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१५० प्रकाश मान वि. विचर कर इ० इस ओ० अवसर्पिणी में च. चौवास ति तीर्थंकरों में च. चरिमई इति तीर्थकर सि० सिद्ध जा. यावत् स. सब दुःख प० रहित इ० ऋाद्ध स० समुदाय से म. मेगई स. शरीर का णी नीहारन क० करना ॥ १३३ ॥ त० तव ते वे आ० आजीविक थे० स्थविर गो०१ गोशाला में मंखली. पुत्र का ए. यह अर्थ वि.विनय से प० सुना ॥१३॥त. तब तक उस गो०१ गोशाला म०मखली पुत्र को ससात रात्रि १०परिणमते ५०प्राप्त होते स०सम्यक्त्व अ०यह एक ऐसा अ०१ अध्यवसाय जा० यावत् स० उत्पन्न हुवा णो० नहीं अ० मैं जि जिन जि- जिन प्रलापी जा० यावत् } 26
गोसाले मंखलिपुत्चे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासमाणे विहरिता इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं चरिमे तित्थगरे सिद्धे जाच सव्वदुक्खप्पहीणे ॥ इड्डी सक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्स णीहरणं करेह ॥ १३३ ॥ तएणं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमटुं विणएणं पडिसुणेति ॥१३॥
तएणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तसि परिणममाणंसि पडिलड सम्म भावार्थ
यावत् महापर में बडे २ शब्दों से ऐसा बोलना कि अहो देवानुप्रिय ! मंखली पुत्र गोशाला जिन जिन । प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हवे विचर कर इस अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों में चरिम तीर्थकर सिद्ध बुद्ध यावत् सब दुःख के अंतकर्ता हुए. और ऋद्धि सत्कार समुदाय से मेरा शरीर का
निहारन करना ॥ १३३ ॥ आजीविक स्थविरोंने मंखलीपुत्र गोशाला की इस बात विनय पूर्व 17 अंगीकार की ॥ १३४ ॥ अब मंखलीपुत्र गोशाला को सात रात्रिपरिणमते हुए सम्यक्त्व की प्राप्ति हुए ।
विवाहपण्णत्ति ( भगवती) मूत्र
4848848 पनरहवा. शतक
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