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शब्दार्थ 414. वक्तव्यता भ० कही ए. ऐसे गो• गोच्छक र० रजोहरण चो० चौलपट्टग के. कंबल ल...|
यष्ठि संथारा की ववक्तव्यता भा कहनाजा यावत् द० दश सं.मंथारासे आमंत्रणकरे जाण्या परठवे ॥ ६ ॥ नि. निग्रंथ गा• गाथापति कुलको पिं० पिंड के लिये ५० प्रवेश किया अ० कोई
चोलपट्टग, कंबल, लट्ठी, संथारग वत्तव्वया भाणियव्वा जाव दसहिं संथारएहिं
उवनिमंतेजा, जाव परिदृवियचे सिया ॥ ६ ॥ निग्गंथेणय गाहावइकुलं पिंडवाय है पडियाए पविटेणं अण्णयरे अकिञ्चट्ठाणे पाडसेविए, तस्सणं एवं भवइ इहेव ताव
अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि विउटामि विसोहामि, भावार्थ
परिठान्न. जैसे दो पात्र का कहा वैसे ही तीन चार यावत् दश पात्र का जानना. और जैसे पात्र का
वैसे ही गोच्छक, रजोहरण, चोलपट्टग, कंबल, यष्टि, व संथाराकी वक्तव्यता दश तक कहना ॥३॥ गृहस्थ के वहां आहार लेने का कहा. अब गृहस्थ के वहां दोष लगे उस संबंध में कहते हैं. किसी गृहस्थ के वहां आहारादि के लिये कोई साधु गया और वहां किमी प्रकार का अकृत्य स्थान का सेवन किया. 11 फीर उस गीतार्थ को ऐसा विचार होवे कि इस पापस्थान की यहां ही आलोचना, प्रतिक्रमण, निंदा व
गर्दा करूं, उस से निवर्तुं शुद्ध बनूं, ऐसा कार्य नहीं करने के लिये उद्यमी बनूं और यथोचित प्रायश्चित्त 1 सपकर्म अंगीकार करू. फीर स्थविरों की पास जाकर आलोचना करूंगा यावत् प्रायश्चित्त व तपकर्मा
+3 अनुवादक-बालग्रामवारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.