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सूत्र
भावार्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
परिणए जाव पंचिदियं मीसा सरीर जाव परिणए, एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउन्त्रिय मीसगंपि ॥ णवरं देव नेरइयाणं अपज्जत्तगाणं सेसाणं पजत्तगाणं तहेव जाव नो पजत्ता सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोक्वाइथ जाव परिणए, अपजत्ता सव्वट्ठ सिद्ध अणुत्तरोवाइयदेव पंचिदिय उत्रिय मीसा सरीर कायप्पओग परिणए ॥ १७ ॥ जइ आहारग सरीर कायप्पओग पारणए किं मणुस्साहारंग सरीर कायप्पआग परिणए, अमणुस्साहारग जाव परिणए, एवं जहा ओगाहण संठाणे जाव इड्डिपत्त पमत्त संजय सम्मदिट्ठि पज्जत्ता संखेज्जवासाउय जाव परिणए, नो अणिड्डिपत्ता जाव परिणए जइ आहारग मीसा सरीर कायप्पओग परिणए किं मणुस्स आहारंग मीसा सरीर जाव परिणए ? एवं जहा आहारगं तहेव मीसगंपि निरवसेसं भाणियव्वं ॥ १८ ॥ { अन्य सब के पर्याप्ता में वैक्रेय मीश्र शरीर है. ॥ १७ ॥ यदि आहारक शरीर काय प्रयोग परिणत है तो क्या मनुष्य आहारक शरीर काय प्रयोग परिणत है, या मनुष्य सिवाय अन्य आहारक शरीर काय मयोग परिणत है ? अहो गौतम ! यह शरीर संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले पर्याप्त सम्यग्रदृष्टि, प्रमत संयति और ऋद्धिवंत पुरुष को होता है. इनगुनोंसे विपरीत गुणों वाले को नहीं होता है. आहारक शरीर जैसे
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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