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शब्दार्थे 4 आवे वि विनाश आ० पावे व० वर्ण व वध्य क० कर्म ब० बांधे हुवे पु. स्त” हुवे णि निकाचित *
बांधे क. कीये ५० स्थापे अ० तीव्र स्थापे अ० सन्मुख आये उ० उदय आये णो नहीं उ. उपशांत हुवे दु० कुरूप दु० खराववर्ण वाला दु० दर्गंधी दु० खराबर स वाला दु० खराब स्पर्श वाला अ० अनिष्ट अ० अकान्त अ० अप्रिय अ० अशुभ अ० अमनोज्ञ अ० अमनाम ही० होनस्वर वाला दी० दीनस्वर
च्छइ, विणिहाय मावजइ, वण्णवज्झाणिय से कम्माई बढाई, पुट्ठाई, णिहित्ताई, कडाइं. पट्टवियाई, आभिनिविट्ठाई, आभिसमण्णगयाइं उदिण्णाई, णोउवसंताई भवति, तओ भवइ, दुरूवे, दुवण्णे, दुग्गंधे, दुरसे, दुफासे, आणिढे, अकंते, अप्पिए, असुभे,
अमणुण्णे, अमणामे, हीणरसरे, दीणरसरे आणि?स्सरे, अकंतरसरे आप्पयस्सरे,असुभस्सरे, भावार्थ प्राप्त होता है तब कितनेक जीव मस्तक से नीकलते हैं, और कितनेक पांव से नीकलते हैं, अथवा माता व
जीव दोनों की घात न होवे वैसे नीकलते हैं, और अशुभ कर्मोदय से कदाचित तिर्छा होजाता है तो नीकलन वनकालने के अभाव से मत्य को प्राप्त होजाता. अब गर्मनीकले बाद जो होता है सो कहते हैं। जिनोंने पूर्व भव में पापाचरण व अयोग्य कर्तव्य से निकाचित कर्मों का बंध किया है वैसेही जिन को मनुष्य
तिर्यंचादि गति, पंचेंद्रियादि जाति, सादि नामकर्म से व्यवस्थापित किये, तीन अनुभाव से स्थापित किये, 17 उदय सन्मुख हुवे, स्वतः की उदीरना से उदय में आये और उपशान्त न हुवे, उन को अशुभ वर्ण, गंध,
अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *