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अनुवादक-घालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि
शाणी-अभिणि वोहिय गाणी, सुअणाणी, आहिणाणीय, जहा सम्मट्टिी ॥ मणपजव णाणीणं भंते ! किं पुच्छा ? गोयमा ! णो णरइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्ख जोणिया, जो मणुस्सायुयं, परेंति देवाउयं पकरेंति। जईदेवायुयं परति किं भवणवासी पुच्छा ? गोयमा ! यो भवणवासि देवाउयं परेंति, णो वाणमंतर, णो जोइसिय वैमाणिय देवाउयं परति ॥ केवलगाणी जहा अलेस्सा ॥ अण्णाणी जाव विभंगणाणी जहा कण्हपक्खिया ॥ सण्णासु च उसुवि जहा सलेस्सा, णो
सण्णांवउत्ता जहा मणपजवणाणी ॥ सवेदगा जाव णपुंसग वेदगा जहा सलेस्सा, नारकी का अयुष्य करे गैरह अलेशी जैसे कहना. ऐसे ही विनय वादा का कहना. सज्ञानी, आभिनिवो धिक ज्ञानी, श्रत ज्ञानी व अवधि ज्ञानी का समष्ट्र जैसे कहना. मनः पर्यव ज्ञानी की पृच्छा ? अहो गौतम ! नारकी नियंच व मनुष्य का आयुष्य को नही. परंतु देवता का आयुष्य करे, यदि देवता का आयुष्य करे तो क्या भवनपनि का करे पृच्छा हो गौतम भवनपति, वाणव्यंतर व ज्योतिषी का आयुष्यकरे नहीं परंतु वैमानिक देवका आयुष्य करे. केवलज्ञानी का अलेशी जैसे कहना. अज्ञानी यावत् विभंग ज्ञानी कृष्णप्रक्षिक जैसे कहना. चारसंज्ञाका सलेशा जैसे कहना.नो सञोपयुक्तका मनःपर्यवज्ञानी जैसे, सरदक यात्
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी पालाप्रपादनी
भावार्थ