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शब्दाथ
सूत्र
भावार्थ
402 अनुवादक ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी
जा० यावत् से० वह क० कैसे भं० भगवन् ए० ऐसे गो० गौतम ज० जो ते० वे अ० अन्यतीर्थिक तं० वैसे ही जा० यावत् प० परभव का आ० आयुष्य जे० जो ते० वे ए० ऐसा आ० कहते हैं तं० वह मि० मिथ्या अ पु० फीर गो० गौतम ए० ऐसा आ० कहता हूं जा० यावत् अ० परस्पर घ० बनाने को याई जाव चिट्ठेति ॥ एगे वियणं जीवे एंगणं समएणं एवं आउयं परिसंवेदेइ तं जहा इह भवियाउयंत्रा, परभवियाउयंत्रा जं समयं इह भवियाउयं पडिसंवेदेइ नो तं समयं परभवियाउयं पडिसेवदेइ, जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदइ, इह भवियाउस्स पडिसंवेदणयाए णो परभवियाउयस्स पडिसंवेदणा, परभावयाउयस्स पडिसंवेदणयाए णो इहभवियाउयस्स पाडसंवेदना एवं जो कथन करते हैं वह सब मिथ्या है, परंतु मैं ऐसा कहता हूँ कि ग्रन्थिजाल समान बहुत देवादिक जन्म में एक जीव के बहुत हजार आयुष्य अनुक्रम से गुन्थाये हुवे रहते हैं और एक जीव एक समय में {इस भत्र संबंधी अथवा परभव संबंधी ऐसा एक ही आयुष्य वेद सकता है. अर्थात् जिस समय में इस भव संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में परभव संबंधी आयुष्य नहीं वेदता है और जिस समय में परभव {संबंधी आयुष्य वेदता है उस समय में इस भत्र संबंधी आयुष्य नहीं वेदता है. क्योंकि इस भाव के आयुप्य की वेदना होते परभव के आयुष्य की वेदना नहीं होती है, और परभव के
आयुष्य की वेदना के
* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी आलाप्रसादजी
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