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___ शब्दार्थ
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अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी!
पाषध सहित जा. यावत् वि० विचरने को तं० इस मे छ० इच्छानुसार दे० देवानुप्रिय तु. तुम वि०* बहुत अ० अन्न आ० अस्वादते जा. यावत् वि.विदरो ॥१॥ त• तब से वह पो० पुष्कलीस श्रमणों से पासक सं० शंख स० श्रमणोपासक की अं० पास से पी० पौषध शाला में से प० नीकल कर सा० श्रावस्ती ण नगरी की-म० बीच जे. जहां ते० व स. श्रमणोपासक ते. वहां उ. आकर उन स० श्रमणोपासकों को ए. ऐ व० वोला दे० देवानुप्रिय सं० शंख स. श्रमणोपासक पो. पौपध शाला में पो० पौषध सहित जा. यावत् - वि० विचरता है ते. इसलिये छ० इच्छानुसार
विहरित्तए। कप्पइ मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए,तं छंदणं देवाणुप्पिया! तुब्भे विउलं असणं ४ आस्सादेमाणा जाब विहरह ॥ १७ ॥ तएणं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासगस्स अंतियाआ पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता सावत्थि णयरिं मझं मझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता,
ते समणांवासए एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए अशनादिक का आस्वादन करते हुवे विचरो ।। १७ ॥ फीर वह पोखली श्रावक शंख श्रावकी पास से
पौषधशाला में से नीकलकर श्रावस्ती नगरी की बीच में होकर उन श्रमणोपासकों की पास आया और बोला कि अहो देवानुप्रिय ! शंख श्रपणोपासक पौषधशाला में पौषध करते हुवे विचरते हैं इस से तुम .
*प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ