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शब्दार्थ
तेसै भा० कहना ॥ १५-३६ ॥ क कर्म शरीर प्रयोगबंध भ० भगवन क० कितने प्रकार का प. मरूपा
ण्णेणं दोखुड्डाई भवग्गहणाइं तिसमयऊणाई, उक्कोसणं दोसागरोवमसहस्साई संखेजबासमज्झहियाई, देसबंधंतरं जहणणं खुलागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं
दासागरावमसहरसाई संखेजवासमा झहियाइं ॥ १६ ॥ जीवरसणं भंते! पुढवी
तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न हुवा वहां दो समय अनाहारक होकर तीसरे समय में सर्व बंध करे भावार्थ
फीर उस क्षुल्लक भव तक जीता रहकर वहां से चवे और द्विइन्द्रियादिक में क्षुल्लकभव तक जीता रहकर मर गया और अविग्रह गति से पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हुवा. इस तरह सर्व बंधक व सर्व बंधक का अंतर तीन समय कम दो क्षुल्लक भव हुवा ] उत्कृष्ट संख्यात वर्ष आधिक दो हजार सागरोपम [ अविग्नह से एकेन्द्रिय में उत्पन्न हुवा वहां प्रथम समय सर्व बंधक होकर बावीस हजार वर्ष रहकर मृत्यु पाकर त्रसकाय में उत्पन्न होवे संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम रहे और वहां से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होवे यों दोनों सर्व बंधक का अंतर कहा] देश वंधंका अंतर जघन्य दोसमय अधिक क्षुल्लक भव ग्रहण (एकेन्द्रिय देश बंधक
मरकर द्विइन्द्रियादिक में क्षुल्लकभव जीता रहे फीर एकेन्द्रिय अविग्रह आकर प्रथम. सर्व वंध होकर दूसरे से 12 समय में देश वंध होवे ) उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम होता है ॥ १६ ॥ अहो *
02 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसाद जी *