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शब्दार्थ श्रित स० सम्यक् व० प्रवर्तता स० श्रमण नि. निग्रंथ अ० आज्ञा से आ० आराधक भ होवे ॥ ७॥क०
कितने प्रकार का भ० भगवन् बं० बंध प० प्ररूपा गो० गौतम दु० दोप्रकार का बं० बंध प्ररूपा ई० ईर्यापथिक बंध सं० सांपरायिक बंध ॥ ८॥ ई० ईर्यापथिक भ० भगवन् क० कर्म किं० क्या ने नारकी
ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आगाए आराहए भवइ ॥ ७ ॥ कइविहेणं भंते ! बंधे । पण्णत्ते ? गोयमा ! दुबिहे बंधे पण्णत्ते तंजहा इरियावहियबंधेय संपराइय
बंधेय ॥ ८ ॥ इरियावहियाणं भंते ! कम्मं किं णेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिओ भावार्थ कहते हैं. जिस समय आगम व्यवहारवाले केवलज्ञानी आदि प्रवर्तते होवे उस ममय उस ही आगम
व्यवहार से प्रायश्चित्तादि देवे. अर्थान् उस की स्थापना करे, परंतु शेष चार व्यवहार से प्रवर्ते नहीं. आगम व्यवहार न होवे और श्रुत व्यवहार हो तो श्रुत व्यवहार की स्थापना करे, श्रुत व्यवहार के
अभाव में आज्ञा व्यवहार, आज्ञा व्यवहार के अभाव में धारणा व्यवहार और धारणा व्यवहार के अभाव K में जीत व्यवहार की स्थापना करे. इस तरह आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, व जीत इन पांचों व्यवहार में
से जिस स्थान जिस की योग्यता होवे उसको स्थापना कर उस अनुसार प्रवर्ते. किसी प्रकार की आशंसा राग, द्वेष व नेश्राय रहित पक्षपात छोडकर समभाव से सम्यक् प्रकार से प्रवर्तते हुए माधु जिन भगवन्तकी आज्ञा के आराधक होते हैं ॥ ७ ॥ अहो भावन् ! बंध के कितने भेद कदे हैं ? अहो गौतम !
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालायसादनी *
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