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आ० आत्मारंभी जा. यावत् णो नहीं अ० अनारंभी से वह के० कीसतरह भं० भवगन् ए. बु. कहा जाता है गो. गौतम अ० अविरति प० प्रसयिक से वह ते• इसलिये जा. यावत् णो नहीं है। अ० अनारंभी एक ऐसे जा. यावत् पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच म० मनुष्य ज. जैसे जी० जीव ण. विशेष सि. सिद्ध बि• रहित भा० कहना वा० वाणव्यंतर जाल्यावतू वे० वैमानिक ज० जैसे थे नारकी॥३९॥
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4843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भवगती) सूत्र
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रंभावि जाव णो अणारंभा ॥ से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! आविरतिं पडुच्च. से तेण?णं जाव णो अणारंभा ॥ एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया ॥ मणुस्सा
जहा जीवा णवरं सिद्धविरहिता भाणेयव्वा ॥ वाणमंतरा जाव वेमाणिया जहा नेरइया उभयारंभी हैं परंतु अनारंभी नहीं हैं. अहो भगवन् ! वह कैमे ? नारकी आत्मारंभी हैं यावत् अनारंभी नहीं हैं. अहो गौतम नारकी के जीव अविरति होने से आत्मारंभी हैं यावत् अनारंभी नहीं हैं. जैसे नारकी का कहा वैसेही दश भुवनपति, पांच स्थावर व तीन विकलेन्द्रिय व तियेच पंचेन्द्रियतक जानना. और मनुष्य को सिद्ध भगवान छोडकर जैसे जीवको संयति, असंयति, प्रमत्त अप्रमत्त ऐसे चार भांगे कहें वैसे ही यहां भांगा अनुसार आत्मारंभी परारंभी, उभयारंभी व अनारंभी के भेद जानना. और जैसे नारकी को कहा। वैसे ही वाणन्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का जानना. ॥ ३९ ॥ अविरति व सलेशी की साधर्म्यतासे आगे
पहिला शतक का पहिला उद्देशा
वार्थ
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