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शब्दार्थ
१०० अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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सि सिझे यावत् अं० अंतकरे से. वह के० कैसे भ० भगवन ए ऐसे यु. कहा जाता है पूर्ववत् । ॥ ४४ ॥ जी० जीव भ० भगवन् अ० असंयति अ० अविरति अ० अप्रतिहत ५० प्रत्याख्यान पा०
अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्म पगडीओ धणिय बंधण बढाओ सिढिल बंधण बढाओ पकरेइ, दीहकालद्वितीयाओ हस्सकालद्वितीयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावा
ओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपदेसगाओ अप्पपदेसगाओ पकरेइ, आउयंचणं कम्मं न बंधइ, असायावेयणिज्जं चणं कम्मंणो भुजो भजो उवचिणइ. अणादीयंचणं अणवदग्गं दीहमदं चाउरंत संसार कतारं वीईवयइ. से तेणष्ट्रेणं गोयमा ! एवं संवुडे
अणगारे सिज्झइ जाव अंतकरेइ ॥ ४४ ॥ जीवेणं भंतेअसंजए, अविरए, अप्पडिहय करे ? अहो गोतम ! संवृत्त अणगार आयुष्य छोडकर अन्य सात कर्म की प्रकृतियों का निकाचित बंधन किया होवे नो उन को शिथिलकरे, दीर्घ काल की स्थिति वाले कर्मों को इस काल की स्थिति वाले बनावे तीव्र रसवाले कर्मों को अल्प रसवाले बनावे, बहुत प्रदेशात्मक कर्मों को अल्प प्रदेशात्मक बनावे, आयुष्य कर्म का बंध करे नहीं, असाता वेदनीय कर्म को वारंवार संचित करे नहीं व अनादि अनंत संसार में में परिभ्रमण करे नहीं; इसलिये अहो गौतम ! संवृत अणगार सिझे यावत् दुःखों का अंतकरे ॥ ४४ ॥ अहो भगवन् ! असंयति, अविरति, व प्रत्याख्यान से पापकर्म नहीं तोडने वाला यहां से चवकर परलोक
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालामतादजो *
भावार्थ