ खेत्तलोएणं , भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते तंजहा-अह लोय खेत्तलाए, तिरियलोय खत्तलोए, उड्डलोय, खेत्तलोए, ॥ २ ॥ अहो लोय खेत्तलोएणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-रयणप्पभा पुढवी अहे। लोय खेत्तलोए जाव अहे सत्तमा पुढवी अहे लोय खेत्तलोए ॥ ३ ॥ तिरिए लोय को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछीने लगे कि अहो भगवन् ! कितने प्रकार का लांक कहा है ? अहो गौतम ! लोक चार प्रकार का कहा है. , द्रव्य लोक २ क्षेत्र लोक ३ काल लोक व ४ भाव लोक ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्षेत्र लोक के कितने भेद हैं ? अहो गौतम ! क्षेत्र लोक के 30 तीन भेद कहे हैं. १ अघो लोक २ तिर्यक् लोक व ३ ऊर्ध्व लोक. अहो भगवन् ! अधो लोक के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अधो लोक के सात भेद कहे हैं. रत्तप्रभा पृथ्वी अयो लोक यावत् सातवी । 865 अग्परवा शतक का दश उद्दशा भावाथे Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ०४ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी खेत्तलोएणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज विहे पण्णत्ते, तंजहा- जंबूद्दी वेदीचे तिरियलोय खेत्तलोए जाब सयंभूरमण समुद्दे तिरिय लोय खेत्तलोए ॥ ४ ॥ उड्डलोय खेत्तलाएणं भंते ! कइविहे ? गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णत्ते, तंजहा- सोहम्म कप्प उड्डलोय खेत्तलोए जाव अच्चुय कप्प उड्डलाय खेत्तलोए, गेविज विमाण उढलोय खत्तलोए, अणुत्तर विमाण उलोय खेत्तलए ईसिप्पन्भार पुढवी उढलोय खेत्तलो || ५ || अहे लोय खेत्तलोएणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! तप्पागार संठिए पण्णत्ते ॥ ६ ॥ तिरिय लोय खेत्तलोएणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते ? तम तमा पृथ्वी अधो लोक ||३|| अहो भगवन् ! तिच्र्च्छा लोक कितने प्रकारका कहा ? अहो गौतम ! तीच्छे लोक के असंख्यात भेद कहे हैं जम्बूद्रीप तिर्यक् लोक क्षेत्र यावत् स्वयंभूरमण समुद्र ॥ ४ ॥ अहो | भगवन् ! ऊर्ध लोक के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! ऊर्ध्व लोक के पनरह भेड़ कहे हैं. सौधर्म | देवलोक यावत् अच्युत देवलोक यह बारह हुवे १३ ग्रैवेयक १४ अनुत्तर विमान और १५ ईषत्प्रागभार} पृथ्वी ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! अधो लोक कौनसा आकार वाला है ! अहो गौतम ! अधो लोक त्रिपाइ आकार वाला है. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! तीच्छ लोक का संस्थान कैसा है ? अहो गौतम ! तीच्छ * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५५८ Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48:0% १ ५६९ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र गोयमा ! झलरिसंठिए पण्णत्ते ॥ ७ ॥ उट्ठलोग खत्तलोग पुच्छा ? गोयमा ! उद्रुमुइंगाकार संठिए पण्णत्ते ॥ ८ ॥ लोएणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुप्पइट्टग संठिए लोए पण्णत्ते तंजहा-हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झ संखित्ते जहा सत्तमसए पढभोईसए जावं अंतंकरेंति ॥ ९ ॥ अलोएणं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते झुसिर. गोल संठिए पण्णत्ते ॥ १० ॥ अहेलोय खत्तलोएणं भंते ! किं जीवा जीव देसा जीवप्पएसा, एवं जहा इंदा दिसा तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं जाव अद्धासमए॥११॥ लोक का संस्थान झालर जैसा गोल है. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ऊर्ध्व लोक का संस्थान कैसा है ? अहो । गौतम ! अर्ध मृदंगाकार संस्थान है. ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! ऊर्ध्व लोक का संस्थान कैसा है ? अहो । गौतम ! सुप्रतिष्टक संस्थान से लोक कहा है नीचे विस्तीर्ण मध्य में संकुचित ऊपर विस्तीर्ण वगैरह सातवा शतक में पहिले उद्देशे में कहा वैसा जानना. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! अलोक का कैसा संस्थान है ? अहो गौतम ! झुसेर खाली गोलों में रही हुइ पोलार जैसा अलोक का आकार है. ॥ १० ॥ अहो. भगवन् ! क्या अधो लोक क्षेत्र में क्या जीव, जीव देश व जीव प्रदेश है ? अहो गौतम ! इस का सब अधिकार ईन्द्रा नामक दिशा जैसे अद्धा समय तक कहना ॥ १॥ अहो गौतम ! तीर्छ । अग्यारवा शतक का दशा उद्देशा 988+ 488 Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरियलोय खेत्तलोएणं भंते! किं जीवा एवंचेव एवं उढलोय खेत्तलोएवि, णवरं अरूवी छन्विहा अद्धा समओ नत्थि ॥ १२ ॥ लोएणं भंते! किं जीवा जहा बीयसए अस्थि उद्देसए लोगागासे, णवरं अरूवी सत्तविहा जाब अहम्मत्थिकायस्स परसा, जो आगासत्थि - क, आगासत्थि कायस्सदेसे, आगासत्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए, सेसं तंत्र ॥ १३ ॥ अलोएणं भंते ! किं जीवा एवं जहा अत्थिकाय उद्देसए अलोगागासे तब णिरवसेसं जाव अनंत भागूणे ॥ १४ ॥ अहे लोय खेत्तलोयस्सणं भंते ! भावार्थ लोक में भी जीव, जीवदेश व जीव प्रदेश का बैले ही जानना और ऊर्ध लोक में भी वैसे ही कहना. ( परंतु इस में अरूपी अजीव छ कहना क्यों कि काल नहीं हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! लोक में क्या { जीव है वगैरह जैसे दूसरे शतक में अस्तित्व उद्देशे में कहा वैसे ही यहां कहना इस में विशेषता इतनी कि यहां पर अरूपी के सात भेद ग्रहण करना. धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के देश व प्रदेश आकाशा{स्तिकाय के देश व प्रदेश और काल यो सात भेद हुवे || १३ || अहो भगवन् ! अलोकाकाश में क्या जीव है, जीव देश है जीव प्रदेश है अथवा अजीव है, अजीव देश हैं. अजीव गौतम ! जीव नहीं है यावत् अजीव प्रदेश भी नहीं है. परंतु एक अरूपी अगुरु लघु पर्यायवाला अनंत अगुरु लघु गुन सर्व आकाश रहा हुवा है || १४ || अहो भगवन् ! अधो लोक में एक आकाश प्रदेश पर प्रदेश है ? अहो सूत्र 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी ● प्रकाशक - राजा वहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी १५०० Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 488 एगम्मि आगास पदेसे कि, जीवा जीवदेसा जीवप्पदेसा; अजीवा अजीवदेसा अजी. . वप्पदेसा? गोयमा! णो जीवा जीवदेसावि जीवप्पएसावि, अजीवावि अजीवदेसावि अजीवप्पदेसावि; ॥ जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसा, अहवा एगिदियदेसाय १५६१ बेइंदियस्सदेसे, अहवा एगिदियस्स देसाय येइंदियाणयदेसा, एवं मझिल्ल विरहिओ जाव अणिदिएसु जाव अहवा एगिदियदेसाय, अणिदियाणयदेसा ॥ जे जीवप्पएसा पर क्या जीव है जीव देश हैं या जीव प्रदेश है अथवा अजीव, अजीव देश व अजीव प्रदेश हैं? अहो गौतम! असंख्यात प्रदेशावग्राही जीव होने से एक आकाश प्रदेश पर जीव नहीं हैं परंतु जीव देश व १ जीव प्रदेश के दो बोल पाते हैं. और अजीव भी है. अजीव देशभी हैं व अजीव प्रदेश भी है. यधपि धर्मास्तिकायादिक अजीव द्रव्य एक प्रदेशापेक्षा पूर्ण नहीं है तथापि द्वयणुकादि द्रव्य तथा काल के अनग्रहण से अजीव भी है अजीव देश हैं और अजीव प्रदेश हैं. अब जो जीव देश हैं वे निश्चय ही एकेAन्द्रिय जीव देश है क्यों कि एकेन्द्रिय सर्व लोक व्यापी है यह असंयोगी एक भांगा हुवा अथवा एकेन्द्रिय 8% के बहुत देश बेइन्द्रिय का एक देश, एकेन्द्रिय के बहुत देश बेइन्द्रिय के बहुत देश जिस प्रकार दशवेका *शतक में तीन भांगे बतलाये इस में बहुत एकेन्द्रिय के बहुत देश व बेइन्द्रिय के बहुत- देश यह बीच का । 12 भांगा नहीं पाता है. शेष दो भांगे पाते हैं यावत यात एकेन्द्रिय के बहुत देश, बहुत अनेन्द्रिय के बहुत .. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र - अग्यारवा शतक का दशवा भावार्थ Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मावार्थ ते णियमं एगिदियप्पदेसा, अहवा एगिदियप्पएसाय, बेइंदियस्सप्पदेसा; अहवा एगिदियप्पदेसाय बेइंदियाणयप्पएसा एवं आदिल्ल विरहिओ जाव पंचिंदिएसुय, अणिदिएसुय, तियभंगो जे अजीवा ते दुविहा प०० रूबी अजीवाय, अरूवी अजीवाय ॥ रूवी तहेव, जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा णोधम्मत्थिकाए, धम्मदेश यहां तक कहना, अब जो जीव के प्रदेश हैं वे नियमा से एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं यह असंयोगी एक अथवा बहुत एकेन्द्रिय प्रदेश एक बेइन्द्रिय बहुत प्रदेश यो दशवे शतक के प्रथम उद्देशे जैसे तीन भांगे में से प्रथम भांगा बहुत एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश एक बेइन्द्रिय का एक प्रदेश यह भांगा छोडकर सब कहना यावत् अनेन्द्रिय को पहिले कहे हुवे तीनों भांगे कहना. यह जीव संबंधी व्याख्या कही. अब अजीव संबंधी व्याख्या कहते हैं. जो अघो लोक के आकाश पर अजीव है उम के दो भेद १ रूपी अजीव और दूसरा अरूपी अजीव. रूपी अजीव के चार भेद १ स्कंध, २ देश ३ प्रदेश व ४ परमाणु.. और अरूपी अजीव के पांच भेद हैं एक आकाश प्रदेश होने से धर्मास्तिकाय संपूर्ण नहीं है क्यों कि धर्मास्तिकाय संपूर्ण लोक व्यापी है एक आकाश प्रदेश में धर्मास्तिकाय का प्रदेश होता है परंतु देश शब्द ल से धर्मास्तिकाया का अवग्रहण करना. यह अवयव मात्र का विवक्षितपना होने से अपेक्षित वचन से धर्मास्तिकाया का देश कहा है. और धर्मास्तिकाया का प्रदेश तो निरुपचरित है इस से धर्मास्तिकाय के *.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 १८६३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4887 थिकायस्स देसे, धम्मस्थिकायस्स पएसा एवं अधम्मत्थि कायस्सवि अडासमए ॥१५॥ तिरिय लोय खेत्तलोयस्सणं भंते! एगम्मि आगासप्पदेसे किं जीवा एवं जहा अहे लोगखत्तलोगस्स तहेव, एवं उढलोय खेत्तलोगस्सवि, णवरं अद्धासमओ नत्थि ॥ अरूवी चउव्विहा लोगस्स जहा अहेलोग खेत्तलोगस्स एगम्मि आगासप्पएसे है ॥ १६ ॥ अलोगस्सणं भंते! एगम्मि आगासप्पएसे पुच्छा? गोयमा? णो जीवा, णो जीवदेसा तंचव जाव अणंतेहि अगुरुलहुय गुणेहिं संजुत्ते,सव्वागासस्स अणंतभादेश व प्रदेश ऐसे दो बोल पाते हैं. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय के दो भेद और काल यों पांच अरूपी अजीब 24 अपोलोक के एक आकाश प्रदेश पर पाते हैं॥१५॥ अहो भगवन् ! तीर्छ लोक में एक आकाश प्रदेश में क्या जीव है, जीव देश है जीव प्रदेश है यावत् अजीव प्रदेश है ? अहो गौतम ! जैसे अधो लोक का कहा वैसे ही यहां कहना. ऐसे ही ऊर्ध्व लोक का जानना. परंतु उस में काल नहीं है इस से अरूपी अजीव । के चार भेद होते हैं ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! अलोक के एक आकाश प्रदेश पर क्या जीव है यावत् । ६० प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! जीव नहीं है यावत् अजीव प्रदेश नहीं हैं. परंतु अनंत अगुरु लघुगुण संयुक्त सब आकाश के अनंतवे भाग कम है. यह क्षेत्र लोक का कथन हुवा ॥ १७ ॥ ट्रव्य से अधो लोक में | भावार्थ अग्यारवा शवक का दशवा उद्देशा 1880 Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणे ॥ १७ ॥ दव्वआणं अहेलोय खेत्तलोए अणंता जीवदव्वा, अणंता अजीवदव्वा अणंता जीवाजीवदव्या, एवं तिरियलोय खेत्तलोएवि; एवं उड्डलोय खत्तलोएवि ॥ दवाणं अलोए णेवत्थि जीवदव्वा. णेवत्यि अजीवदव्या, गेवत्थि जीवा जीवदव्या, एगे अजीव दव्वदेसे जाव सव्वागासस्स अगंतभागूणे ॥ कालओणं अहेलोय खेत्तलोए जाव णकयायि णामि जाव णिचं, एवं जाव अलोए ॥ भावओणं अहेलोग खेत्तलोगे अणंता, वण्णपजवा, जहा खंदए जाव अणंता अगुरुय लहुय पजवा, एवं जाव लोए ॥ भावओणं अलोए णेवत्थि वण्णपजवा जाव वत्थि अगुरुलहुय पजवा, भावार्थ अनंत जीप द्वव्य, अनंत अजीव द्रव्य, अनंन जीवाजीव द्रव्य. ऐसे ही ती लोक में व ऊर्व लोक में 3 जानना. अलोक में द्रव्य से जीव द्रव्य नहीं है अंजीव द्रव्य नहीं है व जीवाजीव द्रव्य नहीं हैं मात्र एक अजीव द्रव्य देश यावत् सर्वाकाशका अनंत भाग कम है. काल से अधोलोक पहिले कदापि नहीं था से नहीं, वर्तमान में नहीं है वैसा नहीं व अनागत में नहीं होगा वैसा नहीं परंतु नित्य शाश्वत यावत् ध्रुव है. ऐसे ही तीर्छा लोक ऊर्ध्व लोक व अलोक का जानना. भाव से अधोलोक में अनंत वर्ण पर्यव २यक्ति अनंत अगुरु लघु पर्यव वगैरह जैसे स्कंधक का कहा वैसे ही जानना. ऐसे ही तीर्छा लोक व १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Com एगे अजीव दव्वदेसे जाव अणंतभागूणे ॥ १८ ॥ लोएणं भंते के महालए पण्णत्ते ? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव जाव परिक्खेवेणं ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं छदेवा महिावया जाव महेसक्खा, जंबूद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए चूलिए सम्बओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठिजा, अहेणं चत्तारि दिसा कुमारिओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडं गहाय जंबूद्दीवस्स दीवस्स चउसुवि दिसासु बहियाओ अभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खिविजा; पभूणं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे धरणि तलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए भावार्थ ऊर्ध्व लोक का जानना. भाव से लोक में अलोक में अनंत वर्ण पर्यत्र नहीं है यावन् अनंत अगुरु लघु पर्थव नहीं है मात्र एक अजीव द्रव्य यावत् अनंत भाग कम है ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! लोक कितना बडा कहा ? अहो गौतम ! सब द्वीपों की बीच में जम्बूद्वीप नामक द्वीप रहा हवा है एक लक्ष योजन का यह लम्बा चौडा है और ३१६२२८ योनन में कुछ कम की परिधि है. उस काल. उस समय में बड़े व 80 *महा ऋद्धिवंत छ देव जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की चूलिका को चारों तरफ घेर कर खडे रहे अब जम्बूद्वीप की बाहिर रही हुई चार दिशाकुमारियों सन्मुख खडी रह कर बलि पिण्ड को एक साथ नीचे डाले..। 480 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) Pagअग्यारवा शतकका दशवा उद्देशा Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६६ सेणं गोयमा! देवा ताए उक्विट्राए जाव देवगइए एगे देवे पुरत्थाभिमुहे पयाए एवं दाहिणाभिमुहे, एवं पञ्चत्थाभिमुहे, एवं उत्तराभिमुहे, एवं उढाभिमुहे एगे देवे अहे पयाए ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए, तएणं तस्स दारगस्स अम्मागियरो पहीणा भवंति, णोचेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति; तएणं तस्स दारगस्स आउपहीणे भवइ, णोचेव जाव संपाउणंति, तएणं तस्स दारगस्स अट्ठीमिजा पहीणा भवंति णोचेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तहेवणं तस्स दार गरस आसत्तमे कुलवंसे पहीणे भवइ णोचेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तएणं तस्स भावार्थ - अहो गौतम ! उक्त एक २ देव चारों पिण्ड धरणि तल में गिरने के पाहिले उठाने को शीघ्र समर्थ होते हैं. इतनी शोधू दीव्य देवगति से छ देवों में एक पूर्व में एक दक्षिण में, एक पश्चिम में, एक उत्तर में, एक, ऊर्ध्व में व एक अधो में ऐसी दिशा में जावे. उस काल उम समय में किस को सो वर्षका अयुष्यवाला बालक डावे. उस बालक के मात पिता काल करजावे इतने समयमें वे लोक के अंत में नहीं जासके उस बालकका आयुष्य भी पूर्ण होजावे तो भी वे लोक के अंत में नहीं जासके और उस बालक के अस्थी अस्थि निजी वगैरह नष्ट होजावे तो भी वे लोक के अंतमें नहीं पहुंच सके ऐसे ही उस बालक के सात वंश । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488%> 8. पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र दारगस्स नामगोएवि पहीणे भवइ णोचेवणं ते देश लोगंतं संपाउणंति ॥ तेसिणं भंते! देवाणं कि गए बहुए, अगए बहुए? गोयमा ! गए बहुए णोअगए बहुए गयाओं से अगए असंखेज्जइभागे, आगयाओसगए असंखजगुणे ॥ लोएणं गोयमा! ए महालए पण्णत्ते ॥ १९ ॥ अलोएणं भंते के महालए पण्णत्ते ? गोयमा! एएणं समयक्खेत्ते पणयालीसं जोअणसय सहस्साई आयामविक्खंभेणं जहा खंदए जाव परिक्खेवेणं ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं दसदेवा महिड्रिया तहेव जाव संपरिक्खि त्ताणं चिटेजा ॥ अहेणं अट्ठदिसा कुमारी महत्तरियाओ अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसु होजावे वहां तक भी वे देवों लोक का अंत प्राप्त करसके नहीं तब श्री गौतम स्वामी पूछन लगे कि अहो भगवन् ! क्या वे देवों बहुत क्षेत्र उल्लंघगये या बहुत क्षेत्र बाकी रहे ? अहा गौतम ! बहुत क्षेत्र उलंघगये परन्तु बहुत क्षेत्र बाकी नहीं रहे. गत क्षेत्र से अ क्षेत्र असंख्यात भाग वाला है। और अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र असंख्यात गुना. अहो गौतम ! लोक इतना बडा कहा है. ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! अलोक कितना बडा कहा ? अहो गौतम ! यह अढाइ द्वीप पेंतालीस लाख योजन का लम्बा 3. चौडा कहा है वगैरह स्कंदक के अधिकार में कहा वैसे ही यावत् परिधि तक कहना. उस समय में दश महर्दिक यावत् चारों तरफ रहे हुवे हैं आठ दिशा कुमारियों आठ बलिपिंड लेकर मानुषोत्तर पर्वत की । भावार्थ अग्यारवा शतक का दशवा उदेशा 48. Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ त्तरस्स पव्वयस्स चउसुवि दिसासु विदिसासुय बहियाभिमुही ठिच्चा अट्टबलिपिंडं जमगसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेजा, पभणं गोयमा! तओ एगमेगे देवे ते अट्ठ बलिपिंडं धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, तेणं गोयमा! देवा ताए उक्विट्ठाए जाव देवगईए लोगते ठिच्चा असब्भाव पटवणाए, एगेदेवे पुरत्थाभिमुहे पयाए, एगेदेवे दाहिण पुरत्थाभिमुहे पयाए एवं जाव उत्तर पुरत्याभिमुहे पयाए, एगेदेवे उढाभिमुहे, एगेदेवे अहेभिमुहे पयाए, ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससय चारों दिशा विदिशा की तरफ मुख करके खडी रहे. और वे बाहिर मुख करके खडी रही हुई देवियों एक साथ उन आठ पिंड को फेंके तब उक्त देवों उन आठों बलिरिंड को पृथ्वीपर गिरते पहिले पकडने को, समर्थ होते हैं अब अहो गौतम ! ऐसी दीव्य उत्कृष्ट गति से लोकांत में खडेरह कर असद्भाव स्थापना से एक पूर्व में, एक अग्नि में यावत् एक ईशान में एक अधो में व एक ऊर्ध में चलना शरुकरे. उस समय में एक सोवर्ष के आयुष्य वाला बालक का जन्म होवे अब बालक के मात पिता मरजावे वहां तक भी उक्त देवों अलोक का अंत नहीं कर सकते हैं. स्वतः सोवर्ष का अयुष्य पूर्ण कर जावे तो भी है वे अलोक के अंत में जासके नहीं , यावत् अहो भगवन् ! क्या वे गत बहुत हैं या अगत बहुत हैं ? १. अलोक में किसी जीव या पुदल का गमन नहीं होता है परंतु प्रमाण केलिये असदभाव की स्थापना की है. . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 8 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र सहस्साउए दारए पयाए, ॥ तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियसे पहीणा भवंति, णोचेवणं तेदेवा अलोयंतं संपाउणंति, तंचे जाव ॥ तेसिणं भंते ! देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए? गोयमा ! णोगए बहुए अगए बहुए; गयाओ से अगए अणंतगुणे, अगयाओ से गए अणंतभागे ॥ अलोएणं गोयमा ! ए महालए पण्णत्त॥२०॥ लोगस्सणं भंते ! एगम्मि अगासपदेसे जे एगिदियपएसा जाव पंचिंदियप्पदेसा. अणिंदियप्पदेसा अण्णमण्णस्स बढा, अण्णमण्णस्स पुट्टा जाव अण्णमण्णस्स घडत्ताए चिटुंति अत्थिणं भंते ! अण्णमण्णस्स किंचि आवाहवा, वावाहवा, उप्पायंति, छविअर्थात् वे बहुत क्षेत्र उल्लंघ गये हैं या उन को बहुत क्षेत्र उल्लंघना बाकी है ? अहो गौतम ! उन को गत क्षेत्र बहुत नहीं है परंतु अगत क्षेत्र बहुत है, गत क्षेत्र से अगत क्षेत्र अनंत गुना है व अगत क्षेत्र से गत क्षेत्र अनंत भाग वाला है ॥ २० ॥ अहो भगरन् ! लोक के एक आकाश प्रदेश में एके-12 न्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय चतुरेन्द्रिय, व पंवेन्द्रिय, व अनेन्द्रिय के आत्म प्रदेश परस्पर स्पर्शे यावत् संघटित होकर रहे तो, या उन प्रदेशों को किचिन्मात्र बाधा, विवाधा अथवा चर्मच्छेद क्या होता है ? अहो गौतम ! यह भर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उन प्रदेशों को किसी प्रकार की बाधा पीडा नहीं होती है. अहोई अग्यारवा शतकका दशवा उद्दशा gig भावार्थ P8 Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwnaamania च्छेदं करेंति ? णोइणटे समटे ॥ सेकेणटेणं भंते! एवं वुच्चइ लोगस्सणं एगम्मि आगासप्पदेसे जे एगिदियप्पदेसा जाव चिटुंति णात्थिणं अण्णमण्णस्स किंचि आवाहंवा जाव करेंति ? गोयमा ! से जहा णामए नटिया सिया, सिंगारागार चारवेसा जाव कलिया रंगट्टाणंसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइ विहस्स नदृस्स अण्णयरं नदृविहिं उवदसिज्जा, सेणूणं गोयमा ! ते पेच्छागा तं नहियं अणमिसाए दिट्ठीए सव्वओ समंतां समभिलोएत्ति? हंता भंते! समभिलोए ॥ ताओणं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि नटियंसि सव्वओ समंता सण्णिघडियाओ हंता सण्णिघोडयाओ भावार्थ भगवन् ! किस कारन से उन जीव प्रदेशों को बाधा, विबाधा व विच्छेद नहीं होता है ? अहो गौतम !! नृत्य करनेवाली शृंगार का गृह रूप मनोहर रूप धारन करनेवाली यावत् राग के स्थानों के भाव भेद. जाननेवाली होवे. वह लाखों मनुष्यों के समूह में बत्तीस प्रकार के नाटकों में से किमी प्रकार का नाटक कर लोकों को बतलावे तो क्या गौतम ! वे देखनेवाले हजारों लाखों मनुष्यों उस नृत्य करने वाली की तरफ मेषोन्मेष क्या देखते हैं. ? गौतम स्वामी बोले कि हां देखते हैं. अहो यौतम ! सब मनुॐष्यों की दृष्टि से उस को क्या किसी प्रकार की बाधा विनाधा होती है ? अहो भगवन् ! वैले बाधा 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + amarawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थिणं गोयमा! ताओ दिटिओ तीसे नट्टीयाए किंचि आवाहवा, वावाहवा उप्पायति .. छविच्छेदंवा करेंति णो इणढे समटे ॥ अहवा सा नटिया तासिं विट्ठीणं किंचि आवाहंवा वावाहंवा उप्पाएइ छविच्छेदंवा करेति ? णो इणद्वे समढे ॥ अहवा ताओ दिट्ठीओअण्णमण्णाए दिट्ठीए किंचि आवाहंवा वाबाहंवा उप्पाएइ छविच्छेदंवाकरेति? णोइपाढे समटे ॥ से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ तंचेव जावं छविच्छेदंवा करेइ २१॥ लोगस्सणं भंते! एगम्मि आगासप्पदेसे जहण्णप्पए जीवप्पदेसाणं उक्कोसपदे जीवप्पएसाणं सब जीवाणय कयरे कयरे जाव विसेसाहिया ? गोयमा! सम्बत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासप्पदेसे जहण्णपद जीवप्पदेसा सव्वजीवा असंखेजगुणा, उक्कोसपदे भावार्थ विवाधा नहीं होती है. अहो गौतम ! जैसे उस नृत्य करनेवाली की तरफ चारों तरफ मनुष्य देखते हुवे किन्चिन्मात्र बाधा विवाधा नहीं होती है वैसे ही लोक के एक आकाश प्रदेश पर एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय अनेन्द्रिय के प्रदेशों होने पर उन को किचिन्मात्र बाधा विवाधा नहीं होती है ॥ २१॥ अहो भगवन् ! | 60 एक आकाश प्रदेश में जघन्य जीव प्रदेश, उत्कृष्ट जीव प्रदेश व सर्व प्रदेश में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अझे गौतम ! सब से थोडे लोक के एक आकाश प्रदेश में जघन्य पद से जीव माङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 888 अग्यारवा शतकका दसया उद्देशा Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * ते० उम काल तं. उस समय में वा. वाणिज्यग्राम न० नगर हो था व० वर्णन युक्त दू० दूति । पलास चे० चैत्य व० वर्णन जा. यावत् पु० पृथ्वी शिलापट्टक त तहां वा० वाणिज्यग्राम न. नगर में ० मुदर्शन से० श्रेष्टी ५० रहता है अ० ऋद्धिवंत जा. यावत् अ० अपरिभूत स० श्रमणोपासक अ०११ जाने जी0 जीव अनीव जा. यावत् वि० विचरता है सा. स्वामी स० पधारे जा. यावत् प० परिषदा जीवप्पदेसा विसेसाहिया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगारस सयरस दसमो उद्देसो. सम्मत्तो ॥ ११ ॥ १०॥ . . * .. . *............* तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णाम णयरे होत्था; वण्णओ दूइ पलासे चेइए वण्णओ, जाव पुढवी सिलापट्टए तत्थणं वाणियगामे णयरे सुदंसणे णाम सेट्टी परिवसइ अढे जाव अपरिभए समणोवासए अभिगय जीवाजीवे जाव विहरइ, प्रदेश हैं इस से सब जीव असंख्यातगुने इस से उत्कृष्ट पद से जीव प्रदेश विशेषाधिक है. अहो भगवन् ! . आप के वचन सत्य है. यह अग्यारवा शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ ११ ॥ १० ॥ जो दशवे उद्दशे में लोक का स्वरूप कहा अब लोक द्रव्य वर्ती काल का स्वरूप कहते हैं. उस काल उम समय में वाणिज्य नामक नगर बहुत वर्णन योग्य था. उस की ईशान कौन में दूतिपलाश नामक उद्यान या यावर पृथ्वी शिला पट्ट था. उस वाणिज्य नगर में सुदर्शन नाम का श्रेष्टि रहता था. वह ऋद्धिवंत *काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५७३ शब्दार्थ १. पर्युषासना करे ॥ १॥ त० तब से वह सु . मुदर्शन से० श्रेष्ठी इ० इस क० कथा को ल० प्राप्त होते ण्डा० स्नान किया क० किया जा० यावत् पा० तिलमसादि किये स० सर्व अ. अलंकार वि० । विभूषित सा०अपना गि• गृह से प० नीकलकर स० कोरंटक की म० पुष्पमाला छ छव ध० धरते पा. पादविहार से म० बड पु० पुरुष व चाकरसे प० घेराये हुवे वा० वाणिज्यग्राम ण नगर की म० मध्य से कणि नीकलकर जे० जहां दूदूसिपलाल दे० चैत्य स. श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तहां उ० __सामी समोसड्डे जाव परिसा पज्जुवासइ॥ १ ॥ तएणं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हट्ट तुढे पहाए कय जाव पायच्छित्ते सव्वालंकार विभूसिए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सकोरंटमल दामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं पाद विहार चारणं महया पुरिसरग्गुरा परिक्खित्ते वाणियगाम णयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ २ यावत् अपराभूत श्रमणोपासक था. जीवाजीवादि नव तत्व को जानता हुवा यावत् विचरता था. उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे परिषदा वंदने को आई ॥ १॥ उस काल उस समय में सुदर्शन शेठ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी दूतिपलाश उद्यान में पधारे हैं ऐसी कथा सुनकर बहुत हर्षित हुवे फीर स्नान किया यावत् तीलमसादिक करके सर्वालंकार से विभूषित बने. फीर स्वतः के मह से नीकलकर कोरंटक वृक्ष के पुष्पों की मालावाला छत्र धारण कर पाद विहार से (पग से चलते हो) पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती) सूत्र अग्यारवाशतकका अग्यारत्रा उद्देशान 488 Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थे 4 आकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को पं० पांच प्रकार का अ० अभिगम से अ० जावे । वह ज० जैसे स० सचित्त द० द्रव्य ज जैसे उ० ऋषभदत्त जा. यावत् ति० तीन प्रकार की १० पर्यु । पासना से प० पूजे ॥२॥ त० तब से वह स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर सु सुदर्शन से श्रेष्टीको ती० उस म० बडी जा० यावत् आ० आराधिक भ० होवे ॥ ३ ॥ त० तब से० वह सु- सुदर्शन से० श्रेष्टी स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास ध० धर्म सो० मूनकर णि · अवधारकर ह० ____ त्ता जेणेव दृइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ तंजहा सचित्ताणं दव्वाणं । जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ ॥ २ ॥ तएणं से. समणे - भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेट्ठिस्स तीसेय महइ जाव आराहए भवइ ॥ ३ ॥ तएणं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट तुढे भावार्थ बहुत पुरुषों की साथ वाणिज्य नगर की बीच में होकर दूतिपलाश उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास जाते सचित्त द्रव्यों का त्याग करना ऐसे पांच अभिगम से श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पास गये और मन वचन व काया के योग से पर्युपासना की ॥२॥ फीर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने | उस महती परिषदा में सुदर्शन शेठ को धर्मकथा सुनाइ ॥ ३ ॥ सुदर्शन शेठ भी महावीर स्वामी से धर्म 1.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ammam दृष्ट तु. तुष्ट उ० स्थान से उ० उठकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को ति० तीनवक्त जा० । यावत् ण० नमस्कारकर एक ऐसा व० बोले क० कितना प्रकार का भं• भगवन् का. काल प० प्ररूपा सु० सुदर्शन च० चार प्रकार का प० प्ररूपा प० प्रमाण काल आ० आयुनिवर्तिक काल म० मरण काली उट्ठाए २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं क्यासी कइविहेणं भंते! काले पण्णत्ते सुदंसणा ! चउबिहे काले प० त० पमाण काले, अहाउणिव्यत्ति है, काले, मरण काले, अडाकाले ॥ ४॥ से किंतं पमाण काले २ दुविहे पण्णत्ते तंजहा दिवसप्पमाण कालेय, रत्तिप्पमाणकालेय, चउपोरिसीए दिवसे चउपोरिसीए राई भवइ॥ उक्कोसिया अद्ध पंचम मुहुत्ता दिवसस्सवा गईएवा पोरिसी भवइ, जहणिया तिमु हुत्ता दिवसरस वा राईएवा पोरिसी भवइ ॥ जयाणं भंते ! उक्कोसिया अपंचम भावार्थ: सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को तीन आदान व नमस्कार करके , ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! काल के कितने भेद कहे हैं ? अहो सुदर्शन ! काल के चार भेद कहे। हैं १ प्रमाण काल २ यथायुःकाल ३ मरण काल और ४ अद्धा समय काल ॥४॥ अहो भगवन् ! प्रमाण काल किसे कहते हैं ? अहो सुदर्शन ! प्रमाण काल के दो भेद कहे हैं ? दिन का प्रमाण काल व रात्रि का प्रमाण काल. दिन का प्रमाण काल चार पौरुषी का होता है और रात्रि का प्रमाण काल भी ( भगवती ) सूत्र 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति 302 अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७६ श्री अमोलक ऋषिजी - 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि मुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरिसी. भवइ तयाणं कइ भाग मुहुत्त भागेणं पायमाणी २ जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स राईएवा पोरिसी भवइ ॥ जयाणं जहण्ण्यिा तिमुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरिसी भवइ तदाणं कइ भाम मुहुत्त भाणं परिवह्नमाणी २ उक्कोसिया अहपंचम मुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरिसी अवइ ? मुदंसणा! जदाणं उक्कोसिया अद्वपंचम मुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरिस भवइ, तदाणं बावीससय भाग मुहुत्तभागेणं परिहायमाणी २ जहाणया तिमुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरिसी भवइ, जयाणं जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्सवा पाईएवा पोरिसी भवइ तदाणं बावीससय भागमुहुत्त भागेणं परिवठ्ठमाण २. चार पौरुषी का होता है. जघन्य तीन मुहूर्त व उत्कृष्ट साढे चार मुहूर्त की एक पौरुषी होती। अहो । भगवन् ! जब साढे चार मुहूर्त की दिन की अथवा रात्रि की पौरुषी होती है तब कितने भाग कमी. करते जघन्य तीन मुहूर्त की पौरुषी होवे और जब जघन्य तीन मुहूर्न की दिन की व रात्रि की पौरुषी होती है तब कितने भाग बढाते उत्कृष्ट साढे चार मुहूर्त की पौरुषी होती है ? अहो सुदर्शन ! साढे चार मुहूर्न से तीन मुहूर्त तक में देढ मुहूर्त की वधघट १८३ दिन में होती है इस से जब साढे चार मुहर्त का दिन होता है तब एक मुहूर्त के १२२ भाग में का- एक भाग प्रतिदिन कम करते हुवे जघन्य तीन मुहूर्त *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी नावाथे ANAANANAVAN Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43१०३ पंचमाङ्ग विवाह पण्णा ( भगवती सूत्र उक्कोसिया अद्धपंचम मुहुत्ता दिवसस्तवा राईएवा पोरिसी भवइ ॥ ५ ॥ कयाणं भंते! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्तवा राईएवा पोरिसी भवइ कदाणं भंते! जहणिया तिमुहुत्ता दिवससवा राईएवा पोरिसी भवइ ? सुदंसणा ! जयाणं उक्कोसिए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालस मुहुत्ता राई भवइ तयाणं उक्कोसिया अद्धपंचम मुहुत्ता दिवससवा पोरिसी भवइ जहण्णिया तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ, जयावा उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुह दिवसे भवइ, तयाणं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ, की पौरुषी होती है और जब जघन्य तीन मुहूर्त की पौरुपीवाला रात्रि अथवा दिन है तब प्रतिदिन एक मुहूर्त के १२२ भाग में का एक २ भाग बढाते हुवे साढ़े चार मुहूर्त की दिन की अथवा रात्रि की पौरुषी हात है ||५|| अहो भगवन् ! साढे चार मुहूर्त की दिन की अथवा रात्रि की पौरुषी कब होती है और तीन मुहूर्त की दिन की अथवा रात्रि की पौरुषी कब होती है ? अहो सुदर्शन ! जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन व जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है तब साढ़े चार मुहूर्तकी दिन की व तीन मुहूर्त की रात्रिकी पौरुषी होती है और जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्तका दिन होता है तब उत्कृष्ट १० ११ अग्गरवा शतक का अग्याचा उद्देशा १५७७ Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भइ ॥ ६ ॥ कयाणं भंते! उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवइ, कयावा उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ; जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ? सुदंसणा ! आसाढ पुणिमा उक्कोसए अट्ठारसमुहुते दिवसे भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भइ; पोस पुण्णिमाएणं उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ॥ ७ ॥ अस्थि भंते! दिवसाय राईओय समाचेव भवंति ? हंता अत्थि । कयाणं भंते! दिवसाय राईओय समाचेव भवंति ? सुदंसणा ! साढे चार महूर्त की रात्रि की पौरुषी व तीन मुहूर्त की दिन की पौरुषी होती है ॥ ६ ॥ अहो भगवन् अठारह मुहूर्त का दिन व बारह मुहूर्त की रात्रि कब होती है और बारह मुहूर्त का दिन व अठारह मुहूर्त की रात्रि कब होती है ? अहो सुदर्शन ! आषाढ पूर्णिमा को उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन व जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है और पोष पूर्णिमा को उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि व बारह मुहूर्त का {दिन होता है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या दिन रात्रि सम होते हैं ? हां सुदर्शन ! दिन रात्रि सरिखे होते हैं. अहो भगवन् ! दिन रात्रि कब सरिखे होते हैं ? अहो सुदर्शन ! चैत्य व आशो पूर्णिमा को * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १५७८ Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 1880 चित्तासोय पुण्णिमासुणं दिवसाय राईओय समाचेव भवंति; पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, चउभागमुहुत्त भागूणा चउमुहुत्ता दिवसरसवा राईएवा पोरिसी भवइ सेत्तंप्पमाणकाले ॥ ८ ॥ सेकिंतं अहाउणिव्वत्तिकाले ? अहाउनिव्वत्तिकाले जणं णेरइएणश तिरिक्खोणिएणवा मणुस्सैणवा देवेणवा अहाउणिव्वत्तियं सेत्तं ॥ पालेमाणे अहाउणिव्वत्तिकाले ॥ ९ ॥ सेकिंतं मरणकाले ? मरणकाले जीवोवा सरीराओ सरीरंवा जीवाओ सेत्तं मरणकाले ॥१० ॥ सेकिंतं अहा काले ? अद्धाकाले अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा समयट्टयाए, आवलियट्ठयाए, जाव दिन रात्रि मरिखे होते हैं. उस समय पन्नरह मुहूर्त की रात्रि व पन्नरह मुहूर्त का दिन होता है. और एक मुहूर्त के १२२ भागवाले चार भाग कम चार मुहूर्त का दिन की अथवा रात्रि की पौरुषी होती है.?? यह प्रमाण काल हवा ॥ ८॥ अहो भगवन् ! यथायष्य निवत्ति काल किसे कहते हैं? अहो मुदर्शन ! नरक, तिर्यच, मनुष्य व देव में जिस आयुष्य का बंध किया है उसे पालना सो यथायुष्य निवृत्ति काल ७ ॥ ९॥ अहो भगवन् ! मरण काल किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! नरक, निर्यच मनुष्य व देवगतिवाले जीवों एक शरीर का त्याग करके अन्य शरीर में जाते हैं सो मरण काल कहा जाता है ॥ १० ॥ अहे है। 869अग्यारवा शतककाअग्यारवा उद्देशा भावाथे 1 Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८० 8 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी उस्सप्पिणीट्टयाए,. एसणं सुदंसणा ! अद्धा दोहारच्छेयणेणं छिजमाणा जाहे विभागं * णो हव्वमागच्छई सेत्तं समए ॥ समयट्टयाए असंखजाणं समयाणं समुदय समिति समागमेणं एगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए जाव तं सागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥ एएहिणं भंते ! पलिओवम सागरोवमेहि किं पओयणं? सुदंसणा! एएहिं पलिओवम सागरोवमेहि णेरइय तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवाणं आउयाइं माविज्जति ॥ ११ ॥ णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एवं ठिईपदं गिरवसेसं भाणियन्वं जाव अजभगवन् ! अद्धा काल किसे कहते हैं ? अहो सुदर्शन ! अद्धा काल के अनेक भेद कहे हैं जैसे समय, आवलिका, श्वासोश्वास, थोव, लव, मुहू, अहोरात्रि, पक्ष, मास, वर्ष यावत् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी. अहो, भुदर्शन ! छेदने से जिस के दो विभाग होवे नहीं उसे समय कहते हैं. संख्याते समय की एक आवलिका होती है, यों जैसे छढे शतक के सातवे उद्देशे में कहा वैसे ही जानना. यावत् दश क्रोडाक्रोड सागरोपम की एक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी होती हैं. अहो भगवन् ! इन पल्योपम सागरोपम का क्या प्रयोजन है? अहो सुदर्शन ! इन पल्योपम, सागरोपम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव का आयुष्य जाना जाता है ॥ ११ ॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ अ० अद्धाकाल ॥ ४-१२ ॥ अ० है इं० हां अ० है से वह के० कैसे मं० एए किं ० भगवन् प० पल्योपम सा० सागरोपम ख० क्षय अर अपचय } भगवन् ए० ऐसा त्रु० कहा जाता है अ० ए० इन प० पल्योपम मा० सागरोपम का जा० यावत् अ० अपचय सु० सुदर्शन ते उस काल ते० उस समय { में ह० हस्तिनापुर न० नगर ब० बल रा० राजा हो० था० व० वर्णन युक्त त० उस ब० बल २० राजा हण्णमणुकोसं तेत्तीसं सागरोत्रमाई ठिई पण्णत्ता ॥ १२ ॥ अत्थिणं भंते ! पलिओबम सागरोवमाणं खएड्वा अवचएइवा ? हंता अस्थि ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ, अत्थिणं एएसिं पलिओवम सागरोवमाणं जाव अवचएइवा एवं खलु सुदंसणा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे णयरे होत्या. वण्णओ सहसंबवणे णामं उज्जाणे व ओ॥ तत्थणं हत्थिणापुरे णामं णयरे, बले णामं राया होत्था वण्णओ अहो भगवन् ! नारकी की कितनी स्थिति कही ? अहो सुदर्शन ! स्थिति पद से जानना यावत् सर्वार्थ ( सिद्ध की अजघन्य अनुत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति कही ।। १२ ॥ अहो भगवन् ! क्या इन पल्यो पम व सागरोपम की स्थिति का क्षय व अपचय होता है ? हां ऐसी पल्योपम की स्थिति का क्षय होता (है. अहो भगवन् ! ऐसा किस कारन से कहा है ? अहो सुदर्शन ! उस काल उस नामक नगर था. उसकी बाहिर सहस्राम्रवन नामक उद्यान था. उस हस्तिनापुर नगर में बल नामक राजा समय में हस्तिनापुर 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अग्यारवा शतक का अग्यारवा उद्देशा १५८१ Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८२ शब्दार्थोय. प्रभावती दे० देवी हो० थी सु० सुकुमार ५० वर्णन युक्त जा. यावत् व० विचरता है ॥ १३ ॥ त० तब से वह ५० प्रभावती दे० देवी अ० एकदा तं. उस वा. वासगृह में अ० आभ्यंतर स० सचित्र काम बा० बाह्य दू० सफेद घ० घीसा म० अच्छाकिया वि. विचित्र उ० उपलाभाग देदिप्यमान त० तला म० मणि र० रन पनाशकिया अं० अंधकार ब० बहुमम सुविभक्त देवदेशभाग पं. पांचवर्ण के स० सरस सु. सुरांभ मु० युक्त पु० पुष्प पुं० पुंज उ० उपचार क• युक्त का• कृष्णागरु प० प्रवर कुं. कुंद उ० उरुक धू धूप म० मघमघायमान ग• गंध. उ० उद्भूत अरम्य सु० सुगंध प० प्रधान गं तस्सणं बलस्स रण्णो पभावई णामं देवी होत्था सुकुमाल वण्णओ जाव विहरइ ॥१३॥ तएणं से पभावई देवी अण्णयाकयाइं तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिय घटुम? विचित्त उल्लोगचिल्लिलतले, मणिरयण पणासियं धकारे बहु समसुविभत्तदेसभाए, पंच वण्णसरस सुरभि मुक्कपुप्फ पुंजोश्यार कलिए कालागरुपवर कुंदरुक तुरुकधूव मघमघंत, गंधुडुयाभिरामे, सुगंधवरगंधिए गंधवहिभूए । राज्य करता था. उस बल राजा को प्रभावती नामक राणी थी. वह मुकुमाल यावत् मनोहर थी ॥१३॥ एकदा समय में प्रभावती राणी अंदर से चित्रामणयुक्त व बाहिर से कोमल प्रमाणादिक से घीसने मृदु स्पर्शवाला, विचित्र प्रकार के चित्रोंयुक्त उपर का भागवाला, देदीप्यमान अधो भागवाला, चंद्रकान्तादि । २ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋा प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुकदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी, भावार्थ Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ५८३ Tag पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) गंधवाला ग० गंधगुटिका सरिखी तं० उस ता० तादृश स० शय्या में सा० शरीर प्रमाण शय्या में उ०१, दोनों बाजु वि० ओसी से दु० दोनों उ० उन्नत म० मध्य में गं० गंभीर गं० गंगातट की वा० बालु उ०% मुकोमल शरीर ओ० अच्छा खो० सफेद दु० वस्त्र पट प० अच्छादन सु० सुरचित र० · वन स० रक्त वस्त्र सं० संवृत सु० सुरम्य आ. चर्म का वस्त्र रू. रूत बू० बूर ण. नवनीत तु. तूल फा० स्पर्श सु०१४ सुगंध व प्रधान कु० कुसुम चु० चूर्ण स० शयन उ० उपचार के० कंलित अ० अर्ध २० रात्रि का० तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणवट्टीए उभओ विव्वोयणे दुहओ उण्णए मज्झे णयलुगंभीरे गंगापुलिण वालुय उद्दाल सालिसए, ओयविय खोमिय दुगुल्लपट्ट पडिच्छ__यणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंबुडे सुरम्म आईणगरूय बूरणवणीय तुल्फासे सुगंध वरकुसुम चुण्णसयणोक्यारकलिए अद्धरत्तकाल समयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी मणियों व कर्केतनकादि रत्नों से उज्वल, बहुत सम भूमि भागवाला, पांच वर्ण व सरस सुगंध युक्त पुष्प पुंज की पूजासे सहित, काला अगर व श्रेष्ट चौड, सीला वगैरह धूप मे मघमघायमान, श्रेष्ट सुगंध से सुवामित, और गंध द्रव्य गुटिका समान ऐसे गृह में शिर व पांव दोनों पास ओसीसावाला, दोनों तरफ ऊंचा बीच में चीचा गंभीर, गंगा नदी के तट की उपर की वालु समान मृदु, अच्छी तरह से पकाया हुवा कपासमय वस्त्र अथवा अतसीमय वस्त्र सो युगल की अपेक्षा से एक पटोपट आच्छादनवाला, भोग अवस्था । 48 अग्यारना शतकका अग्यारवा उद्देशा 438 भावार्थ Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५८४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलंक ऋषिजी + काल में सु० सूती जा० जागती ओ० चलायमान होती ए. इसरूप उ० उदार क०कल्याणकारी सि०मूख रूप ध० धन्य मं० मंगलकारी स. श्री वाला म. महास्वप्न पा०देखकर प० जागृत हुइ हा हार २० रजत खी० क्षीरसागर म० चंद्र कि० किरण द. उदक र० रजत म. महाशैल पं० पांडुर र० रमणिय से पि० देखने योग्य थि० स्थिर ल० लष्ठ ५० पक्राष्ट व० वृत्त पी० पीवर सु० मुश्रिष्ठ वि० विशिष्ठ ति० तीक्ष्ण दा० दांत वि० विवृत मुख प० परिकर्मिन क० कमल को० कोमल मा० प्रमाण सो.. शोभते ल. ओहीरमाणी अयमेयारूवं उरालं कल्लाणं सिवंधण्णं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुविणं पासिताणं पडिबुद्धा तं० हाररययखीरसागर ससंककिरण दगरयय महासेल पंडुरतरोरु रमणिज पिच्छणिजं, थिरलट्ठपउट्ठ वट पीवरसुसिलिट्ठ विसिट्ठ तिक्खदाढा विडंवि यमुहं परिकम्मिय जच्चकमल, कोमल माइय सोभंत लट्ठउटुं रत्तुप्पल पत्तमउय के समय में अच्छाअच्छा दनवाला, रक्तवस्त्र से ढका हुवा, सुरम्य, व शरीर प्रमाण पर्यंक पर वुलगार, रूय, बूर, माखण; व तूल के स्पर्श समान कोमल स्पर्शवाली व सुगंधित पुष्पों के चूर्णीवाली शैय्या में अर्धरात्रि में अतिशय नहीं सोते व अतिशय नहीं जागते एक बडा प्रधान कल्याणकारी महा स्वप्न देखकर जागृत हुइ. अब स्वप्न का वर्णन करते हैं मोती का हार, चांदी, क्षीर समुद्र, चंद्रमा के किरण, पानी के कण व बांदी का चैतात्य पर्वत समान अतिशय उज्वल, मनोहर व प्रेक्षणीय, स्थिर व मनोज्ञ कलाई तथा. वर्तुला प्रकाशक राजाबहादुर लाला दुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ * Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्थ लष्ठ र रक्त उ० उत्पल प० पत्र म. मृदु सं० सुमार ना० तालु जी जीव्हा मूः मूषाभाजन में ग०3A रहा हुवा प; प्रधान क० मुवर्ण ता० तपायाहुवा आ० आवर्त करता व० वृत्त त० तडित जैसे वि. विमल } सहिस्र न० नयन वि० विशाल पी. स्थूल उ० उन ५० प्रतिपूर्ण वि विपुल वं. स्कन्ध, १८८५ मि० मृदु वि० सफेद मु० सूक्ष्म ल. लक्षण ५० प्रशस्त वि. विस्तीर्ण के. केशवली सो शोभित F० छिन सुः सुनिति सु• सुजात अः आस्फोटित लां० लांगुल सो० सौम्य सो० सौम्याकार ली. १ सुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायतबहतडियविमलसरिसनयणं विसा. है लपीवरोरुपडिपुण्णविउलखंधं मिउविसयसहमलकखणपसत्थविच्छिण्णकेसराडोव सोभियं । ऊसियसुनिम्मियसजायअप्फोडियलांगलं सोमं सोम्राकारं लीलायंतं जंभायंत नय भावार्थ कार, स्थूल, श्रेष्ट व तीक्ष्ण दाहों युक्त मुखवाला, संस्कारित जात्य कमल समान कोमल व प्रमाणोपेत शोभ निक व मनोज्ञ आष्टवाला, रक्त कमल के पतन समान सकुमार तालु व जीव्हा वाला, मूवर्ण को मूषा में रखकर तप्त किया फीर वह चक्रखावे उस के जैसे वृत्त, तडित समान विमल लोचनवाला विस्तीर्ण स्थूल 2 जंघा वाला, परिपूर्ण स्कंधवाला, कोमल, श्वत, प्रशस्त व विस्तीर्ण केसग वाला, ऊंचाकिया हुआ, अच्छी 4 तरह नीचा मुख करके म्हा हुवा शोभनिक, व भूमिको आस्फालता हुआ लांगूलवाला, सौम्य व सौम्या on कार सिंह लीला व क्रीडा करता हुवा आकाश तल में से नीचे उतरकर अपने मुख में प्रवेश करता हुवा | पंचमांग विवाह पण्णाति ( भगवती ) सूत्र 86 48502 अग्यारखा शतकका अग्यारवा उद्दशा 40 Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी लीला करता जं० बडाइ करता न० नभतल से उ० उतरता नि० अपना व० वदन में प० प्रवेश करता तं० उस सी० सिंहको सु० स्वम में पा० देखकर प० जागृत हुई || १४ || त० तब सा० वह पठमभावती दे० देवी ए० इसरूप उ० उदार जा० यावत् स० श्रीरूप म० महास्वप्न सु० स्वप्न में पा० देखकर प० प० जागृत होती ह० हृष्ट जा० यावत् हि० खुशहुइ धा० धारासे हणाया क० कलंत्र पुष्प जैसे स० विकसित रो० रोमकूप तं० उस सु० स्वन को उ० ग्रहणकर स० शय्या से अ० उठकर अ० त्वरा रहित अ चपलता रहित अ० असंभ्रम अ० विलम्व रहित रा० राजहंस स० सरिखी ग० गति से ज० जहां ब० लाओ उवयमाणं नियत्रयणं पतितं तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा ॥ १४ ॥ तणं सा पभावई देवी अयमेयारूवं उरालं जाव सस्तिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धासमाणी हट्ट जाव हियया धाराहयकलंबपुप्फगंपिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं उहि उगिव्हित्ता. सयणिजाओ अब्भुट्ठेइ २ ता अतुरियमचवलमसं भताए अविलंवियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रण्णो सयणिजे तेणेव उवाउस प्रभावती राणीने स्वप्न में देखा और इस तरह स्वप्न देखकर शीघ्र जागृत हुई. ॥ १४ ॥ ( प्रभावती देवी इस प्रकार का उदार, प्रधान, व कल्याणकारी महास्वम देखकर जागृत होते अत्यंत हर्षित हुई मेघ की धारासे हणाया हुवा कदम्ब वक्ष का पुत्र जैसे विकसित होता तब वह ही हृदय में वैसे विकसाय * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५८६ Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 회 शब्द। सूत्र भावार्थ 4+ पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 4080 वल रा० राजाकी स० शय्या ते० तहां उ० आकर व० बलराजा को इ० इष्ट कं० कांत पि० प्रिय म० मनोज्ञ म० मनाम उ० उदार क० कल्याण सि० सुखरूप ध० धन्य मं० मांगलिक स० अच्छे मि० मृदु म० मधुर मं० मंजुल गि० वाणी से सं० बोलती प० जागृतकर बं० वल र० राजा से अ० आश पाइहुई णा ० विविध म० मणि र० रत्न भ० रचे हुवे सी० सिंहासनपे णि० बैठकर आ० आश्वास लेती [वि० विश्राम करती सु० सुखासनपर व० बैठी हुई ब० बलराजा को इ० इष्ट कं० कांत जा० यावत् सं० बोलती ए० ऐसा व० बोली ए० ऐसा ख० निश्चय अ०मैं दे० देवानुप्रिय अ० आज तं० उस ता० तैसी स० गच्छइ २त्ता, बलं रायें ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कलाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरीयाहिं मिउमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संवाणी २ पडिबाइ २ त्ता, बलेणं रण्णो अब्भणुष्णायासमाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि सीहासांसि णिसीयइ २ त्ता, आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया (मान उसका हृदय हुआ और स्वप्न को धारन कर शैय्या में से खडी हुई. शारीरिक व मानसिक {चपलता रहित असंभ्रांत बनकर राजहंस समान गति से चलती हुइ दलराजा के शयनगृह में आई और (बलराजा को इष्ट, मनोहर, प्रीतिकारी, मनोज्ञ, अभिराम, उदार, कल्याणकारी, उपद्रव रहित, मंगलिक, मृदु, मधुर, व मंजुलवाणी से बोचकर जागृत किया. बल राजाने जागृत होकर अनेक प्रकार के रत्नों से अग्यारवा शतक का अग्याखा उद्देशा 4380 १५८७ Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८८ शब्दार्थ शेरशा में सा० अंग सहित तं तैसे जा. यावत् णि• अपना व० बदन में अ० प्रवेश करता सीः सिंहको सुः स्वमने पा० देखकर प० जागृत हुई दे० देवानुप्रिय. ए. इस उ० उदार जा० यावत् म० महास्वान का के क्या म० मानाजावे क. कल्याण फ० फलवृत्ति वि. विशेष भ० होगा त० तब से वह ब० बलराजा ५० प्रभावती दे० देवीकी अं. पास ए. इस अर्थ को मोर सुनकर णि अवधार कर ह० हृष्ट तु ० तुष्ट जा. यावत् हि खुशहुवा धा० धाराहत णी• कदम्द वृक्ष के सु० सुगंधित कु० कुसुम चुं० पुलकित त. बलं रायं ताहि इवाहिं कताहिं जाव संलवमाणी २ एव वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सालिंगण तंचेव जाव णियगवयणमति वयंतं सीहं मुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा ॥ तंणं देवाणुप्पिया! एयस्त उरालस्स जाव भावार्थ महासुमिणरस केमण्णे कलाणे फलवित्तिविसे से भविस्मइ ? तएणं से बले राया पभावईए देवीए अंतिए एयमढ़े सोचा णिसम्म हतुट्ठा जाव हियए धाराहयणीवजडित व अनेक चित्रों में चित्रित ऐसे सिंहासन पर बैठने की राणी को आज्ञा दी. राजा की आज्ञानुसार राणी सिंहासन पर बैठी और मार्ग गमन से प्राप्त परिश्रम का निवारन किया. फीर अक्षुब्ध हृदय मे हस्तद्वय नोकर इष्टकारी यावत् मंजुल भाषा से वार्तालाप करती हुई ऐसा बोली कि अहो देवानुप्रिय! आज +में पुण्यवन्त गोव को योग्य शैय्या में सोती हुई थी यावत् मेरे मुरत्र में प्रवेश करता हुवा एक सिंह को 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसाद * Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८९ शब्दार्थ शरीर 30 रोमांक्ति तं. उस सु० स्वम को उ० ग्रहणकर ई० बुद्धिम से प० प्रवेशकरे अ० अपी मा० स्वाभाविक म० मतिपूर्वक बु० बुद्धिविज्ञान से त० उस मु. स्वप्न का अ० अर्थ अ० ग्रहण क• कर के प० प्रभावती दे देवी को इ० इष्ट जा. यावत् मं मंगल मि० मृदु म० मधुर स. श्रीरूप मं० बोलते ए. ऐमा व० बोले उ० उदार तु• तुमने दे० देवी सु० स्वप्न दि० देखा क कल्याणकारी तु• तुमने दे. सूत्र ! सुरभिकुसुमचुचुमालइयतणुयऊसवियरोमकूवे त सुमिण उगिण्हइ २ ता ईहं पविसइ २ त्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुब्बएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुविणस्स। अत्थोग्गहणं करेइ २ त्ता पभावतिं देविं ताहिं इ8हिं जाव मंगल्लाहिं, मिउमहुरसस्सिरीयाहिं संलबमाणे २ एवं वयासी उरालेणं तुम्मे देवी? सुविणे दिटे, कल्लाषणं स्वप्न में देखकर मैं जागृत हुई आप की पास आई हूं. अब अहो देवानप्रिय ! ऐना उदार यावत् महा सप्न का मुझे कैसा कल्याणकारी फल प्राप्त होगा ? बल राजा प्रभावती राणी में ऐसा अर्थ सुरहैकर हृष्ट तुष्ट यावत् अनंदित हुआ. मेघ की धारा से हणाया हुवा कदम्ब वृक्ष जैसे विकसित होता है वैने ही इन के रोमांकूर विकसित हुचे. राणीने कहे हुवे स्वप्न को ग्रहण किया, उस का हृदय में विचार किया, और आभिनिवाधिक ज्ञान व उत्पानादि बुद्धिमे उन स्वप्न के फल को निश्चित किया. इस तरह स्वप्न का अर्थ ग्रहण कर प्रभावती राणी को इष्ट, कांत, प्रिय व मनोज्ञ वचन से कहने लगे कि अहो, wwwin पंचसाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती > अग्यारवा शतकका अग्णरहका उद्देशा 88 भावाथे Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ देवी सु. स्वप्न दि देखा जा यावत् सि० श्रीरूप तु. तुमने दे. देवी स० स्वम दि. देखा आ० . आरोग्य त० तुष्ट दी० दीर्घायुः क० कल्याण में मंगल कारी तु तुमने दे० देवी मु० स्वप्न दि० देखा अ० अर्थ लाभ भो० भोग लाभ पु० पुत्र लाभ र० गज्यलाभ तु. तुमको दे० देवानुप्रिये ण. नव मा०॥ व० बहुत प० प्रतिपूर्ण अ० अर्ध अ० आठ रा० रात्रिदिवस वी० व्यतीत होते अ० हमारा बु कुल केतु कु • कुलपर्वत कु० कुल अवतंसक कु• कुलतिलक कु० कुलकी कीर्ति करने वाला कु कुल की तुम्मे देवी सुविणे दिढे जाव सस्सिरीएणं तुम्हे देवी सुविणे. दिटे. आरोग्गतुट्ठिदीहा. उकल्लाण मंगलकारएणं तुम्हेदेवी ! सुविणे दि8; अत्थलाभो देवाणुप्पिए भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! रजलाभो देवाणुप्पिए, एवं खलु तुम्हे देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाण अट्ठराइंदियाणं वीइक्वंताण अम्हं कुल. केउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवांडंसयं, कुलतिलयं, कुलकित्तिकरं, कुलनंदिकरं भावार्थ: देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है, तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है, यावत् लक्ष्मीवंत स्वप्न तुमने देखा है, तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष्य, कल्याण व मंगल का करनेवाला स्वप्न देखा है, इस से 60 अहो देवानुप्रिये ! तुम को अर्थ लाभ, भोगलाभ, पुत्र लाभ, राज्य लाभ होगा. इस तरह अहो देवानु-1 1 प्रिय ! सवानवमास पूर्ण हुए पीछे हमारे कुल में केतु [ध्वजा ] समान, कुल दीपक, कुल पर्वत, कुल 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ14. annamrammam It समृद्धि करने वाला कु. कुलकायश करने वाला कु. कुलाधार कु० कुलपादप कु० कुल वृद्धि करने वाला सु. सुकुमार पा• हस्तपाद अ० अक्षीण प० प्रतिपूर्ण पं० पंचेन्द्रिय सशरीर जा. यावत् स० चंद्र सो03 'मोम्याकार कं० कान्त पि० मियदर्शन वाला सु० मुरूप दे० देवकुमार स० सरिखी प्रभावाला दा० पुत्र को प० जन्मदोगे से वह दा० पुत्र उ० मुक्त वा० बाल भावसे वि. विज्ञान प० परिणमते जो० यौवन अ० प्राप्त सू० शूरवीर वि० विक्रान्त वि• विस्तीर्ण विपुल बबल वा. वाहन र० राज्यपति का कुलजसकरं, कुलाधारं, कुलपायवं, कुलविवठ्ठणकर, सुकुमालपाणिपायं अहीण । पडिपुण्णपंचिंदियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं, सुरूवदेवकुमार समप्पभं दारगं पयाहिसि सेवियणं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णाय परिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते, सूरे वीरे विकंते विच्छिण्णविपुलबलवाहणे रज्जबई राया भवि स्सई तं उरालेणं तुम्हे देवी! सुविणे दि जाव आरोग्ग तुहि जाव मंगलकारएणं भावार्थ अवतंसक, कुल तिलक, कुल की कीर्ति करनेवाला, कुल में समृद्धि करनेवाला, कुल में यश करनेवाला, कुल को आधारभूत, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करनेवाला, सुकुमार हस्तपांववाला, अक्षीण ok ७ इन्द्रियोंवाला व पूर्ण पांचों इन्द्रियों युक्त शरीरवाला यावत् शशि समान शांत, सौम्याकार, कान, प्रिय, दर्शनीय, सुरूप और देव कुमार समान कान्तिवाला ऐसा पुत्र रत्न तुम को उत्पन्न होगा. और जब । Hg पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र * 80 अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा360 Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ रा० राजा भ० होगा तं इससे उ० उदार तु तुमने दे० देवी सु० सम्म दि० देखा आ० आरोग्य तु० (तुष्ट जा० यावत् मं० मंगलकारी तु० तुमने दे० देवी सु०स्वप्न दि०देखा त्ति ऐसा करके प०प्रभावती दे (देवीको इ० इष्ट जा० यावत् व वाणी से दो० दूसरी वक्त त० तीसरी वक्त अ० समजाइ ॥ १५ ॥ त तत्र सा० वह प० प्रभावती दे० देवी व० बल र० राजा की अं० पास से ए० इस अर्थ को सो० सुनकर (नि० अवधारकर ह० हृष्ट तु तुष्ट क० करतल जा० यावत् ए० ऐसा ६० बोली ए० ऐते दे० देवानुप्रिय त० तैसे दे० देवानुप्रिय अ यथातथ्य अ० असंदिग्य इ० इच्छित पर विशेष इच्छित मे० वह ज० जैसे तुम्हे देवी! सुविदिट्ठे त्तिकद्दु, पभावती देवीं ताहिं इट्ठाहिं जाव वग्गूहिं जाव दोच्चंपि तच्छंपि अणुबूहइ ॥ १५ ॥ एणं सा पभावई देवी बलस्स रण्णो अंतिए एघमट्टं सोच्चा णिसम्म हट्ट करयल जाव एवं क्यासी एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुविया ! अवितहमेयं देवापिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं पडिच्छियमेयं, इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! सेजहेयं तुम्हे बदह तिकटु तंसुमिणं बाल्यावस्था में से यौवनावस्था में आयेगा तब शूरवीर, पराक्रमैवंत, और बहुत सेना वाहनादिवाले राजाओंका भी राजा होगा. इससे अहो देवी! तुमने कल्याणकारी मंगलकारी स्वप्न देखा है. यों कहकर इंष्टकारी यावत् बल्गु शब्दों से दो वार तीन बार प्रभावती देवी को बोलाई || १५ || बल राजा की पास से ऐसा सूत्र भावार्थ अनुवादक-वालग्रहचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी * प्रकाशक- राजवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १५१२ Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तु तुम व० कहते हो तिः ऐसा करके तं० उस सु० स्वप्न को स० सम्यक् प० अंगीकार करके ब० 00 बल र० राजा से अ० आंज्ञामीली हुई णा विविध म० मणि र रत्न भ० भरे हुवे भ० भद्र आसन से म० उठी अ० स्वरा रहित जा. यावत् ग० गतिसे ज० जहां स. अपनी स० शय्या ते. तहां उ० आकर स० शय्या में णि? बैठी ए. ऐसा व बोली मा० मत ए. यह उ. उत्तम प० प्रधान में मांगलीक मुक स्वप्न अ० अन्य पा० पापप्ज से प० हणावेगा गुरु गुरुजन सं० संबद्ध प० प्रशस्य मं० मांग वीक ध० __सम्म पडिच्छइ २ त्ता, वलेणं रण्णा अब्भणुण्णायासमाणी णाणामणिस्यणभत्ति चित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुटेइ २ त्ता अतुरिय मचवल जाव गईए जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, सपाणिजांस णिसीयति २ त्ता एवं वयासी मामेसे उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अण्णेहिं पावमुभिणेहिं पडिहम्मिरसइत्तिकटु, देवगुरुजण भावार्थ 5 वचन श्रवण कर प्रभावती देवी हर्षित हुई, आनंदित हुई और दोनों हाथ जोडकर ऐना बोली कि अहो देवानुप्रिय ! जो आप कहते हो यह ऐसे ही है, यह तथ्य है, यह विशेष तथ्य है, यह शंकाराहित है, यह इच्छित है, यह प्रतिच्छित है. इस तरह स्वम को इच्छ कर वल राजा की आज्ञा से विविध प्रकार के 4 *माण रोकाला भद्रासन से उठकर शीघ्रता व चपलता रहित अपने शयनासन की पास आई. शयनासन में सोती हुई ऐसा बोली कि अन्य खरार पाप स्वम से ऐसा प्रधान मंगलिक व उत्तर कम हणावे नहीं इस से विवाह पण्पत्ति (भगवती) सूत्र 488 * <8. अग्यारवा शतक का अग्यारहया उद्देशा - Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी मो० धार्मिक क० कथा से स० स्वप्न जागरणा प० जागी दि० विचरती है || १६ || त० तब से वह ० बलराजा को० कौटुम्बिक पुरुष को स० बोलाकर ए० ऐन वर बोले खि० शीघ्र दे० देवानुप्रिय अ० आज स० सविशेष बा० बाहिर की उ० उपस्थान शाला गं० गंधोदक सि० सिक्त स० समार्जित उपलिस सु० सुगंध प० प्रवर पं० पंचवर्ण पु० पुष्प उ० उपचार क कलित का कृष्णागरु व प्रधान (कुं० कुंदवृक्ष जा० यावत् गं० गंधवाला क० करो का करावो क० करके सी० सिंहासन र० रचो त० संबद्धाहिं सत्याहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविण जागरियं पडिजागरमाणी २ विहरइ ॥ १६ ॥ एणं से बलेराया को डुबियपुरिसे सदावइ २ ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्त सुइयसंमज्जिओबलित्तं, सुगंधपवरपंचवण्णपुप्फोत्रयारकलियं कालागरुपवर कुदरुक्क जाव गंधव भूयं करेह कारवेह करिता कारवित्ताय सीहासणं रयावेह २ त्ता तमेतं गुरुजन संबंधी मांगलिक प्रशस्थ धार्मिक कथा से स्त्रम जागरणा जागती हुई मैं विचरूं ॥ १६ ॥ फीर आज्ञाकारी पुरुषों को बोलाकर बलराजा कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! आज बाहिर की उपस्थानशाला (सुगंधित पानी के छिटकाव से स्वच्छकरो, गोवर से लिपो, सुगंधि पंच वर्ण के पुष्पों का ढंग करो, और कृष्णागुरु कुंदरुक यावत् सुगंधित द्रव्य से मघमघायमान करो और दूसरे की पास करावो. फीर वहां २ * प्रकाशक - राजवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १५१४ Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तैसे जा. यावत् प० पीछी दो त० तब ते वे को० कौटुम्बिक पुरुष जा. यावत् प० मुनकर खि० शी स० विशेष बा० बाह्य उ० उपस्थान शाला जा. यावत् प० पीछीदवे ॥ १५॥ त० तब से वह ब० बलगजा प० प्रातःकाल स० समय में स० शय्या से अ० उठकर पा०सिंहासनसे प० उतरकर जेज अ० व्यायाम शाला ते. तहां उ० आकर अ० व्यायामशाला में अ० प्रवेश करे ज. जैसे उ० उववाई में त० तैसे अ० व्यायाम शाला त० तैसे म० स्नानगृह जा. यावत् स० चंद्र जैसे पि०प्रियदर्शन वाला न० जाव पञ्चप्पिणह तएणं ते कोडंबिय पुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पञ्चप्पिणंति ॥ १७ ॥ तएणं से चलेराया पच्चूसकाल समयांस सयणिजाओ अब्भुढेइ २ त्ता, पायपीढाओ पच्चोरुहइ २ त्ता, जेणेव अंटण , साला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, अट्टणसालं अणुप्पविसइ जहा उववाइए, तहेव है अणसाला तहेव मज्जणघरे जाव ससिव्वपियदंसणे नरवई मज़णघराओ पडिणिसिंहासन बनाव र मुझे मेरी आज्ञा पीछी दे दो. उसी समय कौटुम्धिक पुरुषोंने बल राजा से ऐसा वचन सुनकर जैसी बल राजा की आज्ञा थी उस अनुसार सब कार्य किया ॥ १७ ॥ अब बल राजा प्रातःकाल होते शैय्या से उठे और पाद पीठिका से नीचे उतरे. और जहां व्यायामशाला थी वहां आये. व्याया शाला 15 में आकार जैसे उववाइ में कोणिक राजा का अधिकार कहा वैसे ही यहां बल राजा का अधिकार जानना. यावत् 2920 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र १.११ *65 अग्यारवा शतकका अग्यारहवा उद्दशाह Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिनी नरपति म० स्नानगृह से प: नीकलकर जे० जहां बा० बाहिर की उ० उपस्थान शाला उ० आकर सी० सिंहासनपे पु० पूर्वाभि मुख से णि बैठे अ० अपनी उ० ईशान कौन में अ० आठ भ० भद्रासन से श्वेत वस्त्र प. बीछाये हवे सि० सिद्धार्थ क. कृत मं० मंगल उ० उपचार र० रचाकर अ. अपनी अ० नजदीक णा० विविध म: मणि र० रल मं० मंडित अ० अधिक पे० देखने योग्य म• मोंघे व प्रधान ५० वस्त्र भ० भांक्तिशत चि चित्रित ई० ईहा मृग उ० पभ भ० भांति चि० चित्रित अ० क्खमइ २ त्ता जेणेव बाहिरिया उबटाणसाला तेणेव उवांगच्छइ २ त्ता, सीहासण वरंसि पुरत्थाभिमुह णिसीयइ २ त्ता, अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अट्ठभद्दासणाई सेयवत्थपच्चुत्थयाइं,सिद्धत्थगकयमंगलोक्याराइं रयावेइ रयावेइत्ता अप्पणोअदूरसामंते णाणामणिरयण मंडियं अहियपेच्छणिज महग्यवर पट्टणुग्गयं सहपट्टभत्ति सयचित्तत्ताणं इहामियउसभभत्तिचित्तं, अभितरियं जबणियं अंछावेइ २ ता शशि समान प्रियदर्शनीय नरपाले मज्जनगृह से नीकलकर बाहिर उपस्थानशाला में आये. वहां सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बठकर आनी ईशान कौनमें श्वेत वस्त्रसे ढकेहुवे और अर्थसिद्धि केलिये मांगलिक उपचारवाले ऐसे आठ सिंहासन बनाये. और अपनी पास अनेक मणि रत्नों से जडा हुवा बहुत देखने योग्य मूत का + वस्त्र, शाहमृग, मृग, वृषद वगैरह अनेक चित्रों विचित्रों से चित्रित ऐसा पडदा आभ्यंतर आस्थान मंडप के * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 MB ] १५९७ ब्दार्थ आभ्यंतर ज० पडदा अं० आच्छादित करके णा विविध म० पणि र. रत्न भ० समान चि. चित्रित । ० अ० निर्मल मि• मृदु म० ममूर गो० आच्छादित से श्वेत वस्त्र ५० बीछाकर अ० अंगको मु० मुखX Yफा० स्पर्श सु० मृदु प. प्रभावती दे० देवी केलिये भ० भद्रासन र० रचवाकर को० कौटुम्बिक पुरुष को स. बोलाकर एक ऐसा व० बोले खि• शीघ्र दे. देवानुप्रिय अ० आठ अंग म० महानिमित्त सु. सूत्र। अ० अर्थ के पा० धारक वि. विविध स० शास्त्र कु. कुशल सु० स्वप्न ल० लक्षण पा० पाठक स० बोलावो त तब ते. वे को कौदम्बिक पुरुष जा. यावत् प० सुनकर ब. बलराजा की। णाणामणिरयण भत्ति चित्तं अत्थरयमिउमसूरगोच्छगं सेयवत्थपच्चुत्यं अंगमुह फासियं सुमउय पभावईए देवीए भद्दासणं रयावेइ २ त्ता; कोडुबियपुरिसे सहावेइ २ त्ता,एवं बयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अटुंग महानिमित्त सुत्तत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खण पाढए सद्दावेहतएणं ते कोडुबिय पुरिसा जाव पडि सुणेत्ता बलस्स रण्णो अंतियाणो पडिणिक्खमंति २ ता, सिग्धं तुरियं चवलं चंडं। वार्य मध्य भाग में खींचाया. फीर वहां पर विविध प्रकार के मणि रत्नों से चित्रित, निर्मल ममुर समान 14 कोमल, श्वेत वस्र से ढका हुवा एक सिंहासन प्रभावती राणी को बैठने के लिये बनाया. फीर कौटुम्बिक पुरुष को बोलाकर ऐसा कहा अहो देवानप्रिय ! अष्टांग महा निमित्त · रूप सूत्र अर्थ को धारन | पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र 438 428 अग्यारवा शतक. का अग्यारवा उद्देशा 498 488 Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पास से प० नीकलकर सि० शीघू तु० त्वरित च० चपलता से चं. चंडगति से वे. वेगसे 11 हस्तिनापुर न० नगर की म० मध्य से णि० जाकर जे० जहां ते० उन मु० स्वप्न ल• लक्षण पा० पाठक के गि० गृह ते. तहां उ० जाकर ते० उन सु० स्वम लक्षक पा. पाठक के स० बोलावे ॥१८॥ त० तब ते वे सु० स्वप्न लक्षण पा० पाठक ब. बलराजा के को. कौटुम्बिक पु० पुरुष से स० बोलाये हुवे ह°3 हृष्ट तु. तुष्ट हा स्नान किया जा० यावत् स. शरीर सि. सिद्धार्थक ह. हरताल से क० किये वेइयं हत्थिणापुरं णयरं मझं मझेणं णिग्गच्छंति २ त्ता जेणेव तेसिं सुविण लक्षण पाढगाणं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति २ त्ता, ते सुविण लक्खण पाढए सहावेति । ॥ १८ ॥ तएणं ते सुविण लक्खण पाढगा बलस्स रण्णो कोडुबियपुरिसेहि सदाविया समाणा हट्ठ तुट्ठा व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा, सिद्धत्थगहरियालिया, कयमंगलमुडाणा सएहिं २ गेहेहिता णिग्गच्छति २ त्ता, हत्थिणापुरं णयरं मझं करनेवाले व विविध प्रकार के शास्त्र में कुशल ऐसे स्वप्न पाठक को बोलावो. वे कौटुम्बिक पुरुषों की बल राजा की पास ऐसा मुनकर वहां से नीकलकर शीघ्रता, चपलता सहित हस्तिनापुर नगर की मध्य में होकर स्वम पादक की पास गये और उन को राजसभा में आने का कहा ॥ १८॥ स्वम लक्षण पाठक सबल राजा के कौटुम्बिक पुरुषों से राजसभा में आने का मुनकर बहुत हर्षित हुवे. स्नान किया यावत् अपने 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + •प्रकाशकं-राजाबहादुर लाला मुकदेव (सहायजा Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ब्दार्थ १० मंगल मु. शिर स० अपने गे• गृह से णि. नीकलकर ह• हस्तिनापुर ण० नगर की म० मध्य में जे० जहां ब० बलराजा को भ•भुवन अवतंसक के १० प्रतिद्वारपर ए०इकठे मे० मीलकर जे०जहां वा बाहिर की उ०. उपस्थान शाला जे. जहां व० बलराजा ते. तहां उ० आकर क० करतल ब. बलराजा को ज०. जय वि. विजय से व वधाये ॥ १९ ॥ त तब ते वे सु. स्वप्न लक्षण पा० पाठक ब० बलराजा से वं० वंदन कराये पू० पूजन कराए स० सत्कार कराए स० सन्मान कराए हुवे प० प्रत्येक पु० पूर्वाभि मझेणं जेणेव बलस्स रण्णो भवणवरवडिसए तेणेव उवागच्छति २ त्ता भवणवर वडिसए पडिदुवारंसि एगओ मेलंति २ त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण साला जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छंति २ ता करयल बलं रायं जएणं विजएणं वद्धाति ३ ॥ १९ ॥ तएणं ते सुविण लक्खण पाढगा बलेणं रण्णा बंदियपूइयसकारिय शरीर को वस्त्रालंकार से विभूषित किया. अर्थसिद्धि के लिये सर्पव हरिताल रूप लक्षणवाले मंगल मस्तक में धारन किये और अपने २ गृह से नीकलकर हस्तिनापुर नगर की बीच में होकर. बल राजा के भवन की तरफ जाने लगे और उन के प्रतिद्वार पर एकत्रित होने लगे. फीर वहां से सब उपस्थानशाला में बल राजा की समीप जाकर बल गजा को 'जय हो विजय हो' ऐसे शब्दों से वधाये ॥ १९॥ बल राजाने उन सब स्वप्न लक्षण पाठक को वंदना, पूजा, सत्कार सन्मानादि किये. और वे सब पहिले के 4887 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 4-887 828 अग्यारवा शतक का अग्यारवा उद्देशा वाथे Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ wwwwwwww A6A 400 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी मुख भ० भद्रासनपे नि बैठे त तब से वह ब० बलराजा प• प्रभावती दे० देवीको ज. पडदा में ठा० बैठाकर पु० पुष्प फ० फल से ५० पूर्ण ह० हाथ प० बहुत वि० विनय से ते० उन सु० स्वम लक्षण 10 पाठक को एक ऐसा व. बोला ए. ऐसे दे०देवानप्रिय प० प्रभावती दे० देवी अ.आज तं० उम ता. तादृश वा गृह में जा. यावत् सी. सिंह मु० स्वप्न मु० स्वप्न में पा० देखकर १० जागृत हुइ दे० देवानुप्रिय ए० इस उ० उदार जा० यावत् के० क्या मजाना क० कल्याणफल वि. वृत्ति वि. विशेष सम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति॥ तएणं से बलेराया षभावइं देवि जवणितरियं ठावेइ २ त्ता, पुप्फफल पडिपुण्णहत्थे, परेणं विणएणं ते. सुविण लक्खण पाढए एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई देवी अज तसि तारिसगंसि वासघरंस जाव सीहे सुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुढा;तणं देवाणुप्पिया! . एयरस उरालस्स जाव के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिाविससे भविस्सइ ? ॥ २० ॥ ढके हुवे सिंहासनपे बैठे. प्रभावती देवी को भी उम पडदे के अंदर बैठने को कहा. फोर पुष्प फल से परिपूर्ण हस्त सहित अतिशय विनय पूर्वक उन स्वम लक्षण पाठक को एसा कहा अहो देवानु प्रय ! आज प्रभावती देवीने पुण्यवंत को योग्य ऐसे आवास में यावत् सिंह को अपने मुख में प्रवेश करता हुवा स्वम में देखा. इस स्वप्न का हम को क्या कल्याणकारी फल होगा ? ॥ २० ॥ स्वप्न लक्षण: पाठकने बल राजा प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*. भावार्थ ann-ram www. m Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4988 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती सूत्र 48 उस में ई० पूछा अर्थ वि० भ० होगा || २० || त० तब सु० स्वप्न लक्षण पा० पाठक व० बलराजाकी अं० पास ए० इस अर्थ को सो० सुनकर णि० अवधारकर ह० हृष्ट तु तुष्ट तं० उस सु० स्वप्न को ओ० ग्रहणकरे तं बुद्धिमें प० प्रवेशकरे तं० उस सु० स्वप्न का अ० अर्थावग्रह क० करे ते० वे अ० अन्योन्य स० साथ सं० मंचालनकर त० उस मु० स्वप्न का ल० प्राप्त कीया अर्थ ग० ग्रहण किया अर्थ पु० निश्चय किया अर्थ अ० जाना अर्थ व० बलराजा की पु० आगे सु० स्वप्न का अर्थ उ करते ए० . ऐसा व० बोले दे० देवानुप्रिय अ० हमने सु० स्वप्न शास्त्र बा० बीयालीस सु० स्वप्न ती तीस म० महास्वप्न ) तणं ते सुविण लक्खण पाढगा बलस्स: रण्णो अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म तं सुविणं ओगिण्हंति, तं ईहं पविसंति २ त्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति २ सा, ते अण्णमण्णेणं सद्धिं संचालेति २ त्ता, तस्स सुविणस्स लट्ठा गहिया पुच्छियट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अभिगयद्वा बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाइं उच्चारेमाणे २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा की पास ऐसा सुनकर हर्षित हुए, और उस स्वप्न को अच्छी तरह समझ लिया, उस पर विचार किया, अर्थ ग्रहण किया, और परस्पर संचालन (पृच्छा ) किया. फीर उस स्वप्न का अर्थ की प्राप्ति करनेवाले, पृच्छा करनेवाले, निश्चितार्थवाले, विनिश्चितार्थवाले ऐने स्वम पाठक बल राजा की आगे स्वप्न का अर्थ 4 अग्गरवा शतक का अंग्याखा उद्देशा 50-48 १६०१ Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ बा० बहोत्तर स० सर्व सु० स्वप्न दि० देखे त. तहां दे० देवानुप्रिय ति तीर्थंकर की मा० माता च०* चक्रवर्ती की मा० माता ति तीर्थकर च. चक्रवर्ती ग• गर्भ में व० व्यतीक्रम ते ए० इन ती. तीस म. महास्वप्नमें से च० चौदह म० महास्वप्न पा० देखकर प० जागती हैं ग० गज उ० वृषभ सी० सिंह, अ० लक्ष्मी दा० माला स० चंद्र दि० सूर्य झ० ध्वजा कुं० कुंभ प० पद्य स० सरोवर सा० सागर वि० विमान भ० भवन र० रत्नोचय सि. अग्निशिखा वा. वासुदेवकी माता वा वासुदेव ग. गर्भ में व०१ तीसं महासुविणा बावत्तीरं सव्वसुविणा दिट्ठा. तत्थणं देवाणुणिया ! तित्थगरमाय1 रोवा चक्कवादिमायरोवा, तित्थगरंसिवा चक्कर्टिसिवा गम्भवकममाणंसि एतसिं तीसाए ET महासुविणाणं इमे चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति तं गयउसमसीह अभिसेय दामससी दिणयरं झयकुंभ, पउमसरसागर विमाण (भवण) रयणच्चुयीसहिच ॥ १ ॥ वासुदेवमायरोवा वासुदेवंसि गन्भं वक्कममाणंसि एसिं चउद्दसहं महासुविणाणं भावार्थ: करने लगे. अहो देवानुप्रिय ! हमारे स्वप्न शास्त्र में बीयालीस सामान्य स्वप्न व तीस महास्वम ऐसे सब मीलकर बहोत्तर स्वम कहे हैं. जब तीर्थंकर व चक्रवर्ती अपनी माता के गर्भ में आतेहैं तब उन की माता उन तीस महास्वप्न में से चौदह स्वप्न देखकर जागृत होती है. उन के नाम. १ हस्ती २ वृषभ 15 १३ सिंह ४ अभिषेक (लक्ष्मी का) ५ दो पुष्पमाला ६ चंद्र ७ सूर्य ८ वजा ९ कुंभ १० पय सरोवर 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी+ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी* Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ व्यतीक्रमते ए० इन च०. चौदह म. महास्वप्न में से अ० अन्यतर स• सात म० महास्वप्न पा० देखकर ५० जागती हैं ब० वलदेव की माता व० बलदेव ग. गर्भ में व० व्यतीक्रमते ए० इन च० चौदह म०* महास्वप्न के अ० अन्यतर च० चार म. महास्वप्न पा० देखकर ५० जागती हैं मं० मंडलीक की मा० माता मं० मंडलीक ग० गर्भ में व० व्यतीक्रमते ए० इन च० चौदह म. महास्वप्न में से अ० अन्यतर ए. एक म. महास्वप्न पा० देखकर १० जागती हैं दे० देवानुप्रिय. प० प्रभावती दे. देवीने ए० एक अण्णयरे सत्तमहासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ बलदेवमायगेवा बलदेवंसि मन्भं वक्कममाणसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महामुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति मंडलियमायरोवा मंडीलयोस गभंवक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महामुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ इमंचणं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए एगे महासुविणे दिटे तं उरालेणं देवाणुप्पिया! पभावईए देवीए सुविणे दिढे जाव भावार्थ ११. समुद्र १२ देव विमान १३ रत्नों की राशि और १४ धूम्र रहित अनि शिखा. जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्न में से किसी सात स्वप्न देखती हैं, बलदेव जब गर्भ में है। ॐ आते हैं तब बलदेव की माता चार स्वप्न देखती हैं और मंडलिक की माता इन में से किसी एक महा । + १ जब तीर्थकर, चक्रवर्ती वैमानिक में से चवते हैं तब विमान देखती हैं और नारकी में से आते हैं तब भवन देखती हैं. है । 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488+ 4:40. अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थम० म.स्वप्न दि० देखा तं० उम उ० उदार दे० देवानुप्रिय प० प्रभावती दे० देवी मु० स्वप्न दि०देखा जा० यावत् आ० आरोग्य तु तुष्टि क० कल्याणकारी मं• मंगलकारी दे देवानुप्रिय ५० प्रभावती दे० देवीने मु० स्वप्न दि० देखा अ० अर्थ लाभ भो० भोग पु० पुत्र र० राज्य लाभ दे० देवानुप्रिय ५०१ प्रभावती दे० देवी ण नवमास व बहुत ५० पूर्ण होते जा. यावत् वी० व्यतीक्रमते तु. तुमारा कु. कुलकेतु जा० यावत् दा० पुत्र का प० जन्मदेगी से वह दा० पुत्र उ० मुक्त बा० बालभाव जा० यावत् २० राज्यपति रा० राजा भ० होगा अ० अनमोर भा० भावितात्मा तं० उस उ० उदार दे. आरोग्गतुट्टि दीहाउकल्लाण मंगलकारएणं देवाणुप्पिया! पभावईए देवीए सुविणे दिडे, अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगपुत्तरजलाभो देवाणुप्पिया! एवं खलु देवाणुप्पिया पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडि पुण्णाणं जाब वीइक्वंताणं तुब्भं कुलकेउं जाव दारगं पयाहिसि. सेवियणं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव रजबई, राया भविस्सइ; ___ अणगारे वा भावियप्पा ॥ तं उरालणं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिटे स्वप्न देखकर जागृत होती है. ऐसे ही यह एक महास्वप्न प्रभावती देवीने देखा है. अहो देवानुप्रिय ! प्रभावती देवीने आरोग्य, उदार, तुष्टि व दीर्घायुष्य करनेवाला स्वप्न देखा है इस से अर्थ लाभ, भोग लाम, पुत्र लाभ, व राज्यलाभ होगा. और सवानवमास पूर्ण हुवे पीछे तुम को कुल में केतु समान यावत् 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ताबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* । Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्दार्थ <38 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 882 देवानुप्रिय प० प्रभावती दे० देवी सु. स्वप्न दि देखा जा० यावत् आ० आरोग्य तु० तुष्टि दी० दीर्घा युष्यवाला क. कल्याणकारी जा. यावत् दि० देखा ॥२१॥ ततव मे० वह व बलराजा मु०स्वप्न लक्षण १७ पा० पाठक की अं० पास ए. इस अर्थ को सो• सुनकर णि अवधारकर १० हृष्ट क० करतल जा० यावत् क० करके ते० उन स. स्वप्न लक्षण के पा० पाठक को एक ऐना व० बोला ए० एसे है। दे. देवानुप्रिय जा. यावत् ज० जैसे तु० तुम कः कहतेहो त्ति० एसा करकं तं० उन सु० स्वप्न को जाव आरोग्ग तुहि दीहाउ कल्लाण जाव दि? ॥ २१ ॥ तएणं से बले राया सुविण लक्खण पाढगाणं अंतिए एयमढें सोचा णिसम्म हट्ट करयल जाव कटु ते सुविण लक्खण पाढगे एवं वयासी एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव सेजहेयं तुझे बदहात्तिकटु तं सुविणं सम्मं पडिच्छइ २ त्ता, सुविण लक्खणपाढए विउलेणं असणपाण खाइम पुत्र होगा. पुत्र की बाल्यावस्था व्यतीत हुए पीछे सब राजाओं का राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार झेगा. इस से प्रभावतीने कल्याणकारी आरोग्य तुष्ट यावत् दीर्घायुष्यवाला स्वप्न देखा है ॥२१॥ फीर बलराना स्वप्न लक्षण पाठक की पास से ऐसा अर्थ सुनकर हृष्ट तुष्ट हुवे और हस्त जोडकर बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने जो कहा वह वैसे ही है. इस तरह स्वप्न इच्छकर सप्ज लक्षण अग्यारसा शतकका अग्यारवा उद्देशा " Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र वार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी (स० सम्यक प० अंगीकार करके मु० स्वप्न ल० लक्षण पा० पाठक को वि० विपुल अ० अशन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम पु० पुष्प व वस्त्र गं० गंध अट अलंकार से स० सत्कारदेवे स० सन्मान देवे (वि० विपुल जी० आजीविका पी० प्रीतिदान द० देकर प० विसर्जन किये सी० सिंहासन से अ० उठकर {जे० जहां १० प्रभावती देवी ते० तहां उ० आकर प० प्रभावती दे० देवी को ता० उस इ० इष्ट जा० यावत् सं० बोलते ए० ऐसा व० बोले दे० देवानुप्रिय ति० तीर्थकर की मा० माता च० चक्रवती की मा० साइम पुप्फवत्थ गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ २ ता विउलं जीवियारिहं पीइदा दलय २ ता डिविसजेइ २ तासीहासणाओ अब्भुट्ठेइ २ ता जेणेत्र पभावई देवी तेणेव उवागच्छइ २त्ता पभावतिं देत्रिं ताहिं इट्ठाहिं जाव संलवमाणे २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा पाठकों को अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला व अलंकार से सत्कार सन्मानादि | करके बहुत आजीविका योग्य प्रीतिकारी दान देकर विसर्जित किये और स्वयं प्रभावती देवी की पास आये. प्रभावती देवी को इष्टकारी, कांतकारी शब्दों से बोलाते हुवे ऐसा कहने लगे कि स्वप्न शास्त्र में बीयालीस सामान्य स्वप्न और तीस महास्वप्न ऐसे बहोत्तर स्वप्न कहे हैं. उन में से तीर्थकर व चक्रवर्ती ** प्रकाशक - राजा बहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *# १६०६ Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 शब्दाथ माता जा० यावत् अ० अन्यतर ए० महास्वप्न पा० देखकर प० जागती है तु. तुमने दे० देवानुपिय । ए. एक म० महास्वप्न दि० देखा. जा. यावत् र० राज्यपति रा० राजा भ० होगा अ. अनगार भा०१ भावितात्मा ते. उस उ० उदार तु तुमने दे० देवी मु० स्वप्न दि० देखा ति ऐसा करके प० प्रभावती देवी को ता. उस इ० इन दो० दमरी वक्त तक तीसरी वक्त अ. कहा ॥ २२॥त तव सा. वह प्रभावती दे देवी ३० वलराजा की अं० पाम ए. यह अर्थ सो० सुनकर णि अवधारकर ह० हृष्ट तु० - बावत्तरिं सव्वसुविणा ॥ तत्थणं देवाणुप्पिए! तित्थयरमायरोवा चक्कवटिमायरोवा तंचव जाव अण्णयरं एंगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ इमेणं तुम्हे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिढे जाव रज्जवईराया भविस्सइ, अणगारेवा भावियप्पा तं उरालेणं तुम्हे देवी! सुविणे दिटेत्तिकटु, पभावति देवि ताहिं इट्ठाहिं दोच्चंपि तच्चंपि - अणुबूहइ ॥ २२ ॥ तएणं सा पभावईदेवी बलस्सरण्णो अंतियं एयमटुं सोचाणिसम्म भावार्थ की माता तीर्थकर व चक्रवर्ती गर्भ में आते समय चौदह स्वप्न देखती हैं यावत् तुमने इन में से एक स्वप्न देखा है इस से तुम को सवानव मास पूर्ण हुवे पीछे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी. उन की बाल्यावस्था 10 जब पूर्ण होगी तब वह अनेक राजाओं का राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा. अहो देवी ! इस से तुमने अच्छा स्वप्न देखा है ऐसा कहकर प्रभावती देवी को दो तीनवार मिष्ट वचन से बोलाइ पण्णति ( भगवती ) सूत्र 48अग्यारवाशतकका अग्यारवा उद्देशा74 Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र वार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी तुष्ट क० करतल जा० यावत् ए० ऐसा ६० बोले ए० ऐसे दे० देवानुप्रिय जा० यावत् तं उस सु० स्वप्न को स० सम्यक् प० ग्रहणकरे ब० बल २० राजा से अ० आज्ञापाइ हुइ णा० विविध म० मणि) २० रत भ० खचित जा० यावत् अ० उठकर अ० त्वरा रहित अ० चपलता रहित जा० यावत् ग० गति में जे जहां स० अपना भ० भुवन ते ० तहां उ० जाकर स० अपना भः भुवन में अ० प्रवेश कीया २३ ॥ ० त सा० वह प० प्रभावती दे० देवी डा० स्नान कीया क० कीया व० वलीकर्म जा० यावत् हट्टतुट्टकरयल जाब एवं वयासी एवमेयं देवाणुप्पिया! जाव तं सुविणंसम्मं पडिच्छइ २ त्ता बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणमंत्ति जाब अब्भुट्ठेइ, अतुरिय मचल जान गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता, सयं भवणं अणुष्पविट्ठा ॥ २३ ॥ तणं सा पभावई देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव सव्वालंकार विभूसिया * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * | || २२ || प्रभावती देवी भी बलराजा से ऐसा सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुई और बोली कि जो आपने कहा वह वैसे ही है यावत् इस तरह स्वप्न का अर्थ इच्छकर बल राजा की आज्ञा से नाना प्रकार के मणि रत्नोंवाला सिंहासन से उपस्थित हुई और शीघ्रता व मंदता रहित अपने भवन में गई ॥ २३ ॥ वहां प्रभावती देवीने स्नान किया, कोगले किये, तीलक मसादिक किये यावत् सर्वालंकार से विभूषित बनी। १६०८ Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में स० सर्वालंकारसे वि. रिभूषित तं० उत ग० गर्भ को प० नहीं अ० अतिशीत से अ. अतिऊष्ण स अ014 me अति तिक्त से अ० अतिकटुक से अ० अतिकषाय से अ० अति अंबट से अ० अति मधुर से उ० ऋतु में भोग्य सु० सुख से भो० भोजन आ० आच्छादन गं० गंध म० माला से त• उस गगर्भ का हि हित मि०११ परिमित प० पथ्य ग० गर्भ पोषण दे० देश का काल आ० आहार करती वि विविक्त म० मृदु सशयन आ० आसन से ५० विरक्त सु० मुख म. मनोनुकूलता से वि० विहारभूमि में १० प्रशस्त दो दोहला सं०संपूर्ण दोहला स सन्मानित दो दोहला अ० अवमानित दो दोहला वि०विच्छिन्न दो दोहला वि. तं गब्भं णाइसीतेहिं, णाइउण्हेहिं, णाइतित्तेहिं, णाइकडएहिं, णाइकसाएहिं, णाइअंबिलेहि, णाइमहुरेहिं उउन्भयमाणसुहेहिं भोअणच्छादणगंधमल्लेहिं जं तस्स गब्भस्स हितं मितं पत्थं गब्भपोसणं तं देसेय. कालेय आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पतिरिक्कसुहाए मणाणुकुलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला, संपुण्णदोहला, सम्माणिय भावार्थ हुइ अतिशीत, ऊष्ण, तिक्त, कटक, कषाय, अम्बट व मधुर पदार्थ नहीं सेवने लगी. इस प्रकार ऋतु के प्रमाण से भोजन, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार कि जो गर्भ को हित करनेवाले पथ्यकर हैं ऐसे भोजन से 4 गर्भ को पोषती हुई देश काल उचित आहार पानी करती हुई, विविध प्रकार के सुकोमल शैय्या सन भोगवती हुई, जैसे गर्भ को सुख होवे वैसे करती हुई, मनोज्ञ विहारं भूमि में विचरती हुई, पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विनित दो० दोहला व रहित रो० रोग सो० शोक मो० मोह भ० भय प० परित्रात तं० उस ग० गर्भ को सु० सुख से प० वृद्धि करे ॥ २४ ॥ त० तब सा० वह प० प्रभावती दे० देवी १० नवमास ब० बहुत प० पूर्ण अ० अर्ध अ० आठ रा० रात्रि दिवस वी० व्यतीक्रांत सु० सुकुमार पा० हस्तपांव अ० अहीन प० प्रतिपूर्ण पं० पंचेन्द्रिय स० शरीर ल० लक्षण वं० व्यंजन गु० गुणयुक्त जा० यावत् स० चंद्र सो० सौम्याकार कं० कांत पि० प्रियदर्शन सु० सुरूप दा० पुत्र का प० जन्म दिया ॥ २५ ॥ दोहला, अवमाणियदोहला, विच्छिण्णदोहला, विणीयदोहला, ववगय रोगसोगमोह भयपरित्तासा तं गर्भं सुहंमुहेणं परिवढइ ॥ २४ ॥ तरणं सा पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपुडिपूण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइकंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीण पुडपुण पंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूचं दारगं पयाता ॥ २५ ॥ तणं तीसेय पभावईए देवीए अंगपडियारियाओ उत्पन्न हुए अच्छे दोहले पूर्ण करती हुई. वांच्छित दोहल करती हुइ और रोग, शोक, भय व त्रास दूर करती हुई मुख पूर्वक गर्भ की वृद्धि करने लगी || २४ ॥ अव प्रभावती देवी को पीछे सुकोमल हस्तपांववाला, प्रतिपूर्ण पांचों इन्द्रियों व शरीरवाला, सब लक्षण · सवानव मास पूर्ण हुए व्यंजनादि गुणोंदाला यावत् शशी समान सौम्याकारवाला, कांत, प्रिय, दर्शनीय और सुरूप ऐसा पुत्र रत्न का जन्म हुवा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १६१० Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र त० तब प० प्रभावती दे देवी की अं० अंग परिचारिका प० प्रभारती दे० देवी को ५० प्रसूता जा जानकर जे. जहां बबल रा० राजा ते. तहां उ० जाकर क० करतल ब० बल रा० राजा को ज०१७ जय वि. विजय से व० वधाकर ए. ऐसा घ० बोली ए० एसे ख० खलु दे० देवानुप्रिय १० प्रभावती । दे. देवीने ण. नव मा० मास ब० बहुन प० प्रतिपूर्ण जा. यावत् दा० पुत्र ५० जन्मदीया दे. देवानुप्रिय को पि.प्रिय करिये णि निवेदन करती हूं पि. प्रिय भे० तुमको भ० होवे ॥२६॥ त० तब से वह व० पभावती देवीं पसूयं जाणित्ता जेणेव बलेराया तेणेव उवागच्छइ २ चा, करयल बलं । रायं जएणं विजएणं बद्धाति २ त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावई है देवी णवण्हं मासाणं बहु पडिपुण्णाणं जाब दारगं पयाता तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियंणिवेदेमो पियं भे भवउ ॥२६॥ तएणं से बले राया अंगपडियारियाणं । ॥ २५ ॥ उस समय में प्रभावती देवी की पास रहनेवाली दासी प्रभावती देवी को पुत्र का जन्म हुवा जानकर बल राजा की पास आइ. और दोनों हाथ जोडकर जयविजय शब्द से बल राजा को बधाकर कहने लगी अहो देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी को सवानव मास पूर्ण होने से सर्व गुण लक्षण संपन्न पुत्र का जन्म हुआ है. आप को प्रीति उत्पन्न करने के लिये ऐसे समाचार की मैं वधाई देती हूं. आपकी प्रीति की वृद्धि होवो. और आप का कल्याण होवो ॥ २६ ॥ बल राजा अंगरक्षक दासी से ऐसा सुनकर अग्यारवा शतक का अग्यारवा उद्देशा 9881 43428 Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ शब्दार्थ 4 बलराजा अं० अंग परिचारिका की अं० पास से ए. यह अर्थ सो० सुनकर णि अवधारकर ह० हृष्ट तु• तुष्ट जा० यावत् धा• धारा से ह० हणाया जा० यावत् कू• कूप ते• उन अं• अंगपरिचारिका को म मुकुट व०वर्जकर ज जैसे मा०पहिने हुवे उ०आभरण द देवे से० श्चत र० रजतमय विविमल स. सलिल पु० पूर्ण भि भंगार प० ग्रहणकर म० मस्तक धो० धोकर वि० विपुल जी० आजीविका पी० प्रीति दान द० देकर स• सत्कारकर स सन्मान कर ५० विसर्जन की॥२७॥ त०तब से वह बबल रा. राजा सूत्र अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्टतुटु जाव धारायणीव जाव कूवे, तेसिं अंगपाडे यारियाणं मउडवजं जहा मालियउमायं दलयइ २ ता, सेतं रययामयं विमलसलिल पुण्णभिंगारं पडिगिण्हइ २ त्ता मत्थएधोवइ २ चा, विउलं जीविथारिहं पीइदाणं दलयइ २ त्ता, सहारेइ सम्माणेइ ३ त्ता पडिविसज्जेइ ॥ २७ ॥ तएणं से बले. बहुत हर्षित हुए संतुष्ट हुए यावत् रोमांचित हुवे, और अपना मुकुट सिवाय अन्य सव आभूषणों जैसे पहिने हुवे थे वैतेही दे दिये, जलसे भरीहुई झारी अपने हस्तमें लेकर उसदामी के मस्तक का प्रक्षालन किया और उसका दासीपना दूरकिया बहुत कालतक उपभोग में ले ऐमी आजीविका कर दी इस तरह सत्कार सन्मान देकर उसको विसर्जितकी॥२७॥फीर बलराजाने आज्ञाकारी पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थको० कौटुम्बिक पु० पुरुष को स० वोलाकर एक ऐसा व० बोले खि• शीघू दे० देवानुप्रिय ह० हस्तिना | पुर ण नगर चा० बंदीवान को मुक्त क० करो मा० मान उ० उन्मान ५० प्रमाण व० वृद्धि क० करो | ह. हस्तिनापुर ण० नगर को स० आभ्यंतर वा बाह्य आ० सिंचन स० संमार्जित ओ• उपलिप्त क० | करा जू० यूपस० सहस्त्रच० चक्र स० सहस्र पू० पूजा म. महामहिमा स० सत्कार उ० उत्सव करीम मुझ आ० आज्ञा प०पीछीदो त. तब से वे को कौटुबिक पुरुष व बलराजा से एक ऐसा राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे णयरे चारगसोहणं करेह चारगसोहणं करेइत्ता माणुम्माणप्पमाणवठ्ठणं करेह माणुमाणप्पमाणवठ्ठणं करेइत्ता, हत्थिणाउरं नयरं सभिंतरबाहिरियं आसियसम्मजिओबलित्तं जाव करेहिय कारवेहिय करेत्ताय कारवेत्ताय, जूवसहस्संवा चक्कसह स्संवा, पूयामहामहिमसक्कारंवा ऊसवेह २ त्ता ममेयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ तएणं भावार्थ देवानुपिय ! तुम हस्तीनापुर नगर के कारागृह शीघ्र शुद्ध करो उन में रहेहुवे बंदी जनों को मुक्त करो. मान ० उन्मान प्रमाण की वृद्धि करो. हस्तिनापुर नगर की अंदर व बाहिर सुगंधि जल का सिंचन करो, कचवर दूर करो, गोबर प्रमुख से लींपों ऐसे सब कार्य करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दे दो. कौटुम्बिक पुरुषों ने 8- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) 462 अग्यारवा शतकका अग्यारहवा उद्दशा । Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *७० वोलाये हुवे जा० यावत् १० पोछीदेते हैं ॥२८॥ त० तब त० वलराजा जे० जहां उ० दिवान खाना तेतहां उ० जाकर जा. यावत् प० तही उ० जाकर जा. यावत् प० स्नानगह से प० नीकलकर उ. उन्मुक्त उ. उत्कर उ० उत्कृष्ट अ०देना नहीं अ०प्रमाण रहित अ०भट प्रवेश करे नहीं अविना अपराध कु० कुदंड अ०धरणा रहित ग०१ गाणका व. प्रधान ना० नाटक क. कालत अ. अनेक ता. प्रेक्षाकारीसे च० सेवाया अ. बजाने वाले मु० मृदंग अ० विनाकालाइ म. दुष्पमाला प० आनंदित प० क्रीडा सहित स० नगर के मनुष्यों ज०१० से कोडंबियपुरिसा बलणं रण्णा एवं वुत्तसमाणा जाव पच्चप्पिणंति ॥ २८ ॥ तएणं से बलेराया जेणेव उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, तंचेव जाव मजणघराओ पडिनिक्खमइ २ ता उम्मुकं उक्करं उक्केढें अदिजं अमेजं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्ज कलियं, अणेगतालाचराणुचरियं अणुहुयमुयंतं अमिभावार्थ भी उस अनुसार सब करके उन को उन की आज्ञा पीछी दे दी ॥ २८ ॥ वहां से बल राजा दिवान खाना में गये वैसे ही यावत् मज्जन गृह से नोकलकर बाहिर से आती हुई वस्तुओं का कर, गवादिक का कर, गृहाादक का कर, व अन्य के ऋण वगैरह लेने का प्रतिषेध किया. सुभटों को अन्य के गृह में प्रवेश करने का प्रतिषेध किया, नगर में स्थान २ में गगिका के नाटकों व मादल के आवाजों शुरू होने लगे. विकसित पुष्पों की मालाओं स्थान २ पर लटकाई, नगर के सब लोक प्रमुदित हुए. अनेक प्रकार की 18 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६१५ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <28. देशके मनुष्यों सहित ददश दिवस ठि॰ जन्मोत्सव व करे॥२०॥ त तब से वह व०वलराजा द दशदिवस ठि• जन्मोत्सव होते स० शत स. सहस्र स० लक्ष जा० योग वा० व्रत दा० दान भा० भाग द० देते द० दिलवाते स. शत स० सहस्र स० लक्ष ल० लेते ५० ग्रहण करते वि० विचरता है ॥३० त० तव त • उस दा० पुत्रके अ० माता पिता ५० पहिले दि० दिवस में ठि० उत्सव क० करे त• तीसरे लायमल्लदामं पमुदियपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेंति ॥ २९ ॥ तएणं से बलेराया दसदिसाए ठिइवडियाए सतएय साहस्सिएय सय साहस्सिएय जाएय वाएय दाएय भावेय दलमाणेय दवावेमाणेय सतिएय साहस्सिएय . सयसाहस्सिएय लंभे पडिच्छमाणेय पडिग्छावमाणेय एवं विहरइ ॥ ३० ॥ तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेंति, तइए दिवसे चंदसूरक्रीडा सहित जनपद देश के लोकों ने दश दिन पर्यंत कुल की मर्यादा अनुसार जन्म महोत्सव किया. ॥ २२ ॥ बल राजा दश दिन तक पुत्र जन्म महोत्सव करते हुवे सेंकडो हजारो व लाखों रुपयों का खर्च कर योग पूजा वगैरह दान में देता हुवा व अन्य को देनेकी इच्छा कराता हुवा विचरता था ॥ ३० ॥ जन्म के पहिले दिन बालक का जन्म महोत्सव किया, तीसरे दिन चंद्रसूर्य का दर्शन कराया, छठे दिन गत्रि जागरणा की, अग्यारहवा दिन पूर्ण हुए 4.30 अग्यारवा शतकका अग्यारहका उद्देशा भावार्थ । Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६१६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 82 दिवस में चं चंद्र सू० सूर्य दं० दर्शन क० करे छ० छठे दि० दिवस में जा० जागरणा क• करे अ० * - अग्यारहवा दि० दिवस: वी. व्यतीक्रान्त णि निवृत्ति अ० अशुचि जा० जातिकर्म करन सं० संप्राप्त वा. बारहवे दि० दिवस अ० अशन पा० पान खा. खादिम सा० स्वादिम उ० तैयारकर ज. जैसे, सि. शिवराजाप जायावत् ख० क्षत्रिय को आ० आमंत्रण कर त० पीछे पहा० स्नान कीया तं० तैसे जा० यावत् स० सत्कारकर स० सन्मान देकर मि• मित्र णा० ज्ञाति जाल्यावन् ख० क्षत्रियों की पु० आगे अन्दादा प०पडदादा पि०पिताका पडदादा ब बहुत पुरुष १० परंपरा प०रुढीसे कु कुलरूप कु० कुलसरिखा दंसावणियं करेंति, छट्रेदिवसे जागरियं करेंति, एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते णिवत्ते, असुइजाइकम्मकरणे संपत्ते, बारसाहदिवसे विउलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडावैतिरत्ता जहा सिवो जाव खत्तिए आमंतेइ २त्ता तओ पच्छा पहाया कय तंचेव जाव सकारेंति सम्माणेति २ ता, तरसेव मित्तणाइ जाव खत्तियाणय पुरओ अजय पज्जय पिउपजयागयं, बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुविवद्धणकर, पीछे अशूचि कर्म दूर किया और बारह वे दिनमें अशन, पान, खादिम व स्वादिम बना कर जैसे सिव राजर्षि के अध्ययन में अपने ज्ञाति जनों को किया था वगैरह जो अधिकार है वह सब यहां जानना. यावत् क्षत्रियों को आमंत्रणा करके सव की साथ भोजन कर सब का सत्कार सन्मान वैसे ही सब के प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द, र्थ । सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 400 कु० कुलसंतान त० तंतु वि० वृद्धि करने वाला एक इसरुप गो० गौण गु० गुणनिष्पन्न ना० नाम क० करे ज० जैसे अ० हम इ० यह दा० बालक व बलराजा का पु० पुत्र प० प्रभावती दे० देवी का अ० आत्मज अ हम इ० इस दा० पुत्रका ना० नाम म० महाबल त० तब त० उस दा० पुत्रके अ० माता पिता ना० नाम क० कहते हैं म० महावल ॥ ३१ ॥ त० तत्र से वह म० महाबल पं० पंचधात्री प० रहा हुवा खीः क्षीरधात्री ए० ऐने ज० जैसे द० दृढप्रतिज्ञी जा० यावत् णि० निपात अयमेयारूवं गोणं गुणनिष्पणं नामधेज्जं करेंति, जम्हाणं अम्हं इमे दारए बलस्स रण पुत्ते भावई देवीए अत्तए तं होउणं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेजं महब्बले तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेजं करेंति ' महब्बल' इति ॥ ३१ ॥ एणं से महब्बले दारए पंचधाई परिग्गहिए तं खीरधाई एवं जहा दृढप्पइण्णे जाव सन्मुख दादा, पडदादा, पिता के दादा, से चला आता, बहुत पुरुषों की परंपरा से आता हुवा कुल को { योग्य, कुल संतान तंतु की वृद्धि करनेवाला ऐसा गुण निष्पन्न नाम दिया. यह बालक बल राजा का {पुत्र व प्रभावती देवी का आत्मज है इस से इस पुत्रका नाम महाबल होवो ऐसी नामकी स्थापना की और मातपिताने भी महावल नाम रखा || ३१ || अब महाबल कुमार क्षीरधाई, मंजन धाई, मंडन धाई, खिलानेवाली धाई व अंक घाई यों पांच प्रकार की धाईंयों से वृद्धि पाने लगा वगैरह सव कथन जते उबवाइ अग्यारखा शतक का अग्यारवा उद्देशा १६१७ Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4/नि० निर्व्याघात मु० मुख से प० वृद्धिपाता है ॥ ३२ ॥ त० तत्र त० उस म० महाबल दा० पुत्र के अ० माता पिता अ. अनुकम से ठि० उत्सव चं० चंद्र मु. सर्य दं० दर्शन जा० जागरणा ना. नामकरण मि में चलन प०पांवसे चलना जे०भोजनकर्म वि०पिंडवटिप बोलना ककछिटमवाट चोमोडत करना उ. कलाभ्यास अ० अन्य १० बहुत ग० गर्भादान ज. जन्म आ० आदि को कौतुक क० करेन णिवायणिव्वाघायंति, सुहंसुहेणं परिवदुइ ॥ ३२ ॥ तएणं तस्स महाबलस्स दारगस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेणं ठिइपइयंच चंदसूरदसणावणियंवा, जागरियंवा, नामकरणं वा, परगामणंचा, पयचंकमाणंवा जेमावणंवा पिंडवडणंवा पजपापणंवा कण्णवेहणंवा संवच्छरपडिलेहणंवा चोलोवणगंवा उवणयणंवा अण्णाणि बहूणि गब्भादाणजम्मण मादियाइं कोउयाई करेंति ॥ ३३ ॥ तएणं तं महाव्वलं कुमारं अम्मापियरो साइरभावार्थ सूत्र में दृढप्रतीज्ञी कुमार का कहा वैसे ही यहां कहना यावत् जैसे पर्वत की गुफा में चंपक वृक्ष सुख से वृद्धि पाता है ऐसे ही महाबल कुमार वृद्धि पाने लगा ॥ ३२ ॥ अब मातपिताने जन्म दिन से अनुक्रम से १ स्थिति कल्प २ चंद्र सूर्य दर्शन ३ जागरणा ४ नाम की स्थापना करना ५ भूमि पर खडा रहना ६ पांव से चलने का ७ जिमाने का ८ कवल वृद्धि का ९ बोलने का १० कर्ण छेद का ११ वर्ष 1-गांठ का १२ चौटी रखने का १३ कला शिक्षण का वगैरह और अन्य भी ऐसे अनेक गर्भ धारन, जन्मादि 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शब्दार्थ रा० 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एकबडा भ० भुवन का० करवाया अ० अनेक खं० स्तंभ स० शत स० सहित व० वर्णन युक्त ज० जैसे * रा० राय प्रसणीय में पे० प्रेक्षाग्रह मं० मंडप में जा. यावत् प० प्रतिरूप ॥ ३४ ॥ त० तब म० महायल कुमार के अ० माता पिता अ० अन्यदा कदापि सो० शुभ ति तिथि क० करण दि० दिवस ण नक्षत्र मु. मुहूर्त में डा० स्नान किया क. बलीकर्म कीया क. कौगले किये मं० तीलमसादि स० सर्व अ०१ अलंकार वि. विभूषित प० मर्दन हा० स्नान गी० गीत वा० कादित्र ५० मण्डन अ० आठ अंग में इति० तिलक कं० कंकण अ मौभाग्यवंती व वधू उ० किया मं०. मंगल सु० अच्छे वचन से व० प्रधान सगाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महेगेभवणं कारेति, अणेगखंभसय सण्णिविटुं वण्णओ जहारायप्पसेणइज्जे, पेच्छाघरमंडवंसि जाव पडिरूवे ॥ ३४ ॥ तएणं तं । महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अण्णयाकयाइं सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहत्तंसि हाय कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणगं ण्हाणं गीयवाइयंपसोहणट्ठगं तिलगकंकणअविहयवहुउवणीयं मंगलंसुजंपि वर्णन रायप्रसेणी सूत्र से जानना. उक्त आठ प्रासादावतंसक की मध्य में अनेक स्तंभयाला एक वडा भवन वनवाया. उप्त का भी वर्णन रायप्रसेणी मूत्र में से जानना ॥ ३४ ॥ अव एकदा किसी शुभ तीथि व मुहूर्त में महाबल कुमार के मातापिताने उन को स्नान कराया, बलिकर्म किया, तीलमसादिक किये सब । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ को कौतुक मं० मंगल उ उपचार सं० शांतिकर्म स० सहस्र स सरिखी स०सरिखी बचावाली स० सरिखी वयवाली स. सरिखा ला० लावण्य रू० रूप जो० यौवन गु० गुणयुक्त वि०विनीत ककिया को ols ४७ कोगले पा० तीलमसादि स-सरिखे रा० राजकुल से आ० लाइ हुइ अ० आठ रा० राजा में व० श्रेष्ठ | १६२१ क. कन्या का ए० एकदिवस में पा०हस्त गि० ग्रहण कराया ॥३०॥ तक तब त उस म०महाबळ कु. कुमार के अ० माता पिता ए• इसरूप पी० प्रीतिदान द० देवे अ० आठ हि० हिरण्य कोडी अ० आठ एहिय वरकोउयमंगलांवयारकयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्णरूवजोधणगणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउयमंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहि रायकुलेहिं अणिल्लियाणं अटुटुं रायवरकण्णाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हा विंसु ॥ ३५ ॥ तएणं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीतिभावार्थ अलंकारों से शरीर विभूषित किया, मर्दन, उगटणा, गीत, वादित्र, मंडन विशेष, तीलक, और मौभाग्य वती स्त्री से कुमुम्बी रंग के दोरे का बंधना इतने कार्य किये. फीर प्रधान मंगलिक वचन बोले प्रधान कौतुक मंगलरूप उपचारकिया. और शांतिकर्म वगैरह करके महाबल कुमारके एक सरीखी रूपवाली वयवाली *वर्णवाली व लावण्यवाली ऐसी आठ राजकमारियों को भी मांगलिक क्रियाओं कराके एक ही दिन उन सब का महाक्ल कुमार से पाणि ग्रहण कराया ॥३५॥ फीर महावल कुमार के मातपिताने आठ क्रोड चांदी | 428 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 88 अग्यारवा शतक का अग्यारवा उद्देशा 4.882 Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ० अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी {सु० सुवर्ण कोडी अ० आठ म० मुकुट म० मुकुट में प्रधान अ० आठ कुंडल जोड कुं० कुंडल जोड प्रधान अ० आठहार हा हार में प्रधान अ० आठ अर्धहार अ० अर्धहार में प्रधान अ० आठ ए० एकावली ए० एकावली में प० प्रधान ए० ऐसे मु० मुक्तावली क० कनकावली २० रत्नावली अ० आठ क० कडेकी जोड तु० बाजु बंध की जोड खो० कपास के वस्त्र जु० युगल प० प्रधान व० टसरिये वस्त्र प० पटवत्र दाणं दयति, तंजहा अट्टु हिरण्ण कोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ अट्ठ मउडे मउडप्पवरे, अट्ठ कुंडलजीए कुंडलजोयप्पवरे, अट्ठहारे हारप्पवरे, अट्ठ अडहारे अहारप्पवरे. अट्ठएगावलीओ, एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ, एवं कणगावलीओ, एवं रयणावलीओ अटुकडगजोए कडगजोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, अट्ठ खोमजुवलाई, खोमजुवलप्परराई, एवं वडगजुवलाई, एवं पट्टजुवलाई, एवं दुगुलजुवलाई, अट्ठ के सिक्के आठ कोड सौनये, आठ श्रेष्ठ मुकुट, आठ कुंडल के जोडे, आठ श्रेष्ठ हार, आठ अर्ध हार, आठ एकावली हार, आठ मुक्तावली, आठ कनकावली, आठ लावली, आठ कड़ों की जोडी, आठ वाजुबंध, (आठ श्रेष्ठ क्षोमयुगल [ कपास के ] वस्त्र, आठ श्रेष्ट टसरीये वस्त्र आठ पटसूत्रय युगल, आठ श्रेष्ठ श्रीदेवी प्रतिमा, आठ ही देवी प्रतिमा, आठ धृतिदेवी प्रतिमा, आठ कीर्ति देवी प्रतिमा, आउ बुद्धि देवी प्रतिमा, आठ लक्ष्मी देवी प्रतिमा, आठ नंदासन, आउ भद्रासन, आद रत्नों के बनाये हुवे ताल वृक्ष, आठ ध्वजा, * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * १६२२ Page #1653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' शब्दार्थ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र 438 दु० दुकुलवस्त्र सि० श्री हि. ही धि० धृति कि० कीर्ति बु० बुद्धि ल. लक्ष्मी नं० नंदादि भ भद्रासन त० तल त तालमें श्रेष्ट स सर्व र० रत्नामय नि०निजक व प्रधान भ० भवन केतु अ० आठ ध्वजा अ०आठव०वज ना० नाकट अ० अश्व स०सर्व ररत्नमय मिश्रीगृह प॰जैसे अ०आठ ह०हस्ती अ० आठ यान अ आठयुग ए. ऐसे सि० शिविका सं० संदामिनी गि० अबाडी थि० थिल्ली वि० विकटयान र रथ प०क्रीडा केलिये सिरीओ, अट्ठहिरीओ, एवंधिईओ, कित्तीओ, बुद्धीओ. लच्छीओ, अटुनंदाई, अट्ट भदाई, अट्ठतले तलप्पवरे, सव्वरयणामए, णियगवर भवणकेडे, अट्ठज्झए ज्झयप्पवरे, अट्ठवए, वयप्पवरे, ( दसगोसाहस्सिएणं वएणं) अटु नाडगाइं नाडगप्पवरे, बत्तीसं वद्धेणं नाडएणं, अट्ठआसे आसप्पवर, सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए, अट्टहत्थी हत्थिप्पवरे, सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूबए, अट्ठजाणाइं जाणप्पवराई, आठ गोकुल, आठ बत्तीस प्रकार के नाटक करनेवाले, सर्व रत्नमय श्रीगृह को शोभानक ऐसे आठ श्रेष्ट अश्व आठ श्रेष्ठ हस्ती, आठ यान, आठ श्रेष्ठ युग, आठ शिविका, आठ संदामनी, आठ हस्ती की अंबाडी, आठ ऊंट की थिल्ली, आठ विकटयान, आठ क्रीडा करने के रथ, आठ संग्राम के रथ, आठ घोडे, आठ हाथी, आठ श्रेष्ठ ग्राम (दश हजार कुल का ग्राम) आठ दास, आठ दासियों, आठ किंकर, आठ कंचुकी आठ वर्षधार भंडारी, आठ हिसावी, आठ वणिक, आठ पोलिया, आठ सोने की सांकलवाले दीपक, अग्यारना शतकका अग्यारवा उद्देशा.१४ 488 Page #1654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थररथ सं०संग्राम केलिये अ० अश्व ह० हस्ती गाग्राम दश कुं० कलसहस्र से गा ग्राम दा० दास कि किंकर: के०कंचुकिनी व० वर्षधर म० महत्तर सो० मोनेकी सांकल रु० चांदी की सु.सोना चांदी की सो. सोना के ओ० ऊंचे दीवे एक ऐसे ति तीन सो. सोना के पं० पिंजर वाले दीवे सो० सोना के था० १ थाल रु. रुपा के था० थाल सो० सोना रुपाके था० थाल ५० पगत धो० आयना म. मल्लक भाजन अट्ठजुग्गाई. जुग्गप्पवराई, एवं सिवियाओ संदमाणीओ, एवं गिल्लीओ, थिल्लीओ, अट्ठ वियड जाणाई वियडजाणप्पवराई, अट्ठरहे पारिजाणीए; अट्ठरहे संगामिए अट्ठ आसे आसप्पवरे, अट्ठ हत्थी हत्थिप्पवरे, अट्ठगामे गामप्पवरे (दस कुलसाहस्सिएणं गामेणं) अट्ठदासे दासप्पवरे, एवं दासीओ, एवं किंकरे, एवं कंचुइजे, एवं अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - .प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी * भावार्थ आठ रूपे की सांकलवाले दीपक, आठ सोने रूपे की मीली सांकलवाले दीपक, आठ २ सोने, रूपे व सोने* रूपे के ऊंचे दण्डवाले दीपक, सोने के, रूपे के, व सोने रूपे के आठ २ पिंजरवाले दीपक. आठ सुवर्ण के थाल, आठ रूपे के थाल, आठ सुवर्ण रूपे के थाल, आठ सुवर्ण पात्र, आठ रूपे के पात्र, आठ सुवर्ण रूप के पात्र आठसुपर्ण, की आरसी के आकारयाले पात्र, आठ रूपेकी आरसी के आकारवाले पात्र, और आई सुवर्ण को की आरसी के आकारवाले पात्र, आठ सोने के मल्लक [भाजन] आठरूये के मल्लक, आठ सोने, Page #1655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ त्र ब्दार्थ त. रकाबी क० चमचे अ० भाजन विशेष अ० तथा विशेष पा. पादपीठिका भि• आसन विशेष क. १ लोटा ५० पल्यंक ५० प्रतिशय्या , हंसासन को क्रौंचामन ग० गरुडासन उ. उन्ननासन ५० अवनVतासन दी. दीर्घामन भ० भद्रासन प० पक्षासन म० मकरासन प० पद्मासन दि० दिशा स्वस्तिकासन तेलके दावडे ज जैसे रा० रायपनी म० सर्षव के दावडे खु० खोजे ज० जैसे उ० उवाइ में alo वरिसहरे, एवं महत्तरए. अट्ठसोवण्णिए ओलंबणदीवे, अटुरुप्पमए, ओवलंबणदीवे, अटुसुवण्णरुप्पमए, ओवलंवणदीवे, अट्ठसोवण्णए ओकंचणदीवे, एवं चैव तिण्णिवि. अट्ठसोवण्णिए पंजरदीवे एवंचेव तिण्णिवि, अटुसोवाए थाले, अट्टरुप्पमए थाले, अट्ट सोवण्णरुप्पमए थाले, अट्ठसोवणियाओ पत्तीओ ३, अटुसोवणियाई । घोसयाई, अट्ठ सोवणियाई मल्लंगाई ३, 'अट्ठसोवणियाओ तलियाओ ३, अट्ठ भावार्थ रूपे के मल्लका, सोने की, रूपे की व मोने रूपकी आठ २ रकेवी, सोने के, रूपे के व सोने रूपेके आठ २ चमचे, सोने के, रूपे के व सोने रूपे के आठ तबे, सोने, रूपे व सोने रूपे की आठ २ कढाइ, सोने, रूपे व सोने रूपे की आठ २ पादपीठिका, सोने, रूपे व सोने रूपे के आठ आसन, सोने, रूपे व सोने रूप के आठ कलश, सोने के, रूपे के व सोने रूपे के आठ पलंग, सोने, रूपे व सोने रूपे के आठ छोटे पलंग,100 +आठ हंस के आकारवाले आसन, आठ क्रौंच के आकारवाले आसन, आठ गरुडासन, आठ उन्नत आसन, 48+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 4082 *3:02अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा MAnna Page #1656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ जा० यावत् पा० पारिसी छ० छत्र छ० छनधारक चे० दासी चा० चामर. चा० चामरधरनेवाली चे. पदासा ता० वीझणा ता० वीझणा धरने वाली ने० दासी क० तांबूल धरने वाली अ० आठ खी० क्षीरधात्री जा० यावत् अ० आठ अं० अंकघात्रा म० मर्दन करने वाली उ० बहुत मर्दन करने वाली पहा० स्नान है सोवणियाओ कवचियाओ ३, असोवण्णमए अपवडए, अट्टसोवणियाओ अवहै वक्ताओ ३, अट्ठसोवाण्णयाए पायपीढए ३, अट्टसोवाणियाओ भिसियाओ ३, अट्ठ सोवण्णियाओ करोडियाओ ३, अट्ट सोवाण्णए पल्लंके ३, अट्ठ सोवणियाओ पडिसेज्जाओ ३, अट्ट हंसासणाइ, कौंचासणाई, एवं गरुडासणाई, उण्णतासणाई, पणयासणाई, दाहासणाई, भद्दासणाई, अट्रपक्खासणाई,मकरासणाई, अट्ठपउमासणाई, अट्ठ दिसासोवत्थियासणाई,अट्ट तेलसमुग्ग जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ट सरिसवसमुग्गे,अट्ठ भावार्थ आठ अवनत आसन, आठ दीर्घासन, आठ भद्रासन, आठ पक्षासन, आठ मकरासन, आठ पद्मासन, आठ दिशा स्वस्तिकासन, आठ सुगांघ तेल के भाजन वगैरह रायप्रसेणीमें कहे मुजव (पत्रिवाहक, एलिषेके पात्र, हरताल के पात्र, हिंगूल के पात्र, मनःशिला के पात्र, अंजन के पात्र ) यावत् सरसव के पात्र, आठ खोजे, आठ २ अठारह देश की दासियों, आठ छत्र, आठ छत्र धारन करनेवाली दासियों, आठ पिंखे, आठ पंखे धारन करनेवाली दासियों, आठ पानदान, पानदान धारक आठ दासियों, पांच प्रकार 44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #1657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कराने वाली प० मंडन कराने वाली चं० चंदन पीसने वाली चु० चूर्णपीसने वाली की० क्रीडा कराने वाली द हास्य कराने वाली उ० आमनपे बैठाने वाली ना० नृस करने वाली को कौटुम्बिक की स्त्रीयों म013 रमोई बनाने वाली भं० भंडार रखने वाली अ० बालक रखने वाली पु. पुष्पधारक पा० पान खुजाओ जहा उबवाइए,जाव अट्ठपारिसीओ,अट्ठछत्ते,अट्ठछत्तधारीओ चेडीओ,अट्ठचाभराओ,अट्ठचामरधारीओ चेडीओ, अट्ठतालियंट अट्ठतालियंटधारीओ चेडीओ अट्ठकरो डियधारीओ चेडीओ, अट्टखीराईओ, जाव अट्ट अंकधाईओ, अट्ठ अंगमहियाओ, अट्ठ उम्महियाओ, अट्टहावियाओ, अट्ठ पसाहियाओ, अट्ठ चंदणपेसीओ, अट्ठ चुण्णगपेसीओ, अट्ठ कीडाकारीओ,अट्ट दवकारीओ, अड्ड उवत्थाणियाओ, अट्ठ नाड. है इजाओ, अट्ट कोडंविणीओ, अट्ठ महाणिसिणीओ, अट्ठ भंडागारिणीओ, अट्ठ भावार्थ की आठ २ धायमाताओं, आठ अंग मर्दन करनेवाली दासियों, आठ उन्मर्दिका दासियों, आठ स्नान , करानेवाली दासियों, आठ शृंगार करानेवाली दासियों, आठ गंध चूर्ण पीसनेवाली दासियों, आठ क्रीडा करानेवाली दासियों, हसानेवाली आठ दासियों, आसन नजदिक रहनेवाली आठ दासियों, नृत्य करने । To वाली आठ दासियों, आठ आज्ञानुसार करनेवाली दासियों, आठ रसोइ बनानेवाली, आठ भंडार रक्षक, बालक को रखनेवाली आठ दासियों, पुष्पों धारन करानेवाली आठ दासियों, पानी का रक्षण करनेवाली पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा 8 4 . Page #1658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२८ शब्दार्थ धरने वाल व० बलीकर्म करने वाली से शय्या करने वाली अ० आभ्यंतर प० परिचारिका वा बाहिर की प० परिचारिका मा० माला करने वाली ५० प्रषण करने वाली अ० अन्य सु० बरत हि० हिरण्य मु० सुवर्ण कं० कांस्य दू० वस्त्र वि० विपुल ध० धन कनक जा० यावत् सं० प्रधान सा० धन अ. देवे जा० यावत् आ० सातवा कु० कुलवंश प० प्रकाम दा० देने को ५० भोगने को ५० विभाग करने को अब्भाधारिणीओ, अट्ठ पुष्काधारिणीओ अट्ठ पाणधारिणीओ, अठ बलिकारियाओ, अट्ट सेजाकारिओ, अट्ट अभितरियाओ, पडिहारीओ; अट्ट बाहिरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीओ, अण्णेच सुबहु हिरण्णवा सुवण्णंवा, कंसंवा, दूसंवा, विउलधणकणग जाव संत सावदेनं अलांहि जाव आसत्तमाओं कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं परिभोत्तुं परिभाएउं । २६ ॥ तएणं से महब्बले भावार्थ: आठ दासियों, बलपराक्रम करनेवाली आउ दासियों, शैय्या विछानेवाली आठ दासियों, गुप्त कार्य करने वाली आठ दासियों, बाह्य कार्य करनेवाली आठ दासियों, माला बनानेवाली आठ दासियों, आठ प्रेषण करनेवाली वगैरह और इस सिवाय अन्य बहुत हिरण्य सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र, और विपुल धन. कनक, यावत् प्रधान द्रव्य वगैरह का प्रीति दान दीया कि जो सात वंश तक अन्य को देते व स्वयंभोगते खूटे नहीं।॥३६॥ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * प्रकाशक-राजीबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी * Page #1659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ +९१३ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सूत्र + ॥ ३६ ॥ त० तब से० वह म० महाबल कु० कुमारने ए० एक २ भ० भार्या को ए० एक २ हि० हिरण्य क्रोडमु० सुवर्ण क्रोड द० दिया ए० एक २० मुकुट प० श्रेष्ठ द दिया ऐ० ऐने ही तं वैसे ही जा० यावत् ए० एकर पे० प्रेषण करने वाली द०दी अ अन्य सु०बहुत हि० हिरण्य सु० सुवर्ण जा० यावत् प० विभाग करने को त० तब से वह म० महाबल कुमार उ० उपर पा० प्रासाद में रहा हुवा ज० जैसे ज० जमाली वि० विचरता ॥ ३७ ॥ ते० उस का काल ते ० उस म० समय में वि० त्रिमल अ० अरिहंत के १० प्रशिष्य घ० धर्मघोष अ० अनगार जा० जाति संपन्न व० वर्णन युक्त ज० जैसे के० केशिस्वामी मेगाभागमेगं हिरण्णकोडिं दलयइ, एगमेगं सुवण्गकोडिं दलयइ एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ ॥ एवं तं चैव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ || अण्णंच सुबहु हिरणंवा सुवणंवा जात्र परिभाएउं ॥ तएणं से महब्बले कुमारे उपिपासायवरगए जहा जमाली विहरइ ॥ ३७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ ओप धम्मघोसे णामं अणगारे जाइसंपण्णे वण्णओ जहा केसिसामिस्स जा उन में से महावल कुमारने उन आठों भार्याओं को एक २ हिरण्य क्रोड, एक २ सुवर्ग क्रोड, एक २ श्रेष्ट मुकुट) ( यावत् एक २ प्रेषणकारी दीया और सातवेशतक अन्य को देते व भोगते भी खूंटे नहीं इतना { हिरण्य वगैरह दिया. इस तरह महाबल कुमार जमाली जैसे प्रासाद पर भोग भोगता हुन विचरता था || ३७॥ उस काल उस समय में जाति संपन्न कुल संपन्न वगैरह केशीस्वामी जैसे गुणोंवाले धर्मघोष नामक अनगार * 40850 अपरवा शतक का अभ्यारचा उद्देशा ०७ १६२९ Page #1660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी शृंगाटक) जा० यावत् पं० पांच अ० अनगार स० सो की स० साथ सं० परवरेहुवे पु० पूर्वानुपूर्वी च० चलते हुए [गा० ग्रामानुग्राम दु० विचरते हुवे जे० जहां ह० हस्तिनापुर न० नगर जे० जहां स० सहस्रवन उ० उद्यान ते वहां उ० आकर अ० यथा प्रतिरूप उ० अवग्रह उ० याचकर सं० संयम त तप से अ० आत्माको भा० विचारते जा० याक्त् वि० विचरते हैं ॥ ३८ ॥ तं तब ह० हस्तिनापुर न० नगर में सिं० ति० त्रिक जा० यावत् १० परिषदा प० पर्युपासना करने लगी. त० तब त उस म० महाबल कु· पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुत्राणुपुत्रि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव हत्थिणाउरे णयरे जेणेव सहसंववणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अहापंडरू उग्गहं उगिण्हइत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरइ ॥ ३८ ॥ तणं हथिणापुरे यरे सिंघाडगतिय जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ तएणं तस्स महन्त्र• लस्स कुमारस्स तं महया जणसदंबा जणबूहंवा एवं जहेब जमाली तहेव वित्ता साधुओं के परिवार से ग्रामानुग्राम विचरते हुवे हस्तीनापुर नगर के सहस्रवन उद्यान में यथोक्त अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे || ३८ | उस समय में शृंगाटकाकार मार्ग में यावत् महान रस्ते पर ऐसा वार्तालाप होने लगा यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी. उस समय में | महाबल कुमारने ऐसा शब्द सुनकर जमाली की तरह कंचुकी पुरुषों को बोलाये और कंचुकी पुरुषों ५०० * प्रकाशक - राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १६३० Page #1661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १६३१ ककुमार का तं० उस म: बहुत ज० मनुष्य शब्द ज० मनुष्य का समूह ए. ऐसे ज० जैसे ज० जमाली ० त० तैसे वि• जानकर त० तैसे कं. कंचुकी पु० पुरुषों को म० बोलाकर के० कंचुकी पु० पुरुषोंने त. वैसे ही अ० कहा ण. विशेष ध० धर्मघोष अ० अनगार का आ० आगमन ग० जाना वि०निश्चय किया क० करतल जा० यावत् णि. नीकले ऐ. ऐसे दे. देवानप्रिय वि०विमल अ. अरिहंत ५० प्रशिष्य ध० धर्मघोप अ० अनगार से• शेष तं नैसे जा. यावत् सो० वह भी त० तैसे र० श्रेष्ट रथ से तहेव कंचुइज्जपुरिसे सद्दावेइ, कंचुइज्ज पुरिलो तहेव अक्खाइ, गवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल जाव णिग्गच्छइ ॥ एवं खलु देवाणुप्पिया! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे णाम अणगारे सेसं तंचेव जाव सोवि तहेव रहवरेण णिग्गच्छइ, धम्मकहा जहा केसिसामिस्स सोवि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ, णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ भावार्थ अन्य से पूछकर हाथ जोडकर कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! श्री विमलनाथ अरिहंत के प्रशिष्य श्री धर्मघोष नामक अनगार पांच सौ साधु के परिवार सहित तप संयम से आत्मा को भावते हुवे विचरते हैं. इस तरह वृत्तान्त सुनकर जमाली जैसे रथारूढ होकर महाबल कुमार नीकले. धर्मकथा श्रवण की, और मातपिता की आज्ञा लेकर धर्मघोष अनगारकी पास दीक्षा अंगीकार की. इसमें विशेषता इतनी कि पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4387 .अग्यारवा शतक का अग्यारवा उद्देशा Page #1662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ14णि नीकले ध० धर्म कथा ज जैसे के केशी स्वामी की सो० वह भी तक तैसे अ० माता पिताको आ.. पुछकर ण विशेष ध० धर्मघोष अ० अनगार की अं० पास मुं• मुंड भ० होकर अ. गृहवास से अ० साधुपना ५० अंगीकार करने का त० तैसे ही बु. उत्तर प. प्रत्युत्तर ण. विशेष इ. ये ते० तेरी मा० पुत्र वि० बहुत सः राजकुल वा० बालाओं क० कला मे० शेष ते तैसे जा० यावत् ता. उन अ० अकाम म० महाबल कु. कुमार को एक ऐसे क० गेले तं• इस से इ० इच्छत हैं ते० तेरी जा• पुत्र ए. एक दि० दिवस की रा राज्यलक्ष्मी पा० देखनेको त० तब से वह म० महाबल कुमार अ० माता पिता के व वचन को अ० नहीं उल्लंघते तु० मौन सं० रहा ॥ ३९ ॥ त० तब से उन ब० बलराजाने __ अणगारियं पव्वइत्तए, तहेव वुत्त पडिवुत्तयाओ णवरं इमाओय ते जाया! विपुल राजकुल बालियाओ कला सेसं तंचेव जाव ताहे, अकामाई चेव महब्बलं कुमार एवं वयासी तं इच्छामो ते जाया ! एग दिवसमवि रज्जसिरिं पासेमि ॥ तएणं से महब्बले कुमारे अम्मापिउवयण मणुवत्तमाणे तुमिणीए संचिट्ठइ ॥ ३९ ॥ तएणं से बलेराया कोडुं । जमाली के कथन में विपुल कुल बालिका कही है और यहां विपुल राज्यकुलोत्पन्न बालिका कहना. और अहो पुत्र ! तुम एक दिन राज्यसुख भोगवो ऐसा हम देखना चाहते हैं. महाबल कुमार मातपिता की 1*ऐसी आज्ञा नहीं उल्लंघने से मौन रहे ॥ ३१ ॥ फीर बल राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को वोलाये और शिव-12 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* to 4१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्रा अमोलक ऋषिजी भावार्थ Page #1663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णाते ( भगवती ) सूत्र | को० कौटुम्बिक पु० पुरुषों को स० वोलाये ए० ऐसे ज जैसे सि० शिवभद्र त० तैसे रा० राज्याभिषेक भा० कहना जा० यावत् अ० सिंचन कर क० करतल म० महाचल कु० कुमार को ज० जय वि० विजय से व० वधाया ए० ऐसे व० बोले भ० कहे जा० पुत्र कि० क्या दे० देवे कि० क्या प० विशेष देवे से० शेष ज० जैसे ज० जमाली त० तैसे जा० यावत् ॥ ४० ॥ त० तत्र से० वह म० महाबल [अ० अनगार घ० धर्मघोष अ० अनगार की अं० पास सा सामायिकादि च० चउदह पु० पूर्व अ० बिय पुरिसे संदावे, एवं जहा सिवभदस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियव्वो जाव अभिसिंचाइ २ ता करयल परिमहब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वद्धार्वेति २ ता एवं वयासी भण जाया ! किं देमो किं पयच्छामो सेसं जहा जमालिस्स तहेब जाव ॥४०॥ तएणं से महब्बले अणगारे धम्मघोसरस अणगाररस अंतिए सामाइयमाइ - भद्रकुमार के अधिकार समान राज्याभिषेक की तैयारी कराइ यावत् राज्याभिषेक करके महाबल कुमार को जय विजय शब्द से वधाये और बोले कि अहो पुत्र ! तुम कहो कि हम क्या देवे ? शेष सत्र जमालीवस् ॐ जानना ॥ ४० ॥ फीर महाबल कुमारने धर्मघोष अनगार की पास से सामायिकादि चौदह पूर्व का अध्ययन {किया, चौथभक्तादि विविध प्रकार के तप किये और बारह वर्ष साधुपना पालकर एक मास की byo 4- अग्यारवा शतकका अग्यारवा उद्देशा १६३३ Page #1664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६१ पढकर ब० बहुत च० चतुर्थ जा. यावत् वि० विचित्र त तपकर्म से अ० स्वतः को भा० विचारता व० बहुत प० प्रतिपूर्ण दु. बारह वा० वर्ष सा० साधु की प० पर्याय पा. पालकर मा० मास की सं० खना से स० साठ भक्त अ० अनशन आआलोचना ५० प्रतिक्रमण सहित का काल के अवसर में का० काल कि० करके उ० अर्ध चं० चंद्र सू० सूर्य ज. जैमे अ. अम्बड जा० यावत् 4. ब्रह्मलोक क० देवलोक में दे० देवतापने उ० उत्पन्न हुए त • वहां अः कितनेक दे देवों की द० दश सा० सागरोपम याइं चउद्दसपुब्वाइं अहिजइ २ त्ता बहूहिं चउत्थ जाव विचित्तेहिं तवोकम्महिं अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउण३ २ त्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताइ अणसणाए आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते काल मासे कालं किच्चा उड़ चंदिमसूरिय जहा अम्मडो जाव बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णे; तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थणं महखना से आत्मा को झोसकर साठ भक्त अनशन का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर काल के अवसर में काल कर जैसे अम्बड सन्यासी ऊंचे चंद्र सूर्य में उत्पन्न हुवा वैसे ही पांचवे ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न * पूर्वधर जघन्य छठे देवलोक में उत्पन्न होते हैं और यहां पांचे देवलोक में उत्पन्न होने का कहा है. इस से यहां पर मरण समय में पूर्व का विस्मरण होने का संभव है. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ ॐ Page #1665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ की ठि• स्थिति १० प्ररूपी से. अथ तु• तुम मु० सुदर्शन बं० ब्रह्मलोक क० देवलोक में द० देश सा सागरोपम के दि० दीव्य भो० भोगोपभोग भुं० भोगते हुवे वि• विचरने को त० तत्पश्चात् दे. देवलोक V में से आ० आयुष्यलय अ० अनंतर च. चवकर इ० इस वा वाणिज्यग्राम न० नगर में से० श्रेष्टिकुल में पु० पुत्रपने ५० उत्पन्न हुवा त० तब तु० तुम सु० सुदर्शन उ० मुक्त बा० बालभाव से वि० विज्ञान १५० परिणत से जो० यौवन को अ० प्राप्त नहीं हुवे त० तथारूप थे० स्थविर को अं• पास से के. ब्बलस्सवि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥ सेणं तुम्मं सुदंसणा ! बंभलो. • ए कप्पे दससागरोवमाइं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ॥ तओचेव देवलोगाओ आउक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियगामे णयरे सेट्टि । कुलसि पुत्तत्ताए पञ्चायाए ॥ तएणं तुम्मं सुदंसणा! उम्मुबाबालभावणं विण्णाय परिणयमेत्तेणं जोब्बणग मणुप्पत्तेणं, तहारूवाणं थेराणं अंतियं केबलिपण्णत्ते धम्मे भावार्थ हुवा. यहां पर उन की दश सागरोपम की स्थिति कही. अहो सुदर्शन ! तुम पांचवे ब्रह्मदेवलोक में दश सागरोपम की स्थिति से दीव्य भोग भोगत हवे विचरते थे. फीर आयुष्य, स्थिति व भव का 0 3क्षय होने से वहां से चवकर यहां पर वाणिज्यग्राम नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्रपने उत्पन्न हुए हो. अहो be सुदर्शन ! तुमारी पाल्यावस्था मुक्त हुई है, तुम ७२ कला में प्रवीण हुए हो और यौवन अवस्था प्राप्त होते है । 28 पंचपाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र <288% wwwmmmmmmmmmaniawin 48 अग्यारवा शतकका अग्यारहवा उद्देशा867 Page #1666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 केवली प. प्ररूपित ध धर्म नि० सुना से• वही ध धर्म इ० इच्छा प० विशेष इच्छा ४० रुचि की सु० अच्छा तु• तुम मु० सुदर्शन इ० अभी क० करते हो ते० इसलिये मु० सुदर्शन एक ऐसा वुः कहा जाता है अ० है ५० पभ्योपम मा० सागरोपम का ख० क्षय अ. अपचय ॥ ४१ ॥ त० तब तक उस स. सुदर्शन से श्रेष्टि स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर की अंपास ए. यह अ० अर्थ सोमुनकर णि अवधास्कर मु• शुभ अ० अध्यवसाय मे सु. शुभ प. परिणाम से ले० लेश्या भी मु० शद्ध करते __णिसंते, सेवियसे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए तं सुदृणं तुम्मं सुदंसणा! इदाणिं विकराति. से तेणटेणं सुदंसणा! एवं बुच्चइ अस्थिणं एतेसिं पलिओवम . सागरोवमाइं खएइवा अवचएइवा ॥ ४१ ॥ तएणं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स ___समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमद्रं सोचा णिसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं मुभेणं परिणामेणं लेस्सा विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं भावार्थही , तथारूप स्थविर की पास से केवली प्ररूपित धर्म तुमने मुना है। इस से तुम को ऐसा धर्म की इच्छा, प्रतीच्छा, रुचि व अभिरुचि हुई है. और अद्यापि पर्यंत भी एसा धर्म करते हो. अब अहो सुदर्शन ! इसलिये ऐसा कहा गया है कि पल्योपम व सागरोपम का क्षय व अपचय होता है ॥ ४१ ॥ सुदर्शन च के श्रीपने श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से ऐसा अर्थ मुनकर अवधार कर शुभ अध्यवसाय व अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 50 Page #1667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ त० मे अ० आवरणीय कर्म के ख० क्षयोपशम से ई. विचारणा म०मार्ग की गगषणा क० करते हुए। |० स० संज्ञो पु० पूर्वजाति स० स्मरण स० उत्पन्न हुवा ए . इस अं• अर्थ को स० सम्यक् प्रकार से स० ० अच्छा जाना ॥४२॥ त० तव ते. उन मु० सुदर्शन से० श्रेष्ठि स० श्रमण भ. भगवंत म.30 महावीर सं० स्मरण कराया पु० पूर्वभव दु० दुगुना म० श्रद्धा संवेग आ आनंद सं० पूर्ण न नयन इस श्रमण भ. भगवंत म० महावीर को ति० तीन व० वंदना कर ण. नमस्कार कर ए० ऐसे व० बोले ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सणी पव्वजाईसरणे समप्पण्णे एयमद्रं सम्म अभिसमेति ॥ ४२ ॥ तएणं ते सुदलणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारिय पुन्वभवे दुगुणाणिय सढुसंवेगे आणंदसंपुण्णणयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ २ वंदति णमंसति बंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी एवमेत भंते! जाव से जहयं भावार्थ | व शुभ परिणाम मे धारन करने से आवरण रुप कर्ष का क्षय किया, विचारणा करते हुये संजीरूप जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा और इस से भगवंत श्री महावीर स्वामीने जो कथन किया था | इस को सम्यक् प्रकार से जानने लगा ॥ ४२ ॥ श्रमण भगरन्त श्री महावीर स्वामीने सुदर्शन श्रेष्ठि को । पूर्व भा का जिससे वह दुगुनी श्रद्धा व मंगवाला हुवा, आनंद से परिपूर्ण हुवा और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार करके बोलने लगा कि अहो भगवन् ! जो आप कहते हैं. वह ऐसाही है यों कहकर उत्तर | पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4.9g 07 अग्यारवा शतक का अग्यारहवा उद्देशा Page #1668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शदायसेन * ए० ऐसे ए• यह भं० भगवन् जा. यावत् ज० जैसे तु. तुम व कहते हो त्ति ऐसा क• करके उ० ईशान कोन में अ० गया से० शेष ज. जैसे उ० ऋषभदत्त जा. यावत् स० सब दु०दुःख ५० रहित ण विशेष च० चतुर्दश पु० पूर्वका अ० अध्ययन किया ब. बहुत प. पूर्ण दु० बारहवर्ष सा० साधुपना पा० पालकर से० शेष तं० तैसे से वैसे ही भं० पूज्य म० महाबल म समाप्त ॥ १२ ॥ ११ ॥ तक उस का काल ते० उस ससमय में आ० आलंभिका ण नगरी हो० थी व० वर्णन युक्त स० तुझे वदहत्तिक? उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ । सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणं णवरं चउद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ, बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ ससं तंचेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ महब्बलो सम्मत्तो ॥ एगारस सयरसय एगारसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ ११ ॥ तेणं कालेण तेणं समएणं आलंभिया णामं णयरी होत्था वण्णओ संखवणे चेइए भावार्थ पूर्व (ईशान ) कौन में गया, वहां जाकर शेष सब ऋमदत्त ब्राह्मण समान दीक्षा धारन कर कर्म का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की वगैरह कहना. विशेष में इतना कि चौदह पूर्व का अध्ययन किया, बारह वर्ष संयम पाला. अहो भगवन् ! आप के ववन सत्य हैं. यह महावल का अधिकार संपूर्ण हुवा. यह अग्यारहवा शतक का अग्यारहवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ११ ॥ ११॥ . . . , अग्यारहवे उद्देशे में काल को स्वरूप कहा अब आगे काल के भांगांतर कहते हैं. उस कालं उस १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापजी. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4008- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र शंखवन चे० उद्यान व वर्णन युक्त १० वहां आ० आलेभिका न० नगरी में ब० बहुत इ० ऋषभद्र पुत्र प प्रमुख स० श्रमणोपासक पर रहते थे अ० ऋद्धिवंत जा० यावत् अ० अपरिभूत अ० जाने हवे जी० जीव अजीव जा० यावत वि० विचरते थे ॥ १ ॥ त० तब ते० उन स० श्रमणोपासकों को अ० एकदा ए० एकत्रित स० मीले दुवे स० साथ स० बैठे हुवे अ० यह ए० ऐसा पि० परस्पर क० कथा अ० अध्यवसाय स० उत्पन्न हुवा दे देवलोक में अ० आर्य दे देवों की कं० कितने काल की ठि० स्थिति पर कही त तब इ० ऋषिभद्र पुत्र स० श्रमणोपासक दे० देवस्थिति ग० जानी हुई ते उन स वण्णओ, तत्थणं आलंभिया णयरीए बहवे इसिभदपुत्तप्पमोक्खा समणोवासग! परिवसंति, अड्ढे जाव अपरिभूए, अभिगय जीवा जीवा जाव विहरति ॥ १ ॥ त तेसिं समणोवासयाणं अण्णदा कयायि एगयओ समुवागयाणं सहियाणं समुविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोक हा समुल्लावे अन्भत्थिए समुप्पज्जित्था, देवलोएसुणं अजो देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? तरणं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देव समय में आरंभिका नामक नगरी थी. उस का वर्णन उववाइ जैसे जानना. उस की ईशान कौन में शंखवन नामक उद्यान था. उस आलंभिका नगरी में ऋषिभद्र पुत्र प्रमुख बहुत श्रमणोपासक ऋद्धिवाले यावत् | अपरिभूत व जीवाजीव के स्वरूप जाननेवाले रहते थे || १ || एकदा वे श्रमणोपासक मीलकर बैठे ॐ अग्यारहवा शतक का बारहवा उद्देशा १६३९ Page #1670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी श्रमणोपासक को एक ऐसे व० बोले दे० देवलोक में अ० आर्य दे० देवों की ज० जघन्य द० दश वा. वर्ष म सहस्र ठि• स्थिति प० प्ररूपी ते उस पीछे स० समयाधिक दु० दो स० समयाधिक जा० यावत् द० दश समयाधिक सं० संख्यात स० समयाधिक अ० असंख्याता म° समयाधिक उ• उत्कृष्ट ते. तेत्तीस सा० सागरोपम की ठि० स्थिति ५० प्ररूपी ते० उस पीछे वो० नष्ट दे देव दे० देवलोक ॥२॥ त० तव ते वे स० श्रमणोपासक इ० ऋपिभद्र पुत्र स० श्रमणोपासक को ए०ऐसा आ०कहते जा० यावत् 2 ट्रिई गहियट्रे ते समणोवासए एवं वयासी देवलोएस गं अज्जो! देवाणं जहण्णेणं दसवास सहस्साइं ठिई पण्णत्ता, तेणपरं समयाहिया दुसमयाहिया जाव दससमया. हिया संखेजसमयाहिया असंखेजसमयाहिया उक्कोसणं तेत्तीस सागरोवमट्टिई पण्णत्ता, तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगाय ॥ २ ॥ तएणं ते समणोबांसगा इसिउन में परस्पर ऐसा वार्तालाप हुवा कि अहो आर्यो ! देवलोक में देवताओं की कितनी स्थिति कही ? उन समय में देव स्थिति के जाननेवाले ऋषिभद्र पुत्र नामक श्रमणोपासक ने कहा कि अहो आर्यो ! देवलोकन में देवों की जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति कही और इस में एक समय, दो समय यावत् दश समय संख्यात, असंख्यात समय अधिक होते २ उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति कही. इस से आगे देवलोक में देवता की स्थिति का विच्छेद होता है ॥२॥ उस समय में उक्त श्रमणोपासकने ऋषिभद्र पुत्र श्रम * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ। Page #1671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ए. ऐमा ५० प्ररूपते ए. यह अ० अर्थ णो नहीं स० श्रद्धने हैं जो नहीं प. प्रतीति करते हैं णो०१ : नहीं रो० रुचि करते हैं ए. यह अ० अर्थ अ० नहीं श्रद्धने अ० नहीं प्रतीति करते अ. नहीं रुचि करते जा०जिसदिशि से पार आये ता. उस दि० दिशी में १० पीछे गये ॥३॥ ते. उस का. काल ते०१ उस स० समय में स, श्रमण भ. भगवंत म० महावीर जा० यावत् स० पधारे जा. यावत् प० परिषदाई प० पर्युपासना की ॥ ४ ॥ त० तब स० श्रमणोपासक इ० इस क० कथा ल प्राप्त हुई ह. हृष्ट तु. भद्दपुत्तस्स सम्णोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्त एपमढें णो सदहति, णोपत्तियंति, णो रोयंति. एयमद्रं असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेवदिसि पाउब्भूया तामेवदिसिं पडिगया ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोस ढे, जाव परिसा पज्जुवासइ ॥४॥तएणं ते समणोभावार्थ णोपासक के कथन पर श्रद्धा प्रतीति व रुचि की नहीं. और इस तरह श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करते हुवे में जिस दिशा में से आये थे उसी दिशा में पीछे गये ॥ ३ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महाof वीर स्वामी उस बालंभिका नगरी में पधारे. परिषदा वंदने को आई, धर्मोपदेश सुनकर पीछो गई ॥ ४ ॥ उस समयमें वहां के श्रमणोपासकोंने भगवंत श्रीमहावीर स्वामी के पधारने की वार्ता सुनी, और बहुत हर्षित पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 8888 nnrmmmmwwwimmom * अग्यारवा शतक का बारहवा उद्दशा व Page #1672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ शब्दार्थ तुष्ट ए. ऐसे ज. जहां तु. तुंगिया का उ० उद्देशा जा. यावत् ण. नमस्कार कीया ॥५॥ त तब स. श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ते. उन म० श्रमणोपासकों को ती• उस म० बडी ध० धर्मकथा जा० यावत् आ० आराधक भ० होता है ॥ ६ ॥ त० तव ते वस० श्रमणापासक स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर की अंपास प. धर्म सो० मुनकर णि अवधारकर हर हुए तुकतुए उ. उठक स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को वं० वंदना ण नमस्कार कर ए. ऐमा व. बोले ए. ऐसे वासगा इमीसे कहाए लट्टा समाणा हट्ठतुट्ठा एवं जहा तुंगियोदेसए जाव णमंसंति ॥ ५॥ तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोबासगाणं तीसेय महइ धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवइ ॥ ३ ॥ तएणं ते समणोबासगा समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठा उट्ठाए उट्टेति, उट्टेइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु भंते! इसिभद्दे भावार्थ यावत् आनंदित हुवे वगैरह जैसे तुंगिया नगरी के श्रावकों का कथन किया वैसे ही यहांपर कथन जानना।।५॥उम समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उस महती परिपदा में धर्मोपदेश सुनाया यावत् आज्ञा का आराHधक होता है वहां तक कहना ॥ 6 ॥ भगवंत श्री महावीर स्वामी से ऐसा धर्मोपदेश सुनकर श्रावक बहुत हर्षित हुवे और उठकर वंदना नमस्कार करने लगे. फीर वंदना नमस्कार कर बोलने लगे कि अहो भग 100 अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 १६४३ पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र < भं० भगवन् इ० ऋषिभद्रपुत्र स० श्रमणोपासक अ० हम को एक ऐसा आ. कहते हैं जा. यावत् ए. ऐसा प० प्ररूपते हैं दे. देवलोक में अ० आर्य दे देवों की ज० जघन्य ३० दशवर्ष स. सहस्र ठि. स्थिति पापी इस से स. समयाधिक जा. यावत् ते. इस मे वो. विच्छेद दे. देव दे०११ देवलोक से. अथक कैमे भं० भगवन् ऐ. ऐसे अ० आर्य स. श्रमण भ० भगवंत म. पहावीर ते० उन स० श्रमणापासक को एक ऐसा व० बोले जं. जो अ० आर्य इ० ऋषिभद्रपुत्र स० श्रमणोपासक तु. पुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाइक्खइ जाव एवं परुवेइ देवलोएसुणं अजो ! देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, तेणपरं समयाहिया जाव तेणपरं वोच्छि. ण्णा देवाय देवलोगाय ॥ से कहमेयं भंते ! एवं ? अजोत्ति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं क्यासी जंणं अजो! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुझं एवमा इक्खइ जाव परूबेइ देवलोगेसुणं अज्जो ! देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं ठिई। वन् ! ऋपिभद्र पुत्र नामक श्रमणोपासक हम को ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि अहो आर्यो ! देव क में देवताओं की जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति कही है पीछे एक दो यावत् दश, संख्यात असंख समय की वृद्धि करते उत्कृष्ट तेत्तीस मागरोपम की स्थिति कही है. बाद में स्थिति का विच्छेद होता है. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामी बोले कि अहो आर्यो ! ऋषिभद्रपुत्र । अग्यारखा शतक का बारहवा उद्देशा <3 भावार्थे aag Page #1674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४४ शब्दार्थ तुम को ए० ऐसा आ० कहते हैं दे देवलोक में. अ० आर्य दे० देवों की ज० जघन्य द० दशः वा० वर्ष * स. सहस्र ठिः स्थिति ५० प्ररूपी तं० वैसे ही स० समयाधिक जा. यावत् ते. इस से ५० आगे वो० विच्छेद दे. देव दे देवलोक स० सत्य ए० यह अ० अर्थ ॥ ७ ॥ अ० मैं पु० पुन: अ० आर्य पूर्ववत् म ॥८॥ त तब ते वस० श्रमणोपासक स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर की अंक पास से एक यह पण्णत्ता, तंचेव समयाहिया जाव तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगाय सच्चेणं एसमटे ; ॥ ७ ॥ अहं पुण अजो! एव माइक्खामि जाव परुवेमि, देवलोगेमुणं अज्जो! देवाणं जहणेणं दसवास सहस्साइं तंचेव जाव तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगाय सच्चेणं एसमटे ॥ ८ ॥ तएणं ते समणोवासगा समणस्सं भगवओ महावीरस्स अंतियाओ एयमढे सोचा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति भावार्थ श्रमणोपासकने जो तुम को कहा है कि देवों की जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति है आगे नहीं है. यह अर्थ सत्य है ॥ ७ ॥ अहो आर्यों ! मैं भी वैसा ही कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि देवलोक में देवताओं की जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति कही आगे स्थिति का विच्छेद होता है ॥ ८ ॥ फीर उक्त श्रमणोपासक श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी सपास से ऐसा अर्थ सुनकर अवधार कर भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऋषिभद्र पुत्री 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी * ~ - Page #1675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र १ अ० अर्थ सो सुनकर णि अवधारकर स. श्रमण भ० भागवंत म० महावीर को वं० वंदना कर ण..। नमस्कार कर जे. जहां इ० ऋषिभद्रपत्र म० श्रमणोपासक तेवहां उ.आकर इ. ऋषिभद्रपुत्र स. श्रमणी पासक को वं० वंदना की ण० नमस्कार किया ए• इस अ० अर्थ स० सम्यक् वि. विनय से भु० वारं १६४५ वार खाः खमाया ॥१॥ त तब ते० वे स० श्रमणोपासक ५० प्रश्न पु० पुछकर अ० अर्थ ५० ग्रहण कर स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर को वं० वंदना कर ण नमस्कार कर जा जिस दि० दिशि पा० आये ता० उस दिशि में प० पीछे गये ॥ १० ॥ भं. पूज्य भ० भगवान् गो० गौतम स० श्रमण चंदित्ता नमंसित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति २ त्ता, इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति णमंसंति एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामेति ॥ ९ ॥ तएणं ते समणोवासगा पसिणाई पुच्छति २ त्ता, अट्ठाइं परियादियंति २ त्ता, समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भया तामेवदिसि पडिगया ॥ १० ॥ भंतेति ! भगवं गोयमे समणं . श्रमणोपासक की पास आये और उन को वंदना नमस्कार कर अपना अपराध की विनय पूर्वक क्षमा मांगी ॥ ९ ॥ फीर उन श्रमणोपासकोंने अन्य अनेक प्रश्न पूछे, उन का अर्थ धारन किया, और श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर जहां से आये थे वहां पीछे गये ॥१०॥ उस समय में wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwe *6503> अग्यारवा शतक का वारह। उद्दशा भावार्थ 1 Page #1676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ NTS 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8.2 भ० भगवन्त को 40 वंदना कर ण नमस्कार कर ए. ऐसे व बोले ५० समर्थ इ. ऋषिभद्रपुत्र : श्रमणोपासक दे देवानुप्रिय की अं० पास मुं० मुंड भ० होकर अ० गृहवास से अ० अनगारपना प. अंगीकार करने को गो• गौतम जो नहीं इ० यह अ० अर्थ स. समर्थ गो. गौतम इ. ऋषिभद्रपुत्र स० श्रमणोपासक ब० बहुत सी• शीलव्रत गु० गुणव्रत वे० विरमणव्रत प० प्रत्याख्यान पो० पौषध उ० उपवास अ० यथा प० ग्रहण किये हुवे त० तपकर्म से अ० स्वतः को भा० विचारते ब० बहुत वा० वर्ष भगवं महावीरं वंदइ णमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पभूणं भंते ! इसिभद्द पुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्चइत्तए ? गोयमा ! णोइणटे समटे, गोयमा ! इसिभद्दपुत्तेणं समणोवासए बहूहिं सीलन्वयगुणवयवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं भगवान गौतम स्वामी श्रपण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! ऋषिभद्र पुत्र नामक श्रमणोपासक क्या आपकी पास मुंडित बनकर गृहस्थपना से साधुपना अंगीकार करने को समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक मुंडित नहीं होवेंगे. परंतु बहुन शीलवत, गुण व्रत, विरमण व्रत, पौषधोपवास वगैरह ग्रहण करके तप कर्म से *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 42825 स० श्रमणोपासक ५० पर्याय पा पालकर मा० मास की सं० संलेखना से अ० आत्माको झू झूसकर स. साठ भक्त अ० अनशन छे० छेदकर आ० आलोचना प० प्रतिक्रमण स. समाधि प्राप्त का काल के मा० अवसर में का० कालकर सो० सौधर्म क० देवलोक में अ. अरुणाभ वि० विमान में दे० देवपने उ०१३ 26 उत्पन्न होगात उस में कितनेक दे देवों की च. चार १० पल्योपम की ठिक स्थिति ५० प्ररूपी तक वहां इ० ऋषिभद्रपुत्र दे० देवकी च० चार प० पल्योपम की ठि० स्थिति भ० होगा ॥ ११ ॥ से० अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणिहिति २ त्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति २ ता, सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदेहि छेदेइत्ता, आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालकिच्चा, सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिति ॥ तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णता तत्थणं इसिभद्दपुत्तस्स · देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई आत्मा को भावते हुवे बहुत वर्ष साधु की पर्याय पालकर, एक मास की संलेखना से आत्मा को झोसकर साठ भक्त अनशन छेदकर, आलोचना प्रतिक्रमण कर, काल के अवसर में काल कर सौधर्म देवलोक में अरुणाभ विमान में देवतापने उत्पन्न होवेंगे. वहां कितनेक देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है। उन में ऋपिभद्र पुत्र देव की चार पल्योपम की स्थिति होगी ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! वह ऋषिभद्र पुत्र अग्यारता शतकका बारहवा उद्देशा भावार्थ 4.8 | Page #1678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द थे १६४८ सत्र * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी gos अब इ० ऋषिभद्रपुत्र दे० देव दे० देवलोक में से आ. आयुष्यक्षय से जा. यावत् क० कहां उ० उत्पन्न होगा गो. गौतम म. महाविदेह क्षेत्र में सि० सीझेंगे जा. यावत् अं० अंत का करेंगे से. वैसे ही भ० भगवन् भ० भगवान् गो० गौतम जा. यावत् अ• आत्माको भा० विचारते वि० विचरते हैं ॥१२॥ १० तब म० श्रमण भ. भगवंत म० महावीर . अन्यदा कदापि अ. आलंभिका न० नगरी मे से सं० शंखवन चे० उद्यान में से १० नीकलकर बा० बाहिर ज० जनपद वि० विहार वि• विचरने लगे ॥१३॥ भाविस्सइ ॥११॥ सेणं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवत्ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहवासे सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिति ॥ सेवं भंते ! भंतोत्त ॥ भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ १२ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयायि आलंभियाओ णयरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता, बाहिरिया जणवय विहारं विहरइ ॥ १३ ॥ तेणं कालेणं । वहां से आयुष्य, स्थिति व भव क्षय से कहां उत्पन्न होयेंगे ? अहो गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सीझेंगे यावत् अंत करेंगे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों नप व संयम से आत्मा को भावते हुवे श्री गौतम स्वामी विचरने लगे ॥ १२॥ तत्पश्चात् श्रमण भगवंत महावीर स्वामी उस आलंभिका नगरी के शंखवन उद्यान में से वाहिर नीकलकर जनपद विहार से विचरने लगे ॥ १३ ॥ उस काल उस समय में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* . भावार्थ Page #1679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ ते० उस का काल ते. उस स० समय में आ० आलंभिका ना० नामकी न० नगरी हो थी व० वर्णन युक्त सं० शंखवन चे० उद्यान त० वहां सं० शंखवन चे० उद्यान की अं० पास पो० पुद्गल प.परिव्राजक V५० रहताथा रि० ऋग्वेद ज० यजुर्वेद जा. यावत् न• नय में सुः पंडित छ० छठ २ से जा० यावत् आ. आतापनालेते प० प्रकृति भद्रिक से ज० जैसे सि० शिव को जा ० यावत् वि. विभंग णा० नामक dic अ० अज्ञान स० उत्पन्न हुवा से० अब ते. उस वि विभंग अ० अज्ञान उ उत्पन्न होने से बं० ब्रह्म तेणं समएणं आलंभिया णामं णयरी होत्या वण्णओ, संखवणे चेइए वण्णओ, तत्थणं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गलेणामं परिव्याए परिवसइ, रिउव्वेय जउव्वेय जाव नएसु सुपरिनिट्ठिए, छटुं छोणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़े वाहाओ जाव आयात्रमाणे विहरइ तएणं तस्स पोग्गलस्स छटुं छट्रेणं जाव आयावेमाणस्त पगइ. भद्दयाए जहा सिवस्स जाब विभगे णाम अण्णाणे समुप्पण्णे, सेणं तेणं विभंगे णामं भावार्थ आलंभिका नामक नगरी थी. शंखवन नामक उद्यान था. उस शंखवन उद्यान की पास पुद्गल नामक परिव्राजक रहता था. वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्वणवेद आदि अनेक शास्त्रों जाननेवाला था. ब्राह्मणों के नय व न्याय शास्त्र आदि में निपुण था और छठ २ की निरंतर तपस्या करके अर्ध्व बाहु से यावत् आतापना लेता हुवा विचरता था. इस तरह छठ २ की तपस्या सहित आतापना हवे, प्रकृति भद्रिकपना से यावत् शिवराजर्षि जैसे विभंग ज्ञान उत्पन्न हुवा. उस विभंग है। पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती) अग्यारवा शतकका बारहवा उद्देशान 4.36 Page #1680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - लोक क देवलोक में दे० देवों की ठि० स्थिति जा० जानी पा० देखी ॥ १४ ॥ त० तब तक उस पॉ०१ - पद्गल प० परिव्राजक को अ० यह ए. ऐसा अ० अध्यवसाय स० उत्पन्न हुवा अ० है म० मुझे अ० अतिशय ज्ञा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हवा दे देवलोक में दे० देवोंकी ज० जघन्य द० दश हजार वर्ष १० मरूपी ते. उस से आगे स० समयाधिक द. दो समयाधिक जा. यावत् अं. असंख्यात स. इसमयाधिक उ० उत्कृष्ट द० दश सा० सागरोपम ठि! स्थिति प० प्ररूपी ते. उस से प० आगे वॉ०१ विच्छेद ६० देव दे० देवलोक ॥ १५ ॥ एक ऐसा सं०विचारकर आ० आतापना भू० भूमि मे ५०पीछा है अण्णाणेणं समुप्पण्णेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिई जाणइ पासइ ॥ १४ ॥ तएणं तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समप्पजित्था आत्थि___णं मम आतसेसे णाणदंसणे समप्पणे देवलोएसुणं देवाणं जहण्णेणं दसवास सहस्साई ठिई पण्णत्ता तेणपरं समयाहिया दुसमयाहिया जाव असंखेजसमयाहिया, उक्कोसणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देव लोगाय भावार्थ नामक अज्ञान से देवताओं की स्थिति वह जानने लगा ॥१४॥ अब उस पुद्गल परिव्राजक को ऐसा अध्य वसाय उत्पन्न हुवा कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है जिस से मैं जानता हूँ कि देवताओं की में " जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति है. इस में एक समय, दो समय यावत् संख्यात, असंख्यात समय * की वृद्धि करते उत्कृष्ट दश सागरोपम की स्थिति है. पीछे देवों की स्थिति का क्षय है ॥ १५ ॥ ऐमा ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी wwwww *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2028 शब्दार्थ आकर ति त्रिदंड के कुंडिका जा. यावत् धा० धारनकर ग० ग्रहणकर जे० जहां आ० आलंभिका न० नगरी जे. जहां प० परिव्राजक आ० आवास ते. तहां उ० आया भं० भंड णि प्रक्षेप क० करके आ० आलंभिका न० नगरी के सिं० शृंगाटक जा. यावत् प० मार्ग में अ० परस्पर एक ऐसा आ० कहा जा. यावत् प० प्ररूपा शेष पूर्ववत् ॥ १६ ॥ त० तब आ० आलंभिका ण नगरी में ए० ऐसे ए• इस ॥ १५ ॥ एवं संपेहेइ २ ता, आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ २ त्ता, तिदंडकुंडिया जाव धाउरत्ताउय गण्हंति २ ता, जेणेव आलंभिया णयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागए भंडगाणक्खेवं करेइ २ त्ता आलंभियाए णयरीए सिंगाडग जाव पहेस अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ ___ अत्थिणं देवाणुप्पिया! मम अतिससे णाणदंसणे समुप्पण्णो देवलोएसुणं देवाणं जहण्णे ___णं दसवाससहस्स तहेव जाव वोच्छिण्णा देवाय देवलोगाय ॥ १६ ॥ तएणं भावार्थविचार करके आतापना भूमि में से पीछा आकर त्रिदंड कुंडिका यावत् धारन कर आलंभिका नगरी में परिव्राजक के आवास में आया. वहां भंडोपकरण रखकर आलंभिका नगरी के शृंगाटक यावत् घडे रस्ते में * ऐसा कहने यावत् प्ररूपने लगा कि अहो देवानुप्रिय ! मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है. जिम मे मैं जान सकता हूं कि देवलोक में देवताओं की जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट दश सागरोपम की स्थिति है ( भगवती ) सूत्र <०१४० 48-808 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति अग्यारवा शतक का बारहवा उद्देशा । Page #1682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० अभिलाप से ज० जैसे सि० शिवका तं० वैसे ही जा० यावत् क० कैसे ए० यह म० मानाजावे ए० ऐसे सा० स्वामी स० पधारे जा० यावत् प० परिषदा प० पीछीगई भ० भगवान गो० गौतम त० तैसे (भि० भिक्षाचरी केलिये त० तैसे ब० बहु म० मनुष्यों का स० शब्द नि० सुना त० तैसे स० सब भा० ( कहना जा० यावत् अ० मैं पु० पुनः गो० गौतम ए० ऐसा आ० कहता हू ए० ऐसा भा० बोलता हूं ए० आलंभियाए यरीए एवं एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स तचेव जाव से कहमेयं * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * मणे एवं ? सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया || भगवं गोयमे तहेव भिक्खा - यरियाए तहेव बहुजणसद्दं निसामेइ तहेव सव्वं भाणियव्वं जाव अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खाभि एवं भासामि जाव परूवेमि देवलोएसुणं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता तेणपरं समयाहिया दुसमियाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं पीछे स्थिति का क्षय है || १६ || तब आलंभिका नगरी में इस कथन से जैसे शिवराजर्षिका कथन वैसे ही यावत् वह किस तरह है ? उस काल उस समय में स्वामी पधारे, भगवान गौतम स्वामी भिक्षाचरी केलिये नीकले यावत बहुत मनुष्यों से ऐसा सुनकर भगवंत की पास आये और वंदना नमस्कार कर पूछने । लगे कि अहो भगवन् ! पुद्गल परिव्राजक जो इस तरह कहता है सो कैसे है ? अहो गौतम ! पुद्गल परिव्राजक का यह कथन मिथ्या है. मैं ऐसा कहता हूं कि देवलोक में देवता की जघन्य दश हजार वर्ष की १६५२ Page #1683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ऐसा ५० प्ररूपता हू शेष पूर्ववत् ॥ १७ ॥ अ० हैं भं• भगवन् सो० सौधर्म क• देवलोक में द० द्रव्य, स० वर्ण सहित अ० वर्ण रहित त० तैसे जा० यावत् ६० हां अ० है ए० ऐसे ई० ईशान में भी जा० यावत् अ० अच्युत ए० एसे गे० ग्रैवेयक वि. विमान में अ० अनुत्तर विमान में ई० ईषत्मागभार जा. यावत् हं० हां अ०है. ॥ १८ ॥ त० तब सा. वह म० बडी जा० यावत् प० पीछी ॥ ११ ॥ त० तब आ० आलंभिका ण. नगरी में सिं० शंगाटक ति० त्रिक ण. शेष ज. जैसे सि.शिव जा. यावत् स. सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तेणपरं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगाय ॥ १७ ॥ अत्थिणं भंते! सोहम्मेकप्पे दवाइं सवण्णाइंपि अवण्णाइंपि तहेव जाव हंता अत्थि ॥ एवं ईसाणवि, एवं जाव अच्चुएवि, एवं गेविजविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु ईसिप्पभाराएवि जाव हंता अत्थि ॥ १८ ॥ तएणं सा महइ महालिया जाव पडिगया ॥१९॥ तएणं आलंभियाए णयरीए सिंगाडगतिग अवसेसं जहा सिवस्स जाव सव्व भावार्थ स्थिति है और एक, दो, तीन, यावत् दश, संख्यात व असंख्यात समय अधिक करते उत्कृष्ट तेत्तीस सागरो-3 al पम की स्थिति है. इस से आगे देवलोक में देवता की स्थिति नहीं है ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! सौधर्म देवलोक में क्या द्रव्य सवर्णवाले या अवर्णवाले हैं ? हां गौतम ! ऐसे ईशान यावत् अच्युत, नवग्रैवेयक, * पांच अनुत्तर विमान व इषत् मागभार पृथ्वी तक कहना ॥ १८ ॥ फीर वह परिषदा पीछी गई ॥ १९ ॥ फीर उस आलंभिका नगरी में शृंगाटकत्रिक चौक यावत् महापथ में ऐसा वार्तालाप होने लगा कि पुद्गल । पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 880 4848 अग्यारवा शतक का बारहवा 488 Page #1684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ सूत्र अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्रा अमोलक ऋपिजी सब दःख प० रहित ण. विशेष ति० त्रिदंड कुं. कुंडिका जा० यावत् धा० धातु रक्तव. वस्त्र प.. पहिना हवा १० पतित वि० विभंग ज्ञान आ० आलंभिका ण नंगरी की म० बीच में से णि नीकलकर में जा. यावत् उ० ईशान कौन में अ० जाकर ति त्रिदंड कुं० कुंडिका ज० जैसे खं० स्कंदक प०अवजित से शेष ज. जैसे सि० शिव जा० यावत् अ. अव्यावाध सो० सुख अ० अनुभवते हैं सा० शाश्वत सि० सिद्ध से वैसे ही भं० भगवन् ॥ ११ ॥॥ १२॥ दुक्खप्पहीणे णवरं तिदंडकुंडियं जाव धाउरत्तवत्थ परिहिए परिवडियविभंगे, आलं. भियं णयरं मझं मझेणं जिग्गच्छइ जाव' उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ २ त्ता, तिदंडं कुंडियंच जहा खंदओ जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स जाव अव्वावाहं सोक्ख मणुभवंति सासयंसिद्धा ॥ सेवं भंते भंते त्ति ॥ एगारस सयस्स दुवाल समो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ १२ ॥ एगारसमं सयं सम्मत्तं ॥ ११॥ * परिव्राजक का कथन असत्य है ऐसा सुनकर उन को संकल्प विकल्प होने लगा और इस तरह करते उस का विभंग ज्ञान नष्ट होगया. फीर शिवराजर्षि तरह श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पाम आया धर्मोपदेश मुना, त्रिदंड, कुंड वगैरह डालकर ईशान कौन में जाकर स्कंदक संन्यासी जैसे प्रवजित हवा. शेष तब शिवराजर्षि जैसे कहना यावत् सब कर्मों का क्षय करके मिझे, बुझे यावत् सब दुःखों से रहित हुए और अनुत्तर प्रधान मोक्ष का सुख अनुभवने लगे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारहवा शतक का बारहवा उद्दशा समाप्त हुवा ॥ ११ ॥ १२ ॥ यह अग्यारहवा शतक समाप्त हुवा ॥ ११ ॥ * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 1 * भावार्थ Page #1685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48508 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ॥ द्वादश शतकम् ॥ सं० शंख ज० जयंति पु० पृथ्वी पो० पुद्गल अ० अतिपात रा० राहु लो० लोक ना० नाग दे० देव {आ० आत्मा बा० वारहवे स० शतक में द० दश उ० उद्देशे ॥ १ ॥ ते० उस का० काळ ते ० उस स० समय में सा० श्रावस्ती णा० नाम नगरी हां० थी व० वर्णन से को० कोष्टक चे० उद्यान व० वर्णन से त० उस सा० श्रावस्ती ण० नगरी में ब० बहुत सं० शंख प० प्रमुख स० श्रमणोपासक प० रहते थे अ संखे, जयंति, पुढवी । पोग्गल, अइवाय, राहु, लोगेय | नागेय देवआता । बारसम सदसुदेसा ॥ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थीणामं णयरी होत्था, वण्णओ age are aणओ, तत्थणं सावत्थीए णयरीए बहवे संखप्पमोक्खा समणोवासगा अग्यारहवे शतक में विविध अर्थ कहे, अत्र आगे भी वैसाही कथन करते हैं. इस बारहवे शतक में दश उद्देशे कहे ? शंख श्रमणोपासक का, २ जयंति श्राविका, ३ रत्नप्रभा पृथ्वी का ४ पुद्गल विचार ५ मा णातिपात का ६ राहू की वक्तव्यता ७ लोक की वक्तव्यता ८ नाग की वक्तव्यतां ९ देवता की वक्त(व्यता १० आत्म भेद निरूपण. अब इन में से प्रथम शंख श्रमणोपासक का कथन करते हैं ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी. उस की ईशान कौन में कोष्टक नामक उद्यान था. उस श्रावस्ती नगरी में शंख प्रमुख श्रमणोपासक रहते थे. वे ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूत व जीवाजीव के 4 4848 वारहवा शतकका पहिला उद्देशा १६६५ Page #1686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६५६ 40, अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ऋद्धिवंत जा. यावत् अ० अपरिभूत अ० जाने जुबे जी० जीवाजीव जा. यावत् वि. रहते थे ॥२॥ २० उस सं० शंख स० श्रमणोपासक को उ. उत्पला ना० नामकी भा० भार्या हो॰थी मु० सुकुमार जा. यावत् सु० सुरुपा स० श्रमणोपसिका अ. जाने हुवे जी० जीवा जीव जा० यावत् वि० रहती थी ॥३॥ त० उस सा० श्रावस्ती न० नगरी में पो० पुष्कली स. श्रमणोपासक प० रहता था अ० ऋद्धिवंत ॥४॥ ते उस का• काल ते० उस स० समय में सा० स्वामी स० पधारे जा० यावत् प० परिषदा प० पर्युपा है परिवसंति, अढा जाव अपरिभूया अभिगय जीवाजीवा जाव विहरंति ॥२॥ तस्सणं संखस्स समणोवासगस्स उप्पलाणामं भारिया होत्था, सुकुमाल जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरइ ॥ ३ ॥ तत्थणं सावत्थीए णयरीए पोक्खलीणामं समणोवासए परिवसइ, अद्वे अभिगय जाब विहरइ ॥ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ ५ ॥ तएणं ते समस्वरूप जाननेवाले थे ॥ २॥ उस शंख श्रमणोपासक को उत्पला नामक भार्या थी. वह सुकुमार यावत् सुरूपा व जीवाजीव का स्वरूप जानती हुई विचरती थी ॥ ३ ॥ उस श्रावस्ती नगरी में ऋद्धिवंत यावत् जीवाजीव का स्वरूप जाननेवाला पुष्कली नामक श्रावक रहता था ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में स्वामी पधारे, परिषदा वंदने को आई यावत् पर्युपासना करने लगी ॥ ५॥ उस समय में उस श्रमणोपासकने प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 १६५७ शब्दार्थ सना की ॥ ५ ॥ त० तब ते वे स० श्रमणोपासक इ० इस क० कथा ज० जैसे आ० आलंभिका जा यावत् प० पर्युपासना की ॥ ६ ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीरने ते० उन स. श्रमणो ७पासकों को ती० उस म० बडी ध० धर्म कथा जा० यावत् प० परिषदा प०पीछीगइ ॥७॥ त• तब ते० वे स० श्रमणोपासक स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की अं० पास ध० धर्म सो० सुनकर णि.* अवधारकर ह० हृष्ट तु तुष्ट स. श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को वं वंदना की ण. 'नमस्कार किया १० प्रश्न पु० पूछे अ० अर्थ ५० ग्रहणकर उ० उठकर उ० खडे हुवे उ० खडे होकर _णावासगा इमासे कहाए जहा आलंभियाए जाव पज्जवासंति ॥ ६॥ तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसेय महइ धम्मकहा, जाव परिसा पडिगया ___॥ ७ ॥ तएणं ते समोवासगा संमणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति पसिणाई पुच्छंति २ त्ता अट्ठाइं परियादियंति २ ता उट्ठाए उट्टेति २ ता समणस्स भगवओ महावीरस्स स्वामी पधारे हैं ऐसी वार्ता मुनी, और जैसे आलंभिका नगरी के श्रावकों दर्शन के लिये आयेथे वैसे ही। 3 श्रावस्ती नगरी के श्रावक आये ॥ ६ ॥ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उस महती परिषदा में धर्मोपदेश सुनाया. और परिषदा पीछी गई ॥ ७ ॥ फोर वे श्रमणोपासक श्रमण भगवंत । +8+ पंचमांग विवाह पण्णात्ति ( भगवती) सूत्र बारहवा शतकका पहिला उद्देशा +8+ Page #1688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी (स० श्रमण भ० भगवन्त ममहावीर की अं० पास से को कोष्टक चे उद्यान में से प० नीकलकर जे० जहां सा० श्रावस्ती ण० नगरी ते ० तहां प० नीकला ग० जाने को ॥ ८ ॥ त तब से उस शं० शंख श्रमणोपासकने ते० उन स० श्रमणोपासकों को ए० ऐसा व० बोले तु० तुम देव देवानुप्रिय वि० बहुत [अ० अशन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम ७० तैयार करो त तब अ हम तं० उस वि० बहुत अ० अशन पा० पान खा० खादिम सा० स्वादिम को आ० आस्वादते वि० विशेष आस्वादते प० विभाग अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमति २ त्ता जेणेव सावत्थी णयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ ८ ॥ तणं से संखे समणोबासए ते समणोवासए एवं वयासी तुज्झेणं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह, तणं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आस्सादेमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिमहावीर स्वामी की पास धर्म सुनकर, अवधारकर हृष्ट तुष्ट हुवे, और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया. फीर कितनेक प्रश्नों पूछकर उनके अर्थ ग्रहण किये. फीर अपने स्थान से उठकर कोष्टक उद्यानमेंसे नीकलकर श्रावस्ती नगरी में जाने को नीकले ॥ ८ ॥। उस समय में शंख श्रमणो पासक उन अन्य श्रमणोपासकों को ऐसा वोले कि अहो देवानुप्रिय ! तुम विपुल - अशन, पान, खादिम व {स्त्रादिम तैयार करो, और अपन सब उस अशनादि को आस्वादेंगे, विस्वादेंगे, परस्पर विभाग करेंगे और १६५८ Page #1689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to २० शब्दार्थ करते ५० भोगते १० पाक्षिक पो० पौषध प० पालते हुवे वि० विचरेंगे ॥ १॥ त० तब ते० वे .स० श्रमणोपासक स० शंख स० श्रमणोपासक की ए. इस अ० बात को वि० विनय से प० मुनी ॥१०॥ त० तब तक उस सं० शख श्रमणोपासक को अ० यह ए० ऐसा अ० अध्यवसाय स० हुवा णो नहीं मे० मुझे से श्रेय तं उस वि०बहुत अ० अशन जा यावत् सा स्वादिम आ०आस्वादते ५०पाक्षिक पो पौषध ५० पालते वि० विचरने को से० श्रेय मे० मुझे पो पौषध बं० ब्रह्मचारी उ० खाग म० मणि सु० सुवर्ण व. भुजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो ॥ ९॥ तएणं ते समणोवा. सगा संखस्स समणोवासगस्स एयमटुं विणएणं पडिसुगृति ॥ १० ॥ तएणं तस्त संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पजित्था, णो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणस्सय पक्खिय पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियरस बंभचारिस्स उम्मुक्कमणि सुवण्णस्स,ववमोगवेगे. फीर पखिका पोषध कर जागरणा जागते हुवे विचरेंगे ॥९॥ उन अन्य श्रावकोंने शंख से श्रमणोपासक की इस बात को विनय पूर्वक सुनी ॥ १०॥ फीर उस शंख श्रमणोपासक को ऐसा अध्य-ope वसाय उत्पन्न हुवा कि अशन, पान, खादिम व स्वादिम इन घरों का आहार करके पखी पौषध करते * हुने विचरना मुझे श्रेय नहीं है; परंतु पौषधशाला में पौषध युक्त, ब्रह्मचर्य सहिन, मणि सुवर्ण का साग | पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 488% बारहवा शतक का पहिला उद्देशा 8 भावाथे 488 Page #1690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पृथक् मा० माला प० वर्णक वि० विलेपन णि दूरकिया सशस्त्र मु० मुशल ए. एक अ० अद्वितीय द. दर्भ संथारेपर अ० रहा हुवा प० पाक्षिक पौषध ५० पालते वि. विचरने को त्ति ऐसा क० करके ए० ऐसा सं. विचारकर जे. जहां सा० श्रावस्ती ण नगरी जे. जहां स० स्वगृह जे. जहां उ० उत्पला स० अरणोपासिका ते• वहां उ० जाकर उ० उत्पला स• श्रमणोपासिकाको आ० पूछकर जे० जहां पो. पौषध शाला ते. वहाँ उ० जाकर पा० पौषध शाला में अ० प्रवेशकर पो० पौषध शाला को प०अपार्जकर गय मालावण्णग विलवणस्स णिक्खित्तसत्थ मुसलस्स एगस्स अबितियस्स दब्भसंथारोवगयस्स पक्खिय पोसहं पडिजागरभाणस्स विहरित्तए त्तिकटु, एवं संपेहेइ २ त्ता, जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समणोवासिया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, उप्पलं समणोवासियं आपुच्छइ २ त्ता, जेणेव पोसह सालाए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पोसहसालं' अणुप्पविसइ २ ता पोसहसालं पमज्जइ २ त्ता, भावार्थ करके, माला, वर्ण, विलेपन को दूर करके, शस्त्र शलादि दूर करके, एक दर्भ संथारावाला पाक्षिक पौषध करते हुवे विचरना मुझ श्रेय है. एसा विचार करके श्रावस्ती नगरी में अपने गृह में उत्पला नामक अपनी |+भार्या की पास आया, और उन को पूछकर पोषधशाला में गया. वहां पर पौषशाला पूंजकर, उच्चार २१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १६६१ + पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगदत ) मूत्र उ. उच्चार पा० प्रस्रवण भू० भूमि को ५० देखकर द० दर्भ सं० संथारा सं० संथरकर दु० बैठकर पो०१ । पौषध शाला में पो० पौषध सहित बं० ब्रह्मचर्य जा. यावत् प० पाक्षिक पो• पौषध प० पालते वि. विचरने लगा ॥११॥ त फीर ते० वे स० श्रमणोपासक जे. जहां सा० श्रावस्ती न० नगरी जे. जहां सा० अपने २ गि गृह ते वहां उ० आकर वि. विपुल अ० अशन ४ उ तैयार किया अ० परस्पर स० बोलाये ए. एसे २० बोले ए० एसे दे० देवानुप्रिय अ० हमने वि० बहुत अ० अशन ४ उ• तैयार उच्चार पासवण भूमीओ पडिलेहेइ २ त्ता, दब्भसंथारगं संथरइ २ त्ता, दन्भसंथारगं दुरूहइ २ त्ता, पोसह सालाए पोसहिए बंभचारीओ जाव पक्खियं पोसहं पडि जागरमाणे विहरइ ॥ ११ ॥ तएणं ते समणोवासगा जेणेव साइं साइं गिहाईतेणेव उवागच्छंति २ त्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडाति २ त्ता अण्णमण्णं सदावेति २ त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले उच्चार प्रस्रवण भूमिदेख कर, दर्भ संथारा संथरकर, दर्भ संथारे पर बैठकर, पौषधशाला में पौषध सहित । ब्रह्मचर्य युक्त यावत् पाक्षिक पौषध करते हुवे विचरने लगा ॥ ११ ॥ अब अन्य श्रमणोपासक भी श्रावस्ती अपन २ गह आये और विपल अशन, पान, खादिम व स्वादिम बनाकर परस्पर ऐसा बोलने लगे । कि अहो देवानुप्रिय ! अपनने अशनादि तैयार किये हैं, परंतु शंख श्रयणोपासक आये नहीं है। इस से - बारहवा शतक का पहिला उद्देशा 4380 भावार्थ Page #1692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शार्थ किया १६६२ 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी किया सं० शंख श्रमणोपासक णो नहीं ह० शीघ्र आ• आया तं० इसलिये से श्रेय दे० देवानुप्रिय अ० हमको सं० शंख स० श्रमणोपासा को स० बोलाने को ॥ १२ ॥ त०फीर पो० पुष्कली स० श्रमणोपासक ते. उन स० श्रमणोपासकों को एक ऐसा २० बोला अ. बैठो तु. तुम दे० देवानुप्रिय सु०समाधि से वा० विश्राम से अ० मैं सं० शंख स० श्रमणोपास को स० बोलाताहूं ए. ऐसा क. करकेत ते. उन स० श्रमणोपासकों की अं० पास से प० नीकलकर सा. श्रावस्ती ण. नगरी के म. मध्यबीच में जे. जहां सं० शंख स० श्रमणोपासक का गि० गृह त० वहां उ० आकर सं० शंख स. श्रमणोपासक __ असण पाणखाइमसाइमे उवक्खडाविए, तं संखे समणोवासए जो हव्वमागच्छइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समाणोवासगं सद्दावेत्तए ॥ १२॥ तएणं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासा अत्थहणं तुब्भे देवाणुप्पिया! , सुनिच्छुया वीसत्था अहंणं संखं समणोवासगं सहामित्ति कट्ट, तेसिं समणोवासगाणं अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सावत्थीं णयरी मझं मज्झेणं जेणेव संखस्स है समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, संखस्स समणोवासगस्त गिहं अणुप्पउन को बौलाना चाहिये ॥ १२ ॥ उस समय में पुष्कली श्रमणोपासक बोला कि अहो देवानप्रिय ! तुमन शति से बैठो; मैं शंख श्रमणोपासक को बोलाने के लिये जाता हूं. ऐसा कहकर वह श्रमणोपासक की * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** भावार्थ Page #1693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थक गि• गृह में अ० प्रवेश किया ॥ १३॥ त० तब सा वह उ. जपला स० श्रमणोरासिका पो०ी । पुष्कली सः श्रमणोपासक को ए. आता हुवा पा० देखकर ह० देष्ट तु. तुष्ट आ० आसन से अ. .' उपस्थित हुइ स० सात आठ प. पांव अ० जाकर पो० पुष्कलीम० श्रमणोपासक को वं. वंदना ण नमस्कार कर आ० आसन से उ० निमंत्रणाकर ए. ऐसे व० बोले सं• कहो दे० देवानुप्रिय कि० किस of लिये आ० आनेका १० प्रयोजन ॥ १४॥ त० तब से वह पु. पुष्कली स० श्रमणोपासक उ० उत्पला वितु ॥ १३ ॥ तएणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समोवासगं एजमाणं पासइ २ त्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ २ ता सत्त?पयाहिं अणुगच्छइ २ । त्ता, पोक्खाल समणोवासगं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमसइत्ता आसणेणं उवनिमंतेइ २ त्ता एवं वयासी संदिसंतुणं देवाणुप्पिया ! किमागमण पओ यणं ? ॥ १४ ॥ तएणं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं भावार्थ पास से नीकलकर श्रावस्ती नगरी की मध्य में होता हुवा शंख श्रमणोपासक के गृह गया ॥ १३ ॥ उस oyo साय में उत्पला श्राविकाने पोखली श्रावक को आता हुवा देखा. देखकर बहुत हर्षित हुई और अपने X उठकर सात आठ पांव (कदम) सन्मख गई. पोखली श्रमणोपासक को वंदना नमस्कार करके आसन की निमंत्रणा की. फीर आने का प्रयोजन पूछा ॥ १४ ॥ पोखली श्रावकने उत्पला। - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 40800 बारहवा शतक का पहिला उद्देशा 80 Page #1694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स• श्रमणोपासिका को ए• ऐमा व बोला क० कहां दे देवानुप्रिये सं० शंख स० श्रमणोपासक त० तब सा• वह उ° उत्पला स• श्रमणोपासिका पो० पुष्कली स० श्रमणोपामक को एक ऐसा व० बोली दे० देवानुप्रिय सं० शंख स० श्रमणोपासक पो० पौषधशाला में पो० पौषध सहित ब. ब्रह्मचारी जा जावत वि० रहे है॥ १५ ॥ तक तब से वह पो० पुष्कली म० श्रमणोपासक जे. जहां पो० पौषध शाला जे. जहां सं० शंखम० श्रमणोपासक ते. तहां उ० आकर ग. गमनागमन का ५० प्रतिक्रमण 4. अनुवादक-चालब्रह्मवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी वयासी कहिणं देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए. ? तएणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं ममणोवासयं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसह सालाए पोसहिए बंभचारी जाब विहरइ ॥ १५ ॥ तएणं से पोक्खली समणोवासए जेणेव पासहसालाए जणेव संखे समणांवासए तेणेव श्रमप्योपासिका को पूछा कि अहो देवानुप्रिये ! शंख श्रमणोपासक कहां है ? उत्पला श्रमणोपासिका पोखली श्रमणोपासक को बोली कि अहो देवानुप्रिय ! शंख श्रमणोपासक पौषधशाला में ब्रह्मचर्य सहित यावत् पौषध करते हुवे विचरते हैं ॥ १५ ॥ फीर पोखली श्रमणोपासक पौषधशाला में शंख श्रमणोपासक की पास गया. वहां जाकर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया और शंख श्रमणोपासक को वंदना नमस्कार प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ किया सं० शख स० श्राणोपासक को बं० वंदना कर ण नमस्कार कर एक ऐसा व० बोला पूर्ववत् : | ॥ १६ ॥ त० तब से वह सं० शंख सः श्रमणोपासक पु. पुष्कली म० श्रमणोपासक को ए. ऐसा व Vबोला णो० नहीं क० कल्पता है मे० मुझे दे० देवानुप्रिय तं• उस वि० बहुत अ० अशन ४ आ० आस्वादते जा. यावत् प० पालते १० विवरने को क० कल्पता है मे मुझे पो. पौषध शाला में पो०१... उवागच्छइ २ त्ता, गमणागमणाए पडिक्कमइ २ त्ता, संखं समणोवासगं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे उवक्खडाविते तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं जाव साइमं आस्सादेमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो ॥ १६॥ तएणं से संखे समणोवासए पोस्खलिं समणोवासगं एवं वयासी णो खलु कप्षइ मे देवाणुप्पिया । तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आस्साएमाणस जाव पडिजागरमाणस्स भावार्थ कर ऐसा बोलने लगा कि अहो देवानप्रिय ! हमने विपुल अशनादि बनाया है, इस से तुम वहां चलो और है अपन सब उस का आस्वादन यावत् पौषध की जागरणा जागते हुवे विचरेंगे ॥ १६ ॥ शंख श्रमणोपासक ऐसा बोला कि अहो देवानुप्रिय ! मुझे अशनादि भोगवकर यावत् पौषध करते हुवे विचरना नहीं कल्पता है। परंतु पौषधशाला में यावत् पौषध करके विचरना मुझे कल्पता है, इस से अहो देवानुप्रिय ! तुम सुखपूर्वक है । 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 498 .बारहवा शतकका पहिला उद्देशा * Page #1696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ शब्दार्थ १६६६ अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी! पाषध सहित जा. यावत् वि० विचरने को तं० इस मे छ० इच्छानुसार दे० देवानुप्रिय तु. तुम वि०* बहुत अ० अन्न आ० अस्वादते जा. यावत् वि.विदरो ॥१॥ त• तब से वह पो० पुष्कलीस श्रमणों से पासक सं० शंख स० श्रमणोपासक की अं० पास से पी० पौषध शाला में से प० नीकल कर सा० श्रावस्ती ण नगरी की-म० बीच जे. जहां ते० व स. श्रमणोपासक ते. वहां उ. आकर उन स० श्रमणोपासकों को ए. ऐ व० वोला दे० देवानुप्रिय सं० शंख स. श्रमणोपासक पो. पौपध शाला में पो० पौषध सहित जा. यावत् - वि० विचरता है ते. इसलिये छ० इच्छानुसार विहरित्तए। कप्पइ मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए,तं छंदणं देवाणुप्पिया! तुब्भे विउलं असणं ४ आस्सादेमाणा जाब विहरह ॥ १७ ॥ तएणं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासगस्स अंतियाआ पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सावत्थि णयरिं मझं मझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, ते समणांवासए एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए अशनादिक का आस्वादन करते हुवे विचरो ।। १७ ॥ फीर वह पोखली श्रावक शंख श्रावकी पास से पौषधशाला में से नीकलकर श्रावस्ती नगरी की बीच में होकर उन श्रमणोपासकों की पास आया और बोला कि अहो देवानुप्रिय ! शंख श्रपणोपासक पौषधशाला में पौषध करते हुवे विचरते हैं इस से तुम . *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दे देवानप्रिय तु० तुम वि० विपुल अ० अशन जा. यावत वि० विचरो सं• शंख स० श्रमणो-3 पासक नो नहीं आ० आता है ॥ १८ ॥ व. तब ते० वे स० श्रमणोपासक वि० विपुल अ० अशन ४* आ० आस्वादते जा यावत् वि० विचरते थे ॥ ११ ॥ त० तब तक उस सं० शंख स. श्रमणो १६६७ पासक को पु० पूर्व रात्रि में ध० धर्म जागरणा जा० करते अ० यह एक ऐसा जा० यावत् स. उत्पन्न हुआ से श्रेय मे० मुझे क० कल पा० प्रभात में जा. यावत् ज० ज्वलंत स० श्रमण भ० भगवन्त सत्र पोसहिए जाव विहरइ तं छंदेणं देवाणुप्पिया! तुब्भे विउलं असणं ४ जाव विहरह संखणं समणोवासए णो हव्व मागच्छइ ॥ १८ ॥ तएणं ते समणोवासगा तं विउलं असणं ४ आस्साएमाणा जाव विहरंति ॥ १९ ॥ तएणं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पाजत्था, सेयं खलु मे कलं पादु जाव जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता भावार्थ । इच्छानुसार अशनादि भोगवकर पाक्षिक पौषध करते हुवे विचरो. शंख श्रमणोपासक अभी नहीं आसकते। हैं ॥ १८ ॥ फोर वे श्रमणोपासक उस विपुल अशनादि आस्वादते हुवे विचरने लगे ॥१९॥ उस समय में }eo शंख श्रमणोपासक को पूर्व रात्रि में धर्म जागरणा करते हुवे ऐसा अध्यवसाय हुवा कि कल प्रभात में सूर्योदय होने श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर वहां से आये पीछे पौषध व्रत पालना मुझे । - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #1698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ. म. महावीर को 4. वंदना कर ण. नमस्कार कर तः वहां से प० पीछे आते प. पाक्षिक पो० * पौषध पा. पारने को त्ति ऐसा क० करके एक ऐसा स० विचार कर क. कल जा. यावन् ज० Eजलंत पो० पौषध शाला में से प० निकलकर मु० शुद्ध पा० प्रवेश करने योग म० मंगलिक व वस्त्र प० श्रेष्ट ५० पहिना हुवा मा० अपने गि० गृह मे ५० नीकल कर पा० पाद विहार से सा० श्रावस्ती ण. नगरी के म० बिच में जा० यायत प० पर्युपासना की अ० अभिगम न० नहीं है ॥ २० ॥ त० तब नमांसत्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए तिकटु, एवं संपेहेइ २ त्ता कलं जाव जलंते पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सुद्धाप्पावेसाइं मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता पायविहारचारेणं सावत्थि णयरिं मझं मझेणं जाव पज्जुवासइ, “ अभिगमोनत्थि” ॥ २० ॥ तएणं ते समणोवासगा कलं पादु जार जलंत पहाया कय जाव सरीरा सएहिं भावार्थ श्रेय है. ऐसा विचारकर प्रभात होते पौषधशालामें से नीकलकर, शुद्ध परिषदामें प्रवेशन करने योग्य मंग लीक श्रेछ वस्त्र धारण कर स्वगह से नीकलकर. पग से चलते हुए श्रावस्ती नगरी की बीच में होकर श्रमण ल भगवंत महावीर स्वामी की पास आये. और वंदना नमस्कार कर यावत् पर्यपासना करने लगे. इन में से 1-अभिगम नहीं है क्यों कि वह पौषध व्रत में था ॥ २० ॥ अन्य सब श्रमणोपासकने प्रभात होते स्नान अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६९ शब्दाते. वेस. श्रमणोपासकक० काल पा० प्रातः में जा. यावत् ज० ज्वलंत व्हा० स्नान किया क. कृत। जा. यावत् स. शरीर वाले अ. अपने गि० गृह से प० नीकल कर ए. एकत्रित मि० मीलते हैं? १७ से० शेष ज. जैसे प० प्रथम जा० यावत् प० पर्युपासना की ॥ २१ ॥ त० तब स० श्रमण भ०* भगवन्त म० महावीर ते• उन स० श्रमणोपासकों को ती• उस घ० धर्मकथा जा० यावत् आ० आज्ञा से आ० आराधक भा होता है ॥ २२ ॥ त• तब ते. वे स० श्रमणोपासक स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर की अ० पास ध० धर्म सो मुनकर नि० अवधार कर ह० हृष्ट तु० तुष्ट उ० उठकर स० सएहिं गिहेहितो पडिणिक्खमंति २ त्ता एगयओ मिलायति २ त्ता, सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासइ ॥ २१ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे तेसिं समोवासगाणं तीसेय धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवइ ॥ २२ ॥ तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठा उट्ठाए उट्टेति रत्ता किया, यावत् अलंकारों से शरीर विभूषित किया अपने २ गृह से नीकलकर एकत्रित हुए. शेष . सब पहिले जैस जानना यावत् पर्युपासना करने लगे ॥ २१॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उन श्रमणो-* सकों को उस बहती परिषदा में धर्मकथा सुनाइ यावत् आज्ञा का आराधक होता है ॥ २२ ॥ भगवंत श्री महावीर स्वामी की पास से धर्म श्रवण कर के श्रमणोपासकों दृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और श्रमण 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 88 बारहवा शतक का पहिला उद्देशा +8 Page #1700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmon शब्दार्थ श्रमण v० भगवंत म० महावीर को वं• वंदनाकर ण नमस्कार कर जे० जहां सं० शंख स० श्रमणो-* पासक ते० वहां उ० आकर सं० शंख स० श्रमणोपासक को ए. ऐसा ब० बोले तु० तुमने दे० देवानु । प्रिय हि० कल अ० हमको अ० स्वतःने ए० ऐसा व० कहाथा तु० तुम दे० देवानुप्रिय वि० विपुल अ० अशन जा० यावत् वि० विचरेंगे त० तब तुः तुम पो० पौषध शाला में जा. यावत् वि. विचरने को त० इससे सु० अच्छा तु• तुमको दे० देवानुप्रिय अ० हमको ही नींदते हो ॥ २३ ॥ अ० आर्यो समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखे समणो वासए तेणेव उवागच्छंति २ ता संखं समणोवासगं एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुहै प्पिया ! हिजो अम्हे अप्पणाचेव एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं जाव विहरिस्सामो तएणं तुम्मं पोसहसालाए जाव विहरिए तं सुट्टणं तुम्मं देवाणु. प्पिया ! अम्हे हीलेसि ॥ २३ ॥ अजोत्ति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोभावार्थ भगवंत को वंदना नमस्कार कर शंख श्रमणोपासक को ऐसा वोले अहो देवानुप्रिय ! तुमने स्वतःने हम को भर ऐसा कहा था कि विपुल अशनादि बनाकर उस को भोगते हुवे यावत् पाक्षिक पौषध अंगीकार करते हुवे रेंगे, फीर तुम पौषधशाला में यावत् पौषध कर विचरने लगे तो अहो देवानुप्रिय ! तुम हमारी महीलना करो यह क्या अच्छा है? ॥२३॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी उन श्रमणोपासकों को ऐसा बोले कि अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी * पकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 3gt 8+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर ते. उन स० श्रमणोपासकों को एक ऐसा व० बोले मा० मत . अ० आर्यो तु० तुम सं० शंख म० श्रमणोपासक की ही. हीलनाकरो नि० निंदा करो खिं० खिसना करो अ० अवज्ञा करो सं० शंख स० श्रमणोपासक पि० मिय धर्मी द० दृढधर्थी सु० अच्छी जा० जागरणा जा० जगा ॥ २४ ॥ भ. भगवन् गो. गौतम स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर को 4. वंदनकर ण. नमस्कार कर ए. ऐसा व. बोले क. कितने प्रकार की भं. भगवन जा० जागरणा गो• गौतम ति० तीन प्रकार की जा जागरणा ५० प्ररूपी बु बुद्ध जागरिका अ अबुद्ध जागरिका सु० वासए एवं वयासी माणं अज्जो ! तुब्भे संखं समणोवासगं हीलह, निंदह, खिंसह, गरहह, अवमण्णह संखणं समणोवासए पियधम्मे चेत्र, दढधम्मे चैव, सुदक्खुजागरियं जागरिए ॥२४॥ भंतेत्ति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ २ ता णमंसइ २ त्ता एवं वयासी कइविहाणं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? गोपमा ! (तविहा जागरिया पण्णत्ता तंजहा बुद्धजागरिया, अबुद्ध जागरिया, सुक्ख जागरिया । से केणटेणं । अहो आर्यो ! तुम शंख श्रमणोपासक की हीलना, निंदा, सिना व गर्दा मत करो, क्यों कि शंख श्रमणोपासक पिय धर्मा दृढ धर्मी है. इन्होंने प्रमाद रहित जागरणा की है ॥ २४ ॥ फीर भगवान् गौतम स्वामाई श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! जागरणा कितने । Page #1702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी सुदक्षु जागरिका से वह के कैसे भगवन् ए. ऐसा बु. कहा जाता है ति ती. प्रकार की जा.. जागरिका प० प्ररूपी बु० बुद्ध जागरिका अ० अबुद्ध जागरिका मु० सुदक्ष जागरिका गो• गौतम जे. जो अ. अरिहंत भ० भगवन्त उ० उत्पन्न णा ज्ञान दं० दर्शन के धारक ज. जैसे खं. स्कंदक जा. यावत् स०सर्वज्ञ स. सर्व दर्शी बु. बुद्ध बु. बुद्ध जागरिका जाजागते हैं जे. जो अ. अनगार भ.. वन्त इ० ईर्या समिति वाले भा. भाषा समिति वाले जा. यावत् गु० गुप्त वं. ब्रह्मचारी अ० अबुद्ध । भ० अबुद्ध जागरिका जा० जागते हैं जे० जो स० श्रमणोपासक अ० ज ने जी० जीवाजीव जा० भंते ! एवं वुच्चइ तिविहा जागरिया प० तं. बुद्ध जागरिया, अबुद्ध जागरिया, सुदक्खु जागरिया ? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णणाण दंसणधरा जहा खंदए जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी एएणं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंतिाजेइमे अणगाराभगवंतो इरियासमिया भामासामिया जाव गुत्तबंभयारी, एएणं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति। जे इमे समणोवासगा अभिगय जीवाजीका जाव विहरंति; एएणं सुदक्खु जागरियं प्रकार की कही है ? अहो गौतम ! जागरणा के तीन भेद कहे हैं. बुद्ध जागरणा, अबुद्ध जागरणा व सुदर्शन जागरणा. अब जो उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारन करनेवाले वगैरह जैमा स्कंदक में कहा वैसे गुगोंवाले यावत् सर्वज्ञ सर्व दी जो अरिहंत होते हैं वे बुद्ध जागरणा जागते हैं. जो अनगार ईर्या सभिति. .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ 1 Page #1703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् वि० विचरते हैं सु० सुदक्षु जागरिका जा० जागते हैं से० वह तेइसलिये गो० गौतम वुः कहा है। जाता है ति० तीन प्रकार की जा० जागरिका मा० यावत् सु० मुदक्षु जागरिका ॥ २५ ॥ त० तब से वह सं. शंख स० श्रमणोपासक स० श्रमण भ० भगन्त म० महावीर को वं० वंदन कर न०नमस्कार १६७३ कर ए. ऐमा व० बोले को० क्रोध वश से भ० भगवन् जी० जीव किं. क्या बंबांधे कि क्या ५० करे कि चि० दिने कि क्या उ० उपचिने सं० शंख को० क्रोधवश से जी० जीव आ आयुष्य व० वर्जकर जागरंति ॥ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ तिविहा जागरिया जाव सुदक्खु जागरिया ॥ २५ ॥ तएणं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी कोह वसटेणं भंते ! जीवे किं बंधइ किं पकरेइ किं चिणाइ किं उवचिणाइ ? संखा ! कोहवसट्टेणं जीवा आउयवज्जाओ सत्त कम्मपग डीआ सिढिल बंधणबढ़ाओ एवं जहा पढमेसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणु-. भावार्थ Fभाषा समिति यावत् गुप्त ब्रह्मचारी होते हैं वे अबुद्ध जागरणा जागते हैं और जो जीव का स्वरूप जाननेवाले श्रमणोपासक होते हैं वे सुदक्षु जागरणा नागते हैं इस से अहो गौतम ! तीन जागरणा कही गई है।।२५॥ * फोर वह शंख श्रमणोपासक श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! क्रोध में वर्तता हुवा जीव क्या बांधता है, क्या करता है, क्या एकत्रित करता है ? अहो । * पंचमतङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवतः 480 बारहमा शतक का पहिला उद्देशा Page #1704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ Hr अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी स० सात क कर्म प्रकृति लि. शिथिल बं० बंधन ब० बंधी हुई ए. ऐसे ज० जैसे ५० प्रथम शतक संवृत अनगारका एक ऐसे लो० लोभवश से अ० परिभ्रपण करे ॥ २६ ॥ त. तब ते. वे स० श्रमणोपासक स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर की अं० पास से एक इस अर्थ सो० मुनकर मणि० अवधार कर भी० डरेहुचे सं० संसार भयसे उद्विग्न स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को व वंदन कर न० नमस्कार कर जे. जहां सं० शंख स० श्रमणोपासक ते. तहां उ० जावे उ० जाकर परियइ ॥ माणवसट्टेणं भंते ! एवं चैव, एवं मायावसझेवि, एवं लोभवसद्देवि जाव अणुपरियदृइ ॥ २६ ॥ तएणं ते समोवासगा समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म भीया तत्था तसिया संसारभयुविग्गा, समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमांसत्ता, जेणेव संखे समणोवासए तेणेव शंख ! क्रोध में वर्तनेवाला जीव आयुष्य छ डकर सात कर्म प्रकृतियों यदि शिथिल बंधवाली होवे तो दृढ बंधवाली करता है वगैरह यावत् प्रथम शतक में असंवति साधु के अधिकार में जैसा कहा वैसा सब जानना यावत् अनंत संसार परिभ्रमण करे वहां तक जानना जैसे क्रोध का कहा वैसे ही मान माया व लोभ का कहना ॥ २६ ॥ श्रमण भगवंत महावीर सामी की पास ऐसा सुनकर वे श्रमणोपासक भय भीत हुए. त्रसित हुए, मन में उद्वेग उत्पन्न हुचा संसार भय से उद्वेग पामे और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *. भावाथा Page #1705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६७६ श्री अमोलक ऋषिजी करेगा से वह भं भगवन् ॥ १२ ॥ १ ॥ ३.ते. उस काल ते.. उस समय में को. कौशाम्बी ण नगरी हो. थी व. वर्णन युक्त चं० चंद्रोत्तरा यनक चे० चैत्य व० वर्णन युक्त ॥ १ ॥ त० उस को० कौशाम्बी न० नगरी में सहस्रानीक र० राजा का पो० पौत्र स० शतानीक र०.राजा का पुत्र चे चेडा राजा का न० दौहित्र मि० मृगावती दे. देवी दुवालसम सयस्सय पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ १ ॥ + x x तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीणामं पायरी होत्था . वण्णओ, चंदोत्तरायणे चेइए वण्णओ, ॥ १ ॥ तत्थणं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो पोत्ते, सयाणीयस्स। रण्णो पुत्ते, चेडगस्स रण्णो नत्तुए,मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवा सियाए । सपर्थ है ? अहो गौतम ! जैसे ऋषिभद्रपुत्र का कहा वैसे ही यहां जानना यावत् अंत करेंगे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बारहवा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ १ ॥ . . प्रथम उद्देशे में श्रावकका कथन किया दूसरे उद्देशे में श्राविका का कथन करते हैं. उस काल उम समय में कौशाम्बी नामक नगरी थी उस की ईशान कौन में चंद्रोत्तरायण नामक चैत्य था उस का वर्णन उबवाइ मूत्र से जानना ॥ १ ॥ उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानिक राजा का पौत्र, शतानिक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती रानी का आत्मज, और जयंति श्रमणोपासिका का भतीजा उदायन. * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालामसादजी * 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #1706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ करेगा से वह भं भगवन् ॥ १२ ॥ १ ॥ १ ते० उस काल ते.. उस समय में को. कौशाम्बी ण नगरी हो थी व० वर्णन युक्त चं० चंद्रोत्तरा यनक चे० चैत्य व० वर्णन युक्त ॥ १ ॥ त० उस को कौशाम्बी न० नगरी में सहस्रानीक र० राजा का पो० पौत्र स० शतानीक र०.राजा का पुत्र चे चेडा राजा का न० दौहित्र मि. मृगावती दे. देवी दुवालसम सयस्सय पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ १ ॥ + x x तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीणामं ायरी होत्था . वण्णओ, चंदोत्तरायणे चेइए वण्णओ, ॥ १ ॥ तत्थणं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो पोत्ते, सयाणीयस्स रणो पुत्ते, चेडगस्स रण्णो नत्तुए,मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवा सियाए । भावाथ समर्थ है ? अहो गौतम ! जैस ऋषिभद्रपुत्र का कहा वैसे ही यहां जानना यावत् अंत करेंगे. अहो भग-1 वन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बारहवा शतक का पहिला उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ १॥ . * र प्रथम उद्देशे में श्रावकका कथन किया दूसरे उद्देशे में श्राविका का कथन करते हैं. उस काल उम समय में कौशाम्बी नामक नगरी थी उस की ईशान कौन में चंद्रोत्तरायण नामक चैत्य था उस का वर्णन कउववाइ मूत्र से जानना ॥१॥ उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानिक राजा का पौत्र, शतानिक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती रानी का आत्मज, और जयंति श्रमणोपासिका का भतीजा उदायन । 19 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालामसादजी * Page #1707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सत्र 2387 अ० आत्पज ज जयंती स. श्राविका का भ० भत्तिजा उ. उदायन रा० राजा हो० था ३० वर्णन युक्त ॥ २ ॥ त उस को० कौशाम्बी न० नगरी में स० शतानीक र० राजा की भ० भार्या चे०३० ॥ की धू० पुत्री उ० उदायन राजा की मा० माता ज. जयंती सश्रमणोपासिका की भा०भावजई मि० मृगावती द० देवी हो० थी व० वर्णन युक्त जा. यावत् सु० सुरूप म. श्रमणोपासिका जा० यावत् ॐ वि० विचरती थी ॥ ३॥ त• उस को० कौशाम्बी श० नगरी में स. सहस्रानीक राजाकी धू० पुत्री भात्तजए, उदायणे णामं राया होत्था, वण्णओ ॥ २ ॥ तत्थणं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो सुण्हा, सयाणीयस्स रण्णा भजा, चेडगस्स रण्णो धूया, उदायणस्स रण्णो माया, जयंतीए समणावासियाए भाउज्जा मियावती णामं देवी होत्था वण्णओ, तंजहा जाव सुरूवा समणोवासिया जाव विहरइ ॥ ३ ॥ तत्थणं कोसं. बीए णयरीए सहस्साणायस्स रण्णो धूया, सयाणीस्स रण्णो भगिणी, उदायणस्सरण्णो नामक राजा था. उस का वर्णन कुणिक की समान जानना ॥ २॥ उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानिक org राजा की पुत्रवधू, शतानिक राजा की भार्या, चेटक राजा की पुत्री, उदायन राजा की माता, जयंती श्रमणोपासिका की भावज मृगावती नामक रानी थी. वह वर्णन योग्य यावत् सुरूपा यावत् श्रमणोपा-ola सिका थी ॥ ३ ॥ वहां पर कौशाम्बी नगरी में सहस्रानिक राजा की पुत्री, शतानिक राजा की भगिनी, 3 बारवा शतकका दूसरा उद्देशा : भावार्थ mommmmmmm Page #1708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ स० शतानीक रामा की भ० भगिनी उ० उदायन राजा की पि० भुआ मि• मृगावती देवी की नणंद, *। वे० वैशालीक की सा०श्राविका अ० अरिहंत पु० पूर्वशय्यांतर देने वाली ज० जयन्ती सश्रमणोपासीका हो थी से सु० सुकुमार जा० यावत् सुः सुरूप आ० जाने जा० यावत् वि० विचरती है ॥ ४॥ ते. उस काल १६७८ ते. उस समय में सा० स्वामी अ पधार जा० यावत् १० परिषदा प० पर्युपासना करे ॥ ५ ॥ त० तब पिउत्था, मिगावतीए देवीए णणंदा, घेसालीसावयाणं अरहंताणं पुन्वसिज्जातरी जयंती समणावासिया होत्था सुकुमाल जाव सुरूवा, आंभगय जाव विहरइ ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसड्डे जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ ५ ॥ तएणं उदायन राजा की पितृस्वसा (भूआ) मृगावती देवी की ननंद, वैशालिक श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की श्राविका, अरिहंत भगवंत को प्रथम शैय्या देनेवाली जयंती नामक श्राविका थी. वह मुरूपा यावत् जीवाजीव का स्वरूप जानती हुई विचरती थी ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत भी महावीर स्वामी पधारे यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी ॥५॥ उस समय में उदायन राजा इस बात १ शैय्या का दान देने में जयति श्राविका प्रसिद्ध है. जो नये साधु आते थे वे प्रथम शैय्या की याचना करते थे 12} इस से पूर्व शैय्यातरी कही है. १० अनुवादक-यालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी+ marnamam *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 8.28 से वह उ० उदायन ग० राजा इ० इस क कथा को ल. प्राप्त होते ह० हृष्ट तुष्ट को० कौटुम्बिक पुरुषों । को स बोलाकर एक ऐसा व०बोला खि० शीघू दे देवानुप्रिय को० कौशाम्बी न० नगरी को स०आभ्यंतर स० सर्व जा. यावत् प० पर्युपासना करे ॥ ६ ॥ त० तब सा. वह ज. जयन्ती स० श्रमणोपासिका ० इ० इस क० कथाको ल० प्राप्त होते ह० हृष्ट तुष्ट जे० जहां मि० मृगावती दे० देवी ते० तहां उ० आकर ए. ऐसा व० बोली ए. ऐसा ज० जैसे ण० नवमें शतक में उ० ऋषभदत्त जा० यावत् भ० होगा त. से उदायणे राया इमीसे कहाए लढे समाणे हट्ठतुढे कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ २त्ता, एवं वयासी खिप्पामेघ भो देवाणुप्पिया ! कोसंबिं णयरिं सभितर बाहिरियं एवं जहा काणओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ ॥ ६॥ तएणं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठ तुट्ठा जेणव मिगावतीदेवी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता एवं वयासी एवं जहा णवमसए उसभदत्तो जाव भविस्सइ तएणं सा मियावई देवी सुनकर बहुत हर्षित यावत् आनंदित हुए और कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवानु-50 प्रिय ! कौशाम्बी नगरी को आभ्यंतर व बाहिर साफ करो वगैरह वर्णन जैसे कृणिक राजा का कहा वो ही जानना ॥ ६॥ उस समय में जयंति श्रमणोपासिकाने इस बात को सुनी और हृष्ट तुष्ट बनकर | । मृगावती रानी की पास गई और जैसे नववे शतक में ऋषभदत्त ब्राह्मणने देवानंदा ब्राह्मणी को कहा । 8842 बारहवा शतकका दूसरा उद्देशा 88 Page #1710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १६८० 4.9 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्रा अमोलक ऋषिजी + त० तब सा. वह मि. मृगावती देवी ज० जयंती स० श्रमणोपासिका को ज० जैसे दे० देवानंदा जा. यावत् प० सुने ॥ ७॥ ल० तव सा. वह मि० मृगावती देवी को० कौटुम्बिक पुरुषों को स० बोलाकर खि• शीघ्र दे० देवानुप्रिय ल० लघु कर्ण वाले जु० युक्त जा. यावत् ध० धार्मिक जा० यान प्रवर जु० युक्त उ० तैयार जा० यावत् उ० तैयार करते हैं जा० यावत् प० पीछी देते हैं ॥ ८ ॥ सरल शब्दार्थ जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा जाव पडिसुणेइ ॥ ७ ॥ तएणं सा मियावई देवी कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं क्यासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तारोहिया जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठावेह, जाव उवट्ठाति जाव पच्चाप्पणंति ॥ ८ ॥ तएणं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं व्हाया कयबलिकम्मा जाव सराि बहहिं खुजाहिं जाव अंतेउराओ णिग्गच्छंतिरत्ता * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ वैसा कहने लगी. और मृगावती रानीने भी देवानंदा ब्राह्मणी जैसे सब श्रवण किया ॥ ७॥ फीर मृगावती देवीने कौटुबिक पुरुषों को बोलाये और कहा की लघुकर्णवाले व शीघ्रगतिवाले यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ शीघ्र तैयार करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. कौटुम्बिक पुरुषोंने ऐसा किया ॥ ८॥ फीर मृगावती रानीने जयंती श्राविका की साथ स्नान किया, कोगले किये, तिलमसादिक किये यावत् शरीर अलंकृत Page #1711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 3883 १९८१ जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता जाव दुरूढा||९|| तएणं सा मिगावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढासमाणी णियगपरियाल जहा उसभदत्तो जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ॥१०॥तएणं सा मियावई देवी जयंतीए समाणोवासियाए सद्धिं बहहिं खुजाहिं जहा देवाणंदा जाव चंदइ णमंसइ, उदायणं रायं पुरओ कटु ठिइया चेव पज्जुवासइ ॥३१॥तएणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रण्णो मियावईए देवीए जयंतीए समणो वासियाए तीसेय महइ जाच धम्म परिकहेइ जाव परिसा पडिगया ॥ उदायणे पडिभावार्थ किया, बहुत कब्ज वगैरह दासियों के परिवार से अंतःपुर से नीकलकर बाहिर उपस्थान शाला में धार्मिक रथ की पास आकर उत में बैठी ॥ ९ ॥ फोर वह मृगावती देवी जयंती श्रमणोपासिका की साथ वाहन पर २० हुइ अपन पारवार सहित वगैरह जैसे ऋष दत्त का कहा पैसे ही धार्मिक रथसे नीचे उतरे ॥१०॥oyo वह मृगावती देवी बहुत दासियों के परिवार से जयंति श्राविकाके साथ देवानंदा जैसे वंदना नमस्कार। ॐ किया और उदायन राजा को आगे करके बैठी ॥ ११॥ फीर श्रमण भगवंत महावीरने उदायन राजा 1ॐ मृगायनी रानी, व जयति श्रमणोपासिका को उस महती परिषदा में धर्मकथा मुनाइ यावत् परिषदा पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सत्र बारहमा शतकका दूसरा उद्देशा शा । Page #1712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए, मियावईवि पडिगया ॥ १२ ॥ तएणं सा जयंती समणोवासिया समणस् भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठ तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंद णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी कहण्णं भंते ! जीव गुरुयत्तं हवमागच्छंति ? जयंती ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु जीवा गुरुयत्तं हन्व मागच्छति, एवं जहा पदम सए जाव वीईवयंति ॥ १३ ॥ भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओय परिणामओय ? जयंती ! सभावओय णो परिणामओय ॥ १४ ॥ भावार्थ पीछी गई. उदायन राजा पीछा गया और मृगावती रानी भी पीछीगइ ॥ १२ ॥ श्री श्रमण भगवंत महा वीर स्वामी की पास से जयंती श्राविका धर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुई और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोलने लगी कि अहो भगवन् ! जीव गुरुत्व कैसे प्राप्त { करता है ? अहो जयंती ! प्राणातिपात से यावत् मिथ्या दर्शन शल्य से जनेव गुरुत्व प्राप्त करता है. वगैरह जैसे प्रथम शतक में कहा वैसे ही जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीवों को भवसिद्धिकपना भाव से है या परिणाम से है ? अहो जयंती ! जीवों को भवसिद्धिकपना स्वभाव से है परंतु परिणाम से नहीं है || १४ || अहो भगवन् ! क्या सत्र भवसिद्धिक जीवों सीझेंगें ? हां १-२ स्वभाव जैसे पुद्गलका मूर्तत्य और परिणाम सो नहीं हुवे का होवे जैसे पुरुष की बाल्यावस्था में से तरुणावस्था. जयंती ! सब भवसिद्धिक सूत्र २०३ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक- सजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १६८२ Page #1713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णत्ति (भगवत्री) सूत्र 388 सव्वेविणं भंते ! भवसिाड़िया जीवा सिझिस्संति ? हेता जयंती ! सव्वेविणं भवसि. द्विया जीवा सिझिस्संति । जइणं भंते ! सब्वेवि भवसिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति तम्हाणं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? जो इणटे समटे ॥ से केणं खाइण्णं १६८६ अटेणं भंते! एवं वुच्चइ सव्वेविणं भवसिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति णो चेवणं भव. सिद्धिय विरहिए लोए भविस्सइ ? जयंती ! से जहा नामए सन्वागाससेढी सिया अणादिया अणवदग्गा परित्ता परिवुडा साणं परमाणुषोग्गलमत्तेहिं खंडेहिं समए २ अवहीरमाणी २ अणंताहिं उस्साप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरइ णो चेवणं अवहिरिया जीवों सीझेंगे. अहो भगवन् ! यदि सब भव्य जीवों सीझेंगे तब क्या भवसिद्धिक जीवों से रहित यह लोक होगा? अहो जयंती ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् सब भवसिद्धिक जीवों से रहित यह लोक नहीं होगा. अहो भगवन् ! यह किस तरह कहा जाय कि सब भवसिद्धिक जीवों मीझेंगे परंतु भवसिद्धिये जीव रहित लोक नहीं होगा? अहो जप्ती! अनादि अनंत परित्त व समस्त लोकालोक में श्रेण्यांतर परिवृत्त आकाशश्रण है. उस में से प्रति समय परमाणु पुद्रमितमा खण्ड नीकालते २ अनंत अवम-34 पिणी उत्सपिणी तक नीकाले परंतु वह आकाश श्रेणी खाली ही होती है, वैसे ही जयंती सर्व ! मासि । *38* बारहवा शतक का दूसरा उद्देशा -१६ भावार्थ : OS 1 4.10 Page #1714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८५ एक-चाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिनी सिया से तेणटेणे. जयंती! एवं बुच्चइ सत्येविण जाव भविस्सइ ॥ १५॥ सुत्तत्तं भंते! साहू, जागरियन्तं साहू ? जयती : अस्थगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू अत्यंगइयाणं जीवाणं जांगरियत्तं साहू !! से केण्टेणं भंते! एवं वुच्चइ अत्थेगइयाणं जाव साहू ? जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया, अहम्माणुया, अहम्मिट्ठा, अहम्म खाई अहम्मपलोई, अहम्मपलज्जमाणा, अहम्भसमुदायारा, अहम्मणं चव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति एएसिणं सुत्तत्तं साहू ॥ एएणं जीवा मुत्ता समाणा णो बहूणं द्धिक जीयों सिद्ध होने से भविसिद्धिक रहित लोक नहीं होगा ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! क्या सोना * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी * भावार्थ + अहो भगवन् ! क्या समस्त जीव सोझगे? हां समस्त जीव सीझेंगे. यदि सीझे नहीं तो भवसिद्धिकपना होवे ई नहीं. और जब सब भवसिद्धिक सीझगे तब भवसिद्धिक शून्यतावाला लोक होवे ऐसा नहीं है. उस पर समय का दृष्टांत बताते हैं. सर्व एव अनागतकालसमया वर्तमानतां लप्स्यन्ते । भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नामवर्तमानत्वं । एष्यश्च नाम स भवति यः प्राप्स्याते वर्तमानत्वम् । अर्थात् जितने अनागत काल के समय हैं वे सब वर्तमानता को प्राप्त होते हैं और वर्तमानवाले अतीत होते हैं, और जो वर्तमान को प्राप्त होगे सो अनागत है. परंतु अनागत समय रहित लोक कदापि नहीं होता है... . . .... Page #1715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पाणभूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाय परिथावणयाए वहति ॥ एएणं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणंवा परंवा तदुभयंचा णो बहहिं अहम्मियाहिं संजोयणहिं संजोएत्तारो भवंति ॥ एएणं जीवाणं सत्तत्तं साहू ॥ जयंती !जे इमे १६८५ जीवा धम्मत्थिया धम्माणुगा जाव धम्मेणंचव बित्ति कप्पेमाणा बिहरंति, एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू ॥ एएणं जीवा जागरमाणा बहणं पाणाणं अदुक्खणयाए जाव अपरियावणयाए वहति ॥ तेणं जीवा जागरासमाणा अप्पाणंवा परंवा तदुभयं. या वहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो सर्वति ॥ एएणं जीवा जागरमाणा भावार्थअच्छा या जागत रहना अच्छा ? अहो जयंती ! कितनेक जीवों का सोना अच्छा है और कितनक जीवों का जागृत रहना अच्छा है. अहो भगवन् ! किस कारन से कितनेक जीवों का सोना अच्छा और फितरेक जीवों का जागना अच्छा कहा ? अहो जयंती! जो जीव अधर्मी हैं, अधर्म में अनुरक्त है, अधर्म इष्टकारी हैं, अधर्म अवतारपाले , अधर्म को ही आचरने रूप देखते हैं, अधर्म का उपदेश करते ७ | हैं. अभियों का समुदाय है और अब वृति से ही आजीविका करते हैं ऐसे जीवों सोत हुवे अच्छे हैं क्योंकि 1 प्रणियों को दुःख शोक यावत् परितापना उत्पन्न नहीं कर सकते हैं. अपने, अन्य के व उभ्य के 48 पंचमांग विवाह १ष्णत्ति (भगवतीत्र Food बारहवा शतक का दूसरा Page #1716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-रालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक सपिजी .. धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तासे भवंति ॥ एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू से तेण?णं जयंती! एवं वुच्चइ अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं .. जीवाणं जागरियत्तं साहू ॥ १६ ॥ बलियत्तं भंते ! साहू दुब्बलियत्तं साहू ? जयंती अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू ॥ से कॅणतुणं भंते! एवं वुच्चइ जाव साह ? जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति एएसिणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू,एएणं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुब्ब• लियत्तस्स वत्तबया भाणियव्वा ॥ बलियस्स जहा जागरस्स तहा भाणियव्वं जाव आत्मा को अधर्म से सयोजना करते हैं और जो जीव धर्मी, धर्मानुरागवाले, यावत् धर्म से आजीविका करनेवाले होते हैं वे जागते हुवे अच्छे हैं. वे जागते हुवे प्राणियों को अदुःख यावत् अपरितापना करते हैं और स्वतः को, अन्य को व उभय को अनेक धार्मिक संयोगो से जोडनेवाले होते हैं. वे जीवों जागते. हुवे धर्म जागरणा जागते हैं। इस से इन जीवों का जागना अच्छा है ॥१६॥ अहो भगवन् क्या बलवान् ! अच्छ या दुर्बल अच्छे ? अहो जयंती ! कितनेक जीवों बलवन्त अच्छे व कितनेक जीवों निर्बल अच्छे. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो जयंती ! जो जीवों अधर्मी, अधर्मानुरागी यावत् पूर्वोक्त प्रकार से जो अधर्मी जीवों हैं वे दुर्बल अच्छे हैं क्यों कि वे दुर्बल होने से प्राणों को दुःख प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८७ पंचमा विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र tagran संजोएत्तारो भवति ॥ एएसिणं जीवाणं बलियत्तं साहू ॥ से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ तंचेव जाव साहू ॥ १७ ॥ दक्खत्तं भंते! साह आलसियत्तं साहू ? जयंती! अत्थेगइयाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू अत्थेगइयाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू ।। से कणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ तंचव जाव साहू ? जयंती ! जइमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति, एएसिणं जीवाणं आलसियत्तं साहू, एएसिणं जीवा अलसाउमाणा णो बहूणं जहा सुत्ता तहा अलसा भाणियव्या, जहा जागरा तहा दक्खा भाणियव्वा मावत् परितापना उत्पन्न नहीं कर सकते हैं और स्वतः को, अन्य को व उभय को अधर्म में नहीं जोड सकते हैं. वगैरह सब सुप्त जीवों जैसे कहना. और बलवन्त को जाग्रत रहते जीवों जैसे कहना.अहो जयंती ! उक्त कारनों से कितनेक जीवों बलवन्त अच्छे हैं और कितनेक जीवों जागृत अच्छे हैं ॥ १७ ॥ अहो भगवन ! उद्यम अच्छा या आलस्य अच्छा? अहो जयंती! कितनेक जीवों को उद्यम अच्छा है और कितनेक जीवों को आलस्य अच्छा है. अहो भगवन् ! यह किस तरह ? अहो जयंती ! जो जीव अधर्मी, अधर्मानुरागी यावन् विचरते हैं उन जीवों को आलस्य अच्छा है, क्यों कि वे सुप्त जीवों समान प्राणियों को दुःख वगैरह नहीं दे सकते हैं और स्वतः को, अन्य को व उभय को अधर्म से नहीं जोड-हैसकते हैं. और जो धर्मी होते हैं उनको उद्यम अच्छा है क्योंकि वे प्राणियों को मुख वगैरह उत्पन्न करते हैं। + बारहवा शतकका दूमा उद्देशाने * Page #1718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक - वालाचारी मुनि श्री अमोलक ऋाजी जाय संजोएत्तारो भवति, एएणं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावच्चेहिं, उवज्झा यत्रेयाच्चेहि थेरवेयावच्चेहिं तवस्सीवेयावच्चेर्हि, गिलाणचेयावच्चेहिं, सेह वेयावच्चेहिं, कुलत्रेयावच्चेहिं गणत्रेयावच्चेहिं, संघयावबाहें सम्मियवेयावच्चेहिं अत्ताणं संजोए तारो भवति, एएसिणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, से तेणद्वेणं तंचेच जाव साहू ॥ १७ ॥ सोईदिय बसणं भंते! जीवे किं बंधइ, एवं जहा कोहवसट्टे तहेव जाव अणुपरियदृइ || एवं चक्खिादयत्रसहेवि, जाव फासिंदियासदेवि जाव अणुपरियहइ ॥ २१ ॥ तणं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगाओ महावीरस्स अंतियं एयमटुं सोचा जिसम्म हट्ट तुट्ठा सेसं जहा देवानंदा तहेव पव्वइए जाव सव्व दुक्खप्प और स्वतः को, अन्यको व उभय को धार्मिक कार्य में जोड़ते हैं और भी उद्यमी जीव आचार्य, उपाध्याय स्थावर, तपस्वी, ग्लानि, नव दीक्षित, कुल, गण, व साधु की वैयावृत्य में आत्मा को जोडनेवाले होते हैं. इन से वे जीवों उद्यमी अच्छे हैं ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! श्रोत्रन्द्रिय में वश होनेवाला जीव क्या बांधता है ? अहो जयंती! जैसे क्रोधका कहा वैसेही सब कहना, और श्रोत्रेन्द्रिय जैसे शेष सब इन्द्रियों का जानना ||१२|| अब जयंती श्रमणोपासका भगवंत श्री महावीर स्वामी की पालघर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट हुई वगैरह सब * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १६८८ Page #1719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ०१ रा० राजगृह में जा० यावत् ए ऐसा वर बोले क० कितनी मं० भगवन् पुः पृथ्वी प० प्ररूपी मो० गौतम स० सात पु० पृथ्वी १० प्ररूपी तं वह ज० जैने प० प्रथमा दो० दुसरी जा० यावत् स० सातवी ॥ १ ॥ प० प्रथमा भ० भगवन् पु० पृथ्वी कि ना० नाम गो० गोत्र ५० प्ररूपा गो० गौतम घ० हीणा ॥ सेवं भंते भंतेति ॥ दुवालसम स्यस्वयवितीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥२॥ रायगिहे जाव एवं वयासी कइणं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? पुढबीओ पण्णत्ताओं तंजहा - पढमा दोवा जाव सत्तमा ॥ १ ॥ पुढवी किं नामा किं गोत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! घम्मा णामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं, गोयमा ! सत्त पढमाणं भंते ! देवानंदा जैसे कहना यावत् प्रवजित हुई और सब दुःखों से रहित हुई. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बारहवा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हवा ॥ १२ ॥ २ ॥ ० दूसरे उद्देशे के अंत में कर्मबंध कहा. बहुल कर्मी जीव नरक में जाते हैं इस से तीसरे उद्देशे में नरक का प्रश्न करते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! पृथ्वी कितनी कही हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वी । सात कही पहिली, दूसरी यावत् सातवी || १ || अहो भगवन् ! पहिली पृथ्वी का क्या नाम व गौत्र कहा है ? अहो गौतम ! १ पहिली पृथ्वी का धम्मा नाम कहा है और रत्नप्रभा गोत्र कहा है २ दूसरी का वंश ० १०- ६० बारहवा शतक का तीसरा उद्देशा 80-42504 १६८९ Page #1720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र मात्रार्थ ८० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + (घम्मा ना० नाथ र० रत्नप्रभा गो० गोत्र ए० ऐसे जः जैसे औ० जीवाभिगम में प० प्रथम ०नारकी उ० उद्देशा सो० वह णि० निर्विशेष भा० कहना जा० यावत् अ० अल्पाबद्दुत्व ॥ १२ ॥ ३ ॥ एवं जहा जीवाभिगमे पढ़मो णेरइय उद्देसओ खो णिरवसेसो भाणियव्वो जाव अप्पाबहुगन्ति ॥ २॥ सेवं भंते भंतेत्ति || दुवालसम सयस्स तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥१२॥३॥ रायग जाव एवं वयासी दो भंते! परमाणु पोग्गला एगयओ साहणंति एगयओ { नाम व शर्कर प्रभा गोत्र ३ तीसरी का सीला नाम व बालुप्रभा गोत्र ४ चौथी का अंजना नाम व पंकमा गोत्र ५ पांचवी का रिठा नाम व धूम्रप्रभा गोत्र ६ छठ्ठीका मघा नाम व तमप्रभा गोत्र और ७ सातवी का माघवती नाम व तमतमा गोत्र वगैरह सब कथन जीवाभिगम सूत्र के प्रथम नरक उद्देशे में जितना कहा वह सब जानना. यावत् सब से थोडे सातवी नरक के नेरिये उस से छठी नरक के नेरिये असंख्यातगुने, उस से पाचवी नरक के नेरिये असंख्यातगुने यो क्रम से पहिली नरक के नेरिये असंख्यातगुने अहो भगवन | आप के वचन सत्य हैं यह बारहवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा || १२ || ३॥ * तीसरे उद्देशे में पृथ्वी का कथन किया. वह पुद्गलात्मक होने से आगे पुद्गल का अधिकार कहते हैं. (राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे परिषदा वांदने को आइ, धर्मो पदेश सुनकर पीछीगई. उस समय में श्री गौतम स्वामीने भगवान् श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १६९० Page #1721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. १६११ पण्णति (भगवती) सूत्र 48 साहणित्ता किं भवइ ? गोथमा! दुपदेसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहा कजइ, एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ ॥ १ ॥ तिण्णि भंते ! परमाणु पोग्गला एगयओ साहणित्तए किं भवइ ? गोयमा ! तिपदेसिए खंधे भवइ से भिजमाणे दुहावि तिहावि कज्जइ, दुहा कज्जमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले गय: ओ दुपदेसिए खंधे भवइ, तिहा कज्जमाणे तिण्णि परमाणुः पोग्गला भवंति ॥ २ ॥ चत्तारि भंते ! परमाणु पोग्गला पुच्छा ? गोयमा! चउपदेसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि, तिहावि, चउहावि कजइ, दुहाकज्जमाणे एगयओ परमाणु पोग्गले, कर प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! दो पुद्गल एकत्रित होते हैं और इस तरह एकत्रित बनकर क्या होता है ? अहो गौतम ! दो प्रदेश एकत्रित होने से द्विपदेशात्मक स्कंध होता है और जब उस का दो विभाग करते हैं तब एकर परमाणु पुद्गल ऐसे दोविभाग होते हैं. इस तरह द्विप्रदेशात्मक स्कंधका एक मांगा होता है ॥१॥ अहो भगवन् ! तीन पुद्गल एकत्रित होकर क्या होता है ? अहो गौतम ! तीन प्रदेशात्मक स्कंध होता है. उस के विभाग करते दो व तीन-विभाग होते हैं जब दो विभाग होते हैं तब एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध ? व एक परमाणु पुल और तीन विभाग में एक २ परमाणु पदलों के तीन विभाग होते हैं ॥ २ ॥ अहो बारहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ Jyes । Page #1722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा दो दुपदेसिया खंधा भवंति. तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुरदेसिए खंधे भवइ. चउहाकज्जमाणे चत्तारि परमाणपोग्गला भवंति ॥ ३॥ पंच भंते ! परमाणु पोग्गला पुच्छा ? गोयमा ! पंच पएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि, तिहावि, चउहावि, पंच. हावि कज्जइ. दुहा कजमाणे एगयओ परमाणु पोग्गल एगयओ चउपदसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपदेप्तिए खंधे, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ; तिहा १. कजमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगया तिपदेसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति चउहा कज्जमाणे एगभगवन् ! चार परमाणु पुद्गल मीलने से क्या होवे ? अहो गौतम ! चार प्रदेशात्मक स्कंध होवे. उस के दो, तीन व चार विभाग हो सकते हैं. जब दो टुकडे करते हैं तब एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध का व एक परमाणु पुद्गल का, अथवा दो २ परमाणु पुद्गलों के दो स्कंध. तीन टुकडे करने से एकर परमाणु पुद्गल के दो टुकडे और एक द्विपदेशात्मक स्कंध और चार टुकडे करने से एक २ परमाणु पुद्गलों के चार विभाग ॥३॥ अहो भगवन ! पांच परमाण मीलने से क्या होवे ? अहो गौतम ! पांच प्रदेशात्मक स्कंध होवे उस *के भेद होने से दो तीन चार व पांच टुकडे होते. यदि दो होवे तो चार प्रदेशात्मक स्कंध व एक एक ** प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी यालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - MAMmmmmmmm पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र यओ तिण्णि परमाणु पोग्गला, एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ पंचहा कजमाणे पंच परमाणु पोग्गला भवंति॥४॥छन्भंते! परमाणु पुच्छा ? गोयमा ! छप्पदेसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दुहावि तिहावि जाव छविहावि कज्जइ दुहा कजमाणे एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ. अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदसिए खंधे भवइ, अहवा, दो तिपदेसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ;अहवा तिण्णि दुपदेसियाखंधा। परमाणु पुद्गल, तीन प्रदेशात्मक स्कंध व दो प्रदेशात्मक स्कंध, तीन टुकडे में एक२ परमाण पद्गलके दो टुकडे . और तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल व दो दोपदेशात्मक स्कंध, चारमें तीन परमाणु पुद्गल व एक द्विपदेशात्मक स्कंध, पांचमें पांच अलग२परमाणु पुद्गल ॥४॥ अहो भगवन् ! छ परमाणु पुद्गलों एकत्रित होनेसे क्या होता है? अहो गौतम ! छ परमाणु पुद्गलोंका छ प्रदेशात्मक एक स्कंध होता है. उसके दो, तीन, चार,पांच व छ टुकडे ७ होते हैं. दो टुकडे करे तो पांच प्रदेशात्मक स्कंध व एक परमाणु पुद्गल, चार प्रदेशात्मक स्कंध व दो । प्रदेशात्मक स्कंध और तीन प्रदेशात्मक स्कंध के दो टुकडे. तीन करने में एक २ परमाणु पुद्गलों के दो । ___* * बारहवा शतकका चौथा उद्देशा -82 भावार्थ 480 Page #1724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भवति. चउहा कजमाणे एगयओ तिण्णि परमाणु पोग्गला, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति.. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणु पोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ छहा कजमाणे छपरमाणु पोग्गला भवति ॥ ५॥ सत्त भंते ! परमाणु पोग्गला पुच्छा ? गोयमा सत्तपएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि जाव सत्तविहावि कज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ छप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ पंच पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ टुकडे और चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो प्रदेशात्मक स्कंध एक, तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक और एक परमाणु पुद्गल अथवा तीन दो प्रदेशात्मक स्कंध, चार टुकडे करते एक २ परमाणु पुद्गल के तीन और तीन प्रदेशात्मक स्कंध का एक, अथवा एक २ परमाणु पुद्गल के दो टुकडे और द्विपदेशात्मक स्कंध के दो टुकडे, पांच भाग में एक २ परमाणु के चार और द्विप्रदेशात्मक स्कंध का एक और छ भाग में भिन्नर छ परमाणु पुद्गल ॥ ५ ॥ सात परमाणु पुद्गल की पृच्छा अहो गौतम ! सात परमाणु पुद्गल मीलकर सात पदेशासक स्कंध होता है. और उस के टुकडे करते दो यावत् सात टुकडे होते हैं. दो टुकडे करते एक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ १४- पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तिपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ; तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ पंच पदेसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले, एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ दो दुपदेसिया खंधा, एग़यओ तिपदेसिए खंधे भवइ । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पए सिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिएखंधे भवइ,अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा ( परमाणु पुद्गल और एक छ प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक पंच प्रदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध तीन टुकडे करते. परमाणु पुद्गल के दो और (पांच प्रदेशात्मक स्कंध का एक अथवा एक परमाणु पुद्गल, एक द्विमदेशात्मक स्कंध व एक चार प्रदेशात्मक स्कंध, एक परमाणु पुद्गल दो तीन २ प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो द्विपदेशात्मक स्कंध और एक (तीन प्रदेशात्मक स्कंध चार टुकडे करते तीन परमाणु पुद्गल के तीन और चार प्रदेशात्मक स्कंध एक अथवा दो परमाणु पुद्गल के दो, द्विपदेशात्मक, स्कंध एक और तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक अथवा एक 48 वाखा शतकका चौथा उद्देशा १६९५ Page #1726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी भगति । पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिएखंधे भाद, अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदिसिया खंधा भवंति । छवि कजमाणे एगयओ पंचपरमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखंधे भवइ । सत्तहा कमाणे सत्तपरमाणुपोग्गला भवंति ॥ ६ ॥ अट्ठ परमाणुपोग्गला पुच्छा ? गोयमा! आठ पदेसिएखंधे भवइ, जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ सत्त पदे एवंधे भवइ, अहवा-एगयओ दुपदेसिएखंधे भवइ, एगयओ छप्पएसिएखंधे भव, अहवा-एगयओ तिपएसिएखंधे एगयओ पंचपदेसिएखंधे भवइ अहवा दो परमाणु उरेल और तीन द्विप्रदेशात्मक स्कंध. पांच टुकडे करते एक तरफ चार परमाणु पुद्गल और एक सरफ तो प्रदेशात्मक स्कंध एक, अथवा तीन परमाणु पुद्गल के तीन और दो द्विपदेशात्मक स्कंध छ करते पांच पर "गु पुद्गल के पांच और द्विप्रदेशात्मक स्कंध का एक, मात टुकडे करते सात परमाणु पुद्गल के सात ॥ ॥ अव आठ परमाणु पुद्गल की पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! आठ प्रदेशात्मक स्कंध होता है। और उसके दो यावत् आठ टुकडे होते हैं. दो टुकड़े करते एक परमाणु पुद्गल और सात प्रदेशात्मक स्कंध एवं' द्विपदेशात्मक स्कंध एक और छ प्रदेशात्मक स्कंध एक, तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक और प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी, भावार्थ Page #1727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 __432 428 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती । मूत्र चउप्पदेसिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला भवंति, एगयओ छप्पदेसिएखंधे भवइ, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपदसिएखंधे, एगयओ चउप्पदेसिएखधे भवइ, अहवा एगयओ दो दुपदेसियाखंधा एगयओ चउप्पदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिएखंधे भवइ, एगयओ दो पदसियाइं खंधाई भवति । चउहा कजमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगया पचपदेसिएखधे भवइ, अहवा एगयओ दोणि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखधे भवइ, एगयओ चउप्पदोसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणु पांच प्रदेशात्मक स्कंध एक, दो चार प्रदेशात्मक स्कंध होते हैं. तीन टुकडे करते दो परमाणु पुद्गल एक छ प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक दो प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो दो प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक दो प्रदेशात्मक स्कंध दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध. चार टुकडे । करते तीन परमाणु पुद्गल एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल एक दो प्रदेशात्मक स्कंध एक । बारहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ 98 Page #1728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी - www पोग्गला एगयओ दो तिपदेसिपाखंधा भवंति, अदवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति, एगया तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा-चत्तारि दुपदेसियाखंधा भवंति । पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणु पोग्गला एगयओ चउप्पदेसिएखंधे भवइ, अहवा ऐगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखंधे एगयओ तिपदेसिएखंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ तिण्णि दुपदेसियाखंधा भवंति छहा कजमाणे एगयओ पंचपरमाणु पोग्गला, एगयओ तिपदेसिएखंधे भवति अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु पोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवति । सत्तहा कजमाणे एगयओ छपरमाणुपोग्गला चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल दो दो प्रदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा चार द्विपदेशात्मक स्कंध होते हैं. पांच टुकडे करते चार परमाणु पुद्गल एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल तीन द्विपदेशात्मक स्कंध होते. हैं. छ टुकडे करते. पांच परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा चार परमाणु पुद्गल दो द्विप्रदेशात्मक स्कंध होते हैं. सात * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #1729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९१ एगयओ दुपदेसिएखंधे भवति ; अट्टहा कन्जमाणे अट्ट परमाणु पोग्गला भवंति ॥७॥ सत्र णव भंते ! परमाणु पोग्गला पुच्छा ? गोयमा ! जाव णवहा कज्जइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ अटुपएसिए खंधे भवइ, एवं एक्ककं संचारिएहिं जाव अहवा एगयओ चउप्पदेसिए खंधे, एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ सत्तपरसिए खंधे भवइ, अहवा. एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ छप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिएखंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति. अहवा एगयओ दुपदेसिए एगयओ तिपदेसिए एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ. अहवाभावार्थ टुकडे करते छ परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध होता है आठ टुकडे करते आठ परमाणु पुद्गल होते हैं ॥ ७ ॥ अब नव परमाणु पुद्गल की पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! नव प्रदेशात्मक स्कंध होता है और दा यावत् नव टुकडे होते हैं दो टुकडे करते एक परमाणु गुगल एक आठ प्रदेशात्मक स्कंध होता है ऐसे एकेक / * बढाना यावत् अथवा एक चार प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध होता है. तीन टुकडे करते । परमाणु पुद्गल एक सात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक छ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र १०%80% बारहवा शतक का चौथा उद्देशा 98. 488 Page #1730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी - तिणि तिपदेसिया खंधा भवंति । चउहा कजमाणे एगयओ तिण्णि परमाणु पोग्गला एगयओ छप्पएसिए खंधे भवति, अहवा-एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ पंच पदेसिए खंधे भवइ. अहवा-एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवति, एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति. अहवा-एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा एगयओ तिपदेसिए खधे भवंति । पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपदेसिए प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल दो चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक अथवा तीन तीन प्रदेशात्मक तीन कंध. चार टुकडे करते तीन परमाणु पुद्गल एक छ प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पदल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो। परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार पदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल दो द्विपदे-12 प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwnar 9. - पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त (भगवती) सूत्र 4800/ खंधे भवति. अहवा-एगयओ तिणि परमाणपोग्गला, एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति अहया एगयो दो परमाणु पोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खधा एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ चत्तारि दुपदेसिया खंधा भवंति । छहा कन्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला. एगयओ चउप्पदेसिए खंध भवइ, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ. अहवा-एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिणि दुपदेसिया खंधा भवंति. सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणु www AVANAVAJAVAN वारहवा शतकका चौथा उद्देशा * भावार्थ पुद्रल शात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध. पांच टुकडे करते चार परमाणु एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन परमाणु पुद्गल दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल दो द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल चार द्विपदेशात्मक स्कंध. छ टुकडे करते परमाणु पुद्गल एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा चार परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक Page #1732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पोग्गला, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति । अट्टहा कन्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, । णवहा कज्जमाणे णव परमाणुपोग्गला भवंति ॥८॥ दस भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा ? गोयमा ! जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ णव पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगथओ अट्ठ पएमिए खंधे भवइ. एवं एक्वेकं संचारैति जाव अहवा दो पंचपदेसिया खंधा भवंति । तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अट्ठपदेसिए प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन परमाणु पुद्गल तीन द्विपदेशात्मक स्कंध. सात टुकडे करते छ परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा पांच परमाणु पदल दो दिप्रदेशात्मक स्कंध आठ टुकडे करत सात परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध, नब टुकडे करते नव परमाणु पुद्गल ॥८॥ अव दश परमाणु पुद्गल की पृच्छा करते हैं. अहो गौतम ! दश प्रदेशात्मक एक स्कंध होता है. इस के दो यावत् दश टुकडे होते हैं. जब दो टुकडे होते हैं तब एक परमाणु पुद्गलव एक नव प्रदेशात्मक स्कंध, एका देशात्मक स्कंध व एक आठ प्रदेशात्मक स्कंध यों एक २ बढाते यावत् दो पांच प्रदेशात्मक स्कंध. तीन * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्यालयसादजी * भावार्थ Page #1733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 १७०३ v vvvvvvM 4282 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ सत्तपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपदेसिए खंधे __ भवइ, एगयओ छप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ चउप्पदेसिए खंधे, एगयओ पंच पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिएखंधे, एगयओ तिपदेसिएखंधे एगयओ पंचपदेसिएखंधे भवइ अहवा एगयओ दुपदेसिएखंधे एगयओ. दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति, अहवा-एगयओ दो तिपदेसिया खंधा एगयओ चउप्पदसिए खंधे भवइ । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ सत्तपदेसिएखंधे, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ टुकडे करते दो परमाणु पुद्गल व एक आठ प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा एक परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक सात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक छपदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक चार प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक 3 द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक अथवा एक द्विपदेशात्मक स्कंध, दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध । __top बारहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ AANAANANvvvvvvvvv Page #1734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी दुपदेसिएखंधे एगयओ छप्पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिएखंधे, एगयओ पंचपदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणु पोग्गला, एगयओ दो चउप्पएसियाखंधा भवंति, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपदेसिएखंधे, एगयओ तिपदेसिएखंधे एगयओ चउप्पदसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिणि तिपदेसियाखंधा भवंति, अहवा एगयओ तिण्णि दुपदेसियाखंधा एगयओ चउप्पदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो दुपदेसियाखंधा एगयओ दो तिपदेसियाखंधा भवंति, । पचहा कजमाणे एगेयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ छप्पदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला चारटुकडे करते तीन परमाणु पुद्गल एक सात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक छ प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल दो चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा एक परमाणु पुद्गल तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन दो प्रदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 46 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अहवा एगयओ दुपदेसिएखंधें भवइ एगयओ पंचपएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिएखंधे, एगयओ चउप्पएसिएखंधे भवइ, एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति अहवा एगओ परमाणुपले 'एगओ तिणि दुपदेसिया खंधा, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा पंच दुपदेसिया खंधा भवंति । छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला दो द्विपदेशात्मक स्कंध दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध पांच टुकडे करते. चार परमाणु पुद्गल एक छ प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा तीन परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक पांच प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा तीन परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध एक चार मदेशात्मक स्कंध, अथवा दो परमाणु पुद्गल दो द्विपदेशात्मक स्कंध एक चार प्रदेशात्मक स्कंध, दो परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध, दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध, | अथवा एक परमाणु पुद्गल, तीन द्विपदेशात्मक स्कंध एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा पांच द्विपदेशात्मक स्कंध छ टुकडे करते पांच परमाणु पुद्गल और पांच प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा चार परमाणु पुद्गल, एक बारहवा शतकका चौथा उद्देशा 88-498 १७०५ Page #1736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०६ 48 अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ , दुपदेसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु पोग्गला, एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ तिष्णि परमाणु पोग्गला, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ चत्तारि दुपदेसिया खंधा भवंति, । सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छपरमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, अहवाएगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहबा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ तिणि दुपदेसिया खंधा द्विपदेशात्मक स्कंध और एक चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा चार परमाणु पुद्गल और दो तीन प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन परमाणु पुद्गल. दो द्विप्रदेशात्मक स्कंध और एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा दो, परमाणु पुद्गल चार द्विपदेशात्मक स्कंध. सात टुकडे करते छ परमाणु पुद्गल और चार प्रदेशात्मक स्कंध अथवा पांच परमाणु पुद्गल, एक द्विपदेशात्मक स्कंध और एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध, चार परमाणु पुद्गलई. तीन द्विपदेशात्मक स्कंध. आठ टुकडे करते सात परमाणु पुद्गल और एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा है *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ Page #1737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 4880 भवंति । अट्टहा कजमाणे एगयओ सत्तपरमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे। भवइ, अहवा एगयओ छ परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवति । णवहा कज्जमाणे एगयओ अट्ठपरमाणुपोग्गला एगयओ दुषदेसिए खंधे भवइ । दसहा कजमाणे दसपरमाणुपोग्गला भवंति ॥ ९॥ संखेजाणं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति एए किं भवंति ? गोयमा ! संखेजपएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि जाव दसहावि संखेजहावि कजइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ संखेजपएसिए छ परमाणु पुद्गल व दो द्विपदेशात्मक स्कंध, नव टुकड़े करते आठ परमाणु पुद्गल और एक द्विपदेशात्मक स्कंध. और दश टुकडे करते दश परमाणु पुद्गल ॥ ९ ॥ संख्यात प्रदेश एकषित करने से संख्यात प्रदे-10 शात्मक स्कंध होता है और इस के दो यावत् दश यावत् संख्यात टुकडे होते हैं. दो टुकडे करने से एक परमाणुपुद्गल एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक द्विपदेशात्मकस्कंध एक संख्या प्रदेशात्मक स्कंध ऐसेही तीन चार यावत् दश प्रदेशात्मक स्कंध व एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध और दो संख्यात प्रदेशात्मक www 388 बारहवा शतक का चौथा उद्देशा k-4882 488 Page #1738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०८ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 खंधे, एवं जाव अहवा एगयओ दसपदेसिएखंधे भवइ, एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा दो संखेज पएसियाखंधा भवंति । तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ ' दुपदेसिएखंधे एगयओ संखेज पदेसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिएखंधे एगयओ संखेज पदेसिएखंधे भवइ एवं जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिएखंधे एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो संखेज पएसियाखंधा, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो संखेज पएसियाखंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ दसपदेस्कंध, तीन टुकडे करने से दो परमाणु पुद्गल एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा एक परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध, एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक परमाणु पुद्गल, एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध व एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही एक परमाणु पुद्गल एक दश प्रदेशात्मक स्कंध एक संख्यात प्रदे स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल दो संख्यात प्रदेशात्मक स्कंधअथवा एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध दो संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही एक दश प्रदेशात्मक स्कंधदोसंख्यात प्रदेश त्मक स्कंध अथवा तीनं संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8: ७०९ पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 42800 सिएखंधे एगयओ दो संखेज पएसियाखंधा भवंति । अहवा तिण्णि संखेज पएसिया खंधा भवंति ॥ चउहा कजमाणे एगयओ तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखधे, एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपदेसिएखंधे, एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ ॥ एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दसपएसिएखंधे, एगयओ संखेजपएसिएखंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति ॥ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिएखंधे एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा चार टुकडे करते तीन परमाणु पुद्गल व एकसंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदे शालक स्कंध एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, दो परमाणु पुद्गल एक तीन प्रदेशात्मक स्कंध, एक संख्यात, प्रदेशात्मक स्कंध ऐसेही दो परमाणु पुद्गल एक दश प्रदेशात्मक स्कंध एकसंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा दो परमाणु पुद्गल दो संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा एक परमाणु पुद्गल, एक . द्विपदेशात्मक स्कंध दो संख्यात प्रदेशात्मकस्कंध इस क्रमसे एक परमाणुपुद्गल एक दशप्रदेशात्मकस्कंध दो संख्यात प्रदेशात्मकस्कंध बारहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ ११४ - Page #1740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१० 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भवंति, एवं जाव, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिएखंधे, एगयओ दो संखेज पएसियाखंधा भवंति। अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले,एगयओ तिण्णि संखेज पएसियाखंधा भवंति अहवा एगयओ दुपदेसिएखंधे,एगयओ तिण्णि संखेज पएसियाखंधा भवंति, एवं जाव, अहवा एगयओ दसपएसिएखंधे एगयओ तिण्णि संखेज पएसिया खंधा भवंति ॥ एवं एएणं कमेणं पंचसंजोगोवि भाणियव्यो जाव णवसंजोगा ॥ दसहा कज्जमाणे एगयओ णवपरमाणुपोग्गला एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवइ, अहवा एगयओ अट्ट परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए एगयओ संखेज पएसिएखंधे भवहाएवं एएणं कमेणं एकेको पूरेयव्वो जाव अहवा एगयओ दसपएसिएखधे भवइ एगयओ अथवा एक परमाणु पुद्गल तीन संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक द्विपदेशात्मक स्कंध तीन संख्यातप्रदेशात्मक स्कंध यावत् एक दश प्रदेशात्मक स्कंध तीन संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध इस तरह इस क्रम से पांच छ यावत् नव तक कहना. अब दश टुकडे करते नव परमाणु पुद्गल एक संख्यात प्रदेशी आठ परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. इस क्रम से एक दश त्मिक स्कंध नव संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दश संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. संख्यात * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र त्रसंखेज्ज एसिया खंधा भवंति, अहवा दससंखेज्ज पएसिया खंधा भवंति | संखेज्जहा कज्जमाणे संखेजा परमाणुपोग्गला भवति ॥ १० ॥ असंखेज्जहाणं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, एगयओ साहणित्ता किं भवंति ? गोयमा ! असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दुहावि जाव दसहावि, संखेज्जहावि असंखेज्जहात्रि कज्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे भवइ, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ असंखेज्ज संख्यात परमाणु पुद्गल जानना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! असंख्यात पुद्गल एकत्रित होने से क्या होता है ? अहो गौतम ! असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध होता है. उस का विभाग करने से दो तीन यावत् दश संख्यात असंख्यात विभाग होते हैं. अब दो विभाग करने से एक परमाणु पुद्गल एक असंख्यात प्रदेशालक स्कंध, एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही एक दश प्रदेशात्मक स्कंध {एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक संख्यात प्रदेश/त्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा दो असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. तीन टुकडे करने से दो परमाणु पुद्गल एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा 43- बारहवा शतक का चौथा उद्देशा 4 १७११ Page #1742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwww अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्पजी 22 पएसिए खंधे भवइ, अहवा दो असंखेज पएसिया खंधा भवंति, । तिहा कज्जमाण एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ परमाणुषोग्गले एगयओ दुपदेसिए एगयओ असंखेज पएसिए खंधे भवति एवं जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दस पएसिए खंधे एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे एगयओ असंखेज पएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दो असंखेज पएसिया खंधा भवंति,अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो अनखेज पदेसिया खंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ संखेज पएसिए खंधे एक परमाणु पुद्गल एक द्विपदेशात्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही एक * राणु पुद्गल एक दश प्रदेशात्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा एक परमाणु पुद्गल एक मंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. अथवा एक परमाणु पुद्गल दो असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक द्विपदेशात्मक स्कंध दो असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध यावत् एक दश प्रदेशात्मक स्कंध दो असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध दो असं-17 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादी भावार्थ Page #1743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती सूत्र एगओ दो असंखेज पदेसिया खंधा भवंति अहवा तिणि असंखेज्ज पएसिया खंधा भवंति । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणु पोग्गला एगयओ असंखेज्ज पएसिएखंधे भवइ, एवं चउक्क संजोगो जात्र दससंजोगो; एवं जहेव असंखेज्ज पि यस्स णवरं असंखेज्जयं एगं अब्भहियं जाणियव्त्रं जाव अहवा दस असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति, संखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्ज एसए खंधे भवइ, अहवा एगयओ संखेज्जा दुपएसिया खंधा एगयओ असंखेन एसिए खंधे भवइ, एवं जात्र अहवा एगयओ संखेज्जा दसपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपए सिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ संखेज्जा संखेज्ज पएसिया खंधा एगयओ ख्यात प्रदेशात्मक स्कंध अथवा तीन असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध चार टुकडे करते तीन परमाणु पुद्गल एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही संपूर्ण चार संयोग यावत् दश संयोग का जैसे संख्यात प्रदेशी का कहा वैसे ही असंख्यात प्रदेशी का कहना. मात्र इन में असंख्यात मदेशी जानना यावत् दश असं ख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. अब संख्यात टुकडे करते संख्यात परमाणु पुद्गल एक असंख्यात प्रदेशा मक स्कंध अथवा संख्यात द्विपदेशात्लक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, ऐसे ही संख्यात दश प्रदेशा ९०३ २०४ बारहवा शतक का चौथा उद्देशा 40 १७१३ Page #1744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी असंखेज पएसिए खंधे भवइ, अहवा संखेजा असंखेज पएसिया खंधा भवंति, असंखेजहा कजमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति ॥ १० ॥ अणताणं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवंति ? गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि तिहावि जाब दसहावि संखेजहा असंखेजहा अणंतहानि कज्जइ, दुहा कन्जमाणे एगयओ परमाणुगोग्गले एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ, एवं जाव अहवा दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति, । तिहाकजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ, जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ असंखेज्ज त्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, संख्यात संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक असंख्यात प्रदेशास्मक स्कंध अथवा संख्यात असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध. असंख्यात टुकडे करने में असंख्यात परमाणु पुद्गल होते हैं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! अनंत परमाणु पुद्गल एकत्रित होने से क्या होता है ? अहो । गौतम ! अनंत परमाणु पुद्गल मीलने से अनंत प्रदेशात्मक स्कंध होता है. उस के विभाग करने से दो तीन यावत् दश संख्यात असंख्यात व अनंत विभाग होते हैं. दो विभाग करने से एक परमाणु पुद्गल - - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. ११पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 408 पएसिए खंधे एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले . एगयओ दो अणंतपदसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति, एवं जाव एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति, अहवा एगयओ संखेज पएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति, अहग एगयओ असंखेज पएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति, अहवा तिण्णि अणंतपएसिया खंधा भवंति, । चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्ण परमाणुपोग्गला एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ, एवं एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध एक द्विपदेशात्मक स्कंध, एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध ऐसे ही दो अनंत प्रदे शात्मक स्कंध होवे. तीन विभाग करने से दो परमाणु पुद्गल एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक है परमाणु पुद्गल एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध यावत् एक परमाणु पुद्गल एक असं-300 ख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अथवा एक परमाणु पुद्गल दो अनंत प्रदेशात्मक स्कंध एक द्विप्रदेशात्मक स्कंध दो अनंत प्रदेशात्मक स्कंध यावत् एक दश प्रदेशात्मक स्कंध दो अनंत प्रदेशात्मक * स्कंध एक संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध दो अनंत प्रदेशात्मक,एक असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध दो अनंत प्रदे-है बारहवा शतकका चौथा उद्देशा भावार्थ Page #1746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी चक्कसंजोगो जाव असंखेज्ज संजोगो. एए सव्वे जहेर असंखेजाणं भणिया तहेव जाव अणताणाव भाणियव्वं, णवरं एवं अनंतगं अब्भहियं भाणियव्वं जाव अहवा एगयओ संखेज्जा संखेज्ज पएसिया खंधा एगयओ अनंतपए सिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ संखेज्जा असंखेज़पएसिया खंधा एगयओ अनंत एसिए खंधे भवइ, अहवा संखेज्जा एसिया खंधा भवति, असंखेजहा केजमाणे एगयओ असंखेजा परमाणुपोग्गला एमओ अणतपसि खंधे मवई, अहवा एगयओ असंखेजा दुपएसिया खंधा एगयओ अणतपएसिए खंधे भवइ, जाव अहवा एगयओ असंखेजा संखेज्जपएसिया (शात्मक स्कंध अथवा तीन अनंत प्रदेशात्मक स्कंध चार विभाग करने से तीन परमाणु पुद्गल एक अनंत ( प्रदेशात्मक स्कंध. इसी क्रम से चार पांच यावत् संख्यात संयोग जैसे असंख्यात का कहा वैसे ही कहना विशेष में यहां अनंत बोल कहना. यावत् संख्यात संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध, एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध, अथवा संख्यात असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अथवा संख्यात अनंत प्रदेशात्मक स्कंध, असंख्यात विभाग करने से असंख्यात परमाणु पुद्गल एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध, असंख्यात द्विपदेशात्मक स्कंध यावत् असंख्यात संख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध असं -} * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १७१६ Page #1747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ maramanand खंधा एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ असंखेजा असंखेजपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ,अहवा एगयओ असंखेजा अपंतपएसिया खंधा भवंति। अणंतहा कज्जमाणे अणंता परमाणुपोग्गला भवंति(५७५)॥१३॥ एएसिणं भंते! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाएणं अणंताणं पोग्गलपरियाणं अणंताणता पोग्गल परियटा समणुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया? हंता गोयमा! एएसिणं परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणु जाव मक्खाया ॥ १२ ॥ कइविहेणं भंते! पोग्गलपरिय? पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरिय? पण्णत्ते, तंजहा ओरालिय पोग्गलपरियट्टे, वेउव्विय भावार्थ ख्यात. असंख्यात असंख्यात प्रदेशात्मक स्कंध एक अनंत प्रदेशात्मक स्कंध अथवा असंख्यात अनंत प्रदेशात्मक कंध. अनंत विभाग करने से अनंत परमाणु पुद्गल होते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या भगवन्तने ऐसा कहा है कि परमाणु पुद्गलों के संहनन (एकत्रित मीलना) व भेद (पृथक होना) के योग से अनंत को अनंत गुने करे इतने पुद्गल परावर्त जानना? हां गौतप! परमाणु पुद्गलों के संहनन व २० भेद के योग से अनंतगुने करे इतने पुद्गल परावर्त होते हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन ! पुद्गल परावर्त कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! सात पुद्गल परावर्त कहे हैं उदारिक पुद्गल परावर्त, चक्रेय पुद्गल परावन, तेजस् पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 408 880% वारहवा शतक का चौथा उद्देशा । Page #1748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी + पोग्गलपरियटे, तेया पोग्गलपरियटे, कम्मापोग्गलपरियट्टे, मण पोग्गलपरिय? वइ पोग्ग र परियट्टे, आणापाणु पोग्गल' रियट्टे ॥ १३ ॥ जेरइयाणं भंते ! कइविहे पोग्गलपरिय? पण्णत्ते ? गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरिय? पण्णत्ते तंजहा ओरालिय पोग्गलपरियट्टे, वेउब्धिय पोग्गलपरियटे जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, ॥ एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १४ ॥ एगमेगस्सणं भंते ! णेरइयस्स केवइया ओरालिय पोग्गलपरियट्टा अतीता? गोयमा! अणंता, केवइया पुरक्खडा? गोयमा! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखजावा पुद्गल परावर्त, कार्माण पुद्गल परावर्त, मन पुद्गल परावर्त, वचन पुद्गल परावर्त व श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने पुद्गल परावर्त कहे हैं ? अहो गौतम ! नारकी को मात पुद्गल परावर्त कहे हैं ऐसे ही उक्त सातों पुद्गल परावर्त वैमानिक तक जानना. ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! एक २ नारकी को कितने उदारिक पुद्गल परावर्त अतीत काल में हुए ? अहो गौतम ! अतीत काल में एक २ नारकी को उदारिक के अनंत पुल परावर्त हए क्यों कि अतीत काल व जीव दोनों अनादि हैं. अहो भगवन् ! एक नारकी आगे कितने उदारिक पुद्गल परावर्त करेंगे ? अहो गौतम ! जो दूर भव्य 48 अनुवादक-बालब्रह्मगरी मुनि श्री अमोलक भावार्थ * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - असंखेजावा अणंतावा ॥ एगमेगस्सणं भंते! असुरकुमारस्स केवइया ओरालिय पोग्गलपरियट्टा एवं चेव, एवं जाव वेमाणियस्स ॥ एगमेगस्सणं भंते! णेरइयस्स केवइया वेउव्विय पोग्गलपरियट्टा अतीता? गोयमा! अणंता एवं जहेव ओरालिय पोग्गलपरियटा तहेव बेउन्विय पोग्गलपरियहा भाणियध्वा, एवं जाव वेमाणियस्स ॥ एवं जाव आणाषाणु पोग्गलपरियटा, एए एगइया सत्तदंडगा भवंति ॥ २५॥ णेरइयाणं भंते! केवइया ओरालिय पोग्गलपरियहा अतीता? गोयमा! अणंता। भावार्थ अथवा अभव्य जीवहैं उनको पुद्गल परावर्त है और जो नरक से नीकलकर मुक्त सिद्ध होवेंगे अथवा जो संख्यात असं ख्यात भव में सीझनेवाले होंगे उनको पुद्गल परावर्त नहीं है क्योंकि पुद्गल परावर्त में अनंत भव होते हैं. जिस को पुद्गल परावर्त होता है उस को जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात व अनंत पुद्गल परावर्त होते हैं. अहो भगवन् ! एक २ असुर कुमार को कितने पुद्गल परावर्त कहे हैं ? अहो गौतम ! जैसे नारकी का कहा वैसे ही अमर कुमारका जानना. और ऐसे ही वैमानिकतक जानना. अहो भगवन् ! एक २०० नारकी का कितने वक्रेय पुद्गल परावर्त अतीत काल में हुए ? अहो गौतम ! अनंत पुद्गल परावर्त हुए. वगैरह जैसे उदारिक का कहा वैसे ही वैकेय का जानना. ऐसे ही श्वासोश्वास तक सातों पुद्गल परावर्त ॐका चौविस दंडक आश्री जानना ॥ १५ ॥ अहो भगवन् : समस्त नारकीने अतीत काल में कितने पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र ___4343 बारहवा शतकका चौथा उद्देशा ghota Page #1750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२० 47 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋजी केवइया पुरक्खडा? अणंता । एवं जाव वेमाणियाणं ॥ एवं वेउवियपोग्गलपरियहावि, एवं जाव आणापाणु पोग्गलपरियटावि जाव वेमाणियाणं एवं एए पोहत्तिया सत्तचउव्वीस दंडगा ॥ १६ ॥ एगमेगस्सणं भंते! णेरइयस्स गैरइयत्ते केवइया ओरालिय पोग्गलपरियटा अतीता? गोयमा! णत्थि एकोवि । केवइया पुरक्खडा? नत्थि एकोवि ॥ एगमेगस्सणं भंते! जेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया ओरालियपोग्गल परियट्टा एवं चेत्र. एवं जाव थणिय कुमारत्ते जहा असुरकुमारत्ते ॥ उदारिक पुद्गल परावर्त किए ? अहो गौतम ! सब नारकीने अतीत काल में अनंत पुदल परावर्त किये. अहो भगवन् ! आगे कितने उदारिक पुद्गल परापत करेंगे ? अहो गौतम ! अनंत पुद्गल परावर्त करेंगे ऐसे ही वैमानिक तक जानना. जैसे उदारिक का कहा वैसे ही वैक्रय आदि सब पुद्गल परावर्त का जानना ॥ १६॥ अहो भगवन् ! एक २ नारकीने 'नारकीपने कितने उदारिक पुद्गल परावर्त अतीत ल में किए? अहो गौतम! एक की नहीं किया क्योंकि नारकी में उदारिक शरीरका अभाव है. भगवन् ! आगामिक काल में कितने करेंगे ? अहो गौतम ! आगाभिक काल में एकभी नहीं करेंगे. क्योंकि नरक में उदारिक शरीर नहीं हैं. अहो भगवन् ! एक २ नारकी असुर कुमारपने कितने उदारिक पुद्गल परावर्त किये ? अहो गोतम ? एक नारकीने अमुर कुमारपने एकभी पुद्गल परावर्त किया नहीं है और करेंगे प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 40+ पंचमांग विवाहपत्ति ( भगवती ) सूत्र ॐॐॐॐ एगमेगरसणं भंते ! णेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गल परियट्टा अतीता ? अनंता, केवइया पुरस्खडा ? कस्सइ अत्थि कस्सइ णत्थि जस्सत्थि जहणेणं एकोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेज्जावा असंखेज्जावा अनंतावा एवं जाव मणुरसत्ते, वाणमंतर जोइसिय वैमाणियत्ते जहा असुरकुमारन्ते ॥ १७ ॥ एगमेगरसणं भंते ! असुरकुमारस्स रइयत्ते केवइया, ओरालियपोग्गल परियट्टा एवं जहा रइयरस वतव्वया भणिया तहा असुरकुमारस्सवि भाणियव्वा जाव माणि 2. भी नहीं ऐसे ही स्थनित कुमार तक सब भुवनपति का जानना. अहो भगवन् ! एक नारकीने पृथ्वीकायापने कितने उदारिक पुद्गल परावर्त अतीत काल में किये ? अहो गौतम ! अनंत उदारिक पुद्गल परावर्त अतीत काल में किये. अहो भगवन् ! आगामिक काल में कितने करेंगे ? अहो गौतम ! कितनेक करेंगे और कितनेक नहीं करेंगे जो करेंगे वे जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात व अनंत { पुद्गल परावर्त करेंगे. ऐसे ही मनुष्य तक जानना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असुर कुमार जैसे { कहना ||१७|| अहो भगवन् ! एक २ असुर कुमारने नारकीपने कितने उदारिक पुद्गल परावर्त किये ? अहो. गौतम ! जैसे नारकी का कहा वैसे ही असुर कुमार का जानना और ऐसे ही स्थनित कुपारतक सब बाह। शतकका चौथा उद्देशा +4+ १७२१ Page #1752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२२ यत्ते, एवं जाव थणियकुमारस्स, एवं पुढविकाइयस्सवि, एवं जाव वेमाणियस्स सब्गेर्सि एक्को गमओ ॥ १८ ॥ एगमेगस्सणं भंते ! णरइयस्स गेरइयत्ते केवइया वेउब्बियपोग्गल परियट्टा अतीता ? अणंता. केवइया पुरक्खडा ? एगुत्तरिया जाव अणंतावा, एवं जाव थाणियकुमारत्ते. पुढवीकाइयत्ते पुच्छा, णत्थि एक्कोवि केवइया पुरक्खडा ? णत्थि एक्कोवि. एवं जत्थ वेउब्विय सरीरं अस्थि तत्थ एगुत्तरियाओ, जत्थ णत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियव्वं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते ॥ १९ ॥ तेयापोग्गल परियटा कम्मापोग्गल परियहा सव्वत्थ एगुत्तरिया भाणियव्वा॥ भावार्थ भवनपति पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! एक नारकीने नारकीपने अतीत काल में कितने क्रेय पुद्गल परावर्त किये ? अहो गौतम ! अनंत पगल परावर्त किये और आगामिक काल में कितनेक करेंगे, कितनेक नहीं की करेंग. जो करेंगे वे एक दो तीन यावत् संख्यात, असंख्यात व अनंत करेंगे ऐसे ही स्थनित कुमारतक में है कहना. पृथ्वीकाया में वैक्रेय शरीर नहीं होने से वैक्रेय पुद्गल परावर्त नहीं है अब जिस को वैक्रेय । शरीर है उस को नारकी जैसे कहना और जिन को वैक्रेय शरीर नहीं है उन को पृथ्वीकाया जैसे 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #1753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांगविवाह पण्गत्ति (भगवती) सूत्र 9.280 मणपोग्गल परियट्टा सव्वेसु पंचिदिएसु एगुत्तरिया, विगलिंदिएसु णत्थि, वइ पोग्गल परियट्टा एवं चेव, णवरं एगिदिएसु णत्थि भाणियव्वा ॥ आणापाणु पोग्गल परियट्टा सव्वत्थ एगुत्तरिया एवं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते ॥ २० ॥ रइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवइया ओरालिय पोग्गल परियट्टा अतीता ? णत्थि, केवइया पुरक्खडा ? णत्थि एकोवि ॥ एवं जाव थणियकुमारत्ते ॥ पुढवीकाइयत्ते पुच्छा ? अणंता केवइया पुरक्खडा ? अणंता एवं मणुस्सत्ते, वाणमंतर जोइसिय वेमाणियत्ते जहा णेरइयत्ते. एवं सत्तवि पोग्गल परियट्टा भाणियव्वा, जत्थ अत्थि तत्थ अतीतावि पुरक्खडावि वैमानिक तक सब दंडक का कहना ॥ १९ ॥ तेजस व कार्माण पुद्गल का वर्णन मव को जघन्य एक है E दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात व अनंत कहना. मन पुद्गल परावर्त सब पंचेन्द्रिय में होता है वचन पुद्गल परावर्त एकेन्द्रिय वर्ज कर सब जीव म है और श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त सब जीवों में जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात अनंत तक जानना.॥२०॥ अहो भगवन् ! बहुत नारकीने नारकीपने अतीतकाल 3 में कितने उदारिक पुद्गल परावर्त किये ?अहो गौतम ! बहुत नारकीने अतीत में नहीं किये और आगामिक काल में नहीं करेंगे क्यों की उदारिक शरीर उन में नहीं हैं ऐसे ही स्थनित कुमार तक जानना." ११.१ बारहवा शतक का चौथा उद्देशा 40 भावार्थ 48 Page #1754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२४ १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अगंता भागियवा; जस्स नत्थि तस्स दोवि णत्यि भाणियव्वा, जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। केवइया आणापाणु पोग्गल परियट्टा अतीता?अणंता । केवइया पुरक्खडा? अणता ॥२१॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ओरालिय पोग्गल परिय? ? ओरालिय पोग्गल परिय? गोयमा!जणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालिय सरीरपाउग्गाई दव्वाइं ओरालिय सरीरत्ताए गहियाइं बहाई पुट्ठाई कडाइं पट्टवियाई, निविट्ठाई, अभिणिविट्ठाई, अभिसमण्णागयाइं परियागयाइं परिणामियाई, णिजिण्णाई णिसिरियाई णिसिट्ठाइं भवंति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ ओरालिय पोग्गलपरिय? पृथ्वी कायापने बहुत नारकीने अतीत काल में अनंत उदारिक पुद्गल परावर्त किये और आगामीक कालमें करेंगे ऐसे ही मनुष्य तक जानना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना. ऐम ही सातों पुल परावर्त जानना. उन में जिनको जो है उनको अतीत व अनागत काल में अनंत पुद्गल परावर्त कहना. ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! उदारिक पुद्गल परावर्त किस तरह कहा गया है ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर में रहा हुवा जीवने उदारिक शरीर के योग्य द्रव्य उदारिक शरीरपने ग्रहण किये, बांधे, स्पर्श, किये, रखे, मीलाये, परिणमाये, निर्जराये, व छोडे इस से उदारिक पुद्गल परावर्त कहा गया. ऐसे ही * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #1755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28t anmmmmmmmmmmmm १७२५ 428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र . एवं वेउब्बियपोग्गल परियटेवि णवरं वेउब्बिय सरीरवट्टमाणेणं वेउब्धियसरीर पाउग्गाइंसेसं तंचेव । एवं जाव आणापाणु पोग्गलपरियट्टेवि,णवरं आणापाणु पाउग्गाइं सव्वदन्वाइंआणा. पाणुत्ताए सेसं चेव ॥२२॥ओरालिय पोग्गलपरियटेणं भंते ! केवइयं कालं णिवत्तिजइ? । गोयमा ! अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं एवइय कालस्स णिव्वत्तिज्जइ ॥ एवं वेउव्विय पोग्गलपरियटेवि, एवं जाव आणापाणु पोग्गलपरियझवि ॥ २३ ॥ एयस्सणं भंते! ओरालिय पोग्गलपरियट्टणिवत्तणा कालस्स, वेउब्बियपोग्गल जाव आणापाणु पोग्गलपरियट्ट णिव्वत्तणा कालस्स कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहियावा? वैक्रेय पुद्गल परावर्तका जानना परंतु इममें वैक्रेय शरीर योग्य पुद्गल ग्रहण किये यावत् छोडे कहना. ऐसे ही श्वासोश्वास तक जानना ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! उदारिक पुद्गल परावर्त की कितने काल में निवृत्ति होती है ? अहो गौतम ! अनंत काल में निवृत्ति होती है क्योंकि जीव एक है और पुद्गल अनंत है ऐसे ही वैक्रेय पुद्गल परावर्त यावत् आन पान पुद्गल परावर्त का जानना ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! इन। उदारिक पुद्गल परावर्त निवर्तन काल, वैक्रेय पुद्गल परावर्त निवर्नन काल यावत् श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त का निवर्तन काल में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडा कार्माण भावाथ वारहवा शतकका चौथा उद्देशा Society Page #1756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२६ गोयमा! सव्वत्थोवे कम्मोग्गलपरियह णिवत्तणा काले, तेया पोग्गलपरियह णिवत्तणाकाले अणंतगुणे, ओरालिय पोग्गलपरियह णिवत्तणाकालेः अणंतगुणे आणापाणु पोग्गल परियट निव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मणपोग्गल परियटणिन्वटणाकाले अणंतगणे, वइपोग्गल परियट्ट णिव्वदृणाकाले अणंतगुणे, वेउन्विय पोग्गल परियह णिव्वत्तणाकाले अगंतगुणे ॥ २४ ॥ एएसिणं भंते ! ओरालिय पोग्गल परियटाणं जाव आणापाणु पोग्गल परियाणय कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहियावा ? गोयमा! सम्वत्थोवा वेउव्विय पोग्गल परियटा, वइपोग्गल परियट्टा अणंतगुणा, मणपोग्गल पुद्गल परावर्त निवर्तन काल क्यों कि कार्माण पुद्गल बहुत सूक्ष्म परमाणु से बनते हैं एक वक्त में बहुत ग्रहण होते हैं सब नरकादि पदमें रहनेवाले जीव समय२ में ग्रहण करते हैं इस से तेजस पुद्गल निवर्तन काल में अनंत गुना, इस से उदारिक पुद्गल निवर्तन काल अनंत गुना इस से श्वासोश्वास पुद्गल निवर्तन काल अनंत गुना इस से मन पुद्गल परावर्तन काल अनंत गुना इस से वचन पुद्गल परावर्तन काल अनंत गुना | स से वैकेय पदल परावर्त काल अनंत गना ॥ २४॥ अहो भगवन ! इन उदारिक यावत श्वासोश्वास * पुद्गल परावर्त में कौन किस से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडा वैफ्रेय पुद्गल बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8+ प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भाव Page #1757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १७२७ 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 488 रा० राजगृह में जा० यावत् ए० ऐसा व० बोले अ० अथ भं० भगवन् पा. प्राणातिपात मु० मृषा . | वाद अ० अदत्तादान मे० मैथुन प० परीग्रह ए. इन का क० कौनसा व वर्ण क● कौनसा गंध क.2 परियटा अणंतगुणा, जाव आणापाणुपोग्गल परियट्टा अणंतगुणा ; ओरालिय पोग्गल परियट्टा अणंतगुणा, तेयापोग्गल परियटा कम्मापोग्गल परियटा अणंतगुणा ॥ २५ ॥ ___ सेवं भंते भंते त्ति ! भगवं जाव विहरइ ॥ दुवालसम सयस्सय चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ४ ॥ * रायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परावर्त इससे वचन पुद्गल परावर्त अनंतगना इनसे मनपुद्गल परावर्त अनंतगुना इससे श्वासोश्वास पुद्गल परावर्त अनंतगुना इमसे उदारिक पुद्गल परावर्त अनंत गुना,इससे तेजस पुद्गल परावर्त अनंत गुना,इससे कार्माण पुद्गक परावर्त अनि गुना ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! आप के वचन सस हैं कहकर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवंत महावार स्वामी को वंदना नमस्कारकर तप संयम से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. यह बारहवा शतक का चौथा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ ४॥ चतुर्थ उद्देशे में पुद्गल का कथन किया. पुद्गल रूपी अरूपी दोनों होते हैं इसलिये पांचवे उद्देशे में रूपी अरूपी दोनों का कथन करते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर । 4860 बारहवा शतकका चाथा उद्देशा 987 Page #1758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १७२८ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी माने श्रा अमोलक ऋषिजी कौनसा रम का कौनसा स्पर्श प. प्ररूपा गो० गौतम पं० पांच वर्ण दुः दोगंध पं० पांचरस च. चार * स्पर्श १० प्ररूपा ॥१॥ अ. अथ भं• भगवन् को क्रोध को कोप रो० रोष दो० द्वेष अ० अक्षमा संक संज्वलन क० कलह चं० रौद्रहोना भ० भांडना वि. विवाद करना ए० इन का क० कौनसा वर्ण जा. यावत् क०कौनसा स्पर्श गोगौतम पं० पांचवर्ण पं०पांचरस दुःदोगंध च चार स्पर्श प०प्ररूपा सरल शब्दार्थ परिग्गहे, एसणं कइवण्णे,कइगंधे, कइरमे, कइफासे, पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे चउफासे पण्णत्ते ॥१॥अह भंत कोहे, कोवे,रोसे,दोसे, अक्खमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के,भंडणे,विवादे,एसणं कइवण्ण जाव कइफासे प०?गोयमा! पंचवण्णे,पंचरसे दुगंधे, चउफासे पण्णत्ते ॥२॥अह भंते ! माणे,मदे,दप्पे,थंभे,गव्वे, अणुक्कोसे परपरिवाए; उक्कोसे, स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछनेलगे कि अहो भगवन् प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान,, मैथुन व परिग्रह इन पांच पापस्थान में कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श पाते हैं ? अहो गौतम ये पापस्थान पुद्गल रूप होने से पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व चार स्पर्श यो १६ बोल पाते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, अक्षमा, संचलन, कलह, पांडालपना, भंडन और विवाद इन में कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस चार स्पर्श कहे हुवे हैं ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! मान । अहंकार रखना ) मद (नशो ज्यों छके) दर्प (डरता रहे,) ४ स्थंभ (स्थंभ। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२९ भावार्थ 28 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र • अवकासे, उण्णए उण्णामे दुण्णामे एसणं कइवण्णे ४ पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे जहा कोहे तहेव ॥ ३ ॥ अह भंते ! माया, उवही, नियडी, वलए, गहणे, णूमे, कक्के, कुरुए, झिम्मे, किव्विसे, आयरणया, गृहणया, वंचणया, पलिउंचणया, सातिजोगेय, एसणं कइवण्णे ४ पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे जहेव कोहे ॥ ४ ॥ जैसा करडा रहना ५ गई [ अन्य से कीर्ति कराना ] ६ अनुक्रोश (अन्य को हलका करना) ७ परपरिवाद अन्य की निन्दा करना ८ उत्कर्ष अपनी श्रेष्ठता क्तलाना ९ अपकर्ष अपनी लघता छिपाना १० उन्नत [नमना नहीं] ११ उन्नाय जो आकर नम्मा होले उमए गर्व करे] १.२ दन्नाम (दुष्टपने नये) (ये मानके बारह पर्याय वाची नाम कहे हैं.) उन में कितने वर्ण यावत् स्पर्श कहे हैं. ? अहो गौतम ! पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श यो १६ बोल क्रोध जैसे कहना. ॥ ३ ॥ १ .माया २ उपाधि [ समीप जाकर ठगना ] ३. नियडी कार्यकर छिपाना] ४ वलय (वक्र रहना) ५ गहन (छिपी हुई) ६ णूम गुप्ताश्रयी] ७ कर्कश (कठोर रहना १८ करात [ कुचेष्टा ] करना २ झिम (अन्य को ठगना) १० किल्विष ( मायावी किल्विष में उत्पन्न होवे ) १११ आदरणता, १२ गुह्य १३ वंचन १४ प्रतिकुंचन [सरल वचन का खंडन करना ] १५ शाति योग । (विश्वास रहित) यह माया के १५ पर्याय वाची नाम कहे हैं. अहो भगवन् इन पंदरह में कितने वर्ण* गंध रस व स्पर्श पावे ? अहो गौतम ! क्रोध की तरह १६ बोल पाते हैं. ॥ ४॥ लोभ इच्छा, मूर्चा, । ___-380*बारहवा शतकका पांचवा उद्देशा ४.४ Page #1760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * अह भंते ! लोभे, इच्छा, मुच्छा, कंखा, गेही, तण्हा, भिज्झा, अभिज्झा, आसासणया, पत्थासणया, लालप्पणया, कामासा, भोगासा, जीवियासा, मरणासा, नंदिरागे, एसणं कइवण्णे ४ पण्णत्ते? गोयमा! जहेब कोहे ॥ ५॥ अह भंते! पेजे दोसे, कलहे जाव मिच्छादसणसल्ले एसणं कइवण्णे ४ ५०? जहेव कोहे तहेव जाव चउफासे ॥६॥ अह भंते! पाणाइवायरमणे जाव परिग्गहवरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादसण सल्लविवेगे एसणं कइवण्णे जाव कइफास पण्णत्ते ? गोयमा! अवणे, अगंधे, अरसे अफासे, पण्णत्ते ॥ ७ ॥ अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भेद्य, अभेद्य, आशासनता (अन्य के अर्थ की आशा) प्रार्थना, लालपनता, कामाशा भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदीराग समृद्धि होने से हर्ष इन में अहो भगवन् ! कितने वर्ण गंध रस व स्पर्श कहे हव हैं ? अहो गौतम ! क्रोध जैसे १६ बोले इस में कटे हैं.॥६॥ अहो भगवन ! राग द्वेष कलह यावत् मिथ्या दर्शन शल्य में कितने वर्ण गंध रम स्पर्श कहे हैं ? अहो गौतम ! क्रोध जैसे १६ बोल कहे हुवे हैं. ॥ ६ ॥ अहो भावन् : प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध का त्याग यावत् मिथ्या दर्शन शल्यका त्याग में कितने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श कहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! वर्ण, गंध, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३१ पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 488 भावार्थ एसणं कइवण्णा ४ पण्णत्ता? तंचव जाव अफासा पण्णता ॥ ८॥ अह भंते! उग्गहे ईहा अवाए धारणा एसणं कइवण्णा ४ पण्णत्ता? एवंचेव जाव अफासा पण्णत्ता ॥ ९ ॥ अह भंते ! उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परकम्मे एसणं कइवणे ४ पण्णत्ते? तंचेव जाव अफासे पण्णत्ते ॥१०॥ सत्तमेणं भंते! उवा संतरे कइवण्णे ४ पण्णत्ते ? तंचव जाव अफासे पण्णत्ते ॥ ११ ॥ सत्तमेणं भत्ते तणुवाए कइवण्णे ४ ५०? जहा पाणाइवाए णवरं जाव अटफासे पण्णत्ते ॥ एवं जहा रस, स्पर्श उन में नहीं हैं ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! उत्पाति वैनयिकी, कामिकी व परिणामिकी इन में कितने वर्ण, गंध रस व स्पर्श पाते हैं ? अहो गौतम ! इन में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नहीं पाते हैं क्यों की वे ही जीव परिणाम है. ॥ ८ ॥ अहो भावन् ! अवग्रः ईहा. अपाय व धारणा इन में कितने वर्ण, गंध, रम व स्पर्श कहे हैं ? अहो गौतम ! इ7 में वर्ण गंधादि नहीं कहे हैं ॥९॥ अहो. गान् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कारपर क्रम में कितो वर्णादि कहे हैं ? अहो गौतम ! इ में वर्ण गंधादि नहीं कहे हैं ॥१०॥ अहो भगान् ! सातवी नरक नीचे मात्वा आकाश अंतर में कितने वर्ण गंधादि कहे हैं ? अहो गौतम !! ७ वर्ण गंधादि नही हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! सातवा तात में कितने वर्णादि कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच वर्ण, दोगंव, पांच रस व आठ स्पर्श कहे हैं. जैसे सातवा तनुगत का कहा वैसे सातवा बारहवा शतक का पांववा उद्देशा 8 Page #1762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए, घणोदही, पुढवी ॥ छठे उवासंतरे अवण्णे ॥ तणुवाए जाव छट्ठी पुढवी एयाइं अट्टफासाइं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा जाव पढमाए पुढवीए भाणियव्वं ॥ १२ ॥ जंबूद्दीवे दीवे जाव सयंभुरमणे समुद्दे सोहम्मे कप्पे जाव ईसिम्पन्भारा पुढवी, णेरइयावासा जाव वेमाणियावासा एयाणि सव्वाणि अट्ठफासाणि ॥ १३ ॥ णेरइयाणं भंते ! कइवण्णा जाव कइफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउवियतेयाई पडुच्च पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा अट्टफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा चउफासा पण्णत्ता, घनवात का कहना व घनोदधि का व मातवी पृथ्वी का जाननग. छटा आकाशांतर में वर्णादि नहीं हैं. और छठा तनुवात, घनवात, घनोदधि व पृथ्वी में पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श ऐसे वीस बोल कहे हैं इम तरह जैसे मातवी नरक का कहा वैसे पहिली नरक तक जानना ॥ १२ ॥ जम्बूद्वीप यावत् स्वयंभूरमण, समुद्र, सौधर्म देवलोक यावत् ईषत्याग्भार पृथ्वी, नरकावास यावत् वैमानिक आवास इन सब में आठ स्पर्श जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने वर्णादि कहे हैं ? अहो गौतम ! वैक्रेय तेजम् आश्री पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श कहे हैं और कार्माण आश्री पांच वर्ण, दो गंध, पांच. रस व प्रकाशक-राजाबहादर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #1763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३३ जीवं पडुच्च अवण्णा जाव अफासा पण्णत्ता. एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? ओरालिय तेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठ फासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा जाव चउफासा पण्णत्ता, जहा नेरइयाणं, जीवं पडुच्च तहेव. ॥ एवं जाव चउरिंदिया णवरं वाउकाइया, ओरालिय बेउब्विय तेयगाइं पडुच्चपंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता सेसं जहा णेरइयाणं, पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया जहा वाउकाइया ॥ ॥ मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! ओरालिय वेउब्विय आहारग तेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं जीवं भावार्थ चार स्पर्श कह हैं. और जीव आश्री वर्णादि रहित है. ऐसे ही स्थनित कुमारतक जानना. पृथ्वीकायामें ke उदारिक तेजस् आश्री पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श और कार्माण आश्री पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श. जीव आश्री अरूपी ऐसे ही अप् , तेउ, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरोन्द्रिय का जानना. वायुकाया में उदारिक वैक्रेय व तेजस् आश्री पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श और कार्माण व जीव आश्री नारकी जैसे ॐ जानना. तियेच पंचेन्द्रिय वायुकाया जैसे जानना. मनुष्य में उदारिक, वैक्रेय आहारक व तेजस् आश्री पांच वर्ण यावत् पाठ स्पर्श और कार्माण व जीव आश्री नारकी जैसे जानना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक विवाह पण्णत्ति (भगवत मृत्र Quagit 20- बारहवा शतक का पांचवा उद्देशा 4980 Page #1764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३४ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पडुच्च जहा णेरइयाणं, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा णेरइया॥१४॥धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए एए सव्वे अवण्णा जाव अफासा णवरं पोग्गलत्थिकाए पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पण्णत्ते ॥१५॥ णाणावरणिजे जाव अंतराइए एयाणि जाव चउफासाणि ॥१६॥ कण्ह लेस्साणं भंते ! कइवण्णा पुच्छा ? गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च पंचवण्णा जाव अटफासा पण्णत्ता, भावलेस्सं पडुच्च अवण्णा एवं जाव सुक्कलेस्सा ॥ १७ ॥ सम्मट्ठिी ३, चक्खुदंसणे ४, आभिणिबोहियणाणे, ५ जाव विभंगणाणे, आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा एयाणि अवण्णाणि४,॥१८॥ओरालियसरीरे जाव तेयग का नारकी जैसे कहना ॥ १४ ॥ धर्मास्तिकाय, अधर्षास्तिकाय, आकाशास्तिकाय काल व जीव इन में वर्णादि नहीं है और पुद्गलास्तिकाय में पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श ऐसे वीस बोल होते हैं, १॥ २५ ।। ज्ञानावरणाय यावत् अंतराय में पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श कहे हैं ॥१६॥ कृष्ण लेश्या में, अहो भगवन् ! कितने वर्णादि कहे हुवे हैं ? अहो भगवन् ! द्रव्य लेश्या आश्री पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श कहे हुव हैं भावलेश्या आश्री वर्णादि रहित है. ऐसे ही शुक्ल लेश्या तक जानना ॥ १७ ॥ समदृष्टि, मिथ्याष्टि, व मिश्र दृष्टि, चक्षु दर्शन, अचक्ष दर्शन, अवधि दर्शन व केवल दर्शन, आभिनिवोधिक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ * Page #1765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३५ भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सरीरे एयाणि अटफासाणि, कम्मग सरीरे चउपासे; मण जोगेय वइ जोगेय चउफासे, कायजोगे अटफासे । सागारोवओगेय अणागारोवआगेय अवण्णा ॥ १९ ॥ सव्वदव्याणं भंते ! कइवण्णा ? गोयमा ! अत्थेगइया सव्वदव्वा पंचवण्णा जाव अटुफासा पण्णत्ता, अत्थेगइया सव्वदव्वा पंचवण्णा जाव चउफासा पण्णत्ता, अत्थेगइया सव्वदव्वा एगवण्णा एगगंधा एगरसा दुफासा पण्णत्ता, अत्थेगइया सव्वदव्वा अवण्णा जाब अफासा पण्णत्ता, ॥ एवं सव्वपएसावि, सव्व पज्जवावि ॥ ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यत्र ज्ञान व केरल ज्ञान, मति अज्ञान, श्रुन अज्ञान व विभंग ज्ञान, आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा व परिग्रह संज्ञा, इन में वर्णादि नहीं पाते हैं ॥ १८ ॥ उदारिक शरीर वैक्रेय शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर में पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श ऐसे २० बोल और कार्माण . शरीर में पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श यों १६ बोल. मन योग व वचन योग में चार स्पर्श और काय योग में आठ स्पर्श साकारोपयोग व अनाकारोपयोग में वर्णादि नहीं है ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! सब 0 द्रव्य में कितने वर्ण यावत् स्पर्श हैं ? अहो गौतम ! किननेक द्रव्य में पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श हैं। कितनेक द्रव्य में पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श हैं, कितनेक द्रव्य में एक वर्ण, एक गंध, एक रस, व दो स्पर्श और कितनेक द्रव्य में वर्णादि नहीं हैं ऐसे ही सब प्रदेश व पर्यव का जानना. अतीत काल, अनागत* बारहा शतकका पांचवा उद्देशा Page #1766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | ॐ अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तीयद्धा अण्णा जाव अफासा पण्णत्ता, एवं जाव अणागयद्धावि सव्वद्धावि ॥ २० ॥ जीवणं भंते! गन्भं वक्कममाणे कइवपणं कइगंधं कइरसं कइफासं परिणामं परिणमइ ? गोयमा ! पंचवणं दुर्गंध पंचरसं अट्ठफासं परिणामं परिणमइ ॥ २१ ॥ कम्मओणं भंबे ! जीवे णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ कम्मओणं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? हंता गोयमा ! कम्मओणं तंचेच जाव परिणमइ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ || सेवं भंते भंतेति ॥ दुवालसमसयस्सय पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ५ ॥ * ॥ काल व सर्व काल वर्णादि रहित हैं || २० || अहो भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता जीव कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श के परिणाम को परिणमता है ? अहो गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श के परिणाम को परिणमता है || २१ || अब जीव कर्म की विचित्रता बताते हैं. अहो भगवन् ! जीव कर्म से नरकादि गति में जाता है व बिना कर्म नहीं जाता है अथवा कर्म से नरकादि गतिरूप विभक्ति भाव को (परिणमता है और बिना कर्म से क्या नहीं परिणमता है ? अहो गौतम ! जीव कर्म से नरकादि गति में { जाता है और विभाग रूप नरक तिर्यंच मनुष्य व देव वगैरह नाना प्रकार के रूपमयको परिणमता है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बारहवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ ५ ॥ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * १.७३.६ Page #1767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | 481 १७३७ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 48 रा० राजगृह में जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले ब० बहुत ज० मनुष्य भं० भगवन् अ. अन्योन्य ए.. ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् ए० ऐसा प० प्ररूपते हैं रा राहु चं० चंद्रको गे• ग्रहण करता है से वह क० कैसे एक ऐसे मं० भगवन् गो० गौतम जे० जो व. बहुत मनुष्य अ० अन्योन्य जा. यावत् मि० मिथ्या ते. व ए. ऐमा आ० कहते हैं अ. मैं गो. गोलम एक ऐसा आ० कहना हूँ जा. यावत् प० प्ररूपताहूं रा० राहु दे० देव म० महर्दिक जा. यावत् म. महामुखी व प्रधान व वस्त्रधारी म० माला रायगिहे जाव एवं वयासी बहजणणं भंते ! अण्णमण्णस्स एव माइक्खड जाव एवं परूवेइ एवं खलु राहू चंदे गेण्हइ एवं २ से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! । जंणसे बहुजणे अण्णमण्णस्स जाव मिच्छं ते एव माहंसु, अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु राहू देवे महिड्डीए जाव महेसक्खे वरवत्थधरे पांचवे उद्देशे के अंत में जीव कर्म से गति परिणाम को परिणमता है. उक्त जीवों का कर्म संयोग चंद्र व राहू कोभी होता है इस से आगे उद्देशे में चंद्र व राहू का कथन करते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील नामक उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि, अहो भगवन् ! बहुत मनुष्यों परस्पर ऐसा वार्तालाप करते हैं कि गहू चंद्रमा को ग्रहण करता है तो यह कथन किस तरह है ? अहो गौतम ! बहुत मनुष्यों जो ऐसा कहते हैं कि राहू चंद्रमा को ग्रहण करता है। बारहवा शतक का छठा उद्देशान भावार्थ 480 Page #1768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १७३८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋर्षिनी - धारी गं० गंधधारी आ०: आभरणधारी रा. राहु दे० देवके ण. नव ना० नाम प० प्ररूपे तं० वह ज.* जैसे ति• श्रृंगाटक ज. जटिल ख० क्षत्रके ख० खरक द० दर्दूर म० मकर म० मत्स्य क. कच्छप क० कृष्णसर्प ॥ १ ॥ रा० राहु दे० देवके पं० पांच नि. विमान कि० कृष्ण नी० नील लो० लोहित हा० हारिद्र मु० शुक्ल अ० है का० काला रा० राहु क विमान खं• काजल जैसा अ० है नी. नीला रा. राहु का विमान ला० तूम्पक जैना अ०है लो. लोहित रा० राहू का विमान मं० मजिठ जैसा अ015 वरमल्लधरे, वरगंधधरे, वराभरणधारी ; राहुस्सणं देवस्स णव णामधेना पण्णत्तातंजहा- सिंघाडए, जडिलए, खत्तए, खरए, ददुरे, मगर, मच्छे, कच्छभे, कण्हसप्पे ॥ १ ॥ राहुस्सणं देवस्स पंच विमाणा पण्णत्ता तंजहा- किण्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला ॥ अत्थि कालए राहुविमाणे खजण वण्णाभे पण्णत्ते ॥ अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते ॥ अत्थिणं लोहिए राहुविमाणे मंजिट्ठवण्णाभे उन का यह कथन असस है. अहो गौतम ! मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि राहू एक महर्दिक व महा ऐश्वर्यवन्त देव है, श्रेष्ठ वस्त्र, माला गंध व आभरण का धारन करनेवाला है. राहू के नव नाम कह हैं. १ श्रृंगाटक २ जटिल ३ क्षत्रक ४ खरक ५ दर्दूर ६ मकर ७ मच्छ ८ कच्छ और ९ कृष्ण सर्प ॥ १ ॥ राहू देवता के पांच वर्णवाले विमान कहे हैं, १ कृष्ण वर्णवाला २ नील वर्णवाला ३ रक्त वर्ग * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4880 PRO शब्दार्थ है पी० पीला रा राहु का विमान हा० हालिद्र जैसा अ० है भु० शुक्ल रा० राहु का विमान भा० भस्म राशि जैसा ५० रूपा||२॥ ज० जब रा राहु आ० आले ग जाते रि०विकुर्वणा करते प० परिचारणा करते " चं० चंद्र लेश्याको पु० पूर्व से आ० आवर्त कर प० पश्चिम में वी० जावे त०तब पु० पूर्व में चं चंद्र उ० २१७३९ देखावे ५० पश्चिम में रा. राहु ज. जब रा. राहु आ० आते ग० जाते वि. विकुर्वणा करते ५० परि पण्णत्ते ॥ अत्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवण्णाभे पण्णत्ते ॥ अत्थि सुकिल्लए राहु है विमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते ॥ २ ॥. जदाणं राहू आगच्छमाणेवा, गच्छमाणेवा, विउव्वमाणेवा, परियारेमाणेवा, चंदलेस्सं पुरच्छिमेणं आवरेत्ताणं पञ्चच्छिमेणं बीईवयति, तदाणं पुरच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पञ्चच्छिमेणं राहू ॥ जदाणं वाला ४ पीत वर्णवाला और ५ शुक्ल वर्णवाला. जो कृष्ण वर्णवाला विमान है वह दीपक का काजल जैसी कान्ति वाला है. जो विमान नील वर्णवाला है वह कच्चे तुम्मे की कान्ति जैसा नीला है जो रक्त वर्ण वाला है वह मजीठ वर्ण जैसा है, जो पीला विमान वह हलदी समान है और जो विमान शुक्ल वर्णवाला है वह भस्म के ढग ममान वर्ण वाला है ॥२॥ जब राहू आता हुवा व जाता हुवा [स्वाभाविक गति ] वैय करता हवा या परिवारणा करता हवा [अस्वाभाविक गति] चंद्र की कान्ति को पूर्व में आवरणकर पश्चिम में जाता है तब चंद्रपूर्व में दीखता है और पश्चिम में राहू दीखता है और जब आते, जाते, 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र < बारहवा शतक का छठा उद्दशा Page #1770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) चारणा करते चं चंद्र लेश्या को १० पश्चिम से आ० आवर्तकर पु० पूर्व में वी० जावे त. तब ५०* पश्चिम में चं० चंद्र उ० देखावे पु० पूर्व में रा. राहु ए. ऐसे ज० जैसे ५० पश्चिम में दो० दो आ. आलापक त० तैमे दा० दक्षिण उ० उत्तर में दो दो आ• आलापक भा० कहना ए. ऐसे उ० ईशान कौन में दा. नैऋस में दो० दो आ० आलापक ए. ऐसे दा० अग्नि उ० वायव्य में दोदो आ०आलापक भा० करना जा. यावत् त० तब उ० वायव्य में चं० चंद्र उ० देखावे दा० अग्नि में राहु ज. जब राहू आगच्छमाणेवा गच्छमाणेवा, विउबमाणेवा, परियारेमाणेवा, चंदलेस्सं पञ्चच्छिमेणं आवरेत्ताणं पुरच्छिमेणं वीईवयइ, तदाणं पञ्चच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पुरच्छिमेणं राहू।। एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्चच्छिमेणय दो आलावगा भणिया तहा दाहिणेणय उत्तरेणथ दो आलावगा भाणियव्वा, एवं उत्तर पुरच्छिमेणं, दाहिण पच्चच्छिमेणय दो आलावगा भाणियव्या, एवं दाहिण पुरच्छिमेणं, उत्तर पञ्चच्छिमेणय दो आलावगा भाणियव्या भावार्थ | क्रेय करते व परिचारणा करते चंद्रकी कान्ति को पश्चिम में ढककर पूर्व में राहू जाता है तब पश्चिम में चंद्र दीखता है और पूर्व में राहू दीखता है. जैसे पूर्व पश्चिम के दो आलापक कहे वैसे ही दक्षिण उत्तर के दो आलापक जानना. ऐसे ही उत्तर पूर्व [ ईशान ] व नैऋत्य और अग्रि व वायव्य के दो २ आलापक जानता. यावत् वायव्य कौन में चंद्र दीखता है और अग्नि कौन में राहू दीखता है. आते, जाते वैक्रेय अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी - * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थ रा राहु आ० आते ग. जाते वि. विकुर्वणा करते प. परिगरणा करते चं चंद्र लेश्या को आ० आवरण करता चि० रहे त० तब म मनुष्य क्षेत्र के म. मनुष्य २० कहते हैं रा• राहु चं. चंद्र को ७ ० ग्रहण करता है ज. जब रा. राह आ० आते चं० चंद्र लेश्या आ० आवर्त कर पा० पास से वी. जावे त० तब म० मनुष्य क्षेत्र के म० मनुष्य व कहते हैं चं० चंद्रने रा. राहु की कु. कुक्षी भि. भेदी ज० जब रा० राहु आ० आते चं० चंद्र लेश्या को आ० आवर्तकर ५० पीछा फोरे त० तब म. एवं चेव जाव तदाणं उत्तर पचच्छिमेणं चंदे उवदंसेति दाहिण पुरच्छिमेणं राहू ॥ जदाणं राहू आगच्छमाणेवा गच्छमाणेवा विउन्बमाणेवा परियारेमाणेवा चंदलेस्सं आवरे माणे २ पिढ२, नागालोर मुराति एवं खलु राहू बंद. गिप्हइ ॥ है एवं जदाणं राहू आगच्छमाणेवा ४ चंदलेस्सं आवरेत्ताणं पासेणं वीईवयइ तयाणं मणुस्सलोए मणुस्सा बदति-एवं खलु चदेणं राहस्स कुच्छी भिणाए ॥ एवं जदाणं । भावाथ करते व परिचारणा करते जब राहू चंद्र की कांति को ढकता है तब मनुष्य लोक में मनुष्यों बोलते हैं कि राहू चंद्र को ग्रहण करता है. जब राहू जाते, आते, वैक्रेय करते, परिचारणा करते चंद्रकी कान्ति का आव. 5 रण कर पाजु से जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं कि चंद्र राहू की कुक्षि में गया. ऐसे ही राहू जाते, आते, वैक्रेय करते व परिचारणा करते चंद्र की कान्ति को ढक कर पीछा जाता है तब मनु पंचमांग विवाहपष्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 १०४.१ बारहवा शतकका छठा उद्देशा । Page #1772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य क्षेत्र के म० मनुष्य ३० कहते हैं रा. राहु चं. चंद्र का वं. वमन कीया ज. जर रा. राहु आ० आते जा. यावत् १० परिचाहना करते चं० चंद्र लेश्या को अ० नीचे म. चारों गजु आ० आवर्त कर चिक रहे त. तप म० मनुष्य क्षेत्र में म. मनुष्य व. कहते हैं रा० राहु से चं० चंद्र घ० ग्रस्त हुवा ॥३॥ कि० कितने प्रकार का भं० भगवन् रा० राहु १० प्ररूपा गो० गौतम दु० दो रा. राहु ५० राह आगच्छमाणेवा ४ चंदलेस्सं आवरेत्ताणं पच्चोसक्कइ तदाणं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति-एवं खलु राहुस्सणं चंदे वंते ॥ एवं जयाणं राहू आगच्छमाणेवा जाव परियारेमाणेवा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ताणं चिट्ठइ, तयाणं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे, एवं २ ॥ ३ ॥ कतिविहेणं भंते ! राहू पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते, तंजहा-धुवराहूय, पव्वराहूय ॥ तत्थणं लोक में मनुष्यों कहते हैं कि राहूने चंद्र का वमन किया. और जब राहू जाते आते, वैक्रेय करते व परिचारणा करते चंद्र की कान्ति को नीचे, बाजुपर व चारों दिशि में ढक कर रहता है तब मनुष्य लोक में कहा जाता है कि राहूने चंद्र ग्रहण किया ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! राहू कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! राहून दो कहे हैं. ध्रुव राहू कि जो चंद्र की साथ सदैव रहता है और पर्व राह पूर्णिमा वगैरह पर्व तिथियों में Anow 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #1773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४३ शब्दार्थ प्ररूपे धु० ध्रुवराहु ५० पर्षराहु त० तहां जे० जो धु० ध्रुवराहु व० कृष्ण १० पक्ष के ५० मतिपदा ५०ी । पन्नरवा भाग से प० पन्नरचा भाग को चं चंद्रलेश्या को आ० आवरणकर चि० रहे तं• वह ज. जैसे प०प्रथमा में प-प्रथम भाग विन्दूसरा में वि० दूसरा भाग जा० यावत् प० पनरवा में प०पनरवा भाग च० चरम समय में चं० चंद्र र० आच्छादित भ० हावे अ० अवशेष प० समय चं० चंद्र र. आच्छादित वि० खुला भ० हावे ता० तैसे ही सु. शुक्लपक्ष में उ० देखाता चि० रहे प० प्रथमा में प. प्रथम भाग जा जे से धुवराहू सेणं बहुलस्स पक्खस्स पाडिवए पण्णरसति भागेणं पण्णरसभागं चंदलस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठइ, तंजहा-पढमाए पढमं भागं, बितियाए वितियं भाग, जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं. चरमसमए चंदे रत्ते भवइ अवसेसे समए चंद रत्तेवा रहता है. अब जो ध्रुव राहू है वह कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा मे पन्नरह * भाग का एक भाग ढकता हवा रहता है. प्रथम तीथि में प्रथम भाग यावत् पन्नरहवी तिथि में पन्नरहवा भाग. चरम समय में चंद्र रक्त F.रहता है और शेष समय में रक्त विरक्त दोनों रहता है, अर्थात् आच्छादित अनाच्छादित रहता है. वैसही 00 A शुक्ल पक्ष में दोखता हुवा प्रम तिथि में एक भाग यावत् पंदरवी तिथि में पन्नरहवा भाग दीखता है. चरमई * अन्य स्थान चंद्र मंडल के सोलह विभाग किये हैं और सोलहवा विभाग संदेव खुला रहता है. परंतु एक भाग का अल्पपना से यहां उस की विवक्षा नहीं करते पजरह भाग ग्रहण किये हैं. पंचमांगविवाह पण्णनि (भगवती ) सूत्र -god बारहवा शतकका छठा उद्देशा 8+ Page #1774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T शब्दाथा anman अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g+ यावत् प० पारवे में १० पनरवा भाग च० चरम समय में चं चंद्र वि० खुला भ० होवे अ. अक्शर्ष स. समय में चं चंद्र र० आच्छादित वि० खुला भ० होवे ॥ ४ ॥ तक तहां जे मोप० पर्वराहु जघन्य छ. उमास में उ० उत्कृष्ट बा. बीयालीस मा० मास चं० चंद्र का अ० अडतालीस सं० वर्ष सू. सूर्य का ॥५॥ से वह के. कैसे भं. भगवन् १०ऐमा वु. कहा जाता है . इंद्रस. शशी चं० चंद्र जो० ज्योतिषीन्द्र जो. ज्योतिषी राजा का पि० मृगांक वि० विमान में कं० मनोहर दे० देव के. विरत्तेवा भवइ ॥ तामेव सुक्कपक्खस्स उबदंसेमाणे २ चिट्ठइ, तं पढ़माए पढम भागं जाव पण्णरसेसु पण्णरसमं भागं चरम समए चंदे विरत्ते भवइ अवसेसे समए चंदे रत्तेवा विरत्तेवा भबइ ॥४॥ तत्थणं जे से पव्वराहू से जहण्णणं छण्हं मासाणं उक्कासेणं घायालीसाए मामाणं चंदस्स, अडयालीसाए संवच्छराणं मरस्स ॥५॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चंदे ससी ? गोयमा ! चंदस्सणं जोइसिंदस्स जोइसिरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ काल अर्थात् पूर्णिमा को चंद्र विरक्त (स्नुला) दीखता है और शेष सब तिथियों में चंद्र आच्छादित व अनाच्छादित रहता है । अब जो पर्व राहू है वह जघन्य छमास उत्कृष्ट बीयालीम मास में चंद्र को आच्छादित करता है और सूर्य को जघन्य छमात उत्कृष्ट ४८ संवत्सर में आच्छादित करता है ।। ५ ॥ अहो भगवन्! चंद्र को शशी क्यों कहा ? अहा गौतम ! ज्योतिषीन्द्र ज्योतिषी का राजा चंद्र को मृगांकवाला *प्रकाशक-राजाबहादुर लाग सुखदवसहायजी पालामसादजी* भावार्थ | * Page #1775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी मनोहर दे० देवी के मनोहर आ० आसन सः सयन खं० स्तंभ भ० भंडपात्र उ० उपकरण अ. आप चं. चंद्र जो. ज्योतिषी राजा सो• सौम्य के मनोहर सु० मुभग पि० प्रियदर्शन सु० सुरूप से० वह 4 Vते. इसलिये जा. यावत् स. शशी ॥ ६ ॥ से वह के• कैसे मं• भगवन् ए. ऐसा वु० कहा जाता |१.१४५ | स० सूर्य आ. आदित्य गो० गौतम स० समय आ० आवलिका जा. यावत् उ. उत्मर्पिणी अhoto अवसपिणी से वह ते. इसलिये मा० गौतम आ० आदित्य ॥७॥०चंट भ० भगवन जो. ज्योतिषी है देवीओ, कंताई आसण सयण खंभ भंडमत्तोवगरणाई अप्पणा वियणं चंद जोइ. सिंदे जोइसिराया सोमे कंते मुभगे पियदंसणे सुरूवे से तेणटेणं जाव ससी ॥ ६॥ __ से केण?णं भंते ! एवं बच्चइ-सूरे आइच्चे सूरे २ ? गोयमा ! सूरादियाणं समयाइवा, आवलियाझ्वा जाव उस्सण्पिणीइवा अवसप्पिणीइबा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव आइच्चे ॥ ७ ॥ चंदस्सणं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसिरण्णो कइ. अग्गमहिसीओ भावाय विमान है, मनोहर देव, मनोहर देवियों, मनोहर आमन, शयन, स्तंभ, भंड, पात्र व उपकरण है और स्त्रयमेव ज्योतिषी का इन्द्र ज्योतिषी का राजा सोम, कांत, सुभग, प्रिय दर्शनीय व मुरूप है इस से | चंद्र को शशी कहा है ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! सूर्य को आदित्य क्यों कहा ? अहो गौतम ! सूर्यआदित्य से है। समय, आवलिका, यावत् उत्सर्पिणी अवमर्पिणी है इस से अहो गौतम ! सर्य आदित्य कहा गया है ॥७॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूब wammmmmmmmmmmmmmmmmmwwwww 3 बारहवा शतक का छठा उद्देशा <3 2 Page #1776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १७४३ राजा को क० कितनी अ० अग्रमहिषी ५० प्ररूपी ज. जैसे द० दशवे शतक में जा. यावत् णो नहीं मे• पैथुन सेवने को मू० सूर्य त. तसे ॥ ८ ॥६० चंद्र सू० सूर्य भं० भगवन् जो० ज्योतिषी रा० राजा के • कैमे का० काम भोग ५० भोगवते वि. विवाते हैं गो० गौतम ज० जैसे के० कोइ पु० पुरुष ५० प्रथम जो यौवन उ. उत्थान . बलवाला प. प्रथम जो० यौवन उ० उत्थान ब० बलवाली भा० भायो स० साथ अ० थोडा काल में वि० विवाह करके अ० अर्थ ग० गवेषणा को सो० सोलह वा० वर्ष वि० पण्णत्ताओ ? जहा दसम सए जाव णो चेवणं मेहुणवत्तियं ॥ सूरस्स वि तहेव ॥८॥ चंदिम सूरियस्सणं भंते ! जोइसिंदा जोहासरायाणो केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहाणामए का पुरिसे पढमजोव्वणट्ठाण बलत्थ पढम जोव्वणट्ठाण बलत्थाए भारियाए सद्धिं आंचरत्त विवाहक-जे अत्थगवेसणत्ताए सोलसवास विप्पवासिए सेणं तआलटे कयव ज्जे अणहसमए पुणरवि णियणं गिहं हव्वमागए, पहाए अहो भगवन् ! ज्योतिषी के इन्द्र ज्योतिषी के राजा चंद्र को कितनी अग्रमहिषियों कहीं ? अहो गौतम ! इस का सब वर्णन दशवे शतक में से जानना. यावत् सभा में मैथुन सेवो को समर्थ नहीं है वहां तक कहना और सूर्य का भी वैसे ही जानना ॥ ८ ॥ अहो भगान् ! गोलिपी के इन्द्र, चंद्र, सूर्य, कैसे 17कामभोग भोगवते हैं ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष यौवन के उदय से प्राप्त वलवाली भार्या की साथ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*, , भावार्थ Page #1777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विदेश जावे त० तहां से ल० अर्थ प्राप्त कर क० कार्य कर अ० विघ्न रहित णि अपना गिः गृह को ह० । yo शीघ्र आ० आया ण्डा० स्नान किया क. पलीक कीया कतिलममादि किय स० मलिंकार वि. विभू-34 षित म० मनोज्ञ था० स्थालीपाक मु० शद्ध अ. अठारह वं प्रकार का भो० भोजन भु० भोगवते ते. १७४७ उम ता० तमे वा गृह में व० वर्णन युक्त म० महावल जा० यारत्म० सयन उ. उपचार क० युक्त ता. पर तैती भा० भार्या से ति० शृंगार आ० गृह चा. मनोहर जा. यावत् क० कलावन्त अ० अनुरक्त अ० कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छिते सव्वालंकार विभूसिए, मणुण्णं थालीपाक सिद्ध अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भुत्तेसमाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि वण्णओमहब्बले जाव सयणोवयारकलिए ताए तारिसयाए भारियाए सिंगारगार चारुवेसाए जाव कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए भणाणुकूलाए सद्धिं इढे सद्दे फरिसे जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे यच्चणुब्भवमाणे विहरइ ॥ तासेणं गोयमा ! पुरिसे अल्प समय में विवाह करके धनप्राप्ति के लिये सोलह वर्ष पर्यंत परदेश गया. वहां पर इच्छित द्रव्य तथा 20 सामग्री प्राप्त कर पुनः अपने गृह पीछा आया. स्नान किया, चंदन भएखादिक का विपन किया, कोगले किये, तिलयसादिक किये, सर्वालंकार से विभूविन बना. और उत्ता भाजन में पाये हुवे अठारह । प्रकार के व्यंजनादि युक्त भोजन करके महाबल के भुवन गृह समान भुवन में शृंगार के गृह समान मनो- । 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सत्र 20880-बारहमा शतकका छ। उहशा भावार्थ . Page #1778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.७४८ शब्दार्थ 4 अविरक्त म० मनानुकुल स० साथ इ० इष्ट स० शब्द फ. स्पर्श जा. यावत् पं. पांच प्रकार के मा.. मनुष्य के का० काम भोग १० भोगरते वि० विचरता है ता० उम गो० गौतम पु० पुरुष वि० रतिसमय । में के कैसा सा० सातामुख प० भोगवता वि• विचरता है उ० उदार स० आयुष्यवन्त गो• गौतम पु० पुरुष का काम भोग से वा० वाणव्यंतर दे० देवका अ. अनंत गुणा वि० श्रेष्ठ का काम भोग वा.. वाणव्यंतर दे० देवके का० काम भोग से अ० असुर कुमार व० वर्जकर भ० भवनवासी द० देवका अ. विउसमणकालसमयसि कारसयं सातसोक्खं पच्चणुध्भवमाणे विहरइ ? उरालं समणाउसो ! तस्सणं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहितो वाणमंतराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतराचेव कामभोगा, दाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो अमुरिंद वजियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अगंतगुणविसिटुतराचेव कामभोगा, असुरिंद वजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहितो असुग्कुमाराणं देवाणं एत्तो अणतगुण विसिटुतराचेव काम भोगा, असुर कुमाराणं देवाणं कामभोगेहितो भावार्थ हर वंशवाली यावत् कलावंत, अनुरक्त, अविरक्त, व पति के मन को अनुकूल ऐनी भर्या की साथ इष्ट है शब्द यावत् स्पर्श ऐसे पांच प्रकार के मनुष्य के कामभाग भोगना हुरहे. अहो गौतम ! पुरुष वंद के विकार का जो उपशम उस काल के अंत में अर्थात् वीर्य क्षरणराते समय में वह पुरुष कैसा सुख अनुभवे ? अहो भगवन् ! वह पुरुष उदार सुख अनुभवे. तब अहो गौतम ! उस पुरुष के कामभोगों से अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। . प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र अनंत गुणा व श्रेष्ठ का०कान भाग अ० असुरेन्द्र ववर्जकर मभवनवासी दे० देवका का०काम भोग से अ० असुर कुमार दे० देवका अ० अनंत गुणावि श्रेष्ठ काम भोग अ० असुर कुमार दे० देव का का० काम भोग से ग० ग्रह ० गण ण० नक्षत्र ता० तारारूप जो० ज्योतिषी का अ० अनंतगुणा वि० श्रेष्ठ का काम भोग ग० ग्रह ग० गण ण० नक्षत्र जा० यावत् का काम भोग से चं० चंद्र सू० सूर्य जो० ज्योतिषी जो० ज्योतिषी राजा का अ० अनंत गणा वि० श्रेष्ठ काम भोग चं० चंद्र सू० सूर्य गां० गौतम गहगणणक्खत्त तारारूवाणं जोइसियाणं एत्तो अनंतगुणविसिटुतराचेत्र कामभोगा गहगणणक्खत्ततारारूत्राणं जोइसियाणं कामभोगेहिंतो चंदिम सुरियाणं जोइसियागं जोइसरायाणं एतो अनंतगुण विसितराचेच कामभोगा, चंदिम सूरियाणं गोयमा ! जोइसिंदा जोइसिरायाणो एरिसए कामभोगे पचणुब्भवमाणा विहरति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ? भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव विहरइ || त्राणव्यंतर के कामभोगों अनंतगुणे विशिष्टतर होते हैं. और वाणव्यंतर के कामभोगों से असुरन्द्र छोडकर अन्य भवनवासी देवों के कामभोग श्रेष्ठ कहे हैं. असुरेन्द्र छोड़कर अन्य सब भुवनपति के कामभोगों से असुरेन्द्र के कामभोग अनंतगुने श्रेष्ठ हैं असुर कुमार के कामभोग से ग्रह, नक्षत्र नारा रूप ज्योतिपियों के कामभोग अनंतगुने श्रेष्ठ हैं और ग्रह नक्षत्र व तारा रूप ज्योतिषियों के कामभोगों से ज्योतिषीके 40 बारहवा शतक का छठा उदशा १७४९ Page #1780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १७५० अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ज्योतिषीन्द्र जो० ज्योतिषी राजा ए०इस प्रकारका का काम भोग ५० अनुभवते वि विचरते हैं॥१२॥॥ * ते उस काल ने उस समय में जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले के० कितना म. बडा भं० भगवन् लो० लोक ५० प्ररूपा गो० गौतम म० महा म. बडा लो० लोक ५० प्ररूपा पु० पूर्व में अ० असंख्यात योजन को क्रोडा क्रोडी दा० दक्षिण में अ० अख्यात ए. ऐसे १० पश्चिम में ए. ऐसे उ० उत्तर में दुवालसम सयरस छट्ठो उदंसो सम्मत्ता ॥ १२ ॥ ६ ॥ * तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी के महालएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! महइमहालए लोए पण्णत्ते, पुरच्छिमणं असंखेजाओ जोअण कोडा कोडीओ दाहिणेणं असंखेजाओ एवं चत्र, एवं पञ्चच्छिमेणवि, एवं उत्तरणवि, एवं राजा चंद्र, सूर्य के कामभोग श्रेष्ठतर कई हैं. अहो गौतम ! ज्योतिषी के इन्द्र चंद्र, सूर्य ऐसे कामभोग भागते हुवे विचरते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर भगवान् गौतम श्रमण भगवंत , महावीर को वंदना नमस्कारकर यावत् विचरने लगे. यह बारहवा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१२॥६॥ है अनंतर उदृशे में चंद्रादिक के अतिशय सुख कहे. चंद्रादिक लोक में होने मे लोक के अंश में जीवों के जन्म जरा मरण की वक्तव्यता कहते हैं. उस काल उस समय में भगवान् गौतम स्वामी श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! लोक कितना बडा कहा है ? अहो । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ए०ऐसे उ०ऊर्ध अअधो अ० असंख्यात जोम्योजन को क्रोडाकाडो आ०लंबा बि चौडा |मरलशब्दार्थ है उड्ढवि, अहे असंखेजाओ जोअण कोडा कोडीओ आयाम विक्खंभेणं ॥ १ ॥ एयंसिणं भंते ! ए महालयंसि लोगसि अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जत्थणं अयं जीवे न जाएवा न मएवावि ? गोयमा ! णो इण? समटे ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-एयंसिणं महालयंसि लोगसि णत्थि केइ परमाणु पोग्गलमत्तेवि पदेसे जत्थणं एवं जीवे ण जाएवा ण मएवावि ? गोयमा ! से जहा णामए केइ पुरिसे अयासयरस एगं महं अयाक्यं करेज्जा, सेणं तत्थ जहण्णेणं एगंवा दोवा तिण्णिवा, गोतम ! यह लोक बहत बडा कहा वहत पदार्थ का स्थान कहा. पूर्ण, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर ऊर्ध्व व अधो में असंख्यात योजन का लम्बाचौडा लोक कहा. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! इतना बडा लोक में एक परमाणु मात्रभी कोई प्रदेश है कि जहां यह जीव न जन्मा हो और न मरा होवे ? अहो गौतम ! foto यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् किस कारन से ऐसा कहा गया है कि इतना बडा लोक में ऐसा । कोइभी परमाणु जितना प्रदेश नहीं हैं कि जहां यह जीव जन्मा व मरा न होवे ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष सेंकडो अजा (बकरियों ) के लिये एक अजावज (वाडा) बनावे. उस में एक दो तीन बारहवा शतकका सातवा उद्देशा - Nitin भावार्थ Page #1782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेजा, ताओणं तत्थ पउर गोयराओ पंउरपाणीयाऔ जहण्णेणं एगाहवा दुयाहंवा तियाहवा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, ॥ अत्थिणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केइ परमाणु पोग्गलमत्तेवि पएसे जेणं तासिं अयाण . उच्चारणवा, पासवणेणवा, खेलेणवा, सिंघाणेणवा, बंतेणवा पित्तणवा पूएणवा, सुकणवा,सोणिएणवा,चम्महिंबा, रोमेहिवा, सिंगहिवा, खुरेहिंवा, णहेहिंवा अणिकंत पुग्वे भवइ ? जोइणटे सम?, होजाइणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केइ परमाणुपोग्गल मत्तावे पएसे जण तासिं अयाणं उच्चारणवा जाव णहेणवा अणिकंत पुल्वे णोचेवणं भावार्थ यावत् महस्र बकरियों भरदेवे. उनके लिये घास चाग वगैरह की वहां बहुलता होवे. उस घाडे में उन धकारियों को जघन्य एकदिन दादिन तीन दिन यावत् उत्कृष्ट छमास तक रखे. अब अहो गौतम ! Nउन वाडे का कोईभी प्रदेश ऐसा रह सकता है कि जो बकरी उच्चार, प्रस्रवण, खेकार, सिंघाण (नाक कामेल ) वमन, पित्त, राध, शक्र, रुधिर, चर्म, रोग, शृंग, खुर, व नख से नहीं स्पर्श हुवा होवे ? अहो भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं होसकता है क्यों को वह वाडाका सब भाग बकरियों के मूत्र यावत् नख से स्पर्शाता हैं. वैसे ही इस महालोक की परमाणु जितनी जगह नहीं कि जहां जीव के जन्म जरा मरण न 4 भनुमादक बालपमधारी मुनि श्री अशोक * मकाशक-रामावहादुर लाला मुखदेवसहायनी बालाप्रसादजी * Page #1783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एस ए महालयंसि लोगस्स सासयं भावं, संसारस्स अणादिभावं जीवरसय णिच्चभावं, कम्म बहुत्तं जम्मण मरण बाहुलंच पडुच्च णत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पसे जत्थ अयंजी ण जाएवा ण मएवावि से तेणट्टेणं तंचेत्र जाव णं मएवावि॥ २ ॥ कणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जहा पढमसए पंचमोद्देसए तहेत्र आवासा ठान्या जाव अणुत्तरत्रिमाणेत्ति जात्र अपराजिए सव्वट्टसिद्धे ॥ ३ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावासस्यसहस्सेसु एगमेगंसिरियावासंसि पुढवीका इयत्ताए जाव वणरसइ काइयत्ताए णरगत्ताए णेरभावार्थ होवे. क्योंकी महालोक शाश्वत अनादि, नित्य है वैसे ही संसारी जीव भी अनादि से कर्म की बाहुल्यता से जन्म मरण कर रहे हैं. अहो गौतम ! इसी कारन से ऐसा कहा गया है कि इतना बडा लोक में एक परमाणु जितना भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि जहां जीवने जन्म मरण ने किया होवे ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वियों कितनी कही ? अहो गौतम ! जैसे प्रथम शतक के पांचवे उद्देरों में आवास तक कहा वैसे सब अनुत्तर विमान में अपराजित व सर्वार्थसिद्ध तक कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! यह जीव रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से एक २ नरकावास में पृथ्वीकायापने यावत् वनस्पतिकाया सूत्र ++ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <१० बारहवा शतक का सातवा उदेशा 430 १.७५३ Page #1784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी यत्ताए उववरण पुढचे ? हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अनंतखुत्तो ॥ ४ ॥ सव्त्र जीवाविणं भंते ! इमसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरया तंचेव जाव अनंतखुत्तो ॥ ५ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे सक्करप्पभाए पुढवीए पणवीसाए एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावा भाणियव्वा, एवं जाव धूमप्पभाए।अयण्णं भंते! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे रियावास सयसहस्से एगमेगंसि सेसं तंचेव अयण्णं भंते! जीवे अहे सत्तमा पुढवीए पंचसु अणुत्तरेस महइ महालएसु महाणिरएस एगमगंसि णिरयावासंसि सेसं जहा रयण'पभाए || ६ || अयण्णं भंते ! जीवे चउसट्ठी असुरकुमारावास सयसहस्सेसु एग}पने, नरकपने व नारकीपने क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! यह जीव रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से एक २ नरकावास में पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकायांपने व नारकीपने अनेकवार यावत् अनंनवार पाहिले उत्पन्न हुवा || ४ || अहो भगवन् ! सब जीव पहिले इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस ई लाख नरकावास में से एक २ नरकावास में पृथ्वी कायापने यावत् नारकीपने पहिले उत्पन्न हुवे ? हां गौतम ! अनेकवार व अनंतवार उत्पन्न हुवे. ॥ ५ ॥ जैसे रत्नप्रभा के दो आलापक कहे वैसे ही शर्कर (प्रभा के २५ लाख नरकावास के दो आलापक जानना ऐसे ही वालुप्रभा के १५ लाख; पंकप्रभा के १० लाख, धूम्र प्रभा के तीन लाख, तम में पांचकम एक लाख और तमतम प्रभा के पांच अनुत्तर बहुत * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १७५४ Page #1785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4881 - मेगास असुरकुमारावाससि पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइ काइयत्ताए देवत्ताए देविताए आसणसयण भंडमत्तोवगरणत्ताए उववण्णपुव्वें ? हंता गोयमा ! जाव अणं. तखुत्तो ॥ सव्वजीवाविणं भंते ! एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारेसु, णाणत्तं आवासेमु आवासा पुव्वभणिया ॥ ७ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे असंखेजेसु पुढवी-काइयावास सयसहस्सेसु एगमेगांसि पुढवीकाइयावाससि पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए उववण्ण पुव्वे ? हंता गोयमा! जाव क्खुत्तो॥ एवं सव्व जीवावि ॥ एवं जाव वणस्सइ काइएसु ॥ ८ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे असंखेजेसु बेइंदियावास सयसहस्सेसु एगमेबडे महा नरकावास का जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! चौमठ लाख अमुर कुमार के आवास में से एक २ आवास में पृथ्वीकाय पने यावत् वनस्पतिकाय पने, देवपने, देवीपने, आसन, शयन,भंड, पात्र उपकरण पने का क्या पहिले यह जीव उत्पन्न हुधा ? हां गौतम ! अनेकवार व अनंतवार उत्पन्न हुवा. सब जीवों आश्री ope वैसे ही जानना जैसे अमरकुमार का कहा वैसे ही स्थनित कुरोंतक का अपन आवास अनुसार ? कहना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! यह जीव पृथ्वीकाया के असर ताल में से एक २ आवास में क्या पृथ्वी-380 कायापने यावत् वनस्रतिकायापने पहिले उत्पन्न हुआ? हां गौतम ! अनेकवार व अनंतबार उत्पन्न ११- पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र भावार्थ बारहया शतकका सातवा सातवा 8 Page #1786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंसि बेइंदियावासंसि पुढवीकाइयत्ताए जाव वण्णस्सइ काइयत्ताए बेइंदियत्ताए उववण्णपुव्ये? हंता गोयमा! जाव अणंतक्खुत्तो॥ सव्वजीवाविणं एवं चैव ॥ एवं जाव मणुस्सेसु, णवरं तेइंदिएसु जाव वणस्सइ काइयत्ताए. तेइंदियत्ताए चउरिदिएमु चरिंदियत्ताए एवं पर्चि दिय तिरिक्खजाणिएस पंचिंदिय तिरिक्खजोणियत्ताए, मणुस्सेसु मणुस्सत्ताए सेसं जहा बेइंदियाणं, वाणमंतरजोइसिय सोहम्मीसाणाणय जहा असुरकुमाराणं ॥ ९ ॥ अयण्णं भंते! जीधे सणंकुमारकप्प बारसंसु विमाणावास सयसहस्सेसु एगमेगंसि। भावार्थ हुचा. ऐसे ही सब जीवों का कहना. जैमे पृथ्वीकाया के दो आलापक कहे वैसे ही अप् तेऊ, वायु व. घनस्पति के दो २ आलापक कहना ॥ ८॥ अहा भगवन् : असंख्यात बेइन्द्रिय के वास में से एक २ वास में यह जीव पृथ्वीकाया पने यावत् वनस्पति काया पने व बेइन्द्रिय पने क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम! अनेकवार व अनंत वार उत्पन्न हुवा. एने ही सब जीवों का कहना. जैसे वेइन्द्रिय का कहा वैसे ही तेइन्द्रिय यावत् मनुष्य तक कहना विशेष में तेइन्द्रिय में तेइन्द्रियपने, चौरेन्द्रिय में चोरेन्द्रिय पने, तिर्यच पंचेन्द्रिय में तियेच पंचेन्द्रियपने और मनुष्यमें मनुष्यपने काना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व सौधर्म ईशान का असुर कुमार जैसे कहना ॥2॥ अहो भगवन् ! यह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह हजार विमान में 17 मे एकरविमान में पृथ्वी कायारने यावत् वनातिकायाप ने देवतापने देवीपने क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? अहो । मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #1787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4. पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र वेमाणियावासंसि, पुढवीकाइया सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो णो चवणं देवित्ताए. एवं सव्वजीवावि ॥ एवं जाव आणयपाणएसु एवं आरणच्चुएसवि अयण्णं भंते! जीवे तिसुवि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजगविमाणावाससएसु एवंचेव ॥१०॥ अयण्णं भंते! जीवे पंचसु अणुत्तर विमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तर विमाणांस पुढवि तहेव जाव अणंतखत्तो, णो चेवणं देवत्ताए देवित्ताए एवं सव्वजीवावि ॥ ११ ॥ अयण्णं । "भंते! जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए, पित्तित्ताए, भाइत्ताए, भागिणित्ताए, भजात्ताए, पुत्तत्ताए, धूयत्ताए, सुण्हत्ताए, उबवण्ण पुव्वे ? हंता गोयमा ! जाव अणंत खुत्तो गौतम ! अनेकवार व अनंतवार उत्पन्न हुवा. किन्तु इस में देवियोंकी उत्पत्ति नहीं होने से देवी ग्रहण नहीं है। की है. ऐभे ही सब जीवोंका जानना. जैसे सनत्कुमार का कहा वैसे ही माइन्द्रि यावत् आरण अच्युत तक का जानना. ऐसे ही नवग्रेयेयक के ३१८ विमान का जानना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! यह जीवा पांच अनुत्तर विमान के एक २ अनुत्तर विमान में पृथ्वीकायापने यावत् वनस्पतिकायापने क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! अनेकवार व अनंतबार उत्पन्न हुवा. परंतु देव पने या देवीपने उत्पन्न नहीं है। हुवा. ऐसे ही सब जीव आश्री जानना ॥ ११॥ अहो भगवन् ! यह जीव सब जीवों की माता, पिता, । बारहवा शतक का सातवा उद्देशा4.98 +8 Page #1788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५८ ॥ १२ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं अरित्ताए, वरियत्ताए, पायगत्ताए,वहगत्ताए ... पडिणीयत्ताए, पच्चामित्तत्ताए, उववण्ण पुल्वे? हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो सव्व जीवाविणं भंते ! एवंचव ॥ १३ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं रायत्ताएँ, जुवरायत्ताए, जाव सत्थवाहत्ताए उववण्ण पुव्वे ? हंता गोयमा ! असतिं जान अणंत खुत्तो ॥ सव्वजीवाणं एवंचेव ॥ १४ ॥ अयण्णं भंते ! जीवे सव्व जीवाणं दासत्ताए, पेसत्तार, भुयगत्ताए, भाइलगत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, वेसुत्ताए. — उववण्णपुब्वे ? हंता गोयभा ! जाव अणंतखुत्तो ॥ एवं सव्यजीवावि जावः अणंत भावार्थ माई, भगिनी, शार्या, पुत्र, पुत्री व पुत्रवधूपने क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! अनेकवार यावत् अनंतवार उत्पन्न हुवा ॥ १२ ॥ अ हो भगवन् ! यह जीव सब जीवों के शत्रु, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक, व अमित्रपने. क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! अनेकवार यावत् अनंतवार. जैसे एक जीवका कहा वैसे सब जीवोंका जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! यह जीव सब जीवों के राजा, युवराज. यावत् सार्थवाहपने पाहिले क्या * उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! अनेकवार यावत् अनंतवार उत्पन्न हुवा. ऐसे ही सब जीवों का जानना ॥१४॥ *अहो भगवन् ! यह जीवा सब जीवों के दास, प्रेपक, प्रत्यक, भागीदार, भोग पुरुष, शिष्य व द्वेष्यपने • अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द । - १७५९ भाव Tags पंचमांग वहााव पण्णति (भगवती) सूत्र - ते. उस काल ते०. उस समय में जा. यावत् प० ऐसा व० बोले दे. देव भं• भगवन् म० महर्दिक जा. यावत् म० महासुखी अ० अनंतर च० चवकर वि० विशगरी ना० नाग में उ० उत्पन्न होवे हे. हा खुत्तो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ दुवालसमसयस्सय सत्तमो उद्देसो १२ सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-देवेणं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे क्या पहिले उत्पन्न हुवा ? हां गौतम ! अनेकवार यावत् अनंतवार पहिले उत्पन्न हुवा. ऐसे ही. सब जीवों का जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य है. यह बारहवा शतक का सातवा उद्देशा Bसमाप्त हुवा ॥ १२॥७॥ ? सातवे उद्देशे में जीव की उत्पत्ति कही आठवे उद्देशे में उस का ही अन्य प्रकार से स्वरूप कहते हैं. उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महातीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! महद्धिक यावत् महा ऐश्वर्यवंत देव अपना शरीर छोडकर अंतर रहित दो शरीरवाला + नागपने क्या उत्पन्न होता है ? हां गौतम ! उत्पन्न होता है. वह नाग क्या अर्चनीय, दो शरीर दो भव आश्री लिया गया है एक भव नाग का व एक भव वहां से चक्कर मनुष्य होवे सो. नाग ॐ का अर्थ हाथी व संप दोनों होते हैं. बारहवा शतकका आठया उद्देशा Page #1790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । Mawwwwwwwwwwwwwwwww गो० गौतम उ० उत्पन्न होवे से वह त. तहां अ० अर्चनीय वं० चंदनीय पू० पूजनीय स सत्कार करने . योग्य स• सन्मान करने योग्य दि० दिव्य स सस स सत्य अवपात स० सनिहित पा० प्रातिहार्य भव्होके ततहां से अ. अनंतर उ० मरकर सि सिझे ब. बझे जा. यावत अं अंतकरे हैं. हां मिसिने जा यावत् अं• अंतकरे ॥ १॥ दे देव भं भगवन् म० महर्द्धिक ए. ऐसे जा० जावत् वि० विशरीरी म० अणंतरं चयं चइत्ता विसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा ? हंता गोयमा ! उक्वज्जेजा ॥ सेणं तत्थ अच्चिय बंदिय पइय सकारिय सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोबए है सणिहियपाडिहेरेयावि भवेज्जा ? हंता भवेज्जा ॥ सेणं भंते ! तओहितो अणंतरं उव्वटित्ता सिझेज्जा बुझेजा, जाव अंतकरेजा ? हंता सिझेजा जाव अंतं करेजा ॥ १ ॥ देवेणं भंते ! महिढीए एवं चेव जाव विसरीवंदनीय, सत्कार योग्य, सन्मान योग्य, मेवा योग्य, दीव्य, सत्य, स्वप्नादि से सत्य सेवा बतानेवाला व पूर्व संगति से पास रहकर कार्य करनेवाला देवाधिष्टित क्या होता है ? हां गौतम ! वह नाग ऐसा ही होता है. अहो भगवन् ! क्या वह नाग मरकर अंतर रहित मनुष्य गति में जाकर सीझ बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ? हां गौतम ! वह सीझे बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ॥ १॥ अहो भगवन् ! महर्दिक यावत् महा ऐश्वर्यवंत देव दो शरीरी मणि (पृथ्वीकाया विशेष ) में क्या उत्पन्न होता है ? अहो । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ answers 1 Page #1791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 शब्दार्थ * मणि में उ• उत्पन्न होवे ए. ऐसे जः जैसे ना नागका ॥ २ ॥ दे० देव भं० भगवन् म० महर्दिक ना० । यावत् वि. विशरीरी रु० वृक्ष में उ० उत्पन्न होवे ए. एसे ही ण विशेष जा. यावत् स. सन्निहित पा० प्रतिहार्य ला• सुंवाली करना लो० साफ करना म° पूजा भ० होवे से शेष तं० तैसे जा. यावत् अं० अंतकरे ॥ ३ ॥ गो. बडा वानर कुछ कुकुटवृषभ मं० मंडुकवृषभ णि निःशील नि० व्रतरहित णि. रेसु मणीसु उववजेज्जा एवं चेव जहा नागाणं ॥ २ ॥ देवेणं भंते ! महिड्डीए जाव विसरीरेसु रुक्खसु उववजेजा ? एवं चेव, णवरं इमं णाणत्तं जाव सण्णिहिय पाडिहेरे लाउलोइय महइयावि भवेजा, सेसं तंचेव जाव अंतं करेजा ॥ ३ ॥ अह भंते ! गोणं गुलबसभे कुक्कुडबसभे मंडुक्कबसभे, एएणं णिस्सीला, णिव्वया, णिग्गुणा, गौतम ! इस का सब अधिकार नाग जैने कहना ॥ २॥ अहो भावन् ! क्या महदिक देव दो शरीरी वृक्ष में उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! इम का सर अधिकार नाग जैसे कहना विशेष में उस वृक्ष के नजदिक। पूर्व संगति देवता से किया हुवा प्रतिहार्य कर्म से छाना गोबरादि से भूमिका साफ करे खडीचूनादि लगावे ! और इस से वह वृक्ष पूजनीय होरे यावत् मनुष्य बनकर सब दुःखों का अंतकरे. ॥ ३ ॥ अब नरक गामी का कथन कहते हैं. अहो भगवन् ! सब वानरों में बडा वानर, कुकुट वृषभ, मण्डूक वृषभ ये तीन । पंचमाङ्ग विवाह पण्पत्ति (भगवती) मूत्र 80-बारहवा शतक का आठवा उद्दशा 48 8 Page #1792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ६२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निर्गुणी णि मर्यादाविना के णि प्रत्याख्यान रहित पो० पोषध उ० उपवास का० काल के अवसर में का काल करके इ० इस.र० रत्तमभा पु० पृथ्वी में उ. उत्कृष्ट सा० सागरोपम ठि: स्थिति वाले ण नरक में णे. नारकीपने उ. उत्पन्न होवे स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर रा० करते . उत्पन्न होवे उ० उत्पन्न हुवा व० कहना ॥ ४ ॥ अ० अथ भं० भगवन् सी. सिंह व० व्यापू ज जैने उ उत्सर्पिणी उ० उद्देशा में जा० यावत् प० पराभर णि निःशील ए. ऐसे ही जा. यावत् २० कहना णिम्मेरा, णिप्पच्चक्खाण पोसहोववासा कालमासे कालंकिच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमद्विइयंसि णरगंसि जेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ उववज्जमाणे उववष्णेत्ति वत्तव्वं सिया ॥ ४ ॥ अह भंते ! सीहे वग्घे जहा उस्सप्पिणी उद्देसए जाव परस्सरे एएसिं णिस्सीला एवं चेव जाव वत्तव्यं सिया ॥ ५ ॥ अह भंते ! ढंके कंके पिलए मडए सिखीए एएणं णिस्सीला शील, व्रत, गण मर्यादा प्रत्याख्यान व पौषधोपवास रहिन काल करें तो इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक सागरोपमकी स्थिति मे क्या नरक नारकीपने उत्पन्न होवे ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उत्तर दिया। कि उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुवे भी हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! सिंह, व्याव वगैरह जो सातवे शतक के छट्टे उद्देशे में कहे वैसे वे शीलादि व्रत प्रत्याख्यान रहित यावत् नरक में उत्पन्न होते हैं ॥ ५ ॥ अहो * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ wwwwwwwwwwwwwww 29- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती.) सूत्र - ॥५॥ अ० अथ भं० भगवन् दं दंक कं० कंक पि० पीलक मं• मंडूक सि० मोर णि निःशील से. तं. तैसे जा. यावत व. वक्तव्यता मि० होवे ॥ १२ ॥८॥ - क. कितने प्रकार के भं. भगवन् दे० देव प. प्ररूपे गोर गौतम पं० पांच प्रकार के दे० देव प. प्ररूपे तं० बह ज जैो भ० भनिक द्रव्यदेव न नादेव ध० धर्मदेव दे० देवादिदेव भा० भावदेव ॥ १॥ सेसं तंचर जाव वत्तब्बं सिया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ! जाब विहरइ ॥ दुवालसम१ सयस्सय अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ८ ॥ . + कइविहेणं भंते! देवा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा भवियदव्वदेवा, नरदेवा, धम्मदेवा, देवाधिदेवा, भावदेवा ॥ १ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ भगवन् ! ढंक, कंक, पीलक, मण्डक, मयूर, शीलादि रहित होने से रत्नप्रभा पृथ्वी में एक सागरोपम की स्थिति से क्या नरक में उत्पन्न होते हैं ? भगवंतने उत्तरदिया कि हां गौतम ! वे नरक में उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे भगवान् गौतम स्वामी विचरने लगे. यह बारहवा शतक का आठवा उद्देशा पूर्ण हुआ. ॥ १२ ॥ ८॥ ___ आठवे उद्देशे में देवों की उत्पत्ति कही. नववे उद्देशे में देवका ही कथन करते हैं. अहो भगवन् ! देव * के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम ! देव के पांच भेद कहे हैं. १ भविकद्रव्य देव २ नरदेव ३ धर्मदेव । *388 बारहवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ Page #1794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी के से वह के० कैसे भं• भगवन् भ० भविक द्रव्यदेव भ० भविक द्रव्यदेव गो. गौतम जे० जो भ० भविक पं० पंगेन्द्रिय तिः तियेच १० मनुष्य दे देश में उ० उत्पन्न होने वाले से वह ते• इसलिये गो गौतम ९. ऐसा कु. कहा जाता है भ० भविक द्रव्यदव से वह के कैसे न नरदेव गो० गौतम जे. जो रा० राजा चा चातुरंत च० चक्रवर्ती उ० उत्पन्न स. समस्त च० चक्ररत्न प० प्रधान ण. नवनिधि म. समृद्धि को० कोश २० बत्तीस रा. राजा १० पधान स० सहस्र अ० सेवा करने वाले सा• सागर मे० भावयदव्यदेवा ? भवियदव्वदेवा गोयमा ! जे भविय पचिदिय तिरिक्ख जोणिएवा मणुस्सेवा देवेसु उववजित्तए से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ भवियदव्वदेवा ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ नरदेवा ? नरदेवा गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंत चक्कवट्टी उप्पण्ण सम्मत्त चक्कर यणप्पहाणा णवणिहि पइणो समिद्धकोसा, बत्तीसं रायवर सहस्साणुयातमग्गा, सागरवर महिलाहिपतिणो मणुस्सिंदा, से तेणटेणं जाव १४ देवाधिदेव और ६ भावदेव ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! भावेकद्रव्य देव क्यों कहा गया ? अहो गौतम ! गोर्यच पंचेन्द्रिय व मनुष्य में देवों का आयुष्य बांधकर देवलोक में उत्पन्न होने को योग्य होता है वह भविक द्रव्यदेव कहाता है. अहो भगवन् ! नरदेव किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! जो समस्त भरत क्षेत्र का राजा, चारों दिशा का चक्रवर्ती, चक्ररत्नादि सात एकेन्द्रिय व सेनापति आदि मात पंचेन्द्रिय * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ 4093 पंचमाङ्ग विवाह पण्यत्ति ( भगवती ) सत्र 20 पृथ्वी का अ० अधिपति म० मनुष्येन्द्र से वह ते ० इसलिये जा० यावत् न० नरदेव से वह के० कैसे मं० भगवन् ध० धर्मदेव गो० गौतम जे० जो अ० अनगार भ० भगवन्त इ० ईर्यासमितिवाले जा० यावत् गु० {गुप्तब्रह्मचारी से ० वह ते० इस लिये जा० यावत् घ० धर्मदेव से वह के कैसे भं० भगवन् ए० ऐसा वु' कहा जाता है दे० देवाधिदेव गो० गौतम जे० जो अ० अरिहंत भ० भगवन्त उ० उत्पन्न णा० ज्ञान (६० दर्शन धारक जा० यावत् सः सर्वदर्शी से० वह ते० इसलिये जा० यावत् दे० देवाधिदेव से० वह नरदेवा से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ धम्मदेवा ? धम्मदेवा गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारी से तेणट्टेणं जाव धम्मदेवा सेकेट्टे भंते ! एवं बुवइ देवाधिदेवा ? देवाधिदेवा गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्ण णाणदंसणधरा जाव सव्यदरिसी से तेणट्टेणं जाव देवाधिदेवा से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - भावदेवा ? मावदेवा गोयमा ! जे इमे भवणवई रत्नों प्रधान चौदह रत्न, नवनिधान समृद्ध भंडार वाला है बत्तीस हजार राजा जिनकी सेवा करते होवे समुद्रकी मेखला पर्यंत के स्वामी, मनुष्य के इन्द्र जो होते हैं वे नरदेव कहाते हैं. अहो भगवन् ! { धर्मदेव किसे कहते हैं ? अहो गौतम! जो अनगार ईर्ष्यासमिति युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हैं, वे धर्मदेव कहाते ६. अहो भगवन् ! देवाधिदेव किसे कहते हैं ? अ गौतम ! उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक यावत् सर्व दर्शी वहशत का नववा उद्देशा १७६८ Page #1796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी + १७६६ के कैसे भा० भावदेव गो. गौतम जे. जो भ० भान गति वा वागव्यंतर जो० ज्योतिषी ३० वैमानिक * दे० देव दे० देवगति णा नाम गो० गोत्र क० कर्म वे० वेदते हैं से० वह ते० इसलिये जा. यावत् भा०१ भावदेव ॥ २॥ सरल शब्दार्थ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया देवा देवगइनामगोयाई कम्माइं वेदेति से तेणटेणं जाव भावदेवा ॥ २ ॥ भवियदव्वदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति- किं णेरइए हिंतो उववजंति, तिरिक्ख-मणुस्स देवहितो उववजंति ? गोयमा ! णेरइएहितो उववजंति तिरि-मणु-देवहितो उववति ॥ भेदो जहा वकंतीए, सव्वेसु उववातेयव्वा जाव अणुत्तरोववाइयत्ति, णवरं असंखेजवासाउय अकम्मभूमिग अंतरदीव सव्वट्ठ अरिहंत भगवंत होते हैं वे देवाधिदेव कहाते हैं. अहो भगवन्!भावदेवकिसे कहते हैं?अहो गौतम! जो भवनएति, वाणव्यंतर, ज्योतिषि व वैमानिक देव देवगति, नाम, गोत्र के कर्म वेदते हैं वे भावदेव कहाते हैं. यह दूसरा लक्षण द्वार हुवा ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! भविक द्रव्य देव कहां से उत्पन्न होते हैं क्या नरक से उत्पन्न होते हैं तिर्यच, मनुष्य व देव में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम !' भविक द्रव्य देव नरक में से, तिर्यंच में से, मनुष्य व देव में से उत्पन्न होते हैं. इसका विशेष खुलासा पनवणा के छठा पद में कहा है वैसे कहना भावत् अनुत्तर विमान तक के देव उत्पन्न होते हैं.. परंतु असंख्यात वर्ष की स्थितिवाले. अकर्म *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ | Page #1797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17S 88 सिद्धवजं जाव अपराजिय देवोहितोवि उववज्जति । णरदेवाणं भंते! कओहिंतो उववजति किंणेरइए पुच्छा?गोयमा!णेरइएहितो उववजंति,णो तिरि णो मणु, देवहिती उववजति॥ जइ णेरइएहितो उववजंति किं रयणप्पभा पुढवि णेरइएहितो उववजंति जाव अहे १७६७ सत्तमाए पुढविए णेरइएहितोवि उववज्जति ? गोयमा ! रयणप्पभा पुढविणेरइएहितो उववज्जति, णो सक्कर जाव णो अहे सत्तम पुढवि णेरइएहितो उववजंति । जइ देवहितो उववज्जति किं भवणवासी देवहितो उववज्जति वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिय देवोहितो उववजंति ? गोयमा ! भवणवासि देवहितो उववजंति, वाणमंतर एवं सव्वभावार्थ भमि, अंतरद्वीप व सर्वार्थ सिद्ध में से चवकर भविक द्रव्य देव नहीं होते हैं क्यों की अकर्म भूमि व अंतर IE द्वीप के मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं और सर्वार्थ सिद्ध वाले मनुष्य में आकर सिद्ध होते हैं. अहो भगवन् ! नरदेव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नरक में से उत्पन्न होते हैं यावत् देवलोक में से । उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम! नरक व देव इन दोनों में से नरदेव उत्पन्न होते हैं परंतु मनुष्य तिर्यंच में से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं. जब नरक में से नरदेव उत्पन्न होते हैं तो क्या रत्नप्रभा में से यावत् तमतमई । 1 प्रभा में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा में से उत्तल होते हैं परंतु शेष छ नरक में से नहीं । पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र 909 बारहवा शतकका नववा उद्देशा पान Page #1798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावार्थ देठेसु उववाएयव्वा, वकंती भेदेणं जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति । धम्मदेवाणं भंते! कओहितो उववजंति-किं नेरइएहिंतो एवं वकंती भेदेणं सव्वेसु उववाएयव्वा जाव सव्वट्ठ सिद्धत्ति, णवरं तमा, अहे सत्तमाए तेऊवाऊ असंखेज वासाउय अकम्मभूमिग अंतरदीवग बजेसु । देवाधिदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति किं गैरइएहिंतो उववजंति पुच्छा ? गोयमा ! णेरइएहिंतो उववज्जंति, णो तिरि णो मणु देवहितो उववज्जति । जइ णेरइए एवं तिसु पुढविसु उववजंति सेसाओ खोडेयवाओ,जइ देवहितो वेमाणिए मु उत्पम होते हैं जब देव में से उत्पन्न होते हैं तब क्या भवनपति में से उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक में से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम भवनपति वाणव्यंतर यावत् सर्वार्थसिद्धमें से उत्पन्न होते हैं वगैरह मत्र पनवणा के छठे पद से जानना. अहो भगवन् ! धर्मदेव क्या नरक यावत् देवगाति में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! नरक यावत् देवगति में से उत्पन्न होते हैं उस की सत्र उत्पत्ति पन्नाणा मूत्रानुसार जानना परंतु, छठी, सातवी पृथ्वी, तेऊ वायु, असंख्यात वर्ष वाले अकर्म भूमि व अंतरद्वीप के मनुष्य में से धर्मदेव नहीं होसकते हैं. अहो भगवन् ! देवाधिदेव कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! नरक व देवलोक में से देवाधिदेव उत्पन्न होते हैं परंतु मनुष्य तिर्यंच में से नहीं उत्पन्न होते हैं. नारकी में से रत्नप्रभा, शर्कर प्रभा व बालुपमा ऐसी तीन नरक में से उत्पन्न होते हैं और देवलोक में से सर्वार्थ सिद्ध तक के सब * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hits १९६९ सव्वेसु उववजति जाव सन्वट्ठ सिद्धत्ति, सेसा खोडेयव्वा । भावदेवाणं भंते ! कओहितो उववज्जति ? एवं जहा वकंतीए भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियब्वं ॥३॥ भवियदव्वदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं ॥ णरदेवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तवाससयाई उक्कोसेणं चउरासीति पुव्व सयसहस्साई। धम्मदेवाणं भंते । पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी । देवाहिदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं बावत्तारें वासाई, उक्कासेणं चउरासीइ पुव्व सयसहस्साइं। भाव देवाणं पुच्छा? गोयमा ! जहणणं दसवास सहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवभावार्थ वैमानिक में से उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! भावदेव कहां से उत्पन्न होते हैं ? कहो गौतम ! जैसै पनवगा मूत्र में छठे पद का कहा वैसे कहना. यह तीसरा उत्पत्ति द्वार हुवा ॥ ३ ॥ अहो भगवन् भाविक द्रव्य देव की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही. नरदेव की स्थिति जघन्य सातसो वर्ष की उत्कृष्ट चौरासी लक्ष पूर्व की, धर्मदेव की स्थिति जघन्य अंतर्मुहुर्त org 16उत्कुष्ट देशऊणा क्रोड पूर्व, देवाधिदेव की स्थिति जघन्य बहात्तर वर्ष उत्कृष्ट चौरासी लक्ष पूर्व. भावदेव की पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ___88 चारहवा शतक का नववा Page #1800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अंनुवादक बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋोनी+ माई ॥ ४ ॥ भविय दव्वदेवाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए पहुत्तपि पभू विउवित्तए ? गोयमा ! एगत्तंपि पभू विउवित्तए पुहुत्तंपि पभू विउवित्तए ॥ एगत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवं जाव पंचिंदिय रूवंबा, पुहत्तं विउव्वमाणे एगिदिय रूवाणिवा जाव पंचिंदिय रूवाणिवा, ताई संखेजाणिवा असंखेजाणिवा, संबद्धाणिवा असंबद्धाणिवा, सरिसाणिवा असरिसाणिवा, विउन्वित्तए विउव्वित्ता .तओ पच्छा अप्पणो जहत्थियाइं कज्जा करेंति एवं णरदेवावि एवं धम्मदेवावि ॥ देवाहिदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगत्तंपि पभू विउव्वित्तए पुहत्तंपि पभू विउवित्तए, णो चेवणं संपत्तीए, र स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! भविक द्रव्य देव एक अथवा अनेक रूप वैक्रय करने को क्या समर्थ है ? अहो गोलम ! एक अथवा अनेक रूप वैक्रेय करने को भविक द्रव्य देव समर्थ है ? एक रूप वैक्रय करते एकेन्द्रिय यावत् पंचन्द्रिय के रूप का वैक्रेय करे और अनेक रूप वैक्रेय करत एकेन्द्रिय के रूपों यावत् पंचेन्द्रिय के रूपों . संख्यात व असंख्यात संबद्ध या असंबद्ध, सदृश या असदृश ऐसे वैक्रय करने को समर्थ है. फीर अपना इच्छित कार्य करते हैं, ऐसे ही नरदेव व धर्मदेव का जानना. देवाधिदेव एक अथवा अनेक वैक्रय करने में समर्थ हैं * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*. भावार्थ । Page #1801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ **> पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र विउव्विसुवा विव्वितिवा, विउव्विस्संतिवा । भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा ॥ ५ ॥ भवियदव्वदेवाणं भंते ! अनंतरं उव्वहित्ता कहिं गच्छति कहिं उववजंति, किं इस उववजति जाव देवसु उववजंति ? गोयमा ! णो णेरइएमु उववजंति, णो तिरि णोमणु, देवसु उववजंति ॥ जंइ देवेसु उंववज्जति सव्वदेवेसु उववजंति जाव सव्बट्ठसिद्धत्ति । णरदेवाणं भंते! अनंतरं उव्वंहित्ता पुच्छा ? गोयमा ! णेरइएसु उवत्रजंति, णोतिरि णोमणु णोदेवेसु उववज्जति ॥ जइ णेरइएसु उववज्जंति सत्तसुवि पुढवी उवत्रजांते ॥ धम्मदेवाणं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता पुच्छा ? गोयमा ! णो परंतु उत्सुकता रहित होने से गत काल में इतने रूप किये नहीं, करते नहीं हैं व करेंगे नहीं. भाव देव का भविक द्रव्य देव जैसे कहना || ५ || अहो भगवन् ! भविक द्रव्य देव चवकर क्या नरक यावत् देवलोक में उत्पन्न होते ? अहो गौतम ! भविक द्रव्य देव नरक, तिर्यंच व मनुष्य में नहीं उत्पन्न होते हैं. परंतु देवलोक में उत्पन्न होते हैं और देवलोक में सब देवलोक में यावत् सर्वार्थ सिद्ध में उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! नरदेव चवकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! नरक में उत्पन्न होते हैं परंतु तिर्यंच, मनुष्य व देव में नहीं उत्पन्न होते हैं जब नरक में उत्पन्न होते हैं तब सातों नरक में से किसी 4 बारहवा शतकका नववा उद्देशा १७७१ Page #1802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी gh णेरइएसु उववजंति, जोतिरि गोमणु, देवेसु उववजंति ॥ जइ देवेसु उवरजति किं भवणवासि पुच्छ!? गोयमा ! णो भवणवासी देवेसु उववज्जति, णो वाणमंतर, णो जोइ सिय, वैमाणिय देवेसु उववजंति, सव्वेसु वेमाणिएसु उववजंति, जाव सव्वट्टसिद्धे उववजंति, अत्थगइया सिजंति जाव अंतं करेंति देवाहिदेवाणं भंते ! अणंतरं उहित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? गोयमा ! सिझंति जाव अंतं करेंति भावदेवाणं भंते! अणंतरं उब्वटित्ता पुच्छा ? जहा वकंतीए असुरकुमाराणं उव्वदृणा तहा भाणियव्वा ॥ ६ ॥ भवियदव्वदेवाणं भंते ! भवियदव्वदेवोत्त कालओ केवनरक में उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! धर्मदेव चवकर कहां उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! नरक, तिर्यंच व मनुष्य में नहीं उत्पन्न होने से पांत देवलोक में उत्पन्न होते हैं. जर देवलोक में उत्पन्न होते हैं. नब सब वैमानिक देव में सर्वार्थ सिद्ध वैमानिक तक उत्पन्न होते हैं और कितनेक सिद्ध बुद्ध यावत् मुक्त होते. अहो भगवन ! देवाधिदेव कहां उत्पन्न होते है ? अहो गौतम ! देवाधिदेव भीझते है. बत यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं. अहो भगवन् ! भावदेव वहां से चवकर कहां उत्पन्न होते हैं ? अहो । गौतम ! जैसे असुर कुमार का उत्पन्न होने का कहा वैसे ही उतना कहना ॥ ॥६|| अहो भगवन् ! - प्रकाशक रामबहादुर लाला सुखदेवप्सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #1803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tes पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 88+ चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कासेणं तिणि पलिओवमाइं, एवं जच्चेव तित्ती सच्चेव संचिट्ठणावि जाव भावदेवा, णवरं धम्मदेवस्स जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं देसूणाई पुबकोडी ॥ ७ ॥ भवियदव्व देवस्सणं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्साइं अंतोमुहत्त मब्भहियाई, उक्कासेणं अणतं कालं, वणस्तइकालो नरदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अणंतकालं अवढे पोग्गलपरियटुं देसूणं । धम्मदेवरसणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिआवमपुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवर्ल्ड पोग्गलपरियट देसूणं ॥ ३० ॥ देवाधिदेवाणं पुच्छा ? भविक द्रव्य देव भविक द्रव्य देवपने कितना कालतक रहता है ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट तीन पल्योपम यों जैसे पहिले भव स्थिति कही वैसे संचिठना काल जानना. परंतु धर्मदेव की जघन्य एक 00 समय उत्कृष्ट देश उना क्रोड पूर्व ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! भविक द्रव्य देव को कितना अंतर कहा ! अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहून अधिक दश हजार वर्ष उत्कृष्ट अनंत काल वनस्पति आश्री, नरदेव का अंतर जघन्य एक सागरोपम अधिक, उत्कृष्ट अनंत काल अथवा देश ऊना अर्ध पुद्गल परावर्त कहना. धर्म, वारहवा शतकका नववा उद्देशा भावार्थ Page #1804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७४ 402 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - गोयमा ! णत्थि. अंतरं भावदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो ॥ ८ ॥ एएसिणं भंते ! भवियदव्व देवाणं णरदेवाणं जाव भावदेवाणय कयरे २ हिंतो जाब विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा णरदेवा, देवाहिदेवा संखेजगुणा, धम्मदेवा संखजगुणा, भविय दवदेवा असंखेजगुणा, भावदेवा असंखेजगुणा, ॥ ९ ॥ एएसिणं भंते ! भावदेवाणं भवणबासीणं, वाणमंतराणं, जोइसियाणं, वेमाणियाणं, सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं गेवेज्जगाणं अणुत्तरोववाइयाणय कयरे कयरेहिता जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! देव का अंतर जघन्य प्रत्येक पल्योपम उत्कृष्ट देश ऊना अर्ध पुद्गल परावर्त, देवाधिदेव का अंतर नहीं है । और भावदेव जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट अनंत काल ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! भविक द्रव्य देव, नरदेव, यावत् भावदेव में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे नरदेव उस से देवाधिदेव संख्यातगुने उम से धर्मदेव संख्यानगुने उत से भविक द्रव्य देव असंख्यातगुने उस से 9 भावदेव असंख्यातगुने ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! भावदेवों में भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक सौधर्म यावत् अच्युत ग्रैवेयक यावत् अनुत्तर विमान इनमें कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव सहायनी चालाप्रसादजी. भावार्थ Page #1805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 498 भावार्थ सव्वत्थोवा अणुत्तरोवाइया भावदेवा, उपरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेजगुणा, मझिमगेवेज्जा संखेजगुणा; हेट्ठिम गेवेज्जा संखेजगुणा, अच्चुयकप्पे देवा संखेजगुणा, जाव आणतकप्पे भावदेवा एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिस अप्पाबहुयं जाव १७७५ जोइसिया भावदेवा असंखेजगुणा ॥ १० ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ दुवालसम सयस्सयं बमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ९॥ . कइविहाणं भंते ! आता पण्णता ? गोयमा ! अट्टविहा आता पण्णसा, तंजहा अहो गौतम ! सब मे थोडे अनुत्तरोपपातिक भावदेव उस से उपर की गयक के भावदेव संख्यातगुने, उम से मध्यम ग्रेवेयक के भावदेव संख्यातगुने उस से नीचे की ग्रैवेयक के भावदेव संख्यातगुने उस से अच्यत देवलोकवाले संख्यातगने यावत् आनत देवलोक के भावदेव संख्यातगने इस तरह जैसे जीवाभिगम में देव पुरूष की अल्पाबहुत्व कहीं वैसे कहना. यावत् ज्योतिषी देव असंख्यातगुने. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह वारहवा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ ९ ॥ 3 नववे उद्देशे में देवता का कथन किया. देव आत्मावाले होने से इस उद्देशे में आत्मा का कथन करते हैं, अहो भगवन् ! आत्मा के कितने भेद कहे हैं ? अहो मौतम ! जो अपर पर्याय को सतत जाता है. अथवा उसयोग लक्षण से जो सतत जानता है उसे आत्मा कहते हैं. इस के आठ भेद कहे हैं.. | 33. बारहवा शतक का दशवा उद्देशा Page #1806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७६ मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + भावार्थ दवियाता, कसायाता, जोगायाता, उवओयाता, णाणत्ता, दसणाया, चरित्ताया, वीरियाता ॥ १ ॥ जस्मणं भंते ! दवियाता तस्सणं कसायाता, जस्स कसायाता तस्स दवियाता ? गोयमा ! जस्स दवियाता तस्स कसायाता सियअस्थि सियणत्थि, जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाता णियमं अत्थि ॥ जस्सणं भंते ! दवियाता तस्स जोगाता एवं जहा दवियाता कसायाता भणिया तहा दवियाता जोगायायावि भाणित्रिकालानुगामी उपसर्जनी कृत कषायादि पर्यायरूप आत्मा सो द्रव्य आत्मा २ क्रोधादि कपाय विशिष्ट अ आत्मा सो कषाय आत्मा यह आत्मा अनुपशान्त कषायवंतको होता है ३ मन प्रति व्यापार रूप जो योग वह जिम को प्रधान आत्मा है सो योगात्मा यह योगवंत जीवों को होता है. ४ साकार अनाकार भेद मे उपयोग जिन को प्रधान है मो उपयोग आत्मा यह संसार व मिद्ध दोनों को होता है ५३ ज्ञान विशेष उपसर्जनी कृत दर्शनादि आत्मा सो ज्ञानात्मा यह सम्याग्दृष्टि को होता है ६ ऐसे ही दर्शन आत्मा का जानना परंतु दर्शनात्मा सब जीवों को होता है ७ चारित्र आत्मा विरती को होता है और १८ उत्थानादि वीर्यरूप आत्मा सो वीर्यात्मा ॥१॥ अब इन आठों आत्मा का परस्पर संयोग बताते हैं. "अहो भगवन् ! जिस को द्रव्य आत्मां है उम को क्या कषाय आत्मा है अथवा जिस को काय आत्मा है उसको क्या द्रव्य आत्मा है ? अहो गौतम ! जिसको द्रव्य आत्मा है उसको कपाय आत्मा * मश: राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालाप्रसौंदजी * Page #1807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 486+ पंचमांग रहा।व पण्णति ( भगवती ) सूत्र या ॥ जस्सणं भंते ! दवियाता तस्स उवओगाता एवं सव्वत्थ पुच्छा भाणियन्त्रा ? गोयमा ! जस्स दत्रियाता तस्स उवओगाया नियमं अत्थि, जस्सकि उवओगाता तस्सवि दत्रियाता नियमं अस्थि । जस्स दवियाता तस्स णाणाता भयणाए, जस्स पुण जाणता तस्स दवियाता नियमं अस्थि । जस्स. दवियाता तस्स दंसणाता नियमं क्वचित होता है और काचित् नहीं भी होता है. क्योंकी अनुपशान्त कषायी को द्रव्यात्म व कषायात्मा दोनों हैं और उपशांत कपायी को कषायात्मा नहीं है परंतु द्रव्यात्मा है और जिस को किपायात्मा है उस को द्रव्य आत्मा निश्चय ही होता है. अह्मे भगवन् ! जिस को द्रव्य आत्मा है उस को क्या योगात्मा है और जिस को योगात्मा है उस क्या द्रव्यात्मा है ? अहो गौतम ! जो सयोगी है उस द्रव्यात्मा व योग आत्मा दोनों हैं और जो अयोगी है उस को मात्र द्रव्य आत्मा है इस से द्रव्य आत्मा को योग आत्मा क्वचित् होता है और क्वचित् नहीं होता है और योग आत्मावाले को द्रव्य आत्मा अवश्य मेव होता है; क्यों की द्रव्यात्मा विना योगोंकी प्रवृत्ति नहीं है. अहो भगवन् ! द्रव्य आत्मा वाले को {क्या उपयोग आत्मा और उपयोग आत्मा वाले को क्या द्रव्य आत्मा होता है ? अहो गौतम ! जिन को ( द्रव्य आत्मा है उन को उपयोग आत्मा अवश्यमेव होता है और जिनको उपयोग आत्मा है उम को द्रव्य आत्मा अवश्यमेव होता है क्यों की जीव उपयोग लक्षण वाला कहाता है, और 8064408 बारहवा शतक का दशवा उद्देशा ++ १७७७ Page #1808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amanna अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अथि, जस्सवि ईसणाता तस्स दवियाता पियम अत्थि ॥ जस्स दवियाता तस्स घरित्ताया भयणाए जस्स पुण चरित्ताता तस्स दवियाता णियमं आत्थि ॥ एवं वीरियाता एवि समं ॥ २ ।। जस्सणं भंते ! कसायाता तस्स जोगाया पुच्छा ? गोयमा ! जस्स कसायाता तस्स जोगाता णियमं अत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाता सिय उन दोनों को अविनाभूत संबंध है. अहो भगवन् ! जिस को द्रव्यात्मा है उम को क्या ज्ञानात्मा और ज्ञानात्मा वाले को क्या द्रव्यात्मा है ? अहो गौतम ! जिस को द्रव्य आत्मा है उस को ज्ञानात्मा की है क्यों की सम्यग् दृष्टि को ज्ञानात्मा होता है और जो समदृष्टि होते हैं उन को ज्ञानात्मा द्रव्यात्मा दोनों होते हैं मिथ्या दृष्टि को मात्र द्रव्य आत्मा होता है और ज्ञानात्मा वाले को द्रव्यात्मा की नियमा है क्यों की ज्ञानमय आत्मा है. जिप्त को द्रव्यात्मा होता है उस को दर्शनात्मा निश्चयही होता है और जिस को दर्शनात्मा होता है उम को द्रव्यात्मा निश्चय ही होता है क्यों कि दोनों अविना भूत हैं. द्रव्य आत्मा वाले को चारित्र आत्मा की भजना है क्यों कि विरति द्रव्यात्मा को चारित्र है और अविरति व सिद्धको चारित्र नहीं है और चारित्र आत्मा वाले को द्रव्यात्मा निश्चयकी है क्यों की द्रव्यात्मा बिना चारित्र नहीं ग्रहण किया जासकता है. द्रव्य आत्मा वाले को वीर्यात्मा की भजना है और वीर्यात्या वाले को द्रव्यात्मा की नियमा है, सिद्ध में द्रव्यात्मा है परंतु करण वीर्य का अभाव है और संसारी। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 भाव अत्थि सिय पत्थि॥ एवं उवओगाएविसमं कसायातायव्वा कसायाताणाणाताय परोप्पर दोवि भइयव्वाओ जहा कसायाताय उवओगायाय तहा कसायाया,दसणाताय कसायाता चरित्ताताय दोवि परोप्परं भइयव्वाओ, जहा कसायाता जोगाता तहा कसायाता वीरियाताय भाणियव्याओ एवं जहा कसायाता बत्तव्वया भणिया तहा जोगायाएवि उवरिमाहि समं में करण वीर्य है वहां द्रव्यात्मा अवश्य ही है. इस तरह द्रव्यात्मा की साथ अन्य सात आत्माओं संबंध कहा.॥२॥अब कषायात्मा की साथ अन्य छ का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या कषायात्मा वाले टको योगात्मा और योगात्मा वाले को कपायात्मा है ? अहो गौतम ! जिसको कषायात्मा है उस को योगात्मा की नियमा है और योगात्मावाले को कषायात्पा की भनना है क्यों की कषाय दशना गुणस्थान पर्यंत है और योग तेरहवा गुणस्थान पर्यंत है. कषाय आत्मा वाले को उपयोग आत्मा अवश्यमेव होता है क्यों कि उपयोग शून्य आत्मा कदापि होता नहीं है और उपयोग आत्मा वाले को कषायात्मा की भजना होती है क्यों की उपशांत कषायी और क्षीण कषायी को उपयोग होता है परंतु कषाय नहीं होती है. कषायात्मा को ज्ञानात्मा की भजना है। और ज्ञानात्मा को कषायात्मा की भनना है क्यों की सम्यक् दृष्टि कषायात्मा को ज्ञानात्मा है और मिथ्यांदृष्टि कषायात्मा को ज्ञानात्मा नहीं है. वैसे ही उपशांत व क्षीण कषायी ज्ञानात्मा को कषाय नहीं । है और शेष संसारी कषाय ज्ञानात्मा को कषायात्मा होता है.. कषायात्मा को दर्शनाला की नियमा है क्यों की दर्शन शून्य आत्मा नहीं होता है और दर्शनात्मा को कषायात्मा की भ.न. है उपयोग आस्मा 428 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र Page 4 बारहवा शतकका दशवा सातवा 8-984 Page #1810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८० भावार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भाणियव्वा जहा दावयाताए वत्तव्यया भणिया तहा उवओगाताएवि उर्वरिलाहिं समं भाणियव्वा जस्स णाणाया तस्स दसणाया णियमं अत्थि, जस्स पुण दसणाया तस्स णाणाया भयणाए । जस णाणाया तस्स चरित्ताया. सिय अत्थि जैसे कषाय आत्मा को चारित्रामा क्वचिद है कषायी साधुवत् और कषायात्मा को चारित्रत्मा नहीं भी है संसारीक्त. चारित्रात्मा को कषायात्मा की भजना है क्यों की उपशांत व क्षीण कषायी को चारित्र है। परंतु कषाय नहीं है. और सकपायी अनगार को कषाय व चारित्र दोनों होते हैं. कषायात्मा व योगात्मा का जैसे कहा वैसे कषायात्मा व वीर्यात्मा का जानना अर्थात् कषायात्मा को वीर्यात्मा अवश्यमेव होता है और वीर्यात्माको कपायात्मा की भजना है क्यों कि कषाय मात्र दशवा गुणस्थान पर्यंत है यह कषायात्मा की साथ छ आत्मा का कहा. जैसे कषायात्मा की वक्तव्यता कही वैसे ही योगात्मा की वक्तव्यता उपर के पांच आत्मा की साथ कहना अर्थात् योगात्मा को उपयोगात्मा अवश्यमेव होता है और उपयोगास्माको योग आत्मा की भजना अयोगी सयोगीवत्. समदृष्टि योगात्मा को ज्ञानात्मा होता है और मिथ्यादृष्टि योगात्मा को ज्ञानात्मा नहीं होता है, और सयोगी ज्ञानात्मा को योगात्मा होता है और . अयोगी ज्ञानात्मा को योगात्मा नहीं है इस से दोनों की परस्पर भजना है. योगात्मा को दर्शनात्मा नियमा है दर्शन शून्य आत्मा नहीं होने से और दर्शवात्मा को योगात्मा की भजना है अयोगी भवस्था में. योगात्मा को • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anos 14 सिय पत्थि ॥ जस्स पुण चरित्ताया तस्स णाणाया णियमं अत्थि ॥ णाणाता वीरि. म याता दोवि परोप्परं भयणाए, जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दोवि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दसणाया णियमं अत्थि, जस्स चरित्ताया तस्स वीरियाता णियमं | १७८१ चारित्र आत्मा की भजना है अविरति व विरति आश्री और चारित्रात्मा को योगात्मा की भजना है। सयोगी अयोगी होने से, योगात्मा को वीर्यात्मा की नियमा है और वीर्यात्मा को योगात्मा की भजना है. यह योगात्मा का कथन किया. अब उपयोगात्मा का कथन करते हैं जैसे द्रव्यात्मा का कहा वैसे उपयोगात्मा का जानना. अर्थात् उपयोगात्मा को ज्ञानात्मा की भजना है सम्यग् दृष्टि व मिथ्या दृष्टि होने से और ज्ञानात्मा को उपयोगात्मा की नियमा है. उपयोगात्मा व दर्शनात्मा दोनों की परस्पर नियमा है। अविनाभूत संबंध होने से उपयोगात्मा को चारित्रात्मा की भजना और चारित्रात्मा को उपयोगात्मा की नियमा है. उपयोगात्मा को वीर्यात्मा की भजना है संसारी व सिद्ध आश्री और वीर्याला को उपयोगात्मा की नियमा है. यह उपयोगात्मा का कथन किया. अब ज्ञानात्मा का कथन करते हैं. ज्ञानात्मा को दर्शनात्मा की नियमा, दर्शन शून्य जीव नहीं होने से और दर्शन आत्मा को ज्ञानात्मा की भजना सम्यग् । दृष्टि व मिथ्या दृष्टि आश्री. ज्ञानात्मा को चारित्रात्मा की भजना विरति अविरति आश्री और चारित्रास्मा को ज्ञानात्मा की नियमा ज्ञान विना चारित्र का उदय नहीं होने से. ज्ञानात्मा को वीर्यात्मा की भजना पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र बारहवा शतकका दशवा उद्देश 882 Page #1812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७८२ श्री अमोलक ऋषिजी अस्थि, जस्स पुण वीरियाता तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय जत्थि ॥ ३ ॥ एयासिणं भंते ! दवियाताणं कसायाताणं जाव वीरियाताणं कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहियावा? गोयमा! सव्वत्थावा चरित्ताया, णाणायाओ अणंत गुणाओ, कसायायाओ अणंतगुणाओ जोगायाओ विसेसाहियाओ, वीरियाताओ विसेसाहियाओ, उवओग दविय दसणाताओ तिण्णिवि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ ४ ॥ आया भंते ! णाणे अण्णे और वीर्यात्मा को ज्ञानात्मा की नियमा संसारी सिद्ध आश्री. यह ज्ञानात्मा का कथन किया. दर्शन आत्मा को चारित्र व वीर्यात्मा की भजना है और चारित्र व वीर्यात्मा को दर्शनात्मा की नियमा है. चारित्रात्मा वीर्यात्मा की नियमा और वीर्यात्मा को चारित्रात्मा की भजना है विरति अविरति आश्री ॥ ३ ॥ अहो । भगवन् ! इन द्रव्यात्मा कषायात्मा यावत् वीर्यात्मा में से कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है अहो गौतम ! सब से थोडे चारित्रात्मा क्यों कि उत्कृष्ट साधु नव क्रोड रहते हैं इस से ज्ञानात्मावाले अनंतगुने सिद्ध आश्री, इस से कषायात्मा अनंतगुने वनस्पति आश्री, इम से योगात्मा विशेषाधिक तेरहवा गुणस्थान आश्री, इस से वीर्यात्मा विशेषाधिक चौदहवा गुणस्थान आश्री, इस से उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा वन र्शनात्मा ये तीनों परस्पर तुल्य और विशेषाधिक क्यों कि यह तीनों सब में होते हैं॥४॥ अहो भग * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८३ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र ८.११ णाणे? गोयमा ! आया सिय णाणे सिय अण्णाणे, णाणे पुण णियमं आया ॥ ५॥ आयाणं भंते! गैरइयाणं णाणे अण्णे णेरइयाणं णाणे ? गोयमा! आया णेरइयाणं सियणाणे सिय अण्णाणे, णाणे पुण तेणियमं आया, एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ आया भंते! पुढवी काइयाणं अण्णाणे अण्णे पुढवी काइयाणंअण्णाणे,? गोयमा ! पुढवीकाइयाणं णियम अण्णाणे अण्णाणे णियमं आया, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं ॥ बेइंदिया तेइंदिया जाव वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं ॥ ६ ॥ आया भंते ! दंतणे अण्णे दसणे ? गोयमा ! वन् ! क्या आत्मा ही ज्ञान है या आत्मा से अन्य ज्ञान है ? अहो गौतम ! सम्यक्त्व होने से आत्मा क्वचित् ज्ञान है और मिथ्यात्व होने से आत्मा क्वचित् अज्ञान है. परंतु ज्ञान में आत्मा निश्चय ही हो है क्यों कि आत्मा का ज्ञान गुण रहा है ॥५॥ अहो भगवन् ! नारकी का आत्मा क्या ज्ञान है अन्य ज्ञान है ? अहो गौतम ! नारकी का आत्मा काचित् ज्ञानमय है और क्वचित् अज्ञानमय है. ज्ञान में आत्मा निश्चयही होता है. ऐसे ही असुर कुमार यावत् स्थमित कुमार पर्यंत दश भुवनपति का जानना. अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया का क्या आत्मा अज्ञान है या अन्य अज्ञान है ? अहो गौतम ! पृठी काया में नियमा अज्ञान होता है और अज्ञान में नियमा आत्मा होता है ऐसे ही वनस्पति काया wwwmmmmmmmmmm 48800 बारहवा शतक का देशका उद्देशा भावार्थ 488 Page #1814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૮ - आया णियमं दसणे, दसणेवि णियमं आया ॥ आया भंते ! णेरइयाणं दसणे अण्णे णेरइयाणं दंसणे ? गोयमा ! आया णेरइयाणं णियमं दसणे, दसणेवि णियमं आया, एवं जाव वेमाणियाणं निरंतरं दंडओ ॥ ७ ॥ आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी, अण्णा रयणप्पभा पुढवी ? गोयमा ! रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय णो आया सिय अवत्तव्वं आतातिय णो आतातिय से केण?णं भंते ! एवं जाव वुच्चइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय णो आया सिय अवत्तव्वं भावार्थ तक कहना. बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय यावत् वैमानिक तक सब दंडक का नारकी जैसे कहना. ॥ ६ ॥ अहो । E भगवन् ! क्या आत्मा दर्शन है या अन्य कोई दर्शन है ! अहो गौतम ! आत्मा निश्चय ही दर्शन होता है और दर्शन अवश्यमेव आत्मा होता है. अहो भगवन् ! नारकी का आत्मा दर्शन है या अन्य दर्शन है ? अहो गौतम ! नारकी का आत्मा नियमा दर्शन होता है और दर्शन नियमा आत्मा होता है. ऐसे में ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. ॥ ७ ॥ अब अन्य प्रकार से आत्मा का स्वरूप कहते हैं. अहो । भगवन् ! क्या आत्मा रत्नप्रभा है या अन्य रत्नप्रभा है अर्थात् सद्रूप (विद्यमान रूप) रत्नप्रभा है अथवा असद्रूप [ अविद्यमान रूप] रत्नप्रभा पृथ्वी है ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी क्वचित् भात्मा 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी : *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णास ( भगवती ) सूत्र +48 णो आयातिय ? गोयमा ! आयातिय अप्पणी आदिट्ठे आया, परस्स आदिट्ठे णो आया, तदुभय आदिट्ठे अवत्तव्यं, रयणप्पभा पुढवी आयातिय णो आयातिय से तेणट्टेणं तंचेत्र जाव णो आयातिय ॥ आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभावि एवं जाव अहे सत्तमाए || आया भंते ! सोहम्मे कप्पे पुच्छा ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय जो आया जाव 'णो आयातिय; से केणट्टेणं भंते ! जाव णो आयातिय ? गोयमा ! अप्पो आदिट्ठे आया, परस्त्र आदिट्ठे णो आया, तदुभय आदिट्ठे अवतव्वं, आयातिय णो आयाअसद्रूपा है और क्वचित् सद्रूपा व असद्रूपा पने करने को अशक्य वस्तु है. अहो भगवन् ! किस { कारन से ऐसा कहा गया है कि रत्नप्रभा पृथ्वी क्वचित् मद्रूपा काचित् असद्रूपा और क्वचित् सद्रूप व असद्रूप पने करने में अशक्य वस्तु है ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा स्वतः के वर्णादि पर्याय अर्थात् स्त्रपर्याय अपेक्षा से आत्मा है अन्य के वर्णादि पर्याय की अपेक्षा से अनात्मा असद्रूपा है और दोनों { की अपेक्षा से आत्मा अनात्मा करने में अशक्य वस्तु है. अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी क्वचित् आत्मा क्वचित् {नो आत्मा है. इस से अहो गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी क्वचित् सद्रूप्रा क्वचित असद्रूपा और सदसद्रूप पने { 4+ बारहवा शतक का दशना उद्देशा 40380+ १७८५ Page #1816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिय ; से तेणटेणं गोयमा ! तंचव जाव णो आयातिय, एवं जाव अचुयकप्पे ॥ आया भंते ! गेविजगविमाणे अण्णे गविजगविमाणे एवं जहा रयणप्पभा पुढवी तहेव एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं ईसिप्पन्भारावि ॥ ८ ॥ आया भंते ! परमाणुपोग्गले अण्णे परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियब्वे ॥ आया भंते! दुपदेसिए खंधे अण्णे दुपदेसिए खंधे? गोयमा! दुपदेसिए खंधे सिय आया सिय णो आया सियअवत्तव्वं, आयातियणो आयातिय, सिय आयाय सिय णोआयाय ४ सिय आयाय अवत्तव्वं आयातिय णो आयातिय ५, सिय णो आयाय अवत्तव्वं, आयातिय णो भावार्थ अवक्तव्य है. जैसे रत्नप्रभा का कथन किया वैसे ही सातवी तमतयममा पृथ्वी तक और सौधर्म यावत् । अच्युत ऐसे बारह देवलोक, नव ग्रैवंयक पांच अनुत्तर विमान और ईषत्मागभार पृथ्वी तक का जानना ॥ ८॥ अहो भगवन् ! क्या सद्रूप परमाणु पुद्गल है या अन्य असद्प परमाणु पुद्गल है ? अहो गौतम ! जैसे सौधर्म देवलोक का कहा वैसे ही परमाणु पुद्गल का जानना. अहा भगवन् ! क्या आत्मा | द्विपदेशिक स्कंध है या अन्य द्विपदेशिक स्कंध है ? अहो गौतम ! द्विपदेशिक स्कंध में छ भांगे होवे ? 17१ स्यादात्मा २ स्यादनात्मा ३ स्याद् अवक्तव्य ४ एक देश आश्री सत्तागत पर्याय दूसरा देश भाश्री 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ wwwwwwwwww प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी. . Page #1817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णति ( भगवती सूत्र आयातिय ६ ॥ से केणटुणं भंते! एवंचेत्र जाव णो आयाय अवतव्वं आयातिय णो आयातिय ? गोयमा ! अप्पणो आदिट्ठे आया, परस्स आदिट्ठे णो आया, तदुभयस्स आदिट्ठे अवत्तव्यं दुपदेसिए खंधे आघातिय णो आयातिय, देसे आदिट्ठे सम्भावपज्जवे, दे से आदिट्ठे असब्भाव पज्जवे दुपदेसिए खंधे आयातिय णो आयातिय देसे अब्भाव पजवे देसे आदिट्ठे उभओपज्जवे दुपदेसिए खंधे आयाय अवत्तव्यं आयातिय णो आयातिय ५, देसे आदिट्ठे असम्भावपज्जवे देते आदिट्ठे तदुभयपज्जत्रे दुपदेसिए खंधे णो आयाय अवत्त आयातिय णो आयातिय ६, से तेणट्टेणं तंचेव जाव णो आयातिय ॥ आया भंते! तिपदेलिए खंधे अण्णे तिपदेसिए खंधे ? गोयमा ! तिपदेसिए खंधे. { असत्तागत पर्याय से क्वचित् आत्मा क्वचित् नहीं आत्मा ५ क्वचित् आत्मा अवक्तव्य और | क्वचित् नो आत्मा अवक्तव्य. अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो गौतम ! अपनी पर्यायापेक्षा द्विपदेशिक स्कंध आत्मा है पर पर्यायापेक्षा द्विमदेशिक स्कंध अनात्मा है और } दोनों की अपेक्षा से अवक्तव्य, एक देश स्वपर्याय की अपेक्षा से आत्मा दूसरा देश पर पर्याय की ( अपेक्षा से अनात्मा इस से दोनों का मीला हुवा द्विपदेशात्मक स्कंध आत्मा अनात्मा दोनों है. ५ एक | देश सद्भाव पर्यायवाला है और दूसरा देश सद्भाव व असद्भाव ऐसी उभय पर्यायवाला है इस से दोनों का 4- बारहवां शतक का दसवा उद्देशा 42 १७८७ Page #1818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...14 सियआया, १ सियणोआया, २ सियअवत्तन्वं, आयातिय णो आयातिय ३,सिय आयाय - णो आयाय ४, सियआयाय णो आयाओय ५, सियआयाओय णो आयाय ६, सियआयाय अवत्तव्यं आयातिय णे आयातिय १, सिय आयाया अवत्तव्वाइं आयातिय : णो आयातिय ८, सिय आयाओय अवत्तव्यं आयातिय णो आयातिय ९, सिय प्पो आयाय अवत्तव्वं आयातिय णो आयातियः १०, सिय णो आयाय अवत्तव्वाइं . भावार्थ मीला हुवा द्विपदेशात्मक स्कंध आत्मा इति अनात्मा इति होने से. आत्मा की अवक्तव्यता है और ६. एक छ देश असद्भाव पर्यायवाला है और दूसरा देश उभय पर्यायवाला है इस से नो आत्मा की अबक्तव्यता होती है. इस से अहो गौतम! उक्त छ भांगे द्विपदेशिक स्कंध आश्री कहे हैं. अहो भगवन ! आत्मा त्रिप्रदेशिक स्कंध है या अन्य त्रिदेशिक स्कंध है ? अहो गौतम ! त्रिप्रदशिक स्कंध में तेरह भांगे होते हैं. १ त्रिप्रदेशिक स्कंध काचित् आत्मा २ क्वचित् अनात्मा ३ क्वचित् अवक्तव्य ४ क्वचित् एकवचन से आत्मा और क्वचित् एक वचन से अनात्मा ५ क्वचित् आत्मा एक वचन से अनात्सा अनेक वचन से ६ क्वचित् आत्मा पृथक्त्व वचन से अनात्मा एक वचन से ७ क्वचित् एक वचन से आत्मा इति अनात्मा इति एक वचन में अवक्तव्य ८ क्वचित् अनेक वचन से आत्मा इति अनात्माइति एक वचन में आत्मा भवक्तव्य ९ क्वचित् एक वचन में आत्माइति अनात्माइति आत्मा पृथक्त्व वचन में अवक्तव्य १० एक । * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशकराजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयातिय णो आयातिय ११, सिय पो आयाओय अवत्तव्यं आयातिय णो आया. तिय १२, सिय आयाय, णो आयाय अवत्त आयातिय णो आयातिय १३, ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ तिपदेसिए खंधे सिय आया एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव सिय आयाय णो आयाय अवत्तवं आयातिय णो आयातिय ? गोयमा ! अप्पणो आदि? आया, परस्स आदिद्वे णो आया, तदुभयस्स आदिटे अवत्त आयातिय णो आयातिय ॥ देसे आदिट्टे सब्भाव पज्जवे देसे आदिटे असन्भाव पजवे तिपदेसिए खंधे आयातिय णो आयातिय ४, देसे आदितु सब्भाव पज्जवे देसा आदिट्ठा असभावार्थ वचन में आत्मा इति नोआत्मा इति काचित नो आत्मा एकवचन में अवक्तव्य ११ अनेक पचनमें आत्म इति नोमात्मा इति एक वचन में आत्मा अवक्तव्य है १२ एक वचन में आत्मा इति यहां बहुचन अवक्तव्य और १३ काचित आत्मा एक वचन में. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि तीन प्रदेशिक स्कंध आत्मा है यावत् एकवचन में आत्मा, नो आत्मा, व अबक्तव्य ऐसे तेरह भांगे पाते हैं. १ अहो गौतम ! अपनी पर्यायापेक्षा आत्मा, परपर्यायापेक्षा नोआत्मा, उभय पर्यायापेक्षा आत्मा नोआत्मा ४ 17 देश आश्री स्वपर्याय देश आश्री १रपर्याय त्रिमदेशिक संघ आत्मा नो आत्मा इति ५ एक देश साश्री 8+ पंचांग विवाह पण्णति (भगवती.) मूत्र 48 ११ बारहमा शतक का दशा Page #1820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी भाव पज्जवा तिपदेसिए खंधे आयाय णो आयाओय ५, देसा आदिट्ठा सम्भाव पज्जवा, देसे आदिटे असष्भाव पज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाओय णो आयायं ६, देसे आदि? सब्भाव पजवे देसे आदिटे तदुभय पजवे तिपदेसिए खंधे आयाय अवत्तध्वं आयातिय णो आयातिय ७, देसे आदितु सब्भाव पजवे देसा आदिट्ठा तदुभय पजवा तिपदेसिए खंधे आयाय अवत्तव्वाइं आयातिय णो आयातिय ८, देसा आदिट्ठा सब्भाव पजवा, देसे आदितु तदुभय पजवे, तिपदेसिए खंधे आयाओय अवत्तव्वं आयातिय जो आयातिय । एए तिण्णि भंगा ९ ॥ देसे स्वपर्याय अनेक देश आश्री परपर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा नो आत्मा ६ अनेक देश आश्री सद्भाव । क देश आश्री पर पर्याय तीन प्रदोशक स्कंध आत्मा नो आत्मा ७ देश आश्री स्वपर्याय और देश आश्री उभयपर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध एक वचन में आत्मा नो आत्मा इति एकवचनमें अवक्तव्य ८ एक देश आश्री स्वपर्याय और अनेकदेश आश्री. उभय पर्याय दोनों से आत्माः अबक्तव्य है ९ अनेकः देश आश्री स्वपर्याय एक देश आश्री उभय पर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा अवतव्य १० देश आश्री परपर्याय देश आश्री उभय पर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध नो आत्मा अवक्तव्य ११ देश आश्री परपर्याय अनेक देश । 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * th भावार्थ .. Page #1821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदिढे असम्भाव पज्जवे, देसे आदिढे तदुभय पंजवे तिपदेसिए खंधे णो आयाय अबत्तव्ये आयातिय णो आयातिय १०, देसे आदिटे असम्भावपजवे, देसे आदिट्ठा, तदुभय.. पजवा तिपदेसिए खंधे णो आयाय अवत्तव्वाई, आयातिय णो आयातिय ११, देसा आदिट्ठा असब्भाव पजवा, देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंधे णो आयाओय . अवत्तव्वं आयातिय णो आयातिय १२, देसे आदितु सब्भाव पजवे देसे आदिट्रे असब्भाव पजवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपदेसिए खंधे आयाय णो आयाय अवतव्वं आयातिय णोआयातिय १३, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तिपदसिए खंधे सिय आया भावार्थ आश्री उभय पर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध नो--आत्मा अबक्तव्य १२ अनेक देवा. आश्री परमर्यायः एकः देश #आश्री उभय पर्याय त्रिप्रदेशिक स्कंध नो भात्मा अवक्तव्य १३ देश आश्री स्वपर्याय, देश आश्री पर पर्याय और देश आश्री उभय पर्याय होने से त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा नो आत्मा- अवक्तव्य. अहो गौतम ! 100 इस कारन से ऐसा कहा गया है कि त्रिप्रदेशिक स्कंध में तेरह भांगे पाते हैं. अहो भगवन् ! चतुष्क प्रदेशिक स्कंध है या अन्य चतष्क प्रदेशिक स्कंध है ? अहो गौतम ! चतुष्क प्रदेशी कंध में 12 १२१ भांग पाते हैं. चतुष्क प्रदेशी स्कंध क्वचित् आत्मा २ क्यचित् नो आत्ता ३ क्वचित् अवक्तव्य पंचमांगविवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र बारहवा शतकका दावा उद्देशा - Samadharanwww Page #1822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९२ भावार्थ 44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी तंचव जाव णो आयातिय ॥आया भंते ! चउप्पदसिए वंधे अण्णे पुच्छा ? गोयमा! चउप्पदेसिए खंधे सिय आया १, सिय णोआया २, सिय अवत्त आयातिय णो आया. तिय ३, सिय आयाय णो आयाय ४, सिय आयाय अवत्तव्वं ४, सिय णो आयाय अवत्तव्वं ४, सिय आयाय णो आयाय अवत्तव्वं आयातिय जो आयातिय १६; सिय आयाय णो आयाय अवत्तव्बाई आयाय णो आयायं १७. सिय आयाय णो आयाओय अवतव्वं आयातिय णो आयातिय १८, सिय आयाओय णो आयाय क्वचित् भास्मा नो आत्मा के एकवचन बहुवचन के ४, कचित् आत्मा अवक्तव्य के एकवचन अनेकवचन के क्वचित नो आत्मा अवक्तव्य के एकवचन अनेकवचन के ४,यों१५ भांगे हुए १६ क्वचित् आत्मा, नो आत्मा व वक्तव्य एकवचन में१७ क्वचित् आत्मा नो आत्मा एकवचन में और अवक्तव्य अनेक वचन में८ नचित् आत्मा कवचन नो आस्मा बहुवचन और अवक्तव्य एकवचन और १९ क्वचित् आत्मा बहुवचन नो आत्मा व अवक्तव्य एक वचन में यों १९ मांगे पाते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से चतुष्क प्रदेशिक स्कंध में उक्त १९ भांगे पाते है ? अहो गौतम ! ! स्वपर्याय आश्री आत्मा २ पर पर्याय आश्री नो आत्मा ३ उश्य पर्याय आश्री वक्तव्य ४ देश से स्वपर्याय दंश से पर पर्याय एसे चार भांग, स्वपर्याय व उभय पर्याय के एक बचन बहु पचन के चार भांगे, ऐसे ही परपयोय र उभय पर्याय के चार भांगे मीलकर १५ भांग होते हैं * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. । Page #1823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र अवत्तव्वं आयातिय णो आयातिय ११, से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ चउप्पदेसिए खंधे सिय आयाय णो आयाय अवत्तव्वं, तंचव अट्टे पडिउच्चारेयत्वं, गोयमा ! अप्पणो आदिट्टे आया, परस्स आदिटे णोआया, तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं, देसे आदिवै सम्भावपज्जवे, देसे आदिट्रे असब्भावपजवे चउभंगो । सम्भावणं तदुभएणय चउभंगो । असब्भावणं तदुभएणं चउभंगो । देसे आदितु सब्भावपनवे देसे आदिट्टे, तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आयाय णो आयाय अवत्तवं, आयातिय णो आयातिय १६,॥ देसे आदितु सम्भावपजवे, देसे आदिट्टे असब्भावपजवे, देसा आदिट्ठा तदुभयपज़वा चउप्यदेसिए खंधे आयाय णो आयाय अवत्तव्याइं आयाय णो आयाय १७,देसे आदिदे सम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा असम्भावपज्जवा देसे आदिद्वै तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आयाय णो आया देश आश्री स्वपर्याय देश आश्री पर पर्याय और देश आश्री उभय पर्याय चतुष्क प्रदेशिक स्कंध पतमा नो आत्मा अरक्तव्य १७ एक देश आश्री स्वपर्याय एक देश आश्री पर पर्याय अनेक देश आश्री उभय पर्याय चतुष्क प्रदेशिक स्कंध आत्मा नो आत्मा ऐसे अनेक वचन में अवक्तव्य १८ देश आश्री स्वपर्याय अनेक देश आश्री पर पर्याय एक देश आश्री उभय पर्याय चतुष्क प्रदेशी स्कंध आत्मा नो आत्मा अबक्तव्य १९ अनेक देश आश्री स्वपर्याय एक देश आनी पर पर्याय एक देश आश्री उभय है। 48148वारहवा शतकका नववा उद्देशा भावा 42 Page #1824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९४ निःश्री अंबालक ऋपिजी. aniwarawainaramainamarinamaina .... . : ओय अवत्तव्यं, आयातिय णो आयातिय १८, देसा आदिला सब्भावपजवा देसे. . आदिट्टे असब्भावपज्जवे देसे आदिट्रे तदुभयपज्जवे चउप्पदेसिए खंधे आयाओय णो । E: आयाय अवत्तव्यं, आयातिय णों आयातिय १९, ॥ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ : चउप्पदेसिए खंधे सिय आया सिय णो आया सिय अवत्तव्यं, निक्खेवे एते चेव । भंगा उच्चारयव्वा जाव णो आयातिय ।आया भंते ! पंचपदेसिए खंधे अण्णे पंच पदेसिए खंधे ? गोयमा ! पंच पदेसिए खंधे सिय आया सिय णो आया सिय अवत्तव्वं आयातिय णो आयातिय ३, सिय, आयाय णो आयाय ४, सिय आयाय अवत्तव्यं णो आयाय अवत्तव्वं ४. तिय संजोगे एक्का न पडति, से केणट्रेणं भंते! तंचव उच्चारेयव्वा ? गोयमा ! अप्पणो आदिट्रे आया, परस्स आदितु णो आया, तदुभयरस आदिढे अवपर्याय चतुष्क प्रदेशिक स्कंध आत्मा नो आत्मा अवक्तव्य. अहो गौतम ! इसी कारन से चतुष्क प्रदेशी स्कंध में १९. भांगे पाते हैं. अहो भगवन् ! आत्मा पांच प्रदेशिक स्कंध है या अन्य पांच प्रदेशिक स्कंध है ? अहो गौतम ! पांच प्रदेशिक स्कंध में क्वचित् आत्मा क्वचित् नो आत्मा क्वचित् अवक्तव्य यों बावीस विकल्प होते हैं. अहो भगवन् ! यह किस कारन से कहा है कि पांच प्रदेशिक स्कंध में बावीस विकल्प होते हैं? अहो गौतम! स्वपर्याय से आत्मा, पर पर्याय से नो आत्मा उभय पर्याय से अबक्तव्य देश आश्री स्वपर्याय देश आनी पर पर्याय ऐसे द्विलंयोगी । *.प्रकाशक-रानाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी... भावार्थ मनुवादक-बालब्रह्मचारी - Page #1825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " १७१५ सव्व देसे आदितु सब्भावपजवे-देसे आदिटे असब्भावपज्जवे, एवं दुयसंजोगे सत्वे.. पडंति, तिया संजोंगे एकोनपडंति ॥ छप्पदेसिया सवेपर्डति ॥ जहा छप्पदेसिए एवं जाव अणंतपदेसिए । सेवं भंते भंतेत्ति ! जाव विहरइ ॥ दुवालसम सयस्सय देसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२॥ १० ॥ दुवालसमं सयं सम्मत्तं ॥ १२॥ १२ भांगे होते हैं. सब मीलकर १५ हुवे और तीन मयोगी में पहिला एक भांगा छोडना. शेष सात भांगे होवे. छ प्रदेशिक स्कंध में २३ भांगे होते हैं. जैसे छ प्रदेशी स्कंध का कहा वैसे ही अनंत प्रदेशी;स्कंधका जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन मत्य है. यह वारहवा शतक का दसवा उद्देशा समाप्त हुवा E.॥४॥ १० ॥ यह बारहबा शतक संपूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भवगती ) सूत्र का danscomranAmAR बारहवा. शतकका दशका उद्देशा Page #1826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20% भावार्थ * त्रयोदशशतकम् * पुढवीदेव मणंतर पुढवी आहारमेव उववाए ; भासा कम्मणगारे, केया घडिया समुग्घाए ॥१॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! पुढगेओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥१॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? बारहवे शतक के अंत में आत्म स्वरूप का कथन किया आत्मा पृथिव्यादि आश्रीत हैं इसलिये इस तेरहवे शतक के प्रारंभ में पृथिवी का कथन करते हैं. इस शतक के दश उद्देशे कहे हैं १ पृथ्वी उद्देशे में नरक (पृथिव्यादि)का कथन २ देवता की प्ररूपणा ३ अंत आहारादिक का कथन ४ पृथ्वी मत वक्तव्यता ५ नरकादिक के आहार की प्ररूपणा : नरकादिक का उत्पात ७ भाषा का अर्थ ८ कर्मों का अर्थ ९ भावितात्मा अनगार और १० समुद्धात. अब इन में से प्रथम उद्देशा कहते हैं राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! पृध्वियों कितनी कहीं ? अहो गौतम ! पृश्वियों सात कहीं, जिन के नाम रत्नप्रभा यावत् सातवी तम तम प्रभा ॥१॥अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहें हैं ? अहो, ...प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदर सहायनी.ज्वालाप्रसादजी. Page #1827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ minaamanna पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र kage 1 commmmmmmmm गोयमा ! तीस णिस्यावाससयसहस्सा पण्णत्ता ॥२॥ तेणे भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडावि, असंखेजवित्थडावि ॥ ३ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावाससयसहस्सेसु संखेज • वित्थडेसु णरएसु एगसमए केवइया गेरइया उववजंति १ केवइया काउलेस्सा उक्यजति पुच्छा २ केवइया कण्हपक्खिया उववजंति ३, केवइया सुक्कपक्खिया उववज्जति १, केवइया सण्णी उववजंति ५ केवइया असण्णी उववजति ६; केवइया भवसिद्धिया जीवा उववज्जति ७, केवइया अभवसिद्धिया जीवा उववजंति ८, गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास कहे हैं. ॥२॥ अहो भगवन् ! वे नरकाबास संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं या असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं ? अहो गौतम ! संख्यात योजन के विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन के विस्तार वाले भी हैं ॥३॥इस रत्नममा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से संख्यात योजन के विस्तार वाले एक २ नरकावास में कितने नारकी उत्पन्न होते हैं, कितनेक कापुत लेश्या वाले हैं, कितने कृष्ण पक्ष वाले उत्पन्न होते . १ अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार परिभूमण करने का जिन को होता हे वे कृष्ण पक्षीकहाते हैं. . भावार्थ रातकका पहिला उद्देशाg: । * Page #1828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 48 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - केवइया आभिणियोहियणाणी उववजंति ९, केवइया सुयणा उववजति १०, केवइया ओहिणाणी उववजंति ११, केवइया मइअण्णाणी उववजंति १२, केवइया मुअ अण्णाणी उववजति १३, केवइया विभंगणाणी उबवजंति १४, केवइया चक्खुदसणी उववजंति , १५, केवइया अचक्खुदंसणी उववजंति १६, केवइया ओहिदसणी उववज्जति ५७, केवइया आहारसण्णोवउत्ता उबवजति १८, केवइया भयसण्णोवउत्ता उववजति १९, केवइया मेहण सण्णोव उत्ता उववजंति २०, केवइया परिग्गह सण्णोवउत्ता उववजति २१, कंवइया इत्थेिवदगा उववजंति २२, शुक्ल पक्ष वाले उत्पन्न होते हैं, कितने. संज्ञी उत्पन्न होते हैं. 'किंतने असंज्ञी उत्पन्न होते हैं, कितने भव सिद्धिक उत्पन्न होते हैं, कितने अभवसिद्धिक उत्पन्न होते हैं, कितने आभिनिवोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधि ज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंग ज्ञानी, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधि दर्शनी आहार संज्ञा वाले, भय संज्ञा वाले, मैथुन संज्ञा वाले, परिग्रह संज्ञा वाले, स्त्री वेदक, पुरुष वेदक, नपुंसक वेदक क्रोध कपायी, मान कपायी, माया कषायी, लोभ कषायी, श्रोत्रेन्द्रियवाले यावत् स्पर्शेन्द्रियवाले, नो इन्द्रिय बाले, मन योगी, बचन योगी, काय योगी, सागारोपयुक्त, और अनाकारोपयुक्त उत्पन्न होते हैं ? अहो। * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * whiwww * केवइया पुरिसवेदगा उववज्जति २३, केवइया णपुंसगवेदगा उववजंति २४, केवइया कोहकसायी उववजंति २५, जाव केवइया लोभकसायी उक्वजंति २८, केवइया सोइंदियोवउत्ता उववजंति २९, जाव केवइया फासिंदियोवउत्ता उत्रवजंति ३३, १७९९ केवइया णोइंदियोंवउत्ता उववजंति ३४, केवइया मणजोगी उववजंति ३५, केवइया वइजोगी उववजति ३६, केवइया कायजोगी उववजंति ३७. केवइया सागारोवउत्ता उववजंति ३८, केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ३९ ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए रइयावास सयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु णरएसु जहण्णणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेजा जेरइया उववजंति, जहण्णेणं गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में के संख्यात योजन के नरकावाम में जघन्य एक भावार्थ 1. दो तीत उत्कृष्ट संख्यात नारकी उत्पन्न होते हैं, जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्याते कापुत लेश्यावाले उत्पन्न होते हैं, जवन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्याते कृष्ण पक्षवाले उत्पन्न होते हैं ऐसे ही, शुक्लपक्षी, संज्ञी, असंज्ञी, भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, और अवधि ज्ञानीका जानना, चक्षुदर्शनी नारकी नहीं उत्पन्न होते हैं. क्यों की उत्पन्न होते. शरीरः पूर्याय का बंध किये। 1 मिना इन्द्रिय का अभाव होता है. अचक्षुदर्शनी जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्याते उत्पन्न । 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तेरवा शतक का पहिला उद्देशा Page #1830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी raiar दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा काउलेस्सा उववजंति, जहणेणं एकोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उबवज्जंति, एवं सुक्कपक्खियात्रि एवं सणी, एवं असण्णीवि, एवं भवसिद्धियावि, एवं अभवसिद्धिया, आभिणिवोहिगाणी सुअणाणी, ओहिणाणी, मइअण्णाणी सुअ अण्णाणी; त्रिभंगणाणी एवं चेत्र, चक्खुदंसणी ण उववज्जंति, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववज्जंति, एवं ओहिदंसणीवि, एवं आहारसण्णोत्रउत्तावि जात्र परिह सोउत्तावि, इत्थीवेदगा न उत्रवज्जंति, पुरिसवेदगा न उववज्जंति, जहणणं एक्कोवा दोत्रा तिष्णिवा उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेदगा उववज्जंति, एवं कोहकसायी जाव लोभ कसायी, सोइंदिय उवउत्तान उवत्रजंति एवं जाव फासिंदियोवउत्ता न होते हैं.. ऐसे ही अवधि दर्शनी, आहार संज्ञा वाले, भयसंज्ञा वाले, मैथुन संज्ञा वाले, परिग्रह संज्ञा वाले {का आनना. स्त्री वेदी, पुरुष वेदी उत्पन्न नहीं होते हैं क्यों की नरक में दोनों वेद नहीं हैं. जघन्य एक {दो तीन चार उत्कृष्ट संख्याते नपुंसक वेदी. ऐसे ही क्रोध कषायी यावत् लोभ कषायी का जानना. श्रीषेन्द्रिय वाले यावत् स्पर्शेन्द्रिय वाले उत्पन्न नहीं होते हैं नोइन्द्रिय वाले जधन्य एक दो तीन उत्कृष्ट *_प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * ૧૮૦૦ Page #1831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pro १.१ १८०१ -: उववजंति, जहण्णेणं एक्कोवा दोबा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा नाइदियोवउत्ता उवव जंति, मणजोगी ण उववजति, एवं वइजोगीवि, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उबवजंति, एवं जाव सागारोवउत्तावि, एवं अणागारोवउत्तावि, ॥ ४ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु संखजवित्थडेसु णरएमु एग समएणं केवइया णेरइया उन्वर्टति, केवइया काउलेस्सा उव्वदृति जाव केवइया अणागारोवउत्ता उव्वदंति ? गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु संखेज भावार्थ संख्याते उत्पन्न होते हैं. मन योगी व वचन योगी उत्पन्न नहीं होते हैं. जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्याते है काय योगी उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही साकारोपयोग व अनाकारोपयोग का जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नममा पृथ्वी के तीस लाख नरकाबात में के संख्यात योजन वाले नरकावास में से एक समय। में कितने नारकी उद्धर्तते हैं कितने कापुत लेश्या वाले उद्वर्तते हैं यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले ॐउद्वर्तते हैं ? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से जो संख्यात योजन के विस्तार वाले हैं, उन में से जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात नारकी उद्वर्तते हैं, जघन्य एक दो तीन ।। पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 42 तेरहवा शाक का पहिला उद्देशा Page #1832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Al१८८२ भावार्थ 4.2 अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .. वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखज्जा जेरइया उव्वदृति, जहण्णेणं एक्कोचा दोवा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा काउलेस्सा उब्वटंति, एवं जाव सण्णी असण्णी ण उबट्टीत जहण्णणे एक्कोवा दोवा तिन्निवा उक्को. सेणं संखेजा भवसिद्धिया उव्वटंति एवं जाव सुअअण्णाणी विभंगणाणी ण उव्वदंति चक्खुदंसणी ण उब्वटंति, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिाण्णवा उक्कोसेणं संखेजा अचक्खु दसणी उन्नति, एवं जाव लोभ कसायी, सोइंदियोवउत्ता ण उव्वटंति, एवं जाव फासिंदियोवउत्ता ण उव्वदृति, जहण्णणं एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा णो इंदियोव उत्ता उव्वदंति, मणजोगी ण उव्वटंति, एवं वइजोगीवि, जहण्णेणं उत्कृष्ट संख्यात कापुत. लेश्या वाले उद्वर्तते हैं. ऐसे ही.संज्ञी तक कहना. असंज्ञी नहीं उत्पन्न होते हैं. जघन्य - एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात भवसिद्धिक उद्वर्तते हैं ऐसे ही श्रुत अज्ञानी तक जानना. विभंग ज्ञानी नहीं उद्बती हैं क्यों की उद्वर्तन काल में विभंग ज्ञान नहीं होता है. चक्षुदर्शनी नहीं उद्वर्तते है. जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात अवक्षुदर्शनी उद्वर्तते हैं ऐसे ही लोभ कषायी पर्यंत जानना. श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय नहीं उद्वर्तते हैं. जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात नोइन्द्रिय उद्वर्तते हैं.. मनयोगी और वचन *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमा विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4980 एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणे संखेजा काय जोगी उव्वटंति, एवं सागारोवउत्तावि, एवं अणामारोव उत्तावि, ॥ ५ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सय सहस्सेसु संखेज्ज वित्थडेसु णरएसु केवइया णेरइया पण्णत्ता, केवइया काउलेस्सा पण्णत्ता जाव केवइया अणागारोवउत्ता पण्णत्ता ३९, केवइया अणंतरोववण्णमा पण्णत्ता, केवइया परंपरोववण्णगा पण्णत्ता, केवइया अणंतरोबगाढा पण्णत्ता, केवइया परंपरोवगाढा पण्णत्ता, केवइया अणंतराहास पण्णचा, केवइया परंपरपहारा पण्णत्ता, केवड्या अणंतर पज्जत्ता पण्णत्ता, केवइया योगी नहीं उर्तते हैं और काय योगी जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं. ऐसे ही साकारो पयोग और अनाकारोपयोग का जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नपभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से संख्यात योजन के विस्तारवाले नरकाबास में किसने ना की यावत् अनाकारोपयुक्त रहे हुवे हैं और कितने अनंतर उत्पन्न, कितने परंपरा से उत्पन्न, कितने अनंतर अवगाढ, कितने परंपरा अवगाढ, कितने अनतर आहारी, कितने परंपरा आहारी, कितने अनंतर पर्याप्त, कितने परंपरा पर्याप्त, कितने चरिम और कितने अचरिम रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! इस रस्लममा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में 31 तेरहवा शतकका पहिला उद्देशा ** Page #1834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ८०५ इंदियोवउत्ता जहा असण्णी, संखेजा मणजोगी, एवं जाव अणागारोवउत्ता ३९, अणंतरोववण्णगा सिय अत्थि सिय णत्थि जइ अत्थि जहा असण्णी संखेज्जा परंपरोक्वण्णगा एवं जहा अणंतरोववण्णमा तहा अणंतरोवगाढा. अणंतराहारगा, अणंतर पजत्तगा चरिमा, परंपरोवगाढा, जाव अचरिमा, जहा परंपरोववण्णगा ॥ ६ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु असंखेज वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं केवइया णेरइया उववजंति, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ?. गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेस असंखेज । भावार्थ | मन योगी ऐने ही अनाकारोपयोग पर्यंत जानना अंतर उत्पन्न क्वचित् हैं काचित् नहीं हैं यदि है तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात हैं, संख्यात परंपरा से उत्पन्न हुवे हैं. ऐसे ही अनंतरावगाढ, अन- .. तराहारी, अनंतर पर्याप्त, चरिम, परंपरावगाढ, यावत् अचरिम का जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! इस ररूपमा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजनवाले नरकावास में एक समय में कितने *नारकी उत्पन्न होते हैं यावत् कितने अनाकारोपयोगाले उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजन के विस्तारसले नरकावास में एक समय में जयन्य । 48 पंवमान वाह १ण्णत्ति (भग ती) मूत्र -888 480-तेरहवा शतक का पहिला उद्दशा 48 Page #1835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 पंचमाङ्ग बाह १ण्णत्ति (भग तो) मूत्र 38* इंदियोवउत्ता जहा असण्णी, संखेज्जा मणजोगी, एवं जाव अणागारोवउत्ता ३९, अणंतरोववण्णगा सिय अत्थि सिय णत्थि जइ अत्थि जहा असण्णी संखेजा परंपरोववण्णगा एवं जहा अणंतरोववण्णमा तहा अणंतरोवगाढा. अणंतराहारगा, अणंतर पजत्तगा चरिमा, परंपरोवगाढा, जाव अचरिमा, जही परंपरोववण्णगा ॥ ६ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेसु असंखेज वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं केवइया णेरइया उववजंति, जाव केवइया अणागारोवउत्ता उववजंति ? गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सयसहस्सेस असंखेज मन योगी ऐने ही अनाकारोपयोग पर्यंत जानना अनंतर उत्पन्न क्वचित् हैं काचित् नहीं हैं यदि है तो जयन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात, संख्यात परंपरा से उत्पन्न हुवे हैं. ऐसे ही अनंतरावगाढ, अ तराहारी, अनंतर पर्याप्त, चरिम, परंपरावगाढ, यावत् अचरिम का जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! इस रसप्रभा पथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजनवाले नरकावास में एक समय में कितने नारकी उत्पन्न होते हैं यावत् कितने अनाकारोपयोगराले उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास में से असंख्यात योजन के विस्तारवाले नरकावास में एक समय में जयन्य - तेरहवा शतक का पहिला उद्दशा HD भावार्थ । Page #1836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वित्थडेसु णरएसु एगसमएणं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं असंखेजा णेरइया उववजंति, एवं जहेव संखेज वित्थडेसु तिण्णिगमा पण्णत्ता तहा असंखेज वित्थडेसुवि तिण्णि भाणियव्वा, णवरं असंखेजा भाणियव्वा सेसं तंचेव जाव असोज्जा अचरिमा णाणत्तं लेस्सासु लेस्साओ जहा पढमसए, णवरं संखेज्ज वित्थडसुवि असंखेज वित्थडसुवि ओहिणाणी ओहिदसणी संखेजा उवद्यावे यव्वा सेसं तंचेव ॥७॥ सकरप्पभाएणं भंते ! पुढवीए केवइया णिरयावासा पुच्छा ? गोयमा ! पणवीसं णिरयावास सयसहस्सा, ॥ तेणं भंते ! किं संखेज वित्थडा एक दो तीन उत्कृष्ट असंख्यात नारकी उत्पन्न होते हैं ऐसे ही जैसे संख्यात योजन विस्तारवाले के तीन गमा कहे वैसे ही असंख्यात योजन के विस्तारवाले को तीन गमा जानना. विशेष में असंख्यात कहना शेष सब असंख्यात अचरिम तक जानना. लेश्या का प्रथम शतक में कहा वैसा जानना. अवधि बानी व अवघि दर्शनी संख्यात व असंख्यात योजनवाले नरकावास में से संख्यात उद्धर्तते हैं॥७॥ अहो भगवन् ! शर्कर प्रभा में कितने लाख नरकावास कहे? अहो गौतम! शर्कर प्रभा में पञ्चीस लाख नरकावास कहे.. भगवन् : क्या वे संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं या असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो.. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र असंखेज वित्थड़ा, एवं जहा रयणप्पभाए तहा : सक्करष्पभाएवि णवरं असण्णी तिसुवि गमएस नभणति, सेसं तंचेव ॥ ८ ॥ वालुयप्पभाएणं पुच्छा ? गोयमा ! परसरियावास सयसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सकरप्पभाए, णाणत्तं लेस्सासु लेस्साओ जहा पदमसए ॥ ९ ॥ पंकप्पभाएणं भंते ! णिरयावास सय सहस्सा पुच्छा ? गोयमा ! दस णिरयावामसयसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा सकरप्पभाए, णवरं ओहिणाणी ओहिदंसणी ण उव्वहंति, सेसं तंचेव ॥ १० ॥ धूमप्पभाएणं पुच्छा ? गोयमा ! तिण्णि णिरयावासस्यसहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए ॥ ११ ॥ तमाएणं भंते! पुढवीए केवइया णिरयावास पुच्छा ? गोयमा ! एगे पंचणे गौतम ! जैसे रत्नप्रभा कहा वैसे ही शर्कर प्रभा का जानना. परंतु असंज्ञी तीनों आलापक में कहना { नहीं ॥ ८ ॥ वालु प्रभा की पृच्छा बालु प्रभा में १५ लाख नरकावास कहे शेष सब अधिकार रत्नप्रभा { जैसे कहना लेश्या में जो भिन्नता है वह प्रथम शतक से जानना ॥ १ ॥ पंक प्रभा में दश लाख नरकावास हैं इस का अधिकार भी शर्कर प्रभा जैसे कहना परंतु इन में से अवधि ज्ञानी व अवधिदर्शनी उद्वर्तते नहीं ॥ १० ॥ धूत्रमभा में तीन लाख नरकवास हैं उस का सब कथन पंकममा जैसे कहना ॥११॥ अहो 4- तेरहवा शतक का पहिला उद्देशा 498 १८०७ Page #1838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. गिरयावाससयसहस्से पण्णत्ते सेसं जहा पंकप्पभाए ॥ १२ ॥ अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए कइ अणुत्तरा महतिमहालया महाणिरया वासापण्णत्ता ? गोयमा ! पंच अणुत्तर जाब अप्पइट्टाणे ॥ सेणं भंते ! किं संखेज वित्थडा असंखेज वित्थडा ? गोयमा ! संखेज वित्थडेय असंखेजवित्थडाय ॥ अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरे महति महालया जाव महाणिरएमु संखेज वित्थडे णरए एगसमएणं केवइया एवं जहा पंकप्पभाए, णवरं तिसु णाणेसु ण उववजंति, ण उव्वदंति, पण्णत्ताएसु तहेव अत्थि ॥ एवं असंखेज वित्थडेसुवि, गवरं असंखजा भगवन् ! तम पृथ्वी में कितने नरकाबास कहे हैं ? अहो गोतम ! पांच कम एक लाख नरकावास कहे हैं शेष सब पंक प्रभा जैस जानना १२॥ नीचे की मातवी पृथ्वी में कितने बड़े महा नरक्रावास कहे अहो गौतम! पांच अनुत्तर नरकावान कहे हैं. अहो भगवन् ! क्या वे संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं या असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो गौतम ! संख्यात योजन के विस्तारवाले और असं ख्यात योजन के विस्तारवाले हैं. इस का सब अधिकार पंक प्रभा जैसे कहना परंतु व तीन ज्ञान में उत्पन्न नहीं होते हैं वैने ही तीन ज्ञान में चवते नहीं हैं. असंख्यात योजन के विस्तारवाले में असंख्यात प्रकाशक-राजाबहादुरल ला सुखदव सहायजी ज्वालामसादजी * भावार्थ । Page #1839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ++ पंचमांग वहाव पण्णति ( भगवती ) सूत्र 480 भाणि ॥ १३ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए 'पुढबीए तीसाए णिरयावास सय सहस्से संखेज्जवित्थडेसु णरएसु किं सम्मद्दिट्टी णेरड्या उववज्जंति, मिच्छाद्दट्ठी रइया उववजंति, सम्मामिच्छद्दिट्ठी णेरइया उववज्जंति ? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी णेरइया उबवजंति, मिच्छद्दिट्ठी णेरड्या उववज्जंति, जो सम्मामिच्छद्दिट्ठी रइया उववजंति ॥ इमीसेणं भंते ! रयणसभा पुढवीए तीसाए णिरयावास . सय सहस्से संखेज्ज वित्थंडसु णरएसु किं सम्मद्दिट्ठी णेरड्या उन्हंति ? एवं चेव ॥ १४ ॥ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणष्पभाए पुढवीए तीसाए णिरयावास सय सहस्से सु ( उत्पन्न होते हैं और चवते हैं || १३ || अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में क्या समदृष्टि नारकी उत्पन्न { होते हैं, मिध्यादृष्टि नारकी उत्पन्न होते हैं या सममिध्यादृष्टि नारकी उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम समदृष्टि नारकी उत्पन्न होते हैं मिथ्यादृष्टि नारकी उत्पन्न होते हैं परंतु सममिथ्यादृष्टि नारकी नहीं उत्पन्न { होते हैं. अहाँ भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावार में से क्या समदृष्टि नारकी उद्वर्तते मिथ्यादृष्टि नारकी उद्वर्तते हैं या सम मिथ्यादृष्टि नारकी उद्धर्तेते हैं ? अहो गौतम ! जैसे उत्पन्न होने का कहा वैसे ही उद्वर्तने का जानना || १४ || अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरका - ? तेरहवा शतक का पहिला उद्देशा - १८०९ Page #1840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 संखेज वित्थडा णरया किं सम्माविठ्ठीहिं णेरइएहि अविरहिया, मिच्छद्दिट्टीहि णेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छविट्ठीहिं णेरइएहिं अविरहिया ? गोयमा ! सम्मदिट्ठीहिं रइएहिं अबिरहिया मिच्छट्ठिीहिं जेरइएहिं अविरहिया सम्मामिच्छट्ठिीहिं णेरइएहि अविरहिय विरहियाग एवं असंखेज वित्थडेसुवि तिण्णि गमगा भाणियव्वा ! एवं सक्करप्पभाएवि । एवं जाव तमाएंवि ॥ अहे सत्तमा एणं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखज वित्थडे णरए किं सम्मद्दिट्ठी णेरड्या पुच्छा ? गोयमा ! सम्मट्ठिी णेरइया ण उवाजेति, मिच्छट्ठिी गैरइया चास में से संख्यात योजन के विस्तारवाले नरकावास क्या समाष्ट से अविरहित हैं, मिथ्यादृष्टि से अ- विरहित हैं या सममिथ्यादृष्टि से अविरहित हैं ? अहो गौतम ! समदृष्टि नारकी से अविरहित हैं, मिथ्या दृष्टि नारकी से अविरहित हैं और सममिथ्या दृष्टि नारकी से विरहित, अविरहित दोनों प्रकार के नरकावास रहे हुवे हैं. संख्यात योजन के विस्तारवाले नारकी जैसे असंख्यात योजन के विस्तारवाले नारको का कहना. जैसे रत्नप्रभा का कहा वैसे ही शर्कर प्रभा यावत् तम प्रभातक का जानना. सातवी तमतमप्रभा के पांच अनुत्तर नरकावास में यावत् संख्यात विस्तारवाले में नारकी क्या समदृष्टि उत्पन्न होते हैं वगैरह * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी * । Page #1841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H 18 उववजंति, सम्मामिच्छदिट्ठी णेरइया णज्वरजंति, एवं उव्वटंतिवि, अविरहिए जहेव रयणप्पभाए ॥ एवं असंखेज वित्थडेसु तिष्णि गमा ॥१५॥ से गुणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सकलेस्से भवित्ता, कण्हलेस्से णेरइएस उववजंति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववजंति ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्से जाव उववजंति ? गोयमा! लेस्सट्टाणेसु संकिलिस्समाणेसु सीकलिस्समाणेसु कण्हलेसं परिणमइ कण्हलेस्सं परिणममाणेसु कण्हलेरसेसु णेरइएमु उववजति से तेणटेणं जाव उववजंति ॥ सेणूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुकलेस्से भवित्ता णीललेस्सेसु भावार्थ पृच्छा ? अहो गौतम ! समदृष्टि नहीं उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नारकी उत्पन्न होते हैं, सममिथ्यादृष्टि नारकी नहीं उत्पन्न होते हैं, ऐसे ही उद्वर्तन व अविरहित का जानना. संख्यात योजन के विस्तार वाले में जैसे तीन गया कहे वैसे ही असंख्यात याजन के विस्तार वाले में तीन गमा जानना. ॥ १५ ॥ अहो | भावन् ! कृ गलेशी, नीललेशी: यावत् शुक्ललेशी होकर क्या कृष्णलेशी नारकी में उत्पन्न होते हैं ? हां गौतम ! कृष्णलेशी यावत् उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहते हो ? अहो गौतम! लेझ्या स्थान के भेद में निर्मलता र. मलिनता को प्राप्त होते हैं. इस तरह अशुद्ध लेश्या परिणमते. कृष्ण विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र 48 पंचमांग . तेरहवा शतकका पहिला उद्देशा Page #1842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१२ णेरइएसु उववंजंति? हंता गोयमा ! जाव उनवजंति । से केणटेणं जाव उववजंति? गोयमा ! लेस्सटाणेसु संकिलिस्समाणेसु विसुज्झमाणेसु णीललेस्सं परिणमइ, णीललेस्सं परिणमइत्ता; णीललेस्सेसु णेरइएसु. उववजति, से तेणटेणं गोयमा ! जाव उज्जतिः ॥ सेणूणं भंते ! कण्हलेस्से णीललेस्से जाव भवित्ता काउलेस्लेसु णेरइएमु उववज्जति ? एवं जहा णीललेस्साए तहा काउलेस्साएवि भाणियव्वा जाव उववज्जति सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ रसम सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १३ ॥ १ ॥ 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 200 लेण्यापने परिणमे फीर कृष्ण लेश्यावाली नरक में जाकर उत्पन्न होवे. अहो गौतम: इस कारन से । कहा है कि कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्यावाले होकर कृष्ण लेश्यावाले नारकी उत्पन्न होवें. अहो भगवन कृष्णलेशी यावत् शक्ललेशी बनकर क्या-नीललशी नारकी में उत्पन्न होवे? हां गौतम! उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! किस कारन से उत्पन्न होवे? अहो गौतम ! लेन्या के स्थान भेद में अशुद्ध लेश्या में विशुद्ध होता है फीर नील लेश्या में परिणमकर नीललेश्यावंत नारकी में उत्पन्न होवे. इस तरह कृष्ण यावत् शक्ल लेश्यावाले नील लेशी नस्क में उत्पन्न होवे. अहो भगवन ! कृष्ण लेशी, नील लेशी यावत्ब शुक्ल लशी होकर कापोत लेश्यापने क्या उत्पन्न होवे? हां गौतम ! उत्पन्न होवे वगैरह सब कथन नीलई लेश्या जैसे कहना. अहो भगवन् ! आप क वचन सत्य हैं. यह तेरहवा शतक का प्रथम उद्देशान मंपूर्ण हुवा ॥ १३ ॥ १ ॥ *प्रकाशक राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ** Page #1843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कइविहाणं भंते ! देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउबिहा देवा पण्णत्ता, तंजहा भवण- . वासि वाणमंतर जोइसिय वैमानिया ॥ १ ॥ भवणवासीणं भंते ! देवा कइविहा पण्णत्ता ?गोयम.! दत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा असुर कुमारा एवं भेदो जहा बितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया सव्वट्ठसिद्धगा ॥ २ ॥ केवइयाणं भंते ! असुर कुमारा घास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! चोयट्ठि असुर कुमारावास सयसहस्सा. पण्णत्ता ॥ ते भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा? गोयमा! संखेजवित्थडावि असंखेजवित्थडावि ॥३॥ चोयट्टीएणं भंते! असुर कुमारावास सयसहस्सेसु संखेलभावार्थ प्रथम उद्देशे में नरकका अधिकार कहा. दुसरे उद्देशे में सामिक देव होने से देव का कथन करते हैं. हो भगवन् ! देव के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! देव के चार भेद कहे हैं भवनपति, वाणव्यंतर, ज्यातिषी और वैमानिक ॥१॥ भवनपति देव के दश भेद कहे हैं. असुरकुमार वगैरह दूसरे शतक के देव है उद्देशे में कहा वैसे ही यहांपर सर्वार्थ सिद्ध तक जानना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! अमरकुमार के आवाम *कितने लाख कहे हैं ? अहो गोतम ! अनुरकुमार के चौसठ लाख आवास कहे हैं. अहो भगवन् ! वे संख्यात योजन के विस्तार वाले हैं या असंख्यात. योजन के विस्तार वा दो गौतम! संख्यात पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488o .. तेरहया शतकका दूसरा उद्देशा 488 Page #1844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्थडेषु असुर कुमारावासेषु एगसमएणं केवइया असुरकुमारा उववज्जति केवइयो तेउलेस्सा उववज्जांत, केवइया कण्हक्खिया उववज्जंति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, णवरं दोहिं वेदेहिं उववज्जंति, णपुंसग वेदगा ण उववजंति, सेसं तंचेत्र ॥ उब्वहंतगावि तहेव, णवरं असण्णी उव्वहंति, ओहिणाणी ओहिदंस णीय ण उव्वहंति, सेसं तंत्र पण्णत्तासु तदेव णवरं संखेजगा इत्थी वेदगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेदगावि, णपुंसगवेदगा णत्थि कोह कसायी सिय अत्थि सिय भावार्थ योजन के विस्तार वाल हैं और असंख्यात योजन के विस्तार वाले भी हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन्! असुर{ कुमार के चौमठ लाख आवास में से संख्यात योजन वाले आवास में एक समय में कितने असुरकुमार देव ( उत्पन्न होते हैं, कितने तेजो लेश्णवाले उत्पन्न होते हैं कितने कृष्णपक्षिक उत्पन्न होते हैं ? वगैरह ३९६ (प्रश्नो जो रत्नप्रभा आश्री पूछे हैं वे यहांपर भी जानना. उस का उत्तर भी वैसे ही जानना परंतु वि शेषता इसी कि इस में दो वेद उत्पन्न होते है नपुंसक नहीं उत्पन्न होते हैं. उद्वर्तन प्रश्न में भी वैसे ही कहना परंतु अज्ञी उदते हैं अवधिज्ञानी व अवधि दर्शनी नहीं उद्वर्तते हैं. भी वैसे ही कहना परंतु इस में संख्यात स्त्री वंदी कहे, ऐसे पुरुष तीसरा गमा विद्यमानता का वेदी. नपुंसक वेदी नहीं. क्रोष कषाय क्वचित् हैं और क्वचित नहीं भी हैं जब हैं तब जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट सख्यात कहे हैं ऐसे सूत्र 4०३ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाबजी ज्वालाप्रसादजी १८१४ Page #1845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 2} गत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणे एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखेजा पण्णता, एवं माण माया. संखेज्जा लोभ कसायी पण्णत्ता, सेसं तंचेव, ति.सुवि गमएसु संखेज वित्थडेमु चत्तारि लेस्साओ भागियवाओ ॥ एवं असंखेज वित्थडेवि वरं तिमुवि गमएम असंखेज्जा भाणियब्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता ॥ ४ ॥ केवइयाणं भंते ! णाग कुमारावास एवं जाव थणिय कुमारावास णवरं जत्थ जत्तिया भवणा ॥ ५ ॥ केवइयाण भंते ! वाणमंतरावास सयसहस्सा पण्णता ? गोयमा ! असंखेजा वाणमंतरावास सयसहस्सा पण्णत्ता ॥ तेणं भंते ! किं संखेज मान, माया लोम कषायी सख्याते जानना. संख्यात योजन के विस्तार वाले आवासके तीनों गमा में चार लेश्याओं कही. जैसे संख्यात का कहा वैसे ही असंख्यात का जानना परंतु इस में तीनों गमा अमख्यात कहना. यावत् असंख्यात अचरिम ॥४॥ ऐसे ही नाग कुमार से स्थनित कुमार तक न में जितने आवास होवे उतना कहना. और तीनों गमा संख्यात असंख्यात योजन के आश्री असर कुमार जैसे जानना ॥५॥ अहो भगवन् ! वाणव्यंतर के आवास कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! माणपतर के आवास असंख्यात लाख कहे हैं। अझे भाबर! क्या वे संख्यातः योजन के विस्तारवाले। तेरहरा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वित्थडाअसंखेज वित्थडा? गोयमा! संखेज वित्थडा णो अखंज वित्थडा ॥ संखेजेपुणे भंते ! वाणमंतरा वास सयसहस्ससु एग समएणं केवइया वाणमंतरा उववजंति ? एवं जहा असरकमाराणं संखेजवित्थडेस तिाण गमगा तहेत्र भाणियचा. वाणमंतरा. णवि तिष्णि गमगा ॥ ६ ॥ केवइयाणं भंते ! जोइसिय विमाणावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! असखजा विमाणा वास सय सहस्सा पण्णत्ता ॥ तेणं भंत! किं संखजवित्थडा एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइलियाणवि तिणि गमगा माणियव्वा, णवरं एगा तेउलेस्सा उववज्जतेसु पण्णत्तसुय असण्णी णास्थ सेसं तंचेव । हैं या असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो गौतम ! संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं परंतु असं ख्यात योजन के विस्तारवाले नहीं हैं. अहो भगवन् ! संख्यात योजन के असंख्यात लाख आवास में एक समय में कितने वाणव्यंतर उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे असुर कुमार के संख्यात योजन के विस्तारवाले आवास के तीन गमा को वैसे ही वाणव्यंदर का जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! ज्योतिषीके कितने लाख विमान कहें? अहो गौतम ! ज्योतिषी के असंख्यात लास विमान करे. उन का सघ वर्णन पाणव्यंतरजेले कहना. इसमें मात्र एक तेजोलेश्या कहना. और असंज्ञी नहीं कहना ॥ ७॥ अहो प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. - ॥ ७ ॥ तोहम्मेणं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावास सयसहरसा पण्णत्ता? गोयमा! बत्तीस विमाणावास सयसहस्सा पण्णत्ता ॥ तेणं भंते ! किं संखेज्ज वित्थडा असंखेज वित्थडा ? गोयमा ! संखेज वित्थडावि असंखेज्ज वित्थडावि ॥ ॥ सोहम्मेणं भंते ! कप्पे बत्तीस विमाणावास सयसहस्सेसु संखेज वित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवइया सोहम्मगा देवा उववजंति, केवइया तेउलेस्सा उववज्जति, एवं जहा जोइसियाणं तिण्णि गमगा तहेव तिष्णि गमगा भाणियव्वा, णवरं तिसुवि संखेज्जा भाणियन्वा, अहिणाणी ओहिदसणीय चयावेयवा सेसं तवेव ॥ असंखेज वित्थडावि एवं चेव मावन् ! सौर्धा देवलोक में कितने लाख विमान कहे हैं ? अहो गौतम : बत्तीस लाख विमान कहे हैं.. भावाथअहो भगान् ! क्या वे संख्यात योजन के विस्तारवाल हैं या असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो गौतम! संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं और अख्यान योजन के भी विस्तारवाले भावन् ! सौधर्म देवलोक में बत्तीस लाख विमान में से संख्यात योजन के विस्तारवाले विमान में कितने सौर्मिक देव उत्पन्न होते हैं, कितने तेजोलेश्यागले वगैरह मय ज्योतिषी जैसे कहना. परंतु इसमें संख्यातका बोउ होने से संख्यात ग्रहण करना. अवधि ज्ञानी व अवधि दर्शनी यहां से चवतें हैं. असंख्यात योजन के 480 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मत्र तरहवा शतकका दूसरा उद्दशा rary ही Page #1848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण्णि गमगाय, णवरं तिसुवि गमएसु असंखेजा भाणियव्वा, ओहिणाणीय आहिदसणी संखेजा चयंति,सेसं तंचेव एवं जहा सोहम्मवन्तब्द या भणिया तहा ईसाणे छग्गमगा भाणियव्वा सणंकुमारवि एवंचेव णवरं इत्थीवंदगाण उववजंति,तेसु पण्णत्तेमुय ण भण्णंति असण्णीतिमुविगमएसुणभण्णंति सेसं तंचेव ॥एवं जाव सहस्सारोणाणत्त विमाणेसु लेस्सासुय सेसं तंचेव ।आणय पाणएसुणं भते! कप्पेमु केवइया विमाणावाससया पण्णत्ता ? चत्तारि विमाणावास सया पण्णत्ता ॥ तेणं भंते ! किं संखेज्जा पुच्छा ? गोयमा ! भावार्थावस्त र के तीन गमा संख्यात जैसे कहना वहां पर संख्यात के स्थान असंख्यात कहना. परंतु अवधिज्ञानी व अवधि दर्शनी संख्यात चवते हैं. जैसे सौधर्म देवलोक का कहा वैसे ही ईशान में संख्यात असंख्यात के छ गमा कहना. सनत्कुमार में वैसे ही जानना परंतु त्रीवेद वहां नहीं उत्पन्न होते हैं, विद्यमान अवस्था में भा नहीं होता हैं. असंज्ञी तीनों गमा में नहीं है. ऐसे ही सहसार तक कहना. मात्र लेश्या और विमानों में भिन्नता रही दुइ है. ईशान देवलोक में २८ लाख, सनत्कुमार में १२ लाख, मान्द्र में ८ लाख, ब्रह्म में F४ लाख, लंतक में ५० हजार, महाशुक्र में ४० हजार, और सहसार में 6 हजार. वैसे ही सौधर्म ईशान में तेजोलेश्या, सनत्कुमार, माहेन्द्र व ब्रह्म देवलोक में पद्म लेश्या और उपर एक शुक्ल लश्या. अहो भगवन् ! आणत प्राणत में कितने विमान कहे हैं ? अहो गौतम ! आणत माणत में ४०० विमान कहे हैं. अहो। 48 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋपिजी" * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #1849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 481 पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 भावार्थ संखेज वित्थडावि असंखेज वित्थडावि, एवं संखेज वित्थडेसु तिणि गमगा, जहा सहस्रतारे असंखेज वित्थडेसु उववजति तेसुय चयतेसुय एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा पण्णत्तेसु असंखेज्जा, णवरं णोइंदियोवउत्ता अणंतरोववण्णगा, अणंतरोवगाढा, ૧૮૧૨ अणंतराहारगा, अणंतर पजत्तगाय एएसिं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा, पण्णत्तेसु असंखेजा भाणियव्वा ॥ आरणच्चुएसु एवं चेव जहा आणयपाण रमु णाणत्तं विमाणसु, एवं गेवेजगावि ॥८॥ कइणं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ? भगवन् ! वे क्या संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं, असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो 2 गौतम ! संख्यात और असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं. संख्यात योजन के विस्तारवाले में तीन गमा सहस्रार जैसे कहना. असंख्यात योजन के विस्तारवाले में उत्पन्न होना व चवने का तो ऐसे ही कहना मात्र संख्यात उत्पन्न होना व संख्यात चवना काना, और विद्यमानता में असंख्यात का बोल कहना. परंतु नोइन्द्रिय युक्त, अनंतरोत्पन्न, अनंतरावगाढ, अनंतराहारक, अनंतर पर्याप्त ये पांच पदवाले जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात चवते हैं व उत्पन्न होते हैं और असंख्यात विद्यान रहते हैं. आपण अच्युत काx आणत प्राणत जैसे कहना इस में तीन सो विमान कहे . नवग्रेवेयक का भी ऐसे ही जानना; परंतु इस में पहिली त्रि में १११, दूसरी त्रिक में १०७, तीसरी त्रिक में १०० विमान हैं ॥ ८॥ अहो भगवन् । तेरहवा शतकका दूसरा उद्देशा *48 Page #1850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vimurrywwwwwview अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तेणं भंते ! किं संखजवित्थडा असंखेजवित्थडाय ? गोयमा! संखेजवित्थडाय असंखेजवित्थडाय ॥ पंचमुणं भते! अणु रविमाणे संखेज वित्थडे विमाणे एगसमए केवइया अणुत्तरोववाइया उवबजति.केवइया सकलेस्ता उववजति पच्छा? तहव,गोयमा ! पंचमणं अणत्तर विमाणेसु संखेज विथडेस अणत्तर विमाणे एगसमएणं जहण्णण एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा अण तरोववाइया उक्वजंति, एवं जहा गविजग विमाणसु संखेज वित्थडेसु णवर कण्ह पक्खिया अभवसिद्धिया तिसु अण्णाणेसु एए ण उववजंति, ण चयंति, णवि पण्णत्तएस भाणियवा अचरिमावि खोडिज्जति, जाव संखेज्जा चस्मिा पण्णत्ता, सेसं तंव अनुत्तर विमान कितने कहे हैं ? अहा गौतम ! अनुत्तर विमान पांच कहे हैं. अहो भगवन् ! क्या वे संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं या असंख्यात योजन के निस्तारवाले हैं ? अहो गौतम ! संख्यात योजन क विस्तारवाल हैं व असंख्यात योजर के विस्तारवाल हैं. अहो भगवन् ! पान अनुत्ता दिन म संख्यात योजन के विस्तारवाल :वमान में कितने अनुत्तरोपपातिक उत्पन्न होते हैं कितने शुक लेश्यावाले उत्पन्न होते हैं वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम पांचों अनुत्तर विमा में संख्यात योजन के विस्तारवाले अत्तर विमान में एक समय में जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट मंख्यात अनुत्तरोपपातिक उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही .. प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव सहायनी मागप्रसादजी. भावार्थ 2 Page #1851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेज वित्थडेमुवि एए ण भण्णति. अचरिमा अत्थि सेसं जहा गेवेज्जएमु असंखेज वित्थडे जाव असंखजा अचरिमा पण्णत्ता ॥ ९॥ चोयट्ठीएणं भंते ! असुर कुमारावाससयसहस्सेमु संखेजवित्थडे असुरकु-रावासेषु किं सम्मदिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति, मिच्छदिट्ठी एवं जहा स्थणप्पभाएं तिणि आलावगा भणिया तहा असंखेज वित्थडेमुवि तिणि गमगा एवं जाव गेवेज्जावमाणे अणत्तर विमाणेसु एवं चेव, णवरं तिमुवि आलाबएन मिच्छविट्ठी सम्म मच्छट्ठिीय ण भण्णति ससं भावाथरोयक विमान का संख्यात विस्तार का कहा वैने ही जानना. परंतु कृष्ण पक्षिक, अभवसिद्धिक, तीन अज्ञानवाले, उत्पन्न नहीं होते हैं और चवते भी नहीं हैं और विद्यमान भी नहीं रहते हैं. अचरिम भी नहीं होते हैं यावत् संख्यात चरिम रहते हैं अख्यात विस्तार वाले में भी उक्त बोल कहना परंतु अचरिम हैं यावत् असंख्यात विस्तार वाले में असंख्यात अचम्मि कहे हवे हैं ॥९॥ अहाँ भगवन ! अमुर कुमार के भवनपति जाति के देवता के दौठ लाख थान में प्रख्यात योजन वाले भवन में क्या समदृष्टि असुर कुमार उत्पन्न होते हैं या मिथ्यादृष्ट उत्पन्न होत? जैसे रामभा में तीन आलापक, कहे वैसे ही यहां पर तीनों आलापक जानना. ऐसे ही असंख्यात योजन के विस्तारकाले में भी तीनों. आलायक जानना. ऐसे ही नवगैवेयक र अनुत्तर विमान तक} | 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र का 4212 तरहया शतक का दूसरा उद्देशा 3gp Page #1852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " तेचेव ॥ १०॥ सेणूणं भंते ! कण्हलेस्से णील जाव सुक्कलेस्से भवित्ता, कण्हलेस्सेंसु देवेसु उववजंति ? हंता गोयमा! एवं जहेव णेरइएमु पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्वं, णीललेस्साएवि जहेव णेरइयाणं,जहा णील लेस्साए एवं जाव पम्हलेस्लेख पुक्कलेस्ससु एवं चेव, णवरं लेस्साटाणेसु विसुज्झमाणेमु विमुज्झमाणेसु मुक्कलस्सा परिणमइ, परिणमइत्ता सुक्कलेस्सेमु देवेमु उववजंति. से तेण?णं जाव उपवति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तेरसम सयस्सय वितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १३ ॥ २ ॥ + + कहना परंतु अनुत्तर विमान में मात्र एक समादृष्टिवाले उत्पन्न होते है, समदाष्टेवाले चवते हैं और ममदाष्टेचाले पाते हैं. ॥१०॥ अहो भगवन् ! कृष्णलेशी नीललेशी यावत् शुक्ललेशी होकर क्या पुनः कृष्ण लेश्यावाले देवपने उत्पन्न होवे ? हां गौतम! उत्पन्न होवे. इस का विशेष खुलासा पहिला नरक उद्देशा में कहा है. ऐसे ही शेष पांवों लेश्या का जारला. विशेष में इतना कि लेश्या के स्थानक में विशुद्ध होता हवा शुक्ललेश्या के परिणामपने परिणमे, शुक्ल लश्यान बनकर शुक लेयावाले देव में उत्पन्न होवे. अहो गौतम इसलिये ऐसा कहा गया है कि उत्पन्न होवे. अहो भगान् ! आप के वचन सत्य हैं. यह तेरहवा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा. ॥ १३ ॥ २ ॥ प्रकाशकनाजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी * Page #1853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 १८२३ 4. पंचमाजविवाह पण्णाति (भगवती ) सत्र 28+ + क कितनी भ० भगवन् पु० पृथ्वी प. प्रती गो० गौतम म. सात पु० पृथ्वी ५० प्ररूपी तं. वह णेरइयाणं भंते ! अणंतराहारा ततो णिवत्तणया एवं परिचारणा पदं णिरवसेसं भाणियव्वं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति॥ तेरसमसयस्सय तइआ उद्देसो सम्मत्तो ॥१३॥३॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढीओ पण्णत्ताओ, तंजहा दूसरे उद्देशे में देवता की वक्तव्यता कही. देवता प्रायः परिचारणावाले होते हैं इसलिये परिचारणा का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! नारकी उपपात क्षेत्र में प्राप्त हुवे पीछे आहार करे, पश्चात् शरीर निवृति करे, फीर परिवारणा करे, फीर परिणमे, और परिणमे बाद क्या चिकुर्वणा करे? हां गौतम! सब वैसे ही जानना. इस का सब कथन पनवणा के चौतीसवे पद में परिचारणा पद अनुसार जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह तेरहवा शनक का तीमरा उद्देशा पूर्ण हुवा. ॥ १३ ॥३॥ १ तीसरे उद्दश में परिचारणा कही. वह नरक में होने से नरक का अधिकार कहते हैं.+ अहो भगवन् ! इस उद्देशे में द्वार बतानघाली दो गाथाओं कितनेक स्थान दीखने में आती है सो कहते हैं. जेरइया फास पणिही निरयते चव लोयमझेय । दिसि विदिसाणय पवहा पव्वत्तणं अत्यिकाएहिं ॥१॥ अत्थोपएस फुसमाणा ओगाहणणायाय जीव मोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोग संठाणेत्ति ॥ २ ॥ ऐसे बारह द्वार कहे हैं इस का * विवेचन उद्देशे में ही आता है. तेरहवा शतक का भावार्थ चौथा उद्देशा ! Page #1854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋवीजी १८२४ शब्दार्थ जमे २० रत्नप्रभा जा. यावत् अ० अधो स० सातवीं ॥ १॥ अ० अयो म. सातवी भ० भगवन् } * पु० पृथ्वी में पं० पांच अ. अनुत्तर म० बहुत बडे जा. यावत् अ० अप्रतिष्ठान न नरक छ० छठीत. तमा पु. पृथ्वी न० नरक से म• बहुत लंबे म० बन चौडे म० बहुत आकाश वाले म० बडे शुन्य स्थानक णो नहीं म० महाप्रवेश णो० नहीं आ० आकीर्ण णो० नहीं आ. आकुल णो नहीं अ० __रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥ १ ॥ अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा महति महालया जाव अप्पइट्ठाण तेणं णरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए णरएहितो महत्तरा चेव, महाविच्छिण्णतरा चेव, महोवासंतरा चेव महापतिरिकतरा चेव णो तहा महा पवेसणतराव णो आइण्णतराचवणो आउलतरा चेव, णोअणामाणतरा चेव ४, तेसुणं... भावार्थ पृथ्वी कितनी कही हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वी मात कही है, जिन के नाम रत्नप्रभा यादत् सातवी की । तमतम प्रभा ।। १ ।। अहो भगान् ! सातवी पृथ्वी में पांच अनुत्तर बडे नरकाचाम कहे हैं वगैरह अप्र तिष्ठान तक कहना. वे पांचों नरकावासाओं छठी तमा पृथ्वी के नरकावासाओं से लम्बाइ व चौंडाइ में बहुत बड़े हैं बहुत विस्तारवाले, बहुत आकाश क्षेत्रकाले और बहुत शून्य स्थानकवाले हैं, छठी नरक में जैसे जीवों का महा प्रवेश है वैसा इस में नहीं है अत्यंत आकीर्ण नहीं है अत्यंत आकुल नहीं हैं व अत्यंत संकीर्ण नहीं है. उस नरक में रहे हवे नारकी छठी तमा में रहे हवे नारकी से वेदनीयाटिक अ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 * संकीर्ण ने उन न० नरक में णे. नारकी छ. छठी त० तमा पु. पृथ्वी के णे. नारकी से म० महाकर्म | वाले म०महाक्रिया वाले मं० पहा आश्रा वाले, म. महावेदना वाले गो० नहीं त• तथा अ• अल्प कर्म | वाल अ० अल्पाक्रया वाले अ• अल्प आश्रा वाले अ० अल्प वेदना वाले अ० अल्प ऋद्धिवाले अ010 अल्पति वाले णो नहीं म० बडी ऋद्धिताले णा नहीं म• महाद्युति वाले छ० छठी न० तमा पु० पुथ्वी । में ए० एक पं० पांच कम णि. नरकावास स० शत सहस्र ५० प्ररूपे ते वे ण नरकावास अ० अधो णरएमु गैरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए णेरइएहितो महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा __ घेव, महासवतरा चेव,महावेयणतरा चेव, णो तहा अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव ४, अप्पिड्डियतरा चेव अप्पजुत्तियतरा है चेव णो तहा महिट्ठियतरा चेव णो महज्जुत्तियतरा चेव २ छट्ठीएणं तमाए पुढवीए एगे पंचणे णिरयावास सयसहस्से पण्णत्ता तेणं णरगा अहे सत्तमाए पुढवीए णरएहितो अपेक्षा से महा कवाले हैं कायिक्यादिक क्रिया की अपेक्षा सै महा क्रियावाले ,, महा आश्रयवाले व महा वेदनावाले हैं परंतु छठी नारकी के नेरये जैसे अल्प कर्मवाले, अल्प क्रियावाले, अल्प आश्रव व अल्प वेदनावाले नहीं हैं. वे अल्प ऋद्धिवाले व अल्प द्युतिवाले हैं बहुत ऋद्धिवाले व बहुत द्युतिवाले नहीं है। छठी तमा नामक नरक में पांच का एक लाख नरकावास कहे हैं. वे नरकावास मातवी तमतमा पृथ्वी के । पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र तरह शाकका चौथा उद्देशा Page #1856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 स० सातवी पु. पृथ्वी के ण. नरका वास से णो नहीं १० बहुत लम्ब म० बहुत चौडे वाले आ० आकीर्ण ते. उस ण नरक में ण० नारकी अ० अधो स. सातवी पु० पृथ्वी । म० वडा वे Eसे अ० अल्प कर्म वाले अ० अल्पक्रिया वाले णो नहीं म० महाकर्म वाले म. महानि के णेनारकी महदिक म. महायुति वाले णो नहीं अ० अल्पसद्ध वाले णो नहीं अ० अल्पद्यात प त. तमा पु. पृथ्वी के ण नरका वास पं० पांची ध० धूमप्रभा पु० पृथ्वी के ण नरवाल छ० छठी णो तहा महत्तरा चेव महाविच्छिण्णतरा चेव ४. महप्पवसणतरा चेव का वास स म० चेव ४, तेसुणं णरएमु णेरइया अहे सत्तमाए पुढवीणरइहिता अप्पकम्म "इतरा अप्पकिरियतरा चेव; & णो तहा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव ४ सराव यतरा चेव, महाजुत्तियतरा चेव, णो तहा अप्पिढियतरा चेव णो तहा अप्पा माहाड्ढे चेव॥ छट्ठीएणं तमाए पुढवीए गरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए णेरइएहित "त्तयतरा भावार्थ नरकावासों से लम्बाइ चौदाइ में बहुत बडे नहीं हैं. वहत विस्तृत नहीं हैं, अवकाशवाले नही महत्तरा नहीं हैं परंतु बहुत प्रवेशवाले, आकीर्ण, आकुल व अत्यंत संकीर्ण हैं. उस नरक में नारकीहै व शून्य नारकी से अल्प कर्मवाले, अल्प क्रियावाले, अल्प आश्रव व अल्प वेदनावाले हैं परंतु महातवी नरक के पाश्रव व वेदनावाले नहीं हैं. महा ऋदिवाले व महा द्युतिवाले हैं; परंतु अल्प ऋद्धिवाले कर्म, क्रिया, अल्पति 48 अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी * Page #1857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ 488* पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4 बहुत लंबे णो नहीं म० वडा प्रवेशन ते ० उस ण नरक में णे नारकी पं० पांचवी धू० धूम्रप्रभा पु० { पृथ्वी के ने० नारकी से ५० महाकर्म वाले णो नहीं अ० अल्प कर्म वाले भ० अल्पऋद्धि वाले गो० नहीं म० महर्द्धिक पं० पांचवी धूः धूम्रप्रभा पु० पृथ्वी में ति० तीन णि० नरका वास स० लक्ष प०प्ररूपे ए० ऐसे ज० जैसे छ० छठी में भ० कहा ए० ऐसे स० सात पु० पृथ्वी का प० परस्पर भा० कहना चैत्र ४, णो तहा महप्पबेसणतरा चैत्र ४, तेसुणं णरएस रइया पंचमाए धूमप्पभा पुढवी नेरइएहिंतो महाकम्मतरा चेव ४, णो तहा अप्पकम्मतरा चैत्र ४, अपिढितराचे २ णो तहा महिड्डियतरा चैत्र २, पंचमाएणं धूमप्पभाए पुढवीए तिण णिरयावास सय सहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा छट्ठीए भणिया एवं सत्तवि वाले नहीं हैं. छठी तमा पृथ्वी के नरकावास पांचवी धूम्रप्रभा के नरकावास से बहुत बडे, विस्तृत, अब{काशवाले व शून्य हैं. पांचवी नरक जैसे प्रवेशवाले, आकीर्ण, आकुल व अत्यंत संकीर्ण नहीं हैं. छठी नरक के नारकी पांचवी धूम्रप्रभा के नारकी से महा कर्म, क्रिया, आश्रय व वेदनावाले हैं परंतु अल्प कर्म, क्रिया, आश्रव व वेदनावाले नहीं हैं. अल्प ऋद्धिवाले व युतिवाले हैं परंतु महर्द्धिक व महा द्युतिवाले) नहीं हैं. पांचवी धूम्रप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे हैं. इस का वर्णन जैसे छठी का कहा * तेरहवा शतक का चौथा उद्देशा 43 १८२७ Page #1858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थना . यावत् रः रत्नप्रभा जा. यावत् णो नहीं म० महर्दिक अ: अलद्युति वाले ॥२॥ मरल शब्दार्थ: पुढवीओ परोप्परं भण्णति जाव रयणप्पभात्त जाव णो तहा महिड्डियतरा चेव अप्पजुत्तिय. तराचत्र ॥२॥ रयणप्पभा पुढधी णेरइयाणं भंते ! केरिलयं पुढवीफास पञ्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए णेरइय एवं आउफासं एवं जाव वणस्सइ फासं ॥ ३ ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं सकरप्पभं पुढविं पणिहाय सव्व महतिया बाहल्लेणं सब खुाडया सव्वतेसु, भावार्थ | वैसे ही जानना. ऐसे ही सातों नरक का परस्पर जानना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! रप्रभा पृथ्वी के नारकी कैसा पृथ्वी स्पर्श अनुभवते हुवे विचरने है ? अहो गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ पृथ्वी स्पर्श वते हुवे रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी विचरते हैं. ऐसे ही मातबी नरक तक जामना. पृथ्वी स्पर्श जैसे अप्काय, तेउकाय, वायुकाय व वनस्पतिकाया का स्पर्श कहना. यह दूसरा द्वार हुगा ॥ ३ ॥ अब तीसरा प्रणिधिद्वार कहते हैं. यह रत्नप्रभा पथ्वी पृथ्वीविंड मेमरी शर्कर प्रभा पृथवी आश्री सब से बडी है क्यों कि रत्नप्रभा का एक लाख अस्सी हजार योजन का पृथ्वी पिंड है और शर्कर प्रभा का एक लाख बत्तीस हजार योजन का पृथ्वो पिंड है, और परिधि से रत्नप्रभा पृथ्वी शर्कर प्रशा आश्री मर से छोटी १ नारकी में तेजस्काय परमाधामी कृत है परंतु साक्षात नहीं है. मुनि श्री अमोलक . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी * अनुवादक-वालब्रह्मच Page #1859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ap> R ANA एवं जहा जीवाभिगमे बितिए णेरइए उद्देसए ॥ ४ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुडीए णिरय परिसामंतेसु जे पुढवीकाइया एवं जहा णेरइए उद्देसए जाव अहे सत्तमाए॥५॥कहिण्णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा! इमीसे रयणप्प. भाए पढवीए उवासंतरस्स असंखेजइ भागं उग्गहित्ता,एत्थण लोगस्स आयाममझे पण्णत्ते कहिणं भंते ! अहेलोगस्स्स आयाममञ्झे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढीए उवासंतरस्स साइरेगं अहं उग्गहित्ता एत्थणं अहे लोगस्स आयाममझ पण्णत्ते कहिणं भंते ! उड्न लोगस्स आयाममझ पात्त ? गोयमा! उपि सणंकुमार माहिदाणं कप्पाणं बंभलोए कप रिढविमाणपत्थडे, एवणं उडलोगस्स आ याममज्झ पण्णत्ते ॥ कहिण्णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममझे पप्णत्ते ? मावाथ है क्यों कि चारों दिशि में रत्नप्रभा की लम्बाइ चौडाइ एक राजु प्रमाण है और शर्कर प्रभ की लम्बाइ चौडाइ अढी राज प्रमाण है. इस का विशेष विवेचन जीवाभिगम के दुसर नरक उद्देशे से जानना. यह है 12नीसग द्वार पूर्ण हुवा ।। ४ ॥ अब चौथा निरंतर द्वार कहते हैं, जो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की पास जो पृथ्वीकायादि रह हुवे हैं वे क्या महा कर्मवंत हैं ? यो सब अधिकार जावाभि९७१गम सूत्र से जानना, यावन् सातवी नरक पर्यंत स्थावर काय के जीवों महा कर्मवाले यावत् महा दुःख-१४ वाले हैं ॥ ५॥ अब लोक मध्य द्वार कहते हैं. अहो भगवन् : लोक का मध्य लम्बाइ में कहां कहा है ? P8 पंचगंग विवाह पण्णनि (भगवती) -तेरहवा शनक का चोथा उद्देशा 498 Page #1860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी गौयमा ! जंबूहीये दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमझदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम हेट्ठिलेसु खुडुगपयरे मु एत्थणं तिरिय मज्झे अटू पएसिए रुयए पण्णत्ते, जओणं इमाओ दसदिसाओ पवहंति तंजहा पुरच्छिमा, पुरच्छिमदाहिणा,, अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशांतर का असंख्याता भाग उल्लंघ कर जावे वहां लोक का मध्य भाग लम्बाइ में कहा है. अहो भगवन् ! अधो लोक का आयाम मध्य कहां कहा है ? अहो गौतम! चौथी पंक प्रभा पृथ्वी के आकाशांतर के साधिक अर्ध भाग अबगाह कर जावे वहां अधो लोक का आयाम मध्य कहा है. क्यों कि रुचक प्रदेश से ९०० योजन नीचे ऊर्ध्व लोक रहा है. वह सात राजु कुच्छ अधिक है. उस का मध्य चौथी पांचवी पथ्वी के मध्य का आकाशांतर ऊर्ध से अधिक उल्लंघ कर जावे जब आता है. अहो भगवन् ! ऊर्ध्व लोक का आयाम मध्य कहां कहा है ? अहो गौतम ! रुचकन प्रदेश से नव सो योजन जावे तब ऊर्ध्व लोक आता है. वह मात राजु मे न्यून है, सनत्कुमार व माहेन्द्र, देव लोक की उपर रिष्ट विमान प्रस्तर में ऊर्य लोक का आयाम मध्य कहा है. अहो भगवन् ! तीर्छा लोक का मध्य भाग कहाँ कहा है! अहो गौतम! इस जम्बद्वीप के बहुत मध्य भाग में मेरु पर्वत रहा हुवा है. इस की मध्य में रत्नप्रभा पृथ्वी की ऊपर रत्न काण्ड के नीचे सब से छोटी दो प्रतर हैं. इन दोनों की मध्य में तीर्छालोक का मध्य कहा है. वहां आठ रुचक प्रदेश कहे हैं. इन से दश दिशाओं - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * * Page #1861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र १११ भावार्थ एवं जहा दसमसए जाव णामधेजति ॥ ६ ॥ इंदाणं भंते ! दिसा किमादिया किं पवहा कइ पदेसादिया, कइपदेसुत्तरा कइपदेसिया किं पजवसिया, किं संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! इंदाणं दिसा रुयगादिया रुयगप्पवहा दुपदेसिया, दुपदेसुत्तरा, लोगं पडच्च असंखेजपएसिया. अलोग पडच्च अणंत पएसिया ॥ लोगं पडच्च सादिया सपजवसिया, अलोगं पडुच्च सादिया अपजवसिया; लोगं पडुच्च मुरवसंठिया अलोगं पडुच्च सगडद्धियसंठिया पण्णत्ता ॥ अग्गीयीणं भंते ! दिसा किमादिया, बनी हुई हैं, जिन के नाम पूर्व, पश्चिम, दक्षिण वगैरह जैसे दशवे शतक में कहा वैसे ही जानना ॥६॥ अब छठा दिशि विदिशि प्रवाह द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इन्द्रा नामक दिशा की १ कहां आदि है, २ कहां से चली है, ३ आदि में कितने प्रदेश हैं, ४ कितने प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, ५ कितने प्रदशात्मक है, ६ कहां अंत है और ७ कहां रही हुई है ? अहो गौतम ! ऐन्द्री दिशा की रुचक सं | आदि है २ रुचक से चलती है दो प्रदेशों की आदि है, आगे दो प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि पाती है. लोक}ogo आश्री असंख्यात प्रदशात्मक है अलोक आश्री अनंत प्रदेशात्मक है, लोक आश्री आदि अंत सहित है। अलोक आश्री आदि सहित अंत रहित है. लोक आश्री मुरज नामक आभरण विशेष के आकारवाली है. और अलोक आश्री गाडी की धूरी के आकारवाली है. अहो भगवन् ! अग्नेयी दिशा की कहां से है। 48 तेरहरा शतकका चौथा उद्देशा द्देशा8488 8. Page #1862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३२ अनवादक-वालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 22 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmand किं पवहा, कइ पएसादिया, कइ पएसविच्छिण्णा, कइ पएसिया किं पज्जवसिया, किं संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अग्गीयीणं दिसा रुयगादिया, रुयगप्पबहा, एगपदेसादिया, एगपदेसविच्छिण्णा, अणुत्तरा, लोगं पडुच्च असंखेज पदेसिया, अलोगं पडुच्च अणंत पदेसिया,लोगं पडुच्च सादिया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादिया अपज्जवसिया छिण्णमुत्तावलि संठिया पण्णत्ता जमा जहा इंदा जरई जहा अग्गेयी एवं जहा इंदा तहा दिसा चत्तारि । जहा अग्गेयी तहा चत्तारि विदिसाओ । विमलाणं भंते ! आदि ह, कहां से चली है, कितने प्रदेश आदि में है, कितने प्रदेश की विस्तारवाली है, कितने प्रदेशाला है, कहां उसका अंत है और कैसे संस्थान वाली है! अहो गौतम अग्नेयी दिशा की रुचक आदि है, रुवक से चली है, एक प्रदेश की आदि है, एक प्रदेश की विस्तीर्ण है, विदिशा की उत्तरोत्तर वाद्ध नहीं होती है, लोक आश्री असंख्यात प्रदेशात्मक अलोक आश्री अनंत प्रदेशात्मक, लोक आश्री* आदि अंतसाहित है अलोक आश्री आदि सहित अंतरहित है और छेद हो मुक्तावलि कार जले हैं. जैसे एन्द्री देशा का कहा वसे ही शेष मब दिशा का जानना. और जैसे अग्नेयी का कहा वैसे ही विदिशा का जानना. अहां भगवन् ! विमला दिशा की कहां आदि है वगैरह प्रश्न की अग्चयी जैसे पृच्छा करते हैं. यह गौतम ! विमला दिशा की झलक से आदि है, रुचक से विमला दिशा नीकली है, चार प्रदेश की भावार्थ Page #1863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwww पंचमांग विवाह पाणत्ति ( भगवती) मूत्र 4 दिसा किमादिया पुच्छा ? जहा अग्गेयी । गीयमा ! विमलाणं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा, चउप्पदेसादिया, दुपदेसविच्छिण्णा, अणुत्तरा लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेयी णवरं रुयग संठिया एवं तमावि ॥ ७ ॥ किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ गोयमा ! पंचत्थिकाया, एसणं एवइए लोएत्ति पवुचई, धम्मत्थिकाए, अहम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, जीवत्यिकाए, पोग्गलत्थिकाए ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? गोयमा ! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमण गमण भासुम्मेस मण आदिवाली है, दो प्रदेश की विस्तीर्ण है, अनुत्तर है. लोक आश्री अख्यात प्रदेशात्मक है, अलोक आश्री अनंत प्रदेशात्मक है, लोक आश्री मादि सान्त है अलोक आश्री नादि अनंत है और रुचक के संस्थान वाली है. ऐसे ही तमादिशा का अधिकार जालना ॥9॥ अब प्रतिद्वार कहने हैं. अहो भगवन ! यह 3 लोक है ऐसा क्यों कहा? अहो गौतम! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्ति काय व पुद्गलास्तिकाय यों पंचास्तिकाय रूप लोक है. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया से जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? अहो गौतम ! धर्मास्तिकाया से जीवों का आगमन, गवन, बोलना, उन्मेष, मन योग, वचन योग, काया योग और अन्य भी ऐसे मब चलन व स्वभाव प्रतिते हैं क्यों कि धर्मास्तिकाय गति 4.30 तरहवा शक का चौथा उदशा भावार्थ 1 । Page #1864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३४ w ormanence जोग वइ जोग काय जोग, जेथावण्णे तहप्पारा चलसभावा सव्वेते धम्मत्थिकाए, पवत्तंति, गतिलक्खणेणं धम्मत्थिकाए ॥ अहम्मत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ गोयमा ! अहम्मत्थिकाएणं जीवाणं ठाणणिसीयणतुयट्टणमणरसय एगत्तीभाव करणया जेयावण्णे तहप्पगारा थिरसभावा सब्बते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति, ठाणल खणेणं अहम्मत्थिकाए ॥ आगासत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं अजीवाणय किं पवत्तइ गोयमा ! आगासत्थिकाएणं जीवदव्वाणय अजीवदव्वाणय भायणभूए एगेण वि से लक्षणवाली है. अहो भगवन् ! अधर्मास्तिकाया से जीवों को क्या प्रवर्तन होता है ? अहो गौतम ! अधर्मास्तिकाया से जीवों को खडे रहना, बैठना, सोना, मन का एकत्व भाव करना और ऐसे अन्य मब स्थिर स्वभाववाले कार्य होते हैं क्यों कि अधर्मास्तिकाया का लक्षण स्थिर का है. अहो भगवन् ! आकाशास्तिकाया से जीवों को क्या प्रवर्तन होता है ? अहो गौतम ! आकाशास्तिकाय जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य को भाजनभूत है. एक आकाशास्तिकाय प्रदेश, एक परमाणु, दो परमाण, सो परमाणु, क्रोड, सो क्रोड, क्रोड सहस्र परमाओं से भराया रहता है. जैसे एक कमरे में दीपक किया उस का प्रकाश उस कमरे में होता है, फीर दूसरा दिवा किया उस का प्रकाश भी उस में ही आता है, यों हजारों * प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ + पंचमांग वहाव पण्णति ( भगवती ) सूत्र पुण्णे सयंबि माएजा, कोडिसएणवि पुण्णे कोडिसहस्संपि माज्जा, अवगाहणा लक्खणेणं आगासत्थिकाए । जीवत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? गोयमा ! जीवत्थि काएणं जीवे अनंताणं आभिणिबोहियणाण पज्जवाणं, अनंताणं सुअणाण पज्जवाणं, जहा बितिसए अस्थिकाय उद्देस जाव उवओगं गच्छति, उवओग लक्खणेणं जी || पोग्गलथिका पुच्छा ? गोयमा ! पोग्गलत्थिकाएणं, जीवाणं ओरालिय उवि आहारग-तया कम्मा, सोइंदिय- चक्खिदिय- घाणिदिय जिभिदिय- फासिंदिय, दीपक का प्रकाश भी उसी कमरे में आ जाता है वैसे ही एक आकाश प्रदेश में परमाणुओं का समावेश होता है क्योंकि आकाशास्तिकाया का लक्षण अवगाहना है. अहो भगवन् ! जीवास्तिकाया से जीवों को क्या प्रवर्तन होता है ? अहो गौतम ! जीवास्तिकाया से अनंत अभिनिवोधिक ज्ञान के पर्यव, अनंत श्रुतज्ञान के पर्यत्र वगैरह सब कथन दूसरे शतक के अस्तिकाय उद्देशे में से जानना. यावत् उपयोग लक्षण वाला जीव है. अहो भगवन् ? पुद्गलास्तिकाया से जीवों को क्या प्रवर्तन है ? अहो गौतम ! पुद्गलास्तिकाया से नीवों को उदारिक, वैक्रेय, आहारिक, तेजस् व कार्याण शरीर, श्रोते(न्द्रिय चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय मनयोग, वचनयोग, कायायोग और श्वासोश्वास का 444 तेरहवा शतक का चौथा उद्देशा १८३५ Page #1866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी * प्रााशक-राजबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ मणजोग-वइजोग कायजोग,आणा पाणूणंच महणं पवत्तंति,गहण लक्खणेणं 'पोग्गलत्थि काए ॥ ८ ॥ एगें भंते ! धम्मत्थिकायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थिकाथप्पएसेहिं पुटे ? गोयमा ! जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहिं । केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं पु?? गोयमा ! जहण्णपदे चउहिं उक्कोसपदे सत्तहिं ॥ केवइएहिं आगासत्थिकायप्पएसेहिं लेना होता है. क्यों की पुद्गलास्तिकाया का ग्रहण लक्षण है. ॥ ८ ॥ अव अस्तिकाय प्रदेश स्पर्शन द्वार, कहते हैं. अहो भगवन् ! एक धर्मास्तिकाय प्रदेश कितने धर्मास्तिकाया के प्रदेश से स्पर्शा हुवा है ? अहोस गौतम ! एक धर्मास्तिकाय प्रदेश जघन्य तीन धर्मास्तिकाय प्रदेशको स्पर्शाहुवा है. लोक के अंत में निकुटरूप जहां एकधर्मास्तिकायादि प्रवेशन बहुत अल्प है अन्य प्रदेश साथ स्पर्शना होवे. भूपि आसन्न कमरा के खुने । का एक प्रदेश को दो बाजु दो और एक नीचेयों तीनप्रदेश होवे वैसेही धर्मास्तिकाया के प्रदेश को जघन्य पना से धर्मास्तिकाया के तीन प्रदेशो स्पर्श हुवे रहे हैं. और उत्कृष्ट पद से छ प्रदेश स्पर्क हुवे रहे हैं किसी एकप्रदेश के उपर, नीचे व चारों दिशा के चार योंछ प्रदेश सर्शकर रहे हुवे हैं. अहो भगवन्! एक धर्मास्ति काया का प्रदेश अधर्वास्तिकाया के कितने प्रदेश से सीहुवा है ? अहो गौतम ! जघन्यपद से चार से स्पर्श में उत्कृष्ट पदसे सातसे स्पर्श. पहिले जो तीन व छ कहे हैं उसमें जो धर्मास्तिकायाका प्रदेश स्पर्शने का वही अधर्मास्ति काया के स्थान होने से अधिकलियागया है अहो भगवन्!एकधर्मास्तिकाय प्रदेशकितने आकाशास्तिकाय प्रदेश से 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि Page #1867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३७ भावार्थ A8+ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र 488+ 2 पुढे ? गोयमा ! सत्तहिं ॥ केवइएहिं जीवस्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोयमा ! अणं । तेहिं ॥ केवइएहिं पोग्गलत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोयमा ! अणंतेहिं ॥ केवइएहिं १ अद्धासमएहिं पुढे ? सिय पुढे सिय जो पुढे, जइ पुढे णियमं अर्णतेहिं ॥ ९॥ एगे हुवा है। अहो गौतम ! सात प्रदेश से स्पर्शा हुवा है. क्यों कि लोकात में भी अलोकाकाश विद्यमान है.. अहो भगवन् । एक धर्मास्तिकाय प्रदेश से कितने जीवास्तिकाय प्रदेश स्पर्धे हुवे हैं ? अहो गौतम ! अनंत जीवास्तिकाय प्रदेश स्पर्श हुवे हैं, क्योंकि एक धर्मास्तिकाय प्रदेश के तीनों तरफ अनंन जीव के प्रदेश रहे हुवे हैं. अहो भगान् ! एक धर्मास्तिकाय प्रदेश को कितने पुद्गलास्तिकाय प्रदेश स्पर्श हुवे हैं ! अहो । गौतम ! अनंत पुदूलास्तिकाय प्रदेश स्पर्श हुये हैं जीवास्तिकाय प्रदेशवत्, अहो भगवन् : एक धर्माहस्तिकाय को कितना अद्धा (काल) स्पर्शा हुवा है ? अहो : गौतम ! धर्मास्तिकाय प्रदेश को काल क्वचित् स्पर्शा हुवा है और क्वचित् स्पर्शा हुआ नहीं है क्यों कि काल. मात्र अढाइ द्वीप में है इस से बढाइ द्वीप में स्पर्श कर रहा है और अढाइ द्वीप सिवाय अन्यत्र काल स्पर्श कर नहीं रहा है. जो पर्श कर रहा है वह अनंत स्पर्श कर रहा है. क्यों कि तीनों काल के समय अनंत हैं। वैसे ही वर्तमान समय अनंत दिग्य का मालिंगन होने से अनंत द्रव्य के अनंत समय को. स्पर्शता है ॥ ९ ॥ अहो भगवन् : एक अप तेरहवाशवर्क का Page #1868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलंक ऋषिजी+ 12. भंते ! अहम्मतिथ कायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोयमा ! है जहण्णपदे चंउहि उक्कोसपदे सत्तहिं ॥ केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोयमा ! जहण्णपदे तिहिं उक्कोसपदे छहिं, सेसं जहा धम्मत्यिकायस्स ॥ १॥ एगे भंते ! आगासत्थि कायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोय! भावार्थ मास्तिकाय प्रदेश को कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश स्पर्श हुवे हैं ? अहो गौतम ! जघन्य चार उत्कृष्ट सात. अहो भगवन् ! कितने अधर्मास्तिकाया के प्रदेश स्पर्श हुवे है ? अहो गौतम ! जघन्य तीन उत्कृष्ट छ शेष सब धर्मास्तिकाया जैसे कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! एक आकाशास्तिकाय प्रदेश कितने धर्मा. स्तिकाया के प्रदेश से स्पर्शा हुवा है ? अहो गौतम ! आकाशास्तिकाया को धस्तिकाया क्वचित् स्पर्शी हुई है और काचित् नहीं स्पी हुई है क्यों की आकाशास्तिकाया के दो भेद कहे हैं लोकाकाश व अलोकाकाश. लोकाकाश में धर्मास्तिकाया है और अलोकाकाश में धर्मास्तिकाया नहीं है इस से क्यचित् स्पर्श हुई है और काचित् स्पर्श हुई नहीं है. जब धर्मास्तिकाया स्पर्शी हुई तब जघन्य एक प्रदेश से स्पर्शी हे लोकान्त में रहा हुवा आकाश प्रदेश पर धर्मास्तिकाया का प्रदेशवत्. क्वचित् दो धर्मास्तिकाया प्रदेश, वक्रगति आकाश प्रदेशको दो धर्मास्तिकाया के प्रदेश स्पर्श हुई हैं और तीन प्रदेश का भी स्पर्श होता है वह अलोकाकाश बंधक प्रदेश के आगे का,. नीचे का वाक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. 4.8 अनुवादक-बालब्रह्म Page #1869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र सिय पुढे सिय जो पुढे, जइ पुढे जहण्णपदे एक्कणवा दोहिंवा तिहिंवा, उक्कोसपद सत्तहिं ॥ है एवं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिंवि ॥ केवइएहिं आगासत्थिप्पएसेहिं पुढे? गोयमा ! छहिं ॥के वइएहिं जीवत्थि कायप्पदेसेहिं पु?? गोयमा ! सियपुढे सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमं अणं तेहिं एवं पोग्गलत्थि कायप्पदेसेहिंवि ॥ अद्धासमएहि ॥ ११॥ एगे भंते ! जीवस्थिव उपर का और उत्कृष्ट पद से एक आकाशास्तिकाय के प्रदेशको धर्मास्तिकाया के सात प्रदेशोंने स्पर्श किया है. लोकान्त की कौन में रहा हुवा आकाश प्रदेश धर्मास्तिकाया के प्रदेश को अवगाहकर रहाहुवा है और इस की एक उपर, एक अधो व एक बाजु पर का प्रदेश यों चार, और दोनों बाजु दो, उपर, नीचे के दो और एक धर्मास्तिकाया प्रदेश जिस में रहा है सो यो पांच, व उपर, नीचे व तीनों दिशा के 4 तीन यो छ और उपर नीचे व चारों दिशा के चार प्रदेश स्पर्श कर रहे हैं. इस तरह एक आकाशास्तिकाय प्रदेश धर्मास्तिकाया के सात प्रदेशों से स्पर्श कर रहा हुवा है. जैसे आकाशास्तिकाया की साथ धर्मास्तिकाया का कहा वैसे ही अधर्मास्तिकाया का जानना. अहो भगवन् ! कितने आकाशास्तिकाय प्रदेश से स्पर्श हुवा है ? अहो गौतम ! छ आकाश प्रदेश से स्पर्शा हुवा है, अहो भगवन् ! कितने , जीवास्तिकाय प्रदेश से स्पर्शा हुवा है ? अहो गौतम ! क्वचित् स्पर्श हुवा है और क्वचित् नहीं 'स्पर्शा हुवा है क्यों कि लोकाकाश में जीव हैं और अलोकाका में जीवनी है. बाद स्पर्श हुवा है तो निश्चय .. 28 तेरहवा शतक का चौथा उद्देशा - - + 488 -- Page #1870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42.अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी कायप्पदेसे केइएहिं धम्माथिकाय पुच्छा ! जहण्णपदे चउहि. उक्कासपदे सनहिं । एवं अधम्मत्थि कायप्पदेगहिविा केवइएहिं आगासत्यिकाय पुच्छा?सत्तहिं ।केवइएहिं जीवत्थि सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स. ॥ १२ ॥ एगे. भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पदेसे केवइएहिँ धम्मत्थिकायप्पदेसेहिं ; एवं जहेब जीवस्थिकायस्स ॥ १३ ॥ दो भंते ! पोग्गलत्थिर कायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदेसेहिं पुट्ठा ? गोयमा ! जहण्णपदे छहिं उक्को.. अनंत प्रदेशों से स्पर्शा हुवा है. ऐसे ही पुद्गलास्तिकाया का जानना. और बने ही कालका भी कथन. कहना।। २.१॥अहो भगवन् ! एक जीवास्तिकायप्रदेश को कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश स्पर्शकर रहे हैं? अहो गौतम! जयन्य चार उत्कृष्ट सात धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के भी जयन्य चार उत्कृष्ट सात प्रदेश स्पर्श कर रहे हैं. आकाशास्तिकाय के सात प्रदेश रहे हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय जैसे कहना. ॥ १२॥ अहो भगान् ! एक पुद्रलास्तिकाय प्रदेश कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश से स्पर्श कर रहा है? अहो गौतम ! जैसे जीवास्तिकाया का कहा वैसे ही यहां कहना. ॥१३॥ अहो भगवन् ! दो पदलास्तिकाय प्रदेश किनने धर्मास्तिकाय प्रदेश मे स्पो हुवे हैं ? अटो गौतम ! जघन्य छ उत्कृष्ट बारह प्रदेश स्पर्श हुवे हैं. + + यहांपर चूर्णिकार ऐसा कहते है कि लोकान्त में जो द्विप्रदेशिक स्कंध एक प्रदेश अवगाह कर रहा हुवा हे उस १ है एक अवगहित प्रदेश को भी प्रतिद्रव्य अवगाहि प्रदेश ऐसा नयमत का आश्रय ग्रहण कर के भिन्नपना से दो परों, और है • प्रकाशक राजाबहादुर लामा सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #1871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह णत्ति ( भगवती ) मुत्र + सपदे बारसहिं । एवं अहम्मत्थिकायप्पदेसेहिंचि ॥ केवइएहिं आगासत्थिकाय पुच्छा ? गोयमा ! बारसहिं सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ १४ ॥ तिष्णि भंते ! पांग्गलस्थि कापसा के एहिं धम्मत्थिकापसेहिं पुटु ? गोयमा ! जहणदे अ उत्कृष्ट पद में बारह का विवरण जिंक दो देशों को कर रहे हैं वे नीच के दो, उपर के दो पूर्व पश्चिम दिशी के दो २ दक्षिण बाजु में एक और उत्तर कज में एक यो बारह वर्मास्तिकाय के प्रदेश स्पर्श हुवे हैं ऐसे ही अधर्मास्तिकाय का जानना आकाशास्तिकाय के बारह प्रदेश स्पर्धे हुये हैं शेष सत्र धर्मास्तिकाय जैसे कहना || १४ || अ भगवन ! तीन पुगलास्तिकाय प्रदेश को कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश स्पर्शे हुवे हैं -? अहो गौतम ! जघन्य पद से तीन पुद्गलास्तिकाय प्रदेश को आठ धर्मास्तिकाय प्रदेश नीचे व उपर जो प्रदेश हैं उन को भी दो पुद्गल का स्पर्शन होने से भेद से दो प्रदेश साथ स्पर्शे वैसे ही दोनों बाजु एक र अणु को एक. २ यों दो प्रदेश स्पशैं. यों जघन्य पद में छ धर्मास्तिकाय प्रदेश द्वयणुक स्कंध को स्पर्शे. यदि नयमत स्त्रीकृत न किया तो द्वयक को चार प्रदेश स्पशैं. अब वृत्तिकार का कथन ऐसा है कि द्विप्रदेशिक स्कंध सो दो परमाणुओं जानना. उस में इधर रहा हुवा परमाणु इधर के प्रदेश की साथ स्पर्शे और उधर रहा हुवा परमाणु उधर के 'प्रदेश से स्पर्शे इस तरह दोनों तरफ के दो प्रदेश, औजिन दो प्रदेश में दो परमाणुओं की स्थापना की उन की आगे के दो प्रदेश स्पों यों चार और दो प्रदेश अवगाह कर रहे हैं सो यो छ प्रदेश हुए. - तेरा सनकका चौथा उद्देशा १८४९ Page #1872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक बालब्रह्मचारी पुनि श्री अमोलक ऋषीनी nomorrrrrrr-www-oriwwwmummer उकोसपदे सत्तरसहि, एवं अहम्मत्थि कायप्पदेसेहिंवि । केवइएहिं, आगासत्थि सत्तरसहिं ॥ सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एवं एएणं गमएणं भाणियव्वा जाव दस, णवरं जहण्णपदे दोण्णि पक्खिवियव्वा उक्कोसेणं पंच ॥ चत्तारि पोग्गलत्थि कायप्पदेसे• जहण्णपदे दमहिं उक्कोसपदे बावीसाए ॥ पंच पोग्गलत्थिकाय. जहण्णपदे बारसहिं उक्कोसपदे सत्तावीसाए ॥ छ पोग्गल. जहण्णपदे चउद्दसहिं उकोसेणं बत्तीसाए ॥ सत्तपोग्गल. जहण्णपदे सोलसहि उक्कोसपदे सत्ततीसाए ॥ अट्ठपोग्गल० जहण्णपदे अट्ठारसहिं उक्कोसपदे बायालीसाए॥ णवपोग्गल • जहण्णपदे स्पर्श हुवे हैं. अवगाहनावाले तीन प्रदेश, तीन नीचे के अथवा उएर के प्रदेश और दो दोनों बाजु के (यों आठ प्रदेश, उत्कृष्ट पद से सत्तरह सो अवगाहे हवे तीन, उपर के तीन, नीचे के तीन, तीन पूर्व पश्चिम के एक उत्तर व एक दक्षिण के यों मत्तरह हुवे. अधर्मास्तिकाय का भी वैसे ही जानना. आकाशा स्तिकाय के मत्तर प्रदेश स्पर्श हुवे शेष मब धर्मास्तिकाया जैसे कहना. इस क्रम से पांच छ मात यावत दश तक कहना; विशेषता इतनी की जघन्य पद में पूर्वोक्त जघन्य पद से दो अधिक कहना है और उत्कृष्ट पद में पांच अधिक कहना. जैसे चार पदलास्तिकाय प्रदेश में जघन्य दश उत्कृष्ट पार aumaahinamainaramannaamanaman *.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* . भावार्थ Page #1873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 wwwmARARAranM. 488 पंचमात विवाह पण्णात (भगवती ) सत्र वीसाए, उक्कोसपदे सीयालीसाए, दसपोग्गल. जहण्णपदे बावीसाए उक्कोसपदे बावण्णाए ॥ आगासंत्थिकाय. सव्वत्थ उक्कोसगं भाणियव्वं ॥ १५ ॥ संखेजाणं भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदेसेहिं पुच्छा ? जहण्णपदे तेणेव संखेजएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं उक्कोसपदे तेणेव संखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवा हिएणं ॥ केवइएहिं अहम्मत्थिकाएहिं ? एवं चेव । केवइएहिं आगासत्थिकाय तेणेवं संखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं || केवइएहिं जीवत्थिकाय ? अणंतेहिं, केवइएहिं पोग्गलत्थिकाय ? अणंतेहिं ॥ केवइएहिं अडासमएहिं ? सियपुढे सिय णो पुढे जाव है पांच पुद्गलास्तिकाय प्रदेश में जघन्य बारह उत्कृष्ट सत्तावीस, छ पुद्गलास्तिकाय प्रदेश में जघन्य चउदह . उत्कृष्ट वत्नीस, सात में जघन्य मोलह उत्कृष्ट सेंतीस, आठ में जघन्य अठारह उत्कृष्ट बियालीस, नव जघन्य बीस उत्कृष्ट संतालीस, दश में जघन्य बाबीम उत्कृष्ट बावन, आकाशास्तिकाय सत्र में उत्कृष्ट ॥ १८ ॥ अहो भगवन ! संख्यात पदालास्तिकाय प्रदेश कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश से स्पर्श हुवे}A ? अहो गौतम ! जघन्य संख्यात को दुगुना करके उस में दो अधिक करे उतने प्रदेश स्पर्श हुवे हैं. उत्कृष्ट संख्यात को पांचगुने करके दो आधिक करे उतने प्रदेश स्पर्श हुये हैं. अधर्मास्तिकाया का वैसे ही जानना, आकाशास्तिकायाका उत्कृष्ट सख्यातको पांचगुने करके दो अधिक कहना.जविास्तिकायके अनंत प्रदेश तेरहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ : Page #1874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि भावार्य अणंतहि ॥ १६ ॥ असंखेजा भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकाय " पदेसेहिं ? जहण्णपदे तेणेव असंखेनएणं दगुणेणं दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेर असंखेज्जएणं, पंचगुणएणं दुरूवाहिएणं सेसं जहा संखेज्जाणं जाव णियमं अणंतहिं ।। १८४४ अणंता भंते ! पोग्गलत्यिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकाय एवं जहा असंखेजा तहा अणंता, गिरवसेसं ॥ १७ ॥ एगे भंते ! अहासमए केवइएहिं धम्मस्थिकायप्प. “देसेहिं पुटुं ? सत्तहिं, कंवइएहिं अहम्मत्थि. एवं चेत्र ॥ एवं आगासत्थिकायपद्लास्तिकाय के अनंत और काल क्वचित् स्पर्शता है और काचित् नहीं स्पर्शता है. जब स्पर्शता है । तब अनंत स्पर्शता है. ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! असंख्यात पुद्गलास्तिकाय प्रदेश कितने धर्मास्तिकाया प्रदेश से स्पर्श हुवे ? अहोंगौतमा जघन्य पद से असंख्यात को दोगु करके दो अधिक करे उतने और उत्कृष्ट पद अख्यिात को पांच गुने करके दो अधिक करे उतने शेष सब संख्यात जैसे कहना. जैसे असंख्यातका कहा ही अनंत का जानना ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! एक अद्धा १ समय कितने धर्मास्तिकाया के प्रदेशों मि सी है ? अहो गौतम ! एक अदा समय सात धर्मास्तिकाय प्रदेश को स्पर्शा है. काल मात्र अढाउद्वीप में होने से धर्मास्तिकाया की कोन में होता है इस से जघन्यः पद यहां नहीं है. अदा समय विशिष्ट १ पहां वर्तमान समय विशिष्ट क्षेत्रवः परमाणु का अद्धासमय ग्रहण करना.. .प्रकाशक-संजाबहादुर लालामुखदेवमहायजी मानापमादजी. 4 Page #1875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ प्पएसेहिं ॥ केवइएहिं जीवत्थिकाय. अगंतहि, एवं जाव अडासमएहि ॥ १८ ॥ ३. धम्मत्थिकाएणं भंते ! केनइएहिं धम्मत्थिकाय पदसहि पुढे ? णत्थि एक्केणवि ॥ केवइएहिं : है. अहम्मत्थिकाय पदे हिं? असंखजहि, केवइएहिं आगगसत्थिकायपदसहिं ? असंखेल्नेहिं ॥ केवइएहिं जीवत्थिकायपदेसहिं ? अणतेहिं ॥ केवइएहिं पोग्गलत्थिकाय• अणतेहिं ॥ परमाणु द्रव्य एक धर्मास्तिकाय प्रदेश को अवगाह कर रहा है वह और अन्य छ दिशि के छ प्रदेश यों सात को स्पर्शा है. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय का जानना. जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेश स्पर्शे, क्यों की एक प्रदेश में अनंत जीव कहें हैं. पुद्गलास्तिकाय के अनंन प्रदेश से स्पर्श हुवा है व अद्धासमय अनंत स्पर्शा हुआ है. ॥ १८ ॥ अहो भगान् ! संपूर्ण धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने है। प्रदेश मे स्पर्श हुई है ? अहो गोनम ! एक भी प्रदेश को नहीं पी हुइ है क्यों की यहां संपूर्ण धर्वास्तिकाय ग्रहण कर प्रश्न किया है. इस से बाहिर किंचिन्मात्र धर्मास्तिकाय : नहीं है. अहो भगवन् ! कितने अधर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पर्श हुई है ? अहो गौतम ! असंख्यात अधर्मास्तिकाय के प्रदेश मे स्पर्शी हुई है. क्यों की जिननी लोकव्यापक धर्मास्तिकाय है उतनी ही लोक व्या13पक अधस्तकाया है और उनके प्रदेश अख्यात को हैं आकाशास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश स्पर्धी हुई क्यों की लोक व्यापक प्राकाशास्तिकाय असंख्यात प्रदेशात्मक है. जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेशा पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मत्र तेरहवा शतकका चौथा उद्देशा +482 Page #1876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ भावार्थ 402 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 'अद्धासमए सिय पुढे सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमा अणंतेहिं ॥ १९ ॥ अहम्मत्थिकाएणं भंते ! केवइएहिं धम्मत्थिकाय.? असंखेजेहि, केवइएहिं अहम्म. थि• ? णस्थि एकेणवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एवं एएणं गमएणं सव्वे विसट्ठाणएणं णत्थि एक्कणवि पुट्ठा परटाणेहिं आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजएहिं भाणियव्वं ॥ पच्छिल्लएमु तिसु अणता भाणियव्वा जाव अहा समओत्ति । केवइएहिं अद्धा समएहिं पुटे ? णत्थि एक्केणवि ॥ २० ॥ जत्थणं भंते ! एगे धम्मत्थिकाय से स्पर्शी हुई है क्यों की अनंत जीव के प्रदेश रहे हुवे हैं ऐसे ही पुद्गलास्तिकाय के भी अनंत प्रदेशों को स्पर्श कर रही है. अद्धा समय क्वचित् स्पर्श क्वचित् स्पर्श नहीं क्यों की अढाइ द्वीप में ही मात्र काल रहा हुवा है. जब स्पर्शता है तब निश्चय ही अनंत प्रदेश से स्पर्शता है. ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! अधर्मास्तिकाय कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेश मे स्पर्शी हुई है ? अहो गौतम ! असंख्यात प्रदेश में अधर्मास्तिकाय से सी हुइ है. शेष सब धर्मास्तिकाया जैसे जानना. इस क्रम से आकाशास्तिकाय यावत् अद्धा समय तक कहना. अपने स्थान आश्री अपना स्थान को एक भी नहीं स्पर्श हुवे हैं, पर स्थान आश्री पहिले के तीन असंख्यात और पीछे के तीन के अनंत प्रदेश स्पर्श हुवे हैं यावत् अद्धा समय अद्धा समय से एक भी नहीं स्पर्शा हुआ है ॥ २० ॥ अब अवगाहना द्वार कहते हैं अहो भगवन् ! जहां धर्मास्तिकाया प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र Hot 84 १८४७ भावार्थ पंचमांगविवाह पण्णनि (भगवती ) सूत्र पदेसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? णथि एकोवि, केवइया अहम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा एक्को, केवइया आगासत्थि कायपदेसा ओगाढा ? एक्को ॥ केवइया जीवत्थिकायपदेसा ? अणंता ॥ केवइया पोग्गलत्थिकाय पदेसा ? अणंता ॥ केवइया अद्धा समया ? सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा जइ ओगाढा अणता ॥ २१ ॥ जत्थणं भंते ! एगे 'अहम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को ॥ केवइया अहम्मत्थि ? णत्थि का एक प्रदेश अवगाहकर रहा है वहां धर्मास्तिकाया के अन्य कितने प्रदेश अवगाहकर रहे हैं? अहो गौतम एक भी प्रदेश अवगाहकर रहे नहीं हैं. अहो भगवन्! कितने अधर्मास्तिकाया के प्रदेश अवगाहकर रहे हैं ? अहो गौतम! एक प्रदेश. अहो भगवन्! कितने आकाशास्तिकायके प्रदेश अवगाहकर रहे हैं ? अहो गौतम एक अहो भगवन्! जावीस्तिकाया के कितने प्रदेश अवयाहकर रहे है? अहो गौतम! अनंत प्रदेश, पुट्ठलास्ति काय के भी अनंत प्रदेश. अद्धा समय के समय क्षेत्र आधी अवगाहकर रहे हुवे हैं और समय । बाहिर अवगाहकर नहीं रहे हुवे हैं जब रहे हुवे हैं तब अनंत अद्धा समय अवगाहकर रहे वे हैं. ॥२१॥ अहो भगवन् ! जहां एक अधर्मास्तिकाया का प्रदेश अबगाहकर रहा हुवा है वहां कितने धर्मा मस्तिस्य के प्रदेश अवगाहकर रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! एक प्रदेश. अधर्मास्तिकायाका एक भी प्रदेश तरहवा शतकका चौथा उद्दशा 94.84 Page #1878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८४८ अनुवादक-यालब्राह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एकोवि,सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स॥२२॥जत्थण भंते! एगे आगासत्थिकायपदेसे ओगाढे. तत्थ केवइया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा, जब ओगाढा एक्को, एवं अहम्मास्थिकाय पदेसावि, ॥ केवइया आगासत्थिकाय ? णत्थि एकोवि ॥ केवइया जीवत्थि ? सिय ओगाढा सिय णो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता ॥ एवं जाव अद्धा समया ॥ २३ ॥ अस्थणं भंते ! एगे जीवत्यिकाय पदेसे 'तत्थ केवइया धम्मत्यिकाय ? एको, एवं अहम्मत्थिकाय पदेसावि ॥ एवं आगासत्थिनहीं है. शेष र धानकाय ने कहना.॥२२॥अहो भगवन्! जहाँ आकाशास्तिकायाके प्रदेश अवगाहकर रहे हैं. वहां कितने धर्मतिकाया के प्रदेश अवगाहकर रहे हैं? अहो गौतम! क्वचित् अवगाहकर रहे हैं और क्वचित् अवगाहकर ही रहे हैं जब अरगाहकर रहे एंव हैं तब एक प्रदेश अवमाहकर रहा हुवाहै. ऐसेही अधर्मास्तिकायाका जानना आकाशास्तिकाया का एक भी प्रदेश अवगाइ कर नहीं रहा हुवा है. जीवास्तिकाया के काचित् अवगाहकर रहे हैं कवित् नहीं जा हैं तब अनंत अवगाहकर रहे हैं ऐसे ही अद्धा समय तक जानना. ॥ २३ ॥ अहो भगान् ! जहां एक जीवास्तिकाय का प्रदेश है वहां कितने धर्मास्तिकाया के र प्रदेश : अहो मौतम ! एक प्रदेश है, ऐसे ही अधर्मास्तिकाय, आशान्तिकाय के भी एक २ प्रदेश है मासक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्यालामसादजी Page #1879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भावार्थ पंचमांग बहाव पणति (भगवती ) सूत्र काय पदेसावि ॥ केवइया जीवस्थिकाय ? अणंता, सेसं जहा धम्माथिकायस्सा२४॥ जत्थर्ण भंते ! पोग्गलास्थिकाय पदेसे ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकाय ? एवं जहा जीवत्थिकाय पदेसे तहेव णिरवससं ॥ जत्थर्ण भंते ! दो पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा तत्थणं केवइया धम्मात्थिकाय सिय एको, सिय दोण्णि, एवं अहम्मत्थिकायस्सवि ।। एवं आगासस्थिकायस्सवि, सेसं जही धम्मस्थिकायस्स ॥ जत्थणं भंते ! तिणि पोग्गलास्थकायप्पएसा ओगाढा तस्थ केवइया धम्मत्थिकाय पदेसा ओगाढा ? जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेश अवगाहकर रहे हैं शेष सब धर्मास्तिकाय जैसे जानना. ॥ २४ ॥ अहो भनवन् ! जहां पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश अवगाह कर रहा हुवा है वां,कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश अबगाह कर रहे हुवे हैं ? अहो गौतम ! जैसे जीवास्तिकाय का कहा वैसे ही यहां कहना. अहो भगवन् ! दो पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश जहां अवगाहकर रहे हैं वहां कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेश अवगाह कर रहते | हैं ? अहो गौतम ! क्वचित् एक बाचित् दो प्रदेश अवगाह कर रहते हैं. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व on आकाशास्तिकाया का जानना. शेष सब धर्मास्तिकाया जैसे कहना. अहो भगवन् ! जहां तीन पदलास्तिकाय प्रदेश अवगाह कर रहे हवे हैं वहां कितने धर्मास्तिकाय मदेश रहे हवे हैं? अहो गौतम! वचित्र एक, क्वचित् दो, व क्वचित् तीन. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाया का जानना. • नेरहवा तक का चौथा उद्देशा Page #1880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी "सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय तिण्णि ॥ एवं अहम्मत्थिकायस्सवि ॥ एवं आगासत्थिन कायस्सवि सेसं जहेव दोण्हं ॥ एवं एकेको वड्डेयव्यो पएसो आदिल्लहिं तिहिं अत्थिकाएहिं सेसेहिं जहेव दोण्हं जाव दसण्हं सिय एक्को, सिय दोपिण, सिय तिण्णि जाव सिय दस ॥ संखजाणं सिय एक्को, सिय दोण्णि जाव सिय दस, सिय संखेजा ॥ असंखे.. जाणं सिय एक्को जाव सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहा असंखेज्जा,” एवं अणंतावि ॥२५॥ जत्थणं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पदेसा? शेष जैसे दो पुद्गलास्तिकाय प्रदेश का कहा वैसे ही कहना. इसी तरह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय इन तीन में एक २ बढाना और शेष तीन में दो पुद्गलास्तिकाय प्रदेश जैसे कहना. इस तरह चार पांच यावत् दश तक कहना. दश पुद्गलास्तिकाय प्रदेश में क्वचित् एक, क्वचित् दो, क्या तीन यावत् क्वचित् दश धर्मास्तिकाय प्रदेश कहे हुवे हैं. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाय के जानना, शेष तीन के अनंत प्रदेश कहना. संख्यात पुद्गलास्तिकाय में काचित् एक, क्वचित् दो यावत् क्वचित् दश क्वचित् संख्यात कहना. असंख्यात में क्वचित् असंख्यात तक कहना. असंख्यात जैसे अनंत पुद्गलास्तिकाय प्रदेश का कहना ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! एक अद्धा समय में कितने धर्मास्तिकाय प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #1881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.८०१ एक्को, केवइया अहम्मस्थिकाय ? एको, केवइया आगासस्थिकाय ? एक्को, केवइया । जीवत्थि. ? अणंता ॥ एवं जाव अद्धासमया ॥ २६॥ जत्थणं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवइया धम्मस्थिकायपदेसा ओगाढा? णस्थि एकोवि, केवइया अहम्मत्थि? असंखेजा, केवइया आगासत्थि ? असंखेजा, केवइया जीवास्थकाय ? अणंता॥ एवं जाव अहासमया ॥ २७ ॥ जत्थणं भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवइया धम्मस्थिकाय• ? असंखेजा, केवइया अहम्मत्थि० पत्थि एक्कोवि, सेसं प्रदेश अवगाह कर रहे हुवे हैं। अहो गौतम ! एक, अधर्मास्तिकाय एक, आकाशास्तिकाय एक, जीवास्तिकाय अनंत, पुद्गलास्तिकाय अनंत, और अद्धा समय अनंत तक कहना ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! जहां संपूर्ण धर्मास्तिकाय अवगाह कर रही है वहां कितने धर्मास्तिकाय प्रदेश अवगाह कर रहे हुवे हैं ? अहो म! एक भी प्रदेश अवगाह कर नहीं रहे हवे हैं, अधर्मास्तिकाया के असंख्यात प्रदेश अवगाह कर रहे हुवे हैं, आकाशास्तिकाया के असंख्यात प्रदेश अवगाह कर रहे हुवे हैं, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्ति काय व अद्धा समय के अनंत प्रदेश अवगाह कर रहे हुवे हैं ॥ २७ ॥ अहो भमवन् ! जहां अधर्मास्ति13काया है वहां पर धर्मास्तिकाया के कितने प्रदेश हैं ? अहो गौतम ! असंख्यात, प्रदेश हैं. अधर्मास्ति- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 तेरहवा शतकका चौथा उद्देशा 18 भावाथ winianmomraninainik 8 । Page #1882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ जहा धम्मथिकास एवं सव्वे सहाने मत्थि एकोवि भानियव्यं परट्ठाणे आदिला तिष्णि असंखेजा भाणियन्त्रा, पच्छिला तिष्णि अनंता भाणियव्त्रा जाव अद्धा समत्ति, जाव केवइया अद्धा समया ओगाढा ? णत्थि एक्कोवि ॥ २८ ॥ जत्थणं भंते ! एगे पुढीकाइए ओगाढे. तत्थणं केवइया पुढवीकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा, केवइया आउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा, केवइया तऊकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा, केइया वाऊकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा, केवइया वणस्सइ काइया ओगाढा ? अनंता ॥ २९ ॥ जत्थणं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढं तत्थ केवइया पुढवी • ? कावा के एक भी प्रदेश नहीं हैं शेष सब धर्मास्तिकाय जैसे कहना. ऐसे ही सब को अपने स्थान { नहीं हैं वैसा कहना और अन्य स्थान में पहिले के सीन के प्रदेश असंख्यात कहना और पीछे के तीन के प्रदेश अनंत कहना. यों अद्धासमय तक कहना ॥ २८ ॥ अब जीव अवगाहना द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! जहां एक पृथ्वीकायिक अवगादित है वहां किसने अन्य पृथ्वीकायिक अवगादित हैं ? अहो गौतम ! एक पृथ्वीकायिक अवगाह में असंख्यात पृथ्वीकायिक अवगाहित हैं. अहो ( अपकाशिक अवगादित हैं ? अहो गौतम ! असंख्यात अपकायिक अवगादित हैं, भगवन् ! कितने ऐसे ही असंख्यात 49 अनुवादक- बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है पंचमांग विवाह पण्णन्ति (भगवती) सूत्र असंखेजा, केवइया आऊ• ? असंखेजा, एवं जहेव पुढवीकाइयाणं वत्तव्यया तहेव है, सचे गिरवसेसं भाणियन्वं जाव वणस्सइ काइयाणं जाव केवइया वणस्सइ काइया आगाढा ? अणंता ॥ ३० ॥ एयंसिणं भंते ! धम्मत्थिकाय, अधम्मत्थिकाय, आगासत्थिकायंसि चक्किया केइ आसइत्तएवा, सुइत्तएवा, चिट्ठित्तएवा, णिसियत्तएवा, तुयहित्तएवा? णो इणटे समटे, अर्णता पुण तत्थ जीवा ओगाढा। से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ- एयंसिणं धम्मत्थि जाव आगासत्थिकार्यसि णो चक्किया केइ आसइत्तएवा जाव ओगाढा ? गोयमा ! से जहा णामए कूडागारसाला सिया दुहओलित्ता गुत्ता तेउकायिक असंख्यात वायुकायिक व अनंत वनस्पतिकायिक अवगाढित हैं ॥ २१ ॥ जहां एक अप्कायिक अवगाढित है वहां कितने पृथ्वीकायिक अवगाढित है ? अहो गौतम ! असंख्यात पृथ्वीकायिक अवगा-3 दित है असंख्यात अप्कायिक यो सब पृथ्वीकाया जैसे कहना. ऐसे ही तेउ. वायु व वनस्पतिका जानना 7॥३. ॥ अब अस्तिकाय प्रदेश निषेधन द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय 6ि व आकाशास्तिकाय में क्या कोई बैठने को, सोने को, खडा रहने को, चलने को, व त्रायण [रक्षण] | करने को क्या समर्थ है। अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात समर्थ नहीं है. और भी वे । Pat: तेरहवा भतक का चौथा उद्देशा 48 Page #1884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी "गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणइज्जे जात्र दुवारवयाणाई पिर्हेति दुवार • तीसेय कूडागार साला बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं एक्कोवा, दोवा, तिष्णिवा, उक्कोसेणं पदीवसहस्तं पीवेजा, सेणूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अण्णमण्ण संबद्धाओ अण्णमण्ण पुट्ठाओ जाव अण्णमण्ण घडत्ताए चिट्ठेति ! हंता चक्कियाणं गोयमा ! केइ तासु पदीव लेस्सासु आसइत्तएवा जाव तुयहित्तएवा ? भगवं णो इणट्ठे समट्ठे, अनंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाब ओगाढा ॥ ३१ ॥ कहिण्णं भंते ! अनंत जीव अवगाह कर रहे हुवे हैं. अहो भगवन् ! ऐसा क्यों कहा कि धर्मास्तिकाया यावत् । { आकाशास्तिकाय में सोने को यावत् रक्षण करने को समर्थ नहीं है क्यों कि अनंत जीव वहां अवगाह कर रहे हुवे हैं? अहो गौतम! जैसे कोई एक कूटाकारशाला है, वह दोनों तरफ से लिप्त होवे, गुप्त द्वारवाली होने वगैरह रायप्रसेणी सूत्र में कहे जैसी होने. अब कोई पुरुष उस के द्वार बंध कर देवे और उस में एक, दो यों सहस्र दीपक करे. अहो गौतम ! क्या उन प्रदीप का तेज परस्पर स्पर्शे ? हां भगवन् ! उन उक्त दीपक के प्रकाशपर कोई बैठने को यावत् सोने को क्या समर्थ होवे ?" अहो भगवन्! ऐसा नहीं हो सके क्यों अनंत जीव वहां अवगाह कर रहे हुवे हैं. अहो गौतम ! इसी से ऐसा कहा गया है कि यावत् अनंत जीव अवगाह कर रहे हुवें हैं ॥ ३१ ॥ अत्र बहुसम प्रदीप का तेज परस्पर संबद्ध होवे. अहो गोतम् ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १८५४ Page #1885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 48 भावार्थ 8 पंचमान विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र लोए बहुसमे, कहिणं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढंवीए उवरिमहेट्ठिलेसु खुडुगपयरेसु एत्थणं लोए बहुसमे एत्थणं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ॥ ३२ ॥ कहिणं भंते ! विग्गह विग्गहिए लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थणं विग्गह विग्गहिए पण्णत्ते ॥ ३३ ॥ किं संठिएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुप्पइट्रिय संठिए लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिण्णे, मझे संखित्ते जहा सत्तमसए पढमुद्देसए जाव अंतं करेंति ॥ ३४ ॥ एयस्सणं द्वार कहने हैं. अहो भगवन् ! किस स्थान लोक बराबर सम है और किस स्थान सब से संकुचित है ? अहो गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की उपर व नीचे की क्षुद्रक प्रतर में लोक बहुत सम है." यहां हानि वृद्धि नहीं हैं और वहां पर दी लोक सब से मंकुचित है ॥ ३२ ॥ अहो भगवन् ! कहां पर लोक का शरीर वांका है ? अहो गौतम ! ब्रह्म नामक पांचवे देवलोक की उपर जहां प्रदेश की हानि वृद्धि है वहां प्रायः लोकान्त होता है और वहांपर लोक का शरीर वक्र है ॥ ३३॥ अहो भगवन् ! किस आकारवाला लोक रहा हुवा है ? अहो गौतम ! सुमतिष्ठित लोक रहा हुवा है. अर्थात् सरावले के आ-fo कार मे लोक रहा हुवा है. वह नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त वगैरह जैसे सातवे शतक के प्रथम उद्देशे में लोक का वर्णन किया वैसे कहना यावत् अंत करते हैं ॥ ३४ ॥ अधो लोक, ऊर्ध्व लोक व मध्य लोक । imaAAAAmrtmnmannnnnnnvenuemnamnnnnve तेरहवा शतक का चौथा उद्दशा 498 Page #1886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५६ भंते ! अहे लोयस्स तिरिय लोअस्स, उड्डलोयस्सय कयरे कयरे हितो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थावे तिरियलोए उड्डलोए असंखेज गुणे, अहे लोए विसेसाहिए।सेवं भंते भंतेत्ति तेरसमसयस्सय चउत्थो उद्देसो सम्मत्तः।।१२.४॥ णेरइयाणं भंते! किं सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, मीसाहारा, ? गोयमा ! णो सचित्ताहारा अचित्ताहारा, णो मीसाहारा ॥ एवं असुर कुमारा पढमो णेरइय उद्देसओ णिरवसेसओ भाणियन्वो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तेरसम सयस्सय पचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ १३॥५॥ 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथे से इन तीन में कौन किस से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सबसे छोटा तीछ लोक, उस ऊर्थ लोक असंख्यातगुना उस से अघो लोक विशेषाधिक. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं. यह तिर हवा शतक का चतुर्थ उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १३ ॥ ४॥ १ अहो भगवन् ! क्या नारकी सचित्त का आहार करनेवाले हैं. अचित्त का आहार करनेवाले मीश्र का आहार करनेवाले हैं ? अहो गौतम ! नारकी सवित्त व मीश्र का आहार नहीं करते हैं परंतु आचत्त का आहार करते हैं. ऐसे ही असुर कुमारादि सब का कथन प्रथम नरक उद्देशा जैसे जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह तेरहवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १३ ॥५॥ Page #1887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ब्दार्थ143 रा. राजगृह में जायावत् एक ऐसा व वाले सं० अंतर सहित भ. भगवन् णे. नारकी उ०+ न उत्पन्न होते हैं नि० निरंतर णे. नारकी उ० उत्पन्न होते हैं मो० गौतम सं० अंतर सहित • नारकी १० उत्पन्न होते हैं णि निरंतर णे नारकी उ० उत्पन्न होते हैं ए. ऐसे अ० असुर कुमार ए. ज. जैसे गं० गांगेय त• तैमे दो० दो दै० दंडक जा० यावत् सं० अंतर सहित वे. वैमानिक च• चवते रायगिहे जाव एवं बयासी-संतरं भंते ! रइया उववजति, पिरंतरं णेरइया उत्रनजंति ? गोयमा ! संतरंपि णेरइया उववजंति, णिरंतरंपि णेरइया उववजंति, ॥ एवं असुरकुमारावि ॥ एवं जहा गंगेए तहेव दो दंडगा जाव संतरंपि वेमाणिया चयंति 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 तेरहना शतकका छठा उद्देशा भावाथे पांचवे उद्देशे में नरक की वक्तव्यता कही. और छठे उद्देशे में उम का ही कथन कहते हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार कर गौतम स्वामी पुछने ला कि अहो भगवन ! नेरये अंतर सहित उत्पन्न होते हैं या निरंतर उत्पन्न होते हैं ? अहो गीतम! अंतर सहित भी नेरये उत्पन्न होते हैं और निरंतर भी नरये उत्पन्न होते हैं. जैसे नरक की वक्तव्यता कही 3वैसे ही असुरकुमारादि सत्र की नववे शतक के वतीमवे उद्देशे में गांगेय अनगार की वक्तव्यता में उत्पत्ति उर्तन भेद के दो दंडक क वैसे ही यहां कहना यावत् अंतर सहित वैमानिक चवते हैं और निरंतर भी Page #1888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १.८५८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + हैं णि निरंतर वे. वैमानिक च० चवते हैं ॥१॥ क० कहां भ० भगवन् च० चमर अ. अमुरेन्द्र अ० असुर राजा का च. चमर चंचा आ० आवास प० प्ररूपा गो० गौतम जं. जंबूद्वीप में मं० मंदर में १६० पर्वत की दा० दक्षिण में अ० असंख्यात दी० द्वीप स० समुद्र ए. ऐसे ज, जैसे वि० दुसरा शतक में स० सभा उ• उद्देशा में व० वक्तव्यता स० सर्व अ निर्विशेष ० जानना ण' विशेष इ. यह णा. विशेष जा. यावत् ति तिगिच्छकूट के उ० उत्पात ५० पर्वत की च• चमर चंचा रा० राज्यधानी च. णिरंतरंपि वेमाणिया चयति ॥ १ ॥ कहिणं भंते ! चमरस्स अमरिंदस्स असुररण्णो ज, चमरचंचा णामं आवासे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहि. णेणं असंखेजे दीवसमुद्दे एवं जहा बितियसए सभाउद्देसए बत्तव्वया सव्वेव अपरिसेसा गेयव्वा, णवरं इमं णाणत्तं जाव तिगिच्छि कूडस्स उप्पायपव्वयस्स चमर चंचा रायहाणी चमरचंचस्स आरास पव्वयस्स अण्णेसिंच वहणं सेसं तंचेव जाव वैमानिक चाते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र का चवरचंचा नापक आवास कहां कहा है ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप मेरुपर्वत की दक्षिण में असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लंब कर जावे इत्यादि । सब कथन दूसरे शतक के आठवे सभा उद्देशे में जैसे कहा वैसे सब ही यहां जानना यहां पर इतना विशेष जानना कि तिगिच्छकूट, उत्पात पर्वत, चमरचंचा राज्यधानी, चमरचंचा आवास पर्वत और अन्य भी बहुत . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे Page #1889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4980 शब्दार्थ 4 चमर चंचा आ० आवास ५० पर्वत की अ० अन्य ब० बहुत से शेष तं० तैसे जा. यावत् ते० तेरह । अं अंगुल अ० अर्ध अंगुलं किं किंचित् वि. विशेषाधिक ५० परिधि ती. उस च० चमर चंचा रा० राज्यधानी की दा. नैऋत्य कोन में छ० छ को क्रोड स० शत १० पंचावन को क्रोड ५० पेंतीस स० लाख प० पच्चास स. सहस्र अ० अरुणोदक स० समुद्र में ति तीर्छा वी० उल्लंघन करे ए० तहां च. चमर अ० असुरेन्द्र अ. असुर राजा का च० चमर चंचा आ० आवास प.प्ररूपा च० चैरामी तेरसय अंगुलाई अद्धंगुलं किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं : ॥ तीसेणं चमर । चंचाए रायहाणीए द्वाहिणपञ्चत्थिर छोडिसए अण्णपण्णेच बोडीओ. पणतीमंत्र सयसहस्सा, पण्णासंच सहस्साइं अरुणोदगसमद्दे तिरियं वीतीवइत्ता, एत्थणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचा णामं आवासे पण्णत्ते, चउरासीइं जोअणसहस्साई आयामविक्खंभेणं दोजोअणायसहस्सा पण्णढेिच सहस्साई छच्च बत्तीसे जोअणसए भावार्थ बगेरह शेष पूर्वोक्त जैसे कहना यावत् तीन लाख, सोलह हजार दोसो बत्तीस योजन, तीन कोस दोसो अठा-go वीस धनुष्य साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि कही. उस चमरचंचा राज्यधानी की नैऋत्य कौन में १५५३५५०००० योजन अरुणोदय समुद्र में तीर्छा जावे वहां चमर असुरेन्द्र का चमरचंचा आवास कहा है. वह चौरासी हजार योजन का लम्बा चौडा कहा है, दो लाख पेंसव हजार छसो बत्तीस । पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 488 तेरहवा शतक का छठा उद्देशा +8 Page #1890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जो योजन स० सहस्त्र लंबा वि चौडा दो दो जो० योजन स० लाख ५० पेंसठ स० सहस्र ०१: छ व० बत्तीस जो० योजन स० शत किं० किंचित् वि. विशेषाधिक प. परिधि ए० एक पा० कोट स. रों बाज़ स. घेराया हुदा पा० कोट दि० देव जो० योजन स० शत उ० ऊर्ध्व उ० उंचपने ए. ऐसे च. चमर चंचा रा० राज्यधानी व०वक्तव्यता भा० कहना स०सभा रहित जायावत् च० चार पा०प्रासाद पंक्ति ॥ २॥० चमर च० चमर भं० भगवन् अ. असुरन्द्र अ० असुर राजा च चमर चंचा आ० किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं ॥ सेणं एमाए पागारेणं सव्वओ समंता समंपरिक्खित्तं, १ सेणं पागारे दिवटुं जोअणस्यं उड्डे उच्चत्तेणं ॥ एवं चमरचंचा रायहाणी वत्तव्वया भाणियव्वा सभाविहूणा जाव चत्तारि पासाय पंतीओ ॥ २ ॥ चमरेणं भंते ! असुरिंदे असुरराया चमरचंचे आवासे वसहिं उवेइ ? णोइण? सम? ।। सेकेणं खाइण्णं योजन से किंचित् अधिक की परिधि कही है. उस की दिशा विदिशा की चारों तरफ एक कोट है. वह कोट १५० योजनका ऊंचा कहा है.. इस प्रकार चमरचंजा राज्यधानी की वक्तव्यता कही.. इस में मुधर्मा सभा, उपपात सभा, अभिषेक सभा, अलकार सभा, और व्यवसाय सभा ये. पांच सभाओं नहीं है. यावत् चार प्रासाद पंक्ति कही है, इन प्रासाद पंक्ति में ३४१ विमान कहे हैं ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! चमर असुरेन्द्र नमरचंचा आवास में क्या वसकर रहता है ? अझे मौतम ! यह अर्थ. समर्थ नहीं .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #1891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * ५४० ag पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र आवास में २० वमति उ रहे णो नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से• वह के० कैसे भं० भगवन् ए. ऐसा व कहा जाता है च० चमर चा आ० आवाम गो० गौतम से० अथ ज० जैसे इ० इस म २ मनुष्य लोक में उ० प्रासाद पीठ सरिखे ले गृह उ० उद्यान में ले गृह णि नगर वाहिर ले० गृह वा। वारिधारा जैने ले० गृह त० तहां ६० बहुत म मनुष्य म० मनुष्यणी आ० वेठते हैं स. सोते हैं ज०ॐ जैसे रा• रायमश्रनीय में जा० यावत् क. कल्याण फ० फल कृत्ति वि. विशेष ५० अनुभवते वि० अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-चमरचंचे आवासे ? गोयमा ! से जहा णामए इहेव मणुस्सलोगसि उवगारिय लेणाइवा उज्जाणियलेणाइवा, णिजाणियलेणाइवा, वारि धारियलेणाइवा, तत्थर्ण बहवे मणुस्साय मणुस्सीओय आसयंति सयंति जहा राय___प्पसेणइजे जाव कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, अण्णत्थ पण वसहिं है. अर्थात् बार असोन्द्र वहां नहीं रहता है. अहो भगवन् ! किस कारन में ऐसा कहते हो कि चमर चंचा आवास में चरर असुरेन्द्र नहीं रहता है ? अहो गौतम ! जैन मनुष्यलोक में उपकार करनेवाले 60 विश्रांति गृह होते हैं, उद्यान में बंगले. बगीचे वगैरह होते हैं. नमर से बाहिर नीकलते धर्मशाला वगैरह। होते हैं, ज पानादि के लिये पो रहती है. वहां पर बहुत मनुष्य व मनुष्यणियों आश्रय करती हैं। शयन करती हैं. इस का विस्तार पूर्वक कथन रायपश्रेणीय सूत्र से जानना यावत् कल्याण, फलवृत्तिका तेरहवा शतकका चाठा उद्देशा - 4 भावार्थ Page #1892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + विचरते हैं अ० अन्यत्र व. वसति में उ० आते हैं एक ऐसे गो गौतम च० चमर अ० असुरेन्द्र अ०१: अमुर राजा का च० चमर चंचा आ• आवास के केवल कि० क्रीडा र रति प. निमित्त अ. अन्यत्र व. वसति को उ० जाते हैं से वह ते इसलिये जा. यावत् आ० आवास से वह ए०. ऐसे भं० भगवन् जा. यावत् वि. विचरते हैं ॥ ३ ॥ त० तब स. श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर अ० एकदा रा. राजगृह न० नगर से गु० गुणशील से जा• यावत् वि. विचरते हैं ॥ ४ ॥ ते. उस काल उति, एवामेव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं अण्णत्थपुण वसहि उवेति, से तेणट्रेणं जाव आवासे सेवं भंते । भंतेत्ति जाव विहरति ॥ ३ ॥ तएणं समणे भगर्व महावीरे अण्णयाकयाइं रायगि हाओ जयराओ गुणसिलाओ जाव विहरइ ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं विशेष भोगते हुवे विचरते हैं. परंतु वहां पर निवास नहीं करते हैं. अहो गौतम ! ऐसे ही चमर असुरेन्द्र चमर चंचा आवास में केवल क्रीडा व रति सुख भोगने को ही आता हैं. उन. के निवास स्थान अन्य होते हैं. अहो गौतम ! इसी कारन से चमर चंचा आवास कहे है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर तप संयम से आत्मा को भावते हुवे भगवान् गौतम स्वामी विचरने लगे ॥३॥ फीर भगवान महावीर स्वामी राजगृह नगर में से नीकलकर गुणशील उद्यान में से जनपद में विहार विचरने । मकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ | Page #1893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** शब्दार्थ ते. उस समय में च० चंपा ण नगरी हो० थी 40 वर्णन युक्त पु० पूर्णभद्र चे० चैत्य व० वर्णन युक्त त० तब स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर अ. एकदा पु० अनुक्रम से च० चलते जा. यावत् वि० १०० विचरते जे० जहां चं० चंपा नगरी जे? जहां पुः पूर्णभद्र चे० चैत्य ते. तहां उ० आकर जा. यावत् वि० विचरत हैं ॥५॥ ते. उस काल ते. उस समय में मि. सिंधु सौवीर ज० देश में वी०१ वीतिभय णा• नाम का ण० नगर हो० था व० वर्णन युक्त त° उस वी० वीतिभय ण नगर की ब. चंपा णाम णयरीहोत्था वण्णओ, पुण्णभद्दे चेइए वण्णओ, ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णयाकयाइं पुवाणुपुरि चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जाव विहरइ ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधुसोरीरेसु जणवएसु वीतिभयणामं जयरे होत्था वण्णओ॥ तस्सणं वीतिभयरस णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं मियवणे णाम भावार्थ लगे ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में चंपा नाम की नगरी थी. पूर्णभद्र उद्यान था. उस समय में श्री श्रमण भगवन्त महावीर अनुक्रम से ग्रामानुग्राम विचरते हुवे चंपा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में यथा अब-clip 2 ग्रह याचकर थावत् विचरने लगे ॥५॥ उस काल उस समय में सिन्धु नदी के किनारे पर सौवीर 10 नामक देश था. उस में वीतिभय मामक नमर था. वह वर्णन योग्य था. उस वीतिभय नामक नगर की | पंचमांगविवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र 48862 तेरहवा शतक का छठा उद्देशा Page #1894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गहिः उ० ईशान कौन में मि० मृगवन उ० उद्यान हो था स० सर्व उ० ऋतु व. वर्णन युक्त ए. इस वी. वीतिभय न. नगर में उ. उदायन रा० राजा हो० था म. बहुत ब० वर्णन युक्त त. उस उ० उदायन २० राजा को प० पद्मावती दे० देवी हो० थी सु. मुकुमार व० वर्णन युक्त ना० यावत् वि० विचरती है त. उस उ० उदायन र राजा का पु० पुत्र प० प्रभावती दे० देवी का अ० आरून अ. अभीचि कुमार हो० था सु सकुमार ज जैसे सि० श भद्र कुमार जा. यवत् सि. शिवभद्र जा. यावत् प० अनुभवता वि विचरता है त उस उ० उदायन रा० राजा को णि• अपना भा० भाणजा उज्जाणे होत्था, सव्वोउयवण्णआ ॥ एत्थणं वीतिभए णयरे उदायणे णामं राया होत्था महया बण्णआ। तस्सणं उदायणस्स रण्णो पउमावई णामं देवी होत्या, सकमाल यण्णओ तस्सणं उदायणस्स रणो पभावती नानं देवी होत्था वण्णओ जाव विहरति ॥ तरसणं उदायणरस रणो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभीइणाम कुमारे होत्था सुकुमाल जहा सिबभद्दे जाव पच्चुवेक्खमाण विहरइ ॥ तस्सणं उदायणस्स रणो णियए भायणिजे केसीगाम कुमारे होत्था, सुकुईशान कौन में मृगवन नामक उद्यान था. वह सा ऋतु में वर्णः योग्य था. उस वोतिभय नामक नगर में बढा उदायन राजा रहता था, वह उदायन राजा महा हिरवंत पर्वत जैसा वर्णन योग्य था. उस उदायन राजा को पद्मावतीरानी थी. वह सुकुमार यावत वर्णन योग्य थी. उस उदायन राजा को प्रभावती नाम की * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसाद जी * भावार्थ Page #1895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - __ सूत्र शब्दार्थी के फेशीकुमार हो' था मु० सुकुमार जा. याबस् मु० सरूप से० वा उ. उदायन रा० राजा सिं० सिंधु मो मौवीर 40 प्रमुख सो. मोलह ज.देश का वी. वीतिभय पा० प्रमुख तिः तीन ते. तेसठ . ण नगर आ० आगार स० शन का म. महासेन पा० प्रमुख द० दश रा० राजा के 10 मुकुट वि०विस्तीर्ण छ छत्र चाचामर वाचालव्यंजन अ० अन्य १०बहुत रा०राजा ई०एईश्वर तक तलवर जा च यावत् स सार्थवाह ५० प्रभृतिका आ० आधिपत्य पो० अग्रेसर पना जा० यावत् का० कराता पा० है माल जाव सुरूवे ॥ सेणं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पामोदखाणं सोलसण्हं जणवयागं वीइभयप्पामक्खिाणं तिहतेन्ट्रीणं गरागरसयाण. महसेणप्पामोक्खाणं दसण्द्रं राईणं बद्धमउडाणं, विदिण्णछत्त चामर बालवीयणाणं अण्णेसिंच बहुणं राईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिईणं आहेबच्चं पोरेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे समणोवासए आभगय दूगरानी थी वह वर्णन योग्य यावतू विचरती थी. उस उदायन राजा को प्रभावती रानी से उत्पन्न हुवा अभिचि कुमार था. वह मुकोमल हस्त पांववाला वगैरह शिवभद्र कुमार जैसा वर्णन योग्य यावत् राज्य की चिन्ता करता हुवा रहता था. उस उदायन राजा को केशी कुमार नाम का भाणजा था वह भी मुकमार यावत् वर्णन योग्य था. वह उदायन राजा सिन्धु सौवीर प्रमुख सोलह देश व वीतिभय प्रमुख तीन सो सठ नगर और आगर का राजा था. विस्तीर्ण छत्र, चामर व चालव्यंजनवाले महासेन प्रमुख दश मुकट । पंचगङ्गविवाद पणारी (भगवती ) सत्र तेरहवा शतक का छठा उद्देशा Page #1896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुबादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी पालता स० श्रमणोपासक अ. जाने जी0 जीव अजीव जा. यावत वि. विचरता है ॥६॥ त० तब 5 से वह उ० उदायन रा० राजा अ० एकदा जे० जहां पो० पौषध शाला ते. तहां उ० आकर ज. जैसे भी सं० शेख जा. यावत् वि. विचरता है तब तक उस उ० उदायन र० राजा को पु० पूर्व र० रात्रि में ध० धर्म जा० जागरणा जा० जागते अचितवन जा. यावत स० उत्पन्न हुवा ध० धन्य ते. उन गा२१ ग्राम आ० आगर न० नगर खे० खड क. कर्वट म० मडंब दो० द्रोण मुख प० पाटन आ० आश्रम सं० संवाह संसन्निवेश ज. जहां स. श्रमण भ० भगबन्त म. महावीर वि० विचरते हैं ध० धन्य ते०वे राक जीवाजीवे जाव विहरइ ॥ ६ ॥ तएणं से उदायणे राया अण्णयाकयाई जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जहा संखे जाव विहरइ ॥ तएणं तस्स उदायंणस्स रपणो पुव्यरत्तावरत्त काल समयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्थिा धण्णाणं ते गामागरनगरखेडक- . व्वड मडंवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंण्णिवेसा जत्थणं समणे भगवं महावीरे बंध राजा और इन सिवाय अन्य अनेक राजेश्वर, तलवर, सार्थवाह आदि का अधिपतिपना करता हुवा श्रमणोपासक बनकर जीवाजीव का स्वरूप जानता हवा विचरता था ॥६॥ एकदा वद्द उदायन राजा पौषधशाला में शंख श्रमणोपासक जैसे पौषध करते विचरने लगा. वहां पर पूर्वरात्रि में धर्म जागरणा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4 राजा ई. ईश्वर त० तलवर जा. यावत् स० सार्थवाह प० प्रमुख जे. जो स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को वं० वंदते हैं ण. नमस्कार करते हैं जा० यावत् प० पर्युपासना करते हैं ज. जो स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर पु. पूर्वानुपूर्व च. चलते गा० ग्रामानुग्राम वि. विचरते इ० यहां आoor आवे इ० यहां स० पधारे इ. यहां वी. वीतिभय ण. नगर की ब. वाहिर मि० मृगवन उ० उद्यान अ० यथा प्रतिरूप उ० आज्ञा उ० ग्रहणकर सं० संयम से जा. यावत् वि० विचरे त० तब अ• मैं स० विहरइ, धण्णाणं ते राईसरतलवर जाव सस्थाहप्पभिईओ जेणं समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति जाव पज्जुवासंति ॥ जइणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुर्वि चरमाणे, गामाणु जाव विहरमाणे, इह मागच्छेजा, इह समोसरेजा, इहेव चीतिभयस्स णयरस्स बहिया मियवणे उजाणे अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हित्ता संजकरते उदायन सजा को ऐसा अध्यवसाय हुवा कि जिस ग्राम, आगर, नगर, खेड, कर्वट, मंडप, द्रोण मुख, पाटण, आश्रम, संवाह व सन्निवेश में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी विचरते हैं उन को धन्य है। और भी राजेश्वर यानत् सार्थवाह कि जो श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की वंदना, पूजा, नमस्कार यावत् सेवा करते हैं उन को धन्य है. यदि श्रमण भगवंत ग्रामानुग्राम विचरते यहां वीतिभय नगर में मृगवन उद्यान में यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरे तो मैं । तेरहवा शतक का छठा उद्देशा भावार्थ 40g Page #1898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 80% श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को पं० वांदू ण नमस्कार करूं जा. यावत् प० पर्युपासना करूं ॥ ७॥ त० ता स० श्रमण भ. भगवन्त म० पक्षावीर उ० उदायन र० राजा को अ० इसरूप अ. चितवन जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा जा० जानकर चं० चंपा ण. नगरी के पु० पूर्णभद्र चे० चैत्य से पनीकलकर पु० पूर्ण च चलते मार मामालाना या विक विचरते जे. जहां सिं० सिंधु सो. साबीर ज० देश पी. वीभद्र ण नगर जे० जहां पि० मृगवन उ• उद्यान ते० तहां उ० आकर है. मेणं जाव विहरेज्जा, तओणं अहं समणं भगवं महबीरं वंदेजा णमंसेज्जा, जाव * पज्जुबालेजा ॥ ७ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे उदायणस्त रणो अयमेयारूवं अझात्वियं जाव समुप्पण्णं विजाणिन्ता; चंपाओणयरीओ पुण्णभद्दाओ चेइयाओ पडिणिक्खाइ, पडिणिक्खमइत्ता पुयाणुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं जाव रिहरमाणे जेणेव सिंधुसोवीरे जगवथे, जेणेव वीइभये पयरे, जेणैव भियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ, श्री श्रमण भगवंत महावीर को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना का ॥ ७॥ उभ समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी उदायन राजा का मनोगत संकल्प जानकर चषा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में से नीकलकर पूर्वानपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरने सिन्धु सौवीर प्रदेश में वीतिभय नगर के मृगवन उद्यान .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी . शशा भावार्थ । Page #1899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञब्दार्थ जा० यावत् वि० विवरते हैं ॥ ८ ॥ Do परिषदा प० पर्युपासना करे ।। ९ ।। त० तब से सूत्र भावार्थ | 48 पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती ) सूत्र वीतभय वह उ० नगर में सिं० शृंगाटक जा० यावत् प रा० राजा इ० इस क० कथा को ल० तुडु, [प्राप्त होते ह० हृष्ट तु तुष्ट को० कौटुम्बिक पुरुषों को स० बोलाकर ए० ऐसा बबोला खि० शीघ्र दे० देवानुप्रिय वी० वीतभय नगर को स० आभ्यंतर बाबा ज जैसे कूः कूणिक उ० उबवाइ में जा० यावत् पर्युपासना करे ५० पद्मावती पा. प्रमुख दे० देवी त तैते प० पर्युपासना करे उवागच्छत्ता जाव विहरइ ॥ ८ ॥ तणं वाइभये णयरे सिंघाडग जाव परिसा पज्जुवाइ ॥ ९ ॥ तरणं से उदायण राया इसीसे कहाए लडने समाणे कोटुंबिय पुरिसे सहावे, सदावेइत्ता एवं व्यासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीतिभयं यर सब्भितर बाहिरियं जहा कृणिओउबबातिए जात्र पज्जुत्रासइ. पउमावइ पामोमें यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर यावत् विचरने लगे ॥ ८ ॥ तव वीतभय नगर के शृंगाटक, त्रिक, चौक यावत् राज पथ में लोकों एकत्रित होकर यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी ॥ ९ ॥ उस समय में उदायन राजांने यह बात सुनी और हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा. कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोले. { अहो देवानुप्रिय ! वीतिभ्य नगर को आभ्यंतर व बाहिर सब सजाइ करो. वर्णन कूणिक वंदना नमस्कार सेवा करने लगा. और प्रभावती प्रमुख रानियों भी सेवा करने लगी. राजा तरह यावत् भगवंत श्री महा 888 तेरहवा शतकका छठा उद्देशा १८६९ Page #1900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.2 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी घ. धर्म कथा ॥१०॥ ० तब से वह उ. उदायन रा० राजा म० श्रमण भ. भगवन्त म.. महावीर की अं० पास ध० धर्म सो सुनकर णि० अवधारकर ह. हृष्ट तुष्ट उ० स्थान से उ० उठे उ० उठकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को ति तीनवक्त जा. यावत् ण० नमस्कारकर ए. ऐसा व..बोला ए. ऐसे ए. यह भ० भगवन् जा. यावत् से वह ज. जैसे तु. तुम व. कहते हो त्ति ऐसा करके जं. जो. ण विशेष दे० देवानुप्रिय अ. अभीचि कुमार को र० राज्य में ठा० स्थापकर त० तब क्खाओ देवीओ तहेव पज्जुवासंति धम्मकहा ॥ १० ॥ तएणं से उदायणे राया है १ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट तुट्ट उट्ठाए उद्वेइ, है है उढेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव णमंसित्ता एवं व्यासी एवमेयं भंते ! तहमयं भंते ! जाव से जहेयं तुझे वदह त्तिकटु जं, णवरं देवाणुप्पिया ! अभीइ कुमारं रज्जे ठावेमि तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि ॥९॥ वीर स्वामीने उस महती परिषदा में धर्मकथा सुनाइ ॥ १० ॥ उस समय में उदायन राजा श्रमण भगवंत महावीर स्वामी से धर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट हुवा. अपने स्थान से उठकर खडा हुवा और श्रमण भगवंत महावीर को हस्तद्वय जोडकर तीन आवर्त प्रदक्षिणा देकर बोला कि अहो भगवन् ! जैसे तुम कहते हो वैसा ३ है. विशेष में अभिचि कुमार को राज्य पर स्थापकर (राज्याभिषेक कर) के मैं आप की पास मुंड nnnnnnnnnnwww प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी * भावार्थ Page #1901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १८७१ पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ० मैं दे० देवानुपिय की अं० पास मुं० मुंड भ• होकर जा० यावत् प० प्रवा अंगीकार करूं अ० यथाई सुखं दे० देवानुप्रिय मा० मत प० प्रतिबंध ॥११॥ त० तब से वह उ. उदायन रा०राजा स.श्रमण भगवन्त म० महावीर से एक ऐसा वु० बोलाते ह. हृष्ट तुष्ट स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर को 40 वंदनकर ण. नमस्कार कर अ० अभिषेक ह० हस्ति पर दु० चढकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अं० पास से मि० मृगवन उ० उद्यान से प० नीकलकर जे. जहां वी० वीतिपय अहाहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंधं ॥ ११ ॥ तएणं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुटे, समणं भगवं महावीर वंदित्ता णमंसित्ता, तमेव अभिसेकहत्थि दुरूहइ. दुरूहइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव वीइभए णयरे तेणेव पहारेत्थगमणाए ॥ तएणं तस्स उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवे बनकर यावत् दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवानप्रिय ! तम को जैसा सख हो । करो विलंब मत करो ॥ ११ ॥ जब श्रमण भगवंत महावीरने उदायन राजा को ऐस कहा तब वह बहुत हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कारकर वैतेही अभिषेक हस्ति पर आरूढ होकर श्रमणा भगवंत महावीर की पास से मृगवन उद्यान में से नीकलाई * तेरहवा शतकका छठा उद्देशा भावार्थ 488 Page #1902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ do '० नगर में ते० तहां पर उद्यत हुवा ग० जाने को त० तब उः उस उ० उदायन र राजा को अ० इमरूप अ० चितवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुआ ए० ऐसे अ० अभीचि कुमार म० मुझे ए० ( एक पु० पुत्र इ० इष्ट कं० कांत जा० यावत् पा० देखने को त० उस को ज० यदि अ० मैं अ० अभीवि कुमार भगवन्तम० महावीर की अं० पास मुं० गुंड ज यी अंगीकार करूं त तब अ० अभीचि कुमार २० अज्झत्थिए जाव समुप्यजिथा एवंखलु अभीइकुमारे मम एगे पुत्ते जाव किमंगपुण पासणयाए तं जइणं अहं अभीइकुमारं रजे ठावेत्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिथं मुंडे भवित्ता जान पव्वयामि तओणं अभीइकुमारे रज्जेय रट्ठेय जात्र जणवएय माणुस कामभोगेस मुछिए गिद्धे गढ़िए अज्झोववण्णे अणादीयं अणवदरगं दोहमद्धं चाउरंत संसार कतारं अणुरियहिस्सति ॥ तं णो खलु मे सेयं अभीइकुमारं कर तय नगर में जाने को तैयार हुआ. उस समय में उदायन राजा को ऐसा अध्यवसाय हुदा कि अभिचार मेरा एक पुत्र इष्टकारी कान्तकारी मनोज्ञ है. उस का दर्शन दुर्लभ है इस - लिये यदि मैं अभिचिकुमार को राज्य पर स्थाप कर प्रत्रजित होऊंगा तो अभीचिकुमार राज्य मनुष्य संबंधी काम भोगों में मूच्छित हो कर गृद्ध हो जायेगा. इस तरह गूद्ध वनकर अनादि अनंत दीर्घ ६०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * वादक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १८७२ Page #1903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 शब्दार्थ राज्य में मा. यावत् ज० देश में मा० मनुष्य के मा० काम भोग में मु० मूच्छित गिल यूद गई। बंधाया हुवा अ० अध्यक्साय अ. अनादि अ० अनंत दी. दीर्घ काल चा० चातुरंत सं० संसार. कतार को अ० भ्रमण करेगा त• इसलिये णो० नहीं मे• मुझे से श्रेय अ० अभीचिकुमार को २० राज्य में उ० स्थापकर स० श्रमण भ• भगवन्त म० महावीर की जा० यावत् १० मवा अंगीकार करने को से० श्रेय मे० मुझे णि• अपना भा० भाणजा के• केशीकुमार को २० राज्य में ठा० स्थापकर स• श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर की जा. यावत् ५० प्रवा अंगीकार करने को ए. ऐसा सं० रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पब्वइत्तए, सेयं खलु मे णियगं भाइणिजं केसीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता जेणेव वीइभए णयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता बीइभयं णयरं मझं मझेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अभिसेकं हत्यि ठावेइ, अभिसेकाओ हत्थीओ पञ्चोरुभइ, भावार्थ चतुर्गतिक भंसार में परिभ्रमण करेगा. इस से अभीचि कुमार को राज्याभिषेक कराके श्रमण भगवंत 66 महावीर स्वामी की पास मब्रजित होना मुझे श्रेय नहीं है परंतु केशी कुमार को राज्य देकर दीक्षा अंगीकार करना मुझे श्रेय है. ऐसा विचार कर बीविभय नगर की मध्य बीच में होकर अपने गृह में । पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - बेरहवा शतक का छठा उद्देशा 4884 Page #1904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , Kamwammam शब्दार्थ विचारकर जे. जहां वी वीतिभय न० नगर ते तहां उ० आंकर वी वीतिभय न • नगर की मःमध्य है। से जे. जहां स० अपना गे०. गृह जे. जहां बा. बाहिर की उ० उपस्थान शाला ते. तहाँ । उ० आकर अ० अभिषेक ह० हस्ति को ठा० स्थापकर अ० आभषेक ह० हस्ति से १० उतर १८७४ कर जे० जहां सी. सिंहासन ते० तहां उ० आकर सी० सिंहासनपे ते पु० पूर्वाभिमुख से णि बैठकर को० कौटुम्धिक पुरुषों को स० बोलाकर एक ऐसा व० सोला खि० शीघ्र दे० देवानुप्रिय वी०वीतिभय न नगर को स० आभ्यंतर बा बाह्य जा० यावत् प० पीछीदेवे ॥ १२ ॥ त० तब से० वह उ० उदायन पच्चोरुभइत्ता; जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सीहासणवरंसि । पुरच्छाभिमुहे णिसीयइ, णिसायइत्ता, कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीइभयं णयरं सभितर बाहिरियं जाव पञ्चप्पि.. ___णंति ॥ १२ ॥ तएणं से उदायणे राया दोच्चंपि कोडुक्यि पुरिसे सदावेइ, सद्दावेइत्ता । उपस्थान शाला में आया. वहां अभिषेक के हस्ती को खडा कर के उस पर से उदायन राजा नीचे भावार्थ उतरा, और सिंहासन की पास जाकर उस पर पुर्वाभिमुख से बैठा. फीर कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोला कि अहो देवानुप्रिय वीतिभय नगर को अंदर व बाहिर सज्ज करो यावत् मुझे *मेरी आज्ञा पीछी दो ॥ १२ ॥ धन समय में उदायन राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को दूसरी वक्त बोलाये १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्यालासादजी, Page #1905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ थिरारजी दो० दूसरी वक्त को कौटुम्बिक पुरुषों को स० बोलाकर एक ऐसा व० बोले खि• शीघ्र दे देवानुभिय के केशी कु० कुमार का म• महा अर्थ वाला र राज्याभिषेक ज• जैसे सि० शिवभद्र। कुमार को त० तैसे भा० कहना जा. यावत् प० उत्कृष्ट आयुष्य षा० पालो इ. इष्ट जनसे सं० घेरायॐ हुवे सिं सिंधु सो० सौवीर पा० प्रमुख सो० सोलह ज० देश वी वीतिभय पा० प्रमुख ति. तीन ते. तसठ ण. नगर आ. आगर स० शत म० महालेन पा० प्रमुख द० दश रा० राजा के अ. अन्य व बहुत रा० गजा ई० ईश्वर जा० यावत् का० करते पा० पालते वि० विचरो ति ऐसा करके ज० जय एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पियो ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं एवं रायाभिसेओ जहा सिवभद्दस्स तहेव भाणियव्यो जाव परमाउं पालयाहिं, इट्ठजण संपरिवुडे सिंधुसोवीरप्पाभोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीइभयप्पामोक्खाणं तिष्णि तेसट्ठीणं णगरागरसयाणं महसेणप्पामोक्खाणं दसण्हं राईणं अण्णेसिंच बहूणं राईसर जाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्तिकटु जयजय सदं पउंजंति ॥ तएणं केसीकुमारे भावार्थ और के हने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! केशीकुमार के लिये महाअर्थ वाला यावत् राज्याभिषेक करो. उस का ॐ वर्णन शिवभद्र जैसे जानना, यावत् परम आयुष्य पालो. इष्ट जनों साथ परवरे हुवे सिन्धु सौवीर प्रमुख सोलह देश, चीतिभयं प्रमुख तीन सो वेसठ नगर को व महासेन प्रमुख दश राना व अन्य अनेक राजेश्वर है। पंचमाङ्ग विवाह पण्णक्ति (भगवती) मूत्र तरहवा शतकका छठा उद्देशा Page #1906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * जय स. शब्द ५० प्रयुंजते त० तब के केशी कुमार रा० राजा जा. हुवा म० बडे जा. यावत् वि०/ विचरता है ॥१३॥त. तब से वह उ. उदायन रा० राजा के केशी राजा को आ० पूछे त० तब ते. यह के. केशीराजा को० कौटुम्बिक पु० पुरुषों को स० बोलाकर ज जैसे जै० जमाली का त० तैसे स. आभ्यंतर बाबाबत तैसे जा. यावत् नि दीक्षा अ० अभिषेक उ० तैयार करे त० तब के केशीराजा अ. अनेक ग. गण णा नायक जा. यावत् सं० घेराया हुवा उ. उदायन गरा को सी. सिंहासनपे पु. पूर्वमुख से निः बैठाकर अ० आठ स० शन सो० मौणिक ए० ऐने ज. जैसे राया जाए, महया जाव विहरइ ॥ १३ ॥ तएणं से उदायणे राया केसिं रायाणं , आपुच्छइ ; ॥ तएणं से केसीराया कोडुंबिय पुरिसे सद्दावेइ एवं जहा जमालिस्स . तहेव सभितर बाहिरियं तहेव जाव णिक्खमणाभिसेयं उवट्ठावेति तएणं से केसी राया अणगगणणायग जाव संपरिवुडे उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहे भावार्थ तलवर यावत् सार्थवाह का आधिपत्यपना करते हुए पालते हुए विचरो. यों कहकर जय जय शब्द बोलने लगे. फीर केशीकुमार गजा हुवे यावत् विचरने लगे ॥ १३ ॥ फीर उदायन राजाने कशी राजा को दीक्षा लेनेका पूछा. उस समयमें केशी राजाने कौटुम्बिक पुरुषोंको बोलाये और जिस प्रकार जमाली कुमार का दीक्षा उत्सव किया वैसा उत्सा करने लगे. तब केशो कुमार अनेक गणनायकों से परवरों हुवा उदा-17 42 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेनसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब्दार्थ ८७७ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती)त्र ज० जमाली का एक ऐसा व० बोले भ० कहो सा० स्वामिन् कि क्या दे० देवे कि क्या १० विशेष । देवे कि किस से ते. तुमारा अ• अर्थ त०तब से वह उ० उदायन रा० राजा के० केशीराजा को ए०% ऐना ३० बोले इ० इच्छताहूं दे० देवानुपिय कु. कुत्रिकाहाट से एक ऐसे ज० जैसे ज. जमाली का - विशेष प० पद्मावती अ० अग्रकेश प. लेवे पि० प्रिय वि० वियोग दू. दूल्ह्य ॥ १४ ॥ ल. तब से०क के. केशी रा० राजा दो० दूमरी वक्त उ. उत्तर मुख से सी० सिंहासन र० स्चाचे उ. उदायन राजा निसियावेइ, निसियावेइत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं एवं जहा जमालिस्स एवं वयासीभण सामी किं देमो किं पयच्छामो किण्णा वा ते अटे? तएणं से उदायणेराया केसिंरायं एवं वयासी- इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! कुत्तियावणाओ एवं जहा जमालिस्स, णवर पउमावई अग्गकेसे पडिच्छइ, पियविप्पओगओ दूसहा ॥ १४ ॥ तएणं से केसी राया दोच्चंपि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ, रयावइत्ता उदायणं रायं सीयापीतएहिं कल वन राजा को पूर्वाभिमुख से बैठाकर एक सो आठ सुवर्ण कलशादि से जमाली की तरह महोत्सव किया. 300 फीर केशी राजा बोले अहो स्वामिन् ! कहो कि आपको क्या देवे या आप को किस से प्रयोजन है? ७ तब उदायन राजा केशी राजा को ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! कृषिक की दुकान से ओघे पाये. वगैरह सब कथन जमाली जैसे कहना. विशेष में पद्मावतीने अग्रकेश लीये और प्रिय का वियोग से । तेरहवा शंतक का छठा उद्देशा भावाथ Page #1908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थको को सी० श्वेत पी० एति क०कलश से शेष ज. जैसे ज जमाली का जा० यावत् स बैठे जा यावत् अ० अबाधात्रीण विशेष प. पद्मावती १० हंस लक्षण प० वख ग ग्रहणकर मे० शेष तं० तैसे जा यावत् सि० शिचिकासे प० उतरकर जे. जहां स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर ते. तहां उ018 आकर स० श्रमण भ. भगवन्त म० महावीर को ति० तीन वक्त आप्रदक्षिणा जा० यावत् वं. वंदनकर ण नमस्कार कर उ० ईशान कौन में अ० जाकर स० स्वयं आ० आभरण अ० अलंकार तं० तैसे जा प० पद्मावती प० ग्रहण करे जा. यावत् घ. घटाना सा० स्वामिन् जा० यावत् णो० नहीं प०६० सेहिं ससं जहा जमालिस्स जाव सण्णिसण्णं, तहेव अम्मधाई, णवरं पउमावई हंस लक्खणं पड़साडणं गहाय सेसं तंचव जाव सिबियाओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभइत्ता जे____णेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर तिक्खत्तो जाव वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता उत्तरपरच्छिमं दिसीभागं अरक्कमइ, अवक्कमइत्ता सयमेव आभरण मल्लालंकारं तंचव जाव पउमावई पडिच्छइ जाव घडि- . भावार्थ दुःखिनी हुइ ॥ १४ ॥ पुनः केशी राजाने उत्तराभिमुख सिंहासन बनाकर उदायन राजा को बैठाय श्वेत विपीले कलशों से स्नान यावत् जमाली की तरह शिविका में बैठाये, और अम्माधात्री पात्र में बैठी. इतना विशेष कि पद्मावती रानी हंस समान श्वेत वस्त्र ग्रहण कर बैठी. और सब कथन पूर्वोक्ता | जैसे कहना, यावत् शिविका में से उतरकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास गये और श्रमण भग अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथे पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र प्रमाद करना के केशीराजा प० पद्मावती सः श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को वै. वंदनकर ण. . नमस्कारकर जा. यावत् प० पीछे गये ॥ १५॥ त० तब मे० वह उ० उदायन राजा स० स्वयं पं०१4 पेचमष्टि लो• लोच से शेष ज जैसे उ० ऋषभदत्त जा. यावत् स० सर्व दु० दुःख ५० मुक्त हुवा lagn ॥ १६ ॥ त० तब तक उस अ० अभीचि कुमार को अ० एकदा पु० पूर्व २० रात्रि समय में कु० कुटुम्ब । यव्वं सामी जाव णो पमादीयव्वं त्तिकटु केसीराया पउमावईय समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता जाव पडिगया ॥ १५ ॥ तएणं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं, सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सव्व दुक्खप्पहीणे ॥ १६ ॥ तएणं तस्स अभीइकुमारस्स अण्णयाकयाई पुव्यरत्तावरत्तकाल समयंसि कुटुंब जागरियं जागरमाणस्सअयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पाजत्था एवं खलु वेत महावीर को वंदना नमस्कार कर ईशान कौन में गये. सब आभरणालंकार उतार दिये और पद्मावतीने सब ले लीये. और अश्रु पूर्ण नयनों से बोली स्वामिन् ! संयम को योग्य कार्य करना प्रयाद करना न ऐमा करके के शी राजा व पद्मावती रानी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर यावत् } पीछ गये ॥ १५ ॥ फीर उदायन राजाने स्वयमेव पंच मुष्टि लोच किया शेष सब ऋषभदत्त जैसे कहना यावत् सब दुःखों से रहित हुवे ॥ १६ ॥ उस समय में अभिचिकुमार को एकदा पूर्व रात्रि में कुटुम्बई। तेरहवा शतक का छठा उद्दशा भावार्थ 8 Page #1910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा जागरणा जा- जागते अ. इसरूप अ. चितवन जा. यावत् स० उत्पन्न हुवा अ० मैं उ० उदायन का पु० पुत्र प० प्रभावती का अ० आत्मज तक तब मे० वह उ. उदायन राजा म. मुझे अ० छोडकर Eणि अपना भा० भाणजा के० केशी कुमार को र० राज्य में ठा० स्थापकर साश्रमण भ० भमवन्त म. श्री महावीर की जा. यावत् प० प्रवा अंगीकार की इ० इस ए० इमरूप म बडी अ० प्रीतिरहित म० मोविकार दु० दःख से अ० पराभवपाया हुवा अं० अंत:पुर ५० परिवार से सं० घेराया हुवा स० भांडे है म० पात्र उ० उपकरण आय लेकर वी० वीतिभय न - नगर से णि नीकलकर पु० पूर्वानपूर्व च० चलता अहं उदायणस्स पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए तएणं से उदायणे राया ममं अवहाय णियगं भायणिज केसीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव षत्वइत्तए, इमेणं एयारूबेणे महता अपत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुखणं अभिभूए समाणे अंतेउर परियाल संपरिवुड़े सभंडमत्तोवगरण मादाय वीइभयाआ णयराओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता पुन्गणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव भावार्थ नागरगा जागते हुवे ऐमा अध्यवसाय हुवा कि मैं उदायन का पुत्र हूं और प्रभावती देवी का आत्मज हूं. उदायन राजा मुझे छोडकर अपना भाणजा को राज्य देकर श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामी की पास प्रत्रजित हवे. ऐसा अप्रीति कारक मानसिक दुःख से पराभूत होता हुवा अंत:पुर के परिवार सा अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * - Page #1911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ब्दाथगा . ग्रामानुग्राम दू० जाता जे. जहां चं चंपा न. नगरी जे. जहां कू कूणिक राजा उ० आकर कू कूणिक राजा का उ० आश्रय लेकर वि. विचरता है ॥ १७ ॥ तः तहां से वह वि० विपुल भो०० V भोग स० समृद्धि स. सन्मुख हुइ हो० थी ॥१८॥ त० तब से वह अ० अभीचि कुमार स. श्रमणो। पासक हो. था० अ० जाने जा. यावत् वि०विचरता है उ० उदायन रा० राजर्षि में त० बैरवाला हो था ॥ १९ ॥ ते. उस काल ते. उस समय में इ• इस र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी के णि. नरका वास में चंपाणयरी जेणेव कूणिएराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता कूणियं रायं उवसं. पजित्ताणं विहरइ ॥ १७ ॥ तत्थविणं से विउलभोगसमिति समण्णागएयावि होत्था ॥ १८ ॥ तएणं से अभीइकुमारे समोवासएयावि होत्था अभिगय जाव विहरइ ॥ उदायणमि रायरिसिंमि समणुबह वेरेयावि होत्था ॥१९॥ तेणं कालेणं तेणं परवस हुवा वीतिभय नगर में से अपने भंडोपकरणादि लेकर नीकला और पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विजरते चंपा नगरी में कूणिक राजा की पास गया और कूणिक राजा का आश्रय लेकर विचरने लगा ॥ १७ ॥ क्वें पर भी अभिचि कुमार को भोगोपभोग की प्राप्ति हुई और उसे भोगवते हुवे विचरने लगे। ॥१८॥ अभिकिमार श्रमणोपासक होते हुवे व जीवाजीव का स्वरूप जानते हवे उदायन राजर्षि की 1 साय और बद्ध हुने ॥ १९ ॥ उस काल उन समय में इस रत्नमा पृथ्वी में नरक की चारों तरफ चौसठ । पंचमांग बहाव पण्णति (भगवती) सूत्र 488 तेरहवा शतक का छठा उद्देशा 9 428 88 Page #1912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी नरकावास {चो० चौसठ अ० असुर कुमार के आ० आवास स० शत सहस्र प० प्ररूपे ॥ २० ॥ त० तत्र अ० अभीचि कुमार ब० बहुत व० वर्ष स श्रमणोपासक प० पर्याय पा० पालकर अ० अर्धमास की सं० संलेखना ती तीस भक्त अ० अनशन त० उस ठा० स्थान को अ० विना आलोचकर प० प्रति {क्रमणकर का काल के अवसर में कार कालकर इ० इस र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी के णि० ( मे चो० चौसठ जा० यावत् स शत सहस्र में अ० अन्यतर आ० विशेष अ० असुर कुमार आ० आवास अ० असुर कुमार पने उ० उत्पन्न हुवा त० तहां अ० कितनेक अ० असुर कुमार की ए० एक पस्योपम समणं इमी रयणप्पभाए पुढवीए णिरयपरिसामंतेसु चोयट्ठि असुरकुमारावासस्थ सहस्सा पण्णत्ता, ॥ २० ॥ एणं से अभीईकुमारे बहूइ वासाई समणोवासगं परियागं पाउणइ, पाउणइत्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणं २ तरस ठाणस्स अणालोइय पडिकांते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णिरय परिसामंतेसु चोयट्ठीए आतावा जाव सहस्सेसु अण्णयरंसि आयावा अंकुर कुमार लाख के वास कहे हुवे हैं ॥ २८ ॥ उस समय में अभिचिकुमारने बहुत वर्ष पर्यंत श्रमणोपासक पर्याय पालकर अर्ध मास की संलेखना से तीन भक्त अनशन का छेड़कर उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किये विना काल के अवसर में काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी की पास चौसठ लाख अमुर * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १८८२ Page #1913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पृष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र की ठि० स्थिति प० प्ररूपी तः तहां अ० अभीचि दे० देव की ए० एक प० पल्योपम की ठि स्थिति १० प्ररूपी ॥ २१ ॥ अ० अभीचि देव ता उस दे० देवलोक से आठ आयुष्य क्षय से ठि० स्थितिक्षय से अ० पीछे उ० चक्कर क० कहां ग० जावेगा कर कहां उ० उत्पन्न होगा गो० गौतम म० महाविदेह क्षेत्र में सि० सिझेगा जा० यावत् अं० अंत करेगा से० वह ए० ऐसे भं० भगवन् ॥ १३ ॥ ६ ॥ असुरकुमारावासंसि आतावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उबवण्णो ॥ तत्थणं अत्थेगइयाणं अमरकुमाराणं एगंपलिओवमाट्ठई पण्णत्ता, तस्सणं अभीइस्स देवस्स एवं पलिओ मंठिई पण्णत्ता॥२१॥ सेणं अभीईदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएण अनंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वा सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तेरसमसयस्सय छट्टो उद्देसो सम्मन्तो ॥ १३ ॥ ६ ॥ * ॥ ÷ ÷ ÷ कुमार के आवास में से किसी एक आवास में असुर कुमीरपने उत्पन्न हुवा. वहां कितनेक असुर कुमारकी एक पल्योपम की स्थिति कहीं. उस में अभिचि देव की एक पल्योपम की स्थिति प्ररूपी ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! वह अभिचि देवता आयुष्य स्थिति व भव क्षयसे कहां जायेगा कहाँ उत्पन्न होवेगा ? अहो गौतम : महाविदह क्षेत्र में सीझेगा बुझेगा यावत् अंत करेगा. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह तेरहवा {शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १३ ॥ ६ ॥ १० १८८३ तेरहवा शतकका छठा उद्देशा Page #1914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 रा. राजगृह में जा. यावत् ए. ऐसा व० बोले आ. आत्मा भं• भगवन् भा. भाषा अ० अन्य . भा० भाषा गा गौतम णो० नहीं आ० आत्मा भा० भाषा अ० अन्य भा० भाषा ॥१॥ रू० रूपी भं० भगवन् भा० भाषा अ० अरूंपी भाषा गो० गौतम रू० रूपी भा० भाषा णो० नहीं अ० अरूपी ArAAAAAAAAAAAAAmar १ अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - भावाथ रायगिहे जाव एवं वयासी-आया भंते ! भासा, अण्णा भासा ? गोयमा ! णो आया भासा अण्णाभासा ॥ १ ॥ रूबी भंते ! भासा, अरूवी भासा ? गोयमा ! रूबी अब इस उद्देशे में भाषा का कथन करते हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! आत्मास्वरूप क्या भाषा है! क्यों कि जीव के व्यापार से जीव को बंध मोक्ष होता है. इस लिये जीवपना से जीव ऐमा कहने को योग्य है. अथवा अन्य श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्यपना से भाषा है ? अहो गौतम ! आत्मा भाषा नहीं है क्यों कि भाषा पुद्गलमयी है. परंतु अन्य भाषा है ॥ १॥ अहो भगवन् ! क्या रूपी भाषा है श्रोत्र के अनुग्रह उपघातकारिपना से कर्णाभरणवत् अथवा अरूपी भाषा है. चा से अनुपमें लभ्यमानपना से धर्मास्तिकायवत् ? अहो गौतम ! भाषा रूपी है. तुमने जो चक्षुअग्राह्य को अरूपी कहा वह अनेकान्तिक दृष्टांत होने से यहां पर योग्य नहीं होता है. यदि ऐमा ही सर्वत्र ग्रहण किया जावे. तो * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसाद जी * Page #1915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 शब्दार्थ मापा ॥२॥स. सचित्त मं० भगवन् भा० भाषा अ० अचित्त भा० भाषा गो. गौतम णो० नहीं स० सचित्त भा० भाषा ॥ ३ ॥ जी• जीव • भगवन् भा० भान अ० अजीव प्रा. भाषा गो० गौतम णो० नहीं जी० जीव भा० भाषा अ० अजीव भा० भाषा ॥ ४ ॥ जी० जीव को भं० भगवन भा. भाषा: ૧૮૮૯ F० अजीव को भा. भाषा गो• गौतम जी जीव को भा० भाषा को नहीं अ. अजीव को भा० ." भासा णो अरूवीभासा ॥ २ ॥ सचित्ता भंते ! भासा मचित्ता भासा ? गोयमा ! } } णो सचित्ता, अचित्ता भासा ॥ ३ ॥ जीवा भंते ! भासा अजीवा भासा ? गोयमा। णो जीवा भासा, अजीवा भासा ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा ? गोयमा ! जीवाणं भासा णो अजीवाणं भासा ॥ ५ ॥ पुर्वि भंते ! भासा, भावार्थ परमाणु वायु पिशाचादि रूपवंत होने पर चक्षग्राह्य नहीं है. इसलिये भाषापुद्रलमयी होने से रूपी है परंतु, अरूपी नहीं है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! भाषा क्या सचित्त है या अचित्त है ? अहो गौतम ! भाषा सचित्त नहीं है परंतु अचित्त है. क्यों की जीव से नीकले हुवे पुद्गलों की भाषा होती है: ॥३॥ अहो। भगवन् ! क्या भाषा जीव है या अजीव है ? अहो गौतम ! भाषा जीव नहीं है परंतु अजीव है. क्यों ॐ की भाषा को उश्वासादि माणों का अभाव है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जीव को भाषा है या अजीव +को भाषा है? अहो गौतम ! जीव को भाषा है परंतु अजीव को भाषा नहीं होती है. अक्षरों ताल्वादि स्थान । 48+ पंचमांगविवाह पण्णनि ( भगवती ) सूत्र तेरहवा शतक का सातवा उद्देशा 438 ww -- Page #1916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८६ शब्दार्थ भाषा ॥५॥ पु० पहिली भं० भगवन् भ० भाषा भा० भाषा भा० बोलाती भा० भाषा भा० भाषा स० समय, वी० पीत हुइ भाषा गो० गौतम को नहीं पु० पहिली भाषा भा० बोलाती भा० भाषा णो नहीं भा० भाषा स समय वी० व्यतीत हुइ भा० भाषा ॥ ६॥ पु० पहिले भं० भगवन् भा० भाषा भि० भेदावे भा० बोलाती मा० भाषा भि० भेदावे भा. भाषा समय वी० व्यतीत हुई भा. भाषा भि. भेदावे गो०१ E गौतम नो० नहीं पु. पहिले भा० भाषा भि० भेदावे भा० बोलाती भा० भाषा भि० भेदावे को नहीं भासिज्जमाणी भासा, भासासमयवीइकता भासा ? गोयमा ! णो पुट्विं भासा । भासिजमाणी भासा, णो भासासमयवीइक्ता भासा ॥६॥ पुद्वि भंते ! भासा भिज्जइ, भासिज्जमाणी भासा भिजइ; भासा समयवीइकता भासा भिजइ ? गोयमा ! णो 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालापसादजी . भावार्थ से बोले जाते हैं और ताल्यादि स्थान, जीवाश्रित है ॥॥ अहो भगवन् ! बोले पहिले भाषा, बोलाती हुइ भाषा, अथवा भाषा समय व्यतीत हुवे पीछे क्या भाषा कहना ? अहो गौतम ! बोले पहिले भाषा नहीं होती है मृत्पिण्ड अवस्था में घटवत् परंतु बोलाती हुई भाषा कही जाती है. घट की अवस्था में घट कहा जावे. और बोलने का समय व्यतीत, हुए पीछे भापा नहीं होती है. ॥६॥ अहो भगवन् ! भाषा क्य पहिले भेदाती है, बोलाती हुई भेदाती है अथवा भाषा समय व्यतीत हुए पीछे भाषा भेदाती है? Page #1917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८९७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 भा० भाषा समय वी. व्यतीत हुइ भा० भाषा भि० भेदावे ॥ ७॥ ० कितने प्रकार की भं. भगवन् भाषा प० प्ररूपी गो० गौतम च० चार प्रकार की भाषा प. प्ररूपी तं० जैसे स० सत्य मो. म. सत्यमृषा अ० असत्यमृषा ॥ ८ ॥ आ० आत्मा भं० भगवन् म० मन अ० अन्य म० मन णो० नहीं पुर्विभासा भिजइ, भासिज्जमाणी भासा भिज्जइ, णो भासा समय वीइक्ता भासा भिजइ ॥ ७॥ कइविहाणं भंते ! भासा पण्णता ? गोयमा ! चउबिहा भासा पण्णत्ता, जहा सच्चा, मोसा, सच्चामोता, असञ्चामोसा ॥ ८ ॥ आता भंते ! मणे गौतम ! भाषा पहिले नहीं भेदाती है, भापा समय व्यतीत हुए पीछे भाषा नहीं भेदाती है परंतु भाषा बोलते भाषा भेदासी है * ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! भाषा के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! भाषा के चार भेद कहे हैं. सत्याभाषा, मृपा भाषा, सत्यमृपा व असत्य मृषा ॥८॥ भाषा प्रायः मन पूर्वक कोई मन्द प्रयत्नवक्ता अभिन्न ही शब्द बोले. वह असंख्यात द्रव्यात्मक होने से व स्थूलपना से भिद्यमान १ होकर संख्यात योजन जाकर शब्द परिणाम त्याग करे. वैसे ही कोई महा प्रयत्नवक्ता ग्रहण की हुई भाषा को अवश्य ही विसर्ग व प्रयत्न से भेद कर नीकाले. सूक्ष्मपना व बहुलपना से उस की अनंतगुनी वृद्धि होती हुइ छ दिशि में लोकान्त पर्यंत जावे. यहां पर जिस अवस्था में शब्द परिणाम हे उस अवस्था में भाष्यमानपना जानना. तेरहरा शतक का सातवा उद्देशा 488 Page #1918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्था० आत्मा म. मम अ० अन्य म० मन गौ० गौतम ज० जैसे भा० भाषा त० तैसे म० मन जा० अण्णे मणे ? णो आता मणे अण्णे मणे ? गोयमा ! जहा भासा तहा मणेवि, जाव णो अजीवा ॥ १० ॥ पुवि भंते ! मणे, मणिजमाणे मणे, एवं जहेव भासा ॥ ११ ॥ पुन्वि भंते ! मणे भिज्जइ, माणजमाणे मणे भिजइ, मण समयवीइक्ते मणे भिजइ ? एवं जहेव भासा ॥ १२ ॥ कइविहेणं भंते ! मणे पण्णत्त ? गोयमा ! चउबिहे मणे पण्णत्ते, तंजहा-सच्चे जाव असच्चा मोसे ॥ १३ ॥आया भंते ! भावार्थ होने से मन का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! क्या आत्मा मन है या अन्य मन है ? अथवा नो आत्मा मन है या अन्य मन है ? अहो गौतम ! जैसे भाषा का कहा वैसे ही मन का जानना ॥१०॥ अहो । भगवन् ! मनन पहिले मन, मनन करने लगे जब मन, अथवा मनन का समय व्यतीत हुवे पीछे मन ? अहो गौतम ! जैसे भाषा का कहा वैसे ही मन का जानना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! पहिले मन भेदार जाता है, मनन करते मन भेदा जाता है अथवा मनन समय व्यतीत हुए पीछे मन भेदा जाता है ! अहो गौतम! जैसे भाषा का कहा वैसे ही मन का जानना ॥ १२ ॥ अहो गौतम ! मन के कितने भेद कहे अहो मौतम ! मन के चार भेद कहे. सत्य मन, मृषा मन, सत्य मृषा, व असत्य मृषा मन ॥ १३ ॥ अनुवादक बालब्रह्मचारी पुनि श्री अमोलक ऋषीजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र 808 काए अण्णे काए ? गोयमा ! आयावि काए, अण्णेवि काए ॥ १४ ॥ रुवी भंते ! काए, अरूबी काए ? गोयमा ! रूवीवि काए, अरूबीवि काए, एवं एकेके पुच्छा ? गोयमा! सचित्तेवि काए अचित्तेविकाए, जीवेवि काए अजीवेवि काए ; जीवाणवि काए, भावार्थ-कायावाले को प्रायः मन होता है इस लिये काया का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! क्या आत्मा काया है. या अन्य काया है ? अहो गौतम ! आत्मा भी काया होवे क्षीर नीर की तरह, अनि लोहपिंड की तरह, इस में काया से स्पर्श हुवा आत्मा संवेदन करे. और जो काया करे वह आत्मा भवांतर में वेदे इमलिये आत्मा काया भी है और अन्य भी काया है यदि अत्यंत अभेद होवे सब शरीर के अंग का छेदन करने से आत्मा को छेदन का प्रसंग उपस्थित होवे, वैसे ही शरीर के दाह से आत्मा को दाह होवे और ऐसा होने से परलोक अभाव प्रसंग आजावे इस से आत्मा से अन्य भी काया है. कितनेक आचार्य का ऐसा भी कथन है कि कार्माण शरीर की अपेक्षा से आत्मा काया है. क्यों कि कार्माण शरीर व संसारी जीव का परस्पर अव्यभिचार है और उदारिकादि शरीर की अपेक्षा से अन्य काया , है क्यों की जब वे शरीर भिन्न होते हैं तब आत्मा इन से पृथक् होता है ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! रूपी काया है या अरूपी काया है ? अहो गौतम ! उदारिक शरीर की अपेक्षा से रूपी काया है और कार्माण शरीर की अपेक्षा से अरूपी काया है. अहो भगवन् ! सचित्त काया है या अचित्त काया है ? 488b48 तेरहवां शतकका सातवा उद्देशा +4884 Page #1920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अजीवाणवि काए ॥ १५ ॥ पुवि भंते ! काए पुच्छा ? गोयमा ! पुव्विवि का काइज्जमाणेविकाए, कायसमयवीइक्कनेवि काए || १६ || पु िभंते ! काए भिज्जइ पुच्छा ? गोयमा ! पुविपिकाए भिजड़, काइजमाणेवि काएं भिज्जइ, काय समयवीइक्कं - अहो गौतम ! जीवित अवस्था में सचित्त काया है और मृतक अवस्था में अचित्त काया है. अहो भगवन् ! जीव काया है या अजीव काया है ? अहो गौतम ! उश्वासादि लक्षण से जीव काया है और मृतक अवस्था में उश्वासादि रहित होने से अजीव काया है. अहो भगवन् ! जीवों को काया है या अजीवों को काया है ? अहो गौतम ! संसारी जीवोंको काया होती है और चित्रित चित्रों रूप अजीवों को भी काया होती है ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! पहिले काया है, कायस्थ होते हुत्रे पीछे काया क्या कहना ? अहो गौतम ! पहिले भी काया होती है काया में पुनः जीव उत्पन्न हो जावे. कायस्थ जीव को भी ( बाद भी काया होती है जीव रहित कलेववत् ॥ १६ ॥ भेदावे, काया में वर्तते काया भेदावे, या जीव रहित काया हुवे पीछे { पहिले भी काया का भेद होता है, मधु घृतादि न्याय से द्रव्य काया काया कहना, मृत मेडक की काया होती है काया का नाश तरह पहिले की और जीव चबे पहिले काया अहो गौतम ! भेदावे, प्रतिक्षण पुगल का चय अहो भगवन् ! काया भेदावे ? अपचय होने से जीव कीयमान होते काया भेदाती है. कायस्थ काया भेदाती है और काया का समय * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १८९० Page #1921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावत् णो० नहीं अ० अजीव ॥ १.१८॥क कितने प्रकार का भं० भगवन् म०मरण १० प्र० प्ररूपा गो. गौतम पं० पांच प्रकार का म. मरण प० प्ररूपा तं. वह ज. जैसे आ० आवीचिक मरण ओ० अवधि मरण आ. आत्यन्तिक मरण बा० बाल मरण पं० पंडित मरण ॥ ११ ॥ आ० आवीचिक तेनि काए भिजइ ॥ १७ ॥ कइ विहेणं भंते ! काए पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे काए पण्णत्ते, तंजहा-ओरालिय ओरालिए मसिए, वेउबिए, वेउव्यिमीसए, आहारए. आहारयमीसए, कम्मए ॥ १८ ॥ कइविहेणं भंते ! मरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचबिहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा-आवीचियमरणे, ओहिमणे, आदितियमरणे, बालमरणे व्यतीत हुवे पीछे काया भेदातो है ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! काया के कितने भेद कह हैं ? अहो गौतम ! काया के सात भेद कहे हैं. उदारिक, उदारिक का मीश्र, वैकेय, वैक्रेय का मीश्र, आहारक, आहारक का मीश्र और कार्माण काया ॥ १८ ॥ काया को मृत्यु होती है इसलिये मृत्यु का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! मरण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! मरण के पांच भेद कहे हैं. १ आवीचिक मरण उत्पन्न हुवे बाद प्रतिसमय निरंतर आयुष्य की क्षीणता होवे सो २ अवधि मरण मर्यादा युक्त जो आयुर्दलि है उसे वर्तमान काल में भोगवकर मरता है. अथवा उसे आगामिक काल में भी भोगवकर मरेगा ३ आत्यंतिक मरण नारकी देवादिक की तरह आयुष्य भागवकर मरते हैं उसी आयुष्य को पुनः दूसरे भव में नहीं है । 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ). सूत्र 2400 तेरहवा शतकका सातवा उद्देशा 8 भावार्थ . Page #1922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4मरण भ० भगवन् क कितने प्रकार का ५० प्ररूपा गो० गौतम पं० पांच प्रकार का द० द्रव्य आवी मरण खे० क्षेत्र आवीचिक मरण का काल आवीचिक मरण भ० भव आवीचिक मरण भा० व आवीचिक मरण ॥ २०॥ सरल शब्दार्थ. पंडियमरणे ॥ १९ ॥ आवीचियमरणेणं भंते ! कइबिहे पण्णत्ते गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दव्यावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचिय मरणे, भावावीचियमरणे ॥ २० ॥ दव्यावीचिय मरणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णते, तंजहा-णेरइय दबावीचियमरणे, तिरिक्खजोणिय दवावीचियमरणे, मणुस्सदव्वावीचियमरणे, देवदव्यावीचियमरणे, ॥ २१ ॥ भोगते हैं वह आत्यंतिक मरण है ४ बाल मृत्यु अविरति जीव का और ५ पंडित मरण सब विरति जीव का ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! आवीचिक मरण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! आवीचिक मरण के पांच भेद कहे हैं. १ द्रव्य आवीचिक मृत्यु २ क्षेत्र आबीचिक मृत्यु, ३ काल आवीचिक मृत्यु ४ भव आवीचिक मृत्यु और ५ भाव आवीचिक मृत्यु ।। २० ॥ अहो भगवन् ! द्रव्य आवीचिक मृत्यु के में कितने भेद हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य आवीचिक मृत्यु के चार भेद कहे हैं. नारकी द्रव्य आवीचिकन *मृत्यु, तियेच आवचिक मृत्यु, मनुष्य आवीचिक मृत्यु और देव आवीचिक मृत्यु ॥ २१ ॥ अहो भगवन्! 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी माला प्रसादजी भावार्थ vvvvvvvvv Page #1923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र 428+ से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ-णेरइयदवावीचियमरणे ? णेरइयदव्वावीचियमरणे गेयमा! जंणं णेरइया णेरइयदब्वे वट्टमाणा जाइं दव्वाइं णेरइयाउयत्ताए गहियाई, बद्धाइं, पुट्ठाई, कडाई, पट्टवियाई, निविट्ठाई, अभिणिविट्ठाई, अभिरामण्णागयाइं, भवंति. ताई दव्वाइं आवीचिय मणुसमय णिरंतरं मरंतीतिकटु ; से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइय दवावीचियमरणे. एवं जाव देव दवावीचियमरणे ॥ २१ ॥ खेत्तावीचिय. मरणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइयखेत्तावीचियमरणे, जाव देवखेसावीचियमरणे ॥ २२ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ. पेरइय खेत्तावीचियमरणे ? जेरइय खेत्तावीचियमरणे गोयमा ! जण्णं णेरइया । नारकीका द्रव्य आवीचिक मरण किस कारनसे कहा गया है ? अहो गौतम ! नरक द्रव्य में रहे हुवे नारकीने नारकी के आयुष्यपना से जो द्रव्य ग्रहण किये हैं, बंधन से बांधे हैं, प्रदेश प्रक्षेपण से पुष्ट (स्पर्श 0 किये हैं, अनुभाव स्थिति करने से जीव प्रदेश में स्थापन किये और उदयकी पंक्ति में आयेहुवे हैं उन द्रव्यों । को प्रतिसमय निरंतर परण मरे. अहो गौतम ! ऐसा होने से नारकी द्रव्य आवीचिक मरण कहा है. ऐसे ही यावत् देव दुव्य भावीचिक मरण का जानना. ॥२१ ॥ अहो भगवन् ! नारकी क्षेत्र आवीचिक मरण किसे तेरहवा शतकका सातवा उद्देशा 48 + Page #1924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ. 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी इयत्तेचमाणा जाई दव्वाई णेरइयाउयत्ताए; एवं जहेव दव्वावीचियमरणे - तहेव खेत्तावीचियमरणेवि; एवं जाव भावावरीचिय मरणे ॥ २३ ॥ ओहि मरणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा - दव्वोहिमरणे, खत्तोहिमरणे जाव भावोहिमरणे दव्वोहिमरणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउन्धिहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइयदव्वोहिमरणे जाव देवदव्बोहिमरणे ॥ २४ ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं gas - रइय दोहिमरणे ? गोयमा ! जंणं णेरइया णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाई संपयं भर्रेति जंणं णेरइया ताई दव्बाई अणागए काले पुणोवि मरिस्संति से कहते हैं ? अहो गौतम ! नरक क्षेत्र में रहे हुवे नारकी जिन द्रव्यों को नरक के आयुष्यपने वगैरह द्रव्य आवीचिक मरण जैसे कहना. और ऐसे ही काल, भव और भार आवीचिक मरण का जानना ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! अवधि मरण कितने भेद कहे हैं ! अहो ! अवधि मरण के पांच भेद कहे हैं ? द्रव्य अवधि मरण के कितने भेद कहे हैं ? द्रव्य अवधि, क्षेत्र अवधि यावत् भाव अवधि. अहो भगवन् ! अहो गौतम ! द्रव्य अवधि मरण के चार भेद कहे हैं. नारकी द्रव्य अवधि मरणं यावत् देव द्रव्य अवधि मरण ॥ २४ ॥ अहो भगवन् नारकी द्रव्य अवधि मरण किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! | ॐ प्रकाशके राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १.८९४ Page #1925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ते गोयमा ! जात्र दव्बोहिमरणे, एवंतिरिक्ख जोणिय, मणुस्स देवदव्वोहिमरणेवि । एवं एएणं गमएणं खेत्तोहिमरणेवि, कालोहिमरणेवि, भत्रोहिमरणेवि, भावोहिमरवि ॥ २५ ॥ आदितिय मरणेणं पुच्छा ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-दव्वादितियमरणे, खेत्तादिंतियमरणे, जाव भावादितिय मरणे ॥ २६ ॥ दवादितिय मरणणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-पोरइय { दव्यादिंतियमरणे जाव देवदव्वाइंतियमरणे ॥ २७ ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ रइय दव्वाइंतिय मरणे ? णेरइय दव्वाइंतियमरणे गोयमा ! जंणं णेरइया रइयदव्ये नरक में रहने वाले नारकी जिन द्रव्यों से सांप्रत में मरे उन द्रव्यों को फीर अनागत काल में मरेंगे इस { लिये अहो गौतम ! नारकी द्रव्य अवधि मरण यावत् देव द्रव्य अवधि मरण कहा गया है और इसी क्रम {से क्षेत्र, काल, भव व भाव अवधि मरण का जानना || २५ || अहो भगवन् ! आत्यंतिक मरण कितने भेद कहे हैं ? अहों गौतम ! पांच प्रकार के आत्यंतिक मरण कहे हैं. द्रव्यात्यंतिक मरण क्षेत्रात्यंतिक मरण यावत् भावात्यंतिक मरण ॥ २३ ॥ अ भगवन् ! द्रव्य आत्यंतिक मरण के कितने भेद कहे हैं.! अहो गौतम ! चार प्रकार के द्रव्य आत्यंतिक मरण. कहे हैं.. नारकी द्रव्य, आत्यंतिक यावत् देव) 4 तेरहवा शतक का सातवा उद्देशा 4098+ १८९५ Page #1926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी १८९६ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक वमाणा जाई दवाई संपयं मरंति तेणं गैरइया ताई दवाइं अणागए काले णो पुणोवि मरिस्संति से तेणट्रेणं जाव मरणे ॥ २८ एवं तिरिक्ख, मणुस्मदेवे ॥ एवं. खेत्तादितिय मरणेवि ॥ एवं जाव भावादितिय मरणेवि ॥ २९ ॥ बाल मरणेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुवालसविहे. पण्णत्ते, तंजहा-वलयमरणे जहा.. खंदए जाव गिडपिटे ॥ ३० ॥ पंडियमरणेणं भंते ! कइविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पाओवगमणेय, भत्तपञ्चक्खाणेय ॥ ३१ ॥ पाओवगमणेणं द्रव्य आत्यंतिक मरण. अहो भगवन् ! किस कारन मे नारकी द्रव्य आत्यंतिक मरण कहा गया है ? अहो गौतम ! नरक में वर्तमान नारकी.जिन द्रव्यों को ग्रहण कर मरते हैं. उन द्रव्यों को ग्रहण किये बिना अनागत में मरेंगे इसलिये नरक द्रव्य आत्यंतिक मरण कहा है. ॥ २८ ॥ ऐसे ही तिर्यंच मनुष्य व देव का जानना. और ऐसे ही क्षेत्र आत्यंतिक यावत् भावात्यंतिक मरण का जानना.॥२९॥ अहो भगवन् ! बाल मरणके कितने भेद कहे हैं ? अहो भगवन् ! बाल मरण के बारह भेद कहे हैं. वलयामरणादिक से लगा कर अधिकार स्कंधक में कहा वैसे ही यहां सब कहना. ॥ ३० ॥अहो भगवन् ! पंडित मरण के कितने भेद कहे हैं. अहो गौतम ! पंडित मरण के दो भेद कहे हैं. १ पादोपगमन और २ भक्त प्रत्याख्यान ॥ ३१ ॥ अहो नाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी मालाप्रसादजी । -- Page #1927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमांग वहाव पण्णति ( भगवती ) सूत्र क० कितनी मं० भगवन् क० कर्म प्रकृति प० प्ररूपी गो० गौतम अ० आठ क० कर्म प्रकृति १० प्ररूप ए० ऐसे बं० बंध टिं० स्थिति उ० उद्देशा भा०कहना णि० निर्विशेष ज० जैसे प० पचवना में से० वह भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-णीहारिमेय, अणीहारिमेय, जाव नियमं अपडिक्कमे ॥ ३२ ॥ भत्तपच्चक्खाणं भंते! कइविहे पण्णत्ते ? एवं चैव. णवरं सपडिक्कमे ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तेरसम सयस्सय सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥१३॥७॥ कणं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अटुकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ, एवं बंधट्ठति उद्देसओ भाणियव्वो णिरवसेसो जहा पण्णत्रणाए सेवं भंते भंतेति ॥ ( भगवन् ! पादोपगमन के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! पादोपगमन के दो भेद कहे हैं. में मरण होवे सो निहारिन उस का निहारन होवे और २ ग्राम बाहिर अटवि वगैरह स्थान सो अनिहारिम, यह मरणवाला प्रतिक्रमण करे || ३२ || अहो भगवन् ! भक्त प्रत्याख्यान के कहे हैं ? अहो गौतम ! इस उक्त दो भेद जानना. परंतु प्रतिक्रमण सहित होवे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह तेरहवा शतक का सातवा उद्देशा पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥ ७ ॥ अंत में मृत्यु का कथन कहा. वह मृत्यु कर्म से होता है इसलिये कर्म का कथन करते कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. इस का १ ग्राम मरण होवे कितने भेद सातवे उद्देशे के {हैं. अहो भगवन् ! 4- तेरहवा शतक का आउवा उद्देशा १८९७ Page #1928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९८ २१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ए. ऐसे भं० भगवन् ॥ १३ ॥ ८॥ १ रा. राजगृही में जा. यावत् ए. ऐसा व. बोले से वह ज जैसे के० कोइ पु० पुरुष के. रज्जु घ० घडा गर ग्रहण कर ग. जावे एक ऐसे अ. अनगार भा० भावितात्मा के. रज्जुवाला घ० घडा कि० कृत ह० हस्त अ० आप उ० ऊर्ध्व वे० आकाश में उ० जावे ६० हां उ० जावे अ० अनगार भं० भगवन् भा० शवितात्मा के कितने ५० समर्थ के० रज्जु वाला घ० घडा कि० कृत्यहस्त रू० रूप वि० विकूर्वणा तेरसमसयस्सय अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १३ ॥ ८॥ * * राजगिहे जाव एवं धयासी से जहा णामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेजा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उर्ल्ड वेहासं उप्पएजा ? हंता गोयमा ! जाव समुप्पएजा । अणगारेणं भंते ! भावियप्पा विशेष वर्णन पन्नवणा सूत्र के तेत्तीसवे उद्देशे में कहा है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह है तेरहवा शतक का आठवा उद्देशा पूर्ण हवा ॥ १३ ॥ ८॥ र आठवे उद्देशे में कर्म प्रकृति कहीं. कर्म क्षय से वैक्रेय लब्धि होती है इसलिये आगे वैक्रेय का कथन करतेहैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामीको वंदना नमस्कारकर श्री गौतम स्वामी प्रश्न पूछने लगे कि अहो भगवन् ! जैसे कोई पुरुष रस्ती बांधकर घटिका लेजावे. वैसे ही भावितात्मा अनगार प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* वाथा Page #1929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4884 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र करने को गो० गौतम से वह ज जैसे जुट युवति को जु० युवान ह० हस्त से ह० हस्त ए० ऐसे ज० जैसे त० तीसरा शतक में पं० पांचवा उ० उद्देशा जा० यावत् णो० नहीं सं० संपत्ति से वि० विकुर्वणा की (वि० विकुर्वणा करते हैं वि० विकुर्वणा करेंगे ॥ १ ॥ मे० वह ज० जैसे के कोई पु० पुरुष हि० हिरण्य | (पेटी को ग० ग्रहण कर ग० जावे ए० ऐसे अ० अनगार भा० भावितात्मा हि० हिरण्य पेटी को ह० हस्त केवइयाई पभू केयाघडियं किच्चहत्थगयाई रुवाई विउन्वित्तए ? गोयमा ! से जहाणामए जुबतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थं एवं जहा तइयसए पंचमोदेसए जाव णो चेवणं संपत्ती विउसुिवा, विउव्विंतिवा, विउव्विस्संतिवा ॥ जहा णामए 11 पुरि हिरणपेडिंगहाय गच्छेज्जा एवामेत्र अणगारेवि भावियप्पा हिरण्णपेडिं क्या उक्त प्रकार से रज्जु का वैक्रेय बनाकर उसे अपने हस्त में ग्रहण कर आप स्वयं ऊर्ध्व आकाश क्या जा सकते हैं ? हां गौतम ! जा सकते हैं. अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार रज्जु घटिका के कितने रूप बनाकर जा सकते हैं ? अहो गौतम ! जैसे कोई युवान पुरुष युवति का हस्त पकडकर जावे वैसे ही सघन रूप बनाकर तीसरे शतक के पांचवे उद्देशे में कहा वह सब यहां कहना यावत् इतनी संपदा है परंतु इतने रूप गत काल में किये नहीं, वर्तमान में करते नहीं और अनागत में करेंगे नहीं ! १ ॥ {जैसे कोई पुरुष रूपे की संदूक ग्रहण करके जाने वैसे ही भावितात्मा अनगार रूपे की संदूक का वैय 4- तेरहवा शतक का नववा उद्देशा 43 १८९२ Page #1930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कि० कृत्य रहा हुवा अ० आप से० शेष तं• तैसे ए० ऐसे मु० सुवर्ण पेटी र० रत्नपेटी १९ वजूपेटी व०* वस्त्रपेटी आ आभरणपेटी ए. ऐसे वि०वंशकीडा सुं तृणकीडा व चर्मकीडा के कंबलकीडा ए०ऐसे अ.लोहका भार तं० तांबा का भार त० तरुयः का भार सी० सीसा का भार हि० हिरण्य का भार मु. सुवर्ण का भार व० वजू भार ॥२॥ से वह ज. जैसे व. वाली ति होवे दो० दो पा०पांव उ० आचलंबन करके पा. पांव अ० अधो शिरवाली चि० रहे ए. ऐसे अ. अंगार भा० भावितात्मा व. बल्गुली कि हत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं सेसं तंचेव ॥ एवं सुवण्णपेडिं, एवं रयणपेडिं, वयरपेडि, है वत्थपेडिं, आभरणपेडिं ॥ एवं वियलकिडं, सुबकिडं, चम्मकिडं, कंबलकिडं ॥ एवं ___ अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सींसगभारं, हिरण्णभारं सुवण्णभार वइरभारं ॥ २ ॥ से जहा णामए वग्गुली सिया दोविपाए उलंबिय २ उ8 पाया अहो सिरा बनाकर स्वयं आकाश में क्या जा सकते हैं ? शेष सब आधिकार उपर्युक्त जैसे कहना. ऐसे ही मुवर्ण की संदूक ग्रहण कर जावे, रत्नों की संदूक ग्रहण कर जावे, वज्र रत्नों की संदूक ग्रहण कर जावे, वस्त्र की संदूक ग्रहण कर जावे, आभरण की संदूक ग्रहण कर जावे, ऐसे ही वंश, तृण, चमडा कम्बल, करंड को ग्रहण कर जावे. वैसे ही लोहे के भार को, तांबे के भार को. सीसे के भार को, तरुवे के भार को, रूपे के भार को, सूवर्ण के भार को और वज्र के भार को भी ग्रहण कर जावे ॥ २ ॥ जैसे वागल है। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * मावाथे naamannanow Page #1931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ कृत्य से अ० आपको उ० ऊर्ध्व वे० आकाश को ए० ऐसे ज० ब्राह्मण व० वक्तव्यता भा० कहना जा यावत् वि० विकुर्वणा करेंगे || ३ || से० वह ज० जैसे ज० जलो सि० होत्रे उ० पानी में का० काया को वि० प्रेस्कर गढ़ जावे ए० ऐसे से० शेष ज० जैसे व० वल्गुली ॥ ४ ॥ से० वह ज० जैसे वी० बीज) [वि० बीजक स० शकुन सि० होवे दो ० दोनों पांव स० साथ उपाडते ग० जावे ए० ऐसे अ० अनगार ॥१० चिट्ठेज्जा, एवामेव अणगारेवि भावियप्पा 'वग्गुलीकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उड्डुं वेहासं एवं जण्णोवइयत्तव्त्रया भाणियव्वा जाव विउब्विस्संतिवा ॥ ३ ॥ से जहाणामए जलोया सिया उदगंसि कायं विउब्विहिय २ गच्छेजा एवामेव, सेसं जहावग्गुलीए ॥ ४ ॥ से जहा णामए वीयं वियगसउणे सियादोवि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगमाणे गच्छेजा, एवामेव अणगारे सेसं तंचव 11 ५ ॥ से जहा सूत्र भावार्थ e * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4 तेरहवा शतकका नववा उद्देशा पक्षी अपने दोनों पांव को ऊपर व नीचे शिर करके वटादि वृक्ष का अवलम्बन कर रहती है वैसे ही | भावितात्मा अनगार बागुल की तरह रहकर ऊर्ध्व आकाश में गमन करे. ऐसे ही यज्ञोपवीत ब्राह्मण जैसे गले में जनोइ डालकर जाता है वैसे ही साधु भी विचरे || ३ || जैसे जलज द्विइन्द्रिय जीव पानी में अपने शरीर को ऊंचा नीचा करे ऐसे ही साधु भी आकाश में गमन करे || जैसे बीज बीजक पक्षी दोनों पांव {साथ उठाता हुवा चले वैसे ही साधु भी वैक्रेय कर जाने यों कहना ॥ ५ ॥ जैसे विरालक पक्षी एक १९०१ Page #1932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ mmon अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - से० वह ज जैसे प० पक्षी वि० विरालक सि० होवे रु० वृक्ष से रु० वृक्ष को डे० अतिक्रमता ग० जावे * ऐमे अ. अनगार ॥६॥ से वह ज. जैसे जी. जीवं जीवक सि० होवे दो दोनों पांव स. साथ है उपाडता ग• जावे ए० ऐसे अ० अनगार ॥ ७॥ मे० वह ज• जैसे ह० हंस सि० होवे ती. तीरसेन ती० नीरको अ० रमता ग० जावे ए० ऐसे अ० अनगार ॥ ८ ॥ से वह ज० जैसे स० समुद्र कागपक्षी वी• वेली से वी. देलीको डे० उल्लंघन करता ग. जावे ए. ऐसे त० तैसे ॥९॥ से वह ज० जैसे के० नामए पक्खिविरालए सिया रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तंचेच ॥ ६ ॥ से जहा नामए जीवं जीवगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे २ गच्छेज्जा एवामेव अणगारे सेसं तंचेव ॥ ७ ॥ से जहा णामए हंसे सिया तीराओ तीरं आभिरममाणे २ गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे हंसकिच्चगएणं अप्पाणेणं सेसं तंचेव ॥ ८ ॥ से जहाणामए समुद्दवायसए सिया वीईओ वीइंडेवेमाणे गच्छेजा, वृक्ष से दूसरे वृक्षपे उड़ता हुवा जावे वैसे ही अनगार जावे शेष पूर्ववत् ॥ ६ ॥ जैसे जीवंजीवक नाम का पक्षी घोडे की तरह दोनों पांव को साथ उठाता हुवा जावे वैसे ही अनगार दोनों पांवों को साथ उठाता हुवा जावे ॥ ७ ॥ जैसे हंस एक तीर से दूसरे तीरपे क्रीडा करता हुवा जावे वैसे ही अनगार वैक्रेय कर जावे शेष पूर्ववत् ॥८॥ जैसे समुद्र का वायत एक वेल से दूसरी वेल पर कडे वैसे ही अनगार साधु का * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १९०३ कोई पुरूप च० चक्र ग लेकर ग. जावे एक ऐसे अ० अनगार भा० भावितात्मा च० चक्र कि० कु broह हस्त से अ० आत्मा से० शेष ज. जैसे के० रज्जु घ० घडावाला ए. ऐसे छ० छत्र च० चामर ॥ १० ॥ सरल शब्दार्थ - एवामेव तहेव ॥ ९ ॥ से जहा णामए केइपुरिसे चक्कं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारे भावियप्पा चक्ककिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए, ॥ एवं छत्तं, एवं चम्म, ॥१०॥से जहा केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेजा, एवं चेव, एवं वइए, वेरुलियं जाव रिटुं|एवं उप्पलहत्थगं, पउमहत्थगं कुमुदहत्थगं,एव जाव ॥११॥ से जहा णामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव ॥ १२ ॥ से जहा णामए केइ है पुरिसे भिसं अवदालय २ गच्छेज्जा, एवामेव अणगारेवि भिसं किच्चगएणं अप्पामेणं भी कहना ॥ ९॥ जैसे कोई पुरुष चक्र लेकर जाता है वैसे ही अनगार चक्र कृत्य हस्तगत कर जावे ऐसे ही छत्र व चर्म का जानना ॥१०॥ जैसे कोई पुरुष रत्न ग्रहण कर जावे वैसे ही अनगार जावे ऐसे ही वैडूर्य यावत् रिष्टतक रत्नों का जानना ऐसे ही उत्पल, पद्म, कुमुद का कहना ॥ ११ ॥ जैसे |otoकोई पुरुष सहस्रपत्र ग्रहण कर जाके वैसे ही अनगार का कहना ॥ १२ ॥ जैसे कोइ पुरुष मृणाल (कमल to की डाल) को तोडकर जावे वैसे ही साधु भी मृणाल कृत्यगत आत्मा से शेष जैसेही. ॥१३॥ जैसे कमलिनी, पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र • तेरहवा शतक का नववा उद्देशा 8 भावार्थ 488 4. - Page #1934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ naam १९० 42 अनुवादक-वालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + तंचेव ॥ १३ ॥ से जहाणामए मुणालिया सिया, उदगंसि कार्य उम्मज्जिअ २ चिट्ठज्जा, एगमेव सेसं जहा वग्गुलीए ॥ १४ ॥ से जहा णामए वणखेडे सिया, किण्हे किण्होभासे जाव निकुरुंबभूए पासादीए दरसणिजे अभिरुवे पडिरूवे, एवा मेव अणगारे भावियप्पा वणखंडं किच्चगएणं अप्पाणणं उट्ठे वेहासं उप्पएजा, सेसं तंचेच ॥ १५ ॥ से जहा णामए पुक्खरिणी सिया चउक्कोणा समतीरा अणुपुव्वसुजाय जाव सद्दण्णइय महुरसरणादिया पासादीया ४, एवामेव अणगारेवि भावियप्पा पोक्खरिणी किच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा, ॥ १६ ॥ अपने शरीर को पानी में डुबा २ कर ऊर्ध्वमुख से रहती है ऐसे ही सब वागुल जैसे कहना ॥ १४ ॥ जैसे कोई वनखण्ड होवे वह कृष्णं वर्णवाला, कृष्ण प्रभावाला, यावत् निकुरुंब भूत व देखने योग्य, दर्शनीय, अभिरूप. प्रतिरूप, एसेही भावितात्मा अनगार वनखण्ड कृत्यगत आत्मा से ऊंचा आकाश में गमन करे शेष वैसे ही ॥ १५ ॥ जैसे कोई पुष्करणी होवे उस को चार कोने व बरावर तीर होवे, अनुक्रम से अच्छी बनी हुई होवे, यावत् शुकादि पक्षियों के मधुरस्वर वाली होवे और बहुत देखने योग्य होवे वैसे कसे भावितात्मा अनगार पुष्करणी कृत्यगत आत्मा से ऊर्ध्व आकाश में उडे॥१३॥ अटो भगवन् ! भावितात्मा * प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 शब्दार्थ43 ककितनी भगभगवन् छा छद्मस्थकी स. समुद्धात प०प्ररूपी गोगौतम छ. छछछद्मस्थ कीस. अणगारेणं भंते! भावियप्पा. केवइयाइं पभू पोक्खरिणी किच्चगयाइं रूवाइं विउवित्तए सेसं तंचेव जाव विउविरसंतिवा ॥ १७ ॥ से भंते ! किं मायी विउव्वइ अमायी विउव्वइ ? गोयमा ! मायी विउव्वइ णो अमायी विउव्वइ ॥ माईणं तस्स ठाणस्स अणालोइय एवं जहा तइयसए चउत्थुद्देसए जाव अत्थि तस्स आराहणा । १८ ॥ सेवं भंते भंतेति जाव विहरइ ॥ तेरसम सयरसय नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥१३-९॥ कइणं भंते ! छाउमस्थिया समुग्घाया पण्णत्ता गोयमा ! छछाउमत्थिय समुग्घाया भावार्थ अनगार कितने पुष्करणी कृत रूप करने में समर्थ है ? अहो गौतम : इस का सब अधिकार पूर्वोक्त जैसे जानना. ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! क्या मायी विकुणाकरे या अमायी विकुणाकरे ? अहो गौतम ! मावी विकुर्वणा करे परंतु अपायी चिकुर्षणाकर नहीं. मायी उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किये विना काल करे तो आराधक नहीं होता है और आलोचना प्रतिक्रमणकर काल करतो आराधक होता है.॥१८॥ अहो भयवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर तप संयम से आत्मा को भावते हुवे विचरनेलगे. यह तेरहवा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुआ॥ १३ ॥९॥ नववे उद्देशे में वैकेय का कथन किया वह वैक्रेय समुद्घात् से होता है इसलिये दशवे उद्देशे में समुद्र यात का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! छद्मस्थ समुद्धात कितने प्रकार की कही ? अहो गौतम ! पंचमान विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र १ तेरहवा शतक का दशचा उद्देशा 40% १२९ Page #1936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ऋषिजी - कं-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक भावार्थ स० समुद्धात त• वह ज० जैसे वे वेदना समुद्धात ए० ऐसे छा० छद्मस्थ समुद्धात गे० जानना ज०, जैसे प० पन्नवणा में जा० यावत् आ० आहार स० समुद्धात से वह ए. ऐसे भं• भगवन् जा. यावत् विचरते हैं ॥ १३ ॥ १०॥ . पण्णत्ता, तंजहा वेदणा समुग्घाए एवं छाउमत्थिय समुग्धाया तव्वा, जहा पण्णवणाए जाव आहारग समुग्घायत्ति ॥ सेवं भंते भतेत्ति जाव विहरइ ॥ तेरसम सयस्सय दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १३ ॥ १० ॥ सम्मत्त तेरसमं सयं ॥ १३ ॥ छ छद्मस्थ समुद्धात कही १ वेदना समुद्धात २ कषाय समुद्धात ३ मारणांतिक समुद्धात ४ वैक्रेय समुद्धात ५ आहारक समुद्धात और तेजस समुद्धात. इन में वेदनीय समुद्धात असाता वेदनीय कर्म आश्री वेदनीय कर्म का शातन करे२ कषाय समुद्धात कषाय नामक चारित्र मोहनीय कर्म आश्री कशाय के पुद्गलशातन करे ३ मारणांतिक ममुद्धात आयुःकर्म आश्री आयुः के पुद्गल शातन करे चक्रेय ममुद्धात, आहारक समुद्धात और तेजस समुद्धात ये तीनों नाम कर्म आश्री जानना यह न कर्म के पुद्गलों का शातन करे. इन का विशेष वर्णन पनवणासूत्र के छत्तीसवे उद्देशे जैसे जानना. भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कह कर विचरने लगे. यह तेरहवा शतक का दशवा उद्देशा समाप्त दुवा ॥ १३ ॥ १०॥ यह तेरहवा शतक समाप्त हुवा ॥ १३ ॥ . *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 48 अनुवाद Page #1937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवत्ती) मूत्र 2388 ॥ चतुर्दश शतकम् ॥ चचरम उ० उन्माद स. शरीर पो० पुद्गल अ. अग्नि आ• आहार सं० संमृष्ट अं० अंतर अ० अनगार के. केवली रा. राजगृह में जा. यावत् ए. ऐसा क. बोला अ० अनगार भं०३ भगवन भा० भावितात्मा च. चरम दे० देवावास वी. व्यतीक्रांत हुवा प० उपर का दे० देवाबासा को अ० अप्राप्त अं० बीच में का० काल क० करे त. उस की भ० भगवन् क० कहां ग० गति चर उम्माद सरीरे पोग्गल अगिणी तहा किमाहारे ॥ संसट्ठ मंतरे खलु, अणगारे केवली चेव ॥रायगिहे जाव एवं वयासी अणगारेणं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं बीइक्कते परमं देवावासं असंपत्ते; एत्थणं अंतरालं कालं करेजा, तस्सणं भंते ! कहिं गई कहिं उववाए पण्णत्ते ? गोयमा ! जेसे तत्थ परिस्सओ तल्लेस्सा है. तेरहवे शतक में विचित्र भाव कहे. अब आगे के शतक में भी वैसे ही कहते हैं. इस शतक के दश उद्देशे कहे हैं. १ चरिम, २ उन्माद, ३ शरीर, ४ पुद्गल, ५ अग्नि, ६ आहार, ७ संसृष्ट ८ अंतर, ९ और १० केवली राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! भावितात्मा. साधु उपपात हेतुभूत लेश्या । 48807-चौदवा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ + 488 Page #1938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ. क. कहां उ० उत्पात ५० प्ररूपा गो. गौतम जे. जो त. तहां प. नजदीक तक उस लेश्या वाला दे० देवावास त. तहां तक उस की ग. गति त. तहां तक उस का उ० उपपात प० प्ररूपा से वह त. तहां ग० गया हुवा वि. निराधना करे क. कर्म लेश्या को प० पीछापडे से वह त. नहाँ ग० गया १९०८ हुवा णो नहीं वि० विराधनाकरे त लेश्या को उ० अंगीकार कर वि. विचरे ॥ १॥ अ० अनगार देवावासा तहिं तस्स गई तहिं तस्स उववाए पण्णत्ते, सेयं तत्थगए विराहेजा कम्म लेस्सामेव पडिवडइ, सेयं तत्थगए णो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं । भावार्थ परिणाम की अपेक्षा से चरम सौधर्मादिक देवलोक की स्थिति को अतिक्रम परम सनत्कुमार देवलोक की स्थिति को अप्राप्त होकर बीच में काल कर जावे तो वह अनगार वहां से कहां जाये और कहां उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जिस लेश्या में साधु काल कर जावे उसी लेश्या में चरम व परप देवलोक की बीच से के ईशान देवलोक में उत्पन होवे. अब जिस लेश्या परिणाम से वह वहां उत्पन्न होता है उस लेश्या परिणाम की यदि वहां उत्पन्न हुवे पीछे विराधना करे तो वह कर्म लेश्या भाव लेश्या से से हीनता को प्राप्त होती है परंतु द्रव्य लेश्या से हीन होवे नहीं क्यों की देवों को द्रव्य लेश्या अवस्थित में रहती है. याद यहां गमा हुवा लेश्या परिणाम की विराधना करे नहीं तो जिस लेश्या से वहां उत्पन्न हुवा होवे उसी लेश्या सहित रहता है. ॥ १ ॥ अव विशेषपना से प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! भावि-17 मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 80 . पंचमाङ्ग विवाह पण्णाचे (भगवती ) सत्र . भगवन् भा. भावितात्मा च चरम अ० असुर कुमारावास वी० व्यतीक्रांत हुआ प. उत्कृष्ट अई असुर ए ऐसे जा० यावत् थ० स्थनित कुमारावास जोः ज्योतिषी आवास वे० वैमानिक आवास है जा. यावत् वि० विचरते हैं ॥ २ ॥णे० नारकी को भं० भगवन् क • कैसे सी० शीघ्र ग० गति कई कैसे सी० शीघ्र गति वि० विषय ५० प्ररूपा गो० गौतम से बह ज• जैसे के० कोई पु० पुरुष तools विहरइ ॥ १ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीइक्वंते परमं असुरएवंचव. एवं जाव. थणियकुमारावासं जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरंति ॥ २ ॥ मेरइयाणं भंते । कह सीहा गई कहं सीहागइविसए पण्णत्ते? तात्मा अनगार चमर असुरकुमारावास को अतिक्रम कर परम असुरकुमारावास को अमाप्त बना हुवाई बीच में काल करे तो उस की गति कहां होती है और उपपात कहां होता है ? अहो गौतम ! जैसे चरम परम देवावास का कहा वैसे ही यहां जानना. ऐसे ही स्थनिन कुमारावास तक कहना वैसे ही ज्योतिषी वैनानिक' का जानना + ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! नरक में उत्पन्न होते नारकी को कैसी श्रीप +भावितात्मा अनगार वैमानिक सिवाय अन्य स्थान उत्पन्न नहीं होते हैं तो यहां भुवनपति ज्योतिषी का कैसे १ कथन किया ! ऐसा कोई प्रश्न करे तो पूर्व काल में भाबितात्मा अनगार थे परंतु संयम विराधना से चिराधित होगये हो तो वे असुरकुमारादि भुवनपति में उत्पन्न हो सकते हैं. और इस अपेक्षा से यह ग्रहण किया है... 4883 चउदहवा शतकका वाथे १ Page #1940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावाथे बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी अनुबादक तरुण ३० बलवन्त जु० युगवाला जा. यावत् णि निपुण सि० शिल्प शास्त्र अ० ज्ञाता आ० संकोचकर बा० हस्त १०प्रसारे ५० प्रसार कर बाहस्त आ० संकोचकरे वि० प्रसारी हुई मुमुष्टि को सा. संकोचकरे। सा० संकोचकर मु० मुष्टि का वि० प्रसारे उ० खुली अ० आंख को णि बंधकरे णि बंधकरी हुई अ० n e ___ गोयमा ! से जहा णामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव णिउणसिप्पोवगए आउंटियं वाहं पसारेजा, पसारियं बाहं आउंटेजा, विकिणिवा मुट्ठि साहारेजा, गति है कैसा शीघ्रगति का विषय है ? अहो गौतम ! जैसे चौथा आरा का उत्पन्न कोई पुरुष युवान, बलवन्त यावत् शिल्प कलामें निपुण होता है वह संकुचित की हुइ भुनाको लम्बी करे लम्बी की हुई भुनाको संकुचित करे, बंध मुष्टि को खुल्ली करे और खुल्ली मुष्टि को बंध करे, बंध चक्षु को खुल्ले करे और खुल्ले चक्षु बंध करे. उन की जैसी शीघ्र गति होती है वैसी नारकी की नहीं होती है परंतु इस से अधिक शीघ्र गति में नारकी नरक में उत्तन होते हैं क्यों कि नारकी एक समय दो ममय अथवा तीन समय में विग्रह, गति से उत्पन्न होते हैं * और संकचन प्रसारण में असंख्यात समय व्यतीत होते हैं. यह नरक की * भरत क्षेत्र की पूर्व दिशा का नारकी पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है तब एक समय में अधो दिशा में उत्पन्न । होवे, दूसरे समय में तीर्छा और तीसरे समय में वायव्यादि विदिशा में उत्पन्न होवे. क्योंकि प्रथम समय में अधःश्रेणी ई तरफ जाता है दूसरे समय में तीर्छा पश्चिम दिशा में जावे और तीसरे समय में तीर्छा वायव्यादि कौन में जाकर उत्पन्न होवे. समाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. 1 ... . . Page #1941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आंख को उ० खुलीकरे भ० होवे ए. इस रूप णो नहीं इ० यह अर्थ स० समर्थ णे० नारकी ए० एक । + समय में दु० दो समय में ति तीन समय में वि०विग्रह से उ० उत्पन्न होते हैं णे०नारकी को त० तैसे सी० : शीघ्र गति त० तैसे सी० शीघ्र गति वि. विषय १० प्ररूपा ए. ऐसे जा. यावत् वे वैमानीक १०% विशेष ए० एकेन्द्रिय को च० चार समय की बे० विग्रह भा० कहना से शेष तं तैसे॥३॥ सरल शब्दार्थ है. साहरियंवा मुदि विक्खिरेजा, उम्मिसियंवा अच्छि णिन्मिसेज्जा, णिम्मिसियंवा अच्छि र उम्मिसेज्जा, भवे एयारुवे ? णो इणट्टे सम? ॥ जेरइयाणं एगसमएणंवा दुसमएणवा, E - तिसमएणवा, विग्गहेणं उबवजंति णेरइयाणं तहा सीहा गई, तहा सीहागइरिसए पण्णत्ते ; एवं जाव वेमाणियाणं णवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियब्वे शीघ्रगति व शीघ्रगतिका विषय कहा ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर वैमानिक पर्यंत का जानना एकेन्द्रिय को एकेन्द्रिय की वक्रगति होती है तब प्रथम समय में त्रस नांडी के बाहिर विदिशा में जाता है, दूसरे समय में , अनुश्रेणी गमन से लोक में प्रवेश करे, तीसरे समय में ऊर्च गमन करे और चौथे समय में त्रस नाडी से बाहिर नीकलकर दिशा में व्यवस्थित उपपात स्थान में जावे. ग्रंथकार पांच समय भी कहते हैं. प्रथम समय में बस नाडी से बाहिर अधोलोक में जावे, दूसरे समय में लोक में प्रदेश करे, तीसरे समय में ऊर्च गमन करे, चौथे समय में दिशा में जावे और पांचवे समय में उत्पत्ति स्थान में जावे.. 48 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88+ 488चउदावा शतक का पहिला उद्देशा- 44 भावार्थ Page #1942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुमदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh सेसं तंचेव ॥ ३ ॥णेरइयाणं भंते ! किं अणंतगेववण्णगा परंपरोववण्णगा, अणंतर परंपर अणुववण्णगा? गोयमा ! णेरइयाणं अणंतरोवण्णगावि परपरोववण्णगावि अनंतर परंपर अणुववण्णगावि ॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव अणंतर परंपर अणुववण्णगावि ? गोयमा ! जेणं जेरइया पुढमसमओववण्णगा तेणं नेरइया अणंतरोवषण्णगा, जेणं णेरइया अपढम समओक्वण्णगा तेणं णेरइया परंपरोववण्णगा जेणं णेरइया विग्गहगइसमावण्णगा तेणं णेरइया अणंतर परंपर अणुववण्णगा, से तेणटेणं जाव अणुववण्णगावि एवं जिरंतरं जाव वेमाणिया ॥ ४॥ ' अणंततेक्वण्णमाणं भंते ! णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खमणुस्स देवाउयं पकरैंति ? है विग्रहगति करते चार सपय लगते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अनंतर उत्पन्न हैं, परंपरा उत्पन्न हैं, अथवा अनंतर परंपरा दोनों अनुत्पन्न है ? ओ गौतम ! नारकी अनंतर उत्पन्न, परंपरा उत्पन्न व अनंतर परंपरा दोन्में उत्पन्न नहीं है. अहो भगान् ! किम कारन से ऐसा कहा गया है कि नारकी अनंतर उत्पन्न है यावत् अनंतर परंपरा उत्पन्न नहीं हैं ? अहो गौतम ! जो नारकी प्रथम समय उत्पन्न होते हैं वे अनंतर उत्पन्न हैं, दूसरे समय में उत्पन्न होते हैं वे परंपरा उत्पन्न और विग्रह गति से उत्पश्च होते हैं वे अनंतर परंपरा अनुत्पन्न हैं. ऐसे ही वैमानिक तक चौवीम दंडक का जानना ॥४॥ अब * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ Page #1943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ; गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकति जाव णो देवाउपकरेति ॥ ५ ॥ परंपरोत्रवण्णगाणं भंते ! रइया किं रइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरोतिं, मणुस्साउयं पकरेंति, णो देवाउयं पकरेंति ॥ ६ ॥ अणंतर परंपर अणुववण्णगाणं भंते ! णेरंइया किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा ! इयाउ करेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति एवं जात्र वेमाणियाणं, णवरं पंचिदिय तिरिक्खजोणिया मणुस्साणय परंपरोववण्णा चत्तारिवि आउयं बंधंति से सं आयुर्वेत्र कहते हैं. अहो भगवन्! अनंतर उत्पन्न हुए नारकी क्या नरकायुष्य का बंध करते हैं तिर्यंच के आयुष्य का बंध करते हैं. मनुष्य के आयुष्य का बंध करते हैं अथवा देवता के आयुष्य का बंध करते हैं ? अहां गौतम ! अनंतरोत्पन्न नारकी नरक का आयुष्य बांधे नहीं यावत् देव का आयुष्य बांधे नहीं क्यों कि उस अवस्था में वैसे अध्यवसाय का अभाव है || ५ || अहो (नारकी क्या नारकी का अयुष्य बांधते हैं यावत् देव का आयुष्य बांधते हैं भगवन् ! परंपरा उत्पन्न } ? अहो गौतम ! नारकी का आयुष्य नहीं बांधते हैं परंतु मनुष्य व तिच का आयुष्य बांधते हैं. और देवता का आयुष्य नहीं बांधते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! अनंतर परंपरा अनुसन्न नारकी क्या नरक का आयुष्य बांधते हैं यावत देवका आयुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! नरक का आयुष्य नहीं बांधते हैं यावत् देवका आयुष्य चंदवा शतक का पहिला उद्देशा १९१₹ Page #1944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . तंचेव ॥ ॥ णेरइयाणं भंते ! किं अनंतरणिग्गया, परंपरणिग्गया, अनंतर परंपरें अगिया ? गोयमा ! पोरइया अणंतरणिग्गयावि जाव अनंतर परंपर अणिग्गयावि ॥ से केणट्टेणं भंते ! जाव अणिग्गयावि ? गोयमा ! जेणं णेरइया पढम समयणिग्गया तेणं णेरइया अणंतरणिग्गया, जेणं णेरइया अपढम समयणिग्गया तेणं णेरइया परंपरणिग्गया, जेणं णेरइयां विग्गहगइसमावण्णगा, तेणं णेरइया अणंतर परंपर अणिग्गया. से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अणिग्गयावि ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ ८ ॥ नहीं बांधते हैं ऐसे ही वैमानिक तक जानना. परंतु तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्य परस्पर चारों का आयुष्य बांध हैं ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अनंतर निर्गत है परंपरा निर्गत है अथवा अनंतर परंपरा निर्गत नहीं है ? अहो गौतम ! नारकी अनंतर निर्गत है, परंपरा निर्गत है और अनंतर परंपरा निर्गत दोनों नहीं हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से नारकी अनंतर निर्गत यावत् अनंतर परंपरा अनिर्गत है ? अहो गौतम ! जो नारकी प्रथम समय में नीकलते हैं वे नारकी अनंतर निर्गत कहाते हैं. जो नारकी अप्रथम समय में नीकलते हैं, वे परंपरा निर्गत कहाते हैं और जो { विग्रह गतिवाले होते हैं वे अनंतर परंपरा अनिर्गत है. अहो गौतम ! इस कारन से यावत् अनिर्गत हैं. प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १९१४ Page #1945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अणेतर णिग्गयाणं भंते ! जेरइया कि णेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति ॥ ९॥ परंपरणिग्गयाणं भंते ! णेरइया किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा ! गैरइयाउयंपि पकरेंति जाव देवाउयंपि पकरेति ॥ १० ॥ अणंतर परंपर अणिग्गयाणं भंते ! गैरइय पुच्छा? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति जाव णो देवाउयं पकरेंति णिरवसेसं जाव वेमाणिया ॥३१॥णेरइयाणं भंते ! किं अणंतरखेदोववण्णगा परंपर खेदोववण्णगा भावाथे ऐसे ही वैमानिक तक जानना. ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! अनैतर निर्गत नारकी क्या नरक का आयुष्य बांधते हैं यावत् देवता का आयुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! नारकी का आयुष्य नहीं बांधते हैं यावत् देव का आयुष्य नहीं बांधते हैं ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! परंपरा निर्गत नारकी क्या नरक का आयुष्य चते हैं. यारत् देव का आयुष्य बांधते हैं ? अहो गौतम ! मारकी का आयुष्य बांधते यावत् देव का आयुष्य बांधते हैं.॥१०॥ अहो भगवन् ! अनंतर परंपर अनिर्गत नारकी की पुच्छा ? अहो गौतम 160 नारकी का आयुष्य यावत् देवता का आयुष्य बांधे. जैसे नारकी का कहा बैसे वैमानिक तक चौविस दंडक का जानना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अनंतर खेद [ दुःख] में उत्पन्न हैं परंपरा दुःख । पंचमांग विवाह पण्पत्ति (भगवती) मूत्र 428 चउदहवा शतकका पहिला उद्देशा wwwwwwwwwwwwwned 4 Page #1946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 400 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अणंतर परंपर खेदाणुववण्णगा ? गोयमा णेरइया एवं एएणं अभिलावणं तंव चत्तारि दंडगा भाणियव्वा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति । जाब विहरइ ॥ चउद्दसमसयस्सय पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४॥॥ * १९१६ कइविहेणं भंते ! उम्मादे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जक्खा वेसेय, मोहणि जस्स कम्मरस उदएणं ॥ तत्थणं जे से जक्खावेसे सेणं सुहवेदण में उत्पन्न हैं अथवा अनंतर परंपरा दुःख में अनुत्पन्न है ? अहो गौतम ! तीनों प्रकार से उत्पन्न हैं. जिन का उत्पन्न होते प्रथम समय में दुःख उत्पन्न हुवा वे अनंतर खेद उत्पन्न है, जिन को प्रथम समय सिवा अन्य समय में दःख उत्पन्न हुवा वे परंपरा खेद उत्पन्न और विग्रह गतिवाले दोनों प्रकार के खेद अनुत्पन्न हैं. इसका वर्णन पूर्वोक्त जैसे चौबीस ही दंडक आश्री जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यावत् विचरने लगे. यह चउदहवा शतक का प्रथम उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥१४॥५॥ .. ..। है गत उद्देश में अनंतरोत्पन्न नरकादिक की वक्तव्यता कही. नारकी मोहवत होते हैं और मोह उन्माद कहाता है इसलिये आगे उन्माद का कथन करते है. अहो भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा? अहो गौतम ! उन्माद के दो भेद कहे हैं. १ यक्षावेश से और २ मोहनीय कर्म के उदय से. उस में मोहनीय कर्म के उदय से जो उन्माद होता है उस मे यक्षावेश का उन्माद मुख से वेदा जावे वैसा है औ उस से यक्षावेश का उन्माद मुख से वेदा जावे वैसा है और है। .प्रकाशके राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - Page #1947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तराए चेत्र, सुहविमोयणतराए चेव ॥ तत्थणं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं सेणं दुहवेदणतराए चेव, दुहविमोयणतराए चेव ॥ १ ॥ णेरइयाणं भंते ! कइविहे उम्मादे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते तंजहा-जक्खानेसेय; मोहणिजस्स कम्मरस उदएणे ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-णेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते ? जक्खावेसेय, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! देवे वाले असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खावेसेणं, उम्मादे पाउणेजा, मोहणिजस्सवा कम्मस्स उदएण मोहणिजं उम्मायं पाउणेज्जा, से तेणटेणं भावार्थ सुख से छोडा जावे वैसा है. और मोहनीय कर्म के उदाय से जो उन्माद होता है वह दुःख से वेदान जावे वैसा है और दुःख से छोडा जावे वैसा है. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने उन्माद कहे ? अहो गौतम ! नारकी को दोनों प्रकार का उन्माद कहा है. १ यक्षावेश से व २ मोहनीय कर्म के र उदय से. अो भगवन् ! नारकी को दोन प्रकार का उन्माद किस कारन से कहा है ? अहो गौतम? देवताओं उन नारकी पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करे. उन असुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से यक्षादेश उन्माद । ३को नारकी प्राप्त झेते हैं. और मोहनीय कर्म के उदय से मोहनीय कर्म के उन्माद को प्राप्त होते हैं.. + पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 48चउदहबा शतक का दूसरा उद्देशा Page #1948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : जाव उदएणं ॥ २ ॥ असुर कुमाराणं भंते ! कइविहे उम्मादे पण्णसे ? एवं जहेव णेरइयाणं णवरं देवेवासे महिट्ठियतराए चेव असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खावेसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिजस्सबा सेसं तंचेव से तेणट्रेणं जाव उदएणं ॥ एवं जाव थणिय कुमाराणं, पुढवि काइयाणं, जाव मणुस्साणं एएसिं जहा णेरइयाणं ॥ वाणमंतर जोइसिय वेभाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥ ३ ॥ अत्थिणं भंते ! पजण्णे कालवासी बुट्टिकार्य पकरेति ? भावार्थ | अहो गौतम ! इन कारनों से नारकी दोनों उन्माद को प्राप्त होते हैं. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार को कितने उन्माद कहे हैं ? अहो गौतम ! जैसे नारकी का कहा वैसे ही असूर कुमार का जानन इस में महदिक देव अशुभ पद्दल डाले इस से अशुभ पुद्गल प्रक्षेप कराया हुवा यक्षावेश से उन्माद : दूसग मोहनीय कर्म के उदय से होता. है. ऐसे ही स्थनित कुमार तक कहना. पृथ्वीकाया यावत् मनुष्य का नारकी जैसे कहना. वाणव्यंनर ज्योतिषी व वैमानिक का असुर कुमार जैसे कहना ॥३॥ मोहउदय से देव वृष्टि भी करते हैं. अहो भगवन् ! क्या मेघ वर्षा काल में वर्षा करता है अथवा इन्द्र वर्षा काल की तरह वृष्टि करता है ? हां गौतम ! वर्षा काल में वर्षा होती है और इन्द्र 1% भी वर्षा करता है. अहो भगवन ! जब शक्र देवेन्द्र वृष्टि करने का कामी होता है तब कैसे करता है 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 कपाक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादी. Page #1949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 488+- पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4380+ हंता अत्थि ॥ जाहेणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया त्रुट्ठिकार्य काउं कामे भवइ कहमियाणं पकरेइ ? गोयमा ! ताहे चेवणं सक्के देविंदे देवराया अभितर परिसाए देवे सदावेइ, तरणं ते अब्भितर परिसगा देवा सदाविया समाणा मज्झिम परिसाए देवे सद्दार्वेंति, तएणं ते मज्झिम परिसगा देवा सदाविया समाणा बाहिर परिसाए देवे सद्दावेंति, तणं ते बाहिर परिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिर बाहिरिगा देवा सदावेंति, तणं ते बाहिरि बाहिरिगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दार्वेति, तएणं ते जाव सदाविया समाणा बुट्टिकाइए देवे सहावेंति, तएणं ते बुट्टिकाइया देवा सदाविया समाणा बुट्टिकायं पकरेंति; एवं खलु गोयमा ! सक्के. देविंदे देवराया वुट्टिकायं पकरेति ॥ ॥ अस्थि भंते ! असुरकुमारावि देवा अहो गौतम ! जब शक्र देवेन्द्र वृष्टि करने का कामी होता है तब आभ्यतंर परिषदा के देवों को बोलता {है आभ्यंतर परिषदा वाले मध्यम परिषदा के देवों को बोलाते हैं. मध्यम परिषदा वाले बाहिर की (परिपदा के देवों को बोलाते हैं. बाहिर की परिषदा वाले देवों आभियोगिक देवता को बोलाते हैं और आभियोगिक देवता वृष्टि करने वाले देवों को बोलाते हैं उस समय में बे वृष्टि कायदेव बोलाये हुवे 49* 48 चउदहवा शतकका दूसरा उद्देशा - 488+ १९१९ Page #1950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी * बुट्टिकायं पकरेंति ? हंता अत्थि. ॥ किं पत्तियण्णं भंते ! असुरकुमारा देवा वुट्टिकार्य पकरेंति ? गोयमा ! जे इमे- अरहंता भगवंता एएसिणं जम्मणमहिमासुवा, णिक्खमण महिमासुवा णाणुप्पाय महिमासुवा, परिणिव्वाण महिमासुवा, एवं खलु असुरकुमारा देवा बुट्टिकायं पकरेंति ॥ एवं णागकुमारावि, एवं जाव थणियकुमारा, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया एवं चेव ॥ ५ ॥ जाहेणं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुकायं काउं कामे भवइ, से कहमिदाणिं पकरेति. ? गोयमा ! ताहे चेवणं ईसाणे देविंदे देवराया आभितर परिसाए देवे सदावेइ, तएणं ते. अभितर परिसगादेवा सद्दाविया वर्षा करते हैं ॥ अहो भगवन् ! अमुर कुमार देन क्या वृष्टि करते हैं ? हां गौतम ! अमुर कुमार देव दृष्टि करते हैं अहो भगवन् ! किस कारन से असुर कुमार देव वृष्टि करते हैं. ? अहो गौतम ! जो यहां अरिहंत भगवंत होते हैं उन के जन्म महोत्सव, दीक्षा महोत्सव, ज्ञानोत्सव और निर्वाण महोत्सव में असुर कुमार देव वृष्टि करते हैं ऐसे ही नाग कुमार यावत् स्थनित कुमार, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का भी जानना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! जब ईशानेन्द्र तमस्काय करने को कामी होघे तब वह क्या करता है अहो गौतम ! ईशान देवेन्द्र आभ्यंतर परिपदा के देवों को बोलाता है. वगैरह जैसे शक्रेन्द्र का कहा वैसे * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णांचे ( भगवती ) मूत्र समाणा एवं जहेव सकस्सा जाव तरणं ते अभिओगिया देवा सदाविया समाणा तमुकाइए देवे सदाति, तएणं ते तमुकाइया देवा सद्दाविया समाणा तमुकायं पकति एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुकायं पकरेइ ॥ ६ ॥ अत्थिणं भंते! असुरकुमारा देवा तमुकाथं प्रकति ? हंता आत्थ ॥ किं पत्तियण्णं भंते ! असुर कुमारा देवा तमुका पकति ? गोयमा ! किडारतिपत्त्रियं वा पडिणीयत्रिमोहणयाए गुतीसंरक्खणहे ओवा अप्पणोवा सरीरपच्छायणट्टयाए ॥ एवं खलु असुरकुमारा देवा तमुकायं पकरैति ॥ एवं जाव चेमाणिया ॥ सेवं भंते 4 गोयमा ! भंतेत्ति ॥ यावत् आभियोगिक देवों को बोलाते हैं और वे तमस्काय देवों बोलाते हैं. अहो गौतम ! इस तरह ईशानेन्द्र तमस्काय करता है || ६ || अहो भगवन् ! असुरकुमार क्या तमस्काय करते हैं? डां [गौतम ! असुरकुमार देव तमस्काय करते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से असुरकुमार देव तमस्काय करते हैं ? अहो गौतम ! क्रीडा करने के लिये, रति, आनंद सुख भोगने के लिये, शत्रु को विमोह उत्पन्न करने के लिये, द्रव्य का संरक्षण करने के लिये, अथवा अपना शरीर छिपाने के लिये असुरकुमार देव तमस्काय करते हैं. ऐसे ही वैमानिक तक जानना. अहो भगवन् ! आप के बचन उदावा शतकका दूसरा उद्देशा १९२१ Page #1952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anwr सूत्र wwwwwwim * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिना चउद्दसम सथस्सय बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ २ ॥ देवेणं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगास्स्स भावियप्पणो मझमंझेणं बीईवएजा ? गोयमा ! अत्थेगइया वीईवएजा अगइया णो वाईवएजा ॥ से केणटेणं १०.भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइया वीईवएज्जा अत्थेगइया णो वीई एज्जा ? गोयमा ! देवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा मायीमिच्छद्दिट्टीउववण्णगाय, अमायीसम्मदिट्ठीउबवष्णगायः । तत्थणं जेसे मायीमिच्छादिट्ठी उववण्णए देवे, सेणं अणगारं. भाव्यिप्पाणं पासइ, पासइत्ता गो वंदइ णो णमसइ णो सक्कारेइ णो सम्माणेइ णो कल्लाणं मंगलं सत्य हैं: - यह चउदहवा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ २॥ . हर दूसरे उद्देशे में देव व्यत्तिकर कहा. आगे इस उद्देशे में भी वैसा ही कहते हैं. अहो भगवन् !. महा कायावाला और महा शरीरवाला देव क्या भावितात्मा अगार की बीच में होकर जा सकता है ? अहो, गौतम ! कितनेक देव जा सकते हैं और कितनेक नहीं जा सकते हैं. अहो. भगवन् ! किम कारन से एसा कहा गया है कि कितनेक देव जा सकते हैं और कितनक नहीं जा सकते हैं. १ अहो गौतम । देव दो प्रकार के कहे हैं. १ मायी मिथ्यादृष्टि और २ अमायी समदृष्टिः इन में जो मायो: मिथ्यादृष्ट दर है, प्रकाशक-राजाबहादुर लाली सुखदेवसहायजी ज्वालामसदिजी* भावार्थ Page #1953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 408 देवयं जाव पज्जुवासइ, सेणं अणगारस्स भावियप्पणो मझमझेणं बाईबएजा ॥ : तत्थणं जेसे अमायी सम्माट्ठिी उववण्णए देवे, सेणं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, :: * पासइत्ता वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ, सेणं अणग्गरस्स भावियप्पणो मझमझेणं - णो वाईवएजा. से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव णो वाईवएंजा ॥ १ ॥ असुर । कुमारणं भंते ! महाकाए महासरीरे एवं चेक ॥ एवं देव · दंडओ भाणियन्वो जाव वेमाणिए ॥ २ ॥ अत्थिणं भंते ! णेरइयाणं-सकारेइवा, सम्माणेइवा, किइकम्मेइवा, . ...अब्भुट्ठाइवा, अंजलिपग्गहेइवा, आसणाभिग्गहेइवा, आसणाणुप्पदाणेइवा इंतस्स वे भावितात्मा अनगार को देखकर वंदना पूजा, सत्कार. सन्मान करे नहीं, वैसे ही कल्याणकारी, मंगलकारी, देव तुल्य, ज्ञानवन्त जाने नहीं और सेवा भक्ति करे नहीं. वे देवता भावितात्मा अगार की बीच में होकर जा सकते हैं. और जो देव अमायी समदृष्टि होते हैं वे भावितात्मा अनगार को देखकर ना नमस्कार यावत् पर्युपासना करने से भावितात्मा अनगार की बीच में होकर नहीं जाते हैं. अहो मौलम। इस कारनसे एसा कहा गया है कि, कितनेक देव व्यतिक्रमे और कितनेक देव व्यतिक्रमे नहीं॥॥ अहो गौतम ! महा काया व महाशरीरवाला अमुर कुमार देव का वैसे ही जानना. ऐसे ही देव दंडक वैमानिक तक कहना ॥२॥ अहो भगवन! नारी को परस्पर सत्कार, सन्मान देना, कृतिकर्म चउदाहवा शतकका तीसरा उद्देशा भावार्थ Page #1954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भावार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पच्चुगच्छणया ठियस्सपज्जुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणता ? गाइण? सम8 ॥ ३ ॥ अत्थिणं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारेइवा सम्माणइवा जाव पडिसंसाहणया ? हंता अस्थि, जाव थणियकुमाराणं ॥ ४ ॥ पुढवीकाइयाणं जाव चरिंदियाणं, एएसि जहा रइयाणं ॥ ५॥ अस्थिणं भंत ! पचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं सकारइवा जाव पडिसंसाहणया ? हंता अस्थि. णो चवणं आसणाभिग्गहेइवा आसणाणुप्पदा. णेइवा ॥ ६ ॥ मणुस्साणं जाव वैमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥ ७ ॥ अप्पदि E करना, आने पर खडे होना, हस्त जोडना, आसन का आमंत्रण करना, आसन विज्ञाना, आये हुवे की सन्मुख जाना, बैठेहुवे की सेवा भक्ति करना, और जाते हुवे को पहुंचाने का क्या है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वैसा नहीं कर सकते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुपार देव को क्या परस्पर सत्कार सन्मान यावत् जाते हुवे को पहुंचाने का क्या है ? हा गौतम! वैसा है. ऐसे ही का जानना ॥ ४ ॥ पृथ्वीकायादि पांच स्थावर और द्विइन्द्रिय, तीइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का मारकी जैसे कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! पंचेंद्रिय तिर्यंच को सत्कार सन्मान यावत् जाते को पहुंचाने का क्या है? हाँ गौतम ! वैसा है परंतु आमन की निमंत्रणा करने का व आसन गिने का तिर्यंच को नहीं होता है ॥ ६॥ मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का असुर कुमार जैसे कहना ॥७॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वात्मप्रसादजी. Page #1955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एणं भंते । देवे महवियरस देवस्स मझमझेणं वीईवएज्जा ? णो इण? सम? ॥८॥ समदिएणं भंते ! देवे समड्रियस्स देवस्स मझमझेणं वाईवएज्जा ? णोइणट्रे समटे; पमत्तं पुण वीईवएज्जा ॥ सेणं भंते ! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता पभू ? गोयमा ! अक्कमित्ता पभू णो अणकमित्ता पभू ॥ सेणं भंते ! किं पुट्विं ' सत्थेणं अकमित्ता पच्छा वीईवएज्जा, पुल्विं वीईवएजा पच्छा सत्थेणं अक्कमेजा ? एवं ६ एएणं अभिलावेणं जहा दसमसए आइवी उद्देसए तहेव हिरवंसेसं चत्तारि दंडगा अहो भगवन् ! अल्प ऋद्धिवाला देव महद्धिक देव की मध्य में होकर जाने को क्या समर्थ है ? अहो । गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥८॥ अहो भगवन् ! समऋद्धिधाला देव समऋद्धिवाला देव की बीच में होकर जाने को क्या समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. परंतु प्रमाद वश यदि वा देव होवे तो जा सकता है. अहो भगवन ! क्या शस्त्र से घात करके जा सकता है या विना घात किये जा सकता है ? अहो गौतम ! शस्त्र से घात कर जा सकता है परंतु विना घात किये नहीं जा सकता है. अहो भगवन् ! क्या वह पहिले घात कर पीछे जाता है या पाहिले जाकर पीछे घात करता ॐहै ? अहो गौतम ! पहिले घाब कर पीछे जा सकता है परंतु घात किये बिना नहीं जा सकता है, इसका * विशेष वर्णन इशवे शतक के तीसरे उद्देशे में कहा है वैसे ही यहां चारों दंडक के एकेक दंडक में तीन २१॥ पंचमांग बहाव पण्णनि (भगवती) सूत्र 4800 48. चउंदहवा शतक का तीसरा भावाथ Page #1956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 भाणियव्वा जाव महाड़ियावेमाणिणी अप्पडिया वैमाणिणीए ॥ ९॥ रयणप्पभा पुढवी गेरइयाणं भंते ! केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा! अणिटुं जाव अमणामं ॥ एवं जाव अहे सत्तमा पुढवी ॥ गेरइया एवं वेयणापरिणाम, एवं जहा जीशभिगमे बितिए णेरइए उद्देसए जाव अहे सत्तमापुढवी ॥१० ॥ णेरइयाणं भंते ! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणाम जाव पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं ॥ ११ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउद्दसम सयस्सय तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ ३ ॥ आलापक कहना. यावत् महद्धिक वैमानिक की देवी अल्पऋद्धिवाला वैमानिक देवी की बीच में होकर जा सकती है ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी कैमा पुद्गल परिणाम अनुभवते हुवे विचरते हो गौतम !. अभियावत अमेणाम दल परिणाम अनभवते हवे विचरते हैं. ऐसे ही सातवी पृथ्वी का जानना. ऐसे ही नारकी का वेदना परिणाम वगैरह जैसे जीवाभिगम के दूमरे नरक उद्देशे में कहा है वैसे ही यहां कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! नारकी कैसी परिग्रह संज्ञा अनुभवते हुवे विचरते हैं ? अहो गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम परिग्रह संज्ञा परिणाम अनुभवत हुवे विचरते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह चौउदहवा शतक का तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ ३ ॥ *काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी भावार्थ । Page #1957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र + एस भंते! पोग्ग़ले तीतमणंतं सासयं समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लक्खीया अलक्खीवा पुव्विं चर्ण करणेणं अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणमइ, अहे से परिणामे णिजिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया ? हंता गोयमा ! एसणं पोग्गले तीतं तंचेव जाव एगरूवे सिया ॥ १ ॥ एसणं तीसरे उद्देशें में पुल परिणाम कहा आगे चौथे उदेशे में भी पुल काही कथन करते हैं. अहो भगवन् ! यह पुद्गल परमाणु अथवा स्कंधरूप अनंत अतीत काल में परिणाम से, तथा शाश्वत में अक्षय से, समय काल में एकममय पर्यंत रूक्ष स्पर्श से, तथा एक समय स्निग्ध स्पर्श वंत हुवा तथा समय में ही रूक्ष ( तथा स्निग्ध रूक्ष दोनों स्पर्शत हुवा एक वर्णादि परिणाम से प्रथम प्रयोग करण से तथा वीसा करण {से अनेक वर्ण कृष्ण नीलादि वर्णों के भेद से अनेक रूप गंध रस स्पर्श व संस्थान के भेदों से परिणाम के पर्याय परिणमे अतीत काल विषम काल पता से परिणमा हुवा ऐसा कहना. अब अनंतर वह परमाणु) अथवा स्कंध का अनेक वर्णादि परिणाम क्षीण होता है तब फीर निर्जरण के अनंत २ एक वर्ण एक रूप विवक्षित गंधादि पर्याय की अपेक्षा से पर पर्याय के त्याग से ऐसा पुगल क्या हुआ ? हां गौतम ! यह पुद्गल अतीत काल में यावत् एक रूप होवे ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! वर्तमान काल में शाश्वत समय में यावत् 4 चउदहवा शतक का चौथा उद्देशा 498 १९२७ Page #1958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२० भावार्थ 4अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 । भैते ! पडुप्पण्णं सासयं समयं एवं चेव । एवं अणागयमणंतंपि ॥२॥ एसणं भंते ! खंधे तीतमणतं एवं चेव । खंधेवि जहा पोग्गले ॥३॥ एसणं भंते ! जीवे तीतमणंतं.. सासयं समयं दुक्खी समयं अदुक्खी समयं दुक्खीवा अदुक्खीवा, पुविचणं करणेणं अणेगभावं अणेगभूतं परिणामं परिणमइ । अहे सेविय णिजिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूते सिया ? हंता गोयमा ! एसणं जीवे जाव एगभूए एक रूप क्या हो ? हां गौतम ! वैमा होवे वगैरह अतीत काल जैसे कहना. अनागत का भी वैसे ही जानना. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! यह स्कंध अतीत काल यावत् एक रूप होवे ? अहो गौतम जैसे पुद्गल का कहा वैसे ही स्कंध का जानना. ॥३॥ अहो भगवन् ! प्रत्यक्ष जीव अतीत अनंत शाश्वत समय में एक समय दुःखी दुःख हेतु योग से एक समय सुखी सुख हेतु योग से एक समय में सुखी दुःखी दोनों के हेतु में एक परिणाम में प्रथमहीज काल स्वभाव करण करके जिस में दःखादि का पर्याय है वह अनेक भाव परिणाम को अनेक भाव पना से अनेक पना से अनेक रूप परिणाम स्वभाव को परिणमे यह अतीत काल विषय से परिणमा. अब अनेक भाव हेतु भूत वेदनीय कर्म के उपलक्षण से ज्ञानावरणीयादि कर्म भी क्षीण होवे तब फोर एक भाव सांसारिक मुख विपर्याय से स्वभाव से मुखरूप से एक रूप पने को क्या प्राप्त हुए हां गौतम ! यह जीव यावत् एकी भावपना प्राप्त हुए वहां तक कहना. ऐसे ही वर्तमान * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #1959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिया ॥ एवं पडुप्पण्णं सासघं समयं, एवं अणागयमणं सासयं समय ॥४॥ परमाणु ग्गलेणं भंते ! सासए असासए ? गोषमा ! सिय सासए सिय असासए । सेकेणहै टेणे भंते ; एवं वुच्चइ-सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासए है वण्णपजवेहिं जाव फासपज्जवहिं असासए, से तेण?णं जाय सिय असासए ॥५॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते ! किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! दव्वादेसेणं णो चरिमे dog पंचभाग विवाह पणत्ति ( भगवती.) मूत्र 4882 काल शाश्चत समय में वगैरह सब कहना और इस प्रकार आगामिक काल अनंत में भी शाश्वत समय में इत्यादि कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत है ? अहो मौतम ! #परमाए पुल क्वचित् शाश्वत और क्वचित् अशाश्वत है. अडो भगवन ! किस कारन से परमाण पदल चित् शाश्वत व क्वचित् अशाश्वत है ? अहो गौतम ! द्रव्य पर्याय से शाश्वत यावत् म्पर्श पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वन है. इसलिये अहो गौतम ! परमाणु पर्ल कचित् शाश्वत व प्रकाचित् अञ्चाश्वत है. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! क्या परमाणु चरिम है या अचरिम है ? अहो गौतम !* जो परमाणु जिस भाव से च्युत हुवा उसी भाव को पुःन प्राप्त न होवे; वह परमाणु उस भाव की अपेक्षा से चारैम कहा जाता है और इस से प्रतिपक्षी अचरिम कहाता है. 48+ चन्दावा शतक का चौथा उद्देशा 498 पयाय Page #1960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अचरिमे, खेत्तादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, कालादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, भावादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिम ॥ ६ ॥ कइविहेणं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तंजहा जीव परिणामेय अजीव परिणामेय एवं अजीवपरिणामपयं णिरवसेसं भाणियव्वं ॥ से भंते भंतेति ॥ जाव विहरइ ॥ चउद्दस सयस्सय चउत्थओ उद्देसो सम्मत्तो ॥१४॥४॥ णेरड्याणं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीईवएजा ? गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएजा अत्थेगइए णो वीईवएजा ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बच्चइ-अत्थेगइए द्रव्य आश्री चरिम नहीं है परंतु अचरिम है, क्षेत्र आश्री क्वचित चरिम क्वचित् अचरिम, काल आश्री क्वचित् चरिम क्वचित् अचरिम, भाव आश्री क्वचित् चरिम क्वचित् अचरिभ है. ॥ ६॥ अहो भगवन ! परिणाम के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! परिणाम के दो भेद कहे हैं जीव परिणाम और अजीव परिणाम ऐते पन्नवणा पद का परिणाम पद यहां जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह के चौदहवा शतक का चतुर्थ उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ ४॥ . । यत्र उदेशे में परिणाम का अधिकार कहा. अब इस उद्देशे में, परिणाम के अधिकार से न्यतिव्रजादिक । २१ अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #1961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " < • बीईवएज्जा अत्थेगइए णो बीईबएजा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा .. · विग्गहगइ समावण्णगाय. अविग्गहगइ समावण्णगाय ॥ तत्थणं जे से विग्गहगइ समावण्णए णेरइए सेणं अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीईवएजा, सेणं तत्थ झियाएज्जा ? णो' इण? समटे. णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थणं जे से .: अविरगहगइ समावण्णए, णेरइए सेणं अगणिकायस्स मझं मझेणं णो वीईवएजा. पंचमांम विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 480 s चोदहवा शतक का पांचवा भावार्थ विचित्र परिणाम केलिये पांचवा उद्देशा कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या नारकी अग्निकाय की बीच में होकर जा सकत हैं ? अहो गौतम ! कितनेक नारकी जासकते हैं और कितनेक नारकी नहीं जासकते हैं. अहो भागवन् ! किस कारन ऐसा कहा जाता है कि कितनेक नारकी अग्निकाय की बीच में होकर जासकते और कितनेक नहीं जासकते हैं ? अहो गौतम ! नारकी दो प्रकार के कहे हैं विग्रहगति वाले और अविग्रहगति वाले. उनमें जो विग्रहगति वाले हैं वे अग्निकाय की बीचमें होकर जासकते हैं। हां अग्नि में जलते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ याग्य नहीं है क्यों की उन को शस्त्र का आक्रमण नहीं * होता है. और जो अविग्र गति वाले हैं वे नारकी अग्निकाय की बीच में होकर नहीं जा सकते हैं. अहो गौतम : इस कारन से ऐमा कहा मया है कि कितनेक. नारकी अग्निकाया की बीच में 4.98 Page #1962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३२ से तेण?णं णो वीईवएज्जा ॥ १ ॥ असुरकुमारणं भंते! अगणिकाय पुच्छा ? गोयमा! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीईवएजा ॥ से केणटेणं जाव जो बीईवएजा ? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगइ समावण्ण. गाय, अविग्गहगइ समावण्णगाय ॥ तत्थणं जेसे विग्गहगइ समावण्णए अमुरकुमारे सेणं जहेव णेरइए जाव कमइ, तस्थणं जे से अविग्गहगइसमावण्णए असुरकुमारे सेणं अत्थेगइए अगणिकायस्स मझमझेणं वीईवएज्जा, अत्यंगइए णो वाईबएजा, जेणं वीईवएजा सेणं तत्थ झियाएजा ? णोइण? समटे ॥ णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, भावाथ Eहोकर जासकते हैं और कितनेक नहीं जासकते हैं. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या असुरकुमार अनि काय E की बीच में ोकर जासकते हैं ? अहों गौतम ! कितनेक जासकते हैं और कितनेक नहीं जासकते हैं.. अहो भगवन् ! किप्त कारन से ऐमा कहा है कि कितनेक जा सकते हैं और कितनेक नहीं जा सकते हैं ? अहो गौतम ! अमुरकुमार के दो भेद कहे हैं, विग्रहगतिवाले और अविग्रहगतिवाले. जो विग्रहगतिवाले है वे नरक की तरह अनिकाया की बीच में से जा सकते हैं, और इस से जलने नहीं हैं, क्यों कि शखका आक्रमण उन को नहीं होता है, जो अविग्रहगतिवाले हैं उन में से कितनेक जा सकते हैं और किसनेक अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - से तेण?णं एवं जाव थणियकुमारा॥ एगिदिया जहाः गैरइया ॥ बेइंदियाणं भंते.!. अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, णबरं जेणं वीईबएज्जा सेणं तत्थ झियाएजा ? हंता झियाएजा, सेसं तंव जाव चरिंदिया। पंचिंदिये १९१३ तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! अगणिकाय पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएजा, अत्थेगइए णो वाईवएजा, ॥ से केणटेणं भंते ? गोयमा ! पंचिंदियः तिरिक्त जोणिया दुविहा पण्णत्ता तंजहा विग्गहगइ समावण्णगाय अविग्गहगइसमावण्णगाय, विग्गहगइ समावण्णए जहेव णेरइए जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ अविगाह भावार्थ हा जा सकते हैं. और जो जा सकते हैं वे आग्निकाया में जलते नहीं हैं. अहो गौतम ! इस कारन से है। कितनेक असुर कुमार अग्निकाया में जा सकते हैं और किसनेक नहीं जा सकते हैं. ऐसे ही स्थानित कुमार तक कहना. एकेन्द्रिय का नारकी जैसे कहना. इन्द्रिय का अमुर कुमार जैसे कहना परंतु इन में जो अग्निकाया की बीच में होकर जाते हैं वे उस में जलते हैं. बेइन्द्रिय जैसे तेइंन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का 23 जानना. पंचेन्द्रिय तिर्यंच की पृच्छा ? अहो गौतम ! कितनेक जा सकते हैं और कितनेके महीं जा सकते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से कितनेक ना सकते हैं और कितनेक वहीं जा सकते हैं? १ चउदहा अवकाक्रो चिया उशा कक Page #1964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनि श्री अमोलक ऋषिजी' नकाशक-राजाबादुरलालामुखद - गइ समावण्णगा पंचिदिय लिरिक्ख जोणिया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-इढिप्पचाय अणिढिप्पत्ताय॥ तत्थणं जे से इढिप्पत्ते पंचिंदिय तिरिक्खजोगिएणं सेणं अत्थेगइए अगणिकायस्स मझमझेणं वीईवएज्जा, अत्थेगइए णो वीयीवएज्जा । जेणं वीईवएज्जा, सेणं तत्थ ज्झियाएजा ? णो इणटे समटे । णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थणं जे से अणिढिप्पत्ते पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए सेणं अत्थेराइए अगणिकायस्स मझं मझेणं वीईवएजा, अत्थेगइए जो वीईवएज्जा जेणं वाईवएजा सेणं तत्थ झियाएज्जा? हंता झियाएजा- से तेपट्टेणं जाव णो झियाएज्जा । एवं मणुस्सेवि ॥ वाणमंतर अहो गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच के दो भेद कहे है विग्रह गतिवाले और अविग्रह गातेवाले. विग्रहगतिवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय का नारकी जैसे कहना. और अविग्रह गतिवाले के दो भेद ऋद्धिवाले और ऋद्धि रहित. उन में ऋद्भिवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कितनेक जा सकते हैं और कितनेक नहीं जा सकते हैं. जो जा सकते हैं व वहां जलते नहीं हैं क्यों कि उन को शस्त्र नहीं लगता है और जो ऋदि राहेत हैं उन में से कितनेक अनिकाया की बीच में होकर जा सकते हैं और कितनेक नहीं जा सकते हैं. जो जा सकते हैं के वहां जलते हैं. अहो गौतम! इस कारन से पेमा कहा गया है कि: कितनेक जा सकते हैं। - भावार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मर हायजी ज्वालामसादी Page #1965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .48 जोइसियवेमाणिए जहा असुरकुमारे ॥ २ ॥ जेरइया दसटाणाई पञ्चणुष्भवमाणा विहरंति, तंजहा-अणिट्ठा संहा, अणिट्ठा रूवा, अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा रसा, अणिट्ठा फासा अणिटागई, अणिट्ठाठिई, अणिटे लायण्णे, अणिटे जसोकित्ति, अगिट्टे उट्ठाण कैम्मबलबीरिय पुरिसक्कार परक्कमे ॥ ३ ॥ अमुरकुमारा दसट्ठाणाई पञ्चणुभवमाणा विहरलि, लजहा-इट्ठा सहा, इट्ठा रूवा, जावइटे उट्ठाणकम्मबलवीरिय पुरिसक्कार परिक्कमे, एवं अव थणियकुमारा ॥४॥ पुढवीकाइया छट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति तंजहा इट्ठाणि? फासा, इट्ठाणिटुंगई, एवं जाव परक्कमे ॥ एवं जाव वणस्सइ काइया ॥ भाबर्थ और कितनेक नहीं जा सकते हैं. तियेच पंचेन्द्रिय जैसे मनुष्य का कहना. वाणयंतर, ज्योतिषी व वैमः निक का असुरकुमार जैसे कहना ॥ २ ॥ नारकी दश स्थान अनुभवते हुवे विचरते हैं. १ अनिष्ट शब्द, १२ अनिष्ट रूप, ३ अनिष्ट गंध, ४ अनिष्ट रस, ५ अनिष्ट स्पर्श, ६ अनिष्ट गति, ७ अनिष्ट स्थिति, ८ अ-3 निष्ट लावण्य, ९ अनिष्ट यशोकीर्ति और १० अनिष्ट उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम ॥३n अमुरकुमार दश स्थान अनुभवते हुवे रहते हैं. इष्ट शब्द इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषासंस्कार पराक्रम. ऐसे ही स्थनित कुमार तक दश मुवनपवियों का जानना ॥ ४॥ पृथ्वीकाय छ स्थान" पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र +8+ बदहवा शतक का पांचवा . Page #1966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ... बेइंद्रिया.. सत्तट्ठाणाई । पन्नावभवमाणा विहरंति, तंजहा-इट्ठाणि? रसा मेसं जहा एगिदिया ॥ तेइंदिया अट्ठाणाइं पञ्चणुब्भवभाणा विहरंति, तंजहा-इट्ठाणि? गंधा सेंसं जहा बेइंदियाणं ॥ चउरिंदियाणं नवट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा इट्ठाणि?रूवा सेसा जहा तेइंदियाणं ॥ पचिंदिय तिरिक्ख जोणिया दसट्टाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-इट्ठाणि? सद्दा जाव परक्कमे ॥ एवं मणुस्सावि ॥ वाणमंतर जोइसिय वैमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ ५ ॥ देवेणं भंते ! महिड्दिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू तिरियपव्वयंवा, तिरियभित्ति, वा उलंघेअनुभवते हुवे विचरते हैं. दृष्टाइष्ट स्पर्श इष्टाइष्ट गति यावत् इष्टाइष्ट उत्थान कर्म बल वीर्य पुरुषात्कार पराक्रम ऐसे ही वनस्पतिकाया तक कहना. बेइन्द्रिय में सात, तेइन्द्रियमें आठ, चतुगेन्द्रिय में नव और तिर्यंच पंचेन्द्रियमें दश स्थान कहे हैं उनमें अनुक्रमसे रम,गंध,रूप व शब्दकी वृद्धि करना. मनुष्यका तिर्यंच पंचेन्द्रिय जैसे कहना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का असुरकुमार जैसे कहना ॥५॥ अहो भगवन् महर्दिक यावत् महा मुखवाला देव बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये विना तीर्छा पर्वत या तीछी भीत उल्लंघने को क्या समर्थ है? अहो गोतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! महर्दिक यावत् महा मुखवाला देव वाहिर के पुद्गल ग्रहण करा प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #1967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र तएवा, पल्लंघेत्तएवा ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्टे || देवेणं भंते ! महिदिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरिय जाव पलूंघेत्तएवां ? हंता पभू ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउदसम सयस्सय पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ ५ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी- णेरइयाणं भंते ! किमाहारा किं परिणामा किं जोणिया, किं ठिईया ? गोयमा ! णेरइयाणं पोग्गलाहारा पोग्गल परिणामा, पोग्गल जोपिया, { तीर्च्छा पर्वत अथवा तीच्छी भिति क्या उल्लंघने को समर्थ है ? हां गौतम ! वह उल्लंघने को समर्थ है. { अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चौदहवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ४४ ॥ ५ ॥ पांचवा उद्दशे में अग्नि काया का कथन किया. छठे उद्देशे में आहार का कथन करते हैं. राजगृही नगरी { के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पुछने लगे कि अहो भगवन् ! नरक के जीवों को कौनसा आहार है, आहार किये पीछे क्या परिणमन है, कैसी (योनि (उत्पत्ति स्थान ) है, और कैसी स्थिति है ? अदो गौतम ! नारकी को पुद्गल का आहार होता पुद्र का परिणमन होता है, शीत ऊष्णमय पुद्गल की योनि है, और आयु:कर्म रूप पुद्गल की स्थिति किस कारने से पुल स्थिति होती है सो कहते हैं ज्ञानावरणियादि पुद्गल रूप को जाते हैं. नरक पना 4+ १०३ चउदहवा शतकका छठा उद्देशा १९३७ Page #1968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्म पोग्गलढिईया, कम्मोवगा, कम्मणिदाणा, कम्मट्टिईया, कम्मुणा चेव विप्परियासमेति, एवं जाव वेमाणिया ॥ १ ॥णेरइयाणं भंते ! किं वीचिं दन्वाइं आहारैति अवीचिं दवाई आहारेति ? गोयमा ! पोरइया वीचिदव्वाइंपि आहारेति अवीचिवाईपि आहारेति ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइया वीचि चव आहारैति ? गोयमा ! जेणं णेरइया एगपदेसूणाईपि दव्वाइं आहारेति तेणं णेरइया वीचिदवाइं आहारैति, जेणं गेरइया पडिपुपणाई दबाई आहारैति, तेणं णेरइया अवीचिदव्वाइं आहारैति, निमित्त अथवा कर्म बंध निमित्त जिन को होता है सो कर्म निदान, कर्म पदल से जिन को स्थिति है कर्म स्थितियाले नारकी कर्म से ही पर्यायंतर को प्राप्त होते हैं. ऐसे ही वैमानिक तक जानना ॥१॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या बीचि द्रव्य का आहार करते हैं या अवीचि द्रव्य का आहार करते हैं , अहो गौतम : नारकी वीचिद्रव्य का भी पाहार करते हैं और अधीचि द्रव्य का भी आहार करते हैं. अहो भगवन् ! किम कारन से ऐसा कहा गया है कि नारकी वीचि द्रव्य का आहार करते हैं औ अवीचि द्रव्य का भी आहार करते हैं ? अहो गौतम ! जिस द्रव्य का आहार करने का होवे उसमें एक प्रदेश की कमी रहजाय तो वीचि द्रव्य का आहार और संपूर्ण आहार करे तो अवीचि द्रव्य. अहो मौतमी •ाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ mmmmmmmmmm । Page #1969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4280 PA पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र .से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव आहारति ॥ एवं जाव वेमाणिया आहारेति ॥ २ ॥ जाहेणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिन्वाइं भोगभोगाइं भुंजित्तुकामे भवइ से कहमिदाणि पकरेति ? गोयमा ! ताहे चवणं से सक्के देविंदे देवराया एगं महं णेमि पडिरूवगं विउन्वइ, एगं जोयण सयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं है तिष्णि जोअणसय सहस्साई जाव अखंगुलंच विसेसाहिए परिक्खेवेणं तस्सणं मि पाडरूवस्स उवरिं बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीणं फासे; तस्सणं णेमि पडिरूबगस्स बहुमझदेसभागे तत्थणे महं एगे पासायवडिंसगं विउन्वति इस कारन से ऐमा कहा गया है कि नारकी वीचि द्रव्य का आहार करते हैं और अवीचि द्रव्य का आहार भी करते है, ऐसे ही वैमानिक तक चौविप्त देदक का जानना ॥२॥ अब देवता के भोग आश्री प्रश्न पुछते हैं अहो भगवन् ! जब शक्र देवेन्द्र देवराजा दीव्य भोगोपभोग भोगने की वांच्छाकरे तब वह क्या करे ? अहो गौतम ! शझ देवेन्द्र को भोगोपभोग भोगने की इच्छा होती है तब नेमी के आकार से गोल चक्र का वैक्रय करते हैं उस की लम्बाइ चौडाइ एक लक्ष योजन की है ३१६२२७% जोजन व१३॥अंगुल की परिधि है. उस नेमी के ऊपर बहुत बराबर नगारे के उपर के विभाम जैसा भूमिका भावार्थ चउदहवा शतक का छठा उद्देशा88. Page #1970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी पंचजोयणसयाई उद्धुं उच्चत्तेणं, भढाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गय मूसियवण्णओ जाव पडिरूवं ॥ तरसणं पासाय वर्डिसगस्स उल्लोए पउमलय भत्तिचित्ते जात्र पडिरूवे ॥ तस्सणं पासाय बडिंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभाए, मणीणं फासो, मणिपढिया, अटू जोअणिया जहा वेमाणियाणं. तीसेणं मणिपेढियाए उवरिं एवं देवस्यणिजे विउव्वाइ, सयणिज वण्णओ जाव पडिरूवे ॥ तत्थणं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं साईं सपरिवाराहिय दोहिय अणिएहिं तंजा - हाणिएणय गंधव्वाणिएणय सद्धिं महयाहय णट्ट जाव दिव्वाइं भोग भोगाई विभाग है यावत् मणि स्पर्श जैसा कोमल है. उस नेमी प्रतिरूपक के मध्य भाग में प्रासादों में मुकुट समान ऐसा एक प्रासाद का वैक्रेय करते हैं. वह पांचसो योजन का ऊंचा २५० योजन का चौडा है? वह प्रासाद उच्छ्रित यावत् प्रतिरूप है. उस प्रासाद को उपर का तला पद्म व लता जैसा विचित्र यावत् प्रतिरूप है. उस प्रासाद की अंदर का भूमिभाग बहुत समरमणीय है मणि (जैसा सुकुमाल स्पर्श वाला है, उस की मध्य में मणिपीठिका है. वह आठ योजन की लम्बी व चौडी है. उस मणि पीठिका के उपर एक देव शैय्या का वैक्रेय करते हैं वह वर्णन योग्य यावत् प्रति[रूप है. वहां पर शक देवेन्द्र अपने २ परिवारवाली आठ अग्रमहिषियों और नाटक करनेवाली व गायन १९४० Page #1971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४१ 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति (भगवती) मूत्र मुंजमाणे विहरइ ॥ जाहेणं ईसाणे देविदे देवराया दिव्वाई जहा सक्के तहा ईसाणेवि जिरवसेसं ॥ ४ ॥ एवं सणंकुमारवि, णवरं पासाय वडिंसओ छजोअणसयाइं उर्दू उच्चत्तेणं तिणि जोअणसयाई विक्खंभेणं मणिपढिया तहेव अट्ट जोअणिया, तीसेणं मणिपेढियाए उवरि एत्थणं महेगं सीहासणं विउव्वइ सपरिचारं भाणियव्वं. तत्थणं सणंकुमारे देविंदे देवराया बावत्तरिए सामाणिय साहस्सीएहिं जाव चउहि बावत्तरीहिं आयरक्खदेव साहस्सीहिय, बहूहि सणंकुमार कप्पवा सीहिं वेमाणिएहिं देवहिय सद्धिं संपरिवुडे महया जाव विहरइ ॥ एवं जहा सणंकुमारे करनेवाली ऐसी दो सेना महित अनेक प्रकार के नाट्य व गायन करते दीव्य भोग भोगवते हुवे रहते हैं. जैसे शकेन्द्र का कहा पैसे ही ईशानेन्द्र का जानना ॥४॥ सनत्कुमार का भी वैसे ही कहना परंतु इस में प्रामाद छ सो योजन के ऊंचे और तीन सो योजन के चौडे कहना. मणि पीठिका आठ योजन की कही. उस मणि पीठिका पर एक बड़ा सिंहासन की विकर्षणा करके वहां सनत्कुमार देवेन्द्र ७२ हजार सामानिक २८८९०० आत्म रक्षक और बहुत सनत्कुमारवासी देवों सहित परवरा हुवा यावत् रहता है. ऐसे ही* जैसे सनत्कुमार का कहा वैसे ही प्राणत तक का कहना परंतु परिवार वगैरह जिन को जितना होवे उतना 84 चउदहवा शतकका छठा भावार्थ उद्देशा Page #1972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रा राजगृह में जा० यावत् परिषदा ५० पीछीगइ गो० गौतमादि स० श्रमण भ. भगवन्त २० तहा जाव पाणओ अच्चुओ, णवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियब्बो, पासाय उच्चत्तं जं सएस सएस कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्त अहई विस्थ रो जाव अच्चयरस णवजोअण सयाई उर्दू उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाई जोअण सयाई विक्खंभेणं, एत्थणं गोयमा ! अच्चुए देविंदे देवराया दसहि सामाणिय साहसीहिं जाव विहरइ ॥ ३ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउहसम सयस्सय छट्ठो उद्दसो सम्मत्ता ॥ १४ ॥६॥ * रायगिहे आव परिसा पडिगया, गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं कहना. प्रासादों की ऊंचाई अपने २ देवलोक जितनी कहना और चौडाइ उस से आधि कहना. सनकुमार व माहेन्द्र के ६०० योजन के प्रासाद ऊंचे हैं, ब्रह्म व लंसक के ७०० योजन के शुक्र व सहस्रार है के ८०० योजन के ऊंचे प्राणत व अच्युत के ९०० योजन के ऊंचे प्रासाद कहे हैं, यावत् अहो गौतम अच्युत देवेन्द्र दश हजार सामानिक देव व चालीस हजार आत्म रक्षक देव सहित दीव्य भोगोपभोग की। भोगते हुवे विचरते हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चौदहवा शतक का छ उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ ६ ॥ छठे उद्देशे में इन्द्रों के भोगों का कथन किया. अब आगे तुल्य का अधिकार कहते हैं. राजगृह नगर : * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ - 1 Page #1973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 128* पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र 48 महावीर भ० भगवन्त मो० गौतम को आ• आर्मपणकर ए. ऐसा बोले चि. चिरकाल से सं०। संबंधीत है मे० मुझ से गो० गौतम चि० चिरकाल से सं० प्रशंसा करता है मे० मेरी गो० गौतम नि.. चिरकाल स ५० परिचित है मे० मुझ से गो. गौतम चि० चिरकाल से जु० सेवाकी है मे० मेरी मो. + १९४३ गौतम चि० चिरकाल से अ० अनुमरता है मे० मुझे गो. गौतम चि. चिरकाल से अ० अनुकरण करता है मे० मुरा गो० गौतम अ० अनंतर दे० देवलोक में अ० अनंतर मा० मनुष्य का भ० भव में किं. क्या १० विशेष म० मरण का० काया का भे० भेद इ०. यहां चु० चाकर दो० दोनों तु. तुल्य है आमंतेत्ता, एवं वयासी-चिरसंसिट्रोसि मे गोयमा ! चिरसंथतोसि मे गोयमा ! म है चिरपरिचितोसि मे गोयमा ! चिरजुसिओसि मे गोयमा ! चिराणुंगओसिमे गोयमा! १ चिराणुवत्तीसिमे गोयमा ! अणंतरं देवलोए अगंतरं माणुस्सए भवे किं परं मरणकायस्स के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का उपदेश सुनकर परिषदा पीछी गइ. उस समय में गौतम स्वामी को केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं होने से खेदित हुए जानकर उन को संतुष्ट करने के लिये । श्री श्रवण भगांत महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी को बोलाये और कहा कि अहो गौतम ! तुम्हारा मेरी साथ बहुत काल से संबंध है, तुमने बहुत काल से मेरी प्रशंसा की है, बहत काल से देखने आदि मे मेरी साथ परिचय है, बहुत काल से. सेवा करते तुम मेरे विश्वास पात्र बने हवे हो, बहुत काल से मेरी Maharana चउदया शतक का सातवा उद्दशा 488 भावार्थ . Page #1974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ए. एक साथ अ० अविशेष आ० नाना प्रकार रहित म० होवेंगे ॥२॥ सरल शब्दार्थ भेदा इतो चुता दोवि तुला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो, ॥१॥ जहाणं भंते ! वयं एयमढे जाणामो पासामो तहाणं अणुत्तरोववाइया देवा एयमटुं जाणंति पासंति ? हंता गोयमा ! जहाणं वयं एयमढे जाणामो पासामों तहाणं अणुत्तरोव . वाइया देवा एयमढे जाणंति पासंति ॥ से केणटेणं जाव पासंति ? गोयमा ! अणु: सरोववाइयाणं अणंता मणोदव्ववग्गणाओ लड़ाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ पीछे चले आये हुवे हो, तुम मेरी अमवृत्ति पालते हो अहो गौतम ! अंतर रहित: देवताओंके व अंतर महिन मनुष्यों के भवों में और विशेष में यहां से आयुष्य पूर्ण कर आगे अपने दोनों इस उदारिक पिण्ड का ल्याग करके तुल्य, एक प्रयोजन वाले, विशेषता व नानात्व रहित होवेंगे: ।।१।। अहो भगवन् ! जैसे आप? शान से और मैं आपके उपदेश. से इस तरह अपन दोनों इस बात को जानते हैं वैसे ही क्या अनुत्तरोपपातिक देव क्या जानते हैं देखते हैं ? हां गौतम ! जैसे अपन जानते देखते है वैसे ही अनुत्तसेपपातिक देव इस अर्थ को जानते हैं. अहो भगवन् ! किस तरह अनुत्तरोपपातिक देव अपने जैसें जानते.. देखते हैं. अहो यौतम! अनुत्तरोपपातिक देवोंको उस विषय में अवधिज्ञान की अपेक्षा से अनंत मनोव्य. वर्गणा -" भावार्थ मास-मजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #1975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवंति, से तेण?णं गोयमा ! एवं बच्चइ-जाव पासंति ॥ २ ॥ कइ विहेणं भंते ! है। तुल्लए पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे तुलए पण्णत्ते, तंजहा-दव्वतुल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भाव तुल्लए, सट्ठाण तुलए, ॥ ३ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ दव्य तुल्लए ? दव्व तुल्लए गोयमा! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओतुल्ले परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल वइरित्तस्स दव्वओ णो तुल्ले, दुपदेसिए खंधे दुपदेसियस्स खंधस्स दलओ तुल्ले, दुपदेसिए खंधे दुपदेसिय वइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुल्ले, एवं जाव दसपएसिए । तुल्लसंखेज पएसिए खंधे, संस्लेज पएसियस्स। भावार्थमाप्तई है इससे वे अपने जैसे अर्थ जानते हैं व देखते हैं. ॥२॥ अहो भगवन् ! तुल्य के कितने भेद कहे हैं. अहो गौतम ! तुल्य के छ भेद कहे हैं. १ द्रव्य तुल्य, २ क्षेत्र तुल्य, ३ काल तुल्य, ४ भव तुल्य ५ भाव .. तुल्य और ६ संठान तुल्य ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! द्रव्य तुल्य को द्रव्य तुल्य क्यों कहा ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल से परमाणु पुद्गल तुल्य हैं, और परमाणु पुद्गल से व्यतिरिक्त द्विपदेशात्मक स्कंधतुल्य नहीं हैं. द्विपदेशात्मक स्कंध द्विपदेशात्मक स्कंध की साथ द्रव्य से तुल्य है और द्विपदेशात्मक स्कंध अन्य की साथ तुल्य नहीं है ऐसे ही यावत् दश प्रदेशिक स्कंधका जानना. संख्यात प्रदेशिक स्कंधसे संख्यात प्रदेशिक पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मत्र 48 * वादहमा शतक का सातवा Page #1976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-धालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * खंधस्स दव्वओ तुल्ले, संखेज पएसिए खंधे संखेज षएसिय वइरित्तस्स खंधरम दव्वओ णो तुल्ले, एवं तुल्ल असंखेज पएसिएवि ॥ एवं तुल्ल अणंत पएसिएवि ॥ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ दवतुलए ॥ ४ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ खेत्त तुल्लए ? खत्त तुलए गोयमा ! एगपएसोगाढे, पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुले, एगपएसोगाढ पोग्गले एगपएसोगाढ वइरित्तस्स पोग्गलस्स खत्तओ णो तुल्ले ॥ एवं जाव दसपएसोगाढे, तुल्ल संखेज पएसोगाढेवि॥एवं तुल्ल असंखेज पएसोगाढेवि॥ से तेणटेणं जाव खत्त तुल्लए ॥ ५ ॥ से केण?णं भंते ! .. स्कंध द्रव्य से तुल्य है और संख्यात प्रदेशिक स्कंध अन्य की साथ तुल्य नहीं है ऐसे ही असंख्यात प्रदेशिक स्कंध का व अनंत प्रदेशिक स्कंध का जानना. अहो गौतम ! इस कारन से द्रव्य तुल्य कहा है। ॥४॥ अहो भगवन् ! क्षेत्र तुल्य को क्षेत्र तुल्य क्यों कहा? अहो गौतम ! एक प्रदेश अवगाह्य पुद्गल. एक प्रदेश अवगाह्य पुद्गल की साथ क्षेत्र से तुल्य है और इस से अन्य की साथ क्षेत्र से तुल्य नहीं है. ऐसे ही दो तीन यावत् दश, मंख्यात, व असंख्यात प्रदेश अवगाहित पदल का मानना. अहो गौतम इस कारन से क्षेत्र तुल्य को क्षेत्र तुल्य कहा है. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! काल तुल्य को काल तुल्य मायाजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #1977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वुच्चइ काल तुल्लए? काल तुल्लए गोयमा! एग समय ट्ठिईए पोग्गले एग समयस्स ट्रिईय स्स पोग्गलस्स कालओ तुल्ले, एगसमय ट्ठिईए पोग्गले एगसमय दिईय वइरित्तस्स कालओ णो तुल्ले एवं जाब दस समय ट्ठिईए ॥ नुल्ल संखेज समय टिईए एवं चेव तुल्ल असंखेज समय ढिईएवि एवं चेव ॥ से तेण?णं जाव काल तुल्लए ॥ ६ ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ- भवतुल्ले, ? भवतुले गोयमा ! णेरइए णेरइयस्स भवट्टयाए तुल्ले, णेरइए णेरइय वारत्तस्स भवट्ठयाए णो तुल्लए; तिरिक्ख जोणिए एवं चेत्र ॥ एवं मणुस्सेवि ॥ एवं देवेवि ॥ से तेण?णं जाव भवतुल्ले ॥ ७ ॥ कहा ? अहो मौतम ! एक समय की स्थितिबाले पुद्गल से एक समय की स्थितिवाले पुद्गल काल से तुल्य है. और इस से अन्य की साथ तुल्य नहीं है. ऐसे ही दो तीन यावत् दश, संख्यात व असंख्यात, Eसमय की स्थितिवाले पुद्गलों का जानना. अहो गौतम : इस कारन से काल तुल्य को काल तुल्य कहा। गया है। अहो भगवन् ! भव तुल्य को भव तुल्य क्यों कहा? अहो गौतम : नारकी नारकी के भव से तुल्य है और अन्य से तुल्य नहीं है ऐसे ही तिर्यंच, मनुष्य व देव का जानना. अहो गौतम !* 1 इस कारन से भव तुल्य को भव तुल्य कहा है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! भाव तुल्य को भाव तुल्य क्यों ।। पंचांग वहााव पण्णति (भगवती) सूत्र 138 48:02.चउदइवा शतक का सातवा उद्देशा' भावार्थ 488 Page #1978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४८ लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ भावतुल्ले ? भावतुल्ले गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले, एगगुणकालयस्स भावतुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ णो तुले, एवं जाव दसगुणकालए, तुल संखेज्जगुणकाल पोग्गले, तुल्ल असंखेजगुणकालएवि ॥ एवं तुल्ल अणतगुणकालएवि ॥ जहा कालए एवं गीलए, लोहियए. हालिद्दए. सुकिल्लए, । एवं सुब्भिगंधे, एवं दुब्भिगंधे, । एवं तित्ते जाव महुरे । एवं कक्खडे जाव लुक्खे । उदइए भावे, उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, उदइय भाव क्इरित्तस्स भावओ णो तुल्ले एवं उवासमिएवि ॥ खइए खओवसमिए ॥ कहा ? अहो मौतम ! एक गुन काला से एक गुन काला भाव से तुल्य है और एक गुन काला पुगल अन्य की साथ भाव से तुल्य नहीं है. ऐसे ही दो तीन यावत् दश गुन काला पुद्गल, संख्यात गुन काला पुद्गल, असंख्यात गुन काला पुद्गल व अनंत गुन काला पुद्गल का जानना. जैसे काला वर्ण का वर्णन किया वैसे ही नील, रक्त, पीत व शुक्ल का जानना. और ऐसे ही सुरभिगंध व दुरभिगंध, तिक्त यावत् मधुर पांच रस, कर्कश यावत् रूक्ष यों आठ स्पर्श का जानना. औदयिक भाव औदयिक भाव की साथ भाव से तुल्य है, औपशमिक औपशमिक की साथ तुल्य है, क्षयोपशमिक क्षयो * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ign पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र परिणामिए सणिवाइए भावे, सण्णिवाइयस्स भावस्स ; से तेणटेणं गौयमा ! एवं वुच्चइ-भाव तुल्लए भाव तुल्लए ॥ ८॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-ठाण तुल्लए सं?ण तुल्लए ? गोयमा । परिमंडल संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, परिमंडलसंठाणे परिमंडलस्स · संठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ णो तुले ॥ एवं वट्टे, तंसे, चउरंसे, आयए ॥ समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरस्स संठाणे समचउरंसस्स संठाणवइरित्तस्स संठाणओ णो तुल्ले ॥ एवं जाव हुंडे ॥ से तेणटेणं जाव संठाण तुल्लए संठाण तुल्लए ॥९॥ पशमिक की साथ तुल्य है, परिणामिक परिणामिक से तुल्य है और सन्निवाय सन्निवाय भाव से तुल्य है.. अहो गौतम ! इस कारन से भाव तुल्य को भाव तुल्य कहा है ॥ ८॥ अहो भगवन् ! संस्थान तुल्य को संस्थान तुल्य क्यों कहा? अहो गौतम ! परिमंडल संस्थान परिमंडल संस्थान से तुल्य है इस से अन्य की साथ तुल्य नहीं है ऐसे ही वर्तुल, व्यंस, चौरस व लम्बगोल का जानना. समचतुत्र संस्थान समचतुन संस्थान से तुल्य है और इस से अन्य की साथ तुल्य नहीं है ऐसे ही हुंडक तक सब संस्थान का जानना. अहो गौतम ! इस कारन से संस्थान तुल्य से संस्थान तुल्य कहा गया है ॥९॥ पउंदहवा शतकका सानवा उद्देशा 9 भावार्थ 88 Page #1980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mom भावार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी भत्तपच्चक्खायएणं भंते ! अणगारे मुच्छिए अज्झोववण्णे आहार माहारेइ अहेणं वीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणज्झोववण्णे आहार माहारेंति ? हंता गोयमा ! भत्तपच्चक्खायएणं अणगारे तंचेव ॥ से केणटेणं भंते ! है। एवं वुच्चइ-भत्तपच्चक्खायएणं तंचेव गोयमा ! भत्तपच्चक्खायएणं अणगारे मुच्छिए जाव अझोववणे आहारे भवइ, अहेणं वीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिए जाव आहारे भवइ, से तेणट्रेणं जाव आहार माहारेइ ॥ १० ॥ अत्थिणं भंते ! अहो भगवन् ! भक्त प्रत्याख्यानवाला साधु तीव्र क्षुधा वेदनीय के उदय से व्रत का निर्वाह नहीं होता, देख कर उस का उपशम करने को आहार करे फीर स्वभाव से मृत्यु प्राप्त हुए पीछ उस आहार मूर्छा व गृद्धता रहित क्या वह होवे ? हां गौतम ! भक्त प्रत्याख्यान करनेवाला साधु आहारादि मूर्छित होकर स्वभाव से काल कर गये पीछे मूर्छा व गृद्धता रहित होवे. अहो भगवन् ! यह किस.. तरह है? अहो गौतम ! भक्त प्रत्याख्यानवाला साधु आहार में मूछित यावत् तन्मय होवे और कीर काल कर गये पीछे आहार में मूर्छा व गृद्धता रहित होवे. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा कहा कि भक्त प्रत्याख्यानवाला साधु आहार में गद्ध यावत् तन्मय बनकर काल कर गये पीछे उस में मूच्छा व दता रहित होवे ॥१०॥ अहो भगवन् ! लव सप्तम देवता क्या है ? अही गौतम : लव सप्तम् काधक:राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी , awaranwwwnnn Page #1981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4880 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र लवसत्तमादेवा ? हंता अत्थि । से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ-लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा? गोयमा! से जहा णामए केइ पुरिसे तरुणे जार णिपुणसिप्पोवगए सालीणवा, वीहीणवा, गोधूमाणवा, जवाणवा, जवजवाणवा, पिक्काणं परियाताणं हरियाण हरितकंडाणं तिक्खणं णवपज्जवएणं असियएणं पडिसाहरिया, पडिसाहरिया पडिसंखिविया, पडिसंखिविया जाव इणामेवत्तिकटु सत्तलए लुएन्जा, जइणं गोयमा ! तेसिं देवाणं एवइयं कालं आउए बहुप्पं तओणं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतंकरेति ॥ से तेण?णं जाव लवसत्तमादेवा लवसत्तमादेवा ॥ ११॥ हैं. अहो भगवन् ! लव सप्तम देव किस कारन से कहाये गये हैं ? अहो गौतम ! जैसे तरुण यावत् शिल्पकला में निपुण कोई पुरुष शाली, ब्रीहि, गेंहु, जब तथा जुवार को परिपक्व व काटने योग्य देखकर अति तीक्ष्ण बनाया हुवा दात्रादि शस्त्र मुष्टि में ग्रहण कर छेदे तो उस काल को एक लव कहते हैं. और ऐसे सात वक्त काटने से सात लव होते हैं. यदि उन देवताओं का साधु की अवस्था में 80 आयुष्य अधिक होवे तो वे भी उसी साधु के भव में आयुष्य पूर्ण कर सिद्ध बुद्ध मुक्त यावत् सब दुःखों का अंत करे, अहो गौतम ! इसलिये उन को लव सप्तम देव कहे हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! अनुत्तरी- । चौदहवा शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ Page #1982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५२ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * अत्थिणं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा ? हंता अस्थि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-अणुत्तरोववाइया देवा अणुत्तरोववाइया देवा ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सद्दाअणुत्तरा रूवाजाव अणुत्तरा फासा, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव अणुत्तरोववाइया देवा ॥ १२ ॥अणुत्तरोवबाइयाणं भंते ! देवा केवइएणं कम्मावसे. सेणं अणुत्तरोववाइय देवत्ताए उववण्णा ? गोयमा ! जावइयं छ?भत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एव इएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइय देवत्ताए उव वण्णा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति । चउद्दसम सयस्सय सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥१४॥७॥ पपातिक देव क्या है ? हां गौतम ! अनुत्तरोपपानिक देव है. अहो भगवन् ! किस कारन से अनुत्तरोपपातिक कहाये गये हैं ? अहो गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देव को अनुत्तर शब्द, रूप, गव यावत् अनुत्तर स्पर्श है. अहो गौतम ! इस कारन से अनुत्तरोपपातिक देव कहाये गये हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! किस कर्म विशिष्ट से अनुत्तरोपपातिक देव देवतापने उत्पन्न हुए हैं ? अहो. गौतम ! छठ भक्त से जितने कर्म श्रमण निग्रंथ निर्जरते हैं. इतने ही कर्म विशिष्ट से अनुत्तरोपपातिक देव देवतापने उत्पन्न हुये हैं. अहो भगान् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चउदहवा शतक का सातवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥१४॥३॥ *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेनसहायजी ज्वालाप्रसादजी* - - भावार्थ Page #1983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ इ० इस भं० भगवन् र० रत्नप्रभा पुत्र पृथ्वी का स०शर्करप्रभा पु०पृथ्वीका के कितना अ० अव्यावाध अं० अंतर प०प्ररूपा गो० गौतम अ० असंख्यात जो० योजन स० सहस्र अ० अबाधा अं अंतर प०प्ररूपा स० शर्कर प्रभा भं० भगवन् पु० पृथ्वी का बा० बालुप्रभा पु०पृथ्वी का के०कितना ए० ऐसे ही ए०एसे जा० यावत् त० तमा अ० अधो स० सातवी का अ० अधो स० सातवी का भं० भगवन् पु० पृथ्वी का अ० अलोक का के० कितना अ० अबाधा अं० अंतर ५० प्ररूपा गो गौतम अ० असंख्यात जो० योजन स० सहस्र इसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाएय पुढवीए केवइयं अबाहाए अंतरे पण्प्यते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोअणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥ सक्करप्पभाएणं भंते! पुढवीए बालुयप्पभाएय पुढवीए केवइयं, एवं चेव ॥ एवं जाव तमाए अहे सत्तंमाए ॥ अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए अलोगस्सय केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाइं जोअणसहस्साइं अबाहाए अंतरे सातवे उद्देशे में तुल्यता रूप धर्म का कथन किया आठवे में अंतर का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी व शर्कर पृथ्वी का अवाधा से कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा व शर्कर प्रभा का अबाधा से असंख्यात योजन सहस्र का अंतर कहा. शर्करप्रभा व बालु प्रभा का अंतर वेिवे ही असंख्यात योजऩ सहस्र का जानना. यों दम प्रभा व तमतम प्रभा पर्यंत कहना. अहो भगवन् !} 4- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र + 4 चउदहवा शतक का आठवा उद्देशा 498 १९५३ Page #1984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - का अ० अबाधा अं० अंतर ५० प्ररूपा ॥ १ ॥ इ० इस में० भगवन् र० रत्नप्रभा पु० पृथ्वी का जो० ज्योतिषी का के० कितना पु० पृच्छा गो० गौतम स० सात ण० नेऊ जो० यांजन स० शत अ० अबाधा अं० अंतर प० प्ररूपा जो० ज्योतिषी मं० भगवन् सो० सौधर्म ई० ईशान क० देवलोक के० कितना पु० पृच्छा गौ० गौतम अ असंख्यात जो० योजन जा० यावत् अं० अंतर प० प्ररूपा सो० ( सौधर्म ई ईशान का भं० भगवन् स०सनत्कुमार मा० माहेन्द्र का० के० कितना ए० ऐसे ही स० सनत्कुमार पण्णत्ते ॥ ७ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोइसियस्स केवइयं पुच्छा ? गोयमा ! सत्तणउ जोअणसए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । जोइसियरसणं भंते ! सोहमीसाणाय कप्पाणं केवइयं पुच्छा ? गोयमा ! असंखज्जाई जोअण जाव अंतरे पण्णत्ते । सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणकुमार माहिंदाणय केवइयं ? एवं चेव ॥ सणंकुमार माहिंदाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स केवइयं ? एवं चेत्र ॥ बंभलोगस्सणं सातवी तम तमा पृथ्वी व अलोक का कितना अंतर कहा है ? अहो गौतम ! असंख्यात योजन सहस्र का { अंतर कहा है. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी व ज्योतिषी का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! सातसो नेउ [ ७१० ] योजन का अंतर कहा. अहो भगवन् ! ज्योतिषी व सौधर्म ईशान देवलोक का कितने योजन का अंतर कहा ? अहो गौतम ! असंख्यात क्रोडाक्रोड योजन का अंतर कहा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * १९५४ Page #1985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दायी 28 ८५ मा. माहेन्द्रका भं० भगवन् बं० ब्रह्मदेवलोक का के कितना एक ऐसे ही बं. ब्रह्मदेवलोक कामं भगवन् । लं... लंतक क० देवलोक का के० कितना ए. ऐसे ही लं. लंतक का भं. भगवन् म. महाशुक्र का के. कितना ए. ऐसे ही एक ऐने म० महाशुक्र कल्प का स० सहस्रार का एक ऐसे सः सहस्रार का? आ० आणत पा प्राणत का ए. ऐसे आ० आणत पा० प्राणत का आरण अ० अच्युत का आ. आरण अ. अच्युत का गे० ग्रैवेयक विमान का एक ऐसे गे० ग्रेवेयक विमान का अ० अनुत्तर विमान का अ० अनुतर विमान का भं० भगवन् इ० ईपत्याग् भार पृथ्वी का के० कितना पु० पृच्छा गो० गौतम भंते लंतगस्सय कप्पस्स केवइयं ? एवं चेव ॥लंतगरसणं भंते ! महासुक्कस्स कप्पस्स केवइयं ? एवं चेत्र ॥ एवं महासकस्सय कप्पस्स सहस्सारस्सय ।। एवं सहस्सारस्स आणयपाणय कप्पाणं ॥ एवं आणयपाणयाणं, आरणच्चुयाणं कप्पाणं ॥आरणच्चुयाणं गेवेजगविमाणाणय ॥ एवं गेविजगविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणय ॥ अणुत्तर विमा णाणं भंते ! ईसिप्पभाराए पुढवीए केवइयं पुच्छा ? गोयमा ! दुवालसजोअणे भावार्थ साधर्म ईशान व सनत्कुमार माहेन्द्र का भी वैसे ही जानना. सनत्कुमार माहेन्द्र व ब्रह्मलोक का, ब्रह्मलोक व 60 लंतक, लंतक व महाशुक्र, महाशुक्र व सहस्रार, महस्रार व आणत प्राणत, आणत प्राणत व आरण 17 अच्युत. का जानना.. ऐसे ही आरण, अच्युत व अवेयक विमान. अवेयक विमान ब. अनुत्तर विमान का पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र - 488.चउदहवा शतकका आठवा उद्देशा + Page #1986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ श्री अमोलक ऋषिजी 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि दुबारह जो० योजन का अ० अबाधा अं० अंतर प० प्ररूपा ई० ईषत्माग् शार पु० पृथ्वी का अ... अलोक का के० कितना अ० अबाधा अं० अंतर पु० पृच्छा गो० गौतम दे० देसऊणा जो० योजन का अ० अबाधा अंतर ॥ ॥ ए. यह भ० भगवन् मा. शालवृक्ष उ० ऊष्ण से भेदाया-ततृषा से भेदाया: द० दवाग्नि ज्वाला से भेदाया का काल के अवसर में का० काल कर के क. कहां ग. जावेगा क० कहां उ० उत्पन्न होगा गो० गौतम इ. यह रा० राजगृह. न. नगर में सा० शालवृक्ष पने ५० उत्पन्न है अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥ ईसिप्पन्भाराएणं भंते ! पुढवीए अलोगस्सय केवइए अबाहाए पुच्छा ? गोयमा ! देसणं जोअणए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ॥ २ ॥ एसणं भंते ! सालरुक्खए उण्हाभिहते, तण्हाभिहते, दवग्गिजालाभिहते, कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिाहइ कहिं उववजिहिइ ? गोयमा ! इहेव रायगिहे णयरे जानना. अनुत्तर विमान व ईपत्याग भार पृथ्वी में कितना अंतर रहा हुवा है ? अहो गौतम अवाधा से बारह योजन का अंतरा कहा है. ईपत्याग भार पृथ्वी व अलोक में कितना अंतर रहा हुवा है! अहो गौतम ! एक योजन में कुच्छ कम का अंतर कहा है ॥२॥ सूर्य के ताप से हणाया हुवा, तृषा से हणाया हुवा, दवामि से हणाया हुवा, शाल वृक्ष काल के असर में काल करके कहां जावेगा कहां उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! इस राजगृह नगर में शालवृक्षपवे उत्पन्न होगा. वहां पर उस की अर्चा,, बंदना, पूजा, सत्कार क सन्मान • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #1987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथार होगा से वह त तहां अ० अर्चनीय वै० वेदनीय पू० पूजनीय सः सत्कार करने योग्य स सन्मान करने योग्य स० सत्य स. सत्योपपात स० सनिहित पा० प्रतिहार्य ला० लीपनकीया म० पूजावाला भ०११ होगा मे० वह भ० भगवन् तक वहां से उ० चक्कर क. कहां ग• जावेगा क० कहां उ० उत्पन्न होगा गो गौतम म. महाविदेह क्षेत्र में सि० मिझेगा जा. यावत् अं०. अंत करेगा ॥ ३ ॥ ए. यह भं० भगवन् } , सा० शालवृक्ष की ल• लकडी उ० ऊष्ण से भेदाइ जा० यावत् द० दावाग्नि ज्वाला से भेदाइ का० काल सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिति, सेणं तत्थ - अच्चियवंदियपूईयसकारियसम्माणिय दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहिय पाडिहरे लाउल्लोइयमहिएयावि भविस्सइ ॥ सेणं भंते ! तओहिंतो उव्वहित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववाजिहिति ? गोयमा ! महाहै . विदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतंकाहिइ ॥ ३ ॥ एसणं भंते ! साललट्रिया उण्हा. भिहया जाव दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा जाव कहिं उवबजिहिति ? भावार्थ होगा और व दीव्य सत्यमेवा के फलदाता, प्रतिहार्यकर्भकरनेवाला होगा और उस की पीठिका गोमय से लीपकर पांडु से पोतकर पूजित होवेगा. अहो भगवन् ! वह वहां से नीकलकर कहां जावेगा कहां उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा, बुझेगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा॥३॥सूर्य के ताप से यावत् दवाग्नि से हणाइ हुई उस की लकडी का जीव काल के अवसर में काल कर पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सत्र Page #1988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ के अ० अवसर में का० काय कर के जा. यावत् क कहां उ० उत्पन्न होगा गो० गोतम इ. इस 011 है जंबूद्वीप में वि. विध्यागिरि के पा० नजदीक म. महाश्रीक न. नगर में सा० शामलीवृक्ष पने १० उत होगा त, तहां अ० अर्चनीक वं. वंदनीक जा. यावत् ला० धवल कीया म० पूजावाला. भ. हो से वह भं. भगवन् त वहां से अ० अनंतर उ० चवकर से० शेष ज. जैसे सा० शालीवृक्ष का जा यावत् अं० अंत करेगा ॥ ४॥ ए. यह मं० भगवन् उ० उपर की लकडी उ० ऊष्ण से भेदाइ जा० गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे विंझगिरिपायमूले महेस्सरीए णयरीए सामलिरुक्खत्ताए ॐ पञ्चायाहिति, साणं तत्थ अच्चिय वंदिय जाव लाउल्लोहियमहियावि भविस्सइ ॥ सेणं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता सेसं जहा सालिरुक्खस्स जाव अंतं काहिति ॥ ४ ॥ एसणं भंते ! उवरिलट्ठिया उण्हाभिहया कालमासे कालं किच्चा जाव भावार्थ कहां जावेगा कहां उत्पन्न होवेगा? अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप में विंध्यागिरि पर्वत के मूल में महा श्रीक नगर की पास शामली वृक्षपने उत्पन्न होगा. वह वहां बंदित पूजित यावत् गोमय से लिंपकर पांडु से पोतकर पूजित होवेगा और वह वहां से नीकलकर महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा, बुझेगा यावत् अंत करेगा ॥ अहो भगवन् ! ऊष्ण ताप से यावत् दवाग्नि से उपर की लकडी का जीव काल करके कहा। 42 अनुबांदक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी प्रसंशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादी . Page #1989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 88 यावत् को कोले के अवसर में का० काल कर के जी० यावत् क कहां उ० उत्पन्न होगा गौ• मौतम + इ. यह जं. जंबूद्वीप में भा० भरत क्षेत्र में पा. पाटली पुत्र नगर में पा. पाटलीवृक्ष पने ५० उत्पन्न होगा से वह त तहां अ० अर्चनीय वं. वंदनीय जा. यावत् भ० होमा से. वह भं० भगवन् अ० पीछे स. चवकर ते० शेष तं० तैसे जा. यावत् अं० अंत करेगा ॥५॥ तं. उस काल ते. उस समय में अ° अंबड प० परिव्राजक के स० सात अं अंते वासी स० शत गि० ग्रीष्म काल में ज. जैसे उ. कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहेवासे पाडलिपुत्ते जयरे पाडालरुक्खत्ताए पञ्चायाहिति सेणं तत्थ अच्चियवंदिय जाव भविस्सइ ॥ सेणं भंते ! अणंतरं उव्वटित्ता सेसं तंचेव जाव अंतं काहिति ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासीसया गिम्हकाल समयंसि एवं जहा उबवाजावेमा कहां उत्पन्न होगा? अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पाटलिपुत्र नगर में पाटली वृक्षपने उत्पन्न होगा. वह अर्चित यावत् पूजित होगा और वहां से नीकलकर महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा, बुझेगा यावत् अंत करेगा ॥५॥ उस काल उस समय में गंगा नदी के दोनों तरफ रहनेवाले अम्बड है सन्यासी.के.सात तो शिष्य कंपिलपुर, नगर से पादली पुर. नगर जाते रस्ते में साथ लिये. पानी खुटने से पानी के दातार के अभाव से मंगा नदी की रेती में सास सो ही रिहंत सिद्ध आचार्य को नमस्कार चउदहवा शतकका आठवा भावार्थ उद्रेशा wwwwwwwwwwwww सना - Page #1990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी । उववाइ में जा पावत् आ. आराधक ॥६॥ब. बहुत ज. मनुष्य अ० अन्योन्य आ. कहते हैं 101 अंबड प० परिव्राजक के. कपिलपुर ण. नगर में घ० गृहशत ज० जैसै उ० उबवाइ में अ० अम्बड व.. वक्तव्यता जा. यावत् द. दृढ प्रतिज्ञ अं० अंत करेगा ॥ ७॥ अ० है भं. भगवन् अ० अव्यावाध दे० देव इं. हां अ० है से. वह के. कैमे भं. भगवन् ए. ऐसा बु. कहा जाता है अ० अव्यावाध दे०१ - इए जाव आराहगा ॥ ६ ॥ बहुजणणं भंते.! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ ४ एवं खलु अम्मडे परिव्वायगे कपिल्लपुरे णयरे घरसए एवं जहा उववाइए अम्मडवत्तव्वया । जाव दढपइण्णो अंतं काहिति ॥ ७ ॥ अत्थिणं भंते ! अव्वाबाहा देवा ? हंता अस्थि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अव्वावाहा देवा ? अव्वावाहा देवा गोयमा ! पूर्वक अनशन कर छठे देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुए. यावत् आराधक जानना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! कितने लोक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि अम्बड परिव्राजक कपिलपुर नगर में पारणे के दिन सो घर में भोजन करता है तो यह कथन किस प्रकार है ? अहो गौतम! यह कथन सत्य है. उन को अवधि ज्ञान व वैक्रेय लब्धि प्राप्त हुई है जिस से ऐसा करता है. यावत् वह भी महाविदेह क्षेत्र में दृहपतिज्ञी कुमार जैसे कर्म क्षय करके सीझेगा, बुझेगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा. अम्बड परिव्राजक और इन के सात सो शिष्यों का उववाइजी सूत्र में बहुत विस्तार पूर्वक कथन किया है ॥७॥ अहो* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * आवार्थ 1 Page #1991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र .g देव अ. अव्यावाध दे. देव गो० गौतम प० समर्थ ए. परस्पर अ० अव्यावाव दे. देव को ए०१ । परस्पर पु० परुष की अ० अक्षि पापण में दि० दिव्य दे० देव ऋद्धि दे० देव द्युति दे. देवानु भाव ब बत्तीम प्रकार की न० नर्तविधि उ० बताने को णो नहीं तक उस पु. पुरुष को किं० किंचित् आ० आवाचवा. व्यावाध उ० उत्पन्न करे छ.छेद करे सु. सूक्ष्म उ. देखाडे से. यह ते. इसलिये जा० यावत् अ० अव्यावाध ॥ ८ ॥ प० समर्थ भ० भगवन् स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा पु० पुरुष का पभूणं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसिं अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविढेि, दिव्वं देवजुतिं, दिव्वं देवाणुभावं, दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए णो चेवणं तस्स पुरिसस्स किंचि आवाहंवा वावाहंवा उप्पाएइ छविच्छेदंवा करेइ, ___ एसुहुमं चणं उवदंसेजा ॥ से तेणटेणं जाव अब्बावाहा ॥ ८ ॥ पभूणं भगवन् ! क्या अव्याबाध देव हैं ? हां गौतम ! अव्यावाध देव है. लोकांतिक देव मध्यगत अव्याबाध देव कहे हैं. अहो भगवन् : अव्याबाध देव क्यों कहे ? अहो गौतम ! एक अव्यावाध देव एक २१ पुरुष की भ्रमर पर दीव्य देवदि, दीव्य देव युति दीव्य देवानुभाव, और दीव्य बत्तीस प्रकार के नाटकों बताने को समर्थ है परंतु उस को किंचिन्मात्र भी बाधा, विवाधा, उत्पात व चर्मच्छेद नहीं करता है. इस प्रकार मूल्म क्रिया करने में कुशल होने से अन्यावाघ देष कहाये मये हैं ॥८॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र ? " winnamaAmanawar चउदहा शतक का आठवा उद्देशा 49 भावाथ Page #1992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १९६२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * सी० मस्तक को सा• स्वहस्त से अ० असि से छि० छेद कर क. कमंडल में १० डालने को ई० हांप017 समर्थ से० वह क० कैसे इ. इस को ५० करे गो. गौतम छि० छेद कर ५० डाले भि० भेदकर ५०१ डाल कु० कूटकर १० डाले चु० चूर्णकर प० डाले त० पीछे खि० सीघ्र प. संधान करे तक उस पु० पुरुष को कि० किंचित् आ० अव्यावाध वा. व्याबाध उ० उत्पन्न करे छ० छेद क० भंते ! सके देविंदे देवराया परिसस्स सीसं सापाणिणा असिमा छिदित्ता कमंडलु पक्खिवित्तए ? हंता पभ ॥ से कहमिदाणिं पकरेइ ? गोयमा ! छिदिय छिंदिया चणंवा पक्खिवेज्जा, भिंदिय भिंदिया चणं वा पक्खिवेजा, कुटिय कुटिया चणं वा पक्खिवेज्जा, चुण्णिय चुणिया चणं वा परिखवेज्जन, तओ पच्छा खिप्पामेव पडिसं घाएजा, णो चेवणं तस्स पुरिसस्स किंचिवि आबाहंवा वाबाहं वा उप्पाएजा, छविअपने हस्त में रहा हुवा खड्ग से पुरुष का मस्तक छेदकर कमंडल में डालने को क्या समर्थ है ? हां गौतम ! वह समर्थ है. अहो भगवन ! वह कैसे करे ? अहो गौतम ! चरमादिक मे कुष्माण्डादिक छोटे २ टुकडे कर के छेदन करे, फाड कर के भेदन करे कुटकर चूर्ण करे और पीछे उस को एक कमडल में भरे परंतु उस मनुष्य को किंचिन्मात्र बाधा, विवाधा व चर्म छेद नहीं होता है; क्यों कि वह इतनी amamiwwwmmmmmmm *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ 1 Page #1993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4884 डाले ॥ ९ ॥ सरल शब्दार्थ. . छेदं पुण करेंति, एसुहमं चणं पक्खिवेजा ॥ ९॥ अत्थिणं भंते ! जंभया देवा ? हंता अत्थि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंभया देवा जंभया देवा ? गोयमा ! जंभगाणं देवा णिच्चं पमुदित पक्कीलिया कंदप्परतिमोहण सीला, जेणं ते देवे कुछ पासेज्जा, सेणं महंतं अयसं पाउणेज्जा, जेणं ते देवे तुट्टे पासेज्जा सेणं महंतं जसं पाउणेजा, से तेण?णं गायमा जंभगा देवा ॥ कइविहाणं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-अण्णजंभगा, पाणथंभगा, सूक्ष्म क्रिया करने में बहुत कुशल होता है ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! क्या जूभक देव हैं ? हां गौतम ! हैं. अहो भगवन् ! किम कारन से ऐसा कहा गया है कि जंभक देव हैं ? अहो गौतम ! जंभक देव नित्य प्रमुदित, हर्षवंत, क्रीडा सहित, केली सहित, व मोहन स्वभाववाले हैं. जिस को वे क्रुद्ध होकर देख उस को बहुत अनर्थ करे. और जिस को तुष्ट होकर देखे उस को यश प्राप्त करावे. अहो गौतम कारन से जुंभक देव कहाये गये हैं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जुंभक देव के कितने भेद कहे हैं ? अहो, गौतम ! जुंभक देव के दश भेद कहे हैं. अन्न मुंभक, पान मुंभक, वस्त्र जंभक, लयन जुंभक, शयन जूं-१ । चउदहवा शतकका आठवा उद्देशा भावार्थ 488 । Page #1994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्थजंभगा लेण भगा, सयणजंभगा, पुप्फजंभगा, फलजंभगा, पुप्फफल जंभगा, विज्जाजंभगा, अवियत्तजंभगा ॥ ११ ॥ जंभगाणं भंते ! देवा कहिं वसहि उति? गोयमा ! सव्वेसु चेव दहिवेयवेसु चित्तविचित्त जंमगपव्वएसु कंचणपव्वएसुय एत्थणं जंभगा देवा वसहिं उर्वति ॥ १२ ॥ जंभगाणं भंते देवाणं केवइयं कालंट्टिई. पण्णत्ता ? गोयमा ! एगपलिओवमं ठिई पण्णत्ता ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउद्दसम सयस्मय अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ ८ ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं ण जाणइ ण पासइ तंपुण जीव एम., पुष्प मुंभक, फल Mभक, पुष्पफल जुंभक, विद्या मुंभक और अवियत्त जंभक ॥ ११ ॥ अहो भगभावाथ वन् ! जनक देव कहां रहते हैं ? अहो गौतम ! सब वैताढ्य पर्वत पर, चित्र विचित्र नाम के यमक में पनि पर, और कंचनगिरी पर्वत पर जूंभक देव रहते हैं ॥ १२ ॥ अहा भगवन् ! जंभक देवताओं की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति कही. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चउदहवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १४ ॥८॥ 6 आठवे उद्देशे में देवता की सामर्थ्यता कही. देवता से भी अधिक मुख के. भोक्ता साधु है इस से 42 अनुवादक:बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gt * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #1995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ (भगवती ) सूत्र <228 খাবধ सरूविं सकम्मलेस्सं जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! अणगारेणं भावियप्पा अप्पणो जाव पासइ ॥ १ ॥ आत्थिणं भंते ! सरूविं सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४ ? हंता आत्थि ॥ कयरे भंते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति जाब पभासंति ? गोयमा ! जाई इमाओ चंदिम सूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ वहिया आभिनिस्सडओ पभाति एएणं गोयमा ! ते संरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला इस का कथन नववे उद्देशे में कहते हैं. अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार छद्मस्थपना से अपने कर्म संबंधी कृष्णादि लेश्या को सुक्ष्म भाव से ज्ञान से जाने नहीं व दर्शन से देख नहीं और उसेही पुनः जीव के शरीर कर्म लेश्या सहित क्या जाने देख? हां गौतम ! भावितात्मा साधु जाने देखे ॥१॥ #अहो भगवन् ! वर्णादि सहित स्वरूपी कर्म लेश्या क्या प्रकाशती है ? हां गौलम ! प्रकाश करती है." अहो भगवन् ! कितने स्वरूपी उदारिक शरीरी जीव के कर्म लेश्यावाले पुद्गल प्रकाशते हैं ? अहो गौतम ! चंद्र सूर्य के विमान से जो लेश्यो समुह बाहिर नीकला वह प्रकाश करे. अहो गौतम ! इस से १ १ यद्यपि इन में कर्म लेश्या नहीं है परंतु चंद्र सूर्य के विमान में पृथ्वीकाय रूप सचेतनपना रहा हुवा है उस में से है 5 नीकलने के कारन से कर्म लेश्या ग्रहण की है. चउदहवा शतक का नववा उद्दशा gi Page #1996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६६ भावार्थ 4.8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी ओभासंति ४ ॥ २ ॥ णेरइयाणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला अणता पोग्गला ? गोयमा ! णो अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला ॥ असुरर्कुमाराणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला अणता पोग्गला?गोयमा! अत्ता पोग्गलाणो अणत्ता पोग्गला, एवं जाव थाणिय कुमाराणं । पुढवी काइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! अत्तावि पोग्गला अणत्तावि पोग्गला, एवं जाव मणुस्साणं ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणियाणं जहा असुर कुमाराणं ॥३॥ णेरइयाणं भंते ! किं इट्ठा पोग्गला आणिट्ठा पोग्गला ? गोयमा ! णो इट्ठा पोग्गला सरूपी कर्म लेश्यावाले पुद्गल प्रकाशते हैं ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को क्या दुःख रहित करे वैसे पुद्गल हैं या दुःख रहित न करे वैसे पुद्गल हैं ? अहो गौतम ! नारकी को दुःख कारक पुद्गलों हैं परंतु दुःख रहित करे वैते पुद्गलों नहीं हैं. अहो भगवन् ! असुरकुमार को क्या दुःख कारक पुद्गलों हैं या दुःख नहीं करे वैसे पुद्गलों हैं ? अहो गौतम ! दुःख से रहित करे वैप्से पुद्गलों हैं परंतु दुःख कारक पुद्गलों नहीं हैं. ऐसे ही स्थनित कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वीकाया को क्या दुःख रहित पुद्गलों हैं या दुःख भी सहित पुद्गलों हैं ? अहो गौतम ! दुःख रहित व दुःख साहेत ऐसे दोनों पुद्गल रहे हुवे हैं. ऐसे ही शेष चार स्थावर, लीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का जानना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असुरकुमार जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को क्या इष्ट पुद्गल या अनिष्ट पुद्गल हैं ? प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #1997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अणिट्ठा पोग्गला, जहा. अत्ता भणिया एवं इट्ठावि, कंतावि, पियावि, मणुण्णावि, भाणियवा. एवं पंचदंडगा ॥ ४ ॥ देवेणं भंते ! महिदिए जाव महेसक्खे स्वसहस्सं विउव्वित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए ? हंता पभू ॥ साणं भंते ! किं एगाभासा भासासहस्सं ? गोयमा ! एगाणं सा भासा णो खल तं भासासहस्सं ॥५॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरोग्गतं बालसूरियं जासुमणकुसुम पुंजप्पगासं लोहितगं पासइ पासइस्ता जायसढे जाव समुपण्ण कोउहल्ले जेणेव समणे भावार्थ | अहो गौतम ! इष्ट पुद्गल नहीं हैं परंतु अनिष्ट पुद्गल हैं. वगैरह जैसे आत्मा [दुःख रहित ] पुद्गलों जैसे कहना. और ऐसे ही इष्ट कान्त. प्रिय, मनोज्ञ यों पांच दंडक कहना ॥४॥ अहो भगवन ! महर्टि यावत् महा सुखवाला देव सहस्र रूप का वैक्रेय करके क्या सहस्र भाषा बोलने में समर्थ होता है? हां गौतम! वह समर्थ हो सकता है. अहो भगवन् ! क्या वह एक भाषा बोलता है या सहस्र भाषा बोलता है ? अहो गौतम! एक भाषा बोलता है परंतु सहस्र भाषा नहीं बोलता है क्यों की एक जीव को एक उपयोग होता है ॥५॥ उस काल उस समय में उदित होता हुवा बाल सूर्य को कुमुद के कुसुम समान लाल रंग का देख कर भगवंत श्री गौतम स्वामी को प्रश्न पुछने की श्रद्धा यावत् कतुहल उत्पन्न हुवा और 1* श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास जाकर उन को वंदना नमस्कार कर के ऐसा बोले कि अहो भगवन् 2201 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4 चउदहवा शतक का नवा उद्देशा । Page #1998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ १० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जाव णमंसित्ता, एवं वयासी किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठे ? गोयमा ! सुभे सूरिए सुभे सूरियस्स अट्टे ॥ किमिदं भंते ! सूरिए, किमिदं सरियस्स पभा ? एवं चेव ॥ एवं छाया, एवं लेस्सा ॥ ६ ॥ जेइमे. अज्जत्तए समणा णिग्गंथा विहरंति, एएणं कस्स तेउलेस्सं वीईवयइ ? गोयमा ! मास परियाए समणे जिग्गंथे वाणमंतराणं. देवाणं तेउलेस्सं बीईवयइ; दुमास पस्यिाए समणे णिग्गंथे असुरिंदवजियाणं, भवणवासीणं देवाणं. यह सूर्य क्या है और सूर्य से क्या प्रयोजन है ? अहो गौतम ! सूर्य का विमान पृथ्वीकायिक जीवों के आतापना नामकर्म की पुण्य प्रकृति से प्रसता है इस से शुभ स्वरूप सूर्य है सूर्य का प्रयोजन भी शुभ है. अहो भगवन् ! सूर्य क्या है. और सूर्य की प्रभा क्या है ?. अहो गौतम ! शुभ स्वरूप सूर्य है और शुभ स्वरूप सूर्य की प्रभा है. ऐसे ही छाया व लेश्या का जानना. ॥ ६ ॥ अब इस को प्रकारान्तर से ! जो वर्तमान काल पने श्रमण निर्ग्रन्थ विचरते हैं इस में किसकी प्रशस्त तेजो लेच्या अतिक्रमे ? अहो गौतम ! जो एक मास की पर्याय को धारन करते हैं वे वाणव्यतर देवता की तेजो लेश्या को अतिक्रमते हैं अर्थात् वाणव्यंतर के मुख से अधिक सुख के भोक्ता बनते हैं, की पर्याय, वाले श्रमण निर्ग्रन्थ असुरेन्द्र छोडकर भवनपति देवों की, लेश्या को अतिक्रमते हैं.. अर्थात् * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * । Page #1999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६९ पंचमांग विवाह पण्णति ( भमवती) सूत्र 48 तेयलेस्सं विश्वयइ, एवं एएणं आभिलावेणं. तिमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुर कुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वाइवयइ, चउमास परियाए समणे णिग्गंये गहगण लक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयइ, पंचमास परियाए . समणे पिगंथे चंदिम-सूरियाणं जोइसियाणं जोइसिरायाणं तेयलेस्सं वीइवयइ ; छम्मास परियाए समणे णिग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं, सत्तमास परियाए सणंकुमार माहिदाणं देवाणं, अट्टमास परियाए समणे णिग्गंथे बंभलोगलंतगाणं देवाणं, तेयलेस्सं वीइवयइ, णवमास परियाए समणे णिग्गंथे महासुक्कसहस्साराणं देवाणं भवनपति देवों के सुख से अधिक सुख के भोक्ता होते हैं, तीन मास की पर्याय वाले असुरेन्द्र की तेजो लेश्या को अतिक्रमत हैं, चार मास की पर्याय वाले ग्रह नक्षत्र ताराओं की तेजो लेश्या को अतिक्रमते हैं पांच मास की पर्यायवाले ज्योतिषी के राजा चंद्र सूर्य की तेजो लेश्या को अतिक्रमते हैं, छ मास की पर्याय वाले सौधर्म ईशान देवलोक की तेजो लेश्या को अतिक्रमे, सात मास की पर्याय वाले सनत्कुमार माहेन्द्र, आठ मास की पर्यायवाले श्रमण निग्रंथ ब्रह्मदेवलोक वं लंतक, नव मास की पर्यायवाले श्रमण निग्रंथ महाशुक्र व सहस्रार, दश मास की पर्यायवाले श्रमण निग्रंथ आणत, पाणत, आरण व अच्युत, अग्यारह मास की पर्यायवाले श्रमण निग्रंथ त्रैवेयक, बारह मास की पर्यायवाल श्रमण निग्रंथ अनुत्तरो 488- चउदहवा शातक का नववा उद्देशा भावार्थ Page #2000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १९७० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + तेयलेस्स वीईवयइ, दसमास परियाए समणे जिग्गंथे आणयपाणयआरणन्चुयाणे देवाणं, एक्कारसमास परियाए समणे णिग्गंथे गेवेजग देवाणं, बारसमास परियाए समणे णिग्गंथे अणुत्तरोक्वाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ, तेणपरं सुक्के सुधाभिजाए भवित्ता, तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउद्दसम सयस्सय णवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ ९॥ . केवलीणं भंते ! छउमत्थं जाणइ पासई ? हंता जाणइ पासइ ॥ ॥ जहाणं भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ पासइ तहाणं सिद्धेवि जाणइ पासइ ? हंता जाणइ । पपातिक देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रमे; फीर आगे शुक्ल शुक्लाभिजात बनकर सीझे, बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं. यह चौदहवा शतक का नववा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ ९ ॥ है नववे उद्देशे में शुक्लपना कहा और इमी से केवली प्रभृति अर्थ प्रतिवद्ध दशवा उद्देशा कहते हैं. अहो भगवन् ! क्या केवली छमस्थ को जाने देख ? हां गौतम ! केवली छमस्थ को जाने देख. अहो भगवन् ! जैसे केवली छमस्थ को जाने देखे वैसे ही क्या सिद्ध छद्मस्थ को जाने देखे ? हां सिद् भी केवली भकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwni पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 438 'पासई ॥१॥ केवलीणं भंते ! आधोधियं जाणइ पासइ ? एवं चैव एवं परमा होहियं एवं केवलिं एवं सिद्ध जाव जहाणं भंते ! केवली सिद्धं जाणइ पासइ, तहाणं सिद्धवि सिद्धं जाणड पासह ? हंता! जाणइपासह ॥२॥ केवली भंते ! भासेज्जवा वागरेजवा ? हंता भासेजवा वागरेजवा । जहाणं भंते ! केवली भासेज्जवा है वागरेजवा तहाणं सिद्धेवि भासेजवा वागरेजवा ? णोइणटे सम? ॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहाणं केवली भासेजवा वागरेजवा णो तहाणं सिद्धे भासेजवा वामरेजवा ? गोयमा ! केवलौणं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकार जैसे जाने देख ॥ १॥ अहो भगवन् ! केवली मर्यादित क्षेत्र नाननेवाले अवधिज्ञानी को क्या जाने देखे? हां गौतम ! जैसे छअस्थ का कहा वैसे ही जानना. ऐसे ही परम अवधि ज्ञानी व केवल ज्ञानी व सिद्ध का जानना. जैसे केवली मर्यादित अवधि, परम अवधि केवल ज्ञानी व सिद्ध को जानते देखते हैं बैसे ही सिद्ध जानते व देखते हैं ॥२॥ अहो भगवम् ! क्या केवली बोलते हैं ? हां गौतम ! केवली पोलते हैं.41 अहो भगवन् ! जैसे केवली बोलते हैं वैसे ही क्या सिद्धं बोलते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् सिद्ध नहीं बोलते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से जैसे केवली बोलते हैं वैसे सिद्ध1 48. चउदहवा शतक का दशवा उद्देशा 48 भावार्थ Page #2002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ परकमे, सिद्धेणं अणुट्ठाणे जात्र अपुरिसक्कार परक्कमे से तेजद्वेणं जात्र जो वागरेजवा ॥ ३ ॥ केवलीणं भंते ! उम्मिसेजवा निम्मिसेज्जवा ? हंता गोयमा ! उम्मिसेज्जया णिम्मिसेजवा; एवं चैव ॥ एवं आउट्टेजवा पसारेजवा एवं ठाणंवा सेजवा णिसीहियंत्रा वेज्जा ॥ ४ ॥ केवलीणं भंते ! इमं रथणप्पभं पुढविं रयणप्पभ पुढवीत जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! जाणइ पासइ ॥ जहाणं भंते ! केवली इमं श्यणप्पभ्रं पुढविं रयणप्पभ पुढवीति जाणइ पासइ, तहाणं सिद्धेवि इमं रयणप्पभ्रं पुढारणपभ पुढवीत जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ । केवलीणं भंते! मक्कपर्भ पुढर्वि सकरप्पभ पुढवीति जाणइ पासइ ? एवं चेव ॥ एवं जात्र अहे सत्तमं ॥ { नहीं बोलते हैं ? अहो गौतम ! केवली को उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम है और सिद्ध को उत्थान यावत् पुरुषास्कार पराक्रम नहीं है इस से अहो गौतम ! वे नहीं बोलते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्या केवली मेषोन्मेष करे ? हां गौतम ! केवली मेषेोन्मेष करे वगैरह सत्र पूर्वोक्त { जैसे कहना. ऐसे ही हस्त पावादि का संकुचित, प्रसारण, कायोत्सर्ग, शैय्या व ध्यान का जानना ॥ ४ ॥ { अहो भगवन् ! केवली रत्नप्रभा पृथ्वी को क्या रत्नप्रभा पृथ्वी जाने देखे ? हां गौतम ! जाने देखे. अहो भगवन् ! जैसे केवली रत्नप्रभा पृथ्वी को रत्नप्रभा पृथ्वी जाने देखे वैसे ही सिद्ध क्या रत्नप्रभा पृथ्वी को 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ● की शर्कराजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १९७२ Page #2003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमोंग वहाव पण्णाने ( भगवती ) सूत्र 4 केवलीणं भंते! सोहम्मं कप्पं सोहम्म कप्पेति जाणइ पासइ ? एवं चेव ॥ एवं ईसाणं, एवं जात्र अच्चुयं ॥ केवलीणं भंते । गेविजग विमाणं गेविजगविमाणेति जाइ पाइ ? एवं चेत्र ॥ एवं अणुत्तरविमाणेवि ॥ केवलीणं भंते ! ईसिप्पन्भारं पुढ ईसिप्प भार पुढवीति जाणइ पासइ ? एवं चेव ॥ ५ ॥ केवलीणं भंते! परमाणु पोग्गलं परमाणु पोग्गलेति जाणइ पासइ ? एवं चेव । एवं दुपदेसियं खंधं, एवं जाव अनंत पदेसियं स्वधं ॥ जहाणं भंते केवली अणतपदेसिए खंधेति जाणइ पासइ तहाणं सिद्धेकि अणतं पदेसियं खंधं जाव पासइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ चउद्दसम सयस्सय दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ १० ॥ सम्मत्तंय चउद्दसमं सयं ॥ १४ ॥ रत्नप्रभा पृथ्वी जाने देखे ? हां गौतम ! जाने देखे. ऐसे ही शर्कर प्रभा पृथ्वी यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी का जानना. जैसे नारकी का कहा. वैसे ही सौधर्म ईशान यावत् अच्युत, ग्रैवेयक, अनुत्तर विमान व ईषत्प्रागभार पृथ्वी का जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! केवली परमाणु पुद्गल को क्या परमाणु पुद्गल (जाने देखे ? हां गौतम ! वैसे ही जानना. ऐसे ही द्विपदेशात्मक स्कंध, यावत् अनंत प्रदशात्मक स्कंध का जानना. वैसे ही सिद्ध भी अनंत प्रदेशिक स्कंध को जाने देखे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह चौदहवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ १० ॥ यह चौदहवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ १४ ॥ ० ० 4- चउदडवा शतक का दर्शवा उदशा 498+ १९७३ Page #2004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिजी ॥पञ्चदशशतकम् ॥ शब्दार्थ ण. नमस्कार सु० श्रुत दे० देवता भ० भगवती को ते. उस काल उ० उस समय में सा. श्रावस्ती इण० नगरी हो. थी व० वर्णन युक्त ॥ १ ॥ ती० उस साल श्रावस्ती ण नगरी की उ० ईशान कौन में को० कोष्टक चे• उद्यान हो० था व० वर्णन युक्त ॥ २॥ त० तहां सा० श्रावस्ती न. नगरी में हा० हालाहला कुं० कुंभकारिणी आ० आजीविक उ० उपासिका ५० रहती है अ० ऋद्धिवन्त जा. यावत् णमो सुअदेवयाए भगवईए ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी णामं णयरी होत्था, वपणओ ॥ १ ॥ तीसेणं सावत्थीए णयरीए उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए तत्थणं कोट्टए णामं चेइए होत्था, वण्णओ ॥ २ ॥ तत्थणं सावत्थीए णयरीए हालाहला णाम कुंभकारी आजीविय उवासिया परिवसइ, अड्डा जाव अपरिभूया ॥ आजीवियसमभावार्थ प्रथम मंगलाचरण निमित्त श्रुत देवता को नमस्कार करके कहते हैं कि चौदहवे शतक में केवली रत्नप्रभादि वस्तु जाने. उस का आत्म संबंधी परिज्ञान श्री श्रमण भगवन्त महावीरने गौतम के लिये प्रगट किया. उस काल उस समय में श्रावस्ती नगरी थी. वह चंपा नगरी जैसी वर्णन योग्य थी ॥१॥ उस कश्रावस्ती नगरी के ईशान कौन में कोष्टक नाम का उद्यान था ॥२॥ उस श्रावस्ती नगरी में हालाहला नाम की कुंभकारिणी आजीविक मत की उपासिका थी. वद्द ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूत थी. आजीविका ब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक mmomainamainamainamainamamana प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* nam Page #2005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ अ० अपराभून आ० आजीविक म० मत में ल० अर्थ प्राप्त कीया है ग० अर्थ ग्रहण कीया है पु० अर्थः । पुछा है वि० अर्थ निश्चय कीया है अ. अस्थि मि. मिंज पे० प्रेम से रक्त न० आयुष्यवन्त श्रमण आ० 100 भाजीविक मत में अ० अर्थ अ. यह अर्थ ५० परम अर्थ से० शेष अ. अनर्थ आ. आजीविक मत में अ० आत्मा को भा० भावती वि• विचरती है ॥ ३ ॥ ते० उस काल ते. उस समय में गो० गोशाला 3 • मेखली पुत्र च० चौवीस वा० वर्ष की प० पर्याय से हा. हालाहला कुं• कुंभकारिणी की कु०१ __ यसि लट्ठा गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अट्टिमिंज पेमाणुरागरत्ता, अयमाउसो ! आजीविय समए अटे अयमढे परमढे, सेसे अणद्वेत्ति ॥ आजीविय समएणं अप्ाणं भावेमाणी विहरइ ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं गोसाले' मंखलिपुत्ते चउर्वासवास परियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघ संपरिमत में प्ररूपित सिद्धांतों को उसने प्राप्त किया था, रल की तक, सामादिया था, कूकर निश्चय किया था, उस की हड्डी व हड्डियों की मिजियों प्रेमानुराग से रक्त बनी हुई था. ध चर्चा के प्रसंग वह यही कहती थी कि अहो आयुष्मन् ! आजीविक के शास्त्रों प्रयोजन मय हैं, वेही परमार्थ सुख के कारणभूत हैं, 13 और शेष सब अनर्थ के हेतुभूत है. इस तरह आजीविक समय में स्वतः को भावती [विचारती ] हुइ रहती थी॥३॥ उस काल उस समय में मंखलिपुत्र गोशाला चौवीस वर्ष पर्यंत पर्याय पालकर हालाहला पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4380865 पत्ररहवा शतक 48* Page #2006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4/कुंभार की दुकान में आ० आजीविक सं०परिवार से सं० घेराया हुवा आ० आजीवक मत से अ० आला को भा० भावता वि० विचरता है ॥ ४॥ त• तब त° उस गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र को अ०१३ एकदा छ० छ दि० दिशाचर पा पास आये त० वह न० जैसे सा० शाण क. कणंद क. कर्णिकार अ. अच्छिद्र अ० अग्नि वैशायन अ०अर्जुन गो० गोमायु पुत्र ॥५॥ तक तब ते. वे छ० छ दि० दिशाचरई १९७६ वुडे अजीविय समएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ४ ॥ तएणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णयाकयाई इमे छदिसाचरा पाउन्भावित्था, तंजहा- साणे कणंदे कणियारे, अच्छिदे अग्गिवेसायणे ; अजुणे गोमायुपुत्ते ॥ ५ ॥ तएणं ते छदि. भावार्थ कुंभकारिणी की दुकान में आजीविक संघ से परवरा हुवा स्वतः को भावता हुवा विचरता था ॥४॥ एकदा छ दिशाचर पार्श्वस्थ बनकर गोशाला की पास आये. जिन के नाम. १ शाण २ कर्षद | कर्णिकार ४ अच्छिद्र ५ अप्रिवेशायन और ६ अर्जुन ॥५॥ उोंने १ दीव्य, २ उत्पात ३ अंतरिक्ष ४ भोम ५ अंग ६ स्वर ७ लक्षण और ८ व्यंजन यो आठ प्रकार के निमित्त और गीतमार्ग व नृत्यमार्गकी १ उक्त छ दिशाचर महावीर स्वामी के शिष्य थे ऐसा टीकाकार कहते हैं और चूर्णिकार पार्श्वनाथ स्वामी के 17 संतानीये थे वैसा कहते हैं, 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी 21 nmmmmmmmmmmmmmmmmmwww कासक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अ. आठ प्रकार का पु० पूर्व गत म० मार्गदर्शन स० अपनी म. मतिदर्शन से णि उद्धरे है। गोशाला मं० पखलि पुत्र को उ० स्थापन करे ॥६॥३० तर गो० गोशाला मं० मंखलि पुत्र उस अ. अष्टांग म. महानिमित्त का के० कोइएक उ० उपदेश मात्र से स० सर्व पा० प्राण भू. जी0 जीव स. सत्व का इ० इस छ० छ अ०व्यभिचार रहीत बा० प्रश्न वा० कहे तं. वह ज. जलालाभ अ० अलाभ सु० मुख दु० दुःख जी० जीवित म० मरण ॥ ७॥ त० तब गो० गोशाला साचरा अट्ठविहं पुव्वगयं मग्गदसमं सएहिं मइदंसणेहिं णिज्जूहिति, सएहिं २ तित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उबट्टाइंस ॥ ६ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सब्बोस पाणाणं, सव्वेसि भयाणं, सब्बोसि जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई वागरणाई वागरइ, संजहा-लाभं अलाभं सुहं दुखं जीवियं मरणं ॥ ७ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते भावार्थ अपनी २ बुद्धि पूर्वक पूर्वगत लक्षण से श्रुत पर्याय में से नीकलकर मंखलीपुत्र गोशाला का आश्रय ग्रहण किया. अर्थात् उन के शिष्य बने ॥ ६ ॥ अब वह गोशाला उस अष्टांग महा निमित्त के उपदेश मात्र से सब प्राणि, भूत, जीव व सत्व छ कृत्य उल्लंघ नहीं सकते हैं ऐसा कहने लगा. जिन के नाम लाभ, असाम, मुख, दुःख जीवित और मरण ॥ ७॥ अब वह मखली पुत्र गोशाला उक्त अष्टांग महा निमित्त में। dan पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) स्त्र 489 पबरहवा शतक+ wamannow १ +8 Page #2008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७८ शब्दार्थ + मखलि पुत्र ते उस अ० अष्टांग म० महानिमित्त का के० कोइ एक उ० उपदेश से सा० श्रावस्ती : १० नगरी में अ० अजिन जि. जिन प्रलापी अ. अरिहंत नहीं अ० अरिहंत प्रलापी अ० अकेवली के. केवली प्रलापी अ० असर्वज्ञ स. सर्वज्ञ प्रलापी अ० जिन नहीं जि० जिन शब्द प० बोलता वि. विचरता है ॥८॥त. तब सा० श्रावस्ती ण. नगरी के सिं० श्रृंगादक जा. यावत् प० रस्ते में व. बहु मनुष्य अ० अन्योन्य एक ऐसा आ० कहते हैं जा. यावत् प० प्ररूपते हैं ए. ऐसे ख० खलु दे. प्रिय गो० गोशाला में मंखलिपुत्र जि० जिन जि० जिन प्रलापी जा. यावत् ५० बोलता वि. तेणं अटुंगस्स महाणिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए णयरीए अजिणे जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवली पलावी, असव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई पगासमाणे विहरइ ॥ ८ ॥ तएणं सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ, जाव एवं परूवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिगप्पलावी जाव पगासमाणे भावार्थ से किसी एक उपदेश से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुवे जिन, अर्हन नहीं होते हुवे अर्हन, केवली. नहीं होते हुवे केवली, और सर्वज्ञ नहीं होनेपर सर्वज्ञ हूं ऐमा प्रलाप करने लगा ॥८॥ उस समयमें श्रावस्ती , नगरी में अंबाटक याक्त राजमार्ग में बहत मनुष्य परस्पर ऐसा कहने यावत् प्ररूपने लगे कि खली पुत्र 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .मकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* . भारी में श्रृंबाटक यात् Page #2009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब्दार्थ 48 पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र <2.984 विचरता है से. वह क० कैसे ए. यह म० माने ॥ ९॥ ते. उस काल ते. उस समय में सा० स्वामी/41 स. पधारे जा. यानत् प० परिषदा प० पीछी गई ॥ १० ॥ ते. उस काल में उ० उस समय में स० श्रमण भ० भगवन्तम महावीर का ज. ज्येष्ठ अं० अंतेवासी इं० इंद्र भति अ० अनगार गोल गौतम गोल गोत्र से छ. छठछठ से ए० एसे ज. जैसे वि. दूसरा शतक में णिनिग्रंथ उ. उद्देशा जायावत् अ० फीरते ब० बहुत मनुष्यों के स० शब्द णि सुने व० बहुत मनुष्य अ० अन्योन्य बिहरइ; ते कहमेयं मण्णे एवं ? ॥ ९॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोहै सढे जाव परिसा पडिगया ॥ १० ॥ तेणं कालणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी इंदभूईणाम अणगारे गोयम गोत्तेण जाव छटुं छट्टेणं एवं जहा बिइयसए णियठदसए जाव अडमाणे बहुजणसदं णिसामइ बहुजणो अण्णमगोशाला जिन प्रलापी यावत् प्रकाश करता हुवा विचरता है ॥ ९ ॥ उस काल उस समय में स्वामी पधारे यावत् परिषदा धर्मोपदेश मुनकर पीछी गइ ॥ १० ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार छठ २ की तपस्या का पारणा करते वगैरह जैसे दूस शतक के निग्रंथ उद्देशे में कहा वैसे फीरते हुवे बहुत मनुष्यों से ऐसा सुना कि बहुत मनुष्यों परस्पर ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि मेखली पुत्र गोशाला जिन प्रलापी पावत् प्रकाश करता हुवा, विचरता । पनरहवा शक 488488 Page #2010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १९८० मुनि श्री अमोलक * अनुवादक-बालब्रह्मचारी ए. ऐसा आ० कहते हैं ए. ऐसे दें. देवाननिय गोड गोशाला मं० मैखलि पुत्र जि० जिन जि जिन प्रलापी जा०. यावत् प० बोलता वि० विचरता है से वह क• कैसें ए. यह. १०. माने एक ऐसे त० तब भ० भगवन्त. गो. गौतम ब०. बहुत मनुष्य की अं० पास ए० यह अर्थ सो० सुनकर णि अवधार कर जा० यावत् जा०. श्रद्धा उत्पन्न हुई जा. यावत् भ० भक्तपान ५०. बतावे ना० यावत् । ५० पर्युपासना करने ए. ऐसा व० बोले ए. ऐसे ख० निश्चय अ० मैं भं० भगवन् छ. छउ तं०. तैसे ण्णस्स एव माइक्खइ ४ एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासमाणे विहरइ, से कहमेयं मण्णे एवं ? ॥ तएणं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमद्रं सोचा णिसम्म जाव जाय. सड़े जाव. भत्तपाणं पडिदंसेइ जाव पज्जुवासमाणे एवं क्यासी एवं खलु अहं भंते! छटुं तंचव जाव जिणसई पगासहै. यह ऐसा कैसे माना जाने ? इस समय में भगवंत गौतम बहुत. मनुष्यों से ऐमा सुनकर अवधार, कर यावत् संदेह उत्पन्न हुवा यावत् भक्त पान बतलाकर यावत् पर्युपासना करते हुवे ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! छठ के पारने के लिये श्रावस्ती नगरी में फीरता हुवा बहुत लोकोंको परस्पर ऐसा वार्तालाप करते हुवे मैंने मुने कि मखली. पुत्र गोशाला कहता है कि मैं जिन हूं इस प्रकार प्रलाप. करता हुवा विचरता है. अहो । शंक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ: Page #2011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जा. यावत् जिजिन शब्द ५०मोलसा वि. विचरता है से०वह क कसे ए. यह भ० भगवन् ए. ऐसा इच्छता हूं भ० भगवन् गो० गोशाला मं० खलि पुत्र का उ० पहिले से ५० संबंध ५० कहाया है ॥ ११ ॥ गो. गौतमादि स० श्रमण भ० भगवन्त म० महाधीर भ. भगवान् गो० गौतम को ए. ऐसा • बोले जं. जो गो गौतम बहुत ज०मनुष्य अ० अन्योन्य आ०कहते हैं गोगोशाला म०मखलि पुत्र जि० जिन जि. जिन प्रलापी जा० यावत् प० बोलते वि. विचरते हैं तं० वह मि० मिथ्या अ. मैं गो. है। समाणे विहरइ, से कहमेयं भंते ! एवं ? इच्छामिणं भंते ! गोसालस्स मंस्खलि पुत्तस्स उट्ठाणपरियाणियं परिकाहियं ? ॥ ११ ॥ गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी जंगं गोयमा ! से बहुजणे अण्णमण्णस्म एव माइक्खइ४ एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाब पगासमाणे विहरइ,तणं मिच्छी भयवन् ! यह किस तरह है ? मंबलीपुत्र गोशाला का जन्म से लगाकर आजतक सब संबंध सुनने को मैं इच्छता हूं ॥ ११ ॥ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने गौतम स्वामी को ऐसा कहा कि अहो 3 गौतम! तुपने बहुत मनुष्यों से ऐसा मुना है कि मंखलि पुत्र गोशाला जिन, जिन प्रलापी धावत् 13 विचरता है यह मिथ्या है. मैं इस को ऐसा कहता हूं यावत् भरूपता हूँ कि मखलिपुत्र गोशालामा (भगवती) पंचमान बहाय पण्णति वा Page #2012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + गौतम ए० ऐसा आ० कहता हूं जा. यावत् प० प्ररूपता १० इस गो• गोशाला में मखलि. पुत्र का मं० मंखलि णा नाम का मं० भिक्षुक पि० पिता हो० था त० उस मं० मंखलि भं• भिक्षुक 4 को भ० भद्रा भा० भार्या हो० थी सु. सुकुमार जा. यावत् प० प्रतिरूपा ॥ १२ ॥ त० तब सा०. वहन भद्रा भा० भार्या अ० एकदा गुरु गर्भवती हो० थी ॥ १३ ॥ ते. उस काल-ते. उस समय में स०१ सरवण स. सनिवेश हो० था रि• ऋद्धिवंत जा० यावत् स. देवलोक समान पा० प्रासादिक ॥ १४ ॥ अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु एयस्स गोसा लस्स मंखलि पुत्तरस मंखालणामं मैखे पिता होत्था, तस्सणं मंखालमखस्स भट्टा _णामं भारिया होत्था सुकुमाल जाव पडिरूवा ॥ १२ ॥ तएणं सा भद्दा भारिया अण्णयाकयाइं गुम्विणीयावि होत्था, ॥ १३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे णामं साण्णवेसे होत्था, रिहत्थमिय जाव साणिभप्पगासे पासादीए ॥ १४ ॥ का मंखलि. नाम का मंच पिता था. उस में बलि नामक मंख को भद्रा भार्या थी वह सुकुमार यावत् प्रति रूपाथी ॥ १२ ॥ एकदा वह भद्रा भार्या गर्भवती हुई ॥ १३ ॥ उस काल उस समय में सरवण नाम - का सन्निवेश था वह ऋद्धि से परिपूर्ण यावत् देवलोक समान देखने योग्य था. ॥ १४ ।। उस सरवण सनिवेश काष्ट के पटियेपर अनेक चित्रों चित्रकर लोकों को बताकर उस से अपनी आजीविका करे उसे मंख कहते हैं. १ प्रकाशकर जाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ : wwwAKAM 6. Page #2013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ 6. शब्दार्थ 4 . तहां स सरवण स. सन्निवेश में गो. गोबहुल मा० माहण प० रहता था अ. ऋद्धिपंत जा. यावत् अ. अपरिभूत रि. ऋग्वेद जा. यावत् मु० मुपरिनिष्टित हो० था ॥ १५ ॥ तक उस गो। गोबहुल को गो० गोशाला हो० थी ॥१६॥त. तब से वह मं० मखलि मं० भिक्षुक अ० एकदाई भ० भद्रा भा. भार्या गुः गर्भवती स. साथ चि० चित्र फ० पटिया ह. हस्त में मं० भिक्षावृत्ति से अ030 आत्मा को भा. भावता पु० अनुक्रप से च० चलता गा० ग्रामान्यांम दू० जाता जे० जहां स० सरवण तत्थणं सरवणे सण्णिवेसे गोबहुले णामं माहणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभए । रिउव्वेय जाव सुपरिणिट्टिएयावि होत्था ॥ १५ ॥ तस्सणं गोबहुलस्स माहणस्स है गोसालायावि होत्था ॥ १६ ॥ तएणं से मंखलिमखणामं अण्णयाकयाई भद्दाए है भारियाए गुम्विणीए साई चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुन्वाणु पुल्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जणेव सरवणे साण्णवेसे जेणेव गोबहुलस्स : में मोबहुल नामका ब्राह्मण रहता था वह ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूत था. ऋग्वेद यावत् मुपरिनिष्टित था । ॥ १५॥ उस गोबहुल ब्राह्मण को गायों रहने की शाला ( ठाण) थी ॥१६॥ एकदा मखली। नामक मंख अपनी गर्भवती स्त्री साथ हस्त में चित्रित काष्ट के टुकडे से भीक्षा याचता हुवा ग्रामानु ग्राम है। *फीरता हुवा सरवण सनिवेश में गोचहुल ब्रह्मण की गोशाला में आया. वहां आकर गोबहुल ब्रह्मण की । पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र पत्ररहवा शतक भावाथ oyo Page #2014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | १९५ * अनुवादक-बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी सनिवेश जे. जां गो० गोपाल मा० माहण की मौ० गौशाला ते. बी उ० जाकर मो० गौबाबा याहन की मो० गौशाला के ए. एक भाग में भं. पात्र निक्षेप क. करके स० मरवण म. समि देश के 70 ऊचणी.नीच म. मध्य कु. कल में घ. घर समदाण का भि. भिक्षा केलिये अ. शोधता 40 वसति स. चारों घाजु प. मार्ग ग. गोषण क. करे व० बमति की म. चारों गजु म. मार्म ग. गोषण क. करता अ. अन्यत्र व. वसति को अ० नहीं प्राप्त होने तक उस गो गोबद्दल मा० माइन की गो• गौशाला के ए० एकदेश में वा. वास उ० किया ॥ १७ ॥ त तब मा. वह भ० भद्रा भा० माहणस्स गोसाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदससि भंडाणक्खेवं करेइ, करेइत्ता सरवणे साण्णवसे उच्चणीयमाञ्झमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायारयाए अडमाणे वसही, सबओ समता मग्गणगवेसणं करे, वसहीए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अण्णत्थ वसहिं अलभमाणे तस्सेत्र गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेमंसि वासावासं उवागए॥१७॥ तएणं सा भद्दा गोशाला के एक विभाग में भंडोपकरण ख. और सावण मन्निवेश के ऊंच नीच व मध्यम कुल में घर समुदान की भीक्षा के लिये फोरनेहा वसा में मार्गपणा करने लगा. व पति में मार्ग गषणा करते अन्य स्थान नहीं मीलने से उस गोबल ब्रह्मण की गोशाला के एक विभाग में रहा.॥ १७ ॥ अब उम मादा प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी। Page #2015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 मार्या ण• नव मा० माप का बहुत ५० प्रतिपूर्ण अ. अर्ध अ० आठ रा० रात्रिदिवस बी० व्यतीत होते सु० सुकुमार जा. यावत् ५० प्रतिरूप दा० पुत्र का ५० जनपदीया त० तब त• उस दा• पुत्र के .3001 माता पिता ए. अग्यारवा दि० दिवम वी० व्यतीत होने जा. यात बा. बावं दि० दिवस इसरूप गो० गौण गु० गुणनिष्पन्न णा० नाम क• कर अ० हमारा इ० यह दा• पुत्र गो० गोबहुल मा० माहण की गो गौशाला में जा० उत्पन्न हुवा तं० इमलिये हो० होओ अ० हमारा इ० इस दा० पुत्र का कणा. नाम गो० गोशाला त. तब त° उस दा० पुत्र के अ० माता पिता णा० नाम क.. भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमाल जाव पडिरूवं दारगं पयाता तएणं तस्स दारगस्स अम्माषियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते जाव बारमाहे दिवसे अयमेयारूवं गोणं गुणणिप्पणं णामधेजं करोति जम्हाणं अम्हं इमे दारए गोबहुलस्स माहणस्स गोसालए जाते, तं होऊणं अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेजं ' गोसाले' गोसालत्ति तएणं तस्स दारगस्स अम्मा. भावार्थ भार्या को सवा नव मास पूर्ण होते सुकुमार यावत् प्रतिरूप पुत्र का जन्नहा. अग्यारहवा दिन व्यतीत हुए । पीय बारहवे दिन उस पुत्र का गुणनिष्पन गोशाला नाम रखा. क्यों की गोशाला का जन्म गोबहुल ब्राह्मण * पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र .484881 पनरहवा शतक 48488 Page #2016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ Teate अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - करते है गो गोशाला ॥१८॥त ब से वह गो० गोशाला दा० पुत्र उ० रहित बा. बालभाव है वि. विज्ञान १० परिणत ज. यौवन ग. गपन को प. श हर का नत्या चि चित्र का पटिया क. करके चि.चित्र फ० पटिया लेकर मंभिक्षावत्त अ० आत्मा को भा० भावता वि. विचरता है ॥ १९ ॥ ते. उस काल ते. उस समय में अ मैं गो० गौतम ती- तीस वा वर्ष गृहस्थावास में व० रहकर अ० माता पिता दे०देवलोक को ग प्राप्त होते ए०ऐसा ज जैसे भा भावना में पियरो णामधेनं करेंति गोसालेति ॥ १८ ॥ तएणं से गोसाले दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णाय परिणयमेत्ते जव्वणगमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएकं चित्तफलग करइ, करेइत्ता चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥१९॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं. एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता का गौशाला में हुआथा. उस दिन से उस के मातापिता गोशाला कहने लगे. ॥१८॥ अब वह गौशाला बालभाव से मुक्त होकर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब स्वयमेव एक चित्रित पटिया लेकर भीक्षा मांगता हुवाई फीरने लगा ॥ १९ ॥ उस काल उस समय में मैंने तीस वर्षापर्यंत गृहवास में रहकर मातपिता देवलोक गये पीछे वगैरह जैसे भावना शतक में कहा वैसे यावत् एक देवदृष्य सहित मुडिन बनकर गृहवास में से है * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ | Page #2017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र ए. एक दे० देवदृष्य आ• लेकर मुं• मुंड होकर आ गृहवास से अ० अनगार को प० प्रबजित हुवाई ॥ २० ॥ त० तब अ. मैं गो० गौतम ५० पहिला वा० वर्ष को अ० अर्ध माम क्षमण करता अ. अस्थिग्राम की णि निश्राय में प० प्रथम अ० वर्षा काल का वर्षा बाम उ रहा दोदरा का० वर्ष मा० मास क्षमण करता पु० पूर्वानुपूर्षि च० चलना गा ग्रामानुग्राम दू, जाता जे. जहां रा० राज गृह न० नगर जे० जहां ना० नालिन्दा की बा० बाहिर जे. जहां ते. वणकर शाला ते. तहां उ० अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ॥ २० ॥ तएणं अहं गोयमा ! पढमं वासं अद्धमासं अदमासेणं खममाणे अट्ठियगामं णिस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए दोच्चं वासं मासे मासेणं खममाणे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव नालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतुवाय साला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिहामि अहा २ तंतुवाय सालाए एगदेससि वासावासं उवागए तएणं अहं गोयमा ! पढमं मासक्खमणं साधुपना अंगीकृत किया ॥२०॥ उस समय मैं अर्धामासखमण की तपस्या करता हुवा अस्थिक ग्राम की नेश्राय से पहिला अंतरवास अर्थात वर्षाकाल रहने आया. दसरे वर्ष में मासखमण की तपश्चर्या ? करके पूर्वानुपूर्वि विचरता हुवा व ग्रामानुग्राम चलता हुवा राजगृह नगर के नालिदा पाडा के बाहिर तंतुवाय शाला में यथाप्रतिरूप अवग्रह याच कर उस के एक विभाग में वर्षाकाल के लिये रहा. पत्ररहवा शतक 8. - - भावार्थ PA go - Page #2018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + १९८८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आकर अ० यथा प० प्रतिरूप उ• आज्ञा उ० लेकर तं० वणकर शाला के ए० एकविभाग में वा० वर्षा काल उ० रहा त० तब अ मैं गो० गौतम ५० प्रथम मामाक्षमण उ० अंगीकार कर वि विचरता था १॥ २१ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मखालपत्र चित्र फ: फलक ह० हस्त में मं० भिक्षावृत्ति से अ० आत्मा को भा० भापता पु. पूर्वानुर्वि चचलता जा० यावत् दू० जाता जे०जहां रा० राज गृह न० नगर जे. जहां णा बालिन्दा बा० बाहिर का जे. जातं. वणकर शाला ते. तहां उ० उवसंपजित्ताणं विहरामि ॥ २१ ॥ तएणं से गोसाले मखलिपुत्ते चित्तफलग हत्थगए मंखत्तणणं अप्पाणं भावमाणे पुयाणपुर्विध चरमाण जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव णालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतवायसाला तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता तंतुवायसालाए एगदेसि भंडाणिक्खवं करइ, करेइत्ता रायगिहे णयरे उच्चणीय जाव अण्णत्थकत्यवि वेसहिं अलभमाणे तीसेय तंतुवायसालाए.. अहो गौतम ! मैं वहां प्रथम मामस्वमण कर के रहा ॥ २१ ॥ फीर मखली पुत्र गौशाला हस्त में चित्रित पटिया लेकर भीक्षा मांगता हुवा ग्रामानुग्राम विचरता हुदा सजग नगर के नालिंदा पाडा की बाहिर नंतुवायशाला में आया. वहां आकर उसके एक विभाग में उसने अपने डोपहरण रख और राजगृह नगरके नीच व मध्यकुल में अन्यस्थान नहीं मीलने से उस ही संतुशाला के एक विभाग में कि जहां १ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८९ पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 428+ भाकरले. वणकर शाला के ए. एकविभाग में भं० पात्र णि. निक्षेष क. करके रा० राजगह नगर में उ. ऊंच णी नीव जा. यापत् अ. अन्यत्र क. कहांनी व. वनति अप्रास ती उत्त तंवणकर शाला की ए. एकदिशा में वा. वर्गकाल उ० रहा ज. ज. अ. में गो. ॥ २२ ॥ त. तर अ० मैं गो गौतन प्रथा मा पास क्षण पा० पारणा में तं. वणकर शाला में . नीकलकर ना० नालिन्दना आहिरप मध्य जे. जहां रा० राजगाननगर उ• ऊंचणी नीच जा. यावत् अ. फोरते वि. विनय गा० गाथा पतिका गि गृह में अ. प्रवेश किया ॥ २३ ॥ __ एगदेसंसि वासावाम मुवागए, जत्थेवणं अहं गोयमा!!! २२ ॥ तएणं अहं गोपमा! पढम मासक्खमणपारणलि तंतुवायसालाए पडिणिवखमामि, तंतुवाय सालाए पडिणिक्खमित्ता नालिंदा बाहिरिय मज्झमझेणं जेणेव रायगिहे णयरे उच्चणीय जाव अडमाणे विजयस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविट्ठ ॥ २३ ॥ तएणं से विजए रहाथा वहां आया. ॥ २२ ॥ आ अहो गौनय ! प्राम मास खाग के पारण के दिन तंतुशाला में से नीकला और नालंदिय पाडा के बाहिर मध्यवीव मे होता हुवा राजगह नगर में ऊंच नीच व मध्यम कुल में भीक्षा के लिये फौरता हुवा विजय गाय पति के गृह मैंने प्रवेश किया ॥ २३ ॥ विजय गाथापति मुझे आता हुवा देखकर अनि हर्षित हुवा और शीघ अपने भासन से उठकर पादपीठिका से नीचे की पत्ररहवा शतक 48488+. 1 +8 Page #2020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । #प्रकाशक 48 अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी न० तब से वह वि०विजय गागाथापति म० मुझे ए० आता पा- देखकर ह० हृष्ट तुष्ट खि शीघ्र आ० आसन से अ० उठकर पा० सिंहासन मे प० खडा होकर ए०एक साडीका उ उत्तरासंग क. करके अं० अंजलि म. जोडकर ह. हस्त से म. मेरी स. सात अ० आठ ५० पांच अ० सामने आकर म. मुझे ति० तीनवक्त आर आवर्तन प. प्रदक्षिणा क. करके म० मुझे वं. वंदन करे ण. नमस्कार करे म० विपुल अ. अशन पा० पान खा. खादिम सा. स्वादिम मे प. देऊंगा इ० ऐसा तु. हो हुवा ५० देते तु• तुष्ट हुवा ५० देकर तु• तुष्ट हुवा ॥ २४ ॥ त० तब तक उस वि. विजय गाहावई ममं एजमागं पासइ २ त्ता हट्ट तुट्र खिप्पामेव आसणाओ अब्भट्रेड२ त्ता पादपीठाओ पच्चोरुभति २त्तापाययाओ उमुयइ २त्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ २ त्ता, अंजलिमउलियहत्थे ममं सत्तटुपयाई अणुगच्छइ २त्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ२ त्ता ममं बंदइ नमसइत्तार विउलेणं असणपाणखाइमसाइमणं पडिलाभिस्सामित्ति तुट्टे पडिलाभेमाणे वितुढे पडिलाभितेवि तुट्टे, ॥२४॥ तएणं तस्स विजयस्स गाहावउतरकर, एक माडीवाला वस्त्रका उत्तरासन कर, और दोनों हस्त की अजली जोडकर सात आठ पवि मेरी मामने आया, और मुझे तीन बार हस्त जोडकर प्रदक्षिणा देकर, वंदना नमस्कार कर विपुल अशन पान खादिम स्मादिम देवेगें ऐमा विचार कर हर्षित हुवा, मुझे अशनादि देताहुवा हर्षित हुवा जाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी-* भावार्थ Page #2021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 8 बाब्दार्थी 4 मा गाथापति का ते- उस द द्रव्य शुद्ध से दा० देनेवाला मुः शुद्ध ५० लेनेवाला प० शुद्ध से ति तीन विध ति० तीन करण मु० शुद्ध दा० दान से म० मुझे प० देता हुवा दे० देव आयुष्य णि२. बंधा* सं० संसार प० परत्त क० कीया गि० गृह में पं० पांच द्रव्य पा० प्राप्त हुवे व० द्रव्य दृष्टि द: दश अर्ध व० वर्ण वाले कुछ कुसुम णि वृष्टि हुइ चे०वस्त्र की उ० वृष्टिहुइ आ० बजावी दे० देवदुंदुभी अं० बीच में आ० आकाश में अ० अहो दा० दान त्ति ऐसा घु: उदूघोषणा की ॥ २५ ॥ त० तवं रा० राजगृह इस्स तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिग्गहसुद्धेणं तिविहं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे. देवाउयाणिवई. संसारपरित्तीकए मिहंसिय से इमाई पंचदिब्वाई पाउब्भूया तंजहा वसुहाराबुट्ठा, दसवण्णे कुसुमे णिवातिते,. चेलुक्खेवेकए । आहयाओ देवदुंदुभीओ. अंतरात्रियणं आगासे अहोदाणे २. त्ति घुट्टे ॥ २.५॥ तएणं . में अशनादि दिये पीछे भी हर्षित हुवा. ॥ २४ ॥ तब ४२ दोष रहित द्रव्य शुद्ध, आशंसादिदोष रहित 80 | दाता शुद्ध और दूषण रहित होने से पात्र शुद्ध यों तीनों शुद्ध होने से तीन करन तीन योग से मुझे है। शुद्ध दान देने में देवता का आयुष्य बांधते हुवे और संसार को परत्त करते हुवे विजय गाथापति के 3. गृह में पांच द्रव्य की वृष्टि हुइ. १ रत्नादि धन की वृष्टि २ पांच वर्ण के पुष्प की वृष्टि ३ वजारूप ख. की वृष्टि ४ देव दुंदुभी ओर ५ आकाश में ' अहो दान: अहो दान' ऐसी उद्घोषणा ॥२५॥ + पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 438 पनरहवा शतक . Page #2022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wroominni - सब्दार्थन. नगर में सिं० श्रृंगाटक जा. यावत् प० रस्ते में बहुत ज. मनुष्य अ० अन्योन्य ए ऐसा आ.) कहते हैं जा० यावत् ए. ऐसा प. प्ररूपते हैं ध० धन्य दे० देवानप्रिय वि० विजय गा० गाथापति क. कृतार्थ दे. देवानुप्रिय वि० विजय गा० गाथापति क० कृतपुण्य दे. देवानुप्रिय वि० विजय गा. गाभापति क. कृतलक्षण दे० देवाननिय वि. विजय गा० गाथापति क. कीया लो० लोक दे. देव मिय वि. विजय गा८ गायापति का सु० अच्छा प्राप्त दे. देवानु प्रिय मा० मनुष्य के ज० जन्म जी. रायगिहे णयरे सिंघाडग जात्र पहेसु बहुजणोः अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ. आवः एवं परूवेइ धण्णेणं देवाणुप्पिए ! विजए गाहावई, कयत्थेणं देवाणुप्पिए विजए। गाहावई, कयपुण्णणं देवाणुप्पिया ! विजए गाहावई, कयलक्खेणं देवाणुप्पिया ! विजए गाहावई, कयाणं लाया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहावइस्स सुलद्धेणं देवाणु पिए !माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयंस्म गाहावइस्स, जस्सणं गिहंसि तहारूवे. भावार्थ उस समय राजगृह नगर के शृंगाटक यावत् राज्यमार्ग में परस्पर लोको ऐता कहने लगे यावत् प्ररूपने कि दंवानुप्रिय! विजय गाथापति को धन्य है, विजय गाथापति कृतार्थ, कृत पुण्यवाला व कृत लक्षण वाला है, विजय गाथापतिने इलोक व परलोक में शुभफल किये हुवे हैं, विजय गायापति का मनुष्य जन्म मफल दुचा, क्यों की तथारूप साधुओंको दान देने से उन के गृह में, पांच प्रकार की दीव्य वस्तुओं अनुवाद कंबालब्रह्मचारी मुनि श्री 'प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Avvada शब्पा जीवित फ कल वि विनय गा• गाथापतिका ज० जिस गि गृह में तः तथारूप सा० माथु मा. साघुरूप को ५० देता हुवा इ० ये पं० पांच द० द्रव्य पा प्राप्त हुवे व द्रव्य वृष्टि जा. यावत् अ०ी दान घु० उद्घोषणा की ध० धन्य क० कृतार्थ क० कुन पुन्य क. कृन लक्षण, क. कीया लो. लोक ET. अच्छा प्राप्त मा० मनुष्य का ज. जन्म जी. जीवित फ० फल विजय गा० गायापति का ॥ २६ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मंखलि पुत्र व • बहुत मनुष्य अं० पास ए० यह अर्थ सो०१३ साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइं पंचदिव्वाइं पाउब्भूयाई, तंजहा वसुधारावुट्टा जाब अहोदाणे घुट्टे २, धण्णेणं कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे कयाणं लोया सुलहे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्य गाहावइस्स विजयस्स २ ॥२६॥ तएण से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णको ऊहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिह तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता विजयस्सं प्रगट हुइ. इस से विजय गाथापति का जन्म धन्य, कृतार्थ, कृतपुन्यवाला कृतलक्षणवाला, इस लोक व। परलोक में शुभकलवाला व सफल है, ॥ २६ ॥ उस समय में बहुत मनुष्यों से ऐसी वार्ता सुनकर मंखलि पुत्र गोशालक को संशय यावत् कोतुहल उत्पन्न हुवा और विजय गाधापति के गृह आया. वहां विनय मायापति के मृह कन की वृष्टि पांच वर्णवाले पुष्प वगैरह पांच प्रकार की वस्तुओं व पृझे उस के गृह में । दंजयांग विवाह परणचि ( भगवती) सूत्र Page #2024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनकर णिक अवधारकर स० उत्पन्न हुवा सं० संशय स० उत्पन्न हुवा को• कुतूहल जे. जहां वि०* विजय गा० ग थापति का गि गृह त. तहां उ० आकर वि० विजय गा• गाथापति के गि० गृह में व० वसुधारा की बु० वृष्टि द० दश अ० अर्घ व० वर्ण कु० कुसुम णि पडेहुए म० मुझे वि. विजय गा. गाथापति के गि० गृह से १० नीकला पा० देखकर ह. हृष्ट तु० तुष्ट जे० जहां म० मेरी अं० पास ते० तहां उ. आकर म मुझे ति० तीन वक्त आ० आवर्तन ५० प्रदक्षिणा क० करके म. मुझे वं. वंदनकर ण. नमस्कारकर ए. ऐसा व. बोला तु• तुम भं० भगवन् म मेरे ५० धर्माचार्य अ. मैं तु. तुमारा घ. धर्म अंतेवाती ॥ २७ ॥ तक तव अ० मैं गो• गौतम गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र का ए: इस गाहावइस्स गीहसि वसुहारसि वुद्धि दसवण्णं कुसुमं णिवाडयं ममंचणं विजयस्स न गाहवइस्स गिहाओ पडिाणक्खममाणं पासइ, पासइत्ता हट्ठतु?, जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छइत्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं करेइ, करेइत्ता ममं वंदइ णमंसइ, णमं इत्ता ममं एवं वयासी तुभेणं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहंणं तुब्भं धर मंतेवासी ॥ २७ ॥ तएणं अहं गोपमा ! गोतालस्स मखालिपुत्तरस भावार्थ नीकलते हुवे देख कर हृष्ट तुष्ट हुया और मेरी पास आकर मुझे तीनवार हस्त जोडकर प्रदक्षिणा कर के 14वंदना नमस्कार करते हुवे बोला कि अहो भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हो और मैं आप का धर्माशष्य हूँ .' 43 अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋपिना * प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसाद मी. Page #2025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ अर्थ को णो० नहीं आए आदर किया गो० नहीं प० अच्छा जाना तु शांत सं० रहा ॥ २८ ॥ त० तब अ० मैं गो० गौतमं रा० राजगृह ण० नगर से प० नीकलकर णा० नालंदा वा० बाह्य की म० मध्य से जे० जहां तं० वणकर शाला ते० तहां उ० आकर दो० दूसरा मा० मात क्षमणे उ० अंगीकार {कर वि० विचरा ॥ २९ ॥ त० तत्र अ मैं मा० मास क्षमण पा० पारणे में तं० वणकर सा० शाला से [प० नीकलकर णा० नालंदा वा० बाहिर म० मध्य से जे० जहां राः राजगृह ण० नगर जा यावत् एयम णो आढामि णो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि ॥ २८ ॥ तरणं अहं गोयमा ! रायगिहाओ णयराओ पडिणिक्खमामि २ त्ता, नालंदं बाहिरिय मज्झमज्झणं जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छामित्ता, दो मास क्स्वमणं “उवसंपज्जात्ताणं विहरामि ॥ २९ ॥ तरणं अहं मांसक्खमणपारण संसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि पडिणिक्खमामित्ता णालंदं बाहिरिगं मज्झमज्झेणं. ॥ २७ ॥ अहो गौतम ! उस समय मैंने गौशाला के वचन का आदर किया नहीं; उन के वचन मैंने अच्छे जाने नहीं परंतु मौन रहा. ॥ २८ ॥ फीर अहो गौतम ! मैं राजगृह नगर में से नीकलकर नालंदिय [पाडा के बाहिर मध्यबीच में से नीकलता हुवा तंतुवाय शाला में आया और दूसरा मास खमण कर के रहने लगा. ॥ २९ ॥ मास खमण के पारण के दिन तंतुवाय शाला में से नीकल कर नालंदिय पाडा * पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र ***+ परहवा शेतक Page #2026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ. फिरते आ० आनंद गा० गाथापति का गि० गृह में अ० प्रवेश कीया । ३. . . सब मा.11 आनंद गा० गाथापति म० मुझे ए० आता पा० देखकर ए ऐसे ज० जैसे वि. विजय का प०विशेष म० मुझे वि०विपुल ख. खाद्यावीदि से प० देऊंगा तु० तुष्ट से शेष तं तैसे जायावत् त• तीसरा मा०मासा खपण उ० अंगीकार कर वि. विचरा ॥ ३१॥ त. तब अ. मैं गो गौतम त० तीसरा मा. मास क्षमण पा० पारणे में तं० वणकर शाला से प० नीकलकर त० तैसे जा. यावत् अ. फिरते मु. सुदर्शन जेणेव रायगिहे णयरे जाव अडमाणे आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविट्टे ॥३॥ तएणं से आणंदे गाहावई ममं एजमाणं पासइ पासइत्ता एवं जहेव विजयस्स, गवरं ममं विउलाए खजगविहीए पडिलाभेस्सामीति तुटे सेसं तंचव जाव तच्चं मासक्ख. __ मणं उवसंपजित्ताणं विहरामि ॥ ३१ ॥ तएणं अहं गोयमा ! तचं मासक्खमणं पारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमामित्ता तहेवे जाव अडमाबाहिर मध्यबीच में होकर गजगृह नगर में ऊंच नीच व मध्यकुल में फीरता हुवा आनंद गाथापति के ग्रह गया.॥ ३० ॥ आनंद गाथापति मुझे आता हुवा देखकर विजय गाथापति की तरह हष्ट तुष्ट हुवा। और अपने आसन से उठकर सात आठ पांच सामने आया. वगैरह विजय गाथापति की तरह सब किया। विशेष में मुझे मक्कर की विधिवाला भोजन देकर संतुष्ट हुवा शेष पूर्ववत् यावत् तीसरा मासखमण अंगीकार immmmm amannaamananmanmannamainamaina ..प्रकाशक-राबाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्यालाप्रसादी * Page #2027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ गा० गाथापति के गिः गृह में अ० प्रवेश कीया त० तब से वह मु. सुदर्शन गा• गाथापति ण विशेष स. सर्व का. रममय भो० भोजन से प० देवे से शेष तं० से जा. यावत् च. चौथा मा० मास क्षमण उ० अंगीकार कर वि. विचरता हूं ॥ ३२ ॥ ती० उस णा नालंदा वा० बाहिर अ. नजदीकर को० कोल्लास म० सनिवेश हो० था व. वर्णन युक्त ॥ ३३ ॥ त. तहां को० कोल्लास स. सनिवेश में ब० बहुल मा० माहण प०रहता था अ. ऋद्धिवंत जा. यावत् अ० अपरिभूत रि० ऋग्वेद जा. यावत् १ सुदंसणस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविढे तएणं से सुदंसणे गाहावई, णवरं ममं । सबकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेति सेसं तंचेव, जाव चउत्थं मासक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरामि ॥ ३२ ॥ तीसेणं णालिंदा बाहिरियाए अदूरसामंते एरणं कोलाएणाम सण्णिवेसे होत्था, सण्णिवेस वण्णओ ॥ ३३ ॥ तत्थणं कोल्लाए कर विचरने लगा ॥ ३१ ॥ अहो गौतम ! तीसरे मासखमण के पारणे के दिन राजगृह नगर में सुदर्शन है शेठ के गृह में मैंने प्रवेश किया. सुदर्शन गाथापति मुझे इच्छानुसार सकल रसमय भोजन देकर संतुष्ट हुवा शेष सब अधिकार विजय गाथापति जैसे जानना यावत् चौथा मामखमण कर के विचरने लगा. ॥३२॥ उस नालिंदा पाडा के बाहिर पास एक कोल्लाससनिवेश था. वह वर्णन युक्त था ॥ ३३ ॥ उस है। बोल्लास सनिवेश में बहुल नामक ब्राह्मण रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत था और ऋग्वेद यावत् + 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4 पमरहवा शतक भावार्थ 48:08- 88 Page #2028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथा सु. सुपरिनिष्ठित ॥ ३४॥त. तब से वह ब. बहल मा. माहण क० कार्तिक च० चतुर्मास की पाOM मतिपदा को वि०विपुल म० मधु ध० धृत सं० युक्त प. श्रेष्ट अ० अन्न से मा० ब्राह्मणों को आ० जिमाये त. तब अ० मैं मो० गौतम च. चौथा मा. मास क्षमण पा. पारणे में तं वणकरशाला से प० नीकला कर णा० नालंदा बाहिर म० मध्य से णि नीकलकर जे. जहां को० कोल्लाक सः सनिवेश उ० ऊंच ___ सण्णिवेसे बहुलेणामं माहणे परिवसइ, अद्वे जाव अपरिभए रिउव्वेय जाव सुपरािण है ट्ठिएयावि होत्था ॥ ३४ ॥ तएणं स बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासिय पाडिवयंसि कई विउलेणं महुघयसंजुत्तेण परमण्णणं माहणे आयामेत्था ॥ तएणं अहं गोयमा ! चउत्थमासक्खमणपारणगसि तंतवायसालाओ पडिमिक्खमामि. पडिणिक्खमामित्ता णालंदा बाहिरियं मझमझेणं णिग्गच्छामि णिग्गच्छामित्ता जेणव कोल्लाए सणि. वेसे उच्चणीय जाव. अडमाणे बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पवितु ॥ ३५ ॥ भावार्थ सब नयों में प्रविण था. ॥ ३४ ॥ उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चौमासिकी प्रतिपदा को मधुघृती सहित विपुल परमअन्न [क्षीर ] कर के ब्राह्मणों को जीमाये थे. उस समय मैंभी चौथा मासख का पारणा केलीये तंतुवायशाला में से नीकलकर नालंदा पाडाकी बाहिर मध्यबीच में से नीकला. नीकलकर कोल्लाग सनिवेश में ऊंच नीच मध्यकुल में भीक्षा करते हुये बहुल ब्राह्मणं के घर में प्रवेश किया. ॥ ३५॥ * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी जाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ vvvARAN सत्र 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 42 नी० नीच जा. यावत् अ० फिरते व. बहुल मा ब्राह्मण के गि० गृह में अ० प्रवेश किया ॥ ३० ॥141 त० तब से वह ब० बहुल मा० ब्राह्मण म. मुझे ए० आते त० तैसे जा० यावत् वि० विपुल म. म घ. घृत सं० युक्त प० उत्कृष्ट अन्न से प० देऊंगा त० तष्ट से० शेष ज. जैसे वि० विजय का जा यावत् ब. बहुल. मा० माहण ॥ ३० ॥ त तब से वह गो० गोशाला मं. मंखलि पुत्र म. मुझे तं०१ वणकर शाला में अ० नहीं देखकर रा. राजगृह न० नगर में स० आभ्यंतर बाक बाहिर म. मुझ स० तएणं से बहुले माहणे ममं एजमाणं तहेब जाव ममं विउलेणं महुघय संजुत्तेणं परमण्णणं पाडेलाभेस्सामीति,तुटे,सेसं जहा विजयस्स जाव बहुले माहणेबहु२ ॥ ३६ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवाय सालाए अपासमाणे रायगिहे णयरे सभितर बाहिरियाए ममं सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ. ममं कत्थवि सुइंवा खुइंवा पवित्तिवा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागउस समय में मुझे आता हुवा देखकर बहुल ब्राह्मण मधु घृत संयुक्त क्षीर मैं देऊंगा ऐसा विचार कर हर्षित हुवा वगैरह शेष सब विजय गाथापति जैसे कहना यावत् बहुल ब्राह्मण को धन्य है ऐसा लोगों में ॐ वार्तालाप होने लगा. ॥ ३६॥ फीर मखली पुत्र गोशाला मुझे तंतवाय शाला में नहीं देखने से राजगह नगर की आभ्यंतर व बाहिर चारों तरफ मेरा मार्ग की गवेषणा करने लगा परंतु मेरी श्रुति,छींक व प्रवृत्ति 48484248पनरहना शतक 48862 Page #2030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक चारोंबाजु म० मार्ग गवेषण क० करे ३० मेरा क० कहाँ मु. शब्द खु० छौंक ५० प्रवृत्ति अ. नहीं माप्त होते जे. जहां तं वणकर शाला ते. तहां उ० आकर सा• परिधान वस्त्र पा० उत्तरीय वस्त्र कुं० पात्र वा. पगरखी चि. चित्र फलक मा. ब्राह्मण को आ० देकर स. दाढीमूंछ मुं० मुंडन करके तं० वणकर शाला से १० नीकलकर णा० नालंदा बा० बाहिर म० मध्यमे णि नीकलकर जे. जहां को० कोल्लाक स० सन्निवेश ते. तहां उ० आया ॥३७॥ त• तव त• उस को० कोल्लाक स• सनि च्छइत्ता साडियाओय पाडियाओय कुंडियाओय, वाणहाओय, चित्तफलगं च माहणे आयामेइ, आयामेइत्ता सउत्तरोटें मुंडं करेइ, करेइत्ता तंतुवायसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता णालंद बाहिरियं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जणेव कोल्लागसणिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता ॥ ३७ ॥ तएणं तस्स किसी स्थान नहीं मालूम पड़ने से पुनः तंतुवाय शाला में गया वहांपर पहिने हुवे वस्त्र, उतरे हुवे वस्त्र कुण्डिकादिक भाजन, पग की पगरखियों और चित्रित पटियों वगैरह सब ब्राह्मण को देकर दादी मुंछ वगैरह का मुंडन कर तंतुवायशाला में से नालंदिय पाडा के बाहिर मध्यबीच में होकर कोल्लाग सन्निवेश में आया. ॥३७॥ वहांपर कोल्लाग सनिवेश की बाहिर परस्पर लोकों ऐसा कहने लगे यावत: ...प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #2031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ -8088+- पंचमाङ्ग विवाह पण्णास ( भगवती ) सूत्र +8+ चशे की व० बाहिर वक्त जः मनुष्य अ व० धन्य दे० देवानुप्रिय ० बहुल ब्राह्मण तं ॥ ३८ ॥ त० तब त० उस गो० गोशाला में अन्योन्य ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते हैं | + तैसे जा० यावत् जी० जीवित फल ब० बहुल माहण की शू मंखलि पुत्र को ब० बहुत ज०मनुष्य की अं०पास ए०यह है अर्थ सो० सुनकर णि० अवधारकर अ० इस रूप अ० चितवन जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा जा० जैसे म० मेरा ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण भः भगवन्त म० महावीर की इ० ऋद्धि जु० श्रुति कोल्लागस्स सष्णिवेमस्स बहिया बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमा इक्खइ जात्र परूवेइ धणे देवाणुपिया ! बहुले माहणे तंचेत्र जाव जीवियफले बहुलस्स माहणस्स बहुलस्स माहणस्स || ३८ ॥ एणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयम सोच्चा णिसम्म अयमेयारूवे अन्भतिथए जाब समुप्प जित्था ॥ जारिसियाणं मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स इट्ठी कि बहुल ब्राह्मण को धन्य है यावत् बहुल ब्राह्मण का जीवित सफल है. ॥ ३८ ॥ बहुत मनुष्यों की पास से ऐसा सुनने से पंखा पुत्र गोशाला को ऐसा अध्यवसाय हुवा कि मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य व पुरुषात्कार पराक्रम है वैसी ऋि वृति यावत् पराक्रम अन्य किसी भ्रमण ब्राह्मण को नहीं है. इसलिये निश्चय ही मेरे धर्माचार्य धर्मोप 444 पचरा शतक 6++++ २००१ Page #2032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ज० यश व० वल बी० वीर्य पु० पुरुषात्कार प० पराक्रम ल. लग्ध ५० प्राप्त अ० सन्मुख हुए णो०१। नहीं अ० है ता. तैसी अ. अन्य क. किसी को ता तथारूप स०.श्रमण मा. मोहण कीड ऋद्धि जु० युति जा. यावत् प० पराक्रम स० लब्ध प. प्राप्त अ० सन्मुख हुए तं० इसलिये ए. संदेह न ३० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर भ० होंगे ति. ऐसा क को कोल्लाक स. सन्निवेश की ब० बाहिर म० मुझे स. चारोंबाजु म० मार्ग गवेषणा क• करे म० मुझे स. चारोंबाजु क० करके को० कोल्लाक स० सन्निवेश की ब० बाहिर ५० मनोज्ञ भू० भूमि में म० मेरी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, णो खलु अत्थि है तारिसियाणं अण्णस्स कस्सवि तहारूवस्स समणस्सवा माहणस्सवा, इड्डी जुत्ती जाव परक्कमे लढे पत्ते अभिसमण्णागए तं हिस्संदिवणं, एत्थं धम्मायरिए धम्मोवएसए । समणे भगवं महावीरे भविस्सतीति कटु, कोलागसण्णिवेसे सब्भितर बाहिरिए ममं सव्वओ समता मग्गणगवसेणं करेइ, ममं सवओ जाव करेमाणे कोलगसाण्णवेसस्स *देशक वही श्री श्रमण भगवंत महावीर होगा. ऐसा कहकर कोल्लास सन्निवेश की बाहिर चारों तरफ मेरी गवेषणा की. इस तरह गवेषणा करते कोल्लाग सन्निवेश के बाहिर उतरने के स्थान मुझे मीला ॥ ३९ ॥ काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी * भावार्थ Page #2033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ साथ अॅमीला ॥ ३१ ॥ त• तब से वह गो० गोशाला म० मखलि पुत्र ह० हृष्ट तु तुष्ट १०म० मुझे ति तीन वक्त आ० आदान प० प्रदक्षिणा जा. यावत् ण नमस्कार कर ए. ऐसा क. बोलाई Vतु. तुम भं. भगवन् म मेरे १० धर्माचार्य अ० मैं तु. तुमारा अं. अंतेवासी ॥४०।। त० तब अ०१ । Fमें गो० गोशाला में० मेखलि पुत्र का ए. यह अर्थ ५० अच्छाजानूं ॥ ४१ ॥ त० तब अ०. मैं गोतम गो०* गोशाला मं• मंखलि पुत्र की म साथ ५० मनोज्ञ भू भूमिमें छ० छवर्ष ला० लाभ अ० अलाभ सु०१० सुख दु. दुःव स• सत्कार अ. सत्कार रहित अ० अनुभवता अ. अनित्य जा. जागरणा वाला वि० बहिया पणियभूमीए मए. सद्धिं अभिसमण्णागए ॥ ३९ ॥ तएणं से गोसाले । मंखलिपुत्ते हट्ठतुढे ममं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव णमंसित्ता एवं क्यासी तुम्भेणं भंते ! ममं धम्मायरिया अहं णं लुब्भं अतवासी, ॥ ४० ॥ तएणं अहं ... गोयमा ! गोसालरस मंखलिपुत्तस्स एयमटुं पडिसुणमि ॥ ४१ ॥ तएणं अहं . गोयमा ! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं पणियभूमिए छवासाइ लाभं अलाभं सुहं भावार्थ मुझे देखकर मेखली पुत्र गौशाला हृष्ट हुवा और मुझे वंदना नमस्कार कर ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आप का धर्म का शिष्य हूं. ॥ ४० ॥ अहो गौतम ! उस समय मैंने मखली 10 पुत्र गोशाला के वचन सुने अर्थातू उस के वचन मान्य किये ॥ ४२ ॥ फीर मैं गौशाला की साथ मनोझ 48 पंचांगविवाह पाणत्ति (भगवती ) सूत्र 488 3800-4880 पबरहवी शतक 43805488 mmonwand Arammam Page #2034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक विचरताथा ॥ ४२ ॥ त० तब अ मैं गो० गौतम अ० एकदा ५० प्रथम म. शरद ऋतु में भ• अल्प । बु० वर्षाद में गो० गोशाला में मखलि पुत्र की स. साए लि. सिद्धार्थ ग्राम न. नगर से कु०. कूर्मग्राम, न. नगर को सं० चले वि० विचरने को ॥ ४३ ॥ ता० उस सि. सिद्धार्थ ग्राम से कु० कूर्मग्राम की 40 बीचमें म. बडा ए. एक ति० तिलका वृक्ष प० पत्र वाला पु. पुष्प बाला ह० हरित से रि० विराजमान सि• शोभासे अ० अतीव उ० शोभता चि० रहा है ॥ ४४ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला में दुक्ख सकारमसक्कारं पञ्चणुब्भवमाणे अणिच्च जागरियं विहरित्था ॥ ४२ ॥ तएवं अहं मोयमा ! अण्णधाकयाई पढमं सरदकालसमयंसि अप्पवुट्रिकार्यसि गोसा. लेणं मंखलिपुत्तेणं सहिं सिद्धत्थ गामाओ जयराओं कुम्मगाम जयरं संपट्टिए. विहा राए ॥ ४३ ॥ तस्सणं सिद्धत्थगामस्स णयरस्सा कुम्मगामस्सय जयरस्सय अंतरा एत्थणं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुप्फिए हरियगरे रिजमाणे. सिरीए अईव२ उबसोभे भूमि में छ वर्षपर्यंत लाभ, अलाभ, मुख, दुःख, सत्कार व असत्कार, अनुभवता हुवा अनित्य जागरणा करने लगा ॥ ४२ ॥ एकदा प्रस्तावे अल्पवृष्टिचाले शरदकाल [ मृगसर मास ] में भेखली पुत्र गौशाला की साथ सिद्धार्थ नगर से कूर्म ग्राम में जाने को नीकला ॥ ४३ ॥ उक्त सिद्धार्थ नगर व कूर्म ग्राम की बीच में एक बड़ा पत्र व पुष्प सहित तीलस्तंभ अतिशय शोभता हुवा रहाथा.. ॥४४ ॥ मंखली पुत्र. मौशा- 11 प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहावनी मालागसादनी भावार्थ 1 Page #2035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ HC 4882 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र मैखलि पुत्र त उस तिः तिलवृक्ष को पा० देखता है पा देखकर. म० मुझे वै० वंदनकर ण.. नमस्कार} of कर ए. ऐसा व० बोला ए. यह भ० भगवन् ति तिलवृक्ष कि० क्या णि निपजेगा जो० नहीं णि.. निपजेगा ए. ये स० सात तिः तिल के पु० पुष्प जीव उ० चवकर क० कहां ग० जामे क० कहा। उ० उत्पन्न होंगे त० तब अ० मैं गो गौतम गो० गोशाला मं• मंखलि पुत्र को ए. ऐसा व० बोला गो० गोशाला ए०. यह तिः तिलवृक्ष णि० उत्पन्न होगा ए• ये स० सात ति० तिल पु. पुष्प जीव माणे २ चिटुइ ॥४४॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तं तिलथंभं पासइ, पासइत्ता ममं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसइत्ता एवं वयासी-एसणं भंते ! तिलथंभए किं णिप्पजिस्सइ णो णिप्पजिस्सइ, एएय सत्ततिलपुप्फजीवा उदाइत्ता २ कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ? तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं क्यासी गोसाला ! एसणं तिलयंभए णिप्पजिस्सइ णो निप्पज्जिस्सइ एएय सत्त तिल पुप्फलाने उस तीलस्तंभको देख कर मुझे वंदना नमस्कार करता हुवा ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! यह तील-3 X स्तंभ निपजेगा या नहीं निपजेगा ? और ये सात तिलपुष्प के जीवों यहां से कालकर के कहां जावेंगे कहां उत्पन्न होंगे ! अहो गौलम ! उस समय मैंने ऐसा कहा कि अहो गोशाला ! वह तिला 88387 पनरहवा शतक PPORDainmmmmmmmmmmmmmmmmmmmna भावार्थ Page #2036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmainwww शब्दार्थ * उ० चक्कर ए. इस तितिलवृक्ष की ए. एक ति तिल की सं० फली में ससात तिः तिल ५० उत्पन्न । होंगे ॥ ४५ ॥ त० तब से वह गो. गोशाला मं० मखलि पुत्र म. मुझे एक ऐसा आ० कहते ए. इस अर्थ को णो० नहीं स० श्रद्धे णो नहीं प० प्रतीत किये णो नहीं रो० रूचे ए० इस अर्थ को अ० न श्रद्धता अ० नहीं प्रतीत करता अ० नहीं रूचता म० मेरी म० आश्री अ० यह म० मिथ्यावादी होवो त्ति. ऐसा कर के प० मेरी अं० पास से प० पीछा जाकर जे. जहां ति. तिल वृक्ष ते. तहां उ. जाकर तं. उस ति० तिलवृक्ष को स. मूल सहित उ. उपाडकर ए. एकांत में ए. डालकर त.' तत्क्षण जीया उद्दाइत्ता २ एयरस चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्ततिला पञ्चा यातिस्संति ॥ ४५ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयम8 णो सद्दहति, णो पत्तियति, णो रोएइ, एयमटुं असदहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मम पणिहाय अयण्णं मिच्छावादी भवउत्ति कटु, ममं अंतियाओ सणियं २ । पच्चोसक्का २ जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तं तिलथंभगं । भावाथे स्तभं उत्पन्न होगा. और पुष्प के सात जीव वहां से चलकर इस की फली में सात तिलपने उत्पन्न होंगे. ॥४५॥ मखली पुत्र गोशालाने मेरे इस कथन पर श्रद्धा रुचि व प्रतीति की नहीं और इस तरह श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करते मेरे आश्रय में ही रहकर मैं मिथ्यावादी होऊ ऐसा विचार करके मेरी पास से 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गो. गौतम दि० दीव्य अ० वर्षा के 40 बद्दल पा० उत्पन्न हुए त० तब से वह दि० दिव्य अ० वर्षा के है। बहल खि० शीघ्र प० गर्ने वि० विद्युत् होवे ण. बहुल पानी नहीं णा० बहुल कर्दम नहीं ५० जलशीकर V२० रजरेणु वि० विनाशक दि० दीव्य स० सलिल उ० उदक व० वर्षा वा• हुई जे• जिस से ति. तिलवृक्ष आ. स्थिर हुवा वी० विशेष स्थिर हुवा प० उत्पन्न हुवा ब० मूलबंधाया त तहां प० प्रतिस्थित म. सात ति• तिल पु० पुष्प जीव उ० चवकर त० तहां ति० तिलवृक्ष के ए० एक ति० तिलसिंग में सलेड्यायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडेइत्ता एगैते एडेइ, एडेइत्ता तक्खणमेत्तं च गोयमा! दिव्वे अब्भवदलए पाउब्भूए, तएणं से दिव्वे अब्भवदलिए खिप्पामेव पतण तणाए खिप्पामेव विज्जुयाइ, खिप्पामेव पच्चीसगं णातिमटियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वसलिलोदगं वासं वाप्तइ ॥ जेणं से तिलथंभए आसत्थ वी सत्थए पञ्चायाए बदमूले तत्येव पतिट्ठिए तेय सत्ततिलपुप्फजीवा उदाइत्ता २ तस्सेव 4 शनैः पीछा जाने लगा. और तिलस्तंभ को समूल मिट्टि सहित नीकाल कर एकान्त में डाल दिया. अहो गौतम ! तत्क्षण वहां दीव्य अभ्रवद्दल प्रगट हुवा. उस दीव्य मेघ से शीघ्र गौरव हुवा, विजलियों। चमकी, शीघ्र बहुत पानी की वर्षा हुई नहीं, बहुत कादव हुवा नहीं, पानी की कुंवार पडी, रजरेणु दवगइ,१४ दीच्य नदी के पानी जैसी वर्षा हुई, रसादिगुण सहित वह तिलस्थंभ स्थिर हुवा, बहुत स्थिर हुवा, उदय को पंचमांग वहााव पण्णति (भगवती) सूत्र पनरहवा शतक Page #2038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ . * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ? स० सात तिल प० उत्पन्न हुवे ॥ ४६ ॥ त० तब अ० मैं गा गौतम गोगोशाला में मंखलिपुत्र की स018 साथ जे. जहां कु० कूर्मग्राम ते. तहां उ० गया ॥४७॥ त तब तक उस कु. कूर्मग्नाम की ब०१ बाहिर वे० वैश्यायन बा. यालतपस्वी छ० छठ छठ से बाहु मे १० रखकर सू० सूर्याभिमुख से आ० आतापन भूमि में आ० आतापनालेते वि० विचरता है। तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया ॥ ४६॥ तएणं अहं गोयमा ! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मगामे णयरे तेणेव उवागच्छामि ॥ ४७ ॥ तएणं तस्स कुम्मगामस्स णयरस्स बहिया बोसियायणे णाम बालतवस्सी छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवाकम्मेणं उट्ठे बाहाओ पगिझिय २ सूराभिमूहे आया. वणभूमीए आयावेमाणे विहरइ, आइच्चतेयतवियाओ से छप्पदीओ सव्वओ समंता प्राप्त हुवा, उत्पन्न हुवा, उ के मूल कन्ध, ओर उस के उक्त सातों जीव वहां से चवकर उस स्तंभ की एक तिल फलि में सात तिलपने उत्पन्न हुए ॥ ४६ ॥ अहो गौतम ! मैं वहां से गौशाला की साथ कूर्मच ग्राम नगर में गया ॥ ४७ ॥ वहां पर कूर्म ग्राम नगर की वाहिर वैश्यायन नामका बाल तपस्वी छठ २ के निरंतर तप कर्म से ऊंची वाहा कर सूर्याभिमुख से आतापना भूमि में आतापना लेता हुवा रहता था. सूर्य .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावाथे Page #2039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4ARपंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 2880 आ. सूर्य ते तेज से त तपता छ • पट्पद म. चारोंबाजु अ० उत्पन्न होवे पा. माण भू० भूत जी०१४ जीव स० सत्त्व द० दया केलिये ५०पडी हुइ त०वहां भु० वारंवार प० मूके ॥४७॥ त तब से वह गो० गोशाला मं. मंखलिपुत्र वे० वैश्यायन वा. चालतपस्वी को पा० देखकर म० मेरी अं० पास मे स. धीमे धीमे ५० पीछा जाकर ज० जहां वे वैश्यायन बा• बालतपस्वी ते० तहां उ० आकर वे० वैश्यायन - ok बा० बालतपस्वी को ए०ऐसा व०बोला कि क्या भ० तुम म० मुनि मु० यति उ० अथवा जू• यूका स० अभिणिस्सवेति पाणभूयजीवसत्तदयट्टत्ताए एयण्णं पडियाओ २ तत्थेव भुजो भुजो पच्चोरुभइ ॥ ४७ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्त वेसियायणं बालतवर्सिस है पासइ, पासइत्ता ममं अंतियाओ सणियं २ पच्चीसक्कइ, पच्चोसक्कइत्ता जेणेव वेसि यायणे वालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता वेसियायणं बालतवस्सिं एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणीए उदाहु जया सेज्जायरए ? तएणं से वेसियायणे बालके ताप से तप्त यूकाओं उन के बालों में से चारों तरफ नीचे गिरती थी. प्राण, भूत, जीव व सच की दया देख कर उन नीचे गीरी हुई यूकाओं को उठाकर अपने मस्तक में वारंवार रखता था ॥४७॥ हैवहां पर मंखलीपुत्र गौशाला वैशायन बाल तपस्वी को देखकर शनैः २ मेरी पास से पीछे गया. और वैशायन पर तपस्वी की पास जाकर ऐप्ता बोला क्या नू मुनि तपस्वी है, यति है, कदाग्रही है अथवा यूकाओं का 0380868 पन्नरहवा शतक भावार्थ : Page #2040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ शैय्यान्तर त० तब वे वैश्यायन बा० वालतपस्वी गो० गोशाला मं० मखलिपुत्र का ए० यह अर्थ को मो० नहीं आ० आदरकिया णो नहीं प. अच्छा जाना तु० शान्त सं० रहा ॥४८॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र वे० बैश्यायन बा० बालतपस्वी को दो० दूसरी वक्त ए० ऐसा व० बोला किं. क्या भ० तुम मु. मुनि मु. यति जा. यावत् से० शैय्यान्तर त. तब से वह वे० वैश्यायन बा. बालतपस्वी गो गोशाला में मखलिपुत्र से दो० दुसरी त० तीसरी वक्त ए. ऐसा वु० बोलाया हुवा आ० क्रोधाय पान हुवा जा. यावत् मि० देदीप्यमान हुवा आ० आतापना भू० भूमि से ५० उत्तरकर तवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं णो आढाइ णो परिजाणइ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ ४८ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं वालतवस्सि दोच्चंपि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणीए जाव सेजायरए ? तएणं से वेसियायणे बाल तवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोच्चंषि तचंपि एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चासकइ, पञ्चोसक्कइत्ता तेयासमुग्घाएणं समो. भावार्थ औश्यांतर है ? वैशायन बाल तपस्वीने मंखली पुत्र गौशाला के उक्त वचनों का आदर किया नहीं, अच्छे जाने नहीं और मौन रक्षा ॥ ४८ ॥ मंखली पुत्र गौशालाने पुनः दूसरी वक्त भी ऐसा ही कहा. इस तरह दो वार, तीन वार करने से वैश्यायन बाल तपस्वी आसुरक्त यावत् क्रुद्ध हुवा और आतापना भूमि से ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 800 २०१२ शब्दार्थ 40 तेजस स. समुद्धांत स० करके स० सात आठ ५० पद ५० पीछा जाकर गो० गोशाला मं० मंखलि ० पुत्र के व. वध केलिये स. शरीर ते. तेज णि निकाला ॥ ४९ ॥ त० तब अ० मैं गो. गौतम गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र को अं० अनुकंपा अर्थ वे० वैश्यायन बा० बालतपस्वी की उ. ऊष्ण ते० तेजो लेश्या पदर करने को अंक बीच में सी-शीतल ते तेजो लेश्या मि.णिकाली जा. जिस से म० मेरी इसी० शीतल त तेजो लेश्या से वे वैश्यायन वा बालतपस्वी की उ० उष्ण ते. तेजोलेश्या प. हणइ, समोहणइत्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसकइ २ त्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स } बहाए सरीरगं तेयं णिसिरइ ॥ ४९ ॥ तएणं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स अणुकंपणट्ठयाए वेसियायणस्स बालतवास्सिस्स सा उसिण तेयलेस्सा तेय पडिसाहरणट्टयाए, एत्थणं अंतरा अहं सीयलियं तेयलेस्स णिसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स वालतवस्सिस्स सा उसिणतेयलेस्सा पडिहया नीकलकर तेजस समुद्धात बनाइ. सात, आठ पांव पीछे जाकर मंखलीपुत्र गौशाला के वध के लिये शरीर में से तेजो लेश्या नीकाली ॥ ४२ ॥ अहो गौतम ! उस समय मंखली पुत्र गौशाला की दया के लिये वैश्यायन बाल तपस्वी की ऊष्ण तेजो लेश्या के तेज का संहारन करनेको बीच में मैंने शीतल लेश्या 1 नीकाली जिस से वैशायन वाल तपस्वी की ऊष्ण लेश्याका घात हुवा. अर्थात् वह लेश्या दूर हुई॥५०॥मेरी 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र wwwwwwwwwwwwwww पन्नरहेवा शतक 8 भावार्थ 8 । - Page #2042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ** ॥ ५० ॥ त• तब से वह वे० वैश्यायन बा० बालतपस्वी सी० शीतल ते तेजो लेश्या से सा. उस उ०१. ऊष्ण ते तेजो लेश्या को प० दूर की जा जानकर गो० गोशाला में मखलिपुत्र को कि० किंचित् है आ० आवाध वा. व्याध छ० चमच्छेद अ. नहीं किया पा० देखकर सा० उस उ. २०१२ ऊष्ण ते. तेजो लेश्या ५० पीछीली म. मुझे ए० ऐमा व. बोला ग. जाना एक यह ग० जाना ए. यह भ० भगवन् ॥५१॥ त० तव स० यह गो० गोशाला मं० खलीपुत्र म. मु ऐसा व० बोला किं० कैमे भं• भगवन् ए. यह जू० यूका सि. शैय्यान्तर तु. तुम को ए. ऐसा व. ॥ ५० ॥ तएणं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए सा उसिण तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स य मंखलिपुत्तस्स किंचि आवाहवा, बावाहवा छविच्छेदंवा अकीरमाणं पासित्ता, साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ ममं एवं वयासीसे गयमेयं भगवं ! गय २ मेयं भगवं ! ॥ ५१ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी-किं णं भंते ! एस जया सिज्जातरए तुम्मे एवं वयासी-से गयमेयं शीतल तेजो लेश्या से ऊग तेजी लेश्या का घात हुवा जानकर और मंखली पुत्र गौशाला को किंचि न्मात्र भी अबाधा, विवाधा व चर्मछद नहीं हुवा देखकर वैशायन वाल तपस्वीने अपनी तेजो लेश्या से पीछी खींचली, और मुझे कहा कि अहो भगवन् ! मैंने जाना. अहो भगवन् ! मैंने जाना ॥ ५१ ॥ फीर । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86. २०१३ शब्दार्थ बोला से• वह ग० जाना ए• यह भ० भगवन् ॥ ५२ ॥ त० तब अ० मैं गो० गौतम गो० गोशालाई 4340 मखलिपुत्र को ए. ऐसा व. बोला तु तुप गो० गोशाला वे० वैश्यायन बा० बालतपस्वी को पा० देखकर म. मेरी अं० पास से स. धीमे धीमे ५० पीछा जाकर जे. जहां वे वैश्यायन धा० बालतपस्वी ते. तहां उ० जाकर वे० वैश्यायन बा० बालतपस्वी को ए ऐसा व० बोले किं० क्या भ० तुम मु० मुनि मु० यति उ. अथवा जू० यूका से शय्यान्तर तक तब से वह वे. वैश्यायन बा० बालतपस्वी त. तुमारा ए. इस अर्थ णो नहीं आ० आदराकैया णो नहीं प०अच्छा जाता तु• शांत सं० रहे त० भगवं ! गयगयमेयं भगवं ! ॥ ५२ ॥ तएणं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुमंणं गोसाला! वेसियायण बालतवास्सि पासइ, पासइत्ता ममं अंतियाओ . सणियं २ पच्चोसकइ जेणेव बेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ उवा गच्छइत्ता वेसियायणे वालतवस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणीए उादहु जूया है सेजायरए ॥ तएणं से वेसियायणे बालतवस्सी तब एयमटुं णो आढाइ णो परिभावाथे मेखली पुत्र गोशाला मुझे ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! यह यूकाशैय्यांतर आप को ऐसा क्यों कहता है कि मैंने जाना. अहो भगवन् ! मैंने जाना ॥ ५२ ॥ अहो गौतम ! उस समय मैं मंखली पुत्र गोशाला, को ऐसा बोला कि अहो गोशाला ! वैश्यायन बालतपस्वी को देखकर तुम मेरी पास से शनैः नीकलकर 888 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 888* पत्ररहवा शतक winnnnnnnnnnnnnnnwwwinni 4888 Page #2044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ शब्दार्थ, तब तु• तुम गो० गोशाला वे. वैश्यायन बार बालतपस्वी को, दो० दूंमरी वक्त त० तीसरी वक्त ५०. ऐसा व० बोले कि क्या भ० तुम मु० मुनि जा. यावत् जू० यूका से० शय्यान्तर त० तब से वह वे. वैश्यायन बाबालतपस्वी तु० तुम को दो० दूसरी वक्त ततीसरी वक्त ए. ऐसा वु बोलते आ. क्रोधाय मान हुवा जा० यावत् प० पीछा जाकर स० शरीर का ते० तेज को णि नीकाला त० तब अ० मैं गो० गोशाला त• तुमारी अ० अनुकंपाके लिये वे० वैश्यायन बा० बालतपस्वी की सा० वह ते तेज प० दूर करने को अं० बीच में सी० शीतल ते. तेजो लेश्या णि निकाला जा०यावत् प० दूर की जा. जानकर जाणइ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ तएणं तुमं गोसाला ! वेसियायणं वालतवस्सि दोचंवि तच्चंवि एवं व्यासी-किं मवं मुणी जाव जूयासेज्जायरए ? ॥ तएणं से वेसियायणं बालतबस्सी तुमं दोचंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरत्ते जाव पच्चो सक्कइ सरीरगं तेयलेस्सं णिसिरइ ॥ तएणं अहं गोसाला ! तबअणुकंपणट्टयाए ___ वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सायतेय पडिसाहरणट्ठयाए एत्थणं अंतरा सीयलियं भावार्थ उस की पास गये और उन को ऐसा बोले कि तुम मुनि हो या यूकाशैय्यांतर हो. वैश्यायन बाल तपस्वीने नुमारे इन वचनों का आदर किया नहीं यावत् अच्छे जाने नहीं और मौन रहे. वैश्यायन बालतपस्वी को 1.6दो तीन बार उक्त कथन कहने से वह आमुरक्त यावत् क्रुद्ध हुवा और आतापना भूमि में से आकर तेजो 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 88 * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | E त० तुमारा स० शरीर को किं० किंचित् आ० पीडा वा० व्याबाध छ० चर्मच्छेद अ० नहीं कीया पा० {देखकर सा० उस उ० ऊष्ण ते० तेजो लेश्या को प० साहरनकर म० मुझे ए० ऐसा व० बोला से० वह ग० जाना ए० यह मं० भगवन् ॥ ५३ ॥ त० तब गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र म० मेरी अं० पास से ए० यह अर्थ सो० सुनकर णि० अवधारकर भी० डरा हुवा जा० यावत् सं० उत्पन्न हुवा भ० भय क० कैसे मं० भगवन सं० संक्षिप्त वि० विपुल ते ० तेजोलेश्या भ० होती है त० तब अ० मैं गो० गौतम गो० तेलेस्सं णिसिरामि जाव पडिहयं जाणित्ता तवसरीरगस्स किंचि आवाहंव वाबाहंवा छविच्छेदंवा अकीरमाणे पासित्ता सा उसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति २ त्ता ममं एवं बयासी से गयमेयं भगवं ! गयगयमेयं भगवं ॥ ५३ ॥ तरणं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयम सोच्चा णिसम्म भीए जाव संजायभए, ममं एवं वयासी कहिण्णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ? तएणं अहं गोयमा ! गोसालं {लेश्या नीकाली. अहो गोशाला ! तेरी अनुकंपा से वैशायन बाल तपस्त्री की तेजोलेश्या का मंहारन { करने के लिये वीच में मैंने शीतल तेजो लेश्या नीकाली. मेरी शीतल लेश्या से उन की ऊष्ण तेजो लेश्या हणाइ हुइ देखकर और तेरे शरीर को किंचिन्मात्र वाधा पीडा नहीं हुइ देखकर उसने ऊष्ण तेजो लेश्या पीछी खींचली. और मुझे ऐसा बोला. अहो भगवन् ! मैंने यह जाना. मैंने यह जाना ॥ ५३ ॥ 46- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भावाथ وره पनरहवा शतक १० २०१५ Page #2046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, गोशाला म० मंखलिपुत्र को ए. ऐसा व बोला जे०जो गो गोशाला ए०एक स नखसहित कु० उडीदकी: पिं० मुष्टि ए० एक वि०विकटामन से छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित उ० ऊर्ध्व बा. बाहु १० रखकर जा. यावत् वि. विवो अं अंदर छ० छत्रास की सं० संक्षिप्त वि० विपुल ते० तेजो लेश्याम भ० होवे ॥ ५४॥ त . तब से वह लो० गणना मं० मंखलिपुत्र म मेरा ए. यह अर्थ स. सम्यक __ मंखलिपुत्तं एवं क्यासी जेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेणय वियडासएणं छटुंछ?णं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पागज्झय पगिझिय जाव विहरइ, सणं अंतो छण्हं मासाणं संखित्त विउल तेउलेस्से भवइ, ॥ ५४ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमटुं सम्म विणएणं पडिसुणेइ ॥५५॥तएणं अहं मेरी पास से ऐसा सुनकर मेखली पुत्र गौशाला डरा यावत् भयभीत होता हुवा बोला कि अहो भगवन् ! सीक्षप्त विपल तेजोलेश्यावाला कैसे होवे ? अहो गौतम ! उस ममय मैंने गोशाला से कहा कि अहो गोशाला! उडद के वाकले की नख सहित एक मुष्टि और एक ऊष्ण पानी का चल्लू ग्रहण कर निरंतर बेले ३ का तप करे. और उर्ध्व वाहा से सूर्य की आतापना लेते हुवे विचरे तो उन को छ मास में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या होती है. ॥ ५४॥ मंखली पुत्र गोशालाने मेरा इस अर्थ को मुना ॥ ५५ ॥ १ जब प्रयुजने में आवे नहीं तब संक्षिप्त और प्रयुजने में आवे तब विस्तृत होवे..... * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ प० सूने ॥ ५५ ॥ त० तब अ० मैं गो० गौतम अ० एकदा गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र की स०साथ। कु• कूर्मग्राम से सि० सिद्धार्थ ग्राम ण नगर को स० उद्यत हुवा वि० विचरने को जा० जब मो० हम old । तं० उस दे० भाग को ह० शीघ्र आ० आये ज० जहां से वह ति० तिलकावृक्ष ॥ ५६ ॥ त० तब से०% वह गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र म० मुझे एक ऐसा ३० बोला तु० तुम भं० भगवन् त० तब म० मुझे ए. ऐसा आ कहते थे जा० यावत् प० प्ररूपतेथे गो० गोशाला ए. यह ति• तिलकावृक्ष णि० उत्पन्न गोयमा ! अण्णयाकयायि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ जयराओ सिद्धत्थगाम णयरं संपट्ठिए विहाराए,जाहेय मो तं देसं हव्वमागया जत्थणं से तिलथंभए ॥ ५६ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी तुन्भेणं भंते ! तदा ममं एवं आइक्खह जाव एवं परूवेह गोसाला ! एसणं तिलथंभए णिप्पजिस्सइ अहो गौतम ! एकदा मैं मंखली पुत्र गोशाला की साथ कूर्मग्राम नगर से सिद्धार्थ ग्राम नगर में जाने को नीकला. और जहां उक्त तिलस्थंभ था वहां हम दोनों आये ॥५६॥ तब मंखली पुत्र गोशाला मुझे ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! उस समय तुमने मुझे ऐसा कहा था कि यह तिलस्तंभ उत्पन्न होगा और इन में रहे हुवे सात जीवों तील की फली में सात तीलपने उत्पन्न होंगे, तो यह मिथ्या है, क्यों की 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 34888 पन्नरहवा शतक 3488 Page #2048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + होगा तं० तैसे प० उत्पन्न होंगे तं० वह मि० मिथ्या इ०यह प०प्रत्यक्ष दीदीखता है ए० यह तितिलकावृक्ष, को नहीं णि उत्पन्न हुवा ते ० वे स० सात ति तिल पुष्प के जी० जीव उ०चवकर णो० नहीं ए० इस ति• तिलके वृक्ष की ए० एक ति०तीलफली में स० सात तिल ५० उत्पन्न हुवे ॥ ५७ ॥ त० तब अ० मैं गो. गौतम गो० गोशाला में मखलिपत्र को ए. ऐसा व. बोला तु० तुम गो० गोशाला म. मुझे एक ऐसा आ. कहते जा० यावत् प० प्ररूपते ए. इस अर्थ णो नहीं स० श्रद्धा णो० नहीं प० प्रतीत किया णो नहीं रो० रूचा ए० एस अर्थ को अ० नहीं श्रद्धता अनहीं प्रतीत करता अ० नहीं रुचता णो णोणिप्पजिस्सइ, तंचेव पञ्चायाइस्संति, तंणमिच्छा इमंचणं पच्चक्खमेव दीसइ, एसणं तिलथंभए णो णिप्पण्णे अणिप्पण्णमेव तेय सत्ततिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता २ णो एयस्स चेव तिलथंभगरस एगाए तिलसंगलियाए सत्तातिला पञ्चायाता ॥ ५७ ॥ तएणं अहं गोयमा ! गोसालं. मंखलिपुत्तं एवं वयासी तुमंणं गोसाला ! तदा ममं । एवं आइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमटुं णो सद्दहसि णो पत्तियसि णो । यह प्रत्यक्ष दीखता है कि यह तिलस्तंभ उत्पन्न नहीं हुआ है. और तील पुष्प के सात जीवों वहां से चवकर इस तिल स्तंभ की तिलफली में सात तिलपने उत्पन्न नहीं हुवे हैं ॥५७॥ अहो गौतम ! उस समय मैंने मंखली पुत्र गोशाला को ऐसा कहा कि अहो गौशाला ! मैंने जो तुझे उस समय कहा था उस में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * mammmmmmmm भावार्थ Page #2049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8888888° शब्दार्थ म० मुझे प० छोडकर अ० यह पि० मिथ्यावादी भ० होवे त्ति ऐसा करके स० धीमे धीमे ५० पीछा । जाकर जे. जहां से वह ति० तिल का वृक्ष ते. तहां उ० आकर जा. यावत् ए. एकांत में ए. डाले} ore इत. तत्क्षण गो० गोशाला दि० दीव्य अ० वर्षा के बद्दल पा० उत्पन्न हवे त० तब से वह दि० दीव्य अ० वर्षा के बद्दल खि० शीघ्र तं तैसे जा० यावत् ति० तिलके वृक्ष की ए० एक ति. तिलसींग में मे स० सात ति० तिल ५० उत्पन्न हुवे' तं• इसलिये गो० गोशाला से वह ति० तिलका वृक्ष णि उत्पन्न । रोयसि, एयमटुं असदहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ममं पणिहाय अयंणं मिच्छावादी भवउत्ति कटु ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसकइ, पच्चोसक्कइत्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता जाव एगंतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला! दिव्वे. अब्भबद्दलए पाउन्भूए, तएणं से दिव्वे अब्भबद्दलए खिप्पामेव तंचेव जाव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सन्ततिला पञ्चायाता तं एसणं भावार्थ श्रद्धा प्रतीति व रुचि हुइ नहीं और इस तरह श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं होने से मैं मिथ्यावादीई होऊं ऐसा विचार कर मेरी पास से तू शनैः २ पीछा गया और तिल स्तंभ की पास जाकर उसे मूल मेंY मे उखेड कर अलग डाल दिया. अहो गोशाला ! उसी क्षण में दीव्य अभ्रबद्दल हुए और उस में पानी पडा यावत् तिलस्तंभ की एक तिल फली में सात तिलपने उत्पन्न हए. अहो गौतम ! 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( पन्नरहवा शतक 48862 Page #2050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ ७८ ॥ त० तब से अ० हुवा ते० वे स० सात ति० तिल के पु० पुष्प जीव उ० चवकर ए० इस ति० तिल के वृक्ष की ए० एक ति० तिलसींग में स०सात तिल प० उत्पन्न हुवे ए० ऐसे ख खलु गो० गोशाला व० वनस्पति काय प०परिवर्तन १प० परिहार प० परिहार होवे ॥ वह गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र म० मुझे ए० ऐसा आ० कहते जा० यावत् प० परूपते ए० यह अर्थ णो० नहीं स० श्रद्धे ए० इस अर्थ को नहीं श्रद्धता जे० जहां से वह ति० तिलका वृक्ष ते० तहां उ० जाकर ता० उस ति० तिलके वृक्ष गोसाला ! से तिलथंभए णिप्पण्णे णो अणिप्पण्णमेव, तेय सत्ततिल पुप्फजीवा उदाइत्ता उदाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्ततिला पचायाता ॥ एवं खलु गोसाला ! वणस्सइकाइया पउह परिहारं परिहरति ॥ ५८ ॥ तणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एव माइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमटुं णो सद्दहति ३ एयमङ्कं असद्दहमाणे जाव अरोएमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता ताओ तिलथंभयाओ तं तिलसंगलियं खुड्डति खुड्डित्ता करय( इस से यह तिल स्तंभ उत्पन्न हुवा है और उस की तिलफलि में पुष्प के सात तिलपने उत्पन्न हुए जीवों मर कर सात अहो गोशाला ! वनस्पतिकायिक मरकर इस में ही उत्पन्न होते हैं ॥ ५८ ॥ तब गोशाला मेरा इस कथन की श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करता हुवा उस तिल स्तंभ की पास गया 4०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी .. मकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०२० Page #2051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द २०२१ सू पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मृत्र 40820 से तं. उस तितिलकी सींग को ख० तोडकर क. हथेली में स० सात तील ५० नीकाले ॥५२॥ त तब तक उस गो० गोशाला को ते. उन स. सात तिल ग. गीनते अ० ऐसा अ० चितवन जा. यावत स० उत्पन्न हुवा ए० एसे ख० खलु स. सर्व जीव ५० परिवर्तन १० परिहार प. परिहरते हैं। ॥३०॥ ए. यह गो० गोशाला मं० मखलिपुत्र का १० परिवर्तन ॥६१ ॥ ए. यह गो० गौतम गो०y गोशाला मं० मखलिपुत्र का म० मेरी अं० पास से आ० आत्मा से अ. अपक्रमण ५० प्ररूपा ॥ ६२ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० भंखलिपुत्र ए० एक म. नख सहित कु. उडिद पिं० पिण्ड से __ लंसि सत्ततिले पप्फोडेइ ॥ ५९ ॥ तएणं तस्स गोसालस्स ते सत्ततिले गणेमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु सव्वजीवावि पउट्ट परिहारं परिहरंति ॥६०॥ एसणं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउद्दे,॥६१॥ एसणं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाओ अवक्कमणे पण्णत्ते ॥ ६२ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणयाए कुम्मासपिडियाए एगेणय वियडासएणं और उस की फली तोडकर सातों तिल अलग किये ॥ ५९ ॥ इस तरह सात तिल गिनते हुवे गोशाला को ऐप्ता अध्यवसाय हुवा कि सब जीव मरकर उस ही योनि में उत्पन्न होते हैं ॥ ६० ॥ अहो . गौतम ! मखली पुत्र गौशाला का यह परिवर्तनवाद जानना ॥ ६१ ॥ अहो गौतम ! यही मखली पुत्र गोशाला का मेरी पास से दूर होने का कहा ॥ ६२ ॥ अब मंखली पुत्र गोशाला मुष्टि प्रमाण उडीद के पन्नरहवा शतक भावार्थ है 82 Page #2052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ए एक वि० विकटासन से छ० छठ छठ से उ० ऊर्ध्व बा० बाहु प० रखकर जा० यावत् वि० विचरता हे त० तत्र गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र को अं० अंदर छ० छमास की सं० संक्षिप्त वि० विपुल ते० तेजोलेश्या जा० उत्पन्न हुइ ॥ ६३ ॥ त० तब गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र को अ० एकदा छ० छदिशाचर अं० पास पा० आये तं० वह ज० जैसे सा० साथ तं० तैसे स० सर्व जा० यावत् अ० अजिन जि० जिन शब्द प० कहता वि० विचरता है णो० नहीं गो० गौतम गो० ( गोशाला मं० मंखलिपुत्र जि० जिन जि० जिनमलापी जा० यावत् जि० जिन शब्द पर कहता छटुं छट्टेणं उड्डुं बाहाओ पगज्झिय २ जाव विहरइ || तरणं से गोसाले मंखलिपुत् अंतो छण्ह मासाणं संखित्त विउलतेयलेस्से जाए ॥ ६३ ॥ एणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णयाकयाइ इमे छदिसाचरा अंतियं पाउन्भवित्था - तंजहा- साणे तंचेव सव्वं जाव अजिणे जिणसद्दं पगासमाणे विहरइ तं णो खलु गोयमा! गोसाले मंखलि ( वाकले और एक चुल्लू पानी लेकर निरंतर बेले २ पारने करके ऊर्ध्व वाहा से सूर्य की आतापना लेता (हुवा विचरने लगा और छमास में उस को संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या हुइ ॥ ६३ ॥ अब एकदा मंखली पुत्र गोशाला की पास साण आदि छ दिशाचर आये, उन से अष्टांग निमित्त का ज्ञान प्राप्त कर यावत् । अजिन होने पर जिन शब्द का प्रकाश करता हुवा विचरता है. अहो गौतम ! मंखली पुत्र गोशाला * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०२२ Page #2053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ ** पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र [वि० विचरता है गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र अ० जिन नहीं जि० जिन प्रलापी जा० यावत् प० | कहता विविचरता है || ६४ || त० तब सा०वह म० बहुतवडी प० परिषदा ज० जैसे सि० शिव जाग्यावत् १५० पीछी गई ॥ ६५ ॥ त० तब सा० श्रावस्ती ण० नगरी के सिं० शृंगाटक जा० यावत् ब० बहुत २०२३ { मनुष्य अ० अन्योन्य जा० यावत् प० प्ररूपते हैं दे० देवानुप्रिय गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र जि० जिन जिन जिन प्रलापी वि० विचरता है तं० वह मिं० मिथ्या सः श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् परं प्ररूपते हैं त० उस गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र का पुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ । गोसालेणं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासमाणे विहरइ ॥ ६४ ॥ तणं सा महइ महालिया महन्त्र परिसा जहा सिदे जाव पडिगया ॥ ६५ ॥ तणं सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णरसजाव परूवेइ जेणं देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिषुत्ते जिणे जिणप्पलवी विहरइ तं मिच्छा || समणे भगवं महावीरे एवमा (जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करनेवाला नहीं है परंतु अजिन होने पर जिन का प्रलाप { करता हुवा विचरता है ॥ ६४ ॥ फीर वह बडी परिषदा पीछी गई जिस का कथन शिवराजर्षि जैसे कहना ॥ ६५ ॥ अव श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावद महापथ में बहुत मनुष्यों परस्पर ऐस - पन्नरहवा शतक 44 Page #2054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी {मं० मंखलि ना० नाम का मं० भिक्षुक पि० पिता हो० था त तब त० उस मं० भिक्षुक को ए० ऐसे (स० सब भा० कहना जा० यावत् अ० अजिन जि० जिन प्रलापी जिंο जिन शब्द प० कहता (वि० विचरता है तं० इसलिये गो० नहीं गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र जि० जिन जि जिन प्रलापी [जा० यावत् वि० विचरता है गो० गोशाला मं० मंखलि पुत्र अ० अजिन जि० जिन प्रलापी वि० विचरता स० श्रमण भ० भगवन्त म० महाबीर जि० जिन जि० जिन प्रलापी जा० यावत् जि० जिन शब्द इक्खइ जाव परूवेइ, एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलीणामं मंखपिता होत्था । तएणं तस्स मंखरस एवं तंचेव सव्वं भाणियव्वं जाव अजिणे जिणप्पलावी जिणसद्दं पगासमाणे विहरइ ॥ तं णो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिण लावी जाव विहरइ गोसालेणं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी विहरs || खली पुत्र गो { बोलने यावत् प्ररूपने लगे कि मंखली पुत्र गोशाला कि जो जिन जिन प्रलाप करता हुवा विचरता है वह { मिथ्या है क्यों की श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि ईशाला का पिता मेख था, उस को भद्रा भार्या थी वगैरह सब कथन पूर्वोक जैसे कहना यावत् अजिन होने पर जिन हूं ऐसा प्रलाप करता हूवा विचरता है, इसलिये मंखली पुत्र गोशाला जिन व जिन * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०२४ Page #2055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38023 शब्दार्थी १५० कढ़ते वि० विचरते हैं ॥ ६६ ॥ त० तव गो० गोशाला मं० मंखलिपुत्र ब० बहुत मनुष्य की अं० पास ए. यह अ० अर्थ सो० सुनकर णि अवधार कर आ. क्रोधायमान हुवा जा. यावत् मि० देदीप्य. समान हुवा आ० आतापना भू० भूमि से ५० उतर कर सा० श्रावस्ती ण० नगरी की म० मध्य से जे. जहां हा. हालाहला कुं० कुंभकारीणी की कुं० कुंभकार की आ० दुकान ते. तहां उ० आकर कुं०१ चिकुंभकारीणी की कुं० कुंभकार की दुकान में आ० आजीविक सं० संघ से सं० घेराया हुवा म०बहुत अ० समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ ॥६५॥ तएणं गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभइत्ता सावथि णयार मझं मझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि ओजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं प्रलापी नहीं है परंतु अजिन व अजिन प्रलापी है और श्री श्रमण भगवंत महावीर जिन व जिन प्रलापी Be है. ॥ ६६ ॥ बहुत मनुष्यों की पास से ऐसा सुनकर मखली पुत्र गोशाला आसुरक्त हुवा यावत् दांत पीसनेलगा और आतापना भूमि में से आकर श्रावस्ती नगरी की बीच में होता हुवा हालाहला कुंभकारी, SP पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 28 > पन्नरहवा शतक भावार्थ oyo Page #2056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अमर्ष ३० रखता वि. विचरता है ॥ ६७ ॥ ते. उस काल ते. उस समय में स० श्रमण भ० भगवन्त । म. महावीर का अं० अंतेवासी आ० अनंद थे० स्थविर ५० प्रकृति भाद्रिक जा० यावत् वि. विनीत छ० छठ छठ के अ० अंतर रहित त० तप कर्म से सं० संयम त तप से अ० आत्मा को भा० भावते २०२६ वि० विचरते थे ॥ ६८ ॥ त० तब से वह आ० आनंद थे० स्थविर छ. छठ क्षमण पा० पारणे में १५० प्रथम पो पोरिषी में ए. ऐसे ज० जैसे गो० गौतम स्वामी त० तैसे आ० पूछे त० तैसे जा० __ वहमाणे एवं वावि विहरइ॥६७॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा वीररस अंतेवासी आणंदे णाम थेरे पगइभदए जाव विणीए छटुंछट्टेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ६८ ॥ तएणं से आगंदेथेरे छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, के कुंभकार की दुकान में आकर आजीविक से परवरा हुवा बहुत ईर्षा करनेलगा. ॥३७॥ उस काल उसी समयमें महावीर स्वामीका प्रकृति भद्रिक यावत् विनीत आनंद नामका शिष्य निरंतर छठ२ के तप से आत्मा को भावते हुवे विचरते थे ॥ ६८ ॥ छठ के पारने के दिन प्रथम पौरुषि में स्वाध्याय यों गौतम स्वामी जैसे श्री महावीर स्वामी को पुछकर ऊंच नीच व मध्यकुल में यावत् फीरते हुवे हालाहला कुंभकारीकी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ~ भावार्थ Page #2057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२७ शब्दार्थ यावत् उ० ऊंच नी० नीच.म० मध्य जा. यावत् अ० फीरते हा. हालाहला कुं० कुंभकारी की ० अ० नजदीक से बी• गया ॥ ६९ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं. मंखलिपुत्र आ० आनंद थे०१०७ स्थविर को हा० हाला हला कुं० कुंमकारिणी के कुं० कुंभकारावासकी अ० नजदीक वी० जाते पा० पा० देखकर ए० ऐसा व० बोला ए० आव आ० आनंद इ० यहां ए० एक म० बड़ा उ० दृष्टान्त णि मून ॥ ७० ॥ त० तब से वह आ• आनंद थे० स्थविर गो० गोशाली मं० मंखलिपुत्र से ए. ऐसा तहेव जाव उच्चणीय मज्झिम जाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीईवयइ ॥ ६९ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीईवयमाणं पासइ, पासइत्ता एवं वयासी-एहि ताव आणंदा ! इओ, एगं महं उवमियं णिसामेह ॥ ७० ॥ तएणं से आणंदे थेरे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्तेसमाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकाभावार्थ कुंभकार की दुकान की पास जाते थे. ॥ ६९ ॥ मखली पुत्र गोशाला आनंद स्थविर को हालाहला is कुंभकारी की कुंभकार शाला की पास जाते हुवे देखकर ऐमा बोला कि अहो आनंद ! तुम यहां आओ, मैं तुम को एक बडी उपमा (द्रष्टांत) कहुं ॥ ७॥ जब मंखलीपुत्र गोशाला आनंद स्थविर को ऐसा पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 38०38848 पन्नरहदा शतक <8888 Page #2058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी nnnwwwwwwwwwwwwwwrnNKA ७० बोलाया जे० जहां हा० हाला हला कुं. कुंभकारिणी कुं० कुंभकारशाला जे० जहां गो० गोशाला * मखलिपुत्र ते तहां उ०गया॥७॥३० आज से चि बहुत काल पहिले के कोई उ० ऊंचनीच व०वणिक अ० अर्थ के अर्थी अ० लोभी अ० अर्थ गवेषणा वाले अ० अर्थ की कांक्षावाले अ० अर्थ पि०पिपासु अ० है अर्थ केलिये णा विविधप्रकारके वि विपुल प०किराणा भ०पात्र आलेकर सगाडा गाडीमें सुबहुत भ० अन्न पानी प०पथ्य अन्न ग लेकर ए०एक म बडा अग्राम रहित अ०अतिगहन छिरस्ता रहित दी बहुत रिए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, ॥ ७१ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वयासी एवं खलु आणंदा ! इतो चिराईयाए केइ उच्चावया वणिया अत्थत्थी,अत्थलुहा, अत्थगवेसी, अत्थकंखिया, अत्थपिवासिया अत्थगवेसणयाए णाणाविह विउल पणिय भंड मायाय सगड़ीसगडेणं सुबहुं भत्तपाण पत्थयणं गहाय एगं महं अगामियं अणोहियं छिण्णावायं दीहमई अडविं अणुप्पविट्ठा बोला तब वह हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकार शाला में मंखली पुत्र गोशाला की पास गया ॥ ७१॥ मखली पुत्र गोशाला आनंद स्थविर को ऐसा बोला कि अहो आनंद ! आज से कितने काल पहिले धन पी, धन में लुब्ध, धन की गवेषणा करने वाले, और धन की कांक्षा करनेवाले कितनेक छोटे बडे 21 वणिक धन की गवेपणा के लिये विविध प्रकार के बहुत मनोज्ञ भंडोपकरण गाडे में डालकर और बहुत *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #2059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ कालवाली अ० अटवि में अप्रवेश किया किया॥७२॥त०तब त उन व वणिकों का ती० उस अग्राम रहित । छि• पंथरहित दी दीर्घकालवाली अ.अटवि का किं०थोडाभाग को अनहीं प्राप्तहोते पु०पहिले गलियाहवा 0 उ०पानी अ० अनुक्रम से य० भोगवते क्षी० संपूण हुवा ततव ते थे ५० वणिक खी० क्षीण उदकवाले त० } तृष्णा से ५० पराभवपाये अ० अन्योन्य स० बोलाकर ए० ऐसा ब० बोले दे० देवानप्रिय अ० अपन इ०१७ इस अ० ग्रामरहित जा० यावत् अ० अटवि का कि० किंचित् दे. देशको अ० प्राप्तहोते पु० पहिले ॥७२॥ तएणं तेसिं वणियाणं तीसे अगामियाए अणोहियाए छिण्णावायाए दीहमहाए अडवीए किंचिदेसं अणुप्पत्ताणं समाणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुजमाणे २ खीणे ॥ तएणं से वणिया खीणोदगासमाणा तण्हाए परिब्भवमाणा अण्णमण्णे सहावेंति सतित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडचीए किंचिदेसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुव्वगहिए उदए अणुपुव्वेणं भात पानी साथ लेकर प्राय नहीं होवे वैसी, पहाडों व वृक्षों से भरपूर, रस्ता मालूम पड़े नहीं वैसी बडी अटवि में पैठे. ॥ ७२ ॥ अब ऐसी ग्राम रहित, रस्ता विना की व बहुत लम्बी अटवी में थोडा गये पीछे। वणिको की पास पहिले लिया हुवा पानी भोगते हुने क्षीण होगया.अब उन की पास पानी नहीं होने से तृषा से) 12 पीडित होने हुवे परस्पर बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! अपन इस ग्राम रहित यावत् महान अटबि के + पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पन्नरहवा शतक १४ भाव Page #2060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 89 ग. लीया हुवा उ• पानी अ० अनुक्रम से ५० भोगवते खी० संपूर्ण हुवा तं• इसलिये से० श्रेय दे० देवानुप्रिय अ० अपन इ० इस अ० ग्राम रहित जा. यावत् अ. अटवि में उ० पानी की स० चारोंबाजु म. मार्गगवेषणा क० करने को ति. ऐसा करके अ. अन्योन्य की अं० पास से ए० इस अर्थ को ५० सूनकर ती० उस अ० ग्राम रहित अ० अटवि में उ० पानी की स० चारों बाजु म० मार्ग गवेषणा क० करे ॥ ७३ ।। उ० पानी की स० चारों बाजु म० मार्ग गवेषणा क० करते ए. एक म० बडा व० वनखंड आ० प्राप्त हुवा कि० कृष्ण कि० कृष्णारभास जा० यावत् णि निकुरंव भूत पा० देखने योग्य पुरि जमाणे परिभुंजमाणे खीणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवसणं करेत्तए तिकटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमटुं पडिसुणेति २ त्ता, तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगरस सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करोति ॥ ७३ ॥ उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण गवेसणं करेमाणे एगं महं वणखंडं आसाति, किण्हं किण्होभासं जाव थोडे विभाग में आते अपनी पास रहा हुवा पानी भोगते क्षीण हो गया है, इस से इस अटवी में चारों तरफ " पानी की गवेषणा करना चाहिये. ऐमा परस्पर सुनकर उस अटवि में चारो तरफ पानी की गवेषणा करने लगे. ॥ ७३ ॥ पानी की चारों तरफ गवेपणा करते हुए एक बडा वनखंड देखा, वहं कृष्ण कृष्णाभास .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* , भावार्थ Page #2061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 2880पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) जा. यावत् प० प्रतिरूप ॥ ७४ ॥ त० उस व वनखंड की ब. बहुत म० मध्य में म० बडा ए० एक व० वल्मीक आ० प्राप्त हुवा त०. उस व. बल्मीक को व. चार व. शरीर अ० नीकले ति तीछा सु० विस्तीर्ण अ० नीचे १० सर्प का अ० अर्धा रू. आकार से १० सर्प के सं० संठान से सं० संस्थित पा० प्रासादिक जा. यावत् प० प्रतिरूप ॥ ७९ ॥ त० तब ते. वे व० वणिक ह. हृष्ट तुष्ट अ. अन्योन्य स. बोलाकर एक ऐसा व० बोले दे. देवासुप्रिय अ० अपन इ० इस अ. ग्राम रहित जा० णिकुरुंबभूयं पासादीयं जाव पडिरूवं ॥ ७४ ॥ तस्सणं वणखंडस्सणं बहुमज्झदे सभाए एत्थणं महेगं बम्मीयं आसादेति ॥ तस्सणं वम्मियस्स चत्तारि वपुओ अब्भुगयाओ अभिणिसडाओ तिरियं सुसंपग्गहियाओ अहे पण्णगडरूवाओ पण्णगड संठाणसंठियाओ पासादीयाओ जाव पडिरूवाओ ॥ ७५ ॥ तएणं से वणिया हट्ठ तुट्टा अण्णमण्णं जाव सदावेति, सद्दावेतित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! गवत् निकुरुंब भूत, दर्शनीय यावत् प्रतिरूप था. ॥७४॥ उस वनखंड की मध्य में एक बडा बल्मीक उनोंने देखा. उस को चार शरीर थे अर्थात् उस पर मिट्टि के चार शिखर थे. उस अवयव रूप नीकले हुवे चार तीच्छि दिशा में विशेष प्रसरे हुवे, विस्तीर्ण, नीचे अर्ध सर्प के आकार से, देखने योग्य यावत् प्रा ॥ ७० ॥ अब वे वणिक संतुष्ट हुवे यावत् परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! ग्राम रहेत 859 पन्नरहवा शतक 828 भावार्थ Page #2062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी यावत् स. चारों बाजु म मार्ग गवेषणा क० करने से इ० यह व० वनखंड आ० प्राप्त हुवा कि० कृष्ण कि० कृष्णावभास इ० इस व. वनखंड की ब० बहुत मध्य में इ• वह वळवल्मीक आ० प्राप्त हुवा इ. इस व. वल्मीक के च. चार व० शरीर अ० नीकले हुवे जा. यावत् प० प्रातरूप तं• इसलिये से. श्रेय दे० देवानुप्रिय अ० अपन इ० इस व० वल्मीक का प० प्रथम व. शरीर भि. भेदने को अ० निश्चय उ० उदार उ० जलरत्न अ० आस्वादेंगे त० तब ते. वे ३० वणिक अ०अन्यान्य की अ० पास एक यह अर्थ सुनकर तक उस व बल्मीक की प. पहिली व शिखा भिं भेदी त० तहां अ० अच्छा ५० पथ अहं इमीसे अगामियाए जाब सव्वओ समंता मग्गण गवसणंकरमाणेहिं इमे । घणखंडे आसादिए, किण्हे किण्होभासे ॥ इमस्सणं वणखंडस्स बहुमज्झदेसभाए इमे वम्मीए आसादिए. इमस्सणं वम्मीयस्स चत्तारि वपुओ अब्भुग्गयाओ जाव पडिरूवाओ ॥ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इम्मस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पि भिंदित्तए अवियाइ उरालं उदगरयणं अस्सादिस्लामो ॥ तएणं ते वणिया अण्णयावत् बहुत दीर्घ अटवी में चारों तरफ पानी की गरेपणा करने कृष्ण, कृष्णावभास यावत् प्रतिरूप ऐसा यह वनखंड अपनने देखा, और इस की बीच में यह वल्मीक कोचार शरीर नीकले हवे हैं. इस का पहिला शिखर भेद नेसे अपन अच्छा पानी आस्वादेंगे, परस्पर ऐसा सुनकर उस वल्मीक का पहिला शिखर प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २०३३ शब्दार्थ ज. जातिवाला त० हलका फा० स्फटिक वर्ण जैसा उ० उदार उ० उदकरत्न आ० प्राप्तकिया त०वे व०१ ० वणिक ह० हृष्ट तु• तुष्ट पा० पानी पि. पीया पि० पीकर वा० बैलों को प० पीलाकर भा. भाजन भ०१४ भरकर दो० दूसरी वक्त अ० अन्योन्य एक ऐसा व. बोले ए. ऐसे ख० खलु दे. देवानुप्रिय अ११। अपने से इ. इस व० वल्मिक की प. प्रथम व शिखा भि० भेदाड उ० श्रेष्ट उ० उदकरत्न अ हुवा तं० इसलिये से० श्रेय दे० देवानुप्रिय अ० अपन को ई० इस व० वल्मीक की दु० दुसरी मण्णस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति २ त्ता तस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पि भिंदेति. . तेणं तत्थ अच्छं पत्थं जच्चं तणुयं पालियवण्णाभं उरालं उदगरयणं आसादेति ॥ तएणं ते वणिया हतुवा पाणियं पिबति २ त्ता वाहणाई पजेतित्ता भायणाई भरेति, भरेतित्ता दोच्चंपि अण्णमण्णं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए उराले उदगरयणे भावार्थ उनों ने भेदा. जिस से उस में से उन को अच्छा, पथ्य, हलका व स्फटिक वर्णवाला उदक रत्न की माप्ति हुइ. उप्स से वे वणिक हर्षित हुवे, पानी पीया और साथ बैल वगैरह पशुओं को भी पानी पिलाया. भाजनों में * पानी भर लिया. तत्पश्चात् वे परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! इस वल्मीक का प्रथम शिखर भेदने से उदार उदक रत्न की प्राप्ति हुई. अब इस का दूसरा शिखर भी भेदना चाहिये क्योंकि । पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र <380%> 880%83800 पत्ररहवा शतक 8888880% Page #2064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ ३५ १ अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी व० शिखा भिं० भेदने को ए० इस से उ० श्रेष्ट सु. सुवर्णरत्न अ० प्राप्त करेंगे त०* तव ते वे ३० वणिक अ० परस्पर की अंक पास ए. इस बात को प. सुनी त. उस व० वल्मीक की व. शिखा भिं. तोडी. त० उस में अ० अच्छा ज० जातिवाला त० तपाहुआ म. बहुत अर्थवाला म. त मूल्यवाला म० बडा योग्य उ० उदार सु० सुवर्ण रत्न अ० प्राप्त किया त० तब ते. वे व. वणिक ह. हृष्टतुष्ट भा० भाजन भ० भरकर प० वाहन भ० भरकर त० तीसरीवक्त भी अ० परस्पर ए. ऐसा अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हें इमस्स वम्मीयस्स दोच्चंपि वप्पं भिंदित्तए, एत्थं उरालं सुवण्णरयणं अस्सादेस्सामो ॥ तएणं ते वणिया अण्णमण्णस्स अंतियं .. एयमद्रं पडिसुणेति २ त्ता तस्स वम्मीयस्स दोच्चंपि वप्पं भिंदति ॥ तत्थ अच्छं जच्चं , तवणिजं महत्थं महग्धं महरिहं उरालं सुवण्णरयणं अस्सादेति ॥ तएणं तेवणिया हट्टतुट्ठा भायणाई भरेंति, भरोतत्ता पवहणाइ भरेंति २ त्ता तच्चंपि अण्णमण्णं एवं इसे भेदने से इस में से अपन सुवर्ण रत्न प्राप्त करेंगे. उक्त वणिकोंने परस्पर ऐसी बात सुनी और दूसरा शिखर भी भेदा. उस में से अच्छा, जातिवाला, तपाया हुवा, बहुत अर्थवाला, बहुत किंमतवाला उदार सुवर्ण रत्न की प्राप्ति हुइ. अब वे वणिक हृष्ट तुष्ट हुए यावत् भाजन भरलिये और साथ के वाहन भी भरलिये, फीर तीसरी वक्त भी परस्पर एसा बालन लग क इस वल्मीक के प्रथम शिखर में से अच्छा * प्रकाशक राजावहदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ 1 Page #2065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 428 पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 3288 ब० बोले ए. ऐसे दे. देवानुप्रिय अ० अपनने इ० इस ३० वल्मीक की १० प्रथम व० शिखा भि०भेदाने । से उ० श्रेष्ट उ० उदक रत्न अ० प्राप्तहुआ दो० दूसरी व शिखा भि० भेदाने से उ० श्रेष्ट सु० सुवर्ण रत्न अ० प्राप्तहुआ तं० इसलिये से श्रेय दे. देवानुप्रिय त तीसरी २० शिखा भिं० भेदने को अ० अपिचर २०३५ इ० इस में उ० उदार म० मणिरत्न अ० प्राप्त करेंग त तब ते. वेब० वणिक अ० परस्पर अंक पास ए. ऐसा १० सुना त० उस व. वल्मीक की त० तीसरी २० शिखा सिं० भेदी ते• इस से त० उस में वि.विमल नि. निर्मल णि भेद रहित नि० दोष रहित म० बहुत मूल्यवाला म. महा प्रयोजनवालाई वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्त पढमाए वप्पाए भिण्णाए उराले उदगरयणे अस्सादिए । दोच्चाए वप्पाए भिण्णाए उराले सुवण्णरयणे अस्सादिए । तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! तच्चंपि वप्पं भिंदित्तए अवियाइं इत्थं उरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो । तएणं ते वणिया अण्णभण्णस अंनियं एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणेतित्ता, तस्स वम्मीयस तच्चंति बप्पं भिंदति ॥ तेणं तत्थ विमलं णिम्मलं उदक रत्न की प्राप्ति हुई, दूसरा शिखर भेदने से सुवर्ण रत्न की प्राप्ति हुई इस मे तीसरा शिखर भी भेदना चाहिये. जिस से उदार मणिरत्न की प्राप्ति होगी. उक्त वणिकोंने परस्पर ऐसा सुनकर इस का तीसरा शिखर भी तोडा कि जिस में से विमल, निर्मल, प्रसादिदोष रहित, महा मूल्य महा। 2040300 पन्नरहवा शतक 8 भावार्थ 88 Page #2066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थम०वहत योग्य उ. प्रधान म० मणिरत्न आ० प्राप्त किया. त० तब ते. वे ब० वणिक ह. हृष्ट तुष्ट भा. भाजन भ० भरे-भ० भरकर प० वाहन भ० भरकर च० चौथीवक्त भी अ० परस्पर एक ऐसा व० बोले ए ऐसे दे देवानुप्रिय अ० हम को इ० इस व० बल्मीक की प० प्रथम व० शिखा भि० तोडने म से उ० प्रधान उ० उदकरत्न अ० प्राप्त हुआ दो०दूसरी व शिवा भि० भेदने से सु मुवर्णरत्न अ० प्राप्त | २०३६ हुआ तक तीसरी व. शिखा भि० तोडने से उ० उदार म० मगिरत्न अ० प्राप्त हुवा तं• इसलिये णित्तलं णिकालं महग्धं महत्थं महरिहं उरालं मणिरयणं अस्मादिति ॥ तएणं ते वणिया हट्ठतुट्टा भायणाइं भरेंति, भरेंतित्ता पवहणाइं भरॅति, भरौतित्ता चउत्थंपि अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए उराले उदगरयणे अस्सादिए दोचाए बप्पाए भिण्णाए उराले सुवण्णरयणे अस्सादिए तच्चाए वप्पाए भिण्णाए उराले मणिरयण अस्सादिए त सेयं प्रयोजन वाले व महा प्रधान मणि रत्नकी प्राप्ति हुई. तब वे हर्षित हुये यावत् भाजन व वाहन उाने भरलिग और चौथी वक्त भी परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! इस वल्मीक का प्रथम शिखर भेदने से उदक रत्न की प्राप्ति हुई, दूसरा शिखर भेदने से सुवर्ण रत्न की प्राप्ति हुइ, तीसरा शिखर भेदते मणि | रत्न की प्राप्ति हुई तो अब चौथा शिखर तोडते अपन को अच्छे, उत्तम, बहुत मूल्यवाले, अर्थवाले, महेंगे। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www |२०३७ शब्पार्थ , से० श्रेय दे० देवानप्रिय अ• हम को हु . इस वल्मीक की च० चौथी २० शिखा भि. भेदने को अ० . | अपिच इ. इस में उ. उत्तम म० महर्घ्य म. महाप्रयोजनवाला म० महायोग्य उ० प्रधान १० बजरत्न अ० प्राप्त करेंगे त उस समय ते. उन ५० वणिकों में ए. एक व० वणिक हि. हितकाकामी सु०30 सुख का कामी प० पथ्य का कामी अ० अनुकंपा वाला णि निश्रेय वाला हि हित सु० मुख नि.. निश्रेय के का० इच्छक ते. उन व० वणिकों को ए० ऐसा व०. बोला ए. ऐसा दे० देवानुप्रिय अ अपन को इ० इस व० वल्मीक की प० प्रथम व. शिवा भि० भेदने से उ० उदार उ० उदकरन्न खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स चउत्थंपि वप्पं भिंदितए अवियाई इत्थ उत्तमं महग्धं महत्थं महरिहं उरालं वइररयणं अस्सादेस्सामो ॥ तएणं तेसिं वणियाणं एगे वणिए हियकामए, सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए, णिस्सेयसिए हियसुहणिस्सेसकामए तं वणिए एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्प्तवम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिण्णाए उराले उदगरयणे जाव तच्चाए वप्पाए भावाथ वज्ररत्न की प्राप्ति होगी. उस समय उन वाणकों में से हित, सुख, पथ्य की इच्छावाला, अनुकंपावाला, मोक्ष का वांच्छक व हित, सुख व मोक्ष का वांच्छक एक वणिक उन अन्य सब बणिकों को बोला अहा देवानुप्रिय ! इस वल्मीक का प्रथम शिखर तोडते अपन को उदक रत्न की प्राप्ति हुई 428* दंजयांग विवाह परणत्ति ( भगवती) सूत्र पनरहवा शतक80880 Page #2068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " जा. यावत् त तीसरी व० शिखा भि० भेदने से उ. उदार म० मणिरत्न अ० प्राप्त हुवा तं. इस ये हो० होवे प० पर्याप्त ते. इसलिये थे. अपन ९० यह च० चतुर्थ व० शिखा मा० मत भि० तोडो चौथी व शिखा उ० उपसर्ग वाली हो. होवे त० तर ते वेव. वणिक त उस व० वणिक के २०३८ हि० हित का इच्छक मु० सुख का इच्छक जा० यावत् हि० हित सु. सुख णि. निश्रेय का० इच्छक ए. ऐसा आ० कहने वाला जा. यावत् १० प्ररूपने वाले का ए• इस अ० बात को . नहीं श्रद्धते जा. यावत् अ० नहीं रुचि करते त० उत्सव० वल्मीक की च० चतुर्थ व० शिखा भिं०1 भिण्णाए उराले मणिरयणे अस्सादिए, तं होउ अलाहि पजत्तं ते णे एसा चउत्थी वप्पा मा भिजउ, चउत्थीणं वप्पा सउवसग्गायावि होजा ॥ तएणं ते वणिया तस्त वणियस्स हियकामगस्स सुहकामगरस जाव हियसुहणिस्सेस कामगरस एव माइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमटुं णो सदहति जाव णोरोयंति, एयमढें असद्दह माणा जाव अरोएमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थंपि वप्पं भिंदंति । तेणं तत्थ । तीसरा शिखर तोडते श्रेष्ठ मणि रत्न की पाप्ति हुइ, इस से अब संतुष्ट होवो, अपन को मीलना था सो मील . अब चौथा शिखर मत तोडो क्योंकि वह उपमर्ग करनेवाला होगा. इस.तरह हित, सुख, पथ्य मोक्ष का इच्छक वणिक के कथन में श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करते उस वल्मीक का चौथा शिखर भी *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INT तोडी ते. उस से त. उस में उ. उग्रविष वाला चं० चंडविष वाला घो घोरविष वाला म. महाविष वाला अ० अतिकाय म० महाकाय वाला म० काजल मृ० मूषा का० काला न. नयन वि०१० विपरोप से पु० पूर्ण अं• अंजन का पुं० पुंज नि० समुह प० प्रकाश र० रक्त आंख वाला ज. सहल अ० युगल चं चंचल च० चलती हुइ जी० जीव्हा वाला ध० पृथ्वीतल में वे वेणिभूत उ० उत्कट फु०१ॐ प्रकट कु. वक्र जु० केसर वाला क० कर्कश वि० विस्तीर्ण फ० फेन की आ० आटोप क० करने में द० दक्ष लो. लोहार ध० धमता हुवा ध० धमधमायमान घो० शब्दवाला अ० अप्रमेय चं० चंड ति० तीव्र उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायं महाकायं मसिमसाकालगं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंजणिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलचलत जीहं, धरणितलवेणिभूयं उक्कडफुडकुडिलजुडुलकक्खडविकडफडाडोककरणदच्छं। तोडा. उस में से उग्र विष, चंड विष, घोर विष व महाविषवाला, अतिकायवाला परंपरासे हजारों मनु-og भावार्थ Fष्यों को हणने में समर्थ, जंबूद्वीप प्रमाण विष फेलाने में समर्थ, मसी व मूषा समान काला, विषरोप है से परिपूर्ण, नयनवाला अंजन, पुंजन का समुह समान प्रकाश करनेवाला, रक्त आंखोंवाला, सहवर्ति दोनों चंचल जीव्हावाला, पृथ्वीतल में स्त्री की वेणी समान, कंधपरवालों धारन करनेवाला, निष्ठुर बिकट फेण 17 का आटोप करने में दक्ष, लोहकार की धमण जैसे धमधमायमान शब्द करनेवाला, अप्रमेय प्रचण्ड रोष Tags पंचमाङ्ग विवाह पण्णाति ( भगवती ) सूत्र < 8828800 पन्नरहवा शतक 89828 Page #2070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रो० रोप वाला स०श्वान मुख तुत्वरित च० चपल ध धमता हुवा दिदृष्टि विषवाला स० सर्प स० स्पर्श ॥ ७६ ॥ त• तब से वह दि० दृष्टिविष स. सर्प ते. उस व० वणिकों से सं० स्पर्शाया हुवा आ० आमुरक्त मिल्देदीप्यमान स शनैः उ० उठकर स०सर सर करता व० वल्मीक के सिशिखरतलपे दु० चढा २०४० आ० सूर्य नि० देखा ते० उन व० वणिक अ. मेषोन्पेष दि० दृष्टि से स. चारों तरफ स० देखा। त• तब ते० वे व० वणिक दि० दृष्टिविष वाला स० सर्प से अ० मेपोन्मेष रहित दि० दृष्टि से स० लोहागरधम्ममाणधमधमंतघोसं अणागलिय चंडतिव्वरोसं समुहतुरियं चवलं धर्मतं दिद्रिविसं सप्पं संघटेति ॥ ७६ ॥ तएणं से दिट्रिविससप्पे तहिं वणिएहिं संघटिए समाणे आमुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सणियं सणियं उढेइ, उढेइत्ता सरसरसरस्स वम्मीयस्स सिहरतलं दुरूहइ, दुरूहइत्ता आदिच्चं निभाइ, निब्भाइत्ता ते वणिए अणिमीसाए दिट्ठीए सबओ समंता समभिलोएति ॥ तएणं ते वणिया दिदिविसेणं वाला व कुत्ता के मुख समान मुखवाला शीघ्र शब्द करता हुवा सर्प का संघटन हुआ ॥ ७६ ॥ अब उन वणिकों से संघटन कराया हुआ वह सर्प आसुरक्त यावत् क्रुद्ध हुआ शनैः २ उपस्थित हुआ, और सर २ शब्द करता हुआ उस के शिखर तलपे चढा. शिखर तलपे चढकर सूर्य की सन्मुख देखा, पश्चात् सब को , अनिमिष दृष्टि से चारों तरफ देखनेलगा. अब इस तरह दृष्टिविष सर्प की अनिमिष दृष्टि से देखाये हुवे • मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र चारों तरफ स० देखाया हुवा खि० शीघ्र भं० भंड म० पात्र उ० उपकरण आ० लेकर ए० एक आ० [ महार कू० कूट का आ० प्रहार भा० भस्म क० किया हुवा हो० था ॥ ७७ ॥ त० उस में जे० जो से० वह व० वणिक ते ० उन ब० वणिकों का हि० हित इच्छने वाला जा० यावत् हि० हित सु० सुख (नि० कल्याण का० इच्छने वाला से० वह अ० अनुकंपा सहित दे० देवता से स० भंड सहित म० पात्र उ० उपकरण आ० लेकर णिः स्वतःके ण० नगर में सा० पहुंचाया ॥ ७८ ॥ ए० ऐसे ही आ० आनंद त० तेरा ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स० श्रमण णा० ज्ञातपुत्रने उ० उदार प० पर्याय आ० प्राप्त सप्पेणं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोयासमाणा खिप्पामेव भंडमत्तोवरण मायाए एगाहचं कूडाहचं भासिरासीकयायावि होत्था ॥ ७७ ॥ तत्थणं जे से बणिए तेसिं बणियाणं हियकम्मए जाव हियसुहणिस्सेस कामए सेणं अणुकंपि - याए देवताए सभंडमत्तोवगरण मायाए णियगं णयरं साहिए ॥ ७८ ॥ एवामेव आणंदा ! तववि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेणं णायपुत्तेणं उराले परियाए सब वणिक अपने भडोपकरण सहित कूटाकार समान भस्मीभूत होगये || ७७ || अब उन में से जो अन्य वणिक हित, सुख, पथ्य यावत् कल्याण का कामी था उन की अनुकंपा करके देवताने भंडोपकरण} { सहित उन को अपने गांव पहुंचा दिया ॥ ७८ ॥ अहो आनंद ! वैसे ही तेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण 40 पनरहवा शतक 484881 २०४१ Page #2072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 42 की उ० प्रधान कि० कीर्ति व० वर्ण सि० श्लोक स० देव सहित म. मनुष्य अ० असुर लोक में पु० जाते हैं गु० गोपते हैं थु० स्तुति करते हैं इ. ऐसा स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ॥ ७९ ॥ तं. इसलिये ज. यदि मे० मुझे से वह अ० आज से कि० किंचित् व० बोले ते. इस से तक तप ते तेज से ए. एक प्रकार कू० कूट प्रहार भा० भस्म क. करेगा ज. जैसे वा० सर्प से ते. वे व० वणिक ए. एक प्रहार कू० कूट प्रहार भा० भस्म क० करुंगा ज. जैसे वा० सर्प से ते वे व० वणिक तुमारा आ० आनंद सा• रक्षण करूंगा सं० गोपन करुंगा ज• जैसे से वह व० वणिक ते० उन २० अस्सादिए । उराला कित्तिवण्णसहसिलोगा सदेव मणुयासुरेलोए · पुवंति, गुवंति थुवंति इति खलु समणे भगवं महावीरे इति इति ॥ ७९ ॥ तं जदिमे से अज किंचि वदति, तोणं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहचं भासरासिं करेमि जहा वा वालेणं ते बणिया । तुम चणं आणंदा ! सारक्खामि संगोवयामि, जहा वा से वणिए, भगवंत ज्ञातपुत्र उदार पर्याय को प्राप्त हुवा है, उदार कार्ति, वर्ण, शब्द व श्लोकवाला है और सदैव मनुष्य, देवलोक में स्तुति यावत् गुणग्राम होते हैं कि श्रमण भगवंत महावीर ॥ ७९ ॥ अब आज से यदि कुच्छ कहा तो तपतेज से जैसे सर्पने वणिकों को कूटाकार समान भस्म किये, वैसे मैं भस्म करूंगा. प्रकाशक सक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 शब्दार्थ कवणिक का हि. हित का कामी जा० यावत् नि० निश्रेय का कामी अ० अनुकंपा से दे देवता मे स० भंड सहित जा. यावत् सा० पहुंचाया ।। ८०॥ तं० इसलिये ग. जा तु. तुम आ. आनंद घ०धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक सश्रमण णा ज्ञातपुत्र को ए० यह अ० बात ५० कदे ॥ ८१ ॥ त०तब से वह आ०१४ आनंद थे० स्थविर गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र से एक ऐसा चु० कहाया भी डरा जा० यावत् सं भयभीत वाला गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र की अं० पास से ह. हालाहला कुं० कुंभकारिणी के कुं० #कुंभकार की आ० दुकान में से प० नीकलकर सि० शीघ्र तु• त्वरित सा० श्रावस्ति न० नगरी की तेसिं वाणियाणं हियकामए जाव णिस्सेसकामए अणुकंपियाए देवयाए सभंड जाव साहिए ॥ ८० ॥ तं गच्छहणं तुमं आणंदा ! धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स णायपुत्तस्स एयमटुं परिकहेहि ॥ ८१ ॥ तएणं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्तेसमाणे भीए जाव संजायभए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिणिक्खमइ पडिणिस्खमइत्ता सिग्धं तुरियं भावार्थ परंतु अहो आनंद ! जैसे उस देवताने अनुकंपा से हित यावत् कल्याण इच्छनेवाला उस वणिक की 86 रक्षा की थी वैसे मैं तेरी रक्षा करूंगा ॥ ८० ॥ अहो आनंद ! तू तेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक की पास जा 1 और इस बात को कहे ॥ ८१ ॥ मंखली पुत्र गोशाला से ऐसा सुनने से आनंद स्थविर डरे यावत् भय%% 438 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 34837 पन्नरहवा शतक 2880888 Page #2074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४४ अम लक ऋषिजी शब्दार्थम० मध्य बीच में णि नीकलकर जे०जहां को कोष्टक चे उद्यान जे० जहां स० श्रमण भगवंत प० महावीर ते०वहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को ति० तीनवार आ० आदान प० प्रदक्षिणाई करके वं वंदना कर ण. नमस्कार कर एक ऐसा व० बोले ए. ऐसे ख. निश्चयार्थ अ. मैं भं० भगवन छ० छठखमण के पा० पारणे में तु. आपकी अ० आज्ञा से सा० श्रावस्ती ण नगरी में उ. ऊंच नीच जा. यावत् अ० फीरते हा. हालाहला कुं. कुंभकारिणी जा० यावत् वी० गया त० वहां से में गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र म० मुझे हा. हालाहला जा. यावत् पा० देखकर एक ऐसा व. बोला सावत्थिं णयरिं मज्झं मझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदइ णमंसइ, णमंसइत्ता एवं वयासी एवं खलु अहं भंते ! छ?क्नमण पारणगंसि तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे सवत्थीए णयरीए उच्चणीय जाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए जावं वीईवयामि तएणं भावार्थभीत हुवे और मखलीपुत्र गोशाला की पाम से हालाहला कुंभकार की दुकान में से नीकलकर शीघ्र त्वरित श्रावस्ती नगरी की बीच में से नीकलकर कोष्टक उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास 1 आये. महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! मैं बेले के पारणे के दिन *प्रकाशक राजावहदुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 8 अनुवादकबालब्रह wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww Page #2075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४५ शब्दार्थ ए. आव ता० तैसे आ० आनंद इ० यहां ए. एक म० बडी उ० उपमा नि० सुन त० तब अ० मैं से०१४ उस गो. गोशाला मं० मखलीपुत्र से ए. ऐसा वु० कहाया हुवा जे०जहां हा. हालाहला कुं• कुंभकारिणी की कुं• कुंभकार की आ० दुकान जे. जहां गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र ते० वहां उ० गया त० तब से० उस गो गोशाला मं० मंखलीपुत्रने एक ऐसा व० कहा ए० ऐसे आ आनंद इ०आज से चि० लम्बाई काल से के० कितनेक उ० ऊंच नीच व० वणिक ए. ऐसे तं. वैसा स० सब नि० निरवशेष भा० . से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए जाव पासित्ता, एवं वयासी एहि ताव आ णंदा ! इओ एग महं उवमियं णिसामेहि ॥ तएणं अहं से गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं है एवं वुत्तेसमाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलि पुत्ते तेणेव उवागच्छामि ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते एवं वयासी एवं खलु आणंदा ! इओ चिराईयाए अडाए केइ उच्चावया वणिया एवं तंचेव सव्वं णिरवसेसं भावार्थ आप की आज्ञा से श्रावस्ती नगरी में ऊंच नीच यावत् परिभ्रमण करते हालाहला कुंभकारिणी के कुंभकार शाला की पास जाता था. वहां पर मंखलीपुत्र गोशालाने मुझे जाता हुवा देखा और बोलाकर कहा कि ७ अहो आनंद ! यहां आओ, मैं तुम को एक द्रष्टांत कहूं. मंखलीपुत्र गोशालाके ऐसा कहने पर मैं हालाहला कुंभकारिणी की दुकान में उस की पास गया. जब मुझे वह ऐसा बोलने लगा कि अहो आनंद ! कित पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 4882 986860 पनरहवा शतक 880888 Page #2076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४६ शब्दाथकहना जा० यावत् नि• अपने ण नगर को सा० पहुंचाया तं० इसलिये ग. जा तु• तुम आ० आनंद - त० तेरे ध• धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक को जा. यावत् प० कहे ॥ ८३ ॥ तं० इस से ५० समर्थ • भगवन् गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र त तप ते. तेज से ए० एक आ० प्रहार कू• कूट आ० प्रहार भा० भस्म क० करने को वि० विषय भं० भगवन् गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र का जा. यावत् क. करने को स० समर्थ भं. भगवन् गो गोशाला मं० मखलीपुत्र त० तप से जा. यावत क० करने को भाणियव्वं जाव णियगं णयरं साहिए तं गच्छहणं तुम आणंदा तव धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स जाव परिकहहि ॥८३॥ तं पभूणं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तेवणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए,विसएणं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स। जाव करेत्तए; समत्थणं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए ? पभूणं । आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए, विसएणं आणंदा ! गोसाले भावाथ नेक समय पहिले कितनेक छोटे बडे वणिक वगैरह सब कथा पूर्वोक्त जैसे कहना यावत् हित, सुख व कल्याण इच्छनेबाले को अपने नगर में पहुंचा दिया. इस से अहो आनंद ! तू तेरा धर्माचार्य धर्मोप*देशक की पास जा और यह सब वृतांत कहे ॥ ८३ ॥ अहो भगवन् ! मखलीपुत्र गोशाला अपने तप तेज से कूटाकार समान भस्म करने को क्या समर्थ है ? अहो भगवन् ! मंखलीपुत्र गोशाला को क्या अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 80 २०४७ 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 880 प० शक्तिवंत आ० आनंद गो० गोशाला मं० मेखलीपुत्र त० तप से जा० यावत् क० करने का वि० विषय आ० आनंद गो० गोशाला जा. यावत् क० करने को म.समर्थ आ० आनंद गो० गोशाला जा यावत् का करने को णो० नहीं अ०अरिहंत भ. भगवंत को १०परितापना पु. पुनः क०करे जाजितना आ० आनंद गो० गोशाला में मंखलीपत्र का त० तपतेज ए. इस से अ० अनंत गुण मि. विशिष्ट त. तपतेज अ० अनगार भ. भगवंत का खं. क्षमा सहने वाले छु, तु; मभगवंत जाव करेत्तए, समत्थेणं आणंदा ! गोसाले जाव करेत्तए ॥णाचरण अरहत भगवंते परियावणियं पण करेजा ॥ जावइएणं आणंदा ! गोसालस्स मखलिपत्तस्स तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टयाए चेव तवतेए अणगाराणं भगवंतो खंतिखमा पुण अणगारा भगवंतो । जावइएणं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणं तगुणविसिटुतराचेव तवतेए थेराणं भगवंताणं खंतिखमा पुण थेरा भगवंतो, जावंऐसा करने का विषय है ? अहो भगवन् ! क्या मंखलीपुत्र गोशाला तप से यावत् करने को समर्थ है ? अहो आनंद ! मंखलीपुत्र गोशाला तप से यावत् करने को शक्तिवंत है, मखलीपुत्र गो शाला का ऐसा विषय है और मंखली पुत्र यावत् करने को समर्थ है. परंतु अरिहंत भगवंत को भस्म करने में समर्थ नहीं है..मात्र अरिहंत भगवंत को परितापना कर सके. अहो भगवन् ! जितना तप . mmmmmmmmmmm पनरहवा शतक Page #2078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जा० जितना आ० आनंद अ० अनगार भ० भगवंत का त तपतेज ए. इस से अ० अनंत गुण वि. विशिष्टतर त० तपतेज थे० स्थविर भ. भगवंत का खं०क्षमा रखने वाले पुरु पुनः थे०स्थावर भ० भगवंत जा जितना आ० आनंद थे० स्थविर भ० भगवंत का त. तपतेज ए. इस से अ० अनंतगुन वि० विशिष्टतर अ० अरिहंत भ० भगवंत का खं० क्षमा रखने वाले पु० पुनः अ० अरिहंत भ. भगवंत ते. इसलिये प० समर्थ आ० आनंद गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र त० तपतेज से जा० यावत् क० करने को वि० विषय आ० आनंद जा. यावत् क० करने को स० समर्थ आ० आनंद जा० यावत् क० करने को इएणं आणंदा । थेराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव तवतेए अरहताणं भगवंताणं खंतिखमा पुण अरहंता भगवंतो, तं पभूणं आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवणं तेएणं जाव करेत्तए, विसएणं आणंदा ! जाव करेत्तए, समत्थेणं गोशाला का है, इस से अनंत गुण विशिष्टतर सामान्य साधुओं को होता है और जितना तपतेज सामान्य , साधुओं का है उस से अनंत गुण विशिष्टतर स्थविर भगवंत का तप तेज है, स्थविर भगवते का जितना तपतेज है उससे अनंतगुण विशिष्ठतर अरिहंत भगवंत का तपतेज है, क्योंकि वे सब शांति क्षमावाले होते हैं. इस से अहो आनंद ! खलीपुत्र गोशाला अपने तपतेज से भस्म करने को शंकित है, उन का इतना विषय है, और ऐसा करने को समर्थ भी है. परंतु अरिहंत भगवंत को भस्म करने में समर्थ नहीं है. मात्र *काशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #2079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + णो नहीं अ० अरिहंत भ० भगवंत को ५० परितापना पु० पुनः क करे ॥ ८४ ॥ तं० इसलिये ग०341 * जाओ तु० तुम आ० आनंद गो० गौतमादि स० श्रमण नि० निर्ग्रन्थों को ए० इस अ० बात ५० कहो मा० मत अ० आर्य तु. नुम के० कोई गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र को ध० धार्मिक प. निंदासे निंदो ध धार्मिक प० प्रतिकुल याद करके प० यादकरो ध० धार्मिक प० प्रत्युपकार से प. प्रत र कगे गो० गोशाला मंखलीपुत्रने स० श्रमण णि निग्रन्थों से मि. मिथ्यात्व वि. अंगीकार किया है ॥ ८ ॥ त० तब से वह आ० आनंद थे० स्थविर स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर से आणंदा ! जाव करेत्तए, णो चेवणं अरहंते भगवंते परियावणिय पुण करेजा॥८॥ है तं गच्छह णं तुमं अणंदा ! गोयमादीणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमढें परिकहहि__ " माणं अजो ! तुभं केयि गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइओ, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेओ, धम्मियेणं पडोयारेणं पडोयारेओ, गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवण्णे” ॥८५॥ तएणं से आणंदे थेरे भावार्थ अरिहंत भगवंत को परितापना करने में समर्थ है ॥ ८४ ॥ इसलिये अहो आनंद ! तुम गौतमादि श्रमण निग्रंथ की पास जाओ, और कहो कि मंखलीपुत्र गोशालाने श्रमण निग्रंथ की साथ अनार्यपना अंगीकार या है. इस लिये इन का मत की चोयणा, निंदा व प्रतिकुल वचन मत करना ॥ ८५ ॥ जब स्था 438+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 4887 *8403403 पनरहवा शतक 888880 Page #2080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्द २०५० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ऐसा कुछ कहाया स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को २० वंदनाकर ण. नमस्कार कर जे. जहां गो. गौतम श्रमण णि निर्ग्रन्थ ते. वहां उ० आकर गो. गौतम स० श्रमण णि निग्रन्थों को आ० आमंत्रणकर एक ऐसा व. वोला ए. ऐमा अ० आर्य छ० छठ खमण के पा. पारणे में स०१ श्रमण भ० भगवंत म० महावीर अ० आज्ञा होते सा. श्रावस्ती ण नगरी में उ० ऊंचणी० नीच वैसे स० सब जा• यावत् णा• ज्ञात पुत्र ए. ऐसा अ० अर्थ प० कहते हैं तं० इमलिये मा० मत अ. समणेणं भगवया महावीरेणं एवं कुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, जेणेव गोयमादि समणा णिग्गंथा तणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, गोयमादि समणे णिग्गंथे आमंतेइ आमतेइत्ता, एवं बयासी एवं खलु अजो ! छटुक्खमण पारणगसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्चणीय तंचेव सव्वं जाव . णायपुत्तस्स. एयमद्र परिकहेहि तं माणं अज्जो ! तुभं केइ गोसालं मंखालपुन्तं धम्मियाए पडिचायणाए : पडिचोयओ भगवंतने आनंद श्रमण निग्रंथ को ऐमा कहा तब वे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर गौतमादि श्रमण निग्रंथ की पास गये और कहा कि अहो आर्यो! श्री श्रयण भगवंत महावीर स्वामीको आज्ञा से छठ के पारणे के दिन श्रावस्ती नगरी में ऊंच नीच व मध्यम कुल की गाचरी करते वगैरह सब पूर्वोक्त यावत् श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ऐसा कहा है कि मंखली पुत्र गाशालान श्रमण प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसह भावार्थ Page #2081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५१ 8. शब्पार्थ आर्य तु० तुम के० कोई गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र ध धार्मिक व निंदा से ५० निंदो जा. यावत् । मि० मिथ्या वि० अंगीकार किया ॥ ८६ ॥ जा. जितने में आ० आनंद थे. स्थविर गो० गौतमादि स० श्रमण णिनिग्रन्थों को ए०ऐसी अबात प-कही ता०इतनेमें से वह मं०मखलीपुत्र गोगोशाला हा०हाला #हला कुं. कुंभकारिणी के कुं० कुंभकार की दुकान में से प० नीकलकर आ० अजीविकसंघ से 4 प० परवरा हुवा अ० अपर्ष वहता हुवा सि० शीघ्र तु० त्वरित जा० यावत् सा० श्रावस्ती ण नगरी जाव मिच्छं विप्पडिवण्णे ॥ ८६ ॥ जावचणं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमटुं परिकहेहि तावंचणं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्धं तुरियं जाव सावत्थि णयरिं मज्झमझणं णिग्गन्छई, णिग्गच्छइत्ता जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, भावार्थ निग्रंथ की साथ अनार्यपना अंगीकार किया है, इससे कोई उस के मत की निंदा, चोयणा करना नहीं ॥८६॥ गौतमादि श्रमण निग्रंथ को आनंद स्थविर ऐसा कहते थे इतने में ही मंखलीपुत्र गोशाला हालाहला किंभकारिणी की दकान में से नीकला और अपने आजीविक पंथ के संघ से परवराहवा महा अमर्ष, १ [ ईर्षा ] माहित शीघ्र त्वरित यावत् श्रावस्ती नगरी की बीच में होता हुवा कोष्टक उद्यान में श्री श्रमण । पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती) सूत्र 38 पन्नरहवा शतक2 803800 Page #2082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 की म. मध्य बीच में णि नीकलकर जे० जहां को० कोष्टक चे० उद्यान जे. जहां स० श्रमण भ०१ : भगवंत म. महावीर ते० वहां उ० जाकर स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर की अ० पास ठि. रह कर स० श्रमण भगवंत म. महावीर को ए. ऐसा ब० बोला सु० अच्छा आ० आयुष्मन का. काश्यप म. मुझे एक ऐसा व० बाला सा० साधु आ० आयुष्मन् का. काश्यप म० मुझे ए. ऐसा व. बोला गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र म मेरा ध. धर्म का अं० शिष्य गो० गोशाला ॥८७ ॥ जे. जो गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र म० मेरा ध० धर्म का अं० शिष्य से वह सु० शुष्क सु. शुष्काभिजात उपागच्छइत्ता समणस्स भगवआ महावीरस्स अदरसामंतठिच्चा समणं भगव महावीरं एवं बयासी-सुटणं आउसो ! कासवा ! ममं एव वयासी साहूणं आउसो ! कासवा! ममं एवं वयासी गोसाले मखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी गोसाले २॥८७॥ जेणं गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी सेणं सुक्के मुक्काभिइए भवित्ता, कालमासे कालं भावार्थ भगवंत महावीर स्वामी की पास आया. वहां आकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास खडा रहकर उन को ऐसा बोला कि अहो आयुष्मन् काष्यप ! ठीक है अहो आयुष्मन् काश्यप ! अच्छा है, तुमने मुझे है ऐसा कहा कि “मेखली पुत्र गोशाला मेरा धर्म का शिष्य है." ॥८७॥ जो मंखली पुत्र गोशाला तेरा धर्ष का शिष्य था वह शुक्ल शुक्लाभिजात वनकर कालके अवसर में कालकर किसी देव लोक में देवता 4+ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2008- शब्दार्थ होकर का० काल के अवसर में का० काल कि० करके अ० किसी देवलोक में दे० देवतापने उ० । १० उत्पन्न हुआ अ० में उ• उदाइ णा० नामक कं• कुंडिकायनीक अ० अर्जुन गो• गौतम पुत्र का स० Vशरीर.वि छोड कर गो० गोशाला मं० मखली पुत्र का स० शरीर में अ० प्रवेश किया अ० प्रवेश करके, इ. यह सा. सातवा पा०पउट्ट परिहार अ० अंगीकार किया ॥ ८८॥ जे. जो आ० आयष्मन का काश्यप अ. हमारे स० मत में के कोइ सि सीझे सि० सीझते हैं सि० सीझेगे स० सब ते० वे च० चौरासी म० महाकल्प स० लक्ष म० सात दी द्वीप स० सात सं० संजूथ स० सात स० संज्ञी ग० गर्भ स० सात किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णे, अहं गं उदाई णामं कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोयमपुत्तरस सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहामित्ता गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसामित्ता इमं सत्तम पउदृपरिहारं परिहरामि ॥८८॥ जेवियाई आउसो ! कासवा ! अम्हं समयसि केइ सिझिंसुवा सिझि तिवा सिज्झिस्संतिवा सब्वे ते चउरासीइ महाकप्पसयसहस्साइं सत्तदिव्वे, सत्त संजूहे, " भावार्थापने उत्पन्न हुआ है. कुंडिकायन गोत्रीय उदाइ नामवाले मैंने अर्जन गौतमपुत्र का शरीर छोडकर ॐ मखलीपुत्र गोशाला के शरीर में प्रवेश किया है. इस तरह प्रवेश करते मैंने सातवा शरीर धारन किया है। *॥८८ ॥ अहो आयुष्मन् काश्यप ! जो कोई गत काल में सिद्ध हुवे, वर्तमान में सीझते हैं और अनागत - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र - 380% पनरहवा शतक : Page #2084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५४ शब्दार्थ /५० परिवर्तन प अंगीकार करता है पं० पांच क० कर्म स० लक्ष स० साठ स० सहस्र छ० छसो ति .तीन . क० कशि अ० अनुक्रम से ख० खपाकर त० उस प० पीछे सि० सीझे बु• बुझे मु० मुक्त होवे प० । निर्वाण पास होने जा सक. दुःखों का अंत का किनाक करते हैं व क करेंगे से० अथ जाना (जैसे गं० गंगा म० महा नदी ज० जिससे प० बढी हुइ ज. जहां से प० नीकली. ए. यह अ० आधा ५०. पांच जो० योजन स० सो आ० लंबाइ से अ० आधा जो० योजन वि० चौडाइ से पं० पांच ध. सत्त मणिगन्भे, सत्त पउट्ट परिहारे, पंचकम्माणिसयसहस्साई सटुिंच. सहस्साई छच्च सए तिणिय कम्मंसे अणुपुवेणं खवइत्ता, तओ पच्छा सिझंति बुझंति मुच्चंतिः । परिणिव्वाइंति सव्व दुक्खाणं मंतं करिसुवा करितवा करिस्संतिवा ॥ से. जहा वा गंगा महाणदी जओ पवढा जहिंवा पज्जुवत्थिया एसणं अद्वापंचजोअण सयाई आघामेणं, अहजोअणं विक्खंभेणं, पंचधणुहसयाइं उव्वेहेणं एएणं गंगापभावार्थ में सीझेंगे वे सब हमारे शास्त्रानुसार वहां पर चौराप्ती लक्ष महाकल्प पर्यंत मुख भोगते हैं. ऐसे ही सात भागवकर शरीरान्तर में प्रवेश करते हैं. सात संज्ञी गर्भान्तर पश्चात् कर्म के पांच लाख साठ हजार छ सो तीन भेद अनुक्रम से क्षय करके सिद्ध हवे, मुक्त हुये यावत् सब दुःखाका | अंत किया, करते हैं व करेंगे. अब महा कल्पका प्रमाण कहते हैं. जैसे गंगा नदी जहां से नीकलकर अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* * Page #2085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-4 Hg |२०५५ धनुष्य १० सहस्र उ०. उंडी ए. इस गं० गंगा की आ० लम्बाइ से स० सात गं० गंगा ए० एक म० महागंगा स. सात म. महागंगा सा० वह ए० एक सा० सादीन गंगा स० सात सा० सादीनगंगा साल वह ए. एक म० मृत्यु गंगा स० सात म• मृत्यु गंगा सा. वह ए. एक लो० लोहितगंगा सool सात लो० लोहितगंगा सा. वह ए. एक अ० अवंतिगंगा स० सात अ० अतिगंगा सा. वह ए०१ एक प० परमावती ए. ऐसे ही स० अनुक्रम से एक एक ग० गंगा स० लक्ष स० सतरह स० हजार छ० माणेणं सत्तगंगाओ, एगा महागंगा सत्तमहागंगाओ सा एगा सादीणगंगा, सत्तसादीणगंगाओं सा एगा मच्चुगंगा, सत्तमच्चुगंमाओ सा एग लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ सा एगा अवंतीगंगा, सत्त अवंतीगंगाओ सा एगा परमावती, एबामेव सपु. . व्वावरेणं एगंगंगासयसहस्सं सत्तरसयसहस्सा छच्चगुणपण्णं गंगासया भवंतीति भावार्थ जहां जाकर समस्त प्रकार से समाप्तपने को पाई है, वहां गंगा का मार्ग पांच सो योजन का लम्बा, अर्धा * प्रयोजन का चौडा व पांचसो धनुष्य का फंडा है. ऐसी सात गंगा एकत्रित करने से एक महा गंगा होती है, सात महा गंगा की एक सादीन गंगा, सात सादीन गंगा की एक मृत्यु गंगा, सात मृत्यु गंगा की एक लोहित गंगा, मात लोहितगंगा की एक अवन्ती गंगा, सात अवन्ती गंगा की एक परमावती पंचांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती ) सूत्र पनरहवा शतक 43 428 Page #2086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सो गु० गुनपचास गं०गंगा स०सो भ० होती है अ कही ॥८९॥ ता०उन का दु० दो प्रकारका उ० उद्धार तं. जैसे सु. सूक्ष्म बो शरीर क० कलेवर बा० बादर बों० शरीर क० कलेवर त० वहां जे० जो से वह मु. सूक्ष्म बों० शरीर क० कलेवर से उस को उ० स्थाप कर तक वहां जे० जो से वह बा० बादर चों० शरीर के० कलेवर ता. उस का वा० सो वर्ष ग० गये ए. एक गं० गंगा की बा. रेती अ०३ नीकाल कर जा. जितने का. काल में से वह को कोठा खी० क्षीण णी० रज रहित णि. लेप रहित 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी wwwwwwwwwwwwwwwwwwarrrrrrrrAAAA मक्खाया ॥ ८९ ॥ तासि दुविहे उद्वारे पण्णत्ते, तंजहा सुहुमबॉदिकलेवरे चेक, बादरवोदिकलेवरे चेव ॥ तत्थणं जे से सुहुमबोंदिकलेवरे से ठप्प, तत्थणं जे से बादरबोंदिकलेवरे तओणं वाससए गते एगमेगं गंगा बालुयं अवहाय जावइएणं कालेणं से कोटे खीणे णीरए णिल्लेव गिट्ठिए भवइ. से तं सरप्पमाणे ॥ एएणं सरगंगा, यो सातों गंगा एकत्रित होने से एक लाख सात हजार छ सो गुनपञ्चाम गंगाओं होती हैं ॥ ८॥ अब उन गंगा नदियों में रही हुई बालु के दो भेद कहे हैं । सक्ष्म शरीर कण और २ बादर शरीर कण. उस में स सूक्ष्म शरीर कण की व्याख्या करना नहीं, और जो बादर शरीर कण हैं उनमें से प्रतिशतवर्ष एक २ कण नीकलते नितने काल में सक्त गंगा नदीयों क्षीणरजराहेत, निर्लेप व अवयव रहित होवे *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #2087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गाण. स्वच्छ भ. होवें से वह स० सरप्रमाण ए० इस स० सरप्रमाण से ति० तीन स० सर स० लक्ष । ० से. वह म० महा कल्प च० चौरासी म. महाकल्प स० लक्ष से वह ए० एक म० महामानम ॥९॥३०७ अ० अनंत सं० संजुह जी. जीव च. छोडकर उ० उपर के मा० मनुष्य सं० संजूह दे० देव में उत्पन्न होने से वह तक वहां दि० दीच्य भो० भोगोपभोग मुं० भोगते हुवे वि० विचर कर ता. उस द० देवलोक से आ० आयुष्य क्षय से भ. भवक्षय से ठि• स्थिति क्षय से अ. अंतर रहित च चक्कर प्पमाणेणं तिणि सरसयसाहस्साओ से महाकप्पे, चउरासीति महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे ॥ ९० ॥ अणंताओ संजहाओ जीवे चयं चइत्ता उवरिले माणसे संजूहे देवे उववजिहिति, से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विह रित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता उसे सर प्रमाण काल कहते हैं. ऐसे तीन लक्ष सरप्रमाण का एक महाकल्प होता है. चौरासी लक्ष महा कल्प का एक महा मानस होता है, इसे मानसोत्तर भी कहते हैं. यह चौरासी महा कल्प की व्याख्या कही ॥९॥ अब सात दीव्यादिक की प्ररूपणा करते हैं. अनंत जीवों की समुदायरूप काय से जीवों शरीर सजकर उपर बीच का व नीचे का यों जो तीन मानस के सद्भाव हैं उन में सोदो को छोडकर पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र Andr> 388पनरहवा शतक 8 8 8 .. Page #2088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | भावार्थ २३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प० प्रथम स० संज्ञी गर्भ में जी० जीव प० उत्पन्न होने से वह त० वहां से अ० अनंतर उ० उद्ववर्त कर मं० मध्य के मा० मानस सं० संजूह देव देव में उ० उत्पन्न होवे से० वह त० वहां दि० दीष्य पो० भोगोपभोग जा० यावत् वि० विचर कर ता० उस दे० देवलोक से आ० आयुष्य क्षय से जा० { यात्रत् च० छोड कर दो० दूसरा स० संज्ञी गर्भ जी० जीव प० उत्पन्न होवे से० वह त० उस से अ० अंतर रहित उ० उद्वर्तकर दे० नीचे के मा० मानस सं० संजूह दे० देव उ० उत्पन्न होत्रे से० वह त० वहां दि० दीव्य जा० यावत् च० चवकर त० तीसरा स० संज्ञी गर्भ में जी० जीव प० उत्पन्न होवे पढमे साण्णगन्भे जीवे पच्चायाति से णं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता मज्झिले मासे संजू देवे उववज्जइ, से णं तत्थ दिव्वाइं भोगभोगाई जाव विहरिता ॥ ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं २ जाव चइता दोचे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति, सेणं तओहिंता अनंतरं उव्वट्टित्ता हेट्ठिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्जइ, से णं तत्थ दि} उपर के मानस संजुह में उत्पन्न होवे. गंगादिककी प्ररूपना से सरमपाण आयुष्य युक्त संजुह काय के देवता में ( उत्पन्न होवे. यह प्रथम दीव्य भव. वहां दीव्य प्रधान देवयोग्य भोग भोगवते विचरकर वहां का आयुष्य भव व स्थिति का क्षय होने से अंतर रहित चवकर प्रथम संज्ञी के भव को प्राप्त होवे. वहां से अंतर रहित नीकलकर बीच का मानस प्रमाण आयुष्यवाला संजुह की काया में देवतापने उत्पन्न होवे. और वहां दीव्य * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०५८ Page #2089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mAANAAmmar 18 शब्दार्थ * सं० वह तक वहां से जा. यावत् उ० नीकल कर उ० उपर के मा० मानुष्यात्तर सं० संजूह दे० देव में , उ० उत्पन्न होवे से वह त० वहां दि दीव्य भो० भोग च०छोडकर च० चतुर्थ स० संज्ञी गर्भ में जी०जीव उत्पन्न होवे से० वह त० वहां से अ० अंतर रहित उ० चवकर म० मध्य के मा० मानुष्योत्तर सं० संजूह दे देव में उ० उत्पन्न होवे से वह तक वहां दि० दीव्य भो भोग जा. यावत् च० छोडकर पं० पांचवा स० संज्ञीगर्भ जी जीव में प० उत्पन्न होवे से वह तं० वहां से अ० अनंतर उ० नीकलकर व्वाई जाव चइत्ता तच्चे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति, से णं तओहिंतो जाव उव्व हित्ता उवरिल्ले माणसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ, से णं तत्थदिव्वाई भोगं चइत्ता, है चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वटित्ता मज्झिल्ले माणसुत्तरे संजूहे देवे उववजइ, से णं तत्थ दिब्वाइं भोग जाव चइत्ता पंचमे सभावार्थ भोग भोगता हुवा विचरे. वहां से आयुष्य भव व स्थिति क्षय से यावत् चवकर दूसरा संज्ञी गर्भ में , यावत् उत्पन्न होवे. वहां से चक्कर नीचे का मानससंजुह देवतापने उत्पन्न होवे, वहां दीव्य भोग भोगते ॐहुवे विचरे. वहां से अंतर रहित चवकर तीसरा संज्ञी भव में उत्पन्न होवे,और वहां से अंतर रहित चवकर उपर के मानुषोत्तर संजुह देव में उत्पन्न होवे, वहां दीव्य भोगोपभोग छोडकर चौथा संज्ञी भव में उत्पन्न होवे. पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र १ पनरहवा शतक Page #2090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ । mmmmmwwwwwwwww 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 28 हि० नीचे का मा. मानुष्योत्तर सं० संजूह दे० देव में उ० उत्पन्न होवे से वह त० वहां दि० दीन्या भो० भोग जा. यावत् च. छोड कर छ. छठ स० संजीगर्भ में जी० जीव प. उत्तम होवे से० वह त• वहां से अ० अंतर रहित उ० नीकल कर बं० ब्रह्मलोक क. देव लोक १५० प्ररूपा पा० पूर्व पार पश्चिम में आ० लम्बा उ० उत्तर दा० दक्षिण विविस्तार वाला ज. जैसे ठा. स्थानपद में जा. यावत् प० पांच व. अवतंसक ५० प्ररूपा तं० तैसे णिगन्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वटित्ता हिट्ठिले माणसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जति, से णं तत्थ दिव्वाइं, भोग जाव चइत्ता छट्टेणं सण्णिगब्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता बंभलोगे णामं सेकप्पे पण्णत्ते, पाईण पईणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे, जहा ठाणपदे जाव पंचवडेंसगा पण्णत्ता, वहां से अंतर रहित चवकर मध्य का मानुषोत्तर सजह देष में उत्पन्न होवे. वहां दीव्य भोगोपभोग यावत् छोडकर पांचवा संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होवे, वहां से अंतर रहित चवकर नीचे का मानुपोचर संजुह देव में है देवतापने उत्पन्न होवे, वहां दीव्य भोगोपभोग भोगता हुवा यावत् छोडकर छठा सन्नी गर्भ में उत्पन्न होने वहां से अंतर रहित चवकर ब्रह्मलोक देवलोक में देवतापने उत्पन्न होवे. वह देवलोक पूर्व पश्चिम लम्बा, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ] अ० सु० अशोकावतंसक: जा० यावत् प० प्रतिरूप से० वह त० वहां दे० देव में उ० or उत्पन्न होवे से० वह त० वहां द० दश सा० सागरोपम दि० दीव्य भो० भोग जा० यावत् च० छोड़ कर स० सातवा स० संज्ञी गर्भ जी० जीव में प० उत्पन्न होवे से० वह त० वहां ण नव मा० मास ६० बहुत प० प्रतिपूर्ण अ० साढ़े सात जा० यावत् वी० व्यतिक्रान्त सुकुमार भ० भद्र मि० मृदु कुं० दर्भ जैसे कुं० गुच्छावाले के केश म० आभरण विशेष क० कान के पि पृष्ठ भाग में दे० देवकुमार स० समान प० कांति वाला दा० पुत्र तंजहा असोगवडेंसए जाव पडिरूवा, से णं तत्थ देवे उववज्जइ, से णं तत्थ दस सागरोवमाइं दिव्वाई भोग जाव चइत्तासत्तमे सण्णिगन्भे जीवे पञ्चायति, सेणं तत्थ वहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाणं जाव वीकंताणं सुकुमाल - गभद्दलए मिउकुंडल कुंचिय के सए मट्ठगंडतलकण्णपीठए देवकुमार समप्प भए उत्तर दक्षिण चौडा वगैरह जैसे स्थान पद में कहा यावत् पांच अवतंसक कठे. अशोकावतंसक यावत् प्रतिरूप. वहां देवलोक में दश सागरोपमतक दीव्य भोगोपभोग यावत् छोडकर सातवा संज्ञी गर्भ में उत्पन्न होवे. वहां सवा नव मास पूर्ण हुवे पीछे सुकोमल, मृदु, भद्रमूर्तिवाला, कुर्वली पडे हुवे मस्तक के केशवाला, देव सूत्र भावार्थ ++ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 400 do 40 पनरहवा शतक २०६९ Page #2092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १५० उत्पन्न हुवा से० वह अ. मैं का० काश्यप ॥ ९१ ॥ त० तब अ० मैं आ० आयुष्मन् का काश्यप को कौमारावस्था में प० प्रवर्जा मे कु० कुमारावस्था में ब. ब्रह्मचर्य अ०नहीं विधा कर्ण सं० ब ५० प्राप्त की प० प्राप्त करके इ. यह स. सातवा पा० परावर्त प० परिहार प० हुआ तं. वह ज. जैसे ए. एणेक का म० मल्लराम का मं. मंडित का रो० रोहका भा० भारद्वाज का अ० अर्जुन गो० गौतम पुत्र गो गोशाला मं० मखलीपुत्र का ॥ १२ ॥ त० वहां जे. जो १० प्रथम ५० परावर्त प० परिहार दारए पयाते॥ सेणं अहं कासवा!॥९॥तएणं अहं आउसो कासवा ! कोमारियाए पवजाए कोमारिएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाणं पडिलभामि, संखाणं पडिलभामित्ता इमे सत्तमं पउट्ट परिहारं परिहरामि, तंजहा गणपोजाप, मलरामम्म, मंडियस्स, रोहस्स, भारदाइस्स अज्जुणस्स, सोयमपुत्तस्स, गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ॥ ९२ ॥ तत्थणं जे से पढमे पउदृपरिहारे सेणं रायागहस्स णयरस्स बहिया मंडिभावार्थ कुमार समान शरीर की प्रभावाला ऐसा बालक का जन्म हुआ. अहो काश्यप ! वही मैं हूं ॥ ११ ॥ अहो आयुष्मन् काश्या ! कुमार अवस्था में ही प्रवर्ध्या धारन करने से और कुमार अवस्था में ही ब्रह्मचर्य पालने से किसी के उपदेश विना स्वयमेव संख्यान ( बुद्धि) की प्राप्ति की, और इन सात शरीर में प्रवेश किया. १ एणेक का २ मल्लराम का ३ मंडित का ४ रोहा का ५ भारद्वाज का अर्जुन गौतम पुत्रका अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88+ शब्दार्थ 4 से वह रा. राजगृह न० नगरी की ब० बाहिर मं० मंडकुक्षि चे० उद्यान में उ० उदायन का कुंडिका यन का स० शरीर वि० छोडकर ए० एणेजक के स० शरीर में अ० प्रवेश किया अ० प्रवेश कर वा०300 बावीस वा० वर्ष प० प्रथम पा० परावर्त ५० परिहार ५० किया त० उस में जे० जो दो० दूपरा पा शरीर परिहार से वह उ० उद्दण्डपुर न० नगर की ब. बाहिर चं. चंद्रोत्तर ० उद्यान में ए. एणेक00 का स. शरीर वि० छोडकर म० मल्लराम का स० शरीर में अ० प्रवेश किया ए. इक्कीस वा० वर्ष दो० दसरा पा० शरीर परावर्त प० किया त. उस में जे. जो त० तीसरा पा० शरीर परावर्त से वह कुच्छिसि चेइयांस उदायणस्स कंडियायणस्स सरीरं विप्पजहामि, विप्पजहामित्ता, ३ एण्णेज्जगस्स सरीरगंअणुप्पविसामि, अणुप्पघिसामित्ताबावीसं वासाइं पढम पउटै परिहारं है परिहरामि । तत्थणं जेसे दाच्चे पउपरिहारे सेणं उद्दण्डपुरस्स णयरस्त बहिया में है चंदोयरणसि चेइयसि एणेजगस्स सरीरगं विप्पजहामि विप्पजहामित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसामित्ता एगवीसं वासाई दोच्चं पउदृ परिहारं परिहभावार्थ और ७ मंखलीपुत्र गोशाला का ॥ ९२ ॥ इन सात में से प्रथम पउट्ट परिहार ( शरीर परिहार ) रामगृही। नगरी के बाहिर मंडकुच्छ उद्यान में उदायन कुंडिकायन का शरीर छोडकर एणक के शरीर में प्रवेश किया, वहां पर बावीस वर्ष पर्यंत रहा, यह प्रथम शरीर परावर्तन जानना. अब दूसरा परावर्तन उदंड gth पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पनरहवा शतक 4858488 Page #2094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ० पाण० नगरी से ब० बाहिर अं० अंग मंदिर चे उद्यान में म० मल्लराम का स० शरीर वि ( छोडकर मं० मंडित के स० शरीर में अ० प्रवेश कर वी० वीस वा० वर्ष त० तीसरा पा० शरीर परावर्त प० किया त० उस में जे० जो च० चौथा पा० शरीर परावर्त से० वह व० बाणारसी ण० नगरी की ब० वाहिर का काम महावन चे० उद्यान में मं० मंडित का स० शरीर वि० छोड़कर रो० रोह के शरीर में अ० प्रवेश करके ए० गुन्नीस वा० वर्ष च० चौथा पा० शरीर परावर्त प० किया त० उस में जे० जो० पं० पांचवा प० शरीर परावर्त से वह आ० आलंभिका ण० नगरी की ब० बाहिर १० रामि ॥ तत्थणं जेसे तच्चे पउपरिहारे सेणं चंपाए णयरीए बहिया अंगमंदिरं मि ( स चेइयंसि मल्लुरामस्त सरीरं विप्पजहामि २त्ता मंडियस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुपावसामत्ता, वीसंवासाइं तच्चं पट्ट परिहारं परिहरामि ॥ तत्थणं जेसे चउत्थे पर परिहारे सेणं वाणरसीए यरीए बहिया काममहावणंसि चेइयंसि मंडियस्स सरीरं विष्पजहामि २त्ता रोहस्स सरीरं अणुष्पविसामि, अणुष्पवि सामित्ता एगूणवीसं वासाइं चउत्थं पह नगर की बाहिर चंद्रोत्तर उद्यान में एणकके शरीर में से नीकलकर मल्लराम के शरीर में प्रवेश किया. वहां इक्कीस वर्ष पर्यंत रहा. वहां से तीसरा शरीर परावर्तन चंपा नगरी के बाहिर अंग मंदिर उद्यान में मल्लराम का शरीर छोडकर मंडित के शरीर में प्रवेश किया, वहां वीस वर्ष पर्यंत रहा. वहां से चौथा शरीर श्रमकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०६४ Page #2095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा प्राप्तकाल चे० उद्यान में रो० रोहे का स० शरीर वि० छोडकर भा० भारद्वाज के म. शरीर में अ. प्रवेश कर अ० अठारह वा० वर्ष व० शरीर परावर्त ५० परिहार १० किया त० उस में जे. जो छ० छठाई ५. शरीर परावर्त से वह वे० वैशालिक ण नगरी की ब० बाहिर के. कंडिकायन चे० उद्यान में भा० भारद्वाज का स० शरीर वि० छोडकर अ. अर्जुन गो० गोतमपुत्र के स० शरीर में अ० प्रवेश कर, स० सत्तरह वा० वर्ष छ० छठा ५० शरीर परावर्त प० किया त० उस में जे० जो स० सातवा ५० परिहारं परिहरामि ॥ तत्थणं जेसे पंचमे पउट्ट परिहारे सेणं आलंभियाए णयरीए बहिया पत्तकालगंसि चेइयसि रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहामित्ता भारहाइस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसामित्ता अट्ठारस वासाइं पंचमं पउपरिहारं परिहरामि, तत्थणं जे से छटे पउदृ परिहारे सेणं वेसालीए णयरीए.. बहिया में कंडियायणंसि चेइयंसि भारदाइस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहामित्ता अज्जुणस्स ... गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि अणुप्पविसामित्ता सत्तरसवासाइं छटुं : परावर्तन बणारसी नगरी के बाहिर काम महावन उद्यान में मंडित का शरीर छोडकर रोहे के शरीर में 13. प्रवेश किया. वहां गन्नीस वर्ष तक रहा. वहां से पांचवा शरीर परावर्तन आलंभिका नगरी के वाहिर * प्राप्त काल उद्यान में रोहे का शरीर छोडकर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया. यहां पर मैं अगरह 4887 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 *3486749 पत्ररहवा शतक 8948 भावार्थ Page #2096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ शरीर परावर्त से वह इ० यहां सा० श्रावस्ती ण नगरी में हा हालाहला कुं॰ कुंभकारिणी की कुल कुंभकार शाला में अ० अर्जुन. गो. गौतमपुत्र का स शरीर वि० छोडकर गो• गोशाला मं० मखलीपुत्र का स० शरीर अ० समर्थ थि० स्थिर धु० धृव धा० धारन करने योग्य सी० शीत सहने वाला भी उ० ऊष्ण सहने वाला खु. क्षुधा सहने वाला वि. विविध दे० दशम० मशक प० परिसह उ० उपस सहने वाला थि०स्थिर सं० संघयण वाला ति० ऐसा क० करके अ० प्रवेश कर तं० उसे सो०. सोलह पउपरिहारं परिहरामि, तत्थणं जेसे सत्तमे पउपरिहार, सेणं इहेव सावत्थीए णयरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणसि अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं. विप्पजहामि, विप्पजहामित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अलं थिरं धुवं. स. धाराणिज सीयसहं उण्हसहं खुहासह विविहदसमसगपरिसहोवसग्गसहं थिरसं घयणं तिकहु तं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसामित्ता तं सोलसवासाई इमं सत्तम वर्ष पर्यंत रहा. वहां से छठा परिहार वैशाली नगरी के वाहिर कंडिकायन उद्यान में किया. वहां भारद्वाज का शरीर छोडकर गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया. वहां सतरह वर्ष पर्यंत रहा. और वहां से सातवा शरीर परावर्तन यहां पर श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला में किया.शा 17वां गौतम पुत्र अर्जुन का शरीर छोडकर मखली पुत्र गोशाला का संपूर्ण इन्द्रियोंवाला, स्थिर संघयणी, 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसा Page #2097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 43- पंचमाङ्ग विवाह पम्पत्ति ( भगवती ) सूत्र ( वा० वर्ष इ० यह स० सातवा प० शरीर परावर्त ५० किया ए० ऐसे आ० आयुष्मन् का० काश्यप ए एक ते० तेत्तीस व० वर्ष स० शत में स० सात प० शरीर प० परावर्त भ० होते हैं ति० ऐसा अ० कहा ॥ ९३ ॥ तं इसलिये सु० अच्छा आ० आयुष्मन् म० मुझे ऐ० ऐसा व० घोला सा० साधु गो० गोशाला मं० मेखलीपुत्र म० मेरा ध० धर्म का अं० शिष्य है गो० गौतम ॥ ९४ ॥ त० तब स० श्रमण ४०. उपरिहारं परिहरामि ॥ एवामेव आउसो ! कासवा ! एगेणं तेत्तीसेणं वाससएणं सतपपरिहारा परिहारिया भवतीति मक्खाया ॥ ९३ ॥ तं सुडुणं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वयासी साधुणं आउसो ! कासवा ! ममं एवं बयासी गोसाले मालपुत्ते ममं धम्मंतेवासी गोयमा ! गोयमा ! ॥ ९४ ॥ तएवं समणे भगव ध्रुव, निश्चल, धारन करने योग्य यावत् क्षुधा, तृषा, शीत, कृष्णादिक परिषह व उपसर्ग सहन करने वाला शरीर देखकर इस में प्रवेश किया. यहां पर सोलह वर्ष पर्यंत शरीर परावर्तन करूंगा. अहो आयुष्मन् । काश्यप ! इस तरह एक सो तेशीस वर्ष में सात शरीर परावर्तन होते हैं ॥ ९३ ॥ इस लिये अहो आयु}ष्मन् काश्यप ! ठीक है. अहो आयुष्मन् काश्यप ! अच्छा है कि तुम मुझे ऐसा कहते हो मखलीपुत्र गोशाला मेरा धर्म का शिष्य है ॥ ९४ ॥ तब श्री श्रमण भगवंत महावीर मंखली पुत्र गोशाला को 40 पनरहवा शतक 44+ २०६७ Page #2098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भगवंत म० महावीर गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र को.ए. ऐसे व• बोले गो० गोशाला ज. जैसे ते." रसि. होवे गा० ग्राम के लोक से प० पराभव पाया हुवा क. किसी स्थान ग० खड्डा द० खाइ दुर्ग, णि छपने का स्थान प० पर्वत वि. विषम अ० नहीं प्राप्त होते ए. एक म० बड़ा उ० उनके लो० तांतणे से स० सन के लो० तांतणे से क० कपास के तांतणे से ५० तणसूत्र से अ० स्वतः को ओ• ढककर वि० रहे से. वह अ० नही ढकाया हुवा अ० ढका अ० स्वतः को म० मानता है अ० महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी गोसाला ! से जहा णामए तेणए सिया गामेल्लएहिं परब्भवमाणे २ कत्थइ गत्तंवा दरिंवा दुग्गंवा णिणंवा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णालोमेणवा सणलोमेणवा कप्पासपम्हणया तणसूएणवा अत्ताणं आवरेत्ताणं चिद्वेजा ॥ सेणं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, अपच्छण्णेय पच्छण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, अणलुक्के लुक्कमिति अप्पाणं मण्णइ, अपलायए पलायमिति अप्पाणं मण्णइ एवामेव तुम्हं पि गोसाला ! अणण्णे ऐमा बोले कि अहो गोशाला ! ग्रामलोक से पराभव पाया हुवा कोई चोर किसी स्थान स्वतःको छिपाने के लिये खड्डा, गुफा, दर्ग, पर्वत व विषम स्थान नहीं मीलने पर बड़ा उन का तार, सन का तार, कपास की तार अथवा तण के तार से स्वतः को लपेट कर ढका हुवा माने, अप्रच्छन्न को प्रच्छन्न लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. भावार्थ Page #2099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थ * अप्रच्छन्न को प० प्रछन्न म० मानता है अ० अलोक को लु० लोक ति० ऐसा अ० स्वतः को म० मान +अ० नहीं भगा हुवा प• भगा हुवा अ० स्वतः को म. माने ए. ऐसे ही तु० तुम भी गो० गोसाला अ अनन्य सं० होनेपर अ० अनन्य ति० ऐसा उ० उपालंभ करता है तं० इसलिये मा० मत ए ऐसा गोशाला नहीं अ० योग्य है गो० गोशाला स. सत्य ते तेरी छा० छाया णो० नहीं अ० अन्य ॥ ९५ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र स• श्रमण भ० भगवंत म. महावीर से ए० संते अण्णमिति उपलंभास, तं मा एवं गोसाला ! णारिहास गोसाला ! सच्चे व ते साच्छाया णो अण्णा॥९५॥तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ, आउसइत्ता उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसइत्ता उच्चावयाहिं णिभंच्छ. णाहिं णिभंच्छेइ, णिभंच्छेइत्ता उच्चावयाहिं णिच्छोडणाहिं णिच्छोडेइ, णिच्छोभावार्थ माने, नहीं भगे को भगा हुवा माने. वैसे ही अहो गोशाला ! तू अन्य होते हुवे अन्य है ऐसा मानता है. इस से अहो गोशाला ! तुझे ऐसा करना योग्य नहीं है. अहो गोशाला ! यह मात्र तेरी आया है | परंतु अन्य नहीं है॥९५॥ जब श्री श्रमण भगवंतने ऐसा कहा तब वह गोशाला आसुरक्तं यावत्र पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र RP पत्ररहवा शतक 4200-40880 Page #2100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4. {ऐसा वु० बोलाया आ० क्रोधित स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को उ० ऊँचनीच आ० आक्रोश { से आ० आक्रोश किया आ० आक्रोश करके उ० ऊँचनीच उ० उध्वंस से उ० हलका बनाकर नि० निर्भर्त्सना करके णि दुष्टवचन कर ए० ऐसा व० बोला ण० नष्ट क० कदाचित् वि० विनष्ट क० कदाचित् भ० भ्रष्ट अ० आज ० नहीं अ णा० नहीं ते० तुझे म० मेरेसे सु० सुख अ० है || ९६ ॥ ते० उस का० काल ते० उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर का अं० शिष्य पा० डेइत्ता एवं वयासी णट्ठेसि कदायि, विणट्ठसि कदाइ, भट्ठसि कदायि णट्ठविणट्टभट्ठेसि कदाइ, अणभवसि णाहिते ममाहिंतो सहमत्थि ॥ ९६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूईणामं अणगारे पगइभद्दए जात्र विणी धम्माणुरियाणुरागेणं एयमठ्ठे असद्दहमाणे उट्ठाए उट्ठेइ, क्रोधित हुवा और श्रमण भगवंत महावीर को अच्छे, बुरे आक्रोश के शब्दों से बोलने लगा, अभिमान (पूर्वक असमंजस शब्दों से नीचा गिराने लगा, तेरी साथ मेरा कुच्छ भी प्रयोजन नहीं है वैसे कर्कश वचनों से निर्भर्त्सना करने लगा, तीर्थंकरादि अलंकारों से हम को छोडकर वगैरह वचनों से प्राप्त अर्थ को छोडने में प्रवर्तने लगा, और बोला कि तू अपने आचारसे नष्ट भ्रष्ट हुवा है ऐसा मानता हूं, अथवा धर्म सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २०७० Page #2101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विवाह पस्णत्ति (भगवती ) सूत्र 88 पूर्वदिशा के ज० देश के स• सर्वानुभूति अ० अनगार ५० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि० विनीत ध० 21 धर्माचार्य के अ० अनुराग से ए• इस बात को अ० नहीं श्रद्धता उ० उठकर जे० जहां गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र ते. वहां उ० आकर गो. गोशाला में मंखलीपुत्र को ए. ऐसा व. बोला जे० कोइ गो० गोशाला त० तथारूप स. श्रमण मा० माहण की अं० पास से ए० एक भी आ० आर्य घ. धार्मिक सु० सुवचन णि• सुनता है से० वह भी तं० उसे वं० वंदता है . नमस्कार करता उद्वेइत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं णिसामेइ सेवि ताव तं वंदइ णमंसइ । जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ ॥ किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया त्रय के समकाल योग से तू नष्ट, भ्रष्ट हुवा है. अब मेरे से तुझे सुख नहीं है ॥ ९५ ॥ उस काल उस समय में पूर्व दिशा के देश का महावीर स्वामी का शिष्य प्रकृति भद्रिक यावत् विनीत सर्वानुभूति अनगार धर्म के अनुराग से इस अर्थ को नहीं श्रद्धता हुवा अपने स्थान से उठा, और जहां गोशाला था वहां गया. वहां जाकर उस को ऐसा बोला कि अहो गोशाला ! जो कोई तथारूप श्रमण माहण की पास से मात्र एक-आर्य धर्म के सुवचन अवधारते हैं वे भी उन को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना करते हैं। ते 2800 पन्नरहवा शतक <988 भावार्थ a8+ Page #2102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २०७२ सूत्र | है जा० यावत् क० कल्याण कारी मं० मंगलकारी दे० धर्म देव समान चे० ज्ञानवंत प०पर्युपासना करते हैं। क्या पु० पुनः तु तुम गो० गोशाला भ० भगवंत से ५० दीक्षित हवा भ० भगवंत से मुंह त हुवा से०शिष्य बना सि० पढा ब. बहु सत्री कराया भ० भगवंत से मि० मिथ्यात्व वि० अंगीकार किया तं० इसलिये मा० मत गो गोशाला णो० नहीं रि० योग्य है गो० गोशाला स० ते० तेरी सा. वह छा० छाया णो नहीं अ० अन्य ॥९७॥ त० तब से वह गो. गोशाला मखलीपुत्र स. सर्वानुभूति अ• अनगार को एक ऐसा वु० कहाया हुवा आ. क्रोधित स० सर्वानुभूति चेव पव्वाविए भगवया चेव मुंडाविए, भगवयाचेव सेहाविए, भगवयाचेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुईकए, भगवओ चेव मिच्छं विप्पडिवण्णे, तं मा एवं गोसाला! पणे रिहास गोसाला ! सच्चेव ते सा च्छाया णोअण्णा॥९७॥तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूइ णामं अणगारें एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते सव्वाणुभति अणगारं तवेणं अहो गोशाला ! नू भगवंत से दीक्षित बना हुवा है, भगवंतने तेरे को मुंडित किया है, पढाया है, शिक्षा दी है, भगवंतने ही तुझे बहुसूत्री बनाया है तापि भगवंत की साथ ही निश्चयभूत बनकर मिथ्याभाव अंगीकार करता है. इसलिये अहो गोशाला ! ऐसा मत कर. तुझे ऐसा करना योग्य नहीं है, यह तेरी छाया है। अन्य कुच्छ भी नहीं है ॥ ९७ ॥ सर्वानुभूति अनगारने मंखलीपुत्र गोशाला को ऐसा कहा तव बह * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * . भावाथ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #2103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 488+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488+ अ० अनगार के त { है. तपतेज से ए० एक आ० महार कु० कूटाइतन भा० भस्म क० किया ॥ ९८ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मेखली पुत्र स० सर्वानुभूति अ० अनगार को त० तप तेजसे ए० एक आ• आहतन कू० कूटाहतन भा० भस्म क० करके दो० दूसरी वक्त भी स० श्रमण भ० भगवतं म० महावीर को उ० ऊँचनीच आ० आक्रोश से आ० आक्रोश किया जा० यावत् सु० सुख ण०. नहीं ॥ ९९ ॥ ते० उस का काल ते उस स० समय में स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर का तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेइ ॥ ९८ ॥ तणं से गोसाले मंखलिपुत् सव्वानुभूतिं अणगारं तवेण तेएण एगाहच्चं कूडाहचं भासिरासि करेत्ता, दोच्चंपि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ जाव सुहं णत्थि ॥ ९९ ॥ तेणं काणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसल जाणवए आसुरक्त यात्रत् क्रोधित बनकर सर्वानुभूति अनगार को अपने तप तेज से भस्म किया ॥ ९८ ॥ अब { सर्वानुभूति अनगार को अपने तप तेज से भस्म करके मंखली पुत्र गोशाला पुनः श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को ऊंच नीच आक्रोशकारी वचनों से आक्रोशने लगा यावत् अब तुझे मेरे से सुख नहीं ॥ ९९ ॥ उस कॉल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर का कोशल देश का उत्पन्न प्रकृति भद्रिक **** पनरहवा शतक २०७३ Page #2104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + शिष्य को० कोशल जा० जनपद सु० सुनक्षत्र अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक जा० यावर गीत घ. धर्माचार्य के अ. अनुराग से ज. जैसे स. सर्वानुभात तक तैसे जा. यावत् स. सत्य तेरी सा० वह छा० छाया णो० नहीं अ० अन्य ॥१०॥ त० तब से वह गो. गोशाला मं० मेखली पुत्र सु० सुनक्षत्र अ० अनगार से एक ऐसा वु० बोलाया आ० आसुरक्त मु० सुनक्षत्र अ० अम्मार को त० तप के ते. तेजने ५० पोडित किया ॥ १०१ ॥ त० तब से वह मु० सुनक्षत्र अ० सुणक्खत्ते णामं अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए धम्मायरियाणुरागेणं जहा सव्वाणुभूई तहेव जाव सच्चेव ते सा च्छाया णो अण्णा ॥ १० ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुणक्खत्तेणं अनगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरत्ते सुणक्खत्तं अणगारं तवेणं तएणं परितावेइ ।।१०१॥ तएणं से सुणक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मखलिपुत्तणं यावत् प्रकृति विनीत सुनक्षत्र नाम के अनगार थे. वह धर्मानुरागसे गोशाला की पाम जाकर सर्वानुभूति अनगार जसे कहने लगा यावत् वह छाया है परंतु अन्य नहीं है ॥ १०॥ अब मुनक्षत्र अनगारने गोशाला को ऐसा कहा तब वह आमुरक्त यावत् क्रोधित हुवा और अपने तपतेज से उन को परितापना की. ॥१०१ ॥ इस तरह मखली पुत्र गोशाला के तप तेज से पीडित हुवा मुनक्षत्र अनगार श्रमण भग . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ . Page #2105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8% २०७५ 48 पंचमाङ्ग विवाह पञ्णाति ( भगवती ) मूत्र 48 अनगार गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र के त० तप ते० तेजसे प० पीडित जे. जहां स० श्रमण म. भगवंत म. महावीर ते. वहां उ० आकर स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को ति० तीन बार व० वंदनकर ग. नमस्कार कर स० स्वयमेव पं० पांच म० महाव्रत की आ०आराधना की स० साधु स० साधी को ख० खमाये खा. खमाकर आ० आलोचना १० प्रतिक्रमण स. समाधि प्राप्त आ० अनुक्रम १से का. काल किया ॥ १०२ ॥ त० तब से वह गो गोशाला सु० सुनक्षत्र अ. अनगार को त०१ तप तेजसे प० पीडितकर के त० तीसरी वख्तभी स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को उ० ऊंचनीच तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो वंदई णमंसइ, णमंसइत्ता सयमेव पंचमहब्बयाई आरुहेइ, आरुहेइत्ता समणाय समणीओय खामेइ, खामेइत्ता आलोइय पडिक्कते. समाहिपत्ते आणपन्वीए कालगए ॥ १.२॥ तएणं से गोसाले 849 पमरहबा शतक88+ भावार्थ वंत महावीर स्वामी की पास गये और उनको तीन वार वंदना नमस्कार कर स्वयमेव पांच महा व्रतं की आराधना कर साधु साध्वीयों को खमाकर आलोचना प्रतिक्रमण करके सामाधि प्राप्त बना हुवा काल को प्राप्त हुए । १०२॥ अपने तफ्तेज से मुनक्षत्र अनगार को.पीडित करके मखली पुत्र गोशाला तीसरी में Page #2106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ से आ० आक्राश भगवंत म० महावामा माहण का हुआ अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी g आ० आक्रोश से आ० आक्रोश किया स. सकतं. वैसे जा. यावत् मु० सुख । नहीं है. ॥ १०३ ॥ त० तब स० श्रमण भ. भगवंत म० महावीर गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र को। ए. ऐसा व० बोले जे० जो गो० गोशाला त० तथारूप स० श्रमण मा० माहण की तं. वैसे जा० यावत् प० पर्युपासना करते हैं कि कैसे पु० पुनः गो० गोशाला तु० तुम म० मेरेसे प० प्रवजित हुआ जा० यावत् म० मेरेसे ब० बहु सूत्री कराया म० मेरेसे मि० मिथ्या प० अंगीकार किया त० इसलिये मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेत्ता तच्चंपि समणं भगवं महावीर उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ सव्वं तंचेव जाव सुहं णत्थि ॥ १०३ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी जेवि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्सवा माहणस्सवा तंचेव जाव पज्जुवासति, किमंग पुण गोसाला ! तुम्हं मएचेव पव्वाविए जाव मएचेव बहुसुईकए ममंचेव मिच्छं विप्पडिवण्णे तं मा बत भी श्रमण भगवंत महावीर को ऊंच नीच आक्रोशकारी वचनों से आक्रोशकर यावत् तुझे सुख में नहीं है ॥ १०३ ॥ तब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी मंखलीपुत्र गोशाला को ऐसा बोले कि अहो गोशाला! जो कोई तथारूप श्रमण माहण की पास से मात्र एक आर्य धर्म के सुवचन श्रवण करते उन की वंदना पूजा यावत् पर्युपासना करते हैं, तो अहो गोशाला ! मेरे से दीक्षित बना हुवा यावत् मैंने बहुसूत्री बनाया हुवा मेरे से ही मिथ्यात्वभाव अंगीकार कर रहा है. अहो गोशाला ! ऐसा प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #2107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००७ Am शब्दार्थ मा० मत ए. ऐसे गो० गोशाला जा. यावत् णो• नहीं अ. अन्य ॥ १०४ ॥ त तब से वह गो. गोशाला मं० मेखलीपुत्र स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर से ए. ऐसा वु० बोलाया आ० आमुरक्त 'ते. तेजस स० समुद्धात स० करके स० सात आठ प० पांच प० पीछा जाकर स० श्रमण भ०. भगवंत०७ म. महावीर का व० वध के लिये स० शरीर में से ते. तेज णि नीकाला ॥ १०५॥ ज. जैसे वा वात उ० उत्कलिक वा० वायु मं० मंडलिक से० पर्वत को कु० कुटको यं० स्तंभ को आ० स्खलना पाता एवं गोसाला ! जाव णो अण्णा ॥ १०४ ॥ तएणं से गोसाले मंखालिपुत्ते समणेणं . भगवया महावीरेणं एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते तेयासमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणइत्ता सत्तट्ठपयाई पच्चीसक्कइ, पच्चासकइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स घहाए सरीरगंसि तेयं हिस्सरइ ॥ १.५ ॥ से जहा जामए वाउक्कलियाइवा वाय मंडलियाइवा सेलंसिवा कुडुयंसिवा थंभंसिवा आवरिजमाणावा थूमंसि णिवारिजमाणावा भावार्थ मत कर. ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है. अहो गोशाला ! यह तेरी छाया है अन्य कुच्छ भी नहीं है। है ॥ १०४ ॥ जब श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ऐसा कहा तब मंखली पुत्र गोशाला आसुरक्त यावत् ।। 3 क्रोधित हुवा, तेजस समुद्धात करके सात आठ पांव पीछा गया और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी 1 का वध के लिये तेज नीकाला॥१०॥जैसे बातोत्कलिका अथवा मंडलिका वायु शैल, कूट व स्तंभ से स्खलना पानी पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र m wwwwwwwwwwwwww mmmmmmmmAAL पनरहवा शतक 480 +8 Page #2108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ हुवां णि विशेष स्खलना पाता हुवा सा० वह त० वहां णो० नहीं क० जाता है पो० नहीं ५० विशेष 2जाता है ए. ऐसे गो० गोशाला का त० तपतेज स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर के व० षध के लिये स० शरीर में से णि नीकला हुवा से० वह त• वहां णो० नहीं क० गया णो० नहीं प० विशेष गया अं० एक वार चि० अनेक वार क० करके आ० आवर्त प० प्रदक्षिणा क० करके उ. ऊर्ध्व . आकाश में उ० गया ते वह त वहां प० हणाया हुवा प०पीछा आता गो गोशाला मं० मंखलीपुत्र के है, साणं तत्थ णोकमइणोपक्कमइ,एवामेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए समणस्स भग घओ महावीरस्स वहाए सरीरगं णिसिद्धेसमाणे, सेणं तत्थ णोकमइ णोपक्कमइ, अंचियंचियं करेइ, करेइत्ता आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेइत्ता उट्ठ वेहासं उप्पइ, ते से णं तओ पडिहए पडिणियत्तमाणे तस्सेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २, भावार्थ हुवा उसे पराभव करे नहीं बैसे ही श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी का वध के लिये नीकाला हुवा तेज उन को अतिक्रमा नहीं, उन का पराभव कर सका नहीं, परंतु एक वक्त जावे पुनः पीछा आवे यों इधर उधर फीरता हुवा महावीर स्वामी की दक्षिण बाजु प्रदक्षिणा करता हुवा ऊंचे आकाश में गया, ऊंचे, आकाश में उछलकर वहां से हणाया हुवा, पुनः वहां से पीछा आता हुवा उस ही मेखली पुत्र गोशाला के है। * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + "कासक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #2109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ विवाह पणति (भगवती) सूत्र 488+ +8+ पंचमाङ्ग स. शरीर को अ० जलाता अ० प्रवेश किया ॥१०६॥ त. तब से वह गो. गोशाला मै० मखली. पुत्र स० स्वतः के ते• तेज से अ० पराभव पाया हुवा स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को ए. ऐसे बम्बोला तु०तुम आ०आयुष्मन् का०काश्यप म मेरे त तप तेज से अ०पराभव पाया हुवा अ० अंदर छ०१। छमास में पि.पित्तज्वर प. परिगत स० शरीर वाला दा० चलनयुक्त छ, छमस्थ में का० काल क०* करेंगे ॥ १०७॥ त• तब सश्रमण भ० भगवंत म. महावीर गो० गोशाला में० मेखलीपुत्र को ए. 109 अंतो २ अणुप्पवितु ॥३०६॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेएणं अणाइटे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं वयासी तुमणं आउसो कासवा! ममं तवेणं तेएणं अणाइट्टे समाणे अंतो कण्हं मासाणं पित्तजरपरिगय सरीरे दाहवक्कतिए छउमत्थे चेव कालं करिस्सइ ॥१.७॥तएणं समणेभगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी णो खलु अहं शरीर को जलाता हुवा अंदर प्रवेश किया ॥ १०६ ॥ अब स्वतः के तेज से परामव पाया हुवा मखली गोशाला श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को ऐसा बोला कि अहो आयुष्मन् काश्यप! मेरे तप तेज ॐ पराभव पाया हुवा पित्तज्वर के शरीरवाला व दाह युक्त छद्मस्थपना में ही छ मास की अंदर तू काल करेगा ॥ १०७ ॥ तब श्रमण भमवंत महावीर मंखली पुत्र गोशाला को ऐसा बोले कि अहो गोशाला! पन्नरहवा शतक भावार्थ Page #2110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पब्दिार्थ १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * ऐसा व० बोले णो० नहीं अ० मैं गो० गोशाला त० तेरे त० तपतेज से अ० पराभव पाया हुवा ०. दर छ. छ: मास में जा. यावत् का. काल करुंगा अ० मैं अ० अन्य सो० सोलह वा. वर्ष जिन मु० सुखार्थी वि० विचरुंगा तु• तुम गो• गोशाला अ० स्वतः स० अपने ते तेज से अ० पराभव पाया हुवा अं० अंदर स० सात रात्रि पि० पित्तज्वर प० परिगय स. शरीर पाला जायावत् छ० छमस्थ में का० काल क. करेगा ॥१०८॥ तक तब सा श्रावस्ती ण नगरी में सिं० श्रृंगाटक जा. यावत् । म. महापथ में व० बहुतमनुष्यों अ० परस्पर ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् ए० ऐमा ५० प्ररूपते गोसाला! तव तवेणं तेएणं अणाइट्टे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव कालं करिस्सामि॥ ___ अहंणं अण्णाई सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि ॥ तुम्हंणं गोसाला अप्पणाचेव । सएणं तवेणं तेएणं अणाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगय सरीरे जाव छउ- १ मत्थे चेव कालं करिस्सास ॥ १०८ ॥ तएणं सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव । पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खंइ जाव एवं परूवेइ एवं खलु देवाणुतेरे तपनेज से पराभूत बना हुवा छ मास की अंदर मैं काल नहीं करूंगा, परंतु अन्य सोलह वर्ष पर्यंत जीन व मुखार्थी बना हुवा विचरूंगा. अहो गोशाला! तू तेरे तप तेज से ही पराभव पाया हुवा सात रात्रि में पित्तज्वर सहित छयस्थ अवस्था में काल करेगा ॥१०८॥ उस समय श्रावस्ती नगरी में प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी भावार्थ | Page #2111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 83486 ૨૯૮૧ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र १ हैं ए. ऐसे दे० देवानुप्रिय सा० श्रावस्ती ण नगरी की ब बाहिर को० कोष्टक चे. उद्यान में दु०१ दो जि० जिन स० विवाद करते हैं ए. एक ए. ऐसा व कहते हैं तु० तुम पु. पहिले क० काल क. करेंगे ए. एक एक ऐसा व० बोले तु. तुम पु० पाहिले का० काल क० करेंगे त. उस में के० कौन स० सम्यक बोलने वाला के कौन मि० मिथ्या बोलने वाला त• उस में जे. जो अ० अहंप्रधान ज० मनुष्य से वे ब. बोले स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर त. सम्यग् वादी गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र मि० मिथ्यावादी ॥ १०९ ।। अ. आर्य म. श्रमण भ. भगवंत म० महावीर स: श्रमण णि प्पिया! सावत्थीए णयरीए बहिया कोट्टए चेइए दुवे जिणा संलवति एगे एवं वयासीतुमं पुचि कालं करिस्ससि एगे एवं वदंति तुमं पुब्बि कालं करिस्सासि तत्थणं के सम्मावादी के मिच्छावादी ? तत्थणं जेसे अहप्पहाणे जणे से वदंति समणे भगवं महावीरे सम्मा___ वादी गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी ॥ १.९॥ अजोत्ति समणे भगवं महावीरे शृंगाटक यावत् पहापथ में लोगों परस्पर ऐसा कहने यावत् प्ररूपने लगे कि अहो देवानुप्रिय! श्रावस्ती नगरी के बाहिर कोष्टक उद्यान में दो जिन को परस्पर विवाद होता है; उस में एक ऐसा कहता है, कि तू पहिले काल करेगा और दूसरा ऐसा कहता है कि तू पहिले काल करेगा. इस में कौन सम्यग्वादी और 6. कौन मिथ्यावादी? उन में जो मुख्य मनुष्यों थे. थे ऐसा कहते थे कि श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी सम्यग्वादी और मंखली पुत्र गोशाला मिथ्यावादी है ॥ १०९॥ अब श्रमण भगवंन महावीर। पन्नरहवा शतक 48488 भावार्थ 44 Page #2112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 निर्ग्रन्थों को आ- आमंत्रण कर एक ऐसा ब० बोला अ० आर्य से० अथ ज० जैसे त• तृण का समुह ट का समूह प० पत्र का समह त त्वचा का समह तफस का समूह भ० भूसे का समह गो गोबर का समुह अ० कचवर का समुह अ० अग्नि से जला हुवा अ० अग्नि से स्पर्शा अ० अग्नि से प० परिणमाभ ह० हत तेजवाला ग० गया हुवा तेजवाला ण. नष्ट तेजवाला भ० भ्रष्ट तेजवाला लु० लुप्त तेजवाला वि. विनष्ट तेजवाला जा. यावत् एक ऐसे गो० गोशाला में. मेखलीपुत्र म. मेरा ५० वध केलिये स०१ शरीर में से ते० तेज णि नीकाल कर ह० हत तेजवाला ग० गत तेजवाला जा. यावत् वि० विनष्ट समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी अजो ! से जहा णामए तणरासीतिवा कट्ररासीतिवा पत्तरासीतिवा, तयारासीतिवा, तुसरासीतिबा, भुसरासीतिवा, गोमयरासीतिवा, अवकररासीतिवा अगणिज्झामिए अगणिज्यूसिए अगणिपरिणामिए हयतेए गयतेए णट्ठ तेए भट्ठतेए लुत्ततेए विण?तेए जाव एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं भावार्थ वहाए सरीरगसि तेयं णिसिरित्ता हयतेए गयतेए जाव विण?तेए, तं छंदेणं अजो! स्वामी श्रमण निग्रंथों को उद्देश कर ऐसा बोले कि अहो आर्यो ! जैसे तृण, काष्ट, पत्र, त्वचा, तुष, फूस, गोमय और कचरे की राशि आग्नि से जलने से, बलने से व परिणमने से, तेज रहित होती है ऐसे ही मेरा | वध के लिये तेज नीकालने से मंखलीपुत्र गोशाला तेज रहित हुवा है. इसलिये अहो आर्यो ! इच्छानुसार अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * * Page #2113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 400 गोशाला मं० मंखलीपुत्र को ध० प० प्रतिसारणा दो ध० धार्मिक प० से प० प्रश्न से वा० व्याकरण से तब से वे स ० श्रमण णि० निर्ग्रन्थ स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर / * मेखलीपुत्र ते० वहां उ० आकर गो० पडिचोएह, धम्मि २ धम्मिया तेजवाला तं० इसलिये छं० इच्छानुसार अ० आर्य तु० तुम गो० धार्मिक प० चोयणा से प० चोयणा करो ५० प्रतिसारणा से प्रत्युपकार से प० प्रत्युपकार करो ध० धार्मिक अ० अर्थ से हे० हेतु का० कारन से प० प्रश्न वा० उत्तर क० करो ।। ११० ।। त (स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर से ए० ऐसा वु० कहोये हुवे को वं० वंदना ण० नमस्कार कर जे० जहां गो० गोशाला मं० तुब्भं गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाएं पडिसारणाए पडि सारेह धम्मि २, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, धम्मिं २ अट्ठेहिय हेऊहिय पसिणेहिय वागरणेहिय कारणेहिय णिप्पटुपसिणवागरणं करेह ॥ ११० ॥ तरणं से समणा णिग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदइ णमंसइत्ता जेणेव गोसाले तुम मंखली पुत्र गोशाला की साथ धर्म की चोयणा, प्रतिचोयणा करो और धर्म के बचन से प्रत्युपकार { करो. अर्थ, प्रश्न, हेतु उत्तर व प्रत्युत्तर से प्रश्नोत्तर देने में असमर्थ करो ॥ ११०॥ तब उन श्रमण निर्ग्रथोंने श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के उक्त वचन श्रवण कर श्रमण भगवंत श्री महाबीर स्वामी को वंदना 4444 पनरहवा शतक 49 ०७ २०८३ Page #2114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गोशाला मं० मंखलीपुत्र को घ० धार्मिक प० चोयणा से प० चोयणा की १० प्रतिसारणा से प० प्रतिसारणा की प० प्रत्युपकार से प० प्रत्युपकार किया अ० अर्थ हे० हेतु का० कारन से जा० यावत् वा० ( उत्तर क० किया ।। ११ ।। त० तब से वह गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र स० श्रमण णि० निर्ग्रन्थों से १६० धार्मिक प० प्रातचोयणा से प चोयणा कराया हुवा जा० यावत् णि० पुछाये हुवे प० प्रश्न ( वा० व्याकरण की० करता हुवा आ० आमुरक्त जा० यावत मि० दांत पीसता हुवा णो० नहीं सं० समर्थ मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोति ध० २ धम्मियाए पडिमारणाए पडिसारेति ध० २, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारति ध० २, अट्ठेहिय हेऊहिय, कारणंहिय जाव वागरणं करेंति ॥ १११ ॥ तएण से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहिं णिग्गंथेहिं धम्मियाए पडिवोयणाए पडिचोइज्जंमाणे जाव णिप्पट्ठपसिणवागरणे कीरमाणें आसुरुत्ते जाव मिसि - { नमस्कार किया. और वंदना नमस्कार कर मंखली पुत्र गोशाला की पास गये. वहां मंखलीपुत्र गोश:ला की साथ धर्म की चोयणा प्रतिचोयणा करके धर्म की प्रतिसारणा की, धर्ममय प्रतिसारणा करके धर्म(मय प्रतिवचन से उपकार किया, और अर्थ, हेतु, कारण यावत् व्याकरण से उत्तर देने में असमर्थ किया } ॥ १११ ॥ जब मंखली पुत्र गोशाला की साथ श्रमण निर्ग्रथोंने धर्म की चायणा, प्रति चोयणा यावत् । सूत्र भावार्थ el 4. अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २०८४ Page #2115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ हुवा स० श्रमण णि. निर्ग्रन्थ के स० शरीर को कि० किंचित् अ० अबाधा वि. व्यावाध उ० उत्पन्न . करने को छ. चर्म छेद क- करने को ॥ ११२ ॥ त० तब आ० आजीविक थे० स्थविर गो० गोशाला मं० मखलीपत्र को सश्रमण निग्रंथ से ध. धार्मिक ५० प्रतिचोयणा से ५० चोयणा कराता हुवा ध० धार्मिक १० प्रतिसारणा कराता हुवा ध० धार्मिक प. प्रत्युपकार से प० प्रत्युपकार कराता हुवा अ० अर्थ हे० हेतु जा. यावत् की० करता आ० आसुरक्त जा. यावत् मि० दांत पीसता हुवा स० श्रमण ०७ मिसेमाणे णो संचाएइ ।। समणाणं णिग्गंथाणं सररिगस्स किंचि आवाहं वा बावाहं वा उप्पएत्तए छविच्छेदं वा करेत्तए ॥ ११२ ॥ तएणं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहिं णिग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएजमाणं धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाणं धम्मियेणं पडायारेणं पडोयारिजमाणं अट्रेहिय हेऊहिय जाव कीरमाणं आसुरुत्तं जाव मिसिमिसेमाणे समणाणं णिग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि प्रश्न, हेतु यावत् व्याकरण से उत्तर रहित किया, तब वह आसुरक्त यापत् क्रोधित हुवा; परंतु आपण " निर्ग्रन्थों को किंचिन्मात्र वाधा पीडा उत्पन्न कर सका नहीं, वैसे ही चर्मछेद भी कर सका नहीं ॥ ११२ ॥ 8 अब श्रमण निग्रंथों मखली पुत्र गोशाला की साथ धर्म की चोयणा, प्रतिचायणा प्रतिसारणा, धर्ममय मविवचन से उपकार करनेपर और उन को हेतु प्रश्न, यावत् व्याकरण से उत्तर देने में असमर्थ करने पर। 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पन्नरहवा शतक 8 भावार्थ 82 Page #2116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २०८६ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + णि निर्ग्रन्थों को किं. किंचित् आ० पीडा वि० व्यावाध छ० चर्मछेद अ० नहीं करता हुवा पा० देखकर: मो० गोशाला मं० मखलीपुत्र की अं० पास से आ० आत्मा से अ० अबक्रम कर जे. जहां स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर ते. वहां उ० आकर स. श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को ति तीन बार आ० आवर्त ५० प्रदक्षिणा व वंदना कर ण. नमस्कार कर स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को उ० प्राप्त होकर वि• विचरने लगे अ० कितनेक आ० आजीविक थे० स्थविर गो० गोशाला 40 आवाहवा वाबाहंवा छविच्छेदं वा अकरेमाणे पासई, पासइत्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ आताए अवकमंति, अवकमंतित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छतित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदति। णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति अत्थेवह उन को किंचिन्मात्र बाधा, पीडा यावत् चर्म छेदकर सका नहीं. ऐसा देखकर आजीविको मत के कितनेक स्थविर मखलीपुत्र गोशाला की पास से स्वयमेव नीकल गये और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आये. वहां महावीर स्वामी को तीन आवर्त व प्रदक्षिणा सहित वंदना नमस्कार कर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की नेश्राय से विचरने लगे और कितनेक मंखली पुत्र गोशाला की प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थमंखलापिच को उ० प्राप्त होकर वि० विचरने लगे ॥१३॥त. तब से वह गो० गोशाला मं० मखली-14 पुत्र ज० जिस लिये ह० शीघ्र आ० आयाथा त• उसे अ० नहीं साधता रुं० इन्द्रादि ५० देखता दी. दीर्घ उ० ऊष्ण नी० निवास डालते दा. दाढी के लो० रोम लु० तोडेता अ० पुरुषलिंग कुं० खजालता पु. पुततटि १० फोडता है. हस्त वि० मसलता दो० दोनों पा. पांव से भू० भूमि को० कुटते हाहा अ० अरे ह० हणाया अ. मैं अ० हूं ति. ऐसा क० करके स० श्रमण भ. भगवंत म012 गइया आजीवियथेरा गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उक्संपजित्ताणं विहरति ॥ ११३ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्टाए हव्वमागए तमट्टमसाहेमाणे रुंदाई पलोएमाणे दीहुण्हाइं नीससमाणे, दाढियाए लोमाए हुँचमाणे, अवटुं कंडुयमाणे, पुयलिं पप्फोडेमाणे हत्थे विणिडुणमाणे दोहिंविपाएहिं भूमि कोट्टेमाणे हाहा अहो हतो हम स्सतीति कटु समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिभावार्थ नेश्राय में रहकर विचरने लगे ॥ ११३ ॥ अब मंखली पुत्र गोशाला जिस कार्य (महावीर स्वामी का वध ) के लीये आया था उस कार्य को नहीं साध सकने से दशोंदिशि में दीर्घ दृष्टि से देखता हुवा, दीर्घ नीश्वास डालता हुवा, दाढी के बालों हाथ से खींचता हुवा, गरदन खजालता हुवा, दोनों हस्त परस्पर मसलता हुवा, दोनों पांचों से जमीन तोडता हुवा, 'हाहा,''अहो' 'मैं हणाया' ऐसा करके भगवंत श्री महावीर 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #2118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी। महावीर की अं० पास से को० कोष्टक चे उद्यान में से प० नीकलकर जे० जहां सा० श्रावस्ती च * नगरी जे. जहां हा० हालाहला कुं० कुंभकारी की कुं० कुंभकार की आ• दुकान ते वहां. उ०. आकर हा. हालाहला कुं० कुंभकारि से कुं० कुंभकार शाला में अ० आम्र फल ह० हस्तगत म० मद्यपान पिपीताजा बी२०८८ अ. वारंवार गा• गाता हुवा अ० वारंवार ण नृत्य करता हुवा अ० वारंवार हा. हालाहला कुं. कुंभकारी को अं० अंजलिकर्म क-करता सी०शीतल म. मृत्तिका पानी आकुंभार के भाजन में रहा हुवा पानी से गा० गात्रों को प० सींचता हुवा वि० विचरने लगा ॥ ११.४ ॥ अ० आर्य स० श्रमण भ० भगवंत णिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता हालाहलाहिं कुंभकारीहिं कुंभकाराव सिं अंबकूणगहत्थगए मजपाणगं पियमाणे, अभिक्खणं गायमाणे, अभिक्खणं णच्चमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे सीतलएणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गाताई परिसिंचमाणे विहरइ ॥ ११४ ॥ अजोस्वामी की पास से कोष्टक उद्यान में से नीकलकर श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकार ला में आया. वहां पर हालाहला कुंभकारीणी की साथ हस्त में आम्र फल सहित मद्यपान करता हुवा, वारंवार गाता हुवा, वारंवार नृत्य करता हुवा, वारंवार हालाहला कुंभकारी को अंजली कर्म करता हुवा जाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २०८९ 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र digit 20 महावीर स० श्रमण णि निर्ग्रन्थ को आ० आमंत्रण कर एक ऐसा ब० बोला जा० जो अ० आर्य गो० गोशाला पं० मंखलीपुत्र म० मेरा व० वध के लिये स० शरीर में से ते० तेज णि. नीकाला से वह अ० समर्थ ५० पूरा मो० सोलह ज० देश को अं• अंग वं० वंग म० मगध म० मलय मा० मालव अ० अच्छ व० वत्स को कोच्छ पा० पाढ ला० लाढ व० बज्री मो० मोली का० काशी को० कोशल 4 को अं• आवाध मं० भोगवाले के घा० घात के लिये व० वध के लिये उ० जलाने के लिये भा० भस्म त्ति ! समणे भगवं महावीरे समणे णिग्गंथे आमतेत्ता एवं वयासी जावइएणं अजो ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं ममं वहाए सरीरंगसि तेयं णिसट्टे सेणं अलाहि पजते सोलसह जणवयाणं, तंजहा अंगाणं, वंगाणं, मगहाणं, मलगाणं, मालवगाणं, अच्छाणं, वच्छाणं, कोच्छाणं, पाढाणं, लाढाणं, वजीणं, मोलीणं, कासीणं, कोसशीतल मृत्तिका के पानी से अपने गात्रों को सींचता हुवा रहने लगा * ॥ ११.४॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी श्रमण निर्ग्रन्थों को उद्देशकर बोले कि अहो आर्यों ! मंखलीपुत्र गोशालाने मेरे वध के लिये जो तेजो लेश्या नीकाली थी वह यदि अपने पूर्णरूप वें प्रकट होती तो १ अंग २ बंग ३ मगध ४ मलय १५ मालव ६ अच्छ ७ वच्छ ८ कोच्छ ९ पाढ १० लाढ ११ बजी १२ मोली १३ काशी १४ के * मद्यपान पीने से व तेजोलेश्या के प्रतिघात से उक्त क्रियाओं करता है, 4880% पमरहवा शतक - Page #2120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nnnnnnnnnnnnnie शब्दार्थ करने के लिये जं० जो अ० आज गो० गोशाला में• मंखलीपुत्र हा० हालाहला कुं० कुंभकारी की। कुं• कुंभकार शाला में अं० आम्रफल ह० इस्तगत म० मद्यपान पि० पीता हुवा जा० यावत् अं• अंजली कर्म क० करता हुवा वि० विचरता है ॥११५॥ त० उस व० पापको ब० ढकने के लिये इ० ये अ०१ आठ च• चरिम प० प्ररूपे च० चरिम पा० पान च० चरिम मे० गीत च० चरिम ण. नृत्य च० चरिम अं० अंजलीकर्म च चरिम पो• पुष्कल सं० संवर्तक म० महामेघ से० सेचनक ग• गंधहस्ती च० लगाणं, अवाहाणं संभुत्तराणं घाताए वहाए उच्छादणट्ठयाए भासीकरणयाए जंपिय अज गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगत्थगए १ मज्जपाणं पियमाणे अभि जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ॥११५॥ तस्सविणं वज स्स पच्छादणट्ठयाए इमाइं अट्ठ चरमाइंपण्णवेइ,तंजहा चरिमे पाणे, चरिमेगेये, चरिमेणट्टे, चरिमे अंजलि कम्मे चरिमे पोक्खलस्स संवटए महामेहे, चरिमे सेयणए गंधहत्थि, चरिमे । भावाथे १५ अवध और १६ संयुक्त इन सोलह देश की घात करने को, वध करने को, जलाने को व भस्म करने को समर्थ होती. आज वही गोशाला हालाहला कुंभकारीणी की कुंभकार शाला में हस्त में आन सहित ल मद्यपान पीना हवा यावत् अंजली कर्म करता हुवा विचरता है ॥ ११५ ॥ उस पाप कर्म को छिपाने के लिये वह आठ चरिम की प्ररूपणा करता है. जिन के नाम- १ चरिम पान २ चरिम गान३ चरिम नाटक अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी * Page #2121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शब्दार्थ चरिम म० महाशिला के० कंटक संग्राम अ० मैं इ० इस ओ० अवसर्पिणी के चो० चौवीस वि० तीर्थकर में से च० परिम ति० तीर्थंकर सि० सीझंगा जा० यावत् अं० अंत करूंगा ॥११६॥ . यद्यपि अ०१७ आर्य गो० गोशाला में० मखलीपुत्र सी० शीतल म० मृत्तिका पा० पानी से आ० मीट्टि से मीला उ० पानी से गा० गात्रों को १० सींचन करता हुवा वि० विचरता है त० उस व. पाप को भी व० छीपाने के लिये इ० ये च० चार पा० पान च० चार अ० अपान प० प्ररूपता है से० अथ किं० क्या पा० पान पा०14 महासिलाकंटए संगामे ॥ अहं च णं इमीसे ओसाप्पणीए चउवीसाए तित्थंकराणं ३ चरिमे तित्थंकरे सिन्झिस्सं जाव अंतं करेस्सं ॥ ११६ ॥ जंपिय अजो ! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया पाणएणं आयंचाण उदएणं गायाई परिसिंचमाणे. विहरइ, तस्सविणं वज्जस्स पच्छादणट्ठयाए इमाइं चत्तारि पाणगाइं चत्तारि अपाण-. गाइं पण्णवेइ ॥ सेकिंतं पाणए ? पाणए चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा गोपुटुए, हत्थभावार्थ E४ चरिम अंजली ५ चरिम पुष्कल संवर्त महामेघ ६ चरिम सेचानक गंधहस्ती ७ चरिम महा शिला. कंटक संग्राम और ८ इस अवसर्पिणी में चौवीस तीर्थंकरों में मैं चरिम तीर्थकर होकर सिट बट में होऊंगा यावत् सब दुःखों का अंत करूंगा ॥ ११६ ॥ और भी अहो आर्यो ! मंखली पुत्र गोशाला मृत्तिका मीश्रित शीतल जल से अपने गात्रों को सींचता हुवा विचरता है. इस पाप को छिपाने के लिये पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 84844पनरहवा शतक 40888 Page #2122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पान के च० चार भेद त• वैसे गो० गोपृष्टक ह. हस्तमर्दित आ० आतपतप्त सि. शिलामभ्रष्ट : अपान च. चार प्रकार के था. स्थाल पानक त. त्वचा पानक सिं० शंबली पानक मु० सुद्ध पानक अब किं. क्या था० स्थाल पानक जे. जो दा० पानी का थाल दा० पानी का कुलडा दा० पानी का कुंभ दा. पानी का कलश सी० शीतल उ० पानी से भीगां हुवा मृत्तिका का भाजन ह. हस्त से ५० ___ माद्दयए, आतवतत्तए, सिलापब्भट्टत्तए सेतं पाणए॥ से किं तं अपाणए ? २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा थालपाणए, तयापाणए, सिंवालपाणए, सुद्धापाणए, ॥ सेकिंतं थालपाणए ? २ जेणं दाथालगंवा,दावारगंवा, दाकुंभगवा, दाकलसंवा, सीयलगंवा उल्लाग हत्थेहिं परामुसइ नय पाणियं पिवइ, से तंथालपाणए॥से किं तं तयापाणए ? जेणं अंबंवा । चार पान और चार अपान की प्ररूपणा की है. पान क्या है ? पान के चार भेद कहे हैं ? गी की पीठ से पड़ा हुवा पानी २ हाथ में मसला हुवा पानी ३ सूर्य के ताप से तपाया हुवा पानी और ४ शीला पर्वत पहाड वगैरह स्थान से पडा हुवा पानी. अपान के चार भेद १ थालीका पानी २ वृक्ष की साल का पानी ३ तुरा प्रमुख फली का पानी और ४ हस्तस्पर्श का पानी. इन में थालीका पानी क्या है ? पानी से भीजा हुवा थाल, पानी से भीजा हुवा कुलडा, पानी से भीजा कुंभ और पानी से भीजा कलश. उक्त पानी से भीजा हुवा मृत्तिका पात्र विशेष को हस्त से स्पर्श करना परंतु पानी पीना नहीं. यह थाली प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी. भावार्थ Page #2123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ १ लेकर ण नहीं पा पानी पि० पीवे ए. यह था० स्थालपानक किं. क्या त. त्वचा पानक जे० जो अ० आम्र अं० अंबाडा ज° जैसे प० प्रयोगपद में जा० यावत् बो० बोर ति तिंदुक त० छोटी आ० कच्ची आ. थोडापीडे १० विशेष पीडे न० नहीं पा० पानी पि. पीता है से वह तत्वचा पानक से अथ कि क्या सं० शंबली पानक क. चने की फली मु. मुंग, फली मा. उडीद की फली त. नविन आ. कच्ची आ० मुख में आ. थोडा डाले ५० विशेष डाले ण. नहीं पा० पानी पि० पावे से वह सिं. अंबाडगंवाजहा पओगपदे जाव वोरूंवा तिंदुयंवा तरुणगं आमगंवा आसिगास आविसलेइ वा, पवालेतिवा णयपाणियं पिबइ, सेतं तयापाणए से किं तं संवलिपाणए ? संवलि है पाणए जेणं कलसंगलियंवा, मुग्गसंगलियंवा, माससंगलियंवा, सिंवलिसंगलियंवा, तरुणियं आमियं आसिगंसि आवीसलेइवा, पवालेइवा, ण य पाणियं पिवइ, सेतं सिं वलिपाणए ॥ से किं तं सुद्धापाणए ? सुद्धापाणए जेणं छम्मासं सुद्धखाइमं खाइ भावाथा पानी कहा जाता है. त्वचा पानी किसे कहते हैं ? आम्र, अम्बड वगैरह जैसे पन्नवणा के सोलहवे पद में कहा वैसे यावत् बोरका, टिंबरुका पानी तुर्त का नीकला कच्चा मुख में रखे, थोडा स्पर्श करे विशेष स्पर्श करे परंतु पीवे नहीं यह त्वचा पानी हवा. फली का पानी किसे कहते हैं ? जो चने 15मुंग की फली, उडद की फली, व सेवले की फली इन फलियों के पानी को तरुणपना में, अभिनवपना में 8+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 2323127 पनरहना शतक nowinnamonwww 348808 Page #2124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ शिबली पान से० अथ किं० क्या सु० शुद्धपान सु० शुद्धपानक जे० जो छ० छमास खा० खादिम खा० खाता है दो० दोमास पु० पृथ्वी पर उ० रहे दो० दोमास क० काष्ट सं० संथारापर उ० रहे दो० दो पास द० दर्भ संथारा पर उ० रहे त० उस को ब० बहुत प० प्रतिपूर्ण छ० छमास की अं० अंतिम रा० रात्रि में इ० ये दो० दो दे० देव म० महर्द्धिक जा० यावत् म० महा सुखवाले अं० पास पाο प्रगट होते हैं सं० वैसे पु० पुर्णभद्र मा० माणभद्र त तब से० वे दे० देव सी० शीतल उ० भीने ६० दोमासे पुढविसंथारोवगए, दोमासे कटुसंथारोवगए, दोमासे दब्भसंथारोवगए, तस्सणं बहुपडि पुण्णाणं छण्हं मासाणं अंतिमराइए इमे दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा अंतियं पाउन्भवंति, तंजहा पुण्णभद्देय, माणिभद्देय ॥ तएणं से देवा सीयालिएहिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामसंति ॥ जेणं ते देवा साइज्जइ सेणं स्पर्श करे विशेष स्पर्श करे परंतु पानी पीछे नहीं, उसे फली का पानी कहते हैं ? जो कोई छ मास पर्यंत शुद्ध खादिम [ मेत्रा ] खावे, दो मास पर्यंत भूमि पर मास पर्यंत काष्ट पर शयन करे, और दो मास पर्यंत दर्भ पर शयन करे. इस तरह करते कहते है. अब * भद्र व माणभद्र ऐसे दो महर्द्धिक यावत् महासुखवाले देव उत्पन्न होवे. अब वे देवता शीतल व आर्द हस्त से 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी शुद्ध पानी किसे शयन करे, दो छ मास में पूर्ण * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # २०९४ Page #2125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र { हस्त से गा० गात्रों को प० स्पर्श करे जे० जिससे ते० वे दे० देव सा० अनुमोदावे से० वह आ० आशीविषपने क० कर्म प० करे जे० जीससे ते ० वे दे० देव णो० नहीं आ० अनुमोदावे त० उस का स० स्व स० शरीर में अ० अनिकाय सं० उत्पन्न होवे स ० वह स० स्वतः के ते ० तेज से स० शरीर को झा० जलावे त० उस प० पीछे सि० सीझे जा० यावत् अं० अंतकरे से० यह सु० शुद्ध पानक ॥ ११७ ॥ त० तहां सा० श्रावस्ती ण० नगरी में अ० अयंपुल आ० आजीविक उ० उपासक प० रहता है अ० आसीविसत्ताए कम्मं पकरेइ ॥ जेणं ते देवे णो साइज्जइ तस्सणं संसि सरीरगंसि अगणिकायं संभवति, सेणं सएणं तेएणं सरीरगं झामेइ स० २, तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेंति सेतं सुद्धा पाणए ॥ ११७ ॥ तत्थणं सावत्थीए णयरीए अयं पुणामं आजीवियउवासए परिवसइ अड्ढे जहा हालाहला, आजीवियसमएणं गात्रों को स्पर्श करे. यदि उन देवताओं को अनुमोदे अर्थात् ये देव अच्छा करते हैं ऐसा कहे तो वह आशीविष पानी का कर्म करता है, यदि उन देवताओं को अनुमोदे नहीं तो उन के शरीर में अग्नि काम उत्पन्न होवे, अपने तेज से अपना शरीर को जलावे और पीछे सीझे बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे. यह शुद्ध पानी कहा जाता है | ११७ ॥ उस श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का आजीविक उपासक रहता था. वह हालाहला कुंभकारिणी जैसा ऋद्धिवंत था और आजीविक समय में स्वतः 40 पनरहत्रा शतक २०९९ Page #2126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७ शब्दार्थ * ऋद्धिवंत ज०जेसे डा० हालाहला आ० आजीविक सं०मत में अ。स्वतःको भा० भावता वि० विचरता है। ११८॥ (त० तत्र अ० अयंपुल आ१ आजीविक उ० उपासक को अ० अन्यथा क० कदापि पु० पूर्वरात्रि में कुं० { कुटुंब जागरणा जा० जागते अव्यह ए० ऐसा अ० अध्यवसाय जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा कि० कैसा सं० { संस्थानबाला ह० हल प० कहे त० तब त० उस अ० अयंपुल आ० आजीविक उ० उपासक को दो दूसरी वक्त भी एक ऐसा अ० अध्यवसाय जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा ए० ऐसे म० मेरे ध० धर्माचार्य अप्पा भावेमाणे विहरइ ॥ ११८ ॥ तरणं तस्स अयंपुलरस आजीवियउवासअण्णाकयाई पुत्ररत्तावरत्तकालसमयांस कुटुब जागरियं जागरमाणे अयमेरूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था किं संठिया हल्ला १० ? तरणं तस् अयंपुलस्स आजीवियउवासगस्स दोपि अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, गस्स सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी को भावता हुवा विचरता था ॥ ११८ ॥ उस समय एकदा अयंपुत्र आजीविक उपासक को पूर्व रात्रि कुटुम्ब जागरणा करते ऐसा अध्यवसाय हुवा कि हल्ला का संस्थान क्या है ? इस से दुसरी वक्त भी ऐसा अध्यवसाय हुवा कि मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक यावत् सर्वज्ञ सर्व १ गोवालिका तृण सरिखा आकारवाला कीट विशेष. * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहा यजी ज्वालामसादजी* २०९ Page #2127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 48 २०१७ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 438 घ. धर्मोपदेशक गो० गोशाला मं० मखली पुत्र उ० उत्पन्न णा ज्ञान द० दशन घ० धारन करनेवाले जा. यावत् स. सर्वज्ञ स० सर्व दर्शी इ. यहां सा० श्रावस्ती ण नगरी में हा. हालाहला कुं० कुंभका रिणी की कुं. कुंभकारशाला में आ० आजीविक संघ से सं० परवरा आ० आजीविक स० मत से अ०१४ स्वतःको भा० चिंतवता वि० विचरता था तं० इस लिये से अंय मे० मुझे क. कल जा० यावत् ज० जलत गो. गोशाला मं० मखली पुत्र को वं. वंदना कर जा. यावत् प० पासना कर इ० यहां ए०१ ऐमा वा प्रश्न वा करने को ति० ऐसा क० करके एक ऐसा विचार कर क. कल जा. यावत् एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पण्णणाणदंसणधरे जाव सव्वण्णू सव्वदारसी इहेब सावत्थीए णयरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणसि आजीवियसंघ संपरिवुडे आजीविय समएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ, तंसेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जवासित्ता. इमं एयाणुरूवं वागरणं वागरित्तए त्तिकहु एवं संपेहेइ २त्ता कल्लं जाव जलंतं व्हाए कय दर्शी मखलीपुत्र गोशाला श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला में आजीविक संघ सहित आजीविक मत को भावते हुवे विचरते हैं. इससे कल प्रभातमें सूर्य उदित होते मंखली पुत्र गोशालाकी पास जाकर और उन को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना कर ऐमा प्रश्न पूछना मुझे श्रेय है. ऐसा विचार पनरहवा शतक amanaramananm 880 भावार्थ Page #2128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4जी ज० ज्वलंत व्हा. स्नान किया जा. यावत् अ. अल्प. म. महर्घ्य आ० आभरण अ० अलंकृत स०/शरीरवाला सा० अपने गि० गृह से प० नीकलकर पा० पग मे चा० चलते सा० श्रावस्ती ण नगरी की • मध्य बीच में से जे० जहां हा० हालाहला कुं. कुंभकारी की कुं० कुंभकारशाला ते. वहां उ० आकर पा. देखकर गो० गोशाला मखली पुत्र को हा० हालाहला कुं० कुंभकारी की कुं० कुंभकारशाला में अं० आम्र फल ह० हस्तगत जा. यावत् अं० अंजली कर्म क० करता हुवा सी० शीतल म० मृत्तिका जा० जाव अप्पमहग्घाभरणलंकिय सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता पादविहार चारेणंसावत्थि णयरिं मझं मझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पासइ पासइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणमहत्थगयं जाव अंजलि कम्मं करेमाणे सीयलियाए मटिया जाव गाथाइं परिसिंचमाणं पासइ, पासइत्ता भावाथे कर प्रभात होते उसने स्नान किया यावत् अल्पभार व बहुमूल्यवाले आभरणों से शरीर अलंकृत किया. और अपने गृह से नीकलकर पादविहार से श्रावस्ती नगरी की बीच में होता हुवा हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकार शाला में आया. वहां हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला में हस्तमें आम्र सहित यावत् । अंजली कर्म करता हुवा व शीतल जल से गात्रों को सिंचन करता हुवा मंखली पुत्र गोशाला को देखकर 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ यावत गा गात्रों की कमींचन करता हवा पा० देखकर ल लजित विविलिन शरमवाला स० शनैः प० पीछा गया ॥ ११९ ॥ त० तब ते. वे आ. आजीविक थे० स्थविर अ० अयंपुल आ०* आजीविक उ० उपासक को ल० लज्जित जा. यावत् प० पीछा जाता हवा पा०देखकर एक ऐसा व017 इबोला ए० आव अ. अयंपुल इ० यहां ॥ १२० ॥ तक तब से वह आ. आजीविक थे० स्थविरों से ए. ऐसा वु. बोलाया हुवा जे० जहां आ० आजीबिक थे० स्थविर ते० वहां उ०. गया आ० आजीविक थे० स्थविर को वं० वंदना ण० नमस्कार कर ण. नन्न आसन से जायावत् प० पर्युपासना की ॥१२॥ लाजिए विलित्तए विडु सणियं २ पच्चोसकह ॥ ११९॥ तएणं ते आजीविय थेरा अयंपुलं आजीविय उवासगंलजियं जाव पच्चासकमाणं पासइ, पासइत्ता एवं वयासी एहि ताव अयंपुला इतो॥१२०॥तएणं से अयंपुले आजीविय उवासए आजीविय थेरेहिं है एवं वुत्तेसमाणे जेणेव आजीवियथेरा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता आजीविय थेरे वंदइत्ता णमंसइ, वंदइ णमंसइत्ता पच्चासण्णे जाव पज्जुवासति ॥ १२ ॥ भावार्थ हलज्जित हुवा, मन में असमंजस भाव हुवा और शनैः पीछा गया ॥ ११९ ॥ अब इस तरह अयंपुल आजीविक उपासक को लजित यावत् पीछा जाता हुवा देखकर आजीविक स्थविर बोले कि अहो । अयंपुल! यहां आब ॥ १२० ॥ आजीबिक स्थविर के बोलाने से अयंपुल आजीविक उपासक -1 स्थविरों की पास गया और उन को वंदना नमस्कार कर नम्न आसन से यावत्- पर्युपासना करने लगा.. 8- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती पन्नरहवा शतक : 600 Page #2130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ olg शब्दार्थ + अ० अयंपुल आ० आजीविक ये० स्थावर अ० अयंपुल को ए० ऐसे व० बोले से० अथ मे० अहो अ० अयंपुल पु० पूर्व रात्रि में जा० यावत् कि० किस सं० संस्थानवाले ह० हल त० तब त० तुझे दो० दूसरी वक्त अ० यह ए० ऐसा तं० वैसे स० सत्र भा० कहना जा यावत् सा० श्रावस्ती ण० नगरी की म० मध्य बीच में जे० जहां हा० हालाहला कुं० कुंभकारी की कुं० कुंभकार शाला में जे० जहां इ० यहां ते. ( वहां ह० शीघ्र आ० आया से० अथ भे० अहो अ० अयंपुल अ० अर्थ स० योग्य ६० हां अ० अयंपुलाइ ! आजीवियथेरा अयंपुलं आजीविय उवासगं एवं वयासी सेणूणं भे अयंपुला ! पुव्वरत्तावर त्तकालसमयंसि जाव किं संठिया हला प० ? तरणं तत्र अयंपुला ! दोचंपि अयमेया तंचेव सव्वं भाणियव्वं जाव सावत्थि णयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव इहं तेणेव हव्यमागए, सेणूणं मे अयंपुला ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि ॥ १२२ ॥ जंपिय अयंपुला ! तत्र धम्मायरिए धम्मो एसए ॥ १२१ ॥ आजीविक स्थविर अयंपुल को ऐसे बोले कि अहो अयंपुल ! पूर्व रात्रि में कुटुम्ब जागरणा जागने ऐसा अध्यवसाय हुबा कि हल्ला का कैसा आकार है ? पुनः तुझे दूसरी वक्त भी ऐसा अध्यवसाय हवा यावत् श्रावस्ती नगरी के बीच में हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला में यहां पर आया. अहो अयंपुल ! क्या बात सत्य है ? हां यह बात सत्य है || १२२ ॥ अहो अयंपुल ! तेरा धर्माचार्य । सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी # प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २१०० Page #2131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +gin शब्दार्थ ॥ १२२ ॥ ज० यद्यपि अ० अयंपुल त० तेरे ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र | 4हा. हालाहला कुं० कुंभकारी की कुं० कुंभकार की आ० दुकान में अं० आम्रफल ह. हस्तगत जा०३० यावत् अं० अंजली क० करते वि० विचरते हैं त० उस में भी भ० भगवान् अ० आठ च० चरिम १०१.२ परूपते हैं तं० वैसे च० चरिम पा० पान जा. यावत् अं० अंत क० करेंगे ॥ १२३ ॥ जे. जो अ० अयंपुल त० तेग़ ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र सी० शीतल म० मृत्तिका जा. यावत् वि. विचरते हैं त• उस में भी भ० भगवंत इ० ये च० चार पा० पान च० चार अ० गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणांस अंबकूणगहृत्वगए जाव अंज लिं करेमाणे बिहरइ, तत्थविणं भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाइं, पण्णवेइ तंजहा चरिमे ___पाणे जाव अंतं करेस्सइ ॥ १२३ ॥ जेविय अयंपुला ! तव धम्मायरिए धम्मो वएसए गोसाले मंखलिपुत्ते सीयालयाएणं माहिया जाव विहरंति, तत्थविणं भगवं इमाइं चत्तारि पाणगाई चत्तारि अपाणगाइं पण्णवेइ. सेकिंतं पाणए ? | धर्मोपदेशक मखलीपुत्र गोशाला हालाहला कुंभकारिणी की कुभकारशाला में विचरते हैं. वहां पर भी 14 वह भगवन्त इन आठ चरिम की प्ररूपणा करते हैं. जिन के नाम चरिम पानी यावत् अंत करेगा ॥१२३॥ और भी अहो अयंगुल ! ययाय तेरा।धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलीपुत्र गोशाला शीतल यावत् मृत्तिका मीश्रित पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48880 पन्नरहवा शतक 98248 भावाथे Page #2132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी [ अपोन १० प्ररूपते हैं ॥ १२४ ॥ तं० इस लिये ग० जा तु० तुम अ० अयंपुल ए० ऐसे त० तेरे ५० { धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र इ० यह ए० ऐसा वा० प्रश्न वा करो ॥ १२५ ॥ त० तब अ० अयंपुल आ० आजीविक उ० उपासक आ० आनीत्रिक थे० स्थविरों से ए० ऐसा बु० कहाया ह० हृष्ट तु० तुष्ट उ० उठकर जे० जहां गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र ते० वहां प० नीकला ग० जाने को ॥ १२६ ॥ त तब ते० वे आ० आजीविक थे० स्थावर गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र को पाणए जाव तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ॥ १२४ ॥ तं गच्छहणं तुमं अयं पुला ! एवंचैव तव धम्मायरिए धम्मविएसए गोसाले मंखलिपुत्ते इमं एारुवं वागरणं वागरेहि ॥ १२५ ॥ तणं से अयंपुले आजीवियउवासए आजीविएहिं थेरेहिं एवं वत्समाण हट्ठ तुट्ठ उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठेइत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ १२६ ॥ तणं ते आजीवियथेरा गोसालस्स मंखालिपुपानी से विवरते हैं; तथापि चार पान और चार अपान की प्ररूपणा करते हैं. इस में क्या पान है? यावत् सीझे, बुझे व अंत करे ॥ १२४ ॥ इस से अहो अयंपुल ! तू तेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक की पास जा और इस प्रश्न की पृच्छा कर ।। १२५ ।। आजीविक स्थावर के ऐसे कहने पर अयंपुल आजीविक दृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और मंखली पुत्र गोशाला की पास जाने को नीकला || १२६ ।। अब आजी ● मकाचक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २१०२ Page #2133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आन फल ए.डालने को ए. एकान्त में सं० संकेत कु. किया त. तब से वह गो. गाशाला। मेखली पत्र आ. आजीविक थे० स्थविर से सं० संकेत ५० इच्छकर अ० आम्र फल ए. एकान्त में ०ए० डालदिया ॥ १२७॥त. तब से वह अ० अयंपुल आ०. आजीविक उ० उपासक ज. जहां गो. मोशाला म. मखली पुत्र ते. वहां उ. जाकर गो० गोशाला म० मंखलीपुत्र को ति तीन वार जा. यावत् प० पर्युपासना की ॥ १२८ ॥ अ० अयंपुल गो० गोशाला. मं० मखली पुत्र आ० आजीविक उ०% त्तस्स अंवकूणगएडावणट्टयाए एगंतमंते संगार कुव्वंति तएणं से गोसाले मंखलि. पुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ, पडिच्छइत्ता अंबकूणगं एगंतमंते एडेइ ॥ १२७ ॥ तएणं से अयंपुले आजीवियउवासए जेणेव गोसाले मंखालपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुः । वासइ ॥ १२८ ॥ अयंपुलाति ! गोसाले मंखालिपुत्ते आजीवियउवासगं एवं क्यासी भावार्थविक स्थविरोंने मखलीपुत्र गोशाला को आम्र फल डाल देने के लिये संकेत किया. मखली पुत्र गोशा ने आजीविक स्थविर का संकेत जानकर आघ्र फल नीचे डाल दिया ॥ १२७॥ अब अयंपुल आजीविक उपासक मेखली पुष गोशाला की पास आया और उन को तीन वार आवर्त यावत् पर्युशसना करने लगा । १२८ ॥ अब मेखली पुत्र मोशाला अयंपुल को ऐसा बोला कि अहो अयंपुल ! पूर्व रात्रि 48 पंचांगविवाह पन्जति (भग Page #2134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *उपासक को एक ऐसा व० बोला अ० अयंपुल पु० धूनरात्रि में जा० याक्त् ज०जहां म. मेरी अं०पास से.. वहां आ० आया से अथण. शंकादशी अ. अयंपुल अ० अर्थ स. समर्थ ६० हा अ०है ॥ ११९ ॥ णो नहीं ए. यह अ. आम्रफल अं० गुठलीसे ॥१३०॥ किं. कैसा सं०संस्थान वाले ४० हल तं० तथा व. घशमुलं स० संस्थान वाले ह० हल प० प्ररूपे वी० वीणा वा० बजाइ ॥ १३१ ॥ त० तब से. से णूणं अयंपुला! पुब्बरतावरत्तकाल समयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हन्वमागए, सेणूणं अयंपुला ! अढे समढे ? हंता ! आत्थि।।१२९॥तं णो खलु एस अंबकूणए अं. वचोयएणं एस॥१३०॥किं संठिया हल्ला पण्णत्ता, तंजहा वंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता। वीणं वाएहिरिवीरगा वी० २ ॥ १३१ ॥ तएणं से अयंपुले आजीवियउवासए । में कुटुम्ब जागरणा जागते हुए यावत् मेरी समीप आया है. तो क्या यह बात सत्य है ? हां सत्य है. ॥ १२९ ॥ यह आम्रफल गुठलि सहित नहीं है, प्रत्येक को ग्रहण करने योग्य है. यह आमू नहीं है। परंतु आमू की छाल है. इस तीर्थंकर को निर्वाण अबसर में लेना कल्पता है ॥ १३० ॥ अब किस संस्थानवाला हल्ला कहा ? इस प्रश्न का उत्तर वांश के मूल के मंस्थानवाले हल्ला कहे हैं. फीर उन्माद के वश से 'वीणा बजाइ, अरे भाइ वीणा बजाइ' यों दो बार कहा. और अयंपुलने सुना. परंतु उन के मन को कारण उत्पन्न हुवा नहीं, क्यों कि जो मोक्ष जावे वे वैसा करे ॥ १३१ ॥ अब इस आजीविक उपासक 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmm संकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ, आजीविक उ. उपासक गो० गोशाला मं० मखली पुत्र को इ० यह ए० ऐमा वा प्रश्न वा. कहाया हुआ ह. हृष्ट तु० तुष्ट जा. यावत् हि. आनंदित मं० मंखली पुत्र को वं० वंदनाकर ण नमस्कार कर प० प्रश्न पु० पुछकर अ० अर्थ प० ग्रहण किये ५० ग्रहण कर उ० उठकर गो० गोशाला में मंखली पुत्र को वं वंदना ण. नमस्कार कर जा. यावत् प० पीछा गया ॥ १३२ ॥ त० तब से वह गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र अ० स्वतः का म० मरण आ० जानकर आ० आजीविक थे० स्थविरों को स० बोला गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिएसमाणे हट्ठ तुट्ट जाव हियए मंखलिपुत्तं वंदइ णमंसइ २ पसिणाई पुच्छइ, पुच्छइत्ता, अट्ठाइं परियादियइ, परियादियइत्ता उट्ठाए उढेइ, उट्ठइत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वंदइणमंसइ बं० २ त्ता जाव पडिगए ॥ १३३ ॥ तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएइ, आभोएइत्ता आजीवियथेरे सदावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी तुब्भेणं देवाणुप्पिया! भावार्थ को मंखली पुत्र गोशालाने ऐसा उत्तर दिया जिस से बह हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और वंदना नम स्कार कर उस ने प्रश्न पूछे. प्रश्न पूछकर अर्थ ग्रहण किये फीर अपने स्थान से उठकर मंखलीपुत्र गोशाला को ae वंदना नमस्कार कर यावद पीछा गया ॥ १३२ ॥ अब मंखलीपुत्र गोशालाने अपना मरण जानकर आजीविक स्थविर को पोलाये और ऐसे बोले कि अहो देवानुप्रिय ! जब मुझे मृत्यु प्राप्त हुवा जानो तव - पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती ) सूत्र8+ 4808602 पत्ररहवा शतक । - Page #2136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ +कर ए.. ऐसे ३० बोले सु• तुम दे० देवानुप्रिय म० मुझे का कालगत जा. जानकर मु० सुगंधित न. माप से हा० स्नान कराना ५० पम मु. सुकुमार गं. गंध का काषाय से गा• गात्रों को लूथ पूंछकर स० अच्छा गो० गोशीर्ष गा० गात्रों को अ० लीपना म० महर्घ्य हव्हस लक्षणवाले ५० पट सा.121 साडी नि• डालना स० सर्वालंकार से वि० विभूषित क० करना पु० पुरुषमहस्र से व. वहनकराती सी. | पालखी में दुबैठाना मा०श्रावस्ती णनगरीमें सिं०शंगाटक जा यावत् प०पथ में म. बडे स० शब्दसे १०१ | उद्घोषणा करते ए०ऐसा व०बोलना ए ऐसा दे देवानप्रिय गोगोशाला मं० मंखलीपुत्र जि. जिन जि• जिन ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाहेह सु. २ पम्हलसुकुमालए गंध कासाइए गायाइं लूहेह गा• २ सरसेणं गोसीसेणं गायाइं अणुलिंपह, स०२ महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह मह २, सव्वालंकार विभूसियं करेह, स० २ ता, पुरिससहस्सवाहिणीसीय दुरूहेह पु. २ त्ता, सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु महयासहेणं उग्धोसेमाणा २ एवं वंदह एवं खलु देवाणुप्पिया भावार्थ सुगंधित पानी से मुझे स्नान कराना, पक्ष्म समान सुकोमल कषाय रंगबाले वस्त्र से गात्रों को स्वच्छ करना, सरस गोशीर्ष चंदन से गात्रों को लेपन करना, बहुत मूल्यवाला व हंस समान श्वेत वख पाहेनाना, सर्वालंकार से विभूषित करना, सहस्र पुरुष वाहिणी शिचिका पर बैठाना, और श्रावस्ती नगरी के श्रृंमाटक अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादगी - Page #2137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रकाश मान वि. विचर कर इ० इस ओ० अवसर्पिणी में च. चौवास ति तीर्थंकरों में च. चरिमई इति तीर्थकर सि० सिद्ध जा. यावत् स. सब दुःख प० रहित इ० ऋाद्ध स० समुदाय से म. मेगई स. शरीर का णी नीहारन क० करना ॥ १३३ ॥ त० तव ते वे आ० आजीविक थे० स्थविर गो०१ गोशाला में मंखली. पुत्र का ए. यह अर्थ वि.विनय से प० सुना ॥१३॥त. तब तक उस गो०१ गोशाला म०मखली पुत्र को ससात रात्रि १०परिणमते ५०प्राप्त होते स०सम्यक्त्व अ०यह एक ऐसा अ०१ अध्यवसाय जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा णो० नहीं अ० मैं जि जिन जि- जिन प्रलापी जा० यावत् } 26 गोसाले मंखलिपुत्चे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासमाणे विहरिता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं चरिमे तित्थगरे सिद्धे जाच सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ इड्डी सक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेह ॥ १३३ ॥ तएणं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेति ॥१३॥ तएणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तसि परिणममाणंसि पडिलड सम्म भावार्थ यावत् महापर में बडे २ शब्दों से ऐसा बोलना कि अहो देवानुप्रिय ! मंखली पुत्र गोशाला जिन जिन । प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हवे विचर कर इस अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों में चरिम तीर्थकर सिद्ध बुद्ध यावत् सब दुःख के अंतकर्ता हुए. और ऋद्धि सत्कार समुदाय से मेरा शरीर का निहारन करना ॥ १३३ ॥ आजीविक स्थविरोंने मंखलीपुत्र गोशाला की इस बात विनय पूर्व 17 अंगीकार की ॥ १३४ ॥ अब मंखलीपुत्र गोशाला को सात रात्रिपरिणमते हुए सम्यक्त्व की प्राप्ति हुए । विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 4848848 पनरहवा. शतक wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww -488 Page #2138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ mamminew <१.9 अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी जि. जिन शब्द ५० प्रकाश करता वि. विचरता हूं अ० मैं गो. गोशाला मेखली पुत्र स: श्रमण घातक स० श्रमण को मारने वाला स. श्रमण का प. प्रत्यनीक आ० आचार्य उ० उपाध्याय को अ० अपयश का करने वाला अ. अवर्ण करने वाला अ० अकीर्ति करने वाला व. बहुत अमद्भाव मि० मिथ्यात्व के अ० अभिनिवेश से अ० आत्मा को ५० अन्य कोत. दोनों को वु. व्युदग्राह्यमान कु. व्युत्पाद्यमान वि. विचरने को स० स्वतःके ते तेज से अ० पराभव अं० अंदर स० सात रात्रि में पि० त्तरस अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था णो खलु अह जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ,अहं गोसाले मंखलिपुत्ते समणघायए समण मारए समण पडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए, बहूहि असब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिय अप्पाणंवा परंवा तदुभयंवा बुग्गाहेमाणे वुप्पा एसमाणे विहरित्ता, सएणं तेएणं अणाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयऔर ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि मैं जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रलाप करके विचरनेवाला नहीं हूं. मैं मखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला, श्रमण को मारनेवाला, श्रमण का शत्रु, आचार्य उपाध्यायका अपयश करनेवाला, अवर्णवाद करनेवाला व अकीर्ति करनेवाला हूं, और बहुत असद्भाव मिथ्यात्वाभिनिवेश से स्वतः को, अन्य को, व उभय को व्यग्राहमान व व्युत्पाद्यमान * प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी * भावार्थ Page #2139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ, FO भावार्थ पिचज्वर प० परिगत स० शरीर वाला दा० दाह सहित छ० छद्मस्थ में का० काल क० करूंगा स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर जिοजिन जिοजिन प्रलापी जा०यावत् जिं०जिन शब्द प०प्रकाश करते वि० विचरते हैं ॥ १३४ ॥ ए० ऐसा से० विचार करके आ० आजीविक थे० स्थविर को बोलाये स० बोला कर उ०ऊँचनीच स० शपथ प०किया ए ऐसा व०वाला णो० नहीं अ०मैं जि० जिन जि० जिन प्रलापी जाग्यावत् प०प्रकाश करता वि०विचरता हूं अ० मैं गो गोशाला मं० खली पुत्र स० श्रमण घातक जा० यावत् सरीरे दाहवांतीए छउमत्थेचेव कालं करेस्सं ॥ समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्लावी जाव जिणसद्दं पगासमाणे विहरइ ॥ १३४ ॥ एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता आजीवियथेरे सद्दावेइ, सहावेइत्ता उच्चावयं सवहस्सावि पकरेइ, पकरेइना एवं वयासी णो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव पगासमाणे विहरइ, अहं गोसाले खसमणघाए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सं ॥ समणे भगव महावीरे करता हुवा विचर कर अपने तेज से पराभव पाया हुवा पित्तज्वर सहित शरीरवाला दाहसहित छद्मस्थपना में सात रात्रि में काल करूंगा और श्रमण भगवंत महाबीर जिनजिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रका(शमान करते हुवे विचरते हैं ।। १३४ ॥ ऐसा विचार कर आजीविक स्थविरों को बोलाये और ऊंच नीच {देवगुरु संबंधी शपथ कराकर ऐसा बोला मैं जिन जिन प्रलापी नहीं हूं यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488+ पनरहवा शतक '२१०९ Page #2140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ सूत्र 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी: छयस्थ में का० काल क०करूंगा सश्रमण भ.भगवंत म०महावीर जि जिन जि० जिन प्रलापी जा यावत् । जि.जिन शब्द प.प्रकाश करते वि०विचरते हैं तेइसलिये तक तुम दे देवानप्रिय म०मुझे का काल गया हुना जा. जानकर वा० बांये पा० पांव मुं. रस्सी बं. बांधना ति० तीन वार मु० मुख में उ० यूंकना मा० श्रावस्ती ण नगरी में सिं० शंगटक जा. यावत् प० पथ में आ० इधर उधर क० करते म० बडे २ जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ, तं तुभेणं देवाणुप्पिया ! ममं । कालगयं जाणित्ता वामपाएसुंवेण बंधह, वा २ ता तिक्खुत्तो मुहे उहुभहति२ ता. सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु आकविकढेि करेमाणे महया महया सदेणं उग्धोसेमाणा २ एवं वदह णो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पहवा नहीं विचरता हूं. मैं मंखलीपुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला यावत् छद्मस्थ में ही काल करूंगा. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करते हवे विचरते हैं इस से अहो देवानुप्रिय ! मेरे काल हुवे पीछे मेरा बांया पांच रस्सी से बांधकर तीन वक्त मुंह में यूंकना. फीर श्रावस्ती नगरी में शंगाटक यावत् महापथ में घसीट कर ले जाते हुवे बडे २ शब्द से ऐसी उद्घोषणा करना कि अहो देवानुप्रिय ! मखली पुत्र गोशाला जिन व जिन प्रलापी नहीं है यावत् जिन शब्द प्रकाश करता हुवा नहीं विचरता है. परंतु वह मेखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथा 1 Page #2141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 488* पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र 418+ {स० शब्द से उ० उद्घोषणा करते ए० ऐसा व० बोलना णो० नहीं दे० देवानुप्रिय गो गोशाला मं० मंखली पुत्र जि० जिन जि० जिन प्रलापी जा० यावत् वि० विचरता ए० यह गो० गोशाला मं० मंखली (पुत्र स० श्रमण घा० घातक जा० यावत् छ० छग्नस्थ में का० काल प्राप्त हुवा ॥ १३५ ॥ त० तब ते ० ० आजीविक थे: स्थविर गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र को का० काल प्राप्त जा० जानकर हा० ( हालाहला कुं० कुभकारिणी के कुं० कुभकार शाला के दु० द्वार पि० ढके हा० हालाहला कुँ० कुपकारी लावी जाव विहरइ || एसणं गोसाले चैव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चैत्र कालगए || समण भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ आणिड्डी असक्कार समुदणं ममं सरीरगस्स नीहरणं करेज्जह, एवं वदिता कालगए ॥ १३५ ॥ तणं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारी कुंभकारावणस्स दुबारा पिहेँति २ ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभका{ यावत् छद्मस्थपना में काल धर्म को प्राप्त हुवा है. श्रमण भगवंत महावीर जिन जिन प्रलापी यावत् जिन ( शब्द प्रकाश करते हुवे विचरते हैं. और बिना ऋद्धि, सत्कार व सन्मान से मेरे शरीर का निहारन करना. ऐसा बोलकर काल कर गया ॥ १३५ ॥ अत्र आजीविक स्थविरोंने मंखली पुत्र गोशाला को मृत्यु प्राप्त हुवा जानकर हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला के द्वार बंध किये. और कुंभकार शाखा 4034340 पनरहवा शतक 43+4+ २१११ Page #2142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ की कुं० कुभकर शाला के व० बहुत म० मध्यभाग में सा० श्रावस्ती ण. नगरी की आ. आलेखनी की गा० गोशाला मं० मंग्वलीपुत्र का वा० बांया पा० पांव सु० सूत्र से बै० बंधा ति० तीन वार मु०॥ मुख में उ० थूका सा० श्रावस्ती ण नगरी में सिं० शृंगाटक जा० यावत् प० पथ में आ० इधर उधर, क० करते णी० नीच स० शब्द से उ० उद्घोषणा क० करते ए. ऐसा व० बोला णो० नहीं दे देवानु- 1 है रावणस्स बहुमज्झदेसभाए सवात्थिं णयरिं आलिहंति २ त्ता, गोसालस्स मंखालपु. १ त्तस्स सरीरगं वामे पादे सुंवेणं बंधति तिक्खुत्तो मुहे उट्ठभहंति २ त्ता सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु आकविकढिं करेमाणे णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयासी णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव रकी मध्य बीच में श्रावस्ती नगरी का चित्र नीकाला. पश्चात् मंखली पुत्र गोशाला का बांया पांव रस्सी से बांधा और तीन बार उस के मुख में धुके. पाछे श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् महापथ में इधर उधर घसीट कर नीच शब्दों से उद्घोषणा करते हुवे ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! मखली पुत्र गोशाला जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करता हुका नहीं विचरता था. यह मंखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला यावत् छद्मस्थपना में ही काल कर गया है. श्रमण भगवंत महावीर जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करते हुवे विचरते हैं. इस तरह शपथ मुक्त होकर दूसरी वक्त 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 . शब्दार्थ प्रिय गो गोशाला पं० पखली पुत्र जि० जिन जि० जिन प्रलापी आ० यावत् वि. विचरने को ए. यह गो० गोशाला में मंखलीपुत्र स० माधु का घातक जा: यावत् छ० छमस्थ में का० कालगत स० Vश्रमण भ• भगवंत म० महावीर जि० जिन नि० जिन पालापी जा० यावत् वि. विचरते हैं स० शपथ से | २११३ 4. छूटने का क० करके दो० दूसरी वक्त पू० पूजा स० सत्कार थि• स्थिर क० करने को गो०१७ मोशाला में० मेखलीपुत्र को बा० बाये पांच से सु. छोडकर हाः हालाहला कुं• कुंभकारिणी की कुछ कंभकार शाला में दु. द्वारकपाट अ० खोलकर गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र के स. शरी सुगंधित गं० गंधोदक से ण्हा स्नान कराया तं० वैसे ही म० बडी इ० ऋद्धि स० सत्कार स० समुदय विहरिए । एसणं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छ उमत्थे चेत्र काल गए ॥ समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाब विहरइ, सवहपडिमोक्ख- मणगं करेंति, करेंतित्ता, दोच्चंपि पूयासकारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंखलिपुत्तरस वामाओ पादाओ सुंवेयंति २ त्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स द्वारवयणाई अवगुगंतिर त्ता, गोसालस्स मखलिपुत्तस्स सरीरंग सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणति तंचेव भावार्थ पूना सत्कार व सन्मान के लिये मंखलीपुत्र गोशाला के बांये पांच से स्स्सी छोडकर हालाहला कुंभ-15 कारिणी के कुंभकारशाला के द्वार खोल दिये. मंबली पुत्र गोशाला के शरीर को सुगंधित पानी से। पंचमाङ्ग विवाह पण्पत्ति (भग पनरहवा शतक 8380 428 Page #2144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ में गो गोशाला में पंखलीयंत्र के मशीर का णी निहारन क० किया ॥ १६७ ॥ त तब २० श्रमण भ. भगतमा महावार अ० अन्यदा कदापि सा० श्रावस्ती ण नगरी से को० कोष्टक चे उद्यान में से प० नीकरकर व वाहिर ज. जनपद में विचरने लगे ॥ १३८ ॥ ते. उस का? काल है उन स समय में शिपिढिक ग्राम. ण नगर हो० था व० वर्णन योग्य त उस मि. मिढिक ग्राम णनगर की ३० बाहिर उ० ईशान कौन में ए. यहां मा. शाल को. कोष्टक चे. उद्यान जाव महया महया इट्ठीमकार समुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स णीहरण करेंति ॥ १३७ ॥ तएणं समणे भगवं महावीर अण्णयाकयाई सावत्थीओ. णयरीओ कोट्टयाओ चइयाआ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता वाहिया जणवयविहारं विहग्इ ॥ १३८ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं मिंढियगाम णामं णयरे होत्था, वण्ण ओ तस्सणं मिढियगामस्स णयरस्स बाहथा उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं भावार्थम्नान कराया यावत् बहुत २ ऋद्धि मत्कार समुदाय से मेखली पुत्र गोशाला के शरीर का निहारन किया ॥१३७ ॥ उम समय में श्रमण भगवंन महावीर स्वामी अन्यदा कदापि श्रावस्ती नगरी के कोष्टक उद्यान में से नीकलकर बाहिर जनपद विहार विचरने लगे ॥ १३८ ॥ उस काल उस समय में मिदिक ग्राम नामक नगर था. उस का वर्णन चंपा नगरी जैसे जानना. उस मिदिक ग्राम नगर की बाहिर ईशान 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ! *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी * Page #2145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाय पंचाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र ११ हो० था व० वर्णन योग्य. पु. पृथ्वी शिलापट्ट त० उस सा० शाल कोष्टक चे० उद्यान की अ० पास} . ए. यहां- म. बडा मा० मालुय कच्छ हो० था किः कृष्ण कि० कृष्णावभास जा. यावत् नि००% निकुरुंबभून प. पत्रवाले पु० पुष्पवाले फ. फलवाले ४० हरे रि• शोभायमान सि. लक्ष्मी से अ० अतीव उ. शोभते हवे वि० था ॥ १३८ ॥ त उस में मिदिक ग्राम ण. नगर में रे० रेवती गाई गाथापति की स्त्री प० रहनीथी अ० ऋद्धिवंत जा० यावत् अ. अपरिभूता ॥ १३९ ॥ त० तब सालकोट्ठए चेइए होत्था, वण्णओ. पुढवीसिलापट्टओ तस्सणं सालकोटगरस । चेइयस्स अदूरसामंते एत्थणं महेगे मालुयाकच्छएयावि होत्था किण्हे किण्होभासे जाव निकुरुवभूए पत्तिए पुल्फिए फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अईव २ उवसोभेमाणे २ चिट्ठइ ॥ १३.८ ॥ तत्थणं मेंढियगामे णयरे वेतीणाम गाहावइणी - परिवसइ, अट्ठा जाव अपरिभूया ॥ १३९ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्ण्या कौन में शाल कोष्टक नाम का उद्यान था. वह वर्णन युक्त था. वहां पर पृथ्वीशिलापट्ट था. उस शाल-14 एक उद्यान की पास मालुका नामक कच्छ (वृक्षों का समुह) था, वह कृष्ण, कृष्णावभास यावत् है निकरुवभूत पत्र, पुष्प, फल और हरित से अतीव शोभता हुवा था ॥ १३८॥ उस मिढिक ग्राम नगर में रेवती नामक गाथापतिनी रहती थी. वह ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूता थी ॥ १३९ ॥ अब एकदा श्री, पचरहवा शतक भावार्थ Page #2146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १ ० प्रमण भ० बगवंत म. महावीर म० बम्पदा कदापि पु० पुर्वानुपूर्वी च. लवे . शरद ०१ जहाँ में, मेंटिक ग्राम ण नगर जे. जहां सा०शालकोटक चे० उद्यान जा. यावत १० परिषदा LE पाठीगइ ॥ १४० ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर के स० शरीर में वि. विपुल रो017 तिक पा० उत्पन्न हवा उ. उज्वल जा. यावत् दु० दुःह पि.पित्तज्वर से १० परिगत स. शरी वाला द० दाह से व• व्युत्क्रान्त वि• विचरतेथे अ० अपिच लो० रुधिर ५० मल ५० करके च. चारों ६० वर्ण वा० बोले स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र के त. कयाइं पुव्याणुपुट्विं चरमाणे जाव जेणेव मिढियगामे णयर जेणेव सालकोट्ठए चइए चेव जाव परिसा पडिगया ॥ १४ ॥ तएणं समणरस भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए उज्जले जाव दुरहियासे पित्तजरपरिगय सरीरे दाहवक्तीए यावि विहरइ, अवियाई लोहियपच्चाईपि पकरेइ, चाउवण्णं वाग. रेइ, एवं खलु समणे भगवं महावीर गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अणाइटे भावार्थ पण भगवंत महावीर पूर्णनुपूर्वि चरते यावत् ग्रामानुग्राम विचरते मिढय ग्राम नगर के शाल कोष्टक उद्यान में पधारे यावत् परिषदा पोछी गइ ॥ १४० ॥ अब महावीर स्वामी के शरीर में विगुल रोगांतक उत्पन्न हुवा वह उज्जल यावत् सहन नहीं होमके वैमा हुवा. शरीर में पिचवर परिणमगया, दाह होने लगा और रुपिर का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #2147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 487 शब्दार्थ तपतेज से अ० पराभव पाया हुवा अं• अंदर छ० छमास में पि० पित्तज्वर १० परिगत शरीरवाला दा० दाह व्युत्क्रान्त छ• छमस्थ में का• काल का करेंगे ॥ १४१ ॥ ते• उस काल ते. उस समय में म० श्रमण भ० भगवंत ५० महावीर के अं० शिष्य सी० सिंह अ० अनगार १० प्रकृति भद्रिक जा० यावत् वि० विनीत मा० मालुया कच्छ की अ० पास छ० छह के अ० निरंतर उ० ऊर्ध्व बा० थाहा से जा • यावत् वि. विचरताथा त० तब तक उस सी सिंह अ० अनगार को झा० ध्यान में व० रहते अ. समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तजरपरिगय सरीरे दाहवकंतीए छउमत्थेचेव कालं करेस्संति ॥ १४१॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सीहे णामं अणगारे पगइभदए जाब विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूर सामंते छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तणं २ उर्दू बाहाओ जाव विहरइ ॥ १४२ ॥ तएणं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वमाणस्स अयमेयारूचे जाव समुप्पज्जित्था भावार्थ मल भी करने लगे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ये चारों वर्ण ऐसा बोलने लगे कि मखलीपुत्र गोशा ला के तप तेजसे पराभव पाये हुवे महावीर स्वामी पित्तचर व दाहसे छ मासमें काल करेंगे।।१४१|उस काल : २७ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर के अंतेवासी प्रकृति भद्रिक यावत् प्रकृति विनित मीहा नामक 1/अनगार मालुयाकच्छ की पास निरंतर नरकी तपस्या करते हुवे ऊर्भ बाहा यावत् विचरते थे ॥१४२॥ पंचमान विवाह पण्णाचे ( भगवती ) सूत्र 48 पनरहवा शतक 48 Page #2148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा mming. 48. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *यह एक ऐसा जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा ए. ऐसे म० मेरे ध० धर्माचार्य ध० धर्मोपदेशक स. श्रमण: भ० भगवंत म. महावीर के स० शरीर में वि० विपुल रो० रोगांतक पा. हुवा उ० उज्वल जा. यावत् छ० छमस्थ में का. काल क० करेंगे ब. बोलेंगे अ. अन्य तीथिक छ० छद्मस्थ में का. काल किया |२११८ इ. इस एक ऐसा म० घडा म. मन का मा० मानसिक दु० दुःख से अ० पराभूत आ. आतापना भू. भूमि से १० आकर जे. जहां मा० मालुया कच्छ ते. वहां उ० आकर मा० मालुयाकच्छ में अं• अंदर एवं खलु मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्भूए उज्जले जाव छउमत्थेचत्र काल करेस्सइ ॥ वदिस्संति यणं अण्णउत्थिया छउमत्थचव कालगए। इमेणं एयारवेणं महया मणो माण. सिएणं दुक्खणं अभिभूएसमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ पच्चोरुभइत्ता जेणेव मालुयाकच्छए, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मालुयाकच्छयं अंतो २ अणुप्पविसइ, अणुप्प. उस सीहा अनगार को ध्यान करते २ ऐसा अध्यवमाय उत्पन्न हुवा कि मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक के शरीर में विपुल रोग उत्पन्न हुवा है यावत् छ अस्थपना में ही काल करेंगे. और अन्यतीथिक कहेंगे कि छमस्थ में काल कर गये. इस तरह मन में मानसिक दुःख से पराभव पाये हुवे आतापना भूमि में से प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावाथ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अ० पेठे अ० पैठकर म० बडे २ स० शब्द से कु० कुहु प० रुदन किया || १४३ ॥ आ० आर्य स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर स० भ्रमण णि० निर्ग्रन्थ को आ० आमंत्रण कर ए० ऐसा व० बोले ए० ऐसा अ० आर्य म० मेरा अं० शिष्य सी० सिंह अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक त० तैसे सः सब भा० कहना जा० यावत् १० रुदन किया तं० इसलिये ग० जाओ अ० आर्य तु तुम सी० सिंह अ० { अनगार को अ० वोलावो ।। १४४ ॥ त० तत्र ते० वे स० श्रमण णि निर्ग्रन्थ स० श्रमण भ० भगवंत म० विसइत्ता, महया महया संदेणं कुहुकुहुस्स परुणे ॥ १४३ ॥ अजोति, समणे भगवं महावीरे समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी सीहे णामं अणगारे पगइभदए तंचेव सव्वं भाणियव्वं जात्र परुण्णे तं गच्छहणं अज्जो ! तुब्भे सीहं अणगारं सद्दह ॥ १४४ ॥ तएणं ते समणा णिग्गंथा नीकलकर मालुका कच्छ में आये. वहां प्रवेश किया और बडे २ शब्द से रुदन करने लगे ॥ १४३ ॥ श्रमण भगवंत महावीरने श्रमण निर्ग्रयों को बोलाकर ऐसा कहा कि अहो आर्यो ! मेरा अंतेवासी प्रकृति भद्रिक यावत् प्रकृति विनीत मीहा अनगार मालुया कच्छ में यावत् रुदन कर रहा है इसलिये अहो आर्यो ! तुम जाओ और सीहा अनगार को बोलावो ॥ १४४ ॥ महावीर स्वामी के ऐसा कहने पर ++++ पनरहवा शतक 44 ato २११९ Page #2150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१२० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - wwwwwwwwwwwwwnonom महावीर से एक ऐसा वु० कहाये हुवे स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को व. वंदनाकर ण नमस्कार कर स० श्रमण भ. भगवंत म० महावीर की अं० पास के सा० शालकोष्टक चे. उद्यान में से १० नीकलकर जे० जहां मा० मालुया कच्छ जे. जहां भी सिंह अ० अनगार ते. वहां उ० आकर सी० सिंह अ० अन्गार को एक ऐसा व० बोले सीनिहत. तुझे ध० धर्माचार्य सः बोलाते हैं ॥१ त० तब सी० सिंह अ• अनगार स० श्रमण णि निर्ग्रन्थों की स० साथ मा० मालुका क. कच्छ में समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तासमाणा समणं भगवं महावीरं बंदंति णमं संति वं० २ त्ता समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतियाओ सालकोट्रयाओ चेइ. याओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमंतित्ता जेणेव मालुया कच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सीह अणगार एवं क्यासी सीहा ! तव धम्मायरिया सद्दावेइ ॥ १४५ ॥ तएणं सीहे अणगारे समणेहिं णिग्गंथेहिं सद्धिं मालुया कच्छयाओ पडिणिक्खमइ, पडिगिक्खमइत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे श्रमण निग्रंथ महावीर स्वामी की पास कोष्टक उद्यान में से नीकलकर मालुया कच्छ में सीहा अनगारकी पास गये. और उन को बोले अहो सीहा ! तुझे धर्माचार्य धर्मोपदेशक . बोलाते हैं ॥ १४५ ॥ उस समय में सीहा अनगार श्रमण निग्रंथों की साथ मालुया कच्छ में मे नीकलकर श्रमण भगवंत महाबीर प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.* भावार्थ Page #2151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती ) मूत्र 4082 से ५. नीकलकर जे. जहां स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ते० तहां उ० आकर म. श्रमण भ. भात म. महावीर को ति० तीनवार आ० आवर्त जा. यावत् १० पर्युपामना की ॥१४६ ॥ सी०१७ सिंहस० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर मी० सिंह अ० अनगार को एक ऐसे वबोले से. अथ णू० शंकादशी सी० सिंह झा० ध्यान में व० रहते अ. यह एक ऐना जा० यावत् प० रुदन किण से० अय ते. तुझे सी० सिंह अ० अर्थ म० योग्य हैं. हां अ० है ॥ १४७ ॥ तं० इमलिये णो नहीं मी० सिंह तेणेव उवागच्छइ उबागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं २ । है जाव पज्जुवासइ ॥ १४६ ॥ सीहादि ! समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं ।। वयासी-स Yणं सीहा ! ज्झाणतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव परुण्णे, से णूणं ते सीहा ! अटे समटे ? हंता अस्थि ॥ १४७ ॥ तं णो खलु सीहा ! स्वामी की पास आये और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को. तीन बार हस्त जोडकर प्रदक्षिणा देकर वंदना नमस्कार किया यावत् पर्युपासना की ।। १४६ ॥ श्रमण भगवन महावीरने सीहा अनगार को कहा कि अहो सीहा ! तुझे ध्यान करत ऐसा अध्यवसाय हुवा यावत् रोने लगा तो क्या यह शत. सस है ? हां भगवन् ! यह बात सस है ॥ १४७॥ अहो सीहा ! मस्खली पुत्र गोशाला के तपतेज से पराभव 48488 पनरहदा शतक 88 भावार्थ 8 Page #2152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ +9 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गो० गोशाला मं० खलीपुत्र के त० तपतेन से अः पराभव पाया अं अंदर छ छपास के जा० यावत् का० काल क० करूंगा अ० मैं अ० अन्य सो०सोलह वा० वर्ष जि०जिन सु० सुखार्थी वि० विचरूंगा ॥ १४८ ॥ तं इसलिये ग० जा ० तु सी० सिंह मिंटिक ग्राम ण० नगर में रे० रेवती गा० गाथापति की पत्नि के गिः गृह त० वहां रे० रेवती गा० गाधापतिनी ने म० मेरेलिये दु० दो क० कपोत (( वनस्पति विशेष ) उ० बनाया ते० उस से णो० नहीं अः प्रयोजन अ० है अ० अन्य पा० भूतकाल का म० मार्जर ( वनस्पति विशेष अथवा वात विशेष ) कु० कुर्कुटमांस ( वनस्पति विशेष ) त० उसे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अणाइट्ठे समाणे अंतो छण्हमासाणं जाब कालं `करेस्सं अहंण अण्णाई सोलसवासाई जिगसुहत्थी विहरिस्सामि ॥ १४८ ॥ तं गच्छहणं तुमं सीहा मिंढिय गामं यरं रेवती गाहावइणीए गिहे, तत्थणं रेवतीए गाहावईए मम अट्ठाए दुवे कसरी उवक्खडिया तेहिं णो अट्ठो अत्थि ॥ से अण्णे पारियासि मज्जार पाया हुवा मैं छ मास में यावत् काल नहीं करूंगा परंतु सोलह वर्ष पर्यंत जिन बनकर विचरूंगा || १४८ ॥ अडो सीहा ! तू मिंटिय ग्राप नगर में रेवती गाथापतिनी के गृह पर रेवती गाथापतिनीने दो कपोत शरीर मेरे लिये बनाये हैं; इस का यहां मतलब नहीं है अर्थात वह मत लाना. परंतु जो अन्य के * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २१२२ Page #2153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र +8+ 4 आ० लाव ते उससे अ० प्रयोजन ॥ १४॥ त० तब सी० सिंह अ० अनगार म श्रमण भ० भगवंत 41 म.महावीर से एक ऐसा वु. कहाया हुवा ह० हृष्टतुष्ट जा. यावत् हि आनंदित म० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर को वं० वंदना कर ण नमस्कार कर अ० स्वरारहित अ० चपलता रहित अ० संभ्रांत - कडए कुक्कडमसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो ॥ १४९ ॥ तएणं' सीहे अणगारे १ __समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुढे जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, व. २ अतुरिय मचवल. मसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेइत्ता जाव गोयम सामी जावं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवाग च्छइ, उवागच्छइत्ता समगं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता समणलिये मार्जार (वायु विशेष ) को उपशमाने के लिये कुक्कुड मांस बनाया है उसे लाना + १॥ १४९ ॥ जब महावीर स्वामीने ऐसा कहा तब सीहा अनगार हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए. और श्रमण + यहां पर कपोत का अर्थ कपोत जैसे आकारवाले विजोरे का फल जानना. क्यों कि वर्ण स्वधर्मपना से इसे. - ग्रहण किया है. और कुक्कुड मांस का अर्थ कोले का गिर जानना. मार्जारका कितनेक वायुविशेष अर्थ करते हैं उसका or . उपशम के लिये बनाया हुवा; और कितनेक मार्जार एक वनस्पति विशेष मानते हैं इसलिये इस वनस्पति विशेष से बनाया हुवा. 4843 पमरहवा शतक + भावार्थ - 4. + - Page #2154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी " रहित म मख वस्त्रि का प० प्रतिलख कर ज० जैसे मो० गौतम स्वामी जा. यावत् .. जहां स. श्रमण भ• भगवंत म० महावीर तं. वहां उ० आकर रे रेवती गा० गाथापतिजी के गि०गृह में अ० प्रवेश किया शेष सरल ॥ १५० ॥ त० तब से वह र रेवती मा० गायापनिनी सी सिंह अ० अन्गार को ए. आताहुवा पा० देखकर ह० हृष्टतुष्ट खि० शीघू आ० आसन से अ० खडीहुइ सी० सिंह अ० अनगार की स० सात आठ प० पांव अ० सन्मुखगइ ति० तीनवार आ० आवर्त ५० प्रदक्षिणा 40 वंदनाकर . स्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ सालकोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता अतुरिय जाव जेणेव मिढियगामे गयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता रेवई गाहावइणीए गिहे अणुप्पविढे ॥ १५० । तएणं सा रेवई गाहावइणी सीहं अणगारं एजमाणं यासइ, पासइत्ता हट्टतुट्ठ खिप्पामेव आसभावंत को वंदना नमस्कार कर शीघूता व चपलता रहित मुखपति की प्रतिलेखना कर गौतम स्वामी जैसेश्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास आये और वंदना नमस्कार कर शालकोष्टक उद्यान में से नीकलकर शीघ्रता व चपलता रहित मिढिक ग्राम नगर में रेवती गाथापतिनी के गृह आये और उस में प्रवेश किया ।। १५० ॥ रेवती गायापतिनी मीहा अनगार को आते हुए देखकर हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुइ और सीहा अनगार की सन्मुख सात आठ पांव गइ. तीन बार हस्त जोडकर बंदना नमस्कार कर *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव हायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Here शब्दार्थ नमस्कार कर ए० ऐसे घ० बोली सं० कहो दे० देवानप्रिय कि० क्या आ० आने का प्रयोजन त तब से वह सी० सिंह अ० अन्गार रे० रेवती गा० गाथापतिनीको ए. ऐसा व० बोले ए. ऐसे तु तुमने दे० देवानुप्रिये स• श्रमण भ० भगवंत म० महावीर कलिये दु० दो क० कपोत स. शरीर । तैयार किये ते • उस से णो० नहीं अ० मतलब अं० है ते. उन अ० अन्य ५० भूतकाल में म० माओर कृत कु० कुर्केटमांस तं० उसे आ० लावो ते. उस से अ० प्रयोजन ॥ १५० ॥ त० तव सा. वह रे०/ णाओ अब्भुढेइ २ त्ता सीहं अणगारं सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छइत्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं वंदइ णमंसइ.वं. २ त्ता, एवं वयासी संदिसंतुणं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं ? तएणं से सीहे अणगारे रेवति गाहावणिं एवं वयासी एवं खलु तुम्हे देवाणुप्पिए ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अट्राए दुवें - कवोयसरीरा उवक्खाडया तेहिं णो अट्ठो, अत्थि ते अण्णे पारियासिए मज्जारकडए । कुक्कुडमंसए तमा हराहि तेणं अट्ठो ॥ १५ ॥ तएणं सा रेवती गाहावरणी. सीहं. भावार्थ ऐसा बोली कि अहो देवानुप्रिय ! आपका आने का क्या प्रयोजन है ? तब सीहा अनगार रेवती गांधा 06 पति की पत्नि को ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के लिये 1 दो कपोत शरीर (बीजोरे ) बनाये हैं. उस से मुझे मतलब नहीं है, परंतु वायु का उपशमके लिये अन्य के 488 पंचमाज विवाह पण्णाने (भगवती ) मूत्र +8+ immmmmmmmmmmmmmmmmmmommemomen पथरहवा शतक"" Page #2156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ० रेवती गा० गाथापतिनी सी सिंह अ० अनगार को ए. ऐसा क. बोली के. कौन सी० सिंह सेवा णा० ज्ञानी त० तपस्वी जे• जिस से त० तेरा ५० यह अ० अर्थ म० मेरे र० रहस्यकृत अ कहा जा जिस से तु. तुम जा. जानतहो एक ऐसे ज. जैसे खं० स्कंदक जा. यावत ज. जिस से अ० मैं जा जानताएं ॥ १५२ ॥ त० तव सा. वह रे० रेवती गा० गाथापतिनी सी० सिंह अ. अनगार की अं0 पास से ए. यह आ० वात सो० सुनकर णि• अवधारकर ह० हृष्ट तु. तुष्ट जे० जहाँ भ० भोजन गृह अणगारं एवं वयासी-केसणं सीहा से णाणीवा तवस्सीवा जेणं तव एस अट्टे मम ताव रहस्सकए हव्व मक्लाए ? जओणं तुम जाणासि ? एवं जहा खंदए जाव जओणं अहं जाणामि ॥ १५२ ॥ तएणं सा रेवती गाहावड़णी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठा, जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छनिमित्त जो कोलापाक बनाया है उसे लेने को मैं आया हूं ॥ १५१ ॥ उस समय गाथापति की पनि । रेवती बोली कि अहो मीहा ! एमा कौन ज्ञानी व तपस्वी है कि जिनोंने तुम को मेरा ऐसा गुप्त कार्य कहा कि जिस से तुम जानते हो ? वगैरह स्कंधक जैसे सब कहना यावत् मैं जानता हूं ॥ १५२ ॥ | सीहा अनगार की पास से ऐसा सुनकर गायापति की स्त्री रेक्ती हट तुष्ट हुइ और भोजन गृह की पास अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8 २१२७ पंचपाङ्ग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 428 सेयहां उ० भाइ ५० पात्र मो. खोला जे. जहां सी० सिंह अ० अनगार ते. वहां उ० आकर सी० सिंह अ० अनगार के ५० पात्र में त.० बह.स. सब णि डाला ॥ १५४ ॥ त. तत्र रे० रेवती गा. गाथापतिनी ते. उस द. द्रव्य शुद्ध से जायावत् दा० दान से सी. सिंह अ० अनगार प. प्रतिला मित दे देवता का आ० आयुष्य नि० बंधा ज. जैसे वि. पिजय का जा. यावत् ज. जन्म जी. वितफल रे०रेवती गागाथापतिनी का ॥१५॥त.तब सीहि अअ.गार रे० रेवती गागाभातिनी। इत्ता पत्तगं मोएइ, जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सीहरस, अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्मं णिसिरइ ॥ १५४ ॥ तएणं रेवतीए गाहा... वणीए तेणं दव्य सुद्धेणं जाव दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए. निबढे जहा विजयस्स जाव जम्मजीवियफले रेवईए गाहावइणीए रेवईए गाहावइ. णीए ॥ १५५ ॥ तएणं सीहे अणगारे रेवतीए गाहावइणीए गिहाओ पडिणिक्ख. आकर पात्र खोला. फीर सीहा अनगार की पास आकर सीहा अनगार के पात्र में सम्यक् प्रकार से सब डाल दिया ॥ १५४ ॥ जब गाथापति की स्त्री रेवतीने द्रव्य शुद्ध यावत् दान दिया और सीहाई अनगारने प्रतिलाभा तब विजय गाथापति की समान पांच द्रव्य प्रगट हुए यावत् धन्य है रेवती को कि जिसने जन्म जीवित सफल किया इस तरह लोगों कहने लगे ॥ १५५ ॥ पश्चात् सीहा अनगार 30 पनरहवा शतक 438010028 भावार्थ ! Page #2158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी [ के . गि० गृह से प8 जीकलकर सिंह मिंटिक ग्राम ण० नगर की म० बीच में से णि० नीकलकर ज० जैसे गो० गौतम स्वामी जा० यावत् भ० भक्तपान प० बतलाकर स० भ्रमण भ० भगवंत म० महावीर के पा हस्त में तं वह स सब णिः रखा ॥ १५६ ॥ त० तव स० श्रपण भ० भगवंत म० महावीर अ० अमूच्छित जा० यावत् अ० तन्मय रहित वि० बिल जैसे प० सर्पभूत अ स्वतःने त उस आ० आहार को (स० शरीर में प० डाला ॥ १५७ ॥ त० तव स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को त उन आ० म२त्ता मिढियागामं णयरं मज्झमज्झणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जहा गोयमसामी जाव भक्त्तपाणं पडिदंसेइ २त्तां समणस्स भगवओ महावीरस्स पाणिसि तं सव्वं सम्म सिर || १५६ ॥ तरणं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणुज्झोववण्णे बिल विपण्णगभूएणं अप्पाणणं तमाहारं सरीरको टुंसि पक्खिवइ ॥ १५७ ॥ गाथापति की पत्निरेवती के गृह से नीकलकर मिडिया नगर की बीच में होते हुवे गौतम स्वामी की तरह भगवंत को भक्तपान बतलाया और श्रवण भगवंत श्रीमहावीर स्वामी के हस्त. ॥ १५६ ॥ जैसे बिल में सर्प प्रवेश करता है वैसे ही श्रमण भगवंत महावीरने सब सम्यक प्रकार से रखा. मूर्च्छा व लुब्धता रहित उस आहार को शरीर रूपं कोठे में डाला अर्थात् आहार किया ।। १५७ ॥ श्रग भगवंत महावीर स्वामी *प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # २१२८ Page #2159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ आहार आ० करते वि० विपुल गे० रोगातंक खि० शीघू उ० उपशांत हुवा हरु हृष्ट जा० हुने आ० आरोग्य व बलिष्ट शरीर वाले तु० संतुष्ट हुवे स० साधु तु. संतुष्ट हुई स० साधियों सा० श्राविकाओं दे देवता दे० देवियों स० देवसहित म० मनुष्य अ० असुर लोक ह. हृष्ट हुवा स० श्रमण भ० भगवंत म०महावीर १० हृष्ट ॥ १५८ ॥ भं० भगवन् ! भ० भगवंत गो० गौतम स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को 40366 वंदनाकर ण नमस्कारकर ए. ऐसा व० वोल ए. ऐसे दे. देवानप्रिय के अं० शिष्य प० पूर्वदिशा के तएणं समणस्स भगवओ महारीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते, हट्टे जाए आरोग्गे वलियसरीरे, तुट्रासमणा तुट्रीओ समणीओ, तुट्ठा सावया तुट्ठीओ सावियाओ,तुट्ठा देवा, तुट्ठीओ देवीओ सदेवमणुयासुरेलोएहढे जाए समणे भगवं महावीरे हटे २ ॥१५८॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ, वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी . भावार्थको ऐमा आहार करते शीघ्र ही उस रोग का उपशम होगया और व हृष्ट यावत् आरोग्य के बलवंत बने. माधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव व देवियों तुष्ट हुइ, देव, मनुष्य व असुर लोक के सब जीव आनंदित ISTRकि श्रमण भगवंत हृष्ट हुए ॥ १५८. ॥ भगवान् गौतम श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! पूर्व देश के रहनेवाले आपके अंतेवासी. प्रकृति भद्रिक याक्त् निीत सर्वानुभूति अन-1 PA पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +8+ 34 पनरहवा शतक 8 4 Page #2160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ जागा 14 जा० देशका स० सर्वानुभूति अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि. विनीत से वह भ०: भगवन् त उस समय गो. गोशाला मं. मंखलीपुत्र के त. तपतेज से भा० भस्म कराया क. कहाँ है Eग० गया क. कहां उ० उत्पन्न हवा ए. ऐसे गो. गौतम म मेरा अंशिष्य पा. पूर्वदिशा का स० सर्वानुभूति अ० अनगार १० प्रकृति भद्रिक जा. यावत् वि. विनीत से. वह त० तब मो० गोशाला मं० मंखली पुत्र से भा० भस्मकराया उ. ऊर्ध्व चं० चंद्र सू० सूर्य जा. यावत् बं• ब्रह्मलं. लंतक म० महाशुक्र क. कल्प वी• छोडकर स. सहस्रार क० देवलोक में दे० देवतापने उ० उत्पन्न हुवा त० वहाँ पाईण जाणवए सव्वाणुभूईणामं अणगारे पगइभदए जाब विणीए सेणं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे कहिंगए कहिं उवव. ण्णे ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूईणामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए सेणं तदा गोसालेगं मंखलिपुत्तेणं भासरासीकरेमाणे उर्दू } चंदिमसूरिय जाव बंभलंतगमहासुक्के कप्पे वीईवइत्ता सहस्सार कप्प देवताए उक. भावार्थ गार मंखली पुत्र गोशाला से भस्म कराये हुवे काल के अवमर में काल करके कहां गये कहां उत्पत्र हुए। अहो गौतम ! मंखली पुत्र गोशाला से भस्म कराया हुवा मेरा अंतेवासी सर्वानुभूति अनगार चंद्र सूर्य यावत् ब्रह्म व लांतक देवलोक की उपर महा शुक्र देवलोक को उल्लंघ कर सहस्रार देवलोक में डेवतापने । 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #2161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१११ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4.92 अ० कितनेक दे० देवों की अ० अठारह साल सागगेपम की ठि० स्थिति ५० कही त• उस में स. सर्वानुभूति दे० देव की अ० अठारह मा० सागरोपम की ठि• स्थिति ५० प्ररूपी से. अब स० सर्वानु ७ भति देव ता० उस दे० देवलोक में आ० आयुष्यक्षय से जा० यावत् म. महाविदेह वा० क्षेत्र में सि०१० सीझेंगे जा० यावत् अं• अंत करेंगे ॥ १५९ ॥ ए. एसे दे० देवानुप्रिय के अं० शिष्य को० कोशल जा० देशका सः सुनक्षत्र अ° अगार ५० प्रकृाते भ० भद्रिक जा. यावत् वि. विनीत से वह मं० वण्णे ॥ तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सव्वाणुभूईस्सवि देवरस अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता,सेणं सव्वाणुभूई देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं जाव महाविदहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ॥ १९ ॥ एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसल जाणवए सुणक्खत्ते णाम अणगारे पगइभदए जाव विणीए सेणं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तणं उत्पन्न हुआ. उस में कितनेक देवताओं की अठारह मागरांपम की स्थिति कहो. वहां पर सर्वानुभूति अनगार की अठारह सागरोपम की स्थिति कही. वह सर्वानुभूति देव वहां से आयुष्य, स्थिति व भव क्षय से चवकरके यावत् महाविदेह क्षेत्र में सिझेंगे बुझेंगे यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे ॥ १५९ ॥ अहो । भगवन ! आपके अंतेवासी प्रकृति भद्रिक यावत् विनित कोशल देश के मुनक्षत्र अनगार मंखली पुष । *8484848 पमरहबा शतक 48 भावार्थ . Page #2162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१३२ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी. भगवन् त तब गोशाला मं• मंखलीपुत्र के त तपतेज से प. पीडित का. काल के अवसर में का। काल कर के क. कहां ग• गये क. कहां उ० उत्पन्न हुए ए. ऐसे गो० गौतम म मेरा अं० शिष्य म. मुनक्षत्र णा नामक अ० अनगार प० प्रकृति भद्रिक जा० यावत् वि. विनीत से यह त. उस ममय गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र के त० तपतेज प० पिडित जे० जहां म. मेरी अं०पास ते. वहां (उ० आकर वं. वंदनाकर ण. नमस्कार कर म० स्वयमेव पं० पांच म. महाव्रत आ० आचरकर स. साधु स० साध्वी को खा० खमाकर आ° आलोचना प० प्रनिक्रमणवाला स० समाधि सहित का तवेणं तेएणं परिताविए समाणे कालमासे कालांकच्चा कहिंगए कहिं उबवणे? एवंखल है गोयमा ! ममं अंतेवासी सुणक्खत्ते णामं अणगारे पगइभदए जाव विणीए सेणं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तणं तबेणं तेएणं परिताविए ममाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छइत्ता वंदइ णमसइ, वंदइत्ता णमंमइत्ता सयमेव पंचमह.. व्ययाई आरुहइ आरुहइत्ता समणाओ समणीआय खामइ. आलाइय पडिकते गोशाला मे दुःखित कराये हवे काल के अवसर में काल करके कहां गये कहां उत्पन्न हुए ? अहो गोतम ! मेरा अंतेवासी मुनक्षत्र अनगार मंखली पुत्र गोशाला से परितापित हुआ मेरी पास आया और मुझे बंदना नमस्कार कर स्वयमेव पांच महाव्रत की आराधना कर साधु साध्वी को खमाकर आलोचना प्रतिक्रमण सहित काल के अवसर में काल करके चंद्र सूर्य की ऊंचे यावत् आणत प्राणत व आरण देवलोक को काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * भावार्थ Page #2163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ पंचमान विवाह पंणत्ति (भगवती) मंत्र mammanamannanormanmnmainanmramma काल के मा० अवसर में का० कालकर उ० ऊर्ब चं० चंद्र सू० मूर्य जा० यावत् आ० आणत पा० माणत क०. देवलोक वी० उलंघ कर अ० अच्युत क° देवलोक में दे० देवतापने उ० उत्पन्न हुवा त०% वहां अ० कितनेक दे० देवता की वाचावीस सा० सागरोपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी त० वहां मु० मुनक्षत्र दे० देव की वा० बावीस मा० सागरोपम की से० शेष ज. जैसे स• सर्वानुभूति जा. यावत् अंह अंतकरेंगे ॥ १६० ॥ ए. ऐने द. देवानुप्रियका अं० अंतेवामी कु. कुशिष्य गो० गाशाला मं. मंखली पुत्र से वह भ० भगवन् का० काल के अवसर में का० काल करके क. कहां ग० गया क. कहां उ08 समाहिपत्ते कालमासे कालंकिच्चा उड्डूं चंदिम सूरिय जाव आणयपाणयारणकप्पे वीई वइत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं बावीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सुणक्खत्तस्सवि देवस्स वावीस सागरीवमाई, सेसं जहा सव्वाणुभइस्स जाव अंतं काहिति ॥ १६० ॥ एवं खलु देवाणुपिण्याणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले णामं मंखालपुत्ते सेणं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालंकिच्चा कहिंगए कहिं उववण्णे ? एवं खलु उल्लंघकर अच्युत देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुए. वहां पर कितनेक देवताओं की बावीम मागरोपमकी स्थिति कही जिस में मुनक्षत्र देवकी भी बावीस सागरोपम की स्थिति कही. शेष सब सर्वानुभूति अन-100 मार जैसे यावत् अंत करेंगे ॥ १६० ॥ अहो भगवन् ! आप का अंतेवासी कुशिष्य मंखली पुत्र गोशाला 4b87 पनरहवा शतक भावार्थ 488 Page #2164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाउत्पन हुवा ९० ऐसे गो० गौतम म मेरा अं० अंतेवामी कु. कुशिष्य गो० गोशाला मं० मखलीपुत्र स. साधु की घातकरनेवाला ना० यावत् छ, छमस्थ में का• काल कि० करके ऊ. उर्ध चं० चंद्र मू० सूर्य मा० यावत् अ० अच्युन कल्प में दे देवतापने उ० उत्पन्न हुवा त० उस में अ० कितनेक दे. वा. बावीस सा० सागरोपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी त० उम में गो० गोशाला दे. देव बा. बावीस सा० सागरोपम की ठि० स्थिते ५० प्ररूपी ॥ १६॥ ॥ से अथ गा. गोशाला देव गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले णाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्येचेव कालंकिंचा उर्दू चंदिम सूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे ॥ तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं बावीस सगारोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थणं गोसाल स्सवि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, ॥ १६१ ॥ सेणं भंते ! गोसाले काल के अवमरमें काल कर कहां गया कहां उत्पन्न हुवा ? अहो गौतम ! मेरा अंतेवासी कुशिष्य श्रमण की करनेवाला मेखली पुत्र गोशाला छद्मस्थपना में ही काल करके चंद्र सूर्य की ऊंचे यावत् अच्युत लोक में देवतापने उत्पन्न हुवा. वहां कितनेक देवों की बावीस सागरोपम की स्थिति कही. इस में । ला देव की बावीस सागरोपम की स्थिति कही ॥ १६॥ अहो भगवन् ! वह गोशाला देव आयुष् 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी + namamalnnmmmmmmm .प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*.. भावार्थ Page #2165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - शब्दार्थ ता. उस दे देवलोक से आ० आयुष्यक्षय से जा. यावत् क कहां उ• उत्पन्न होगा मो• गौतम १० यहां जं• जम्बूद्वीप में भा० भरतक्षेत्र में वि० विध्यगिरि पा० पादमूल में पुं० पुंड ज. देश में स० शत-14 द्वार ण नगर में मु० सुमति र० राजा की भ० भद्रा भ० भार्ग की कु० कुक्षि में पु. पुत्रपने ५० उत्पन्न हुवा से• वह त० वहां ण० नवमास व० बहुत ५० पतिपूर्ण जा. यावत् वी. व्यतीत होते जा यावत् सु० सुरूप दा० पुत्र प. उत्पन्न हुवा ।।१६२॥ ज० जिस र० रात्रि में से वह दा. पुत्र प० उत्पन होगा तं० उस र० रात्रि में स० शतद्वार ण नगर में स० आभ्यंतर बा० वाहिर भा० भारप्रमाण कुं० देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे २ भारहेवास विंझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु सतदुवारे णयरे सुमइस्सरण्णो भद्दाए भारियाए कुच्छिस पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, सेणं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीइकंताणं जाव सुरूवे दारए पच्चयाहिति ॥१६२॥ जं रयणिं चणं से दारए पयाहिति तं रयणिचणं सयदुवारे णयरे सभितरबाहिरए भारग्गसोय भावार्थ से यावत् कहां उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में विध्यांगरी के पादमूल (तलेटो) में पुंड्र देश में शनद्वार नगर में मुमति राजा की भद्रा की कुक्षि में पुत्रपने उत्तम होगा. वहां + सबानब मास व्यतीत हुए पीछे मुरूप बालक का जन्म होगा ॥ १६.२ ॥ जिस रात्रि में पुत्र का जन्म होगा । पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती)सुत्र - - Doordinaccussiacocca. 2 पबरहवा शतक 48-488 Page #2166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ - 47 अनुवादन-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कुंभ प्रमाण प• पन की वर्षा र रत्नों की वर्षा वा होगा ॥१६३॥ त० तब तक उस दा० पुत्र के . मातपिता ए० अग्यारहवा दि० दिन वी० घ्यतीत होते जा० यावत् सं० पास वा. वारहवा दि० दिन अ० यह ए. ऐसा गो० गौण गु० गुणनिष्पन्न णा० नाम का करेंगे ज० जिस से अ० हमारे इ० इसी पुत्र के जा. जन्म होते स. शतद्वार ण. नगर में स० अभ्यंतर वा वाहिर जा. यावत् र० रत वर्षा हु. हुइ तं• इसलिये हो. होवे अ० हमारे इ० इस दा० पुत्र का णा० नाम म० महापमा ।। १६४ ॥ कुंभग्गप्तोय पउमवासेय रयणवासेय, वासिहिति ॥ १६३ ॥ तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्वते जाव संपत्ते वारसाहदिवसे अयमयारूवं गोणंगुणनिप्पणं णामधेनं काहिति जम्हाणं अम्हं इमांस दारगंसि जायंसिं समाणसि सतवारे णयरे सभितर बाहिरए जाव रयणवासेय वासे बुट्टे; तं. होऊणं अहं उस रात्रि में भारंगमाण कुभप्रमाण पद्म वृष्टि ब रत्न वृष्टि होगा ॥ १६३ ॥ अग्यारहवा दिन पूर्ण होकर बारहवा दिन बैठेगा तव उनके मात पिता ऐसा गुण निष्पन्न नाम रखेंगे कि जब हमारा पुत्र का जन्म हुवा तब शतद्वार नगर की आभ्यंतर व वाहिर भार प्रमाण व कुंश्प्रमाण पन व रत्नों की वृष्टि हुइ इस से १बीस पल अथवा शत पल का भार. २ जघन्य सात आढक मध्यम अस्सी. आढक और उत्कृष्ट सो आदक। का एक कुंभ. . अबकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 8 शब्दाथा 4त. तब तक उस के दा० पुत्र के अ० मातपिता णा० नाम क० करेंगे म. महापद्म ॥ १६५ ।। त० तब ०म० महापद्म दा• पुत्रके अ० मातपिता सा • साधिक अ० आठवर्ष जा० जानकर सो• अच्छी तिथि क. करण दि० दिन ण नक्षत्र मु• मुहूर्त म० वडे रा० राज्याभिषेक से अ० अभिषेक किया से० वह त. वहां रा० राजा भ० होगा म. बडा हिमवंत जा० यावत् वि. विचरेगा ॥ १६६ ॥ त० तब तक उस इमरस दारगस्स णामधेचं महापउमे महापउमे॥१६४॥तएणं तस्स दारगस्स अम्मापिय- . रो णामधेनं करोहिंति महापउमे महापउमे ॥ १६५ ॥ तएण महापउमं दारगं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणसि तिहिकरणदिवसणक्ख. त्तमुहत्तंसि महया महया रायाभिसेगेणं अमिसिंचेहिंति । सेणं तत्थ राया भविस्सइ महयाहिमवंत वण्णओ जाब विहरिस्सइ ॥ १६६ ॥ तएणं तस्स महापउमस्स भावार्थ इस पुत्र का नाम महापन होवो ॥ १६४ ॥ उस दिन से उस के मात पिता उस बच्चे का नाम महापद्य , कहेंगे ॥ १६५ ॥ महापन कुमार को साधिक आठ वर्ष का जानकर उस के मात पिता शुभ तिथि, ॐकरण, दिन, नक्षत्र, व मुहूर्त में बड़ा राज्याभिषेक करेंगे और उस दिन से वह महा हिमवन्त समान यावर राजा वना हुवा विनरेगा ॥ १६६ ॥ फीर एकदा महा९इ.कुमार को पूर्णभद्र व माणभद्र ऐसे दो देव 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र पनरहवा शतक Page #2168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ) भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी पुनि श्री अमोलक ऋपीजी म० महापद्म को अ० अन्यदा क० कदापि दो० दो देव म० महर्द्धिक जा० यावत् म० महासुखवाले से सेनाकर्म का करेंगे तं० वह ज० जैसे पु० पूर्णभद्र मा० माणिभद्र ॥ १६७ ॥ त० तब स० शतद्वार न नगर में ब० बहुत रा० राजेश्वर त० तलवर जा० यावत् स० सार्थवाह प० प्रभृति अ० परस्पर सं० बोलावेंगे स० बोलाकर ए० ऐसा व० बोलेंगे ज० जिस से दे० देवानुप्रिय अ० अपने म० महापद्म र० राजाः को दो दो दे० देव म० महर्द्धिक जा० यावत् से० सेनाकर्म क० करते हैं त० तद्यथा पु० पूर्णचंद्र मा० माणभद्र त० इसलिये हो० होओ दे० देवानुप्रिय अ० हमारे म० महापद्मराजांका दो दूसरा णा० नाम रण्णो अण्णयाकयाइं दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं कार्हिति तंजहा पुण्णभद्देय माणिभद्देय ॥ १६७ ॥ तएणं सतदुवारे णयरे बहवे सत्थवाहप्पभितीओ अण्णमण्णं सदावेहिंति, सदावेहिंतित्ता एवं राईसरतलवर जात्र वदेहिंति जम्हाणं . देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रण्णो दो देवा महिड्डिया जाव सेणाकम्मं करेंति "तजहा पुण्णभद्देय, माणिभद्देय, तं होऊणं देवाणुपिया ! अम्हं महापउमस्स रण्णो { सेना कर्म करेंगे || १६७ || फरि शतद्वार नगर में बहुत राजेश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह परस्पर बोलावेंगे और बोलाकर ऐसा बोलेंगे कि अहो देवानुप्रिय ! जब अपने महापद्म राजा को पूर्णभद्र व माणभद्र ऐसे साशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * | २१३८ Page #2169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... शब्दा * दे. देवसेन ॥ १६८ ॥ त० तब तक उस म० महापद्म २० राजाका दो० दूसरा गा० नाम भ होगा । दे देवसेन ॥ १६९ ॥ त० तब तक उस दे देवसेन को अ० अन्यदा से० श्वेत सं० शंखतल स० समान च० चारदांतवाला ह० हस्तीरत्न स० होगा ॥ १७० ॥ १० तब से वह दे० देवसेन रा० राजा , २१३१ सेवेत सं० शंखतल वि० विमल स० समान च० चारदांतवाला ह हस्तीरत्नपे दु० आरूहोता स० शतद्वार ण नगर की म० मध्य में अ० वारंवार अ० आगे णि नीकलेंगे ॥ १७१ ॥ त० तव स०300 दोश्चेवि णामधेजे देवसेणेति ॥१६८॥ तएणं तस्स महापउमस्स रण्णो दोच्छेवि णामधेजे भविस्सइ देवसेणेति॥१६९॥तएणं तस्स देवसेणस्स रण्णो अण्णयाकयाई सेते संखतलवि } मलसण्णिगासे चउइंतेहात्थिरयणे समुप्पजिस्सइ ॥१७०॥ लएणं से देवसेणे राया सेयं संखतलविमलसणिगासं चउइंतहत्थिरयणं दुरूढेसमाणे सतदुवारं णयरं मझंमज्झेणं अभिक्खणं २अभिजाहितिय णिजाहितिय॥१७॥तएणं सतदुवारेणयरे बहवे राईसर जाव भावार्थ दो देव सेना कर्म करते हैं तब अपना महापद्म राजा का दूसरा नाम देवसेन होबो ॥ १६८ ॥ उस से पन का दूसरा नाम देवसेन होगा ॥ १३१ ॥ अब एकदा उस महापद्य राजा को शंखतल समान श्वेत चार दांतवाला हस्ती रत्न प्राप्त होगा॥ १७० ॥ बह महापद्म राजा शंखतल समान श्वेत चार दांतवाला स्ति रस्न पर आरूढ होकर शतद्वार नगर की बीच में होकर वारंवार गमनागमन करेंगे ॥ १७१ ॥ तब पंचमांग विवाह पण्णत्ति-(भगवती ) सूत्र 488888 पन्नरहवा शतक 880888 a P op.. Page #2170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + शतद्वार ण नगर में व बहुत रा. राजेश्वर जा. यावत् प० प्रभूति भ० अन्योन्य स. बोलावेंगे जब जिस से दे० देवानुप्रिय अ० हमारा दे० देवसेन र० राजा को से० श्वेत सं• शंखतल वि० विमल स० समान च० चारदांतवाला ह० हस्तिरत्न स. हुवा तं० इसलिये हो होओ दे० देवानुप्रिय अ० हमारे ३० देवसेन र० राजा का त० तीसरा णा नाम वि० विमलवाहन ॥ १७२ ॥ त० तब तक उस ० राजा का ता तीसरा णानाम वि०विमलवाहन ॥ १७३ ॥ त० तब से वह वि०विमलवाहन रा० राजा पभितीओ अण्णमण्णे सद्दावेहिति जम्हाणं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रणो सेते संखतल सण्णिगासे चउइंते हत्थिरयणे समुप्पण्णे, तं होऊणं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो तच्चेवि णामधेजे विमलवाहणे, विमलवाहणे ॥ १७२ ॥ तएणं तस्स देवसेणस्स रण्णो तच्चेवि णामधेजे विमलवाहणेति ॥ १७३ ॥ तएणं से बहुत राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति परस्पर बोलावेंगे और ऐसा कहेंगे कि अहो देवानुप्रिय ! अपने बैं राजा को शंखतल समान चार दांतवाला श्वेत हस्ती रत्न उत्पन्न हवा. इसलिये अपना देवसन राजा का सरा नाम विमलवाहन होवो ॥ १७२ ॥ उस दिन से देवसेन राजा का तीसरा नाम विपलवाहन होगा ॥ १.७३ ॥ अव विमलवाहन राजा अन्यदा कदापि श्रमण निग्रंथों से मिथ्यात्व अंगीकार करेगा, *। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शब्दार्थ 8 सुत्र र पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 4082 अ० अन्यदा क. कदापि स० साधु णि निर्गन्धों से मि० मिथ्यात्व वि० अंगीकार करेंगे अ० कितनेक को आ० आक्रोशकरेंगे उ० उपहास करेंगे णि पृथक् करेंगे णि निर्भत्सना करेंगे बं० बांधेगे णि रुंधन करेंगे अ० कितनेक का छ० चर्मछेद क करेंगे अकितनेक को १० मारेंगे अ.कितनेक को उ016 पीडा करेंगे अ० कितनेक के व. वस्त्र प० पत्र के कंवल पा० रजोहरण अ० छदेंग वि. विशेष छदेंगे २१४१. भि० भेदेंगे अ० कितनेक के भ० भक्तपान वो० नष्ट करेंगे अ० कितनेक का णि नगर रहित का करेंगे विमलवाहणे राया अण्णयाकयायि समणेहिं णिग्गंधेहि मिच्छं विप्पडिवजेहिंति, अत्थेगइए आउसिहिंति, अत्थेगइए उवहसिहिति, अत्यंगइए णिच्छोडेहेति, अत्यंगइए णिब्भच्छेहिति, अत्थेगइए बंधेहिंति, अत्थेगइए णिरुंभोहति, अंत्थेगइयाणं , छविच्छेदं करोहिंति अत्थेगइए पम्मारेहिंति अत्थेगइयाणं उद्दवहिति अत्थेगइयाणं वत्थपडिग्गहकंवलपायपुंच्छणं आच्छिदिहिंति, विच्छिदिहिंति, भिंदिहिंति, अत्थेग इयाणं भत्तपाणं वोच्छिदिहिंति, अत्थेगइयाणं णिण्णारे करोहिति, अत्थेगइए णिब्विकितनेक साधुओं को आक्रोश करेगा, कितनेक माधुओं का हास्य करेगा, कितनेक साधुओं की शिष्य शाखा का नाश करेगा, कितनेक साधुओं को दुर्वचन से निर्भर्त्सना करेगा, कितनेक साधुओं को बंधन । से बांधेगा, कितनेक साधुओं का रूंधन करेगा, कितनेक को चर्म छेद करेगा, कितनेक को मार मारेगा, कितनेक को उपद्रव करेगा, कितनेक के वस्त्र, पात्र, कंवल, रजोहरण फाडेगा तोडेगा, कितनेक साधुओं को । *- पत्ररहवा शतक 3 भावार्थ 000 Page #2172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० कितनेक को नि० देशरहित कर करेंगे ॥ १७८ ॥ त० तव स० शतद्वार ण नगर में ब० बहुत रा०.. राजश्वर जा. यावत् व० बोलेंगे ए.० ऐसे दे० देवानुप्रिय वि० विमलवाहन रा० राजाने स. साधु णि.14 निर्ग्रन्थों से मि० मिथ्यात्व वि० अंगीकृत किया अ० कितनेक को आ० आक्रोश करते हैं जा. यावत् "णि देश रहित क० करते हैं. इसलिये णो नहीं ए. यह अ. अपन' को से० श्रेय णो नहीं ए. यह बि० विमल वाहन को से श्रेय णो नहीं . यह र राज्य को र० राष्ट्र ब. सैन्य वा वाहन को पु० नगर को अं० अंतः पुर को ज. जनपद को से. श्रेय जे. क्यों की वि. विमल वाहन सए करेहिति ॥ १७४ ॥ तएणं सतदुवारे णयरे बहवे राईसर जाव वदिहिंति एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलवाहणे राया समणेहिं णिग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवण्णे अत्थेगइए आउसति जाव णिब्रिसए करेति, तं णो खलु देवाणुप्पिया ! एवं अम्हं सेयं, णो खलु एयं विमलवाहणस्स रण्णो सेयं, णो खलु एयं रजस्सवा रटुस्सवा बलस्सवा वाहणस्सचा पुरस्सवा अंतेउरस्सवा जणवयस्सवा सेयं, जेणं विमल आहार पानी का निषेध करेगा, कितनेक को नगर बाहिर करेगा और कितनेक को देश बाहिर भी करेगा ॥ १७४ ॥ फीर शतद्वार नगर में राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रमुख मीलकर ऐसा वोलेंगे कि अहो देवानुप्रिय ! विमलवाहन राजाने श्रमण निगथों से मिथ्यात्व अंगीकार किया है इस मे कितनेक को आक्रोश कर .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ %3A Page #2173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह परणति ( भगवती ) सूत्र रा० राजाने स० श्रमण णि निर्ग्रन्थों से मित्र मिथ्यात्व वि० अंगीकृत किया तं० इसलिये से० श्रेय दे० देवानुप्रिय अ० हम को वि० विमल वाहन रा० सजा को ए० इस बात की वि० विज्ञप्ति करने को ते० ऐसा क०करके अ० परस्पर की अं० पास ए०इस अ०बात प०सुनकर जे० जहां वि० विमल वाहन रा० राजा ते० वहां उ० आकर कः करतल प० परिग्रहीत वि० विमल वाहन रा० राजा को ज० जय वि० विजय से व० वधाये वर वधाकर ए० ऐसा व० बोलेंगे ए ऐसे दे० देवानुप्रिय स० श्रमण णि० निर्ग्रन्थ से वाहणे राया समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवण्णे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं विमलवाहणं रायं एयमटुं विष्णवेत्तिए त्तिकद्दु, अण्णमण्णस्स अंतियं एयमटुं पडसुर्णेति पडिसुर्णेतित्ता जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयल परिग्गायं विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धार्वेति वद्धावेतित्ता एवं वदिसहिति एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणेहिं णिग्गंथेहिं मिच्छं विप्पडिवण्णा, {है यावत् कितनेक को देश वाहिर करता है. अहो देवानुप्रिय ! यह अपन को (विमल वाहन राजा, देश, सेना, वाहन, पुर व अंतःपुर को कल्याणकारी नहीं है. ( नुप्रियः ! विमलवाहन राजा के पास जाना और उन को विज्ञप्ति करना अपन को श्रेष्ट है) ऐसा कहकर परस्पर ऐसी बात सुनी और विमल वाहन राजा की पास सब गये. वहां दोनों हाथ ) श्रेय नहीं है, वैसे ही इसलिये अहो देवा - } परहवा शतक २१४३ Page #2174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मि० मिथ्यात्व वि० अंगीकार किया अ० कितनेक को आ०आक्रोश करतेहो जा० यावत् अ० कितनेक को (नि० देश रहित क० करतेहो तं० इसलिये णो० नहीं ए० यह दे० देवानुप्रिय को से० श्रेय अ० हमको र० राज्य को र० राष्ट्रको जा० यावत् ज० देश को से० श्रेय जं० जो दे० देवानुमिय स० श्रमण णि० निर्ग्रन्थ मि० मिध्यात्व वि० अंगीकार किया तं० इसलिये वि० अटको दे० देवानुप्रिय ए० ऐसी बात अ० नहीं करने को ॥ १७५ ॥ त० तब से वह वि० विमल वाहन रा० राजा ते० उन व० बहुत रा० अत्थेगइए आउसइ जाब अत्थेगइए निव्विसए करेंति, तं णो खलु एयं जंणं देवापिया सेयं णो खलु एयं अम्हं सेयं, णो खलु एयं रज्जरसवा जाव जणवयसवा सेयं, जंणं देवाणुप्पिया ! समणेहिं णिग्गथेहिं मिच्छं विष्पडिवण्णा, तं विरमंतुणं देवाणुपिया ! एय मटुस्स अकरणयाए || १७५ ॥ तणं से विमलवाहणे राया ( जोडकर जय विजय शब्द से विमल वाहन राजा को वधावेंगे और ऐसा वोलेंगे कि अहो देवानुप्रिय ! आपने श्रमण निग्रंथों से मिथ्यात्व अंगीकार किया है यावत् आप कितनेक श्रमण निग्रंथों को देश से बाहिर नीकालते हो, परंतु यह आप को, हम को, राज्य को, व देश को कल्याणकारी नहीं है. इस से अहो देवानुप्रिय ! ऐसा कार्य आपको नहीं करना चाहिये || १७५ || जब विमलवाहन राजा को बहुत राजे 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी - भावार्थ * प्रकाशक-सजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २१४४ Page #2175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ/ animummm 38805248 tet पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र +8+ रानेश्वर जा. यावत् स० सार्थवाह ५० प्रभृति से ए० यह अ० बात की वि. विज्ञप्ति की हुई णो• नहीं । ध० धर्म णो नहीं त तप मि० मिथ्या विनय से ए• इस अ० बात ५० मुनी ॥ १७६ ॥ त. उस इस० शतद्वार ण नगर की ब. वाहिर उ० उत्तरपूर्व दि० दिशा में ए. यहां सु० सभभि भाग : उद्यान भ० होगा स..सर्वऋतु में व० वर्णन योग्य ॥ १७७ ॥ ते. उस का काल तं० उम स० समय में} of वि. विमल नाथ अ० अरिहंत के ५० प्रतिशिष्य सु०, सुमंगल अ०. अनगार जा० जाति संपन्न ज. जैसे तेहिं बहूहिं राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईहिं एयमटुं विण्णत्तेसमाणे णो धम्मात्ति णोतवोत्ति मिच्छाविणएणं एयमटुं पडिपुणेहिं ॥ १७६ ॥ तस्सणं सयदुवारस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं सुभूमिभागे उजाणे भविस्सइ, , सव्योत्तुय दण्णओ ॥ १७७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउ. प्पए सुमंगले णामं अणगारे जाइसंपण्ण जहा धम्मघोसस्स वण्णओ जाव श्वर यावत् सार्थवाह प्रमुखने ऐसा कहा तब उसने इस में धर्म नहीं है. इस में तप नहीं है ऐमी बुद्धि सहित मिथ्याविनय ( असत्य देखाव ) से इस बात को सुनी ॥ १७६ ।। उस शतद्वार नगर की वाहिर सुभूमि-31 भाग नाम का एक उद्यान होगा, वह सब ऋतु को वर्णन योग्य होगा ॥१७७॥ उस काल उस समय में श्री ka विमलनाथ अरिहंत के प्रतिशिष्य सुमंगल अनगार जाति संपन्न वगैरह धर्मघोष अनगार जैसे वर्णनवाले wwwnnnnnnnnnnnnnnnnnx Anm पबरहवा शतक 48024 भावार्थ Page #2176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४६ शब्दार्थ ० १.५० धर्मघोष का० वर्णन जा० यावत् सं० संक्षिप्त वि. विपुल ते तेजो लेश्या वाले. ति... तीन ज्ञान* सहित सु० मुभूमि भाग उ० उद्यान की अ० पास छ० छठ २ के अनिरंतर जा. यावत् आ० आतापना लेते वि. विचरेंगे ॥ १७८ ॥ तक तब से वह वि. विमल वाहन रा० राजा अ० अन्यदा कदापि र० रथ फिराने का० करके णि नीकला ॥ १७९ ॥ त० तब से वह वि० विमल वाहन रा० राजा सु०॥ सभभिभाग उ. उद्यान की अपास २० स्थफिराने का का करता सु० मुमंगल अ. अनगार को छ० छठ २ से जा०यावत् आ० आतापना लेते पा० देखेगा पा० देखकर आ० क्रोधित जा० यावत् मि०, सखित्तविउल तेयलेस्से, तिण्णाणोवगए सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते छटुं सूत्र छट्टेणं अणिक्खित्तेणं जावं आयावेमाणे विहरिस्सइ ॥ १७८ ॥ तएणं से विमल वाहणे राया अण्णयाकयायि रहचरिउ काउंणिजाहिति ॥ १७९ ॥ तएणं से विमल है वाहणे राया सुभामिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगार छटुं छ?णं जाव आयावेमाणे पासिहिति, पासहितित्ता आसुरुत्ते जाव मिसि यावत् संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या सहित तीन ज्ञान युक्त सुभूमि भाग उद्यान की पास छठ२ के पारणे से निरंतर है भावार्थ तप से यावत् आतापना भूमि में आतापना लेते हुवे विचरेंगे ॥१७८॥ अब एकदा विमलवाहन राजा रथ फीराने के लिये बाहिर नीकलेगा ॥१७१॥ वह विमलवाहन राजा सभूमिभाग उद्यान की पास रथ * हुवे निरंतर छठ२ यावत् आतापना लेतेहुवे मुमंगल अनगारको देखेगा. देखकर वह आसुरक्त यावत् क्रोधित बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॐ mammmmmmmmmmmmmmmmmnainm *प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * mnnnnnnn Page #2177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 887 शब्दार्थ देदीप्यमान स. मुमंगल अ० अनगार के र० स्थ मि. मस्तकपे णो० चलावेगा ॥ १८० ॥ त० तब से है। वह मु० मुमंगल अ० अनगार वि० विमल वाहन र० राजा से णो० चलाया स• शनैः उ० उठकर दो ७दमरी वक्त उ. उर्ध्व बाहा प० रखकर जा० यावत् आ.आतापना लेते विविचरेगा ॥१८१ ॥ त. तब से वह वि० विमल वाहन रा० राजा सु० सुमंगल अ.अनगार को दो० दूसरी वक्त भी र० रथ सि० मस्तक से गो० चलावेगा ॥१.८२॥ त०तब से वह सुसुमंगल अ०अनगार वि०विमल वाहन र राजा से दो० दूसरी मिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं णोलावेहिति ॥ १८० ॥ तएणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा रहसिरेणं णोलाविए समाणे : सणियं २. उद्धेहिंति उद्धेहिंतित्ता दोच्चंपि उठें बाहाओ पगिज्झिय २ जाव आयावेमाणे विहरिस्सइ॥१८॥ तएणं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोच्चपि रहसिरेणं णोलावेहिति "॥ १८२ ॥ तएणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा दोच्चंपि रहसिरेणं होगा और सुमंगल अनगार पर रथ फीरावेगा ॥ १८० ॥ विमलवाहन राजा से इस तरह रथ फीराने पर वह सुमंगल अनगार पुनः खडे होंगे और ऊर्च भूजारख कर आतापना लेते हुवे विचरेंगे ॥ १८१ ॥१॥ सफीर विमल वाहन सजा दुसरी वक्त भी रथ कीरावेगा ।। १८२ ॥ अमुमंगल अनगार-दुसरी व पंचमांगविवाहःपण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 8. पनरहवा शतक 8 भावार्थ 898 Page #2178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + वक्त भी र० रथ शिर से णो० चलाया हुवा स० शनैः उ० उठेगा उ उठकर ओ० अवधि प० प्रयुजेगा [वि० विमल वाहन र० राजा का ती० अतीत काल आ० जानेगा वि० विमल वाहन रा० राजा को ए० ऐसा व० बोलेगा णो० नहीं तु० तुम वि० विमलवाहन रा० राजा णो० नहीं तु० तुम दे० देवसेन राजा गो० नहीं तु० तुम म० महापद्म राजा तु० तुम इ० इस से त० तीसरे भ० भव में गो० गोशाला मं० मेखलीपुत्र हो ० था स० श्रमण घातक जा० यावत् छ० छद्मस्थ में का० काल किया ज० यदि ते ० तेरी त० उस समय स० सर्वानुभूति अ० अनगार प० समर्थ हो० होकर स० सम्यक् प्रकार से णोल्लात्रिए समाणे सणियं २ उट्ठेहिंति, उट्ठेहिंतित्ता ओहिं परंजेर्हिति ओहिं परंजे हिंतित्ता विमलवाहणस्स रणो तीयद्धा आभोएहिंति २ विमलवाहणं रामं एवं वदिहिति णी खलु तुमं विमलवाहणे राया, णो खलु तुमं देवसेणे राया, मे खलु तुमं महापउमेराया तुमं ण इओ तच्चे भवग्गगहणे गोसाले णामं मंखलिपुत्ते होत्था, समण घायए जाव छउमत्थे चैव कालगए तं जति ते तदा सव्वाणुभूइणा अणगारेणं ( शनैः २ उपस्थित होगा, अपना अवधिज्ञान प्रयुंजेगा विमलवाहन राजा का अतीत काल देखेगा और विमल वाहन राजा को ऐसा कहेगा कि तू विमलवाहन राजा नहीं है. तू देवसेन राजा नहीं है। वैसे ही तू महापद्म राजा नहीं है; परंतु इस से तीसरे भव में श्रमण की घात करनेवाला मंखली पुत्र गोशाला बा सूत्र भावार्थ ० अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २१४८ Page #2179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 8* * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र स. सहन किया ख. खमा जा० यावत् अ० अहियासा ज० यदि ते तुझे त उस समय मु. सुनक्षत्र | अ. अनगारने प० समर्थ हो० होकर स. सम्यक् प्रकारसे स- सहन किया जा० यावत् आ० अहियासा • यदि ते. तुझे त उन समय स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर १० समर्थ हो. होकर जा. यावत् अ) सहन किया तं• इससे णो नहीं अ० में ततैमा स० सम्यक् प्रकार से स० सहन करूंगा जा यावत् अ० आहियातूंगा अ० में ते० तुझे स० अश्वसहित स. रथसहित स० सारथी सहित त. तप. तेज से ए. एक अप्रहार कू० कूट प्रहार भ० भस्म का करूंगा ॥ १८३ ॥ त० तब से वह वि०१७ पभणावि होऊगं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खियं अहियासियं, जइ ते तदा सुणक्ख. तेणं अणगारेणं पभूणावि होऊगं सम्म साहयं खमियं जाव अहियासियं, जइ ते है तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभूणावि जाव अहियासियं ॥ तं णो खलु अहं . तहा सम्म सहिस्सं जाव अहियासिस्सं, अहं ते णवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं से तेएणं एगाहचं कूडाहच्चं भासरासिं करेजामि ॥ १८३ ॥ तएणं से विमलवाहणे यात् वहां छमस्थाना में तू काल कर गया. उस समय सर्वानुभूति अनगार तेरे पर तेजोलेश्या डालने है में समर्थ होने पर भी उौन सम्यक् प्रकार से सहन किया, खमा यावत् अहियासा, सुनक्षत्र अनगारने भी समर्थ होने पर सहर किया और महावीर स्वामीने भी समर्थ होने पर सहन किया; परंतु मैं सम्पन १०० प्रकार से सहन करूंगा नहीं और तुझें अश्व, रथ, सारथि सहित भस्म करूंगा ॥ १८ ॥ सुमंगल अन 9803483 पनरहवा शतक 8369381 भावार्थ Page #2180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विपल वाहनं रा. राजा सु० मुमंगल अ० अनगार से ए० ऐसा वु. कहाया हुवा आ. क्रोधित जाम वित् मि० देदीप्यमान मु० सुमंगल अ० अनगार को त• तीसरी वक्त र० रथशिर पे जो चलाया, ॥ १८४ ॥ त० तब से वह मु. सुमंगल अ. अनगार वि० विमल वाहन रा० राजा से त० तीसरी वृक्त, णो० चलाया आ० आसुरक्त जा. यावत् मि० देदीप्यमान आ. आतापना भूमि से प. उतरकर ते तेजन स० सयुद्धात से स• समुद्धानकर स• सात आठ पं० पीछा जाकर वि० विमलवाहन रा० राजा राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्तेसमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं तच्चपि रहसिरेणं णोल्लावहिति ॥ १८४ ॥ तएणं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तच्चपि रहसिरेणं णोलाविएसमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चारुभइत्ता तेयासमुग्धाएणं समोहणहिति समोहण हिलित्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्किहिति, पच्चोसक्किहितित्ता विमलबाहणं रायं सहयं सरहं गार से इस तरह कहाया हुवा विमलवाहन राजा आसुरक्त, यावत् क्रोधित होगा और समंगल अनगारपे तीसरी बार ग्थ फिरावेगा ।। १८४ ।। इस तरह विमलवाहन राजा जब तीसरी बार रथ फिरावेगा तब यह अनगार बहुत आसुरक्त यावत् क्रोधित होते हुवे आतापना भूमि में से नीकलकर तेजस समुद्धात करेगा, .प्रकशिक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 20888 < do * को० स० अश्वसहित जा. यावत् भा० भस्म का करेंगे ॥ १८५ ॥ सु. सुमंगल अ. अनगार भा० भस्म क० कर के क• कहां ग. जावेगा क० कहां उ० उत्पन्न होगा. गो. गौतम सु० सुमंगल अ० अनगार वि०विमलवाहन रा. राजा को स. अश्वसहित जा. यावत् भा० भस्म क० करके ब० बहुत छ. छठ अ० अठम ददश दुबारह जा० पावत् वि०विचित्र ततपकर्म से अ०स्वतः को भा०भावते व बहुत वा० वर्ष सा साधु की प० पर्याय पा• पालेंगे मा. मास की सं० संलेखना से स. साठभक्त अ० अनशन जा० धावत् छे० छेदकर आ० आलोचित ५० प्रतिक्रमण वाला स० समाधि प्राप्त उ० अर्ब चं. ससारहियं तवेणं तेएणं जाव भासरासिं करेहिति ॥ १८५॥ समंगलेणं भंते ! अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता कहिं गच्छिाहति कहिं उववाजिहिति? गोयमा! सुमंगलेणं अणगारेणं विमल वाहण रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता बहहिं छ8मदसमदुवालस जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे घहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणिहिति, बहू २ तामासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई भावार्थ सात आठ पांच पीछा जाकर अश्व, रथ व सारथि सहित विमलवाहन राजा को भस्म करेगा ॥ १.८५ ॥ 3अहो भगवन् ! विमलवाहन राजा को भस्म करके सुपंगल अनगार काल के अवसर में फाल करके *कहां उत्पन्न होंगे। महो गौतम ! विक्लबाहन राजा को भस्म किये पीछे बहुत छठ, मठम, दश, द्वादश 488 पंचमात्र विवाह पण्णात ( भगवती ) मूत्र +8+ पन्नरहवा शतक : Page #2182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी चंद्र सूः सूर्य जा. यावत् गे० ग्रेवेयक विमान स० सशत वी० उल्लंघकर स० सर्वार्थ सिद्ध म० महाविमान में दे० देवतापने उ उत्पन्न होगा त० वहां दे देवों की अ० अजघन्य अनुत्कर्ष त० तचीस सा मागरोपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी त• वहां मु. सुमंगल दे० देवकी अ० अजघन्य अ० अनुत्कर्ष ते. तेत्तीस सा. सागरोपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी ॥ १८६ ॥ से वह भं भगवन् सु० सुमंगलदेव ता. उस दे० देवलोक से जा. यावत् म० महाविदेह वा० क्षेत्र में मि० मीझो जा. यावत् अं• अंत का० अणसणाई जाव छेदत्ता आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते उट्ठ चंदिम सूरिय जाव गवेजगविमाणे ससयं वाईवइत्ता सव्वटसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति ॥ तस्थणं देवाणं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थणं सुमगलस्सधि देवस्स अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।। १८६॥ सेणं भंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिडिझाहिति जाव भक्त यावत् विचित्र प्रकार के तप कर्म से आत्मा को भावते हुवे बहुत वर्ष साधु की पर्याय पालते हुवे एक मास की संलेखना सहित साठ भक्त अनशन छदकर आलोचना प्रतिकपण कर काल के अवसर में काल करके चंद्र मूर्य यावत् अवेयक विमान को उल्लंघ कर सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवतापने उत्पन्न होगा. वहां दवों की तेत्तीम सागरोपम की स्थिति है, इम में मुमंगल देव की तेलास सागरोपम की स्थिति ॥ १८६ ॥ वह मुमंगल देव वहां से आयुष्य, स्थिति व भवक्षय से चत्रकर महाविदह क्षेत्र में सीझेगा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी * Page #2183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) मुत्र करेंगे ॥ १८७ ॥ वि. विमलवाहन भ० भगवन् रा. राजा स. समंगल अ० अन्गार से स० अश्वसहित जा. यावत् भा० भस्म कराया क कहां उ उत्पन्न होगा गोर गौतम वि० विमलवाहन रा० राजा सु00 सुमंगल अ० अनगार से स० अश्वसहित जा. यावत् भा० भस्म कराये अ० नीचे सा० सातवी पु०पृथ्वी में उ० उत्कृष्ट का. काल स्थिति में णे नारकीपने उ० उत्पन्न होगा से बह त० वहां से अ. निरंतर व अंतं काहिति ॥ १८७ ॥ विमलवाहणेणं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहयं है। जाव भासरासीकएसमाणे कहिं गच्छिहिति कहिं उवजिहिति ? गोयमा ! विमल वाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहयं जाव भासरासीकए समाणे अहे सत्तमाए। पुढवीए उक्कोसं कालट्ठितियंति णरयंतिणेरइयत्ताए उववजिहिति ॥ सेणं तओ अणंतरं उन्वट्टित्ता मच्छेसु उववजिहिति, तत्थविणं सत्थवझे दाबकंतीए कालमासे बुझेगा यावत् अंत करेगा ॥ १.८७ ॥ अहो भगवन् ! सुमंगल अनगार से भस्म कराया हुवा विमल बाहन । राजा कहां जावेगा कहां उत्पन्न होगा? अहो गौतम ! सुमंगल अनगार से भस्म कराया हवा विमल वाहन राजा सातवी पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति से नारकीपने उत्पन्न होगा. वहां से अंतर रहित नीकलकर मत्स्य में उत्पन्न होगा. बहां शस्त्र से हणाया हुवा दाह उत्पन्न हुए काल के अवसर में काल करके दूसरी बार सातवी नरक में उत्कृष्ट काल की स्थिति तेत्तीस सागरोपम की] में उत्पन्न होना. वहां से वह नीकल-11 imanawaranamaAAmmam 38 पनरहवा शतक भावार्थ 488 Page #2184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी (उ० मीकलकर म० मत्स्य में उप उत्पन्न होगा त० वहां स० शस्त्र से हणाया दा दाहव्युत्क्रान्त का० काल के मा० अवसर में का० काल करके दु० दुसरी वक्त अ० नीचे की स० सातवी उ० उत्कृष्ट काल ठि स्थिति णे० नारकी में उ० उत्पन्न होगा से० वह त० वहां से अं अंतर रहित उ० नीकलकर दो० दुसरी वक्त म० मत्स्य में उ० उत्पन्न होगा त० वहाँ पर भी स० शस्त्र से व० हणाया हुवा जा० यावत् कि० कालं किच्चा दोपि अहे सत्तसाए उक्कोसकालट्ठितियंसि णरयंसि णेरइयत्ताए उबवज्जिहति ॥ सेणं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता दोचंपि मच्छेसु उववज्जिहिति तत्थविणं सत्यवज्झे जाव किच्चा, छट्टीए तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयांसे णरयंसि रइयत्ता उवजिहिति, सेणं तओहिंतो जाव उन्वहित्ता इत्थियासु उववज्जिहिति, तत्थविणं सत्थवज्झे दाह जाव दोच्चंपि छट्ठीए तमाए पुढबीए उक्कोसकाल जाव उव्वहित्ता, कर दूसरी वक्त मत्स्य में उत्पन्न होगा. वहां पर भी शस्त्र से हणाया हुवा यावत् दाइ उत्पन्न होने पर काल { के अवसर में काल करके छठी तमा में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा. इस में उत्कृष्ट स्थिति बावीस साग{रोपम की कही है. वहां से अंतर रहित नीकलकर यावत् स्त्री में उत्पन्न होगा. वहां पर दाह उत्पन्न होने पर शस्त्र से हणाइ हुइ काल के अवसर में काल करके छठी नरक में उत्कृष्ट बाबीस सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होगा. और वहां से अंतर रहित नीकलकर यावत् दूमरी वक्त स्त्री में उत्पन्न होगा. वहां प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # २१५४ Page #2185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५५ करके छ. छठी त० तमा पु० पृथ्वी में उ. उत्कृष्ट काल वाली ठि० स्थिति ० नारकी में पे० नारकर 60 }पने उ० उत्पन्न होगा त बहां मे उ० नीकलकर इ. स्त्री में दो दुसरी वक्त छ० छठी १० तमा में उ014 उत्कृष्ट काल जा. यावत् उ० उद्वर्तकर दो. दूसरी वक्त इ० स्त्री में पं० पांचवी धू० धम्रप्रभा में उ०सर्प में उ० उत्पन्न होगा च० चौथी पं० पंकप्रभा सी० सिंह में त० तीसरी बा बालुप्रभा प०पक्षी में दो दूसरी दोच्चंपि इत्थियास उववाजिहिति२. तत्थविणं सत्थवज्झे जाव किच्चा पंचमाए धमप्पभाए पदवीए उक्कोसकालट्रिइंसि जाव उव्यटित्ता उरएस उववजिहिति तत्थविण सत्थवज्झे दोच्चपि पंचमाए जाव उव्वत्तिा दोचंपि उरएसु उववजिहिति जाव किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए उक्कोस कालविइयंसि जाव उवाहित्ता, सीहेस, उपजिहिति तत्थविणं सत्थवज्झे तहेव कालं किच्चा दोच्चंपि चउत्थीए पंकप्पभाए जाव उव्वाहिता. दोच्चंपि सीहेसु उववजिहिति, जाव किच्चा तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव उवट्टित्ता, पक्खीसु उववजिहिति,तत्थविणं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चंपि वालुय जाव उवभावाथ शस्त्र से हणाइ हुइ यावत् पांचवी धूम्र प्रभा में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा. वहां से नीकलकर उरग 4 (सर्प) में उत्पन्न होगा. पुनः वहां से काल करके पांचवी नरक में उत्पन्न होगा पांचवी नरक में मे blet नीकलकर सर्पपने उत्पन्न होगा. वहां से चौथी पंक प्रभा नरक में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा. वहां से *अंतर रहित नीकलकर सिंहपने उत्पन होगा. वहां शस्त्र से इणाया हुवा पुन: चौथी पंक प्रभा में उत्कृष्ट पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48488.पबरहवा शतक 48488 +8 Page #2186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थी १० स०शर्करप्रभा में स०मरीसप (भुजपर विशेष ) इ.इस र रत्नप्रभा सं०संज्ञी में अ.असंझी ५० पल्योपम के अ० असंख्यातभाग ठि• स्थितिवाली ण. नरक में ण. नारकीपने उ. उत्पन्नहोगा . वहां से आ यावत् उ० नीकलकर इ० ये ख० खेचर को वि० जात भ० होते हैं च० चर्मपक्षी लो० रोमपक्षी स} समुद् पक्षी वि० विततपक्षी तं. उस में अ० अनेक स० लक्षवार उ० मरकर भु. वारंवार ५० उत्पन्न ट्टित्ता,दोच्चंपि पक्खीसु उववाजिहिति,जाव किच्चादोच्चाए सक्करप्पभाए जाव उव्वहित्ता,सरीसवेसु उववजिहिति,तत्थविणं सत्थवज्झ जाव किच्चा,दोच्चंपि दोच्चाए सक्कर जाव उव्वहित्ता दोच्चंपि सिरीसवेसु उववाजिहिति, जाव किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालदिइयसि णरयंसिणेरइयत्ताए उववजिहिति जाव उव्वाहित्तासण्णीसु उववाजिहिति तत्थविणं सत्थवज्झ जाव किच्चा असण्णीसु उववाजिहिति, तत्थविणं सत्थवझे जाव किच्चा दोचंपि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएपलिओवमस्स असंखेजइ भागद्वितियसि णरयंसि णेरइयत्ताए उक्वजिहिति, सणं तओ जाव उवद्वित्ता जाई. इमाइं खहचरविहाणाई भवंति भावार्थ स्थिति से उत्पन्न होगा. वहां से नीकलकर पुनः सिंहपने उत्पन्न होगा. वहां से काल के अवसर में काल कर तीसरी बालुप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा. वहां से अंतर रहित नीकलकर पक्षिपने उत्पन होगा. वहां शस्त्र से हणाया हुवा काल के अवसर में काल करके पुनः तीसरी नारकी में उत्पन्न होगा. 10वहां से निरंतर चवकर पुनः पक्षि में उत्पन्न होगा. वहां से काल करके दूसरी शर्कर प्रभा में उत्कृष्ट मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * 12 अनुवादक-बालब्रह्मचारी प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्य पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40882 होगा स० सर्वत्र सशस्त्र से च० हणाया दा० दाहव्युत्क्रात का० काल के मा० अबसर में का. काल । कि. कर के जा० जो ये भु. भुजपरिसर्प की वि. जाति भ होती हैं गो गोह ण नकुल जैसे प० पनवणापद में जा. यावत् जा० जाहक च० चतुष्पद ते. उन में अ. अनेकवक्त स० लक्ष ज० जैसे ख० खेचर जायावत् कि० कर के जा. जो इ० ये उ० उरपरिसर्प वि विधान भ. ई तंजहा चम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, वियतपक्खीणं, तेसु अगसय सहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता, उदाइत्ता तत्थेव भुजो. भुजो पञ्चायाति; सज्वत्थविणं सत्थवझे दाहवकंतीए कालमासे कालंकिच्चा जाई इमाइं भुयपरिसप्तविहाणाई भवति, तंजहा गोहाणं, णउलाणं, जहा पण्णवणापदे जाव जाहगाणं चउप्पाइयाणं तेसु अणेगसयसहस्सक्खुत्ता सेसं जहा खहचराणं जाब किच्चा, जाई इमाई उरपरि स्थितिपने उत्पन्न होगा. वहां से नीकल कर भूजपरिऽपने उत्पन्न होगा. यहां शस्त्र से हणाया हुई यावत् काल करके दूसरी शर्कर प्रभा में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा. वहां से नीकलकर भुजपरिसर्प में उत्पन होगा. वहां से नीकलकर पहिली रत्नपभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न होगा वहां से नीकल-ई संझी में उत्पन्न होगा. वहां से काल करके असंज्ञी में उत्पन्न होगा. वहां से काल करके पुनः रत सभा पृथ्वा म पल्यापम क असख्यात पृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवे भाग की स्थिति से नारकीपने उत्पन्न होगा. वहां से नीकलकर 8380809208 पन्नरहदा शतक 8 22 8 Page #2188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २१५८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + है स सर्प अ० अजगर अ० असालिया म० महोरग जा. यावत् इ० ये च• चतुष्पद विधान भ० होते. ० एकरवरवाले दादोखरवाले मं० गंडीपद सं० सन्त्रीपद इ. ये ज. जलचर की विजाति भ० होती हैं य० मत्स्य क० कच्छ जा. यावत् स० सुमुंमार ते०उन में अ०अनेक लक्षवार जा. यावत् कि० कर के जा जो इ०ये च०चतुरेंद्रिय भ० होते हैं अं० अंधिक पो पौत्रिक ज जैसे प०पन्नवणापदमें जा यावत् गो गोबर सप्पविहाणाई भवंति, तंजहा अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं तेमु अनेग सयसहस्सखुत्तो जाव किच्चा इमाइं चउप्पद विहाणाई भवंति तंजहा एगखुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणहपदाणं तेसु अणेगसयसहस्स जाव किच्चा, जाई इमाई जलचर विहाणाई भवंति, तंजहा मच्छाणं कच्छपाणं जाव सुंसमाराणं, तेसु अणेगसय सहस्स जाव किच्चा जाइं इमाइं चउशिंदेय विहाणाई भवंति, तंजहा अंधियाणं चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी में अनेक लक्षवार दुःखित होकर उन में ही वारंवार उत्पन्न होगा. वहां सब भव में शस्त्र से हणाया हुवा काल के अवसर में काल करके गोह, नकुल वगैरह भी पनवणा पद में कहे हुवे जैसे यावत् जाहक जीव विशेष चतुष्पद में अनेक लक्षवार उत्पन्न होगा. शेष सर अधिकार खेचर जैसे जानना. यावत् मृत्यु पाकर उरपरिसर्प में होंगे. जिन के नाम अही, अजगर, अशालिया, बडा सर्प उस में अनेक लाख जन्म मरण करके चतुष्पद में उत्पन्न होंगे. जिन के * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र के कीडे मायावत् ते तेइन्द्रिय भ० होते हैं ओ० औपचिक जा० यावत् ८० हस्ति सोंड बे० द्विद्रियः पु० पुल कि० कीडे जा० यावत् म० समुद्र की लिख व वनस्पति की जात भ० होते हैं रु० वृक्ष गु० गच्छ जा यावत् कुः कुहुण ते० उस में अ० अनेकवार जा० यावत् प० उत्पन्न होगा उ० प्रायः क ०. कहुक वृक्षों में क० कटुक बल्ली में स० सवत्र स० शस्त्र से हणाया जा० यावत् कि० करके जा० जो इ० ये व वायुकाय की वि० जाति भ० होते हैं प० पूर्वेदिशि का वातं जा० यावत् सु० शुद्धवात तें उन में पोत्तियाणं जहा पण्णवणापदे जाव गोयमकीडाणं तेसु अणेगसय जाव किच्चा ॥ जाई इमाई इंदिय विहाणाई, भवंति तंजहा ओवचियाणं जाव हत्थिसोंडाणं तेसु अणेम.. जात्र किच्चा जाई इमाई बेइंदियविहाणाइं भवंति तंजहा पुलाकिमियाणं जा समुद्दलक्खाणं तेसु अणेगसय जाब किच्छा ! जाई इमाई बणस्सइ विहाणाई भवति तं जहा रुक्खाणं गुच्छाणं जात्र कुहुणाणं तेसु अणेग जाव पच्चायाइस्सइ; उस्सण्णं नाम एक खरवाले अश्वादि, दो खरवाले गवादि, गंडीपद हस्ती आदि सनिपद सिंहादि उन में अनेक लक्षवार जन्म मरण करके जलचर में उत्पन्न होवे जिन के नाम, मत्स्य, कच्छ यावत् सुसुमार इन में अनेक लक्षवार जन्म मरण करके चतुरेन्द्रिय में उत्पन्न होगा जिन के नाम अंधिक, पौत्रिक यावत् गोवर के कीडे, इन में अनेक लक्ष वार उत्पन्न होकर तेइन्द्रिय में उत्पन्न होगा जिन के नाम औपचित यावत् 4 पनरहवा शतक 4+++ २१५९ Page #2190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ० अनेकलक्ष जा० यावत् किं० करके जा० जो इ० ये ते० तेउकाय वि जाति भ० होती है ई० अधि में जा यावत् सू० सूर्यकांत मणिणि निश्रित ते० उत अ० अनेक स० लक्षवार जा० यावत कि० करके जा० जो इ० ये आ० अप्काय वि० जात भ० होती हैं उ० ओस खा० सारोदक ख० खातोदक में स० सर्वत्र स० शस्त्र से व० हणाया जा यावत् कि० करके इ० ये पु० पृथ्वी कायः वि० विधान भ० हैं तं० चैते पु० पृथ्वी स० कंकर जा० यावत् सूँ० सूर्यकांतमणि त० उस में अ० - अनेक स० चणं कडुयरुक्खेसु कडुयवल्लीसु सब्वत्थविणं सत्थबज्झे जाव किच्चा ॥ जाई इमाई वाउक्काइय विहाणाई भवति तजहा पाईणवाताणं जाव सुद्धवाताणं ते सुअणेगसयसहस्स जाव किच्च ।। जाई इमाई उक्काय विहाणाइ भवति, तंजहा इंगालाणं जाव सूस्यिकंतमणिणिस्सियाणं तेसु अणेगसय सहस्त जाव किच्चा || जाई इमाई आउकाइय विहाणाई भवंति तंजा उस्साणं जाव खातोदगाणं तेसु अणेग जाव पच्चायातिस्सइ उस्सण्णं चणं. हस्ति मुंड. उन में अनेक लक्षवार उत्पन्न होकर बेइन्द्रिय में उत्पन्न होगा जिन के नाम पुलकृमि यावत् समुद्रलींख. उन में अनेक लक्षवार उत्पन्न होकर वनस्पति में उत्पन्न होगा जिन के नाम. वृक्ष) गुच्छा यावत् कुहाण. इन में अनेक वक्त मरकर बहुत कंटक वृक्ष व कडवे वृक्ष में उत्पन्न होगा वहां अनि आदि शस्त्र से हणाकर काल के अवसर में काल कर वायुकाय के भेदों में उत्पन्न होगा, जिन के नाम ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी -२१६० Page #2191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 8 शब्दार्थ/4 लक्षवार प० उत्पन्न होगा. उ. प्रायः ख. खर वा वादर पु. पृथ्वी में समर्वत्र स. शस्त्र से हणाया। 4हवा जा. यावत् कि करके दो० दुसरी वक्त ग० राजगृह ण नगर की बा० बाहिर ख. वेश्यापने उ०१TI १७ उत्पन्न होगा त० वहांपर स० शस्त्र में व० हणाया हुवा जा० यावत् कि० करके दो. दूसरी वक्त रा० राजगृह,ण नगर की अं० अंदर ख• वेश्यापने उ० उत्पन्न होगा त वहांपर स० शस्त्र से व०हणाया जा खारोदएमु खातोदएसु सव्वत्थविणं सत्थवझे जाव किच्चा ॥ इमाइं पुढविकाइय विहाणाई भवंति, तंजहा पुढवीणं सक्कराणं जाव सूरिकताणं, तेसु अणेगसय जाव पच्चायाहिति ।उस्सणं चण खरवादर पुढविकाइएमुसव्वत्थाविणं सत्थवझे जाव किच्चारायगिहे णयरे बाहिं खरियत्ताए उववजिहिति; तत्थविणं सत्थवज्झे जाव किच्चा, दोच्चंपि राय गिहे णयरे अंतो खरियत्ताए उववजिहिति; तत्थविणं सत्थवज्झे जाव किच्चा इहेव भावार्थ पूर्व का वायु यावत् शुद्ध वाय. इस में अनेक वक्त मरकर तेउकाया में उत्पन्न होगा जिन के नाम अंगार og यावत् सूर्यकांतमणि निश्रित, वहां अनेक लक्षवार मरकर अप्काया में उत्पन्न होगा जिन के नाम ओस यावत् खारा पानी. वहां अनेक वक्त उत्पन्न होकर औस यावत् खारा पानी में सर्वत्र शस्त्र से वध कराया हुवा पृथ्वीकाया के भेद में उत्पन्न होगा जिन के नाम-कंकर यावत् सूर्यकान्तमणि यावत् बादर पृथ्वीकाया में सर्वत्र शस्त्र से हणाया हुवा राजगृह नगर की बाहिर वेश्यापने उत्पन्न होगा. वहां 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 पनरहवा शतक । Page #2192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी यावत् कि कर के इ०इस जम्बूद्वीप में भा० भरत क्षेत्र में विविध्यगिरि के पा०पर्वत के मूल में वि०विभेल * स० सन्निवेश में मा० ब्राह्मण कुल में दा० पुत्रीपने उ० उत्पन्न होगा ॥ १८८ ॥ त० तब त• उस दा० । पुत्री को उ० मुक्त बा० बालभाव से जो. यौवन अ० अप्राप्त १० प्रतिरूप सु० दान से १० प्रतिरूप वि. विनय से प० प्रतिरूप भ० भार को भा० भार्यापने द. देगा ॥ १८९ ॥ सा. बह तक उसकी भ० भार्या भ० होगा इ० इष्ट के० कांत जा. यावत् अ० मनोज्ञ भं• पात्र क. करंडिय स० समान ते. तेलकेल जंबूद्दीवे दीवे भारहेवासे विज्झगिरिपायमूले विभेले सण्णिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पञ्चायाहिति ॥ १८८ ॥ तएणं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुकेणं पडिरूवएणं विणएणं पडिरूवियस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्सइ ॥ १८९ ॥ साणं तस्स भारिया भविस्सइ, इट्ठा कंता जाव अणुमया भंडकरंडगसमाणा - तेल्लेकेलाइवसुसंगोविया शस्त्र से हणाया. हुवा राजगृह नगर की अंदर वेश्यापने उत्पन्न होगा. वहां से हणाया हुवा इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विध्यगिरी के मूल में विभेल सन्निवेश में ब्राह्मण कुल में पुत्रीपने उत्पन्न होगा ।। १८८॥ जब वह बालिका यौवनस्था को प्राप्त होगी तब योग्यदान व योग्य बिनय से योग्य भार को भार्या के लिये देंगे ॥ १८९ ॥ वह बालिका उस को इष्ट, कांत, प्रिय, यावत् प्यारी, आभरण के करंडीये समान,* * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ amaramanwww Page #2193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.६३ शब्दाथ, 4 ( तेल कचोला) मु. अच्छी तरह गोपित चे वस्त्रविशेष समान सं० अच्छी तरह ग्रहण किया २० रत्न करंड समान सु० रक्षण करने योग्य मा० मत सी० शीत उ. ऊष्ण जा. यावत् प० परिषह उ० उपसर्ग फु० स्पर्शे ॥ १९ ॥ त तब सा यह दा० पुत्री अ० अन्यदा क. कदापि गु० गुविणी स० श्वशुर' ग्रह से कु. पितृ गृह णि. लेजाते ऊ• बीच में द० अग्रि की जा. ज्याला से अ. हणाइ का• काल के मा अवसर में का काल कि०कर के दा दक्षिण अ० अग्निकुमार दे०देव में दे देवतापने उ० उत्पन्न होगा चेलपेलइवसुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडगउँविवसुसारक्खिया, सुसंगोविया, माणसीयं, माणउण्हं, जाव परिस्सहीवलग्गं फुसंतु, ॥ १९ ॥ तएणं सा दरिया अण्णया कयायि गुव्वणी सुसुरकुलाओ कुलघर णिजमाणी अंतरा देवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा दाहिणिलेसु आग्गकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति, भावार्थ तेल के कलश जैसी रखने योग्य, रत्न के करंड समान यत्ना करने योग्य, अच्छी तरह गोपने योग्य और 300 शीत, उष्णादि परिवह व उपसर्ग से रक्षण करने योग्य ऐसी भार्या होगा. ॥११० ॥ अब वह बाला गर्भिणी हुवे पीछे एकदा श्वशरकुल से पितृकुल जाते मार्ग में अग्नि से जलेगी और काल के अवसर में काल कर के दक्षिण दिशि के अग्निकमार देवलोक में देवतापने उत्पन्न झेगी, वहां से अंतर रहित चक्कर मनुष्य भव माप्त विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4g 34238*- पन्नरहवा शतक 428 11 Page #2194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ २०२ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी से० वह त० वहाँ अ० अंतर रहित उ० नीकलकर मा० मनुष्य का वि०शरीर ल० प्राप्त करेगा के ० कवल बो० सम्पत्वा प्राप्ति कर के के० केवल मुं० मुंड भ० होकर अ० गृहवास से अ० साधुपना प० अंगीकार करेगा ||| १९१ ॥ तवां वि०विराधित सा०साधु पनावाला का काल के अवसर में का० कालकर के द० दक्षिण के अ० असुर कुमार देव देवता में उ० उत्पन्न होगा से० वह त० वहां से उ० नीकलकर म० मनुष्य का (वि० शरीर तं० वैने जा० यावत् कि० विराधित का० काल कि० कर के दा० दक्षिण के णा० नागकुमार सेणं तओहिंतो अनंतरं उव्वहित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, लभिहितित्ता केवलं बोहिं बुज्झिहिति २ त्ता, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइहिति ॥ १९१ ॥ तत्थवियणं विराहियसामण्णे कालमाने कालं किच्चा दाहिणिले असुरकुमारसु देवत्ताए उववजिहिति ॥ सेणं तओहिंतो जाब उच्चहित्ता माणुस्तं विग्गहं तंचेव जाव विराहिय सामण्णे काल जाव किच्चा दाहिणिल्लेसु | करेगा और सम्यक्त्व रूप बोधि प्राप्त कर के मुंडित होकर अगार में अनगारपना अंगीकार करेगा अर्थात् दीक्षित होगा || १९४ || वहां पर भी विराधित श्रामण्यवाला काल के अवसर में काल कर के दक्षिण दिशा के असुरकुमार में देवतापने उत्पन्न होगा. वहां से नीकलकर मनुष्य का शरीर प्राप्त करेगा और पुनः विराधित साधुपना से काल कर के दक्षिण दिशा के नागकुमार में उत्पन्न होग * प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमा जीदे* २१६४ Page #2195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ +8+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र देवतापने उ० उत्पन्न होगा से० वह त० वहां से लि० अंतर रहित उ० नीकलर ए० ऐसे ए० इस अ० अभिलाप से दा० दक्षिण के वि० विद्युत्कुमार ए ऐसे अ० अग्निकुमार व छोडकर जा० यावत् दा० दक्षिण के थ० स्थनिंत कुमार से वह त० वहां से उ० नीकलकर मा० मनुष्य का वि० शरीर जा० यावत् वि० विराधित जो० ज्योतिषी दे० देवलोक में उ० उत्पन्न होगा से० वह त० वहां मे अ० निरंतर ( च० चवकर मा० मनुष्य का वि० शरीर ल० प्राप्त करेगा. जा० यावत् अ० अविराधित सा० साधुपना (का० काल के मा० अवसर में का० काल करके सो० सौधर्म क० देवलोक में दे देवतापने उ० उत्पन्न नागकुमारेसु देवत्ता उववज्जिहिति; सेणं तओहिंतो अनंतरं उन्नहित्ता एवं एएवं अभिलावेण दाहिणिलेसु विज्जुकुमारेसु एवं अग्गिकुमारे वज्जं जाव दाहिणिल्लेसु कुमारेसु मेणं तओ जाव उच्चट्टित्ता, माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाव विराहिय सामण्णे जोइसिएस देवसु उववज्जिहिति, सेणं तओ अनंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । जाब अविराहिय सामण्णे कालमासे कालंकिच्चा, सोहम्मे कप्पे { इस तरह अनुक्रम से दक्षिण दिशि में विद्युत्कुमार यावत् अधिकुमार छोड़कर स्थनित कुमार तक में उत्पन्न होगा. वहां से चवकर मनुष्य का शरीर प्राप्त करेगा. वहां विराधित बनकर ज्योतिषि में देवतापने उत्पन्न होगा. वहां से अंतर रहित चवकर ज्योतिषि में उत्पन्न होगा, वहां से नीकलकर मनुष्य का पनरहवा शतक २१६५ Page #2196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अम लक ऋषिजी + भावार्थ होगा से० वह त० वहां से अ० निरंतर च० चवकर मा० मनुष्य का वि० शरीर ल० प्राप्त करेगा के० { केवल बो० सम्यत्स्व प्राप्तिं बु०करेगा त० वहां भी अ० अविराधित साधुपनावाला का काल के अवसर में का० काल कर के स० सनत्कुमार में दे० देवतापने उ० उत्पन्न होगा से वह त वहां से ए० ऐसे ज०जैसे स० सनत्कुमार त० तैसे बं० ब्रह्मलोक म० महाशुक्र आ० आणत आ० आरण त० वहां से जा० यावत् अ० अविराधित का० काल के अवसर में का० काल कर के स० सर्वार्थ सिद्ध म० महाविमान में दे० देवतापने उ० उत्पन्न होगा से वह त० वहां से अ० अंतर रहित च० चवकर देवत्ताए उववजिहिति, सेणं तओहिंतो अनंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लाभहिति, केवलं बोहिं बुज्झिहिति, तत्थविणं अविराहिय सामण्णे कालमासे कालांकच्चा सर्णकुमारेणं कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति, सेणं तओहिंतो एवं जहा सणकुमारे तहा बंभलए महासुके आणए आरणे सेणं तओ जाव अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सव्वसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति ॥ सेणं तओहिंतो अनंतरं शरीर प्राप्त करेगा. वहां अविराधित साधुपनावाला बनकर काल के अवसर में काल करके सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न होगा. वहां से अंतर रहित चवकर मनुष्य का शरीर प्राप्त करेगा और सम्यक्त्व { की प्राप्ति करके काल के अवसर में काल करके सनत्कुमार देवलोक में देवतापने उत्पन्न होगा. ऐसे ही ६३ अनुवादकबालब्रह्मचारी * प्रकाशक राजावहदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २१६६ Page #2197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ago शब्दार्थम० महाविदेह वा ० क्षेत्र में ना० जो इ० ये कु० कुल भ० हैं अ ऋद्धिवंत जा यावत् अ० अपरिभूत , 4त. वैसे कु० कुल में पुः पुत्रपने प० उत्पन्न होगा ए. ऐसे ज० जैसे उ० उववाइ में द० दृढप्रतिज्ञी ०७१. वक्तव्यता सा. वही व० वक्तव्यता णि निरवशेष भा० कहना जा. यावत् के. केवल व० श्रष्ट णा०1. ज्ञान द० दर्शन स. उत्पन्न होगा ॥ १९२ ॥ त० तब द. दृढपतिज्ञी के. केवली अ० अपना अ० भूतकाल आ० जानकर णि निर्गन्थों को स. बोलावेंगे एक ऐसा व० बोलेंगे एक ऐसा ख० निश्चयार्थ चइत्ता महाविदेहे वासे जाइं इमाई कुलाइं भवंति अढाइं जाव अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेमु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं जहा उववाइए दडपइण्णवत्तब्बया साचेव वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा ॥ जाव केवलवरणाणदलणे समुप्पाजहिति ॥ १९२ ॥ तएणं दडपइण्णे केवली अप्पणो तीतद्धं आभोएइ, आभाएइत्ता समणे है णिग्गंथे सदाविहिति २ त्ता एवं वदिहिति एवं खलु अहं अजो ! इओ चिरातीयाए भावार्थ अनुक्रम से एक मनुष्य का भव व एक देवलोक का भव मो'ब्रह्म, महा शुक्र, आणत, प्राणत, आरण में है उत्पन्न होगा. और वहां से मनुष्य का भा करके सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देवतापने उत्पन्न होगा. वहां। अंतर रहित चवकर महाविदेह क्षेत्र में जो ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूत कुल होगा उन में पुत्रपने उत्पन्न वगैरह आगे की सब वक्तव्यता दृढ प्रतिज्ञी कुमार की वक्तव्यता जानना यावत् केवल ज्ञान केवल *दर्शन उत्पन्न होगा ॥१९२॥ उस समय में वह दृढ प्रतिज्ञी केवली अतीत काल के भव जानेंगे और श्रमण | पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पत्ररहवा शतक 8280 Page #2198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी आर्य इ० आज से चिलम्बाकाल से गो- गोशाला पं० मंखलीपुत्र होव्था स० श्रमणघातक जा ० यावत् छ० छद्मस्थ में का० कालकिया तं० उस मू० मूल से अ० मैं अ० आर्य अ० अनादि अ० अनंत दी० दीर्घ चा० चतुर्गतिक सं० संसार में अ० पर्यटन किया । १९३ ॥ तं इसलिये मा० मत अ० आर्य तु० तुमभी के कोई भ० होवे आ० आचार्य प्रत्यनीक उ० उपाध्याय प्रयनीक अ० अपयशकारक अ० अवर्णकारक अ० अकीर्तिकारक मा० मत अ० अनादि अ अनंत सं० संसार कंतार अपर्यटन करेगा अडाए गोसाले मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए तं मूलगंचणं अहं अजो ! अणादीयं अणवदग्गं दीहमई चाउरंत संसारकतारं अणुपरियइ ॥ १९३ ॥ तं माणं अजो ! तुमपि केइ भवतु आयरियपडिणीए उवज्झाय पडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए माणं सेवि एवचेव अणादीयं अणवदग्गं जात्र संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति, (निर्ग्रथों को बोलकर ऐसा बोलेंगे कि अहो आर्यो ! बहुत काल पहिले मैं श्रमण का घातक मंखली पुत्र गोशाला था. यावत् छद्मस्थ में काल कर गया. वहां से मैंने अनादि अनंत दीर्घ चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण किया । १९३ ।। इस लिये अहो आर्यो ! तुम आचार्य उपाध्याय का प्रत्यनीक मत होवो, उन का अपयशकारक, अकीर्तिकारक, अवर्णकारक मत होवो. और इस से जैसे मैंने अनादि अनंत चतु * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी # २१६८ Page #2199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | 4 पंचांग विवाह परणत्ति ( भगवती ) सू 424 भावार्थ ज० जैसे अ० मैंने ॥ १९४ ॥ त० तब ते० वे स० श्रमण णि० निर्ग्रन्थ द० दृढ प्रतिज्ञी के केवली की अं० पास से ए० यह बात सो० सुनकर णि अधारकर भी डरे तत्रापाये तत्रमित हुने [सं० संसारभय से उ उद्विन ६० प्रतिज्ञी के केवली की बं० वंदना करेंगे ण नमस्कार करेंगे त० उस ठा० स्थान की आठ आलोचना करेंगे निं० निंदा करेंगे जा० यावत् प० अंगीकार करेंगे | ।। १२७ ।। ० ब ० दृढ प्रतिज्ञी के केवली व० बहुत वा० वर्ष के केवल प०पा० पाठकर अ० अपना आ० आयुष्य शेष जा० जानकर भ० भक्त प्रत्याख्यान करेंगे ए० ऐते ज० जैसे उ० जाणं अहं ॥ १९४ ॥ एणं हे समणा णिग्गंथा दट्टुपइण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयमटुं सोच्चाणिसम्म भीया तत्था तसिया संसारभय उव्विग्गा दडू पइण्णं केवलिं दिहिति मसिहति तस्स ठाणस्स आलोइएहिति निंदिहिति जाव पडिवजेहिति ॥ १९५ ॥ तपणे केली बहूई वासाई केवलपरियागं पाउणिहिति २ ता अप्पाणं आउसेस जाणित्ता भत्तपच्चक्खाहिति एवं जहा उबचाइए जाव सव्वदुक्खाणमंत गतिक संसार में परिभ्रमण किया चैना परिभ्रमण मत करा ॥ १९४ ॥ उस समय में दृढ प्रतिज्ञी केवली की पास से ऐना सुनकर अवधार कर श्रमण निग्रंथ डरे, त्रास पाये, संसार से उद्विग्न बने और दृढ (प्रतिझी केवली को वंदना नमस्कार कर उस की आलोचना, निंदा यावत् प्रतिक्रमण करने लगे ॥ १९५ ॥ ३ फोर ढमविशी कुमार बहुत वर्ष पर्यंत केवली पर्याय पाल कर और अपना आयुष्य शेष जानकर भक्त 4 पन्नरहवा शतक २१६९ Page #2200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ*उपवाइ में जा. यावत् स० सब दु० दुःखों का अं अंत का करेंगे से वैसे ही भं. भगवन् जायावत् वि० विचरता है त० तेज णिणिसर्ग स० समाप्त हुवा अ० अध्ययन स. समाप्त ५० पन्नरहवा स. शतक ए. एक स्वर वाला स० समाप्त प० पन्नरवा स० शतक ॥ १५ ॥ ___ काहिति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ तेयणिसग्गो सम्मत्तो अद्वेणं ॥ सम्म त्तचं पण्णरसमंसयं, एक सरयं ।। सम्मत्तंच पण्णरसमसयं ॥ १५ ॥ भावार्थ प्रत्याख्यान करेंगे वगैरह सब वर्णन उववाइ में से जानना यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे. अहो भग बन ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर गौतम स्वामी विचरने लगे. तेज नीकलने रूप अध्ययन वा. उद्देशा रहित पन्नरहवा शतक समाप्त हुवा ॥ १५ ॥ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ranAAAAAmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwanm प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Annanoraririnamnnahi Page #2201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शब्दार्थ, पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ॥ षोडश शतकम् ॥ ___ अ. अधिकरणि ज. जरा क० कर्म जा. यावतिय गं. गंगदत्त सु० स्वप्न उ० उपयोग लो० लोक व बलि ओ० अवधि दी. द्वीप उ. उदधि दिदिशा थ० स्तनित च० चउदह सो सोलहवे में ते०१७ उस काल ते. उस समय में रा० राजगृह जा. यावत् १० पर्युपासना करते एक ऐसा व० बोले अ भं० भगवन् अ० एरण में वा. वायु व० उत्पन्न होवे हैं. हां अ• है से वह भ० भगवन् पु० स्पर्शा है अहिगरणि जराकम्मे जावतियं गंगदत्त समिणेय ॥ उवओग ॥ लोग वलि ओहि है दीव उदही दिसा थणिया ॥ १ ॥ चउद्दस सोलसमे ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं । रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी अत्थिणं भंते ! अधिकरणंमि वाउयाए । पन्नरहवे शतक में गोशाला का एकेंद्रियादिक में जन्म मरण करने का कहा. अब सोलहवे शतक में भी जीव के जन्म मरण कहते हैं. १ अधिकरण सो लोहार की लोह कुटने की एरण २ जरा ३ कर्म ४ जावई तिय ५ गंगदत्त देव की वक्तव्यता ६ स्वप्न ७ उपयोग ८ लोक ९ बलि १० अवधि ११ द्विप कुमार ११२ उदधि कुमार १३ दिशाकुमार और १४ स्तनित कुमार. ये चउदह उद्देशे सोलहवे शतक में कहे हैं." उस काल उस समय में राजगृह नगर में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वेदने को आइ यावन धर्मोपदेश सुनकर पीछी गइ. उस समय भगवान् गौतम स्वामी यावत् पर्युपासना करते ऐसाई । mommammmmmmmmmmmmAAMAnnnnnAmAMAN सोलहवा शतक को पहिला उद्देशा 8.24 भावार्थ 488 Page #2202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी 80% अनुवादक उ• मरे अ० विना स्पर्शा हुवा गो० गौतम पु० स्पर्शा हुवा उ० परे णो नहीं अ० नहीं स्पर्शा उ• मरे । मे वह कि क्या स० शरीर सहित णि नीकलता है ए. ऐसे ज. जैसे खं० स्कंदक जा० यावत । ते० इमलिय जा. यावत् णि नीकलता हैं ॥ १ ॥ ई० खीरे करने वाली भ० भमवन अ० अग्निकाय के कितना का० काल सं० रहती है गो गौतप ज० जघन्य अं• अंतर्मुहूर्त उ० उत्कृष्ट ति०तीन रा० रात्रि १ वक्कमइ ? हंता अत्थि से भंते ! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाइ गोयमा ! पुढे उद्दाइ, ___णो अपट्टे उद्दाइ ॥ से भंते ! किं ससरीरी णिक्खमइ असरीरी णिक्खमइ एवं जहा खंदए जाव से तेणट्रेणं जाव णो असरीरी णिक्खमइ । १ ।। इंगाल कारियाएणं भते ! अगणिकाए केवइयं कालं संचिट्ठइ ? मोयमा ! जहणेणं बोले अहो भागवन् ! लोहे के घण मारने से क्या एरण में वायु उत्पन्न होता है ? हां गौतम ! एरण में वायु उत्पन्न होता है क्यों की वायु विना अग्नि नहीं होती है. ॥ १॥ अहो भगवन् ! क्या वह वायु समर्शी हुई मर या विना स्पर्शी हुई मर? अहा गौतम ! स्पर्शी हुइ वायु मरे परंतु विना स्पर्शी हुइ वायु मरे नहीं. अहो भगवन् ! क्या वह शरीर महित नीकलता है वगैरह जैसे स्कंदक का आधिकार कहा विमे ही यावत् इस लिये यावत अशरीरी नहीं नीकलता है वहां तक जानना ॥ १ ॥ अहो भगवन अंगार करने की अग्नि काय कितना काल पर्यंत रहती है ? अहो. गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट १ यहां आक्रान्त के संभव से पहिला वायू सचेतनपने उत्पन्न होवे सचेतन होजावे. ऐसा संभव होता है.. * प्रकाशक-रांजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णसि ( भगवती सूत्र दिन अ० अन्य भी इ० यहां वा० वायु व उत्पन्न होता है ण० नविन वा वायुकाय से अ० अग्निकाव ( उ० उज्वल होती है. ॥ २ ॥ पु० पुरुष भं० भगवन् अ० लोहा अ० एरण में अ० लोह की सं० संडासी { से उ० नीकालते प० डालते कः कितनी कि० क्रियाओं गो० गौतम जा० जहांलग से० वह पु० पुरुष अ० लोहे को अ० एरण में अ० लोहमय सं० संडास से उ० नीकालता है १० डालता है ता कहाँ लग | से० वह पु० पुरुष का० कामिकादि जा० यावत् पा० प्राणातिपात कि० क्रिया पं० पांच कि० क्रिया से पु० स्पर्शाया जे० जिन जी जीवों के स० शरीर से 'अ० लोहा पिं० बना हुवा है अ० एरण सं० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि राईदियाई अण्णवेत्थ वाउयाए वक्कमइ णविणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जलइ ||२|| पुरिसेणं भंते ! अयं अयकोटुंसि अयोमएणं संडासणं उत्रिहमाणेवापविमाणवा कइ किरिए ? गोयमा ! जावंचणं से पुरिसे अयं अयकोसि अयोमएणं संडासएणं उव्विहिंतिया पविहिंतिवा तावचणं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवाय किरिया पंचहि किरियाहिं पुट्ठे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरे हिंतो तीन अहो रात्रि. यहां अन्य वायुकाय भी उत्पन्न होवे क्योंकि वायुकाय विना अनिकाय प्रदीप्त नहीं होती है || २ || अहो भगवन् ! लोहे की कोठि में रहे हुवे लोहे को लोहमय संडास से बाहिर नीकाल ते या अंदर प्रक्षेप करते कितनी क्रियाओं लगे ? अझे गौतम ! जबलग वह पुरुष लोहे के कोठे में रहा 4- सोलहवा शतक का पहिला उद्देशा 4 २१७३ Page #2204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. M A A . di . . . S अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी 8 असी-णि बनीहा ई० अग्नि ई० अंगार नीकालने की लकडी भ. धमण णि बनीं । भी जी जीव का कायिकादि जा. यावत् पं० पांच कि. क्रियाओं से पु० स्पर्शा हुवा ॥ ३ ॥ पु० पुरुष भं. भगवन् अ० लोहाको अ. एरण में से अ० लोहमय सं० संडास से ग० लेकर अ० अधिकरण में १० नीकालते णि डालते क० कितनी कि० क्रियाओं गो० गौतम जा. जहांलग से वह पु०पुरुष अ० लोहे को अ० लोहे के कोठे में से जा० यावत् णि नीकालते ता० वहां लग से उस पु० पुरुष अयणिव्वत्तिए अयकोटे णिव्वत्तिए, संडासए णिव्वत्तिए, इंगाला णिव्वत्तिया, है इंगालकड्डिणी णिव्वत्तिया भंच्छाणिवत्तिया तेविणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा ॥ ३ ॥ पुरिसेणं भंते ! अयं अयकोटाओ अओमएणं संडासएणं गहाय अहिगरिणी उविखवमाणेवा णिक्खिरमाणेवा कइकिरिए ? गोयमा! जावं.. हुवा लोहे को लोहमय संडास से वाहिर.नीकाले या अंदर प्रक्षेप करे वहां लग उस पुरुष को कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी ऐसी पांच क्रियाओं लगती हैं. और जिन जीवों के शरीर से लोहा बना, लोहे की कोठी बनी, संडास बना, अग्नि बनी, अग्नि नीकालने का शला बना. और घमण बनी, उन जीवों के भी कायिकी आदि पांच क्रियाओं स्पर्शी ॥३॥ अहो भगवन् ! लोहे का कोठे में रहा हुवा से को लोहमय संडास से ग्रहण कर कोई पुरुष एरण में डाले अथवा नीकाले तो उस को कितनी क्रियाओं, शाक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ Page #2205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 शब्दार्थी को का• कायिकादि जा. यावत् पा. प्राणातिपातकि क्रिया पं० पांच से पु० स्पर्शाया जे. जिन जी जीवों के म० शरीर से अं० लोहा बना सं. संडासबनी च. हथोडीवनी मु. लघुघन अ० अधिकरणि* अ. अधिकरणी रखने का बना उ० पानी की दोनी अ० लोहकार शाला बनी ते वे जी. जीव पं. | पांच कि० क्रिया से पु० स्पर्शे ॥ ४॥ जी. जीव भं० भगवन अ० अधिकरणी अ. चणं से पुरिसे अयं अयकोट्ठाओ जाव णिक्खिवइत्ता तावंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवाय किरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपियणं जीवाणं सरीरोहितो अयणिव्वत्तिए संडासए णिव्वत्तिए, चम्मेटुए णिव्वत्तिए, मुट्ठिए णिव्वत्तिए अधिगरिणी णिव्वत्तिए अधिगणिखोडी णिव्वत्तिए, उदगदोणी अधिगरणसाली णिव्वत्तिया तेवियणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ॥ ४ ॥ जीवेणं भंते ! अधिभावार्थ लगे ? अझे गौतम! जहां लग वह पुरुष लोह के कोठे में से लोहेको लोहे की संडासी से नीकाल कर एरण . में डाले अथवा नीकले वहाँलग उस पुरुष को कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं और जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, लोहमय संडास बनी है, चिमटा बना है, घण बना है, एरण बनी है, एरण रखने लकडी (खोडी) वनी है, प्रज्वलित लोहे को बुझाने के लिये रखी हुई पानी की कुंडी; और लोह-21 कार की शाला बनी हुई है उन जीवों को कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं ॥४॥ अहो भमषन् । ++ पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 48 सोलहमा शतक का पहिला उद्देशा 9881 Page #2206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + गौतम जी जीव अ. अधिकरणी भी से० अथ के• कैसे में भगवन् ए०. ऐसा बु० कहागया जी० : जीव अ० अधिकरणी भी अ. अधिकरण भी गो० गौतम अ. अविरति १० आश्री से० अथ ते. इसलिये जा. यावत् अ० अधिकरण भी शेष सरल शब्दार्थ गरणी अहिगरणं ? गोयमा ! जीवे अधिगरणीवि अधिगरणंपि ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवे अधिगरणीवि अधिगरणंपि ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणटेणं जाव अधिगरणंपि ॥णेरइएणं भंते ! किं अधिगरणी अधिगरणं ? गोयमा ! अधिगरणीवि अधिगरणंपि ॥ एवं जहेव जीवे तहेव णेरइएवि ॥ एवं णिरंतरं जाय । जीव अधिकरणी है या आधिकरण है ? अहो गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है. अहो भगवन् ! किम कारन से जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है ? अहो गौतम ! आरति होने से बाह्य शस्त्र का मालिक सो अधिकरणी और शरीरादि शस्त्र रूप परिणपने से अधिकरण है. इस लिये जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है. अहो भगवन् ! नारकी क्या अधिकरणी है या आधकरण है ?. अहो गौतम ! जैसे समुच्चय जीव का कहा ऐसे ही नारकी पर्यंत सब .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ १ अधिकरण को धारक. २ शस्त्र. Page #2207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती ) मूत्र + माणि ॥ ५ ॥ जीवेणं भंते! किं साहिगरणी णिरहिगरणी ? गोयमा ! साहिगरणी णो णिरहिगरणी ॥ से केणट्टेणं पुच्छा ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तट्टेणं जाव णो शिरधिगरणी ॥ एवं जात्र वेमाणि ॥ ६ ॥ जीवेणं भंते ! किं आयहिगरणी पराहिगरणी, तदुभयाहिगरणी ? गोयमा आयाहिगरणीवि, पराहिगरणी वि, तदुभयाहिगरणीचि ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जात्र तदुभया हिगरणीवि ? जीवों का यावत् वैमानिक पर्यंत जानना ॥५॥ अहो भगवन् ! जीव क्या अधिकरण सहित है या अधिकरण ( रहित है ? अहो गौतम ! जीव अधिकरण सहित है परंतु अधिकरण रहित नहीं है. अहो भगवन् किस कारन से जीव अधिकरण सहित है परंतु अधिकरण रहित नहीं है ? अहो गौतम ! अविरति आश्री वगैरह कारन से जीव अधिकरण सहित है. जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही वैमानिक पर्यंत चौबीस ही दंडक का जानना || ६ || अहां भगवन् ! क्या जीव स्वतः के अधिकरणवाला है. पर के अधिकरणवाला या उभय के अधिकरणवाला है ? अहो गौतम ! जीव स्वतः के अधिकरणवाला; अन्य के अधिकरणवाला व उभय के अधिकरणवाला है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् उभय के अधिकरणवाला जीव है ? अहो गौतम ! अविरति आश्री इसलिये ऐसा कहा गया है. 4 सोलहवा शतक का पहिला उद्देशा २१७७ Page #2208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणट्रेणं जाव तदुभयाहिगरणीवि ॥ एवं जाव वेमाणिए ॥ ७ ॥ जीवाणं भंते ! अधिगरणं किं आयप्पओग णिव्वत्तिए, परप्पओग णिव्वत्तिए तदुभयप्पओग णिव्वत्तिए? गोयमा ! आयप्पओगणिव्वत्तिएवि, परप्पओगणिव्वत्तिएघि, तदुभयप्पओगणिव्वत्तिएवि ॥से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च,से तेण?णं जाव तदुभयप्पयोग णिव्वत्तिएविएवं जाववेमाणियाणं॥८॥कइणं भंते! सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा! पंचसरीरगा पण्णता, तंजहा-ओरालिय जाव कम्मए ॥९॥ यावत् उभय के अधिकरणवाला जीव है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! जीव अधिकरण को अपने शरीर प्रयोग से बनाता है, अन्य के शरीर प्रयोग से बनाता है अथवा उभय के शरीर प्रयोग से बनाता है ? अहो गौतम ! अपने शरीर प्रयोग से बनाता है, पर के शरीर प्रयोग से बनाता है व उभय के शरीर प्रयोग से बनाता है, अहो भगवन ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि जीव आत्मप्रयोग से अधिकरण बनाता है यावत् उभयप्रयोगसे आधकरण बनाता है ?अहो गौतम! अविरति आश्री इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् उभय के शरीर प्रयोग मे अधिकरण बनाता है ऐसे ही वैमानिक पर्यंत चौबीम दंडक का जानना ॥ ८॥ अहो भगवन् ! शरीर कितने कहे ? अहो गौतम ! शरीर पांच कहे. जिन के नाम. ! उदारिक, २ वैक्रेय ३ आहारक ४ तेजस और ५ कार्माण ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अनुवादक-बालब्रह्मच 4 Page #2209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 28 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4088 कइणं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचइंदिया पण्णत्ता, तंजहा-सोइंदिए जाव फासिदिए ॥ १० ॥ कइणं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तंजहा-मणजोए, वयजोए, कायजोए ॥ ११॥ जीवेणं भंते ओरालिय सरीरं णिव्वत्तिएमाणे किं अधिकरणी अधिगरणं ? गोयमा ! अधिगरणी अधिगरणंपि ॥ __से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-अधिगरणीवि अधिगरणंपि ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव अधिगरणंपि ॥ पुढवीकाइएणं भंते ! ओरालिय सरीरं णिवत्तिए इन्द्रियों कितनी कहीं ? अहो गौतम ! इन्द्रियों पांच कहीं. श्रोत्रेन्द्रिय, चाइन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय र स्पर्शेन्द्रिय ॥ १०॥ अहो भगवन् ! योग कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! योग तीन कहे हैं. मन योग; वचन योग और काया योग ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! उदारिक शरीरवाला जीव को क्या , अधिकरणी है. या अधिकरण है ? अहो गौतम ! अधिकरणी भी है और आधिकरण भी है. अहो. भगवन् : किस कारन से ऐसा कहा गया है कि उदारिक शरीरवाला जीव अधिकरणी है और अधि-:* करण भी है ? अहो गौतम ! अविरति आश्री. इसलिये ऐसा कहा गया है कि उदारिक शरीरवाला जीव अधिकरणी है और अधिकरण भी है. ऐसे ही पृथ्वीकायादि पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय, सोलहवा शतक का पहिला भावार्थ 438 Page #2210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणे किं अहिगरणी अधिकरणं, एवं चेव॥एवं जाव मणुस्से ॥एवं वेउब्विय सरीरंपि, णवरं जस्स अत्थि ॥ जीवेणं भंते ! आहारग सरीरं णिवत्तिएमाणे किं अधिगरणी पुच्छा ? गोयमा ! अधिगरणीवि, अधिगरणंपि ॥ से केणटेणं जाव अधिगरणंपि ? गोयमा ! पमादं पडुच्च, से तेण?णं जाव अधिगरणंपि, एवं मणुस्सेवि ॥ तेयासरीरं जहा ओरालियं णवरं सव्व जीवाणं भाणियव्वं ॥ एवं कम्मग सरीरंपि ॥ १२ ॥ जीवेणं भंते ! सोइंदियं णिव्यत्तिएमाणे किं अधिगरणी अधिगरणं ? एवं जहेव भावार्थ तिथंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का जानना, ऐसे ही जिस को वैक्रय शरीर हैं उन को भी कहना अहो भगवन् ! आहारक शरीर वाला जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है ? अहो गौतम ! अधिकरणी है और अधिकरण भी है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि आहारक शरीर वाला जीव अधिकरणी है और अधिकरण भी है. अहो गौतम ! प्रमाद आश्री इसलिये ऐसा कहागया है यावत् अधिकरण भी है ऐसे ही मनुष्य का जानना (आहारक शरीर मात्र मनुष्य को होता है) तेजस और कार्माण का उदारिक शरीर जैसे जानना. परंतु इम में सब जीव कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! 19श्रोत्रेन्द्रिय वाला जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है ? अहो गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय वाला जीव अधि: मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालामसादजी* अनुवादक-म Page #2211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 400 ओरालिय सरीरं तत्र सोइंदियंपि भाणियन्त्रं, णवरं जस्स अत्थि सोइंदियं एवं चक्खिदियं घाणिदिय जिभिदिय फासिंदियाणिवि जाणियां, जस्त जं अस्थि ॥ १३ ॥ जीवे भंते! मणजोगेणिवत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं एवं जहेव सोइंदियं तहेव णिरवसेसं ॥ वइजोगं एवं चेत्र, णवरं एर्गेदियवज्जाणं, एवं कायजोगेवि, वरं सव्व जीवाणं जाव वेमाणिए ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सोलसमस्यस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ १ ॥ ० ० {करणी है और अधिकरण भी है. वगैरह उदारिक शरीर जैसे जानना. ऐसे ही जीन जिवों को श्रोत्रेन्द्रिय {हैं उन सब जीवों का पृथक दंडक से जानना. और जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का कहा वैसे ही चक्षुइन्द्रिय. घ्राणेन्द्रिय ( रसनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय का जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! मनयोगी जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है ? अहो गौतम ! मनयोगी जीव अधिकरणी है और अधिकरण भी है. जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का कहा वैसे ही मनयोगी का जानना. एकेन्द्रिय वर्जकर सब वचन योगीवाले जीवों व सब काया { योगीवाले जीवों का भी वैसे ही जानना. ( एकेन्द्रिय में वचन योग नहीं है ) अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह सोलहवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण डुवा ॥ १० ॥ १ ॥ 4. सोलहवा शतक का पहिला उद्देशा २१८१ Page #2212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी + शब्दार्थ 4 रा. राजगृह जा. यावत् २० ऐसा व० बोले जी जीवों को भं भगवन् ज० जरा सो०. शोक मो० गौतम जी जीवों को ज• जरा सो० शाक से० अथ के० कैसे भ० भगवन् जा० यावत् सो० शोक भी गो० गौतम जे० जिस से जी० जीव सा० शरीरिक वे० वेदना वे० वेदते हैं ते. उन जी० रायगिहे जाव एवं क्यासी जीवाणं भंते ! किं जरा सोगे ? गोयमा! जीवाणं जरावि, सोगवि ॥ से केणट्रेणं भंते ! जाव सोगेवि ? गोयमा ! जेणं जीवा सारीर वेदणं वेदेति तेसिणं जीवाणं जरा, जेणं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसिणं जीवाणं । सोगे से तेणट्रेणं जाव सोगेवि ॥ एवं णेरइयाणवि ॥ एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ पुढवीकाइयाणं भंते ! जरा सोगे ? गोयमा ! पुढवीकाइयाणं जरा णो सोगे ॥ प्रथम उद्देशे में जीवों का कथन किया. जीवों जरा युक्त होने से दूसरे उद्देशे में जरा का कथन करते है हैं. रामगृह नगर में यावत् ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! क्या जीव को जरा है या शोग है ? अहो गौतम ! जीवों को जरा भी है और शोग भी है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है। कि जीवों जरा व शोग दोनों युक्त हैं ? अहो गौतम ! जो जीव शारीरिक वंदना वेदते हैं उन जीवों को जरा होती है और जो जीवों मानसिक वेदना वेदते हैं उन जीवों को शोग है. इस लिये ऐसा कहा 1 गया है यावत् शोग है. ऐसे ही नारकी, अमुरकुमार यावत् स्थनित कुमार का जानना. अहो मगवन् ! | प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #2213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाब्दार्थ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सूत्र { जीवों को ज० जरा जे जी जी० जीव मा० मानसिक वे० वेदना वे० वेदते हैं ते० उन जी० जीवों {को सो० शोक ऐ० ऐसे णे० नारकी को ए० ऐसे थ० स्तनितकुमार कुमार को ॥ १ ॥ ते ० उस समय में [स० शक्र दे० देवराजा व० वज्र पा० हस्त में पु० पुरंदर जा ० यावत् भुं० भोगता हुवा वि० विचरता से केणट्टेणं जाव णो सोगे ? मोयमा ! पुढवीकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदेति णो माणसं वेदणं वेदेति ॥ से तेणट्टेणं जाव णो सोगे ॥ एवं जाव चउरिंदियाणं ॥ सेसं जहा जीवाणं जाव वेमाणियाणं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव पज्जुवासइ ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्रपाणी पुरंदरे जाव भुंजमाणे पृथ्वीकायिक जीवों को क्या जरा व शोग है ? अहो गौतम ! जरा है परंतु शोग नहीं है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों { होने से वे मानसिक वेदना नहीं वेदते हैं परंतु मात्र शारीरिक वेदना वेदते हैं; इसलिये {शोक नहीं है. ऐसे ही अप्काय, तेढकाय, वायुकाय वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेंइन्द्रिय व { जानना शेष तिर्यंच यावत् वैमानिक तक का समुच्चय जीव जैसे कहना, अहो भगवन् ! सत्य हैं यों कहकर यावत् पर्युपासना करने लगे || १ | उस काल उसे समय में शक्र देवेन्द्र देवराना हस्त में बज्र का आयुध सहित यावत् दीव्य भोगोपभोग भोगता हुवा विचरता था. उस समय में विपुल' को मन नहीं जरा है परंतु चतुरेन्द्रिय का आप के वचन 4 सोलहवा शतक का दूसरा उद्दशा 4 २१८३ Page #2214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ * {था इ० इस के० संपूर्ण ज० जम्बूद्वीप को वि० विपुल ओ० अवधिज्ञान में आ उपयोगलगाते पा० देखा (स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ज० जम्बूद्वीप में ज० जैसे ई० ईशान त तीसरे शतक में तः तैसे {स० शक्र से ण० विशेष में आ० कार्य करने वाले को स० बोलाकर पा० पादात्यानिकाधिपति ह० हरि सु० सुघोष पा पालक वि० विमान करने वाले पा० पालक विमान उ० उत्तर के विद्यानमार्ग दा० अग्नि कौन के र० रतिकर प० पर्वत से० शेष तं० वैसे जा० यावत् णा० नाम सा०सुनाकर प० पर्युपासना विहरइ ॥ इमं चणं केवल कप्पं जंबूद्दीवं २ किउले ओहिणाणें आभोएमाणे २ पासइ, समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे जहा ईसाणे तइयसए तहेत्र सक्केणवि णवरं आभिओगेणं सद्दात्रेइ पायत्ताणीयाहिवई हरी सुघोसघंटा, पालओ विमाणकारी, पालगंविमाणं, उत्तरिल्ले णिजाणभग्गे, दाहिण पुरच्छिमिल्ले रतिकर पव्वए सेसं तंचेव ( अवधिज्ञान से इस जम्बूद्वीप को देखते २ इस जम्बूद्वीप में श्रमण भगवन्त महावीर को देखे और जैसे (ईशानेन्द्र का आने का सिरे शतक के पहिले उदेशे में वर्णन है वैसे ही शक्रेन्द्र भी आये (विशेषता इतनी कि ईशानेन्द्र ने आभियोगिक देवो को बोलाये, शक्रेन्द्र ने बोलाये नहीं, ईशानेन्द्रने लघुपराक्र(मवाला पादात्यनिक का अधिपति व नंदिघोष घण्टा ताडन करनेका आदेश किया. ईशानेन्द्र पुष्प विमान कारीथा और शक्रेन्द्र को पालक विमान कारी कहना, ईशान को पुष्पक विमान था और शक्रेन्द्र को सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # २१८४ Page #2215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4 करने लगे ॥२॥ धधर्मकथा जा यावत् प० परिषदा पपीछीगड ॥३॥ त तब से वह स० शक्र दे. देवेन्द्र द. देवगजा स• श्रमण भ० भगवंत म० महावीर की अंपास से धधर्म सो सुनकर णि अवधार कर हहृष्ट तुतुष्ट सश्रमण भ भगवंत म०महावीर को वंदनाकर णनमस्कार कर ए ऐसा व०बोला कितने भं• भगवन् उ० अवग्रह प० कहे सशक पं० पांच प्रकार के उ० अवग्रह प० प्ररूपे तं० तद्यथा २१८५ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र जाव णामगं सावेत्ता पज्जुवासइ ॥ २ ॥ धम्मकहा जाव पडिगया ॥ ३ ॥ तएणं से सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता गमंसइत्ता एवं वयासी-कइणं भंते ! उग्गहे पण्णत्ते ? सक्का ! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते. तंजहा-देविंदोग्गहे, रायो। पालक विमान था. व शक्रेन्द्र को उत्तर दिशि में आने का द्वार है. ईशानेन्द्र नंदीश्वर द्वीप की ईशान कौन में रितिकर पर्वत पर उतरे थे. और शक्रंन्द्र अग्निकौन के रतिकर पर्वत पर उतरे वगैरह शेष सब अधिकार ईशानेन्द्र जैसे कहना यावत् अपना नाम कहकर सेवाभक्ति करने लगा ॥२॥ भगवंतने धर्मकथा सुनाइ 2 यावत् परिषदा पीछी गई ॥ ३ ॥ अब वह शक्र देवेन्द्र देवराजा श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास धर्म सुनकर हृष्ट, तुष्ट यावत् आनंदिन हुवा और श्रमण भगवंत को चंदना नमस्कार कर ऐसा पोला कि - सोलहवा अतक का दूसरा उद्देशा भावार्य ! । Page #2216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी दे देवेन्द्र का अवग्रह रा० राजा का अवग्रह ग० गृहपति का ० अवग्रह सा० आगार वाले का अवग्रह सा०स्वधर्मी का उ० अश्ग्रह ॥४॥ जे जो इ.ये अ आर्यपने म. श्रमण णि निर्ग्रन्थ वि०विचरते हैं ए० उन को अ०मैं अ. अनुज्ञादेताहूं ति. ऐसा क० करके सश्रमण भ० भगवंत म०महावीर को बं०वंदनाकर १० नमस्कार कर त० एसी दि० दीव्य जा. यान विमानपे दु. पारूढ होकर जा० जिस दि० दिशि में से पा० आया ता. उस दि. दिशि में पपीछागया ॥५॥ भं. भगवन् भ० भगवान गो० गौतम गगहे, गहवइउरगहे, सागारियउग्गहे, साहम्मिय उग्गहे ॥४॥ जे इमे अजत्ताए समणा णिग्गंथा विहरंति, एएसिणं अहं उग्गहं अणुजाणामी तिकटु । समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता तमेवदिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ, दुरूहइत्ता है ज्ञामेवदिसिं पाउन्भूए तामेवदिसिं. पडिगए ॥ ५ ॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं अहो भगवन् ! अवग्रह कितने कहे हैं.? अहो शक्र ! अवग्रह के पांच भेद कहे हैं. जिन के नाम. ११. देवेन्द्र का अवग्रह २ राजा का अवग्रह ३ गृहपति का अवग्रह ४ आगारी का अवग्रह और ५ स्वधर्मा का अवग्रह ॥ ४ ॥ भगवंत महावीर स्वामी से ऐमा सुनकर इन्द्र बोला कि अहो भगवन् ! जो श्रमण निग्रंथ यहां पर आर्यपने विचरते हैं उन सब को मैं अवग्रह देता हूं यावत् अच्छा जानता हूं, ऐसा, कहकर श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार कर उस ही पालक विमान में बैठकर जिस दिशि में से आए थे। *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८७ श्रमण भ.भगवंत ममहावीर को बं०वंदना करणःणमस्कार कर ए.ऐसा वयोला जैजो भाभगवन शक्र दे. देवेन्द्र दे. देवसंजा तु. आप को एक ऐसा व. बोला स० सत्य ए. यह अ० अर्थ है. हां १० स० सत्य ए. यह अ० अर्थ ॥ ६ ॥ स० शक्र भं० भगवन् दे. देवेन्द्र दे. देवराजा किं. क्या स. सम्यग्वादी मि. मिथ्यावादी गो० गौतम स. सम्यगवादी णो नहीं मि० मिथ्यावादी ॥ ७॥ स. शक्र भं० भगवन् दे० देवेन्द्र दे० देवराजा कि० क्या स० सत्य भा० भाषा भा० बोलते है मो० मृषा भगवं महावीरं बंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं बयासी-जणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया तुब्भे एवं वदति सच्चेणं एसमटे ? हंता सच्चेणं ॥ ६ ॥ सक्केणं भंते ! देविंदे देवराया किं सम्मावादी मिच्छाबादी? गोयमा ! सम्मावादी णो मिच्छावादी॥७॥ सक्कोणं भंते ! देविदे देवराया कि सच्चं भासं भाप्तइ, मोसं भासं भासइ, सच्चा मोसं भावार्थ दिशि में चले गये ॥ ५ ॥ भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीर को वंदना नमस्कार कर ऐसा घोले कि अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराजाने आपको जो बात कही. वह क्या सत्य है ? हो गौतम ! वह है। त्य है ॥६॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र क्या सम्यवादी है या मिथ्यावादी है ? अहो गौतम ! व सम्यवादी है परंतु मिथ्यावादी नहीं है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराजा क्या सत्य भाषा 1 बोलता है, मिथ्या भाषा बोलता है, सत्यमृषा भाषा बोलता है या असत्य मृषा भाषा बोलता है ? अहो 4284 पंचमांग विवाह पष्मत्ति ( भम्वती ) सूत्र ___tagrt- सोलहवा शतक का दूसरा उद्देशा 988 Page #2218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १.१ अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अमलक ऋषिजी भा० भाषा भा० बोलते हैं. स. सस मृषा भा० भाषा भा० बोलते हैं अ० असत्य पृषा भा० भाषा भा० बोलते हैं गो गौतम स० सत्य भा० भाषा भा. बोलते हैं जा. यावत् अ० अप्सत्यमृषा भा० भाषा बोलते हैं ॥८॥स. शक्र भं. भगवन् दे देवेन्द्र दे. देवराजा किं. क्या सा० सावध भा. भाषा भा० बोलते हैं अ० अनवध गो. गौतम सा० सावध भा० भाषा भा० बोले अ० अनवध भा० भाषा भा० बोले से० अथ के. कैसे भं० भगवन् ए. ऐसा वु. कहा जाता है सा. सावद्य अ० अनवद्य जा. जब स शक्र दे देवेंद्र दे० दवराजा सु० सूक्ष्मकाय णि ढककर भा० भाषा भा० बोले तात भासं भासइ, असञ्चामोसं भासं भासइ ? गोयमा ! सच्चंपि भासं भासइ जाव असञ्चा मोसंपि भासं भासइ, ॥ ८ ॥ सक्केणं भंते ! देविंदे देवराया किं सावजं भासं भासइ अणवजं भासं भासइ ? गोथमा सावजंपि भासं भासइ, अणवजंपि भासं भासद ॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ सावजंपि जात्र अणवजंपि भासं भासइ ? जाहेणं सके देविंदे देवराया सुहुमकायं अणिजूहित्ताणं भासं भासइ ताहेणं सके दविंदे देवराया सावजं भासं भासइ, जाहेणं सक्के देविंदे देवराया सुहुमकायं णिजूहित्ताणं भासं भा. गौतम ! सत्य भाषा बोलता है यावत् असत्य मषा भाषा भी बोलता है ॥८॥ अहो भगवन् !! शक्र देवेन्द्र क्या सावध भाषा बोले या अनवद्य बोले अहो गोतम! सावध भाषा भी बोले, अनवद्य भाषा भी बोले? अहो भगवन् ! किस कारन से दोनों प्रकार की भाषा बोले ? अहो । * प्रकाशक राजाबहदुर लाला मुखदवसहायनी मालाप्रमादजी*. भावार्थ Page #2219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 488+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र + सं० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा अ अनवद्य भा० भाषा भा० बोले से० अथ ते इसलिये जा यावत् भा० बोले ॥ ९ ॥ स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा किं क्या भभवनिद्धिक अ० अभवमिद्धिक स | समदृष्टि मिं० मिध्यादृष्टि ए ऐसे ज० जैने मो० मोक उ० उद्देशा स० सनत्कुमार जा० यावत् णो० नहीं अ० अचरिम ॥ १० ॥ जी० जीवों में भगवन् किं० क्या चे० चैतन्यकृत क० कर्म कः करते हैं) अ० अचैतन्यकृत गो० गौतम जी० जीव चे० चैतन्यकृत क० कर्म करते हैं जो नहीं अ० अचैतन्य सइ ताहेणं सक्के देविंदे ॥ ९ ॥ सक्केणं भंते ! देवराया अणवजं भासं भासइ || से तेणद्वेणं जाव भासइ देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए, सम्मद्दिट्ठीए, मिच्छाद्दिट्ठीए एवं जहा मोओसए सणकुमारे जात्र णो अचरिमे ॥ १० ॥ जीवाणं भंते! किं चेयकडाकम्मा कजंति अचेयकडाकम्मा कजंति ? गोयमा ! जीवाणं गौतम ! जब शक्र देवेन्द्र देवराजा मुखपे हस्त या वस्त्रादि लगाये बिना वाले तव जीव रक्षण के अभाव से सावद्य भाषा बोले और जब मुखपे हस्त वस्त्रादि लगाकर बोले तब निरवय भाषा बोले. अहो गौतम ! { इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् अनवद्य भाषा बोले || ९ || अहो भगवन् ! शक्र देवेन्द्र क्या भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक समदृष्टि मिध्यादृष्टि वगैरह जैसे मोक उद्देशे में कहा वैसे ही सनत्कुमार यावत् अरिम तक कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जीव को क्या चैतन्य कृतकर्म है या चैतन्यकृत कर्म है ? सोलहवा शतक का दूसरा उद्देशा २१८९ Page #2220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ *कृत आ० आहारोपचित पो० पुदल बों० शरीरोपचित पो० पुल क. कलेवरोपचित पो० पुद्गल त. त० तैसे ते० वे पो० पुद्गल प० परिणमते हैं . नहीं हैं अ० अचैतन्यकृत क० कर्म स० श्रमण आ० आयुष्मन् दु० दुःस्थान दु. दुःशैयया दु० खराव स्वाध्याय त तैमे ते. वे पो० पुदल प. परिणमते है चेयकडाकम्मा कजंति णो अचेयकडाकम्मा कजंति ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कजंति ? गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, वौदिचिया पोग्गला, कडे वरचिया पोग्गला, तहा२णं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा कम्मा ॥ सम णाउसो ! दुट्टाणेसु, दुस्सेज्जासु, दुण्णिसीहियासु तहा २ गं ते पोग्गला परिणमंति अहो गौतम ! जीव चैतन्य कृत कर्म करते हैं परंतु अचैतन्य कृत कर्म नहीं करते हैं. अहो भगवन ! भावार्थ किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् अचैतन्य कृत कर्म नहीं करते हैं ? अहो गौतम ! जीवों को आहाररूपपने संचित पुद्गल, शरीर रूप पुदल व कलेवर रूप पद्ल उन आहारादिक के लिये परिणमे। इसलिये अचैतन्य कृत कर्म नहीं है. अहो आयुष्यवन्त श्रमणों ! दुष्ट स्थान, दुष्ट शैय्यासन, शीत आतापादि युक्त कायोत्सर्ग में दुःखात्पत्तिरूप हा असातारूप परिणमे इसलिये भी अचैतन्य कृत कर्म नहीं है. अहो आयष्यवन्त श्रमणो ! रादि रोगांतक कष्ट व मरणांतिक कारण रूप होवे, संकल्प विकल्प भी। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2 *प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दा . सकल्प ३० www ५० परिणमते हैं ण म रणात से० अथ व० वध के लिये हो हो २१९१ Tण नहीं है अ. अचैतन्यकृत क. कर्म आ. कधकारी व वध के लिये हों होते हैं सं० संकल्प व. अवध के लिये हों होते हैं म० मरणांत से० अथ व. वध के लिये हों होते हैं त० तैसे ते वे पो० पुद्गल १५० परिणमते हैं ण नहीं है अ: अचैतन्यकृत क. कर्म ते. इसलिये जा. यावत् क० कर्म क० करते ए. ऐसे णे. नारका को एक ऐसे जा• यावत् वे वैमानिक को ॥ १६ ॥ २॥ * रा० राजगृह जा० यावत् ए. ऐमा व बोले क० कितनी भं० भगवन् क० कर्म प्रकृतियों प० प्ररूपी है णत्थि अचेयकडा कम्मा ॥ समणाउसो! आयंके से वहाए होंति, संकप्पे सेबहाए । होति, मरणंते से बहाए होति, तहा तहाणं ते पोग्गला परिणमंति, णत्थि अचेयकडा कम्मा ॥ से तेण?णं जाव कम्मा कजंति ॥ एवं रइयाणवि, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ सोलसमस्स वितिओ उद्देसो सम्मत्तो॥१६॥२॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ भावार्थ जीव को मरणांतिकादि कारण होवे उस प्रकार पुद्गल परिणमे इसलिये अचैतन्य कृत कर्म नहीं. परंतु चैतन्य कृत कर्म करता है. इसलिये यावत् कर्म करे. यह कथन नरक से लगाकर वैमानिक पर्यंत चौविस दंडक का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह सोलहवा. शतक का दूसरा पूर्ण हुवा ॥ १६ ॥२॥ । दूसरे उद्देशे में कर्म का कथन किया. आगे भी उस का ही विशेष वर्णन करते हैं. राजगृह नगर के 389 सोलहवा शतक का तीसरा उद्देशा 8 पंचमांग विवाह पण्णत्ति 808 | Page #2222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ गो. गीतम अ० आठ क. कर्म प्रकृतियों प० प्ररूपी तं. तद्यथा णा ज्ञानावरणीय जा. यावत् अं० राय ए. ऐसे जा. यावत् वे वैमानिक सरल ||१॥ सरल ॥२॥त. तब स० श्रमण भ० भगवंत कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ तंजहा-णाणावराणिजं जाव अंतराइयं एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १॥ जीवेणं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदमाणे कइ कम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ एवं जहा पण्णवणाए वेयावेउद्देसओ सोचेव णिरवसेसो । भाणियन्वो ॥ वेदाबंधोवि तहेव ॥ बंधावेदोवि तहेव बंधाबंधेवि तहेव भाणियव्वो, जाव वेमाणियाणत्ति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ! जाव विहरइ ॥ २ ॥ तएणं समणे भावार्थ Pगुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीको वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! कर्मप्रकृतियों कितने प्रकार की कही है ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कही. १ ज्ञानावरणीय १२ दर्शनावरणीय यावत् अंतराय. ऐने ही वैमानिक तक कहना ॥१॥ अहो भगवन् ! जीव ज्ञानावरणीय कर्म वेदता हुवा कितनी कर्म प्रकृतियों वेदे ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों वेदे. ऐसे ही जैसे पन्नाणा में वेदका उद्देशा कहा वैसे ही यहां निरवशेष सब कहना. वेद वंध, वंधवेद व बंध बंध यह सब वैसे ही नानना. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. अहो भगवन् : आप के वचन सत्य हैं यों कहकर भगवान् : अनुबादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी: प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथेम. महावीर अ० अन्यदा क. कदापि ग. राजगृह ण नगर के गु० गुणशील चे. उद्यान से प.. Pole नीकलकर ब० बाहिर ज० जनपद वि. विहार वि० विचरने लगे ॥ ३॥ ते. उस का. काल ते. उस स. समय में उ० उल्लकातीर ण. नगर हो० था तः उस उ० उल्लकातीर ण नगर की ब० वाहिर उ०.० ईशान कौन में ए. यहां ए. एक जम्बू चे उद्यान ॥ ४ ॥ अ० अनगार भा० भावितात्मा छ० छठ के भगवं महारीरे अण्णयाकयायि रायगिहाओ णयराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमइत्ता बहिया जणवपरिहारं विहरइ ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयातीरे णामं णयरे होत्था,वण्णओ ॥ तस्सणं उल्लुयातीरस णयरस्स वहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थणं एगजंबुए णामं चेइए होत्था, वण्णओ ॥४॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णयाकयायि पुव्वाणुपुर्दिवं चरमाणे जाव एगजबुए समोसढ जाव परिसा पडिगया ॥४॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर तिम स्वामी विचरनेलगे. ॥ २ ॥ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर रानगृह नगरके गुण उद्यान में मे नीकलकर बाहिर विचरने लगे ॥३॥ उस काल उस समय में उल्लुया तोर नाम का नगर वह वर्णनयोग्य था. उस उल्लुका तीर नगर की बाहिर ईशान कौन में एकजंबुक नाम का उद्यान था 123 ॥॥ ४ ॥ उस समय में श्रमण भगवंत महावीर एकदा पूर्वानुपूर्षि चलते ग्रामानुग्राम विचरते यावत् । पंचांग विवाह पस्णत्ति (भगवती) म 48817 सोलहवा शतक का तीसरा उद्देशा 486 Page #2224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ २११४ संत्र अ० निरंतर जा. यावत् आ. आतापनालेते त० उम को पु० पूर्व के अ० आधा दि. दिन में णो०. नहीं । क. कल्पता है ह. हस्त पा० पांव जा. यावत् उ० जंघा आ० संकुचित करने को प० प्रसारने को ५० पश्चिम के अ० अर्थ दि० दिवस में क. कल्पता है ह० हस्त पा० पांव जा० यावत् उ०. जंघा आ० म संकुचित करने को १० प्रसारने को त. उस को अ० मसा लं० अवलंत्रता है तं० उसे वि. है वंदइणमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-अणगारस्सणं भंते ! भावियप्पणो है छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं जाव आयावेमाणस्स तस्सणं पुरच्छिमेणं अवढं दिवसं णो कप्पइ हत्थंवा पायंत्रा जाव उरुवा आउंटावेत्तएवा पसारत्तएवा, पच्चच्छि मेणं अवड्ढदिवसं कप्पइ हत्थंवा पादंवा जाव उरुवा आउंटावेत्तएवा पसारेत्तएवा, ॥ एकजम्बू उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह याचकर पधार. परिषदा वंदन करने को आइ यावत् धर्मोपदेश । सुनकर पीछीगइ. ॥४॥ श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर भगवान गौतम स्वामी पुछने लगे अहो भगवन् ! निरंतर छठ२ की तपस्याकरनेवाले यावत् आतापना लेनेवाले अनगार को दिन । के पूर्वार्ध भाग में कायोत्सर्ग होने से हस्त पांत्र, यावत् उम को संकुचित करने व मारने का नहीं कल्पता है और दिन के पश्चिमा भाग में हस्त, पांव, यावत् उस को पसारने का व संकुचित करने का कल्पता, है. अब कर्मोदय से उन को मसा ( हरत ) का रोग हुवा होवे और वह वैद्य की दृष्टि में आवे, वैद्य २.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायगी ज्वालाममा जीदे * म भावार्थ Page #2225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शब्दार्थ/4 अ० देखा इ० ऋषिको पा० गिराकर अं० मसा छि• छेद सेः अथ णू० शंकादर्शी जे जो छि० छेदे त० उसको का कितनी कि० क्रियाओं ज. जिसे छि० छेदा णो० नहीं तक उसे कि क्रिया ण. नहीं है। ०७ अ. सिवाय ध० धर्मातराय हं हां गो. गौतम जे० जो छि• छेदावे जा. यावत् ध० धर्मातराय से वैसे ही भं. भगवन् सो० सोलहवा स० शतक का ता तीसरा उ० उद्देशा स. समाप्त ॥ १६॥३॥ तस्सय अंसियाओ लंबइ, तंचव विजे अंदक्खु इसिं पाडेइ पाडेइत्ता अंसियाओ ____ छिंदेजा ॥ सेणूणं भंते ! जे छिंदेजा तस्स कइ किरिया कजइ ? जस्स छिजइ णो तस्स किरिया कजइ ॥ णण्णत्थगेणं धम्मंतराइएणं ? हंता गोयमा ! जे छिंदइ जाव धम्मंतराइएणं | सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सोलसमस्स तइओ उद्देसो सम्मत्तो॥१६॥३॥ भावार्थ उसे देखकर ध्यानरत मुनि को जमीनपर गिरादेवे और उस मस्सा के अंश का छदन करे. अब अहो भगवन्! उस छेदन करने वाला वैद्य को कितनी क्रियाओं लगे? अहो गौतम ! जा छेदता है उस को क्रिया नहीं लगती है, क्योंकी व्यापार रहित मात्र माधु के लिये कर्तव्य करता था. अब जो मुनि ध्यानस्थ थे उन को धर्म करने में जो व्याघात हुइ वह अंतराय क्या लगती है ? हां गौतम ! हरस छेदते धर्मध्यान में जो ध्याघात हुइ वह अंतराय अवश्य लगती है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह सोलहवा, शतक का तीसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १६॥३॥ पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मंत्र सोलहवा शतक का तीसरा उद्देशा 488 Page #2226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > शब्दार्थ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी जा० जितने भं० भगवन् अ. अन्न में गि० ग्लान स० श्रमण णि निग्रन्थ क. कर्म णि निर्जरते • इतने क० कर्मणः नरक में णे. नारकी को वा० वर्ष से० वा. वहुत वाँसे वा० वर्ष शत से ख. क्षयकरे णो० नहीं इ. यह अ० अर्थ स. समर्थ ॥१॥ सरल ॥२ से ५ ॥ से० अथ के. कैसे भं रायगिहे जाव एवं क्यासी जावइयं णं भंते ! अण्णगिलायए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेति, एवइयं कम्मं णरएसु णेरइयाणं वासेणं वासहिंवा वाससएणवा खर्विति? णो इण? समटे ॥३॥ जावइयं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे णिगथे कम्म णिज्जरेति एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससएणवा, काससतेहिवा, वाससहस्सेणवा खवयंति ? णो इणट्टे समझे।२ ॥ जावइयंणं भंते ! छ? भत्तिए समणे णिग्गंथे । तीसरे उद्देशे में अनगार की बक्तव्यता कही. आगे भी उसको ही कहते हैं. राजगृह नगर में गुणशील उद्यान में यावत् गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! अनविना ग्लानि पानेवाले श्रमण निग्रंथ कुरगडुबत् ] जितने कर्भ की निर्जरा करे उतने कमों को क्या नास्की नरक में एक वर्ष में, बहुत वर्षों में 3 या सो वर्ष में क्षय करे? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है॥२॥ अहो भगवन्! चौथ भक्त (एक उपवास) । तप करता हुवा श्रमण निग्रंथ जितने कर्म का क्षय करे उतने कर्म नरक में रहा हुवा नारकी सो वर्ष में त्येक सो वर्ष में या सहस्र वर्ष में क्या खपावे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥२॥ अहो। घकाजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ wwwmmmmmmmmmm Page #2227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 कम्मं णिजरेंति एवइयं कम्म गरएसु गैरइया वाससहस्सेणवा वाससहस्सहिंवा वास सयसहस्सेणवा खवयंति ? णो इणटे सम? ॥ ३ ॥ जावतियं णं भंते ! अटुम.. भत्तिए समणे गिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु जरइया वाससयसहस्से णवा वाससयसहस्सहिंवा वासकोडीएवा , खवयंति ? णो इणटे समढे ॥ ४ ॥ जावइयंणं भंते ! दसमभत्तिए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयकम्मं णरएसु णेरइया वासकोडीएवा वासकोडीहिंवा वासकोडाकोडीएवा खवयंति? णो इणटेसमटे ॥५॥से थावा भगवन् ! छठ भक्त (बेला ) की तपश्चर्या करता हुवा श्रमण निग्रंथ जितने कर्म खपाये उतने कर्मों क्या नरक में रहा हुवा नारकी सहस्र वर्ष में, प्रत्येक सहस्र वर्ष में, या लक्ष वर्ष में खपावे ? अहो मौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अर्थात् नहीं खपावे ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! अठम भक्त [तेले ] की तपश्चर्या करता हुवा श्रमण निग्रंथ जितने कर्भ खपावे उतने कर्म नरक में नारकी लक्ष वर्ष में प्रत्येक लक्ष वर्ष में, या क्रोड वर्ष में क्या खपावे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥४॥ अहो भगवन् ! दश्चम भक्त (चोला) करता हुवा श्रमण निग्रंथ जितने कर्म निर्जरे उतने कर्म नरक में रहे हुवे नारकी क्या 1ोड वर्ष में, प्रत्येक क्रोड वर्ष में अथवा क्रोडाक्रोड वर्ष में क्या खपावे ? अहो गौतम । यह अर्थ योग्य पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र int .सोलहवा शतक का चौथा उद्देशा 48 Page #2228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 人 शब्दार्थ + { भगवन् ए० ऐसा बु० कहा जाता है ना० जितने यावत् णो० नहीं ख० खपाते हैं गो० गौतम से० अथ ज० जैसे के० कोई पु० पुरुष जु० जीर्ण ज० वृद्धावस्था से ज० जर्जरतदे हवाला सि० शिथिल व वाले त० तरंग सं० छिद्रवाले गा० गात्र प० बिखरी हुई प० पडी हुई दं०दांतश्रेणी उ० उष्णाभिहत २० तृषा से अ० पराभूत आ० आतुर झुं० खेदित पि० तृषा पि० तृषातुर दु० दुर्बल कि० का हुवा ए० एक म० बडा को० कसुंबे वृक्ष ( खाखरा ) गं० खण्ड सु० शुष्क ज० जटावाला गं० गांगे वाला चि० चीकना केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जावइयं अण्णगिलायए समणे णिग्गंथे कम्मं णिजरेइ एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वासेणवा वासेहिंवा, वाससएणवा णोखवयंति, जावइयं उत्थभत्तिए एवं तंत्र पुव्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव वासकोडाकोडीए वा णो खत्रयंति ? गोयमा ! से जहा णामए केइ पुरिसे जुण्णे जराजजरिय देहे सिढिलतया वलितरंगसंपिणगत्ते पत्रिरलपरिसडिय दंतसेढी उष्हाभिहए तण्हाभिहए आतुरे नहीं है || ५ || अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि अन्नविना ग्लानी उत्पन्न होवे | वैसे श्रमण निर्ग्रथ जितने कर्मों को क्षय करे उतने कर्मों नरक में रहे हुवे नारकी एक वर्ष में, प्रत्येक वर्ष में अथवा सो वर्ष में नहीं क्षय करते हैं वैसे ही एक उपवास करते हुवे श्रमण निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करे उतने कर्मों की निर्जरा नरक में रहे हुवे नारकी सो वर्ष में, प्रत्येक सो वर्ष अथवा सहस्र वर्ष में नद्द किर सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाजीदे * २१९८ Page #2229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 शब्दार्थ वा विशिष्ठ द्रव्य से नीपना अ० धारा रहित मुं० मुंड १० कुहाडा से अ० छेदे त० तब से वह पु०१. पुरुष म० बडे स० शब्द क. करे जो नहीं म. बडे द. टुकडे अ० करे ए. ऐसे गो० गौतम २०० नारकी को पा० पापकर्म गा० गाढकिये हुवे चि० चीकने किये हुवे एक ऐसे ज• जैस छ छठे शतक | झुझते पिवासिए दुबले किलंते एगं महं कोसंबगंडियं सुकं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं वाइद्धं अपत्तियं मुंडेणं परसुणा अक्कामेजा; तएणं से पुरिसे महंताई सहाई करेइ, णो महंताई २ दलाई अवदालेइ, एवामेव गोयमा ! गैरइयाणं पावाई कम्माई. भावार्थ सकते हैं यावत् चौला करते हुवे श्रमण निग्रंथ जितने कमों की निर्जरा करे उतने कर्मों की निर्जरा नरक में 2 रहे हवे नारकी क्रोड वर्ष में, प्रत्येक क्रोड वर्ष में अथवा कोडाकोड वर्ष में भी नहीं कर सकते हैं ? अहो गौतम! जैसे कोई पुरुष जीर्ण, वृद्धावस्था से जर्जरित देहवाला व शिथिल त्वचावाला होवे, मिस के गात्रों में करचलियों पडगइ होवे, जिस के दांत की श्रेणीखकर विखर होगइ होवे, अथवा दांत पडे गये TE होवे वैसा, उष्णता व वृषा से पराभव पाया हुवा, दरिद्रि, क्षुधावंत, पिपासु, दुर्बल, व थका हुवा होवे. वह सूका जटावाला, गांगेवाला चिकना व विशिष्ट द्रव्य से बना हुवा एक कमूवे (खांखरे) फ्लास वृक्ष को धारा रहित कुहाडे से काटने में प्रवते. तब वह पुरुष बहुत बडे२ शन्दों करे परंतु उस काष्ट का विशेष भाग छेदन कर सके नहीं. ऐसे ही अहो गौतम! नारकी के पाप कर्मों गाढे चीकने बगैरहजै पंचमांग विवाहपष्णत्ति ( भगवती) मूत्र सोलहवा शतक का चौथा उद्देशा 4887 488 Page #2230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द. 4 में जा. यावत् णो नहीं म० महापर्यवसान वाले भा होते हैं ॥ ६॥ से अथ ज• जैसे के० कोई पु. पुरुष अ० एरण आ० तोडते म०पडे जा. यावत् णां• नहीं प० पर्यवसानवाले भ० ॥७॥त. तरुण ब. बलवंत जा० यावत् मे० बुद्धिमान णि. णिपुण सि. शिल्प में ए. एक भ. वडा स० शाल्मली का गं. जड उ० भीना अ० जटा गहित अ० गांठों रहित अ. चिक्काप्त राहत अ० खराव दुरू से बना स० धारवाला अ० तीक्ष्ण प० कुहाडा से अ छदे त० तब से वह म० बढे २ स० शब्द क.al गाढीकयाई, चिकणी कयाई एवं जहा छ?सए जाव णो महापज्जवसाणा भवंति॥६॥ से जहा णामए केइ पुरिसे अहिगरणे आउंडमाणे महता जाव णो पज्जवसाणा भवंति ॥ ७ ॥ से जहा णामए केइ पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी णिपुणसि प्पोवगए एगं महं समालगंडियं उल्लं अजडिलं अगंट्टिल्लं अचिक्कणं अवाइई सपत्तियं अतितिक्खेण परसुणा अकम्मेजा, तएणं से पुरिसे णो महंताई २ सद्दाई भावार्थ शतक में कहा वैसा यावत् महापर्यवसानवाले नहीं हैं ॥ ६ ।। और भी जैसे कोई पुरुष लोह कारादिक की एरण कूटते उस का विनाश बहुत कठिनता से कर सकते हैं वैसे ही नरक में रहे हुवे नारकी कमों का अंत भी नहीं कर सकते हैं ॥ ७ ॥ और भी जैसे तरुण, बलवंत, यावत् बुद्धिमान सत्र कारिगरि में निपुण ऐसा कोई पुरुष एक बड़ा हग, जटा, व गांठों रहित चिकास विना का एक बड़ा एरंडादि वृक्ष अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ + करे स० घडे २ द० टुकडे अ० करे ऐ० ऐसे गो० गौतम स० श्रमण णि निर्गन्ध को अ० यथा बादर, 1 . कर्म सि० सिथिल क० किये हुये णिः सत्ता रहित जा. यावत् खि० शीघू १० नष्ट भ० होते हैं। जा. जब ता० तब जा. यावत् प० पर्यवसान भ० होते हैं ॥८॥से अथ ज. जैसे के कोई पु० पुरुष सु. शुष्क त तृणहस्त जा. यावत् ते० अनि ५० डाले ए. ऐसे ज. जैसे छ० छठे स० शतक में त० करेइ, महताई २ दलाई अबदालेइ. एवामेव गोयमा ! समणाणं णिग्गंथाणं अहाबादराई कम्माइं सिढिलीकयाइं णि? जाव खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति, जावइयं तावइयं जाव पज्जवसाणा भवंति ॥८॥ से जहा वा केइ पुरिसे सुक्के तणहत्यगं जाव। तेयंसि पक्खिवेजा, एवं जहा छ?सए तहा अयोकवल्लेवि जाव पज्जवसाणा भवति भावार्थ को धारवाले परशु से काटे उस समय वह बडे २ शब्दों करे, वैसे ही उस को विदारते बहुत परिश्रम नहीं । है. ऐसे ही अहो गौतम ! श्रमण निग्रंथ के यथावादर कर्मों शिथिलीभूत. यावत् शीघू नष्ट । से होते हैं. और पर्यवसानवाले भी होते हैं ॥८॥ और जैसे कोई पुरुष सुका हुवा घास आग्नि में डाले वगैरह जैसे छठे शतक में कहा वैसे ही यहां कहना यावत् सब कर्मों का पर्यवसान होवे. और भी जैसे 3 तपे हुवे लोहे पर पानी का बिन्दु कोई पुरुष डाले तो वह शीघ्र नष्ट होता है वैसे ही श्रमण निग्रंथ के ... I कयों पर्यवसानवाले होते हैं. अहो गौतम ! इस कारन से ऐसा कहा गया है कि अब में ग्लानि पाने-. । पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +8+ सोलहवा शतक का चौथा Page #2232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ awwammawimmator ३१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तैसे अ.लोहमय जा. यावत पर्यवसान भ० होते हैं ते० इसलिये गो. गौतम ए० एसा कहा जा जा. जितने में अ० अन्न में ग्लान स० श्रमण णि निग्रंथ क० कर्म णि निर्जरते हैं . वैसे को कोडाकोडी में णो नहीं ख० क्षय करते हैं।१६॥४॥ . . ते. उस का. काल ते. उस स० समय में उ० उल्लका तीर ण नगर हो० था . बर्णन युक्त से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जावइयं अण्णगिलायए समणे णिग्गंथे कम्म णिज्जरेइ तंचेव जाव कोडाकोडीएवा णो खवयंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ! जाव , है विहरइ ॥ सोलसमस्स चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ४ ॥ . तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लयातीरे णामं णयरे होत्था अण्णओ ॥ एगजंबुए वाले श्रमण निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करे उतने कर्मों की निर्जरा नरक में रहे हुवे नारकी वर्ष में, प्रत्येक वर्ष में या मो वर्ष में नहीं कर सकते हैं यावत् चोले करनेवाले श्रमण निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करते हैं उतने कर्मों की निर्जरा नरक में रहे हुवे नारकी क्रोड वर्ष में, प्रत्येक क्रोड वर्ष में वोडाक्रोड वर्ष में भी नहीं कर सकते हैं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य ह सोलहवा शतक का चौथा उद्देशा पूर्ण हवा ॥ १६ ॥ ४॥ चतुर्थ उद्देशे में निर्जरा का कथन किया. अब आगे देवता की आगमनादि शक्ति स्वरूप कहते *पकाचक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ wwwwww Page #2233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सूत्र सोलहवा शतक का पांचा उदंशा 42 भावार्थ पंचमाङ्ग 19 Page #2234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -बालब्रह्मचारी महा मुखवाले था. बाहिर के पो० पद्ल अ० ग्रहण किये विना प. समर्थ आ० आने को जो नहीं यह अ० अर्थ म. ममर्थ दे.देव मं० भगवन् म. महद्धिक ए. ऐमा ए. इस अ० अभिलाप से गई जाने को ए. ऐसे भा० बोलने को वि० प्रश्न पूछने को उ. उन्मेष करने को नि निमेष करने को आई संकुचित करने को प० प्रसारने को ठा० स्थान से० शैय्या नि. निषिद्या वे० जानने को वि० वैक्रेय करने को प० परिचारणा करने को जा. यावत् हैं. हां ५० समर्थ इ० ये अ० आठ उ० संक्षिप्त ५० जाव महसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए ? णो इणढे समढे देवेणं भंते! महिदिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू आगमित्तए ! हंता पभू देवेणं भंते ! महिड्डिए एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए २, एवं भासित्तएवा, वियागरित्तएवा ३, उंमिसावेत्तएवा निम्भिसावेत्तएवा ४, आउंटावेत्तएवा पसारेत्तएवा ५, ठाणं वा. सेजं वा णिसीहियं वा. वत्तित्तएवा ६, एवं विउवित्तएवा ७. एवं परिवाला देव वाहिर के पुद्गल ग्रहण किये विना क्या आने को समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये विना यहां आने को समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! महर्दिक 4 महासखवाला देव बाहिर के पुदगल ग्रहण कर क्या यहां आ सकते हैं ? हां गौतम ! बाहिर के पुद्गल ग्रहण कर यहां आ सकते हैं. जैसे आने का आलापक कहा वैसे ही जाने का, बोलने का उत्तर देने का, आंखों दकने का, आंखों खोलने का, संकुचन व प्रसारन करने का, शैय्या, ध्यान व कायोत्सर्ग wanaamaananam प्रकाशकाजाबहादुर लालामुखदवसहायनी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #2235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO शब्दार्थक प्रश्न वा. व्याकरण पु० पुछकर सं• संभ्रांत वं. वंदन से वं० वंदना कर ना० उती दि० दीव्य जा० . यान विधानपदु० आरूढ होकर जा. जिस दिशी से पा. प्रगट हुवा ता. उसी दिशि में १० पी गया ॥२॥ भं० भगवन् भ० भगवान गो गौतमने स० श्रमण भ० भगवंत ५० पहावीर को वं. वंदना कर ण. नमस्कार कर ए. ऐमा ब. बोले अ० अन्यदा भगवन् सशक दे० देवेन्द्र दे. देवराजा आपको 40 वंदना करता है ण. नमस्कार करता है .जा. यावत् प० पर्युपासना करना है कि क्या • भगवन् स. शक्र दे० देवेन्द्र दे. देवराजा द० देवानुप्रिय को अ. आठ सं० मंक्षिप्त प. प्रश्नोत्तर याएत्तएव। ८, जाव हंता पभू इमाइं अट्ट उक्खित्त पसिणवागरणाइं पुच्छइ सं भतिय वंदणएणं वंदेइ वंदेइत्ता तमेव दिव्वं जाण विमाणं दुरूहइ दुरूहइत्ता जामेव दिसिं पाउन्भए तामेव दिसिं पडिगए ॥ २ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी अण्णदाणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ ॥ किण्णं भंते ! सक्के देविंदे भावार्थ करने का. क्रय करने का और परिचारणा करने का यों आठ आलापक कहना. ऐ वाले प्रश्नों पुछकर संभ्रांत बंदना नमस्कार कर उस ही यान विमान में बैठकर जिस दिशा से आया था * है वहां पीछा गया ॥०॥ उस समय भगवंत गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा चोला कि अहो भगवन् ! जब शक देवेन्द्र देवराजा आते हैं. सब आपको वंदना नमस्कार यावत् 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र Page > मोलहवा शतक का पांचवा उद्देशा 4.88 Page #2236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री पु० पुछकर सं० संभ्रांत वं० वंदना कर ण नमस्कार कर जा. यावत् प० पीछा गया गो० गौतमादि: स. श्रमण भ० भगवंत म. महावीर भ० भगवान गो० गौतम को ए. ऐमा व. बोले ए. ऐसे गो गौतम ते. उस काल ते. उस समय में म० महा शुक्र क० देवलोक में म० महा सामानिक वि० विमान में दो दो दे० देव म० महद्धिक जा० यावत् म० महा सुखवाले ए० एक वि० विमान में दे० देवतापने उ०११ उत्पन्न हवे तं० तद्यथा मा० मायी मि० मिथ्यादृष्टि उ० उत्पन्नक अ० अमायी स० सम्यक्दृष्टि उ०१ उत्पन्नक त० तब से वह मा० मायी मि० मिथ्यादृष्टि उ० उत्पन्नक दे० देवने मा० मायी समदृष्टि उत्पन्न देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छइत्ता संभंतियं वंदइ, वंदइत्ता जाय पडिगए. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणियविमाणे दो देवा महिदिया जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए उववण्णा, तंजहा मायीमिच्छद्दिउिववण्णएय, अमायीसम्माट्टीउववण्णएय ॥ तएणं से पर्युपासना करते हैं परंतु आज किस कारन से शक्र देवेन्द्र देवराजा आपको संक्षेप में आठ प्रश्नों पुछकर संभ्रांत चित्त से वंदना नमस्कार कर पीछे चले गये ? श्री श्रमण भगवंत महाबीर स्वामीने कहा कि अहो गौतम ! उस काल उस समय में सातवा महाशुक्र देवलोक में महा सामानिक विमान में महर्दिक यावत् महासुखवाले दो देव एक ही विमान में देवतापने उत्पन्न हुए. जिन में एक मायी मिथ्यादृष्टि और प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०७ न शब्दार्थ दे. देव को एक ऐसा व०कहा १०परिणयते हुवे पो० पुद्गल जो नहीं प.परिणत अ०अपरिणतप० परिणमते है । १० हैं ति० ऐसा पो० पुद्गल णो० नहीं ५० परिणत अ० अपरिणत त० तब से. उस मा० मायी स.. सम्यग्दृष्टि उ० उत्पन्नक दे० देवने तं० उस मा मायी मि० मिथ्यादृष्टि उत्पन्नक देव को ए. ऐसा व० कहा ५० परिणमते हुये पो० पुद्गलः ५० परिणत णो० नहीं अ० अपरिणत ५० परिणमते हैं ति ऐसा मायीमिच्छद्दिट्टीउबवण्णए देवे तं अमायीसम्मदिट्रीउववण्णयं देवं एवं वयासी परिणममाणा पोग्गला जो परिणया, अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला णो परिणया अपरिणया ॥ तएणं से अमायीसमाहिट्ठीउववण्णए देवे तं मायीमिच्छट्ठिीउववण्णगं देवं एवं वयासी परिणममाणापोग्गला परिणया णो अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला दूसरा अमायी सम्यग्दृष्टि है. जो मायी मिथ्यादृष्टि देव है उसने अमायी सम्यग्दृशिवाले. देव को ऐसा कहा कि परिणमते हुए पुद्गलों परिणत नहीं है क्यों कि अतीतकाल व वर्तमान काल का विरोध है.. और जो पुगल परिणमते हैं वे पुद्गल परिणत नहीं है परंतु अपरिणत है. तब अमायीसम्यग्दृष्टि में Fउत्पन्नदेवने ऐसा कहा कि परिणमते हुवे पुद्गल परिणत हैं परंतु अपरिणत नहीं हैं और जो पद परिणमते हैं वे परिणत हैं परंतु अपरिणत नहीं हैं. यदि परिणाम से परिणत पना न होवे तो सदैव 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात : ( भगवती ) सूत्र tagr सोलहवा शतक कापांचवा उद्दशा 488 Page #2238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 49 अनुवादकः बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पो० पुद्गल प० परिणत णो • नहीं अ० अपरिणत ॥ ३ ॥ ते० उस मा० मायी मि० मिध्यादृष्टि दे० (देव को ए० ऐसा प० पराभव करके ओ० अवधि प० प्रयुंजा मं० मुझे आ देखकर अ० ऐमा जा०यावत् स० उत्पन्न हुवा ए० ऐसा स० श्रमण भ० भगवंत मव्महावीर जय जम्बुद्वीप के भाग्भरतवर्ष में जे० जहां उ० उल्लुकातीर ण० नगर में जे० जहां ए० एक जम्बूक चे उद्यान अ० यथामतिरूप जा० यावत् वि० विचस्ता है। परिणया णो अपरिणया ॥ ३ ॥ तं मायीमिच्छदिट्ठी उववण्णगं देवं एवं पाडेहणइ एवं पहिणइत्ता ओहिं पउंजइ २ ता ममं ओहिणा आभोएइ २ त्ता अयमेया रूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे जेणेव उल्लुयातीरे णयरे जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं सेयं खलु समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं * प्रकाशक राजीवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी उस का अभाव प्रसंग होता है. ॥ ३ ॥ इस तरह उस मायीमिध्यादृष्टि देव को प्रत्युत्तर रहित करके उस सम्यग्दृष्टि देवताने अवधिज्ञान प्रयुंजा अवधिज्ञान प्रयुंज कर मुझे अवधिज्ञान से देखा और ऐसा विचार हुवा कि जम्बूद्रीप के भरत क्षेत्र में उल्लुकातीर नगर में एकज़म्बू उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यथामतिरूप अवग्रह याचकर विचरते हैं इस से श्रमण भगवंत महावीर को वंदना ૨૨૯ Page #2239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 488 पंचांग विवाह पस्नत्ति (भगवती ) मूत्र 4884 सं० इस से से० श्रेय स० श्रमण भ. भगवंत म. महावीर को 4. वंदना करना जा यावत् १०पर्युपासना करना इ० यह एक ऐसा वा० उत्तर पुः पुछकर ति एसा करके ए०ऐने सं०विचारकर च०चार सा०सा-2 मानिक सा० सहल पा० परिवार ज• जैसे सू० सूर्याभ णि• निघोषणावाला र० शब्द से प० नीकला ग. जाने को॥४॥ त० तब से वह स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा त० उस दे. देव को तं उस दि० दीव्य दे० देवदि दि० दीव्य दे० देवद्युति दे. देवानुभाव दि० दीव्य ते. तेजो लक्ष्या अ० नहीं पुच्छित्तएत्ति कटु, एवं संपेहेइ २ त्ता चउहिं सामाणियसाहस्साहि परियारो जहा सूरियाभस्स जाव णिग्घोसणादितरवेणं जेणेव जयुहीवे दीवे भारहेवासे : जेणेव उल्लुया तीरे णयरे जेणेव एगजंबुए चेइए जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारे.. स्थगमणाए ॥ ४ ॥ तएणं से सक्के देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिन्वं देविड.. दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं दिन्च तेयलेस्सं असहमाणे अट्ठ उक्खित्तपसिण . करना यावत् पर्युपासना कर के ऐसे प्रश्नों पुछना मुझं श्रेय है. ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देव के परिवार सहित सूर्याभदेव मान यावत् निघोषणादि शन्द कर के जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में उल्लुका तीर नगर में एक जम्बू उद्यान में मेरी पास आने के लिये नीकला है. ॥ ४ ॥ अब यह शक देवेन्द्र देवराजा उस देवता की.दस्य देवदि, दीव्य देयुति, पीय कानुभाव पाय जापान maaamanarianisex सोलहवा शतेक का पांचवा उदेना कम Page #2240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ 4. अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी gr * सहते अ.. आठ उ० संक्षिप्त प०. प्रश्न वा० उत्तर पु० पूछकर सं० संभ्रांत ५० पीछा गया। ॥५॥ जा० जितने में स० श्रमण भ० भगवंत ए. यह अ० वात ५० कहते हैं ता० उतने में से वह देदेव तं० उस दे० विभाग में हः शीघ्र आ० आया ॥ ६ ॥ शेष सरल ॥ वागरणाई पुच्छइ, पुच्छइत्ता संभंतिय जाव पडिगए ॥५॥ जावं चणं समणे भगवं 'महावीरे, भगवओ गोयमस्स एयमढे परिकहेइ, तावंचणं से देवे तं देसं हत्वमागए ॥ ६ ॥ तएणं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ णमंसइ वंदइत्ता प्रम. सइत्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायी उव वण्णए देवे ममं एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला णोपरिणया अपरिणया, परिणमंती नही सहन करने से संभ्रान्तीचप्स से संक्षिप्त में आठ प्रश्नों पुछकर अपने स्थान पीछा चला गया. ॥ ५ ॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐमा कहते थे उतने में ही वह देवभी वहां ही आगया अब उस देवने श्री श्रमण भगवंत महावीर को तीन बार वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! सातवे महा शुक्र देवलोक के महासामानिक विमान में एक मायीमिथ्या दृष्टि देवने मुझे रोसा कहा कि परिणमते हवे पदल परिणत नहीं हैं परंत अपरिणत हैं और जो पदल परिणमते हैं * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ । Page #2241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र तिपोग्गला णो परिणया अपरिणया ॥ ७॥ तणं अहं ते मायमिच्छविण देवं एवं वयासी - परिणममाणा पोग्गला परिणया णो अपरिणया, परिणमंतीति पोगला. परिणया णो अपरिणया ॥ से कहमेयं भंते ! एवं ? गंगदत्तादि ! समणे भगवं महाबीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी अहं पिणं गंगदत्ता ! एव माइक्खामि ४ परिणममाणा पोग्गला जाव णो अपरिणया सच्चे मेसे अट्ठे ॥ ८ ॥ तरुणं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म हट्ठ तुटु समणं : भगवं महावीरं वेदइ णमंसइ २ त्ता णच्चासपणे जाव पज्जुवासइ ॥ ९ ॥ तणं से गंगदत्ते देवे... सोलहवा शतक का पांचवा उद्देशा भी परिणत नहीं हैं. हुवे पुलों परिणत हैं [नहीं है. अहो भगवन् कहा कि अहो गंगदत्त ! ! ॥ ७ ॥ तब मैंने उस मायी मिध्यादृष्टि उत्पन्न देव को ऐer aer क परिणमते परंतु अपरिणत नहीं हैं और जो पुद्गल परिणमते हैं वे परिणत हैं. परंतु अपरिभुत यह किस तरह है ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उस गंगद्रत्त देव को ऐसा मैं भी वैसे ही कहता हूं यावत् मरूपता हूं कि परिणमते हुवे पुद्गल परिणत हैं। और जो पुद्गल परिणमते हैं वे भी परिणत हैं परंतु अपरिणत नहीं है. यह बात सत्य है || ८ || अब वह गंगादत्त देव श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से यह अर्थ सुनकर अवधारकर हृष्ट तुष्ट बनकर Page #2242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २२१२ समणस्त भगवओ महावीररस अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हट्ट तुट्टे उट्ठाए, उट्टेइ, उर्दुइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं क्यासी-अहंणं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिडिए, अभवसिद्धिए, एवं जहा सरियाभो जाव बत्ती. सविहं उपदंसेइ २ त्ता जाव तामेव दिसिं पडिगए ॥ १० ॥ भनत्ति भगवं गोयमे P... समणं भगवं जाव एवं वयासी-गगदत्तस्स णं भते ! देवस्स सा दिव्या दबिड्डी दिव्या क देवजुत्ती जाब अणुप्पविट्ठा ? गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा कूडागारसाला दिटुंतो जाव सरीरं अणुप्पविट्ठा। अहोणं भंते ! गंगदत्ते देवे महिाड्डए जाव महेसक्खे श्रमण भगवंत महानीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर नम्न आसन से यावत् पर्युपामना करने लगा ॥९॥ फार गंगदत्त देव श्रमण भगवंत की पास से धर्म मुनकर हट तुष्ट हुवा और अपने स्थान से उठकर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार करके उसने प्रश्न पूछा कि अहो भगवन् ! क्या में देव भवसिद्धिक हूं या अभवसिद्धिक हूं ? ऐसे ही जैसे सूर्याभका यावत् बत्तीस प्रकार के नाटक बतलाकर जहां से आया था वहाँ पीछा गया ॥ १० ॥ श्री गौतम स्वामीने आपण भगवन महावीर स्वामी को प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दीव्य देव ऋद्ध देव घुति वगैरह कहां गइ कहाँ प्रविष्ट । हुइ ? अहो गौतम! कूदाकार जैसे शरीर में गइ शरीर में ही प्रविष्ट हुइ. अहो भगवन्! गंगदच देव महाऋदि. बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादगी . भावाथे 4. Page #2243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ॥११॥ गंगदत्तेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुत्ती किंणा लडा जाव जणं गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमण्णागया ? गोयमादि ! समणे • भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयामी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालणं तेणं सम २२१३ एणं इहेव जंबूहीवे दीवे भारहेवासे हत्थिणापुरे गामं जयरे होत्था वण्णओ, सहसं ववण्णे उजाणे वण्णओ, ॥ १२ ॥ तत्थणं हथिणापुरे णयरे गंगदत्ते णामं गाहावई परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए ॥ १३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुब्बए अरहा आदिगरे जाव सम्वष्णु सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव पकटिजमाणेणं, पकभावार्थवंत यावत् महा ऐश्वर्यवंत है ॥ ११॥ अहो भगवन् ! उस गंगदत्त देव को ऐमी ऋद्धि कैसे मीली कैसे प्राप्त हुई ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामी भगवान् गौतम को ऐसा बोले कि अहो गौतम ! उस ल उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नगर था. वह वर्णन योग्य था. उस ईशान कौन में सहस्र वन उद्यान था ॥ १२ ॥ उस हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त गाथापति रहना था. वह 13ऋदिवंत यावत् अपराभून या ॥ १३ ॥ उस काल उम ममय में मुनि सुत्रत आरिहंत आदि के करनेवाले 3 यावर सर्व सदी आकाशगतचक से यावत् धर्म को प्रगट करते २ शिष्य समुदाय से परवरे हुवे । (भगवती ) सूत्र पचरंगविवाह पनि g+4 सोलहवा शतक का पांचवा उद्देशा 848 भा Page #2244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१४ सत्र .. हिज्जमाणणं सीसगणसंपरिखुडे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम जाव जेणेव सहसं .. ववणे उजाणे जाव विहरइ ॥ १४ ॥ परिसा जिग्गया जाव पज्जुबासइ ॥ १५ ॥ 1 तएणं से गंगदत्ते गाहावई इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हट्ठ तुट्ट जाव कयवलि सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता पादविहारचारेणं हत्थिणा 'उरे णयरं मझं मझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ताजेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव मुणि सुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो आया. हिणं पयाहिणं जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ ॥ १६ ॥ तएणं मुणिसुब्बए भावार्थ पूर्वानुपूर्षि चलते ग्रामानुग्राम विचरते सहस्रवन उद्यान में यावत् विचरने लगे ॥ १४ ॥. परिषदा वंदने को नीकली यावत् पर्युपासना करने लगी ॥ १५ ॥ जब गंगदत्त गाथापति ने यह कथा सुनी तब वह हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा, स्नान किया, कोग किये, तीलमसादिक किय यावत् अपने गृह से नीकलकर पाँवसे चलते हुने हस्तिनापुर नगर की बीच में मेनीकलते हुरे महसदन उद्यान में मुनि सुत्रन अश्रित की पास गया. मुनि सुत्रत अरिहंत को हस्त जोडकर तीनवार वंदना नमस्कार कर यावत् नीन योगों की शुद्धि से पर्युपासना करने लगा ॥ १६ ॥ मुनि सवत स्वामीने गंगदत्त गाथापति को उस महती परिषदा. में धर्मो-* * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री. अमोलक ऋषीजी wnmitrammarriranmmmmmmmmmmmmmm * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी -- - - . Page #2245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्र (भगवती) सूत्र पंचमांग विवाह पण्णतिं (भग अरहा गंगदत्तस्स गाहावइस्स तीसेय महति जाव परिसा पडिगया ॥१७॥ तएणं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट तुट्ठ उठाए उट्टेइ, उढेइत्ता मुणिसुव्ययं अरहं वंदइ णमंसइ २ ता एवं वयासी-सद्दहामिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह जं · णवरं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुडुंबे ठावेमि ॥ तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिथं मुंडे जाव पन्वयामि ॥ अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध॥ १७ ॥ तएणं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुत्रएणं अरहा एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुट्ठ मुणिसुव्वयं अरहं वंदइ णमंसइ बंदइत्ता णमंसइत्ता मुणि पदेश सुनाया. यावत् परिषदा पीछी गई ॥ १७ ॥ गंगदत्त गाथापति श्री मुनिसुव्रत अरिहंत के वचन कर हृष्ट तुष्ट हुवा, और अपने स्थान से उठकर मुनि सुव्रत अरिहंत को वंदना नमस्कार कर बोला अहो भगवन् ! मैं निग्रंथ के प्रवचन श्रद्धता हूं. यावत् जैसे आप कहते हैं वैसे ही हैं. विशेष में ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्ब में स्थापकर मैं आप की. पास मुंडित होवूगा यावत् दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवा नुप्रिय! तुमको जैसे सुख होवे वैसा करो बिलंब मत करो ऐना मुनिसुव्रत सामीने कहा।।१७॥ जब मुनिसुव्रत अरिहंतने ऐसा कहातब वह गंगदत्त गाथापति हृष्ट तुष्ट हुवा और मुनिमुव्रत अरिहंत को बंदना नमस्कारकर 30- सोलहना शतक, का. प्रचिवा उद्दशा. भावार्थ t+8 । .." Page #2246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्ख मइत्ता जेणेव हत्थिणापुरे णयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्तिा विपुलं असणं पाणं जाव उबक्खडावेइ २ त्ता, मित्तणाइणियग जाव आमंतेइ २ ता तओ पच्छा हाए जहा पूरणे जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेइ, तं मित्तणाइ जाव जे? पुत्तं च आपुच्छइ. आपुच्छइत्ता पुरिससहस्पबाहिणीसीयं दुरूहइ २ त्ता मित्तणाइ णियग जाव परिजणेणं जेटुपुत्तेणय समणुगम्ममाणमग्गे सविड्डीए जाव णादितरवेणं हत्थिणापुरं णयरं मझमझणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव भावार्थ मुनि सुत्रत अरिहंत की पाम से सहस्र वन उद्यान में से नीकलकर हस्तिनापुर में अपने गृह आया. वहां विपुल अशनादि बनाकर मित्र ज्ञाति जनादिक का आमंत्रणा कर फीर स्नान कर वगैरह अधिकार है जैसे पूरण तापस का कहा वैसे ही यहां जानना यावत् ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्न में स्थापकर ज्येष्ठ पुत्र व Eमिष ज्ञाति को पुछकर सहस्र पुरुष वाहिनी पालखी में बैठकर मित्र शानि, साजन व ज्येष्ट पुष की साथ जाते सब ऋद्ध सहित यावत वार्दित्र सहित हस्तिनापुर नगर की वीच में से नीकलकर महसवन उद्यानमें न गया. वहां छत्रादि अतिशय देखकर उदायन राजा जैसे यावत स्वयमेव आभरण नीकाल कर स्वयमेव +१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रक्तशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालामसादजी. Page #2247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचांग विवाह पणचि ( भगवती ) मूत्र उवागच्छइ २ ता छत्ताइच्छत्ते तित्थगरादि पासइ, एवं जहा उदायणे जाव सयमेव आभरणे उमुयइ, उमुयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेइत्ता जेणेव मुणिसुन्वए अरहा एवं जहा उदायणे तहेव पन्नइए ॥ १८ ॥ तहेव एक्कारस अंगाई अहिजइ, जाव मासियाए संलहणाए सर्द्धि भत्ताइ अणसणाए जाव छेदेइ, छेदेइत्ता आलोइय पडिक्वंते समाहिपत्ते कालमास कालकिच्चा महासुक्के कप्प महासामाणे विमाणे उववाय सभाए देवसयणिजंसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववणे ॥ १९ ॥ तएणं से गंगदत्ते । देवे अहुणोक्वण्णमेत्तए समाणं पंचविहाए पजत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तंजहा आहारपजत्तीए जाव भासामणपजत्तीए एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिल्या पंच मुष्टि लोच किया. मुनि सुव्रत अरिहंत की पास आया. और उदायन राजा. जैसे मुंडित यावत् प्रवइजित हुवा ॥ १८ ॥ फीर अग्यारह अंगों का अध्ययन कर एक मास की संलेखना से साठ भक्त अनशन का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण व समाधि सहित काल के अवमर में काल कर महा शुक्र देवलोक में महामामानिक विमान में उपपात सभा में देवशय्या में यावत् गंगदत्त देवतापने उत्पन्न हुवा ॥ १९ ॥ वह गंगदत्त देव महार पर्याप्ति यावत् भाषा मन पर्याप्ति ऐसी पांच पर्याप्ति से अभी ही पर्याप्त भाव को प्राप्त २० 48सोलहवा शतक का पांचसा उद्देशा Page #2248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ १८ भावार्थ अमोलक ऋषिजी. 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोर क० कितने प्रकार मु० स्वप्न दर्शन प० कहे गौ० गौतम पं० पांच प्रकार के मु० स्वप्न दर्शन प.* देविड्डी जाव अभिसमण्णागया ॥ २० ॥ गंगदत्तस्सणं भंते! देवस्स केवइयं कालं' ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तसागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ! गंगदत्तण भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव महाविदहवासे सिझिाहिइ, जाव अंतं काहिति सेवं भंते भंतेत्ति सोलसमस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ५ ॥ ... कइविहेणं भंते ! सुविणदंसणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे षण्णत्त, बैं हुवा है. अहो गौतम ! इस तरह गंगदत्त देवने ऐसी दीव्य देव ऋद्धि यावत् प्राप्त की है ॥ २० ॥ अहो । भगवन् ! गंगदत्त देव की कितनी स्थिति कही है ? अहो गौतम ! गंगदत्त देव की सात सागरोपम की स्थिति कही है. और वह वहां से आयुष्य क्षय यावत् महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा बुझेगा व सब दुःखों का अंत करेगा. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह सोलहवा शतक का पांचवा उद्देशा* संपूर्ण हुवा ॥ १६ ॥५॥ है पांचवे उद्देशे में गंगदत्त को सिद्धि कही. किसी भव्य को स्वप्न से सिद्धि, की प्राप्ति होती है इसलिये आगे स्वप्न का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! स्वप्न दर्शन के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! स्वप्न दर्शन के पांच भेद कहे हैं. जिन के नाम. . १ जिस तरह सत्य है वेसा स्वप्न आव सो यथातथ्य * काशक राजविहदुरे लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी * 1 Page #2249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 शब्दार्थ कहे तं तद्यथा अ• यथातथ्य प० प्रमाण चि. चिंता स्वप्न त० तद्विपरित अ० अध्यक्त दर्शन ॥१॥ म०. सोया हुवा मु० स्वप्न पा० देखे जा० जागृत सु. स्वप्न पा० देखें सु० मुप्त जाग्रत सु० स्वप्न पा०* देखे गो० गौतम णा नहीं सु सुप्त को नहीं जा जागृत मु• सुप्त जाग्रत ॥२॥ जी• जीव भं० भगवन् तंजहा-अहातच्चे, पयाणे, चिंतासुमिणे, तन्विवरीए, अव्वत्तदसणे ॥ ॥ सुत्तेणं __ भंते ! सुविणं पासइ जागरे सुविणं पासइ सुत्तजागरे 'सुविणं पासइ ? गोयमा ! णो सुत्ते सुविणं पासइ जो जागरे सुविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ ॥ २॥ भावार्थ १२ विस्ताररूप स्वप्न सो प्रतान यह यथातथ्य से विपरीत है. ३ जाग्रत अवस्था में जो चितवन किया। होवे बही स्वप्न अवस्था में आवे सो चिन्ता स्वप्न ४ स्वप्न में जो वस्तु देखी होवे उस से विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना सो नद्विपरीत स्वप्न ५ और स्वप्न का अर्थ समझ में आवे नहीं सो अव्यक्त स्वप्न ॥१॥ अहो भगवन् ! सोते हुवे [निद्रस्थ ] स्वप्न आता है, जगते हुवे स्वप्न आता है। या सोतेजगते हुवे स्वप्न आता है ? अहो गौतम ! सोते हुवे स्वप्न 'नहीं आता हैं. जगते हुवे स्वम नहीं आता है परंतु अर्ध सोते अर्ध जगते हुने स्वम आता है. * ॥२॥ अहो भगवन् ! जीव । Trolo..* यहां सोने जगने के दो भेद समझना. द्रव्य से व भाव से द्रव्य से. सोता हुवा निद्रा आश्री कहा जाता है और भान में सोता हुबा मोहमिद्रा भाश्री मिना जाता है, इस में से यहांपर-द्रव्य- निद्रालेना. ........... पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र . सोलहवा शतक का छठा उद्दश बम Page #2250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रकाशक राजाबहादुर लाला शब्दार्थ 4 सु० सुत जा० जाग्रत मु० सुप्त जावत गौ० गौतम जी जीव मु० सुप्त जा. जाग्रत मु• सुप्त जावत ॥३॥ सं• संवृत मु. स्वण पा• देखे अ० असंहत मं० मंवृता संवृत गो. गौतम सं० संवृत. सु. जीवाणं भंते ! मुत्ता जागरा सुत्त जागरा ? गोयमा ! जीवा सुत्तावि जागरावि सुत्तजागरावि। णेरइयाणं भंते ! किं सुत्ता पुञ्छा गोयमा! गैरइया सुत्ता णो जागरा ‘णो सुत्तजागरा एवं जाव चउरिदिया पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं. सुत्ता : पुच्छा, गोयमा ! सुत्ता णो जागरा सुत्तजागरावि ॥ मणुस्सा जहा जीवा, वाणमं तरजोइसिय वेमाणिया जहा रइया ॥ ३ ॥ संवुडगं भंते ! सुविणं पासह मोसे हुवे हैं, जगत हुवे हैं या मोते नगते हुवे हैं ? अहा गौतम ! जीव मोते हुवे हैं, जगते हुये हैं और सोते हुा जगते हुवे एरो दोनों हैं. जो विरति व मोदद्रिा में लाने हैं, विरति जगत हैं और विरताविरति मोते जांगने दोनों हैं. अहो भगवन्! क्या नारकी मौत हुने हैं जगते हु हैं या मोते जगत हुने हैं ?अहो गौतम नारकी सोने हुने हैं परंतु जगते हुवे व साने जगते हुने नहीं: ऐसे ही चतुरेन्द्रिय तक कहना. अहो भगवन्! तियेच पंचेन्द्रिय क्या मोते हुवे जगते हु। या मोते जगते हुो हैं ? अहो गातम ! रियच पंचेन्द्रिय सोते हुने हैं और साते जगत दोनों हैं परंतु जगते हुये नहीं हैं. मनुष्य का ममुच्चय जीव जैसे तीनों भेद कहना वाणभ्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना.॥३॥ अहो भगवन् ! पांच आश्रव का निरोध 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी | Page #2251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र थाचा भ * पंचमांग विवाद पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र (स्वप्न पा० देखे अ० यथातथ्य पा० देखे अ असंवृत सु० स्वप्न पा० देखे त तैसा अ० अन्यथा हो ० ( हांवे सं० संवता संवृत सु० स्वप्न पा० देखे ए० ऐस || ४ || सरल || ६ || क० कितने मं० भगवन् सु० स्वप्न ५० कहे गो० गौतम बा० बीयालीस सु० स्वप्न प० कहे ॥ ६ ॥ क० कितने भं० भगवन म असंवडे सुविणं पास, संवुडासंबुडे सुविणं पासइ ? गोयमा ! संबुडे सुविणं) पासइ, असंवडेवि सुविणं पासइ, संबुडासंकुडेवि सुविणं पासइ ॥ संबुडे सुविणं पासइ अहातच्चं पासइ, असंबुडे सुविणं पासइ तहावा तं होज्जा अण्णहात्रा तं होना, संबुडा बुडे सुविणं पासइ एवंचेव ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते ! किं संबुंडा अबुडा संवुडावुडा ? गोयमा ! जीवा संबुडावि असंवुडावि संवुडाबुडात्रि ॥ एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्व ॥ ५ ॥ कइणं भंते ! सुविणा पण्णत्ता ? गोमा बायालीसं सुविणा पण्णत्ता ॥ ६ ॥ कइणं भंते! महासुविणा पण्णत्ता ? करने वाले संवृति को क्या न आता है असंवृति को भी स्वप्न आता है, और संवृतासं वृति को भी स्वम आता है परंतु संवृति को यथातथ्य स्वयं आता है और शेष दोनों को मेब तरह के स्वम आते है ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या संवृति है असंवृति है या संवृता संवृति है ! अहां गौतम ! जीवों तीनों प्रकार के हैं. ऐसे ही जैसे पहिले सुप्त जीवों के दंडक कहे थे वैसे ही यहां जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! कितने स्वप्न कहे हैं ? अहो गौतम ! बीयालिन स्वम कहें 4- सोलहवा शतक का उछ उद्देशा 496 २२२१ Page #2252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ ब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी महा सण गो० गौतम तीनस म० मा स्वप्न ॥ ७ ॥ क० किनो भ० भगवन स० सब सु. स्वम ॥ ८॥ ति तीर्थकर की माता भं• भगवन् ति नीर्थ कर ग. गर्भ में व. उत्पन्न ए० इन में से क० कितन म० महा स्त्रम पा० देव कर ५० जाग्रा. होनी हैं गा० गोतन ति० तर्थिकर की माता मा० तितीर्थंकर ग० गर्भ में क. अन ए. इस ती. नीम म० महा सम्म में मे इ. ये च० चउदह म० गायमा ! तीसं महासुविगा पण्णत्ता ॥ ७ ॥ कइणं भंते! सन्नसुविणा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावत्तरि सव्वसुषिणा पण्णत्ता ॥ ८ ॥ तित्थगरमायरोणं भंते ! तित्थगरंसि । गम्भं वक्कममाणसि कइ महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति ? गोयमा ! तित्थ.. गरमायरोणं तित्थगति गम्भं वक.माणमि एएमि तीसाए महासुविणाणं इमें । u ॥ अहो भगान् ! कितने महास्वत करे हैं ? ओ गौतम ? तीस महास न कहे हैं ॥ ७॥ अहो भगवन् ! सब किनन स्वण कहे ? अहो गोनप ! मब बात्तर स्वप्प कह हैं ॥ ८॥ अहो भगवन ! जब नीर्थकर अपनी माता के गर्भ में आते हैं, ता उस की माना इस सत्र में से कितने साप देखकर जाग्रत होनी हैं ? अहा गौतम ! जानी र अपती माता के गर्भ में आते हैं ना उनके माता तीस महा स्वप्न में से चउपह स्वप देखकर जाग्रत होती हैं. जिन के नाम. १ गज २ ऋषभ ३ सिंह, १४ लक्ष्मी ५ पुष्पमाला ६ चंद्र ७ सूर्य ८ धजा ९ कुंभ १० पद्यतरांवर ११ सागर १२ विमान या. प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावाथ Page #2253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब्दार्थ ॐ महा स्वम पा. देखकर ५० जागा होनी है तं. तयाग गत उ. ऋषभ मी. सिंह जा. यावत् । मिक शिया ॥१॥ व. वक्री की माता मं. भगान् व. वागः गर्भ में आते क. कितने म. महः मादब कर प. जग्राहनी, गो. गोता. चक्र की मा० माता च. चक्र ना. यावत् ए. इन ती नीस म. मह सत्र ए. ऐसे ति तीर्थकरकी माना जा. याात् पि. शिखाई। ॥१०॥वा. वासुदेव पाना जा० यारन १० उत्पन्न होते ए. इस.च० चउदह म. महा सन में से २१२१२३ + पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र चउद्दस महासविगे पासित्तागं पडियुझंति, तंजहा गय, उसम, सीह जाब सिहिच ॥ ९॥ चमवाहिमायरोणं भंत ! चक्क रहिसि गम्भं वक्कनमाणसि कदमहासुविणे , पासित्ताण पडिबुझंति ? गोयमा ! चकाटिमायरो चमवाति जाव वक्कममाणसि एएलि तीलाए महासुविणाणं एवं तित्थगर मायरो जाव सिहिच ॥ १० ॥ वासुदेव मायरो जाव वक्कममाणंसि एएसि चउइसण्हं महामुधिगाणं अण्गयरे सत्त महासुविणे भवन •३ रत्नराशि और १४ अप्रेशखा ॥ १॥ अहो भगवन् ! चक्राी गर्भ में आते चक्री की माता किन । सम देखती है ? अहो गौतम ! उक्त चोदह सम देखती है परंतु चक्राती की माता कुच्छ मंद सप्ष दखती है ॥ १० ॥ वासुदा की माता बानुब गर्भ में आते उक चदह महा स्वप्न में । सालावा शतक का छठा उद्दशा 448 भावार्थ 1 Page #2254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अ.. अन्य तर स० सात म० महास्वम पा० देखकर ५० जाग्रत होती है ॥ ११॥ ३० बलदेव की माता पु० पृच्छा गो० गौतम ब० बलदेव की माता जा. यावत् च० चउदह म. महा स्वप्न में से अ० अन्यतर च. चार म० महा स्वप्न पा० देखकर प० जाग्रत होती है ॥ १२ ॥ मं० मंडलिक माता भं० भगवन् पु. पृच्छा गो. गौतम मं० मंडलिक की मा० माता जा. यावत् १० इन च. चउदह म. महास्वप्न अ० अन्यनर ए० एक म० महास्वम जा. यावत् प० जाग्रत होती हैं ॥ १३ ॥ स० पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ ११ ॥ बलदेवमायरो पुच्छा ? गोयमा ! बल देवमायरो जाव एएस चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ १२ ॥ मंडालयमायरोणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! मंडलियमायरो जाव एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं जाव पडिबुझंति ॥ १३॥ समणे ' भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिसे किसी सात स्वप्न देखती है ॥ १५ ॥ बलदेव की माता वलदेव गर्भ में आते उक्त चौदह स्वप्न में से किसी चार स्वप्न देखकर जागृत होती है ॥१२॥ मंडलिक गर्भ में आते उसकी माता उक्त चौदह स्वप्न में से किसी एक सा देवकर जगा होती है ॥१३॥ सामाधिकार में श्री श्राग भगांत महावीर स्वामीने देखे *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दाथे सूत्र पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र श्रमण भ. भगवंत म. महावीर ने छ. छद्मस्थ का. काल में अं अंतिम रात्रि में इ० ये द० दशम.. महा स्वप्न पा० देखकर प० जाग्रत हुए तं तद्यथा ए. एक म. महा घो घोर रूप दि. दिप्ति धार करने वाला ता० ताल पिशाच को सु० स्वप्न में १० पराजित पा० देखकर प. जायत हुए ए. एक म0 बडा सु० शुक्ल १० पांखवाला पुं० पुस्कोकिल ए० एक म. बडा चिः चित्र विचित्र प० पांखो वाला पुं० पुस्कोकिल सु० स्वप्न में पा० देख कर प० जाग्रत हुवे ए० एक मं० वडी दा० मालाका युगल स० मराइयांस इमे दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, तंजहा-एगं चणं महं घोररूवं दित्तधरतालप्पिसायं सुविणे पराजियं पासित्ताणं पडिबुडे, एगं च णं महं सुक्किल पक्खगं । पुंसकोइलं मृविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, एगं च णं महं चित्तविचित्त पक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ताणं हुए स्वप्नों का कथन करते हैं. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी छद्मस्थ अवस्था की अंतिम रात्रि में दश स्वप्नों देखकर जागृत हुवे १ एक बडा घाररूपवाला दीप्त तालपिशाच को स्वप्न में पराजित करके जागृत हुए. २ एक बडा शुक्ल पांखोंवाला पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर जागृत हुवे ३ एक बडा चित्र विचित्र पांखोवाला पुस्कोकिल को स्वप्न में देखकर जागृत हुवे ४ एक बडी रत्नों का माला युगल को स्वप्न में देखकर जागृत हुए ५ एक बडा श्वेत गायों का वर्ग स्वप्न में देखकर जगृत हुए ६ मुगंधित • सोलहवा शतक का छट्ठा उद्दशा 80 भावार्थ Page #2256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ. 4 अनुवादक- बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ र० रत्नमय सु० स्वप्न में पा० देखकर प जाग्रत हुवे ए०एक म० बडा मे० श्वेत गो० गोवर्ग ए० एक म बडा प० पद्मशेरस चारों तरफ कु पुत्रों सन ए० एक म० बडा मा० समुद्र उ० तरंगों [स० सहस्रों में क० कलित भुः भुजा से ति० तीरा हुवा ए० एक म० बडा दि० सूर्य ते ० तेज मे ज० जाज्वल्यमान ए० एक म० वडा हहरा ० वैडूर्य के वर्ण ममान णि- अपने अं अंतरंड से सेमा० मानुषोत्तर प पर्वत का स० चारों तरफ आ० लपेटा हुवा पर विशेष लपेटा हुआ ए० एक म० बडा मं० पडिबुद्धे, एगं च णं महं संयं गोत्रग्गं सुविणे पासित्ताणं डबुडे, एगं चणं महं पउमसरं सव्वओं समंता कसुमियं सुवर्ण पासित्ताणं पडिबुद्ध, एवं चणं महं सागरं उम्मीत्रीयी सहस्त्रलियं याहिं तिष्णं सुत्रिणे पातित्ताणं पडिबुद्धे, एगंचणं महं दिणयरं तेयसा जलतं सुविणे पा०, एगंचणं महं हरिवेरूलिय वण्णाभण भियगेणं अतण माणुसुत्तरं पव्त्रयं सव्वओ समता आढय परिवेढिय सुविण पासित्ताणं पडिबुडे, एग चणं पप्पावाचा एक वडा १द्मसरोवर में देखकर जाग्रत हुये ७ छंटी घडी महस्र तरंगवाला एक बडा सागर का भजा मे नीरा हुवा स्वप्न में देखकर जग्र हुबट एक बडा तेजस्वी ज जलयान सूर्य की में देखकर जागृत हुव ९ नील वर्णवाले वैडूर्य रत्न जैसे अपने शरीर में रहे आंतर मनुष्य क्षेत्र की मर्यादा करनेवाला मानुषोत्तर पर्वत को दोनों तरफ वेष्टित व विशेष वेष्टित किया * प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालामनादि २२२६ Page #2257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२९ शब्दार्थ 4 मेरु पर्वत की मं० मेरु की चू० चूलिका उ० पर सा० सिंहासनपे अ० स्वनः को सु० स्वप्न में पा०देखकर ५० जाग्रत हुवे ॥ १४ ॥ ज० जो स० श्रपण भ. भगवंत म. महावीर ए. एक म. बडा घो: घररूप । दिदिप्ति धारन करने वाला पिः पिशाव सु० स्वर में पराजित किया पा० देखकर १० जाग्रत हु। कतं. इम से स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ने मो. मोहनीय क० कर्म मृ० मूल में घा० क्षय किया : जं. जो स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर ए. एक म० दडा मु. शुक्ल प. पांखवाला पु० पुस्को किल स० स्वप्न में पा० देखकर प. जाग्रत हुवे तं• इस संस० श्रण भ. भगवंत म. महावीर सु० | महं मंदरे पव्वएणं मंदर चूलियाए उवरि सीहारुणदरम्यं अप्पाणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ॥ २४ ॥ जंणं रूमणे भगवं महावीरे गं महं घोररूवं दिवधरं तालपिसायं मुविण पराजियं पासित्ताणं पडिबद्ध तणं समणेणं भगवया महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलओ घातिओ जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सक्किलं जाव पडिबई, तंणं समणे भगवं महावीरे सुझाणोरगए विहाइ जंण समणे भावार्थ हुवा देखकर जग्रत हुए और १० एक बडा लक्ष योजन का ऊंचा मेरु पनि की चालीस योजन की ऊंची चूलिकाप सिंहासन पर अप रूयं विराजमान हुए ऐसा देखकर जाग्रत हुवे ॥ २४ ॥ अब उक्त दश स्वप्नों का क्या फल हुआ सो कहते हैं. जो श्रमण भगवंत महावीर पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 42.मोलहवा शतक का छठा उद्दशा * * 48 । Page #2258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" 4.१ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. झा ध्यानोपगत वि० विचरें जं जो चि. चित्र वि०विचित्र जा. यावत् ज. जाग्रत हुए से स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीरने चिलचित्र विचित्र स० स्वसमय प० परसमय वाला द० बारह ग. गणिपिंड आ० कहे १० प्ररूपे दं० बतलाये नि० निर्देशे उ० उपदेशे तं० तद्यथा 3 आचार सू० मूत्रकृत जा. यावत् दि० दृष्टिवाद जं. जो ए० एक म० बडा दा० माला दु० युगल जा० यावत् प० जाग्रत हुवे तं० इस से स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीरने दु० दो प्रकार के ध० धर्म ५०१ प्ररूपे तं० तद्यथा आ० आगार धर्म अ० अनगार धर्म जं. जो ए० एक म० बडा गो. गायों का 40 __ भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त जाव पडिबुद्धे, तंणं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमय दुवालसगं गणिपिडगं आघवेति पण्णवेति परूवेइ दंसेइ निदंसेइ उबदसेइ, तंजहा आयारं सूयगडं जाव दिदिवायं जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे तंणं समणे भगवं महावीरे दुविहे धम्मे पण्णवेइ,तंजहा-आगार धम्मं वा अणगार धम्भवा जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं स्वामी एक बडा विकराल रूपवाला तालपिशाच को स्वप्न में देखकर जाग्रत हुवे थे उस का फल यह हुवाई कि श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ताल पिशाचरूप मोहनीय कर्म का मूल मे क्षय किया, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी स्वप्न में जो श्वेत पांखोवाला पुरुष कोकिल को देखकर जाग्रत हुवे थे इस से श्रमण भगवंत प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सुत्र भावार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र समुदाय जा० यावत् १० जाग्रत हुवे तं० इस से चा० चार प्रकार के स० श्रमण संघ १० प्ररूपा स० साधु सं०साध्वी सा० श्रावक सा० श्राविकाओं ए० एक म० वडा १० पद्म सरोवर जा० यावत् प० जाग्रत हुवे त० तत्र स० श्रमण जा० यावत् म महावीरने च० चार प्रकार के दे० देव प० कहे भ० भवनवासी ( वा० वाणव्यंतर जो० ज्योतिषी देव वैमानिक नं० जो स० भ्रमण भ० भगवंत म० महावीर ए० एक म वडा सा० सागर जा० यावत् प० जाग्रत हुवे तं० इन से स० भ्रमण भ० भगवंत म० महारीर अ० अनादि । पडिबुद्धे तंणं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउवण्णाइं समणसंघे पण्णत्ते तजहा समणाओ समणीओ सावयाओ सावियाओ जंणं समणे भगवं महावीरे एगमहं पउमसरं जाव पडिबुद्धे, तणं समजाव महावीरे चउविहे देवे पण्णवे तंजहा भवणवासी वाणमंतर जोइसिए बेमागिए जंणं समणे भगवं महावीरे एवं महं सागरं जाव महावीर स्वामी शुक्ल ध्यान में विचरने लगे, जो स्वप्न में एक चित्र विचित्र पांख वाला बडा पुरुषको किल को देखकर जाग्रत हुवे थे जिस से श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने विचित्र प्रकार के स्वसमय, पर ( समयरूप द्वादश, गणिपिंडग कहा, प्ररूपा, बतलाया, निर्देश किया, व उपदेश दिया. जिन के नाम आचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग यावत् दृष्टिवाद, स्वप्न में महावीर स्वामीने रत्नमय एक माला का युगल देखाथा जिस से श्रमण भगत दो प्रकारका धर्म कहा आगार धर्म व अनगार धर्म श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने जोश्वत गोवर्ग 43- सोलहवा शतक का छठा उद्देशा २२२९ Page #2260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अनवाटक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - अ. अंनत जा. यावत् संसार कतार वि. तीरे जं. जिस से स० श्रमण भ• भगवंत म० महावीर ९०१ : एम. वडा दि० सूर्य जा० यारत् प० नया हुवे तं• इस मे म० श्रमग भ. भगवंत म. महावीर को अ. अन अ: अनुत्तर जा. यारत के काल व. श्रेष्ट ण ज्ञान . दर्शा स० उत्पन्न हुवा जं. जो स० श्रमण मे जा: जाबत् वी महावीर में ए. एक मवडा ह० हरे वे० बैडूर्थ जा. यावत् प० जाग्रत हुरे तं० इ स १० अपण भः भगत प० पहावीर को औ? उहार कि. कीर्ति व० वर्ण स० शब्द सि० पडिबुडे, तंणं समणेण भगवया महावीरेणं अणदीए अणवदग्गे जाव संसार कनारे तिण्णे जणं समणे भगवं महावीर एगं महं दिणयरं जाव पडिबुद्धे, तंणं समणस्स भगवओ महावीरस्त अणंत अणुत्तरे जाव कंबलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ___ जंणं समणेणं जाव वारेणं एगं महं हरिय वरुलिय जाव पडिबुडे, तणं समगस्स साप्न में देखा था जिसमे श्रण भान महावीरने पाध, साधीः श्र का विकासाचधि मंघ की स्थापना की. श्रषण भात महावीर जो मुगंचित पुष्पाला बदामरोवर सा में देखा था जिसने श्रमण भगवंत महावीर सामीन भवनवासी, वणव्यर, ज्योतिपय मालिक. ये चारदेवों रूप कप में श्रमण भगवंत महावीर सामी हजारो तरंगो वाला समुद्रतीर जिम मे महावीर मामी आदि अनंत संसार तार के उत्तीर्ण हो.सन में श्रमण भगवंत पहावीर स्वामीने एक बडा तेजस्वी देदीप्यमान सूर्यदखा था जित से श्रण भगवंत महावीरको अनंत .प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ | सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र क स० देव सहित म मनुष्य अ० असुर लो० लोक में प० होत्रे इ० ऐसा स० श्रमण में भगवंत म० महावीर जं० जो स० श्रमण भ० भगत म० महावीर मं० मेरु पर्वत मे० मेरुकी चूलिका जा० यावत् ५० जाग्रत हुवे नं ० इन से स० श्रवण भ० भगवंत म० महावीर स० देव सहित म० मनुष्य अ० अर की प० परिषदा की म० मध्य में के० केलि ध आ कहा जा ० यावत् उ० उपदेशा || १८ || | भगरओ महावीरस्स ओराला वित्तिवण्णसद्दे सिलोया संदेव मणुयामुरेलोगे परिभवति इति खलु समणे भगवं महावीर इतिखलु समणे भगवं महावीर जंणं समणे भगवं महावीर मंदरपव्वय मंदरचूलियाए जात्र पडिबुद्धे, तंणं समणे भगवं महावीरे सदेव मासुरा परिसाए मज्झगए केवलीधम्मं आघवं जात्र उवदंसेइ ॥ १५ ॥ ( अनुहार केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुआ. हरे रंग के बैडूर्व रत्न समान अपने शरीर के आंतरडे मे { मानुष्योत्तर पर्वत को लपेटा हुवा देखा जिस से श्रमण भगवंत महावीर की उदार कीर्ति वर्ण व लोक देखें, मनुष्य व असुरलोक में चढा कि श्रमण भगवंत महावीर, श्रवण भगवंत महावीर, जो श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने स्वतः को मरुर्वन को चूलेका हासन पर बैठे हुए देखा जिसे श्रमण भगवंत [महावीर स्वामीने देव, मनुष्य व असुर की परिषदा में केवलिधर्म की प्ररूपणा की यावत् उपदेश दिया। 4- मोलहवा शतक का छठा उद्देशा + २२३१ Page #2262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३२ शब्दार्थ 4 इ० स्त्री पु० पुरुष स. स्वप्नांत में ए. एक म. बडा ह० अश्वपति ग० गजपति जा. यावत् उ० वृषभ पति पा० देखते हुवे पा० देखे दु० चढते हुवे दु० चढे इ० ऐसा अ० स्वतःको म० माने त• उस क्षण वु० जाग्रत होवे ते० उस भ० भव में सि० सीझ ना० यावत् अं० अंत करे ॥ १६ ॥ ए. एक म० वडी दा० माला पा० पूर्व पश्चिम दु. दोनोतरफ स० समुद्रको पु० स्पर्शी हुई पा० देखता हुवा पा. सं० लपेटता हुवा सं० लपेटे सं० लपेटी हुइ अ. स्वतः को म० माने त. उसी क्षण वु० जाग्रत होवे इत्थीवा-पुरिसेवा सुविणते एगं महं हयपतिवा, गयपतिवा, जाव उसभपतिवा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिझइ जाव अंतंकरेइ ॥ १६ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं दामिणं पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दपुढे पासमाणे पासइ, संवेलेमाणे संवेलेइ, ॥ १५ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष घोडे कि पंक्ति, हाथि की पंक्ति, यावत् वृषभ की पंक्ति को स्वप्न में देखकर उम पर चढता हवा अपन को माने और तत्क्षण जाग्रत हो जावेतो वह उसी भव में सीझे अंत करे ॥ १६॥ काई स्त्री अथवा पुरुष समुद्र के पर्व पश्चिम दोनों किनारेतक लम्बी एक बड़ी माला 1 को लपेटता हुवा अपन को माने और उसी क्षण जाग्रत होतो उसी भव में वह स्त्री या पुरुष सीझे, बुझे 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ पैगाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 428 ते. उसी भ० भव में सि सीझे जा. यावत् अं० अंत का करे. ॥ १७ ॥ ए. एक म० बडा रस्सी १० पूर्व पश्चिम दु. दोनों तरफ लो० लोकान्त पु० स्पशी हुई पा० देखे छि० : छेदता हुवा छि• छदे छि० छदाइ हुइ अ० स्वतः को म० माने तं० उसी क्षण जा. यावत् अं• अंत करे ॥ १८॥ ए. एक म० बडा कि० कृष्ण सु० सूत्रक जा. यावत् सु० शुक्ल सु० सूत्रक पा० देखे उ० उखेलता हुवा उ० संबंल्लियमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं जाव अंतं करेइ ।। १७ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं रज्जु पाईणपईणायतं दुहओ लोगंते पुढे पासमाणे पासइ, छिंदमाणे छिंदइ, छिण्णमिति अप्पाणं मण्णइ. तक्खण मेव जाव अंतं करेइ ॥ १८ ॥ इथवा पुरिसेवा सुविणंते एगै महं किण्हसुत्तगं जाव सुक्किलसुत्तगं पासमाणे पासइ, उग्गोवेमाणे उग्गोवेइ, उग्गोवेतियमिति अप्पाणं यावत् सब दुःखों का और करे ॥ १७ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष पूर्व पश्चिम लम्बी, लोक की दोनों बाजी स्पर्शी हुइ एक बड़ी रस्सी को तोडता हुवा तोडे और स्वतः तोडता है ऐसा मान और तरक्षण जागृत होजावे तो उसी भव में सीझे बुझ यावत् अंत करे ॥ १८ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष कृष्षी यावत् शुक्ल सूब स्वप्न में देखता हुवा देखे यावत् उखेलता हुवा स्वतः को माने और तत्क्षण जागृत होजावे तो उसी भव में। 28+ सोलहवा शतक का छठा उद्देशा भावा Page #2264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - उखेले उ. उखेला हुवा मामाने त उसी क्षण जा. यावत् अं० अंत करे ॥१९॥ ए. एक म. बहा। अ• लोहे का समुह तं तांबे का समुह त० तरुये का समुह सी० सीसे का समुह पा० देखते। आरूढ होने हुवे आ. आरूढ होने द. आरूढ हुवा म. माने त. उस क्षण प० जाग्रत होवे दो भ० भव में सि• सीझे जा. यावत् अं० अंत करे ॥ २० ॥ ए. एक म. बडा हि० चांदिका समुह सु०१ मुवर्ण का समुह र० रनों का समुह ३० वजू रत्नों का समुह पा० देखते हुवे पा० देखे दु. आरूढ मण्णइ, तपखणमेव जाव अंतंकरेइ ॥ १९॥ इत्थीवा पुरिसेवा मुविणते एगे महं अयरासिंवा तंवरासिंवा तउयरासिंवा, सीसगरासिंवा, पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ. दुरूहमिति अप्पाणं मण्णइ तक्खणमेव बुज्झइ दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतकरेइ ॥ २० ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं हिरण्णरासिंवा सुवण्ण रासिंवा रयणरासिंवा घइररासिंवा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति सीझे बुझे यावत् अंत करे ॥ १० ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष लोहे का ढग, ताम्बे का ढग, तरुए का ढग, व सीसे का ढग देखकर उस पर चढा हुवा खनः को माने और तत्क्षण जाग्रत होजावे तो दूमरे भव में सी बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ॥ २० ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में चांदी का ढग, सुधर्ण का ढग, रत्न का दग व वन रत्न का दग देखकर उस पर स्वतः को चदा हुवा पाने और cinadiwimmmmmmm - कायक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब्दार्थ होते दु. आरूढ होवे दु. आरूढ हुवा अ० स्वतः को म० माने त० उसी क्षण बु० जाग्रत होवे तेउसी । १० भव में सि. सीझे जा० यावत् अं० अंत करे ॥ २१ ॥ ए. एक म० बडा त० तृण का समुह ज. जैसे Vते. तेज णि निसर्ग जा. यावत् अ० कचरे का समुह पा० देखकर पा० देखे वि. विखेरता हुवा वि. . विखरे वि. विखेरा हुवा म. माने ता० उसी क्षण बु० जाग्रत होवे ते उस जाल्यावन् अं• अंतकरे ॥२२॥ ए. एक म० बडा स० बाणों का ५० स्तंभ वी० वारण का स्तंभ वं० वाँश के मूल का स्तंभ व. वल्ली अप्पाणे मण्णइ तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिझइ जाव अंतंकरेइ ॥ २१ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणते एगं महं तणरासिंवा जहा तेयणिसग्गो जाव अवकररासिंवा पासमाणे पासइ, विक्खरमाणे विक्खरइ विक्खण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुज्झइ तेणेव जाव अंतं करेइ !॥ २२ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं सरथभंवा धीरणथंभंवा वैसीमूलथंभवा, वल्लीमूलथभंवा, पासमाणे भावार्थ शीघ्र जागृत होजावे तो उसी भव में सीझे बुझे यावत् अंत करे ॥ २१॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष तृणराशि यावत् अबकर राशि को देखकर उसे विखेरता हुदा माने और शीघ्र जागृत होजावे तो उसी भव में मोक्ष + जावे ॥ २२ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष एक पडा बाणों का स्तंभ, वीरण (कडवे) का स्तंभ, वंशी मूल काई । पंचमांगविवाह षण्णति (भगवती ) सूत्र 8948 सोलहवा शतक का छठा उद्देशा.. Page #2266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मूल का संभ पा• देखे उ० निर्मूल करते उ. निर्मुल करे उ० निर्मूल किया अ० स्वतः को म० मामे : त. उती क्षण बु० जाग्रत होवे ते . उसी भव में जा. यावत् अं• अंतकरे ॥२३॥ ए. एक म० बडा खी. क्षीर कुंभ द० दधिकुंभ घ. घृतकुंभ म. मध्कुंभ पा० देखें उ० उठाता हुवा उ० उठावे उ० उठाया अ० स्वतः म० माने त० उसी क्षण प० जाग्रत होवे जा. यावत् अं• अंतकरे ॥ २४ ॥ ए. एक म० बड़ा मु० मदिरा वि. अचित्त कुंकुभं सो० मोवीर वि०अचिस कुंकुंभ ते. सेल का कुंभ वा. वासकुंभ पा. पासइ. उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ, उम्मूलमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव जाव अंतंकरेइ ॥ २३ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं खीरकुंभंवा दधिकुंभंवा घयकुंभंवा महुकुंभंवा पासमाणे पासइ उप्पाडेमाणे उप्पाडेइ. उप्पाडितमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव जाव अंतंकरेइ ॥ २४ ॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं सुरावियडकुंभंवा, सोवीरवियडकुंभंवा, तलकुंभंवा, वसाकुंभंवा भावार्थ स्तंभ. बल्लीमूल का संभ देखे, देखकर उसे मूल में से उखेडता हुवा माने और शीघ्र जागृत होजावे तो उमी भव में सीझे बुझे यावत् अंत करे ॥ २३ ॥ कोई स्त्रो अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक बडा क्षीरका लघडा, दधि का घडा, घृत का घडा व मधु का घडा, देखकर उसे उठाता हुवा स्वतः को माने और शीघ्र जागत होवे तो उसी भव में अंत करे ॥ २४ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक बड़ा अनुगादकबालब्रह्मवारी मुनि श्री अन लक ऋ पेनी .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 अ शब्दार्थ देखे भिं• फोडा अ० स्वतः को म० माने त० उसी क्षण बु० जाग्रत होवे दो दूसरे भ० भव में जा० ...| यावत् अं० अंतकरे ॥ २५ ॥ ए. एक मा बडा प० पद्म सरोवर कु. पुष्पोंवाला पा० देखे ओ० गाहा हुवा अ० स्वतः को म. माने तं० उसी क्षण जा. यावत् अं० अंत करे ॥ २६॥ ए. एक म० बडा सा० सागर उ० तरंगो जाः यावत् क० कलित पा• देखे ति० तीरा हुवा म. माने ते० उसी पासमाणे पासइ, भिंदमाणे भिंदइ, भिंदमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणमेव बुझइ दोच्चेणं भवग्गहणेणं जाव अंतंकरेइ॥२५॥इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमितं पासमाणे पासइ, उग्गाहेमाणे उग्गाहेइ, ओगाढमिति अप्पाणं मण्णद, तक्खणमेव तेणेव जाव अंतं करेइ ॥ २६ ॥ इत्थीवा जाव सुविणंते एगं महं सागरं उम्मीवीयी जाव कलियं पासमाणे पासइ, तरमाणे तरइ, तिण्णमिति अप्पाणं সাদা देरा का घडा, अचित्त सोवीर का घडा, व तेल का घडा देखकर उठाता हुवा स्वतः को माने और तत्क्षण जाग्रत होवे तो दूसरे भव में मोक्ष जावे ॥ २५ ॥ कोई पुरुष अथवा स्त्री स्वप्न के अंत में एक BOबडा पुष्पोंवाला पद्म सरोवर देखकर उस में स्वतःको अवगाहता हुवा माने और तत्क्षण जागृत होजावे तो 17उसी भव में मोक्ष जावे ॥ २६ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष सहस्र तरंगोंवाला एक बडा समुद्र देखकर उसे | . पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र - सोलहना शतक का छठा उद्देशा Page #2268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३८ शब्दार्थ जा. यावत् अं० अंतकरे ॥ २७ ॥ एक म० बडा भ० भवन स० सब र० रत्नमय पा• देखे दु० आरूढ हुवा अ० प्रवेश किया अ. स्वतः को म. माने तेउसी भव में जा. यावत् अं• अंतकरे ॥२८॥ ए. एकई बडा वि० विमान स० सब रत्नपय पा० देखकर दु० आरूढ हुवा अ० स्वतः को म. माने त. तक्षण प०१ मण्णइ, तक्खण मेव तेणेव जाव अंतंकरेइ ॥ २७ ॥ इत्थीवा जाव सुविणंते एगं महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं अणुप्पविसमाणे अणुप्पविटामिति अप्पाणं मण्णइ, तेणेव जाव अंतं करेइ ॥ २८॥ इत्थीवा पुरिसेवा सुविणंते एर्ग महं विमाणं सन्वरयणामयं पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्ण३, तक्खणमेव बुज्झइ, तेणेव जाव अंतं करेइ ॥ २८ ॥ अह भंते ! कोटपुडाणवा जाव केतईपुडाणवा अणुवायांस उभिजन भावार्यतीरा हुवा स्वतः को माने और तत्क्षण जाग्रत होजावे तो उसी भव में मोक्ष जावे ॥ २७ ॥ कोई स्त्री. अथवा पुरुष चारों तरफ रत्नमय भवन देखकर उस पर चढा हुआ माने व प्रवेश किया हुवा स्वतः को माने और उसी क्षण जाग्रत होवे तो उसी भव में अंत करे ॥ २८ ॥ कोई स्त्री अथवा पुरुष रत्नमय लमहा विमान स्वप्न के अंत में देखकर उस पर आरूढ हुवा स्वतः को माने और उसी क्षण जागृत होवे तो उसी भव में सीझे यावत् अंत करे ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! काष्ट नामक मुगंधित पदार्थ का पुडा, यावत् 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ सूत्र भावार्थ 4- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र + जाग्रत होते ते ० उसभव में जा० यात्रत् अं० अंत करे ॥२९॥ अ० अथ मं० भगवन् को० कोष्टपुट ( कोठे { में पकाया हुवा वास का समुदाय) जा० यावत् के० केतकी पुट अ० अनुकूल वात वाला होते उ० उछलते ठा० स्थान से ठा० स्थान सं० जाते किं० क्या को० कोठे का वायु जा० यावत् के० केतकी का वायु गो० गौतम णो० नहीं को० कोठे का वायु जा० यावत् णो० नहीं के केतकी का वायु घा० घ्राणसहगत पो० पुद्गल वा वाते हैं से ० वैसे ही भं० भगवन् सो० सोलहवा शतकका छं छठा उ० उद्देशा स समाप्त ॥६॥ ६ ॥ वावठाणाओ ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोट्टेवाइ जाव केतईवाति ? गोयमा ! कोबात जाव णो केतईवाइ घाणसहगता पोग्गला वाइ ॥ सेवं भंते भंतेति ॥ सोलसमस्स छट्टो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ६ ॥ * * {केतकी नामक सुगंधिक पदार्थ का पुडा अनुकूल वायु के संयोग की प्रबलता से वे सुगंधि द्रव्य उपर नीचे ( उछले यावत् एक स्थान से अन्य स्थान जावे तो क्या वह कोष्ट वायु, समुदाय आता है यावत् केतकी वायु समुदाय आता है ? अहो गौतम ! यह कोष्ट वायु समुदाय नहीं आता है वैसे ही केतकी वायु ममुदाय नहीं आता है परंतु घ्राणसहगत अर्थात् गंध गुण के सहगत पुद्गलों कहाते हैं. आपके वचन सत्य हैं. यह सोलहवा शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १६ ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! 48- सोलहवा शतक का छठा उद्देशा 42+ २२३९ Page #2270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दाथ 14 NAAM श्री अमोलक ऋषिजी + क० कितने भं० भगवन् उ० उपयोग ५० कहे गो• गौतम दु० दो प्रकार के उ० उपयोग ५० कहे हुवे ज जैसे उ०उपयोगपद प०पन्नवणा में ततैसे णिसव भा०कहना पा० सम्यक्त्व व०कहना ॥१६॥ कइविहेणं भंते ! उवओगे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते एवं जहा उवओगपदे पण्णवणाए तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं ॥ पासवणापदं वण्णेत्तव्यं, सेवं भंतेत्ति सोलसमस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ७ ॥ .*काशक राजावहदुर लाला मुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादनी * छठे उद्देशे के अंत में सुगंधि द्रव्यों का कथन किया. वह उपयोग से जाना जाता है इमलिये शतक में उपयोग का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! उपयोग के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उपयोग के दो भेद कहे हैं. इम का विशेष खुलासा पनवणा पद के २१ वे पद में है. उपयोग में आठहै ज्ञान व चार दर्शन हैं. और तीसवें पामवणा पद में पासवणा के दो भेद कहे हैं. सागार पासवणा और अनगार पासवणा. जिस में सागारपासवणा के ६ भेद किये हैं. १ श्रुत ज्ञान, २ अवधि ज्ञान, ३ मनः पर्यव ज्ञान, ४ केवल ज्ञान, ५ श्रुत अज्ञान व ६ विभंग ज्ञान और अनगार पामवणा के तीन भेद कहे हैं. सुदर्शन २ अवधि दर्शन ब ३ केवल दर्शन, पासवणा बोधपरिणाम विशेष सम्यक्त्व को कहते हैं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सोलहवा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुआ ॥ १६ ॥७॥ भावा Page #2271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 428 के महालएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! महति महालए जहा बारसम सए तहेव जाव असंखेजाओ जोअण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं ॥ १ लोगस्सणं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरमंते किं जीवा जीवदेसा जीवप्पदेसा, अजीवा अजीवदेसा अजीवप्प देसा ? गोयमा ! णो जीना जीवदेसा, जीवप्पदेसावि, अजीवावि अजीवदेसावि, अजीवप्पदेसावि ॥ जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसा अहवा एगिदिय देसाय, वेइंदियस्प्त देसे एवं जहा दसमसए, अग्गेयीदिसा तहेव, णवरं देसेसु अणिदियाणं आठवे उद्देशे में उपयोग का कहा. वह लोक में होवे इस से लोक का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! लोक कितना वडा कहा ? अहो गौतम ! लोक बहुत वडा कहा है. इस का विवेचन बारहवे शतक में किया है. वैमा यहां पर भी कहना यावत् असंख्यात क्रोडाक्रोड योजन की परिधि है ॥१॥ अहो भगवन् ! लोक के पूर्व के चरमान्त में क्या जीव, जीव देश, जीव प्रदेश, अजीव, अजीव देश, व अजीव प्रदेश है ? अहो गौतम ! जीव नहीं है परंतु जीव देश व जीव प्रदेश है. अजीव, अजीव देश अजीव है. जो जीव देश हैं वे निश्चय ही एकेन्द्रिय जीव देश अथवा एकेन्द्रिय का एक जीव देश बेइन्द्रिय का बहुत जीव देश यों जैसे दशवे शतक में कहा वैसे ही यहां कहना. अग्नेयी दिशा का भी वैसे ही सोलहवा शतक का आठवा उदशा 48 भावाथे . Page #2272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४२ श्री अमोलक ऋषिजी 4: अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि आदिल्लविरहिओ, जे अरूबी अजीवा ते छव्विहा अद्धासमओ णत्थि सेसं तंचेव णिरवसेसं ॥ २ ॥ लोगस्सणं भंते ! दाहिणिल्ले चरमंते किं जीवा एवं चेव, एवं पञ्चच्छिमिल्लेवि, एवं उत्तरिल्लेवि ॥ ३ ॥ लोगस्सणं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा पुच्छा ? गोयमा! णो जीवा जीवदेसावि जीवप्पदेसावि जाव अजीवप्पदेसावि ।। जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसाय अणिदियदेसाय, अहवा एगिंदिय देसाय अणिदिय देसाय, वेइंदियस्स यदेसे, अहवा एगिदिय देसाय अणिंदिय देसाय, वेइंदियाणय देसा एवं मझिलविरहिओ जाव पंचिंदियाणं ॥ जे जीवप्पदेसा ते णियमं जानना. परंतु विशेषता इतनी कि अनेन्द्रिय का पहिला भांगा का विरह जानना. जो अरूपि अजीव उन के छ भेद. इस में काल नहीं हैं शेष सब वैसे ही कहना ॥ २॥ अहो भगान् ! लोक के दक्षिण चरिमान्त में क्या जीव है ? वगैरह सब पूर्वोक्त जैसे कहना. ऐमे ही पश्चिम व उत्तर का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! लोक के उपर के चरिमांत में क्या जीव है जीव देश है ? वगैरह पृच्छा अहो गौतम ! जीव नहीं है परंतु जीव देश है जीव प्रदेश है यावत् अजीव प्रदेश है. अब जो जीव हैं वे निश्चय ही एकेन्द्रिय के बहुत देश व अनेन्द्रिय के बहुत देश, अथवा एके . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती ) सूत्र+8+ एगिदियप्पदेसाय, अणिंदियप्पदेसाय, अहवा एगिदियप्पदेसाय अणिदियप्पदेसाय बेइंदियस्सदेसा, अहवा एगिंदियप्पदेसाय अणिदियप्पदेसाय वेइंदियाणयप्पदेसा. एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिंदियाणं ॥ अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव गिरव सेसं भाणियव्वं ॥ ४ ॥लोगस्सणं भंते ! हेदिल्ले चरमंते किं जीवा पुच्छा? गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसावि जीवप्पदेसावि जाव अजीवप्पदेसावि, जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसा, अहवा एगिदिय देसाय वेइंदियस्सदेसे, अहवा एगिदिय देसा न्द्रिय के बहुत देश, अनेन्द्रिय के बहुत देश और बेइन्द्रिय का एक देश, अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश, व अनेन्द्रिय के बहुत देश व बेइन्द्रिय के बहुत देश यों मध्य के भामे का विरह कहना ऐसे ही पंचेन्द्रिय पर्यंत कहना. जो जीव प्रदेश है वे निश्चय ही एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश व अनेन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं अथरा एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश अनेन्द्रिय के बहुत प्रदेश व बेइन्द्रिय के एक प्रदेश अथवा एकेन्द्रिय के - बहुत प्रदेश बेइन्द्रिय के बहुत प्रदेश व अनेन्द्रिय के प्रदेश यों पहिला छोड कर यावत् पंचेंद्रिय तक कहना... ore अजीव का देशवे शतक जैसे कहना. तमादिशा का भी वैसे ही निरवशेष कहना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! Vलोक का नीचे का चरमांत में क्या जीव हैं वगैरह पृच्छा अहो गौतम ! जीव नहीं है जीव देश यावत् । सोलहवा शतक का आठवा भाव ब Page #2274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 42 वेइंदियाणं देसा, एवं मज्झिल्ल विरहिओ जाव अणिंदियाणं पदेसा, आदिल्लविरहिओ सव्वेसिं जहापुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव अजीवा, जहेव उवरिले चरिमंते तहेव ॥५॥ इमी सेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा पुच्छा? गोयमा ! णो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारिवि चरिमंता जाव उवरिल्ले जहा दसमसए; विमलादिसा तहेव णिरवसेसं,हेट्ठिल चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते तहेव,णवरं देसे पंचिंदिएसुभगो सेसं तंचेव, एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया, एवं सक्करप्पभाएवि अजीव प्रदेश हैं. जो जीव देश हैं वह निश्चय एकेन्द्रिय के जीव देश हैं अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश बेइन्द्रिय का एक देश अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश बेइन्द्रिय के बहुत देश ऐसे ही मध्य रहित यावत् अमेन्द्रिय तक कहना. और आदि रहित सब का जैसे पूर्व का चरिमांत कहा वैसे कहना. और अजीव का जैसे उपर के चरिमांत का कहा वैसे ही कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत में क्या जीव है इत्यादि पृच्छा? अहो गौतम ! जीव नहीं है यों जैसे लोक के चारों चरिमांत में कहा वैसे ही यहांपर भी कहना यावत् उपर का चरिमांत जैसे दशवे शतक में विमला दिशा का कहा तैसे ही रत्नप्रभा पृथ्वी का 7 उपर का चरमांत निरवशेष कहना विशेषता इतनी कि पंचेन्द्रिय में तीनों भांगे पाते हैं क्यों की वहां पंचेन्द्रिय * काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र उबरिमहेट्ठिला जहां रयणप्पभाए हेट्ठिल्ला. एवं जाव अहे सत्तमाए, एवं सोहम्मस्सविं जात्र अच्चयरस, गेरेज्जगदिमांणाणं एवं चेत्र णवरं उरिम हेट्ठिल्लेमु चरिमंतेसु देसे पंचिंदियात्रि, मझिल्लविरहिओ सेसं तहेब, एवं जहा मेवेजगविमाणा तहा अणुत्तरविमाणावि, ईसिप्पभारावि ६ ॥ परम.णुत्रोग्गलेणं भंते ! लोगस्स पुरच्छि मिल्लाओ चरिमंताओ पच्चच्छिमिल चरिमंतं एग समएणं गच्छइ,, पच्चच्छिमिलाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिलं चरितं एगसमएणं गच्छइ, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओं उत्त का आवागमन है शेषले ही कहना जैसे रत्नप्रभा के चारों चरिमांत का कहा वैसे ही शर्कर प्रभा को जानन. यो शेष सब नरक का कहना. सौदि बारह देवलो व नववेक का भी वैसे ही कहना रिंतु इतना विशेष कि उपरवीने चरिनांत से पंचेन्द्रिय देवता के मन का अभाव से मध्य) गंगा नहीं पाता है शेष दो मांगे पाते हैं. ए ही अनुत्तर मानव ईषत् ग्भार पृथ्वी तक कहता. || ६ || अहो भगवन् ! परमाणु पुद्दल लोक के पूर्व के चरिमन् से पश्चिम के चरिमांत तक और पश्चिम के चरिमान्त से पूर्व के चरिमान्त में क्या एक समय में जाता है ? अथवा उत्तर के चरिमान्त से दक्षिण के चरिमान्त, दक्षिण के चरिमांत से उत्तर के चरिमति में क्या एक समय में जाता है ? अथवा उपर के 4- सोलहवा शतक का आठवा २२४५ Page #2276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४६ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रिलं जाव गच्छइ,रत्तरिय ओ दाहिणिल्लं जाव गच्छइ,उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिलं.. चरिमति एग समएणं जाव गच्छइ, हेट्ठिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एग समएणं गच्छइ ? हंता गोयमा ! परमाणुपोग्गलेणं लोगस्स पुरच्छिमिलं तंचेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं गच्छइ ॥ ७ ॥ पुरिसेणं भंते ! वासं वासतीति वासं. णो. वासति हत्थंवा पायंवा बाहुंवा ऊरंबा आऊंटावेमाणेवा पसारमाणेवा कइकिरिए ? गोयमा ! जावचणं से पुरिसे वासं वासइ वासं णो वासतीति हत्थंवा जाव ऊरुंवा आउंटावितिबा पसारेत्तवा तावंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं. पुढे. चरिमांत से नीचे के चरिमांत में व नीचे के चरिमांत मे उपर के चरिमांत में क्या एक समय में जाता है ? हां गौतम ! परमाणु पुद्गल लोक के पूर्व के चरिमांत से पश्चिम के चरिमांत व पश्चिम के चरिमांत से । चरिमांत यावत् उपर के चरिमांत से नीचे के चरिमांत व नीचे के चरिमांत से उपर के चरिमांत तक जाता है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! कोई पुरुष वर्षा वर्षती है या नहीं ऐसा जानने के लिये अपने हाथ, पांव , जंघा को संकचित करे अथवा प्रसारे तो उस को कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम! जब लग वह पुरुष वर्षा वर्षती है ऐसा जानने के लिये हस्त, पांव, बाहा व जंघा का संकुचन प्रसारण. करे * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी* भावाथे । Page #2277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ८ ॥ देवेणे भंते ! महिदिए जाव महे सक्खे लोगते ठिच्चा पभू अलोगेसि हत्थवा जाव ऊरुवा आउंटाबेत्तएवा पसारेत्तएवा ? णो इणटे समटे ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ देवेणं महिदिए आव महसक्खे लोगंते ठिच्चा णो पभू अलोगंसि हत्थवा जाव पसारेत्तएवा ? गोयमा जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला वोधिचिया पोग्गला कडेवरचिया पोग्गला पोग्गला चेव पप्प जीवाणय अजीवाणय गइपरियए अहिजइ, अलोएणं णेवत्थि जीवा णेवत्थि पोग्गला से तेणटेणं जाव पसारेत्तएवा वहां लग उन को कायिकादि पांचों क्रियाओं लगती है ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! महर्दिक यावत् महा सुख वाला देव लोकान्त में रहकर अलोक में अपने हस्त, पांव यावत् जंघा संकुचित करने को व विस्तत करने को क्या समर्थ है ? अहो गौतम ! ऐसा करने में देव समर्थ नहीं होता है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि महर्दिक यावत् महा सुखवाला देव ऐसा करने में समर्थ नहीं है गौतम ! आहारोपचित पुगल, व शरीरोपचित पुद्गल. पुद्गल को प्राप्त कर जीव व अजीव को गति में परि परंत अलोक में जीव नहीं है. वैसे ही पुद्गलों भी नहीं हैं जिस से महद्धिक यावत् महासुखवाला देव लोकान्त में रहने पर अलोक में हस्तादिकका संकुचन नहीं कर सकता है. अहो भगवन् ! आपके बचन सत्य। 488+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4000 सोलहवा शतक का आठवा उद्देशा धावा Page #2278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री अमोलक ऋषिजी + सेवं भंते मैतेति ॥ सोल पम्स अमो उद्देसो मन्तो ॥ १६ ॥ ८॥ ... कहिणं भंते! बलिस्स वह रोयाणं :स वइरो ग सो सभा मुहम्मा पत्ता ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे मंदास पव्ययास उत्तरणं तिरिय मसंखेजे जव चमरस्स जाव व यालीसं जोअणसहस्स इं उग्गहि ता एत्थणं बलिरस वइरोयणि इस्म वइरायणरण्णस्स रुयगिंदे णामं उप्रायपव्वए पत्ते. सत्तरस ए६.वीस जाणसए एवं परिमाणं अहेव तिगिच्छ भावार्थ 13 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि हैं. यह सोलहवा शतक की आठा उद्देशा मंपूर्ण हुग ॥ १६ ॥ ८ ॥ । आठवे उद्देश के अंत में समुच्चय देवता की वक्ताता है. नवे उद्देशे में उन के भेों का वर्णन करते हैं. अहो भगवा ! अमुरकुमार जाति के बाल नायक वैरोचन राजा की सघर्मा सभः कहाँ है ?? अहो गौतम ! इस जन्यूमीप में मेरु पर्वत की उत्ता में तीळ असंसार दंप मद्र उलंघ कर नावे वहां । जैसे दूपरे शतक के आठवे उदशे में चपा का कथां किया य र बलेन्द्र का जानना. यावत् बीयालीस हजार योजन जाव वहां पल नारक वैरोचन्द्र बरोचा रजाका रुपन्दोवान पनि आना है. वह ११७२१ योजन ऊंचा कहा है. जस चर का तिगिच्छ काका वर्णन किया बैन ही बलि का रुचकेन्द्र पर्वत का जानना. जो परिणाम तिगिच्छ कूट पर्वत का कहा वैसा यहां पर भी कहना. पासादावतंसक वैसे ही प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रमाइजी * Page #2279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कूडगरस पासायच डिसगरसवि तचेत्र पमाणं सीहारुणं सपरिवारं वलिरस परिवारणं अट्ठो तहे ॥ वरं रुय दिप्पभाई से तंचत्र जाव बलिचंचा रायहाणीए अष्णसिंच जात्र णिचे | रुगिंदरसणं उप्पायपव्ययस्स उत्तरेणं छकोडिसए तहेब जाब चत्तालीसं जोअणसहरसाईं उग्गाहित्ता एत्थणं बलिरस इरोमणिंदरस वइरोयणरप्णरस बलिचंचा मं राहाणी पण्णत्ता एगं जोयणसय सहस्सं पमाणं तत्र जाव बलिपेटिस्स उवाओ आरक्खा सव्वं तहेव णिरवसेसं, णवरं साईरंगं सागरोत्रमाट्ठई पण्णत्ता, सेसं (जानना. प्रासादावतंसक की मध्य में सिंमन सब परिवार युक्त कहना. विशेष इतना कि चमरेन्द्र को १६४००० सामानिक देव के आसन हैं और इन से चौगुले आत्मरक्षक देव के आसन हैं, वैसे ही यहां बलीन्द्र के ६०००० सामानिक देव के आसन हैं और इस से चौकुने आत्म रक्षक देव के आसन तिमिच्छ के स्थान रुचकेन्द्र कहना. यहां बलराजा की राज्यवादी यावत् नित्य है यहां तक कहना. रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत के उत्तर की तरफ छोकांड यात्रत् जैसे चमरचंचा राज्यधानी का व्यतिकर कहा वैसे ही यहां जानना यावत् चालिस हजार योजन अवगाह यहां बली वैरो बनेन्द्र वैराचन {चंचा राज्यधानी कही. वह एक लाख योजन प्रमाण वैसे ही यावत् बालेपिडका राजा की बलि वर्णन यहां तक १०२* सोलहवा शतक का नववा उदशा १० २२४९ Page #2280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंचेव जाव बली वइरोयर्णिदे बली ॥ सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ सोलसमस्स णवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ९॥ ४ . x कइविहेणं भंते ! ओही पण्णता ? गोयमा ! दुविहा ओही पण्णत्ता तंजहा ओही पदं णिरवसेसं भाणियव्वं सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाब विहरइ ॥ सोलमस्स दसमो उद्देसो सम्मत्तो ! १६ ॥ १० ॥ २२५० भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कहना, आत्मरक्षक, सामानिक अग्रमाहिषियों, परिषदा, अनिका सब का निरवशेष वर्णम् कहना. स्थिति एक सागरोपम से कुच्छ अधिक कहना. अहो भगवन् ! आप के बचन मत्य हैं यों कहकर तपसंयम से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे, यह सोलहवा शतक का नववा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १६ ॥९॥ ३ नववे उद्देशे में देवता का कथन किया, देवता को अवधि ज्ञान होता है इस से अवधि ज्ञान का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! अवधि ज्ञान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अवधि ज्ञान के दो भेद कहे हैं.? भव प्रत्यायक जो नारकी देवता व तीर्थंकरों को होता है सो और २ क्षायोपशमिक कों का क्षय होने से होवे. इस का विस्तार पूर्वक कथन पनवणा के तेत्तीस वे पद में कहा है. अहो भगवन् आप के वचन सत्य हैं, यह सोलहवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १६ १० ॥ ... प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी | Page #2281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ दीवकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समुस्सासणिस्सासा ? णो इणट्टे समटे ॥ एवं जहा पढमसए बितिय उद्देसए दीवकुमाराणं वत्तव्वया तहेव जाव समाउया समुस्सासणिस्सासा ॥ एवं णागावि ॥ १ ॥ दीवकुमाराणं भंते ! कइलेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ तंजहा कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा॥ एएसिणं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साणय कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सव्वत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंदशवे उद्देशे में अवधिज्ञान का कथन किया. अग्यारहवे उद्देशे में अवधिज्ञानवंत का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! भवनपति जाति के द्वीप कुमार देव क्या सरिखे आहार करने वाले हैं. और सब सरिखे उश्वासनीश्वास वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वैसा नहीं है. इस का विशेष खलासा प्रथम शतक का दूसरा उद्देशा में जैसा कहा वैसे यहां जानना यावत् समान आयुष्य व समान ब. ऊश्वास नीश्वास. ऐसे ही नाग कुमार का जानना. ॥१॥ अहो भगवन्! द्वीप कुमार को कितनी लेश्याओं कहीं ? अहो गौतम ! द्वीप कुमार को चार लेश्याओं कही. कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या. अहो भगवन् । इन कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले में से कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? 10 अहो गौतम ! सब से थोडे तेजोलेश्या वाले द्वीप कुमार, उस से कापोतलेश्या वाले असंख्यात गुने । 298 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र *880+ सोलहवा शतक का अग्यारहवा उद्देशा-4889 Page #2282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - खेजगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेरसा विसेसाहिया॥ २ ॥ एएमिणं भंते! दीवकुमाराणं कप्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साणय कयरे कयरोहितो अप्पट्ठियावा महिद्वियावा ? गोयमा ! कण्हलेस्साहितो पीललस्ता महिड्डिया जाव सव्यमहिड्डिया वा तेउलेस्सा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाब विहरइ । सालसमरस एगारसमो उद्देसो सम्मत्ता ॥ १६ ॥ ११ ॥ उहहिकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा एवंचर सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सोलसमस्स बारसमो उद्देसो सम्पत्तो ॥ १६ ॥ १२ ॥ नीललेश्या वाले विशपा धिक, और कणच्या वाले विशेषाधिक ॥२॥ अहो भगवन् ! इन कृष्ण लेश्या वाले यारत तेजोलेश्या वाले में कौन किस म अल्प ऋद्धि वालं. यावत् बहन ऋद्ध वाले हैं ? कृष्ण लेश्या वाले सं नील लेश्या वाले महक,नील लेश्या वाले स कापान .श्या वाल महद्धिक और कापोत रेश्या वाल स तेजो लश्या वाले महद्धिक. अहो अगरन् ! आपके वचन सत्य हैं, यों कहकर तप-यम से आत्मा को भावले हुर विचरने लगे. यह सोलहवः शक का अरमारया उदशा संपूर्ण वा ॥ १६॥ ११ ॥ अहो भगवनू ! क्या उदधिकमारब समआहार करने वाल हैं ? वगेरह से द्विप कुमार का कहा वैसे ही यहां कहना. यह सोलहवा शतक का वारहवा उद्दशा संपूर्ण हुवा ॥ १६ ॥ १२ ॥ प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५३ > पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भमवती ) सूत्र 438+ एवं दिसाकुमारावि ।। सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सोलसमस्सा तेरसमो उद्देसः।। १६॥ १३ ॥ है एवं थणियकुमारावि ॥ सेवं भंते भंतेत्ति । सोलसमस्स चउद्दसमो उदेसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ १४ ॥ सम्मनं सोल समं सयं ॥ १६ ॥ जैसे द्विपकुमार का कहा वैसे ही दिशा कुार का कहा अहो भगान् ! आप के वचन सत्य है. यह सोलहवा शतक का तेरहवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १६ ॥ १३ ॥ जैसे द्विपकुमार का कहा वैो ही स्थगित कुमार का जालना. यह मेल हवा .तक का चउददया उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १६ ॥ १४ ।। यह संलहरा शतक समाप्त हुवा ॥ ६॥ 498 सोलहवा शतक का तेरवा व चौदवा उद्देशा438 Doo Page #2284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ सप्तदशशतकम् ॥ कुंजर संजय सेलेसि किरिय ईसाणि पुढवि दग्गवाऊ॥ एगिदिय णाग सुवण्ण विजु. वातग्गे सत्तरमे ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी उदायीणं भंते ! हत्थिराया कओहिंतो अणंतरं उब्वटित्ता उदायी हस्थिरायत्ताए उबवण्णे ? गोयमा ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबट्टित्ता उदायी हत्थिरायत्ताए उववण्णे ॥ १ ॥ उदायीणं भंते ! हत्थिराया सोलहवे शतक के अंत में भुवनपति देवों का कथन किया. इस शतक की आदि में भवनपति देव से नीकले हुए का स्वरूप कहते हैं. इस शतक के १७ उद्देशे कहे हैं जिन के नाम ? हस्ती २ संयति ३ शैलेशी ४ क्रिया ५ ईशान ६-७ पृथ्वी के ८-१ पानी क १०.११ वायुक१२एकेन्द्रिय १३ नाग कुमार १४१ सुवर्णकुमार १५ विद्युत्कुमार १६ वायु कुमार और १७ अग्निकुमार. यों सत्तरहवे शतक के सत्तरह उद्देशे कहे. हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर गौतम स्वामी प्रश्न पुछने लगे कि अहो भगवन् ! सब हस्तियों में प्रधान ऐसा कोणिक राजा क इ नामक हस्तिराजा कहां से अंतर रहित उद्वर्तकर उदायी हस्ति राजा पने उत्पन्न हवा ? अहो, गौतम ! असुरकुमार में से नीकलकर उदाइ नामक हस्ती राजा पने उत्पन्न हुवा. ॥१॥ अहो भगवन् ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाजदि * भावार्थ श्र ता Page #2285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 486 498 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र कालमासे कालंकिच्चा, कहिं गच्छिहिति, कहिं उववाजिहिति ? गोयमा ! इमीसे है | रयणप्पभाए पुढवीए उकोसं सागरोवम ट्रितीयंसि, णिरयावाससि गेरइयत्ताए उववजिहिति ॥ २ ॥ सेणं भंते ! तओहितो अणंतरं उव्वासिता कहिं गच्छिहिति ? २२५५ गोयमा ! महाविदेहे वासे सिझिहिइ जाव 'अंत कहिंति ॥ ३ ॥ भूयाणंदणं भंते ! हत्थिराया कओ हिंतो अणंतरं उव्वहिता, भूयाणंदे एवं जहेव उदायी जाव अंत काहिति ॥ ४ ॥ पुरिसेणं भंते ! तलमारूहइ, तलमारूहइत्ता तलाओ तलफल पलावेमाणेवा पवाडेमाणेवा कइकिरिए ? गोयमा ! जाव चणं से पुरिसे तलमारूभइ, यह उदायी हस्ती राजा यहां से काल कर के कहां उत्पन्न होगा ? अहो गौतम ! इस रत्न प्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक मागरापम की स्थिति वाले नरका वास में नारकी पने उत्पन्न होगा. ॥ २॥ अहो भगवन् ! वह यहां से नीकलकर कहां जायगा कहां उत्पन्न होगा? अहो गौतम : महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा, बूझे यावत् अंत करेगा. ॥ ३ ॥ अद्दो भगन् ! कृणिक का भूतानेन्द्र हस्ती राजा कहां से अंतर रहित नीकलकर भूतानेन्द्र हस्ति राजा पने उत्पन्न हुवा? अहो गौतम : जैसे उदायी हस्ती का कहा वैसे ही इसका भी कहना यावतू अंत करेगा ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! कोई पुरुष ताल वृक्षपर चढ़े और वह ताल वृक्ष के । सतरहवा शतक का पहिला उद्देशा 4.88 भावार्थ Page #2286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * अनुवादक बालमनि श्री अमोलक ऋषिजी तलमारूभइत्ता तलाओ तलफलं पवालेइवा पवाडेड्वा तावचणं से पुरिसे काइयाए जाव पंचाहिँ किरिया पुट्ठे; जेलेिं पियणं जीवाणं सरीरेहिंतो तले णिव्यत्तिए तलफले णिव्यत्तिए विणं जीवा काइयाए जाय पंचहि किरियाहिं पुढे ॥ ५ ॥ अहेणं भंते ! से तलफले अप्पणी सुरूयत्तए जाब पच्चीयमाणा, जाई तत्थ पाणाई जाय जीवियाओ रोइ, तरणं भंते ! से पुरिसे कतिक्किरिए ? गोयमा ! जावचणं से पुरिसे तलफले अप्पणी गुरूयत्ताए जाव जीवियाओ ववरांचेइ, तावचणं से पुरिसे काइयाए जाव किरियापटु ३ ॥ जंति पियण जीवाणं सरीर हिंतो तलेणिव्यत्तिए तेत्रिणं फको (वरूप क्रियाओं करे ? अ गौतम ! जब लगवह ताल और चह उस के फर चलाता है अथवा नींव डालता हैं वहां लग उस को कायिकादि पांचों क्रियाओं लगती है. और तिन जीवों के शरीर से ताल बना हुवा है उन जीवों का भी कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं ॥ ५ ॥ अहो भगल ! वह ताल फल अपनी गुरुना से यावत् नीचे गिरे और माण की घात होगे अहो भगवन् ! उन पुरुष को कितनी क्रियाओं लगती है ! अहो गौतम! जहां लग वह पुरुष ताल * वृक्ष पर आरूढ होकर रहा है और उस का फल अपनी गुरुता से नीचे आकर गिरता और मार्ग में प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २२५६. Page #2287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8+ पस्णत्ति ( भगवती) मूत्र जीवा काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढें ॥ जेसि पियणं जीवाणं सरीरेहितो तलफले णियित्तिए नेविणं जीवा काइयाए जार पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ५ जेवियसे जीवा अहे वो सार, पच्चोयमाणम्म उगहे वति, तेवियणं जीवा काइयाए जात्र पंचहिँ किरिया हि पुट्ठा ६ ; ॥ ६ ॥ पुरिसेणं भंते ! रुक्खस्स मूलं पव.लेमाणेवा पवाडेमाणेवा कइकिरिए ? गोपमा ! जांचणं से पुरेसे रुक्खरस मुलं पवालेइवा पवाडेइबा, ताबंचणं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे ॥ जेसिपियणं जीवाणं सरीरहितो मूलं णिवत्तिए जाव बीए णित.त्तिए तेविणं जीवा काइयाए प्राणों की घात करता है वहांलग उन पुरुष को चार क्रियाओं कही हैं क्योंकी उस पुरुष के योग से उसकी घात नहीं हुई है. जिन जीवों के शरीर से ताल बना हुवा है उन जीवों को कायिकादि चार क्रियाओं लगती है. और जिन जी के शरीर से तालफल बना हुवा है उन जीवों को कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं. और जो जीतनों स्वभाव में है। नी भात हैं उन नीनों को भी कायिकादि , पांच क्रियाओं लगती हैं ॥ ६ ॥ अहो भावस् ! कोई पुरुष वृक्ष के पूल को चलाता व नीचे डालता है कितनी क्रियाओं करे ? अहो गौतम : जहां लग या पुरुष वृत के मूल को चलाता व नीचे गिरावा सत्तरहरा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ -47 Page #2288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव पंचहि किरियाहिं पुट्टा ॥ ७॥ अहेणं भंते ! से मूले अप्पणो गुरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेइ तएणं से पुरिसे कह किरिए ? गोयमा ! जावं चणं मूले अप्पणो जाव ववरोवेइ तावं चणं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे, जेसिपिणं सरीरहितो कंदे णिवत्तिए जाव बीए णिव्वत्तिए तेविणं जीवा काइयाए जाव चउहिं किरियाहिं पुटा ; जेसिंपियणं जीवाणं सरीरेहितो मूले णिव्वत्तिए तेविणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पट्टा, ॥ ८ ॥ जेवियणं से जीवा अहे वीसभावार्थ यहां लग वह पुरुष कायिकादि पांच क्रियाओं से स्पर्धाया हुवा है. जिन जीवों के शरीर से मूल यावत् बीज बना हुवा है उन को भी कायिकादि पांच क्रियाओं लगती है ॥ ७॥ अहो भगवन् ! वृक्ष के मूल अपनी मुहता से नीचे भावे यावत् प्राणों को जीवित से पृथक् करे तब उस पुरुष को कितनी क्रियाओं लगे ? अहो गौतम ! जहां लग अपनी गुफा से यावत् जीवित से पृथक् करता है वहांलग वह पुरुष Eकायिकादि चार क्रियामों से स्पीया हुवा है. जिन जीवों के शरीर मे कंद यावत् बीज बना हुवा है। * जीवों को भी कायिकादि चार क्रियाओं लगती हैं और जिन जीवों के शरीर से मूल बना हुवा है उन जीवों को कापि कादि पांच क्रियाओं पर्श हुई ॥८॥ स्वभाव से नीचे आते मार्ग में जो जीवों 48 अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. Page #2289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र १९ पंचांग विवाह पनधि (भगवती) पत्र साए पच्चोवयमाणस्त उग्गहे वर्टति तेविणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं पुट्ठा ॥ ९ ॥ पुरिसेणं भंते ! रुक्खस्स कंदं पच्चा• ? गोयमा ! जावं चणं से पुरिसे जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे जेसिंपियणं जीवाणं सरीरेहितो मूले णिन्वत्तिए जाव बीए णिवत्तिए ते विणं जीवा पंचहि किरियाहि पट्टा ॥१॥ अहणं भंते ! से कंद जावं चणं से कंदे अप्पणो जाव चउहिं पुढे, जेसिंपियणं जीवार्ण सरीरेहिंतो मूले निबत्तिए संधे णिन्वत्तिए जाव चउहि पुट्रो, जेसिपियणं जीवाणं सरीरोहितो कंदे णिव्यक्तिए, तेविणं जीवा जाव पंचहिं पुट्ठो ; जेविय से जीवा अहे बीससाए पञ्चोवय जाव से वे कायिकादि पांच क्रियाओं से स्पर्श हुये हैं ॥९॥ अहो भगवन् ! वृक्ष के कंद चलाते वक नीचे गिराते कितनी क्रियाओं लगे ? अहो मौनम ! जब लग वह पुरुष कंद चलाता है यावत् क्रियाओं. जिन जीवों के शरीर से मल यावत् बीज बना हुवा है उन जीवों को भी पांच क्रियाओं ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! वह कंद अपनी गुरुता से नीचे आवे तो कितनी क्रियाओं लगे ? वगैरह पूर्वोक्त जैसे यावत् चार क्रियाओं लगे. जिन जीवों के शरीर से कंद बना हुवा है उन जीवों को भी पांच क्रिय समती है. और स्वभाव से नीचे आते यावत् पाँच क्रियाओं लगे. जैसे कंद का कहा वैसे ही बीज का 48+ मंचरहवा शतक का पहिला उद्देशा 438 भाषार्थ Page #2290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी माने श्री अमोलक ऋषिजी got पंचहिं पुटुा जहा कंदए । एवं जाव बाय ॥ ११ ॥ कइणं भंते ! सरीरया पण्णत्ता? गोयम! ! पंच र रीरया पण्णत्ता, तंजहा-ओरालियं जाव कम्मर ॥ १२ ॥ कइणं भंते ! इंदिया पण्णत्ता : गोषमा ! पंवइंदिया पण्णा , तह-साइंदेय जाव फासिं. दियं ॥ १३ ॥ कइविहेण भते ! जाए पण्णत्ते ? गायमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, ' तंजहा-मणजोए चयजोर कायजोर ॥ १४ ॥ जीवणं भंते ! ओरालियसरीरेणं णिन्वत्तिएमाणे कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय च उकिरिए, सिय पंच किरिए, एवं पुढवीकाइएवि, एवं जाव मणुरुते ॥ १५ ॥ जीवाणं भंते ! ओरालिय जानना. ॥ ११ ॥ ओ भगान् ! शगेर फिनो को हैं ! अहः गौतम ! शरीर पांव कहे हैं. जिन के नाम उतारिक शरीर क्रेय शगर. आहारक शगेर. नेन र शरीर व कार्याग करोर ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! इन्द्रियों कितनी कही हैं ? अरे माना ! इन्द्रांच को है. श्रय याचा स्पर्शेन्द्रिय ॥ १३ ॥ अहो भाप ! यांग किन कहे हैं ? अहोगा ! गते । कडे मन योग २ चा योग व ३१ काया योग ॥ १४ ॥ अहो भावन् ! उदारिक शरीर बनाने हो जीवों को कितनी क्रियाओं लगे ? अहोस गौतम ! काचित् चार व क्वचित् पांच क्रियाओं लगे. ऐसे ही पृथयोकाया का यारत् मनुष्य तक कहना .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू 2- 2 (JEAllrabhat सरीरणिव्वत्तिएमाणा कइकिरिया ? गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंच किरियावि, ॥ पुढवीकाइयावि ॥ एवं जाव मणुस्सा ॥ एवं वेउब्विय सरीरेणाधि दोदंडगा, णवरं जस्स अस्थि वे उब्वियं एवं जाव कम्मग सरीरं ॥ एक सोइंदियं जाव फासिंदियं ॥ एवं मगजागं वइजोगं कायजे.मं, जरा जं अस्थि तं माणियव्यं, एते एगत्तपत्तेणं छब्बीस दडगा ॥ १६ ॥ कइविहेण भंते ! भाव पपणते? गोयमा ! विहे भावे पण्णत्ते, तंजहा- उदइए उवसमिए जाब सजिवाइए ॥ सेकिंतं उदइए भावे ? उदइए भावे दुवहे पण्णत्ते, तंजहा-आदएय उदयणिप्पण्णेय । एवं एएणं ॥१५॥ अहाँ भगवन् ! उदारिक शरीर बनाने वाले जीवों को कितनी क्रियाओं लगे. ? अहो मौतम !! तीन चार पांच क्रियाओं लगे ऐसे ही पृथ्वी काय यावत् मनुष्य का जानना. ऐसे ही वैक्रय शरीर के भी एक जीव व अनेक जीव आश्री दो दंडक कहे .शिषता इतनी कि जिन को जितने शरीर हैं उ उसने कहना. ऐने ही कार्माण शरीर तक. कहा. ऐसे ही श्रेन्द्रिय यावत् सन्द्रिय का जानना, मनयोगी, वचन योगी काया योगी का भी वैसे ही जानना. ॥१६॥ अहो भगवन् ! भाव के कितने भेद कहे हैं? अहो गौवम भाव के छ भेद कई हैं आदमिक भाव, पीपक भाव यावत मनिकातिक भाव. अहो । 48:00 सत्तरहरा शतक का पहिला उद्देशा - Page #2292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L अभिलावेणं जहा अणुओगदारे छ णामं तहेव गिरवसेसं भाणियन्वं जाव सेतं साण्णवाइए भावे ॥ सेवं भंते भंतेत्ति॥सत्तरमस्स सयस्स पढमो उद्दसो सम्मत्तो॥१७॥१॥ से णूणं भंते! संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे धम्मेट्रिए असंजयअविरय अपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मए अहम्मेट्ठिए, संजयासंजए धम्माधम्मेट्ठिए ? हंता गोयमा! संजयविरय जाव धम्माधम्मेट्रिए ॥१॥ एएसिणं भंते ! धम्मंसिवा भावार्थ 2 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + भगवन् ! औदयिक भाव किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! औदयिक भाव के दो भेद कहे हैं ! औदायक व उदयनिष्पन वगैरह जैसे अनुयोग द्वार में छ नाप कहे हैं. वैसा सब यहां पर विशेषता रहित कहना. अहो भगवन ! आप के वचन सत्य हैं यह मतरहवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७॥१॥ पहिले उद्देशे के अंत में भाव का कथन किया. उन भाववाले संयति होते हैं. इसलिये आगे संयति का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! प्रत्याख्यान से पाप कर्म को नष्ट करनेवाले संयति विरति क्या धर्म में स्थित कहा जाता है ? प्रत्याख्यान से पाप कर्म नहीं बनेवाला अविरति असंयति क्या अधर्म में स्थित कहा जाता है ? अथवा मयतासंयति धर्माधर्म में स्थित कहा जाता है ?.हां गौतम! संयति धर्म में स्थित यावत् संयतासंयति धर्माधर्म में स्थित कहे जाते हैं ॥१॥हो भगवन ! इन धर्म, अधर्म व धर्माधर्म में प्रकाशक-रामाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ | +- पंचमात्र विवाह पण्णाति ( भगवती ) सूत्र 438+ अहम्मंसिवा धम्माधम्मंसिवा चक्किया केइ आसइतएवा जाव तुयट्टित्तएवा ? णो इट्टे समट्ठे ॥ से केणट्टेणं खाइ अटुणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव धम्माधम्मेट्ठिए ? गोमा ! संजय विरय जाव पावकम्मे धम्मेट्ठिए धम्मंचेव उवसंपजित्ताणं विहरइ, असंजयपात्र कम्मे अहम्मेट्ठिए अहम्मंचेव उवसंपजित्ताणं विहरइ, संजया संजए धमाधम धमाधम्मं उवसंपजित्ताणं विहरइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! जात्र ट्ठिएं २ ॥ जीवाणं भंते ! किं धम्मेट्ठिया अहम्मेट्ठिया धम्माधम्मेट्ठिया ? गोयमा ! ॥ कोई बैठने को, उठने को यावत् सोने को क्या समर्थ है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. क्योंकि धर्म व धर्म रूप है. भान ! किन कारन में ऐसा कहा गया है कि संयति धर्म में स्थित है यावत् संयतासंयति धर्मावर्त में स्थित है ? अहो मौन ! म से पाकर्म का { करनेवाले विरति संयति धर्म में स्थित हैं और धर्म का ही आश्रय ग्रहण कर विचरते हैं. असंयति अधर्म में { स्थित रहते हैं और अधर्म का ही आश्रय ग्रहण कर विचरते हैं वैसे ही मयतान्यति धर्माधर्म में स्थित हैं? और धर्माधर्म का आश्रय ग्रहण कर विचरते हैं. इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् धर्माधर्म में } || २ || अहो भगवन् ! बहुत जीत्र क्या धर्म या धर्माधर्म में में स्थित हैं अधर्म में स्थित हैं 4- सत्तरहवा शतक का दूसरा उद्देशा +2+ स्थित हैं। स्थित हैं ? २२६१ Page #2294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN जीवा धम्मेवि ट्ठिया अहम्मेविट्ठिया, धम्माधम्मेविट्ठिया ॥ जेरइयाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णेरइया णो धमट्टिया, अहम्मट्ठिया, णो धम्माधम्मटिया, एवं जाव चउरिदियागं ॥ पंचिंदियतिरिवल जोणियागं एच् ? भोयमा ! पंचिंदियतिरिक्ख जोणिया को धम्मेट्ठिया, अहम्मेटिया, धमाधम्नेभिया ।। मणुस्ना जहा जीवा ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा रइया ॥ ३ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एव. माइक्खंति जाव परूति एवं खलु सनगा पाडिया समणोवासमा बालपंडिया जस्सणं एगपाणाएवि दंडे अणिक्खित्ते सेणे एगंतेवालोत्त वत्तव्यं लिया, से कहमेयं भावाथ अहो गौतम ! जीव धर्म में स्थित हैं, अधर्म में स्थित च धर्माधर्य में स्थित हैं. नारकी की पृच्छा ? नारकी ी में स्थित नहीं हैं अधर्म में स्थित हैं और धर्माधर्म में स्थित नहीं हैं. ऐसे ही चतुन्द्रिय पर्यंत कहना. तिर्यंच पंथन्द्रिय धर्म में स्थित परंतु अपर्म व धर्माधर्ष में स्थित हैं. मनुष्य धर्म अधर्म व धर्माधर्म में स्थिा है. पण पंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैस कहा ॥ ३ ॥ अहाँ भगवन् ! अन्यतोर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपत हैं कि श्रमण पंडित हैं श्रणेपासक बालपंडित हैं और जिसने एक प्राणी का घात का परिहार नहीं किया है वह एकान्त बाल है. तो अहा भगवन् ! यह किसी अनुवादक-शालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्र.पिजी gk *प्रकाशक राजावदर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामनादनी* | * Page #2295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भंते ! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अष्ण उत्श्यिा एवं माइक्खति जात्र वत्तव्यंसिया जे ते एवं माहंसु मिच्छते एवमाहंसु, अहं पुण गायमा ! जात्र परूमि एवं खलु समणा पांडेया, समगोत्रामा बालांडिया, जस्सगं एगनाणेवि दंडे णिक्खित्ते सेणं णो एगंतबालेत्ति वत्तव्या ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते! वाला पंडिया बालपडिया ? गोयमा ! जीवा बालावि पंडियावि बालपंडियावि, णेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! रइया बाला. णो पांडेया जो चालपांडेया ॥ एवं चउरिंदेषाणं, पंचिंदियातिरिक्ख पुच्छा, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला, जो पंडिया, बालपंडियावि तरह है ? अहो गौतम ! अन्य तीर्थिक जो ऐना कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि भ्रमण पंडित, श्रमणोपासक बाल पंडित व एक भी जीव की धान का जिस परिवार नहीं किया वह एकांत बाल है वह मिथ्या है करता हूं कि श्राग पंडित, श्रणो पासक बालपंडित, और जिसने किया है वह एकांत बाल नहीं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् : क्या जीव जीन बाल, पंडित व वाल पंडित हैं. नारकी की पृच्छा ! नारकी ऐसे ही चतुरेन्द्रिय पर्यंत कहना. तिर्यच पंचेन्द्रिय की पृच्छा इन कथन को ऐसा कहता हूं याद ( एक प्राणिकी भी घात का भी परिहार बाल, पंडित व बालांडित हैं? अहां गौतम बाल हैं परंतु पंडित व बाल पंडित नहीं हैं. सतरा शतक का दूसरा उद्देशा २२६५ Page #2296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा गैरइया ॥ ५॥ अण्ण उत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादंसंणतल्ले बमाणस अण्ण जीवे अण्ण जीवाया ॥ पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया । उप्पत्तियाए जाव पारणामियाए वढमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया ॥ उग्गहे ईहा अवाए वट्टमाणस जाव जीवाया ॥ उट्टाणे जाव परक्कमे वट्ट माणस्स जाव जीवाया ॥ णेरइयत्ते तिरिक्खमाणुस्सदेवत्ते वट्टमाणस्स जाव जीवाया तिर्यंच पंचेन्द्रिय बाल व बाल पंडित हैं परंतु पंडित नहीं हैं. मनुष्य का समुच्चय जीव जैसे कहना. बाणध्यं तर. ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना ॥५॥ अहो भगवन् ! अन्य तीथिक ऐसा कहते हैं। यावत् मरूपते हैं कि प्राणातिपात, मृपावाद यावन् मिथ्यादर्शन शल्प में रहने वाले जीवों को जोव अन्य हे व जीवात्मा अन्य है, प्राणानिपात से निवर्ना यावत् परिग्रा में निवर्तना, क्रोध का त्याग यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग में रहने वाले जीवों को जीव अन्य हैं व जीवत्मा अन्य है. उत्पातिया यावत पारिणामिया में रहने वाले जीवों को जीव अन्य है व जीवात्मा अन्य है,अवग्रह ईहा व अपाय में रहने वाले * काशक रानाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . শাখ आ । Page #2297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 ArrnamaAmar २२६७ पंचांग विषाह पग्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48gs णागारणिले जाव अंतराइये वट्टमाणस जाव जीवाया । एवं कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए, सम्मट्ठिीए ३, एवं चक्खुदंसणे ४, आभिणिवोहियणाणे ५, मइ. अण्णाणे ३; आहारसणाए ४, एवं ओरालिय सरीरे ४, एवं मणजोए ३, सागारोवओगेरवटमाणस्स अण्णजीवे अण्णे जीवाया । सेकहमेयं भंते! एवं? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छंते एवमाहंसु,अहं पुण गोयमा एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादसणाल वहमाणस्स सच्चेव जीवे सचेव जीवाया जीनों को जीव अन्य है व जीवात्मा बन्य है उत्थान बावत् पराक्रम में रहने वाले जीवों को जीव अन्य है व जीवात्मा अन्य, नारकी, तिर्थच मनुष्य देव में जीव अन्य व जीवात्मा अन्य, ज्ञानावरणीय । अंतराव में जीव अन्य व जीवात्मा अन्य, ऐसे ही कृष्म लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, समदृष्टि, मिथ्याष्टिक ममपिध्यादृष्टि,चक्षुदर्शनादि चारदर्शन,मतिज्ञानादि पांच ज्ञान,मति अज्ञानादि नीन अज्ञान आहारसंज्ञादि चार संज्ञा उदारिक गरादि पांच शरीर,मायोगदि तीन मेग और साकागायुक्त व अनाकारोप युक्त में रहने वाले भारों को जीव अन्य है. व जीवात्मा अन्य है तो अहो भगवन् ! यह किस तरह है ? अहो कामौत्य ! अन्य वीथिकों का उपर्युक्त कथन मिथ्या है. उमे मैं इस तरह कहता हूं यावत् प्ररुपता हूं कि सचरहवा शतक का दूसरा उद्देशा +8 . Page #2298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A२२६८ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमलक ऋषिजी जाव अणागारोवओगे वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया ॥ ६ ॥ देवेणं भंते ! महिड्दिए जाव मह लक्खे पुयामेव रूबी भवित्ता पभू अरूबी विउव्धित्ताणं चिट्टित्तए? णो इणटे समढे ॥ से केपट्टेणं भंते ! एवं युच्चइ देवेणं जाव णो पभू अरूबी विउचिन्ताणं चिद्वित्तए ? गोवमा ! अहमयं जाणामि, अहमेयं पारामि, अहमेयं वुज्झामि, अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि; मए एवं णायं, मए एयं दिटुं, मए एवं बुद्धं, मए एयं अनिसमण्णागयं-जणं तहागयस्स जीवरस सरूविस्स सकम्मरस सरागस्स सवे गस्त समोहस्स सले उस्लससरीरस्स ताआ सरीराओ अविष्पमुक्करस एवं पण्णायाति गाणानिपात यारत् मिथ्या दर्शन शल्य में रहने वाले वह जीव व वही जीवात्मा है. ऐसे ही अनाकारोप युत तक जानना. ॥ ६ ॥ अहा भावन् ! महाके यावत् महासुख वाला देश पहिल रूपी होकर फीर. अरूपीका क्रेय करके रहने में क्या मार्थ है ? ओ गौतम ! या अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किम कारन स एना कहा गया है यावत् अरूपी का क्रय करके रहते समर्थ नहीं है ? अहो गौतम !! में यह जानता हूं देखता हूं पर्याय स जाता हूं सप वस्तु के सन्मुख होकर जानता हूं मैंने यह जाना, * मैंने यह देखा, मैंने यह पर्याय से जाना, मैं सब वस्तु की सन्मुख हुवा कि रूपा कर्म, राग, शरीर, मोह, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र तंजहा-कालत्तेवा जाव सुकिल्लत्तेवा, सब्भिगंधत्तेवा, दुब्भिगंधत्तेवा, तित्तत्तेवा जाव महुरत्तेवा, कक्खडत्तेवा जाव लुक्खत्तेवा से तेण?णं गोयमा ! जाव चिट्टित्तए ॥७॥ सच्चेवणं भंते! से जीवे पुवामेव अरूबी भवित्ता पभू रूविं विउन्वित्ताणं चिट्रित्तए ? णो इणटे सम? ।। से केणटेणं जाव चिट्ठित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि जाव जंणं तहागयस्स जीवस्स, अरूविस्स, अकम्मरस, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, अलेसस्स, असरीरस्स ताओ सरीराओ विप्पमुक्करस णो एवं पण्णायाति, तंजहा कालत्तेवा जाव लुक्खत्तेवा से तेण?णं जाव चिट्ठित्तएवा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ! भावार्थ 1 लेश्या वाले, व शरीर से रहित जीव को कालापना यावत् शक्लपना, सुरभिगंधपना व दुरभिगंधपना, तिक्त पना यावन् मधुरपना कर्कशपना य वत् रूक्षपना का ज्ञान हे ता है इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् रहना है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! वही जीव पहिला अरूपी होकर फीर रूपीका वैक्रेय कर रहने को क्या सर्थ होता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य है. अहो गन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है। कि वही जीव पहिले अरूपी होकर रूपी हा वैक्रेय कर रहने में समर्थ नहीं है? अहो गौतम! मैं ऐसा जानता 17 हूं यावत् तैसे रूप, कर्म, राग, वेदना, पोह, लेश्या, शरीर व उस शरीर से रहित जीव को कालापना पंचांग विवाहपण्णत्ति ( मगवती) सूत्र881 मचरहवा शतक का दूसरा उद्देशा 488+ । Page #2300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 800 सत्तरसमस वितिओ उद्देसो सम्मत्ती ॥ १७ ॥ २ ॥ सेलेसि पडिवण्णएणं भंते ! अणगारे सयासमियं एयति वेयति जाव तंतं भावं परि- . णमइ ? णो इणटे समटे ॥ णण्णत्थेगेणं परप्पओगेणं ॥ १ ॥ कइविहाणं भंते! एयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा एयणा पण्णत्ता, तंजहा दव्वेयणा, खेत्तेयणा, कालेयणा, भवेयणा, भावेयणा ॥ २ ॥ दव्वेयणाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा पण्णता, तंजहा णेरइयदव्वेयणा तिरिक्खमणुस्सदेव दव्वेयावत् रूक्षपना का ज्ञान नहीं होता है इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् रहने में समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं, यह सतर हवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १७ ॥२॥ इसरे उद्देश के अंत में रूपी अरूपी का कथन किया, अब इस में कंपना लक्षण कहते हैं.' भगवन् ! शैलेशी प्रतिपन्न अनगार मदैव क्या कंपते हैं, विशेष कंपते हैं यावत् उस भाव को क्या णमत हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है, मात्र परप्रयोग से कंपना होती है. ॥१॥ अहो भगवन ! कंपना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! कंपना के पांच भेद कहे हैं जिनके नाम १ द्रव्य कंपना, २ क्षेत्र कंपना ३ काल कंपनर ४ भर कंपना और ५ भाव कंपना. ॥२॥ अहो भगवन् ! दृव्य कंपना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य कंपना के चार भेद कहे हैं १ नारकी द्रव्य * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * | Page #2301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 488 यणा ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चई जेरइयदव्वेयणा ? णेरड्य दव्वेयणा गोयमा! जंणं णेरइया गेग्इयदव्वे वर्टिसुवा वस॒तिवा वहिस्संतिवा तेणं तत्थ णेरइया णेरइय दव्वे वट्टमाणा गैरइयदव्वेयणं एयंसुवा एयंतिवा एयस्संतिवा, से तेणट्रेणं जाव दवे... यणा ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ तिरिक्खजाणिय एवंचेव, तिरिक्खजोणिय दव्वेयणं भाणियध्वं, सेसं तंचेव ॥ एवं जाव देवदव्वेयणा ॥ ३ ॥ खेत्तेयणाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउविहा पण्णत्ता, तंजहा णेरइय खेत्तयणा जाव देवखेत्तेयणा से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ रइय खेत्तयणा णे० २ ? एवंचेव कंपना २ तिर्यंच द्रव्य कंपना ३ मनुष्य द्रव्य कंपना और और ४ देव द्रव्य कंपना. अहो भगवन् ! नारकी की द्रव्य कंपना क्यों कही ? अहो गौतम ! जो नारकी नरकपना में रहे. रहते हैं व रहेगें उन नारकीयोंने वहां ही नरक द्रव्य में रहते हुवे नारकी द्रव्य कंपना की, करते हैं व करेंगे। इससे यावत् नारकी न्य कंपना कही. ऐसे ही तिर्यंच द्रव्य कंपना, मनुष्य द्रव्य कंपना यावत् देव द्रव्य कंपना का जानना.॥३॥ अहो भगवन् ! क्षेत्र कंपना के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम ! क्षेत्र कंपना के चार भेद कहे हैं. नारकी क्षेत्र कंपना यावत् देव क्षेत्र कंपना. अहो भगवन् ! नारकी की क्षेत्र कंपना किसे कहते हैं ? अहो। 8. सरत्तहवा शतक का तीसरा उद्देशा dra 488 Page #2302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnnAmAnmm 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + णेरइयखेत्तयणा भाणियव्या एवं जाव देववेत्तेयणा एवं कालेयणावि एवं भवेयणावि एवं जाव देवभावेयणावि ॥ ४ ॥ कइविहाणं भंते! चलणा पण्णत्ता ? गोयमा! तिविहा चलणा पण्णत्ता, तंजहा सरीरचलणा, इंदिय वलणा. जोगचलणा, ॥ ५ ॥ सरीरचलणाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा ओरालिय सरीरचलणा जाव कम्मग सरीर चलणा ॥६॥ इंदियचलणाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता तंजहा-सोइंदिय चलणा जाव फासिंदिय चलणा ॥ ७ ॥ जोगचलणाणं भंते ! कइबिहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा गौतम ! जैसे द्रव्य कंपना का कहा वैसे ही क्षेत्र कंपना का जानना, एमे ही काल भव व भाव कंपना का मानना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! चलेना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम : चलना के तीन भेद कहे हैं. शरीर चलना २ इन्द्रिय चलना व ३ योग चलना. ॥५॥ अहो भगवन् ! शरीर चलना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! शरीर चलना के पांच भेद कहे हैं. १ उदारिक शरीर चलना यावत् कार्माण शरीर चलना ॥ ॥ इन्द्रिय चलना के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम ! इन्द्रिय चलना के पांच भेद है. श्रोग्रेन्द्रिय चलना यावत् स्पशैद्रिय चलना, ॥७॥ अहो भगवन ! योग चलना के किसने भेद कह १ एजना का बाह्य प्रगट स्वभाव, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालापसाजीद * भावार्थ AAAAAAAAAA Page #2303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पण्णत्ता तंजा मणज़ोगचलणा वइजोगचलणा कायजोग चलणा ॥ १८ ॥ से केणटुणं भंते! एवं वृच्चइ ओरालियसरीर चलणा ? ओरालिय सरीर चलणा गोयमा ! जंणं जीवा ओरालिय सरीरे वट्टमाणा ओरालिय सरीरप्पाओगाई दव्बाई ओरालिय सरीरत्ताए परिणामेमाणे ओरालिय सरीर चलणं, चलिंसुवा चलति चलिस्संतिवा से तेणट्टेणं जाव ओरालिय सरीरचलणा २ ॥ से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ वेउब्विय सरीर चलना ? वेडन्विय सरीर चलणा एवं चैव वरं वेउव्त्रिय सरीरे बट्टमाणेएवं जाव कम्मग सरीर चलणा से केणट्टेणं भंते!एवं वुच्चइ सोइंदिय चलणा सोइंदिय चलणा जंणं जीवा सोइंदियवट्टमाणा सोइंदियप्पाओग्गाइं दव्वाई सोइंदियत्ताए परिणामेमाणे सोइंदिय चलणं चलिंसुवा ! अहो गौतम ! योग चलना के तीन भेद कहे हैं १ मनयोग चलना २ वचन वचन योग चलना व काया योग चलना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! उदारिक शरीर की चलना क्यो कहीं ? अहां गौतम! उदारिक शरीर में रहने वाले जीवों उदारिक शरीर प्रायोग्य द्रव्य को उदारिक शरीरपने परिणमा उदारिक शरीर की चलना की, करते हैं व करेंगे इसलिये ऐसा कहा गया है कि उदारिक शरीर की चलना. ऐसे ही वैक्रेय, आहारक, तेजस कार्माण शरीर का जानना ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय चलना ? अहो गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय में रहनेवाले जीवों श्रोत्रेन्द्रिय सतरहवा शतक का तीसरा उद्देशा २२७३ Page #2304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७४ चलंतिवा चालसंतिवा, से तेणटेणं जाव सोइंदिय चलणा साइदिय चलणा॥ एवं जाव फासिदिय चलगा ॥१०॥ सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ मणजोग चलणा ? मणजोग चलणा गोयमा! जंणं जीवा मणजोए वट्टमाणा मणजोगप्पाओग्गाई दबाई मणजोगत्ताए परिणामेमाणे मणचलणं चालेंसुवा चलंतिका चलिस्संतिवा, से तेण?णं जाव मणजोगचलणा मणजोगचलणा ॥ एवं वयजोग चलणा एवं कायजोगचलणावि ॥ ११ ॥ अह भंते ! संवेगे, णिव्वेगे, गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणया, आलोयणया, जिंदणया, गरहणया, खमावणया, सुतसहायता, विउसमणया भावे, अप्पडिबद्धता, भावार्थ प्रायोग्य द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रियपने पर गमाते हुवे श्रोवेन्द्रिय की चलना चली, चलते हैं व चलेंगे इमलिये ऐसा कहा गया है कि श्रोत्रन्द्रिय की चलना. एसे ही स्पर्शेन्द्रिय की चलना तक कहना ॥ १० ॥ K- अहो भगवन् ! मनयोग चलना किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! मनयोग में बननेवाले जो : जीवों हैं वे मन प्रायोग्य द्रव्य को मनयोगपने परिणपाते मन चलनां चले, चलते हैं व चलेगे इस लिये यावत् मनयोग चलना. ऐसे ही वचन योग । काया योग का जानना. ॥११॥ अहो भगवन् ! १ मोक्षकी अभिलाषा रूप संवेग भाव से २ संसार स्पाग रूप निगे भाव से 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 88 भावाथे पंचमाङ्ग विवाह पण्णाति (भगवती ) मूत्र Page #2306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 49 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अहियासणाया मारणांतियअहियासणया, एएणं किं पजवसाणफला पण्णत्ता ? समणाउसो ! गोयमा ! संवेग णिव्वेगेजाव माणांतिय अहियासणया एएणं सिद्धपजवसाण फला पण्णत्ता समणाउसो || सेवं भंते भंतत्ति | जाव विहरइ || सत्तरसमस्स तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ ३ ॥ * ते कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी अस्थि भंते! जीवाणं पाणाइत्राएणं आगम मार्ग में प्रवर्तने से ३२-४५ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशून्य, परपरिवाद, रति, अरति मायामृषा व मिथ्यादर्शन शल्य इन की निवृत्ति से ४६ ज्ञान युक्त, ४७ दर्शन युक्त ४८ चारित्र युक्त ४९ क्षुधा वेदनीय समभाव से सहन करने से और ५० मरणांतिक समभाव से सहन करने से; उक्त सब बोलों से क्या जीव को मोक्ष पर्यवसान रूप फल होता है ? अहो आयुष्यवंत श्रमणो ! अहो गौतम ! संवेग यावत् मरणांतिक समभाव से मोक्ष रूप पर्यवसान फल होता {है. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर यावत् विचरने लगे. यह सतरहवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ ३ ॥ तीसरे उदेशे में एजनादि क्रिया कही. चौथे उद्देशे में भी उसकाही कथन करते हैं. उस काल उस { समय में यावत् गौतम स्वामी ऐसा पूछने लगे कि अहो भगवन् ! क्या जीवों को प्राणातिपात से क्रिया C ० * प्रकाशक राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १ २२७६ Page #2307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ किरिया कज्जइ ? हंता अत्थि ॥ सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कज्जइ ? गोयमा पुट्ठाकज्जइ णो अपुट्ठाकज्जइ, एवं जहा पढमसए छहुद्देसए जाव णो अणाणुपुब्बिकड - त्ति वत्तव्वंसिया, एवं जाव वेमाणियाणं णवरं जीवाणं एगिंदियाणय निव्वाघाएणं छद्दिसि वाघायं पडुच्च सियतिदिसिं सिय चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं सेसाणं नियमं छद्दिसिं ॥ १ ॥ अत्थिणं भंते! जीवा मुसावाएणं किरिया कज्जइ ? हंता अस्थि || सामंते ! किं पुट्ठाकज्जइ अपुट्ठा कजइ जहा पाणाइवाएणं दंडओ एवं मुसावाएणवि ॥ होती है ? हां गौतम ! जीवों को प्राणातिपात से क्रिया होती है. अहो भगवन् ! वह स्पर्शी हुइ होती ई है या विना स्पर्शी हुई होती है ? अहो गौतम ! स्पर्शी हुई होती है परंतु बिना स्पर्शी हुई नहीं है. वगैरह जैसे प्रथम शतक के छठे उद्देशे में कहा वैसे ही कहना यावत् अनुपूर्विकृत ऐसा कहना. ऐसेही वैमानिक पर्यंत सब दंडक का जानना. परंतु समुच्चय जीव एकेन्द्रिय में निर्व्याघात आश्री छदिशि व्याघात आश्री (काचित् तीन दिशि, चारदिशि काचित् पांवदिशि कहना. और शेष सब को छ दिशि कहना. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! क्या जीवों को मृषावाद से क्रिया होती है ? हां गौतम ! जीवों को मृपावाद से क्रिया होती है. अहो भगवन् ! क्या वह स्पर्शी हुई होवे या विना स्पर्शी हुइ होवे ? अहो गौतम ! जैसे प्राणातिपात का पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +4 4 सत्तरहवा शतक का चौथा उद्देशा 99 २२७७ Page #2308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुवादक-चालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी अदिण्णादाणणवि ॥ मेहुणेणवि ॥ परिग्गहेणवि ॥ एवं एए पंचदंडगा ॥ जं समएणं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ अपुट्ठाकजइ, एवं तहेब जाव वत्तव्यं सिया,जाव वेमाणियाणं ॥ एवं जाव परिग्गहेणं ॥ एवं एएवि पंचदंडगा जं देसेणं भंते ! जीवाणं पाणाइवाइएणं किरिया कज्जति जाव परिग्गहेणं, जं पदेसेणं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ एवं तहेव दंडओ ॥ एवं जाव परिग्गहेणं ॥ एवं एए वीसदंडगा ॥ ३ ॥ जीवाणं भंते! किं अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुक्खे, तदुभयकडे दुक्खे ? गोपमा ! अत्तकडे कहा वैसे ही मृषावाद का जानना. ऐसे ही अदत्तादान, मैथुन व परिग्रह का जानना. ॥२॥ अहो भग न् ! एक समय में जीवों को प्राणातिपात सं जो क्रिया होती है वह क्रिया सही हुई होता है या विना स्पर्शी हुई। होती है ? अहो गौतम : पूर्वोक्तवक्तगता जैसे वैमानिक तक कहना. एसे ही मृषावाद यावत् परिग्रह का जानना. अहो भगवन् ! एक देश में जीवों को प्राणातिपात मे जो क्रिया होती है यह क्रिया याजन् परिग्रह पर्यंत जानना. एक प्रदेश में प्राणातिपाल से जो क्रिया होती है. वह क्रिया या सर्शी हुई होरे या विना स्पर्शी हुई होवे ? इस का भी पूक्ति जैसे जानना. ऐसे ही परिग्रह पर्यंत कहना. ऐस बीस दंडक का प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 388 दुक्खे, णो परकडे दुक्खे, णो तदुभयकडे दुक्खे, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ४ ॥ जीवाणं भंते ! किं अत्तकडं दुक्खं वेदेति परकडं दुक्खं वेदेति तदुभयकडं दुक्खं वेदेति ? गायमा! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, णो परकडं दुक्खं वेदेति, जो " तदुभयकडं दुक्खं वेदेति, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ५॥ जीवाणं. भंते ! किं अत्तकडा वेदणा, परकडा वेदणा, तदुभयकडा वेदणा ? गोयमा ! अत्तकडा वेदणा गो परकडा वेदणा, णो तदुभयकडा वेदणा ॥ एवं जाव वेमाणियाणं पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र सत्तरहवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ जानना. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! जीवों को क्या सतः का किया दुवा दुःख है परका किया हुका दुःख है. या उभय का किया हुवा दुःख है ? अहो गौतम ! जीवों को स्वतः का किया हुवा दुःख है परंतु अन्य का किया व उभय का किया हुवा दुःख नहीं है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं पर कृत दुःख वेदते हैं या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? अहो गौतम ! जीव . आत्मकृत दुःख वेदते हैं परकृत व उभय कृत दुःख नहीं वेदते हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! जीवों को क्या आत्मकृत वेदना, परकृत वेदना व उभयकृत वेदना है. ? अहो भगवन् ! जीवों को आत्म कृत वेदना है परंतु पस्कृत व उभय कृत वेदना नहीं है ऐसे ही वैमानिक पर्यन चौवीस है " १४ 488 - Page #2310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. ॥ ६ ॥ जीवाणं भंते ! किं अत्तकडं वेदर्ण वेदेति, परकडं वेदणं वेदेति तदुभयकडं वेदणं वेदेति ? गोयमा जीवा अत्तकडं वेदणं वेदेति, णो परकडं वेदणं वेदेति, णो तदु. भयकडं वेदणं वेदेति. एवं जाव वैमाणियाणं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस्सय चउत्थो उद्देसो सम्मत्ती ॥ १७ ॥ ४ ॥ • कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबूहीवे दीने मंदरस्स पन्बयस्स उत्तरेणं, इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाण जाओ भूमिभागाओ उर्दू चंदिम जहा ठाणपदे जाव मझे ईसाण-डिंसए सेणं भावार्थ ही दंडक का जानना ॥६॥ अहो भगवन् ! जीव क्या आत्म कृत वेदना वेदते हैं यावत् उभय कृत वेदना वेदते हैं ? अहो गातन ! जीव आत्म कृत वेदना वेदते हैं. परकृत व उभयकृत वेदना नहीं वेदते हैं.. है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सतरहवा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ ४ ॥ ई चौथे उद्देशे में वेदना का अधिकार कहा. साता बेदनीय कर्मवाले देवता होते हैं इसलिये साता. 1 वेदनीय का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! ईशान नामक देवेन्द्र देवराजा की सुधर्मा सभा कहा हैं ? 49. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. * प्रावक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. wwwwwwww Page #2311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : CG : पणति ( भगवती ) सूत्र १०%80 ईसाणवडिंसएमहाविमाणे अद्वतैरसोअणसयसहस्साआयाम विक्खंभेणं उणयालीसं. च सयसहस्साए. वावन्नं सहस्साए अट्ठयअट्ठयाले जोयणसए परिक्खेवेणं एवं जहा दसमसए सक्काविमाणवत्तव्यया सा इहवि ईसाणसवि वत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा जाव आयरक्खत्ति, ठिई साइरेगाइं दो सागरोवमाइं, सेसं तंचेव जाब ईसाणे देविंद देवराया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥१७॥५॥ पुढवीकाइयाणं भंते ! इमासे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए समोहित्ता जे भविए सत्तरहवा शतक की छठा उद्देशा भावाथे अहो गौरम ! इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की उत्तर दिशि में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत सम भूमि भाग वो है जैसे स्थानपद में कहा वैसा यावत् मध्य में ईशानावतंसक है. वह साढे बारह लाख -योजन क लम्या व चौडा है, उसकी एक क्रोड गुचाालस लाव बावन हजार आठ से अडतालीस योजन की राधे हे. . वगेरह जला दशरे शतक में कहा वे ही यहां जाना. यावत् आत्मरक्षक देव. स्थिति दो सगरम की . यापत् ईशान देवेन्द्र समा, अहो भगवन् ! आप वचन सब हैं. यह सतरहवा शनक पवित्रा उद्देशा पूर्ण वा ॥ १७ ॥ ५ ॥ पावे उदेशे में ईशान ६वेन्द्र का कथन किया. छठे उद्देश में पृथ्वी काम का देवलोक में उत्पन्न ! 35 10 Page #2312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ +3 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 42 सोहम्मे कप्पे पुढकाइयत्ताए उववजित्ताए से भंते! किं पुत्रि उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा, पुबिंवा संपाउणेत्ता पच्छा उववज्जेजा ? गोयमा ! पुव्विवा उववज्जिन्ता पच्छा संपाउणेज्जा पुत्र वा संपाउणेत्ता पच्छा उववज्जेजा ॥ से केणट्टेणं जाब ! पच्छा उववजेजा ? गोयमा ! पुढवीकाइयाणं तओ समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा वैयणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणांतिय समुग्याए, मारणांतिय समुग्धाएणं समोहणमाणे देसेणंवा समोहणइ सव्वेणवा समोहणइ, देसेण समोहणमाणे पुवि संपाउ होने का कहते हैं. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में से पृथ्वी काया मारणांतिक समुद्घात कर के सौधर्म देवलोक में पृथ्वी कायापने उत्पन्न होवे तो क्या वह वहां उत्पन्न होकर पीछे आहार ग्रहण करे अथवा पहिले आहार ग्रहण कर पीछे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पहिले ( उत्पन्न होकर पीछे आहार ग्रहण करे अथवा पहिले आहार ग्रहण कर पीछे उत्पन्न होवे अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् पीछे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पृथ्वी काया को तीन समुद्धात कही हैं. वेदना समुद्रात, कषायसमुद्धात मारणान्तिक समुद्धात मारणांतिक समुद्धात करते देशले समुद्धात करे सर्व से समुद्धात करे. देश से समुद्धात करते पहिले आहार लेकर पीछे * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २२८२ Page #2313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंत्रमागविवाह पुष्णाति ( भगवती ) सूत्र पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती 488+ णित्ता पच्छा उववजिज्जा, सव्वेण समोहणमाणे पुव्वि उववजिज्जा पच्छा संपाउणेजा, से तेणद्वेणं जात्र उववज्जेज्जा ॥ १ ॥ पुढवीकाइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाएं पढवी जाब समोह समोहएत्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवी एवं चैव ईसाणेवि ॥ एवं अच्चुवे विमाणे अणुत्तर विमाणे ईसिप्पभाराएय एवं वेत्र ॥ २ ॥ पुढवी काइयाणं भेते ! सक्करष्पभाए पुढबीए समोहए समोहएत्ता जे भविए सोहम्मकप्प पुढवी एवं जहा रयणप्पभाए पुढवीकाइओ उबवाइओ; एवं सक्करप्पभाए पुढवी काइओ उबवायम्वो, जाव ईसिप्पभाराए, एवं जहा रयणप्पभाए वत्तन्वया भणिया {उत्पन्न होवे और सर्व से समुद्धात करते पहिले उत्पन्न होवे पीछे आहार करे इसलिये ऐसा कहा गया है. { यावत् उत्पन्न होवे ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! इस रस्नमभा पृथ्वी में पृथ्वी काया मारणांतिक समुद्धात करके ईशान देवलोक में पृथ्वी कायापने उत्पन्न हो तो क्या पहिले उत्पन्न होकर पीछे आहार करे अथवा { पहिले आहार करके पीछे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे सौधर्म देवलोकका कहा वैसे ही यहां जानना. ऐसे ही सनत्कुमार यावत् अच्युत, वैवेषक, अनुत्तर विमान व ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक का जानना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! शर्करप्रभा में से पृथ्वीकाया मारणान्तिक समुद्धात करके सौधर्म देवलोक में पृथ्वी काया 488*- सतरहवा शतक का छठा उद्देशा 438+--- २२८३ Page #2314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८१ एवं जाव अहे सत्तमाए समोहए ईसिप्पभाराए उववाएयत्वो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस्त छट्ठो ॥ ११ ॥ ६ ॥ पुढवी काइ णं भंते ! सोहम्मे पे र मो : : मोहणित्ता जे भविर इमीसे रयणप भाए पुढवीए पुढवी काइयत्ताए उब जि तए सणं भंते ! किं सेसं तं चेव जहा रयणप्पभार पुत्वीकाइओ सव्व कप्पेसु जाब ईसिप्पभाराए ताव उववाइआ एवं सौम्म पुढवी काइओवि सरसु पुढ वासु . उवधाएयव्यो । हा जाब अहे सत्तमाए एवं जहा सोहम्म 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 *प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ परे उत्पन्न होवे वगैरह जैसे र प्र । बा का वैसे ही या जानना. ऐसे ही ईपत्ताग्भ र पृथ्यी तक उत्पन्न होने का जानना. जैसे रप्रभा की वक्तव्यता कही. चमे ही सातवी तमतम पृथ्वी की वक्तव्यत कहना. अहाँ भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सतहवा शतक का छठा उद्देशा पूर्ण वा ॥१७॥६॥ । गत उद्देशे में पृथ्वी काया का कथन किया. आगे उद्देशे में भी उस का ही कथन करते हैं. अहे। भगवन् ! सौधर्म देवलोक में पृथ्वी काया मरगतिक समुद्धान. करके इस रत्न प्रभा पृथ्वी में पृथ्वी कायापने उत्पन्न होवे वगैरह सब पूर्वोक्त उद्देशे में कहा वैसे ही यहां कहना. जैसे रत्न प्रभा पृथ्वी कायिक सब देवलोक में यावत् ईपत्यागभार पृथ्वी में उत्पन्न होवे वैसा कहा ऐसे ही सातों पृथ्वी में Page #2315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावाथ विवाह पथत्ति ( भगवती ) सूत्र पुढचीकाइ सव्यपुढचीसु उववाइओ, एवं जाव ईसिप्पभारा पुढवकाइओ सव्वढवी उबवायव्वो जाव अहे सत्तमाए ॥ सेयं भंते संतति ॥ सतरसमस्स सत्तमा उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ ७ ॥ आउकाइएणं भंते ! इमी से स्थणप्पभाए पुढबीए समोहएं समोहइत्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए एवं जहा पुंढवीकाइओ तहा आउकाइओवि सव्वकप्पेसु जाव ईसिप्पभाराए तहेव उबवायचो एवं जहा रयणप्पभा पृथ्वी काया का उत्पन्न होना कहना. ऐसे ही जैसे सौधर्म पृथ्वीकायिक सर्व पृथ्वी में उत्पन्न होने का [ कहा वैसे ही यावत् ईषत्प्राग्भार पृथ्वीकायिक सर्व पृथ्वी में जानना यावत् सातवी तम्तमा पृथ्वी. अो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सतरहवा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! इन रत्नप्रभा पृथ्वीकाय में अष्काय मारणांतिक समुद्रात करके सौधर्म देवलोक में ( उत्पन्न होने योग्य होवे वह क्या पहिले उत्पन्न होकर पीछे आहार करे अथवा पहिले आहार कर पीछे उत्पन्न होवे ? अढो गौतम ! जैसे पृथ्वीकाया का कहा वैसे ही अपकाया का सब देवलोक यावत् } ईपत्यागभार पृथ्वी तक कहना. और जैसे रत्नप्रभा की अपकाया कही वैसे ही शर्कर प्रभा यावत् सत्तरहवा शतक का आठवा उद्देशा 80808 '२२८५ Page #2316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अम लक ऋषिजी 8 आउकाइओ तहा अहे सत्तमा पुढवी आउकाइओ उववाएयव्वो जाव ईसिप्पभाराए सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ ८ ॥ आउकाइएणं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलएस आउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! सेसं तंचेव एवं जाव अहे सत्तमाए जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव ईसिप्पभारा आउकाइ. ओ जाव अहे सत्तमाए उबवातेयव्वो सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमसयरसय णवमो मातवी तमतमा पृथ्वी यावत् ईपत्मारभार पृथ्वी का जानना. अहो भगवन् ! आपके बचन सस हैं. यह सतरहवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ।। १७॥ ८॥ । अहो भगवन् ! सौधर्म देवलोक में अप्कायिक मरणांतिक ममुद्धात करके इस रत्न प्रभा पृथ्वी के घनोदधि के वलय में उत्पन्न होने योग्य हो तो वह वहां क्या उत्पन्न होकर आहार करे या आहार करके उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे पहिले कहा वैसे ही यहां जानना. यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी का. जैसे सौधर्म देवलोक का कहा वैसे ही ईषत्माग्भार पृथ्वी का नीचे की सातवी पृथ्वी में उत्पन्न होने तक कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सस हैं. यह सतरहवा शतक का नववा * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 886 उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ ९॥ वाउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव जो भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइत्ताए उववजित्तए सेणं जहा पुढवीकाइओ तहा वाउकाइओवि णवरं वा- २२८७ उकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा वेदणासमुग्घाए, जाव वेउव्वियसमुग्याए, मारणांतिय समुग्घाएणं समोहणमाणे देसेणवा समोहए सेसं तंचे जाव अहे सत्तमा समोहयाओ ईसिप्पभाराए उववाएयव्वो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसम स्सय दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ !। १०॥ भावार्थ उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ ९॥ E अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में वायुकाया मारणांतिक समुद्धात करके यावत् सौधर्म देवलोक में बायुकायापने उत्पन्न होने को योग्य है वगैरह सब पृथ्वीकाया जैसे कहना. विशेष में वायुकाया को चार समुद्धात कही. जिन के नाम. वेदना समुद्धात यावत् वैक्रेय समुद्धात. मारणांतिक समुद्घात करते देश से समुद्रात करे शेष वैसे ही जानना यावत् सातवी पृथ्वीतक. ईपत्मारभार में से उत्पन्न होने का. अहो 17 भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह सत्तरहना शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुआ. ॥ १७ ॥ १० ॥ १ ॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र सत्तरहवा शतक का दशवा उद्देशा 9887 Page #2318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२२८८ वाउकाइएणं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहएत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए। पुढवीए घणवाए तणुवाए घणवाथ बलएसु तणुवायवल एसु बाउकाइयत्ताए उवव. जित्तए, सेणं भंते ! सेसं तंचेव एवं जहा सोहम्मकप्रमाउकाइओ सत्त सुवि पुढवीसु उवाइओ एवं जाव ईसिप्पभारा वाउकाइओ अहे सत्तगाए जाय उवयाएयव्बो, सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस एकारसमो उद्देसो सम्नत्तो ॥ १७ ॥ ११ ॥ एगिदियाणं भंते ! सो समाहारा समुस्सास जीसासा, एवं जहा पढमसए वितिय उद्देसए पुढवीकाइयाणं वत्तवया भगिया सव्येवि एगिदियाणं इहं भाणियव्या जाव भावार्थ अहो भगवन् ! वायुकाय सौधर्म देवलोक में से मारणांतिक समझात कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी में घनवात व तनवात में घनवात पलय व तनातवालय में उत्पन्न होने योग्य होवे शेष वैसे ही जानना. ऐसे ही सौधर्म देवलोक में से वायुकाय सातों पृथ्वी में उत्पन्न होघे वैये कहना ऐसे ही ईपत्तागभार पृथ्वी में से वायुकाय नीचे की सातवी पृथ्वी में उत्पन्न हो वहांतक कहना. अहो भगान् ! आप के वचन सत्य हैं। यह सत्तरहवा शतक का अग्यारवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १७ ॥११॥ . . 1. अहो भगान् ! क्या एकेन्द्रिय सघ सरिखे आहारवाले, सरिसे उश्वास नीश्वासवाले, वगैरह जैसे प्रथम 10अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी *-काशक राजावहदुर लाला मुखदवसहायनी ज्यालामसादजी* Page #2319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4380+ समाउया समोववण्णगा || १ || एगिंदियाणं भंते ! कइलेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चउलेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा कण्हलेस्सा जाब तेउलेस्सा । एएसिणं संते ! एगिंदियाणं कण्हलरसाणं जाव विसेसाहिया ? गोवमा ! सव्वत्थावा एगिंदियाणं तेउलेस्सा काउलेस्सा अनंतगुणा णीललेस्सा बिसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेमाहिया । एएसिणं भंते! एगंदियाणं कण्हलेस्सा इड्डी जहेब दीवकुमारा सेवं भंते भवेति ॥ सन्तरसमस्स दुवालसमो उद्देसो || १७ ॥ १२ ॥ x X X ( शतक के दूसरे उद्देशे में पृथ्वीकाया की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां जानना यावत् सरिखे आयुष्यवाले व (समान उत्पन्न होनेवाले ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय को लाओं कहीं ? अहो गौतम ! | एकेन्द्रिय को चार लेश्याओं कड़ी. जिसके नाम कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या. अहो भगवन् ! इन कृष्ण { यावत् तेजोलेश्यावाले में कोन किल से अलस बहुत यावत् है ? अहो गौतम ! सब से थोडे तेजो लेश्यावाले एकेन्द्रिय, इस से नीललेावाले अनंतसुते, इस से कापोत लेश्यावाले विशेपाधिक इस से कृष्ण लेश्यावाले विशेषाधिक. अहो भगवन् ! कृष्णलेशी एकेन्द्रिय की ऋद्धि वगैरह ? अहो गौतम ! जेले द्वीप { कुमार की कही वैसे ही जानना. यह सतरहवा शतक का बारहवा उद्देशा संपूर्ण हुआ. ॥ १८ ॥ १२ ॥ x -सत्तरहवा शतक का बारहवा उद्देशा २२८९ Page #2320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णागकुमाराणभंते! सत्वे समाहारा जहा सोलसमसए दीवकुमारुहेसए तहेवाणरवसेसं भाणियव्वं जाव इढी ॥सेवं भंते भंतेत्ति जाव विहरइ॥सत्तरसमस्स तेरसमो॥१७॥१३॥ सुवण्णकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमसस्स चउद्दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ १४ ॥ विज्जुकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा, एवं चेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसमस पण्णरसमो उद्दसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ १५॥ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी: .भकामकाजाबहादुर लाला मुखदेव महायनी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ rammmmmmmmm अहो भगवन् क्या नाग कुमार देव सरिखे आहार करने वाले हैं ? अहो गौतम ! जैसे सोलहवे शतक में द्वीप कुमार का उद्देशा कहा वह सब यहां पर निरवशेष कहना यावत् ऋद्धि. अहो भगवन् ! आ वचन सत्य हैं यह सत्तरहवा शतक का तेरहवा उद्देश। संपूर्ण हुवा. ॥ १७ ॥१३॥ ___ अहो भगवन् ! क्या सुवर्णकुमार सरिखे आहार करने वाले हैं ? इन का भी अधिकार वैसे ही जानना. यह सतरहवा शतक का चौदहया उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७॥ १४॥ . . विद्युन कुमार का भी वैसे ही जानना. अहो भगवन आप के वचन सत्य हैं यह सतरहवा शतक पनरहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ १५॥ . . . Page #2321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 8 पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 44 वायुकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा, एवं चेत्र ॥ सेवं भंते भंतेत्ति | सत्तरसमस्स सोलसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ १६ ॥ • अग्गिकुमाराणं भंते ! सव्वेसमाहारा एवं चैव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति | सत्तरसमस्स सत्तरसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ १७ ॥ सम्मत्तं सत्तरसमं सयं ॥ १७ ॥ • वायु कुमार का भी वैसे ही कहना. अहो भगवन आपके वचन सत्य हैं यह सत्तरहवा शतक का सोलहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा || १७ ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! क्या अग्निकुमार सरिखे आहार करने वाले वगैरह पहिले जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सतरहवा शतक का सतरहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १७ ॥ १७ ॥ 49+ सत्तरहवा शतक का १६-१७ वा उद्देशा 982+* २२९१ Page #2322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशशतकम्.. पढमा विसाहमायं, दिएय पाणाय असुरेय | गुल केवलि अणगारे, मविए तह सोमिलद्वारसमे ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जार एवं वयासी जीवेणं भंते ! जीवभावेणं किं पढमे अपढमे ? गोयमा ! णो पढमे अपढमे ॥ एवं णेरइए * अकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी भावार्थ 49 अनवाका-यालयमचारी मुनि श्री अमेलक ऋषिनी 800 | __ सतर हरे शतक के अंत में अधिकार देवता का सा आहार कहा. अब अठारहवे शतक के प्रारंभ में जीवों की उत्पत्ति का कथन करते हैं. इस शतक में दश उद्दशे कहे हैं. जीवादिक अर्थ में प्रथमत्वादि विचारणारूप पहिला उद्देशा. २ विशाखा नगरी ३ माकंदीय पुत्र का ४ प्राणातिपातादि विषयका ५ अरवक्तव्यता ६ गुलादि अर्थविशेष ७ केल्यादि विषयका ८ अनगार विपय ९ भव्य द्रव्य नारकादि मस्यामार्य और सोमिक नमन का ये दश उश अठारह शतक में कहे. उस काल उस स में श्री श्री भगवन पहावीर स्वामी को चंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पुछने लगे कि अहो भगवन् ! जीव जयभान से प्रय है या आपमहे ? अतिकका जोब प्रमता धर्म पहित है ? पहिले जीवपना नहीं था पीछे हुया है अथवः अदि में है ? अहो मौतम ! जीव जीवभाव से प्रथम नहीं है अर्थात् जीवपना नया प्राप्त नहीं होता है परंतु अनादि से है. जैसे जीवपना अप्रथम है वैसे ही नरक से लेकर वैमानिक पर्यंत Page #2323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Im 4 মঙ্গ पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र जाब माणिए || सिद्धेणं भंते ! सिद्ध भावेणं कि पढमें सपढमे? गोयमा ! पढेमे जो है। अफ्रमे ॥ २ ॥ जीवाणं भंते ! जीवभावेणं किं पढमा अढमा ? गोयमा ! णो पढमा अपढमा ॥ एवं जार माणियाणे । ३३ सिडाणं पच्छा? गोयमा ! २२९३ फ्डमा णो अपहमा ॥ ॥ आहारएणं भंते ! जीवे माहरक्षावे किं पहले अपढमे? गोयमा । यो पदमे अपढमे ॥ एवं जाव वेसरणिए ब हत्तिएवि एवं चय अण्णाहारएणं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं पुच्छा ? मोय सिप पढछे सिथ अपडको चौबीस दंडक का जानना. ।। १ । अहरे भगवन् ! सिद्ध सिद्धशाव से क्या प्रथम है या अप्रथम है ? अहो गौतम ! सिद्ध सिद्धभाव से अप्रथा है परंतु प्रथय नहीं है. यह एक आश्री कहा अब अनेक पाश्री कहते हैं. अहो भगवन् ! बहुत जीव जीवभर से क्या प्रथम है या अप्रथम हैं ? अहो मौसा प्रथम नहीं हैं परंतु अप्रथा हैं, ऐसे ही वैमानिक पक्ष जानना. ॥ ३ ॥ सिद्ध प्रथम हैं परंतु अपथम नहीं हैं. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! आहारक जीव अहारभाव से क्या प्रथम है या नथम है । अखे गौतम ! प्रथम नहीं है परंत अप्रथम है. ऐसे ही बैनिक पर्यत जानना.॥५॥स बीवों का भी वैसे ही मानना. ॥६॥ अहो भगवन्! अनाहारक और क्या अनाधार भार से प्रथम प्रथम है? अहो गौतम स्यात प्रथम वै स्यात् अप्रथम है अर्थात् किसनेक जीवों की अनाहारक होने की आदि है सिद्धयतू और अठारहवा शतक का पहिला उद्दशाitt: 8 Page #2324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * णेरइए जाव वेमाणिए णो पढमे अपढमे ॥ ७ ॥ सिद्धे पढमे णो अपढमे ॥ ८ ॥ अणाहारगाणं भंते ! जावा अणाहारगा पुच्छा, गोयमा ! पढमावि अपढमावि, गेरइया जाव वेमाणिया णो पढना अपढमा सिद्धा पढमा णो अपढमा !! ९ ॥ एकेके पुच्छा भाणियब्वा, भवसिद्धिए एगत्तपुहत्तेणं जहा आहारए, एवं अभवसिद्धिएवि ॥ १०॥ गो भवसिद्धिय णो अभवसिडियएणं भंते ! जीवे णो भव. पुच्छा ? गोयमा ! पढमे जो अपढमे ॥ ११ ॥ णो भवसिद्धिणोअभवसिद्धिएणं भंते ! सिदे णो भव एवं पुहत्तेणवि दोण्हवि ॥ १२ ॥ सप्णीणं भंते ! जीवे सण्णिकितनेक जीवों अनादि से ही अनाहारक होते आये हैं, नारकी यावत् वैमानिक के प्रथम नहीं है परंतु अप्रथम हैं, सिद्ध प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं ॥ ७-८ ॥ अव बहुत जीव आश्री कहते हैं. अहो भगवन् ! अनाहारक जीवों अनाहारकभा से क्या प्रथम हैं या अप्रथम हैं?अहो गौतम! प्रथम भी हैं और अभयम भी हे नारी यावत् वैमानिक प्रथम नहीं है पतु अप्रथम है, सिद्ध प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं ॥ ९ ॥ भवन सिद्धक व अभवासीद्धक को एकत्र अनेकत्व का आहारक जैसे कहना ॥१०॥ नोभवसिद्धिक नो अमासिद्धिक प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं. ॥११॥ ऐसे ही जो भवसिद्धिक नो अभवसिदिक सिद्धका है। • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी भावार्थ | Page #2325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सूत्र भावेणं किं पढने पुच्छा ? गोपमा ! णो पढमे अपढमे ॥ एवं विगलिंदियवज्जं जाव माणिए || एवं पुहत्तेणवि || असण्णी एवंचेत्र एगत्तपुहत्तेणं णवरं जाव वाणमंतरा जो सण्णी णो असण्णी ॥ जीवे मणुस्से सिद्धं पढमे णो अढमे || एवं पुहतेण वि ॥ १३ ॥ सलेस्सेणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहा आहारए एयं पुत्तेचि ॥ कण्हेलेस्से जात्र सुकलेस्से एवं चेत्र णवरं जस्स जा लेस्सा अत्थि || अलेस्से णं जीवा मस्सा सिद्धा णो णी णो असण्णी ॥ १४ ॥ सम्मद्दिट्ठीएणं भंते ! सम्म हिट्ठीभावेणं किं पढमे पुच्छा ? गोयमा ! सिय पढमे सिय अढमे. एवं एगिंदियत्रजं { एक आश्री व अनेक आश्री जानना ||१२|| अहो भगवन्! संज्ञी क्या मंज्ञीभावसे प्रथम है या अमयम है? अहो गौतम !! { प्रथम नहीं है परंतु अप्रथम है. ऐसेही विकले द्रेय छोडकर वैमानिक तक काना जैसे एक आश्री कहा वैसे अनेक {आश्री जानना. असंज्ञी का भी एक आश्री अनेक आश्री ऐसे ही जानना. विशेषवाणव्यंतरक कहना. तो संज्ञी नो असंज्ञी जीव मनुष्य व निद्ध आश्रम है परंतु अमन नहीं है ||१३|| मलेशी एक व अनेक आश्री आहारक { जैसे कहना. कृष्णलेशी यावत् शुक्ल लेशीका भी बसे ही जानना. परंतु जिनमें जितनी लेश्या होवे उन में उतनी कहना. अलेशी का जीव मनुष्य व सिद्ध आश्री नो संज्ञी नो अज्ञी जैसे कहना || १४ || अहो भगवन् ! 4 अठारहवा शतक का पहिला उद्देशा २२९५ Page #2326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. जाव येमाणिए । सिद्ध पढमे जो अपढमे पुहत्तिपा जीवा पढमावि अपढमावि एवं जाय धेमाणिया ॥ सिद्धा पढमा णो अपढना । मिच्छविट्ठीए एगत्त पुहत्तेणं जहा आहारगा, . सम्मामिच्छट्टिीए एगत्तपुहत्तेणं जहा सम्मादट्ठी, णबरं जस्म अत्थि सम्मामि छत्ते ॥ १५ ॥ संजतेजीवे मणुस्सय, एगत्त पुहत्तेणं जहा सम्भदिली ॥ असंजए जहा आहारए ॥ संअया संजए' जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियमजुस्से एगत्तपुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी, - णोसंजए जोअसंजए, णोसंजयालंजर जीवे सिद्धेय एगन्न समदृष्टि समष्टि भाव से क्या प्रथम है था अप्रथम है ? अहो गौतम ! स्यात् प्रथम है झ्यात अपयम है। ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर यावत् वैमानिक पर्यंत जानना. मिद्ध में प्रथम व थप्रथम है. अनेक जीव आश्री प्रथम भी है और अप्रथम भी है, ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. सिद्ध प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है. मिथ्यादृष्टिका एक अनेक आश्री आहारक जैसे कहना. सममिथ्याष्टिका समष्टि जैसे कहना विशेष में जिन को सममिथ्यादृष्टि होवे उन को ही कहना ॥ १५॥ संयातिजीव मनुष्य में एक अनेक आश्री दृष्टि जैसे कहना. असंयति का आहारक जैसे कहना संयतासंयति तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का एक अनेक आश्री समदृष्टि से कहना. नोसंयति नो असंयति नांसंयतामयति जीव व सिद्ध में एक अनेक 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायनीज लाप्रसादजी* Page #2327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचांग विवाह पत्ति ( भगवती )त्र पुहत्तेणं पढमे णो अपढमे ॥ ५६ || सकसायी कोहकसायी जाव लोभकसायी एगत्तेणं पुहत्तेणं जहा आहारए, अकसायी जीवे सिय पढमे सिय अपढमे, एवं मणुस्सेवि, सिद्धे पढमे जो अपढग ॥ पुहत्ते जीवा मणुस्सा पढमावि अपढमाधि, सिद्धा पढमा णो अपढमा ॥ १७-१ णाणी-एमयू पुहत्तेर्ण जहा सम्मट्टिी, आमिणि अहियणाणी जाव मणपजवषाणी. एगत्तपुहत्तेणं एवं क्षेत्र, णरं जस्सजं . अस्थि, केवलणाणी. जीवे मणुस्से सिद्धेश एमत्तपुहलेणं पडमा जो अपतमा ॥ अण्णाणी मई अण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी एमत्त पुहत्तेणं जहा आहारए श्री प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है ॥ १६ ॥ सकपषी क्रोधकषायी पावत् लोभ अषयी एक अनेक आश्री आवरक जैसे जानना. अप्पयी जीक व मनुष्य एक आश्री स्यात् श्यम स्यात् अप्रथल है सिद्ध आश्री प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है. अनक आश्री जीव मनुष्य प्रथम भी हैं और अप्रथम भी है। भिद्ध प्रथम हैं परंतु: अप्रथम नहीं हैं ॥ १७ ।। ज्ञानी का एक आश्री समदृष्टि जैसे कह. आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यवं ज्ञानी का एक व अनेक आश्री भी ऐसे ही कहना. केबल ज्ञानी जीव मनुष्य व सिद्ध. में एक. अनेक आश्री प्रथा हैं करंतु अप्रथम नहीं हैं. मतिअज्ञानी, नमानी विभंग बानी का SMARiwanvikrainine Now अगरहवा शतक की पहिली भावार्थ - Page #2328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ १८ ॥ सजोगी मणजोगी जोगी कायजोगी एगतगुहत्तणं जहा आहारए, णवर जस्स जो जोगो अस्थि ॥ अजोगी जीव मणुस्सा सिद्धा एगन्तपुहतेणं पढमा णो अरढमा ॥ १९ ॥ सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्तपुहतेणं जहा अनाहारए ॥ २० ॥ सवेदगो जाव णपुंसगवेदगो एगत्तपुहत्तेणं जहा आहारए एवं जस्स जो वेदो अस्थि; अवेदओ एगत पुहत्तेणं तिसुवि पदेसु जहा अकसाई ॥ २२ ॥ ससरीरी जहा आहारए, एवं कम्मग सरीरी जस्स जं अत्थि सरीरं, नवरं आहारगतरीरी एगत्तपुहतेणं जहा सम्मद्दिट्ठी, असरीरी जीवो सिद्धों ए * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी एक अनेक आश्री आहारक जैसे कहना ॥ १८ ॥ सयोगी, मन योगी, वचन योगी व काया योगी का { एक व अनेक आश्री आहारक जैसे कहना. अयोगी जीव, मनुष्य व सिद्ध एक अनेक आश्री प्रथम है। परंतु अप्रथम नहीं है ॥ ११ ॥ साकारोपयुक्त व अनाकारापयुक्त का एक अनेक आश्री आहारक जैसे कहना | ||२०|| सवेदी यावत् नपुंसकवेदी का एक अनेक आश्री आहारक जैसे कहना. विशेषता यह कि जिन में { जो वेद होत्रे उन में वही वेद कहना. अवेदीका एक अनेक आश्री तीनों पद में अकषायी जैसे कहना ॥ २२ ॥ ६ सशरीरीका आहारक जैसे कहना ऐसे ही कार्माण शरीर तक जिन को जो शरीर होवे सो कहना. विशेष में २२९८ Page #2329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्त ( भगवती ) सूत्र सिय पुहतेणं पढमो णो अपदमो ॥ २३ ॥ पंचहिं पज्जतीहिं पंचहिं अपजत्तीहिं एगन्त पुहत्तेणं जहा आहारए वरं जस्स जा अत्थि, जाव वेमणिया णो पढमा अपमा ॥ २४ ॥ इमा लक्खण गाहा जो जेण पत्तपुव्वो भावो सो तेण अपढमोहोई ॥ सेसेसु होइ पढमो अपतपुत्रेसु भावसु ॥ १ ॥ २५ ॥ जीवेणं भंते ! जीव भावेणं किं चरिमे ? अचरिमे ? गोयमा ! णो चरिमे अचरिमे ||२६|| णेरइएणं भंते ! णेरइयभावेणं पुच्छा ? गोघमा ! चरिमे सिय अचरिमे एवं जात्र आहारकशरीरी का एक अनेक आश्री समदृष्टि जैसे कहना. अशरीरी जीव मिद्ध में एक अनेक आश्री प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है || २३ || पांच पर्याप्ति तथा पांच अपर्याप्त से एक अनेक आश्री आहारक शरीर जैसे जिन को जितनी पर्यायों होने उस को उतनी कहना. यावत् वैमानिक में प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं हैं ||२४|| अब यपर मथन अमयन के लक्षण वाली गाथा कहते हैं. जो जीवादि भाव जिस जीवत्वादि भाव से पूर्वभाव पर्याय को पाया वः जीवादि उस जीवलादिभाव से अप्रथम है और इस से अन्य प्रथम है ।। २५ ।। अ भगवन् ! जीव जीवभाव से क्या चरिम या अचरिम है ? अहो गौतम : जीव जीवभाव से चरिम नहीं है परंतु अचरिम है. क्योंकि जीव का अन्य स्वरूप नहीं होता है ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! नारकी नरकमात्र से क्या चरिम है या अचरिए है ? अहो गौतम ! नारकी स्यात् । 4- अठारहवा शतक का पहिला उद्देशा २२९९ Page #2330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनि श्री अमोलक ऋषिजी आवाथ वाणिए, सिद्धे जहा जीवे ॥ जीवाणं पुच्छा, गोयमा! जीवा णो चरिमा अचरिमा ॥ - बेरइया चरिमावि अचरिमावि एवं जाव वेमाणिया सिद्धा जहा जीवा ॥ २७ ॥ आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, पुहत्तेणं चरिमावि अचरिमावि ।। अणाहारओ जीवो सिद्धो एगत्तेणवि पोहत्तेणवि णो चरिमो, अचरिमो, सेसट्ठाणेसु लगत्तपुहत्तेणं आहारउभे ॥ २८ ॥ भवाप्तिद्वीओ जीवपदे एगत्तपोहत्तेणं चरिमे चस्मि है स्ात् अचरिम हैं क्यों कि जो नारकी नरकगति में उत्पन्न होकर पुनः वहां से नीकले पीछे नरक में उत्पन्न होते हैं के अचरिम हैं. और नरक में मे नींकले पछि मिद्ध होजाते हैं. वे चरिम हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. सिद्ध का समुच्चय जीक जैसे बहना. यह एक जीव आश्री पृच्छा हुई, जन बहुत जीव आश्री पृच्छ अहो भावन' बहत अब क्या चस्मि हैं या अचारम है ? अहो गौतमः, वहत जीव चरिम नहीं हैं परंतु अचरिम हैं. नारकी चरिम अचरिम्न दोनों हैं ऐसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. सिद्ध का समुच्चय जीव जैसे कहना ॥ २७ आहारक सबस्थान एक जीव आश्री स्यात् चरिम व स्याल अचरिम है. मोक्ष में जाने वाले चरिम और संसार में परिभ्रमण करने वाले अचरिम. अनेक आश्री चरिम अचरिम दोनों हैं अनाहारस जीबन सिद्ध एक अनेक आश्री चरिम नहीं है परंतु अचरिम है. शेष स्थान में एक अनेक आश्री आझरक जैसे कहना ॥ २८ ॥ भवासिद्धिक एक: अनेक आश्री नीवपद में • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * AIRAKSammannamairmirsinhindiiowwwrohinine 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी - - Page #2331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र णो अचरिमे, सेस ठाणेसु जहा आहारओ । अभवसिद्धीओ सव्वत्थ एगत्त पुहत्तेषं णो चरिमे अचरिमे, णो भवसिद्धीय णो अभवसिद्धीय, जीवा सिद्धाय एगत्तपुहत्तेणं जहा अभवसिद्धीओ ॥ २८ ॥ सण्णी जहा आहारओ, एवं असण्णीवि, णो सण्णी णो असण्णी जीवपदे सिद्धपदेय अचरिमो, मणुस्सपदे चरिमो, एगत्त पुहत्तेणं ॥ ३० ॥ सलेस्सो जाव सुक्कलेस्सा जहा आहारओ णवरं जस्स जा अत्थि, अलेस्सा जहा णो सण्णी, णो असण्णी ॥ ३१ ॥ सम्मदिट्ठी जहा अणाहारओ, मिच्छट्ठिी आहारओ, सम्मामिच्छट्ठिी एगिदिय विगलिंदियवजं सिय चरिम है परंतु अचरिम नहीं है क्यों की भव्यसिद्धिक अवश्य मे मोक्ष जावेंगे. शेष सब स्थान आहारक जैसे कहना. अभवीसद्धिक मव स्थान एक अनेक आश्री चरिम नहीं है परंतु अचरिम है. नो भव्यमिद्धिक नोअभव्यसिद्धिक जीव व सिद्ध में एक अनेक आश्री अभव्य सिद्धिक जैसे कहना. ॥ २१ ॥ संज्ञी असंज्ञी का आहारक जैसे कहना. नो संज्ञो नो असंज्ञी जीवपद में व सिद्धपद में एक अनेक आश्री अचरिम व मनुष्य पद में चरिम कहना. ॥ ३०॥ सलेशी यावत् शुक्ल लेशी का अपनी २ लेश्या सहित आहारक जैसे कहना. अलेश्या का नोसंज्ञी नोअसंज्ञी जैसे कहना. ॥३१॥ समदृष्टि का अनाहारक मिथ्यादृष्टि का आहारक और सममिथ्यादृष्टि का एकेन्द्रिय 62 अठारहवा शतकका पहिला उद्देशान भावार्थ Page #2332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०२ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ चारमे ॥ सिय अचरिमे पुहत्तेणं चरिमोवि अचरिमोवि ॥ ३२ ॥ संजओ जीवो मणुस्सो जहा आहारओ, असंजओवि तहेव ॥ संजयासंजओवि तहेव, णवरं जस्स जं अत्थि॥णोसंजया णोअसंजया णोसंजया संजया, जहा णोभविसिद्धीय णो अभवसिहीय ॥ ३३ ॥ सकसाई जाव लाभकसायी सम्बट्राणस जहा आहारओ । अक सायी जीवपदे सिद्धपदेय णो चरिमो. अचरिमो. मणस्सपदे सिय चारमो सिय है अचरिमो, ॥ ३४ ॥ णःणी जहा सम्मट्टिी सव्वत्थ आणिबोहियणाणी जाव मणपजवणाणी जहा आहारओ णवरं जस्स जं आत्थि, केवलणाणी जहा णो व विकलेन्द्रिय छोडकर स्यात् चरिम स्यात् अचरिम, अनेक आश्री चरिम व अचरिम दोनों हैं॥३२॥ संयति मनुष्य का आहारक जैने कहना. असंयति का भी आहारक जैने कहा, संयतासंयति का भी वैसे ही कहना. विशेष में जिसको जो हावे उस को वही कहना. नो यति नो असंयनि नो संयताई संयति का नो भवसिद्धिक नो अभवामिद्धिक जैसे कहता ॥ ३३ ॥ सपायी यावत् लोभ कषायो का मब स्थान आहारक जैसे कहना. अपायी का जीवपद व सिद्धपद में चरिम नहीं परंतु अचरिम कहना. मनुष्य पद में स्यात् चरिम स्यात् अचरिम कहना ॥ ३४ ॥ ज्ञानी का ममदृष्टि जैसे कहना आभिनियोधिक शानी यावत् मनापर्यव ज्ञानी का आहारक जैसे कहना विशेष में जिस को जो होवे सो कहना. केवल nawwwnonwwwwwwwwwwwwwwmnon प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाममाजीद भावार्थ Page #2333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.88 २१२३०३ 488 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भावी ) सूत्र +8+ सणी णो असण्णी, अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा आहारओ ॥ ३५ ॥ सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ जस्स जो जोगो अस्थि, अजोगी जहा पोसण्णी णो अलण्णी ॥ ३६ ॥ सगारोवउत्तो अणागारोवउत्तेय जहा अणाहारओ ॥ ३७ ॥ सवेदो जाव णपुंमगवेदओ जहा आहारओ · अवेदओ जहा अकसायी ॥ ३८ ॥ ससरीरी जाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ णवरं जस्स जं अत्थि, असरीरी जहा णो भवसिद्धोय जो अभवसिद्धीय, ॥ ३९ ॥ पंचहिं पजत्तीहिं पंचहिं अपज्जत्तीहिं जहा आहारओ सब्बत्थ एगत्तपुहत्तेणं दंडगा भाणियन्वा ॥ ४० ॥ इमा लक्खणं गाहा हबानी का नो संझी नो असन्जी जैसे कहना अज्ञानी यावत् विभंगशानी का आहारक जैसे कहना ॥ ३५॥ Eमयोगी यारत काया योगों का आहारक जैसे कहना. अयोगी का नोशी नो असंही जैसे कहना. ॥ ३६॥ क रोपयुक्त व अनाकारांपयुक्त का अनाहारक जैसे कहना ॥ ३७ ।। सवेदी यावत् नपुंसक बेदी आहारक जसे करना. अंदी का अपायो जैरे कहना. ॥ ३८॥ सशरीरी यावत् कार्माण शरीरी क आहारक जैसे कहना. परंतु जिन को जितने शरीर होवे उन को उतने शरीर कहना. अशरीरी का नो भवसिदिक नो अभवसिदिक जैसे कहना. ॥ ३१ ॥ पांच पर्याप्ति व पांच अपर्याप्ति से जैसा आहारक कहा अठारहवाशनकका पहिला उद्देशा 4834 - Page #2334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ - अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेणं अचरिमो होइ; अच्चतविजोगो जस्स, तेण भावेण सो चरिमो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति, जाब विहरइ || अट्ठार समस्त पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ १ ॥ * तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा णामं णयरी होत्था, चण्णओ. सामी 'समोस जाव पज्जुवासइ ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्रपाणी वैसे ही सब स्थान एक आश्री अनेक आश्री जानना ॥ ४० ॥ इस चरिम व बदरीम का लक्षण कहते हैं. जो जिस भावको पुनः प्राप्त करेगा वह उस भाव से अचरिम है और जिस का जिस भाव का अत्यंत वियोग है अर्थात्र जिस भाव को पुनः प्राप्त नहीं करने का है वह उस भाव से चरिंम है. अहो भएकत्र ! आप के वचन सत्य हैं यों कह कर यावत् विचरने लगे. यह अठारहवा शतक का पहिला उद्देश संपूर्ण हुवा. ॥ १८ ॥ १॥ ० o प्रथम उदेस्से में चरम अचरम का कहा, दूसरे उद्देशे में चरमशरीरी शक्रेन्द्र का कथन करते हैं. उस काल उस समय में विशाख्या नामकी नगरी थी वह वर्णन गोग्य थी. भगवंत श्रीमहावीर स्वामी पधारे परिषदा (वंदन करने को आई यावत् पर्युपासना करने लगी. ॥ १ ॥ उस काल उस समय में हस्त में वज ० * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २३०४ Page #2335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - a पंचांग विवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र 42-403 पुरंदरे एवं जहा जहा सोलसमसए विइय उद्देसए तहेव दिव्वणं जाणविमाणेण आगओं णवरं एत्थं आभिओगावि अत्थि जाव बत्तीसइविहं नविहं उवदंसेइ, उवदंसेइत्ता जाव पडिगए॥२॥भंतोत्त भगवं गोयमे! समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी जहा तइय सए ईसाणस्स तहेव कूडागारसाला दिटुंतो तहेव, पुवभव पुम्छा जाव अभिसमण्णागया, गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे हस्थि गाउरे णामं णयरे होत्था वण्णओ, सहसंवणे उजाणे वण्णओ॥३॥तत्थणं हत्थिणाउरे धारन करनेवाला शक्र देवेन्द्र देवराजा जैसे सोलहवे शतक के दूसरे उद्देशे में वर्णन किया वैसे यान विमान व अया. विशप में यहां पर आभियोगिक देवों भी थे यावत् बत्तीसप्रकार के नाटक बतलाकर यावत् छा गया ॥२॥ भगवान गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को यावत ऐसा बोले अहो भगवन् ! वगैरह जैसे तीसरे शतक में ईशान का कथन वैसे ही कूगकारशाला के दृष्टांत से पूर्वभाव की पृच्छा-यावत् : प्राप्त हुवा. श्रमण भगवंत महावीरने गौतमादि श्रपण निर्ग्रयों को कहा कि अहो गौतम ! उस काल उस समय में का इस जम्बूद्वीप के भरन क्षेत्र में हस्तिनापुर नमर था. वह वर्णन योग्य था. उस की ईशान कौन में सहस्रबन उबानथा Brip अठारहवा शतक का दूसरा उद्देशा भावार्थ Page #2336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी णयरे कत्तिया णामं सेट्ठी परिवसइ अढे जाव अपरिभूए गेगम पढमासणिए गमट्ठ सहस्सं बहुसु कजेसुय कारणेसुय कुटुंबेसुय एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्ते जाव चक्खुभूए णेगमट्ठसहस्सस्स सीयस्सय कुटुंबस्सय आहेबच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे, समणोवासए अभिगय जीवाजीवे जाव विहरइ ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा आदिगरे जहा सोलसमसए तहेव समोसढे जाव परिसा पज्जु वासइ, ॥ ५ ॥ तएणं से कत्तिएसेट्ठी इमीसे कहाए लढेसमाणे हट्टतुट्ठ एवं ॥ ३ ॥ उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक श्रेष्टि रहता था वह ऋद्धिवंत यावत् अपरिभूत था. सव वणिकों में उस का आसन प्रथम था उन को एक हजार गुमास्ते थे. बहत कार्यों में, कारणों में और कुटुम्बों में वगैरह जैसे राय प्रसेणीय सूम में कहा वैसे यावत् सब मनुष्यों को चलभूत था. वह एक हजार आठ गुमास्ते का व अपने कुटुम्ब का आधिपत्यपना करता हुवा जीवाजीव का स्वरूप जानता हुवा श्रमणोपासक बनकर विचरता था ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में अदिके करनेवाले, वगैरह सोलहवे शतक में कहा वैसे मुनिमुव्रत स्वामी पधारे यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी. ॥ ५॥ जब कार्तिक श्रेष्ठिने ऐसी बात सुनी तब वह हृष्ट तुष्ट यावत आनंदित हुवा और अग्यारहवा शतक में जैसे सुदर्शन का प्रमशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. जहा एकारसमसए सुदंसणे तहेव णिग्गओ जाव पज्जुवासइ ॥ ६ ॥, तएणं मणि . सुब्बए अरदा कत्तियस्स सेट्टिस्स धम्मकहा जाव परिसा पडिगया ॥ ७ ॥ तएणं से कत्तिए सेट्ठी मुणिमुव्वयस्स जाव णिसम्म हट्ट तुट्ठ उट्ठाए उढेइ, उढेइत्ता मुणिसु. ०/२३०७ वय जाव एवं वयासी-एवमेयं भंते! जाव से जहेयं तुझे बंदह, जं णवरं देवाणुप्पिया! णेगमट्ठ सहस्सं आपुच्छामि, जेट्टपुत्तं कुडुवे ठावेमि तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अं. तियं पव्वयामि ॥८॥ अहासुहं जाव माएडिबंधं ॥ ९ ॥ तएणं से कत्तिए सेट्री जाव पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव हत्थिणापुरे णयरे जणेव सए गिहे तेणेव भावार्थ अधिकार कहा वैसे ही अपने गृह से नीकला यावत् पर्युपासना करने लगा ६॥ तत्र मुनिसुव्रत अरिहंतने कार्तिक श्रेष्ठि को धर्म कथा कही यावत् परिषदा पीछी गइ ॥ ७ ॥ उस समय में मुनि मुव्रत अरिहंत की । पास से धर्मकथा सुनकर कार्तिक शेठ बहुत हृष्ट तुष्ट हुवे, अपने स्थान से उठ, और उठकर मुनि सुत्रता + अरिहंत को ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! जैसे आप कहते हैं वैसे ही है. विशेष में अहो देवानुप्रिया For मेरे एक हजार आउ गुमास्ते को पुछकर व ज्येष्ट पुत्र को कुटुम्ब में स्थापकर फीर आप की पास दीक्षा 11 अंगीकार करूंगा ॥ ८॥ अहो देवानुप्रिय! आप को सुख होवे वैसे करो विलम्ब मत करो ॥ ९ ॥ फीर है। पंचमांग विवाह पस्णत्ति (भगवती) सूत्र 628 अठारहवा शतक का दूसरा उद्देशान Page #2338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 उवागच्छइ उवागच्छइत्ता णेगमट्ठसहस्सं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं वयासी IA . एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए मुणिसुब्बयस्स अरहओ अंतियं धम्मं णिसंते सेविय धम्म इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ।। तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयउन्विग्गे जाव पव्वयामि ॥ तं तुभेणं देवाणुप्पिया ! किं करेह किं वसह किंभे हिय इच्छिय, किं भे सामन्थे, ॥ ९॥ तएणं णगमट्ठसहरसं तं कत्तियं सेट्टि एवं वयासी जइणं देवाणुप्पिया ! संसार भयउम्बिग्गा, भीया जाव पव्यायाहिसि अम्हं देवाणु। प्पिया ! किं अण्णे आलंबेवा आहारवा पडिबंधेवा अम्हेविणं देवाणुप्पिया ! संसार कार्तिक श्रेष्ठी यावत् नीकलकर हस्तिनापुर नगर में गृह गये और एक हजार आठ 3 गुमास्ते को बोलाकर ऐसा बोले अहो देवानप्रिय! मैंने मुनिमुन की पास से धर्म सुना है वही धर्म मैंने. इच्छा है यावत् सच्चा है. इस मे अहो देवानुप्रेिय ! संसार भय से उद्विग्न बना हुवा यावत् दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवानुपिय ! तुम क्या करोगे क्या व्यवसाय करोगे अश्या तुमारा क्या सामर्थ्यपना है ? ॥९॥ सब उक्त एक हजार आठ गुमास्ते उस कार्तिक श्रेष्ठ को ऐने वाले कि अहो देवानुप्रिय ! जब आप संसार भय से उद्विग्न व भयभीत बने हसे हैं यावत् प्रवा लेंगे तब अहो देवानप्रिय ! हम को 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादनी Page #2339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भयुधिग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पिएहिं सहिं मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतिय मुंडे भवित्ता आगाराओ जाव पव्ययामो ॥१०॥ तएणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्टसहस्सं एवं वय सी जइणं देवाणुप्पिया ! संसार भयुटिवग्गा भीया जम्म २३०९ णमरण,णं नए सा िमुणि सुब्बय जाव पयायह तं गच्छहणं तुभ देवाणुप्पिया ! सएसु २ गेहेसु विलं असणं जाव उवक्खडावह मित्तगाइ जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेह, जेट्ठात्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्तणाइ जाव जेटुपुत्तं आपुच्छेह २ त्ता पुरिस सहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह पु० २ मित्त जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहिय भावार्थ किस का अवलम्बन, आधार व प्रतिबंध है. इस से हम भी संसार भय से उद्विग्न व जन्म जरामरण से त्रसित हुवे हैं. और हम भी आप की साथ श्री मुनिसुव्रत अरिहंत की पास मुंड होकर अगारपना मे । अनगारपना अंगीकार करेंगे ॥ १० ॥ फीर कार्तिक श्रेष्ट उन एक हजार आठ गुमास्त को ऐसा बोले कि । जब तुम संसार भय से उद्विग बने हुवे हा यावत् मेरी साथ मुनि सुत्रत अरिहंत की पास दीक्षा XI 10 अंगीकार करना चाहते हो तो तुम अपने २ गृह : जाओ, विपुल अश-391 नादि तैयार करो, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापो और मित्र झाति यावत् ज्येष्ठ ? * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भावती ) मूत्र 4.2*- अठारहवा शतक का दूसरा उद्देशा - - Page #2340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाथ १०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समगम्ममाणमग्गा सव्विड्डीए जाव वेणं अकालपरिहीणं चैव ममं अंतियं पाउन्भवह ॥ ११ ॥ तणं ते गमट्टसहस्संपि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एयमहं विणएणं पडिसुर्णेति २त्ता जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति उवागच्छत्ता विपुलं असणं जाव उवक्खडावेति २ ता मित्त णाइ जाव तरसेव, मित्तणाइ जाव पुरओ जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेंति ठावेइत्ता तं मित्तणाइ जात्र जेट्ठपुत्तेय आपुच्छंति, आपुच्छंतित्ता पुरिससहरसवाहिणीओ सीयाओ दुरूहंति २त्ता मित्तणातिणियग परिजणेणं जेट्ठपुत्तहिय समणुगम्ममाणेमग्गा सव्विढिए जाव रखेणं अकालपरिहा चेत्र कत्तियस्स सेट्ठियस्स अंतियं पाउष्भवंति ॥ १२ ॥ एणं से कत्तिएसेट्ठी विपुलं पुत्र को पुछकर सहस्र पुरुष वाहिनी शिविकापर बैठकर और मित्र ज्ञाति यावत् ज्येष्ट पुत्र की साथ सब ऋद्धिं यावत् वार्दित्र सहित अकाल रहित मेरी पास आओ ॥ ११ ॥ फीर उन एक हजार आठ गुमास्ताओंने कार्तिक श्रेष्टीकी इस बातको विनय पूर्वक सुनी वे अपने गृह गये, विपुल अशनादि बनाये और मित्र ज्ञाति यावत् उनकी सन्मुख ज्येष्ट पुत्रको कुटुंबमें स्थापकर मित्र ज्ञाति यावत् ज्येष्ट पुत्र को पुछकर सहस्र पुरुष वाहिनी शिविकापर { बैठकर मित्र ज्ञाति व ज्येष्ट पुत्र सहित सब ऋद्धि व वार्दित्र सहित मर्यादित काल में कार्तिक श्रेष्टी की पास आये || १२ || फीर कार्तिक श्रेष्टीने विपुल अशन पानखादिम व स्वादिस बनाकर गंगदत्त जैसे यावत् । * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २३१० Page #2341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 * पंचमान विवाह पण्यत्ति ( भगवती ) सूत्र अप्तणं पाणं खाइमं साइमं जहा गंगदत्तो जाव मित्तणाइ जाव परिजणेणं जे? पुत्तं णेगमसहस्सेणय समणुगम्ममाणमग्गे सविट्ठीए जावरवणं हत्थिणापुरंणयरं मज्झमज्झणं जहा गंगदत्तो जाव आलित्तणं भंते ! लोए पलित्तेणं भंते ! लोए आलित्तपलित्तेणं भंते ! लोए जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ ॥ इच्छामिणं भंते ! गमटेसहस्सेणं साई सयमेव पव्वावियं, मुंडावियं जाव माइक्खयं तएणं मुणिसुव्वए अरहा कत्तियं सेटुिं णेगम? सहस्सेणं सईि सयमेव पवावेइ जाव धम्ममातिक्खंति एवं देवाणुप्पियागंतव्वं एवं चिट्टियव्वं जाव संजमियव्वं ॥१३॥ तएणं से कत्तिए सेट्री णेगमट्टसहस्सेण सद्धिं मुष्णसुव्वयस्स अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं संपडिवजइ-तमाणाए तहा गच्छइ जाव सजमइ ॥ १४ ॥ तएणं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्ठ मित्र ज्ञाति यावत् परिजन सहित ज्येष्ठ पुत्र व एक हजार आठ गुमास्ते मार्ग में चलते हुवे मब ऋद्धि व वादित्रों सहित हस्तिनापुर नगर की बीच में गंगदत्त जैसे यावत् अहो भगवन् ! यह लोक आलिप्त, पलिप्त, आलिप्त प्रलिप्त है यावत् अनुगामी होगा. अहो भगवन् ! एक हजार आठ गुमास्ते सहित मैं स्वमेय, प्रव्रजित होने, मुंडित होने, यावत् कहने को इच्छाता हूं तब मुनि सुव्रत अरिहंतने एक हजार आठ गुमास्ते सहित कार्तिक श्रेष्ठी को प्रव्रजित किया यावत् उपदेश दिया कि ऐसे बैठना एसे संयम पालना ॥ १३ ॥ फीर एक हजार आठ गुमास्ते सहित कार्तिक श्रेष्ठिने मुनिसुव्रत अरिहंत का ऐसा धार्मिक उपदेश सम्यक् ।। अठारहवा शतक का दूसरा उद्दशा भावार्थ Page #2342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 00 - सहस्सेणं साई अणगारे जाए, इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी ॥१५॥ तएणं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्वयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाइं चउद्दस पुब्वाइं अहिज्जइ २ त्ता बहई चउत्थ छट्ठम जाव अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ २ त्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणंझासेइ २ ता सर्द्धि भत्ताइं अणसणाई छेदेइ, छेदेइत्ता आलोइय पडिक्कते जाब किच्चा, सोहम्म कप्प सोहम्मे वडिंसए विमाणे उबवाय सभाए देवसयाणिज्जास जाव सक्के देविदत्ताए उववण्णे ॥ १६ ॥ तएणं सक्के देविंदे देवराया आहुणोववण्णे सेसं जहा गंगदत्तरस जाव अंतं काहिति णवरं ठिई प्रकार से अंगीकार किया और उनकी आज्ञा में वैसे जाने यावत् संयम पालने लगे । ॥ १४ ॥ फीर वह कार्तिक श्रृष्टी एक हजार आठ गुमास्ते सहित र्यासमिति वाले यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हवे ॥ १५ ॥ कार्तिक अनगार श्री मुनिसुव्रत अरिहंत के नथारूप - स्थविरों की पास से सामायिकादि चउदह पर्वका अध्ययन कर बहुत चतुर्थ भक्त छठ अठम यावत् स्वतः को भावते बहुत प्रतिपूर्ण रहवर्ष की साधु की पर्याय पालकर एक माम की संलेखना से आत्मा को झोस या ककर साठ भक्त अनशन का छदनकर आलोचना प्रतिक्रमण महित काल के अवसर में कालकर सोधमा देवलोक में सौधर्मावतंसक विमान में उपपात सभा में दवगैय्या में शक्र देवेन्द्रपने उत्पन्न हुए ॥ १६ ॥ IVतब अधुनोपपन्न शक्रदेवेन्द्र देवराजा गंगदत्त जैसे अंत करेंगे. उनकी स्थिति दो सागरोपम की कही. अहो । 48 अनवांदक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसह भावार्थ जी ज्वालाप्रसादी Page #2343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 486 |२११३ दो सागरोवमाइं पण्णता ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठारसमस्सविइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ २ ॥ .. तेणं कालेगं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे होत्था वण्णओ, गुणसिलए चेइए, । जाव परिसा पडिगया ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव अंतेवासी माकंदियपुत्ते अणगारे पगइभदए जहा मंडियपुत्ते जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-सेणूण भंते ! काउलेस्से पुढवीकाइए काउलेस्से हितो, पंचमांगविवाह पण्णति (भगवती ) सूत्र भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अठारहवा शतक का दूसरा उद्देशापूर्ण हुवा ॥ १८ ॥२॥ 3 द्वितीय उद्देशे में कार्तिक शेठकी अंतक्रिया कही और तृतीय उद्देशे में भी अंतक्रियाका ही कथन करते हैं उस काल उस समय में राजगृह नगर था. वह वर्णन योग्य था. गुणशील उद्यान में भगवंत पधारे परिषदा. वंदन करने को आइ. धर्मकथा सुनकर पीछी गइ ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर सामी के अंतेवाती प्रकृति भद्रिक यावत् प्रकृति विनीत वगरह जैसे मंडित पुत्र यावत् पर्युपासना करते हुवे ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! कापुत लेश्यावाला पृथ्वीकायिक जीव कापुत लेश्या. साली पृथ्वी काय में से अंतर रहित नीकल कर मनुष्य का शरीर प्राप्त करे, वहां सम्यक्त्व की प्राप्ति करे। अठारहवा शतक का तीसरा उद्देशा 488 1 488 Page #2344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी * पुढवीकाइए हिंतो अणंतरं उव्वहित्ता माणुसं विग्गहं लभइ, लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ, बुज्झइत्ता तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ? हंता माकंदिय पुत्ता काउलेस्से पुढवीकाइए जाब अंतं करेइ || २ || सेणूणं भंते! काउलेस्ले आउकाइए, काउलेस्सेहिंतो आउकाइएहिंता अनंतरं उवट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभइ, लभइत्ता केवलं बोहिं बुज्झइ जात्र अतं करेइ ? हंता माकंदिय पुत्ता ! जाव अंतं करेइ ॥ ३ ॥ से भंते! काउलेस्से वणस्सइ काइए एवंचेत्र जाव अतं करेइ सेवं भंते! भंतेति ॥ फोर क्या सीझे बुझे यावत् अंत करे ? हां माकंद्रिय पुत्र ! कापुत लेश्यावाला पृथ्वी कायिक जीव ( पृथ्वी काया में से अंतर रहित नीकलकर मनुष्य का शरीर प्राप्त करे वां सम्यक्त्व की प्राप्ति हुने पीछे सीझे बुझे यावत् अंत करे ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! कापुत लेश्या वाला अपकायिक जीव कापुत लेश्यावाली अप्कानया में से अंतर रहित नीकलकर मनुष्य का शरीर प्राप्त करे और सम्यक्त्व की प्राप्ति करके क्या सीझे बुझे यावत् अंत करें ? हां माकंदिय पुत्र ! सीझे बुझे यावत् अंतकरे. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! कापुतलेश्या वाला वनस्पति कायिक जीव अंतर रहित मनुष्य का शरीर प्राप्तकर वहां सम्यक्त्व की प्राप्ति कर पीछे क्या सीझे बुझे यावत् अंत करे ? हां माकंदिय पुत्र ! ● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २३१४ Page #2345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 २३१५ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र माकंदिय पुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव णमंसित्ता जेणेव समणे णिग्गंथे तेणेव उरागच्छइ २त्ता समणे णिग्गंथे एवं वयासी एवं खलु अजो! काउलेस्से पुढवीकाइए तहेव जाव अंतं करेइ, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतकरेइ ॥ एवं खलु अजो! काउलेस्से वणस्सइकाइए जाव अंतंकरेइ ॥ ४ ॥ तएणं समणा णिग्गंथा माकंदियपुत्तस्स अणगारस्स एव माइक्खमाणस जाव परूवमाणस्स एयमढें गोसदहति ३, एयमटुं असदहमाणा ३, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति णमंसति २त्ता सीझे बुझे यावतू अंत करे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर माकंदियपुत्र अनगार श्रमण भगवंत महावीर को यावत् नमस्कार कर श्रमण निर्ग्रन्थों की पास आये और श्रमण निर्ग्रन्थों को ऐसा बोलेकि कापुत लेश्या वाला पृथ्वी कायिक जीव यावत् अंतकरे ऐसे ही कापुत लेश्या वाला अप्कायिक जीव यावत् अंतकरे ऐसे कापुत लेश्या वाला वनस्पतिकायिक जीव यावत् अंतकरे ॥४॥ माकंदियपुत्र अनगार 5 के ऐसे कथन को श्रमण निर्ग्रन्थ नहीं श्रद्धते यावत् नहीं रुचि करते श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास गये. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! माकंदिय अठारहवा शतक का तीसरा उद्देशा 4880 भावार्थ Page #2346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं क्यासी एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु अजो! काउलस्से पुढवीकाइए जाव अंतंकरेइ, एवं खलु अज्जो । आउकाइए जाव अंतंकरेइ एवं खलु वणस्सइ काइएवि जाव अंतं करेइ सेकहमेयं भंते ! एवं ? ॥ ५ ॥ अजोत्ति ! समणे भगवं महागरे समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी जंणं अज्जो ! मागंदिय पुत्ते अणगारे तुझे एवं माइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु अजो ! काउलेस्से पुढवीकाइए जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतंकरइ एवं खलु अज्जो वणस्सइकाइएति जाव अंतं करेइ, सच्चेवणं एसम? ॥ अहं पुण अजो! एव माइक्खामि ४ एवं खलु अजो! कण्हलेस्से पुत्र अनगार हम को ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूते हैं कि अहो आर्यो ! कापुन लेश्या वाला पृथ्वीकायिक जीव यावत् अंन करे, आएकायिक जीव यावन् अंत करे वनस्पति कायिक यावत् अंत करे तो अहो । भगवन् ! यह किस तरह है ? ॥ ५ ॥ श्रपण भगवन्त महावीर श्रमण निर्ग्रन्यों को आमंत्रणा कर ऐसे बोले कि अहो आयौँ ! माकंदिय पुत्र अन्गार तुम को ऐमा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि अहो आर्यों ! कापुतलेश्या वाला पृथ्वीकायिक जीव यावत् अंतकरे वैसे ही कापुत लेश्यावाला अप्कायिक व वनस्पति कायिक यावत् अंतकरे यह अर्थ मत्य है. अहो आर्यों ! मैं भी ऐसे ही कहता हूं यावत् मरूपता हूं nomwwwantan mamimarwarimammmmmmmmm * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ ~ Page #2347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र भवार्थ 4 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र पुढवीकाइए कण्हलेस्से हिंतो पुढव किाइएहिंतो जाव अंतं करेइ, एवं खलु अजो नीललेस्से पुढवीकाइए जब अंतंकरेइ, एवं काउलेस्सेवि जहा पुढवीकाइए जव अंतंकरे, एवं आकाइएवि, वणस्सइकाइएवि, सच्चेवणं एसमट्ठे, सेवं भंते! भंतेत्ति, समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति वंदइत्ता णमंसइत्ता जेणेव मार्गदिय पुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छइत्ता मागंदियपुत्तं अणगारं वंदेति णमंसंति एयम सम्मं विणणं भुज्जो भुज्जो खार्मेति ॥ ६ ॥ एणं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाए उट्ठेइ २त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंइ, उत्रागच्छइत्ता समणं भगवं महाकृष्णलेश्यावाला पृथ्वीकायिक जीव कृष्णले श्यावाली पृथ्वी काया में से यावत् अंत करे ऐसे ही अहो आर्यो ! नीललेयावाला पृथ्वीकायिक जीव यावत् अंत करे. ऐसे कापोत लेश्यावाला पृथ्वी कायिक यावत् अंत करे ऐसे ही अपकाया का व वनस्पतिकाया का जानना. यह अर्थ सत्य है. अहो भगवन्!) आपके वचन सत्य हैं. श्रमण निर्ग्रथों श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर माकंदिय पुत्र अनगार की पास गये और उन को वंदना नमस्कार कर वारंवार विनय से खमाये ॥ ६ ॥ फीर माकंदिय पुत्र अनगार वहां से ऊठ कर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास गये और श्रमण 488+ अठारहवा शतक का तीसरा उदशा 4011 २३१७ Page #2348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१८ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी . वीरं वंदइ नमं नइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी अणगारस्सणं भंते! भावियप्पणी सव्वं कम्मं बेदमाणस्स र.व्वं कम्मं णिजरमाणस्स सव्वं मारं मरमाणस्स सव्वं सरीरं विप्पज्जहमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदमाणस्स चरिमं कम्मं णिजरमाणस्स चरिमं मारं मरमाणस्स चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स मारणंतियकम्मं वेदमाणस्स मारणंतिय कम्मं णिज्जरमाणस्स मारणंतियमारं मरमाणस्स मारणंतिय सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमाणिज्जरा पोग्गला सुहुमाणं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो ! सव्वं लोगंपिणं ते उग्गाहित्ताणं चिटुंति ? हंता मागंदियपुत्ता ! अणगारस्सणं भावियप्पणी जाव उग्गाहित्तःणं चिटुंति ॥ ७ ॥ छउमत्थेणं भंते ! मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं भगवं. महावीर को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोल कि सब कर्म वदते हुवे, सब कर्म निर्जरते हुवे, सब मार ( आयुष्य कर्म के पुद्गलों ) दूर करते हुवे और मब शरीर छोडते हुवे, चरिम कर्म वेदते हुवे, चरिम क रत हुने, चग्मि आयुष्य कर्म का क्षय करते हुवे, चारिम शरीर छोडते हुवे, मारणांतिक कर्म वेदते म. जाति क रित हुन, पारणांति . आयुष्य कर्म का क्षय करते हुवे व मारणांतिक शरीर छोडते | हुवे भावितात्मा अन्गार को जो चरिम सूक्ष्म पुद्गल प्ररूपे हुवे हैं वे सब लोक को अवगाह कर क्या है। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रमादजी भावार्थ 1 Page #2349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाहपण्णति ( भगवती ) मूत्र __किंचि आणत्तंबा णाणत्तंवा एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव वेमाणिया जाव तत्यणं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति आहागेति, से तेण?णं णिक्खवा भाणिपव्वो ॥ ८ ॥ कइविहेणं भंते ! बंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता! दुविहे बंधे पण्णत्ते तंजहादवबंधेय भावबंधेय ॥ ९ ॥ दव्वबंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते मागदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पओगबंधेय वससाबंधेय ॥ १० ॥ वीससाबंधणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते, मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते तंजहा-सादीयवीससाबंधेय अणारहे हुने हैं ? हां माकंदिय पुत्र ! भावितात्मा अनगार को यावत् अवगाह कर रहे हुवे हैं ॥७॥ अहो । भगवन् ! छमस्थ मनुष्य उन निरित किय इवे पुदगलों तथा उन के भेद वर्णादि विशेष पदलों वगैरह जैन पन्नाणा पद में पहिले उद्देश में कहा वैसे ही यहां पैमानिक पर्यंत जाना. यावत् वहां जो उपयोग युक्त है वह जाने देखे व आहार करे वहां न कहना. अहो माकंदिय पुत्र! इसलिये ऐसा कहा है ॥८॥ अहो भगवन् ! यंध के कितने भेद कहे हैं ? ओ माकंदिय पुत्र! बंध के दो भेद कहे हैं. १ द्रव्य बंध और २ भाव बंध ॥ ९ ॥ अहो भगा! दो पर हैं? अहो गौतम ! द्रव्य के दो भेद कहे हैं. १ प्रयोग बंध और पी.साध ॥१०॥ अहं भगान! वीसना बंध के ___48 अठारहवा शतक का तीसरा उद्देशा-2020 थे 488 Page #2350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २३२० श्री अमोलक ऋषिजी दीय वीससाबंधेय ॥ ११ ॥ पओग वीससाबंधणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते, मागंदिय पुत्ता ! दुविहे पण्णते, तंजहा-सिढिलबंधण बंधेय, घणियबंधण बंधेय ॥ १२ ॥ भावबंधेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णते तंजहा-मूलपगाडि बंधेय उत्तरंपगडिबंधेय ॥ १३ ॥ णेरइयाणं भंते ! कइविहे भावबंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, मूलपगडिबंधेय, उत्तरपगडिबंधेय ; एवं जाव वेमाणियाणं ॥ १४ ॥ णाणावरणिजस्सणं भंते ! कम्मस्स कइविहे भावबंधे पण्णत्ते ? * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 9 अनुवादक-बालब कितने भेद कहे हैं ? सादी वीससा बंध व अनादि वीससा बंध ॥ ११॥ अहो भगवन् ! प्रयोग वीससा बंध के कितने भेद कहे हैं? अहो माकंदिय पुत्र ! प्रयोग वीससा बंध के दो भेद कहे हैं ? शिथिल धन बंध और धनित बंधन बंध. ॥१२॥ अहो भगवन् ! भाव बंध के कितने भेद कहे हैं ? अहो माकंदिय पुत्र ! भाव बंध के दो भेद कहे हैं. मूल प्रकृति बंध व उत्तर प्रकृति बंध ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने भाव बंध कहे हैं ? अहो माकंदिय पुत्र ! नारकी को दो प्रकार के भाव बंध कहे हैं. मूल प्रकृति बंध और उत्तर प्रकृति बंध. ऐने ही वैमानेिक पर्यंत जानना ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने भाव बंध कहे हैं ? अहो माकंदिय पुत्र! ज्ञानावरणीय कर्म के दो भाव बंध कहे हैं. Page #2351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 पंचांग विवाह- पण्णत्ति ( भगवती.) सब 48 मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते, तंजहा-मूलपगडिबंधेय, उत्तरपगाडिबंधेय ॥ १५ ॥ जेरइयाणं भंते ! णाणावरणिजस कम्मस्स कइविहे भावबंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता दुविहे भावबंधे पण्णत्ते तंजहा-मूलपगाडिबंधेय, उत्तर पगडिबंधेय ॥ एवं जाव वेमाणियाणं ॥ णाणावरणिज्जेणं जहा दंडओ भणिओ एवं जाव अंतराइयं भाणिययो ॥ १६ ॥ जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जेय कडे जाव जेय कजिस्सइ अत्थिया तस्स केइ णाणत्ते ? हंता अस्थि ।। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ जीवाणं पावे कम्मे जेय कडे. जाव जेय कजिस्सइ अस्थिया केइ णाणत्ते ? मागंदियपुत्ता! से जहा णामए केइपुरिसे धणु परामुसइ, परामुसइत्ता उसु परामुसइ २ त्ता ठाणं मूल प्रकृतिबंध ब उत्तर प्रकृतिबंध. ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को ज्ञानावरणीय कर्म के कितने भाव , बंध कहे हैं ? अहो माकंदिय पुत्र ! दो भाव बंध कहे हैं ! मुलप्रकृतिबंधव उत्तर प्रकृति बंध. ऐसे ही वैमानिक इपर्यंत जानना. जैसे ज्ञानावरणीय का दंडक कहा वैसे ही अंतराय तक का दंडक कहना. ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! जिन जीवोंने पापकर्म किये हैं और जो जीवों पापकर्म करेंगे उस में क्या भिन्नता है ? हां, माकंदियपुत्र ! उस में भिन्नता है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि जिन जीवोंने पापकों wwwwwwwwwwwwwwwwwwanmannmanm RB0% अठारहवा शतक का तीसरा उद्देशा 4900 मावाथ Page #2352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAKW २३२२ गरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, ठाति २ त्ता आयतकण्णायतं उसु करेइ, करेइत्ता उड्डे वेहासं उविहति २ ता सेणूणं मार्गदियपुत्ता ! तस्स उसुस्स उड्डूं वेहासं उब्बीढस्स समाणस्स एयतिविणाणत्तं, जाव तंतं भाव परिणमंतिविणाणत्तं?हंता भगवं? एयतिविणाणत्तंजाव परिणमंति विणाणत्तं से तेणटेणं मागंदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ-जावतं तं भावं परिणमंति विणाणत्तं ॥१७॥नेरइयाणं भंत! पावे कम्मे जेय कडे एवं चेव एवं जाव वेमाणियाणं ॥१८॥णरइयाणं भते! जे पाग्गले आहार त्ताए गेण्हति तेसिणं मंते ! पोग्गलाण सेयकालंसि कइभागंआहारेति कइभागं णिज्जरेंति? किये हैं और जो जीवों पापकों करेंगे उस में भिन्नता है ? अहो माकंदिय पुत्र ! जैमे कोइ पुरुष धनुष्य उठाता है, धनुष्य उठाकर एक स्थान करता है और कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींच कर बाण को आकाश में छोडता है. इस तरह आकाश में वाण जाते क्या वह वाण चलता है वही भेद है ? हां भगरन् ! वहीं भेद है इसलिये अहो माकंदिय पुत्र ! ऐश कहा गया है कि उस २ भानको परिणमते हैं वही भिन्नता है ॥ १७ ॥ जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ॥१८॥ अहो भागवन् ! नरकी जो पुद्गल आहार पने ग्रहण करते हैं उन में से आगामिक काल में कितने पुद्गलों का आहार करते हैं और कितने पुद्गलों की निर्जरा करते हैं ? अहो माकांदिय पुत्र! असंख्यात भागका आहार करते हैं। भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* rammarnamammam Page #2353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२३ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवी) मूष 418 मागंदियपुत्ता ! असंखेजइ भागं आहारति अणंतभागं णिजरेति ॥ १९॥ चक्कियाणं भंते ! केइ तेसु णिज्जरापोग्गलेसु आतइत्तएवा जाव तुयटित्तएवा ? णो इण? समढे अणाहारमेयं वुइयं समजाउसो ! एवं जाव वेमाणियाणं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्ठारसमस तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥१८॥३॥ . . तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं क्यासी- अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पाणाइवाए विरमणे जाव मिच्छादसण व अनंत भागकी निर्जरा करते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! उन निर्जरित पुद्गलों में कोई बैठने को यावत् सोने को क्या समर्थ है ? यह अर्थ योग्य नहीं है अहो श्रमण ! यह अनाधार कहा गया है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह आठारहवा शतक का ती उइंशा संपूर्ण हुआ. ॥ १८ ॥३॥ ० ० है तीसरे उद्देशे में निर्जग की व्याख्या कही. चौथे उद्देशे में पाप की व्याख्या करते हैं. उस काल उस इसमय में राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पुछने लगे कि अहो भगवन् ! प्राणातिपात मृपावाद यावत् मिथ्या दर्शन शल्य, माणा न अठारहवा शनकका चाथा उद्दशा 4 थावाने | 28 Page #2354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सल्लेवेरमणे पुढवीकाइए जाव वणस्सइ काइए, धम्मत्यिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवे असरीरपडिवढे परमाणुपोग्गले सेलेसिपडिवण्णए. अणगारे सव्वेय बादरादिधरा कडेवरा एएणं दुविहा जीवदव्वाय अजीवदव्वाय जीवदव्वाणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति ? गोयमा ! पाणाइवाए जाव एएणं दुविहा जीवदव्वाय अजीवदव्वाय, अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अत्थेगइया जीवाणं जाव णो हव्वमागच्छति ॥ से केणटेणं पाणाइवाय जाव णो हव्वमागच्छंति ? तिपात से निवर्तना यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से निवर्तना, पृथ्वी कायिक यावत् वनस्पति कायिक धर्मास्ति काया, अधर्मस्तिकाय आकाशास्तिकाया, शरीर रहित जीव, परमाणु पुद्गल शैलेशी प्रतिपन्न अनगार, वादर शरीर धारन करनेवाले बेइन्द्रियादि ये सब जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य ऐसे दो भेदों से क्या जीव द्रव्य को परिभोग के लिये आते हैं ? अहो गौतम ! प्राणातिपातादिक के जीव द्रव्य व अजीन द्रव्य ऐसे दो भेद किये हैं. उन में मे कितनेक जीवों के परिभांग के लिये आते हैं और कितनेक जीवों के परिभोग के लिये नहीं आते हैं. अहो भगवन् : ऐसा किस कारन से कहा गया है यावत् कितनेक नहीं आते हैं ? अहो गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और. सब *। Amar amanawwwwwwwwww .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ - 1 Page #2355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannnnnnnnnnnnnwww पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र गोयमा ! पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले पुढवीकाइए जाव वणस्सइकाइए सव्वेय बादरबोदिधरा कडेवरा एएणं दुविहा जीवव्वाय अजीवदव्वाय जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छा दंसणसल्ल विवेगे धम्मत्यिकाए अधम्म त्थिकाए जाव परमाणुपोग्गले सेलेसिपडिवण्णए अणगारे एएणं दुविहा जीवदव्वाय अजीवदव्वाय जीवाणं परिभोगत्ताए णो हव्वमागच्छंति; से तेण?णं जाव णो हव्वमा गच्छंति ॥ १ ॥ कइणं भंते ! कसाया पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारि कसाया पण्णत्ता तंजहा कसायपदं णिरवसेसं भाणियव्वं जाव णिजति लोभेणं ॥ २ ॥ कइणं भंते! बादर शरीर धारन करनेवाले द्विइन्द्रियादिक ये सब जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य ऐमे दो भेदवाले । वे जीवों के परिभोग के लिये आते हैं. प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्या दर्शन शल्य का त्याग धर्मा स्तिकाया अधर्मास्तिकाया यावत् परमाणु पुद्गल, शैलेशी प्रतिपन्न अनगार इन के जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य ऐसे दो भेद जीव परिभोग के लिये नहीं आते हैं. इस से ऐसा कहा गया है यावत् कितनेक परिभोग के लिये नहीं आते हैं ॥१॥ परिभोग कषायवंत को होता है इसलिये कषाय का स्वरूप कहते हैं. अ भगवन ! कषाय के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम! चार कपाय कही वगैरह कपाय पद कहना यावत् Pos अठारहवा शतक का चौथा ज द्देशा 988 भावार्थ ..: Page #2356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी ? जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जम्मा पाणता तंजहा कड़जम्मे, तेयोगे, दावरजुम्मे, कलिओगे ॥ से केणट्रेणं भंते बचन-जाय कलिआग ? गायमा ! जंणं रासी चउक्केणं अबहारणं अहीरमाणे २ चपज्जवलिए सेतं कडजुम्म १, जेणं रासी चउक्कएणं अबहारेणं अवहीरमाण रातपज्जवभिए सेतं तेयोग२. जेणं रामी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे २ दुपज बास र सतं दारजुम्मे, जेणं गी चउक्क एणं अवहारेणं अवहीरमाणे २ एगपजवसिए सेतं कलिओगे ४, से तण?ण गोयमः! लोभसे निर्जरे ॥ २॥ चार कपाय से चार का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! युग्म किनारे कहे हैं ? अहो गौतम ! युग्म के चार भेद कहे हैं ? कृत युग्म २ ना ३ द्वापर युग्म और ४ कलियुग्म * अहो भगवन् ! किस कारन में ऐसा कहा गया है यावत् कलियुग्म ? अहो गौतम ? जि : राशि को चार का भाग देते शेष चार रहे उमे कृत युग्म कहते हैं, जिन राशि को चार का भाग देने शेष तीन रहे उसे त्रेता युग्म कहते हैं, जिस राशि को चार का भाग इते शेष दो रहे उसे द्वापर कहते हैं, और जिस को * यहां गणित परिभाषा में समराशिको युग्म कहा है ओर विषम राशिको ओज कहा है. इस में यद्यपि दो राशि युग्म पाच्य है और दोराशि ओजवाच्य है तद्यपि राशिकी विवक्षासे चारों ही युग्म कहाये गये हैं. प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 46- पंचमाङ्ग विवाह पण्णाचे ( भगवती ) सूत्र 4 एवं इ-जात्र कलिओगे ४ ॥ ३ ॥ रइयाणं भंते ! किं कडजुम्मा तेयोगा दावरजुम्मा कलिओगा ? गोयमा ! जहण्णापद कडजुम्मा उक्कासपदे तेओगा, अजहणमणको पदे, पिय कलिओगा जाव थणियकुमारा ॥ ४ ॥ वास्तवकवपानं गळा ? जहणपदे उक्कोस दे अपदा अजहण्णमणुकोस जब कलिगा | इंद्रियाणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्भा, कोपदे दावरजम्या, अजहण्णमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिंय चार का भाग देते शेष एक रहे उसे कलियुग्म कहते हैं. अहो गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है। यावत् कलियुग्म है ॥ ३ ॥ अहो भगवन्! नारकी को क्या कृत युग्म है, त्रेता युग्म, द्वापर युग्म या कलि युग्म है ? अहो गौतम ! नारकी को जघन्य पद में कृत युग्म है उत्कृष्ट पद में त्रेता युग्म है और अजघन्य अनुत्क पद में क्वचित् कृतं युग्म यावत् क्वचित् कलियुग्म है. ऐसे ही अग्निकुमार तक कहना ॥ ४ ॥ (वनस्पति काया की पृच्छा ? अहो गौतम ! वनस्पति में जघन्य व उत्कृष्ट पद में चारों में से कोई भी युग्म नहीं पाते हैं क्यों कि जघन्य उत्कृष्ट पद नियत रूप में पाये जाते हैं. नरकादिक को कालांतर परंतु वनस्पति को कालांतर नहीं है, उस को परंपरा सिद्ध गमन से उस राशि के अनंतवना से 40* अठारहवा शतक का चौथा उद्देशा + .२३२७ Page #2358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र २३२८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कलिओगा एवं जाव चरिंदिया, सेसा एगिदिया जहा वेइंदिया पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया जाव वेमाणिया जहा णेरइया, सिद्धा जहा वणस्सइकाइया ॥ ४ ॥ इत्थीओणं भंते ! किं कडजुम्माओ पुच्छा, गोयमा ! जहण्णपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपदे कडजुम्माओ, अजहण्णमणुकोसपदे सिय कडजुम्माओ जाव सियकलिओ गाओ, एवं असुरकुमारइत्थीओवि जाव थणियकुमार इत्थीओवि । एवं तिरिक्ख. जोणियइत्थीओवि । एवं मणुस्सइत्थीओवि । एवं वाणमंतर जोइसिय वेमाणिय उस का परियाग किये बिना अनियत रूप होने से जघन्य व उत्कृष्ट पद में किसी का B संभव नहीं है. मध्यम पद में स्यात् कृत युग्म यावत् स्यात् कलि युग्म. बेइन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय के है जघन्य पद में कृत युग्म, उत्कृष्ट पद में द्वापर युग्म, अजघन्य अनुत्कर्ष पद में क्वचित् कृत युग्म यावत् क्वचित् कलियुग्म शेप सब एकेन्द्रिय का बेइन्द्रिय जैसे कहना. पंचेन्द्रिय तिर्यंच यावत् वैमानिक का नारकी जैसे कहना. सिद्ध का वनस्पति काया जैसे ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! स्त्रियों में क्या कृत युग्म है ? अहो गौतम ! जघन्य पद में कृत युग्म. मध्यम पद में स्यान् कृत युग्म यावत् स्यात् कलि युग्म. ऐसे ही असुरकुमार की स्त्रियों यावत् स्तनित कुमार की स्त्रियों, ऐसे ही तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर, प्रकाशक-राजाबहादर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 488+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4 देव इत्थीओवि ॥ ५ ॥ जावइयाणं भंते ! चरा अंधगवन्हिणो जीवा तावइया परा अंधगवाम्हणो जीवा ? हंता गोयमा ! जावइया चरा अंधगवण्हिणो जीवा तावया परा अर्धगवणो जीवा ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ अट्ठारसमस्स चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ ४ ॥ दो भंते! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उवत्रण्णा, तत्थणं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरसणिज्जे अभिरूत्रे पडिरूत्रे, एगे असुरकुमारे { • 4+ भठारहवा शतक का पांचवा उद्देशा { ज्योतिषी व वैमानिक की स्त्रियों का जानना ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! जितने अल्प आयुष्यवाले 'बादर} अनिकाय के जीवों हैं उतने उत्कृष्ट आयुष्यवाले अधिकायिक क्या जीवों हैं ? हां गौतम ! जितने अल्प आयुष्यवाले अधिकायिक जीवों हैं उतने उत्कृष्ट आयुष्यवाले अग्निकायिक जीवों हैं. x अहो भगवन् आपके वचन सत्य हैं. यह अठारहवा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १८ ॥ ४ ॥ ० चतुर्थ उद्देशे के अंत में अभि का कथन किया, आगे देवता का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! असुर) x कितनेक अंधगवणो का अर्थ ऐसा करते हैं कि सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से सूक्ष्म अग्रि जीवों और कितनेक आचार्य सूक्ष्मजीवों भी अर्थ करते हैं. २३२९ Page #2360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १ अनुवादक नालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ देवे सेणं णो पासादीए णो दरसणिज्जे, णो अभिरूवे णो पडिरूवे, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-वेउव्विय सरीराय अवेउव्विय सरीराय, तत्थणं जे से वेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे सेणं पासादीए जाव पडिरूवे, तत्थणं जे से अवेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे सेणं णो पासादीए जाव णो पडिरूवे ॥ से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थणं जे से वेउब्धियसरीरे तंचेव जाव णो पडिरूवे ? गोयमा ! से जहा णामए-इहमणुस्सलोगसि दुवे पुरिसा भवति, एगे पुरिसे अलंकिय विभूसिए, एगे पुरिसे अणलंकिय विभूसिए, एएसिणं कुमारबाप्त में दो असुरकुमार असुरकुमारपने उत्पन्न हुचे, जिन में एक असुरकुमार देव प्रासादिक, दर्शनीय, अधिरूप र प्रतिरूप हाये और दूसरा प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप व प्रतिरूप होवे नहीं, तो यह कि तरह है। अहो मौतम! सुरकुधार देव के दो भेद कहे हैं. एक वैक्रेय शरीर किया हुवा और दुसरा ऋय शरीर नहीं किया हुवा. जो वक्रेय शरीर वाला होता है वह प्रासादिक यावत् प्रतिरूप होता है. जो वैऋय शरीर रहित होता है वह प्रासादिक यावत् प्रतिरूप नहीं होता है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा कि वैक्रेय शरीरवाला प्रासादिक यावत् प्रतिरूप है और वैक्रय शरीर रहित प्रासादिक यावत् •प्रकोशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहाय नी जालाप्रसादजी . মাৰাঘ। Page #2361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 08 भावार्थ गोयमा ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए जाव पडिरूवे, कयरे पुरिसे जो पासादी जाव णो पडिवे, जेवा से पुरिसे अलंकिय विभूसिए जेवासे पुरिसे अणलंकियविभूसिए ? भगवं ! तत्थ जे से पुरिसे अलंकियविभूसिए सेणं पुरिसे पासादीए जाव पडिरूव, जेवासे पुरिसे अणलंकियविभूसिए सेणं पुरिसे णो पासादीए जाव णो पडिरूत्रे । से तेणट्टेणं जाव णो पाडेरूत्रे || १ || दो भंते ! णागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि एवंचेव, एवं जाव थणियकुमारा, ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया एवंचेव ॥ २ ॥ दो भंते ! णेरइया एगंसि णेरइयावासंसि प्रतिरूप नहीं है ? अहो गौतम ! जैसे इस मनुष्य लोक में दो पुरुषों हैं जिन में एक पुरुष वस्त्रालंकार अलंकृत व आभूषणों से विभूषित है और दूसरा पुरुष अलंकृत व विभूषित नहीं है. अब उन में कौनसा (पुरुष प्रासादिक यावत् प्रतिरूप है और कौनसा पुरुष प्रासादिक यावत् प्रतिरूप नहीं है ? अहो भगवन् जो पुरुष वस्त्र अलंकार से अलंकृत व आभरणों से विभूषित है वह पुरुष प्रासादिक है, और जो पुरुष अलंकृत व विभूषित नहीं है वह प्रासादिक यावत् प्रतिरूप नहीं है; इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् प्रतिरूप नहीं है ॥ १२ ॥ ऐसे ही नागकुमार यावत् स्तनितकुमार वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का जानना ॥ २ ॥ अहो ! 4 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र अठारहवा शतक का पांचवा उद्देशा 48 २३३१ Page #2362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३२ 49 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी णेरइयत्ताए उववण्णा तत्क्षणं एगे पेरइए महाकम्मतराएगेव महावेयणतरा चैव, एगे णेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! णेरइया ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा मायीमिच्छट्ठिी उववण्णगाय, अमायी सम्मट्ठिीउववण्णगाय, तत्थणं जे से मायीमिच्छट्ठिी उववण्णए णेरइए सेणं महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, तत्थणं जे से अमायीसम्महि । उववण्णए णेरइए सेणं अप्पकम्मतराए चेव अप्पवेयणतराए चेव ॥ ३ ॥ दो भंते ! असुरकुमारा एवं चेव ॥ एवं एगिदिय विगलिंदयवजं जाव वेमाणिया ॥४॥णेरइयाणं भगवन् ! एक ही नरकावास में दो नेरइये नारकीपने उत्पन्न हुवे, जिन में एक नारकी महाकर्मवाला यावत् महावेदनावाला, दूसरा नारकी अल्पकर्मवाला यावत् अल्पवेदनावाला है तो यह किस तरह है ? अहो गौतम ! नारकी के दो भेद कहे हैं. १ मायी पिथ्यादृष्टि उत्पन्नक और २ अमायीसमदृष्टि उत्पक. उन में जो मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्नक नारकी है वह महाकर्मवाला यावत् महावेदनावाला है और जो अमायी सम्यग् दृष्टि उत्पन्नक नारकी है वह अल्प कर्मवाला यावत् अल्प वेदनावाला है ॥ ३॥ ऐसे ही असुरकुमार यावत् एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय छोडकर सब दंडक का जानना ॥ ४ ॥ अहो प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ 1 Page #2363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 भंते ! अणंतरं उब्वहिता जे भविए पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए, सेणं भंते ! कयरं आउयं षडिसंवेदेइ ? गोयमा ! णेरइयाउधं पडिसंवेदेइ, पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाउएसे पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ एवं मणुस्सेवि णवरं मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ ४ ॥ असुरकुमाराणं भंते ! अणंतरं उवाहित्ता जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेइ, पुढवीकाइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ ॥ एवं जो जहिं भवओ उववजित्तए तस्स तं पुरओ कडं चिटुंति तत्थविओ तं पडिसंवेदेइ जाव वेमाणिया णवरं पुढवीकाइयो पुढवी काइएसु उववज्जति पुढवीकाइयाउयं पडिसंवेदेइ अण्णेय से पुढवीकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठइ एवं जाव भणुस्सो सट्ठाणे उववातेयव्वो परट्ठाणे तहेव ॥ ५॥ भावार्थ भगवन् ! जो नारकी नरक में अंतर रहित नीकलकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह कौनसा आयुष्य वेदता है? अहो गौतम! नारकी का आयुष्य वेदता है और तिर्यंच पंचेन्द्रिय का आयुष्य आगे करके रहता है. ऐसे ही मनुष्य का जानना. वह आगे करके रहता है ॥ ४ ॥ अहो 4भगवन् ! असुरकुमार अंतर रहित नीकलकर पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कौनसा आयुष्य वेदता है? अहो गौतम ! असुरकुमार का आयुष्य वेदता है और पृथ्वी काया का आयुष्य आगे करके रहता है. ऐसे ही जो जहां उत्पन्न होने योग्य होता है वह वहां का आयुष्य आगे कर के 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 408 अठारहवा शतक का पांचवा उद्देशा 488 Page #2364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी दो भंते ! असुकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववण्या, तत्थणं एगे असुरकुमारदेवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ, वंक विउविस्तामोति वंकं विउवइ, जं जहा इच्छइ तं तहा विउबइ । एगे असुरकुमारे २३३४ देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति वकं विउव्विइ वंकं विउव्विस्सामीति, उज्जयं विउव्वइ जं जहा इच्छइ णो तं तहा विउब्वइ ॥ से कहमेयं भंते! एवं ?गोयमा! असुर कुमारा दुविहा पण्णत्ता तंजहा-मायीमिच्छद्दिट्ठी उववण्णगाय,अमायीसम्मट्ठिी उववण्णगाय, तत्थणं जे से मायीमिच्छविट्ठी उववण्णए असुरकुमारदेवे सेणं उज्जुयं विउव्विस्सामीति रहना है और जिस स्थान रहता है वहां का आयुष्य वेदता है. ऐसा वैमानिक पर्यंत जानना. परंतु पृथ्वीकाया पृथ्वीकाया में उत्पन्न होते पृथ्वीकाया का आयुष्य वेदते हैं और अन्य पृथ्वीकाया का आयुष्य आगे करके रहता है ऐसे ही मनुष्य पर्यंत स्वस्थान में उत्पन्न होने का व परस्थान आश्री पूर्वोक्त जैसे कहना ॥ ५ ॥ अहो भगवन ! एक असुरकुमारावास में दो असुर है.. कुमार देवतापने उत्पन्न हुए उन में एक असुरकुमार अच्छे रूप का चक्रेय करूंगा ऐसा करके अच्छेरूप का वैकेय करता है, वक्र रूप का वैक्रेय करूंगा. ऐसा करके वक्र रुप काय करता है, इस तरह जैसा इच्छता है वैसा करता है, और दूसरा असुरकुमार अच्छे रूप का वैक्रेय करूंगा ऐसा करके वक्र रूप का वैकेय करता और वक्र रूप का चक्रेय करूंगा ऐसा करके ऋजुरूप का वैकेय करे इस तरह जैसा इच्छे वैसा रूप कर सके नहीं तो यह किस तरह है ? अहो गौतम ! असुरकुमार के दो भेद कहे हैं मायी मिथ्यादृष्टि .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #2365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र पंचमांगविवाह पण्णनि ( भगवती ) सूत्र 8882 वकं विउव्वइ जाव णो तं तहा विउव्वइ, तत्थणं जे से अमायी सम्मदिट्ठी उबवण्णए असुरकुमारदेवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ जाव तं तहा विउव्वइ ॥ दो भंते! नागकुमारा एवंचव, एवं जाव थणियकुमारा ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया एवं चेव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ अट्रारसमस पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥५॥ फाणियगुलणं भंते ! कइबण्णे, कइगंधे, कइरसे, कइफासे, पण्णत्ते ? गोयमा एस्थणं दोणया भवंति तंजहा निच्छइएणएय, बावहारियणएय, ॥ वावहारियणयस्स गोडे फाणियगुले. णिच्छइयणयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्टफासे ॥१॥ भमरेणं भंते ! कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! एत्थणं दो णया भवंति, तंजहा णिच्छइयणएय उत्पन्नक और २ अमायी समदृष्टि उत्पन्नक. उन में मायीमिथ्यादृष्टि उत्पन्नक असुरकुमार ऋजु का वैक्रय करके यावत् वैसा बैक्रेय नहीं कर सकते हैं. और जो अमायी सम्यग्दृष्टि असुरकुमार ऋजु वैक्रेय करूंगा ऐसा करके यावत् वैक्रेय करता है. ऐसे ही नागकुमार यावत् स्तनितकुमार वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सस हैं. यह अठारहवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १८ ॥ ५ ॥ olo पांचवे उद्देशे में सचेतन वस्तु की विचित्र वक्तव्यता कही, छठे उद्देशे में अचेतन वस्तु का स्वरूप कहते ॐहैं. अहो भगवन् ! ढीले गुड में कितने वर्ण, गंपरस व स्पर्श कहे हैं.? अहो गौतम ! इस 488+ अठारहवा शतक का छट्ठा उद्देशा 49 Page #2366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 409 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वावहारियणएय, वावहारियणयस्स कालए भमरे, णिच्छिइयणयस्त पंचत्रपणे जाव अट्ठफासे ॥२॥ सुयपिच्छेणं भंते ! कइवण्णे पण्णत्ते ? एवंचेत्र णवरं वावहारिणयस्स लिए सुयपिच्छे, णेच्छइयस्स णयस्स सेसं तंचेव ॥ एवं एएणं अभिलावेणं लोहितिया मंजिट्ठिया, पीतिया हालिद्दा, सुकिल्लए संखे, सुब्भिगंधे कोट्ठे, दुब्भिगंधे-मियगसरीरे, तित्तेणं णिंबे, कडुया सुट्ठी, कसाए तूंयरए कविट्ठे, अंवा अंबालिया, महुरे खंडे; कक्खडे वइरे, मउए नर्वेणीए, गुरुए अए, लहुए उलुयपत्ते, सीए हिमे, उस निश्चेय और व्यवहार ऐसे दो नय ग्रहण किये गये हैं. व्यवहारनय से मधुररसवाला गुड है और निश्चयनय से गुड में पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श पाते हैं. अहो भगवन् ! भ्रमर में कितने वर्णादि पाते ? अहो गौतम ! यहां पर भी दो नय ग्रहण किये हैं, जिन में व्यवहार नयसे भम्रर में काला वर्ण पाता {है और निश्चयनय से पांच वर्ण यावत् आउ स्पर्शे पाते हैं. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! शुक की पांख में कितने वर्ण पाते हैं ? अहो गौतम ! यहां भी दो नय ग्रहण किये हैं. व्यवहारनब से शुरू की पांख में {हरा वर्ण पाता है और निश्चय नय से पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श पाते हैं. और भी इस आलापक १ लोकोतर संज्ञा २ लोक संज्ञा. * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २३३३ Page #2367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती.) सूत्र 4848 अगणिकाए, णिडे-तेल्ले ॥ छारियाणं भंते पुच्छा ? गोयमा। एत्थणं दोणया भवंति तंजहा णिच्छइयणएय, वावहारियणएय, वावहारियणयस्स लुक्खाछारिया, णेच्छइ. यणयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासा पणत्ता ॥ ३ ॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते ! कइवण्णे जाव कइफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगवण्णे, एगरसे, दुफासे पण्णत्ते ॥ दुपदेसिएणं भंते ! खंधे कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! सिय एगवण्णे, सिय दुवणे, सिय एगगंधे, सिय दुगंधे, सिय एगरसे, सिय दुरसे, सिय दुफासे सिय तिफासे से लाल मजीठ, पाली हलदी, श्वेत शंख, सुगंधी कोष्टक, दुर्गन्धी मृत्युक शरीर, निक्तरस, निंध, कटुक मूंठ, कषायला तूरा कबीठ, अम्बट इमली, मधुर सक्कर, कर्कश स्पर्श वजू, कोमल मक्खन,भारी लोहा,हलका चोरपत्र, शीत हिम, ऊष्ण अग्नि, चिकना तेल, रुक्ष राख यो सत्र में व्यवहार नय से एक२ ही वर्ण, गंध,.. E रस व स्पर्श पाता है और निश्चय नय से पांच वर्ण यावत् आठोंही स्पर्श पाते हैं. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! । परमाणु पुरल में कितने वर्ण यावत् स्पर्श पाते हैं ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल में एक वर्ण एक रस दे स्पर्श कहे हैं. अहां भगवन् ! द्विपदेशिक स्कंध में कितने वर्ण गंध रस व स्पर्श कहे हैं ? अहो गौतम । । क्वचित् एक वर्ण क्वचित् दो वर्ण, यदि दोनों एक वर्ण के होवे तो एक ही वर्ण, इस के पांच विकल्प | 488+- अठारहवा तक का छट्ठा उद्देशा भावार्थ - 488 Page #2368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी, सिय चउफासे ॥ एवं तिपदसिएवि णवरं एगवण्णे सिय दुवण्णे, सिय तिवण्णे, एवं रसेसुवि, सेसं जहा दुपदेसियस्स, एवं चउप्पदेसिएवि णवरं सिय एगवण्णे जाव सिय चउवण्णे; एवं रसेसुवि, सेसं तंचेव ॥एवं पंचपएसिएवि णवरं सिय एगवण्णे जाव पंचवण्णे एवं रसेसुवि; गंध फासा तहेव जहा पंचपदेसिओ॥ एवं जाव असखजपदसिओ ॥ सुहुम परिणएणं भंते ! अणंतपदेसिए खधे कइवण्णे ? जहा पचपदेसिए तहेव दोनों दो वर्ण के होवे तो दो वर्ण इम के दश विकल्प. ऐसे ही स्यात् एक गंध, स्यात् दो गंध, इस के अ तीन विकल्प, ऐसे ही स्यात् एक रस, स्यात् दो ग्स दोनों के १५ विकल्प, ऐ। स्यात् दो स्पर्श, स्यात् तीन स्पर्श, स्यात् चार स्पर्श, इस के ४२ विकल्प होते हैं. ऐसे ही तीन प्रदेशिक स्कंध का कहना. विशेष में स्यात् तीनों का एक वर्ण जिम के पांच विकला यावत् तीन वर्ण सब ४५ विकल्प, गंध के द्विसंयोगी दो, तीन संयोगी तीन, ऐसे पांच रस के. ४५ विकल्प वर्ण जैसे कहना, और शेष सब . द्विपदेशिक स्कंध जैसे कहना. स्पर्श के २५ भांगे सब मीलकर १२० भांगे हुवे यारत् भी ही चार प्रदशिक का. विशेष में स्यात् एक वर्ण स्यात् चार वर्ण सब भांगे ९० पाते हैं. गंध के रम के ९०,स्पर्श के ३६, सब२२३भांगे वर्ण के. ऐसे ही पांच प्रदेशिक का कहना विशेष में स्थान एक वर्ण स्यात् पांच वर्ण ऐसे ही रस गंध व स्पर्श का पूर्वोक्त प्रकार से कहना, सब भांगे ४७४ हुवे. जैसे है। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी - - Page #2369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३९ गिरवसेसं ॥ ४ ॥ वादरपरिणएणं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कइवण्णे पुच्छा ? गोयमा ! सिय एगवण्णे जाव सिय पंचवण्णे, सियएगगंधे, सिय दुगंधे; सिय एगरसे जाव सिय पंचरसे, सिय चउफासे जाव सिय अट्रफासे ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति । १. अट्ठारसमस छ8ो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ ६॥ . .. रायगिहे जाव एवं वयासी अण्णउत्थियाणं भंते ! एवं माइक्खंति जाव परूवति. पांच प्रदेशिक स्कंध का कहा ऐसे ही यावत् असंख्यात प्रदेशिक स्कंध का जानना. परमाणु से लगाकर अख्यात प्रदेशात्मक स्कंध सूक्ष्म परिणाम रूप होता है और अनंत प्रदेशिक स्कंध सूक्ष्म तथा बादर दानों परिणामरूप होता है इसलिये अनंत प्रदेशात्मक स्कंध की पृथक् व्याख्या करते हैं. अहो भगवन् ! मूक्ष्म से परिणत असंख्यात प्रदशिक स्कंध में कितने वर्णादि कहे हैं ? अहो गौतम ! जैसे पंच प्रदेशिक स्कंध का कहा वैसे ही इस का भी कहना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! बादर परिणत अनंतप्रदेशात्मक स्कंध में कितने वर्णादि ? अहो गौतम ! स्यात् एक वर्ण स्यात् पांच वर्ण स्थात एक गंध स्यात दो गंध, स्यात एक 4रम स्यात् पांच रस स्यात् चार स्पर्श स्यात् आठ स्पर्श भी होता है. अहो भयवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह अठारहवा शनक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुआ. ॥ १८॥६॥ 17 छठे उद्देशे में नयवादियत आश्रित वस्तु विचारणा कही. अब सातवे उदेशे में अन्ययूथिक. मत आश्री पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 २१+ अठारहबा शतक का सातवा उद्देशा ... + Page #2370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + anamanna अनुवाः बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी एवं खलु केवली जक्खारसेणं आइस्संति, एवं खलु केवली जक्खाएसेणं. आइटे समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तंजहा मोसंवा, सञ्चामासंवा, से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया जाव जंणं एवमाहसु मिच्छंते एव माहंसें, अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खामि ४ णो खलु केवली जक्खाएसेणं आदिस्सइ, णो खलु केवली जक्खाएसेणं आइट्ठ समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तंजहा मोसंवा सञ्चामोसंवा ॥ केवलीणं असावजाओ अपरोवघाइयाओ आहच्च दो भासाओ भासइ, तंजहा सच्चंवा असच्चामासंवा ॥ १॥ कइविहेणं भंते ! उवही पण्णत्ता ? प्रश्न करते हैं. राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुवे श्री गौतम स्वामी ऐसा बोले कि अशे मावन् अन्यतीर्थिक ऐसा कहत हैं यावत् प्ररूपते हैं कि केवलि के शरीर में यक्ष प्रवेश करते हैं जिससे केवली भी क्वचित मृषा व सत्यमृषा ऐसी दो भाषा बोले. अहो भगवन् ! यह कथन किस तरह है ? अहो गौतम ! जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं उन का कथन मिथ्या है. अहो गौतम ! इस कथन को मैं इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि केवली यक्षाधिष्टित नहीं होते हैं. वैसे ही यक्षा al घिष्टित से मृषा व सत्यमृषा ऐसी भाषा केवली नहीं बोलते हैं; परंतु केवली सत्य र असत्यमृषा ऐसी दो । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. भावार्थ - Page #2371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Emaimammi .4 २३४१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भरावती).सत्र 4.8 गोयमा ! 'तिविहे. उवहीं पण्णत्ता, तंजहां कम्मोवहीं, सरीरोवही, बाहिरभंड मत्तोबगरणोवही, ॥ णेरड्याणं भंते ! पुच्छा ? दुविहे उवही पण्णत्ता तंजहा कम्मो वहीय, सरीरोबहीय, सेसाणं तिविहे उवही । एगिदियवजाणं जाव वेमाणियाणं ॥ एगिंदियाणं दुविहे उवही पण्णत्ता, तंजहा - कम्मोवहीय, सरीरोवहीयः ॥२॥ कइविहेणं भंते ! उवही पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहे उवही पण्णत्ता, तंजहा-सचित्ते, अंचित्ते, मीसए, एवं णेरइयाणवि, एवं णिरवसेसा जाव · वेमाणियाणं ॥ ३ ॥ भाषाओं बोलते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! उपधि के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उपधि के तीन भेद कहे हैं १ कर्मोपधि,२शरीरोपधि वश्वाह्य भंड पात्र व उपकरण की उपधि. अहो भगवन् ! नार में की को कितने प्रकार की उपाधि कही ? अहो गौतम ! नारकी को कर्म व शरीर ऐसी दो उपाधि कही. एकेन्द्रिय छोडकर शेष सब को तीनों प्रकार की उपधि कही.. एकेन्द्रिय को दो प्रकार की उपधि १ कर्मोपधि व २ शरीरोपधि. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! उपषिके कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उपधि के तीन भेद हैं-१ सचित्त, २ अचित्त, ३ मीश्र. नारकी आदि चौरिस दंडक में तीनों प्रकार की उपधि कहीं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! परिग्रह के और कितने भेद कहे हैं. ? अहो थावामे अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा488 488 . Page #2372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३४२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी कइविहेणं भंते ! परिग्गहे ? गोयमा! तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तोवगरण परिग्गहे ॥णेरइयाणं भंते ! एवं जहा उबहिणा दो दंडगा भणिया तहेव परिग्गहेणविदो दंडगा भाणियव्वा ॥ ४॥ कइविहाणं भंते ! पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते, तंजहा-मणपणिहाणे वइपणिहाणे, कायपणिहाणे ॥ णेरइयाणं भंते ! कइविहे पणिहाणे ? पण्णत्ते एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पण्णत्ते, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं ॥ वेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! दुविहे. गौतम ! परिग्रह के तीन भेद कहे हैं. तद्यथा-१ कर्म परिग्रह२ शरीर परिग्रह और वाह्य भंड पात्र व उपकरण का परिग्रह. अहो भगवन् ! नारकी को कितने परिग्रह हैं ? अहो गौतम ! जैसे उपधि के दो दंडक कहे वैसे ही परिग्रह के दो दंडक कहना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! प्रणिधान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गोतम! प्रणिधान के तीन भेद कहे हैं तद्यथा-१ मन प्रणिधान,२वचन प्रणिधान, व ३काया प्रणिधान. नारकी यावत स्तनितकुमार को तीनों प्रणिधान कहे हैं :पृथ्वीकाय यावत् वनस्पति काया को एक काया प्रणिधान कहा है ; बेइन्द्रियं तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय को वचन व काया ऐसे दो प्रणिधान हैं. और शेष सब थैमानिक प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय नी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #2373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणहाणे पण्णत्ते, जहा-वइपणिहाणेय कायपणिहाणेय, एवं जाव चउरिदियाणं, सेसाणे तिविहे जाव वेमाणियाणं ॥५॥कइविहेणं भंते! दुप्पणिहाणे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे दुप्पणिहाणे पण्णत्ते तंजहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे,जहेव पणिहाणेणं दंडओ भणिओ तहेव दुप्पणिहाणवि भाणियव्वो॥ ६ ॥ कइविहेणं भंते ! सुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते तंजहा मणसुप्पणिहाणे, वइ सुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे ॥ मणुस्साणं भंते कइविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? एवंचव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥७॥ तएणं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया भावार्थ तक को तीनों प्रणिधान हैं ॥५॥ अहो भगवन् ! कितने दुष्पणिधान कहे हैं ? अहो ! गौतम ! तीन दुष्पणि धान कहे हैं. तद्यथा-१ मनदुष्पणिधान २ बचन दुष्पणिधान व ३ काया दुष्पणिधान, वगैरह जैसे प्रणिधान , का दंडक कहा वैसे ही दुष्पणिधान का दंडक कहना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! कितने सुप्रणिधान कहे हैं ? अहो गौतम ! तीन सुप्रणिधान कहे हैं. तद्यथा.. मन सुप्रणिधान २ वचन सुप्रणिधान और ३ काया सुप्रणि-1 धान. अहो भगवन् ! मनुष्य को कितने मुप्रणिधान कहे हैं ? अहो गौतम ! मनुष्यों को तीनों मप्रणिधान 17कहे हैं. अहो भगवतू ! आपके पचन सत्य हैं ऐसा कहकर श्री गौतम स्वामी विचरने लगे ॥७॥ पंचमांग विवाहपण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 अठारहवा शतक का सातवा उद्देश। 488 Page #2374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जणवयविहारं विहरइ ॥ ८ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णाम णयरे : गुणसिलए चेइए, वण्णओ जाव पुढवीसिलापट्टओ ॥ ९ ॥ तस्सणं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, तंजहा-कालोदाई, सेलोदाई, एवं जहा सत्तमसए अण्णउत्थिउद्देसए जाव से कहमेयं मण्णे एवं ? ॥ १० ॥ तत्थणं रायगिहे णयरे मखएणाम समणावासए परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए अभिगय जाव विहरइ ॥ ११ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णयाकयाई पुव्वाणु पुचि चरमाणे जाव समोसढे, परिसा जाव पज्जुवासइ ॥ १२ ॥ तएणं मड्डए श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी बाहिर जनपद देश में विहार करने लगे ॥ ८ ॥ उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था, उस की ईशान कौन में गुणशील नामक उद्यान थाई यावत् पृथ्वीशीला पट्ट था ॥९॥ उस गुणशील उद्यान की पास बहुत अन्यतीर्थिक रहते थे. जिन के नाम. कालोदायी, शैलोदायी वगैरह जैसे सातवे शतक में अन्यतीर्थिक उद्देशों कहा है तैसेही यहां कहना. तो अहो भगवन् ! यह किस तरह है ?॥१०॥ उस राजगृह नगर में मंडुक नामक श्रमणोपासक ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत रहता था ॥ ११ ॥ उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्व चलते, ग्रामानु-* * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #2375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र समणोवासए इमीसे कहाए लढे समाणे हट्ठतुढे जाव हियए ण्हाए जाव सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता, पातविहारचारेणं रायगिहं णयरं जाव णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता, तेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वाईवयति ॥ १३ ॥ तएणं से अण्णउत्थिया मंडुयं समणोवासयं अदूरसामंते वीईवयमाणं पासइ, पासइत्ता अण्णमण्णं सदाति २ त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविउप्पकडा इमंचणं मछुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं ग्राम विचरते यावत् पधारे परिषदा यावत् पर्युपासना करने लगी ॥१२॥ मंडुक श्रमणोपासकने जब यह बात मुनी तब वह हर्षित हुवा, तुष्ट हुवा यावत् स्नान किया यावत् अलंकृत शरीरवाला हुवा और अपने गृह से नीकलकर पांव से चलता हुवा राजगृह से यावत्नीकलकर उन अन्य तीथिकों की पास से जाताथा ॥१३॥ तब वे अन्यतीर्थिक मंडुक श्रमणोपासक को पास में जाता हुवा देखकर परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय :20 अपन को यह बात समझ में नहीं आती है और यह मंडुक श्रमणोपासक नजीक में जा रहा है इस.से अहो देवानुप्रिय ! मंडुक श्रमणोपासक को यह बात पूछना अपन को श्रेय है. ऐसा करके परस्पर बात सुनकर मंडुक श्रमणोपासक की पास गये और उन से ऐसा बोले-अहो मंडुक ! तेरे धर्माचार्य धमापद-17 36+ अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा 988 भावार्थ 1 Page #2376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वीईवयति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया। अम्हं मडयं समणोवासगं एयमटुं पुष्छित्तएत्ति कटु, अण्णमण्णस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति २ ता, जेणेव मड्डए समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता मंडुयं समणोवासगं एवं वयास्ती-एवं खलु मंडुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए णायपुत्ते पंचत्थिकाए पण्णवेइ जहा सत्तमसए अण्णउत्थिय उद्देसएजाव से कहमेयं मडुया! एवं?॥तएणं से मंडुए समणोवासए तेअण्णउत्थिए एवं वयासी-जइकजं कज्जइ जाणामो पासामो,अहकजं णकज्जइ णजाणामो णपासामो ॥ तएणं अण्णउत्थिया मंडुयं समणोवासयं एवं वयासी-केसणं तुमं मडुया! शक ज्ञात पुत्र पांच अस्तिकाया प्ररूपते हैं वगैरह जैसे सातवे शतक में अन्यतीर्थिक उद्देशे में कहा वैसे ही यावत् यह किस तरह है ? तब मंडुक श्रमणोपासक अन्यतीर्थिकों को ऐसा बोले की जैसे धूम्रादिक के. न्याय से आग्नि जानी जाती है वैसे ही धर्मास्तिकायादिक मे जो कार्य किये जाते हैं उन कार्यों से धर्मास्ति कायादिक जानते हैं. और कार्य न करे तो नहीं जानते हैं व नहीं देखते हैं. क्यों कि छमस्थ च अगोचर पदार्थ को कार्य बिना नहीं जान सकते हैं. तब अन्यतीर्थिक उस मंडुक श्रमणोपासक को ऐसा बोले-अहो मंडुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि यह बात को नहीं जान सकता व नहीं देख सकता है ? सब । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ Page #2377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 488 समणोवासगाणं भवसि, जेणं नुमं एयमटुं णजाणइ णपासइ ? तएणं मंडुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-अत्थिणं आउसो ! वाउयाए वाति ? हंता मंडुया ! वाति ॥ तुब्भेणं आउसो वाउयस्स वायमाणस्स रूवं पासह ? णो इणढे समटे ॥ अत्थिणं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला ? हंता अत्थि, तुब्भेणं आउसो! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह ? णो इणटे समढे ॥ अत्थिणं आउसो ! अरणिसहगए अगणिकाए ? हंता अस्थि । तुब्भेणं आउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ! णो इणट्टे समंढे ॥ अत्थिणं आउसो समुदस्स IF मंडुक श्रमणोपासक उन अन्यतीर्थिकों को ऐसा बोले कि अहो आयुष्मन् ! क्या वायु चलता है ? हां में भावार्थ मंडुक वाय चलता है, अहो आयुष्मन् ! तुम चलते हुवे वाय का रूप क्या देखते हो ? अहो मंडुक ! हम चलते हुवें वायु का रूप नहीं देखते हैं. घाणमहगत पुद्गलों हैं क्या ? हां मंडुक ! प्राणसहगत - पुद्गलों हैं. अहो आयुष्मन् ! क्या तुम घ्राणसहगत पुद्गलों का रूप देखते हो ? यह अर्थ योग्य नहीं: हैं अर्थात् घ्राणसहगत पदलों का रूप हम नहीं देखते हैं. अहो आयुष्मन् ! क्या अरणि सहगत अग्नि है ? हां मंडक! अरणिसहगत अग्निकाय है. अहो आयुष्मन ! तुम क्या अरणि सहगत अग्नि-1 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 1882 अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा mmmmmmmmmmmmmmm - Page #2378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पारगयाइं रूवाइं ? हंता अत्थि, तुब्भेणं आउसो ! समुदस्स पारगयाई : रूवाइं पासह ? णो इणटे समटे ॥ अत्थिणं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं ? हंता अत्थि । तुब्भेणं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाइं पासह ? णो २३४८ इणढे समढे ॥ एवामेव आउसो! अहंवा तुब्भेवा अण्णोवा छउमत्थो णजाणइ णपासइ, तं सव्वं ण भवसि. एवं भे सुवहुंलोए णभविस्सतीति कटु, ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणति, एवं पडिहणतित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता, समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिकाय का रूप देखते हो ? यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो आयुष्मन् ! समुद्र के पारगत रूप हैं ? हां पंडुक ! हैं, तब क्या तुम उन को देखते हो ? यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो आयुष्मन् ! क्या देवलोक में गत रूप हैं ? हां मंडुक ! देवलोक गत रूप हैं. तब क्या उन देवलोक गत रूप को तुम देखते हो? यह अर्थ योग्य नहीं है. ऐसे ही अहो आयुष्मन् ! मैं, तुम अथवा अन्य छद्मस्थ जो जो वस्तु दिखने में नहीं आती है वह नहीं है ऐसा मानेंगे तो तुम्हारे मत में सुबहुलोक नहीं होगा. इस तरह अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर कर गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की | ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48+ गमेणं अभि जाव पज्जुवासइ ॥ १४ ॥ मंडुयादि ! समणे भगवं महावीरे मंडुयं समणोवासयं एवं वयासी सुट्ठणं मंडुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहुणं मंडुया ! तुम्हं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी जेणं मंडुया ! अटुंवा हेउवा |२३४९ पसिणंवा, वागरणंवा अण्णायं अदिटुं असुयं अमतं अविण्णातं बहुजणमझे आघवइ पण्णवेइ जाव उवदसेइ, सेणं अरिहंताणं आसादणयाए वटइ, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए वटइ, केवलीणं आस दणयाए वट्टइ, केवलीपण्णत्तस्स धम्मस्स आसाहणयाए वइ, तं सुट्ठणं तुमं मंडुया ! ते अण्ण उत्थिए एवं वयासी, साहुणं तुम की पास आकर भगवंत महावीर की पांच प्रकार के अभिगम से मन्मुख जाकर यावत् पर्युपासना करने में लगा. ॥१४॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी मंडक श्रमणोपासक को ऐसा बोले कि अहो मंडक ! तुमने अन्यतीर्थिकों को जो ऐसा कहा वह अच्छा किया. अहो मंडुक ! जो बहुत मनुष्यों में नहीं देखा हुवा, न जाना हुवा व नहीं सुना हुवा अर्थ, हेतु,प्रश्न व व्याकरण को इस तरह कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं वे तीर्थंकर की आसातना करते हैं, अरिहंत प्ररूपित धर्म की आसातना करते हैं, केवली की आसातना करते हैं केवली प्ररूपित धर्म की आसातना करते हैं. इस से अहो मंडुक ! हैने उन अन्य तीथिकोंको ऐसा कहा सो 'अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा भवार्थ : 1 Page #2380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडुया! जाव एवं वयासी॥१५॥तएणं मंडुए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुढे समणे भगवं महावीरे मंडुयस्स समणोवासगस्स तीसेय जाव परिसा पडिगया ॥ १६ ॥ तएणं मंडुए समणोबासए समणस्स भगवओ महावीरस्स जाब णिसम्म हट्ठ तुटे पसिणाई पुच्छइ, पुच्छइत्ता अट्ठाइं परियाति २त्ता, समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णभंसइत्ता जाव पडिगए ॥ १७ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदई णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * वार्थ अच्छा किया. ॥ १५ ॥ जब श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने मंडुक श्रमणोपासक को ऐसा कहा तव मंडुक हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और मंडुक श्रमणोपासक को उस महती परिषदा में महावीर स्वामीने यावत् परिषदा पीछी गइ. ॥ १६ ॥ फीर मंडक श्रमणोपासकने श्रमण भगवंत महावीर को यावत् अवधार कर हृष्ट तुष्ट हुवा और प्रश्नों पुछकर उसे ग्रहण कर श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर यावत् पीछा गया. ॥ १७॥ भगवान गौतम स्वामी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! मंडुक श्रमणोपामक आपकी पास यावत् मुंडित होने को क्या समर्थ है ? अहो गौतम : यह अर्थ योग्य नहीं है. यहां जैसे शंख का कहाथा वैसे ही. wwwww Page #2381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 40 बयासी-पभूणं भंते ! मंडुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव पव्वइत्तए ? , णो इणढे समटे ॥ एवं जहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव अंतकरेहिति ॥ १८ ॥ देवेणं भंते ! माहट्ठींए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता पभू अण्णमण्णेणं साई संगाम संगामेत्तए ? हता पभ ॥ ताओणं भंते ! बोंदीओ किं एग जीव फुडाओ अणेग जीव फुडाओ ?गोयमा ! एग जीव फुडाओ णो अणेग जीव फुडाओ तेसिंणं भंते ! बोंदीणं अंतरा किं एग जीव फुडा अणेग जीव फुडा ? गोयमा ! एग जीव फुडा णो अणेग जीव फुडा ॥ १९ ॥ पुरिसेणं भंते ! अंतरे हत्थेणवा यहां पर कहना यावत् अरुणाभ विमान में उत्पन्न होकर वहां से महाविदेह क्षेत्र में सीझेगा बुझेगा यावत् से अंत करेगा ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! महद्धिक यावन् महासुख वाला देवता सहस्ररूपों का वैक्रेय करके परस्पर संग्राम करने को क्या समर्थ है ? हां गौतम ! देवसहस्ररूपों का वैक्रेय करके परस्पर संग्राम में समर्थ हैं. अहो भगवंत ! उन शरीरों को क्या एक जीव स्पर्शा हुवा है या अनेक जीव स्पर्श अहो गौतम ! एक जीव स्पर्शा हुवा है. अहो भगवन् ! उन शरीरों की बीच में क्या एक जीव स्पर्शा हुवा है या अनेक जीव स्पर्श हवे हैं ? अहो. गौतम ! एक जीव स्पर्शा हुवा है परंतु अनेक जीव स्पर्श हवे नहीं हैं 482 अठारहवां शतक का सातवा उद्देशा - भावार्थ । Page #2382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं जहा अट्टमस तइय उद्देसए जाव णो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ २० ॥ अत्थिणं भंते! देवा असुरा संगामा देवा असुरा ? हंता अस्थि || देवासुरेणं भंते! संगामे व माणेसु किंणं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए. परिणमंति ? गोयमा ! जंणं ते देवा तणवा, कटुंबा, पत्तंवा, सक्करंवा, परामुसंति तंणं तेसिणं देवाणं पहरणरयत्ता परिणमति ॥ जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? णो इणट्ठे समट्ठे || असुर कुमाराणं देवाणं णिचं विउब्विया पहरणरयणा पण्णत्ता ॥ २१ ॥ देवेणं भंते ! महिड्डीए जाब महेसक्खे पभू लवणसमुहं अणुपरियहित्ताणं हव्वमागच्छित्तए ? हंता { ॥ १९ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष बीच में हस्त पत्र वगैरह जैसे आठवे शतक के तीसरे उदेशे में कहा वैसे ही यहां जानना ॥२०॥ अहो भगवन् ! देव व 'असुर में क्या संग्राम होता है? हां गौतम! देव व असुर में संग्राम होता है. अहो भगवन् ! देव व असुर के होते हुवे संग्राम में प्रहाररत्न ( शस्त्रपने ) क्या परिणमता है ? अहो गौतम ! देव जो तृण, काष्ट, पत्र व कंकर डालते हैं, वे उन देवोंको महाररत्नपने परि ( णमते हैं. जैसे देवों का कहा वैसे ही असुरकुमार का क्या जानना ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं क्यों की असुरकुमार को सदैव वैक्रेयवाला प्रहार रत्न होता है. ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! महर्द्धिक * प्रकाशक- राजीवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २३५२ Page #2383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.88 पभू देवेणं भंते ! महिड्डीए एवं धायइखंडदीवं जाव हंता पभू॥एवं जाव रुयगवरं दीवं जाव हंता पभू ॥ तेणं परं वाईवएजा णो चेवणं अणुपरियटिजा ॥ २२ ॥ अत्थिणं भंते ! देवा जे अणते कम्मंसे जहण्णेणं एक्कणवा दाहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचहिं २१५३ वाससएहिं खवयंति ? हंता अस्थि । अत्थिणं भंते । देवा जे अणते कम्मसे जहण्णेणं एक्कणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति ? हंता अस्थि॥ अत्थिणं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहणेणं एकणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति ? हंता अस्थि ॥ २३ ॥ कयरे भंते ! भावार्थ व महामुख वाला देव क्या लवण समुद्र को अनुपर्यटन करके आनेको समर्थ है? हां गौतम ! समर्थ में है. ऐने ही धातकी खंड द्वीप यावत् रुचकद्वीप का जानना. उस के आगे के दीप को उल्लंघने में समर्थ है परंतु उनकी पर्यटना करने में समर्थ नहीं है. ॥२२॥ अहो भगवन् ! ऐसे क्या देवों हैं कि जो अनंत पापक्रमाश जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांचसो वर्ष में खपावे ? हां गौतम ! ऐसे देवों हैं. अहो भगवन् !131 ऐसे देवों क्या हैं कि जो अनंत पापकर्माश एक दो तीन उत्कृष्ट पांच हजार वर्ष में खपावे? हां मौतम ! हैं. अहो । , भगवन् ! क्या ऐसे देव हैं कि जो अनंत पापकर्माश जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच लाख वर्ष में खपावे ? '1 पंचांग विवाह परणत्ति (भगवती) सूत्र 428+ अठारहवा शतक का सा Page #2384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३५४ देवा जे अणते कम्मसे जहण्णेणं एक्केणवा दोहिंवा तिहिंवा जाव पंचहिं वाससएहिं खवयंति, कयरेणं भंते ! देवा जाव पंचहिंबाससहस्सेहिं खवयंति; कयरेणं भंते ! देवा जाव पंचहि वाससयसहस्सेहिं खवयंति ? गोयमा ! वाणमंतरा अणते कम्मंसे एगेण वाससएणं खवयंति, असुरिंदवजियाणं भवणवासी देवा अणते कम्मंसे दोहिं वास सएहिं खवयंति, असुरकुमारा देवा अणते कम्मंसे तिहिं वाससएहिं खवयंति, गहगण णखत्ततारारूवा जोइसिया देवा अणते कम्मंसे चउवास जाव खवयंति, चंदिमसूरिया जोइसिंदा जोइसरायाणो अणते कम्मंसे पंचहिं वाससएहिं खवयंति, सोहम्मी साणगा देवा अणंत कम्मंसे एगेणं वाससहस्सेणं जाव खवयंति, सणंकुमार माहिंदगा हां गौतम ! वैसे हैं. ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! कौन देव अनंत पापकर्माश जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांचसो वर्ष में खपाचे यावत् उत्कृष्ट पाँच लाख वर्ष में खपावे ? अहो गौतम ? वाणध्यंतर देव अनंत पाप कर्मीश एकसौ वर्ष में खपावे, असुरेन्द्र छोडकर अन्य भवनवासी देवों दोसो वर्ष में खपावे, अमुरकुमार देव अनंत कर्मीश तीन सो वर्ष में खपावे, ग्रहगण नक्षत्र व तारारूप ज्योतिषी देव अनंत पापकर्माश चारसो वर्ष में 1- खपावे, ज्योतिषी के राजा ज्योतिषी के इन्द्र अनंत पापकर्माश पांच सो वर्ष में खपावे, सौधर्म देवलोक अनुकदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* व Page #2385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र देवा अणते कम्मले दोहिं वाससहरसेहिं खवयंति, एवं एएवं अभिलावेणं बंभलोगंतगा देवा अनंत कम्मंसे तिहिं वाससहस्सेहिं, महासुक्कसहस्सारगा देवा अणते उहिं वाससहस्सेहिं जवयंति, आणयपाणयआरणअच्चुयगा देवा अनंते कम्मंसे पंचहिं वाससहस्सेहिं खयंति, हेट्ठिमगेवेज्जगादेवा अणंते कम्मंसे एगेणं वासस्य सहरसेणं खवयंति, मज्झिमगवेजगा देवा दोहिं वाससयस हस्सेहिं खवयंति, उवरिमगेवे अगा देवा अनंते कम्मंसे तिहिं वासस्यसहस्सेहिं खत्रयंति, विजयवजयंतजयंतअपराजियगा देवा अनंते कम्मंसे चउहिं वाससयस हस्सेहिं खबयंति, सव्वट्टसिद्धगा व ईशान देवलोक के देवता अनंत पापकर्मश एक हजार वर्ष में में खपावे, सनत्कुमार व माहेन्द्र देवलोक के ? देवता दो हजार वर्ष में खपावे, ब्रह्मलोक व लांतक देवलोक के देवता अनंत पापकमशि तीन हजार वर्ष में महाशुक व सहस्रार देवलोक के देवना चार हजार वर्ष में, आनत प्राणत आण व अच्युत देवलोक के देवता (अनंत पापकर्मशि पांच हजार वर्ष में, नीचे की ग्रैवेयक के देवों दो लाखवर्ष में खपावे, उपर की ग्रैवेयक के देवता तीन लाख वर्ष में खपात्रे, विजय वैजयंत जयंत व अपराजित के देवता चार हजार वर्ष में और सर्वार्थ 488+ अठारहवा शतक का सातवा उद्देशा - २३५५ Page #2386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवा अणते कम्मसे पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति ; एएणं गोयमा ! ते देवा जे अणते कम्मंसे जहण्णेणं एक्केणवा दोहिंवा तिहिंवा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससएहिं खवयंति. एएणं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति ॥ एएणं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ अट्ठारसमस सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ ७ ॥ . रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारस्सणं भंते ! भावियप्पाणो पुरओ दुहओ मायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुछाड पोतेवा, वडापातेवा, कलिंगच्छाभावार्थ प्रसिद्ध विमान के देव पांच हजार वर्ष में अनंत कांश खपावे. अहो गौतम ! इमीमे देखें अनंत कौश जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच सो वर्ष में खपाते हैं. इस से अहो गौतम ! जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट : पांच हमार वर्ष में कर्म खपावे और इस से ही अहों गौतम ! जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच लाख वर्ष में कर्म खपावे. अहो भगवन् ! आपकं वचन सत्य हैं. यह अठारहवा शनकका सातवा उद्देशा पूर्ण हवा ॥१८॥७॥ सातवे उद्देश में कर्मक्षय करने का कहा. इस उद्देशे में कर्मबंध का कहते हैं. राजगृही नगरी के , 14 गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार श्री गौतम स्वामी ऐमा बोले। 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाचहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ । 488+ पंचमाङ्ग विवाद पण्णति ( भगवती ) सूत्र एवा परियावज्जेजा, तस्सणं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्सणं भावियप्पणो जाव तरसणं इरियावहिया किरिया कज्जइ, जो संपराइया किरिया कज्जइ ॥ से केणट्टेणं भंते ! एवं बुवइ ? जहा सत्तमसए संबुडुद्देसए जाव अट्ठो णिखित्तो ॥ सेवं भंते ! ॥ १ ॥ तणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ ॥ २ ॥ भंतेति ॥ जाब विहरइ तेणं कालेणं तेणं अनगारं को अहो भगवन् ! युग प्रमाण [ चार हाथ ] भूमि देखकर चलते हुवे मावितात्मा अनगार के पांव नीचे कोई मुर्गी के बच्चे, बटेर के बच्चे, व कीडियों के बच्चे परितापना पावे तो उस क्या ईर्यापथिक क्रिया होवे या संपराधिक क्रिया होवे ? अहो गौतम ! युगप्रमाण भूमि आगे देखते हुवे भावितात्मा अनगार के पांच की नीचे कोई मुर्गी के बच्चे, बंटर के बच्चे, व कीडियों के बच्चे परितापना पात्रे तो उन अनगार को ईर्यापथिक क्रिया होवे परंतु संपरायिक क्रिया होवे नहीं. अहो भगवन् ऐसा किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! जैसे सातवे शतक में संवृत उद्देशे में कहा वैसे ही यहां जानना यावत् कषाय विच्छेद होने से ईर्ष्या पथिक क्रिया लगे. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यावत् विचरने लगे ॥ १ ॥ फीर श्रमण भगवंत भी विचरने लगे ॥ २ ॥ उस काल उस समय में ** अठारहवा शतक का आठवा उद्देशा 498 २३५७ Page #2388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ १०३६० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी समए रायगिहे जाव पुढबीसिलापट्टए || ३ || तस्सणं गुणसिलस्स चेइयरस अ दूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति ॥ ॥ तरणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाघ उढुं जाणू जाव विहरइ ॥ ६ ॥ तणं ते अण्णउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता भगवं गोमं एवं वयासी तुब्भेणं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंतवालायावि भव || ६ || तणं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी से * प्रकाशक राजावहदुर लाला सुखदेव सहायत्री ज्वालाप्रसादजी * { राजगृह नगर यावत् पृथ्वी शीलापट्ट था || ३ || उस गुणशील उद्यान की पास बहुत अन्यतीर्थिकों रहते थे ॥ ४ ॥ वहां श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे यावत् परिषदा पीछी गई ॥ ५ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अंतेवासी यावत् ऊर्ध्व जानु से यावत् विचरने लगे ||६|| तत्र वे अन्यतीर्थिक जहां गौतम स्वामी थे वहां आये और भगवान् गौतम को ऐमा बोले कि अहो आर्यो! तुम तीन करन तीन योग से असंयति यावत् एकांत घालहो || ६ || तब भगवान् गौतम उन अन्यतीर्थिकों को बोले कि अहो आर्यो ! किस कारन से हम तीन करन तीन योग से अविरति असंयति । २३५८ Page #2389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 405403 भावार्थ । केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंत वालायावि भवामो ? ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी तुब्भेणं अजो ! रीयं रीयमाणा पाणं पेचेह अभिहणह जाव उद्दवेह, तरणं तुब्भे पाणे पेच्चमाणा जाव उद्दवेमाणातिविहं जात्र एगंतबालायावि भवह. ॥ ७ ॥ तणं भगवं गोयमे ते उत्थि एवं वयासी णो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणा पेचेमो, जाव उवेमो, अम्हेणं अजो ! रीयं रीयमाणा कार्यं च जोयं च रीयं च पडुच्च दिस्सा पदस्सा यामो, तणं अम्हे दिस्सा २ वयमाणा प्रदेस्सा वयमाणा २ णो पाणे पेचेमो यावत् एकांत बाल हैं ? तर अन्य तीर्थिकोंने ऐसा उत्तर दिया कि अहो आर्यो ! तुम चलते हुवे प्राणोंको आक्रमते हो, हणते हो यावत् मारते हो. इस तरह प्राणियोंको आक्रमते, हणते यावत् मारते हुवे तुम तीन करन तीन योग से एकांत बाल हो ॥ ७ ॥ तब भगवान् गौतम उन अन्यतीर्थिकों को ऐसा बोले अहो आर्यो ! गमन करते हुवे हम प्राणियों अतिक्रमते नहीं है यावत् उपद्रव नहीं करते हैं परंतु चलते हुवे काया योग, व परिभ्रमण आश्री देख २ कर चलते हैं. इस तरह देख २ कर चलते हम प्राणियों को अतिक्रमते नहीं है यावत् उपद्रव नहीं करते हैं. प्राणियों को नहीं अतिक्रमते यावत् उपद्रव नहीं कर त +4 अठारहवा शतक का आठवा उद्देशा 8443 * २३५९ Page #2390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जाव णो उद्दवेमो, तएणं अम्हे पाणे अपेच्चमाणा जाव अणाहवेमाणा तिविहं तिविहेर्ण जाव एगत पंडियावि जाव भवामो ॥ तुब्भेणं अज्जो ! अप्पणो चेव तिविहं तिविहेणं जाव एतबालायावि भवह, ॥ ८ ॥ तएणं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं एवं वयासी केणं कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं जाव विभवामो ? ॥ तएणं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-तुब्भेणं अनो ! रीयं रीयमाणा पाणे पेञ्चेह जाव उद्दवेह, तएणं तुब्भे पाणे पेच्चमाणा जाव उद्दवेमाणा लिविहं जाब एगंत बालायावि भवह ॥ ९ ॥ तएणं भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं पडिटणइ पडिहणइत्ता तीन करन तीन योग से हम एकांत पंडित हैं. परंतु अहो आर्यों ! तुम स्वतः ही तीन करन तीन योगसे एकांत बाल हो ॥ ८॥ तब अन्यतीर्थिक भगवंत गौतम को ऐसा बोले अहो आर्य ! किस कारन से हम तीन करन तीन योग से यावत् एकांत बाल हैं ? तब भगवान् गौतमने उन अन्य तीथिकों को । कहा अहो आर्यो! तुम चलते हुए प्राणियों को अतिक्रमते हो यावत् उपद्रव करते हो. इस तरह प्राणियोंको अतिक्रमते यावत् उपद्रव करते तीन करन तीन योग से यावत् एकांत बाल हो ॥९॥ इस तरह अन्यतिर्थकों का प्रतिघात करके भगवान गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पासे आये। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 भावार्थ 488+ पंचमांग विवाह पष्णति ( भगवती ) सूत्र 488+ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदs णमंसइ, णच्चासण्णे जात्र पज्जुवासइ ॥ १० ॥ गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी सुडुणं तुम्हं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहूणं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, अत्थिणं गोयमा ! ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था जेणं णो पभू एयं वागरणं वागरेचए जहाणं तुमं तं सुहूणं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहूणं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी ॥ भगवं गोयमे समणेण भगत्रया महावीरेणं एवं वृत्तेसमाणे हट्ट तुटु समणं भगवं और वंदना नमस्कार कर नम्नासन से यात्रत् पर्युपासना करने लगे. ॥ १० ॥ श्रमण भगवंत महावीरने [गौतमादि श्रमण निर्ग्रन्थों को ऐसा कहा अहो गौतम ! तुमने अन्यतिथिकों को जो ऐसा उत्तरदिया सो अच्छा किया श्रेष्ठ किया. अहो गौतम ! मेरे बहुत छद्मस्य श्रनग निर्ग्रन्थ हैं कि जो तेरे जैसे उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं. इस से तुमने अन्यतीर्थिको जो उत्तरदिया सो अच्छा किया || ११ | जब श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ऐसा बोले तब भगवान गौतम हृष्ट तुष्ट हुवे और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना ११ ॥ तरणं अठारहवा शतक का आठवा उद्देशा +2+ | २३६९ Page #2392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी महावीर वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं वयासी-छउमत्थेणं भंते ! मणसे परमाणुपोग्गलं किं जाणइ पासइ उदाहु नजाणइ नपासइ ? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ पासइ, अत्थेगइए णजाणइ णपासइ ॥ १२ ॥ छउमत्थेणं भंते ! दुपदेसियं खधं किं जाणइ पासइ ? एवं चेव ॥ एवं जाव असंखेज पएसियं ॥ छउमत्थेणं भंते ! मणुस्से अणंतपएसियं खंधं किं पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए जाणइ पासइ, अत्थेगइए जाणइ णपासइ, अत्येगइए जाणइ पासइ, अत्थेगइए जाणइ णपासइ ॥ १३ ॥ आहोहिएणं मणुस्से परमाणु जहा छउमत्थे, एवं आहोहिएवि जाव अणंत नमस्कार कर ऐसा बोले अहो भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य क्या परमाणु पुटूल जानते देखते हैं ? अथवा जानते नहीं देखते नहीं हैं ? अहो गौतम ! कितनेक जानते हैं देखते हैं और कितनेक नहीं जानते हैं नहीं देखते हैं ॥१२॥ अहो भगवन् ! क्या छमस्थ द्विपदेशिक स्कंध जाने देखे! अहो गौतम ! वैसे ही जानना. ऐसे असंख्यात प्रदेशी स्कंध का कहना. अहो भगवन् ! छमस्थ मनुष्य क्या अनंत प्रदेशी स्कंध जाने देखे ? अहो गौतम ! कितनेक आने देखे और कितनेक जाने परंतु देखे नहीं, कितनेक जाने नहीं परं खे, कितनेक जाने नहीं व देखे नहीं ऐसे चार भांगे होवे. ॥१३॥ अल्प अवधि ज्ञानी, मनुष्य wwwmummm प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ क्या Page #2393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६३ पंचमांगविवार पण्णति (भगवती) सूत्र 4287 पदेसियं ॥३४॥परमाहोहिएणं भंते ! मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणइ त समयं पासइ, जं समयं पासइ तं समयं जाणइ ? णो इणटे समटे ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ परमाहोहिएणं मणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणइ को तं समय पासइ, जं समयं पासइ णो त समयं जाणइ ? गोयमा ! सागारेसे गाणे भवइ, अणागारेसे दसणे भवइ से तेणटेणं जाक णो तं समयं जाणइ, एवं जाव अणंत पएसियं ॥ १५ ॥ केवलीणं भंते ! मणूसे जहा परमाहोहिए तहा केवलीवि, जाव अणंतपएसियं ॥ सवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठारसम्मस्स अट्ठमो उद्देसो ॥ १८ ॥ ८ ॥ परमाण पुद्गल जाने देखे?अहो गौतम! जैसे व्यस्थका कह्म वैसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना॥१४॥ अहो भगवन् ! परम अवधिज्ञान वाला मनुष्य परमाणु पुद्गल को जिस समय जानते हैं उस ही समय क्या देखते हैं, जिस समय देखते है उस ही समय क्या जानते हैं? अहो गौतमः यह अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवर किस कारन से यह अर्थ योग्य नहीं है?अहो गौतमज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार है इस से जिस समय में में जाने उस समय में देखे नहीं और जिस समय में देख उस समय में जाने नहीं ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध तक 4 करना.॥१५॥अहो भगवन्! केवली मनुष्य वगैरह जैसे परम अवधिज्ञानीका कहा वैसे ही केवली का कहना यावत् र नंत प्रदेशिक. अहोभगवन्! आपके वचन सत्यहँ यह अठारहवा शतकका आठवा उद्देशा संपूर्ण ॥२०॥ 18+ अठारहवा शतक का आठवा उद्देशा 40 भावाथ 8 Page #2394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ | 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + रायगिहे जाव एवं वयासी अस्थिणं भंते! भवियदव्व णेरड्या ? भत्रिय दव्यणेरड्या हंता अत्थि ॥ से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ भविय दव्वणेरड्या ? भविय दव - रइया गोयमा ! जे भचिए पंचिदिय तिरिक्ख जोणिएवा मणुस्सेवा पेस्इएस उववजित्तए से तेणट्टेर्णं ॥ एवं जाव थणियकुमारा ॥ अत्थिणं भंते ! भविय दव्व पुढीकाइया ? भवियदव्य पुढवी काइया ! हंता अत्थि ॥ से केणटुणं भंते ?. गोयमा ! जे भविए तिरिक्ख जोणिएवा मणुस्लेवा देवेवा पुढवकाइएस उववज्जि - तर सेतेणट्टेणं ॥ आउकायवणस्सइकाइयाणं एवंचेत्र, तेऊबाऊवेइंदियतेइंदिय ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी आठवे उद्देशे के अंत में केवली का कथन किया वे द्रव्यसिद्ध होने से आगे भविद्रव्य का अधिकार) कहते हैं. राजगृह नगर के गुण शील उद्यान में याक्त् ऐसा बोले कि अहो भगवान! क्या भविद्रव्य नारकी हैं? हा गौतम ! भविद्रव्य नारकी हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से भविद्रव्य नारकी हैं ? अहो गौतम ! जो पंचेन्द्रिय तिर्यच व मनुष्य में नरक आयुष्य बाँधकर बैठे हैं. और नरक में उत्पन्न होने योग्य हैं वे भविद्रव्य नारकी कहाते हैं. ऐसे ही स्थानित कुमारतक कहना. अहो भगवन् ! भविद्रव्य पृथ्वी काया क्या ? डां गौतम ! भविद्रव्य पृथ्वी काया है. अहो भगवन् ! किस कारन से भविद्रव्य पृथ्वी काया हैं ? अहो २३६४ Page #2395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 8- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र चउरिदियाणय जे भविए तिरिक्खजोणिएवा मणुस्सेवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए णेरइएवा तिरिक्खजोणिएवा मणुस्सेवा देवेवा पचिंदियतिरिक्ख जोणिएसु उववजित्तए एवं मणुस्साधि । वाणमंतर जोइसिय वेमाणियाणं जहा २३६५ णेरइयाणं ॥१॥ भवियदव्वणेग्इयस्सणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहतं उक्कोसेणं पुवकोडी ॥ २ ॥ भवियदव्व असुरकुमारस्सणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं गौतम ! जो तिर्यंच, मनुष्य व देव में पृथ्वीकाया का आयुष्य बांधकर रहे हैं और पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य हैं वे भविद्रव्य पृथ्वी काया हैं. ऐसे ही भविद्रव्य अप्काया व वनस्पति काया का जानना. तेउकाय, वायुकाय, बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच व मनुष्य में से आते हैं... तिर्यंच पंचेन्द्रिय भविद्रव्य नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देव में से होते हैं. ऐसे ही मनुष्य का जानना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना. ॥ १॥ अहो भगवन् ! भविद्रव्य नारकी की स्थिति कितनी कही? अहो गौतम ! भविद्रव्म नारकी की जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड की ॥२॥ अहो भगवन् ! भविद्रव्य असुर कुमार की स्थिति कितने काल की कही ? अहो गौतम ! जघन्य अंत भावार्थ अठारहवा शतक का नववा उद्देशा Page Page #2396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३६६ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तिणिपलिओवमाइं, एवं जाव थाणयकुमारस्स ॥ ३ ॥ भवियदव्यपुढवी काइयस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं सातिरेगाइं दो सागरोबमाई ॥ एवं आउकाइयस्सवि तेऊवाऊ जहा णेरइयरस ॥ वणस्सइ काइयस्स जहा पुढवीकाइयरस ॥ बेइंदियतेइंदियचउरिदियस्स जहा गैरइयस्स ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं ॥ एवं मणुस्सावि ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठारसमस्स सयरसय नवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ ९ ॥ मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपप की. ऐसे ही स्तनित कुमार का जानना. ॥ ३ ॥ भविद्रव्य पृथ्वी काया की जघन्य अंत मुहूर्त उत्कृष्ट साधिक दो सागरोपम की, ऐसे दी अप्काया व वनस्पतिकाय के भविद्रव्य की जानना. तेउवायु की नारकी जैसे कहना. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का नारकी जैसे कहना. पंचेंद्रिय तिर्यचकी जघन्य अंत मुहूर्त उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम. ऐसे ही मनुष्य की. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक की असुरकुमार जैसे कहना. अहो भागवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह अठारहवा शतक का नववा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १८ ॥९॥ * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ 1 Page #2397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६७ रायगिहे जाव एवं क्यासी अणगारेणं भंते ! भावियप्पा असिधारंवा खुरधारवा ओगाहेजा ? हंता ओगाहेजा ॥ सेणं तत्थ छिज्जेजवा भिज्जेजवा ? णो इणटे सम? णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, एवं जहा पंचमसए परमाणु पोग्गले वत्तव्वया जाव.. अणगारेणं भंते ! भावियप्पा उदावत्तंवा जान णो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ १ ॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते! वाउयाएणं फुडे बाउयाएवा परमाणुपोग्गलेणं फुडे? गोयमा! परमाणुपोग्गले वाउयाएणं फुडे णो वाउयाए पोग्गलेणं फुडे । दुपदेसिएणं भंते! नववे उद्देशे में भवि द्रव्य का कथन किया. अब भविद्रव्य अनगार का कथन करते हैं. राजगृह । नगर में यावत् गौतम स्वामी ऐसा बोले अहो भगवन् ! भावितात्मा अनगार असिधारा अथवा क्षुरधारा में को क्या अवगाहे अर्थात् उस पर क्या चल सके ? हां गौतम ! खगधारा या क्षुरधारा पर चल सके. . वे क्या वहां छेदावे भेदावे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. उन को शस्त्र नहीं अतिक्रमता क्यों कि वैकेयलब्धि से चलते हैं. ऐसे ही सब पांचवे शतक में परमाणु पुद्गल की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां कहना यावत् भावितात्मा अनगार पानी से आवते यावत् वहां भी शस्त्र अतिक्रमें नहीं. ॥ १॥ अहो । 17 भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या वायुकाया से स्पर्श अथवा वायुकाया परमाणु पुद्गल से स्पर्श ? अहो । अठारहवा शतक का दशवा उद्दशा थावा 48+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भग Page #2398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६८ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ खंधे वाउयाएणं एवं चेव एवं जाव असंखेज पएसिए ॥अणंत पएसिएणं भंते ! खंधे वाउयाए पुच्छा ? गोयमा ! अणंत पएसिएखंधे वाउयाएणं फुडे वाउयाए अणंत पएसिएणं खंधेणं सिय फुडे सिय णो फुडे ॥ २ ॥ बत्थीणं भंते ! वाउयाएणं फुडे वाउयाए वत्थिणा फुड़े ? गोयमा ! वत्थी वाउयाएणं फुडे णो वाउयाए वत्थिणा फुडे ॥ १३ ॥ अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दव्वाइं वण्णओ काल णीललोहिय हालिद्द सुकिलाई गंधओ सुब्भिगंधाइ दुब्भिगंधाइं, रसओ तित्त कडुय गौतम ! परमाणु पुद्गल वायुकाया को स्पर्श अर्थात् वायुकाया में परमाणु पुद्गल का समावेश होवे परंतु युकाया परमाणु को स्पर्श नहीं अर्थात् वायुकाया परमाणु में समावेश होवे नहीं. ऐसे ही द्विपदेशिक स्कंध यावत् असंख्यात प्रदेशिक स्कंध का जानना. अनंत प्रदेशिक स्कंध की पृच्छा ? अनंन प्रदेशिक स्कंध वायुकाया से स्पर्शाया हुवा है और वायुकाया अनंत प्रदेशिक स्कंध से क्वचित् स्पर्शी हुई है काचित् नहीं स्पर्शी हुई है ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! मशक को वायुकाया स्पर्शी हुई है अथवा वायुकायको मशक स्पर्शी हुई है ? अहो गौतम ! वायुकाय से मशक स्पर्शी हुई है परंतु वायुकाय मशक से नहीं | स्पर्शा हुवा है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी की नीचे वर्ण से काले, हरे, पीले, लाल, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भाव 4. अनुवादक-बालब्रह्म Page #2399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायअंबिलमहुराई, फासओ कक्खड मउय गुरुय लहुय सीय उसिण गिद्ध लुक्खाई, अण्णमण्ण बद्धाइं अण्णमण्ण पुट्ठाई जाव अण्णमण्ण घडत्ताए चिटुंति ? । हंता अत्थि ॥ एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ अत्थिणं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे, एवं चेव ॥ एवं जाव ईसिप्पभाराए पुढवीए ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥४॥ तएणं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ * ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णयरे होत्था, वण्णओ, तत्थणं वाणियगामे णयरे सोमिले णामं माहणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए, रिउव्वेय जाव सुपरिणिट्ठिए पंचण्हं भावार्थ : श्वेत, गंध से सुरभिगंधवाले व दुरभिगंधवाले रस से तिक्त कटुक, कषायले, अम्बट व मधुर रसवाले; स्पर्श से | कर्कश, मृदु, गुरु लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध व रूक्ष स्पर्शवाले द्रव्य परस्पर बंधे हुव, परस्पर स्पर्श हुवे यावत् परस्पर मीले हुवे क्या रहते हैं ? हां गोतम ! रहते हैं. ऐसे ही नीचे की सातवी पृथ्वी तक कहना. सौधर्म - देवलोक यावत् ईषत्पागभार पृथ्वी का भी ऐसे ही जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर विचरने लगे ॥४॥ फीर श्रमण भगवंत महावीर बाहिर विचरने लगे. उस काल उस समय में बाणिज्य ग्राम नाम का नगर था.. उस वाणिज्य ग्राम नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् । REA पंचांग विवाहण्णत्ति ( भगवती) पत्र 8%80 Annawwanmaw 488- अठारहवा शतक का दशना उद्देशान Page #2400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी खंडियसयाणं सयस्स कुटुंबस्स आहेवच्चं जाव विहरइ ॥ ५ ॥ तएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ ६ ॥ तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था, एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुत्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइजमाणे सुहंसुहेणं जाव इह मागए जाव दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ, तंगच्छामिणं समणस्स णायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाई चणं एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरेत्ताई पुच्छिरसामि, तं जइमे से इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरेहिति तोणं बंदिहामि अपराभूत ऋग्वेद, यजुर्वेद यावत् ब्राह्मण शास्त्रों में सुपरिनिष्ठित था. वह पांच सो शिष्यों व अपने कुटुम्ब का आधिपतिपना करता हुवा विचरता था ॥ ५॥ तब श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् पधारे यावत् । परिषदा पर्युपासना करने लगी ॥ ६ ॥ जब सोमिल ब्राह्मणने यह कथा सुनी तब उस'को ऐसा अध्यक साय हुवा कि श्री श्रमण ज्ञात पुत्र ग्रामानुग्राम चलते सुख पूर्वक विचरते यावत् यहां आये हैं यावत् दूतिपलास "उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह याचकर विचरते हैं, इस से मैं उनकी पास जाऊं और इन अर्थों यावत् प्रश्नों को पूछ. यदि मेरे प्रश्नोंके उत्तर देंगे तो मैं उन को बंदना नमस्कार यावत पर्यपासना करूंमा यदि * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र णमंसिहामि जाब पज्जुवासामि; अहमे से इमाई अट्ठाई जाव वागरणाई णोवागरि - हिति तोणं एएहिं चेत्र अट्ठेहिय जाव वागरणेहिय निष्पटुपसिणवागरणं करेस्सामि त्तिकद्दु, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता हाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता पायविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिवुडे, वाणियगामं णयरं मज्झमज्झणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव दूइपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी - जत्ता ते भंते ! मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं देंगे तो मैं उन को प्रश्न के उत्तर में अशक्त करूंगा ऐसा विचार करके स्नान किया यावत् अलंकृत शरीरवाला हुवा और अपने गृह से नीकलकर पांव से चलते हुए एक सो शिष्यों के (परिवार से वाणिज्य ग्राम नगर की मध्य बीच में होते हुवे दूतिपलाश उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर (स्वामी की पास आया और पास खड़ा रहकर ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! क्या तुम को ११ यात्रा है २ यज्ञ है ३ अव्याबाध है और फ्रासुक विहार है ? भगवन्तने उत्तर दिया कि अहो सोमिल! | हम को यात्रा है, यज्ञ भी है, अव्याबाध भी है और फ्रासुक बिहार भी है || ७|| तब सोमिलने पुनः प्रश्न किया अठारहवा शतक का दसवा उद्देशा ++ २३७१ Page #2402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmam २ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जवणिजं अब्बावाहं फासुयविहारं ? सोमिला! जत्ताविमे. जवणिजंपि मे, . अव्वाबाहंपि मे, फासुयविहारंपि मे ॥ ७ ॥ किं ते भंते ! जत्ता ? सोमिला ! जं मे तव णियम-संजय-सज्झाय-झाण-आवस्सगमाीदएसु जोगेसु जयणा सेतं जत्ता ॥ २३७२ किं ते भंते ! जवणिज? सोमिला ! जवणिजे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-इंदिय जवणिजेय जोइंदिय जवणिज्जेय ॥ से किंतं इंदियजवणिजे ? इंदिय जवणिज्जे-जेइमे सोइंदिय चक्खिदिय घाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई-णिरूवहयाइं वासेवटंति, सेतं इंदियजवणिजे॥ सेकिंतं णोइंदिय जवणिजे ? णोइंदिय जवणिजे जं मे कोह-माण-माया-लोभा-वोच्छिण्णा कि अहो भगवन् ! तुम को यात्रा कौनसी है ? अहो सोमिल ! बारह भेद से तप, तद्विषय अभिग्रह सो नियम, सतरह भेद से संयम, स्वाध्याय, वैय्यावृत्यादि, छ आवश्यक, सामायिकादिक योग में प्रवृत्ति । करना सो यात्रा है. अहो भगवन् ! तुमारे मत में यापनीय (यज्ञ) किसे कहते हैं? अहो सोमिल! यापनीय के भेद कहे हैं इन्द्रिय यापनीय व नोइन्द्रिय [मन ] यापनीय. इन्द्रिय यापनीय किसे कहते हैं ? श्रोत्र/न्द्रिय, चाइन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय में उपघात रहित अपने वश में रखे उसे इन्द्रिय यापनीय कहते हैं. नोइन्द्रिय यापनीय उसे कहते हैं कि जो क्रोध, मान, माया व लोभ इन का मूल । * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ | Page #2403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 २३७३ 'णो उदीरेंति सेतंणो इंदिय जवणिज्जे। सेतं जवाणिजे।।से किंते भंते! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं मे वातिय पितिय संभिय सण्णिवाइय विविहरोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता णो उदीरेंति, सेतं अव्वाबाहं ॥ किंते भंते ! फासुयविहारं ? सोमिला ! ज णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु इत्थीपसुपंडगवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिजं पीढ फलग सेजा संथारगं उवसंपजित्ताणं विहरामि, सेतं फासुयविहारं ॥ ८ ॥ सरिसवा ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? सोमिला ! सरिसवा भक्खेयावि अभक्खेयावि॥ भावार्थ सहित नाश करना. पुनः उदय भाव को प्राप्त न होना वह नोइन्द्रिय यापनीय कहा है. अहो भगवन् अव्यावाध किसे कहते हैं ? अहो सामिल ! वात, पीत, कफ, सन्निपात वगैरह शरीर में विविध रोगों रहे हुवे है उन का उपशांत होना और उदीरणा नहीं होना सो अव्यायाध. अहो भगवन् ! फ्रामुकविहार किसे कहते हैं ? अहो सोमिल ! जो आराम उद्यान देवालय, सभा, पर्वत, वगैरह में स्त्री पशू पंडग रहित वसति में फ्रासुक एषणिक पीठ, वाजोट, पटिया, * शैय्या व संथारा प्राप्त कर के विचरते हैं वह फ्रामुक विहार है. ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! आप के मत 12 में सरिसन भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? अहो सोमिल ! हमारे मत में सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य ।। पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 438 maramananmaanmmmmmmmmanamanuman अठारहवा शतक का दसवा उद्देशा 9882 Page #2404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र 24 २३७४ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र' Part सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसबा भक्खेयावि अभक्खेयावि ? से गूणं ते सोमिला ! बंभण्णएमु दुविहा सरिसवा पण्णत्ता, तंजहा मित्तसरिसवाय, धण्णसरिसवाय, तत्थणं जेते मित्त सरिसवा ते तिविहा पण्णत्ता तंजहा-सहजायया सहवाट्ठिया, सहपंसुकीलिया, तेणं समणाणं णिग्गथाणं अभक्खेया ॥ तत्थणं जे ते धण्णसरिसवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सत्थपरिणयाय, असत्थपरिणयाय; तत्थणं जेते असत्थपरिणया तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खया, तत्थणं जे ते सत्थपरि णया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एसाणजाय अणेसणिज्जाय ॥ तत्थणं जे ते अणे भी है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि मरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? Hो सोमिल ? ब्राह्मणों के शास्त्रों में सरिसव के दो भेद कहे हैं. १ मित्र सरिसव और २ धान्य सरिसव. = उन में मित्र सरिसव के तीन भेद किये हैं ? साथमें जन्मे हुवे, २साथ ही वृद्धि पाये हुव, और ३वाल्यावस्था में साथ ही क्रीडा किये हुए. यह मित्र सरिसव श्रमण निर्ग्रन्थोंको अभक्ष्य है. अब जो धान्य सरिसव है उस के दो भेद कहे हैं. शस्त्र परिणत व शस्त्र परिणत नहीं. उस में जो शस्त्र परिणत नहीं है वह श्रमण निग्रंथों को अभक्ष्य है, और जो शस्त्र परिणत है उस के दो भेद एषणिक व अनेषणिकः उस में से अनेषणिक श्रमण ७. प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 4.28 Page #2405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 4. अनुवादक-वालनागरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2.5 सणिज्जा तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया ॥ तत्थणं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जातियाय अजातियाय ॥ तत्थणं जे ते अजाइया तेणं समणाणं णिग्गथाणं अभक्खेया ॥ तत्थणं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-लहाय अलद्वाय. तत्थणं जे ते अलद्धा तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खया, तत्थणं जे ते लद्धा तेणं समणाणं णिगंथाणं भक्खेया, से तेण?णं सोमिला ! एवं वुच्चइ जाव अभक्खयावि ॥ ९॥ मासा ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? सोमिला ! मासा मे भक्खेयावि अभक्खेयावि, से केणटेणं भंते ! जाव अभक्खेयावि ? से यों को असक्ष्य है और एषणिक के दो भेद याचकरलेना व विना याचेलेना. उस में विना हुवा श्रमण निर्गन्यों को अभक्ष्य है और याचकर लेना जिम के दो भेद प्राप्त और अप्राप्त. उस में जो प्राप्त नहीं हुआ है वह श्रमण निग्रन्थों को अभक्ष्य है और जो प्राप्त हुआ है वह श्रमण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य है. अहो सोमिल ! इस कारन से ऐसा कहा गया है कि सरिसब भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है. ॥१॥ पुनः सोमिलने प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! आप के मत में क्या मास भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? अहो सोमिल ! हमारे मत में मास भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी अठारहवा शतक का दशवा उद्दशा भावार्थ 88. । Page #2406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी णणं ते सोमिला ! बंभण्णएसु दुविहा मासा पण्णत्ता, तंजहा-दव्वमासाय कालमासाय ।। तत्थणं जे ते कालमासा तेणं सावणादीया आसाढ पज्जवसाणा दुवालस पण्णत्ता तंजहा-सावणे, भद्दवए, आसोए, कत्तिए, मग्गसिरे, पोसे, माहे, फागुणे, चेते, वइसाहे, जेट्ठामूले, आसाढे, तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खया, तत्थणं जे ते दवमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- अत्थमासाय धण्णमासाय ॥ तत्थणं जे ते अत्थमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुवण्णमासाय, रुप्पमासाय, तेणं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खया; तत्थणं जे ते धण्णमासा ते दुविहा षण्णत्ता, तंजहा सत्थकिस कारन से भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? अहो सोमिल ! ब्राह्मण शास्त्र से मास के दो भेद किये हैं ! १ द्रव्य मास और २ काल मास. उन में जो काल मास है वे श्रावण से आषाढ पर्यंत बारह जिन के नाम. १ श्रावण २ भाद्रपद ३ आसोज ४ कार्तिक ५ मृगशर ६ पोष ७ माघ ८ फाल्गुन ९ चैत्र १० वैशाख ११ ज्येष्ट मूल और १२आषाढ. उक्त बारह मास श्रमण निग्रथों को अभक्ष्य हैं अब जो द्रव्य माम है उस के दो भेद कहे हैं. १ अर्थ (धन) मास और २ धान्य मास: अर्थ मास के दो भेद सोने का मासा और रुपे का मासा. ये भी श्रमण निर्ग्रन्थों को अभक्ष्य हैं. अब धान्य मास जो है उन * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Annnnnnn. Page #2407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. KAAWAJanammananamannaam ~ . पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4. परिणयाय असत्थपरिणयाय, एवं जहा धण्णसरिसवा जाव से तेणट्रेणं जाव अभक्खे यावि ॥ १०॥ कुलत्था ते भंते ! भक्खेया अभक्खया ? सोमिला ! कलत्था मे भक्खेयावि अभक्खयावि ॥ सेकेण?णं जाव अभक्खेयावि? सेणूणं ते सोमिला! बंभण्णएसु दुविहे कुलत्था पण्णत्ता, तंजहा-इत्थिकुलस्थाय, धण्णकुलत्थाय ॥ तत्थणं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा षण्णत्ता तंजहा कुलकणियाइवा, कुलमाउयाइवा, कुलधूयाइवा ॥ ते समणाणं णिम्गथाणं अभक्खेया ॥तत्थणं जे ते धण्णकुलत्था एवं जहा धण्ण सरिसवा । से तेणटेणं जाव अभक्खेयावि ॥१०॥ एगं भवं, दुवेभवं अक्खए भवं, के दो भेद शस्त्र परिणत व शस्त्र परिणत रहित वगैरे जैसे सरिसव का कहा वैसे ही जानना. यारस् इसी से यावत् अभक्ष्य है ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! कुलत्थ क्या भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? अहो सोमिल ! कुलत्थ भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है. अहो भगवन् ! किस कारन से कुलत्थ भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? अहो मोमिल ! ब्राह्मण शास्त्र से कुलत्थ के दो भेद किये हैं. १ स्त्री कुलत्थ व २ धान्य कुलत्य; उन में स्त्री कुलत्थ के तीन भेद कहे हैं १ कुल की कन्या २ कुल की माता ३ कुल की वधू. ये श्रमण निर्गन्थों को अभक्ष्य हैं. और जो धान्य कुलत्थ है उसका धान्य सरिसब जैसे कहना. इसलिये ऐसा कहा गया अठारहवा शतक का दशवा उद्देशा भावार्थ 4 Page #2408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वएभवं, अवट्ठिएभवं, अणेगभूय भाव भविए भवं ? सोमिला ! एगेवि अहं जाव अणेग भूय भाव भविएवि अहं ॥ से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव भविएवि अहं ? सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, णाणट्ठयाए दंसणट्ठयाए दुवेवि अहं, पदेसट्टयाए अक्खएवि अहं, अवाट्ठिएवि अहं, उवयोगट्ठयाए अणेग भूय भाव भविएवि अहं, से तेणटेणं जाव भविएवि अहं ॥ ११ ॥ एत्थणं से सोमिले माहणे Ammmmmmmmmmmmmmmm | २३७८ भावार्थ 402 अनुबादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी है यावत् अभक्ष्य है. ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या तुम एक हो, दोहो, अक्षयहो, अव्ययहो, अवस्थितहो या अनेक भूत भाव से भावितहो ? अहो सोमिल ! मैं एक भी हूं यावत् अनेक भूत भाव से भावित हूं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि तुम एक हो यावत् अनेक भाव से भावित हो ? अहो सोमिल ! द्रव्य से मैं एक हूं. ज्ञान व दर्शन से दो हूं, प्रदेश से मैं अक्षय हूं थवस्थित हूं और उपयोग से अनेक भूत भावित हूं. अहो सोमिल ! इस लिये ऐसा कहा गया है यावत् अनेक भावों से भाबित हूं ॥१.१॥ यहां सोमिल ब्राह्मण को सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति हुई-प्रतिबोध पाया॥१२॥ फीर स्कंधक सन्यासी जैसे श्रमण भगवंत महावीर को कहा जैसे तुम कहते हो वैसे ही है ऐसा कहकर आपकी पास इत ईश्वर वगैरह जैसा रायप्रश्नीय में चित्रने कहा यावत् बारह प्रकार के श्रावक व्रत अंगीकार कर श्रमण भगवंत * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 |२३७९ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4343 anwarwarwwwwwwwww संबछे ॥ १२॥ तएणं से समणे भगवं महावीरे जहा खंदओ जाव से जडेयं तुब्भे वदह जहाणं देवाणुप्पियाणं अंतियं बहवे ईसर एवं जहा रायप्पसेणइजे चित्तो जाव दवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जइत्ता समणं भगवं महावीरं बंदह णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता जाव पडिगए ॥ १३ ॥ तएणं से सोमिले माहणे समणोवासए जाए अभिगय जाव विहरइ ॥ १४ ॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता एवं. वयासी-पभणं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाणं अंते मुंडे भवित्ता जहेव संखे तहेव गिरवसेसं जाव अंतं काहिति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति, जाव विहरइ ॥ अट्ठारसमस सयरसय दसमो उद्देसो ॥ १८ ॥ १०॥ सम्मत्तं अट्ठारसमं सयं ॥ १८ ॥ महावीर को वंदना नमस्कार कर यावत् पीछा गया ॥ १२॥ फीर वह सोमिल ब्राह्मण जीवाजीव का स्वरूप जानता हुवा श्रमणोपासक बनकर यावत् विचरने लगा ॥१३॥ अव भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा बोले कि अहो भगवन् ! क्या सोमिल ब्राह्मण आप की पास मुंडित होकर यावत् शंख जैसे सब निरवशेष कहना यावत् अंत करेंगे. अहो भगवन् आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर गौतम स्वामी विचरने लगे. यह अठारहवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥१८॥१०॥ यह अठारहवा शतक समाप्त हुवा ॥१८॥ अठारहवा शतक का दशवा उद्देशा wwwwwwww । o 4 Page #2410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी ॥ एकोनविंश शतकम् ॥ लेस्साय गब्भ पुढवी, महासवा चरम दीव भवणाय ॥ णिव्वत्ति करण वनचर सुराय एगूणवीसइमे ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा एवं जहा पण्णवणाए चउत्थो लेस्सुद्देसओ भाणियव्वो गिरवसेसो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगूणवीसइमस्सय पढमों उद्देसो सम्मत्तो ॥ १५ ॥ १ ॥ (०) (०) अठारहवे शतक के अंत में प्रश्नोत्तर कहे, वे लेश्या की विशुद्धि से होते हैं; इसलिये उन्नीसवे शतक में प्रथम लेश्या का स्वरूप कहते हैं. इस शतक में दश उद्देशे कहे हैं जिन के नाम. १ लेश्या का, २ गर्भ का ३ पृथ्वी का ४ महा आश्रय व महा क्रिया कार चरम का ६ द्विप का ७ भवन का निर्वृत्ति का ९ करण का और१० वनचरसुर का ॥ * ॥ राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर को बंदना नमस्कार कर ऐसा बोले अहो भगवन् ! लेश्याओं कितनी कही? अहो गौतम ! छ लेश्याओं कही. विगैरह जैसे पनवणा का चतुर्थ लेश्या उद्देशा कहना. तैसे यहां भी कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन *मत्य हैं. यह उन्नीसवे शतक का प्रथम उद्देशा समाप्त हुवा ॥ १९ ॥१॥ *प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ Page #2411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कइणं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ? एवं जहा पण्णत्रणाए गब्भ मुद्देस्सो चेव णिरवसेसो भाणियव्वो॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगूणवीस इमस्सय वितिओ उद्देसो ॥ १९ ॥ २॥ रायगिहे जाब एवं वयासी - सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढवीकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, एग २ तओ पंच्छा आहारेंतिवा परिणार्मेतिवा. सरीरंवा बंध तिवा ? णो इट्टे समट्ठे ॥ पुढवीकाइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेय परिणामा पत्तेयं प्रथम उद्देशे में लेश्या का कथन किया. सलेशी गर्भ में उत्पन्न होते हैं. इसलिये गर्भ का प्रश्न पूछते हैं. अहो' भगवन् ! लेश्याओं कितनी कही ! अहो गौतम ! लेश्याओं छ कहीं वगैरह जैसे पन्नवणा शतक में गर्भ उद्देशा कहा वह यहां निरवशेष कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा ( शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ २ ॥ ० ० दूसरे उद्देशेमें गर्भकी लेश्या का कथन किया है. तीसरे उद्देशेमें उत्पन्न होनेका कथन करते हैं. इस उद्देशे की संग्रह गाथा से द्वार के नाम कहते हैं. १ सिय २ लेस्सा ३ दृष्टि ४ ज्ञान ५ जोग ६ उपयोग ७ आहार ८ प्राणातिपात ९ उत्पात १० स्थिति ११ समुद्धात १२ उव्वति इन बारह द्वार का आगे { विस्तार से वर्णन करते हैं ॥ राजगृह नगर में यावत् ऐसे बोले अहो भगवन् ! चार अथवा पांच पृथ्वीकायिक एकत्रित होकर बहुत जीवों का साधारण शरीर बांधे फीर क्या वे अहार करे, परिणमावे अथवा शरीर बांधे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है, क्यों कि पृथ्वी 4- उन्नीसना शतक का तीसरा उद्देशा 498 २३८१ Page #2412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सरीरं बंधंति २ ता, तओ पच्छा आहारैतिवा परिणामेतिवा सरीरंवा बंधति ॥॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा !. चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा-कण्ह णील काउ तेउ॥२॥तेणं भंते! जीवा किं सम्मट्टिी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छट्ठिी ? गोयमा! मिच्छट्ठिी णो सम्मट्टिी णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी ॥ ३ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णो णाणी अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी तंजहा-मइअण्णाणी सुअण्णाणीय ॥ ४ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं मणकायिक प्रत्येक अहारवाले व प्रत्येक परिणामवाले हैं इस से प्रत्येक शरीर बांधते हैं. प्रत्येक शरीर बांधकर आहार करते हैं परिणमाते हैं और शरीर बांधते हैं ॥ १ ॥ अब दूसरा लेश्या द्वार कहते हैं:-अहो भगवन् ! उन जीवोंको कितनी लेश्याओं कही ? अहो गौतम चार लेश्याओं कहीं. तद्यथा १ कृष्ण २ नील १३ कापोत और ४ तेजो ॥२॥ तीसरा दृष्टिद्वार कहते हैं:--अहो भगवन् ! वे जीवों क्या समदृष्टिवाले हैं, मिथ्यादृष्टिवाले हैं अथवा सममिथ्यादृष्टिवाले हैं ? अहो गौतम ! मिथ्यादृष्टिवाले हैं परंतु समदृष्टि व सममिथ्यादृष्टिवाले नहीं हैं ॥३॥ अहो भगवन ! क्या वे ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं. अहो गौतम : ज्ञानी नहीं हैं परंतु अज्ञानी हैं. और मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान ऐसे दो अज्ञान पाते हैं ॥ ४॥ अहो भगवन् ! *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : जोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! पो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी ॥ ५ ॥ तेणं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि ॥ ६ ॥ तेणं भंते ! जीवा किंमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओणं अणंत पदेसियाइं दव्वाइं एवं जहा . पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेति ॥ तेणं भंते ! जीवा जमाहारेंति तंचिजं २३८३ भावार्थ 882 उन्निसवा शतक का तीसरा उद्देशा 48 पंचमांम विवाह पस्णत्ति ( भगवती ) मूत्र क्या वे जीवों मनयोगी. वचन योगी व काया योगी हैं ? अहो गौतम ! मनयोगी नहीं है वचन योगी । नहीं है परंतु काया योगी हैं ॥५॥ अहो भगवन् ! क्या वे साकारोपयोगयुक्त हैं या अनाकारोपयोगयुक्त हैं? अहो गौतम ! साकारोपयोगयुक्त व अनाकारोपयोगयुक्त हैं ॥ ६॥ अहो भगवन् ! वे जीव किस का आहार करते हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य से अनंत प्रदेशिक द्रव्य के स्कन्ध का ऐसे ही जैसे पनवणा के पाहिले आहार उद्देशे में कहा वैसे ही यहां जानना. यावत् सब प्रकार से आहार करे. अहो भगवन् ! वे जीवों जिस का आहार करते हैं वह इन्द्रिय शरीरपने परिणमता है और जिस का आहार नहीं करते हैं वह इन्द्रिय शरीरपने नहीं परिणमता है और जो परिणमे हुवे पुद्गलों हैं वे क्या मल की तरह विनाश पाते हैं ? हां, गौतम ! वे जीवों जिस का आहार करते हैं. वह इन्द्रिय शरीरपने परिणमता है, जिस का आहार नहीं । : Page #2414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ति, जं णो आहारैति तं णो चिजंति चिण्णेवासे उद्दाइ वलिसप्पतिवा ? हंता गोयमा ! तेणं जीवा जमाहारेंति जं नो जाव बलिसप्पतिवा ॥ तेसिणं भंते जीवाणं एवं सण्णातिवा पण्णातिवा मगोइवा, वईतिवा, अम्हेणं आहारमाहारेति ? णो इणट्ठे समट्ठे, आहारैति पुणते ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सण्णातिवा जाव वईतिवा अम्हेणं इट्ठाट्ठेि फासे पडिसंवेदेमो ? णो इणट्ठे समट्टे, पडिसंवेदेति तेनं भंते! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइजंति, मुसावाए, अदिण्णा दाणे जाव मिच्छादंसणसल्ले उवक्खा इज्जति ? गोयमा ! पणाइवाएवि उबक्खाइजंति जाव मिच्छा पुण ते ॥ ७ ॥ करते हैं वह शरीर इन्द्रियादिपने नहीं परिणमता है और परिणमा हुवा मल की तरह विनाशको प्राप्त होता { है. अहो भगवन् ! उन जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन व वचन क्या है कि जिससे हम आहार करते हैं. ( ऐसा जाने ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. मात्र वे आहार करते हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों को क्या ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन व वचन हैं कि जिस से वे जान सके कि हम इष्ट अनिष्ट स्पर्श वेदते { हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. वे मात्र बेदते हैं ॥ ७ ॥ अब आठवा प्राणातिपातद्वार कहते हैं: - अहो भगवन् ! उन जीवों को प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान यांवत् मिथ्या दर्शन शल्य * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी २३८४ Page #2415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८५ भावार्थ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) दसणसल्लेवि उवक्खाइजंति, जेसि पियणं जीवाणं ते जीवा एवं माहिति तेर्सि पियणं जीवाणं णो विण्णाएणाणत्ते ॥ ८ ॥ तेणं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजति ? किं णेरइएहिंतो उववज्जंति एवं जहा वकंतीए पुढवी काइयाणं उववाओ तहा भाणियव्वो ॥ ९॥ तेसिं पियणं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं बावीसं वास सहस्साई ॥ १० ॥ तोसणं भंते ! जीवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ का क्या पाप लगता है ? अहो गौतम ! वे प्राणातिपात करे, मृषावाद बोले, अदत्तादान ग्रहण करे यावत् मिथ्या दर्शन भी करे, जो जीवों पृथ्वी कायिक संबंधी घात करे वे जीवों भी वैसे ही कहाये जाते हैं. मात्र उन को ऐमा ज्ञान नहीं है कि इसने हम को मारा. यह हमारा घातक है|८|अब उत्पत्तिद्वार कहते हैं:-अहो भगवन् ! वे जीवों कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या नरक से मरकर उत्पन्न होते हैं. तिर्यंच से मनुष्य से या देव से ? अहो गौतम ! जैले पन्नवणा के छठे पद में पृथ्वी काया की उत्पत्ति की वक्तव्यता कही. वैसे ही यहां जानना ॥१॥ अब दशवा स्थितिद्वार. अहो भगवन् ! उन जीवों की कितनी स्थिति कही? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की ॥१०॥अग्यारहवा समुद्धात द्वार-अहो भग उन जीवों को कितनी समुद्धात कही ? अहो गौतम ! वेदनीय, कषाय व मारणांतिक ऐसी तीन समुद्धात उन्निसवा शतक का तीसरा उद्देशा ... Page #2416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा वेदणा समुग्धाए, कसाय समुग्धाए, मारणंतिय समुग्धाए ॥ णं भंते! जीवा मारणंतिय समुग्धाएणं किं सोहया मरंति असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहयाविमरंति, असमोहयावि मरति ॥ ११ ॥ तेणं भंते! जीवा अणंतरं उब्वहित्ता कहिं उववज्जति, एवं जहा उव्वट्टणा जहा वक्कंती ॥ १२ ॥ सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच आउकाइया एगयओ साहारणं सरीरं बंधति तओ पच्छा आहारए एवं जो पुढवी काइयाणं गमो सोचेत्र भाणियव्वो जाव उच्चहंति, णवरं ठिई सत्त वास सहरसाई, उक्कोसेणं सेसं तंत्र ॥ १३ ॥ सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउकाइया अहो भगवन् ! वे जीवों मरणांतिक समुद्धात से मरते हुए क्या समोहया मृत्यु से मरते हैं कि असमोहया { मृत्यु से मरते हैं ? अहो गौतम ! समोहया मृत्यु मरते हैं और असमोहया मृत्यु भी मरते हैं ॥। ११ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों वहांसे चवकर कहां उत्पन्न होते हैं ? ऐसे ही जैसे उद्वर्तनाद्वार कहा वैसे ही यहां भी कहना ॥ ११ ॥ ( यह पृथ्वी काया का कहा. अब अकायाका कहते हैं. अहो भगवन् ! क्वचित यावत् चार पांच अप्कायिक { जीवों एकत्रित होकर साधारण शरीरका क्या बंध करते हैं? पीछे क्या आहार करे? ऐसे ही जो पृथ्वीका या की वक्तव्यता कही वह सब यहां जानना. मात्र स्थितिमें उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्षकी कहना || १३|| अहो भगवन् ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २३८६ Page #2417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एवंचेव णवरं उववाओ ठिई उव्वदृणाय जहा पण्णवणाए सेसं तंचेव॥१५॥वाउकाइयाण एवं चेव, णाणत्तं णवरं चत्तारि समुग्घाया।।१५॥ सिय भंते! जाव चत्तारि पंववणस्सइ काइ. या पुच्छा? गोयमा! णो इणटे समटे॥अणंता वणस्सइकाइया एगयो साहारण सरीरं २३८७ बंधंति २त्ता तओ पच्छा आहारैतिवा परि २ सेसं जहा तेऊकाइयाणं जाव उव्वति, णवर आहारो शियमं छदिसिं, ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं .उक्कोसेणंवि अंतोमुहुत्तं, सेसं तंचेव ॥ १६ ॥ एएसिणं भंते ! पढवीकाइयाणं आऊतेऊ वाऊ वणस्सइ काइयाणं क्वचित यावत् चार पांच तेउकायिक एसे ही विशेष में उपपात, स्थिति व उद्वर्तन पन्नवणा मत्रमें से जानना. शेष पृथ्वी काया जैसे कहना,॥ १४ ॥ वायुकाया का भी तेउकाया जैसे विशेष में चार समुद्धात ॥ १५ ॥अहो है भगवन् ! क्वचित् यावत् चार पांच वनस्पति कायिक जीव एक शरीर के जीव में उत्पन्न होतेहैं क्या ? अहो । गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. क्यों कि अनंत वनस्पति कायिक जीवों एकत्रित होकर बादर निगोद के साधारण शरीर का बंध करते हैं. सब जीव साधारण शरीरपने एकत्रित परिणमाते हैं. शेष सब अधिकार उपजने पर्यंत तेजुकाया जैसे कहना. विशेषता इतनी की इन में छ दिशाओं का आहार करे. ॐ क्यों कि बादर होने से लोकान्त पर्यंत नहीं होती है. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की जानना ॥१६॥ 1- अब इन पृथ्वीकायिकादिक के अवगाहनादिक की अल्पाबहुत्व कहते हैं. अहो भगवन् ! इन पृथ्वीः । पंचमांगविवाह पण्णनि (भगवती) सूत्र उन्नीसवा शतक का भावार्थ दशा 488 Page #2418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सुहुमाणं बादराणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं जहण्णुकोसिया ओगाहणाए कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोत्रा सुहमणिगोयस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा, १ सुहुमवाऊकाविगरस अपजतगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा २ सुहुम तेऊअपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३, सुहुम आऊअपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४, सुहुमपुढवी अपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ५, वादरवाऊकाइयस्स अपजत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ६, वादरतेऊ. अपज्जत्तगस्स जहाणिया ओगा#काया, अप्काया, तेउकाया, वायुकाया व वनस्पति काया के सूक्ष्म बादर पर्याप्त व अपर्याप्त की जघन्य उत्कृष्ट अवगाहना में से कौन किम से यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से छोटी अपर्याप्ता, सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहना १, इस से सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी,३ इस से सूक्ष्म तेउकाया के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी,४ इस से स अप्काय के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी,५ इस से मूक्ष्म पृथ्वी काया के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, ६ इस से बादर वायुकाय के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात. 4काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावाथ Page #2419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48 हणा असंखेज्जगुणा ७, वादर आउ अपजतगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज' गुगा८, बादर पुढवी अपजत्तगस्त जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ९, पत्तेय सरीर बादरवणस्स काइयरस वादर निओयस्स एएसिणं अपजत्तगाणं जहणिया गाणा तुला असंखेजगुणा, १०, ११, सुहम निओयस्स पज्जत्तगस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा १२, तस्सेचेव अपजन्तगस्स उक्कोसिया ओगाहा विसेसाहिया १३, तस्स चेत्र पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १४, सुहुमत्राउकाइयस्स पजत्तगस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा १५, {गुनी, ७ इमसे बादर तेडकाया के अपर्याप्ताकी जघन्य अवगाहना असंख्यात मुनी, ८ इससे बादर अप्काया { के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, ९इस से बादर पृथ्वी काया के पर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, १०-११ इस से प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय व बादर निगोद इन दोनों के अपर्याप्ता की जघन्य अवगाहना परस्पर तुल्य व असंख्यात गुनी, १२ इस से सूक्ष्म निगोद के पर्याप्ता की { जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, १३ इस से उसही सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक १४ इस से उसही सूक्ष्म निगोद के पर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक १५ इस से सूक्ष्म वायु काया के पर्याप्ता की जघन्य अबमाइना असंख्यात गुनी, १६. इस से सूक्ष्म वायु 49* उन्नीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 48+ २३०९ Page #2420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww भावार्थ तस्सचेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया विसेसाहिया १६, तस्सचेव पजत्तगस्स उक्कोसिया - ओगाहणा विसेसाहिया १७, एवं सुहुमतेऊकाइयस्स विसे०. .१८, १९, २०, ... • एवं सुहम आउकाइयस्सवि २१, २२, २३, एवं सुहुम पुढवी काइयस्सवि२४, २५, २६, एवं बादर वाउकाइयस्सवि २७, २८, २९, एवं बादर तेऊकाइयस्सवि, ३०, ३१, ३२, एवं बादर आउकाइयस्सवि, ३३, ३४, ३५, एवं बादर पुढवीकाइयस्सवि, ३६, २७, ३८, सव्वसिं तिविहेणं गमेणं भाणियव्वं ॥ बादर काया के अपर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, १७ इस से सूक्ष्म वायुकाया के पर्याप्ताकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, १८ ऐसे ही सूक्ष्म तेउकाया के पर्याप्ताकी जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, १९ सूक्ष्म तेउकाया के अपर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक और २० सूक्ष्म तेउकाय के पर्याप्ता की उत्कृष्ट ना अवगाहना विशेषाधिक २१ इस से सूक्ष्म अप्काया के पर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी १२२ इस से सूक्ष्म अकाया के अपर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, २३ इस से सूक्ष्म अप्काया के पर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, ऐसे ही २४ इस से सूक्ष्म पृथ्वीकाया के पर्याप्ता की जघन्य अवगाहना असंख्यात गुनी, २५ इस मे सूक्ष्म पृथ्वीकाया के अपर्याप्ता की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, २६ इस से सूक्ष्म पृथ्वीकाया के पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक. ऐसे ही 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * - Page #2421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र +8+ निओयस्म पजत्तगरस अहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ३९ तस्सचेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४०, तस्सचेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया, ४१, पत्तेयसरीर वादरवणस्सइकाइयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४२, तस्सचेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेजगुणा ४३, तस्सचेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया असंखेजगुणा ४४, ॥ १७ ॥ एयस्सणं भंते ! पुढवीकाइयरस आंउकाइयस्स तेऊ-वाऊ-बाणस्सइ काइयरस कयरे काए सन्सुहुमे, B२७-२९ तीन बोल बादर वायुकायाका,३०-३२तीन बोल घादर ते उकाया,३३-३५ तीन बोल बादर अप्कायाका और ३६-३८ तीन बोल बादर पृथ्वीकायाका जानना. ३९ इससे बादर निगोद के पर्याप्ताकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुनी, ४० इससे बादरनिगोद के अपर्याप्ताकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक, ४१ इस से बादर निगोदई के पर्याप्ताकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक. ४२ इससे त्यके शरीरी बादर वनस्पति काय के पर्याप्ताकी जघन्य १ अवगाहना असंख्यातगुनी, ४३ इस से अपर्याप्ताकी उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुनी, ४४ इस से प्रत्येक शरीरी * बादर वनस्पतिकाया के पर्याप्ताकी उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुनी ॥१.॥ अहो भगवन् ! इन पृथ्वीकाय,0% अप्काय, तेउकाय, वायुकाय. व वनस्पति काया में कौन सर्व सूक्ष्म है और कौन सर्व सूक्ष्मतर है ? 1880 अनीसवा शक का तीसरा उद्देशा 48 थावार्म Page #2422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९२ कयरे काएसव्वसुहुमतराए ? गौयमा ! वणस्सइकाइए सव्यसुहुमे, वणस्सइकाइए सव्वसुहुमतराए ॥ एयरसणं भंते ! पुढवीकाइयस्स आउकाइयस्स तेऊ-वाऊ-काइ. यस्स कयरे काए सब्बसुहुमे, कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? गोयमा ! वाउकाइए सव्वसुहुमे, वाउकाइए सव्वसुहुमतराए २॥ एयस्सणं भंते! पुढवीकाइयस्स आउकाइ. बस्स तेउकाइयस्स कयरे काए सव्वसुहुमे कयरे काए सव्यमुहुमतराए ? गोयमा ! तेऊकाए सव्वसुहुमे, तेऊकाए सव्वसुहुमतराए ३, ॥ एयस्सणं भंते ! पुढवी काइयस्स आऊकाइयस्स कयर काए सव्वसुहुमे कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? गोयमा ! आउकाए सव्वसुहुमे आउकाए सव्वसुहुमतराए ४, ॥ एयस्सणं भंते ! भावार्थ अहो गौतम ! वनस्पतिकाय सर्व से सूक्ष्म है और वनस्पतिकाय सर्व मूक्ष्मतर है. अहो भगवन् ! इन पृथ्वी, अप्, तेउ और वायुकाया में कौन सर्व सूक्ष्म व सर्व सूक्ष्मतर है ? अहो गौतम ! वायुकाय सर्व से Eमूक्ष्म व वायुकाय सर्वसे सूक्ष्मतर है. अहो भगवन् ! इन पृथ्वी, अप्, तेउ काया में कौन सर्व से मूक्ष्म व सर्व से सूक्ष्मतर है ? अहो गौतम ! तेउकाया सबसे सूक्ष्म व सर्वमे सूक्ष्मतर है. अहो भगवन् ! इन पृथ्वी काया व अपकाया में कौनसी काया सर्व मूक्ष्म व सर्व सूक्ष्मतर है ? अहो गौतम ! अप्काया सर्व से सूक्ष्म बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी mmmmmmmmmmmmarrirawimmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३९१ 48पंचमाङ विवाह पण्णात्रीि (भगवती ) सूत्र 48 पुढवीकाइयस्स आउकाइयस्स तेऊ-वाऊ-वणस्सइ काइयरस कयरे काए सव्व बादरे, कयरे काए सव्वबादरतराए ? गोयमा ! रणस्सइकाइए सव्वबादरे. वणस्सइकाइए सव्वगदरतराए १, ॥ एयस्सणं भंते ! पुढवीकाइयस्स आऊ-तेऊ-बाउकाइयस्स कयरे काए सव्वयादरे, कयरे काए सव्व बादरतराए ? गोयमा ! पुढवीकाए सव्व. बादरे, पुढवीकाए सव्वबादरतराए २, ॥ एयरसणं भंते ! आउकाइयस्स तेऊकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरेकाए सव्वबादरे, कयरे काए सव्वबादरतराए ? गोयमा ! आउकाए सव्वबादरे आउकाए सव्ववादरतराए ३, ॥ एयस्सणं भंते ! तेऊकाइ. यस्स वाउकाइयस्स कयरे काए सव्वबादरे कयरेकाय सव्वबादरतराए ? गोयमा! व सर्व मूक्ष्मतर है. ॥२॥ अहो भगवन्! इन पृथ्वी,अप् ,तेउ,वायु, व वनस्पति काया कौन सबसे बादरहै व कौन बादरतर है ? अहो गौतम ! वनस्पतिकाया बादर व वनस्पतिकाया बादरतर है. अहो भगवन् ! । इन पृथ्वी, अप् , तेउ, व वायुकायामें कौन सर्वसे बादर व सर्वसे बादरतर है ? अहो गौतम ! पृथ्वीकाया 3सर्वसे पादर व सर्वसे बादरतर है. अहो भगवन्! इन अप्, तेउ व वायुकाया में कौन सबसे बादर व कौन चादर तर है? अहो गौतम ! अप्काय सर्वसे वादर व सर्व बादर तर है. अहो भगवन् ! इन तेउकाया -उन्नीसवा शतक का तीसरा उद्देशा - । Page #2424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेऊकइए सब्बबादरे तेउकाए सव्वबादरतराए ४, ॥ १८ ॥ के महालएणं भंते ! पुढवी सरीरे पण्णत्ते ? गोयमा ! अणंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा.. से एगे सुहुमवाउ सरीरे, असंखेजाणं सुहुमवाउसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुम तेऊ सरीरे, असंखेज्जाणं सुहुम तेऊकाइय सरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुम आउसरीरे, असंखजाणं सुहम आउकाइय सरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुम पुढवी सरीरे, असंखेजाणं सुहुम पुढवीकाइय सरीराणं जावइया सरीरा से एगे बादर वाउसरीरे, असंखजाणं बादर वाउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादर भावार्थ व वायुकाया में कौन सर्व बादर व सर्व वादर तर है ? अहो गौतम ! तेउकाया सर्व वादर व सर्व बादरतर है ॥१८॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीकायका शरीर कितना बडा कहा ? अहो गौतम ! अनंत सूक्ष्म वनस्पति कायिक जीवोंका जितना शरीर होताहै उतना सूक्ष्म वायुकायाका शरीर होता है, असंख्यात सूक्ष्म वायु-१ निकायके शरीर जितना सूक्ष्म ते उकायाका शरीर, असंख्यात मूक्ष्म तेउकायके शरीर जितना मूक्ष्म अप्कायाका शरीर, असंख्यात सूक्ष्म अपकाया के शरीर जितना सूक्ष्म पृथ्वी काया का शरीर, असंख्यात सूक्ष्म पृथ्वी काया के शरीर का एक बादर वायुकाया का शरीर, असंख्यात बादर वायुकाया के शरीरका एक बादर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #2425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र तेउसरीरे, असंखेजाणं बादर तेऊकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादर आउसरीरे असंखेजाणं बादर आउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादर पुढवी सरीरे, एमहालणं गोयमा ! पुढची सरीरे पण्णत्ते ॥ १९ ॥ पुढवी काइयस्सणं भंते! के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहा णामए रण्णो चाउरंतचक्कत्रस्सि वण्णगपेसिया तरुणी बलवं जुगवं जुवा अप्पायंका वण्णओ, जाव निपुणसिप्पेवगया वरं चम्मेदुदुहणमुट्ठियसमाहयणिचियगत्तकायान भण्णइ, सेसं तंचेव जाव निपुण सिप्पोवगया, तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावर(तेजकाया का शरीर, असंख्यात बादर तेउकाया के शरीर जितना बादर अप्काया का शरीर, असंख्यात बादर अपकायाके शरीर जितना एक बादर पृथ्वीकायिकका शरीर होता है. अहो गौतम ! बादर पृथ्वी काया का इतना बडा शरीर कहा है ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वी काया की कितनी अवगाहना कही अहो गौतम ! चारों दिशिके अंत तक संपूर्ण भरत क्षेत्र में राज्य करनेवाला चक्रवर्ती राजा की बलवान युवावस्थावाली जरा त्र रोगरहित चंदन पीसनेवाली का कहा वैसे यावत् चमेठगादि व्यायाम क्रियाके उपकरण रहित सब कहना ऐसी शिक्षा में निपुण तरुणी लाखके गोले समान पृथ्वीकाया लेकर तीक्ष्ण वज्रमय लोहे के पत्थर से ? उन्नीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 48 २३९५ Page #2426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ | एवं एवं महं पुढवीकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय पडिसाहरियत्ता, पडिसंखिय पडिसंखियत्ता जाव इणामेवत्ति कट्टु तिसत्तखुत्तो उपसिज्जा, तत्थणं गोयमा ! अत्थेगइया पुढवीकइया आलडा, अत्थेगइया णो आलद्धा, अत्थेगइया संघहिया, अगइया णो संघट्टिया अत्थेगइया परियाविया, अत्थेगइया णो परियाविया, अत्थे गइया उद्दविया, अत्थेगइया णो उद्दविया, अत्थेगइया पिट्ठा अत्थेगइया णो पिट्ठा, पुढवाकाइयस्सणं गोयमा ! ए महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ॥ २० ॥ पुढची काइस्सणं भंते! अकंते समाणे केरिसयं वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ ? गोयमा ! पीसकर एकत्रितकरे, पिण्डबनाकर पीसेयों इक्कीस वरूतपीसे. वहां तक अहो गौतम ! उस लाखके गोले जितने पृथ्वी कायिक में से कितनेक जीवोंने उस शिलाका व पीसने के पत्थर का स्पर्शकिया और कितनेक जीवोंने नहीं भी । किया कितनेक जीवोंको संघट्टन हुवा, कितनेक जीवों को संघट्टन नहीं हुवा, कितनेक जीव परितापना पाये, कितनेक नहीं पाये, कितनेक जीवों को उपद्रव हुवा, कितनेक को नहीं हुवा, कितनेक जीव पीसाये और } कितनेक नहीं पीसाये. अहो गौतम ! पृथ्वी कायिक जीव के शरीर की इतनी अवगाहना कही है, अर्थात् | वह बहुत ही सूक्ष्म है ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया को अपक्रमण करनेसे उसके जीवों कैसी वेदना वेदते हैं ? * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २३९६ Page #2427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 488 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र +8+ से जहाणामए केइ पुरिसे तरुणं बलवं जाव णिपुणसिप्पोबगए, एगं पुरिसं जुण्णं जजरियदेहं दुव्वलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्दाणंसि जभिहणिज्जा, सेणं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं अमलपाणिणो मुद्धाणंसि अभिहणए समाणे केरिसयं वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ ? अणिटुं समणाउसो! तस्सणं गोयमा ! पुरिसस्स वेदणाहिंतो पुढवीकाइए अकंते समाणे एतो अणि?तरियंचेव अक्ततरियंचेव जाव अमणामतरियंचेव वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरति ॥ २१ ॥ आउयाएणं भंते ! संघटिए समाणे केरिसयं वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरति ? गोयमा ! जहा पुढवी काइए एवं आउकाएवि, एवं तेउकाएवि, एवं वाउकाएवि, जाव विहरइ ।। सेवं भंते है ?अहो गौतम ! जैसे कोई तरुण, बलवंत यावत् सब शिल्पोंमें निपुण ऐसा पुरुष किसी एक जरावरोग से जर्जरित देहवाला, बल रहित पुरुष के मस्तक में प्रहार करे. अहो गौतम ! उसे कैसी वेदना होवे ? अहो भगवन् ! उसे अनिष्ट बेदना होवे. वैसेही अहो गौतम! आक्रांत की ईई पृथ्वी काया उक्त पुरुषकी वेदनासे, अनिष्टतर व अक्रांततर यावत् अपनामतर वेदना वेदते हुवे विचरते हैं ॥ २१॥ अहो भगवन् ! अप्काया को संघर्षण होते वे कैसी वेदना वेदते हैं ? अहो गौतम ! जैसे पथ्वी काया वेदना वेदते हैं वैसे ही अप-३ उनीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 426 भावार्थ Amwww Page #2428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ भावार्थ 42 अनुवादक-चालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भंतेत्ति ॥ एगूणवीसइमस्स तइओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १९ ॥ ३ ॥ सिय भंते ! णेरइया महासवा, महाकिरिया, महावेयणा, महाणिजरा णो इण? सम? ॥ १ ॥ सिय भंते ! गैरइया महासवा महाकिरिया महावेयणा अप्पणिज्जरा ? हंता सिया ॥ २ ॥ सिय भंते ! णेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महाणिजरा ? णो इणटे समढे ॥ ३ ॥ सिय भंते ! गैरइया महासवा काया, तेउकाया, व वायुकाया वेदना वेदते हैं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ ३ ॥ । तीसरे उद्देशे में पृथिव्यादि की महा वेदना कही. यहां नारकी की महा वेदना कहते हैं. अहो भगवन् ! नारकी महा आश्रव वाले, महा क्रिया वाले, महा वेदना वाले व महा निर्जरा वाले हैं? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १॥ अहा भगवन् ! क्या नारकी महा आश्रव वाले, महा क्रिया वाले, महा। वेदना वाले, व अल्प निर्जरा वाले हैं. ? हां गौतम ! हैं ॥ २॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी महा आश्रय वाले महा क्रिया वाले, अल्प वेदना वाले व महा निर्जरा वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी महा आश्रा, महा क्रिया. अल्प वेदना व अल्प निर्जरा वाले • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्र 28 महाकिरिया अप्पवेयणा अप्पणिजरा ? णो इण? समटे ॥ ४ ॥ सिय भंते ! णेरइया महासवा अप्पकिरिया, महावेयणा महाणिज्जरा ? णो इणटे समटे ॥ ५ ॥ सिय भंते ! णेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पणिजरा ? णो इणटे समटे ॥ ६ ॥ सिय भंते ! जेरइया महासवा, अप्पकिरिया, अप्पवेयणा, महाणिज्जरा ? णो इणट्रे समटे ॥७॥ सिय भंते! णेरइया महासवा, अप्पकिरिया, अप्पवेयणा,अप्पणिजरा ? णो इण? समढे ॥ ८ ॥ सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा, महा किरिया, महावेयणा, महाणिजरा ? णो. इण? समटे ॥ ९ ॥ सिय भंते! ते णेरइया ! अप्पाभावार्थ हैं ? अहो गौतम! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥४॥ अहो. भगवन्! क्या नारकी महा आश्रव, अल्प क्रिया, महा। वेदना व महानिर्जरा वाले हैं ? अहो गौतम : यह अर्थ योग्य नहीं है. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् !क्या नारकी महा आश्रव, अल्प क्रिया, अल्प वेदना व महा निर्जरा वाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. महा आश्रय, अल्प क्रिया, अल्प वेदना, व महा निर्जरावाले क्या हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ ७॥ अहो भगवन् ! नारकी महा आश्रव, अल्प क्रिया, महा वेदना, व महा निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ ८॥ अहो भगवन् ! क्या 17/नारकी अल्प आश्रव, महा क्रिया, महा वेदना व महा. निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ | 8+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र उन्नीसवां शतक का चौथा Page #2430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला भावार्थ सवा, महाकिरिया, महावेयणा, अप्पणिज्जरा ? णो इणट्टे समटे । १. ॥ सिय भंते ! णेरइया-अप्पासवा, महाकिरिया, अप्पवेयणा महाणिज्जरा ? णो इणटे समढे है ॥ ११ ॥ सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा महाकिरिया, अप्पवेयणा, अप्पणिज्जरा ? णो इणट्रे समटे ॥ १२ ॥ सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा. अप्पकिरिया महावेयणा महाणिज्जरा ? णो इणटे समटे ॥ १३ ॥ सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया, महावेधणा अप्पणिज्जरा ? णो इण? समढे ॥ १४ ॥ सिय भंते ! जेरइयोग्य नहीं हैं ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्प आश्रव, महा क्रिया, महा वेदना व अल्प निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! क्या नार अल्प आश्रव, यहा क्रिया, अल्प वेदना व महा निर्जरावाले हैं ? अहो मौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्पआश्रव, महा क्रिया, अल्प वेदना व अल्प निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम : यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्प आश्रव, अल्प क्रिया, महा वेदना व महा निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्प आश्रय, अल्प क्रिया, महा वेदना व अल्प निर्जरावाले हैं ? अहो ग यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्प आश्रव, अल्प क्रिया, 3 Page #2431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०१ पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगाती ) सूत्र 88+ या अप्पासवा, अप्पकिरिया, अप्पवेयणा, महाणिजरा ? णो इणट्रे समटे ॥ १५ ॥ सिय भंते ! णेरइया अप्पासवा, अप्पकिरिया, अप्पवेयणा, अप्पणिजरा ? णो इणट्टे समटे ॥ १६ ॥ एएसोलस भंगा ॥ सिय भंते ! असुरकुमारा महासवा महाकिरिया, महावेयणा, महाणिज्जरा ? णो इण? समटे ॥ एवं चउत्थो भंगो भाणियव्वो ॥ सेसा पन्नरस भंगा खोडेयव्वा, एवं जाव थणियकुमारा ॥ १७ ॥ सिय भंते ! पुढवी काइया महासवा, महाकिरिया, महावेयणा, महाणिजरा ? हंता सिया ॥ एवं जाव Ga व महा निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी अल्प आश्रव, अल्प क्रिया, अल्प वेदना व अल्प निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. ये सोलह भांगे हुए ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! क्या अमुर कुमार महा आश्रव, महा क्रिया, महा वेदना व महा निर्जरावाले हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. असुर कुमार में चौथाई भांगा कहना. जिस का नाम महाआश्रय, महाक्रिया, अल्प वेदना व अल्प निर्जरावाले असुर कुमार BE देव हैं. शेष पनरह भांगे नहीं पाते हैं. ऐसे ही स्तनित कुमार पर्यंत कहना ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! क्या पृथ्वी कायिक महा आश्रव, महा क्रिया, महा वेदना व महा निर्जरावाले है ? हां गौतम ! है * उनिसवा शतक का चौथा उद्देशा 48 | Page #2432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०२ सिय भंते ! पुढवीकाइया अप्पासवा अप्पकिरिया, अप्पवेयणा अप्पणिजरा ? हंता . सिया॥ एवं जाव मणुस्सा ॥ १८ ॥ वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगूणवीसहमस्स चउत्थो उद्देसो ॥ १९ ॥ ४॥ . अस्थिणं भंते!चरिमावि णेरइया परमाविणेरइया ?हता! अत्थि॥१॥से णूणं चरिमेहितो णेरइएहिंतो परमा णेरड्या महाकम्मतराए चेव, महाकिरिय तराए चेव महासवतराए चेव महावेयण तराए चेव, परमेहिंतो वा गैरइएहितो चरमा गेरइया अप्पकम्मतरा ही यावत् पृथ्वीकायिक क्या अन्य आश्रव, अल्प क्रिया, अल्प वेदना व अल्प निर्जरावाले 'द गौतम : पृथ्वी कायिक अल्प आश्रय, अल्स क्रिया, अल्प वेदना व अल्प निर्जराबाले है. से ही मनुष्य पर्यंत जानना ॥ १८॥ वाणव्यंतर ज्योतिषी वैमानिक का अमुर कुमार जैसे जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सब हैं, यह उनीसवा सतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ ४॥ चौथे उद्देशे में नरक का कथन किया पांचवे उद्देशे में भी उस काही कथन करते हैं. अहो भगवन् ! क्या नारकी चरिम (अल्प स्थितिवाले) हैं. और परम (महा स्थितिवाले) भी हैं ? हां गौतम ! नारकी अल्प स्थितिवाले भी हैं और महास्थितिवाले भी हैं ॥ १॥ क्या अल्प स्थितिवाले नारकी से 12महा स्थितिवाले नारकी महा कर्मवाले, महा क्रियावाले, महा आश्रनवाले व महा वेदनावाले हैं पारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मच *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. । Page #2433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र भावार्थ 488+- पंचमांग विवाह पष्णात ( भगवती ) सूत्र श्वेत्र, अप्पाकरियतरा चेव, अप्पासंवतरा चैत्र, अप्पवेयणतरा चेव, ? गोयमा ! चरमेहिंतो रइएहिंतो परमा जाव महावेयणतरा वेत्र, परमेहिंतो णेरइएहिंतो चरमा रइया जाव अप्पत्रेयणतरा वेव ॥ से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव अप्पवेयणतरा चैव ? गोयमा ! ठितिपडुच्च से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जाव अप्पत्रेयणतरा वेव ॥ १ ॥ अस्थिणं भंते ! वरमावि असुरकुमारा परमावि असुरकुमारा ? एवं श्वेव वरं विवरीयं भाणियन्त्रं, परमा अप्पकम्मा, चरमा महाकम्मा, सेसं तंचेव जाव नारकी महा कर्म अल्प कर्म यावत् अथवा महा स्थितिवाले नारकी से अल्प स्थितिवाले भारकी क्या अल्प कर्म, अल्प क्रिया, अल्प आश्रव व अल्प वेदनावाले हैं ? अहो गौतम ! अल्प स्थितिवाले नारकी से महा स्थितिवाले यावत् महा वेदनावाले हैं और महा स्थितिवाले नारकी से अल्प स्थितिवाले नारकी अल्प वेदनावाले हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् अल्प वेदनावाले हैं ? अहो गौतम ! स्थिति आपेक्षाकर इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् अल्प वेदनावाले हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! क्या अल्प स्थितिवाले असुरकुमार भी है और बडी स्थितिवाले असुर कुमार भी हैं ? अहो गौतम! ऐसेही कहना. परंतु नारकी से यह विपरीत जानना. परम अल्प कर्मवाले और चरम महा कर्मचाले. ऐसे ही स्तनित 48*+ उच्चीसवा शतक का पांचवा उद्देशा 488+ २४०१ Page #2434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थणियकुमारा, ताव एवमेव ॥ २ ॥ पुढवीकाइया जाव मणुस्सा एए जहा गैरइया, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ ३ ॥ कइविहाणं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता तंजहा-गिदाय अणिदाय ॥ णेरइयाणं भंते ! किंणिदाय वेदणं वेदेति, अणिदाय वेदण वेदेति, जहा पण्णवणाए जाव वेमाणियत्ति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगुणवीसइमरस पंचमो उद्देसो सम्मत्तो।१९।५। कहण्ण भंते ! दीव समुद्दा, केवइयाणं भंते ! दीव समुद्दा, किंसंठियाणं भंते ! दीव कुमार पर्यंत कहना ॥ २॥ पृथ्वी काया से मनुष्य पर्यंत नारकी जैसे कहना, और वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असुर कुमार जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वेदना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! वेदना के दो भेद कहे हैं. १ निदाय और अनिदाय. जिस वेदना को वेदते हुवे जीव जाने निदाय वेदना और जिस वेदना वेदते हुए जीव जाने नहीं सो अनिदाय वेदना. अहो भगवन्! क्या नारकी निदाय वेदना वेदते हैं या अनिदाय वेदना वेदते हैं ?वगैरह जैसे पनपणा पद में कहा वैरेही वैमानिक पर्यंत जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा।।१९॥५॥ पांचये उद्देशे के अंत में वेदना कही. वेदना भोगनेवाले द्वीप समुद्र में रहते हैं इस लिये दीप समुद्र का 42 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ | Page #2435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्दा ? एवं जहां जीवाभिगमे दीव समुद्देसो सोचेव इहवि, जोइसमंडि उद्देसगवज्जो । भाणियवो जाव परिणामो जीव उववाओ जाव अणंतखुत्तो ॥ सेवं भंते २ ति ॥ एगणवीसइमस्स छट्ठो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १९ ॥ ६॥ . केवइयाणं भंते ! असुरकुमारभवणावास. सयसहस्सा.पण्णत्ता ? गोयमा ! चउसट्रिं अमुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता॥॥तेणं भंते! किंमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जावपडिरूवा ॥२॥तत्थणं बहवे जीवाय पोग्गलाय वक्कमंति भावार्थ प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! द्वीप समुद्र कहां हैं? द्वीप भमुद्र कितने हैं ? उन का कैसा संस्थान है ? इन सब प्रश्नों का उत्तर जीवाभिगम सूत्र में द्वीप समुद्र उदेशे में जैसे कहा वैसे ही यहां जानना. मात्र ज्योति 5षीकी वक्तव्यता नहीं कहना. सब कथन परिणाम पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का छठा उद्दशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ ६॥ (०) (०) } है छठे उद्देशे में द्वीप समुद्र का कथन कहा. द्वीप समुद्र में देवता के आवास हैं इस से देवता के आवास। का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! असुर कुमार को रहने के लिये कितने लाख भवन कहे हैं गौतम ! अमुर कुमार को रहने के लिये चौसठ लाख मवन कहे हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! वे भवन किस से बने हुए हैं ? अहो गौतम! वे सब रत्नों के बने हुवे सुंदर यावत् प्रतिरूप हैं॥२॥ वहां बहुत %> पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 46 48. उन्नीसवा शतक का सातवा उद्देशा 488 4 Page #2436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी विउक्कमंति, चयंति, उववजंति, सासयाणं ते भवणा दव्वट्टयाए वण्णपज्जवेहिं जाव फास पज्जवेहिं असासया || एवं जाव थणियकुमारावासा ॥ ३ ॥ केवइयाणं भंते ! वाणमंतर भोमेजणयरावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा वाणमंतरा भोमेजणयरावास सयसहस्सा पण्णत्ता || तेणं भंते ! किं संठिया पण्णत्ता ? सेसं तंचेव ॥ ४ ॥ केवइयाणं भंते! जोइसिय विमाणावास सयसहस्सा पुच्छा ? गोयमा ! असंखेजा जोइसिया || तेणं भंते ! किंमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वफलिहमया, अच्छा सेसं तंत्र ॥ ५ ॥ सोहम्मेणं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावास सयसहस्सा पण्णत्ता जीवों पुद्गलों उत्पन्न होते हैं, विशेष उत्पन्न होते हैं, चवते हैं व उत्पन्न होते हैं. वे भवन द्रव्य से शाश्वत {हैं और वर्ण पर्याय यावत् स्पर्श पर्याय से अशाश्वत हैं. ऐसे ही स्वनित कुमार तक कहना || ३ || अहो भगवन् ! भूमि में रहे हुवे वाणव्यंतर के कितने नगर कहे हैं? अहो गौतम ! वाणव्यंतर के असंख्यात भूमि के मध्य नगर कहे हैं. अहो भगवन् ! उन का संस्थान कैसा कहा ? अहो गौतम ! शेष सब भवनपति के भवन जैसे कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! ज्योतिषियों के कितने लाख विमान कहे हैं ? ज्योतिषियों के असंख्यात विमान वास कहे हैं. अहो भगवन् ! वे किस के बने हुवे हैं ? वे स्फटिक रत्नों के बने हुबे हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! सौधर्म देवलोक में कितने लाख अहो गौतम ! * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # अहो गौतम ! विमान कहे हैं ?} २४०६ Page #2437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ २४०६ गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ॥ तेणं भंते! किंमया पण्णत्ता? गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा, सेसं तंचव, एवं जाव अणुत्तरविमाणा णवरं जाणियन्वा जत्थ जत्तिया भवणा विमाणावास सेवं भंतेत्ति ॥ एगूणवीसइमस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १९॥ ७॥ . . कइविहाणं भंते ! जीवणिवत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा जीवणिवत्ती पण्णत्ता तंजहा-एगिदिय जीव णिवत्ती जाव पंचिंदिय जीव णिवत्ती ॥ १॥ एगिदिय जीव ण्णिव्वत्तीणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुढवी भावार्थ अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक में बत्तीस लाख विमान कहे हैं. वे सब रत्नों के घने हुवे हैं. ऐसे ही अनु। हत्तर विमान तक कहना परंतु जिन को जितने विमान होवे उन को उतने जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ ॥ . है सातवे उद्देशे में देवता का कथन किया. निवृत्तिवंत देवता होते हैं इसलिये आगे निवृत्ति का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! जीव निवृत्ति ( उत्पन्न होना) के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम !* जीव निवृत्ति के पांच भेद कहे हैं. एकेन्द्रिय जीव निवृत्ति यावत् पंचेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति. ॥१॥ अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव निवृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय जीव निवृत्ति के पांच | 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 84 उनीसवा शतक का आठवा उद्देशा 8748 Page #2438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी काइयए एगिदिय जीवणिवत्ती, जाव वणस्सइकाइयए एगिदिय जीवणिवत्ती ॥२॥ पुढवी काइय एगिदिय जीवणिवित्तीणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पत्ता , तंजहा-सहुमपुढवीकाइयएभिदिय जीव णिवत्तीय, बादर पुढवी काइय एगिदियजीवणिवत्तीय ॥ एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा बडुगबंधे तेयग सरीरस्स जाव सन्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइय कप्पातीत वेमाणिय देव पंचिंदिय जीवणिवत्तीणं भंते! कइविहापण्णत्ता,गोयमा! दुविहा पण्णत्तातंजहा पजत्तग सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइयजात्र दवपंचिंदिय जीवणिवत्तीय, अपजत्तगसब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदिय जीव भेद कहे हैं पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय जीव निवृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति ॥२॥ पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम ! पृथ्वी कायिक एकेन्द्रिय जीव निवृत्ति के दो भेद कहे हैं सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृत्ति बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव निर्वृति यों इस अभिलाप मे जैसे बडे बंधका कथन आठवे शतक के नववे उद्देशे में कहा वैसे ही ते नम सरीर का यावत् सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिककल्पातीसवैमानिकदेवपंचेन्द्रिय जीव निर्वत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! दो भेद कहे हैं ? पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक यावत् पवेन्द्रिय देव निवृत्ति और २ अपर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तरोपपातिक यावत् देव पंचेन्द्रिय जीव निवृत्ति है। . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ । Page #2439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4: पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4000+ णिव्वत्तीय ॥ ३॥कइविहाणं भंते! कम्मणिव्वत्ती पण्णत्ते ! गोयमा ! अट्ठविहा कम्मणिव्यत्ती पण्णत्ते तंजहा - णाणावरणिज कम्मणिव्वती जाच अंतराइय कम्मणिव्वत्ती ॥ रइयाणं भंते! इविहा कंम्मणिब्बत्तीप • ? गोयमा ! अट्टविहा कम्मणिव्वती पं० तजहा णाणावरणिज कम्मणिव्वत्ती जात्र अंतराइयंकम्मणिबत्ती ॥ एवं जाव वैमाणि - णं ॥ ४ ॥ कइविहाणं भंते! सरीरणिव्वत्ती पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा सरीरणिव्यत्ती प० तंजहा-ओरालियसरीरणिव्वत्ती जाव कम्मगसरीणिव्वत्ती ॥ रइयाणं भंते ! एचंचेव, एवं जाव वेमाणियाणं णवरं णायव्त्र जस्स जइ सरीराणि } ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! कर्म निर्वृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! कर्म निर्वृत्ति के आठ भेद कहे हैं. ज्ञानावरणीय कर्म निर्वृत्तियावत् अंतराय कर्म निर्वृत्ति, अहो भगवन्! नाकाकी कितनी कर्म निर्वृत्ति { कही ? अहो गौतम ! नारकी को आठ कर्म निवृत्ति कही. ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय ऐसे ही वैमानिक { पर्यंत जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! शरीर निर्वृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! शरीर निर्वृत्ति के पांच भेद कहे हैं. उदारिक शरीर निर्वृत्ति यावत् कार्माण शरीर निर्वृत्ति नारकी को यावत् त्रैमानिक को ऐसे ही कहना. परंतु जिन को जितने शरीर होवे उन को उतनी शरीर निर्वृत्ति कहना. ॥ ५ ॥ अहो 48 उन्नीसवा शतक का आठवा उद्देशा २४०९ Page #2440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१० 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥५॥ कहविहाणं भंते ! सबिदियणिवत्ती प• ? गोयमा ! पंचविहा सबिदिय णिन्वती ५० तंजहा सोइंदियणिवत्ती जाव फासिंदियणिवत्ती ॥ एवं जेरइया जाव थणियकुमारा । पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा! एगा फासिदियणिवत्ती प. एवं जस्स जइ इंदियाणि जाव वेमाणियाणं ॥ ६॥ कइविहाणं भंते ! भासाणिबत्ती प• ? गोयमा ! चउन्विहा भासाणिवत्ती पं० तंजहा-सञ्चभासाणिवत्ती मोसमासाणिवत्ती, सच्चामोसमासाणिवत्ती, अचामोसभासाणिवत्ती ॥ एवं एगिभगवन् ! कितनी सर्वेन्द्रिय निवृत्ति कही ? अहो गौतम ! पांच सन्द्रिय निर्वृत्ति कही, श्रोत्रेन्द्रिय निर्वृत्ति यावत् स्पर्शेन्द्रिय निर्वृत्ति. नारकी यावत् स्तनित कुमार को पांचो इन्द्रिय निर्वृचि, पृथ्वीकाया यावत् वनस्पति काया को एक स्पर्शेन्द्रिय निर्वृत्ति ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जिस को जितनी इन्द्रियों होवे उस को उतनी इन्द्रिय निर्वृत्ति कहना. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! भाषा निवृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! भाषा निर्वृत्तिके चार भेद कहे हैं, सत्य भाषा निवृत्ति, मृषा भाषा निवृत्ति, सत्य मृषा भाषा निवृति. ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर जिन को जितनी भाषाओं होवे उन को उतनी की भाषा निनि वैमानिक पर्यंत कहना.. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी। भावार्थ Page #2441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 488+ दियवजं जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं ॥ ७॥ कइविहाणं भंते ! मणणिवत्ती प.? गोयमा ! चउविहा मणणिवत्ती प.सच्चमणणिवत्ती जाव असच्चामोस मणणिवत्ती ॥ एवं एगिंदियवजं विगलिंदियवजं जाव वेमाणियाणं ॥ ७ ॥ कइविहाणं भंते ! कसायणिवत्ती पं० ? गोयमा! चउन्विहा कसायणिवत्ती पं० तंजहा-कोहकसायणिवत्ती जाव लोभकसाय णिवत्ती ॥ एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ८ ॥ कइविहाणं भंते ! वण्णणिवत्ती पं.? गोयमा ! पंचविहा वण्णणिव्यत्ती पं० तंजहा काल वण्णणिन्वची जाव सुकिल्ल वण्णणिन्वत्ती, एवं णिरवसेसं जाव वेमाणियाणं ॥ एकन्द्रिय में भाषा नहीं है, ॥७॥ अहो भगवन् ! मननिर्वृति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतमः! मननिर्वृति के चार भेद कहे हैं. सत्य मननिर्वृति यावत् असत्यमृषा मननिवृत्ति. ऐसे ही एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय छोडकर वैमानिक पर्यंत जानना. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! कितनी कषाय निर्वृत्ति कही ? अहो गौतम ! चार कषाय निवृत्ति कही. क्रोध कषाय निर्वृत्ति यावत् लोभ कषाय निर्वृत्ति ऐसे ही वैमानिक तक कहना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! कितनी वर्णनिर्वृत्ति कहीं ? अहो गौतम ! पांच वर्ण निर्वृत्ति कही. काला वर्ण यावत् शुक्ल वर्ण निवृत्ति. ऐसे वैमानिक पर्यंत सब को पांच निवृत्ति जानना. ऐसे ही सरमिगंध व दुरः 488+ उत्रिसवा शतक का आउवा उद्देशा 498* भावार्थ | Page #2442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मवारी मुनि श्री अम लक ऋषिनी 84 एवं गंधणिन्बत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं रसणिन्वत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं फासणिवत्ती अट्टविहा जाब वेमाणियाणं ॥ ५ ॥ कइविहाणं भंते ! संठाण णिवत्ती प.? गोयमा ! छव्विहा संठाणणिब्वत्ती पं० तंजहा-समचउरंस संठाणणिव्यत्ती जाव A२४१२ हुंड संठाणणिवत्ती ॥ णेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगा हुडसंठाणणिव्वत्तीं पं० ॥ असुरकुमाराणं पुच्छा ? गोयमा ! एगा समचउरंस संठाणणिवत्ती, एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा एगा मसूरचंदसंठाणणिवत्ती पं. एवं जस्स जं संठाणं जाव वेमाणिया ॥ १० ॥ कहविहाणं भंते ! सण्णाणिवत्ती भिगंध ऐसी दो प्रकार की गंध निर्वृत्ति वैमानिक पर्यंत कहना. पांच प्रकार की रस निर्वृत्ति व आठ स्पर्श निर्वृति भी वैमानिक पर्यंत जानना ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! मंठाण निर्वृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! संठान निवृत्ति के छ भेद कहे हैं ? समचतुस्रसंठान यावत् हुंडक संस्थान निवृत्ति. नारकी की पृच्छा, एक हुंडक संस्थान निवृत्ति अमुरकुमार यावत् स्तनितकुमार को एक समचतुस्र संस्थान निर्वृत्ति. पृथ्वी काया का संस्थान चंद्रमसुर का. ऐसे ही जिस को जितने संस्थान होवे उम को उतनी संस्थान निवृत्ति कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! संज्ञा निवृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? *काशेक राजावहंदुर लाला मुखदेवसहायनी ज्यालाप्रसादजी * भावाथे Page #2443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र ++ पं..? गायमा ! चउविवहा सणाणिवत्ती प० तंजहा-आहारसण्णाणिवत्ती जाक परिग्गह सण्णाणिवत्ती ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ ११ ॥ कइविहाणं भंते ! लेस्साणिवत्ती पं० ? गोयमा! छव्विहा लेस्साणिवत्ती पं. तंजहा-कण्हलेस्साणिवत्ती जाव सुक्कलेस्साणिवत्ती ॥ एवं जाव वेभाणिया, जस्स जइ लेस्साओ तस्स तत्तिया । भाणियब्बा ॥ १२ ॥ कइविहाणं भंते ! दिदिणिन्चत्ती ५०? गोयमा ! तिविहा. दिद्विणिवत्ती ५० तंजहा- सम्मदिदिणिवत्ती मिच्छादिट्ठिणिवत्ती, सम्ममिच्छादिट्टिणिवत्ती, एवं जाव वेमाणिया' जस्स जइविहा दिट्ठी अहो गौतम ! मंज्ञा निवृत्ति के चार भेद कह हैं आहार संज्ञा निर्वति यावत् परिग्रह संशा निर्वृत्ति. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! कितनी लेश्या निवृत्ति कही ? अहो गौतम छ लेश्यानिवृत्ति कही ? कृष्ण लेश्या निर्वृत्ति यावत् शुक्ल लेश्या, निवृत्ति. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जिन को जितनी लेश्याओं होवे उन को उतनी लेश्या निवृत्ति कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! दृष्टि निवृति कितनी कही ? अहो गौतम ! दृष्टि निर्वृत्ति तीन कही समदृष्टि निवृत्ति मिथ्यादृष्टि निवृत्ति व सम मिथ्याष्टि निर्वृत्ति ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जिन को जितनी दृष्टि होवे उन को उतनी दृष्टि निवृत्ति कहना ॥ १.३॥ अहो । उनीसवा शतक का आठवा उद्देशा. 488 भावार्थ Page #2444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ namanna २४१४ +9 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥ १३॥ कइविहाणं भंते ! णाणणिवत्ती ५. ? गोयमा ! पंचत्रिहा णाणणिवत्ती प० तंजहा-अभिणिबोहिय णाणणिवत्ती जाव केवलणाणणिवत्ती, एवं एगिदिय वजं जाव वेमाणिया जस्स जइ णाणाइं ॥१४॥ कइविहाणं भंते ! अण्णाणणिवत्ती ५. ? गोयमा ! तिविहा अण्णाणणिवत्ती ५० तंजहा-मइअण्णाणणिव्वती सुअ अण्णाणणिवत्ती, विभंगणाणणिव्वशी, एवं अस्स अइ जाव वेमाणिया ॥ १५ ॥ कइविहाणं भंते ! जोगणिवत्ती प.? गोयमा ! तिविहा प• तंजहा-मणजोग णिवत्ती, बहजोगणिवत्ती, कायोग णिवत्ती॥ एवं जाय वेमाणियाणं जस्स भगवन् ! ज्ञान निवृत्ति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! ज्ञान निवृत्ति के पांच भेद कहे हैं. आभिनि बोधिक ज्ञान निवृति यावत् केवल ज्ञान निवृत्ति ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर वैमानिक पर्यंत जिनको जितने ज्ञान | होवे उन को उतनी ज्ञान निवृत्ति कहना. ॥१४॥ अही भगवन् ! अज्ञान निशि के कितने भेद कहे हैं? अहो. गौतम ! अज्ञान निवृत्ति के तीन भेद कहे हैं. पति अज्ञान निवृति श्रुतमाम निर्वृत्ति व विभगबान निवृशि. ऐसे होवैमानिक पर्यंत जिन को जितने अज्ञान होवे उन को उतनी अज्ञान निवृत्ति कहना ॥१५॥ अहो भगवन्! योग निवृत्ति के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम! योग निवृत्ति के तीन भेद कहे हैं. १ मनयोग निवृत्ति, १२ वचन योग निर्वृति व ३ काया योग निवृत्ति. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जिन को जितने योग होवे उन को • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.५ + पंचमांक विवाह पम्पति ( भगवती ) सूत्र +8+ जविहो जोगो ॥१६॥ कइविहाणे भंते ! उवआगणिवत्ती ५० ? गोयमा ! दुविहा उबओग णिवत्ती प. तंजहा-सागारोबओगणिवत्ती, अणागारोवओग णिवत्ती, एवं जाव वेमाणिया ॥ १८॥ संगह गाथा-जीवाणं णिवत्ती कम्मप्पगडि णिवत्ती, सरीणिवत्ती, सविदिय णिवत्ती, भासायमणेकसायाया ॥ १ ॥ षण्णे गंधे रसे फासे संठाण विहीय होय बोधब्बे ॥ लस्सादिट्ठीणाणे, उबओगी होय जोगेय ॥२॥ सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ एगणवीसइमस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो॥१९॥८॥ कविहाणं भंते ! करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे करणे पण्णते तंजहा-दच उतनी कहना ॥ १६ ॥ अहो भगवन ! उपयोग निवृति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! उपयोग E निवृति के दो भेद कहे हैं साकारोपयोग निवृति व अनाकारोपयोग निर्वृत्ति. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना ॥१७॥ अब इन की संग्रह गाथा का अर्थ करते हैं. १ जीव निर्वृत्ति २ कर्म निर्वृत्ति, शरीर ४ इन्द्रिय ५ भाषा ६ मन ७ कषाय ८ वर्ण ९ गंध ५० रस ११ स्पर्श ११ संस्थान १३ लेश्या - १.४ दृष्टि १५ मान १६ अज्ञान १७ योग और १८ उपयोग. इन की निवृत्ति. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९॥८॥ . १ आठवे. उदंशे में निर्वत्ति का कथन किया. नवे उद्देशे में करण का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन 4862 उबोसवा शतक का नवा उद्देशा-4885 भावार्थ + Page #2446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ..करणे, खेचकरणे, काल करणे, भवकरणे, भाव करणे ॥ १ ॥ पेस्ड्याणं भंते ! कइ विहे करणे प० ? गोयमा ! पंचविहे करणे पं० तंजहा-दव्य करणे जात्र भाव करणे ॥ एवं जाव माणिया ॥ २ ॥ कइविहाणं भंते ! सरीरकरणे प० ? गोयमा ! पंचविहे सरीरकरणे पतंजहा ओरालिय सरीरकरणे जात्र कम्मासरीर करणे, एवं जात्र माणिया जस्सजइ सरीराणि ॥ ३ ॥ कइविणं भंते ! इंदिय करणे प० ? गोयमा ! पंच इंदियकरणे प० तं सोइंदिय करणे जाब फासिंदिय करणे, एवं जाव बेमाप्रिया जस्स जइ इंदियाई ॥ एवं एएणं कमेणं भासा करणे चउविहे मणकरणे करण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! करण के पांच भेद कहे हैं. जिन के नाम. १ द्रव्य करण १२ क्षेत्र करण ३ काल करण ४ भत्र करण और ५ भाव करण ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने करण कहे हैं? अहो गौतम ! नारकी को पांचों करण कहे हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना ||२|| अहो भगवन् ! शरीर करण के कितने भेद कहे हैं ? शरीर करण के पांच भेद कहे हैं ? १ उदारिक शरीर करण यावत् कार्माण शरीर करण. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! इन्द्रिय करण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम । इन्द्रिय करण के पांच भेद कहे हैं. अहो गौतम ! * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायत्री ज्वालाप्रसादजी २४९६ Page #2447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमा विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र चउन्विहे, कसाय करणे चउबिहे, समुग्धाय करणे सत्तविहे, सणा करणे चउबिहे, लस्सा करणे छबिहे, दिट्टिकरणे तिविहे, वेदकरणे तिविहे, पं. त• इत्थिवेदकरणे, पुरिसवेद करणे, णपुंसगवेदकरणे ॥ एए सव्वे णेरइयादि दंडगा जाव वेमाणिया जस्स जं अत्थि तं तस्स सव्वं भाणियव्वं ॥४॥ कइविहेणं भंते ! पाणातिवाय करणे प. ? गोयमा ! पंचविहे प० तं० एगिदिय पणाइवायकरणे, जाव पंचिंदिय पाणाइवाय करणे ॥ एवं णिरवसेस जाव वेमाणिया ॥ ५ ॥ कइविहेणं भंते ! पोग्गले करणे प० ? गोयमा ! पंचविहे पोग्गले करणे प० तं० वण्ण करणे गंध करणे, श्रोत्रेन्द्रिय करण यावत् स्पर्शेन्द्रिय करण. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जिन को जितनी इन्द्रियों होवे उन को उतने इन्द्रिय करण कहना. इस तरह सत्य भाषा यावत् असत्य मृषा यों चार भाषा करण. चार मन करण Nis चार कषाय करण, मात समुद्धात करण, चार मंझा करण, छ लेश्या करण, तीन दृष्टि करण तीन वेद करण. ये सब नारकी आदि चौवीस दंडक में जिल को जितने होवे उस को उतने कहना ॥४॥ भगवन् ! प्राणातिपात करण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम , प्राणातिपात करण के पांच भेदी कहे हैं. एकेन्द्रिय प्राणातिपात करण यावत् पंचेन्द्रिय प्राणातिपात करण. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ॥५॥ अहो भगान् ! पुद्गल करण के कितने भेद कहे हैं.? अहो गोतम ! पुगर करण के पांव भेद 48:0% उबीमवा शतक का नया उद्देशा 488 আদার্থ Page #2448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रसकरणे, फासकरणे, संठाण करणे ॥ वण्णकरणेणं भंते ! कइविहे प० तं काल aणकरणे जाव सुक्किल वण्ण करणे एवं भेदो || गंध करणे दुबिहे || रसकरणे पंचविहे || फालकरणे अट्ठविहे संठाण करणेणं भंते ! कइविहे प० ? गोयमा ! पंचविहे प० तं परिमंडलसंठाण करणे जाब आयत संठाण करणे सेवं भंते ! भंतेति जाव विहरइ ॥ गाथा दव्वे खेत्ते काले भवेय भावेय शरीर करणेय इंदिय करणे भासा मणकसाए समुग्धाए ॥ १ ॥ सण्णा लेस्सादिट्ठी, वेए पाणाइवाय करणेय ॥ पोग्गल करणे वण्णे गंध रस फास संठाणे ॥ २ ॥ एगूणवीसइमस्स नवमां १ कृष्ण यावत् स्पर्श करण के कहे हैं. वर्ण करण, गंध करण, रस करण, स्पर्श करण व संस्थान करण. अहो भगवन् ! वर्ण करण से { पुल के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! वर्ण करण से पुद्गल के पांच भेद कहे हैं. शुक्ल. ऐसे ही गंध करण के सुरभिगंध व दुरभिगंध ऐसे दो भेद, रस करण के पांच भेद आठ भेद और संस्थान करण के पांच भेद, परिमंडल संस्थान यावत् आयतन संस्थान. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कहकर विचरने लगे. अब करण की गाथा का अर्थ कहते हैं. १ द्रव्य करण १२ क्षेत्र करण ३ काल करण ४ भव करण ५ भाव करण ६ शरीर ७ इन्द्रिय, ८ भाषा ९ मन १० कषाय ११ समुद्धात १२ संज्ञा १३ लेश्या १४ दृष्टि १५ वेद १२ प्राणातिपात १७ पुद्गल. वर्ण गंध, रस, स्पर्श * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४१८ Page #2449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 488 उद्देसो सम्मत्तो ॥ १९ ॥ ९॥ वाणमंतराणं भंते ! सव्वे समाहारा एवं जहा सोलसमसए दीव कुमारुहेसए जाव अप्पिट्टियत्ति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एगूणवीसइमस्स दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १९॥ १० ॥ एगूणवीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ १९ ॥ व संस्थान. यह उन्नीसवा शतक का नववा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १९ ॥ ९ ॥ नववे उद्देशे में करण का कथन किया. आहार भी करने से ही होता है, इसलिये इस उद्देशे में आहार में का कथन करने हैं. अहो भगवन् ! क्या सब बाणव्यंतर समान आहार करनेवाले हैं ऐसे ही जैसे सोलहले शतक में द्वीप कुमार उद्देशे में कहा वैसे ही यावत् अल्प ऋद्धिवाले कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सख हैं. यह उन्नीसवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा॥१९॥१०॥यह उन्नीसवा शतक समाप्त हु॥१९॥ (०) पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र उनीसवा शतक का दशवा उद्देशा 4g 488 Page #2450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भाव ॥विंशतितम शतकम् ॥ वेइंदिय मागासे, पाणवहे उवचएय परमाणू । अंतरबंधे भूमी, चारण सोबक्कमा २४२० जीवा ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंचबेइंदिया एगयओ साहरण सरीरं बंधति २ ता तओ पच्छा आहारैतिवा परिणामेतिवा सरीरंवा बंधति ? णो इणटे समटे, वेइंदियाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेय सरीरं उन्नीसवे शतक के अंत में वाणव्यतर के आहार की वक्तव्यता कही. आहार से शरीर का बंध होता. हैं इसलिये उन्नीसवे शतक में इस का कथन करते हैं. इस शतक में दश उद्देशे कहे हैं जिन के नामबेइन्द्रियादिक २ आकाश ३ प्राणातिपात ४ उपचर्या ५ परमाणुका ६ रत्नप्रभादिक के अंतर ७ जीवप्रयोगबंध ८ कर्म अकर्मभूमिका ९ जंधाचारण विद्याचारण विचार और १. सोपक्रमनापक्रम विचार. इन दश में से प्रथम उद्दशा का कथन करते हैं. ॥१॥ राजगृह नगर में यावत् ऐसा बोले अहो भगवन् ! चार पांच वेइन्द्रिय एकत्रित मीलकर क्या साधारण शरीर बांध और लपीछे क्या आहार करे, परिणमात्र या शरीर बांध ? अहो गीतम! यह अर्थ योग्य नहीं है. क्यो की प्रत्येक वेइन्द्रिय अलग २ आहारवाले हैं, अलग २ परिणपाने वाले हैं, और अलग २ शरीर बांधने *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२१ बंधति २ त्ता तओ पच्छा आहारैतिवा परिणामेतिंवा सरीरंवा बंधति ॥ २ ॥ तेसिणं . भंते!जीवाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा-कण्ह लेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा एवं जहा एगणवीसइमेसए तेऊकाइयाणं जाव उवटंति ‘णवरं सम्मट्टिीवि, मिच्छद्दिट्टीवि, णो सम्मामिच्छट्ठिी, दोणाणा दो अण्णाणा णियमं, जो मणजोगी, वइजोगीवि, कायजोगीवि, आहारो णियम छदिसिं॥३॥तसिणं भते!जीराणं एवं सण्णाइवा पण्णाइवा मणेइवा वईतिवा, अम्हेणं इट्ठाणिटे रसे इट्टाणिटे फासे पडिसंवेदमा ? वाले हैं इसलिये वे अलग आहाः करते हैं. अलग परिणमाते हैं और अलग शरीर धांधत ॥२॥ अहो भगवन् ! उन को कितनी लेश्याओं कही? अहो गौतम ! उनको तीन लश्याओं कहीं कृष्ण लेकर २ नील लेश्या ३ कापुत लेश्या. ऐसे ही तैसे उन्निमवे शतक में तेउकाया का कहा वैसे ही यावत् उद्धर्तते हैं। वहां तक कहना. विशेष में यहां पर समदृष्टि व मिथ्यादृष्टि ऐसी दो दृष्टि पाती हैं. परंतु मीश्री नहीं पाती है. दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान निश्चयही होते हैं मनयोग नहीं होता है परंतु बचन योग व काया योग होता है. निश्चय ही छदिशि का आहार कहते हैं. ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! उन को ऐसी प्रज्ञा हो, वे मन से ऐसा जाने, अथवा वचन मे ऐसा कहे कि हम इष्ट अनिष्ट रस यावत् स्पर्श अनुभवते ? अहो, 16 गौतम! अह अर्थ योग्य नहीं है, अर्थात् उन को ऐसी प्रज्ञा, मन व वचन नहीं है जिस से ये जानसके विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 88 पंचमांग. ___4:5वीसवा शतक का पहिला उद्देशा 'भावार्थ । Page #2452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 4. अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावार्थ | जो इट्टे समट्ठे ॥ पडसंवेदेति पुणते ॥ ठिई जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारसवच्छराई, सेसं तंचेत्र ॥ एवं तेइंदियाणएवि एवं चउरिंदियाणएवि, णाणत्तं, इंदिसे, ठितीएय, सेसं तंचेत्र, ठिती जहा पण्णवणाए ॥ ४ ॥ सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पंचिंदिया एगयओ साहारणसरीरं, एवं जहा वेइंदियाणं, णवरं छलेस्सा दिट्ठी तिविहा, चत्तारिणाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए, तिविहा जोगा ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं एवं सण्णाइवा पण्णाइवा जाव वईइवा, अम्हेणं आहार माहारेमो ? यावत् कह सके कि हम इष्ट अनिष्ट रस यावत् स्पर्श अनुभवते हैं. मात्र वे वेदते हैं. उन की स्थिति जघन्य अंतर्मूहूर्त उत्कृष्ट १२ शेष पूर्वोक्त जैसे कहना. तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय का भी वैसे ही कहना परंतु स्थिति व इन्द्रिय में विशेषता है. तेइन्द्रिय में तीन व चतुरेन्द्रिय में चक्षु, घ्राण, रसना व स्पर्श ऐसी चार इन्द्रियों हैं. स्थिति तेइन्द्रिय की ४९ दिन की व चतुरोन्द्रिय की छपास की. वगैरह जैसे पचवणा में कहा वैसे ही जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! चार पांच पंचेन्द्रिय मीलकर क्या साधारण शरीर बांधे फीर आहार करे, परिणमात्रे व शरीर बांधे ? अहो गौतम ! जैसे वेइन्द्रिय का कहा वैसे ही यहां जानना विशेष में छ लेश्या, तीन दृष्टि, चार ज्ञान, तीन अज्ञान की भजना व तीन योग हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों को क्या संज्ञा, मन यात्रतू वचन हैं कि हम आहार करते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक को ऐसी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४२२ Page #2453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.81 २४२३ गोयमा ! अत्थेगइयाणं एवं सण्णाइवा, पण्णाइवा मणेइवा, वईइवा, अम्हेणं आहार माहारेमो ॥ अत्थेगइयाणं णो एवं सग्णाइवा जाव वईइवा अम्हेणं आहार माहारमो आहारेंति पुण ते ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं एवं सण्णाइवा जाव वईइवा अम्हेणं इट्ठाणि? सद्दे इट्ठाणिढे रूवे, इट्टाणि? गंधे इट्ठाणि? रसे, इट्टाणि? फासे पडिसंवेदेमो? गोयमा ! अत्यंगइयाणं एवं सण्णाइवा जाव वाईइवा अम्हणं इट्टाणिटेसद्दे जाव इट्ठा णिटेफासे पडिसंवेदेमो अत्येगइयाणं णो एवं सण्णातिवा पण्णातिवा जाव वईतिवाअम्हणं इट्ठाणिटे सद्दे जाव इट्ठाणिटे फासे पडिसंवेदेमो, पडिसंवेदेति पुणते।।तेणं भंते जीवाकिं भावार्थ संज्ञा, पन व बचन होता है कि हम आहार करते हैं और कितनेक को ऐसी सज्ञा, मन व वचन नहीं है. परंतु वे आहार करते हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों को क्या ऐसी संज्ञा, मन व वचन है कि हम इष्ट अनिष्ट शब्द इष्ट अनिष्ट रूप, इष्ट अनिष्ट गंध, इष्ट आनिष्ट रस व इष्ट अनिष्ट स्पर्श वेदते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा यावत् वचन है कि हम इष्ट आनिष्ट रस यावत् स्पर्श वेदते हैं. और कितनेक १०० 30 को नहीं है यावत् वेदते हैं. अहो भगवन् ! वे जीवों क्या प्राणातिपात का सेवन करते हैं ? अहो गौतम ! कितने अविति जीव प्राणातिपात का सेवन करते हैं यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का सेवन करते हैं, और पंचमांग विवाह पणति (भगवती) सूत्र 40 . बीसका शतक का पहिला उद्दशा 42 meroMAnnnwwwAAAAAA 498 Page #2454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पाणाइवाए उवक्खाइजंति पुच्छा ? गोयमा ! अत्यंगइया पाणाइवाए उवक्खाइजति . जाव मिच्छादसणसल्लेवि उवक्खाइजंति, अत्थेगइया णो पाणाइवाए उवक्खाइजति णो मुसावाए उवक्खाइजति जाव णो मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति ॥ जेसिं पियणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिति तेसिपिणं जीवाणं अत्थेगइयाणं विण्णाते णाणत्ते, अत्थेगइयाणं णो विण्णाए जाणत्ते, उववाओ सबओ जाव सन्वट्ठसिद्धाओ ॥ ठिती जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, छसमुग्घाया, केवलवजा, उबट्टणा सव्वत्थ गच्छंति जाव सब्वट्ठसिद्धत्ति ॥सेसं जहा वेइंदियानं ॥ ५ ॥ एएसिणं भंते ! बेइंदियाणं जाव पंचिंदियाणय कयरे कयरे आव विसेकितनेक प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का सेवन नहीं करते हैं. जिन जीवों की विराधना करते EC उन जीवों में कितनेक को ज्ञान है और कितनेक को ज्ञान नहीं है. उपपात सर्व स्थान यावत् सर्वार्थ सिद्ध, स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की, केवलसमुद्धात छोडकर छ समुद्धात कही है. उतना से सर्वत्र जाते हैं यावत् सर्वार्थ सिद्ध, शेष वेइन्द्रिय जैसे कहना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! उन बइन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय में कौन किस से यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे पंन्द्रिय इम • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी * Page #2455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 पंचमान विवाह पण्णत्ति ( भमवती) सूत्र dagi * साहियावा ? गोयमा !सम्बत्योवा पंचिंदिया, चउरिदिया विससाहिया, तेइंदिया बिसे ४. साहिया, वेइंदिया विसेसाहिया ॥ सेवं भंते भंतेत्ति, जाव विहरइ ॥ वीसइमरस सयस्सय पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १०॥ १॥ • कइणं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तंजहा-लोआ गासेय अलीयागासेय ॥ १ ॥ लोआगासेणं भंते ! किं जीवा जीवदेसा एवं जहा है. वितियसए अत्थिउद्देसए तहचेव इहवि भाणियव्वं, णवरं अभिलावो जाव धम्मत्थि कारणं भंते ! के महालए पण्णते ? गोयमा ! लोएलोयमेत्ते, लोयप्पमाणे लोयफुडे से चतुरैन्द्रिय विशेषाधिक इस से तेइन्द्रिय विशेषाधिक इस से वेइन्द्रिय विशेषाधिक. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यानत् विचरने लगे. यह बीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥२०॥२॥ पहिले उद्देशे में द्विइन्द्रियादिक कहः वे आकाश के आधार मे होते हैं. इसलिये आकाश का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन ! आकाश के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! आकाश के दो भेद कहे हैं. 5लोकाकाश और २ अलोकाकाश ॥१॥ अहो भगवन् ! लोकाकाश में क्या जीव जीव देश या जीव प्रदेश हैं वगैरह जैसे द्वितीय शतक के अस्तिकाया उद्देशे में कहा वैसे ही यहां कहना. विशेष में अहो % भगवन् ! धर्मास्तिकामा कितनी बडी कही है ? अहो गौतम ! लोक में लोक मात्र, लोक प्रमाण, लोक} | भावार्थ पासवा शतक का दू. रा. उद्देशा 98 . Page #2456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - PC hinirmaamanna - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी लोयंचेव उग्गाहित्ताणं चिट्ठति. एवं जाव योग्गलस्थिकाए ॥ २ ॥ अहे लोएणं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं ओगाढे ? गोयमा ! साइरेगं अडं ओगाढे, एवं एएणं अभिलावेणं जहा विइयसए जाव ईसिप्पन्भाराणं भंते ! पुढवी, लोयागासस्स किं २४२६ संखेजइ भाग ओगाढा पुच्छा, गोयमा ! णो संखेजइ भागं ओगाढा, असंखेजइ भार्ग ओगाढा, णो संखेजइ भागे ओगाढा, णो असंखेनइ भागे ओगाढा, णो सव्वं लोयं ओगाढा, सेसं तंचेव॥३॥ धम्मत्थिकायस्सणं भंते ! केवइया अभिवयणा प. ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णता तंजहा-धम्मेतिवा धम्मत्थिकाएइवा, को स्पर्श कर रही हुई और लोक को अवगाह कर रही हुई है. ऐसे ही पुद्गलास्तिकाया तक जानना ॥२॥ अहो भगवन् ! नीचा लोक को धर्मास्तिकाया कितनी अवगाह कर रही है ? अहो गौतम ! साधिक आधी धर्मास्तिकाया अवगाह कर रही है. इस अभिलाप से जैसे दूसरे शतक में यावत् ईषत्माग्भार पृथ्वी लोकाकाश को क्या मंख्यानवे भाग से स्पर्शी हुई है वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यातवे , मग को स्पर्श कर नहीं रही है परंतु असंख्यातवे भाग को स्पर्श कर रही है. संख्यात भाग व असं ख्यात भाग लोक को अवगाह कर नहीं रही है, शेष पूर्वोक्त जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया को कितने नाम से बोलाई जाती है ? अर्थात् धर्मास्तिकाया के कितने नाम करें! अहो। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी. भावार्थ 1 Page #2457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 18+- पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 49+ पणाइवायवेरमणेतिवा, मुसावायवेरमणेतिया, एवं जाव परिग्गह वेरमणे, कोहविवेगेतिवा जाव मिच्छादंसण सलविवेगेतिवा, इरियासमिएतिवा भासासमिए तिवा सणासमितिवा • आदाण भंडमत्त निक्खेवणासमिएतित्रा, उच्चारपासवण खेल सिंघाणपरिद्वावणियासमिईतीतिवा, मणगुत्तीया, धइगुत्ती तिवा, कायगुत्ती तिवा; जेयात्रणे सहपगारा सभ्येते धम्मत्थिकायरस अभिवयणा ॥ ४ ॥ अहम्मत्थि कारणं भंते ! केवइया अभिवयणा प० गोयमा ! अणेगा अभिवयणा प० तंजा - अधम्मेतिवा अधम्मत्थिकाएतिवा, पाणातिवाय जाव मिच्छादंसण सल्लेतिवा, ( गौतम ! धर्मास्तिकाया के अनेक नाम कहे हैं. जैसे- धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात विरमण, मृषावाद { विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक, ईर्यासमिति, भाषा समिति एषणा समिति, आदान भंड पात्र निक्षेपन समिति, उच्चार प्रस्रवणखेल जल परिस्थापनीय समिति, मन गुप्ति, बचन गुप्ति, काया गुप्तेि और ऐसे जो कोई अन्य हैं वे सब धर्मास्तिकाया के नाम मे कहाये जाते हैं ॥ ४ ॥ { अहो मगवन् ! 'अधर्मास्तिकाया के कितने नाम कहे हैं ? अहो गौतम ! अधर्मास्तिकाया के अनेक नाम कहे हैं जिन के नाम अधर्म, अधर्मास्तिकाया, माणातिपान यावत् मिथ्या दर्शन शल्य, ईर्यो असमिति 488+- सिवा शतक का दूसरा उद्देशा 4 २४२७ Page #2458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ६०३ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी इरिया असमितीतिया जाय उच्चारपासवण जाव परिद्वावणिया असमितीतिवा, मण अगुतीतिवा, वइअगुत्तीतिवा, काय अगुनीतिवा, जेयावण्णे तहप्पगारा सच्चे ते अहम्मत्किायरस अभिवयणा ॥ ५ ॥ आगासत्थि कायस्सणं पुच्छा, गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पं० तंजहा- आगासेइवा आगासत्धिका एतिवा, गगणेतिवा, नभेइवा. समेतिवा, चिसमेतित्रा; खहेतिया, विहतिवा वीत्तीतिवा, विवरेतिया, अंबरे तिवा, अंबरसेतिबा,छिडेतिवा, झूसिरेतिया मग्गतिवा, विमुहेतिया, अहेतिया, विरुद्वेतिवा, आधारेतिबा, वोमेतिवा, भायणेतिवा, अंतरिक्खेतिवा, सामेतिवा, उवासंततिवा, आगमे तिवा, फलिहेतिया अनंतंतिया, जेयावरण तहप्पगारा सव्वें ते आगासत्थिकायरस अभिभाषा असमिति, यावत् उच्चार प्रस्रवण खेल जल सिंधान परिस्थापनीय असमिति, मन अगुप्ति, बचन अगुप्ति काया अगुप्ति और ऐमे जो अन्य हैं वे मत्र अधर्मास्तिकाया हैं ॥ ५ ॥ आकाशास्तिकाया की पृच्छा, अहो गौतम ! आकाशास्तिकाया के अनेक नाम कहे हैं आकाश, आकाशास्तिकाया, गगन, नभ, सम, विषम वह, विद्या, वीचिर, विवर, अंबर, अम्बरस, छिद्र, झनिर, मार्ग, त्रिमुख, अट्ट, वियत् आधार, व्योम, भाजन, अंतरीक्ष, श्याम, उदानंतर, अगम, स्फटिक, अनंत और वैसे ही ऐसे जो अन्य * प्रकाशक राजाबहदुर लाला सुखदेवसहायनी आलाममादजी २४२८ Page #2459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांग विवाह पस्णति ( भगवती) सूत्र वयणा प० ॥ ६ ॥ जीवत्थिकायस्सणं भंते ! केवइया अभिवयणा प. ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा ५० तंजहा-जीवेतिवा, जीवत्यिकाएतिवा, पाणेतिवा, भूएतिवा, सत्तेतिवा, विष्णूतिवा, चयातिवा, जेयातिवा, आयातिवा, रंगणेतिवा, हिंडएतिवा, पोग्गलेतिवा, माणवेतिया, कत्तातिवा, विकत्तातिवा, जएतिवा, जंतूतिवा, जोणिएतिवा सयंभातिवा, ससरशितिवा, नायातिवा, अंतरप्यातिवा, जेयावण्णे तहप्पगारा, सब्वे ते जीवअभिवयणा प० ॥ ६ ॥ पोग्गलत्थिकायस्सणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा प० तंजहा-पोग्गलेतिवा, पोग्गलस्थिकाएतिवा, परमाणुपोग्गलेतिया हैं वे आकाश के नाम हैं. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! जीवास्तिकाया के कितने नाम हैं ? अहो गौतम ! जीवास्तिकाया के अनेक नाम हैं जैसे जीव, जीवास्तिकाया, प्राण, भूत, सत्व, विज्ञ, चेत, जेता, आत्मा, रंगन, डिक, पुद्गली, मानव, कर्ता, विकर्ता, जया, जंतु, योनिक, स्वयंभू, मशरीरी, हाता, अंतरात्मा और ऐसे ही अन्य प्रकार के नाम जीव के हैं. ॥ ६॥ अहो भगवन् ! पुनलास्तिकाया के कितने नाम कहे* हैं? अहो गौतम ! पुद्गलास्तिकाया के अनेक नाम कहे हैं. पुद्गल, पुद्गलास्तिकाय, परमाणु पुद्गल, दिषदेशिक, तीन प्रदेशिक यावत् अांख्यातादेशिक अनंत प्रदेशिक स्कंध और ऐसे ही जो अन्य है . - वीसा शतक का दूसरा दिशा 48 भावार्थ Page #2460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 दुपदेसिएतिवा, तिपदेसिएतिवा, जाव असंखजपएसिएतिवा अणंतषएसिएतिवा खंधे जेयावण्णे तहप्पगारा जाब सब्वे ते पोग्गलत्थिकायस्स अभिवयणा, प० ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ वीसइमस्स वितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ २ ॥ अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले. पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसण सल्लविवेगे, उप्पत्तिया जाव पारिणामिया, उग्गहे जाव धारणा, उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परक्कमे, णेरइयत्ते, अमुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, णाणावरणिजे जाव अंतराइए, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, सम्मट्ठिीए ३, वरखु. भावार्थ यावत् सब पुद्गलास्तिकाया के नाम कहे हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह वीसवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २० ॥२॥ दूसरे उद्देशे में प्राणातिपातादिक अधर्मास्किाय के पर्यायवाले कहे, अब वही कथन आत्मा को अन्य पना से कहते हैं. अहो भगवन् ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, प्राणातिपात यावत् मिथ्या दर्शनशल्य का त्याग, उत्पातिया यावत् पारिणामिक, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, व पुरुषात्कार पराक्रम, नारकीपना, असुरकुमारपना यावत् वैमानिक पना, ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय. १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी के ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wimmins मांगविवाह पण्णानि ( भगवती ) सूत्र 48+ दसणे ४, आभिाणबाहियणाणे जाव विभंगणाणे, आहारसण्णाए ४, ओरालिय सरीरे ५ , मणजोगे ३ सागारोवओगे, अणागारोवओगे, जेयावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते णण्णत्थ आताए परिणमंति ? हंता गोयमा ! पाणाइवाए जाव सव्वे ते णण्णत्थ 4.२४३१ आताए परिणमंति ॥ १ ॥ जीवेणं भंते ! गम्भं वक्कममाणे कइवण्णे कइगंधे एवं जहा वारसमसए पंचमुद्दसए जाव कम्मओणं जए णो अकंम्मतो विभत्तिभावं परिणए सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ वीसइमस्स तत्तिओ॥ २० ॥ ३ ॥ कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, समदृष्टि ३ चक्षु दर्शन ४ आभिनिवाधिक ज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी, आहार, भय, मैथुन व परिग्रह ऐसी चार मंज्ञा, उदारिक, वैक्रेय, आहारक तेजस व कार्माण ऐसे पांच शरीर, मन, वचन व काया ऐसे तीन योग, और ऐसे अन्य भी क्या आत्मा विना अन्य को a. नहीं परिणमते हैं ? हां गौतम ! आत्मा विना अन्य को नहीं परिणमते हैं. ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता जीव को कितने वर्ण, गंध, रस, वगैरह जैसा बारहवे शतक में पांचवे उद्देशे में कहा यावत पांच वर्ण, दो गंध पांच रस व आठ स्पर्श परिणमते हैं. कार्माण शरीर की अपेक्षा से जीव अनेक भाव 6 से परिणमता है, परंतु कर्म रहित होने से विभक्ति भाव पने नहीं परिणमता है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं, यह बीसवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २० ॥ ३ ॥ 42+वीसना शतक का तीसरा उद्दशा 48 1 Page #2462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ + अनुवादकः बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कविणं भंते! इंदिय उचचए पं ? गोयमा ! पंचविहे इंदिय उच्चए प० तंजहा सोइंदियउवचए एवं वितिओ इंदियउद्देसओ णिरवसेसो भाणियन्त्रो जहा पण्णत्रणाए ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ भगवं गोयमे जाव विहरइ ॥ बीस मस्स चउत्थो ॥ २० ॥ ४ ॥ :०: :०: परमाणुपोग्गलेणं मंते ! कइत्रण्णे, कइगंधे, कइरसे, कइफासे ? गोयमा ! एगवण्णे गगंधे, एगरसे, दुफासे || जइ एग वण्णे-सिय कालए सिय णीलए, सियलोहिए, अहो भगवन् ! इन्द्रिय उपचय के कितने भेद कहे हैं ? अदो गौतम ! इन्द्रिय उपचय के पांच भेद कहे हैं. श्रोत्रेन्द्रिय उपचय ऐसे ही पनत्रणा का दूसरा उद्देशा जो कहा है वह यहां पर निरवशेष कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर भगवान् गौतन विचरने लगे. यह बीसत्रा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २० ॥ ४ ॥ ० ० चौथे उद्देशे में इन्द्रिय का उपचय कहा वह परमाणु से होता है इसलिये आगे परमाणु का स्वरूप कहते { हैं. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल में कितने वर्ण, गंध, रम व स्पर्श हैं ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल { में एक वर्ण, एक गंध. एक रस व दो स्पर्श कहे हैं. यदि एक वर्ण क्षेत्रे तो क्वचित् काला, क्यचित् नीला, * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * २४३२ Page #2463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४३३ सिवहालिद्दए, सियसुक्किल्लए॥जइ एग गंधे-सियसुब्भिगंधे, सिय दुभिगंध।।जइ एगरसे सियतित्ते सियकडुए, सियकसाए, सिय अंबिले, सियमहुरे ॥ जइ दुफासे-सिय सीएय णिडेय सिय सीएय लुक्खेय, सिय उसिणेय गिद्धेय, सिय उसिणेय लुक्खेय, ॥ १ ॥ दुपदेसिएणं भंते ! खंधे कइवण्णे ? एवं जहा अट्ठारसमसए छदेसर जाव सिय चउप्फासे पं० ॥ जइ एगवण्णे- सिय कालए जाब सिय सुकिल्लए, जइ दुवण्णे:सिय कालएय, णीलएय, सिय कालएय लोहिएय, सिय कालएय हालिद्दएय, सिय कालएय सुकिल्लएय, सिय पीलएय लोहियएय, सिय पाल एय हालिद्दएय, भावार्थ क्वचित् लाल, काचित् पीला व क्वचित् शुक्ल होवे यदि एक गंध होवे तो काचित् सुरभिगंध व क्वचित् दुरभिगंध होवे. यदि एक रस होबे तो क्यायित् तिक्त, काचित् कटुक, यचित् कषाय, काचित् अम्बट व चित् मधुर. यदि दो स्पर्श होवे तो काचिन् शीत व स्निग्ध, काचिन शीत व रूक्ष, क्वचित् ऊष्ण व इस्निग्धं और काचित् उष्ण व रूक्ष एसे स्पर्श होवे ॥१॥ अहो भगान् ! द्विपदेशिक स्कंध में कितने ७० वर्ण ऐलेही जैसे अठारवे शतक में छठा उद्देशा कहा यावत् काचित् चार स्पर्श. यदि एक वर्ण है तो चित् काला यावत् काचित शुक्ल, पदि दो वर्ण होवे तो क्वचित् काला, नीला, काचिन् काला लाल. पंचमांम विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4. बीमया शतक का पांचवा उद्देशा 8248 Page #2464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 २४३४ श्री अमोलक ऋषीजी बालब्रह्मचारी मुनि सिय णीलएय सुकिल्लएय, सिय लोहियएय हालिइएय, सिय लोहियएय, सुकिल्लएय, सिय हालिद्दएय मुक्किलएय, एवं एए दुया संजोगे दस भंगा ॥ जइ एग गंधे-सिय सुब्भिगधेय सिय दुब्भिगंधेय, जइ दुगधे सुभिगंधेय दुब्भिगंधेय रसेसु जहा वण्णेसु ॥ जइ दुफासे सिय सीएय गिद्धेय एवं जहेव परमाणुपोग्गले ॥ जइ तिफासे सव्वे सीए देसे णिडे देसे लुक्खे १ सव्वे उसिणे देसे गिद्ध देसे लुक्खे २ सव्वे णिद्वे देसे सीए देसे उसिणे ३ सव्व लुक्ख देसे सीए देसे उसिणे ४, ॥ जइ चउफासे देसे सीए, देसे उसिणे, देसे णिह, देसे लुक्खे; एएणय भंगा फासेसु ॥ २ ॥ तिपएसिएणं भंते ! खधे कइवण्णे जहा अट्ठारसमसए जाव क्वचित् काला पीला, क्वचित् काला शक्ल, क्वचित् नीला लाल, क्वचित् नीला पीला, काचित् नीला शुक्ल क्वचित् लाल पीला क्वचित् लाल शुक्ल और क्वचित् पीला शुक्ल ऐसे द्विमंयोगी दश भांगे कहना. यदि एक गंध होवे तो क्वचित् सुरभिगंध काचित् दुरभिगंध होवे. यदि दो गंध होवे तो सरभिगंध व दुरभि गंध ऐसी दोनों गंध जानना. रस का वर्ण जैस कहना. जैसे परमाणु पुद्गल का कहा वैसे ही दो का जानना. यदि तीन स्पर्श होवे तो ? सब शीत देश स्निग्ध देश रूक्ष, २ सब ऊष्ण देश स्निग्य देश रूक्ष ३ सर्व स्निग्ध देश शील देश ऊष्ण ४ सर्व रूक्ष देश शनिवदेश उष्ण होने यदि चार स तो देश शीत देश उष्ण, देश स्निग्ध व देश रूक्ष ऐसे स्पर्श के नव भांगे जानना. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ | 1 Page #2465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 48 फासे ॥ जइ एगवण्णे सिय कालए जाव मुकिल्लए । जइ. दुवण्णे सिय कालएय सिय णीलएय १, सिय कालएय गीलगाय २, सिय कालगाय णीलएय ३,सिय कालएय लोहियएय ४, सिय कालएय लोहियगाय, सिय कालगाय लोहियएय ६ । एवं हालिद्देणविसमं ३, एवं सुकिल्लएणवि समं ३, सिय णीलएय लोहियएय एत्थवि भंगा ३,॥ एवं हालिइएणविसमं ३,एवं सुकिल्लएणनिसमं ३, भंगा सिय लोहियएय हालिहएय ३, एवं सुकिल्लएणवि समं भंगा ३, सिय हालिहएय सुकिल्लएय भंगा ३, एवं सव्वैते दस दुया संजोगा भंगा तीसं भवति ॥ जइ तिवण्णे-सिय कालएय णीलएय तीन प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण वगैरह जैसे अठारहवे शतक में कहा वैसे ही यावत् चार स्पर्श, यदि एक वर्ण तो क्वचित् काला यावत् शुक्ल यो पांचों भांगे पावे, यदि दो वर्ण पावे तो ? स्यान् एक काला दो हरा (दोनों पुद्गल एक प्रदेश अवगाहकर रहे हुवे होवे इस लिये एक वचन ) २ स्यात् एक काला दो हरा दो काले एक हरा ४ स्यात् एक काला दो लाल ५ स्यात् एक काला दो लाल अनेक स्यात दो काले एक लाल यों काला पीला के तीन मांगे और ऐसे ही काला के तीन मांगे सब १२ भांगे हुवे क्वचित् । एक नीला दो लाल एक वचन २ क्वचित् एक wwmarwarnnnnnnnnnnwmammomanimand वीसवा शतक का पांचवा उद्देशा 488 भावार्थ । Page #2466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४३६ मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी - लोहियएय १,सिय कालएय, पलिएय हालिहएयर, सिय कालएय, णीलएय, सुकिल्लएय ३, सिय कालएय लोहियएय हालिदएय ४, सिय कालएय. लोहियएय सुकिल्लएय५, सिय कालएय, हालिद्दएय सुकिल्लएय ६, सिय णीलएय, लोहियएय, हालिद्दएय ७, सिय णीलएय, लोहियएय सुकिल्लएय ८, सिय णीलएय, हालिद्दएय, सुकिल्लएय ९, सिय लोहियएय हालिबएय सुकिल्लएय १०, एवं एते दस तिया संजोगा ॥ जइ एगगंधे सिय सुभिगंधे सिय दुभिगंधे ॥ जइ दुगंधे सुब्भिगंधेय दुभिगंधेय नीला दो लाल दो प्रदेशावगाही इस से अनेकवचन और ३ दो नीले एक लाल यो नीले पीले व नीले शुक्ल के तीन भागे मीलाकर ९ भाग हुवे. ऐमे ही लाल पीला व लाल शुक्ल व पीला शुक्ल के भी तीन २ भांगे जानना ऐसे वर्ण के ३० भांगे होते हैं. यदि तीन वर्ण पावे तो स्यात् काला, नीला व लाल, २ स्यात काला, नीला व पीला ३ स्यात काला नीला व शुक्ल ४ स्यात काला लाल व पी. स्यात् काला लाल व शुक्ल ६ स्यात् कालापीला व शुक्ल ७ स्यात् नीला लाल व पीला ८ स्यात् नीला लाल व शुक्ल १ स्यात् नीला पीला व शुक्ल और स्यात् १०लालपीला व शुक्ल यों तीन संयोगी दश मांगे कहे. र यदि एक गंध होवे तो मुरभिगंध अशा दुरभिगंध अथवा सुरभिगंध व दुरभिगंध दोनों. रस का वर्ण arvammarAvaram भावाथ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी. Page #2467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Agr+ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र भंगा ३, ॥ रसा जहा वण्णा ॥ जइ दुफासे सिय सीएय गिद्धेय, एवं जहेव दुपदे. सियस तहेव चत्तारि भंगा ॥ जइ तिफासे सव्वे सीए देसे गिद्धे देसे लुक्खे १ सवे सीए देसे गिद्धे देसा लक्खा २ सव्वे सीए देसा णिहा देसे लुक्खे ३, सब्वे उसिणे |२४३७ देस णिद्धे देसे लक्खे एत्थवि भंगा तिणि ६॥ सव्वे गिद्धे देसे सीए, देसे उसिणे भंगा तिष्णि ९ । सव्वे लक्खे देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिणि १२ ॥ जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे, देसे गिद्धे देसे लुक्खे १, देसे सीए देसे उसिणे, ई देसे णिद्धे, देसा लुक्खा २, देसे सीए देसे उसणे देसा णिहा, देसे लुक्खे ३, जैसे कहना. अब स्पर्श के भांगे कहते हैं, यदि दो स्पर्श पावे तो स्यात् शीत व स्निग्ध यों जैसे द्विपदेशिक स्कंध का कहा वैसे ही यहां चार भांगे करना. यदि तीन स्पर्श होवे तो सर्व शीत देश स्निग्ध . देश रूक्ष २ सर्व शीत एक स्निग्ध दो रूक्ष अनेक वचन ३ सर्व शीत जिस में दो स्निग्ध एक रूक्ष ४ सर्व ऊष्ण जिस में एक स्निग्ध एक रूक्ष, एक आकाशदेश अवगाहना आश्री वगैरह छ भांगे होवे. सर्व स्निग्ध एक शीत एक उष्ण एसे तीन और सर्व रूक्ष एक शीत एक ऊष्ण यों तीन सत्र मीलकर बारह मांगे होते हैं. यदि चार सर्श होवे तो एक शीत, एक ऊष्ण जिस में एक स्निग्ध एक रूक्ष एक आकाश प्रदेश । अवगाहित होने से एक वचन ही ग्रहण किया है. २ एक शीत एक ऊष्ण जिस में एक निग्ध अनेक रूका 88 वीसवा शतक का पांचवा उद्देशा भावार्थ Page #2468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ Dios 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री ऋषिजी देसे सीए देसा उसिणा, देसे णिद्धे, देसे लुक्खे ४ देसे सीए. देसा उसिणा देसे - णि देसा लुक्खा ५, देसे सीए देसा उसिणा, देसा णिड़ा, देसे लुक्खे ६, देसा सीया देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लुक्खे ७, देसा सीया देसे उसेणे देसे णिद्धे देसा लक्खा ८ देसा सीया देसे उसिणे देसा णिद्धा देसे लुक्खे ९, एवं एए तिपदेसिएफासेसु पणवीसं भंगा ॥ ३ ॥ चउप्पदेसिएणं भंते ! खंधे कइवण्णे जहा अट्ठारसमसए जाव सिय चउफासे १० || जइ एगवण्णे सिय कालएय जाव सुक्किलएय ॥ जइ एक शीत एक ऊष्ण जिस में अनेक स्निग्ध एक रूक्ष ४ एक शीत अनेक ऊष्ण जिस में एक स्निग्ध एक रूक्ष ५ एक शीत अनेक ऊष्ण जिस में एक स्निग्ध अनेक रूक्ष ६ एक शीत अनेक ऊष्ण जिस में अनेक (स्निग्ध एक रूक्ष ७ अनेक शीत एक ऊष्ण जिस में एक स्निग्ध एक रूक्ष ८ अनेक शीत एक ऊष्ण जिम में एक स्निग्ध अनेक रूक्ष ९ अनेक शीत एक ऊष्ण जिस में अनेक स्निग्ध एक रूक्ष यों तीन प्रदेशिक स्कंध में स्पर्श के २५ भांगे हुवे और वर्ण के ४५ गंध के पांचव, रस के ४५, मीलकर १२० भांगे हुवे ३ ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! चार प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण गंध, रस व स्पर्श पाते हैं. चार प्रदेशिक स्कंध में जैसे अठारवे शतक में कहा वैसे ही यहां कहना अहो गौतम ! यावत् स्पर्श पाते हैं. यदि एक * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४३८ Page #2469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सत्र 488 दुवण्णे सिय कालएय णीलएय १ सिय कालएय गीलगाय २, सिय कालगाय णीलएय ३, सिय कालगाय णीलगाय ४, सिय कालएय लोहियएय एत्थवि चत्तारि भंगा ४, सिय कालएय हालिद्दएय ४, सिय कालएय सुकिल्लएप ४, सिय णालएय लोहियएय ४, सिय णीलएय हालिहएय ४, सिय णीलएय सुकिल्लएय ४, सिय लोहियएय हालिदएंय ४, सिय लोहियएय सुकिल्लएय ४ सिय हालिद्दएय सुकिल्लएय ४, एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीसं ४०, ॥ जइ तिवण्णे सिय कालएय णीलएय लोहियएय १, सिय कालएय णीलएय वर्ण होवे तो चारों ही क्वचित् काले यावत् क्वचित् शुक्ल यों पांच भांगे. यदि दो वर्ण होवे तो स्यात् काले के दो,हरेके दोर स्यात् काला का एक हरेके तीन३ काले के तीन हरेका एक और ४ काले के दो हरे के दो यहां दो प्रदेश अवगाहना आश्री है. ये काले व हरे के चारे भांगे हुवे वैसे ही काले व लाल के चार भांगे, काले पीले के चार भांगे, काले शुक्ल के चार भांगे, हरे व लाल के चार भांगे, नीले व पीले के चार भांगे, नीले व शुक्ल के चार भांगे, लाल पीले के चार, लाल शुक्ल के चार और पीले व शुक्ल के चार भांगे करना. यों दो वर्ण के द्विसंयोगी. ४० भांगे होवे. यदि तीन वर्ण होवे तो १ स्यात् एक कालाई । 488'बीसवा तक का पांचवा उद्देशा 4.28. Page #2470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहितगाय २, सिय कालएय णीलगाय लोहितएय ३, मिय कालगाय णीलएय लोहियएय, एएणं चत्तारि भंगा ॥ एवं कालणील-हालिइएहिं भंगा ४ ॥ काल. णील-मुक्किल्ल ४ ॥ काल-लोहिय-हालिद्द ४ ॥ काललोहिय-सुकिल्ल ४ । कालहालिद्द-सुकिल्ल ४ । णील-लोहिय-हालिहगाणं भंगा ४ । णीललोहिय-सुक्किल । णील-हालिद्द-सुकिल्ल ४ । लोहिय हालिद्द-सुकिल्लगाणं भंगा ४ । एवं एए दसतिया संजोगा एकेके संजोए चत्तारि भंगा, सव्वं ते चत्तालीसं भंगा । जदि चउवण्णे-सिय 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + . प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ स्यात एक हरा व स्यात् एक प्रदेशावगाही दो पुद्गल लाल २ स्यात एक पुद्गल काला, एक हरा और दो लाल दो प्रदेशावगाही ३ स्यात् एक काला दो हरे व एक लाल ४ स्यात् दो काले एक हरा एक लाल यो चार भांगे ऐसे ही काला, हरा व पीले के चार भांगे, काला नीला व शुक्ल के चार भांगे, काला लाल व पीले के चार भांगे, काला लाल व शक्ल के चार भांगे, काला पीला व के चार भांगे, हरा लाल पीला के चार भांगे, हरा, लाल शुक्ल के चार भांगे, हरा, पीला शुक्ल के चार भांगे और लाल पीला व शुक्ल के चार भांगे यो दश तीन संयोग हुवे एक २ संयोग में चार२ भांगे हुवे, मब मील कर ४० भांगे तीन संयोगी हुवं. यदि चार वर्ण होवे तो स्यात् काला, हरा, Page #2471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ *०८३ पंचमाङ्ग विवाह पष्णति ( भगवती ) सूत्र 480 nios fiers लोहियएय हालिइएय १, सिय कालएय णीलएय लोहियएय लिए २, सिय कालएय पीलएय हालिदएय मुक्किलएय ३, सिय कालएय लोहियएय, हालिएय, सुकिल्लएय ४, सिय नीलएय लोहियएय हालिएय सुकिलएय ५, एवमेते चक्क संजोए पंचभंगा ॥ एए सव्वेणउइ भंगा। जइ एग गंधे- सिय सुभिधेय सिय दुब्भिगंधेय । जइ दुगंधे- सिय सुब्भिगंधेय दुब्भिगंधेय ४ ॥ रसा जहा वण्णा । जइ दुफासे-जहेब परमाणुपोग्गले ॥ जइतिफासे- सव्वेसीए देसे ि देसे लक्खे १, सव्वे सीए देसे मिद्धे दंसा लक्खा २, सब्बेसीए देसा णिद्धा देते लाल व पीला २ काला, हरा, लाल व शुक्ल ३ काला, हरा, पीला व शुक्ल ४ काला, लाल, पीला व शुक्ल और ५ हरा, लाल, पीला व शुक्ल या चार संयोगी पांच भांगे जानना यो सब मील कर वर्ण के ९० भांगे जानना. यदि एक गंध होवे स्यात् सुरभिगंध स्वात् दुरभित्र यदि दो गंध अलग २ होवे तो सुरभिगंध दुरभिगंध के चार भांग पूर्वोक्त जैसे कहना. यों गंध के ६ भांगे हुवे. पांच रस के ९० भांग पांच वर्ण जैसे कहना. स्पर्श में यदि दा स्पर्श होवे तो जैसे परमाणु पुद्गल का कहा वैसे ही कहना. यदि तीन स्पर्श होत्रे तो १ सर्व शीतस्पर्शवाले देश स्निग्ध देश रूक्ष २ सर्व शीत स्पर्शनाले एक स्निग्ध तीन रूक्ष 483* बीसना शतक की पवित्रा उद्देशा 409 २४४१ Page #2472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४२ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + लुक्खे ३, सव्वे सीए देसा णिद्धा देसा लुक्खा ४, सव्वे उसिणे देसेणिद्धे देसे लुक्खे एवं भंगा ४ । सव्वे गिद्धे देसे सीए देसे उसिणे ४ । सव्वे लुक्खे देसेसीए देसेउसिणे ४ । एएतिफासे सोलसं भंगा ॥ जइ चउप्फासे देसेसीए, देसे उसिणे देसेणिद्धे, देसेलुक्खे १, देसे सीए देसे उसिणे, देसेणिढे देसा लुक्खा २ । देसेसीए देसे उसिणे देसाणिद्धा देसे लुक्खे ३, देसेसीए, देसेउसिणे, देसाणिडा देसालुक्खा४। देसेसीए देसा उमिणा, देसेणिद्धे, देसेलुक्खे ५, देसेसीए देसा उसिणा, देसेणिद्धे, देसा लुक्खा ६ । देसे सीए देसा उसिणा, देसा णिहा देसे लुक्खे ७ । देसेसीए देसा १३ सर्व शीतवाले तीन स्निग्ध एक रूक्ष ४ सर्व शीतवाले दो स्निग्ध दो रूक्ष यों चार भांगे. जैसे शीत के चार मांगे कहे वैसे ही ऊष्ण के चार भांगे कहना और ऐसे ही सर्व स्निग्ध व सर्व रूक्ष के चार २ भांगे कहना. इस तरह तीन स्पर्श के सोलह भांगे हुवे. यदि चार स्पर्श होवे तो देश शीत देश उष्ण देश स्निग्ध व देश रूक्ष. २ देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व बहुत देश रूक्ष ३ देश शीत देश ऊष्ण बहुत देश स्निग्ध व देश रूक्ष ४ देश शीत देश ऊष्ण बहुत देश स्निग्ध ब बहुत देश रूक्ष ५ देश शीत बहुत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष ६ देश शीत बहुत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व बहुत देश रूक्ष ७ देश शीत बहुत * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ Page #2473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 4 उसिणा देसाणिहा देसालुक्खा ८ । देसा सीया देसे उसिणे देसेणिद्धे देसेलुक्खे ९ । एवं एए चउफासे सोलस भंगा भाणियब्वा जाव देसा सीया, देसाउसिणा देसा णिद्धा देसा लुक्खा, सब्वे एते फासेसु छत्तीसं भंगा ३६, २२२ ॥ ४ ॥ पंच पएसिएणं | २४४३ भंते ! खंधे कइवण्णे जहा अट्ठारसमसए जाव सिय चउफासे पण्णत्ते ॥ जइ एगवण्णे एगवण्ण दुवण्णा जहेव च उप्पसिए ॥ जइ तिवण्णे सिय कालएय णीलएय लोहिय एय १, सिय कालएय णीलएय लोहियगाय २, सिय कालएय णीलगाय लोहिभावार्थ । देश ऊष्ण बहुत देश स्निग्ध व देश रूक्ष ८ देश शीत बहुत देश ऊष्ण बहुत देश स्निग्ध व बहुत देश रूक्ष ९ बहुत देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष १० ऐसे ही चार स्पर्श के सोलह भांगे कहना यावत् । | Nire बहुत दश शांत बहुत देश ऊष्ण बहुत देश स्निग्ध व बहुत देश रूक्ष यों सब मीलकर स्पर्श के ३६ भांगे हुवे. यों चार प्रदेशिक स्कंध में वर्ण के ९०, गंध के ६, रस के ९०, और स्पर्श के ३६ कुल २२२ भांगे हुए ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! पांच प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण, गंध, रस, व स्पर्श पाते हैं ? अहो गौतम ! जैसे अठारवे शतक में कहा वैसे ही यहां जानना. यावत् चार स्पर्श कहे हैं. यहां एक वर्ण के ५ और दो वर्ण के ४० भांगे जैसे चार प्रदेशिक स्कंध के कहे वैसे ही यहां कहना. यदि तीन । पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र बीसवा शतक का पांचवा उद्दशा 43 PO Page #2474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावाथ * अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ree ३, सिय कालय णीलगाय लोहितगाय ४, सिय कालगाय णीलएय लोहि५, सिय कालगाय णीलस्य लोहियगाय ६, सिय कालगाय णीलगाय लोहियrय ७, सिय कालएय पीलस्य हालिदएव एत्थविसत्त भगा ७ ॥ एवं कालय नीलय सुकिल्लएसु सत्त भंगा ७, कालगलो हिय हालिद्देसु ७ कालगलोहिय सुकिल्लेसु ७ कालगहालिदसुकिल्लेसु ७ णीउग लोहिय हालिद्देसु ७ णलिगलोहिय किल्ले ७. सत्त भंगा नीलहालिंद सुकिल्लेसु ७, ले. हियहालिदसुकिल्ले मुवि सत्त भंगा ७, एवमेव तियसंजोएण सत्तारि भंगा ॥ जइ जउवण्णे सिय कालएय नीलए लोहियrय हालिद्दस्य १, सिय कालएय नीलएय लोहियएय हालिदगाय २ > वर्ण पात्रे तो ? स्यात् काला, हरा व लाल २ स्यात् काळा हरा एक वचन लाल अनेक वचन ३ स्यात् काला एक हरा अनेक व लाल एक ४ स्यात् काला एक हरा व लाल अनेक ५ स्यात् काला अनेक हरा न लाल एक ६ स्यात् काला अनेक हग एक व लाल अनेक ७ स्यात् काला नीला अनेक लाल एक ये सात भांगे हुवे. स्यात् काला, हरा व पीला इस में भी सात भांग, काला, हरा, व शुक्ल सात भांगे, 10 काला, लाल व पीले में सात भांग, काला लाल व शुक्र में सान भांगे, काळा पीला व शुरू में सात भांगे, हरा लाल व पीला में सात भांगे, हरा लाल व शुक्ल में सात भांगे, हरा पीला व शुक्ल में सात भांगे और * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४४४ Page #2475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ १९- पंचमांग विवाहपण्णेति ( भगवती ) सत्र सिय कालस्य णीलस्य लोहियगाय हालिदगेय ३, सिय कालएय नीलगाय लोहियगेय हालिय ४, सिंय कालगाय णीलएय लोहियगेय हालिद्दगेय ५ ॥ एएपंच भंगा || सिय कालएय नीलएय लोहियएय सुक्किलएय, एत्थवि पंच भंगा ॥ एवं कालगणील गहालि सुकिल्लएसुवि पंच भंगा ॥ कालगलोहिया लिद क्लिएसुवि पंच भंगा || नीललोहियहालिदम किल्लसुत्रे पंच भंगा ॥ एव मेते चउक्कसंजोएणं पणवीसं भंगा ॥ जइ पंचत्रण्णे कालएय णीलएय लोहिय लाल पीला व शुक्र में सात भांगे या तीन संयोगी ७० भांगे होते हैं. यदि चार वर्ण होवे तो स्यात् (काला, हरा, लाल व पीला २ स्यात् काला, हरा, लाल एक वचन और पीला अनेक वचन ३ स्यात् ( काला, हरा एक वचन लाल अनेकवचन पीला एकवचन ४ स्यात् काला एक वचन हरा अनेक लाल ब पीला एक वचन ५ स्यात् काला अनेक हरा लाल व पीला एक यो पांच भांगे वैसे ही स्यात् काला हरा (लाल व शुक्ल उन में भी पांच, ऐसे ही काला, हरा, पीला व शुक्ल इन में पांच भांगे, {काला, लाल, पीला व शुक्र में पांच भांगे. इरा, लाल, पीला व शुक्ल में पांच भांगे. यो चार संयोगी पच्चीस भांगे हुवे. यदि पांच वर्ण होवे तो काला, हरा, लाल, पीला व शुक्र यो एक ही बीसवा शतक का पांचवा उद्देशा 4 + २४४५ Page #2476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - हालिद सुकिल्लएय सब मेते एक्कग दुयग तियग चउक्क पंचग संजोगेणं इयालं भंगसयं भवंति ॥ मंधा जहा चउप्पदसिपस्स ॥ रसा जहा वण्णा ॥ फासा जहा चउप्पदेसियस्स ॥ ५॥ छपदसिएणं भंते ! कइवण्णे ? एवं जहा पंचपएसिए जाव सिय चउप्फासे १ण्णत्त ॥ जइ एगवण्णे एगवण्णदुवण्णा जहा पंचपएसियस्स ॥ जइ तिवण्णे सिय कालएय णीलएय लोहियएय एवं जहंव पंचपएसियस्स सत्त भंगा जाव सिय कालगाय णीलगाय लोहितएय ७। सिय कालगाय भांगा होता है. इस तरह एक दो, तीन, चार व पांच संयोगी के १४१ भांगे वर्ण के होते हैं. गंध का चार प्रदेशिक स्कंध जैसे कहना, रस का वर्ण जैसे कहना और स्पर्श का चारप्रदेशिक स्कंध जैसे ३६ भांगे कहना. यों वर्ण के १४१, गंध के , रस के १४१, और स्पर्श के ३६, सब मीलकर ३२४, भांगे पांच प्रदेशिक कंध के हुए ॥ ५॥ अहो भगवन् ! छ प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण गंध रस स्पर्श कहे ? अहो भी गौतम ! पांच प्रदेशिक स्कंध का कहा वैसे ही यहां कहना यावत् पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व चार स्पर्श कहे हैं. यदि एक वर्ण होवे तो स्यात् काला. हरा व लाल यों जैसे पांच प्रदेशी में सात भांगे कहे तैसे यहां भी करना उस का सातवा भांगा इस तरह स्यात् काले अनेक हरे अनेक और लाल एक और * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ Page #2477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र णीलगाय लोहितगाय ८ ॥ एए अट्ठ भंगा ॥ एव मेते दस तिया संजोगा एकेक्कसंजोगे अट्ठ भंगा ॥ एवं सव्वेवि तिय संजोगे असीति भंगा ॥ जइ चउवण्णे-सिय कालएय णीलएय लाहितएय हालिदएय १, सिय कालएय णीलएय २४४७ लोहिएय हालिदगाय २, सिय कालएय णीलएय लोहियगाय, हालिद्दएय ३, सिय कालएय, णीलएय, लोहियगाय, हालिदगाय ४, सिय कालएय गीलगाय लोहियएय हालिइएय ५, सिय कालएय णीलगाय लोहियएय हालिदगाय ६, सिय कालएय णीलगाय लोहियगाय, हालिइएय ७, सिय कालगाय णीलएय लोहियएथ आठवा भांगा इस तरह अधिक करना स्यात काला, हरा व लाल अनेक ये आठ भांगे जानना. ऐसे दश तीन संयोगी हुवे और एक २ संयोग में आठ २ भांगे पावे सब मीलकर अस्सी भांगे हुवे. यदि चार वर्ण होवे तो १ स्यात काला, हरा, लाल, वं पीला २ स्यात् कालाई हरा, लाल एक व पीला अनेक ३ स्यात् काला, हरा एक लाल अनेक व पीला एक ४ स्यात् काला, हरा एक लाल व पीला अनेक ५ स्यात् काला एक हरा अनेक लाल. व पीला एक ६ स्यात् काला एक हरा अनेक लाल एक व पीला अनेक ७ स्यात काला एक हरा लाल अनेक पीला एक म्यात काला । 488वीसवा शतक का पांचवा उद्देशा भावार्थ 8 Page #2478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४८ MAM अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + हालिद्दएय ८, सिय कालगाय णीलएय लोहियएय हालियाय ९, सिय कालगाय णीलएय लोहियगाय हालिबएय १०, सिय कालगाय णीलगाय, लोहियएय हालिद्दएय ११, एएकारस भंगा ॥ एक्मेर पंच चउक्क संजोगा कायव्वा । एकेक संजोए एक्कारस भंगा । सव्वते चउक्कसंजोगेण पणपण्णभंगा ॥ जइ पंचवण्णे-सिय कालएय णीलएय, लोहियएय, हाम्हिएय, सुक्किल्लएय १, सिय कालएय लिएय लोहियएय, हालिहण्य, सुकिल्लगाय २, सिय कालएय, णीलएय लोहियगेय,हालिहगाय,सुकिल्लगेय३, सिय कालएय, णीलएय, लोहितगाय, हालिद्दगेय, सुकिल्लएय. ४, सिय. कालएय अनेक हस, लाल व पीला एक ९ स्यात् काला अनेक हरा, लाल एक व पीला अनेक १० स्यात् काला E अनेक हरा एक लाल अनेक व पीला एक ११ स्यात् काला, हरा अनेक लाल पीला एक में आयारह भांगे हुवे एसे ही चार संयोगी पांच कहना. एक २ चतुष्क संयोगी के अग्यारह २ भांगे कहना सब. मिलकर ५५ मांगे चार संयोगी के जानना. यदि पांव वर्ण होवे तो १ स्यात् काला, हरा, लाल, पीला व शुक्ल २ स्यात् काला हरा, लाल व पीला एक और शुक्ल अनक ३ स्यात् काला हेग लाल एक पीला अनेक व शुक्ल एक ४ स्याल काला हरा एक लाल अनेक व पीला शुक्ल एक ५ स्यात् काला एक मा अनेक व. लाल पीला शुक्ल. एक ६ स्यात् काला अनेक हरा, लाल, पीला व भुक्ल एक ऐसे छ, भांगे. • प्रकाशक-राजीबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - णीलगाय लोहियएय हालिइएय सुकिल्लएय ५, सिय कालगाव गीलएष, लोहिय. एय हालिइएय सुकिल्लएय ६, एवं एए छ भंगा भाणियन्वा, एवमेते सन्वेवि एकग दुयगतियगचउगसंजोग पंचग संजोगेस एवं छासीयं भंगसयं भवंति ॥ गंधा जहा पंचपएसियस्स ॥ रसा जहा एयस्स चेव वण्णा ॥ फासा जहा चउप्पएसियस्स ॥ ६ ॥ सत्त परसिरणं भंते ! खंधे कइबण्णे ? जहा पंचपएसिए जाव सिय चउप्फासे पण्णत्ते जइ एगवण्णे-एवं एगवण्णदुवण्ण तिवण्णा जहा. छप्पएसियरस, जइ चउवण्णे-सिय कालएय गीलएय लोहियएय हालिदएय १, सिय काल एय भावार्थकहना. यों एक संयोगी द्विसंयोगी ४० तीन मयोगी ८० चार सयोगी ५५ और पांच संोगी। सब १८६ मांगे जानना. गंध के छ पांच प्रदेशिक जैसे कहना, रस के १.८६ वर्ण जैसे कहना और स्पर्श के १६ भांगे चार प्रदेशी जैसे कहन'. यों वर्ण के १८६ गंध के ६ रस के १.८६ और स्पर्श के ३६ सब मोलकर ४५४ भागे हुए ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! सात प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण मंध रस व स्पर्श पाने हैं ? अहो गौतम ! सात प्रदेशिक स्कंध में पांच वर्ण, दो गंध पांच रस व चार स्पर्श वगैरह जैसे पंचा देशिक संजैसे करना. एक पर्ण दो वर्ण और तीन वर्ण का छ मदेशिक स्कंघ जैसे पाच, चालीस पण्यत्ति ( भगवती ) सूत्र 48g वासना शतक का पांचवा उद्देशा Page #2480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । * अनुवादक़:बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६ ग्रीलएय लोहियएय हालिहगाय २,सिय कालएय णीठएय लोहियगाय हालिइएय ३,एवमेते . चउक्क संजोगेणं पण्णरसभंगाभाणियव्याजाव सियकालगाय पीलगाम लोहियगाय हालिन् 3 : 'हएय ॥ १५ ॥ एवमेते पंच चउक्कसंजोगा णेबव्वा एक्केकसंजोए पणरस: भंगा सव्वमेते पंचसत्तरि भंगाभवति ॥ जइ पंचवण्णे सिय कालएय णीलएयं लोहियएय हालिंबएय सुकिल्लएय १, सिय कालएय णी एय लोहियएय हालिद्दएप सुक्किलगाय २,.. सिय कालपय णीलएय लोहियएय हालिद्दगाय सुाक्कल्लएय ३,सिय कालएय णीलएय लोहियएय हालिहंगाय, सुकिल्लगाय ४, सिय कालएय णीलएय लोहियगाय हालिइएय सुकिल्लएय' व अस्सी भांगे पाते हैं. यदि चार वर्ण होवे तो १ स्यात् काला हरा, लाल व पीला एक २ काला हरा लाल एक पीला अनेक ३ काला हरा एक लाल अनेक पीला एक यों चार मयोगी. १५ भांग जानना. यावत् स्यात् काला, हरा एक बाल अनेक पीला एक ऐसे पांच चार संयोगी करना. एक२ चार संयोगी के पनाह भांगे करना सब मीलकर चार संयोगी के ७५ भांगे होते हैं. यदि पांच वर्ण होवे तो. ११ यात् काला, हरा, लाल, पीला व शुक्ल २ स्यात् काला हरा, लाल पीला एक व शुक्ल अनेक ३ स्यात् काला इस लाल एक पीला अनेक व शुक्ल एक ४. स्यात् काला . इरा लाल एक पीला शुक्ल अनेक ५ *.प्रकाशक राजावहदुर-लाला सुखदवसंहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचभाग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र क तिथ कालएय, णीलएय, लोहियगाय हालिएय सुकिलगाय ६, सिय कालएय मीलएय लोहियगाय हालिद्दगाय सुकिल्लएय ७, सिय कालएय नीलगाय लोहियएथ हादिस्य सुल्लिएय ८, सिय कालएय, नीलगाय, लोहियएय हालिद्दरय सुकिल्लगाय सिय कालगेय णीलगाय लोहियएय हालिंगाय सुक्किलगेय . १०, सिंय * कालस्य नीलगाय लोहियगाय हालिइएय सुकिल्ल एय ११, सियकालगाय णीलएयलोहियएय हालिइएय सुकिल्लएय १२, सिय कालगाय णीलएय लोहियएय हालिएय किलगाय : १२, सिय कालगाय णीलएय लोहियएय हालि गाय सुकिल्लएय १४, ( स्यात् काला 'हरा एक लाल अनेक - पीला शुक्ल. एक ६ स्यात् काला इस एक लाल अनेक पीला एक शुक्ल अनेक ७ स्यात् काला नीला एक लाल पीला अनेक व शुक्लः एक ८५ स्यात् काला एक हरा. अनेक लाभ पीला शुक्र एक ९ स्यात् काला एक हरा अनेक लाल पीला एक और शुक्ल अनेक. १० स्यात् काला एक हरा अनेक लाल एक पीला अनेक शुक्ल एक ११ स्यात् काला एक हरा लाल अनेक पीला शुक्ल एक १२ स्वात् काला अनेक हरा, लाल, पीला व शुक्ल एक १३ स्थात काळा अनेक हरा लाल पीला एक अनेक १४ स्यात काला अनेक इस लाल एक पीला अनेक शुक्ल एक-२५- स्यालकाला अनेक हरां " * १९ बीसवां शतक का पाँचवा उद्देशा 60 २४५१ Page #2482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 田 अनुवादक - बालवझचारी मुनि श्री अम लकऋषिनी भावार्थ सिय कालगाव णीए लोहियगाथ हालिएय सुविलएय ३५, सिय कालगाय नीलंगाय लोहियrय हालिए मुलिएय १६, एए सोलस भंगा । एवं सव्वमते एकग दुयग तियग चक्कग पंचग संजोगेण दो सोलस भंगसभा भवति ॥ गंधा जहा चउपदेसियस्स || रसा जहा एपस्स चैत्र aण्णा ॥ फासा जहा चउप्पदेमियस्स ॥ ७ ॥ अटुप्पदेसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा ? गोयमा ! लिय एगवण्णे जहा सत्तपए सियरस जान सिय चउफा पण ॥ जइ एगवण्णे - एगत्रण दुवण्ण तिवण्णा जहा सतपएसिए | जइ उवण्णे- सिय कालए पीलएय लोहियएय हालिइएय १, सिय कालएय, नीलएष, एक लाल अनेक पीला व शुक्ल एक १६ स्थात काला दरा अनेक लाल पीला व शुरू एक यों सोलह मांगे जानना. यों एक संयोगी ५ द्विसंयोगी ४० तीन संयोगी व्यार संयोगी ७५ और पांच संयोगी १६ सब | मीलकर २१० पांच वर्ण के भांगे हुवे. गंध के ६ भांगे चार प्रदेशिक स्कंध जैसे जानना. रस के २१६ भांगे वर्ण जैसे करना और स्पर्श के ३६ भांगे करना. सब पीकर -मात प्रदेशिक स्कंध के ४०४ भागे होते हैं. ॥ ७ ॥ अव आठ प्रदेशिक स्कंध की पृच्छा करते हैं. अहो भगवन् ! आठ प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण गंध रम व स्पर्श कहे हैं ? अहो गौतम ! एक वर्ण होने यावत् जैसे सातप्रदेशिक स्कंध का * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी | २४५२ Page #2483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 4 . लोहियएय, हालिहगाय २, एवं जहेव सत्तपएसिए जाब सिय कालगाय गीलगाय लोहियगाय, हालिद्दगाय १६ ॥ एए सोलस भंगा ॥ एवमेते पंच चउक्क संजोगा एवमेते असीति भंगा ॥ जइ पंचवणे-सिय कालएय णीलएय लोहियएय हालिहएय सुक्किाएय, एवं एएणं कमेणं भंगा उच्चारेयव्वा जाव सिय कालएय णीलगाय लोहियगाय हालिहगाय सुकिल्लएय १५; एसो पण्णरसमो भंगो, सिय कालगाय णीलगेय लोहियएय हालिद्दएय सुकिल्लएय १६, सिय कालगाय णीलगेय लोहियएय पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सम्र 40 बीसवा शतकका पविमा उद्देशा भावार्थ कहा वैसे ही कहना यावत् क्वचित् चार स्पर्श होवे यदि एक वर्ण होवे आठों प्रदेश काले वगैरह एक दो की तीन वर्ण का सात प्रदेशिक स्कंध जैमें कहना. यदि चार वर्ण होवे तो स्यात् काला, हरा, लाल व पीला एक २ स्यात काला, हरा लाल एक पीला अनेक ऐसे ही जैसे सात प्रदेशों का कहा वैसे ही कहना यावत् स्यात् काला हरा लाल व पीला अनेक वचन यों सोलह भांगे करना एसे ही काला हरा, लाल व शिल यों पांच बार संयोगी करना. प्रत्येक चार मयोगी में सोलह २ मांग जानना. सब मीलकर ८०* भांगे चार वर्ण के हुवे. यदि पांच वर्ण होवे तो काला हरा, लाल पीला व घेत एक बचन यो अनुक्रम से नैसे पहिले भांगे कई वैसे ही १५ भांगे करना यावत् स्यात् काला एक हरा, बाल, पला । - 4 Page #2484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48.अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी? . हालिदएय सुक्षिालगाय १७, सिय कालगाय णीलएय लोहियएय हालिदगाय सुकिल्लगेय १८, सिय कालगाय णीलगेय लोहितगेय हालिहगाय सुक्कि. ल्लगाय १९, सियकालगाय णीलगेय लोहितगाय हालिहएय सुक्किल्लएय २०, सिय कालगाय णीलगेय लोहियगाय हालिद्दएय सुक्किलगाय २१, सिय कालगाय णीलगेय लोहियगाय हालिहंगाय सुकिल्लगेय २२, सियकालगाय णीलगाय लोहियएय हालिहएय सुकिल्लएय २३, सियकालगाय णीलगाय लोहियगेय हालिहएय सुक्किन्नगाय २४, सियकालगाथ णीलगाय, लोहियगेय हालिद्दगाय सुकिल्लएय .२५, अनेक व श्वेत एक यह पन्नरहवा भांगा हुवा १६ स्यात् काला अनेक हरा लाल पीला श्वेत एक १७ स्यात् काला अनेक हरा लाल पीला एक श्वेत अनेक १८ स्यात् काला अनेक हरा लाल एक पीला अनेक श्वेत एक १९ स्यात् काला अनेक हरा लाल एक पीला श्वेत अनक २० स्यात् काला. अनेक हरा एक लाल पीला श्वेत एक२१स्यात् काला अनेक हरा एक लाल अनेक पीला एक श्वेत अनेक २२स्यात् काला अनेक हरा कलाल पीला अनेक शुक्ल एक२३स्यात् काला हरा अनेक लाल पीला व शुक्ल.एक २४स्यात काला हरा अनेक लाल पीला एक शुक्ल अनेक२५स्यात् काला हरा अनेक लाल एक पीला अनेक वे शुक्ल एकरस्यात् काला हरा • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुंखदैव सहायमी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 48 सियकालंगाय णीलगाय लोहितगाय हालिद्दएय सुकिल्लएय २६, एए पंचसंजोएणं छब्बीस भंगा भवंति, एवामेव सपुव्वावरेणं एक्कगदुयगतियग चउकाग पंचग संजोगेहिं एकतीसं भंगसयं भवति ॥ गंधा जहा सत्तपदेसियस्स ॥ रसा जहा एयस्स चेववण्णा ॥ फासा चउप्पदेसियस्त ॥ ८॥ णवपदेसियस पुच्छा ? गोयमा ! सिंय एगवण्णे जहा अट्टपदेसिए जाव सिय चउफासा पण्णत्ता ॥ जइ एगवण्णे एगवण्ण दुवण्ण तिवण्ण चउवण्णा जहेब अट्ठपदेसियस्स ॥ जइ पंचवण्णे- सिय भावाथ लाल अनेक पीला व शुक्ल एक यों पांच वर्ण के पांच संयोगी२६भांगे हुवे. ऐसे ही अनुक्रम से पांच वर्ण के सब मिलकर २३१ भांग होते हैं. गंव का सात प्रदेशी स्कंध जैस कहना. रस का इस के वर्ण जैसे कहा और स्पर्श का चार प्रदेशी स्कंध जैसे ३६ भांगे जानना. सब मिलकर आठ प्रदेशी स्कंध के ५०४ भांग होते हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! नव प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण गंध रस ब स्पर्श पाते हैं ? अहो । गौतम ! स्यात् एक वर्ण दो तीन यावत् पांच यों ही दो गंध, पांच रस व चार स्पर्श के आठ प्रदेशिक PA स्कंध जैसे जानना. यदि एक वर्ण होवे तो एक वर्ण के पांच भांगे, दो वर्ण के ४० भांगे, तीन वर्ण के V८० भांगे, चार वर्ण के ८० भांगे यों सब भांगे आठ प्रदेशिक स्कंध जैसे जानना. यदि पांच वर्ण पावे ..! * पंचमांग विवाह पस्णत्ति (भगवती) सूत्र वसिवा शतक का पांचवा उद्देशा 4888 Page #2486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालएय णीलएय लोहियएय हालिहएय सुक्किल्लएय १ सियकालएय णीलएय लोहियएय हालिबएय सुकिल्लगाय २, एवं परिवाडीए एकतीसं भंगा भाणियन्वा जाव सिय कालगाय णीलगाय लोहियगाय हालिहगाय सुकिल्लएय एकतीसं भंगा॥ एवं एक्कग दुयग तियग चउक्कग पंचग संजोगेहिं दो छत्तीसं भंगसया भवंति ॥ गंधा जहा अटुपदेसियस्स ॥ रसा जहा एयस्स चेव वण्णा ॥ फासा जहा चउप्पदेसियस्स ॥ ९॥ दसपदेसियस्सणं भंते ! खंधे पुच्छा । गोयमा ! सिय एगवण्णे-जहा णवपदेसिए जाव चउफासे पण्णत्ते ॥ जइ एगवण्ण-एगवण्ण दुवण्ण तिवण्ण चउवण्णा जहेव णव भावार्थ सो स्यात् काला, हरा, लाल पीला व श्वत एक २ स्यात् काला, हरा, लाल व पीला एक शुक्ल अनेक इस परिपाटि से एकतीस भांगे कहना यारत् स्यात् काला, हरा, लाल पीला एक त अनेक यों एक संयोगी ५ द्विसंयोगी ४० तीन संयोगी ८० चार संयोगी ८० और पांच संयोमी ३१. सब मिलकर वर्ण के १२३६ मांग हुबे. गंध के ६ भांगे, रस के वर्ण जैसे २३६ भांगे, और स्पर्श के चार प्रदेशी स्कंध जैसे "१३० भांगे सब मिलकर नव प्रदेशिक स्कंध के ५१४ भांगे हुवे ॥१॥ अहो भगवन् ! दश प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्नादि पाते हैं ? अहो गौतम ! स्यात् एक वर्ण वगैरह जैसे नव प्रदेशिक का कहा वैसे ही 48 भनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजावादुर लालो मुखदवमहायजी ज्वालामसादजी. l - Page #2487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परेसियत्स ॥ पंचवण्णावि तहेव णवरं वत्तीसइमोवि भंगो भण्णइ, एवमेते एकग दुयगतियग चउक्कग पंचग संजोएसु दोणि सत्ततीसं भंगसयं भवति ॥ गंधा जहा णवपदेसियस्त ॥ रसा जहा एयरस चेव वण्णा फासा जहा चउप्पदेसियस्स ॥ जहा दसपदेसिओ. एवं संखेजपएसिओ एवं असंखेजपएसिओवि सुहुमपरिणओ अणंत पएसिओ एवं चेव, ॥१०॥ बादरपरिणएणं भंते! अणंतपदेसिए खंधे कइवण्णे? एवं जाव अट्ठारसमे सर जाव सिय अट्टफासे पण्णत्तेवण्णगंधरसा जहा दसपदेसियरस॥जइ चउफासे कहना यावत् चार स्पर्श. यदि एक वर्ण होवे तो एक वर्ण के पांच मांगे दो वर्ण के द्विसंयोगी ४०, तीन संगेगी ८०, चार मयोगी ८० भांगे होवे. यादे पांच वर्ण होवे तो ३१ भांगे पूर्वोक्त जैसे जानना और ३२ वा स्यात् काला, हरा, लाल, पीला व श्वेत सब अनेक वचन क्यों कि दश प्रदेशिक स्कंध है. वर्ण के IFमब मिलकर २३७ भांगे होते हैं. गंध के हरम के २३७ वर्ण जेमे और स्पर्श के ३६ चतुष्क प्रदेशिक कंच जमे कहना. यह दश प्रदेशी स्कंध के ५१६ भांगे हुवे. ऐसे ही संख्यात प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशिक का मानना. सूक्ष्म परिणत अनंत प्रदेशिक स्कंध का भी वैसे ही कहना ॥ १० ॥ अहो अगवन् ! बादर परिणत अनंत प्रदेशिक स्कंध में कितने वर्ण, मंध, स्म व स्पर्क को हुवे हैं ? अहो मौतम ! जैस - पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र 498 486+-बीसबा शतक का पांचवा उद्देशा 4.7607 , | 1 Page #2488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamanianimatinik 14 ... सव्वेक्खडे सत्वे गुरुए सव्वे सीए सने गिद्धे १,सव्वे कक्खडे सत्वे गुरुए सव्वे सीए सवें लुक्खें २, सव्वे कक्खडे, सन्चे गुरुए, सव्वे उसिणे, सव्वे णिडे ३, सब्वे .. कक्खडे सवे गुरुए, सब्वे उसिणे सन्चे लुक्खे ४, सव्वे कक्खडे, सबैलहुएं, सव्वे |२४५८ सीए सव्वेणिढे ५, सव्वकक्खड़े सवेलहुए, सव्वेसीए सव्वे लुक्खे ६, सवे कक्खडे, सव्वे लहुए सव्व उसिणे सव्वे णिढे ७, सब्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वै लुक्खे सव्वेमउए सव्वे गुरुए सम्बेसीए सव्वे गिद्ध ९, सोमठए, सव्वेगुरुए सव्वसीए सव्वे लुक्खे १०, सव्वेमउए सब्वे गुरुए सव्वे । भावार्थ अठारवे शतक में कहीं जैसे यावत् स्यात् आठ स्पर्श कहे हैं. वर्ण, गंध, रस का दश प्रदेशिक स्कंध जैस कहनाः यदि चार स्पर्श होने तो सब कर्कश सब गुरु सत्र शीत व सब स्निग्ध २ सत्र कर्कश सब गुरु - सब शीत, व. सब रूक्ष ३ .सब कर्कश सब गुरु सब ऊष्ण व सब स्निग्य ४ सब कर्कश सब गुरु सब उष्ण व सब रूक्ष ६ सब कर्कश मब लघु सब शीत व सब स्निग्ध ६ सय कर्कश सब लघु सब शीत व सब रूक्ष १७ सब कर्कश सब लघु संव ऊष्ण व सब स्निग्ध ८ सब कर्कश सब लघु सब ऊष्ण व सब रूक्ष ९ सब मृदु स्थ गुरु सब शीत च सत्र स्निग्धः १०. सब मृदु-सब गुरु. सब शीत व सर रूक्ष ११. सब मृदु-सब गुरु S * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपानी * प्रकाशक-राज़ाबादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी , .. .. Page #2489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - "4" इता.) सूत्र : :उसिणे सव्वणिः ११, सत्वे मठए- सल्वेगुरुए सवेउसिणे सव्वे लुक्ख १२, सव्वे .. - मउए सव्वे लहुए सव्वेसीए सव्वेणिढे ३३, सव्वेमउए, सव्वे. लहुए सव्वेसीए सव्वे .... लुक्खे. १४ सव्वेमउए सव्वे लहुए सव्वै उम्णेि सवे गिद्धे १५, सव्वे मउए सव्ये - लहुए सव्वे उसिणे सब्वे लुक्खे; १६ एएसौलस भंगा॥ जइ पंचफासे-सव्व कक्खडे 3. सत्वगुरुए सव्वसाए, देसे गिद्धे देसे लुक्ख १: सव्वे कक्खडे, सव्वे गुरुए. सव्वेसीए दूस, गिद्धे देसा लुक्खा २, . सव्वे कक्खड़े सव्वे गुरुए सव्वेसीए देसा णिहा दुसालक्खा ३, सव्वेकक्खडे, .. सव्वेगुरुए, सव्वेसीए, देसाणिद्धा देसालुक्खा ४, भावाथसब उष्ण व सब स्निग्ध १२ सत्र मुह सब गुरु सब ऊष्ण व सब रूक्ष १३ सब मुदु सब लघु सब शीत सब स्निग्ध १.४ सब मृद सब लघु मध, शीत सय रूक्ष १५ सब मृदु सब लघु सब ऊष्ण व सब स्निग्ध १६ सब मृदु सव लघु मब ऊष्ण व सव रूक्ष यो मोलह भांगे होनें. यदि पांच स्पर्श होवे तो १ सय ककर्श सब गुरु सेव शीत देश स्निग्ध देश रूक्ष २ सब कर्कश सब गुरु सब शीत देश स्निग्ध एक वचन दिश स अनेक वचन ३ सब कर्कश सब गुरु सत्र शीत देश स्निग्ध देश रूक्ष- अनेक वचनांतपद ४ मर्व कर्कश सर्व गुरु: सर्व शीत देश निरभ देश: रूक्ष यह एक चौभंगी कर्कन्न गुरु व शीत की स्निग्ध रूक्ष की बसियां शतक का पांचवा उद्देशा" YEAREssa Sardaadiwancial Page #2490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सोकक्खडे सव्वंगुरुए सन्वेउसिणे देसेणिडे देसैलुक्खे ४, सम्वेकक्खडे सम्वे लहुए सब्वेसीए देसे गिद्धे देसे लुवखे ४, सव्वे कक्खडे सन्चे लहुए सम्वेउसिणे देसणिद्धे देसेलुक्खे ४, एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा ॥ सव्वेमउए सव्वेगुरुए सम्बेसीए देसे णिडे देसे लुक्खे ४, एवं मउएणवि समं सोलस भंगा ॥ एए बत्तीस भंगा ॥ सवे कक्खडे सव्वे गुरुए सव्वे गिद्धे देसे सीए देसे उसिणे ४, सब्बे कक्खड़े सवे गुरुए सब्वे लुक्खे देसेसीए देसे उसिणे ३ एए बत्तीसं भंगा ॥ सव्वे कक्खडे सव्वे सीए सब्वे गिद्ध देसे गुरुए देसे लहुए ४, एत्थवि बत्तीसं भंगा ॥ माथ हुई. ऐसे ही सर्व कर्कश सर्व गुरु सर्व उष्ण की स्निग्ध व रूक्ष की चौभंगी, सर्व कर्कश्म, लघु वशीत , की देश स्निग्ध व रूक्षकी साथ चौभंगी, सर्व कर्कश लघु व ऊष्णकी स्निग्य व रूक्ष साथ चौभंगी. इस तरह कर्कशकी. साथ मोलह भांगे जानना. जैसे कर्कश के सोलह भांगे हुवे ही मृदु के सोलह भांगे कहना. यों बचीस मांगे हु.सई कर्कश सर्व गुरु सवस्निग्ध देश शीत व देश ऊष्ण सर्व कर्कश सर्व गुरु, सर्व रुक्ष देश शीत व देश ऊष्ण कयों कर्कश के दूसरे वत्तीम गंगे जानना, सर्व कर्कश सर्व शीत सर्व स्निग्ध देश गुरुवदेश लघु इसमें भी बचीस भांगे करना. सर्व गुरु सर्व शीत सर्व स्निग्ध देश कर्कश व देश मृदु इस में भी बत्तीस भांगे करना. ऐसे पांच marwarnmome प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 18+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूष 48 सवे गुरुए सवेसीए सम्वे गिद्धे देसे कक्खडे देसे मउए ४, एत्थवि बत्तीस भंगा एवं सव्वेते पंचफासे, अट्ठावीसं भगसयं भवति ॥ जइ छप्फासे-सब्बेकक्खडे सब्बे गुरुए देसेसिए देसेउसिणे देसेणिडे देसेलुखे १, सव्वे कक्खडे सव्वे गुरुए देसेसीए देसे उसिणे देसेणिद्धे देसालुक्खा २, एवं जाव सब्वेकक्खडे सब्वेगुरुए देसासीया देसाउसिणा देसाणिद्धा देसालुक्खा ॥ एए सोलस भंगा ॥ सव्वे कक्खडे सब्वे लहुए . देसेसीए देसेउसिणे देसेणिद्धे देसेलुक्खे एत्थवि सोलस भंगा ॥ सव्वे मउए सब्वे गुरुए देसेसीए देसेउसिणे देसेणिढे देसेलुक्खे एत्थवि सोलस भंगा ॥ सब्वे मउए स्पर्श के सब मीलकर १२८ भांगे पांच स्पर्श के होवे यदि छ स्पर्श हो तो सर्व कर्कश, सर्व गुरु देश में शीत देश ऊष्ण देश स्निग्धदेश रूक्ष २ सर्व कर्कश सर्व गुरु देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध एक देश कक्ष अनेक वचनांत ऐसेही यावत् सर्व कर्कश सर्व गुरु देश शीत, देश ऊष्ण, देश स्निग्ध व देश रूक्ष अनेक ईयों सोलह भांगे करना. सर्व कर्कश सर्व लघु देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व देश कस के भी सोलह भांगे जानना. सपमृदु सबगुरु देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष के भी सोलह मांगे करना और सब मृदु सब लघु देश शीतदेश ऊष्णदेश स्निग्ध व देशरूम के भी सोलहभांमे करना. यों कर्कश मुदुके चौसठभागे । ____488 बीसवा शतक का पांचवा उद्देशा १४ Page #2492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६२ नई ‘सचे लहुए देसेसिए देसेउसिणे देसेणिद्धे देसेलुक्खे एत्थवि सोलस भंगा ॥ एए चउसट्ठि भंगा ॥ सव्वे कक्खडे सव्वेसीए देसेगुरुए देसेलहुए देसेणिडे देसेलुक्खे एवं जाव सव्वे मउए सव्वेउसिणे देसा गुरुया देसा लहुया देसा णिहा देसा लुक्खा एत्थवि चउसट्ठि भंगा ॥ सव्वे कक्खडे सव्वेणिद्धे देसेगुरुए देसेलहुए देसेसीए देसेउसिणे जाव सव्वे मउए सव्वेलुक्खे देसागुरुया देसालहुया देसासीया देसाउसिणा एए चउसट्टि भंगा ॥ सव्वे गुरुए सब्बेसीए देसेकक्खडे देसमउए देसेणिडे देसे लुक्खे एवं जाव सत्रे लहुए सव्वे उसिणे देसा कक्खडा देणा मउया देसा वार्थ हुवे. सब कर्कश सब शीत देश गुरु देश लघु देश स्निग्ध व देश रूक्ष ऐसे ही यावत् सर्व मृदु सर्व ऊष्ण देश गुरु देश लघु देश स्निग्ध देश रूक्ष यों चौसठ भांगे कहना. सर्व कर्कश सर्व स्निग्ध देश गुरु देश लघु देश शीत व देश ऊष्ण यावत् सर्व मृद सर्व रुक्ष देश गुरुं देश लघु देश शीत व देश ऊष्ण अनेक वचनांत बों चौसठ भांगे हुवे. सब गुरु सब शीन, देश कर्कश देश मृदु देश स्निग्ध व देश रूक्ष ऐसे ही यावत् सब लघु सब ऊष्ण देश कर्कश देश मृदु देश स्निग्ध देश रुक्ष के चौसठ भांगे जानना. सब गुरु सब स्निग्ध । देश कर्कश देश मृदु देश शीत देश ऊष्ण पावत् सर्व लघु सब रूक्ष देश कर्कश देश मृदु देश शीत देश 2. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी के * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी चालाप्रसादजी Page #2493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडा देसा लुक्खा ॥ एए चउसट्टि भंगा ॥ सवे गुरुए सव्वे गिद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसेसीए देसे उसिणे जाव सव्वे लहुए सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा सीया देसा उसिणा ॥ एए चउसटूि भंगा॥ सब्वे सीए सव्वणिद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए जाव सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसागरुया देसा लहुया एवमेते चउसट्ठि भंगा॥सव्वे ते छप्फासे तिणि चउरासिया भंगसया भवंति ३८४ ॥ जइ सत्तफासे सव्वे कक्खडे देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे , सव्वे कक्खडे देसे गुरुए ऊष्ण यों चौसठ भांगे कहना. स. शीत सब स्निग्ध देश कर्कश देश मुदु देश गुरु देश लघु यावत् सब ष्ण सब लक्ष देश कर्कश देश मद देश गम व देश लघ के चौसठ भांगे कहना. छ स्पर्श के सब मीलकर E तीन सो चौरासी भांगे होते हैं. यदि सात स्पर्श होवे तो ? सब कर्कश, देश गुरु देश लघु देश शीत देश उष्ण, देश स्निग्ध देश रूक्ष २ सब कर्कश देश गुरु देश लघु देश शीत देश ऊष्ण एक वचन देश स्निग्ध 13 देशरूक्ष अनेकवचनांत यों चार भांगे कहना. ४ सब कर्कश देशगुरु देश लघु देश शीत एक वचन देश ऊष्ण 15 अनेक वचन देश स्निग्ध व देश रूक्ष एक ४सब कर्कशदेश गुरु देश लघु देश शीत अनेक वचन देश ऊष्म 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मत्र 88 488 वीसवा शतक का पांचवा उद्देशा -23 भावार्थ Page #2494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. देसे लहुए देसे.सीए देसे सिणे देसा णिहा देसा लुक्खा ४ सव्वे कक्खडे देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे गिद्धे देसे लुक्खे ४ सव्वे कक्खडे देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लुक्खे४सवे कक्खडे देसे गुरुए देसे लहुए देसासीया देसा उसिणा देसे गिद्दे देसे लुक्खे, सम्वेते सोलस भंगाभाणियव्वा । सव्वे कक्खडे देसे गुरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्दे देसे लुक्खे, एवं गुरुएणं एगत्तेणं लहुएणं पुहत्तेणं सोलस भंगा॥सव्वे काखडे देसा गुरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे एएवि सोलस भंगा भाणियव्वा।सव्वे कक्खडे एक वचन देश स्निग्ध व देश रूक्ष ४ सब कर्कश देश गुरु देश लघु एक पचन देश शीत देश उष्ण अनेक वचन देश स्निग्ध देश रूक्ष ४ यो सब सोलह भांगे हुवे. सब कर्कश देश गुरु एक देश लघु अनेक देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध दश रूक्ष ऐमे ही गुरु एक वचन व लघु अनेक वचन में सोलह भांगे कहना. सब कर्कश एक देश गुरु अनेक वचन देश लघु देश शील देश ऊष्ण देश स्निग्ध व देश रूक्ष इम के भी सोलह भांगे कहना, सब कर्कश देश गुरु देश लघु अनेक देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष ये सोलह भांगे जानना. यों चौसठ भांगे • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 Page #2495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६५ भगवती ) मूत्र 428 देसा गुरुया देसा लहया देसे सीए देसे उसिणे देसेणिद्धे देसे लुक्खे एएवि सोलस भंगा भाणियन्वा ॥ एव मेते चउसट्टि भंगा कक्खडेणसमं ॥ सव्वे मउए देसेगुरुए देसेलहुए देसेसीए देसेउसिणे देसेणिद्धे देसेलुक्खे ॥ एवं मउएणवि चउसटि भंगा भाणियन्वा ॥ सव्वे गुरुए देसेकक्खडे देसेमउए देसेसीए देसेउसिणे देसेणिद्धे देसे है लुक्खे, एवं गुरुएणवि चउसट्टि भंगा कायब्वा ३ ॥ सव्वे लहुए देसे कक्खडे देसेमउए देसेसीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसेलुक्खे, एवं लहुएणविप्तमं चउसट्टि भंगा कायव्वा ॥ सव्वेसीए देसेकक्खडे देसेमउए देसेगुरुए देसेलहुए देसेणिडे देसे कर्कश की साथ कहना. सब मृदु देश गुरु देश लघु दंश शीत देश उष्ण, देश स्निग्ध और देश रूक्ष ऐसे मृदु के भी ६४ भांगे. सब गुरु देश कर्कश देश मृद देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष ऐसे गुरु के ६४ भांगे, सघ लघु देश कर्कश देश मृदु देश शीत देश ऊष्ण देश निग्य देश रूक्ष यों लघु की साथ १६४ भांगे, सब शीत, देश कर्कश देश मृद देश गुरु देश लघु देश स्निग्ध देश रूक्ष यों शीत की साथ १६४ भामे, सर्व ऊष्ण देश कर्कश, देश मृदु देश गुरु देश लघु देश स्निग्ध देश रूक्ष यो. उष्ण की साथ ६४ भांगे, सब स्निग्ध देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देश लघु देश शीत. देश ऊष्ण यों 20 बीसवा शतक का पांचवा उद्देशा + पंचांग विवाह 90+ 1 Page #2496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी 8 लुक्खे एवं सीतेणवि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा ॥ सव्वे उसिणे देसेकक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसेलहुए देसे गिद्दे देसे लुक्खे ॥ एवं उसिणेणवि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा ॥ सव्वे णिद्धे देसे कक्खडे देसेमउए देसेगुरुए देसेलहुए देसे सीए देसेउसिणे ॥ एवं णिडेणवि समं चउसट्टि भंगा कायव्वा ॥ सव्वे लुक्खे देसे कक्खडे देसेमउए देसेगुरुए देसे लहुए देसेसीए देसे उसिणे, एवं लुक्खेणवि समं चउसट्ठि भंगा कायव्वा ॥ जाव सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गुरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा एवं सत्तफासे पंचबारसुत्तरा भंगसया भवंति ॥ जइ अट्ठफासे-देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए स्निग्ध के ६४ भांगे, सब रूक्ष देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देशलघु देश शीत व देशऊष्ण यों रूक्ष के ६४ भांगे यावत् सब रूक्ष देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देश शीत देश ऊष्ण अनेक वचन यो सात स्पर्श के सब मीलकर ५१२ भांगे हुवे. यदि आठ स्पर्श होवे तो देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देश लघु देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व देश रूक्ष ४ देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देश लघु देश शीत एक देश ऊष्ण अनेक देश स्निग्ध देश कक्ष एक ४ देश कर्कश देश मृदु देश गुरु देश लघु एक देश शीत देश ऊष्ण अनेक प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #2497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U ... - पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48+ देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहए देसे सीए देसा उसिणा देसे गिद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहए देसा सीया देसा उसिणा देसे गिद्धे देसे लुक्खे ४, देसे कक्खडे २४४७ देसे मउए, देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे णिहे देसे लक्खे ४, एए चत्तारि चउक्का सोलस भंगा ॥ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसा लहथा देसे सीए देसे उसिणे, देसे णिहे देसे लुक्खे ॥ एवं एते गुरुएणं एगत्तेणं पुहत्तणं सोलस भंगा कायव्वा ॥ देसे कक्खडे देसे मउए देसा गुरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लुक्खे एए सोलस भंगा कायव्वा ॥ देसे कक्खडे देसे मउए देस। गुरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे गिद्धे देसे लुक्खे. देश स्निग्ध देश रूक्ष एक ४ देश कर्कश देश मृद देश गुरु देश लघु एक देश शीत देश ऊष्ण अनेक देश स्निग्ध व देश रूक्ष ४ यो चार चौक के सोलह भांगे हुवे देश कर्कश देश मृदु देश गुरु एक देश लघु अनेक देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष ४ यो गुरु एक अनेक के सोलह भांगे जानना. देश कर्कश, देश मृदु देश गुरु अनेक देश लघु देश शीत देश उष्ण देश स्निग्ध देश रूक्ष यों सोलह भांगे करना.. देव कर्कश देश मृदु एक देश गुरु देश लघु अनेक देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व देश रूक्ष यों । 4.80 बीसवा शतक का पांचव उद्दश। 80 भावार्थ ४ Page #2498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६८ 14 एए वि. सोलस भंगा कायव्वा ॥ सव्वेवि ते चउसट्टि भंगा ॥ कक्खड - मउएहिं एगत्तएहिं ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं, मउएणं पुहत्तेणं एते चेव चउसद्धि भंगा कायव्वा॥ ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं, मउएणं एगत्तएणं चउसर्टि भंगा कायव्वा ___ ताहे एतेहिं चेव दोहिंवि पुहत्तेहिं चउसद्धिं भंगा कायव्वा ॥ जाव देसा कक्खडा देसा मउया, दंसा गुरुया, देसा लहुया, देमासीया देसाउसिणा, देसाणिडा देसालुक्खा एसो अपच्छिमो भंगो सव्वेते अट्टफासे दो छप्पण्णा भंगसया भवंति ॥ एवं एतेवादरपरिणए अगंतपएसिए खंधे सव्वेसु संजोएसु वार छण्णउया भंगसया भवंति ॥११॥ कइविहेणं भंते ! परमाणुपोग्गले पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे परमाणुपोग्गले भावार्थ सोलह भांगे जानना. सब मीलकर कर्कश मृदु के एक के ६४ भांगे जानना. फीर कर्कश एकत्व व मृदु अनेक के ऐसे ही ६४ भांगे करना, वैसे कर्कश अनेक व मृदु एक के ६४ भांगे और कर्कश व मृदु दोनों अनेक के ६४ भांगे करना यावत् देश कर्कश देश मृदु देश लघु देश शीत देश ऊष्ण देश स्निग्ध व देश बत अनेक. सब मीलकर आठ स्पर्श के २५६ भांगे होवे. चादर परिणत अनंत प्रदेशिक स्कंध के चार स्पर्श के १६ पांच के १२८ छ के ३८४ सात के५१२ व आठ स्पर्श के २५६ सब मीलकर १२९६ भांगे, 17हुवे ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल के किनने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! परमाणु पुद्गल के। 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाद पण्णत्त ( भगवती ) सूत्र 4 पण्णत्ते तंजहा- दव्वपरमाणु, खेत्तपरमाणु कालपरमाणु भावपरमाणु ॥ दव्वपरमाणूणं भंते ! कवि पण्णत्ते ? गोयमा ! चउन्विहे पण्णत्ते तंजहा अच्छेजे अभेजे अडजे अगेजे ॥ परमाणू भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते ? तंजहा अणड्डे, अमझे, अपसे, अविभागे ॥ कालपरमाणु पुच्छा ? गोयमा ! चउन्विहे पण्णत्ते तंजा - अवणे अगंधे अरसे अफासे ॥ भावपरमाणूणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते तंजहा वण्णमंते गंधमंते रसमंते फासमंते ॥ सेवं भंते ! अहो भगवन् ! द्रव्य {चार भेद कहे हैं. १ द्रव्य परमाणु २ क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु, व भाव परमाणु परमाणु के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य परमाणु के चार भढ़ कहे हैं. १ अछेद्य २ अभेद्य १३ अदाह्य और ४ अग्राह्य. अहो भगवन् ! क्षेत्र परमाणु के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! क्षेत्र पर{माणु के चार भेद कहे हैं. १ अर्ध रहित २ मध्य रहित ३ प्रदेश रहित और ४ विभाग रहित. अहो भगवन् ! काल परमाणु के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! काल परमाणु के चार भेद कहे हैं. १ वर्ण रहित २ गंध रहित. ३ रस रहित व ४ स्पर्श रहित. अहो भगवन् ! भाव परमाणु के कितने भेद) कहे हैं ? अहो गौतम ! चार भेद कहे हैं. १ वर्ण सहित २ गंध सहित ३ रस सहित व ४ स्पर्श सहित 4884 बसवा शतक का पवित्रा उद्देशा २४६९ Page #2500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावाथ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भंतेति ॥ वीसइमस्स सयस्य पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ ५ ॥ पुढवीकाइएणं भंते! इमीसे रयणप्पभाएय सकरप्पभाएय अंतरा समोहए समोह • णित्ता जे भविए सोहम्मेकप्पे पुढवीका इयत्ताए उववज्जित्तए, सेणं भंते ! किं पुि उववजित्ता पच्छा आहारेजा, पुत्रि आहारिता पच्छा उववज्जेजा, ? गोयमा ! पुविवा उववजित्ता एवं जहा सत्तरसमसए छहुद्देसए जाब से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ पुचिचा उववजेज्जा णवरं तेहिं संपाउंणिण्णा, इमेहिं आहारो भण्णइ, सेसं तचेत्र * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायत्री ज्वालाप्रसादजी ● ( अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह वीसवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २० ॥ ५ ॥ पांचवे उद्देशे में पुद्गल परिणाम कहा, छठे उद्देशे में पृथ्वी आदि जीव परिणाम कहने हैं. अहो भगवन् { जो पृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभा व शर्कर प्रभा की बीच में मारणांतिक समुद्धात करके सौधर्म देवलोक में) पृथ्वी कायापने उत्पन्न होनेवाला होता है वह क्या पहिला उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है अथवा पहिला आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! पहिला उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है। ऐसा जो सतरहवे शतक के छठे उद्देशे में कहा यावत् अहो गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है कि पहिले उत्पन्न होवे और पीछे आहार करे, विशेष में वहां संपाउण्ण कहा, और यहां पर आहार करना २४७० Page #2501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hot r . ६.38 २४७१. ॥ ॥ पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए, जे भविए ईसाणेकप्पे पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए ॥ एवं चेव जाव ईसिप्पभाराए उववाएयव्वो ॥ २ ॥ पुढवीकाइएण भंते ! सक्करप्पभाए वालु यप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए, समोहइत्ता जेभविए सोहम्मे जाब ईसिप्पभाराए ॥ एवं एएणं कमेणं जाव तमाए । अहे सत्तमाएं पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जे. भरिए सोहम्मे कप्पे जाव ईसिप्पडभाराए उववाएयव्वो ॥ ३ ॥ पुढवीकाइएणं भंते ! ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा व शर्कर प्रभा.की शंच में पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात से *काल करके ईशान देवलोक में पृथ्वी कायापने उत्पन्न होवे वगरह पूर्वोक्त जैसे यावत् ईपत्मारभार पृथ्वी-14 काया में उत्पन्न होव ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! शर्कर प्रभा व बालु प्रभा की बीच में पृथ्वी काया मारणातिक समुद्धात करके सौधर्म देवलोक में पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वगैरह इस क्रम में छठी तमा व सातवी तमतमा पृथ्वी की बीच में पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात करके सौधर्म देवलोक में पृथ्वीकायापने उत्पन्न होवे वगैरह. सब पूर्वोक्त जैसे कहना. यावत् ईषत्मा-3, भार पृथ्वी में उत्पन्न होवे ॥ ३ ॥ सौधर्म ईशान व सनत्कुमार माहेन्द्र की बीच में । Nag पंचगंग विवाह पष्णन्ति ( भगवती ) सूत्र भावार्थ वीसंवा शतक का छठा उद्देशा Page #2502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र नावार्थ सोहम्मीसा सणकुमार माहिंदाणय कप्पाणं अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभा पुढवी पुढची का इयत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते! पुत्रि उववजित्ता पच्छा आहारज्जा सेसं तंचेव, जाव से तेणट्टेणं जाव णिक्खेवओ | पुढवीकाइयाणं भंते ! सोहम्मीसाणाणं संणकुमारमाहिंदाणय कप्पाणं अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भवि सकरप्पा पुढवीए पुढवीकाइयत्ताए उपवजित्तर ॥ एवं चेत्र एवं जात्र अहे सत्तमाए उववायव्वो ॥ एवं सणकुमारमाहिंदाणं बंभलोगस्स कप्परस अंतरा समोह समोहइत्ता पुणरवि जाव अहे सत्तमा उववाएयव्वो । एवं बंभलोगस्स उत्पन्न होने योग्य अहो भगवन् ! सौधर्म शर्करप्रभा पृथ्वी पृथ्वी काया मारणांतिक समुद्धात से कालकर के रत्नप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीका पने होता वह क्या पहिले उत्पन्न होकर पछि आहार करे वगैरह पूर्वोक्त जैसे कहना. {ईशान व सनत्कुमार माहेन्द्र की बीचमें से पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात कर के इस पृथ्वीकाया पने उत्पन्न होवेतो वह क्या पहिले उत्पन्न होवे और पीछे आहार करे अथवा पहिले आहार करे और पीछे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे पूर्वोक्त कहा वैसे ही यहां जानना ऐसे ही नीचे • सातवी पृथ्वी तक कहना. इसी क्रम से सनत्कुमार माहेन्द्र व ब्रह्म देवलोक के बीच की पृथ्वीकाया का 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४७२ Page #2503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंतगस्सय कप्पस्स अंतरा समोहए पुणरवि जाव अहे सत्तमाए , एवं लंतगस्स महामुक्करस कप्पस अंतरासमोहए पुणरवि जाव अहे सत्तमाए एवं महामुक्करस सहस्पारस्सय कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव अहे सत्तमाए एवं सहस्सारस्सय आणयपाणयकप्पाणं अंतरा पुणरवि जाव. अहे. सत्तमाए एवं आणयपाणय आरणअच्चताणय कप्पाणं अंतरा, पुणरवि जाव अहे मत्तमाए एवं आरण अच्चुताणंगवेजगविमाणाणय अंतरा पुणरवि जाव अहे सत्तमाए एवं गेवेजगविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणय अंतरा पुणरवि जाव अहे सत्तमाए, एवं अणुत्तरविमाणाणं इतिप्पभाराएय पुणरवि जाव अहे सत्तमाए उववायव्यो ॥ ४ ॥ आउकाइएणं भावार्थ जानना. ऐसे ही ब्रह्मलोक व लंतक के बीच का पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात यावत् नीचे सातवी, पृथ्वी में पृथ्वीकायापने पहिले आहार कर के पीछे उत्पन्न होवे. ऐसे ही लंतक व महा शुक्र, महाशुक्र व 23 सहस्रार, सहस्रार व आणतप्राणत, आणतप्राणत व आरणअच्युत, आरणअच्युत व अवयकविमान, ग्रैचेयकधिमान व अनुत्तर विमान और अनुत्तरविमान व ईषत्माग्भार पृथ्वी की बीच में पृथ्वीकाया ! 26 मारणांतिक समुद्धाल कर के रत्नप्रभा में पृथ्वी कायापने उत्पन्न होने योग्य होवे बगैरह. सब पूर्वोक्त । यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी में पृथ्वीका यापने उत्पन्न होवे ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा वई +8+ पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र Page #2504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७४ 400 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 भंते ! इमीसे रयणप्पभाएय सक्करप्पभाएय पुढवीए अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए सोहम्मेकप्पे आउकाइयत्ताए उववजित्तए सेसं जहा पुढवीकाइयरस जाव में तेणटेणं; एवं पढमा दोच्चाणं अंतरा समोहओं जाव ईसिप्पभाराए उववाएयव्यो; एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहे सत्तमाए पुढवीए अंतरा समोहए स. जाव ईसिप्पभाराए उववाएयब्वो आउकाइयत्ताए ॥ ५ ॥ आउकाइयाएणं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमारमाहिंदाणय कप्पाणं अंतरा समोहए समोहइत्ता जे भविए इमीसे रयणशर्कर प्रभा के बीच का अप्काय मारणांतिक समुद्धात से काल कर के सौधर्म देवलोक में अप्कायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह क्या पहिला उत्पन्न होवे और पीछे आहार करे अथवा पहिले आहार करके पछि उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे पृथ्वी काया की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां कहना ऐमेही पहिली दूसरी नारकी के बीच का अप्काया की उत्पत्ति का कथन ईषत्माग्भार पृथ्वी पर्यंत कहना. और इसी क्रम से दूसरी तीसरी यावत् छठी सातवी के बीच का अपकाय का उत्पन्न होना ईषत्माग्भार पृथ्वी पर्यंत कहना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! सौधर्मईशान व सनत्कुमार माहेन्द्र देवलोक की बीच का अप्काया मारणांतिक समुद्धात से काल कर के इस रत्नप्रभा पृथ्वी में घनोदधि के वलय में उत्पन्न होने योग्य *प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ + पंचांग-विवाह पण्णाने (भगवती ) सूत्र 40:24 arre पुढची घणोदधिघणो दधिवलएसु आउका इयत्ताए उववज्जित्तर, सेसं तंचेव एवं एएहिं चेत्र अंतरे समोहत्ताओ जात्र अहे सत्तमा पुढवीए घणोदधिघणोदधि बरसु आउकाइयत्ताए उववाएयव्त्रो, एवं जात्र अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभाराए पुढवी अंतरा समोर जाव अहँ सन्तमाए घणोदधि घणोदधिबलरसु उववारयन्यो ॥ ६ ॥ वाउकाइयाएणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए सक्करप्पभाए पुढवीए अंतरासमोर समोहइत्ता जे भविए सौहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तर एवं जहा सत्तरसमस वाउकाइयउद्देसएस तहा इहवि, णवरं अंतरेस समोहणा वेयन्त्रो शेष पूर्वोक्त जैसे यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी के धनोदधि के घनोदधि वलय में अकायापने उत्पन्न होवे | तक कहना. और इसी तरह सनत्कुमार माहेन्द्र व ब्रह्मदेवलोक यात्रत् अनुसरविमान व ईषत्प्राग्भार {पृथ्वी के बीच का अष्काय का सातवी पृथ्वी के घनोदधि के घनोदधि वलय में अपकायापने उत्पन्न { होने का कहना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा व शर्करप्रभा के बीच का वायुकाया मारणांतिक { समुद्धात से काल कर के सौधर्म देवलोक में वायुकाय पने उत्पन्न होने योग्य होंवे वह क्या वहां उत्पन्न दोकर आहार करे अथवा आहार करके उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! इस का जैसे सतरहवे शतक में 42+ वीसवा शतक का छठा उद्देशा 40+ २४७५ Page #2506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ X X सेसं तंचैव जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिप्पभारास्य पुढवीए अंतरा समोहर समोइता अभविए घणवात तणुवात घणवातबलएसु तणुवातबलएसु वाउकाइयत्ताए उबजिस ॥ सेसं तंचेव जाव से तेणट्टेणं जाव उववजेज्जा ॥ सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ बीसइमम्स छट्टो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ ६ ॥ कविणं भंते ! बंधे पण्णत्ते ! गोयमा ! तिविहे बंध पण्णत्ते, तंजहा जीवप्पओग (वायुकाया का उद्देशा कहा वैसे ही यहां जानना विशेष में बीच में समोहणा करने का कहना यावत् । अनुत्तर विमान व ईषत्प्राग्भार पृथ्वी के बीच का वायुकाय मारणांतिक समुदात कर के घनवात तनुत्रात के घनवात वळय व तनुत्रात वलय में वायु कायापने उत्पन्न होने योग्य होवे; शेष वैसे ही मानना यात्रत् { इसलिये उत्पन्न होवे. अहों भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बीमा शतका छठा उद्देशा समाप्त हुवा || २ || ६ ॥ ० छठे देश में पृथिव्यादिक के आहार वक्तव्यता कही. कथन करते हैं. अहो भगवन् ! वंध के कितने भेद कहे हैं ? अनुवादक बालब्रह्मचारी मान श्री अम लक ऋषिजी ० C ० बंध होवे इस से आगे बंध का अहो गौतम ! बंध के तीन भेद कहे हैं. आहार से १ जीव प्रयोग बंध २ अनंतर बंध व ३ परंपरा बंध. मन प्रमुख व्यापार से जो बंध हो सो कर्मों का बंध होवे, वह जीव प्रयोग २ प्रथम समय में कर्म पुल का जो बंध वर्तता है वह अनंतर बंध और ३ द्वितीयादि । * प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४७६ Page #2507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र 48 पचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4882 4बंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे ॥ १ ॥ णेरइयाणं भंते ! कइविहे बंधे पण्णत्ते ? एवं चेव ॥ एवं जाव वेमाणिए ॥ २ ॥ णाणावरणिजस्सणं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंध पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे बंधे ५० तंजहा-जीवप्पओग बंधे, अणंतर बंधे परंपरबंधे ॥ णेरइयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स कइविहे बंधे प०? एवं चेव ॥ एवं जाव वेमाणियस्स ॥ एवं जाव अंतराइयस्स ॥ ३ ॥ णाणावरणिजोदयस्सणं भंते ! कम्मरस कइविहे बंधे प. ? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते एवं चेव ॥ एवं समय में जो कर्मपुद्गलों का बंध वर्तता है वह परंपरा बंध ॥ १ ॥ नरक मे लेकर वैमानिक पर्यंत चौवीस दंडक में तीनों प्रकार के बंध कहे हैं ॥२२॥ अहो भगवन् ! ज्ञानादरणीय कर्म के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! तीन बंध कहे हैं. जीव प्रयोग बंध, अनंसर बंध, व परंपरा, बंध. अहो भगवन् ! नारकीको ज्ञानावरणीय कर्म के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! उक्त तीनों बंध कहे हैं. वैसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. जैसे ज्ञानावरणीय का कहा वैसे ही दर्शनावरणीय यावत् अंतराय का कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदयके तीन बंध कहे हैं. जीव प्रयोग बंध, अनंतरा बंध व परंपरा बंध. उक्त ज्ञानावरणीय कर्म के उदयके 480% वीसवा शतक का सातगा उद्देशा भावाथ । Page #2508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७८ रइयाणवि एवं जाव वेमाणिए ॥ एवं जाव अंतराइयउदयस्स ॥ ४ ॥ इत्थीवेदस्सणं भंते ! कइविहे बंधे पण्णत्ते ? ॥ एवं चेव ॥ असुरकुमाराणं भंते ! इत्थीवेदस्स कइविहे बंधे प० ॥ एवं चेव ॥ एवं जाव वेमाणिए, णवरंजस्स इत्थिवेदो अत्थि ॥ एवं पुरिसवेदस्सवि ॥ एवं चेव पुंसग वेदस्सीव ॥ जाव वेमाणिए; णवरं जस्सजो अत्थि वेदो ॥ ५ ॥ दसणमोहणिजसणं भंते ! कम्मरस कइविहे बंधे, एवं णिरंतर जाव वेमाणिए ॥ एवं चरित्तमोहणिज्जस्सवि ॥ जाव वेमाणिए ॥ एवं एएणं कमेणं 48 अनुवादक-बालग्रामचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखवसहायजी मालाप्रसादनी भावार्थ तीनों बंध चौवीस दंडक आश्री जानना. ज्ञानावरणीय जैसे अंतराय तक कहना ॥४॥ अहो भगवन् ! स्त्री वेद के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! स्त्री वेद के उक्त तीनों बंध कहे हैं. अहो भगवन् ! अमरकुमार के स्त्री वेद के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! उक्त तीनों बंध कहे हैं. ऐसे ही दश भवनपात, तिर्यंच, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक तक कहना. पुरुष वेद का भी वैसे ही कहना. नपुंसक वेद भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक छोडकर अन्य स्थान पाते हैं ॥५॥ अहो भगवन् ! दर्शन मोहनीय कर्म के कितने बंध कहे हैं ? अहो गौतम ! ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ऐसे ही चारित्र मोहनीय कर्म का भी वैमानिक पर्यंत कहना, इसी तर उदारिक भरीर यावत् कार्माण 1 Page #2509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भावार्थ | ओरालय सररस्स: जाव कम्मग सररीरस्स आहारसण्णाए जाव परिग्गहसणाए ॥ कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए ॥ सम्मदिट्ठीए मिच्छाद्दिट्ठीए सम्मामिच्छाद्दिट्ठीए ॥ आभिणिवोहिय णाणस्स जात्र केवलणाणस्स, मइअण्णाणस्स सुअअण्णाणस्स विभंग णाणस्स एवं ॥ आभिणिबोहियणाणविसयरसणं भंते! कइविहे बधे पण्णत्ते जाव केवल विसयस विमति अण्णाणविसयस्स, सुअअण्णाण विसयस्त, विभंगणाणविसयम संपदातिविहे बंधे पण्णत्ते, सव्वेते चउवीसदंडगा भाणियन्त्रा णवरं जाणि यन्त्र जस्स जं अत्थि जाव वैमाणिए ॥ विभंगणाणविषयस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण ते तंजहा- जीवप्पओग बंधे अनंतर बंधे परंपर बंधे ॥ सेवं { शरीर आहार संज्ञा यावत् परिग्रह संज्ञा का जानना. कृष्णलेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, समदृष्टि मिध्यादृष्टि व {सम मिध्यादृष्टि अभिनिवोधिकज्ञान यावत् केवल ज्ञान, मतिअज्ञान, श्रुत अज्ञान व विभंग ज्ञान का कहना ऐसे ही अभिनिवोधिक ज्ञान के विषय के कितने बंध कहे हैं यावत् केवल ज्ञान विषय के कितने बंध कडे हैं? तीन भेद कहे हैं. मतिअज्ञान विषय, श्रुत अज्ञान विषय और विभंग ज्ञान विषय के भी तीन भेद कहे हैं. वे ॐ सब चौबीस दंडक पर उतारना. याश्त् अहो भगवन् ! विभंगज्ञान विषय के कितने बंध कहे हैं ?? शतक का मात्रा उद्देशा २४७९ Page #2510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |२४८० भंते ! भंतेत्ति ॥ वीसइमस सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ ७ ॥ कइविहेणं. भंते ! · कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ ! गोयमा ! पण्णरसकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ,' तंजहा- पंच भरहाइ, पंचएरवयाई, पंचमहाविदेहाइं ॥ १ ॥ कइविहेणं भंते ! अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तीसं अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ तंजहा-पंचहेमवयाई, पंचऐरण्णवयाई, पंच हरिवासाइं. पंचरम्मगवासाई, पंचदेवकुराइं, पंचउत्तरकुराइं ॥ २ ॥ एएसुणं भंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अस्थि उस्सप्पिणी अहो गौतम ! तीन बंध कहे हैं. जीव प्रयोग बंध अनंतरा ब परंपरा बंध. अहो भगवन् ! आपके वचन भावार्थ सत्य हैं यह बीसवा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २० ॥ ७ ॥ . सातवे उद्देशे में बंध का कथन किया. बंध का अंत कर्मभूमि में होता है इसलिये आठवे - उद्देशे में कर्मभूमिका कथन करते हैं. अहो भगवन् ! कर्म भूभियों कितनी कहीं ? अहो गौतम ! पनरह कर्मभूमियों कहीं-जिनके नाम पांच भरत पांच एरवत और पांच महाविदेह ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! अकर्म } ल भूमि के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम : अकर्मभूमि के तीस भेद कहे हैं. पांच हेमवय, पांच एरणवय, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक वर्ष, पांच देवकुरु व पांच उत्तरकुरु. ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! इन तीस अकर्म 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी" * प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ पंचमांग विवाह पस्णत्ति ( भगवती) सूत्र 488+ तिवा ओसप्पिणीतिबा ? णो इण? सम? ॥ ३ ॥ एएसुणं भंते पंचसु भरहेसु पंचमु एरवएसु अत्थि उस्सप्पिणीतिवा ओसप्पिणीतिवा? हंता अत्थि ॥४॥ एएसुणं पंचसु महाविदहेसु णेवत्थि ओमप्पिणीतिवा उस्सप्पिणीतिवा, अवट्टिएणं तत्थकाले पण्णत्ते? समणाउसो ! ॥५॥ एएमुणं भंते ! पंचमु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो पंचमहन्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं पण्णवेति? णो इणट्रे सम२॥६॥ एएसुण पंचम भरहेमु पंचक्षु एरवएस पुरिम पच्छिमगा दुवे अरहंता भगवंतोपंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं पण्णवेति, अवसेसाणं अरहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति एएसुणं पंचसु महाविदेहेसु अरहता भमि में क्या उत्पणी व अवसर्पिणी है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् वहां अपमर्पिणी उत्सर्पिणी नहीं है. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! इन पांच भरत एरवत में क्या अवमर्पिणी उत्सर्पिणी है ? हा है. ॥ ४ ॥ अहा आयुष्यमन्त श्रमणों ! इन पांच महाविदेह क्षेत्रमें अवपिणी उत्सर्पिणी काल नहीं हैं परंतु अवस्थित काल है. अहो भगवन् ! इन पांच पहाविदेह क्षेत्र में जो अरिहंत भगवंत होते हैं वे क्या प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत रूप धर्म प्ररूपते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् नहीं प्ररूपते हैं. ॥ ६ ॥ अहो गौतम ! इन पांच भरत एरवत में पहिले छेल्ले दो अरिहंत भगवंत प्रतिक्रम सहित पांच महावत प्ररूपते हैं शेष सब चार याम-रूप धर्म कहते हैं ? इन पांच महाविदेह क्षेत्र में अरिहंत भगवंत चार भावार्थ बीएबा शतक का आठवा उद्देशा89% । Page #2512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी भगवंतो वाउजामं धम्मं पण्णत्रयंति ॥ ७ ॥ जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भारहेवा से इमां से उस्सप्पिणीए कइतित्थगरा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्वीसं तित्थगरा १० तंजा-उसभ, अजय संभव, अभिनंदण, सुमइ, सुप्पभं, सुपासं, ससि. पुप्फदंत, सीयल, सेजंस, वासुपुजं, विमलं, अणतं, धम्मं, संति, कुंथुं, अरं, मल्लि, मुणिसुव्वयं, नमि, नेमिं पास बद्धमाणं ॥ ८ ॥ एएसिंणं भंते ! चउव्त्रीसाय तित्थगराणं कइजिणंतरा पणता ? गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पण्णत्ता ॥ ९ ॥ एएमुणं भंते ! तेवीस ए जिणंतरे करस कहिं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते ? गोयमा ! एएसुणं तेवीसाए अवसर्पिणी में कितने अजित ३ संभव ४ ३ श्रेयांस १२ वासुपूज्य याम रूप धर्म प्ररूपते हैं. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! जम्बूदीप के भरत क्षेत्र में इस तीर्थंकर कहे ? अहो गौतम ! चौवीस तीर्थकर कहे हैं. जिनके नाम १ ऋषभ २ अभिनंदन ५ सुमति ६ सुप्रभ ७ सुपार्श्व ८ चंद्रप्रभ १ पुष्पदंत १० शीतल ११ १३ विमल १४ अनंत १५ धर्म १६ शांति १७ कुंथु १८ अर १९ मल्ली २० मुनिसुव्रत २१ नमी २२ {नेमा २३ पार्श्व और २४ वर्षमान || ८ || अहो भगवन् ! इन चौविस तीर्थंकर के कितने जिनांतर कडे {हैं ? अहो गौतम ! चौविस तीर्थकर के तेवीस जिनांतर कहे हैं. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! इन तेवीस जिनांतर से कौन से जिनांतर में कौनसे कालिक सूत्रोंका व्यवच्छेद हुवा ? अहो गौतम ! पहिले के आठ व छले आठ यों • प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४८२ Page #2513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ AAM १४८३ 8 पंचांग विवाह पण्णचि ( भगवती) मूत्र 438 जिणंतरेसु पुरिमे पच्छिमएसु अटुसु २ जिणंतरेसु एत्थणं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पण्णत्ते, मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थणं कालियमुयस्स वोच्छेदे पण्णत्ते; सम्वत्थविणं वोच्छेदे दिद्विवाए ॥ ९॥ जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भारहेवासे इमीसे उस्स प्पिणीए देवाणप्पियाणं केवइयं कालं पुज्वगए अणुसिजिस्सइ ? गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे भारहेवासे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसिजिस्मइ ॥ १० ॥ जहाणं भंते ! जम्बूद्दीवे दीवे भारहेवासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसिज्जिस्सइ तहाणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे इमीसे ओसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थंगराणं केवइयं कालं पुन्वगए अणु. लह निनांतर में कालिक सूत्रों का विच्छेद नहीं कहा है. बीच के सात जिनांतर में कालिक व्यवच्छद कहा है, मब जिनांतर में दृष्टिवाद का विच्छेद कहा है ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इसी अवसर्पिणी में आप के संबंध पूर्वगत कितना काल तक रहेगा ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मेरा संबंधी पूर्वगत एक हजार वर्ष पर्यंत रहेगा. ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी में जैसे आप का पूर्वगत एक हजार वर्ष पर्यंत रहेगा वैसे ही इस अवपिणी. के शेष तिर्थंकरों का पूर्वगत कितना काल तक रहेगा ? अहो गौतम ! कितनेक तिर्थंकरों का संख्यात काल - 80 बीसवा शतक का पाठया उद्देशा 48 भावार्थ Page #2514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - | २४८४ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सिजित्था ? गोयमा ! अत्थेगइयाणं संखेनं कालं अत्थेगइयाणं असंखेनं कालं ॥ ११ ॥ जंबूद्दीवेणंदीवे भारहेवासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवइयं कालं तित्थे अणुसिजिस्सइ ? गोयमा ! जंबूद्दीवेदीवे भारहेवासे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एगवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसिज्जिस्सइ । जहाणं भंते ! जंबुद्दीवेदीवे भारहेवासे इमीसे उस्लप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एकवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसिज्जिस्सइ, तहाणं भंते ! जंबुद्दीवेदीवे भारहेवासे आगमेस्साणं चरमतित्थगरस्स केवइयं कालं तित्थे अणुसिज्जिस्सइ ? गोयमा ! जावइएणं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स काल और कितनेक तीर्थंकरों का असंख्यात काल तक पूगित रहेगा. ॥ ११ ॥ अहो भावन जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अघसर्पिणी में आप का तीर्थ कितना कल पर्यंत रहेगा ? अहो गौतम ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवमर्पिणी में मेरा तीर्थ एकवीस हजार वर्ष पर्यंत रहेगा. अहो भगवन् ! जब जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी में आप का तीर्थ एकवीस हजार पर्ष पर्यंत रहेगा. तब जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आगामी चरम तीर्थंकरका तीर्थ कितने काल पर्यंत रहेगा ? अहो गौतम ! कोशल. देश के उत्पन्न ऋषभनाथ स्वामी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #2515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 जिणपरियाए तावइयाए संखेजाइं आगमस्साणं चरमतित्थगरस्स तित्थे अणुसिजिस्माइ ॥ १२ ॥ तित्थं भंते ! तित्थे तित्थंकरे तित्थे ? गोयमा! अरहा ताव णियमं तित्थंगरेति; तित्थे पुण चाउवण्णाइण्णे समणसंधे, तंजहा-समणा समणीओ सावगा सावियाओ ॥ १३ ॥ पवयणं भंते ! पवयणं पावयणं पवयणं ? गोयमा ! अरहा ताव णियमं पावयणी पवयणं, पुण दुवालसंगे गणिपिडगे, तंजहा-आयारो । जाव दिट्टिवाओ ॥ १४ ॥ जे इमे भंते ! उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा णाया कोरवा एए अस्सि धम्मे ओगाहइ, ओगाहइत्ता अट्टविहं कम्मरयमलं पवाहिति २ त्ता भावार्थ की जितनी जिन पर्याय उतना संख्यात काल पर्यंत आगाभिक चरम तीर्थकर का तीर्थ रहेगा ॥१२॥ अहो भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहना या तीर्थकर को तीर्थ कहना ? अहो गौतम ! अरिहंत तीर्थ करनेवाले हैं. और साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों वर्गों से आकीर्ण श्रमणसंघ. तीर्थ है ॥ १३ ॥ अहो । भगवन् ! शास्त्रों को प्रवचन कहना या शास्त्र कर्ता को प्रवचन कहना ? अहो गौतम ! अरिहंत प्रवचनी/3 86 हैं, क्योंकि वे शास्त्र के उपदेष्टा हैं और द्वादशांग गणिपिंडग ही प्रवचन हैं. जिन के नाम. आचारांग यावत् दृष्टिवाद ॥ १४ ॥ अहो भगवनू ! जो उग्रकुलवाले, भोगकुलवाले, राजा के कुलवाले, इसाग के.. 28- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 38+ बीसवा शतक का आठवा उद्दशा 4.80 Page #2516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तओ पच्छा सिझंति जाव अंतं करेंति ? हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा तंचेव जाव अंतं करेंति ॥ अत्थेगइया अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ १५ ॥ कइविहाणं भंते ! देवलोया पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा देवलोया पण्णत्ता, तंजहा-भवणवासी, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ वीसइमस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ ८ ॥ . . कइविहाणं भंते चारणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा चारणा पण्णत्ता तंजहा-विजा कुलवाले, ज्ञात और कौरव के कुलवाले इस धर्म में हैं वे आठप्रकार की कर्म रज को प्रक्षाल कर सिद्ध होग यावत् सब दुःखों का क्या अंत करेंगे ? हां गौतम ! जो उग्र, भोग यावत् अंत करेंगे; और कितनेक अन्यतर देवलोक में देवतापने उत्पन्न होगें ।। १५ ॥ अहो भगवन् ! देवलोक कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! चार देवलोक कहे हैं १. भवनवासी २ वाणव्यंतर ३ ज्योतिषी और ४ वैमानिक. अहो , भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह वीसवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २० ॥ ८॥ आठवे उद्देशे के अंत में देवता का कथन किया. देवता आकाश में गमन करने वाले होते हैं ऐसे ही अनगार भी आकाशचारी होत हैं, इस से उन का कथन इस नवबे उद्देशे में चलना है. अहो भगवन् ! * चारण के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! चारण दो प्रकार के कहे हैं. १ पूर्वगत मूत्राभ्यासी आकाश भावार्थ १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक राजाबहादूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* ~ ~ - Page #2517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tag २४८७ 38 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 28* चारणाय जंघाचारणाय ॥ १ ॥ से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ-विजाचारणाय ? विजाचारणाय गोयमा ! तस्सणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तओकम्मेणं विजाएसु उत्तरगुणलडिखममाणस्स विजाचारणलद्धी णाम लही समुप्पज्जइ, से तेणटेणं जाव विजाचारणा, विजाचारणा ॥ २ ॥ विजाचारणस्सणं भंते ! कहं सीहागई कह सीहेगइविसए पण्णत्ते ? गोयमा अयण्णं जंबूद्दीवेदीवे जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं देवेणं महिढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेवत्ति कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं भावार्थ में गमन करे सो विद्याचारण और २ जंघा शक्ति विशेष से जो आकाश में गमन करे सो जंघा चारण ॥५॥ अहो भगवन् ! विद्याचारण क्यों कहा गया है ? अहो गौतम ! अंतर रहित छठ २ का तप में करने से, पूर्वगत श्रुत विशेष से उत्तरगुण पिंड विशुद्धादिक से विद्याचारण नामक लब्धि प्राप्त होवे इस से अहो गौतम ! विद्या चारण लब्धि कही ॥२॥ अहो भगवन् ! विद्याचारण की कैसी शीघ्र नि और कैसा शीघ्रगति विषय है ? अहो गौतम ! एक लक्ष योजन का लम्बा चौडा इस जम्बूद्वीप को तीन to लाख सोलह हजार दो सो सत्ताइस योजन से कुच्छ अधिक परिधि है, उसे कोई महा ऋद्धि तर यावत् महा ऐश्वर्यवंत देवता तीन चपटी बजाने जितनी देर में तीम वरूत प्रदक्षिणा देकर शीघ्र आजाता है.' वीसवा शतक का नववा उद्देशा 488 Page #2518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवं तिहिं अच्छिराणिवाएहिं तिक्खुत्तो अणुपरियाहत्ताणं हव्वमागच्छेजा; विजाचारणस्सणं तहा सीहागई तहा सीहे गइविसए पण्णत्ते ॥३॥ विजाचारणस्सणं भंते ! तिरियं केवइयं गतिविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! सेणं एगेणं उप्पाएणं माणसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंदइ, वंदइत्ता वितिएणं उप्पाएणं गंदिस्स रवरदीवे समोसरणं करइ, करेइत्ता तहिं चइयाई वंदइ, वंदइत्ता तओ पडिणियत्तइ, २४८८ 468 अनुवादक-बालब्रह्मचरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + CTETTE 'म जैसी देवता की शीघ्रगति कही वैसी शीघ्रगति विद्याचारण मुनि की होती है. और इनना ही उम की गति का विषय कहा है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! विद्याचारण का कितना ती गति विषय कहा है ? अहो गौतम ! विद्याचारण एक ही उपपात में यहां से उडकर अढाइ द्वीप की मर्यादा करनेवाला मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करे-विश्राम.ले. वहां विश्राम लेकर चैत्यवंदन कर अर्थात् जिनेन्द्र के कथनानुमार सब अवलोकन करके जिनेन्द्र के ज्ञान का गुणानुवाद करे कि धन्य है आप का ज्ञान. आपने फरवाग वैसा ही है + इस तरह वहां चैत्य वंदन करके दूसरे उपपात में आठवा नंदीश्वर द्वीप पर + यहां (वंदइ) शब्द का अर्थ गुणानुबाद ही होता है, न कि नमस्कार करना. नमस्कार करने के लिये बंदइ + णमंसइ ऐसे पाठ दीये जाते हैं. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४८२ पडिणियत्तइत्ता इहमागच्छइ; मागच्छइत्ता इहं चेइयाइं वंदइ विजाचारणस्सणं गोयमा ! तिरियं एवइए गतिविसए पण्णत्ते ॥ ४ ॥ विजाचारणस्सणं भंते ! उर्दू केवइए गतिविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! सेणं इओ एगेणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाई वंदइ,वंदइत्ता वितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समो. सरणं करेइ २ त्ता, तहिं चेइयाई वंदइ, वंदइत्ता तओ पडिणियत्तइ २ त्ता इहमागच्छइ २ त्ता इहं चेइयाइं वंदइ, विजाचारणस्सणं गोयमा ! उट्टे एवइयं गइविसए ५० ॥ ५ ॥ सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते कालं करेइ णस्थितस्स आरा विश्राम कर वहां पर भी उक्त रीति स चैसवंदन करकं वहां से पीछा यहां पर अपने स्थान आवे, और में भावार्थ यहां पर भी उक्त रीति से चैत्य वंदन करे. अहो गौतम ! विद्याचारण का तीर्छा इतना विषय कहा है। ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! विद्याचारणका ऊर्ध कितना विषय कहा है ? अहो गौतम ! विद्याचारण एक उपपात में यहां से उडकर मेरु पर्वत के नंदनवन में विश्राम लचे वहां भी ज्ञानी के गुणका गुणानुवाद करे. वहां से दूसरे उपपात में पंडगवन में समवसरण करे, वहां पर भी ज्ञानी के गुणों का ॐ गुणानुवाद करे और वहां से पीछा अपने स्थान आवे. अहो गौतम ! विद्याचारण का ऊर्ध्व गमन का, | इसना विषय कहा है ॥ ५॥ वह उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रपण किये बिना काल कर जाये तो + पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 480% वीसवा शतक का नवधा उद्देशा 4. Page #2520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० हणा ॥ सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा ॥ ६ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंघाचारणा ? जंघाचारणा गोयमा ! तस्सणं अट्टमं अट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तओकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाचारणलडी णामं लद्धी समप्पज्जइ, से तेणट्रेणं जाव जंघाचारणां जंघाचारणा ॥ ७ ॥ जंघाचारणस्सणं भंते ! कहं सीहागई, कहं सीहे गइविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयण्णं जंबुहीवेदीवे एवं जहेव विजाचारणस्स, णवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियादृत्ताणं हव्वमागच्छे, ज्जा, जंघाचारणस्सणं गोयमा ! तहा सीहागई तहा सीहेगतिविसए पण्णत्ते सेसं तंचेव ॥ ८ ॥ जंघाचारणस्सणं भंते ! तिरियं केवइए गतिविसए पण्णत्ते ? गोयमा! है अनबादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. amanarramanmannaam * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ उस को आराधना नहीं होती है और आलोचना प्रतिक्रमण कर काल कर जावे तो आराधना होती है ॥ ६॥ अहो भगवन् ! जंघाचारण क्यों कहा ? अहो गौतम ! तेले २ का निरंतर तप करके आत्मा को भावने से जंघाचारण नामक लब्धि प्राप्त होती है, इस से जंघाचारण कहाये गये हैं ॥७॥ अहो भगवन् ! जंघाचारण की कैमी शीघ्रगति व कैसा शीघ्रगति विषय है ? अहो गौतम ! जैसे विद्याई चारण का कहा बैसे ही कहना विशेष में इक्कीस वक्त फीर कर आजावे. अहो गौतम ! जंघाचारण की ऐसी शीघ्रगति और शीघ्रगति विषय है ॥ ८॥ अहो भगवन् ! जंघा. चारण का तीर्छा कितना विषय कहा है ?अहो गौतम : वह एक उत्पात से तेरवा रुचकवर द्वीप, में समवसरण करे वहां Page #2521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सत्र 486 सेणं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरेदीवे समोसरणं करेइ, करेइत्ता चेइयाइं वंदइ, वंदइत्ता तओ पडिणियत्तमाणे वितिएणं उप्पाएणं णंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेइ २ त्ता, तहिं चेइयाइं वंदइ २ ता इहं हव्वमागच्छइ, इहं चेइयाइं बंदइ ॥ जंघा २४९१ चारणस्सणं गोयमा ! तिरियं एवइए गइविसए पण्णत्ते ॥९॥ जंघाचारणस्सणं भंते! । उ8 केवइए गतिविसए पण्णन्ते ? गोयमा ! सणं इओ एंगेणं पंडगवणे समोसरणं करेइ २ त्ता, तहिं चेइयाइं वंदइ २ त्ता तओ पडिणियत्तमाणे वितिएणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरणं करेइ, करेइत्ता तहिं चेइयाइं वंदइ २ त्ता इह मागच्छइ २ त्ता ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे, वहां से पीछे आते दूसरे उत्पात में आठवा नंदीश्वर वर द्वीप में आवे वहां समवसरण कर के ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे और वहां से यहां आवे यहां आकर फीर ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे. अहो गौतम ! जंघाचारण का यह तीर्छा विषय कहा है. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! जंघाचारण का ऊर्ध्व कितना गति विषय कहा ? अहो गौतम ! एक उत्पात से यहां से उडकर पंडगवन में विश्राम करे, वहां ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे, वहां से पीछा आते दूसरे उत्पात, में नंदनवन में आने वहां ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद कर के यहां आवे और यहां ज्ञानी के ज्ञान का । -वीसवा शतक का नवधा उद्देशा 182 भावार्थ - Page #2522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ । + अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी इह चेइयाई बंद: २ ता, जंघाचारणस्सणं गोयमा ! उ एवइए गतिचिसए पण्णत्ते ॥ १० ॥ सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइय पडिक्कते कालं करेइ णत्थि तस्स आराहणा | सेणं तस्स ठाणस्स आलोइय पडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ बसिइमस्स णवमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ ९ ॥ जीवाणं भंते ! किं सोवकमाउया णिरुवक्कमाउया ? गोयमा ! जीवा सोवकमाउयावि णिरुवकमाउयावि ॥ १ ॥ रइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! णेरड्या को सोवकमाउया, गुणानुवाद करे. अहो गौतम ! जंघाचारण का ऊर्ध्व गति का इतना विषय कहा है. ॥ १० ॥ वह उस { स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किये विना काल करें तो उस को उसकी आराधना नहीं है और आलो चना प्रतिक्रमण करके काल करे तो उस को उस स्थान की आराधना होती है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह वीसवा शतक का नववा उद्देशा संपूर्ण हुबा ॥ २० ॥ ९ ॥ ० नववे उद्देशे में चारण का कथन किया वे सोपक्रम आयुष्य वाले होते हैं. इस लिये आगे सोपक्रम निरूपक्रम का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! क्या जीव सोपक्रम आयुष्य वाले हैं. या निरुपक्रम आयुष्य वाले हैं ? अहो गौतम ! जीव सोपक्रम आयुष्य वाले हैं और निरुपम आयुष्यवाले भी हैं. ॥ १ ॥ १ काल को अप्राप्त अग्नि विषादि से आयुष्य निर्जरे वह सोपक्रम इस से विपरीत निरुपक्रम. * प्रकाशक - राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४९२ Page #2523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिरुवकमाउयावि ॥ एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइया जहा जीवा । एवं है । जाव मणुस्सा । वाणमंतर जोइस वेमाणिया जहा णेरइया ॥ २ ॥ णेरइयाणं भंते ! किं आउवक्कमेणं उववजंति, परोवक्कमेणं उववजंति, णिरुवक्कमेणं उववजंति ? गोयमा आतोबक्कमेणवि उववजंति, परोवक्कमेणवि उववजंति, णिरुवक्कमेणवि उववज्जति, एवं 488 अहो भगवन् ! नारकी क्या सोपक्रमआयुष्य वाले हैं या निरुपक्रम आयुष्य वाले हैं. ? अहो गौतम ! भावार्थ नारकी सोपक्रम आयुष्यवाले नहीं है परंतु निरुपक्रम आयुष्य वाले हैं. क्योंकी जितना नारकी का आयुष्य है उतना ही आयुष्य वे भोगते हैं. ऐसे ही असुरकुमार यावत् स्तनित कुमार का जानना. वे सोपक्रम आयुष्यवाले नहीं हैं; परंतु निरुपक्रम आयुष्य वाले हैं. पृथ्वीकाया का समुच्चय जीव जैसे कहना. ऐसे ही अप्काया यावत् मनुष्य का जानना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसी कहनां. ॥ २॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी सयं ही आयुष्य के उपक्रम मे मरकर नारकी में उत्पन्न होवे, परकृतमरण मे मरकर नारकी में उत्पन्न होवे अथवा उपक्रम रहित मरकर नारकी में उत्पन्न हो ? at अहो गौतम ! अपने हाथ से अपना आयुष्य का छेदनकर नारकी में उत्पन्न होवे जैसे श्रेणिक राजा" + विषखाकर मरा, अन्य से मराया हुवा मरे कूणिक राजा की तरह और उपक्रमविना भी मरकर नरक में । 488 पंचांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मत्र वीसवा शतक का दशवा उद्दर Page #2524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावाथ +3 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जात्र वैमाणिया ॥ ३ ॥ रइयाणं भंते ! किं आतोवकमेणं उव्वहंति, परोवकमेणं उन्हंति, णिरुवकमेण उव्वहंति ? गोयमा ! णो आतोवक्कमेणं उव्वहंति, जो परोवकर्मणं उव्वहंति, णिरुवक्कमेण उव्वर्हति ॥ एवं जाव थणियकुमारा | पुढवीकाइया जाव मणुस्सा तिसु उव्वहंति । सेसा जहा णेरइया णवरं जोइसिया बेमाणिया चयंति॥४॥ रइयाणं भंते ! किं आयड्डीए उववजंति, परडीए उबवजंति ? गोयमा ! आयड्डीए उववजंति णो परिड्डीए उववज्जति ॥ एवं जाव उत्पन्न होवे कालकसुरिया की तरह, ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या स्वतः के उपक्रम से उद्वर्तते हैं अन्य के उपक्रम से उद्वर्तते हैं अथवा उपक्रम विना उद्वर्तते हैं ? अहो [गौतम ! स्वतः के उपक्रम से नारकी नहीं उद्वर्तते हैं परके उपक्रम से नारकी नहीं उद्वर्तने हैं; परंतु निरुप क्रम से नारकी उद्वर्तते हैं; ऐसे ही स्वनित कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वीकाया यावत् मनुष्य ( स्वतः के उपक्रम से उद्वर्तते हैं. अन्य के उपक्रम से भी उगते हैं और frerna से भी उद्वर्तते हैं, शेष सब नारकी जैसे कहना में ज्योतिषी व वैमानिक उद्वर्तन के स्थान चवना कहना ||४|| अहो भगवन् ! क्या नारकी आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं, या अन्य की ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं परंतु अन्य की ऋद्धि से नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही * प्रकाशक- राजांबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २४९४ Page #2525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ 8 वेमाणिया ॥ ५ ॥ णेरइयाणं भंते ! कि आइड्डीए उव्वदृति, परिडीए उव्वटंति ? गोयमा ! आइडीए उन्वर्टति, णो परिवीए उव्वदृति, एवं जाव वेमाणिया, णवरं जोइसिया वेमाणिया चयंतीति अभिलावो ॥६॥ णेरइयाणं भंते ! कि आयकम्मणा उववजंति परकम्मणा उववजंति ? गोयमा ! आयकम्मणा उववजंति, णो परकम्मणा उववजंति; एवं जाव वेमाणिया ॥ एवं उबट्टणा दंडओ ॥ ७ ॥ णेरइयाणं भंते ! कि आयप्पओगेणं उववजंति परप्पओगेणं उपवजंति ? गोयमा ! आयप्पओगेणं ago पंचमांग विवाह पणत्ति ( भगवती ) सूत्र 880 वीसबा शतक का दशवा उद्देशा 988 भावाथ मानिक पर्यंत कहना ॥ ५॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या आत्मऋद्धि (आत्म वल) से उद्वर्तते हैं या परऋद्ध से उर्तत हैं ? अहो गौतम ! नारकी आत्मक्रोध से उद्वर्तते हैं परंतु अन्यकी ऋद्धि से नहीं उद्वर्तते हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत चौवीस दंडक का जानना. विशेष में ज्योतिषी वैमानिक को चवनाई कहना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी स्वतः के कर्म से उत्पन्न होते हैं अन्य के कर्म से उत्पन्न । होते हैं ? अहो गौतम ! नाग्की स्वतः के कर्म से उत्पन्न होते हैं परंतु अन्य के कर्म से नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत जानना. ऐसे ही उद्वर्तने का भी दंडक कहना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी स्वतः के प्रयोग से उत्पन्न होवे यावत् परप्रयोग से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! नारकी स्वतः । 1 Page #2526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी उववज्जति, णो परप्पओगेणं उववज्जति ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ एवं दंडओवि ॥८॥ रइयाणं भंते ! किं कतिसंचिया अकतिसंचिया अवत्तव्यगसंचिया ? गोयमा ! रइया कतिसंचियावि, अकतिसंचियावि, अवतन्त्र संचियावि ॥ से केणट्टेणं जाव अवत्तव्वग संचियावि ? गोयमा ! जेणं णेरड्या संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया कतिसंचिया, जेणं णेरड्या संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं रइया अकति संचिया, जेणं णेरइया एक्कएण पत्रेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया के प्रयोग से उत्पन्न होत्रे परंतु पर प्रयोग से उत्पन्न होवे नहीं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना - और वैसे ही (उद्वर्तना दंडक भी कहना || ८ || अहो भगवन् ! क्या नारकी कतिपय संचित (गिनती के ) हैं, अकतिपय संचित (बिना गिनती के ) हैं या अवक्तव्य ( एक ही ) है ? अहो गौतम ! नारकी तीनों प्रकार के हैं. अो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया यावत् अवक्तव्य हैं ? संख्यात प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे कति संचित हैं जो असंख्यात प्रवेशन से (संचित और जो एक प्रवेश से प्रवेश करते हैं वे अवक्तव्य संचित इस से अहो गौतम ! जो नारकी प्रवेश करते हैं वे अकति अहो गौतम ! ऐसा कहा गया है यावत् अवक्तव्य संचित हैं. ऐतेही स्वनितकुमार पर्यंत कहना. पृथ्वी काया कति संचित व अवक्तव्य * मकशिक- राजांवांदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २४९६ Page #2527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4384 अन्यत्तव्वग संचिया॥से तेणट्टेणं गोयम ! जाव अव्वत्तव्वग संचियावि॥ एवं जाव थणिय कुमारा | पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! पुढवीकाइया णो कतिसंचिया अकति संचिया णो अन्त्तव्वग संचिया ॥ से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव णो अन्वत्तब्वग संचिया ? गोयमा ! पुढवीकाइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति, से तेणट्टेणं जाणो अन्तवग संचिया ॥ एवं जात्र वणस्सइकाइया || वेइंदिया जाय वेमागिया जहा णेरड्या || सिद्धाणं पुच्छा ? गोयमा ! सिद्धाकति संचिया णो अकति संचिया अवतन्त्र संचियावि ॥ स केणटुणं भंते ! जाव अव्यत्तव्वग संचियात्रि ? संचित नहीं हैं परंतु अकति संचित हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कति संचित नहीं हैं अति मंचित हैं और अवक्तव्य मंचित नहीं है. अहो गौतम ! पृथ्वीकाया असंख्यात प्रवेश से प्रवेश करते हैं इस से अकति संचित हैं परंतु कतिसंचित व अवक्तव्य संचित नहीं है. ऐसे ही वनस्पति काया पर्यंत कहना. बेइन्द्रिय से यात्रत् वैमानिक पर्यन्त नारकी जैसे कहना. अहो भगवन्! क्या सिद्ध कवि संचित हैं अकति संचित हैं कि अवक्तव्य संचित है ! अझे गौतम! सिद्ध कति संचित हैं परंतु अकति संचित नहीं हैं और अवक्तव्य संचित हैं. अहां भगवन्! किस कारनसे ऐसा कहा गया यावत् सिद्ध अवक्तव्य, संचित - वीसवा शतक का दशवा उद्देशा ++ २४९७ Page #2528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wwwwwwwwwwwwwww dawnwwwm 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ‘गोयमा ! जेगं सिद्धा संखे जर पं. पचे प.एणं विसति तेणं सिद्धा कतिसंचिया, जेणं .. सिद्धा एक्कएणं पासणणं पवितंति तेणं मिटा अञ्चत्तव्यग संचिपारि ॥ से तेगटेणं . गोयमा ! जाव अव्व सव्वग संचिषावि ॥ ९॥ सिणं भंते ! जेरइयाणं कइसचि. याणं अफइस चियाणं अवतव्यग संचियाणय कयर २ जाव विसे न.हियावा? गोयमा! सम्बत्योधा जर इया अब नव्ग सं चया, कतिमचिया संखेजगुगा, अकति संचिया असंखेजगुगा ॥ एवं एगिंदियवजागं जाच वेमाणियाणं अप्पाबहुगं एगिदियाणं णत्यि अपाबहगं ॥ एएनणं भंते ! सिद्वाणं व तिसंचिकाणं अन्य सवग संचियाणय हैं ? अहो गोनय ! मोद्धरुपात योग काले हैं वे कति संचित , और जो एक प्रवेश करते हैं। वे प्राक्कय मारन . अहो गौतम ! इसलिय ऐसा कहा गया है यारत् प्रवक्तव्य संचित :. ॥ ९ ॥ अहो । मान् ! कति चिन, अनि सोत व अक्तव्य मंत्रित रिकी में से कोन किन मे अलावा यात् शिपाधि ? तो गौ ! ब थडे की प्रतिव्यक्ति हैं इस मे कति मंचित संख्यात गुने इस मे अनिचित संपन गर्ने एमे ही एक न्द्रा छ डकर वैमानिक पर्यंत अल्पाबहुत जानना. एकेन्द्रिय की अल्लाहुल नहीं है क्यों की उस में एक ही बोल पाता है. अहो भावन् ! इस कति संचित *प्रकाशक-राजावादर लाला सुवदनमहायजी ज्वालापसाइजी* भावार्थ Page #2529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मृत्र 4 कयरे २ जाब विसेमाहिया वा ? गोयमा! सम्वत्थोवा सिद्धा कतिसंचिया, अन्वतव्वग संचिया संखेजगुणा ॥ १० ॥ णरइयाणं भंते कि छक्कसमजिया णो छक्कसमाजिया, छक्केणय णो छक्केगय समजिया, छक्काहिय समज्जिया, छक्केहिय को छक्केणय समजिया? गोयम!! हेरइया छक्कासमजिप.वि १, णा छकासमज्जियावि २, छक्केणय णो छक्केणय समाजिया ३, छक्केहिय समजियावि ४, छकोहिय जो छणय समजियावि ५ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुवइ-ण इया छ कसमजियावि जाव णा छक्केहिय णो छक्के. ज्य साजियावि ? गोयमा ! जेणं णरइया छकएणं पवेतणरणं पविसंति तेणं णेरइया व अकति मंचित द्धि में कौन किम से अप बहन यावत् शेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब मे थोडे द्धि कान मंचित हैं इस मे अनन्य चिन ख्यात गु ॥ ॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी १ छक समाजित हैं २नो छक्क मनिन छक्को नो छक्का मम जित १ ४३हन छक्क सपाजित हैं अथवा ५बहुत 4 छक्क नो छक्क से सपमित हैं ? अहो गाम ! .की पांवों भांग पाने हैं. जो भगवन् ! किम कारन से ऐकहा गया है कि न.रकी छस याजित यावत् बहुन छक्क छक्क समार्जित हैं ? अहो गौतम !" . न.रती एकत.य उ पोशा से प्रोस करते हैं वे छ के समागित हैं अर्थात छ जीव एकसाय उत्पन्न हो 480 बीमवा शतक का दशवा उद्देशा 41 মাখা 1 Page #2530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + छक्कसमजिया , जेणं गैरइया जहण्णेणं एक्कणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचएण पवेसणएणं पविसंति तणं णेरइया णो छक्कसमजिया २, जेणं गैरइया छक्कएणं अण्णणय जहण्णे एकेणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसे गं पंचएगं पवेसणएणं . पविसंति तेणं गैरइया छक्केणय णो छक्केणय समजिया ३, जेणं णेरइया अओगेहिं छ केहि पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया छकहिय समजिया ४; जणं णेग्इया अणेगेहि छोहि अण्णेणय जहण्णेणं एक्वणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया छक्केहिय को छकणय समजिया ५, से तेणटुणं तंचेव सम. तब वे छ के समाजित कहाये जाते हैं. २ जिसने एक समय में जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच जीव प्रवेश किया वे नारकी नो छक समार्जित हैं अर्थात् एफसमय में छ नहीं उत्पन्न हुए हैं. ३ जितने नेरियों एक छक्के कर और उपर जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे छक्क से नो छक्क से समाजित है, ४ जितने नारकी ने अनेक छक्क थोक से प्रवेश किया वे बहुत छक्क में “मानित हैं और ५११ जिनने नेरियोंने अनेक छक्क से और जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट पांच से प्रवेश करते हैं वे भोक छान व अनेक नो नो मे समाजित हैं, इंसी से अहो गौतम ! नारकी में पांच भांगे पाते हैं, ऐसे ही स्तनित प्रकाशक-राजावहादरलाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी भावाथे Page #2531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५०१ जियावि ॥ एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइयाणे पुच्छा ? गोयमा । पुढवी । काइया णो छक्क समज्जिया, णो णोछक्कसमजिया, णो लक्केणय णो छकंणय सम. जिया ३, छक्केहिय समजियावि, छक्केहिय णो छक्केणय समजियावि ॥ से केणट्रेणं भंते ! जाव समजियावि ? गोयमा ! जेणं पुढवीकाइया णेगेहिं छक्केहिं पवेसणगं पविसंति तेणं पुढवीकाइया छक्केहिं समजिया, जेणं पुढीकाइया णेगेहिं छक्कएहि अण्णेणय जहण्णेणं एक्वणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ॥ तेणं पुढवीकाइया छक्केहिय णो छक्केणय समजिया; से तेगडेणं जाव समजियावि भावार्थ कुमार पर्यंत कहता पृथ्वी काया की पृच्छा ? अहो. गौतम : पृथ्वी काया छक्क ममाजित नहीं है, नो छक्क सपानित भी नहीं है, छक्क नो छान भी समार्जित भी नहीं है परंतु बहुत छक्क से और बहुत छक्क नो छक से समानित हैं. अहो भगवन्! किस कारन से ऐसा कहा गया यावत् समार्जिन हैं? अहो गौतम! जोई। पृथ्वी काया अनेक छस मे प्रवेश करते हैं वे बहुत छक्क मे समाजित हैं और जो पृथ्वी काया बहुत छ 126/मे प्रवेश करत हैं और उपर जघन्य एक दो तीन यावत् पांच से प्रवेश करते हैं वे बहुत छक्क व नो छक्क से समाजिक हैं. ऐसेही बनस्पति काया पर्यंत कहना. इन्द्रिय से वैमानिक पर्यंत और सिद्ध वगैरह सब नारकी पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सत्र वीसवा शतक का दशम उद्देशा 981 Page #2532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक बलह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋजी । ॥ जात्र वणरसइकाया, इंदिया जाव बेमाणिया ॥ एएसिद्धा जहा पेरइया ॥ ११ ॥ एए सिणं भंते! णेरइय णं छक्कसमजिपाणं णो छक समजिय णं छणय णो छ णय सनजियाणं, छक्केहिय समजियाणं, छक्केहिय णो छक्केणय समज्जियाय करे करे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सवत्थे वा णेरइया छक्क समज्जिया, णो छक्कममजिया संखेज गुणा, छणय णो छणय समजिया संखजगुणा, छक्केहिय समनिया असंखज्जगुणा छकेहिय णां छणय समजिया संखेज्जगुणा ॥ एवं जात्र थणिषकुमारा || एएसिणं भंते ! पुढवीकाइयाणं छकेहिय समज्जियाणं छक्केहिय णो ... जैसे कहना ॥ ११ ॥ अ भगवन् ! इन छक्कममार्जित ने उक्क ममार्जित, छक्क नो छक्क गमार्जित बहुत छक मे समार्जित और बहुत छक्क तो छक्क समजत नारकी में से कौन किस ने अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो मौनम ! म से थोडे नारकी छ नमाजित हैं. इसमें से छह ममार्जित संख्यात गुइ मे छक्क नो छक्क समजुन इन से बहुत छदा नमार्जित गरकी असंख्यात गुना इस से बहुत छक्क को छक्क नारकी संख्यात गु. ऐसे ही स्वनित कुमार पर्यंत कहना. अहो भगवन् इन बहुत छक्क सार्जित यावत् छक्क नो छक्क समार्जित पृथ्वी काया में कौन किस से अल्प बहुत यावत् ● प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखद सहायजी वामसादजी * २५०२ Page #2533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 १२ पंचमान विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र छक्के हेय भजियाणं कयरे कयरे जाव बिसेमाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढीकाइया छोहिय समज्जिया. छ केहिय णा छऑणय समाजथा संखजगणा ॥ एवं जाव णस्सइकाइयाणं । वई दयाणं जार वमाणियाणं जहा णरइयाणं ॥ एमिणं भंते ! सिडाणं छसमजियाणं णो छ जसमजियाणं जार छोहिय णो छक्कणय समजियाणय कयरे कयरे जाव विसेसमाहिया ? गोयमा ! सवयीव सिद्धा छकहिय णो छोणय समजिया, छकहिय समजिया मखेगणा, छऋणय णो छक्केणय समजिया संखजगुणा, . छकसमज्जिया संखेजगुणा, जो छक समजिया संखेजगुणा ॥ ११ ॥ णेरइयागं भंते ! किं बारस समजिया णो बारस समजिया विशेषाधिक हैं ? अहो गत ! पब से भी पृथ्वी कायरा बहुत छक नमाजा इ स बहुत छक्क नो छक्क समाजित संख्यात गता. एते ही य साया तक कहा. बेइन्द्रिय से वैमानिक पर्यंत रकी जैसे कहना. अहो भगवन् ! इस छक्क ममार्जितमी छक्क सयाजित यावत् हुन छक्क समाजित में कौन किम से अला बहुत यावत् विशं माधक हैं ! अहो गैनम ! मन में थेड द्धि बहुन छक्क नो* छक्क समार्जित इस से बहुत छक्क समाजिन ख्यात गुरे इस से छक्क ना छक्क करस्य ने इस से छक्क सामर्जिव संख्यातगुने इस से नो छक सबार्जित संख्यातगुते ॥११॥ अहो भगवन् ! क्या नारकी? वारह? ' - वीसवा शतक का दशा उद्देशा 4 भावार्थ . Page #2534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०४ ५१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी + बारसएणं णो बारसएणय समजिया, वारसहिय समजिया बारसएहिय णो वारस. एणय समज्जिया ? गोयमा ! णेरइया वारससमज्जियावि जाव वारसएहिय णो वारसएणय समजियावि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं जाव समजियावि ? गोयमा ! जेणं गैरइया वारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया वारस समजियावि जेणं णेरइया जहणणं एक्केणवा दोहिंवा तिहिंवा उकासेणं एकारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया णो वारस समजिया ॥ जेणं जरइया वारसएणं पवेसणएणं अण्णणय जहण्णेणं एक्केणवा दोहिंवा तिहिंवा; उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति, तेणं समार्जित हैं २ नो बारह ममानित ३ वारह नो बारह समार्जित हैं ४ बहुत बारह समार्जित हैं अथवा बहुत चारह सपार्जित नो वारस समार्जित हैं ? अहो गोतम ! नारकी में पांचों भांगे पात हैं. अहो भगवन् ! किस कारन मे ऐसा कहा है यावत् नो बारह समार्जित ? अहो गौतम ! जो नारकी वारह प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे वारह समार्जित हैं, जो नारकी जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट अग्यारह प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे नारकी नो चारह समानित हैं, जो नारकी वारह प्रवेशन से और जघन्य एक, दो, तीन उस्कृष्ट अग्यारह प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे नारकी बारह नौ बारह से समार्जित हैं. जो नारकी अनेक .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी. भावाथ । Page #2535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचांग विवाह पस्णचि (भगवती) मूत्र णेरइया वारसएणं णो वारसएणं समजिया ॥ जेणं गेरइया णेगेहिं वारसएहिं पत्रेस णएणं परिसंति तेणं णेरड्या वारसएहि समजिया ॥ जेणं णेरड्या णेगेहि वारसएहिं अण्णेणय जहण्णेणं एक्केणवा देोहिंवा तिहिंवा उक्कोमेणं एकारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं णेरइया वारसहियणोबारसएणय समजिया ॥ सेतेण?णं जाव समजियावि ॥ एवं . जाव थणियकुमारा॥ पुढवीकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! पुढवीकाइया णो वारससमजिया णो नोवारसएणय समज्जिया, णो वारसएय णो वारसएणय समजिया, बारसएहिं समजिया वारसएहिय णो बारसएणय समजिया ॥ से केणटेणं भंते ! जाव समबारह प्रवेशन से प्रवेश करते हैं बे बहुत बारह से समार्जित हैं और जो नारकी बहुत बारह और अन्य E जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट अग्यारह प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे बहुत बारह व नोबारह समार्जित हैं. . इसलिये ऐमा कहा गया है यावत् समार्जित हैं. ऐसे ही स्तनित कुपारपर्यंत जानना. पृथ्वीकाया की पृच्छा ? अहो गौतम ! पृथ्वीकाया बारह समार्जित, नो बारह समार्जिन और बारह समार्जित नो बारह समाजित नहीं है परंतु बहुत बारह समार्जित व बहुत बारह समार्जित व नो बारह समार्जित है. अहो, भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् नो पारह समार्जित है ? अहो गौतम जो पृथ्वी कापा । वीसका शतक कादशचा उद्देशा भावार्थ Page #2536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिनी जियावि? गोयमा ! जेणं पुढवीकाइया णेगेहि वारसएहिय पवेसणगं पविसंति तेणं पुढवीकाइया वारमएहिं समजिया ॥ जेणं पुढाकाइया णेगेहिं बारसएहि अण्णणय जहणणं एकेणवा दोहिया तिहिंवा उकावणं एकारतएणय पवेसणएणं परिसंत तेणं पुढवीकाइया बारमएहिय णो वारसएणय मजिया से तेणट्रेणं जाव समजियावि ॥ एवं जाव वणस्सइकाइया॥वेइंदिया जाब सिद्धा जहा णेरझ्या ।। एएसिणं भंते! णेरइयाणं बारस्स समजियाणं सव्वसि अपाबहुगं जहा छकारमजियाणं णवरं बारसाभिलावो ॥ संस तंत्र ॥ १२ ॥ जरइयाणं भंत ! कि चुलपीति समजिया णो चुल सीति समजिया, चुलसीतिएय णो चुलसीतिएय समजिया चुलसीतिहिय समजिया अनेक बारह में प्रांशा करते हैं व पृथ्वीकाया अनेक वारद समार्जित हैं और जो पृथीकाया अनेक वारह से प्रवेश करते हैं और उपर घन्य एक दो नीन उरष्ट भयारह प्रवेशा में प्रवेश करते हैं वे अक । बारह व नोव रह समानित है. इस मे ओ गीतम! यावत् समाजित हैं. ऐसे ही वनस्पति काया काना जानना. इन्द्रिय सद्धि पर्या नारकी जो कहना. इन बारह की अलगावहुन छक्क जैसे कहना. परंतु यहां छ के स्थान बारह कहना ॥ १२ ॥ यह बारह आश्री कहा अब चौरासी आश्री कहते हैं. अहो। प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र < age चुलसीतिहिय णो चुलसीतिएय समजिया ? गोयमा! - णेरइया चुलसीतिसमजि यावि जाव चुलमतिहिय णां चल.सीतिहियसमजियावि' ॥ से केणट्रेणं भते ! एवं 'वुच्चद जाप समजियावि ? गं.यमा! जणं णेरइया चुलसीतिएण पवेमणएणं। पविमति तणं जग्गा चटनीतिसम जिया, जेणं णग्इया जहणणं एणवा दाहिंवा तिहिंवा उच। णि तेमीति पोसणएणं पविसांत तेणं जरइया णा चुलसीति समजिया, । जणं णेरइया चुलसीतिएणं अण्णणय जहणणं एणवा दोहिंवा तिहिंवा उपोसणं तसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं गैरइया चुलसीतिएणय णो चुलसीतिएय सम• भगवन् ! क्या नारकी ! चौगी से सपार्जिन हैं. २ ना चौराती मे ममात है, ३ चौराभी नोई चौरामी ने ममाजि। हैं ४ वान चौराली से समाजन * या ५ बहुन चौगी बहुत नो चौरामी से 'समाजिन हैं ? असे गौतम ! भागकी में पांवा भांग पान हैं. अहो भगान् ! किन कारन स एंमा कहा गया यावत् नो चौर:स. सपाजन है ! ओ गीनप ! जो नारकी चौराती प्रशन से प्रवेश करते हैं. वे| नारकी चौगनी समाज में जा नारकी जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट नियामी तक प्रवेश करते हैं वे * नारकी नो चौरासी समानित हैं, जो नारकी चौरासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं और उपर जयम्य एक बीमका शतक को दशका उद्देशा Page #2538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભાવાર્થ अनुवादकपालह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी जिया, जेणं गैरइया गेहिं चुलसीतिएहिय पवेसणगं पविसंति तेणं णेरड्या चुलसीतिएहिप समजिया जेणं शेरइया गेहिं चलसीतिएहिय अण्णेणय जहण्णेणं एक्केणया जा उसेणं तसीति एवं जात्र पविसंति तेगं णेरइया चुलसीतिएहिय णो चुलसीतिएणय समजिया से तेलट्टेणं जाव समज्जियात्रि || एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइया तहेव पच्छिल्लएहिं दाहिं नवरं अभिलावो चुलसीतिओ एवं जाव वणस्सइकाइया । इंदिया जाव माणिया जहा पेरइया || सिद्धाणं पुच्छा ? गोयमा ! सिद्धा चुलसीति समज्जियाविणो चुलमीति समजियावि, चुलसीतिय णो चुलसीतिय समज्जिया वि णो चलसीतिहिय समजिया जो चुलसीतिहिय णो चुलसीति समज्जिया ॥ से दो तीन उष्ट त्रियानी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे चौरानी नो चौरासी ममार्जित हैं, जो नारकी बहुत चौरानी प्रवेश ने प्रवेश करते हैं वे बहुत चौरानी ने सर्जिक और जो नारकी बहुत चौरासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं और उपर एक, दो, तीन उत्कृष्ट त्रिवासी प्रवेश से प्रवेश करते हैं वे बहुत चौरासी नो चौरासी समार्जित हैं. अहो गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है. ऐसे ही असुरकुमार { कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वीकाया में पीछे के दो गया कहना और ऐसे ही वनस्पति काया बइन्द्रिय यावत् वैमानिक पर्यंत नारकी जैसे कहना. सिद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! यावत् स्वत पर्यंत कहना सिद्ध चौरासी * प्रकाशक राजावहदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालामपादजी २५०८ Page #2539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49+पंचमांग विवाह पण्णचि (भगवती) सूत्र 488 केणटेणं भंते ! जाव समजिया ? गोयमा ! जेणं सिद्धा चुलसहिएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा चुलसीतिसमजिया, जेणं सिद्धा जहण्णेणं एक्कणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं तेसीतिएणय पवेसणएणं पविसंति तेणं सिडा णो चुलसीति २५०.. समाजिया, जेणं सिद्धा चुलसीइएणं अण्णेणय जहण्णणं एकणवा दोहिंवा तिहिंवा उक्कोसेणं तेसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं सिद्धा चुलसीतिय णो चुलसीतिएय समजिया से तेणटेणं जाव समजिया ॥ एएसिणं भंते! जेरइयाणं चुलसातिसमाजयाणं णो चुलसीतिसमज्जियाणं सब्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्क समज्जियाणं जाव समार्जित है, नो चौरासी समानित हैं, चौरामी नो चौरासी समार्जित है, परंतु बहुत चौरासी व बहुत चौरासी बहुत नो चौरासी समाजित नहीं हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् । समार्जित है ? अहो गौतम ! जो सिद चौरासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे सिद्ध चौरासी समाजित है, जो सिद्ध जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट ध्यासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे सिद्ध नोचौरामी समानित हैं, जो सिद चौरासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं और जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट ध्यासी प्रवेशन से प्रवेश करते हैं वे सिद्ध चौरासी नो चौरासी ममार्जित है बहो गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् समा- । 432बीमवा शतक का दवा उद्देशा 480 भावार्थ Page #2540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E. भावार्थ | 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वेमाणिया । णवरं अभिलावो चुलसीतिओ ॥ एएसिणं भंते ! सिद्धाणं चुलसीति समजियाणं णो चुलसीति समज्जियाणं चुलसीतिएय । चुलसीतिएय समज्जियाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया बा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा चुलसीतिय णो चुलसीतिय समजिया, चुल सीतिय समज्जिया अणंतगुणा, णो चुलसीतिय समाजिया अनंतगुणा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति जात्र विहरइ || वीसइमस्स दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २० ॥ १० ॥ वसिइमं सयं सम्मतं ॥ २० ॥ (जिक हैं. इन सब की अल्याबद्दल वैमानिक पर्यंत छक्क जैसे कहना. परंतु यहां पर चौरामी कहना. अहो भगवन् ! चौरासी समार्जित, नो चौरासी समार्जित और चौरासी नो चौरासी समार्जित सिद्ध इन में कौन किसने अल्पवहुत यावत् विशेषाधिक है? अहो गौतम! सबसे थोडे सिद्ध चौरासी नो चौरासी समार्जित इन से चौरासी समार्जित अनंतगुना इन से नो चौरासी समार्जिन अनंतगुना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह बीसवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥२०॥१०॥ यह वी सत्रा शतक समाप्त हुवा ॥२०॥ * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रमादजी * २५१० Page #2541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patna भावार्थ पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मत्र ॥ एकविंशतितम शतकम् ॥ सालिकल अयसिवंसे, इक्खु दन्भय अब्भतुलसीय ॥ अट्ठ ते दसवग्गा अमीति पुणहोंति उद्देसा ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं पयासी अह भंते ! साली वीही गोधम जाव जवाणं एएसिणं भंते ! जीवा मूलत्ताए वक्कमति तेणं भंते ! जीवा कओहितो वीमवे शतक में संख्यात आश्री कथन किया. वनस्पति जीवों की संख्या नहीं होने से आगे इस का प्रश्न पूछते हैं. इस शतक के अस्सी उद्देशे कहे हैं. १ शाली धान्यका २ कल (चने) धान्यका में ३ अतमीका ४ वंशादि पर्व ५ इक्ष्वादि ६ दर्भ ७ एक वृक्ष में दूसरा विजातीय वृक्ष विशेष उत्पन्न होवे । सो अध्यारोहक ८ तुलसी प्रमुख वनस्पति. ये आठ उद्देशे कहे एक २ उद्दशे के ? मूल, २ कंद, ३ स्कंध, ४ त्वचा, ५ शाल, ६ प्रवाल, ७ पत्र. ८ पुष्प ९ फल और १० बीज यो दश २ उद्देशे कहे सब मीलकर । अस्सी उद्देशे हुवे ॥ १॥ अब पहिला उद्दशा का वर्णन करते हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में यावत् ऐसे बोले शाली, व्रीहि, गोधूम यावत् यव में जो जीवों मूलपने. उत्पन्न होते हैं वे जीव कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नारकी में से उत्पन्न होते हैं तिर्यंच मनुष्य व देव बगैरह जमे पन्नाणा के छठे o पद में उत्पाद कहा वैसे ही यहां पर कहना. यहां पर नारकी में से उत्पन होवे नहीं परंतु तिर्यंच मनुष्योम उत्पन्न होवे. महो भगवन् ! वे जीवों एक समय में किचने उत्पन्न होने ! महा गौतम । जघन्य एक Pos इक्कीसवा शतक का पहिला उद्देशा at: 488 Page #2542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१५ 47 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + उववजति, कि जेरइएहितो उववज्जति तिरिय मणु देव जहा वकंतीए तहा उववामो णवरं देववज्ज, तेणं भंते ! जीवा एग समएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! जहणणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसणं संखेजावा असंखेजावा उववति ॥ अवहारो जहा उप्पलुद्देसए ॥ २ ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं के महालया सरीरो गाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं धणुह पुहत्तं ॥ ३ ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स बंधगा अबंधगा तहेव दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात उत्पन्न होवे. + और अपहार जैसे अग्यारहवे शतक में उत्पल उद्देशा में कहा वैसे जानना ॥२॥ अहो भगवन् ! उन के शरीर की अवगाहना कितनी कही ? अहो गौतम ! जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वे क्या ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं या अबंधक हैं ? उस का सब कथन उत्पल उद्देशे जैसे कहना. अर्थात् वे अबंधक नहीं हैं। + वनस्पति में एक समय में असंख्यात नीवों उत्पन्न होते है वेसानो कथन आगे किया गया है वह साधारण शरीर आश्री किया गया है. यहां शालि मादि प्रत्येक शरीरी धान्य का कथन किया है इस से किसी प्रकार की भिन्नता समझना नहीं. • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . मावार्थ Page #2543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gir २५१५ जहा उप्पलुद्देसए; एवं वेदेति वेदणाएवि; उदएवि; उदारणाएवि ॥ ४॥ तेणं भंते! जीवा किं कण्हलेस्सा णील काउ छब्बीसं भंगा ॥ ५॥ दिट्ठी जाव वेइंदिया जहा उप्पलुद्देसए ॥६॥ तेणं भंते ! साली वीही गोधूम जाव जवजवग मूलगजीवे कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं असंखजं कालं । ॥ ७ ॥ तेणं भंते ! साली वीही गोधूम जाव जवजवग मूलग जीवे पुढवी जीवे पुणरवि साली वीही जात्र जवजवगमूलग जीवत्ति केवइयं कालं सेवेजा, केवइयं कालं गतिरागति करेजा, एवं जहा उप्पलुईसए, एएणं अभिलावणं जाव भावार्थ परंतु बंधक है. ऐसे ही भानावरणीयादि कर्म वेदते हैं, उदय में आते हैं और उदीरते भी हैं ॥ ४ ॥ अहो भगान् ! क्या वे जीव कृष्ण लेश्यावाले हैं, नील लेश्यावाले हैं या कापोत लेश्यावाले वगैरह के छवीस मांगे जानना ॥ ५ ॥ दृष्टे पेइन्द्रिय जैसे उत्पल उद्देशा जैसे कहना ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! शालीव्रीहि, गोधूम यावत् यव से मूल में वे जीवों कितना काल तक रहे? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट Lea असंख्यात काल ॥७॥ अहो भगवन् ! शाली वोहि, गेहूं यावत् जुवारी के जीव पृथ्वीकाया में उत्पन्न 1ोकर पुनः वाली मोहि यावत् जुबार के मूल में जीवपने किसना काल तक मेवे अर्थात् बीच का कितना + पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488.2 इकवीसवा शतक का पहिला उद्देशा488 Page #2544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मस्सजीवे ॥ आहारो जहा उप्पलुदेसे ठिती जहण्गेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं वास पुत्तं समुग्धायासमोहयाय मरंति उबट्टणाय जहा उप्पलुदेसे ॥ ८ ॥ अह भंते ! सव्य पाणी जाव सव्वसत्ता साली बीही जाव जवजवगमूलग जीवत्ताए उबवण्णपुत्रा ? हंता गोयमा ! अर्ति अदुवा अनंतखुत्तो ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ पढमं वग्गरस पढमो उद्देसो सम्मत्तो || १ || १ || अह भंते! साली वीही जात्र जवजवाणं एएसिणं जीवा कंदत्ताए वक्कमंति, तेणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति एवं कंदाहि गारेण सोचेत्र मूलुदेसो अरिसेसो भाणियन्त्रो जाव असतं अदुवा अगंतखुत्तो ॥ अंतर रहे और कितनी गति अगाति ढावें ? इस का जैसे उत्पल उद्देशा कहा वैसे कहना यावत् इन अभि लापसे यावत् मनुष्यपर्यंत करता. आहार का उत्तल उदेशे जैसे कहना. स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष ममाहया मरण मरते हैं उतना उत्पल उद्दशे जैसे कहना ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! सब प्राणभून जीव व सत्र शाली व्रीहि यावत् जुवारी के मूल में जीवने पहिले क्या उत्पन्न हुए ? ढां गौतम ! पहिले उत्पन्न हुए. अनेक वार व अनंतवार अढो भगवन्! आपके वचन सत्य हैं. प्रथम वर्ग का पहिला उद्देशा समाप्त हुवा || १ || १ || पहिलं उद्देशे में शाली व्रीहि यावत् जुवारी के मूल का कथन {किया वैसे ही शाली व्रीहि यावत् जुवारी तक के कंद में जो जीवों उत्पन्न हुए हैं वे मूत्र के जैसे ही आहार करते हैं इत्यादि सब प्रश्नचर मूल जैसे विशेषता रक्षित कहना. अशे भगवन्! आपके वचन सत्य हैं. * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजी viveva २५१४ Page #2545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्त (भगवती) मृत्र सेवं भंते ! भंतेत्तिः ॥ पढमत्रगस्त पितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १ ॥ २ ॥ एवं खंधेत्रि उद्देसो णतव्यो || पढम वग्गस्स तइओ ॥ १ ॥ ३ ॥ एवं तयाएवि उद्देसो यव्त्रा || पढमत्रग्गस्स चउत्थो || १ || ४ || सालेवि उद्देसो यव्वो । पदम वग्गस्स पंचमो ॥ १ ॥ ५ ॥ पत्रालत्रि उद्देसो भाणियन्त्रो || पढम वग्गस्स छट्ठो ॥ ६ ॥ ६ ॥ पत्तेवि उद्देमो भाणियन्त्रो पदम वग्गस्स सत्तमो ॥ १ ॥ ७ ॥ एए सत्तवि उद्देमा अपरिसं जहा मूले तहा णेयव्वो ॥ एवं पुप्फेवि उद्देसओ णवरं देवो उववज्जइ, जहा उप्पलुद्देसे, चत्तारिलेस्साओ, ओगाहणा जहण्गेणं अंगुलस्स असंयह प्रथन वर्ग का दूसरा उद्देशः संपूर्ण हुआ || १ || २ || ऐसे स्कंध में भी कहना. यह प्रथम वर्ग का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा || १ || ३ || एस टी शालि का उद्देशा विशेषता रहित कहना ॥ १ ॥ ४ ॥ | ऐसे ही शाखा का भी उद्देशा विशेषता रहित कहना || १ || ५ | ऐसे ही कुंपलों का विशेषता रहित [ कहना ।। १ ।। ६ ।। ऐसे ही पत्र का भी कहना || १ || ७ | ऐसे ही पुष्प का उद्देशा कहना परंतु विशे( पता इतनी कि पुष्प में देवताओं आकर भी उत्पन्न होते हैं इसलिये लेश्या चार पाती हैं, जिस से एक {वचन व बहुवचन ऐसे लेश्या के ८० भांगे होते है. भवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग उत्कृष्ट इक्कीसवा शतक का पहिला उद्देशा २५१५ Page #2546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१५ 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी खेजइ भागं उक्कोसेणं अंगुल पहत्तं, सेसं तवेव। सेवं भंते भंतेत्ति ॥ पढम वग्गस्स अट्ठमो उद्देमो ॥१॥ ८ ॥ जहा पुप्फे एवं फलेवि उद्देसओ अपरिसेसो भाणियन्वो ॥ पढम वग्गरस णवमो उद्देसो ॥ १ ॥९॥ एवं बीए उद्देसओ ॥ पढम बग्गस्स दसमो उद्देसो ॥१॥..॥ एए दस उद्देसमा ॥ पढमो वग्गो सम्मत्तो ॥ १॥ इकवीसयरस पढमो वग्गो सम्मत्तो ॥२१॥॥ . अह भंते ! कल - मसूर -तिल- मुग्ग-मास-निप्फावं-कुलत्थ-आलिसिं-दगस-तिण पलिमंथगाणं ॥ एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति तेणं भंते ! जीवा कओप्रत्येक अंगुल की. शेष वैसे ही, यह प्रथम वर्ग का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुबा ॥ १ ॥ ८॥ जैसे पुष्प का कहा वैसे ही फल का कहना. यह प्रथम वर्ग का नववा उद्देशा ॥ १ ॥९॥ ऐसे ही बीज का कहना. यह प्रथम वर्ग का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥१॥ १० ॥ इस तरह दश उद्देशों का प्रथम वर्ग संपूर्ण हुवा. यह एकवीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २१॥१॥ है अहो भगवन् ! चिने, मसूर, तील, मुंग, उडिद, वाल, कुलत्य, आललि और कावली चिने उन में जो जीव मूलपने उत्पन्न होते हैं वे जीवों कहां से उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही मूलादि दश उद्देशे शाली जैसे • प्रकाशक-राजावादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मावार्थ 488+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र + हिंतो उबवजंति ॥ एवं मुलादी या दस उद्देसगा भाणियव्त्रा जहेव सालीणं णिरव सेसं तहेव ॥ वितिओ वग्गो सम्मत्तो ॥ २ ॥ एक्कवसिय वितिओ वग्गो ॥ २१ ॥ २ ॥ सयस्सय अह भंते ! अयसि कुसुंभ-कोद्दव- कंगु-रालग वराग-कोहु-सासण - सरिसब मूलग वीयाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, तेणं भंते ! जीवा कओहिंतो उवत्रति एवं एत्थव मूलादीया दस उद्देसा जहेव सालीणं णिरवसेसं तत्र भाणि - यन्त्रं ॥ तइओ वग्गो सम्मन्तो ॥ २१ ॥ ३ ॥ अह भंते ! वंस वेणु-कणग- कक्कावंस - चारुवंस दंडा- कंडा - बेलुया कल्लाणीणं एए निरवशेष कहना. यह दूसरा वर्ग समाप्त हुवा. यह इक्वीसवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ||२१|२॥ } अहो भगवन्! अलसी, कसुंचे, कांद्रव, कांगणी, राल, वराग, कोठी, सासन, और सरिसव व मूलवीज {इन में जो जीव मूलपने उत्पन्न होते हैं वे जीवों कहां से उत्पन्न होते हैं ? ऐसे ही यहां पर मूलादि दश उद्देशे जैसे शाली के कहे वैसे ही कहना. यह तीसरा वर्ग समाप्त हुवा. यह इक्कीसवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २१ ॥ ३ ॥ ० ० भद्दो भगवन् ! वांश, वेणू, धतूरा, दण्ड, कण्ठ, बेलुक और कल्याणी इन में जो जीव मूलादि दश · - 48+ इक्कीसवा शतक का २-३-४ उद्देशा 49+ २५१७ Page #2548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावाथा सिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एवं एत्थवि मूलदीया दस उद्देसगा जहेत्र सालीणं, णवरं देवो सव्वत्थवि ण उववज्जइ तिणि लस्साओ || सव्वत्थवि छन्नीसं भंगा ॥ ससं तंचे ॥ चउत्थों वग्गो || ४ || इक्कवीन सयरस चउत्थो वग्गो ॥ २१॥ ४ ॥ अह अंत ! इक्खु इक्खु वाडिय वीरण- इक्कडभ-मास सुंव-सत्तवप्त- तिमिरसय- पोरं गनलाणं एएसिणं ज जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एवं जहेब स वग्गो तहेव त्यत्रि मूलादीया दस उद्देसगा. वरं खधुदेंसे देवो उववजंति; चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओं, सेसं तंत्र ॥ पंचमो वग्गा सम्मत्तां ॥ १२ ॥ ५ ॥ स्थान में उत्पन्न होने वगैरह जैने शाली का कहा वैसे ही कहना. विशेष में यहां देवता सब स्थान उत्पन्न नहीं होते हैं इसलिये चार लेश्या नहीं कहना. परंतु तीन लेश्या के ३० भांगे कहना. यह चौथा वर्ग (समाप्त हुआ. यह इक्कीसवरा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हु| ॥ २१ ॥ ४ ॥ 'अहो भगवन् ! इक्षु, इक्षुवाडिया, इक्कड, भाषक, सप्त पर्ण, शत, पोरंग और नल इन में जो जीव मूलपने उत्पन्न होते हैं वगेरह वंश वर्ग जैसे दश उद्देशे कहना. विशेष में स्कंध में देव उत्पन्न होने से वहां चार लेश्याओं के ८० भांगे पाते हैं. यह पांचवा वर्ग समाप्त हुवा यह इक्कीसवा शतक का पांचवा | उद्देशा संपूर्ण हुना ॥ २१ ॥ ५ ॥ ० * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी २५१८ Page #2549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) मूत्र Pages अभी सेडिय-भंतिय-दभतिर दम्भ कुत-मयग-पोइदतल अजुग आसाढगरोहि यसमु अबक्खीरभुस-एरंड-कुरु-कुंदकरकर-सुंठ-विभंग-मुहरण-घुघुरगसिप्पिय सुकुलि तणाणं, एएसिणं जे जीवा मलत्ताए वक्कमंति, एवं एत्थधि उद्देसगा णिरवसेसं जहेव वंत वग्गो ॥ छट्टो वग्गो ॥ ६ ॥ इक्कीसस्सय' छट्ठो ॥ २१ ॥ ६ ॥ अह भंते! अञ्भोरुह वायण हरितग तंदुलेजय तणुवत्थुल पोरग मजारयाइ-बिल्लियाल कदग-पिप्पलिय-दवितात्थिय कसाय मंडकि मूलग सरिसब अंबल साग जियतंगाणं 482 इक्कीसवा शनक का सातवा उद्द उद्देशा - HIE है जो भगवन् ! सेडिय भतिक, दर्भ, कुरा, पांग, पोइइ. इत्त ठ, अर्जुन आषाढक,रोहिन, ममु.अवक्वार. भुर, एरंड, कुरुकुद, करकर सुंदर, विभंग महुरण, घरग, शिलित, मुकुल ओषधि विशेष वनस्पति इन में जो जीव मू उपने उत्पन्न होरे वगाह जैसे वंशर्ग कहा वैभे ही यहां पर भी सव उद्देशे कहना. यह छठा वर्ग संपूर्ण हुवा. यह इक्कीसवा शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुआ ॥ २१ ॥ ६॥ .. 6 अहो भावन् ! अन्भोरुड, वायग, हरितक, तुंदुल, तनु, चथुली, पोरक, मानरिक, दक, पलकंद, सास्थय, कपाय, मडके, मूग, सारिसर, अंजल भाग और जियांतक इनमें जो जीवों मूलपने उत्पन्न होते । 488 Page #2550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए बकमंति, एवं एत्मवि दस उद्देसगा, जहेब सवग्गों ॥ सत्तमो वग्गो ॥ ७॥ इक्कीसमस्स सयस्स सत्तमो उद्देसो ॥ २१ ॥७॥ अह भंते । तुलसी • कण्हदराल • फण्णेजा - भूतणातिंचोराजीरादमणामरुयाई दीवर सयपुप्फाणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एत्थवि दस उद्देसगा णिरवसेसं जहा वंसाणं ॥ अट्ठमो वग्गो सम्मत्तो ॥ ८॥ एएसु अट्ठवग्गेसु असीति उद्देसगा } भवंति ॥ एकवीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ २१॥ ऐसे ही यहां पर भी दश उद्देशे जैसे वंश पर्ग के कहे वैसे ही कहना. यह सातवा वर्ग समाप्त हुवा... इसवीसवा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २१ ॥७॥ १ अहो भगवन् ! तुलसी, कृष्ण, दराल, फणश, भूतनाति, चोरा, जीरा, दमना, मरुया और इन्दीवर शत पुष्प इन में जो जीव आकर मूलपने उत्पन्न होते हैं वगैरह यहां पर वंश वर्ग जैसे दश उद्देशे कहना. यह आठवा वर्ग समाप्त हुवा. यह इसीसवा शतक का आठवा उदशा संपूर्ण हुबा. यह इक्कीसवा शतक समाप्त हुवा ॥ २१॥ • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे Page #2551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ | 40- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 403 ॥ द्वाविंशतितम शतकम् ॥ ताले यि बहुबीया गुच्छाय गुम्मवल्लीय ॥ छद्दसवग्गा एए सट्ठी पुण होत उसा || १ || रायगिहे जाव एवं वयासी अह भंते ! ताल तमाल तक्कलि तेतलि सालि सरला सारगल्लाणं जाव केतिय कदलि कंदलि चम्मरुक्ख गुदंरुक्ख हिंगुरुक्ख लवंगरुक्ख नूयफल खज्जूरि नालिएरीणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्क मंति, तेणं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जंति, एवं एत्थवि मूलादीया दस उसगा कायव्वा जब साली णवरं इमं णाणत्तं मूले कंदे खंधे तयाए सालेय एएस पंचसु शतक में जैसे वनस्पति का अधिकार कहा वैसे ही बाबीसवे शतक में भी शतक में ६० उद्देशे व ६ वर्ग कहे हैं। जिन के नाम. १ ताल आदि वृक्षों का २ एक वाले वृक्षों का बहुत गुठली के फलवाले वृक्षों का ४ बेंगने जैसे गुच्छक वृक्षों का ५ कोरंट वृक्षों का और तुम्बी जैसे वल्ली वृक्षों का. एक २ वर्ग में दश २ उद्दशे कहे हैं ६० उद्दशे होते हैं. राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कारकर श्री गौतमस्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! ताल, तमाल तक्कली, तेतली, साली, सरल, सर गल यावत् केतकी, कदली, कंदली, चर्मवृक्ष, गुंदवृक्ष, हिंगवृक्ष, लवंगवृक्ष, पुगफल, खजूर नालियेर इन जो जीवों मूलपने उत्पन्न हुये होत्रे वे जीवों कहां से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे इक्कीसवे शतक कहते हैं. १ इस गुठली के फलनव मालती जैसे यों सत्र मीलकर 43+ वावसिवा शतक का पहिला उद्देशा 48 २५२१ Page #2552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अम लक ऋषिनी उसएस देवो ण उववज्जइ, तिण्णि लेस्साओ, ठिती जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोतर्फ दसवास सहस्साई उवरिलेसु पंचमु उद्देसएसु देवो उववजइ ॥ चत्तारि लेस्साओ; ठिई महणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं वास पुहुत्तं ॥ ओगाहणा मूले कंदे धणुह पुहुत्तं ॥ खंधे तयाय सालेय गाउयपुहुत्तं, पवाले पत्ते धणुह पुहुत्तं ॥ पुप्फे हत्थ पुदुत्तं ॥ फलेय वीएय अंगुलपुहुत्तं ॥ सव्वेसिं जहण्णेणं अंगुलस्स असं भासा प्रथम वर्ग में साली उद्देशा कहा वैसे ही यहां सब कथन जानना. इक्कीसवे शतक में प्रथम वर्ग के मूल आदि दश उद्देशे अलगर किये वैसे ही इस के भी दश उद्देशे कहना. इस में इतनी विशेषता कि मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, और शाखा इन पांच उद्देशे में देवता की उत्पत्ति नहीं है इस से इन में लेश्या भी तीन कहना. इनकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट दश हजार वर्ष और उपर के प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और वीज इन पांचमें देवता उत्पन्न होते हैं इसलिये चार लेश्या कहना. स्थिति जघन्य अंतर्मुहुर्त की की उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष की. अवगाहना मूल व स्कंद की प्रत्येक धनुष्य की, स्कंध, त्वचा व शाखा की प्रत्येक कोश की, प्रवाल व पत्र की प्रत्येक धनुष्य की, पुष्प की प्रत्येक हाथ की, फल व बीज की प्रत्येक अंगूल की. यह उत्कृष्ट अवगाहना जानना. सब की जघन्य अवगाहना अंगूल के असंख्यात वे भाग * प्रकाशक राजाबहादुर साला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 40१ अनुवादक-बालत्रमा Page #2553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | ++ पंचमांग विवाह पण्णसि ( भगवती ) सूत्र 40 खेज्जइ भागं सेसं जहा सालीणं, पढमात्रग्गो ॥ २२ ॥ १ ॥ एवं एए दस उद्देसा ॥ बावीसइमरस :०; fo; अह भंते ! बिंब जंबुकोसंबसाल अंकोल पीलु सेलु सलइ मोयइ मालय वडल पलास करंज पुत्तंजीव गरिट्ठ बहेलग हरिय गभल्लाय उंवरि भरिय खीरणि धायर पियालु पूतियणं बारगसण्हंणपासिय सीसव अयसि पुण्णागणागरुक्ख सीवण्ण असोगाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कर्मति ॥ एवं मूलादीया दस उसाकायन्वा निरवसेसं जहा तालबग्गो || वितिओवग्गो सम्मत्तो ॥ २२ ॥ २ ॥ :-: :: शेष सब अधिकार शाली धान्य जैसे कहना. यों बावीसवे शतक के प्रथम वर्ग में दश उद्देश संपूर्ण यह बावीसवा शतक का प्रथम उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २२ ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! नींव, आम्र, जाम्बु, कोसंब, शाली, अंकोल, पीलू, शेलू, शल्यकी, बकुल, बउल, पलाश, करेंज, जीवापुत्र, अरिठा, बहेडा, हरडे भिलामा, जंबर मेरडी, प्रियंगु पूति चारगसण्ड, नपासी, सीसम, अतसी, पुन्नाग, तालवृक्ष, सिवन व अशोक, इन में जो जीव मूलपने उत्पन्न होते हैं वगैरह सब कथन जैसे ताल वृक्ष का कहा वैसे ही कहना यों बावीस वे शतक के दूसरे वर्ग में दश उद्देशे संपूर्ण हुवे. ॥ २२ ॥ २ ॥ ० की. {हुवे. मोद की, मालती रायणी घाहडी 4. बावसिवा शतक का दूसरा उद्देशा २५२३ Page #2554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीमी, अह भंते ! भात्थिया तंदुय वोर कविट्ठ अंबाडग माउलिंग विल आमलग फणस दालिम अंसो? अंबर वडणग्गोह णंदिरुक्ख पिप्पलि सतर पिलक्खु काउंवरिय कुच्छंभरिय देवदारु तिलग लउह छत्तोह सरीस सत्तवण्ण दधिवण्ण लोडव चंदण ज्जुण णीव कुडग कलंठाणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, तेणं भंते ! एवं एत्थवि मलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा णेयवा जाव वीयं ॥ तइओ वग्गो सम्मत्तो ॥ २२ ॥३॥ : : : : : अह भंते ! वातिंगणे अल्लइ वोणुइ एवं जहा पण्णवणाए गाहाणुसारेण णेयव्वं जाव गंजपाडणाराति अंकोलाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वनमंति एवं एत्थवि : अहो भगवन् ! अस्थिक, सिंदुक, बोर, कबीठ, अंबाडग, वीजोरा, बील आमलग, फणम, दाडिम, अंसोठ अंबर, वड, न्यग्रोध नंदीवृक्ष, पीपल. सतर, पीलखो, कादम्बरी कुछुम्बरी, देवदारु तिलक, लहुअ छत्रीह. सरीष. सप्तपर्ण, दधिपर्ण लोध्रव, चंदन, अर्जन, निंब, कुडग, कलंठ, इन सब में जा जांच मुल पने र उत्पन्न होवे इत्यादि सब अधिकार तालवगे जैसे कहना. यह बावीसवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २२ ॥ ३ ॥ . अहो भगवन् ! बेंगन, आलु बोणूड, यों जैसे पनवणा के पहिले पद में गाथा. कही इस अनुसार यात् प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव महायजी ज्वालाप्रमादी भावार्थ | Page #2555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पंचांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) मूत्र + (:) (:) (:) मूलादीया दस उद्देसगा जाव बीयंति णिरवसेसं जहा वसवग्गो ॥ चउत्थो वग्गो ॥ २२ ॥ ४ ॥ अहते ! सेडिय कणव मालिय कोरेंटग बंधुजीबमणोज जहा पण्णवणाए पढमपदे गाहानुसारेण जाव णलणीय कुंद महाजातीणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं एत्थवि मूलादिया दस उद्देसमा निरवसेसं जहा सालीणं || पंचमो वग्गो सम्मत्तो ॥ २२ ॥ ५ ॥ :; :; अह भंते! पूसफली कालिंगी तुंबी तउसी एलावालुकीय एवं पदाणि छिंदिय पव्वाणि पण्णवणागाथाणुसारेणं जहा तालवग्गो जाव दधिफोलई काकाल उत्पन्न होवे इत्यादि दश उद्देशे वंश वर्ग के दश गंज पाटती, बाती, अकोल, इन के मूल में जो जीव उद्देश जैसे करना. यह बावीसवा शतक का चौथा वर्ग समाप्त हुवा ||२२||४|| अहो भगवन् ! सेडिक, कणव, मालिया, कोरंट, बन्धुजीव, रक्तवर्ण, वनस्पति, और मणोजा इत्यादि पाणा के पहिले पद की गाथानुसार यावत् कुंद महाजाती इनमें मूलपने जो जीव उत्पन्न होवे इत्यादि दश उद्देशे विशेषता रहित शालि जैसे करना. यह पांचवा वर्ग समाप्त ॥ २२ ॥ ८ ॥ अहां भगवन् ! पुंगफली, कालिंगी, तूबी, त्रपुसी, एलची, चीमडी, यावत् दधिफोल्लइ काकली, 4- बावीस शतक का ४-५-६ उद्देशा २५२५ Page #2556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मोकलि अक्कयोंदीणं एएसिणं जे जीवा मूलत्साए वक्कमति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायबा जहा तालबग्गो, णवरं फल उद्देसे ओगाहणाजहण्णणं अंगुलस्स असंखजइ भागं, उक्कोसेणं धणु पुहत्तं, ठिई सम्बत्थ जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वास पुहत्तं, ससं तंचेव । छटो बग्गो सम्मत्तं ॥ २२ ॥ ६ ॥ एवं छसुवि वग्गेसु __सहि उद्देसगा भवति ।। २२ ॥ ६० ॥ वावीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ २२ ॥ मोकली, अबोदी, इन में जो जीव मूलपने उत्पन्न होने यो मूलादि, दश उद्देशे ताल वृक्ष जैसे करना. विशेष में फल उद्देशे में अवगाहना जघन्य अंगूल के असंख्यातवा भाग् उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य की कहना स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष की. यह छठा वर्ग समाप्त हुचा, योछ वर्ग के साठ उदरे हुवे ॥ २२॥ ६॥ यह बावीसवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ २२ ॥ mammmmm भावाथा 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनिश्रामोलक ऋषिजी .प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n . २२२० 8 पंचमांग विवाह परणसि (भगवती) सूत्र ॥ त्रयोविंशतितम शतकम् ॥ णमो सुअदेवयाए भगवईए ॥ आलुय लोहीअवए, पाठातह मास वाण्णवलीय; पंचते दस वग्गा, पण्णासं होति उद्देसा ॥१॥ रायगिहे जाव एवं वयासी अह भंते ! आलुय मूलग सिंगवेर हालिद्द रुरुक चरिय' जीरू छीर विराली किर्टिक दुकण्ण कडसु मधुएयलइ महुसिंगि णिरुहा रुप्प सुगंधा छिन्नरुहा वीयरुहाणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा बसंघग्ग सरिसा, णवरं परिमाणं जहणणं एक्कोवा दोवा तिाण्णवा उक्कोसेणं संखजावा असंखेजावा अणंतावा बाबीस वे शतक में प्रत्येक वनस्पतिका कथन किया, भव साधारण वनस्पति का कथन करते पर प्रारंभ में श्रतदेवता को नमस्कार करने के लिये भगवती श्रत देवता को नमस्कार होवो. अब इस के वर्ग व उद्देशे कहते हैं. ? आलू मूलादि साधारण शरीर वनस्पति विशेष २ लोही प्रभृति अनंत 50 काय ३ अंबक प्रभृति अनंत काय४ पाढा प्रमुख और५ उडीद मुंगफली या पांच वर्ग. एकर वर्ग में दश २ उद्देशे होने से इस शतक में ५० उद्देशे होते हैं. राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे प्रश्नों पुछने लगे कि अहो मगवन् ! आलू, मला, *38* तेवीसवा शक्क का पहिला उद्देशा 98 भावाथ 1 - - - Page #2558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२८ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + उववजंति ॥ अवहारो तेणं अणंता समए २ अवहीरमाणा २ अणताहि उस्सप्पि णीहिं ओसप्पिणीहि एवइथं कालेणं अवहीरइ णो चेवणं अवहिरिया सिया, ठिई जहण्णणवि उकोसेणवि अंतोमहत्तं, सेसं तंचेव ॥ तेवीसमरस सयस पढमो बग्गो सम्मत्तो ॥ २३ ॥ १॥ . :. . अह भंते ! लोहिणीहवीहथिभागा अस्सकण्णी सीहकपणी सीउट्टी मुसंढीणं एए. सिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं एत्थवि दस उद्देसगा जहेव आल. यग्गे णवरं ओगाहणा तालवग्ग सरिसा सेसं तंचेव, सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ बिईओ अदरख, हलदी, रुरुक, चरिप, जीरा क्षीराविली, किट्टिक, दुकर्ण, कड़, सुमधु, एयलाकी, मधुसिंगिणी, रुहा, रूपमुगंधा, और छदी हुइ उगनेवाली अथवा बीज से उगनेवाली यों इन में जो जीवों मूलपने उत्पन्न होवे यो दश उद्दशे वंश वर्ग जैसे कहना. विशेष में परिणाम जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात व अनंत उत्पन्न होवे. उन जीवों के पिंण्ड में से समय २ में अनंतर नीकलते२ अनंत अवसर्पिणी, खाली होवे नहीं. स्थिति जयन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. और सब कथन वैसे ही कहना. यों तेवीसवे शतक के प्रथम वर्ग में दश उद्देशे संपूर्ण हुवे । २३ ॥१॥ अहो भगवन् ! लोहिणी, हुवी, हूथी, भांग, अम्बकर्णी सिंहकी सीउठी मुपंढी इन में जो जीव मूलपने * प्रकाशक-राजीवहादुर जबासस्वदेश या भावार्थ प्रसादजी गु Page #2559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२९ वग्गो सम्मत्तो ॥ २३ ॥ २॥ () () () () अह भंते ! आयकाय कुहुण कुंदुरुक्क उवेहलियसफासज्जा छत्ता वंसाणिय कुराणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए एवं एत्थवि मूलादिया दस उद्देसगा णिरवसेसं जहा आलबग्गो सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ तइओ वग्गो सम्मत्तो ॥ २३ ॥ ३॥ (!) अह भंते ! पाढामिय वालुंकि महुररसा रायवल्ली पउमा मोढरि दंति चंडीणं, एए. सिणं जे जीवा मूलादिया दस उद्देसगा आल्यवग्गमरिसा, णवरं ओगाहणा जहा बल्लीणं, सेसं तंचव सेवं भंते ! २ ति चउत्थो वग्गो सम्मत्तो ॥ २३ ॥ ४ ॥ यावत् वीज पने उत्पन्न हुवे यो दशो उद्देशे जैसे आलुके कहे वैसे ही कहना. परंतु अवगाहना ताल वर्ग जैसे कहना. यह तेवीसवा शतक का दूसरा वर्ग समाप्त हुवा ॥ २३ ॥२॥ . अहो भगवन् ! आयकाय, अनंतकाय, कुहुण, कंदरुक्क, उबेहलिक, सफा, सज्जा, छत्रा, वंशाणिक, कुरु इन सब अनंतकाय में जो जीव मूलपने उत्पन्न होवे यों मूलादि दश उद्देश आलु वर्ग जैसे कहना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य है यह तेवीसवा शतक का तीसरा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ २३ ॥ ३ ॥ १. अहो भगवन् ! पाठामृग, बालुका, मधुररसा, रायवली, पद्मा, मोढरी, दन्ती,चण्डी, इन में मो जीब 17मूलपने उत्पन्न होवे इत्यादि पूर्ववत दश उद्देशे जैसे आलू के कहे वैसे ही कहना परंतु अवगाहना बल पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 480 +4 तेवीमा तक का २-३-४ भार्थ Page #2560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह भंते ! मासपण्णी मुग्गपण्णी जीव जीवग सरिसव कपयणुकाउलिखीर कोवालि भगिणहि किमिरासि भद्दमुच्छाणं गलइ पेयुय किण्णा पउयल वाडेहरेणुय लोहीणं, एएसिणं जे जीवा एवं एत्थवि उद्देसगा णिरवसेसं आलुबग्ग सरिसा ॥ पंचमो वग्गो सम्मत्ती ॥ २३ ॥ ५॥ एवं एएसु पंचसु बग्गेसु पण्णासं उद्देसगा भाणियव्वा सव्वत्थ देवा ण उववनंति, तिणि लेस्साओ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ तेवींसइम सयं संम्मत्तं ॥ २३ ॥ भावार्थ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जैसे यहां पर कहना. शेष सब वैसे ही जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह तेवीसचा शतक का चौथा वर्ग समाप्त हुवा ॥ २३ ॥ ४ ॥ र, अहो भगवन् ! उडीद की फली, मुंग की फली, जीवजीवग, मरिसघ, कपयणु, काउली, क्षीर को दाली, भंगणी, कृमिसशि, भद्रमूर्छा, गलिक, पियुष, कृष्णा, पउय, लबाड, हरेणुक, लोही, इन सब में जो जीव मूलपने उत्पन्न होवे बगैरह दश उद्देशे आलु जैसे कहना. यह तेवीसबा शतक का पांचवा वर्ग समाप्त ॥ २३ ॥ ५ ॥ है एक २ वर्ग में दश २ उद्देशे हैं यों पांच वर्ग के मीलाकर ५० उद्देशे हुये. इन में किसी भी स्थान देवता नही उत्पन्न होते हैं इस से तीन लेश्या के छत्तीस मांगे पाते हैं. अहो भगवन् ! आप के बचन सत्य हैं। यह बीसदा शतक संपूर्ण दुवा ॥ २३ ॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी Page #2561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ** पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र चतुर्विंशतितम शतकम् वाय परीमाणं संघयणु च्चत्तमेव संठाणं, लेसादिट्ठी गाणअण्णाणे, जोग उवओगे ॥ १ ॥ सण कसाय इंदिय समुग्धाया वेदणाय वेदेय || आऊ अज्झवसाणा अणुबंधो, काय संवेो ॥ २ ॥ जीवपदे जीव पदे जीवाणं दंडगंमि उद्देसा ॥ चउवीसह मंमिस चवीसहुति उद्देमा || ३ || १ || रायगिहे जाव एवं वयासी रइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति, किं णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्ख जोणिएहिंतो, तेवीस वे शतक में वनस्पति के उत्पन्न होने का कथन किया. चौवीस में शतक में नरकादि में उत्पन्न होने का कहते हैं. इस में वीस द्वार कहे हैं. १ उपपात द्वार २ परिणाम द्वार ३ संघयन ४ उंचपना १५ संस्थान ६ लेश्या ७ दृष्टि ८ ज्ञान अज्ञान ९ जोग १० उपयोग ११ संज्ञा १२ कषाय १३ इन्द्रिय १४ (समुद्रात १५ वंदना १६ वेद १७ आयुष्य १८ अध्यवसान १९ अनुबंध और २० काय संवेध. ये वीस fart कहे हैं. नरकादि जीव पद में चौवीस दंडक सो चौवीस उद्देशे जानना ॥ १ ॥ राजगृह यावत् ऐसा बोले अहो भगवन् ! नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं. क्या नार की में से तिर्यच में से उत्पन्न होते हैं, मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं या देवमें से उत्पन्न होते हैं ? उत्पन्न होते हैं, अहो गौतम ! * चौबीसवा शतक का पहिला उद्देशा 48 २५३१ Page #2562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी णो उबवजंति, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, देवेहिंतो उववजंति ? गोयमा ! एहिंतो उववज्जति, तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजंति, मणुस्सेहिंतो उववर्जति णो देवेहिंतो उववज्जंति जइतिरिक्ख जाणिएहिंतो उववनंति किंएगिंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजंति, वेइंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजंति, तेइंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति, चउरिंदियं तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजंति पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! जो एगिंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उबवजंति, णो बेइंदिय णो तेइंदिय, णो चउरिंदिय, पंचिदियतिरिक्खजेोणिएहिंतो नारकी में व देव में से नही उत्पन्न होते हैं, परंतु तीर्थच व मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! यदि तीर्थच में से उत्पन्न होते होवे तो क्या एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम! एकेन्द्रिय तिर्यच में से उत्पन्न होवे नहीं यावत् चतुरेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे नहीं परंतु पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे. जब तीर्येच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो क्या संज्ञा तिर्यंच पंचेन्द्रिय { में से उत्पन्न होवे अथवा असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संज्ञी व असंज्ञी दोनों तीर्थच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न दोवे. यदि असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो, क्या जलचर स्थलचर * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #2563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - उवत्रजति ॥ जइ पंचिदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजति किं सनिपचिदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, असपिंचिदियतिरिक्ख जोणिएर्हितो उववज्जंति ? गोयमा ! सष्णिपंचिंदियतिरिक्खजोगिएर्हितो उववज्जति असणिपंचिदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति ॥ जइ असष्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, किं जलचरेहितो उववज्जंति थलचरेहिंतो उववज्जति खहचरेर्हितो उववज्वंति ? गोयमा ! जलचरेहिंतो उवबज्वंति, थलचरहिंतो उवत्रजंति, खहचरेहिंतो उववजंति, ॥ जइ जलचरे थलचरे खहचरहिता उववज्जंति किं पज्जत्तएहिंतो उवत्रजंति अपज्जत्तएर्हितो उववज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववज्जति णो अपजत्तएहितो उववज्र्जति ॥ या खेचर में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जलचर, स्थलचर व खवर में से उत्पन्न होवे. यदि १ { जलचर, स्थलचर खेचर में से उत्पन्न होवे तो क्या पर्याप्त उत्पन्न होवे या अपर्याप्त उत्पन्न होने अहो [गौतम ! पर्याप्त उत्पन्न होवे परंतु अपर्याप्त होवे नहीं. अहो भगवन् ! जो पर्याप्त असंज्ञी तिच पंचे न्द्रिय नारकी में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितनी नारकी में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पहिली एक नारकी में उत्पन्न होवे. अहो भगवन ! जो पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच पहिली उत्नमभा में उत्पन्न te -+- चोवीसवा शतक का पहिला उद्देशा - | २५३३ Page #2564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ऋषिजी - २०३४ * अनुवादक-बालबाह्मचारी मुनि श्री पजत्तसणिपचिंदियतिरिक्खजोगिएणं भंते ! जे भविए रइएम उखवाजत्तए सेणं भंते ! कइसु पुढवीसु उववजेजा ? गोयमा ! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववजेजा ॥ पजत्तअसण्णि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयण प्पभाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय काल ठिईएसु उववजेजा गोयमा ! जहण्णेणं दस वास सहस्सठितीएसु, उक्कोसणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागठिईएसु उववजेजा ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ?गोयमा जहणेणं एकोबा दोवा तिण्णिवा उकोसेणं संखेज्जावा उववनंति ॥२ ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंघयणी ५० ? गोयमा ! छेवट्टिसंघयणी प.॥ ३ ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं के महालिया संरीरोगाहणा'५० ? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स होने योग्य होवे उन की वहां कितनी स्थिति कही ? अंडी गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष की उत्कृष्ट पश्योपम के मनख्यात भाग की स्थिति करी. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे ! अहो गौतम ! जयन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते. ॥ २॥ अहो भगवन् ! उन जीवों के शरीर कौनसे संचयन वाले हैं। अहो गौतम ! ऐजट संघयनवाले हैं. ॥३॥ अवगाहना द्वार अहो भगवन् ! प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाममादजी . শাখ Page #2565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ** पंचमात्र विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4+ असंखेजड़ भागं उक्कोसेणं जोअणसहस्सं ||४|| तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं "संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! हुंडठाण संठिया पण्णत्ता ॥५॥ तेसिणं भंते! जीवाणं कइलेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तिण्णिलेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा कण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा, ॥ ६ ॥ तेणं भंते ! जीवा सम्मदिष्ट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी णो सम्मा मिच्छाविट्ठी ॥ ७ ॥ तणं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! णो उनके शरीर की कितनी अवगाहना कही ? अहो गौतम ! उन जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यांचा भांग उत्कृष्ट एक हजार योजन ॥ ४ ॥ संठाण द्वार अहो भगवन् ! उन जीवों को कौनसा { संस्थान कहा है ! अहो गौतम ! उन जीवों को इंडक संस्थान कहा है || ५ || लेश्या द्वार अहो भगवन् ! उन जीवों को कितनी लेश्याओं कही ? अहो गोतम ! उन जीवों को तीन लेयाओं कहीं जिन के नाम १ कृष्ण २ नील व ३ काgत. ॥६ ॥ दृष्टिद्वार अहो भगवन् ! क्या वे समदृष्टि. मिध्यादृष्टे या सममिध्या दृष्टि है ? अहां गौतम ! वे समदृष्टि व सममिध्यादृष्टि नहीं हैं परंतु मिध्यादृष्टि हैं. ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्या ये ज्ञानी या अज्ञानी हैं ? अहो गौतम ! ज्ञानी नहीं हैं और नियम मति अज्ञान चौवा शतक का पहिला उद्देशा 4 १५३५ Page #2566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी * 'गाणी, अण्णाणी णियमा दुअण्णाणी तंजहा-मतिअण्णाणी सुअअण्णाणी ॥ ८ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं मणजोगी वयजोगी, कायजोगी, ? गोयमा ! णो मणजोगी वइजोगीवि कायजोगीवि ॥ ९ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं सागारावउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्तावि अगागारोवउत्सावि ॥ १० ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ सण्णा पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारिसण्णा पण्णत्ता तंजहाआहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा ॥ ११ ॥ तेसिणं भंते ! जीर्ण कहकसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तंजहा-कोहकसाए श्रुत अज्ञान ऐसे दो अज्ञानवाले हैं. ॥ ८ ॥ योग द्वार अहो भगवन् ! क्या वे जीवों मनयोगी वचन योगी या कायायोगी हैं ? अहो गौतम ! मनयोगी नहीं हैं परंतु वचन व काया योगी हैं. ॥९॥ उपयोगद्वार अहो भगवन् ! क्या वे सामारोपयोग वाले हैं या अनाकारांपयोग वाले हैं ? अहो मौतम ! साकारोपFयोग वाले व अनाकारोग्योग वाले हैं. ॥ १० ॥ संज्ञा द्वार अहो भगान् ! उन को कितनी संज्ञाओं कहीं ? अहो गौतम : अह र संज्ञा, भय ज्ञा, मैथुन संज्ञा व परिग्रह संज्ञा ऐनी चार झा कही ॥११॥ कषाय द्वार अहो भगवन् ! उनको कितनी कषाय कही ! अहो गौतम ! क्राध, मान, माया व लोभ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा Page #2567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 पंचांग विवाहपण्णति । भगवती ) सूत्र "माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए ॥ १२ ॥ तेसिणं भंते! जविाणं कइइंदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचिंदिया प० तं सोईदिए चक्खिदिए जाव फार्सिदिए ॥ १३ ॥ सिणं भंते! जीवाणं कइसमुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तंजा-वेदणा समुग्धाए कसाय समुग्धाए मारणंतिय समुग्वाए || १४ || तेणं भंते ! जीवा किं सातावेदगा असातावेदगा ? गोयमा ! सातावेदगावि असातावेदगावि ॥ १५ ॥ ते भंते! जीवा किं इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगा ? गोयमा ! णो इत्थवेदगा, णो पुरिसवेक्ष्गा णपुंसगवेदगा ॥ १६ ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं ऐसी चार कषय कहीं हैं ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! उन को कितनी इन्द्रियों कही हैं, अहो गौतम ? उन को श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षइन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय ऐसी पांच इन्द्रियों कही हैं ॥ १३ ॥ समुद्धात द्वार अहो भगवन् ! उन को कितनी रुमुद्धात कही ? अहो गौतम ! उन को वेदना, कषाय व मारणांतिक ऐसी तीन समुद्धात कढी || १४ || वेदक द्वार अठो भगवन् ! वे जीवों क्या साता वेदने वाले हैं या असाता वेदनेवाले हैं ? अहो गीतम ! वे सातावेदनेवाले और असाता भी वेदने वाले हैं ।। १५ ।। अहीं भगवन् ! }वे जीवों क्या स्त्री वेदी, पुरुष बेदी या नपुंसक वेदी हैं ? अहो गौतम ! स्त्री वेदी व पुरुष वेदी नहीं हैं। 4- चौवीसत्रा शतक का पहिला उद्देशा २५३७ Page #2568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. mmM केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहुत उक्कोसेणं पुवकोडि. ॥ १७ ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ अझवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता ॥ तेणं भंते ! किं पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा ! पसत्यावि अप्पसत्थावि ॥१८॥ तेणं भंते ! पजत्ताअसण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएत्ति कालओ केवचिरंहोइ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुल्वकोडि ॥ १९॥ सेणं भंते! पजत्त असणि पंचिंदियतिरिक्खजाणिए रयणप्पभापुढवीणेरइए पुणरवि पजत्त अस णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएत्ति केवइयं कालं सेवेजा केवइयंकालं गतिरागति करेजा ? परंतु नपुंसक वेदी हैं॥१६॥स्थिति द्वार अहो भगवन् ! उन की स्थिति कितनी कही ? अहो गौतम ! उन के स्थिति जघन्य अनर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! उन जीवों को कितने अध्यवनाय कहे हैं ? अहो गौतम ! असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं ? अहो भगवन् ! क्या वे प्रशस्त या अप्रशस्त हैं ? अहो गौतम ! उन के अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त भी है. ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! अंमंत्री तिर्यंच पंचेन्द्रिय काल से कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट पूर्वक्रोड ॥ ९॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त असंत्री पंचेन्द्रिय तियेच रत्नप्रभा पृथ्वी का नारकी ..प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ mom । Page #2569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 488+- पंचांग विवाह पणचि ( भगवती ) सूत्र गोयमा ! भवादेसेणं दोभवग्गणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं पलिओत्रमस्स असंखेज्जइ भागं पुन्त्र कोडिमन्भहियं एवइयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ॥ २० ॥ पज्जत असणि पंचिदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए जहण्णकालट्ठिईएस रयणप्पभापुढवि रइए उववजित्तर से भंते! केत्रइय कालट्ठिईएस उववज्जज्जा ? गोयमा ! जहणेणत्रि दस वाससहस्सठिईएस उक्को सेणवि दस वाससहस्सट्ठिईएस उववज्जेज्जा ॥ २१ ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? एवं सव्वा वत्तव्वया णिरवसेसा होकर पुनः असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्येच को कितने काल तक सेवे ? और कितनी गतागत करे ? अहो गौतम भवादेश से दो भव करे और कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यात वा भाग और पूर्व क्रोड अधिक इतना काल तक अमंज्ञी पर्याप्त तिर्यचपना सेत्रे और इतनी गतागत होत्रे ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! जो पर्याप्त अमेझीतिर्येच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थिति वाली {रलप्रभा पृथ्वी में नारकीपने उत्पन्न होने योग्य होता है वह काल से कितना काल तक उत्पन्न होता है ? अहां गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष की स्थिति वाला और उत्कृष्ट भी दश हजार वर्ष की स्थिति वाला नारकी में उत्पन्न होवे ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों एक सयम में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो * चौवीसना शतक का पहिला उद्देशा +8+ २५३९ Page #2570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ : 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी भाणिव्वा जाव अणुबंधोति ॥ २२ ॥ सेणं भंते । यजन्त असणि पंचिदिय तिरिक्खजोगिए जहण कालठिईय रयणप्पभा पुढवि णेरइए जहणकाल पुणरवि अपजत अमणि जात्र गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहणेणं दसवास सहस्ताई अंतो मुहुत्तमम्भहियाई, उक्कांसेणं पुव्वकोडी दसवाससहस्सेहिं अमहिया एवइयं कालं सेवेजा, एवइयं कालंगतिरागतिं करेजा ॥ २३ ॥ पंजत असणि पंचिदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोस - कालट्टिईएस रयणप्पभाए पुढवीए रइएस उबवजित्तए सेणं भंते! केवइयंकाल गौतम ! इस की मत्र वक्तव्यता विशेषता रहित अनुबंध तक पूर्वोक्त जैसे कहना. अहो भगवन् ! पर्याप्त असंही तिर्यच पंचेन्द्रिय जघन्य कालस्थिति वाली रत्नप्रभा नारकी में जघन्य काल स्थिति और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय यावत् कितनी गति आगति करे ? अहो गौतम ! भवादेश से दो भव में और काला देश मे जघन्य दश हजार वर्ष व अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट पूर्वकंड और दश हजार वर्ष इतना काल तक (मेवे और उतनी गति आगति करे || २३ || असे भगवन्! पर्याप्त अशी पंचेन्द्रिय तिर्येव उत्कृष्ट स्थिति वाली नारकी में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितने काल की स्थिति से उत्पन्न होते ! अहो मौतम ! - * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २५४० Page #2571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 428 ट्ठिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहणेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागट्टिईएसुं उक्कोसणविपलिओवमस्स असंखेजइ भागोइएप उबवजेजा ॥ तणं भंते ! जीवा अवसं तंचेच जाव अणुबंधो ॥ सेण भंते ! पजत्तअलगि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए उक्कोसकालट्ठिईय रयणप्पभा पुढवी जेरइए उक्कोस पुणरवि पजत जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणं पलिओवमस्स असंखजइ भागं अंतोमुहत्त मन्भहियं, उक्कोसेणं. पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पुवकोडी अब्भहियं एवइयं काल सेवेजा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा. भावार्थ जघन्य पल्यापम के असंख्यातवे भाग और उत्कृष्ट भी पल्यापम के अख्यानवे भाग की स्थिति वाली नारकी में उत्पन्न होवे. शेष अनुबंध तक पूर्वोक्त जैसे कहना. अहो भगवन् ! वे पर्याप्त अशा पंचन्द्रिय सिर्यच उत्कृष्ट काल स्थिति वाली नारकी में उत्पन्न हुचे पीछे पुरः वहां कितने काल , में उत्पन्न होवे और कितनी गति आगति करे ? अहो गौतम ! भवादश से दो aaभत्र और कालादेश से जघन्य पल्यापम का असंख्यातवा भाग व अंतर्मुहूर्त अधिक और उत्कृष्ट पल्योपप का असंख्यातवा भाग व पूर्वक्रोड अधिक. इतने काल में पुन! प्राप्त करे - - पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती) सूत्र 40 चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा : Page #2572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ २४ ॥ जहण काल द्विईय पजत असणि पंचिदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पा पुढवीणरइएस उववज्जित्तए सेणं अंत ! केवइय कालाट्टईएस उववज्जेज्जा ? गोयंमा ! जहणणं दसवाससहस्सट्टिईएस उक्कोसेणं पलिओ मस्स असंखंजइभागट्टिईएस उववज्जेज्जा ॥ २५ ॥ तेणं अंत ! जीवा एग समएणं केवति अवसे तंत्र वरं इमाई तिण्णि जाणताई आउअज्झवसाणाणुबंधोय; जहणणं ट्टिई अंतोमुहतं उक्कोसेणंवि अंतोमुहुत्तं, तैसिणं भंते ! जीवाणं केवइया अज्झ वसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा अज्झत्रसाणा पण्णत्ता ॥ तेणं भंते ! किं और इतनी गतागत करे. ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! जघन्य स्थितिवाले पर्याप्त असंज्ञी तिर्येच पंचेन्द्रिय रमभा नारकी में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितने काल की स्थिति से उत्पन्न होत्रे ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातो भागकी स्थिति से उत्पन्न होवे ॥ २५॥ वे जीवों एक समय में कितने उत्पन्न होवे वगैरह विशेषता रहित कहना. इस में आयुष्य, अध्यवसाय व अनुबंध में विशेषता है. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. अहो भगवन् ! उन जीवों को कितने अध्यवसाय कहे हैं ? अहो बौतम ! असंख्यात अध्यवसाय कहे हैं. अझे भगवन् ! वे क्या प्रशस्त हैं या अप्रशस्त हैं ? अहो • • प्रकाशक राजवडादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २५४२ Page #2573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र - ornmarrrnmrrrrrrrrrrrrrrrr पसस्था अप्पसत्था ? गोयमा ! णो पसत्था अप्पसत्था, अणुबंधो अंतोमुहुत्तं सेसं तंत्र ॥ सणं भंते ! जहण्णकालट्टिईय पजत्ता असण्णि पचिंदिय रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतीमुहत्तमभहियाई,उकोसणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं अंतो. मुहुत्तमभहिय एवइयं कालं जाव करेजा ॥२६॥ जहण्ण कालठिईय पजत असण्णि पंचिंदियतिरिक्खोणिएणं भंते ! जे भविए जहण्ण कालठिईएसु रयणप्पभा, पुढवीणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालठिईएसु उववजेजा ? गौतम ! प्रशस्त नहीं हैं परंतु अप्रशस्त है. अनुसंध अंतर्मुहूर्त का शेष वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त अमंशी पंचेन्द्रिय रत्नप्रभा गवत् कर ? अहो गौतम! मवादेशसे दो भर और काला देश से जघन्य दश हजार वर्ष अंतर्मुहूर्न अधिक उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा माग और अंतर्मुहूर्न अधिक. अहो गौतम ! इतना काल करे ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! जघन्य स्थिति चले पर्याय असंही तियेच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थिति वाली रत्नप्रभा नारकी में उत्पन्न होवे तो काल से विना का होवे ? अहो गौतम ! मपन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट दश हमार वर्ष ष सरो * चौबीमा शतक का पहिला उद्दशा Ret भावार्थ Page #2574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मात्रार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोयमा ! जहणेणं दसवाससहस्सठिईएस उक्कोसेणवि दसवासस हस्ल ठिईएस उववज्जेज्जातेणं भंते! जीवा सेसं तंत्र || ताईचत्र तिष्णि णाणत्ताइं जाव सेणं भंते ! जहण कालाई जन्त जात्र जोणिए जहण्ण कालट्ठिईय रयणप्पभा पुणरविं जाब ? गोयमा ! भवादें दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं दसवासमहस्साइं अंतो मुहुत्तमम्भहियाई एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा ॥ २७ ॥ जहण्णकालीठईय पजत जाव तिरिक्खजोणियाणं भंते 1 जे भए उक्कमकालट्ठिएस रयणप्प मापुढवीणेरइए उत्रबजित्तए सेणं भंते! केवतिय कालट्ठिईएस उववजेजा ? गोयमा ! जहणेणं पलिओत्रमस्स असंखेज्जइ वैसे ही जानना. इन में उपर्युक्त तीन विशेषता है और शेष सत्र पूर्वोक्त जैसे कहना यावत् जघन्य काल स्थिति पर्याप्त यावत् जघन्य काल स्थिति में यावत् ? अहां गौतम ! भवादेश से दो भवग्रहण अधिक उत्कृष्ट दश हजार वर्ष और अंतर्मुहूर्त अधिक २० ॥ अहो भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला तिर्यच और कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष अंत इतना काल करे और इतनी गवागत करे ॥ पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट स्थिति वाली रत्नप्रभा पृथ्वी में नारकीपने उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितना . * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २६४४ Page #2575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 49+ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 40 भागट्टिईएस उक्को विपलिओ मस्स असंखेजइभागट्टिईएस उववजेज्जा ॥ तेयं भंते! अवसेसं तंचेत्र ताणिचेव तिण्णि णाणत्ताइं जाब सेणं भंते । जहण्ण कालट्ठिईघस्स पज्जत जान तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालट्ठिईय रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं पलिओत्रमस्स असंखेज्जइ भागं अंतोमुहुत्तमम्भहियं उकासेणंचि पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागं अंतोमुहुत्त मज्भहियं एवइयं कालं जाव करेजा || २७ ॥ उक्कोसकाल ट्ठिईय पजत असण्णि पंचिदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवीणेरइएस उववज्जित्तए, काल की स्थिति से होता है ? अहो गौतम ! जघन्य पल्योपम का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग की स्थिति में उत्पन्न होने और शेष सब पूर्वोक्त जैसे कहना. तीन भिन्नता भी पूर्वोक्त जैसे कहना. जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त यावत् तिर्यच उत्कृष्ट कालीस्थीत वाली रत्नप्रभा यावत् करे ? अहो गौतम ! भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य उत्कृष्ट पल्योपन का असंख्यातवा भाग और अंतर्मुहूर्त अधिक इतना काल यावत् सेवन करे || २७ || उत्कृष्ट स्थितिवाले पर्याप्त असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य होता है वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो ! 42 चौबीसवा शतक का पहिला उद्देशा २५४६ Page #2576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २५४ +१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री मम सक ऋषिमी सेणं भंते ! केवइय कालदिई जाव उववजेजा ? गोयमा ! जहणणं दसवास सहस्सदिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागदिईएस उववजेजा ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं अवसेसं जहेव ओहियगमएणं तहेव अणुगंतव्वं जाव इमाइं दोणि णाणताइं दिई जहण्णेणं पुनकोडी उक्कोसेणवि पुवकोडी; एवं अणुबंधोवि ॥ अवसेसं तंचेव ॥ सेणं भंते ! उक्कोसकालढिईय पजत्तअसीण्ण जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा जाव ? गोयमा ! भवादेसेणं दोभवग्गहणाई. कालादेसेणं जहण्णेणं पुन्चकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसणं पलिओवमस्स. असंखेजहभागं पुवकोडीए अब्भहियं, एवइयं जाव करेजा ॥ २८ ॥ उक्कोगौतम ! जघन्य दश्च हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग. शेष सब जैसे ओधिक गमा कहा वैसे ही यहां कहना. इस में स्थिति और अनुबंध में भिन्नता है. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व कोड ऐ ही अनुबंध का जानना. अहो भगवन् ! वे ही उत्कृष्ट स्थितिवाले पर्याप्त असंही यावत् तिर्यंच रत्नप्रभा में यावत् कितनी गतागत करे? अहो गौतम ! भवादेश से दो भव और काला देश से जघन्य पूर्व क्रोड और दशानार वर्ष अपिक उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग और पूर्व क्रोड अधिक. इतना प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 पंचांग विवाह परणति ( मगवती ) सूत्र 48 सकालाठईयपज्जत तिरिक्ख जोणिएणं भंते! जे भविए जहण कालठिईएनु श्य प्पभा जाव उववजित्तए सेणं भंते! केवति जाव उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहरसाठईएस, उक्कोसेणवि दसवाससहस्स ठिईएसु उववज्जेज्जा || तेणं भंते ! सेसं तंव जहा सत्तमगमए जाव सेणं भंते ! उक्कोसकालठिई जात्र तिरिक्खजोणिए जण काल रयणप्पमा जात्र करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अन्भहिया उक्कोसेणवि पुत्र कोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया एवइयं जाव करेजा ॥ २९ ॥ उक्को सकालठिईय पज्जत जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालठिईएस { यावत् करे || २८ || अहो भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाले पर्याप्त तिर्येच जघन्य स्थितिवाली नारकी में ( उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य उत्कृष्ट दश { हजार वर्ष शेष सब सातवा गमा जैसे कहना. यावत् उत्कृष्ट स्थिति यावत् तिर्यंच जघन्य स्थितिवाली रत्नप्रभा नरक में यावत् उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! भव आश्री दो भव और काल आश्री जघन्य { पूर्व क्रोड और दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट पूर्व क्रोड और दश हजार वर्ष अधिक. इतना यावत् करे | || २९ ॥ अहो भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाले असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय यावत् उत्कृष्ट स्थिति वाली नरक में 488+ चौबीसवा शतक का पहिला उद्देशा २२४७ Page #2578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋावेजी रयणप्पा जाव उचवजितए, सेणं भंते! केवइय काल जाव उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहणं पलिओ मस्स असंखेजइभागठिईएस उक्कोसेणवि पलिओवमस्स असंखेज भागठिईएस उववज्जेज्जा | तेणं भंते ! जीवा एगसमए सेसं जहा सत्तमगमए जा सेणं भंते! उक्कोसकालठिईयपजत जाब तिरिक्खजोणिय उक्कोसठिईय रयणप्पभा जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओ मरस असंखेज्जइ भागं पुञ्चकोडीए अब्भहियं, उकोसेणवि पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पुव्वकोडि मन्महियं एवइयं कालं सेवेजा जाव करेजा ॥ एवं एते ओहिया सिणिगमगा ३ . जहण्ण कालठिईएस तिण्णिगमगा ६, उक्कोसकालठिईएस तिष्णि उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य उत्कृष्ट पल्योपम के अमख्यातवे भाग से उत्पन्न होवे. वह एक समय में शेष सातवा गमा जैसे कहना. यावत् उत्कृष्ट स्थितिवाले पर्याप्त यावत् तिर्यंच उत्कृष्ट स्थितिवाली रत्नप्रभा यावत् करे ? अहो गौतम ! भवादेश से दो भव कालादेश से पल्योपम का असंख्यातवा भाग और पूर्व कोड अधिक उत्कृष्ट भी पल्योपम का असंख्यातवा भाग व पूर्व क्रोड अधिक इतना काल करे. यों औधिक के तीन गमा, जघन्य काल | प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २५४८ Page #2579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावान पंचांग विवाद पण्णसि ( भगवती ) मूत्र गमगा ९, सव्वेते णत्र गमगा भवति ॥ २० ॥ जदि सष्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखेज्जवासाउयलणिपंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति असंखेज्जवासाउयसणिपींच दियतिरिक्ख जोणिए हिंतो जाव उववज्जति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, णो असंखेज्जवासाउय जात्र उववज्जति ॥ दि संखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए हिंतो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववज्र्जति, पुच्छा ? गोयमा ! जलचरेहिंतो उवत्रजंति स्थिति में तीन गमा और उत्कृष्ट काल स्थिति में तीन गमा सब मीलकर १ गमा जानना ॥ ३० ॥ अब संज्ञी के नव गमे कहते हैं. अहो भगवन् ! संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय में से जब उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञी तिर्यंच में से उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतियच पंचेन्द्रिय में मे उत्पन्न होवे परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे नहीं. जब संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो क्या जलचर में मे उत्पन्न होवे वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जलचर में से उत्पन्न होते. स्थलचर में से उत्पन्न होवे और खेचर में से भी उत्पन्न होंवे 42 चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा २५४९ Page #2580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २५५ 42 अनुवादक-बालबमचारी मानि श्री अमोलक ऋषिजी जहा असण्णी जाव पञ्जत्तएहितो उववजंति णो अपज्जत्तएहितो उववज्जति ॥ ३१॥ पजत्त संखेजवासाउय सण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए गेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! कइसु पुढवीसु उववजेजा ? गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववजेज्जा तंजहा-रयणप्पभाए जाव अहे सत्तमाए ॥ पजत्तसंखेजवासाउयसण्णि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभा पुढवीणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय काल ठिईएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वास सहरसठिईएमु रक्कोसेणं सागरोवम ट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एगइत्यादि जैसे असंज्ञी का कहा वैसे ही यहां भी कहना यावत् पर्याप्त में से उत्पन्न होते हैं परंतु अपर्याप्त में से उत्पन्न नहीं होते हैं ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्षवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय नारकी में . उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी नारकी में उत्पन्न होते हैं. अहो गौतम ! सातों नारकी में उत्पन्न होते हैं. जिन के नाम. रत्नप्रभा यावत् नीचेकी सातवी तमतमप्रभा ॥३२॥ अहो भगवन् ! जो पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय रत्नप्रभा नारकी में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति र + से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति में उत्पन। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृत्र भावार्थ 488+ पंचमांगविवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र समएणं केवइया उववज्जति जहेव असण्णी | तेसिणं भंते ! जीवाणं मरीरगा किं संघयणी पण्णत्ता ? गोयमा ! छन्त्रिह संघयणी पण्णत्ता तंजहा वइरोसभ पाराय संघयणी उसभ नाराय जान छेत्रट्ठसंघयणी ॥ सरीरोगाहणा जहेब असण्णीणं ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! छन्विह संठिया पण्णत्ता, तं जहा - समचउरंसाणग्गोहा जाव हुंडा || तेसिणं भंते! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ तंजहा. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा ॥ दिट्ठी तिविहावि ॥ तिष्णि णाणा तिष्णि अण्णाणा भयणा | जोगो तिविहोवि सेसं जहा { होवे. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे असंझी का कहा वैसे ही इन का भी कहना अर्थात् असंख्यात उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों के शरीर कौनसे संघयनवाले हैं ? अहो गौतम ! छ संघयनवाले वे जीवों हैं; जिन के नाम-वज्र ऋषभ नाराच संघयन यावत् छेवक संघयन. शरीर की अवगाहना जैमी असंज्ञी की कही वैसे ही कहना यावत् जघन्य अंगुल के { असंख्यातवे भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन की. अहो भगवन् ! उन को कौनसा संस्थान कहा ? अहो | गौतम ! छ संस्थान कहें समचतुस्र संस्थान यावत् हुडक संस्थान. अहो भगवन् ! उन जीवों को {लेश्याओं कितनी कहीं ? अहो गौतम ! उन को छ लेश्याओं कहीं जिन के नाम कृष्ण यावत् शुक्ल लेश्या. इन में तीन दृष्टि, तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और नोग भी तीन पाते हैं. शेष अनुबंध पर्यंत सब सवा शतक का पहिला उद्देशा +42 Page #2582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. असण्णीणं जाव अणुबंधो, णवरं पंचसमुग्घाया आदिल्लगा ॥ वेदो तिविहोवि ॥ अव सेसं तंचेव जाव सेणं भंते ! पजत्ता संखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवामसहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कासेणं चत्तारि सागरोबमाइं चउहि पुषकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा ॥ ३३ ॥ पज्जत्त संखेज वासाउय जाव जे भविए जहण्णकाल जाव सेणं भंते ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय जैमे कहना परंतु केवली समुद्धात वर्जकर पांच समुद्रात कहना. और वेद तीनों कहना भावार्थ शेष पहिले जैसे कहना यावत् वे संख्यात वर्ष के आयुष्यवालापर्याप्त संज्ञीतिर्यंच पंचन्द्रिय रत्नप्रभा यावत् करे ? अहो गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव एक तिर्यंच का एक नरक का तीसरी वक्त मनुष्य में उत्पन्न होवे उत्कृष्ट आठ भव करे १ तिर्यंच का २ नरक का पुनः ३ तिर्यंच ४ नरक ५ तिर्यंच ६ नरक ७ तिर्यंच ८ नरक. और नक्वे भव में मनुष्य ही होवे. काल आश्री. जघन्य दश हजार वर्ष और अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम रत्नप्रभा आश्री और चार पूर्व क्रोड अधिक लतियंच के चार भव आश्री. इतना काल तक रहे और इतनी गतागति करे. यह औधिक आश्री प्रथम गमा कहा ॥३३॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थिति 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपीजी? प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 4. २५५३ केवइयकालट्ठिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सदिईएसु उक्कोसेणंवि दसवाससहस्सट्टिईएमु जाव उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं सोचेव पढमगमओ णिरवसेसो भाणियवो जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्त मन्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ एवइयं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा॥३४॥सोचेव उक्कोसकालट्टिईएसु उबवण्णो जहण्णणं सागरोवमट्टिईएस उक्कोसेणवि सागरोवमठिईएसु अवसेसो परिणामादीवो, भवादेसे पज्जव साणे सोचेव पढमगमगो तब्बो,जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमब्भचाली नरक में उत्पन्न होने योग्य होवे वे कितने कालकी स्थिति से उत्पन्न होये ? अहो मौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष व उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की स्थिति में उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! वे जीवों ऐसे ही यह गमा भी प्रथम गमा जैसे कहना. यावत् कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड और चालीस हजार वर्ष अधिक इतना काल तक रहे. यह दूसरा गमा जानना ॥ ३४ ॥ वही पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यत्राला उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ठ एकसागरोपमकी स्थिति से उत्कृष्ट होवे और परिणाम आदिसब अधिकार भवादेश पर्यंत पूर्वोक्त प्रथम गमा जानना: यावत् कालादेशसे जघन्य 48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र भावार्थ चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा 488 Page #2584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + हियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुन्चकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं सेवेज्जा ३ ॥ ३५ ॥ जहण्ण कालटिईयपज्जत्तसंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढवी जाव उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालदिईएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्गेणं दसवाससहस्सठिईएसु उक्कोसेणं सागरोवमठिईएसु उववजेजा ॥ तेणं भंते ! जीवा अवसेसो सोचेव गमओ णवरं इमाइं अट्ठ णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखजइ भागं उक्को सेणं धणुहपुहुत्तं ॥ लेस्साओ तिण्णि आदिल्लाओ णो सम्मद्दिट्टि मिच्छट्ठिीणो सम्मा एक सागरोपम नरक भवसंबंधी और अंतर्मुहूर्त अधिक तिर्यंचभव संबंधी उत्कृष्ट चार सागरोपम नरक आश्री और चार पूर्व क्रोड अधिक तिर्यंच आश्री इतना काल सेवे यावत् गतागत करे ॥ ३५ ॥ अहो भगवन् ! जघन्यस्थिति वाले, पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले तिर्यंच रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहां कितने काल की स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट एक सागरोपम शेष सब पहिले जैसे कहना. परंतु इस में आठ विशेषता है. वहां अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन की कही उस के स्थान यहां. पर जघन्य अंगुल के, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्ञलापसादजी. भावार्थ Page #2585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पंचांग विवाह पण्णचि (भगवती) मूत्र 428 womanwwwwwwwwwwwwwimminarrrrrrrrram मिच्छविट्ठी । णो णाणी दो अण्णाणा णियमं ॥ समुग्घाया आदिल्लातिण्णि ॥ आउ अज्झवसाणा अणुबंधोय जहेव असण्णाणं अवसेस जहा पढमगमए जाव कालादेसेणं जहण्णेणं सवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई २५५५ घउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अग्भहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा ॥ ३६ ॥ सोचेव जहण्ण कालठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं दसवाससहस्सठिईएसु उक्कोसेणवि दसवास सहस्सट्ठिईएमु उबवजेजा ॥ तेणं भंते ! एवं सोचेव चउत्थो गिरवसेसो भाणियो जाव कालादेसणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्त मन्भहियाई उक्कोसेणं E असंख्यातवे भाग और उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य की. यहां पर तीन लेश्या, दृष्टि मिथ्यादृष्टि, दो अज्ञान की नियमा, तीन समुद्धात, आयुष्य, अध्यवसाय और अनुबंध ये तीनों जैसे जघन्य स्थिति के असंशी का.. गमा कहा वैसे कहना. और सब कथन पहिले गमा जैसे कहना. यावत् काल आश्री जघन्य दश हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम चार अंतर्मुहूर्त अधिक इतने काल तक सेवे यावतू गतागत करे । ॥ ३६॥ वही जघन्य स्थिति वाली नारकी में उत्पन्न हुआ जघन्य दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट भी दश हजार वर्ष की स्थिति में उत्पन होवे वगैरह चौया गया जैसे यहां कहदेना यावत् .काला देश से अघन्य । wammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 488+-चौवीसवा शतकका पहिला उद्देशा 438 भावार्थ 1 Page #2586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तालीस वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेज्जा ॥ ३७ ॥ सोचेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो ॥ जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएमु उक्को सेणवि सागरोवमट्टिईएमु उववजेजा ॥ तेणं भंते ! एवं सोचेव चउत्थोगमओ २५५६ णिरवसेसो भाणियब्यो जाव कालादेसेणं जहणणं सागरोवमं अंतोमहत्त मन्भहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं अंतीमुह तेहिं अब्भहियाइं एवइयं जाव करेजा ॥ ३८ ॥ उक्कोसकाल ट्ठिईय पज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए रयणप्पभा पुढवी जेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएसु भावार्थदश हजार वर्ष अनर्मुहूर्त अधिक और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष और चार अंतर्मुहूर्त अधिक इतना यावत् । को वही उत्कृष्ट स्थिति वाला नरक में उत्पन्न उत्कृष्ट एक सामरोपम की स्थिति में उत्पन्न होवे ऐसे ही चौथा गमा विशेषता रहित कहना यावत् काला देश से जघन्य एक सागरोपम व अंतमुहून अधिक उत्कृष्ट चार मागरोपम व चार अंतर्मुहूर्त अधिकइतना करे॥३८॥अहो भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाले पर्याप्त संख्यात वर्वके आयुष्य वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो । गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे. अहो. भगवन् ! वे जीवों ।। -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी www.ananawwanimanoranwww * प्रकाशक-राजीवहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी, Page #2587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ उवत्र जेज्जा ? गोयमा ! जहणणं दसवास सहस्सट्टिईएस उक्कोसेणं सागरोवमट्टिईएस उववज्जेज्जा, तेणं भंते ! जीवा अवसेसो परिणामादिवो भवादे से पज्जवसाणे एएसिं चैत्र पढमोगमओ णेतव्त्रो णवरं ठिई जहणेणं पुन्त्रकोडी उक्कोसेणवि पुव्त्रकोडी एवं अणुबंधोवि से तंत्र ॥ कालादेसेणं जहणेणं पुन्त्रकोडी दसहिं वाससहस्से हिं अमहिया उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाइं एवइयं कालं जाव करेज्जा ॥ ३९ ॥ सोचेत्र जहण्ण कालट्ठिईएस उववण्णो जहण्येणं दस बास सहरसाठईएस उक्कोसेणवि दसवाससहस्मठिईएल उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा अहों भगवन् ! वे जीवों यावत् परिणाम से लगाकर भव आश्री तक इस का ही ( संज्ञी ) का प्रथम गमा जानना. स्थिति में भिन्नता है, वहां जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की थी यहांपर जघन्य और उत्कृष्ट {दोनों पूर्व क्रोड जानना. ऐसे ही अनुबंध कहना. शेष वैसे ही कहना. कालादेश से जघन्य पूर्व {क्रोड और दश हजार वर्ष अधिक और उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार पूर्व क्रोड अधिक जानना. ( इतना काल तक सेवन करे. इतना काल यावत् गतागत करे. ३९ ॥ अहो भगवन् ! वही संज्ञी तिच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थितित्राली नारकी में उत्पन्न हुआ जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट भी दश हजार वर्ष ॥ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र ** 48 चा शतकका पहिला उद्देशा 48 २५६० Page #2588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५० सोचव सत्तमोगमों गिरवसेसो भाणियन्त्रो जाव भवादेसोत कालादेसणं नहणणं । पुन्चकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं चत्तरि पुन्चकोडीओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियाओ एवइयं जाव करेज्जा उक्कोसकालंट्टिईय पजत्त जाव तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए उक्कोसकालदिईए जाव उववजित्तए सेणं भंते !. केवइय कालदिईएसु उववजेजा ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमट्टिईएसु . उक्कोसेणवि सागरोवमट्टिईएसु उववजेजा तेणं भंते! सोचेव सत्तमो गमओ णिरवसेसो ___भाणियवो जाव भवादेसोत्ति, कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं पुव्यकोडीए अब्भ हियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहि पुन्चकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं जाव । भावार्थ E उत्पन्न होवे. यहां भवादेश तक सातवा गमा विशेषता रहित कहना कालादेश से जघन्य पूर्व क्रोड और दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट चार. पूर्व क्रोड और चालीस हजार वर्ष अधिक.. इतना यावत् :करे ॥ ४० ॥ अहो भगवन् ! उत्कृष्ट स्थितिवाला पर्याप्त यावत् तिर्यंच पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट स्थिनिवाली नारकी में उत्पन्न होवे वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य उत्कृष्ट एक | सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे. यहां पर भी भवादेश तक सातवा गमा कहना. कालादेश से 1 जघन्य एक सागरोपम और पूर्व क्रोड अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार पर्व कोर इतना यावत ।। 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 करेजा ॥४०॥ एवं एते णवगमका उक्खेवओ णिक्खवओणवसवि जहेव असणीणं ॥४॥पजत्त संखेज वासाउय सण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएसु उवव २५५९ जेज्जा, जहण्णणं सागरोवमट्ठिईएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमठिईएसु उवबज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं एवं जहेव रयणप्पभाए . उववजंतगस्स लखीसव्वेवि णिरवसेसा भाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं साग. रोबमं अंतोमुहुत्त मन्भहियं उक्कोसेणं वारस सागरोवमाई चाहिं पुवकोडीहिं अब्भLE करे ॥ ४० ॥ गमे की शुरूआत को उत्क्षेप कहते हैं, गमे की पूर्णता को निक्षेप कहते हैं. जैसे असंझी में 1. उत्क्षेप निक्षेप कहा वैसे ही यहांपर भी कहना ॥ ४१ ॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य-1, IE वाले संझी पंचेन्द्रिय तिर्यंच शर्करप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन होवे ? अहो गौतम ! जघन्य सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति से 15 उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? वगैरह सब प्रश्नों का उत्तर नैसे रत्नप्रभा पृथ्वी का. कहा कहा वैसे ही ..निरवशेष. यहां. भकादेश पर्यंत कहना. काल भाश्री | वाहपण्णत्ति (भगवती) मंत्र चौबीसवा शतक का पहिला भ Page #2590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हियाई, एवइयं जाव करजा ॥ एवं रयणप्पभापुंढवीगमगसरिसा णवविगमा भाणियव्वा णवरं सव्वगमएसुवि गैरइय ठिईय संवेहेसु सागरोवमा भाणियव्वा ॥ एवं जाव छ? पुढवित्ति णवरं गेरइएठिईजा जत्थ पुढवीए जहण्णुकोसिया सा तेणचेव कमेण चउग्गुणा कायव्वा बालुयप्पभाए अट्ठावीसं सागरोवमा चउगुणिया भवंति, पंकप्पभाए चत्तालीसं, धूमप्पभाए अट्ठसटुिं, तमाए अट्ठासीति ॥ संघयणाई वालुयप्पभाए पंचविह संघयणी तंजहा-बइरोसभनाराय जाव कीलिया संघयणी, पंकप्पभाए चउव्विह संघयणी भावार्थ जघन्य एक सागरोपम और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट बारह सागरोपम चार भव शर्कर प्रभा के और चार पूर्व क्रोड अधिक (तिर्यंच के चार भव ) इतने काल यावत् गतागत करे. यों रत्नप्रभा के नव गमे जैसे शर्कर प्रभा के नव गमे कहना. विशेष नारकी की स्थिति और संबंध में भिन्नता अर्थात् जहां जो स्थिति होवे मो कहना. ऐसे ही छठी नारकी पर्यंत कहना. विशेष में जहां जो नरक स्थिति कही है उस से चौगुनी स्थिति संवेध द्वार में कहना. जैसे तीसरी बालु प्रभा में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थिति है। 19 उसे चौगुनी करने से २८ मागगेपम की स्थिति होती है. पंकप्रभा में चालीस सागरोपम, धूम्रप्रभा में *१६८ सागरांपम, तमममा में ८८ सागरोपम. संघयन में बालुप्रभा में वज्रऋषभनाराच यावत् कीलक + अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमाइजी * Page #2591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80% * - पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति (भगवती ) सूत्र धूमप्पभाए तिविहसंघयणी, तमाए दुविहसंघयणी-तंजहा वइरोसभनाराय संघयणी उसभ नाराय संघयणी सेसं तंत्र ॥ ४२ ॥ पजत्तसंखेजवासाउय जाव तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए अहे सत्तमपुढवीणेरइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालदिईएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं वावीसं सागरोवमट्टिईएसु उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमठिईएसु उववज्जेज्जा तेणं भंते ! जीवा एवं जहेब रयणप्पभाए णवगमगा लडी सव्वेविणवरं वइरोसभनारायणसंघयण।इत्थीवेदगाण उववजंति सेसं तंचेर जाव अणुबंधोति संवेहो भवादेसेणं जहणणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं ऐसे पांच संघयनी, पंकप्रभा में चार संघयनवाला जादे, धूम्रपभा में तीन संघयनवाला जावे, तप प्रभा में दो संघयनवाला जावे, जिन के नाम ? वा ऋषभ नाराच संघयन और २ ऋषभ नाराच संघयन. शेष सब वैसे ही जानना ॥ ४२॥ अहो भगवन । पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयष्यवाले यावत् तिर्यंच सातवी नरक में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ! अहो गौतम ! जघन्य बावीस सागरो पम उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होते. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं : वगैरह रत्नप्रभा के जैसे नव गम कहे वैसे ही यहां कहना. विशेष में वज्र ऋषभ नाराच चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा Page #2592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावाथ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सन्त भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अग्भहियाइं उक्कोसेणं छासट्ठि सागरोवमाई चउहिं पुव्व कोडीहिं अन्भहियाई एवइयं जाव करेज्जा सोचे जहण्ण कालट्टिईएस उववण्णो सव्वेव वत्तव्त्रया जाव भवादेसोत्ति कालादेसेणं जहणणं कालादेसोवि तहेव जाव चउहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं जात्र करेजा || २ || सोचेच उक्कोसकालट्ठिईएम उववण्णो सन्वेव लद्धी जाव अणुवधोत्ति भवादेसेणं जहणेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणणं तेत्तीसं सागरोत्रमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई उक्कोसेणं छात्राट्ठ संघयनवाला सातवी नरक में उत्पन्न होवे, स्त्री वेद उत्पन्न होवे नहीं, शेष अनुबंध पर्यंत वैसे ही कहना. भवादेश से जघन्य तीन भव उत्कृष्ट सात भव कालादेश से जघन्य बावीस सागरोपम और दो अंतर्मुहूर्त अधिक. ( प्रथम और अंतिम तिर्यंच के भव के दो अंतर्मुहूर्त जानना ) उत्कृष्ट छासठ सागरोपम और चार पूर्व क्रोड अधिक. इतना यावत् करे. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वगैरह सब वक्तव्यत' भवादेश पर्यंत पूर्वोक्त जैसे कहना. कालादेश से जो जघन्य कालादेश पहिले कहा वही यहां कहना यायत् उपर चार पूर्वक्रोड अधिक इतना यावत् करे. वही उत्कृष्टस्थितिवाली नरक में उत्पन्न होबे तो अनु * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २५६२ Page #2593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरोवमाइं तिहिं. पुन्चकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं जाव सेवेजा ॥ ३ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्ण कालट्ठिईओ जाओ सव्वेवि रयणप्पभा पुढवी जहण्ण कालट्टिईय वत्तव्वया भाणियव्वा जाव भवादेसोत्ति, णवरं पढम संघयणं णो इत्थीवेदगा, भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं सत्तभवग्गहणाई कालादेसणं जहण्णणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा ॥ ४ ॥ सोचेव जहण्ण कालट्ठिईएसु उववण्णो एवं सोचेव चउत्थो गमो णिरवसेसो भाणियब्बो जाव भावार्थ | बंध पर्यंत वैसे ही कहना. भवादेश से जघन्य तीन भव उत्कृष्ट पांच भव. कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम दो अंतर्मुहूर्त आधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक. इतना यावत् करे. अब वही जघन्य स्थितिवाला सातवी पृथ्वी में उत्पन्न होवे तो सब रत्नप्रभा पृथ्वी जैसे कहना परंतु यहां जघन्य स्थिति और एक पहिला संघयन जानना. और स्त्री वेदी उत्पन्न नहीं होते हैं. भवादेश से 60 जघन्य तीन भव उत्कृष्ट सात भव, कालादेश से जघन्य बावीस सागरोपम और दो अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम और चार अंतर्मुहूर्त अधिक (तीन नरक और चार मत्स्य के भव आश्री) वहीं ववाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4.88480 पंचमाङ्ग । 488+ चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा 488+ Page #2594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + . कालादेसोत्ति ॥ ५ ॥ सोचेव उक्कोसकालढ़िईएसु उववण्णो सम्वेव लड़ी जाव अणुबंधोत्ति, भवादेसेणं जहण्णणं तिण्णि भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंचभवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहिं अंतोमहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं तीहिं अंतोमुहत्तेहिं अब्भाहयाई, एवइयं कालं जाव करेज्जा ॥ ६॥ सोचेव अप्पणा उक्कोसकालठिईओ जाओ जहण्णेणं वाबीसं सागरोवमठिईएसु उक्कोसणं तेत्तीसं सागरोवमठिईएसु उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! अवसेसा सत्तमपुढवी पढमगमगवत्तव्वया भाणियव्या जाव भवादेसोत्ति णवरं ठिई अणुबंधोत्त, जहण्णेणं पुनकोडी उक्कोसेणंवि पुव्यकोडी सेसं तंचेव; कालादेसेणं जहण्णेणं बाबीसं जघन्य स्थितिवाली नारकी में उत्पन्न होवे तो कालादेश तक पूर्वोक्त चौथा गमा कहना. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा सब लब्धि अनुबंध वगैरह पहिले जैसे कहना. भवादेश से जघन्य तीन भर उत्कृष्ट । पांच भव, कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम दो अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम और तीन अंतर्मुहून अधिक. इतना काल करे. वही उत्कृष्ट स्थितिवाला वहां उत्पन्न हुवा जघन्य वाचीस सागरोपम उत्कृष्ट तेत्तीस मागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे. और सब सातवी नरक के पहिले गमा जैसे कहना . प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूष +8 सागरोबमाइं दोहिं पुन्बकोडीहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं छावाटुं सागरोधमाई चउहिं पुचकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं जाव करेजा ॥ ७ ॥ सोचेव जहण्णकालठिईएसु उववण्णो सव्वे व लद्धी संवेहोवि तहेव सत्तमगम सरिसो ॥८॥ सोचेव उक्को सकालठिईएसु उबवण्णो ‘सव्वेव लही जाव अणुबंधोत्ति, भवादसेणं जहणेणं तिण्णि भवग्गबणाई, उक्कोसेणं पंचभवग्गहणाई, कालादसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोबमाइं दोहिं पुल्चकोडीहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं छावटुिं सागरांवमाई. तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं, एवइयं कालं जाव करेजा ॥ ४३ ॥ जइ मणुस्सेहितो उववजंति किं सण्णि मणुस्सेहिंतो उववजंति यावत् भवादेश. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड कालादेश से जघन्य बाबीस सागरोपम दो पूर्व क्रोड आधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम चार पूर्व क्रोड अधिक इतना यावत् करे. वही जघन्य स्थितिवाली नरक में उत्पन्न हुवा लब्धि, संवेध वगैरह सातवा गमा कहना, वही उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा लब्धि यावत् अनुबंध पूर्वोक्त जैसे कहना. भवादेश से जघन्य नीन भव उत्कृष्ट पांच भव कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरापप, दो पूर्व फोड अधिक. उत्कृष्ट छाप्तठ सागरापम तीन पूर्व कोड अधिक. इतना काल यावत् करे ॥ ४३ ॥ई * चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा 42 Page #2596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ३ असण्णिमणुस्सेहितो उववजंति, ? गोयमा ! सण्णिमणुस्सेहितो उववज्जति णो असण्णिमणुस्सेहितो उववजंति ॥ जइ सणिमणुस्सेहिंतो उववजंति किं संखेज वासाउयसण्णिमणुस्सेहिंतो उववीत असंखेजवासाउय सण्णि मणुस्सहिंतो उववजति ? गोयमा ! संखेजवासाउय सण्णिमणुस्सेहितो उववजति णो असंखेज वासाउयसीण्णमणुस्सहिंतो उववजंति ॥ .जइ संखेजवासाउय सण्णिमणुस्सेहितो उववजति किं पज्जत्तसंखजवासाउय जाव उववजंति अपजत्त जाव उववजंति ? गोयमा ! पजत्त संखेजबासाउय जाव उववजंति णो अपजत्त संखेज वासाउय भावार्थ यदि मनुष्य में से उत्पन्न होवे नो क्या संझी मनुष्य में से उत्पन्न होवे, या असंही मनुष्य में से उत्पन्न हो? अहो गौतम ! संज्ञी मनुष्य में से नारकी में उत्पन्न होवे परंतु असंज्ञी मनुष्य में से नारकी में उत्पन्न । होवे नहीं. यदि संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो क्या संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले नहीं उत्पन्न होवे. यादि संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होने 1- तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे या अपर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न । 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #2597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ++ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र tast जाव उववजति, पजत संखेज वासाउय सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए णेरइएसु उववाजत्तए सेणं भंते ! कइसु पुढवीसु उववजेज्जा ? गोयमा ! सन्तसु पुढवीसु उववज्जज्जा, तंजहा रयणप्पभाए जाव अहे सत्तमाए ॥४४॥ पजत्त संखेज वासाउय सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए रयणप्पभा पुढवीए णेरइएसु उववजित्तए सणं भंते! केवइया कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ?गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्सट्रिईएसु उक्कोसेणं सागरोवमट्टिईएसु. उववज्जेज्जा ॥ तेणे भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिष्णिवा उक्कोसेणं संखेजावा होवे ! अहो गौतम ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते. परंतु अपर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले नहीं उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! जो पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले नारकी में उत्पन्न होने योग्य हैं वे कितनी नरक में उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा यावत् सातवी तमतमप्रभा में उत्पन्न होवे ॥ ४४ ॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य जो नारकी में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष भत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होते. अहो भगवन् ! एक समय में वे जीवों कितने उत्पन होते हैं चौबीमा शनक का पहिला भावार्थ । Page #2598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी " क उववजंति ।। संघयणा छ ॥ सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुहसयाइं ॥ एवं संसं जहा सणिपंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं जाक भवादसोत्ति णवरं चत्तारि णाणा तिणि अण्णाणा भयणाए छ समुग्धाया केवलिवज्जा ठिई अणुबंधोय जहण्णेणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी सेसं तंचव ॥ कालादेसेणं जहष्णेणं दसवास सहस्साई मास पुहुत्तमब्भहियाई, उकोसेणं-चतारि सागरोषमाइं चउहिं पुब्बकोडीहिं अब्भहियाइं, एवइयं जाव करेजा ॥ ४५ ॥ सोचेव जहण्ण कालटिईएसु उववण्णो एवचेव वत्तव्वया णवरं कालादेअहो गौतम ! जयन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात मनुष्य उत्पन्न होते हैं. संघयन छ शरीर की अबगाहना जघन्य प्रत्येक अंगूल उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य. शेष सब संनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच का भवादेश पर्यंत कहना. परंतु इस में विशेषता यह है कि चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना, केवली समुद्घात छोडकर छ समुद्घात, स्थिति अनुबंध जघन्य प्रत्येक मास उत्कृष्ट पूर्व क्रोड कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और प्रत्येक मास अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार पूर्व क्रोड आधिक. इतना यावत् करे ॥ ५५ ॥ 17वही जघन्य स्थिति से उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और प्रत्येक • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री दादा Page #2599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णति ( भगवती ) मूत्र +4 सेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहत्तमभहियाई उकोसेणं चत्तारि पुन्चकोडीओ चतालीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ एवइयं जाव करेजा ॥ ४६ ॥ सोचेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णणं सागरोवमं मासपुहत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चउहिं पुन्यकोडीहिं अन्भहियाई एवइयं जाव करेजा॥४७॥सोचेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ जाओ एसचेक वत्तन्वया णवर इमाइं णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुप्तं उक्कोसणवि अंगुलपुडुत्तं, तिण्णिणाणा तिण्णि अण्णाणा भयणाए, पंच समुग्घाया आदिजा दिई मास अधिक. उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड और चालीस हज़ार वर्ष अधिक. इतना यावत् करे ॥ ४६ ॥ वहीं उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन हुवा उपर्युक्त लकव्यता कहना. विशेष में कालादेश से जघन्य एक सामरोपमा और प्रत्येक मास अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार पूर्व क्रोड अधिक इतना यावत् करे. ॥४७॥ वही जघन्य स्थितिवाला पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाला मनुष्य रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होने ? वगैरह सब वक्तव्यता ऐसे ही जानना परंतु शरीर अंगाहना जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक मुल, तीन शान तीन अज्ञान की भजना, पहिली पांच समुयात स्थिति और अनुबंध जपन्य । चौवीसवा शतकका पहिला उद्देशा8989 Page #2600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी gi अणुबंधोय, जहण्णेणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणवि मासपुहुत्तं सेसं तंचेव जाव भवादेसोत्ति कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं मासपुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा ॥४८॥ सोचेव जहण्ण कालाट्ठिईएसु उववण्णो एसचेव वत्तव्वया चउत्थगमग सरिसा णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई मासपुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं-वाससहस्साई .. चउहिं मासपुहुत्तमभहियाइं एवइयं जाव करेजा ॥ ४९ ॥ सोचेव उक्कोस काल ढिईएसु उववण्णो एसचेव गमगो णवर कालादेसेणं जहण्णेणं सागरोवमं मास पुहुत्त मब्भाहयं उक्कोसेणं चत्तर सागरोवमाइं चउहिं मासपुहुत्तेहिं मन्भहियाइं एवइयं उत्कृष्ट प्रसेक मास शेष भवादेश पर्यंत पहिले जैसे कहना. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष और प्रत्येक मास अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार प्रत्येक मास अधिक इतना यावत् करे ॥ ४८ ॥ वही जघन्य स्थितिवाली में उत्पन्न होवे वगैरह चौथा गमा जानना. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष येक मास अधिक उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष और चार प्रत्येक मास अधिक. इतना यावत् करे । वही उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा यही गमा जानना. विशेष में कालादेश से जघन्य सागरोपम और * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव करेज्जा ॥ ५० ॥ सोचेव अपणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाव सोचेव पढम गमओ णेयन्वो णवरं सरीरोगाहणा जहण्णणं पंचधणुहसयाइं उक्कोसेणवि पंच धणुहसयाई ट्ठिई जहण्णेणं पुचकोडी उक्कोसेणवि पुवकोडी, एवं अणुबंधोवि ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं पुन्चकोडी दसहिवाससहरसेहिं अब्भहियाइं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं जाव करेजा ॥५१॥ सोचेव जहण्ण कालटिईएसु उववण्णो सम्वेव सत्तमगमग वत्तव्वया णवरं । कालादेसेणं जहणणं पुत्रकोडी दसवाससहस्सेहिं अब्भहिया उक्कोसेणं चत्तारि पुव्यकोडीओ चत्तालीसाए भावार्थ प्रत्येक मास आधिक. उस्कृष्ट चार सागरोपम और चार प्रत्येक मास अधिक. इतना यावत् करे ॥५०॥ वही उत्कृष्ट स्थितिवाले यावत् उत्पन्न होवे तो पहिला गमा कहना परंतु शरीर अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट E पांचसो धनुष्य की जानना. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड ऐसे ही अनुबंध. कालादेश मे जघन्य पूर्व कोड और दश हजार वर्ष आधिक. उत्कृष्ट चार सागरोपम चार पूर्व क्रोड अधिक इतना काल यावत् करे ॥५१॥ वही जघन्य स्थितिवाली नारकी में उत्पन्न होवे वगैरह सातवा गमा कहना विशेष में काला| देश से जघन्य पूर्व कोड दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट चार पूर्व कोड चालीस हजार वर्ष अधिक. इतना फ्रणत्ति ( मगवती) सूत्र 438 8- चौवीसवीं शतक का पहिला उद्देशा - Page #2602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वाससहस्सेहिं अब्भहियाओ एवइयं जाव करेजा ॥ १२॥ सोचेव उकासकालढिईएस उववण्णो साचेव सत्तम गमग वतन्वया णवरं कालादेसेणं जहणेणं एंगे सागरोवमं पुन्चकोडीए अब्भहियं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं वउहिं पुन्यकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा ॥ ५३ ॥ पज्जत्तसंखेज्जवासाउय सणि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए णेरइए जाव उववजित्तए मेणं भंते! केवइय काल जाव उववजेज्जा ? गोयमा ! जहणेणं सागरोवमट्टिईएसु उकोसणं तिणि सागरोवमट्टिईएसु उववज्जेजा, तेणं भंते ! एवं सोचेव रयणप्पमा पुढवी गमओ यन्वो गवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं रयाणि पुहुत्त उक्कोसेणं पंच धणुहसपाई यावत् करे ॥५२॥ वही उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा सातवा ममा कहना. विशेष में कालादेश से जघन्य एक सागरोपम पूर्व क्रोड अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम पूर्व कोड अधिक. इतना काल यावर करे ॥ ५३॥ अहो भगवन् ! जो पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संत्री मनुष्य शर्कर ममा में उत्पन्न होने योग्य होबे वे कितने काल की स्थिति से यावत् उत्पन्न होने ? अहो गौतम ! अघन्य एक सागरोपम उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे. और सब रत्नममा पृथ्वी जैसे मानना. शरीरा nnnnnnnwww प्रकाशक-राजहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. भाग Page #2603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 पंचमांगविवाह १ण्णनि ( भगवती) सूत्र 882 ठिती जहण्णेणं वासपुहुत्तं उक्कोसणं पुन्चकोडी एवं अणुबंधोवि, सेसं तंचेव जाव भवादेसोत्ति ॥ कालादेसेणं जहण्णणं सागरोवमं वासपुहुत्तमभहियं उक्कोसणं वारस सागरोवमाई चउहिं पुन्चकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा ॥ ५ ॥ एवं एसा ओहिएसु तिसुगमएमु मणुस्स लद्धी जाणत्तं-णेरइयद्विती कालादेसेणं संबेह च जाणेजा ॥ सोचत्र अप्पणा जहण्ण कालद्वितीओ जाओ तस्सवि तिएसु मएसु एसचेव लडी णवरं सरीरोगाहणा जहणणं रयाणपुहुत्तं उक्कोसेणंवि रयाणिपुहुत्तं अवगाहना जघन्य प्रत्येक हाथ उत्कृष्ट पाँचसो धनुष्यकी स्थिति जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व क्रोड ऐसे ही अनुबंध. शेष भवादेश पर्यत पहिल जैसे जानना. कालादेश से जघन्य एक सागरोपम और प्रत्येक वर्ष से अधिक उत्कृष्ट बारह सागरोपम और चार पूर्व क्रोड अधिक. इतना यावत् करे ॥ ५४॥ ऐसे ही यह मनुष्य लब्धि तीनों औधिक-औधिक में, औषिक जघन्य स्थिति और औधिक उत्कृष्ट स्थिति में कहना. विशेष में नरकस्थिति का कालादेश से कायासंबंध जानना. प्रथम गमा में स्थित्यादिक वगैरह जानना. ॐ द्वितीय गमा में औधिक जघन्य स्थिति में स्थिति जघन्य तथा उत्कृष्ट सागरोपम की. संवैध काल से 4 जघन्य एक सागरोपम और प्रत्येक वर्ष अधिक का चार सागरोपम चार प्रत्येक वर्ष अधिक. तीसरे में। 48 चौबीसका शतक का परिला उद्देशा + Page #2604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७४ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावार्थ द्विती जहण्णेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणवि वासपुहुत्तं एवं अणुबंधोवि सेसं जहा ओहियाणं ॥ संबेहो उवउंजिउण भाणियब्वो भाणियन्वो ॥ ६ ॥ सोचेव अप्पणा उक्कोस कालट्ठितीओ जाओ तस्सवि तिसु गमएसु इमं णाणत्तं-सरीरोगाहणा जहण्णेणं पंच धणुहसयाई उक्कोसेणवि पंचधणुहसयाई, ठिती जहण्णेणं पुन्बकोडी उक्कोसेणवि पुव्वकोडी एवं अणुबंधोवि, सेसं जहा पढमगमए गवरं णेरइयट्ठिती कायसंवेहं च । जाणेजा ॥ ९ ॥ एवं जाव छ? पुढवी णवर तच्चाए आढवेत्ता एकेक संघयणं ऐसा ही कथन है परंतु कालादेश से जघन्य तीन सागरोपम प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम चार पूर्व क्रोड अधिक. जघन्य स्थितिवाला मनुष्य को तीनों गमा में लब्धि परिणामादि वैसे ही कहना छपरंतु शरीर अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक हाथ की, स्थिति जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक वर्ष की जानना. अनुबंध भी वैसे ही कहना. शेष सब औधिक जैसे कहना. संबंध में कालादेश से जघन्य स्थिति में औधिक में जघन्य एक सागरोपम और प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट बारह सागरोपम चार प्रत्येक वर्ष अधिक. वह ही जघन्य स्थितिवाली नारकी में जघन्य एक सागरोपम प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम चार प्रत्येक वर्ष अधिक यों छ गमा कहना. अब उत्कृष्ट स्थितिवाले. मनुष्य इन में भी शरीर * अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट पांच सो धनुष्य स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड, ऐसे ही अनुबंध. शेष पहिला *.प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4387 पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र + परिहायति, तहेव तिरिक्ख जोणियाणं कालादेसोवि तहेव णवरं मणुस्साई जाणि यव्वा ॥ ५५ ॥ पज्जत संखज्ज बासाउय सण्णि मणुस्सेणं भंते ! जेभविए अहे सत्तम पुढविरइएस उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएस उववजेज्जा गोयमा ! जहणणं वावीसं सागरोत्रमट्ठिईएसु उक्कोसेणं तेत्तीस सागरीवमठिईएस उववज्जेजा ॥ णं भंते ! जीवा एगसमएणं अवसेसो सोचेव सक्करप्पभ पुढवी गमओ यन्त्रो णवरं पढम संघयणं ॥ इत्थीत्रेयणा ण उववज्जंति सेसं तंचेव जात्र अणुबंधात् ॥ भवादेसेणं दो भवग्गहणाई कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्त [गमा जैसे कहना. परंतु स्थिति और काया संबंध में भिन्नता जानना. ऐसे ही छठी नारकी पर्यंत कहना. तीसरी नारकी से एक २ संघयन कभी कहना. तिर्यंच का कालादेश और मनुष्य स्थिति जानना ॥५५ ॥ { अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य सातवी नरक में उत्पन्न होता है वह कितनी { स्थिति से उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! जघन्य बावीस सागरोपम उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम. अब शेष सब शर्कर प्रभा पृथ्वी का गमा जानना. विशेष में पहिला संघयन, स्त्री वेद उत्पन्न होवे नहीं, शेष अनुबंध {पर्यंत पहिले जैसे कहना. भवादेश से दो भव कालादेश से जघन्य बावीस सागरोपम और प्रत्येक वर्ष 488+- चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा 9 २५७५ Page #2606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७३ मभहियाई.उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुन्चकोडीए अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा ॥१॥ ५६ ॥ सोचेव जहण्णकालट्ठिईएसु उबवण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं रइयट्टिई संवेहं च जाणेजा ॥ २ ॥ सोचेव उक्कोस कालदिईएसु उववण्णो एसचेव वत्तव्वया णवर संवेहं च जाणेज्जा ॥ ३ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्ण कालट्टिईओ जाओ तस्सवि तिसुगमएसु एसचेव वत्तव्वया णवरं सरीरोगाहणा जहण्णण रयणि पुहुत्तं उक्कोसेणवि रयणिपुहुत्तं, ट्ठिई जहण्णणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणंवि वासपुहुत्तं एवं अणुबंधोवि ॥ संबेहो उवउंजिऊण भाणियन्यो ।॥ ६ ॥ सोचव अप्पणा उक्कोस कालाट्टिईओजाओ तस्स वितिसुगमएसु एसचेव वत्तव्वया णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अधिक. उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम और पूर्व क्रांड आधिक. यावत् करे ॥५६॥ वही जघन्य स्थितिवाली नरक में उत्पन्न होवे तो पैसेही कहना परंतु नारकी की स्थिति और संबंध में भिन्नता कहना. वही उत्कृष्ट स्थिति वाली नरक में उत्पन हो तो वैसेही कहना परंतु संबंधमें भिन्नता कहना. वही जघन्य स्थिति वाला मनुष्य सातवी नरक में उत्पन हो तो तीनों गमाओं में वैसी वक्तव्यता कहना परंतु शरीर अवगाहना जघन्य 10 उत्कृष्ट प्रत्येक हाथ स्थिति जपन्य उत्कृष्ट प्रयेक वर्ष ऐसे ही अनुबंध जानना. संबंध में भिन्नता कहना.. 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषीजी .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्पत्ति ( भगवती) सूत्र 4882 पंचधणुहसयाई उक्कोसेणवि पंचधणुहसयाई; ठिई जहण्णेणं पुवकोडी उक्कोसेणवि पुत्र कोडी एवं अणुबंधोवि णवसुवि एतेसु गमएसु णेरइय ठिई संवेहंच जाणेजा॥सन्नत्य भवग्गहणाई दोणि जाव णव गमएसु कालादेसेणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाइं उक्कोसेणवि तेत्तीसं सागरोबसाइं पुषकोडीए अब्भहियाई एवइयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ॥ सेवं भंते । भंतेत्ति चउवीस. इमसयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ १॥ . रायगिहे जाव एवं वयासी-असुरकुमाराणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति किं गेरइएहिं. वही उस्कृष्ट स्थिीतवाला मनुष्य सातवी नारकी में उत्पन्न होवे तो उस के भी तीनों गमाओ में पूर्वोक्त जैसी वक्तव्यता कहना. परंतु शरीर अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य की स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड ऐमे ही अनुबंध कहना. इन के नवों गमाओं में स्थिति और संवेध कहना. सर्वत्र दो भव लेना.. नव गमाओं में कालादेश से जघन्य तेसीम सागरोपम पूर्वक्रोड अधिक और उत्कृष्ट भी तेतीस सागरोपम पूर्वक्रोड अधिक. इतना काल सेवे. इतनी गति आगति करे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य है यह चौवीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २४ ॥१॥ . . १ प्रथम उद्देशे में नरक का कधन कीवा. दूसरे उदेशे में अमुरकुमार का कथन करते हैं. इस देश में चोवीसवा शवकका दूसरा उशा वन Page #2608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी तो उववज्जति, तिरिक्ख-मणुस्स देवहितों उबवज्जति ? गोयमा ! णोणेरइएहितो उववज्जति तिरिक्ख-मणुस्सेहिंतो उववजंति णो देवहितो उववजंति एवं जहेव णेरड्य उद्देसए जाव पजत्त असण्णि पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए असुर | २५७८ कुमारेसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइय काल ट्ठिईएसु उववजेज्जा ? गोयमा । जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भाग टिईएसु, उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं रयणप्पभागमग सरिसा णवविगमगा भाणियव्या णवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ, ताहे अज्झवसाणा पसत्था जो प्रथम उद्देशे जैसे द्वारों के नाम जानना. राजगृह नगर में यावत् ऐसा बोले अहो भगवन् ! असुरकुमार कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या नरक में से. तिर्यंच, मनुष्य या देव में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम !, नारकी में से नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु तियेच व मनुष्य में मे उत्पन्न होते हैं और देव में से नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही जैसे नारकी उद्देशा कहा यावत् पर्याप्त असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय असुरकुमार में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग इस के नवगमे रत्नप्रभा पृथ्वी जैसे कहना विशेषता यह है कि प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 1 Page #2609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 438 अप्पसत्था; तिसवि गमएस अवसेसं तंत्र ॥१॥ जदि सण्णिपचिंदिय तिरिक्ख , , जोणिएहितो उववजंति किं संखेज वासाउय सण्णि जाव उववजंति असंखेज वासाउय जाव उववजति ? गोयमा ! संखेजवासाउय जाव उववजंति, असंखेजवासाउय जाव उववज्जति, ॥ असंखेज्जवासाउय सण्णि पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते! जे भविए असुरकुमारेसु उववाजत्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्टिईएसु उववज्जेजा गोयमा ! जहण्णणं दसवास सहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमट्टिईएमु । उववज्जेजा ॥ २ ॥ तेणं भंते! जीवा एगसमएणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कोवा जहां जघन्य स्थिति वाले तिर्यंच कडे हैं वहां अध्यवसाय प्रशस्त ग्रहण करना परंतु अप्रशस्त ग्रहण करना , नहीं. ॥ १॥ यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय तियेच उत्पन्न होवे तो क्या संख्यात वर्ष वाले या असंख्यात वर्ष वाले उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे और असंख्यात वर्ष के आए वाले भी उत्पन्न होवे. असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले मंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच असुरकुमार में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट तीन पल्यापम देवकुरु उत्तरकुरु. युगलक्षेत्र वाले अपना आयुष्य जितना देवका आयुष्य बांधे. ॥२॥ अहो भगवन! 48+ चौबीसवा शतक का दूसरा उद्देशा +8+ - - भावार्थ पंचमांगा 1 Page #2610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेज्जावा उवयजति ॥ ३ ॥ वइरोसभनाराय संघयणी ॥४॥ औगाहणा जहण्णेणं धणुहपहुत्तं, उक्कोसेणं छगाउयाइं ॥ ५॥ समचउरंस संठाण संठिया पण्णत्ता ॥ ६ ॥ चत्तारि लेस्साओ आदिल्लाओ ॥ ७ ॥ णो सम्मट्रिी मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छविट्ठीं ॥८॥णो णाणी अण्णाण णियमं दुअण्णाणी, मइ अण्णाणीय सुयअण्णाणीय ॥ ९॥ जोगो तिविहोवि ॥ १० ॥ उवओगो दुविहोवि ॥१५॥ चत्वारि सण्णाओ ॥ १२ ॥ चत्तारि कसायाओ ॥ १३ ॥ पंचइंदिया ॥ १४ ॥ तिण्णि समुग्घाया आदिल्लगा ॥ १५ ॥ समोहयावि मरंति असमोहयावि एक समय में वे कितने उत्पन्न होवे? अहो गौतम ! जघन्य एक दो नीन उत्कृष्ट संख्यास उत्पन होवे क्यों की वहां असंख्यात का अभाव है ॥ ३ ॥ एक क्ऋ षभ नाराच संघयनवाला उत्पन्न होने ॥ ४॥ अवगाहना अघन्य प्रत्येक धनुष्य पक्षी आश्री उत्कृष्ट छ गाउ ॥ ५ ॥ समचतुत्र संस्थानवाला उत्पन्न होवे ॥ ६ ॥ पहिली चार लेण्याओं ॥ ७॥ समदृष्टि और मीश्र दृष्टि नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु मिथ्याष्टिवाले उत्पमा होते हैं॥ ८॥ ज्ञानी नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान की नियमावाले उत्पन्न होते हैं॥९॥वीनों जोग कह है ॥ १० ॥ दोनों उपयोग ॥ ११॥ चार संज्ञा ॥१२॥ चार कषाय॥१॥ पांचो इन्द्रियों ॥१५॥ पहिली तीन समुद्घात॥१५॥ समोहया असमोहया ऐसे दोनों मरण॥१६॥माता और पलपक-राजाबहादुर साला मुखदेव सहायजी बालामसादजी भावार्थ 1 Page #2611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग.विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 48th मरति ॥ १६ ॥ वेदणा दुविहावि सातावेदगावि असातावेदगावि ॥ १७ ॥ वेदो दुविहोवि इत्थी वेदगावि पुरिसवेदगावि, णो णपुंसगवेदगा ॥१८॥ ठिईय. जहण्णेणं साइरेगा पुवकोडी उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं ॥ १९ ॥ अज्झक्साणा पसत्थावि अप्पसत्थावि ॥ २० ॥ अणुबंधो जहवठिई, कायसंवेहो भवादेसेणं दो . भवग्गहणाई ॥ कालादेसेणं जहणणं साइरेगा पुवकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं : अभहिया उक्कोसेणं छ पलिओवमाइं, एवइयं जाव करेजा ॥ १ ॥ २१ ॥ सोचेव । , जहण्ण कालट्ठिईएमु उववण्णो एसचेव वत्तव्यया णवरं असुरकुमारढ़िई संबह च । जाणेजा ॥ २२ ॥ सोचेव उक्कोसकालदिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिण्णि पलिओवेदनेवाला ॥ १७ ॥ इस में वेद दो स्त्री वेद और पुरुष वेद. नपुंसक वेद नहीं है ॥ १८ ॥ स्थिति जघन्य पूर्व क्रोड से कुच्छ अधिक उत्कृष्ट तीन पल्योपम ॥१९॥ अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त ॥२०॥7 अनुबंध स्थिति जैसे कहना. कायासंवैध भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य कुच्छ आधिक पूर्व क्रोर और दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट छ पल्योपम. इतना यावत् करे. यह पहिला गमा हुवा ॥२१॥ वही जघन्य स्थितिवाला असुरकुमार में उत्पन्न हुवा यही वक्तव्यता कहना. विशेष में स्थिति । 38. चौबीसवा शतक का दूसरा भावार्थ Page #2612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वमट्टिईएसु उववजेजा. एसचेव वत्तव्वया, णवरं टिई से जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाइ उ. कोसेणवि तिण्णि षलिओवमाई,एवं अणुबंधोवि कालादेसेणं जहण्णेणं छप्पलिओवमाई उ. कोसेणवि छप्पलिओवमाइं एवइयं सेसंतंचेव॥३॥२३॥सोचेवअप्पणा जहण कालट्ठिईओ जाओ जहणेणं दसवास सहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं, साइरेगं, पुवकोडीआउएसु उववजेजा ॥ तेणं भंते ! अवसेसं तंचेव जाव भवादेसोत्ति णवरं ओगाहणा जहणेणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं धणुहसहस्सं । ढिई जहण्णेणं साइरेगा पुवकोडी उक्कोसेणवि साइरेगा पुव्वकोडी ॥ एवं अणुबंधोवि ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा और संवेध अमुरकुमार का कहना. यह दूमग़ गमा हुवा ॥२२॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य तीन पत्योपम में उत्पन्न होवे वगैरह पूर्वोक्त जैसी वक्तव्यता कहना. स्थिति और अनुबंध भी जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम कालादेश से जघन्य उत्कष्ट छ पल्यापम जानना ॥ २३ ॥ वही जघन्य स्थितिवाला नियंच. अमुरकुमारमें उत्पन्न होवे तो जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट साधिक पूर्व क्रोडकी स्थिति से उत्पन्न होवे. शेष बस भवादेशपर्यंत पूर्वोक्त जैसे कहना.अवगाहनाजघन्य प्रत्येक धनुष्य उत्कृष्ट साधिक एक हजार धनुष्य.स्थिति जघन्यत्र 10 साधिक पूर्व क्रोड उत्कृष्ट साधिक पूर्व क्रोड ऐसे ही अनुबंध. कालादेश से जघन्य साधिक पूर्व क्रोड 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी / * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ Page #2613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 49- पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पुत्र कोडी दसवास सहरसेहिं अव्भहिया, उक्कोसेणं साइरेगा दो पुत्रकोडी एवइयं जाव सेवेज्जा ॥ ४ ॥ २४ ॥ सोचेत्र जहण्ण कालट्ठिईएस उववण्णो एसचैव वत्तन्त्रया वरं असुरकुमारट्टिई संच जाणेजा ॥ ५ ॥ २५ ॥ सोचेव उक्कोसकालटिईएस उबवण्णो, जहण्णेणं साइरेगं पुव्वकोडी आउएस उक्कोसेणत्रि साइरेगपुञ्चकोडी आउएस उववज्जेज्जा सेसं तंचेव ॥ णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगा दो पुत्रकोडीओ उक्कोसेणवि साइरेगाओ दो पुव्वाकोडीओ एवइयं कालं जाव करेज्जा ॥ ६ ॥ २६ ॥ सोचेत्र अध्पणा उक्कोसकालाईईओ जाओ सोचेवय पढमगमगो भाणियब्बो ॥ और दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट साधिक दो पूर्व क्रोड इतना यावत् करे यह चौथा गमा हुवा ॥ २४ ॥ नही जघन्य स्थिति में उत्पन्न होत्रे तो पहिले जैसे कहना विशेषता में असुरकुमार की स्थिति व संवेध कहना. यह पांचवा गमा हुवा ||२५|| वही उत्कृष्ट स्थितिवाला तिर्यच असुरकुमार में उत्पन्न होवे तो जघन्य साधिक पूर्व क्रोड के आयुष्य में उत्पन्न होने उत्कृष्ट भी साधिक पूर्व क्रोड के आयुष्य में उत्पन्न होवे. (शेष सत्र पूर्वोक्त जैसे. परंतु कालादेश से जघन्य उत्कृष्ट साधिक दो पूर्व क्रोड जानना ॥ २६ ॥ वही उत्कृष्ट स्थितिवाला उत्पन्न हुवा वगरहै पहिला गमा जैसे कहना परंतु स्थिति जघन्य तीन पल्योपम 4* चौत्रीसना शतक का दूसरा उद्दशा २५८३ Page #2614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - णवरं ट्ठिई जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई उक्कोसेणवि तिण्णि पलिओवमाइं एवं अणुबंधोवि ॥ कालादेसेणं जहणेणं तिण्णि पलिओवमाइं दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहियाई उक्कोसेणं छपलिओवमाइं एवइयं जाव सेवेजा ॥ ७ ॥ २७ ॥ सोचेव जहण्णकाल४िईएसु उववण्णो एसचेव वत्तव्यया णवरं असुरट्टिई संवेहंच जाणेजा ॥ ८ ॥ २८ ॥ सोचेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवर्म उक्कोसेणवि तिपलिओवमं एसचेव वत्तन्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णणं छपलिओवमाई उक्कोसेणवि छपलिओवमाइं ॥ ९ ॥ २९ ॥ जइ संखेजवासाउय सण्णि पंचिंदिय जाव उववजंति किं जलचर एवं जाव पजत्तसंखेजवासाउयसण्णिपंचिंदियतिरि• है उत्कृष्ट भी तीन पल्योपम ऐसे ही अनुबंध. कालादेश से जघन्य तीन पल्योपम दश हजार वर्ष+ आधिक उत्कृष्ट छ पल्योपम. इतना यावत् सेवे ॥ २७ ॥ वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना परंत असरकुमार की स्थिति व संवेध कहना ॥ २८ ॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम और कालादेश से जघन्य उत्कृष्ट छ पल्योपस. शेषमय वही वक्तव्यता कहना ॥२९॥ यदि संख्यात वर्ष के संही पंचेन्द्रिय यावत् उत्पन्न होवे तो क्या जलचर ऐसे ही यावत् पर्याप्त संख्यात वर्ष भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ it खजोगिएणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालदिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं साइरेग सागरोवमा?ईएसु उववजेज्जा तेणं भंते ! जीवा एग समएणं एवं एएर्सि रयणप्पभपुढविगमग सरिसा णवगमगा णेतव्वा णवरं अप्पणा जहण्ण कालठिईओ भवइ ताहे तिसुवि गमएसु इमं णाणत्तं चत्तारि लेस्साओ, अझवसाणा पसत्था सेसं तंचेव संबेहो साइरेगेण सागरोवमेण कायन्यो ॥ ३० ॥ जइ मणुस्सेहिंतो उववजति किं सण्णिमणुस्सेहितो उववज्जति, असण्णिमणुस्सेहितो उक्वजति ? गोयमा ! भावार्थ के आयुष्ययाले संजी पंचेन्द्रिय तिर्यंच असुरकुमारमें उत्पन्न होने योग्य होये वे जघन्य दशहजार वर्ष उत्कृष्ट Hinमाधिक सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होते. अहो भगवन् ! वे जीवों एकसमय में कितने उत्पन्न होते हैं : बगेरह रत्नप्रभा पृथ्वी के नव गमा सरिखे यहां भी नव गमा कहना परंतु जघन्य स्थितिवाले तिर्यंच के तीनों गमाओं में चार लेश्या व प्रशस्त अध्यक्साय कहना शेष सब वैसे ही कहना यावत् साधिक सागरोपम का संवेध है।॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! यदि मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो क्या संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न हो या असंज्ञी मनुष्य में से उत्तम होवे ? अहो गोता! संही मनुध में से उत्पन्न होने परंतु अमंझी 11 पंचमा विवाह पपणत्ति (भगवती) मूत्र - चौवीसवा शतक का दसरा 488 Page #2616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवाद क-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सण्णिमणू णो असण्णिमणू ॥ जइ साण्णमणुरसहिंतो उववजंति किं संखेजवासाउय सणिमणू असंखेजवासाउयसण्णिमणुस्स जाव उववज्जति ? गोयमा ! संखजवासाउय जाव उववज्जति; असंखेजवासाउय जाव उववज्जति ॥ ३१ ॥ असंखजवासाउय २५८६ सण्णि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववाजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्सढिईएसु उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमट्टिईएसु उववज्जेज्जा, एवं असंखेजवासाउय तिरिक्खजोणिय सरिसा मनुष्य में से उत्पन्न होवे नहीं. यदि संज्ञी में मे उत्पन्न होवे तो संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे । या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले यावत् उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के यावत् उत्पन्न होवे और असंख्यात वर्ष के यावत् उत्पन्न होवे ॥ ३१ ॥ असंस्थान धरी के गाराष्पवाले मनुष्य असर, भार में उरूण हाने योग्य होते है कि मी गौतम ! जघन्य दश E हजार वर्ष उत्कृष्ट तीन पल्योपप. ऐसे ही असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय जैसे पहिले तीन गमा कहना. परंतु पहिला और दूसरा गमा में अवगाहना में भिन्नता है. पहिला व दूसरा गमा में अवगाहना जघन्य साधिक पांचसो धनुष्य उत्कृष्ट तीनगाउ और तीसरा गमा में जघन्य उत्कृष्ट तीन गाउ की अवगा-3 .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथ Page #2617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ १० पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र काल आदिल्ला तिष्णिगमा णेयव्त्रा; नवरं सरीरोगाहणा पढम चितिएसु गमएसु जहणणं साइरेगाई पंचधणुहसयाई उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाई सेसं तंचेव तईओगमो गाहणा जहणणं तिण्णि गाउयाइं उक्कोंसणवि तिष्णि गाउयाई सेसं जहेब तिरिक्खजोणिसोचे अप्पा जहण्ण कालट्ठिईओ जाओ तस्सवि जहण्ण ट्ठियतिरिक्खजोणिय सरिसा तिष्णि गमगा भाणियव्वा णवरं सरीरोगाहणा तिसुवि गमएस जहण्णेणं साइरेगाई पंच धणुहसयाई उक्कोसेणवि साइरेगाई पंचधणुहस्याई सेसं तंचेव सोचेत्र अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ तस्सवि तेचेत्र पछिल्ला तिणि गमगा भाणियव्वा णवरं सरीरोगाहणा तिसुवि गमएस जहण्णेणं तिण्णि हना है. उस ही जघन्य स्थितिवाले मनुष्य का जघन्य स्थितिवाले तिर्यंच जैसे तीनों गमा कहना. तीनों गमा में अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट साधिक पांचसो धनुष्य की जानना. उत ही उत्कृष्ट स्थितिवाले मनुष्य का ( उत्कृष्ट स्थितित्राले तिर्यंच के पीछे के तीन गमा कहना. परंतु तीनों में शरीर अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट तीन गाउ की कहना || ३२ ॥ यदि संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो क्या पर्याप्त में से उत्पन्न होने या अपर्याप्त में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य 4 चौवीसवा शतक का दूसरा उद्देशा २५८७ Page #2618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M २५८८ 29 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अनारक ऋषिजी - गाउयाई उक्कोसेणवि तिण्णि गाउयाई अवसेसं तंचेव ॥ ९ ॥ ३२ ॥ जइ संखेज - वासाउय सणिमणुस्सेहितो उववज्जति किं पजत्तसंखेज वासाउय अपजत्त संखेज जाव उववजलि ? गोयमा ! पजत्तसंखेजवासा णो अपजत्त संखजवासाउय॥३३॥ पजत्तसंखजवासाउय सण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए संणं भंते ! केवतिकालट्ठितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्स द्वितीएसु उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमट्टितीएसु उववजेजा ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं जहेव एएसिं रयणप्पभाए उववजमाणाणं णवगमगा तहेव इहवि णवगमगा भाणि वब्वा णवरं संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायव्वो ॥ सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते २ ! वाले मनुष्य उत्पन्न होते हैं परंतु अपर्याप्त नहीं उत्पन्न होते हैं ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाला मनुष्य असुरकुमार में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुच्छ अधिक. अहो भगवन् ! एक समय में वे कितने उत्पन्न होते हैं ? वगैरह रत्नप्रभा में उत्पन्न होने के जो नव जमा कहे वैसे ही यहां कहना. विशेष में संवैध अधिक एक सागरोपम कहना. शेष सब वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८९ 48पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4882 त्ति ॥ चउवीसमसयस्स वितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ २ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-णागकुमाराणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं गैरइए - हिंतो उववजंति, तिरिक्खमणुस्सदेवेहितो उववनंति ? गोयमा ! णो णेरइएहितो उववजंति, तिरिमणुस्सेहितो. उववज्जति, णो देवहितो उववज्जति, ॥ जइ तिरिक्ख जोणि एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तन्वया तहा एएसिपि जाव असण्णित्ति ॥ जइ सण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववर्जति किं संखेजगमाउय असंखेजवासाउय ? गोयमा! संखेजवासाउय, असंखेजवासाउय जाव उवबजंति ॥ असंखेजवासाउय सणि वचन सस हैं. यह चौवीसवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण दुवा ॥ २४ ॥२॥ है दूसरे उद्देश में असुर कुमार का कथन कीया. तीप्तरे में नागकुमार का कथन करते हैं. राजगृह नगर में यावत् ऐसे बोले अहो भगवन् ! नागकुमार कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देव में से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम ! नागकुमार तिर्यंच व मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं परंत नारकी व देव में से नहीं उत्पन्न होते हैं वगैरह जैसी असुरकुमार की वक्तव्यता कही वही सब यहांपर - असंझी तक कहवा. और संज्ञीतियेच पंचेन्द्रिय उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले, <38* चौवसिवा शतक का तीसरा उद्देशा - भावार्थ -- Page #2620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पंचिदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते! जे भविए णागकुमारेस उववजित्तए सेणं भंते! केवई कालट्टिती ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सट्रितीएस उक्कोसेणं देसूण दुपलिओ वमठितीएसु उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते! जीवा अवसेसो सोचेव असुर कुमारेसु उववज्ज २५९० माणस्स गमको भाणियव्यो जाव भवादेसोत्ति ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं सातिरेगा पुव्वकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं देसूणाई पंचपलिओवमाइं एवइयं जाव करेजा ॥ १ ॥ सोचे। जहण्णकालद्वितीएस उववण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं णागकुमारठिति संवेहं च जाणेज्जा ॥ २ ॥ सोचव उक्कोसकाल. ठितीएस उववण्णा तस्सवि एसचव वत्तव्बया णवरं ट्रिती जहणणं देसणाई दो। असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले उत्पन्न होते , हैं और असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले भी उत्पन्न होते हैं. असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संझी पंचेन्द्रिय नागकुपार में उत्पन्न होने योग्य होथे वे वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ?अहो गौतम! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश उना दो पल्योपम में यावत् उत्पन्न होवे शेष सब असरकुमार जैसे भवा देशतक गमा कहना. कालादेशसे जघन्य साधिक पूर्वक्रोड और दशहजारवर्म अधिक उत्कृष्ट देश ऊना पांच पल्योपम वही • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * मावार्थ Page #2621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९१ पंचमाङ्ग विवाह पण्णात (भगवती) सूत्र ११ पलिओवमाई, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, सेसं तंचेव जाव भवादेसोत्ति, ॥ कालादेसेणं जहण्णेण देसूणाई चत्तारि पलिओउमाई, उक्कोसेणं देसूणाई पंचपलिओ वमाइं एवइयं कालं सेवेज्जा ॥ ३ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्ण कालद्वितीओ जाओ तस्स तिसु गमएसु जहेब असुरकुमारेसु उबवज्जमाणस्स जहण्णकालद्वितीयस्स तहेव गिरवसेसं ॥ ६ ॥ सोचेच अप्पणा उक्कोसकालठितीओ जाओ तस्सवि तहेन तिण्णिगमगा जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स णवरं णागकुमारठुिर्ति संबेहं च जाणेजा सेसं तंचेव जहा असुरकुमारेसु उववजमाणस ॥ ९ ॥ १ ॥ जइ जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वगैरह सब वक्तव्यता पूवोक्त जैसे कहना विशेष में नागकुमार की स्थिति में व संवेध कहना. वहो उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा वगैरह उसकी भी वैसे ही वक्तव्यता करना उसकी स्थिति जघन्य देश ऊणा दो पल्योपम उत्कृष्ट तीन पल्योपम शेष भवादेश पर्यंत वैसे ही कहना. कालादेश, से जघन्य चार पल्योपम उत्कृष्ट देश उणा पांच पल्योपम इतना काल सेवे. वही जघन्य स्थितिबाला उत्पन्न हुवा वगैरह उस के तीनों गमाओ में जैसे असुरकुमार का कहा वैसे ही यहां जानना. वही उत्कृष्ट स्थितिवाला उत्पन्न हुवा उसके भी तीनों गमाओं असुरकुमार में उत्पन्न होने के तीनोंगमा जैसे कहना. परंतु 48 चौवीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 98 4 Page #2622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९२ संखेजवासाउय सण्णि पंचिंदिय जाव किं पजत्त• अपजत्त.? गोयमा ! पज्जत्त संखज वासउय णो अपजत्त संखेजवासाउय । पज्जत्त संखेजवासाउय जाव जे भविए णागकुमारेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिई ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्साई टुिई, उक्कोसणं देसूणाई दो पलिओवमाइं एवं जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स वत्तव्वया तहेव इहवि णवसुगमएसु णवरं णागकुमारट्ठिति संबेहंच जाणेज्जा सेसं तंचेव ॥ ९॥ २ ॥ जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जति किं सणिमणु. असण्णिमण्णु ? गोयमा ! सणिमणु० णो असण्णिमण. जहा असुरकुमारेसु उव.. भावार्थस्थिति व संवेध नागकुमार का जानना. ॥१॥ संख्यातवर्ष के आयुष्य वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय यावत् पर्याप्त अपर्याप्त ? अहो गौतम ! पर्याप्त परंतु अपर्याप्त नहीं. अहो भगवन ! जो पर्याप्त संख्यात वर्ष के. आयुष्यवाला तिर्यंच पंचेन्द्रिय नागकुमार में उत्पन्न होने योग्य होता है वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होता है ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश उना दो पल्योपम. ऐसे ही जैसे असुरकुमार के नव गंमा में उत्पन्न होने की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां कहना. परंतु यहां पर स्थिति और संवेध नागकुमार का कहना ॥ २॥ जब मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं तो असंडी मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं ? अहो। मारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 4- अनुवादक-बालब्रह्म * प्रकाशक-राजाबहादुरै लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९३ बजमाणस्स जाव असंखेजवासाउय साण्णमणुस्सेणं भंते ! जे भविए णामकुमारेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएमु उववज्जइ ? गोयमा ! जहण्णणं दसवास सहस्सट्ठिईएमु उक्कोसेणं देसूणं दुपलिओवमं एवं ज़हेव असंखेज वासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं णागकुमारेसु आदिल्ला तिण्णिगमगा तहेव इमस्सवि, णवरं पढम विईएसु गमएमु सरीरोगाहणा जहण्णेणं साइरेगाई पंचधणुहसयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई, तईय गमगाहणा जहण्णेणं देसूणाई दो गाउयाई, उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाई सेसं तंचेव ॥ सोचेव अप्पणा जहण्णकाली?ईओ जाओ तस्स तिमुवि गमएसु। भावार्थ गौतम ! संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं. परंतु असंज्ञी मनुष्य में से नहीं उत्पन्न होते हैं ? वगैरह जैसे असुरकुमार समान यावत् असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञो मनुष्य जो नागकुमार में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होते हैं ?. अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश उणा दो पल्योपम. ऐसे ही जैसे असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले तिर्यंच के नागकुमार में उत्पन्न होने के पहिले Late तीन गमे कहे वैसे ही तीनों गमा यहां कहना. विशेष में पहिला दूसरा गमा में शरीर की अवगाहना अघन्य साधिक पांच धनुष्य उत्कृष्ट तीन माउ. तृतीय गमा में शरीर अवगाहना जघन्य देश उना" पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48g __488+ चौबीसवा शतक का तीसरा उद्देशा * Page #2624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जहा तस्सचेव अग्रकुमारेसु उववजमाणस्स तहेव गिरवसेसं॥ ६ ॥ सोचेव अप्पणा उक्कोसकालट्ठिईओ जाओ तस्सवि तिसु गमएमु जहा तस्सचेव उक्कोसकाल ठिईयरस असुरकुमारसु उववजमाणस्स णवरं णागकुमारीटुतिं संवह च जाणेज्जा, सेसं तंचेव ॥९॥३॥ जइसंखेज वासाउय सण्णिमणु० किं पजत्तसंखेज, अपज्जत्त? गोयमा! पजत्त संखेज णो अपज्जत्त संखेजवासा ॥ पजत्त संखेज वासाउय सण्णि मणुस्साणं भंते ! जे भविए णागकुमारेसु उववाजित्तए, सेणं भंते ! केवइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्स द्विईएसु, उक्कोसणं देसूणं दो पलिओवमस्स ट्ठिईएसु उववज्जति, एवं दो गाउ उत्कृष्ट तीन गाउ. वही जघन्य स्थितिवाले उत्पन्न हुवे के तीनों गमा जप्त का अमुरकुमार में उत्पन्न होने जैसे कहना. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा उस का भी असुरकमार में इस की ही उत्पत्ति का कहा वैसे ही यहां कहना. विशेष में यहां पर नागकुमार की स्थिति और संवेध कहना ॥ ३ ॥ यदि संख्यात वर्ष के आयुन्यवाले संज्ञी मनुष्य उत्पन्न होवे तो क्या पर्याप्त या अप- 4 पर्याप्त उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पर्याप्त उत्पन्न होवे परंतु अपर्याप्त उत्पन्न होवे नहीं. अहो मगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के यावत् मनुष्य नागकुमार में उत्पन्न होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न हो ? अहो. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावा Page #2625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 48+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र +9+ जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणस्स सव्वेव लडी णिरवसेसा णवसु गमएसु; णवरं नागकुमारट्ठतिं संवेहं च जाणेज्जा ॥ सेवं भंते ! २ति ॥ चउवी • तइओ ॥ ३ ॥ अवसेसो सुत्रष्णकुमारा जाव थणियकुमारा एतेवि अट्ठउद्देसगा जहेव नागकुमारार्ण तव णिरवसेसा भाणियव्वा सेवं भंते ! २ त्ति ॥ चउ • एक्कारसमो उ० स० ॥ २४ ॥ ११ ॥ पुढवीकाइयाणं भंते! कओहिंतो उववज्जंति किं णेरइएहिंतो तिरि-मणु-देवेहिंतो 42- चौवीसवे शतक के ४-११ उद्देशें 4 [गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश उणा दो पल्योपम. ऐसे ही जैसे असुरकुमार में उत्पन्न होने अ {का कहा वैसे ही यहां पर नव गमाओं विशेषता रहित कहना. परंतु यहां नागकुमार की स्थिति व संबंध कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौबीसा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २४ ॥ ३ ॥ जैसे तीसरे उद्देशे में नागकुमार की वक्तव्यता कही वैसे ही सुवर्ण कुमार यावत् स्तनित कुमार पर्यंत आठों जाति के भवनपति देव के आठ उद्देशे भिन्न २ विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों चौवीसवे शतक के चौथे से अग्यारहवे तक आठ उद्देशे संपूर्ण हुवे ॥ २४ ॥ ४-५-६ } ७-८-१-१०-११ ॥ ० ० ० अहो भगवन् ! पृथ्वी काया में कहाँ से उत्पन्न होवे क्या नारकी तिर्यंच, मनुष्य या देवमें से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम! २५९५ Page #2626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ | 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उववज्जंति ? गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववज्र्ज्जति तिरिमणु-देवेर्हितो उववज्जति ॥ १ ॥ जइ तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जंति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिए एवं जहा वक्कतीए उववाओ जाब जइ वादरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जति किं पजत बादर जाव उववज्जंति अपज्जन्तबादरपुढवी जाव उववज्जंति ? गोमा ! पज्जत्तबादरपुढवी अपज्जत्तबादरपुढवी जाव उववज्जति ॥ २ ॥ पुढवी काइएणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएस उववज्जित्तए सेणं भंते! केवइय कालट्ठिईएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहु तट्ठिईएस उक्कोसेणं वास नारकी में से नहीं उत्पन्न होत्रे परंतु तिर्यंच मनुष्य व में से उत्पन्न होंवे ॥ १ ॥ तिर्यंच में से उत्पन्न { होवें तो क्या एकेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे ऐसे ही जैसे व्युत्क्रान्ति उपपात वगैरह यावत् यदि बादर पृथ्वी काया एकेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होते हैं तो क्यों पर्याप्त बादर यावत् उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त { बादर यावत् उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम! पर्याप्त वादर पृथ्वी में से उत्पन्न होने और अपर्याप्त बादर पृथ्वी { यावत् उत्पन्न होवे ॥२॥ अहो भगवन् ! पृथ्वी काया पृथ्वीकाया उत्पन्न में होने योग्य होवे तो वे कितने कालकी ( स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बाबीसं हजार वर्ष की स्थिति से उत्पन्न * प्रकाशक राजीवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २५९६ Page #2627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 २५९७ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 40 वाससहस्सट्टिईएसु उववजजा तेणं भंते ! जीवा एग समएणं पुच्छा ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति ॥ छेवटुसंघयणी॥मरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणवि अंगुलस्स असंखजइ भागं॥ मसूरचंद संट्ठिया॥ चत्तारि लेस्साओ॥णो सम्मट्टिी मिच्छादिट्टी,णो सम्मामिच्छादिट्ठी॥णोणाणी अण्णाणी.. दो अण्णाणी णियमं ॥ णोमणजोगी णोवइजोगी कायजोगी ॥ उवओगो दुविहोवि चत्तारि सण्णाओ चत्तारि कसायाओ एगे फासिदिए प० तिण्णि समुग्घाया ॥ वेदणा दुविहा ॥ णो इत्थीवेदगा णो पुरिसवेदगा गपुंसगवेदगा ॥ ठिई जहण्णेणं होते. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? अहो. गौतम ! वे समय २ में विरह रहित असंख्यात उत्पन्न होवे. उस को संघयण छेवट जानना, शरीर की अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवा भाग. संस्थान मसुर की दाल अथवा अर्ध चंद्र का, लेश्या चार, समदृष्टि व सममिथ्यादृष्टि नहीं परंतु एक मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं, जिस में मति अज्ञान व श्रुत अज्ञान ऐसे दो अज्ञान की नियमा है. मन योग व वचन योग नहीं है परंतु काया योग है, दो उपयोग, चार संज्ञा चार, कषाय, एक स्पर्शेन्द्रिय, तीन समुद्धात, दोनों प्रकार की वेदना, स्त्री वेद पुरुष वेद नहीं परंतु नपुंसक वेद चौवीसवा शतक का बारहवा उद्देशा 4889 Page #2628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई ॥ अज्झवसाणा पसत्थावि अप्पसत्थावि ॥ अणुबंधो जहा ठिई ॥ सेणं भंते ! पुढवीकाइए पुणरवि पुढवी काइएत्ति केवइयं कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ? गोयमा ! भवादेसणं जहण्णणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेजाइं भवग्गहणाइं ॥ कालादेसेणं जहण्णणं दो अंतोमुहुत्ताई, उक्कोसेणं असंखजं कालं एवइयं जाव करेजा ॥ १ ॥ ३ ॥ सोचव जहण्ण काल ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्त ठिईएसु, उक्कोसणवि अंतोमुहुत्त ठिईएस, एवंचेब वत्तव्वया गिरवसेसं ॥ २ ॥ ४ ॥ सोचेव उक्कोसकाल ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं वावीस हैं. स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट वावीस हजार वर्ष, अध्यवसाय प्रशस्त अप्रशस्त दोनों, अनुबंध जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष. अहो भगवन् ! वह पृथ्वीकाया पुनः पृथ्वीकायाको कहांतक सेवे और कितनी गति आगति करे ? अहो गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट असंख्यात भव कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट असंख्यात काल इतना यावत् करे ॥ ३ ॥ वही जघन्य स्थितिबाली पृथ्वी काया में उत्पन्न हुवा जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त वगैरह पूर्वोक्त वक्तव्यता कहना ॥ ४ ॥ वही उत्कृष्ट स्थिति मे उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की स्थिति से उत्पन्न होता है. शेष अनु wwimmmmmmmmm प्रकाशक-राजहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावाथे Page #2629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाससहस्सठिईएसु, उक्कोसेणवि वावीसं वास सहस्स ठिईएमु सेसं तंचेव जात्र अणुबंधोत्ति णवरं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखेजावा असंखेजावा। उववजेजा ॥ भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई, अंतोमुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छात्र तरि वाससतसहस्सं एवइयं जाव करेजा.॥ ३ ॥ ५ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्णकाल द्वितीओ जाओ सोचेव पढमिल्लगमओ भाणियव्वो णवरं लेस्साओ तिण्णि, द्विती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं अप्पसत्या अज्जवसाणा, अणुबंधो जहा भावार्थ बंधन पर्यंत वैसे ही कहना परंतु विशेषता यह है कि जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात उत्पन्न होवे. भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ x भव कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट एक लाख छहत्तर हजार (१.७६०००) इतना यावत् करे ॥५॥ वही जघन्य 23 स्थितिवाला उत्पन्न हुवा वगैरह पहिला गमा कहना. परंतु लेश्या तीन स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त x जहां दोनों संवेध पक्ष में से एक भी संवेध पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति होवे वहां उत्कृष्ट से आठ भव ग्रहण करना. V} अन्य पक्ष में असंख्यात भव ग्रहण करना. इस से यहां उत्पत्ति विषयभूत जीव को उत्कृष्ट के आठ भव कहे हैं. 42 पंचमांग विवाह पस्णन्ति (भगवती) सूत्र 4.860- चौवासवा शतक का बारहवा उद्दशा got Page #2630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालंब्रह्मचारी मानि श्री अमालक ऋi द्विती सेसं तंचेव ॥ ४ ॥ ६ ॥ सोचेव जहण्णकाल द्वितीएसु उववण्णो सन्वेव चउत्थगमक वत्तव्यया भाणियव्या ॥ ६ ॥ ७ ॥ सोचेव उक्कोसकालद्वितीएसु उव. वण्णो एसचेव वत्तव्वया, णवरं जहण्णेणं एक्कोवा, दोवा, तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखेजावा, असंखेजावा जाव भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाइं ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्त मब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीतिवास सहस्साई चउहिं अंतोमुत्तहिं अब्भहियाइं एवइयं कालं ॥ ६ ॥ ८ ॥ सोचव अप्पणा उक्कोस कालठि तीओ जाओ एवं तईयगमग सरिसो गिरवसेसो भाणियब्वो, णवरं अप्पणा से अप्रशस्त अध्यवसाय और अनुबंध जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त ॥ ६ ॥ वही जघन्य स्थितिवाली पृथ्वीकाया में उत्पन्न हुवा उपर्युक्त चौथा गमा विशेषता रहिन कहना ॥ ७॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना. परंतु जघन्य एक, दो, तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात उत्पन्न होनेकाकहना यावत् भवादेश से जघन्य दो भव ग्रहण उत्कृष्ट आठ भव कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और चार अंतर्मुहूर्त अधिक. इतना यावत् करे ॥ ८॥ वही उत्कृष्ट स्थिति +प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 45 जहणेणं वावीसं वाससहरसाई, उक्कोसेणवि वावीसं वाससहस्साइं ॥ ७ ॥ ९ ॥ सोचैव जहण्णकाल ठिईएस उबवण्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणत्रि अंतोमुहुतं एवं जहा सत्तमगमगो जाव भवादेसो || कालादेसेणं जहण्णेणं वात्रीसं बाससहरसाईं अंतोमुहुत्त अन्भहियाई उक्कोसेणं अट्ठासीइं वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्तेर्हि अमहियाई एवइयं कालं ॥ ८ ॥ १० ॥ सोचेव उक्कोस काल ठितीएस उववण्णो जहणेणं बावीसं वास सहस्स ठितीएस उक्कोसेणवि बाबीसं वास सहस्तठितीएस एवंचेव सत्तमगमग वत्तव्या जाणियव्वा जव भवादेसोत्ति वाला उत्पन्न हुवा तीसरा गया कहना. वही जघन्य स्थितिवाली पृथ्वीकाया में परंतु स्थिति जघन्य उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की कहना ॥ ९ ॥ उत्पन्न हुवा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त की स्थिति से उत्पन्न होवे. ऐसे ही भवादेश पर्यंत सातवा गमा कहना. कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और अंतमुहूर्त अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और चार अंतर्मुहूर्त अधिक इतना काल यावत् करे ॥ १० ॥ ३ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की स्थिति से उत्पन्न होता है वगैरह सातवा गमाकी वक्तव्यता भवादेश पर्यंत कहना. कालादेश से जघन्य चमालीस हजार वर्ष दो भव पृथ्वीकाया के 43008 चौवीसत्रा शतक का चारहवा उद्देशा २६०१ Page #2632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कालादेसेणं जहण्णेणं चोयालीसं वास सहस्साई उक्कोसणं छावत्तरि वाससतसहस्स एवइयं ॥ ९ ॥ ११ ॥ जइ आउकाइए एगिदिय तिरिक्ख जोणिएहिंतो उववज्जति किं सुहुम आउबादर आउ एवं चउक्कओभेदो भाणियब्बो, जहा पुढवी काइया |२६.२ ॥ १२ ॥ आउ काइयाणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवश्यकाल दिईएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त द्वितीएसु उक्कोसेणं बावसिं वास सहस्स द्वितीएसु उववज्जेज्जा एवं पुढवीकाइयगमग सरिसा णवगमगा भाणियव्वा णवरंथिवुगविंदु संट्टिते। द्विती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं सत्त उत्कृष्ट एक लाख छिहोत्तर हमार वर्ष आठ भव के ॥ ११ ॥ जब अप्काया एकेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होवे तो क्या मूक्ष्म अप्काया में से अथवा बादर अपकाया में से ऐसे ही पृथ्वीकाया जैसे चारभेद कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जो अप्काया पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे वह वहाँ । कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष. ऐसे ही पृथ्वीकाया जैसे नव गमा कहना परंतु अम्काया का संस्थान स्तिवुक विन्दु का, स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की. ऐसे ही अनुबंध स्थिति कहना. और संबंध तीसरा, छठा, सातवा, आठवा और wwwww . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 488+ पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र++ एवं वि एवं तिमुवि गमए ॥ द्विती संवेहो तइयछट्ठसत्तमट्ठ णत्र मे सु गमए ॥ भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अटू भवग्गहणाई सेसेसु सुगम जहणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेजाइं भवग्गहणाई ॥ ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्महियाई, उक्को सेणं सोलसुत्तर वाससयसहस्सं एवइयं कालं गतिरागर्ति करेजा ॥ ५ ॥ छट्ठे गमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्त मन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साइं चउहिं अंतोमुहुत्त मन्महियाई || ६ || सत्तमगमए कालादेसेणं जहणणं सत्तवास सहरसाई, अंतोमुहुत्त मन्भहियाई उक्कोसेणं सोलसुत्तर वासस्यनववा गमा में भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भत्र शेष चार में जघन्य दो भव उत्कृष्ट असंख्यात भव. तीसरा गमा में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष, छठा गमा में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और चार अंतर्मुहूर्त अधिक. सातवा गमा में कालादेश से जघन्य सात हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त- अधिक उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार जिस में ८८००० वर्ष पृथ्वी के और २८००० वर्ष अपूकाया के इतना काल चौबीस शतक का वारहवा उद्देशा २६०३ Page #2634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००४ मुनि श्री अमोलक ऋषीनीक सहस्स एवइयं ॥ अट्टमगमए कालादेसेणं जहण्णेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुत्त मम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीस वाससहस्साई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई एवइयं । णवमगमए भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं एगूणतीसं वाससहस्साई, उक्कोसेणं सोलसुत्तर वाससहस्सं एवइयं कालं, एवं णवसुवि गमएसु आउकाइयट्टिती जाणियव्वा ॥ १३ ॥ जइ तेउकाइएहितो उववजंति तेउकाइयाणवि, एसचेव वत्तव्वया णवरं णवसुवि गमएमु तिण्णि लेस्साओ ॥ तेउकाइयाणं सूइकलावसंट्रिया दिई जाणियव्वा ततियगमए ॥ कालादेयावत् करे. आठवा गमा में जघन्य सात हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक और उत्कृष्ट अठावीस हजार वर्ष चार अंतर्मुहूर्त अधिक. नववा गमा में भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश से जघन्य : गुनतीस हजार वर्ष ७००० वर्ष अप्काया के और २२००० वर्ष पृथ्वीकाया के उत्कृष्ट एक लाख नमोलह हजार इस तरह नवों गमा में अप्काया की स्थिति कहना ॥ १३ ॥ यदि तेउकाया में से उत्पन्न होवे तो क्या सूक्ष्म बादर वगैरह चार भेद कहना और मक वैसे ही कहना. परंतु नवों गमाओं में तीन जलेश्या कहना. तेउकाया का संस्थान सूचि के समुह जैसा कहना. तीसरा गमा में कालादेश से जघन्य •प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भ E Page #2635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 +8+ पंचमात्र विवाह पग्णाति (भगवती ) मूत्र 428 सेयं जहष्णेयं वावीस वाससहस्साई अंतोमुहुत्त मभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई, बारसहिं राइदिएहिं अब्भहियाई, एवइयं एवं संवेहो उवउंजिऊण. भाणियच्चों ॥ १४ ॥ जइ वाउक्काइएहिंतो उववजंति, वाउकाइयाणवि एवंचे गव गमका जहेव तेउकाइयाणं णवरं पडागासंठिया, संबेहो वाससहस्सेहिं कायन्वो ॥ ततिषगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भाहियाई, उक्कोसेणं एग वाससयसहस्सं एवं संबेहो उवउंजिऊण भाणियन्वो ॥१५॥जइवणस्सइ काइएहितो उववजति वणस्सइकाइयाणं आउकाइयगमग सरिसा णवगमगा भाणियन्या बावीस हमार वर्ष और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट अठासी रमार वर्ष और पारस रात्रि दिन अधिक. संबंध भी उपपोग लगाकर काना ॥ १४ ॥ जैसे तेउकापा का कहा वैसे ही वायुकाया का जानना. परंतु, इस में पताका का संस्थान है एक हजार वर्ष का संबंध कहना. तीसरा गमा में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष भंवर्मुहूर्त अधिक उस्कृष्ट एक लाख वर्ष (पृथ्वी काया के चार भव के ८८००० वर्ष और 4 वायुकाव के चार भनके १२००० वर्ष) इतना काल तक गतागत करे ऐसे मागे का भी आयोग सारखकर संबंध काना ॥ १५ ॥ पदि वनस्पनि.काया में से उत्पन्न होने तो बनस्पति काया का अपकाया । चोवीसवा शतक का बारहवा उद्देशा Page #2636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... णवरं णाणासंठिया, सरीरोगाहणा पढमएसु पन्छिनएसुतिसुः गमएसु जहणणं अंगुलस्स ..: असंखजइभागंउकोसेणं सातिरगंजोअणसहस्सं, मज्झिमएसु तहेव जहा पुढवीकाझ्याण संवेहो द्विती- जाणियन्वा ॥ तईयगमए कालादेसणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तर वाससयसहस्सं एवइयं एवं संबेहो उवउंजिऊण भाणियन्वो ॥ १६ ॥ जइ वेइंदिएहिंतो उबवज्जति किं पजत्तवेईदिए. है . हिंतो उववज्जति अपज्जत्तवेइंदिएहिंतो उववजति ? गोयमा ! पजत्त वेइंदिएहितो उबवज्जति, अपजत्तवेईदिएहितोत्रि उववंजंति ॥ वेइंदिएणं भंते ! जे भविए पुढवी भावार्थ जैसे गमा कहना. परंतु वनस्पतिकाया का संस्थान विविध प्रकार का कहा है. शरीर की अवगाहना पहिले के तीन और छेल्ले के तीन में जंघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट एक हजार पोजन से कुच्छ अधिक की कही है. बीच के तीन गमाकी पृथ्वीकाया से कहना. तीसग गया में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट एक लाख अठाइस हमार (पृथ्वी के चार भव के ८४००० और वनस्पति के चार भव के ४००००) इतना काल गतिमामात करे. यों उपयोग सहित इस. का भी 17 संवेध कहना ॥ १६ ॥ यदि इन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो त्या पर्याप्त इन्द्रिय या अपर्याप्त इन्द्रियमें से । .48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु ? गोयमा ! जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्सटिती ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कोवा दोवा सिण्णिवा, उक्कोसेणं संखजावा असंखेजावा उश्वज्जति॥छेवट्ठ संघयणी॥ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भाग, उक्कोसेणं वारस जोअणाई हुंडसंठिया तिण्णि लेस्साओ ॥ सम्मट्टिी. मिग्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छाहिट्ठी । दो णाणा दो अणाणा णियमं ॥ णो मणजोगी वयजोगीवि कायजोगीवि ॥ उवओगो दुविहोवि ॥ चत्तारि सण्णाओ॥ चत्तारि कसायाओ ॥ दो इंदिया पं० तंजहा भावार्थ L उत्पन होवे ? अहो गौतम ! पर्याप्त वेइन्द्रिय में से उत्पन्न होवे और अपर्याप्त वेइन्द्रिय में से भी उत्पन्न होवे अहो भगवन् ! जो बेहन्द्रिय पृथ्वीकाया में उत्पम होने योग्य होवे. वे वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे, अहो गौतम ! जपन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की स्थिति से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! वे जीवों एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! अघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असं-31 ख्यात उत्पन होबे, संघयण छवटु, अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट बारह योजन, कक संस्थाम, तीनों लेश्या, समदृष्टि और मिध्यारष्टिौ परंतु सम मिथ्यादृष्टि नहीं, दो ज्ञान दो अज्ञान की। पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 488 ___48 चौबीसबा शतकका बारहना उद्देशा कम Page #2638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.८ + अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + जिभिदिएय फासिदिएय, तिणि संधीचा ससे जहा पुढवीकाइयाणं नवरं दिई जहणेणं मंतोमुहत्तं उकोसेणं बारस संवच्छराई । एवं अणुबंधोवि सेसं तंचेव ॥ भवादेसेणं जहण्णेणं दोभवग्गहणाई उकोसेणं संखजाई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ताइं उक्कोसेणं संखेनं कालं एवइयं कालं ॥ १ ॥ १७ ॥ सोचेव जहण्णकालढिईएसु उवषण्णो एसचेव वत्तन्वया ॥ २ ॥ १८ ॥ सोचे। उक्को. सकालट्ठिईएसु उववण्णो एसचेव विइयस्स लडी गवरं भवादेसेणं जहणेणं दो भव. नियमा, मन योगी नहीं परंतु वचन योगी और काया योगी, दोनों उपयोग, चार संझा, चार कषाय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय ऐसी दो इन्द्रियों, तीन समुदात और शेष पृथ्वीकाया जैसे कहना. स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बारह वर्ष ऐसे ही अनुषंध. भादेश से जघन्य दो भव. उत्कृष्ट संख्याव भव, कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट संख्यात काल ॥ १७ ॥ वही जघन्य स्थिति में उत्पम हुवा वैसे ही करना ॥१८॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हवा कितनी स्थिति से उत्पन्न होने ? अहो गौतम! बेइन्द्रिय की कन्धि जैसे कहनाः भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश से अपम्प • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #2639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०९ पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) मूत्र +8+ गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई ॥ कालादेसेणं वावीसं वाससहस्साइं अंतोमुहुत्त. मन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वास सहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अन्भहियाइं, एवइयं ॥ १९ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्ण कालट्ठिईओ जाओ तस्सवि एसचेव वतन्वया, तिसुवि गमएसु णवरं इमाइं णाणत्ताई सरीरोगाहणा जहा पुढवीकाइयाणं णो सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी ।। दो अण्णाणा णियमं ॥ णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी ॥ ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणवि अंतोमुहुत्तं अज्झवसाणा अप्पसत्था ॥ अणुबंधो जहा ढिई ॥ संवेहो तहेव आदिल्लेसु दोगमएसु तइयगमए भवादेसो तहेव अट्ठभवा, कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई, बावीस हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक. उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और अडतालीस वर्ष अधिक ॥ १९ ॥ वही जघन्य स्थितिवाला उत्पन्न हुवा उस के तीनों गमा भी वैसे ही कहना. परंतु शरीर अवगाहना जैसी पृथ्वीकाया की कही वैसे ही कहना. समदृष्टि आर सममिथ्यादृष्टि नहीं परंतु मिथ्यादृष्टि दो अज्ञान की नियमा, मनयोगी व वचन योगी नहीं परंतु काया योगी. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, अध्यवसाय अप्रशस्त अनुबंध स्थिति. जैसे कहना. पहिले दो गमा में मंच पहिले जैसे कहना. तीसरा गमा में भवादेश 4887 चौबीसवा शतक का बारहवा उद्देशा 988 4 Page #2640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + .41 अनुवादक-वालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्टासीति वाससहस्साई, चउहि अंतोमुहुत्तेहिं अब्भ ...हियाई ॥ २० ॥ सोचेव अप्पणा उक्कोसकालढ़िईओ जाओ एतस्सवि. ओहियागमग सरिसा तिणि गमगा भाणियव्वा गवरं तिसुवि गमएसु लिई जहण्णेण बारस संवच्छ |२६१० राई, उक्कोसेणवि बारस संवच्छराई । एवं अणुबंधावि, भवावेसेणं जहण्णेणं दो "भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं उवउंजिऊण भाणियत्वं जाव णवमेगमए जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई बारसहिं संवच्छरेहिं अन्भहियाई, उक्को. सेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहिं अब्भहियाई, एवइयं ॥२१॥ है वैसे ही आठ भव. कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और चार अंतर्मुहूर्त अधिक ॥ २० ॥ वही उस्कृष्ट स्थितियाला उत्पन्न हुवा औधिक गया जैसे तीनों गमा, कहना परंतु तीनों गमा में स्थिति जघन्य उत्कृष्ट बारह वर्ष ऐसे ही अमुबंध. भवादेश से जपन्य दोई भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश उपयोग लगाकर अनुक्रम से काना. यावत् नववा गमा में जघन्य बावीस हजार वर्ष और बारह वर्ष अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और अहतालीस वर्ष अधिक. इतना यावत् सबने करे ॥ २१ ॥ यदि तेइन्द्रिय में से उत्पन्न होवे सो पृथ्वीकाया में उत्पन्न होचे ऐसे ही नव गमा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 २६१७ जइ तेइंदिएहितो पुढवीकाइएसु उववजंति, एवंचैव गवगमका भाणियव्या, णवरं आदिल्लेसुवि तिसुवि गमएसु सरीरोगाहणा जहण्ोणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइं. तिण्णि इंदियाई, ट्ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगणपण्णराइंदियाई ॥ ततियगमए कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई अंतो मुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीइ वाससहस्साइंछण्णउइराइंदिय मब्भहियाइं एवइय॥ मज्झिमगा तिण्णिगमगा पच्छिमगा तिगमगा तहेव णवर दिई जहण्णेणं एगूण पण्णराइंदियाई, उक्कोसेणवि एगणपण्ण राइंदियाई संवेहो उवांजिऊण भाणियन्वो ॥ २२ ॥ जइ चउरिदिएहितो उववजंति एसचेव चउरिदियाणविणव गमगा भाणिमावार्थ कहना. विशेष में पहिले के तीनों गया में शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग Fउत्कृष्ट नीन गाउ, तीन इन्द्रियों, स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट गुनपञ्चास अहोरावि. तीसरा गमा में कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष चार भव पृथ्वीकायाका और एक सो छन्नु रात्रि दिवस आधिक. शेष छ गमा भी वेइन्द्रिय जैसे कहना. परंतु स्थिति जघन्य उत्कृष्ट गुनपञ्चास दिन की कहना और उस अनुसार संबंध भी उपयोग सहित कहना ॥ २२ ॥ यदि 4882 चमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सत्र 80 चौबीसवा शंतक का बारहवा उहशा. । Page #2642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१२ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " यन्वा, णवरं एएसु चेव ठाणेसु णाणत्ता भाणियव्वाः सरीरोगाहणा जहणेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा, एवं अणुबंधोवि ॥ चत्तारि इंदिया सेसं तंचेब जाव णवगमए ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं वावीसं वाससहस्साई छहिं मासेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीतिं वाससहस्साई चउवीसाए मासेहिं अब्भहियाए, एवइयं जाव करेजा ॥२३॥ जइ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहितो उवबज्जति किं सण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिए हिंतो उववज्जति, असणिपींचीदयतिरिक्खजेणिए ? गोयमा ! सण्णि पंचिंदिय, चतुरेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो वगैरह सब बेइन्द्रिय जैसे नव गमा कहना. परंतु शरीर अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट चार गाउ. स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट छ मास ऐसे ही अनुबंध.. इन्द्रियों चार शेष सब वैसे ही कहना. कालादेश से जघन्य बावीस हजार वर्ष और छ मास अधिक उत्कृष्ट अठासी हजार वर्ष और चौवीस मास अधिक. ऐसे ही यावत् करे ॥२३॥ यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होवे तो क्या संधी पंचन्द्रियमें से उत्पन्न होवे या असंज्ञी पंचेन्द्रियमें से? अहो गौतम ! संझी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय उत्पन्न होवे. यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो क्या जलचर में से उत्पन्न होवे . प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाहाप्रसादजी* भावार्थ Page #2643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र असणिपंचिंदिय तिरिक्ख• जइ असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिहितो उववजंति किं जलचरेहिंतो उववजंति, जाव किं पजत्तएहिंतो उववजंति अपजत्तएहितो उववजंति ? गोयमा! पजत्तएहितो उववजंति, अपज्जत्तएहितोवि उववजंति ॥ २४ ॥ २११३ असण्णि पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते !. जे भविए . पुढवीकाइएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वाबीसं वाससहस्सं ॥ तेणं भंते! जीवा, एवं जहेव वेइंदियस्स ओहि गमए लद्दी तहेव णवरं सरीरोगाहणा . जहण्णेणं, अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं जोअणसहस्सं ॥ पंचिंदिय ट्ठिई अणु वंधोय जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसणं पुवकोडी सेसं तंचेव ॥ भवादेसेणं जहणेणं यावत् क्या पर्याप्त में से उत्पन्न होवे या अपर्याप्त में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! पर्याप्त और अप-3. र्याप्त दोनों में से उत्पन्न होवे ॥ २४ ॥ असंही पंचेन्द्रिय जो पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष. अहो भग-13 वन् ! वे एक ममय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे औधिक बेइन्द्रिय का कहा वैसे ही यहां कहना. परंतु शरीर की अवगाहना जपन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार पोजन.. | 488चौबीसवा शतकका बारहवा उद्दशा सारा 4 Page #2644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१४ दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसणं उवांजिऊण भाणियन्वं णवरं मज्झिमएसुतिसु गमएस जहेव वेइंदियस्स मज्झिमएस तिमु गमएसु पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहा एतस्सेव पढमगमए, गवरं ट्ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुन्चकोडी, उकोसेणवि पुचकोडी, सेसं तहेव जाव णवगमए. जहण्णेणं पुवकोडी वाबीसाए ॐ वाससहस्सेहिं - अब्भहिया ॥ उक्कोसेणं चत्तारि पुनकोडीओ अट्ठासीतीएय वास · सहस्सेहिं अम्भहियाओ एवइयं कालं सेवेजा ॥ २५ ॥ जइ सण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए उववजंति कि संखजवासाउथ असंखज्जवासाउय ? गोयमा ! संखे भावार्थ इन्द्रिय पाच, स्थिति और अनुबंध जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट पूर्व कोड शेप वैसे ही भवादेश से जघन्य दो #भव उत्कृष्ट बाठ मव. कालादेश उपयोग सहित कहना. परंतु बीच के तीनों गमा में बेइन्द्रिय के बीच के : तीनों गमा जैसे कहना. पीछे के तीनों गमा उस के पहिले गमा जैसे कहना. परंतु स्थिति और अनुबंध नघन्य व उत्कृष्ट पूर्व क्रोड जानना. यावत् नववा गमा जघन्य पूर्व कोड बावीस हजार वर्ष आधिक उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड अठासी हजार वर्ष अधिक ॥ २५ ॥ यदि संधी पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे 1 सो क्या संख्यात वर्ष के मायुष्यवाले या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे ? अहो मौतम ! 42 अनुवादक-बालबमचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 42 • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवासाउय सणिपंचिंदिय, णो असंखेजवासाउय जाव उवत्रजंति ॥ जइ संखंजबासा उय जाव उववज्जति किं जलचरेहिंतो सेसं जहा असण्णीणं जाव तेणं भंते । जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति, एवं जहा रयणप्पभाए उववजमाणस्स सणिपंचिं. दियस्स तहेव इहवि जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ अट्ठासीति वाससहस्तेहिं अभहियाइं एवइयं जाव करेजा एवं संबेहो वसुविगमएसु जहा असण्णीणं तहेव गिरवसेसं लखीसे आदिवाएसुतिसुगमएमएसचेव मझिल्लएसुवि तीमु गमएमु एसचेव गवरं इमाई णव णाणचाई। जहण्णेणं ओगाहणा अंगुलस्स असंखेजइ भागं, उक्कोसेणवि अंगुलस्स अखेबइ भागं ॥ तिण्णि लेस्साओ) भावार्थ संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन होवे परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होने नहीं. यदि संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होवे तो क्या जलचर में से उत्पन्न होवे ? शेष सब असंझी जैसे यावत् 4 अहो भगवन् ! वे जीवों एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम! जैसे रत्नप्रभा में संझी पंचेन्द्रिय का उत्पन्न होने का कहा था वैसे ही यहां कहना यावत् कालादेश मे जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड और अठासी हजार वर्ष अधिक. इतना यावत् करे. ऐसे ही संबंध नव गमाओं में असंझी जैसे कहना. लब्धि पहिले केवपीछे के तीन२गमाओ में उसके हीरत्नप्रभा पृथ्वीके उत्पन्न होने केगमा जैसे कहना. 15 परंतु इन में नव विशेषता अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट अंगुलका असंख्यातवा भाग, तीन लेण्याओं मिथ्याष्टि, पंचमाङ्ग विवाह पण्णचि (भगवती) मूत्र AR+ 48 चौबीसवा शतक का बारहवा उद्देशा 488+ Page #2646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क ऋषिजी - मिच्छट्ठिी ॥ दो अण्णाणा ॥ कायजोगी ॥ तिणि समुग्घाया ॥ टिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं नक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं । अप्पसत्था अज्झवसाणा ॥ अणुबंधो जहा ढिई सेसं तंचेव ॥ पच्छिलएसु तिसु गमएसु जहेव पढमगमए णवरं ठिई अणुबंधो जहाणेणं पुन्चकोडी उक्कोसेणवि पुवकोडी, सेस तंव ॥२६॥ जह मणुस्सेहिता उववजंति किं सण्णिमणुस्सेहिंतो उववजीत असण्णिमणुस्से. हिंतो उववज्जति ? गोयमा ! सण्णि मणुस्सेहिंतो उववजंति असण्णि मणुस्सेहितोवि ज्ववजंति ॥ २७ ॥ असणि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु सेणं भंते! दो अज्ञान, काया योगी, तीन समुदात, स्थिति जघन्य उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवा भाग, अध्यवसाय अप्रशस्त और अनुबंध स्थिति जैसे. पीछे के तीनों गया पहिले के तीनों गया जैसे कहना. परंतु स्थिति में अनुबंध जघन्य पूर्व कोड उत्कृष्ट भी पूर्व क्रोड शेष सब पहिले जैसे ॥ २६ ॥ याद मनुष्य में से उत्पन्न हो तो क्या संशी मनुष्य में से उत्पन्न होवे या असंही मनुष्य में से उत्पन्न होवे ! अहो गौतम ! संजी मनुष्य में से उत्पन हो और असंही मनुष्य में से उत्पन्न होवे ॥ २७ ॥ अहो भगवन् ! असंधी. मनुष्य में से जो पृथ्वीकावा में उत्पा होने योग्य होरे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होने ! महो गौतम ! जैसे 42 अनुवादक-बालबाबरी मुनि श्री प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी . भावार्थ Page #2647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Pig wammmmmmmwww पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र केवइय कालट्ठिईएमु एवं जहा असणिपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहण्ण कालट्टिईयस्स तिण्णि गमगा तहा एतस्सवि ओहिया तिण्णिगमका भाणियव्वा, तहेव गिरवसेसं सेसा छ ण भण्णइ ॥ २८ ॥ जइ सणि मणुम्सेहितो उववजंति. किं संखजवासाउय, असंखजवासाउय जाव उववजंति ? गोयमा ! संखजवासाउय णो असंखेजवासाउय जाव उववजंति ॥ जइ संखेजवासाउय जाव उववज्जति किं पजत्त संखेजवासाउय, अपज्जत्त संखेजवासाउय ? गोयमा ! पजत्त संखेजवासाउय अपजत्त संखजवासा जाब उववज्जति ॥ २९ ॥ सण्णि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थितिवाले के तीन गमा कहे वैसे ही इस के औधिक तीनों गमा कहना और शेष छ भांगे नहीं पाते हैं ॥ २८ ॥ यदि संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो क्या संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते हैं परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले नहीं उत्पन्न होते हैं. यदि संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! पर्याप्त उत्पन्न होते हैं और अपर्याप्त भी उत्पन्न होते हैं ॥ २९ ॥ अहो भगवन ! संत्री मनुष्य है । चौबीसवा शतक का बारहवा उद्देशा 488 भावार्थ 428 Page #2648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुढविकाइएस उववजंति, सेणं भंते ! केइवय कालरस ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावसं वाससहस्सट्टिईएस || तेणं भंते! जीवा एवं जहेव रयणप्पभा उववज्जमाणस्स तहेव तिसुवि गमएस लडी, णवरं ओगाहणा जहणेणं अंगुल - स्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं पंचधणुहसयाई । ट्ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्को - सेणं पुचकोडी, एवं अणुबंधोवि || संवेहो णवसु गमएस जहेब सणिपंचिंदिय मल्लितिस गमएसु लद्धी जहेब सणिपंचिंदियरस मज्झिल्लएसु तिसु गमएसु लडी से तंव णिरवसेसं ||च्छिल्ला तिणि गमका जहा एयरसचेव ओहिया गमका * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी { पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त | उत्कृष्ट बाजीस हजार वर्ष. अहो भगवन् ! एक समय में वे जीवों कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! { जैने रत्नप्रभा में उत्पन्न होने के तीन गया कहे वैसे ही यहां पर तीनों गया कहना. परंतु अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट पांचतो धनुष्य स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व कोड ऐसे ही { अनुबंध कहना. संबंध नवीं गया में जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच का कहा था वैसे ही कहना. बीच के तीन गमा में संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय की लब्धि जैसे कहना, पीछे के तीन गमा इस के औधिक जैसे | २६१८ Page #2649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 2017 णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाइं उक्कोसेणवि पंचधणुहसयाई, ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुव्यकोडी उक्कोसेणवि पुव्वकोडी, सेसं तहेव ॥ ३० ॥ जइ देवहितो उववजंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति, बाणमंतर जोइसिय देवहितो वेमाणिएहिं देवहितो उववज्जति ? गोयमा ! भवणवासि देवोहितावि उववजति जाव वेमाणिय देवहितोवि उववज्जति ॥ जइ भवणवासिंदेवेहितो उववजंति किं असुरकुमार भवणवासिदेवहितो उववजति जाव थणियकुमार भवणवासि ? गोयमा ! असुरकुमार भवणवासि देवहितो उववजंति जाव थणियकुमार भवणवासि देवहितो उववजंति कहना परंतु अबगान जघन्य उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य स्थिति और अनुबंध जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड शेष वैसे ही कहना ॥ ३० ॥ यदि देव में से पृथ्वीकाया में उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनपति, वाणव्यतर, जोतिषी या वैमानिक में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! भवनपति देव में से उत्पन्न होवे यावत् वैमा. निक देव में से उत्पन्न होवे. यदि भवनपति देव में से उत्पन्न होवे तो क्या असुरकुमार भवनपति देव में से उत्पन्न होवे, यावत् स्तनित कुमार भवनपति देव में से उत्पन्न होवे ?. अहो गौतम ! अमुरकुमार भव-390 नवासी देव में से उत्पन्न होवे यावत् स्तनित कुमार देव में से उत्पन्न होवे ॥ ३१॥ अहो भगवन् ! जो *38*2- चौवीसना शतक का बारहवा उद्देशा 88 भावार्थ Page #2650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ ३१ ॥ असुरकुमारणं भंते! जे भविए पुढवीकाइएस उववजित्तए सेणं ते केवइय काल ट्ठिई ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई ट्ठिई ॥ ३२ ॥ तेणं भंते ! जीवा पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं एक्कोवा दोवा तिष्णिवा उक्कोसेणं संखज्जावा असंखेज्जावा उववज्जंति ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं सरीरगा किं संघयणी पण्णत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी जाव परिणमइ ॥ तेसिणं भंते! जीवाणं के महालया सरीरोगाहणा ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहाभवधारणिज्जाय उत्तरवेउल्विया य ॥ तत्थणं जासा भव धारणिजा सा जहणणं असुरकुमार पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष || ३२ || अहो भगवन् ! वे जीवों एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! उन जीवों के शरीर कौन से संघयनवाले हैं ? अहो गौतम ! छ संघयन में से एक भी संघयनवाले नहीं हैं. अहो भगवन् ! उन की कितनी शरीर की अवगाहना कही ? अहो गौतम ! उन को दो प्रकार की अवगाहना ( कही, भवधारणीय और उत्तर वैक्रेय. उस में जो भवधारणीय है वह जघन्य अंगुल का असंख्यातवा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २६२० Page #2651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 २५२१ अंगुलस्स असखेजइ भागं, उक्कोसेणं सत्तरयणीओ, तत्थणं जा सा उत्तरवैउब्विया, 4 सा जहण्णेणं अंगुलस्स असखेजइ भागं उक्कोसेणं जोअणसयसहस्सं ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं संठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंज़हा-भवधारणिज्जाय, उत्तवेउब्वियाय, ॥ तत्थणं जे ते भवधारणिज्जा ते समचउरंससंठाण संठिया पण्णत्ता, तत्थणं जे से उत्तरवेउव्विया ते णाणा संठाण संठिया ५० ॥ लेस्साओ चत्तारि ॥ दिट्ठी तिविहावि ॥ तिण्णि णाणा णियम, तिण्णि अण्णाणा भयणाए ॥ जोगे तिबिहेवि ॥ उवओगे दुविहेवि ॥ चत्तारि सण्णाओ ॥ चत्तारि भावार्थ भाग उत्कृष्ट मात हाथ. उस में जो उत्तर वैक्रेयवाले हैं उसकी जघन्य अंगुलका असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन. अहो भगवन् ! उन को कौनसा संस्थान कहा है ? अहो गौतम ! संस्थान के दो र भेद. भवधारणीय और उत्तरवैकेंय. उस में भवधारणीय का समचतुस्रस्थान और उत्तर : क्रेय का संस्थान विविध प्रकार का. लेश्याओं चार कहीं, दृष्टि तीन, तीन ज्ञान की भजना तीन अज्ञान oil की रियमा, तीन योग, उपयोग दो, चार कषाय. पांच इन्द्रिय, पांच समुद्धात, दोनों प्रकार की वेदना, 1 स्त्री वेद और पुरुष वेद होते. परंतु नपुंसक वेद नहीं, स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट सागरोपम।। पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 6. चोवीसदा शतक का धारहवा उद्देशा 4. Page #2652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी+ कसाया ॥ पंचइंदिया ॥ पंच समुग्धाया वेदणा दुविहावि ॥ इत्थी वेदगावि पुरिसवेदगावि - णो णपुंसगवेदगा ॥ द्विई जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवम॥ अज्झवसाणा असंखेज्जा, पसत्थावि अपसत्थावि ॥ अणुबंधो जहा टिई, भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसणं जहणेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्त मन्भहियाई उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवमं, बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं एवइयं॥ एवं णववि गमा णेयन्वा, णवरं मज्झिल्लएसु पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु असुरकुमाराणं ट्ठिई विसेसो जाणियब्यो, सेमा ओहिया चेव ॥ लडी कायसंवेहंच जाणेज्जा ॥ सव्वत्थ दो भवग्गहणाइं जाव णवगमए, कालादेसेणं जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं बावीसाए अध्यवसाय असंख्यात और वे प्रशस्त अप्रशस्त दोनों, अनुबंध स्थिति जैसे. जानना. भवादेश मे दो भव . कालादेशसे जघन्य दश हजार वर्ष और अंतर्मुहूर्न अधिक, उत्कृष्ट साधिक सागरोपम और बावीस हजार वर्ष अधिक इतना यावत् करे. ऐसे ही नव गमा कहना. परंतु बीच के और छेले तीन गमा में असुरकुमार की स्थिति जानना. शेष सब औधिक जैसे जानना. सर्वत्र दो भव यावत् नववा गमा में कालादेश से जघन्य साधिक एक सागरोपम और बावीस हजार वर्ष अधिक और उत्कृष्ट भी साधिक एक साग-1 प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ge. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 480 वासमहस्सेहिं अब्भहियं, उक्कोसेणवि साइरेगं सागरोवमं वावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं, एवइयं जाव करेजा ॥ ३३ ॥ णागकुमाराणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइए एसचेव वत्तव्वया जाव भवादेसोत्ति, णवरं ट्ठिई जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, २०२३ उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं, एवं अणुबंधोवि ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तममहियाई. उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणाई वावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियाई, एवं णववि गमगा असुरकुमार गमगा सरिसा, णवरं ट्ठिई कालादेसेणं च जाणेजा; एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ ३४ ॥ जइ वाणमंतर किं रोपम और वावीस हजार वर्ष. इतना यावत् करे ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! जो नागकुमार पृथ्वीकाया में 2 उत्पन्न होने योग्य होवे वे वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम- ! जैसे असुरकुमार की वक्तहव्यता कही वैसे ही श्वादेश पर्यंत जानना. परंतु स्थिति और अनुबंध जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट देश में ऊणे दो पल्योपम. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट देश ऊणे दो पल्योपम ७ और बावीस हजार वर्ष आधिक. ऐसे ही नवों गमा अमुरकुमार के गमा जैसे, जानना विशेष स्थिति और +कालादेश भिन्न जानना. जैसे नागकुमार का कहा वैसे ही स्तनित कुमार तक का जानना ॥ ३४ ॥ यदि ००/ 24 चौबीसवा शतक का बारहवा भावार्थ Page #2654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र २६२४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी माने श्रा अमोलक ऋषिजी के किं पिसाय वाणमंतर जाव गंधव्यवाणमंतर ? गोयमा ! पिसाय वाणमंतर जाय गंधव्य वाणमंतर ॥ ३५ ॥ वाणमंतर देवेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइए एएसिपि असुरकुमारगमग सरिसा गवगमगा भाणियव्वा, णवरं टिई कालादेसेणं च जाणेजा। ढिई जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं पलिओवमं सेसं तहेव ॥ ३६ ॥ जइ जोइसिय देवहितो उबवजंति किं चंदविमाणजोइसियदेवहितो उववजंति जाव ताराविमाण जोइसियदेवेहितो. उववज्जति ? . गोयमा! चंदविमाणजोइसियदेवहितावि उववजति जाव तारा जाव उश्वजंति ॥ ३७ ॥ जोइसिय देवेणं भंते ! जे भविए वाणव्यंतर में से उत्पन्न होवे तो क्या पिशाच में से उत्पन्न होवे यावत् गंधर्व में से उत्पन्न हो ? अहो गौतम ! पिशाच यावत् गंधर्व में में उत्पन्न होवे ॥३५॥ अहो भगवन् ! वाणव्यंतर पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे वगैरह उन के नव गमा असुरकुमार के नय गमा जैसे कहना. परंतु स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट एक पल्योपम. वैसे ही कालादेश का भी जानना ॥ ३६॥ यदि ज्योतिषी में से उत्पन्न होये तो क्या चंद्र यावत् तारा में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! चंद्र विमान ज्योतिषी यावत् ताग विमान में उत्पन्न होबे ॥ ३७ ॥ ज्योतिषी देव पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे वगैरह असुरकुमार * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पुढवीकाइ लडी जहा असुरकुमाराणं णवर एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता, तिष्णि जाणा तिष्णि अण्णाणा नियमं ॥ ट्ठई जहणेणं अट्ठभाग पलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओत्रमं वाससयसहस्स मब्भहियं; एवं अणुबंधोवि, कालादेसेणं जहणणं अट्ठभाग पलिओ मं अंतोमुहुत्तमब्भहियं उक्कोसेणं पलिओयमं वास्स्यसहस्सेणं, बाबीसाए वाससहस्से हिं अब्भहियं एवइयं ॥ एवं से सावि अट्टगमगा भाणियव्वा ॥ णवरं लिई कालादेसेणं च जाणंजा ॥ ३८ ॥ जइमाणिय देवेहिंतो उववजति किं कप्पोचवण्णग वैमाणियं कप्पातीत मणिहिंतो उववजंति ? गोयमा ! कप्पोचवण्णग वेमाणिय जाव उववज्जंति कप्पातीतगमाणिय जाव उववजंति ॥ जड़ कप्पोचवण्णग जाव उववजंति किं { जैसे कहना. परंतु एक तेजोलेश्या, तीन ज्ञान तीन अज्ञान की नियमा, स्थिति और अनुबंध जघन्य पल्योपम का आठवा भाग उत्कृष्ट एक पल्योपम और एक लाख वर्ष अधिक. कालादेश से जघन्य पल्यो पम का आठवा भाग और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट एक पल्योपम एक लाख वर्ष ज्योतिषी आश्री और बावीस हजार वर्ष अधिक. ऐसे ही आठ गया कहना. परंतु स्थिति और कालादेश भिन्न कहना ||३८|| (याद वैमानिक में से उत्पन्न होवे तो क्या कल्पोत्पन्न में से उत्पन्न होवे या कल्पातीत में से उत्पन्न होवे ? अहो 40- चौवीसवा शतक का बारहवा उद्देश। 48 २६२० Page #2656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२६ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिनी 8 सोहम्मकप्पोववण्णग वेमाणिए जाव अच्चुतकप्पाववण्णग वेमाणिया जाव उववज्जति ? गोयमा ! सोहम्मकप्पोववण्णग वेमाणिया, ईसाणकप्पोववण्णग वेमाणिया जाव उववति ॥ णो सणंकुमार जाव णो अच्चुयकापोचवण्णग वेमाणिया जाव उववज्जति, ॥ ३९ ॥ सोहम्मगदेवेणं भंते ! जे भविए पुढवीकाइएसु उववजइ सेणं भंते ! केवइया एवं जहा जोइसियस्स गमगो ॥ एवं दिई अणुबंधोय जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं दो सागरावमाई, कालादेसेणं जहण्णेणं पलिओवमं अंतोमुहुत्त मभहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं वावीस वाससहस्सेहिं अमहियाई, एवइयं कालं गौतम ! कल्पोत्पन्न में से उत्पन्न होघे परंतु कल्पातीत वैमानिक में से उत्पन्न होवे नहीं. यदि कल्पोत्पन्न में से यावत् उत्पन्न होवे तो क्या सौधर्प देवलोक यावत् अच्युत देवलोक में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! - सौधर्म व ईशान यों दो देवलोक में से उत्पन्न होवे परंतु सनत्कुमार यावत् अच्युत देवलोक में से उत्पन्न होवे नहीं ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! जो सौधर्म देवलोक में से पृथ्वी काया में उत्पन्न होने योग्य हैं वे किननी स्थिति से उत्पन्न होवे ? ऐसे ही जैसे ज्योतिषी के गमा कहे वैसे ही यहां जानना. स्थिति और अनुबंध जघन्य एक पल्योपम उत्कृष्ट दो सागरोपम. कालादेश से जघन्य पल्योएम व अंतर्मुहुर्त अधिक उत्कृष्ट * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाईजा* भावार्थ Page #2657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भाव थि * पंचांग विवाह परणति ( भगवती ) सूत्र ॥ एवं सेसावि अट्ठगमगा भाणियव्वा णवरं ट्ठिई कालादेसं चजाणेजा ॥ ४० ॥ ईसाणं देवेण भत! जे भविए एवं ईसाण देवेणवि णवगमगा भाणियव्वा, नवरं ईि अणुबंधों जहणेणं साइरेगं पलिओवमं उक्कोमेणं साइरेगाईं दो सागरोवमाई ॥ सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते ! अंतेत्ति जाव विहरइ ॥ चउवीसइम सयस्स दुबालसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ १२ ॥ X. X णमो अदेवया ॥ आउकाइएणं भंते! कओहिंतो उववज्जंति, एवं जहेव पुढवीकाइय उद्देसए जाव पुढवीकाइएणं भंते! जे भविए आउकाइएस उववज्जित्तए सेणं दो सागरोपम बावीस हजार वर्ष अधिक. ऐसे ही शेष आठ भांगे कहना. परंतु स्थिति और कालादेश भिन्न २ कहना ॥ ४० ॥ अहो भगवन् !. ईशान देव पृथ्वीकाया में वगैरह उस के नव गमा सौधर्म देव लोक जैसे कहना. परंतु स्थिति और अनुबंध जघन्य सातिरेक एक पल्योपम उत्कृष्ट साधिक दो मागरोपम {शेष वैसे ही कहना अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर यावत् विचरने लगे. यह चौबीस (वा शतक का बारहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १२ ॥ तेरह उद्देशे के प्रारंभ में श्रुत देवता को नमस्कार किया है. अहो भगवन् ! अपकाया में कहां से ५ 4. चौवीसंवा शतकका तेरहवा उद्देशा २६२७ Page #2658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ +3 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अकऋषिजी भते ! केक्इ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्सट्ठिईएस उववज्जेज्जा, एवं पुढंवीकाइय उद्देसगसरिसो भाणियव्वो णवरं ट्ठिई संवेहंच जागेज्जा; सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ चउवीसइम सयरस तेरसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ १३ ॥ • ० ते उकाइयाणं भंते! कओहिंतो उववज्जंति, णवरं पुढवीकाइय उद्देसग सरिसो उद्देसो भाणियन्त्र, वरं हि संवेहं च जाणेज्जा ॥ देवा णय उववजंति सेसं तंचेव सेवं भंते ! } उत्पन्न होवे ? ऐसे जैसे पृथ्वी काया का उद्देशा कहा वैसे कहना यावत् अहो भगवन् ! जो पृथ्वीकाया अपकाया में उत्पन्न होने याग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष ऐसे ही पृथ्वीकायाका उद्देशा विशेषता रहित जानना. परंतु स्थिति और संबंध ( अप्काया काही जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौवीसवा शतक का तेरहवा उद्देशा { संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १३ ॥ C ० अहो भगवन् ! तेङकाया में कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वीकाया का उद्देशा सदृश यह ( उद्देशा भी कहना. परंतु स्थिति और संबंध पृथ्वीकाया का जानना. इस में देव नहीं उत्पन्न होते हैं. ० * प्रकाशक-राजहांदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २६२८ Page #2659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAM पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 भंतेत्ति जाब विहरइ चउवसिइमसयरस चउद्दसमो उद्देसी ॥ २४ ॥ १४ ॥ वाउकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति, एवं जहेव तेऊकाइय उद्देसो तहेव णवरं ट्ठिई संवेहंच जागेज्जा सेबं भंते ! २ ति ॥ चउवीस • पण्णरसमो॥२४॥१५॥ वणस्सइकाइयाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति, एवं पुढवीकाइय उद्देसो सरिसो णवरं जाहे वणस्सइकाइया वणस्सइकाइएसु उश्वजति, ताहे पढमविइय चउत्थ पंचमेसु गमेसु परिमाण अणुसमयं अविरहियं अगंता उववज्जति, भवाइसेणं जहण्णेणं दो अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कह कर विचरने लगे. यह चौवीसवा शतक का चौदहवाई उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १४ ॥ है अहो भगवन् ! वायुकाया कहां से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे तेउकाया. का उद्देशा कहा वैसे ही कहना. परंतु स्थिति और संबंध वायुकाया का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं, यों कहकर यावत् विचरने लगे. यह चौवीसवा शतक का पनरहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १५॥ . 13 } अहो भगवन् ! वनस्पतिकायिक कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम! जैसे पृथ्वीकाया का उद्देशा कहा वैसे ही कहना. जय बनस्पतिकाया वनस्पतिकाया में उत्पन्न होवे तब पहिला, दूसरा, चौथा और । 4883 चौवीसवा शतक के १५-१६ उद्देशे 488 भावार्थ | - 1 Page #2660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र | ०७ भावार्थ १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं अनंतं कालं एवइयं जात्र करेजा ॥ सेसा पंचगमा अट्ठ भवग्गहणिया, तव वरं ट्टिई संवेहं च जाणेज्जा ॥ सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ चउवीसइम सयस्स सोलसमो ॥ २४ ॥ १६॥ X X 'वेइंदियाणं भंते! कओहिंतो उववजंति जाव पुढवीकाइएणं भंते! जे भविए वेइंदि - एस उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइ, सव्वेव पुढवीकाइयस्स लडी जाव कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं संखेज्जं कालं एवइयं जाव करेजा ॥ एवं ते सुचेत्र पांचवा गमा में प्रत्येक समय में विरह रहित अनंत उत्पन्न होते हैं. अनंत भव. कालादेश से अघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंत काल भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट इतना यावत् करे. शेष पांच गया आठ भववाले हैं परंतु स्थिति और संबंध वनस्पति का जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौवीसवा शतक का सोलहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! बेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न योग्य होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? होते हैं ? यावत् पृथ्वी काया बेइन्द्रिय में उत्पन्न होने सब पृथ्वीकाया की लब्धि जैसे कहना. यावत् कालादेश *काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २६३० Page #2661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र उस गमएस संबेहो सेसेसु पंचसु गमएस तहेव अट्ठभवा, एवं जाव चउरिदिएणं समं चउसु संखेज्जभवा, पंचसु अट्ठभवा, पंचिंदिय तिरिक्खजोगिए मणुस्सेसु समं तहेंब अभवा, ट्टिई संवेहं च जाणेज्जा ॥ सेवं भंते! भंतेति ॥ चउवीसइम सयस्स सत्तरसमो ॥ २४ ॥ १७ ॥ तेइंदियाणं भंते! कओहिंतो उववज्जंति, एवं तेइंदियाणं जहेव वेइंदियाणं उद्देसो वरं ट्ठिई संबेहंच जाणेज्जा, तेउक्काइएसु उववज्जइ, समं तइओगमो उक्कोसेणं ० से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट संख्यात काल इतना यावत् करे. उन के चार गमा में संबंध वैसे ही कहना शेष पांच गमा में आठ भव ऐसे ही यावत् चतुरेन्द्रिय की साथ कहना. चार में संख्यात भव और पांच गमा में आठ भव. पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यकी साथ भी वैसे ही आठ भव. स्थिति और संबंध अपना २ जानना अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौवीसवा शतक का सत्तर हवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १७ ॥ O अहो भगवन् ! - तेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न होवे ? जैसे बेइन्द्रिय का उद्देशा कहा वैसे ही तेइन्द्रिय का उदेश विशेषता रहित कहना. लेखकाया में उत्पन्न होनेवाले का तीसरा गमा में उत्कृष्ट दो सो आठ रात्रि - १०० चौबीसवा शतक का अठारहवा उद्देश 4 २६३१ Page #2662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी अत्तराई वेराइदिय सयाई, वेईदिएहिं सम तइयगंमे, उक्कोसेणं अडपालीसं संवछराई छण उराईदिय सत्तमम्भहियाई तेईदिएहिं समं तइय गमे उक्कोसेणं वाणुचराई तिण्णि इंदियाई, एवं सव्वत्थ जाणेज्जा जाव सण्णिमणुस्संति ॥ सेवं भंते! भंतेति ॥ चवीसइमसयस्स अट्ठारसमो ॥ २४ ॥ १८ ॥ ० उरिंदियाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति जहा तेइंदियाणं उद्देसओ तहा चाउरिंदि - याणवि वरं ठिति संबेहं च जाणेजा सेवं भंते ! भंतेति ॥ चउसइम सयस्स गुणीसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ १९ ॥ • • * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * (दिन, बेइन्द्रिय की साथ तीसरा गमा में उत्कृष्ट अडतालीस वर्ष बेइन्द्रिय आश्री और १९६ रात्रि दिन { अधिक. तेइन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो तीसरा गया में उत्कृष्ट ३९२ रात्रि दिन ऐसे ही सर्वत्र जानना. यावत् संज्ञी मनुष्य. अहो भगवन् ! आपके बचन सत्य हैं. यह चौवीसा शतक का अठारहवा उद्देशा) संपूर्ण हुवा || २४ ॥ १८ ॥ 0 0 उद्देशा कहा वैसे अहो भगवन् ! चतुरेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे तेइन्द्रिय का } ही चतुरेन्द्रिय का उद्देशा कहना. परंतु स्थिति और संबंध चतुरेन्द्रिय अनुसार कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौबीसवा शतक का उन्नीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १९ ॥ २६३२ Page #2663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कओहितो उपवजंति ? किं णेरइय-तिरिक्खमणुस्स-देवहितो-उववज्जति ? गोयमा! णेरइएहितोवि उववजंति, तिरिक्ख-मणुस्सदेवेहितोवि उववज्जति ॥ ५ ॥ जइ णेरइएहिंतो उववज्जति किं रयणप्पभा पुढवि णेरइएहिंतो उववजंति जाब अहे सत्तमाए पुढवीए णेरइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! रयणप्पभापुढवि णेरइएहितो उववजति जाव अहे सत्तमाए पुढवि णेरइएहितोवि उववज्जति, ॥ २ ॥ रयणप्पभा पुढवि जेरइएणं भंते ! जे भविए तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवतिकाल दिईएसु उववजेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं है भावार्थ अहो भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच कहां से उत्पन्न होवे ? क्या नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देव इन चारों में से उत्पन्न होवे ॥१॥ जब नारकी में से उत्पन्न होवे तो क्या रलप्रभा में से उत्पन्न होवे यावत् नीचे की सातवी तमतम प्रभा में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी नारकी में से उत्पन्न होवे यावत् नीचे की सातवी blo तमतमप्रभा में से उत्पन्न होवे ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा नारकी में से जो कोई तियेच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होवे वे कितनी स्थिति में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4%82 *32 चोवीसवा शतकका बीसवा उद्देशा- - , Page #2664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी संतोमुहुत्त द्वितीएसु उक्कोसणं पुवकोडिआउएसु उववजेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एग समएणं केवइया उववजति एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया णवरं संघयणे पोग्गला अणिट्ठा अकंता जाव परिणमंति ॥ओगाहणा दुविहा प०तं. भवधारणिज्जाय उत्तरवेउव्वियाय || तत्थणं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं उक्कोसेणं सत्तधणई तिष्णि रयणीओ छच्चंगुलाई ॥ तत्थणं जा सा उत्तर वेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजइ भागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अढाइजाओ रयणीओ ॥तेसिणं भंते ! जीवा सरीरगा किं संठिया पं० ? गोयमा ! दुविहा ५० उत्कृष्ट पूर्व क्रोड के आयुष्य से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? अहो गौतमः जैसे असुरकुमारकी वक्तव्यता कही वैसे कहना. परंतु इस में अनिष्ट, अक्रांत पुद्गल परिणमते हैं. अवगाहना के दो भेद भवधारणीय और 'उत्तरवैक्रेय. उस में भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग [ उत्पत्ति समय ] उत्कृष्ट सात धनुष्य, तीन हाथ और छ अंगुल की और उत्तर वैक्रेय में जघन्य अंगुल का संख्यातवा भाग उत्कृष्ट पन्नरह धनुष्य और अढाइ हाथ, अहो भगवन् ! उन जीवों को कौनसा संस्थान कहा ? अहो गौतम ! उन को दो प्रकार का संस्थान कहा. . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथे | Page #2665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4888 पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र तंजहा- भवधारणिनाय उत्तरवेउब्वियाय ॥ तत्थणं जे ते भवधारणिजा ते हुंडसंट्टिया । तत्थणं जे ते उत्तरवेउब्विया तेवि हुंडसट्टिया पं० ॥ एगा काउलेस्सा पं० ॥ चत्तारि समुग्धाया || णो इत्थीवेदगा णो पुरिसवेदगा, णपुंसगवेदगा || ट्ठिई जहण्णेणं दसवास सहरसाई उक्कणं सागरोवमं ॥ एवं अणुबंधोवि, सेसं तहेव भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसत्रास सहस्सा इं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई. उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहिं पुत्र कोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं सोवेव जहण्णकालट्ठितीएस उववण्णो जहण्णेणं अंतोमुहुत्तट्टिती सु भवधारणीय और उत्तर वैक्रेय. उस में भवधारणीय संस्थान हुंडक है और उत्तर वैक्रेय संस्थान भी हुंडक { है. एक कापोत लेश्या, चार समुद्धात, स्त्री वेद व पुरुष वेद वहां नहीं है परंतु नपुंसक वेद है स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट एक सागरोपम ऐसे ही अनुबंध. शेष वैसे ही कहना, भबादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश से जघन्य दश हजार वर्ष अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम चार पूर्व कोड अधिक. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की स्थिति से उत्पन्न होवे. यावत् कालादेश तक वैसे ही कहना परंतु उत्कृष्ट चार सागरोपम और चार अंतर्मुहूर्त अधिक जानना. 4- चौवीसवा शतक का बीम़वा उद्देशा २६३५ Page #2666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी g+ उववज्जेजा, उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तट्रिती अवसेसं तहेव णवरं, कालादेसेणं जहणणं तहेव उक्कोसेणं अत्तारि सागरोवमाई चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं जाव करेजा ॥ एवं सेसावि सत्तगमगा भाणियब्बा, जहेव णेरइय उद्देसए, सणि पंचिदियएणं समं णेरइयाणं मज्झिमएसु तिण्णि गमएसु पच्छिल्लएसु तिण्णि गमएसु ट्ठिति णाणत्तं भवति, सेसं तंचेव, सव्वत्थ ट्ठिति संवेहं च जाणेजा ॥ ३ ॥ सक्करप्पभापुढवीणेरइएणं भंते ! जे भविए, एवं जहा रयणप्पभाए णवगमका तहेव सक्करप्पभाएवि, णवरं सरीरोगाहणा जहा ओगाहणा संढाणे, तिण्णि णाणा, तिण्णि और जैसे नारकी के उद्देशेमें कहा वैसे ही शेष सात गमा कहना. पंचेन्द्रियका नारकी की साथ वीच के तीन और छेल्ले तीन गमा कहे वैसे कहना. परंतु स्थिति भिन्न २ है. शेष सब वैने ही कहना. सर्वत्र स्थिति और संबंध जानना ॥३॥ अहो भगवन् ! शर्करपारा पृथ्वीका जो नारकी तिर्यंच पंचेंद्रिय में उत्पन्न होने योग्य होवे वगैरह जैसे रत्नप्रभा का कहा वैसे नव गना शर्कर प्रभा के जानना. विशेष में शरीर की अवगाहना व संस्थान जैसे पन्नवणाजी के इक्कीसवे पद में कहे वैसे ही जानना, तीन ज्ञान तीन अज्ञान की नियमा, स्थिति और अनुबंध पहिले कहा वैसे ही जानना ऐसे ही नव गमा उपयोग रखकर . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 438+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 अण्णाणा नियम, द्विति अणुबंधीय पुण्त्रभणिया एवं णवगमगा उवउंजिऊण भाणियन्त्रा एवं जाव छट्टपुढवी नवरं ओगाहणा, लेस्सा, द्विती, अणुबंधो, संवेहो, जाणियव्वा ॥ अहे सत्तमा पुढवी रइएणं भंते! जे भविए एवंचेत्र णवगमगा णवरं ओगाहणा लेस्सा द्विती अनुबंधा भाणियव्वा || संवेहो भवादेसेणं जहण्णेणं दो भदग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भत्रग्गहणाई; कालादेसेणं जहणेणं बाबीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्त मब्भहियाइं, उक्कोसेणं छाबट्ठि सागरोवमाई तिहिं पुत्रकोडीहिं अव्भहियाई, एवइयं अदिल .सु छ गमएसु जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई || छठी तमा पृथ्वी पर्यंत कहना. परंतु अवगाहना, लेश्या, स्थिति अनुबंध व संबंध उसकेही अनुसार जानना. नीचे की सातवी पृथ्वी के नारकी के नव गया बैसे ही कहना. परंतु अवगाहना, लेश्या, स्थिति और { अनुबंध इस के ही कहना, संबंध भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट छ भव. कालादेश से जघन्य बावीस सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ मागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक * पहिले के छ गमा में जघन्य दो * यहां पर भव तथा काल के बहुत्व की विवक्षा नहीं की है. इस से जघन्य स्थितिवाले नारकी के तीन भव ग्रहण करने से छासठ सागरोषम हो और तियंच के तीन भव होने से तीन पूर्व क्रोड अधिक होवे, 40- चौबीसवा शतक का बीसवा उद्देशा 480* २६३७ Page #2668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहण्णेणे दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणे चत्तारि भवग्गहणाई लही,णवसुवि गमएसु जहा पढमगमएसु,णवरं ट्ठिईविससो, कालादेसेणं विइयगमए जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्त मन्भहियाइं. उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाइं तिहिं. अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, एवइयं कालं ॥ तइयगमए जहण्णेणं वावीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं । ३ । चउत्थगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छाबढेि सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाइं । ४ । पंचमगमए जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्त मन्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोनमाइं भव उत्कृष्ट छ भव. और पीछे के तीनों गमा में जघन्य दो भव उत्कृष्ट चार भव. नवों गमा में लब्धि पहिले गमा जैसे कहना. परंतु स्थिति में विशेषता जानना. कालादेशसे दूसरा गमा में जघन्य बावीस सागरोपमा अंतर्मुहूर्न अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन अंतर्मुहूर्त अधिक. तीसरा गमा में जघन्य बावीस सागरोपमपूर्व क्रोड अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक. चौथा गमा में जघन्य बावीस सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक पांचवा गमा में जघन्य बाबीस सागरो * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावाथ Page #2669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 390 २६३१ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवति) सूत्र तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं: अब्भहियाइं । ५ । छट्ठ गमए जहण्णेणं बावीसं सागरोधमाई पुवकोडीहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावहिँ सागरोवमाइं तिहिं पुन्चकोडीहिं अब्भहियाइं । ६ । सत्तमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, अंतोमुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटैि सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाई । ७ । अट्रभगमए जहणणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावष्टुिं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई । ८ । णवमगमए जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, पुवकोडीए अन्भहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं एवइयं जाव करेजा ॥ ४ ॥ जइ तिरिक्खीणएहितो उववजंति किं एगिदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति.. पम और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन अंतर्मुहूर्त अधिक, छठा गमा में जघन्य बावीस सागरोपम पूर्व क्रोड अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक. सातवा गमा में जघन्य तेतीस सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम दो अंतर्मुहूर्त अधिक. आठवागमा में जघन्य तेत्तीस , सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट छासठसागरोपम और दो अंतर्मुहूर्त अधिक. और नववा गमा में जघन्य तेत्तीस * सागरोपम और पूर्व क्रोड अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम.दो अंतर्मुहूर्त अधिक इतना यावत् गति आगति करे॥४॥ यदि तिर्यंच में से उत्पन्न होवे तो क्या एकन्द्रिय में से उत्पन्न होवे ऐसे ही पृथ्वीकाया के उपपात जैसे चौबीसवा शतक की बीसवा उद्देशा भावार्थ * Page #2670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं उबवतो. जहा पुढविकाइय उद्देसए जात्र पुढवीकाइएणं भंते! जे भत्रिए पंचिदिय तिरिक्खजोणिएस उववजित्तए, सेणं भंते! केवइयकाल ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुट्ठिएस उक्कोसेणं पुञ्चकोडी आउएसु उववज्जति ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं परिमाणादीया अणुबंध पज्जवसाणा जच्चेत्र अप्पो सट्टा वक्तव्या सचैत्र पंचिदिय तिरिक्खजोणिएसुचि उत्रवजमाणस्सवि भाणियन्त्रा, नवरं णवसुवि गमएसु परिमाणो जहणेणं एक्कांवा दोवा तिष्णिवा, उक्कोसेणं संखजावा असंखेज्जावा उबवज्जंति भवादेसेणंवि णत्रसु गमएसु जहणणेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठभवग्गहणाई, सेसं तंत्र ॥ कालादेसेणं उभयतो ट्ठिई पकरेजा ॥ ५ ॥ जइ आउकाइउपपात कहना. यावत् अहो भगान् ! पृथ्वी काया पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने योग्य होवे वे कितनी { स्थिति से उत्पन्न होत्रे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. अहो भगवन् ! वे जीवों | परिमाणादिक अनुबंध तक स्त्रस्थान में जो वक्तव्यता कही वही वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होनेवाले को कहना. परंतु नववा गमा में परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात असंख्यात उत्पन्न होवे. भवादेश से नवों गया में जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. शेष वैसे ही कालादेश से दोनों की स्थिति मीलाकर कहना ॥ ५ ॥ यदि अपकाया में से उत्पन्न होवे तो वगैरह चतुरेन्द्रिय पर्यंत उपपात प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २६४० Page #2671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र १११ एणवि एवं जाव चरिंदिया उववातेयवो, णवर सव्वत्थ अप्पणो ली भाणियब्वा, णवसुवि गमएसु भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवम्गहणाइं, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई कालादेसेणं उभओट्ठितिं करेजा,सव्वेसि सम्वगमएसु जहेव पुढवीकाइएसु उववज्जमाणाणं रुडी तहेव सव्वत्थ ट्रिई संवेहंच जाणेजा ॥ ६ ॥ जइ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं सण्णिपंचिंदिय तिरिक्खोणिएहितो उववजंति असण्णिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति ? गोयमा! सण्णिपाँचदिय भेदे जहेवं पढवीकाइ· एसु उववज्जमाणस्स जाव असण्णिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइकाल ? गोयमा ! जहण्ोणं कहना. विशेष में सर्वत्र अपनी लब्धि कहना. नवों गमा में भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. कालादेश से दोनों की स्थिति का मीलान करना. सब के सब गमा में जैसे पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने TI की लन्धि कही वैसे ही सर्वत्र कहना. परंतु स्थिति और संबंध भिन्न कहना ॥ १६ ॥ अहो. भगवन ! यदि तिर्यंच पचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे तो क्या संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होबे अथवा असंही तिर्यंच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संज्ञी 'पंचेन्द्रिय वगैरह भेद जैसे पृथ्वीकाया चौवीसवा शतक का- बीसवा उद्देशा-- in - Page #2672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११२ 4.१ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागट्टिईएसु उववर्जति ॥ तेथे भंते ! अवसेसं जहेव पुढवीकाइएसु उववजमाणस्स असण्णिस्स तहेव जिरबसेसे जाव भवादेसोत्ति कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पुन्चकोडि पुहुत्त मन्भहियं एवइयं । बिइयगमए एसचेव लडी गवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं चचारि पुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ एवइयं २ सोचेव उक्कोसकाला?ईएसु उववजइ जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागट्टिईएसु उक्कोसेणवि पलिओवमस्स उत्पन्न होनेवाले का कहा वैसे ही यावत् असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! अवन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा : भाग की स्थिति से उत्पन्न होवे. शेष सब पृथ्वीकाया में उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी का जैसे कहा वैसे ही भवादेश तक जानना. कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग और 2. प्रत्येक क्रोड पूर्व अधिक, दूसरा गमा में यही लब्धि कहना. परंतु कालादेश से जपन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड चार अंतर्मुहूर्त अधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा अपन्य उत्तर पल्योपम: प्रकाशक-राजापाहर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४३ असंखेजइभाग द्विति उववजंति ॥ तेणं भंते! जीवा एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स असण्णिस्स तहेव गिरवसेप्तं जाव सेसं कालादेसोत्ति णवरं परिमाणं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखेज्जावा उववज्जति, सेसं तंचेव । सोचेव अप्पणा जहण्णकाल दिईओ जाओ जहण्णेणं अंतोमुहुत्त टिईएसु उक्कोसेणं पुव. कोडीआउएसु उववजंति ॥ तेणं भंते ! अवसेसं जहा एयस्स पुढवीकाइएसु उववज्ज माणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएमु जाव अणुबंधत्ति ॥ भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेण अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता भावार्थ ME के असंख्यातवे भाग से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! वे जीवों वगैरह जैसे रत्नप्रभा में उत्पन्न होनेवाले असंझी का कहा वैसे ही कालादेश पर्यंत कहना. परंतु परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात 1. उत्सव मेते हैं, शेष वैसे ही. वही जघन्य स्थितिवाला उत्पन्न हुवा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड, की स्थिति से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे.? बगैरह पृथ्वीकाया में इसका उत्पन्न होने के जैसे बीच के तीन गमा कहे वैसे ही अनुबंध पर्यंत कहना. भवादेश से जघन्य दो [ भा तह आठ भव. कालादेश से जघन्य दो अंतर्मु उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड और चार अंतर्मुहूर्त विवाह पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 48 Annnwwwnnnnnnnnnnnnnnnnnam 64 चौबीसवा शतक का बीसवा उद्देशा marw Page #2674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ ॥ सोचेव जहण्ण काल ट्ठिईएसु उववण्णो एसंचव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतीमुहुत्ता उक्कोसणं अट्ठ अंतोमुहुत्ता एवइय॥सोचेव उक्कोसकाल ढिईएसु उववण्णो जहणणं पव्व. कोडि आउएसु उक्कोसेणवि पुवकोडि आउएसु उववज्जइ,एसचेववत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जाणेज्जा ॥ सोचव अप्पणा उक्कोसकालढिईओ जाओ सोचेवं पढमगमग वत्तवया णवरं ढिई जहण्णेणं पुवकोडी उक्कोसेणवि पुव्वकोडी सेसं तंचेव ॥ कालादेसेणं जहणेणं पुब्बकोडी अंतोमुहुत्त मन्भहिया, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं पुन्चकोडिपुहुत्त मन्भहियं एवइयं ॥ सोचेव जहण्ण कालाहितीएसु उववण्णो आधिक. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वैसी ही वक्तव्यता कहना. परंतु कालादेश से जघन्य दो अंतर्महतं उत्कृष्ट आठ अंतर्मुहर्न. वही उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड के आयुष्यसे । उत्पन्न होवे, वगैरह यही वक्तव्यता कहना. परंतु कालादेश उम आश्री जानना. वही उत्कृष्ट स्थितिवाला प्रथम गमा की वक्तव्यता कहना, परंतु स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड कहना. कालादेश से जघन्य पर्व क्रोड व अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग व प्रत्येक. पूर्व क्रोड अधिक. वहीं .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 4887 .एसचेव वत्तव्यया जहा सत्तमगमए. णवरं कालादेसेणं जहणेणं पुब्बकोडी अंतो मुहुत्तमभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ एवइयं ॥ सोचेव उक्कोसकालट्टितीएसु उबवण्णो जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणवि पलिओवमस्स असंखेजइ भागं, एवं जहा रयणप्पभाए जहण्णेणं उववज्ज. माणस्स असण्णिस्स णवमंगमं तहेव णिरवसे संजाव कालादेसोत्ति, णवरं परिमाणं जहा एतस्सेव ततियगमे, सेसंतंच ॥६॥जइसप्णिपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिरहित उ वनंति किं संखेजवासा असंखेजवासाउय?गोयमा! सखेज्जवासाणोअसंखेज्जवासा॥जइसंखेजवासाउय जघन्य स्थिति से उत्पन्न हुवा सातवा गमा जैसी वक्तव्यता कहना परंतु कालादेश से जघन्य पूर्व क्रोड अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड चार अंतर्मुहूर्त आधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य पल्योपम का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट भी पल्योपम का असंख्यातवा भाग. ऐसे ही रत्नप्रभा में असंझी का जघन्य से उत्पन्न होने का नववा गमा कहा वैसे ही यहां कालादेश पर्यंत कहना. परिमाण 3. इस के ही तीसरे गमा जैसे कहना॥६॥याद संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रियमें से उत्पन्न होवे तो क्या संख्यातवर्षवाले या असंख्यात वर्षवाले उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! संख्यात वर्षवाले उत्पन्न होवे परंतु असंख्यात वर्षवाले 33800 चौवीसवा शतक का बीसवा उद्देशा भावा | Page #2676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रकाशक-राजाबहादुर लाला जाव किं पज्जत्तसंखेज अपज्जत्तसंखेज, दोसुवि ॥ ७ ॥ संखेज्जवासाउय सण्णि पंचिंदिय तिरिक्खजोणिए जे भविए पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिपलिओवमद्वितीएसु उववजेज्जा ॥ तेणं भंते ! अवससं जहा एयरस चेव साण्णस्स रयणप्पभाए उववज्ज• . माणस्स पढमगमए, णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं जोअणसहस्सं सेसं तंचेव जाव भवादेसो कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उत्पन्न होवे नहीं. जब संख्यात वर्षवाले उत्पन्न होवे तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्षवाले या अपर्याप्त संख्यात भावार्थ वर्षवाले उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! दोनों उत्पन्न होवे ॥ ७ ॥ जो संख्यात वर्षवाले मंत्री पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने योग्य होवे वे कितनी स्थिति से उत्पन होवे ? अहो गौतम ! मघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न होवे, अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न हो ? उस का सब संज्ञी पंचेन्द्रिय रत्नप्रभा में उत्पन्न होवे उस का जैसे पहिला गमा कहा था वैसे कहना. परंतु अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन. शेष भवादेश पर्यंत 12वैसे ही कहना. कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम और प्रत्येक पूर्व 13 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी * खदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पस्णचि ( भगवती) सूत्र 428 उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवमाइं पुन्चकोडी पुहुन्त मध्भहियाइं एवइयं कालं ॥ ८ ॥ सोचेव जहण्णकाल द्वितीएसु उववण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहणणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ ॥ सो चेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमट्टितीएस उक्कोसेणवि तिपलिओवमट्टितीएसु उववति ॥ एसचेव वत्तव्वया णवरं परिमाणं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेजावा उववज्जति ॥ ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भांग उक्कोसेणं जोअणसहस्सं सेसं तंचेव जाव क्रोड अधिक इतना काल यावत् करे ॥ ८॥ वही जघन्य स्थिति से उत्पन्न हुवा ऐसी वक्तव्यता कहना; परंतु कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट चार पूक्रिोड चार अंतर्मुहुर्त अधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति से उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट तोन पल्योपम की स्थिति से होवे. और मब वही वक्तव्यता कहना परंतु परिमाण में जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होवे, अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन. शेष अनुबंध पर्यंत वैसे ही कहना. भवादेश से दो भव. कालादेश से अपन्य तीन पस्योपम और अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट तीन पल्योपम और पूर्व चौवीसवा शतकका बीसवा उद्देशा - भावार्थ mmmmmmmmmmmmm । Page #2678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४८ 43 अनुवादक-गालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अणुबंधोत्ति ॥ भवादेसेणं दो भवग्गहणाई,कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई अंतोमुत्तमब्भहियाई उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुवकोडीऐ अब्भहियाइं॥सोचेव अप्पणा जहण्ण कालट्ठिईओ जाओ जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुन्चकोडीआउएसु उववज्जति, लद्दी से जहा एतस्सचेव सण्णिपंचिंदियरस पुढवीकाइएसु उववजमा णस्स मझिल्लएसु तिसु गमएसु सव्वेव इहवि मज्झिमेसु तिसु गमएमु कायव्वा संवेहो __जहेव एत्थचेव असण्णि, मज्झिमेसु तिसु गमएमु ॥ सोचे अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीओ जाओ जहा पढमगमए णवरं द्विती अणुबंधो जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसेणवि पुवकोडी, कालादेसेणं जहण्णेणं पुब्बकोडी अंतोमुहुत्त मन्भहियाई उक्कोसेणं तिणि क्रोड आधिक. वही जघन्य स्थितिबाला जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड के आयुष्य में उत्पन्न होवे. जैसे पृथ्वीकाया में संज्ञी पंचेन्द्रिय के उत्पन्न होने के बीच के तीन गमा कहे वे सब यहां कहना. संबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय का यहां पर उत्पन्न होने के तीन गमा जैसे कहना. अब वही उत्कृष्ट स्थितिबाला वगैरह पहिला गमा जैसे परंतु स्थिति और अनुबंध जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड का कहना. कालादेश से अघन्य पूर्व क्रोड व अंर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट तीन पस्योपम और प्रत्येक कोड पूर्व अधिक. वही जघन्य * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hg २०४९ पंचमान विवाह पण्णन्ति (, भगवती ) सूत्र पलिओवमाई, पुवकोडीपुहुत्तमभहियाई, सोचेव जहण्णकालट्टिईएसु उवषण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्त मन्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ ॥ सोचव उक्कोसकालट्ठिईएस उववण्णो जहण्णेणं तिपलिओवमट्टिईएसु उक्कोमेणवि तिपलिओवमट्टिईएस अवसेसं तंचेव, णवरं परिमाणं ओगाहणाय जहा एतस्सेव तइयगमए भवादसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णिपलिओवमाइं पुचकोडीए __ अब्भहियाई, उक्कोसणवि तिण्णिपलिओवमाइं पुब्बकोडीए अब्भहियाई, एवइयं जाव करेज्जा ॥ ९॥ जइ मंणुस्सेहिंतो उववज्जति किं सण्णिमणुस्सेहिंतो असण्णिमणुस्से ? स्थिति में उत्पन्न हुया वही वक्तव्यता कहना. कालादेश से जघन्य पूर्व क्रोड अंतर्मुत अधिक. उत्कृष्ट चार पूर्व क्रोड चार अंतर्मुहून अधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा. जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम में 3 उत्पन्न होवे. परिमाण व अवगाहना इस के ही तीसरा गमा जैसे कहना. भवादेश से दो भव कालादेश से जघन्य तीन पल्योपम पूर्व क्रोड अधिक और उत्कृष्ट भी तीन पल्योपम पूर्व क्रोड. अधिक इतना यावत् । करे ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ! यदि मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो क्या संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होवे । १४+ चौवीसबा शतक का बीसवा भावार्थ Page #2680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गोयमा ! सण्णिमणुस्सेर्हितो असण्णिमणुस्सेहिंतोवि ॥ १० ॥ असण्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख जोणिएस उववजति सेण भंत ! केत्रइयकालाट्ठईएम उवत्रजंति? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्र कोडीआरएस उववजंति, लडी सेतिविगमसु जव पुढवीकाइएस उववजमाणस्स संवेहो जहा एत्थचेव असण्णिस्स पंचिदियरस मज्झिमे तिसुगमएस तहेव णिरवसेसं भाणियन्त्रं ॥ ११ ॥ जइ सणमस्स किं संखेजवासाउय सण्णिमणुस्स असंखेज्जवासाउय सण्णिमणुस्स ? गांयमा ! असंज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होवे ! अहो गौतम ! संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होने और असंज्ञी मनुष्य में { से भी उत्पन्न होवे || १० || अहो भगवन् ! जो असंज्ञी मनुष्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होवे वे वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अही गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. लब्धि बगैरह तीनों गमा में जैसे पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही कहना. संबंध यहां पर असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने का कहा बैसे कहना. मध्य के तीनों गमा में वैसे ही सब निरवशेष कहना. इस में उत्कृष्ट स्थिति नहीं होने से छल्ले तीन भांगे नहीं पाते हैं ||११|| जब संज्ञी मनुष्य में से उत्पन्न होने क्या संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले या असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २६५० Page #2681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र संखेज्जवासाय णो असंखेजवासाउय ॥ जइ संखेजवासाउय किं पज्जन्त संखेज्जवासाउय अपज्जत्त संखेजवासाउय ? गोयमा ! पज्जत्त संखेज्जवासा अपज्जत्तसंखेज्जवासा ॥ १२ ॥ सणिमणुस्सेणं भंते ! जे भत्रिए पंचिदिय तिरिक्खजोगिएसु जाव उववज्जित्तए सेर्ण भंते ! केत्रइ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुतं उकासेणं तिष्णिपलिओचमट्टिईएस उववज्जंति॥ तेणं भंते ! लडी जहा एतस्सेव साण्णमणुस्सस्स पुढवीकाइएस उववज्ज-मानस पढमगम जाव भवादेसोत्ति, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं तिष्णिपलिओ माई पुव्यकोडिपुहुत्त मन्भहियाई, सोचेच जण्णकालट्ठिईएस उववण्णो संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते हैं परंतु असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले नहीं उत्पन्न होते हैं. यदि संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त : अहो गौतम ! पर्याप्त व अपर्याप्त संख्यात वर्षवाले उत्पन्न होते हैं. ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जो संतीमनुष्य पंचेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम. अहो भगवन् ! वे कितने उत्पन्न होवे ! गौतम ! पृथ्वीकामा में होनेवाले संज्ञी मनुष्य के भवादेश पर्यंत प्रथम गमा जैसे कहना. काला देश से जघन्य ++* चौवीसवा शतक का बीसना उद्देशा 4986 २६५९ Page #2682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4. अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सव्वे तवया वरं कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं वस्तारि पुव्यकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अन्भहियाओ ॥ सोचेत्र उक्कोसकालट्ठिईएसु उबवण्णो जहण्णेणं तिष्णिपलिओवमट्ठिईएस उक्कोसेणवि तिष्णिपलिओचमट्ठिईएसु सव्वेव वत्तव्वया, घरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं, उक्कोसेणं पंचधणुहसयाई, ट्ठिई जहणणं मासपुहुत्तं उक्कोसेणं पुब्बकोडी एवं अणुबंधोवि, भवादेसेणं दो भवग्गहणाईं, कालादेसेणं जहणणं तिण्णिपलिओ माई मासपुहुत्त मन्महियाई, उक्कोसेणं तिष्णिपलिओ माई पुव्त्रकोडीए अन्भहियाई एवइयं जाव करेजा || सोचेव अपणा जहणकाल ईओ जाओ जहा सणिपंचिदिय तिरिक्खजोणिएसु उववज्ज अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम और प्रत्येक पूर्वक्रोड अधिक. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुआ वैसीडी वक्तव्यता कहना परंतु कालादेश से जघन्य दो अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट चार. पूर्वक्रोह चार अंतर्मु{हूर्त अधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न होवे ? { शेष सब वक्तव्यता वैसे ही कहना. अवगाहना जघन्य प्रत्येक अंगुल उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य स्थिति जघन्य प्रत्येक मास उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. ऐसे ही अनुबंध. भवादेश से दो भव कालादेश से जघन्य तीन * प्रकाशक- राजहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी- * २०५२ Page #2683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणस्स मज्झिमेमु तिसु गमएसु वत्तत्रया भणिया सव्वेय एयस्सवि मझिमएमु तिमु गमएमु णिस्वसेसा भाणियव्या, णसं परिमाणं उक्कोसेणं संखेजावा उववजति सेसं तंचेव ।। सोचे अप्पणा उक्कोसकालदिईओ जाओ सव्वेव पढमगमग वत्तव्वया २६५३ णवरं ओगाहणा जहण्णेणं पंचधणुहसयाई, उक्कोसेणवि पंचधणुह सयाई, ट्ठिई अणुबंधो जहण्णेणं पुवकोडी उकासेणवि पुवकोडी, सेसं तंचेव जाव भवादेसोति. कालादेसेणं जहण्णेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं तिणि पलिओबमाई पुवकोडि पुहुत्तमब्भहियाई, एवइयं जाव करेजा ॥ सोचव जहण्ण कालट्ठिईए उववण्णो एसचेव वत्तव्वया णवरं कालादेसेणं जहण्णेणं पुनकोडी अंतोमुहुत्त पल्योपम प्रत्येक माम अधिक उत्कृष्ट तीन पल्योपम पूर्व कोड अधिक. इतना यावत् करे. वही जघन्य है स्थिति बाला उत्पन्न हुवा उस की सब वक्तव्यता संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने के बीच के तीनों गमा जैसे कहना. परंतु परिमाण उत्कृष्ट में संख्यात उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना. वही उत्कृष्ट स्थिति से 21 ०७/ उत्पन्न हुवा यावत् सब पहिला गमा जैसे कहना. परंतु अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट पचिसो धनुष्य का 10 स्थिति और अनुबंध जघन्य उत्कृष्ट पूर्वफ्रोड शेष भमदेन पर्यंत वैसे ही कहना. कालादेश से जघन्य पूर्व ( भगवती ) सूत्र 428 4887 पंचमान विवाह पण्णाः 486 चौवीसवा शतक का बीसवा उद्देशा498 Page #2684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी र मभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाओ॥ सोचेव : उक्कोसकालदिईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिषिण पलिओवमाइं उक्कोसेणवि तिण्णि पलिओवमाई, एसचेव लडी जहेव सत्तमगमए, भवादेसेणं दो भवग्गहणाइं कालादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि पलिओवमाई,पुम्बकोडीए अभहियाई, उक्कोसेणवि तिण्णि पलिओ. वमाइं पुवकोडीए अब्भहियाइं ॥ १३ ॥ जइ देवहितो उववजंति किं भवणवासी देवेहितो उववजंति, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिय देवेहितो उववजति ? गोयमा ! भवणवासी देवेहितो उववजंति वाणमंतर जोइसिय वेमाणिय देवेहितोवि उववजंति कोड अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट तीन पल्योपम प्रत्येक क्रोड पूर्व अधिक. इतना यावत् करे. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना. कालादेश से जघन्य पूर्व कोर अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट चार, पूर्व क्रोड चार अंतर्मुहूर्त आधिक. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम.. यही लब्धि सातबा गमा जैसे कहना. भवादेश से दो भव कालादेश से जघन्य तीन पश्योपम पूर्व क्रोड अधिक. उत्कृष्ट भी तीन पल्योपम पूर्व नोड आधिक ॥१३॥ यदि देव में मे उत्पन्न होवे तो क्या भानपति देव में से, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, या वैमानिक देव में से उत्पन्न होते है ? अहो गौतम ! भवन • प्रकाशक-राजाबहादुर साला मुखदेवमहायजी बालापसादजी. भावार्थ | Page #2685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 488+ पंचमांगविवाह पण्णन्ति ( भगवती ) सूत्र 48+ 'ज भणवासी देवर्हितो उववज्जति किं असुरकुमार भवणवासी देवहितो उववज्जति GIT थणि कुमार भणवासी ? गोयमा ! असुरकुमार भवणवासी जाव णियकुमार भवणवासी ॥ १४ ॥ असुरकुमारेण भंते! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख जोणिएसु उववज्जित्तए सेणं भंते! केत्रइय ? गोयमा ! जहण्गेणं अंतोमुहुत्तट्ठिईएस उक्कोसेणं पुत्रकोडि ट्ठिएसु उववज्जेज्जा, असुरकुमाराणं लडी, णत्रसुत्रि गमए जहा पुढबीकाइए उबजमाणस्स एवं जाव ईमाणस्स देवस्स तहेव लडी ॥ भवादेसेणं सत् अभव गहणाई, उक्कोसेणं जहण्णेणं दोणि । द्वितिं संवेहंच जाणेजा। पति वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक देव में से उत्पन्न होते हैं. यदि भवनपति देव में से उत्पन्न होते हैं। तो क्या असुरकुमार में से यावत् स्तनितकुमार में से उत्पन्न होते हैं {वासी यावत् स्तनित कुमार भवनबासी में से उत्पन्न होते हैं ॥ १४ ? अहो गौतम ! असुरकुमार भवन ॥ अहो भगवन् ! जो असुरकुमार तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होने वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड की स्थिति से उत्पन्न होते. असुरकुमार की लब्धि नहीं गया में जैसे पृथ्वीकायां असुरकुमार की उत्पत्ति ईशान पर्यंत की कही थी जैसे ही कहना. परंतु सब में भवादे 42 चोवीसत्रा शतक का बीसवा उद्देश! + २६५५ Page #2686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋषिजी gh 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री णागकुमाराणं भंते ! जे भविए एसचेब वत्तब्बया, णवरं द्विति संवेहंच जाणेजा ॥ एवं जाव थणियकुमारे ॥ १५॥ जइ वाणमंतरेहिंतो उववजंति किं पिसाय वाणमंतरे तहेव जाव वाणमंतरेणं भंते ! जे भविए पंचिंदिय तिरिक्ख, एवंचेव, णवरं ट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा ॥ १६ ॥ जइ जोइसियउववाओ तहेव जाव जोइसिएणं भंते ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्ख एसचेव वत्तव्वया, जहा पुढवीकाइय उद्देसए, भवग्गहणाई णवमुवि गमएसु अट जाव कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठभाग पलिओवर्म अंतोमुहुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं चउहिं पुवकोडीहिं श से उत्कृष्ट आठ भव लेना. और मपन्य दो भव लेना. स्थिति और संबंध अपनी २ स्थिति अनुसार कहना. नागकुमार यावत् स्तनितकुमार की बैसे ही वक्तव्यता कहना : परंतु स्थिति और संबंध भित्र २ कहना ॥१५॥ यदि वाणव्वंतर में से उत्पन्न होवे तो क्या पिशाच में से उत्पन्न होवे वैसे ही यावत् जो पाणब्यंतर तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने योग्य होवे बगैरह वैसे ही जानना. परंतु स्थिति और संबंध जानना ॥ १६ ॥ यदि ज्योतिषी में से उत्पन्न होवे तो वैसे ही यावतू जो ज्योतिषी में से पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने योग्य होवे वगैरह वही वक्तव्यता पृथ्वीकाया के उद्देशे असे कहना. नवों गमा में .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्रांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मत्र 4088 चउहियवाससयसहस्सेहिं अब्भहियाई एवइयं जाव गतिरागति करेजा ।। णवमु गमएमु णवरं द्विति संवेहंच जाणेजा ॥ १७ ॥ जइ वेमाणिय देव किं कप्पोवग, कप्पातीता ? गोयमा ! कप्पोववण्णगवेमाणिया णो कप्पातीता वेमाणिया ॥ जइ कप्पोववण्णग जाव सहस्सार कप्पोचवण्णग वेमाणिय देवहितो उववजंति, णो आणय जाव णो अच्चयकप्पोववण्णगवेमाणिय ॥ १८ ॥ सोहम्मंगदेवाणं भंते ! जे. भविए पंचिंदिय तिरिक्ख जाव उववजित्तए सेणं भंते ! केवइ ? गोयमा ! सवार्थ भवादेश से आठ भव यावत् कालादेश से जघन्य पल्योपम का आठवा भाग व अंतर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट चार पल्योपम और चार पूर्व क्रोड व चार लाख वर्ष अधिक. इतनी यावत् गतागत करे. नवों गमा में स्थिति और संबंध जानना ॥१७॥ यदि वैमानिक देव में से उत्पन्न होवे तो कल्पोत्पन्न में से या कल्पातीत में से उत्पन्न होबे? अहो गौतम! कल्पोत्पन्न में स उत्पन्न होवे परंतु कल्पातीत में से नहीं उत्पन्न होवे. अहो गान ! यदि कल्पोत्पन्न में से उत्पन्न होवे तो क्या सौधर्म यानत् अच्युत में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! सौधर्म यावत् सहस्रार में से उत्पन्न होवे परंतु आणत, प्राणत, आरंण ब अच्युत में से उत्पन्न होवे नहीं ॥ १८ ॥ हो भगवन् ! सौधर्म देवलोक के देव पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न होने योग्य हो चोवीसवा प्रतकका बीसवा उद्देशा १४ । । 488 .. । Page #2688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जहण्णेणं अंतोमुहुत्तदिईएसु उक्कोसेणं पुन्वकोडी आउएसु सेसं जहेब पुढवीकाइय उद्देसए, णवसुविगमएसु जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्रभवग्गणाई, द्विति कालादेसं च जाणेजा एवं ईसाणदेवेवि ॥ एवं एएणं कमेणं अवसेसा जाव सहस्सारो देवेमु उववाते णेयब्वो णवरं ओगाहणा, जहा ओगाहणा संठाणे ॥ लेस्सा सणंकुमारमाहिंदवंभलोएस, एगापम्हलेस्सा सेसाणं, एगा सुक्कलेस्सा, वेदे णो इत्थिवेदगा पुरिसवेदगा, णो णपुंसगवेदगा ॥ आऊअणुबंधा जहा ट्ठिइपदे, सेसं जहेव ईसाणगाणं ॥ कायसंवेहं च जाणेजा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ चउवीसइम वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. शेष सब पृथ्वीकाया का उद्देशा जानना. नवों गमा में भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट आठ भव. स्थिति और कालादेश इसका जानना. ऐसे ही ईशान का कहना. इसी क्रम से सहस्रार देवलोक के देवता पर्यंत का उपपात - कहना. परंतु अवगाहना वगैरह पनवणा के इक्कीसवे पद में जैसे अवगाहना संस्थान कहा जैसे ही कहना. सनत्कुमार माहेन्द्र व ब्रह्मदेवलोक में एक पत्र लेश्या. वेद में मात्र पुरुष वेद. स्त्री वेद व नपुंसक वेद नहीं. आयु अनुबंध स्थिति जैसे कहना. शेष सब ईशान जैसे कहना. कायासंबंध भी अपनी स्थिति अनुसार दोनों के भव मीलाकर कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौबीसवा. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावाच Page #2689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAAAAA पंचमा विवाह पण्णत्ति (भगवति ) सत्र Here womanmmm सयरस वीसइमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ २० ॥ x मणुस्साणं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? गोयमा ! गैरइएहितोवि उववजंति, जाव देवहितोवि उववजति, एवं उववातो जहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणिय उद्देसए जाव तमापुढविणेरइएहितो उववजंति, णो अहे सत्तमाए पुढविणेरइएहिंतो उववजंति ॥१॥ रयणप्पभापुढवीणेरइयाणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजंति सेणं भंते ! केवइकाल? गोयमा ! जहण्णेणं मासपुहुत्तट्टिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडीआउएसु अवसेसा वतन्वया शतक का बीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ २०॥ (6) । अहो भगवन् ! मनुष्य कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! मनुष्य नारकी में से उत्पन होते हैं. और तिर्यंच, मनुष्य व देव यों चारों गति में से उत्पन्न होते हैं. यों जैसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय का उपपात कहा.. वैसे ही कहना. यावत् छठी तमा में से मनुष्य उत्पन्न होते हैं. परंतु सातवी तमनमा में से नीकलकर, मनुष्य नहीं होते हैं॥॥ अहो भगवन् ! जो रत्नप्रभा नरक का नारकी मनुष्य में उत्पन्न होता है वह कितनी स्थिति से उत्पन होवे ? अहो गौतम ! जघन्य प्रत्येक मास उत्कृष्ट पूर्व क्रोड रत्नप्रभा का जीव मनुष्यायुबंध करता हुवा कम से कम प्रत्येक अर्थात् दो से नव मास तक के आयुष्य में उत्पन्न । 48 चौबीसवा शतक का इकसवा उद्देशा भावार्थ 1 * Page #2690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ... अहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणिएसु उववजंति, तहेव. णवरं परिमाणे जहण्णेणं एकोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेजावा उववजंति, जहा तिहिं अंतोमुहुत्तेहिं तहा इहं मासपुहुत्तेहिं.संवेहं च करेज्जा,सेसं तंचेव॥जहारयणप्पभाए वत्तव्बया तहा सक्करप्पभाएवि, णवरं जहण्णेणं वास पुहुत्त.दिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडी, ओगाहणा लेस्सा णाणट्ठिइ अणुबंध संवेहं णाणत्तं च जाणेज्जा,जहेव तिरिक्वजोणिय उद्देसए एवं जाव तमापुढवी णेरइए।२। जइ तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदिय तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति जाव पंचिं दिय तिरिक्खजोणिएहितो उक्वनंति ॥ गोयमा ! एगिदिय तिरिक्खजाणिए भेदो जहा होवे. शेष सब वक्तव्यता जैसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होने की कही वैसे ही कहना. परंतु परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यान उत्पन्न होते हैं. जैसे वहां पर अंतर्मुहूर्न कहा है. वैसे ही यहां पर प्रत्येक मास कहना. जैसे रत्नप्रभा की वक्तव्यता कही वैसे ही शर्करप्रभा की वक्तव्यता कहना. परंतु स्थिति जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. और लेश्या, ज्ञान स्थिति अनुबंध व संबंध तिर्यंच पंचेन्द्रिय जैसे कहना. ऐसे ही तमा पृथ्वी तक कहना ॥ २ ॥ याद तिर्यंच में से उत्पन्न होवे तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होवे यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंच में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे पंचेन्द्रिय तिर्यंची • प्रकाशक राजबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * - भावार्थ Page #2691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पंचिंदियतिरिक्खजोणिय उद्देसए, णवरं तेऊवाऊ पडिसेहेयन्त्रा, सेसं तंचव जाव पुढवीकाइएणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त ट्ठिईएसु उक्कोसेणं पुवकोडी आउएसु उववाजिज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं जहेव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएसु उक्वजमाणस्स पुढवाकाइय वत्तव्बया सम्वेव इहवि उवरजमाणस्स णवसुवि गमएसु णवरं तइय छट्ठ णवमेसु गमएसु परिमाणं, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिम्णिवा, उक्कोसेणं संखजावा उबवज्जति, जहेव अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ ताहे पढमगमए अज्झवसाणा पसत्यावि अप्पसत्थावि भावार्थका उद्देशा कहा वैसे ही कहना. परंतु तेउ वायु का इस में निबंध कहना. शेष वैसे ही यावत् अनो भगवन् ! जो पृथ्वीकाया में से मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य हो वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे , अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. अहो भगवन् ! वे जीवों वगैरह जैसे तिर्यंच.. पंचेन्द्रिय. में उत्पन्न होने का पृथ्वीकाया की वक्तव्यता कही वह यहां पर भी नवों गमा में कहा. परंतु तीसरा, छठा ब नवा गम परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संल्यात उत्पन्न होते हैं. जब वह जघन्य स्थितिवाला होता है तब पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) सत्र 46 चौबीसवा शतक का इनासको उद्देशा १४ Page #2692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ० अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी विगमए अप्पसत्था, तइयगम ! पसत्या भवति, सेसं तंचेत्र णिरवसेसं ॥ ३ ॥ जइ आउकाइए, एवं आउकाइएणवि, एवं वणरसाइकाइएणवि एवं जाव चउरिंदियाणं असणिपंचिदिय तिरिक्खजोणिया सण्णिपंचिदिय तिरिक्खजोणिया, असण्णि मनुस्सा मस्साए सवि जहा पंचिदियतिरिक्ख जोणिय उद्देसए तहेव भाणियन्त्रा, वरं एताणि चेत्र परिमाणं अज्झत्रसाण णाणताणि जाणिज्जा, पुढवीकाइयस्स एत्थचेत्र उद्देस भणियाण, सेसं तहेव णिरवसेसं ॥ ४ ॥ जइ देवेहिंतो उववज्जंति किं भवणवासि देवेहिंतो उववज्जंति, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिय देवेर्हितो उववजंति ? ( पहिला गया में अध्यवसाय प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों होते हैं, दूसरा गमा में अमशस्त और तीसरा गमा में प्रशस्त शेष वैसे ही कहना ॥ ३ ॥ यदि अप्काया में से उत्पन्न होवे तो अपकाया, व वनस्पतिकाया का पृथ्वीकाया जैसे कहना. ऐसे ही चतुरेन्द्रिय पर्यंत कहना. असंज्ञी - तिर्येच पंचेन्द्रिय, संज्ञी तिच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी मनुष्य व संज्ञी मनुष्य का भी तिर्यच पंचेन्द्रिय के उद्देशे जैसे कहना. परंतु इन में परिमाण व अध्यवसाय में भिन्नता उपर्युक्त जैसे कहना शेष सब बैसे ही कहना. ॥ ४ ॥ यदि देव में से उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी या वैमानिक देव में से उत्पन्न होते हैं ? अहो प्रकाश राजाबहादुरलाला सुखदेवसहायजी आलामसादजी * २६६२ Page #2693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4gg+अमानववाह पण्णति (भगवती) मूत्र488 गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जति जाव वैमाणिय देवेहितोवि उवववति ॥ ५ ॥ जइ भवणवासिदेवहितो उववजंति, किं असुरकुमार भवणवासि देवहितो उववजंति जाव थणियकुमार भवणवासि ? गोयमा ! असुरकुमार भवणवासि जाव थणियकुमार उववजंति ॥ ६ ॥ असुरकुमारेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकाल दिईएसु ? गोयमा ! जहणणेणं मास पुहुत्तढ़िईएसु उक्कोसेणं पुवकोडि आउएसु एवं जागेव पंचिंदिय तिरिक्खजोणि उद्देसए वत्तव्वया साचेव एत्थवि भाणियव्वा, णवरं जहा तहिं जहण्णगं अंतोमुहुत्त दिईएसु तहाइहवि मासपुहुत्त ट्टिईएसु परिमाणं, जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेणं संखेज्जावा गौतम ! भवनवासी यावत् वैमानिक देव में से उत्पन्न होवे. ॥५॥ यदि भवनवासी में से उत्पन्न होवे तो क्या असुरकुमार में से उत्पन्न हो यावत् स्तनितकुमार में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! अमुरकुमार पावत् स्तनितकुमार में से उत्पन होवे. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! असुरकुमार में से जो मनुष्य में उत्पमा होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य प्रत्येक मास उस्कृष्ट पूर्व क्रार ऐसे ही जैसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय की वक्तव्यता कही वैसे ही कहना. विशेष में वहांपर जहां २ अघन्य चौबीया शतक का इनोसका उद्देशा 498 भावा Page #2694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उववजति, सेसं तंचव जाव ईसाणदेवोत्ति एयाणिचेव णाणत्ताणि सणकुमारादीया जाव सहस्सारोत्ति जहेव पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय उद्देसए णवरं परिमाणं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं संखेज्जावा उववज्जति । उववातो जहण्णेणं वास २६६४ पुहुत्त४िईएसु उक्कोसेणं पुत्वकोडी आउएसु उववज्जति, सेसं तंचव संवेहं मासपुहुत्त पुवकोडीमु करेजा ॥ सणंकुमारदिई चउगुणिया, अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति, माहिंदे ताणिचेव सातिरेगाणि, बंभलोए चत्तालीसं, लतए छप्पण्णं, महासुक्के अट्ठसटुिं, सहस्सारेवावत्तरि सागरोवमाई, एसा उक्कोसाट्ठिई भणिया, जहण्णाटतीवि अंतर्मुहूर्त की स्थिति कही थी उस स्थान प्रत्येक मास कहना. परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात शेष ईशान पर्यंत वैसे ही कहना. मनत्कुमार मे महस्रार पर्यंत नियेच पंचेन्द्रिय के दंडक में उत्पन्न होने का कहा वैने ही कहना परंतु परिमाण जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात कहना. उपपात जघन्य । प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व कोड शेष वैसे ही कहना. संबंध प्रत्येक मास व पूर्व क्रोड कहना उपरांत सनत्कुमार की स्थिति चौगुनी अर्थात् अठावीस सागरोपम, माहेन्द्र की साधिक अठाइस सागरोपम, ब्रह्म देवलोक में, चालीस, लंतक छपन्न महाशुक्र अडसठ, सहस्रार में बहत्तर, यह उत्कृष्ट स्थिति कही. जघन्य स्थिति का * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखवसहायजी. चालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउगुणेजा॥६॥ आणयदेवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवयइ काल ? गोयमा ! जहण्णेणं वास पुहुत्तदिइएसु उववज्जेजा उक्कोसेणं पुन्चकोडि ठिईएसु तेणं भंते ! एवं जहेव सहस्सारो देवाणं वत्तव्वया, णवरं ओगाहणाट्ठिति अणुबंधो २६६५ जाणेजा, सेसं तंचेव ॥ भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं छभवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं अट्ठारससागरोवमाइं वासपुहुत्त मब्भहियाई, उक्कोसेणं सत्तावणं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अन्भहियाइं एवइयं कालं सेवेजा॥ एवं णववि गमगाणवरं दिई अणुबंध संवेहंच जाणेजा एवं जाव अच्चुयदेवो णवरंदिई अणुबंध संवेहंच जाणेज्जा . पाणयदेवस्साईिई तिगुणा सर्द्धि सागरोवमाइं, आरणगस्सतेवढेि सागरोवमाइं, अच्चुयस्स भावार्थ भी चौगुनी करना.॥६॥ अहो भगवन्! आणत देवलोकमें से जो मनुष्य होने योग्य होवे वह कितनीस्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. शेष सहस्रार देव की वक्तव्यता कहना. परंतु अवगाहना, स्थिति व अनुबंध जानना. भवादेश से जघन्य दोभव उस्कृष्ट छभव कालादेश से जघन्य भठारह सागरोपम प्रत्येकवर्ष अधिक उत्कृष्ट सत्तावन सागरोपम तीन पूर्व क्रोड अधिक, इतनाकाल यावत् 10 सेवे. ऐसे ही नव गमाकहना परंतु स्थिति, अनुबंध व संबंध इसकाही जानना. - ऐसे ही}| पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 498+ ++ चौबीसबा शतक का इक्कीसका उद्देशा +8+ Page #2696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी छावाटुं सागरोवमाइं ॥७॥ जइ कप्पातीत वेमाणिय देवेहितो उववजंति किं गेवेजग कप्पातीत देवहितो उववजंति अणुत्तरोववाइय कप्पातीत वेमाणिय देबेहितो उववजंति? गोयमा ! गेवजग कप्पातीत अणुत्तरोववाइय वैमाणिय० ॥ जइ गेवेज्जग कप्पातीत वेमाणियदेवे. किं हेट्ठिम हेट्ठिम गेवेजग कप्पातीत वेमाणिय जाव उवरिम २ • गेवेजग ? गोयमा ! हेट्रिम हट्रिम गेवेजग कप्पातीत जाव उवरिम २ गेवेजग कप्पातीत । गेवेजग देवेणं भंते ! जे भविए मणुस्से मु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइय कालट्ठिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णणं वाप्तपुहुत्त ट्ठिईएसु उक्कोसेणं अच्युत पर्यंत कहना परंतु स्थिति अनुबंध व संबंध इसका कहना प्राणत देवलोक में स्थिति से तीन बुना संबंध साठ सागरोपम व आरण का तेसठ सागरोपम अच्युत का छासठ सागरोपम कम से उत्पन्न होवे तो क्या वेयक कल्पातीत वैमानिक देव में से उत्पन्न होवे या अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! अबेयक और अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैपानिक देव में से उत्पन्न होते. यदि ग्रेयेयक में से उत्पन्न होवे तो क्या सब से नीचे की ग्रैवेयक में से उत्पन्न होवे या सब मे उपर की ग्रैवेयक में से उत्पन्न होवे ? अहो, गौतम ! सब से नीचे की यावत् सब से उपर की ग्रेवेयक में से उत्पन्न झवे. अहो भगवन् ! गैवेयक प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालप्रसादजी . भावार्थ Page #2697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .00 6° पुवकोडी आउएसु उववज्जेजा, अवसेसं जहा आणयदेवस्सवत्तम्बया, णवर औगाहणा एगे भवधारणिजसररिए से जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभाग, उक्कोसेणं दोरयणीओ, संठाणं एगे भवधारणिज्जसरीरए से समच उरंस संठाणसंठिए, पंचसमुग्धाया पण्णत्ता तंजहा-वेयणासमुग्घाए जाव तेयगसमुग्धाए, णो देवणं वेउव्वियतयग समुग्धाएहिं समोहणिंसुवा समोहणतिवा समोहणिस्संतिया ॥ ठिति अणुवंधा जहण्णेणं वावीसं सागरोबमाई, उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइं. सेसं संचव ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्त मन्भहियाई, उक्कोसेणं तेणउति सागरोबमाई भावार्थ विमान में से जो देव मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व क्रोडके आयुष्य में उत्पन्न होवे अवशेष सत्र आणत. देवलोक की वक्तव्यता कहना परंतु अवगाहना जघन्य अंगूल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट दो हाथ. संठाण भवधारणीय शरीर का एक समचतुस्र, वेदना, कषाय, यावत् तेजप्त ऐनी पांच ममुद्धात परंतु वैक्रेय तेजस समुद्धात अतीत 12 काल में की नहीं वर्तमान में करते नहीं और आगामी नहीं करेंगे, स्थिति व : अनुबंध जघन्य बावीस 19 सागरोवम उत्कृष्ट इकतीस सागरोवम शेष वैसे ही कालादेश से जघन्य बावीस सागरोपम प्रत्येक वर्ष । पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4.98 चासवा शतक का इक्कीसवा उद्दशा 660 Page #2698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + तिहिं पुव्वकोडीहिं अन्भहियाइं, एवइयं कालं. ॥ एवं सेसेसुवि अट्ठगमएसु णवरं द्विती संवेहंच जाणेज्जा ॥ ८ ॥ जइ अणुत्तरोववाइय कप्पातीत वेमाणिय देवेहितो उववज्जति किं विजयअणुत्तरोववाइयवेमाणिय, वेजयंतअणुत्तरोववाइय जाव । सव्वट्ठ सिद्धग अणुत्तरोक्वाइय कप्पातीत ? गोयमा ! विजय अणुत्तरोववाइय कप्पातीत जाव सब्वट्ठ सिद्धग अणुत्तरोववाइय ॥ विजय वेजय जयंत अपराजित देवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववजे, सेणं भंते ! केवइयकालट्ठिई. एवं जहेव गेवेजगदेवाणं णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उक्कोसेणं अधिक उत्कृष्ट ९३ सागरोपम तीन पूर्वक्रोड अधिक, इतना काल यावत् करे. शेष आठोगमा में वैसेही करे. परंतु स्थिति व संबंध जानना. ॥ ८ ॥ यदि अनुक्त विमान में से उत्पन्न होवे तो क्या विजय अनुत्तर विमान में से वैजयंत अनुत्तर विमान में से या सर्वार्थ सिद्ध विमान में से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! विजय अनुत्तर विमान यावत् सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तर विमान में से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! विजय वैजयंत, जयंत व अपराजित के देव मनुष्य में उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? * जैसे प्रैवेयक का कहा वैसे ही कहना. परंतु अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हाथ. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. भावार्थ Page #2699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ +8+ पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 45 गारयणी, सम्मद्दिट्ठी णो मिच्छद्दिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी, जाणीणो अण्णाणी नियमं तिणाणी तंजहा आभिणिवोहिय णाणी, सुअणाणी, ओहिणाणी, ट्ठिई जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, सेसं तंचेत्र, भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोंमाई वास पुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवइयं जाव करेज्जा ॥ एवं सेसावि अट्ट गमगा भाणियव्वा णवरं ट्टिई अणुबंध संवेहूंच जाणेज्जा ॥ सेसं तंत्र ||९|| सव्वसिद्ध देवेनं भंते ! भवि मणुए सव्वेव विजयादि देववन्तव्त्रया भाणियव्वा णवरं ट्टिई अजहण्ण मणुक्कोसं समदृष्टि परंतु मिथ्यादृष्टि व सममिथ्यादृष्टि नहीं, ज्ञानी परंतु अज्ञानी नहीं निश्चयही तीन ज्ञान जिनके नाम आभि {निबोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञानव विभंग ज्ञान स्थिति जघन्य एकत्तीस सागरोपम उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम, भवादेश से जघन्य दो भव उत्कृष्ट चार भव, कालादेश से जघन्य एकतीस सागरोपम व प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपम और दो पूर्व क्रोड अधिक, ऐसे ही शेष आठ गया कहना. परंतु स्थिति, अनुबंध व संबंध स्थिति अनुसार कहना || ९ || अहो भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव मनुष्य में उत्पन्न होने ++ चौवीसत्रा शतक का इक्कीसना उद्देशा २६३९ Page #2700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 49 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - तेत्तीस सागरोमाई, एवं अणुबंधोवि, सेसं तंचेव, भवादेसेणं दो भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहणेणं तेतीसं सागरोत्रमाई वासपुहुत्त मन्भहियाई, उक्कोसेणं तेतीसं सागरमाई पुत्र कोडी अन्महियाई, एवइयं जात्र करेजा ॥ सोचैव जहण्णकाल ट्टिईएस उबवण्णो एसचैव वत्तव्या णवरं कालादेसेणं जहष्णेणं तेत्तीस सागरोवमाई बासपुहुत्तमम्भहियाई ॥ सचित्र उक्कोसकालट्ठिईएस उबवण्णो एसचे वक्तव्वया, नवरं कालादेसेणं जहणेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुञ्चकोडीए अब्भहियाई उक्कोसेणवि तेत्तीस सागरो माई पुनकोडीए अब्भहियाई, एवइयं एएचेत्र तिष्णि गमा सेसा योग्य होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे विजयादि देव वैसे ही कहना. स्थिति अजघन्यअनुरूप तेतीस सागरोपम की, ऐसे ही अनुबंध. कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम व प्रत्येक वर्षं अधिक और उत्कृष्ट तेत्तीस अधिक. इतना यावत् करे. वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वही वक्तव्यता कहना परंतु कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम प्रत्येक वर्ष अधिक, वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम पूर्व क्रोड अधिक और उत्कृष्ट भी तेत्तीस सागरोपम पूर्व क्रोड अधिक. ये तीन गमा की वक्तव्यता कही भवादेश से दो भव. सागरोपम व पूर्व कोड ** प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवमायजी ज्वालाप्रस २६७० Page #2701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 . २६७१ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगाती) सूत्र ण भण्णइ ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ चउवीसइम सयस्स एकवीसइमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ २१ ॥ वाणमंतराणं भंते ! कओहिंतो उववजंति किं गेरइएहिंतो उवयजति तिरिक्खजोणिय एवं जहेव णागकुमार उद्देसए असणि तहेब गिरवसेसं ॥ जइ सण्णिपंचिंदिय जाव असंखेजवासाउय सणिपंचिंदिय जे भविए वाणमंतर. सेणं भंते ! केवइकाल ? गोयमा ! जहणणं दसवास सहस्स दिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमट्टिईएसु सेसं तंचेब, जहा णागकुमार उद्देसए जाव कालादसेणं जहण्णेणं साइरेगाई पुव्वकोड़ी कहना. शेष छ गमा कहना. नहीं ; क्योंकि सर्वार्थ सिद्ध में से जघन्य उत्कृष्ट स्थिति नहीं है. यह चौवीसवा | 5 शतक का इक्कीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ २१॥ (०) (०) 2 अहो भगवन् ! वाणव्यंतर कहां से उत्पन्न होते हैं क्या नारकी में से, मनुष्य में से या देव में है ? अहो गौतम ! जैसे नागकुमार उद्दशा में अज्ञी वैस ही विशेषता रहित रहना. यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय यावत् असंख्यात वर्षवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय वाणव्यंतर में उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम : जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम. शेष सब नागकुमार जैसे यावत् । चौवीसवा शतकका बावासवा उद्दशा -882 भावार्थ 4. Page #2702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७२ 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 0 दसहि वाससहस्सेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई, एवइयं कालं जाव करेजा॥१॥ सोचेव जहण्णकालट्ठिईएसु उववण्णोजहेव णागकुमाराणं विइयगमे वत्तब्वया ॥२॥ सोचेव उक्कोसकालट्ठिईएसु उववण्णो जहण्णेणं पलिओवमदिईएसु उक्कोसेणवि पलिओव मठिईएसु एसचेव वत्तबया,णवर टिईसे जहण्णेणं पलिओवमं,उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, संवेहो जहण्णेणं दो पलिओक्साइं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं एवइयं जाव करेजा ॥ ३ ॥ मज्झिमगा तिण्णिवि जहेव णागकुमारेसु पच्छिमेसु तिसु गमएसु तंचेव जहा णागकुमारुहेसए, णवरं द्वितिं संवेहं च जाणेज्जा ९ ॥ संखेज वासा वय तहेव णवरं ट्ठिई अणुबंधो संवेहं च उभओ ट्ठिईएसु जाणेजा ॥ ९॥ जइ कालादेश से जघन्य साधिक पूर्व क्रोड और दश हजार वर्ष अधिक उत्कृष्ट चार पल्योपम इतना यावत् करे ॥ १ ॥ वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा नागकुमार का दूसरा उद्देशा जैसे कहना ॥ २॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य पल्योपम की स्थिति वही वक्तव्यता कहना परंतु स्थिति जघन्य एक पल्योपम उत्कृष्ट तीन पल्योपम संबंध जघन्य दो पल्योपम उत्कृष्ट चार पल्योपम इतना यावत् करे ॥३॥ बीच के तीनों गमा नागकुमार जैसे कहना. पीछे के तीनों गमा भी वैसे ही कहना. परंतु स्थिति व संबंधी * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 1 - Page #2703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ammar २६७३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 498 मणुस्साय असंखेजावसाउय जहेव णागकुमाराणं उद्देसए तहेव वत्तव्यया, णवरं तइयगमए दिई जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई, ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाइं सेसं तंचेव ॥ संवेहो से जहा एत्थचेव उद्देसए ॥ असंखेजवासाउय सण्णिपंचिंदियाणं संखज्जवासाउय सण्णि मणुस्सा जहेव णागकुमारुहेसए णवरं वाणमंतराट्ठिई संवेहं च जाणेज्जा ॥ सेवं भंते ! २ त्ति ॥ चउवीस. वावीसमो ॥ २४ ॥ २२ ॥ कहना. ॥ ९ ॥ संख्यात वर्षवाले से ही कहना. परंतु स्थिति, अनुबंध व संबंध दोनों की स्थिति से जानना, यदि असंख्यात वर्षवाले मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो वगैरह नागकुमार जैसे वक्तव्यता कहनी. परंतु तीसरा गमा में स्थिति जघन्य एक पल्योपम उत्कृष्ट तीन पल्योपम कहना, अवगाहना जघन्य एक गाउ उत्कृष्ट तीन गाउ की कहना, संबंध वगैरह इसी उद्देशे में असंख्यात वर्ष वाले संज्ञी तिर्यंच पंचन्द्रिय जसे जानना. संख्यात वर्षवाले संज्ञी मनुष्य का नागकुमार उद्देशा जैसे कहना. परंतु वाणव्यंतर की स्थिति अनुबंध व संबंध जानना, अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं, यह चौवीसवा शतक का बावीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ २२ ॥ 438 चौवीसवा शतक का बावीसवा उद्देशा 488 Page #2704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + " जोइसियाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जतिं किं णेरइय भेदो जाव सणिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, णो असणिण पंचिंदिय तिरिक्ख ॥ जइ सण्णि पंचिंदिय किं संखेजवासाउय सणिपंचिंदिय तिरिवख, असंखेजबासाउय सण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख ? गोयमा ! संखेजवासाउय सणिपंचिंदिय तिरिक्ख असंखेनवासाउय सणिपंचिंदिय तिरिवख जाणिएहितोवि उववज्जति ॥ १ ॥ असंखेजवासाउय सणिपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंत ! जे भविए जोइसिए मु, उववजित्तए सेणं भंते ! केवइयकालदिईएसु उववज्जेज्जा ? गोथमा ! जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमट्ठि अहो भगवन् ! ज्योतिषी कहां से उत्पन्न होते हैं क्या नारकी वगैरह भेद यावत् संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में मे उत्पन्न होते हैं, परंतु असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रियमें से नहीं उत्पन्न होते हैं यदि संज्ञी तियेच पंचेन्द्रिय में से उत्पन्न होते हैं नो क्या मख्यात वर्ष के आयुष्य वाल या असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों से उत्पन्न होवे? अहो गौतमः संख्यात व असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले तियेच पंचेन्द्रिय उत्पन्न होवे ॥ १ ॥ असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय ज्योतिषी में उत्पन्न होने वाले होते हैं वे कितनी स्थिति में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य एक पल्यापम का आठवा भाग उत्कृष्ट एकलाख वर्ष प्रकाशक-राजविहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * Page #2705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 . पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सत्र Page ईएसु, उक्कोसेणं पलिओवमवाससयसहस्स मब्भहियाट्ठिईएसु उववजेजा अवसेसं जहा. असरकुमारुहेसए, णवरं ट्ठिई जहण्णेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवमाइ एवं अणुबंधावि सेसं तहेव गवरं कालादेसणं जहण्णेणं दो अट्ठभागपलिओ वमाइं उकासेणं चत्तारि पलिओवमाइं वासप्सयसहस्स भन्भहियाई एवइयं कालं जाब करेज्जा. सोचेव जहण्ण कालट्ठिईएसु उववण्णो जहणेणं अट्ठ भागपलिओवमट्ठिईएसु उकोसेणवि अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु उक्वज्जेज्जा ॥ एसचेव वत्तव्वया णवरं काला देसंच जाणेज्जा ॥ २ ॥ सोचव उकोलकालाईएसु उववण्णो एसचव वत्तव्वया णवरं अधिक अवशेष अमुरकुमार उद्देशा जैसे कहता परंतु स्पिति जघन्य एक पल्योपम का आठवा भाग उत्कृष्ट तीन पल्योफर ऐसे ही अनुध भी कहा. कालादेश से जघन्य पल्योपम के दो आठ भाग उत्कृष्ट चार पल्यापम व एक लाख वर्ष अधिक, वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य उत्कृष्ट पल्योपम आठ भाग की स्थिति में उत्पन्न हावे और सब वैसे ही वक्तव्यता कहना; परंतु कालादेश में ज्योतिषी की स्थिति अनुसार कहना. वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा वैसी वक्तव्यता कहना परंतु स्थिति जघन्य. एक कल्पोपम व एक लाख वर्ष अधिक उत्कृष्ट तीन पल्पोपम ऐसे ही अनुबंध कालादेश जघन्य दो पल्योपम है | चौबीसवा शतक का तेजोमवा Page #2706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । .48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ढिई जहण्णेणं पलिओवमं वाससयसहस्स मभहियं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओमाई, एवं अणुबंधोवि,कालादेसं जहण्णेणं दोपलिओवमाइं दोहिवाससयसहस्सेहिं अब्महियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं, वाससयसहस्समब्भहियाई ३॥ सोचेव अप्पण्णा जहष्ण कालट्ठिईओ जाओ ? गोयमा ! जहणेणं अट्ठभागपलिओवमट्टिईएसु उक्कोसेणवि अट्ठभागपलिओवमट्ठि?एसु उववजेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमए एस चेव वत्तव्वया णवरं ओगाहणा, जहण्णेणं धणुह पुहृत्तं उक्कोसेणं सातिरेगाइं अट्ठारस धणुहसयाइं ॥ ढिई जहणणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणवि अट्ठभागपलिओवमं दो लाख वर्ष अधिक उत्कृष्ट तीन पल्योपम एक लाख वर्ष अधिक ( तीन पल्य तिर्यंच या युगलिये के और एक पल्य एक लाख वर्ष ज्योतिषी के ) वही जघन्य स्थिति वाला जघन्य उत्कृष्ट पल्योपम का आठवा भाग की स्थिति में उत्पन्न होवे. और सब वक्तव्यता वैसे ही कहना; परंतु अवगाहना जघन्य प्रत्येक धनुष्य उत्कृष्ट कुच्छ अधिक अठारह धनुष्य स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पल्योपमका आठवा भाग ऐसे ही अनुबंध शेष वैसे ही कालादेश मे जघन्य उत्कृष्ट पल्योपम के दो आठ भाग. जघन्य स्थिति का यह एक ही गमा होता है । शेष दो गमे नहीं होते हैं. वही उत्कृष्ट स्थिति वाला उत्पन्न हुवा सब औधिक की वक्तव्यता कहना. परंतु * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4 १६७७. आग विगह पण्पत्ति (भगवति ) सूत्र एवं अणुबंधीवि, सेसे सहेव ॥ कालादेसेणे जहण्णेणं दो अटुंभागपलिओवमाइं उकोसेणवि दो अट्ठभागपलिओवमाइं, एवइयं ॥ जहण्णकालदिईयस्स, एसचेव एक्कगमो६ ॥ सचिव अप्पणा उक्कोसकालदिईओ जाओ सव्वेव ओहिया वत्तन्वया गवर ठिई जहण्णेणं तिष्णि पलिओवमाई, उक्कोसणवि तिण्णि पलिओग्माइं, एवं अणुबंधोवि सेसं तंचेवा एवं पच्छिमा तिण्णि गमगा यन्वा, णवरं संवेहं च जाणेज्जा ।। एते सत्तगमगा ॥ २ ॥ जइ संखेनवासाउय साणपंचिंदिय संखेजवासाउयाणं. जहेव असुरकुमारेसु उववजमाणाणं, तहेव शववि गमा भाणियन्या, गवरं जोइसिय टिई संवेहं च जाणेजा, सेसं तहेव गिरवसेसं ॥ ३ ॥ जइ मणुस्सेहितो उववजति भेदो तहेब जाव असंखेजवासाउय ।। सणि मणुस्सेणं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उव. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपम ऐसे ही अनुबंध ऐसे ही पीछ के तीनों गमा कहना. परंतु स्थिति व संबंध इस अनुमार जानना यो सात गमा हुवे ॥२॥ यदि संख्या वर्ष पाले संझी पंचेन्द्रिय उत्पब होवे तो जैसे असुर कुमार में उत्पन्न होने की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां नव ममा कहना. परंतु ज्योविधी की स्थिति का संबंध करना. ॥ ३॥ यदि मनुष्य में से उत्पन्न होने मो असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले चौबीसका शतक का सेवीसका उद्देशा । । Page #2708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६७८ वजित्तए सेण भत! एवं जहा असंखेजवासाउंय सणिपंचिंदिय जोइसिएसचेत्र उव. वजमाणस्स सत्तगमगा तहेव मणुस्साणवि, गवरं ओगाहणाविसेसो, पढमेसु तिसु गमएसु ओगाहणा जहण्णेणं साइरेगाई णवणुहसयाई उक्कोसेण तिण्णि गाउयाई मझिम गमए जहण्णेणं साइरेगाई णवणुहसयाई उक्कोसेणवि साइरेगाई णवधणुहसयाई, पच्छिमेसु तिसुवि गमएस जहण्णेणं तिण्णिगाउयाई, उक्कोसेणवि तिण्णि गाउयाई, सेसं तहेव शिरवसेसं जाव.संवेहोत्ति ॥ ४ ॥ जइ संखेजासाउय सण्णि मणुस्से संखजवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेमु उववजमाणाणं तहेव णवगमगा भावाला के भेद पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संझी मनुष्य ज्योतिषी में उत्पन्न होने योग्य होवे तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे असंख्यात वर्ष वाले तिर्यंचा पिंचेन्द्रिय के ज्योतिषी में उत्पन्न होने के मात गमा कहे वैसे ही कहना परंतु अवगाहना पहिले तीन गमा में जघन्य साधिक नव सो धनुष्य उत्कृष्ट तीन गाउ बीच के तीनों गमा में जघन्य - उत्कृष्ट साधिक नव सो धनुष्य और पीछे के तीनों गमा में भी अवगाहना साधिक नव सो धनुष्य की जानना. शेष संबंध पर्यंत वैसे ही कहना ॥ ४॥ यदि संख्यात वर्षवाले संझी मनुष्य ज्यो"तिषी में उत्पन होये तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होने वगैरह सब अमुरकुमार में संझी मनुष्य में उत्पमा होने के नव गमे जैसे कई वैसे ही कहना. परंतु वहां पर ज्योतिषी की स्थिति व संबंध कहना. श्रेष मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * Page #2709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ - पंचांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 4884 या वरं जोइसिय द्वितिं संवेहं च जाणेज्जा ॥ सेसं तहेव णिश्वसेसं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ चउवीसइम सयस्स तेवीसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४॥ २३ ॥ सोहम्मग देवाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति किं णेरइएहिंतो भेदो जहा जोइसिय उद्देसए, असंखेज्जवासाउय सष्णिपंचिदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते! जे भविए सोहम्मंग देवसु उववजित्तए सेणं भंते ! केवइकाल ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओव मट्ठिईएस उववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिष्णिपलिओवमट्ठिईएस उववज्जेज्जा !! तेणं भंते! अवसेसं जहा जोइसिएस उववजमाणस्स णवरं सम्मद्दिट्ठीवि मिच्छदिट्ठीवि णो बैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चौबीसवा शतक का तेवीसवा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २४ ॥ २३ ॥ • ० अहो भगवन् ! सौधर्म देवलोक में कहां से उत्पन्न होते हैं क्या नारकी में में वगैरह उद्देशे जैसे कहना. अहो भगवन् ! असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञी तिर्येच पंचेन्द्रिय सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होने योग्य होता है वह वहां कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जघन्य एक पिल्योपम उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति से उत्पन्न होवे. [ युगलियों का आयुष्य इतना ही होने के || ० भेद ज्योतिषी | 44- चौवीसवा शतक का चौवीसना उद्देशा 438+ २६७९ Page #2710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमे.लक ऋषिजी + सम्मामिच्छादिट्टी ॥णाणीवि अण्णाणीवि, दोणाणा दो अण्णाणी णियमें ॥ टुइ जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं तिणिपलिओवमाइं, एवं अणुबंधोबि, सेसं तहेव ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाइं उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई, एवइयं ॥ १ ॥ सोचेव जहण्ाकाला?ईएमु उववण्णो एस चेव वत्तव्वया णवरं कालादेसणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं, एवइयं जाव करेजा ॥ २ ॥ सोचेव उक्कोस काला?ईएसु उववण्णो जहण्णेणं तिपलिआवमाइं उनोसेणवि तिपलि. ओवमाई .एसचेव वत्तव्बया, णवरं दिई जहण्णेणं तिपलिओत्रमाइं उक्कोसेणंवि तिपिण शेष सब अधिकार जैसे ज्योतिषी में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही कहना परंतु यहां पर समष्टि व मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं मीश्र दृष्टि नहीं उत्पन्न होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी उत्पन्न होते हैं जिस में दो ज्ञान दो अज्ञान की नियमा, स्थिति जघन्य एक पल्योपम उत्कृष्ट तीन पल्योपम ऐसे ही अनुबंध, कालादेश से जघन्य दो पल्यापम उत्कृष्ट तीन पल्योपम ॥ १ ॥ वही जघन्य स्थिति में उत्पन्न हुवा वैसे ही वक्तव्यता कहना परंतु कालादेश से जघन्य दो पल्यापम उत्कृष्ट चार पल्योपम. इतना यावत करे ॥२॥ वही उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न हुवा जघन्य तीन पल्योषम उत्कृष्ट भी तीन पल्योपमं वैसे वक्तव्यता कहना.. प्रकाशक-राजावहादुर लालामुखदवसहाय मावाथा mmmmmmmmha Page #2711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2012 पलिओषमाइं, सेसं तंचेव ॥ कालादे सेणं जहण्णेणं छप्पलिआवमाई, उकासेणविं छप्पलिओवमाइं एवइयं कालं जाव ॥ ३ ॥ सोचेव अप्पणा जहण्ण कालाईईओ जाओ जहण्णेणं पलिओवमट्टिईएसु उक्कोसेणवि पलिओवमट्टिईएस एसचेव वत्तव्वया, णवरं ओगाहणा जहणणं धणुहपुहुत्तं उक्कोसणं दो गाउयाई, द्विई जहण्णेणं पलि. ओवम उक्कोसेणवि पलिओवमं सेसं तहेव कालादेसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई उकासेवि दो पलिओवमाइं एवइयं॥४॥सोचेव अप्पणा उक्कोसकालट्टिईओ जाओ आदिल्लगमगसरिसा तिण्णिगमगा गेयव्वा, णवरं ट्ठिति कालादेसंच जाणेजा ॥ ५ ॥ जह संखेजवासाउय सण्णिपंचिंदिय संखेजवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स six परंतु स्थिति जघन्य उत्कृष्ट तीन पल्योपय की कहना. कालादेश से जघन्य उत्कृष्ट छ पल्योपम कहना.. इतना यावत् करे ॥ ३ ॥ वही जघन्य स्थितियाला जघन्य उत्कृष्ट पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न हो परंतु अवगाहना जघन्य प्रत्येक धनुष्य उत्कृष्ट दो गाउ. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट एक पल्योपम. कालादेशसे of जघन्य उत्कृष्ट दो पल्योपम. शेष पूर्ववत् ॥ ४ ॥ वही उत्कृष्ट स्थितिवाला उत्पन्न हुवा पहिले के तीन गमा सरिखे तीन गमा कहना, परंतु स्थिति व कालादेश से उत्कृष्ट जानना ॥५॥ यदि संख्यात वर्ष के पंचमान ववाह पण्णत्ति (भगवती) भूत्र nowavimminenwwwvom 03-28 चौबीसवा शतक का चौवीसका उद्देशा 988 4 Page #2712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायत्री ज्वालाप्रसादमी * विगमगा वरं द्वितिं संवेहंच जाणेजा, जाहे अप्पणा जहण्णंकालाट्ठईओ भवइ, ताहे तिसु गमएसु सम्मद्दिट्ठीवि, मिच्छाद्दिट्ठीवि, णो सम्मामिच्छाद्दिट्ठी ॥ दोणाणा दो अण्णाणा णियमं, सेसं तंचेव ॥६॥ जइ मणुस्सेहिंतो उववज्जंति भेदो जहेव जोइ सिएस उववज्जमाणस्स जाव असंखेज्जवासाउय सष्णिमणुस्सेणं भंते ! जे भवि सोहम्मकप्पे देवत्ताए उववजित्तए एवं तहेव असंखेजवा साउयस्त सण्णिपंचिंदिय तिरिक्ख जोणिए सोहम्मेकप्पे उववज्जमाणस्स तहेव सत्तगमगा णवरं अदिलेसु दो सुगमएस ओगाहणा जहण्णेणं गाउयं उक्कोसेणं तिण्णिगाउयाई ॥ तइयगमे {आयुष्यवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय उत्पन्न होवे तो जैसे अमुरकुमार में संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय का उत्पन्न होने का कहा वैसे ही नवों गमा कहना. परंतु स्थिति व संबंध वैसे ही जानना. जघन्य स्थिति के तीनों गया में समदृष्टि मिध्यादृष्टि कहना. परंतु सममिध्यादृष्टि नहीं कहना. दो { ज्ञान दो अज्ञान की नियमा || ६ || यदि मनुष्य में से उत्पन्न होवे तो इस के भेद ज्योतिषी जैसे कहना. यावत् असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संझी मनुष्य सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होने योग्य होवे तो जैसे अ संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय का सौधर्म देवलांक में उत्पन्न होने के सात गमा कहे ? २६८२ Page #2713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहण्णणं तिण्णिगाउयाई, उक्कोसेणवि तिण्णि गाउयाई, चउत्थगमए जहण्णेणं गाउयं उक्कोसेणवि गाउयं ॥ पच्छिमएसु तिसु गमएसु जहण्णेणं तिण्णि गाउयाई उक्कोसेणवि तिण्णि गाउयाई । सेसं तहेव णिरवसेसं !। जइ संखेजवासाउय सण्णि मणुस्से एवं सखेज्जवासाउय सण्णि मणुस्साणं जहेव असुरकुमारेमु उववजमाणाणं तहेव णवगमगा भाणियन्वा, णवरं स्टोहम्मगदेवट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा, सेसं तंचेव ॥ ७ ॥ ईसाण देवाण भंते ! कओहिंतो उववजंति? ईसाणदेवाणं एसचेव सोहम्मग देव सरिसा वत्तन्वया, णवरं असंखेजवासाउय सणिपंचिंदिय तिरिक्खजोणियस्स भावार्थ वैसे ही यहां कहना. परंतु पहिले दो गया में अवगाहना जघन्य एक गाउ उत्कृष्ट तीन गाउ. तीसरा गमा में अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट तीन गाउ, चौथा में जघन्य उत्कृष्ठ एक गाउ पीछे के तीनों गमा में जघन्य उत्कृष्ट तीन गाउ अवगाहना कहना. शेष सब वैसे ही कहना ॥ ६ ॥ यदि मख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्य सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होवे तो जैसे असुर कुमार* में संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संडी मनुष्य की उत्पत्ति कही वैसे ही नवों गमा कहना परंतु सौधर्म * *देवलोक की स्थिति व संबंध जानना ॥ ७॥ अहो भगवन् ! ईशान देवलोक में कहां से उत्पन्न होते हैं ?} "। पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 4.28. 48-चौबीसवा शतक का चौवीसबा उद्देशा4A 488 Page #2714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12- जेसु ठाणेमु सोहम्मे उववज पलिओवमट्टिई तेमुठाणेसु इह सातिरेगं पलिओवमं कायव्वं ॥ चउत्थगमे ओगाहणा जहण्णेणं धणुह पुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगाइं दोगाउयाई सेसं तंत्र ॥ ८ ॥ असंखेजवासाउय सण्णि मणुस्सस्सवि तहेव, द्विई जहा पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियस्स ॥ असंखेज्जवासाउयस्स ओगाहणावि जेसु ठाणेसु गाउयं तेसु ठाणेमु इहं सातिरंगं गाउयं सेसं तहेव ॥ संखेजवासा उयाणं तिरिक्ख जोणियाणं मणुस्साणय जहेब सोहम्मे उववजमाणाणं तहेव गिरवसेसं णवगमगा, णवरं ईसाणे ट्ठिति संवहंच जाणेजा ॥९॥ सणंकुमारग भावार्थ अहो गौतम ! सौधर्म देवलोक की वक्तव्यता कहना. परंतु असंख्यात वर्षवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय की जिस स्थान सौधर्म में उत्पन्न होने की पल्योपम की स्थिति कही उस स्थान साधिक पल्योपम कहना. चौथा गमा में अवगाहना जघन्य प्रत्यक धनुष्य उत्कृष्ट साधिक दो गाउ. शेष वैसे ही कहना ॥ ८॥ असंख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञो मनुष्य का भी वैसे ही कहना. परंतु स्थिति तिर्यंच पंचेन्द्रिय जैसे कहना. अवगाहना जिस स्थान में एक गाउ उस स्थान साधिक एक गाउ. मख्यात वर्षवाले तिर्यच व मनुष्य का सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होने जैसे नव गमा कहना.. परंतु ईशान की स्थिति व संबंध ऋषिजी - १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी चालाप्रसादजी * Page #2715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 42 पंचमान विवाह पण्णाचे (भगवती) सूत्र देवाणं भंते ! कओहिंतो उववज्जति, उववातो जहा सक्करप्पभा पुढवी जेरइयाणं जाव पजत्त संखेज वासाउय सण्णि पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएणं भंते ! जे भविए सणंकुमार देवेसु उववाजत्तए अवसेसा परिमाणादीया भवादेस पजवसाणा सव्वेव वत्तव्वया भाणियव्वा, जहा सोहम्मे उववजमाणस्स, णवर सणंकुमारट्ठिति संवेहच जाणेजा ॥ जाहेयं अप्पणा जहण्ण कालट्ठिईओ भवइ,ताहे तिसु गमएस पंचलेस्साओ आदिल्लाओ कायवाओ, सेसं तंचव ॥ जइ मणुस्सहिंतो उववजंति, मणुस्साणं जहेब सक्करप्पभाए उववज्जमाणाणं तहेत्र णवीव गमा णवर सणंकुमारट्रिति संवेहंच जाणेजा ॥ १० ॥ माहिंद्रग देवाणं भंते ! कओहिंतो उबवजंति जहा सणंकुमार जानना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! सनत्कुमार में कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे शर्करमभा. नारकी में उपपात कहा वैसे ही कहना यावत् पर्याप्त संख्यात वर्षवाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय सनत्कुमार में उत्पन होने योग्य होने वगैरह परिमाणादिक, भवादेश पर्यंत सब वक्तव्यता सोधर्म देवलोक में उत्पन्न । होने जैसे कहना. परंतु स्थिति व संबंध सनत्कुमार का जानना. जब जघन्य स्थितिवाले उत्पन्न होते हैं. तब उस के तीनों ममा में पहिली पांच लेश्याओं कही. यदि मनुष्य में से उत्पन्न हो तो परमभा में चौवीसवा शतक का चौबीमया उद्देशा भावार्थ 98 ' Page #2716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८६ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + देवाणं वत्तव्यया तहा माहिंदग देवाणंवि भाणियन्वा, णवरं माहिंदग देवाणं द्विति सातिरेगा भाणियन्वा सव्वेव ॥ एवं बंभलोग देवाणवि वत्तन्वया, णवरं बंभलोग ट्रिति संवेहंच जाणज्जा, एवं जाव महस्सारो णवरं ठितिं संवेहंच जाणेजा ॥लंतगादीणं जहण्णकालदिईयस्स तिरिक्खजोणियस्स तिसुवि गमएसु छप्पिलेस्साओ कायन्चाओ, संघयणाई बमलोगलंतएसु पंचआदिल्लगाणि, महासुक्कसहस्सारेसु चत्तारि, तिरिक्खजो"णियाणवि, मणुस्साणवि सेसं तंचेव ॥११॥ आणयदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति, उत्पन्न होने के नव गमा कहना परंतु स्थिति व संबंध सनत्कुमार जैसे कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! माहेन्द्र देव में कहां से उत्पन्न होते हैं ?. अहो गौतम ! सनत्कुमार देवं की वक्तव्यता कही वैसे ही माहेन्द्र देव की वक्तव्यता कहना. परंतु माहेन्द्र की स्थिति साधिक कहना. ऐसे ही ब्रह्मलोक का कहना. परंतु ब्रह्मलोक की स्थिति व संबंध कहना. ऐसे ही सहस्रार पर्यंत कहना परंतु स्थिति व संबंध भिन्न कहना. लंतकादि में जघन्य स्थितिवाले तिर्यंच के तीनों गमा में छ लेश्याओं कहना. ब्रह्मलोक व लंतक में पहिले पांच संघयन, महाशुक्र व सहसार में चार संघयन तिर्यंच व मनुष्यों ऐसे दोनो को जानना. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ८७ चमांगः विवाहपण्णत्ति ( भगवती) सूत्र उत्रवाओ जहा सहस्सारे देवाणं णवर तिरिक्खजोणिया खोडेयव्वा जाव पजत्त , संखेजवासाउयसण्णिमणुस्साणं भंते ! जे भविए आणयदेवेमु उववाजित्तए ॥ मणुस्साणं वत्तव्वया जहेव सहस्सारेसु उववज्जमाणाणं णवरं तिणि संघयणाणि, सेसं तहेव अणुबंधो भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्तभवम्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं दोहिवास पुहुत्तेहिं अन्भहियाई, उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाई चउहि पुनकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं ॥ एवं सेसावि अट्ठगमगा, भाणियन्वा णवरं द्वितिं संवेहंच जाणेज्जा ॥ सेसं तहेव एवं जाव अच्चुयदेवा, णवरं ठितिं. ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! आणत देवलोक में कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! सहस्रार देवलोक । जैसे उपपात कहना परंतु यहाँपर तिर्यंच नहीं उत्पन्न होते हैं यावत् संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले संज्ञी मनुष्य आणत देवलोक में उत्पन्न होने योग्य हो तो कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम !.. सहस्रार देवलोक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य की जैसी वक्तव्यता कही वैसे ही यहां कहना परंतु संघयन र तीन कहना शेष अनुबंध पर्यंत वैसे ही कहना. भवादेश से जघन्य तीन भव उत्कृष्ट सात भव कालादेश से जपत्य अठारह सागरोपम उत्कृष्ट दो प्रत्येक वर्ष अधिक सत्तावन सागरोपम चार पूर्ण कोड चोवीसवा शतकका चौबीसवा उद्देशा-410 1 Page #2718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " संहेवंच जाणेजा उसु चेव संघयणा तिण्णि आणयादीमु।। १२॥ गेवेजग देवाणं भंतेकओ हितो उववज्जति एसचेव वत्तव्वया णवरं दो संघयणाट्ठिति संवेहं च जाणेजा॥१३॥ विजय वेजयंत जयंत अपराजित देवाणं भंते! कओहिंतो उववजांति एसचेव वत्तन्वया गिरवसेसा जात्र अणुबधोत्ति, गवरं पढम संघयणं सेसं तहेव भवादेसेणं जहणेणं तिरिम भवग्गहणाई उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई, कालादेसेणं. जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाई दोहिं वासपुहत्तेहिं अब्भहियाई,उकोसणं छावर्द्धि सागरोबमाइं तिहिं पुन्चकोडीहिं अब्भहिंयाई एवइयं जावाएवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियब्बा,णवरं द्विति संवेहंच जाणेना ॥मणूसे अधिक ऐसे ही शेष आठ ममा कहना परंतु स्थिति व संबंध इस अनुसार कहना ऐमे ही अच्युतः पर्यंत कहना. आणतादि चारों में तीन संघयन कहना. ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! अवेयक देव में कहां से उत्पमा होते हैं ? अहो गौतम उपर्युक्त वक्तव्यता कहना परंतु स्थिति व संबंध इसकाही जानना. ॥ १३ ॥ अहो है भगवन् ! विजय, वैजयंत, जयंत व अपराजित देवों में कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! उपर्युक्त कवकव्यता अमुबंध पर्वत कहना संघयन मात्र एक पहिला कहना. भादेश से जघन्य तीन भव उत्कृष्ट पांच भव कालादेश से जघन्य इकत्तीस सागरोपम दो प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट छासठ सागरोपमा तीन पूर्व • प्रकाशक राजावादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८९, 387 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 48 लद्धी वसुवि गमएसु जैहा गैवेजेस उववजमाणस्स णवरं पढमं संघयणं ॥ १४ ॥ सय? सिद्धगदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजति उववाओ जहेव विजयादीणं जाव मेणं भंते ! केवइयकाल ठिईएसु उववजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमठिई उक्कोसेणवि तेत्तीसं सागरोवमठिईएसु; अक्सेसा जहा विजयाईसु उववजंता,णवरं भवादेसेणं तिण्णि भवग्गहणाई, कालादेसणं जहण्णेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं वासुपहुत्तहिं अब्भहियाई उक्कोसेणवि तेत्तीसं सागरोवमाइंदोहिं पुवकोडीहिंअन्भहियाई,एवइय।सोचेव अप्पणा जहण्ण कालठिईओ जाओ एसचेव वत्तव्वया,णवरं ओगा हणा ठिईओ रयणिपुहुत्तंच, वासपुहुत्ताणि, सेसं तहेव संवेहंच जाणेज्जा ॥१५॥ सोचेव क्रोड अधिक शेष पूर्वोक्त जैसे कहना ऐसे ही आठ गमा करना. परंतु स्थिति व संबंध इसकाही कहना. नवों गमा में मनुष्य लब्धि प्रैधेयक विमान जैसे कहेना. परंतु संघयन पहिला जानना ॥ १४ ॥ अहो भगवन सर्वार्थ सिद्ध में कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! विजयादि में जैसे उपपात कहा वैसे ही कहना है यावत् वह कितनी स्थिति से उत्पन्न होवे?अहो गौतम!जघन्य तेत्तीस सागरोपम उत्कृष्ट भी तेत्तीस सागरोपम की स्थिति से उत्पन्न होवे सब विजयादि में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही कहना परंतु भवादेश से तनि भत्र कालादेश से जघन्य तेत्तीस सागरोपम दो प्रत्येक वर्ष अधिक उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम दो पूर्व क्रोड ago चौवीसवा शतक का चौबीसवा उद्देशा 42th भावार्थ । | Page #2720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 भावार्थ 42 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 'अप्पा उक्कोस कालठिईओ जाओ एसचेव बत्तव्वया, णचरं ओगाहणा जहणणं पंच हसयाई उक्कोणवि पंचधणुहसयाई, ठिई जहण्णेणं पुव्वकोडी उक्कोसे वि पुत्र कोडी ॥ सेसं तहेव जाव भवादेसोति ॥ कालादेसेणं जहण्णेणं तेतीसं सागरोमाई दोहिं पुष्वकाडाहिं अन्महियाई, उक्कोसेणवि तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुव्वकोडीहिं अमहियाई. एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेजा ॥ एए तिणि गमगा सव्वसिद्धग देवाणं || मेवं भंते ! भंतेत्ति, भगवं गोयमे जाव विहरइ ॥ चउवीसइमसयस्स चउवीसइमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २४ ॥ २४ ॥ चवीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ २४ ॥ • ० ० अधिक. इतना यावत् करे. वही जघन्य स्थितिवाला उत्पन्न हुवा वैसे ही वक्तव्यता कहना परंतु ( अवगाहना प्रत्येक हाथ और स्थिति प्रत्येक वर्ष शेषं वैसे ही कहना | १५ || वही उत्कृष्ट स्थितिवाला ( उत्पन्न हवा वही वक्तव्यता कहना परंतु अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट पांचसो धनुष्य कहना. स्थिति जघन्य उत्कृष्ट पूर्व क्रोड कहना शेष भत्रादेश पर्यंत वैसे ही कहना. कालादेश से जघन्य उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम दो पूर्व फोड अधिक इतना काल करे व इतनी गति आगति करे. ये तीन गमा सर्वार्थ सिद्ध देव के कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर भगवान् गौतम विचरने लगे. यह चौवी सवा शतक का चौवीसवा उद्देशा संपूर्ण हुत्रा ॥ २४ ॥ २४ ॥ यह चौवीसवा शतक संपूर्ण हूवा ॥ २४ ॥ * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २६९० Page #2721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९१ पंचांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र 4982 भावार्थ/ * पञ्चविंशतितम शतकम् * लेस्साय,दव्य, संठाण, जुम्म, पजव, णियंठ, समणाय, ॥ ओहे भविया भविए सम्मा, मिच्छेय, उद्देसा ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी कइणं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तंजहा कण्हलेस्सा जहा पढमसए बितिय उद्देसए तहेव लेस्साविभागो अप्पावहुगंच जाव चउन्विहाणं देवाणं चौवीसवे शतक में द्वार से जीव का उपपात का चितवन किया. अब पच्चीसवे शतक में जीव का लेश्या | द्वार से चितवन करते हैं. इस शतक में बारह उद्देशे कहे हैं जिन के नाम-१ लेश्या का २ द्रव्य विचार | ३ स्थान विचार " कृत युग्य विचार, ५.पर्याय विचार ६ पुलाकादि निर्ग्रन्थ विचार ७ सामायिकादि . संयति का विचार ८ नरकादि औधिक उत्पत्तिका ९ भव्यादि विशेषणबाले नारकादि उत्पन्न होने १० अभव्यपने बर्तने की ११ समदृष्टि और १२ मिथ्यादृष्टि का. यों पच्चीसवे शतक में बारह उद्देशे कहे. अब पहिला उद्देशा कहते हैं. उस काल उस समय में राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण, भगवंत महावीर स्वामी भगवान गौतम को ऐमा बोले अहो भगवन् ! लेश्या कितनी कही ? अहो गौतम ! लेश्याओं छ कही जिन के नाम. कृष्ण लेश्या वगैरह जैसे प्रथम शतक के दूसरे उद्देशे में कहा बैसे ही लेश्या का विभाग और अल्पाबहुत्व कहना यावत् चार प्रकार के देव व चार प्रकार की देवी यों +8+ पच्चीसवा शतक का पहिला उद्देशा 488th Page #2722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी gh २६९३ भावार्थ चउविहाणं देवीणं मीसगं अप्पाबहुगंच ॥ १ ॥ कइविहाणं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता? गोयमा! चउद्दसविहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णता,तंजहा सुहुम अपजत्तगा, मुहुम पज्जत्तगा, वादर अपजत्तगा, वादरापजत्तगा, वेइंदिया अपज्जत्तगा, वेइंदिया पजत्तगा, एवं तेइंदिया, एवं चउरिंदिया, असण्णिपंचिंदिया अपजत्तगा, असण्णिपंचिंदिया पजत्तगा सणिपंचिंदिया अपज्जत्तगा, सण्णिपंचिंदिया पजत्तगा,॥२॥ एएसिणं भंते ! चउद्दसाविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवाणे जहण्णुक्कोसगस्स कौन कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेझ्यावाले में अल्प बहुत याचन् विशेषाधिक है ऐसा कहना ॥ १ ॥ लेण्याबंत संसारी होने से संसारी का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! संसारी जीवों कितने कहे हैं ? अहो । E गौतम ! चउद्रह प्रकार के संसारी जीवों कहे हैं. जिन के नाम-१ सूक्ष्म के अपर्याप्त २ सूक्ष्म के पर्याप्त ३ बादर के अपर्याप्त ४ वादर के पर्याप्त ५ वेइन्द्रिय के अपर्याप्त ६ बेइन्द्रिय के पर्याप्त ७ तेइन्द्रिय के अपर्याप्त ८ तेइन्द्रिय के पर्याप्त ९ चतुरेन्द्रिय के अपर्याप्त १० चतरोन्द्रिय के पर्याप्त ११ असंज्ञी पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त १२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त २३ संबी पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त और १४ संझी पंचेन्द्रिय के में पर्याप्त ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! इन चौदह प्रकार के संसारी जीवों को जघन्य उत्कृष्ट जोगे में कौन १ वीतिराय के क्षयोपशमसे उत्पन्न हुवा कयिकाद्रि परिस्पंदन लक्षण सौ जोग, .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #2723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Jagran जोगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा? गौयमा! सव्वत्थोवा सहुमस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए १ बादरस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे २ वेइंदियस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ३ एवं तेइंदियस्स ४ एवं चरिंदियस्स ५ असण्णिपंचिंदियस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ६ सण्णिपंचिंदियस्स अपजत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेजगणे ७ सहमपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अर्थात् चौदह प्रकार के जघन्य और उत्कृष्ट ऐसे दो भेद करने से भी २८ हुए. इन अठावीस में कौन किससे अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ! अहो गौतम ! सब से थोडा मूक्ष्म है। अपर्याप्त का जघन्य जोग क्यों कि सूक्ष्म पृथिव्यादिकं का शरीर मूक्ष्म और अपर्याप्तपना से विशेष सूक्ष्म के उस में भी जघन्य की विनक्षा हुई, इस से सर्व वक्तव्यता जोग से थोडा जघन्य नोग हुवा यह जोग 5 विहार गति में कार्माण उदारिक पुद्गल ग्रहण करते समय रहता है फीर समय की वृद्धि होते जघन्य उत्कृष्ट जोग होवे परंतु सर्वोत्कृष्ट जोग होवे नहीं. इस से २ बादर अपर्याप्त का जघन्य जोग पूर्वोक्त अपेक्षा से असंख्यात गुना. ३ इस से बेइन्द्रिय के अपर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ४ इस से तेइन्द्रिय के अपर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ५ इस से चतुरेन्द्रिय के अपर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ६ इस से असंज्ञी पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ७ इस से संज्ञी पंचेन्द्रिय 4800 पच्चीसवा शतक का पहिला उद्देशा 4883 *3 Page #2724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावार्थ | असंखेज्जगुणे ८ वादरस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे १० बादरस्स अपज्जत्तगस्स उको जोए असंखेज्जगुणे ११ सुहुमस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १२ वादरस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे १३ वेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे १४ एवं तेइंदियस्सवि १५ एवं जाव सण्णिपंचिंदियस्स पज्जतगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे १६ वेइंदियरस अप ९ { के अपर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ८ इस से सूक्ष्म पर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना ९ इस से बादर पर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना १०. इस से सूक्ष्म अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना ११ इससे बादर अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना १२ इससे सूक्ष्म पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना १३ इससे बादर पर्याप्तका उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना १४ इससे बेइन्द्रिय के पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुना १५ इस से तेइन्द्रिय के पर्याप्त का जघन्य जोग असंख्यात गुना १६ { इस से चतुरेन्द्रिय के पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुना १७ इस से असंही पंचेन्द्रिय के पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुना १८ इस से संझी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुना १९ * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायज्जी ज्वालाप्रसादजी * २६९४ Page #2725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 २६९५ जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे १९एवं तेइंदियस्सवि २० एवं चरिंदियस्सवि २१ एवं जाव सणिपंचिंदियस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगणे २३ वेइंदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २४ एवं तेइंदियस्सवि २५ एवं जाव सणिपंचिंदियस्स पजत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेजगुणे २८ ॥३॥ दो भंते ! णेरइया षढमसमय उववण्णगा किं समजोगी विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी सिय विसमजोगी ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय भावार्थ इस से बेइन्द्रिय के अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २० इस से तेइन्द्रिय के अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २१ इस से चतुरेन्द्रिय के अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २२ इस से असंही पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त का उस्कृष्ट योग असंख्यात गुना२३ इस से संबी पंचेन्द्रिय के अप-१ र्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २४ इस से बेइन्द्रिय के पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २५ इस से तेइन्द्रिय के पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २६ इस से चतुरेन्द्रिय के पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना २७ इस से असंही पंचेन्द्रिय के पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना और २८ इस से संबी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् । पहिले 1-समय में उत्पन्न होने वाले दो नारकी क्या समयोगी हैं या विषम योगी हैं ? अहो गौतमः स्यात् समयोगी? पंचमांग विवाह पञ्णत्ति ( भगवती 48 पचीसवा शतकका पहिला उद्देशा 498 Page #2726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २६९६ मनि। अमोलक ऋषिजी १ भाव समगी सिय विसमजोगी ? गोयमा ! आहारयाओवा से अमाहारए, अणाहारया ओ से आहारए,सियहीणे सियतुल्ले सिय अब्भहिए ॥ जइ हीणे असंखेजइभागहीणेवा संजइभागहीणेवा, संखेजगुणहीणेवा असंखेजगुणहीणेवा; अह अब्भहिए असंखेज्जइ ग मन्भाहिएवा संखेजइभाग मन्भहिएवा, संखेजगुण मन्भाहएवा असंखेजगुण हैं और स्यात् विषम योगी हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् स्यात. समयोगी स्यात् विषम योगी ? अहो गौतम ! आहारक से अनाहारक और अनाहारक से आहारक स्यात् हीन स्यात् तुल्य. व स्यात् अधिक है. जैसे विग्रह गति के अभाव से नारकी में आकर आहारकपने भी उत्पन्न हुआ जीव निरंतर आहारकपना से ही पुष्ट होवे. इस अपेक्षा से जो विग्रहगति कर के अनाहारक हवा वह हीन ह क्यों कि पाहिले अनाहारकपना से दर्बल होवे और इस से हीन योग होने से विषमयोगी होबे, समान समय में विग्रह गति से अनाहारक बन करके अथवा ऋजु गति से आहारक बनकर दोनों नारकी उत्पन्न होवे वे दोनों नारकी एक दूसरे की अपेक्षा से समयोगी होवे. जो विग्रहगति । के अभाव से आहारक ही उत्पन्न होवे और दूसरा विग्रहगति करने से अनाहारक होवे इस अपेक्षा से पहिला दूसरा अधिक होता है इस से यह भी विषम योगी होवे. * यदि हीन होवे तो * यहां पर मूल में आहारक से अनाहारक हीन और अनाहारक से आहारक अधिक कहा परंतु तुल्यता बताने१ वाला प्रसिद्ध शब्द होने से नहीं कहा. * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप 209 अनुवादक-बालब्रह्मचारी Page #2727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *.38 १६२७ मन्माहएवा ; से तेण?णं जाव सिय समजोगी सिय विसमजोगी ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ ४ ॥ कइविहेणं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णर सविहे जोए पण्णत्ते तंजहा-सच्चमण जोए, मोसमण जोए, सच्चामोसमण जोए असच्चामोसमण जोए; सच्चवइ जोए, मोसवइ जोए, सच्चामोसवइ जोए, अस• चामोसवइ जोए; ओरालिय सरीरकाय जोए, ओरालियमांसा सरीर काय जोए, वेउब्वियसरीर कायजोए, वेउव्वियमीसा सरीरकायजोए, आहारगसरीरकायजोए, असंख्यात भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यात गुण हीन या असंख्यात गुण हीन अथवा असं-12 लख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक, संख्यान गुण अधिक या असंख्यातगुन अधिक होबे. इस से ऐसा कहा गया है यावत् स्यात् समयोगी स्यात् विषम योगी. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जोग के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! जोग के पन्नरह भेद कहे हैं. जिन के नाम-१ सत्य मनयोग, २ मृषा मन योग ३ सत्य मृषा मन योग, ४ व्यवहार मन योग ५ सत्य वचन योग, ६ मृषा वचन योग ७ सत्य मृषा वचन योग ८ व्यवहार वचन योग ९ उदारिक शरीर काययोग 1 ११.० उदारिक मीश्र शरीर काया योग ११ वैक्रेय शरीर काया योग १२ वैक्रेय मीश्र शरीरकाया योग१३} " र पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र tata पच्चीसबा शतक का पहिला उद्देशा88-832 Page #2728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी आहारगमीसा सरीरकायजोए, कम्मासरीरकायजोए ॥ ५ ॥ एयरसणं भंते ! पण्णरस विहस्स जहण्णुक्कोंसगस्स कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे कम्मग सरीरस्स जहण्णए जोए || १ || ओरालिय मीसगस्स जहण्णए जोए असंखेगुणे ॥ २ ॥ उत्रियमीसगस्स जहण्णए जोग असंखेज्जगुणे ॥ ३ ॥ ओरालिय सरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ॥ ४ ॥ वेउन्त्रिय सरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ॥ ५ ॥ कम्मग सरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ॥ ६ ॥ आहारगर्मागरस जहणएजोए असंखेज्जगुणे ॥ ७ ॥ आहारगमीसगस्स उक्कोसए जोए { आहारक शरीर काया योग १४ आहारक मीश्र शरीर काया योग और १५ कार्माण शरीर काया योग॥५॥ { अहो भगवन् ! इन पन्नरह योग के जघन्य उत्कृष्ट में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ?? अहो गौतम ! सब से थोडा कार्माण शरीर का जघन्य जोग, इस से उदारिक मीश्र का जघन्य जोग असंख्यात गुना, इस से वैक्रेय मीश्र का जघन्य जोग असंख्यात गुना, इस से उदारिक शरीर का जघन्य जाग असंख्यात गुना, इस से वैक्रेय शरीर का जघन्य जोग असंख्यात, गुना इस से कार्माण शरीर का उत्कृष्ट जोग असंख्यात गुना, इस से आहारक मीश्र का जघन्य जोग असंख्यात गुना इस से आहारक मीश्र का काशक राजीबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी * २६९८ Page #2729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 २६९९ विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48+ असंखेजगुणे ॥ ८॥ ओरलियमसिगस्स ॥ वेउब्वियमीसगस्स ॥ एएसिणं उक्कोसए जोए दोण्हवि तुल्ले असंखेज्जगुणे ॥ ९.१०॥ असच्चामोसमणजोगस्स जहण्णए जोए असंखजगुणे ॥ ११ ॥ आहारगस्स सरीरस्स जहण्णए जोए असंखेजगुणे ॥ १२ ॥ तिविहस्स मणजोगस्स दउव्विहस्स वइजोगस्स एएसिणं सत्तण्हवि तुल्ले जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ॥ १३ ॥ आहारगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखजगुणे ॥१४॥ ओरालियसरीरस्स वेउन्वियसरीरस्स चउन्विहस्सय मणजोगस्स चउन्विहस्सय वह जोगस्स, एएसिणं दसण्हवि तुल्ले, उक्कोसए जोए असंखेजगुणे ॥ १५ ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ फ्णवीसइम सयस पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ १ ॥ उत्कृष्ट जोग असंख्यात गुना, इस से उदारिक व वैक्रेय के मीश्र इन दोनों का उत्कृष्ट योग परस्पर तुल्य व असंख्यात गुना, इस से व्यवहार पनं योग का जघन्य योग असंख्यात गुना इस से आहारक शरीर जघन्य योग असंख्यात गुना इस से तीन मन योग व चार वचन इन सातों का जघन्य योग परस्पर । व असंख्याव गुना, इस से आहारक शरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुना, इस से उदारिक, वैक्रेय, शरीर, चार मन योग व चार वचन योग इन दश के उत्कृष्ट योग परस्पर तुल्य व असंख्यात गुने. भगवन ! आप के वचन सत्य हैं, यह पञ्चीमका शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण दुवा. ॥ २५ ॥१॥ पच्चीसवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ 62 Page #2730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०० 42 अनुबादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी कइविहाणं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा , दुविहा दव्या पण्णत्ता तंजहा-जीव दव्याय अजीव दव्याय अजीव देव्वाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-रूवी अजीव दव्वाय, अरूवी अजीव दव्याय ॥ एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपजवा जाव से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ, तेणं णो संखेजा णो असंखेज्जा अणंता ॥ १ ॥ जीव दवाणं भंते ! किं संखेजा असंखेजा अणता ? गोयमा ! णो संखेजा णो असंखेजा अर्णता ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीव प्रथम उद्देशे में लेश्या आदि परिणाम कहा, लेश्या भी द्रव्य होने से द्रव्य का प्रश्न पूछते हैं. अहो । भगवन् ! द्रव्य के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम! द्रव्य के दो भेद कहे हैं १ जीवद्रव्य व २ अजीव द्रव्य. अहो भगवन् ! अजीव द्रव्य के कितने भेद कडे हैं ? अहो गौतम ! अजीव द्रव्य के दो भेद कहे हैं ? रूपी अजीव द्रव्य व अरूपी अजीव द्रव्य, इस अभिलाप से जैसे पन्नवणा सूत्र के पांचवे पद में अजीव पर्यव कहें वैसे ही कहना यावत् इसलिये ऐसा कहा गया कि वे संख्यात असंख्यात नहीं हैं परंतु अनंत हैं. ॥ १॥ अहो भगवन् ! जीव द्रव्य क्या संख्यात, असंख्यात या अनंत हैं. ? अहो गौतम ! जीव द्रव्य संख्यात असंख्यात नहीं परंतु अनंत हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से जीव द्रव्य संख्यात. * प्रकाशक-राजाबहादुरै लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . Page #2731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : +8 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवत . दवाणं णो संखेज्जा णो असंखेजा अर्णता ? गोयमा ! असखेज्जा रइया जाव असखज्जा वाउकाइया, अणंता वणस्सइकाइया, असंखेजां वेइंदिया एवं जाव वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से लेण?णं जाव अणंता ॥ २ ॥ जीवदव्वाणं भंते ! अजीव दव्या परिभोगत्ताए हब्वमागच्छंति, अजीव दव्याणं जीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमा .. गच्छंति ? गोयमा ! जीव दव्वाणं अजीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, णो अनीवदव्वाणं. जीवदया: परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बच्चइ जाव मागच्छंति ? गोयमा! जीवदव्याणं अजीवदव्व परियादियंति, अजीव२त्ता परंतु अनंत कहे हैं. ? अहो गौतम ! असंख्यान नारकी यावत् असंख्यात वायुकाया, अनंत वनस्पतिकाया, ख्यात बेदन्द्रिय यावत् वैमानिक और अनंतसिद्ध इसलिये ऐसा कहा गया है यावत अनंत जीव द्रव्य हैं ॥ २ ॥ जीव द्रव्य को क्या अजीव उपभोग में आते हैं या अजीव द्रव्य को जीव द्रव्य उपभोग में आते हैं ? अहो गौतम ! जीव द्रव्य को अजीव द्रव्य उपभोग में आते हैं परंतु अजीब इन्य को जीव द्रव्य उपभोग में नहीं आते हैं. अहो भगवन् ! ऐमा किस कारन से कहा गया है यावत् अजीव } 90 द्रव्य को जीव द्रव्य उपभोग में नहीं आते हैं ? अहो गौतम ! जीव द्रव्य अजीव द्रव्य को ग्रहण करते हैं | पच्चीसवा शतक का दूसरा उद्दे वा १४ स Page #2732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२ १ अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ओरालियं वेउम्वियं आहारगं तेयर्ग कम्मर्ग, सोइदियं जाव फार्सिदियं, मणजोगं वइजोगं कायजोगं आणापाणुत्तं च णिन्वत्तति. से तेणट्रेणं जाव हब्वमागच्छति॥३॥ णेरइयाणं भंते ! अजीवदवा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदव्याणं णेरइया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! णेरइयाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए जाव हब्बमागच्छंति, णो अजीवदव्वाणं णेरड्या जाव हव्वमांगच्छंति ॥ से केणटेणं भंते? गोयमा! जेरइयाणं अजीवदब्वे परियादियंति अजीवदव्वे परियादियंतित्ता वेउब्वियं तेयगं कम्मगं सोइंदियं जाव फासिंदिय आणापाणुतं च णिवत्तयंति से सेणटेणं गोयमा ! और अजीव ट्रध्य ग्रहण करके उदारिक, वैक्रेय, आहारक, तेजस्, कार्माण शरीर, श्रोबेन्द्रिय यावत् | स्पर्शेन्द्रिय, मन योग, वचन योग, काया योग और श्वासाश्वास बानते हैं इस से जीव द्रव्य को अभीव द्रव्य उपभोग में आते हैं ॥३॥ अहो भगवन् ! नारकी को क्या अजीब द्रव्य उपभोग में आते हैं या . अजीव द्रव्य को नारकी उपभोग में आते हैं ? अहो गौतम ! नारकी को अजीव द्रव्य उपभोग में आते हैं हैं परंतु अजीव द्रव्य को नारकी उपभोग में नहीं आते हैं. अहो भगवन् ! किम कारन से ऐमा कहा गया है ? अहो गौतम ! नारकी अजीव द्रव्य ग्रहण करते हैं. अजीव द्रव्य ग्रहण करके वैक्रेय, सेजस्, * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी - भावार्थ Page #2733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 एवं वुच्चइ , एवं जाव वेमाणिया | णबरं सरीर इंदिय जोगा जाणियव्वा जस्स जे अस्थि ॥ ४ ॥ से णूणं भंते ! असखेजेलोए अणंताई दवाइं आगासे भइयव्याई ? हंता गोयमा ! असंखेन्जेलोए जाव भइयवाई ॥ ५ ॥ लोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कइदिसिं पोग्गला चिजंति ? गोयमा ! णिव्याघाएणं छदिसि भावार्थ 488 पंचमाङ्ग विवाह पण्यात्त (भगवती ) सूत्र 48 पच्चीसवा शतक का दूर कार्माण, श्रोनेन्द्रिय यावत् पशन्द्रिय व श्वासोश्वास बनाते हैं इस से ऐसा कहा गया है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत चौवीस ही देखक का जानना. परंतु शरीर इन्द्रिय व जोग जिन को जितने होवे उन को उतने कहना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! क्या असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंत द्रव्य [नीय व परमाणु ] का #समावेश हो सके ? हां गौतम ! असंख्यात. प्रदेशात्मक लोक में अनंस द्रव्य का समावेश हो सके * ॥५॥ अनंत द्रव्य का लोक में अस्थान कहा वह चयउपचय से होता है इसलिये चयउपचय का मन करते हैं. अहो भगवन् ! लोक के एक आकाश प्रदेश में कितनी दिशाओं के पुद्गल चिनाते हैं ? [ एकत्रित होते हैं ]}7 अहो गौतम! निर्व्याघात से छ दिशा के पुद्गल और व्याघात से क्वचित तीन दिशा के अलोक की नजदिक * जैसे नियत क्षेत्र में एक दीपककी प्रभा के पुद्गल संपूर्ण होने पर भी अन्य दीपर्क की प्रभा के पुद्गलों का समावेश होता है वैसे ही पुद्गल परिणाम की सामर्थ्यता से. असंख्यात प्रदेशात्मक लोक में अनंतं द्रव्य का समावेश होताहै.' Page #2734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ +3 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -वाधार्य पहुंच सिय तिदिसि सिय चउद्दिसिं सिय पंचाद्दिसिं ॥ ६ ॥ लोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासपए से कइदिसिं पोग्गला चिजंति ? एवंचेत्र एवं उवचिजंति, एवं अवचिज्जति ॥ ७ ॥ जीवणं भंते! जाई दव्बाई ओरालिय सरीरत्ताए गेण्हर, ताई किं द्वियाई गेहइ अट्टियाई गेव्हइ ? गोयमा ! ट्टियाईवि गेव्हइ अट्ठियाईवि गेण्ह३, ताइ भंते! किं दव्यओ गेव्हइ, खेत्तओ गेण्हइ, कालओ गेव्हइ. भावओ गेण्हइ ? गोयमा ! दव्वओवि गेण्हइ, खेत्तओवि गेण्हइ, कालओवि गेण्हइ, भावओवि गेव्हइ 3 अहो भगवन् ! जीव जिन होने से क्वचित् चार और क्वचित् पांच दिशा के पुद्गल चिनाते हैं ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! टांक के एक आकाश में कितनी दिशा के पुद्गल छेढ़ाते हैं-व्यतिरिक्त होते हैं ? जैसे एकत्रित करने का कहा वैसे ही कहना. ऐसे ही पुहुल की वृद्धि होने का व हानि होने का कहना ॥ ७ ॥ द्रव्यों को उदारिक शरीरपने ग्रहण करता है उन द्रव्यों को क्या स्थिति के क्षेत्र के भर्ती ] पने ग्रहण करता है या अस्थितिकपने ग्रहण करता द्रव्य भी ग्रहण करता है और अस्थितिक द्रव्य भी ग्रहण करता है. [ जीव प्रदेश के अवगाहनादि ? अहो गौतम ! स्थितिक अहो भगवन् ! उन को क्या द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र से ग्रहण करता है, काल से ग्रहण करता है या भाव से ग्रहण करता है ? * मकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २००४ Page #2735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २७०५ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र +8+ শান ঃ ताई दव्वओ अणंतपएसियाई दवाई खेत्तओ असंखेजप:सांगाढाई, एवं जहा । पण्णवणाए पढमे आहारुदेसए जाव णिवाघाएणं छद्दिसिं, याघाइं पडुच्च सिय तिदिसि, सियचादीस, सियपंचदिसि ॥ ८ ॥ जीवेणं भंते ! जाइं दव्वाइं वेउव्विय सरीरत्ताए गेहंति ताई किं ट्रियाई ? एवंचेव णवरं णियमं छदिसि ॥ एवं आहारगसरीरत्ताएवि। ॥ ९॥जीवेणं भंते ! जाई दवाई तेयगसरीरत्ताए गेण्हंति पुच्छा ? गोयमा ! ट्ठियाई गेण्हति, णो आट्टियाई गेण्हंति, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स. कम्मगसरीर अहो गौतम ! द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र से ग्रहण करता है, काल मे ग्रहण करता है, और भाव से भी ग्रहण करता है. द्रव्य से अनंत प्रदेशिक द्रव्य ग्रहण करता है, क्षेत्र मे असंख्यात प्रदेशावगाडित भी ग्रहण करता है. यों जैसे पन्नवणा मूत्र के पहिले आहार उद्दशा में कहा यावत् निर्व्याघात मे छ दिशा के व्याघात से स्यात् तीन स्यात् चार व स्यात् पांचों दिशा के पुद्गल ग्रहण करते हैं अहो भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को क्रेय शरीरपने ग्रहण करता है वे क्या स्थितिक हैं या अस्थितिक हैं ? ऐसे ही कहना. परंतु नियमा छ दिशी के पुद्गलों ऐसे ही आहारक शरीर का जानना ॥१॥ अहो भग-31 वन् ! जीव जो द्रव्य तेजसू शरीरपने ग्रहण करता उन्हें क्या स्थितिक ग्रहण करता है या अस्थितिक ग्रहण करता है ? अहो गौतम ! स्थितिक शरीरपने ग्रहण करता है परंतु अस्थितिक शरीरपने नहीं ग्रहण पच्चीसवा शतक का दूभर 1 उद्देशा १ 48 - Page #2736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है एवंचव जाव भावओ गेण्हइ, ताई कि एगपएसियाई गेण्हइ, दुपदेसियाई गेण्हइ, एवं जहा भासा पदे जाव आणुपुचि गेण्हइ, णो अणाणुपुचि गेण्हइ, ताई. भंते ! कइदिसि गेण्हइ ? गोयमा ! णिवाघाएणं जहा ओरालियस्स ॥१०॥ जीवेणं भंते ! जाई दवाई सोइंदियत्ताए गेण्हइ जहा वेउब्विय सरीरं, एवं जाव जिभिदियत्ताए फासिंदियत्ताए, जहा ओरालियसरीरं मणजोगत्ताए जहा कम्मग सरीरं णवरं णियमा छदिसि ॥ एवं वइजोगत्ताएवि, कायजोगत्ताएवि, जहा ओरालिय सरीरस्स ॥११॥ करता है. शेष सब उदारिक शरीर जैसे कहना. कार्माण शरीर का ऐसे ही कहना यावत् भाव से ग्रहण करता है. अहो भगवन् ! वे एक प्रदेशिक ग्रहण करे, द्वि प्रदशिक ग्रहण करे, ऐसे ही जैसे भाषा पद में कहा यावत् अनुक्रम से ग्रहण करे. परंतु अनानुपूर्वी से नहीं ग्रहण करे. अहो भगवन् ! वे कितनी दिशाओं के पुद्गल ग्रहण करे ? अहो गौतम ! निर्व्याघात मे उदारिक शरीर जैसे कहना ॥१०॥ अहो भगवन् ! जीव जो द्रव्य श्रोत्रेन्द्रियपने ग्रहण करे बगैरह जैसे वैय शरीर जैसे कहना: ऐसे हाने जिव्हन्द्रिय पर्यंत कहना. स्पर्शेन्द्रिय का उदारिक शरीर जैसे. मनयोग का कार्माण शरीर जैसे परंतु नियमा छ दिशि कहना. एस ही वचन योग का. काया योग को उदारिक शरीर जैसे ॥ ११ ॥ अहे २१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक .प्रकाशंक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* मावार्थ AAAAAAA Page #2737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4.३०*> पंचमाङ्ग चित्राह पण्णत्त ( भगवति ) सूत्र ++ जीवेण भंते ! जाई दव्बाई आणापाणुत्ताए गेव्हंति, जहेब ओरालिय सरीरत्ताए जाव सिय पंचदिसिं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ! केइ चउवीस दंडएणं एयाणि पदाणि भण्णंति: जस्स जं अस्थि || पणवीसंइमस्स वितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ २ ॥ कइविणं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ संठाणा पण्णत्ता तंजहा - परिमंडले वट्टे तसे चउरंसे आयते अणित्थत्थे || १ || परिमंडलाणं भंते ! संद्वाणा दव्बट्टयाए किं संखेजा असंखेज्जा अनंता ? गोयमा! णो संखेज्जा णो असंखेजा अनंता ॥ वट्टाणं भंते! भगवन् ! जीव जो द्रव्य श्वासोश्वासपने ग्रहण करे वगैरह सब उदारिक शरीर जैसे यावत् स्यात् पांच दिशी. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. कितनेक चौवीस दंडक में उक्त पदों जिन को जो होवे {उनको कहना. ऐसा कहते हैं. यह पच्चीसवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २५ ॥ २ ॥ दूसरे उद्देशे में द्रव्य से पुद्गल का कथन कीया वे प्रायः संस्थानवंत होने से यहां पर संस्थान की पृच्छा करते हैं. अहो भगवन् ! संस्थान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! संस्थान के छ भेद कहे हैं ? परिमंडल संस्थान २ वृत्तसंस्थान ३ त्र्यंसंस्थान ४ चौरस ५ आयात और ६ अनित्यस्थ ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान द्रव्य से क्या संख्यात हैं, असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात o ८००० पच्चीसना शतक का तीसरा उद्देशा + २७०७ Page #2738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ८०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ठाणा एवं चैव एवं जान अणित्थंत्था || एवं पएसटुयाएवि || एवं दव्बटु पएस - या || २ || एसि भंते ! परिमंडलवतंसचउरंसआयतअणित्थं त्थाणं संठाणाणं, दव्बट्टयाए पदेसट्टयाए दव्यपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्था परिमंडलसंद्वाणा दव्वट्टयाए, वहा संट्ठाणा दव्वटुयाए: संखेज्ज गुणा चउरंसा संद्वाणा दव्वट्टयाए संग्खज्जगुणा, तसा संद्वाणां दव्बट्टयाए संखेजगुणा, असंख्यात नहीं परंतु अनंत हैं ऐसे ही वृत्त व्यंम, चौरंस, आयत और अनित्यस्थ का जानना. जैसे है पारमंडलादि द्रव्यार्थ से अनंत हैं वैसे ही प्रदेशार्थ से भी अनंत हैं. और द्रव्य प्रदेश से भी अनंत हैं. ॥२॥ अहो भगवन् ! इन परिमंडल, वृत्त त्र्यंम, चौरंस आयान और अनित्यस्थ संस्थान में मे द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और द्रव्य प्रदेशार्थ में से कोन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थांडे परिमंडल संस्थान द्रव्यार्थ से इस से वृत्त संस्थान संख्यात गुने, इस से संस्थान अन्य संस्थान की अपेक्षा से विशेष पुगलों अवगाहे वह संस्थान उस अन्य संस्थान की अपेक्षा से कम कहा जाता है. जैसे परिमंडल संस्थान जघन्य वीस प्रदेशावगाहित है और वृत पांच चौरंस चार, इयंस तीन और आयात दो; यो कम प्रदेशावगाहित होने से थोडा क्षेत्र में रहते हैं जिस से ज्यादे मीलते हैं और परिमंडल ज्यादे प्रदेशावग्राही होने से नाम पाते हैं. * प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * * २७०८ Page #2739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयत संढाणा दव्वट्टयाए संखेजगुणा, अणित्थंत्था संढाणा दवट्टयाए असंखेजगुण। पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा परिमंडला संट्ठाणा पदेसट्ठयाए ॥ वटा संढाणा पदेसट्टयाए संखेजगुणा, जहा दवट्ठयाए तहा पदेसट्टयाएवि जाव अणित्थंस्था सट्टाणा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ दव्वट्ठ पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा परिमंडल संटाणा, दबट्टयाए सोचेव गमगो भाणियव्वो जाव अणित्थत्था संढाणा.. दव्वट्ठयाए असंख जगुणा ॥ अणेत्त्येहितो संढाणेहितो दबट्ठयाएहितो परिमंडला पदेसट्टयाए असंखजगुणावा संट्ठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सोचेव. पदेसट्टयागमओ भाणियब्बो जाव अणि. चौरंस संस्थान द्रव्य से संख्यात गुना. इस से ध्यस संस्थान, द्रव्य से मख्यात गुतरा, इस से आयत संस्थान द्रव्य से संख्यात गुना, इस से अनित्थस्थ संस्थान द्रव्य से असंख्यात गुना. अब प्रदेश आश्री कहते हैं. सब से थोडे परिमंडल संस्थान प्रदेश आश्री, इस से वृत्त संस्थान संख्यात गुना, इस से चउरंस संस्थान संख्यात गुना, यों जैसे द्रव्य आश्री कहा वैसे ही प्रदेश आश्री कहना यावत् अत्यिस्य संस्थान प्रदेश आश्री असंख्यात गुना. अब द्रव्य प्रदेश आश्री कहते हैं सब स थोडे परिमंडल संस्थान द्रव्य आश्री 17वगैरह पहिला गमा कहना यावत अनित्थस्थ संस्थान द्रव्य आश्री असंख्यात गने इस से परिमंडल मुस्थान चमांग विवाहपएणत्ति ( भगवती) मत्र 48 43 पच्च सत्रा शतकका तीरा उद्देशा । Page #2740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIAAAAAARL 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - 'त्यत्था संढाणा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ ३ ॥ कइणं भंते ! संढाणा पण्णता ? गोयमा ! पंच संढाणा पण्णत्ता तंजहा परिमंडले जाव आयते ॥ परिमंडलाणं भते ! संढाणा किं संखेज्जा असंखज्जा अणंता ? गोयमा ! णो संखेजा णो असंखज्जा अणंता वटाणं भंते ! संढाणा किं संखजा ? एवंचव ॥ एवं जाव आयता ॥ ४ ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए परिमंडल संढाणा किं संखज्जा असंखेजा अणंता ? गोयमा! णो संखजा णो असंखेजा अगंता ॥ वाण भंते ! संढाणा किं संखजा असंखज्जा एवंचेव ॥एवं जाव आयता ॥ स्करप्पभाएणं भंते ! पुढवीए परिमंडल संढाणा एवंचेव प्रदेश आश्री असंख्यात गुने, इस से वृत्त संस्थान प्रदेश आश्री संख्यात गुने, यावत् अनित्थस्थ संस्थान । प्रदेश आश्री असंख्यान गुने. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् : संस्थान के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! - संस्थान पांच कहे हैं. जिनके नाम परिमंदल यावत् आयत. अहो भगवन ! परिमंडल संस्थान क्या संख्यातं हैं, असंख्यात हैं या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं है परंतु अनंत हैं. ऐसे ही वृत्त यावत् आयत पर्यंत कहना. ॥ ४ ॥ अहो भगवन ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में परिमंडल संस्थान क्या संख्यात असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं हैं. परंतु अनंत हैं.. • प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्य Page #2741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र एवं आयता एवं जावं अहे सत्तमाए सोहम्मेणं भंते ! कप्पे परिमंडल. संट्ठाणा एवंचेव ॥ एवं जाव अच्चुए ॥ गेवेजगविमाणाणं भंते ! परिमंडल संट्राणा? एवंचव एवं अणुत्तर विमाणेसुवि ॥ एवं ईसिप्पभाराएवि ॥ ५॥ *२७११ जत्थणं भंते ! एगे परिमंडल संढाणे जवमझे तत्थ परिमंडल संट्राणा किं संखेजा असंखेज्जा अणंता ? गोयमा ! णो संखेजा णो असंखेज़ा अणंता॥ वटाणं भंते ! संट्राणा किं संखजा असंखेजा अणंता ? एवंचव ॥ एवं जाव आयता। जत्थणं भंते! एगेवढे संठाणे जवमज्झ तत्थ परिमंडल संठाणा एवंचव एवं जाव आयता एवं एकेकं संट्राणेणं पंच विचारयव्वा ॥ ६ ॥ जत्थणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे ऐसे ही वृत्त यानत् आयत पर्यंत जानना. ऐसे ही शर्करप्रभा पृथ्वी यावत् सातवी तमतमा पृथ्वी, सौधर्म देवलोक यावत अच्युत देवलोक, ग्रैवेयक, अनुत्तर विमान व ईषत्माग्भार पृथ्वी में ऐसे ही कहना. ॥५॥ अहो भगवन् ! एक परिमंडल संस्थान वाला यवमध्य में परिमंडल संस्थान क्या संख्यात, असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात . असंख्यात नहीं हैं परंतु अनंत परिमंडल संस्थान हैं.3% मे ही वृत्त यावत् आयत का जानना. ऐसे ही एक २ संस्थान में पांच २ बोल विचारना ॥६॥ 1ो भगवन् ! इम रत्नप्रभा पृथ्वी में एक परिमंडल संस्थानवाला व मध्य में क्या परिमंडल संस्थान । ११ पञ्चीसवा शंतक को तीसरा उद्देशान HIC । Page #2742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ० अनुवादक- बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी परिमंडल संद्वाणे जवमज्झे तत्थणं परिमंडल संद्वाणा किं संखेज्जापुच्छा ? गोयमा ! संखेजा णी असंखेज्जा, अणंता ॥ वाणं भंते ! संद्वाणा किं संखेज्जा एवं चैव ॥ एवं जाव आया ! जत्थणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वहसंद्वाणे जनमज्झे तत्थणं परिमंडल संद्वाणा किं संखेज्जा पुच्छा ? गायमा ! णो संखेजाणो असंखज्जा अनंता ॥ वाणा एवं चैव ॥ एवं जाब आयता || एवं पुणरवि एक्केक संद्वाणेणं पंच विचारयन्वा जब हेट्ठिला जाब आयतेणं ॥ एवं जाव अहं सत्तमाए ॥ एवं कप्पेब जाव 'ईसिपसारा पुढबीए 11 ७ ॥ वट्टेणं भंते ! संद्वाणे कइपएसिए कइपए सोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा ! वह संद्वाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा - वणवद्वेय संख्यात, असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं हैं परंतु अनंत हैं. ऐसे ही वृत्त यावत् आयत पर्यंत जानना. अहो भगवन् ! इन रत्नप्रभा पृथ्वी में वृत्त संस्थानवाला यवमध्य में परिमंडल संस्थान क्या संख्यात, असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं हैं परंतु अनंत हैं, वृत्त यावत् जायत संस्थान का ऐसे ही जानना. एक संस्थान में पांच २ बोल कहना. ऐसे ही सातवी तमतमा पृथ्वी तक सब देवलोक यावत् ईषत्प्राग्भार पृथ्वी पर्यंत जानना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! वृत्त संस्थान कितने प्रदेशवाला व कितने प्रदेशावग्राही है ! अहो मौतम! संस्थान के दो भेद कहे * प्रकाशक- राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रमादजी * २७१२ Page #2743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aag २७१.३ पयरवडूय ॥ तत्थर्ण जे से पयरवटे से दुविहे पण्णत्तेतंजहाओयपएसिएय जुम्मपएसिएय सत्थणं जे से ओयपएसिएय पयरवटे से जहण्णेणं पंचपदेसिए पंचपदेसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखजपएसोगाढे ॥ तत्थणं जे से जुम्मपएसिए से जहण्णेणं बारसपएसिए बारसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज पएसो. गाढे ॥ तस्थणं जे से घणवढे से दुविहे पण्णत्ते, तंजहाओयपएसिएय जुम्म पएसिएय तत्थणं, जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढ पण्णत्ते, उक्को सेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्त तत्थणं जे से जुम्मपएसिए से भावार्थ हैं. पनवृत्त और मतरवृत्त, उस में प्रतर वृत्तके दो भेद कहे हैं. विषम संख्यावाले प्रदेश से बना सो ओज । प्रदेशिक और २ सम संख्यावाले प्रदेश से बना मो युग्म मदेशिक इस में ओज प्रदेशिक जघन्य पांच प्रदेशिक पांच प्रदेशावगाही है और उत्कृष्ट अनंत मदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाही है और जो युग्म प्रदेशिक .. है वह जघन्य बारह प्रदेशिक व बारह प्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाहि* हैं. धनवृत्त के दो भेद कहे हैं ओजमदेशिक व युग्म प्रदेशिक इस में जो ओज मदेशिक है वह * जघन्य सात मदेशिक व सात प्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत मदेशिक व असंख्यात प्रदेश्वावगाही है और . पंचमांग विवाह पण्णत्ति (मगवती) मूत्र पचीसवा शतक का तीसरा Page #2744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७१४ जहण्णेणं बत्तीस पएसिए बत्तीस पएसोगाढे पण्णत्ते उक्कोसेणं अर्णत पएसिए असंखेज' पएसोगाढे पण्णत्ते. ॥ ८ ॥ तंसेणं भंते ! सट्टाणे कति पदेसिए कतिपदेसोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा ! तंसेणं संढाणे दुविहे पण्णत्ते; तंजहा घणतंसेय, पयरतंसेय ॥ तत्थणं जे से पयरतंसेय से दुविहे पण्णत्ते, तंजहा ओयपएसिएय जुम्मपएसिएय ॥ तत्थणं जे से आयपएसिए से जहण्णेणं तिपदेसिए तिपदेसोगाढे पण्णत्ते ॥ उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते ॥ तत्थणं जे से जुम्म पएसिए से जहणेणं छप्पतिए छप्पदेसोगाढ पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंत पदेसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते ॥ तत्थणं जे ते घणसंसे से दुविहे पण्णत्ते, IF नो युग्म प्रदेशिक है वह जघन्य बत्तीस प्रदेशिक व वसीमप्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाही हैं ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! यस संस्थान कितने प्रदेशिक व कितने प्रदेशावगाही है ? अहो गौतम ! त्र्यंत संस्थान के दो द कहे हैं. १ घनत्र्यंत व २ प्रतर ऽयंस. उस में प्रतर यंस के दो भेद कहे हैं ओज मदेशिक व युग्म प्रदेशिक. जो ओज प्रदेशिक है वह जघन्य तीन मदेशिक | तीन प्रदेशावगाही और उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही और युग्म प्रदशिक जमन्य १.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *काशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4880 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र तंजहा-ओयपएसिए जुम्मपएसिए ॥ तत्थणं जे से ओयपएसिए से जहणेणं पणती. सपएसिए पणतीसपएसोगाढे पण्णत्ते । उक्कोसेणं अणंत पएसिए तंचेव ॥ तत्थणं जे से जुम्मपएसिए से जहणेणं चउप्पएसिए चउप्पएसोगाढे पण्णत्ते, उक्कोसेणं अणंतपरसिए, तंचेव ॥९॥ चउरंसेणं भंते ! संढाणे कइपएसिए पुच्छा ? गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे पण्णत्ते भेदो जहेव वदृस्त ॥ जाव तत्थणं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं णवपएसिए णवपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ते ॥ तत्थणं जे से जुम्म पएसिए से जहणणं चउप्पएसिए चउप्पदेसोगाढे मदेशिक छ प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. अब घन त्र्यंस के दो भेद १ ओज मदेशिक व २ युग्म प्रदेशिक, ओज प्रदेशिक जघन्य पैंतीस प्रदेशिक पैंतीस प्रदेशावगाही. उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. युग्म प्रदेशिक जघन्य चार प्रदेशिक चार प्रदेशा वगाही है, उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही ॥९॥ अहो भगवन् ! चौरंस संस्थान कितने % ७ प्रदेशिक व कितने प्रदेशावगाही है ? अहो गौतम ! चौरंग संस्थान के दो भेद कहे हैं ? ओज प्रदेशिक व युग्म प्रदेशिक वगैरह वृत्त जैसे भेद कहना.. इस में ओज प्रदेशिक जघन्य नव प्रदेशिक नव प्रदेशावगाही पच्चीसवा शतक का तीसरा उद्दशा 4.80 ११ Page #2746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुरसदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पण उक्कोसेणं अपंतपदेसिए तंचेव ॥ तत्थणं जे से घण चउरसे से दुविहे पण्णते, तंजहा ओयपएसिएय जुम्म पएसिएय ॥ तत्थणं जे से ओयपएसे से जहण्णेणं सत्तावीसपएसिए सत्तावीस पएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव ॥ तत्थणं जे से जुम्म पएसिए से जहण्णेणं अटुपएसिए अट्ठपएसोगाढे पण्णत्ते, उकोसेणं अणंतपएसिए तहेव ॥ १० ॥ आयतेणं भंते ! संठाणे कइपएसिए कइपएसोगावे पण्णत्ते ? गोयमा ! आयतेणं संठाणे तिविहे पण्णत्ते; तंजहा सेढियायते, पयरायते, घणायते, ॥ तत्थणं जे से सेढिआयते से दुविहे पण्णत्ते, तंजहा ओयपएसिए जुम्म उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाही है. और जो युग्म प्रदेशिक है वह चार प्रदेशिक व चार प्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाही है. अब घनचौरंस के दो भेद कहे हैं. भोज प्रदेशिक व युग्म प्रदेशिक. उस में ओज प्रदेशिक जघन्य सत्तावीस प्रदेशिक मचावीस प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्पात प्रदेशावगाही. जो युग्म प्रदेशिक है वह जघन्य आठ प्रदेशिक व आठ प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक व असंख्यात प्रदेशावगाही ॥१०॥ अहो भगवन् ! आयत संस्थान कितने मदेशिक व कितने प्रदेशावगाही हैं ? अहो गौतम ! भायत * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसह्मयजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #2747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१४ पएसिएय तत्थणं जे से ओय पएसिए से जहणेणं तिपदेसिए तिपदेसोगाढे उक्कोसणं अणंत पएसिए तंचेव ॥ तत्थणं जे से जुम्मपरीसए से जहण्णेणं दुपएसिए दुपदेसो गाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तंचेव ॥ तत्थणं जे से पयरायते से दुविहे पण्णत्ते तंजहा ओयपएसिएय जुम्म पएसिएय ॥ तत्थणं जे से आयपएसिए से जहण्णेणं पण्णरसपदेसिए पण्णरसपएसोगाढे ॥ उक्कोसेणं अणंत पएसिए तहेव ॥ तत्थणं जे से जुम्म पएसिए से जहण्णेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे ॥ उक्कोसेणं अणंत पएसिए तहेव।। तत्थणं जे से घणायते से दुविहे पण्णत्ते तंजहा ओयपएसिएय जुम्म पएसिएय अवार्थ संस्थान के तीन भेद कहे हैं. १ श्रेणिबद्ध आयत, २ प्रतर आयत और ३ घन आयत. उस में श्रेणीबद्ध आयत के दो भेद ओजप्रदेशिक व यग्म प्रदेशिक, ओज प्रदेशिक जघन्य तीन प्रदेशिक तीन प्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. युग्म प्रदेशिक जघन्य दो प्रदशिक दा प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. प्रतरायत के दो भेद ओजप्रदेशिक व युग्म प्रदेशिक. ओज To प्रदेशिक जघन्य पनरह प्रदेशिक पन्नरह प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. युग्म प्रदेशिक जघन्य छ प्रदेशी छ प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. बनायत पंचमांय विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4 wwwwwwwwwwwwwwwwraniwww 2880- पञ्चासत्रा शतक का तीसरा उद्देशा88800 । Page #2748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१८ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी+ तत्थणं जे से ओयपएसिए से जहण्णेणं पणयालीस पएसिए पणयालीसपएसोगाढ ५. उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव ॥ तत्थणं जे से जुम्मपदेसिए से जहण्णेणं बारस पएंसिए बारसपएसोगाढे ५० उक्कोसेणं अणंत पएमिए तहेव ॥ ११ ॥ परिमंडलेणं भंते ! सट्ठाणे कइ पएसिए पुच्छा ? गोयमा ! परिमंडलेणं संठाणे दुविहे पण्णत्वे तंजहा घणपरिमंडलेय पयरपरिमंडलेय ॥ तत्यणं जे से पयरपरिमंडले से जहण्णेणं वीसइपएसिए वीसइपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव, तत्थणं जे से घण परिमंडले से जहण्णेणं चत्तालीस पएसिए चत्तालीस पएसोगाढे उक्कोसेणं अणंत के दोभेद ओज प्रदेशिक व युग्म प्रदेशिक जो ओज प्रदेशिक हैं वह जघन्य पैंतालीस प्रदेशिक व पैंतालीस प्रदेशावगाही है उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक. असंख्यात प्रदेशावगाही युग्म प्रदेशिक जघन्य बारह प्रदेशिक बारह प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही॥१॥अहो भगवन्! परिमंडल संस्थानके कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! परिमंडल संस्थान के दो भेद घन परिमंडल और प्रतर परिमंडल. इस में मतर परिमंडल जघन्य वीस प्रदेशिक व बीस प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशावगाही. घन परिमंडल जघन्य चालीस प्रदेशिक चालीस प्रदेशावगाही उत्कृष्ट अनंत प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशाव प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | ** पंचमांग विवाह पञ्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 400 एसिए असंखेज परसोगाढे ॥ १२ ॥ परिमंडलेपणं भंते! संठाने दव्वट्टयाए किं कडजुम्मे तेओए दावरजुम्मे कलिओए ? गोयमा ! णो कडजुम्मे णो तेयोगे णो दावरजुम्मे कलिओए || बट्टेणं भंते! संद्वाणे दव्वट्टयाए एवंचेव, एवं जाव आयते ॥ परिमंडलाणं भंते! संट्टाणा दव्वट्टयाएं किं कडजुम्मा तेओगा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा, सिय तेओगा, सिय दावरजुम्मा सिय कलिओगा ॥ विहानासे णो कडजुम्मा, जो तेओगा, जो दावरजुम्मा, कलिओगा, एवं जाब आयता ॥ १३ ॥ परिमंडलेणं भंते! संठाणे पदेमट्टयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! [गाही ॥ १२ ॥ अहो भगवन् । परिमंडल संस्थान द्रव्य से क्या कृतयुग्म, त्रेता, द्वापर या कलि युग्म अहो गौतम ! परिमंडल संस्थान कलियुग्मवाले हैं. परंतु कृत, त्रेता व द्वापर { युग्मवाले नहीं हैं. ऐसे ही वृत्त यावत् आयत संस्थान का आश्री कहते हैं. अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान द्रव्य से क्या कृत युग्म, द्वापर, त्रेता कलियुग्म हैं ? अहो गौतम ! समुच्चय आश्री परिमंडल संस्थान स्यात् कृत युग्म, स्यात् त्रेता, स्यात द्रापर व स्थात कलि युग्म है. विधान से (विशेषता से) कृत, त्रेता व द्वापर नहीं है परंतु एक कलि युग्म है. ऐसे ही आयत जानना. अब समुच्चय 4- पचीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 48+ ६७१९ Page #2750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मुनि श्री अमोलक ऋषिनी र सिय कडजुम्मे सिय तेओगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलिओगे, एवं जाव आयते ॥ परिमंडलाणं भंते ! संढाणा पदेसट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सियकडजुम्मा जाब सियकलिओगाः विहाणादेसेणं कडजुम्मावि तेओगावि दावरजम्मावि कलिओगावि, एवं जाव आयता ॥ १४ ॥ परिमंडलेणं भंते ! सट्टाणे किं कडजुम्मपएसोगाढे जाव कलिओगंपदेसोगाढे ? गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे णो तेओगपदेसोगाढे, णो दावरजुम्म पएसोगाढे, णो कलिओग पएसोगाढे ॥ वट्टेणं संस्थान पर्यंत कहना. ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान प्रदेश से क्या कृन, त्रेता, द्वापर व कलियुग्म हैं ? अहो गौतम ! स्यात कृत युग्य, स्यात त्रेता, स्यात् द्वापर व स्यात कलियुग्म है. ऐसे ही आयत संस्थान पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! बहुत परिमंडल संस्थान प्रदेश से क्या कृत युग्म यावत् कलियुग्म है ? अहो गौतम ! समुच्चय आश्री स्यात कृत युग्म यावत् स्यात कलियुग्म विधान आश्री कृत युग्म, प्रेता, द्वापर व कलियुग्म है. एसे ही आयत संस्थान पर्यंत कहना. ॥ १४ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाही यावत् कलियुग्म प्रदेशावगाही है? अहो गौतमः कृत युग्म प्रदेशावगाही है। परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म प्रदेशावमाही नहीं है ॥१५॥ अहो भगवन ! वृत्त संस्थान क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाही • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ । Page #2751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंते ! सटाणे किं कडज़म्म पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मेपएसोगाढे सेय तेओगपएसोगाढे, णो दावरजुम्म पएसोगाढे, सिय कलिओगपएसोगाढे ॥ १६ ॥ तंसेणं भंते ! संढाणे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्म पएसोगाढे. सिय तेओग पएसोगाढे. सिय दावरजुम्म पएसोगाढे, णो कलिओग पएसोगाढे ॥ १७ ॥ चउरंसेणं भंते ! संटाणे जहा वटै तहा चउरंसेवि ॥ १८॥ आयतएणं भंते ! पुच्छा ? गायमा ! सिय कडजुम्म पएसोगाढे जाव सिय कलिओग पएसोगाढे । ॥ १९ ॥ परिमंडलाणं भंते ! संढाणा किं कडजुम्म पएसोगाढा तेओग पुच्छा ? पृच्छा? अहो गौतम! स्यातकृत युग्म प्रदेशावगाही,स्यात त्रेता युग्म प्रदेशावगाही स्यात कलियुग्म प्रदेशावगाही परंतु द्वापर युग्म प्रदेशावगाही नहीं. ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! यस संस्थान की पच्छा ? अहो गौतम : स्यात कृत युग्म प्रदेशावगाही, स्यात त्रेता, व स्यात वापर युग्म प्रदेशावगाही परंतु कलियम्म प्रदेशा वगाही नहीं ॥ १७ ॥ चउरंस संस्थान का व्रत संस्थान जैसे कहना ॥ १८ ॥ आयत संस्थान की पच्छा ? ale अहो गौतम ! स्यात कुन युग्म प्रदेशावगाही यावत् स्थात कलि युग्म प्रदेशा गाही ॥ १९ ॥ अहो भगवन! 17परिमंडल संस्थान क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाही हैं वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! औधिक वं विधना पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र igit 3. पञ्चोमवा शक का तीसरा उद्देशा भावार्थ Page #2752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२० ऋषनी 22 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक गोयमा ! ओघादेसेणवि, विहाणादेसेणवि, कडजुम्मएदेसो गाढा, णो तेओग पदेसो गाढा णो दायरजुम्मपएसोगाढा, णो कलिओगपदेसोगा ॥ २० ॥ वटाणं भंते ! संढाणा किं कडजुम्मपदेसे पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्म पदेसोगाढा, णो तओग, णो दावरजुम्म, णो कलिओग ॥ विहाणा देसेणं कडजुम्मपदेसोगाढावि, तेओगपदेसो गाढावि, णो दावरजुम्म पदेसोगाढा कलिओ गपदेसो गाढावि ॥ २१ ॥ तंसाणं भंते ! संढाणा किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्भ पदेसो गाढा, णो तेओग, णो दावरजुम्म, णो कलिओग से परिमंडल संस्थान कृत युग्म प्रदेशावगाही है परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं है. ॥२०॥ अहो भगवन् ? वृत संस्थान क्या कृत युग्म प्रदेशावगाही हैं वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! औधिक से कृत प्रदेशावगाही, परंतु प्रता, द्वापर व कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं हैं.. और विधाना देशसे कृत युग्म प्रदेशावगाही, त्रेता प्रदेशावगाही, व कलि युग्म प्रदेशावगाही है परंतु द्वापर युग्म प्रदेशावगाही नहीं है ॥२१॥ अहो भगवन् ! ऽयंस युग्म की पृच्छा ! अहो गौतम ! औधिक से में कृतयुग्मप्रदेशावगाही है, परंतु वेता, द्वापर व कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं है, विधानादेश से कृतयुग्म । *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाम भावार्थ Page #2753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २७२३ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सत्र 2018 पएसोगाढावि, विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढावि, तेओगपएसोगाढावि, . दावर जुम्म पएसोगाढावि, जो कलिओग पएसोगाढा, चउरंसा जहा वहा ॥ २२ ॥ आययाणं भंते ! सट्टाणा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्म पएसोगाढा णो तेओग पएसोगाढा, णो दावर जम्म पएसोगाढा. णो कलिओग पएसोगाढा ॥ विहाणादेसेणं कडजुम्म पएसोगाढावि जाव कलिओगपएसोगाढावि ॥ २२ ॥ परिमंडलाणं भंते ! संट्ठाणे किं कडजुम्म समय ठिईए, तेओग समयठिईए, दावरजुम्म समयठिईए, कलिओग समयठिईए ? गोयमा ! सिय कड. प्रदेशावगाही, त्रेता प्रदेशावगाही व द्वापर प्रदेशावमाही हैं. परंतु कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं है. चउरंस E का वृत्त जैसे कहना ॥ २२ ॥ अहो भगवन ! आयतन संस्थान की पृच्छा ? अहो गौतम ! औधिक से कृतयुग्म प्रदेशावगाहा है. परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म प्रदेशावगाही नहीं है. विधानादेश से कृतयुग्म प्रदेशावगाही यावत् कलियुग्म प्रदेशागाही है ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान क्या कृतयुग्म ममयकी स्थितिवाले हैं त्रेता समयकी स्थितिवाले, द्वापरयुग्मके समयकी स्थितिवाले या कलि युग्मसमयकी स्थिति वाले हैं? अहो गौतम ! स्यात् कृतयुग्म समय की स्थितिवाले यावत् स्यात् कलि खुम समयकी समय की। 802 पच्चीसवा सतंकका तीसरा उद्देशा भावार्थ | Page #2754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mme wwwwwwwwwww ७२४ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + जुम्म समयठिईए जाव सियकलिओगसमयठिईए; एवं जाव आयते ॥ २३ ॥ परिमंडलाणं भंते ! संठाणा किं कडजुम्म समयठिईया पुच्छा ? गोयमा ! ओघा देसेणं सियकडजुम्म समयठिईया जाव सियकलिओग समयठिईया ॥ विहाणादेसेणं कडजुम्म समयठिईयावि जाव कलिओग समयठिईयावि, एवं जाव आयता ॥२४॥ परिमंडलेणं भंते ! संठाणे कालवण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मे जाव कलिओगे ? गोयमा : सियकडजुम्मे एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ठिईए ॥ एवं णीलवण्ण पजवेहि, एवं पंचहि वण्णेहिं,दोहिं गंधेहिं पंचहिं रसेहि, अट्टहिं फासेहिं जाव लुक्खफास स्थितिवाले हैं ऐसे ही आयत संस्थान पर्यंत कहना ।। २३ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल संस्थान क्या कृतयुग्म समयकी स्थितिबाले पृच्छा ? अहो गौतम ! औधिक आश्री स्यात् कृतयुग्म समयकी स्थितिवाले स्यात् कलि युग्मसययकी स्थितिवाले. और विधाना देश से कृतयुग्म समय की स्थितिबाले यावत् कलि युग्म समय की स्थितिवाले. ऐसे ही आयत संस्थान पर्यंत कहना ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! परिमंडल " संस्थान काला वणे पर्यव मे क्या कृतयुग्म यावत् कलि युग्म ? अहो गौतम! स्यात् कृतयुग्म ऐसे ही इस क्रम से जैसे स्थिति का कहा वैसे ही कहना. ऐसे ही नील वर्ण पर्यव की साथ जानना. ऐसे ही पांच • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 488 पनवेहि ॥ २५ ॥ सेढीओणं भंते ! दवट्टयाएणं किं संखेजाओ असंखेजाआ अणंताओ ? गोयमा ! णो संखजाओ णो असंखज्जाओ अणंताओ । पाईणपडीणायताओणं भंते ! सेढीए दवट्टयाए किं संखेजाओ एवंचेव ॥ . २७१५५ एवं दाहिणुत्तरायताओवि, एवं उद्दु महायताओकि ॥ २६ ॥ लोगागाससेढीओणं भंते ! दबट्टयाए किं संखेजाओ असंखेजाओ अणंताओ ?. गोयमा! णो संखेजाओ असंखेजाओ णो अणंताओ॥ पाईणपडीणायताओणं भंते ! लोगा गाससेटीओ दवट्टयाए कि संखेजाओ एवंचव ॥ एवं दाहिण उत्तरायताओवि ॥ एवं उड्ढमहायताओवि, ॥ २७ ॥ अलोगागाससेढीओणं. भंते ! दब्बट्टयाए. किं भावार्थ वर्ण, दो गंध, पांच रस आठ स्पर्श यावत् रूक्ष स्पर्श की साथ कहना ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! द्रव्य से श्रेणी क्या संख्यात असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं परंतु अनंत . श्रेणियों हैं. ऐसे ही पूर्व पश्चिम की श्रेणी, उत्तर दक्षिण की श्रेणी व ऊर्ध्व अधो की श्रेणी का जानना 8 ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियों द्रव्य से क्या संख्यात असंख्यात या अनंत हैं मोक गौतम ! संरूपात व अनंत नहीं हैं परंतु असंख्यात श्रेणियों हैं. ऐसे ही पूर्व पश्चिम, उचर दक्षिण । पण्णारी ( भगवती ) मूत्र पचीसवां शतक का तीसरा उद्देशा Page #2756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 मनुवादक-चालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + संखजाओं असंखेजाओं पुच्छा ? गोयमा! णो संखेनाओं णो असंखेजाऔ अण ताओ ॥ एवं पाईणपडीणायताओवि ॥ एवं दाहिणुत्तरायताओवि ॥ एवं उड्डमहा यताओवि ॥ २८ ॥ संढीएणं भंते ! पदेसट्टयाए किं संखजाओ ? जहा दन्वट्ठयाए. |२७२६ तहा पदेसट्टयाएवि जाव उदुमहायताओवि सन्याओ अणंताओ ॥ २९ ॥ लोगा . गास सेढीओणं भंते ! पएसट्टयाए किं संखेज्बाओ पुच्छा ? गोयमा ! सिय संखेजाओ सिय असंखेजाओ जो अणंताओ एवं पादीणपदीणायताओवि ॥ एवं दाहिणुत्तरायताओवि ॥ एवंचव उदुमहायताओ णो संखेजाओ असंखेजाओ ऊर्ष भयो की श्रेणी का जानना ॥ २७ ॥ अष्टो भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियों द्रव्य से क्यान संरूपात असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं परंतु अनंत हैं. ऐसे ही पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण व ऊर्ध्व अधो का जानना ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! प्रदेश से श्रेणी क्या संख्यात असंख्यात या अनंत हैं ? अहो गौतम ! जैसे द्रव्य का कहा वैसे ही प्रदेश का कहना यावत् ऊर्ध्व अधो सब अनंत ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! लोकाकाश श्रेणी प्रदेश से क्या संख्यात है वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! स्यात् संख्यात स्यात् असंख्यात हैं. परंतु अनंत नहीं हैं. ऐसे ही पूर्व पश्चिम, व काशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ Page #2757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 २७३१ पणनि ( भगवती ) सूत्र Net 48+ पंचमांगविवाह जो अणंताओ ॥ ३० ॥ अलोगागास सेढीओणं भंते ! पदेसट्टयाए पुच्छा ? गोयमा! सिय संखजाओ सिय असंखेजाओ सिय अणेताओ ॥ पादीण पदीणायताओणं अलोया पुच्छा ? गोयमा! णो संखेजाओ णो असंखेबाओ अणंताओ॥ एवं दाहिणुत्तरायताओ ॥ उड्डमहायताओ पुच्छा ? गोयमा ! सिय संखेजाओ सिय असं. खेज्जाओ, सिय अणंताओ ॥ ३१ ॥ सेढीओणं भंते ! किं सादीयाओ सपजवासयाओ, सादीयाओ अपजवसियाओ, अणाइयाओ सपजवसियाओ, अणाइयाओ अपजवसियाओ ? गोयमा ! णो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, णो सादीणओ अपज्जउत्तर दक्षिण का मानना. ऊर्ध्व अधोकी संख्यात व अनंत नहीं है परंतु असंख्यात श्रेणी हैं. ॥३०॥ अलोका काश की श्रेणियों की प्रदेश आश्री पृच्छा ? स्यात संख्यात स्यात असंख्यात व स्यात अनंबर अलोक में पूर्व पश्चिम की श्रेणियों की पृच्छा ? अहो गौतम ! संख्यात व असंख्यात नहीं परंतु अनंत हैं.14 ऐसे ही दक्षिण उत्तर का जानना. ऊर्ध्व अधोकी पृच्छा ? स्यात संख्यात, स्यात असंख्यात व स्यात अनंत ॥ ३१॥ अहो भगवन् ! श्रेणियों क्या सादि सपयवासित, मादि अपर्यवलित, अनादि सपर्यवसित । क अनादि अपर्यवसित हैं ?. अहो. गौतम ! सादि सपर्यवसित -- सादि । अपर्यवसित . पचीसवा शतक का तीसरा उद्देशा 4.88+ भावार्थ Page #2758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 वसियाओ, णो अणादियाओ सपजवसियाओ, अणादियाओ अपज्जवसियाओ ॥ एवं जाव उड्वमहायताओ ॥ ३२ ॥ लोगागाससेढीओणं भंते ! किं सादीयाओ सपजवसियाओ पुच्छा ? गोयमा ! सादीयाओ सपजवसियाओ, णो सादीयाओ अपज्ज. घसियाओ, णो अणादियाओ सपजवसियाओ. णो अणादियाओ अपजवसियाओ एवं जाव उड्डमहायताओ ॥ ३३ ॥ अलोगागास सेढीओणं भंते ! किं सादीयाओ पुच्छा, गोयमा ! सिय सादियाओ सपज बसियाओ, सिय सादियाओ अपनवासिया ओ सिय अणादियाओ सपनवसियाओ सिय अणादियाओ अपज्जवसियाओ. ॥ पादीण व अनादि सपर्यवसित नहीं है. परंतु अनादि अपर्यवसित हैं ऐसेही ऊर्थ अधोतक की श्रेणियों का जानना, E॥३२॥ अही भगवन्! लोकाकाश की श्रेणियों क्या सादि सपर्यवमित बगैर पृच्छा अहो गौतम मादि सपर्यव सित हैं परंतु सादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवभित व अनादि अपर्यवसिल नहीं हैं. ऐसे ही उथं अघोदिया पर्यंत जानना. ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियों क्या सादि सपर्यवसित है वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! स्यात सादि सपर्यवसित स्यात सादि अपर्यवसित, म्यात अनादि सपर्यवा स्यात अनादि अपर्यवसित हैं. ऐसे ही पूर्व पश्चिम व उत्तर दक्षिण की श्रेणियों का जानना. पर AiryuN . प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी आलाप्रसादजी , भावार्थ Page #2759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पदाणायताओ, दाहिणुत्तरायताओवि एवं चैव, णवरं णो सादियाओं सपजवसियाओ, सिय सादियाओ अपज्जवसियाओ सेसं तंचेव उडमहायताओ जहा ओहियाओ तहेव चउभंगा ॥ ३४ ॥ सेढीओणं भंते ! दबट्टयाए किं कडजुम्माओ, तेयोयाओ पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्माओ, णो तेयोगाओ, णो दावरजुम्माओ, णो कलि. ओयाओ ॥ एवं जाव उढ़ महायताओ॥ लोगागाससेढीओ एवंचेव ॥ एवं अलोगागास सेटीओवि ॥ ३५ ॥ सेढीओणं भंते ! पदेसट्टयाए किं कडजुम्मा, एवंचेव ॥ उड्डमहायताओ ॥ लोगागाससेढीओणं भंते ! पदेसट्टयाए पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्माओ, णो तेयोगाओ, सिय दावरजम्माओ, णो कलिओयाओ ॥ एवं पादीण भावार्थ सार्यवसित नहीं परंतु सिय सादि अपर्यवसित कहना. शेषवैसे ही कहना. ऊर्थ अधोके औधिक जैसे चार भांगे में कहा.॥३४॥ अहो भगवन् ! श्रेणियों द्रव्य से क्या कृत युग्म, बेता, वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! कृत युग्म त्रेता, द्वापर व कलियुग्म नहीं हैं. ऐस है, ऊर्ध पर्यंत कहना. ऐसे ही लोकाकाश की श्रेणियों व अलोकाकाश की श्रेणियों का जानना. ॥ ३५ ॥ अहो भगवन् ! श्रेणियों प्रदेश से क्या कृत युग्म वगैरह ऐसे ही जानना. ऐसे ही ऊर्भ अवो पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियों प्रदेश पंचमा विगह पण्णत (भगवति) सूत्र न पचीसाशनक का तीसरा उद्देश : - Page #2760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी 'पडीणार्यताओ, दाहिणुत्तरायंताओवि ॥ उड्डमहायताणं पुष्छा ! गोयमा ! कडंजुम्मा ओ, जो तेयोगाओ, णो दावरजुम्माओ, णो कलिओगाओ ॥ ३६॥ अलोगागास १. सेढीओणं भंते ! पदेसट्टयाए पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्माओ जाब सिय कलि. ओगाओ, एवं पादीणपदीणाययाओविः एवं दाहिणुत्तरायताओवि, उड्डमहायताओवि र एवं चेव, णवर णो कलिओगाओ, सेसं तंचेव ॥ ३७॥ कइशं भंते ! सेढीओ पण्णचाओ ? गोयमा ! सत्तसेढीओ पण्णत्ताओ, तंजहा उजुआयता, एगओवंका, दुहओवका, एगओखहा, दुहओखहा, चक्कओवाला, अडचक्कवाला, ॥ ३८ ॥ आश्री क्या कृत युग्म वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! स्यात कृत युग्म व स्यात द्वापर युग्म हैं परंतु त्रेता, कलियुग्म नहीं है. ऐसे ही पूर्व पश्चिम व उत्तर दक्षिण का मानना. ऊर्ध्व अधो की पृच्छा ? कृत युग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म नहीं है. ॥ ३६ ॥ अलोकाकाशकी श्रेणियों की प्रदेश आश्री पृच्छा ? अहो गौतम ! स्यात कृत युग्म यावत् स्यात कलियुग्म ऐसे ही पूर्व पश्चिम व उत्तर दक्षिण का जानना. ऊर्ध्वअधों का भी वैसे ही कहना परंतु कलियुग्म नहीं. ॥ ३७ ॥ अहो भगवन् ! श्रेणियों कितनी कहीं ? अहो मौतम ! श्रेणियों सात कही जिन के नाम ? ऋजु [ सरल ] आयात २ एक दिशा में वक्र ३ दोनों wwwmm *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ । Page #2761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 488+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र मोग्गला भंते! किं अणुसेही गती पत्र चइ विसेढी गती पत्रतइ ? गोयमा अणुसेद गती पवत्त णो विसेहि गती पवत्तइ ॥ दुपदेसियाणं भंते ! खंधाणं असेढी गती पत, विसेदी गती पवत्तइ ? एवं चेत्र; एवं जाव अणतपदे सियाणं धाणं ॥ ३९ ॥ रइयाणं भंते ! किं अणुसेढिगती पवत्तइ, विसेदि गती पवन्तइ ? एवं चेत्र; एवं जाव वेमाणियाणं ॥ ४० ॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए ( दिशा में वक्र ४ एकदिशा खा ५ दोनों दिशा खा ६ चक्रवाल व ७ अर्ध चक्रवाल ॥ ३८ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुगल क्या अनुश्रेणिगति से प्रवर्ते अथवा विश्रेणीगति-विपरीतगति से भव ? अहो गौतम ! अनुश्रेणीगति से प्रवर्ते परंतु विश्रेणीगति से प्रवर्ते नहीं. अहो भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंध क्या अनुश्रेणिगति से प्रत्रर्ते या विश्रेणि गति से प्रवर्ते ! अहो गौतम ! पूर्वोक्त जैसे कहना. ऐसे ही अत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना ॥ ३९ ॥ अहो भगवन् ! नारकी क्या अनुश्रेणीगति से प्रवर्ते या वेश्रेणीगति से प्रव अहो गौतम | उक्त प्रकार ही कहना ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ॥ ४० ॥ अहो भगवन् ! इस रस्त * ऋजु आयात से जीव ऊर्ध्व अधोलोक में ऋजुपने जावे, एकदिशा वक्र से दिशा वक्र से दो वक्र करे एक खडक से जीव वाममार्ग से प्रवेश करके वाम पार्श्व में जीव सीधा जाकर बक होवे दो उत्पन्न होवे, दो खुडक से बाम बाजु से प्रवेश कर दक्षिण बाजुमें उत्पन्न होवे, चक्रवाल से जीव वर्तुलाकार में परिभ्रमण करे और अर्धचक्रवाल से आधा चक्र से परिभ्रमण करे. ११ पश्चीमत्रा शक का तीसरा उद्देशा 49 २७३१ Page #2762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी Paras रियावाससय सहरसा पण्णत्ता, एवं जाव पढमसए पंचमुद्देसए जाव अणुत्तर विमाणत्ति ॥ ४१ ॥ कइविणं भंते ! गणिविडएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! दुबालसंगे गणिपिडए पण्णत्ते, तंजहा आयारो जात्र दिट्टिवाओ ॥ ४२ ॥ से किंतं आयारो ? आयारेण समणाणं णिग्गंथाणं आयार; गोयमा ! एवं अंगपरूवणा भाणि - यव्वा, जहा गंदीए. जाव सुतत्थोखलु पढमो, बिओ निज्जुत्ति मीसओ भणिओ; तइओ निरवसेसो, एसविहो होइ अणुओगो ॥ ४२ ॥ एएसिणं भंते ! णेरइयाणं प्रभा में कितने नरकावास कहे ? अहो गौतम ! प्रथम शतक के पांचवे उद्देश जैसे अनुत्तर विमान पर्यंत [ कहना. ॥ ४१ ॥ अहो भगवन् ! कितने गणिपिटक कहे हैं ? अहो गौतम ! बारह गणिपिटक कहे जिन के {के नाम आचार यावत् दृष्टिवाद ॥ ४२ ॥ अहो भगवन् ! आचार किस को कहते हैं ? अहो गौतम ! जिन में श्रमण निग्रन्थो का आचार गोचर होवे इत्यादि द्वादशांग में जो कुच्छ होवे उस का संक्षिप्त में कथन नंदीजी मूल सूत्र में कहा है वैसे ही यहां पर भी जानना यावत् सूत्र अर्थ अनुयोग निश्चय से होवे यह प्राथम अनुयोग, प्राथमिक विनय में मतिमोहमता होना यह दूसरा अनुयोग, स्पर्शिक नियुक्ति निश्चय अर्थ करना जिनादिके यह तीसरा अनुयोग, सूत्र अर्थ दोनों प्रकार नियुक्ति वह निरवशेष यह अनंतरोक्त { प्रकार तीन लक्षण होवे वह विधिविधान अनुयोग ॥ ४२ ॥ आगम में गति आदिकी प्ररूपण' है इसलिये * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी २७३२ Page #2763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३३ भावार्थ जाव देवाणं सिद्धाणय पंचगती समासेणं कयरे पुच्छा ? गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुबत्तव्वयाए, अट्ठगइसमासअप्पाबहुगंच ॥ एएसिणं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं जाव अणिदियाणय कयरे कयरे एवंवि जहा बहुवत्तव्वया तहेव ओहियं एवं भाणियव्वं सकाइयअप्पाबहुगं तहेव ओहियं भाणियव्यं ॥ ४३ ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं गति का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! नरक गति यावत् सिद्ध गति में कौन अल्प बहुत यावत् विशेषाअधिक? अहो गौतम ! सब से थोडी मनष्यणी, मनुष्य संख्यात गने. डम से नेरिये असंख्यात गने. इस A से तिर्यंचणी असंख्यात गुनी, इस से देवता असंख्यात गुने, इस से देवियों संख्यात गनी, इस से सिद्ध अनंत गुने. इस से तिर्यंच अनंत गुने. अहो मगवन ! सइन्द्रिय एकन्द्रिय यावत् अनेन्द्रिय में कौन अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! पन्नवणा के तीसरे पद अनुमार अल्पाबहुत जानना अर्थात सब से थोडे पंचेन्द्रिय, चौरेन्द्रिय विशेषाधिक, तेइन्द्रिय विशेषाधिक घेइन्द्रिय विशेषाधिक, अनेन्द्रिय अनंत गुने, एकेन्द्रिय अनंत गुने और सइन्द्रिय विशेषाधिक. अहो गौतम ! सकाय यावत् अकाय मे कौन किस से अल बहुत यावत् विशेषाधिक ? अहो गौतम ! सब से थोडे त्रसकाय तेउकाय असंख्यात गुने, 12 पृथ्वीकाया विशेषाधिक, अप्काया विशेषाधिक वायुकाया विशेषाधिक, अमाया अनंत गुने व वनस्पति | काया अनंत गुने ॥ ४३ ॥ अहो भगवन् ! इन जीव पुद्गलों यावत सब पर्यव में कौन किस से अल्प । 48+चमांग विवाहपण्मत्ति ( भगवती) मत्र 48 पञ्चीसवा शतकका तीसरा उद्देशा + Page #2764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A२७३४ 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पोग्गलाणं जाव सव्व पजवाणय कयरे कयरे जाव बहुवत्तव्वयाए ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं आउयस्स कम्मस्स बंधगाणं अबंधगाणं जहा बहुवत्तव्वयाए जाव आउयस्स कम्मरस अबंधगा विसेसाहिया ।। सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ पणवीससइमरस तइओ उद्दे सो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ ३॥ कइणं भंते ! जुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता तंजहा कडजुम्मे जाव कलिओगे॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चत्तारि जुम्मा पण्णता कडजुम्मे जाव कलिआगे, एवं जहा अट्ठारसमसए चउत्थदेसए तहेव जाव, से तेणट्रेणं गोयमा! हुन यावत् विशेषाधिक हैं वगैरह सब वक्तव्यता कहना अओ भगवन् ! इन आयुष्य कर्म के बंधक व अबंधक की जैसे बहुतव्यता यावत् आयुष्य कर्म के अबंधक विशेषाधिक. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पच्चीसवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुन। ॥ २५ ॥ ३ ॥ . . तीसरे उद्देशे में संस्थानादिक का परिमाण कहा चौथे उद्देशे में भी परिमाण के भेद कहते हैं. अहो भगवन् ! युग्म कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! युग्म चार कहे हैं, जिन के नाम. कृतयुग्म यावत् कलि युग्म.. अहो भगवन् ! किस कारन से कृतयुग्म यावत् कलि युग्म कहे ? वगैरह जैसे अठारवे शतक में *काशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. . भावार्थ 1 Page #2765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 48 ३२ + पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूज 48+ एवं वुच्च ॥ १॥ रइयाणं भंते ! कइजुम्मा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा । पण्णता, तंजहा कडजुम्मे जाव कलिओगे ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ रइयाणं चत्तारि जुम्मा पण्णत्ता तंजहा कडजुम्मे, अट्ठो तहेव ॥ एवं जाव वाउकाइयाणं । वणस्सइ काइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! वणस्सइ काइया सिय कडजम्मा स्टिय तेयोया सिय दावरजुम्मा, सिय कलिओया ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ वणस्सइ काइया चतुर्थ उद्देशा कहा वैसे ही यावत् अहो गौतम ! इमलिये ऐसा कहा गया है ॥ ॥ अहो भगवन् ! नारकी को कितने युग्म कहे हैं ? अहो गौतम ! नारकी को चार युग्म कहे हैं, कृतयुग्म यावत् कलि युग्म. अहो भगवन् ! नारकी को कृतयुग्म यावत् कलि युग्म किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! पूर्वोक्त अर्थ जैसे कहना. ऐसे ही वायुकाय पर्यंत कहना. वनस्पतिकाया की पृच्छा, अहो गौतम ! वनस्पतिकायिक स्यात् कृतयुग्म स्यात् वेता स्यात् द्वापर वस्यात्क लि युग्म है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया यावत् स्यात् कलि युग्म ? अहो गौतम ! उपपान आश्री वनस्पति कायिक जीव स्यात् कृतयुग्म, स्यात् द्वापर, स्यात् त्रेता व स्यात् कलि युग्म हैं * इसलिये ऐसा कहा गया है. * यद्यपि वनस्पति में अनंतपनाके संभव से कृतयुग्म है ताहंपि गत्यांतर से एकादि जीव का वहां उत्पाद अंगी। कार करके उस को चारों रूपपने सम काल न होने से ऐसा कहा है परंतु उद्वर्तन अंगीकार करके यहांपर व्याख्या नहीं की है। पचीसवा शतक का चौथा उद्देशा 98 Page #2766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जाव कलिओगा ? गोयमा! उववायं पडुच्च से तेण?णं तंचेव ॥ वेईदियाणं जहा णेरइयाणं, एवं जाव वेमाणियाणं ॥ सिद्धाणं जहा वणस्सइ काइयाणं ॥ २ ॥ कइविहाणं भंते ! सव्वदव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! छविहा सव्वदव्या पण्णत्ता, तंजहा धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए ॥ ३ ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! दवट्ठयाए किं कडर्जुम्मे जाव कलिओए ? गोयमा ! णो. कडजुम्मे, जो तेयोगे, णो दावरजुम्मे, कलिओगे ॥ एवं अहम्मत्थिकाएवि ।। एवं भावार्थ Eबेइन्द्रिय से वैमानिक पर्यंत नारकी जैसे कहना. सिद्ध का वनस्पतिकाया जैसे कहना ॥२॥ अहो भगवन् ! कितने प्रकार के सर्व द्रव्य कहे हैं ? अहो गौतम ! छ प्रकार के सर्व द्रव्य कहे हैं. उन के नाम. १. धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय ५ पुद्गलास्तिकाय और १६. कालः ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! द्रव्य से धर्मस्तिकाय क्या कृतयुग्म यावत् कलि युग्म है ? अहो गौतम : द्रव्य से धर्मास्तिकाया कृतयुग्म, त्रेता क द्वापर नहीं है परंतु कलि युग्म है. ऐसे ही अधर्मास्तिकाय व आकाशास्तिकाया का जानना.. [ ये तीनों द्वव्य से एक होने से ] जीवास्तिकाया की पृच्छा, महो मौतफ ! द्रव्य से जीवास्तिकाया कृत युग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म नहीं है. जीव द्रव्य अनंब व मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + • प्रकाशक-राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भमवती ) सूत्र g आगासस्थिकाएवि ॥ जीवस्थिकारणं पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्में, तेयोगे, णो दावरजुम्मे, णो कलिओए ॥ पोग्गलत्थिकाएणं पुच्छा ? गोयमा ! सियकडजुम्मे जाव सिय कलिओगे ॥ अडासमए जहा जीवत्थिकाए॥४॥ धन्मत्यिकाएणं भंते ! पदेसट्टयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे, णो तेयोए णो दावरजुम्मे. णो कलिओए ॥ एवं जाव अडासमए ॥ ५॥ एएसिर्ण भंते ! धम्म त्थिकार अहम्मत्थिकाए जाव अद्धासमयाणं दवट्ठयाए, एएसिणं अप्पाबहुगं जाव १ भावार्थ अवस्थित होने से. पुद्गलास्तिकाया की पृच्छा, अहो गौतम ! पुद्गलास्तिकाया द्रव्य से स्यात कृव युग्म | स्यात प्रता, स्यात् द्वापर व स्यात कलियुग्म हैं, पुद्गल परपाणुओं का संघातन व भेद होने से, अद्धासमय है। जीवास्तकाया जैसे जानना.॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया प्रदेश से क्या कृतयुग्म है वगैरह पृच्छा! अहो गौतम ! कृत युग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म नहीं है, क्यों की धर्मास्तिकाया प्रदेश से असंख्यात मदेश में अवस्थित है. ऐसे ही काल पर्यंत छही द्रव्यों का कथन करना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! इन धर्मास्तिकाया, अधर्मास्तिकाया यावत् काल पर्यंत छह. द्रव्यों में कौन अल्प. बहुत यावत् विशेषाधिकई 30 ? अहो गौतम जैसे पनवणा के तीसरे पद में अल्पाबहुत्व कही वैसे ही यहां कहना. अर्थात धर्मास्तिकाया । अधर्मास्तिकाया व आकाशास्तिकाया ये तीनों परस्पर तुल्य व सबसे घोडे, इससे जीवास्तिकाया अनंत गुनी । 48- पच्चीसवा तक का पंचमा विवाह A . . Page #2768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७३८ भावार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - बहुवत्तव्वयास तहेव गिरवसेसं ॥ ६ ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! कि ओगाढे अणोगाढे गॉग्यमा ओगाढे णो अणोगाढे ॥ जइ ओगाढ किं संखजपएसोगाढे असंखेजपएसो गाढे.अणंतपएसो गाढं? गोयमा! णो संखेजपए सोगाढे, असंखेज पएसोगाढे, णो अणंत पए,मोगाढे ॥ जइ असंखजपएसोगाढ किं कडजुम्म पएसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! कजुम्मपएमोगाढे, णो तेयोगे, णो दाव'जुम्मे, णो कालओगपएसोगाढे, एवं अह. म्मत्थिकाएवि, एवं आगासस्थिकाए ॥ जीवात्थकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए एवं इस से मुद्गलास्तिकाया अंत गुती और इस से कल अत गुना ॥ ६॥ अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया क्या अवगाहकर रही है या विना अवगाह कर रही है ? अहो गौतम ! अवगाह कर रही है परंतु विना जग्गाहकर नहीं रही है. यदि अवगाहकर रही है तो क्या संख्यात प्रदेश अवगाहकर रहीहै,असंख्यात प्रदेश अवगाह कर रही है या अनंत प्रदेश अवगाह कर रही है ? अ. गौतम ! संख्यात प्रदेश अवगाही व अनेक प्रदेश अवगाही नहीं है परंतु असंख्यात प्रदेशावगाही है. यदि असंख्यात प्रदेशावगाही है तो क्या कृतयुग्म पदशावगाडी है वगैरह पृच्छ', अहो ग.नम ! नियुम प्रदेशावगाही है परंतु त्रेता, द्वापर व कलियाम प्रदेश वगाही नहीं है. धर्मास्तिकाया को लोकाकाश प्रदेश प्रमाण से कृतयुग्मपनाही हो. ऐसे मी भधर्मास्तिकाया, आकाशास्तिकाया, जीवास्तिकाया, पुद्गलास्तिकाया व काल का. जानना ॥ ७ ॥ • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादनी * Page #2769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamanamannaamannmore चैव ॥७॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं ओगाढा अगोगाढा जहेब धम्मस्थिकाए एवं जाव अहे सत्तमा ॥ सोहम्मे एवंच ॥ एवं जाव ईतिप्पभारा पुढवी ॥ ८॥ जीवेणं भंते ! दबट्टयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गे.यमा ! णो कडजुम्मे, णो २७३९ तेयोगे, णो दावरजुम्मे, कलियोग ॥ एवं गैरइएवि ॥ एवं जाव सिद्धे ॥ जीवाणं भंते ! दवट्टयाए किं कडजम्मा ? गोयमा ! ओघ देखणं कउजम्मा णो तेयोगा णो दावर जो कलिओगा ॥ निहाण,देसेणं णा कडजुम्मा णो तेओगा णो दावरजुम्मा कलियोगा. जेरइयाणं भंते ! दबट्टयाए पुच्छा, गोयमा ओघादेसेणं सिय कड. भावार्थ है अहो भगवन् इम रत्नप्रभा पृथी क्या अवगाहकर रही है या विना अवगाहकर रही है? अहो गौतम! जैसे धर्मास्तिLE काया का कहा वैसे ही कहता. यो मातवी नमनमा पृथ्वी तक कहना. ऐने ही सौधर्म पावत् ईषत्माग्भार पृथ्वी पर्यंत । कहना ॥ ८॥ अहो भगवन् ! द्रव्य स जीव क्या कृतयुग्म हैं वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जीव द्रव्य से. कृतयुग्म, प्रेता, व द्वापर युग्म नहीं है परंतु कलि युग्म है. ऐसे ही नारकी यावत् सिद्ध पर्यंत कहना. अहो. | भगवन् ! बहुन जीव क्या द्रव्य से कृतयुग्म हैं ? वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जीव सामन्य से कृत। युग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म नहीं हैं. और भेद से कृतयुग्म, त्रेता व द्वापरं युग्मं नहीं हैं परंतु । १. पंचाम विवाह गति (भगवती) मूत्र 48 18+ पञ्चीसवा शतक का चौया उद्देशा Page #2770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिणी + जुम्मा जान सिप कलियांगा विहाणावेसेणं णो कडजुम्मा णो तेओगा णो दावरजुम्मा कलियोगा एवं जाव सिद्धा । जीवेणं भंते! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! जीवपदे से पडुश्च कडजुम्मे णो तेओगे, णो दावरजुम्मे णो कलिओगे सरीरपदेसे पहुच सिय कडजुम्मा, जात्र सिय कलिआंगे ॥ एवं जाव चेमाणिए ॥ सिद्धेणं भंते! पदेसट्टयाए कि कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे णो तेओगे, णो दावरजुम्मे णो कलिओगे||जीवाणं भंते ! पदेसट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयना ! हैं. कलि युग्म है. अहो भगवन् ! द्रव्य से नारकी की पृच्छा अहां गोतम ! सामान्य मे नारकी स्याव कृतयुग्म यावत् स्यात् कलि युग्म हैं. विधानादेश से कृतयुग्म, त्रेता व द्वापर नहीं परंतु कलि युग्म ऐसे ही मिद्ध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! प्रदेश से जीव क्या कृतयुग्म हैं वगैरह पृच्छा, अहो गौतम !! जीव प्रदेश आश्री कृतयुग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म नहीं है. शरीर प्रदेश आश्री स्यात् कृत{ युग्म यावत् स्यात् कलि युग्म है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. सिद्ध प्रदेश से क्या कृतयुग्म अहो गौतम ! कृतयुग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म नहीं हैं. अहो भगवन् ! बहुत जीव प्रदेश से क्या कृतयुग्म है वगैरह पृच्छा, अहां गौतम ! बहुत जीव प्रदेश आश्री सामान्य से व भेद से कृतयुग्म है परंतु है पृच्छा, प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७४० Page #2771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २७४१ पण्णत्ति ( भगवतीः) मूत्र Nigita Amwwwwwwwwwwwnnnnnnnnnnni ...जीवपदेसे षडुच्च ओघादेसेणवि विहाणादेसेणवि कडजुम्मा, णो तेओगा णो दावर जम्मा, णो कलिओगः ॥ सरीरपदेसं पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजम्मा जाव सिय कलिओगा ॥ विहाणादेसेणं कडजुम्मावि जाव कलिओगावि ॥ एवं णेरइयावि ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ सिद्धाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! ओघादसेणवि विहाणादेसेणवि कडजुम्मा णो तेओगा णो दावरजुम्मा णो कलिओगा ॥ ९॥ जीवेणं भंते ! किं कडजुम्मपदेसोगाढे पुच्छा ? गोयमा। सिय कडजुम्म १देसोगाढे जाव सिय कलिओगपदेसोगाढे ॥ एवं जाव सिद्धे ॥ जीवाणं भंते ! किं कडजुम्म पदेसोगाढा द्वापर त्रेता व कलि युग्म नहीं हैं. शरीर प्रदेश आश्री सामान्य से स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलियुग्म है ॥ ९ ॥ विधानादेश से कृतयुग्म यावत् कलि युग्म है. ऐसे ही नारकी यावत् वैमानिक पर्यंत जानना. सिद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य व भेद से कृतयुग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म नहीं हैं. अहो भगवन् ! जीव क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाहा है ? अहो गौतम ! स्यात् कृतयुग्म प्रदेशावगाही स्यात् कलि युग्म प्रदेशावगाही ऐसे ही सिद्ध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! बहुत जीव क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाही पृच्छा, अहो गौतम - सामान्य से कृतयुग्म प्रदेशावगाही परंतु त्रेता, द्वापर व कलि युग्म वाथे पचीसमा शतक का चौथा उद्देशा शा । । । Page #2772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य ६३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्म पदेसोगाढा णो तेओगा जो दावर णो . कलिओगा || विहाणादेसेणं कडजुम्म पदेसोगाढाचि जात्र कलिओग पदेसोगाढा ॥ रइयाणं भंते! पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेलेणं सिय कडजुम्मन देसांगाढावि जाव सिय कलिओगपदेसोगाढावि ॥ विहाणांदेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढात्रि जाब सिय कलिआंग देसी गाढाव ॥ एवं एगिंदिय वज्जा जाव वैमाणिया, सिद्धा एगिंदियाय जहा जीवा ॥ १० ॥ जीवेणं भंते! किं कडजुम्मसमयद्वितीए पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्म समयद्वितीए जो तेओगे णो दावर णो कलिओग समयद्वितीए ॥ रइएणं पुच्छा ? गायमा ! प्रदेशावगाही नहीं है. और भेद से कृपयग्न प्रदेशावगाही यात्रत् कलि युग्म प्रदेशावगाडी है. अहो भगवन् नारकी की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात् कृतयुग्म प्रदेशावंग ही यावत् स्यात् कलि युग्न प्रदे( शावगाही है. और भेद से कृतयुग्म प्रदेशावगाही यावत् कलि युग्म प्रदेशावगाही है. एने ही एकेन्द्रिय 'वर्ज कर वैमानिक पर्यंत कहना. व मिद्ध एकेन्द्रिय का जीव जैसे कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या कृतयुग्म समय की स्थितिवाला है वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जीव कृतयुग्म समय की स्थितिवाला {है परंतु शेष तीनों युग्म के समय की स्थितिवाला नहीं हैं. जीव तीनों काल में शाश्वत होता है इस * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेन महायजी ज्वालाप्रसादजी २७४२ Page #2773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ । 4 पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 43 यि कडजुम्मसमयद्वितीए जाब सिय कलिओगसमयद्वितीए, एवं जाव वैमाणिए, सिद्धे जहा जीवे ॥ जीवाणं भंते ! मुच्छा, गोयमा ! ओघादेसेणवि विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमयद्वितीया, णो तेओगा, जो दात्ररजुम्मसमयद्वितीया, णो कलिओगा ॥ रइयाणं पुच्छा, गोयमा ! ओवादेसेगं सिय कडजुम्न समय द्वितीयावि जाब सिय कलिओग समय द्वितीयात्रि || विहाणादेसेणं कडजुम्म समय द्वितीयावि, जात्र कलिओग समय द्वितीयावि ॥ एवं जात्र वैमाणिया || सिद्धा जहा जीवा ॥ ११ ॥ अनंत समयात्मक होने से. नारकी की पृच्छा, अहो गौतम ! नारकी स्यात् कृतयुग की स्थितिवाला यावत् स्यात् कलि युग्म की स्थितिवाला है एसे ही वैमानिक पर्यंत करना सिद्ध का ममचय जीव जैसे कहना. अबबहुत जीवों क्या कृतयुग्न समय की स्थितिवाले हैं यावत् कलियुग्म समयकी स्थितिवाले हैं? अहो गौतम ! बहुत जीवों सामान्य व भेद से कृतयुग्म समय की स्थितिवाले हैं. परंतु त्रेता, द्वापर देव कलियुग्म समयकी स्थितिवाले नहीं हैं. नारकीकी पृच्छा, अहो गोतम ! सामान्य से स्यात् कृतयुग्म समय की स्थितिवाले यावत् स्यात् कलि युग्न समयकी स्थितिवाले हैं भेद से कृतयुग्न समयकी स्थितिवाले स्यात् कलि युग्म समय की स्थितिवाले भी हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना सिद्ध कॉ समुच्चय जीव ॐ पश्चीमत्रा शतक का चोथा उदशा ++-- २७४३ Page #2774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 ४४ री मुनि श्री अमोलक ऋपीजी कम अनवादकबालब्रह्मचारा मुनि श्रा अमालक नपा जीवेणं भंते ! कालवण्णपजवेहिं किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! जीवपदेसे पडुच्च जो कडजुम्मे जात्र णो कलिओगे ॥ सरीरपदेसे सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे ॥ एवं जाव वेमाणिए ॥ सिद्धा चेव ण पुच्छिज्जइ ॥ जीवाणं भंते ! किं कालवण्णपज्जवेहिं पुच्छा ? गोयमा ! जीवपदेसे पडच्च ओघादेसेणवि विहाणादेसेणवि णो कडजुम्मा जाव णो कलिओगा ॥ सरीर पदेसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाब सियकलिओगा ॥ विहाणादेसेणं कडजुम्मात्रि जाव कलिओगावि ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ एवं णीलवण्णपज्जवहिंवि दंडओ जैसे करना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! जीव काले वर्ण पर्याय से क्या कृतयुग्म हैं यावत् कलि युग्म हैं ? अहो गौतम ! जीव प्रदेश आश्री कृतयुग्म यावत् कलि युग्म नहीं हैं क्यों कि जीव अमूर्त है. परंतु शरीर प्रदेश आश्री स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलि युग्म हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. सिद्ध की पृच्छा नहीं कहना क्यों कि सिद्ध में वर्णादि नहीं हैं. बहुत जीवों की काला वर्ण पर्याय से पृच्छा, अहो गौतम ! जीव प्रदेश आश्री सामान्य से व भेद से कृतयुग्म यावत् कलि युग्म नहीं है शरीर प्रदेश आश्री सामान्य से स्यात् कृतयुग्म है यावत् स्यात् कलि युग्म है, विधाना देश से कृतयुग्म यावत् कलिका . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी.. भावाथे । Page #2775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ +8+ पंचमांग विवाद पण्णति ( भगवती ) मूत्र 438+ भाणियन्त्रो || एंगतपुहत्तेणं एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं ॥ १२ ॥ जीवेण भंते ! आभिणिबोहियणाणपज्जवह किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे ॥ एवं एर्गिदियवज्जं जाव वैमाणिए || जीवाणं भंते ! आभिणिबोहिय णाणपत्रेर्हि पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा, विहाणादेसेणं कडजुम्भावि जाव कलिओगावि, एवं एगिंदियवज्र्ज, जाव वैमाणिया ॥ एवं सुयणाणपज्जहिं ॥ ओहिणाण पज्जवेर्हिवि एवं चैव वरं विगलिंदियाणं णत्थि ओहिणाणं, मणपजवणात्रि एवं चैव वरं जीवाणं मणुस्सालय, सेसाणं युग्म है. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत (दंडक कहना. कहना. ऐसे ही नीला वर्ण का भी एक अनेक आश्री रूक्ष स्पर्श पर्यंत एक अनेक का दंडक कहना ॥ १२ ॥ जीव क्या कृतयुग्म है पृच्छा, अहो गौतम : स्यात् कृतयुग्म अहो भगवन् ! आभिनिवोधिक ज्ञान से यावत् स्यात् कलियुग्म ऐसे ही एकेन्द्रिय वर्जकर वैमानिक पर्यंत कहना. क्यों की एकेन्द्रिय में ज्ञान नहीं हैं. अहो भगवन् ! बहुत जीवों आभिनिबोधिक ज्ञान से पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात कृतयुग्म यावंत स्यात् कलियुग्म भेद से कृतयुग्म भी और कलियुग्म भी हैं. ऐसे ही एकेन्द्रिय वकर ** पचीसत्रा शतक का चौथा उद्देश। ९० २७४६ Page #2776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aamannamrina १ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक कमी 82 णत्यि जीवेणं भंते ! केवल गाणपजवेहि किं कडजुम्मे पुच्छा, गोयमा ! कडजुम्मे, जो तेओए, जोदावर णो कलिओए ॥ एवं मणुस्सेवि ॥ एवं सिद्धवि॥जीवाणं भंते ! केवलणाण पुच्छा, गोयमा ! ओघादेसेणवि विहाणा देसेण कडजम्मा णो तेओगा णो दावर जुम्मा णो कलि मोगा ॥ एवं मणुस्तावि ॥ जीवणं भंते ! मइअण्णाण पजवहिं कि कडजुम्मे जहा आभिणिवोहिय णाणपजवेहि, तहेव दो दंडगा ॥ सुअण्णाण पजवेहिंवि, एवं विभंगणाण पजवेहिंवि ॥ चक्खुदंसगअचक्खुइसण वैमानिक पर्यंत कहता. ऐसे ही श्रुन ज्ञान पर्यव का जानना. अवधिज्ञान पर्यव का भी ऐसे ही कहना पतु विकलेन्द्रिय को अपिज्ञान नहीं हैं. मनःपर्यव ज्ञान का भी ऐसे ही कहना परंतु मनः पर्यव ज्ञान मनुष्य व जीवों इन दोनों को कहना. अहो भगवन् ! जीव केवल ज्ञान से क्या कृतयुग्म है वगैरह पृच्छा अहो गौतप! कृतयुग्म है परंतु त्रेता, द्वापर व कलियुग्म नहीं है ऐसे ही मनुष्य व सिद्ध का जानना. अहो भगवन् ! बहुत जीवों की केवल ज्ञान पर्यव से पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य व भेद से कृतयुग्म हैं. परंतु ता, द्वापर व कलियुार नहीं हैं. एसे ही मनुष्य व सिद्ध का कहना. अहो भगवन् ! जीव क्या मति अज्ञान पर्यव से कृतयुग्म है ? अहो गौतम ! जैसे आभिनियोधिक ज्ञान के पर्यव कहे वैसे .+काशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायजी ज्वाला मसादनी भावार्थ Page #2777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hin 4.28 NrNvuAwvvv पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र ओहिंदसणपजवेहिं एवं चेव णवरं जस्स जं अत्थि तस्स सं भाणियव्वं केवलदसण पजवहिं जहा केवल गाण पजहि ॥ १३ ॥ कइणं भंते ! सररिंगा पणत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरगा पण्णता, तंजहा ओरालिय जाव कम्मए एत्थं सरीरपदं णिवरसेसं भाणियन्वं जहापण्णवणाए ॥ १४ ॥ जीवाणं भंते ! कि सेया गिरेया ? । गोयमा ! जीमा सेयावि णिरेयावि ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवा सेयावि णिस्यावि ? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा संसार समावण्णगाय, असं.. ही दो दंडक कहना. ऐसे ही श्रुत अज्ञान के पर्यत्र, विभंगज्ञान के पर्यव, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन अवधिदर्शन के पर्यव का भी वैमे ही कहना. परंतु विशेषता यही कि जिन जितने जो ज्ञान होवे वही लेना.. केवल दर्शन का केवल ज्ञान जैसे लेना. ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! शरीर कितने कह हैं ? अहो गौतम ! शरीर पांच कहे हैं उन के नाम.-उदारिक यावत् कार्माण. यहांपर पन्नाणापद का पारवा शरीर पद विशेषता रहित जानना. ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या कंपन स्वभाव वाले हैं या स्थिर हैं? अहो ! गौतम जीव कंपन स्वभाव वाले भी हैं और स्थिर स्वभाव वाले भी हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से एमा कहा गया यावत् जीव कंपन स्वभाव पाले व स्थिर स्वभाव वाले हैं ? अहो गौतम जीव के दो भेद । पच्चीसंवा शतकका चौथा उद्देशा 420 1 Page #2778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ०७ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सार समावण्णा । तत्थणं जे ते असंसार समावण्णगा तेणं सिद्धा सिद्धाणं दुविहा पण्णत्ता तंजहा अनंतर सिद्धाय परंपरसिद्धाय तत्थणं जे ते परंपर सिद्धा तेणं णिरेया तत्थणं जे ते अनंतर सिद्धा तेणं सेया ॥ तेणं भंते! कि देसेया सव्वेया ? गोयमा ! णो देसेया सव्वेया ॥ तत्थणं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा सेलेसी पडिवण्णगाय असेलेसीपडिवण्णगाय ॥ तत्थणं जेते सेलेसी पडिवण्णगा तेणं णिरेया || तत्थणं जेते असेलेसी पडिवण्णगा तेणं सेया ॥ तेणं भंते ! किं देतेया सव्वेया ? गोयमा ! देतेयावि सव्वेयावि ॥ से तेणद्वेणं जाव कहे हैं ? संसार समापन्नक और २ संसारसमापन्नक नहीं. उस में असंसार समावन्नक हैं वे सिद्ध हैं. सिद्ध { के दो भेद अनंतर सिद्ध व परंपरा सिद्ध. उन में जो परंपरा सिद्ध हैं वे स्थिर हैं और जो अनंतर सिद्ध {हैं वे कंपन स्वभाव वाले हैं. अहो भगवन् ! वे क्या देश कंपन स्वभाव वाले हैं या सर्व कंपन स्वभाव वाले हैं ?? {अहो गौतम! देश कंपन स्वभाव वाले नहीं हैं परंतु सर्व कंपन स्वभाववाले हैं. जो संसार समापनक जीव हैं उनके दो भेद { शैलेशी प्रतिपन्न व अशैलेशी प्रतिपन्न. उन में जो शैलेंशी प्रतिपन्न हैं वे स्थिर हैं और अशैलेशी प्रतिपा है। वे कंपन स्वभाववाले हैं. अहो भगवन् ! वे क्या देश से कंपनेवाले या सर्व से कंपनेवाले हैं ? अहो गौतम १ * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७४८ Page #2779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4-18+- पंचमाङ्ग विवाह पण्नाचे ( भगवती ) सूत्र 448+ णिरेयाविरइयाणं भंते! किं देतेया सव्वेया? गोयमा ! देतेयाचे सध्येयावि॥ से केज जाव सव्वेयात्रि ? गोयमा ! शेरइया दुत्रिहा पण्णत्ता तंजहा बिम्गहगइ समावण्णगाय अविग्गगइ समावणगाय ॥ तत्थणं जेते विग्गहगइ समावण्णा तेणं सव्वेया ॥ सत्यणं जेते अविग्गहगइ समावण्णमा तेणं देतेया, से तेणटुणं जात्र सव्वेंयात्रि ॥ एवं जाव वैमाणिया ॥ १५ ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते! किं संकेज्जा असंखजा अनंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा णो असंखेजा अनंता ॥ एवं जाव अनंत {देश से कंपनेवाले भी हैं और सर्व से कंपनेवाले भी हैं. इस से यावत् स्थिर हैं. अहो भगवन् ! नारकी क्या देश से कंपने वाले या सर्व से कंपने वाल हैं ? अहो गौतम ! नारकी देश से व सर्व से कंपनेवाले हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया यावत् सर्व कंपनेवाले हैं ? अहो गौतम ! नारकी के दो भेद कहे हैं विग्रहगति समापत्रक व अविग्रहगति समापन रु. इट में चिग्र गति समापत्रक सर्व से कंपने वाले और अविग्रहगतिसमापत्रक देश से कंपनेवाले इस से अहो गौतम ! ऐसा कहा गया यावत् सर्व {कंपने वाले ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! परमाण पुगल क्या संख्यात बर्सख्वाव या अनंत हैं ? असे गौतम! परमाणु पुल संख्यात असंख्यात नहीं है परंतु अनंत है. ऐसे 44- पचीसना शतक का चौथा डा 8+8+ २७४९ Page #2780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पदेसिया खंधा एगपदेसोगाढाणं भंते! पोग्गला किं संख जो असंखज्जा अणंताएवंचे। एवं जाव असंखेजपदेसोगाढा ॥ एग समयः छिईयाणं भंते ! पोग्गला-किं संखेजा * एवं चेव ॥ एवं जाव असंखेज समय दिइया ॥ एगगुणकालगाणं भंते ! पोग्गला . किं संखजा एवंचे ॥ एवं जाव अणंतगुणकालगा ॥ एवं अवसेसा वण्णगंधरस फासा यन्वा जाव अणंतगुण लुक्खत्ति ॥ १६ ॥ एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं. दुपदेसियाणय खंधाणय दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पावा बहुयावा ? गोयमा ! दुपअनंत प्रदेश कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! एक प्रोशागाही पुरर क्या संख्यान ख्यात या अयंत्र हैं डा गौतम ! पहिल जैमे कहना. ऐसे ही अवरुपात प्रदेशावगाडी पुनर का जानना. अहो भगवन् ! एक ममय की स्थिति वाले पुद्गल क्या मख्यान अस्पात या अनंत हैं ? अहो गौनम ! वैसे ही कहना. ऐसे ही अख्यात समय की स्थिति के पदों का जानना. अहो भावर ! एक गुण काला l बपुल क्या मख्यात असंख्यात या अनंत हैं ? अहो ग.तम ! वैसे ही कहग. ऐसे ही अनंत गुन काला पुद्गल का मानना. ऐसे ही शेष चार वर्ण, दो गंध, पांच रम न आठ स्पर्श यावत् अनंत गुन कक्ष पर्यंत कहना ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! इन परमाणु पुद्गल द्विप्रदेशिक स्कंध में द्रव्य से कौन किस से अल्प manmamminommmmmmmswimminine .प्रकाश-राजावादुरलाला सुवदेवमहायज जगालापवादनी. Page #2781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. पंचमांगविवाह पण्णन्ति (भगवती)सून 428 देसिएहितो खंधेर्हितो परमाणुपोग्गला दवट्ठयाए बहुया ॥ एएसिणं भंते ! दुपदसियाणं ।। तिपदसियाणय खंधाणं दवट्टयाए कयरे कयरेहितो बहुगा ? गोयमा !, तिपदेसिएहितो । खधेहितो दुदसिया खंधा दबट्टयाए बहुया, एवं एएणं गमएणं जाव. दसपदेसिएहितो. : : २.७५१ ‘णवपदेसिया खवा दट्टयाए वहुगा॥ एएसिणं भंते ! दसपरसा पुग्छा ? गोयमा ! दसपदेसिएहिंतो खंधहितो संखेज पदसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया ॥ एएसिणभंते ! संखेजा पुच्छा ? गोयमा ! संखज पएसिएहितो खंधहिती असंखबपदसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया। एएसिण भतें ! अखेजपदेसिया पुच्छा, गोयमा! असंखेजपदसिएहितो. बहुन याात् विशेषाधिक हैं ?. अहो गौतम : दिनदेशिक स्कंध से परमाणु पुरल द्रव्याकिपना से बहुन । क्यों कि परमाणु पुगल मूक्ष्म होने में बहुत होते हैं. अहो भगवन् ! विभदेशिक स्कंध में तीन पदशिक स्कंध में द्रव्य मे कौन अल्प बहुत हैं ? अहो गौतम ! तीन प्रदेशिक स्कंध से द्विभर्देशिक स्कंध बहुत इस तरह दश मदशिक स्कंध से नव प्रदेशिक स्कंध, द्रव्य से बड़ा हैं. दश प्रदेशिक व संख्यात मंशिक स्कंध में पृच्छा, अहो गीतम! दश प्रदेशिक स्कंध से संख्यात प्रदेशिक संघ बहुत है. क्यों कि संख्यात स्थान की बहुलता है. संख्यात प्रदशिक स्कंध से असंख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य । पच्चीमत्रा शतक का चौया उद्देशा42 भावार्थ 488 Page #2782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % . स्वधेहितो अणंतपदेसिन खंधा दट्टयाए हुया । एएसिणं भंते । परमाणुपोग्गलाचे दुपदे सियाणय खधाणं पदमट्टयाए कपरे २ हितो बहुगा ? गोयमा ! परमाणुपोग्गलेहिंतो दुपदमिया खंधा पदसट्टयाए बहुया ॥ एवं एएणं गमएणं जाव पर पएसिए, हिंता वधहिती दमपनिया खधा पदेसटुयाए बहुधा ॥ एवं सम्वत्थ पुग्छिपवं ।। दमपरासएहितो खंधहितो संखजपएसिया खंया पदसट्टयाए बहुया, संखेन पएसिए. है हिंतो खधहितो असंखेज परमिया खंधा पदसट्टयाए बहुया ॥ एएसिणं भंते ! असं खेज पएसियाणं पुच्छा ? गोयमा! अगंतपएसिएहिंतो खंधेहिंतो असंखेजपएसिया खंधा पदसट्टयाए बहुया ॥ १७ ॥ एएसिण भंते ! एगपदसोगाढाणं दुपदेसोगाढा बहन हैं और असंख्यात प्रदशिक स्कंध में मत प्रदशिक स्कंध द्रव्य से बहुत हैं. अहो भगवन् ! इन परपाणु पुट्ठल व द्विपदशिक स्कंध में प्रदेश से कौन किस से अल्प बहुत है ? अहो गौतम ! परमानु पुल से दिग्दशिक स्कंध प्रदश्च मे बहुत है यो इस क्रम मे नव पदेशिक स्कंध से दश भदेशिक स्कंध प्रदेश से बहुत:, यो दश प्रदशिक मंत्र में संख्यात प्रदेषिक संघ प्रदेश में गहन .मख्यात प्रदेशिकरकंच से असं ख्यात प्रदेशिक संघ प्रदेश में बहुत हैं. अहा भगवन् ! संख्यान प्रदेशिक व अनंत प्रदेशिक स्कंध में कौन अल्प बहुत है ? अहो गौतम ! अनंत प्रदेशिक स्कंध से असंख्यात मदेशिक स्कंध त । ॥१०॥ पाराबाबहादरलालामुख पर अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी भावार्थ पुखदेवसहावी बीपालाप्रसा Page #2783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलाणय दन्वट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो विसे साहियावा ? गोयमा ! दुपदेसोगाढेहितो पोग्गलहितो एगपदेसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया एवं एएणं गमएणं तिपदेसोगाढहितो पोग्गलेहितो दुपदेसोगाढा पोग्गला · दब्वट्ठगाए विसमाहिया २७५३ जाब दसपएसोगाढहितो पोग्गलहितो णवपदेसोगाढा पोग्गला दव्ययट्ठाए विमेसाहिया ॥ एएसिणं भंते ! दसपएसा पुच्छा ? गोयमा ! दसपदेसांगाढेहितो पोग्गलहितो संखेजपदेसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए बहुया ॥ संखेजपएसोगाढहितो पोग्गलेहिंतो असंखेजपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए बहुया, पुन्छ। सम्वत्थ पाणिभावार्य हो भगवन् ! एक प्रदेशावगाही व दो प्रदेशावगादी इन में कौन दुव्य से अरप बहुत या विशेषा1 धिक है ! अहो गौतम ! द्विपदेश आगाही पुद्गल से एक प्रदेश अवगाही पुद्गल द्रव्य मे विशेषाधिक है | ऐसी तीन प्रदेशागाही पुद्गल से द्विपदेशावगाही पुद्गल विशेषाधिक है यारत् दश प्रदेशावगाही पदर से देशोषणाली पुल द्रव्य से विशेषाधिक है. अहो भगवन् ! इन दक प्रदेशावगाही व संख्यात पहा नारी पुजय मे कौन अस्प बात है ! ओ ग.नम ! दश पर लगाही पद्गल से संरूपात प्रदशाकापणी द्रव्य से बात है. महयाव मवेशानगांडी पुल से प्रख्यात मदेशावनाही पल दूब से बहुत है. । चि ( भगवती ) मत्र * पच्चीसवा शतकका चौथा उद्दे सा : Page #2784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५४ * यन्वा ॥ एएसिणं भंते । एगपदेमोगाढाणं दुपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं पदेसट्टयए E कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहियाना ? गोयमा ! एगादेसोगाढेहितो पोग्गलहितो दुपदेसीगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए विसेसाहिया. एवं जाव णवपदेसोगाढेहिंतो पांग्ग लेहितो दूसपएसोग ढा पोग्गला पदेसट्टयाए पिसेसाहिया, दस पदेसोंगाढेहितो पोग्गले. IM. हिंतो संखेजपएसोगाढा पोग्गला पदेमट्टयाए बहुया, संखेजपएसो गाढेहिंतो पोग्गले12. हिंतो असंखेजपदेतोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए बहुया ॥ १८ ॥ एएसिणं भंते ! * एगसमयट्टिईयागं दुसमयढिईयाणय पोग्गलाणं दवट्ठयाए जहा आगाहणा वतव्वया . भावार्थी भगवन् ! एक प्रदेशावगाही व दो प्रदेशावगाही पुद्गलों में से कौन किस से प्रदेश से यावत् विशे पाधिक हैं ? अहो गौतम ! एक प्रदेशावगाही पुदर में दो प्रदेशाग. ही पुद्गल प्रदेश से विशेषाधिक हैं.. एमे ही यावत् नव प्रदेशावगाही पुद्गलों से दश प्रदेशावगाडी पुद्गलों प्रदेश से विशेषाधिक हैं. दश प्रदेEशाबगाही पुद्गल से मंख्यात प्रदेशावगाही पुद्गल प्रदेश से बहुत हैं और संख्यात प्रदशावगाही पुद्गल से अख्यात प्रदेशावगाही पुद्गल प्रदेश से बहुत है. अहो भगवन् ! एक समय की स्थिनिवाले व दो | समय की स्थितिवाले पुद्गलों में कौन अल्प बहुत हैं ? अहो गौतम ! जैसे अवगाहना का कहा वैसे ही प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवमहायनी माजाप्रमादजी. wwwvie Page #2785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. २७५५ एवं द्वितीएवि ॥१९॥ एएसिणं भंते ! एगगुणकालयाणं दुगुणकालयाणय पोग्गलाणं . है दबट्टयाए, एएसिणं जहा परमाणू पोग्गलादीणं तहेव वत्तव्वया णिरवरेसा एवं सब्वेसि वण्णगंधरसाणं ॥ २० ॥ एएसिणं भंते ! एगगुण कक्खडाणं दुगुणकक्खडाणय पोग्गलाणं दवट्टयाए कयरे कयरहितो जाब विसेसाहियावा ? गोयमा ! एगगुण कक्खडेहिंतो पोग्गलहितो दुगुणकक्खडा पोग्गला दबट्टयाए विससाहिया एवं जाव णवगुणकक्खडेहिता पोग्गलहितो दसगुण कक्खडा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया ॥ दसँगुण कक्खडेहितो पोग्गलेहितो संखेजगुणकक्खडा पोग्गला दवट्टयाए बहुया, भावार्थ स्थिति का जानना ॥ १९ ॥ अहो भगवन ! एक गुण काले बदोगुग कालेज पुगलों में द्रव्य मे कौन अल बहुत हैं? अहो गौतम! जैसे परमाणु पुद्गल की वक्तव्यता कही वैसे ही यहां कहना. ऐसे ही सब वर्ण, गंध, रसकी कहन ॥२२॥ अहो भगवन् ! इन एक गुन क श व दो गुन कश पुद्गल में द्रव्य से कौन किस से यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! एक गुन कर्कश पुद्गल से दो गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य से विशेषाधिक है ऐने ही यावत् नवगुन कर्कश पुद्गल से दश गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य से विशेषाधिक, दश गुत कर्कश पुद्गल से संख्यात गुन 1 'कर्कश पुद्गल द्रव्य से बहुत,संख्यात गुन कर्कश पुद्गल से असंख्यात गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य से बहुत और सूत्र * पंचमा विवाह पाणत्ति ( भगवति ) mmmmmmmmmmmitiesinxie पच्चीनाशक का चौथा उद्दशा । । Page #2786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + संखेज्जगुण कक्खडेर्हितो पोग्गलेर्हितो असंखेजगुण कक्खडा पोग्गला दव्वटुयाए बहुया, असंखेजगुण कक्खडेर्हिता पोग्गलहिंतो अनंतगुण कक्खडा पांगला दव्बया बहुया || एवं प्रदेस टुयाए सन्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा जहा कक्खडा ॥ एवं म गुरु लहुयावि ॥ सीय उसिण मिडलक्खा जहां वण्णा ॥ २१ ॥ एएसिणं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखेज एसियाणं असंखेज एसियाणं अनंतपएसियाणं खधादव्या पट्टयाए दन्त्रटुपदेसट्टयाए कयरे कयरे जात्र विसेसाहियात्रा ? गोमा ! सम्वत्थोवा अनंतपदेसिया खंधा दव्वट्टयाए, परमाणुभग्गला दव्वटुयाए असंख्यात गुन कर्कश पुद्गल से अनंत गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य से बहुत, जैने द्रव्य आश्री कहा वैसे ही प्रदेश माश्री कहना और जैसे कर्कश का कहा वैसे ही मुदु, गुरु, लघु, का कहन्न शीर ऊष्ण, निग्ध व रुक्ष वा वर्ण जैसे कहना. ॥ २१ ॥ अहो भगवन् ! इन परमाणु पुल, नेरूपात प्रदेशिक संघ, असंख्यात प्रदकि स्कंध व अनंत प्रदेशिक स्कंध में द्रव्य आश्री प्रदेश आश्री व द्रव्य प्रदेश अश्री कौन किस मे अल हुन यावत विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे द्रव्य से अनंत प्रदेशिक स्कंध, इस से परमाणु पुद्गल द्रव्य से अनंत गुने, इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य से संख्यात गुने, इस से असंख्यात प्रदेशिक ● प्रकाशक-शहर लाना हो २७५६ Page #2787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतगुणा, संखे जपएसिया खंधा दन्नट्टयाए संखेजाणा असंखेबपएसिया खंधा दन्वट्ठयाए अमखंबं गुणापदेसट्टयाए सम्वत्थोवा अर्णतादेसिया खंधा,पदेखट्टयाए परमा. गुपागला अपद उट्टयाए अगंतगुणा, संखे अपदेलिया खंधा पदेसट्टयाए संखेनगुणा, अमखेजपएमिया खंधा पदेसट्टयाए असखेजगुणा ॥. दबटुपएमट्टयाए सम्वत्थोका अणतपदसिया दबट्ठयाए तेचव पदसट्टयाए अणंतगुणा ।। परमाणुगेग्गला दबट्टयाए अपएमट्टयाए अगंतगुणा, संखजपदसिया खंधा दवट्टयाए संखजगुणा, तेचव पदे. सट्टयाए संखजगुणा,असंखेजपएमिया खंधा दन्वट्टयाए असंखेजगुणा तेचेव पदेसट्टयाए असंखेनगुगा, ॥२२॥ एएसिणं भंते ! एग पदेसीगाढाणं संखजपदेसोगाढाणं असं. भावार्थ Fi द्रव्य से अख्यान गुने. सब से थडे प्रदेश से अनंत प्रदेशिक संघ, इस से परमाणु पुगल अम. शिक अनंन गुने, इम से प्रख्यात प्रदेशिक स्कंध प्रदेश से संख्यात गुने इस से असंख्यात प्रदेशिक मदश मे अख्यात गुन. अब द्रव्य प्रदेश आत्री अनंत प्रदशिक स्कंध दन्य से सब से धोरे उस से । वही प्रदेश आश्री अनंत गुम इस मे परमाणु पुरर द्रव्य से अमेशिक अनंत गुमे, इस से प्रख्यात . मदे-13 शिक. ध द्रव्य में संरूपान मुझे इस से वही प्रदेश में संख्यात गुने, इस मे असंख्यात. प्रदेशिक स्कंध द्रव्य से असंख्यात गुने इस से नहीं बंदश पाश्री असंख्यात गुना ॥ २२॥ अहो भगवन् ! इन 1 पंचांग विवाह पणत्ति ( भगवती ) सूत्र 48 + बीसवा शक का चौथा मेवा का Page #2788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेजपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवदृपएसट्टयाए कयरे 'कयरे जाब बिसेसाहियावा ? गोयमा ! सम्वत्थाचा एगपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठयाए संखे. जपए मोग ढा पोम्गला दबटूयाए संखेनगुणा, असंखेजपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए २७२८ असंखे बगुगा ॥ पदेसट्टयाए सम्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पंगला पदसट्टयाए संखेज पएसोगाढा पंगला पदेसट्टयाए असंखजगुणा, असंखेजपएसोगाढा पोग्गला पदेस. ट्ठयाए, असखेजगुणा दन्वट्ठपएसट्टयाए सम्बत्योवा, एगपएसोगाढा पोग्गला दबट्ठः शागगाही, संख्यान प्रदेशाग ही व असंख्यात प्रदेशावगाड़ी में द्रव्य से, प्रदेश से व द्रव्य प्रदेश मे कान फिम मे अल्प बहुत यावत विशेषाधिक हैं ? अहो गीतम! मत्र से थोडे द्रव्य आश्री एक प्रदेशावगाही पुल, इम से प्रख्यात प्रदेशावगाही पुद्गल ट्रव्य आश्री संख्यात गुने, इस से असंख्यात प्रदेशावगाती पुल द्रव्य आश्री अमरख्यात गुने. अब प्रदेश आश्री सत्र से थोडे प्रदेश पाश्री एक प्रदेशावगाही पुगल इस से संख्यात प्रदेशावगाही पदल प्रदेश आश्री असंख्यात मने इम से ख्यात प्रदेशा वग ही पुगलप्रदेश आश्री असंख्यान गुो.. अब द्रव्य प्रदेश आश्री सत्र से थोडे द्रव्य प्रदेश 17 से एक प्रदेशावगाही पुद्गल इस से संख्यात प्रदेशावग.ही पुदल द्रव्य से संख्यात गुना अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - • प्रकामा रामावादर लारा मुवावमहायमी बालाप्रमादनी . भावाथ Page #2789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ** पंत्रमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मृत्र 498+ पएसटुयाए मंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्त्रटुयाए संखेज्जगुणा तेचेत्र पदेसट्ट्याए संखज्ज गुणा, असंखेज एसोगाढा पोग्गला दन्त्रट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेचेत्र पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा ॥ २३ ॥ एएसिणं भंते ! एमसमयद्वितीयाणं संखज. समयद्वितीयाणं असं समय द्वितीयायपोग्गलाणं जहा ओगाहणाए तहा ठितएव भाणियन्त्र अप्पाबहुगं ॥२४॥ एएसिणं भंत ! एगगुण कालमाणं संखेजगुण कॉलगाणं, असंखेज्जगुण कालगाणं, अनंतगुण कालगाणय पोम्गलाणं दव्बट्टयाए पदेसट्याए दव्बटुपएसठ्याए, एएसिणं जहा परमाणु गेग्गलाणं अप्पाबहुगं तहा एएसिपि अप्पा बहुगं ॥ एवं सेसाणात्रि यावत् इम से वहीं प्रदेश आश्री संख्यात गुने, इससे असंख्यात प्रदेशात्रगाही पुल द्रव्य मे असंख्यात गुते 'इस से वही प्रदेश आधी असंख्यात गुते ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! इन एक समय की सिति वाले संख्यात समय की स्थिति वाले व असंख्यात समय की स्थिति वाले पुलों में कौन अल्प बहुतविशेषाधिक हैं. ? अहो गौतम ! जैसे अवगाहना का कहा वैसे ही स्थिति का कहना ||२४|| अहो इन एक गुणकाला, संख्यात गुणकाला, असंख्यात गुण काला व अनंत गुनकाला पुद्गल में प्रदेश से व द्रव्य प्रदेश से कौन अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! जैसे भगवन् द्रव्य से परमाणु 4243 पचीसना शतक का चौथा, उद्देशा २७५९ Page #2790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. वाणगंधरसाण ॥ एएसिणं भंते ! एगगुण कक्खडाणं संखेजगुणकक्खडाणं असंखेज. गुण कक्खडाणं अगंतगुण कक्खडाणय पोग्गलाणय दन्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सम्वत्योवा एगुणकक्खडा पोग्गला दबटुयाए. संखजगुण कक्खडा पोग्गला दवट्ठयाए संखजगुणा असंखेजगुण काखडा पोग्गला दबठाए असंखेजगुणा, अणतगुण कक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए अर्णतगुणा, पदेसट्टयाए एवं गवरं संखजगुणकाखडा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा सेसं तं दबटुपएदेसट्टयाए सब्वत्थोवा एगगुणकक्खडा Eकी अरपाबहुत्व कही से ही इस की अलाबहुत्व कहना. और ऐसे ही शेष सवर्ण, गंध व रमकी अल्पाबहुत्व कहना. अहो भगवन् ! एक गुण कर्कश, संख्यात गुण कर्कश, असंख्यात गुण कर्कश व अनंतगुण कर्कश में द्रव्य मे प्रदेश से व द्रव्य प्रदेश से कौन अल बहुत यावत् विशेषाधिक है ? महो गौतम ! ट्रम्य से सर से थोडे एक गुण कर्कश पुगक इस से संख्यात गुन कर्कश पुद्गल संख्यानगुने, इस से असंख्यात गुण कर्कश पुगल असंख्यात गुने, इस से अनंत गुण कर्कश पुद्गल अनंत गुने. प्रदेश माश्री से से कहना. परंतु संख्यात मुण कर्कश पुनस प्रेदश पात्री बसंख्यात गुने ।। 4. अनुवादक-चालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कामकाजाबहादुर लाला सुखद सहायनी मालाममादजी। Page #2791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व २७६१ 12 पोग्गला दबटुपदेसट्टयाए, संखेजगुण कक्खडा पोग्गला दबट्टयाए संखेज्जगुणा, तेचे पदेसट्ठयाए संखेजगुणा, असंखेजगुण कक्खडा दवट्ठयाए असंखेजगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, अणंतगुण कक्खडा दवट्ठयाए अणंतगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए असंखजगुणा, ॥ एवं मउय गुरुय लहुयावि अप्पाबहुगं ॥ सीय उसिण गिद्ध लुक्खाणं जहा वण्णाणं नहेव ॥ २५ ॥ परमाणू पोग्गलेणं भंते ! दवट्टयाए किं कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए ? गोयमा ! णो कडजुम्मे, णो तेयोए. शेष सब वैसे ही कहना. अब द्रव्य प्रदेश आश्री कहते हैं. द्रव्य से व प्रदेश से सब से थोडे एक गुण कर्कश पुद्गल, इस से संख्यात गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य आश्री संख्यात गुने, इस से उस के ही पुद्गल प्रदेश आश्री संख्यात गुने, इस से असंख्यात गुण कर्कश पुद्गल द्रव्य आश्री असंख्यात गुने, इस मेवी प्रदेश आश्री असंख्यात गुने, इस से अनंत गुन कर्कश पुद्गल द्रव्य आश्री अनंत गुने, इस से वही प्रदेश आश्री असंख्यात गुने. ऐसे ही मृदु, गुरु व लघु की अल्पाबहुत कहना. शीत, ऊष्ण, स्निग्य व रूस की वर्ण) जैसे कहना. ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल द्रव्याथिक नय से क्या कृत युग्म है, योग है. द्वापर है या कल्पोज है? अहो गौवम ! कृत युग्म, योज व द्वापर युग्म नहीं है परंतु कलियोन है. ऐसे ही विवाह पण्णत्ति ( भगशी) सूत्र * भावार्थ पच्चीसवा शतक का चौथा पदेशा 43 । Page #2792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - *पोषक २७६२ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी Raninmha णो दावरजुम्मे, कलिओए ॥ एवं जाव अणंतपएसिए खंधे ॥ २६ ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! दवट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कड़जुम्मा जाब सिय कलिओगा; विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा णो तओगा णो दावरजुम्मा कलिओगा एवं जाव अणंत पएसिया खंधा ॥ २७ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! . पदेसट्टयाए किं कडजुम्मे पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मे णो तेओए णो दावर - 3 कलिओगे ॥ दुपदेसिए पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मे णो तेयोए दावर णो कलिआए ॥ तिपएसिए पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मे णो दावर तेओए. णों } भावार्थ , अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. ॥२६॥अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल द्रव्य से क्या कृत युग्म पृच्छा अहो गौतम ! सामान्य मे स्यात कृत युग्म यावत् कलियोज है. विधानादेश से कृत युग्म योन व द्वापर युग्म नहीं है परंतु कलायोज है.ऐसेही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना॥२७॥अहो भगवन! परमाणु पुद्गल प्रदेश से क्या कृत युग्म है पृच्छा अहो गौतम!कृतयुग्म, त्रेता व द्वापर नहीं है परंतु कलियुग्महै.द्विपदेशिक की पृच्छा,अहो गौतम द्वापर युग्म है परंतु कृतयुग्म म्योज व कलि योज नहीं है. तीन प्रदेशिक की पृच्छा, अहो गौतम ! कृतयुग्म, द्वापर व कलि योज नहीं परंतु ज्योज है. चार प्रदेशिक की पृच्छा, अहो गौतम ! कृतयुग्म है परंतु बिहादुर'लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * | Page #2793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ** पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कलिओगे || चउपदेसिए पुच्छा ? गोयमा ! कडजुम्मे णो तेओए, णो दावर, णो कलिए || पंचपसि जहा परमाणु पोग्गले || छप्पएसिए जहा दुपदेसिए | सत्तपदेसिए जहा तिपएसिए | अट्ठपएसिए जहा चउप्पएसिए || णव पएसिए जहा परमाणुपोग्गल, दसपएसिए जहा दुपएसिए ॥ संखेज्जपएसिएणं भंते! पोग्गले पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव लिय कलिओगे ॥ एवं असंखेजपएसिएवि एवं अनंत पसिएवि ॥ २८ ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! परसट्टयाए किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा, विहाणादेसेणं {प्रयोज द्वापर व कलियोज नहीं है. पांच प्रदेशिक परमाणु पुद्गल जैसे कहना, छ प्रदेशिक का दो प्रदेशी { जैसे जानना, सात प्रदेशी का तीन प्रदेशी स्कंध जैसे कहना. आठ प्रदेशिक का चार प्रदेशिक जैसे कहना. ( नव प्रदेशिक का परमाणु पुद्गल और दश प्रदेशिक का दो प्रदेशिक जैसे कहना. संख्यात प्रदेशिक की पृच्छा, अहो गौतम ! स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलियोज. ऐसे ही असंख्यात प्रदेशिक यावत् अनंत प्रदेशिक का कहना || २८ || अहो भगवन् ! परमाणु पुगल प्रदेश आश्री क्या कृतयुग्म है वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलि युग्म विधानादेश से कृतयुग्म, प्रयोज, 430* पच्चीसवा शतक का चौथा उद्देश। 4028 २७६३ Page #2794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जो कजम्मा, गोतओगा जो दावर, जो कलिओग॥ दुपदोसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! ओघांदणं सिय कडजुम्मा, णो तेऔया सिय दावरजुम्मा, णो कलिओगा बिहा पामेण णो कडजुम्मा, णो तेओगा, दावरजुम्मा, जो कलिओगा तिपदेसियाणं पुच्छा गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जात्र, सिय कलिओगा विहाणादेसेणं णो कडजुम्मा ते गाणो दावर णो कलिओगा । चउष्पदेसियाणं पुच्छा, गोयमा ! ओघादेवि विहाणादेसेणवि कडजुम्मा णो तेओगा जो दावर णो कलिओगा पंच एसिया जहा परमाणुपोग्गला ॥ छप्पदेसिया जहा दुपदेसिया | सत्तपएसिया {द्वापर व कलि योज इन में से कोई भी नहीं है. द्विनदेशिक की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात् । कृतयुग्म है व स्यात् द्वापर युग्म है परंतु प्रयोज व कलि योज नहीं है. विधाना देश से कृतयुग्म, ज्योज त्र कलि योज नहीं है परंतु द्वापर युग्म है. तीन प्रदेशिक स्कंध की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलि युग्म विधाना देश से कृतयुग्म, द्वापर युग्म व कलि योज नहीं परंतु प्रयोज है. चार प्रदेशी की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से व भेद से कृतयुग्म हैं परंतु ज्योज, द्वापर व कलि युग्म नहीं है. पांच मदेशिक स्कंध का परमाणु युद्ध जैसे कहना, छमदेशिक का द्विमदशिक जैसे, सात प्रदे * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७३४ Page #2795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38, २७६५ जहा तिपदेसिया ॥ अट्ठपदेसिया जहा चउम्पदेरिया ॥ णवपदेसिया जहा परमाणु पोग्गला ॥ दसपदेसिया जहा दुषदेसिया ॥ संखेजपएसियाणं पुच्छा, गोयमा ! ओघादसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा | विहाणादेसेणं कड्जुम्मावि जाव कलिओगावि ॥ एवं असंखेजपएसियावि ॥ अणंतपएसियावि ॥ २९ ॥ परमाणु पोग्गलेण भंते ! किं कडजुम्मपएसोगाढे पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मपएसोगाढे णो तेओए, णो दारजुम्मे कलिओगपदेसोगाढे ॥ दुपदेसिएणं पुच्छा ? गोयमा ! णो कडअम्मपएसोगाढे णो तेओए, सिय दावरजुम्मपएसौगाढं, सिय कलिओग भावार्थशिक का तीन प्रदेशिक जैसे, आठ प्रदेशिक का चार प्रदेशिक जैसे, नव प्रदेशिक का परमाणु पुद्गल पर दश प्रदेशिक का दो प्रदेशी जैसे कहना. संख्यात प्रदेशी की पृच्छा, अहो गौतम ! मामान्य से स्यात् कृतयुग्न यावत् स्यात् कलियोज. विधाना देश से कृतयुग्न यावत् कलि युग्म ऐसे ही असंख्यात व त प्रदेशिक का मानना ॥२. ओ.भगवन ! परमाणु पदल क्या कृतयग्र प्रदेशागाही वगैरह पृच्छा, अहो गौतम! कृतयुग्म, ध्योज व द्वापर युग्न प्रदेशावगाही नही है कलि योग प्रदशावगाही..। विदेशिक की पृच्ग, अहो गौतम ! कृतयुग व व्याज प्रदेशावनाही दिमदायक कंध नहीं है परंतु स्यात् । पंचमांग विवाह एण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488 पचीसा शतक का चौथा उद्देशा 48+ - Page #2796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परसोगाढे ॥ तिपदेसिएणं पुच्छा ? गोयमा ! णो कडजुम्मपदेसोगाढे, सिय तेओग पदेसोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलिओगपएसोगा, ॥ चउप्पएसिएणं पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे, जाब सिय कलिओगपएसोगाढे ॥ २७४६ एवं जाव अणंत पदेसिए॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! किं कडजुम्मा पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओगा णो दावर णो कलिओगा ॥ विहाणा देसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा,णो तेओगाणो दावर कलिओगपएसोगाढा||दुपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा णो तेओगा, णो दावर णो द्वापर व स्यात् कलियोज प्रदेशावगाही है. तीन प्रदेशिक की पृच्छा, अहो गौतम ! कृतयुग्म प्रदेशावगाही नहीं है. परंत स्यात योज. स्यात् द्वापर व स्यात् कलि योज प्रदेशाचगाही है. चतुष्क प्रदांश पृच्छा, अहो गौतम ! स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलियोज प्रदेशावगाही है. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाही हैं वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से कृतयुग्म प्रदेशावगाही है परंतु योज, द्वापर व कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं है विधाना देश से कृतयुग्म, योज व द्वापर युग्म प्रदेशावगाही नहीं है परंतु कलि युग्म प्रदेशावगाही है. द्विपदेशिक की है। 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी भावार्थ Page #2797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६७ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) मूत्र 42262 कलिओगा ॥ विहाणादेसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा णो तेओयपएसोगाढा, दावर जुम्मपएसो गाढावि, कलिओगपएसोगाढावि ॥ तिपएसियाणं पुच्छा ? गोयमा ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेओया, णो दावर णो कलिआंगा ॥ विहाणा देसेणं णो कडजुम्मपएसोगाढा, तेओगपएसोगाढावि, दावरजुम्मपएसो गाढावि, कलिओग पएसो गाढावि ॥ चउप्पएसियाणं पुच्छा ? गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा णो तेओगा,णो दावर णो कलिओगा ॥ विहाणा देसेणं कडजुम्मपएसो गाढवि जावकलिओगपएसो गाढावि॥एवं जाव अणंत पएसिया॥३०॥परमाणु पोग्गलेणं भंते! किं पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से कृतयुग्म प्रदेशावगाही है परंतु व्योजद्वापर व कलि युग्म प्रदेशावगाही नहीं हैं. और विधाना देश से कृतयुग्म. व्योज कलियुग्म प्रदेशावगाही नहीं है परंतु द्वापर युग्म प्रदेशावगाही है. तीन प्रदेशी की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से कृतयुग्म प्रदेशावगाही है परंतु ध्योज, द्वापर व कलि योज, प्रदेशावगाही नहीं है विधाना देश से कृतयुग्म प्रदेशावगाही नहीं है परंतु त्र्योज, द्वापर व कलि योज प्रदेशावगाही है. चार प्रदेशिक स्कंध की पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से कृतयुग्म प्रदेशावगाही है परंतु योज, द्वापर व कलियुज प्रदेशावगाही नहीं है और विधाना देश से कृत-१५ युग्म प्रदेशावगाही यावत् कलियुग्म प्रदेशावगाही जानना. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना ॥३०॥ 8- पच्चीसवा शतक का चौथा. उद्देशा 48+ 4.२१ Page #2798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६८ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋणीजी कङजुम्म समयट्टिईए पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्म समयट्टिईए जाव कलिओग समयाठईए।। एवं जावअणंतपएसिए।परम णु पोग्गलाणं किं कडजुम्मा पुच्छा!गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्म समयट्रिईया जाव सिय कलिओग समयट्रिईया ॥ विहाणादेसेणं कडजुम्म समयट्ठिईयात्रि जाव कलिओग समयट्रिइयावि ॥ एवं आव अणंतपएसिया ॥ ३१ ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! कालवण्णपज्जवेहिं किं कडजुम्मे ते ओगे जहा ट्ठिईए बत्तव्वया एवं वण्णेमुवि सन्वेसु ॥ गंधेसुवि एवं चेव ।। रसेसुवि जाव अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या कृतयुग्म समय की स्थिति पाले हैं. पृच्छा, अहो गौतम ! स्यात् कनयुग्म समय की स्थिति वाले यावत् स्यात् कलियुग्म समय की स्थिति वाले ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध जैसे कहना. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या कृतयुग्म वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य मे स्यात् कृतयुग्म समय की स्थिति वाले यावत् स्यात् कलियुग्म समय की स्थिति वाले और विधानादेश से स्यात् कृतयुग्म समय की स्थिति वाले यावत् कलियुग्म समय की स्थिति वाले ऐसे ही प्रांत प्रदेशिक ध पर्यंत कहना. ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल कालापर्ण पर्यव से क्या कृतयुम्म है ध्यान वगैरा जैसे स्थिति की वक्तव्यता कही वैसे ही सब वर्ण में, सब गंध व रस में मधूर रस पर्यंत कहना.1 .प्रकाशक-राजाबहर लाला मुबहेव महायजो चायप्रसादजी. वार्थ 1 Page #2799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 २७६९ महररसोत्ति ॥ ३२ ॥ अणंतपएसिएणं भंते ! खंधे कक्खडफासपजवेहिं किं कडजम्मे पुच्छा ? गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे ॥ अणंत पएसियाण भंते ! खंधा कक्खडफासपज्जवहिं किं कडजुम्मा पुच्छा ?गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलिओगा।विहाणादेसेणं कडजुम्मावि जाव कलिओगावि॥ एवं मउय गुरुय । लहुयावि भाणियन्या॥ मीय उसिणा,णिड लुक्खा जहा वण्णा ॥३३॥ परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं सअड्डे अणड्डे ?गोयमा! णो सअड्डे अणड्डे ॥ दुपदसिए पुच्छा ? गोयमा! सअड्डे, णाअणद्वे ॥ तिपदेसिए जहा परमाणु पोग्गले ॥ चउप्पदेसिए जरा दुपदेसिए ॥३२॥ अहो भगवन् ! अनंत प्रदेशिक स्कंध कर्कश स्पर्श से क्या कृतयुग्म है वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! सामान्य से स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलियुग्म है. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! अनंत प्रदेशिक स्कंध कर्कश स्पर्श पर्या से क्या कृतयुग्म है पृच्छा, अहो गौतम सामान्य से स्यात् कृतयुग्म यावत् स्यात् कलियुग्म. विधानादेश मे कृतयग्म यावत् कलियुग्म है ऐसे ही 3मृदु गुरु. व लघु का कहना. शीत, ऊष्ण, स्निग्ध व रूक्ष का वर्ग जैप कहना. ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुगल अर्ध सहित है या अर्ध रहित है ? अहो गोतम ! परमाणु पुद्गल सार्थ नहीं है परंतु अन A8+ पंचमांग विवाह पञ्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48 पञ्चासना शतक का चौथा उद्दे mmmmmmmmmm | । .. Page #2800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७० .43 पंचपदेसिए ॥ जहा तिपदेसिए छप्पएसिए जहा दुपदेसिए ॥ सत्तपएसिए जहा तिपदेसिए ॥ अटुपदेसिए जहा दुपदसिए ॥ णवपदोसए जहा तिपदेसिए ॥ दस पएसिए जहा दुपदेसिए ॥ संखेज पएसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा ? गोयमा ! सिय सअड्डे सिय अणद्वे, एवं असंखेज पएसिएवि ॥ एवं अणंत पदेसिएवि ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! किं सअड्डा अणड्ढा ? गोयमा ! सअड्ढावा अणड्ढावा, एवं जाव अणंत पदेसिया ॥ ३४ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! किं सेए गिरेए ? गोयमा ! है. द्विप्रदेशिक स्कंध की पृच्छा, अहो गौतम ! सार्ध है परंतु अनर्ध नहीं है. तीन प्रदेश का भावार्थ परमाणु -पुद्गल जैसे कहना चार प्रदेशी का द्विप्रदेशी स्कंध जैसे कहना, पाच,सात व नव प्रदेशिक का परमाणु पुद्गल जैसे कहना. और छ, आठ, व दश प्रदेशिक का दो प्रदेशिक जैसे कहना. अहो भगवन् : संख्यात, प्रदेशिक की पुच्छा, अहो गौतम ! स्यात् सार्ध स्यात् अनर्ध ऐसे ही असंख्यात प्रदेशिक व अनंत प्रदेशिक का जानना. अहो भगवन् ! बहुत परमाणु पुद्गल क्या सार्ध या अनर्थ है ? अहो गौतम ! समसंख्या वाला सार्ध व विषम संख्यावाला अनर्ध है. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध जैसे कहना. ॥ ३४ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या कंपन सहित है या स्थिर हैं ? अहो गौतम ! स्यात् कंपन सहित व मुनि श्री अमोलक ऋपिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. * Page #2801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्र २७७१ सिय सेए सिय णिरेए ॥ एवं जाव अणंत पदेसिए ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! कि सेया णिरेया ? गोयमा ! सेयावि णिरेयावि ॥ एवं जाव अणंतपदेसिया ॥ ३५ ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! सेए कालओ केवेचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं एक समयं उक्कोसणं आवलियाए असंखेजइभागं ॥ परमाणु पोग्गलेणं भंते ! गिरेए कालओ केवीचरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं एवं जाव अणंत परसिए ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते ! सेया कालओ केवचिरं होइ ? भावार्थ: स्यात् स्थिर है. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. बहुत परमाणु पुद्गल क्या कंपन सहित हैं । या कंपन रहित हैं ? अहो गौतम ! कंपन सहित व स्थिर दोनों प्रकार के हैं ऐसे ही अनंत प्रदेशिक al स्कंध पर्यंत कहना. ॥ ३५ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितना काल तक कंपन सहित रहे ? अहो । गौतम : जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग . अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितना काल तक स्थिर रहे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल, ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गलों कितना काल तक कंपन सहित रहे ? अहो गौतम ! सब काल पर्यंत रहे. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितने काल पर्यंत स्थिर रहे ? अहो । पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 8+ पच्चीसवा शतकका चौथा उद्देशा Page #2802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक-राजाब २७७१ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषनी + mmunwar गोयमा ! सन्वर ॥ परमाणु पोग्गलाणं भंते । जिरेया कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्ध ॥ एवं जाव अणंतपदेसिया ॥ ३५ ॥ परमाणु पोग्गलस्सणं भंते ! सेयस्स केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखजइकालं ॥ परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उकोसणं असंखेजइकालं गिरेयस्स केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं उक्कोसणं आवलिआए असंखेजइ भागं परट्ठाणतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसणं असंखेज्जइ कालं ॥ ॥ दुपदेसियस्सणं भंते ! गौतम ! सब काल तक रहे. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. ॥ ३५॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल के कंपन का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! स्वस्थान आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल, पर स्थान आश्री, नघन्य एक समय उत्कृष्ट अख्यिात काल. अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल में स्थिरपने का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! स्वस्यानंतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट भावलिका का असंख्यातवा भाग परस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल द्विपदेशिक स्कंध की पृच्छा, महो मौतम ! स्वस्थानंतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काला भावार्थ र लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ खंधस्स पुच्छा, गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुच्च जहणेणं. एक समयं उक्कोसेणं असंखेज्जंकाल, परट्ठाणंतरं पडुच्च जहणेणं एवं समयं उक्कोसेणं अणतंकालं ॥ भिरेयरस केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! सट्टानंतरं पडुब जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइ भागं । परंद्वाणंतर पडुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोः सेणं अतं कालं एवं जाव अनंतपदेसियस्स || परमाणु पोग्गलाणं भंते ! सेयाणं hari कालं अंतरंहोइ ? गोयमा ! णत्थि अंतरं ॥ णिरेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! णत्थि अंतरं ॥ एवं जाव अणतपदेसियाणं खंधाणं ॥ ३६ ॥ एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सैयाणं णिरेयाणय कयरे २ जाव विसेसाहियावा ?. | परस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंतकाल. अहो भगवन् ! स्थिर का कितना अंतर कहा अहो गौतम ! स्वस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग परस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंतकाल ऐसे ही अनंत प्रदेशिक का कहना. अहो भगवन् ! कंपन स्वभाववाले परमाणु पुद्गलों का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! उस का अंतर नहीं हैं. स्थिर का ( कितना अंतर ? अहो गौतम ! उस का भी अंतर नहीं हैं. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. ॥ ३६॥ अहो भगवन् ! इन कंपन व स्थिर स्वभाववाले परमाणु पुद्गल में कौन किस से अल्प बहुत यावतू ? 4- पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पच्चीसवा शतकका चौथा उद्देशा २७७३ Page #2804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमा ! सम्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सेया, णिरेया असंखेजगुणा एवं जाव असं--: खेजपएसियाणं खंधाणं ॥ एएसिणं भंते ! अणेतपएसियाणं सेयाणेय णिरेयाणय कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा णिरेया, सेया अणंतगुणा ॥ ३८ ॥ एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेजपएसियाणं असंखेजपएसियाणं, अणंतपदेसियाणं, खंधाणं सेयाणय णिरेयाणय दवट्टयाए पएसट्ठयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे २ जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंत पदेसिया खंधा णिरेया दबट्ठयाए अणंतपदेसिया खंधा सेया दवट्ठयाए अणंतगुणा, भावार्थ विशेषाधिक है ? अहो गौसम ! सब से थोडे कंपन स्वाववाले परमाणु परल इस से स्थिर असंख्यातगुने. ऐसे ही असंख्यात प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन् : कंपन व स्थिर स्वभावाले अनंत प्रदेशिक स्कंध में कौन अस्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम! सबसे थोडे स्थिर अनंत प्रदेशिक स्कंध इस Eसे कंपन स्वभाववाले अनंतगुने ॥३७॥ अहो भगवन्! इन कंपन व स्थिर स्वभाववाले परमाणुपुद्गल, संख्यात प्रदेशिक स्कंध, असंख्यात प्रदेशिक स्कंध व अनंत प्रदेशिक स्कंध में द्रव्य से, प्रदेश से व द्रव्य प्रदेश से के.न किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थोटे द्रव्य से अनंत प्रदेशिक . १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + .महाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवनहायजी मालाप्रसादजी. Page #2805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणुपोग्गला सेया दवट्टयाए अणंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेशगुणा, असंखेजपएसिया खंधा सेया दवट्टयाए असंखेजगुणा, परमाणुपोग्गला णिरेया इन्वट्ठयाए असंखेजगुणा, संखेजपएसिया खंधा णिरेया दवट्ठयाए संखेजगुणा, असंखेजपएसिया खंधा जिरेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा, पदेसट्टयाए एवं चेव, णवरं परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए भाणियव्वा, संखेजपएसिया खंधा णिरेया पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा सेसं तंचेवादवटुपएसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा णिरेया दध्वट्ठपाए तेचेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा ॥ अणंत पदेसिया खंधा सेया दवट्ठयाए भावार्थ स्कंध अकम्प है २ इस से अनंत प्रदेशिक स्कंध सकंप द्रव्य से अनंत गुने ३ इस से परमाणु पुद्गल सकम्प द्रव्य से अनंतगुने इस से ४ संख्यात प्रदशिक स्कंध सकम्प द्रव्य से असंख्यातगुने ५ इस से असंख्यात मदेशिक स्कंध सकम्प द्रव्य से असंख्यातगुने, इस से परमाणु पुद्गल अकम्प द्रव्य से असंख्यात गुने इस से ७ संख्यात प्रदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य से संख्यातगुने इस से ८ असंख्यात प्रदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य से असंख्यातगुने. जैसे द्रव्य आश्री कहा वैसे ही प्रदेश आश्री कहना परंतु परमाणु पुगल, 1- अमदेशिक कहना. और संख्यात प्रदेशिक स्कंध अकंप प्रदेश आश्री असंख्यातगुना कहना.. शेष सब वैसे है । विवाहपण्णत्ति ( भगवती) पंचाय 1887 पच्चीसवा शतक का चौथा उद्देशा 40 4.88 Page #2806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ ८०३ अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी गुणा पट्टयाए अर्णतगुणा परमाणुपोग्गला सेया दव्बटुअपदेसटुयाए अनंतगुणा ॥ संखेजपएसिया खंधा सेया दव्वटुयाए असंखेज्जगुणा तेचेव पदेस याए संखेजगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा सेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेचेत्र पदेसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ परमाणुयोग्गला णिरेया दव्वट्टयाए अपदसष्टुयाए असंखेज्जगुणा, संखेज्ज एसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए असंखेजगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए असंखेज गुणा ; असंखेजपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेचत्र पदेसटूयाए ही कहना. अब द्रव्य व प्रदेश आश्री अल्पाबहुत्व. अष्ठो भगवन् ! सब से थांडे अनंत प्रदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य आश्री, इस से वही प्रदेश आश्री अनंतगुने, इस से परमाणु पुद्गल सकम्प द्रव्य व अप्रदेश आश्री अनंतगुने, इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध सकम्प द्रव्य आश्री असंख्यातगुने, इस से वही प्रदेश आश्री संख्यातगुने, इस से असंख्यात प्रदेशिक स्कंध सकम्प द्रव्य आश्री असंख्यातगुने, इस से वही | प्रदेश आश्री असंख्यातगुने, इस से परमाणु पुद्गल अकम्प द्रव्य व प्रदेश आश्री असंख्यातगुने इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य आश्री असंख्यातगुने इस से वही प्रदेश आश्री असंख्यातगुने इस असंख्यात प्रदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य से असंख्यातगुने, इस से वही प्रदेश आश्री असंख्यातगुने * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * २७७६ Page #2807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - | २७७७ असंखेजगुणा, ॥ ३९ ॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते! कि देसेए सोए णिरेए? गोयमा! णो देसेए सिय सव्वेए सिय णिरेए ॥ दुपदेसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा ? गोयमा ! सिय देसेए सिय सव्वेए, सिय णिरेए ॥ एवं अणंतपदेसिए ॥ परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं देसेया सव्वेया णिरेया? गोयमा ! णो देसेया सव्वेयावि णिरेयावि ॥ दुपदेसियाणं भंते ! खंधा पुच्छा? गोयमा! देसेयावि सव्वेयावि णिरेयावि एवं जाव अणंतपदेसिया ॥ ४० ॥ परमाणुपोग्गलेणं भंते ! सव्वेए कालओ केवंचिरंहोइ ? गोयमा ! जहण्णेणं पंजमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र १० पच्चीसवां शतक का चौथा उद्देशा 4220 भावार्थ ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल क्या देश से कंपन वाला, सर्व से कंपन वाला या स्थिर है ! अहो गौतम ! देश से कंपन वाला नहीं है परंतु स्यान सर्व से कंपन वाला व स्यात स्थिर है, द्विपदेशिक ys स्कंध की पृच्छा, अहो गौतम ! स्यात देश से कंपन वाला, स्यात सर्व से वाला कपंन व स्यात स्थिर है ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना..हो भगवन् ! बहुत परमाणु पुद्गल क्या देश से कंपन। वाले हैं, सर्व से कंपने वाले हैं या स्थिर हैं ? अहो गौतम ! देश से. कंपन वाले नहीं हैं परंतु सर्व से of कंपन वाले व स्थिर हैं. द्विपदेशिक स्कंध की पृच्छा, देश से कंपन वाले, सर्व से कंपन वाले व स्थिर भी +हैं. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. ॥ ४० ॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुद्गल सर्व से कंपन पाला . Page #2808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालममचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एक समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइ भागं, णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेजइ कालं ॥ दुपदेसिएणं भंते ! खंधे देसेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं आव. लियाए असंखेजइ भागं सम्बेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइ भागं ॥ णिरेएकालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखे कालं, एवं जाव अणंतपएसिया ॥३१॥ परमागुपोग्गलाणं भंते ! सव्वेया कालओ केवचिरंहोइ ? गोयमा ! सव्वद्ध, इकितना काल तक रहता है? अहो गौतम! जयन्य एक समय उत्कृष्ट आवालिका का असंख्यातवा भागअहो भगवन् ! वह स्थिर कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल. अहा भगवन्! देश कंपन वाला द्विपदेशिक स्कंध कितना काल पर्यंत रहता है ? अहो भगवन् ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग. अहो भगवन् ! सर्व कंपन कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवलिका का असंख्यातवा भाग तक रहे और स्थिर जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल पर्यंत रहे. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. ॥ ४१ ॥ अहो भगवन् ! बहुत परमाणु पुद्गल सर्व कंपन कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल रहे. स्थिर .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ mainik । Page #2809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - णिरेया कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सम्बद्धं ॥ दुपदेसियाणं भंते ! खंधा देसेया है। कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं ॥ सव्या कालआ केवचिरं होइ ? सम्वद्धं, णिरेया केयचि रंहोइ ? सव्वदं । एवं जाव अणंतपदेसिया ॥ ४२ ॥ २७७ परमाणु पोग्गलस्सण . भंते ! सव्वेयस्स कालओ केवचिरं अंतर होइ ? गोयमा ! सट्टाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेजंकालं । परटाणंतर पडुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं एवंचेव ॥ जिरेयस्स केवइ सट्टाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं परट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक भावाथ कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल. अहो भगवन् ! द्विपदेशिक स्कंध देश कम्प कितना hor काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल. सर्व कंपन कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल स्थिर कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना ॥४२॥ A अहो भगवन् ! सर्व कंपन परमाणु पुद्गल का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! स्वस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उस्कृष्ट असंख्यात काल. परस्थानांतर आश्री एक समय उत्कृष्ट ऐसे ही कहना. स्थिर का स्वस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवंलिका का असंख्यात भाग. परस्थानांतर आश्री । पंचमाङ्ग विवाह पप्णत्ति ( भगवति ) सूत्र पञ्चीसवा शतक का चौथा उद्देशा 498 330 Page #2810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयं उक्कोसेणं असंखजं कालं ॥ दुपदेसियस्सणं भंते ! खंधस्स देसयस्स केवइयं । कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेजंकालं । परट्राणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं अणतंकालं ॥ सव्वेयस्स केवइयं कालं एवंचेव जहा देसेयस्स ॥ णिरेयस्स केवइयं कालं ? सट्राणंतरं पडच्च जहण्णेणं एक समयं उक्क सेणं आलियाए असंखजइ भागं । परट्राणं तरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अणंतकालं, एवं जाव अणंतपदेसियस्स ॥ ४३ ॥ परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सव्वेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! भावार्थ जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल. द्विप्रदेशिक स्कंध का देश कंपन का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! स्वस्थानांतर आश्री जघन्य एक ममय उत्कृष्ट असंख्यात काल, परस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंत काल. सब कंपन का कितना अंतर ? सव कम्पन का अंतर देश कम्पन जैसे कहना. स्थिर का कितना अंतर कहा ? अहो गौतम ! स्वस्थानांतर आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट आवालिका का असंख्यातवा भाग परस्थानांतर जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंत काल. ऐसे ही अनंत प्रदेशिक तक कहना ॥ ४३ ॥ अहो भगवन् ! बहुत परमाणु पुद्गल के 10 सई कम्पन का कितना अंतर होवे ? अहो गौतम : इस का अंतर नहीं है क्यों कि वह सब काल 21 -42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी • प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * - Page #2811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगक्ती ) सूत्र 488+ णत्थि अंतरं णिरेयाणं केवइयं? णत्थिअंतर दुपदेसियाण मंतेखधाणं देसेयाणं केकति कालं? णत्थि अंतरं सव्वेयाणं केवइ? णत्थि अंतरं णिरेयाणं केवइ? णत्थि अंतरं ॥ एवं जाव अणंत पदेसियाणं॥४४॥ एएसिणं भंते ! परमाणु पोग्गलाणं सव्वेयाणं णिरेयाणय कयरे कयरे जाव विसेसा हियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा परमाणु पोग्गला सव्वेया, णिरेया असंखेज गुणा॥एएसिणं भंते! दुपदसियाणं खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं णिरेयाणय कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्थावा दुपदेसिया खंधा सव्वेया, देसेया असंखेजगुणा, णिरेया असंखेनगुणा एवं जाव असखजपएसियाणं खंधाणं॥एएसिणं भंते! अणंतपदेसि याणं खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं णिरेयाणय कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! रहता है. वैसे ही स्थिरका भी अंतर नहीं है. अहो भगवन् ! द्विपदोशिक को देशकंपकी कितना अंतर ! अहो गैतम! उस का अंतर नहीं है वैसेही सर्वकम्म व कम्मका जानना. ऐसहीअनंत प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना॥४४॥ अहो भगवन् ! परमाणु पुदगल के सकम्प व अकम्प में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब स थोडे परमाणु पुद्गल सर्व कम्प इस से अकम्प असंख्यातगुने. अहो भगवन् ! इन द्विप्रदेशिक स्कंध के देश कम्पन,सर्व कम्पन व अकम्पन में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक 60 ok हैं? अहो गौतम! सब से थोडे द्विपदेश स्कंध सर्व कम्पनवाले, इस से देश कम्पनवाले असंख्यातगुने.. इस से अकम्प असंख्यातगुने. ऐसे ही असंख्यात प्रदेशिक स्कंध पर्यंत कहना. अहो भगवन ! इन । Annnwwwwwwnnnnnnnnnnnnnnnnn .48 पञ्चीसवा शतक का चौथा उद्देशा 4.8 E अहो भगवन् ! परमाणु JRT पदल सर्व कम्प इस से अल्प बहुत यावत् [ART . Page #2812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaaamanAL सम्वत्योवाअणंतपदेसिया खंधा सबेया, णिरेया अगंतगुणा, देसेया अणंतगुण॥ ४५ ॥ एएसिणं भंते ! परमाणु पोग्गलाणं संखजपएसियाणं असंखेजपएसियाणं अणंतपए सियाणय खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं णिरयाणं दव्वट्ठयाए पदेमट्टयाए दवट्रपएसट्याए कयरे क्रयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतषदेसिया खंधा सम्वेया दवट्टयाए अणंत पदसिया खंधाणिरेयादवट्टयाए अणंतगुणा, अगंतपदेसिया खंधा देसेया दवट्टयाए अणंतगुणा, असंखेजपदसिया खंधा सव्वेया दवट्टयाए अणंतगुणा, संखे.. जपदेसिया खंधा सम्वेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा ; परमाणुपोग्गला सव्वेया दबट्टयाए अनंत प्रदेशिक स्कंध में देश कम्पन सर्व कम्पन व अकम्पन में कौन किस से अल्प बहुन यावत् विशेषा. भावार्थघिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे अनंत प्रदेशिक स्कंध सर्व कम्पन. इस से अकमान अनंतगुने इस से देश कम्पन अनंतगुने ॥ ४५ ॥ अहो भगवन् ! इन परमाण पुद्गल, संख्यात प्रदेशिक स्कंध, असंख्यात मदेशिक स्कंध, व अनंत प्रदेशिक स्कंध देश कम्पवाले, म कम्पवाले व स्थिर द्रव्य आश्री कौन २ यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम : सब से थोडे द्रव्य आश्री अनंत प्रदेशिक स्कंध सब कम्पनवाले, इस से अनंत प्रदेशिक स्कंध द्रव्य आश्री स्थिर अरंतगुने, इस से अनंत प्रदेशिक स्कंध द्रव्य आश्री देश कम्पनवाले अनंतगुने, इस से असंख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य आश्री सब कम्पनवाले अनंतगुने, १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + aaaaaaaaaaaa प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायनी ज्वालाप्रसादनी Page #2813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 |२७८३ पंचमान विवाह पण्णारी (भगवती) सूत्र असंखेनगुणा, संखेजपदेसिया बंधा देसेया दवठ्याए असंखेज्जगुणा, असंखेजपए .. सिया खंधा देसेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा ; परमाणुपोग्गला णिरेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा, संखेजपदेसिया खंधा पिरेया दबट्टयाए संखेजगुणा, असंखेजपदेसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा ॥ पदेसट्टयाए-सव्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा पदेसट्टयाए एवं पएसट्टयाएवि. णवरं परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए भाणियव्या । संखेजपदेसिया खंधा णिरेया पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, सेसं तंचेव ॥ दवट्ठपए. इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य आश्री सब कम्पनवाले असंख्यातगुने, इस मे परमाणु पुद्गल सब कम्पनवाले असंख्यातगुन. इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध देश कम्पनवाले द्रव्य से असंख्यातगुने इस से असंख्यात प्रोशिक स्कंध देश कम्पनवाले द्रव्य से असंख्यातगुरे इस से परमाणु पुद्गल अकम्पनवाले द्रव्य से असंख्यातगुने ri इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध अकम्पनवाले द्रव्य से संख्यातगुने और इस से असंख्यात मदेशिक स्कंध अकम्प द्रव्य स असंख्यात गुने, अब प्रदेश आश्री अल्पावहुत्व कहते हैं. सब से थाडे अनंत प्रदेशिक स्कंध प्रदेश से यो मब द्रव्यार्थ जैसे प्रदेशार्थ का भी कहना. परंतु परमाणु पुद्गल अप्रदेश कहना. और असंख्यात प्रदेशिका संध कम्प वाले प्रदेश आश्री असंख्यात गुने शेष वैसे ही. अब द्रव्य प्रदेश-सब से थोडे अनंत प्रदेशिक कंप | 488 पच्चीसवा शतक का चौथा उद्देशा भावार्थ । * Page #2814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ '' 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी याए सन्वत्थोवा अणतपदेसिया खंधा सव्वैया दव्वटुयाए तेचेव पएसटुयाए अणं. तगुणा, अनंतपदेसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए अनंतगुणा. तपसिया खंधा देसेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए अनंतगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा सव्वेया दव्वट्टयाए अनंतगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा संखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेयां दव्बट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेचेत्र पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा; परमाणु'पोग्गला सव्वैया दव्वटूअपएसट्ट्या असंखेज्जगुणा, संखेज्जपएसिया देतेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दसेया सब कम्पन वाले द्रव्य आश्री इस से वेही प्रदेश आश्री अनंत गुने इस से अनंत प्रदेशिक स्कंध अकम्पन (वाले द्रव्य आश्री अनंत गुने, इस से वही प्रदेश आश्री अनंत गुने, इस से अनंत प्रदेशिक स्कंध देश कम्पन वाले द्रव्य आश्री अनंत गुने, इस से वही प्रदेश आश्री अनंत गुने, इस से असंख्यात प्रदेशिक स्कंध द्रव्य आश्री सब कम्पन वाले अनंत गुने, इस से वही प्रदेश आश्री असंख्यातगुने इस से संख्यात प्रदेशिक स्कंध (द्रव्य आश्री सब कम्पन वाले असंख्यात गुने इस से वही प्रदेश आश्री संख्यातगुने, इस से परमाणु पुगल सब कम्पन वाले द्रव्य आश्री असंख्यातगुने इस से संख्यात प्रदेशिक देश कम्पन वाले द्रव्य आश्री * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७८४ Page #2815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 २७८५ पंचमाङ्ग विवाह पणत्ति (भगवती) सूत्र दव्वट्ठयाएं असंखेजगुणा तेचेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा ; परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्ठअपएसट्ठयाए आखजगुणा, संखेजपदेसिया दवट्ठयाए संखेजगुणा, तंचे पदेसट्टयाए संखेजगुणा, असंखजपदेसिया णिरेया दवट्ठयाए असंखेजगुणा, तेचेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा ॥ ३६ ॥ कइणं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठधम्मत्थिकायस्स मझपदेसा पण्णत्ता ।। कइणं भंते! अहम्मविकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता? गोयमा ! एवंचव ॥ कइणं भंते ! आगासत्थि कायस्स मज्झदेसा पण्णत्ता ? एवं चेत्र ॥ कइणं भंते ! जीवत्थिकायस्स असंख्यात गुने, इससे वही प्रदेश आश्री संख्यात गुने, इससे असंख्यात प्रदेशिक स्कंध देशकम्पन वाले द्रव्य आश्री असंख्यात गुदे, इससे वेही प्रदेश आश्री असंख्यातगुने, इससे परमाणुपुद्गल अकम्प वाले द्रव्य अप्रदेश आश्री असंख्यात गुने, इससे संख्यात प्रदेशिक द्रव्य आश्री अकम्प संख्यात गुने, इससे वही मदेश पाश्री संख्यातगुने, इससे असंख्यात मदेशिक अकम्पन वाले द्रव्य आश्री असंख्यात गुने, इससे वही प्रदेश आश्री at असंख्यात गुने, इस से वेही असंख्यात गुने, ॥ ४६॥ अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया, के मध्य प्रदेश कितने कहे हैं ? अहो गौतम! धर्मास्तिकाया के आठ मध्य प्रदेश कहे हैं. वे रुचक प्रदेश अवगाहकर रहैं 480 पच्चीसवा अतक का चौथा उद्देशा भाव . । Page #2816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋषिजी + मझपदेसा पण्णता ? गोयमा ! अट्ट जीवत्यिकायस्स मज्झपदेसा पण्णत्ता ॥ एएसिणं भंते ! अट्ठजीवात्थकायस्स मज्झपदेसा कइसु आगासपदेसु ओगाढा होति ? गोयमा! जहण्णेणं एकसिवा, दोहिंवा, तिहिंवा, चउहिंवा, पंचहिंवा, छहिवा, उक्कोसेणं अट्ठसु। णो चेव सत्तसु ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ पणवीसइमसयस्स चउत्थो उद्देसो २७८६ सम्मत्तो॥२५॥४॥. HE हैं उस आश्री जानना. - अहो भगवन् अधर्मास्ति काया के कितने मध्य प्रदेश कहे हैं ? अहो गौतम ! पूर्वोक्त जैसे आठ मध्य प्रदेश कहे हैं. अहो भगवन् ! आकाशास्ति काया के कितने मध्य प्रदेश कहे हैं ? अहो गौतम ! आठ मध्य प्रदेश कहे हैं. अहो भगवन् ! यह आठ जीवास्ति काया के मध्य प्रदेश कितने आकाश प्रदेश अवगाहन कर रहे हैं ? अहो गौतम ! जघन्य एक, दो, तीन, चार पांच व छ उत्कृष्ट आठ; परंतु सात प्रदेश अगाहकर नहीं रहे हैं. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पच्चीसवा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण इवा. ॥ २५ ॥४॥ * यद्यपि लोक प्रमाण धर्मास्तिकाया का मध्य रत्नप्रभा के आकाशांतर में होता है किंतु रुचक में नहीं होता है ताहपि दिशा व विदिशा का उत्पन्न होना रुचक सेही होता है इसलिये धर्मास्तिकाया के मध्य की वहां विवक्षा की है. प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुख देवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* 48 अनुवादक-बालब्रह्म Page #2817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७ 48 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 480 कइविहाणं भंते ! पजश पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा जीव पजवाय, अजीव पजवाय ॥ अजीवपदं गिरवसेसं भाणियन्वं ॥ १ ॥ आवलियाणं भंते ! किं संखेजा समया, असंखेज्जा समया, अणंता समया ? गोयमा ! णो संखेजा समया, असंखेजा समया, णोअणंता समया ॥ अणापाणणं भंते ! किं संखेजा ? एवं चेव ॥ थोवेणं भंते ! किं? एवं चेव ॥ एवं लवेवि ॥ मुहत्तेवि ॥ एवं अहोरत्ते ॥ एवं पक्खे, मासे, उऊ, अयणे, संवच्छरे, जुगे, वाससए, वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुबिगे, पुब्वे,तुडियंगे,तुडिए,अडडंगे,अडडे,अववंगे,अववे,हुहुअंगे,हुहुए,उप्पलंगे,उप्पले,पउमंगे चतुर्थ उद्देशे में पुद्गलास्ति काया का स्वरूप कहा. पांचवे उद्देश में उस की पर्याय का स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! पर्यव के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम! दो प्रकार के पर्यत्र कहे तद्यथा?जीव पर्यव और १२ अजीव पर्यव. इस का सब कथन पनवणा के पांचवे पद से जानना. ॥ १ ॥ पर्याय का परिवर्तन काल से होता है इसलिये काल का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! आवलिका के क्या संख्यात समय हैं, असं-326 ख्यात समय हैं या अनंत समय हैं ? अहो गौतम ! संख्यात व अनंत समय नहीं हैं परंतु असंख्यात समय . भहो भगवन् ! श्वासोश्वास के क्या संख्यात समय वगैरह ऐसे ही जानना. ऐसे ही थोव, लब, मुहूर्त, है । 488+ पच्चीसवा शतक का पांचवा उद्देशा 4882 भात 1 Page #2818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K * अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 परमे,णलिणंगे,णलिणे,अच्छिणिपूरंगे अच्छिणिपूरे,अउयंगे,अउए,णउयंगे,णउए,पउयंगे, पउए,चलियंगे,चलिया,सीसप्पहेलियग,पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी एवं उस्सप्पिणीवि॥२॥पोग्गल परियटेणं भंते ! किं संखेजा समया असंखेजा समया पुच्छा? गोयमा ! णो संखेजा समया,णो असंखेजा समया,अणंता समयाएवं तीयडा,अणागयडा, सव्वद्धा, ॥३॥ आवलियाओणं भंते! किं संखेज्जा समया! पुच्छा? गोयमा ! णो संखेजा समया सिय असंखेज्जा समया, सिय अणंता समया ॥ आणापाणणं भंते ! किं संखज्जा अहोशात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षसो, वर्ष सहस्र, वर्ष लक्ष, पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, घटित, अहडांग, अडड, अक्वांग, अवच, हहूआंग,टूअ,उत्पलांग, उत्पल, पांग, पञ्च, नलिणांग, नलिण, अक्षिणीपुरांग, अक्षिणीपुर, अउपांग, अउप, नउपांग, नउप, पउपांग, पउप, चूलितांग, चूलित, शीर्ष टेलितांग, पल्यापम, सागरोपम अवमर्पिणी व उत्सर्पिणी के असंख्यात समय कहे हैं ॥२॥ अहो भग-2 बन ! पुद्गल परावर्त के क्या संख्यात, असंख्यात या अनंत ममय हैं ? अहो गौतम ! संख्यात व असंख्यात समय नहीं हैं परंतु अनंत समय हैं. ऐसे ही अतीत काल, अनागत काल व सब काल का जानना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! बहुत भावलिकाओं के क्या संख्यात समय घगैरह पृच्छा, अहो गौतम !. *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HCg समया पुच्छा ? गोयमा! एवं चैव ॥ थोवाणं मंते ! पुच्छा ! एवं चैव एवं जाव उस्सप्पिणीत्ति ॥ पोग्गलपरियट्टाणं भंते ! किं संखेजा समया पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेजा णो असंखेजा समया, अणंता समया ॥ ४ ॥ आणापाणणं भंते ! कि संखेजा आवलिया पुच्छा? गोयमा! संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेजाओ आवलियाओ, णो अणंताओ आवलियाओ॥ एवं थोवेवि ॥ एवं जाव सीसप्पहेलियत्ति ॥ पलिओवमेणं भंते! किं संखेजा पुच्छा? गोयमा ! णो संखजाओ आवलियाओ, असंखेजाओ आवलियाओ, णो अणंताओ आवलियाओ ॥ एवं सागरोवमेवि । एवं ओसप्पिणीवि, भावार्थ संख्यात ममय नहीं परंतु स्यात् असंख्यात व स्यात् अनंत समय, बहुत काल की आवलिकाओं आश्री. ऐसे ही श्वासोश्वास, यों यावत् उत्सर्पिणी पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! बहुत पुद्गल परावर्त के क्या संख्यात समय वगैरह पृच्छा? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात नहीं परंतु अनंत समय ॥ ४ ॥ अहो 50 भगवन् ! श्वासोश्वास की क्या संख्यात आवलिका है वगैरह पृच्छा? अहो गौतम ! श्वासोश्वास की ० संख्यात आवलिकाओं होती हैं परंतु असंख्यात व अनंत आवलिकाओं नहींहोतीहै. ऐसे ही स्थोव यावत् शीर्ष * प्रहेलिका तक कहना., अहो भगवन् ! पल्योपम को क्या संख्यात आवलिकाओं असंख्यात या अनंत । पंचमांग विवाह एण्णत्ति (भगवती) सूत्र - पचासवा शतक का पांचवा उद्देशा80-80 Page #2820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उसप्पिणीवि ॥ पोग्गलपरियट्टे पुच्छा? गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, णो असंखेज्जाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ ॥ एवं जाव सव्वद्धा ॥ आणापाणूणं भंते ! किं संखेजाओ आवलियाओ पुच्छा? गोयमा! सिय संखेजाओ आवलियाओ सिय असंखोजओ, सिय अणंताओ ॥ एवं जाव सीसप्पहेलियाओ ॥ पलिओवमाणं पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेजाओ आवलियाओ, सिय असंखजाओ आवलियाओ सिय अणंताओ आवलियाओ ॥ एवं जाव उसप्पिणीओत्ति ॥ पोग्गलपरियटाओ पुच्छा ? गोयमा ! णो संखजाओ आवलियाओ णो असंखेजाओ आवलियाओ, आवलिकाओं ? अहो गौतम ! संख्यात व अनंत आबलिकाओं नहीं परंतु असंख्यात आवलिकाओं कहना. ऐसे ही सागरोपम, अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी का कहना. पुद्गल परावर्त की पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात आवलिकाओं नहीं हैं परंतु अनंत आवलिकाओं हैं ऐसे ही अतीत, अनागत व सर्व काल पर्यंत कहना. अब अनेक आश्री पृच्छा कहते हैं. अहो भगवन् ! बहुत श्वासोश्वास की क्या संख्यात, असंख्यातया अनंत आवलिकाओं ? अहो गौतम ! स्यात् संख्यात. स्यात् असंख्यात व स्यात् अनंत आव लिकाओं. ऐसे ही शीर्ष प्रहेलिका पर्यंत कहना. पल्योपमकी पृच्छा, अहो गौतम! संख्यात आवलिकाओं नहीं .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुवदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ *ॐ> पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र अणंताओ आवलियाओ ॥ ५ ॥ थोत्रेणं भंते ! किं संखेजाओ आणापाणूओ असंखेज्जाओ जहा आवलियाए वत्तन्वया एवं आणापाणुओवि णिरवसेसा ॥ एवं एएणं गमणं जाव सीसप्पहेलिया भाणियव्वा ॥ सागरोत्रमेणं भंते ! किं संखेजा पलिओवमा पुच्छा ? गोयमा ! संखेज्जा पलिओत्रमा णो असंखेज्जा पलिओत्रमा णो अनंता पलिओमा ॥ एवं ओसप्पिणीओवि || पोग्गलपरियहेणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेजा पलिओवमा, गो असंखेजा पलिओवमा, अनंता पलिओमा || एवं जाव सव्वा || सागरोवमाणं भंते ! किं संखेज्जा पलिओवमा पुच्छा ? गोयमा ! सिय संखेज्जा पलिओवमा, सिय असंखंज्जा पलिओवमा, सिय अनंता पलिओवमा || परंतु स्यात् असंख्यात व स्यात् अनंत आवलिकाओं ऐसे ही उत्सर्पिणी पर्यंत कहना. पुद्गल परावर्त की (पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात आवहिकाओं नहीं परंतु अनंत आवलिकाओं जानना ॥ ५ ॥ ६ अहो भगवन् ! स्थोव को क्या संख्यात श्वासोश्वास हैं, असंख्यात श्वासोश्वास हैं या अनंत श्वासोश्वास {हैं ? अहो गौतम ! जैसे आवलिका की वक्तव्यता कही वैसे ही श्वासोश्वास की वक्तव्यता कहना. ऐसेडी शीर्षप्रहेलिका पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! सागरोपम के क्या संख्यात पल्योपम वगैरह पृच्छा, अहो 48 पचीसत्रा शतकका पांचवा उद्देशा 403 २७९१ Page #2822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 एवं जाव ओसप्पिणीओदि । उस्सप्पिणीओवि ॥पोग्गलपरियहाणं पुच्छा ? गोयमा! णो संखेजा पलिओवमा, णो असंखेजा पलिओवमा अणंत! पलिओवमा ॥उसप्पिणीओणं भंते ! किं संखेजा सागरोवमा जहा पलिओवमस्स वत्तव्यया तहा सागरोवमस्सवि पोग्गल परियटेणं भंते ! किं संखज्जाओ ओसप्पिणीओ पुच्छा, गोथमा ! णो संखेजाओ ओसप्पिणीओ णो असंखजाओ अणंताओ ओसप्पिणीओ पोग्गलपरियहाणं भंते ! किं संखेजाओओमप्पिणीओ पुच्छा, गोयमा ! णो संखेजाओ णो असंखेजाओ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गौतम ! सागरोपम के संख्यात पल्योपम हैं परंतु असंख्यात व अंत पल्योल्म नहीं हैं. ऐसे ही उत्मपिणो पर्यंत कहना. पुद्गल परावर्त की पृच्छा, अहो गौतम ! मख्यात व असंख्यात पल्योषम नहीं परंतु अनंत पल्योपम ऐसे ही सर्व काल पर्यंत कहना. अब अनेक आश्री. अहो भगवन् ! बहुत सागरोपम के क्या संख्यात पल्योपम वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! स्यात् संख्यान पल्यापम, स्यात् असंख्यात पल्योपम और स्यात् अनंत पल्योपम. ऐसे ही अवमर्पिणी व उत्सर्पिणी का कहना. पुद्गल परावर्त को पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यात व असंख्यात पल्योपम नहीं परंतु अनंत पल्योपम जानना. अहो भगवन् ! उत्सर्पिणी का क्या संख्यात सायरोपम हैं ? वगैरह जैसे पल्योपम का कहा वैसे ही कहना. है। * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्याला प्रसादजी* मात्र Page #2823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णति (भगवतीमूत्र 44 अणताओ || पोग्गलपरियणं भंते! किं संखेजाओ ओसप्पिणी उसप्पिणीओ ? पुच्छा गोयमा ! णो संखेजाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ, णो असंखेज्जाओ, अनंताओ ओसप्पिणीओ उसप्पिणीओ ॥ एवं जाव सव्वद्धा | पोग्गलपरियद्वाणं भंते ! किं संखेज्जाओ ओसप्पिणीउ प्पिणीओ पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेज्जाओ, ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ, जो असंखेज्जाओ, अणंताओ ओसंप्पिणी उस्सप्पिणीओ ॥ ६ ॥ तीताणं भंते! किं संखेजा पोग्गल परियट्टा ? गोयमा ! णो संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा अहो भगवन् ! पुद्गल परावर्त को क्या संख्यात अवसर्पिणी हैं ? वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यात व असंख्यात अवसर्पिणी नहीं हैं. परंतु अनंत अवसर्पिणी हैं. अहो भगवन् ! पुद्गल परावर्त को क्या संख्यात उत्सर्पिणी हैं? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात उत्सर्पिणी नहीं हैं परंतु अनंत उत्सापणी हैं. अहो भगवन् ! पुद्गल परावर्त को क्या संख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी हैं ? वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी नहीं हैं परंतु अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी हैं. ऐसे ही सब काल पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! बहुत पुद्गल परावर्त में बया संख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी अहों गौतम संख्यात असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी नहीं परंतु अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी हैं. ॥६॥ अहो भगवन् ! अतीत काल में क्या संख्यात पुद्गल परावर्त हैं या असंख्यात पुल परावर्त हैं. पुच्छा. 48 पच्चीसत्रा शतक का पांचवा उद्देशा २७९३ Page #2824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + जो असंखेजा, अनंता पोग्गलपरियट्टा । एवं अणागयात्रि ॥ एवं सव्वद्धावि ॥ ७ ॥ अणागयद्वाणं भंते! किं संखेजाओ ततिद्धाओ असंखजाओ, अनंताओ ? गोयमा ! णो संखेजाओ तीयद्धाओ, णो असंखेजाओ तीयद्धाओ, णो अनंताओ तीयद्धाओ || अणागयाणं तीतद्धाओ समयाहिया तीतद्धाणं अणागयद्धाओ समयूणा ॥ ८ ॥ सव्वाणं भंते! किं संखेजाओ तीतद्धांओ पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेज्जाओ या अनंत पुल परावर्त हैं ? अहो गौतम ! संख्यात असंख्यात पुद्गल परावर्त नहीं हैं परंतु अनंत पुद्गल परावर्त हैं. ऐसे अनागत व सर्व कालके जानना ॥७॥ अहो भगवन्! अनागतके क्या संख्यात अतीत काल हैं असंख्यात हैं या अनंत हैं ? अहो गौतम! संख्यात असंख्यात व अनंत अतीत काल अनागत काल को नहीं है. अनागत काल अतीत काल से एक समय अधिक है और अनागत काल से अतीत काल एक समय कम है || ८ || अहो भगवन् ! सर्व काल को संख्यात अतीत काल दें वगैरह पृच्छा, अहो गौतम * अतीत काल की आदि नही व अनागंत काल का अंत नहीं इस से अनादि व अनंत पना से दोनों समान हुए. परंतु जिस समय में भगवंत का प्रश्न है वह समय अविनष्ट पना से अतीत काल में प्रवेश करे नहीं परंतु अनागत काल में उस समय की गिनती होसकती है इस से एक समय अधिक अनागत काल हुवा. * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७९४ Page #2825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र तीतहाओ, णो असंखेजाओ तीतहाओ, णो अणंताओ तीतद्धाओ ॥ सन्वद्वाण तीतद्धाओं सातिरेग दुगुणो तीतहाणं सव्वद्धाओ थोवूणाए अद्धे ॥८॥सव्वद्धाणं भंते ! कि संखज्जाओ अणागयहाओ षुच्छा ? गोयमा! णो संखेजाओ अणागयडाओ जो असंखजाओ जो अणंताओ अणागयद्धाओ ॥ सव्वद्धाणं अणागयद्धाओ थोवूणगदु. गुणो अणागयद्वाणं सव्वहाओ सातिरेगेअद्ध ॥ ९ ॥ कइविहाणं भंते । णिओदा पण्णता ? गोयमा ! दुबिहा णिओदा पण्णत्ता, तंजहा गिओयगाय जिओय जीवाय ॥ णिओदाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, संख्यात, अंसख्यात व अनंत अतीत काल नहीं हैं परंतु साधिक दुगुना अतीत काल है. क्यों की अतीत E अनागत मीलकर सर्वकाल होता है और अतीत काल सर्व काल से थोडा कम है. ॥८॥ अहो भगवन् ! सर्व काल को क्या संख्यात अनागत काल हैं पुच्छा, अहो गौतम ! संख्यात, असंख्यात व अनंते अनागत काल । नहीं है परंतु सर्व काल को किंचित् कम दो गुना अनागत काल है. और सर्व काल से कच्छ अधिक अधolo अनागत काल है.॥१॥अहो भगवन! निगोद के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम!निगोद के दो भेद कहे हैं.११ भनतकायिक जीवका शरीरनिगोदक और साधारण नाम कमोदयवर्ती जीव सो निगोद.अहो भगवन् निगोदके' 48. पच्चीसवा शतक का पांचवा उद्दशा 428 भावार्थ Page #2826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ eio 48 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि तंजहा सुमणिओदाय बादर णिओदाय ॥ एवं जिओदा भाणियन्त्रा, जहा जीवाभिगमे तव णिरवसेसं ॥ १० ॥ कइविणं भंते ! णामे पण्णत्ते ? गोयमा ! छवि णामे पण्णत्ते, तंजहा उदइए जाव सण्णिवाए ॥ सेकितं उदइएणामे ? उणा दुविहे पण्णत्ते, तंजहा उदइएय उदयणिष्फण्णेय, एवं जहा सतरसमसए पढमे उद्देस भावो तहेव इहवि णवरं इमं णाणत्तं सेसं तहेव जात्र सष्णिवाइए || सेवं भंते ! भंतेति ॥ पणवीसइमसयस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ ५ ॥ कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! निगोद के दो भेद कहे हैं ? सूक्ष्म निगोद व २ बादर निगोद इसका विशेष विस्तार जीवाभिगम मूत्र से जानना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! नाम ( परिणामं भाव ) के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! छ प्रकार के नाम कहे हैं. जिनके नाम १ उदय २ उपशम ३ क्षयोपशम ४ ( क्षायिक २ पारिणामिक और ६ सन्निपतिक. अहो भगवन्! उदय नाम के कितने भेद कहे है? अहो गौतम! उदय नामके दो भेद कहे हैं ? औदयिक और २ उदय निष्पन्न ऐसे ही जैसे सत्तरहवे शतक के ( पहिले उद्देशे में कहा वैसे ही यहांपर भी कहना. परंतु इतना विशेष कि वहां भाव आश्री एक सूत्र कहा यहां नाम आश्री कहना यावत् सन्निपातिक नाम. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पच्चीसवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २५ ॥ ५ ॥ * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २७१६ Page #2827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पाणवणवेयरागे कप्पचरित्त पडिसेवणा णाणे ॥ तित्थेलिंग सरीरे खिचे काले गति । संजमणिकासे ॥ १ ॥ जोगुवओग कसाए, लेसा परिणाम बंध वेदेय ॥ कम्मोदीरण उवसं, पजहण्ण सण्णाय आहारे ॥ २ ॥ भव आगरिसे कालं, तरेण समुग्घायखेत्त फुसणाय ॥ भावे परिमाणे खलु, अप्पाबहुयं णियंठाणं ॥ ३ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते! णियंठा पणत्ता ? गोयमा! पंच णियंठा पण्णत्ता, तंजहा-पुलाए, चउसे, कसीले, णियंठे, सिणाते, ॥१॥ पुलाएणं भंते ! कइविहे पण्णते ? पंचामविवाह पण्णन्ति ( ममवती ) सूत्र .. कासवा शतकका छठा उद्देशा पांचवे उद्देशे के अंत में भाव के नाम कहे. उत्तम भाव निर्ग्रन्थ को होने हैं इसलिये निर्धन्य का प्रश्न करते हैं. इस के द्वार ३६ कहे हैं. १ प्ररूपणा द्वारे २ वेदद्वार ३ रागद्वार ४ कप द्वार ५ चारित्रद्वार ६ , प्रतिसेवना ७ ज्ञान ८ तीर्थ ९ लिंग १० शरीर ११ क्षेत्र १२ काल १३ गति १४ संयम १८ निकर्ष (पर्यव ) १६ योग १७ उपयोग १८ कषाय १९ लेश्या २० परिणाम २१ बंध २२ वेद २३ कर्मोदीरणा १२४ अंगीकार करना त्यागना २५ संज्ञा २६ आहार २७ भाव २८ आकर्ष.२०. काल ३० अंतर ३१ समुद्धात ३२ क्षेत्र ३३ वर्शना ३४ भाव ३५ परिमाण भौर ३६ अलका बहुत्वं. राजगृह नगर में यावत् । ऐसा बोले अहो भगवन् ! कितने प्रकार के निर्मन्य कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ करे हैं । Page #2828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१८ श्री अमोलक ऋपिजी भावार्थ गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, 'तंजहा - णाणपुलाए, दसणपुलाए, चरित्तपुलाए, लिंग पुलाए, अहासुहुम पुलाए णामं पंचमए ॥ वउसेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-आभोगवउसे, अणाभोगवउसे, संवुडवउसे, असंवुड़वउसे अहासहुमवउसे णामं पंचमे॥ कुसीलेणं भंते! कइविहे पण्णत्ते?गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पडिसेवणा कुसीलय, कसायकुमीलेय ॥ पडिसेवणाकुसीलेणं भंते ! कइविहे जिनके नाम १. पुलाक २ बकुश ३ कुशील ४ निर्ग्रन्थ और ५ स्नातक * ॥ १॥ अहो भगवन् ! पुलाक के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! पुलाक के पांच भेद कहे हैं जिनके नाम १. ज्ञान पुलाक-ज्ञान असार करे २ दर्शन पुलाक श्रद्धा असार करे ३ चारित्र पुलाक मूलगुन उत्तर गुन विराधे ४ लिंगपुलाग विना कारन लिंग परावर्तन करे और ५ यथासूक्ष्मपुलाक सो अकल्पनीय बस्तु की * आभ्यंतर व बाह्य परिग्रह रूप ग्रन्थि से जो रहित हुवे हैं वे निन्थ साधु सर्वविरति होने पर भी है ३ विचित्र चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम मात्र से भेद किये गये हैं. जैसे शालि केपुले में धान्य थोडा व घास विशेष होता है है वैसे ही जिस में गुन थोडे व दोष बहुत होवे सो पलाक निर्गन्थ कहाते हैं. काबरे रंग के पदार्थ जसे बकुश, कुत्सित शील जिस को होने सो कुशील, मोहरूप गन्थि के भेद कमो निन्थ और कममल का धोने वाले स्नातक कहाते हैं. मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी चालाप्रसादनी * अनुवादक-बालब - Page #2829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8th |२७९९ पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते संजहा-णाणपडिसेवणा कुसीले, दमणपडिसेवणा कुसीले, चरित्तपडिसेवणा कुसीले, लिंगपडिसेवणा कुसीले, अहामुहुमपडिसेवणा कुतीले णामपंचमे || कसाय कुसीलेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे १ पण्णत्ते, तंजहाणाणकसाय कुसीले, दंसणकसाय कुसीले, चरित्तकसाय कुसीले, . लिंगकसाय कुसील, अहा सुहमकसाय कुसीले, णामं पंचमे ॥ णियंठेणं भंते ! भावार्थ वोच्छा करे. अहो भगवन् ! वकुश के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम ! वकुश के पांच भेद कहे हैं । जानकर दोष लगावे ? अजान में दोप लगाये ३ प्रगटदोष लगावे ४ गुप्त दोष और ५ शरीर की शुश्रूषा करे. अहो भगवन् ! कुशील के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! कुशील के दो भेद कहे हैं १ प्रतिसेवना कुशील सम्यक्त विरोधक और २ कषाय कुशील कषाय से दोषित होवे. अहो भगवन! प्रतिसेवना कुशील के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच भेद हैं. १ ज्ञान प्रतिसेवना ज्ञान की सम्यक् प्रकार से आराधना करे नहीं २ दर्शन प्रतिसेवना दर्शन का विराधक होवे ३ चारित्र प्रतिसेवना चारित्रका विराधक होवे. ४ लिंग प्रतिसेवना लिंग का विराधक और ५ यथासूक्ष्म प्रतिसवना तपादि से नियाणा करे. अहो ola भगवन् ! कषाय कुशोल के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! कषाय कुशील के पांच भद कहे है | है, ज्ञान कषाय कुशील ज्ञान आश्री कपाय करें २ दर्शनं कषाय कुशील दर्शन आश्री कषाय करे ३१ in पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 480 पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा 48. Page #2830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 अनुवादक- अलब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- पढमसमयणियंठे, अपढमसमयणियंटे, रिमसमपणियंठे, अचरिमसमयणियंठे, अहासुहुमणियंठे णामं पंचमे ॥ सिनाए भंते ! कइविहे पण्णस्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा - अच्छवी, असवले, अकम्मंसे, संसुद्धणाणदंसणधरेअरहाजिणे केवली. अपरिस्सावि ॥ २ ॥ पुलाएणं चारित्र कषाय कुशाल चारित्र आश्रो कषाय ४ लिंग कषाय कुशील लिंग आश्री कपाय करे ५ यथा सूक्ष्म कषाय कुशील मनादि से कषाय का सेवन करे. अहो भगवन् ! निर्ग्रन्थ के कितने भेद कहे हैं ? | अहो गौतम ! निर्ग्रन्थ के पांच भेद कहे हैं ? प्रथम समय का निर्ग्रन्थ सो उपशम मोहक व क्षीणमोहक का काल अंतर्मुहूर्त का है उस में को प्रथम समय में रहे २ अमयम समय का निर्ग्रन्थ प्रथम समय छोडकर अन्य समय में वर्ते ४ चरिम समय निग्रन्थ अंतिम समय में व ४ अचरिम समय निर्ग्रन्थ अंतिम समय बिना वर्ते और ५ यथासूद निर्ग्रन्थ सामान्यपना से वर्ते. अहो भगवन् ! स्नातक के कितने भेड़ कहे हैं ? { अहो गौतम ! स्नातक के पांच भेद कहे हैं ? अछवी छवि शरीर को कहते हैं इस से जिस को शरीर भोग का रंधन नहीं है मो २असवल काकर भाव रहित एकांत विशुद्ध चरणवंत अविचार कर्दम के अभाव से अखवल 3 अकम्मंसे घातिक कर्मों के अंश रहित ४ संशुद्ध सो विशुद्ध केवल ज्ञान (केवल दर्शन के धारक और ५ अपरित्र अबंधक निरुद्ध योग वाले || २ || अब बेद द्वार कहते हैं. अहां *मका शंक- राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी जालाप्रसादजी २८०० Page #2831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 8 wwwwnnnnwariowww भंते ! किं सवेयए होजा, अवेयए होजा ? गोयमा ! सवेयए होजा, णो अवेदए. होजा ॥ जइ सवेयए होजा - किं इथिवेयए होजा, पुरिसवेयएं होजा, पुरिसणपुं. सगवेयए होजा ? गोयमा ! णो इत्थीवेयए होजा, पुरिसवेयए होजा, पुरिसणपुंसग । वेयए होजा ॥ वउसेणं भंते ! किं सवेयए होज्जा अवेयए होज्जा ? गोयमा ! सवेयए होजाणोअवेयए होजा ॥जइ सवेयए होज्जा कि इत्थीवेयए होजा,पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसणपुंसगवेयए होजा ? गोयमा ! इत्थीवेयए होजा, परिसवेयए होजा, पुरिस नपुंसगवेयए होजा ॥ एवं पडिसेवणाकुसीलेवि ॥ कसायकुसीलणं भंते ! किं भगवन् ! पुलाक क्या सवेदी हैं या अवेदी : ? अहो गौतम ! सब सवेदी होवे परंतु अवेदी होवे नहीं यदि सवेदी होवे तो क्या स्त्री वेदी, पुरुष वेदी या पुरुष नमक वेदी होवे ? अहो गौतम ! स्त्री वेदी होवे नहीं परंतु पुरुष वेदी व पुरुष नपुंसक बेदी पुलाक निर्ग्रन्थ होवे. अहो भगवन्! बकुश सवेदी को हावे. या अवेदी को दो अहो गौतम सवेदीको होवे परंतु अवेदीको होवे नहीं. यदि सवेदीको हो तो क्या वी पुरुषया पुरुष पुकको हो। अहो गौतमः स्त्री वेदी, पुरुषवेदी व पुरुष नपुंसक वेदी इनतीनोंको होवे.एमेही प्रतिसेवना कुशील १ पुरुष चिन्ह का छेदन हुवा होवे वह पुरुष नपुंसक वेदी कहाता है, इस को पुलाकनिग्रग होता है परंतु जन्म नॉएक वेदी को नहीं होता है. ( भगवती ) मूत्र +girचांग विवाहपत्ति पच्ची रवा शतक का का उद्देशा मावार्थ - Page #2832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी सवेयए पुच्छा ? गोयमा ! सवेयएवा होज्जा अवेयएवा होज्जा ॥ जइ अवेदएहोजा किं उवसंतवेदए होजा, खीणवेदए होजा ? गोयमा ! उवसंतवेदएवा होजा,खीणवेदएवा होजा ॥ जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेदए होजा पुच्छा, गोयमा ! तिसुवि जहा वउसे ॥ णियंठेणं भंते ! किं सवेदए पुच्छा ? गोयमा ! णो सवेदए होजा, अवेदए होज्जा ॥ जइ अवेदएहोजा किं उवसंत पुच्छा ? गोयमा ! उवसंतवेदएवा होजा, खीणवेदएवा होज्जा ॥ सिणाएणं भंते ! किं सवेयए होज्जा ? जहा णियंठे तहा सिणा एवि; णवरं णो उवसंतवेयए होजा, खीणवेयए होजा ॥ ३ ॥ पुलाएणं भंते ! का जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! सवेदी अवेदी दोनों होते. यदि अवेदी होवे तो वया उपशांत वेदी या क्षीण वेदी होवे ? अहो गौतम ! उपशम वेदी व क्षीण वेदी दोनों होवे यदि सवेदी होवे तो स्त्री वेदी, पुरुष वेदी व पुरुष नपुंसक वेदी तीनों होवे. अहो भगवन् ! निर्ग्रन्थ क्या मवेदी या अवेदी ? अहा गौतम ! निर्ग्रन्थ सवेदी नहीं परंतु अवेदी होवे यदि अवेदी होवे तो क्या उपशांतवेदी वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! उपशांत वेदी अथवा क्षीण वेदी होवे. स्नातक का निर्ग्रन्थ जैसे कहना परंतु यहांपर क्षीण वेदी होवे ॥ ३ ॥ अब रागद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! पुलाक निर्ग्रन्थ क्या सराम है या प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 8. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र -888 किं सरागे होजा, वीयरागे होज्जा ? गोयमा ! सरागे होज्जा जो वीयरागे होज्जा एवं जाव कसायकुसीले ॥ णियंठेणं भंते ! क सरागे होज्जा पुच्छा ? गोयमा ! णो सरागे होजा वीयरागे होज्जा ॥ जइ वीयरागे होजा कि उवसंत कसाय वीयरागेहोज्जा, खीणकसायवीयरागे होज्जा ? गोयमा ! उवसंतकसायवीयराग होजा, खीणकसायवीयरागे होजा ॥ सिणाते एवंचव णवरं णो उवसंतकसायवीयरागे होजा, खीणकसायवीयरागे होजा ॥ ४ ॥ पुलाएंणं भंते ! किं ट्रियकप्पे होजा, अट्रिय. कप्पे होज्जा ? गोयमा ! ट्ठियकप्पे वा होज्जा अट्ठियकप्पे वा होजा॥ एवं जाव सिणाए । बीतराग है ? अहो गौतम ! सराग है परंतु वीतराग नहीं हैं. ऐसे ही कषाय कुशील पर्यंत कहना. अहो । भगवन् ! निर्ग्रन्थ क्या सरागी होवे पृच्छा, अहो गौतम ! निर्ग्रन्थ सरागी नहीं परंतु वीतगगी होवे. यदि वीतरागी हो तो क्या उपशांत कषाय वीतरागी होवे या क्षीण कपाय वीतरागी होरे ? अहो । गीतम! उपशांत कषाय वीतरागी व क्षीण कपाय वीतरागी हावे. ऐसे ही स्नातक का कह उपशांत कषाय वीतरागी होवे नहीं और क्षीण कषाय वीतरागी होवे. ॥ ४ ॥ कल्पद्वार अहो भगवन् ! पुलाक क्या स्थितकल्प या अस्थित होवे ? अहो गौतम ! स्थित कल्प व अस्थित कल्प दोनों होवे यों? १ कल्प आचार को कहते हैं, स्थित कल्प वाला अचेलादि दशों कल्प में पूर्ण बन्धा हुवा होवे और अस्थित कल्प पचीसवा शतक का छठा उद्दशा 4.१ भावार्थ Page #2834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुलाएणं भंते! किं जिणकप्पे होजा थेरकप्पे होजा, कप्पातीते होजा ? गोयमा ! णो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होजा, णो कप्पातीते होजा ॥ वउसणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जिणकप्पे वा होजा, थेरकप्पे वा होज्जा, णो कप्पातीते होजा ॥ एवं पडि - सेवणा कुसीलेवि || कसाय कुसील पुच्छा, गोयमा ! जिणकप्पे वा होजा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होजा ॥ नियंठणं पुच्छा ? गोयमा ! गो जिणकप्पे होजा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा ॥ एवं सिगाएव ॥ ५ ॥ पुलाएणं णो स्नातक पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! पुलाक क्या जिन कल्ली, स्थावर कल्पी या कल्पातीत होते ? अहो गौतम ! जिन कल्पी व कल्पानीत नहीं होते हैं परंतु स्थविर कल्पी होते हैं. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! वकुश जिन कल्पी व स्थविर कल्पी डोवे परंतु कल्पातीत होवे नहीं ऐसे ही प्रतिसेवना कुशील का जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! जिन कल्पी होवे, स्थिविर कल्पी होवे अथव (कल्पातीत होवे. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, जिन कल्पी व स्थविर कल्पी होवे नहीं परंतु कल्पातीत होवे ऐसे ही वाला दशों कल्पों में पूर्ण बंधा हुवा होवे नहीं. पहिले और छैले तीर्थकर को स्थित कल्प होता है, और शेष सब तीर्थकरा. को अस्थित कल्प होता है.. * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २८०४ Page #2835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमा बिवाह पण्णा (भगवती ) सत्र 2280 भंते ! किं सामाइयसंजमे होज्जा; छंओवटावणियसंजमे होजा, परिहार विसुद्धियसंजमे होज्जा, सुहुमसंपरायसंजमे होज्जा, अहक्खायसंजमे होजा ? गोयमा ! स माइय संजमे होज्जा छओवट्ठावणिय संजमे होज्जा, णो परिहारविसुद्धिसंजमे होजा, णो सुहुम संपराय संजमे होज्जा, णो अहक्खाय संजम होजा।। एवं वउवि एवं पडिसेवणाकुसीलेवि ॥ कसायकुसीलेणं पुच्छा ? गोयमा ! सामाइय संजमे वा होजा जाव सुहुनसंपरायसंजमे वा होजा, णो अहक्खाय संजमे होजा ॥ णियंठणं पुच्छा, गोयमा ! णो सामाइयसंजमेवा होजा जाब णो सुहमसंपरायसंजम वा स्नातक का कहना ॥ ५ ॥ अव चारित्र द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! पुलाक क्या सामायिक चारित्र वाले होवे छदापस्थापनीय, परिहार विशुद्ध, सूक्ष्म संपराय या यथारख्यात चारित्र वाले होवे ? अहो गौतम सामायिक चारित्र वाले होते. छदोपस्थापणीय चारित्र वाले होये परंतु परिहार विशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय व यथाख्यात चारित्र वाला होये नहीं ऐसे ही बकुश व प्रतिमेवना कुशील का जानना, कषाय कुशील की पृच्छा, सामायिक चारित्र यावत् सूक्ष्म संपराय चारित्र होवे परंतु यथा ख्यात चारित्र होवे नहीं. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! सामायिक चारित्र यावत् सूक्ष्म संपराय चारित्र होवे मही. परंतु 48 पञ्चांसवा शतक का छा उद्देशा.. भावार्थ 4. . Page #2836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होजा, अहक्खाय संजमेवा होज्जा ॥ एवं सिणातेवि ॥ ६ ॥ पुलाएणं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा ? गोयमा! पडिसेवए होजा, णो अपडिसेंवए होजा॥ जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुण पडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? गोयमा!. मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए । होजा ॥ . मूलगुणपडिसवमाणे पंचण्हं अणासवाणं अण्णयरं पडिसेवेजा,उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेजा ॥ वउसेणं पुच्छा ? गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, णो अपडिसेवए होज्जा । भावार्थ र यथाख्यात चारित्र हो. ऐसे ही स्नातक का कहना. ॥ ६ ॥ अब प्रतिसेवना रद्वार कहते हैं अहो भगवन् ! पुलाक क्या प्रतिमेवक होवे या अप्रतिसवक होवे ? अहो गौतम : प्रति सेवक होवे परंतु अप्रति सेवक होवे नहीं. यदि प्रतिसेवक है तो क्या मूल गुण प्रति सेवक या उत्तर गुन प्रति सेवक हावे ? अहो गौतम ! मूलगुन प्रतिसेवक व उत्तर गुन प्रति सेवक होवे. मूलगुन की प्रति सेवना करता हुवां प्राणातिपानादि पांच आश्रव में से एक भी आश्रव का मेवन करे और उत्तर गुन की पनि सेवना करता हुआ नवकारसी आदि दश विध प्रयाख्यान में से किसी एक की प्रतिसेवना · करे. संयम प्रतिकूल संचलन कपायोदय से संयम विराधे उसे प्रतिसेवना कहते हैं. . . . मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * . प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी चालाप्रसादजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मय Page #2837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R28 २८०१ 12 जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होजा? मोयमा! ..जो मूलगुणपडिसेवए होजा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसवमाणे, दसविहस्स पञ्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेजा । पडिसेवणाकुसीले जहा पुलाए ॥ कसायकुसीले पुच्छा ? गोयमा ! णो पडिसेवए होज्जा ॥ अपडिसेवए होजा एवं णियंठेधि ।। एवं सिणातेवि ॥ ७ ॥ पुलाएणं भंते ! कइसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसवा, तिसुवा होज्जा, दोसु होजमाणे दोस आभिणिवोहिय गाणेसु मुअणाणसु होजा, तिसु होजमाणे तिसु आभिणियोहिय गाणेसुअणाणहिणाणेसु होज्जा । भावार्थ कुशकी पृच्छा, अहो गौतम ! प्रति सेवक होवे परंतु अप्रतिसेवक होवे नहीं. यदि प्रति सेवक होवे. तो क्या मूलगुन प्रतिसेवक होवे या उत्तर गुण प्रति सेवक होवे ? अहो गौतम ! मूलगुण प्रतिसेवक होवे नहीं परंतु उत्तर गुण प्रति सेवक होवे. उत्तर गुण की प्रति सेवना करते दश प्रत्याख्यान में से किसीएक प्रत्याख्यान का प्रति मेवन करे. प्रतिसेवना कुशील का पुलाक जैसे कहना. कषाय कुशील की पृच्छा, 7. अहो गौतम ! प्रतिमेवक होवे नही परंतु अप्रति सेवक होवे. ऐसे ही निग्रंथ व स्नातक का जानना ॥७॥ अब ज्ञानदार. मो भगवन् ! पुलाक कितने ज्ञान में होवे ? अहो गौतम ! पुलाक दो अथवा तीन पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवति ) सूत्र 484 पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा 488 । Page #2838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वउसेवि ॥ एवं पडिसेवणा कुसीलेवि॥ कसायकुसीलणं पुच्छा ? गोयमा! दोसवा तिसुवा. चउमुवा होज्जा ॥ दोसु होजमागे दोमु आभिण्विोहियणाण मुअणाणेसु होज्जा, तिमु . होज्जमाणे तिमु आभिणिवोहियणाण सुअणाणओहिणाणेसु होज्जा, अहवा तिसु आभिणिवाहियणाण सुअणाण मणपज्जवणोणमु होजा, चउसु होजमाणे चउसु आभिणिवोहिथणाणसुअणाणओहिणाणमणपजक. णाणेमु होज्जा ।। एवं णियंठेवि || सिणातेणं पुच्छा, गोयमा ! एगम्मि केवलणाणेसु होज्जा ॥ पुलाएणं भंते ! केवइयं मुयं अहिजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं णवस्स ज्ञान में होथे. जब दो ज्ञान में होवे तब आभिनिवोधिक ज्ञान व श्रुत ज्ञान, ऐसे दो ज्ञान में होके और तीन ज्ञान में होवे तब आभिनिषोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान व अवधिज्ञान में होवे. ऐसे ही बकुश व प्रतिसेवना* कुशील का जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! दो, तीन व चार ज्ञान में होवे. दो में हो तो आभिनिवाधिक ज्ञान व श्रुत ज्ञान, तीन में होवे तो आभिनिबोधिक, श्रुत व अवधि ज्ञान अथवा आभिनियोधिक, श्रुत व मनः पर्यव ज्ञान, यदि चार में हो तो आभिनिवोषिक, श्रुत, अवधि व मनः 17पर्यव ान में वे ऐसे ही निर्ग्रन्थ का जानना. स्नातक की पृच्छा, अहो भगवन् ! एक केवल ज्ञान में अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 पुन्बस्स ततियं आयारवत्थु, उक्कोसणं णवपुब्बाई, अहिज्जेज्जा: ॥ वउसेणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयण मायाओ उकोसेणं दस पुन्नाई अहिजेजा। एवं पडिसेवणाकुसीलेवि ॥ कसायकुसीलेणं पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पक्यणमायाओ, उक्कोसेणं चउद्दस पुब्वाई, अहिजेजा ॥ एवं णियेठेवि ॥ सिणातेणं । पुच्छा, गोयमा ! सुयवतिरित्ते होज्जा ॥ ८॥ पुलाएणं भंते ! किं तित्थे होजा . अतित्थे होजागोयमा!तित्थे होज्जा णोअतित्थे होज्जा एवं वउसेवि॥ एवं पडिसेवणा कुसी लेवि कसायकुसीले पुच्छा ? गोयमा ! तित्थेवा होज्जा अतित्थेवा होज्जाजइ तित्थेभावार्थ स्नातक होवे. अहो भगवन्! पुलाक कितने भुत का अभ्यास करे ?अहो गौतम ! जपन्य नवपूर्व की तीसरी M आचार वत्थु पर्यंत उत्कृष्ट नषपूर्व, बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन माता के उत्कृष्ट दश पूर्व. ऐसे ही मतिसेवना कुशील का जानना. कषायकुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन माता के उत्कृष्ट चौदह पूर्व ऐसे ही निर्जन्य का कहना. स्नातक की पृग, अहो गौतम 1131 स्नातक झुंतव्यतिरिक्त होवे... ॥ ८ ॥ अहो . भगवन् ! पुलाक क्या : तीर्थ में हो वा अतीर्थ में हो ? अहो गौतम ! तीर्य में होने परंतु तीर्थ में नहीं हो. ऐसे ही पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488 पञ्चसिवा शतक का छठा उद्देशा + : Page #2840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dar xxaadimiliarmirmir A अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वा होज्जा किं तित्थयरे होजा, पत्तेयवुडे होजा? गोयमा! तित्थगरे वा होजाः पत्तेयबुद्धे, वा होजा ॥ एवं णियंठेवि ॥ एवं सिणाते ॥ ९ ॥ पुलाएणं भंते ! किं सलिंगे होजा, अण्णलिंगे होजा, गिहलिंगे होज्जा ? गोयमा ! दव्वलिंगं पडुच्च सलिंगे वा होज्जा अण्णलिंगेधा होजा, भावलिंग पडुच्च णियमं सलिंगे होज्जा एवं जाव सिणाए ॥१०॥ पुलाएणं भंते ! कइसु सरीरेसु होजा ? गोयमा ! तिसु ओरालिय तेया कम्मएसु होजा । वउसेणं भंते ! पुच्छा, गोयमा! तिसुवा चउसुवा होज्जा, तिसुहोजमाणे कुश, ष प्रतिसेवना कुशील का मानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! तीर्थ में होवे अथवा अतीर्थ में भी होवे. यदि तीर्थ में हो तो क्या तीर्थकर को होवे या प्रत्येक बुद्धको होवे ? अहो गौतम ! तीर्थंकर को होवे अथवा प्रत्येकबुद्ध को होवे, ऐसे ही निग्रंथ व स्नातक का जानना ॥ ९॥ अब लिंगद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! पुलाक क्या सलिंगी, अन्य लिंगी या गृहलिगी हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य Eलिंग आश्री सलिंगी अथवा अन्य लिंगी होवे और भाव लिंग आश्री नियमा सलिंगी होवे. ऐसे ही " स्नातक पर्यंत कहना ॥१०॥ अहो भगवन् ! पुलाक कितने शरीर में होवे ? अहो गौतम! उदारिक. तेजस् व कार्माण ऐसे तीन शरीर में होवे. बकुश को पृच्छा, अहो गौतम ! तीन अथवा चार शरीर में, •"प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #2841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवतीमूत्र 8. तिस ओरालियतया कम्मएसु होज्जा ।। चउमु होज्जमाणे चउसु ओरालिय वेउव्यिय तेया कम्मएसु होज ॥ एवं पडिसवणा कुसीलेवि ॥ कसायकुसीले पुच्छा ? गोयमा!. तिसुवा चउसुवा पंचसुवा होजा, तिसुहोजमाणे तिसु ओरालिय तेया कम्मएसु होजा; चउसु होजमाणे चउसु ओरालिय वेउब्विय तेया कम्मएसु होजा, पंचसु होजमाणे पंचसु. ओरालिय वेउविय आहारग तेया कम्मएसु होज्जा ॥ णियंठो सिणाओय जहा पुलाओ ॥ ११ ॥ पुलाएणं भंते ! किं कम्मभूमीसु होजा ? गोयमा ! जम्मणसंतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होजा, णो अकम्मभूमीए होजा होवे सीन होवे तो उदारिक सेमम् व कार्माण और चार होवे तो उदारिक, वैकेंय, तेजस् और कार्माण. ऐसे हैं। प्रतिसेवना कुशील का जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! तीन, चार अथवा पांच में होवे. सीन में हो तो उदारिक तेजसू व कार्माण, चार होचे तो उदारिक, वैक्रेय, तेजम् व कार्माण और पांच होवे तो उदारिक, वैक्रेय, आहारक, तेजम् और कार्माण होवे. निग्रंथ 43333 स्नातक का पुलाक जैसे कहना ॥ ११ ॥ क्षेत्र द्वार. अहो भगवन् ! पुलाक क्या कर्मभूमि में होवे ? अहो । गौतम ! जन्म व संनिभाव न विद्यमान अवस्था ] आश्री कर्मभूमि में होवे और वहां विचरे परंतु अकर्म पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा 486 भावार्य 48 Page #2842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , वउसेणं पुच्छा ? गोयमा ! जम्मणसंतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होजा णो अकस्मभूमीए होजा,साहरणं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा अकम्मभूमीए वा होजा एवं जाव सिणाए॥१२॥पुलाएणंभंते! किं ओसप्पिणी काले होज्जा उस्साप्पणीकाले होजा,णो ओस प्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होजा? गोयमा! ओसप्पिणी काले वा होजा,उस्सप्पिणी कालवा होजा, णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणी कालेवा होजा ॥ जइ आसप्पिणी कालेवा होजा किं सुसम सुसमा काले होज्जा, सुसमा काले होजा, सुसमदुसमा काले होजा दुस्सम सुसमाकाले होजा, दुस्समा काले होजा, दुस्सम दुस्समा काले होजा, ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो मुसम मुसमा काले होजा, णो भावार्थ भूमि में होवे नहीं. और अकर्मभूमि में विहार करे नहीं. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! जन्म विद्यमान भाव आश्री कर्मभूमि में होवे परंतु अकर्मभूमि में होवे नहीं साइरण आश्री कर्मभूमि व अकर्म भूमि में होबे. ऐसे ही स्नातक पर्यंत कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक उत्सर्पिणी काल में होवे, अवसर्पिणी Eकाल में होवे या नो अबसर्पिणी नो उत्सपिणी काल में होवे ? अहो गौतम ! अवसर्पिणी काल में होवे. * उत्सर्पिणी काल में हो नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काल में होये, यदि अवमर्पिणी काल में होके तो .17 क्या सुषम सुषप काल में, सुषम, मुषमदुषम, दुषमसुषम, दुषम व दुषम दुषमं काल में होवे ? अहो बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी । Page #2843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.3 सुसमा काले होज्जा, मुसमदुस्समा काले वा होजा, दुस्समसुसमा काले वा होजा, णो दुस्समा काले होजा,णो दुस्समादुस्समाकाले होज्जा॥ संतिभावं पडुच्च णोसुसमसुसमाए होजा णो सुसमाए होजा,सुसमदरसमाए होज्जा, दुस्समसुसमाए होज्जा,दुस्समाए होजा, २८१३ है जो दुस्समदुस्समाए होजा ॥ जइ उस्सप्पिणीकाले होजा किं दुस्समदुस्समाकाले होजा, दुस्समाकाले होजा, दुस्सम सुरूमाकाले होजा, सुसम दुस्समाकाले होजा, सुसमाकाले होज्जा, सुसम दुस्समाकाले होजा ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो दुस्सम दुसमाकाले होजा, दुस्समाकाले होजा. दुस्समसुसमाकाले वा होजा, सुसम दुस्समा. भावार्थ गौतम ! जन्म आश्री सपम मपम, मुपम, दुपय व दुषम दुषम काल में नहीं होवे परंतु सुषमदुषम 4 , दुषम सुषम काल में हो और विद्यमान अवस्था आश्री सुषममुषम, सुपम व दुषमदुषम में नहीं हो परंतु सुषम दुषम, दुषमसुषम व दुषम काल में होवे, यदि उत्मर्पिणी . काल में हो तो क्या A दुषम दुषम, दुषम, दुषम सुषम, सुषम दुषम, सुषम व सुषम मुषम काल में होवे ? अहो गौतम ! जन्म आश्री ! दुषम दुषम,सुपम व सुपम सुषम काल में होवे नहीं परंतु दुषम,दुषम सुषम व सुषमंदुषम काल में होवे. विद्यमान 15 आश्री दुषम दुषम,दुषम,सुषम व मुषम सुपम काल में नहीं होते परंतु दुषम मुषम सुपम दुषम व सुषम काल में । 48 पंचमांग विवाह परुणत्ति ( भगवती ) मत्र पोसवा शेतकका हा उद्देशा 988 Page #2844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - काले वा होजा, णो सुसमाकाले वा होज्जा, णो सुसमसुसमाकाले वा होजा॥संति भावं पडुच्च णो दुस्सम्बदुस्समाकाले होजा, णो दुस्समाकाले होजा, दुस्समसुसमाकाले, होज्जा, सुसमदुरस्समाकाले वा होज्जा, णो सुसमाकाले होजा, णो सुसम सुसमाकाले होज्जा ॥ जइ णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होजा किं सुसमसुसमा पलिभागे होजा. सुसमापब्लिभागे होजा, सुसमदुस्समा पलिभागे होजा, दुस्समसुसमा पलिभागे होज्जा ? गोथमा ! जम्मण संतिभावं पडुच्च णो मुसममुसमा पलिभागे होजा, णो सुसमापलिभागे होजा, जो सुसमदुस्समा पलिभागे होजा, दुस्समसुसमा पलिभागे होना, उसेणं . भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! ओसप्पिणी होवे, यदि नो अवस्थापिणी, नो उत्सर्पिणी काल में हो तो क्या मुषमसुषम जैसे देवकुरु उत्तर कुरु क्षेत्र में होवे, मुषमा जैसे हरिवर्ष रम्यक् वर्ष सुषम दुषम हेमवय एरणबय और दुषमंसुषम सो महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम! जन्म व विद्यमान अवस्था आश्री सुषम सुषम,सुषमव मुषम दुषम में होवे परंतु दुषम सुषम में होवे. पुलाक का साहरन नहीं होता है. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! अवसर्पिणी काल में हो वे, उत्सर्पिणी काल में होवे और नो अवसर्पिणी नो उत्सर्पिणी काले में होवे. यदि प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . काले वा होज्जा, उस्सप्पिणीकाले वा होजा, णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा ॥ जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा किं सुसमसुसमाकाले वा होजा पुच्छा ? गोयमा ! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसमसुसमाकाले होजा, णो सुसमाकाले होजा, सुसम दुस्समाकाले होजा, दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, दुस्समाकाले वा - होजा, णो दुस्सम दुस्समाकाले होज्जा ॥ साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होज्जा। जदि उस्सप्पिणीकाले होज्जा किं दुस्समदुस्समाकाले होज्जा ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो दुस्सभ दुस्समाकाले होज्जा, जहेव पुलाए । संतिभावं पडुच्च णो दुस्सम भावा अवसर्पिणी में हो तो क्या सुषम सुषम काल में होवे ? वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जन्म और विद्यमान भाव आश्री सुषम सुषम, सुषम, और दुषम दुषम काल में होवे नहीं परंतु सुषम दुषम, दुषमसुषम व दुपम काल में होवे. साहरण आश्री अन्य काल में भी होवे. यदि उत्सर्पिणी काल में हो तो क्या दुषम दुषम काल में होवे वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जन्म आश्री दुपम दुषम काल में होवे वगैरह जैसे पुलाक का कहा वैसे ही कहना. विद्यमान भाव आश्री दुषम दुषम काल में होवे नहीं ऐसे ही विद्यमान भाव का 10 भी पुलाक जैसे कहना यावत् सुषम सुषम काल में होवे नहीं. साहरण आश्री अन्य काल में भी होते. पंचमांग विवाह एण्णत्ति ( भगवती) मूत्र Page #2846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसमाकाले होज्जा एवं संतिभावेणवि. जहा पुलाए, जाव जो सुसम. सुसमाकाले होज्जा ॥ साहरणं पडुच्च अण्णयरे समाकाले होज्जा ॥ जइ णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होज्जा पुच्छा ? गोयमा! जम्मणं संतिभावं पडुच्च णो सुसम सुसमापलिभागे होज्जा, जहेव पुलाए जाव दुस्सम सुसमापलिभागे होज्जा साहरणं पडुच्च अण्णयरे पलिभागे होज्जा ॥ जहा वउसे एवं पडिसेवणा कुसीलेवि॥ एवं कसायकुसीलेविाणियंठो सिणाओय जहा पुलाए, णवरं एएसिं अब्भहियं साहरणं भाणियव्वं ॥ सेसं तंचेव ॥१३॥ पुलाएणं भंते ! कालगए समाणे कं गति गच्छइ ? गोयमा! देवगतिं गच्छइ, देवगति गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववजेज्जा, वाणमंभावार्थ यदि नो अवसर्पिणी काल में हो तो पृच्छा, अहो गौतम ! जन्म व विद्यमान अवस्था आश्री सुषम सुषम के पलिभाग में होवे नहीं वगैरह जैसे पुलाक का कहा वैसे ही कहना यावत् दुपम सुषम पलिभाग में होवे, साहरण आश्री अन्य पलिभाग में भी होवे. जमे बकुश का कहा वैसे ही प्रतिसेवना कुशील व कपाय कुशील का कहना. निर्ग्रन्थ व स्नातक का पुलाक जैसे कहना परंतु साहरण होवे सो कहना. पुलाक का साहरण होवे नहीं. शेष वैसे ही कहना।।१३॥अव गति द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! पुलाकमें काल करनेवाला 15 कौनसी गति में जाव ? अहो गौतम ! देवगति में जावे. देवगति में जाता हुवा क्या भवनवासी, वाणव्यंतर, मुनि श्री अमोलक ऋषनी • पकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* | ११ अनुवादक-वाल Page #2847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ narrow तेरेसु उववज्जेज्जा, जोइसिय वेमाणिएसु उववजेजा ? गोथमा ! णो भवणासी णो वाणमंतर, णो जोइसिय, वेमाणिएसु उववजेज्जा ॥ वेमाणिएसु उवबजमाणे जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववज्जेज्जा ॥ वउसेण २८१७ एवंचव, णवरं उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे ॥. पडिसेवणाकुसीले जहा वउसे ॥ कसाय कुसीले जहा पुलाए, णवरं उक्कोसणं अणुत्तर विमाणे नुय ॥ णियंठेणं भंते ! एवंचत्र जाव वेमाणिएसु उक्वजमाणे अजहण्णमणुकोसं अणुत्तर विमाणेसु उववजंजा ॥ सिणाएणं भंते ! कालगण् समाणं कं गतिं गच्छति ? गोयमा ! सिद्धगतिं गच्छति ॥ से ज्योतिषी ग वैमानिक में उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! भवनवासी, वाणव्यंतर व ज्योतिषी में उत्पन्न होवे । नहीं परंतु वैमानिक में उत्पन्न होवे. वैमानिक में उत्पन्न होता हुवा जघन्य सौधर्म उत्कृष्ट सहस्रार देवलोक में उत्पन्न होवे, बकुश का भी वैसे ही कहना परंतु अच्युत देवलोक तक में उत्पन्न होवे, प्रतिसेवना कुशील 0 का बकुश जैसे कहना, कषाय कुशील का पुलाक जैसे कहना परंतु उत्कृष्ट अनुत्तर विमान में भी उत्पमा होवे, निग्रंथ का भी वैसे ही कहना परंतु यावत् वैमानिक में उत्पन्न होता हुवा अजघन्य, अनुत्कर्ष 1-अनुत्तर विमान में उत्पन्न होवे. अहो भगवन् : स्नातक में काल किया हुवा कौनसी गति में जाने ? अहो । पंचमांग विवाह पण्णति (भगवती) मंत्र +8+ 48 पचीसना शतक का छठा उदेशा86 भाव 4.११ Page #2848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૧૮ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुलाएणं भंते ! देवसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेज्जा सामाणियत्ताए उववजेज्जा तायत्तीसगत्ताए उववजेज्जा, लोगपालत्ताए उववजेज्जा, अहमिंदत्ताए उववजेज्जा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववजेज्जा सामाणियत्ताए उववज्जेजा, तायत्तीस गत्ताए उववज्जेज्जा, लोगपालत्ताए उववज्जेजा, जो अहींमंदत्ताए उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच्च अण्णयरेसु उववज्जजा ॥ एवं वरसेवि ॥ एवं पडिसेवणा कुसीलेवि ॥ कसाय कुसीले पुच्छा, गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उववज्जेजा जाव अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा विराहणं पडुच्च अण्णयरे मु उववज्जेज्जा ॥ णियंठे पुच्छा ? गौतम ! सिद्ध गति में जावे. अहो भगवन् ! पुलाक देवलोक में उत्पन्न होता हुवा क्या इन्द्रपने, सामानिकपने, त्रायति शकपने, लोकपालपने या अहमेन्द्रपने उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! अविराधना आश्री इन्द्र, सामानिक, त्रायत्रिंशक व लोकपाल में उत्पन्न होवे परंतु अहमेन्द्र में उत्पन्न होवे नहीं. विराधना आश्री किमी अन्य देवतापने उत्पन्न होवे, एसे ही बकुश, व पडिसेवणा कुशीलका जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! अविराधना आश्री इन्द्रपने यावत् अहमेन्द्रपने उत्पन्न होवे और विरा-१. धना आश्री किसी अन्य देवतापने उत्पन्न होवे. निग्रंथ की पृच्छा, 'अहो गौतम ! इन्द्र यावत् लोक प्रकाशक-राजाबहादर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गोयमा! अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उववज्जेज्जाजाव णोलोगपालत्ताए उववजेजा,अहमिंदत्ताए उववजेजा । विराहणं पडुच्च अण्णयरेमु उक्वजेजःपुलागस्सणं भंते! देवलोगेस उबवजमाणस्स केवइयं कालं द्विइ पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपहुत्त, उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमाई,वउसस्सणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवम पुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई, एवं पडिसेवणा कुसीलस्सवि ॥ कसायकुसीलस्स. . पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमपुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । णियंठस्स पुच्छा ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाइं ॥ १४ ॥ पालपने उत्पन्न होवे नहीं. परंतु अहमेन्द्रपने उत्पन्न होवे. और विराधना आश्री किमी अन्य देवतापने ब. उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! पुलाक में काल कर देवलोक में उत्पन्न होनेवाले की कितनी स्थिति कही ? अहो गौतम ! जघन्य प्रत्येक पल्योपम उत्कृष्ट अठारह सागरोपम. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम !A जघन्य प्रत्येक. पल्योपम उत्कृष्ट बावीस सागरोपम. ऐसे ही प्रतिसेवना कुशील का कहना. कषाय कुशीलकी पृच्छा, अहो' गौतम ! जघन्य प्रत्येक पल्योपम उत्कृष्ट तेत्तीस सामरोपम. निग्रंथ की पृच्छा, अहो गौतम !" 17 भजघन्य अनुत्कर्ष तेत्तीस सागरोपम की स्थिति कही ॥ १४ ॥ अब संयम द्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! ! पंचमांग विवाहं पण्णत्ति (भगवती) मूत्र wwwAAK पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा 48 - ~ Page #2850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. कुलागस्सणं भंते ! केवइया संजमट्टाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखजा संजमाणा। पण्णत्ता ॥ एवं आव कसायकुसलिस्स ॥ णियंठस्सणं भंते! केवइया संजमठाणा प..? गोयमा ! एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे पण्णत्ते एवं सिणायस्सवि॥ एएसिणंभंते । पुलागवउस पडिसेवणा कसाय कुसीलेण णियंठ सिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सम्वत्थोवे णियंठस्स, सिणायस्स एगे अजहण्णमणुक्कोसए संजमट्ठाणे, पुलागस्स संजमट्ठाणा असंखेजंगुणा,वउसस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, पडिसेवणा कुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा पुलाक के कितने संयम स्थान कहे हैं ? अहो गौतम ! असंख्यात संयम स्थान कहे हैं ऐसे ही कषाय भावार्थ कुशील पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! निग्रंथ के कितने संयम स्थान कहे हैं? अहोगौतम! अजघन्य अनुत्कर्ष एकसंयमस्थान कहा. यो स्नातक को भी कहना. अहो भगवन् ! इन पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, कषायकुशील, निग्रंथ वस्नातक में कौन किससे अल्प बहुत यावद विशेषाधिक हैं? अझे गौतम! सब से थोडे निर्धन्य वस्नातक का एक अजघन्य अनुकर्ष संयम स्थान, इस से पुलाक के संयम स्थान असंख्यात गुने, इस से कषाय २ चारित्र की शुद्धि के प्रकर्ष अप्रकर्षकृत भेद सो संयम स्थानक वे प्रत्येक सर्व आकाश प्रदेश परिमाण पर्याय सहित होवे इस से पुलाक असंख्यात कहा. 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अभिजी * सबक राजाबहादुर लाला सुखैदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २८१३ ११-पंचांग विवाह पण्णचि (भगवती) मूत्र 4884 गोयमा ! वैयणिज आउयणामगुत्ताओ, चत्तारि कम्मपगडीओ वैदेइ ॥ २३ ॥ पुलाएणं भंते ! कइकम्मपगडीओ उदीरेइ ? गोयमा ! आउयवेयणिज्जवजाओ छकम्म पगडीओ उदीरेइ ॥ वउसेणं पुच्छा ? गोयमा ! सत्तविह उदीरएवा अट्ठविह उदीर• एवा छन्विह उदीरएवा; सत्तविह उदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ उदीरेइ अट्टविह उदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अट्टकम्मपगडीओ उदीरेइ ॥ छव्विह उदीरेमाणे आउयवेयणिजवजाओ छकम्मपगडीओ उदीरेइ ॥ पडिसेवणाकुसीले एवं चेव ॥ कसाय कुसीले पुच्छा, गोयमा ! सत्तविह उदीरए वा अट्टविह उदीरएवा, छविह नीय छोडकर सात कर्म प्रकृतियों वेदे. स्नातक की पूच्छा, अहो गौतम ! वेदनीय, आयुष्य नाम व गं. ये चार कर्म वेदे ॥ २३ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक कितनी कर्म प्रकृतियों उदेरे ? अहो गौतम ! आयुष्य और वेदनीय ये दो वर्जकर छकर्म प्रकृतियों उदेरे. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! सात कर्म उदेरे, आठ कर्म उदेरे अथवा छ कर्म उदेरे. सात में आयुष्य कर्म, वर्जना, आठ प्रतिपूर्ण और छ में आयुष्य व वेदनीय दो कर्म वर्जना. मतिसेवना कुशील का वैसे ही कहना, कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम मात, आठ, छ अथवा पांच कर्म उदेरे. सात की उदीरणा में आयुष्य कसै वर्जना. छकी उदीरणा में dagit पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा..428 HOTTES Page #2852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ०७ भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उदीरा पंचविह उदीरएवा ॥ सत्तउदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्म पगडीओ उदीरेइ अट्ठ उदीरेमाणे पडिपुण्णाओ अटूकम्मपगडीओ उदीरेइ छउदीरेमाणे आउय वेयणिज बजाओ छकम्मपगडीओ उदीरेइ पंचउदीरेमाणे आउयवेयणिज मोहणिज्ज वज्जाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेति 11 नियंठेणं पुच्छा, गोथमा ! पंचविह उदीरएवा दुविह उदीरए वा; पंचउदीरेमाणे आउय वेयणिज्ज मोहणिज्ज- वज्जाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरे, दो उदारेमाणे णामं च गोयंच उदीरेइ || सिणाएणं पुच्छा, गोयमा ! दुविह उदीरए वा अणुदीर वा दो उदीरेमाणे णामं च गोयंच उदीरेति ॥ २४ ॥ पुलाएणं भंते ! आयुष्य और वेदनीय कर्म वर्जना, पांच की उदीरणा में आयुष्य वेदनीय व मोहनीय वर्जकर पांच कर्म उदेरे. निर्ग्रन्थ की पृच्छा. अहो गौतम ! निर्ग्रन्थ पांच कर्म उदेरे अथवा दो कर्म उदेरे. की उदीरणा में आयुष्य वेदनीय व मोहनीय वर्जकर पांच कर्म प्रकृतियों और दो कर्म की नाम और गोत्र की उदीरणा करे. स्नातक की पृच्छा, अहो गौतम ! दो कर्म की उदीरणा करे नहीं. दो कर्म की उदीरणा करे तो नाम और गौथ कर्म की उदीरणा करे ॥ २४ ॥ अहो पांच कर्म उदीरणा में उदीरणा करे अथवा मकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजे * २८३४ Page #2853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३५ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 48 पुलायत्त जहमाणे किं जहति किं उवसंपज्जइ ? गोयमा ! पुलायत्तं जहति, कसाय कुसीलं वा अस्संजमं वा उवसंपज्जइ ॥ वउसेणं भंते ! वउसत्तं जहमाणे किं जहति ..किं उवसंपज्जइ ? गोयमा ! वउसत्तं जहति, पडिसेवणा कुसीलं वा कसाय कुसीलं वा अस्संजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपज्जइ ॥ पडिसेवणाकुसीलेणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! पडिसेवणाकुसीलत्तं जहति वउसं बा, कसायकुसीलं वा, अस्संजमं वा, संजमासंजमं वा, उवसंपज्जइ ॥ कसायकुसीले पुच्छा ? गोयमा ! कसायकुसीलतं जहति पुलायं वा वउसं वा, पडिसेवणाकुसीलं वा, णियंठं वा, अस्संजमं बा, संज. भगवन् ! पुलाक पुलाक को छोडते क्या छोडता है क्या अंगीकार करता है ? अहो गौतम ! पुलाक पुलाक को छोडता पुलाकफ्ना छोडता है और कपाय कुशील अथवा असंजम अंगीकार करता है. अहो । भगवन् ! बकुश बकुश को छोडता क्या छोडता है क्या अंगीकार करता है ? अहो गौतम ! दकुशपना छोडता है और प्रतिसेवनाकुशील, कषाय कुशील, अमंजम व संजमासजम अंगीकार करता है. प्रतिसेवना कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! पतिसेवना कुशील छोडता है और वकुश, कषाय कुशील, असंजम व संजमासंजम अंगीकार करता है. कषायकुशील की पृच्छा, अही गौतम ! कषाय कुशील छोडता है 480 पच्चीसवा शतक का छठा - Page #2854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मासंजमं वा उपसंपजइ ॥ णियंठेणं पुच्छा ? गोयमा ! णियंठत्तं जहति कसाय कुन्तीलं वा सिणातं वा अस्संजमं वा उवसंपज्जइ ॥ सिणाएणं पुच्छा, गोयमा ! सिणायत्तं जहति, सिद्धगति उवसंपज्जइ ॥ २५ ॥पुलाएणं भंते ! किं सण्णो वउत्ते होजा णो सण्णोवउत्ते होजा ? गोयमा ! णो सण्णोवउत्ते होज्जा ॥ वउसेणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! सण्णोवउत्ते होजा णो सण्णोवउत्ते होजा ॥ एवं पडिसेवणा कुसीलेवि, एवं कसायकुसीलेवि ॥ णियंठे सिणाए जहा पुलाए ॥ २६ ॥ पुलाएणं भंते ! किं आहारए होजा अणाहारए होजा ? गोयमा ! आहारए होजा णो अणाऔर पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, निर्ग्रन्थ, असंजम व संजमासजम अंगीकार करता है, निर्जन्य की पृच्छा, अहो गौतम ! निर्ग्रन्थपना छोडता है और कषाय कुशील, स्नातक प असंजम अंगीकार करता है." स्नातक की पृच्छा, स्नातकपना छोडता है और सिद्धगाते में जाता है ॥ २५ ॥ अहो भगवन् ! पुलाकी क्या आहारादि संडा युक्त है या नोसंज्ञा युक्त है ? अहो गौतम ! नोसंज्ञा युक्त है, बकुश की पृच्छा, संज्ञा युक्त व नो संज्ञा युक्त ऐसे ही प्रतिसेवना कुशील व कवाय कुशील का जानना. निग्रंथ ने स्नातक का पुलाक जैसे कहना ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक क्या आहारक है या अनाहारक है। *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 हारए होज्जा, एवं जाव गियंठे ॥ सिणाएणं पुच्छा ? गोयमा ! आहारए वा होजा अणाहारए वा होजा ॥ २७ ॥ पुलाएणं भंते ! कइ भवग्गहणाई होजा ? गोयमा जहण्णेणं एवं उक्कोसेणं तिणि ॥ वउसेणं पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं एक, २८३७ उक्कोसेणं अट्ठ ॥ एवं पडिसेवणा कुसीलेवि ॥ एवं कसायकुसीलेवि ॥ णियंठे जहाँ पुलाए ॥ सिणाएणं पुच्छा ? गोयमा ! एकं ॥ २८ ॥ पुलागस्सणं भंते! एगे. भवग्गहाणिय केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं एको, उक्कोसेणं तिण्णि ॥ वउसस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एको उक्कोसेणं सयग्गसो एवं भावार्थ अहो गौतम ! आहारक है परंतु अनादारक नहीं है.. ऐसे ही निर्ग्रन्थ पर्यंत कहना. स्नातक की पृच्छा, आहारक अथवा अनाहारक होवे ॥ २७ ॥ भवद्वार. अहो भगवन् ! पुलाक में कितने भव होये ? अहो । गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट तीन भव में होवे. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट . आठ भव. ऐसे ही प्रतिसेवना व कपाय कुशील का जानना. निर्ग्रन्थ का पुलाक जैसे कहना. सातककी पृच्छा, अहो गौतम ! एक भव में ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक एक भव में कितनी वक्त आवे है। अहो गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट तीनवार आवे. कुश की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट पण्णत्ति (भगवती) सूत्र *882 - पचासवा शतक का छठा उद्दशा १९६० Page #2856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३८ 48 अनुवादक-बालब्रह्मधारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 'पडिसेवणासीलेवि; कसायकुसीले एवंचेव णियंठरसणं पुच्छा,गोयमा जहणणं एक्को .. उक्कोसेणं दोण्णि, सिणातस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! एक्को ॥ पुलागस्सणं भंते ! गाणा भवग्गहणिया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं दोणि उक्कोसेणं सत्त ॥ वउसस्सणे पुच्छा ? गोयमा ! जहषणेणं दोषिण उक्कोसेणं सहस्सग्गसो, एवं जाव कसाय कुसीलस्स ॥ णियंठस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं दोणि उक्कोसेणं पंच ॥ सिणातस्सणं पुच्छा ? णो एकोवि ॥ २९ ॥ पुलाएणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ गोयमा! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं ॥ वउसेणं पुच्छा ? गोयमा ! प्रत्येक सो वक्त आवे, ऐमे ही प्रातिसेवना व कषाय कुशील का जानना. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! जपन्य एक उत्कृष्ट दो, स्नातक की पृच्छा, अहो गौतम ! एक वक्त आवे. अहो भगवन् ! पुलाक बहुत भव आश्री कितनी वक्त आवे ? अहो गौतम ! जघन्य दो उत्कृष्ट सात वक्त आवे (जघन्य दो भव आश्री दो वक्त और उत्कृष्ट भव करे सब प्रथम भव में एक और अन्य दो भव में तीन वक्त आवे यो सात ) बकुश का प्रश्न, अहो गौतम : जघन्य दो उत्कृष्ट प्रत्येक हजार वर्ष ऐसे ही कषाय कुशील पर्यंत कहना. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य दो उत्कृष्ट पांच, स्नातक की पृच्छा, एक भी वक्त आवे नहीं ॥ २९ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! पुलाक जघन्य * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ | Page #2857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88+ www 488 जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी, ॥ एवं पडिसवणाकुसीलेवि, कसायकुसीलेवि एवंचेव ।। णियंठेणं पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ सिणाएणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणाई पुवकोडी ॥ पुलागाणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ वउसाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा सबढ़॥ एवं जाव कसायकुसीला॥ णियंठा जहा पुलागासिणाता जहावउसा ॥३०॥ पुलागस्सणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त तक रहे. बकुश का प्रश्न, अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट देश ऊणा पूर्व क्रोड ऐसे ही प्रतिसेवना कुशील व कषाय कुशील का कहना. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. स्नातक की पृच्छा, जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊणा पूर्व क्रोड. अहो भगवन् ! बहुत पुलाक कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. बकुश मब काल रहे. ऐसे ही कषाय कुशील पर्यंत कहना. निर्ग्रन्थ का पुलाक जैसे और स्नातक का वकुश जैसे कहना। ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! पुलाक का कितना अंतर होवे ? अहो गौतम ! जघन्य अंतर्मुहून उत्कृष्ट । marnamanand - पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा 4.28. भावा । Page #2858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अणंताओ ओसप्पिणीउस्साप्पणीओ कालओ, खेत्तओ अवहूँ पोग्गल परियर्ट देसूणं ॥ एवं जाब णियंठस्स ॥ सिणायस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! णस्थ अंतरं ॥ पु लागाणं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहण्णण एक समय, उक्कोसणं संखजइवासाइं ॥ वउसाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णस्थि अंतरं एवं जाव कसाय कुसीलाणं ॥ णियठाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समय उक्कोसणं छम्मासा सिणायाणं जहा वउसाणं ॥ ३१ ॥ पुलागस्सणं भेत ! कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तिण्ण समुग्धाया पण्णत्ता, तंजहा वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए, मारणांअनंत काल, काल से अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी क्षेत्र से देशृणा अर्धपुद्गल परावर्त. ऐसे ही निर्ग्रन्थ पर्यन्त कहना. स्नातक की पृच्छा, अहो गौतम ! स्नातक का अंतर नहीं है. अब बहुत आश्री प्रश्न. अहो । भगवन् ! बहुत पुलाकका कितना अंतर कहा? अहो गौतम! जघन्य एक समय उत्कृष्ट संख्यात काल. बकुशकी ई पृच्छा, अहो गौतम ! बकुश का अंतर नहीं है, क्यों कि वे सदैव रहते हैं. ऐसे ही कषाय कुशील पर्यन्त कहना. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ मास. स्नातकका बकुश जैसे कहना. ॥ ३१ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक को कितनी समुद्धात कही ? अहो गौतम ! तीन समुदात कही. • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचा - Page #2859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पलास तियसमुग्घाए ॥ वउसस्सणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! पंचसमुग्धाया पण्णत्ता तंजहा वेयणासमुग्घाए जाव तेयासमुग्घाए एवं पडिसेवणाकुसालेवि. कसायकुसीलस्स पुच्छा, गोयमा ! छ समुग्धाया पण्णत्ता तंजहा-वेयणासमुग्घाए जाव आहारगसमुग्घाए, णियंठस्सणं पुच्छा ? गोयमा ! णत्थि एकोवि ॥ सिणायस्मणं पुग्छा ? गोयमा ! एगे केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते ॥ ३२ ॥ पुलाएण भैते ! लोगस्स किं संखेजइ भागे होजा असंखेज्जइभागे होज्जा संखेजेनु भागेसु होजा, असंखेजेसु भागेसु होज्जा सव्वलोए होजा ? गोयमा ! णो संखेजइ भागे होजा, भावार्थ वेदनीय कषाय व मारणांतिक. बकुश की पृच्छा, अहो गौतम ! वेदना यावत् तेजस् यो पांच समुद्धात यो प्रतिसेवना कुशील का जानना. कषाय कुशील की पृच्छा, अहो गौतम ! वेदना यावत् आहार यो छ समुद्धात. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, अहो गौतम ! एक भी समुद्धात नहीं. स्नातक की पृच्छा, अहो, गौतम ! एक केवली समुद्धात ॥ ३२ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक क्या लोक के संख्यात भाग या असं 56 ख्यात भाग जितना होवे या संख्यात अथवा असंख्यात भाग में होवे अथवा सष लोक में होवे ? अहो । गौतम , संख्यात भाग जितना होवे नहीं परंतु असंख्यात भाग जितना होवे संख्यात भाग में होवे नहीं । -पंचमांग विवाह षण्णत्ति (भगवती) सूत्र तक का छठा उद्देशा Page #2860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' असंखेजइ भागे होजा, णो संखेजेसु भागेसु होज्जा, असंखेजेसु भागेसु होजा, णो सव्वलोए होजा ॥ एवं जाव णियंठे ॥ सिणाएणं पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेज्जइ भागे होजा, असंखेजइ भागे होजा, णो संखेज्जेसु भागेसु होजा, असंखेज्जेसु भागेसु २८४२ होजा, सन्बलोए वा होजा ॥ ३३ ॥ पुलाएणं भंते ! सव्वलोयस्स किं संखेजइ भागं फुसइ, असंखज्जइ भागं फुसइ, एवं जहा ओगाहणा भणिया तहा फुसणावि भाणियव्वा जाव सिणाए ॥ ३४ ॥ पुलाएणं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खओवसमिए भावे होजा, एवं जाव कसायकुसीले ॥ णियंठे पुच्छा ? गोयमा ! भावार्थपरंतु असंख्यात भाग में होवे और सब लोक में होवे नहीं. ऐसे ही निर्ग्रन्थ पर्यन्त कहना, सातककी पृच्छा, अहो गौतप ! संख्यात भाग जितना होवे नहीं परंतु असंख्यात भाग जितना होवे, संख्यात भाग में है। होवे नहीं परंतु असंख्यात भाग में होवे और सब लोक में होवे ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक क्या जसब लोक के संख्यात भाग को स्पर्श, असंख्यात भाग को स्पर्श वगैरह जैसे अवगाहना का कहा वैसे ही कहना यावत् स्नातक ।। ३४ ॥ अहो भगवन् ! पुलाक किम भाव में होबे ? अहो गौतम ! क्षयोपशम र भाव में होवे यो कषाय कुशील पर्यन्त कहना. निर्ग्रन्थ की पृच्छा, उपशम व क्षायक भाव में होचे, स्नातक लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी * Page #2861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( मगवती ) सूत्र उवसामएवा, खड्एवा भावे होजा ॥ सिणाए पुच्छा ? गोयमा ! खइए भावे होजा ॥ ३५ ॥ पुलायाणं भंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा ! गोयमा ! पंडिवजमाणए डुच्च सिय अस्थि सि णत्थि ॥ जइ अस्थि जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिष्णित्रा, उक्को सयपुहत्तं पुण्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अत्थि सिय णत्थि ॥ जइ अस्थि जहणेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं सहस्स पुहत्तं ॥ वउसाणं भंते! एगसमएणं पुच्छा ! गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय णत्थि ॥ जइ अत्थि जहृण्णेणं एक्कोबा दोवा तिष्णिवा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं, पुव्त्रपडित्रण्णए पडुच्च जहण्जेणं. की पृच्छा, अहो गौतम ! स्नातक क्षायिक भाव में होवे ॥ ३५ ॥ परिमाणद्वार. अहो भगवन् ! पुलाक ( एक समय में कितने होवे ? अहो गौतम ! प्रतिपद्यमान आश्री स्यात् होवे और स्यात् न होवे. यदि होवे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट प्रत्येक सो, पूर्व प्रतिपन्न आश्री स्यात् होवे स्यात् न होवे यदि होवें तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट प्रत्येक हजार बकुश की पृच्छा, अहो गौतमः ! प्रतिपद्यमान आश्री स्यात् होवे स्यात् न होवे.. यदि होवे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्टः प्रत्येक सो, पूर्व प्रतिपण आश्री जघ-} व्य प्रत्येक शतकोटी उत्कृष्ट भी प्रत्येक शतकोटी. ऐसे ही प्रतिक्षेत्रना कुशील का जानना. कषाय कुशील 4 पच्चीसा शतकका छट्ठा उदेशा 438 २८४३ Page #2862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० भावार्थ 42 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कोडिसयपुहतं, उक्कोसेणत्रि कोडिसयपुहत्तं ॥ एवं पडिलेवणाकुसीले वि ॥ कसाय कुसीलाणं पुच्छा ? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय णत्थि ॥ जइ अत्थि जहणेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं कोडिसहसपुहत्तं ॥ पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहणेणं कोडिस हस्तपुहत्तं उक्कोसे कोडसहसपुत्तं ॥ णियंठाणं पुच्छा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय णत्थि, जइ अत्थि जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसेणं वात्रटुं सत्तं अट्ठसय खवगाणं, चउपण्णं उवसमगाणं, पव्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अत्थि सिय णत्थि, जइ अत्थि जहणेणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा उक्कोसेण सत्तपुहत्तं ॥ सिणाताणं पुच्छा ? गोयमा ! विजमाणए पडुच्च सिय अत्थि सिय णत्थि, जइ अत्थि जहणेणं एक्कोवा दोवा की पृच्छा, अहो गौतम ! प्रतिपद्यमान आश्री स्यात् होवे स्यात् न क्षेत्रे यदि होत्रे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट प्रत्येक सहस्र क्रोड, पूर्वप्रतिपन्न आश्री जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक सहस्र क्रोड, निर्ग्रन्थ की पृच्छा { अहो गौतम ! स्यात् होवे स्यात् न होवे यदि होवे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट एकसो बासठ [ १६२ जिस में ५४ उपशमवाले और १०८ क्षयवाले. पूर्व प्रतिपन्न आश्री स्य त् होवे स्यात् न होवे यदि होवे तो } जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट प्रत्येक सो. स्नातककी पृच्छा, अहो गौतम ! प्रतिपद्य आश्री स्यात् होवे स्यात् * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २८४४ Page #2863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिणिवा, उक्कोसेणं अटूसयं ॥ पुचपडिवण्णए पडुच्च जहणेणं' कोडिपुहत्तं उक्को- - सेणवि कोडिपुहत्तं ॥ ३६ ॥ एएसिणं भंते ! पुलाग-वउस-पडिसेवणाकुसीलकसायकुसील-णियंठ-सिणाताणं कयरे कयरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा णियंठा पुलागा संखेजगुणा, सिणाया संखजगुणा, वउसा संखेजगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखजगुणा, कसायकुसीला संखेजगुणा ॥ ३७॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ पणवीसइम सयस्स छ8ो उद्देसो सम्मत्तो ॥२५॥६॥ न होवे यदि हावे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट १०८ होवे पूर्व प्रतिपन्न आश्री जघन्य उत्कृष्ट प्रत्येक क्रोड ॥ ३६ ॥ अहो भगवन् ! इन पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, कषाय कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे निम्रन्य. क्यों कि प्रत्येक सो है. इस से पुलाक संख्यातगुने क्यों कि प्रत्येक सहस्र होवे, इस से स्नातक संरख्यात गुने क्यों कि प्रत्येक क्रोड होवे इस से बकुश संख्यातगुने क्यों कि प्रत्येक सो क्रोड होवे इस से प्रविसंवना कुशील संख्यातगुने, इस से कषाय कुशील संख्यातगुने ॥ ३७ ॥ अहो भगवन् ! आपने प्ररूपा सस है; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे. यह पच्चीसवा शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुवा॥२५॥६॥ 488 पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) मत्र , 488+ पचीसवा शतक का छदा उदशा भावार्थ । : Page #2864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भावाथ कइणं भंते! संजया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच संजया पण्णत्ता तंजहा सामाइयसंजए छेओवढावणिय संजए, परिहारविंसुद्धि जए, सुहुम संपराय संजए, अहक्खाय संजए । सामाइय संजएणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते २८४६ तंजहा इत्तरिएय आवकहिएय ॥ छेदोवट्ठावणिय संजमे पुच्छा? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते तंजहा साइयारेय णिरईयारेय ॥ परिहारविशुद्धिय संजए पुच्छा ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते तंजहा णिव्विसमाणएय, णिन्विटुकाइएय ॥ मुहुम संपराय पुच्छा ? छठे उद्देशे में निर्ग्रन्थ का स्वरूप कहा निर्ग्रन्थ संयति होने से सातवे उद्देशे में संयति का कथन करते. हैं. इस के ३६ द्वार गत उद्देशे जैसे जानना. अहो भगवन् ! संयति कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! यति पांच कहे हैं. १. सामायिक संयति २ छेदोपस्थापनीय, ३ परिहार विशुद्ध,४मूक्ष्म संपराय और५यथाख्यात. अहो भगवन् ! सामायिक संयति के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! सामायिक के दो भेदकहे हैं. १ इत्वरिक थोडे काल का प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में होवे क्यों कि सामायिक चारित्र में छ महिने रहे पीछ छेदोपस्थापनीय होता है. और २ यावत्कथित जावजी का शेष बाइस सीर्थकर अथा महाविदेह क्षेत्र के साधुओं को होता है. अहो भगवन् ! छेदोपस्थापनीय चारिष के कितने भेद कहे हैं? अहो गौतम ! दो भेद कहे हैं. सअतिचार मूल गुन के घातक को पुनः व्रत का . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसाइजी. Page #2865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५७ पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48+ भावार्थ गोयमा! दुविहे पण्णत्ते तंजहा संकिलिस्समाणएय विसद्धिमाणएय अहक्खाय संजए पुच्छा, गोयमा दुविहे पण्णत्ते तंजहा छउमत्थेय केवलीय ॥ गाहा-सामाइय म्मिउकए, चाउजामं अणुत्तरं धम्मं ॥ तिविहेण फासयंतो, सामाइय संजतो स खलु ॥१॥ छत्तगउ परियागं पोराणं जो वेति अप्पाणं ॥धम्ममि पंच जामे, छेदोवढाव. णो स खलु ॥ २ ॥ परिहरतु विसुहतु, पंचजामं अणुत्तरं धम्मं ॥ तिविहेण फासयंता, आरोपण होवे और निरतिचार सो अतिचार लगे विना पुनः व्रतारोपण करना. जैसे श्री पार्थाथजी के संतानी ये श्री महावीर स्वामी के शासन में बन ग्रहण कर जावे. अहो भगवन् ! परिहार विशुद्ध के तिने भेद को हैं ? अहो गैतम ! परिहार विशुद्ध के दो भेद कहे हैं. परिहारविशुद्ध तप में प्रवेशिक हो तप करे. और परिहार विशुद्ध पूर्ण कर तप करे. अहो भगान् ! मूक्ष्पसंपराय के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! सून संपराय के दो भेद कहे हैं. १ संक्लिश्यमान सो उपशमश्रंगीवाला और १२ विशुद्वयमान सो क्षपक श्रेणीवाला. अहो भगवन् ! यथाख्यात के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! यथाख्यात के दो भेद कहे हैं. १ छमस्थ और २ केवली. अब इन पांचों चारित्र क स्वरूप करते हैं. जो सामायिक चारित्र ही अंगीकार करता है वह चार यामरूप श्रमण धर्म तीन करन तीन योग से सीता हुना सामायिक संयति कहलाता है. जो पूर्व पर्याय छेद कर आत्मा को पांच याम रूप धर्म में 388 पच्चीसवा शतक का सातवा उद्देशा PROrga Page #2866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजीg+ परिहारिय संजतो स खलु ॥ ४ ॥ लोभाणवेदंतो, जो खलु उवसामओव खवओवा ॥ सो सुहुमसंपराओ, अहक्खायाऊणओ किंचि ॥ ४ ॥ उवसंतेण खीणं, मिव जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि ॥ छउमत्थोबां जिणोवा, अहवखाओ संजओ स खलु ॥ ५ ॥ १ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं सवेदए होज्जा अवेदए होज्जा ? गोयमा! । सवेदएवा होज्जा अवेदएवा होजा ॥ जइ सवेदए होज्जा एवं जहा कसायकुसीले तहेव णिरवसेसं॥एवं छेदोवट्ठावाणिय संजएवि । परिहारविसुद्धिय संजओ, जहा पुलाओ ॥ स्थापन करता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्रवाला कहलाता है. विशुद्ध पांच याम रूप धर्म को तीन करना । से स्पर्शते हुवे जो निरंतर तप का सेवन करते हैं वे परिहार संयमी कहाते हैं. लोभ के सूक्ष्म अणु वेदता हुवा जो रहे वह उपशम या क्षपक श्रेणि पर रहता है और वही यथाख्यात मे किंचित् ऊण सूक्ष्म संपराय कहाता है. उपशांतं अथवा क्षीण मोहनीय कर्म में जो रहता है वह छद्मस्थ या केवली होने पर भी यथाख्यात चारित्रवाला होबे ॥ १ ॥ वेदद्वार, अहो भगवन् ! सामायिक चारित्री क्या सवेदी हो या अवेदी होवे ? अहो गौतम ! सवेदी भी होवे अथवा अवेदी भी होवे क्यों कि सामायिक चारित्र नववे गुणस्थान पर्यंत होता है वहां उपशम व क्षपक दोनों श्रेणी होने से अवेदी हो. यदि सबंदी हो तो कायकुशील निर्ग्रन्थ का जैसे कहा वैसे ही सब. विशेषता रहित कहना. ऐसे ही छदोपस्था । *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * Page #2867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800 सत्र मुहुम संपरायंसंजओ, अहक्खायमंजओयः जहा णियंठो ॥ २ ॥ सामाइय संज- - एणं भंते! किं सरागे होजा, वीतरागे होजा ? गोयमा ! सरागे होजा णो वीतरागे होजा, एवं जाव सुहुमसंपराए ॥ अहक्खायसंजए जहा णियंठे ॥ ३ ॥ सामाइय संजएणं भते ! किं ठियकप्पे होजा अठियकप्पेवा होजा? गोयमा ! ठियकप्पेवा होजा, अटियकप्पेवा होज्जा ॥ छेदोबट्टावणिय संजए पुच्छा ? गोयमा ! ठियकप्पे वा होज्जा णो अट्ठियकप्प होजा एवं परिहारविसुद्धिसंजमधि सेसा जहा सामाइय 48 पंचमान विवाह पण्णारी (भगवती ) सूत्र 8. पच्चीसवा शतक का सातवा उद्दशा भावार्थ पनीय चारित्र का कहना. परिहार विशुद्ध का पुलाक नियंठा जैसे पुरुष व पुरुष नपुंसक होवे, सूक्ष्म में संपराय व यथाख्यात का निर्ग्रन्य जैसे कहना ॥२॥ अब रागद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! सामायिक संयमवाला का सरागी होवे या वीतरागी होवे ? अहो गौतम ! सरागी होवे परंतु वीतरागी होवे नहीं. एसे ही सूक्ष्म संपराय पर्यंत कहना. यथाख्यात का निर्ग्रन्थ जैसे कहना ॥ ३ ॥ कल्पद्वार. अहो भग-352 7वन ! सामायिक संयमी क्या स्थित कल्प या अस्थित कल्प में होवे ? अहो गौतम ! दोनों कल्प में सामायिक चारित्र पाता है. छेदोपस्थापनीय की पृच्छा, अहो गौतम ! स्थित :कल्प में होवे परंतु अस्थित * कल्प में होवे नहीं. यों परिहार विशुद्ध का भी जानना. सूक्ष्म संपगय व यथाख्यात चारित्र का सामा Page #2868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५० श्री अमोलक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि संजए सामाइय संजएणं भंते ! किं जिणकप्पे होजा थेरकप्प होजा कप्पातीते होजा? गोयमा ! जिणकप्पेवा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव गिरवसेसं छेदो वट्ठावणिय परिहारविसुद्धिओय, जहा वउसे सेसं जहा णियंठे ॥ ४ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं पुलाए होज्जा, वउसे जाव सिणाए होज्जा ? गोयमा ! पुलाएवा होजा वउसे जाव कसाए वा होजा, णो णियंठे होजा णो सिणाए होजा ॥ एवं छदोवढावणियएवि । परिहारविसुद्धियसंजएणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णो पुलाए णो वउसे, णो पडिसेवणाकुसीले होजा, कसायकुसील होजा, जो णियंठे होजा, जो यिक चारित्र जैसे कहना. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या जिन कल्प में होवे, स्थविर कल्प में हावे या कल्पातीत में होवे ? अहो गौतम ! जिन कल्प में होवे वगैरह जैसे कपाय कुशील का कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. छदोपस्थापनीय व परिहार विशुद्ध का बकुश जैने और मूक्ष्म संपराय व यथाख्यात का निर्ग्रन्थ जैसे कहना ॥ ४ ॥ अब निर्ग्रन्थद्वार. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या पुलाक को होघे, वकुश को हावे यावत् स्नातक को होवे ? अहो गौतम : पुलाक, बकुश यावत् कषाय ने ल को होवे परंतु निग्रन्थ व स्नातक में होने नहीं. ऐसे ही छदोपस्थापनीय का कहना. परिहार • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88t 48 २८५१ सिणाए होजा एवं सुहमसंपराएवि अहक्खाय संजए पुच्छा, गोयमा! णो पुलाए होजा जाव णो कसायकुसीले होज्जा णियंठेवा होजा सिणाए वा होजा, ॥ ५ ॥ सामाइयसंजएणं भंते! किं पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होजा? गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होजा । जइ पडिसेवए होजा किं मूलगुण पडिसेवए होजा, सेसं जहा पुलागस्स ॥ जहा सामाइय संजए एवं छेदोवट्ठावणिएवि ॥ परि. हारविसुद्धिय संजए पुच्छा ? गोयमा ! णो पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होजा एवं जाव अहक्खाय संजए ॥ ६ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! कइसु णाणेसु होजा? विशुद्ध संयमी की पृच्छा, पुलाक, बकुश, प्रतिसेवना कुशील, निर्ग्रन्थ व स्नातक में होवे नहीं परंतु कषाय कुशील में हावे. यों सूक्ष्म संपराय का जानना. यथाख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! पुलाक यावत् कषायकुशील में होवे नहीं परंतु निर्ग्रन्थ अथवा स्नातक में होवे ॥५॥ प्रतिसेवना द्वार. अहो भावन सामायिक संयम क्या प्रतिसेवक को होवे या अप्रतिसेवक को होवे ? अहो गौतम ! प्रतिसेवक अथा अप्रतिसेवक को होवे. यादि प्रविसेवक को होवे तो क्या मूलगुण प्रतिसेवक को होवे शेष सब पुलाक जैसे Laxकहना. जैसे सामायिक चारित्र का कहा वैसे ही छंदोपस्थापनीय का जानना. परिहार विशुद्ध संयम की पृच्छा, अहो गौतम ! प्रतिसेवक अथवा अमतिसेवक को होवे. यों यथाख्यात पर्यंत कहना ॥ ॥ज्ञान पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र पच्चीसना शनक का सातवा उद्दशा 48 भावार्थ | Page #2870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anmmmmmmmmmmm २८५२ ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + AnanArinani गोयमा ! दोसुवा तिसुवा चउसुवा होज्जा, एवं जहा कसायकुसीलस्स तहा चत्तारि णाणाइं भयणाइं ॥ एवं जाव सुहुम संपराइएय ॥ अहक्खाय संजयस्स पंच णाणाई भयणाए जहा णाणुद्देसए ॥ सामाइयसंजएणं भंते ! केवइयं सुयं अहिजेजा ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठ पवयणमायाओ जहा कसायकुसीले, एवं छेदोवढावणिएवि, परिहारविसुडिय संजए पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं णबमस्स पुवस्स आयारवत्थु, उक्कोसेणं असंपुण्णाइं दस पुल्याई अहिजज्जा; सुहुम संपराय संजए जहा सामाइय संजए ॥ अहक्खायसंजए पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अट्ठपवयणमायाओ, द्वार. अहो भगवन् ! सामायिक चारित्र कितने ज्ञान में होने ? अहो गोतम ! दो, तीन अथवा चार में होवे ऐसे ही जैसे कषाय कुशील का कहा वैसे ही चार ज्ञान की भजना कहना. यों मूक्ष्म संपराय पर्यंत कहना. यथाख्यात में पांच ज्ञान की भजना. यो ज्ञान उद्देशा कहना. अब श्रुत आश्री पृच्छा, अहो भगवन् ! सामायिक संयती कितना श्रुत का अध्ययन करे ? अहो गौतम ! जघन्य आठ प्रवचन माता के ऐसे जैसे कषाय कुशील का कहा वैसे ही कहना. ऐसे ही छदोपस्थापनीय का जानना. परिहार विशुद्ध संयम की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य नववा पूर्व की तीसरी · आचारवत्थु उत्कृष्ट अपूर्ण दश AAAAAAA * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी बालाप्रसादनी * भावार्थ ( Page #2871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3gp २८५३ उक्कोसेणं चउद्दस पुव्वाई अहिजेजा, सुअवतिरित्तेवा होजा ॥ ७ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं तित्थे होज्जा, अतित्थे होजा, ? गोयमा ! तित्थे वा होजा जहा कसायकुसीले, छेदोवट्ठावणिए परिहार विसुद्धिय सुहुमसंपराए जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइय संजए ॥ ८ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं सलिंगे होजा, अण्णालिंगे होजा ? जहा पुलाए, एवं छेदोवट्ठावणिएवि ॥ परिहारविसुद्धि संजएणं भंते ! किं पुच्छा ? गोयमा ! दवलिंगंवि भावलिंगवि पडुच्च सलिंगे होजा, णो अण्णलिंगे पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 488%> पच्चीसवा शतक कामातवा उद्देशा 48 पूर्व. सूक्ष्म संपराय का सामायिक जैसे कहना. यथाख्यात की पृच्छा, जघन्य आठ प्रबचन माता के उत्कृष्ट चौदह पूर्व का अध्ययन करे अथवा श्रुत व्यतिरिक्त केवली भी होवे ॥ ७ ॥ तीर्थद्वार. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या तीर्थ में होवे या अतीर्थ में होवे ? अहो गौतम ! तीर्थ में होने वगैरह कषाय कुशील जैसे कहना. छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्ध व सूक्ष्म संपराय का पुलाक जैसे कहना और यथाख्यात का सामायिक संयम जैसे कहना ॥ ८॥ लिंगद्वार. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी* क्या सलिंग में हो या अन्यलिंग में होवे ? अहो गौतम ! पुलाक जैसे कहना, ऐसे ही छेदोपस्थापनीय, का जानना. परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो मौतम ! द्रव्य.लिंग और भाव लिंग यों दोनों आश्री ", Page #2872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक -बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी होज्जा, जो गिहालिंगे होज्जा, सेसा जहा सामाइयसेजए ॥ ९ ॥ सामाइयसंजएणं भंते! कईसु सरीरेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसुवा चउसुवा पंचसुवा होज्जा, जहां कसायकुसीले || एवं छेओवट्ठाबणिएव ॥ सेसा जहा पुलाए ॥ १० ॥ सामाइय संजएणं भंते! किं कम्मभूमीए होजा, अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयमा ! जम्मण संतिभावं पडुच्च जहां उसे, एवं छओवावणिएवि परिहारविसुद्धीएय जहा पुलाए सेसा जहा सामाइयसंजए ॥ ११ ॥ सामाइयसंजएणं भंते! किं ओसपिणीकाले (सलिंगी होवे परंतु अन्यलिंगी या गृहलिंगी होवे नहीं. शेष सब का सामायिक संयम जैसे कहना ॥ ९ ॥ ( शरीरद्वार अहो भगवन् ! सामायिक संयम कितने शरीर में होवे ? अहो गौतम ! तीन, चार अथवा पाँच (शरीर में सामायिक संयम होवे वगैरह कपाय कुशील जैसे कहना. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय का कहना. और शेष तब पुलाक जैसे कहना ॥ १० ॥ क्षेत्र द्वार अहो भगवन् ! सामायिक संयम क्या कर्म भूमि में होवे या अकर्म भूमि में होवे ? अहो गौतम ! जन्म और विद्यमानभाव आश्री बकुश जैसे कहना यों छेदोपस्थापनीय का जानना. परिहारविशुद्ध का पुलाक जैसे शेष सत्र का सामायिक जैसे कहना. ॥ ११ ॥ कालद्वार-अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या अवसर्पिणीकाल में होवे या उत्सर्पिणीकाल में * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २८५४ Page #2873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इ पण्णत्ति ( भगवति ) सूत्र 48+ होजा, उसप्पिणीकाले होज्जा णो ओसप्पिणी णो उस्सप्पिणीकाले होजा? गोयमा! है. ओसप्पिणी जहा वउसे, एवं छेओवट्ठावणीएवि ॥ णवरं जम्मण संतिभावं पडुच्च चउसुवि पलिभागेसु णत्थि ॥ साहरणं पडुच्च अण्णयरे पलिभागेसु होज्जा ॥ सेसं तंचेव ॥ परिहारविसुद्धीए पुच्छा ? गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होजा उस्सप्पिणी काले वा होजा, णे ओसप्पिणीकाले णो उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा ॥ जइ ओसप्पिणीकाले होजा जहा पुलाओ ॥ उस्सप्पिणीकालेवि जहा पुलाओ। सुहम संपराओ जहा णियंठो ॥ एवं अहक्खाओवि ॥ १२ ॥ सामाइयसंजएणं भंते ! कालगए होवे अथवा णो अवसर्पिणी को उत्सर्पिणीकाल में हो ? अहो गौतम ! अवप्तर्षिणी में वगैरह बकुश जैसे कहना. ऐसे ही छेदोपस्थपनीय का कहना परंतु जन्म व विद्यमान आश्री यावत् पलिभाग में होवे | नहीं, साहरण आश्री अन्य स्थान भी होवे. परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! अवसरिणी में होवे, उत्सर्पिणी में भी होवे अथवा णो अबसार्पणी णो उत्सर्पिणी में भी होवे. यदि अंवसा पिणी में होवेतो पुलाक जैसे कहना. उत्सर्पिणी का भी पुलाक जैसे कहना. सूक्ष्म संपराय। यथायात का निर्गन्य जैसे कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमी काल हुने?' पञ्चासत्रा शतकका साना उद्देशा भावार्थ Page #2874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिः। समाणे किं गतिं गच्छति ? गोयमा ! देवगतिं गच्छइ ॥ देवगति गच्छमाणे किं. भवणवासीमु उववजेजा, वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा, जोइसिएसु उवरज्जेजा, वेमाणिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! णो भवणवासीसु उववज्जेज्जा, जहा कसायकुसीले, एवं छेओवट्ठावणिएवि ॥ परिहारविसुद्धीए जहा पुलाए ॥ सुहुमसंपराए जहा णियंठे।।अहक्खा ए पुच्छा ? गोयमा ! एवं अहक्खायसंजएवि, जाव अजहण्णमणुकोणं अणुन्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा, अत्थेगइया सिझइ जाव अंतं करेइ ॥ सामाइय संजमेण भंते ! देवलोगेमु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववज्जइ पुच्छा ? गोयमा ! आविराहणं पीछे कौनमी गति में जाने ? अहो गौतम! देव गति में जाने देवगति में जाते क्या भवन णव्यंतर, ज्योतिषी या वैमानिक में जावे ? अहो गौतम! भवनवासी में उत्पन्न होवे. वगैरह में कशील का कहा वैसे ही कहना. यों छेदोपस्थापनीय का कहना. परिहारविशुद्ध का सूक्ष्मसंपराय का निर्ग्रन्थ जैसे कहना. यथाख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! ऐसे ही यथाख्यात का कहना. यावत् अजघन्यअनुत्कर्ष अनुत्तर विमान में उत्पन होवे. और किसनेक सीझे बुझे यावत् अं करे. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी देवलोक में उत्पन्न होने क्या इन्द्रपने उत्पन्न होवे वगैरह पृच्छा, . पाशा-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ व Page #2875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र मात्रार्थ 4*6* पंचमंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले || एवं छेदोवद्वावणिएवि परिहारविमुद्धिए जहा पुलाए सेसा जहा नियंठे ॥ सामाइयसंजएणं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमानस्स इयं कालं ट्ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं दो पलिओदमाई, उक्कोसेणंतेची सं सागरोवमाई; एवं छेदोवद्वावणिएव ॥ परिहारविसुवियस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं दो पलिओदमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई, सेसा जहा नियंठाण ॥ १३ ॥ सामाइय संजयस्सणं भंते ! केवइया संजमठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजा संजमट्ठाणा पण्णत्ता । एवं जस्स परिहारविसुद्धियरस || मुहुमसंपरागसंज अहो गौतम ! अविराधना आश्री कपाय कुशील जैसे यों छेदोपस्थापनीय का जानना. परिहार विशुद्ध का पुलाक जैसे शेप का निर्ग्रन्थ जैसे. अहो भगवन् ! सामायिक संयमी की देवलोक उत्पन्न होते कितनी { स्थिति कही ? अशे गौतम ! जवन्य दल्योपम उत्कृष्ट तेत्तीम सागरोपम यो छेदोपस्थापनीय का {जानना. परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य दो पल्योपम उत्कृष्ट अठारह सागरोपम. शेष दोनों की निर्ग्रन्थ जैसे कहना ॥ १३ ॥ संयम स्थानद्वार. अहो भगवन् ! सामायिक संयम को कितने स्थान कड़े है? अहो गौतमः असंख्यात संयम स्थान कहे हैं ऐसे ही परिहार विशुद्ध पर्यंत कहना. सूक्ष्म 4983- पचीसरा शतक का साना रदेशा 80-8 २८५० Page #2876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोसक ऋपिणी । यस्स एच्छा ? गोयमा ! असंखेजा अंतोमुहत्तिया संजमदाणा वणता । अहक्खाय संजयस्स पुच्छा ? गेयमा ! एगे अजहण्णमणकोसए संजमट्ठाणे पण्णत्ते ॥ एएसिणं . भंते ! सामाइय छेदोवटावणिय परिहारविसुद्धिय सुहुमसंपराय अहक्खाय संजमटाणाणं कयरे २ जाव बिसेसाहियावा ? गोपमा ! सम्बत्योवे अहक्खायसंजमस्स एगे अजहण्ण मणुक्कासए संजमट्ठाणे, सुहुमसंपराय संजयस्स अंतीमुहुत्तिया संजम ढाणा असंखेजगणा, परिहारविसुद्धियस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, सामाइयमंज. यस्स छेदोवट्ठावणियस्स एएसिणं संजमट्ठाणा दोहवि तुल्ला असंखेजगुणा ॥ १४ ॥ संपराय की पृच्छा, अहो गौतम! असंख्यात अंतर्मुहूर्नवाले संयम स्थान कहे हैं. यथारूयात की पृच्छा, हो गोतम ! अजघन्य अनुत्कर्ष एक संयम स्थान कहा है. अहो भगवन् ! इन सामायिक पदोपस्थापनीय, परिहारविशुद, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात के संयप स्थान में कौन किस से अन्य गुत यावत् विशे पाधिक हैं? अहो गौतम ! सब से थोडा पथारुयात का एक अजघन्य अनुवर्ग संयम स्थान, इस से सूक्ष्म संपराय के अंतर्मुर्तिक संयम स्थान असंख्यातगुने, इस से परिहारविशुद्ध के संयम स्थान मसंख्यातगुने, इस से सामायिक पदोपस्थापनीय इन दोनों के संयम स्थान परस्पर नुश्य र असंख्यात .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला.मुखदेव सहायजी उचलायसादी Page #2877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4-११०+- पंचमाङ्ग विवाह पण्यति ( भगवती ) सूत्र 48+ सामाइय संजयस्तणं भंते! केवइया चरितपजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंता चरितपजवा पण्णत्ता, एवं जाव अहक्वायसंजयस्स ॥ सामाइयसंजएणं भंते !" सामाइय संजयस्स सट्ठाण सन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे तुले अन्भहिए ? गोयमा ! सिय हीणे छट्ठाणचडिए || सामाइयस्सणं भंते ! छेदोवद्वावणिय संजयस्स परट्ठाण सन्निगासेणं चरितपज्जवेत्रिं पुच्छा ? गोयमा ! सिय होणे छट्टाणवडिए || एवं परिहारविसुद्धियस्सवि | सामाइयसंजएणं भंते ! सुहुमसंपरागसंजयस्स परट्ठाण गाणं चरितजवा पुच्छा ? गोयमा ! हीणे णो तुले णो अब्भहिए, अनंतगुने ॥ १४ ॥ पर्यवद्वार - अहो भगवन् ! सामायिक संयमी को कितने चारित्र पर्यत्र कहे हैं ? अहो गौतम ! अनंत चारित्र पर्यव कहे हैं. यों यथाख्यात संयम पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! सामायिक संयम सामायिक संयम की साथ चारिय पर्यव से क्या हीन तुल्य व अधिक हैं ? अहो गौतम ! स्यात् । {द्दीन, स्यात् तुल्य, स्वात् अधिक यों छढाणवडिया. अहो भगवन् ! सामायिक चारित्र छेदोपस्थापनीय {की साथ चारित्र पर्यव से क्या डीन, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम !: स्वात् हीन यावत् छट्टाण बडीया. यों परिहार विशुद्ध की साथ कहना. सामायिक संयति के सूक्ष्म संपराय संयति का परस्थान +-- पचीसना शतक का सातवा उदेशा 49 २८५९. Page #2878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी गुण होणे ॥ एवं अहक्खायसंजयस्सबि, एवं छेदोवट्ठावणिएवि ॥ हेटिलेसु तिसुवि समं छट्ठाणचड़िए, उवरिल्लेख दोमुवि तहेव हीणे ॥ जहा छेदोवढावणिए तहा परि. हारविसुद्धिएवि, सुहुमसंपरागसंजएणं भंते । सामाइयं संजयस्स परट्ठाण पुच्छा ? गोयमा! णो हीणे णो तुल्ले अम्भाहिर । अगंप्तगुण मभहिए । एवं छेदोवा ट्ठावणिएवि। परिहार सुद्धिएसुवि समं सट्ठाणे सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ होणे अर्णतगुण होणे, जइ अब्भाहिए अणंतगुण मन्महिए ॥ सहुमसंपराग पाश्री चारित्र पर्यव में पृच्छा, अहो गौतम! हीन होवे परंतु तुल्प व अधिक होवे नहीं. हीन हो तब अनंतगुन हीन होवे. यों यथाख्यात के साथ भी कहना. सामायिक चारित्र जैसे छेदपस्थानीय का कहना परंतु पीछे के तीन की साथ छठाणवडीया और उपरके दो की साथ हीन. छदोपस्थापनीय का जैसे कहा वैसे परिहार विशुद्ध का कहना. सूक्ष्म संपराय की मामायिक संयमी के परस्थान आश्री पृच्छा, अहो गौसम ! हीन व तुल्य नहीं परंतु अधिक, यदि अधिक होवे तो अनंत गुन अधिक. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय की साथ जानना. परिहार विशुद्धि की साथ स्यात् हीन, स्यात् तुल्य व स्यात् अधिक, यदि हीन होवे तो अनंतगुण हीन, यदि अधिक होवे तो अनंतगुण अधिक. सूक्ष्म संपराय की प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सुखदेवसहावजी ज्वाला प्रसादजी, भावार्थ animanawarenniwww । Page #2879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६१ संजयरस अहक्खायसंजयस्स परट्ठाण पुच्छा ? गोयमा ! होणे णो तुल्ले णो अब्भहिए, अगंतगुण होणे ॥ अहखाए हेटिल्लाणं चउण्हवि णो होणे णो तुझे अब्भहिए अणंत गुग मन्भाहिए, सट्टाणे णो होणे तुल्ले णो अम्भहिए ॥ एएसिणं भंते ! सामाइय छेदोवट्ठावणिय परिहार विसुद्धिय सुहुमसंपराय अहक्खाय संजयाणं जहण्णुकोसगाणं चरित्तपजवाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया ? गोयमा ! सामाइय संजमस्स छेदोवट्ठारणिय संजयस्सय एएसिणं जहण्णगा चरिचएजत्रा दोण्हवि तुल्ला, सव्वत्थोवा परिहारविसुद्धिय संजयस्सय जहण्णगा चरित्तपज्जत्रा अगंतगुणा ; तस्सचेव उकोसगा वार्थयथास्या यथाख्यात के परस्थान आश्री पच्छा, अहो गौतम! हीन होये परंतु तुल्य व अधिक होवे नहीं. हीन में अनंतगुन हीन कहना. ययाख्यातका नीचे के चारकी साथ हीन व तल्य नहीं हैं परंतु अधिक हैं. यदि अधिक है तो अनंतगुन अधिक हैं. स्वस्थान आश्रीहीन व अधिक नहीं है परंतु तुल्य है. अहो भगवन् ! इन सामायिक दोपस्यापनीय, परिहार विशुद्ध, मूक्ष्म संपराय च यथाख्यात के अघन्य उत्कृष्ट चारित्र पर्यव में कौन किस से बना बहुत यात विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सामायिक व छंदोपस्थापनीय संयम के जपन्य चारित्र पर्यव परमा तुल्य व सब से थोडे, इस से परिहार विशुद्ध संयम के जघन्य चारित्र के घंचमांग-विवाह प्रष्णति (भगवती) मूत्र PO+ पञ्चीसरा शतक का सातवा अशा 48.. | | - - 4 Page #2880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी चरित्तपजवा अणतगुणा, सामाइयसंजयरस छैदोवट्ठावणिय संजयरसय एएसिणं उकोसगा चरित्तपजवा दोण्हवि तुल्ला अणंतगुणा, सुहुमसंपरायस्स जहण्णगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, अहक्खायसंजयस्स जहण्पमणुकोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा ॥ १५॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं सजोगी होजा, अजोगी होजा ? गोयमा ! सजोगी जहा पुलाए ॥ एवं जाव। मुहुम संपरायसंजए अहक्खाय जहा सिणाए ॥ १६ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! है कि सागारोवउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते होजा, पुच्छा ? गोयमा ! सागारोवउत्ते पर्यव अनंतगुने, इस से इस के ही उत्कृष्ट चारिष पर्यन अनंतगुने, इस से सामायिक व छोपस्थापनीय के उत्कृष्ट पर्यव दोनों परस्पर तुल्य व.अनंतगुने, इस. से सुक्ष्म संपराय के जघन्य चान्त्रि पर्यव अनंतगुने, इस से उस के उत्कृष्ट चारित्र पर्यव अनंतगुने, इस से यथाख्यात के अजघन्य अनुत्कर्ष चारित्र पर्यव अनंतगुने ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या सयोगी है या अयोगी है ? अहो गौतम! सयोगी है वगैरह पुलाक जैसे कहना. यों मूक्ष्म संपराय पर्यंत कहना. ययाख्यात संयम का सातक जैसे कहना ॥ १६ ॥ अहो भगवन ! सामायिक संयमी क्या साकारोपयुक्त या अनाकारोपयुक्त होवे ? अहो •प्रकाशा-रामापहादुर लाला, सुखदेवसहायनी मालामसादजी - भावार्थ Page #2881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जहा पुलाए, एवं जाव अहक्खाए, णवर सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होना, जो अणागारोवउचे होजा ॥ १७ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं सकसायी होजा अकसायी होजा ? गोयमा ! सकसायी होजा णो अकसायी होजा, जहा २८ कसायकुसीले एवं छेदोवढावणिरवि ॥ परिहारविमुद्धिए जहा पुलाए, सुहुमसंपराय संजए पुच्छा ? गोयमा ! सकसायी होजा णो अकसायी होजा जइ सकसायी होजा सेणं भंते ! कइसु कसाएसु होजा ? गोयमा ! एगम्मि संजलणलाभ होला। अहक्खाय संजए जहा णियंठे ॥ १८ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं रालेसे भावार्थ गौतम ! साकारोपयुक्त वगैरह पुलाक जैसे कहना. यो यथाख्यात चारित्र पर्यंत कहना. परंतु मूक्ष्म E संपराय साकारोपयुक्त होवे अनाकारोपयुक्त होवे नहीं ॥ १७ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या सकषायी या अकषायी होवे ? अहो गौतम ! सकपायी होवे परंतु अकषायी होवे नहीं, में कषाय .. कुशील जैसे कहना. ऐसे ही छदोपस्थापनीय का भी कहना. परिहार पिशुद्ध का पुलाक, ये कहना सूक्ष्मसंपराय की पृच्छा, अहो गौतम ! सकपायी होवे परंतु अकषायी होने नहीं. यदि, सकवायी होवे . 10 तो कितनी कपायों में होवे ? अहो गौतम ! एक संजल के लोभ में होरे. ययाख्यात चारित्र का निर्वथा । पंचांग विवाह पणत्ति (भगवती) सूत्र +8+ mannaamnama 438 पीसा शक्कका साना उद्देशाने Page #2882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 होना अलेस्से होजा ? गौयमा ! सलेस्से होजा, जहा कसायकुसौले, एवं छेदोव ट्ठावणिएवि । परिहारविसुद्धीए जहा पुलाए । सुहमसंपराए जहा णियंठे । अह. क्खाए जहा सिणाए णवरं जइ सलेस्से होजा एगाए सुक्कलेस्साए होजा ॥ १९॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं बढ़माण परिणाम होजा, हायमाण परिणाम होजा, अवद्विय परिणामे होज्जा ? गोयमा ! वड्डमाण परिणामे होजा जहा पुलाए एवं जाव परिहारविसुद्धीए । 'सुहमसंपराय पुच्छा ? गोयमा ! वट्ठमाण परिणामे जैसे कहना ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या सलेशी होवे या अलेशी हो ! अहो गौतम ! सलेशी होवे वगैरह जैसे कषाय कुशील का कहा वैसे कहना. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय का कहना. परिहार विशुद्ध का पुलाक जैसे कहना. सूक्ष्म संपरायका निग्रंथ जैसे कहना. यथाख्यात का स्नातक जैसे कहना. परंतु यदि लेश्या होवे तो एक शुक्ल लेश्या ॥ ११ ॥ अहो भगान् ! सामायिक संयमी क्या वर्धमान परिणामवाला, हायमान परिणामबाला, या अवस्थित परिणामवाला होवे ? अहो गौतम ! वर्धमान परिणामबाला वगैरह पुलाक जैसे कहना. यो परिहार विशुद्ध पर्यन्त कहना. सूक्ष्म संपराय की 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी • महाशा-राजांबडादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजे * Page #2883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पंचांग विवाह णत्ति (भगवती ) सूत्र ; ॥ वा होज्जा, हायमाणपरिणामेत्रा होजा, जो अट्टिय परिणामे होजा : अहक्खाए जहा नियंठे ॥ सामाइयसंजएणं भंते ! केवइयं कालं वडमाण परिणामे होला ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्वं समयं जहा पुलाए ॥ एवं जाव परिहारवि• सुद्धिए || सुहुमसंपरायसंजएणं भंते! केवइयं कालं वडमाण परिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं उक्कासेणं अंतोमुहुत्तं केवइयं कालं हायमाणं परिणामे होजा, एवं चेत्र अहखायसंजएणं भंते! केवइयं कालं वद्रुमाण परिणामे होजा ? गोयमा ! जहणे अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुप्तं केवइयं कालं अवट्टिय पृच्छा, श्री गौतम ! वर्धमान परिणाम में होवे अथवा हायमान परिणाम में होने परंतु अवस्थित परिणाम में हांवे नहीं. यथाख्यात का निर्ग्रन्थ जैसे कहना. अहीं भगवन् ! सामायिक संयमी कितना काल तक वर्धमान परिणामी होवे ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय यो पुलाक जैसे कहना. यों परिहार विशुद्ध तक कहना. अहो भगवन् सूक्ष्म संपराय संयम को वर्धमान परिणाम कितने काल तक रहे ? अहो ale गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, कितना काल तक हायमान परिणाम रहे ? अहो गौतम ! वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! यथाख्यात को कितने काल तक वर्धमान परिणाम होवे ! அறி अहो गौतम ! जघन्य ++ पनि शतक का सातवा उद्देशा 40 २८३५ Page #2884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिणी परिणामे होजा ? गोयमा ! जहणणं एक समयं उकासेणं देसूणाई पुवकोड़ी . ॥ २०॥ सामाइयसंजएणं भंते ! कइकम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविह बंधए वा एवं जहा बउसे एवं जाव परिहारविमुहिए, सुहमसंपरागसंजए पुच्छा ? गोयमा ! आउयमोहणिजबजाओ, छ कम्मपगडीओ बंधइ, अहक्खायसंजमेजहा- सिणाए ॥ सामाइय संजएणं भंते ! कइकम्मपगडीओ वेदेइ ? गोयमा ! णियमं ___ अटुकम्मपगडीओ वेदेइ ॥ एवं जाव मुहुमसंपराए ॥ अहक्खाए पुच्छा, गोयमा ! सत्तविहवेदएदा, चउव्विह वेदएवा, सत्तवेदमाणे मोहणिजवजाओ सत्तकम्मपगडीओ उत्कृष्ट अंतमहत. कितने काल तक अवस्थित परिमाण रहे? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट देश ऊणा पूर्व क्रोड. ॥ २० ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमवाला कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध. करे ? अहो गौतम ! सात कर्म प्रकृतियों का ऐसे ही जैसे वकुश का कहा वैसे ही कहना. यों परिहार विशुद्ध पर्यंत कहना. मूक्ष्म संपराय की पृच्छा, बहो गौतम ! आयुष्य व मोहनीय ये दो कर्म वर्ज कर कर्म बांधे. यथाख्यातका सातक जैसे कहना ॥२॥ अहो भगवन् : सामायिक संयमवाला कितनी कर्म प्रतियों पेदे ! अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों नियमा वेदे. या सूक्ष्म संपराय पर्यंत काना. पया .पहायक-राजाबहाद्दर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 २०६७ 3 वेदेइ,चत्तारिवेदेमाणे वेयणिजाओ आउणामगोपाओ चत्तारि कम्मपगडीओ वेदे॥२२॥ १ सामाइय संजएणं भंते ! कइकम्मपगडीओ उदीरेइ ? गोयमा ! सत्तविह जहा वउसे एवं जाव परिहारविमुद्धिए । सुहुमसंपराए पुच्छा? गोयमा! छबिहउदीरएवा, . पंचविहउदोरएवा, उदीरमाणे आउवेयगिजबजाओ उम्मपगडीओ उदीरेइ, पंच । उदीरमाणे आउवेयणिजमोहणिजबजाओ पंचकम्मपगडीओ उदीरेइ, अहक्खायसंजए } पुच्छा ? गोयमा ! पंचविह उदीरएवा, अणुदीरएवा, पंचउदीरमाणे आउय सेसं जहा भावार्थ ख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! सात अथवा चार वेदे. सात वेदे तो मोहनीय कर्म छोडकर बेदे और चार बेदे तो वेदनीय, आयुष्य, नाप और गोत्र यो चार ॥ २२ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमवाला कितनी कर्म प्रकृतियों की उदारणा करे ! अहो गौतम ! मात कर्म की उदारणा करे यों, बकुत्र जैसे कहना. ऐसे ही परिहार विशुद्ध पर्यंत कहना. सूक्ष्म संपराय की पृच्छा, अहो मौतम ! छ.अथवा पाच । कर्म की उदीरणा करे. छ कर्म उदीरते आयुष्य और वेदनीय और पांच उदीरते आयु वंदनीय मोहनीय कर्म छोडकर पांच कर्म प्रकृतियों उदेरे यथाख्यान की पृच्छा, अहो गौतम! पाँच अथवा दो कर्म उदीरे अथवा उदारणा भी करे नहीं. पांच की उदारणा करते आयुष्य वगैरा निर्ग्रन्थ जैसे कहना. ॥१५॥ ह पण्णति (भगवती) पचीसमा सनक का सातवा Page #2886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४८ 40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी णियंठस्स॥३३॥ सीमाइयसंजएणं मत! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे कि जहति किं उस पजइ? गोयमा! सामाइयसंजयत्तं जहति छेदोवट्ठावणियर्सजर्यवा, मुहुमसंप. राय संजयंवा असंजमंवा, संजमासंजमंवा उवसंपज्जइ, छेदोवटावाणिय पुच्छा ? गोयमा! छेदोवट्ठावणिय संजयत्तं जहति सामाइय संजमंवा परिहारविमुद्धि यसंजमंबा, मुहुम संपरायसंजमवा. असंजमंत्रा, संजमासजमया, उवसंपजइ, परिहारविसुद्धीए पुच्छा ? गोयमा ! परिहार विमुद्धिय संजयत्तं जहति, छेदोवढावणिय संजमंवा असंजमंवा उपसंपज्जइ । मुहुम संपराए पुच्छा, गोयमा ! मुहुम संपराय संजयत्तं जहति सामाइयसंजयंवा छेदोवट्ठावणिय संजमंवा, अहक्खाय अहो भगवन् ! सामायिक संयमी सामायिक छोडते क्या छंडे और क्या प्राप्त करे ? महो गौतम ! सामायिक पा छोडे और छेदोपस्थापनीय संयम, सूक्ष्मपराय संयम, असंयम, अथवा संयमासंयम माम करे. छेदोपस्थानीय की पृच्छा, अहो गौतम ! छेदोपस्थापनीय छोडे, सामायिक, परिहार विशुद, मूक्ष्म संपराय, असंयम व संयमा संयम, प्राप्त करे. परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! परिहार विशुद्ध छोडे और छेदोपस्थापनीय व अयम अंगीकार करे. सूक्ष्म संपराय की पृच्छा, अहो गौतम काशकराजाबहादुर लाला मुखदेवसहावजी ज्वालामसादजी. মান্য। | Page #2887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 पंचांग विवाहपण्णति ( भगवती ) सूत्र संजमवा, असं मंत्रा उवसंपज्जइ अहक्वाय मंजएणं पुच्छा गोयमा ! अहंक्वाय संजय तं जहति हुम संपराय संजमंवा असंजमंवा सिद्धगतिंवा उवसंपज्जइ ॥ २४ ॥ सामाइय संजणं भंते ! किं सण्णोवउ ते होज्जा, णो सण्णोवउत्ते होज्जा ? गोयमा ! सण्णो उसे होज्जा, जहा वउसे । एवं जात्र परिहारविसुद्धीए || सुहुमसंपराए अहखाएय जहा पुलाए ॥ २५ ॥ सामाइयसंजरणं भंते ! किं आहारए होजा, अनाहारए होज्जा ? जहा पुलाए एवं जात्र सुहुम संपराए; अहक्खाए जहा सिणाए ॥ २६ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! कइ भवग्गहणाई होज्जा ? गोयमा ! जहणणं सूक्ष्म संपरायपना छोडे, सामायिक, छेदोपस्थापनीय, यथाख्यात व असंयम अंगीकार करे. यथाख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! यथाख्यातपना छोडे और सूक्ष्म संपराय, असंयम अथवा सिद्धगति प्राप्त करे. | ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! सामाजिक संयमी क्या संज्ञोपयुक्त या नोसंज्ञोपयुक्त है ? अहो गौतम ! संज्ञो{पयुक्त होवे बगैरह बकुश जैसे कहना. यों परिहार विशुद्ध पर्यंत कहना. सूक्ष्म संपराय यथाख्यात का पुलाक जैसे कहना || २५ || अहो भगवन् ! सामायिक संयमी क्या आहारक होवे या अनाहारक होवे' अहो गौतम ! जैसे पुलाक का कहा वैसे ही कहना. यों सूक्ष्म संपराय पर्यंत कहना. यथाख्यात का } स्नातक जैसे कहना ॥ २६ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमवाला कितने भव करे ? असे गौतम || 4.38+ पचीसवा· शतक का सातवा उद्देशा 4984 २८६९ Page #2888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक उक्नोसणं अट्ठ। एवं छेदोवद्यावाणिएवि ॥ परिहारविसुद्दीए पुच्छा ? गोयमा ! | जहण्णेणं एकं, उक्कोसणं तिण्णि । एवं जाव अहक्खाए ॥ २७ ॥ सामाइय संजयस्सणं भंते ! एगभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं जहा वउसस्स ॥ छेदोवट्ठावणियस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक उक्कोसेर्ण वीसपुहत्तं ॥ परिहारविसुढियस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक, उक्कोसणं तिण्णि, सुहुम संपरायस्स पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एको, उक्कोसेणं चत्वारि ॥ अहक्खायस्त पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एको, उक्कोसेणं दोण्णि ॥ सामाइय जघन्य एक उत्कृष्ट आठ भव करे. यों छेदोपस्थापनीय का भी कहना.. परिहारविशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट तीन. यों यथाख्यात पर्यंत कहना ॥ २७ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयम एक भव में कितनी वक्त आवे ? अहो गौतम ! बकुश जैसे कहना. छेदोपस्थापनीय की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक उत्कृष्ट बीस पृथक्. परिहारविशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! जपन्य एक उत्कृष्ट तीन. मूक्ष्म संपराय की पृच्छा, जघन्य एक उत्कृष्ट चार. यथाख्यात की पृच्छा, जघन्य एक 10 उत्कृष्ट दो वक्त आवे. अहो भगवन् ! सामायिक चारित्र बहुत भव आश्री कितनी बार आवे? अहो । अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि .काशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी. भावाथे Page #2889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ + पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 4384 संजयरसणं भंते ! णाणाभवग्गहणिया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ? जहा उसे ॥ छेदोवायरसपुच्छा ? गोयमा ! जहणणं दोण्णि, उक्कोसेणं उवरिं नवहं स्याणं अंतोसहस्सं ॥ परिहारविसुद्धियरस जहणणं दोणि उक्कोसेणं सन्त ॥ सुहुम संपरागस्स जहणणेणं दोण्णि उक्कणं णव ॥ जहणणं दोणि उक्कोसेणं पंच ॥ २८ ॥ अह क्वायरस सामाइय संजएणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुल्वकोडी ॥ एवं छेदोवट्ठावणिएव ॥ परिहारवि [गौतम ! बकुश जैसे कहना. छेदोपस्थापनीय की पृच्छा, अहो गौतम ! नवसों से अधिक व एक हजार की अंदर. परिहारविशुद्ध जघन्य दो उत्कृष्ट सात. सूक्ष्म संपराय जघन्य दो उत्कृष्ट नव और यथाख्यात {जघन्य दो उत्कृष्ट पांच वक्त आवे ॥ २८ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयम की कितनी स्थिति [ कही ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट कुच्छ कम नव वर्ष एक पूर्व क्रोड में ऊणा. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय का कहना. परिहार विशुद्ध की पृच्छा जघन्य एक समय उत्कृष्ट कुच्छ कम इक्कतीस वर्ष ऊणा पूर्व कोड सूक्ष्म संपराय का निर्ग्रन्थ जैसे कहना. यथाख्यात का सामायिक संयमी जैसे १०३०३ पञ्चीसवर शतक का सावना उद्देशा २८७१ Page #2890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सुद्धीए जहण्णेणं एक, उक्कोसेणं देसूणाहिं एगूणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुन्चकोडी सुहुमसंपराए जहा णियंठे ॥ अहक्खाए जहा सामाझ्यसंजए ॥ सामाझ्यसंजयाणं भंते! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सम्बई । छेदोवट्ठावाणिय पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अदाइजाइ वाससयाई. उक्कोसेणं पण्णासं सागरोवमकोडीसयसहस्साई। परिहारविसुद्धीए पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं देसूणाई दोवाससयाई, उक्कोसेणं देसूणाओ पुवकोडीओ, सुहुमसंपरायसंजए पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं एक समय उक्कोसेणं अंतोमुहुतं । अहक्खाय संजया जहा सामाइयसंजया ॥ २९ ॥ सामाइय कहना. अब बहुत आश्री, अहो भगवन् ! बहुत सामायिक संयमी कितना काल तक रहे ? अहो गौतम ! सब काल रहे. छदोपस्थापनीय की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य अदाइ सो वर्ष क्यों कि उत्सर्पिणी में, प्रथम तीर्थंकरका शासन इतना वर्ष पर्यंत रहे उत्कृष्ट पचास लाख क्रोड सागरांपम क्यों कि अवसर्पिणीमें प्रथम तीर्थकर का शासन उतना काल पर्यंत रहे. परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य देश जणा दो सो वर्ष उत्कृष्ट देश ऊणा पूर्व कोड. सूक्ष्म संपराय संयम की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त, यथाख्यात का सामायिक संयम जैसे कहना ॥ २९ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक * प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . भावार्थ Page #2891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88+ पंचगांगसिवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र संजयस्सणं भंते. ! केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं जहा पुलागस्स । एवं जाव अहक्खाय संजयस्स ॥ सामाइयसंजयाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णस्थि अंतरं । छेदोवट्ठावणिय पुच्छा ? गोयमा ! अहण्णेणं तेवटुिं वास सहस्साइं, उक्कोसेणं अटारससागरोवमकोडाकोडीओ । परिहारविसुद्धीए पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउरासीतिवाससहस्साई, उक्कोसेणं अटारस सागरोवम कोडाकोडीओ । सुहम संपरागाणं जहा णियंठाणं । अहक्खायाणं जहा सामाइय संजयाणं ॥ ३० ॥ सामाइयसंजयस्सणं भंते ! कइ समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! छसमुग्धाया पण्णत्ता, संयम का कितना अंतर होवे ? अहो गौतम ! पुराक जैसे कहना. यों यथाख्यात पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! बहुत सामायिक संयम का कितना अंतर हो? अहो गौतम! अंतर न होवे. छदोपस्थापनीय की पच्छा, अहो गौतम! जघन्य त्रेसठ हजार वर्ष उत्कृष्ट अठारह क्रोडाक्रोड सागरोपम परिहार विशुद्ध की पृच्छा, अहो गौतम ! जघन्य चौरासी हजार वर्ष उत्कृष्ट अठारह क्रोडाकोड सागरोपम सूक्ष्म संपराय का निर्ग्रन्थ जैसे कहना, और यथाख्यात का सामायिक संयम जैसे कहना. ॥३०॥ अहो भगवन् ! सामायिक सेयम को कितनी समुद्घात कही? अहो गौतम ! छ समुद्धात 4880 पच्चीसवा शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ - 428 Page #2892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ । जहा कसा कुसीलस्स ॥ एवं छेदोवट्ठावणियस्स, परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागरस । सुमपरायस्स जहा नियंठस्स || अहक्वायरस जहा सिणायरस ॥ ३१ ॥ सामाइयसंजणं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे पुच्छा ? गोयमा ! णो संखेज्जइ जहा पुलाए एवं जाव मुहुमसंपराए अहक्खायसंजए जहा सिनाए ॥ ३२ ॥ सामाइयसंजएणं भंते ! लोगस्स किं संखेजइभागं फुगइ ? जहेव होजा तहेव फुलइ ॥ ३३ ॥ सामाइयसंजएणं भंते । कयरंमि भावे होजा ? गोयमा ! खओत्र समिए भावे होजा, एवं जाव सुहुमसंपराए || अहक्वायसंजए पुच्छा ? गोयमा ! कही वगैरह कपाय कुशील जैसे कहना. ऐसे ही छेदोपस्थापनीय का कहना, परिहार विशुद्ध का पुलाक जैसे कहना, सूक्ष्म संपराय का निर्ग्रन्थ जैसे और यथाख्यात का स्नातक जैसे कहना ॥ ३१ ॥ अहो भगवन : सामायिक चारित्र क्या लांक के संख्यात वे भाग में हैं या असंख्यातवे भाग में हैं वगैरह पृच्छा अहो गौतम ! संख्यात भाग में नहीं वगैरह पुलाक़ जैने कहना. ऐसे ही सूक्ष्म संमराय पर्यंत कहना. यथाख्यात का स्नातक जैसे कहना. ॥ ३२ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक क्या लोक के संख्यात भाग में { स्पर्शे वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जैसे होने का कहा वैसे ही स्पर्शने का कहना. ॥ ३३ ॥ अहो भगवन् * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी २८७४ Page #2893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णा (भगवती) सूत्र 2280 उवसमिएवा खइएवा भावे होजा ॥ ३४ ॥ सामाइय संजयाणं भंते ! एगसमयाणं केवइया होजा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च जहा कसाय कुसीले तहेब गिरवसेसं ॥ छेदोवट्ठावणिया पुच्छा ? गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय २८७५ णत्थि ॥ जइ अस्थि जहण्णणं एक्कोवा दो तिणिवा उक्कोसेणं सयपुहुत्तं, पुन्वपडिवण्णए पडुच्च सिय अस्थि सिय णत्थि ॥ जइ अत्थि जहण्णेणं कोडिसय पुहुत्तं, उक्कोसेणवि कोडिसयपुहुत्तं ॥ परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा ॥ सुहुमसंपरागा जहा णियंठा ॥ अहक्खायसंजयाणं पुच्छा ? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि । सामायिक संयम किस भाव में होये ? अहो गौतम ! क्षयोपशम भाव में होवे यों सूक्ष्म संपराय पर्यंत कहना. यथाख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! उपशम क्षायक भाव में होवे ॥ ३४ ॥ अहो भगवन् ! सामायिक संयमी एक समय में कितने हो ? अहो गौतम ! वर्तमान आश्री कषाय कुशील जैसे यों सब कहना. छेदोपस्थापनीय की पृच्छा, अहो गौतम ! वर्तमान आश्री स्यात् होवे स्यात् न होवे, यदि होये । तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट प्रत्येक सो पूर्व काल आश्री स्यात् होवे स्यात् न होवे यदि होवे तो जघन्य प्रत्येक सो क्रोड उत्कृष्ट भी प्रत्येक सो क्रोड. परिहार विशुद्धका पुलाक जैसे कहना,मूक्ष्म संपराय का निधन 488+ पचीसवा शतक का सातवा भावार्थ 488 Page #2894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सिय नत्थि । जइ अत्थि जहणणं एक्कोवा दोवा तिण्णिवा, उक्कोसैणं वावटुसर्य अट्ठसयं खवगाणं चउपण्णं उवसमगाणं ॥ पुव्वपडिवण्णए पडुच्च जहणेणं कोडि हु उक्कोसेणवि कोडिपुहुत्तं ॥ ३५ ॥ एएसिणं भंते ! सामाइय छेदोवट्ठावणिय परिहार विसुद्धियसुहुमसंपराय अहक्खायसंजयाणं कयरे कथरे जाव विसेसाहियावा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमसंपराय संजया, परिहारविसुद्धिय संजया संखेज्जगुणा, अहक्खाय संजया संखेज्जगुणा, छेदोवट्ठावणिय संजया संखेजगुणा, समाइय संजया संखेज्जगुणा ॥ ३६ ॥ पडि सेवणदोसालोयणाय आलोयणारिहा चैव ॥ तत्तो सामायारी पायच्छित्तं { जैसे कहना. यथाख्यात की पृच्छा, अहो गौतम ! वर्तमान काल आश्री स्यात् होवे स्यात् न होवे होवे तो जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट १६२ जिस में १०८ क्षायक के और ५४ उपशम के. { प्रतिपन्न आश्री जघन्य उत्कृष्ट पूर्वक्रोड || ३५ ॥ अहो भगवन् ! इन सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्ध, सूक्ष्म संपराय व यथाख्यात संयम में कौन किस से अल्प बहुत यावत् विशेषाधिक हैं ? अहो गौतम ! सब से थोडे सूक्ष्म संपराय संजमवाले इस से परिहार विशुद्ध संजमवाले संख्यातगुने, इस से यथाख्यात संयम वाले संख्यात गुने, इससे छेदोपस्थापनीय संयमत्राले संख्यात गुने, और इससे सामायिक संयम वाले संख्यात गुने || ३६ | इन संयति में कोई प्रति सेवनावत होते हैं कोई तपस्वी होते हैं, इसलिये प्रतिसेवना के * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २८७६ Page #2895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 भावा पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवति ) सूत्र 488+ तो चेव ॥ १ ॥ कइविहाणं भंते ! पडिसेवणा पण्णता ? गोयमा ! दसविहा पडिसेवणा पण्णसा, तंजहा-दप्पप्पमायणाभोगे, आउरें आउतीतिय । संकिण्णे सहसकारे, भयंप्पदोसायवीससा ॥ २ ॥ दस आलोयणा दोसा पण्णत्ता, तंजहा-आकंपइत्ता, अणुमाइत्ता ; जंदिट्ठ वादरंच सुहुमंच । छण्हं सहाउलयं बहुअव्वत्त तरसेवि ॥ दसहिं अथवा तप का कथनं करते हैं. १ दोष लगाना सो प्रतिसेवना २ शुद्धि निमित्त आलोचना करना, । आलोचना करनेवाला, ४ आलोचना देनेवाला, ५ समाचारी, ६ प्रायश्चित्त और ७ तप. इन सातों काई कथन आगे करते हैं. अहो भगवन् ! प्रतिसेवना. संयम की विराधनाके कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! संयम विराधना के दश भेद कहे हैं. जिन के नाम-दर्प-चित्त का उन्माद से प्रतिभवना होवे २ प्रसादमद विषयादिक से ३ अज्ञान-अजानपना से ४ आतुरपना से अर्थात् क्षुधा तृषा से बाधित होकर मसि-ई सेवना होने ५ आपत् से ६ स्वपक्ष परपक्ष की ब्याकूलता से ७ सहसात्कार से ९ पद्वेष सो क्रोधादिक से और १० निवार करने से अर्थात् पश्चाताप करने से. अब दश आलोचना के दोष कहते हैं. १ आचार्य मुझे थोडा प्रायश्चित्त देवेंगे इस बुद्धि से आलोचना के लिये वैयावृत्य करके आचार्य की आवर्जना करे, यह आलोचना दोष २ थोडा अपराध कहने से थोडा दंड मीलेगा ऐसा आलोवे ३ जो अपराध आचार्यने देखा उस की ही आलोचना करे ४ बादर-बड़ा अपराध की ही आलोचना करे परंतु जानता हुवाई । पच्चीसवा शतकका सातवा उद्देशा - 408 Page #2896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति अत्तदोसं आलोइत्तए तंजहा-जातिसं : पण्णे, कुलसंपण्णे, विणयसंपण्णे, णाणसंपण्णे, दसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, खते, देते, अमायी, अपच्छाणुतावि ॥ अहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए तंजहा-आयारवं, आहारवं, यवहारवं, उन्वीलए, पकुव्वए, अपरिस्सावी, सूक्ष्म अपराध की आलोचना करे नहीं ५ मात्र सूक्ष्म अपराध की ही आलोचना इस बुद्धिमे करे कि सूक्ष्म अ अपराध की आलोचना करनेवाले बादर अपराध की आलोचना क्यों नहीं करता होगा. ६ लज्जा से बहुत गुप्त भाव मे आलोचे कि जिस से गुरु सुन सके नहीं स्वयं ही मुने ७ बडे २ शब्द से ज्यों आवे त्यों , आलोचना करे ८ एक ही अपराध की अन्य बहुत की पाम आलोचग करे ९ अनीतार्थ की पास आलोचना करे १० जिस दोष की आलोचना करने की होवे उस ही दोष से दूषित बने हुवे आचार्य की पास आलोचे कि जिस से ज्यादा दण्ड न दे सके. यो दश प्रकार से आलोचना के दोष कहे. दश गुण संपन्न अनगार अपने दोषों की मालोचना करने योग्य होता है. १ जातिसंपन्न सो उत्तम जाति में उत्पन्न हुवा २ कुल संपन उत्तम कुल में उत्पन्न हुवा, ३ विनय संपन्न ये तीन प्रायः अकृत्य करे नहीं और क्वचित हो जाये तो उसकी सम्यक प्रकार से आलोचना करे, प्रायश्चित्त निभानेवाला होवे और बंदनादिक आलोचना सवाचारी का प्रयोक्ता होवे ४ ज्ञान संपन्न कृत अकृत्य का विभाग जाने ५ दर्शन संपन । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* Page #2897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4880+- पंचमात्र विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र + णिजवए, अवायदंसी ॥ दसविहा सामायारी पण्णताओ तंजहा - इच्छा मिच्छा तहक्कारो आवसियाय णिसीहिया ॥ आपुच्छणाय पाडेपुच्छा, छंदणाय निमंतणा ; उवसंपयायकाले सामायारीभवे दसह ॥ दसविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते. तंजहा-आलोयणारिहे, | ६ चारित्र संपन्न - प्रायश्चित्त अंगीकार करे ७ क्षमावंत गुरु उपालम्भ देवे तो भी क्रोध करे नहीं १८ दमितंन्द्रियवाला ९ माया कपट रहित अपराध की आलोचना करनेवाला और १० अपराध की आलोचना करता हुवा पश्चाताप नहीं करनेवाला. आठ गुनवाला अनगार प्रायश्चित्त देने योग्य होवे ? आचारवंत सो ज्ञानादि आठ आचार सहित २ आलोचनावाले दोषों स्मरण में रखनेवाला ३ आगम श्रुतादि पांच व्यवहार में से एक भी व्यवहार जाननेवाला ४ अप्रवीडक अर्थात् लज्जावत भी कोमल मधुर वचनों से लज्जा रहित कर के आलोचना करावे ५ अपराध की आलोचना करने से प्रायच्छित्त देकर विशुद्ध करने में समर्थ ६ अपरिश्रावी - अलोचना करनेवाला जो दोष कहे वे अन्य की पास कहे नहीं ७निर्यापक आलोचक की सामर्थ्यता देखकर प्रायच्छित देनेवाला और८परलोक के पाप से {डरनेवाला. दश प्रकार की समाचारी कहीं २ गुरुआदि की इच्छा होवे वैसा करे २ लगे दोषों का मिथ्या दुष्कृत देवे ३ हितशिक्षा प्रमाण करे ४ कार्यार्थ जाते आवश्यही कहे ५ कार्य से निर्वत कर आते निसीदी कहे ६ अपना कार्य गुरु से पुच्छकर करें ७ अन्य के काम गुर्वादि से पूछकर करे ८ द्रव्यादिक 48* पचीसना शतक का सातवा उद्देशा 49 २८७९ Page #2898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ पडिकमणारिहे, तदुभयारिह, विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणंपारि, पारंचियारिहै ॥ १ ॥ दुविहे तत्रे पण्णत्ते, तंजहा ! वाहिरिएय, अभितरिएय ॥ १ ॥ सेकितं बाहिरिए तवे ? वाहिरिएतवे छान्वहे पण्णत्ते, अणसण ऊणोयरिया, भिक्खा यरिया, रसपरिच्चाओ || कायकिलेसो पडिसंलीणया ॥ से किंतं अणसणे ? अणसणे दुविण जहा इत्तरिएय आवकहिएय || सर्कितं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविहे को याचना पूर्वक ग्रहण करे ९ अन्य आचार्य की पास ज्ञानादि निमित्त रहे और १० प्रतिलेखनादि (क्रिया कालोकाल करे. दश प्रकार के प्रायच्छित्त कहे हैं ? आलोचना गुर्वादिक की पास आलोचना कर शुद्ध होना २ प्रतिक्रम ३ आलोचना व प्रतिक्रमण ४ विवेक आहारउपधिकात्याग करना ५ कायोसर्ग कर के शुद्ध होना व आयंविलादि तप से शुद्ध होना ७ छेद दीक्षा में छेद देकर छोटी करना ८ (पुन:महाव्रत की आरोपना कर शुद्ध होना ९ तपादि कर के अत्यंत शक्ति हीन होकर शुद्ध होना और १० लिंगपरावर्त कर गच्छ बाहिर रखकर शुद्ध होना || १ || अब आगे तप के सामान्य १२ व उत्कृष्ट ३५४ भेद कहते हैं. तप के दो भेद कहे हैं. १ बाह्य और २ आभ्यंतर तप. बाह्यतप किसे कहते हैं ? बात के छ भेद कहे हैं जिन के नाम अनशन २ अवमोदर्य २ भिक्षाचरि ४ रसपरित्याग ५ काया क्लेश और प्रतिसंलीनता. अनशन के कितने भेद कहे हैं ? अनशन के दो भेद कहे हैं. १ इत्वरिक और * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २८८० Page #2899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णाति (भगवती) मूत्र 4882 भावार्थ पण्णते, संजहा चउत्थे भत्ते, छटे भत्ते, अटुमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चउ. इसमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, वोमासिए भत्ते, तिमासिए भत्ते जाव छमासिए भत्ते, सेतं इत्तरिए । सेकितं आवकहिए ? आवकहिए दविह पण्णत्ते तंजहा-पाओ- ૨૮૮૧ बगमणेय, भत्तपञ्चक्खाणेय । सेकिंतं पाओवगमणे? पाओवगमणे विहे पण्णते तंजहा णीहारिभेय, अणीहारिमेय, णियमा अपडिकामे, सेतं पाओवगमणे ॥ सैकिंतं भत्तपधक्खाणे ? भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा णीहारिमेय, अणीहारिमेय; णियमा याषकथित. इत्वरिक किसे कहते हैं ? इवारिक के अनेक भेद कहे हैं जैसे चाथभक्त एक उपवास, छठ भक्त भेला, अष्टमभक्त तेला, देशमभक्त चौला, द्वादशभक्त पचौला, दशभक्त छ उपवास, अर्धमासिक पन्चरह उपवास, मासिक सप, दो मासिक. सीन मासिक, चार मासिक, पांच मासिक, और छ मासिक तप. इस उपरांत तप नहीं होता है. यह इस्सर तप के भेद हुवे. पावरकथित तप के कितने भेद कहे हैं ? याकथित के दो भेद कहे हैं. १ पादोषगमन व २ भक्त मस्याख्यान. पादोपगमन किसे कहते हैं ? पायोपगमन के दो भेद १ नीहारिम गांव में संथारा करने से उस के शरीर का नीहारन हो । और अणीहारिम-गांव वाहिर अमल में करे उस के शरीरका निहारन वहीं होवे. इनदोनों को प्रतिक्रमण मही करना पड़ता हैं. अहो भगवन् ! भक्त प्रत्याख्यान के कितने भेद कहे हैं ? भक्त प्रत्याख्यान के दो भेद ? ' 48. पच्चीसवा शक का सातवा उद्देशा 18 1 - Page #2900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सपडिक्कमे सेतं भत्तपञ्चक्खाणे ॥सेत्तं आवकहिए॥सेतं अणसणे॥२॥मेकिंतं ऊमोदरिया? उमोदरिया दुविहापण्णत्तातंजहा दव्वोमोयरियाय, भावोमोयरियाय ॥ से किंतं दव्योमोयरियाय? दन्वोमोयारिया दुन्विहा पण्णत्ता,तंजहा उवगरण दव्योमोयरिया, भत्त पाणदल्बोमाय रियाय.से किंतं उवगरणदव्योमोयरिया?उवगरणदव्योमोयरियाएगे वत्थे,एगेपादे,वियत्तोवगरणसाइनणया;सेत्तं उवगरण दव्योमोयरिया||सेकिंतं भत्तपाण दव्योमोयरिया? भत्तपाण दव्योमोयरिया अट्ठ कुक्काडि अंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कहे हैं. पीहारिम और अनिहारिम. यह दोनों नियमा प्रतिक्रम सहित होवे. यह भक्त प्रत्याख्यान तप हुवा. यों यावत् कथित के भेद कहे. यह अनशन तप के भेद संपूर्ण हुए ॥ २॥ अहो भगवन् ! अवमोदरी तप के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अवमोदरी तप के दो भेद कहे हैं. द्रव्य अवमोदर्य और २ भाष अवपोदर्य. द्रव्य अवमोदर्य किसे कहते हैं ? 'द्रव्य अवमोदर्य के दो भेद कहे हैं १ उपकरण द्रव्य है अवमोदर्य और भक्तपान द्रव्य अवमोदर्य. उपकरण द्रव्य अवमोदर्य किसे कहते हैं ? एक वस्त्र व एक पात्र रखे, उक्त विधि से वस्त्र धारन करे, उस में ममत्व नहीं रखे, उसे उपकरण द्रव्य अवमोदर्य कहते। पानद्रव्य अवमोदर्य किसे कहते हैं ? आठ कूकडी के अण्डे प्रमाण आहार करने से अल्प आहार होता है, *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 wmnnainamammmmmnama २८८३ पंचमांम विवाह पक्षणति (भगवती)सूत्र Hot mmmmmmmmm जहाँ सत्तमसए पढमुद्देसए जाणो कामरसभोजीतीति वत्तव्वसियासेत्तं भत्तपाणदव्यो। मोयरिया ॥ सेत्तं दव्योमोयरिया ॥ सेकिंतं भावोमोयरिया ? भावोमोयरिय अणेगविहा पण्णत्ता तंजहा अप्पकोहे जाव अप्पलोभे, अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पतुमंतुमे, सेत्तं भावोमोयरिया ॥ सेत्तं ऊमोयरिया ॥ ३ ॥ से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा दव्वाभिग्गहचरिए, खेत्ताभिग्गहचरिए जहा उववाइए जाव सुद्धेसणिए, संखादत्तिए ॥ सेत्तं भिक्खायरिया ॥ ४ ॥ से किंतं रसपरिच्चाओ ? रसपरिचाओ अणेगविहे प.तं. णिविगइए पणीयरस बारह अण्डे प्रमाण वगैरह जैसे सातवे शतक के प्रथम उद्देशे में कहा यावत् प्रकामरस भोगी होये नहीं. यह भकपाम द्रव्य अवमोदर्य तप कहा. यों द्रव्य अवमोदर्य के भेद कहे. भावअवमोदर्य किसे कहते हैं ? भाव अवमोदर्य के अनेक भेद कहे हैं अल्पक्रोध यावत् अल्पलोभ, अल्पशब्द, अल्पझंझा, अल्पतुमंतुमः यह । भाव अवमोदर्य होवे. यों अवमोदर्य के भेद कहे ॥ ३ ॥ भिक्षाचरी के कितने भेद कह हैं ! भिक्षाचरी के अनेक भेद कहे हैं? द्रव्य भिक्षाचरी, क्षेत्र भिक्षाचरी वगैरह जैसे उक्वाइ में यावत् शुद्ध एषणिक दांत की संख्या माहित आहार ग्रहण करे यह भिक्षाचरी तप हुवा।।४॥रस परित्याग किसे कहते हैं ? रस परित्याग के अनेक पचीसवा शतकका सातवा उद्देशा 48 भावार्थ 49 Page #2902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ८८४ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी विवजिए, जहा इववाइए जाव लूहाहार ॥ सेतं रसपश्चिाओ, ॥ ५॥से कि ते कायकिलेसे ? कायाकिलेसे अणेगविहे ५० तं. ठाणाईए, उक्कुडया. सणिए जहा उपघाइए जाव सक्ष्वगाय पडिकम्मविप्पामुको ॥ सत्तं कायकिछेसे ॥६॥ से किंतं पडिसलीनता ? पडिसंहीनता घम्विहा पुण्णात्ता, तंजहा ईदिय पदिसलीनता, कसायपडिसलीनता, जोगपडिसलीनता, विवत्तसयणासणसेवजया ॥ से किंतं इंदिया पडिसंलीमता ? इंदिय पडिसलीनता पंचविहा पणत्ता, तंजहा साइंदिय विसयप्पयार गिरोहोवा, सोइंदिय विसयप्पत्तेसुवा अत्येसु रागदोसविणिग्गहो; चक्खिदिय विसय भेद कहै हैं? निविंगर, गणित रस का साग करनेवाला, वगैरह जैसे उबाइ में यावत् रूक्ष आहार करनेवाला का यह रस परित्याग तप हुया ||काया लश नप किन कहते हैं? काया लेश के अनेक भेद को हैं? स्थानासन, उत्कटासन वगैरह उवाइ भने यावत् सब शरीर की विभूषा रहिन. यह कायाक्लेश प हुवा ॥ ६ ॥ प्रति संटीनता किसे कहते हैं ? प्रतिसलीता के चार भंद कहे हैं। इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, २ कषाय प्रतिसेलीनता, ३ वोनप्रतिसंहीनना और ४ निर्विकशयनासन सेवना.इन्द्रिय प्रतिसंडीनता किसे कहते हैं? इन्द्रिय प्रतिसंहीनता के पांच भेद कहे है. श्रोनेन्द्रिय के विषय का निरोध करना. क्वाचितू श्रोमेन्द्रिय विषय की प्राप्ति .प्रशा-राजावडाहर लालामुकदक्सहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ । Page #2903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं जाव फासिदियप्पयार गिरोहोवा, फासिंदिप विसथप्पत्तसुवा अस्थेसुः रागदौसः विणिग्गहो; सेत्तं इंदियपडिसंलीणया ॥ से किंतं कसायपडिसलीणया ? कसाय पडिसंलीणया चउन्विहा पण्णत्ता तंजहा कोहोदयगिरोहीवा उदयप्पत्तरसवा कोहस्स १/२८८५ विफली करणं, एवं जाब लोभोवय गिरोहोवा उदयप्पत्तस्स लोभस्स बिफलीकरणं, सेतं कसायपडिसंलीणया से किंतं जोगडिसंलोणया ? जोगपडिसंलीणया तिविहा पण्णात्ता तंजहा अकुसल मणणिरोहोवा, कुसलमण उदीरणया. मणस्स एगत्तीभावकरणं ॥ से किंतं पइपडिसलीणया ? घइपडिसंलीणया तिधिहा हो तो रागद्वेष रहित प्रण करना, यों चाइन्द्रिय विषय यावत् स्पोन्द्रिय विषय का कहना. यह न्द्रिा प्रतिसंलीनता. कपाय पते संलीनता किसे कहते हैं ? कषाय प्रतिसलीनता के चार भेद क्रोध का उदय नहीं होने देना, कदाचित् उद्य. हे मात्र तो विफल करना. यों यावत् लोभ का उदय नहीं हाने देना. कदाचित् होजावे तो उसको विफल करना. यह कषाय प्रतिसंलीनता. योग प्रति संलीनता के कितने भेद कहे हैं ? योग प्रतिसंलीनता के तीन भेद कहे हैं. अकुशल मन का निरोध और कुराल मन की उदीरणा और मन का एकत्व भाव करना. वचन प्रतिमली ता किसे कहते हैं ! वचन प्रति।। पंचांग विवाह ष्णात .. 30- पच्चीसना शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ 42 Page #2904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २८८॥ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पण्णत्ता तंजहा अकुसलवइ गिरोहोवा, कुसलवइ उदीरणंवा,वइएव एगत्तीभावकरण से किंतं कायपडिसंलीणया ? कायपाडिसलीणया जंणं सुसमाहिय पसंत साहरिय पाणिपादे, कुम्मोइवगुत्तिदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्ठइ; सेत्तं कायपडिसलीणया ॥ सेत्तं जोगपडिसंलीणया। से किंतं विवित्त सयणाप्तण सेवणया? विवत्तसयणासण सेवणया जंणं आरामेसुवा, उजाणेसुबा, जहा सोमिलुद्देसए जाव सेजासंथारगं उपसंपजित्ताणं विहरइ ॥ सेत्तं विविन सयणासण सेवणया. सेत्तं पडिसं लीगया ॥ सेत्तं बाहिरए तवे ॥ ५ ॥ से किंतं अभितरए तवे ? अभितर तवे संलीनता के तीन भेद कहे हैं. अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा अथवा एकत्व भाव करता. काय प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? जो मुसमाधिवंत, प्रशांत, हस्त पांव का संहरन करने वाला, काछवे की तरह इन्द्रियों को गोपनेवाला, थोडा अथवा प्रकर्ष से लीन रहे वैसा काया प्रतीसंलीनतावाला कहाता है. यह योग प्रतिसलीनता के भेद हुये. विविक्तशयनासन सेवन किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! जो अराम, उद्यान अथवा जैसे सोमल का उद्देशा कहा वैसे ही यावत् शैय्या संथारा प्राप्त कर विचरे वह विविक्तायनासन कहता है. यों प्रतिसंलीनता के भेद कहे. यह वाह्यातप हुवा ॥ ७ ॥ आभ्यंतर तप * प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ Page #2905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m पंचमान क्लिाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र छविहे प०. तंजहा- पायाछित्तं, विणओ, वेयावच्चं, सझाओ, ज्झाणं, विउसरगो ॥ ८ ॥ से किंतं पायच्छित्ते ? पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते तंजहा-आलोयणारिहे जाव पारंचियारिहे ॥ सेत्तं पायच्छित्ते ॥ ९ ॥ से किंतं विणए ? विणए सत्तविहे पुण्णत्ते, तंजहा-णाणविणए, दसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वइविणए, कायविणए, लोगोश्यारविणए ॥ से किंतं णाणविणए ? णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते तंजहा-आभिणिवोहिय णाणविणए जाव केवलणाणविणए, सेत्तं णाणविणए ॥ से किंतं दसण विणए ? सणविणए दुविहे प० तं० सुस्सूणाविणएय अणच्चासादणा विणएय। किसे कहते हैं ? आभ्यंतर तप के छ भेद कहे हैं. १ प्रायच्छित्त २ विनय ३ वैय्यावृत्य ४ स्वाध्याय ५ ध्यान और ६ कायोत्सर्ग ॥८॥ प्रायच्छित्न तप किसे कहते हैं ! प्रायच्छित्त के दश भेद कहे हैं आलोचना यावत् पारंचिक. यह प्रायच्छित्त हुवा ॥९॥ विनय तप किसे कहते हैं? विनय के सात भेद कहे। १ज्ञान विनय २ दर्शन विनय ३ चारित्र विनय ४ मन बिनय ५ वचन विनय ६ काया विनय और 984 लोकोपचार विनय. ज्ञान विनय किसे कहते हैं ? ज्ञान विनय के पांच मेद कहे हैं ? आभिनिवोधिक के ज्ञान विनय यावत् केवलज्ञान विनय. यह ज्ञान निनयहवा. दर्शन विनय किसे कहते हैं ? दर्शन विनय के दो । 8+ पीसवा शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ Page #2906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८८८ - अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी got से किंतं सुस्सुसणा विणए ? सुस्मुणाविणए अणेगविहे ५० तं० सक्कारेतिवा सम्मा... णेतिवा जहा चउद्दसमसए तइयउद्देसए जाव पडिसंसाहरणया ॥ सेत्तं सुस्सूसणावि जए ॥ से किंतं अणच्चासाहणाविणए ? अणञ्चासाहणाविणए एणयालीसविहे पण्णत्ते, तंजहा-अरहंताणं अणच्चासादणया. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासादणया, आयरियाणं अणच्चासादणया, उवज्झायाणं अणच्चासादणया, थेराणं अणञ्चासादणया, कुलस्स. अणच्चासादणया, गणस्स अणच्चासादणया, संघस्स अणभेद कहे हैं. शुश्रूपा विनय और अनाशातना विनय.शुश्रूषा विनय किसे कहते हैं ? शुशूपाविन्य के अनेक भेद कहे सन्मान देथे. वगैरह जैसे चौदहवे शतक के तीसरे उद्देशे में कहे वो कहना. यावत जाते हुवे को पहुंचावे यह मुश्रूषा विनय कहा. अनाशातना विनय किसे कहते हैं? अाशातना विनय के ४२ भद का हैं. १ अरिहंत की आशातना, करनी नहीं२अरिहंत प्ररूपित धर्म की आसातना करनी नहीं, आचार्य की आसातना करनी नहीं,उपाध्याय की,स्थविर,कुल,गण,संघ,क्रियावंत और करनेवाले की सभाग (मामिल आहारपानी) आसातना करनी नहीं वैसे ही आभिनिवोधिक ज्ञान यावत् केवल ज्ञान इन पांच ही ज्ञान की आतातना करनी नहीं, उक्त पसरह को बहुमान सन्मान देना यह ३० और उन पभरह के गुणानुवाद करना. यों४५बोल हुवे. यह अना पाशक-राजाबहादुर लाला मुखदरमहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 48 ८८० सूत्र Aindian श्वासादणया, किरियाए अणञ्चासादणया, संभोग अणच्चासादणया, आभिणिवोहियणाणस्स अणञ्चासादणया, जाव केवलणाणस्स अणचासादणया; एएसिं चेव भत्ति बहुमारणं , एएसिं चेव वण्णसंजलणता ॥ सेत्तं अणच्चासादणयाविणए ॥ सेत्तं दसणविणए ॥ से किंतं चरित्तविणए ? चरित्तविणए पंचविहे पण्गत्ते तंजहा सामा. इयचरिचविणए जाव अहक्खाय चरितविणए ॥ सेत्तं चरित्तविणए ॥ से किंतं मणविणए ? मगविणए दुविहे प० तं० पसत्थमणविणएय अपसत्थमगविणएय ॥ से किंतं पसत्यमणविणए ? पसत्थमगविणए सत्तविहे १० तंजहा अपावए, असावजे, भावार्थ शातना विनय हुवा. दर्शन विनय के ये भेद हुये. चारित्र विनय के कितने भद कहे हैं ! चारित्र विनय के पांच भेद कई हैं. सामायिक चारित्र यावत् यथाख्यात चारित्र विनय यह चारित्र का विनय. मन विनय किसे कहते हैं. मन विनय के दो भेद कह हैं. प्रशस्त मन विनय, और अप्रशस्त मन विनय, प्रशस्त मन विनय किसे कहते हैं? प्रशस्त मन विनय के सात भेद कहे हैं. १ आपापकारी २ असावद्यकारी ३ अक्रिय, म अनगश्रा करनेवाला. ६ छेदन भदन के विचार रहित और ७किसी भी प्राणिको भयो । 15 उपद्रा रहित यह प्रशस्त मन विनय. अप्रशस्त मन विनय के कितने भेद कहे हैं ? अप्रशस्त मन विनय । पच्चीस शतक का सातवा उद्देशा 987 Page #2908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकिरिए,णिरुवक्कमे, अणण्हयकरें, अच्छविकरे, अभूयाभिसंकणे; सेत्तंपसत्थमणविणए । से किंतं अप्पसत्यमणविणए? अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे प०तं. पावए सावजेसकिरिए सउवक्कोसे,अण्णयकरे, छविकरे, भूताभिसंकणे, सेत्तं अल्पसत्थमणविणए, सेत्तं मण. विणए।से किंतं वइविणए?वइविणए दुविहे पण्णत्त तंजहा पसत्थवइविणए. अप्पसत्यवह विणएय॥ से किंतं पसत्थवइविणए ? पसत्थवइ विणए सत्तविहे ५०० अपावए जाव अभूताभिसंकणे,सेतं पसत्थवइविणए।से किंतं अप्पसत्यवइविणए ? अप्पमत्थवइ विणए सत्तविहे ५० तंजहा गावए सावजे जाव भूताभिसंकणे, सेत्तं अप्पसत्थवइविणए ॥ सेत्तं के मात भेद कहे हैं ? पापकारी, सावद्य, उपक्रम सहित आश्रव करनेवाला, छेद करनेवाला, भूत को दुःख करनेवाला, यह अप्रशस्त मन विनय कहा. यह मन विनय हुवा. वचन विक्रय किसे कहते हैं ? वचन विनय के दो भेद कहे हैं. प्रशस्त वचन विनय और अप्रशस्त वचन विनय. प्रशस्त वचन विनय किसे कहते हैं ? प्रशस्त वचन विनय के सात भेद कहे हैं. अपापकारी यावत् भूतों को त्रास नहीं करनेवाला यह स्त वचन विनय हुवा. अप्रशस्त वचन विनय किसे कहते हैं ? अप्रशस्त वचन विनय के सात 16कहे हैं ? पापकारी यावत् भूतों को दःख करनेवाला, यह अपदस्त वचन विनय. यह वचन विनय हुवा.. १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8+ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी * Page #2909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वइविणए ॥ से किंतं कायविणए ! कायविणए दुविहे प० तंजहा-पसत्थकायविणएय, अप्पसत्थकायविणएय॥ से किंतं पसत्थ काय विणए ? पसत्थकायविणए सत्तविहे ५० तंजहा-आउत्तंगमणं, आउत्तंट्ठाणं, आउत्तणिसीयणं, आउत्तं तुयदृणं, आउत्तंउल्लंघणं, आउत्तंपल्लंघण,आउत्तं सबिदिय जोगजंजणया,सेत्तं पसत्थकायविणए।से किंतं अप्पसत्थ कायविणए ? अप्पसत्यकायविणए सत्तविहे प० तंजहा-अणाउत्तंगमणं जाव अणाउत्तं सबिंदिय जोगजुंजणया ॥ सेतं अप्पसत्य कायविणए । सेत्तं कायविणए ॥ काया विनय किसे कहते हैं ? काया विनय के दो भेद कहे हैं ? प्रशस्त काया विनय और अप्रशस्त काया विनय. प्रशस्त काया विनय किस कहते हैं? प्रशस्त काया विनय के सात भेद. उपयोग सहित जावे, उपयोग सहित खडारहे, उपयोग सहित वैठे, उपयोग सहित शयन करे, उपयोग सहित उल्लंघन करना, उपयोग सहित पीछा उल्लंघ, और उपयोग सहित सब काया योगों को प्रयुंने. यह प्रशस्त काया विनय हुवा. अप्रशस्त काया विनय किसे कहते है ? अप्रशस्त काया विनय के सात भेद कहे हैं... उपयोग विना जाना.यावत् उपयोग विना सब इन्द्रियों के योगों को प्रयुंजना. यह अप्रशस्त काया विनय हुवा. यह काया विनय हुवा. लोकोपचार विनय किसे कहते हैं ? लोकोपचार विनय के सात भेद कहे हैं. १ 488 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488 पच्चीसवा शतक का सातवा होता वार्थ Page #2910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किंतं लोगोवयाराविणए ? लोगोवयारविणए सत्तविहे १० तं• अब्भासवत्तियं, परछंदाणुवत्तियं, कजहेऊ कयपडिकइया, अतगवेसणया, देसकालणया, सव्वत्थेसु अप्पडिलोमता ; सेत्तं लोगोवयाराविणए, सेत्तं विणए ॥ १० ॥ से किंतं वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविहे प० तं. आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, थरवेयावच्चे, तवस्सिवेयावच्चे. गिलाण वेयावच्चे, सेहवयावच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, साहम्मिय वेयावच्चे, सेत्तं वेयवच्चे ॥ ११ ॥ से किंतं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे प० तं• वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा धम्मकहा ॥ सत्तं सज्झाए भावाथे गरु की समीप रहने का स्वभाव रखना, सो अभ्यासवर्ती २ गुरु के अभिप्राय से चलना ३ ज्ञानादि निमित्त दानादि देना ४ आत्मग वेषणता ५ देश काल का जानना ६ अराध्य संबंधी प्रयाजन में अनुकूल पा. यह लोकोपचार विनय हुवा ॥ १० ॥ वैय्यावृत्य किसे कहते हैं ? वैय्य वृत्य के दश भद कहे हैं.. १ आचार्य वैय्यावृत्य, २ उपाध्याय वैय्यावृत्य, ३ स्थविर वैय्यावृत्य ४ तपस्वी वैय्यावृत्य ५ ग्लान वैय्यावृत्य ६ नवदीक्षित वैय्यवृत्य ७ कुल वैय्यावृत्य ८ गण वैय्यावृत्य ९ संघवैय्यावृत्य और १० स-1 धर्मी बैय्यावृत्य, यह वैय्यावृत्य तप हुवा.॥१.१॥स्वाध्याय तप किसे कहते हैं? स्वाध्याय के पांच भेद कहे हैं। ११. वाचना २ प्रतिपृच्छा ३ पर्यष्टणा ४ अनुप्रेक्षा और ५ धर्म कथा, यह स्वाध्याय तप हुवा ॥१२॥ ध्यान 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजे * Page #2911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 पंचमान विवाह पणारी (भगवती ) सूत्र +2 ॥१२॥से कितंझा? झाणे चउन्धिहे पण्णते तंजहा अढेसाणे,रोहेमाणे कामेजमणे,सु. केझाणे,अज्झाणे चउविहे.प.तंजहा अमणुण्ण संपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग सतिसमण्णागएयावि भवति;मणुण्णसंपओगसंपउरो तस्स अविप्पओगसतिगमण्णागएविभवति,आयक संपओग संपउत्ते तस्स विपओगसतिसमण्णागएयाविभवइ, परिज्जुसियका. मभागसंपउत्ते तस्स अविप्पओग सतिसमण्णागएयाबि भवई ॥ अदृझाणस्स चत्तारि ल. क्षणाप-तं. कंदणया, सोयणया, तिप्पणया, परिदेवणया ॥ रोहेज्झाणे चउन्धिहे प.तं. हिंसापबंधी, मोसाणुबंधी, तेयाणुबंधी, सारक्खणाणुबंधी ।। रोहस्सणं झाणरस चचारि किसे कहते हैं ? ध्यान के चार भेद कहे हैं. १ आर्तध्यान २ रौद्र ध्यान ३ धर्म ध्यान और ४ शुक्ल ध्यान. आर्तध्यान के चार भेद कहे १ अमनोई शब्दादि प्राप्त हुवे हो उस का वियोग चितये २ मनोज्ञ शरद पाप्त हुवे क्षेत्रे उस का अवियोग वांच्छे ३ रोगादि की प्राप्ति होने से उसका वियोग बांच्छे और ४ श्रीतिकारक काम भोगों का संयोग वांच्छे. आर्तध्यान के चार लक्षण करे. .. अक्रंदा करना २ शोक करना ३ रुदन करना और ४ वारंवार सक्लिष्ट बचन बोलना. रौद्रध्यान के चार मेद | क. १हिता का अनुबंध करे २ मृषा का अनुबंध करे, ३ चौरी का अनुबंध करे और ४ विषय संरक्षण भावार्थ वीसपा शतक का सातवा उहंशा +8+. 488 Page #2912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९४ लक्खणा प० तं. उस्सण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे, आमरणांतदोसे ॥ धम्मज्झाणे , चउबिहे चउप्पडोयारे ५० तं. आणाविजए, अवायाविजए, विवागविजए, संड्राणविजए ॥ धम्मस्सणंज्झाणस्स चत्तारि लक्खणा प०० आणारूई, णिसग्गरुई सुत्तरुई, ओगाढरई ॥ धम्मसणं ज्झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तंजहा-वायणा पडिपुच्छणा, परियट्टणा, धम्मकहा ॥ धम्मस्सणं ज्झाणस्स चत्तारि अणुप्पहाओ पण्णत्ताओ तंजहा एगत्ताणुप्पेहा,अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पहा, संसाराणुप्पेह।।सुक्केझाणे । का उपाय चितवे. रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे हैं. १ हिमादि दोष लगावे २ उक्त दोषों में प्रवृत्ति करे १३ कुशास्त्र का अभ्यास करे और ४ आमरणांत तक हिंसादि दोषों का त्याग नहीं करे. धर्म ध्यान के चार भावार्थ भेद और चारों में चार २ प्रति भेद कहे. १ आज्ञा विचय-वीतराग की आज्ञा का चितवन करे २ अ पाय विचय-राग द्वेष से होते हुये दुःख का चितवन करे ३ कर्म विचय कर्मों के दुःख का चितवनकरे और ४ संस्थान विचय लोक के संस्थान का चितवनकर, धर्म ध्यान के चार लक्षण कहे. १ आज्ञा रुचिजिनाज्ञा आराधेने की रुचीवाला,रनिसर्ग रुचिस्वाभावेतत्व जानेकीरुची होवे,३ मूत्ररुची शास्त्रपढने सुनने की रुचीहोचे १२ अवगाढ रुचि सो द्वादशांग का ज्ञान विस्तार पूर्वकधारने की रुचि होवे.धर्मध्यान के चार अवलम्बन कहे। 1 ११ वाचना २ प्रतिपूच्छना ३ पर्यटणा-फेरना और ४धर्मकथा. कहना! धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा.१एकत्व अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी * Mirmannnn Page #2913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4 पंचमांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) सूत्र च चउडोयारे प० तं पुहुत्तवितक्के सत्रियारे, एगत्तवितके अवयारे, सुहुमकिरिए अणिय, समुच्छिन्न किरिए अप्पडिवात ॥ सुक्करसणंञ्झणस्स चत्तारि लक्खणा पण तंजा खंती, मुशी, अज्जवे, मद्दवे ॥ सुक्करसणं ज्झाणस्स वत्तरि आलंबणा पण्णत्ता, तंजहा अव्हे, असमोह, विवेगे, विउसग्गे ॥ सुक्कसणं ज्झाणस्स चारि अणुहाओ, पण्णत्ता ओतंजहा-अगतवत्तियाणुप्पेहा, विष्परिणामाणुप्पेहा, अमुभाणुप्पेहा, आवायाणुपेहा ॥ तंज्झाणे ॥ १३ ॥ से किंतं विउसग्गे ? विउसग्गे दुविहे प० {नुप्रेक्षा अत्मा अकेली है ऐसा चितवे २ अनित्यानुप्रेक्षा. सब अनित्य है ऐसा चितवे ३ असशरणाणुप्रेक्षा संसार {में कोई भी किस को शरणभूत नहीं है और ४ संसारानुप्रेक्षा चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण किया, अब निर्वृतूं ऐसा चितवे. शुक्लध्यान के चार भेद और एक २ में चार२ प्रति भेद कहे हैं. १ पृथक्त्व वितर्क सविचार२ एकत्वविवितर्क अविचार ३ सूक्ष्मक्रिया अनिय४ समुच्छिन्न क्रिया अप्रति पाति. शुक्ल ध्यान के चार लक्षण. १ क्षांति १२ मुक्ति ३ ऋजुता और ४ मृदुता शुक्ल ध्यान के चार अवलम्बन. १. अव्यय २ असमोह ३ विवेक और ४ विउत्सर्ग. शुक्ल ध्यान के चार अनुप्रेक्षा. अनंतवर्तिकानुप्रेक्षा २ विपरीतानुमेक्षा ३ अशुभानुप्रेक्षा और आयानुप्रेक्षा. यह ध्यान तप कहा || १२ || विसर्ग कायोत्सर्ग कि से कहते हैं. विउत्सर्ग << पच्चीसवा शतक का सातवा उद्देशा .२८९५ Page #2914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तंजहा दवविउसग्गेय, भावविउसग्गे ॥ से कितं दव्यविउसग्ग ? दुखविउसगे चाउम्विहे प• तंजहा गणविउस्सग्गे, सरीर विउसग्गे, उवहिविउसग्गे, मरापणवि. उमग्गे, सेतं दबचिउसग्गे ॥से किंतं भावविउसग्गे ? भावविउसग्गे तिविहे पपणते तंजहा कसाय विउसग्गे, ससारबिउसगे, कम्मबिउसागे ॥ से किंतं कसाय विउसो ? कसाय विउसग्गे चउबिहे १० तंजहा कोहविउसग्गे, माणविउसग्गे, मायाविउसगे, लोभविउसग्गे । सेतं कसाय विउमागे ॥ से किंसं संसार विउसग्गे संसार बिउसग्गे चउबिहे पण्णन्ते तंजहा-णेरड्य संसार विउसग्गे, जाव देव संसार भावार्थ E के दो भेद कहे . . द्रव्य विउत्सर्ग और २ भाव चिनमर्ग द्रव्य विउत्सर्ग के कितने भेद को है ! ट्रम्प विउत्सर्ग चार भेद को हैं. गणविउत्सर्ग, शरीर विउत्सर्ग, उपधि विसर्ग और मक्तपान विउत्सर्ग. यह दव्य विउत्सर्ग हुवा. भाव मिउत्सर्ग किसे कहते हैं ? भाव विउत्सर्ग के तीन भेद कहे हैं. १ कपा विउत्सर्ग २ संसार विउत्सर्ग और ३ कर्म विउत्सर्ग कषाय विउत्सर्ग किसे कहते हैं ? कषाय विउत्सर्ग लके चार भेद कहे हैं. क्रोध विउत्सर्ग, मानवित्सर्ग, विउत्सर्ग, माया विउत्सर्ग व लोभ विउत्सर्ग यह कपाय विउत्सर्म हुवा. संसार विसत्सर्भ के कितने भेद का हैं ? संसार विउत्सर्ग के चार मेद कहे हैं । मारकी १ अनुवादकबालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिनीक काकाचक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालान Page #2915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पंचमा बबाहमणति (अगति) सत्र बिउसग्गे, सेत्तं संसार विउसगे ॥ से कितं कम्मविउसगे ? कम्मविउसग्गे अढविहे ५० तंजहा-णाणवरणिजकम्म विठसग्गे जाव अंतरायकम्म विउसग्गे, सेत्तं कम्म विउसग्गे ॥ सेत्तं भाव विउसग्गे ॥ सेत्तं अभितरएतवे ॥ सेवं. भंते ! भंतेत्ति ॥. पणवीसइमस्सयस्स सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ ७॥ . रायगिहे जाव. एवं वयासी-णेरइयाणं भंते ! कह उववजंति ? गोयमा ! से जहा. नामए पवए, पवयमाणे अज्झवसाणणिन्वत्तिएणं करणांवाएणं भेयकाले तंट्ठाणं संसार विउस्मर्ग यावत् देव संसार विउत्सर्ग यह संसार विउत्सर्ग हुवा. कर्म विउत्सर्ग किसे कहते हैं ! कर्मी जिल्लन के आठ भेद कहे हैं । अनावरणीय कर्म विउत्सर्ग यावर अंतस्य कर्म विउत्सर्ग यह कर्म घिउर्ग: छुपा. यों भाव विउतार्ग बुद्धा. इस तरह अभ्यासर तप के भेद संपूर्ण हुवे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह पच्चीसवा तक को माता उद्देशा मंपूर्ण हुवा. ॥ २५ ॥ ७॥ . है मातवे उहशे में संयति का कथन काहा. आठवे उद्देश में संसारी जीवों की उत्पति का कथन कहते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री मौतम सामी पुछने लगे कि अहो मगन् ! के नारकी कैसे उत्पन्न होते हैं. १: अहो गौतम जैसे प्लवक .' पचीसवा शतकका आठवा उद्देशा 4 भावार्थ Page #2916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAmainrnnnnn 42 अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + विप्पजहिता पुरिमंट्ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति, एवामेव तेवि जीवा पवओविवमाणा अज्झवसाणाणिव्यात्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं भावं विप्पजहित्ता पुरिमभव उव. संपजित्ताणं विहरंति ॥ १ ॥ ते सिणं भंते ! जीवाणं कहं सिहागति कहं सिहेगती विसए पण्णते ? गोयमा ! से जहा णामए केइपुरिसे तरुणे बलवं एवं जहा चउद्दसमस र पढमुद्देसए जाव तिसमएणं वा विग्गहेणं उववजंति ॥ ते सिणं जीवाणं तहा सिहागई तहा सीहेगति विसए पण्णत्ते ॥ २ ॥ तेणं भंते ! जीवा कहं परभ(कुदता हुवा जाने वाला ) उत्पलुति करता हुवा तथाविध अध्यवसाय वाली क्रियाओं के उपाय से जिस स्थान में रहा हुवा है उस स्थान को छोडकर आगामिक काल में पूर्व के स्थान को प्राप्त होता हुवा विचरे, वैसे ही नारकी के जीव भी प्लपक की तरह उस्प्लुति करता हुवा स्थातांतर प्राप्ति के हेतु भूत कर्म में उत्प्लुति रूप उपाय से आगामिक काल में मनुष्य भव छोडकर नरक भव अंगीकार करते हुवे विचरते है ? ॥१॥ अहो भगवन्! उनकी कैसी शीघ्रगति व कैसा शीघूगति को विषय कहा है ?अहो गौतम! जैसे चौदह में शतक के बारवे उद्देशे में कहा वैसे कोइ बलवान तरुण पुरुष यावत् तीन समय में विग्रहगति से उत्पन्न होवे उन जीवों की ऐसी शीघ्रगति व शीघ्रगतिका विषय कहा है ॥२॥ अहो भगवन् ! वे जीवों परमत्र कि *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी* भावार्थ Page #2917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 वियाउयं पकरेंति ? गोयमा ! अज्झवसाणणिव्वत्तिएणं करणोवाएणं, एंव खल ते जीश परभवियाउयं पकरेंति ॥३॥ ते सिसं भंते ! जीया कहंगती पवत्तइ? गोयमा ! आउक्खएणं भवक्खएणं टिईक्खएणं एवं खलु तेसिणं जीवाणं गतिपवत्तइ ॥ ४ ॥ तेणं भंते ? जीवा आइडीए उववज्जति ? गोयमा ! आइटीए उववजंति णो परिड्डीए उववज्जति ॥ ५ ॥ तेणं भंते ! जीवा किं. आयकम्मुणा उववनंति परकम्मुणा उववजति ? गोयमा ! आयकम्मुणा उववजति, णो. परकम्मुणा उववति ॥ ६॥ तेणं भंते ! जीवा किं आयप्पओगेणं उववजंति परप्पओगेणं उववजति ? गोयमा ! आयुष्य कैसे करे ? अहो गौतम ! जीव परिणाम व मन वचन काय के योग इन दोनों मे बना हुवा वैसे ही 13 मिथ्यात्वादिक कर्म बंध हेतु वाला करणोपाय इन से ही जीव परभव का आयुष्य करते हैं. ॥ ३ ॥ अहो , भगवन् ! ये जीवों कैसे गति करे ? अहो गौतम : आयुष्य, भव व स्थिति क्षय से वे जीवों गति करे ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों आत्म ऋद्धि से उत्पन्न हो या परऋद्धि से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! ! आत्मद्धि से उत्पन्न होवे परंतु परऋद्धि से उत्पन्न नहीं होबे. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों क्या आत्म कर्म से उत्पन्न होते हैं या अन्य के कर्म से उत्पन्न होते है ? अहो गौतम ! आत्म कर्म उत्पन्न होते हैं परंतु अन्य के कर्म से नहीं उत्पन्न होते हैं. ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! वे जीवों क्या आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते । 8. पचीसत्रा शतक का सातवा उद्देशा भावार्थ 988 428 Page #2918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अयप्पओगेणं उववजति, णो परप्पओगेणं उववज्जति ॥ ७ ॥ असुरकुमाराणं भंते ! कहं उववजति ? जहा णेरइया तहेव गिरवसेसं जाव णो परप्पओगंणं. उववजंति, एवं एगिदियवजा जाव वेमाणिया. एगिदिया, एवं चेत्र णवरं चउंसमइओविग्गहो सेवं तंचेव ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ जाव विहरइ ॥ पणवीसइमसयस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५॥ ८॥ . भवासिद्धिय गेरइयाणं भंते ! कह उवजंति ? गोयमा ! से जहा. णामए पवए पत्रमाणे या परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं परंतु परप्रयोग से नहीं उत्पन्न होते हैं. ॥ ७॥ अहो भगवन् ! असुरकुपार कैसे उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे नारकी का कहा से ही परमयोग से नहीं उत्पन्न होते हैं वहां तक विशेषता रहित कहना ऐसे ही एकेन्द्रिय छोडकर वैमानिक पर्यंत कहमा. एकेन्द्रिय का वैसे ही कहना परंतु विग्रहगति में चार समय कहना शेष वैसे ही अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों कह कर भगवान गौतम विचरने लगे यह पच्चीसवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २५ ॥८॥ | अहो भगवन् ! भवतिदिक नारकी कैसे उत्पन्न होये ! अहो मौतम ! जैसे आठवे. उद्देशे में कहा runainamainamainaamaka .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी. 42 अनुवादक-नाल Page #2919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चांग विवाहपण्णचि (भगवती) मत्र 48 अवसेसं तंचव जाव वेमाणिए ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ पणवीसहम सयस्स गबमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २५ ॥ ९ ॥ अभवमिडिय णेरइयाणं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवएमाणे अवसेसं तंचव एवं जाव वेमाणिया ॥ सेवं भंते ! २ ति ॥ पणवीसहम सयस्स दसमो उद्देशो सम्मत्तो ॥ २५ १० ॥ सम्मदिट्ठी जेरइयाणं भंते कह उववज्जति ? गोयमा! से जहा णामए पवए पवमाणे अवसेसं तंत्र, एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिए ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ पणवीसइम वैसे ही यहां सब कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सस हैं. यह पच्चीसवा शतक का नववा उद्देशा मंपूर्ण हुवा ॥ २५ ॥ ९ ॥ __अहो भगवन् ! अभवसिद्धिक नारकी कैसे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जैसे आठवे शतक में कहा है वैसे ही यहां वैमानिक पर्यन कहना. अहो भगवन् ! आपक वचन सत्य हैं. यह पञ्चीसवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २५ ॥१०॥ अहो भगवन ! समदृष्टि नारकी कैसे उत्पन्न होने ? अहां गौतम! आठवे शतक से म ना परंतु विशेषता यह कि इस में एकेन्द्रिय के पांच दंडक कहना नहीं क्यों कि वहां ममदृष्टि नहीं है. अहो पचीसवा शतक का ९-१०.११. उद्देशे 4gh .. | Page #2920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०२ - अनुवादक-धालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपि सयस्स एकदाशम ॥ २५ ॥ ११ ॥ मिच्छदिट्री णेरइयाणं भंते कहं उक्वजंति ? गोयमा ! से जहा णामए पत्रए पव... माणे अवसेसं तंचेव, एवं जाव वेमाणिए ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ जाव विहरइ ॥ पणवीसइमस्स दुवालस्समो ॥ २५ ॥ १२ ॥ पणवीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ २५ ॥ भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पच्चीसवा शतक का अग्यारहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥२५॥ ११॥ - अहो भगवन् ! मिथ्यादृष्टि नारकी कैसे उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! आठवे उद्देशे में जैसा कहा वैसे ही वैमानिक पर्यंत विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर भगवान गौतम विचरने लगे. यह पच्चीसवा शतक का बारहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २५ ॥ १२ ॥ यह पच्चीसवा शतक समाप्त हुवा ।। २५ ॥ .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* and Page #2921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र * षडविंशतितम् शतकम् णाण, अण्णाण, • णमो सुअदेवयाए भगवईए ॥ जीवाय, लेस्स, पक्खिय, दिट्ठी, सण्णाओ वेय, कसाय, जोग, उवओगे; एक्कारसविट्ठाणे ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समणं यरि जावं एवं वयासी-जीवेणं 'भंते! पावकम्मं किं बंधीबंधइ बंधीस्सइ बंधी बंध बंधिस्सइ २, बंधी णबंधइ, बंधिस्सइ ३ बंधीण बंधइ णबंधिस्सइ ? गोयमा ! भगवती श्रुत देवता को नमस्कार होवो. चनीस शतक के अंत में नरकादि जीवोंकी उत्पत्ति कही. { जीवों कर्मबन्धवाले होते हैं इस लिये इस शतक में कर्म बन्ध का विचार करते हैं. ( उद्देशे कहे हैं. १ समुच्चय जीव का २ लेश्या का ३ पाक्षिक ४ दृष्टि ५ ज्ञान ६ अज्ञान १९ कषाय १० योग और ११ उपयोग. उस काल उस समय में राजगृही नामक नगरी के गुणशील श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को भगवान् गौतम स्वामी ऐसा बोले अहो भगवन् ! अतीत उद्यान { काल में जीवोंने पामकर्म का क्या बंध कीया, वर्तमान में क्या बंध करते हैं, या आगामि काल में क्या (बंध करेगा अथवा बंध किया, बंध करता है या बंध नहीं करेगा, बंध कीया, बंध नहीं करता है या बंध | करेगा अथवा बंध कीया बंध नहीं करता है व बंध नहीं करेगा ! अहो गौतम ! कितनेक जीवोंने पापकर्म इस में अग्यारह ७ संज्ञा ८ वेद + छन्नीसना शतक का पहिला उद्देशा 488+ २९०३ Page #2922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुदकबालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी - अस्थेमइस जी बंधी बंधइ, पंधिस्सइ । अस्थगइए जीवे बंधी बंधइ णबंधिस्सइ २,. अत्यंगइए जीवे बंधी णबंधइ बंधिस्सइ ३, अत्यंगइए जीवे बंधी णबंधइ णबंधिस्सइ ॥ १ ॥ सलेस्सेणं भंते ! जीवे पावकम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ, बंधी बंधइ णबंधिस्सइ, पुच्छा ? गोयमा ! अत्यंगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए एवं चउ• भंगो ॥ कण्हलेरसेणं भंते! जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा?गोयमा! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ णबंधिस्सइ ॥ एवं जाव पम्हलेस्से ॥ सत्वत्थ का बंध कीया, करते हैं व करेंगे, कितनेक जीोंने बंध कीया, बंध करते हैं व बंध नही करेंगे, किसनेक | जीवोंने पंथ कीया बंध नहीं करते हैं व बंध करेंगे और कितनेक जीवोंने बंध कीया बंध नहीं करते हैं बंध नहीं करेंगे ॥१॥ अहो भगवन् ! मलेशीने क्या पापकर्म का बंध कीया, करते हैं. या करेंगे.. अथवा बंध कीया, बंध करते हैं व नहीं बंध करेंगे वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! कितनेकने पापकर्म का बंध कीया, करते हैं व करेंगे कितनेकने पापकर्म का बंध कीया यों चौभंगी जानना. अहो मगवन् ! कृष्ण लेझीने क्या पापकर्म का बंध कीया पृच्छा, अहो गौतम ! कितनेकने बंध कीया, पंप करने हैं व व करेंगे. कितनेकने बंध कीया, बंध करते हैं कबंध नहीं करेंमे ऐसे ही पालख्यातक पहिला कदूमरा .प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी माहापसादनी. Page #2923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमवितियाभंगा ॥ सुक्कलेस्से जहा सेलेस्से, तहेव चउभंगो ॥ अलेस्सेणं भंते! जीवे ।। पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! बंधी णबंधइ णबंधिस्सइ ॥ २ ॥ कण्हपक्खिएणं भंते ! जीवे पावं कम्मं पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी पढमवितिया भंगा ॥ सुक्कपक्खिएणं भंते ! जीवे पुच्छा ? गोयमा ! चउभंगो भाणियव्वो ॥३॥ सम्मट्ठिीणं चत्तारि भंगा, ॥मिच्छाद्दिट्ठीणं पढमवितिया॥ सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवंचेव ॥४॥णाणी चत्तारि भंगा,अभिणिवोहिय णाणीणं जाव मणपज्जवणाणाणं चत्तारि भंगा॥ केवलणाणीणं,चरिमो भंगो जहाअलेस्सा ॥५॥अण्णाणीणं पढमवितिया, एवं मति अण्णा । भावार्थ भांगा जानना. शुक्ल लेशी का सलेशी जैसे चार भागे कहना. अलेशी की पृच्छा ? ो गौतम ! अलेशीने पापकर्य का बंधगतकाल में किया परंतु वर्तमान में नहीं करते हैं. व आगामिक काल में नहीं करेंगे।।२॥ कृष्ण पक्षीजीवों क्या पापकर्म का बंध कीया पृच्छा ? अहो गौतम ! कितनेकने बंध कीया यो पहिला दूसरा भांगा कहना. शुक्लपक्षी की पृच्छा! शुक्लपक्षी वाले जीवों में चारों भांगे पावे. ॥ ३ ॥ समदृष्टि में चार मांगे. मिथ्यादृष्टि व सममिथ्यादृष्टि में पहिला दूसरा दो भांगे कहना ॥ ४ ॥ ज्ञानी में चार भांगे, आभिनियो२७धिक शानी यावत् मनःपर्यव ज्ञानी में चार भांगे, केवल ज्ञानी में एक अन्तिम भांगा अर्थात् बंध किया, परंतु बंध नहीं करते हैं व. बंध नहीं करेंगे ॥ ५ ॥ सअज्ञानी में मति अज्ञानी श्रुत अज्ञानी व विभंग मानी । पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र +8+ 4880- छब्बीसवा शतक का पहिला उद्देशा 488+ Page #2924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २... 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 'णं सुअअण्णाणीणं, विभंगाणाणीवि ॥ ६ ॥ आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसणो । वउत्ताणं पढमवितियाणोसण्णो वउत्ताणं चत्तारि ॥ ७ ॥ सवेदगाणं पढमवितिया ॥.. एवं इत्थिवेदगा पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगाणवि; अवेदगाणं चत्तरि भंगा ॥ ८ ॥ १... सकसायीणं चत्तारि, कोह कसाईणं पढस वितिया भंगा ॥ एवं माणकसायस्सवि ॥ मायाकसायस्तवि ॥ लोभकसायस्स चत्तारि भंगा ॥ अकसाईणं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा! अत्थेगइए बंधी णबंधइ बंधिस्सइ ॥ अत्थे गइए बंधी णबधइ णबंयिस्सइ ॥ ९ ॥ सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्सवि, में पहिला दूसरा यों दो भांगे कहना ||६|| पाहार संज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त में पहिला दूसरा दो भांगे, नो मंज्ञोपयुक्त में चार भांगे॥७॥ सवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुष वेदी व वपुंसक वेदी में पहिला दूसरा यो दोभांगे अदीमें चारभांगे।८||सपायी में चार. क्रोध कषायी, मानकषायी व मायाकषायीमें पहिला दूसरा लोभ भांगा कषायी में चार भांग अकमायीकी पृच्छा हो गौतम! कितनेकने गतकालमें बंधकीया, वर्तमानमें से बंध नहीं करते हैं परंतु आगमिकमें बंध करेंगे और कितनेकने बंधकीया,बंध नहीं करते हैं व बंध नहीं करेंगे रयों तीसरा चौथाभांगा उपशम व क्षय के श्रेणि आश्री जानना॥२॥ सयोगी, मनयोगी, वचनयोगी व काया • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजे * भावार्थ Page #2925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 438+ वइजोगिस्सवि, कायजोगिरसवि ॥ अजोगीस्स चरिमो ॥१०॥ सागारोवउत्तै चत्तारी, अणगारोवउत्तेवि चत्तारि भंगा ॥ ११ ॥णेरइयाणं भंते ! पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधस्सई पुच्छा ? गोयमा ! अत्येगइए बंधी पढमवितिया ॥ सलेस्सेणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं एवं चेव ॥ एवं कण्हलेस्सेवि, गीललेस्सेवि, काउलेस्सेवि ॥ एवं कण्हपक्खिएवि ; सुक्कपक्खिएवि ॥ सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्ममिच्छादिट्ठी ॥ णाणी अभिणिवोहियणाणी सुअगाणी, ओहिणाणी, अण्णाणी, मइअण्णाणी सुअण्णाणी, विभंगणाणी ॥आहारसण्णोवउत्ते जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते ॥ सवेदए जाव योगी में चार भांगे, अयोगी में एक अन्तिम भांगा||१०॥ साकारोपयोग में व अनाकारोपयोग में चार भांगे॥११॥ अब चौबीस दंडक आश्री अग्यारहद्वार कहते हैं. अहो गवन् ! नारकीने क्या पापकर्म शंधे, वांधते हैं व बांधेगे पृच्छा ? अहो गौनय ! कितनेकने बांधे, बांधते हैं व वांधेगे, यों पहिला दुसरा भांगा जानना. सलेशी नारकीने क्या बंध कीया पृच्छा ? अहो गौतम ! पहिला व दूसरा ऐसे दो भांगे पाते हैं. ऐसे ही कृष्ण लेशी, नील लेशी व कापुत लेशी, कृष्ण पक्षिक, शुक्ल पक्षिक, समदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सममिध्यादृष्टि, ज्ञानी, आभिनिवोधिक ज्ञानी, श्रत ज्ञानी, अवधि ज्ञानी; मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंग ज्ञानी, सवेदी छब्बीसवा शतकका पहिला उद्देशा भावार्थ । 48 Aakhaininine यास्ता - Page #2926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA 924 १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + णपुंसगंवेदए ॥ सकसाइ जाव लो भकसाइ ॥ सजोगी मणजोगी वइजोगी कायजोगी ॥सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते ॥ एए सव्वेसु पदेसु पढमवितिया भंगा भाणि. यन्वा ॥ एवं असुरकुमारस्सवि वत्तव्यया णवरं तेउलेस्सा ॥ इस्थिवेदगा पुरिसवेदगा अब्भहिया; णपुंसगवेदगा णभण्णइ, सेसं तंचेव ॥ सव्वत्थ पढमवितिया भंगा ॥ एवं जाव थणियकुमारस्स ।। एवं पुढवीकाइयस्सवी, आउकाइयस्सवि जाव पाँचदिय तिरिक्खजोणियस्स सम्वत्थ पढमवितिया भंगा, णवरं जस्सजा-लेस्सा-दिट्ठी-गाणं अण्णाणं-वेदो-जोगो जस्सजं अत्थितं तस्स भाणियब्वं, सेसं तहेव ॥ मणूसस्स जच्चेव नपुंसक वेदी, सकपायी यावत् लोभ कषायी, सयोगी, मन योगी,वचन योगी व काया योगी; सारोपयोग-1 युक्त व अनाकारोपयोगयुक्त इन सब में पहिला व दूसरा ऐसे दो मांगे पाते हैं. ऐसे ही असुरकुमार की वक्तव्यता परंतु असुरकपार में तेजोलेश्या अधिक कहना. स्त्रीवेद व पुरुष वेद ऐसे ही दो वेद कहना. परंसु नपुंसक वेद नहीं कहना. सब में पहिला दुसरा दो गमा कहना. ऐसे ही स्तनित कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वीकाय अप्काय यावत् तिर्यच पंचेन्द्रिय तक सर्व स्थान पहिला दूसरा ऐसे दो भांगे कहना. परंतु विशेषता कि जहां जो लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद, योग होवे वहां उतने कहना. मनुष्य का ममुचय जीव जैसे -runnnnnn प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी। - भावार्थ Page #2927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 488 + पचमांग विवाह एणत्ति ( भगवती) मूत्र जीवपदे वत्तवया,सच्चैव णिरवसेसा भाणियन्वा ॥ वारणमंतररस जहा असुरकुमाररस ।। जोइसियस्स, वेमाणियस्स एवं चेव, णवरं लेस्साओ जाणियन्नाओ , सेसं तहेव भाणियन्वं ॥ १२ ॥ जीवेणं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ, एवं जहेव पावकम्मरस वत्तव्यया भणिया तहेव णाणावरणिज्जस्सवि वत्तव्वया भाणि. यन्वा, णवरं जीवपदे मणुस्सपदेय सकसायी जाव लोभकसायम्मिय पढमवितिया भंगा अवसेसं तंचेव जाव वेमाणिए ॥ एवं दरिसणावरणिजेणवि दंडगो भाणियन्यो णिरवसेसं ॥१३॥ जीवणं भंते ! वेदणिजं कम्मं किं बंधी पुच्छ।? गोयमा ! अत्थेगइए कहना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का असुरकुमार जैसे कहना परंतु जहां जितनी लेश्याओं होवे वहां उतनी लेश्याओं कहना. शेष सब वैसे ही कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जीवने क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बंध कीया वगैरह पृच्छा? अहो गौतम ! जैसे पापकर्म की वक्तव्यता कही वैसे ही ज्ञानावरणीय कर्म की वक्तव्यता कहना. परंतु जीव पद व मनुष्य पद सकपायी यावत् लोभ कषायी में पहिला व दसरा यो दो भांगे कहना. क्यों कि ज्ञानावरणीय कर्म बंधक वीतरागी नहीं होने हैं. शेष वैमानिक पर्यंत वैसे ही कहना. ऐसे ही दर्शनावरणीय का दंडक विशेषता रहित कहना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! जीवने वेदनीय छत्रीसंवा शतकका पहिला उद्देशा 48 भावार्थ - - । - .. Page #2928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी बंधी बंधइ बंधिस्तइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ णबंधिस्मइ, अत्थेगइए बंधी गबंधइ जबंधिस्सइ ॥ सलेसेवि एवं चव, ततियविहणा भंगा ॥ कण्हलेस जाव पम्हलेस्से पढमवितिया भंगा, सक्कलेस्ने ततिय विणा भंगा । अलेस्से चरिमो भंगो ॥ कण्णपविखए पढमवितिए ; सुक्कपक्खिया ततिथविहगा ॥ एवं सम्मदिद्विस्त मिच्छादिहिस्स सम्ममिच्छादिष्टिरस पढमवितिया ॥ णाणिस्स ततियविहुणा, आभिणिबोहियणाणी जाव मणपज्जवणाणी पढमवितिया; केवलणाणी ततियविहुणा ॥ एवं णोसण्णांब उत्ते कर्म का क्या बंध कीया, बंध करते हैं या बंध करेंगे वगैरह पृच्छा? अहो गौतम ! कितनेकने बंध कीया, कितनेक बंध करते हैं व कितनेक बंध करेंगे, अभव्यजीव आश्री.कितनेकने बंध कीया,कितनेक बंध करेत हैं. कितनेक बंध नहीं करेंगे.मध्य जीव आश्री.और कितनेकने बंध कीया,कितनेक बंध नहीं करते हैं व कितनेक वंध नहीं करेंगे. अयोगी आश्री. यहां पर पहिला दूसरा व चौथा ऐमे तीन भांगे पाते हैं. फक्त यहां तीसरा, भांगा नहीं पाता है, क्यों कि वेदनीय अपंधक हुए पीछे बंधक नहीं होता है. मलेशी व शुक्ल लेशी में तीसरा भाग छोडकर तीन मांगे. और कृष्णलेशी से यावत् पद्म लेश्यानक पहिला व दूसरा ऐसे दो भांगे. अलेशी में एक अन्तिम भांगा. कृष्ण पक्षी में पहिला दूसरा, शुक्ल पक्षी में तीसरा छोडकर तीन भांगे. ऐसे ही समदृष्टि में तीन भांगे, मिश्यादृष्टि व सममिथ्यादृष्टि में पहिला दूसरा भांगे, ज्ञानी में तीसरा छोडकर तीन मकाशक-राजाबडादुर लाला मुखदवसहाय ज्वाला प्रसादजी* Page #2929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २१११ पंचमा विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 48 अवेदए अकसायी. सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते, एएसु ततियविहुणा ॥ अजोगम्मिय चरिमो, सेसेसु पढमवितिया ॥णेरइयाणं भंते ! वेदणिज्ज कम्मं किं बंधी रंधइ बंधिस्सइ ? एवं णेरइयादीया जाव वेमाणियत्ति जस्स जं अस्थि सव्वत्थवि पढम वितिया, णवरं मणुसेसु जहा जीवे ॥ १४ ॥ जीवेणं भंते ! मोहणिजं कम्मं किं चंधी बंधइ बंधिस्सइ ? जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिजंपि णिरवसेसं जाव वेमाणिए ॥१५॥ जीवेणं भंते ! आउयकम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? गोयमा ! अत्थेगइए छब्बीसवा शतक का पहिला उद्देशा मांगे, आभिनिवोषिक ज्ञानी यावत् मनापर्यय ज्ञानी में पहिला दूसरा, भां। केवलज्ञानी में तीसरा छोडकर तीन भांगे. ऐसेही नो मज्ञोपयुक्त, अवेदी, अपायी, माकारांप योग व अनाकारोपयोग में तीसरा छोडकर | तीन मांगे जानना. अयोगी में एक अन्तिम भांगा कहन', और शेष में पहिला दूसरा भांगा कहना. अहो । भयवन् ! नारकीने क्या वेदनीय कर्म का बंध कीया, करते हैं या करेंगे वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम नारकी से वैमानिक पर्यंत सत्र में पहिला दूसरा भंगा कहना. परंतु मनुष्य का समुच्चय जीव जैरे जानना.* the१४॥ अहो भगवन् ! जीवने मोहनीय कर्म का क्या बंध कीया वगैरह जैसे पापकर्म का कहा वैसे ही 1%योहनीय कर्य का वैमानिक पर्यंत विशेषता रहित जानना ॥ १५ ॥ अहो भगवन् ! जीवने क्या आयुष्य' Page #2930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११२ बंधी चउभंगो ॥ सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा ॥ अलेस्से चरिमो भंगो ॥ कण्ह पक्खिएणं पुच्छा ? गोयमा ! अत्येइगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ; अत्थेगइए बंधी णबंधइ बंधिस्सइ, ॥ सक्कपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छाट्ठिी चत्तारि भंगा ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी पुच्छा ? गोयमा ! अत्यगइए बंधी णवंधइ बंधिस्सइ, अत्येगइए बंधी णबंधइ गबंधिरप्तइ ॥ णाणी जाव ओहिणाणी चत्तारि भंगा । मणपजवणाणी पुच्छा ? गोयमा! अत्थेगइए बंधई बंधई बंधिस्सइ; अत्थेगइए बंधी णबंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी णबंधइ णबंधिस्सइ ॥ केवलणाणी चरिभो भंगो॥ एवं एएणं कमेणं कर्म का बंधकीया, बंध करते हैं व बंध करेंगे? अहोगौतमवंत्र कीया वगैरह चार भांगेकहना. मलेशी यावत् शुक्ल लेशी में चारभांग, अलेशी में एक अन्तिम भांगा. कृष्ण पक्षिक की पृच्छा अहो गौतम! कितनेकने बंधकीपा बंध करते हैं व बंध करेंगे, और कितनेकने बंध कीया बंध नहीं करते हैं व बंध करेंगे. शुक्लपक्षी, समदृष्टि व मिथ्यादृष्टि में चार भांगे, सममिथ्यादृष्टि की पृच्छा ? कितनेकने बंधकीया, कितनेकाहीं बांधते हैं व कितनेक बांधेगे और कितनेकने बंध किया, बंध नहीं करते हैं व बंध नहीं करेंगे. सज्ञानी यारत् अवधिज्ञान। 12 में चार भागे, मनःपर्यव ज्ञानी की पृच्छा ? अहो गौतम ! कितनेकने बंध कीया, बंध करते हैं व बंध करेंगे। २.१ अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E भावार्थ । पंचांग विवाह पति ( मगवती ) सूत्र 40 णो सोवउत्ते, वितिय विहुणो जहेत्र मणपज्जवणाणे || अवेदए अकसाइय ततिय चउत्थो जहेब सम्मामिच्छत्ते ॥ अजोगिम्मि चारमो सेसेसु पदेसो चत्तारि भंगा, जाव अणगारोवउत्ते || रइयाणं भंते! आउयकम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए चत्तारि भंगा, एवं सव्वत्थवि, णेरइयाणं चत्तारि भंगा; णवरं कण्हलेस्सेसु, कहपक्खि पढमततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय चउत् ॥ असुरकुमारे एवं वरं कण्हलेस्से सुवि चचारि भंगा भाणियव्त्रा || सेसं जहा णेरइयाणं, एवं कितनेकने बंध कीया, बंध नहीं करते हैं व बंध करेंगे, कितनेकने बंध कीया, बंध नहीं करते हैं व बंध नहीं करेंगे. केवलज्ञानी में एक अन्तिम भांगा. ऐसेही नोसंज्ञोपयुक्त में दूसरा भांगा छोडकर तीनभांगे पति हैं. { अवेदी व अकषायी में मममिध्यादृष्टि जैसे तीसरा व चौथा और अयोगी में एक अन्तिम भांगा शेष सत्र पंद चार भांगे अनाकारोपयुक्त तक करना. अहो भगवन् ! नारकीने क्या आयुष्य कर्म का बंध कीया { वगैरह पृच्छा ? असे गौतम ! चार भांगे कहना. ऐसे ही नारकी में सर्वत्र चार भांगे कहना. परंतु कृष्ण लेशी व कृष्ण पक्षिक में पहिला तीसरा और सम्यकदृष्टी मिथ्यात्त्रदृष्टी में तीसरा चौथा असुर कुमार में ऐसेडी चू परंतु कृष्ण लेशी अमुरकुमार में चार भांगे ऐसे ही स्तनिक कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वी काय में सर्वत्र चार भांगे कहना. 4380 छत्रीसवा शतक का पहिला उद्देशा २९१३ Page #2932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव थणियकुमारो ॥ पुढवीकाइयाणं सव्वत्थवि च तारि भंगा, णवरं कण्हपक्खिय पढम तितिय भंगा ॥ तेउलेस्से पुच्छा ! गायमा ! बंधी णबंधइ बंधिस्सइ ॥ सेसेसु सव्वत्थ चत्तारि भंगा ॥ एवं आउकाइया, वणस्सइकाइयाणवि णिरव सेसं तेउवाइय वाउक्काइयाणं सव्वत्थवि पढमततिया भंगा ॥ वेइंदियतेइंदियचरिंदियाणपि सव्वत्थवि पढम ततिया भंगा, णवरं सम्मते, अभिणिवाहियणाणे सुयणाणे ततिओ भंगो; पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं कण्हपक्खिए पढम ततिया भंगा ॥ सम्मामिच्छत्ते ततिय चउत्थो भंगो; सम्मत्ते गाणे अभिणिवोहियणाणे सुअण्णाणे ओहिणाणे एएसु भावार्थ परंतु कृष्ण पक्षिक पृथ्वीकाया में पहिले दूसरा भांगा कहना. ते जो लेश्या की पृच्छा? अहो गौतम! बंध कीया,बंध नहीं करते हैं व बंध करेंगे शेष सब में चार भांगे ऐसे ही अपफाया व वनस्पति काया का जानना काया में सर्वत्र पहिला तीसरा भांगा. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय में सर्व स्थान पहिला तीसरा भांगा। परंतु सम्यक्त्वदृष्टी, आभिनिवाधिक ज्ञानी, व श्रुन ज्ञानी में तीसरा भांगा. तिर्यंच पंचेन्द्रिय के कृष्ण पक्षिक में पहिला तीसरा भांगा,मम्यमिथ्यातदृष्टी में तीसराचौथा भांगा,सम्यक्त्वदृष्टी ज्ञान में आभिनिवाधिक ज्ञान में 10 श्रुत झान में च अवधि ज्ञाय में इन पांच में दूसरा छोडकर तीन भांग; शेष में चार भांगे. मनुष्या का समुच्चय। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी .प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #2933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ । 428 पंचांग विवाह पष्णत्ति ( भगवती ) मूत्र पंचसु त्रितिय विहुणा भंगा, सेसेसु चत्तारि भंगा ॥ मणुस्साणं जहा जीवाणं, नवरं सम्म अभिणिबोहीयाणे सुयणाणे ओहियणाणे एएसु वितिय विहुणा भंगा, सेसं तंत्र ॥ वाणमंतर जोइसिय त्रेमाणिया जहा अमुरकुमारा ॥ णाम गोयं अंतराइयंच एयाणि जहा णाणावरणिजं ॥ सेवं भंते! भंतेत्तिं ॥ जाव विहरइ ॥ बंधी सयरस पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २६ ॥ १ ॥ अनंतराव ववष्णएणं भंते! रइए पावं कम्मं किं बंधी बंबइ बंधिस्सइ पुच्छा ? तहेव गोयमा ! अत्थेगइए बंधी पढम वितिया भंगा ॥ १ ॥ सलेस्सेणं भंते ! अनंतरोव .^ ० ० जीव जैसे कहना. परंतु सम्यक्त्वदृष्टी, आभिनिदोधिक ज्ञान, श्रुत ज्ञान व अवधि ज्ञान इन में दूसरा भांगा छोड़कर अन्य तीन भागे कहना. शेष सब वैसे ही जानना. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिकका असुरकुमार । जैसे कहना. नाम कर्म, गोत्र कर्म व अंतराय कर्म का ज्ञानावरणीय कर्म जैसे कहना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं, यों कहकर भगवन् गौतम स्वामी विचरनेलगे | यह छब्बीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २६ ॥ १ ॥ ० "अहाँ भगवन ! अनंतशेपपातिक नारकीने पापकर्म का क्या बंध किया, बंध करते हैं व बंध करेंगे: +8+ छब्बीसा शतक का दूसरा उद्देशा ० २९१६ Page #2934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmanmanman १११६ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - वणे णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! पढमवितिया भंगा, एवं खलु सम्वत्थ पढमवितिया भंगा णवरं सम्मामिच्छत्त। मणजोगो व इजोगोय ण पुग्छिजइ एवं जाव थणियकुमारा ॥ बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदियाणं,वइजोगोणं भण्णइ, पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणंवि सम्ममिच्छत्तं ॥ओहिणाण विभंगणाणं,मण जोगो,वइजोगो एयाणि पंच गभणंति।मणुस्साणं अलेस्सा सम्मामिच्छत्त मणपज्जवणाण केवलणाण विभंगणाण जोसण्णोधउत्ते अवेदग अकसायी, मणजोगी वइजोगी अजोगी, एयाणि एकारसप याणि ण भष्णति ॥ वाममंतर जोइसिय वैमाणिया जहा जेरइयाणं तहेव तिष्णि वनैरह पृच्छा? अहो मौतम ! किलनेकन बंथ कीया प्रथम दूसरा भांगा कहना. ओ भगवन् ! सलशी अनंतरोपनक नारकीने पापकर्म का बंध कीया? अहो गौतम ! प्रथम दूसरा भांगा कहना. ऐसे ही सर्वत्र पहिला दूमरा भांगा कहना. परंतु सम्यक् मिध्यात्त्र, मनयोगी व वचन योगी की पृच्छा न करे. ऐसे ही सनित कुमार पर्यंत कहना. इन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में वचन योग कहना नहीं. तिर्यच पंचेन्द्रिय को सम्यक् मिथ्यात. अवाधेि ज्ञान, विभंग ज्ञान, मनोग घ वचन योग कहना नहीं. मनुष्य में अलंशी, सममिध्यादृष्टि, मनःपर्यव ज्ञान, केवल ज्ञान, विभंग बान, नोसनोपयुक्त, अवेदक, अपापी, मनयोगी, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसाद धावा - Page #2935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णचि ( भगवति ) सूत्र भण्णंति, सव्वेसि जागि सेस्माणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम वितिया भंगा ॥ एगिदिया सव्वत्थ पढम वितिया जहा पावे ॥ एवं णाणारणिजेणवि दंडओ;एवं आउयवजेसु जाव अंतराइए दंडओ॥ अंणतरोववण्णएणं भंते! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा?गोयमा! बंधी णबंधइ बंधिस्सइ । सलेस्सेणं भंते ! अणुतरो वण्णए णेरइए आउयं कम्म किं बंधी एवं चेव ततिओ भंगो ॥ एवं जाव अणागारोवउत्ते सव्वत्थवि ततिओ भंगो ॥ एवं मणुस्सेवजं जाव वेमाणिया ॥ मणुस्साणं सव्वत्थ ततिओ चउत्थो भंगो णवरं कण्हपक्खिएमु ततिओभंगो सव्वेसिं णाणत्ताइं चेव ॥ सेवं भंते! भत्ते त्ति ॥ वचन योगी व अयोगी में अग्यारह कहना नहीं. वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना । जो शेष स्थान रहे हुवे हैं उनसर्व स्थानों में पहिला व दूसरा भांगा कहना. एकन्द्रिय में पापकर्म जैसे पहिला दूसरा भांगा कहना. ऐसेही ज्ञानावरणाय और आयुष्य वर्जकर अंतराय पर्यंत सक्कर्म का जानना. अनुत्तरोप । पातिक नारकीने क्या आयुष्य कर्म का बंध कीया ? अहो गौतम ! ऐसेही तीसरा मांगा कहना. ऐसेही अनाकारोपयुक्त सर्वत्र तीसरा भांगा कहना. ऐनेही मनुष्य वर्जकर यावत् वैमानिक पर्यंत कहना. मनुष्य सब स्वान वीसरा चौथा भांगा पाताहै, परंतु कृष्ण पक्षी मनुष्यमें तीसरा मांगाही कहना. अहो भगवन्! ।। । 428+ छब्बीसवा शतक का चारा उदेशे भावार्थ Page #2936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधिसयस्स वितिओ उद्देसो ॥ २६ ॥ २॥ परंपरोववण्णएणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी षुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए पढमवितिओ एवं जहेव पढमओ उद्देसओ तहेव परंपरोवण्णएहिंवि उद्देसओ भाणियवो ॥ जेरइयादीओ तहेव णवरं दंडग संगहिओ अटण्हसि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मस्स वत्तन्वया सा तस्स अहीण मतिरित्ता णेयव्वा जाव वेमाणिया, अणागारोव वउत्ता ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ बंधिसयस्स ततिओ उद्दसो ॥ २६ ॥ ३ ॥ अणंतरोव गाढएणं भंते ! णेरइएणं पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ?गोयमा ! अत्थेगइए भावार्थ आपके वचन सत्य हैं यह छन्नीसवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २६ ॥२॥ ___ अहो भगवन् ! परंपरोत्पन्न नारकी क्या पापकर्म का बंध कीया वगैरह पृच्छा? अहो गौतम! कितनेक में पहिला दूसरा भांगा पाताहै एसेही जैसे पहिला दूसरा उद्देशा कहा देनेही यह भी कहना. विशेषता या कि वहां पर समुचय जीव नारकादि चौवीस दंडक कहे यहां पर चौवीस दंडक ही कहना. ऐसे ही आठ कर्म प्रकृतियों की साथ यावत आनाकारोपयुक्त वैमानिक पर्यत कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह छवीमवा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २६ ॥ ३॥ 12 अहो भगवन् ! अनंतरोगगाह नारकीने क्या पापकर्म का बंध कीया वगैरहं पृच्छा ? अहो गौतम ! जमे 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहावजी चालाप्रसादजी. Page #2937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ । 438+-- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात ( भगवती ) सूत्र 438+ एवं जहेब अणतरोवत्रष्णएहिं णव दंडग संगहिओ उद्देसओ भणिओ तहेव, अनंतरो गाढएहिंचि अहीणमतिरित्तो भाणियब्वो णेरइयादीए जाव वेमाणिए । सेवं भंते २ ति ॥ बंधिसयस्स चउत्थो उद्देसो ॥ २६ ॥ ४ ॥ + + परंपरा गाढाएणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो सोच णिरवसेसो भाणियन्त्रो || सेवं भंते २ ति ॥ बंधिसयस्स पंचम ॥२६॥५॥ अनंतराहारएणं भंते! णेरइए पात्र कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! एवं अनंत उत्पन्न का कहा वैसे ही भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. दंडक सब कहना, नारकी से वैमानिक पर्यंत वैसे ही कहना. अहो यह छवीसवा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २६ ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! परंपरावगहित नारकी ने क्या पापकर्म का बंध कीया वगैरह जैसे परंपरोत्पन्न का} उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह छत्रीचा बंधी शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २६ ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! अनंतर आहार करने वाले नारकीने क्या पापकर्म का वैध कीया वगैरह पृच्छा ! अहो गौतम! अनंतरोत्पन्न का उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित आहार का उद्देशा जानना. अहो - भगवन्! आप ++ उन्नीसवा शतक का ४-५ उद्देशा 4028+ २९१९ Page #2938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 -42 अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ जहेब अनंतरो ववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसो ॥ सेवं भंते २ चि ॥ बंधी सयस्स छट्ठो उद्देशा ॥ २६ ॥ ६ ॥ परंपराहारएणं भंते ! णेरइए पांव कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेव परंपरो ववण्णएहिं उद्देसो तहेब णिरवसेसो भाणियव्वो । सेवं भंते २ भंतेति ॥ बंधी सयरस सत्तमो उद्देसो ॥ २६ ॥ ७ ॥ अणंत्तरं पजत्तएणं भंते ! णेरइए पात्र कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेब अनंतवण्णएहिं उद्देसो तहब णिरवसेसं ॥ सेवं भंते २ ति ॥ बंधि * { के वचन सत्य हैं यह छन्दीस बंधी शतक का छट्टा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ २६ ॥ ६ ॥ परंपरा से आहार करने वाले नारकीने क्या पापकर्म का बंध कीया वगैरह पृच्छा, अहो गौतम ! जैसे परंपरा का उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यों छब्बीसवा बंधी शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा || २६ ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! अनंतर पर्याप्त नारकीने क्या पापकर्म का बंध कीया वगैरह पृच्छा ? ऐसे ही जैसे नंतरोत्पन उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों छब्बी प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी २९२० Page #2939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र सयस्स अट्ठमो सम्मत्ती ॥ २६ ॥ ८ ॥ परंपरोपज्जतएणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधइ पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेव २१२१ परंपरोक्वन्नहिं उद्देसो तहेवो णिरवसेसो भाणियन्वो ॥ २६ ॥ ९॥ चरिमेणं भंते ! जेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? 'मोयमा! एवं जहेव परंपरोव वण्णएहिं उद्देसो तहेव चरिमेहिं गिरवसेसं ॥ सेवं भंते २त्ति॥ बंधिसयस्स ।२६।१०। अचरिमेणं भंते ! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए जहेव भावार्थ Eसवा बंधी शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २६ ॥ ८॥ . { अहो भगवन् ! परंपरा पर्याप्त नारकीने क्या पापकर्म का बंध किया वगैरह पृच्छा ? इस का जैसे परं-: परोत्पन्न उद्देशा कहा वैसे ही विशेषतारहित कहना. यो छब्बीसवा बंधी शतकका नवया उद्देशा संपूर्ण हुवा।२६| | ___ अहो भगवन् ! चरिम नारकीने क्या पापकर्म का बंध कीया पृच्छा ? अहो गौतम जैसे परंपरा उत्पन्न का उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों छब्बीसवा 12 शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २४ ॥ १०॥ भहो भगवन् ! अचरिम नारकीने पापकर्म का बंध कीया पृच्छा, अहो गौतम ! जैसे पहिला विवाहपण्णचि ( भगवती) मंत्र 488 28छन्चीसवा शतकका ९-१०-११. उद्देशा 88 Page #2940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पढमुद्देसए तहेव पढ़मवितिओ भाणियन्वो, सम्पत्य जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण।। अचरिमेणं भंते ! मणुस्से पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ णबंधिस्सइ. अत्थेगइए बंधी णबंधइ णबधिस्सइ ॥ १ ॥ सलेस्सेणं भंते ! अचरिमे मणुस्से पावं कम्मं किं बंधी एवंचेव तिणि भंगा, चरिमविहुणा भाणियव्वा ॥ एवं जहेव पढमुद्देसो गवरं जेषु तत्थ बीस मु पदे तु चत्तारिभंगा, तेमु इहं आदिल्ला तिण्णि भंगा भाणियब्वा, चरिम भंग वजा ॥ अलेस्सा केवलणाणी अजोगीय, एएतिण्णिवि णपुच्छिजंति, सेसं तहेव ॥ उद्देशा कहा वैसे पहिला दूसरा भांगा कहना. यों तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्यंत सब को कहना. अहो भगवन् ! अचरिम मनुष्यने क्या पापकर्म का बंध कीया ? अहो गौतम ! १ कितनेकने बंध कीया, कितनेक बंध करते है। हैं व कितनेक करेंगे, २ कितनेकने बंध कीया, कितनेक करते हैं व कितनेक नहीं करेंगे और कितनेक बंध कीया बंध नहीं करते हैं व बंध नहीं करेंगे यों ३ भांगे पाये॥॥अहो भगवन्! भलेशी अचरिमो क्या पापकर्मका बंधकीया ऐसे ही तीन गमा अन्तिम हुवे छोडकर कहना. ऐसे ही जैसे पहिला उद्देशा कहा वैसे ही यहां कहना. विशेष में वहां निनषीस पदों में चार२ भांगे कहे थे, हायपर उसमे से अन्तिम भांगा छोडकर तीनर भांगे कहना. अलेशी, .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ 60 Page #2941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र 480+ वाणमंतर जोइसिय वैमाणिए जहा णेरइए ॥ २ ॥ अचरिमेणं भंते ! णेरइए णाणा वरणिजं कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! एवं जहेब पात्रं णवरं मगुस्सेषु सकसा - ईसु लोभकसा सुय, पढमवितिया भंगा ॥ सेसा अट्ठारस, चरिम विहुणा, सेसं तहेव जव मानिया || दरिसष्णावरणिजंपि एवंचेत्र णिरवसेसं ॥ वियणिजे सव्वत्थवि पढमवितिया भंगा जान बेमाणिया, णवरं मणुस्सेमु अलेस्सी केवली अजोगीय णत्थि || अचरिमेणं भंते! णेरइए मोहणिज कम्मं किं बंधी पुच्छा ? गोयमा ! जहेब पात्रं तेव णिरवसेसं जात्र वेमाणिए || अचरिमेणं भंते ! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधी केवल ज्ञानी व अयोगी की पृच्छा करना नहीं, क्यों कि वे चरिम ही होते हैं. व्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना || २ || अहो भगवन् ! नावरणीय का बंध कीया पृच्छा ? अहो गौतम ! जैसे पापकर्म का कहा वैसे शेष वैसे ही कहना. वाणअचरिम नारकीने क्या ज्ञा-) ही कहना. विशेष में मनुष्य, { सकषायी, लोभ कषायी इन में पहिला दूसरा भांगा कहना. शेष अठारह में अन्तिम भांगा छोड़कर तीन भांगे कहना. शेष वैमानिक पर्यंत वैसे ही कहना. दर्शनावरणीय का वैसे ही कहना. वेदनीयका वैमानिक पर्यंत पहिला दूसरा भांगा, परंतु मनुष्य में अलेशीमें केवली में व अयोगी में यह भांगा नहीं हैं. अहो भगवन्! अचरिम नारकीने ++- छब्बीसवा शतक का अभ्यारवा उद्देशा 98 Page #2942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२४ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुच्छा ? गोयमा ! पढम ततिया भंगा ॥ एवं सवपदेसुवि णेरइयाणं पढम ततिया भंभा, णवरं सम्मामिच्छत्त ततिओ भंगो ॥ एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढवीकाइया आउकाइया वणस्सइकाइयाणं तेजे.लेस्साए ततिओ भंगो, लेतेसु पदेसु सव्वत्थ पढम ततिया भांगा ॥ तेउकाइय बाउकाझ्या सव्वत्य पढय ततिया भंगा, वेइंदियतेइंदिप चउरिदियाणं एवंचेव पवरं सम्मत्त ओहियणाणे अभिणियोहियणाणे सुअणाणे एएसु चउसुवि ठाणेसु ततिओ भंगो ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छते ततिओ क्या मोहनीय कर्म का बंध कीया पूच्छा ? अहो मौतम ! जैसे पापा का कहा वैसे ही विशेषता रहित वैमानिक पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! अचरिम नारकी ने क्या अयुध्य कर्मका धंध कीया एच्छ ? अहो गौतम ! पहिला तीसरा भांगा कहना. नारकी के सब पद में पहिला तोपरा यो दो भांगे काहना. सम्म मिथ्यात्व में तीसरा मांगा कहना. ऐसे ही स्तनित कुमार पर्यंत कहना. पृथ्वीकाया, अपकाया व वनस्पतिकाया की तेजोलेश्या में तीसरा भांगा और शेष सब पद में पहिला व तीसरा भांगा. तेउकाया व वायु काया में सब स्थान पहिला नीसरा भांगा. वेइन्द्रिन, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में ऐसे ही परंतु सम्यक्त्व च अधिक ज्ञान, आभिनियोधिक ज्ञान व श्रुत ज्ञान इन चार स्थान में एक तीसरा भांगा. तिर्यंच पंचेन्द्रिय *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुवदेवलहायजा ज्यालाप्रसादजी, Page #2943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२६ भंगो, सेस पदेसु सम्बत्थ पढमततिय भंगा, मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइंमिय ततिय भंगो॥ अलेस्स केवलणाण अजोगीया णपुच्छिजंति, सेस पदेसु सव्वत्थ पढम ततिया भंगा, वाणमंतर जोइसिया वेमाणिया जहा णेरइया॥णामं गोयं अंतराइयं च जहेव णाणावरगिजं तहेव णिरवसेसं सेवं ते ! भंतेभत्ति जाव विहरइ॥ छन्वीसम बंधिसयरस एकवीसइमो उदेशो ॥ २६ ॥ ११ ॥ छवीसमं बंधि सयं सम्मत्॥२६॥ के सममिथ्यात्व में एक तीसरा भांगा, शेष सब पद में पहिला तीसरा भांगा. मनुष्य के सममिथ्यात्व, अवेदक, व अपायी में तीसरा भांगा. अलेशी केवल ज्ञान व अयोगी की पृच्छा नहीं करना. शेष सव पद में पहिला तीसर। भांगा. चाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैसे कहना. नाम, अंतराय का ज्ञानावरणीय कर्म जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर यावत् । विचरने लगे. यह छब्बीसा बंधी शतक का अग्यारहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २६ ॥ ११॥ यह छब्बीसवा बंधी शतक समाप्त हुवा ॥ २६ ॥ वार्थ सरपंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 488+ 48.छब्बीसवा शतक का अग्यारवा उद्दशा 480 । । OGHAR Page #2944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री भयो लक ऋषिजी * सप्त विंशतितम् शतकम् * जीवाणं भंते! पाव कम्मं किं करिंसु करेंति करिस्सति १, करिसु करेति गरिसति २, करिसु णकाति करिस्संति ३, करिसुय करिति णकरिस्संति ४, ? गोयमा ! अत्थेगइए करेंसु करेंतिं करिस्संति, अत्थेगइए करिसु करिति णकरिस्संति,अत्थेगइए करिंसु णकरिति करिस्संति; अत्यंगइए कारसु णकरिंति णकारस्संति ॥१॥ सलेस्सेणं भंते ! जीवे पावं कम्मं एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव वंधिसए वत्तव्यया सच्चेव गिरवसेसा भाणियव्वा, तहेव णव दंडग संगहिया, एकारस उद्देसगा भाणियव्वा ॥ करिसुग सयं सम्मत्तं ॥ २७ ॥ छब्बीसवे शतक में कर्म बँधका कहा वह पापकर्म करने से होता है इसलिये इस शतक में पापकर्म करने का कथन करते हैं. अहो भगवन् ! जीवने गत काल में पापकर्म क्या कीया, वर्तमान में करता है या आग मिक में करेगा कीया, करते हैं व नहीं करेंग, २ कीया नहीं करते व करेंगे, ३ अथवा कीया नहीं करते हैं व नहीं करेंगे ४? अहो गौतम! कितनकन काया, करते हैं व करेंगे, कितनेकने कीया करते हैं व नहीं। करेंगे, कितनेकने कीया नहीं करते हैव करेगे और कितनेकने कीया है करते नहीं हैं नहीं करेंगे. ॥१॥ अहो भगवन् ! सलशी जीवने पापकर्म वगैरह इस अभिलाप से जैसे बंधि शतक में वक्तव्यता. कही के सब अग्यारह उद्देशे इयां कहना. यों करिंसु नामक का सत्तावीसवा शतक समास हुवा. ॥२७॥ himir *प्रकाशक-राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावार्थ Page #2945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २०२१ ॥ अष्टविसतितम शतकम् ॥ जीवाणं भंते ! पवं कम्मं कहिं समजिणिसु, कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! झब्वेव तावं तिरिक्ख जोणिएसु होज्जा १, अहवा तिरिक्वजाणिएमु णेस्इएमय होज्जा, २अहवा तिरिक्खजोणिएमुम मणु समुय होजा; ३अहवातिरिक्ख जोणिएसुय देवेसुय होजा ४अहवा तिरिक्खजोणिएसय णेरइएसुय मणुस्सेसुय होजा५;अहवा तिरिक्खजोणिएसु यणेरइएसुय देवेसुथ होज्जा ६, अहवा तिरिक्खजोणिएसुय मणुस्सेसुय देवेमुय होजा ७, भावार्थ अहवा तिरिक्खजोणिएसुय गैरइयसुय मणुस्सेसुय देवेसुय होज्जा ८, ॥१॥ अब सत्तावीस वा शतक कहते हैं. इस शतक में भी अम्यारह उद्देशे उक्तद्वार से कहते हैं. अहो भगवन् ! जीने पापकर्म कौनसी गतिमें रहते हुवे कीया और कौनसी गति में भोगवा ? अहो गौतम ! सब ते पहिले * तिर्यंचगति में होवे क्यों की सब जीवों को मातृस्थान रूप तिच योनि हैं * अथवा २ तिर्यंच व नरक में E होवे ३ तिर्वच व मनुष्य में होवे ४ तिर्यंच देव में होबे, ५ तिर्यंच नरक व मनुष्य में होवे चिर्यच नरक व देव में हो ७ तिर्यंच मनुष्य व देव में होवे और ८ तिर्यंच नरक मनुष्य व देव में होवे ॥१॥ से एक विवक्षित समय में नरकादि होवे वे अल्प फ्ना से सब सिद्ध गति में अथवा तिर्यंचगति में बावे जिस + से अन्य गति जीव रहित होवे तब तिर्यच के अनंत पना से करके आनेर्लेपनीय पना से वे तिर्यच वहां से नीकले और पंचमाङ्ग विवाह पण्णन्ति (भगवती) मूत्र + 8 अठावीसवा शतक का पहिला उद्देशा 42 448 ' Page #2946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२८ सलेस्साणं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समजिणिंसु कहिं समायरिंसु एवं चेव, एवं कण्हलेस्सा जाव अलेस्सा, कण्हपक्खिया सुक्कपक्खिया, एवं जाव अणागारोवउत्ता ॥ २ ॥ जेरइयाणं भंते ! पावं कम्मं कहिं समजिणिंसु कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! सम्बेवि ताव त्तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चव अट्ट भंगा भाणियव्या ॥एवं सम्वत्थ अट्ठ भंगा जाव अणागारोवउत्तावि ॥ एवं जाव वेमाणिया॥ एवं णाणावरणिज्जेणवि दंडओ ॥ एवं जाव अंतराइ एएणं ॥ एवं एए जीवादीया वेमाणिय पजवसाणा व दंडगा भवंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ अट्ठावीलइमं सयन्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २८ ॥१॥ भावार्थभगवन् । सलशा भगवन् ! सलेशी जीवोंने पापकर्म कहां कीये और कहां भे गवे ? अहो गौतम ! वैसे ही कहना. ऐसे ही कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, कृष्ण पक्षिक व शुक्ल पक्षिक ऐसे ही अनाकारोप योग युक्त पर्यंत कहना. १॥२॥ अहो भगवन् ! नारकीने पापकर्म कहां कीये कहां भोगवे ? सा तिर्यंच योनि में होवे यों आठ भांग कहना. यों अनाकारोप योगयुक्त पर्यंत आठ भांगे कहना. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय पर्यंत वैसे ही कहना. यों जीवदिक के वैमानिक पर्यंत नव दंडक होते हैं. अओ भगवन् । आमके वचनसत्य हैं योंकहकर यावत् विचन्नेलगे या अठावीवा शतकका पहिलाउद्देशा मंपूर्णहुआ.।२८ । नरक में नरकादिपने उत्पन्न होवे जिस से तिर्यंच गति में नरक गत्यादि हेतु भूत पापकर्म का उपाय कहा. श्री अमोलक ऋषिजी ४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादली Page #2947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विवाह पण्णन्ति ( भगवती) मूत्र अंतरोववण्णगाणं भंते ! णेरइया पावं कम्म कहिं समजिणिसु कहिं समायरिंसु ? गोयमा ! सव्वेवि ताव तिरिक्ख जोणिएसु होज्जा, एवं एत्थवि अट्ठ भंगा ॥ एवं अणंतरोववण्णगाणं णेरइयादीणं जस्स 'जं अत्थि लेस्सादीया अणागारोवओग २९२९ पज्जवसाणं तं सव्व एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं णवरं अणंतरेसु परिहरियव्या ते जहा बंधिसए तहा इहपि ॥ एवं णाणावरणिज्जेणवि दंडओ ॥ एवं जाव अंतराइएणं गिरबसेसं एसोवि णव दंडग संगहिओ उद्देसओ भाणियन्वो ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ अट्ठवीसइमं सयस्स विओउद्देसो ॥ २८ ॥ २ ॥ है अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक नारकीने पाप कर्म कहां कीया ? अहो गौतम ! सब प्रथम तियैच में हो | ईयों आठ भांगे कहना. ऐसे ही अनंतरोत्पन्नक नारकी आदि को जो लेश्या यावत् अनाकारोपयोग होवे) वे इस स्थान में भजना (पावे नहीं भी पाय) से यावत् वैमानिक पर्यंत कहना. विशेषता यह कि जैसे बंधी शतक : में अनंतरोत्पन्नक में मिश्रदृष्टि मनयोग वचन योग का परिहार कीया था वैसे ही यहांपर भी परिहार करना ऐसे ही ज्ञामा वरणीय यावत् अंतराय पर्यंत नव दंडक वाला उद्देशा यह भी कहना. अहो भगवन ! आपके वचन सत्य हैं. यह अठावीस वा शनक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुआ. ॥ २८ ॥ २ ॥ ... 48 अठ्ठावीसवा शेतक का दू भावार्थ 492 Page #2948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं एएणं कमेणं जहेब बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इहंपि अट्ठसु णेयब्बा, णवरं जाणियन्त्रं जं जस्स अत्थे तं तस्स भाणिवां जात्र चरिमुद्देसो ॥ सब्वेवि एक्कारस उद्देसगा ॥ सेवं भंते भंते त्ति | जाव विहरइ || कम्म समज्जिणण संयं सम्मत्तं ॥ अट्ठावीसइमं सयं सम्मतं ॥ २८ ॥ ऐसे ही इसी क्रम से जैसे बंधि शतक में उद्देशों की परिपाटी कही वैसे ही यहां पर आठ भांगे जानना. जिस में इनता विशेष जिनको जो होत्रे वे उनको कहना. यावत् चरिम उद्देशा पर्यंत इग्यारे उद्देशा उसही { प्रकार संपूर्ण कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर तपयम से आत्मा भावते हुने गौतम स्वामीजी विचरनेलगे. यह कर्म ममार्जित नामक अठावीसत्रा शतक समाप्त हुवा || २८ ॥ 5 Ke6e8 ● मात्र राजावादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २९३० Page #2949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २९३२ ( भगवती ) सूत्र पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ॥ एकोनत्रिंशत्तम शतकम् ॥ जीवाणं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पटुविसु, समायं गिट्टविसु १, समायं पठविमु विसमयंणिटुविसु २, विसमायं पट्टविसु समायं णिटुबिसु ३, विसमायं पट्टविंसु विसमायं णि?विंसु४ ?गोयमा! अत्थेगइया समायं पटुविसु समायं णिविंसु, जाव अत्थेगइया विसमायं पट्टविंसु विसमायं णिविंगु ४ ॥से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया समायं पट्टविसु समायं तंचेव ?गोयमा! जीवा चउबिहा पण्णत्ता तंजहा अत्थेगइया समाउया समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोरवण्णगा, अत्थेगइया विसमाउया समोवअब उनतीसा शतक कहते हैं. अठावीस में शतक में कर्म समाणित का कहा गुमतीसवे शतक में कर्म और क्षय करने का कहते हैं. अहो भगवन् : बहुत जीवोंने पापकर्म समकाल में वेदने का आरंभ करके क्या समकाल में क्षय कीया ? समकाल में वेदने आरंभ का करके क्या विषय काल में क्षय है किया विषम काल में वेदने का आरंभ करके क्या समकाल में क्षय कीया, और विषम काल में वेदने का आरंभ करके क्या विषम कालमें क्षय कीया ? अहो गौतम ! कितनेकने समकाल में वेदनेका आरंभ करके समकाल में क्षयकीया, यावत् कितनेकने विषम कालमें वेदनेका आरंभ करके विषम कालमें क्षय किया. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जीव चार मकार के कहे हैं तद्यथा mammnawwwwwwwwwwwwwwwanmomra 48 उनतीसवा शतक का पर भावार्थ उद्देशा 488 Page #2950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी चणा अत्थेगइयो त्रिसमाउंया विसमोत्रवण्णगा। तत्थणं जे ते समाउया समोववण्णमा, ते पावं कम्भं समायं पट्टर्विसु समायं णिट्ठर्विसु । तत्थणं जे ते समाउया विसमोत्र. वण्णा, तेणं पावं कम्मं समायं पटुर्विसु विसमायं णिट्ठत्रिमु । तत्थणं जे ते विसमाया समोवणगाणं पात्रं कम्मं विसमाषं पटुविसु समायं निट्ठविंसु । तत्थणं जे ते विसमाउया विसमोवयण्णमा, तेणं पावं कम्मं विसमायं पट्टर्विसु विसमायं णिर्विसु । से ते द्वेणं गोयमा ! तंत्र || सलेस्साणं भंते! जीवा पात्र कम्मं एवंचेव ॥ एवं सन्त्रासुव जाव अणागारोव उत्ताए, सच्चेवि पया एयाए वत्तव्वयाए भा * प्रकाशक राजवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी कितने सम आयुष्यवाले व सरिखे उत्पन्न होनेवाले कितनेक सरिखे आयुव्यवाले व विषम उत्पन्न होने वाले, कितनेक विषम आयुष्यवाले सरिखे उत्पन्न होनेवाले और कितनेक विषम आयुष्णवले व विषम उत्पन्न होतेवाले होते हैं. अत्र जो समआयुष्यवाले व सम उत्पन्न होनेवाले हैं वे पापकर्म को ममकाल में वेदते के और समकाल में निर्जरते हैं. जोसम आयुष्य वाले व विषम उत्पन्न होने वाले हैं वे समकाल में वेदते हैं और विषम काल में निर्जरते हैं. जो विषम आयुष्य वाले व सम उत्पन्न होने विषय काल में वेदते हैं समकाल में निर्जरते हैं और जो विषम आयुष्य वाले व वाले हैं. वे पाप कर्म विषम उत्पन्न होने वाले वे विषम काल में पाप कर्म वेदते हैं और विषम काल में निर्जरते हैं. इस लिये अहो गौतम ! ऐसा कहा गया। २९३२ Page #2951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 48 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती पत्र 482 यव्या ॥ १ ॥णेरइयाणं भैते! पावं कम्मं किसमायं पट्टविस समायं गिट्रविस पृच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइया समायं पटुविसु एवं जहेब जीवाणं तहेव भाणियवं जाव अगागारोवउत्ता ॥ एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जं अत्थि सं एएणं कमणं भाणियन्वं, जहा पावेणं कम्मगं दंडओ, एवं एएणं कमेणं अट्ठसवि कम्मपगडीओ अटू दंगा भाणियन्वा, जीवादिया वेमाणियो पजवसाणा!|एसो गर दंडग संगहिओ, पढमो उद्देसओ भाणिययो । सेवं भंते ! भंतेत्तिं ॥ एगुप्पतीसइमं सयम्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २९ ॥ १॥ हैं. अहो भगवान सलेशी जीवों पाप कर्म क्या समवेदते हैं समनिर्जते हैं वगैरह उत्पकार ही कहना. ऐसे ही सब स्थान में आना कारोपयोग तक सब पदमे वैसाही कहना.॥२॥ अहो भगवन! नास्की क्या पाप कर्म समकार वेदतेहैं व समकालमें निर्जरते हैं वगैरह पृच्छा ?अहो गौतम कितनेक समकालमें देदकर विसमकाल में निर्जरत हैं वगैरह जैसे समुच्चय जीवों की वक्तव्यता कही वैसे ही अनाकरोपयोग तक कहना. ऐमेही वैमानिक पर्यंत जिसको जो होचे वह उसको कहना, जैसे पापकर्म का दंडक कहा वैसे ही आठों कर्म प्रकृतियों के आठ दंडक जीवादि में वैमानिक पर्यंत कहना, यों नव दंडकवाला पहिला उद्देशा संपूर्ण हवा. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह गुन्नतीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ २९ ॥ १॥ उनतीसवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ mommmmmmmmwwwiminine - 28t Page #2952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अणंतरोषवण्णगाणं भंते ! मेरइयाणं पावं कम्मं किं समायं पटविमु समायं णि?विंसु पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइया समायं पट्टीवसु समायं गिट्टविसु, अत्थे गइया समायं पट्ठविंसु विसमायं णिविंसु.॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगड्या' समायं पविस तंचेव गोयमा! अणंतरोववण्णगाणेरइया दविहा पपणचा तंजहा. अत्थेगइया समाउया समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववपणगा, तत्थणं जे ते समाउया समोववण्णगा, तेणं पावं कम्मं समायं पट्टर्विसु समायं णिटुविसु ॥ तत्थणं जे ते समाउया विसमोववण्णगा तेणं पावं कम्मं समायं पटुविसु विसमायं गिट्ठविसु से तेण?णं तंचेव ॥ सलेस्साणं भंते ! अणंतरोववण्णगा गेरइया पावं अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक नारकीने क्या पापकर्म सपकाल में वेदकर विषम काल में निर्जरा ग पुच्छा अहो गौतम! कितनेकने समकाल में वेदकर समकाल में निर्जरा की, और कितनेकने समकाल, में वेद कर विषय काल में निर्जरा की. अहो भगवन् ! ऐसा किप्त कारन से कहा गया है ? अहो गौतम! अनंतरोत्पन्न नारकी के दोभेद कहे हैं तद्यथा कितनेकसमआयुष्यवाले व समउत्पन्न होने वालेहैं और कितनेक विषम आयुष्य वाले व विषय उत्पन्न होने वाले हैं. इस में जो सपआयुष्य वाले व समउत्पन्न होने वाले हैं वे समकाल में पाप कर्म वेदकर समकाल में निर्जरते हैं और सम आयुष्य वाले व विषम उत्पन्न होने वाले हैं। .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी भावा 1 Page #2953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2086 . पंचमांग विवाह एण्णत्ति (भगवती) सूत्र Page कम्मं एवंचेव जाब अणागारांवउत्ताए ॥ एवं असुरकुमारावि ॥ एवं आव वेमाणिया ॥ णवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं ॥ एवं णाणावरणिज्जेणवि दंडओ ॥ एवं णिरवसेसं जाव अंतराइएणं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ।। जाव विहरइ ॥ एवं एएणं , गमएणं जंचव बंधिसए उदेसग परिवाडी सव्वेवि इहावि भाणियव्वा जाव अचरिमोति ॥ अणंतर उद्देसगाणं चउण्हवि एगाए वत्तव्यया, सेसाणं सत्तण्हं एक्का वत्तव्यया ॥ कम्मं पट्टवणा सयं सम्मत्तं॥२९॥ एगणतीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ २९॥ हैं वे समकाल में आयुष्य कर्म वेदकर विषम काल में निर्जरा करते हैं. अहो भगवन् ! सलेशी अनंतरोत्पन्न नारकी पाप कर्म वगैरह अनाकारोपयोगतक वैसे ही कहना ऐसे ही असुर कुमार यावत् वैमानिक पर्यंत करना. ऐसे ही झानावरणीय कर्म यारत् अंतराय कर्म पर्यंत दंडक कहना. अहो भगवन्! आपके वचन सत्य यो कहकर यावत् विचरनेलगे. यो इस गमा से जैसे बंधी शतक में उद्देशे कहै वैसे ही परिपाटी से यहां पर भी अचरिम पर्यंत इग्यारे उद्देशे कहना. अनंतरके चार उद्देशेकी एक वक्तव्भता और शेष सात उद्देशेकी एक वक्त व्यक्तता जानना।यह कर्म प्रस्थापना शतक समाप्त हुआ.॥२९॥ इति गुन्नतीसवा शतक समाप्तम् ॥ २९ ॥ भावार्थ गुनासवा शतक का इग्यारवा उद्देशा - - मा TYS Page #2954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ त्रिंशतितम शतकम् ॥ कइणे भंते ! समोसरणा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउबिहा समोसरणा पण्ण ता, तंजहा-किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणिवादी, नेणइय वादी ॥ १ ॥ जीवाणं भंते! किं किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियवादी, बेणइयवादी? गोयमा! जीरा किरियावादीवि, अकिरियावादीवि, अण्णाणियवादीवि, बेणइयवादीवि, ॥ २ ॥ सलेस्साणं भंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा ? गोयमा ! किरिया वादीवि जाव वेणेझ्यवादीवि ॥ एवं जाव सुक्कलेस्सा ॥ अलेस्साणं भंते ! जीवा पुच्छा? मत शतक में कर्म स्थापनादि आश्री जीव विचार कहा यहां पर कर्म बंधादेहेतु भृर वस्तुपाद आश्री जीव विचार कहते हैं. यहां पर अग्यारह उद्देशे जानना. अहो भगान् ! समासरण कितने कहे है? अहो गौतम! चार प्रकार के समयसरण कहे हैं १ क्रियावादी, २ किरियावादी ३ अज्ञानवादी और विनय यादी ॥१॥ अहो भगवन् ! जीवों क्या क्रियावादी हैं, भक्रियावादी है, अज्ञानवादी हैं या विनयवादी हैं! अहो गौतम ! जीवों क्रियावादी भी हैं, अक्रियावादी भी हैं,अज्ञानवादी भी हैं व विनयवादी भी हैं ।।२॥ो भगान् ! मलेशी जीवन की पृच्छ।? अहो गौतम : क्रियावादी हैं यावत् विनयवादी हैं. यो शुक्ल लेश्या पर्यंत कहना. अलेशी की पृच्छा है। CHGovernmaasan प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव महायजी उचालाप्रसादजी. Dammam Page #2955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ गोयमा! किरियावादी,णो अकिरियावदी,णो अण्णाणवदी णो वेणइयवादी॥३॥कण्ह पक्खियाणं भंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा? गोयमा! णो किरियावादी, अकिरियावादी, अण्णाणियबादीवि,वेणइयवादीवि।सुक्कपक्खिया, जहा सलेस्सासम्मद्दिट्टी जहा अलेस्सा, मिच्छाहिट्ठी जहा कण्हपक्खिया, सम्मानिच्छादिट्ठीणं पुच्छा ? गोयमा ! णो किरियावादी णो अकिरियावादी, अण्णाणिय बादीवि, वेणइय वादीवि ॥ सणाणी जाव केवलणाणी जहा अलेस्सा ॥ अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया । आहारसण्णवउत्ता जाव परिग्गहसण्णावउत्ता जहा सेलेस्सा, जोसण्णावउत्ता भावार्थ अहो गौतम! अलेशी क्रियावादी है क्योंकि अॅशी अयोगी व निद होते हैं वे क्रियावादी हेतुभून यथास्थित अ. ट्रव्य पर्याय रूप अर्थ परिच्छेन यक्त होते हैं. परंतु अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी नहीं हैं. पक्षिक जीवस्या किया ? ! क्रियावादी नहीं परंत अक्रियावादी हैं,अज्ञानवादी व विनयवादी भो . शुक्ला...... . ... उमष्ट का अशी जैमा कहना, मिथ्यादृष्टि का कृष्ण aal of पक्षिक जैसे कहना. सममिथ्याष्टि की पृच्छा! अहो गौतम ! क्रियावादी नहीं हैं. व अक्रियावादी नहीं हैं परंतु अज्ञानवादी व-विनयवादी हैं. सज्ञानी यावन् केवल ज्ञानी का अलेशी जैसे कहना. अज्ञानी यावत् विभंग । विवाह पण्णत्ति ( मगवती) सूत्र +8 तीसवा शतक का पहिला उद्देशा 982 Page #2956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 45 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जहा अलेस्स ॥ सवेदगा जाव पुंगवेदगा जहा सलैस्सा, अवेद्गा जहा अलेस्सा, सकसा यी जाव लोभ कसाई जहा सलेस्सा, अक्साइ जहा अलेस्सा। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा अलेस्सा || सागारबउत्ता अणागारोवउत्ता जहाँ सलेस्सा || १ || रइयाणं भंते ! किं किरिपावादी पुच्छा ? गोयमा ! किरिया वादीवि जाव वेणइय वादीवि || सेलेस्साणं भंते ! णेरइया किं किरियावादी एवंचेव, जात्र काउं लेस्सा ॥ कण्हपक्खिया किरिया विवाजिया ॥ एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वक्तव्या सच्चे रइयाणवि जाव अणागारोवउत्ता णवरं जं अत्थि तं भाणियन्त्रं, अज्ञानीका कृष्ण पक्षिक जैसे कहना. आहार संज्ञोपयुक्त यावन् परिग्रह संज्ञोपयुक्त का सलेशी जैसे कहना. नो संज्ञोपयुक्तका अलेशी जैसे कहना. सवेदी यावत् नपुंक वेदीका सलेशी जैसे कहना. अवेदीका अलेशी जैसा कहना. सकपायी यावत् लोभ कषायीका सलेशी जैसे कहना. अकषायीका अलेशी जैसे कहना. सयोगी यावत् कायायोगीका सलेशी जैसे कहना. अयोगीका अलेशी जैसे कहना. साकारोपयोग व अनाकारोपयोगका सलेशी जैसे कहना ||१|| अहो भगवन् ! नारकी क्या क्रियावादी पृच्छा ! अहो गौतम! नारकी क्रियावादी भी हैं यावत विनय बादी भी हैं. अहो भगवन ! मलेशी नारकी क्या क्रियावादी हैं ऐसेदी यात्रत् कापोत लेश्या पर्यंत कहना. कृष्ण * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ● २९३८ Page #2957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwrramewom २९३२ सेसेण भण्णइ जहा गैरइया ॥ एवं जाव थणिय कुमारा॥ पुढवि काइयाणं भंते ! कि किरियावादी पृच्छा? गोयमा! णो किरियावादी, अकिरियावादिवि, अण्णाणवादीवि, को वेणइयवादी ॥ एवं पुढवी काइयाणं जं अत्थि तत्थ सव्वत्थवि एयाई दो मझिल्लाइं समोसरणाई जाव अणागारोवउत्ताइ ।। एवं जाव चरिंदियाणं सव्वट्ठाणे एयाईचेव मझिलाई दो समोसरणाई सम्मत्त जाणेहिंवि एयाणिचेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई ॥ पंचिंदिया तिरिक्खजोणिया जहा जीवा णवरं जं अत्थि तं भाणि. 48 पंचांग विवाह पण्पत्ति (भगवती) सत्र 428+ बोसमा शतक का पहिला उद्देशा भाव पक्षिक नारकी क्रियावादी नहीं है. परंतु शेष तीनों पदवाले हैं. ऐसे ही इसी क्रम से जैसे समुच्चय जीवन की वक्तव्यता कहो वैसे ही नारकी की अनाकारोपयोग पर्यंत सब वक्तव्यता कहना. परंतु जिन के जो होवे वहीं कहना. शेष कहना नहीं. ऐसे ही स्तनित कुमार पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया क्या क्रियावादी है पृच्छा? अहो गौतम ! क्रियावादी नहीं है अक्रियादी व अज्ञानवादी है और विनय-AT वादी नहीं है. ऐसे ही अनाकारोपयोग पर्यंत पृथ्वीकाया को जो होवे वहां बीच के दो समोसरण कहना. चतुरेन्द्रिय पर्यंत कहना. सम्यक्त्व व ज्ञान की साथ भा उक्त बीच के दो समोसरण कहना.. तिर्यंच पंचेन्द्रिय का समुच्चय जीव जैसे कहना. परंतु जिन को जो होने वही कहना. मनुष्य का समुच्चयः | Page #2958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmm 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी * यवं, मणुस्सा जहा जीवा तहेव गिरवसेस, ॥ वाणमंतर जोइसियइ वेमाणिया जहा है। असुर कुमारा ॥ २ ॥ किरिया वादीणं भंते ! जीवा किं णेरइयाउय पकरेंति तिरिक्खजोणियाउयं-मणुस्साउयं-देवाउयं-पकरेंति ? गोयमा ! णोणेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, मणुस्सा उयं-देवाउयं पकरेति. जइ देवाउयं पकरेंति किं भवणवासी देवाउयं पकरेंति जाव वेमाणिय देवाउयं पकरेंति? गोयमा! भवणवासि देवाउयं पकरेति, णो वाणमंतर देवाउयं पकरेंति णो जोइसिय देवाउयं पकरेंति, वेमाणिय देवाउयं पकरेंति ॥ अकिरियावादीणं भंते ! जीवा किं णेरइयाउयं पकरति जीव जैसे विशेषता रहित कहना. वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का. अमुरकुमार जैसे कहना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! क्रियावादी नीव क्या नरक का आयुष्य करे. तिर्यंच का आयुष्य करें, मनुष्य का । आयुष्य करे, या देव का आयुष्य करे अहो गौतम! नारकी का आयुष्य करे नहीं, तिर्यंच का भी करे नहीं परंतु मनुष्य का व देवताका आयुष्य करते हैं. यदि देवताका आयुष्य करे तो क्या भवनवासी देव का आयुष्य करे यावत् वैमानिक देवताका आयुष्य करे ?अहो गौतम! भवनवासी देवताका आयुव्य करतेहैं वाणव्यंतर व नोतिषी का आयुष्य करते नहीं हैं परंतु वैमानिक देवका आयुष्य करतेहैं. अहो भगवन्! अक्रि • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णा ( भगवती ) सूत्र तिरिक्ख पुच्छा ? गोयमा ! णेरड्याउयंवि पकरैति जाव देवाउयंवि पंकरैति ॥ एवं अण्णाणिय वादीवि, वेणइयवादीवि || सलेस्साणं भंते! जीवा किरियाबादी किं रइयाउयं पकरैति पुच्छा ? गोयमा ! जो मेरइयाउयं एवं जहेब जीवा तत्र सलेस्सावि चउहिंचि समोसरणेहिं भणियस्वा ॥ कण्हलरमाणं भंते ! जीवा किरिया बादी किं णेरड्यायं पंकरेति पुच्छा ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख जोणियायं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरैति णो देवाउयं पकरेति ॥ अकि रिया- अण्णाणिय- वेणइय वादीय चत्तारिवि आउयं पकरेंति ॥ एवं नीललेस्साचि ॥ यावादी जीव क्या नारकी, तिर्यच, मनुष्य या देव का आयुष्य करते हैं ? अहो गौतम : नारकी का यावत् देवताका यो चारोंगति का आयुष्य करते हैं. ऐनेही अज्ञानवादी व जिवयवादी को जानना. अहो भगवन् सिलेशी क्रियावादी क्या नास्की का आयुष्य करे पृच्छा ? अहो गौतना नारकी का आयुष्य करे नहीं, यों जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही सलेश्या के भी चारों समोतरण कहना. अहो भगवन्! कृष्ण लेश्यावाले) क्रियावादी क्या नारकी का आयुष्य करे पृच्छा ? अहो गौतम! नारकी, तिर्यच व देवका आयुष्य करे नहीं परंतु मनुष्य का आयुष्य करे. अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी चारों गतिका आयुष्य करे. ऐसे ही । 4 तीसत्रा शतक का पहिला उद्देशे २९४१ Page #2960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४२ 42 अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, www काउलेरसावि ॥ सेउलेस्साणं भंते ! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं परति पुच्छा ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेंति, गो तिरिक्खजोणियाउयं परेंति, मणु. स्साउयंपि पकरेंति, देवाउयपि पकरेति ॥ जइ देवाइयं पकरेति तहेव ॥ तेउलेस्साणं भंते ! जीवा अकिरियावादी किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा ! णो णेरइयाउयं पकरैति, तिरिक्ख जोणियाउयंपि पकरेति, मणुस्साउयंपि पकरेंति, देवाउयंपि परेति॥ है एवं अण्णाणिय वादीवि, विणइय वादीवि, अहा तेउलेस्सा, एवं पम्हलेस्सावि सुक्क लेस्सावि णेयव्वा ॥ अलेस्साण भंते ! जीवा किरियावादी किं णेरइयाउयं परति नील व क पुन लेश्या का जानना. अहो भगवन् ! तेजो लेश्या वाले जीव क्रियावादी क्या नारकी का आयुष्य करे वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी व तिथंच का आयुष्य करे नहीं परंतु मनुष्य व देव आयुष्य करे. यदि देव का आयुष्य करे तो उपर्युक्त जैसे कहना. अहो भगवन् ! तेजो लेश्या वाले अक्रियावादी क्या भारकी का आयुष्य करे पुच्छा ? अहो गौतम ! नारकी का आयुष्य करे नहीं पर इतिर्यंच, मनुष्य व देव का आयुष्य करे. ऐसे ही अज्ञान वादी विनषवादी का जानना. तेजो लेश्या मैं पद्य व शुक्ल लेश्या का जानना. अहो भगमन् ! अलेशी जीव क्रिया वादी क्या नारकी का आयुष्य .काशक-राजावहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ Page #2961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wrom 38 विवाह पण्णत्ति (भगवति) सूत्र 480 पुच्छा ? गोयमा ! णो गैरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख णो मणुस्स : णो देवाउयं परेंति ॥ कण्ह पक्खियाणं भंते ! जीवा अकिरियादी किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा! गरइयाउयंपि पकरेंति ॥एवं चउविहंगिा एवं अण्णाणिय वादीवि, वेणइयवादीवि ॥ २९५३ मुमुक्कापक्खिया जहा सलेस्सा ॥ सम्मदिट्ठीणं भंते! जीवा किरिया बादी किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेलि, णो तिरिक्ख जाणियाउयं पकरोते, मणुस्साउपि पकरेति, देवाउयंपि पकरेंति ॥ मिच्छट्ठिी जहा कण्ह पक्खिया । सम्मामिच्छट्ठिीणं भंते! जीवा अण्णाणियवादी किं णेरइयाउयं? जहा अलेस्सा ॥ एवं वेणइय वादीवि॥ पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी तिर्यच मनुष्य व देव चारोंही गति का आयुष्प करे नहीं, क्योंकी अलेशी । सिद्गति में ही जाते हैं, अहो भगवन् ! कृष्ण पक्षिक अक्रियावादी क्या नारकी का आयुष्य करे पच्छा अहो गौतम ! नारकी आदि चारोंगति का आयुन्य करते .. ऐसेही अज्ञानवादी व पिनयबादी का जानना.। शुक्ल पक्षिक का सलशी जैसे कहना. अहो भावन् ! समदृष्टि क्रिया वादी क्या नारकी का अयुष्प करे. पच्छा ?अहो गौतम! नारकी का आयुष्य करे नहीं तिथंच का आयुष्य करे नहीं, परंतु मनुष्य का आयुष्य करे व देवका भायुष्य करे. मिथ्यादृष्टि का कृष्ण पक्षिक जैसे कहना. सममियादृष्टि अज्ञानवादी जीव क्याई । तीसवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ - Page #2962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४४ अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि शाणी-अभिणि वोहिय गाणी, सुअणाणी, आहिणाणीय, जहा सम्मट्टिी ॥ मणपजव णाणीणं भंते ! किं पुच्छा ? गोयमा ! णो णरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख जोणिया, जो मणुस्सायुयं, परेंति देवाउयं पकरेंति। जईदेवायुयं परति किं भवणवासी पुच्छा ? गोयमा ! यो भवणवासि देवाउयं परेंति, णो वाणमंतर, णो जोइसिय वैमाणिय देवाउयं परति ॥ केवलगाणी जहा अलेस्सा ॥ अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया ॥ सण्णासु च उसुवि जहा सलेस्सा, णो सण्णांवउत्ता जहा मणपजवणाणी ॥ सवेदगा जाव णपुंसग वेदगा जहा सलेस्सा, नारकी का अयुष्य करे गैरह अलेशी जैसे कहना. ऐसे ही विनय वादा का कहना. सज्ञानी, आभिनिवो धिक ज्ञानी, श्रत ज्ञानी व अवधि ज्ञानी का समष्ट्र जैसे कहना. मनः पर्यव ज्ञानी की पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी नियंच व मनुष्य का आयुष्य को नही. परंतु देवता का आयुष्य करे, यदि देवता का आयुष्य करे तो क्या भवनपनि का करे पृच्छा हो गौतम भवनपति, वाणव्यंतर व ज्योतिषी का आयुष्यकरे नहीं परंतु वैमानिक देवका आयुष्य करे. केवलज्ञानी का अलेशी जैसे कहना. अज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी कृष्णप्रक्षिक जैसे कहना. चारसंज्ञाका सलेशा जैसे कहना.नो सञोपयुक्तका मनःपर्यवज्ञानी जैसे, सरदक यात् प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी पालाप्रपादनी भावार्थ Page #2963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ + पंचांगविवाद पण्णति ( भगवती ) सूत्र अगा जहा अलेस्सा। सकलाई जाव लोभकसाई जहा सलैस्सा अक्साई जहा अलेस्सा || जोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा अलेस्सा ॥ सागारोव उत्ताय अगागाविउत्ताय जहा सलेस्सा || ३ || किरिया बादीणं भंते ! णेरइया कि णेरड्या उच्छा ? गोयमा ! जो परइयाउयं णो तिरिक्ख जोणियाउयं फकरेंइ, मणुस्साउयं करेs, णो देवाउयं पकरेइ || अकिरिया वादीणं भंते ! णेरड्या पुच्छा ? गोयना ! णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्ख जोणिया उयंपि पकरेइ, मणुस्साउयंपि पकरेइ, णो देवाउयंपि पकरेइ ॥ एवं अण्णाणिय वादीवि ॥ वेणइय नपुंसक वेदक का सलेशी जैसे कहना. अवेदीका अलेशी जैसे कहना. मकपायी यावत् लोभ कपायी का मलेशी जैते, अकषायी का अलेशी जैसे, सयोगी यावत् काया योगी का मलेशी जसे कहना, अयोगी का अलेशी जैस कहना. समारोपयोग व अनाकारोपयोग का सलेशी जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्रियावादी नारकी क्या नारकी का आयुष्य करे वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! क्रियावादी नारकी नरक तिर्यच व देव का आ{युष्य करे नहीं परंतु मनुष्य का आयुष्य करे, क्यों कि नारकी नरकका व देव का आयुष्य बाँध सकते नहीं और क्रियावादी नारकी समदृष्टि होने से तिर्येच का आयुष्य भी बांध सके नहीं, इस से मात्र एक मनुष्य 405 सीसवा शतकका पहिला उद्देशा 498 २९४५ Page #2964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __वादीवि ॥ सलेस्साणं भंते ! णेरड्या किरियावादी किं णेरइयाउयं एवं सम्वधि णेरइया जे किरिया बादी ते मणुस्साउयं पकरेंइ ॥ जे अकिरियावादी अण्णाणियबादी, वेणइयवादी, ते सम्बट्राणेसुवि णो णेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेति, मणुस्साउयपि पकरेंति, णो देवाउयं परति, गवरं सम्म. मिच्छ ते उवरिलंहिं दाहिं समोसरणेहिं किंचिधि परेंति, जहेव जीवपदे ॥ एवं जाव थणियकुमारा जहेव परइया । अकिरिया बादीणं भंते ! पुढवी काइया पुच्छा ? गोयमा ! णोणेरड्याउयं पकरेइ, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेइ, मणुस्साऽयं पकरेइ, का आयुष्य बांधते हैं. अक्रियावादी नारकी की पृच्छ!! अहो गौतम ! नारकी व देव का आयुष्य करे। E नहीं परंतु तिर्यंच व मनुष्य का आयुर करे. ऐसे ही अज्ञानवादी व विनयबादी का जानना. अहो* भगवन् ! मलेशी क्रियावदी नारकी क्या नरक का आयय बांध? यो सब नरक में जो क्रियावादी के मनुष्यंकाही आयुष्यबंधत और जो आकय.यादी, अज्ञानयादी व विनयवादी हैं वे सब नरकस्थानमें नारकी व देवताका आयुष्यको नहीं परंतु तिर्यंच व मनुष्य का आयुष्य करते हैं. परंतु सम्यक्त्व मिथ्यात्व में पीछे से 18 दो समवसरण पाते हैं और इस ये जीव पद जैसे चारों गति का आयुष्य नहीं करते हैं. जैसे नारकी का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावार्थ wammernamaAN Page #2965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 २९४७ मांग विवाहपण्णत्ति ('भगवती) मत्र णो देवाउय पकरेइ ॥ एवं अण्णाणियवादीवि । सलेस्साणं भंते ! एवं जं जं पर्दै अस्थि पुढी काइयाणं तहिं तहिं मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चैव दुविहं आउयं षकरोति, णवरं तेउलेस्साए किं पि पकरेंति ॥ एवं आउकाइयाणवि ॥ एवं वणस्सइ काइयाणवि। तेउकाइया बाउकाइया सबट्ठाणेसु मज्झिमेनु दोसु समोर रणेसु णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेइ, णो मणुस्साउयं पकरेई, नो देवाउयं पकरेइ, घेइंदिय तेइंदिय घउरिंदियाणं जहा पुढीकाइयाणं णवरं सम्मत्ते णाणेसु णएकापि कहा वैसे ही स्तनित कुमार पर्यंत कहेना. अक्रियावादी पूचीकाया की पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी का आयुष्य करे नहीं, निर्यचक व मनुष्यका आयष्य को परंतु देवका अयुष्य भी करे नहीं ऐसे ही अज्ञानवादीका कहना. सलेशी अक्रियावादी पृथ्वीकायाका ऐसे ही कहना. जहाँ २ पृथ्वीकायाका पद हावे वहां २१ बीच के दो समोसरण में तिर्यंच व मनुष्य एसे दो आयुष्य करे. परंतु तेजोले.झ्या में किसीका भी आयुष्य करे नहीं, क्यों कि अपर्याप्त अवस्था में तनोलेश्या होती है. ऐसे ही अप्काय का यावत् वनस्पति काया का जानना. तेउ, वायु के बीच के दोनों समोसरण में नारकी, मनुष्य व देव का आयुष्य करे नहीं परंतु एक तिर्यंच का आयुष्य करे. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुरेन्द्रिय में ऐसे ही कहना. परंतु ज्ञान व 38 सांसवाशतक का पहला उद्देशा भावार्थ mmmmmmmmm - Page #2966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ० अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिणी + आयं परैति ॥ किरियावादीण भंते! पंचिदिय तिरिक्खजोणिया किं णेरइयाउयं पकरेंति पुच्छा ? गोयमा ! जहा मणपजवणाणी, अकिरियवादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी चव्विपि परैति ॥ जहा ओहिया तहा सलेस्सावि || कण्हलेस्साणं भंते ! किरिया बादी पचिदिय तिरिवख जोणिया किं णेरड्याउयं पुच्छा ? गांयमा ! णो णेरइयाउयं पकरेति णो तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, णो मणुस्साउयं पकरेति णो देवाउयं पकरेति ॥ अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी चउब्विपि पकरोति, जहा पत्र ज्ञानी सम्यक्त्व में एक भी आयुष्य करे नहीं, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में ज्ञान होता है. क्रियावादी तिच पंचेन्द्रिय क्या नारकी का आयुष्य करे वगैरह पृच्छा, असे गौतम ! {जैसे कहना. अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी चारों प्रकार के आयुष्य करते हैं. [ कहा वैसे ही सलेशी का कहना. कृष्ण लेशीं तिर्येच पंचेन्द्रिय क्रियावादी क्या नारकी का वगैरह पृच्छा ? अहो गौतम ! नरक, तिच मनुष्य व देव इन में से एक ही का भी आयुष्य बांधे नहीं. समष्टि क्रियावादी होते हैं और समहा वैमानिक में उत्पन्न होते हैं. जहां तीन ही लेश्या होती है। जिल से एक भी आयुष्य का बंक करे नहीं, अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी चारों में उत्पन्न जैसे औधिक आयुष्य बांधे अहो मगवन् ! प्रकाशक- राजवहादुरला मुदेवमहायजी आलाप्रसादजी * २९४८ Page #2967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र कण्हलेस्सा॥ एवं णीललेस्सावि, काउलेस्साधि ॥ तेउलेरसा जहा सलेस्सा, णवरं अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी णो णेरदयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयपि पकरेंति, देवाउयंपि पकरेंति । एवं पम्हलेस्सावि । एवं सुक्कलेस्सावि भाणियव्वा ॥ कण्हपक्खिया समोसरणेहिं चउबिहंपि अ.उयं पकरेंति, ।। सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा ॥ सम्मदिठी जहा मणपज्जवणाणी तहेव वेमाणियाउयं परेंति, मिच्छट्ठिी जहा कण्ह पक्खिया, सम्ममिच्छादिट्ठीणं एकंपि आउयं पकरति जहेव णेरइया ॥ णाणी जाव आहिणाणी जहा सम्महिट्ठी। होते हैं जैसे कृष्ण लेश्या का कहा वैसे ही नील लेण्या व कापोन लेश्या का जानना. तेजा लेश्या का मलेश्या जैसे कहना. परंतु अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयरादी नारकी का आयुष्य करे. ऐसे ही एन लेश्याका जानना. और ऐसे ही शुक्र लेख्याका कहना. कृष्ण पक्षिक चारों गति का आयुष्य बांधते हैं. शुक्ल पक्षिक का सलेशी जने कहा. समदृष्ट का मनःपर्याज्ञानी जैसे वैमानिक का आयष्य वांधे. मिथ्यादृष्टि का कृष्ण पक्षिा जैसे कहना. सममिथ्या दृष्टि नारकी जैसे एक भी आयुष्य करे नहीं. ज्ञानी यावन् । अवधि ज्ञानी का समदृष्टि जैसे कहना. अज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी का कृष्ण पक्षिक जैसे कहना, और शेर 48807 तीसवा शतक का पहिला उद्देशा - मात्र Page #2968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ' अण्णाणी जाव विभंगणाणीजहा कण्ह पक्खिया सेसा जाव अगोगारोवउत्ता, सर्व जहा स. लेस्सातहाचेव भाणियव्वा । जहापंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं वत्तब्यया भणिया एवं मणु. स्साणवि भत्तवया भाणियव्वा णवरं मणपजवणाणी णो सण्णावउत्ताय जहा सम्मट्ठिी तिरिक्ख जोणिया तेहेव भाणियन्वा । अलस्मे,केवलणाणी, अवेदक, अकसाइ, अजोगीय एए एकपि आउयं णपकरेंति,जहा ओहिया जीवा सेसं तंचरावाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुर कुमारा ॥४॥ किरिया बादीणं भंते! जीवा किं भवसिाहया अभवसिद्धिया? गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया ॥ अकिरिया वादीपां भंते ! जीवा किं अनाकारोपयोग पर्यंत सलेशी जैसे कहना, जैसे निर्यच पंचेन्द्रिय की वक्तव्यना कही वैसे ही मनुष्य की वक्तव्यता कहना. परंतु मनःपर्यव ज्ञानी, व नो संज्ञपयुक्त का सपष्टि तिर्यच जैसे कहना. अलेशी, केवल ज्ञानी, अवेदी, मकपायी और अयोगी इन में से कोई भी एक भी आयुष्य का बंध नहीं करते। हैं. वाणक्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असरकपार जैसे कटना. ॥४॥ अहो भगवन ! क्रिया जीव क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक हैं परंतु अभवमिद्धिक नहीं हैं. 12 अहो भगवन् ! अक्रियावादी क्या भवसिद्धिक या अभवसिद्धिक हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक हैं ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वाला प्रसादजी भावार्थ Page #2969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र angry भवसिद्धियां अभवमिद्धिया ? गोयमो ! भवसिाईया णो अभवसिद्धिया ॥ अकिरिया : वादीणं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया पुच्छो ? गोयमा ! भवसिद्धियावि अभवसि.. द्धियावि ॥ एवं अण्णाणिय वादीवि, वेणय वादीवि ॥सलेस्टाणं भंते जीवा किरिया . २९५१ . वादी किं भवसिद्धिया पुच्छा?गोयमा! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया। सलेस्साण भंते! . जीवा अकिरियावादी किं भवसिाहियापुच्छा?गोयमा! भवसिद्धियावि अभवासद्धियावि ॥ एवं अण्णाणियवादीवि ॥ वेणइय वादीवि ॥ सलेस्साणं भंते ! जीवा किरियावादी किं भवसिहिया पुच्छा ? गोयमा ! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया । सलेस्साणं भंते! जीवा अकिरियावादी किं भवसिद्धिया पुच्छा ? गोयमा भवसिद्धियावि अभवसिद्धियावि और अभत्रसिद्धिक भी है. ऐसे ही अज्ञानवादी व विनवादी. का जानना. अहो भगवम् ! सलेशी क्रियावादी क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक हैं परंतु अभवसिद्धिकी . नहीं हैं. अहो भगवन् ! सलेशी अक्रियावादी क्या भवमिद्धिक या अभवमिद्धिक पृच्छा ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक. दोनों हैं. ऐसे ही अज्ञानवादी व विनयरादी का जानना. जैसे सलेशी का कहा वैसेठ शुक्ललेशी पर्यंत कहना. अहो भगवन् ! सलेशी क्रियावादी क्या भवसिद्धिक या अश्वसिक हैं! अहो गतम ! भवसिद्धिक है परंतु अभवसिद्धिक नहीं हैं. ऐसे ही इस अफिलाप से कृष्ण पक्षी के तीनों । * 48 तीसवा शसक का पहिला उद्दशा 48 भावार्थ Page #2970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी एवं अणाणवादीवि, वेणयबादीवि जहा लेस्सा ॥ एवं जाव सुक्कलेस्सा ॥ अलेस्साणे भंते ! जीवा किरियावादी किं भवसिद्धिया पुच्छा ? गोयमा भवसिद्धिया णो अभव. सिद्धिया, एवं एएणं अभिलावणं कण्हं पक्खिया तिमुवि समोसरणेसु भयणाए । मुक्कपक्खिया चउसुवि समोसरणेसु भवप्तिडिया, णो अभवसिहि या ॥ सम्मट्ठिी जहा अलस्सा, मिच्छद्दिद्वी जहा कण्ह पक्खिया । सम्ममिच्छादिट्ठी दोसुविसमोसरणेमु जहा अलेस्सा ॥ णाणी आव केवलणाणी भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया । अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया ॥ सहासु चउसुवि जहा सलेस्सा, णो सणोवउत्ता जहा सम्मट्ठिी, संवेदगा जाव णपुंसगवेदगा जहा समोरमण में भजना, शक्ल पक्ष के चारों समोसरण में भवभिद्धिक हैं परंतु अभवसिद्धिक नहीं हैं. ममटी का अलेशी जैस,मिथ्या दृष्टीका कृष्ण पक्षक जैसे कहना. सममिथ्या दृष्टि के दोनों भमोरण में अलेशी जैसे कहना. ज्ञानी यावत् केबल ज्ञानी भवनिद्धिक परंतु अभवसिद्धिक नहीं. अज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी का कृष्ण पक्षीक जैसे कहना. चारों संज्ञा में सलेशी जैसे, नो संज्ञापयुक्त में समदृष्ठि जैसे, सवेदी या बत् नपुंसक वेदीका मलेशी जैसे, अवेदी का समदृष्टि जैसे, सकषायी यावत् लोभापायी सलेशी जैन, मापायी समधि जैसे, सयोगी यावत् काया योगी सलेशी जैसे अयोगी समदृष्टि से, सकारोपयुक्त अनाकारपयुक्त सलेशी .प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #2971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20+ 40+पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सत्र सलेस्सा; अवेदगा जहा सम्मविट्ठी ॥ सकसाइ जाव लाभकसाइ जहा सेलेस्सा, अकसाइ जहा सम्माट्ठिी, सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा, अजोगी जहा सम्मदिट्टी ॥ सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता जहा सलेस्ता, एवं णेरइयानि भाणियन्वा, णवरं गायव्वं जं अस्थि । एवं अपुर कुमारवि जाव थाणिय कुमारा | पुढवी काइया सबढाणेसुवि मझिल्लेसु दोसुवि समोसरणेसु भवसिडियावि अभवसिद्धियावि । एवं जाव वणस्सइकाइया । वेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया एवंचेव, णवरं सम्मत्ते ओहियणाणे अभिणिवोहियणाणे सुयणाणे एएसु चेव मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया जो अभवसिद्धिया, सेसं तंचेव ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया जहा णेरइया, णवरं जं नारकी का ऐसे ही कहना. परंतु जिन को जितने होवे उन को उतने कहना. ऐसे ही अशुरकुमार यावत् स्तनित कुमार का जानना. वनस्पतिकाया के सब स्थान बीच के दो समोसरण में भव सिद्धिक व अभव सिद्धिक एसे दोनों कहना. ऐसे ही वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय व चतुर-3 न्द्रिय में वैसे ही कहना परंतु सम्यक्त्व समुच्चय ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान व श्रुत ज्ञान इन के बीच के समोसरण में भवसिद्धिक कहना परंतु अभवसिद्धिक कहना नहीं. शेष वैसे ही. तिर्यंच पंचेन्द्रिय का नारकी । 488-तीसवा शतक का पहिला उद्देशा 4.88 भावार्थ Page #2972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ● मकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी अस्थि || मणुस्सा जहा ओहिया जीवा ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ सेवं भंते २ ति ॥ तीसइमस्सय पढमो ॥ ३० ॥ १ ॥ अतरोववण्णगाणं भंते! णेरइया किं किरियावादि पुच्छा ? गोयमा ! किरियावादि जाव वेणइयवादिवि ॥ सलेस्ताणं भंते! अनंतशेववण्णगा णेरड्या किं किरियावादि एवं चेत्र, जहेब पढमुद्देसे णेरइयाणे वत्तव्वया तदेव इहेवि भाणियन्त्रा, वरं जं जस्स अस्थि अनंतराववण्णगाणं णेरइयाणं तं तस्स भाणियन्त्रं ॥ एवं सव्वजीवाणं जाव वैमाणियाणं णवरं अनंतशेववण्णगाणं जं जहिं अत्थि तं तहिं भाणि{जैसे, मनुष्य का औधिक जीव जैसे, वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असुरकुमार जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह तीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३० ॥ १ ॥ अहो भगवत् ! अनंतर उत्पन्न नारंकी क्या क्रियावादी हैं पृच्छा ! अहो गौतम ! क्रियावादी हैं यावत् | विनयवादी भी हैं. अहो भगवन्! सुलेशी अनंतरोत्पन्नक नारकी क्या क्रियावादी? ऐसे ही जैसे पहिले उद्देशे में नारकी की वक्तव्यता कही वैसे ही कहना. विशेष में जो जिन को होवे वह अनंतरोत्पन्न नारकी को कहना. ऐसे ही जीवों को यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना. परंतु स अनंतरोत्पन्नक को जहां जो होत्रे वहां २९५४ Page #2973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 पंचमांम विवाह पण्यत्ति ( भगवती ) मूत्र +8+ sannnnnnnnnnnnnnnnnnnnnr यव्वं ॥ १॥ किरियावादिणं भंते ! अणंतरोववण्णगा गैरइया कि णेरइयाउयं परेति पुच्छा ? गोयमा ! णो णेरइया-णो तिरि-णो मणु-णो देवायुउयं पकरेंति ॥ एवं अकिरियावादिवि, अण्णाणियादिवि, वेणइयवादिवि, ॥ २ ॥ सलेस्साणं भंते ! किरियावादि अणतरोववण्णगा णेरड्या किं णेरइयाउयं पुच्छा ? गोयमा ! णो गैरइयाउयं जाव णो देवाउयं पकरेंति ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ एवं सब्बट्टाणेसु अणंतरोववण्णगाणेरड्या णकिंचिवि आउयं परति जाव अणागारोवउत्तेवि ॥ एवं जाव बेमाणिया णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं ॥ ३ ॥ वह कहना ॥१॥ अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक क्रियावादी नारकी क्या नारकी का आयुष्य बांधे पृच्छा, ! अहो गौतम ! नारकी, तिर्यंच मनुष्य व देवता का आयुष्य बांधे नहीं, ऐसे ही अक्रियावादी, अज्ञानवादी, व विनयवादी का जानना ॥२॥ अहो भगवन् ! सलेशी अनंतरोत्पनिक क्रियावादी नारकी क्या नरक का आयुष्य करे पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी यावत् देव का आगुष्य करे नहीं. ऐसे ही वैमानिक पर्यन्त कहना. यों सब स्थानमें अनंतरोत्पन्नमारकी किसीका भी आयुष्य नहीं बांधते हैं. यों अनाकारोपयोग पर्यन्त कहना. ऐने ही वैमानिक पर्यन्त कहना. परंतु विशेषता यह कि मिन को जो होवे बह काना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! क्रियावादी अनंतरोत्पभक नारकी क्या भवसिदिक तीमत्रा शतक कादूमरा उद्देशा भावार्थ Ammmmmmmmm या 987 Page #2974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी किरियात्रादिणं भंते ! अनंतवण्णा जेरइया किं भवसिद्धिया अभवसि दिया ? गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया || अकिरियावादीणं पुण्छा ? गोयमा ! भवसिद्धियावि अभवसिद्धियावि, एवं अण्णाणिय वादीवि, वेणइय वादवि ॥ ४ ॥ सलेस्साणं भते ! किरियावादी अयंतरोववण्णमा किं भवसडिया 'अभवसिद्धिया पुच्छा ? गोयमा ! भवसिद्धिया जो अभवसिद्धिया ॥ एवं एएवं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसर गैरइयाणं वत्तन्वया भणिया तहेव इहावि भाणियन्त्रा जाव अणागारोववउत्तेति । एवं जाव वैमाणिया, वरं जं जस्सअत्थि तं तस्स भाणिथव्वं ॥ इमं से लक्खणं जे किरियावादी सुक्कापक्खिया सम्मामिच्छादिट्ठीया या अभवसिद्धिक हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक हैं परंतु अभवसिद्धिक नहीं हैं. अक्रियावादी की { पृच्छा, अहो गौतम ! भवसिद्धिक व अभवसिद्धिक दोनों हैं. ऐने हा अज्ञानवादी व विनयवादा का [ जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! सलेशी क्रियावादी अनंतत्पश्नक क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ? अहो गौतम ! भवसिद्धिक हैं परंतु अभवसिद्धिक नहीं हैं. यों इस अभिलाप में जैसे औधिक उद्देशा में नारकी की वक्तव्यता कही वैसे ही अनाकाशेपयोग पर्यन्त यहां भी कहना. ऐसे ही वैमानिक * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादजी - २९५० Page #2975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र वार्थ पंचमांग विवाह प्रणत्ति ( भगवती ) सूत्र एएसव्वे भवसिडिया णो अभवसिद्धिया, सेसा सधे भवसिद्धिया ॥ सेवं भंते २ ति ॥ तीसइमस्स वितिओसो ॥ ३० ॥ २ ॥ परंपरावयष्णगाणं भंते ! णेरड्या किं किरिया वादी ? एवं जहेब ओहियादेसर तक परंपरो ववष्णसुवि णेरइयादीओ तहेब णिरवसेसं भाणियव्या, महेव तियदंडगा संगहिओ ॥ सेवं भंते! भंतेति ॥ जाव विहरइ || तीसइमेस्स ततिओ उदेसो ॥ ३० ॥३॥ एवं एएणं कमेणं जयंत्र बंधित उद्देसगाणं परिवाड़ी सच्चेत्र इहंनि जाव अचरिमां उद्देसओ, पवरं अनंतरो चत्तारिव एकगमा, परंपरो चत्तारिवि एक्कंगमएणं, एवं पर्यन्त कहना. परंतु विशेषता यह है कि जिन को जो होवे उन को वहीं कहना. जो क्रियावादी, शुक्लपक्षी सममिध्यादृष्टि ये सब भवसिद्धिक हैं परंतु अभवसिद्धिक नहीं हैं और शेष स भवसिद्धिक व अभवसिद्धिक दोनों जानना. अहो भगवन्! आपके वचन सत्य हैं. यह तीसत्रा शतकका दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ||३०||२|| अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न नारकी क्या क्रियावादी यो जैसे औविक उद्देशा कहा वैसे ही परंपरो उत्पन्न ( उत्पन्न हुवे एक समय से अधिक काल हुआ उन ) नरकादि का विशेषता रहित तीन दंडक कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यो तीसवा शतकका तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३० ॥ ३ ॥ य। इसी क्रम से जैसे बंधी शतक में झग्यारा उद्देशे की परिपाटी कहीं वैसे ही नत्र यहां पर भी अचरिम पर्यन्त इम्यारे । 4. तीसंत्रा शतक का २-३ उद्देशा २१५७ Page #2976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य चरिमोवि, अचरिमोवि, एवंचव णवर अलस्से केवली अजोगीण भण्णइ, सेसे तहेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एए एक्कारसवि उद्देसगा ॥ समोसरणसयं सम्मतं इति तीसइम सयं सम्मतं ॥ ३०॥ उद्देशे कहना. परंतु अनतरके चारोंका एक गमा और परंपरा के चारोंका एक गमा, यो चरिम व अचरिमका जानना. परंतु अलेशी, केवली व अयोगी कहना नहीं. शेष सब वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यो अग्यारह उद्देशे संपूर्ण हुए. यह समोसरण नामक तीसवा शतक संपूर्ण दुवा ॥ ३० ॥ भावार्थ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुकदवसहायजा ज्वालाप्रमादजी * PREG Page #2977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एकत्रिंशतम् शतकम् * सायगिहे जाव एवं वयासी कइण भंते ! खुडाग जुम्मा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि खुडाग जुम्मा ५० तंजहा कडजुम्मे, तेओगे, दावरजुम्मे, कलिओए ॥ १ ॥ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ चत्तारि खुड्डाग जुम्मा, पण्णत्ता तंजहा कडजुम्मे, जाव कलिओए ? गोयमा ! जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे चउपज बसिए सेत्तं खट्टाग कडजुम्मे, जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिप है जवसिए सेत्तं खड़ाग तेओगे; जेणं रासी चउक्कएणं अवहिरमाणे दुपजवसिए सेत्तं भावार्थ तीसवे शतक में चार समवसरण कहे. अब इस इकतीसवे शतक में चार आदि संख्या का कथन करते : राजग नगर के गुणशील उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को नंदना नमस्कार कर श्री गौतम! स्वामी पुछने लगे. अहो भगवन् ! क्षुल्लक (छोटे) युग्म कितने कहे हैं? अहो गौतमः चार क्षुल्लक युग्म कहे हैं. जिन के नाम. कृत युग्म, त्रेता, द्वापरयुग्म व कलियुग्म. ॥१॥ अहो भगवन् ! किस कारन से कृत युग्म यावत् कलियुग्म चार क्षुल्लक युग्म कहे हैं ? अहो गौतम ! जिस राशि में से चार २ कम करते जाते ok ole शेष चार रहे सो क्षुल्लक कृत युग्म, जिस राशि में से चार २ कम करते २ शेप तीन रहे सो क्षुल्लक त्रेता, जिस राशि में से चार २ कम करते २ दो शेष रहेसो क्षुल्लक द्वापरयुग्म और जिस राशिमें से चार २ कम (भगवती) सूत्र विवाह पण्णत्ति 48+ एकतीसवा शतक का पहिला उद्देश 488 - पंचमा - Page #2978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र wainamannaamaamannaam खड्डाग दावर जुम्मे, जगरासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरेमाणे एग पजवसिए सेत्तखडाग कलिओगे, से तेणटेणं आव कलिओगे ॥ २ ॥ खुड्डाग कडजुम्म रइयाणं भंते! कओ उववजंति-किं णेरइएहिंतो उववजति तिरिक्ख पुच्छा? गोयमा! णोणेस्इएहितो उववजति एवं परयाओ उक्वाओ जहा वकंतीए तहा भाणियव्यो. ॥३॥ तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइयाउववजति ? गोयमा ! चत्तारिवा अट्ठवा, बारसवा, सोल सवा, संखेजावा, असंखजावा उववज्जति ॥ ४ ॥ तेणं भंते ! जीवा कई उववजंति ? गोयमा ! से जहाणामए पत्रएपवमाणे अज्झव. भावार्थ करते शेष एक रहे सो क्षुल्लक कलियुग्म: अहो गौतम! इसलिये एसा कहा गया यावत् कलियुग्म ॥२॥ अहो भगवन! क्षुल्लक कृत युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं, क्यानरक में से तिर्यंच में से वगैरह पृच्छा? अहो गौतम! नारकी में से नहीं उत्पन्न होते हैं यो व्युत्क्रान्ति(पन्नानासूत्र में)जैसे नारकी का उपपात कहा है वैसा कद्दना, अर्थात् तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य में से उत्पन्न होते हैं. ॥३॥ अहो भगवन् ! वे जीवों एक समय में ल कितने उत्पन्न होते है! अहो गौतम ! चार, आठ, चारह, सोलह, संख्यात व असंख्यात, उत्पन्न होते है. 1}४ ॥ अहो भगवन ! वे जीवों कैसे उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जो कूदता हुवा जाने वाला वगैरे १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी. Page #2979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूत्र भावार्थ * पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र + साणे एवं जहां पंचवीसइमसए अट्ठमुद्देसए णेरइयाणं वत्तव्या तहेव इहवि भाणिवव्त्रा जाव आवप्पओगेणं उववजंति णो परप्पओगेणं उववजंति ॥ ५ ॥ रणप्पा पुढवी खुड्डाग कडजुम्म रइवाणं भंते! कओ उववजंति ? एवं जहा ओहिय णेरइयाशं वत्तव्त्रया सच्चेत्र रयणप्पभाएवि भाणिवव्त्रा जाव णो परप्पओगेणं उववजंति ॥ एवं सक्करप्पभाएचि, एवं जात्र अहे सत्तमाएचि ॥ एवं उ वाओ जहा वकंतीए ॥ असण्णी खलु पढमं, दोच्चेव सरीसीवा तईव पक्खीगाहा ॥ एवं उवत्रातेणेन्या, सेसं तहेव ॥ ६ ॥ खुड्डाग तेओग णेरइवाणं भंते ! कओ उब • पच्चीसवे शतक के आठवे उद्देशे में नारकी की वक्तव्यत्य कही वैसे ही यहांपर कहना यावत् आत्म प्रयोग { से उत्पन्न होते हैं परंतु पर प्रयोग से नहीं उत्पन्न होते हैं. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षुल्लक कृत युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? ऐसे ही जैसे अधिक नारकीकी वक्तव्यता कही वही सब रत्नप्रभायें कहना यावत् परप्रयोग ले नहीं उत्पन्न होते हैं; यों शर्कर प्रभा यावत् सातवी तमतम प्रभा का भी जानना. {यों वत्युक्रान्ति जैसे उपपात कहना. अर्थात् असंज्ञी पहिली नरकमें जावे, दूसरी उरपरिसर्प तीसरी में खेचर यां •{पन्नत्रना सूत्र में कही गाथानुनार सब जानना ॥ ॥ अहो भगवन्! क्षुल्लक त्रेता युग्मवाले नारकी कहां से उत्पन्न एव ती शतक का पहिला उद्देशा Page #2980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी जंति किं णेरइएहिंतो उववातो जहा वक्तीए | तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ? गोयमा ! तिणिवा, सत्तवा, एक्कारसवा, पण्णरसवा, संखेज्ज - वा, असंखेजवा, उववज्जंति ? सेसं जहा कडजुम्मस्म; एवं जाव अहं सत्तमाए ॥७॥ खड्डाग दावरजुम्म णेरइयाणं भंते! कओ उववजंति एवं जहेव खुड्डाग कडजुम्मे वरं परिणाम दोवा, छत्रा, दसवा चउदसवा, संखज्जावा, असखेजावा, सेसं तंचेव ॥ एवं जाव असता || ८ ॥ खुडाग कलिओग णेरइयाणं मंते ! कओ उवजंति एवं जहेब खडाग कडज्जुम्मे णवर परिमाणं एक्कोवा पंचवा णववा तेरसवा संखेज्जावा होवे ! क्या नारकी में से यों व्युक्रान्ति जैसे उपपात कहना. अहो भगवन् वे एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? अहो गौतम! तीन, मात, अग्यारह, पन्नरह, संख्यात, व असंख्यात उत्पन्न होवे, शेष सब कृत युग्म जैसे कहना. यों सातवी पृथ्वी तक कहना ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! क्षुल्लक द्वापर युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यां जैसे क्षुल्लक कृत युग्म का कहा वैसेही कहना परंतु परिमाण दो, छ, दश, चौदह, संख्यात व असंख्यात उत्पन्न होवे. यों सातवी पृथ्वी पन्यत कहना. ॥ ८ ॥ अहो भगवन् ! क्षुल्लक कलि युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं. यों जैसे क्षुल्लक कृत युग्म का कहा वैसे ही कहना परंतु परिमाण एक, पांच, नत्र, तेरह, संख्यात, व असंख्यात उत्पन्न होते हैं. ऐसा कहना. यों सातवी * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी २९३२ Page #2981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र पंचमांग विवाह एण्णत्ति (भगवती) मूत्र -8 असंखेजावा उववजति । सेसं तंव। एवं जाब अहे सत्तमाए । सेवं भंतेर ति जाव विहरइ ॥ इक्कतीसइमस्स पढमो !॥ ३१ ॥ १ ॥ * ॥ कण्हलेस्स खुट्टाम कडजुम्म णरइयाणं भंते ! कओ उववजंति, एवं जहा ओहियगमो जाव णो परप्पओगेणं, णवरं उरवातो जहा वकंतीए, धूमप्पम पुढवी जेरइयाणं सेसं तहेव । धूमप्पभ पुढवि कण्हलेस्स खड्डाग कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति? एवं चैव णिस्व सेसं, एवं तमाएवि, एवं अहंसत्तमाएवि । णवरं उववाओ सव्वत्थ जहा वकंतीए ॥ १ ॥ कण्हलस्स खुड्डाग तेओग णेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चैव पृथ्वी तक कहना. अहो भगवन् ! आपने वचन सत्य है. यों कह कर यावत विचरने . यह तीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ ३१ ॥१॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्याचाले क्षुल्लक कृत युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे औधिक भी गमा कहा वैसे ही कहना, यावत् यह प्रयोग से नहीं उत्पन्न होते है. परंतु व्युत्क्रान्ति(पनवनासूत्र) जैसे उपपात कहना. धूम्रप्रभा नारकी का वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! धूम्रप्रभा पृथ्वी कृष्ण लेश्यावाले क्षुल्लक कृत युग्म नार की कहां से उत्पन्न होते हैं ? ऐसे ही विशेषता रहित कहना. यों तमा व सातवी तमतमा पृथ्वी का कहना, परंतु ब्युत्क्रान्ति जैसे उपप्रत कहना. ॥ ॥ अझे भगवन् ! कृष्ण लेश्या । 4880 एकतीसवा शतक का दूसरा उद्दशा भावार्थ - Page #2982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६४ भावार्थ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी णवरं तिणिवा, सत्तवा, एक्कारसवा, षण्णरसवा, संखेजावा, असंखेजावा, सेसं तहेव. एवं जाव अहेसत्तमाएवि ॥ २ ॥ कण्हलेस्स खुड्डाग दावर जुम्म रइयाणं भंते ! कओ उववजति? एवं चैव णवरं दोवा, छवा, दसवा, चउदसवा, सेसं तंचेव । एवं धूमप्पभाएवि जाव अहे सत्तमाएवि ॥३॥ कण्हलेस खुड्डाग कलिओग णेरइयाणं भंते ! एवं चेव णवर एक्कोवा, पंचवा, णववा, तेरसवा, संखेज्जावा, असंखेजावा, सेसं तंचे । एवं धूमप्पभाएवि, तमाएवि।अहे सत्तमाएवि।सेवं भंते २ त्ति एकतसिइमस्स वितिओ॥३१॥२॥ वाले क्षकल्ल त्रता नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम ! ऐसे ही कहना. या तीन, सात, अग्यारह, पनरह संख्यात व असंख्यात हावे वैसे ही कहना. यों भातवी तमा पृथ्वी पर्यंत कहना. ॥२॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले द्वापरयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम! ऐमे ही कहना परंतु इतना विशेष दो, छ, दश, चौदह संख्यात व असख्यात उत्पन्न होवे, यों धूम्रप्रभा व नीचे की सातवी तमतम 1 प्रभा का कहना. ॥ ३ ॥ अहो भगवन् : कृष्ण लेश्यावाले क्षुल्लक कलि युग्म नारकी कहां मे उत्पन्न होते हैं ? कौरह वैसे ही कहना. परंतु परिमाण एक, पांच, नव, तेरह, संख्यात, व असंख्यात उत्पन्न होते हैं. शेष वैसे ही ऐसे ही धूम्रप्रभा तममभा व नीचे की सातवी तमतम प्रभा का कहना. अहो भमवन् ! आप के वचन सत्य है. यह इकतीसा शतक.का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३१ ॥२॥ *काशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * Page #2983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 488+-- पंचमाङ्ग विवाह पण्णा ( भगवती ) सूत्र गीललेस्स खुड्डाग कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववर्जति, एवं अहेव कण्हलेस्से खुडागकडजुम्मा, वरं उवत्राओ जो वालुयप्पभाए सेसं तंचेव वालुयप्पभ पुढवि णीललेस्स खुडाग कडजुम्म णेरइयाणं, एवं पंकप्पभाएवि । एवं चउवि. जुम्मसु णवरं परिमाणं जाणियन्त्रं, परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए सेसं तेहेत्र ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ इक्कीसइमरस ततिअ उद्देसो ॥ ३१ ॥ ३ ॥ काउलेस्स खुड्डा कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जंति, एवं जहेव कण्हलेस्स खुड्डाकडजुम्मे, णवरं उचवाओ जो रयणप्पभाए सेसं तहेव ॥ रयणप्पभपुढवि काउ ० अहो भगवन् ! नील लेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे कृष्ण लेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म का कहा वैसे ही कहना. परंतु उपपात बालुमभा में शेष वैसे ही. वालुप्रभा पृथ्वी नील लेश्याबाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं वगैरह सब पूर्वोक्त जैसे कहना. यों पंकप्रभा में कहना. यों चारों युग्म में कहना. परंतु परिमाण भिन्न २ कृष्ण लेश्या के उद्देशा जैसे कहना.. अहो भगवन्! आपके वचन सस हैं यों इकतीसत्रा शतक का तीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ अहो भगवन् ! कापोत लेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न ३१ ॥ ३ ॥ होते हैं ? यों जैसे कृष्ण 49 सीसवा शतक का ३-४ उद्देशे 48 २९६५ Page #2984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - चालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 लेस्स खुड्डाकडजुम्म रइयाणं भंते! कओ उववज्जंति एवं चैव । एवं सरप्पभाएवि । एवं वाभावि । एवं चउसुवि जुम्मेसु णवरं परिमाणं जाणियव्वं परिमाणं जहा कण्हलेस उद्देसए सेसं तंचेव सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ एकतीसइमस्स चउत्थे उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३१ ॥ ४ ॥ भवसिद्धिय खुड्डा कडजुम्म परइयाणं भंते ! कओ उववज्जंति किं णेरइए एवं जहेव ओहिओ तत्र णिरवसेसं लावणो परप्पओगेणं उववज्जंति ॥ रयणप्पभा पुढवि भवसिद्धिय खुड्डाकडजुम्मरइयाणं भंते! एवं चेव णिरवसेसं, एवं जाव अहे सन्तमाए। एवं भवसिद्धिय } लेश्यावाले सुल्लक कृतयुग्म का कहा वैसे ही कहना. परंतु उपपात रत्नप्रभा में शेष वैसे ही. अहो भगवन् ! | रत्नप्रभा के कापीत लेश्यावाले क्षुल्लक कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होवे ? ऐसे ही कहना. यों शर्कर प्रभा वालुकप्रभा का कहना. यों चारों युग्म में कहना. परंतु परिमाण कृष्ण लेश्या के उद्देशे जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों इकतीसवा शतक का चतुर्थ उद्देशा अहो भगवन् ! भवासिद्धिक क्षुल्लक कृत युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होने जैसे अधिक का कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना यावत् परप्रयोग से नहीं { संपूर्ण हूवा ॥ ३१ ॥ ४ ॥ से यों उत्पन्न होते हैं. रत्नमभा (भवसिडिक शुलक कृत युग्म नारकी का वैसे ही कहना. यों सातवी तमतमा पृथ्वी पर्यंत कहना. यों * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * २९६६ Page #2985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18+ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र +8+ खुड्डाग तेओग गेरइयावि। एवं जाव कलिओगोत्ति णवर परिमाण जाणियन्वं । परिमाणं पुत्वं भणियं जहा पढमुद्देसए ॥सेवं भंते भंतेत्ति॥ एकतीसइमस्स पंचमो उद्देश॥३१॥५॥ कण्हलेस्स भवासहिय खुड्डाग कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उवयजति ? एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्स उद्देसए तहेव णिरवसेसं चउसुविजुम्मेसु भाणियन्वो जाव अहे सचमपुढवि कण्हलेस्स भवसिद्धिय खुड्डाग ॥ कलिओग गैरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति? तहेव ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एकतीसइयस्स छट्ठो उद्देसो ॥ ३२ ॥ ६ ॥ णीललेस्स भवसिद्धिय चउसुविजुम्मेसु तहेव' भाणियन्वं जहा ओहिय णील. भवसिद्धिक क्षुल्लक त्रेता नारकी का यावत् कलियुग्म मारकी का मानना. परिमाण पहिले कहा वैसे ही कहना. अहो भगवन्! आपके वचनसत्य हैं यह इकतीसवा शतकका पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा॥ ३१ ॥५॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लश्या बाले भवसिद्धिक क्षल्लक कृत युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं. योग जैसे औधिक का कहा वैसे ही कृष्ण लेश्या का उद्देशा चारों युग्म में कहना. यावत् नीचे की सातवी. पृथ्वी के कृष्ण लेश्या वाले भवसिद्धिक क्षुल्लक कलियुग्म कहाँ से उत्पन्न होते हैं यों विशेषता राहत कहना अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह इक्तीसवा शतक का छटा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ ३१॥६॥ ल लेश्या वाले भवसिद्धिक के के चारों गमा में अधिक नीले लेश्या उद्देशा कहा वैसे ही कहना. 484 सीसवा शतक का ६-७ उद्देशा Nagit भावार्थ Page #2986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + लेस्से उद्देसए सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एकतीसइमस्स सत्तमो उद्देशो ॥ ३१ ॥ ७ ॥ काउलेरसे भवसिद्धिय चउसुवि जुम्मेसु तहेव उववातेयन्वो जहेव ओहिए काउलेस्स उद्देसए ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एकतीसइमस्स अट्ठमो उद्देसो ॥ ३१ ॥ ८ ॥ जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसग्ग भणिया, एवं अभवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसग्गा भाणियव्वा, जाव काउलेस्स उद्देसओत्ति ॥सेवं भंते २त्ति ॥ एक्क हादसम॥३॥१२॥ एवं सम्मट्टिीहिवि लेस्सा संजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा णवरं सम्मट्ठिी पढमवितिएसु 4अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .प्रकाशक-राजावादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों इकतीसा शतक का सातवा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ ३१॥७॥ कापोत लेश्या भवसिद्धिक के चारों गमा में वैसे ही, उपपात औधिक कापोत लेश्या जैसे कहना. अहो भगवन् ! आप यस सस्वयों इकतीसवा शतक का आठया उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ ३१॥८॥ __ जैसे भवसिद्धिक के चार उद्देशे कहे वैसे ही ममुच्चय अभवसिद्धिक, कृष्ण लेफ्था वाले अभयसिद्धिक, नील लेश्या वाले अभवसिद्धिक, व कापोत लेश्या वाले अभवमिद्धिक यों चार उद्देशे कहना. अहो भगवन् । आपके वचन सत्य है. यों एकतीसवे शतक के नव से बारह तक चार उद्देशे संपूर्ण हुवे ॥ ३१ ॥२॥१२॥ म एसे ही समदृष्टि की साथ चार उद्देशे कहना, परंतु विशेषता यह कि पहिले दूसरे दो उद्देशे में सातवी - Page #2987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोसुवि उद्देसएसुअहेसत्तम पुढवीसु णउववातेयो सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते रत्ति ॥३१॥१६ 14 मिच्छट्ठिीहिंवि चत्तारि उद्देसग्गा कयन्या जहा भवमिद्धियाणं॥सेवं भंत रत्ति ॥३॥२०॥ एवं कण्हपक्खिएहिवि लेस्सा संजुत्ता चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहेव भवसिद्धिएहिंवि सेवं भंते २ ! त्ति ॥ ३१ ॥ २४ ॥ * ॥ पुक्कपक्खिएहिं एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियबा जाव वालुयप्पाभा पुढवि काउलेस्स सुक्कपक्खिए खड्डाग कलिओग रइयाणं भंते कओ उववर्जति तहेव जाव णो परप्पओगेणं उववज्जति ॥ भावार्थ तमतमा पृथ्वी में समदृष्टि नहीं उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना. शेष सब वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके 1B वचन सत्य है यों इकतीसवे तशक में बारह से सोलह तक उद्देशे संपूर्ण हुवा. ॥३१॥ १२-१६॥ } भवसिद्धिक के चार उद्देशे कहे वैसे ही मिथ्यादृष्टि के भी चार उद्देशे कहना. अहो भगवन् !. आपके 1. वचन सत्य हैं यो हकतीसरे शतक में सोल से बीस तक चार उद्देशे हुये ॥ ३१ ॥१६-२०॥ र कृष्ण पक्षिक के भी लेश्या की साथ चार उद्देशे भवसिद्धिक जैसे कहना. अहो भगवत् । आप के वचन सत्य हैं ॥ ३१ ॥ २०-२४ ॥ 1। ऐसे ही शुक्ल पक्षिक के चार उद्देशे कहना यावत् बालुपमा पृथ्वी के कापुत लेश्या वाछे शुक्ल पक्षिक +8+ पंचांगविवाह पणति (भगवती) सूत्र 4.88 एकतीपा शतक का १६ से २८ उद्देशा 428 Page #2988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एकतीसइमसयस्स अट्ठावीसइमं उद्देसो सम्मत्तो ॥३१॥२८॥ उववाय इकतीसइम सयं सम्मत्तं ॥ ३१ ॥ . कलियुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होवे वगैरह वैसे ही कहना यावत् सत्य हैं. यों इक्वतीसवा सतक का अठावीचा उमेश संपूर्ण हुवा ॥ ३१ ॥ २८ ॥ यों इकतीसवा सशक समाप्त हुवा ॥ ३१ ॥ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी, wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww mer * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * mammmmmmmmm Page #2989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७१ ॥ द्वात्रिंशतम शतकम् ॥ खुडागं कडंजुम्म गैरइयाणं भंते ! अणंतरं उज्वटित्ता कहिं उववजंति किं णेरइएसु है उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, उवट्टणा जहा वकंतीए ॥ तेणं भंते ! a. जीवा एगसमएणं केवइया उव्वटंति ?. गोयमा ! चत्तारिवा अटुवा, वारसवा, है। सोलसवा, संखेजवा, असंखेजवा, उन्वटंति ॥ तेणं भंते ! जीवा कहं उन्वटंति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए एवं तहेव एवं सोचेवगमओ जाव आयप्पओगेणं "उवदृति णो परप्णओगेणं उव्वदंति ॥ रयणप्पभ पुढवि खुडाग कडजुम्म एवं भावार्थ , अहो भगवन् ! क्षुल्लक कृतयुग्म नारकी अंतर रहित उद्वर्त कर कहां उत्पन्न होते हैं. क्या नारकी में वा तिर्यंच में उत्पन्न होते हैं. यों जैसे व्युत्कान्ति(पत्रवणासूत्र)में उद्वर्तना कही तैसी कहना. अहो भावन! वे एक समय में कितने उद्वर्तते हैं?अहो गौतमाचार,आठ,बारह,सोलह,संख्यात व असंख्यात उद्वर्तते हैं.अहो भगवन्! वे जीवों कैसे उद्वर्तते हैं ? अहो गौतम ! जैसे कूदता हुवा जानेवाला यों पूर्वाक्त प्रकार कहना यावत् पर-23 प्रयोग से नहीं उद्वर्तते हैं. रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षुल्लक कृतयुग्म यो रत्नप्रभा का जानना. ऐसे ही नीचे की सातवी तमतमा पृथ्वी पर्यन्त कहना. यों क्षुल्लक त्रेता, क्षुल्लक द्वापर युग्म, व क्षुल्लक कलियुग्म का जानना. पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 41 88. बत्तीसवा शतकका पहिला उद्देशा 4.88 १. . Page #2990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७२ - 41 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ रयणप्पभाएंवि, एवं जाव अहे सत्तमाएवि ॥ एवं खंडाग तेओगे, खड्डागदावरजुम्मे खुडाग कलिओगे, णवरं परिमाणं जाणियव्वं, सेसं तंत्र ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ बत्तीसमस्स सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३२ ॥ १ ॥ कण्हलेस्स कडजुम्मे गेरइया, एवं एएणं कमेणं जहेत्र उववाए सए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उवट्टणसएवि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा णिरवसेसा, णवरं उज्वटंत्तित्ति अभिलावो भाणियन्यो ॥ सेसं संचव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥ उवट्टणा सयं सम्मत्तं ॥ ३२ ॥ वतीसमं सयं सम्मत्तं ॥ ३२ ॥ x परिमाण भिन्न २ जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य है. यह बत्तीसरा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३२ ॥ १ ॥ . जैसे उपपात शतक में अट्ठाइस उद्देशे कहे. वैसे ही इसी क्रम से उद्वर्तना शतक में भी अट्ठाइस उद्देशे कहना. यहां पर उपपात के स्थान उद्वर्तना कहना. शेष सब पूर्वोक्त जैसे, अहोभगवर! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर यावद विचरने लगे. यह उद्वर्तना शतक संपूर्ण दवा ।। ३२ . प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी * wwwwanmmmmm Page #2991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88+ * पंचमाङ्ग विगह पणत्ति (भगवति ) सूत्र ॥त्रयात्रिंशतम शतकम् ॥ कइविहाणं भंते ! एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा एगिंदिया पण्णत्ता तंजहा पुढवी काइया जाव वण्णसइ काइया, पुढवि काइयाणं भंते ! कइविहे ५० गोयमा! दुविहा पणत्ता तंजहा सुहुम पुढवि काइयाय, बादर पुढवि काइयाए ॥ १ ॥ सुहुम पुढवि काइयाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा दुविहा प० तंजहा-पजत्त सुहम पुढवि काइया, अपज्जत्त सुहुम पुढवि काइया ॥ वादर पुढवि काइयाणं भंते ! कइ. बिहा पणत्ता ? एवं चेव ॥ एवं आउ काइयावि एवं चउक्कएणं भेदेणं भाणियन्वा बत्तीसवे शतक में उद्वर्तन कहा. उपपात व उद्वर्तन एकेन्द्रिय में होता है इसलिये एकेन्द्रिय का कथन करते. अहो भगवन् ! एकेन्द्रिय के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय के पांच भेद कहे हैं. पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो भगवन् ! पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वीकाया के दो भेद कहे हैं. सूक्ष्म पृथ्वीकाया व वादर पृथ्वीकाया. अहो भगवन् ! मूक्ष्म पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! सूक्ष्म पृथ्वीकाया के दो भेद कहे हैं. १ पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया व अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया. अहो भगवन् ! बादर पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम है " तेत्तीसवा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ 48 Page #2992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी Amarware जाव वणस्सइ काइयाणं ॥ १॥ अपजत्त सुहुम पुढवि काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्टकम्म पगडीओ प० तंजहा-णाणवरणिजं जाव अंतराइयं ॥ पजत्त सुटुम पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडिओ पण्णताओ ? गायमा ! अट्टकम्म पगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णाणावरणिजं जाव अंतराइयं ॥ अपजत्त वादर पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्मा पगडीओ पण्णताओ ? गोयमा ! एवं चेव ॥ पजत्त वादर पुढवी काइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ प. एवं चेत्र ॥ एवं एएणं कमेगं जाव वायर वणस्सइ काइयाणं अपज्जताणंति ॥ २ ॥ अपजत्त पृथ्वीकाया के दो भेद-पर्याप्त व अपर्याप्त. यों अप्काय यावत् वनस्पतिकाया पर्यन्त सब के चार २ भेद कहना ॥ १ ॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त भूक्ष्म पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कई: ? अहो गौनम ! आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. जिन के नाम ज्ञानाबरणोय यावत् अंनराय. अहो भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय यों आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. अहो भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कहीं ? अहो गौतम! वैसे ही आठही कहना. पर्याप्त बादर पृथी काया का वैसे ही आठ कहना. यों बादर वनस्पति काया पर्यंत *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वाला प्रसादजी. भावार्थ 1 Page #2993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8+ पंचमाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) सुत्र ++ सहम पढवी काइयाणं भंते ! कइकम्मप्पगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविह बंधगावि अविह बंधगावि ॥ सत्तबंधमाणा आउवजाओ सत्तकम्मपगडीओ बंधति, अट्रबंधमाणा पडिपुण्णाओ अट्टकम्मपगडीओ बंधति ॥ पजत्त सहुम पुढवीकाइयाणं ते ! कइकरपाडी एवं चेय, एवं सब्वे जाव पज्जतवादर वणस्सइकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ बंधति, एवं चम ॥ ३ ॥ अपजत्तमुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ वेदति ? गोयमा ! चउद्दसकम्मपगडीओ वेदेति, तंजहा-णाणा वरणिज जाय अंतराइभ ; सोइंदियवाझं, चविखदियवझं, घणिदियवझं, जिमिंदियआठ २ ही कर्म प्रकृति कहना. ॥२॥ अझो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया कितनी प्रकृतियों का बंध है, करे ? अहो गौतम ! सात अथवा आठ कर्म पतियों का बंच करे, मात का बंध आयुष्य कर्म वर्जन कर और आठ प्रतिपूर्ण आठ है। को बध बांधे. पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया कितने कर्म प्रकृतियों का बंध करे वैसे ही कहना.।।३।। अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया कितनी कर्य प्रकृतियों वेदे ? अहो गौतम ! चौदह प्रकृतियों चंदे.जनावाणा यावत् अंतराय, श्रोत्रेन्द्रिय वध्ये, चक्षुइन्द्रिय वध्य, घाणेन्द्रिय वध १. वा उसे कहते हैं कि नो जिन के नहीं हैं. श्रोतेन्द्रिय मतिज्ञान को वद्य से चाइन्द्रिय चक्षुदर्शन के वद्य से. T१ घनेन्द्रिय. अचक्षुदर्शन के वध से यो सब आनना. स्पर्शेन्द्रिय नपुंसक वेद वगेरा एकेद्रिय में हैं. इस से नहीं कड़े । तेत्तीसरा शतक का पहिला उद्देशा 498 भावार्थ - Page #2994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७६ बझं, इत्थिवेदवझं, पुरिसवेदवझं ; एवं चउक्कएणं भेदेणं जाव पजत्तवादर वणरसइ काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! एवं चेव चउद्दस कम्म पगडीओ वेदोत ॥ सेवं भंते. भंतेति ॥ तेतीसइम. सयस्स पढमो उद्देसो॥ ३३ ॥ १.।। कइविहाणं भंते ! अगंतरोवत्रण्णगा एगिदिया प० ? गोयमा ! पंचविहा' अणंतरोववण्णगा, एगिदिया पतंजहा-पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया । अणंतरोववण्णगाणं भंते ! पुढवीकाइया कइविहा प०? गोयमा ! दुविहा प० तं• सुहुम पुढवीकाइयाय, बादावर पुढवीकाइयाए ; पवरं दुपदेसिएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया ॥ अणंत मावार्थ जिव्हन्द्रिय वध्य, स्त्री वेद वध्य और पुरुष वेद वध्य यों एक २ के चार भेद कहना. यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकाया कितनी कर्म प्रकृतियों वंदे. अहो गौतम ! वैसे ही चौदह कर्म प्रकृतियों वंदे. अहो भगवन् ! आपके वचन मत्य यो तेत्तीसवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३३ ॥१॥ १. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्न एकेन्द्रिय के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अनंतरोत्पत्रक एकेकन्टिय के पांच भेद कहे हैं. पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पत्र पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! अनंतरोत्पन्नक पृथ्वीकाया के दो भेद कहे हैं जिन के नाम. मूक्ष्म 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषी * प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * Page #2995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * |२९७७ विवाह पश्यत्ति ( भगवती ) सूत्र 4884 रोश्वग्णग सहम : पुढवीकाइयाणं. भंते ! कइकम्मपगडीओ. ? गोयमा !. अट... कम्मपगडीओ प.तं. गाणावरणिजं जाव अंतराइयं । अणंतरोववण्ण बादर पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ पगोयमा ! अट्ठकम्मपगडीओ प० तंजहाणाणा वरणिजंजाव अंतराइयं,एवं चेव,एवं जाब अर्णतरोववण्णग वादर वणस्मइकाइयाणंति अणंतरोवनण्णग सुहुम पुढवी काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधति? गोयमा! आउवजाओ सत्तकम्मपगडीओ बंधति ॥ एवं जाव अणंतरोक्षण्णग वादर वणस्सइ . तेजीसवा शतकाका पहिला उद्देशा भावाप्रवीकाया व बादर पृथ्वीकाया. इस में विशेषता यह है कि अनंतर सो प्रथम समय में उत्पन हुवे पृथ्वी काया: अपर्याप्त ही रहते हैं इसलिये पर्याप्त के अभाव से दो ही भेद पाते हैं. अहो. भगवन् ! अनंतरोF मूक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. जिन के नाव-बानावरणीय यावत अंतराय. अहो भगवन् ! अनंतर बादर पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ! अहो गौतम ! ज्ञानावरणीन यावत् अंतराय, यो आठ कर्म प्रकृतियों कहीं. ऐसे ही अनंतरोत्पमा बादर वनस्पतिकीयां तक जॉनना. अही भगवन् ! अनंतरोपन मूल्य पृथ्वीकाया. कितनी कर्मः प्रकृतियों 1 वां जहाँ गौतम ! आयुष्य वर्ष का. सति कर्म प्रकृतियों बांधे ऐसे ही अनंतरोत्पत्रक पावर बसस्पति Page #2996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18sabsehenneth EPILES काहयति ॥ अणंतरोपवण्णग मुहुम पुढवी काइयाणं भंते..!' कहकम्मपगडाआ... - टेति ? गोयमा । वउद्दस कम्मपगडीओ वेदेति, तंजहा-णाणावरणिजं तहेव पुरिस . वेदकजं ॥ एवं अणंतरोपवण्णग बादर वणस्सइकाइयंति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ ततीसमरस मयस्स वितिओ उद्देसो सम्मची ॥ ३२ ॥ २ ॥ काविहाणं भंते!परंपरोक्वण्णगा एगिदियाप०?गोयमा!पंचविहा परंपरोववण्णगाए गिदिया पण्णचा, तंजहा-पुढवीकाइया चउक्कभेदो जहा ओहिय उद्देसए ॥ परंपरोववण्णग अपज्जत्त कापा तक जानना. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पत्रक सूक्ष्म पृथ्वीकाया कितनी कर्म प्रकृतियों वेदते हैं ? अहो गौतय ! चउदह कर्म प्रकृतियों वेदते हैं. जिन के नाम ज्ञानावरणीय पावत् पुरुष वेद वध्य. देने ही अनंतर बादर वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन यह तेत्तीसवा शनक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हवा ॥३३ ॥२॥ । अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न एकेन्द्रिय के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम : परंपरा उत्पन्न केन्द्रिय के पांच भेद को. जिन के नाम पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. यों एकेक का औधिक जैसे चार २ भेद करना. अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी कर्म. पाशा-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी * भावा Page #2997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र २९७९ (भयवती) मत्र पति सुहम पुढवीकाइयाणे भंते ! कइकम्मप्पगडीओ प• एवं एएणं अभिलावणं जहा ओहिये उद्देसए तहेब हिरवस्सं भाणियव्वं जाव चउद्दसवेदेति ॥ सेवं भंते! भंतत्ति॥ ततीसइमस्स सयस्स ततीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥३३॥३॥ + अणंतरोगाढा जहा अणंतरोबवण्णगा ॥ ३३ ॥ ४ ॥ x परंपरोगाढा जहा परंपरोव. वण्णगा ॥ ३३ ॥ ५॥ + अणंतराहारगा जह अणंतरोववण्णगा ॥३२॥ ६॥ + परंपराहारगा जहा परंपरोववण्णगा ॥ ३३ ॥ ७॥ + . अणंतपजचगा जहा अणतरोववणगा ॥ ३३ ॥ ८॥ + परंपर प्रकृतियों कही ? यो इस अभिलापसे जैसे औधिक का उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. पावत् चदामकृति चेदते. अहो भगवन्! आपके वचन सत्य है. यह तेत्तीबा शतकका तीसरा संपूर्ण हुवा ॥ १३ ॥३॥ + ॥ अनंतर अवगाट का अनंतर उत्पम जैसे कहना ॥ ३३॥४॥ नई परंपरा अवमाढ का परंपरा उत्पन्न जैसे कहना ॥ ३ ॥५॥ + ॥ अनंतर आहारक का अनंवर उत्पब जैसे कहना ॥ १३ ॥३॥ * ॥ परंपरा आहारक का परंपरा उत्पन्न जैसे करना || # + ॥ अनंतर पर्याप्त का अनंगर उत्पम जैसे काannx : 421वीसबा शतकका पहिला उद्देशा 418 भावार्थ Page #2998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पजत्तगा जहा परंपरीक्वष्णगा ॥२३॥ चरिमावि जहाँ परंपरोववण्णगा तहेवः ॥ ३३ ॥ १०॥ + . .. एवं अचरिमावि ॥ ३३ ॥ ११ ॥ . . सेव भंते रत्ति आर. विहरइ एवं एए एकारस उद्देसगा । पढम एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ॥ *:: : +'. कइविहाणं भंसे ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पणत्ता ? गोयमा पंचविहा कण्हलेस्सा... एमिंदिया पण्णता, तंजहा पुढर्वाकाइया जाच वणस्तइकाइया ॥ १ ॥ कण्हलेस्सा भंते ! पुढवीकाइया कइविहा प• ? गोयमा ! दुविहा प्र• तंजहा-सुहुम पुढवीपरंपरा पर्याप्त का परंपरा उत्पन्न जसे कहना ॥ ३३॥९॥ ॥ चरिम का परंपरोत्पन्न जैसे कहना ॥ ३३ ॥ १० ॥ + चरिम जैसे अचरिम का कहना ॥ ३३ ॥११॥ + यों इग्यारह उद्देशे हुवे. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर गौतमस्वामी विचरने लगे. यह पहिला एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुआ.॥ ३३ ॥१॥ + .... ....... + . अहो मगान् ! कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय कितने कह है ? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय के पांच भेद कहे हैं. पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो मेगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले पृथ्वीकाया के. प्रकाशक-राजाबहादुर लामा मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ Page #2999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marManow-movie 488 पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती)सूत्र 482 काइयाय, वादर पुढवीकाइयाइ ॥ कण्हलेस्साणं भंते ! सुहम पुढवीकाझ्या कइविहा १.एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कभेदो जहेब ओहिए उद्देसए जाव बणस्सइकाइयन्ति । अणेतरोपवण्णग कण्हलेस्स अपजस सुहम पुवढीकाइयाणं भंते ! कइ. कम्मपगडीओ पण्णताओ, एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ अणेतरोववणग उद्देसओ तहेव पण्णत्ता, तहेब बंधति, तहेब वेदेति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥१॥॥ कइविहाष्यं भंते ! अपतरोबवण्ागा हलेस्सा एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! दो भेद कहे हैं जिन के नाम. सूक्ष्म पृथ्वी काया क बादर पृथ्वी-2 काया. अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले सूक्ष्म पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! दो. E भेद कहे हैं यो इस क्रम से एकेक के चार २ भेद बौधिक उद्देशा जैसे वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले अपर्याह सूक्ष्म पृथ्वी काया को कितनी का प्रकृतियों कही । यो इस क्रम से जैसे औधिक अनंतरोत्पत्रक उद्दशा कहा वैसे हो कहना. बम ही बांधी का व वेदने का कहना..अहहे भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ १. अहो भगवन् ! अतरोन कृष्ण लेश्यायाले । एन्द्रिय कितने. कहे हैं ? अहो मौतम ! पांच, अनंतरोल्पन्न कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय कहे हैं. यों इस | - तेत्तीसंवा शतक का पहिला उद्देशा GE भावार्थ T HA -LAAIu3 Page #3000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ पंचविहा अणंतरोववण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया, एवं एएणं अभिलावणं तहेव दुपदो भेदो जाव वणस्सइ काइयत्ति ॥ अणंतरोवषण्णगा कण्हलेस्सा सुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइक्रम्मपगडीओ पण्णताओ, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिओ अणंतरोव घण्णगाणं उद्देसओ तहेव जाव वेदेति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ २ ॥ कइविहाणं भंते! परंपरोक्वण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णता ? गोयमा ! पंचविह परंपरोवषण्णगा कण्हलेस्सा एगिदिया प० तंजहा-पुढवीकाइया, एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कभेदो जाव वणस्सइकाइयत्ति ॥ परंपरांववण्णगा कण्हलेस्स अपजत्त सुहुम पुढवीकाइयाणं क्रम से दो भेद वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्ना कृष्ण लेश्यागले मूक्ष्म धीकाया को कितनी कर्म प्रकृनियों कही? यों इन अभिलाप से औधिक जसे अनंतरोत्पन्नक के उद्देशे जैसे कहना यावत् वदते हैं. ो भावन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ २॥ अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! पांच परंपरा उत्पन्न कृष्ण लेण्यावाले एकन्द्रिय कहे हैं. यों इभ अभिलाप से वनस्पतिकाया पर्यन्त चार भेद कहना. अहो भगवन् ! परंपरोत्पन्नक कृष्ण लेश्यावाले अपर्याप्त मक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? यों औधिक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. भावार्थ । Page #3001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २९८ ( भगवती ) सूत्र पंचमान विवाह पत्ति भंते ! कइकम्मपगडीको पण्णत्ताओ, एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिओ परंपरोव. वण्णग उद्देसओ तहेव जाब वेदेति ॥ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव आहिओ एगिदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्णलेस्स सतेवि भाणियन्वा जाव अचरिम चरिम कण्हलेस्सा एगिदिया ॥ वितियं एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ २॥ + जहा कण्हलेस्सेहिं भणियं एवं णीललेस्सेहिं वि सयं भाणियब्वं, सेवं भंते भंतेत्ति तत्तियं एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥३॥ x x एवं काउलेस्सहिं वि सयं भाणियव्वं, गवरं काउलेस्सेत्ति अभिलाओ भाणियवो ॥ घउत्थं एगिदिय संयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ४ ॥ में जैसे परंपरा उत्पन्नक उद्देशा कहा वैसे ही कहना. यावत् वेदते हैं. यों इस क्रम से जैसे औधिक के अग्यारह उद्देशे कहे वैसे ही कृष्ण लेश्या के अग्यारह उद्देशे कहना. यावत् अचरिम कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय. दूसरा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुवा ॥३७॥२॥ जैस कृष्ण लेन्या का कहा वैसे ही नील लेश्या के इग्यारे उद्देशे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह तीसरा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हवा ॥३३॥३॥ ऐमे ही कापोत लेश्या के इग्यारे उद्दर्श भी कहना. परंतु कापोत लेश्या का अभिलाप कहना. यों चौथा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुवा. .418+ तेत्तीसवा शतक का २-३-४ उदेशा 48 भावार्थ 7 48 | Page #3002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .. कइविहाणं भले । भवसिद्धिया एगिदियः १. ? गोयमा ! पंचविहा भयसिद्धिया एगिदिया पण्णत्त, तंजहा-पुढवीकाइयाः जाव वणस्सइकाइया, भेदो चउक्कओ जाब वणस्सइकाइयातिः ॥ भवालिडिया पजस सुहुप्त पुढवीका. इयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ बंधइ, एवं एएणं अभिलावणं जहेब पढमिजगं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धिय सयपि भाणियर उहेसम्ग परिवाडी तहब. जाय अचरिमित्ति ॥ सेवं भते ! भंतेत्ति ॥ पंचमए एगिंदिर सयसम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ५ ॥ क्इविहाणं भंते ! कण्ह लेस्सा भवसिद्धिया एमिंदिया पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा अहो भगवन ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने कहे है ? अहो गौतम ! बांच भवमिद्धिक एकेन्द्रिय श्रीकाया यावत् वनस्पतिकाया यों चार भेद बनस्पतिकाया पर्यना कहना. अहो. भगवन् ! क पर्याप्त सुक्ष्म पृथ्वीकाया कितनी प्रतियों ? यो इस क्रम में जैसे पहिला एकन्द्रिय शतक कहा वैसे. ही भवसिद्धिक शतक चरिम पर्यन्त इग्यारे उद्दश कहना, अहो भगवन् ! आपके बचन मत्य हैं. यो पांचवा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३३ ॥५॥ +. . अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने कडे हैं ?: अहो गौतम् ! पांच कृष्ण - • प्रकाश-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायनी मालामसादजी - भावार्थ 1 Page #3003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प ९८५ कण्हलेसां भवसिद्धिया एगिदिया पण्णचा, तंजहा पुढवीकाइया जाव वणसइ काइया ॥ कण्ह लेस्स भवसिद्धिय पुढवीकाइयाणं भंते ! कइविहा । पण्णत्ता ? गोपमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-सुहुन पुढवीकाइयाय वादर पुढवीकाइयाय, ॥ कण्ह लेस्स भवसिद्धिय सुहम पुढवीकाइयाणं भंते कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्तगाय अपजत्तगाय, एवं वायरावी ॥ एवं एएणं अभिलावणं तहेव व उक्को भेदो भाणियन्वो ॥ कण्हलेस्सा भवसिडिय अपजत्ता मुहुम पुढधीकाइयाणं भंते कइ कम्मरगडीओ पण्णत्ताओ ? एवं एएणं अभिलावणं जहेष भावार्थलेश्यापाले मसिद्धिक एकेन्द्रिय कहे हैं. जिन के नाय-पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो भग वन् ! 'कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक पृथ्वीकाया के कितने भद्र कहे हैं ? अहो गौतम ! कृष्ण लश्यावाले भवसिद्धिक पृथ्वीकाया के दो भेद कह हैं. सूक्ष्म और बादर. अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यााले भवसिद्धिक सूक्ष्म पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ?अहो गीतम! दो भेद कहे हैं. पर्याप्त और अपर्याप्त. यों बादर clic के भी दो भेद जानना., यो इस अभिलाप से चार २ भेद कहना. अहो भगवन् ! कृष्ण लेझ्यावाले मासिद्धिक अपर्यास मूक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी प्रकृतियों कहीं ? यों इस अभिलाप से जैसे अधिक विवाह पण्णति (भगवती) स्त्र. 484 पंचा तेचीसवा शतक का हा उद्दशा Page #3004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ ओहिए उद्देसए तहेव जाव वेदेति ॥ ॥ काविहाणं भंते ! अणतरोववण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णचा ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोबवण्णगा जाव वणस्सइ काइया । अणंतरोव वण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया पुढवीकाइयाणं भंते ! कइविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा ५० तंजहा-सुहुम पुढत्रीकाइयाय, वादर पुढधीकाइयाय, एवं दुपओ भेदो ॥ अणंतरोववण्णगा, कण्हलेस्सा भवसिद्धिय मुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ ५० एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ अणंतरोववण्णग उद्देसओ तहब जाव वेदेति ॥ २ ॥ एवं एएणं अभिभावार्थ कहा जैसे ही कहना. यावत् वेदते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने कहे हैं ! अहो गौतम ! पांच भेद कहे हैं. अनंतरोत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो भगवन् ! अनंतरानक कृष्ण लेश्यावाले भवसिदिक' पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! दो भेद कहे हैं. सूक्ष्म पृथ्वीकाया व. बादर पृथ्वीकाया. यों दो पद कहना. यों यावत् अनंतरोत्पन्नक कृष्ण लेश्याबाले भामिद्धिक. सूक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी 1कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! उक्त अभिलाप से जैसे औधिक अनंतरोत्पत्र उद्देशा का वैसे ही 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पकाधक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #3005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ' AM २९८० पंचमांग विवाह षण्णनि (भगवती) सूत्र लावणं एकारसवि उद्देसग्गा तहेव भाणियन्या जहा ओहियसए जाव अचरिमोचि ॥ छटुं एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ६॥ ॥ जहा कण्ह लेस्स भवसिद्धिएहि सयं भणियं एवं गीललेस्स भवसिद्धिएहिंवि सयं भाणियब्वं ॥ सत्तम एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ७॥ एवं काउलेस्स भवसिद्धि एहिंवि सयं ॥ अठमं एगिदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ८॥ . कइविहाणं भंते ! अभवसिडिया एगिरिया प• ? गोयमा ! पंचविहा अभवसिद्धिया एगिदिया प• तंजहा-पुढवीकाइया जाव कणस्सइकाइया ॥ एवं जहेव भवसिद्धियावन् वेदते हैं. यों इसी क्रम से अग्यारह देश औधिक जैसे अचरिम पर्यन्त कहनाः यों छठाई है एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुदा ॥ ३३ ॥ ६॥. . जैसे कृष्ण लश्या वाले भवसिद्धिक का शतक कहा वैसे ही नील लेण्या वाले भवसिद्धिक का शतक कहना. यो सातवा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ३३ ॥ ७॥ ॥ ऐसे ही कापुर सेश्या काले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक जानना. यों आठवा शतक संपूर्ण ॥ ३५ ॥ ८ ॥ । बहो मगवन् ! अभवसिदिक एकेन्दिप कितने को है ! बदो गौवम ! अमवसिदिक एकेन्द्रिय पांच सत्तासयासतक का ७-८-९ उद्दशा भावार्थ 11 Page #3006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८८ 1.अमोलक ऋापनी हवं भणिय, एवं गीलंलेरस अभवसिद्धियः संयं, णवरं पत्र उद्देसगा परिम अचरिम : 1 . उद्देसगवजं, सेंसं तहेव ॥ णवंम एमिंदिय सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ ९॥ . . . * एवं कण्हलस्स अभवसिंडिय एगिदिय सपि ॥ दसमं एगिदियं सयं ॥३३॥१॥ णीललेस्स अभवसिद्धिय एगिदिएहिं सयं ॥३३॥११॥ * काउलेरस अभवसिडिय } सयं ॥३३॥१२॥ * एवं चत्तारि अभवसिद्धिया सयाणि णव २ उद्देसगा भवति । 18 एवं एताणि बारसवि एगिदिय सयागि भवंति ॥तेत्तीसइभ सयं सम्मत्तं ॥ ३३ ॥ भावार्थडे हैं पृथ्वी काया यावन् वनस्पति काया यों जैसे भवमिद्धिक का शतक कहा वैसे ही अभवसिद्धिक- का क.कहना. परंतु, यहांपर चरिम व अचरिम में दो उद्देशा कहना नहीं. नव. उद्देशे ही कहना ॥ यो नववा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हु॥३३॥९॥ * ॥ एसेही कृष्ण लेश्या अभवसिद्धिक कहना यो दशवा एकन्द्रिय शतक संपूर्ण हुया ॥ ३३ ॥ १०॥ . * . । यो नील लेया का एकोन्द्रिय शक संपूर्ण दुवा यो अग्यारहवा एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हु॥ ३३ ॥ ११॥ * ॥ ऐसे ही कापोत लेश्या वाले अभवीसीद्धक का कहना. यों बारहवा एकेन्द्रिय शतक हुवा. ॥ ३३ ॥ १२॥ *: यो चार अभत्रसिद्धिक शतकों में नवर उद्देशों कहना. यो सबमीलाकर एकोन्द्रिपके बारह शतक हुए ॥३३॥ खि तेंतीसवा शतक समाप्तम् ॥ ..... प्रकाशक राजावहादुर लोला सुखदेवसहायजी-ज्वालामसादजी अनुवादक-बालब्रह्मचा Page #3007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८९ पंचमा विवाह पणात भगवती । मंत्र बइविहाणं भंते ! एगिदिया पण्णता! गोयमा ! पंचविहा एगिदिया पणती तंगहा. पुढ़वीकाइया जाव वणरसइकाइया ॥ एवं मेतेवि चउक्कएणं भेदेणं भाणियचा जाव वणस्सइकाइया ॥ १ ॥ अपजता सुहुम पुढवा काइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबोए पुरस्थिमिले चरिमंते समोहए समोहएता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिले चरिमंते अमजता सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उक्वजित्तए, सेणं भंते ! कइ समएइणं विग्गहेणं उववज्रजा? गोयमा ! एगसमइएणवा, दुसमइएणवा, तिसमइएणवा, बिग्गहेणं उवकलेजा ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ एग समइणका । तैतीसवे शतक में एकेन्द्रिय का कथन किया, चौतीसवे शतक में भी एकेन्द्रिय का कथन प्रकारांतर से करते हैं. अहो भगनन् ! एकेन्द्रियं कितने कहे हैं ? अहो गतम ! एकेन्द्रिय पचि कहे है. पृथ्वीकाया मावतू बनस्पतिकाया, यो एकेकके चार २ भेद से वनस्पतिकाया पर्यंत कहना. ॥॥ अहाँ भगवनू ! इस रकममा पृथ्वी के पूर्वके चरिमति में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात से काल कर के इस रनमभा पृथ्वीकाया के पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे दे कितने समय की विवागवि उत्पन होवे ? भो गौवम! एक समक, दो- समय अथवी बीन Nag चौतीमा सतक की पहीला अशा भावार्थ Page #3008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९० दुसमइएणवा जाव उववज्जेज्जा ? एंव खलु गोयमा ! मए सत्तसेढीओ पण्णचाओ तंजहा-उज्जुआयता, सेढी, एगओ वंक, दुहओ वंका, एगओ खुहा, दुहओ खुहा, चकवाला, अडचक्कवाला ॥ उज्जुआयया सेढीए उववजमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उबवजेजा ॥ एगओ वंकाएसेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्ग्रहेणं उववजेजा, दुहओ बंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विरग्गहेणं उबवज्जेज्जा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव उववज्जेजा॥१॥अपजता हुम पुढवीकाइयाणं भंते! इमीसे रयणप्पभाए 4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनरी * प्रकाशक-राजाबहादुरलाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी # भावार्थ समय की विग्रह गति से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि एक समय दो। समय व तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हो? अहो गौतम! मैंने श्रेणियों सात कही हैं जिन के नाम११ रुजुभायता श्रेणि, यह मरण स्थान से उत्पत्ति स्थान पर्यन्त समश्रेणि रहती है. २ जो मरंण स्थान नीकलते वक्र व उत्पत्ति स्थान में प्रवेश करते सहल वह एक वक्र श्रेणि, जो नीकलते भी वक्र व प्रवे करते भी वक्र नह दो वक्र श्रेणि, ४ जो मरण स्थान व उत्पत्ति स्थान उपर या नीचे होकर एक तरफ ट्टी जो उपर या अधों अथवा अधो या उपर गमन होवे वह दोनों तरफ टीजो वर्तुलाकार में परिभ्रमण करे वह पूर्ण चक्रवाल श्रेणि और ७ जो अर्ध चक्रमाला होवे सो अर्ध चक्राकार श्रेणि. इन सातश्रेणि Page #3009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१५ पुंढवीए पुरच्छिम चरिमंते समोहए समोहएत्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवाए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पजत्ता सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उवधाजित्तए, सेणं भंते ! कइ सेमएणं विग्गहेणं उवबजे जा ? गोयमा ! एग समइएणवा, दुसमइएणवा, सेसं तंचेव जाव से तेण?णं जाव विग्गहेणं उवनज्जेज्जा, २एवं अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइओ पुरथिमिले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते वादर पुडवीकाइएसु अपजत्तएसु उववातेयव्वा ३,ताहे तेसु चेव पजत्तएसु४, एवंआउक्काइयसुवि, अपजस्तएसु उववातेयव्वा, ताहे तेसु चेव पजत्तएसु, एवं आउकायसुवि चत्तारि आलावगा भावार्थ में से ऋज आयात श्रेणी से जो जीव उत्पन्न होवे वह एक ही समय में उत्पत्ति स्थान को प्राप्त करलेता है. जो एक वक्र श्रेणि से उत्पन्न होने वह दो समय में उत्पति स्थान प्राप्त करता है, क्यों की एक समय ऋतु जाते और दुसरा समय पीछा फीरते. और जो दो वक्र श्रेणि से जावें वह तीन समय में उत्पत्ति । स्थान को प्राप्त करता है. अहो गौतम ! इस कारन से ऐमा कहा गया है यावत् उत्पन्न होवे ॥२॥ अहो! 3 भगवन् ! इसे रत्नप्रभा में पूर्व के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात से काल करके जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम के चरिमांत में पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य है .. पंचांग विवाह पण्णति (भगवती) मूत्र 498 rammammmmmmmmarrrrrrrent . १348 चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा -4884 498 Page #3010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - है सुहुमेहि अपजत्तएहि १, ताहे पजत्तएहि २ वायहिँ अपजतपहिं ३, ताहे पजत्तएहिं ४, उववातेयव्यो ॥ एवं चेत्र सुहुमं तेउकाइएहिंवि अपज्जत्तएहिं ताई. पजत्तरहिं उबवातयन्नो ॥ २ ॥ अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे | २९९२ रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहएत्ता जे भविए मणुसखेते अपनत्त वादर तेउकाइयत्ताए उववजित्तए सणं भंते ! कति समएणं विग्गहणं हावे. वह किनने समय मे विग्रगति से उत्पन्न हो ? अहो गौतम ! एक समय दो समय यों शेष वैसे ही कहना. यावत् इसलिये एसा कहा गया है. यावत् उत्पन्न होवे. ऐसे ही अपर्याप्त सूक्ष्मा पृथ्वीकाया पूर्व के चरिमान में काल करके पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त आदर पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने का कहना. ऐसे ही उनी के पर्याप्त में उत्पन्न होने का कहना. पेमे हा अपकाया के अपर्यत, चार आलापक कहना. १ सूक्ष्म अपर्यप्ता, २ मूक्ष्म पर्याप्ता.३ बादर अपर्याप्त व ४ बादर पर्यप्त. ऐसे ही सूक्ष्म तेउकाया के पर्याप्त व अपर्याप्त में उत्पन्न होने का कहना. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्ती के पूर्व के चरिमति में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात से काल करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त चादर देउकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे तो कितनी समय के विग्र से उत्पन्न होवे ? शेष बैस, ही कहना.. .प्रकोषक-राजविहादुर लाला मुखदवस हायमी बाला प्रसादनी - Mara - Page #3011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९३ 2. उबवजेजा, सेसं तंचेक, एवं पजत्ता बादर तेउकाइत्ताए उबवातेयवो; वाउकाइएसु सुहुमवादरेसु. जहा आउकाइएसु उववाइओ, तहा उबवातेयधो; एवं रणस्सइ काइएसुवि ॥२॥ पजत्ता सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए । एवं पजत्त सुहुम पुढवीकाइएसुवि, पुरच्छिमिल्ले चरिमंते.समोहणवेत्ता,एएचक्कमेणं एएसु चैव वीससु ठाणेसु उववाएयव्वो जाव वादर वणस्सइ काइएसु पज्जतएसुवि४. ॥ एवं अपज्जए वादर पुढीकाइआवि, एवं पजत्त वादर पुढीकाइओवि, ८० ॥ एवं आउकाइए. सुवि चउसुवि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंत समाहयाए चव वत्तव्यया; एएसु चेत्र भावार्थ ऐमे ही पर्यत बादर तेउकाया का जानना. जो अपकाया का उपपात कहा वैसे ही सूक्ष्म बादर वायु काया का जानना. ऐसे ही वनस्पतिकाया का जानना. यो सब मीलकर बस आलापक हुए ॥ २॥ जैसे सक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाया के २० आलापक कहे. वैसे ही सक्ष्म पर्यत पृथ्वीकाया के उत्पन्न होने के चीम आलापक कहना. यो सब मील सूक्ष्म पृथयोकाया के ४० अलापक हुए. जैसे सूक्ष्म पृथ्वीकाया के ४. आलाषक कहे वैसे ही पर्याप्त व अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाया के भी ४० आलापक जानना. यो lak. पालापक पृथ्वी काया के हुए. जैसे पृथ्वीकाया क ८० आलापक हुए. वैसे ही अप्काया के सूक्ष्म पंचपाङ्ग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र 480 चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा । : Page #3012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी वीसट्टाणेसु उववाएयव्वो १६० ॥ सुहुम तेउकाइओबि,अपजत्तओ पजत्तीय एएसु १... चेव वीससुट्ठाणेसु उबवातेयव्यो २०० ॥ अपज्जत्तए वायर तेउकाएणं भंते । मणुहै .. स्सखेलें समोहए समोहएता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुवढीए पञ्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपजत्त सुहम पुढवीकाइयत्ताए उववजित्तए, सेणं भंते ! कइसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, सेसं तहेव जाव से तेणटेणं, एवं पुवढीकाइएसु चउबिहेसुवि उवावतेयव्यो । एवं आउकाइए पु चउबिहेसु, तेउकाइएसु अपज्जतएसु पजत्तएसुय. एवं चेव उववाएयव्यो ॥ अपजत्ता वादर तेउकाइएणं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए वादर पर्याप्त व अपर्याप्त के सब मील कर ८० आलापक जानना. यों १६० आलापक हुए. सूक्ष्म सेउकाया के पर्याप्त व अपर्याप्त के बीस २ आलापक मीलकर ४० आलापक पूर्वोक्त जैसे जानना. यो सब मीलकर २०० आलापक हुए. अहो भगवन् !' अपर्याप्त बादर तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य होषे वह कितने समय में उत्पन्न होये ? अहो गौतम ! सन पूर्वोक्त जैसे जानना. यावत् इसलिये ऐसा कहा. पर्याप्त, अपर्याप्त मूक्ष्म व बादर यो पृथ्वीकाया के चार भेद, ऐसे ही अपकाया के चार भेद, . प्रकाशक सजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * .- Page #3013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमान विवाह पण्मति ( अपवति) सद समोहएत्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्ता वादर तेउकाइयत्ताए उववाजित्तए सेणं भंते ! कति समए, सेसं तंचेव, एवं पजत्त वायर तेउकाइयत्ताए उवावएयव्वो; वाउकाइयत्ताए वणस्सइकाइएत्ताए जहा पुढविकाइएसुवि, तहेव चउक्कएणं भेदेणं उववातयन्वो ॥ एवं पज्जत्ता बादर तेउकाइओवि समयखेत्ते समोहणावेत्ता, एएसु बीसाएटोणेसु उववातेयवो, जहेव अपजत्तओ उवावतिओ एवं सव्वत्थवि । वादर तेउकाइया पजत्तगाय अपजत्तगाय समयखेत्ते उववातेयव्यो,समोहणावियव्वावि २४ ० ॥ वाउक्काइया ३२० ॥ वणस्सइकाइयाय जहा पुढवाकाइया ४०० ॥ तहेव चउक्कएणं और बादर के पर्याप्त, अपर्याप्त तेउकाया यों दो भेद. अहो भगवन् !अपर्याप्त वादर तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त पादर ते उकायापने उत्पन्न होने योग्य हो वह कितने समय में उत्पन्न होवे शेष बैसेडी.योंपर्याप्त बादर तेउकाया का उपपात जानना. वायुकाया व पनस्पतिकाया में पृथ्वीकाया जैसे चार २ भेद से उपपात कहना. यों पर्याप्त वादर तेउकाया का मनुष्य क्षेत्र में से मारणांतिक समुद्धात करके उत्पन्न होने के २० आलापक जानना. यों तेउकाया के ४० आला •क हुए सब मील १२४० हुए. वायुकाया के ८० और वनस्पति काया के ८० पृथ्वी काया जैसे कहना. सब मीलकर ४०० १. " ' 4.१०चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा 4028 भावाथ Page #3014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ अनुवादक-पालप्रह्मचारी मुनि श्री अनेक ऋषिजी - भेदेणं उवत्रातेयन्यो, जात्र पजत्ता बादर वणस्सइकाइयागं भंते । इमीले रयणप्पमाए पुढची पुरच्छिमिले चरित समोह समोहता जे भनिए इमीसे स्वणपभाए पञ्चच्छिपिल्ले चरिमंते पजता वादर वणस्स इकाइयत्ताए उवजित्तए, सेणं भंते ! क्रतिसमयणं ? सेसं तव जाब से तेणद्वेणं ॥ ४ ॥ अरजत्ता हुन पुढवीकाइएणं भंते ! इसे रणप्पा पुढचीए पञ्चच्छिमिले चरिमंते समोह समोहत्ता जे भत्रिए इमीसे स्यणप्पभाएं पुढवीए पुरच्छिमिले चरिमते अपजत्ता सुहन पुढवीका इयत्ताए उबव जित्तए, तेणं भंते ! कइ समएणं सेसं तहेव निरवसेसं, एवं जहेब पुरच्छिमिले का राजा बहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी {आलापक हुए यावत् अहो भगवन् ! इस रत्प्रभा के पूर्व के चरिमांत में पर्यंत वादर वएस्पतिकाया मारणांतिक समुद्धात कर के इस रक्तप्रभा के पश्चिन के चरिमांत में पर्याप्त वादर वनस्पति काया पन उत्पन्न होने योग्य होवे तो वह कितने समय में उत्पन्न होवे शेप व हा यावत्-इसलिये ऐसा कहा गया है। } ॥ ४ ॥ अव पश्चिम के चरिमांत के ४०० भांगे करते हैं. अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया इम { रत्नप्रभा पृथ्वी के पश्चिम के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात कर के इस रमभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायापने उत्पन्न होंने योग्य होवे तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न २९९६ Page #3015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 २०.९० . पंचमगि विवाहपण्णत्ति (भगवती) मूत्र 498 चरिमंते सव्यपदेसुवि समोहया पञ्चत्थिमिल्ले चरिमंते समय खेतेय उववातिए जे . समयखेत्ते समोहया पचच्छिभिल्ले चरिमंते समयखतंय उववाएयब्वा तेणेवगमएणं,' एवं एएणं दाहिणिल्ले चरिमते समयखत्तेय समोहयाणं उत्तरिल्ले चरिमंते समयखचेय उपवातो, एवं चा उत्तरिलं चरिमंत समयखेत्तेय समोहयाणं दाहिनिल्ले चरिमंते समय खत्तय उपवातेपच , णेव गमएणं ॥ ५ ॥ अपजत्ता सुहुम पुढवी काइएणं । भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहएता जे भविए हो ? अहो गौतम ! पूर्वोक्त जो कहना. यो इसी क्रम से जैसे कि चरिमांत में मारणांतिक समुद्रात कर के पश्चिम के चरिमांत में तथा समय क्षेत्र में बादर तेउकायाने उत्पन्न होने का कहा वैसे ही पश्चिम के चरिमांत का कहना. पों पूर्वोक्त जो ४०० आलापक पश्चिम के चरिमांत का जानना. ऐसे ही दक्षिण के चरिमांर में मारणांतिकरू मुद्धात करके उत्तर के चारेमांत में उत्पन्न होने के ४०, आलापक कहना.. ही उत्तर के चरमांत के भी ४०० आलापक जानना. यों चारों दिशा के सब मीलकर १०० आलापक रत्नप्रभा नारकी आश्री कहना. ॥ ५ ॥ अब शर्करप्रभा आश्री कहते हैं. अहो भगवन ! इम शर्करप्रभा नरक के पृथ्वी काया के पूर्व के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया मारणांतिक समुदातर Aamaniamwinnakannamrum . वातीसवा शतकका पहिला प्रदेशा - nor 4 : Page #3016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी सक्करप्पभाए पुंढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सहुम पुढवी काइयात्ताएं उवेवाते हैं यन्बो, एवं जहेव रयणप्पभाए जाव से तेण?णं । एवं एएणं कमेणं जाव पजत्तए सुहुम तेउकाइएसु ॥ अपजत्तएस सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए पुरीच्छमिल्ले चरिमंते समोहए समोहता जे भविए समयखत्ते अपंजत्ता वायर तेउकाइयत्ताए उवाजत्तए सेणं भंते ! कइसमय पुच्छा ? गोयमा ! दुसमयइएणवा तिसमइएणवा, विग्गहेणं. उववज्जेज्जा ॥ से केणटेणं भंते ! पुच्छा ? एवं खलु गोयमा ! मएसत्त सेढीओ प. तंजहा-उज्जु आयता जाव अद्धचकवाला, एगओ के शर्करप्रभा पृथ्वी के पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त मूक्ष्म पृथ्वी काया उत्पन होने का होने, यों जैसे रत्नप्रभा. यावत् इसलिये ऐसा कहा गया है. यो इस क्रम सव पर्याप्त सूक्ष्म ते उकाया पर्यंत कहना. अहों, भगवन ! अपर्याप्त मूक्ष्म पृथ्वी काया इस शर्कर प्रभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके इस मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर ते उकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितने समय में उत्पन्न हो ? अहो गौतम दो सयय में अथवा तीन ममय विग्रह से उत्पन्न होवे, क्यों की शर्करप्रभा के पूर्वके चरिमांत मे क्षेत्र में उत्पन्न होने को समश्रेणी नहीं है इससिये दो अथवा तीन समय लगते हैं. अहो भगवन् । प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावार्थ Anamnnal - - - -- 1 ' Page #3017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 488 पंचमांगविवाह पण्णनि ( भगवती ) सूत्र #gh बेकाएसेढीए उववजमाणे दुसइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, दुहओ बंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा; से तेण?णं एवं पजववसुवि वादर तेउका इयसु सेसं जहा रयणप्पभाए ॥ जेवि वायर तेउक्काइया अपज्जतगाय पत्तगाय समयखेत्ते समोहया दोच्चाए पुढवीए पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइएसु चउविहेस आउकाइएसु चउव्विहंसु तेउक्काइएसु दुविहेस वाउकाइएमु चउव्वेिमु वणस्सइकाइएम चउबिहेसु उववज्जइ, तेवि एवं चेव दुसमएणं वा तिसमइएणवा विग्गहेणं उववातेयव्बा किस लिये ऐसा कहा है यावत् दो अथवा तीन समय लगता है ? अहो गौतमः मैंने सात श्रेणियों प्ररूपी हैं। ऋजुआयता यावत् अर्धचक्रवाला जिन में एक बाजुवक श्रेणी में उत्पन्न होते हुवे दो समय के विग्रह से स उत्पन्न होवे, दो बाजु वक्र श्रेणी से उत्पन्न होते तीन समय में उत्पन्न होवे. इसलिये ऐसा कहा गया है.. शेष सब रत्नप्रभा जैसे कहना. और नो पर्याप्त व अपर्याप्त बादर तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके दूसरी शर्कर प्रभा पृथ्वी में पश्चिम के चरिमांत में चार पृथ्वीकाया में चार अप्काया में, चार तेउकाया में, चार वायुकाया में, और चार वनस्पतिकाया में उत्पन्न होते हैं वे दो समय अथवा.* जीन समय के विग्रह से उत्पन्न होते हैं: अपर्याप्त व पर्याप्त बादर तेउकाया जैसे. रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं । भावार्थ चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा48 488 Page #3018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वार काइया अपतगाव पज्जतगाय जाहे तेसु क्षेत्र उववज्जति ताहे, जश्चैव रयणभाए तहेव एगसमइए दुसमइय हिग्गहा भाणियन्त्रा, सेसं जहा रयणप्पभाए तहेव णिरवसेसं, जहा सकरप्पभाए वत्तव्वया भणिया, एवं जाव अहे सत्तामाए भाणियव्वा, ॥ ६ ॥ अपजत्ता सुहुम पुढवकाइयाणं भते ! अहे लोयखेतणाली वाहिरिले खेत्ते समोहए समोहना जे भरिए उढलोए खेत्तणालीए बाहिरिले खेत्ते अपजस्ता सुम पुढीका इयत्ताए उववर्जित्तए, सेणं भंते ! कइसमइए विग्गणं उववज्जेजा ? गोयमा! तिसमइएणवा चउसमइएणवा चिग्गहेणं उत्रवज्जेज्जा से केणट्टेणं मंते ! एवं वुच्चवैसे ही एक समय, दो समय व तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होते हैं ऐसे कहना. शेष सब रत्नप्रभा । जैसे कहना. जैसे शर्कर प्रभा की वक्तव्यता कहीं वैसे ही नीचे की सातवी तमतमा पधी की वक्तव्यता कहना. ।। ६ ।। अहो भगवन् ! अपर्याप्त सुक्ष्म पृथ्वी काया अधोलोक की नाली के शहर के क्षेत्र में ( मारणांतिक समुद्धात कर के ऊर्ध्व लोक क्षेत्र नाली के बाहिर के क्षेत्र में अपर्याप्त दक्ष पृथ्वी कायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होवे ! अहां गौतम ! तीन समय या ज्वार समय के विग्रह से उत्पन्न होते. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है यावत् • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालाममादजी - २००० Page #3019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 42 तिसमइएणवा चउससइएणवा विग्गहेणं उयवजेज्जा ? गोयमा ! अाजत्ता सुहुम 3. पुढवीकाइएणं अहोलोएखेत्तणालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समोहएता- जे भविए उड्डलोय खेत्तणााए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइयत्ताए एगपयरंसि अणुसेढी उववाजित्तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, जे भविए विसेढीओ उववजित्तए तेणं चउसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा; से तेणटेणं जाव उववज्जति ॥ एवं पजत्ता मुहुम पुढवीकाइयत्ताएवि ॥ एवं जाव पज्जत्ता मुहुम तेउकाइयत्ताए ॥ अपजत्ता सहुमं पुढवीकाइएणं भंते ? अहोलोग जाव समोहणित्ता जे भविए समयतीन या चार समय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया अधोलोक क्षेत्र | नालिका के बाहिर के क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके ऊर्भ लोकं क्षेत्र नालिका की बाहिर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने एक प्रतरवाली श्रेणी में उत्पन्न होने योग्य होवे वह तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होवे और जो विश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य होके वह चार समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. इसलिये यावत् उत्पन्न होवे. ऐसे ही पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म लेउकायापने उत्पन्न होते. अहो भगवन ! अपर्याप्त मूक्ष्म पृथ्वीकाया अधोलोक की क्षेत्र नालिका के वाहिर के क्षेत्र में पारणांतिक समुद्रात है। 4.28..चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा487 भावार्थ annnnnnniKHARHAARAARAM Page #3020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्ते अपजत्ता वादर तेउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? गोयमा ! दुसमइएण वा तिसमइएणवा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । से केणटेणं भंते !, एवं खलु गोयमा ! मएसत्तसेढीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-उज्जु आयता जाव अडचक्कवाला; एगतोबंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा दुहओ वंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, से तेणटेणं । एवं पजत्तएस, वायर तेउकाइएमुवि उववातेयव्वा, वाउकाइय वणस्सइकाइयत्ताए चउक्कएणे भेदेणं जहा आउकाइयत्ताए तहेव उववातेयव्यो २० । एवं जहा अपजत्ता करके जो मनुष्य क्षेत्रमें बाद तेउकाया में उत्पन्न होने योग्य होवे तो कितने समय के विग्रहते उत्पन्न हो? E अहो गौतम ! दो समय अथवा तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! किस कारन ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! मैंने सात श्रेणियों कही हैं जिन के नाम जुआयत यावत् अर्ध चक्रवाल. इन में एक बाजु वक्रश्रेणी में उत्पन्न होनेवाला दो समय के विग्रह से उत्पन्न होवे और दोनों वक्रश्रेणी में उत्पन्न होनेवाला तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. इसलिये ऐमा कहा गया है. | ऐसे ही पर्याप्त बादर ते उकाया में उपपात कहना. बायकाया व वनस्पतिकाया के चार भेद में अपकाया. १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-सजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामसादजी. मा र्थ Page #3021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4880 ०३ सुहम पुढविकाइयस्स गमओ भाणओ एवं पजत्ता सुहुम पुढवीकाइयस्मवि भाणियन्वो तहेव वीसाए ठाणेसु उववायव्यो ४० ॥ अहे लोय खेत्तणाणीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहओ, एवं वायर पुढवीकाइयस्सवि, अपजत्तगस्स पज्जत्तगस्सय भाणियव्वं । एवं आउकाइयस्स चउब्विहस्सवि भाणियब्ध। मुहुम तेउकाइयस्स दुविहस्सवि, एवं चेव ॥ अपज्जत्ता बादर तेउकातिएणं समयखेत्ते समोहए समोहएता जे भविए उड्डलोगखे. तणालीए वाहिरिले खेत्ते अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए; सेणं भंते कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! दुसमइएणवा तिसमइएणवा, भावार्थ है जैसे कहना. यों सब मीलकर २० आलापक हुए. जैसे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काय का गमा कहा वैसे ही स सूक्ष्म पृथ्वीकाया का गमा कहना. ऐसे ही बादर पृथ्वीकाया का अपर्याप्त व पर्याप्त के ४० स्था कहना. जैसे पृथ्वीकाया के चार भेद की वक्तव्यता कही, वैसे ही अप्काया के ८० स्थानक की वक्तव्यता कहना. मूक्ष्म तेउकाया के पर्याप्त अपर्याप्त का वैसे ही कहना. अपर्याप्त बादर तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके ऊलोक की नाली के बाहिर क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन% वे तो कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! दो समय, तीन समय अथवा चार भगवती) मूत्र 488 र एण्णत्ति (भगवती). चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा Page #3022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ३ ०४ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 चउसमएणवा विग्गहेणं उववज्जेज्जा ॥ से केण?णं अट्ठो ? जहेव रयणप्पभाए तत्र सत्तसेड्डीए । एवं जाव अपजत्ता ॥ वादर तेउकाइएणं भंते ! समय खत्ते समोहए समोहएता जे भविए उड्डलोए खेत्तगालीए वाहिारले खेत्ते अपजात्ता सुहुम तेउकाइयत्ताए उववाजित्तए सेणं भंते ! सेसं तंचेव ॥ अपज्जत्ता वादर तेउकाइएणं भंते ! समयखेत्ते समोहए जे भविए समयखत्ते अपजत्ता वादर तेउकाइयत्ताए उववजित्तए सेणं भंते ! कइ समएणं विग्गहेणं उववजेजा ? गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएणया, तिसमइएणवा विग्गहणं उववजेजा । से केणटेणं भंते ! अट्ठो? जहेव रयणप्पभाए तहेब सत्तसेढीए । एवं पज्जत्ता बादर तेउकाइयत्ताएवि; वाउकाइएसुय समय के विग्रह से उत्पन्न होवे, अहों भगवन् ! यह किस तरह वगैरह रत्नप्रभा जैसे अर्थ कहना. ऐसे ही अहो भगवन् ! अपर्याप्त वादा तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके ऊर्बलोक की क्षेत्र नाली के बाहिर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म तेउकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितने समय के के विग्रह मे उत्पन्न होवे बगैर शेप सब वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेउकाया मनुष्य क्षेत्र में मारणांतिक शमुद्धात करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेउकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #3023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमांम विवाह पण्णत्ति (भगवती) वणस्सइकाइएमु जहा पुढवीकाइएमु उववातिओ, तहेब चउक्कएणं भेदेणं उवधाते. यत्वो ॥ एवं पजत्ता वादर तेउकाइआव । एण्णुचेव ठाणेसु उवावातयव्यो । वाउकाइय वणस्सइ काइयाणं जहेव पुढवीकाइओ उबवाइओ तहेव भाणियन्वो ॥७॥ अपज्जत्ता मुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! एत्थवि लोगखेत्तणालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए समाहएता, जे भविए अहे खेत्तणालीए बाहिरिले खेत्ते अपजत्ता सुहुम पुढविकायत्ताए उववजिए सेणं भंते ! कतिसमए ? एवं उढलोग खत्तणालीए वाहि. रिले खेत्ते समोहयाणं अहेलोय खत्तणालीए वाहिरिले खत्ते उववजयाणं सोचेव कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! एक दो अथवा तीन समय के विग्रह से उत्पन्न । होवे बगैरह अर्थ वैसे ही कहना. ऐगे ही पर्याप्त बादर ते उकाया का जानना. वायुकाया व बनस्पतिकाया का पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने जैसे कहना ॥ ७॥ अहो भगवन् : अपर्यम सक्ष्म पृथ्वीकाया इम लय के क्षेत्र नालिका के वाहिर के क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात करके जो नीच के क्षेत्र की नालिका के है वाहिर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य होबे वह कितने मपय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? गौतम ! ऐसे ही की लोक क्षेत्र मालिका के बाहिर के क्षेत्र में मारणांतिक समुद्धात कर के अधो। चौतीसवा शतक का पहिला उद्देश भाषा Page #3024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमओ णिरवसेसो भाणियव्यो जाव वायर वणस्सइ काइओअपज्जत्तओ वायर वणस्सइ काइएसु अपजतएमु उववाइओ, ॥ ८ ॥अपज्जत्ता सुहुमपुढवि काइयाणं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहएता जे भविए लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए ॥ सेणं भंते ! कइ समदएणं विग्गहेणं उववज्जित्तए ? गोयमा! एगसमइएणं वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गडेणं उववज्जेज्जा ॥से केणटेणं भंते! एवं वच्चइ-एगसमइएणवा जाव उववज्जेज्जा ? एवं खलु गोयमा ? मए सत्तसेढीओ ५० तंजहा-उज्जुआयता जाव अड. चक्कवाला । उज्जुआयतए सेढीए उववज्जमाणे एगसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। भावाथे लोक क्षेत्र की नालिका के बाहिर के क्षेत्र में उत्पन्न होने का उपर्युक्त कहा जैसे विशेषता रहित कहना.. यावत् अपर्याप्त पादर वनस्पति अपर्याप्त बादर वनस्पति काया में उत्पन्न होवे वहां तक कहना. ॥ ८॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया लोक के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात कर के क के पूर्व के चरिमांत में अपर्याप्त सक्ष्म पृथ्वी कायापने उत्पन्न होने योग्य होवे वह कितने समय के र विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! एक समय दोसमय अथवा तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादजी * Page #3025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समा पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र एगओवकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुहओ बकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुरेढी उववज्जित्तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ! जे भविए विसेढी उववज्जित्तए सेणं चउसमइणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणटेणं जाव उववज्जेज्जा । एवं अपज्जत्त सुहुमपुढवीकाइओ लोगस्स पुरिच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए लोगस्स पुरञ्छिमिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तएसुय सुहुमपुढवीकाइएसु सुहुम आउकाइएसु अपज्जत्तएमु पज्जत्तए सुहम तेउकाइएसु अरज्जत्तएसु पजत्तायपुय,सुहुम वाउकाइएसुय अपजत्तएम पजत्तएसुय, वादर वाउकाइ. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा कि एक समय यावत् उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! मैंने सात श्रेणियों प्ररूपी हैं जिनके नाम ऋतु आयता यावत अर्घ चक्रवाल इम में ऋजु आयता श्रेणी से उत्पन्न होने एक समय के विग्रह से उत्पन्न होवे, एक बाजू वक्र की श्रेणी से उत्पन्न होते दो समय के विग्रह से उत्पन्न होवे और दो बाज़ वक्र की श्रेणी में उत्पन्न होते जो एक प्रतर वाली ऋजुश्रेणी में उत्पन्न होवे वह तीन समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. जो विश्रेणी से उत्पन्न होवे वह चार समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. इसलिये यावत् उत्पन्न होवे. ऐसे ही अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया लोक के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्रात चौतीसवा शतक का पहिला उद्दशा मावाये Page #3026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००८ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी एसु अजत्तएसुय पजत्तएसुथ,सुहुम वणस्सइकाइएसु अपज्जत्तएसु पञ्जत्तएभुय, वारसमु वि ठाणेमु॥एएणं चेव कमेणं भाणियव्वो सुहुम पुढवीकाइओ पज्जत्तओ एवंचेव णिरवसेसे बारसविट्ठाणसु उववातंयव्वो २४। एवं एएणं गमएणं जाव सुहुम वणस्सइ काइओ पज्जत्तओ । सुहुम वणस्मइ काइएसु पज्जत्तएस चेव भाणियब्वो ॥ ९ ॥ अपजन्ता सुहम पुढवीकाइयाणं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते सवोहए समोहएता, जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइएमु उववज्जित्तए सेणं भंते ! कइ समइएणं विग्गहेणं उववजेज्जा ? गोगमा । दम पइएणांवा तिलमइएणंवा कर के लोक के पूर्व के चरिमांत में पर्याप्त सूक्ष्म पृथक अय, ते उकाया, सूक्ष्म वायुकाया, बादर वायुकायां, व सूक्ष्म वनस्पनि काया यो पारह स्थान कहे, उपर्युक्त क्रम मे कहना. मे ही पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया के बारह स्थानक में उत्पन्न होने का कहना. यो २४ स्थानक हुए. यो इसीक्रम से मूक्ष्म वनस्पति काया सूक्ष्म वनस्पति काया में उत्पन्न होवे वहां तक कहना. ॥ ९॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया लोक के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात कर के लोक के दक्षिण के चरिमांत में अपर्याप्त मूक्ष्म पृथी काया में उत्पन्न होने योग्य होवे बह कितने समय के विग्रह है। प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेग्महायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्य Page #3027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसमइएणवा विंग्गहेणं उववज्जति । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-एवं खलु गोयमा ! मएसत्तसेढीओ पण्णत्ताओ तंजहा-उज्जु आयता जाव अद्वयकवाला, एगओ वंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा । दुहओ वंकाए सेढीए उबजमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुसेढी उववजित्तए सेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उवजेज्जा, जे भविए विसेढीओ उवजित्तए सेणं चउसमएणं विग्गहेणं उववजेणा, से तेण?णं गोयमा !, एएणं गमएणं पुरच्छिमिल्ले चरिमंते उववातेयव्यो जाब सुहुम वणस्सइकाइओ, पजस हुम वणस्सइकाइएसु चेव सव्वेसिं दुसमइओ से उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! दो, तीन अथवा चार समय के विग्रह से उत्पन्न होवे. मो भगवन् ! अ किस कारन से एसा कहा गया है ? अहो गौतम ! मैंने सात श्रेणियों कही है. ऋजु आयता यावत् अर्ध . चक्रवाल. एक बाजु वक्र श्रेणी से उत्पन्न होते दो समय के विग्रह से उत्पन्न होवे, दो बाजू वक्र श्रेणी से उत्पन्न होते जो एक प्रतर वाली अनुश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य होबे वह तीन समय के विंग्रह से उत्पन्न होवे और जो विश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य होवे वह चार समय के विग्रह से उत्पन्न हावे. 1.अहो-गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है. यों इस क्रम से पूर्व के चरिमांत का उपपात. पर्याप्त सूक्ष्म .. P• पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 482 चीतीमवा शतक का पहिला उद्देशा 48 भावार्थ Page #3028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तिसमइओ चउसमइओ विग्गओ भाणियब्बो ॥१०॥ अपज्जतो सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्म पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहइत्ता जे भावर लोगस्स पञ्चत्थिमिले चरिमंते अपज्जत्त सुहुम पुटवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए सेणं भंते ! कइ समइएणं विंगहेणं उववज्जेजा ? गोयमा ! एगसयइएणंवा दुसमइएणंवा तिसमइरणंवा चउसमइएणंवा विग्गहेणं उववज्जेज्जा, । से केणटेणं भंते! एवं अहेव पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहया, पुरच्छिमिल्ले चेव चरिमत्ते उवातिया तहेव पुरच्चिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्चच्छिमिल्ले चरिमंमंते उववातेयव्वा ॥ सव्वे अपज्जत्ता सुहुम वनस्पतिकाया में दो, तीन अश्या चार समय के विग्रह से उत्पन्न होवे वहां तक कहना ॥ १० ॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया लोक के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके जो लोक के पश्चिम के चरिमांन में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथीकायापने उत्पन्न होने योग्य होने वह कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो गौतए ! एक समय, दो समय, तीन समय व चार समय के विग्रह में उत्पन्न होवे. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया? अहो गौतम ! जैसे पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके पूर्व के चरिमांत में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही पर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुहात प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी * भावार्थ Armaanawwws Page #3029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ३०११ PR+पंचमांग विवाह षण्णति (भगवती) सूत्र 48+ पुढवीकाइएणं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहएत्ता जे भावए लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपजत्त मुहुम पुढवीकाइयत्ताए उववा० सेणं भंते!, एवं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहओ दाहिणिल्ले उक्वाइओ तहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उववाएयव्वो ॥ ११ ॥ अंपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! लोगस्स दाहिणिले चरिमंते समोहओं समोहइत्ता जे भविए लोगरस दाहिणिले चरिमंते अपज्जत्ता मुहुम पुढवीकाइयत्ताए उववज्जित्तए एवं जहा पुरच्छिमिल्ले समोहओ पुरच्छिमिल्ले चेव उववातिओ तहेव दाहिणिले समोहओ करके पश्चिम के चरिमांत में उत्पन्न होने का कहना. अहो मगमन् ! सब अपर्याप्त सूक्ष्म पथ्वीकाया लोक के पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके लोक के उत्तर के चरिमांत में उत्पन्न होवे । कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होवे ? अहो मौतम ! जैसे पूर्व के चरिमांत में काल करके दक्षिण के चरिमांत में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही यहां कहना ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया लोक के दक्षिण के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके जो लोक के दक्षिण के चरिमांन में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे यों जैसे पूर्व के चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करना व चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा +2+ भावार्थ Page #3030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ०७ भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी दाहिणिले चेव उववारयव्वो, तहेव णिरवसेसं जाव सुहुम वणरसइकाइओ पज्जत्तओ सुम वणस्सइ काइएस चेत्र पज्जत्तरसु दाहिणिले चरिमंते उववाइओ, एवं दाहिजिले समोहओ पच्चच्छिमिल्ले चरिते उनवाएयन्वो णवरं दुतमइए तिसमइय चसमइओ विग्गहो सेसं तहेव, दाहिणिल्ले समोहओ उत्तरिल्ले चरिमंते उबवायचो जब सट्टा तहेव; एगसमइय दुसमइय तिसमइय चउसमइय विग्गहों, पुरच्छिमिल्ले जहा पच्चच्छिमिल्ले, तहेव दुसमइय तिसमइय, पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते समोहयाणं पज्जच्छिमिल्ले उववज्जमाणाणं जहा सट्टाणं, उत्तरिल्ले उववरजमाणाणं एगसमइओ पश्चिम के चरिमांत में उत्पन्न होने का कहा वैसे ही दक्षिण चरिमांत में मारणांतिक समुद्धात करके दक्षिण के चरिमांत में उत्पन्न होने का कहना यावत् सूक्ष्म पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाया पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकाया में उत्पन्न होने वहां तक कहना. यों दक्षिण में समुद्रात करके पश्चिम में उत्पन्न होने का कहना. परंतु यहां पर दो, तीन व चार समय के विग्रह से उत्पन्न होने का कहना. दक्षिण में समुद्धात करके उत्तर में उत्पन्न होने का स्वस्थान जैसे कहना. और पूर्व का पश्चिम जैसे दो समय तीन समय व चार समय का कहना. पश्चिम के चरिमांत में समुद्धात करके पश्चिम के चरिमांत में उत्पन्न होने का स्व * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी # ३०१२ Page #3031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 48 पंचमान विवाह पण्पत्ति (भगवति ) सूत्र 428 बिग्गहो जत्थि, सेसं तहेव ॥ पुरच्छिमिल्ले जहा सटाणे, दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्गहो णत्थि, सेसं तहेव, उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववज्जमाणाणं जहा संढाणे, उत्तारल्ले समोहयाणं पुरच्छिमिल्ले उववज्जमाणाणं, एवंचेव णवरं एगसमइओ विग्गहो णत्थि; उत्तरिल्ले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववज्जमाणाणं जहा संट्राणे, उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चत्थिमिल्ले उंचवज्जमाणाणं एगसमइओ विग्गहो णत्थि, सेसं तहेव जाप सुहुम वणस्सइकाइओ पज्जत्तओ, मुहुम वणस्सइ काइएसु पज्जत्तएस चेव ॥ १२ ॥ कहिणं भंते! वादरपुढवीकाइयाणं ट्ठाणा पण्णता ? गोयमा ! संढाणेणं स्थान जैमे कहना. और उत्तर में उत्पन्न होने एक समय का विग्रह नहीं है; शेष वैसे ही कहना. पूर्व के चरिमांत में उत्पन्न होने का स्वस्थान जैसे और दक्षिण में एक समय नहीं है. शेष वैसे ही कहना. उत्तर में समुद्धात करके उत्तर में उत्पन्न होने का स्वस्थान जैसे कहना. उत्तर में समुदात करके पूर्व में उत्पन्न होनेका वैसे ही कहना, परंतु एक समय का विग्रह नहीं है, उत्तर में समुद्धात कर के दक्षिण में उत्पन्न होने का स्वस्थान जैसे कहना और उत्तर में समुद्धात कर के पश्चिम में उत्पन्न होने को एक समय का विग्रह नहीं है. पर्याप्त मूक्ष्म वनस्पति काया पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पति काया में उत्पन्न होने पर्यंत कहना. ॥ १२ ॥ यह एकेन्द्रिय के उत्पत्ति का अधिकार कहा. अब एकेन्द्रिय के स्थानादिक की प्ररूपना करते हैं. अहो' चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा 4 भावाथ Page #3032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋपिजी अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपदे जाव सेहुमणस्सइकाइयाज य पज्जत्ता जये अपज्जता ते सव्वे एगविहा,अविसेसा,ते सव्वे एगविहाअविसेस मणाणता सबलोग परियावण्णा प. समणाउसो ॥ १३॥ अपज्जत्त सुहुम पुढवीकाइयाणंभंते! कइ कम्मप्पगडीओ पण्णता? गोयमा! अट्ठकम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओतंजहा-णाणावरणिज जाव अंतराइयं॥एवं चक्कए भेदेणं जहेव एगिंदियसएर जाप वायर वणस्सइकाइया पज्जत्तगाणं ॥ अपज्जत्ता सुहुम पुढनीकाइयाणं भंते ! कइकम्मप्पगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविह बंधगावि, भगवन् ! वादर पृथ्वी काया के स्थानक कहां कहे हैं ? अहो गौतम ! स्वस्थान जहां पृथ्वी काया रहे उस के आश्रयं आठ पृथ्वी में हैं ; जैसे पन्नवणा के दूसरे स्थनापद में कहा वैसे ही कहना जैसे रत्न प्रभा आदि सात नरक व आठवी सिद्धशीला वगैर यावत् सूक्ष्म वनस्पति काया पर्याप्त अपर्याप्त वे : एक ही प्रकार प्रकृति स्वस्थानादि अवगाह कर के और शेष विशेषता रहित पर्याप्त जैसे अपर्याप्त वे सब एक से विशेषता व भेद रहित आधार भूत आकाश के एक देश में पर्याप्तक हैं उसी में अपर्याप्त हैं. उपपात समुद्धात में रुवस्थान कर सब लोक में रहे हैं ॥ १३ ॥ अहो भमवन् ! अपर्याप्त पृथ्वी काया को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कही जिनके : ज्ञान वरणीय यावत् अंतराय. यों चार २ भेद से जैसे एकेन्द्रिय के शतक में कहा वैसे ही पर्याप्त बादर प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* - Page #3033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमांगविवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र Page #3034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी g+ जाव वेउब्धिय समुग्घाए ॥ १६ ॥ एगिदियाणं भंते ! किं तुल्लाठतीया, तुल्लक्सेि. साहियं कम्मं पकरेंति, तुल्लठितीया वेमाया विसेसाहियं कम्मं पकरेंति; वेमायाठतीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, वेमायाठिय वेमाय विसेसाहियं कम्मं पकरेति ? गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लठितीया तुल्लविसे साहियं कम्मं पकरेंति अत्थेगइया तुल्ल ठितीया, वेमायविसेसाडियं कम्म पकरेंति : अत्थेगडया वेमायठितीया तलविससाहियं कम्मं पकरेंति , अत्थेगइया वेमायठितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया तुल्लठिया जाव वेमाय बिसेसाहियं कम्म यावत् वैक्रेय समुदघात ॥ १६ ॥ अहो भगवन् ! तुल्य स्थितिवाले एकेन्द्रिय तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधने हैं, तुल्य स्थितिवाले विशेषाधिक कर्म बांधते हैं, विमात्रा विषय स्थितिवाले तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधते हैं, या विमात्रा स्थितिवाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म बांधते हैं ? अहो गौतम ! कितनेक तुल्य स्थितिवाले, तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधते हैं,कितनेक मुल्य स्थितिवाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म बांधते हैं, कितनेक विमात्रा स्थितिवाले तुल्य विशेषाधिक कर्म बांधते हैं, और किततेक विमात्रा स्थितिवाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म बांधते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि कितनेक तुल्य स्थितिवाले यावत • प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी चालाप्रसादी * भावार्थ Page #3035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ' 488+ पंचमाङ्ग विवाट पण्णा ( भगवती सूत्र पकरोति ? गोयमा ! एगिंदिया चउव्विहा प० तं अत्थेगइया समाउया समोववण्णा, जाव अत्थेगइया विसमाउया विसोत्रवण्णगा ॥ तत्थणं जे ते समाउया समोवण्णगा तणं तुल्लठितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति १, तत्थणं जे ते समाज्या सिमोवण्णा तेणं तुल्लठितया बेमाय बिसेसाहियं कम्मं पर्करेति २, तत्थणं जे ते त्रिसमाज्या समोत्रवण्णगा तेणं वेमायठितीया तुल्लबिसेसाहियं कम्मं पकरेति ३, तत्थणं जे ते त्रिसमाज्या विसमोववण्णगा तेणं वेमायठितीया बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेति ४ ॥ से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरैति ॥ सेवं विमात्रा विशेषाधिक कर्म बांध हैं ? अहो गौतम ! एकेन्द्रिय के चार भेद कहे हैं. तद्यथा - कितनेक समान आयुष्यवाले व समान उत्पन्न होनेवाले यावत् कितनेक विषम आयुष्यवाले व विषम उत्पन्न होनेवाले.. अब जो समः आयुष्यवाले व सम उत्पन्न होनेवाले हैं वे तुल्य स्थितिवाले तुल्य विशेषाधिक कर्म करते हैं, जो सम आयुष्याले व त्रिषम उत्पन्न होनेवाले हैं वे तुल्य स्थितिवाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म करते हैं, { जो विषय आयुष्यवाले सम उत्पन्न होनेवाले हैं वे त्रिमात्रा स्थितिवाले तुल्य विशेषाधिक कर्म करते हैं, और { जो विषन आयुष्य वाले व विषम उत्पन्न होनेवाले हैं. वे विमात्रा स्थितित्राले व विमात्रा विशेषाधिक कर्म चौतीसवा शतक का पहिला उद्देशा + ३०१७) Page #3036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www भंते ! भंतेत्ति जाब विहरइ ॥ चौतीसइभस्स सयरस पढमोद्देस सम्मत्ती ॥३४॥३॥ कइविहाणं भंते ! अगंतरोववण्णगा एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचिन्विहा अणंत रोववण्णगा एगिदिया प० तंजहा-पुढवीकाइया दुपदे भेदो जहा एगिदिए सएसु जाव वादर वणस्सइकाइया ॥ १ ॥ कहिणं भंते ! अणंतरोववष्णगा वायर पुढविकाइयाणं ठाणा प०? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पढवीसु तंजहा रायणप्पभा जहा सट्टाणपदे जाव दीवसमुद्देसु ॥ एत्थणं अणंतरोधवष्णगाणवा वादर पुढवी काइयाणं टाणा पं० उवातणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, संट्ठाण करते हैं. अहो गौतम ! इसलिये ऐसा कहा गया है यावन् विमात्रा विशेषाधिक कर्म करते हैं. अहो । भगवन् : आपके वचन सत्य हैं. यो यावत् विचरने लगे. यह चौतीमया शतकका पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥३४॥ अहो भगवन् ! अनंतरात्पम्नक एकेन्द्रिय कितने को हैं? अहो गौतम ! अनंतरात्पन्नक एकेन्द्रिय पांच कहे हैं. पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. इस के सूक्ष्म व बादर अपर्याप्त पयाप्त ए अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक बादर पृथ्वीकाया के स्थानक कहां कह हैं ? अहो गौतम ! स्वस्थान पाश्री आठ पृथ्वीमें जिनके नाम-रत्नप्रभा वगैरह जसे स्थान पदमें कहा वैसा कहना यावत् द्वीप समुद्र तक. यहां अनंत - 10 अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालाप्रसादनी . भावार्थ - Page #3037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रा १ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 48 लोगरस असंखेज्जइ भागे, अणंतरोक्वण्णग सुहम पुढवीकाइयाणे एगविहा अविसेसमणाणत्ता, सव्वलोए परियावण्णा ५. समणाउसो ! एवं एएणं कमेणं सव्व एगिदिया भाणियव्वा ॥ सटाणेणं सव्वेसिं जहा ?णपदे, तेसिं पज्जत्तगाणं वायराणं उववाय समुग्घाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपजत्तगाणं वादराणं सुहुमाणं सर्वसिं जहा पुढवीकाइयाणं भणिया तहेव, भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइयत्ति ॥२॥ अणंतरोपवण्णग सुहम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्मपगडीओ प० ? गोयमा ! अट्ठकम्म पगडीओ प० एवं जहा एगिदियसएसु अणंतरोववण्णग उद्दसए तहेव प०॥ रोत्पन्नक बादर पृथ्वीकाया के स्थानक कहे हैं. उपपात से सब लोक में व समुद्घात में सब लोक में स्वस्थान से आश्रिय लोक के असंख्यातवे भाग में. अनंतरोत्पन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकाया विशेषता व भेद रहित सब में मी.लती हैं. यों इस क्रम से सब एकेन्द्रिय का कहना. स्वस्थान से जैसे पनवणा के स्थान पद में बादर का उपपात व समुद्घात के स्थान उस के अपर्याप्त वादर जैसे कहना. म सक्ष्म का पृथ्वाकाया के जसे कहना यावत् वनातिकाया तक ॥२॥ अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्नक सक्ष्म पृथ्वीकाया ! को कितनी कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियों कही. यों जैसे एकेन्द्रिय के शतक में अनंतरोत्पन्न का उद्देशा कहा वैसे ही कहना.. ! चौतीसमा शनक का पहिला उद्देशा 488 भावा Page #3038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादंक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ तहेव बंधति, तहेव वेदेति जाव अणंतरोबवण्णगाय वायरवणस्सइकाइया ॥ अणंतरोववण्णगा एगिदियाणं भंते ! कओ उववजति ? जहेव ओहिए उद्दसए भाणओ तहेव ॥ अणंतरोवषण्णए एगिदियाणं भंते! कइसभुग्धाया प. ? गोयमा दोणिसमुग्घाया प. तंजहा-वेषणासमुग्घाए य, कसायसमुग्धाए य ॥ ३ ॥ अणंतरोववण्णग एगिदियाणं भंते ! किं तुला?तीया तुलविसेसाहिये कम्मं पकरेति पुच्छा ? तहेव ; गोयमा ! अत्थेगइया तुलठितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेति, अत्थेगइया तुल'ठतीया वेमाय विसेसाहियं कम्मं पकरेंति ॥ से केण?णं भंते ! जाव वेमायवैसे ही बांधने का व वेदने का कहना. यावत अनंतर वादर वनस्पति काया अहो भगवन् ! अनंतरोत्तम एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ?अहा गौतम! जैसे अधिक उद्देशा कहा वैसेही अनंतरोत्पन्न के उत्पन्नक १ उद्दशा कहना. अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्न एकेन्द्रिय को कितनी ममुद्धात कही ? अहो मौतम ! वेदना व कषाय ऐसे दो समुद्धात कहीं.॥३॥ अहो भगवन् : अनंतरोत्पन्न तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय क्या तुल्य विशेषाधिक कर्म करते हैं पृच्छा ? अहो गोनम ! कितनेक तुल्यस्थिति वाले तुल्यविशेषाधिक कर्म करते हैं., कितनेक तल्यस्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म करते हैं अहो भगवान् ! किस कारन से ऐसा कहा। ..प्रकाशक-राजाबहादुरलाला सुखदेवसहायजी घालाप्रसाद नी* भावार्थ Page #3039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 488+ विसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? गोथमा ! अणंतरोववण्णगा एगिदिया दुविहा ५० तंजहा अत्थेगइया समाउया समोववण्णगा, अत्थेगया समाउया विसमोववण्णगा ॥ तत्थणं जे से समाउया समोववण्णगा तेणं तुल्लठितीया तुलविसे साहियं कम्म परेंति ॥ तत्थणं जे ते समाउया विसमोववण्णगा तेणं तुल्लठितिया वेमाय विसाहियं कम्मं पकरेंति; से तेणट्रेणं जाव वेमार्य विसेसाहियं कम्मं पकरेंति सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥चउतीसइम सयस्स वित्तिओ उद्देसो॥ ३४ ॥ २॥ कइविहाणं भंते ! परंपरोववण्णगा एगिंदिया पं० ?गोयमा! पंचविहा परंपरोववण्णगा गया है यावत् विमात्रा से विशेषाधिक करते हैं ? अहो गौतम ? अनंतरोत्पक उत्पन्न एकेन्द्रिय के दो भेद , कई हैं. तद्यथा ! कितनेक सम आयुष्य वाले सम उत्पन्न होने वाले हैं और कितनेक सम आयुष्य वाले विषय उत्पन्न होने वाले हैं. उस में जो सम आयुष्य वाले व सम उत्पन्न वाले हैं वे तुल्यस्थिति वाले तल्यविशेषाधिक कर्म करते हैं और जो सम आयुष्य वाले व विषय उत्पन्न होने वाले हैं व तुल्यस्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्म करते हैं इसलिये यावत् विमात्रा विशेषाधिक कर्म करते हैं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ यह चौतीसबा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुचा ॥ ३४ ॥२॥ है अहो भगवन्! परंपरा उत्पन्न एकेन्द्रिय के कितनेक भेदकहे है ? अहो गीतमः परंपारा उत्पन्न एकन्द्रियके । भावार्थ चौतीसवा शतकका पहिला उद्देशा 488 Page #3040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एगिंदिया पं० तं जहा - पुढविकाइया भेदो चउकओ जाव वण्णस्सइ काइयति । परंपरोत्रवण्णग अपज्जत्ता सुहुम पुढची काइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए पुरच्छिमिले चरिमंते समोहए समोहएता जे भविए रयणप्पभाए पुढवीए जात्र पच्चच्छिमिले. चरिमंते अपजत्ता सुहुम पुढची काइयत्ताए उववज्जंति, एवं एएणं अभिलाषेणं जहे. पढमो उद्देसओ जाब लोग चरिमंतोत्ति || १ कहिणं भंते ! परंपरोववण्णग पज्जत्तगं वायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पं० ? गोयमा ! सट्टाणेणं असुवि पुढवीस, एवं एएवं अभिल वेणं जहा पढमे उद्देसए जात्र तुल्लठितीयाति ॥ सेवं भते ! संतति ॥ ॐ प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वाला प्रसादजी पांच भेद कहे हैं तद्यथा- पृथ्वी काया वगैरह एक २ के चार २ भेद यावत् वनस्पति काया. अहो भगवन् ! परंपरा उत्पन्न अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया इन रत्नप्रभा के पूर्व के वरिमांत में समुझान करके पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायापने उत्पन्न होने योग्य होते इस क्रम से अभिला कहना. यावत् पहिला उद्देशा पहिला रिन || १ || अहो भगवन ! परंपरा उत्पन्न पर्याप्त वादर वनस्प काया के स्थान कहां कहे हैं ? जो गम ! स्वस्थान से आठो पृथ्वी में. यों इस अभिलापक से यात्रत् | पहिला उद्देशापर्यंत यावत् तत्यस्थिति. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं । यह चौतीसवा तक को ३०२२ Page #3041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमा विवाह पण्णचि (भगवती) मूत्र 48+ चउतीसम सयस ततिओ ॥ ३४ ॥ ३ ॥ * एवं सेसावि अट्र उद्देसगा जाव अचरिमोत्ति, णवर अणंतरा अणंतर सरिसा, परंपरा परंपर सस्सिा , चरिमाया अचरिमाया एवं चेव. एवं एते एकारस उद्देसगा ॥१॥ पढमं एगिदिय सेढिसयं सन्मत्तं ॥ ३४ ॥ १ ॥ कइविहाणं भंई ! कण्ह लेरसा एगिदिया पं०? गोयमा ! पंचविहा कण्ह लेस्सा एमिंदिय ५० भेदे! चउकाओ जहा कण्हलेस्मा एमिंदियसए जाव वणस्सइकाइयत्ति कण्हलेस अपजत्तग मुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नीसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा.॥३४॥३॥ ऐसे ही शेष आठ उद्देश अचरिम पर्यंत कहना. परंतु अनंतर अनंतर समान व परंपरा परंपरा समान कहना. यो अग्यारह उद्देशे संपूर्ण हुए. यह प्रथम एकेन्द्रिय श्रेणि नामक प्रति शतक संपूर्ण हुवा, ॥३: ॥2॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय कितनेकहे ?अहो गौतम! कृष्ण लेश्यावाले एकेन्द्रिय पांच कहे. पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया यों एक २ के चार २. भेद, कृष्ण लेश्यावाले एकेंद्रिय शतक. जैसे.वनस्पतिकाया पर्यन्त कहना. अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया इस 4880 चौतीसवा शतक का दूसरा उद्देशा : 1 । Page #3042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पुरच्छिमिल्ल, एवं एएणं अभिलावणं जहेव उद्देसओ जाव लोग चरिमंतेत्ति, सम्वत्थ - कण्हलेस्सेसु उववातेयव्वो ॥ २ ॥ कहिणं भंते ! कण्हलेस्से अपज्जत्तग वायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पं.? गोयमा ! एवं एएणं अभिलावणं जहा ओहिंय उद्देसओ जाव तुलटितीयत्ति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढ़मं सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा ॥ वितियं एगिदिय सेढिसयं सम्मत्तं ॥ ३४ ॥ २ ॥ * ॥ एवं गील लेस्सहिंवि ॥ ततियं सयं ॥ ३४ ॥ ३ ॥ काउलेस्मेहिंवि सयं ॥ एवंचेव; चउत्थं सयं ॥ ३४ ॥ ४ ॥ रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व के चरिमांत में यों इस अभिलाप से जमे लोक चरिमांत पर्यन्त अभिलाप कहा वैसे ही कहना ॥१॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया के स्थान कहां कहे हैं? अहो गौतम ! इस अभिलाप मे जैसे औधिक उद्देशा कहा वैसे ही तुल्य स्थिति पर्यन्त कहना. अहो भगवन ! आपके वचन सत्य हैं. यों इम अभिलाप से जैसे पहिला श्रेणी शतक के अग्यारह उद्देशे कहे वैसे ही दूसरे शतक के अग्यारह उद्देशे कहना. यह दूसरा श्रेणी नामक प्रति शतक संपूर्ण हुवा ॥३४॥२॥ ऐसे ही नील लेश्या का कहना. यों तीसरा प्रति शतक संपूर्ण दुवा ॥ ३४ ॥३॥ x . कापोत लेश्या का भी वैसे ही कहना. यह चौथा प्रति शतक संपूर्ण हवा ॥ ३४ ॥ ४॥ + •प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी * भावाथे x + Page #3043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२८ 2. भवासिडिय एगिदिएहि सय, पंचमं सम्मत्तं ॥ ३४ ॥ ५ ॥ कइ विहाणं भंते! कण्हलेस्स भवसिद्धिया एगिदिया? एवं जहेब ओहिय उद्देसओ ॥१॥ कइ विहाणं भंते ! अणंतरोववण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिविया प० जहेव . अणंतरोबवण्णगा उद्देसओ ओहिओ तहेव॥२॥ कइविहाणं भंते! परंपरोववण्णग भवः } : सिद्धिया एगिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोववण्णग कण्हलेस भवसिद्धिय एगिदिया ५० ओहिओ भेदो चउक्कओ जाब वणस्सइकाइयत्ति ।परंपरोवबण्णगा कण्हलेस्स भवसिद्धिय अपज्जत्तग सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए. पुढवीए, एवं ? भवसिद्धिक एकेन्द्रिय की साय पांचवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३४ ॥५॥ x. * कृष्ण लेश्या वाले भवमिद्धिक का औधिक उद्देशा जैसे कहना ॥१॥ अहो भगवन्! अनंतरोत्पन्नक कृष्ण लेश्या वाले भवसिद्धिक के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! जैसे अनंतरोत्पन्नक का औधिक उद्देशा कहा वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! परंपरोत्पन्न भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के कितने भेद कहे हैं. ? अहो गौतम ! पांच भेद कहे हैं. यों औधिक चार भेद कहे वैसेही वनस्पति काया पर्यंत कहना ॥२॥अहो भगवम् ! परंपरा उत्पन्न कृष्ण लेश्या वाले भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी काया इस रमपम के. यों इस अभिकाप से 48 पंचमांग विवाह घण्णति ( भगवती ) सूत्र - चौतीसवा तक का छठा भावार्थ देश । Page #3044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव लोय चरिमंतेत्ति, सम्वत्थ कण्हलेस्लेसु भवसिद्धि येसु उक्बातेयव्यो ॥३॥ कहिणं भंते ! परंपरोक्यण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिय पज्जत्ता वायर पुवाकाइपाण ठाणा पण्णत्ता ॥ एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ उद्देसओ जाय तबुदितीयत्ति ॥ एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्स भवसिद्धिय एगिदिए तहेव एकारल उद्देसग संजुत्तसयं छ? सयं सम्मत्तं ॥३४॥६॥ णीललेरत भवासांडेय एगिदिएसु सत्तम सयं सम्मतं ॥ ३४ ॥ ७ ॥ x एवं काउलेस्स भाव सिद्धिय एगिदिएहिषि सयं ॥ अट्ठमं सयं ॥ ३८ ॥ ८ ॥ + जैसे औधिक उद्देशा कहा से ही यावत लोक चरिमांत पर्यंत कहना. सब स्थान कृष्ण लेश्या गले भवसिद्धिक में उत्पात काना. जहो भगान ! परंपरोत्पन्न कृष्ण लेश्या वाले भवसिद्धिक पर्याप्त वा काया के स्थानक कहां कह हैं ? अहो गौतम ! इस अभिला. से जैसे औधिक उद्देशा. कहा से स्थिति पर्यंत कहना. यो इम अभिलाप से कृष्ण लेश्या भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के वैसे ही अग्यारह उद्देशे वाला छठा शतक पूर्ण हुवा.॥३४॥६॥ ऐस ही नील लेश्या भवसिद्धिक एकेन्द्रिय का सातवा शतक संपूर्ण महुवा ॥ ३४ ॥ ७ ॥ ऐसे ही कापुल लेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय का आठस शतक हुना ॥३४॥८१. काजकन्सजावहादुर लालामुखद्वसहायजा ज्वालामसारमा. भावार्थ Page #3045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि भणियाणि एवं अभवसिद्धिएहिंवि चत्तारि सयाणि भाणियन्वाणि, णवरं चरिम अचरिम वजा णव उद्देसगा भाणियन्वा, सेसे तंवेव, ॥ एवं एयाई वारस एगिदिय सेढीसयाई भाणियन्वाई | सेवं भंते भंतेत्ति । जाव विहरइ ॥ एगिदिय सढी सया सम्मत्ताई ॥ एगिदिय मेखिसयं चउत्तीसम सम्मत्तं ॥ ३४ ॥ x जैसे भवसिद्धिक की साथ चार शतक कहे वैसे ही अभयसिद्धिक की साथ चार शतक कहना. परंतु चरिम अचरिम के दोनों उद्देश नहीं कहना. यो एकेन्द्रिय उत्पन्न होनेकी श्रेणी के बारह शतक संपूर्ण हुए. अहो भगवन् ! आपके बचन सस्य हैं. यों एकेन्द्रिय श्रेणी शतक नामक चौतीसवा शतक संपूर्ण हुवा ॥३॥ भावार्थ । ++ पंचवान विवाह पचि mammanowrnmommammer wimmmmmmmmmon Page #3046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२८ 49 अनुवादक-गालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * पञ्चत्रिंशतम् शतकम् * कइणं भंते महाजुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! सोलस महा जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा. कडजुम्म कडजुम्मे १, कडजुम्म तेओगे २, कडजुम्म दावरजुम्मे ३, कडजुम्म कलिओगे ४, तेओग कडजुम्मे ५, तेआग तेओगे ६, तेओग दावरजुम्मे ७, तेओग कलिओगे ८, दावरजुम्म कडजुम्मे ९, दावरजुम्म तेओग १०, दावरजुम्म दावर - जुम्मे ११, दावरजुम्म कलिओगे १२, कलिओग कडजुम्मे १३, कलिओग तेओगे १४, कलिओग दावरजुम्मे १५, कलिओग कलिओगे १६ ॥ से केणटुण भंते ! चौतीसवे शतक में एकेन्द्रिय की श्रेणी की संख्या का स्वरूप कहा, पेनीसवे शतक में भी संख्या संबंध करते हैं. अहो भगवन् ! महायुग्म कितने कहे हैं? अहो गौतम ! मोला महायुग्म कहे हैं जिन के नाय-१ कृतयुग्म कृतयुग्म २ कृतयुग्म श्योज, ३ कृतयुग्म द्वापर युग्म, ४ कृतयुग्म कल्योज, ५ योज कृतयुग्म, ६ योज योज, ७ व्योज द्वापरयुग्म, ८ योज कलियुग्म १ द्वापरयुग्म, कुनयुग्म १ युग्म राशि को कहते हैं. राशि दो प्रकार की कही जिस में क्षुल्लक सो छोटी राशि उस का कशन पहिले कहा और महा राशि मो बड़ी राशी उस का कथन अब करते हैं.. ..प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी ज्वालामसाइजी भनाथ Page #3047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वुच्चइ-सोलस्म महा जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा-कडजुम्म कडजुम्मे, जाव कलि आग: कलिओगे? गोयमा ! जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे चउपजवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेवि कडजुम्मा, सेतं छडजुम्म कडजुम्मे १ जी रासी चउक्कएणं अवहरेणं अवहिरमाणे तिपजवसिए जणं तस्स रासिस्स अवहार समया कडजुम्मा,सेतं कडजुम्म तेओगे२,जेणं रासी चउक्कएणं अवहारणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, सेतं कडजुम्मा दावर जुम्मा ३. जेणं रासि चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जव. TER. द.पर, व्याज ११ द्वापर द्वापर १२ द्वापर कल्योज १३ कल्योज कल्याज १४. कल्याज, ५ कल्याज द्वापर युग्म और १६ कल्योज कल्योज यम्म. अहो भावन! किस कारन से सोलह मह युग्म कहे .. कृतयुग्म कृत युग्म यावत् कल्याज कल्योज ? अहो गौतम ! जिस राशि को चार से विभाग दते चार वाकी रहे और उस राशिका विभाग करने में भी चार समय रहे, वह कृतयुग्म कृतयुग्म राशि कहाती है, २ जिग राशि को चार का भाग देने से तीन रहे और भाग देते चार समय लगे. वह कृतयुम योन, ३ जिस राशि को चार का भाग देने से शेष दो रहे और विभाग करते चार समय लगे. - पंचमांग विवाह पण्पत्ति ( भगवती ).मुत्र 48 ommamimarmireommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmramme 48 तानवा शतक का पहिला उद्देशा 487 भावार्थ - Page #3048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-वाल ह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋांजी सिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहार समया कडजुम्मा सेतं कडजुम्म कलि ओगे ४, जेणं रासी घउक्कएणं अवहारे अयहीरमाणे चउपजवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तओग सेतं तेओगकडजम्मे ५, जेणंरासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए जणं तस्सर सिस्स अबहारसमया तेओया सतं तेओग तेओगे ६, जेणं रासी चउक्करणं अवह रेणं अवहारेमाणे दुपजवसिए जेणं तस्स रासिस्स अवहार समया तेओया सेतं तोगदावरजुम्मे ७, जेणं रासी घउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए जेणं सस्सरासिस्स अवहारसमया वह कायुग्म द्वापर, ४ जिम राशि को चार का विभाग देते एक रहे और विभाग देने में कृतयुग्म (चार) समय लगे. यह कृतयु: कल्योज राशि है.५ मिस राशि को चार का भाग देते शेष चार रखें और देने में तीन समय लगे, वह व्यंज कृतयुग्म : जिह राशि को चार का भाग देने से दोष तीन रहे और भाग देने के भी तीन समय लगे वह व्योग व्योज ५ जिस राशि को चार का भाग देने से शेष दो भार विभाग देने तीन समय लगे यह श्याज द्वापरयुग्म, ८ जिस राशि को चार भाग देने स शेष एक रहे और विमाग देने के समय तीन लगे वह न्योज कल्योज, ९ जिस राशि को • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावाः Page #3049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचमांग विनाह एण्णत (भगवती) मंत्र तेओया, सेतं तेओग कलिओगे ८, जेणंरासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपजवसिए जेणं तस्सरासिस्स अवहार समया दावरजुम्मा, सेतं दावरजुम्म कड जुम्मे ९, जेणं रासी चउक्कएणं अवहारणं अवहीरमाणे तिपजवसिए जेणं तस्सरासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, सेतं दावर जुम्म तेओगे १०, जेणरासो चउक्कएणं अव. हारेणं अव्हीरमाणे दुपजवासिए जेणं तस्सरासिस्स अवहार समया दावरजुम्मा सेतं दावरजुम्म दाबरजुम्मे ११, जेणंरासी चउक्कएणं अवहारणं अहीरमाणे एगपजसिए जेणं तस्सरासिस्स आहारसमया दारजुम्मा, सेतं दारजुम्म कलिओगे१२,जेणरासी चउक्कएणं अरहारेणं अबहीरमाणे चउपजसिए जेणं तस्स रासिस्स अबहारसमया चार का भाग देने से शेष चार रहे और उस के विभाग देने के समय द्वापर युग्म दो लगे वह द्वापर चम्म कृतयुग्म १०, जिस राशि को चार का विभाग देने से तीन रहे और अपहार समय दो लगे वह द्वापर युग्म ज्योज है ५१, जिा राशि को चार का भाग देने से शेष दो रहे और अपहार समय दो लगे तो वह द्वापर युग्म द्वापर युग्म होवे १२, जिस राशि को चार का भाग देने से शेष एक है। से और भपहार में समय दो लगे तो वह द्वापर कल्योज होवे, १३, जिस राशि को चार का भाग । पेतीसवा शतक का पहिला उद्देशा 488 भावार्थ १४ Page #3050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कलिओगा, सेतं कलिओग कडजुम्मे १३,जेणरासी चउक्कएणं अवहारेणं. अन्हीरमाणे तिपजवसिए जेणं तस्सरासिस्स अवहारसमया कलिओगा सेतं कलिओग तेओगा १४, जेणंरासी चउक्कएणं अवहारणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए जेणं तस्सरासिस्म अवहारसमया ३०१२ कलिओगा, सेतं कलिओग दावरजुम्ने १५, जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीर माणे एंगपजवसिए जेणं तस्स रास्सि अवहारसमया कलिओगा से तं कलिओग कलिओगे १६; से तेणटेणं जाव कलिओग कलिओगे ॥ १॥ कडजुम्मा कडजुम्म एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति, किं गैरइय जहा उप्पलुद्देहए तहा से शेष चार रहे और उस गाशि का अपहार ममय एक गे वह कल्योज कृतयुग्म १४ जिम राशि को चार का भाग दत शेप तीन रहे और अपहार समय एक होवे तो वह कल्याज योज है १५ जिस राशि को चार का भाग देते शेष दो रहे और उप का अपहार समय एक होवे तो वह कल्योज द्वापर युग्म होवे और १६ जिस राशि को चार का विभाग देते शेष एक रहे और अपहार .. समय भी एक होवे तो वह कल्योज कल्योज राशी होये. इमलिये ऐसा कहा गया यावत् कल्योजकल्योज ॥१॥ अहो भगवत् ! कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या नारकी में से वगैरह है। प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #3051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 wwwewww ३१ पंचमात्र विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 428 उमाओं ॥ २ ॥ तेणं भंते ! जीवा एगममएणं केवया उग्वजंति ? गोयमा । सोलमवा संखजवा असंखेजवा, अणंता वा उपवजति ॥ ३ ॥ तेणं भंते ! जीवाममए समए• पुच्छा ? गोयमा ! तेणं अणंता समए समएणं अबहीरमाणा अबहीरमाणा अणंताहिं ओपप्पिणी उस्सप्पिणीहिं अबहीरेति, णो चेत्रणं अबहिरिया .या, उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए ॥ ४ ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्म कम्मस्म किं बंधगा पुग्छा ? गोयमा ! बंधगा णो अबंधगा, एवं पोसि आउयवज्जाणं, आउयस्त धंधगा वा अबंधगावा ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मल वेदगा पुच्छा? गोयमा जैसे उत्मल उद्देशा कहा वैसे ही कहना ॥२॥ अहो भगवन् ! एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो । गौतम ! वे सोलर, संख्यात, असंख्यात व अनंत त्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वे समय २ में . डीन करते २ अपहरते कितने काल में सब का अपहरण होवे ? अहो गौतम ! अनंत असर्पिणी उत्सर्पिणी पर्यना हीन होते हैं.परंतु हीन हुवे ऐसा नहीं होता हैं.उसका ऊंचापना उत्पल उद्देशा जैसे जानना अहो भगवन् ! वे ज्ञानावरणीय कर्म के क्या बंधक हैं. या अबंध हैं? अहो गौतम : बंधक हैं परंतन धक नहीं हैं. ऐम ही आयुष्य छोड़कर सब का जानना. आयुष्य कर्म के बंधक प्रबंधक दोनों हैं. पतीमवा शतक का पहिला उद्देशाने 1 + Page #3052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + दगा णो अदगा,एवं ससि ॥ तेणं भंते! जीवा कि सातादगा असतावेदगा पुन्छा! गौयमा ! सातो दगारा एवं खलु उप्पलुद्दे ग परिवाडी fi कम्माणं, उदई णो अणुदई, छण्हं कम्भाणं उदीरगा णो अणुदरगा, दणिजाउयाणं उदीरंगा वा अणुदीरगावा ॥५॥ तेणं भंते ! जीवा किं कण्हलस्सा पुच्छा ? गोयमा ! कण्हलेकसान गीललेस्सा काउलेस्सावा, तेउलेसा ॥ णो मम्मट्टिी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी ॥ णो णाणी अण्णाणी, णियमा दुअण्णाणी तंजहा मतिअण्णाणीय अहो भगवन् ! जीवों शानावरणीय कर्म के पेदक हैं या अवेदक हैं! ही गौतम ! वेदक हैं परंतु अदक नहीं है. ऐसे हो सब का जानना. अहो भनान ! वेश्या साता वेदनेवाले हैं या असाता वेदने । माले हैं ? अहो गौतम ! माता वेदनेवाले भी हैं और असाता वेदनेवाले भी हैं।" यो पुगल उद्देशा की परिपाटी सर को आश्री जानना. ऐसे ही उदय अनुदय में पाठों कमों का उदय हैं परंतु अनुइय नहीं है. वेदनीय व आयुष्य वर्जकर छ कर्म की उदारणा करने बाले हैं।॥५॥अहो भगवन् ! वं जीवों क्या कृष्ण लश्या वाले हैं? अहो गौतम ! कृष्ण लेश्या, नील, लेश्या कापोत लेश्या व तेजो लश्या वाले हैं.समष्टि व सममिध्यादृष्टि वाले नहीं हैं परंतु मिध्यादृष्टि वाले हैं. हामी बायक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. यान Page #3053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचांग विवाह पणषि (मगवती ) मूत्र +8+ सुअअण्णाणीय ॥ णो मणजोगी णो वइजोगी, कायजोगी ॥ सागारोवउत्तावा अणागारोवउत्तावा ॥ ६ ॥ तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा कइवण्णा जहा उप्पलुद्देसए सव्वत्थ पुच्छा ? गोयमा ! उप्पलुद्देसए ऊसासगावा णीसासगावा, णो उस्सासगा णीसासगात्रा ; आहारगावा अणाहारगावा, पो. विश्या अविरया, णो विरया विस्या। भकिरिया जो अकिरिया, ॥ सत्तविह बंधगावा अटुकिह बंधगाश, आहार सण्णोवउत्तावा जाव परिग्गह सण्णोवउत्तावा ॥ कोह कसाइ जाव लोभकसाइवा ।। नहीं है परंतु अज्ञानी में दो अज्ञान अर्थात पति अज्ञान वश्रुत अज्ञान इन दोनों अज्ञान की नियमा है. मन योगी पचन योगी नहीं हैं परंतु एक काया योगी है. साकारोपयोग व अनाकागोपयोग यों दोनोंउपयोम वाले E. ॥६॥ अहो भगवन्! उन जीवों के शरीर का कौनसा वर्ण कहा वगैरह उत्पल उद्देशे जैसे सर्वत्र पृच्छया की पेशा कहना? अहो गौतमः उत्पल उद्देशे जैप्ता उत्तरभी जानना. अर्थात् चे उश्वास वाले अथवा नीश्वास वाले हैं, परंतु उश्वास निश्वास वाले नहीं है,भादरक अनाहारक है,विरति र घिरता विरति नहीं हैं परंतु अविरति हैं. सक्रिय } ! है परंतु अक्रिय नहीं है,सात भया. आठ प्रकारके कर्म बंध करने वाले हैं. आहार संज्ञा वाले यावत परिग्रह । संज्ञा वाले हैं, क्रोध करायी यावत् लोभः कषायी हैं, स्त्री वेदी पुरुष वेदी नहीं है परंतु नपुंसक वेदी है. ली । 488 पैतीसवा शतक का पहिला उद्देशा-48 Page #3054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. जो इार्थीवेदगा, जो पुरिसवेदगा, गपुंसगवेदगावा, इत्थीवेद. बंधगावा, पुरिसवेद बंधगावा णपुंसगवेदं बंधगावा ।। णो सणी असणी, ॥ सइंदिया णो अर्णिदिया ॥७॥ तेणं भंते ! कडजुम्म २ एगिदियाउत्ति कालओ केवंचिरंहोइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ ओसप्पिणी उसप्पिणीओ वणरसइकालो संवेहोणभण्णइ ॥ आहारो जहा उप्पलुद्देसए णवरं णिव्याघाएणं छदिसि वाघायं पडुच्च सिय तिदिसं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसि सेसं तहेव. ठिई जहणेणं एक समयं उकेसेणं वावीस वाससहस्साई॥ममुग्धाया आदिजा, चत्तारि मरणंतिय समुग्घाया तेणं समोहयावि भावार्थ वेदके बंधक,पुरुष वेदके बंधक और नपुंसक वेदके बंधक यो तनावेदके बंधक हैं संझी नहीं हैं.परंतु असंही हा और सइन्द्रिय हैं परंतु अनेन्द्रिय नहीं हैं ॥७॥ अहो भगवन् ! वे कृत युग्मरएकेन्द्रिय काल से कितना काल} रहते हैं? अहो गौतम! जयन्य एक ममय उत्कृष्ट अनंत काल अनंत अवमर्पिणी उत्सर्पिणी. यहां वनस्पति काया का संबंध नहीं कहना. आहार उत्पल उद्देशा जैसे कहना परंतु निर्व्याघात से छ दिशी और व्याघात से स्थान तीन, स्थान चार व स्थान पांच दिशिका आहार करे. स्थिति जघन्य एक समय की ! उत्कृष्ट बावीस हजार वर्षकी समुद्धात पहिली चार, मारणांतिक समुद्घात से समोहया व असमोहया ऐसे 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलके ऋषिजी + प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Page #3055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमोहयावि मरंति उन्बटुणा जहा उप्पलुद्देसए ॥ ८ ॥ अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कडजुम्म २ एगिदियात्ताए उववण्णपुवा ? हंता गोयमा ! असइ अदुवा अणंत खत्तो ॥ ९ ॥ कडजुम्म तेओग एगिदियाणं भंते ! कओ उववजति ? उववाओ एहेव १ ॥ तेणं भंते ! जीवा एगपुच्छा ? गोयमा ! एगूणवीसा वा संखे. जावा असंखेजावा अणंतावा उवत्रज्जंति, सेसं जहा कडजुम्माणं जाव अणंत खुत्तो२॥ कडजुम्म दावरजुम्म एगिदियाणं भंते ! कओ उववज्जति?, उबवातो तहेव ॥ तेणं भंते ! जीवा एगपुच्छा ? गोयमा ! अट्ठारस वा संखेज्जावा असंखजावा अणंतावा भावार्थ दोनों मरण मरे और उतना उत्पल उद्देशा जैसे कहना ॥ ८॥ अहो भगवन् सब प्राण, भूत, जीव व सत्व कृत युग्मरएकेन्द्रिमपने क्या पहिले उत्पन्न हुए हैं? हाँ गौतम! अनेकवक्त व अनंतवक्त उत्पन्न हुए हैं। ॥९॥ अहो भगवन् ! कृत युग्म ध्योज कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! उपपात जैसे कहना.. हों भगवन ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! उनीम, संख्यात, असंख्यातः 1 अनंत उत्पन्न होते हैं. शेष सब कृत युग्म जैसे : करना. यावत् अनंतवतार, कृतः मुग्म द्वापर 1+युग्मं का भी वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! वे एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? - पंचांग विवाह.पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 428 ११. पतीसवा शतकका पहिला उद्दशा 48 onominandanamoves. Nan Page #3056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१८ उववजति सेसं तहेव जाव अणंत खत्तो ३ ॥ कडजुम्म कलिओग एगिदियार्ण भंते! - कओ उबवाता? लहब परिमाणं सत्तर वा सखजावा असखेज्जावा अणंतावा, सेसे तहेव जाव अणंत खुत्ता ४ ॥ तेओग कडजम्म एगिदियाणं भंते ! को उववातो तहेव परिमाणं वारसबा संखेज्जावा अमंखज्जावा अणंतावा उवबजंति, सेसं तहेव जाव अणंत खुत्तो ॥ ५ ॥ तेोग तेओग एगिोदेयाणं भंते ! कओ उवयज्जति ? उववाओ तहेव, परिमाणं पण्णरस वा सखैजावा असंख चावा अगंतात्रा, सेसं तहेव जाव अणंत खुत्ता ६ ॥ एवं एएम मोलससु महाजुम्मे : एको गमओ, णवर परि. माणे णाणत्तं तेओय दावरजुम्मेसु, परिमाणं चउद्दसवा संखेजवा असखेजवा भावार्थही गौतम ! अठारह संख्यात अख्यात व अत उत्पन्न होते हैं. शेष पर पहले जैसे यावत् , अनंतरवक्त ३. अो भगवन् ! का युग्म कल्पोज कर में उत्पन्न होत ? अहो गौतम बही कहना. परंतु परिमाण मत्तरह भख्यात,असमान व अनंत कहना. शेष पूर्वोक्त जैसे यावत् अनंतवत४, योज कृत युग्म एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं वगैरह वैसे ही कहना. परंतु परिमाण वारह, संख्यात अख्यात. व अनंत उत्पन्न होते हैं शंष वैसे ही यावत् अनंनवक्त५. ज्यांज ज्योज एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं, ? उपपात 48 अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी - पकाचक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी Page #3057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भगवती) सूत्र +8+ 48 पंचमान विवाह पण्णचि अणतावा उबवजंति: ७ ॥ तेओग कलिओग तेरस वा संखज्जा वा असंखेजा वा - अणंतावा उववजति ८ ॥ दावरजुम्म कडजुम्भेस अठवा संखजावा असंखजावा अणंतावा उववजंति ९ ॥ दावग्जुम्म तेओगेसु एकारसावा संखेजावा असंखेजावा अणंतावा उववज्जति १० ॥ दावरजुम्म दावर जुम्मसु दससवा संखजावा असंखेजावा अणतावा उववति ११ ॥दावरजम्म कलिओगेस णवा संखजावा असंखे. ज्जावा अणंतावा उववजंति १२ ॥ कलिओग कडजुम्मसु चतारिवा संखजावा असं. खेजावा अणतावा उववजंति ३३ ॥ कलिंओग तेओगेस सत्तेवा संखेजावा असंवैसे ही यावत् पीरमाण पभरह संख्यात, असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं;शेष वैसे ही यावत् अनंतवक्तव, यो सोलह यहा युग्यों में एक गमा, परंतु परिमाण में विशेषता: ध्योज द्वापर युग्म में परिमाण उदह संख्यात, असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं ७. ध्योज कल्योज में तेरह संख्यात असंख्यात उत्पन्न होते हैं ८. पार कृत युग्म में आठ संख्यात, असंख्यात व अनंत ९. द्वापर युग्म ध्यान में अग्यारह संख्यात,असंख्यात व अनंत१०.द्वापर युग्म में दशमंख्यात असंख्यात व अनंत११. द्वापर युग्म करयोज में नव संख्यात असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं१२: कलियोग कृत युग्ममें चार संख्यात अख्यात व अनंत 8.तीसरा शतक का पहिला उद्देशा भावार्थ 1 Page #3058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४० भावार्थ ऋषिजी + ormerammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 44 अनुवांदक-पालन खेजावा अणनामा उक्वजति ॥ १४ ॥ कलिओग: दावरजुमेसु छवा संखेजावा : असंखेजावा अणंतावा उववजति १५ ॥ कलिओग कलिओग एगिदियाणं भंते ! कओ उक्वजति? उववाओ तहेब, परिमाणं पंचावा, संखेजावा, असंखेजावा, अणंतावा उववजंति ॥ १६ ॥ सेसं तहेव जाव अणंत खुत्तो ॥ सेवं भंते !. भंतेत्ति ॥ पेतीस इमस्सपढमो ॥३५ ॥ १ ॥ पढमसमय कडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? गोयमा ! तहेव एवं जहेब पढमो उद्देसओ तहेव सोलस खुत्तो ॥ वितिओवि भाणियव्वो तहेव सव्वं वरं इमाणि दस गाणत्ताणि उत्पन्न होते हैं.३ कल्योज योनमें सात संख्यात असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं.४.कल्योज द्वापर में छह संख्यात असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं १५.और अहो भगवन कल्यो कल्योज एकेन्द्रिय कहां से. उत्पन्न होते हैं?अहो गौतम ! उपापत वैमे डी.परिमाण पांच.संख्यात असंख्यात व अनंत उत्पन्न होते हैं. शेष वैसे है यावत् अनंतर वक्त१६.अहो भगवन्!आपके वचनसत्य हैं यह तीसवा शसकका प्रथम उद्देशा हुवा ॥३०॥१॥ अहो भगवन् ! प्रथम समय कृत युग्म एकेन्द्रिय कहाँ मे उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे पहिला उहया कहा वैसे ही सोलहवार दूसरा उद्देशा कहना, वैसे ही सब कहना, विशेषता में अवगाहना जघन्य ।। .प्रकाशक रानाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी* 1 Page #3059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह पण्णा ( भगवती ) सूत्र ओगाहणा. जहेणेणं अंगुसस्स असंखेजइ भागं उक्कोणवि अंगुलस्स असंखेजइ भागं, आउयकम्मस्स जो बंधगा अबंधगा, आउयस्स णो उदीगा अणुदीरगा, जो उस्सासगा णो णिस्सासगा, णो उस्सासणिस्मासगा॥ सत्तविह बंधगावा, णो अट्टविह वंधगावा ॥ १ ॥ तेणं भंते ! पढम समय कडजुम्म २ एगिदियात्ति कालओ कवचिरं होइ ? गोयमा ! एक समयं. एवं ठितीएवि, समुग्धाया आदिल्ला दोण्णि, समोहया ण पुच्छिजति उबट्टणा णपुच्छिजइ, सेसं तहेव सव्वं णिरवसेसं,सोलसमुवि गमएसु जाव अणंता खुत्तो ॥ सेवं भंते २. त्ति ॥ पेंतीसमस, वितिओ॥ ३५॥२॥ * अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट भी अंगुल का असंख्यातवा भाग, आयुष्यकर्म के बंधक नहीं हैं परंतु अबंधक है, आयुष्यकर्म की उदीरणा करनेवाले नहीं हैं परंतु अनुहीरणाधाले हैं, उश्वासबोले, निवासवाले व उश्वासनिश्वासवाले नहीं हैं, सात कर्म के बंधक हैं परंतु आठ कर्म के बंधक नहीं हैं ॥ १ ॥ अहो, भगवन्! प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय कितने काल तक रहते हैं! अहो गौतम ! एक समय, एसे ही स्थिति का भी कहना. समुद्धात स्थिति पहिले की दो,समोइया व उद्वर्तना की पृच्छा नहीं कहना. शेष सोलह गमा में अनंत वक्त पर्यन्त वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पंतीसवां शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण वा ॥ ३५ ॥ २॥ 388 पतीसवा शतक का पहिला उद्देशा भाशार्थ! - Page #3060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wamanna श्री अमोलक ऋषिजी Auranrammemoranrnim अपढम समय कडजुम्म एगिदियाणं भंते ! कओ उववजीत, एसो जहा पढमुद्देमो सोलसहिवि जुम्मसु तहव णेयवो, जाप कालेओग कलिओगत्ताए जाव अगंतखुत्तो। संवं भंते २ त्ति ॥ पैतीसमस्सयस्स ततिओ उद्देसो ॥ २५ ॥ ३ ॥ + चरिमसयय कडजुम्म कडजुम्म एगिदियाणं भंते ! कआ उवव्रजति ? एवं जहेत्र पढमसमय उद्देसओ णवरं देवा न उववज्जति, तेउलेस्सा ण पुच्छंति सेसं तहेव सेवं भंते २ ति ॥ पेंतीसम सयस्स चउत्यो उद्दसो ॥ २५ ॥ ४॥ x अचरिम समय कडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढमसमय # अहो भगवन् ! अप्रथम सपय कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे पहिला उद्देशा कहा वैसे ही सोलह युग्मों में कहना. ग्राषद् कल्याज कल्याजपने यारत् अनंतवक्त वहां तक कहना, यह पेंतीसवा शतक का तीसरा उद्दशा संपूर्ण हुवा ॥ ३० ॥ ३ ॥ चरिम समय कृतयुग्म एकन्दिय कहां से उत्पन्न होते हैं यों जैसे पहिला उद्देशा कहा वैसे ही कहना, परंतु देव इस में उत्पन्न नहीं होते हैं. इस से तेजा लेश्या की पृच्छा कहना नहीं. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह तीसवा शतक का चौथा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥ ४॥ + 15 अहो भगवन् ! अचरिम कृतयुग्म २ एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यो पहिला समय उद्देशा कहा, प्रकाशक-सजावजदुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ Page #3061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पंचमांगविवाह पण्णानि (भगवती ) सूत्र 428 उद्देसओ तहेव णिरव सेसं ॥ सेवं भंते २ त्ति ।। पैंतीसमस्स पंचमी उद्देसो॥३५॥५॥ पढमपढम समय कडजुम्म एगिदियाणं भंते ! कओ उववजात ? जहा पढम समय उद्दसआ तहेव णिरव सेसं ॥ सेवं भंते २ त्ति जाव विहरइ ॥ ३५ ॥ ६ ॥ x पढम अपलम समय कडजुम्मा २ एगिदियाणं भंते ! कओ उववजति ? जहा पढ़म समय उद्देसओ तहेव भाणियब्यो. सेवं भंते ॥ पेंतीसमस सक्षमो ॥३५॥७॥ पढम चरिम समय कडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! कओ उववनंति ? जहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भमवन् ! आपके बचन मस्य हैं. यह पेंतीसवा तक का पांवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥ ५॥ ॥ अहो भगवन् ! प्रथम प्रथम समय कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? बछ पहिला समय उद्देशा जैसे कहना. अहो भगवन ! आपके वचन सत्य हैं. यों कहकर यावत् विचरने लगे ॥ छट्ठा उद्देशा ॥३५॥६॥ x ॥प्रथम अप्रथम मसय तर युग्म २ एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते ? गों जैसे पहिला उद्देशा कहा वैये ही कहना. अहो भनवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों तीसवा शतक का सानवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥ ७॥ x x । अहो भगवन् ! म्यूम चरिम सम्य कृतयुग्म २ एकेन्द्रिय कहां से उत्पत्र होते हैं. ? यो जैसे चरिम ।। पतीसवा शतक का पहीला उद्देशा , Page #3062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिमुद्देसओ तहेव गिरव. सेसं. ॥ सेवं भंते २ ति ॥ घेतीसम• अठमो ॥३५॥८॥ पढम अचरिम समय कडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? जहा पढमु. हेसओ तहेव णिरव सेसं ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ जाव विहरइ ॥ तेती० नवमो!॥३५||९ 'चरिम २ समय कडजुम्म एगिदियाणं भंते! कओ उववज्जति! जहा चउत्थो उद्देसओ तहेव ॥ सेवं भंते! भंतत्ति ॥ पेंतीसम सयस्स दसमो उद्देसी ॥ ३५ ॥ १० ॥ x चरिम अररिम समय कडजुम्म २ एगिदियाणंः भंते ! कओ उववज्जति ?. उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पेंतीसवा शतक का आठवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३५॥ ८॥ . x. ॥ अहो भगवन् ! प्रथम अचरिम समय कृतयुग्म २ एकन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? जैसे पहिला उदेशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य है. यह तीसवा शतक का नववा उद्देशा मंपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥१॥ ___ अहो भगवन ! चरिम चरिम समय कृतयुग्म. एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे चौथा उद्देशा कहा वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. पेंतीसवा शतक का दशवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १५ ॥ १०॥ * ॥ अहो भगवन् ! चरिम अचरिम कृतयुग्म कृतयम्म एकेन्द्रिय री मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 अनुवादक-बालब्रह्मचा *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवस हायजी ज्वाला प्रसादजी. भावार्थ Page #3063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहा पढमुदेसओ तहेव णिरव सेसं सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ ॥३५॥११॥ . ' + एवं एएणं कमेणं एक्कारस उद्देसगा पहमो ततिओ पंचमओ य सरिसगमया, सेसा अट्ठ सरिसा, णवरं चउत्थ अट्टमे दसमे देवो ण उववत्तति, तेओलेस्सा णत्थि ॥ पढम एगिंदिय महा जम्मा सयं सम्मत्त ॥ ३५॥ १ ॥ * ॥ कण्हलेस्स कडजुम्म २ एगिदियाणं भंते ! कओ उबवजंति ? गोयमा ! उववाओ तहेव; एवं जहा ओहिय उद्देसए, गवरं इमं णाणत्तं ॥ तेणं भंते ? जीवा ! कण्ह लेस्सा ? हंता कण्ह लेस्सा ॥ तेणं भंते ! कण्ह लेस्सा कडजुम्मा २ एगिंदिया कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे पहिला उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों पेंतीसवा शतक का अग्यारहवा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥ ११ ॥ यों इस क्रम से अग्यारह उद्देशे कहना, उस में पहिला, तीसरा और पांचवा ये सरीखे उद्देशे हैं. शेष आठ उद्देसे सरिखे जानना. परंतु चौथा, आठवा व दशत्र उद्देश में देव नहीं उत्पन्न होते हैं. जिस से तेजो लेश्या नहीं। पाती है. यह पहिला महायुग्म नामक एकेन्द्रिय शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३५ ॥ १ ॥x 156 अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्या वाले कृत युग्म २ एकेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ! यों औधिक उद्देशे में जैस कहा वैसे ही कहना परंतु विशेषता यह है कि अहो भगवन् ! वे जीवों क्या कृष्णा लेश्या वाले पंचांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 48 480 पतसिवा शतकका दूमरा उद्दशा 482 भावाथ Page #3064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पि तिकालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अतोमुहत्तं ॥ एवं ठितीएघि जाव अणंत खुत्तो ॥ एवं सोलसुवि जुम्मा भाणियन्वा ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ पेंतीसम सयस रितीओ ॥ ३५ ॥२॥ * ॥ पढमसमय कण्हलेस्स कडजुम्म २ एगिदिपाणं भंत ! कओ उपवजंति जहा पढमुहसए पवरं तेणं भंते! कण्ह लेस्सा ? हंता कण्ह लेस्मा, से तहेव सेवं भंते ! भंतेत्ति एवं जहा ओहियसए एक्कारन उद्देमगी भाणियां तहा कण्ह लेससवि एकारन उद्दे. सगा भाणियमा, पढमो ततिओ पंचमो य परिस गमगा, सेसा अट्ठवि सरि गमगी. है ? हो गौतमकृष्ण लेश्या वाले हैं. अही भंगान्! कृत्य युग्यरएकैन्द्रिय कितने काल पर्यत रते हैं? अहो गौतम! जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मन. एमेही स्थिति का यावत् अनंतवक्तं उत्पन्न का सोलह युगों में कहना अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यापैतीसरा शतकं को दूसरा उद्देशा ॥ ३५ ॥२॥ प्रथम समय कृष्ण लेश्या वाले कृत युग्प२ए केन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं? वगैरह जैन पहिला उद्देशा कहा तैमा यह भी कहना परंतु अहो भगवन् वक्या कृष्ण लेश्या वाले हैं?हां गौतमाये कृष्ण लेश्या वाले हैं, शेष वैसे ही कहना. अहो भगान! आपके वचन सत्य हैं यों से अधिक शतक में अग्यारह उद्देशे कई वैसे ही कृष्ण लेश्य के भी अग्यारह उद्देशे कहना. निन में पहिला, तीसरा व पांचवा गमा एक सरिखा कहना. और शेष आठ71 प्रकाशक-रानावहादुर लाला मुखदनमहायजी ज्यालाममादजी. मावार्थ Page #3065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 HAKKAnanm 48 पंचमा विवाह पण्णति (मयवति ) सूत्र 428+ पवरं चउत्थ छ? दसमेसु उववाओ गल्थि देवस्स, सेवं भंते ! मतेत्तिः ।। पणतीसइमेसए वितिय एगिदिय महाजुम्म सयं ॥ ३५ ॥ २ ॥ एवं णीललेस्रोहिंवि सयं, कण्ह लस्स सय सरिसं एकारस उद्देसगा तहेव, सेवं भैते ! भंतेत्ति ॥ ततिय एगिदिय महा जुम्म सयं सम्मत् ॥ ३५ ॥ ३ ॥ एवं काउलेस्सेहिंत्रिसयं, कण्हलेस सयसरिस ॥ सेवं भंते चउत्थ एगिदिय महजुम्म सयं ॥ ३५ ॥ ॥ ४ ॥ भवसिद्धिय कडजम्म कड जुम्म एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? जद्दा अहिय अयं णवरं एकारसवि उदेसएसु ॥ अह भंते ! सव्वपाणा गमा पकसरिखे कहना. परंतु चौथा, छठा व दश वे उद्देश में देव नहीं उत्पन्न होते हैं. अहो भगवन् ! आपके . बचन सत्य हैं यों पेनीसवे शाक में एकेन्द्रिय महा युम्य नामक द्वारा शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ३५ ॥ २॥ar है जैसे कृष्ण लेश्या का अग्यारह उदेशा सहित शतक कहा वैसे ही नील लेश्याका शतक जानना. अ भगवन् : आपके वचन मस हैं यह पेंत सवा शतक में तीसग एकेन्द्रिय महाशनक संपूर्ण हुवा ॥ ३५॥३॥ । ऐसेही कापोतलेश्या को कृष्णलश्या के शतक समान कहना. अहो भगवन्! आपके बचनसय, हैं यह चौथाई एकेन्द्रिय महायुग्म शक हुवा. ॥ ३५ ॥४॥ अहो भगवन् ! भवसिदिक कृत युग्म २ एकेन्द्रिय " पैतीसका शतक का ३५ उइंशा 45 Page #3066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक - मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी जाव सम्बपत्त' भवसिद्धिय कडज्जुम्म २ एगिदियत्ताए उबवण्णपुवा ? गोयमा ! यो र इण? समटे सेसं तहेव ॥ सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ पंचमं एगिदिय सयं महाजुम्म : सम्मत्तं ॥ ३५ ॥ ५॥ ४ ॥ कण्ड लेस्स भवसिद्धिय कडजुम्म २ 1०४८ एगिदियाणं भंते ! कओ उववजंति, ? एवं कण्हलेस्स भवसिद्धिय एमिंदियहिावे सयं - वितियं सयं कण्ह लेस्स सरिसं भाणियत्वं । सेव भंते २ त्ति ॥ छटुं एमिंदिय महा जुम्म सयं ॥३५॥६॥ * ॥ णीललेस्से भवसिद्धिय एगिदियहिंविसयं, सेवं: भंते रत्तिास तम एगिदिय महाज्जु सयं॥३५॥७॥ * काउलेस्से भवसिद्धिय एगिदिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों औधिक शतक जैसे विशेषता रहित कहना. परंतु अग्यारह उद्देशे में सब माण भूत जीव व मत्व भवसिदिक कुन युग्म २ एफेन्द्रियपने क्या पहिले उत्पन्न हुने ? अहो मौतम : यह अर्थ योग्य नहीं हैं. शेष वैसे ही. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह महाजुम्म एकेन्द्रिय पांचवा. शनक संपूर्णहुना.॥३५॥५॥ ॥ अहो भगवन्! कृष्ण लेश्या वाले भवसिद्धिक कृतयुग्मर एकेन्द्रिय कहां मे उत्पन्न होते हैं? यो कृष्णलेश्या भवमिद्धिक एकेन्द्रियका भी शतक दूसराशतक कृष्णलेश्या समान कहना अहो एभवन् ! भाप के वचन सत्य हैं यों छटा एकेन्द्रिय महायुग्म शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ३५ ॥ ६ ॥ नील लेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय की साथ भी वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन है। - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला-मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #3067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ +8+ पंचांग विवाह पण्नति ( भगवती ) मूत्र + , हिंवि तहेव एक्कारस उद्देसगासंजुत्तं सयं एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धिय सयाणि चउसुत्रि सएमु सव्वपाणा जात्र उबवण्णापुव्वा ? णो इणाट्ठे समट्ठे ॥ सेवं भंते ! २ त्ति । अटुमं एगिंदिय सयं महा जुम्मं ॥ ८ ॥ X ॥ भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाई भणियाई, एवं अभवसिद्धिएहिवि चसारि सयाणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि ॥ सव्वपाणा तहेव ? णो इणट्ठे समट्ठे ॥ एवं एयाणि बारस एगिंदिय महाजुम्म सयाई भवंति ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ पंचतीसइमं सयं सम्मतं ॥ ३५॥* सत्य हैं || ३५ ॥ ७ ॥ || कापुत लेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय की साथ उपर्युक्त अग्यारह उद्देशे कहना, यों चार भवसिद्धिक के शतक चारों शतक में सब प्राणी यावत् पहिने उत्पन्न हुवे क्या? अहो {गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं हैं अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों अठवा एकेन्द्रिय महायुग्म (नामक शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ३५ ॥ ८ ॥ 樂 | जैसे भवतिद्धिक के चार शतक क वैसे ही असिद्धिक के भी चार शतक लेश्या सहित कहना. सब प्राणियों उत्पन्न हुने क्या ? यह अर्थ योग्य नहीं हैं. यों एकेन्द्रिय के बारह महायुग्म शतक होते है. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. पेंतीसवा शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ३५ ॥ + 48* पेंतीसवा शतक का आठवा संदेशा २०४९ Page #3068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५० - 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥ षडत्रिंशतम शतकम् ॥ कडजुम्म २ बेइंदियाणं भंते ! कओ उववजति ? उववाओ जहा वकंतीए, परिमाणं सोलस वा संख जावा असंखेजावा उववजंति ॥ अवहारो जहा उप्पलुद्देसए, ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलरस असंखेजइ भाग, उक्कोसेणं वारस जोयणाई, एवं जहा एर्गेिदिय महा जुम्माण पढमुद्देसए, तहेव, णवरं तिण्णि लेस्साओ, देवा ण उववजंति, सम्महिदीवा मिच्छद्दिट्टी वा; णो सम्मामिच्छादिट्रीवा ॥ जाणीवा अण्णाणीवा ॥ जो मणजोगी, वइजोगीवा कायजोगीवा ॥ १ ॥ तेणं भंते ! कडजुम्म २ वेइंदिया पेंतीसवे शतक में एफेन्द्रिय की वक्तव्यता कही. छत्तीसवे शतक में बेइन्द्रिय की वक्तव्यता करते हैं. अहो भगवन्! कृतयुग्म कृतयुग्य वेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं? उपपात व्युत्क्रांति पन्नवना] जैसे कहना. परिमाण सोलह संख्यात व असंख्यात उत्पन्न होते हैं. अपहार उत्पल उद्दशा जैसे कहना. अवगाहना जघन्य अंगलका असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट बारह जोजन.यों जैसे एकेन्द्रिय महायुग्म का पहिला उद्देशा कहा. वैसे ही कहना परंतु लेश्या तीन कहना. इस में देव नहीं उत्पन्न होते हैं. समदृष्टि व मिथ्यादृष्टि हैं परंतु सममियादृष्टि नहीं हैं.ज्ञानी अथवा अज्ञानी दोनों हैं,पनयोगो नहीं हैं परंतु वचन योगी व काया योगी दोनों हैं ॥१॥ wapmommmmmmmmmmms कामकाजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* भावार्थ Page #3069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं एक समयं उक्कोसेणं संखजकालं, ठिई जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं ॥ आहारो णियमं छदिसिं तिणि समुग्घाया ॥ सेस तहेव जाव अणंत खुत्तो ॥ एवं सोलसमुवि जुम्मेसु ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ वेइंदिय महाजुम्म सयं पढमोदेसो सम्मत्तो ॥ ३६ ॥ १॥ . पढम समय कडजुम्म २ वेइंदियाणं भंते ! केओ उववजंति ? एवं जहा एगिदिय महाजुम्माणं पढमसमय उद्देसए दस णाणत्ताई ताइंचेव दस इहवि ॥ एक्कारसवि. इमं णाणत्तं, णो मणजोगी णो वइजोगी कायजोगी ॥ संसं जहा वेइंदियाणं चेव, अहो भगवन् ! वे कृतयुग्प कृतयुग्म बेइन्द्रिय कितने काल पर्यन्त रहते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य एक समय का उत्कृष्ट संख्यात काल काया और स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारहवर्ष भवस्थिति. आहार नियमा छ दिशीका. तीन समुद्धात. शेष अनंतवक्त उत्पन्न होने पर्यन्त वैसे ही, ऐसे ही सोलह युग्मों में जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह बेइन्द्रिय महायग्म नामक दूसरा शतक का पहिला उद्देशा मंपूर्ण हुवा, ॥३६॥२॥ * अहो भगवन् प्रथम समय कृतयुग्म २ वेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे पहिला महायुग्म नामक एकन्द्रिय शतक का पहिला समय उद्देशे में दश विशषताओं कही वे सब यहां कहा- और अग्यारहवी, मन योगी वनच योगी नहीं परंतु एक काया योगी है: शेष बेइंन्द्रिय 482 पीसना शतक का पाल भावाथे Page #3070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पढमुद्देसए, सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ ३६ ॥ २ ॥ * ॥ एवं एएणवि जहा एगिदिय महाज़म्मेस एक्कारस उद्दसगा तहेव भाणियव्या, णवरं चउत्थ छट्रटम दसमेसु सम्मत्त णाणाणि ण भगंति, जहेव एगिदिएसु; पढमो तइय पवमोय एकगमा, सेसा अट्ठ एक्कगमा, ॥ पढमं वेइंदिय महाजुम्म सयं सम्मत्तं ॥ ३६ ॥ १ ॥ कण्ह लेस्स कडजुम्म २ वेइंदियाणं भंते ! कओ उववजंति, एवंचेव कण्हलेस्ससुवि एकारस उद्देसग संजुत्तं सयं, णवरं लेस्सा संचिठणा ठिई जहा एगिदिय कण्हलरसाणं॥ वितियं बेइंदिय सयं ॥ ३६ ॥ २ ॥ + ॥ एवं णीललेस्सेहिवि सयं जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ३६॥२॥ * ॥यों इसक्रम से जैसे एके महायुग्म शतको अग्यारह उद्देशे कहे वैने यहांपर कहना. परंतु चौथा, छठा दशवा उद्देशमें सम्यक्त्व कमान नहीं होते हैं. पहिला, तीसरा पपांचवा उद्देशे का एकगमा और बाकी आठ उद्दश का एकगमा कहना. यह पहिला वेइन्द्रिय महायुग्म नामक शतक समाप्त हुवा॥३६॥३॥ ४ ॥ अहो भगवन्! कृष्ण लेश्यावाले कृतयुग्म २ बेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? ऐनही कृष्ण लेश्या का अग्यारह उद्देशा सहित शतक कहना परंतु संचिठगा व स्थिति ए केन्द्रिय कृष्ण लेश्या जैसे कहना. यह दुसरा बेइन्द्रिय शतक संपूर्ण हुना ॥ ३० ॥२॥ * ॥ऐसे दी नील लश्या की साथ तीसरा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३६॥३॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी चालाप्रसादमी, भावाथ Page #3071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमांग विवाह पण्णति (भगवती) सूत्र * सतं ततियं ॥ ३६ ॥ ३॥ * ॥ एवं काउलस्सेहिवि रुयं ॥च उत्थं॥३६॥४॥ भवसिद्धिय कडजुम्म २ बेइंदियाणं भंते ! एवं भवसिद्धियावि चत्तारि, तेणेव पुव्वगमएणं णेतव्वा णवरं मध्वपाणा, णो इणद्वे समद्वे, सेसं तहेव, ओहिय सयाणि चत्तारि, सेवं भंते! भंतेत्ति ।। छत्तीसइमसए अट्ठभं सयं सम्मत्तं ॥ ३६॥८॥ * जहा भवसिद्धिय सयाणि चत्तारि, एवं अभवसिद्धिय सयाणि चत्तारि भाणियवाणि, णवरं सम्मत्त णागाणि सव्वहा णत्थि, सेसं तंचेव ॥ एवं एयाणि वारस वेइदिय महाजुम्म सयाणि भवंति ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ बइंदिय महाजुम्म सया सम्मत्ता ॥ छत्तीसइमं महाजुम्म सयं मम्मत्तं ॥ ३६ ॥ * ऐने ही कापोत लेश्या की साथ चौथा शतक मंपूर्ण हुवा ॥३६॥ ४॥ भवसिद्धिक कृतयुग्म २ बेइन्द्रिय का पहिले के चार गया कडे वैसे ही कहना. परंतु मब प्राणी उत्पन्न होवे? यह अर्थ योग्य नहीं हैं. यों शप मब औधिक शतक जो कहना. यों छत्तीसरे शतक का आठवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३६॥ ८॥ * है जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कह बैंस ही अभवसिद्धिक के चार शतक कहना. परंतु इस में म्य क्त्व व ज्ञान ये दोनों नहीं होते हैं. यों बारह बेइन्द्रिय के शतक. होवे. अहो भगवन् ! आपके वचन मत्य हैं. यह घेइन्द्रिय महायुग्म नामक छत्तीसवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३६॥ भावार्थ छत्तीसवा शतक का ४-८ उद्देशा68 Page #3072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५४ +१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + * सप्तत्रिंशतम शतकम् * कडजुम्म तेइंदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? एवं तेइंदियसुवि बारससया कायव्वा वेइंदिय सयसरिसा, णवरं ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइ भागं उकोपेणं तिणि गाउयाई ॥ ठिई जहणणं एवं समयं उक्कोतेणं एगूणवण्ण राइंदियाई सेसं तहेव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ तेइंदिय महाजुम्म सया सम्मत्ता ॥ सत्ततीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ ३७ ॥ x + x *प्रकाशक-सजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ अब सेंतीसे शतक में तेइन्द्रियका कथन करते हैं. अहो भगवन्! कृतयुग्म २ तेइन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते है ? यों तेइन्द्रिय के बारह शतक बेइन्द्रिय जेसे कहना. परंतु अवगाहना जघन्य अंगुलका असंख्यातवा भाग उस्कृष्ट तीन गाऊ (कोस) भव स्थिति जघन्य एकसमय उत्कृष्ट उन्नपच्चास ! ४२) रा दिन ॥ ओ भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह तेइन्द्रिय महायुग्म नामक सेंतीसवा शतक संपूर्ण हवा ।। ३७ ।। Page #3073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) || अष्टात्रिंशतम शतकम् ॥ चउरिदिएहिंवि एवं बारस सया कायव्वा, नवरं ओगाहणा जहणेणं अंगुलस्त अखेजइ नागं उक्कोणं चत्तारि गाउयाई || ठिई जहण्जेणं एवं समयं, उक्कासेणं छम्माता सेसं जहा वेइंदियाणं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ चउरिंदिय महाजुम्म सयं सम्मत्तं ॥ अतीसइमं सयं सम्मतं ॥ ३८ ॥ ÷ + अब चतुरेन्द्रियका अडतीसवा शतक कहते हैं. चतुरेन्द्रियकी साथभी बारह शतक बेन्द्रेय जैसे कहना. परंतु अवगाहना जघन्य अंगुलका असंख्यातत्रा भाग उत्कृष्ट चार गाऊ कोम)भव स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट छ माम. और सब बेइन्द्रिय जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह चतुरेन्द्रिय महायुग्स नामक अडतीसवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३८ ॥ x x अडतसिवा शतक 4+ ३०५५ Page #3074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवाइक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥ एकोनचत्वारिंशतम शतकम् ॥ कडजुम्म २ असण्णि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? जहा वेइंदियाणं तहेव असण्णिसुवि बारस सया कायवा गवरं ओगाहणा जहण्णणं अंगुलस्त असंखेजइ भागं, उक्कोसेणं जोअण सहस्सं, संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयं. उक्कोसेणं पुव्वकोडि पुहुत्तं ॥ ठिई जहणणं एवं समयं उक्कोसेणं पुवकोडी, सेसं वेइंदियाणं ॥ सेवं भते! भंतत्ति ॥ असण्णि पंचिंदिय महाजुम्म सया सम्मत्ता ॥ ३६ ॥ एगूणयालीसइमं सयं सम्मत्तं ॥ ३९ ॥ अहो भगवन् ! कृतयुग्म कृतयुग्म असंही पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे बेइन्द्रिय का कहा जैसे ही असंज्ञी के बारव शतक कहना. परंतु अवगाहना जगन्य अंगुल का असंख्यानका भाग उत्कृष्ट जार योजन. संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट प्रत्येक पर्ष कोड. भव स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट पूर्व क्रोड. शेष सब बेइन्द्रिय जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह असंझी पंचेन्द्रिय महायुग्म नामक उन्नचालीसदो शतक संपूर्ण हुवा ॥ ३९ ॥ * * माशा-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायनी ज्वायमसादजी . भावार्थ Page #3075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चत्वारिंशतम शतकम् ॥ कडजुम्म २ सण्णि पंचिंदियाणं भंते ! कओ उबवजंति ? उववाओ चउसुवि गईस संखेजवासाउय असंजवासाउय,पजत्ता अपजत्तासुय णकओवि पडिसेहो जाव अणुरर विमाणत्ति, परिमाणं अवहारो ओगाहणा जहा असंणि पंचिंदियाणं, वेदणिज्जवजाणं सत्तण्हं कम्मप्पगडीणं बंधगा वा अबंधगावा, वेदणिजस्स बधगा णो अबंधगा, मोहणिजस्स वेदगा वा अवेदगावा, सेसाणं सतण्हवि वेदगा णो अवेदगा; साया वेदगावा असायावेदगावा, मोहणिज्जस्स उदईवा अणुदईवा, सेसाणं सत्तण्हवि उदयी भावार्थ अहो भगवन्! कृपयुग्म कृतयुग्म संत्री पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ?अहो गौतम! उपपात चारोंगतिमें कहना. संख्यात वर्षवाले, असंख्यात वर्ष वाले पर्याप्त अपर्याप्त इन में कहीं भी प्रतिषेध कहना नहीं यावत् अनुत्तर विमान पर्यन्त उत्पन्न होवे. परिमाण, अपहार व अवगाहना असंही पंचेन्द्रिय जैमे कहना. वेदनीय छोडकर सातकर्म के बंधक अथवा अबंधक भी हावे. वेदनीय के बंधक हैं परंतु अबंधक नहीं हैं क्यों कि संजी चेन्द्रियपना बारह वे गुणस्थान पर्यन्त रहता है, और वेदनीय कर्मका बंध तेरहवे गगस्थान पर्यंत होता है." 13सात कोका बंधदशवे गुणस्थान पर्यन्त रहना है.माहनीय के घेईक और अवेदक दोनों हैं, शेष मात कोंक वेदक बेदक नहीं, साता वेदनीयवाले भी हैं अथवा असाता वंदनीयवाले भी हैं. मोदनीय कर्म के उदयवाले पंचांग विवाह एण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48 488+ चालीसवा शतक का पहिला उदशा 420 Page #3076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2 |३०५८ णो अणुदई, णामस्स गोयस्सय उदरिगा णो अणुदीरगा, सेसाणं छण्हवि उदीरगावा अणुदीरगावा ॥ कण्ह लेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सावा ॥ सम्मद्दिट्ठीवा, मिच्छादिट्टीवा, सम्मामिच्छादिट्टीवा ॥ जाणीवा अण्णाणीवा ॥ मणजोगीवा, वइजोगीवा कायजोगीवा उवओगो वण्णमादी, उस्सासगा आहारगाय जहा एगिदियाण॥ विरया वा अविरयावा विरियाविरियाय ॥ सकिरिया णो अकिरिया॥ तेणं भंत! जीवा किं सत्तविह बंधगा वा अट्ठविह बंधगावा, छविह बंधगावा एगविह बंधगावा? गोषमा ! सत्तविह बंधगावा जाव एगविह बंधगावा ॥२॥ तेण भंते ! जी। किं आहार मण्णेवउत्ता जाव परिगाह हैं और अनुदयवाले भी हैं, शेष सातके उदयवाले हैं परंतु अनुदयवाले नहीं हैं नाम व गोत्रकी उदीरणा करने वाले हैं परंतु उदारणा नहीं करें वैसे नहीं.शेष छकी उदीरगः करनेवाले अथवा उदीरणा नहीं करनेवाले दोनों हैं. कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल ठश्यावाले हैं. सनदृष्टि,मिथ्याहष्टि अथवा सममिथ्यादृष्टि,तीनों हैं,ज्ञानी अथवा अशानी दोनों है, मनयोगी, वचन योगी व काया योमी ऐसे तीनों योगाले हैं. उपयोग, वर्णादिक उश्वासक व आहारक एकेन्द्रिय जैसे कहना. बिरात, बिराने व चिरताविरति तीनों हैं और सक्रिय व अक्रिय दोनों हैं। ॥२॥ अहो भागवन्! वे क्या सातके, आठके, उके याएक कर्मके बंध करने वाले हैं ? अहो गौतम! सात यावत् एक कर्म के बंध करनेवाले हैं ॥२॥ अहो भगवन् ! वे क्या आहार संबोपयुक्त यावत् परिग्रह संजोपयुक्त 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी. - - Page #3077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 सण्णोवउत्ता णो सण्णवउत्ता ? गोयमा ! आहार सण्णोवउत्ता जाव णो सण्णोवउत्ता, सवपुण्छा भाणियन्वा ।। कोहकमायी जाव लोभकायी वा अकसायीवि ॥ इत्थीवेदगावा पुरिसवेदगावा, णपुंगवेदगावा अवेदगावा ॥ इत्थीवेद बंधगावा, पुरिसवेद बंधगावा, णपुंसगवेद बंधगावा, अबंधगाव ॥ सण्णी णो अक्षण्णी ॥ मइंदिया णो अणिदिया । संचिटणा जहण्णेणं एक समथं उक्कोसेणं सागरोवमसय पहत्तं सातिरेगं॥ आहारो तहेव जाव णियमं छद्दिसिं ॥ठिई जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं तेत्ती सागरोचमाइं॥ छममुग्घाया आदिल्लगा,मरणांतिय समुग्घायणं समोहयावि मरंति असमोहावि मरंति ॥ उबटणा जहे। भावार्थच नो संज्ञोपयुक्त है? अहो गौतम! आहार संझोपयुक्त यावत् गे संज्ञोपयुक्त हैं यों सब पृच्छा कहना. क्रोध कषायी यावत् लोभ कषायी हैं व अषायीभी.हैं स्त्री वेदक,पुरुष वेदक, नपुंसक वेदक,हैं अवेदकभी हैं. स्त्री वेदक के बंधक,पुरुष वेद बंधक,नपुंसक वेद बंधकभी हैं व अंधकभी हैं.संज्ञी हैं परंतु असंही नहीं, सइन्द्रिय हैं परंतु अनेन्द्रिय नही.संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट साधिक प्रत्येक सागरोपम. आहार छदिशिका लेवे. 1 स्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट तेनीस मागरोपम.पहिली छ समुद्धातपावे,मारणांतिक समुद्घात से समोहया और असमोया ऐसे दोनों मरण मरे, उद्वर्तना उपपात जैसे कहना. इन में किसी स्थान प्रतिषेध अनुत्तर, पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र kat mmmmmmmmmmmmmmAAAAAAAAAA चालीसवा शतकका पहिला उद्देशा 448 म - . Page #3078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ummarvasnavrwasna ३०६० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषजी उपवाओ,॥ णकत्थइ पडि हो जाय अणुत्तराविमाणत्ति ॥ ३ ॥ अह भंते ! सबपाणा जाव अणंतखुत्तो ॥ एवं सोलससुवि जुम्मेसु भाणिय जाव अणतखुत्तो, णवरं परिमाणं जहा वेइंदिया ॥ सेवं भंते ! भंतत्ति ॥ ४०॥ १॥ * पढम समय कडजुम्म २ मणिपंचिंदिया भंते ! कओ उववओ, परिमाणं, आहारो, जहा एएमिचेर पढमो उद्देसए, ओगाहणा बंधो, वेदो, वेदणा, उदयी, उदीरगाय, जहा वेइंदियाणं पढम मयाणं तहेब कण्हलेस्सा वा जाव सुकलेस्मा या, सेसं जहा बेइंदियाणं पढम समइयाणं जाव अणंतखुत्तो, णवरं इत्थिोदगा वा पुरिसवेदगा बा, गपुंगगोदगा वा सणिणो, विमानपर्यन्त कहना नहीं॥३॥अब अहो भगान् सब प्राण यावत् अनंतवक्त उत्पन्न हुने यों सोलह युग्म कहना यावत् अनंतवक्त, परंतु परिमाण घेइन्द्रिय जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों चालीसा का पहिला उद्देशा ॥ ४० ॥१॥ अहो भगवन् ! प्रथम समय कृतयुग्म २ संज्ञी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यो उपपत, परिमाण, आहार वगैरह पहिला उद्देशे जैसे कहना. अवगाहना, बंध,वेद वेदना,उदय व उदीरणा बदन्द्रियके प्रथम शतक जेसे कहना.परंतु कृष्ण लेश्या अथवा यावत् शुक्ल लेश्या शेष बेइन्द्रिय के प्रथम समय के यात अनंतवक्त परंतु स्त्री वेदी,पुरुष वेदी व नपुंसक वेदी तीनों बंदी हैं संजीह परंतु असंही नहीं शेर सोलह युग्ध परिमाण पूर्वोक्त जैसे कहना.अहो भगवन्! आपके वचन सत्य हैं प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावार्थ - Page #3079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ भावार्थ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती ) सूत्र 488+ 全等 असण्णि णो, सेसं तहेव एवं सोलेसुवि जुम्मेसु परिमाणं तहेव ॥ सेवं भंते! तेत्ति एवं एत्थवि एक्कारस्त उद्देऩगा तहेव, पढमो तइयो पंचमो य सरिमगमगा; सेसा अट्ठावि सरिसगमगा, चउत्थ छट्ठट्ठम दसमेसु णत्थि विसेसो कोइवि, सेवं भंते! भंतेति ॥ पढमं पंचिदिय महाजुम्म सयं सम्मतं ॥ ४० ॥ १ ॥ कण्हलेस कडजुम्म २ सण्णि पंचिदियाणं भंते ! कओ उववज्जंत्ति ? तहेत्र पढमुद्देसओ सणीणं णवरं-बंधो, बेओ, उदयी, उदीरणा, लेस्स बंधग- सण्ण-कसाय-वेद बंधगाएयाणि जहा बेइंदियाणं ॥ कण्हलेस्साणं वेदो तिविहो अदगा णत्थि, सचिणाजहणणं एवं समयं उक्कोसेणं तेन्तीसं सागरोवमाइं अंतो मुहुत्त मन्भहियाई ॥ एवं } यों यहां पर भी अग्यारह उदेशे वैसे ही कहना. पहिला तीसरा व पांचवा सरिखा जानना और शेष आठ बद्देशे सरिखे जानना. चौथा, छठा, आठवा व दशवा उद्देशे में किसी प्रकार की विशेषता नहीं हैं. अहो { भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह पहिला पंचेन्द्रिय महायुग्म शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ४० ॥ १ ॥ * अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्या वाले कृत युग्म २ संज्ञी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! {संज्ञीका पहिला उद्देशा जैसे सब कहना परंतु बंध, वेद, उदय उदीरणा, लेश्या, बंधक, संज्ञा, कषाय, वेद {बंधक ये बेइन्द्रिय जैसे कहना. कृष्ण लेश्या में वेद तीनों प्रकार का अवेदक नहीं हैं. संचिणा अन्य 48* चालीसा शतकका दूसरा उद्देशा +9 २०६१ Page #3080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. ठिईएवि णवरं ठिईए अंतोमुहुत्त मन्भहियाई ण भण्णंति, सेसं जहा एएसि चैत्र पढमुद्देसए आव अणंतखुत्तो ।। एवं सोलससुवि जुम्मेसु ॥ 'सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ ४० ॥ २ ॥ पढम समय कण्हलेस कडज़म्म २ सणिपंचिंदियाणं भंते ! कओ उववजंति ? पढमसमय उद्देसए तहेव गिरवसेसं, वर-तणं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा, सेसं तहव ॥ एवं सोलमसुवि जुम्मसु ॥ सेवं भंते! भंतेत्ति ॥ एवं एएवि एक्कारस उद्देसगा कण्हलस्मासए पढम ततिय पंचमा सरिस गमगा, सेसा अटुवि सरिसगमगा ॥ सेवं भंत ! भंतात्त ॥ वितियं सयं सम्मचं ॥ एक ममय उत्कृष्ट तेतीस सागरोमय व अंत मुहूर्त अधिक, ऐसे ही स्थिति का कहना. परंतु अतर्मुहून अधिक कहना नहीं, शेष इस के पहिला उद्देशा मे कहना यावत् अनंतवक्त. उत्पन्न हुवा ऐसे ही सोलह युग्मों में . अहो भगवन्! आप के वचन सत्य है.॥४०॥२॥ * ॥अहो भगवन्! प्रथम समय कृष्ण लेश्या वाले कृत युग्य २ संझी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होने हैं ! यो प्रथम समय का उद्देशा कहा वैसे ही विशेषता रहित कहना. यों सोलह युग्मों में कहना. अहा भगवन् आप के वचन सत्य हैं यों कृष्ण लेश्या के शतक में अग्यारह उद्देशे कहना. जिन में पहिला, तीसरा व पांचव सरिखा और शेष आठ भी सरिखे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य है. यह दसरा शतक संपूर्ण हुवा.॥ ४० ॥२॥ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + .प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाचापसादजी. Page #3081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती ) मूत्र 48 ॥४. ॥ २॥ .. ॥ एवं णीललेस्सेसुवि सयं, णवरं संचिटणा जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई, पलिओवमस्स असंखेजइ भागं मब्भहियाई, एवं ठिइएवि, एवं तिसु उद्देसएसु सेसं तहेव ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ तत्तियं सयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ ३ ॥ + . ॥ एवं काउलेस्स सयंवि णवरं-संचिहै ?णा-जहण्णेणं एक समयं उक्कोसणं तिण्णि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजइ भाग मन्भहियाई,एवं ठिईएवि, एवं तिसुवि उद्देसएसु, सेसं तहेव, सेवं भंते! भंतत्ति। ॥ ४० ॥ ४ ॥ + ॥ एवं तेउलेस्सविसयं णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं नील लेश्या की साथ भी वैसे ही कहना परंतु संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट दश सागरोपम और पल्योपम का असंख्यातवा भाग अधिक; यो स्थिति के तीनों उद्दशे में कहना. शेष सब वैसे ही. अहो भगवन् ! अाप के वचन सत्य हैं, यो तीमरा शनक संपूर्ण ॥ ४० ॥ ३॥ ऐसे ही कापुत लेश्या का परंतु संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन सागरोपम पल्योपम का असंख्वातवा भाग अधिक. यो स्थिति से भी कहना. यों तीनों उद्देशे में कहना. शेष वैसे ही. अहो भगवन् ! आप के रचन सत्य ॥ ४॥ + ॥ ऐसे ही तेजो बेझ्या का भी कहना, परंतु संचिठणा चालीसवा शतक का ३.४ उद्देशा 988 भावार्थ म ! - Page #3082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ एक समयं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं, पलिओवभस्स असंखेजइ भाग मन्महियाई॥ एवं ठिईएवि, णवरं णो सण्णोवउत्ता, एवं तिसुवि गमएसु सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ पंचमं सय ॥ ४० ॥ ५॥ * ॥ जहा तेउलेस्सा सतं तहा पम्हलेस्स सयंवि णवरं संचिटणा जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत मन्भहियाई, एवं ठिईएवि णवरं अंतोमुहुत्तं ण भण्णंति, सेसं तहेव ॥ एवं एएसु पंचसु सएसु २ जहा कण्हलेस्ससए गमओ तहा तन्वो जाव अणंतखुत्तो ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ छटुं सयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ ६ ॥ - ॥ सुक्कलेस्स जघन्य एक समय उत्कृष्ट दो सागरोपम और पल्योपप के असंख्यातवा भाग अधिक. ऐसे ही स्थिति का कहना परंतु नो संज्ञोपयुक्त कहना. यों तीनों गमा में कहना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह पांचवा शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ४० ॥५॥ ॥जैसे तेंजो लेश्या का शतक कहा वैसे ही पन लेश्या का भी शतक कहना. परंतु संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट दश सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक. ऐसे ही स्थिति का कहना परंतु अतंर्मुहून अधिक कहना नहीं ? शेष वैसे ही. ऐसे ही इन पांचों शतक में जैसे कृष्ण लेश्या का शतक कहा वैसे ही कहना यावत् अनंतवक्त उत्पन्न हुवा. अहो भगवन्! आपक कवचन सत्य है. यह छठा शतक संपूर्ण हुवा. ॥ ४० ॥ ६॥ + शुक्ल लेश्या का 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी* भावार्थ amarMhammmmmmm Page #3083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ * पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्त (भगवती) सूत्र सयं जहा ओहियलयं णवरं संविटुणा ठिईय जहा कण्हलस्ससए, सेसं तहेव जाव 'अनंत खत्तो ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति | सत्तमं सयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ ७ ॥ भवसिद्धिय कडजम्म २ सणि पंचिदियाणं भंते! कओ उवबजंति ? जहा पढमं सणि सतं तहा तव्वं भवसिद्धियाभिलावेणं णवरं सव्वपाणा ? णो णट्ठे समट्ठे । सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति | अट्ठम सय सम्मत्तं ॥ ४० ॥ ८ ॥ कण्हलेस्स भवसिद्धिय कडजुम्म २ सणि पंचिदियाणं भंते ! कओ उववजंति, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिय कण्हलेस्स सयं ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ णत्रमं ॥ अहो औधिक जैसे कहना परंतु संचिठणा व स्थिति कृष्ण लेश्या जैसे कहना. शेष पूर्वोक्त जैसे याक्व अनंतवक्त उत्पन्न हुवा अदां भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यो सातवा शतक हुवा ||४०||७|| + भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्नसंज्ञी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे पहिला संज्ञी शतक कहा अभिलापक कहना परंतु सब प्राण यात्रत् नहीं उत्पन्न होते हैं शेष वैसे ही. अहो भगवन् आप के वचन सत्य हैं. यों आठवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ४० ॥ ८ ॥ भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक संज्ञी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों इस जैसे औधिक कृष्ण लेश्या का शतक कहा वैसे ही कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन ÷ لمہ ॥ अहो अभिलाप से सत्य हैं. यह 43903 चालीसवा शतक का ८-९ उद्देशा ३०६५ Page #3084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 4. अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि सयं ॥ ४० ॥ ९ ॥ एवं णीललेस्स भवसिद्धिएव सयं ॥ सेवं भंते २ ति ॥ दसमं सयं ॥ ४० ॥ १० ॥ ॥ एवं जहा ओहियाणि सण पंचिदियाणि सत सयाणि भणियाणि, एवं भवसिद्धिएहिंवि सत्तसयाणि, कायव्याणि नवरं मत्तसुवि सतु सव्वपाणा जाव णो इण्डे समट्ठे, संसं तंत्र ॥ सवं भंते । भंतति ॥ भवसिद्धिय सया सम्मता ॥ चउदसमं सयं सम्मत्तं ॥ ४० 11 १४ अभवसिद्धिय कडजुम्म २ सणि पंचिदियाणं भंते! कआ उववज्जति ? उवनाओ तत्र अणुत्तररात्रमाण वज्जो, परिमाणं आहारी उच्चतं बधो वेदो वेदणं उदआ उदीरणाय 11 नववा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ९ ॥ x ॥ यों नील लेश्यावाले भवसिद्धिक की साथ भी { कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य है. यह दशवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ १० ॥ ४ ॥ यों जैसे औधिक संज्ञी पंचेन्द्रिय के सात शतक कहे वैसे ही भवसिद्धिक के भी सात शतक कहना. परंतु सातों शतक में सब प्राण यावत् यह अर्थ समर्थ नहीं है. यह चौदहवा शतक संपूर्ण हुआ || १४ | अहो भगवन् ! अभवसिद्धिक कृतयुग्म २ कृष्ण लेश्यावाले मंझी पंचेन्द्रिय कहां से उत्पन्न होते हैं ? ( उपपात अनत्तर विमान वर्जकर कहना. परिमाण, आहार, उच्चल, बंध, वेद, वेदना, उदय व उदीरणा कृष्णलेश्या के शतक जैसे कहना, कृष्ण लेश्या अथवा यात्रत शुक्ललेश्या छदी है. समदृष्टि व समोमध्यादृष्टि + * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ३०६६ Page #3085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 488* पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र जहा कण्ह लेस्सए, कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सावा, णो सम्मद्दिट्टी, मिच्छदिट्ठी, णो सम्मामिच्छाद्दट्ठी, णो णाणी, अण्णाणी, एवं जहा कण्णलेस्ससए, वरं णो विरया अरिया णो विरयाविरिया || संचिणाट्टिईय जहा ओहिय उद्देमए, समुग्धाया आदिलगा पंच, उबट्टा तहब अणुत्तरविमाणवजं ॥ सव्वपाणा ? णो इट्ठे समट्ठे || सेसं जहा कण्हलेरससए जाव अनंतखुत्तो, एवं सोलससुवि कडजुम्मे ॥ सेवं भंते ! भंते ति ॥ १ ॥ पढम समय अभवसिद्धिय कडजुम्म २ सण पंचिदियाणं भंते ! कओ उववज्जंति जहा सण्णीणं पढम समयं उद्देसए तहेव, णवरं { नहीं हैं. परंतु एक मिध्यादृष्टि हैं. ज्ञानी नहीं है परंतु अज्ञानी हैं. यों जैसे कृष्णलेश्या के शतक में कहा वैसेही [ कहना परंतु विरति व विरताविरति नहीं हैं किन्तु अविरति है ऐसा कहना. संचिठणा व स्थिति औधिक उद्देशा { जैसे कहना. समृद्धात पहिली पांचपाती है. उद्वर्तन अनुत्तर विमान बर्जकर वैनेडी कहना सत्राणी आदि उत्पन्न {हुवे यह अर्थ योग्य नहीं हैं. शेष मत्र कृष्णलश्या शतकों कहा वैसेटी कहना यावत् अनंतवक्त उत्पन्नहुन यो { सोलह महायुग्म में कहना. अहो भगवन्! आपके वचन सत्य हैं ॥१॥ प्रथम समय अभवसिद्धिक कृतयुग्म २ संज्ञी पंचेन्द्रिय कहाँ से उत्पन्न होते हैं : यों जैसे संज्ञीका पहिला उद्देशा कहा वैसेडी कहना. परंतु सम्यक्त्व, चालीसा शतक का पहवा उद्दशा ३०६७ Page #3086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र. भावार्थ 48 अनुवादक- बालत्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं गाणंच सव्वत्थ णत्थि सेसं तहेव ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ २ ॥ एवं एत्थवि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा, पढमं तइयं पचमं एक्कगमा, सेसा अवि एकगमा || पढमं अभवसिद्धिय महाजुम्मसयं सम्मतं ॥ पण्णरसमं सयं सम्मत्तं ॥४०॥१५॥ कण्हलेस्स अभवसिद्धिय कडजुम्म २ मणि पंचिंदियाणं भंते! कओ उववज्जंति, जहा एएसिं चेत्र ओहियसए तहा कण्हलेस्स संयंपि; णवरं-तणं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता कण्हलेस्सा, ठिई संचिट्ठणाय जहा कण्हलेस्तसए, सेसं तंचत्र ॥ सेवं भंते ! २ति ॥ वितियं अभवसिद्धिय जुम्मसयं ॥ सोलसमं (सममिथ्यात्व दृष्टि व ज्ञान किसी स्थान नहीं हैं वैसे कहना. शेष वैसे ही. अहो भगवन् ! आपके वचन { सत्य हैं ॥ २ ॥ यों यहां पर भी अग्यारह उद्देशे कहना. पहिला, तीसरा व पांचवा का एक गया और शेष आठका एक गमा. यों पहिला अभवसिद्धिक महायुग्म नामक शतक संपूर्ण हवा ॥ १५ ॥ ÷ •पाक राजावादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ? हां अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले अभवसिद्धिक कृतयुग्म मंज्ञी पंचेन्द्रिय कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? यो जैसे इस का औधिक उद्देशा कहा वैसे ही कहना परंतु अहो भगवन् ! वे क्या कृष्ण लेश्यावाले [गौतम ! वे कृष्ण लेश्यावाले हैं. स्थिति लेश्या कृष्ण लेश्या शतक जैसे कहना. अहो भगवन्! आपके वचन मत्य हैं. यह दूसरा अभत्र सिद्धिक महायुग्म शतक संपूर्ण हुआ. यह सोलहवा शतक संपूर्ण हुवा ||४०|| १३ || ३०६८ Page #3087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवति ) सूत्र +8+ सयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ १६ ॥ एवं छहिलेसाहि छ सया कयन्वा, जहा कण्हलेस्स सयं, णवर-संचिट्ठणा द्वितीय जहेव ओहियसए तहेव भाणियव्वा, णवरं सुक्कलेस्साए उक्कोसणं एकत्तीसं सागरो माइं अंनो मुहुत्त मन्भहियाई, ठिती, एवं चेव गवरंअंतो महत्तो पत्थि, जहण्णगं तहेव सव्वत्थं सम्मत्तं णाणाणि णत्थि, विरयी विरयाविरयी, अणुत्तर विमाणोववत्ति एयाणिणत्थि, सव्वपाणा ? जो इण? ममढे सेवं भंते ! भंतेत्ति एवं एयाणि सत्त अभव सिद्धियपयाणि महाजुम्म सयाणि भवंति।। एवं एथाणि एकवीसं सण्णि महाजुम्म सयाणि सव्वाणि एक्कासीति महाजुम्म सया सम्मत्ता ॥ चत्तालीमइमं मयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ x ऐसे ही छ लेश्या के साथ छ शतक कहना. परंतु मंचिठणा, व स्थिति औधिक जैमे कहना. विशेष में शुक्ल लेश्या में उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम अंतर्मुहूर्त अधिक स्थिति कही. यहां अंतर्मुहून नहीं हैं,जघन्य वैसे ही... सर्वत्र सम्यक्त्व व ज्ञान नहीं हैं. विराति, विरताविराते व अनुत्तर विमान में उत्पत्ति नहीं है. सब प्राणादि • उत्पन्न हुवे? यह अर्थ योग्य नहीं हैं. अहो भगरन् ! आपके वचन सत्य हैं. यों अभवसिद्धिक के सात महायुग्म शतक हुवे. या संज्ञी पंचेन्द्रिय के इक्कीस और सब मीलकर इक्रासी महायुग्म शतक संपूर्ण हुए ॐ॥१॥ यह चालीसबा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ४०॥ -48चालीसवा शतक का १६-८१.७६ 47 भावार्थ . +8 Page #3088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋषिजी न * एकचत्वारिंशतम् शतकम् * कइणं भंते रासी जम्मा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि रासी जुम्मा पण्णत्ता, तंजहा कडजुम्मे, जाव कलिओगे ॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चत्तारि रासी जुम्मा पण्णत्ता जाव कलिओगे ? गोयमा ! जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाण चउपजवसिए सेसं रासी जुम्म कडजुम्मे; एवं जाव जेणं रासी चउक्कएणं अवहारण अवहीरमाणे एवपजवसिर सेते रासीजुम्म कलिओगे ॥ से तेणट्रेणं जाव कलिओगे॥ ॥ १ ॥ रासीजम्म कडजुम्म रइयाणं भंते ! कओ उववज्जति ? उववाओं जहा वातीए तणं भंते ! जीवा एगसमइएणं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! चत्तारिवा अब एकतालीसवा राशी युग्मका शतक कहते हैं, अहो भगवन् ! राशियुग्म कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! चार राशियुग्म कहे हैं जिनके नाम-कृतयुग्म यावत् कल्योज. अहो भगान् : किस कारन से ऐसा कहा गया यावत् कल्योज! अहो गीतम!जिम राशिको चार का भाग देने से शेष चार रहे वह राशियुग्म कृतयुग्म एमे ही यावत् जिस राशि को चार का भागदेने से एक शेष रहे. वह राशियुग्म कल्योज.इसलिये ऐसा कहा गया है या कल्योज ॥ १॥ अहो भगवनू ! राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ! उपपात व्युत्क्रांति जैसे कहना. अहो भगवन् ! वे जीवों एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! चार, आ. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि प्रकायाक-एजावदर लाला सुखदेवमहायजी जालाप्रसादजी भावार्थ । Page #3089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? बेवाह पण्णनि (भगवती ) सूत्र 4 अटवा बारसवा सोलसवा संखेजवा असंखेजवा उववति । तेणं भंतें! जीवा कि संतरं उबवजंति णिरंतरं उववजंति ? गोयमा ! संतरंपि उववजंति निरंतरंपि उब. वजति; संतरं उववजमाणा जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेजा समया, अंतरं कड उववमंति, जिरंतरं उबजमाणा जहण्णेणं दो समया उकासेण असंखेजा समया अणुसमयं अविरहियं णिरंतरं उववज्जति ॥ २॥ तेणं भंते ! जीवा जं समयं कडजुम्मा तं ममयं तेओगा, जं समयं तेओगा तं समयं कडजुम्मा गोयमा! णो इण? सम? ॥ जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं बारह,सोलह मंख्यात व असंख्यात उत्पन्न होते हैं.अहो भगवन् वे अंतर सहित उत्पन्न होते है या अंतर रहित उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! अंतर सहित भी व निरंनर भी दोनों तरह अंतर महित उत्पन्न होते हैं. वे जघन्य एक समय उत्कृष्ट अनंख्यात समय के अंतर से उत्पन्न होते हैं. और निरंतर उत्पन्न होते वे जघन्य दो समय उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रयक समय विरह रहित उत्पन्न होते हैं ॥२॥ अहो भगवन् ! जीवा जिप समय में कनयुग्म हैं उस समय में ध्यांज व जिम समय में ज्योज में उस समय में क्या कृतयुग्म 4 हैं? अहो मौतम! यह अर्थ योग्य नहीं. जिस समय में कृतयुग्म उस समय में द्वापरयुग्म या जिस समय में द्वापरयुग्म उससमय में कृतयुग्ध क्या है बहो मौतम यह अर्थ भो योग्य नहीं है.अथवा जिस समय में 11 भावार्थ एकतालीसवा शतक का पहीला उद्देशा4.88+ Page #3090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.७१ अनुवादक-बालप्रमचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + कडजुम्मा ? जो इणटे समटे॥ जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा, जं समयं कलिओगा तं समयं कडजुम्मा ? णो इण? समटे ॥ ३ ॥ तेणं भंते ! जीवा कहं उववजंति ? गोयमा ! सेजहा णामए पवए पवमाणे एवं जहा उववाएसए जाव णो परप्पओगेणं उबवजति ॥४॥ तेणं भैते ! जीवा किं आयजसेणं उववजंति आयअजसेणं उववजति ? गायमा! णो आय जसेणं उव. वजंति, आय अजसेणं उववजंति, जइ आय अजसेणं उक्वजति किं आयजसं उवजीवंति आय अजसं उवजीवति? गोयमा! णो आयजसं उवजीवंति आय. कृत युग्य उस समय में कल्योज व जिस समय में कल्योज उस समय में क्या कृत युग्म हैं ! अहो गौतम! यह अर्थ भी योग्म नहीं हैं ॥२॥ अहो भगवन् ! वे जीवो कैसे उत्पन्न होते हैं ? अहा गौतम ! जैसे कूदता हुवा जाने वाला यों जैसे उपपात शतक में कहा यावत् परप्रयोग से नहीं उत्पन्न होत हैं. ॥ ४ ॥ अहो. भगवन्! वे क्या आत्मजस से (संयम)स उत्पन्न होते हैं या आत्म अजश(अमेयम से उत्पन्न होते हैं. ? अ गौतम संयम से उत्पन्न होते नहीं हैं परंतु असंयम से उत्पन्न होते हैं.यदि अभंयम से उत्पन्न होते हैं तो क्याई संयमसे उपजीविका करते हैं या असंयमसे उपजीविका करते हैं? अहोगौतम संयमसे उपजीविका करते नहीं हैं। परंतु असंयम से उपजीविका करते. यदि असंयम से उपजीविका करते है तो क्या वे सलेशी होते हैं या Aammaanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी. भावार्थ Page #3091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.33 ... अजसं उत्रजीवति ॥ जदि आय अजसं उवर्जीवति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा! सलेस्सा णो अलस्सा ॥ जदि सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो अकिरिया ॥ जदि सकिरिया तेणव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतकरेंति ? णो इणट्टे समढे ॥ ५ ॥ रासी कडजुम्म असुरकुमाराणं भंते ! कओ उपवजति जहेव णेरइया तहेव गिरवसेसं, एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया, णवर वणस्सइ. काइया जाव असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं तंचेव मणुस्सवि, एवंचव जाव णो आयजसेणं उववज्जति, आय अजसेणं उववति ॥ जइ आय अजसणं भावार्थ अहो गौतम ! सलेशी होवे नहीं परंतु अलेशी होवे. यदि सलेशी. होवे तो क्रिया माहित होते कि अक्रिया होवे ? अहो गौतम ! सक्रिय होवे परंतु अक्रिय होवे नहीं. यदि सक्रिय हो तो क्या उप्ती LEभव में सीझे याक्त अंत करे ? ओ गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थातू ऐसा नहीं होता है ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! राशि कृतयुग्म वाले असुर कुमार कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जैसे नारकी का कहा वैसे ही विशेषता रहित तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्यंत कहना. परंतु वनस्पति काया असंख्यात व अनंत 17 उत्पन्न होते हैं ऐसा कहना, शेष सब वैसे ही कहना. मनुष्य का मी वैसे ही यावत् संयम से नहीं उतानः ।। पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 40 एकतालीसवा शतक का पहिला उद्देशा 48 Page #3092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ ॐ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उववनंति किं आयजसं, उवजीवंति आय अजसं उवजीवंति ? गोयमा ! आयअजसंपि उवजीवंति, आय-अजसंपि उववजीवंति ॥ अइ आयजसे उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सावि अलेस्सावि || जदि अलेस्सा किं सकिरिया - अकिरिया ? गोयमा ! णो सकरिया अकिरिया || जदि अकिरिया तेणव भवग्गहणं सिज्झति जाव अंतंकरेति ? हंता सिज्यंति जाव अंतंकरेंति ॥ जदि सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो अकिरिया, जदि सकिरिया तेणं भवग्गहणणं सिझंति जाव अंतंकरैति ? गोयमा ! अत्थेगइया तेर्णव भवगाहणेणं होते हैं परंतु अभ्यम से उत्पन्न होते हैं वहां तक कहना. यदि संयम से उत्पन्न होते हैं तो क्या संयम से उपजीविका करते हैं या असंयम से उपजीविका करते हैं? अहो गौतम ! संयम से व असंयम से दोनों प्रकार उपजीविका करते हैं. यदि संयमसे उपजीविका करते हैं तो सलेशी अथवा अलेशी? अहो गौतम ! सलेशी व अलेशी दोनों होवे. यदि अलेशी होवे तो क्या सक्रिय होवे या अक्रिय होवे ? अहो गौतम ! सक्रिय होवे नहीं परंतु अक्रिय होवे. यदि अक्रिय होवे तो क्या उस ही भव में सीझे बुझे यावत् अंत करे ? अहो गौतम ! उसी भाव में सीझे बुझे यात्रत् अंत करे. यदि सलेशी होत्रे तो क्या सक्रिय होवे कि अक्रिय होते? अहो गौतम ! सक्रिय * प्रकाशक- राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी क ३०७४ Page #3093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७५. सिझंति जाव अंशंकरैति, अत्थेगइया णो तेणव भवग्गहणणं सिग्भंति जाव अतंकरोति जदि आय अजसं उवजीवंति किं सलेस्सा अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्ता णो अले. स्ता, जइ सलेस्सा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया णो अकिरिया, जइ सकिरिया तेणव भवग्गणेणं मिझंति जाव अतंकति?गोयमा!णो इणट्रे समटे॥वाणमंतर जोइसिय वेभाणिया जहा णेरइया ॥ सेवं भंते ! भंतेत्तिाइगुलीसइम मयस्स पढमो उद्देसो॥४१॥२॥ x रासीजुम्म तेओगणेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति? एवंचेव उद्देसओ भाणियन्यो, णवरं परिमाणं तिण्णिवा सत्तवा एक्कारसवा पण्णरसवा, संखजा होवे नहीं यदि सक्रिय होवे तो क्या उसी भव में सीझे बुझे यावत् अंत करे ? अहो गौतम! कितनेक IFउसी भव में सीझे बुझे यावत् अंत करे और कितनेक उसी पत्र में सीझे बुझे यावत् अंत करे नहीं... यदि E असंयमसे उपजीविका करतो क्या मलेशीकरे कि अलेशीकरे? अहो गौतम!सलेशीकरे परंतु अलेशी नहीं करे.. यदि सलेशी करेतो क्या सक्रियकरे या अक्रियाकर अहो गौतमसक्रियकरे परंतु अक्रिय नहीं करे.यदि सक्रिय करे होवे तो क्या उसी भवमें सीझे बुझे यावत् अंत करे? अहो गौतम!यह अर्थ योग्य नहीं हैं अर्थात् वैसा नहीं 1 .बापव्यतरं ज्योतिषी व वैमानिकका नारकी जैसे कहना.महो भगवन आपके वचन सत्य हैं यह इक्कतलीसा 10 शतक का पहिला उद्देशा पंपूर्ण हुझे ॥ ४५ ॥ १॥ * ॥ अहो भगवन् ! राशि युग्म ! पंचांग विवाह पग्णत्ति ( भगवती) मूत्र tigh 488+ एकतालीसा शतक का दूसरा उदेशा88 Page #3094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ | 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी या, असंखेजात्रा उववर्जति संतरं तहेब || तेणं भंते ! जीवा जे समयं तओंगा त समय कडजुम्मा जं समय कडजुम्मा तं समय तेओगा ? गोयमा! णो इणट्टे समट्ठे जं 'समय तेओगा तं समयं दात्ररजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेओया ? गोयमा ! णो इणट्ठे समट्टे ॥ १ ॥ एवं कलिआंगणवि, समं सेसं तंत्र जात्र वैमाणिया, नवरं उबचाओ सव्वेसिं जहा बकंतीए ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥४१॥२॥ X रासी जुम्म दावरजुम्म रइयाणं भंते ? कओ उववज्जंति ? एवं चेव उदेसओ, नवरं परिमाणं दोवा छवा दसवा संखेज्जावा असंखेजावा उववजंति, संवेहो ॥ तेणं भंते ! (योज नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं? अहो गौतम! जैसे उपर्युक्त उद्देशा कहा वैसे ही कहना. परंतु परिमाण तीन, सात, अग्यारह, पन्नरह, संख्यात व असंख्यात उत्पन्न होते हैं. अनंतर निरंतर वैने ही कहना. अहो भगवन् ! वे जीवों जिस समय में त्र्यांज है उस समय में क्या कृतयुग्म हैं जिस समय में कृतयुग्म' हैं. उस समयमें क्या व्याज हैं? अहा गौतम! यह अर्थ योग्य नहीं. तो जिस समय में श्योज हैं उस समय द्वापरयुग्म है. या जिस समय में द्वापरयुग्म उस समय में त्र्योज हैं? अहो गौतम! यह अर्थ भी योग्य नहीं. ऐसे ही कल्याज की साथ भी कहना. शेष वैमानिक पर्यन्त वैसे ही कहना. उपपात व्युत्क्रांति जैसे कहना. अहो भगवन्! आपके बचन { सत्य हैं ||४|| २ || अहो भगवन ! राशियुग्म द्वापरयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ३०७६ Page #3095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पंचांग विवाह पण्यति ( भगवती ) सूत्र + जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावर: - जुम्मा ? णो इणट्टे समट्टे ॥ एवं तेओएणवि समं, एवं कलिओत्रि समं, सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥ ४१ ॥ ३ ॥ रासम्म कलिओंग पेरइयाणं भंते ! कओ उबवजंति ? एवं चैत्र नवरं परिमाणं एक्कोवा पंचवा नववा तेरसवा संखेजावा असंखेज्जावा उवबजंति, संवेहो ॥ तेणं भंते ! जीवा जं समयं कलिओगा तं समयं कडजम्मा जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलिओगा ? णो. इणट्ठे समट्टे ॥ एवं तेआंगेणविसमं, दावरजुम्माणत्रिसम, पहिले जैसा उद्देशा कहना, परंतु परिमाण दो, छ, दश, संख्यात व असख्यात उत्पन्न होते हैं, बैसा कहना. अहो. (भगवन! वे जीवों जिस समय में द्वापरयुग्म होवे उस समय में क्या कृतयुग्म होते हैं और जिस समयमें कृतयुग्म {होते हैं उस समय में क्या द्वापरयुग्म होते हैं? अहो गौतमः ऐसा नहीं होता है. यों व्याज व कल्यो की साथ कहना.. शेष वैमानिक पर्यन्त पहिला उद्देशा जैसे कहना. अहो भगवन्! आपके वजन सत्य हैं ॥। ४१ ।। ३ ।। राशियुग्म कल्योज {नारकी कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? ऐसे ही कहना. परंतु परिमाण एक, पांच, नव, तेरह संख्यात व असंख्यात उत्पन्न होते हैं. वैसा कहना. अहो भगवन् ! वे जीवों जिस समय में कल्योज उस समय में क्या. कृतयुग्म हैं और जिस समय में कृतयुग्म उस समय में क्या कल्पोज हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य एकतालीसवा शतक का चौथा उद्देशा 28 ३०७७ Page #3096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सेसं जहा पढमुद्देसए ॥ एवं जाव वेमाणिया ॥ सेवं भंते २ ति ॥४॥॥ + कण्हलेरस रासीजुम्म कडजुम्म जरइयाणं भंते ! कओ उबवज्जति?, उववाओ जहा. धूम्मप्पभाए, सेस जहा पढमुद्देसए ॥ असुरकुमाराणं तहेव एवं जाप वाणमंतराणं ॥ मणुसाणवि जहेव रइयाणं, आय अजसं उवजीवंति, अलेस्सा, अकिरिया, तेणेव । भवग्गहणेणं सिझंति एवं भाणियन्वं, सेसं जहा पढमुद्देसए ॥ सेवं भंते ! २ त्ति ॥४१॥५॥ . कण्हलेस्स तेयोएहिवि एवं चेव उद्देसओ ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ ४ ॥६॥ x कण्हलेस्स दायरजुम्मे हिवि ? एवं चेव उद्देसओ ॥ भावार्थ महीं है, यों ज्योज व द्वापर युग्म की साथ भी कहना. शेष पहिले उदेशे जैसे कहना ॥४१॥४॥ Eष्ण लेण्यावाले राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? उपपात धूम्रप्रभा जैसे कहना. शेष पहिला उद्देशा जैसे कहना. अमुरकुमार का वैसे ही ऐसे ही वाणव्यंतर पर्यन्त कहना. मनुष्य का नारकी जैसे. असंयम से उपजीविका करते हैं, अलेशी आक्रय व उसी भव में सीझे बुझे. यावत् अंत करे. ये कहना. शेष पहिला उद्देशा जैसे कहना. अहोभगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥४१॥५॥ + का कृष्ण लेण्या श्योज की साथ भी वैसे ही उद्देशा कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । .प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी । Page #3097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७१ भगववी ) भूत्र 4 सेवं भंते २ ति ॥ ११ ॥ ७ ॥ .. * कण्हलेस्स कलिओगेहिवि एवं चेव उद्देसओ परिमाणं संवेहो य जहा ओहिएष उद्देसएसु । सेवं भंते रत्ति॥४३॥८॥ जहा कण्हलेरसेहिं एवं णीललेस्सेहिवि चत्तारि उदेसगा भाणियव्या मिरवसेसा, णवरं णेरइयाणं उववाओ जहा बालुप्पभाए ॥ सेसं तंचेव ॥ सेवं भते २त्ति ॥४७॥१२॥ काउलेरसहिवि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायव्वा, णवर णेरइयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए सेसं तंचेव ॥ सेवं भंते २त्ति ॥४१॥१६॥ + ॥ तेउलेस्स रासीजुम्म कडजुम्म अमुरकुमाराणं भंते ! कआ उववजति ? एवं चत्र णवरं जेसु तेउलेस्सा ॥४॥॥ कृष्ण लेश्यावाले द्वापर युग्म की साथ वैसे ही उद्देशा कहना ॥ ४१ ॥ ७॥ + भावार्थ IE, कृष्ण लेश्या वाले कल्योज की साथ वैसे ही उद्दशा कहना परिमाण संबंधे औधिक जैसे. अहो भगवन ! आपके वचन मत्य हैं ॥ ४१॥ ८॥ + ॥ जैसे कृष्ण लेश्या के चार उद्देशे कहे हैं से ही नील लेश्या के चार उद्देशे कहना. परंतु नारकी का उपपात बालुप्रभा जैमे कहना. शेष वैसे ही ITहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४१ ॥ १२॥ ४ ॥ कापोत लेश्या की साथ भी 18से ही चार उद्देशे कहमा. परंतु नारकी का उपपात रत्नप्रभा जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके पवन सस्य हैं ॥ ४१ ॥ १६ ॥ तेजो लेश्यावाले राशि कृतयुग्म अमुरकुमार कहां से उत्पन्न होते हैं ? 488+ एकतालीममा शतक का ८-१३ उ पणति । ... Page #3098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. : अस्थि तेसु भाणियत्वं, एवं एएवि कण्हलेस्स सरिसा चात्तरि उद्देसग्गा कायव्वा ॥ . + सेवं भंते ! २ त्ति ॥ ११ ॥ २० ॥ + .. ॥ एवं पम्हलेस्साएवि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा, पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया मणस्स्सा वैमाणियाणं एएसि पम्हलेस्सा, सेसाणं णस्थि ॥ सेवं भंते २ त्ति ॥ ४१ ॥ २४ ॥ . जहा पम्हलेस्सा एवं सुक्कलेस्साए चत्तारि उद्देसगा कायचा णवरं मणुस्साणं गमओ, है. जहा ओहिय उद्देसएसु, सेसं तंचेव, एए छसु लेरसासु चउब्बीसं उद्देसगा, ओहिया चत्तारि, सवते अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति ॥ सवं भंते रत्ति ॥ ११ ॥ २८ ॥ भावार्थ ऐसे ही कहना. परंतु जिन में तेजो लेश्या होवे वहां हो कहना. यो इम के भी कृष्ण लेश्या जैसे चार उद्देशे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४२ ॥ २० ॥ * ॥ ऐसे ही पद्म लेश्या की साथ चार उद्देशे कहना, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य व वैमानिक इन को ही पद्म लेश्या है. शेष किसी को नहीं है. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४१ ॥ २४ ॥ ॥ जैसे एय लेश्यां का कहा वैसे ही शुक्ल लेश्या के चार उद्देशे कहना. परंतु मनुष्य का गमा औषिक जैसे कहना. शेष वैसे ही यों छ लेश्या के चौवीस और औधिक के चार यो सब मीलकर अठावीस उद्देशे हुवे ॥४१॥२८॥ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक रानाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी : Page #3099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AST IN विवाह एण्णत्ति ( भगवती) सूत्र Ragda भवसिद्धिय रासीजुम्म कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उवबज्जति ? जहा आहिय पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव गिरवसेसं, एए चत्तारि उद्दसगा ॥ सेवं भंते २ति ॥ ४१ ॥ ३२ ॥ * ॥ कण्हलेस भवसिद्धिय रासीजुम्म कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा कण्हलेस्साए. चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमेवि भवसिद्धिय कण्हलेस्सेहिं चत्तारि उसगा कायव्वा ॥ ४१ ॥ ३६ ॥ एवं णीललेस्स भवसिद्धियाहवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ४० ॥ * एवं काउलेस्सहिवि चत्वारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ४४ ॥ + भवसिद्धिक राशि कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होवे ? जैस औधिक के पहिले चार उद्देशे कहे। E वैसे ही इस के चार उद्देशे विशेषता रहित कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४१ ॥ ३२ ॥ अहो भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं? अहा मौतम ! जसे कृष्ण लश्या में चार उद्देशे कहे वैसे हा यह भी चार उद्दश भवासद्धिक कृष्ण लक्ष्या-14 वाले की साथ कहना ॥ ४१ ॥ ३६ ॥ + नील लेश्यावाले भवसिद्धिक के चार उद्देशे ॥ ४ ॥ ४० ॥ - + ॥कापोत लेश्यावाले भरसिद्धिक के चार उद्देशे ॥ ४१ ॥ ४४ ॥ norammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 800 एकतालीसवा शतक का ३३-४४ उद्दशे 40 भावार्थ Page #3100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी तेउलेस्सेहिवि चत्तारि उद्देलगा ओहिया सरिसा ॥ ४१ ॥ ४८ ॥ पम्हलेस्सेहिवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ।। ५२ ॥ * ॥ सुक्कलेसहिवि चत्तारि उद्देसगा ओहिय सरिसा ॥ एवं एएवि भवसिद्धिएहिवि अट्ठावीसं उद्दसगा भवंति ॥ सेवं भंते ६ त्ति ॥ ४१ ॥ ५६ ॥ * ॥ अभवसिद्धिय रासीजुम्म कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढमो उद्दसओ णवरं मणुस्साणं णेरइया य सरिसा भाणियव्वा ॥ सेसं तहेव ॥ सेवं भंते ! २ त्ति ॥ एवं चउवि जुम्मसु चत्तारि उद्देसगा ॥ ४५ ॥ ६० ॥ ॥ कण्हलेस्सा अभवसिद्धिय TE तेजो लेश्या के चार उद्देशे औधिक जैसे ॥ ४१ ॥ ४८ ॥ * ॥ पद्म लेश्या के चार उद्देशे ॥४१॥५२॥ + ॥ शुक्ल लेश्या की साथ चार उद्देशे औधिक जसे. यों भवसिद्धिक के अठावीस उद्देशे और औधिक के अठावीस यो सब मीलकर ५६ उद्देश हुए. अहो भगवन् ! आपके बचए सत्य हैं ॥ ४१ ॥ ५६ ॥ ॥ अहो भगवन् ! अभयसिद्धिक राशियुग्म कृत} all युग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? जैसा पहिला उद्देशा कहा वैसे ही कहना परंतु मनुष्य व नारकी की वक्तव्यता समान कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों चारों युग्यों में चार उद्देशे कहना. १४१ ॥ ६० ॥ + कृष्ण लेश्या वाले अभवसिद्धिक नारकी कहां से उत्पन होते हैं । Tाराजाबहादर लाला मुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादमी. 47 अनुवादक-बालबम Page #3101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 48 पंचमात्र विवाह-पण्णत्ति (.मगवती) सूत्र रासीज़म्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति ? एवंचेव चत्तारि उद्देसगा. ॥४१॥६॥ एवं णीललेस्स अभवसिडिएहिवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ६८॥ * ॥ एवं काउलरसेहिवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ८२ ॥ x ॥ एवं तेउलेस्सेहिवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ७६ ॥ ४ ॥ पम्हलेस्सहिवि चत्तारि उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ८॥ ४ ॥ सुक्कलेस्से अभवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देसगा ॥ एवं एएसु अट्ठावीसा एवि अभवसिद्धिय उद्देसएसु मणुस्सा जेरइयगमेणं तन्वा ॥ सेवं भंते २ ति ॥ एवं ग्तेवि अटावीसा उद्देसगा ॥ ४१ ॥ ८४ ॥ ऐसे ही चार उद्देशे ॥ ४१ ॥ ६॥ ॥ ऐसे ही नील लेश्या वाले अभवसिदिक के 8 चार उद्देशे ॥ ४१ ॥ ६८ ॥ + ॥ ऐसे ही कापुत लेश्या वाले की साथ चार उद्देशे ४१ ॥ ७२ ॥ ४ ॥ऐसे ही तेजो लेश्या की साथ चार उद्देशे ॥४१॥ ७६ ॥ पन लेश्या की साथ भी चार उद्देशे ॥ ४१ ॥ ८०॥ + शुक्ल लेश्या अभवसिद्धिक की साथ चार उद्देशे. यों अठावीस अभवसिद्धिक के उद्देशे कहे. इन में मनुष्य का नारकी के गमा जैसे काकहना ॥४१॥ ८४ ॥ समष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों जैसे पहिला एकतालीसवा शतक का ८-८४ उद्देशे 48 भावार्थ Page #3102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३० 48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सम्मविट्ठी रासजिम्म कडझुम्म जेरइयाणं भंते ! कओ उववति ? एवं जहाः पढमो उद्देसओ, एवं चउसुवि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धिय सरिसा कयन्वा ॥ सेवं भंते ! २ त्ति ॥ ४१ ॥ ८८ ॥ ॥ कण्हलेस्से समद्दिट्टी रासीजुम्मः णेरइयाण भंते! कओउववज्जति, एएवि कण्हलेस सरिसा चत्तारिवि उद्देसमा कयव्या, एवं सम्मद्दिट्टसिवि भवसिद्धिय सस्सिा अट्ठावीसं उद्देसगा कायब्वा, सेवं भंते ३ ति॥ जाव विहरइ ।। ४१ ॥ ११२॥ + ॥मिच्छट्टिी रासीजुम्म कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उवव जति ? एवं एत्थवि मिच्छादिट्टी अभिलावणं अभवसिद्धिय सरिसा अट्टाबीसं उद्देसगा कायव्वा । सेवं भंते ! २ त्ति ॥ ४१ ॥ १४०॥ कण्हपक्खिय राजुम्म कडजुम्म जेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति? एवं अभवउद्देशा कहा वैसे ही कहना. ऐसे ही चारों युग्मों में चार उद्देशे भवसिद्धिक जैसे कहना, अहो भगवन ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४१ ॥ ८८ ॥ कृष्ण लेश्यावाले समष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों कृष्ण लेश्या जैसे चार उद्देशे कहना, यों भवसिद्धिक जैसे समदृष्टि के अठावीस उद्देशे कहना, अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यावत् विचरने लगे ॥ ४१ ॥ ११२ ॥ अहो भगवन् ! मिध्यादृष्टि राशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होते हैं ? यों अभवसिदिक जैसे अठावीस wamini anmmmmm प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदव सहायजी ज्वालामसादजी.. भावार्थ 1 । Page #3103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + APP ३०८५ Nag+ पंचमांगविवाह पण्णति ( भगवती ) सूत्र सिद्धिय सरिसा अट्ठावीस उद्देसगा कायव्वा, सेवं भंते ! २ त्ति ॥४१॥ १६८ ॥ सुक्कपक्खिय रासीजुम्मा कडजुम्म णेरइयाणं भंते ! कओ उववजंति ? एवं एत्थवि। भवसिद्रिय सरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा. भवति ॥ एवं एएणं सव्वेवि छण्णउयं उद्देसगं सायं. भवंति ॥ रासीजुम्म सयं सम्मत्तं ॥ ४१ ॥ १९६ ॥ ॥ जाव। सुकलेस्स सुकपक्खिय रासीजुम्म कलिओग वेमाणिय. आव जइ सकिरिया तेणव. भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतकरेंति ? णो इण? समटे । सेवं भंते.! भंतेत्ति ॥ १ भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, तिक्खुत्तो उद्देशे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं ॥ ४१ ॥ १६८ ॥ ४ ॥ शुक्लः पक्षिक सशियुग्म कृतयुग्म नारकी कहां से उत्पन्न होवे ?. यों यहां पर भी भवसिद्धिक जैसे अठावीस उद्देशे कहना. यों सबब मीलकर एक सो छन्नु उद्देशे होते हैं. यह राशियुग्म शतक संपूर्ण हुका ॥४१॥ १९६ ॥ यावत् शुक्ल Aलेश्या शुक्ल पक्षिक राशियुग्म कृतयुग्म कल्योज वैमानिक याक्त् यदि सक्रिय होवे तो उसीभवमें सीझे यावत् + 20 अंत करे ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वैसे नहीं है. अहो भगवन् ! आपके बचन सत्य हैं. १० का श्रमण भगवंतः महावीर स्वामी को भगवान गौतम स्वामी तीन-वक्त हस्तद्वय जोडकरप्रदक्षिणावत फिराक । एकतालीसवा शतक का ११६ उद्देशे 4887 Page #3104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 02 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रपिजी आयाहिणं' पयाहिणं करेत्ता वंदइणधंसह वंदित्ता णमंसित्ता एवं चयासी-एवमेयं भंते!: । तहमेयं भंते ! आवे तहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छि. यमेयं भंते ! इच्छिय पडिच्छियमेयं भंते ! सच्चेणं एसमटे जेणं तुब्भे वदह तिकटु अपूर्ववयणाहिं खलु अरहंता भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता संयमणं तवसा अप्पाणं भात्रमाणे विहरइ॥ रासीजुम्म सयं सम्मत्तं ॥४१॥ वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले. अहो भगवन् ! जो आप कहने हैं वैसे ही है, सथ्य है, अवितथ्य है, असंदिग्ध है, इच्छित है, प्रतिच्छित है, इच्छिन प्रतिच्छित है, यों अपूर्व वचनों अरिहंत भगवंत के हैं यों कहकर श्रीश्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. यह राशियुग्म नामक एकतालीसवा शतक संपूर्ण हुवा ॥ ४१ ॥ + प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद जी - भावार्थ Page #3105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्र मुबार भगवतीए. अतीसं सतं मताणं. उदेसगाणं, इचलसीत सयसहस्सा पदाणं, पवरवर णाणसीहि भावाभाव मणता पण्णता एत्थं मंगसि ॥ ॥ तव णियम विणक्वेलो जयतिम्या जाणविमल विगुल जलो, हेतु सतविपुल संवेगो. संघलमुद्दो गुणविसालो २॥ सम्पत्ता भावति ।। णमो गोतमादीणं गणहगाणं. मा भगवती विवहा पत्नती, पणनो दुवार संगस्स गणिण्डिगम्स ।। गाथा।। कुम्मनु संठिय चलणा, अमिलिय कोरंट्वेंट संकासा, सुयदेवया भगवती, मममति तिमिरं पणासेतु ॥ १ ॥ শাশ্বার্থ अब भगवती सूत्र में उपसंहार व अंतिम मंगलाचरण करते हुये कहते हैं कि श्री भगवती सूत्रों सब मोलकर - १३८ शतक सुने. जिनमें पहिल के बत्तीमशत कय अंतर शतक नहीं है. तेत्तीसव शतक से लगाकर ४० शतक पर्यन्त बारह २ अंतर शतक कहे हैं; यो म३१२४७८४ शक होते हैं. फीर चालीसवे शतक इसी शतकoe और एकतालीसा एकही शतक है, यो सब मीलकर १३८ शतक हुए. इन एकमो अडतीन शतक १२५ उद्देशे कहे हैं। अव भगवती का परिमाण कहने को गाथा कहते हैं. इस पंचमें अंग में चौगसीलाख पद हैं. SH उन पद का शानशुरु गमसे जाना जाता है. इस अंगमें क हे भाव प्रवर प्रशन केवल ज्ञानकर जाने केवलदर्शनकर देखे अनंत भावाभाव उपही प्रकार प्ररूपे हैं. अब अंत्य मंगलम संघको समुद्रकी, ओपमासे स्तवंत हैं:- दारह प्रकारका पंचमान विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र 4. Page #3106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दट अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पण्णत्तीए आविमागं अट्टहं सयाणं दो दो उदिसिझंति, णवरं चउत्थसए पढमदिवसे अट्र वितिय दिवसे, दो उसगा उद्दिसिझंति, नवमाओ सताओ आरद्धं जावइयं जाव पवेइ तावइयं एमदिवसेणं उद्दिसिझंति, उक्कोमेणं मतंपि एगदिवसेणं, मज्झिमेणं दोहिं सतं जहणणं तिहि दिवस हि मतं, एवं जाव वीसइमं सयं, णवरं गोसालो एग दिवसेणं उद्विझिंति ॥ जदिठिओ एगेणचव आयविलेण अणुतच्चइ, अहणं ठितो आयंबिलेण छट्रेण अणण्णवति एकवीस-बावी र तेवीस-इमाई-सताई एकोक दिवसेणं उदिसिझंति चचीस सयं दोहिं दिवसहि छछ उद्देसगा, पंचविसझ्यं दोहि दिवसेहिं तप अभिग्रह विशप नियम और अभ्युत्थानादिक विनया रूप लावाला. सदैव ज्ञान रूए विमल विस्तीर्ण जलबाला, असाधने के संकड़ों तुओं रूप विपन गराला, गांभीर्यादिगणावाला संघ रूप सम विजयवंत होवो. ॥२यांचमान भगानी सत्र संपूर्ण हवा.गोजमा गगको नमस्कार दोषो.भगवती विवाह पज्ञानको सकार होतो. दारद अंगके पाठक गणिधर आचार्यको नसम्मारहावो. ॥ * कूर्म जैसे बुरस्थित चरणोंवाले. और अनमीलन कार के विट समान भगवतो भन देवता मंग मनिका निमिर नाशक ग.||१|अत्र भगाती सत्रको पद की विधि करते हैं:-प्रज्ञात भगवान के पधिले के शतक दो२ उद्देश एककदिनमें कहना.परंतु इनना रिशंष कि चतुर्थ शतक पहिले दिन आठ उद्देशे और दुमरेदि दो उद्देशे कहना. नववे शतकसे लगाकर प्रकाशक राजावहादुर लाला मुन्वदवमहायनी ज्वालाप्रमादानी * স্বার্থ Page #3107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwanma AMAN ३०८० छछ उद्देसगा, बंधि सयाई अदुसयाई एगेणंदिवसेणं सठिसयाई, वारसएगेण एगिदिय महाजुम्म सयाई, बारसएगेणं, एवं वेइंदियाणं बारस, तेइंदियाणं वारस, चउरिदियाणं वार सएगेण. असण्णि पंचिंदियाणं वारस, सण्णि पंचिंदिय महाजम्म सयाई एकवीसं एगदिवसेणं उदिसिजति, रासीजम्म सयं एगीदवसेणं उद्दिसिज्जति ॥ १ ॥ गाहात्रियसिय अरिविंदकरा, नासिय तिमिरासुयाहिवा देवी । मझंपि देउमेहं वुहविवहणमं सियाणिचं ॥ १ ॥ सयदेवयाए पणमिमो, जिएपसाएण सिक्खियं णाणं ॥ अण्णं एक दिन में जितना कहा जाये उतना. कहना. उत्कृष्ट एक दिन में एक शतक, मध्यम दो दिन में और जघन्य तीन दिन में एक शतक कहना. यों बीस शतक पर्यन्त कहना. परंतु गोशाला का शतक एक ही भावार्थ दिन में कहना. यह भी एक आयंबिल तप करके उद्देशा कहना. बाकी रह जाय तो दूसरे दिन आयंबिल तप करके पूर्ण कहना. इक्कीसवा, बावीसवा व तेवीसवा शतक एक २ दिन में पूर्ण करना. चौवीसवा शतक के छ २ उद्देशे कहकर दो दिन में पूर्ण कहना, पच्चीसवा शतक दो दिन में छ २ उद्देशे कहकर पूर्ण करना. बंधी के आठ शतक एक दिनमें कहना,साठ शतकके बारह २ उद्देशे एकदिनमें,एकेन्द्रिय महायुग्म ॐ चारह शतक एकदिनमें, ऐसेही वेइन्द्रियके बारह शतक एकदिनमें,तेइन्द्रियके बारह शतक एक दिनमें,चतुरेन्द्रिय के बारह शतक एक दिन में, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बारह शतक एक दिन में, संझी पंचेन्द्रिय महायुग्म शकत 488+ पंचमांग विवाह पणत्ति ( भगवती) मूत्र 488 । Page #3108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुत्र 143 पवयणदेवी, संतिकरं तं नमसामि ॥ २ ॥ सुयदेवयाए जक्खा, कुंड धम्मो बंभसति । विरोट्टा ॥ विजाय अंतिहुंडी, देउ अविग्धं लिहं तस्स ॥ ३ ॥ इति श्री विवाह 14 पन्नत्ती सूयं मम्मत्तं ॥ इक्कीस एक दिन में और रात्रियुग्म महा शतक एक दिन में कहना ॥ १॥ विकसित कमररूप हावाली तिमिर को नाश करनेवाली काम की अधिषा देवी मुझे भी सदैव मेधा-पण्डितपना देवो ॥ १॥ जिन के प्रसाद से ज्ञान ग्रहण किया जाता है. उन श्रुत देवता को नमस्कार होतो. और अन्य शांति करनेवाली प्रवचन देवी को मैं नमस्कार करता हूं। SERIEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERRITAGES-Ge . प्रकाशक-राज़ाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * 48 अनुवादक-बालबमबारी मुनि श्री अमोलक ऋषि भावार्थ PERCENSEEEEEEEEEcredies • इति पञ्चमाङ्ग ॥विवाह पण्णत्ति (भगवति) सूत्र समाप्तम्।। FeeSEACHEEMEERCEMEEEEE Maaaaaaaa-999999996 विराब्द २४४४ वैशाख कृष्ण पक्ष ४ मंगलबार RaaaaaaaaaaaaaaSERESCENCERABARDS Page #3109 -------------------------------------------------------------------------- Page #3110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रोद्धार प्रारंभ वीराब्द २४४२ ज्ञान पंचमी REERIES RESEEEEEEEEEEREST PA अबाप मु अऋ-म इति विवाहप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र समाप्तम् 46556RS565 प्र-रा. ला मुज्वाह SEEEEEEEEER5c FA शास्त्रोद्धार समाप्ति वीराब्द २४४ ६ विजयादशमी