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शब्दार्थ
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<१.9 अनुवादकबालब्रह्मचारी मुनि श्री अम लक ऋषिजी
जि. जिन शब्द ५० प्रकाश करता वि. विचरता हूं अ० मैं गो. गोशाला मेखली पुत्र स: श्रमण घातक स० श्रमण को मारने वाला स. श्रमण का प. प्रत्यनीक आ० आचार्य उ० उपाध्याय को अ० अपयश का करने वाला अ. अवर्ण करने वाला अ० अकीर्ति करने वाला व. बहुत अमद्भाव मि० मिथ्यात्व के अ० अभिनिवेश से अ० आत्मा को ५० अन्य कोत. दोनों को वु. व्युदग्राह्यमान कु. व्युत्पाद्यमान वि. विचरने को स० स्वतःके ते तेज से अ० पराभव अं० अंदर स० सात रात्रि में पि०
त्तरस अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था णो खलु अह जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ,अहं गोसाले मंखलिपुत्ते समणघायए समण मारए समण पडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए, बहूहि असब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिय अप्पाणंवा परंवा तदुभयंवा बुग्गाहेमाणे वुप्पा
एसमाणे विहरित्ता, सएणं तेएणं अणाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयऔर ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुवा कि मैं जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द का प्रलाप करके विचरनेवाला नहीं हूं. मैं मखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला, श्रमण को मारनेवाला, श्रमण का शत्रु, आचार्य उपाध्यायका अपयश करनेवाला, अवर्णवाद करनेवाला व अकीर्ति करनेवाला हूं, और बहुत असद्भाव मिथ्यात्वाभिनिवेश से स्वतः को, अन्य को, व उभय को व्यग्राहमान व व्युत्पाद्यमान
* प्रकाशक राजावहदुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालामसादनी *
भावार्थ