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शब्दार्थ शल्य से ॥ १२ ॥ पूर्ववत् ॥ १३ ॥ दो० दो भं० भगवन् पु. पुरुष स० सरिखे जा० यावत् स०सारखे
कालोदाई जीवाणं पावा कम्मा जाव कजति ॥ १२ ॥ अत्थिणं भंते ! जीवाणं कल्लाणकम्मा कल्लाणफल विवाग संजुत्ता कति ? हंता अत्थि ॥ कहणं भंते ! जीवाणं कल्लाण कम्मा जाव कजंति ? कालोदाई ! से जहा नामए केइ पुरिसे मणुण्णं थाली पागमुद्धं अट्ठारस वंजणाउलं ओसहमिस्सं भोयणं भुजेज्जा, तस्सणं भोयणस्स: आवाए नो भद्दए भवइ तओपच्छा परिणममाणे २ सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइ
वायवेरमणे जाव परिग्मह वेरमणे कोहविवेगे जावः मिच्छादसणसल्ल विवेगे, विपाक करते हैं. ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! जीव क्या कल्याण कारी कर्म करते हैं ? हां कालोदायिन् ! जीव कल्याण कारी कर्म करते हैं. अहो भगवन् ! जीव कल्याण कारी कर्म कैसे करते हैं ? कालोदायिन्!
जैसे कोइ पुरुष औषधि मिश्रित, अठारह प्रकारके व्यंजन यक्त व मनोज पात्र में पकाया हवा भोजन करे। Bउम औषधि मिश्रित भोजन भोगते हुवे प्रथम कटुक व अमनोज्ञ दीखता है परंतु शरीर में परिणमते
हुवे सुरूप, मुगंध, सुवर्ण यावत् सुख रूप होता है इसी तरह प्राणातिपात से यावत् परिग्रह से निवर्तम 1 ते व क्रोध मान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग करते हुवे जीव को प्रथम दुःख होता है परंतु परिणमते
ऋपिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखंदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *