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* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋर्षिजी -
*अ० आज्ञा मिलते स. स्वतः पं० पांच महावत आ० आराधकर स० साधु स० साधियों को खा.
क्षपाकर अ• हमारी स० साथ वि० बडा ५० पर्वत को नि. निरविशेष जा०. यावत् आ० अनुक्रम से का० काल को प्राप्त हुवे इ० यह आ० आचार भ० भंडोपकरण ॥ ३५ ॥ ५० भगवान गो० गौतम ।
श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर को 40 वंदनाकर न. नमस्कार कर व. बोले दे० दे का अं० अंतेवासी ख० खंदक अ अनगार का काल के अवसर में का काल कर के क. कहां ग०
अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महत्वयाणि आराहेत्ता समणाय समणीओय खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं तंव निरवसेसं जाव आणुपुव्वीए कालगए। इमेयसे आयारभंडए ॥ ३५ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी
खंदएणामं, अणगारे कालमासे कालंकिच्चा कहिं गए कहिं उववण्णे ? गोयमादि, पतला करनेवाले, मृदुता को धारन करनेवाले, अलीन, भद्रिक व विनीत खंदक अनगार आपकी आज्ञा ।
मीलने से पांच महाव्रत की आराधना कर और साधु साध्वी को खमाकर हमारी साथ पर्वत पर आये थे. | वहां मलेखनादि करके काल को प्राप्त हवे हैं. अहो भगवन ! इनके यह भंडोपकरण हैं ॥ ३५ ॥
उप्त समय में श्री गौतम स्वामी श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी.को वंदना नमस्कार करके वोले कि अहो
प्रकाशक-राजावहादुरसाला-मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
भावार्थ