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शब्दार्थको भ० भगवन् भा० भावितात्मा के केवली मुयात जा. यावत् सा० शाश्वत अ. अनागतकाल
चि० रहे स. समुद्घात प० पद ने० जानना ॥ २॥२॥
क० कितनी भं० भगवन् पु० पृथ्वी प० प्ररूपी गो• गौतम जी० जीवाभिगम ने० नारकी को वि०१३ है यप्पणो केवली समुग्धाय जाव सासय मणागयढं चिटुंति, समुग्घायपयं णेयव्वं .
॥ २ ॥ विईयसए बीओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥ २ ॥
कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! जीवाभिगमो नेरइयाणं जो भावार्थ
समुद्घात. इस का सब अधिकार कषाय समुद्घात की अल्पाबहुत्व सा पनवणा सूत्र के समुद्घात पद . जैसे कहना ॥ १ ॥ भवितात्मा अनगार को केवली समुदयात यावत् शाश्वत अनागत काल तक रहे यह समुद्घात पद जैसे जानना.. यह दूसरा शतक का दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ २॥२॥ * है गंत उद्देशे में ममुद्घात का कथन किया. जो जीव मारणान्तिक समुद्घीत करता है वह जीव मरकर: पृथ्वी में उत्पन्न होता है इसलिये पृथ्वी का अधिकार कहते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वी कितनी की अहो गौतम ! पृथ्वी सात कही. उन के नाम रत्नप्रभा यावत् तमतम प्रभा. इन पृथ्वीयों को अवगाह कर।
कितने दर नरकावास रहे है ! रत्नप्रभा पृथ्वी का एक लाख अस्सी हजार योजन.का पृथ्वी पिंड है। । उस में उपर नीचे एक २ हजार छोडकर बीच में एक लाख अद्वत्तर हजार की पोलार है. उस में तीस
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहा
जी मालमसादजी