________________
सूत्र
भावार्थ |
ॐ अनुवादक वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
तीयद्धा अण्णा जाव अफासा पण्णत्ता, एवं जाव अणागयद्धावि सव्वद्धावि ॥ २० ॥ जीवणं भंते! गन्भं वक्कममाणे कइवपणं कइगंधं कइरसं कइफासं परिणामं परिणमइ ? गोयमा ! पंचवणं दुर्गंध पंचरसं अट्ठफासं परिणामं परिणमइ ॥ २१ ॥ कम्मओणं भंबे ! जीवे णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ कम्मओणं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? हंता गोयमा ! कम्मओणं तंचेच जाव परिणमइ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ || सेवं भंते भंतेति ॥ दुवालसमसयस्सय पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १२ ॥ ५ ॥ * ॥
काल व सर्व काल वर्णादि रहित हैं || २० || अहो भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता जीव कितने वर्ण, गंध, रस व स्पर्श के परिणाम को परिणमता है ? अहो गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श के परिणाम को परिणमता है || २१ || अब जीव कर्म की विचित्रता बताते हैं. अहो भगवन् ! जीव कर्म से नरकादि गति में जाता है व बिना कर्म नहीं जाता है अथवा कर्म से नरकादि गतिरूप विभक्ति भाव को (परिणमता है और बिना कर्म से क्या नहीं परिणमता है ? अहो गौतम ! जीव कर्म से नरकादि गति में { जाता है और विभाग रूप नरक तिर्यंच मनुष्य व देव वगैरह नाना प्रकार के रूपमयको परिणमता है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं. यह बारहवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १२ ॥ ५ ॥
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
१.७३.६