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भावार्थ
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६
पविट्ठस्स अणते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पष्टिप्पुण्णे केवलवर नाण दसणे समुप्पजइ ॥ सेणं भंते ! केवलि पण्णत्तं धम्मं आघवेज वा पन्नवेजवा, परूवे.
ज्जवा ? णो इण? समटे, नणत्थ एगणाएणवा, एगवागरणेणवा ॥ सेणं भंते ! पव्वा. , वेजवा, मुंडावेजवा,? णो इणट्रे समटे, उवदेसं पुण करेजा ॥ सेणं भंते! किं सिज्झइ
जाव अंतकरेइ ? हंता सिज्झइ जाव अंतंकरेइ ॥ सेणं भंते ! किं उड्ढे होज्जा, अहे
होजा, तिरियं होजा ? गोयमा ! उ वा होज्जा, अहेवा होज्जा, तिरियंवा होजा, उड्ढे नहीं हुआ ऐमा अध्यवसाय विशष में प्रवेश करे. अनंत विषय वाला, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, संपूर्ण, अखंडित व (ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय का क्षय होने से ) प्रधान केवल ज्ञान, केवल दर्शन वह प्राप्त करे. फोर क्या वह केवलि प्ररूपित धर्म को शिष्य को सन्मुख ग्रहण करने केलिये क्या प्रकाशे, प्ररूपे, कहे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. अर्थात् प्रकाशे, प्ररूपे व कहे भी नहीं. मात्र एक दृष्टांत तथाविध आचारपना के एक प्रश्नोत्तर सिवाय कुछ नहीं बोल सकते हैं. अहो भगवन्!रजोहरादि द्रव्य लिंग
रखकर क्या दीक्षा देवे, शिर लोचनादि कर के मुंडित करे ? अहो गोतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है. " अर्थात् किसी को दीक्षा देवे नहीं व मुण्डित करे नहीं. मात्र इतना उपदेश करे कि अमुक की पास जाकर
दीक्षा ले लो. अहो भगवन् ! क्या वह सीझे, बुझ यावत् सब दुःखों का अंत करे? अहो गौतम ! वे सी
प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *