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भगवती ) मूत्र 48
॥४. ॥ २॥ .. ॥ एवं णीललेस्सेसुवि सयं, णवरं संचिटणा जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं दस सागरोवमाई, पलिओवमस्स असंखेजइ भागं मब्भहियाई, एवं ठिइएवि, एवं तिसु उद्देसएसु सेसं तहेव ॥ सेवं भंते ! भंतेति ॥ तत्तियं
सयं सम्मत्तं ॥ ४० ॥ ३ ॥ + . ॥ एवं काउलेस्स सयंवि णवरं-संचिहै ?णा-जहण्णेणं एक समयं उक्कोसणं तिण्णि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजइ
भाग मन्भहियाई,एवं ठिईएवि, एवं तिसुवि उद्देसएसु, सेसं तहेव, सेवं भंते! भंतत्ति।
॥ ४० ॥ ४ ॥ + ॥ एवं तेउलेस्सविसयं णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं नील लेश्या की साथ भी वैसे ही कहना परंतु संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट दश सागरोपम और पल्योपम का असंख्यातवा भाग अधिक; यो स्थिति के तीनों उद्दशे में कहना. शेष सब वैसे ही. अहो भगवन् ! अाप के वचन सत्य हैं, यो तीमरा शनक संपूर्ण ॥ ४० ॥ ३॥
ऐसे ही कापुत लेश्या का परंतु संचिठणा जघन्य एक समय उत्कृष्ट तीन सागरोपम पल्योपम का असंख्वातवा भाग अधिक. यो स्थिति से भी कहना. यों तीनों उद्देशे में कहना. शेष वैसे ही. अहो भगवन् ! आप के रचन सत्य ॥ ४॥ + ॥ ऐसे ही तेजो बेझ्या का भी कहना, परंतु संचिठणा
चालीसवा शतक का ३.४ उद्देशा 988
भावार्थ
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