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________________ शब्दार्थ 48 ܕܕܕ 48-49 पंचांग विवाह पण्णचि ( भवगती ) मूत्र 48+ म. अकृत्य ठा• स्थान प० सेवा हुवा त• उस को ए० ऐपा भ० होवे १० यहां ता० तावत् अ० में । ११. इस डा० स्थान को आ० आलोऊप० प्रतिक्रमणकरूं निनिदाकरूं ग. गर्दाकरूं वि. छेदं । विशुद्धक नहीं करने को अ० उपस्थितहोऊं अ० यथा योग्य पा० प्रायश्चित्त त तपकर्म प. अंगी अकरणयाए अब्भुट्ठमि अहारिहं पायच्छित्तं तवाकम्मं पडिवजामि, तओ पच्छा है थेराणं अंतियं आलोएस्सानि जाव तवोकम्म पडिवजिस्सामि सेय संपट्टिए असंपत्ते थेराय पुवामेव अमुहा सिया सणं भंते ! किं आराहए विराहए ? गोयमा ! आ राहए नो विराहए ॥ सेय संपढ़िए असंपत्ते अप्पणाय पुवामेव अमुहे सिया सेणं भंते ! अंगीकार करूंगा ऐमा विचार करकं स्थविर की पाम आलोचना करने को नीकले परंतु स्थविर मीले नहीं या वातादि रोग से मूञ्छित होने से बोल सके नहीं इस कारन से आलोचना करने का परिणाम होने पर भी वह आलोचना कर सके नहीं तो क्या भगवन् ! उस आराधिक कहना या विराधिक कहना? अहो गौतम ! उसे आराधिक कहना परंतु विराधिक कहना नहीं. दोष युक्त माधु पहिले दोष के स्थान po स्वयमेव आलोचनादि करके फोर स्थविर की पास आलोचना करने के लिये निकला परंतु स्थविर मीले नहीं और स्वयं वातादि रोग से मूञ्छित बनकर बोलने में असमर्थ होवे और आलोचनादि करने का परिणाम होने पर भी आलोचना कर सके नहीं तो क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो । आठवा शतक का का उद्देशा 9882 1
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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