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वित्थडेषु असुर कुमारावासेषु एगसमएणं केवइया असुरकुमारा उववज्जति केवइयो तेउलेस्सा उववज्जांत, केवइया कण्हक्खिया उववज्जंति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, णवरं दोहिं वेदेहिं उववज्जंति, णपुंसग वेदगा ण उववजंति, सेसं तंचेत्र ॥ उब्वहंतगावि तहेव, णवरं असण्णी उव्वहंति, ओहिणाणी ओहिदंस णीय ण उव्वहंति, सेसं तंत्र पण्णत्तासु तदेव णवरं संखेजगा इत्थी वेदगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेदगावि, णपुंसगवेदगा णत्थि कोह कसायी सिय अत्थि सिय भावार्थ योजन के विस्तार वाल हैं और असंख्यात योजन के विस्तार वाले भी हैं ॥ ३ ॥ अहो भगवन्! असुर{ कुमार के चौमठ लाख आवास में से संख्यात योजन वाले आवास में एक समय में कितने असुरकुमार देव ( उत्पन्न होते हैं, कितने तेजो लेश्णवाले उत्पन्न होते हैं कितने कृष्णपक्षिक उत्पन्न होते हैं ? वगैरह ३९६ (प्रश्नो जो रत्नप्रभा आश्री पूछे हैं वे यहांपर भी जानना. उस का उत्तर भी वैसे ही जानना परंतु वि शेषता इसी कि इस में दो वेद उत्पन्न होते है नपुंसक नहीं उत्पन्न होते हैं. उद्वर्तन प्रश्न में भी वैसे ही कहना परंतु अज्ञी उदते हैं अवधिज्ञानी व अवधि दर्शनी नहीं उद्वर्तते हैं. भी वैसे ही कहना परंतु इस में संख्यात स्त्री वंदी कहे, ऐसे पुरुष
तीसरा गमा विद्यमानता का वेदी. नपुंसक वेदी नहीं. क्रोष कषाय
क्वचित् हैं और क्वचित नहीं भी हैं जब हैं तब जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट सख्यात कहे हैं ऐसे
सूत्र
4०३ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेवसहाबजी ज्वालाप्रसादजी
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