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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
मारणान्तिक से स० मरकर जे० जो भ० योग्य च० चौसठ अ० असुरकुमार वास स० लक्ष अ० अन्वंतर [अ० अमुरकुमार वास में अ० असुरकुमार पने उ उत्पन्न होने को ज० जैसे ने० नारकी त० तैसे भा० कहना जा० यावत् थ० स्थनित कुमार || ३ || जी० जीव मं० भगवन् मा० मारणान्तिक स० करके जे० जो भ० योग्य अ० असंख्यात पु० पृथ्वी कायिक वा० वर्ष स० लक्ष अ० अन्यतर पु० पृथ्वीकायिक वा वास में पु० पृथ्वी कायपने उ० उत्पन्न होने को से० अथ मं० भगवन् मं० मेरु प० पर्वत पुढवी ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावास सय सहस्सेसु अण्णयरांस असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उववजित्तए जहा नेरइया तहा भाणियव्वा जाव थणियकुमारा ॥ ३ ॥ जीवे भंते ! मारणंतिय समुग्धाएणं समोहए २ जे भविए असंखजेसु पुढविकाइया वास सयसहस्सेसु अन्नयसि पुढविकाइयावासंसि पुढवि काइयत्ताए उववजित्तए सेणं और शरीर बांधते हैं, ऐसे ही सातवी पृथ्वीतक का जानना || २ || असुरकुमार यावत् स्थानित कुमार में उत्पन्न होकर आहार करने का, रस परिणमाने का व शरीर बांधने का नारकी जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! मारणान्तिक समुद्रात से मरकर जो जीब पृथ्वीकायिक के असंख्यात स्थान में से किसी स्थान में उत्पन्न होने योग्य होता है वह मेरु पर्वत की पूर्व दिशा में कितना दूर जाता है. और किस स्थान प्राप्त
* प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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