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शब्दार्थ
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पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र
अप्रमत्त संथति त. तहां जे० जो अ० अप्रमत्त संयति ते. वे णो० नहीं आः आत्मारंभी णो० नहीं प० है । परारंभी जा० यावत् अ० अनारंभी त० तहां जे० जो ५० प्रमत्त संयति ते वे सु० शुभयोग ५० आ- | श्रित णो नहीं आ० आत्मारंभी जा. यावत् अ० अनारंभी अ० अशुभयोग प० आश्रित आ० आ-है। मारंभी जा० यावत् णों नहीं अ० अनारंभी त. तहां जे. जो० अ० असंयति ते• वे अ० अविरति
आयारंभा जाव अणारंभा ॥ तत्थणं जे ते संसार समावण्णगा, तेदुविहा ५०, तं. संजयाय, असंजयाय । तत्थणं जे ते संजया, ते दुविहा प०, तं० पमत्त संजयाय, . अपमत्त संजयाय । तत्थणं जे ते अपमत्त संजया तेणं णो आयारंभा, णो परारंभा
जाव अणारंभा । तत्थणं जे ते पमत्त संजया ते सुहंजोगं पडुच्च णो आयारंभा, गतिरूप संसार में अनंत वक्त परिभ्रमण करके समस्त कर्म क्षयरूप स्थानक सो मोक्ष को प्राप्त हुने उन को सिद्ध कहते हैं. वे सिद्ध आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी नहीं हैं. परंतु अनारंभी हैं. और जो संसार समावन्न जीव हैं वे दो प्रकार के कहे हैं संयति भो चारित्र सहित व असंयति सो चारित्र रहित.to उस में संयति के दो भेद १ प्रमत्त संयति २ अप्रमत्त संयति. जो सप्तम गुणस्थान वर्ती अपर संयति हैं वे आत्मारंभी, परारंभी व उभयारंभी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं. और जो छठे गुणस्थानवर्ती , प्रमत्त संयति हैं वे शुभ योग आश्रित आत्मारंभी, परारंभी, व उभयारंभी नहीं हैं परंतु अनारंभी हैं,
पहिला शतक कापहिला उद्देशा 8
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९.१०