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शब्दाथे
१० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
रा. राजगृह न० नगर में जा० यावत् एक ऐसा व० बोले क. कितने प्रकार के सं० संसारी जी० जीव गो० गौतम छ० छप्रकार के सं० संसारी जी. जीव पु० पृथ्वी काया ज• जैसे जी० जीवाभिगम
रायागहे नयरे जाव एवं वयासी-कतिविहाणं भंते ! संसार समावण्णगा जीवा । पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा संसार समावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तंजहा पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव समत्त किरियंवा मिच्छत्त किरियंवा जीवा छव्विहा । तृतीय उद्देशे में संसारी जीव का शाश्वतपना आदि का स्वरूप कहा. अब चतुर्थ उद्देशे में उस का ही भेद से स्वरूप कहते हैं. राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी पधारे परिषदा वैदने को आइ व धर्मोपदेश सुनकर पीछी गइ. उस समय में श्री गौतम स्वामीने वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! संसार समापन्न जीव कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! संसारी जीव छ प्रकार के कहे हैं. १ पृथ्वी, २ पानी, ३ आमि, ४ वायु, ५ वनस्पति व ६ त्रस. इन का विशेष वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानना. और भी जीव के छ भेद कहे हैं. उस में से पृथ्वीकाय के छ भेद १ सण्हा, २ शुद्धा, ३ बालुका, ४ मनःशिला, ५ शर्करा, ६ खर. इन.की भव स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष. कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट असंख्यात काल. निलेपन
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *