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- शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
4- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र +
जाग्रत होते ते ० उसभव में जा० यात्रत् अं० अंत करे ॥२९॥ अ० अथ मं० भगवन् को० कोष्टपुट ( कोठे { में पकाया हुवा वास का समुदाय) जा० यावत् के० केतकी पुट अ० अनुकूल वात वाला होते उ० उछलते ठा० स्थान से ठा० स्थान सं० जाते किं० क्या को० कोठे का वायु जा० यावत् के० केतकी का वायु गो० गौतम णो० नहीं को० कोठे का वायु जा० यावत् णो० नहीं के केतकी का वायु घा० घ्राणसहगत पो० पुद्गल वा वाते हैं से ० वैसे ही भं० भगवन् सो० सोलहवा शतकका छं छठा उ० उद्देशा स समाप्त ॥६॥ ६ ॥
वावठाणाओ ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोट्टेवाइ जाव केतईवाति ? गोयमा ! कोबात जाव णो केतईवाइ घाणसहगता पोग्गला वाइ ॥ सेवं भंते भंतेति ॥ सोलसमस्स छट्टो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १६ ॥ ६ ॥
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{केतकी नामक सुगंधिक पदार्थ का पुडा अनुकूल वायु के संयोग की प्रबलता से वे सुगंधि द्रव्य उपर नीचे ( उछले यावत् एक स्थान से अन्य स्थान जावे तो क्या वह कोष्ट वायु, समुदाय आता है यावत् केतकी वायु समुदाय आता है ? अहो गौतम ! यह कोष्ट वायु समुदाय नहीं आता है वैसे ही केतकी वायु ममुदाय नहीं आता है परंतु घ्राणसहगत अर्थात् गंध गुण के सहगत पुद्गलों कहाते हैं. आपके वचन सत्य हैं. यह सोलहवा शतक का छठा उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १६ ॥ ६ ॥
अहो भगवन् !
48- सोलहवा शतक का छठा उद्देशा 42+
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