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शब्दार्थ (का० कायोत्सर्ग क० करे १० पात्र वी० उपकरन गि० ग्रहण करे वि० बडे प० पर्वत से सः शनैः २ १५० उतरकर जे० जहां स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर ते० तहां उ० आकर सः श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर को बं० वंदना कर न० नमस्कार कर व बोले दे० देवानुप्रिय का अं अंतेवासी (खं० खंदक अ० अनगार प० प्रकृति मद्रक प० प्रकृति उ० उपशांत प० पतला को० क्रोध मामान मा० माया लो० लोभ मि० मृदु म० मार्दव सं० युक्त अ० अलीन. भ० भद्रक वि० विनीत से० वह दे देवानुप्रिय से सग्गं करेइ, पत्तचीवराणि गिण्हंति, विपुलाओ पन्चयाओ सणियं २ पश्चोरुहंति पच्चोरुहइत्ता जेणेवसमणे भगवं महावीरें तेणेव उवागच्छ उवागच्छन्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदिता नमसित्ता एवं बयासी एवं खलुदेवाप्पियाणं अंतेवासी खंदए णामं अणगारे पगइभदए पगइ उवसंते पगइ पयणु कोहमाण माया लोभे, मिउ मद्दव संपण्णे, अल्लीणे, भद्दए, विणीए सेणं देवानुप्पिएर्ह ॥ ३४ ॥ उस समय में उन की पास रहे हुवे स्थविर भगवन्त खंदक अनगार को कालं प्राप्त हुए जानकर निर्वाण संबंध कायोत्सर्ग करके व खंदक अनगार के पात्र वस्त्रादि लेकर उस पर्वत से उतरे. उतरकर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की पास आये और भगवन्त को वंदना नमस्कार करके ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! आपका अंतेवासी भद्रिक प्रकृतिवाले, उपशान्त प्रकृतिवाले, स्वभाव से क्रोधादि को १ साधु निर्वाण हुवे पीछे कायोत्सर्ग करना सो
सूत्र
भावार्थ
+6 पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती सूत्र
434 दूसरा शतंकका पहिला उद्देशा +4
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