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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
49 अनुवादकः बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
पो० पुद्गल प० परिणत णो • नहीं अ० अपरिणत ॥ ३ ॥ ते० उस मा० मायी मि० मिध्यादृष्टि दे० (देव को ए० ऐसा प० पराभव करके ओ० अवधि प० प्रयुंजा मं० मुझे आ देखकर अ० ऐमा जा०यावत् स० उत्पन्न हुवा ए० ऐसा स० श्रमण भ० भगवंत मव्महावीर जय जम्बुद्वीप के भाग्भरतवर्ष में जे० जहां उ० उल्लुकातीर ण० नगर में जे० जहां ए० एक जम्बूक चे
उद्यान अ० यथामतिरूप जा० यावत् वि० विचस्ता है। परिणया णो अपरिणया ॥ ३ ॥ तं मायीमिच्छदिट्ठी उववण्णगं देवं एवं पाडेहणइ एवं पहिणइत्ता ओहिं पउंजइ २ ता ममं ओहिणा आभोएइ २ त्ता अयमेया रूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे जेणेव उल्लुयातीरे णयरे जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ, तं सेयं खलु समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं
* प्रकाशक राजीवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
उस का अभाव प्रसंग होता है. ॥ ३ ॥ इस तरह उस मायीमिध्यादृष्टि देव को प्रत्युत्तर रहित करके उस सम्यग्दृष्टि देवताने अवधिज्ञान प्रयुंजा अवधिज्ञान प्रयुंज कर मुझे अवधिज्ञान से देखा और ऐसा विचार हुवा कि जम्बूद्रीप के भरत क्षेत्र में उल्लुकातीर नगर में एकज़म्बू उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यथामतिरूप अवग्रह याचकर विचरते हैं इस से श्रमण भगवंत महावीर को वंदना
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