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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
4808 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
कुल को जा० यावत् के० : कोई दो दो प० पात्र से उ० आमंत्रणकरे ए० एक आ० आयुष्मन् अ० तुम प० लेना ए० एक थे० तं० उस को नो० नहीं अ०
स्थविर को द० देना से० वह तं ० आप प० भांगवे नो० नहीं ॐ
उसको प० लेकर त० तैमे जा० यावत् दूसरे को दा० देवे से० वह तं०
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उस को जा० यावत् प० परठवे ए० ऐसे जा० यावत् द० दश प० वस्त्र से ए० ऐसे ज जैसे १० पात्र .
अप्पणा भुंजाहि नव थेराणं दलयाहि सेसं तं चेत्र जाव परिट्ठत्रियव्वे सिया ॥ ५ ॥ निग्गंथं चणं गाहावइ कुलंजाब के दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा एवं आउसो अप्पा पडिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि सेय संपडिगाहेज्जा, तहेव जाव तं नो अपणा परिभुंजेजा, नो अण्णेसिं दावए, सेसं तं चेत्र जाव परिट्ठवियन्वे सिया एवं जात्र दसहिं पडिग्गहेहिं, एवं जहा पडिग्गह वत्तव्वया भणिया, एवं गोच्छगर यहरण, करते हुवे कदाचित् स्थविर न मीले तो व आहार स्वयं भोगना नहीं वैसे ही अन्य को देना नहीं परंतु एकांत में निर्जन स्थान में परठाना ॥ ५॥ गृहस्थ के वहां पात्र निमित्त गये हुवे साधु को कोई दो पात्र की निमंत्रणा करे और कहे कि अहो आयुष्मन् ! इत में से एक मात्र तुम रखना और दूसरा पात्र स्थावर [ को देना फीर उस पात्र को लेकर जहां स्थावर होवे वहां साधु को जाना. गवेषणा करते हुवे कदाचित स्थावर नहीं मीले तो व पात्र स्वतः को रखना नहीं वैसे ही अन्य को देना नहीं परंतु एकान्त में जाकर
40848403 आठवा शतक का छठा उद्देशा