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शब्दार्थ
सत्र
१०३
भावार्थ
32 पंचयांग विवाह पण्यत्ति ( भगवती)
निग्रंथ कं. कांक्षा मोहनीय कर्म वे • वेदे हैं. हां क• कैसे भ० भगवन् स० श्रमण नि० निग्रंथ कं० । कांक्षा मोहनीय कर्म वे वेदे गो० गौतम ते० उस का० कारन से ना० ज्ञानांतरसे दं. दर्शनांतर से च०१०
मोहणिज्जं कंमं वेदति ? हंता अत्थि । कहणं भंते ? समणा निग्गंथा कंखामोहणि
जं कम वेदति ? गोतमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं, नाणंतरहिं, दसणंतरे चरित्ततरेहिं । जीवोंको मिथ्यात्व मोहनीय कर्म वेदना कहा परंतु वह निग्रंथ को नहीं होता है क्यों कि जिनागम जाननेवाले को निर्मल बुद्धि रहती है, इस लिये निग्रंथ संबंधी पृच्छा करते हैं. अहो भगवन ! बाह्या- अ भ्यंतर परिग्रह रहित श्रमण तपस्वी कांक्षा मोहनीय कर्म वेदते हैं ? हां गौतम ! के वेदते हैं. अहो भग-2 वन् ! वे श्रमण निग्रंथ किस प्रकार से कांक्षा मोहनीय कर्म वेदते हैं ? अहो गौतम ! इस का कारण मैं 2
ता हूं. १ ज्ञानांतर से • एक ज्ञान से दूसरे ज्ञान में शंका उत्पन्न होवे जैसे अवधि ज्ञानवाला परमाणु वगैरह सकल रूपी द्रव्य अवधि ज्ञान से जाने और मनःपर्यव ज्ञानी अढाइद्वीप में रहे हुवे संझी के मन का भाव जाने. इप्स में मन द्रव्य रूपी होने से अवधि ज्ञानी अवधि ज्ञान से मन का भाव जाने जब मनः पर्यव) 60 ज्ञान में क्या विशेषता ? ऐसी शंका करे. २ दर्शनांतर से अर्थात् एक दर्शन से दूसरे दर्शन में शंकाई उत्पन्न होवे जैसे चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शन को भिन्न क्यों कहा ? अथवा सम्यक् दर्शन में शंका उत्पन्न होवे ३ चारित्रांतरसे - अर्थात् एक चारित्र से दूसरे चारित्र में शंका उत्पन्न होवे जैसे सामायिक चारित्र
पहिला शतक का तीसरा उद्देशा 8
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