________________
-
शब्दार्थ १० स्थण्डिल में प० देखकर ५० पूंजकर प० परठवे ॥४॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ नि० निग्रंथ को गा• गाथापति
पडिलेहित्ता परिमजित्ता परिवियव्वे सिया ॥ ४ ॥ निग्गंथंचणं गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पविटुं केइ तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एर्ग आउसो अप्पणा मुं. जाहि, दो थेराणं दलयाहि, सेय तं पडिगाहेजा थेराय अणुगवेसमाणे सेसं तंचेव जाव
परिट्ठवियब्वे सिया ॥ एवं जाव दसहिं पिंडेहिं उवनिमतेजा, णवरं एगं आउसो
गवेषणा करनी और जहां स्थविर देखने में आवे वहां ही उस विभागवाला आहार दे देना. कदाचित अ भावार्थ
गवेषणा करते हुए स्थविर देखने में आवे नहीं तो वह आहार स्वयं भोगना नहीं वैसे ही अन्य को ना नहीं परंतु एकान्त निर्जन स्थान में जाकर अचित्त फ्रासुक स्थंडिल देखकर व पूंजकर वहां परिठाना.
॥ गृहस्थ के घर आहार लेने के लिये गये हुवे माधु को कोई गृहस्थ विभाग किये हुवे तीन पिण्ड देवे और कहे कि अहो आयुष्मन ! इस.में से एक तुम, भोगना और दो स्थविरों को दे देना. साधु के उस आहार लेकर जहां स्थविर होवे वहां जाना और वह आहार उनको देदेना गवेषणा करते हुए कदाचित् न मीले तो वह आहार साधुको स्वयं भोगना नहीं वैने ही अन्यको देना भी नहीं परंतु एकान्तमें निर्जीव स्थान देखकर परिठाना. ऐसे ही चार पांच यावत् दश पिण्ड विभाग कर देवे जिस में से एक लेनेवाले माध को भोगनेका और नव स्थविरोंको देने का कहे, तो उक्त आहार लेकर जहां स्थविर होवे वहां साधु को जाना व देदेना. गवेषणा
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहा
जी ज्वालाप्रसादजी*