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शब्दार्थ
श्री अमोलक ऋपिजी 43 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि
जहां म० श्रमण भ० भगवत म. महावीर ते० तहां जा० यावत् प० पूजते ९० ऐसा व० बोले ॥१॥
एवमाइक्खइ ४ । एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिंदे असुररायामाहड्डीए सोचेव सत्वं जाव अग्गमाहसीओ। सच्चेणं एसमटे, अहंपिणंगोयमा! एव माइक्खामि भासामि पण्णवेमि परूवेमि एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे अमुरराया माहट्ठीए सो चेव बितिओ गमो भाणियब्वो ! जाव अग्गमहिसीओ सच्चेणमेसअटे, सेवं भंते भंते! त्ति तच्चे गोयमे वायुभई अणगारे समणं भगवं वंदइ वंदइत्ता जेणेव दोच्चे गोयमे आग्गभृती अणगारे तेणेव, उवामन्छइ उवागच्छइत्ता दोच्चं गोयमं आग्गिभूइं अणगारं
वंदइ नमसइ नमसइत्ता, एयमलृ सम्मं विणएणं भुजा भुजो खामेइ ॥ ९ ॥ तएणं अग्रमाहषियों नक का सब अधिकार ऐसा है. अहो गौतम ! यह अर्थ सत्य है. और मैं भी ऐसा ही कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं. और यह अर्थ भी सत्य है. अहो भगवन ! आपका वचन सत्य है ऐसा कहकर वायुभूति अनगार भगवन्त श्री महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर अग्निभूति नामक दूसरे गणधर की पास आये आकर दूसरे गणधर श्री अग्निभूति को वंदना नमस्कार कर कहने लगे कि मैंने आप के वचन मुनकर श्रद्धे नहीं यावत् आप के वचन की प्रतीति की नहीं इसलिये मैं: आपकी पुनः पुनः क्षमा याचता हूँ॥९॥ फीर अग्निभूति अनगार की साथ वायुभूति अनगार श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी
*काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ