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शब्दार्थ
40 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
रो० रोप वाला स०श्वान मुख तुत्वरित च० चपल ध धमता हुवा दिदृष्टि विषवाला स० सर्प स० स्पर्श ॥ ७६ ॥ त• तब से वह दि० दृष्टिविष स. सर्प ते. उस व० वणिकों से सं० स्पर्शाया हुवा आ० आमुरक्त मिल्देदीप्यमान स शनैः उ० उठकर स०सर सर करता व० वल्मीक के सिशिखरतलपे दु० चढा
२०४० आ० सूर्य नि० देखा ते० उन व० वणिक अ. मेषोन्पेष दि० दृष्टि से स. चारों तरफ स० देखा। त• तब ते० वे व० वणिक दि० दृष्टिविष वाला स० सर्प से अ० मेपोन्मेष रहित दि० दृष्टि से स०
लोहागरधम्ममाणधमधमंतघोसं अणागलिय चंडतिव्वरोसं समुहतुरियं चवलं धर्मतं दिद्रिविसं सप्पं संघटेति ॥ ७६ ॥ तएणं से दिट्रिविससप्पे तहिं वणिएहिं संघटिए समाणे आमुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सणियं सणियं उढेइ, उढेइत्ता सरसरसरस्स वम्मीयस्स सिहरतलं दुरूहइ, दुरूहइत्ता आदिच्चं निभाइ, निब्भाइत्ता ते वणिए
अणिमीसाए दिट्ठीए सबओ समंता समभिलोएति ॥ तएणं ते वणिया दिदिविसेणं वाला व कुत्ता के मुख समान मुखवाला शीघ्र शब्द करता हुवा सर्प का संघटन हुआ ॥ ७६ ॥ अब उन वणिकों से संघटन कराया हुआ वह सर्प आसुरक्त यावत् क्रुद्ध हुआ शनैः २ उपस्थित हुआ, और सर २ शब्द करता हुआ उस के शिखर तलपे चढा. शिखर तलपे चढकर सूर्य की सन्मुख देखा, पश्चात् सब को , अनिमिष दृष्टि से चारों तरफ देखनेलगा. अब इस तरह दृष्टिविष सर्प की अनिमिष दृष्टि से देखाये हुवे
• मकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ