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सत्र
तंजहा-कालत्तेवा जाव सुकिल्लत्तेवा, सब्भिगंधत्तेवा, दुब्भिगंधत्तेवा, तित्तत्तेवा जाव महुरत्तेवा, कक्खडत्तेवा जाव लुक्खत्तेवा से तेण?णं गोयमा ! जाव चिट्टित्तए ॥७॥ सच्चेवणं भंते! से जीवे पुवामेव अरूबी भवित्ता पभू रूविं विउन्वित्ताणं चिट्रित्तए ? णो इणटे सम? ।। से केणटेणं जाव चिट्ठित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि जाव जंणं तहागयस्स जीवस्स, अरूविस्स, अकम्मरस, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, अलेसस्स, असरीरस्स ताओ सरीराओ विप्पमुक्करस णो एवं पण्णायाति, तंजहा
कालत्तेवा जाव लुक्खत्तेवा से तेण?णं जाव चिट्ठित्तएवा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ! भावार्थ 1 लेश्या वाले, व शरीर से रहित जीव को कालापना यावत् शक्लपना, सुरभिगंधपना व दुरभिगंधपना, तिक्त
पना यावन् मधुरपना कर्कशपना य वत् रूक्षपना का ज्ञान हे ता है इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् रहना है ॥ ७ ॥ अहो भगवन् ! वही जीव पहिला अरूपी होकर फीर रूपीका वैक्रेय कर रहने को क्या सर्थ होता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य है. अहो गन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है।
कि वही जीव पहिले अरूपी होकर रूपी हा वैक्रेय कर रहने में समर्थ नहीं है? अहो गौतम! मैं ऐसा जानता 17 हूं यावत् तैसे रूप, कर्म, राग, वेदना, पोह, लेश्या, शरीर व उस शरीर से रहित जीव को कालापना
पंचांग विवाहपण्णत्ति ( मगवती) सूत्र881
मचरहवा शतक का दूसरा उद्देशा 488+
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