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शब्दार्थ
सत्र
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११.३३
व बांधे ति० तिर्यंच पुरुष पांघे ति० तिर्यच स्त्री पं० बांध म० मनुष्य बं० बांधे म० मनुष्यणी बांध दे०१७
बंधइ, तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मणुस्सोबंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ, ? गोयमा ! णो णेरइओ बंधइ णोतिरिक्खजोणिओ बंधइ, जो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, णो देवो बंधइ, णो देवी बंधइ, पुवपडिवण्णए पडुच्च मणुस्साय मणुस्सीओय बंधंति. पडिव. जमाणए पडुच्च मणुस्सोवा बंधइ, मणुस्सी वा बंधइ. मणुस्साय वा बंधंतिमणुस्सीओय वा बंधंति, अहवामणुस्सोय मणुस्सीय बंधइ. अहवा मणुस्सोय मणुस्सीओय बंधति, अहवा
मणुस्साय मणुस्सीयबंधइ, अहवा मणुस्साय मणुस्सीओयं बंधति ॥ तं भंते ! किं इस्थिबंध के दो भेद कहे हैं. ईर्यापथिक व सांपरायिक ॥ ८॥ अहो भगवन् ! ईर्यापथिक कर्म क्या नारकी बांधते हैं, तिर्यंच बांधते हैं, तिर्यंचणी बांधती हैं, मनुष्य बांधते हैं, मनुष्यणी बांधती हैं, देव बांधते हैं व देवी बांधती हैं ? अहो गौतम ! नारकी, तिर्यंच, तिर्यंचणी, देव व देवी को ईर्यापथिक बंध नहीं होता है मात्र मनुष्य व मनुष्यणी को ईर्यापथिक क्रिया का बंध होता है. क्यों कि उपशान्त मोह, क्षीण मोह व सयोगी केवली इन तीनों को ईर्यापथिक क्रिया का बंध होता है. पहिले का ईर्यापाथिक बंध अंगी-1 कार करनेवाले द्वितीयादिक समयवर्वी होते हैं. उस में सदैव स्त्री व पुरुष बहुत रहते हैं इस से पूर्व प्रतिपन्न आश्री बहुत मनुष्य व वहुत मनुष्यणी कही. वर्तमान समय आश्री ईर्यापथिक प्रथम समयवर्ती
389 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) मूत्र
आठवा शतक का आठवा उद्देशा
भावार्थ