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शब्दार्थ
शुभ
भावार्थ
पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
मं० भांडे मा० पात्र उ० उपकरण वाला अ० अन्योन्य स० साथ अः अग्रिकाया का स० आरंभ करते त० तहां ए० एक पु० पुरुष अ० अग्निकाया को उ० प्रज्वलित करता है ए० एक पु० पुरुष अ० तरसणं आवाएं नो भद्दए भवइ तओ पच्छा परिणममाणे २ सुरुवत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुजो भुज्जो परिणमइ, एवं खलु कालोदाई जीवाणं कलाणा कम्मा जात्र कज्जंति ॥ १३॥ दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमंत्तोवगरणा अण्णमण्णणं सद्धिं अगणिकार्य समारंभति तत्थणं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ एगे पुरिसे अगणिकार्य निव्वाas एएसिणं भंते ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराएमहाकरियतरा चैव महासवतराएचेव महात्रेयणतराएचेव कयरेवा पुरिसे अप्पकम्म पीछे सुरूप यावत् सुख उत्पन्न करता है. अहो कालोदायिन् ! ऐसे जीव कल्याणकारी पापकर्म करते {हैं. ॥ १३ ॥ अढो भगवन् ! समान वय भंडोपकरण वाले दो पुरुषों परस्पर अनिकाय का समारंभ करे उन में एक पुरुष अग्निकाया को प्रज्वलित करे व दूसरा पुरुष अधिकाया को बुझावे. अब अहो भगवन्! अग्नि प्रदीप्त करने वाला व अ बुझाने वाला इन दो पुरुषों में से कौन महाकर्म, महाक्रिया, महा आश्रय व महा वेदना वाला होवे और कौन अल्प कर्म, अल्प क्रिया, अल्प आश्रव व अल्प वेदना वाला
** सातवा शतकका दशवा उद्देशा +8+
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