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शब्दार्थकहना जा. यावत् वे० वैमानिक ॥ २॥ कि किस सं० संस्थान से मैं भगवन् लो. लोके ५० प्ररूपा : 19गो गौतम मु० मुप्रतिष्ठक सं० संस्थित लो० लोक हे अधो वि०विस्तीर्ण जायावत् उ० उपर उ० ऊर्ध्व
मु० मृदंगाकार सं० संस्थित तं० उस सा० शाश्वत लो० लोक में हे० नीचे वि. विस्तीर्ण जा. यावत उ० उपर उ० ऊर्ध्व मु० मृदंगाकार सं० संस्थान उ० उत्पन्न ना• ज्ञान दं० दर्शनधरणहार अ० अर्हन् जि. जिन के० केवली जी० जीव जा० जाने पा० देखे त० पीछे सि० मीझे जा० यावत् अं०
सव्वप्पाहारए भवइ, दंडओ भाणियन्वो जाव वैमाणियाणं ॥ २ ॥ किं संठिएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए हेट्ठा विच्छिण्णे जाव उप्पि उड्डमुइंगागारसंठिए, तंसि चणं सास्यसि लोगसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्ड मुइंगाकार संठियंसि उप्पण्ण नाण दंसण धरे अरहा जिणे केवली जीवेवि
जाणइ पासइ, तओ पच्छा सिझइ जाव अंतं करेइ ॥ ३ ॥ समणोकासगस्सणं भावार्थ चौविस दंडक का जानना, ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! कैसा संस्थान ( आकार ) वाला
लोक कहा ? अहो गौतम ! शरावले के आकाग्वाला लोक कहा है. नीचे विशाल, मध्य में संकुचित । व उपर विशाल ऊर्धमृदंग के आकारवाला लोक कहा है. ऐसा लोकमें केवलज्ञान केवल दर्शन के धारक आरिहंत जिन केवलौ जीवों को जानते हैं व देखते हैं और पीछे सीझते हैं, वुझते हैं यावत् .
१० अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी घालाप्रसादनी *