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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 800
सत्तरसमस वितिओ उद्देसो सम्मत्ती ॥ १७ ॥ २ ॥ सेलेसि पडिवण्णएणं भंते ! अणगारे सयासमियं एयति वेयति जाव तंतं भावं परि- . णमइ ? णो इणटे समटे ॥ णण्णत्थेगेणं परप्पओगेणं ॥ १ ॥ कइविहाणं भंते! एयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा एयणा पण्णत्ता, तंजहा दव्वेयणा, खेत्तेयणा, कालेयणा, भवेयणा, भावेयणा ॥ २ ॥ दव्वेयणाणं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! चउव्विहा पण्णता, तंजहा णेरइयदव्वेयणा तिरिक्खमणुस्सदेव दव्वेयावत् रूक्षपना का ज्ञान नहीं होता है इसलिये ऐसा कहा गया है यावत् रहने में समर्थ नहीं है. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं, यह सतर हवा शतक का दूसरा उद्देशा संपूर्ण हुवा. ॥ १७ ॥२॥
इसरे उद्देश के अंत में रूपी अरूपी का कथन किया, अब इस में कंपना लक्षण कहते हैं.' भगवन् ! शैलेशी प्रतिपन्न अनगार मदैव क्या कंपते हैं, विशेष कंपते हैं यावत् उस भाव को क्या
णमत हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है, मात्र परप्रयोग से कंपना होती है. ॥१॥ अहो भगवन ! कंपना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! कंपना के पांच भेद कहे हैं जिनके नाम १ द्रव्य कंपना, २ क्षेत्र कंपना ३ काल कंपनर ४ भर कंपना और ५ भाव कंपना. ॥२॥ अहो भगवन् ! दृव्य कंपना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! द्रव्य कंपना के चार भेद कहे हैं १ नारकी द्रव्य
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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