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शब्दार्थ क्रिया से पु० स्पर्शाये ध० धनुष्य पीठिका च० चर जी० जीव्हा च० चार हातांत च० चार उ० बाणा
पं० पांच स० शर प० पत्र फ० फल हातांत जे० जो जी०जीव अ०नीचे प० आते हुवे उ०मार्ग में चि०० रहते हैं ते० वे भी जी० नीव का कायिकी जा० यावत् पं० पांच कि क्रिया से पु० स्पर्शाये हुवे ॥१०॥ १० अन्वतीथिंक मं. भगवन एक ऐसा आ. कहते जा. यावत प० प्ररूपते हैं से० अथ ज जैसे जी युवति को जु० युवान ह० हस्त को गे० ग्रहण करते हैं च० चक्र की ना० नाभी अ० आरा से उ० की.
जीवा चउहिं. ण्डारूचउहि उस पंचहिं. सरे पत्ताणे फलेण्डारु पंचहिं जेबियसे जीवा अहे पञ्चोवयमाणस्स उवग्गहे चिटुंति तेवियणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढा, ॥ १० ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति से जहा नामए 2
जुधई जुवाणे हत्थेणं हत्थं गेण्हेजा चक्करसवा नाभी अरगाउत्तासिषा एवामेव भावार्थ जीव्हा, व तांता बना हुवा है उन जीवों को चार क्रियाओं लगती हैं. और बाण, पांखो, भाला वगै
रह को पांच क्रियाओं लगती हैं. बाण को आते हुए मार्ग में जो जीवों रहे हुवे हैं उन को भी कायिकादि पांच क्रियाओं लगती हैं ॥ १० ॥ यह सम्यक् प्ररूपना कहीं अब मिथ्यामरूपक खाते हैं. अहो भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जैसे युवान पुरुष युवति को इस्तसे । हस्त में पकडता है, अथवा गाडी के चक्र की नाभि में आरा सघन होता है वैसेही चार सो पांच सो।।
विवाह पण्पत्ति ( भवग
48 पांचवा शतक का छठा उद्देशा *