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शब्दार्थ |
अ० अमर्यादा जा० जानते हैं ऐ० ऐसे दा० दक्षिण में प० पश्चिम में उ० उत्तर उ० ऊर्ध्व अ० { नीचे मि० मर्यादित जा० जानते हैं अ० अमर्यादित जा० जानते हैं स० सब जा० जानते हैं के० केवली स० [सब पा० देखते हैं कं० केवली स० सर्वथा स० सब काल स० सब भाव अ० अनंत णा० ज्ञान के० केवली को अ० अनंत दं० दर्शन नि० प्रगट झा० ज्ञान ते० इसलिये ० यावत् पा० देखते हैं ||२||१० मियंपि जाणइ, अभियंपि जाणइ, एवं दाहिणेणं, पश्ञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं, उड्डूं, अहे मियंपि जाणइ, अमियंपि जाणइ, सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली, सव्वओ सव्वकालं, सव्वभावे, अणंते णाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स, निबुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स, सेतेणट्टेणं जाव पासइ ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! किस तरह केवली दूरके व नजीक, विषयवाले व विषय विनाके सब शब्दों जान व देखसकते {हैं ? अहो गौतम ! केवली पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में प्रमाण सहित गर्भज मनुष्य जीवादि } वस्तु जानते हैं और प्रमाण रहित अनंत असंख्यात वनस्पति जीव तथा पृथ्वीजीवादि वस्तु जानते हैं. Go इस तरह केवली सब जानते हैं व देखते हैं, केवली अतीत, अनागतादि सब काल, उदय उपशमादि सब { भाव व उत्पाद व्यय श्रौव्यादि सब भाव को केवल ज्ञान से जानते हैं व केवल दर्शन से देखते हैं. क्योंकि | केवल ज्ञानी को निरावरण शुद्ध निर्मल अनंत केवल ज्ञान व अनंत केवल दर्शन है. इसलिये केवली
सूत्र
भावार्थ
4843 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
पांचवा शतकका चौथा उद्देशा -4
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