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शब्दा+कट
* कूटागार जा. यावत् कू० कूटागार सा शाला दि० द्रष्टान्त भा कहना ॥ २२॥ ई० ईशान दे. देवेन्द्र
दे. देवराजाको सा. वह दि० दीव्य दे० देवऋद्धि दे. देवधुति दे देवानुभाव कि० किससे ल. पलब्ध प० प्राप्त अ० सन्मुख हुइ के. कौन ए. यह आ० था पु० पूर्व भव में किं. कौनसा ना. नाम
कि. कौनसा गो० गोत्र क० कौनसे गा० गाव में न० नगर जा. यावत् म. सनिवेश में कि० क्या १० देकर भो• भोगवकर कि• करके किं. क्या स० सगाचर क किस त० तथारूप स. श्रमण णिवाय गंभीरा, तीसेणं कूडागारं जाव कूडागार सालादिटुंतो भाणियव्यो ॥२२॥ ईसाणेणं भंते ! देविंदे देवरण्णो सादिव्या देविट्ठी, दिव्वादेवजुत्ती, दिव्वे देवाणुभावे किण्णा लडे. किण्णा पत्ते किण्णा अभिसमण्णागए, केवा एस आसि पुन्वभवे, किंणामएवा, किंगोत्तेवा, कयरांस गामंसिवा नयरंसिवाजाव सण्णिवेसंसिवा, किंवा दच्चा, किंवा भोच्चा, किंवा
किच्चा, किंवा समायरिता, कस्सवा तहारूवस्स सम॑णस्सवा, माहणस्स वा। बाहिर कोई नहीं दीखते हैं. इसी दृष्टांत से अहो गौतम ! सब ऋद्धि ईशानेन्द्र के शरीरमें चली गइ॥२२॥ अहो भगवन् ! ईशानेन्द्र को ऐसी दीव्य देव ऋद्धि. देव कान्ति व ऐसा महानुभाव कैसे प्राप्त हुवा ? वे पूर्व भव में कौन थे, उन का पूर्व भव में नाम क्या था, गोत्र क्या था, किस ग्राम, नगर व सन्निवेश में रहते थे, इनोंने क्या दान दिया, क्या अंत प्रांतादि आहार भोगवा; क्या तप किया, क्या प्रति
48 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
*प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *