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शब्दार्थ
में जा० यावत् स. सम्यक्त्वक्रिया मि० मिथ्यात्वक्रिया जी० जीव छ० छप्रकार के पु० पृथ्वी जी जीवन ठि• स्थिति भ० भव स्थिति का० काय नि० निर्लेपन अ० अनगार किं० क्रिया ॥ ७ ॥ ४ ॥ *
पुढवी जीवाणठिई, भवदिई, काए निल्लेवण, अणगारे किरिया, समत्तमिच्छत्ते सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तम सए चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ७ ॥४॥ *
*38* पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती)
98028सातवा शतक का चौथा उद्दशा
किंचित् पृथ्वी काया जीवों में से एक २ जीव नीकालते असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी व्यतीत होजावे.
। पृथ्वीकाय का अधिकार कहा. वैसा ही षडूजीवानिकाय यावत् चौवीस ही दंडक का जानना. ऐसे ही अविशुद्धलेशी अनगार वैकेय करके अविशुद्धलेशी देव देवी को व अविशुद्धलेशी अनगार को क्या जाने देखे ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. और भी अहो भगवन् ! एक जीव को एक समय म सम्यक्त्व व मिथ्यात्व ऐसी दोनों प्रकार की क्रिया लगती है ऐसा जो अन्यतीर्थिक कहते हैं वह किस तरह है ? अहो गौतम ! उन का ऐसा कथन मिथ्या है. परंतु मैं ऐसा कहता हूं याव प्ररूपता हूं कि एक समय में जीव सम्यक्स्व अथवा मिथ्यास्त्र ऐसी एक ही प्रकार की क्रिया को स्पर्शता है. इस का विस्तार पूर्वक कथन जीवाभिगम सूत्र से जानना. अहो भगवन् ! आपके बचन तथ्य यह सातवा शतक का चौथा उद्देशा समाप्त हुवा ॥ ७॥ ४ ॥
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