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A२२६८
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमलक ऋषिजी
जाव अणागारोवओगे वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया ॥ ६ ॥ देवेणं भंते ! महिड्दिए जाव मह लक्खे पुयामेव रूबी भवित्ता पभू अरूबी विउव्धित्ताणं चिट्टित्तए? णो इणटे समढे ॥ से केपट्टेणं भंते ! एवं युच्चइ देवेणं जाव णो पभू अरूबी विउचिन्ताणं चिद्वित्तए ? गोवमा ! अहमयं जाणामि, अहमेयं पारामि, अहमेयं वुज्झामि, अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि; मए एवं णायं, मए एयं दिटुं, मए एवं बुद्धं, मए एयं अनिसमण्णागयं-जणं तहागयस्स जीवरस सरूविस्स सकम्मरस सरागस्स
सवे गस्त समोहस्स सले उस्लससरीरस्स ताआ सरीराओ अविष्पमुक्करस एवं पण्णायाति गाणानिपात यारत् मिथ्या दर्शन शल्य में रहने वाले वह जीव व वही जीवात्मा है. ऐसे ही अनाकारोप युत तक जानना. ॥ ६ ॥ अहा भावन् ! महाके यावत् महासुख वाला देश पहिल रूपी होकर फीर. अरूपीका क्रेय करके रहने में क्या मार्थ है ? ओ गौतम ! या अर्थ योग्य नहीं है. अहो भगवन् ! किम कारन स एना कहा गया है यावत् अरूपी का क्रय करके रहते समर्थ नहीं है ? अहो गौतम !!
में यह जानता हूं देखता हूं पर्याय स जाता हूं सप वस्तु के सन्मुख होकर जानता हूं मैंने यह जाना, * मैंने यह देखा, मैंने यह पर्याय से जाना, मैं सब वस्तु की सन्मुख हुवा कि रूपा कर्म, राग, शरीर, मोह,
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ