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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
4- पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ते ( भगवती ) सत्र 400
अ० नजदीक ए. तहां म० महातपोपतीरमभव पाझरण प० प्ररूपा पं० पांच सो धनुष्य आ० लंबा वि० चौडा ना० नाना प्रकार दु० वृक्षवन खंड से मं० मंडित दे प्रदेश स० शोभायमान पा०प्रसन्न चित्त करने वाला द० देखने योग्य अ० अभिरूप प० प्रतिरूप त० तहां ब० बहुत उ० ऊष्ण जो० योनिवाले जी० जीव पो० पुद्गल उ० पानीपने व० उत्पन्न होते हैं वि • त्रिणसते हैं च० चत्रते हैं ॐ पुष्ट होते हैं त० भरा
यरस बहिया बेभारपव्ययस्स अदूरसामंते एत्थणं महातको वतीरप्पभवे न मं पासवणे पण्णत्ते पंच धणुसयाई आयाम विक्खंभेणं नाणा दुमखंड मंडिउद्देसे, सस्सिरिए पासादीए दरिसणिज्जे, अभिरूवे पडिरूवे । तत्थणं बहवे उसिणजोणिया जीवाय पोग्गलाय उद्गत्ताए वक्कमंति विउक्कमति, चयंति उवचयति । तव्वतिरित्तवियणं सयासमियं उसिणे उसिणे आउआए अभिनिस्सवइ, एसणं गोयमा ! महातवोवतरिष्पभवे पासवणे, एसणं मिथ्या है. मैं ऐसा कहता हूं यावत् प्ररूपता हूं कि राजगृह नगर की वाहिर बेभार पर्वत की पास अति ऊष्ण क्षेत्र है. उस की समीप एक महातपोपतीरप्रभव नामक ऊष्ण पानी का झरणा है. पांचसो धनुष्य का लम्बा व चौडा है. विविध प्रकार के वृक्ष, वनखंड से सुशोभित, प्रासादीक, दर्शनीय, अभिरूप यावत् प्रतिरूप है. उस में बहुत ऊष्ण योनिवाले जीव पानीपने उत्पन्न होते हैं. चरते हैं. उस में पानी भराये पीछे जो अधिक होता है वह ऊष्ण अपूकायपने झरता है. अहो गौतम ! यह महातपोपतीर
4840 दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा
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