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________________ - - - २८८॥ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पण्णत्ता तंजहा अकुसलवइ गिरोहोवा, कुसलवइ उदीरणंवा,वइएव एगत्तीभावकरण से किंतं कायपडिसंलीणया ? कायपाडिसलीणया जंणं सुसमाहिय पसंत साहरिय पाणिपादे, कुम्मोइवगुत्तिदिए अल्लीणे पल्लीणे चिट्ठइ; सेत्तं कायपडिसलीणया ॥ सेत्तं जोगपडिसंलीणया। से किंतं विवित्त सयणाप्तण सेवणया? विवत्तसयणासण सेवणया जंणं आरामेसुवा, उजाणेसुबा, जहा सोमिलुद्देसए जाव सेजासंथारगं उपसंपजित्ताणं विहरइ ॥ सेत्तं विविन सयणासण सेवणया. सेत्तं पडिसं लीगया ॥ सेत्तं बाहिरए तवे ॥ ५ ॥ से किंतं अभितरए तवे ? अभितर तवे संलीनता के तीन भेद कहे हैं. अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा अथवा एकत्व भाव करता. काय प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? जो मुसमाधिवंत, प्रशांत, हस्त पांव का संहरन करने वाला, काछवे की तरह इन्द्रियों को गोपनेवाला, थोडा अथवा प्रकर्ष से लीन रहे वैसा काया प्रतीसंलीनतावाला कहाता है. यह योग प्रतिसलीनता के भेद हुये. विविक्तशयनासन सेवन किसे कहते हैं ? अहो गौतम ! जो अराम, उद्यान अथवा जैसे सोमल का उद्देशा कहा वैसे ही यावत् शैय्या संथारा प्राप्त कर विचरे वह विविक्तायनासन कहता है. यों प्रतिसंलीनता के भेद कहे. यह वाह्यातप हुवा ॥ ७ ॥ आभ्यंतर तप * प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी * भावाथ
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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