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शब्दार्थ
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अमोलक
तक स० संज्ञा प० प्रज्ञामा मनवल वचन अ० अम्हे कंकांक्षा मोहनीय क० कर्म वे. बेदते हैं वे जानते। है पु. फीर तं. वहही स० सत्य नी. शंकारहित जं. जो जि० जिनने प० प्ररूपा से० शेष तं. इतस जा० यावतू पु० पुरुषाकार पाका ए. ऐसे जा. जावत् च चतुरेन्द्रिय ॥ १५ ॥ पं० पंचेन्द्रिय तिर्यंच जा. थावत् ० निक जजेते ओ० औधिक जीव ॥ १६ ॥ भं० भगवन् स. श्रमण नि०१
सण्णाइवा, पण्णाइवा, मणेइवा, वइइवा, अम्हेणं कंखा मोहणिजं कम्मं वेदेमो. वेदेति । पुणते सेणूणभंते ! तमेवसच्चं णीसंकंजंजिणेहिं पवेइयं सेसं तंचेव जाव परिसक्कार परक्कमेइवा एवं जाव चउगिंदियाणं ॥ १५ ॥ पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया जाव।
वेमाणिया जहा ओहिया जीवा ॥ १६ ॥ अस्थिणं भंते ! समणा निग्गंथा कंखा अहो भगमन् ! वे कैसे कांक्षा मोहनीय कर्म वेदे ? अहो गौतम ! उन जीवोंको तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन, वचन व मैं कांक्षां मोहनीय कर्म वेदता हूं ऐसा ज्ञान नहीं हैं तथापि वे कांक्षा मोहनीय कर्म वंदे. इस कारन से ऐसे स्थान में माधु को ऐसा कहना कि जो जिन भगवानने प्ररूपा है यहही निःशंक सत्य है. शेष पुरुषात्कार पराक्रम तकका सब अधिकार पूर्ववत् जानना और ऐसे ही अप, तेउ, वागु, वनस्पति, इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय तक कहना ॥ १५ ॥ पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक का औधिक (समुच्चय) जीव-जैसे कहना ॥ १६ ॥
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी*
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'अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री
भावार्थ