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________________ हाल ४० 28 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक पिजी अ० अंविरति अ. रहितप.अस्याख्यान पा० पापकर्षको फा. फामुक अ० अफामुक ए.सुद्ध अशुद्ध अ. अशन पा० पान जा. यावत् कि० क्या क० करे ए० एकान्त मे• वह पा० पापकर्म क.. करे न० नहीं है से. उन को का० किंचित् नि० निर्जरा क० करे ॥ ३ ॥ नि० निम्रय गा गाथापतिकुल डिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे फासुएणवा अफासुरणवा एसणिजेणवा अणेसणिज्जेणवा असण पाण जाव किं कजइ ? गोयमा ! गंतसो से पावे कम्मे कजइ, नरिथसे काइ निजरा कज्जइ ॥३॥ निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पावर्ट केइ अविरते, व प्रत्याख्यान से पाप कर्म को नहीं रोकनेवाले को फासुक व अफासुक अशन, पान, खादिम . व स्वादिम देनेवाले श्रावकको क्या फल होवे ? अहो गौतम ! उन को एकान्त पाप कर्म होवे किंचिन्माष निर्जरा नहीं होवे * ॥३॥ गृहस्य के घर आहारादि ग्रहण करने के लिये गये हुए साधु की कोई संयय में स्थिर रहकर तप संयम की वृद्धि करसकते हैं. दाता को तप संयम की वृद्धिके कारनभूत होने से बहुततर निर्जरा होती है और जो जोवघातादि पाप होता है उस से निणरा की अपेक्षा से अल्प पाप कर्म लगता है. प्रथम अशुद्ध आहार देनेवाला अल्प आयुष्य बांधता है ऐसा जो कथन है वह निष्कारण रागादि की अपेक्षा से जाना जाता है तत्व केवली गम्य ॥ * यहांपर तीनों मूत्र में मोक्ष के लिये दियाहुवा दान ग्रहण करना, परंतु अनुकम्पा दान ग्रहण करना नहीं क्योंकि भावार्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाय जी चालामसादनी.
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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