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शब्दाथ
जा. यावत् १० पराक्रम ॥ १३ ॥ णे० नारकी भ० भगवन् कं० कांक्षा मोहनीय क. कर्म वे० वेदे ज. जैसे ओ० औधिक जीव त० तैसे नेवारकी जा: यात . स्तरित कुमार ॥१४॥ पु० काया भं० भगवन् कं०. कांक्षा मोहीय क. कर्म ये वदे हैं. हां वे वेदे क० कैसे भ० भगवन् पु० पृथ्वीकाया के० कांक्षा मोहनीय कर्म चे० वदे गो० गौतम ते० उन जी जीवों को णो नहीं हैं ए. ऐसा णिजेग्इ एवं जाव परक्कमेइबा ॥ १३ ॥ णेरइयाणं भंते ! कंखा मोहाण कम्मं वेदं. ति ? जहा ओहिया जीवा तहा जेरइया जांब थाणिय कमारा ॥ १४ ॥ पुढविकाइयाणं भंते ! कंखा मोहाणिज कम्गं वेदंति ! हंता वेदति । कहणं भंते ! पुढवि
काइया कंखा मोहणिजं कामं वेदंति ? गोयमा ! तेसिणं जीवाणं णो एवं तत्काइवा, भावार्थ | शेष पुरुषात्कार पगक्रम तक का सब अधिकार पहिले जैते कहना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! क्या नार
की कांक्षा मोहनीय कर्म वेदता है ? अहो गोतम ! जैसे समुच्चय जीव का कहा वैसे ही नारकी का
जानना. और वैसे ही स्तनित कुमार तक का जानना ॥ १४ ॥ पंचेन्द्रिय को शकितादि दोष होवे इस से १० कांक्षा मोहनीय कर्मकी वेदनादि होवे परंतु एकेन्द्रियादिकको शंकितादि दोष नहीं होने से कांक्षा मोहनीय की
वेदना होवे नहीं इस लिये एकेन्द्रिय को विशेषता से कांक्षा मोहनीय का स्वरूप बताते हैं. अहो भगवन् ! पृथ्वी काय कांक्षा मोहनीय क वे ? हां गोता! पृथ्वी कायिक जीव कांक्षा मोहनीय कर्म वेदे.
(भगवती) सूत्र ११३० विवाह पण्पत्ति
20040280 पहिला शतकका तीसरा उद्देशशा 80-8248