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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ
448 पंचांग विवाह पण्णाने ( भगवती ) मूत्र ++
पिं० भोजन के लिये अ० प्रवेश किया के कोई दो दो पिं० पिंडसे उ० आमंत्रण करे ए० एक आ० आयुष्मन् अ० आप भुंः भोगवना ए० एक थे० स्थविर को द० देना से० वह तं० जन को १० लेकर थे० स्थविर की अ० गवेषणा करनी सि० होवे ज० जहां अ० गवेषणा करते थे स्थावर को [पा० देखें त० तहां अ० देवे नो० नहीं अ० गवेषणा करते पा० देखें तं० उस नो० नहीं अ आप भुं० भोगवे नो० नहीं अ० दूसरे को दा० देना ए० एकान्त अ० निर्जन अ० अचित्त व बहुत कामुक दोहिं पिंडे उबनिमंतेजा, एगं आउसो अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि, सेय तं पडिगाहेज्जा थेराय से अणुगवेसियन्वा सिया जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासेजा तत्थेव अणुप्पदायव्वे, सिया नो चेवणं अणुगवेसमाणे येरे पासेज्जा तं णो अपणा भुंजेजा, नो अण्णसिं दावए एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिले गृहस्थ पिंड के दो विभाग करके आमंत्रे और कहे कि अहो आयुष्मन् ! इन में से एक पिण्ड तुम भोग{बना और दूसरा पिण्ड स्थविरों को देना. इस तरह का आहार ग्रहण किये पीछे साधु को स्थविरों की इस में निर्भरा की अपेक्षा नहीं रहती है, और भी कहा है ' मोक्खत्थं वं दाणं तंपइ एसो विही अनुकम्पादाणं पुण निहिं न कयांवि पंडिसिद्धति ' ॥ १ ॥ मात्र मोक्षार्थ दान के लिये यह अनुकम्पा दोन का प्रतिषेध किसी स्थान जिन भगतने नहीं किया है ॥
समक्खाओ || कही है.
43+4 आठ शतकका छठा उद्देशा +8
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