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42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
णेरइए जाव वेमाणिए णो पढमे अपढमे ॥ ७ ॥ सिद्धे पढमे णो अपढमे ॥ ८ ॥ अणाहारगाणं भंते ! जावा अणाहारगा पुच्छा, गोयमा ! पढमावि अपढमावि, गेरइया जाव वेमाणिया णो पढना अपढमा सिद्धा पढमा णो अपढमा !! ९ ॥ एकेके पुच्छा भाणियब्वा, भवसिद्धिए एगत्तपुहत्तेणं जहा आहारए, एवं अभवसिद्धिएवि ॥ १०॥ गो भवसिद्धिय णो अभवसिडियएणं भंते ! जीवे णो भव. पुच्छा ? गोयमा ! पढमे जो अपढमे ॥ ११ ॥ णो भवसिद्धिणोअभवसिद्धिएणं भंते ! सिदे णो भव एवं पुहत्तेणवि दोण्हवि ॥ १२ ॥ सप्णीणं भंते ! जीवे सण्णिकितनेक जीवों अनादि से ही अनाहारक होते आये हैं, नारकी यावत् वैमानिक के प्रथम नहीं है परंतु अप्रथम हैं, सिद्ध प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं ॥ ७-८ ॥ अव बहुत जीव आश्री कहते हैं. अहो भगवन् ! अनाहारक जीवों अनाहारकभा से क्या प्रथम हैं या अप्रथम हैं?अहो गौतम! प्रथम भी हैं और अभयम भी हे नारी यावत् वैमानिक प्रथम नहीं है पतु अप्रथम है, सिद्ध प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं ॥ ९ ॥ भवन सिद्धक व अभवासीद्धक को एकत्र अनेकत्व का आहारक जैसे कहना ॥१०॥ नोभवसिद्धिक नो अमासिद्धिक प्रथम हैं परंतु अप्रथम नहीं हैं. ॥११॥ ऐसे ही जो भवसिद्धिक नो अभवसिदिक सिद्धका है।
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी
भावार्थ
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