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शब्दार्थ किया सं० शख स० श्राणोपासक को बं० वंदना कर ण नमस्कार कर एक ऐसा व० बोला पूर्ववत् : |
॥ १६ ॥ त० तब से वह सं० शंख सः श्रमणोपासक पु. पुष्कली म० श्रमणोपासक को ए. ऐसा व Vबोला णो० नहीं क० कल्पता है मे० मुझे दे० देवानुप्रिय तं• उस वि० बहुत अ० अशन ४ आ० आस्वादते जा. यावत् प० पालते १० विवरने को क० कल्पता है मे मुझे पो. पौषध शाला में पो०१...
उवागच्छइ २ त्ता, गमणागमणाए पडिक्कमइ २ त्ता, संखं समणोवासगं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे उवक्खडाविते तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं जाव साइमं आस्सादेमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो ॥ १६॥ तएणं से संखे समणोवासए पोस्खलिं समणोवासगं एवं वयासी णो खलु कप्षइ मे देवाणुप्पिया ।
तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आस्साएमाणस जाव पडिजागरमाणस्स भावार्थ कर ऐसा बोलने लगा कि अहो देवानप्रिय ! हमने विपुल अशनादि बनाया है, इस से तुम वहां चलो और है
अपन सब उस का आस्वादन यावत् पौषध की जागरणा जागते हुवे विचरेंगे ॥ १६ ॥ शंख श्रमणोपासक ऐसा बोला कि अहो देवानुप्रिय ! मुझे अशनादि भोगवकर यावत् पौषध करते हुवे विचरना नहीं कल्पता है। परंतु पौषधशाला में यावत् पौषध करके विचरना मुझे कल्पता है, इस से अहो देवानुप्रिय ! तुम सुखपूर्वक है ।
48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 498
.बारहवा शतकका पहिला उद्देशा
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